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शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

' सुख कहाँ है ? '' अल्प में सुख नहीं है, भूमा में ही सुख है।' [$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [51] (8.मनुष्य का मन),

" कूर्वन् दुःख प्रतिकारम् सुखवन्मन्यते गृही- और यही माया है ! "
सुख कौन नहीं चाहता ? किन्तु सुख क्या है- यह कौन जानता है ? फिर भी समस्त प्राणी हमेशा सुख के अन्वेषण में ही दौड़ते रहते हैं । जैसे ही हमलोग सोचना शुरू करते हैं, अब सब ठीक है मैं सुखसे हूँ- अब मैं सुखी हूँ ! तभी देखता हूँ, सुख तो भाग चुका है। ऐसा कोई कह सकता है कि मैं सदा सुखी हूँ ?
आनन्द का अनुभव ही सुख है। जो सदा सुखी हो, वही सच्चे आनन्द का अधिकारी है। बहुत हुआ तो थोड़ा सी तृप्ति, या थोड़ी सी स्वाधीनता, या कभी थोड़ी सी ख़ुशी को या थोड़े आराम मिल जाने को ही आमतौर से हमलोग सुख कहते हैं। मात्र इतने को ही हमलोग आनन्द समझते है। उतने ही आनन्द के अनुभव को सुख समझते हैं।
किन्तु ऐसे सुख को सदैव सकारात्मक या अस्तिवाचक सुख नहीं कहा जा सकता है। ऐसा सुख जो किसी आभाव के मिटने से होता हैं, एक नकारात्मक वस्तु ही होता है। सरल भाषा में कहें तो, संसार की वस्तुओं में 'सुख है'-ऐसा कुछ नहीं है। किसी ऐसी वस्तु को पाने के बाद, जिससे तृप्ति मिलती हो , या अभी अमुक वस्तु की आवश्यकता 'नहीं है '। जब यह अनुभव होता है कि अभी किसी वस्तु का 'अभाव नहीं' है,  हम उसी को सुख समझते हैं। किन्तु वास्तव में वह दुःख है। हमलोग संसार के दुःख-समुद्र में डूबे हुए हैं। उसी बीच जब दुःख का थोड़ा निषेध हो जाता है, उसी को हम सुख मान लेते हैं। श्रीमद्भागवत-३/३०/९में एक बहुत सुन्दर सिद्धान्त दिया गया है -- " कूर्वन् दुःख प्रतिकारम् सुखवन्मन्यते गृही ॥ " - ' अर्थात सामयिक रूप से दुःख का प्रतिकार कर पाने से जो अनुभूति होती है, गृहस्थ लोग उसी को सुख समझ लेते हैं।'

गृहेषु कूटधर्मेषु दुःखतन्त्रेष्वतन्द्रितः|
कुर्वन्दुःखप्रतीकारं सुखवन्मन्यते गृही||

हमेशा दुःख में पीड़ित रहते हुए ही यदा कदा जब मनुष्य को दुःख से बचने का थोड़ा भी अवसर मिलता है, उस तात्कालिक दुःख के अभाव को ही वह सुख समझ लेता है।' इसीको माया कहते हैं। जो वस्तु जहाँ हो ही नहीं, किन्तु उस समय वही प्रतीत होती हो - तो इसीको को भ्रम कहते हैं। माया के कारण भ्रम हो जाता है। जैसे शाम के धुंधले प्रकाश में रास्ते में पड़ी हुई रस्सी सर्प प्रतीत होती है। वास्तव में सुख नहीं है, दुःख ने ही जब अपना कुटिल रूप थोड़ा सा बदल लिया, तो लगा वाह यही तो सुख है ! आचार्य नरहरी एक बड़े मजे की बात कहते हैं :
" क्नडूयनेन यत् कंडूसुखम् तत् किं भवेत सुखम् । 
पश्चादत्र महापीड़ा तथा वैषयिक सुखम् ॥ "
 'अर्थात दाद खुजलाने से जो सुख मिलता है, उसको क्या वास्तव में सुख कहा जा सकता है ? क्योंकि खुजलाने के बाद महा यन्त्रणा भुगतनीरिय-विषयों को भोगने से जो अनुभव होता है, उसे हमलोग सुख कहते हैं, किन्तु वह तो दाद खुजलाने से मिलने वाले सुख जैसा है। स्वामी विवेकानन्द ने इसी अवस्था का चित्रण अपनी कविता 'सखा के प्रति ' कविता में इस प्रकार किया है - 
'' प्रकाश-मिश्रित अँधकार में, अनुभव होता-
दुःख में सुख है, और रोग में स्वास्थ्य,
जहाँ शिशु का क्रन्दन ही -उसके जीवित होने का हो प्रमाण, 
वहाँ से सुख की आशा -फिर क्यों करते बुद्धिमान ?
-' अर्थात वास्तव में हमलोग अज्ञान (अविद्या ) के अंधकार में पड़े हुए हैं, किन्तु समझ रहे हैं-वाह कितना प्रकाश है ! सच तो यह है कि दुःख के समुद्र में डूबे हुए हैं, किन्तु समझ रहे हैं-कितना सुख है। वास्तव में व्याधि-ग्रस्त हैं, किन्तु समझ रहे हैं, मेरा स्वास्थ्य तो बहुत अच्छा है। जहाँ जन्म लेते ही क्रन्दन करना, बच्चे के जीवित होने की पहचान मानी जाती है। तुम यदि बुद्धिमान हो, तो ऐसे जगत में सुख की खोज किस बुद्धि से कर रहे हो ? '[ इसीलिये स्वामीजी आगे कहते हैं,
 ' भ्रम में जी रहा है-वह, यहाँ सुख की आकांक्षा में रहते डूबे जिसके प्राण !'
और जो रखता दुःख की चाहत  या जो दुःख से बचने को मृत्यु माँगता -
वह भी कोरा पागलपन है, और अमृतत्व - अमरतावाद ? 
 मोहग्रस्त अवस्था में उसकी आकांक्षा रखना भी, मुर्खता है
संसृति का सागर दुस्तर है- सुख-दुःख के पहिये घूर्णन करते हैं,
यहाँ न कहीं उड़ने का पथ है, कहाँ भागकर जाओगे तुम ? '
 ' यह कहकर कोई दुःख को नहीं चाह सकता है। ' जो दुःख चाहता है, वह पागल है।' मृत्यु भी दुःख से भागने का उपाय नहीं है। ' मृत्यु भी वही मांगता है, जो पागल है।' और मोहग्रस्त अवस्था में ही अमृतत्व की प्राप्ति क्या सम्भव है ? ऐसी अवस्था में तो इसे व्यर्थ की आकांक्षा ही कहना होगा। ] महाकवि कालिदास ने मेघदूत १/१४ में वर्णन किया है -
कस्यैकान्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा ।
नीचै र्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण ॥ 
-(जगति कः वा सर्वदा सुखमेव अनुभवेत् ? अथवा कः सदा दुःखी स्यात् ? प्रपञ्चे मनुष्यस्य अवस्था परिभ्रमतः चक्रनेमिवत् कदाचित् उपरि कदाचित् अधः च सञ्चरति। मनुष्य का यह मर्त्य जीवन सुख और दुःख के उपादानों से गठित हुआ है, जिससे उसकी जीवन यात्रा में सुख-दुःख का क्रम प्रायः न्यूनाधिक रूप में चलता ही रहता है। न तो किसी के जीवन में एकान्त सुख ही होता है और न एकान्त दुःख ही। रथ के पहिये की धुरी की तरह जीवन में सुख और दुःख का क्रम बंधा रहता है।) किसको केवल सुख या दुःख ही कायम मिला है ? किसी को नहीं । सुख और दुःख की दशा तो चक्र के हाथे की तरह हमेशा उपर नीचे जाती है । किसी को दुःख मिल रहा है, किसी को सुख मिल रहा है।  चक्के का रीम कभी नीचे गिरता है, कभी उपर उठता है, इसीतरह सुख-दुःख भी हमेशा घूमते रहते हैं। इसी लिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, 'संसृति का सागर दुस्तर है- सुख-दुःख के पहिये निरन्तर घूर्णन करते
तो क्या हम ऐसा समझ लें कि सुख सचमुच एक अप्राप्य वस्तु है ? सुख क्या कहीं नहीं है ? अवश्य है ! उपनिषद में कहा गया है, ' अल्प में सुख नहीं है, भूमा में ही सुख है।' इसीलिये अल्प को त्याग दो, स्वार्थ को त्याग दो, दूसरों के कल्याण की भूमा में अपने सुख का अनुसन्धान करो।  ' बहुजन-हिताय बहुजन सुखाय ' अपने जीवन को न्योछावर कर देने में ही सच्चा सुख है। तुच्छ सुखों को भोगने की तृष्णा को त्याग दो, क्योंकि वे तो सदा अप्राप्य ही रहेंगे। भर्तृहरि कहते हैं, ' स तू भवतु दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला '  जिसकी तृष्णा कभी मिटने का नाम ही नहीं लेती, जिसकी तृष्णा विराट है, वास्तव में वही दरिद्र है। छोटी तृष्णा को पूर्ण करने के लिये भीख माँगने से सुखलाभ नहीं हो सकता है। महाभारत में कहा गया है, 
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत सुखम ।
तृष्णाक्षय सुखस्यते नाहर्तः षोडशीम कलाम ।।
-अर्थात जगत में काम-भोगों से प्राप्त होने वाले जितने भी सुख हैं, तथा स्वर्ग में जाने पर जितने महासुख प्राप्त होते हैं, उन सबको मिला देने से जितना सुख मिलता होगा, वह तृष्णा-क्षय से मिलने वाले सुख को यदि १६ कला माना जाय, तो उसका एक कला भी नहीं है. इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- ' दाओ आर फिरे नाहि चाओ, थाके यदि हृदये संबल! '
हे प्रेमी, समस्त क्षुद्र-स्वार्थों को अनलकुण्ड में करो भस्म तुम।
भिक्षुकों क्या कभी मिलता है सुख ? कृपापात्र बने भी तो हुआ क्या फल ?
इसका करो विचार सदैव, 
और पाने की नहीं, केवल देने-देने की ही बात करो तुम -यदि अन्तर में है कुछ भी प्यार !    
क्योंकि वही प्रेममय (ठाकुर-देव) ही अनन्त भूमा में सर्वत्र व्याप्त हैं। जो व्यक्ति सच्चे सुख को पाने की प्यास रखता है, उसके लिये स्वामी विवेकानन्द का आह्वान है-
 ब्रह्म से लेकर परमाणु-कीट तक, सर्वभुतों में वही प्रेममय !
प्रिय-सखा हो तुम मेरे, तो इन सबके चरणों में दो तन-मन वार !
ईश-खोजने कहाँ चले तुम ? बहु रूपों में खड़े तुम्हारे सामने हैं ईश
व्यर्थ है ईश की खोज, जीव-सेवा के द्वारा ही सेवा पाते हैं जगदीश।।

गीता में श्रीकृष्ण ने अपने सखा अर्जुन को उपदेश देते हुए जो कहा था, उसीमें मोहग्रस्त मानव के प्रतिक कृष्ण-सखा अर्जुन के मोह-भंग का उपाय और यथार्थ सुख के अनुसन्धान की पद्धति बतलाये हैं। भागवत में श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को कहा था, बन्धु-गुरु-अहं सखे, मैं ही तुम्हारा दोस्त,गुरु और सखा हूँ।
 स्वामी विवेकानन्द भी हमलोगों के बन्धु,गुरु और सखा बनकर ' सखा के प्रति आह्वान कर रहे हैं, सुख कहाँ है, उसका पता बता रहे हैं, और माया के जाल से मुक्त होने का मार्ग दिखलाते हैं। अपने सखा की पुकार को सुनकर हम अपने जीवन को सार्थक कर सकते हैं, बहुजन के सुख का कारण बन सकते हैं।       

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

' व्यवहारिक जीवन में धर्म '/ पुरुषार्थ क्या है ? (धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष !) [$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [50] (7 व्यवहारिक जीवन में आध्यात्मिकता),

पुरुष अर्थ का दास होता है ? 
व्यवहारिक जीवन के अलावा धर्म के प्रयोग का अन्य कोई क्षेत्र नहीं है। धर्म तो व्यावहारिक जीवन के लिये ही है। धर्म का प्रयोग इसी जगत में होता है, एवं जगत हर समय व्यावहारिक ही होता है। स्वामी विवेकानन्द एक बहुमूल्य सत्य की ओर हमलोगों की दृष्टि को आकर्षित करते हुए कहते हैं- " हमारा जीवन एक अखण्ड सत्ता है, यह भिन्न-भिन्न भावों का संकलन नहीं है।जबकि हमलोग यह समझते हैं कि हमलोगों का व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन से भिन्न हो सकता है, सामाजिक जीवन से राष्ट्रिय जीवन अलग होता है। या हमारा राजनैतिक जीवन और अर्थनैतिक जीवन है, जो चित्त-विनोद के जीवन से अलग है; इन सब के अलावा एक धार्मिक जीवन भी है। किन्तु जीवन को इस प्रकार से टुकड़ों  में बाँट कर देखना केवल हमारे मन की कल्पना है।"
 श्रीरामकृष्ण  इस बात को उदाहरण से समझाते हुए कहे थे- ' पानी में एक छड़ी डालने से जल इधर-उधर बँटा हुआ दीखता है, किन्तु छड़ी को उठा लेने पर फिर से सारा पानी एक हो जाता है। ' ठीक उसी प्रकार प्रत्येक वस्तु को हमलोग विभिन्न रूपों में बँटा हुआ देखते हैं। यह सब हमारे मन की सृष्टि है। वस्तुतः जीवन का उस प्रकार से विभिन्न क्षेत्र या भाव नहीं होता है। स्वामी विवेकानन्द पाश्चात्य देशों में जाकर कहे थे- " हर रविवार के रविवार रूटीन से गिर्जा-घर में जाकर प्रार्थना कर लेना धर्म नहीं है।" सप्ताह के शेष समस्त दिनों को मैंने जैसे चाहा वैसे खर्च कर दिय, और उसके बाद केवल रविवार के दिन चर्च में जाकर प्रार्थना कर लिया, इसको तो धर्म नहीं कह सकते हैं। कुछ लोग ऐसा मानते हैं, कि रविवार का दिन भगवान के आराम का दिन है। क्या भगवान भी कोई दैनिक वेतन-भोगी कर्मचारी है, जो सारे सप्ताह परिश्रम करने के बाद रविवार को विश्राम करते हैं ?  बहुत से लोगों की यही धारणा होती है कि रविवार को हमलोगों के लिये भी छुट्टी का दिन होता है; उस दिन ऑफिस जाने या सामान्य पारिवारिक जम्मेदारी निभाने से फुर्सत रहती है, आज आमोद-प्रमोद करना है, इसी बीच एकबार गिरजा-घर में जाकर प्रार्थना भी कर आऊंगा- यही धर्म है ! बहुत से लोग सोचते हैं, सुबह घर के ठाकुर-कमरे में पूजा करके धर्म कर लिया, या किसी मन्दिर में जाकर मत्था टेक आया,  उसके बाद लौटते समय रास्ते के किनारे भिखारी बैठे रहते हैं, उसके कटोरी में एक  सिक्का फेंक दिया। यही तो धार्मिक जीवन है; उसके बाद घर के काम निपटाए, हाट-बाजार कर आये, शाम को दोस्तों के साथ शैर पर निकल गए- क्योंकि यही हमारा स्वाभाविक कार्य क्षेत्र है। जीवन को इस प्रकार टुकड़ों में बाँट कर जीना ठीक नहीं है। जीवन एक पूर्ण वस्तु है। स्वामीजीने कहा है, धर्म वह वस्तु है जो जीवन को पूर्णतया पकड़े रहती है। धर्म के बिना जीवन का कुछ अर्थ ही नहीं है, हो भी नहीं सकता।
भगिनी निवेदिता ने विवेकानन्द को समग्र रूप में समझा था। वे स्वामीजी के द्वारा दीक्षित थीं, उनसे प्रेरित थीं, उनके सपनों को साकार बनाने के लिये निवेदित-प्राणा थीं, अपने प्राण तक को न्योछावर करने को समर्पित थीं। वे भारतवर्ष की सेवा के लिये, भारत के कल्याण के लिये आयीं थीं। विवेकानन्द समग्र-साहित्य जब प्रकाशित हुआ, तो भगिनी निवेदिता ने उसकी भूमिका लिखी थी। उस भूमिका में उन्होंने कुछ नई बाते कही हैं, उन बातों  को उन्होंने स्वामीजी से सीखा था। वहाँ उन्होंने कहा है- "अब से लौकिक 'secular' और अध्यात्मिक ' sacred 'कर्म में कोई अन्तर नहीं रह जायेगा, (अर्थात अब से व्यवहारिक जीवन भी धर्म के उपर प्रतिष्ठित होगा ) इस समय से कर्म करने का अर्थ ही उपासना करना है। विजयी होना और त्याग कर देना एक समान है। स्वयं जीवन ही धर्म है।"
यहाँ पर ' अब से ' कहने का क्या अर्थ है ?  जब से विश्व के खुले मंच पर स्वामीजीने यह सन्देश दिया कि- " If the many and the One be indeed the same Reality" यदि ' एक '(ईश्वर) और 

'अनेक' (जगत) सचमुच एक ही सत्य हैं, तो उपासना के केवल विविध पद्धतियाँ ही नहीं, वरन् सामान्य रुप से किये जाने वाले समस्त कर्म, जीवन में आने वाले सभी प्रकार के संघर्ष, सृजन की समस्त विधियाँ भी सत्य-साक्षात्कार के ही मार्ग हैं।" " एक और  अनेक - सचमुच एक ही सत्य हैं! "- स्वामीजीने इस भाव को कहाँ देखा ? उन्होंने इस भाव को अपने गुरु श्रीरामकृष्ण से सीखा था। वास्तव में श्रीरामकृष्ण-स्वामी विवेकानन्द के जीवन के समय से ही ' धार्मिक जीवन और धर्म-निरपेक्ष जीवन '- के बीच जो कल्पित पार्थक्य था, वह अतीत की बात हो गयी थी, अब वह भेद बिल्कुल समाप्त हो गया।' यदि उनके जीवन को सही रूप से समझ लिया जाये, तो 'व्यवहारिक जीवन में धर्म' के विषय में हमारी धारणा  बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगी।
बहुत लोग ऐसा समझते हैं, कि हमलोग अपने व्यवहारिक जीवन को जैसी इच्छा होगी, उसी मुताबिक बिता देंगे, और धर्म नाम से जो एक कुछ है उसका व्यवहार - हमलोग चाहें तो कर सकते हैं, और नहीं भी कर सकते हैं। जिस प्रकार तरह तरह के व्यंजनों का आहार समाप्त कर लेने के बाद, चटनी को हमलोग चाहें तो खा सकते हैं, या नहीं भी खा सकते हैं। उसी प्रकार हमलोग अपने जीवन को जैसे-तैसे बिताकर धर्म को ले भी सकते हैं, नहीं भी ले सकते हैं। किन्तु धर्म कोई ऐसी वैसी चीज नहीं है। जो लोग धर्म को चटनी के जैसा कोई चीज समझते हैं, वे धर्म के विषय में कुछ भी नहीं जानते हैं।धर्म के विषय में स्वामीजी कहते हैं-" धर्म के बारे में ऐसी प्रवृत्ति देखी जाती है कि यहाँ का कुछ वहाँ का कुछ विभिन्न स्वाद लेने के लिये चख कर देखने की प्रवृत्ति होती है। यह जो धर्म को चख कर देखने की प्रवृत्ति है, इसके द्वारा किसी को कभी धर्म की प्राप्ति नहीं हो सकती है। धर्म को श्रद्धा के साथ ही ग्रहण करना पड़ता है। धर्म मनुष्य के जीवन को संपूर्णतः परिवर्तित कर देता है, जीवन- प्रवाह की दिशा को निर्धारित कर देता है, उसे ठीक लक्ष्य की ओर ले जाता है। धर्म मनुष्य को उसके जीवन-लक्ष्य की दिशा में अग्रसर होना सिखाता है।" यदि मनुष्य के जीवन का कुछ अंश धर्म की ओर जाय, और शेष अंश अधर्म की ओर जाय तो, तो क्या उसका  जीवन सफल होगा ? जीवन छिन्नभिन्न हो जायेगा। जीवन में पूर्णता नहीं आएगी, और उस दृष्टि से जीवन  सार्थक नहीं होगा, उस जीवन में समग्र सौन्दर्य कभी प्रस्फुटित नहीं हो सकेगा । यदि मनुष्य के समग्र जीवन में एक  ' integration ' या सामंजस्य नहीं स्थापित हो सका, तो उसका जीवन-गठन या चरित्र-निर्माण सही रूप में नहीं हो सकता है।
मनुष्य के जीवन में धर्म का वही महत्व है, जो नाव में पतवार का होता है। नदी में नौका चल रही है, किन्तु उसमें यदि पतवार नहीं हो तो नाव कभी अपने गन्तव्य स्थान तक नहीं पहुँच सकेगी-जहाँ नौका को जाना चाहिए था, वह अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकेगी। उसी प्रकार जीवन में भी हमलोग बहुत तरह के प्रयत्न कर सकते हैं, जीवन में हमलोग कई प्रकार के कार्य कर सकते हैं। किन्तु हमारे सभी कर्म यदि धर्म पर आधारित नहीं हो, तो जीवन अपने निर्दिष्ट लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता है। यदि हमलोगों ने विवेक के द्वारा निर्णय लेकर कोई पूर्व निर्दिष्ट जीवन-लक्ष्य बना लिया हो, तो अपने चिन्तन, विचार और जीवन को उस लक्ष्य की ओर ले जाने के लिये धर्म ही पतवार है।  

यदि हम अपने व्यवहारिक जीवन में धर्म का प्रयोग करना चाहें, तो पहले यह समझ लेना होगा कि जीवन क्या है और व्यक्ति-जीवन में धर्म का स्थान कहाँ है ? जीवन विभिन्न भावों का 'mechanical blending' या मशीनी मिश्रण नहीं है, जीवन एक ही साथ जुड़ा हुआ, 'compound' या यौगिक वस्तु है। जीवन के विभिन्न उपादान (3H ) हो सकते हैं, किन्तु जीवन में वे सभी मिलकर संयुक्त या combined हो गये हैं, जीवन के साथ इस प्रकार घुलमिल गये हैं, वे इस प्रकार जुड़ चुके हैं, कि अब उसके उपादानों को पृथक नहीं किया जा सकता है। समग्र रूप से सामन्जस्यपूर्ण जीवन ही वह जीवन है, जो हमें लक्ष्य तक पहुंचा सकता है। वह जीवन ही यथार्थ जीवन है, जिसकी बुनियाद धर्म पर प्रतिष्ठित है। हमलोगों के दैनन्दिन जीवन में धर्म का उपयोग करने का अर्थ है, अपने चिन्तन-वचन-और कर्म में विवेक-प्रयोग करके ऐसा निर्णय लेंगे जो हमारे समस्त कार्यों को हमारे पूर्व-निर्धारित जीवन लक्ष्य की दिशा में ले जाने में सहायक होगा। विवेकपूर्वक कर्म करने में सक्षम होना ही लौकिक जीवन में धर्म का प्रयोग करना है।
हमारे देश के प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य जीवन में चार पुरुषार्थ करने का सन्देश दिया है। किन्तु हम आधुनिक शिक्षा प्राप्त लोग, 'पुरुषार्थ' या इस प्रकार के अन्य शब्दों से परिचित नहीं हैं। 'पुरुष' का अर्थ है-मनुष्य; इस शब्द को पुरुष और स्त्री के संदर्भ में नहीं लेना चाहिये। तथा 'अर्थ' का अनुवाद होगा- एक ऐसी प्राप्तव्य वस्तु, एक ऐसा लक्ष्य, एक ऐसी बहुमूल्य सम्पत्ति - जिसे प्राप्त करने की आकांक्षा प्रत्येक मनुष्य को अवश्य करनी चाहिये, तथा उस लक्ष्य को इसी जीवन में प्राप्त करने का प्रयत्न भी मनुष्य को अवश्य करना चाहिये। वे चार पुरुषार्थ हैं- धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष !  पुरुषार्थ से तात्पर्य मानव के लक्ष्य या उद्देश्य से है। पुरुषार्थ = पुरुष+अर्थ = अर्थात मानव को 'क्या' प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। यही चार वस्तुयें ऐसी हैं जिन्हें इस जीवन में पाने की आकांक्षा करनी चाहिये। पहला पुरुषार्थ है- धर्म। यदि यह पुरुषार्थ जीवन में नहीं हो, या नहीं आ सके, तो हमलोगों के जीवन में अन्य जितने पुरुषार्थ या प्राप्तव्य वस्तुएँ हैं, उन्हें हम नहीं प्राप्त कर सकेंगे, और यदि प्राप्त कर भी लिये, तो उनका कोई मूल्य नहीं होगा। इसीलिये धर्म को सबसे पहले ग्रहण करना चाहिये। यह प्राप्त हो जाय तभी दूसरी वस्तुओं की सार्थकता है। यदि मोक्ष को अपने जीवन का लक्ष्य बना कर, तथा धर्म के द्वारा मार्गदर्शित होकर- अर्थ और काम का उपभोग किया जाय, तो वैसा अर्थ और काम हमें क्षति नहीं पहुंचा सकता है।

हमलोग यह जानते हैं, कि मन में यदि कोई कामना नहीं हो, तो मनुष्य का जीवन अचल हो जायेगा, ठहर जायेगा या गतिशून्य हो जायेगा। यदि ऐसा हो, कि मैं  कुछ भी न चाहूँ; तो फिर मैं ही नहीं रहूँगा। इसीलिये कोई न कोई कामना अवश्य रहेगी, तथा व्यवहारिक जगत के किसी वस्तु को पाने की कामना करें, या प्राप्त करना चाहें, या केवल सामान्य रूप से अपने जीवन का निर्वाह भी करना हो, तो अर्थ की आवश्यकता होगी। हमलोगों के जीवन में अर्थ की आवश्यकता अवश्य होती है, इसीलिये हमारे शास्त्रों में अर्थ की निन्दा नहीं की गयी है। बल्कि अर्थ और काम दोनों की प्रशन्सा की गयी है। गीता में हम श्रीकृष्ण का एक अद्भुत उद्धरण देखते हैं, " वे कहते हैं, यदि मैं न रहूँ, तो मनुष्य कोई कामना भी नहीं कर सकता, इसीलिये सभी मनुष्यों के हृदय में मैं ही कामरूप में अवस्थित हूँ। " अर्थात ईश्वर ही मनुष्यों के भीतर कामरूप में अर्थात कामना रूप में अवस्थित हैं।
उसी प्रकार से हमारे ऋषियों ने अर्थ की भी प्रशंसा की है। महाभारत में एक सुन्दर उदाहरण दिया गया है, गीता-उपदेश के बाद जब अर्जुन लड़ने को तैयार हो गये तो एकाएक देखते हैं कि युधिष्ठिर कवच वगैरह उतार के नंगे पाँव कौरवों की सेना की ओर तेजी से बढ़े जा रहे हैं। देखते ही अर्जुन आदि सभी घबरा गये। हालत यह हो गयी कि ये पाँचों भाई कृष्ण के साथ उनके पीछे-पीछे दौड़े जा रहे हैं और कहते जा रहे हैं कि राम, राम, यह क्या कर रहे हैं? ऐन वक्त पर आप यह कहाँ चले? क्या युध्ष्ठिर युद्ध नहीं करेंगे, या और कुछ करने जा रहे हैं ? जब युधिष्ठिर न रुके, तो कृष्ण ने ताड़ लिया और लोगों को समझा दिया कि भीष्म आदि गुरुजनों से लड़ने के पहले आज्ञा लेने जा रहे हैं। यही शिष्टाचार हैं। इसी बीच युधिष्ठिर सभी के साथ ही पहले भीष्म के पास और पीछे क्रमश: द्रोण, कृप और शल्य के पास गये और चारों को प्रणाम करके लड़ने की आज्ञा तथा सफलता की शुभेच्छा चाही। उन्होंने युधिष्ठिर को आज्ञा दी और शुभेच्छा भी जाहिर की। मगर सभी ने एक बात ऐसी कही जो विचारणीय हैं। चारों के मुख से एक ही श्लोक निकला, जो इस प्रकार हैं-


  ''अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।
इति सत्यं महाराज, बध्दोऽस्म्यर्थेन कौरवै:।''
 इसका सीधा अर्थ यही हैं कि ''महाराज, इस जगत में सभी पुरुष अर्थात सभी मनुष्य अर्थ के दास होते हैं। आदमी पैसे का गुलाम होता हैं, न कि आदमी का गुलाम पैसा, यही पक्की बात हैं। इसलिए हे महाराज भाग्य के दोष से अर्थ के कारण ही कौरवों ने हमें गुलाम बना लिया हैं।''  जिन्हें मौत पर भी कब्जा हो और जो अपनी मर्जी के खिलाफ न तो हार सकें और न मर सकें, वे लोग भी जब संसार के इस नियम को स्वीकार करते हैं, और इसे अटल (पक्का) नियम मानते हैं, और हिम्मत के साथ तदनुकूल ही अपनी स्थिति कबूल करते हैं, तो मानना ही पड़ेगा कि अप्रिय होने से भी- कि पुरुष अर्थ का दास होता है !' गीता इस कठोर सत्य को खूब मानती हैं। वह इसे स्वीकार करके ही आगे बढ़ी हैं।
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि हमारे पूर्वज लोग (इस अप्रिय सत्य को) अच्छी तरह से जानते थे, कि हमारे जीवन में अर्थ की कितनी महत्ता है। इसीलिये उन्होंने ने अर्थ की कभी निन्दा नहीं की है। हमलोगों के देश में कौटिल्य (चाणक्य) द्वारा लिखित सुन्दर अर्थशास्त्र बहुत प्रसिद्द है। हमारे पूर्वजों ने यह भी कभी नहीं कहा है, कि काम की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने केवल इतना कहा है कि काम या कामना को नियंत्रित रखना या परिमित (restrained) रखना आवश्यक है। कामनाओं को पूर्ण करने के लिये अर्थ की आवश्यकता अवश्य है; किन्तु अर्थ के व्यवहार को भी नियंत्रित रखना आवश्यक है। जिस प्रकार कामना-वासना के बेलगाम अत्याचार को सहन करते रहना उचित नहीं है; उसी प्रकार अर्थ का बिल्कुल दास बन जाना भी ठीक नहीं है। यदि कामनाओं को अत्यधिक छूट दे दी जाये, और अर्थ की वासना को परिमित नहीं रखा जाय तथा- 'और धन चाहिये', और धन चाहिए, करते रहा जाय तो मनुष्य की हालत कैसी हो जाएगी ?  इसका वर्णन गीता १६/१३ में बहुत अच्छे से किया गया है।

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्‌। 
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्‌॥

भावार्थ : आज इस समय तो मैंने यह द्रव्य प्राप्त किया है तथा अमुक मनोरथ -- मनको संतुष्ट करनेवाला पदार्थ और प्राप्त करूँगा। और अब कल इस मनोरथ को -(बीच बाजार में एक बड़ा सा प्लोट ) प्राप्त कर लूँगा। इतना धन तो मेरे पास है और यह इतना धन मेरे पास अगले वर्ष में फिर हो जायगा? उससे मैं धनवान् विख्यात हो जाऊँगा।
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
 ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥

भावार्थ :   (इसमें जो एक प्रोपर्टी डीलर बाधक शत्रु था ) आज वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया, और कल उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा, इस प्रकार मेरा प्रभुत्व क्रमशः बढ़ता जायेगा। मैं ईश्वर हूँ, ऐश्र्वर्य को भोगने वाला हूँ। मै सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान्‌ तथा सुखी हूँ॥14॥
श्री कृष्ण
कुरुक्षेत्र के रणांगण में जिस समय अर्जुन को उपदेश देते हैं, कितनी अद्भुत बात कह रहे हैं। उनका  यह कथन बिल्कुल मानो आज के सामाजिक जीवन की अवस्था को उजागर कर रहा है। हमारे शास्त्रों में काम और अर्थ को त्याज्य नहीं कहा गया है, हमारे पूर्वजों ने केवल उन्हें नियंत्रित रखने या परिमित करने का उपदेश दिया है। किन्तु अर्थ और काम के  उपर नियंत्रण रखने का उपाय क्या है ? केवल धर्म के द्वारा ही अर्थ और काम को नियंत्रण में रखा जा सकता है। धर्म का आश्रय लेकर, अर्थ और काम का भोग करो। और जब यह बात समझ में आ जाये कि भोगों में ही सबकुछ नहीं है। जब यह दिखाई देने लगे कि भोगों से यथार्थ शान्ति, आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता है, तब उस अवस्था में मनुष्य के चौथे पुरुषार्थ-मोक्ष को प्राप्त करने की आकांक्षा करनी चाहिये, और उसके लिये प्रयत्न करना चाहिये । किन्तु उन चार पुरुषार्थों में से किसी एक में ही आसक्त नहीं होना चाहिये। षड्जगीता  ३८ में कहा गया है-
 धर्मार्थकामाः सममेव सेव्या
यस्त्वेकसेवी स नरो जघन्यः ।
द्वयोस्तु दक्षं प्रवदन्ति मध्यं
स उत्तमो यो निरतिस्त्रिवर्गे ॥ ३८॥
 यह जो 'धर्म-अर्थ-काम ' का त्रिवर्ग है, उसकी तुलना चतुर्थ वर्ग -मोक्ष के साथ नहीं हो सकती है।  इसलिये इन तीनों में -किसी भी एक प्रति आसक्त नहीं होना चाहिये, या किसी एक में ही अटके नहीं रहना चाहिये। जो किसी एक में ही आसक्त हो जाता है, उसको घृणित या निन्दनीय माना जाता है।
स्वामी विवेकानन्द ने भी हमलोगों को ठीक यही सन्देश दिया है, वे हमलोगों को पूर्ण उद्द्य्म के साथ अर्थ-
उपार्जन के लिये उत्साहित करते हुए कहते हैं- " धन कमाना चाहता है ? तो अमेरिका चला जा। मैं तुमको व्यापार करने की बुद्धि दूंगा। ....यहाँ बैठे रहने से क्या होगा ? यदि जाने का भाड़ा नहीं हो, तो जहाज का खलासी बनकर विदेश चला जा। देशी कपड़ा, गमझा, चद्दर को गट्ठर बना कर सिर पर लेकर अमेरिका-यूरोप की गलियों में फेरी लगा। कुछ छोटी छोटी वस्तुओं को वहां बेचो। देखोगे यही करते करते थोड़े दिनों में बुद्धि खुल जाएगी। तब देखोगे कि वे लोग भी तुम्हें सहायता देने लगेंगे। " भारत के सभी स्त्री-पुरुषों को कह रहे हैं, तू सभी लोग मिल कर कमाओ, कहते हैं- क्या तुमलोग जेली,
चटनी, आचार बना सकते हो ? इसको भी तुम विदेशों में निर्यात कर सकते हो। ये सब बिजनेस टिप्स स्वामीजी दे रहे हैं। कहते हैं, तुम्हारे पास कल-कारखाने कहाँ हैं ? " आज उनके जाने के १५० वर्ष बाद भी हमलोग बड़े बड़े कल-कारखाने लगाने की चर्चा करते हैं। स्वामीजी ने ये बातें कितने दिनों पहले कही थीं।
एक बार जहाज से जापान जाते समय स्वामीजी की मुलाकात जमशेदजी टाटा के साथ हुई थी। रास्ते में  बातचीत होने लगी। स्वामीजी के पूछने पर जमशेदजी ने बतलाया कि वे दियासलाई का आयात करने के लिये जापान जा रहे हैं। स्वामीजी ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा " आप दियासलाई आयात करने जापान जा रहे हैं ? उसमें क्या रहता है ? पतली सी लकड़ी का बना बॉक्स होता है, भीतर कुछ पतली पतली लकड़ी की कील (सलाई) रहती है, जिसके माथे पर थोड़ा बारूद लगा रहता है। ऐसी साधारण सी चीज का आयात करने जापान जा रहे हैं ? आप इसे भारत में निर्मित क्यों नहीं कर सकते हैं ? भारतवर्ष में ही इसका निर्माण कीजिये न। जो भी उद्द्योग लगाना हो, उसे भारत में ही लगाइये।" 

इसी मुलाकात के बाद से जमशेदजी के मन में उद्द्योग लगाने का धुन सवार हो गया। इसीके बाद जमशेदजी टाटा ने झारखण्ड में एक बहुत बड़ा उद्द्योग स्थापित किया। उनकी प्रेरणा के श्रोत स्वामीजी ही थे। आगे चलकर स्वामीजी के परामर्श से ही उन्होंने  विज्ञान के उपर एक शोध-संस्थान भी स्थापित किया था। भारत का प्रथम कृषि शोध-संस्थान भी स्वामीजी की ही प्रेरणा से अल्मोड़ा में स्थापित हुआ था, यह शोध-संसथान भारत के लिये अद्भुत वरदान सिद्ध हुआ है। उस समय स्वामीजी शरीर में ही थे। शोध-संस्थान खोलने के बाद जमशेदजी ने स्वामीजी से अनुरोध किया कि आप ही इसके डाइरेक्टर (directer) बन जाइये। वे समझ गये थे कि स्वामीजी के पास कॉमन सेन्स का भण्डार है, उनके शांत और परिष्कृत मन में इन सब के उपर नये नये विचार उठते ही रहते हैं। स्वामीजी के प्रति उनके मन में अपार श्रद्धा थी। किन्तु स्वामीजी ने बहुत विनय के साथ उनके  डाइरेक्टर होने के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। क्योंकि स्वामीजी का यह कार्य था ही नहीं। 
[The institute was established at Kolkata by Padma Bhushan late Prof. Boshi Sen on July 4, 1924 and named it as Vivekananda Laboratory.  The Laboratory was permanently shifted to Almora in 1936 and was being run on donations and grants till it was handed over to Uttar Pradesh Government in 1959. On October 1, 1974, ICAR took it over and rechristened it as Vivekananda Parvatiya Krishi Anusandhan Sansthan.]
आज तो भारत में कई शोध-संसथान खुल चुके हैं, किन्तु भारत का प्रथम शोध-संस्थान स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से ही स्थापित हुआ था। वे कहते हैं, " तुमलोग जो कुछ भी करो-अपने देश में ही (स्थापित ) करना। तुमलोग विदेश जाओ और वहाँ से तकनिकी ज्ञान सीख कर अपने देश में कल-कारखाने स्थापित करो। फिर कहते हैं, तुमलोग जापान जाओ, वहां से मशीन निर्माण की कला सीखो, और देश की धरती पर नयी नयी वस्तुओं का उत्पादन करो।"कहते हैं, भारत में तो खनिज पदार्थों की तो भरमार है। विदेशी लोग उसी कच्चे-माल का उपयोग करके, नये रूप में ढाल कर, पुनः उसे भारत में बेचकर  सोना उगा रहे हैं। और तुमलोग देश में इतनी खनिज-सम्पदा रहने पर भी कुछ नहीं कर पा रहे हो ? वे तो यहाँ तक कहते हैं, कि " तुमलोग 'luxury goods' या विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन भी प्रारम्भ करो। कहते हैं, बहुत अधिक भोग में डूबे रहना अवश्य अच्छा नहीं है; किन्तु अधिक परिमाण  में  'consumer goods' का उत्पादन करने से क्या होगा -जानते हो ? इससे देश में नये नये रोजगार के अवसर पैदा होंगे।(3/334) "
स्वामीजी ने अर्थ की निन्दा कभी नहीं की है, और न काम की ही निन्दा किये हैं। उन्होंने अर्थ की उत्पत्ति करने को कहा है, भोग भी करने को कहा है, कहते हैं- सबकुछ करो, किन्तु धर्म के द्वारा उसको नियंत्रण में रखो। स्मरण रहे कि अर्थ और काम का भोग करने में अन्धे होकर धर्म का त्याग नहीं करना है। यदि धर्म को त्याग कर यह सब करोगे तो सब कुछ नष्ट हो जायेगा।
अल्बर्ट आईन्स्टाईन एक विश्व-विख्यात वैज्ञानिक हैं, विज्ञान की प्रगति के विषय में विवेचना करते समय एक स्थान पर वे कहते हैं, अच्छा आज विज्ञान में इतनी प्रगति आप देख रहे हैं, उसकी प्रेरणा का श्रोत कहाँ है ? सुनकर आश्चर्य होता है, वे कहते हैं- नूतन वैज्ञानिक अविष्कारों की प्रेरणा का श्रोत है धर्म। यदि धर्म नहीं होता तो विज्ञान में ऐसी प्रगति भी नहीं हो सकती थी। स्वामीजी कहते है, यदि धर्म को आधार मान कर लोक-व्यवहार करोगे, तो तुम्हारी बुद्धि स्फुरित होने लगेगी, तुमलोगों की कार्यक्षमता (efficiency) बढ़ जाएगी, जीवन का भोग दक्षता के साथ कर पाओगे, बेकार बैठे लोगों को रोजगार देने में समर्थ हो जाओगे।  

वे एक स्थान पर अत्यंत आश्चर्य जनक बात कहते हैं, कहते हैं-धर्म का अर्थ है भोग ! इसको समझाते हुए कहते हैं, तुम्हारे वेदों में क्या है ? देखो समस्त वेद में है, केवल भोग, भोग और भोग। वेदों के संहिता भाग में केवल यही कहा गया है कि किस प्रकार मनुष्य को इहलोक और परलोक में अधिक से अधिक भोग और सुख प्राप्त हो सकता हैं? स्वामीजी कहते हैं कि भोग पूरा हुए बिना त्याग नहीं हो सकता है। मोक्ष, त्याग या वैराग्य तो सबसे अन्तिम बात है। सामान्य मनुष्यों के लिये पहले भोग को पूरा करना आवश्यक होता है। और इसकेलिये अर्थ उपार्जन करना भी आवश्यक होता है। किन्तु इन दोनों को नियंत्रित रखने के लिये धर्म की आवश्यकता होती है।
व्यवहारिक जीवन में धर्म का अर्थ है, हमलोग बहुत बड़े कर्मवीर बनेंगे, सबकुछ करेंगे, किन्तु धर्म को भी बनाये रखना होगा। स्वामीजीने भारतीय लोगों की तीखे शब्दों में निन्दा भी की है। वे कहते हैं, तुमलोग पूरी तरह से तमोगुण द्वारा भर गये हो। तुमलोग माटी के पुतलों के सदृश्य हो। तुमलोगों के इस जड़ शरीर को हिलाडुला कर जगाने के लिये ही मैं धरती पर आया हूँ। मैं तुमलोगों में रजोगुण का संचार करना चाहता हूँ। कहते हैं, तुमलोग रजोगुण के बल पर खड़े हो जाओ। हम सभीलोग रजोगुण के लक्षण के विषय में जानते हैं, रजोगुण से प्रेरित मनुष्य निरंतर कर्म करने में लगा रहता है। इसीलिये कहते हैं, तुमलोगों में रजोगुण का संचार हो। तुमलोग कर्मठ या कर्मतत्पर मनुष्य बनो। नई नई वस्तुओं का निर्माण करो, जीवन में भोग करो, किन्तु यह सब धर्म के द्वारा संचालित होकर करो; किन्तु  यह भी याद रखना कि समस्त भोग करके भी यथार्थ शान्ति नहीं मिलेगी।
हमारे देश की बहुत प्राचीन कथा है, राजा ययाति की कहानी को हम सभी लोग जानते हैं। हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ है, रजा भरत के नाम पर। वे उसी राजा भरत के पूर्वज थे। उनका नाम ययाति था। राजा ययाति की कहानी वेदों में है, पुराणों में भी है, विभिन्न धर्मग्रंथों के माध्यम से भी हमलोगों में से अधिकांश उसकी कहानी सुने हैं। वे धर्म को भूल कर केवल अर्थ और काम में डूबे रहते थे। उनकी अवस्था ऐसी होगयी थी कि जीवन में बहुत भोग करने के बाद भी उनको तृप्ति नहीं हुई, उनको शान्ति नहीं मिली। एक बार उन्होंने कोई  बहुत बड़ा दुष्कर्म कर दिया, उससे अभिशप्त होकर बुढ़ापे से ग्रस्त हो गये थे। बुढ़ापा के कारण वे संसार के सामान्य भोग करने में वे असमर्थ हो गये थे। जिस व्यक्ति ने उनको शाप दिया था, उसके पास जाकर वे बहुत अनुनय-विनय करने लगे कि उनको किसी प्रकार इस बुढ़ापे से मुक्ति प्राप्त हो जाय। उन्होंने कहा एक बार जब शाप दे दिया हूँ, तो उससे बचने का कोई उपाय नहीं है। किन्तु एक उपाय हो सकता है। यदि कोई दूसरा व्यक्ति, या कोई युवा तुम्हारे बुढ़ापे को ले ले, और अपना यौवन तुमको प्रदान करदे, तब तुम फिर से अपनी जवानी को वापस प्राप्त कर सकते हो। वे भला किससे यह बात कह सकते थे ? उन्होंने अपने पुत्र से ही यह बात कही, और उसके यौवन के बदले अपना सम्पूर्ण राज्य देने का वादा किये। उनका सबसे छोटा पुत्र इसके लिये तैयार हो गया। उसने ययाति से उसका बुढ़ापा ग्रहण करके अपना यौवन उसको सौंप दिया। 

कहा जाता है कि अपने पुत्र के यौवन को लेकर राजा ययाति ने जगत के हर सुख का भोग किया। सबकुछ का भोग करने के बाद भी देखे कि उसमें शान्ति नहीं है। काम का उपभोग करके कामना को प्रशमित नहीं किया जा सकता है। काम का उपभोग करते रहने से कामना भी उसी प्रकार क्रमशः बढ़ती जाती है, जिस प्रकार आग में घी डालने से आग क्रमशः और भी बढ़ती जाती है। उसी प्रकार कामना को परिपुष्ट करते रहने से, वह कभी प्रशमित नहीं होती, बढ़ती ही जाती है। इससे कभी शान्ति नहीं मिलती। संसार में जितने भी भोग्य वस्तुयें हैं, जितना भी ऐश्वर्य है, जितनी भी सम्पदा है, वह सब का सब किसी एक ही मनुष्य को दे दिया जाय फिरभी उसको कभी तृप्ति नहीं मिल सकती है। यह जान लेने के बाद अन्त में सभी मनुष्यों कामना-वासना का त्याग करना ही पड़ता है। यही है हमलोगों के देश की शिक्षा।
इसीलिये हमलोगों के व्यावहारिक जीवन में धर्म का क्या स्थान है- इसे भली भाँति समझ लेना आवश्यक है। धर्म की सहयता लिये बिना यदि हमलोग भोग के जीवन, अर्थ उपार्जन और व्यबहार के जीवन को जीते रहें, तो हमलोगों का जीवन अन्तिम अवस्था में अशान्ति से भर जायेगा। हममें से अधिकांश लोगो के जीवन में यही हो रहा है। जीवन में धन-दौलत का अम्बार खड़ा कर लिये, गाड़ी-जमीन-मकान-दुकान, रुपया-पैसा बहुत कम लिये। किन्तु अन्तिम अवस्थामे जीवन में घोर अशान्ति छा गयी। पेट फुल गया, बदहजमी का शिकार बन गये, ब्लडप्रेशर,सुगर इत्यादि रोग पकड़ लिया, और लड़के-बच्चों में धन-दौलत को लेकर झगड़ा और केस-मुकदमा चलने लगा। कुछ खा नहीं सकते हैं, ठीक से चल नहीं पाते हैं, रात में नीन्द नहीं आती है। किन्तु धन के घड़ियाल हैं। घर में हर प्रकार की भोग-सामग्री है, किन्तु शान्ति नहीं है, कुछ भी नहीं है। उसी टेन्टलस के नरक जैसी अवस्था है। गले तक जल में ही डूबा हुआ हूँ, किन्तु एक बून्द जल मुख में डालने का उपाय नहीं है। तृष्णा से छाती फटी जा रही है, किन्तु किन्तु उसको मिटाने के लिये, एक बून्द जल ग्रहण करने का उपाय नहीं है। चारो और भोग की वस्तुएं बिखरी पड़ी हैं, देख-देख कर ललचा रहे हैं, किन्तु भोग करने की हिम्मत नहीं है, फिर भोग की इच्छा बनी हुई है, शान्ति नहीं मिलती है। इसीलिये जीवन के प्रारंभ में ही धर्म क्या है, इसे ठीक से समझकर जीवन के समस्त कार्यों में उसका ही सहारा लेकर चलना हमलोगों का कर्तव्य है।

[ धर्म का अर्थ है जीवन के नियामक तत्त्व। अर्थ का तात्पर्य है जीवन के भौतिक साधन। काम का अर्थ जीवन वैध कामनाएँ। मोक्ष का अभिप्राय है, जीवन के सभी प्रकार के बंधनों से मुक्ति। प्रथम तीन को पवर्ग और अंतिम को अपवर्ग कहते हैं। मनुष्य को यह समझ लेना चाहिए कि पुरुषार्थ और प्रारब्ध से ऊपर एक और चीज हे जिसका नाम प्रार्थना हे ! भाग्य जो दे उसमें सन्तुष्ट रहना ! पुरुषार्थ तो आपको करना हे! उसमें कभी सन्तोष नहीं करना ! प्रार्थना से जब परमात्मा की कृपा होने लगती हे तो व्यक्ति वह प्राप्त करता हे जो भाग्य और पुरुषार्थ दौनों से ऊपर हे ! पुरुष का अर्थ है विवेकशील प्राणी तथा अर्थ का मतलब है लक्ष्य। इसलिए पुरुषार्थ का अर्थ हुआ विवेकशील प्राणी का लक्ष्य। ]
 [ एक विवेकशील प्राणी का लक्ष्य होता है मोक्ष या जीवनमुक्ति। मोक्ष प्राप्त करने वाले व्यक्तियों के समक्ष तीन बातें प्रकट होती हैं। सर्वप्रथम उन्हें इस बात का ज्ञान होता है कि वे कौन हैं? यह विचार व्यक्ति के मन से भगवान और मनुष्य के बीच के भेद को मिटा देता है। भगवत गीता में इस स्थिति को स्थितप्रज्ञ का नाम दिया गया है। व्यक्ति को न तो कोई वस्तु बुरी लगती है और न ही कोई अच्छी। उसे न कहीं अंधेरा नजर आता है और न ही कहीं प्रकाश। एथेन्स का सत्यार्थी देवकुलिश अँधा हो गया था ? इसका अर्थ यह है कि उसकी दृष्टि में समरूपता आ गयी थी। दूसरा प्रकटीकरण अन्य के प्रति होता है कि अन्य कौन हैं? यह प्रकटीकरण मन से भेदभाव मिटाता है। सबों के प्रति उनमें एक स्नेह उत्पन्न होता है। यह विचार दो आत्माओं को जोड़ने का काम भी करता है, क्योंकि मैं और तू की भावना रहती ही नहीं। इसमें अहम रहित जुड़ाव होने के कारण यह आसानी से टूटता भी नहीं है। अतिथियों का सम्मान करना या लोगों का हाथ जोड़ कर नमस्ते कहना इसी विचार का हिस्सा है। तीसरा विचार इन दो विचारों के मिश्रित रूप के ब्रह्मांड में फैलाव का है। अर्थात मोक्ष प्राप्त करने वाले व्यक्ति के विचारों में ब्रह्मांड का कण-कण समाहित हो जाता है।
[ययाति ग्रंथि : ययाति ग्रंथि वृद्धावस्था में यौवन की तीव्र कामना की ग्रंथि मानी जाति है। किंवदंति है कि, राजा ययाति एक सहस्त्र वर्ष तक भोग लिप्सा में लिप्त रहे किन्तु उन्हें तृप्ति नहीं मिली। विषय वासना से तृप्ति न मिलने पर उन्हें उनसे घृणा हो गई और उन्हों ने पुरु की युवावस्था वापस लौटा कर वैराग्य धारण कर लिया। ययाति को वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होने कहा-
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः
तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।
कालो न यातो वयमेव याताः
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥
अर्थात, हमने भोग नहीं भुगते, बल्कि भोगों ने ही हमें भुगता है; हमने तप नहीं किया, बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गये हैं; काल समाप्त नहीं हुआ हम ही समाप्त हो गये; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, पर हम ही जीर्ण हुए हैं!
लंबी जिंदगी जीने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना भी बहुत जरूरी होता है। योगशास्त्र के अनुसार ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्यलाभः अर्थात ब्रह्मचर्य का पालन करके ही वीर्य को बढ़ाया जा सकता है और वीर्ये बाहुबलम् वीर्य से शारीरिक शक्ति का विकास होता है। वेदों में कहा गया है कि बुद्धिमान और विद्वान लोग ब्रह्मचर्य का पालन करके मौत को भी जीत सकते हैं।
सदाचार को ब्रह्मचर्य का सहायक माना जाता है। जो लोग निष्ठावान, नियम-संयम, संपन्नशील, सत्य तथा चरित्र को अपनाए रहते हैं, वही लोग ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए लंबी जिदंगी को प्राप्त करते हैं। सदाचार को अपनाकर कोई भी मनुष्य अपनी पूरी जिंदगी आराम से बिता सकता है।
कोई भी बच्चा जब ब्रह्मचर्य अपनाकर अपने गुरु के पास शिक्षा लेता है तो वह 4 महत्त्वपूर्ण बातें सीखता है। कई प्रकार की विद्याओं का अभ्यास करना, वीर्य की रक्षा करके शक्ति को संचय करना, सादगी के साथ जीवन बिताने का अभ्यास करना, रोजाना सन्ध्योपासन, स्वाध्याय तथा प्राणायाम का अभ्यास करना, भारतीय आर्य सभ्यता की इमारत इन्ही 4 खंभों पर आधारित है। ब्रह्मचर्य द्वारा जीवन को सफल बनाने वाली जितने बाती है, सभी प्राप्त होती है।
ब्रह्मचर्य जो कि उम्र का पहला चरण है, जब परिपक्व हो जाए तो मनुष्य को शादी कराके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करके अर्थ, धर्म, काम तथा मोक्ष का सम्पादन विधिवत् करना चाहिए। यहां पर अर्थ, धर्म तथा काम का उपयोग इस प्रकार किया जाए कि आपस में संबद्ध रहें और एक-दूसरे के प्रति विघ्नकारी साबित न हो।
 एक बात तो बिल्कुल आईने की तरह साफ है कि अगर सही तरीके  से ब्रह्मचर्य का पालन न किया जाए, तो गृहस्थ आश्रम अधूरा, क्षुब्ध और असफल ही रहता है। इसी वजह से हर प्रकार की स्थिति में हर आश्रम में पहुंचकर उसके नियमों का पालन विधि से करने से ही कामयाबी मिलती है।
ब्रह्मचर्य जीवन को गृहस्थ आश्रम से जोड़ने का अर्थ यही होता है कि वीर्यरक्षा, सदाचरण, शील, स्वाध्याय अगर ब्रह्मचर्य आश्रम में सही तरह से किया गया है तो गृहस्थआश्रम में दाम्पत्य जीवन अकलुष आनंद तथा श्रेय प्रेय संपादक बन सकता है। गृहस्थआश्रम को धर्मकर्म पूर्वक बिताने पर वानप्रस्थ का साधन शांति से और बिना किसी बाधा के हो सकता है और फिर वानप्रस्थ की साधना सन्यास आश्रम में पहुंचकर मोक्ष प्राप्त करने में मदद करती है। ]

ये प्रकटीकरण उपनिषद में लिखे गए महावाक्य : - 'ईश्वर है- मैं ईश्वर हूं- आप ईश्वर हैं- सब ईश्वर हैं' के ही रूप हैं। अपने देश में आध्यात्मिक गुरुओं ने हजारों वर्ष पहले ही इस तथ्य को समझ लिया था। हमारे बड़े-बड़े संत महात्मा जीते जी सांसारिकता से मुक्ति पाने में सक्षम रहे हैं। वस्तुत: मोक्ष कुछ और नहीं, बल्कि चेतना और अवलोकन में बदलाव है। एक आध्यात्मिक गुरु के अनुसार जिसने यह जान लिया कि वह कौन है, मोक्ष प्राप्त कर सकता है। अत: मोक्ष जीवन का अंत नहीं है, बल्कि नए जीवन की शुरुआत है। पूर्णता के साथ जीने का अहसास है। कुछ लोग पुराने मित्रों से बातचीत या सिनेमा देख कर या अन्य उपाय से क्षणिक आनंद की अनुभूति करते हैं। लेकिन यह स्थायी नहीं होता। महत्व तो स्थायित्व का है। जो इसे स्थायी तौर पर प्राप्त कर लेते हैं, वे प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सत्यनिष्ठ बने रहते हैं। उनके विचार, कार्य और वाणी में एकरूपता रहती है। वे सिर्फ अंतरात्मा की संतुष्टि के लिए कार्य करते हैं। कभी किसी के प्रति कुविचार नहीं रखते। दूसरों की प्रसन्नता के लिए कार्य करते हैं। इसमें उनका कोई स्वार्थ नहीं होता। बल्कि उन्हें इससे आंतरिक प्रसन्नता मिलती है।][काम ही स्त्री और पुरुष में परस्पर आकर्षण और सम्मोहन उत्पन्न करता है-यदि काम न हो तो जीवन की उत्पत्ति न हो।यदि विधाता ने काम शक्ति का सृजन नहीं किया होता तो धरती वीरान पड़ी होती। मनुष्य तो क्या कीट-पतंगे भी दृष्टिगोचर न होते। सर्वाधिक महत्वपूर्ण और शक्तिशाली प्रवृत्ति काम है,एक ऐसा प्रबल प्रवाह जिसमें बड़े बड़े संयमी, आदर्शवादी, बड़े बड़े योगी और तपस्वी क्षण मात्र में तिनके के समान बह जाते हैं। काम की शक्ति अपरिमित है। वह भोग-विलास का साधन मात्र ही नहीं, अध्यात्म की ऊँचाईयों को स्पर्श करने का एक सशक्त माध्यम भी है। काम की तुलना एक अनियंत्रित, अत्यन्त वेगवति पहाड़ी नदी से की जा सकती है। पहाड़ी नदी में जब बाढ़ का प्रकोप होता है तो वह किनारे तोड़कर गाँवों तथा खड़ी फ़सलों को नष्ट कर भयानक तबाही मचा देती है, कईयों की जानें भी चली जाती हैं। पर यदि पहाड़ी नदी के प्रवाह को बड़ी छोटी नहरों की ओर मोड़ दिया जाए तो बंजर भूमि भी लहलहाने लगती है और जन जीवन में खुशियों की बहार छा जाती है।
इसे ही मनोविज्ञान की भाषा में काम प्रवृत्ति का मार्गान्तरीकरण कहा जाता है। कामशक्ति को इससे भी अधिक परिष्कृत किया जा सकता है। इसी प्रकार कामशक्ति का जब कल्याणकारी उपयोग किया जाता है तब उच्चकोटि की ललित कलाओं का विकास होता है। नृत्य, संगीत, चित्रकला, साहित्य रचना में कामशक्ति की ही मनोहारी छटा परिलक्षित होती है। इसे ही कामशक्ति का उद्दातीकरण (sublimation) कहा जाता है। जीवन में काम की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण होने पर भी उसका सीमा से अधिक सेवन अवांछनीय भी है और घातक भी। इसी लिए धर्म, अर्थ और काम को समान महत्व दिया है, तीनों के तालमेल एवं संतुलन से ही जीवन में उल्लास एवं सुख-शांति का संचार हो सकता है। इसी तरह धर्म, अर्थ और काम में परस्पर संतुलन बने रहना मानसिक स्वास्थय एवं सुखी जीवन के लिए परमावश्यक है। इन तीनों में संतुलन बनाए रखने के लिए ही वैदिक ऋषियों ने गृहस्थाश्रम का महत्व प्रतिपादित किया है। इन तीनों में सुसामन्जस्य या तालमेल बनाये रखना ही मानसिक और शारीरिक स्वास्थय का मूल रहस्य है।]
[द्रोण इस बात को और भी खोल देते हैं। द्रोण कहते हैं-

''ब्रवीम्येतत्क्लीबवत्तवां युद्धादन्यत् किमिच्छसि।
 योत्स्येऽहं कौरवस्यार्थे तवाशास्योजयो मया'' (57)।
इसका भावार्थ यह हैं कि ''यही कारण हैं कि आज मैं तुम्हारे सामने दब्बू की तरह बातें करता हूँ। लड़ुँगा तो दुर्योधन के ही पक्ष में मगर विजय तुम्हारी ही चाहूँगा।'' उन्होने साफ मान लिया कि युधिष्ठिर के सामने धन के ही लिए दबना पड़ा। उसके बाद युधिष्ठिर सदल वापस आ गये और कुछ अन्य राजनीतिक चालों के बाद महाभारत की भिड़न्त शुरू हुई जिसका वर्णन 44वें अध्‍याय से शुरू हुआ हैं। ]
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्‌। 
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्‌॥

भावार्थ :  वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहा करते हैं कि जगत्‌ आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के, अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न है, अतएव केवल काम ही इसका कारण है। इसके सिवा और क्या है?॥
 [काम यद्यपि सर्वाधिक शक्तिशाली प्रवृत्ति है, फिर भी धर्म और अर्थ के महत्व को न तो नज़रअंदाज़ किया जा सकता है और ही नकारा जा सकता है। जीवन के अस्तित्व, विकास एवं समृद्धि के लिए केवल भौतिक वरन् आध्यात्मिक प्रगति के लिए यह त्रिवेणी आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। हमारे प्राचीन मनीषियों और महार्षियों ने धर्म, अर्थ और काम को समान महत्व दिया है। इसी त्रिवर्ग पर जीवन का सन्तुलन बना रहता है अन्यथा किसी एक ही पक्ष को अधिक महत्व देने से सन्तुलन डगमगा जाएगा- आनन्द का पुष्प मुरझा जाएगा।]

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गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

'कमी को दूर करने का उपाय' ( को अर्थवान् को दरिद्रा?) [$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [49] (7 व्यवहारिक जीवन में आध्यात्मिकता),

 कमी (inadequacy) दूर कैसे होगी ? 
(नये संस्करण में नहीं है? )
विवेकानन्द कहते हैं, " मैं कोई तत्वज्ञानी व्यक्ति नहीं हूँ, कोई दार्शनिक नहीं हूँ, यहाँ तक कि मैं संन्यासी भी नहीं हूँ। मैं एक गरीब आदमी हूँ, और गरीबों से प्यार करता हूँ। " उनके इसी प्रकार के कई संदेशों के द्वारा मानो उनके हृदय को भी पढ़ा जा सकता है। यहाँ गरीब कहकर, वे हमें क्या समझाना चाह रहे हैं?
गरीबी, आभाव या रिक्तता (emptiness) क्या है ? केवल धन, भोजन-वस्त्र, या आवास की कमी को ही आभाव - समझ लेना ठीक नहीं होगा। और एक आभाव होता है- कोई अ-भाव, उसको भी समझना होगा। चाणक्य नीति में कहा गया है- 
 स: हि भवति दरिद्रो,
यस्य तृष्णा विशाला ।
मनसि च परितुष्टे ,
को अर्थवान् को दरिद्रा ।।
- ऐसी अवस्था जिन मनुष्यों की हो, जिसकी तृष्णा (राजा ययाति जैसी) बहुत अधिक हो, वे भी तो दरिद्र ही होते हैं ! इस प्रकार के दरिद्र लोगों के अभाव को मिटाने का क्या उपाय है ? कोई व्यक्ति मृग-छाला पहन करके स्न्तुष्ट हो जाता है, किसी को रेशमी कपड़े से संतुष्टि होती है। वास्तविक दरिद्र वह होता है जिसकी आकांक्षा अर्थात कामना-वासना बहुत अधिक होती है। वासनात्मक इच्छा प्रबल होने से, उसकी अप्राप्ति-जनित दुःख और अभाव-बोध उस व्यक्ति को व्यथित करता रहता है। किसी को मृग-छाला में और किसी को रेशमी कपड़े में जो सन्तोष प्राप्त होता है, दोनों अवस्थाओं में मिलने वाला सन्तोष किन्तु एक समान ही होता है। जो व्यक्ति कुछ और मिल जाने की चाह में व्यथित न होकर, जितना मिल गया हो, उतने में ही सन्तुष्ट रहता है, वही वास्तव में धनी है।
किन्तु इसके विपरीत सबकुछ होने के बाद भी जो सदैव रिक्तता के बोध से पीड़ित रहने वाले जितने क्षद्म -दरिद्र मनुष्य हैं, स्वामी विवेकानन्द वैसे अभावग्रस्त लोगों के प्रति भी हृदय से सहानुभूति और प्रेम करते थे।क्यों ? इसका कारण यह है कि उस प्रकार के मिथ्या-आभाव से जितने मनुष्य ग्रस्त होते हैं, वे जीवन भर दौड़-धूप करते रहने के बाद भी,इस महा 'मूल्यवान मनुष्य-जीवन' का जो वास्तविक सम्पद है, उस चरम लक्ष्य या सम्पदा को खोजने की फुर्सत उन्हें आजीवन नहीं मिल पाती है। और टमटम में जूते हुए घोड़े जैसा जीवनभर झूठी मृगतृष्णा के पीछे दौड़ते दौड़ते थक-हार कर, अन्ततोगत्वा लम्बी लम्बी साँसे भरना ही उनके जीवन का एकमात्र सहारा बन जाता है।
वे मनुष्य शरीर प्राप्त करके जिस दैवी-सम्पद का अधिकारी बन सकते थे, उसके अभाव में केवल दूसरों को वंचित करके, पाशविक शक्ति के द्वारा आसुरी-सम्पद को अर्जित करने में ही अपने जीवन को नष्ट कर लेते हैं। स्वामीजी ने अपने जीवन के द्वारा मनुष्य के सच्चे स्वरूप को प्रस्फुटित करने की जिस साधन-पद्धति का दिग्दर्शन  किया है, सही रूप से उसी का अनुसरण करने पर हमलोगों के समस्त आभाव दूर हो सकते हैं। स्वामीजी के आन्तरिक प्रेम और स्वीकारोक्ति का तात्पर्य इसी बात में है।
वास्तव में हमलोग जितने भी प्रकार के अभाव या कमियाँ देख रहे हैं, उन सब में केवल आसुरी-सम्पद को संग्रहित करने की प्रवणता ही प्रकट होती है। अनैतिक तरीके से, दूसरों को कष्ट देकर, वंचित करके मनुष्य धन कमा रहा है, और किसी भी कीमत पर केवल अपनी कमाई ही बढ़ाना चाहता है। कहता है, ' आज तो मैं लखपति हूँ, इतना ही धन मेरे पास है; और अधिक धन मेरे पास हो जायेगा, और कल मैं करोड़ पति बन जाऊँगा !'  जितना धन अभी उसके पास है, उतने से उसको कभी सन्तोष नहीं होता है। 
किन्तु येन-केन-प्रकारेण वह अधिकाधिक भौतिक वस्तुओं के संग्रह और अर्जन में जो वह लगा हुआ है, यह (मूर्खता) उसके मूल स्वभाव (ज्ञानस्वरूप) के विपरीत है। मनुष्य के मूल स्वाभाव में दैवी सम्पद संजात गुणों को अर्जित करने की प्रवणता हमेशा बनी रहती है। अपने जीवन में समत्व-बोध, दया, क्षमा, परोपकार, अनुकम्पा, प्रेम आदि गुणों को अर्जित करने के लिये ही उसका वास्तविक जीवन-संग्राम चल रहा है।
किन्तु यह दैवी-सम्पदा क्षुद्र स्वार्थ के सीमित घेरे का अतिक्रमण करके, दूसरों के लिये आत्मबलिदान करने की चेष्टा द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। मुझे यह समझना होगा कि धन-दौलत तथा अन्य जितने प्रकार के भोग-ऐश्वर्य के संसाधनों को परिश्रम के द्वारा संचय करूँगा, उसका मूल्य वहीँ तक है, जहाँ तक वे मुझे दूसरों के साथ एकात्मबोध की ओर अग्रसर होने में मदत करते हों। और जब सभी मनुष्यों को यही बोध परस्पर को प्रेम करने के लिये अनुप्रेरित करेगी, तब सामान्य जीवन की न्यूनतम माँग को दूसरों के साथ बाँट कर लेने की प्रेरणा और बुद्धि भी मेरे भीतर जाग्रत हो जाएगी। 'आभाव' या कमी के विषय में ऐसी गहरी और व्यापक समझ नहीं रहने के कारण ' मैं और सभी मनुष्य' अपने को अभाव-ग्रस्त मानते रहते हैं, इसीलिये मैं अब इसी बोध के द्वारा दूसरों को अन्य सभी मनुष्यों से प्रेम करने के लिये उद्बुद्ध करूँगा। भौतिक जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं को दूसरों के साथ बाँटकर लेने की प्रेरणा और बुद्धि जाग्रत होगी। गीता में भी इसी भाव के अनुसार आसुरी सम्पद और दैवी सम्पद विभाग के विषय में कहा गया है।
समता सम्बन्धी उपदेश को सुनकर अर्जुन मन की चंचलता के कारण उसमें अपनी अचल स्थिति होना बहुत कठिन समझकर रहे हैं, और पूछते हैं-श्रेष्ठ मनुष्य कौन है, परम योगी किसको कहूँगा ? तब भगवान श्रेष्ठ मनुष्य और परम योगी को परिभाषित करते हुए गीता ६.३२ में कहते हैं-
 आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
 सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत: ।।
 हे अर्जुन जो पुरुष अपने समान सर्वत्र सम देखता है चाहे वह सुख हो या दुख वह परम योगी माना गया है।।
अर्थात जो व्यक्ति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विवेक-बुद्धि का प्रयोग करके सभी मनुष्यों को अपने साथ तुलना करके सबों को अपने समान देखता है, तथा उस विशेष परिस्थिति में जिस व्यक्ति के साथ अपनी तुलना कर रहा हो, उसके सुख या दुःख दोनों को अपना सुख-दुःख समझ पाने में समर्थ होता है, वह योगी श्रेष्ठ है, यह मेरा मत है।
इससे दुर्लभ ज्ञान और भला क्या हो सकता है ? यथार्थ (सच्चे) मनुष्य के जीवन में योग रहता है। वह सम्पूर्ण विश्व के साथ एकात्मता का अनुभव करता है। उस अवस्था में पहुँचने पर योगी केवल विश्व के मनुष्यों के ही नहीं, सभी प्राणियों के सुख-दुःखों का अनुभव अपने हृदय में करते है, और सब के सुख-दुःखों के साथ अपने को अविच्छिन्न भाव से मिलाये रखते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवन में परम् योगी के इस आदर्श को रूपायित कर लिया था। इसीलिये महात्मा वे हैं, जिनका हृदय गरीबों के लिये रक्त के आँसू रोता है। वे महात्मा हैं, जो गरीब और अन्य सभी अभावग्रस्त लोगों के लिये सहानुभूति संपन्न होकर उनकी जो सबसे बड़ी कमी है उसकी अपना ही चरम अभाव समझकर, उनके दुःख को अपना दुःख जैसा अनुभव करते हैं! [महात्मा गाँधी का प्रिय भजन था -वैष्णवजन तो तेने कहिये जो पीर परायी जाने रे ! दूसरों का सबसे बड़ा दुःख है, सिंह होकर भी अपने को भेड़ समझते रहना।] स्वामीजी उसी सबसे बड़े दुःख की बात कहते हैं - अविनाशी आत्मा होकर भी स्वयं विनाशी शरीर और मन समझते रहने के दुःख की बात कहते हैं - जिसका हृदय जितना उच्च या जितना विशाल होगा, उसका दुःख उतना ही अधिक होगा।  " यतो उच्च तोमार हृदय, ततो दुःख जानियो निश्चय " -अर्थात तुम्हारा हृदय जितना विशाल होगा, लोगों के दुःख से तुम्हें उतना ही दुःख भोगना पड़ेगा। अभी हमलोग शायद लाखो-करोड़ो साधारण जनता के दुःख का अनुभव नहीं कर पा रहे हों, किन्तु जिस महात्मा विवेकानन्द ने यह बात कही थी,उनका हृदय सचमुच गरीबों के लिये रुदन करता होगा-इस बात को हमें अवश्य समझना चाहिये।
 उन्होंने व्याकुल कण्ठ से कहा है, " देवताओं तथा ऋषि-मुनियों की संतानें (ईश्वर होकर भी )पशु के समतुल्य बन गये हैं, तथा ये युगों युगों से आधा पेट खा कर जीवित हैं। यह देख कर क्या तुम बेचैन हो जाते हो ? उनकी चिंता में क्या तुम्हारे रातों की नीन्द चली गयी है? उनके दुःख दूर केने की व्यग्रता क्या तुम्हारे नस-नाड़ियों में रक्त बन कर बह रही है? यह क्या तुम्हारे धमनियों में प्रवाहित होकर तुम्हारे हृदय के स्पंदन के साथ एक हो गये हैं ? उनकी अवस्था देख कर क्या तुम्हारी हालत पागलों जैसी हो गयी है ?"

यथार्थ सम्पद के अधिकारी मनुष्य प्रेममय, आनन्दमय होते हैं। वे जगत के महा दुःख, महामृत्यु, महाश्मशान के परम-वेदना के भीतर भी जीवन के रहस्य का आविष्कार करके धन्य हो जाते हैं। तथा  नचिकेता के जैसा श्रद्धावान, आत्म-साक्षात्कार की अनुभूति को प्राप्त कर ,वे सामान्य मूर्खतापूर्ण भोग-सुख और क्षणभंगुर संकीर्ण  जीवन-दृष्टि से बहुत उपर उठकर शाश्वत-जीवन के मृत्युंजयी चेतना के अधिकारी  बन कर महा-सम्पदशाली (अरब-खरबपति) बन जाते हैं। इसीलिये उसके व्यक्तिगत जीवन की जो अस्थिरता, जो आकूति होती है, वह है- उनके साथ जो आत्मिक योग में प्रतिष्ठित जितने भी अन्य कार्यकर्ता होते हैं, उनको भी समानरूप से, समचेतना में उन्नत करने की व्याकुलता है। जो मनुष्य  अभी सत्य से कोसों दूर हैं, सच्चा आनन्द कहाँ है- उसे ढूँढ़ नहीं पा रहे हैं, भयंकर रिक्तता या अभावबोध से निरन्तर विफलता के चोर-बालू (quicksand बलुआ दलदल,3W में फंसकर) पथभ्रष्ट हो रहे हैं।  उनके लिये सही दिशा-निर्देश करने का आन्तरिक आवेग के कारण , जितने प्रयत्न और उससे उत्पन सहस्त्रों कष्टों को सहर्ष स्वीकार करना हो, वे समस्त कष्टस्वीकर उनके लिये आनन्द की वस्तु बन जाती है।
विश्व में समस्त मनुष्यों के बीच जो योग है, शायद उसको अभी हम साधारण दृष्टि से समझ नहीं पा रहे हैं, किन्तु उसको पूरी तरह से नकार भी नहीं सकते हैं। क्योंकि हम अपने अन्तरमन में उस अनुभूति का स्पर्श पाते रहते हैं। इस अनुभूति को और अधिक बढ़ा लेने की साधना ही, हमलोगों को जीवन के समस्त आभाव-बोध से उपर उठा सकता है। परस्पर प्रेम करने से यथार्थ मानव-धर्म की उन्नति होती है। इसी धर्म के पालन एवं प्रकाश के भीतर ही सच्चे मनुष्य के रूप में जीना कहते हैं। 
इसी बात को महाभारत में दुसरे रूप में कहा गया है- " धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः " धर्म एक ऐसी वस्तु है कि इसकी रक्षा करने से, वह भी मेरी रक्षा करता है, और उसका हनन करने से मैं भी विनाश को प्राप्त हो जाता हूँ। " जब यह बोध किसी के जीवन में प्रतिष्ठित हो जाता है, तो उसीको आध्यात्मिकता कहते हैं। मैं सर्वभूतों के साथ एक और अभिन्न हूँ। मैं बचा रह सकता हूँ, जीवित रह सकता हूँ, बड़ा बन सकता हूँ, समस्त अभावों को पूर्णतया समाप्त कर सकता हूँ, यदि मैं सबों के भीतर जीवित रहूँ। यदि ऐसा नहीं हो सका तो, मेरे मनुष्य-देह धारण करने का कोई अर्थ ही नहीं है।
[ दूसरे के पैर में काँटा गड़ गया हो, तो योगी अपने अन्तर में उसका क्लेश अनुभव करते हैं। जीवन के व्यवहारिक क्षेत्रों में ' अहं ब्रह्मास्मि ' -की ऐसी अनुभूति ही योगी को विश्व-प्रेमिक बना देती है। उस अवस्था में योगी त्रिभुवन के लिये मंगलरूप होकर विचरण करते हैं। यह प्रेम दिखावटी विश्व-बन्धुत्व मूलक नहीं है, बल्कि यह विश्व के साथ एकात्मता बोध जनित प्रेम; ' आत्मज्ञान से विश्व-सेवा' या ' शिव-ज्ञान से जिव सेवा।' अर्थात आत्मानन्द का सम्भोग।  सर्वं खल्विदं ब्रह्म -अर्थात ये सभी निश्चय ही ब्रह्म हैं। यह महावाक्य श्रीरामकृष्ण के जीवन में विभिन्न रूपों में प्रकट हुआ था। देवघर में अकाल-पीड़ित सैंकड़ो नर-नारियों के कंकाल समान चेहरे और प्रायः नंगे शरीर को देखकर वे रो पड़े थे। ....लाचार होकर मथुर बाबु ने उन सभी को भरपेट खिलाया, सिर के लिये तेल दिया, एक-एक नया वस्त्र भी दिया। यही विश्व को आत्मवत देखना है। कालीबाड़ी के गंगा-किनारे दो माझी झगड़ा कर रहे थे, दुर्बल माझी की पीठ के चोट चिन्ह श्रीठाकुर की पीठ पर देखकर हृदयराम आश्चर्य चकित हुए। एक दिन पूजा के लिये दूब और बेलपत्र चुनने गये थे। दूब चुनते समय उन्हें अनुभव होने लगा, सर्वत्र चैतन्य हैं, दुर्बाद्ल छिन्न होकर कष्ट का अनुभव कर रहे हैं ....]

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

आदर्श कार्यकर्ता कौन ?(7 व्यवहारिक जीवन में आध्यात्मिकता), (ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य) [$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [48]

'जिसका मन (mind-stuff) वज्र के उपादानों से निर्मित हो !'
यदि हमलोग सचमुच अपने देशवासियों का कल्याण करना चाहते हों, तो हमें हृद्यवत्ता, सहानुभूति आदि गुणों को अर्जित करना ही पड़ेगा। दूसरों के प्रति सहानुभूति, मेरे हृदय को इस प्रकार स्पर्श करेगी, कि मैं स्वयं को भी भूल जाऊंगा। स्वयं को भूल जाने का अर्थ है- अपने अपने घर-परिवार, स्त्री-पुत्र, स्वयं के शरीर, नाम, यश, इत्यादि क्षुद्र स्वार्थ या भोग-सुख की चाह की भावना को को तुच्छ और जीवन उपांग समझकर, अपने सम्पूर्ण जीवन का गठन इस प्रकार करूँगा ताकि उसे दूसरों की सेवा में उत्सर्ग करने योग्य बना सकूँ।
स्वामी विवेकानन्द ने इतना अवश्य कहा है कि ' जो व्यक्ति शुरुआत में ही वैसी सहानुभूति जाग्रत नहीं कर सकते हों, वे नाम-यश कमाने के लिए भी सद्कर्म करना प्रारम्भ तो करें, बाद में धीरे धीरे उनके भीतर भी कर्म के प्रति सही दृष्टिकोण स्वतः जाग्रत हो जायगा।'जिस व्यक्ति का हृदय दूसरे मनुष्यों के लिये द्रवित होता हो, जो व्यक्ति अपने भीतर मनुष्यों के दुःख-कष्ट को दूर करने के लिये एक तकाज़ा का अनुभव करता रहता हो, वह यदि उनके दुःख-कष्ट को दूर करने के मार्ग को भी आविष्कृत कर सके, और उसके लिये यदि एक दृढ़ संकल्प भी हो, तब वह अपने द्वारा आविष्कृत पद्धति का प्रयोग करके, अपने संकल्प को रूपायित करने का प्रयत्न करगा, और तभी उसके लिये सच्चे अर्थों में मनुष्यों का कल्याण करना संभव होगा। इस प्रकार क्रमशः समस्त प्रकार की बाधाओं का अतिक्रमण करके, उससे उपर उठकर, असम्भव को भी संभव किया जा सकता है।
युवाओं का आह्वान करते हुए स्वामीजी कहते हैं, " हे साहसी, वीर, दृढ़ युवक-गण कार्य करते रहो। नाम, यश या व्यर्थ के चीजों के लिये वापस मुड़ कर मत देखो। ' मैं मैं ' -के विचार को एकदम दूर फेंक दो, तथा कार्य करते रहो। मुझे अनन्त साहस, अनन्त धैर्य, अनन्त शान्ति अनन्त उत्साह से भरपूर युवा चाहिये। तभी बड़े बड़े कार्य पुरे हो सकेंगे। "
ऐसे युवाओं (कर्मियों) का 'मन' किस उपादान (Mind stuff) से निर्मित होगा ? स्वामीजी कहते हैं, इन युवकों का मन बज्र के उपादानों से गठित रहेगा। क्योंकि कार्यकर्ताओं का मन यदि बहुत कोमल और नरम होगा, तो जो भी वस्तु सामने आयेगी उन सभी वस्तुओं की छाप उस मन के ऊपर पड़ती रहेगी।और कठोर मन से  तात्पर्य है- अविचल, स्थिर मन- अर्थात उस मन को उद्विग्न बना देना, विकृत बना देना कभी संभव नहीं होगा। तथा उस मन में आत्मविश्वास, संकल्प, निश्चय -आदि भाव बिल्कुल ध्रुव की भाँति अटल रहेंगे। बज्र का नाम सुनते ही महर्षि दधिची की कथा याद हो आती हैं। सच्चे कार्यकर्ताओं का मन भी दधिची की जैसा होगा। अर्थात उस मन में अपने स्वार्थ की चिंता नहीं होगी, उस मन में केवल दूसरों के कल्याण की चिन्ता होती है, वह मन अपने कच्चे मैं  के प्रति कठोर होगा, और  कच्चे मैं की कामना-वासना को जड़ से उखाड़ फेंकने में समर्थ होगा, स्वामीजी वैसा ही मन अपने कार्यकर्ताओं में भी देखना चाहते थे।
सच्चे कार्यकर्ताओं का मन दूसरों के प्रति कठोर नहीं होगा, बल्कि अपने दोषों के प्रति कठोर होगा। दूसरों के प्रति कोमल होगा, दूसरों के प्रति सहानुभूति सम्पन्न होगा।  किन्तु मन की मर्जी के अनुसार जो छोटे छोटे अनित्य, क्षणभंगुर सुखों को भोगने की चाह उठती है, उन विचारों को उठते ही नष्ट कर देने के लिये मन को कठोर बना लेना होगा। इसीलिये जो मन किसी भी प्रलोभन (Temptation ) या भय के सामने पड़ कर भी अपने सत-संकल्प से विच्युत नहीं होगा, जिस मन में निरंतर विवेक-प्रयोग करने का सामर्थ्य होगा, उसे तो  बज्र के जैसा कठोर होना ही चाहिये।
उसके बाद स्वामीजी के भीतर जैसा ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य था, उसके महत्व की अनुभूति करनी भी आवश्यक होगी। वेदों में कहा गया है, जहाँ क्षात्र-वीर्य और ब्रह्म-तेज एक एक साथ रहते हैं, वहाँ देवता लोग अग्नि के सहित निवास करते हैं। ब्रह्मतेज का अर्थ है -वह तेज जो ब्रह्मदृष्टि से उत्पन्न होती है। अर्थात सभी एक (ईश्वर) है, इस साम्य दृष्टि से जो तेज या शक्ति उत्पन्न होती है, उसे ब्रह्मतेज कहते हैं। जिस किसी व्यक्ति को समदर्शन की उपलब्धि हो जाती है, जो मनुष्य समदर्शी (even-minded) बन जाता है, उसका भय सम्पूर्ण रूप से समाप्त हो जाता है। 
बृहदारण्यक उप०  १. ४. २ में कहा गया है- " द्वितीयाद वै भयं भवति " भय का जन्म भिन्नता के बोध से होता है, दो व्यक्ति यदि अपने को अलग अलग नहीं मानें तो भय की उत्पत्ति भी नहीं होगी। जिसमें समदृष्टि होती है, अर्थात अभिन्न दृष्टि होती है, उसके लिये दो के (मैं और तुम या वे अलग अलग हैं) ऐसा कोई भेद-भाव नहीं होता है, इसीलिये उसको किसी का भय भी नहीं होता है।  और जो किसी भी चीज भयभीत नहीं होगा, उसका तेज भी अवश्य अधिक होगा।
इसीलिये जो लोग सच्चे हृदय से देश के कल्याण का कार्य करना चाहते हैं, उनको समदर्शी भी अवश्य होना होगा। तभी वे लोग ब्रह्मतेज के स्पर्श का अनुभव कर सकेंगे। इसके साथ साथ कार्य करने के लिये जिस
रजोगुण की भी आवश्यकता होती है, उसी को क्षात्रवीर्य कहा जाता है। इस विषय के महत्व पर गीता के अन्तिम श्लोक (१८. ७८) में कहा गया है-
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
-हे राजन् ! जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है । 
जिस व्यक्ति के मन में सबों के प्रति एकत्व का बोध रहता है, समदृष्टि रहती है, उसी को योगी कहते हैं। श्रीकृष्ण योग के मूर्त रूप हैं। जो कर्म (अपने-पराये का भेद छोड़ कर ) समग्र-कल्याण की दृष्टि से किया जाता है, उसी को योग की अवस्था में समदृष्टि के साथ कर्म करना कहते हैं।
'ईशावास्योपनिषद' के प्रथम मन्त्र में ही जीवन और जगत को ईश्वर का आवास कहा गया है। 'यह किसका धन है?' प्रश्न द्वारा ऋषि ने मनुष्य को सभी सम्पदाओं के अहंकार का त्याग करने का सूत्र दिया है।यहाँ जो कुछ है, परमात्मा का है, यहाँ जो कुछ भी है-सब ईश्वर का है। हमारा यहाँ कुछ नहीं है-
 ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत। 
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम॥1॥
जो मनुष्य इस प्रकार त्याग की भावना के साथ कर्म करता है, वह कर्म कभी बन्धन का कारण नहीं होता; अर्थात इस दृष्टि के साथ को कर्म करता है, उसके उपर कर्म-फल का कोई प्रभाव नहीं होता। इसी प्रसंग में श्रीरामकृष्ण ने कहा था-" कर्म के विष-दन्त को तोड़ देना चाहिये।" यदि दूसरे के प्रति प्रेम के कारण, उसके कल्याण के लिये कुछ करने की प्रेरणा आये, अर्थात रजो मिश्रित सतोगुण के साथ कर्म किया जाये, तभी सबसे उत्कृष्ट कर्म होता है। 
इस प्रकार के कार्य के लिये उपयुक्त युवाओं की आवश्यकता है। वर्तमान युग में श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवन का उत्सर्ग करके, इस निष्काम कर्म की विचार-धारा को पुनर्प्रतिष्ठित किया है। उन्होंने अपने जीवन के द्वारा यह दिखला दिया है कि, त्याग पूर्वक कर्म करने या कर्म-त्याग का अर्थ आलसी व्यक्ति बन कर बैठे रहना बिल्कुल नहीं है। इसका तात्पर्य है-कर्म के फल को त्याग देना, अर्थात ' मैं जो कार्य कर रहा हूँ, उसका फल मुझे प्राप्त हो-इस आकांक्षा का त्याग। इस प्रकार कर्म करने से जीवन आनन्द से भर जाता है। 
जिन मनुष्यों के वचन और कर्मों में, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हमेशा आनन्द की धारा बहती रहती हो, वे क्या कभी " ठूँठा जगन्नाथ " बनकर बैठे रह सकते हैं ? नहीं, वे तो ' तीनों भुवन ' को अनुग्रह की श्रेणी देकर तृप्त करते रहते हैं। वे ही आदर्श कार्यकर्ता हैं- वास्तव में उनको तो नैष्कर्म-सिद्धि प्राप्त हो चुकी है। वास्तव में वे कोई कर्म नहीं करते, जबकि बाहरी दृष्टि से देखने पर, वे बहुत बड़े कार्यकर्ता दीखते हैं। वे कर्म में अ-कर्म और अ-कर्म में कर्म देखते हैं। इसलिये कर्म के फल का उनके उपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, (लौकिक और  अध्यात्मिक कर्म  का भेद उनकी दृष्टि में समाप्त हो जाता है) इसीलिये कर्म का फल उनको रत्ती भर भी विचलित नहीं कर पाता। 
जो युवा अपने को देश के कल्याण में उत्सर्ग कर देना चाहते हैं, उन्हें आदर्श कार्यकर्ता बन जाने के संकल्प को सफल करने के लिये- हृद्यवत्ता, सहानुभूति, 'कठोर-कोमल' मन, समदर्शिता, कर्मशीलता आदि गुणों को अर्जित करना होगा। युवाओं के इसे स्पष्ट रूप से समझ लेने की चेष्टा करनी चाहिये।
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मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

'प्रत्येक कार्य महान है ' (योगः कर्मसु कौशलम्) [$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [47] (7 व्यवहारिक जीवन में आध्यात्मिकता),

कोई भी कर्म छोटा नहीं है !
जो व्यक्ति जैसा कर्म अधिक पसन्द करता हो, उसे वही कार्य सौंप दिया जाय तो, वह उस कार्य को बहुत आसानी से और बहुत आनन्द पूर्वक पूरा कर सकता है। हो सकता है, उस कार्य में मानव-शक्ति का सर्वोत्तम व्यवहार भी देखने को मिले। किन्तु जिस व्यक्ति को इस प्रकार उसके मन-मुताबिक कार्य सौंपा जायेगा, वह सही रूप से अपने जीवन को गठित नहीं कर पायेगा। इसीलिये हमलोगों का उद्देश्य रहना चाहिये -कर्म की रूचि जिस दिशा में हो, उसमें परिवर्तन करना, - ताकि मौका पड़ने से कोई भी कार्य नीरस या मुश्किल नहीं प्रतीत हो। हमलोगों को किसी बुद्धिमान मनुष्य जैसा समस्त कर्मों को ही,अपने पसन्द के कार्य में रूपान्तरित कर लेने का कौशल सीखना होगा।
जिस कार्य को हमें करना पड़ रहा है, उसके साथ हमें अपने कर्म करने के उद्देश्य के योग को भी आविष्कृत करना होगा। गीता २. ५० में कहा गया है -
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
 तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।। 
 - अर्थात समत्वबुद्धि-युक्त पुरुष यहां (इस जीवन में) पुण्य और पाप इन दोनों कर्मों (में कर्तापन के अभिमान) को त्याग देता है। इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ। र्म में कौशल को योग कहते हैं।कर्मों में कुशलता योग है।।
 कर्म में कौशल का तात्पर्य क्या है ? यही कि सामने आ गये कर्म को मैं किस दृष्टि से देखूँगा ? यदि सामने आ गये कर्म को बोझ, भार या सजा समझ लें, तो कर्म में कौशल नहीं होगा। यदि उसी कर्म को मनचाहा या दिलपसन्द मान कर किया जाये तो वही कर्म आनन्द बन जायेगा। उस प्रकार कर्म करने से कोई भी कार्य नीरस या बोझिल नहीं प्रतीत होगा। इस बात को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। 
मैं एक अच्छा चरित्रवान मनुष्य बनना चाहता हूँ। इस उद्देश्य को सिद्ध करने के लिये मुझे कई कार्य करने पड़ सकते हैं। और हो सकता है, शुरू शुरू में वे सभी कार्य (विवेक-प्रयोग, मनःसंयोग, व्यायाम।..आदि), मुझे रुचिकर न लगें। किन्तु यदि हम ऐसा सोचें कि उन्हीं कार्यों को करने से मेरा और साथ-साथ अन्य चार मनुष्यों का भी मंगल हो जायेगा, तो उन कार्यों के प्रति हमारी दृष्टि बदल जाएगी। धीरे धीरे उन कार्यों में मेरी निष्ठा हो जाएगी, और उन्हें करने में आनन्द मिलने लगेगा। 
छात्रों को पढ़ाने का कार्य हो, या खेत में कुदाल चलाना हो, या किसी ऑफिस-अदालत का कोई कार्य क्यों न हो, उसे सही तरीके से करने पर आत्मोन्नति अवश्य होगी- यह तो हम कार्य के फल को देखकर ही समझ लेंगे! 'कार्य को अच्छे ढंग से पूरा करने पर उसका फल लोगों के कल्याण में लगेगा'- इसी मनोभाव से कर्म करने से उसका लाभ हमलोग पायेंगे। 'कार्य का सीधा फल दूसरे लोगों को मिलेगा' --इसी उद्देश्य को सामने रखकर कार्य करने से, हमलोगों को उस कार्य के बदले एक दूसरा फल अवश्य प्राप्त होगा। और वह अद्भुत फल है- आनन्द, तृप्ति, आत्मोन्नति। यह जान कर कार्य करने से कि हमारे द्वारा किये गये कार्य का फल अन्य मनुष्यों को मिलेगा, तो हमारा कर्म त्याग बन जायेगा। ऐसा होने से ही हमलोग कुछ उच्चतर वस्तु प्राप्त करेंगे-वह है तृप्ति या आनन्द।
जो व्यक्ति कर्म में कौशल का प्रयोग कर सकता है, अर्थात जो व्यक्ति लौकिक कर्म भी आध्यात्मिक दृष्टि से  कर सकता हो, (१६ जनवरी सरस्वतीपूजा) सचमुच में वही बुद्धिमान है- क्योंकि उसके कार्यों के द्वारा बंधन की उत्पत्ति नहीं होती। इसीलिए, कर्म के फल को स्वयं अपने को अर्पित न करके दूसरे मनुष्यों के सुख के लिये करना पड़ेगा। ऐसा होने से ही वह कर्म अध्यात्मिक कर्म बन जायेगा, तथा उस कर्म के द्वारा मेरी आत्मोन्नति होगी।
इसीलिये कोई भी कर्म छोटा नहीं हो सकता है। हो सकता है कि बाहर से देखने पर कार्य छोटा प्रतीत हो सके, और उसको पूरा करने में कम समय भी लग सकता है। किन्तु कर्म के पीछे उद्देश्य ठीक रहने से उसीके द्वारा परम-पद की प्राप्ति हो सकती है। बरगद के वृक्ष का बीज बहुत छोटा होता है, किन्तु उसीके भीतर बरगद का विराट वृक्ष सुप्त रहता है। यदि उसको ठीक तरीके से जाग्रत किया जाय, तो कौशल का फल देखा जा सकेगा। इसीलिये बुद्धिमान के लिये समस्त कर्म एक समान महान हैं, और महत्वपूर्ण हैं। 
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सोमवार, 3 दिसंबर 2012

' समस्त कर्म अध्यात्मिक ही हैं' (मानव की सेवा ही ईश्वर की पूजा है) [$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [46] (7 व्यवहारिक जीवन में आध्यात्मिकता),

 ' कर्म-योग  ज्ञान और भक्ति से भिन्न मार्ग नहीं है'
सामान्यतः कार्य को दो भागों में विभक्त किया जाता है --पवित्र,धार्मिक या आध्यात्मिक (sacred), एवं साधारण लौकिक कार्य (Secular) सांसारिक कार्य। इस प्रकार साधारण लौकिक कार्यों (पढाई-लिखाई, नौकरी,परिवार का पालनपोषण इत्यादि) को करते करते हमलोग में इसकी इतनी गहरी आदत पड़ जाती है कि हमलोग आजीवन मुख्य रूप से साधारण लौकिक कार्यों को ही करते रहते हैं। - बहुत से लोग ऐसा भी सोचते हैं -कि उसके साथ साथ कभी-कभार धर्म की ओर देख लेने में भी कोई हानि नहीं है ! किन्तु यह मनोभाव बिल्कुल ठीक नहीं है। क्योंकि इस ढर्रे से जीवन-यापन करने से, समग्र जीवन की प्राप्ति नहीं होती। जबकि हमारा लक्ष्य समग्र-जीवन को पाना है। क्योंकि वस्तुतः (actually) हमलोगों का जीवन एक ही है, जबकि हम लोग अक्सर कहते रहते हैं कि हमारे जीवन के दो हिस्से हैं- एक लौकिक,सांसारिक जीवन; और दूसरा धार्मिक जीवन; जिसके बारे में बहुत से लोगों कि धारणा है कि, परलोक का मंगल विधान का अनुष्ठान करते रहने से इहलोक में भी थोड़ा लाभ ही मिलता है।
यदि हम अपने का उत्तर जीवन को -लौकिक और अध्यात्मिक दो भागों में न बाँट कर एक और अखण्ड रूप में देखना चाहें, तो हमें क्या करना होगा ? इस प्रश्न का उत्तर गीता में बहुत स्पष्ट रूप से बताया गया है- ' समस्त कर्मों को यज्ञ में परिणत करना होगा।' किन्तु यज्ञ का अर्थ अग्नि-कुण्ड में घी ढालना नहीं है, यज्ञ का वास्तविक अर्थ है- त्याग (Sacrifice)। अग्नि-कुण्ड में घी डालने का कारण यही है कि घी पौष्टिक होने के साथ साथ एक महंगी वस्तु भी है। इसीलिये चार्वाक ने भी कहा था- ' ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत '- घी जरुर खाना, भले ही उधार में लेकर क्यों न खाना पड़े।  
घी का मूल्य अच्छे-चावल के मूल्य की अपेक्षा, हमेशा लगभग १२ गुना अधिक रहता है। जिस समय कौटिल्य का अर्थशास्त्र लिखा जा रहा था, उस समय एक मन चावल का दाम ५ पण था, और एक मन घी का दाम ६० पण था। आज भी  एक किलो चावल का दाम यदि १० रुपया हो, तो एक किलो घी १५०  रुपये में बिकता है। इसीलिये जीवन में त्याग के भाव को लाने ले उद्देश्य से कहा गया था-यह घी जिसे तुम इतना प्रिय और कीमती समझते हो, इस घी को विभिन्न देवी-देवताओं के नाम से अग्नि में हवन कर दो।
किन्तु समय बीतने के साथ धीरे धीरे क्या हुआ ? केवल आग में घी डालना एक प्रथा बन गया,और  यज्ञ से त्याग का भाव तो समाप्त ही हो गया। घी की आहुति देते समय वास्तव में यह देखना चाहिये कि त्याग का भाव मन में है या नहीं ? त्याग के कानून को समझना ही मुख्य बात है। किसी बड़ी वस्तु को पाने के लिये, छोटी वस्तु को त्याग देना पड़ता है। किन्तु 'त्याग' का नाम सुनते ही, यह एक नकारात्मक (negative) वस्तु प्रतीत होती है- मानो जो पहले मेरा था, उसे छोड़ देने के लिये कहा जा रहा है, या जो मेरा था वह चला गया।
किन्तु स्वामी विवेकानन्द जिस त्याग को जीवन में अपनाने की बात कहते हैं, वह सकारात्मक (Positive) है, इस त्याग द्वारा हमलोग कुछ खोते नहीं हैं, बल्कि प्राप्त करते हैं। क्योंकि कुछ उच्चतर वस्तु को पाने के लिये किसी निम्नतर वस्तु को त्यागना पड़ता है। आमतौर से हमलोग इस भौतिक-जगत की सभी वस्तुओं से चिपके रहते हैं, किन्तु अध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होने के लिये इनमें से कुछ सांसारिक वस्तुओं में आसक्ति को छोड़ना पड़ेगा। महाभारत (आदिपर्व ८० /१७) का एक सुन्दर श्लोक है-
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥
अर्थात् कुल का  कल्याण के लिये यदि एक व्यक्ति का त्याग करना पड़े तो कर देना चाहिए। इसी प्रकार ग्राम के हित को लिये कुल का, जनपद (जिला) के कल्याण के लिये ग्राम का, और आत्म कल्याण के लिए सम्पूर्ण पृथ्वी का त्याग करना चाहिए । ठीक उसी प्रकार एक के लिये अन्य का त्याग का करना पड़ेगा।(उच्च कल्याण को पाने के लिये निम्न को छोड़ना होगा।) जो व्यक्ति आत्मलाभ करना चाहता हो, (जो ' स्व ' को यथार्थ मैं को, जो दृश्य का द्रष्टा या आत्मा को प्राप्त करना चाहता है), उसे भौतिक जगत की सभी वस्तुओं में आसक्ति का त्याग कर देना होगा। इसको ही संन्यास कहा जाता है। अर्थात आत्म-साक्षात्कार करने के लिये सभी जड़ वस्तुओं को (उसके प्रति आसक्ति को ) त्याग देना पड़ता है। किसी भी लौकिक वस्तु को सीने से चिपकाये नहीं रखना होगा। जैसे स्वामीजी दूसरी बार अमेरिका जाने से पहले बेलुड़ मठ के विदाई-भाषण में त्याग के उपर बोलते हुए कहे थे- ' सामान्य मनुष्य या गृहस्थ लोग जीवन को प्यार करते हैं, और संन्यासी लोग मृत्यु को।' किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वे आत्महत्या करने की बात कह रहे थे।
[३० जुलाई १८९७ को स्वामी अखण्डानन्द जी को लिखे पत्र में कहते हैं- " शरीर का नाश तो अवश्यम्भावी है, फिर उसे आलस्य में क्यों नष्ट किया जाय ? 'जंग लगकर मरने से घिस घिस कर मरना कहीं अधिक अच्छा है।' १० वर्ष के अन्दर सम्पूर्ण भारत में छा जाना होगा- ' इससे कम में नशा नहीं होगा।' रूपये-पैसे सब कुछ अपने आप आते रहेंगे, मनुष्य चाहिये, रुपयों की आवश्यकता नहीं है। " ६/३६४ ] उनके कहने का तात्पर्य है कि तुमलोग सबों के कल्याण के लिए, विश्व के प्रत्येक मनुष्य की भलाई के लिये कार्य करते हुए,  तिल-तिल करके घिस-घिस करके मृत्यु की ओर बढ़ते जाना। यही है सच्चा त्याग, यही है सच्चा संन्यास।
इसीलिये अपने सामान्य जीवन में हमलोगों को भी प्रतीयमानतः सुखद वस्तु प्रतीत होती हो, उन्हें धीरे धीरे छोड़ना होगा। विवेक-प्रयोग करके 'प्रेय' (अल्प-सुख)के प्रति अपनी आसक्ति को धीरे धीरे कम करते जाना होगा,  और वृहत्तर वस्तु 'श्रेय ' (भूमा-आनन्द) की तरफ बढ़ते जाना होगा। ( 'नशा शराब में होता तो नाचती बोतल ? ' -आनन्द या ईश्वर हमारे भीतर है बाहर नहीं) इस प्रकार से आगे बढ़ते जाने से क्या होगा ? यही होगा कि ' sacred and secular work ' -अर्थात लौकिक और अध्यात्मिक कर्म के बीच का अन्तर (द्वैत भाव) भी धीरे धीरे कम होता जायेगा। इसको ही उन्नति (progress) कहते हैं।
जो व्यक्ति अपने जीवन को इस प्रकार दो अलग अलग भागों ' sacred and secular ' में बँटा हुआ देखता है, उसका जीवन कभी सम्पूर्ण नहीं हो सकता है। अतः हमलोगों को अपने जीवन से इस द्वैत भाव (लौकिक-आध्यात्मिक) को घटाते-घटाते समस्त कर्मों को ही sacred या अध्यात्मिक बना लेना होगा। इस प्रकार कर्म करने से, हमारे समस्त लौकिक कर्म 'यज्ञ' में अर्थात त्याग में परिणत हो जायेंगे; हमारे सांसारिक-कर्म भी स्वार्थ के लिये न होकर, परार्थ कर्म बन जायेंगे। जो भी कर्म करूँगा, उसे दूसरों के कल्याण के लिये ही करूँगा। मैं शरीर को स्वस्थ और सबल रखने के लिये पौष्टिक आहार लूँगा और नियमित व्यायाम करूँगा, पूरी मिहनत से पढाई-लिखाई करूँगा, पूरी तन्मयता के साथ व्यवसाय करूँगा-  यह सब अपना शक्ति-सामर्थ्य बढ़ाने के लिये करूँगा। किन्तु मैं अपना सामर्थ्य मैं क्यों बढ़ाना चाहूँगा ? इसीलिये कि उस नये अर्जित शक्ति-सामर्थ्य की सहायता से मनुष्यों का कल्याण करूँगा। खा-पी कर, व्यायाम करके स्वस्थ-सबल शरीर और मन को लेकर मनुष्यों की सेवा करूँगा। विद्या (सच्ची शिक्षा) अर्जित कर के, उस विद्या का दान करूँगा, या उसी विद्या द्वारा मनुष्यों का अधिकाधिक कल्याण करूँगा। अर्थ उपार्जन करके,उसी अर्थ के द्वारा मनुष्यों का कल्याण करूँगा। इस प्रकार सार्व-भौमिक कल्याण के लक्ष्य को ध्यान में रखकर सांसारिक कर्म करते रहने से, धीरे धीरे समस्त  कर्म यज्ञ में परिणत हो जायेंगे। क्योंकि परार्थ किये जाने वाले समस्त कर्म, अन्त में त्याग का ही  रूप धारण कर लेंगे; इस प्रकार सभी कर्म मूलतः अध्यात्मिक 'sacred' कर्म बन जायेंगे।
जिस प्रकार व्यक्ति जीवन को गठित करने के कार्य को पूरे मनोयोग से करना होगा, उसी प्रकार पारिवारिक जीवन के और सामाजिक जीवन के समस्त कर्मों को अध्यात्मिक-कार्य में परिणत करने की चेष्टा करना- एक अत्यन्त उत्कृष्ट अध्यात्मिक साधना है। क्योंकि इसमें कोई भी कार्य निजी स्वार्थ के लिये नहीं होगा। हमलोग जो भी कार्य करेंगे, उसे अपने निजी सुख के लिये नहीं करेंगे, अपने भोग और संग्रह के लिये नहीं करेंगे, यहाँ तक कि नाम-यश पाने की इच्छा से भी कुछ नहीं करेंगे। हमारे समस्त कर्मों का लक्ष्य होगा- दूसरों का कल्याण, दूसरों का मंगल।
किसी को शायद भय हो, कि ऐसे करने से तो-मेरा सबकुछ चला जायेगा ! हाँ, जायेगा, किन्तु जो व्यर्थ के कूड़ा-करकट जमा हो गया था, वही सब जायगा । और उसके बदले में प्राप्त होगी- आत्मोन्नति, हृदय की विशालता, जगत के समस्त मनुष्यों के प्रति प्रेम, सहानुभूति, तथा हमेशा ' त्याग और सेवा ' में लगे रहने की प्रवृत्ति जाग्रत हो जाएगी। सबकुछ खोकर(जगत के समस्त पदार्थों पर से अपना ममत्व खो कर ) हमलोग अपने यथार्थ स्वरूप को, अपने स्वराज्य को वापस प्राप्त कर लेंगे ! उसीमें तो यथार्थ सुख और सच्चा आनन्द है।
 यदि कोई व्यक्ति समस्त लौकिक कर्मों को छोड़ कर, केवल आध्यात्मिकता को लेकर रहने की चेष्टा करेगा, तो लौकिक जगत उसके लिये एक अशांति का कारण बन जायेगा, वह जगत के भौतिक सुखों को देख-देख कर दुखी होता रहेगा। किन्तु जो व्यक्ति अपने सभी कर्मों को (लौकिक प्रेम को भी )
आध्यात्मिकता में रूपान्तरित करने में समर्थ हो जाता है, उसके लिये फिर जगत की कोई भी वस्तु या परिस्थिति पीड़ादायक नहीं रहती। केवल इतना ही नहीं, लौकिक जगत को भी उससे बहुत कुछ मिलता है, लौकिक जगत के प्रति उसकी उदासीनता भी सामान्य लोगों के लिये कष्टदायक नहीं होती। इसीलिये तो स्वामी विवेकानन्द समस्त कर्मों को ही अध्यात्मिक कर्म में रूपान्तरित कर लेने का उपदेश दिया है। वे कहते हैं, ' कोई भी कर्म पूर्णतया लौकिक नहीं है ! ' सभी कर्मों की अन्तिम परिणति पूजा और उपासना ही है। इसीलिये उनके हृदय की अध्यात्मिक अनुभूति त्रुटिरहित संगीत-माधुर्य को लेकर इस रूप में अभिव्यक्त हुई है-
बहूरुपे सम्मुखे तोमार, छाड़ि कोथा खुँजीछो ईश्वर ? 
जीवे प्रेम करे जेई जन, सेई जन सेविछे ईश्वर ।  
- अर्थात तुम्हारे सामने ही तो विभिन्न रूपों में ईश्वर खड़े हैं, इन्हें छोड़ कर उन्हें ढूँढने और कहाँ जाते हो ?
जो व्यक्ति समस्त जीवों से प्रेम करता है, उसीने ईश्वर की सेवा की है। 
विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में स्वामीजी के भावों को बहुत सुन्दर रूप से हमलोगों के समक्ष रखते हुए, भगिनी निवेदिता कहती हैं - "इफ द  मेनी एंड द वन बी  इनडीड द सेम रियलिटी,देन  इट इज नॉट ऑल मोड्स ऑफ़ वरशिप अलोन,बट ईक्वली ऑल मोड्स ऑफ वर्क, आल मोड्स ऑफ़ स्ट्रगल, आल मोड्स क्रिएशन, व्हिच आर पाथ्स ऑफ़ रियलाइजेशन। नो डिस्टिंक्शन, हेन्सेफोर्थ, बिटवीन सेक्रेड एंड सेक्युलर। "
- अर्थात " यदि 'एक' और 'अनेक' सचमुच एक ही सत्य हैं, (वेदान्त की दृष्टि से " One has become- many ") तो उपासना के केवल विविध पद्धतियाँ ही नहीं, वरन् सामान्य रुप से किये जाने वाले समस्त कर्म, जीवन में आने वाले सभी प्रकार के संघर्ष(struggle), सृजन (creation) की समस्त विधियाँ भी सत्य-साक्षात्कार के ही मार्ग हैं। अतः अब लौकिक 'secular 'और अध्यात्मिक ' sacred 'कर्म में कोई अन्तर नहीं रह जायेगा, इस समय से कर्म करने का अर्थ ही उपासना करना है। विजयी होना और त्याग कर देना एक समान है। स्वयं जीवन ही धर्म है। ' योग और क्षेम '- अर्थात प्राप्त करना और अपने अधिकार में रखना उतना ही निर्मम कार्य है, जितना की त्याग करना और उदासीन रहना। "      
" स्वामी विवेकानन्द की यही अनुभूति (-बहुरूप में एक को देखने की क्षमता)  उनको उस ' कर्म-योग '  का सर्वतोकृष्ट उपदेष्टा सिद्ध कर देता है, जो ज्ञान और भक्ति-मार्ग से भिन्न मार्ग नहीं है, बल्कि उनकी व्याख्या करता है। उनके लिये मानव की सेवा और ईश्वर की पूजा, पौरुष तथा श्रद्धा (अस्तिति ध्रुवतः कहते रहने में) , सच्चे ' नैतिक बल और आध्यात्मिकता '  में कोई अन्तर नहीं है। "  
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