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Sunday, August 5, 2012

"जीवन पंछी का पिंजड़ा " (জীবন পাখির পিঞ্জর) [ द्वितीय अध्याय -2.4 : समस्या और समाधान : (उदारणार्थ : ग्राम जानीबिगहा< गया, बिहार >की समस्या एवं समाधान) (Problem and Solution : of Janibigha Village, Gaya. Bihar) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-2.4]

4.
 
"जीवन पंछी का पिंजड़ा " 
 
      पहले 'रोचक-कथायें' नामक एक पुस्तक में 'जीवन-पंछी ' की कहानी पढ़ाई जाती थी। जब कोई राजकुमार उस पंछी को मार डालता तो उस कथा के अनुसार राक्षस का जीवन भी चला जाता था। हमारे राष्ट्र का जीवन पंछी, 'प्राण-पखेरू' कहाँ वास करता है ? भारत का जीवन-पंछी, गाँव की झोपड़ियों में वास करता है। किन्तु वह झोपड़ी अब उसको अपना प्रिय निवास स्थान नहीं लगती। क्योंकि उसकी झोपड़ी अब एक खास किस्म का पिंजड़ा बन चुकी है, उस झोपड़ी में अपने को वह पराधीन बंधा हुआ महसूस कर रहा है। कोई- कोई, अब  झोपड़ी से बाहर निकल आया है, उस पिंजड़े  में नहीं है,फिर भी वह मुक्त नहीं हो सका है। क्योंकि उसकी झोपड़ी कूसंस्कारों के झंझावात, आग या बाढ़ में नष्ट हो हो गयी है। अब वह झोपड़ी से निकल कर पेंड़ के नीचे रह रहा है, फिर भी वह मुक्त नहीं है। पिंजड़े में बन्द  किसी पंछी के पंख टूट जाने या रुग्न हो जाने पर जब उसका मालिक उस पंछी को उसके पिंजड़े से बाहर छोड़ देता है, तब भी वह पंछी उड़ नहीं पाता, वहीं पर बैठकर हांफता रहता है। क्योंकि वर्षों तक पिंजड़े में बंद रहने व उड़ने का अभ्यास नहीं रहने से अब वह उड़ना भी भूल चुका होता है। हमारे गाँवों में बसने वाले अधिकांश ग्रामीण भाइयों की अवस्था आज ऐसी ही हो गयी है।
           स्वामी विवेकानन्द का हृदय इन्हीं बेबस-लाचार भाइयों के लिए रो उठा था। उनकी आँखों ने इन्हीं ग्रामीणों की दुर्दशा को देखकर बहुत अश्रु बहाये थे। उन्होंने ही सबसे पहले यह आविष्कार किया था कि भारत का राष्ट्रिय जीवन (प्राण) गरीबों की झोपड़ियों में ही स्पन्दित हो रहा है। उनके इसी सन्देश को प्रतिध्वनित करते हुए महात्मा गाँधी ने भी कहा था- 'गाँवों में भारत का प्राण है,यथार्थ भारत तो गाँवों में ही बसता है!' किन्तु भारतवर्ष का वह जीवन-पन्छी (प्राण-पखेरू) आज भी पिंजड़े में ही कैद है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था-" सोचकर देखो बात क्या हैवे जो लोग किसान हैं, वे कोरी, जुलाहे (बुनकर लोग) जो भारत के नगण्य मनुष्य हैं, विजाती-विजित और स्वजाति-निन्दित छोटी छोटी जातियाँ हैं, वही लगातार चुपचाप काम करती जा रही हैं, और अपने परिश्रम का फल भी नहीं पा रही हैं।" (यूरोप यात्रा के संस्मरण -८/१८९) यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि भारत सरकार इनलोगों के लिए निर्धारित न्यूनतम मजदूरी दर में वृद्धि करने के लिये कानून बनाने जा रही है। उन खेतिहर मजदूरों को, जो वंशगत रूप से अपने मालिकों की जमीनों को जोतते आ रहे हैं, उनको ही उस जमीन पर खेती करने का अधिकार देने के लिये, राज्य सरकारें बँटाई-दाऱी कानून को संशोधित करके नया कानून बनाने जा रही हैं। हृदयहीन स्वार्थान्ध सूदखोर साहूकारों के कमर-तोड़ ऋण के बोझ से जर्जरित गरीबों को बचाने के लिये कानून बनाय गए हैं। विवाह में दहेज़-प्रथा बन्द करने के लिये कानून बनाये गये हैं। किन्तु सरकारी समीक्षात्मक रिपोर्टों में ही कहा गया है कि अधिकांश किसानों और खेतिहर मजदूरों को इन कानूनों के बारे में कुछ पता नहीं है। 
     वे लोग तो यह भी नहीं जानते कि वर्तमान कानून के अनुसार खेतिहर मजदूरों से आठ घन्टे से अधिक देरी तक काम नहीं लिया जा सकता है। वे लोग आज भी बारह से तेरह घन्टे तक काम करने को बाध्य हैं। इतना ही नहीं, निर्धारित न्यूनतम मजदूरी दर से आधे से भी कम दर पर इनको मजदूरी दी जाती है। बावजूद इसके इन्हें पूरे वर्ष भर में छः महीने का भी काम नहीं मिलता है। आजादी के इतने साल बाद भी उनके पिंजड़े को क्यों नहीं टूटना चाहिए ? भूमि हीनों के लिये सरकारी गैर-मजरुआ जमीन से जमीन दिए जाने कि व्यवस्था रहने पर भी क्यों अभी तक अनेकों गरीब इससे वंचित हैं ? बैंकों के द्वारा किसानों को हल-बैल खरीदने, घर बनाने, खेती करने के लिये जितने प्रकार के ऋण देने तथा  ऋण-माफ़ी और अन्य दूसरी सुविधाओं को देने के लिये भारत सरकार ने जितने कानून बनाये हैं, उनके बारे में अधिकांश मजदूर-किसानों को क्यों कुछ पता ही नहीं है? क्योंकि लाभुकों तथा ऋण-दाताओं के बीच बहुत से स्वार्थी बिचौलिए पैदा हो गये हैं, जो उनके हक को लूट लेते हैं। भारत सरकार के कृषि-मन्त्रालय के परामर्श दाता समीति ने हाल में ही इन सब असुविधाओं के लिये भ्रष्ट प्रशासनिक अधिकारीयों तथा बेईमान सामाजिक कार्यकर्ताओं की मिलीभगत से गरीब-अनपढ़ किसानों, मजदूरों को उनका हक नहीं मिलने की बात को स्वीकार भी किया है।
             हमारे कृषक-मजदूर भाइयों को कोई शिक्षा नहीं मिली है। उन गरीब देश-वासियों के प्रति किसी के हृदय में सच्ची सहानुभूति भी नहीं है। वे भला इन कानूनों के विषय में जानें भी तो कैसे ? भूख की ज्वाला के सामने ईमानदारी से अपना हक माँगने की बुद्धि हार मान लेती है इसीलिए उनको सेठ-साहूकारों के सामने हाथ फैलाना ही पड़ता है। ऋण एवं भारी सूद के बोझ से किसान लोग जर्जरित हो गये हैं, ऋण नहीं लौटा पाने के कारण उनको बिना कोई मजदूरी लिये उन सूदखोरों के यहाँ बन्धुआ मजदूर बनना पड़ता है, या बेगार खटना पड़ता है। बड़े किसान अपने हक के रूप में प्राप्य मजदूरी  को थोडा बहुत कोड़ी-गण्डा करके गिन भी लेते हैं, किन्तु छोटे किसानों को दोनों शाम भोजन नहीं मिलता, उन लोगों को अक्सर भूखे पेट सोना भी पड़ता है, शिक्षा नहीं मिलती। दक्षिण भारत के निलगिरी क्षेत्र में देखा गया है, अनेकों परिवार ऐसे हैं, जो वंशानुगत तरीके से बेगार खटते-खटते बड़े बड़े जमींदारों के गुलाम बन चुके हैं। उनको अपने हाथों में गुलामी की निशानी तौर पर आज भी लोहे का कड़ा पहनना पड़ता है। किन्तु फिर भी वे लोग कभी अपने मालिक से बेईमानी नहीं करते।  वे बड़े भोलेपन से कहते हैं, पितामह का ऋण है न, इसी जीवन में परिश्रम से काम करके इसे चूका देना होगा। कितने वर्षों पूर्व स्वामीजी ने कहा था- " वे भूल गये हैं, वे यह होश ही खो चुके हैं, कि वे भी मनुष्य हैं। फल स्वरुप वे लोग आत्मश्रद्धा रहित खरीदे गये गुलाम की श्रेणी में परिणत हो गए हैं। " (1/402)
     स्वामी विवेकानन्द खेद व्यक्त करते हुए कहा था, "आपके पास संसार का महानतम धर्म है और आप जनसमुदाय को सारहीन और निरर्थक बातों पर पालते हैं। आपके पास चिरन्तन बहती हुई निर्झरनी है, और आप उन्हें गन्दी नाली का पानी पिलाते हैं? (४/२६०-६१)" कोलकाता के टेंगरा नामक स्थान में आम जनता को गंदे नाले का पानी पिलाने का समाचार तो पेपर में भी छपा था। स्वामीजी ने कहा था- " जीवन-संग्राम में सदा लगे रहने के कारण शूद्र लोगों में अभी तक ज्ञान का विकास नहीं हुआ है। ये लोग अभी तक मानव-बुद्धि द्वारा परिचालित यन्त्र-मानव (robot) की तरह एक ही भाव से काम करते आ रहे हैं,और चतुर शिक्षित व्यक्ति इनके परिश्रम तथा कार्य का सार (लागत-मूल्य?) तक निचोड़ लेते रहते हैं। उन्हें कौन प्रकाश देगा, कौन उन्हें द्वार द्वार शिक्षा देने के लिये घूमेगा ? (६/१०७)"
        स्वामीजी ने कहा था, " ये ही तुम्हारे इश्वर हैं, ये ही तुम्हारे इष्ट बनें। निरन्तर इन्हीं के लिये सोचो, इन्हीं के लिये काम करो, इनकी सेवा करो। मैं उसीको महात्मा कहता हूँ, जिसका हृदय गरीबों के लिये द्रवीभूत होता है, अन्यथा वह दुरात्मा है। आओ, हमलोग अपनी इच्छा-शक्ति को एक्य भाव से उनकी भलाई के लिये निरन्तर प्रार्थना में लगायें। हम अनजान, बिना सहानुभूति के, बिना मातमपुर्सी के, बिना सफल हुए मर जायेंगे,परन्तु हमारा एक भी विचार नष्ट नहीं होगा। वह कभी न कभी फल लायेगा.जब तक करोड़ो लोग भूखे और अशिक्षित रहेंगे, तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को देशद्रोही समझूंगा, जो उनके खर्चे पर शिक्षित हुआ है, परन्तु जो उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता ! वे लोग जिन्होंने गरीबों को कुचलकर धन पैदा किया है और अब ठाट-बाट से अकड़कर चलते हैं, उन बीस करोड़ देशवासियों के लिये जो इस समय भूखे और असभ्य बने हुए हैं, कुछ नहीं करते, तो वे घृणा के पात्र हैं। " (३/३४५)
       कुछ दिनों पूर्व किसी मन्त्री ने कहा था, भारतवर्ष में इस समय बीस करोड़ मनुष्य गरीबी की सीमा रेखा के नीचे वास करते हैं। ऐसी अवस्था में कोई हमें भी कहीं देशद्रोही की भूमिका में नहीं रख दे, इसके लिए क्या हमें सतर्क नहीं हो जाना चाहिए ? स्वामीजी का आह्वान था- " तुम लोगों का अब काम है प्रान्त प्रान्त में, गाँव गाँव जाकर देश के लोगों को समझा देना कि अब आलस्य से बैठे रहने से काम न चलेगा। शिक्षा-विहीन, धर्म-विहीन वर्तमान अवनति की बात उन्हें समझाकर कहो- ' भाई, सब उठो, जागो, और कितने दिन सोओगे ?'  उसके बाद उनलोगों को स्वयं अपनी अपनी लौकिक अवस्था में उन्नति करने का उपाय बतला देना होगा। तुम सरल भाषा में उन्हें व्यापार, वाणिज्य, कृषि, आदि गृहस्थ-जीवन के अत्यावश्यक विषयों का उपदेश दो। नहीं तो तुम्हारे लिखने पढने को धिक्कार -और तुम्हारे वेद-वेदान्त पढने को भी धिक्कार."(६/१२९)
[Remember that the nation lives in the cottage. But, alas! nobody ever did anything for them."] " याद रखो कि राष्ट्र झोपड़ी में बसा हुआ है; परन्तु शोक ! उनलोगों के लिए कभी किसीने कुछ नहीं किया। हमारे आधुनिक सुधारक विधवाओं के पुनः विवाह करवाने में व्यस्त हैं। ...... परन्तु राष्ट्र की उन्नति उसकी विधवाओं को मिले पति की संख्या पर निर्भर नहीं, वरन 'आम जनता की अवस्था पर निर्भर है। क्या तुम जनता की उन्नति कर सकते हो ? क्या उनका खोया हुआ व्यक्तित्व, बिना उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिकता को नष्ट किये वापस दिला सकते हो ? यह करना है और हम इसे करेंगे ही।" (२/३२१) 
" Do not forget our plan of a Central College, and the starting from it to all directions in India. My whole ambition in life is to set in motion a machinery which will bring noble ideas to the door of everybody, and then let men and women settle their own fate. There is no harm in preaching the idea of elevating the masses by means of a Central College, and bringing education as well as religion to the door of the poor by means of missionaries trained in this college." [Letter to (His disciples in Madras) on 24th January, 1894.] 
" एक केन्द्रीय महाविद्यालय (ABVYM) एवं उससे भारत की चारों दिशाओं में शाखायें स्थापित करने की हमारी योजना को न भूलना। .....जीवन में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि ऐसे चक्र का प्रवर्तन कर दूँ , जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों (वेदों के चार महावाक्यों) को सबके द्वारों तक पहुँचा दे, और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें। एक केन्द्रीय महाविद्यालय  खोलकर जनसाधारण की उन्नति के विचारों का प्रचार करने में कोई हर्ज नहीं। इस महाविद्यालय के ['Be and Make' लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में] प्रशिक्षित प्रचारकों द्वारा गरीबों की कुटियों में जाकर, उनमें शिक्षा एवं धर्म का प्रचार करना होगा" (पत्रावली 24 जनवरी, 1894/२ /३२०-२२)       
 अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र की तरह भारत वर्ष में भी सरकारी स्तर पर स्वामीजी द्वारा निर्देशित बहुत सी योजनाओं को कार्यान्वित करने का प्रयास चल रहा है। किन्तु उन योजनाओं को कार्यान्वित करने में जो मनुष्य लगे हुए हैं, उनका चरित्र-गठन नहीं हो सका है, इसलिये वे योजनायें उचित तरीके से फलदायी नहीं हो पा रही हैं। जनता जनार्दन को जागृत करने का उत्तरदायित्व केवल राजनितिक दलों के उपर छोड़ देने से उसका यथोचित फल कभी नहीं पाया जा सकता। क्योंकि  निजी लोभ या दलगत स्वार्थ से उपर उठकर, जो जिस किसी क्षेत्र में कार्यरत हैं वहीं रहकर निःस्वार्थ भाव से जन-कल्याण करना कठिन कार्य है।  यह कार्य तब और भी कठिन हो जाता है, जब वैयक्तिक चरित्र निर्माण के लिए कोई सामाजिक व्यवस्था नहीं रहने के कारण, भ्रष्टचरित्र लोग राजनितिक दल में सम्मिलित हो जाते हैं और सरकारी योजनाओं को क्रियान्वित करने के कार्य में कूद पड़ते हैं। धर्मनिरपेक्ष शिक्षा (secular education) प्राप्त किन्तु आध्यात्मिक शिक्षा (spiritual teachings)से अनभिज्ञ व्यक्ति ही हमारे देश में उच्च पदों पर आसीन होकर देश के लिये योजनायें बनाने और क्रियान्वित करने के कार्य में नियुक्त किये जाते हैं। इसीलिये तकनीकी शिक्षा के अलावा जो मानवमात्र में अंतर्निहित दिव्यता, आध्यात्मिकता या ऐक्यबोध (Inherent Divinity and Oneness) पर आधारित जो सहानुभूति, त्याग-क्षमता, सेवापरायणता आदि चारित्रिक गुण जीवन में आते हैं, उनके नहीं रहने से जनसाधारण की उन्नति का संकल्प अधूरा ही रह जायेगा। पचास करोड़ ग्रामीण लोगों की विशाल जनसंख्या की सांसारिक उन्नति का कार्य गैर सरकारी प्रयास द्वारा (NGO द्वारा) कभी सम्पन्न नहीं किया जा सकता है। इसमें सरकारी मशीनरी का प्रयोग जरुरी हो जाता है। किन्तु सरकारी प्रयास में सबसे बड़ी कमी है,सरकारी तंत्र में कार्यरत लोगों में आध्यात्मिक शिक्षा का नितान्त अभाव; जिसके फलस्वरूप उनमें सहानुभूति, स्वार्थहीनता, लोभ-शून्यता, त्याग का मनोभाव तथा सेवापरायणता आदि चारित्रिक गुणों का नितान्त आभाव रहता है।अध्यात्मिक शिक्षा का अर्थ ही जंगल में या पहाड़ की कन्दराओं में बैठकर तपस्या करना नहीं है; या बीच बीच में किसी धर्म-स्थान में जाकर मत्था टेकना भी नहीं है। देशवासियों के साथ अपने हृदय को जोड़े बिना, केवल धन के बल पर अंधे कर्म-काण्ड के माध्यम से पुण्य संचय की चेष्टा को भी धर्म नहीं कहते हैं। अध्यात्मिक शिक्षा का अर्थ है- ' हृदय को विस्तृत करना।' उसके फलस्वरूप मनुष्य स्वार्थ-बोध के उपर उठ जाता है। मनुष्य व्यष्टि अहं की सीमा से उपर उठकर परिवार के प्रति और परिवार से उपर उठकर समाज के प्रति सहानुभूतिशील, दायित्वशील बन जायेगा। यह दायित्वबोध और सहानुभूति ही उसको लोक-कल्याण के कार्यों के लिए उत्साहित करेगी। किन्तु यह शिक्षा-प्रणाली जब तक प्रभावी ढंग से लागु नहीं की जाएगी, तब तक देश के यथार्थ उन्नति होने की कोई सम्भावना नहीं है। यह बात हमारे नीतिनिर्धारकों को समझना होगा। जब तक ऐसी शिक्षा के लिए सरकारी स्तर पर कोई सार्वजनिक व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक किसी गैर-सरकारी प्रयास (केन्द्रीय महाविद्यालय ABVYM) से जुड़े रहकर इसी कार्य (मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के पचार-प्रसार) में लगे रहना देश की सर्वांगीण उन्नति के लिये एक महान कार्य है। ऐसा करने से ही सार्व-जनिक कल्याण का कार्य सार्वभौमिक बन सकता है। और उसीके फलस्वरूप राष्ट्रीय जीवन पंछी पिंजड़े में कैद न रहकर स्वाधीन पंखों से उड़ान भरते हुए मुक्ति का स्वाद भी प्राप्त कर सकता है। इसी कार्य को  आज भारत के युवाओं का एकमात्र कार्य बनाने की आवश्यकता है।  
(यह प्रबंध 1996 ई० में विवेक-जीवन में प्रकाशित हुआ था.)
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>>> लौकिक शिक्षा के साथ साथ हृदय को विस्तृत करने वाली शिक्षा -का वितरण और प्रसार : अर्थात  ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (आदि 4 महावाक्यों का वितरण और प्रसार !) " जीवन में मेरी एक मात्र अभिलाषा यही है कि एक ऐसे चक्र का प्रवर्तन कर दूँ, जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वारों तक पहुंचा दे और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें। याद रखो कि राष्ट्र झोपड़ी में बसा हुआ है; परन्तु हाय ! उन लोगों के लिये कभी किसी ने कुछ किया नहीं. क्या तुम जनसमुदाय की उन्नति कर सकते हो ? क्या तुम उनका खोया हुआ व्यक्तित्व, बिना उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिक वृत्ति को नष्ट किये, उन्हें वापस दिला सकते हो ? क्या समता, स्वतंत्रता. कार्य-कौशल, पौरुष में तुम पाश्चात्यों के भी गुरु बन सकते हो ? यह काम करना है और हम इसे करेंगे ही. " 
एक मनुष्य निर्माणकारी ' केन्द्रीय प्रशिक्षण संस्थान ' (या शिक्षायतन 'Academy) स्थापित करके, साधारण लोगों के उन्नति के उपाय 'Be and Make ' का प्रचार करना होगा। तथा इस प्रशिक्षण-संस्थान (अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ) में प्रशिक्षित प्रचारकों को गरीबों की झोपड़ियों में जाकर उनमें लौकिक शिक्षा (मानसिक एकाग्रता ) एवं अध्यात्मिक शिक्षा (हृदय का विस्तार) का उपाय वितरण करना होगा।' पहाड़ यदि मुहम्मद के पास न आ सके, तो मुहम्मद ही पहाड़ के पास जायेगा।' मेरा विचार है कि भारत और भारत के बाहर मनुष्य-जाती में जिन उदार भावों का विकास हुआ है, उनकी शिक्षा गरीब से गरीब और हीन से हीन व्यक्ति को दी जाय, और फिर उन्हें स्वयं विचार करने का अवसर दिया जाय। जात-पाँत रहनी चाहिये या नहीं, महिलाओं को पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिये या नहीं, मुझे इनसे कोई वास्ता नहीं। ' विचार और कार्य की स्वतंत्रता ही जीवन, उन्नति, और कुशल-क्षेम का एकमेव साधन है। (२/३२०-३३८) 

>>> ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छान्दोग्य उपनिषद) :
      हज़ारों बरस पहले की बात है। हमारे देश के किसी विशाल वन में ऋषि अपने संन्यासी शिष्यों से कह रहे हैं, आओ अब हम ब्रह्म के बारे में जानें। ‘ब्रह्म और आत्मा’ के संबंध पर वह शिष्यों को कोई गहरी बात बता रहे हैं। शिष्य उनसे बीच-बीच में सवाल कर रहे हैं। वे सवाल इस तरह के हैं- आत्मा कौन है? ब्रह्म क्या है? जगत क्या है ? माया क्या है? इन चारों का आपस में क्या रिश्ता है?
    ऋषि शास्त्रों के अनुसार इन सवालों के जवाब खोजने के लिए शिष्यों को प्रेरित करते हैं। सूत्र देते हुए एक वाक्य कहते हैं, जिस पर उनकी शिष्य मंडली को हैरानी होती है। वह वाक्य है, अहं ब्रह्मास्मि! ऋषि इस सूत्रवाक्य को महावाक्य कहते हैं। आइए इस महावाक्य को समझें।

 >>>'अस्मि का अर्थ' : "अहं ब्रह्मास्मि में " 'अहं' का अर्थ मनुष्य की आत्मा है। (देहाध्यास जन्य M/F पन वाला मैं पन नहीं !) ब्रह्म का अर्थ किसी मूरत में निवास करने वाले देव से नहीं, सर्वव्यापी चेतना से बताया गया है। 'अस्मि का अर्थ' ब्रह्म और आत्मा दोनों के एकाकार हो जाने से है। इसका उल्लेख पहली बार बृहदारण्यक उपनिषद में आता है। ‘सबसे पहले केवल ब्रह्म ही था। फिर वह सर्वरूप हो गया। देवता, ऋषि, मानव जिसने भी उसका ज्ञान प्राप्त किया, वह ब्रह्म स्वरूप हो गया। जो भी यह मानता है कि ‘मैं ब्रह्म हूं’ वह सर्वरूप हो जाता है।’ अद्वैत वेदांत में चार महावाक्य आते हैं। प्रज्ञानं ब्रह्म, तत्वमसि, अयं आत्म्ब्रह्म और अहं ब्रह्मास्मि। अहं ब्रह्मास्मि इन चारों में सबसे सूक्ष्म है। यह निर्देशात्मक ना होकर हमारे अनुभव के लिए है। शंकराचार्य द्वारा दक्षिण में स्थापित वेदांत मठ का भी यह आधार वाक्य है।
>>>वेदान्त के चार महावाक्य : 
1. प्रज्ञानं ब्रह्म - “यह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है”- Consciousness is Brahman!(ऋग्वेद का ऐतरेय उपनिषद्  के अध्याय 3 खण्ड 1 मन्त्र 3) 
2. अहम् ब्रह्मास्मि-“मैं ब्रह्म हूॅे”-I am brahman. (यजुर्वेद का वृहदारण्यक उपनिषद् के अध्याय 1 ब्राह्मण 4 मन्त्र 10)
3. तत्त्वमसि-“वह ब्रह्म तु है”-Thou art That.  (सामवेद का छान्दोग्य उपनिषद् के अध्याय 6 खण्ड 8 मन्त्र 7)
4. अयमात्मा ब्रह्म-“यह आत्मा ब्रह्म है”-This self is Brahman. (अथर्ववेद का माण्डूक्य उपनिषद् के प्रथम खण्ड 1-2)” 

  ब्रह्म शब्द 'बृह' धातु से बना है, जिसका अर्थ है बढ़ना या फैलना। ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ - छान्दोग्य उपनिषद में आए इस सूत्र का अर्थ है सारा जगत ब्रह्म है। ब्रह्म जगत का कारण है, उसी में जगत उत्पन्न होता है और उसी में लीन होता है। ब्रह्म उसी तरह आत्मा में है, जिस तरह नमक को पानी में घोल देने पर नमक और पानी में भेद नहीं किया जा सकता। ‘ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति’ मुण्डकोपनिषद् भी यही कहता है। यानी जो ब्रह्म को जान लेता है, वह ब्रह्म हो जाता है।
     यहां सवाल उठता है कि यदि सभी आत्मा ब्रह्म है, तो जितने जीव हैं उतने ब्रह्म होंगे। और यदि ऐसा होगा तो अद्वैत के मूल सिद्धांत पर ही सवाल खड़ा हो जाएगा। बृहदारण्यक उपनिषद में इस शंका का समाधान करते हुए ऋषि कहते हैं - "द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च मर्त्यं चामृतं च स्थितं च यच्च सच्च त्यं च॥‘ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। या यूं कहें की वह दो रूपों से ज़ाहिर होता है - एक व्यक्त, जो मरणधर्मा है, जड़ है, स्थिर है और दूसरा वह जो अव्यक्त है, अमर्त्य है, अमृत है, सतत गतिमान है। लेकिन दोनों का मूल तत्व एक ही है।

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"हम क्या कुछ कर सकते हैं ?" (আমরা কি কিছু করতে পারি ?) [ द्वितीय अध्याय -2.3 :समस्या और समाधान (Problem and Solution) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-2.3]


3. 

 "अपने देश के लिए- क्या हम भी कुछ कर सकते हैं ?"

            स्वयं आगे बढ़ कर कुछ करना तो दूर की बात रही, इस प्रश्न को पूरी गंभीरता के साथ उठाने वाले लोगों की संख्या भी बहुत कम है। भारत इस बात को लगभग भूल ही चुका है कि विश्व मानवता के प्रति हमारा भी कोई दायित्व है। इसको ही तमोगुण से आच्छादित होना कहते हैं। किन्तु केवल भी सोचना ठीक नहीं कि हम भारत वासी कुछ भी नहीं करते हैं। हमारे लिये भी करने को ढेर सारे काम पड़े हैं न ! दूसरों की निन्दा, दूसरों का शोषण या उन्हें वंचित कर स्वार्थसिद्धि, भ्रष्टाचार के सहारे भाग्य परिवर्तन तथा सभी कठिनाइयों के लिये दूसरों को दोषी ठहराने की चेष्टा आदि कार्यों में तो हमलोग दिन-रात लगे ही रहते हैं।
         किन्तु क्या सचमुच हमारे करने योग्य ऐसा कोई कार्य नहीं है-जिसे हम अपने-अपने परिवारों के भरण-पोषण की जिम्मवारीयों का वहन करते हुए , खाली बचे हुए समय में नियमित रूप से और निष्ठापूर्वक करते रहें, तो उससे भले ही कोई व्यक्तिगत स्वार्थसिद्धि की सम्भावना तत्काल हो, परन्तु भविष्य में हमारे साथ-साथ उन सबका भी निश्चित रूप से कल्याण होगा जिनको देखने वाला कोई नहीं है ? ऐसा कार्य अवश्य है। (वह कार्य/धर्म है 'Be and Make' आंदोलन से जुड़ जाना; जिसमें दाता और ग्रहीता दोनों को लाभ होता है, बल्कि दाता को ही लाभ अधिक होता है !)    
         लेकिन आम तौर पर हम इतने स्वार्थी हो चुके हैं कि जब तक हमें इच्छा के अनुरूप सुख-भोग भरपूर प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक हम सन्तुष्ट नहीं होते। हम इस बात पर थोड़ा भी विचार नहीं करते कि इसी देश में मेरे ही जैसे अनेकों मनुष्य ऐसे हैं, जिन्हें दो वक्त का भोजन भी नसीब नहीं है, सिर छुपाने के लिये जगह नहीं है, शिक्षा नहीं मिलती, चिकित्सा नहीं मिल पाती, जिनका समाज में कोई मान या परिचय नहीं है, जो मेरे जैसा ऐशो-आराम से अपना गुजारा नहीं कर पाते हैं ! और इनकी ही झोपड़पट्टी के दूसरी तरफ आकाश को भेदता हुआ केवल विशाल निजी भवन ही नहीं खड़ा है, बल्कि पोर्टिको में कारों की कतारें भी लगी हैं। आये दिन चकाचौंध भरी पार्टियों में खाने-पीने एवं भोग-ऐश्वर्य की चीजों अम्बार लगा रहता है। उनके ये सारे ऐशो-आराम सड़क की दूसरी ओर रहने वाले मनुष्यों को उनके अधिकार से वंचित करने का परिणाम  ही तो हैं !?!? क्या इस अवस्था में परिवर्तन लाने के लिये हम कुछ नहीं कर सकते ?
          इधर मेरा अपना जीवन भी जिस प्रकार से चल रहा है, क्या उसे सुंदर कहा जा सकता है? तेल लाता हूँ तो नमक घट जाता है, नमक लाता हूँ, तो चावल खत्म हो जाता है, लिहाजा मौका मिलते ही मुझे रिश्वत लेना पड़ता है। ऐसी बात नहीं कि केवल मैं ही लेता हूँ, मैं तो देखता हूँ कि प्रत्येक दफ्तर में उपरी आय की व्यवस्था बनी हुई है। तथा जिन लोगों को पर्याप्त उपरी कमाई हो जाती है, उनकी शानो-शौकत कितनी बढ़ जाती है, परिवार-समाज में उनका रुतबा कितना बढ़ जाता है, उनकी कितनी चलती हो जाती है ! इस महंगाई के जमाने में भी बेटी की शादी में हम कितना खर्च कर देते हैं ! खाने-पीने से लेकर, मौज-मस्ती,  धूम-धड़ाके तक, हर चीज का इंतजाम रहता है। डीजल-पेट्रोल का दाम बढने के बावजूद भी  बस में भरकर ' बहु-भात ' या रिसेप्सन पार्टी में जाते हैं। फिर हर साल क्रिसमस या नए साल पर बस लेकर टूरिस्ट -प्लेस में घूमने जाते हैं, वहाँ खाने-पीने, पिकनिक मनाने के बाद लौटते समय रास्ते में पड़ने वाले किसी प्रसिद्द मन्दिर में थोड़ा चढ़ाव भी चढ़ा आते हैं, इस मन्नत के साथ कि मेरी ऊपरी आये कहीं बन्द न हो जाय या निगरानी विभाग कहीं मुझे पकड़ न ले ! सर्वोच्च पद से लेकर चतुर्थवर्गीय पद तक इस महाव्याधि से ग्रस्त है। बच्चे की पढ़ाई की जिम्मेदारी पूरा करने के लिएडोनेसन देकर लड़के को अच्छे स्कूल में दाखिला दिलवा दिया हूँ, मोटा ट्यूशन फी देकर एक उपयुक्त शिक्षक भी नियुक्त कर दिया हूँ। इतना ही नहीं,अपने मुन्ने से मुझे इतना प्रेम है कि, स्कूल-कॉलेज में अच्छे नम्बरों से पास कराने से लेकर डॉक्टरेट तक की डिग्री दिलवाने का सारा इंतजाम कर लिया हूँ। इसके बाद भी लड़का यदि होनहार निकल गया तो खुद एक गैंग बनाकर चाकू पर धार देना सीख ही जायेगा, परीक्षा में नकल करना सीख लेगा और यदि इन्भेजिलेटर मन-मुताबिक मिल गया तो अहिंसक पद्धति से- ' जीयो और जीने दो ' के सिद्धान्त के सहारे, सभी दरवाजों से होता हुआ भी बाहर आ जायेगा। और फिर एक दिन सुन्दर दीक्षान्त-भाषण सुन कर, बिना झन्झट के डिग्री लेकर घर चला आएगा।  उसके बाद, नैतिकता की  परवाह किये बिना, कहाँ कितना देने से, या किस नेता-अफसर के यहाँ बेगार खटने से नौकरी मिल जाएगी, यह सब भी सीख लेगा। उसके बाद इसी व्यवस्था या प्रणाली में और पक्का होने से, उसकी तरक्की भी होगी और उपरी आय में बढ़ोत्तरी भी होगी। 
       किन्तु समाज में जो लोग निचले स्तर पर हैं, वे क्या वहीँ रहेंगे ? यदि विषय में कुछ सोचने को कहा जाये, तो उनका उत्तर होगा- वे लोग भी मेरे जैसा करें, तब वे भी आराम से रहेंगे ! किन्तु वैसा क्या हो सकता है ? गैर-सरकारी संगठनों (NGO) में भी भ्रष्टाचार कम नहीं है! वहाँ पर भी ओभर-हेड खर्च या 'लीगल-एक्सपेंस' खाते में दिखाये जाने वाले खर्च बढ़ते ही जा रहे हैं। धोखा देकर, श्रमिकों को वंचित कर, मिलावटी और निम्न स्तर के उत्पादों का निर्माण करके भी लाभ दिखाने के लिये, उद्योगपतियों को खाते में वह सब करना पड़ता है। उनलोगों को और भी कई तरह के कार्यों में गलत खर्च करने पड़ते हैं, इसीलिये खाते में थोड़ा  उलट फेर करने को वे लोग न्यायोचित समझते हैं।
          जो लोग व्यापार करते हैं उनके उपर तो लक्ष्मी यूँ ही प्रसन्न रहती हैं ! उनको उतना झंझट भी नहीं उठाना है, केवल चालाकी से गोदाम के माल को इन-आउट (लाना-निकालना) दिखाते रहें और व्यापारी-संघ में एकता रखते हुए, बही-खाता में कोई गलती किये बिना, समय के अनुसार दाम बढ़ा दें तो रातो-रात माला-माल हुआ जा सकता है। मैं भी उन ब्लैक में बेचने वाले उत्पादों के पीछे भागते हुए अपने जीवन-मूल्यों या जीवन के मानदण्डों को जितना चाहूँ, नीचे गिरा सकता हूँ। इसके लिये मेरा तर्क केवल इतना होगा, कि आखिर इसी मंहगाई और रिश्वतखोरी के दौर में मुझे भी तो जिन्दा रहना है, अपने परिवार का भरण-पोषण मुझे भी तो करना है! किन्तु यह एक बहुत बुरा दुश्चक्र (vicious circle) है। हम जितने भी तथाकथित बुद्धिमान या चालाक लोग हैं, इस दुष्चक्र से तत्काल तो बच जाते हैं; किन्तु अपने ही वंशजों के लिये एक डरावने भविष्य की रचना कर जाते हैं। और उधर जो समाज के सबसे वंचित लोग हैं, जो अन्तिम पायदान पर खड़े थे, वे क्रमशः शून्य (nothingness) या अनस्तित्व की खाई में गिरते चले जाते हैं।
          इसी प्रकार से अपना जीवन-यापन करते हुए भी , हमलोगों में जो सूक्ष्म अनुभूतियों को व्यक्त करने की इच्छा या कलात्मकता बची रह जाती है, उन्हें व्यक्त करने के लिये हमलोग नाटक खेलते हैं, साहित्यिक चर्चा करते हैं, संगीत-संध्या आयोजित करते हैं, धार्मिक-सम्मेलन (भागवत-कथा आदि) कराते हैं, सार्वजानिक पूजा करते है, बड़ी बड़ी प्रदर्शनीयाँ लगाते हैं, मेला लगाते हैं, सांस्कृतिक-कार्यक्रम आयोजित करते हैं, या किसी समाज-सेवी 'क्लब' के सदस्य बन जाते हैं। किन्तु सच्चाई यही है कि अधिकांश समाज-सेवियों के मन में, नाम-यश पाने या अनैतिक उपायों से धन कमाने या अन्य कई प्रकार से उल्लू सीधा करने का विचार ही होता है। फिर किसी  धनाड्य या उच्च-पदस्थ व्यक्ति-विशेष में ये सब लोभ-लालच भले नहीं भी हों, किन्तु वहाँ भी निरर्थक कार्यों में लगे रहकर आत्म-सन्तुष्टि पाने की तीव्र इच्छा हो कार्य में प्रेरक शक्ति होती है। जैसे ' सर्वोच्च श्रेणी के सरकारी पदों से रिटायरमेन्ट के बाद भी दस नामी कंपनियों में डायरेक्टर का पद लेकर व्यस्त रहना' एक प्रकार से व्यर्थ के कार्यों से आत्मसन्तुष्टि पाने की  वासनापूर्ण इच्छा (lustful desire) ही है जो 'निठल्लों/निकम्मों की कर्म-लिप्तता'के सिवा और कुछ नहीं है। इसका परिणाम क्या होता है ? यही भाव (आजीवन इन्द्रियसुख प्राप्ति और बाणप्रस्थ- संन्यास आश्रम से वैराग्य का भाव)  दूसरे लोगों में भी संक्रमित होने लगती हैं। इसलिये हमलोग आज भी जो कर सकते हैं - वह यह कि इन सब व्यर्थ के कार्यों का निरीक्षण-परीक्षण करके यह विचार कर सकते हैं कि वे सभी कार्य मुझे तथा मेरे भविष्य को किस दिशा में लिये जा रहे हैं ? 
          आत्मनिरीक्षण करने पर यह समझ में आ जायेगा कि उपर से आकर्षक लगने पर भी ये कार्य आमजनों के यथार्थ कल्याण के उद्देश्य से नहीं किया जा रहे है। तब हमें तुरन्त निर्णय लेना चाहिए कि इस विषय में क्या करना उचित होगा ? विचार करना होगा कि जिन कार्यों का दायित्व  हमें सौंपा गया है या अभी अपने खाली समय में मैं जिन कार्यों को अपना शौक पूरा करने के लिये कर रहा हूँ,उससे दूसरों का यथार्थ कल्याण होगा या नहीं ?  उसके बाद दृढ़ता के साथ उसी कार्य को करना चाहिये जिससे यह विराट विषम चक्र (vicious cycle) हट जाये। यदि ऐसा नहीं किया गया तो सम्पूर्ण समाज विध्वंश के मार्ग पर चल पड़ेगा। हमलोग उसी मार्ग पर बहुत आगे निकल आये हैं, यदि अब भी नहीं रुके ओर मन को U-turn नहीं किया तो पूरे देश के लिये बहुत बड़ा संकट प्रतीक्षा कर रहा है। यदि हमलोग इस कार्य को नहीं करते हैं तो हमलोगों को मनुष्य से पशु-मानव बनने में अधिक देर नहीं लगेगी।
        हमलोग जो कुछ भी करते हैं वह सब व्यक्तिगत स्वार्थ  को पूरा करने के लिये ही करते हैं। एवं अधिकांश दल (वे तथाकथित धार्मिक दल भी हो सकते हैं ) जो कुछ भी करते हैं, वह सब दलगत स्वार्थ को पूरा करने के लिये ही करते हैं। क्योंकि हमारा दल यदि सत्ता की कुर्सी पर बना रहा तो, दल के लोगों को विशेष-सुविधायें भी मिलती रहेंगी, और गलत-सही सभी रास्तों से बहुत सारा धन जमा करने का मौका भी मिलेगा। सम्पूर्ण देशवासियों के कल्याण की चिन्ता किसे है? किन्तु 'मनुष्यत्व' की प्राप्ति लोक-कल्याण के यथार्थ कार्य में आत्मनियोग करने से ही होती है। और इसीमें यथार्थ लौकिक या सांसारिक सुख पाने की सम्भावना भी निहित होती है। इसीलिये जो व्यक्ति सभी मनुष्यों के सुख में, उसके यथार्थ कल्याण में विश्वास करते हों या ईश्वर में विश्वास करते हों, उन सब को मिल कर ऐसा कुछ करना चाहिये जिससे न केवल वर्तमान समस्यायें दूर हो सके बल्कि भविष्य में आने वाली सभी समस्यायों का समाधान भी प्राप्त हो जाय।
          वर्तमान एवं भविष्य की समस्त समस्याओं का मूल कारण चरित्र का आभाव ही है। व्यक्ति-चरित्र को गठित कर लेने से समाज का जघन्य-दुश्चक्र भी टूट जायेगा, जीवन में सुख-शांति आएगी, ओर चरित्र-निर्माण रूपी यही 'यथार्थ धर्मानुष्ठान' (Be and Make) हमारे जीवन को भी महिमामय बना देगा जो कि हमारा मानवोचित कर्तव्य है। इसी को धर्म कहा जाता है। धर्म और कुछ नहीं है। यथार्थ लोक-कल्याण (People Welfare) का कार्य करना ही धर्म है। 
    लोक-कल्याण करने का अर्थ लोगों को भिक्षा देना नहीं है, लोगों की आंतरिक शक्ति को जाग्रत कर देना ही यथार्थ समाज-सेवा है ! इसी शक्ति के जागरण से भोजन-वस्त्र भी प्राप्त होगा, कला-विज्ञान के क्षेत्र में भी उन्नति होगी, जीवन में किसी भी प्रकार का आभाव न होगा। व्यक्ति में अंतर्निहित अनन्त शक्ति (दिव्यता और पूर्णता) को जाग्रत करना ही सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। इसके लिये प्रत्येक व्यक्ति को अथक प्रयत्न करना होगा, एवं एकजुट होकर संघबद्ध प्रयास करना पड़ेगा। एकजुट होकर, संगठन बनाकर, उसे मजबूत करिये। 
       गाँव-गाँव, शहर-शहर में इस कार्य को फैला दीजिये। यदि धर्म करना चाहते हों तो इसी कार्य से यथार्थ धर्म-लाभ होगा। और यदि आप धर्म को पसंद नहीं करते हों; किन्तु कर्तव्य-निष्ठ व्यक्ति हों एवं सभी मनुष्यों के प्रति आपके हृदय में प्रेम हो तो मात्र इसी कर्तव्य का पालन करने से आपका जीवन सार्थक हो जायेगा। ऐसा कोई कार्य नहीं है जिसे आप नहीं कर सकते!  वर्तमान युग की समस्यायों के विशाल पर्वत को लाँघ पाना, कठिन प्रतीत हो सकता है। किन्तु एकता के सूत्र में बँधे व्यक्तियों के संयुक्त-प्रयास एवं दृढ-संकल्प ऊँचे से ऊँचे पहाड़ को भी न केवल लाँघ जाता है बल्कि उसको चूर-चूर कर दे सकता है।  यदि युवा-शक्ति इसी विश्वास के साथ कमर कस कर खड़ी हो जाये तथा प्रतीयमान असम्भव को संभव कर दिखाने का संकल्प लेकर आगे बढ़ें तो विश्वास कीजिये हमलोग सबकुछ कर सकते हैं !
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>>> 'मन पछितैहें अवसर बीते' , जब आप किसी को अच्छे नहीं लगेंगे, तब ईश्वर आपको अच्छा लगेगा! लेकिन तब आप कुछ कर नहीं पाएंगे। जिसके न करने से रोना पड़ता है,उसे पहले करो। वो है परमार्थ,उसे पहले करें। 'निकम्मों की कर्म-व्यस्तता में लगे रहे तो - मन पछितैहें अवसर बीते !  




    

Friday, August 3, 2012

" विचारणीय बातें " (ভাবনার কথা ) [ द्वितीय अध्याय -2.2 :समस्या और समाधान (Problem and Solution) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-2.2]We must electrify society, electrify the world.

2. 

" विचारणीय  बातें "  

आज के आम अमेरकी नागरिक का जीवन-दर्शन है कि शरीर के जल कर भस्म हो जाने के बाद कुछ भी नहीं बचता। इसीलिये " जब तक जीयो सुख से जीओ। " और  घी खाने से शरीर सुडौल बनता है, इस लिये रुपया न हो तो भी ऋण लेकर भी घी पीओ।
 अमेरिका के एक आम नागरिक द्वारा लिखित एक पत्र इस कथन की स्वीकारोक्ति मात्र है। 
         अमेरिकन बन्धु लिखते हैं - " केवल घी ही क्यों, इस देश में तो सब कुछ उधार मिल जाता है। मोटर,बंगला, बर्तन-भांडे ,फर्नीचर, गद्दा, टेलीविजन, रेफ्रिजरेटर-- उधार में क्या क्या नहीं मिलता ? जिस शहर में मैं रहता हूँ, वहाँ ऋण से प्राप्त भोगों का आकण्ठ पान कर लेने के बाद, जब  उधार देने वाली कम्पनियों का तगादा बहुत अधिक परेशान करने लगता है तब उस शहर को छोड़ कर, ऋण लेकर पुनः एक नया  जीवन प्रारंभ करने के लिये किसी दूसरे शहर की ओर निकल पड़ता हूँ। वहाँ फिर से नई नौकरी, नया घर, और आनन्द के लिये उधार में ही नया प्यार भी मिल जाता है, किसी बात की कमी नहीं होती। 
      इससे मानसिक तनाव यदि अधिक बढ़ गया तो उसको दूर करने के लिये वहीँ कोई नया साइकेट्रिस्ट (मनोचिकित्सक) भी मिल जाता है जो मेरे तनाव को हटाने के लिये कोई नई गोली लिख देता है और जिसे खाकर मैं फिर से नये सुख की खोज में लग जाता हूँ। यह केवल अमेरिका ही क्यों ? यूरोपीय साँचे में ढली हुई सभ्यता जहाँ कहीं भी गयी है, उन सभी जगहों में  मनुष्यों की दशा ऐसी ही हो गयी है, या बस होने -होने को है। हमारे देश के तथाकथित आधुनिक बुद्धि- जीवी दार्शनिकों (नई पीढ़ी को दर्शन-शास्त्र पढ़ाने वाले प्राध्यापक) ने-'शरीर के जल कर राख हो जाने के बाद क्या बचने वाला है '- इस सिद्धान्त का उत्स बड़ी मेहनत से शोध करने के बाद इसी भारतवर्ष के इतिहास के फटे पन्नों से ढूंढ़ निकाला है। और ऐसी सुन्दर सुन्दर सुख देने वाली बातें उनको इतनी 'चारू' (Charming) लगीं कि इस दर्शन का नाम ही उन्होंने "चार्वाक-दर्शन " रख दिया।चार्वाक मत के अनुसार स्त्री, पुत्र और अपने कुटुम्बियों द्वारा प्राप्त होने वाला सुख ही सुख कहलाता है, इसीको- 'जितना लूट सको सो लूट ।' इस दर्शन के अनुसार-' यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत, भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ अर्थात  जब तक जीना चाहिये सुख से जीना चाहिये, अगर साधन नही है तो दूसरे से उधार लेकर मौज करना चाहिये, श्मशान  में शरीर के जलने के बाद शरीर को किसने वापस आते देखा है?(अधिकांश लोग इन्द्रियगोचर सत्य को ही एकमात्र सत्य समझते हैं, इन्द्रियातीत सत्य का उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं होता ) लोक लुभावन और आमजन को प्रिय लगने वाला वचन ही है चारु-वाक्य। कालांतर में यही बदलकर चार्वाक हो गया।  
            सुनता हूँ कि दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार देश अमरीका ही है। यह भी सुनता हूँ कि अमरीका अपने नागरिकों को बेरोजगारी भत्ता देता है। शायद इसी कारण समूचे अमरीकी समाज ने उपभोक्तावाद को अपना रखा है। इसीलिए वे ‘खाओ-पीयो-मौज करो’ - के सिद्धान्त को जीते हैं।  ‘कल के लिए’ बचाने में विश्वास नहीं करते। उन्हें इसकी आवश्यकता अनुभव ही नहीं हुई होगी। हो भी क्यों? जब मुफ्त में सरकार ही सब कुछ देने को तैयार है तो बचत क्यों की जाए?
        आज हमारे देश में दैनिक से लेकर, साप्ताहिक,पाक्षिक, मासिक, वार्षिक समस्त पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले विज्ञापनों में या बड़े बड़े शहरों के सड़कों के किनारे लगे होर्डिंग-आदि में, सर्वत्र आकर्षक दर पर ऋण लेकर जीवन को सुख-भोग से परिपूर्ण कर लेने का विज्ञापन दिखाई देता है। इनमें, मोटर-बंगला, जमीन-जायदाद, कृषि, घर के फर्नीचर या अन्य सामानों के लिये आसान किस्तों पर ऋण मिलने की बात रहती है।
          उधार में लिये गये इन सामानों में से किसी- किसी का ऋण चुकाना भी पड़ता है. किन्तु शिक्षकों का ऋण, माँ-बाप का ऋण- जैसी बातों को तो हमने सुना भी नहीं हैं। और देश का ऋण? इसका तो सवाल ही नहीं उठता। जब देश ही अपना है, तो ऋण की बात कहाँ उठती है ? अरे, हम इस देश में रह रहे हैं यही इस देश का सौभाग्य है ! समाज तो मेरी भोग्य वस्तुओं को पाने का स्थान मात्र है, फिर वापसी की बात कहाँ है ?- इसी प्रकार के दर्शन को हम अपने जीवन में लगभग अपना चुके हैं। फिर देश के उपर ऋण भी बहुत ज्यादा है वह तो हजारों-करोड़ों डॉलर में है। 
       हमलोगों के लिये भी फुटपाथ के किनारे 20 लाख से लेकर एक करोड़ तक की लॉटरी की टिकट आसानी से मिल जाती है। फिर महंगे कपड़े पहने, माथे पर लाल टीका लगाय, बड़ी मुश्किल से घुटनों को मोड़े, आभूषण की दुकानों में या टी.वी. पर ज्योतिषी महाराज भी - बाबु की मुद्रा में बैठे मिल जाते हैं, जो तुरन्त बता देते हैं कि मेरा टिकट लगने वाला है या नहीं? हमलोगों का पहनावा-ओढ़ावा, हेयर स्टाईल, मूछें,गलमुच्छा, शिक्षा-दीक्षा, बात-व्यवहार का ढंग, यहाँ तक कि मातृ-भाषा का उच्चारण भी - सब कुछ तो उधार ही लिया हुआ है। जरा रेडिओ-टीवी खोल कर सुनिए न, लगेगा मानो हिन्दी के उद्घोषक का पूरा जीवन विदेश में ही बीता हो। और किसी प्रकार दया करके, कुछ हिन्दी शब्दों को याद रख लिया हो,  किन्तु उन्होंने पाश्चात्य भाषा का व्यवहार इतना अधिक कर लिया है, कि उनके हिन्दी बोलने का ढंग भी वैसा ही हो गया है। अंग्रेजी बोलते समय उच्चारण में थोड़ा भी इधर-उधर हो जाने से कान लाल हो जाते  हैं, ( कहना न होगा कि संस्कृत तो उनके मुख से निकलेगा ही नहीं), किन्तु हिन्दी भाषा को विकृत करने में थोड़ी भी लज्जा नहीं आती। और विचार-जगत तो पूर्णतया उधार में लिया हुआ है। देश का कल्याण करने की इच्छा भी उधार ली हुई है, और उस देश-कल्याण की इच्छा को क्रियान्वित करने का उपाय भी उधार में लेने के लिये हमलोग सदैव पश्चमी आकाओं का ही मुख निहारते रहते हैं।
          आप क्या समझते हैं ये सब क्या विचारणीय बातें नहीं हैं ? आखिर स्वाधीनता प्राप्ति के इतने वर्षों के बाद भी हम लोग ऐसा क्यों हैं - यही तो विचारणीय प्रश्न है! किन्तु केवल मेरे आपके सोचने से भला क्या होने वाला है ? सम्पूर्ण समाज का झुकाव (प्रवृति) जब दूसरी दिशा में हो तो दो-चार लोगों के अन्य प्रकार से सोचने से क्या लाभ होगा ? हम लोग तो समाज का बहाव जिस ओर है, उसी दिशा में चल पड़ने को ही सुख,शान्ति, और प्रगति की गारंटी समझते हैं। यदि ऐसा नहीं होता, तो यह सोचना ही नहीं पड़ता कि इन सब विचारणीय बातों को कहने से कोई लाभ नहीं है।
          किन्तु दो कारणों से विचारणीय बातों को कहने-सुनने का लाभ है। पहला कारण, किसी कार्य को कार्यान्वित करने वाला, या यथार्थ संपादनकर्ता कौन है ? क्या केवल किसी संगठन के संचालक या समाचारपत्र के संचालक को ही संपादक (सचिव) कहना उचित है या जिसके द्वारा किसी भी कर्म का सम्पादन होता है, वह संपादक है ? इस सिद्धान्त के अनुसार तो विचार ही सबसे बड़ा कर्म-संपादक है। क्योंकि जो कुछ संपादित होता है वह चिन्तन के बल  से ही होता है। जैसा विचार होता है, उसी के अनुसार कार्य का संपादन भी होता है। इसीलिये हमें सदैव विवेक-प्रयोग अर्थात आत्म-निरिक्षण करते रहना चाहिये, कि हमारे चिन्तन की दिशा सही है या नहीं ? यदि चिन्तन का पथ गलत हुआ तो कर्म-संपादन भी गलत होगा। वर्तमान समाज का रुझान चाहे प्रेय (भोग) की दिशा में भी क्यों न हो, उसके चिन्तन की दिशा और रुझान को यदि श्रेय (त्याग और सेवा) की दिशा में नियोजित कर दिया जाय तो समाज भी 'श्रेय-मार्ग' पर लौट आने को बाध्य होगा।
           स्वामी विवेकानन्द कहते थे - " युवाओं का एकमात्र कार्य सद्विचार-धाराओं का प्रचार-प्रसार करना ही होना चाहिये !  Ceremonials are meant for householders, your work (youth work?) is the distribution and propagation of thought-currents." इसलिए महामण्डल के मासिक मुखपत्र 'विवेक अंजन' और 'विवेक-जीवन' में छपने वाले समस्त सम्पादकीय का उद्देश्य युवाओं में आत्मश्रद्धा और आत्मविश्वास जाग्रत करके समाज  और पूरे देश को सतेज बनाने या 'electrify' करने में सहायक होना चाहिए। लेकिन, समाज की उन्नति के लिये यदि विचारों का निर्माण करना  हो, तो समाज के सच्चे स्वरुप को समझना होगा। किन्तु केवल इतने से भी नहीं होगा, समाज के आदर्श (राष्ट्रीय आदर्श) को भी जानना होगा, तभी समझ में आयेगा कि राष्ट्र की वर्तमान अवस्था  और आदर्श में इतना अंतर कैसे आ गया? उसके बाद सही विचारधारा उस अंतर को (आदर्श और वर्तमान अवस्था के बीच अन्तरको)  दूर कर देगा। इसीलिये मुझे और आपको विचारणीय बातें करनी होंगी। और सम्पूर्ण समाज में उस चिन्तन को फैला देना होगा। समाज इसी प्रकार चिरकाल से चलता आ रहा है और चिरकाल तक चलता भी रहेगा। 'बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताए' क्योंकि बिना बिचार किये कोई भी आचार, दुराचार में परिवर्तित हो जाता हैं और समाज बेलगाम हो जाता है, और आज के समाज की अवस्था बिल्कुल ऐसी हो गयी है।
              दिखिए न श्रीकृष्ण ने भी गीता सुनाते समय सर्वप्रथम विचारणीय बातों को यानि ' सांख्ययोग(सत्य-असत्य -मिथ्या में विवेक) को ही समझाया था (सांख्य अर्थात यह ज्ञान या कि 'अष्टधा प्रकृति ' या शरीर और मन नश्वर, अनित्य है तथा आत्मा अविनाशी है, नित्य है -को ही  समझाया था।) उन्होंने सबसे पहले मनुष्य के सत्ता की विलक्षणता आदि ही सुनाया था। उसके बाद (बौद्धिक व्यायाम करवा लेने के बाद) कर्म-योग के बारे में कहा था। पहले एक  लड़ाई लगवा कर, फिर युद्ध खत्म होने के बाद आराम से कहीं बैठ कर अर्जुन को तत्व-ज्ञान  का उपदेश नहीं दिया था। युद्ध-क्षेत्र में ही गीता [विवेकज-ज्ञान ] का उपदेश दिया था।
      किन्तु हमलोग अपने शास्त्रों या महापुरुषों से विशुद्ध तत्व-ज्ञान का ऋण लेने के इच्छुक नहीं हैं। जो कुछ भी तत्व-ज्ञान हमारे पास है, वह सब विदेशियों से उधार में लिया हुआ है। इसीलिये आज की प्रथम विचारणीय बात यह होनी चाहिये कि किस प्रकार इन उधार के विचारों को, उधार के जीवन का अवसान कर दिया जाय? हमलोगों को सर्वप्रथम चिन्तन करने के क्षेत्र में अपने पैरों पर खड़ा होना सीखना होगा। दूसरी बात हमें यह समझ लेनी चाहिये कि समाज की प्रवृत्ति के बहाव की दिशा - में बह जाने से कभी  सच्चा सुख नहीं मिलता, विकास भी नहीं होता है। हमलोगों ने पहले ही देखा है कि - " शरीर जल कर खाक बन जाने के बाद क्या शेष रहता है, (अर्थात कुछ नहीं या अहं रहता है ?) अतएव इस आदर्श से परिचालित होकर सुख के पीछे भागने से सुख नहीं मिलता। यह 'चार्वाक-दर्शन' वस्तुतः मानव के बौद्धिक-दिवालियेपन का [भ्रष्ट राजनीतिज्ञों का ] ही प्रकट रूप है। यदि आज भी हमलोग, उसी आदिम मन्दबुद्धि का अनुकरण करते हुए किसी अन्य देश की सभ्यता का अनुकरण करने में अपना समूचा शौर्य-वीर्य खपाते रहें, तो यह हमारे बीमारू और विकृत मानसिकता का परिचायक होगा।
ऐसा कर हमलोग विकास के पथ पर तो बिलकुल ही आरूढ़ नहीं हो सकेंगे, बल्कि निश्चित रूप पतन के राह पर चल पड़ेंगे। विचारणीय बातों का -अर्थात Be and Make आंदोलन का  "Distribution and Propagation" (वितरण एवं प्रसार) नहीं करके इसी पतन की दिशा में होने वाली गति--‘खाओ-पिओ, चैन करो’  को विकासशील कदम कह कर, बड़े उच्च कण्ठ से उसी का प्रचार करने की मूर्खता हम लोग आगे भी करेंगे या नहीं--  इस बात के उपर विचार करना क्या उचित नहीं है? 

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हमलोगों ने पहले ही देखा है कि - " शरीर जल कर खाक बन जाने के बाद क्या शेष रहता है, इसलिए .....  यही वक्त है करले पूरी आरजू -आगे भी जाने न तू पीछे भी जाने न तू ? इस पश्चिमी आदर्श से परिचालित होकर सुख के पीछे भागने से सुख नहीं मिलता।
 
न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।

प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥ 

(मनुस्मृति :श्लोक 5.56 )

There is no sin in the eating of meat, nor in wine, nor in sexual intercourse. Such is the natural way of living beings; but abstention is conducive to great rewards. 
मांस खाने में कोई पाप नहीं है, न शराब में, न संभोग में। जीवित प्राणियों का प्राकृतिक तरीका ऐसा ही है; लेकिन संयम महान पुरस्कारों के लिए अनुकूल है।—(56)। 
‘खाओ-पिओ, चैन करो’ ये बातें किसी को सिखलानी नहीं पडतीं; क्योंकि ये इंद्रियों का स्वाभाविक धर्म ही है। मनुजी ने जो कहा है कि “न मांसभक्षणो दोशो न मदये न च मैथुने’’ - अर्थात मांस भक्षण करना अथवा मदिरापान और मैथुन करना कोई सृष्टिकर्म- विरुद्ध दोष नहीं है, उसका तात्पर्य भी यही है। ये सब बातें मनुष्य ही के लिये नहीं; किंतु प्राणिमात्र के लिये स्वाभाविक हैं- “प्रवृतिरेषा भूतानाम्।’’ समाज-धारण के लिये अर्थात सब लोगों के सुख के लिये इस स्वाभाविक आचरण का उचित प्रतिबंध करना ही धर्म है। महाभारत में भी कहा हैः-

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्पषुभिर्निराणाम् । 

धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।।

अर्थात आहार, निद्रा, भय और मैथुन, मनुष्यों और पशुओं के लिये, एक ही समान स्वाभाविक हैं। मनुष्यों और पशुओं में कुछ भेद है तो केवल धर्म का अर्थात इन स्वाभाविक वृतियों को मर्यादित करने का। जिस मनुष्य में यह धर्म नहीं है वह पशु के समान ही है। आहारादि स्वाभाविक वृतियों को मर्यादित करने के विषय मे भागवत का श्लोक पिछले प्रकरण में दिया गया है। इसी प्रकार भगवद्गीता में भी जब अर्जुन से भगवान कहते है 

 -इंद्रियेस्येंद्रियस्यार्थे रागद्वषौ व्यवस्थितौ।

 तयोर्न वशमागच्छेत् तौ हास्य परिपंथिनौ ।।

“प्रत्येक इंद्रिय में, अपने-अपने उपभोग्य अथवा त्याज्य पदार्थ के विषय में, जो प्रीति अथवा द्वेष होता है वह स्वभाव सिद्ध है। इनके वश में हमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि राग और द्वेष दोनों हमारे शत्रु हैं;’’ तब भगवान भी धर्म का वही लक्षण स्वीकार करते है जो स्वाभाविक मनोवृतियों को मर्यादित करने के विषय में ऊपर दिया गया है। 
मनुष्य की इंद्रियां उसे पशु के समान आचरण करने के लिये कहा करती हैं और उसकी विवेक-सम्पन्न बुद्धि इसके विरुद्ध दिशा में खींचा करती है। इस कलहाग्नी में, जो लोग अपने शरीर में संचार करने वाले पशुत्व का यज्ञ करके कृतकृत्य (सफल) होते हैं, उन्हें ही सच्चा याज्ञिक कहना चाहिये और वही धन्य भी है

तर्कोअप्रतिष्ठः श्रुतियो विभिन्नाः नैको ऋषिर्यस्य वचः प्रमाणम् ।
 
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पंथाः ।। 

“यदि तर्क को देखें तो वह चंचल है अर्थात जिसकी बुद्धि जैसी तीव्र होती है वैसे ही अनेक प्रकार के अनेक अनुमान तर्क से निष्पन्न हो जाते हैं; श्रुति अर्थात वेदाज्ञा देखी जाये तो वह भी भिन्न भिन्न है; और यदि स्मृति शास्त्र को देखें तो ऐसा एक भी ऋषि नहीं है जिसका वचन अन्य ऋषियों की अपेक्षा अधिक प्रमाणभूत समझा जाये। अच्छा, इस व्यावहारिक धर्म का मूलतत्त्व देखा जाये तो वह भी अंधकार में छिप गया है अर्थात वह साधारण मनुष्यों की समझ में नहीं आ सकता। इसलिये महाजन जिस मार्ग से गये हों वही धर्म का मार्ग है ’’।
 ठीक है, परन्तु महाजन किस को कहना चाहिये? उसका अर्थ “बड़ा अथवा बहुतसा जनसमूह’’ नहीं हो सकता; क्योंकि जिन साधारण लोगों के मन में धर्म-अधर्म की शंका भी कभी उत्पन्न नहीं होती, उनके बतलाये मार्ग से जाना मानो कठोपनिषद में वर्णित “अन्धेनैव नीयमाना शथान्धाः’’ वाली नीति ही को चरितार्थ करना है। अब यदि महाजन का अर्थ ‘बड़े-बड़े सदाचारी पुरुष’ से लिया जाये और यही अर्थ उक्त श्लोक में अभिप्रेत है- तो, उन महाजनों के आचरण में भी एकता कहाँ है? निष्पाप श्रीरामचंद्र ने, अग्नि द्वारा शुद्ध हो जाने पर भी, अपनी पत्नी का त्याग केवल लोकापवाद के ही लिये किया; और सुग्रीव को अपने पक्ष में मिलाने के लिये, उससे “तुल्यारिमित्र’’- अर्थात जो तेरा शत्रु वही मेरा शत्रु और जो तेरा मित्र वही मेरा मित्र, इस प्रकार संधि करके, बेचारे बालि का बध किया, यद्यपि उसने श्रीरामचंद्र का कुछ अपराध नहीं किया था। परशुराम ने तो पिता की आज्ञा से प्रत्यक्ष अपनी माता का शिरश्छेद कर डाला। यदि पांडवों का आचरण देखा जाये तो पांचो की एक ही स्त्री थी। 
वही पहला प्रश्न फिर भी उठता है कि बुरा कर्म और भला कर्म समझने के लिये साधन है क्या?
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यहां उल्लिखित तीन चीजें, अपने अत्यंत प्रतिबंधित रूपों में, शरीर के रख-रखाव की दृष्टि से शास्त्रों द्वारा स्वीकृत 'जीवित रहने का प्राकृतिक तरीका' बनाती हैं। आयुर्वेद विज्ञान के लेखक कहते हैं - 'भोजन, संयम और निद्रा - ये तीन पदार्थ, नशा और स्त्री, जीवन को लम्बा खींचते हैं।'हालाँकि, यदि कोई इनके बिना रह सकता है, तो उसके लिए ' संयम /परहेज़ महान पुरस्कारों के लिए अनुकूल है ।'
यह केवल उदाहरण के तौर पर कहा गया है: ऐसी ही चीजों से सभी 'परहेज' के मामले में भी ऐसा ही है जो न तो निर्धारित हैं और न ही निषिद्ध हैं। हालाँकि, जहाँ एक निश्चित कार्य निश्चित रूप से निर्धारित किया गया है, वहाँ मनुष्य द्वारा इसे करने में कुछ भी निंदनीय नहीं है, भले ही यह केवल उस आनंद के लिए किया गया हो जो इससे उसे मिलता है; वास्तव में इस तरह के कृत्य से बचना अपने आप में निंदनीय होगा, जैसा कि 'महान पुरस्कार' की दृष्टि से किया गया है; जैसे . शहद खाना, भरपेट भोजन करना, ऊनी वस्त्र पहनना इत्यादि। सुसंस्कृत लोगों का चलन भी ऐसा ही है; पूज्य व्यास भी यही कहते हैं। दूसरी ओर, वे कार्य, जिनका लोग केवल इच्छा के माध्यम से सहारा लेते हैं, - भले ही इन्हें (मोक्ष को सभी के लिए अनिवार्य नहीं किया गया है ?)  न तो अनुमति दी गई हो और न ही निषिद्ध, - उदाहरण के लिए । हंसना, शरीर को खुजलाना वगैरह-वगैरह, इनका संयम बड़े पुरस्कारों के लिए अनुकूल होगा,-(56)

वर्तमान श्लोक से हम जो सीखते हैं (जो हम पहले से जानते हैं - मांस खाने में कोई पाप नहीं है ।' उसके अलावा) वह यह है कि ' संयम महान पुरस्कारों की ओर ले जाता है ।'  विभिन्न निंदात्मक जैन-बौद्ध ग्रंथों द्वारा यह धारणा उत्पन्न की गई है कि 'मांस नहीं खाना चाहिए।' परंतु कई प्राणियों के लिए,जीवनयापन का साधन उपलब्ध कराते हुए तथा मलिट्री  में युद्ध करने वालों के लिए  यह दावा किया गया है कि ' मांस खाने में कोई पाप नहीं है। ' जिसका अर्थ यह है कि यदि कोई ऐसा ठंढे प्रदेश में रहता हो जहाँ घोड़ा का मांस खाता है , या जो देवताओं आदि की पूजा का अवशेष है, या जो ब्राह्मणों की इच्छा से खाया जाता है, और ऊपर निर्दिष्ट समान परिस्थितियों में खाया जाता है; लेकिन यह तभी जब तक वह इसे अपनी इच्छा से खाना चाहे।
' परहेज़ ' - मांस न खाने का संकल्प लेना और फिर उससे दूर रहना - यह ' अनुकूल, महान पुरस्कार के लिए ' है। किसी विशेष पुरस्कार (मोक्ष) के उल्लेख के अभाव में स्वर्ग को ही पुरस्कार माना जाएगा। ऐसा मीमांसक कहते हैं । इसी प्रकार, 'शराब' के संबंध में, क्षत्रियों के लिए , और ' संभोग ' के संबंध में, सभी जातियों के लिए; लेकिन इसके अलावा जो अकेले हो सकता है ( ए ) 'दिन के दौरान' या ( बी ) 'महिलाओं के साथ उनके पाठ्यक्रम में', या 'पवित्र दिनों पर', (इन सभी के संबंध में संभोग निषिद्ध है)।

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We must electrify society, electrify the world. Idle gossip and barren ceremonials won't do. Ceremonials are meant for householders, your work is the distribution and propagation of thought-currents. If you can do that, then it is all right. . . .Let character be formed and then I shall be in your midst. Do you see? We want two thousand Sannyasins, nay ten, or even twenty thousand — men and women, both. What are our matrons doing? We want converts at any risk. Go and tell them, and try yourselves, heart and soul. Not householder disciples, mind you, we want Sannyasins. Let each one of you have a hundred heads tonsured — young educated men, not fools. Then you are heroes. We must make a sensation. Give up your passive attitude, gird your loins and stand up. Let me see you make some electric circuits between Calcutta and Madras. Start centres at places, go on always making converts. Convert everyone into the monastic order whoever seeks for it, irrespective of sex, and then I shall be in your midst. A huge spiritual tidal wave is coming — he who is low shall become noble, and he who is ignorant shall become the teacher of great scholars — through HIS grace. " [Summer?) 1894.DEAR AND BELOVED, (The brother-disciples at Alambazar monastery. Translated from Bengali ]

[ 'निवृत्तिस्तु महाफला।' #: चार्वाकी जीवनदर्शन परआधारित 'ऋणं कृत्वा घृतमं पिवेत' के विचारों का अवसान कर ठाकुर देव के चार रसददार के सिद्धान्त में आधारित नेता का जीवन!   अपरा विद्या और परा विद्या दोनों प्रकार की विद्या को ('गुरु-शिष्य वेदान्त डिण्डिम : ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः-  निवृत्ति अस्तु महाफला परम्परा" या ' Be and Make' C-IN-C लीडरशिप ट्रेनिंग-परम्परा' में प्राप्त कर हम इस ऋण पर आधारित जीवन का अवसान कर- अपने पैरों पर खड़े हो  सकते हैं। विवेक-जीवन ब्लॉग शनिवार, 26 अक्तूबर 2019/ 'निवृत्तिस्तु महाफला।']>>विवेक-जीवन ब्लोग्स /बुधवार, 21 अगस्त 2013/' आदर्श मनुष्यों (Ideal Man ) का निर्माण करने वाला संगठन ' [ Ideal and Organisation]
[महामण्डल ब्लॉग ' - गुरुवार, 1 दिसंबर 2016/*$$$सम्पादकीय-2* "नवनी दा की संक्षिप्त जीवनी तथा विवेकानन्द और हमारी सम्भावना पुस्तक का सारांश !"'विवेकानन्द और हमारी सम्भावना' /महामण्डल ब्लॉग ' बुधवार, 22 अगस्त 2018/भगवान श्रीराम के अवतार श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र में क्या उपदेश दिया ?आध्यात्मिक पूर्णता ' कुरुक्षेत्र में -अर्थात गृहस्थ जीवन में' रहकर भी प्राप्त की जा सकती है !/[ Spiritual Perfection is Within the Reach of All 
>>> मकर संक्रांति : राजा हर्षवर्द्धन के समय में यह पर्व 24 दिसम्बर को पड़ा था। मुग़ल बादशाह अकबर के शासन काल में 10 जनवरी को मकर संक्रांति थी। शिवाजी के जीवन काल में यह त्योहार 11 जनवरी को पड़ा था। हमलोग जानते हैं कि स्वामी विवेकानन्द का जन्म, 12  जनवरी, 1863 को मकर संक्रान्ति के सुबह में हुआ था।   सन 2012 में मकर संक्रांति 15 जनवरी यानी रविवार की थी।  
आखिर ऐसा क्यों? सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करने को ‘मकर संक्रांति’ कहा जाता है। साल 2012 में यह 14 जनवरी की मध्यरात्रि में था। इसलिए उदय तिथि के अनुसार मकर संक्रांति 15 जनवरी को पड़ी थी। दरअसल हर साल सूर्य का धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश 20 मिनट की देरी से होता है। इस तरह हर तीन साल के बाद सूर्य एक घंटे बाद और हर 72 साल में एक दिन की देरी से मकर राशि में प्रवेश करता है। मतलब 1728 (72 गुणा 24) साल में फिर सूर्य का मकर राशि में प्रवेश एक दिन की देरी से होगा और इस तरह 2080 के बाद ‘मकर संक्रांति’ 15 जनवरी को पड़ेगी। ज्योतिषीय आकलन के अनुसार सूर्य की गति प्रतिवर्ष 20 सेकेंड बढ़ रही है। माना जाता है कि आज से 1000 साल पहले मकर संक्रांति 31 दिसंबर को मनाई जाती थी। पिछले एक हज़ार साल में इसके दो हफ्ते आगे खिसक जाने की वजह से 14 जनवरी को मनाई जाने लगी। अब सूर्य की चाल के आधार पर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि 5000 साल बाद मकर संक्रांति फ़रवरी महीने के अंत में मनाई जाएगी
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Wednesday, August 1, 2012

" आशा और निराशा " (আশা ও নিরাশা )[ द्वितीय अध्याय -2.1 :समस्या और समाधान (Problem and Solution) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-2.1]

1.  

 " आशा और निराशा "

    कई शताब्दियों तक गुलामी की बेड़ियों में जकड़े रहने के बाद समस्याओं के पहाड़ /अम्बार को सिर पर उठाये जिस दिन पराधीन भारत में स्वाधीनता का अरुणोदय हुआ था, कितने ही प्रकार के दुःखों से घिरे होने के बावजूद भी, उस दिन मन में आशा की एक किरण फूट पड़ी थी। लगा था,अब देशवासियों के लिए 'भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा' की कमी नहीं रहेगी। हम सोचने लगे थे कि विश्व के समस्त राष्ट्रों के बीच भारतवर्ष अपना खोया हुआ गौरव पुनः प्राप्त कर लेगा। किन्तु मन में घर किये बैठी अन्य आशाओं-आकाकंक्षाओं की भाँति यह आशा भी अभी तक मरीचिका (mirage, कल्पना या भ्रम) ही बनी हुई है
          कुछ ही दिनों पूर्व जब पूरे जोर-शोर से भारतीय गणतन्त्र दिवस (26 जनवरी,1950)  की बीसवीं वर्षगाँठ मनाई जा रही थी (यह लेख 1970 में महामण्डल की संवाद पत्रिका Vivek-Jivan में प्रकाशित हुआ था) और लगभग उसी समय (12 जनवरी, 1970 को) स्वामी विवेकानन्द का जन्मोत्सव भी मनाया गया था- तब मन में स्वाभाविक तौर से यह प्रश्न उठा था- अब भी देश का ऐसा हाल क्यों है ? शासन करने का अधिकार अपने हाथों में आने के बाद भी 
अभी तक भारत की आम जनता के चेहरों पर मुस्कान क्यों नहीं आ सकी है ? आज भी भारत के तरुणों- युवाओं की आँखों में आशा की चमक के बदले हताशा ही क्यों दिखाई दे रही है ? क्यों  हमलोग एक राष्ट्र के रूप में ['संप्रभुता सम्पन्न राष्ट्र' (Sovereign nation) के रूप में]  आज भी विश्व सभा में गौरव-पूर्ण आसन पर प्रतिष्ठित नहीं हो सके हैं ?
        इन सभी प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर जान लेना बहुत आवश्यक है। क्योंकि रोग की पहचान (diagnosis) ठीक से नहीं होने पर उससे मुक्त होना संभव नहीं होता। आज राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जो कुछ भी अधःपतन दिखाई दे रहा है, उसका कारण यह है कि हमलोगों के राष्ट्रीय-चरित्र में ईमानदारी लगभग विलुप्त हो चुकी है और चारों ओर भ्रष्टाचार व्याप्त हो चुका है। हमारे अन्दर से देशप्रेम गायब हो गया है जो राष्ट्रीय स्वार्थ को व्यक्ति स्वार्थ के उपर स्थान देना सिखालाता है। हमारे भीतर देश के लिए वैसी उत्कट देशभक्ति नहीं है, अपने देशवासियों के प्रति वह प्रेम नहीं है जो समाज के शोषितो, वंचितों, उपेक्षितों, जनसाधारण, नीच, मूर्ख, दरिद्र, अज्ञ, मोची, मेहतर - सबों को अपना भाई, अपने रक्त के रूप में देखना सिखाता है। इन सबका जो परिणाम होना चाहिए, वही हो रहा है।  [यानि स्वाधीन भारत में 'मनुष्य -निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा' का प्रचार -प्रसार करने के बदले, इस प्रचलित 'बाबू (आई.ए.एस या क्लर्कबनाने वाली शिक्षा' व्यवस्था  लागु रहने के परिणामस्वरूप जो परिणाम होना चाहिये, वही हो रहा है। ]
            स्वामीजी ने अपने देशवासियों को साक्षात् देवता मानकर (जनताजनार्दन मानकर)  उनकी पूजा करने का संदेश दिया था। उन्होंने कहा था-"मैंने इतनी तपस्या करके जो समझा है उसका सार यही है कि सभी जीवों में वे (ईश्वर-एकोहं बहु स्याम) ही अधिष्ठित हैं। इसके अतिरिक्त ईश्वर और कुछ भी नहीं है। ईश्वर के अनुग्रह से यदि तुम उनके किसी सन्तान की सेवा कर सको तो तुम धन्य हो जाओगे। अतएव (हमेशा दासोऽहं का भाव रखो) अपने को कभी दूसरों की अपेक्षा बहुत बड़ा मत समझो। तुम धन्य हो, क्योंकि तुमको सेवा करने का अधिकार मिला है। यह सेवा तुम्हारे लिये पूजा के तुल्य है।" (उच्च स्तर की समाज सेवा -दूसरों की आध्यात्मिक दृष्टि खोलने की सेवा तुम्हारे लिये पूजा के तुल्य है।) लेकिन स्वामीजी के इन संदेशों को सुन कर काम में लग जायें, वैसी हृदयवत्ता कहाँ है ? 
       जब प्रत्येक भारतवासी स्वामीजी के आदर्श को अपने जीवन में धारण करने के लिए प्रतिबद्ध होगा तभी वह पदावनत भारत को पुनर्जाग्रत करने के लिए वचनबद्ध होगा। व्यक्ति-जीवन के सबल बन जाने पर ही स्वस्थ समाज और राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण संभव हो सकता है। समस्त निराशाओं के बीच स्वामीजी के जीवन्त संदेशों में ही भविष्य के भारत की आशा को साकार करने का बीज निहित है। 
           6 अप्रैल 1897 को सरला घोषाल को लिखित पत्र में स्वामी जी कहते हैं- " हे महाभागे! मैंने जापान में सुना कि वहाँ के लड़कियों को यह विश्वास है कि यदि उनके गुड़ियों को हृदय से प्यार किया जाय तो वे जीवित हो उठेंगी। जापानी बालिका अपनी गुड़िया को कभी नहीं तोड़ती। मेरा भी विश्वास है कि यदि हतश्री, अभागे, निर्बुद्धि, पददलित, चिर बुभुक्षित, झगड़ालू और ईर्ष्यालु भारतवासियों को भी कोई हृदय से प्यार करने लगे, तो भारत पुनः जाग्रत हो जायेगा। भारत तभी जागेगा जब विशाल हृदयवाले सैकड़ो स्त्री-पुरुष भोग-विलास और सुख की सभी इच्छाओं को विसर्जित कर मन, वचन और शरीर से उन करोड़ों भारतियों के कल्याण के लिये सचेष्ट होंगे जो दरिद्रता तथा मूर्खता के अगाध सागर में निरन्तर नीचे डूबते जा रहे हैं।" इसीलिये विशाल-हृदय वाले युवाओं का आह्वान करते हुए विवेकानन्द कहते हैं -"मोहग्रस्त लोगों की ओर दृष्टिपात करो। हाय ! हृदय-भेदकारी करुणापूर्ण उनके आर्तनाद को सुनो। "हे वीरों, बद्धों को पाशमुक्त करने, दरिद्रों के कष्ट को कम करने तथा अज्ञ-जनों के हृदय के अंधकार को दूर करने के लिये आगे बढ़ो ! 'अभिः,अभिः'! 'डरो नहीं','डरो नहीं'- यही वेदान्त-डिण्डिम का स्पष्ट उद्घोष है। " 
" कोई कृति खो नहीं सकती 
और न कोई संघर्ष व्यर्थ जायेगा, 
भले ही आशाएँ क्षीण हो जायें, 
और शक्तियाँ जवाब दे दें।
फिर भी धैर्य धरो कुछ देर- हे वीर हृदय, 
तुम्हारे उत्तराधिकारी अवश्य जन्मेंगे,   
 और कोई भी सत्कर्म निष्फल न होगा ! " 
 (वि० सा० १० /पृष्ठ १८९ )
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" अभिः,अभिः, डरो नहीं,डरो नहीं!" 

"जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं मैं नहीं।
प्रेम गली अति सांकरी , तामें दो न समनहि।।

 अधिकांश लोग प्रियजन के लिए नहीं, बल्कि अपने व्यक्तिगत अभाव के लिए शोक मनाते हैं। हमारे जीवन में आने वाले सभी अच्छे या बुरे सभी प्रकार के व्यक्ति वास्तव में हमारे प्रति ईश्वर के प्रेम की अभिव्यक्ति हैं। क्योंकि -
 
"ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।
 
अनेन वेद्यं सत्-शास्त्रम् इति वेदांत-डिण्डिमः।"

[ब्रह्म सत्यम्। जगत् मिथ्या। जीवः ब्रह्म एव। न अपरः। अनेन वेद्यं सत्-शास्त्रम् इति वेदांत-डिण्डिमः ।]
ब्रह्म सत्य (यथार्थ) है,  ब्रह्माण्ड मिथ्या है।  (इसे यथार्थ या असत्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता)। जीव ही ब्रह्म है और भिन्न नहीं। यहाँ मिथ्या का अर्थ अस्तित्वहीन नहीं है बल्कि मिथ्या का अर्थ है कि इसे वास्तविक या अवास्तविक के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। जीव स्वयं ब्रह्म है, भिन्न नहीं। अतः प्रत्येक व्यक्ति स्वयं भगवान है। इसे सही शास्त्र के रूप में समझना चाहिए। यह वेदांत द्वारा घोषित किया गया है।
    अतएव प्रत्येक मित्र - चाहे वह रिश्तेदार हो, मित्र हो या जीवनसाथी हो - चाहे वह अभी हमारे साथ हो या जो इस धरती को छोड़ चुका हो, एक माध्यम है जिसके माध्यम से ईश्वर स्वयं अपनी मित्रता का प्रतीक है। मित्र/शत्रु के  भेष में भगवान ही होते हैं। और वह "CINC नवनीदा " ईश्वर ही है जो कुछ समय के लिए एक प्यारे बेटे या बेटी या माँ, पिता, मित्र या प्रिय के रूप में प्रकट होता है - और वह ही है जो फिर से दृश्य से गायब हो जाता है। यदि कर्म बंधन मजबूत हैं, विशेष रूप से आध्यात्मिक बंधन, तो वह अलग-अलग अवतारों में उन्हीं आत्माओं के साथ फिर से रिश्ते में आ सकता है। 
   यह ईश्वर है, और केवल ईश्वर ही है, जिसने स्वयं को उन सभी मनुष्यों में आत्मा के रूप में समाहित किया है जिन्हें उसने बनाया है। और जब एक इंसान दूसरे इंसान को शुद्ध दिव्य प्रेम से प्यार करता है, तो वह उस व्यक्ति में भगवान की भावना को प्रकट होता हुआ देखता है। जो लोग प्रत्येक मनुष्य के भीतर वास करने वाली आत्मा से प्रेम करते हैं वे स्थायी आनंद का अनुभव करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि आत्मा अमर है - मृत्यु उसे बिल्कुल भी नहीं छू सकती। केवल वे लोग जिनके पास यह सच्चा ज्ञान है, वे ही अपने लिए इस प्रकार असाधारण जीवन डिजाइन करने में सक्षम हैं।
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