" समाज, धर्म और विज्ञान "
किन्तु, सबके बीच जिसे मैं एक क्षण के लिये भी नहीं भूलता, वह मेरी अपनी सत्ता है जो इन सबसे निकट है, सर्वोच्च सत्य है और मेरा सबसे प्रिय वस्तु वह है, मेरा -'मैं'! वैसे तो हमलोगों का यह 'मैं' - इस संसार के करोड़ों मनुष्यों के बीच नगण्य सा ही है। किन्तु, फिर भी मनुष्य बड़े गर्व से कहता है- 'मेरा' और 'मैं ' ! मनुष्य इसी 'मैं' को लेकर कई प्रकार की कल्पनाओं में खोया रहता है। हमलोगों के चिन्तन का प्रमुख विषय मनुष्य ही होता है। काल के प्रवाह में अज्ञात स्रोत के धक्के से, यह विश्वब्रह्माण्ड शून्य में से फेन के सदृश पता नहीं कब और किस प्रकार प्रकट हो गया ? फिर एक दिन असंख्य ब्रह्माण्डों के किसी कोने में एक कण-सदृश्य प्रतीत होने वाली इस पृथ्वी की छाती पर पता नहीं कब हरी- हरी घास उग आती है; और एक दिन पृथ्वी के रंगमंच पर मनुष्य भी अवतीर्ण हो जाता है।
>>फल है धर्म-फूल है साधना > फिर मनुष्य जब अपनी अद्भुत चिन्तन-शक्ति की क्षमता से परिचित होता है तो वह जगत की प्रत्येक वस्तु के मूल्यांकन के साथ ही साथ अपने जीवन का अर्थ भी खोजने में लग जाता है। एक दिन इस चिन्तन वृक्ष की डाली पर एक फूल खिल जाता है। इस फूल को ही 'दर्शन' (philosophy ) कहा जाता है। इस फूल को मन के द्वारा देखा, स्पर्श किया और बुद्धि के द्वारा समझा जा सकता है, किन्तु उसे अपनी सत्ता के साथ मिश्रित नहीं किया जा सकता। हाँ, इस फूल से बाद में जो फल प्राप्त होता है, उसे आत्मसात किया जा सकता है। और उसी फल को 'धर्म' के नाम से पुकारा जाता है। यदि यह बात समझ में आ जाय, तो बहुत आसानी से यह स्वीकार किया जा सकता है कि धर्म केवल सनातन ही हो सकता है! तथा धर्म नामक वस्तु यदि सनातन है, तो समय के प्रवाह में उसके बाहरी आवरण में भले ही कितना परिवर्तन आ जाये, उसके मूल संरचना में कोई परिवर्तन नहीं होता। अतएव यदि यह सृष्टि अनादि,अनन्त है; तथा समस्त दर्शनों का फल यदि धर्म ही होता हो, तो धर्म भी अनादि-अनन्त होने को बाध्य है। और मनुष्य यदि इस अनादि, अनन्त धर्म रूपी फल [Be and Make के मर्म] को आत्मसात नहीं कर सका, तो डार्विन के सिद्धांत~ (प्राकृतिक-चयन :Natural selection)
"योग्यतम की उत्तरजीविता (Survival of the fittest) के नियमानुसार वह मनुष्य शरीर धारण करने के अयोग्य हो जायेगा; तथा पृथ्वी पर से उसके पैरों के निशान भी मिट जायेंगे। इसीलिये कहा गया है-' धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः |'
तो क्या इसका यह अर्थ हुआ कि धर्म भी प्रतिहिंसा परायण वस्तु है ? बिल्कुल नहीं। यदि मैं अपने 'मानव-धर्म ' की रक्षा न करूँ, तो विश्व-ब्रह्माण्ड का धर्म भी मेरी रक्षा नहीं करेगा। किन्तु, यदि मैं अपने धर्म की रक्षा करूँ तो विश्व-ब्रह्माण्ड का धर्म भी मेरी रक्षा करेगा। अब, प्रश्न उठेगा-कि मेरा धर्म है क्या ? इसके उत्तर में पहले ही कहा गया है, समग्र दर्शनों के फल को भक्षण करना तथा उसको आत्मसात कर लेना ही धर्म है। यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड जिस छन्द में बंधा है, उस तत्व या छन्द को देख लेना दर्शन है, तथा उस छन्द का अनुसरण करना धर्म है। अपने व्यक्तिगत जीवन-छन्द को विश्वब्रह्माण्डीय-छन्द के आनुषांगिक बना लेने में सक्षम हो जाने के बाद ही मनुष्य अपने स्वभाव को जान सकता है, तथा इस 'स्वभाव' में स्थित रहने को ही धर्म कहते हैं। और ऐसा करने में सक्षम होने पर सम्पूर्ण जगत के साथ व्यक्ति का योग हो जाता है। इस योग को प्राप्त हो जाना ही धर्म का लक्ष्य है। तथा इस योग की उपलब्धी हो जाने के बाद- मनुष्य के लिए कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता, तथा योगी पुरुष अन्य किसी लाभ को उसकी अपेक्षा अधिक नहीं समझता। " यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः। " (गीता 6/22)
मनुष्य विचार करने और जानने की शक्ति को लेकर ही जन्म ग्रहण करता है। इसीलिये जब वह इस चरम सत्य को अपने अनुभव से जान लेता है, तब उसके लिये जानने को और कुछ शेष नहीं रह जाता है। विश्व-ब्रह्माण्ड के धर्म और सामग्रिक छन्द-ताल को निरन्तर बनाये रखना होगा तथा हममें जो बेसुरा हो या जहाँ छन्द-ताल कट जाता हो उसे निष्ठुरतापूर्वक निकाल बाहार करना होगा। धर्म के यही दो पक्ष हैं। धर्म की सबसे प्राथमिक बात सरल भाषा में यही है। अब हमलोग इस तथ्य को आसानी से स्वीकार कर सकते हैं कि चिर काल से, यहाँ तक कि सृष्टि का आरम्भ होने के समय से ही धर्म चलता आ रहा है, और आगे भी चलता रहेगा। इसीलिये यह प्रश्न कि वर्तमान युग में भी धर्म की कोई प्रासंगिकता बची है या नहीं, बेतुकी है।
सृष्टि का चक्र चूँकि निरन्तर चलता रहता है, इसीलिये इसके साथ कदम से कदम मिला कर चलने की चेष्टा में धर्म को भी विभिन्न प्रकार के रूप धारण करने पड़ते हैं। इस अनिवार्यता को नहीं समझ पाने के कारण यदि धर्म को (अफीम कहकर ?) बिल्कुल ही विसर्जित कर दिया जाय या विश्व-ब्रह्माण्ड के छन्द-ताल के साथ मनुष्य के छन्द-ताल के सम्पर्क को काट दिया जाये तो मनुष्य अपने जड़ से ही उखड़ जायेगा। उसके मन में चरम सत्य को जानने की जो लालसा रहती है, वह अपूर्ण रह जाएगी और उसका जीवन निरर्थक हो जायेगा। अतः हमें अपने मनुष्य-जीवन को सार्थक करने के लिये उसी विश्व-छन्द के ताल साथ अपने हृदय की धड़कन को एकाकार कर लेना होता है । इसीलिये विभिन्न युगों में, विभिन्न देशों में, विभिन्न मार्गों से मनुष्य इस योग को प्राप्त करने की चेष्टा करता चला आ रहा है। अपनी इच्छा से इस योग के मार्ग पर चलने को धर्म कहते हैं, तथा इसके विपरीत आचरण को अधर्म कहते हैं।
किन्तु, विश्व के इतिहास में यह देखा जा सकता है कि बार -बार धर्म की ग्लानी हुई है और अधर्म भी बार- बार अपना सर उठाता रहता है । फिर इस ग्लानी से मनुष्यों का उद्धार करने के लिये समय- समय पर दैवी मनुष्यों या धर्मगुरुओं का अवतरण (अवतार वरिष्ठ तक) भी होता रहा है। तथा उन्होंने सामान्य मनुष्यों की समझ में आ जाने वाली भाषा में देश-काल-परिस्थिति के अनुसार अपने उपदेशों को प्रदान किये।`नन्दन-तत्व' या 'स्वर्ग से पतन' के सिद्धांत ' Eden theory' को समझ पाना हर किसी के लिये संभव नहीं है। इसीलिये उन धर्म-गुरुओं ने ज्ञान कूसूम (फूल) का चयन न कर सीधे धर्म रूपी ज्ञान-फल को ही उनकी हथेली पर रख दिया है। तथा उस फल का भक्षण करके मनुष्यों ने धर्म की रक्षा करते हुए अपनी रक्षा भी की है।इसी प्रकार बुद्ध, महावीर, मूसा, ईसा, मोहम्मद -आदि अनेक दैवि मनुष्य, पैगम्बर, अवतार या धर्मगुरु धरती पर आये हैं। देश-काल का परिष्कार करने के लिये वैश्विक छन्द-ताल का अनुगामी बनकर कभी कोई ज्वार आया है, तो कभी- कभी भाटा भी आता रहा है। अर्थात जगत में जब कभी कालाचार और लोकाचार ही धर्म के प्राण से बड़ा बन जाता है तब धर्म के सुर को भी धीमा हो जाना पड़ा है।
दूसरी ओर ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में मनुष्य के ज्ञान की परिधि में क्रमशः काफी विस्तार हुआ है। वह matter या जड़ पदार्थ के भीतर बहुत गहराई तक प्रविष्ट हो चुका है, तथा प्रकृति के नये नये नियमों को जानकर, उन्हें बड़े अहंकार के साथ विज्ञान कहता है। अब, वह शक्ति (अव्यक्त प्रकृति) को ऊर्जा Energy के रूप में अधिक पहचानने लगा है। वह अब समझने लगा है कि यह जगत पदार्थ के उपर शक्ति का खेल मात्र है। इन दोनों (पदार्थ और ऊर्जा ) के अतिरिक्त अन्य कोई सत्ता नहीं (E =M)है। इस पदार्थ और शक्ति को वशीभूत कर लेने से अपनी इच्छानुसार सब कुछ किया जा सकता है। उसके बाद अचानक ही पदार्थ धुँधला होने लगता है, और जब उसकी दृष्टि के सामने से पदार्थ (Matter) अदृश्य हो जाता है, और जब केवल शक्ति (Energy) मात्र ही बची रहती है; तब वह बड़े अभिमान से घोषणा करता है- ' धर्म नहीं विज्ञान ही मनुष्य को सब कुछ दे सकता है।' किन्तु आधुनिक युग में विज्ञान स्वयं सबकुछ के धर्म को अर्थात इस ब्रह्माण्ड के धर्म , या पदार्थ और शक्ति के धर्म को अधिकाधिक जान लेने की दिशा में अग्रसर होता जा रहा है। इन सब को जानकर वह मनुष्य के कष्ट में कमी लाने, या मानवजीवन को सुखमय बनाने की चेष्टा कर रहा है। उसके भोग-सुख में वृद्धि कर रहा है। विज्ञान ने इस बात का आविष्कार भी कर लिया है कि छन्द-ताल से अलग हट जाने के कारण ही मनुष्य को जीवन में इतने कष्ट भोगने पड़ रहे हैं। इसीलिये अब विज्ञान भी नैसर्गिक छन्द की खोज में दौड़ने लगा है। (अब वह जानना चाह रहा है कि हिग्स बोसॉन में मात्रा या भार कहाँ से आया? इसी क्रम में उसने गॉड पार्टिकल को भी ढूंढ़ निकाला है !) किन्तु, अभी तक उसका (विज्ञान का) कोई समग्र दर्शन नहीं होने के कारण उसके दौड़ के भीतर जो लयबद्धता होनी चाहिए थी , मनुष्य जीवन के साथ जो ताल -छन्द होना चाहिए था, वह सब नहीं दीखता है। इसीलिए जब एक देश अपने स्वार्थ के लिए दूसरे देश के स्वार्थ को दबा देता है, तो विज्ञान को आपत्ति नहीं होती, क्योंकि विज्ञान के पास श्रेय -प्रेय का विचार कर निर्णय लेने का अवसर नहीं है। ऐसी परिस्थिति में उसे अपना स्वार्थ ही परमार्थ के रूप में दिखाई देता है। [रूस -यूक्रेन, इस्राइल -हमास युद्ध देखें] किन्तु आध्यात्मिक मनुष्य चाहे तो विवेक-प्रयोग कर प्रेय का त्याग कर सकता है, और श्रेय को प्राप्त करने की दिशा में अपने कदम बढ़ाता है, और स्वार्थ का त्याग करते हुए क्रमशः परार्थ को ही बड़ा बना लेता है। क्योंकि, विज्ञान में भी अज्ञात को जानने के प्रति आग्रह होता है, इसीलिये हम विज्ञान को अधिक से अधिक धर्म तक पहुँचने का एक सोपान तो कह सकते हैं , किन्तु विज्ञान कभी धर्म का समकक्ष या प्रतिद्वन्द्वी नहीं बन सकता है।
इस बात को समझ लेने से विज्ञान और धर्म के बीच विवाद की कोई आशंका नहीं रहती। क्योंकि अंश कभी समग्र का विरोधी नहीं हो सकता। इसीलिये विज्ञान का परित्याग करके केवल धर्म की बात करने की भी आवश्यकता नहीं है। और विज्ञान के अखण्डनीय परिणति (Undeniable-culmination) को ही धर्म कहते हैं। इसीलिए धर्म के परित्याग का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
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[>>>' Eden theory' स्वर्ग से पतन का सिद्धांत (नन्दन तत्व) : इस ' Eden theory' को समझ पाना हर किसी के लिये संभव नहीं है। इसमें कहा गया है कि फरिश्ता आदम ने शैतान के बहकावे पर सेव का फल खा लिया था, और उसको धरती पर मनुष्य रूप में जन्म लेना पड़ा। लेकिन फल और फूल खिलने के नियम का अपवाद भी होता है । क्योकि आमतौर से पहले फूल आता है, फिर फल प्राप्त होता है-जैसे पहले मंजर आता है फिर आम का फल प्राप्त होता है। लेकिन किसी-किसी लत्तर में पहले फल प्राप्त हो जाता है, बाद में फूल आता जैसे कोंहड़ा -कद्दू। माने विवेक-दर्शन (आत्मसाक्षात्कार) रूपी फल प्राप्त होने फूल रूपी चरित्र कमल बाद में खिलता है। ' Being and Becoming ' बाद में होता है ! कनफ्यूज हो जाने का अर्थ है, फ्यूज उड़ जाना - माने आत्मा (केंद्र या निःस्वार्थपरता) से कनेक्सन कट जाना, फिर कोई मिस्त्री (नवनी दा ) आकर फ्यूज जोड़ देता है।]
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तं विद्यात् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
सः निश्चयेन योक्तव्यः योगः अनिर्विण्णचेतसा ॥
(गीता 6.22 -23 )
जिसमें दुःखों के संयोग का ही वियोग है, उसी को 'योग' नाम से जानना चाहिये। (वह योग जिस ध्यानयोग का लक्ष्य है) उस ध्यानयोग का अभ्यास न उकताये हुए चित्त से निश्चयपूर्वक करना चाहिये। जिस चित्तमें निर्विण्णता ( उद्वेग ) न हो वह अनिर्विण्णचित्त है ऐसे अनिर्विण्ण ( न उकताये हुए ) चित्त से निश्चयपूर्वक योग का साधन करना चाहिये यह अभिप्राय है।
पूर्व के चार श्लोकों में उपदिष्ट साधनों के अभ्यास के फलस्वरूप जब चित्त पूर्णतया शान्त हो जाता है तब उस शान्त चित्त में आत्मा का साक्षात् अनुभव होता है स्वयं से भिन्न किसी विषय के रूप में नहीं वरन् अपने आत्मस्वरूप से। मन की अपने ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप की अनुभूति की यह स्थिति परम आनन्द स्वरूप है। परन्तु यह साक्षात्कार तभी संभव है जब 'जीव' [माँ जगदम्बा की कृपा से-शिवोहं ,शिवोहं कहते हुए] शरीर मन और बुद्धि इन परिच्छेदक उपाधियों के साथ के अपने तादात्म्य को पूर्णतया त्याग देता है।
इस सुख को अतीन्द्रिय कहने से स्पष्ट है कि विषयोपभोग के सुख के समान यह सुख नहीं है। सामान्यत हमारे सभी अनुभव इन्द्रियों के द्वारा ही होते हैं। इसलिए जब आचार्यगण आत्मसाक्षात्कार को आनन्द की स्थिति के रूप में वर्णन करते हैं तब हम उसे बाह्य और स्वयं से भिन्न कोई लक्ष्य समझते हैं। परन्तु जब उसे अतीन्द्रिय कहा जाता है तो साधकों को उसके अस्तित्व और सत्यत्व के प्रति शंका होती है कि कहीं यह मिथ्या आश्वासन तो नहीं ? इस शंका का निवारण करने लिए इस श्लोक में भगवान स्पष्ट करते हैं कि यह आत्मानन्द केवल शुद्ध बुद्धि के द्वारा (मिथ्या अहं के द्वारा नहीं , आत्मा ही परमात्मा के आनन्द की अनुभूति करता है) ही ग्रहण करने योग्य है। यहाँ एक शंका मन में उठ सकती है कि प्राय अतिमानवीय प्रयत्न करने के पश्चात् इस अनन्त आनन्द का जो अनुभव होगा कहीं वह क्षणिक तो नहीं होगा ? जिसके लुप्त हो जाने पर उसकी प्राप्ति के लिए पुन उतना ही परिश्रम तो नहीं करना पड़ेगा ?
भगवान् का स्पष्ट कथन है कि जिसमें स्थित होने पर योगी तत्त्व से कभी दूर नहीं होता। यह शाश्वत सुख है जिसे प्राप्त कर लेने पर साधक पुनः दुखरूप संसार को प्राप्त नहीं होता। क्या उस योगी को सामान्य जनों को अनुभव होने वाले दुख कभी नहीं होंगे ? क्या उसमें सामान्य संसारी मनुष्यों के समान अधिक से अधिक वस्तुओं को संग्रह करने की इच्छा नहीं होगी ? क्या वह लोगों से प्रेम करने के साथ उनसे भी प्रेम पाने की अपेक्षा नहीं रखेगा ? इस प्रकार की उत्तेजनाएं केवल अज्ञानी पुरुष के लिए ही कष्टप्रद हो सकती हैं ज्ञानी के लिए नहीं।
यहाँ बाइसवें श्लोक में उस परमसत्य को उद्घाटित करते हैं जिसे प्राप्त कर लेने पर योगी इससे अधिक अन्य कोई भी लाभ नहीं मानता है। इतने अधिक स्पष्टीकरण के पश्चात् भी केवल बौद्धिक स्तर पर वेदान्त को समझने का प्रयत्न करने वाले लोगों के मन में शंका आ सकती है कि क्या इस आनन्द के अनुभव को जीवन की तनाव दुख कष्ट और शोकपूर्ण परिस्थितियों में भी निश्चल रखा जा सकता है ?
दूसरे शब्दों में क्या धर्म धनवान् और समर्थ लोगों के लिए के लिए केवल मनोरंजन और विलास, दुर्बल एवं असहाय लोगों के लिए अन्धविश्वासजन्य सन्तोष और पलायनवादियों के लिए काल्पनिक स्वर्ग मात्र नहीं है ? क्या जीवन में आनेवाली कठिन परिस्थितियों में जैसे प्रिय का वियोग हानि, सोडियम वाली रुग्णता, दरिद्रता भुखमरी आदि में धर्म के द्वारा आश्वासित पूर्णत्व अविचलित रह सकता है ? लोगों के मन में उठने वाली इस शंका का असंदिग्ध उत्तर देते हुए यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि जिसमें स्थित हो जाने पर पर्वताकार दुखों से भी वह योगी विचलित नहीं होता।
उपर्युक्त विवेचन का संक्षेप में सार यह है योगाभ्यास से मन के एकाग्र होने (विवेकदर्शन का अभ्यास करते -करते विवेक-स्रोत के उद्घाटित होने) पर योगी को अपने उस परम आनन्दस्वरूप की अनुभूति होती है जो अतीन्द्रिय तथा केवल शुद्ध बुद्धि के द्वारा ग्राह्य है। उस अनुभव में फिर बुद्धि भी लीन हो जाती है। इस स्थिति में न संसार में पुनरागमन होता है न इससे श्रेष्ठतर कोई अन्य लाभ ही है। इसमें स्थित पुरुष गुरुतम दुखों से भी विचलित नहीं होता। गीता में इस अद्भुत सत्य का आत्मस्वरूप से निर्देश किया गया है और जो सभी विवेकी साधकों का परम लक्ष्य है।इस आत्मा को जानना चाहिए।
आत्मज्ञान तथा आत्मानुभूति के साधन को गीता में योग कहा गया है और इस अध्याय में योग की बहुत सुन्दर परिभाषा दी गई है। भगवान् कहते हैं दुख के संयोग से वियोग की स्थिति योग है। शरीर मन और बुद्धि से वियुक्त होकर आत्मा को उसके शुद्ध स्वरूप में अनुभव करना ही दुखसंयोगवियोग योग है। विषयों में (तीनों ऐषणाओं में) आसक्ति से ही मन का अस्तित्व बना रहता है। किसी एक वस्तु से वियुक्त करने के लिए उसे अन्य श्रेष्ठतर वस्तु का आलम्बन देना पड़ता है। भगवान् कहते हैं कि इस योग का अभ्यास उत्साहपूर्ण और निश्चयात्मक बुद्धि से करना चाहिए। यदि अग्नि की उष्णता असह्य लग रही हो तो हमें केवल इतना ही करना होगा कि उससे दूर हटकर किसी शीतल स्थान पर पहुँच जायें। इसी प्रकार यदि परिच्छिन्नता का जीवन दुखदायक है तो उससे मुक्ति पाने के लिए आनन्दस्वरूप आत्मा में स्थित होने की आवश्यकता है। यही है दुखसंयोगवियोग योग।
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