मेरे बारे में

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

🔱🙏 'समाज, धर्म और विज्ञान' 🔱🙏[SVHS-26 ] [फल और फूल >फल है धर्म-फूल है साधना ] (स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना : खण्ड -5 : धर्म और समाज)

" समाज, धर्म और विज्ञान "

          मैं जब कभी चिन्तन-मनन के लिये बैठता हूँ, तो विश्व ब्रह्माण्ड के केन्द्र में स्वयं को बिठा  लेता हूँ। विचारों में ऐसा डूब जाता हूँ कि सुदूर  निहारिकाओं  से लेकर सामने की हरी घास तक, भूत,भविष्य,वर्तमान कुछ भी नहीं बचता। विचार करते-करते ऐसा प्रतीत होता है मानो सृष्टि रचना के प्रथम दिन से लेकर आज तक का सम्पूर्ण इतिहास मेरी आँखों के सामने साकार रूप लेना चाह रहा हो। इसके बाद इतने से भी तृप्ति नहीं होती, फिर मैं शाश्वत पथ के किनारे पर स्थित  समस्त दर्शनीय वस्तुओं को देख लेना चाहता हूँ।
          किन्तु, सबके बीच जिसे मैं एक क्षण के लिये  भी नहीं भूलता, वह मेरी अपनी सत्ता है जो इन सबसे निकट है, सर्वोच्च सत्य है और मेरा सबसे प्रिय वस्तु वह है, मेरा -'मैं'! वैसे तो हमलोगों का  यह  'मैं'  - इस संसार के करोड़ों  मनुष्यों के बीच नगण्य सा ही है। किन्तु, फिर भी मनुष्य बड़े गर्व से कहता है- 'मेरा' और 'मैं ' !  मनुष्य इसी 'मैं' को लेकर कई प्रकार की कल्पनाओं में खोया रहता है। हमलोगों के  चिन्तन का प्रमुख विषय मनुष्य ही होता है। काल के प्रवाह में अज्ञात  स्रोत के धक्के से, यह विश्वब्रह्माण्ड शून्य में से फेन के सदृश पता नहीं कब और किस प्रकार प्रकट हो गया ? फिर एक दिन असंख्य ब्रह्माण्डों के किसी कोने में एक कण-सदृश्य प्रतीत होने वाली इस पृथ्वी की छाती पर पता नहीं कब  हरी- हरी घास उग आती है; और एक दिन पृथ्वी के रंगमंच पर मनुष्य भी अवतीर्ण हो जाता है। 
>>फल है धर्म-फूल है साधना > फिर मनुष्य जब अपनी अद्भुत चिन्तन-शक्ति की क्षमता से परिचित होता है तो वह जगत की प्रत्येक वस्तु के  मूल्यांकन के साथ ही साथ अपने जीवन का अर्थ भी खोजने में लग जाता है। एक दिन इस चिन्तन वृक्ष की डाली पर एक फूल खिल जाता है। इस फूल को ही 'दर्शन' (philosophy ) कहा जाता है। इस फूल को मन के द्वारा देखा, स्पर्श किया और बुद्धि के द्वारा समझा जा सकता है, किन्तु उसे अपनी सत्ता के साथ मिश्रित नहीं किया जा सकता। हाँ, इस फूल से बाद में जो फल प्राप्त होता है, उसे आत्मसात किया जा सकता है। और उसी  फल को 'धर्म' के नाम से पुकारा जाता है यदि यह बात समझ में आ जाय, तो बहुत आसानी से यह स्वीकार किया जा सकता है कि धर्म केवल सनातन ही हो सकता है! तथा धर्म नामक वस्तु यदि सनातन है, तो समय के प्रवाह में उसके बाहरी आवरण में भले ही कितना परिवर्तन आ जाये, उसके मूल संरचना में कोई परिवर्तन नहीं होता। अतएव यदि यह सृष्टि अनादि,अनन्त है; तथा समस्त दर्शनों का फल यदि धर्म ही होता हो, तो धर्म भी अनादि-अनन्त होने को बाध्य है। और मनुष्य यदि इस अनादि, अनन्त धर्म रूपी फल [Be and Make के मर्म] को आत्मसात नहीं कर सका, तो डार्विन के सिद्धांत~ (प्राकृतिक-चयन :Natural selection) 
"योग्यतम की उत्तरजीविता (Survival of the fittest)  के नियमानुसार वह मनुष्य शरीर धारण करने के  अयोग्य हो जायेगा; तथा पृथ्वी पर से उसके पैरों के निशान भी मिट जायेंगे। इसीलिये कहा गया है-' धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः |' 
      तो क्या इसका यह अर्थ हुआ कि धर्म भी प्रतिहिंसा परायण वस्तु है ? बिल्कुल नहीं।  यदि मैं अपने 'मानव-धर्म ' की रक्षा न करूँ, तो विश्व-ब्रह्माण्ड का धर्म भी मेरी रक्षा नहीं करेगा।  किन्तु, यदि मैं अपने धर्म की रक्षा करूँ तो विश्व-ब्रह्माण्ड का धर्म भी मेरी रक्षा करेगा। अब,   प्रश्न उठेगा-कि मेरा धर्म है क्या ? इसके उत्तर में पहले ही कहा गया है, समग्र दर्शनों के फल को भक्षण करना तथा उसको आत्मसात कर लेना ही धर्म है। यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड जिस छन्द में बंधा है, उस तत्व या छन्द को देख लेना दर्शन है, तथा उस छन्द  का अनुसरण करना धर्म है। अपने व्यक्तिगत जीवन-छन्द को विश्वब्रह्माण्डीय-छन्द के आनुषांगिक बना लेने में सक्षम हो जाने के बाद ही मनुष्य अपने स्वभाव  को जान सकता है, तथा इस 'स्वभाव' में स्थित रहने को ही धर्म कहते हैं। और ऐसा करने में सक्षम होने पर सम्पूर्ण जगत के साथ व्यक्ति का योग हो जाता है। इस योग को प्राप्त हो जाना ही धर्म का लक्ष्य है। तथा इस योग की उपलब्धी हो जाने के बाद- मनुष्य के लिए कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता, तथा योगी पुरुष अन्य किसी लाभ को उसकी अपेक्षा अधिक नहीं समझता। " यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः। " (गीता 6/22) 
       मनुष्य विचार करने और जानने की शक्ति को लेकर ही जन्म ग्रहण करता है। इसीलिये जब वह इस चरम सत्य को अपने  अनुभव से  जान लेता है, तब उसके लिये जानने को और कुछ शेष नहीं रह जाता है। विश्व-ब्रह्माण्ड के धर्म और सामग्रिक छन्द-ताल  को निरन्तर बनाये रखना होगा तथा हममें जो बेसुरा हो या जहाँ छन्द-ताल कट जाता हो उसे निष्ठुरतापूर्वक निकाल बाहार करना होगा। धर्म के यही दो पक्ष हैं। धर्म की सबसे प्राथमिक बात सरल भाषा में यही है। अब हमलोग इस तथ्य को आसानी से स्वीकार कर सकते हैं कि चिर काल से, यहाँ तक कि सृष्टि का आरम्भ  होने के समय से ही धर्म  चलता आ रहा है, और आगे भी चलता रहेगा। इसीलिये यह प्रश्न कि वर्तमान युग  में भी धर्म की कोई प्रासंगिकता बची है या नहीं, बेतुकी है। 
  सृष्टि का चक्र चूँकि निरन्तर चलता रहता है, इसीलिये इसके साथ  कदम से  कदम मिला कर चलने की चेष्टा में धर्म को भी विभिन्न प्रकार के रूप धारण करने पड़ते हैं। इस अनिवार्यता को नहीं समझ पाने के कारण यदि धर्म को (अफीम कहकर ?)  बिल्कुल ही विसर्जित कर दिया जाय या  विश्व-ब्रह्माण्ड के  छन्द-ताल के साथ मनुष्य के  छन्द-ताल के  सम्पर्क को काट दिया जाये तो मनुष्य  अपने  जड़ से ही उखड़  जायेगा। उसके मन में चरम सत्य को जानने की जो लालसा रहती है, वह अपूर्ण रह जाएगी और उसका जीवन  निरर्थक हो जायेगा। अतः हमें अपने मनुष्य-जीवन को सार्थक करने के लिये उसी विश्व-छन्द के ताल साथ अपने हृदय की धड़कन को एकाकार कर लेना होता है । इसीलिये विभिन्न युगों में, विभिन्न देशों में, विभिन्न मार्गों से मनुष्य इस योग को प्राप्त करने की चेष्टा करता चला आ रहा है। अपनी इच्छा से इस योग के मार्ग पर चलने को  धर्म कहते हैं, तथा इसके विपरीत आचरण को अधर्म कहते हैं।

 किन्तु, विश्व के इतिहास में यह देखा जा सकता है कि बार -बार धर्म की ग्लानी हुई है और  अधर्म भी  बार- बार अपना सर उठाता रहता  है । फिर  इस ग्लानी से मनुष्यों का उद्धार करने के लिये समय- समय पर दैवी मनुष्यों या  धर्मगुरुओं का अवतरण (अवतार वरिष्ठ तक) भी होता रहा  है। तथा उन्होंने  सामान्य मनुष्यों की समझ में आ जाने वाली भाषा में  देश-काल-परिस्थिति के अनुसार अपने उपदेशों को प्रदान किये।`नन्दन-तत्व' या 'स्वर्ग से पतन' के सिद्धांत ' Eden theory' को समझ पाना हर किसी के लिये संभव नहीं है। इसीलिये उन धर्म-गुरुओं ने ज्ञान कूसूम (फूल) का चयन न कर सीधे धर्म रूपी ज्ञान-फल को ही उनकी हथेली पर रख दिया है। तथा उस फल का भक्षण करके मनुष्यों ने धर्म की रक्षा करते हुए अपनी रक्षा भी की है।इसी प्रकार बुद्ध,  महावीर,  मूसा, ईसा, मोहम्मद -आदि अनेक दैवि मनुष्य, पैगम्बर, अवतार या धर्मगुरु  धरती पर आये हैं। देश-काल का  परिष्कार  करने के लिये वैश्विक छन्द-ताल का अनुगामी  बनकर कभी कोई ज्वार आया है, तो कभी- कभी भाटा भी आता रहा है। अर्थात जगत में जब कभी कालाचार और लोकाचार ही धर्म के प्राण  से बड़ा बन जाता है तब  धर्म के  सुर को भी धीमा हो जाना पड़ा है। 
        दूसरी ओर ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में मनुष्य के ज्ञान की परिधि में क्रमशः काफी विस्तार हुआ है। वह matter या जड़ पदार्थ के भीतर बहुत गहराई तक प्रविष्ट हो चुका है, तथा प्रकृति के नये नये नियमों को जानकर, उन्हें बड़े अहंकार के साथ विज्ञान कहता है। अब, वह शक्ति (अव्यक्त प्रकृति) को ऊर्जा Energy के रूप में अधिक पहचानने लगा है। वह अब समझने लगा है कि यह जगत पदार्थ के उपर शक्ति का खेल मात्र है। इन दोनों (पदार्थ और ऊर्जा ) के अतिरिक्त अन्य कोई सत्ता नहीं (E =M)है। इस पदार्थ और शक्ति को वशीभूत कर लेने से अपनी इच्छानुसार सब कुछ किया जा सकता है। उसके बाद अचानक ही पदार्थ धुँधला होने लगता है, और जब उसकी दृष्टि के सामने से पदार्थ (Matter) अदृश्य हो जाता है, और जब केवल शक्ति (Energy) मात्र ही बची रहती है; तब वह बड़े अभिमान से घोषणा करता है- ' धर्म नहीं विज्ञान ही मनुष्य को सब कुछ दे सकता है।' किन्तु आधुनिक युग में विज्ञान स्वयं सबकुछ के धर्म को अर्थात इस ब्रह्माण्ड के धर्म , या पदार्थ और शक्ति के धर्म को अधिकाधिक जान लेने की दिशा में अग्रसर होता जा रहा है। इन सब को जानकर वह मनुष्य के कष्ट में कमी लाने, या मानवजीवन को सुखमय बनाने की चेष्टा कर रहा है। उसके भोग-सुख में वृद्धि कर रहा है। विज्ञान ने इस बात का आविष्कार भी कर लिया है कि छन्द-ताल से अलग हट जाने के कारण ही मनुष्य को जीवन में इतने कष्ट भोगने पड़ रहे हैं। इसीलिये अब विज्ञान  भी नैसर्गिक छन्द की खोज में दौड़ने लगा है। (अब वह जानना चाह रहा है कि  हिग्स बोसॉन में मात्रा या भार कहाँ से आया? इसी क्रम में उसने गॉड पार्टिकल को भी ढूंढ़ निकाला है !) किन्तु, अभी तक उसका (विज्ञान का)  कोई समग्र दर्शन नहीं होने के कारण उसके दौड़ के भीतर जो लयबद्धता होनी चाहिए थी , मनुष्य जीवन के साथ जो ताल -छन्द होना चाहिए था, वह सब नहीं दीखता है। इसीलिए जब एक देश अपने स्वार्थ के लिए दूसरे देश के स्वार्थ को दबा देता है, तो विज्ञान को आपत्ति नहीं होती, क्योंकि विज्ञान के पास श्रेय -प्रेय का विचार कर निर्णय लेने का अवसर नहीं है। ऐसी परिस्थिति में उसे अपना स्वार्थ ही परमार्थ के रूप में दिखाई देता है। [रूस -यूक्रेन, इस्राइल -हमास  युद्ध देखें] किन्तु आध्यात्मिक मनुष्य चाहे तो विवेक-प्रयोग कर प्रेय का त्याग कर सकता है, और  श्रेय को प्राप्त करने की दिशा में अपने कदम  बढ़ाता है,  और स्वार्थ का त्याग करते हुए क्रमशः परार्थ को ही बड़ा बना लेता है। क्योंकि, विज्ञान में भी अज्ञात को जानने के प्रति आग्रह होता है, इसीलिये हम विज्ञान को अधिक से अधिक धर्म तक पहुँचने का एक सोपान तो कह सकते हैं , किन्तु विज्ञान कभी  धर्म का समकक्ष या प्रतिद्वन्द्वी  नहीं बन  सकता है।
 इस बात को समझ लेने से विज्ञान और धर्म के बीच विवाद की कोई आशंका नहीं रहती। क्योंकि अंश कभी समग्र का विरोधी नहीं हो सकता। इसीलिये विज्ञान का परित्याग करके केवल धर्म की बात करने की भी आवश्यकता नहीं है। और विज्ञान के अखण्डनीय परिणति (Undeniable-culmination) को ही धर्म कहते हैं। इसीलिए धर्म के परित्याग का तो प्रश्न ही नहीं उठता।  
----------------------------------- 
[>>>' Eden theory' स्वर्ग से पतन का सिद्धांत (नन्दन तत्व) :  इस ' Eden theory' को समझ पाना हर किसी के लिये संभव नहीं है। इसमें कहा गया है कि फरिश्ता आदम ने शैतान के बहकावे पर सेव का फल खा लिया था, और उसको धरती पर मनुष्य रूप में जन्म लेना पड़ा। लेकिन फल और फूल खिलने के नियम का अपवाद भी होता है । क्योकि आमतौर से पहले फूल आता है, फिर फल प्राप्त होता है-जैसे पहले मंजर आता है फिर आम का फल प्राप्त होता है। लेकिन किसी-किसी लत्तर में पहले फल प्राप्त हो जाता है, बाद में फूल आता जैसे कोंहड़ा -कद्दू। माने विवेक-दर्शन (आत्मसाक्षात्कार) रूपी फल प्राप्त होने फूल रूपी चरित्र कमल बाद में खिलता है। ' Being and Becoming ' बाद में होता है !  कनफ्यूज हो जाने का अर्थ है, फ्यूज उड़ जाना - माने आत्मा (केंद्र या निःस्वार्थपरता) से कनेक्सन कट जाना, फिर कोई मिस्त्री (नवनी दा ) आकर फ्यूज जोड़ देता है।
========

तं विद्यात् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्। 

 सः निश्चयेन योक्तव्यः योगः अनिर्विण्णचेतसा ॥

(गीता 6.22 -23 ) 
जिसमें दुःखों के संयोग का ही वियोग है, उसी को 'योग' नाम से जानना चाहिये। (वह योग जिस ध्यानयोग का लक्ष्य है) उस ध्यानयोग का अभ्यास न उकताये हुए चित्त से निश्चयपूर्वक करना चाहिये। जिस चित्तमें निर्विण्णता ( उद्वेग ) न हो वह अनिर्विण्णचित्त है ऐसे अनिर्विण्ण ( न उकताये हुए ) चित्त से निश्चयपूर्वक योग का साधन करना चाहिये यह अभिप्राय है।
पूर्व के चार श्लोकों में उपदिष्ट साधनों के अभ्यास के फलस्वरूप जब चित्त पूर्णतया शान्त हो जाता है तब उस शान्त चित्त में आत्मा का साक्षात् अनुभव होता है स्वयं से भिन्न किसी विषय के रूप में नहीं वरन् अपने आत्मस्वरूप से। मन की अपने ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप की अनुभूति की यह स्थिति परम आनन्द स्वरूप है। परन्तु यह साक्षात्कार तभी संभव है जब 'जीव' [माँ जगदम्बा की कृपा से-शिवोहं ,शिवोहं कहते हुए] शरीर मन और बुद्धि इन परिच्छेदक उपाधियों के साथ के अपने तादात्म्य को पूर्णतया त्याग देता है।
इस सुख को अतीन्द्रिय कहने से स्पष्ट है कि विषयोपभोग के सुख के समान यह सुख नहीं है। सामान्यत हमारे सभी अनुभव इन्द्रियों के द्वारा ही होते हैं। इसलिए जब आचार्यगण आत्मसाक्षात्कार को आनन्द की स्थिति के रूप में वर्णन करते हैं तब हम उसे बाह्य और स्वयं से भिन्न कोई लक्ष्य समझते हैं। परन्तु जब उसे अतीन्द्रिय कहा जाता है तो साधकों को उसके अस्तित्व और सत्यत्व के प्रति शंका होती है कि कहीं यह मिथ्या आश्वासन तो नहीं ?  इस शंका का निवारण करने लिए इस श्लोक में भगवान स्पष्ट करते हैं कि यह आत्मानन्द केवल शुद्ध बुद्धि के द्वारा (मिथ्या अहं के द्वारा नहीं , आत्मा ही परमात्मा के आनन्द की अनुभूति करता है) ही ग्रहण करने योग्य है। यहाँ एक शंका मन में उठ सकती है कि प्राय अतिमानवीय प्रयत्न करने के पश्चात् इस अनन्त आनन्द का जो अनुभव होगा कहीं वह क्षणिक तो नहीं होगा ? जिसके लुप्त हो जाने पर उसकी प्राप्ति के लिए पुन उतना ही परिश्रम तो नहीं  करना पड़ेगा ? 
भगवान् का स्पष्ट कथन है कि जिसमें स्थित होने पर योगी तत्त्व से कभी दूर नहीं होता। यह शाश्वत सुख है जिसे प्राप्त कर लेने पर साधक पुनः दुखरूप संसार को प्राप्त नहीं होता। क्या उस योगी को सामान्य जनों को अनुभव होने वाले दुख कभी नहीं होंगे  ? क्या उसमें सामान्य संसारी मनुष्यों के समान अधिक से अधिक वस्तुओं को संग्रह करने की इच्छा नहीं होगी ?  क्या वह लोगों से प्रेम करने के साथ उनसे भी प्रेम पाने की अपेक्षा नहीं रखेगा  ? इस प्रकार की उत्तेजनाएं केवल अज्ञानी पुरुष के लिए ही कष्टप्रद हो सकती हैं ज्ञानी के लिए नहीं। 
यहाँ बाइसवें श्लोक में उस परमसत्य को उद्घाटित करते हैं जिसे प्राप्त कर लेने पर योगी इससे अधिक अन्य कोई भी लाभ नहीं मानता है। इतने अधिक स्पष्टीकरण के पश्चात् भी केवल बौद्धिक स्तर पर वेदान्त को समझने का प्रयत्न करने वाले लोगों के मन में शंका आ सकती है कि क्या इस आनन्द के अनुभव को जीवन की तनाव दुख कष्ट और शोकपूर्ण परिस्थितियों में भी निश्चल रखा जा सकता है
 दूसरे शब्दों में क्या धर्म धनवान् और समर्थ लोगों के लिए के लिए केवल मनोरंजन और विलास, दुर्बल एवं असहाय लोगों के लिए अन्धविश्वासजन्य सन्तोष और पलायनवादियों के लिए काल्पनिक स्वर्ग मात्र नहीं है ? क्या जीवन में आनेवाली कठिन परिस्थितियों में जैसे प्रिय का वियोग हानि, सोडियम वाली रुग्णता, दरिद्रता भुखमरी आदि में धर्म के द्वारा आश्वासित पूर्णत्व अविचलित रह सकता है ? लोगों के मन में उठने वाली इस शंका का असंदिग्ध उत्तर देते हुए यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि जिसमें स्थित हो जाने पर पर्वताकार दुखों से भी वह योगी विचलित नहीं होता
उपर्युक्त विवेचन का संक्षेप में सार यह है योगाभ्यास से मन के एकाग्र होने (विवेकदर्शन का अभ्यास करते -करते विवेक-स्रोत के उद्घाटित होने) पर योगी को अपने उस परम आनन्दस्वरूप की अनुभूति होती है जो अतीन्द्रिय तथा केवल शुद्ध बुद्धि के द्वारा ग्राह्य है।  उस अनुभव में फिर बुद्धि भी लीन हो जाती है। इस स्थिति में न संसार में पुनरागमन होता है न इससे श्रेष्ठतर कोई अन्य लाभ ही है। इसमें स्थित पुरुष गुरुतम दुखों से भी विचलित नहीं होता। गीता में इस अद्भुत सत्य का आत्मस्वरूप से निर्देश किया गया है और जो सभी विवेकी साधकों का परम लक्ष्य है।इस आत्मा को जानना चाहिए। 
आत्मज्ञान तथा आत्मानुभूति के साधन को गीता में योग कहा गया है और इस अध्याय में योग की बहुत सुन्दर परिभाषा दी गई है। भगवान् कहते हैं दुख के संयोग से वियोग की स्थिति योग है।  शरीर मन और बुद्धि से वियुक्त होकर आत्मा को उसके शुद्ध स्वरूप में अनुभव करना ही दुखसंयोगवियोग योग है। विषयों में (तीनों ऐषणाओं में) आसक्ति से ही मन का अस्तित्व बना रहता है। किसी एक वस्तु से वियुक्त करने के लिए उसे अन्य श्रेष्ठतर वस्तु का आलम्बन देना पड़ता है। भगवान् कहते हैं कि इस योग का अभ्यास उत्साहपूर्ण और निश्चयात्मक बुद्धि से करना चाहिए। यदि अग्नि की उष्णता असह्य लग रही हो तो हमें केवल इतना ही करना होगा कि उससे दूर हटकर किसी शीतल स्थान पर पहुँच जायें। इसी प्रकार यदि परिच्छिन्नता का जीवन दुखदायक है तो उससे मुक्ति पाने के लिए आनन्दस्वरूप आत्मा में स्थित होने की आवश्यकता है। यही है दुखसंयोगवियोग योग।
===========

रविवार, 16 सितंबर 2012

🔆🙏 शिक्षा चाहिये (SVHS-4.5 ) 🔆🙏 'श्रद्धावान लभते ज्ञानम।' हमारे भीतर पहले से ही पूर्णत्व (perfection-divinity) विद्यमान है ! 🔆🙏'काम ' के विषय में याज्ञवल्क्य के विचार 🔆🙏 [(शिक्षा : समस्त रोगों का रामबाण ईलाज है) :स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना 🔆🙏

🔱 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना 🔱

खण्ड - 4  

🙏शिक्षा समस्त समस्याओं की रामबाण औषधि है !  🙏

[Education is the panacea for all problems! (SVHS- 4.5)]

🔆🙏 शिक्षा चाहिये 🔆🙏

[>>>1 . पूर्णता :
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट। अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥ जैसे कुम्हार घड़े में भीतर से हाथ का सहारा देकर, बाहर से चोट मारकर घड़े को सही आकार देता है। उसी तरह गुरु भी शिष्य की बुराइयों पर प्रहार कर/या मृदु आघात कर ?) शिष्य के जीवन को सही रूप देता है। >(C-IN-C नवनीदा जैसा नेता  , जीवनमुक्त शिक्षक, या पैगम्बर कहते थे पूर्णता, 100 %निःस्वार्थपरता, दिव्यता या देवत्व कहीं बाहर से inject नहीं की जाती है!  शिक्षक और शिक्षा का कार्य है बाहर से मृदु आघात कर भीतर की सूप्त पूर्णता को जाग्रत कर देना।] 
       मनुष्य मनुष्य में अन्तर का कारण क्या है ? शिक्षा ! शिक्षा के द्वारा असंस्कृत मनुष्य, सुसंस्कृत एवं परिशोधित (refined) मनुष्य में परिवर्तित हो जाता है। शिक्षा के द्वारा मनुष्य का जीवन बोध यानि अन्य जीवों और जगत के प्रति उसका दृष्टिकोण उदार, उन्नत और विस्तृत हो जाता है। शिक्षा से मनुष्य को विश्व और जीवन में अन्तर्निहित शक्ति का ज्ञान तथा उन शक्तियों का उपयोग करने में दक्षता प्राप्त होती है। आत्म-शक्ति में उसका विश्वास दृढ हो जाता है। 
      ज्ञान परिधि में विस्तार (या ह्रदय का विस्तार?) होने के साथ- साथ भय की सीमा भी घटने लगती है। सभी के साथ एकात्मता की अनुभूति के फलस्वरूप मनुष्य का स्वार्थबोध क्रमशः समाप्त होने लगता है।उसके आचार-विचार और व्यवहार में संयम और सहानुभूति अभिव्यक्त होने लगती है। मनुष्य अपने निजी स्वार्थ को भूल कर दूसरों के हित लिये कार्य करना चाहता है। सज्जनता,प्रेम और मैत्री की भावना के सामने घृणा, द्वेष और हिंसा पराजित होने लगता है। अपने सुखभोग की इच्छा के अपेक्षा परहित की भावना बड़ी होने लगती है। बाहर में सुख और आनन्द की अवधारणा में परिवर्तन हो जाने कारण ह्रदय शुद्ध और पवित्र हो जाता है। शिक्षा ही किसी व्यक्ति को यथार्थ मनुष्य में परिणत कर सकती है। 
       अशिक्षित मनुष्य और पशु में क्या अन्तर है ? पशु पूर्ण होता है , जबकि मनुष्य अपूर्ण जन्म लेता है। प्रत्येक मनुष्य में कुछ न कुछ कमियाँ रहती हैं, शिक्षा ही उसे पूर्ण बनाता है। मनुष्य को पूर्णत्व प्राप्त करा देना ही शिक्षा का उद्देश्य है। किन्तु पूर्णता #कहीं बाहर से नहीं आती है। बल्कि मनुष्य के भीतर ही पूर्णता है, किन्तु अभी सूप्त अवस्था में है। बाहर से मृदु आघात कर भीतर की सूप्त पूर्णता को जाग्रत करा देना ही शिक्षक और शिक्षा का कार्य है। 
        [>>>2. श्रद्धा :  मनुष्य मनुष्य में अन्तर इसी श्रद्धा के कारण है। जीवकोटि का मनुष्य (जो समाधि प्राप्त कर के स्वयं मुक्त हो जाता है ?) और ईश्वरकोटि का मनुष्य (भावी नेता-जो समाधि के बाद माँ की कृपा से लौट कर उधर का सुसमाचार सुना सकता है ) में अन्तर केवल इसी श्रद्धा के कारण है। जिसकी आत्मश्रद्धा आत्मसाक्षात्कार के बाद ईश्वर या निःस्वार्थपरता के प्रति दृढ़ विश्वास में बदल जाती है, उसको वैसा ही लाभ (माँ काली,गुरु या नेता से चपरास?) मिलता है ! 
         हमारे भीतर पूर्णता विद्यमान है, इस सत्य को स्वीकार कर लेने या विश्वास करने को ही श्रद्धा कहते कहते हैं। इसीलिये मनुष्य बन जाने की साधना में श्रद्धा अत्यन्त आवश्यक है । क्योंकि हमारे भीतर पहले से ही पूर्णत्व (perfection-divinity) विद्यमान है; इस सत्य को जाने बिना हम उसे जाग्रत कैसे कर सकते हैं ? इसीलिये कहा जाता है- 'श्रद्धावान लभते ज्ञानम।' मनुष्य, मनुष्य  में अन्तर केवल इसी श्रद्धा के कारण है। जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, उसको वैसा ही लाभ मिलता है।
         श्रद्धा के साथ संयुक्त रहने से भीतर की पूर्णता क्रमशः अभिव्यक्त होने लगती है। पूर्णता की इसी अभिव्यक्ति को शिक्षा कहते हैं। जिस व्यक्ति में जितनी मात्रा में पूर्णत्व विकसित हुआ है, उसे उतनी ही मात्रा में शिक्षित कहा जा सकता है। इसके साथ ही साथ मनुष्य में जो पूर्णता का भाव (पहले से विद्यमान है ?) है , वह क्रमशः प्रस्फुटित (Unfold) होने लगता है। 
[>>>3. अपूर्ण ( imperfect) होने का तात्पर्य > अपूर्ण होने का तात्पर्य है कुछ पाने की लालसा ! क्षुद्र सुख भोग (तीन ऐषणाओं -पुत्र,वित्त,नामयश) के लालच को पूर्ण करने के लिए देह, मन और इन्द्रियों की गुलामी करते रहना। मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माण कारी शिक्षा पाकर हम लोग यथार्थ सुख के अधिकारी बन सकते हैं। ]  
         अपूर्ण (Imperfectहोने का तात्पर्य क्या है ? इसका तात्पर्य है, और कुछ पाने की लालसा। मैं जैसे-जैसे पूर्ण होता जाउँगा, तो मेरी कामनायें क्रमशः कम होती जायेंगी, मेरी स्वार्थपरता कम होती जाएगी, मेरा भय बिल्कुल समाप्त हो जायेगा ! मेरी दूसरों पर निर्भरता कम होती जाएगी, अर्थात मैं दासत्व से मुक्ति की ओर  अग्रसर होता जाऊंगा । परवशता का मनोभाव, पराधीनता का मनोभाव, हीन भाव कम होता जायेगा। क्या पारधीनता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ व्यक्ति कभी सुख पा सकता है? 'पराधीन सपनेहूं सुख नाहीं'-- दासत्व में सुख कहाँ है ? 
[>>>4. शिक्षा का तात्पर्य :  Man-making and character-building education means training in Mental Concentration. शिक्षा का तात्पर्य ही है मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण> मनःसंयोग (=विवेकदर्शन अभ्यास या प्रेमाभक्ति) के प्रशिक्षण के द्वारा, जैसे- जैसे विवेक-प्रयोग शक्ति या आत्मशक्ति (power of discretion) बढ़ती है वैसे -वैसे आत्मविश्वास और आत्मश्रद्धा भी बढ़ने लगती है। जीवन क्या है -उसका उद्देश्य क्या है ?... क्रमशः स्पष्टर और बोधगम्य होने लगता है। स्वार्थपूर्ण विचारों -अर्थात 'Lust and lucre' का आवेग कम होता जाता है। शिक्षा ='शी'क्षा # विवेक-दर्शन का अभ्यास या प्रेमभक्ति के प्रशिक्षण के फलस्वरूप स्वार्थपूर्ण विचारों का आवेग कम हो जाता है और दूसरे या पराये? लोगों के साथ सम्बन्ध में मधुरता आने लगती है। ]
          शिक्षा के द्वारा ही हमलोग यथार्थ सुख के अधिकारी बन सकते हैं। जैसे-जैसे शिक्षा के द्वारा आत्मशक्ति बढ़ती है, वैसे -वैसे आत्मविश्वास और आत्मश्रद्धा भी बढने लगती है। यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि समस्त शक्ति का स्रोत मेरे हृदय में ही है। यह  भी समझ में आने लगता है कि दैहिक शक्ति की अपेक्षा मानसिक शक्ति अधिक मूल्यवान है। मानसिक शक्ति के विकास के फलस्वरूप ज्ञान की परिधि और अच्छा-बुरा में विवेक-प्रयोग करने की क्षमता भी बढ जाती है। जगत और जीवन का अभिप्राय क्रमशः स्पष्टतर और बोधगम्य होने लगता है। स्वार्थपूर्ण विचारों का आवेग कम होता जाता है, दूसरे मनुष्यों के साथ सम्बन्ध में मधुरता आने लगती है। शिक्षा के फलस्वरूप ज्ञान और मनन करने की शक्ति जाग्रत होने के साथ- साथ, यह आस्था और दृढ होती जाती है कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर पूर्णता (100% Unselfishness or Divinity) के विकास की पूरी सम्भावना है। इसीलिये आत्मश्रद्धा सभी मनुष्यों के प्रति श्रद्धा का रूप धारण कर लेती है। सच्ची श्रद्धा एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के निकट खीँच लाती है। क्रमशः मनुष्य-मात्र  के प्रति प्रेम उमड़ने लगता है, अभेद या एकत्व (कोई पराया नहीं , सभी अपने हैं) की धारणा बढती जाती है। अब, पशुओं के समान अपने को ही केन्द्र में रखकर सभी कुछ पर अपना अधिकार जमाने की बातें सोचना संभव नहीं होता। शिक्षित व्यक्ति दूसरों के लिये सोचना सीखता है। हृदय की संवेदनाओं का केन्द्र अपने भीतर ही अचल न रहकर, विस्तारित होता है,सभी मनुष्यों के हृदय को स्पर्श करने में समर्थ हो जाता है। पहले के समान अब उसको अपना सुख उतना बड़ा नहीं दिखता है। दूसरों का सुख, आनन्द और कल्याण ही उसको अपना सुख या आनन्द के सामान अनुभव होता है। सुख या आनन्द की धारणा एक नया रूप धारण कर लेती है। यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि भोगों में या मन की अनियंत्रित शैतानियों में सुख या आनन्द नहीं है। सभी का सुख ही मेरा सुख है, सबों का कल्याण ही मेरा कल्याण है, सबों का आनन्द ही मेरा आनन्द है।
       [>>>5. विवेक-स्रोत (= शक्ति और ज्ञान के स्रोत)  को उद्घाटित (साक्षात्कार)  करने  से ही यथार्थ सुख और आनन्द प्राप्त होता है।  (Only by uncovering (realizing) the source of Viveka (=source of power and knowledge) can one attain true happiness and joy.]

 शिक्षा के फलस्वरूप अपने लिये अग्राधिकार की जगह सबों के अधिकार का ध्यान आता है, यहीं से नैतिकता का जन्म होता है। क्योंकि नैतिकता का मुख्य सिद्धान्त यही है। पूर्णत्व के अभिव्यक्त होने के साथ-साथ हमलोग सबों के साथ एक होना सीखते हैं। हमलोग सबो के साथ अभिन्न हैं, इसको जान लेना ही ज्ञान है। अपने को दूसरों से अलग समझना ही अज्ञान है। शिक्षा के द्वारा हमलोगों के हृदय में ज्ञान की यह ज्योति प्रज्वलित हो जाती है कि हमलोगों में से प्रत्येक के भीतर जो पूर्णत्व है, वही सर्वत्र विद्यमान है। इसको जान लेना ही यथार्थ शिक्षा है। वह पूर्णत्व ही हमलोगों की समस्त शक्तियों और ज्ञान का स्रोत है। उसको उद्घाटित कर अपने समस्त आचार -व्यवहार में अभिव्यक्त करने में सक्षम हो जाने को ही ' शिक्षित' होना कहते हैं। इस शक्ति और ज्ञान के स्रोत (विवेक-स्रोत) को उद्घाटित करने (साक्षात्कार करने) से ही यथार्थ सुख और आनन्द प्राप्त होता है। 
        सच्ची शिक्षा प्राप्त कर लेने से हमलोग एक नया जीवन प्राप्त करते हैं। और उस नये जीवन की दृष्टि से एक नया जीवन बोध प्राप्त करते हैं। हमारी आँखों के सामने यह जगत एक नये आलोक से उद्भासित हो उठता है। ऐसी शिक्षा से ही हमलोगों का जीवन, जीवन की सार्थकता, समाज और राष्ट्र का कल्याण तथा विश्व भ्रातृत्व की आधारशिला प्राप्त हो सकती है। हमलोगों को सच्ची  शिक्षा अवश्य  मिलनी चाहिए। इस  शिक्षा को प्राप्त किये बिना हम पशु रह जायेंगे इस शिक्षा (=शीक्षा) के अभाव में समाज से अनैतिकता, अत्याचार, शोषण, भ्रष्टाचार दूर नहीं हो सकता है; एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र के साथ, एक धर्म का दूसरे धर्म के साथ जो विद्वेष है, वह कभी दूर नहीं होगा, मानव-समाज में एकता की बातें केवल कहने की बातें ही बन कर रह जाएँगी ।
 
==========

🔆🙏*वैदिक दर्शन या तैत्तरीय उपनिषद की 'शी'-क्षा * 🔆🙏
  
🔆🙏‘काम’-चालित संसार से मुक्ति उपकरण नहीं,प्रयोगकर्ता बनने में🔆🙏

"कः इदं कस्मा अदात्।कामः कामाय अदात्।कामोदाता कामः प्रतिगृहीता। कामः समुद्रमा विवेश। कामेन त्वा प्रतिगृह्णामि कामैतत् ते॥" ~अथर्ववेद (३ । २९ । ७)
कः इदम् (कामम्) अदात् ? कस्मा (कस्मै) अदात् ? कामः कामाय अदात्। कामः दाता। कामः प्रतिगृहीता। कामः समुद्रम् आ-विवेश। कामेन त्वा (म्) प्रतिगृह्णामि काम। एतत् ते।
●अदात् = दा धातु, लुङ् लकार, प्रथम पुरुष, एक वचन दिया है।
●आविवेश = आ + विश् धातु लिट् लकार, प्रथम पुरुष, एक व. । प्रविष्ट हुई है।
 प्रतिगृणामि = प्रति + मह (क्र्यादि उभय) लट् लकार प्र.पु, एक वचन स्वीकार करता हूँ, पाणिग्रहण करता हूँ, आश्रय लेता हूँ, समनुरूप होता हूँ, अवलम्बित होता हूँ, लेता हूँ, थामता हूँ, पकड़ता हूँ, सामना करता हूँ
मन्त्रार्थ :किसने इस (काम) को दिया है?किसके लिये (इसको दिया है?) काम ने काम के लिये दिया है। काम दाता (देने वाला) है। काम प्रतिगृहीता (दिये हुए को स्वीकार करने वाला) है. काम समुद्र (हृदय) में प्रविष्ट हुआ (घुसा है। काम के द्वारा / काम के वशीभूत होकर (मैं) तुझे स्वीकार करता हूँ। हे काम यह (सब) तेरा/तेरे लिये है। इस मन्त्र में समुद्र शब्द विशेष उल्लेखनीय है। यह मुद् धातुज है। 
[ कामः समुद्रम् आ-विवेश। आविवेश = आ + विश् धातु लिट् लकार, प्रथम पुरुष, एक व. । प्रविष्ट हुई है। काम समुद्र (हृदय) में प्रविष्ट हुआ (घुसा है। काम के द्वारा / काम के वशीभूत होकर (मैं) तुझे स्वीकार करता हूँ। हे काम यह (सब) तेरा/तेरे लिये है। 
(i) मुद् चुरादि उभय मोदयति-ते मिलाना, घोलना, स्वच्छ करना, निर्मल करना। (ii) मुद् भ्वादि आत्मने मोदते हर्ष मनाना प्रसन्न होना आनन्दित होना मुद् + रक् = मुद्र। मिला हुआ/ घुला हुआ/स्वच्छ/ निर्मल/प्रसन्न को मुद्र कहते हैं। स(सह) + मुद्र= समुद्र। जिसमें अनेक नदियों का जल मिला हो, नमक घुला हो, जो स्वच्छ हो, मलहीन हो, सतत प्रसन्न हँसता हुआ, अट्टहास करता हुआ (ज्वार रूप में) हो, वह समुद्र है। यहाँ समुद्र का तात्पर्य ह्रदय से है - हृदय में अनेकों भाव होते हैं। इन भावों में प्रेम तत्व घुला होता है। हृदय कपटहीन (स्वच्छ) हो तथा ईर्ष्याहीन (निर्मल) हो साथ ही साथ प्रसन्न शान्त प्रगल्भ हो तो वह हृदय समुद्रवत् होने से समुद्र ही है। अतएव मन्त्र में समुद्रम्= हृदयम् समझना चाहिये
इस मंत्र में काम शब्द बार-बार आया है। काम = क (रस/जल) + अम (गति)। [ अम् गतौ अमति + घञ]। अतः काम का अर्थ हुआ रस प्रवाह रसका न रुकना अर्थात् बहते रहना काम है। रस नाम ब्रह्म का ‘रसो वै सः।’ अतः काम = ब्रह्मगति = आनन्दप्राप्ति वीर्य का बहना, लिंग से बाहर निकलना आनन्द है। रज का बहना, स्खलित होना आनन्द है। यही काम है।
जब यह कहा जाता है-कामः कामाय अदात्, तो इसका सीधा अर्थ है- ब्रह्म ने ब्रह्म को दिया।कामः दाता = देने वाला ब्रह्म है। कामः प्रतिगृहीता = लेने वाला ब्रह्म है। पुनः जब यह कहा गया कि कामः समुद्रम् आविवेश तो इसका तात्पर्य हुआ ब्रह्म ने हृदय में प्रवेश किया। समुद्र हृदय है, हृदय ब्रह्म का वासस्थान वा स्वयं ब्रह्मरूप है। अतः कामः समुद्रम् आविवेश = ब्रह्म को ब्रह्म की प्राप्ति हुई। स्त्री-पुरुष दोनों एक दूसरे से कहते हैं कि कामेन त्वा प्रतिगृह्णामि। इसका अर्थ है- ब्रह्म के द्वारा तुझ (ब्रह्म) को प्राप्त करता होता हूँ। मंत्र का अन्तिम वाक्य है-काम एतत् ते। हे ब्रह्म ! यह सब तेरा है =यह सब ब्रह्म है।मंत्र का सार है :सृष्टि काममय है। स्त्री काम है। पुरुष काम है। लेने वाला काम है। देने वाला काम है। लेने-देने का माध्यम भी काम है। सब कुछ काम है। [टिप्पणी : हृदय का अर्थ समुद्र है, इसके लिये वेद प्रमाण है। "समुद्र इव हि कामः नैव हि कामस्यान्तोऽस्ति न समुद्रस्य।~तैत्तिरीय उपनिषद (२।२।५) समुद्र के समान काम होता है। न काम का अन्त है और न समुद्र का। 
>>>'काम ' के विषय में याज्ञवल्क्य के विचार : याज्ञवल्क्य की दो पलियाँ थीं- मैत्रेयी और कात्यायनी इन में से मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी थी तथा कात्यायनी साधारण स्त्रीप्रज्ञा वाली। एक बार याज्ञवल्य ने मैत्रेयी से कहा कि, हे मैत्रेयी। मैं संन्यास लेने जा रहा हूँ। इसलिये मैं तेरे और कात्यायनी के बीच सम्पत्ति का बंटवारा करना चाहता हूँ मैत्रेयी ने उनसे सम्पत्ति (धन) के बदले अमृतत्व की जिज्ञासा की। इससे याज्ञवल्य बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने काम के द्वारा परमतत्व का संकेतन किया
उन्होंने कहा- १. अरी मैत्रेयि । यह निश्चय है कि पति के काम के लिये पति प्रिय नहीं होता, अपने ही काम के लिये पतिप्रिय होता है। 
(१- स उवाच ह वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियः न भवति, आत्मनः तु कामाय पतिः प्रियः भवति।) 
रे मैत्रेयि । भार्या के काम के लिये भार्या प्रिया नहीं होती, अपने ही काम के लिये भार्या प्रिया होती है।
हे मैत्रेयि । पुत्रों के काम के लिये पुत्रप्रिय नहीं होते, अपने ही काम के लिये पुत्र प्रिय होते हैं। वित्त (धन) के काम के लिये वित्त प्रिय नहीं होता, अपने ही काम के लिये वित्त प्रिय होता है। रे मैत्रेयि ! पशुओं के काम के लिये पशु प्रिय नहीं होते, अपने ही काम के लिये पशु प्रिय होते हैं।हे मैत्रेयि, ब्रह्म के काम के लिये ब्रह्म प्रिय नहीं होता, अपने ही काम के लिये ब्रह्म प्रिय होता है।अरी मैत्रेयि! क्षेत्र के काम के लिये क्षत्र प्रिय नहीं होता, अपने ही काम के लिये क्षेत्र प्रिय होता है।रे मैत्रेयि! लोकों के काम के लिये लोकप्रिय नहीं होते, अपने ही काम के लिये ‘लोक’ प्रिय होते हैं।हे मैत्रेयी! देवों के काम के लिये देव प्रिय नहीं होते, अपने काम के लिये ही देव प्रिय होते हैं।अरी मैत्रेयी! वेदों के काम के लिये वेद प्रिय नहीं होते, अपने ही काम के लिये वेद प्रिय होते हैं।हे मैत्रेयी! भूतों के काम के लिये भूत प्रिय नहीं होते, अपने ही काम के लिये भूतप्रिय होते हैं।रे मैत्रेयी! सबके काम के लिये सब प्रिय नहीं होता अपने काम के लिये सब प्रिय होता है। 
१३- अरे वा, आत्मा द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यः निदिध्यासितव्यः।
हे मैत्रेयी! आत्मा दर्शनीय है, श्रवणीय है, मननीय है, निदिध्यासनीय है। आत्मा को देखना चाहिये। आत्मा संबंधी वार्ता सुनना चाहिये। आत्म तत्व का चिन्तन करना चाहिये। आत्मा का ध्यान करना चाहिये।
 १४- अरे मैत्रेयि, आत्मनि खलु दृष्टे श्रुते मते विज्ञातः, इदं सर्वं विदितम्।
हे मैत्रेयी! आत्मा में दृष्टि डालने से, श्रुति करने से मन लगाने से, निश्चय ही उसका ज्ञान होता है, जिससे इन सब (सांसारिक पदार्थों) का ज्ञान होता है।
[स होवाच न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो, भवत्यात्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति।
न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु, कामाय जाया प्रिया भवति।
न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया
भवन्ति। 
न वा अरे वित्तस्य कामाय वित्तं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति।
न वा अरे पशूनां कामाय पशवः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय पशवः प्रिया भवन्ति।
न वा अरे ब्राह्मणः कामाय ब्रह्म प्रियं भवन्त्यात्मनस्तु कामाय ब्रह्म प्रियं भवति।
न वा अरे क्षत्रस्य कामाय क्षत्रं प्रियं भवन्त्यात्मनस्तु कामाय क्षेत्रं प्रियं भवति।
न वा अरे लोकानां कामाय लोका: प्रिया भवत्यात्मनस्तु कामाय लोका: प्रिया भवन्ति।
न वा अरे देवानां कामाय देवा: प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय देवाः प्रिया भवन्ति।
न वा अरे वेदानां कामाय वेदाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामायवेदा: प्रिया भवन्ति।
न वा अरे भूतानां कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्त्यात्मनस्तु कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्ति।
न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्व प्रियं भवन्त्यात्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति।
आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो।
मैत्रेय्यात्मनि खल्वरे दृष्टे श्रुते मते विज्ञात इदं सर्व विदितम्।
~ बृहदारण्यक उपनिषद् (४ । ५ । ६).
याज्ञवल्क्य का यह कथन बड़ा सारगर्भित है। इसकी व्याख्या जितनी ही की जाय, उतनी कम है। इसलिये इसमें उलझना ठीक नहीं
🔆🙏 काम के विषय में व्यास देव का क्या मत है ? :
" नवनीतं यथा दध्नः तथा कामोऽर्थधर्मतः।(महाभारत शान्तिपर्व १६७ । ३६):जैसे दही का सार नवनीत (मक्खन) है, वैसे ही अर्थ एवं धर्म का सार काम है।
"कामो बन्धनमेव एकं नान्यदस्तीह बन्धनम्।(महाभारत शान्तिपर्व २५१ । ७) काम ही संसार में मनुष्य का एकमात्र बन्धन है, अन्य कोई बन्धन नहीं है। 
"कामबन्धनमुक्तो हि ब्रह्मभूयाय कल्पते।"(महाभारत शान्तिपर्व २५०।७)-जो काम के बन्धन से मुक्त है, वह ब्रह्मरूप है।
"कामे प्रसक्तः पुरुषः किमकार्य विवर्जयेत्।(शान्तिपर्व ८८ । ११) काम में अति आसक्त पुरुष कौन सा बुरा काम छोड़ता है ? अर्थात् हर अकार्य (शास्त्र-निषिद्ध कर्म भी) करता है।
 "कामप्राहगृहीतस्य ज्ञानमप्यस्य न प्लवः। "(शान्तिपर्व २३४।३०) जिस व्यक्ति को कामरूपी ग्राह ने प्रस लिया है, उसके लिये उसका ज्ञान भी पार करने वाला प्लव (नौका) नहीं होता।
 "सनातनो हि संकल्प काम इत्यभिधीयते।"(अनुशासन पर्व १३४।३९) प्राणियों में जो सनातन संकल्प है, वह काम कहलाता है।
"उद्यतस्य हि कामस्य प्रतिवादी न विद्यते।"(महा. उद्योग. ३९ । ४४)जब काम प्रबल हो जाता है तो उसका प्रतिवाद नहीं किया जा सकता।
"कामा मनुष्यं प्रसजन्त एते।"(उद्योग पर्व २७।४) ये काम मनुष्य को आसक्त बना देता है।
"कामानुसारी पुरुषः कामाननु विनश्यति।"(उद्योगपर्व ४२।१३)काम के पीछे दौड़ने वाला मनुष्य कामों के कारण ही विनष्ट हो जाता है।
"कामः संसारहेतुश्च।"(महा. वनपर्व ३१३।९८) काम संसार का हेतु है।
"धर्माविरुद्ध भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।~ गीता (७। ११) "-अर्जुन, मैं प्राणियों में धर्म का अविरोधी काम हूँ
-------
>>काम की उत्पत्ति के विषय में वैदिक दर्शन :
"कामस्तदमे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।"~ऋग्वेद (मण्डल १०, सूक्त १२९, मंत्र ४) कामः तद्-अपे, सम्-अवर्तत्-अधि मनसः रेतः प्रथमम् यत् आसीत्॥ परमेश्वर के मन से जो रेत (वीर्य) सर्वप्रथम निकला / वहा, वही मुख्यतः काम हुआ। इससे स्पष्ट है- वीर्य की उत्पत्ति मन से होती है तथा यही वीर्य काम है। इसलिये काम को मनोभव, मनोजव, मनोज कहते हैं। यह मनोभव-काम ही  ज्ञान एवं वैराग्य का अवरोधक है
"क्व ज्ञानं क्व च वैराग्यं वर्तमाने मनोभवे।"~देवीभागवत पुराण (५। २७ । ६१) सृष्टि के लिये काम आवश्यक है। बिना काम के कोई क्रिया हो ही नहीं सकती।
”समुद्र इव हि कामः नैव हि कामस्यान्तोऽस्ति न समुद्रस्य।”
~तैत्तिरीय उपनिषद (२।२।५)
समुद्र को तैर कर कोई अपने आप पार नहीं कर सकता, चाहे जितना शक्तिशाली वा सामर्थ्यवान् हो। दृढ़ पोत / नौका हो और उसको चलाने वाला कुशल मल्लाह / नाविक हो तो व्यक्ति निश्चय ही इस कामार्णव को पार करता है। अब हमें क्या करना चाहिये ?
सरल उपाय है : हमें काम के हाथ का उपकरण नहीं बनना चाहिए।  कठपुतली बनकर भवसागर से पार नहीं उतरा जा सकता।  काम हमारा उपयोग करते रहकर हमारा ही काम तमाम नहीं कर दे, इसलिए काम का उपयोगकर्ता बनना चाहिए। उसे मुक्ति का मार्ग बनाना चाहिए, उसको साधकर। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष. यानी धर्म के पथ से अर्थ का अर्जन और काम यानी संभोग को साधकर मोक्ष तक पहुँच जाना ही हमारे जीवन में शिक्षा या प्रशिक्षण का लक्ष्य होना चाहिए!
              *वैदिक दर्शन : ‘काम’-चालित संसार से मुक्ति उपकरण नहीं, प्रयोगकर्ता बनने में* :साभार : डॉ. विकास मानव > साइकेट्रिस्ट एंड मेडिटेशन ट्रेनर >डायरेक्टर -चेतना विकास मिशन > व्हाट्सअप्प : 9997741245/ https://agnialok.com/vedic-philosophy-freedom-from-the-sex-driven-world-not-a-tool/ 

=========
$$$पुनश्च $$$स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [२२] "शिक्षा ही समाधान है" देखने के लिये मेरे नये ब्लॉग ---गुरुवार, 29 सितंबर 2016- শিক্ষাই সমাধান/शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016- शिक्षा ही समाधान है !"  'Mahamandal.blogspot.comको देखें ! 

============






गुरुवार, 13 सितंबर 2012

🔱🔆🙏'पुनः शिक्षा की चर्चा' 🔱🔆🙏 " [SVHS- 4.2 : शिक्षा : समस्त समस्याओं की रामबाण औषधि ! ] [(SVHS-20 ) स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ]

SVHS-4.2  

पुनः शिक्षा की चर्चा

     ( शिक्षार्थी श्री रामलला की प्रतिमा है और शिक्षक उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करने वाला पुजारी)

( पोडियम और मनुष्य में अन्तर - जड़ वस्तुओं में प्राणमय कोष या सूक्ष्म शरीर नहीं रहता।)    
        
       यह सुनकर शायद आप कुपित हों कि शिक्षा के उपर तो कई बार चर्चा हो चुकी है, अब एकबार फिर से इसकी चर्चा करने की क्या जरुरत है? किन्तु, कोई उपाय नहीं है। चाहे हम किसी भी समस्या पर विचार करें, अंत में यह पाएंगे कि सबकी जड़ में शिक्षा ही है। हमलोग स्वामी विवेकानन्द के मुख से भी सुनते हैं," केवल शिक्षा! शिक्षा ! शिक्षा ! यूरोप के बहुतेरे नगरों में में घूमकर और वहाँ के गरीबों के भी अमन-चैन और विद्या को देखकर, अपने गरीब देशवासियों की याद आती थी और मैं आँसू बहाता था। यह अन्तर क्यों हुआ? उत्तर में पाया शिक्षा से!"७/३११ 
   उन्होंने जिस समय यह बात कही थी, तब भारत पराधीन था; तथापि स्वाधीनता से लगभग 50 वर्ष पूर्व ही भारतवर्ष में यूरोपीय मॉडल पर आधारित विश्वविद्यालयों की स्थापना हो चुकी थी। किन्तु, उस शिक्षा में शिक्षित लोगों को स्वामी विवेकानन्द बड़े दुःख के साथ 'बदहजमी का मरीज' (Dyspepsia patients) कहना पड़ा था। उसी समय उन्होंने कहा था,"विगत 50 वर्षों में हमारे विश्वविद्यालयों से मौलिक चिन्तन करने में समर्थ व्यक्ति एक भी नहीं मिल सका है।" शिक्षा की जैसी स्थिति उस समय थी आज भी है, गुणात्मक रूप से उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सका है।  
    भारत में नयी शिक्षा नीति के उपर एक प्रतिवेदन देते हुए 2 फरवरी 1835 ई० को लार्ड मेकाले ने ब्रिटेन के संसद में कहा था " इस शिक्षा का उद्देश्य, एक ऐसे नये राष्ट्र का निर्माण करना है-'जो जन्म से तो भारतीय होगा, किन्तु संस्कृति की दृष्टि से बिल्कुल अंग्रेज होगा। हम एक ऐसी शिक्षा-व्यवस्था लागु करने जा रहे हैं जिसका मुख्य उद्देश्य मनुष्य निर्माण करना नहीं, बल्कि ब्रिटिश शासन को और अधिक मजबूती से चलाने के यंत्र रूप में कुशल किरानियों की जमात का निर्माण करना होगा।" और अघोषित रूप से आज भी हमलोगों की शिक्षा पद्धति का उद्देश्य मनुष्य निर्माण नहीं बल्कि सरकारी प्रशासन-तन्त्र चलाने वाले इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस' (I.A.S) रूपी टाई-कोट धारी 'सुपर-किरानी' या 'सिविल सर्वेन्ट' का निर्माण करना ही बना हुआ है।
     लॉर्ड मेकाले ने तो बहुत गर्व के साथ लिखा था, भारत को ऐसी शिक्षा व्यवस्था देकर जा रहा हूँ कि, मात्र 40 वर्षों के भीतर यहाँ एक भी मूर्ति-पूजक शेष नहीं रहेगा! किन्तु, विधि का विधान देखिये। पाश्चात्य शिक्षा-व्यवस्था 1835 ई० में लागु हुई और उसके एक ही वर्ष बाद ही -18 फरवरी 1836 ई० को बंगाल के गाँव 'कामारपुकुर' में एक बच्चे का जन्म होता है, जिसका नाम था गदाधर ! वे जब पाठशाला गए, तो वहाँ कहा - यह विद्या मुझे नहीं जमेगी! यदि भारतवर्ष के शिक्षा के इतिहास को ठीक से देखा जाय तो यह प्रथम छात्र असन्तोष था। 
      छात्र-असन्तोष के हजार कारणों में से मुख्य कारण यही है कि छात्रों को सही ढंग की 'शिक्षा' नहीं मिलती। श्रीरामकृष्ण को शिक्षा के नाम पर जो कुछ देने की चेष्टा की गयी, उसका एक अंश भी उन्होंने ग्रहण नहीं किया। और मेकाले द्वारा निर्धारित समयावधि के भीतर ही, अर्थात उन्नीसवीं शताब्दी में ही गदाधर ने दिखला दिया कि मूर्ति-पूजा करने का क्या अर्थ है? बालक गदाधर ने अपने जीवन को ही वेदमूर्ति के रूप में गढ़ कर विश्व के मनुष्यों के समक्ष उदहारण के रूप में प्रस्तुत कर दिया था। उनके जीवन को देख-सुन कर मनुष्य आसानी से समझ सकता है कि 'शिक्षा' किसे कहते हैं और यथार्थ शिक्षित मनुष्य कैसा होता है? बालक गदाधर जैसे एक उत्तम छात्र थे, वैसे ही वे (श्रीरामकृष्ण रूप में) एक उत्तम शिक्षक भी थे। अपनी शिक्षा सम्पूर्ण कर लेने के बाद ही उन्होंने ' शिक्षक ' का कार्यभार ग्रहण किया था। कोई कुम्हार जिस प्रकार कच्ची मिट्टी से विभिन्न देवमूर्तियों को गढ़ लेता है, ठीक उसी प्रकार उन्होंने विभिन्न अल्पव्यस्क तरुणों के जीवन गठन का दायित्व अपने हाथों में लेकर उनके जीवन को ही विलक्षण देवमूर्ति के रूप में गढ़ दिया था। केवल एक सारदामणि और एक विवेकानन्द को गढ़ देना भी शिक्षा जगत के इतिहास में सर्वदा एक अतुलनीय उदाहरण बना रहेगा। आजकल प्रत्येक वर्ष 5 सितम्बर को हम अपने दार्शनिक, शिक्षाविद और पूर्व राष्ट्रपति डा० एस० राधाकृष्णन के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं। उस उपलक्ष्य में 'शिक्षा' पर काफी चर्चा होती है, इसीलिये हम भी थोड़ी चर्चा कर रहे हैं। मेकाले द्वारा प्रस्तावित शिक्षा ब्रिटिश-सरकार के लिये भले ही उपयोगी हो किन्तु, किन्तु शैक्षणिक सिद्धान्तों की दृष्टि से बिल्कुल निकृष्ट और सारहीन है। मेकाले ने सोचा था, उसकी शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद भारत में मूर्तिपूजा बिल्कुल समाप्त हो जाएगी। किन्तु, हमने देखा कि कोई शिक्षक यदि सच्चा मूर्ति-पूजक नहीं है, तो वह शिक्षा-दान के व्रत में सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता। 
       आप सोच रहे होंगे कि यह भी क्या बात हुई ? थोड़ा स्पष्ट कहता हूँ, यथार्थ मूर्तिपूजक क्या करते हैं? वे मिट्टी -पत्थल की मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा करके मृण्मयी मूर्ति को चिन्मयी बना देते हैं। वे निर्जीव  मूर्तियों में भी जान डाल देते है, जो ऐसा करने में समर्थ हैं, वे ही मानव जाती के सच्चे नेता हैं, वे ही पूजनीय हैं। 
       किन्तु, जो लोग मूर्ति को (प्राण-प्रतिष्ठा किये बिना अर्थात अन्तर्निहित देवत्व को अभिव्यक्त करने का उपाय सिखलाये बिना) केवल प्रणाम करके, उसे मूर्ति के रूप में ही छोड़कर हट जाते हैं वैसे शिक्षकों को कौन याद रखता है? उसी प्रकार जो यथार्थ शिक्षक (विवेकानन्द के दास)  होते हैं, वे जड़-पिण्ड जैसे छात्र के जीवन में भी प्राणों संचार कर देते हैं, उसको जाग्रत और पुरुज्जिवित कर देते हैं--"शिक्षाबल से आत्मविश्वास जाग्रत हो जाता है और आत्मविश्वास की शक्ति से अन्तर्निहित ब्रह्म जाग उठते हैं !
     अक्सर शिक्षा के उपर चर्चा करते समय हम शिक्षकों की तंगहाली, उनके पे-स्केल, ट्यूशन-फ़ी में बढ़ोत्तरी की प्रासंगिकता, मैचिंग ग्रान्ट, बड़े पैमाने पर कदाचार इत्यादि बातों के उपर ही चर्चा करते हैं। शिक्षकों की तंगहाली ने शिक्षा-व्यवस्था को बहुत हद तक शिथिल बना दिया है। शिक्षक वर्ग समाज से जैसा सम्मान पाने का अधिकारी है, वह उसे नहीं मिलता। शिक्षा संस्थाओं की निदेशक मण्डली के कुछ सदस्य आज भी जमीन्दारी वाली मानसिकता से ग्रस्त हैं और अधिकांश अभिभावक अपने उत्तरदायित्व के प्रति या तो अनभिज्ञ हैं अथवा उदासीन हैं। छात्र श्रद्धाहीन हो गये हैं, वे नारेबाजी करने और तोड़-फोड़ में लगे रहते हैं। जब राजनैतिक पार्टियाँ, शिक्षाण संस्थानों के संचालक, शिक्षकगण तथा छात्र सभी यदि अलग-अलग गुटबन्दी के 
स्वार्थसिद्धि में लगे हों ; तब ऐसे परिवेश में केवल शिक्षक वर्ग ही अकेले अपनी जिम्मेदारी कैसे निभा सकता है ? बिल्कुल सही बात है। किन्तु समाज का सभी वर्ग इसी प्रकार का तर्क देने लगें- कि जब दूसरे लोग अपने-अपने कर्तव्य का पालन करने लगेंगे, तब मैं भी अपने कर्तव्य का पालन करूँगा -तब क्या होगा ? और दुर्भाग्य से आज इसी प्रकार के कुतर्क का सहारा लेकर, समाज का कोई भी वर्ग अपना उत्तरदायित्व नहीं निभा रहा है। इसी कारण से बिल्ली के गले में घन्टी नहीं बंध पाती। और अधिकांश यह चर्चा बात पर समाप्त हो जाती है कि शिक्षा के क्षेत्र में कुव्यवस्था के लिए कौन सा दण्ड निर्धारित करना चाहिए
      किन्तु समस्या का समाधान तो तभी हो सकेगा, जब उस मूल कारण को दूर करने के लिये  उचित उपाय ढूंढ़ लेने के बाद हममें से प्रत्येक व्यक्ति उस उपाय को लागु करने में लग जाये। हमें वैसा करते देखकर दूसरे लोग भी अपने कर्तव्य के प्रति यथेष्ट रूप से जागरूक हो जायेंगे। जब हम सभी लोग अपने-अपने कर्तव्य उचित ढंग से पालन करने लगेंगे, तभी हमें अपना उचित अधिकार प्राप्त हो सकेगा। यदि सभी लोग इस तथ्य को समझ जाएँ तो अधिकांश समस्यायों को बहुत हद तक दूर किया जा सकता है।
        शिक्षा मूलतः एक प्रकार की द्वैत प्रक्रिया (दोहरी प्रक्रिया) है। इसमें शिक्षक का अपना व्यक्तित्व ही छात्रों के व्यक्तित्व का निर्माण करने में सहायक होता है। इसिलिये शिक्षा के क्षेत्र में सबसे मूल्यवान साधन शिक्षक हैं। किन्तु 'समग्रशिक्षा रूपी महानाटक' के नायक की भूमिका में छात्र हैं। फिर भी  इस महत्वपूर्ण सच्चाई को शिक्षा क्षेत्र से जुड़े हम में से अधिकांश लोग अक्सर भूल जाते हैं। सम्पूर्ण शिक्षण व्यवस्था (वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा) दरअसल  एक विराट सार्वजनिक पूजनोत्सव है। इस पूजनोत्सव में छात्र ईश्वर की प्रतिमा हैं और शिक्षक पुजारी हैं। पूजा करते समय पुजारी (शिक्षक) इतने प्रेमपूर्ण स्वर से मंत्रोच्चार करेगा कि उसके शब्द छात्र के ह्रदय को स्पर्श कर लेंगे।  प्रतिमा (छात्र) में प्राण प्रतिष्ठा करते समय वे कहेंगे - " हे मनुष्य-रूपी देवता, इहागच्छ !  यहाँ आओ। इहा तिष्ठ ! यहाँ बैठो।  अत्र अधिष्ठानं कुरु - यहीं पर वास करो, मम पूजा गृहान ! - मेरी पूजा ग्रहण करो। "  
      वैसे आधुनिक लोग पूछ सकते हैं , महाशय , आपलोग कैसी बातें कर रहे हैं, कहीं आप कुछ भूल तो नहीं कर रहे हैं? यदि आप प्राचीन शिक्षा प्रणाली के ऊपर चर्चा कर रहे हों तो आपको कहना चाहिये था कि गुरुसेवा या गुरु के समक्ष प्रणिपात करने से ही विद्या प्राप्त होती है।अथवा यह कहना चाहिए था कि गुरुदक्षिणा प्रदान करना ही विद्या-प्राप्ति का उपाय है। किन्तु बात क्या है -जानते हैं ? जिन लोगों पर स्थायी रूप से पुजारी का कार्य सौंप दिया गया था वे लोग अन्ततोगत्वा केवल दक्षिणा से ही सन्तुष्ट न रहकर केवल और दो -दो और दो की माँग करने लगे थे।  लेकिन मैं क्या दे सकता हूँ, यह बात गौण हो गयी थी। छात्रों का भी यह कर्तव्य है, कि वे प्रणिपात, प्रश्न और गुरुसेवा, श्रद्धा और गुरु दक्षिणा, देकर ही विद्या प्राप्त होगी- इस बात को समझे। वैसे ही शिक्षकों को भी छात्र के प्रति श्रद्धा रखनी होगी। प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा के बाद पुजारी को ही उसके सामने अपना शीश झुकाना पड़ता है। कोई भी पुजारी प्रतिमा (राम लला) में प्राण प्रतिष्ठा करने के अहंकार में प्रतिमा के सिर पर पैर रखने की धृष्टता नहीं कर सकता। क्या दक्षिणेश्वर के शिक्षक श्रीरामकृष्ण ने अपने छात्र नरेन को प्रभु मैं जानता हूँ कि तुम्हीं नर-रूपी नारायण हो!' कहकर  दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम नहीं किया था?  यह कार्य केवल शिक्षक ही कर सकते हैं, इसीलिये शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक ही सबसे मूल्यवान साधन हैं। 
    अतएव शिक्षा के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधन 'शिक्षक' को सर्वदा पवित्र और शुद्ध रहना चाहिए (शस्त्र-निषिद्ध कर्मों से दूर रहना चाहिए।) यदि ऐसे शुद्ध व्रतधारी शिक्षक (चरित्रवान शिक्षक) हर स्थान में जाकर समवेत स्वर में प्रेम से " इहागच्छ ! इहागच्छ ! " का आह्वान करेंगे तो यह ध्वनि पूरे राष्ट्र के ह्रदय को छू लेगी और देश जाग उठेगा। और जो 'सिद्ध' पुजारी  सोये हुए देवता को जाग्रत करने में समर्थ होते हैं, भारत का समाज उनको यथेष्ट सम्मान देना जानता है। किन्तु, हमलोग अपने मंत्र को सिद्ध किये बिना ही सिद्ध गुरु का भेष धारण करके दक्षिणा माँगने (कज्जनपीदा ऑनलाइन गुरुगिरि करने) पँहुच जायें तो क्या वैसा ही सम्मान प्राप्त हो सकता है ?
    आजकल शिक्षा को भी एक उद्द्योग (Industry) के रूप में देखा जा रहा है। साधारण शिक्षा में लागत-पूँजी के अनुपात में मुनाफा कम होता है, इसीलिये इसकी उपेक्षा होती है। किन्तु अब नौकरी या रोजगार देने में सक्षम विशेष शिक्षा के ऊपर सरकार की कृपा-दृष्टि हुई है। हजारों-हजार अयोग्य व्यक्ति इस गणदेवता (यानि जनता-जनार्दन ) की महापूजा में पुजारी (प्रोफेसर -डीन) के पद पर नियुक्त हो रहे हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि जो व्यक्ति मानव मशीन  की चाभी घुमाने में भी अक्षम है, वह मनुष्य के हृदय को नये साँचे में ढालने चला है। आन्तरिक शक्ति के गुणवाचक क्रमागत उन्नति को शिक्षा कहते हैं। शिक्षा की शक्ति से आत्मविश्वास जैसा गुण भी जाग्रत हो जाता है। [शिक्षा के द्वारा ह्रदय में आनन्द घट को स्थापित किया जा सकता है।]  किन्तु, इस  कार्य को करने के लिए एक अभ्यस्त और कार्यकुशल शिल्पकार चाहिये।जो लोग ऐसा कर सकते हैं, वे ही समाज को बदलने में सक्षम नये भारत के शिल्पियों का निर्माण कर सकते हैं। ऐसे शिल्पकारों (जीवनमुक्त शिक्षकों, नेताओं, पैगम्बरों) की संख्या बढ़ने पर देश स्वयं जाग उठेगा। 
========
 जनता में आत्म विद्या का प्रचार करना होगा। शिक्षाबल से आत्मविश्वास जाग्रत हो जाता है, और आत्मविश्वास की शक्ति से अन्तर्निहित ब्रह्म जाग उठते हैं !  अब उपाय है शिक्षा का प्रचार पहले आत्मज्ञान।  इससे मेरा मतलब जटा-जूट, दण्ड, कमण्डलु और पहाड़ों की कन्दराओं से नहीं,जो इस शब्द के उच्चारण करते ही याद आते हैं। तो मेरा मतलब क्या है? जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य अज्ञानता के बन्धन से मुक्त  हो जाता है, संसार-बन्धन तक से छुटकारा पा जाता है, उससे क्या तुच्छ भौतिक उन्नति नहीं हो सकेगी ? अवश्य हो सकेगी।"  
      जितने भी सम्प्रदाय भारत में स्थापित हुए हैं, सभी इस बात पर सहमत हैं कि -" प्रत्येक जीवात्मा में अनन्त शक्ति अव्यक्त भाव से निहित है!" चींटी से लेकर ईसा-मोहम्मद तक सभी में वह आत्मा विराजमान है। अन्तर केवल उसके प्रत्यक्षीकरण के भेद में है। "निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत्॥ कैवल्यपाद ३ ॥ सूत्रार्थ—सत् और असत्कर्म प्रकृति के परिणाम (परिवर्तन) के प्रत्यक्ष कारण नहीं हैं, वरन् वे उसकी बाधाओं को दूर कर देनेवाले निमित्त मात्र हैं, जैसे किसान जब खेतों की मेंड़ तोड़ देता है और एक खेत का पानी दूसरे खेत में चला जाता है, वैसे ही आत्मा भी आवरण टूटते ही प्रकट ही जाती है। उपयुक्त अवसर और उपयुक्त देश-काल मिलते ही उस शक्ति का विकास हो जाता है। इस शक्ति को सर्वत्र जा जाकर जगाना होगा। इसीसे देश का भला होगा। विस्तार ही जीवन का चिन्ह है , और हमें सारी दुनिया में अपने आध्यात्मिक आदर्शों का प्रचार करना होगा।" ७/३११-१४ 
==========