Tuesday, December 18, 2012

' विवेकानन्द और समाज' " एकमात्र भारत माता को ही अपनी आराध्या मानो ! [$@$स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [54] (9.समाज और सेवा),

विवेकानन्द 'काल-वैशाखी' के तूफान थे ! 
ऐसा तकाज़ा बहुत थोड़े से लोगों के मन जगता है, कि समाज की अवस्था के विषय में या देश की अवस्था के विषय में, हमलोगों को भी कुछ  सोचना चाहिये, और उस विषय में कुछ करने की क्षमता भी रहनी चाहिये।  समाज में जो कुछ हो रहा है, उसके विषय में आमतौर से हमलोगों की मानसिकता रहती है-
' गाँव-समाज का अच्छा-बुरा सोचने के लिये मेरे पास समय नहीं है। '  किन्तु ' अच्छा-बुरा सोचने का समय मेरे पास नहीं है ' की मानसिकता के साथ समय बिता देने से वर्तमान अवस्था और अधिक नहीं बिगड़ेगी, ऐसी कोई निश्चितता नहीं है। 
जब कभी कोई बेहद दुःखद घटना घट जाती है, तब जरुर हमलोग हल्ला मचाते हैं कि हमलोग को अब कुछ न कुछ करना ही होगा, एक आन्दोलन, कोई बलवा, कुछ श्लोगन आदि सामूहिक रूप में करना होगा। किन्तु इस बात के उपर हमलोग कोई विचार नहीं करते हैं कि हमलोगों का नैतिक रूप से जो अधोपतन हो रहा है, इस नैतिक अधोपतन को बन्द करना अनिवार्य है। इस दिशा में कोई प्रयास नहीं करने से, समाज इतना अधोपतित हो जायेगा कि राष्ट्र के रूप में उठ खड़े होने का कोई उपाय ही नहीं बचेगा।
वर्तमान समाज की जो भी दुरावस्था है, उन सबका मूल कारण है-नैतिक अधोपतन। इस बात पर चिन्तन करने तथा समझने वाले लोग, बिल्कुल नहीं है, ऐसी बात नहीं है, किन्तु वैसे लोगों की संख्या बहुत कम है। हमलोग केवल इतना ही समझते हैं, कि मुझे अपने प्राणों की रक्षा हर हाल में करनी चाहिये। यदि किसी डूबते हुए व्यक्ति को कोई आम आदमी भी यह परामर्श दे, कि तुमको अपने प्राण बचाने के लिये इस सुखी घास के छोटे से तिनके को पकड़ लेना चाहिये, तो वह डूबता हुआ व्यक्ति बिना अधिक सोचे-विचारे किये ही उस तिनके को पकड़ लेता है। यह बिल्कुल स्वभाविक बात है, इसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं है। किन्तु हमलोगों को उससे थोड़ा अधिक विचार करना चाहिये। क्योंकि देश की वर्तमान अवस्था जैसी है, उससे क्या परिणाम भविष्य में देश को भुगतना पड़ेगा, किसी राजनैतिक महात्मा का अनुसरण करते करते देश जिस रास्ते पर चल निकला है, उसका क्या परिणाम होगा ?  उसको किस दिशा में परिवर्तित करने से भविष्य अच्छा बन सकता है, या नहीं बन सकता है ? इन सब बातों पर चिन्तन करने की आवश्यकता है।
जिस प्रकार कृत्रिम उपग्रह ऐपल को अन्तरिक्ष में भेजने के पहले बहुत दिनों तक उसके उपर कार्य किया गया था। उसके बाद भी उसमें कुछ कमी रह ही गयी थी, जिसके कारण उसको अपनी जिस पूर्व-निर्धारित कक्षा में घूमना चाहिये था, बिल्कुल उसी रूप में नहीं पाया गया। एक दूसरा अन्तरिक्ष-यान भेजकर उसको दुरुस्त करने की चेष्टा करनी पड़ी थी। हमलोगों के समाज में भी ठीक वैसा ही हो रहा है। समाज को जिस दिशा में ले जाने से  या जिस परिक्रमा-पथ में चलने पर कल्याण होगा, वैसे पथ से चलाने में बिल्कुल अक्षम हो रहे हैं। जिस पथ पर वह मनमाने तरीके से चल रहा है, उसी प्रकार चलते रहने का फल अच्छा ही होगा, इस बात को निश्चय के साथ नहीं कहा जा सकता है। जब यह दिखाई दे रहा हो कि समाज बुराई की दिशा में आगे बढ़ रहा है और उसका परिणाम बुरा ही हो सकता है, तब सोच-विचार कर समाज के परिक्रमा-पथ को निर्धारित करना चाहिये और उसको उसी पथ पर चालित रखने के उपर चिन्तन-मनन करने की आवश्यकता है।
देश की वर्तमान परिस्थिति के कारणों के उपर विचार करना ,तथा उन विचारों को प्रबुद्ध लोगों, विशेष तौर से युवाओं के मन में संचारित करा देना हमलोगों का कर्तव्य है। ताकि युवा लोग देश का भविष्य अच्छी तरह से निर्माण करने के लिये जो करना आवश्यक हो, उसके लिये प्रयासरत हो जाएँ। किन्तु अधिकांश लोग इस विषय में सोचने के लिये भी किसी उत्साह का अनुभव नहीं करते हैं। हमारे देश-वासियों में जितनी भी कमियाँ हैं, स्वामी विवेकानन्द ने उनमें से जिस कमी को विशेष रूप से लक्ष्य किया था, वह यही है कि हमलोगों में आत्मविश्वास नहीं है। हमारे बहुत से देशवासियों ने निजी रूप से अभी अपना आत्मविश्वास खोया है, किन्तु राष्ट्र के रूप में तो हजारों वर्ष पूर्व ही हमने अपना आत्मविश्वास खो दिया था। केवल आत्मविश्वास ही नहीं खोया था, बल्कि इसी कारण दूसरों से घृणा करना भी सीख गये थे ! तथा (आत्मविश्वास खो देने के कारण ) अपने प्रति भी एक प्रकार की घृणा का भाव का पोषण भी करते आ रहे हैं-मानो हम कुछ भी नहीं हैं। जिस समय से हमने दूसरों को म्लेक्ष कहकर उनसे घृणा करना शुरू कर दिया था, उसी समय से हमारे देश का पतन होना शुरू हो गया था। अब वह इतना गिर चुका है कि वहाँ से उठने का कोई उपाय भी नजर नहीं आ रहा है।
 इसीलिये हमलोग कहते हैं, युवाओं को देश की वर्तमान अवस्था के उपर विचार करना चाहिये, तथा उसका सुन्दर भविष्य का निर्माण कैसे हो सकता है, उसका कोई उपाय ढूंढ़ निकालना चाहिये। फिर उस उपाय को व्यवहारिक रूप देने के लिये श्रम करना भी आवश्यक है, इसलिये इसी कार्य में अध्यवसाय के साथ लगे रहना भी उचित होगा। हमलोग अभी 'Be and Make ' को लेकर जितनी बातें कहते हैं, उसे सुनकर बहुत से बुद्धिजीवियों को ऐसा लगता है, मानो हमलोग कोई खयाली पुलाव पका रहे हैं, जो कभी संभव नहीं है। किन्तु अन्य प्रकार की जितनी धारणायें, परियोजनाएं, पद्धति, उपाय जो लोग कहते या सुनते रहते हैं, उन सबको बिना कुछ सोचे-विचारे ही ग्रहण कर लेने की एक प्रवृत्ति हममें रहती है। मानो यह सब कर देने (केजरीवाल-आन्ना हजारे, लोकपाल ला देने, कांग्रेस हटा देने आदि आदि) से रातों-रात समस्त समस्याओं का समाधान हो जाने वाला है।
ऐसी प्रवृत्ति क्यों हो जाती हैं ? इस बात को थोडा विचार करने से ही समझा जा सकता है, किन्तु हमलोग उस पर विचार नहीं करते हैं। हमलोगों में यथा-स्थिति बनाये रखने या उदासीन बने रहने के प्रति एक स्वाभाविक आसक्ति रहती है। हमलोग अक्सर कहते रहते हैं कि यथा पूर्व स्थिति में रहना या ' status quo ' बनाये रखना ठीक नहीं है, किन्तु सच्चाई यह है कि हमलोग इतने जड़-भावापन्न हो गये हैं, ' status quo ' के साथ इतने अधिक जड़ित हो गये हैं, कि अब हम इस विषय पर विचार भी करने को तैयार नहीं हैं।
आत्म-विश्लेषण तो हम बिल्कुल नहीं करते हैं ! (अर्थात हम आत्मा हैं या शरीर हैं ? इस बात पर कोई विचार नहीं करते हैं) किन्तु हम अपने को घोर विश्वासी कहते हैं, कोई भी व्यक्ति अविश्वासी नहीं है। परन्तु हममें से हर व्यक्ति का विश्वास अलग अलग है, और किसी का भी विश्वास तर्क के उपर आधारित नहीं है। तर्क की कसौटी पर कसने के बाद कोई विश्वास नहीं करता है, अकस्मात मैं किसी के उपर विश्वास करने लगता हूँ, वे अन्य किसी पर विश्वास करते हैं, इसी प्रकार बहुत से लोग अचानक अलग अलग विश्वास करने लगते हैं। कोई भी व्यक्ति तुलनात्मक विश्लेषण करने के बाद विश्वास नहीं करता है। और इसीकारण हमलोग जिस पर विश्वास करते हैं, या कर रहे हैं, अंधों के समान समझ लेते हैं कि उसी प्रकार चलते रहने से देश का कल्याण हो जायेगा।
उदाहरण के लिये-स्वाधीनता प्राप्त होने के पूर्व लगभग सभीलोग इस बात परएकमत हो गये थे कि, " जब हमारा देश राजनैतिक रूप से स्वाधीन हो जायेगा, तो देश का कल्याण होगा।" इसके साथ ही साथ यह भी मान लिया गया था कि जब हम राजनैतिक रूप से स्वतंत्र हो जायेंगे तो तभी हम अपने अपने दलों को भी अच्छी तरह से गठित कर सकेंगे। (अर्थात अच्छे अच्छे कार्यकर्ताओं को जमा करेंगे करेंगे ) फिर  उसके बाद यदि देश में यदि देश में प्रजातंत्र (democracy) भी स्थापित कर सकेंगे, तो देश का हर प्रकार से मंगल करना संभव हो जायेगा।  हम सभी करोड़ो भारतियों ने आँखें मूंद कर,स्वयंसिद्ध रूप से इन बातों को ग्रहण कर लिया था। किन्तु हमने इस बात के उपर थोड़ा भी विचार नहीं किया कि क्या केवल प्रजातान्त्रिक व्यवस्था अपना लेने से ही सचमुच देश का कल्याण  होना संभव है ? उस समय शायद किसी भारतीय के मन में भी यह विचार नहीं उठा था कि केवल सरकार को बदल कर कोई देशी सरकार आ जाने, तथा प्रजातंत्र की स्थापना हो जाने, मात्र से ही देश का कल्याण नहीं हो सकता है ! स्वाधीनता प्राप्त हो जाने के बाद कुछ वैसे लोग जिनके पास सत्ता की कुर्सी तक पहुँचने का मौका था, उनलोगों ने सोचा-' बहुत दिनों से कष्ट झेल रहा था, अभी तो अवसर मिला है। ' अब आराम किया जायेगा, सुख भोगा जायेगा और सत्ता का लाभ उठाकर जमीन-जायदाद का अम्बार खड़ा किया जायेगा। हममें से अधिकांश लोगों ने बिना सोचे-विचारे इसी ढर्रे को स्वीकार कर लिया है-और इसीको अँधविश्वास कहते हैं। तर्क पूर्वक विचार करना हमने सीखा ही नहीं है।
 मैं जितनी भी कोशिश करता हूँ कि स्वामी विवेकानन्द के नाम को उद्दृत नहीं करूँगा, उतनी अधिक उनकी बातें आँखों के सामने कौंध उठती हैं। उनकी बातें इसी कारण सामने आ जाती हैं कि, इस व्यक्ति ने देश के हर क्षेत्र की समस्याओं के उपर गहराई से विचार किया है, तथा बहुत सोच-विचार करने के बाद कहा है- " एकमात्र भारत माता को ही अपनी आराध्या मानो ! केवल उनकी ही पूजा करो। उनको जाग्रत करो, केवल तभी स्वाधीनता प्राप्त हो सकेगी। " फिर इसके साथ ही साथ कहते हैं, " स्वाधीनता यदि प्राप्त प्राप्त हो भी जाएगी, तो उससे तुमको क्या लाभ होगा? तुम क्या स्वाधीनता को सुरक्षित रख सकोगे ? तुम क्या देश की सच्ची उन्नति कर सकोगे ? नहीं कर सकोगे; क्यों ? इसीलिये कि तुम्हारे देश में मनुष्य नहीं हैं। " हालाँकि उनकी ये बातें सुनने में बहुत कड़वी लगती हैं। किन्तु इस बात को उन्होंने कितने दिनों पहले ही कहा है। ' तुमलोग मनुष्य निर्माण करने की चेष्टा करो ! मनुष्य ही यदि नहीं होंगे, तो स्वाधीन हो जाने के बाद भी तुम कुछ कर नहीं पाओगे।' -किन्तु स्वामी विवेकानन्द के आह्वान को कौन सुनने वाला है ?
देश में ऐसे कितने लोग हैं, जिन्होंने स्वामी विवेकानन्द के नाम को सुना हो ? हो सकता है, इस समय बहुत से लोग उनके नाम को जान गये हों, किन्तु हमलोगों की दृष्टि में उनका चेहरा (परिचय) कैसा है ? हम उनका केवल इतना ही परिचय जानते हैं कि -दक्षिणेश्वर में (गदाई नामक ) एक पुजारी ब्राह्मण थे, वहाँ कोई तांत्रिक स्त्री आई और उनको दीक्षा दी, उसके बाद उनका नाम बदल कर 'रामकृष्ण' हो गया और -'परमहँस' की पदवी प्राप्त हो गयी। और एक युवक नरेन् था, जो ब्रह्म-समाज में जाया करता था, और भी कितनी जगहों पर जाता रहता था। उसके बाद एक बार उसका परिवार घोर गरीबी में घिर गया था। उसके बाद अकस्मात एक दिन वह युवक उस पगले ब्राह्मण पुजारी के पल्ले पड़ गया था। वे शायद कुछ जादू-टोना भी जानते थे। पता नहीं किस प्रकार उस युवक को अमेरिका भेज दिये। और अमेरिका जाकर वहाँ की धर्म महासभा में वे सिर पर एक बहुत बड़ी पगड़ी बांधे हुए थे और 'हिन्दू-धर्म ' के उपर बहुत लम्बा भाषण दिए थे,और उनके भाषण के बाद, वहाँ के लोगों ने बहुत देर तक तालियाँ बजाई थीं। आमतौर से स्वामी विवेकानन्द के बारे में हमलोग इतना ही जानते हैं।
बहुत पढ़े-लिखे, कॉलेज के अधिकांश प्रोफेसर लोग भी, स्वामीजी के बारे में बहुत कम ही जानते हैं। फिर जो तथाकथित अशिक्षित लोग हैं, उनमें से भी अधिकांश लोग उनको एक मानव-प्रेमी व्यक्ति समझकर उनके प्रति विशेष श्रद्धा रखते हैं। वे यह भी जानते हैं कि स्वामीजी से बहुत कुछ प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु हमारे देश के जो तथाकथित शिक्षित (केजरीवाल-अन्ना ह्जारे टाइप लोग या सीधे-साधे संघी ) लोग हैं, वे स्वामीजी के जीवन और उनकी विचार-धारा के बारे बहुत कम ज्ञान रखते हैं। वैसे लोग कभी कभी पूछते हैं, (रानाडे द्वारा  लिखित पुस्तक 'उत्तिष्ठत-जाग्रत' में जो लिखा है, उससे अधिक) उनकी जानकारी किस पुस्तक को पढ़ने से होगी, जरा आप ही बताइए तो ?
 एक बार किसी I.A.S. (प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ) ने किसी से सुनकर, हिन्दी में प्रकाशित विवेकानन्द साहित्य 10 खण्डों में से 5 वें खण्ड में वर्णित स्वामीजी द्वारा  ' कोलम्बो से अल्मोड़ा ' तक दिये गये भाषणों को पढ़ना शुरू किया। पढ़ते पढ़ते उनकी आँखें एक स्थान पर पड़ी -जहाँ स्वामीजी ने कहा है, " ...बहुत हुआ तो कलर्की (किरानीगिरी) का ही दूसरा नाम डेपुटीगिरी करना-यही तुमलोगों के जीवन का उद्देश्य है ? " इतना पढ़ते ही उनकी (सिविल सेवा में प्रशासनिक अधिकारी - जो लालू जैसे नेताओं के बच्चे का जूता बाँधते  हैं ) सारी भक्ति धुआँ हो गयी। किसी विधान-सभा के सदस्य ने एकबार स्वामीजी की जीवनी और उपदेशों की संकलित एक छोटी सी पुस्तिका " स्वामी विवेकानन्द का राष्ट्र को आह्वान " को पढ़ने के बाद आश्चर्यचकित होकर कहा था, " ये सब बातों को स्वामीजी ने कहा है ! मुझे तो यह पता भी नहीं था। "
हमलोगों ने यदि स्वामीजी की बातों पर थोड़ा भी ध्यान दिया होता, तो हमारे देश की प्रगति बहुत सुगम हो जाती। हमलोग जिस रास्ते से जा रहे हैं, वह सही रास्ता नहीं है, इसका कितना प्रमाण (कॉमन वेल्थ,2G, कोल गेट के बाद भी ) और चाहिये ? विगत 65 वर्षों से हमलोग राजनैतिक रूप में स्वतंत्र हैं। हमलोगों ने देश को उन्नत राष्ट्र बनाने के जितने भी बड़े बड़े दावे किये थे, वे सभी बहुत ठीक नहीं साबित हुए- क्या इसे सिद्ध  के लिये अभी और अधिक प्रमाण की जरुरत है ?
हाँ, बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जो कहते हैं- ' जो हो रहा है, सब अच्छा हो रहा है। ' क्योंकि वे लोग अपने दलगत स्वार्थ या व्यक्तिगत स्वार्थ को सिद्ध करने के उद्देश्य से यथार्थ सत्य के प्रति अपनी आँखे मुन्दे रखना चाहते हैं। सरकारी योजनाओं की वास्तविक सच्चाई क्या है, उसको जानते हुए भी वे अनजान बने रहते हैं, क्योंकि इसीसे उनका अपना उल्लू सीधा होता है। वे दावा करते हैं कि भारतवर्ष  काफी उन्नति हुई है। किन्तु कैसी उन्नति हुई है, उसका अनुभव हमें हड्डी-हड्डी तक में हो रहा है। जिस देश में करोड़ो मनुष्यों को दो जून की रोटी भी नहीं नसीब होती, वहाँ उन्नति के लिये पहले घर-घर में रंगीन टी.वी. पहुंचाए बिना देश की प्रगति नहीं हो रही है। जैसा स्वामीजी कहते थे, भाषण बहुत दे चूका, अब और भाषण नहीं चाहिये-क्या कोई ऐसे महापुरुष हैं, जो देश की साधारण जनता के कल्याण की चिन्ता करते हैं ? क्या कोई युवा वैसा है ? यदि कुछ लोग भी हों, तो कृपा करके आगे आइये। हमलोग इतने निर्दयी बन चुके हैं कि अब हमलोगों में से किसी में भी मनुष्यों का कल्याण कैसे होगा, इस बात पर विचार करने का भी साहस नहीं है। हम केवल अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के बारे में सोचते हैं, या बहुत हुआ तो उसको पूर्ण करने के लिये दलगत स्वार्थ की बात सोचते हैं। यही तो आज हमारे देश की अवस्था है।
और हम जैसे कुछ लोग, जो स्वयं को एक विचारक की श्रेणी में रखते हैं, हमलोग न जाने कितने ही बेकार के तत्वों के उपर बहस करने में उलझे रहते हैं। जैसा ठाकुर कहानी कहते थे, ' एक आदमी आम के बगीचे में पहुंचकर गिनती करने लगा, कितने पेड़ है; उसमें भी कितने किस्म के आम के पेड़ हैं, कहाँ से उस आम की कलम को लाया गया था ? यही सब जानते जानते धुप में अपना सिर गर्म कर लेते हैं। और एक दूसरा व्यक्ति आता है, वह सीधा माली के पास जाकर यह जान लेता है, कि अच्छी जाति के आम का पेड़ कौन सा है ? और उस पेड़ के कुछ आम को खाकर तृप्त हो जाता है।'
उसी प्रकार हमलोगों के लिये भी यह जान लेना आवश्यक है कि सम्पूर्ण देश का कल्याण करने के लिये सबसे पहले क्या करना  अच्छा होगा ? फिर उसे समझ लेने के बाद उसे कार्य में उतारने के प्रयास में लग जाना चाहिए। सबसे पहले हमें अपने भीतर, यह जानने की उत्कंठा, ललक या जोश (ardor) को जगाना आवश्यक है- कि देश का कल्याण क्या करने से हो सकता है ?  हमलोग स्वयं इस बात पर गहराई से विचार करेंगे, और स्वयं हमलोग ही उसका उपाय भी खोज निकालेंगे। दूसरे लोग इस बारे में क्या सोचते, नहीं सोचते हैं,उससे हमें कुछ लेना-देना नहीं है। हमलोगों का आत्मविश्वास इतना घट चूका है, कि हमलोगों में स्वयं इस विषय में विचार करने की क्षमता भी नहीं है; हमारा कल्याण कैसे होगा, इसके लिये विदेशों से विचार भी उधार लेने पड़ते हैं। और यही सब करते करते देश का सर्वनाश हो गया है। यद्दपि हमलोग खाद्यान्न उत्पादन में स्वनिर्भर हो गये है, किन्तु अब भी खाद्यान्न का आयात होता है, दूसरी ओर विडम्बना यह है कि हमलोग खाद्यान्न का निर्यात भी कर रहे हैं। इसके बावजूद लाखो टन अनाज खुले में रखे होने के कारण हर साल सड़ जाते हैं। यही तो है हमारे देश की अवस्था। (क्या हो गया है हमलोगों के नीतिनिर्धारक लोगों को ? क्या हम मनुष्य हैं ?) 
ऐसा क्यों हो रहा है ? इसका कारण यही कि स्वामीजी के परामर्श पर हमलोगों ने थोडा भी ध्यान नहीं दिया है। उन्होंने देश की भलाई के लिये जो भी उपाय सुझाये थे, हमने उनको सुना ही नहीं है। क्योंकि हमलोगों ने स्वामी विवेकानन्द के उपर ' हिन्दुधर्म के प्रवक्ता ' का लेबल लगाकर उनको अलग कर दिया है, और एक ' धर्मनिरपेक्ष -राष्ट्र ' का निर्माण करने का झांसा देकर भारत के नागरिकों को अपना वोट-बैंक बना लिया है।  स्वामीजी भले ही हिन्दू-धर्म के एक महान प्रवक्ता रहे हों, किन्तु (इस धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र में उन जैसे भगवा-धारी सन्त की  क्या आवश्यकता है ? ) हमलोगों को उनकी आवश्यकता नहीं है।
 हमलोगों को (किसी भगवा-धारी सन्त की नहीं बल्कि किसी नकली ) धर्म निरपेक्ष राजनैतिक महात्माओं  (कंग्रेसिया साधू सन्त बिनोबा .... आदि ) की आवश्यकता है। और उनके बताये सिद्धान्तों पर चलते चलते आज हम कहाँ पहुँच चुके हैं, (यहाँ से किधर जाना है, 2014 में किसके युवराज के या अर्थशास्त्रीजी के या 2G के- नेतृत्व में चुनाव होगा ?) यह अभी कुछ तय नहीं है।
हमलोग स्वामीजी को तो बिलकुल नहीं जानते हैं, किन्तु जो उनको जानते थे, उनके मुख से सुना जाता है कि उन्होंने ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था। किन्तु वे निर्विकल्प समाधि में ही डूबे नहीं रहना चाहते थे। अपनी अधिकांश यात्रा उन्होंने देश भर में पैदल घूम कर पूरी की थी। इस दौरान हर श्रेणी के मनुष्यों के साथ रहकर उनके दुःख-कष्टों को समझा था, किसी भी मनुष्य को दुःख क्यों होता है ? किस प्रकार उनके दुःख को दूर किया जा सकता है ? यह सब उन्होंने खोज निकाला था। हमलोग जब बुद्धदेव के बारे में सुनते हैं कि मनुष्य के दुःख को देखकर वे उसको दूर करने का उपाय खोजने के लिये उन्होंने गया में बोधिवृक्ष ने नीचे बैठकर कठोर तपस्या किया था, तो हमलोगों को यह सब मनगढ़ंत कहानी भी प्रतीत हो सकती है। किन्तु स्वामीजी ने ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था, किन्तु उस समाधि के आनन्द का भी उन्होने त्याग कर दिया था-इस बात को जब हमलोग उनके मुख से सुनते हैं, जिन्होंने स्वामीजी को देखा था और स्वयं भी ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था, तो हमलोग इस बात पर अवश्य विश्वास कर सकते हैं।
 क्यों विश्वास कर सकते हैं-इसको भी देखा जाय। जिन बड़े बड़े वैज्ञानिकों के आविष्कारों के विषय में हमलोग जानते हैं, और विश्वास करते हैं, उनके प्रत्येक खोज को हमलोगों ने स्वयं प्रयोगशाला में सिद्ध करके नहीं देखा है, किन्तु विश्वास करते हैं। उसी प्रकार जो लोग उस सर्वोच्च ज्ञान के अधिकारी हैं, उनकी बातों पर भी हमलोग विश्वास कर सकते हैं। हमलोग इस बात को भी जानते हैं कि वही ब्रह्मज्ञानी विवेकानन्द अपने देश भारतवर्ष से इतना प्यार करते थे कि यहाँ के वासियों की दुर्दशा के बारे में सोच-सोच कर अकेले में अश्रु वर्षित करके रोते थे। किन्तु क्या आज भारतवर्ष में एक भी ऐसे नेता हैं, जो मनुष्य के दुःख से कातर होकर अकेले में (भाषण के मंच पर खड़े होकर नहीं ) अश्रुवर्षा करते हैं ? केवल मंच पर चढ़ कर भाषण देते समय नेताओं को घड़ियाली आंसू बहाते हमलोग देख सकते हैं।
वही ब्रह्मज्ञानी विवेकानन्द कितने दिनों पहले कहे थे- " विदेशों में जाकर मैं तुम्हारे वोट, बैलेट, पार्लियामेन्ट आदि समस्त व्यवस्थाओं को नजदीक से देख आया हूँ, हे रामचन्दर ! इसमें आँख में धूल झोंकने के सिवा और कुछ नहीं रखा है। सभी देशों का एक ही हाल है, दस-पाँच चालाक लोग जिस दिशा में देश को चलाना चाहते हैं, उसी दिशा में भेड़ों की झुण्ड के समान (भेंडिया धसान ) सभी लोग बह जाते हैं। " उन्होंने कहा था, " तुमलोग यदि देश को सचमुच प्यार करते हो, देश का यदि निर्माण करना चाहते हो, तो उसके लिये जो मूल कार्य है-' जन-शिक्षा ' (आमजनता को मनः संयोग सिखाने वाली शिक्षा का प्रचार प्रसार करने वाले शिक्षा-क्रांति के अग्रदूतों का निर्माण करने ) पर ध्यान दो। " 
आजकल हमलोग कई रटे-रटाये शब्दों को दुहराते रहते हैं, किन्तु उसके उपर गहराई से सोच-विचार नहीं करते है । वेदान्त का अर्थ ही होता है-साम्यवाद ! भारतवर्ष ने जिस सर्वोत्कृष्ट महान अध्यात्मिक सत्य का आविष्कार किया है, वह है साम्य ! अपने जिस अध्यात्मिक ज्ञान के उपर भारतवर्ष प्राचीन काल से ही गर्व करता आ रहा है, उसपर गर्व करना भारतवर्ष के लिये सर्वथा उचित है। किन्तु बीच में जब (हजार वर्षों की गुलामी के कारण) भारत-वासियों ने अपने पुरखों ऋषि-मुनियों के उपर गर्व करना छोड़ दिया था, उसीके कारण भारतवर्ष का ऐसा अधोपतन दिखाई दे रहा है। ऋषि-मुनियों की सन्तानें पशु की अवस्था में डूबती जा रही हैं (यहाँ भी लिविंग रिलेशन और ...को कुछ मूर्ख अपना रहे हैं !)
स्वामी विवेकानन्द ने पाश्चात्य देशों को चेतावनी देते हुए कहा था, " तुमलोग यदि अपने जीवन में आध्यात्मिकता को नहीं अपनाओगे, तो मात्र अगले पचास वर्षों के भीतर ही तुमलोगों का सामूहिक विनाश की कागार तक पहुँच जाओगे। " उनकी इस भविष्यवाणी को स्वामीजी के देहावसान के केवल 12 वर्ष बाद प्रथम विश्व-युद्ध, और द्वित्य विश्व युद्ध के रूप में, हमलोगों ने सत्य होते देखा जिससे धरती पर कितना विध्वंश हुआ था। आज भी पचास हजार के लगभग परमाणु बम जमा हैं, जिसका 90 % भाग केवल रूस और अमेरिका के हाथों में है। I. C. B. M. (इन्टर कॉन्टिनेंटल बैलेस्टिक मिसाइल) की मारक क्षमता के बारे में हम लोग जानते हैं। इसके अलावा भी रूस और अमेरिका के पास जितने घातक हथियार हैं, उससे अमेरिका, रूस को कितनी ही बार विनष्ट किया जा सकता है। क्योंकि अमेरिका या रूस में से किसी ने भी अभी तक आध्यात्मिकता को ग्रहण नहीं किया है। और स्वामीजी ने उसी समय कह दिया था कि अभी उनको आध्यात्मिकता ग्रहण करने में बहुत देर लगने वाला है।
 उन्होंने उन्हीं की धरती पर खड़े होकर कहा था, कि तुम्हारे यहाँ एक भी सच्चा क्रिश्चियन नहीं है। एक मात्र प्रभु ईसा मसीह ही क्रिश्चियन थे, तुम लोगों में दूसरा कोई व्यक्ति क्रिश्चियन नहीं है। तुम्हारे देश में धर्म के नाम पर जो चल रहा है, वह आध्यात्मिकता नहीं है। केवल कुछ आचार अनुष्ठान को पालन करना ही आध्यात्मिकता नहीं है। आध्यात्मिकता इससे उच्चतर वस्तु है। कार्ल मार्क्स ने कहा था, धर्म सामान्य मनुष्य के लिये विशेष प्रकार के अफीम जैसा है। और हमलोग भी स्वयं को आधुनिक सिद्ध करने के लिये मार्क्स की बात का समर्थन करने लगते हैं। किन्तु धर्म का अर्थ कुछ और ही है। धर्म का अर्थ है-चरित्र ! मनुष्य को धार्मिक होना चाहिये-इसका तात्पर्य क्या है ? मनुष्य को हर हाल में चरित्रवान होना चाहिये-तभी उसको मनुष्य कहा जा सकता है। चरित्रवान होने का अर्थ क्या है ? उसकी स्वार्थपरता कम हो जाएगी, और आदर्श होगा क्रमशः पूर्ण निःस्वार्थी बन जाना। 
सम्पूर्ण रूप से निःस्वार्थ हो जाने की बात पर चिन्तन करने से हमलोगों का शरीर सिहर उठता है। किन्तु पूर्ण रूप से निःस्वार्थ हुए बिना मनुष्य का सर्वांगीन मंगल कभी नहीं हो सकता है। और यह शिक्षा आध्यात्मिकता के सिवा और कोई दे ही नहीं सकता है। किन्तु अपने देश में हम इसका ठीक उल्टा हाल देख रहे हैं। कोई भी आवश्यकता होते ही हमलोग उसका उपाय खोजने विदेश चले जाते हैं। किन्तु हर समस्या का समाधान हमलोगों के भीतर ही है, पर हमलोग उसे खोज कर नहीं देखते या खोजना ही नहीं चाहते। हमलोग क्या कर रहे हैं ? हमलोग कुछ अरबी भाषा की कहनियों को पढ़ रहे हैं, और अपनी पीठ थपथपा रहे हैं कि हमतो बड़े यथार्थवादी हैं।
जबकि हमलोग बिल्कुल यथार्थवादी नहीं हैं, यदि हम सचमुच यथार्थवादी होते-तो ब्रह्मज्ञान को आँचल में बांध कर मनुष्य का कल्याण करने के लिये निकल पड़ते। स्वामीजी ने यही उपदेश दिया था कि अपना सबकुछ न्योछावर करके भी कैसे मनुष्य का कल्याण हो सकता है, क्या उपाय करने से मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है, यही उपाय बताना मेरे जीवन का उद्देश्य है। स्वामीजी केवल पगड़ी बांध कर भाषण देने के लिये ही नहीं आये थे।
 किसी पाश्चात्य साहित्यकार ने कहा था कि स्वामी विवेकानन्द 'काल-वैशाखी ' (Northwester ) के तूफान थे; जिन्होंने मात्र कुछ ही वर्षों के प्रवास में पाश्चात्य देशों की भ्रांत-धारणा को तोड़-मरोड़ कर  तहस-नहस कर दिया था। और उनके गुरुभाई स्वामी अभेदानन्द दीर्घ 25 वर्षों तक श्रावण मास की झड़ी बनकर हमारे देश की आध्यात्मिकता का प्रचार उनके देश में करके उनको शिक्षा दे आये थे। इसका परिणाम है स्वामी अभेदानन्द की पुस्तक- India and Her People. जो उनके भाषणों का संकलन है। एक बार उस देश में एकदम नाईनटी के स्पीड में झड़ाझड़ भाषण देते हुए उन्होंने भारतवर्ष के लोगों का जीवन-मूल्य, उनकी आर्थिक अवस्था की बात, उनके दुःख-दुर्दशा आदि की बातों को उनके सामने रखा था। वह सब सुनकर वहाँ के लोग आगबगुला हो गये थे, क्योंकि वे लोग स्वतंत्रता के पुजारी होते हैं।
स्वामीजी ने भी कई बार उनके स्वतंत्रता-प्रेमी होने की बात का उल्लेख किया है। विशेष रूप से 4 जुलाई के प्रति अपनी कविता में स्वाधीनता का उल्लेख करके उन्होंने चाह था कि इसीके माध्यम से वे समग्र भारतवर्ष की आँखों को खोल देंगे। इस कार्य को करने जिम्मेदारी उनको श्रीरामकृष्ण ने सौंपी थी। वे केवल ' पगले ठाकुर ' नहीं थे। उन्होंने तो सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों के समस्त प्रकार के कल्याण के मार्ग खोज निकाला था। जो लोग समाज की नजरों में पतित हैं, जो लोग भूख से मर रहे हैं, जिनके पास समाज के सामने खड़े होकर अपना परिचय देने लायक कुछ भी नहीं है, वैसे समस्त मनुष्यों को उन्होंने अपने कलेजे से लगा लिया था। सबों के कल्याण का मार्ग बतला देते हैं, और उसे प्राप्त करने की व्यवस्था कर गये हैं। जो लोग अध्यात्मिक पथ से जाना चाह रहे हों, उनकी सहायता जितनी तत्परता से करते हैं, उसी तत्परता के साथ जो भूखे-नंगे हैं, उनको भी  सहायता का दान कर रहे हैं। इसीलिये तो श्रीरामकृष्ण अवतार है, समस्त मानवता के रक्षक और परित्राता हैं। 
भारतवर्ष की उन्नति हमलोगों के द्वारा ही होगी, हमारे देश के अध्यात्मिक सिद्धान्तों के द्वारा होगी, हमारे ही उद्द्य्म से होगी, हमलोगों के कर्मकुशलता से, हमलोगों के प्रेम और निःस्वार्थपरता के द्वारा ही होगी। और इसे करने के लिये हमलोगों को श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द के चरणों में बैठना ही पड़ेगा, और उनको इस विषय के गुरु के रूप में स्वीकार करना पड़ेगा। यह किये बिना दूसरा कोई उपाय नहीं है। विगत 65 वर्षों में हमने बहुत अधिक गलतियाँ की हैं। तथा वर्तमान में जैसी राजनीती चल रही है, वैसे ही चलती रहें, तो आगे भी भूलें होती रहेंगी। (तथाकथित राजनैतिक महात्मा के बताये गये मार्ग पर चलते हुए देश की आज जो दुर्दशा हो रही है, उसमें कोई सुधार होने की सम्भावना नहीं है।)
किन्तु उनके बताये रास्ते पर चलने से भारतवर्ष की उन्नति संभव है। क्योंकि केवल राजनैतिक और आर्थिक मुक्ति के द्वारा देश को उन्नत नहीं किया जा सकता है, देश को महान बनाने के लिये आध्यात्मिकता चाहिये।  हमलोग देख सकते हैं कि पाश्चात्य देश राजनैतिक और आर्थिक रूप से बेहद उन्नत हो चुके हैं, किन्तु उनके हृदय में कितनी कुण्ठा और हताशा भरी हुई है। केवल आध्यात्मिकता के द्वारा ही उनको शान्ति प्राप्त हो सकती है, और यह आध्यात्मिकता उनको प्राच्य से ही प्राप्त करनी होगी। मनुष्य के जीवन और समाज के लिये धर्म की कोई आवश्यकता है या नहीं? धर्म का कोई प्रभाव मनुष्य के जीवन के उपर पड़ता है कि नहीं ? इन दिनों चीन में धर्म के इन्हीं पहलुओं के उपर अनुसंधान चल रहा है। वहाँ के एक नेता ने कहा है कि नैतिक उन्नति हुए बिना आर्थिक उन्नति संभव नहीं है।
आज विश्व के मानवता की रक्षा और कल्याण करना चाहते हों, तो भारतवर्ष और सम्पूर्ण विश्व को साम्य (आत्मा की एकता)  की दिशा में अग्रसर कराना होगा। और यह करने के लिये राजनैतिक साम्यवाद
 (Communism) के सहारे बन्दुक की नोक पर, धन-रंग-जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव को कभी समाप्त नहीं किया जा सकता है, इसके लिये ' वेदान्त के सत्य '- एकम् सत् विप्रा: बहुदा वदन्ति("Truth is One, though the Sages know it as Many.") को सुनना पड़ेगा, मनन करना होगा, और निदिध्यासन का तरीका भी सीखना होगा। ऋगवेद और अथर्ववेद में इसी साम्य के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है- " देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते "- समस्त हवि, जो भी अर्पन किया जाय, उन समस्त चढ़ावे को एकत्र करके, समस्त देवताओं के बीच समान रूप से वितरित किया जाये, ताकि आपस में कोई मतभेद नहीं हो। गीता, उपनिषद, भागवत तथा अन्य समस्त शास्त्रों में साम्य के इसी उपदेश को विभिन्न शब्दों में दिया गया है।
(संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते॥
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सहचित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि॥
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनोः यथा वः सुसहासति॥)
 वर्तमान युग में स्वामी विवेकानन्द ने ही पहली बार उपनिषदों में छुपे साम्य के इस उपदेश को ढूँढ़ कर, विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया था। उनके पहले किसी भारतीय विद्वान् के मुख से साम्य की महत्ता के उपर प्रकाश नहीं डाला गया था। उनहोंने कहा था, " मैं एक समाजवादी हूँ।" ऐसा इसलिये नहीं कहते थे कि समाजवाद कोई सर्वांग-सुन्दर मतवाद है, बल्कि ' काना मामा का रहना, मामा नहीं होने से अच्छा है! ' इसी आधार पर अपने को वे एक समाजवादी मानते थे। क्योंकि सभी मनुष्यों के जीवन में परिवर्तन होना अच्छा होता है। जो लोग हमेशा से सुखी जीवन बिताते आ रहे हैं, उनको कुछ दिनों तक दुःख का स्वाद मिलना उचित है; और जो लोग हमेशा से केवल दुःख ही भोगते आ रहे हैं, उनको थोड़े दिनों तक सुख का स्वाद मिलना आवश्यक है। और चुकि समाजवाद ऐसा परिवर्तन लाने का दावा करता है, इसीलिये वे इस प्रयास को अच्छा मानते थे। उन्होंने कहा था कि गली के कुत्तों को भी एक दिन अवसर मिलना चाहिये।
 किन्तु हमलोग विगत 65 वर्षों तक राजनैतिक समाजवाद को ढोते रहने से भी इसे संभव नहीं कर सके हैं। और हमलोग कभी इसे कर भी नहीं सकेंगे, क्योंकि हमलोग ऐसा (सच्चे समाजवादी व्यवस्था को स्थापित करना )चाहते ही नहीं हैं। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में अनुशासन हीनता (और भ्रष्टाचार ) को हमने ही बढ़ावा दिया है। देश का सच्चा हित क्या करने से होगा, इस विषय पर हमलोग कभी गहराई से विचार ही नहीं करते हैं। हमलोग केवल अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की चिन्ता करते हैं, या बहुत हुआ तो (मेरा स्वार्थ हमेशा पूर्ण होता रहे, इसके लिए सत्ता पाने के उद्देश्य से) दलगत स्वार्थ की चिंता भी करते हैं। और इसका जैसा फल हमें मिलना चाहिए था, वैसा ही मिल भी रहा है।
देश को उन्नत करने के लिये हमें क्या करना होगा ? हमलोगों में अनुशासन की भावना को संस्कार-बद्ध करना होगा, सत्य को प्यार करना होगा। अपने देशवासियों को प्यार करना होगा, स्वयं को निःस्वार्थी बनाना होगा, अपने चरित्र में सेवापरायणता के गुण को धारण करना होगा। किन्तु इसके विपरीत यदि हमलोग केवल अपने व्यक्तिगत कल्याण की चिन्ता करें, तो जो होना चाहिए वही हो रहा है, और आगे भी होता रहेगा। स्वामीजीने समाजवाद को अच्छा केवल इसीलिये बताया था, कि अभीतक कार्लमार्क्स के अतिरिक्त अन्य और किसी तथाकथित राजनैतिक महात्मा ने जाती-धर्म-रंगरूप-अर्थ के आधार पर भेदभाव को मिटाने की चेष्टा नहीं की थी। किन्तु इस समाजवाद की बुनियाद वेदान्त के उपर प्रतिष्ठित करना आवश्यक होगा। वेदान्तिक बुनियाद को छोड़ कर हमलोग भारतवर्ष की उन्नति करने में कभी सफल नहीं होंगे।
भारतवर्ष में सम्पूर्ण परिवर्तन हमलोग नहीं ला सके हैं, इसका क्या कारण है ? इसका एकमात्र कारण यही है कि हमलोगों में वेदान्तिक दृष्टि नहीं है, जिसके आधार पर सभी प्रकार के विशेषाधिकार को समाप्त करके, सभी नागरिकों को समानरूप में देखने की बात कही गयी है। जब तक हमलोगों में वेदान्तिक-दृष्टि नहीं आ जाती, तबतक देश में साम्य स्थापित नहीं हो जाता (उंच-नीच,जाती-धर्म का भेदभाव समाप्त नहीं हो जाता) तब तक देश में समग्र सुधार (Overall improvement) की आशा नहीं करनी चाहिये। स्वामीजी ने अन्य किसी सिद्धान्त का प्रचार नहीं किया था। उन्होंने अपने जीवन का होम करके दिखा दिया था,तथा उनके गुरु श्रीरामकृष्ण के जीवन में भी यही साम्य देखा जा सकता है; कि साम्य के सिवा उन्नति और प्रगति अन्य कोई रास्ता नहीं है। हमलोगों के देश में हजारो-हजार वर्ष की जो आध्यात्मिकता रही है, उसके सर्वोच्च शिखर पर जिस महासाम्य को रखा गया है, विशेष रूप से श्रीरामकृष्ण के जीवन में उस साम्य की अभिव्यक्ति देखि जा सकती है। ठाकुर के जीवन में तो कई उदहारण हैं, यहाँ एक-दो उदहारण के द्वारा इस विषय को और स्पष्ट किया जा सकता है। 
एक बार श्रीरामकृष्ण मथुरबाबु के साथ तीर्थ भ्रमण के लिये गये थे।देवघर के पास भूख से मरनासन्न दरिद्र लोगों को देखकर श्रीरामकृष्ण (पहली बार भारत में सत्याग्रह का प्रारंभ ? ) ने उनको छोड़ कर वहाँ से जाने को मना कर दिया था- और मथुर बाबु उनलोगों को भरपेट भोजन कराने, एक माथा तेल देने और एक जोड़ी कपड़ा देने के लिये विवश हो गये थे। श्रीरामकृष्ण देव के साम्यभाव में स्थित होने का प्रमाण एक दूसरे उदहारण में भी देखा जा सकता है, जब  एकबार दक्षिणेश्वर में नाव के उपर किसी बलवान मांझी ने एक दुर्बल मांझी के पीठ पर बहुत जोर का थप्पड़ मारा था। उसका पाँच उँगलियों के दाग श्रीरामकृष्ण की पीठ पर उग आये थे, और वे पीड़ा से चिल्ला उठे थे। और एकबार दक्षिणेश्वर में ही एक व्यक्ति घास के उपर से चला जा रहा था। ठाकुर अपनी छाती पर हाथ रखकर चीख पड़े थे। उनको ऐसा प्रतीत हो रहा था,  मानो कोई उनके सीने को कुचल कर चला गया हो। इसको कहते हैं जीवन में साम्य को प्रतिष्ठित कर लेना। (टाका -माटी, गिरीश-नटी बिनोदनी को शरण देना .....आदि अदि।)
हमलोगों को भी अपने भीतर ऐसा ही साम्य लाना होगा, ऐसी ही उदार दृष्टि रखनी होगी, जहाँ अपने-पराये का बोध तक मिट जायेगा। मन में ऐसी भावना रखनी होगी कि यदि अपना सबकुछ भी चला जाता हो, तो भी कोई हानी नहीं होगी, किन्तु देश का कल्याण अवश्य होना चाहिये। इसी प्रकार की साम्य भावना से भरपूर युवको के एक दल का निर्माण किया जा सके, तभी देश का कल्याण संभव हो सकता है। स्वामी विवेकानन्द द्वारा रचित-'स्वदेश-मन्त्र ' का हमलोगों को सही अर्थ समझना होगा। समस्त देश-वासियों को हमें अपने भाई के रूप देखना होगा, तथा उस प्रेम को अपने आचरण और व्यवहार में अभिव्यक्त करना होगा। तभी देश की वास्तविक उन्नति संभव है। अन्य कोई भी योजना बना लेने से नहीं होगा। स्वामीजी का युवाओं के प्रति यही आह्वान है कि सहानुभूतिशील, देश-प्रेमी, निःस्वार्थी मनुष्यों का निर्माण करो, जो लोग दूसरों के कल्याण के लिये अपना सबकुछ न्योछावर कर देने को प्रस्तुत रहेंगे। केवल इसी प्रकार देश को महान बनाया जा सकता है, और सम्पूर्ण देश का कल्याण हो सकता है। 
गीता में कहा गया है- जिसका मन साम्य में प्रतिष्ठित हो चूका है, वह जगत को भी जीत सकता है। 
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥
भावार्थ :  जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थित हैं॥19॥ 
जिस साम्य को हम श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द के जीवन में देखते हैं, उसी साम्य को हमें उनसे अपने मूलधन के रूप में प्राप्त कर लेना चाहिये। इसके लिए हमें उनके चरणों में बैठना होगा, उनको गुरु मान कर उनकी शिक्षाओं को ग्रहण करना होगा। वे कहते है- निःस्वार्थपर, देश-प्रेमी, निर्भीक मनुष्यों का निर्माण करो, जो अपना जीवन देकर भी विश्वास (आत्मविश्वास) कर सकता हो, तथा इस विश्वास को अपने आचरण के द्वारा अभिव्यक्त करने में सक्षम हो; -तो वैसे युवाओं के लिए सभी देशवासी भाई बन जाते हैं, देश की मिटटी उनका स्वर्ग बन जाता है, देश का कल्याण ही उनको अपना कल्याण प्रतीत होता है। इसी प्रकार के जीवन-मुक्त युवाओं का दल जब देश में सर्वत्र फ़ैल जायेंगे, तभी देश का सच्चा कल्याण संभव होगा। वे लोग जो कुछ भी कार्य करेंगे उसी से देश का कल्याण होगा। नान्यः पन्थाः।  
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Saturday, December 15, 2012

' मनः संयोग क्यों ?' (মনঃসংযোগ কেন ?) (मनःसंयोग की प्रक्रिया-Why concentration? ) [$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [53](8.मनुष्य का मन)

महामण्डल कर्मी का प्रथम कर्तव्य है - मनःसंयोग की पद्धति सीखना !   

'मनःसंयोग' - एकाग्रता (concentration) एक ऐसी तकनीक है जिस के बिना कोई भी कार्य करना संभव नहीं होता। कोई भी शिक्षा पूर्ण नहीं होती। अपने जीवन के लक्ष्य को भी हम प्राप्त नहीं कर सकते। इसीलिये मनःसंयोग की पद्धति को सीख लेना हममें से प्रत्येक के लिये अत्यन्त आवश्यक है। किन्तु मनः संयोग का अभ्यास करने के पहले- मन का स्वरुप कैसा है, मन का स्वभाव, मन का  आचार-व्यवहार आदि विषयों के विषय में जान लेना हमलोगों के लिये अत्यन्त आवश्यक है। सामान्य रूप से मन ही हमलोगों को सभी प्रकार के कर्मों को करने के लिये प्रेरित करता है,  इन्द्रिय विषयों द्वारा आकृष्ट करके, सुख का लोभ दिखाता है और उनके पीछे भागने के लिये बाध्य  कर देता है। यह मन ही है, जो पूर्व में भोगे गये सुखस्मृति को वहन करता है, और उसी सुख का आस्वादन करने की तरफ हमें बार बार प्रेरित करता है। मन हमलोगों को अपना गुलाम बनाकर, हमारे उपर अपना प्रभुत्व या मालिकाना हक - जमाने की चेष्टा करता है। जिसके फलस्वरूप हमलोग अपने स्वरुप को ही भूल जाते हैं। यदि हम अपने जीवन को उन्नत करना चाहते हों, मनुष्य-जीवन धारण करने को सार्थक करने और जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने की आकांक्षा हममें हो- तो इस अत्यन्त प्रभावशाली मन को अपने नियंत्रण में रखना अत्यंत आवश्यक है ।
स्वामी विवेकानन्द से हमलोगों ने सुना है कि - मन का स्वभाव अत्यन्त चंचल है तथा हमलोगों की समस्त इन्द्रियों - बाह्य इन्द्रिय तथा अन्तः इन्द्रिय से लेकर विचार, विवेक उचित-अनुचित निर्णय क्षमता, भावनाएँ, प्रेरणा इन सभी क्रियाओं का स्रोत यह मन ही है। किन्तु वह अत्यन्त चंचल है। मन अपने स्वाभाव से तो चंचल है ही, किन्तु उसकी स्वाभाविक चंचलता को अनेको प्रकार की कामना -वासना (ऐषणा) और अधिक चंचल बना देती हैं। 
  आत्मकेन्द्रिता (Self-centeredness) एवं स्वार्थपरता ही हमलोगों की स्वाभाविक कमजोरी या दोष है, जो हमलोगों को दूसरों से दूर कर देती है, और अपने सुख-भोग के प्रति अधिक प्रलोभित करती है। इसीलिये दूसरों के सुख को देखकर हमलोग ईर्ष्या करने लगते हैं। उसी ईर्ष्या का डंक हमारे चंचल मन को और अधिक चंचल कर देता है।  फिर उस चंचल मन पर जब अहंकार का भूत सवार हो जाता है, तो वह व्यर्थ का अहंकार हमलोगों के मन को उन्मादी (सनकी) बना देता है। इस प्रकार के  'उन्मत्त-स्वभाव' मन का दमन करना अत्यन्त कठिन है। ("मनो मर्कटो मदीरो उन्मत्तः वृश्चिको दंशितः पश्चात् भूत आरुढ़ो।') किन्तु इसके साथ साथ यह बात भी हमें ठीक से समझ लेनी चाहिये कि - ' कठिन होने से भी मन को वश में लाना असंभव नहीं है।'
सर्वप्रथम हमलोगों यह स्पष्ट रूप से जान लेना होगा कि यदि अपने जीवन में सफलता अर्जित करनी हो, यदि जीवन को सार्थक करना हो, या जीवन-लक्ष्य को ( या चार पुरुषार्थों में से किसी पुरुषार्थ को ) प्राप्त करना हो, - उसमें सबसे प्रमुख भूमिका मन की ही होती है। वशीभूत मन की सहायता से जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता अर्जित की जा सकती है। सर्वप्रथम हमलोगों को यह समझना होगा कि मनःसंयोग की पद्धति को सीखना आवश्यक क्यों है, मन की प्रकृति, मन का स्वाभाव, मन का रूप आदि जान लेने के बाद, उसको दमन करना या वशीभूत करना कठिन है- यह सब जान लेने के बाद, हताश हो जाने से काम नहीं चलेगा। भगवान श्रीकृष्ण की वाणी -(गीता ६.३५) याद रखनी होगी कि, कठिन होने से भी मन और इन्द्रियों को दमन करना, उसको नियंत्रित करना सम्भव है ! इस भावना से, पूरी आस्था से, दृढ़ विश्वास के साथ, 'अडिग संकल्प ग्रहण' प्रक्रिया को अपनाकर,लगभग असम्भव से लगने वाले इस कार्य को, हममे से प्रत्येक महामण्डल कर्मी को इसी जीवन में संभव कर दिखाना होगा। यदि हमलोग इस विषय में असफल हो गए तो, हमारा जीवन पूर्णतः असफल हो जायेगा। 
     अधिकांश लोगों के लिए यह बहुमूल्य, दुर्लभ मानव जीवन असफल ही रह जाता है। [क्योंकि अधिकांश मनुष्य इस मानव-शरीर को सर्वश्रेष्ठ योनि और मनुष्य-जीवन को महा-मूल्यवान जीवन क्यों कहा जाता है, इस बात से परिचित नहीं हैं। त्रय-दुर्लभं के महत्व को नहीं जानते हैं। इसीलिये हमारे इस महमूल्यवान जीवन का अधिकांश हिस्सा व्यर्थ के कार्यों में ही क्षय हो जाता है।] 
प्रत्येक असफलता का मूल कारण केवल एक है- मन के उपर निन्त्रण का आभाव। हममें से अधिकांश व्यक्ति बचपन में या किशोरावस्था में मन का रूप या स्वभाव के विषय में कुछ भी नहीं जानते हैं, मन की शक्ति के बारे में या मन के अतिरिक्त चंचलता के कारण के बारे में नहीं जानते हैं, मन का दमन करना सम्भव है- इसके बारे में नहीं जानते हैं ; मन का दमन करना क्यों आवश्यक है -यह बात नहीं समझते हैं। मन को वश में करने के लिये जैसा दृढ़ विश्वास चाहिए, जैसा दृढ़ संकल्प, जैसा प्रयत्न चाहिए, अध्यवसाय पूर्वक मन को वशीभूत कर लेने तक निरंतर अभ्यास में लगे रहने का धैर्य नहीं होने के कारण हमलोगों का जीवन व्यर्थ हो जाता है। हमलोग यदि विद्वान् नहीं हों (कोई डिग्री नहीं हो-सिर्फ दूसरा क्लास पास हों), धनवान नहीं हों, सुख-सम्पत्ति के अधिकारी भी नहीं हों, तो भी हमारा जीवन असफल नहीं होगा।  किन्तु यदि हम अपने मन के उपर नियंत्रण नहीं स्थापित कर सके, तो हमलोगों का जीवन अवश्य असफल हो जायेगा। लेकिन अगर हम केवल इस एक मात्र कौशल को सीख लें, मन को एकाग्र करने का कौशल,या मनःसंयोग की पद्धति को सीख लें- तो हमारा जीवन सार्थक हो जाएगा। किन्तु जिस एक मात्र कौशल को सीख लेने से हमारा मनुष्य योनि में जन्म लेना सार्थक हो जायेगा, उस 'एकाग्रता' की पद्धति को सीखना हमारा लक्ष्य नहीं होता। हम लोग मन को वश में किये बिना, कई प्रकार के कार्य  (जैसे देश-सेवा, ग्राम-उद्धार, नारी-शिक्षा, प्रौढ़-शिक्षा आदि सेवा-कार्य) कर सकते हैं, या कई प्रकार के निजी शौक (interest या चाहत) को पूरा कर सकते हैं, किन्तु यह नहीं समझते कि, यदि हमारा मन वशीभूत नहीं हो तो स्वार्थ-सिद्धि या परोपकार, दोनों कार्यों में से कोई कार्य सफल नहीं होगा ! और वैसा होने से हमारा जीवन कभी कभी सार्थक (meaningful-भाववाहक) नहीं हो सकेगा।  
    इसलिए यदि हमलोग स्वामी विवेकानन्द-मार्ग में विश्वासी हों, अर्थात उनकी मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा में आस्था रखते हों और अपनी सनातन विचारधारा के प्रति श्रद्धावान हों (अर्थात 'सनातन गुरु-शिष्य परम्परा ' या श्रीरामकृष्ण - विवेकानन्द वेदांत शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा, 'Be and Make' के प्रति श्रद्धावान हों), तो किसी भी तरह का कार्य (परोपकार या निजी शौक) को प्रारम्भ करने से पहले, या किसी भी विषय में अपनी ऊर्जा और विचारों को  उत्सर्ग करने के पहले, हममें से प्रत्येक महामण्डल कर्मी का कर्तव्य है -इस मन के उपर नियंत्रण रखने की साधना को पूरे अध्यवसाय के साथ (अर्थात अमृत मिलने तक)  कठोर परिश्रम, प्रयत्न, चेष्टा करते रहना। हमें इस एकाग्रता या मनःसंयोग की इस अवधारणा (concept) को समझने की आवश्यकता है।  यह कार्य अत्यन्त कठिन है। किन्तु इस कार्य की उपेक्षा करने से, आलस्य करने से, प्रयत्न में कमी करने से, लक्ष्य पर एकाग्र दृष्टि, या निष्ठा में थोड़ी भी कमी रहने से ,परोपकारी कार्य, समाज सेवा या मनुष्य की सेवा, या आत्मकेन्द्रित जीवन के क्षुद्र सुख-भोग या धन-सम्पत्ति की लालसा को पूर्ण करने की समस्त चेष्टाएँ भी पूर्ण रूप से असफल हो जाएँगी। और यदि हमलोग केवल इसी एक मात्र विषय- मनःसंयोग को सीख सकें, तो हमलोगों का - परवर्ती जीवन, अभी जैसा है, अवश्य उससे कई गुना अधिक उन्नत बन जायेगा। किन्तु इस विषय को यदि नहीं सीखें, नहीं जानें, इस विषय के महत्व के प्रति यदि हमारी दृष्टि आकृष्ट नहीं हो सके, इस विषय को जान लेने की प्रेरणा यदि हमारे मन में नहीं उठे, तो चाहे किसी भी विषय की बात हम क्यों न सोचें, या किसी भी योजना के क्रियान्वन की पद्धति को आविष्कृत करने की चेष्टा क्यों न करें, वे सब तो विफल होंगी ही, हमारे जीवन में भी सार्थकता आने की कोई सम्भावना नहीं होगी। दूसरों से इस कठोर सत्य को स्पष्ट रूप से कहना और स्वयं अच्छी तरह से इस विषय को समझ लेना हमारा एकमात्र कर्तव्य है।  
       यदि हमलोग वर्तमान जन्म में, अर्थात जिस शरीर में रहते हुए हमारा यह जीवन चल रहा है, उस एक सम्पूर्ण जीवन में - भले ही हम देशोद्धार न कर सकें,  भले ही हम परोपकार नहीं कर सकें, भले ही हम अपने व्यक्तिगत जीवन में आत्म-केन्द्रिक सुखभोग, सम्पत्ति-ऐश्वर्य नहीं अर्जित कर सकें, तो इन नाकामीयों के बावजूद कुछ आने-जाने वाला नहीं है। किन्तु यदि इसी शरीर में रहते रहते मनः संयोग का अभ्यास करके उसको पूरी तरह से अपने वश में ला सकें तो, हमारा वर्तमान जीवन तो लाभप्रद होगा ही, लेकिन सके बाद जो जीवन मिलने वाला होगा (अवश्य हम यदि पुनर्जन्म में विश्वास करते हों तब),उस जीवन में हमलोग अवश्य अधिकाधिक कार्यों को सफलता पूर्वक सम्पन्न कर लेंगे। (अर्थात भविष्य में यदि कोई व्यक्ति देशोद्धार और परोपकार का कार्य करना चाहता हो तो उसे पहले इसी जीवन में मन के ऊपर विजय प्राप्त कर लेना होगा। )
      स्वामी विवेकानन्द के बारे में हमलोग चर्चा करते हैं, सुनते हैं, पढ़ते हैं,और  ऐसा मानते हैं कि हम उनको जानते हैं। किन्तु यदि ध्यान से देखें तो समझ में आयेगा कि मनः संयोग के बारे में अबतक जितनी बातें हुई हैं, वे सब विवेकानन्द की ही बातें थीं । हमलोग यदि मनः संयोग नहीं सीखें, तो न अपना और न देश का कोई कल्याण हो सकेगा। इसलिये भारत का यदि कल्याण करना चाहते हों, हम सभी का प्रथम कर्तव्य है मनःसंयोग की पद्धति को सीख लेना। वास्तविक कार्य, पहले किये जाने वाले कार्य की अनदेखी करके, बाद में  आगे आकर लोगों को दिखाने के लिए कुछ करने से कोई लाभ नहीं है। पहले के जमाने में किसी कमजोर छात्र को एक साथ दो क्लास में प्रोन्नत कर देना, या क्लास टपवा देना आम बात थी - या ऐसा भी होता था कि जिसने परीक्षा में अच्छा रिजल्ट नहीं किया है, फिर भी उसको रियायती अंक (grace marks) देकर अगली श्रेणी में उत्तीर्ण कर दिया जाता था। किन्तु वैसा करने से उस छात्र का कुछ भला तो नहीं ही किया जाता, उसका बुरा अवश्य होता है। क्योंकि उस छात्र की नींव कच्ची ही रह जाती है । ठीक उसी प्रकार यदि हम लोग पहले अपने मन को नियंत्रण में रखना न सीख कर, अपने जीवन में सुख-संपदा अर्जित करने की चेष्टा करें, अथवा यदि कहते रहें - 'मैं तो जगत का उपकार कर रहा हूँ', तो हमलोगों के जीवन की नींव भी कच्ची ही रह जाएगी। और वह कार्य पूर्णतः असफल हो जायेगा - यही है स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा। स्वामी विवेकानन्द के विभिन्न संदेशों को सुनकर हम कितना भी दावा करें, कि उनको समझा है, उनका कार्य कर रहा हूँ, कहकर अपनी पीठ कितनी भी थपथपा ली जाय, किन्तु यदि मनः संयोग का अभ्यास नहीं करते हों, तो यह हमारी बुद्धि की अल्पता का ही परिचायक होगा।
यदि हम स्वामीजी के प्रथम उपदेश को ही अनदेखा कर दें , उनकी एकाग्रता पद्धति को समझना और समझाना तो बड़ा कठिन है, सोचकर इसके अभ्यास से बचने की चेष्टा करें और स्वामीजी के अन्य आसानी से समझ में आ जाने वाली संदेशों की विवेचना करके यह सोचे कि हमने उनको जान लिया है, तो यह बहुत बड़ी भूल होगी। ध्यान रहे कि महामण्डल में आ जाने के बाद भी हमसे वह भूल नहीं हो।
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चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।
क्योंकि हे कृष्ण मन बड़ा ही चञ्चल प्रमथनशील दृढ़ (इन्द्रियों को मथ देने वाला जिद्दी) और बलवान् है। उसका निग्रह करना मैं वायु को मुट्ठी में पकड़ने की तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ।
 असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌ । 
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
श्रीभगवान् बोले हे महाबाहो यह मन बड़ा चञ्चल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है यह तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है। परन्तु हे कुन्तीनन्दन अभ्यास और वैराग्यके द्वारा इसका निग्रह किया जाता है।  
 [मनःसंयोग की प्रक्रिया : १. लाभ क्या होगा ?/ २. मन का स्वभाव कैसा ? गीता ६. ३४ / ३. मन का दमन कठिन है, जानकर भी हताश न होना, उपाय जानना अभ्यास -वैराग्य,गीता ६.३५ /४. उसमें भी कठिनाई हो तो अभ्यास योग गीता १२.९ की विधि से या मनःसंयोग का अभ्यास । ][यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
भावार्थ :  (चित्त वृत्तियों के रुक जाने के बाद-)परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उसे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता॥22॥] 
श्रद्धा, साहस निर्भीकता, निःस्वार्थपरता, त्याग और सेवा केवल इन पाँच भावों को जीवन में धारण कर लेने से मन को पूरी तरह से जीत कर उसका प्रभु बना जा सकता है ! मनःसंयोग का अभ्यास इसी अभ्यास योग या ' BE AND MAKE ' को स्पष्ट करते हुए गीता १२.९ में कहते हैं -
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।
 
यदि इस प्रकार यानी जैसे मैंने बतलाया है उस प्रकार तू मुझमें चित्तको अचल स्थापित नहीं कर सकता? तो फिर हे धनंजय तू अभ्यासयोगके द्वारा -- चित्तको सभी इन्द्रिय विषयों से खींचकर, एक अवलम्बनमें (प्रत्याहार और धारणा : मन को अंतर्मुखी बनाकर हृदय में विद्यमान अपने इष्टदेव में बारम्बार एकाग्र करने) लगानेका नाम अभ्यास है! उससे युक्त जो समाधानरूप योग है? ऐसे अभ्यासयोगके द्वारा -- मुझ -- विश्वरूप परमेश्वरको प्राप्त करनेकी इच्छा कर। (गीता अध्याय 12 श्लोक 9 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखना चाहिए।)
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Friday, December 14, 2012

' संसार और संन्यास' (সংসার ও সন্ন্যাস) (दोनों को आवागमन से संन्यास लेना होगा ) [ $@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [52] (8.मनुष्य का मन),

 'संसार और संन्यास' 

       शास्त्रों के अनुसार 'संसार' का सही अर्थ है- आना और जाना, या जन्म-मृत्यु। जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के इसी चक्र का नाम है-संसार। संसार का अर्थ गाड़ी-बंगला नहीं, संसार माने स्त्री भी नहीं, जो मांस-मछली खाता हो- वह भी नहीं । ' संसार ' एक तात्विक शब्द है; जिसका तात्पर्य है- जन्म-मृत्यु के बाद पुनः जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म की एक श्रृंखला में अवस्थान करना ।
      'संन्यास' का अर्थ है, सम्यक रूप से त्याग कर देना। ' न्यास ' शब्द का अर्थ होता है-त्याग। सम -का अर्थ है, सम्पूर्ण रूप से त्याग। किसका त्याग करना है ? उसी बन्धन का त्याग करना है, जिसके कारण मनुष्य संसार में बन्ध जाता है। यदि संसार का सही अर्थ में प्रयोग करें, तो संसार को त्याग देने का अर्थ 'जन्म-मृत्यु' को त्याग देना भी कहा जा सकता है। संसार-बन्धन में रहने का अर्थ है, जन्म-मृत्यु के चक्र से बाहर नहीं निकल पाने वाली अवस्था में रहना। और संन्यास का अर्थ है, सब कुछ का त्याग कर देना। जब हम  सब कुछ का त्याग करते चले जायेंगे, तो अन्त में क्या देखेंगे ? यही कि, सबकुछ का त्याग देने का अर्थ हुआ, कामना को ही त्याग देना। क्योंकि कामना करने से ही सब कुछ आता है। कामना से जो वस्तु अभी मेरे पास नहीं है, उसे पाने की इच्छा मन में उठती है। उसको 'योग' कहते हैं। फिर जो कुछ है, उसको सुरक्षित रखने की इच्छा भी होती है। उसको 'क्षेम' कहते हैं। और जो कुछ है, उसका भोग करने की इच्छा होती है। इसको भोग-वासना भी कहा जा सकता है। जैसे ही हम किसी इन्द्रिय-विषय (रूप-रस-स्पर्श-गंध-शब्द आदि) का भोग करते हैं, उससे एक विशेष सुख उत्पन्न होता है, और जैसे ही किसी विषय का सुख अनुभव हुआ, उसकी एक छाप चित्त पर पड़ जाएगी और (कार्बन-कॉपी की तरह) उसकी एक स्मृति शेष रह जाएगी। 
सभी प्रकार के सुख क्षणिक ही होते हैं; जैसे ही सुख-भोग समाप्त हो गया, उसके बाद देखते हैं उस वस्तु में सुख का अनुभव नहीं हो रहा है, उस अवस्था में सुख-विशेष की स्मृति ही जमा पूंजी रहती है। मैंने जिस प्रकार के सुख का अनुभव (जैसे रसगुल्ला में सुख का अनुभव) किया था, वह सुख तो हाथ से निकल गया है, किन्तु उसकी स्मृति बनी हुई है। उस सुख-विशेष की स्मृति पुनः जैसे ही उपर उठेगी, उसी समय उसका भोग करने की इच्छा (वासना) भी जाग्रत हो जाएगी।  विचार उठेगा- अभी तो था, किन्तु अब पहुँच से बाहर  निकल गया है, उसीको फिर से पाना होगा, इसलिये उसके पीछे दौड़ते रहो। जैसे ही वह वस्तु प्राप्त हुई - उसको सुरक्षित रखने की चेष्टा भी करनी होगी। जो पदार्थ सुरक्षित है, उसको भोग करने की चेष्टा होगी । जैसे ही भोगा उससे सुख का अनुभव हुआ। फिर सुखास्मृति, वह क्षणिक सुख फिर हाथ से निकल गया। यही करते करते वर्तमान जीवन की अतृप्त इच्छाओं, वासनाओं का पहाड़ छाती पर लिए यह शरीर छूट गया। शरीर तो समाप्त हो गया, किन्तु मन (अहं) का अन्त नहीं होता है, मन वैसा ही रहता है। कैसे बना रहता है, इसको स्पष्ट रूप से समझाया नहीं जा सकता है। किन्तु शरीर छूटने के बाद भी मन रहता है ! मन किसको कहेंगे ? मन एक प्रकार की क्रिया है, मन का अस्तित्व उसकी क्रिया में रहता है। जब तक क्रिया हो रही है, तब तक मन बना रहता है। मन का काम जैसे ही रुका, (चित्त-वृत्तियों का जैसे ही निरोध हो गया), उसकी क्रिया बन्द हो गयी मन भी समाप्त हो गया।
एक स्थान पर स्वामीजी ने कहा है,  " मैं क्या हूँ ? इस अनंत जड़-समुद्र में एक भँवर मात्र तो हूँ मैं ! [-अर्थात" इस मेज से वास्तव में मेरा कोई भेद नहीं। यह मेज अनंत जड़राशि का मानो एक बिंदु है और मैं उसीका एक दूसरा बिंदु। प्रत्येक साकार वस्तु (नाम-रूप) इस अनंत जड़-समुद्र ( infinite ocean of matter) में मानो एक भँवर (whirlpool ) है। कोई भी भँवर सारे समय एकरूप नहीं रहते।" (प्राण, राजयोग १/६२) There is no real difference between the table and me; the table is one point in the mass of matter, and I another point. Each form represents, as it were, one whirlpool in the infinite ocean of matter, of which not one is constant.] विज्ञान की दृष्टि से यदि पूछा जाये कि - साकार वस्तु या पदार्थ क्या है ? तो आइन्स्टाइन का उत्तर होगा - साकार वस्तुएं और पदार्थ मूल रूप से शून्य की वक्रता हैं। (आइंस्टीन ने सामान्य सापेक्षता में यह सिद्धान्त प्रस्तुत किया कि गुरुत्वाकर्षण कोई शक्ति नहीं है , बल्कि अंतरिक्ष और समय में वक्रता का परिणाम है।) तब तो दृष्टिगोचर सभी पदार्थ भी शून्य हो जाते हैं। तो फिर साकार वस्तु या पदार्थ वास्तव में क्या है ? यह शून्य ही मानो मुड़-सिकुड़ कर कुछ है, ऐसा प्रतीत हो रहा है। 'अनेक'  वस्तुओं को हमलोग इसी रूप में देख रहे हैं। मानलो एक पारदर्शी कागज का आवरण है, या महीन  सा कोई भी आवरण है, जो लगभग रंगहीन हो, जिसे रखने पर हठात कोई नहीं कह सकता कि वहां कुछ है। किन्तु यदि उसीको थोड़ा मोड़-सिकोड़ कर रख दिया जाय, तो हमारी दृष्टि पहले वहीं जाएगी। आइन्सटाइन भी यही कह रहे हैं, कि शून्य ही मानो मुड़-सिकुड़ कर आखों से दिख रहा है। वही शून्य जिसे देखा नहीं जा सकता, किसी स्थान पर मुड़-सिकुड़ गया है, इसीलिये वहाँ किसी वस्तु या पदार्थ के होने का भ्रम हो रहा है।
स्वामीजी कहते हैं- " हमलोग क्या हैं; प्रत्येक साकार वस्तु  इस अनन्त जड़-समुद्र में मानो एक भँवर-विशेष (नाम-रूप) हैं।" मानलो किसी नदी में बिल्कुल स्वच्छ जल है, एक दम पारदर्शी है तो वहाँ जल है कि नहीं- यह भी समझ में नहीं आता। किसी शीशे के जार में यदि स्वच्छ झील का पानी (টইটম্বুর জল) रखा हो, तो कई बार  सन्देह होता है, पानी है भी या नहीं ? कहीं खाली तो नहीं है ? थोड़ा ठीक से देखने या उसमें थोड़ा तरंग उठने से समझ में आता है, कि हाँ जल तो है। मानलो किसी जार को उसके कोर तक लबालब भर दिया गया हो। अचानक देखने पर लगता है, जल है, या नहीं है ? किन्तु जल की सतह जब कोर से थोड़ी कम हो जाती है, तब महसूस होता है कि हाँ जल तो है। स्वामीजी कह रहे हैं - " इसी प्रकार, हमलोग इस अनंत जड़-समुद्र में एक भँवर मात्र हैं।" हमलोगों की नदियों का जल बहुत स्वच्छ नहीं होता किन्तु मानलो किसी नदी का जल एकदम स्वच्छ और पारदर्शी है, और उस नदी का जल समान वेग से बहता जा रहा हो, तो पानी की सतह समझ में नहीं आती । किन्तु जल में लहर या तरंग उठते ही, जल की सतह (Water surface) समझमें आने लगती है। जल की उस सतह पर यदि कोई भँवर या घुर्नी (Whirlpool) भी बन रही हो, तो नजरें उसी स्थान पर अधिक जाती हैं। स्वामीजी कहते हैं -'मेरा शरीर,तुम्हारा शरीर नामक कोई वस्तु वास्तव में नहीं है।' जिसको हम अपना शरीर कहते हैं -वह वास्तव में खाली (empty) है, किन्तु भ्रम होता है कि हम शरीर (M/F) हैं। लेकिन यथार्थ रूप में हमलोग एक भँवर मात्र हैं। उसी प्रकार विचारजगत या मन भी कुछ नहीं है। वास्तव में मन नामक कोई वस्तु नहीं है, किन्तु एक प्रकार की क्रिया-विशेष मात्र है। तर्क, इच्छा, संकल्प, निर्णय इत्यादि मन की ही क्रियाएं हैं। इन सब क्रियाओं के होने से ही प्रतीत होता है कि - 'मन' जैसा कुछ है जो ये सब क्रियायें करता है। जैसे किसी शान्त निस्तरंग जल का अस्तित्व भी समझ में नहीं आता, किन्तु उसमें कही भँवर (Whirlpool) रहने से, उसका अस्तित्व आसानी से समझा जा सकता है। उसी प्रकार मन भी एक न-होने जैसी वस्तु ही है, किन्तु जब वहाँ पर कोई कम्पन होता है, लहर या तरंग के जैसा कुछ उत्पन्न होता है- उसी को तात्विक भाषा में 'वृत्ति' या 'विक्षेप' कहा जाता है; और तब यह समझ में आता है, कि मन जैसी कोई चीज है।
[स्वामी जी के शब्दों में - " मानलो किसी वेगवती नदी में लाखों भँवर (Whirlpool) हैं, प्रत्येक भँवर में प्रतिक्षण नई जलराशि आती है , कुछ देर घूमती है और फिर दूसरी ओर चली जाती है। उसके स्थान में एक नई जलराशि आ जाती है।.... मेरा शरीर , तुम्हारा शरीर नामक कोई वस्तु वास्तव में नहीं है। वैसा कहना केवल मूर्ख की बात है। है केवल एक अखण्ड जड़राशि। उसीके किसी बिन्दु का नाम है चंद्र, किसी का सूर्य, किसी का मनुष्य ...तो कोई खनिज पदार्थ।" मनोजगत के बारे में भी ठीक यही बात है - जो अपने मन में अत्यंत सूक्ष्म कम्पन उत्पन्न कर सकते हैं , वे देखते हैं कि सारा जगत सूक्ष्मातिसूक्ष्म कम्पनों की समष्टि मात्र है।]            
जहाँ कही कोई प्राणी है, वहाँ पर मन भी अवश्य है। किन्तु मन कहाँ अवस्थित है, यह बताया नहीं जा सकता है। फिर भी जन्म के समय से ही मन अवश्य रहता है। और मृत्यु होने से भी मन समाप्त नहीं हो जाता है, सूक्ष्म रूप में बना रहता है। मन का अस्तित्व मृत्यु के बाद भी कैसे बना रहता है ? इस बात को समझाया नहीं जा सकता है। मन में जो विभिन प्रकार की क्रियायें- संकल्प,विकल्प या वृत्ति या अच्छा-बुरा का विवेक या निर्णय इत्यादि निरन्तर चलती रहती हैं, कभी रूकती नहीं हैं। जिस समय शरीर क्रिया करना बिल्कुल बन्द कर देता है, जिस अवस्था को हमलोग मृत्यु कहते हैं, उस समय मन की क्रियायें उपरी तौर से स्थगित हो जाती हैं, किन्तु नष्ट नहीं होतीं। 
      मृत्यु के समय व्यक्ति का मन जिस अवस्था में था, उसी अवस्था से वह दुबारा एक शरीर प्राप्त करता है, जो शरीर- शरीर की क्रियायें करने में सक्षम हो, उसके साथ संयुक्त होकर, वह अपनी अतृप्त वासनाओं  को संतुष्ट करने की चेष्टा करता है। इसीका नाम है संसार। यदि ऐसी बात है, तो संसार का बीज कहाँ है ? मन के अन्दर !
     संन्यास का क्या अर्थ है ? यही, कि इस बीज से कामना-वासना को दूर करना होगा। क्योंकि मन में जो बीज है, उससे जो बंधन होता है, उसीके फलस्वरूप जन्म-मृत्यु का जो नियम है-उससे होकर गुजरना ही पड़ता है। इसलिये यदि इस मूल कारण-बीज में से ही समस्त प्रकार की कामना- वासना को यदि किसी समय में दूर कर दिया जाय, तो उसी क्षण मुक्ति प्राप्त हो जाएगी। ऐसा करने में समर्थ हो जाने पर ह्मलोगों को फिर से जन्म-मृत्यु की यन्त्रणा का भोग नहीं करना पड़ेगा। इस प्रकार यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि संसारी की अपेक्षा संन्यासी  बड़ा है।
अब प्रश्न है कि छोटे -बड़े की धारणा रहने से क्या होता है ? स्वाभाविक रूप से जो अच्छा है, हमलोग उसी पाने की दिशा में आगे बढ़ते हैं। हमलोगों के गले में फन्दा डाल दिया गया है, हड़-बड़ी में इस फन्दे को खोलने की जितनी भी चेष्टा करेंगे, वह फन्दा उतना ही कसकर बैठ जायेगा। इसीलिये हम सभी लोगों को इस प्रकार प्रयत्न करना होगा कि हमलोग उस कड़े गाँठ को ढीला कर सकें।
इसलिये हमें ऐसा नहीं समझना चाहिये कि संसारी अर्थात गृहस्थ-जीवन में भोग करना है, और संन्यासी को त्याग करना है। लगभग सभी मनुष्य संसार में ही हैं, तथा सबों को - गृही हो या संन्यासी सही अर्थ में दोनों को ही संसार के बाहर (आवागमन के चक्र से बाहर ) जाकर बिल्कुल सच्चे अर्थों में संन्यास -प्राप्त करना होगा। यही समस्त मनुष्यों का चरम लक्ष्य है, तथा इसके उपर समस्त मनुष्यों का समान अधिकार भी है। इस बात को समझ लेना सबी के कल्याण-प्रद है। नहीं समझे तो, संसार में चक्कर लगाने की सजा भोगनी ही होगी।
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' सुख कहाँ है ? '' (সুখ কোথা ?) [$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [51] (8.मनुष्य का मन),

' सुख कहाँ है ? '

 [अल्प में सुख नहीं है, भूमा में ही सुख है।] 

सुख कौन नहीं चाहता ? किन्तु सुख क्या है- यह कौन जानता है ? फिर भी समस्त प्राणी हमेशा सुख के अन्वेषण में ही दौड़ते रहते हैं । जैसे ही हमलोग सोचना शुरू करते हैं, अब सब ठीक है मैं सुखसे हूँ- अब मैं सुखी हूँ ! तभी देखता हूँ, सुख तो भाग चुका है। ऐसा कोई कह सकता है कि मैं सदा सुखी हूँ ?
आनन्द का अनुभव ही सुख है। जो सदा सुखी हो, वही सच्चे आनन्द का अधिकारी है। बहुत हुआ तो थोड़ा सा आराम (relief), या इच्छा पूरी करने में थोड़ी सी स्वाधीनता, या कभी थोड़ी सी ख़ुशी को या थोड़ी सी तृप्ति मिल जाने को ही आमतौर से हमलोग सुख कहते हैं। मात्र इतने को ही हमलोग आनन्द समझते है। उतने ही आनन्द के अनुभव को सुख समझते हैं।
किन्तु ऐसे सुख को सदैव सकारात्मक या अस्तिवाचक सुख नहीं कहा जा सकता है। ऐसा सुख जो किसी आभाव के मिटने से होता हैं, एक नकारात्मक वस्तु ही होता है। सरल भाषा में कहें तो, संसार की वस्तुओं में 'सुख है'-ऐसा कुछ नहीं है। किसी ऐसी वस्तु को पाने के बाद, जिससे तृप्ति मिलती हो , या अभी अमुक वस्तु की आवश्यकता 'नहीं है '। जब यह अनुभव होता है कि अभी किसी वस्तु का 'अभाव नहीं' है,  हम उसी को सुख समझते हैं। किन्तु वास्तव में वह दुःख है। हमलोग संसार के दुःख-समुद्र में डूबे हुए हैं। उसी बीच जब दुःख का थोड़ा निषेध हो जाता है, उसी को हम सुख मान लेते हैं। देह (शरीर) में और गेह (घर) में आसक्त पुरुषों की अधोगति का वर्णन करते हुए 
श्रीमद्भागवत-३/३०/९में एक बहुत सुन्दर सिद्धान्त दिया गया है -
गृहेषु कूटधर्मेषु दुःखतन्त्रेष्वतन्द्रितः|
कुर्वन्दुःखप्रतीकारं सुखवन्मन्यते गृही||
कुटिल संसार में हमेशा दुःख-भोगते हुए जब व्यक्ति को थोड़ा भी दुःख से बचने का सौभाग्य मिलता है , तब वह उस तात्कालिक दुःख के अभाव को ही वह सुख समझ लेता है।' 
इसीको माया कहते हैं। जो वस्तु जहाँ हो ही नहीं, किन्तु उस समय वही प्रतीत होती हो - तो इसीको को भ्रम कहते हैं। माया के कारण भ्रम हो जाता है। जैसे शाम के धुंधले प्रकाश में रास्ते में पड़ी हुई रस्सी सर्प प्रतीत होती है। वास्तव में भोगों की इच्छा में सुख नहीं है, दुःख ने ही जब अपना कुटिल रूप थोड़ा सा बदल लिया, तो लगा वाह यही तो सुख है ! स्वामी विवेकानन्द ने इसी अवस्था का चित्रण अपनी कविता 'सखा के प्रति ' कविता में इस प्रकार किया है - 
'' प्रकाश-मिश्रित अँधकार में, अनुभव होता-
दुःख में सुख है, और रोग में स्वास्थ्य,
जहाँ शिशु का क्रन्दन ही -उसके जीवित होने का हो प्रमाण, 
वहाँ से सुख की आशा -फिर क्यों करते बुद्धिमान ?
-' अर्थात वास्तव में हमलोग अज्ञान (अविद्या ) के अंधकार में पड़े हुए हैं, किन्तु समझ रहे हैं-वाह कितना प्रकाश है ! सच तो यह है कि दुःख के समुद्र में डूबे हुए हैं, किन्तु समझ रहे हैं-कितना सुख है। वास्तव में व्याधि-ग्रस्त हैं, किन्तु समझ रहे हैं, मेरा स्वास्थ्य तो बहुत अच्छा है। जहाँ जन्म लेते ही क्रन्दन करना, बच्चे के जीवित होने की पहचान मानी जाती है। तुम यदि बुद्धिमान हो, तो ऐसे जगत में सुख की खोज किस बुद्धि से कर रहे हो ? '
इसीलिये स्वामीजी आगे कहते हैं, ' भ्रम में जी रहा है-वह, यहाँ सुख की आकांक्षा में रहते डूबे जिसके प्राण ! और जो रखता दुःख की चाहत  या जो दुःख से बचने को मृत्यु माँगता -
वह भी कोरा पागलपन है, और अमृतत्व - अमरतावाद ? 
 मोहग्रस्त अवस्था में (ऐषणाओं में आसक्त रहते हुए)  उसकी आकांक्षा रखना भी, मुर्खता है
संसृति का सागर दुस्तर है- सुख-दुःख के पहिये घूर्णन करते हैं,
यहाँ न कहीं उड़ने का पथ है, कहाँ भागकर जाओगे तुम ? '
 ' यह कहकर कोई दुःख को नहीं चाह सकता है। ' जो दुःख चाहता है, वह पागल है।' मृत्यु भी दुःख से भागने का उपाय नहीं है। ' मृत्यु भी वही मांगता है, जो पागल है।' और मोहग्रस्त अवस्था में ही अमृतत्व की प्राप्ति क्या सम्भव है ? ऐसी अवस्था में तो इसे भी व्यर्थ की इच्छा या आकांक्षा ही कहना होगा। महाकवि कालिदास ने मेघदूत १/१४ में वर्णन किया है -
कस्यैकान्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा ।
नीचै र्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण ॥ 
-मनुष्य का यह मर्त्य जीवन सुख और दुःख के उपादानों से गठित हुआ है, जिससे उसकी जीवन यात्रा में सुख-दुःख का क्रम प्रायः न्यूनाधिक रूप में चलता ही रहता है। न तो किसी के जीवन में एकान्त सुख ही होता है और न एकान्त दुःख ही। रथ के पहिये की धुरी की तरह जीवन में सुख और दुःख का क्रम बंधा रहता है।
 किसको केवल सुख या दुःख ही कायम मिला है ? किसी को नहीं । सुख और दुःख की दशा तो चक्र के हाथे की तरह हमेशा उपर नीचे जाती है । किसी को दुःख मिल रहा है, किसी को सुख मिल रहा है।  चक्के का रीम कभी नीचे गिरता है, कभी उपर उठता है, इसीतरह सुख-दुःख भी हमेशा घूमते रहते हैं। इसी लिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, 'संसृति का सागर दुस्तर है- सुख-दुःख के पहिये निरन्तर घूर्णन करते। 
तो क्या हम ऐसा समझ लें कि सुख सचमुच एक अप्राप्य वस्तु है ? सुख क्या कहीं नहीं है ? अवश्य है ! उपनिषद में कहा गया है- "यो वै भूमा तत् सुखम् न अल्पे सुखम् अस्ति ।"  अल्प में सुख नहीं है, भूमा में ही सुख है।' (छान्दोग्य उपनिषद ७:२३:१) 
 [यदि आप किसी भौतिक वस्तु या संबंध से सुख प्राप्त करने की इच्छा करते हैं, तो यह अल्प सुख है, जो क्षणिक होता है और संतुष्टि नहीं देता। लेकिन यदि आप आत्मज्ञान या आत्म-साक्षात्कार के माध्यम से परम सत्य को जानने की इच्छा या प्रयास करते हैं, तो यह भूमा सुख है, जो स्थायी और संपूर्ण होता है।] इसीलिये अल्प को त्याग दो, अर्थात अपनी क्षुद्र स्वार्थ पूर्ण इच्छाओं को त्याग दो, दूसरों के कल्याण की भूमा-इच्छा में अपने सुख का अनुसन्धान करो।  ' बहुजन-हिताय बहुजन सुखाय ' अपने जीवन को न्योछावर कर देने में ही सच्चा सुख है। तुच्छ इन्द्रिय-सुखों को भोगने की तृष्णा को त्याग दो, क्योंकि वे तो सदा अप्राप्य ही रहेंगे। दरिद्र किसको कहेंगे ? इसके उत्तर में राजाकवि भर्तृहरि कहते हैं - ' स तू भवतु दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला '  जिसकी तृष्णा कभी मिटने का नाम ही नहीं लेती, जिसकी तृष्णा विराट है, वास्तव में वही दरिद्र है। छोटी-छोटी इच्छाओं, या तृष्णा को भिक्षा माँगकर पूरा नहीं किया जा सकता। महाभारत में कहा गया है, 
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत सुखम ।
तृष्णाक्षय सुखस्यते नाहर्तः षोडशीम कलाम ।।
-अर्थात जगत में काम-भोगों से प्राप्त होने वाले जितने भी सुख हैं, तथा स्वर्ग में जाने पर जितने महासुख प्राप्त होते हैं, उन सबको मिला देने से जितना सुख मिलता होगा, वह तृष्णा-क्षय से मिलने वाले सुख को यदि १६ कला माना जाय, तो उसका एक कला भी नहीं है. इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- ' दाओ आर फिरे नाहि चाओ, थाके यदि हृदये संबल! '
हे प्रेमी, समस्त क्षुद्र-स्वार्थों की इच्छाओं को अनलकुण्ड में करो भस्म तुम।
भिक्षुकों क्या कभी मिलता है सुख ? कृपापात्र बने भी तो हुआ क्या फल ?
इसका करो विचार सदैव, 
और पाने की नहीं, केवल देने-देने की ही बात करो तुम -यदि अन्तर में है कुछ भी प्यार !    
क्योंकि वही प्रेममय (ठाकुर-देव) ही अनन्त भूमा में सर्वत्र व्याप्त हैं। जो व्यक्ति सच्चे सुख को पाने की प्यास रखता है, उसके लिये स्वामी विवेकानन्द का आह्वान है-
 ब्रह्म से लेकर परमाणु-कीट तक, सर्वभुतों में वही प्रेममय !
प्रिय-सखा हो तुम मेरे, तो इन सबके चरणों में दो तन-मन वार !
ईश-खोजने कहाँ चले तुम ? बहु रूपों में खड़े तुम्हारे सामने हैं ईश
व्यर्थ है ईश की खोज, जीव-सेवा के द्वारा ही सेवा पाते हैं जगदीश।।

गीता में श्रीकृष्ण ने अपने सखा अर्जुन को उपदेश देते हुए जो कहा था, उसीमें मोहग्रस्त मानव के प्रतिक कृष्ण-सखा अर्जुन के मोह-भंग का उपाय और यथार्थ सुख के अनुसन्धान की पद्धति बतलाये हैं। भागवत में श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को कहा था, बन्धु-गुरु-अहं सखे, मैं ही तुम्हारा दोस्त,गुरु और सखा हूँ।
 स्वामी विवेकानन्द भी हमलोगों के बन्धु,गुरु और सखा बनकर ' सखा के प्रति आह्वान कर रहे हैं, सुख कहाँ है, उसका पता बता रहे हैं, और माया के जाल से मुक्त होने का मार्ग दिखलाते हैं। अपने सखा की पुकार को सुनकर हम अपने जीवन को सार्थक कर सकते हैं, बहुजन के सुख का कारण बन सकते हैं। 
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आचार्य नरहरी एक बड़े मजे की बात कहते हैं :
" क्नडूयनेन यत् कंडूसुखम् तत् किं भवेत सुखम् । 
पश्चादत्र महापीड़ा तथा वैषयिक सुखम् ॥ "
 'अर्थात दाद खुजलाने से जो सुख मिलता है, उसको क्या वास्तव में सुख कहा जा सकता है ? क्योंकि खुजलाने के बाद महा यन्त्रणा भुगतनीरिय-विषयों को भोगने से जो अनुभव होता है, उसे हमलोग सुख कहते हैं, किन्तु वह तो दाद खुजलाने से मिलने वाले सुख जैसा है।