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Friday, August 3, 2012

" विचारणीय बातें " (ভাবনার কথা ) [ द्वितीय अध्याय -2.2 :समस्या और समाधान (Problem and Solution) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-2.2]We must electrify society, electrify the world.

2. 

" विचारणीय  बातें "  

आज के आम अमेरकी नागरिक का जीवन-दर्शन है कि शरीर के जल कर भस्म हो जाने के बाद कुछ भी नहीं बचता। इसीलिये " जब तक जीयो सुख से जीओ। " और  घी खाने से शरीर सुडौल बनता है, इस लिये रुपया न हो तो भी ऋण लेकर भी घी पीओ।
 अमेरिका के एक आम नागरिक द्वारा लिखित एक पत्र इस कथन की स्वीकारोक्ति मात्र है। 
         अमेरिकन बन्धु लिखते हैं - " केवल घी ही क्यों, इस देश में तो सब कुछ उधार मिल जाता है। मोटर,बंगला, बर्तन-भांडे ,फर्नीचर, गद्दा, टेलीविजन, रेफ्रिजरेटर-- उधार में क्या क्या नहीं मिलता ? जिस शहर में मैं रहता हूँ, वहाँ ऋण से प्राप्त भोगों का आकण्ठ पान कर लेने के बाद, जब  उधार देने वाली कम्पनियों का तगादा बहुत अधिक परेशान करने लगता है तब उस शहर को छोड़ कर, ऋण लेकर पुनः एक नया  जीवन प्रारंभ करने के लिये किसी दूसरे शहर की ओर निकल पड़ता हूँ। वहाँ फिर से नई नौकरी, नया घर, और आनन्द के लिये उधार में ही नया प्यार भी मिल जाता है, किसी बात की कमी नहीं होती। 
      इससे मानसिक तनाव यदि अधिक बढ़ गया तो उसको दूर करने के लिये वहीँ कोई नया साइकेट्रिस्ट (मनोचिकित्सक) भी मिल जाता है जो मेरे तनाव को हटाने के लिये कोई नई गोली लिख देता है और जिसे खाकर मैं फिर से नये सुख की खोज में लग जाता हूँ। यह केवल अमेरिका ही क्यों ? यूरोपीय साँचे में ढली हुई सभ्यता जहाँ कहीं भी गयी है, उन सभी जगहों में  मनुष्यों की दशा ऐसी ही हो गयी है, या बस होने -होने को है। हमारे देश के तथाकथित आधुनिक बुद्धि- जीवी दार्शनिकों (नई पीढ़ी को दर्शन-शास्त्र पढ़ाने वाले प्राध्यापक) ने-'शरीर के जल कर राख हो जाने के बाद क्या बचने वाला है '- इस सिद्धान्त का उत्स बड़ी मेहनत से शोध करने के बाद इसी भारतवर्ष के इतिहास के फटे पन्नों से ढूंढ़ निकाला है। और ऐसी सुन्दर सुन्दर सुख देने वाली बातें उनको इतनी 'चारू' (Charming) लगीं कि इस दर्शन का नाम ही उन्होंने "चार्वाक-दर्शन " रख दिया।चार्वाक मत के अनुसार स्त्री, पुत्र और अपने कुटुम्बियों द्वारा प्राप्त होने वाला सुख ही सुख कहलाता है, इसीको- 'जितना लूट सको सो लूट ।' इस दर्शन के अनुसार-' यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत, भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ अर्थात  जब तक जीना चाहिये सुख से जीना चाहिये, अगर साधन नही है तो दूसरे से उधार लेकर मौज करना चाहिये, श्मशान  में शरीर के जलने के बाद शरीर को किसने वापस आते देखा है?(अधिकांश लोग इन्द्रियगोचर सत्य को ही एकमात्र सत्य समझते हैं, इन्द्रियातीत सत्य का उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं होता ) लोक लुभावन और आमजन को प्रिय लगने वाला वचन ही है चारु-वाक्य। कालांतर में यही बदलकर चार्वाक हो गया।  
            सुनता हूँ कि दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार देश अमरीका ही है। यह भी सुनता हूँ कि अमरीका अपने नागरिकों को बेरोजगारी भत्ता देता है। शायद इसी कारण समूचे अमरीकी समाज ने उपभोक्तावाद को अपना रखा है। इसीलिए वे ‘खाओ-पीयो-मौज करो’ - के सिद्धान्त को जीते हैं।  ‘कल के लिए’ बचाने में विश्वास नहीं करते। उन्हें इसकी आवश्यकता अनुभव ही नहीं हुई होगी। हो भी क्यों? जब मुफ्त में सरकार ही सब कुछ देने को तैयार है तो बचत क्यों की जाए?
        आज हमारे देश में दैनिक से लेकर, साप्ताहिक,पाक्षिक, मासिक, वार्षिक समस्त पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले विज्ञापनों में या बड़े बड़े शहरों के सड़कों के किनारे लगे होर्डिंग-आदि में, सर्वत्र आकर्षक दर पर ऋण लेकर जीवन को सुख-भोग से परिपूर्ण कर लेने का विज्ञापन दिखाई देता है। इनमें, मोटर-बंगला, जमीन-जायदाद, कृषि, घर के फर्नीचर या अन्य सामानों के लिये आसान किस्तों पर ऋण मिलने की बात रहती है।
          उधार में लिये गये इन सामानों में से किसी- किसी का ऋण चुकाना भी पड़ता है. किन्तु शिक्षकों का ऋण, माँ-बाप का ऋण- जैसी बातों को तो हमने सुना भी नहीं हैं। और देश का ऋण? इसका तो सवाल ही नहीं उठता। जब देश ही अपना है, तो ऋण की बात कहाँ उठती है ? अरे, हम इस देश में रह रहे हैं यही इस देश का सौभाग्य है ! समाज तो मेरी भोग्य वस्तुओं को पाने का स्थान मात्र है, फिर वापसी की बात कहाँ है ?- इसी प्रकार के दर्शन को हम अपने जीवन में लगभग अपना चुके हैं। फिर देश के उपर ऋण भी बहुत ज्यादा है वह तो हजारों-करोड़ों डॉलर में है। 
       हमलोगों के लिये भी फुटपाथ के किनारे 20 लाख से लेकर एक करोड़ तक की लॉटरी की टिकट आसानी से मिल जाती है। फिर महंगे कपड़े पहने, माथे पर लाल टीका लगाय, बड़ी मुश्किल से घुटनों को मोड़े, आभूषण की दुकानों में या टी.वी. पर ज्योतिषी महाराज भी - बाबु की मुद्रा में बैठे मिल जाते हैं, जो तुरन्त बता देते हैं कि मेरा टिकट लगने वाला है या नहीं? हमलोगों का पहनावा-ओढ़ावा, हेयर स्टाईल, मूछें,गलमुच्छा, शिक्षा-दीक्षा, बात-व्यवहार का ढंग, यहाँ तक कि मातृ-भाषा का उच्चारण भी - सब कुछ तो उधार ही लिया हुआ है। जरा रेडिओ-टीवी खोल कर सुनिए न, लगेगा मानो हिन्दी के उद्घोषक का पूरा जीवन विदेश में ही बीता हो। और किसी प्रकार दया करके, कुछ हिन्दी शब्दों को याद रख लिया हो,  किन्तु उन्होंने पाश्चात्य भाषा का व्यवहार इतना अधिक कर लिया है, कि उनके हिन्दी बोलने का ढंग भी वैसा ही हो गया है। अंग्रेजी बोलते समय उच्चारण में थोड़ा भी इधर-उधर हो जाने से कान लाल हो जाते  हैं, ( कहना न होगा कि संस्कृत तो उनके मुख से निकलेगा ही नहीं), किन्तु हिन्दी भाषा को विकृत करने में थोड़ी भी लज्जा नहीं आती। और विचार-जगत तो पूर्णतया उधार में लिया हुआ है। देश का कल्याण करने की इच्छा भी उधार ली हुई है, और उस देश-कल्याण की इच्छा को क्रियान्वित करने का उपाय भी उधार में लेने के लिये हमलोग सदैव पश्चमी आकाओं का ही मुख निहारते रहते हैं।
          आप क्या समझते हैं ये सब क्या विचारणीय बातें नहीं हैं ? आखिर स्वाधीनता प्राप्ति के इतने वर्षों के बाद भी हम लोग ऐसा क्यों हैं - यही तो विचारणीय प्रश्न है! किन्तु केवल मेरे आपके सोचने से भला क्या होने वाला है ? सम्पूर्ण समाज का झुकाव (प्रवृति) जब दूसरी दिशा में हो तो दो-चार लोगों के अन्य प्रकार से सोचने से क्या लाभ होगा ? हम लोग तो समाज का बहाव जिस ओर है, उसी दिशा में चल पड़ने को ही सुख,शान्ति, और प्रगति की गारंटी समझते हैं। यदि ऐसा नहीं होता, तो यह सोचना ही नहीं पड़ता कि इन सब विचारणीय बातों को कहने से कोई लाभ नहीं है।
          किन्तु दो कारणों से विचारणीय बातों को कहने-सुनने का लाभ है। पहला कारण, किसी कार्य को कार्यान्वित करने वाला, या यथार्थ संपादनकर्ता कौन है ? क्या केवल किसी संगठन के संचालक या समाचारपत्र के संचालक को ही संपादक (सचिव) कहना उचित है या जिसके द्वारा किसी भी कर्म का सम्पादन होता है, वह संपादक है ? इस सिद्धान्त के अनुसार तो विचार ही सबसे बड़ा कर्म-संपादक है। क्योंकि जो कुछ संपादित होता है वह चिन्तन के बल  से ही होता है। जैसा विचार होता है, उसी के अनुसार कार्य का संपादन भी होता है। इसीलिये हमें सदैव विवेक-प्रयोग अर्थात आत्म-निरिक्षण करते रहना चाहिये, कि हमारे चिन्तन की दिशा सही है या नहीं ? यदि चिन्तन का पथ गलत हुआ तो कर्म-संपादन भी गलत होगा। वर्तमान समाज का रुझान चाहे प्रेय (भोग) की दिशा में भी क्यों न हो, उसके चिन्तन की दिशा और रुझान को यदि श्रेय (त्याग और सेवा) की दिशा में नियोजित कर दिया जाय तो समाज भी 'श्रेय-मार्ग' पर लौट आने को बाध्य होगा।
           स्वामी विवेकानन्द कहते थे - " युवाओं का एकमात्र कार्य सद्विचार-धाराओं का प्रचार-प्रसार करना ही होना चाहिये !  Ceremonials are meant for householders, your work (youth work?) is the distribution and propagation of thought-currents." इसलिए महामण्डल के मासिक मुखपत्र 'विवेक अंजन' और 'विवेक-जीवन' में छपने वाले समस्त सम्पादकीय का उद्देश्य युवाओं में आत्मश्रद्धा और आत्मविश्वास जाग्रत करके समाज  और पूरे देश को सतेज बनाने या 'electrify' करने में सहायक होना चाहिए। लेकिन, समाज की उन्नति के लिये यदि विचारों का निर्माण करना  हो, तो समाज के सच्चे स्वरुप को समझना होगा। किन्तु केवल इतने से भी नहीं होगा, समाज के आदर्श (राष्ट्रीय आदर्श) को भी जानना होगा, तभी समझ में आयेगा कि राष्ट्र की वर्तमान अवस्था  और आदर्श में इतना अंतर कैसे आ गया? उसके बाद सही विचारधारा उस अंतर को (आदर्श और वर्तमान अवस्था के बीच अन्तरको)  दूर कर देगा। इसीलिये मुझे और आपको विचारणीय बातें करनी होंगी। और सम्पूर्ण समाज में उस चिन्तन को फैला देना होगा। समाज इसी प्रकार चिरकाल से चलता आ रहा है और चिरकाल तक चलता भी रहेगा। 'बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताए' क्योंकि बिना बिचार किये कोई भी आचार, दुराचार में परिवर्तित हो जाता हैं और समाज बेलगाम हो जाता है, और आज के समाज की अवस्था बिल्कुल ऐसी हो गयी है।
              दिखिए न श्रीकृष्ण ने भी गीता सुनाते समय सर्वप्रथम विचारणीय बातों को यानि ' सांख्ययोग(सत्य-असत्य -मिथ्या में विवेक) को ही समझाया था (सांख्य अर्थात यह ज्ञान या कि 'अष्टधा प्रकृति ' या शरीर और मन नश्वर, अनित्य है तथा आत्मा अविनाशी है, नित्य है -को ही  समझाया था।) उन्होंने सबसे पहले मनुष्य के सत्ता की विलक्षणता आदि ही सुनाया था। उसके बाद (बौद्धिक व्यायाम करवा लेने के बाद) कर्म-योग के बारे में कहा था। पहले एक  लड़ाई लगवा कर, फिर युद्ध खत्म होने के बाद आराम से कहीं बैठ कर अर्जुन को तत्व-ज्ञान  का उपदेश नहीं दिया था। युद्ध-क्षेत्र में ही गीता [विवेकज-ज्ञान ] का उपदेश दिया था।
      किन्तु हमलोग अपने शास्त्रों या महापुरुषों से विशुद्ध तत्व-ज्ञान का ऋण लेने के इच्छुक नहीं हैं। जो कुछ भी तत्व-ज्ञान हमारे पास है, वह सब विदेशियों से उधार में लिया हुआ है। इसीलिये आज की प्रथम विचारणीय बात यह होनी चाहिये कि किस प्रकार इन उधार के विचारों को, उधार के जीवन का अवसान कर दिया जाय? हमलोगों को सर्वप्रथम चिन्तन करने के क्षेत्र में अपने पैरों पर खड़ा होना सीखना होगा। दूसरी बात हमें यह समझ लेनी चाहिये कि समाज की प्रवृत्ति के बहाव की दिशा - में बह जाने से कभी  सच्चा सुख नहीं मिलता, विकास भी नहीं होता है। हमलोगों ने पहले ही देखा है कि - " शरीर जल कर खाक बन जाने के बाद क्या शेष रहता है, (अर्थात कुछ नहीं या अहं रहता है ?) अतएव इस आदर्श से परिचालित होकर सुख के पीछे भागने से सुख नहीं मिलता। यह 'चार्वाक-दर्शन' वस्तुतः मानव के बौद्धिक-दिवालियेपन का [भ्रष्ट राजनीतिज्ञों का ] ही प्रकट रूप है। यदि आज भी हमलोग, उसी आदिम मन्दबुद्धि का अनुकरण करते हुए किसी अन्य देश की सभ्यता का अनुकरण करने में अपना समूचा शौर्य-वीर्य खपाते रहें, तो यह हमारे बीमारू और विकृत मानसिकता का परिचायक होगा।
ऐसा कर हमलोग विकास के पथ पर तो बिलकुल ही आरूढ़ नहीं हो सकेंगे, बल्कि निश्चित रूप पतन के राह पर चल पड़ेंगे। विचारणीय बातों का -अर्थात Be and Make आंदोलन का  "Distribution and Propagation" (वितरण एवं प्रसार) नहीं करके इसी पतन की दिशा में होने वाली गति--‘खाओ-पिओ, चैन करो’  को विकासशील कदम कह कर, बड़े उच्च कण्ठ से उसी का प्रचार करने की मूर्खता हम लोग आगे भी करेंगे या नहीं--  इस बात के उपर विचार करना क्या उचित नहीं है? 

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हमलोगों ने पहले ही देखा है कि - " शरीर जल कर खाक बन जाने के बाद क्या शेष रहता है, इसलिए .....  यही वक्त है करले पूरी आरजू -आगे भी जाने न तू पीछे भी जाने न तू ? इस पश्चिमी आदर्श से परिचालित होकर सुख के पीछे भागने से सुख नहीं मिलता।
 
न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।

प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥ 

(मनुस्मृति :श्लोक 5.56 )

There is no sin in the eating of meat, nor in wine, nor in sexual intercourse. Such is the natural way of living beings; but abstention is conducive to great rewards. 
मांस खाने में कोई पाप नहीं है, न शराब में, न संभोग में। जीवित प्राणियों का प्राकृतिक तरीका ऐसा ही है; लेकिन संयम महान पुरस्कारों के लिए अनुकूल है।—(56)। 
‘खाओ-पिओ, चैन करो’ ये बातें किसी को सिखलानी नहीं पडतीं; क्योंकि ये इंद्रियों का स्वाभाविक धर्म ही है। मनुजी ने जो कहा है कि “न मांसभक्षणो दोशो न मदये न च मैथुने’’ - अर्थात मांस भक्षण करना अथवा मदिरापान और मैथुन करना कोई सृष्टिकर्म- विरुद्ध दोष नहीं है, उसका तात्पर्य भी यही है। ये सब बातें मनुष्य ही के लिये नहीं; किंतु प्राणिमात्र के लिये स्वाभाविक हैं- “प्रवृतिरेषा भूतानाम्।’’ समाज-धारण के लिये अर्थात सब लोगों के सुख के लिये इस स्वाभाविक आचरण का उचित प्रतिबंध करना ही धर्म है। महाभारत में भी कहा हैः-

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्पषुभिर्निराणाम् । 

धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।।

अर्थात आहार, निद्रा, भय और मैथुन, मनुष्यों और पशुओं के लिये, एक ही समान स्वाभाविक हैं। मनुष्यों और पशुओं में कुछ भेद है तो केवल धर्म का अर्थात इन स्वाभाविक वृतियों को मर्यादित करने का। जिस मनुष्य में यह धर्म नहीं है वह पशु के समान ही है। आहारादि स्वाभाविक वृतियों को मर्यादित करने के विषय मे भागवत का श्लोक पिछले प्रकरण में दिया गया है। इसी प्रकार भगवद्गीता में भी जब अर्जुन से भगवान कहते है 

 -इंद्रियेस्येंद्रियस्यार्थे रागद्वषौ व्यवस्थितौ।

 तयोर्न वशमागच्छेत् तौ हास्य परिपंथिनौ ।।

“प्रत्येक इंद्रिय में, अपने-अपने उपभोग्य अथवा त्याज्य पदार्थ के विषय में, जो प्रीति अथवा द्वेष होता है वह स्वभाव सिद्ध है। इनके वश में हमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि राग और द्वेष दोनों हमारे शत्रु हैं;’’ तब भगवान भी धर्म का वही लक्षण स्वीकार करते है जो स्वाभाविक मनोवृतियों को मर्यादित करने के विषय में ऊपर दिया गया है। 
मनुष्य की इंद्रियां उसे पशु के समान आचरण करने के लिये कहा करती हैं और उसकी विवेक-सम्पन्न बुद्धि इसके विरुद्ध दिशा में खींचा करती है। इस कलहाग्नी में, जो लोग अपने शरीर में संचार करने वाले पशुत्व का यज्ञ करके कृतकृत्य (सफल) होते हैं, उन्हें ही सच्चा याज्ञिक कहना चाहिये और वही धन्य भी है

तर्कोअप्रतिष्ठः श्रुतियो विभिन्नाः नैको ऋषिर्यस्य वचः प्रमाणम् ।
 
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पंथाः ।। 

“यदि तर्क को देखें तो वह चंचल है अर्थात जिसकी बुद्धि जैसी तीव्र होती है वैसे ही अनेक प्रकार के अनेक अनुमान तर्क से निष्पन्न हो जाते हैं; श्रुति अर्थात वेदाज्ञा देखी जाये तो वह भी भिन्न भिन्न है; और यदि स्मृति शास्त्र को देखें तो ऐसा एक भी ऋषि नहीं है जिसका वचन अन्य ऋषियों की अपेक्षा अधिक प्रमाणभूत समझा जाये। अच्छा, इस व्यावहारिक धर्म का मूलतत्त्व देखा जाये तो वह भी अंधकार में छिप गया है अर्थात वह साधारण मनुष्यों की समझ में नहीं आ सकता। इसलिये महाजन जिस मार्ग से गये हों वही धर्म का मार्ग है ’’।
 ठीक है, परन्तु महाजन किस को कहना चाहिये? उसका अर्थ “बड़ा अथवा बहुतसा जनसमूह’’ नहीं हो सकता; क्योंकि जिन साधारण लोगों के मन में धर्म-अधर्म की शंका भी कभी उत्पन्न नहीं होती, उनके बतलाये मार्ग से जाना मानो कठोपनिषद में वर्णित “अन्धेनैव नीयमाना शथान्धाः’’ वाली नीति ही को चरितार्थ करना है। अब यदि महाजन का अर्थ ‘बड़े-बड़े सदाचारी पुरुष’ से लिया जाये और यही अर्थ उक्त श्लोक में अभिप्रेत है- तो, उन महाजनों के आचरण में भी एकता कहाँ है? निष्पाप श्रीरामचंद्र ने, अग्नि द्वारा शुद्ध हो जाने पर भी, अपनी पत्नी का त्याग केवल लोकापवाद के ही लिये किया; और सुग्रीव को अपने पक्ष में मिलाने के लिये, उससे “तुल्यारिमित्र’’- अर्थात जो तेरा शत्रु वही मेरा शत्रु और जो तेरा मित्र वही मेरा मित्र, इस प्रकार संधि करके, बेचारे बालि का बध किया, यद्यपि उसने श्रीरामचंद्र का कुछ अपराध नहीं किया था। परशुराम ने तो पिता की आज्ञा से प्रत्यक्ष अपनी माता का शिरश्छेद कर डाला। यदि पांडवों का आचरण देखा जाये तो पांचो की एक ही स्त्री थी। 
वही पहला प्रश्न फिर भी उठता है कि बुरा कर्म और भला कर्म समझने के लिये साधन है क्या?
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यहां उल्लिखित तीन चीजें, अपने अत्यंत प्रतिबंधित रूपों में, शरीर के रख-रखाव की दृष्टि से शास्त्रों द्वारा स्वीकृत 'जीवित रहने का प्राकृतिक तरीका' बनाती हैं। आयुर्वेद विज्ञान के लेखक कहते हैं - 'भोजन, संयम और निद्रा - ये तीन पदार्थ, नशा और स्त्री, जीवन को लम्बा खींचते हैं।'हालाँकि, यदि कोई इनके बिना रह सकता है, तो उसके लिए ' संयम /परहेज़ महान पुरस्कारों के लिए अनुकूल है ।'
यह केवल उदाहरण के तौर पर कहा गया है: ऐसी ही चीजों से सभी 'परहेज' के मामले में भी ऐसा ही है जो न तो निर्धारित हैं और न ही निषिद्ध हैं। हालाँकि, जहाँ एक निश्चित कार्य निश्चित रूप से निर्धारित किया गया है, वहाँ मनुष्य द्वारा इसे करने में कुछ भी निंदनीय नहीं है, भले ही यह केवल उस आनंद के लिए किया गया हो जो इससे उसे मिलता है; वास्तव में इस तरह के कृत्य से बचना अपने आप में निंदनीय होगा, जैसा कि 'महान पुरस्कार' की दृष्टि से किया गया है; जैसे . शहद खाना, भरपेट भोजन करना, ऊनी वस्त्र पहनना इत्यादि। सुसंस्कृत लोगों का चलन भी ऐसा ही है; पूज्य व्यास भी यही कहते हैं। दूसरी ओर, वे कार्य, जिनका लोग केवल इच्छा के माध्यम से सहारा लेते हैं, - भले ही इन्हें (मोक्ष को सभी के लिए अनिवार्य नहीं किया गया है ?)  न तो अनुमति दी गई हो और न ही निषिद्ध, - उदाहरण के लिए । हंसना, शरीर को खुजलाना वगैरह-वगैरह, इनका संयम बड़े पुरस्कारों के लिए अनुकूल होगा,-(56)

वर्तमान श्लोक से हम जो सीखते हैं (जो हम पहले से जानते हैं - मांस खाने में कोई पाप नहीं है ।' उसके अलावा) वह यह है कि ' संयम महान पुरस्कारों की ओर ले जाता है ।'  विभिन्न निंदात्मक जैन-बौद्ध ग्रंथों द्वारा यह धारणा उत्पन्न की गई है कि 'मांस नहीं खाना चाहिए।' परंतु कई प्राणियों के लिए,जीवनयापन का साधन उपलब्ध कराते हुए तथा मलिट्री  में युद्ध करने वालों के लिए  यह दावा किया गया है कि ' मांस खाने में कोई पाप नहीं है। ' जिसका अर्थ यह है कि यदि कोई ऐसा ठंढे प्रदेश में रहता हो जहाँ घोड़ा का मांस खाता है , या जो देवताओं आदि की पूजा का अवशेष है, या जो ब्राह्मणों की इच्छा से खाया जाता है, और ऊपर निर्दिष्ट समान परिस्थितियों में खाया जाता है; लेकिन यह तभी जब तक वह इसे अपनी इच्छा से खाना चाहे।
' परहेज़ ' - मांस न खाने का संकल्प लेना और फिर उससे दूर रहना - यह ' अनुकूल, महान पुरस्कार के लिए ' है। किसी विशेष पुरस्कार (मोक्ष) के उल्लेख के अभाव में स्वर्ग को ही पुरस्कार माना जाएगा। ऐसा मीमांसक कहते हैं । इसी प्रकार, 'शराब' के संबंध में, क्षत्रियों के लिए , और ' संभोग ' के संबंध में, सभी जातियों के लिए; लेकिन इसके अलावा जो अकेले हो सकता है ( ए ) 'दिन के दौरान' या ( बी ) 'महिलाओं के साथ उनके पाठ्यक्रम में', या 'पवित्र दिनों पर', (इन सभी के संबंध में संभोग निषिद्ध है)।

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We must electrify society, electrify the world. Idle gossip and barren ceremonials won't do. Ceremonials are meant for householders, your work is the distribution and propagation of thought-currents. If you can do that, then it is all right. . . .Let character be formed and then I shall be in your midst. Do you see? We want two thousand Sannyasins, nay ten, or even twenty thousand — men and women, both. What are our matrons doing? We want converts at any risk. Go and tell them, and try yourselves, heart and soul. Not householder disciples, mind you, we want Sannyasins. Let each one of you have a hundred heads tonsured — young educated men, not fools. Then you are heroes. We must make a sensation. Give up your passive attitude, gird your loins and stand up. Let me see you make some electric circuits between Calcutta and Madras. Start centres at places, go on always making converts. Convert everyone into the monastic order whoever seeks for it, irrespective of sex, and then I shall be in your midst. A huge spiritual tidal wave is coming — he who is low shall become noble, and he who is ignorant shall become the teacher of great scholars — through HIS grace. " [Summer?) 1894.DEAR AND BELOVED, (The brother-disciples at Alambazar monastery. Translated from Bengali ]

[ 'निवृत्तिस्तु महाफला।' #: चार्वाकी जीवनदर्शन परआधारित 'ऋणं कृत्वा घृतमं पिवेत' के विचारों का अवसान कर ठाकुर देव के चार रसददार के सिद्धान्त में आधारित नेता का जीवन!   अपरा विद्या और परा विद्या दोनों प्रकार की विद्या को ('गुरु-शिष्य वेदान्त डिण्डिम : ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः-  निवृत्ति अस्तु महाफला परम्परा" या ' Be and Make' C-IN-C लीडरशिप ट्रेनिंग-परम्परा' में प्राप्त कर हम इस ऋण पर आधारित जीवन का अवसान कर- अपने पैरों पर खड़े हो  सकते हैं। विवेक-जीवन ब्लॉग शनिवार, 26 अक्तूबर 2019/ 'निवृत्तिस्तु महाफला।']>>विवेक-जीवन ब्लोग्स /बुधवार, 21 अगस्त 2013/' आदर्श मनुष्यों (Ideal Man ) का निर्माण करने वाला संगठन ' [ Ideal and Organisation]
[महामण्डल ब्लॉग ' - गुरुवार, 1 दिसंबर 2016/*$$$सम्पादकीय-2* "नवनी दा की संक्षिप्त जीवनी तथा विवेकानन्द और हमारी सम्भावना पुस्तक का सारांश !"'विवेकानन्द और हमारी सम्भावना' /महामण्डल ब्लॉग ' बुधवार, 22 अगस्त 2018/भगवान श्रीराम के अवतार श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र में क्या उपदेश दिया ?आध्यात्मिक पूर्णता ' कुरुक्षेत्र में -अर्थात गृहस्थ जीवन में' रहकर भी प्राप्त की जा सकती है !/[ Spiritual Perfection is Within the Reach of All 
>>> मकर संक्रांति : राजा हर्षवर्द्धन के समय में यह पर्व 24 दिसम्बर को पड़ा था। मुग़ल बादशाह अकबर के शासन काल में 10 जनवरी को मकर संक्रांति थी। शिवाजी के जीवन काल में यह त्योहार 11 जनवरी को पड़ा था। हमलोग जानते हैं कि स्वामी विवेकानन्द का जन्म, 12  जनवरी, 1863 को मकर संक्रान्ति के सुबह में हुआ था।   सन 2012 में मकर संक्रांति 15 जनवरी यानी रविवार की थी।  
आखिर ऐसा क्यों? सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करने को ‘मकर संक्रांति’ कहा जाता है। साल 2012 में यह 14 जनवरी की मध्यरात्रि में था। इसलिए उदय तिथि के अनुसार मकर संक्रांति 15 जनवरी को पड़ी थी। दरअसल हर साल सूर्य का धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश 20 मिनट की देरी से होता है। इस तरह हर तीन साल के बाद सूर्य एक घंटे बाद और हर 72 साल में एक दिन की देरी से मकर राशि में प्रवेश करता है। मतलब 1728 (72 गुणा 24) साल में फिर सूर्य का मकर राशि में प्रवेश एक दिन की देरी से होगा और इस तरह 2080 के बाद ‘मकर संक्रांति’ 15 जनवरी को पड़ेगी। ज्योतिषीय आकलन के अनुसार सूर्य की गति प्रतिवर्ष 20 सेकेंड बढ़ रही है। माना जाता है कि आज से 1000 साल पहले मकर संक्रांति 31 दिसंबर को मनाई जाती थी। पिछले एक हज़ार साल में इसके दो हफ्ते आगे खिसक जाने की वजह से 14 जनवरी को मनाई जाने लगी। अब सूर्य की चाल के आधार पर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि 5000 साल बाद मकर संक्रांति फ़रवरी महीने के अंत में मनाई जाएगी
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Wednesday, August 1, 2012

" आशा और निराशा " (আশা ও নিরাশা )[ द्वितीय अध्याय -2.1 :समस्या और समाधान (Problem and Solution) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-2.1]

1.  

 " आशा और निराशा "

    कई शताब्दियों तक गुलामी की बेड़ियों में जकड़े रहने के बाद समस्याओं के पहाड़ /अम्बार को सिर पर उठाये जिस दिन पराधीन भारत में स्वाधीनता का अरुणोदय हुआ था, कितने ही प्रकार के दुःखों से घिरे होने के बावजूद भी, उस दिन मन में आशा की एक किरण फूट पड़ी थी। लगा था,अब देशवासियों के लिए 'भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा' की कमी नहीं रहेगी। हम सोचने लगे थे कि विश्व के समस्त राष्ट्रों के बीच भारतवर्ष अपना खोया हुआ गौरव पुनः प्राप्त कर लेगा। किन्तु मन में घर किये बैठी अन्य आशाओं-आकाकंक्षाओं की भाँति यह आशा भी अभी तक मरीचिका (mirage, कल्पना या भ्रम) ही बनी हुई है
          कुछ ही दिनों पूर्व जब पूरे जोर-शोर से भारतीय गणतन्त्र दिवस (26 जनवरी,1950)  की बीसवीं वर्षगाँठ मनाई जा रही थी (यह लेख 1970 में महामण्डल की संवाद पत्रिका Vivek-Jivan में प्रकाशित हुआ था) और लगभग उसी समय (12 जनवरी, 1970 को) स्वामी विवेकानन्द का जन्मोत्सव भी मनाया गया था- तब मन में स्वाभाविक तौर से यह प्रश्न उठा था- अब भी देश का ऐसा हाल क्यों है ? शासन करने का अधिकार अपने हाथों में आने के बाद भी 
अभी तक भारत की आम जनता के चेहरों पर मुस्कान क्यों नहीं आ सकी है ? आज भी भारत के तरुणों- युवाओं की आँखों में आशा की चमक के बदले हताशा ही क्यों दिखाई दे रही है ? क्यों  हमलोग एक राष्ट्र के रूप में ['संप्रभुता सम्पन्न राष्ट्र' (Sovereign nation) के रूप में]  आज भी विश्व सभा में गौरव-पूर्ण आसन पर प्रतिष्ठित नहीं हो सके हैं ?
        इन सभी प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर जान लेना बहुत आवश्यक है। क्योंकि रोग की पहचान (diagnosis) ठीक से नहीं होने पर उससे मुक्त होना संभव नहीं होता। आज राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जो कुछ भी अधःपतन दिखाई दे रहा है, उसका कारण यह है कि हमलोगों के राष्ट्रीय-चरित्र में ईमानदारी लगभग विलुप्त हो चुकी है और चारों ओर भ्रष्टाचार व्याप्त हो चुका है। हमारे अन्दर से देशप्रेम गायब हो गया है जो राष्ट्रीय स्वार्थ को व्यक्ति स्वार्थ के उपर स्थान देना सिखालाता है। हमारे भीतर देश के लिए वैसी उत्कट देशभक्ति नहीं है, अपने देशवासियों के प्रति वह प्रेम नहीं है जो समाज के शोषितो, वंचितों, उपेक्षितों, जनसाधारण, नीच, मूर्ख, दरिद्र, अज्ञ, मोची, मेहतर - सबों को अपना भाई, अपने रक्त के रूप में देखना सिखाता है। इन सबका जो परिणाम होना चाहिए, वही हो रहा है।  [यानि स्वाधीन भारत में 'मनुष्य -निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा' का प्रचार -प्रसार करने के बदले, इस प्रचलित 'बाबू (आई.ए.एस या क्लर्कबनाने वाली शिक्षा' व्यवस्था  लागु रहने के परिणामस्वरूप जो परिणाम होना चाहिये, वही हो रहा है। ]
            स्वामीजी ने अपने देशवासियों को साक्षात् देवता मानकर (जनताजनार्दन मानकर)  उनकी पूजा करने का संदेश दिया था। उन्होंने कहा था-"मैंने इतनी तपस्या करके जो समझा है उसका सार यही है कि सभी जीवों में वे (ईश्वर-एकोहं बहु स्याम) ही अधिष्ठित हैं। इसके अतिरिक्त ईश्वर और कुछ भी नहीं है। ईश्वर के अनुग्रह से यदि तुम उनके किसी सन्तान की सेवा कर सको तो तुम धन्य हो जाओगे। अतएव (हमेशा दासोऽहं का भाव रखो) अपने को कभी दूसरों की अपेक्षा बहुत बड़ा मत समझो। तुम धन्य हो, क्योंकि तुमको सेवा करने का अधिकार मिला है। यह सेवा तुम्हारे लिये पूजा के तुल्य है।" (उच्च स्तर की समाज सेवा -दूसरों की आध्यात्मिक दृष्टि खोलने की सेवा तुम्हारे लिये पूजा के तुल्य है।) लेकिन स्वामीजी के इन संदेशों को सुन कर काम में लग जायें, वैसी हृदयवत्ता कहाँ है ? 
       जब प्रत्येक भारतवासी स्वामीजी के आदर्श को अपने जीवन में धारण करने के लिए प्रतिबद्ध होगा तभी वह पदावनत भारत को पुनर्जाग्रत करने के लिए वचनबद्ध होगा। व्यक्ति-जीवन के सबल बन जाने पर ही स्वस्थ समाज और राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण संभव हो सकता है। समस्त निराशाओं के बीच स्वामीजी के जीवन्त संदेशों में ही भविष्य के भारत की आशा को साकार करने का बीज निहित है। 
           6 अप्रैल 1897 को सरला घोषाल को लिखित पत्र में स्वामी जी कहते हैं- " हे महाभागे! मैंने जापान में सुना कि वहाँ के लड़कियों को यह विश्वास है कि यदि उनके गुड़ियों को हृदय से प्यार किया जाय तो वे जीवित हो उठेंगी। जापानी बालिका अपनी गुड़िया को कभी नहीं तोड़ती। मेरा भी विश्वास है कि यदि हतश्री, अभागे, निर्बुद्धि, पददलित, चिर बुभुक्षित, झगड़ालू और ईर्ष्यालु भारतवासियों को भी कोई हृदय से प्यार करने लगे, तो भारत पुनः जाग्रत हो जायेगा। भारत तभी जागेगा जब विशाल हृदयवाले सैकड़ो स्त्री-पुरुष भोग-विलास और सुख की सभी इच्छाओं को विसर्जित कर मन, वचन और शरीर से उन करोड़ों भारतियों के कल्याण के लिये सचेष्ट होंगे जो दरिद्रता तथा मूर्खता के अगाध सागर में निरन्तर नीचे डूबते जा रहे हैं।" इसीलिये विशाल-हृदय वाले युवाओं का आह्वान करते हुए विवेकानन्द कहते हैं -"मोहग्रस्त लोगों की ओर दृष्टिपात करो। हाय ! हृदय-भेदकारी करुणापूर्ण उनके आर्तनाद को सुनो। "हे वीरों, बद्धों को पाशमुक्त करने, दरिद्रों के कष्ट को कम करने तथा अज्ञ-जनों के हृदय के अंधकार को दूर करने के लिये आगे बढ़ो ! 'अभिः,अभिः'! 'डरो नहीं','डरो नहीं'- यही वेदान्त-डिण्डिम का स्पष्ट उद्घोष है। " 
" कोई कृति खो नहीं सकती 
और न कोई संघर्ष व्यर्थ जायेगा, 
भले ही आशाएँ क्षीण हो जायें, 
और शक्तियाँ जवाब दे दें।
फिर भी धैर्य धरो कुछ देर- हे वीर हृदय, 
तुम्हारे उत्तराधिकारी अवश्य जन्मेंगे,   
 और कोई भी सत्कर्म निष्फल न होगा ! " 
 (वि० सा० १० /पृष्ठ १८९ )
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" अभिः,अभिः, डरो नहीं,डरो नहीं!" 

"जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं मैं नहीं।
प्रेम गली अति सांकरी , तामें दो न समनहि।।

 अधिकांश लोग प्रियजन के लिए नहीं, बल्कि अपने व्यक्तिगत अभाव के लिए शोक मनाते हैं। हमारे जीवन में आने वाले सभी अच्छे या बुरे सभी प्रकार के व्यक्ति वास्तव में हमारे प्रति ईश्वर के प्रेम की अभिव्यक्ति हैं। क्योंकि -
 
"ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।
 
अनेन वेद्यं सत्-शास्त्रम् इति वेदांत-डिण्डिमः।"

[ब्रह्म सत्यम्। जगत् मिथ्या। जीवः ब्रह्म एव। न अपरः। अनेन वेद्यं सत्-शास्त्रम् इति वेदांत-डिण्डिमः ।]
ब्रह्म सत्य (यथार्थ) है,  ब्रह्माण्ड मिथ्या है।  (इसे यथार्थ या असत्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता)। जीव ही ब्रह्म है और भिन्न नहीं। यहाँ मिथ्या का अर्थ अस्तित्वहीन नहीं है बल्कि मिथ्या का अर्थ है कि इसे वास्तविक या अवास्तविक के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। जीव स्वयं ब्रह्म है, भिन्न नहीं। अतः प्रत्येक व्यक्ति स्वयं भगवान है। इसे सही शास्त्र के रूप में समझना चाहिए। यह वेदांत द्वारा घोषित किया गया है।
    अतएव प्रत्येक मित्र - चाहे वह रिश्तेदार हो, मित्र हो या जीवनसाथी हो - चाहे वह अभी हमारे साथ हो या जो इस धरती को छोड़ चुका हो, एक माध्यम है जिसके माध्यम से ईश्वर स्वयं अपनी मित्रता का प्रतीक है। मित्र/शत्रु के  भेष में भगवान ही होते हैं। और वह "CINC नवनीदा " ईश्वर ही है जो कुछ समय के लिए एक प्यारे बेटे या बेटी या माँ, पिता, मित्र या प्रिय के रूप में प्रकट होता है - और वह ही है जो फिर से दृश्य से गायब हो जाता है। यदि कर्म बंधन मजबूत हैं, विशेष रूप से आध्यात्मिक बंधन, तो वह अलग-अलग अवतारों में उन्हीं आत्माओं के साथ फिर से रिश्ते में आ सकता है। 
   यह ईश्वर है, और केवल ईश्वर ही है, जिसने स्वयं को उन सभी मनुष्यों में आत्मा के रूप में समाहित किया है जिन्हें उसने बनाया है। और जब एक इंसान दूसरे इंसान को शुद्ध दिव्य प्रेम से प्यार करता है, तो वह उस व्यक्ति में भगवान की भावना को प्रकट होता हुआ देखता है। जो लोग प्रत्येक मनुष्य के भीतर वास करने वाली आत्मा से प्रेम करते हैं वे स्थायी आनंद का अनुभव करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि आत्मा अमर है - मृत्यु उसे बिल्कुल भी नहीं छू सकती। केवल वे लोग जिनके पास यह सच्चा ज्ञान है, वे ही अपने लिए इस प्रकार असाधारण जीवन डिजाइन करने में सक्षम हैं।
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Tuesday, July 31, 2012

🕊🏹1.8" स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा : एक सम्पूर्ण परिचय " (স্বামী বিবেকানন্দের চিন্তাধারা ) 🕊🏹[ प्रथम अध्याय -1.8 : स्वामी विवेकानन्द- "व्यक्ति और मन " (Person and Mind) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-1.8] old book 1.9]

8.

 स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा : "एक सम्पूर्ण परिचय " 
 
      स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा  का सम्पूर्ण रूप से परिचय प्राप्त कर लेना अत्यन्त कठिन कार्य है। उनके एक व्याख्यान या परिचर्चा को पढ़कर या सुनकर,  उनकी विचारधारा के समस्त आयामों की पूर्ण अवधारणा नहीं हो सकती। इसके लिये नियमित रूप से 'विवेकानन्द साहित्य ' के पठन-पाठन अथवा श्रवण -मनन की चेष्टा के साथ-साथ उन्हें आचरण में उतारने का अभ्यास (निदिध्यासन) करना भी आवश्यक है। 
              स्वामीजी के पास या तो इतना समय नहीं था कि वे समस्त विषयों पर विस्तारपूर्वक लिखते या उनको इसकी कोई आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई। किन्तु यह भी सत्य है कि वार्तालाप, व्याख्यान या पत्राचार के क्रम में अथवा यदा-कदा स्वयं कुछ लिखते समय विषयों के मूल में पहुँचकर उसे अत्यंत स्पष्ट रूप से समझाया है। दूसरे  विचारकों के द्वारा लिखित कई पुस्तकों को पढने के बाद भी उन विषयों की उतनी स्पष्ट धारणा नहीं हो पाती यहाँ तक कि हम कई बार और अधिक दिगभ्रमित हो जाते हैं। किन्तु, स्वामी जी की विचारधारा से परिचय हो जाने के बाद वे सब भ्रम-भ्रान्तियाँ तो दूर होंगी ही, साथ-ही-साथ प्रत्येक विषय की स्पष्ट धारणा भी बन सकेगी। और, यदि हम प्रयत्न करें, जो हमें अवश्य करना चाहिये, तो उस धारणा को हम अपने आचरण में उतार भी सकते हैं। हमें इस बात को अवश्य समझ लेनी चाहिये कि कोई विद्या या ज्ञान, चाहे वह कितना ही सुन्दर और महान क्यों न हो, उसका तब तक कोई मूल्य नहीं है -जब तक उसे कार्यरूप न दिया जाय। 
     किसी भी सिद्धान्त या ज्ञान का मूल्य उसका जीवन में प्रयोग और फल प्राप्त करने पर ही निर्भर है। इस तरह के विचार को ही प्रयोगाश्रित (empirical) या व्यावहारिक (Pragmatic) ज्ञान कहा जाता है। व्यवहारिकतावाद या उपयोगितावाद  (pragmatism) को तो एक दार्शनिक मतवाद के रूप में स्वीकार भी किया गया है। स्वामी जी को बिना जाने-समझे ही कह दिया जाता है कि वे आदर्शवादी थे या कल्पनालोक में विचरण करने वाले मनुष्य थे। आजकल लोग बिना गहराई से सोचे-समझे ही किसी के लिए किसी भी शब्द का व्यवहार कर देते हैं। हाँ, विवेकानन्द को कल्पनालोक या भावराज्य में विचरण करने वाला मनुष्य केवल इस अर्थ में कहा जा सकता है, जब हमलोगों को यह समझ में यह आ जाय कि जीवन के समस्त कार्य - व्यापार या यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड ही मात्र भाव-राशि है अर्थात  मनःकल्पित है। नहीं तो वास्तविक अर्थों में स्वामी जी से बड़ा प्रयोगवादी या व्यवहारवादी कोई दूसरा नहीं हुआ। उनके अनुसार इस भौतिक जगत में यदि कोई सिद्धान्त या ज्ञान व्यावहारिक और उपयोगी नहीं हो तथा उसके प्रयोग से -व्यक्ति और समाज को शुभफल नहीं प्राप्त हो, तो वैसे सिद्धान्त या ज्ञान (विद्या ) का कोई मूल्य नहीं है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्वामी जी की विचारधारा सकारात्मक , वास्तविक जगत में व्यावहारिक तथा प्रयोग  योग्य है।   
             यह सत्य हम सब को ज्ञात होना चाहिए कि स्वामी जी जैसा व्यावहारिक और सकारत्मक सोच रखने वाले मनुष्य बहुत कम ही दीखते हैं,  किन्तु स्वयं उनसे बिना परिचित हुए , केवल दूसरों के मुख से सुनकर हम भी कहने लगें कि स्वामीजी तो एक आदर्शवादी मनुष्य थे अर्थात व्यावहारवादी नहीं थे, तो अपने इस कथन से हम अपनी अज्ञानता का ही परिचय देंगे। क्योंकि स्वामीजी ने तो हमें यथार्थ के कठोर धरातल पर खड़े हो जाने का उपदेश दिया है, अपने पैरों पर खड़े होने का निर्देश दिया है। उनका उपदेश था- " अपने पैरों को जमीन पर जमाकर खड़े हो जाओ और दूसरों को अपने हाथों से ऊपर उठा लो। " हमें इस बात पर जरा भी सन्देह नहीं होना चाहिये कि स्वामीजी उपयोग-बुद्धि या व्यावहारिक-बुद्धि से सम्पन्न थे। इसीलिये, जो लोग अपने को व्यावहारिक बुद्धि सम्पन्न मनुष्य या 'Technocrats' समझते हैं, या स्वयं को आधुनिक तकनीकी से लैस समझते हैं वैसे ही लोग स्वामी जी के सम्पर्क में आकर अधिक लाभान्वित हो सकते हैं। स्वामी जी के बारे में अमुक-अमुक व्यक्ति ने क्या कहा है -इसके माध्यम से यदि स्वामी जी के साथ परिचय करने की चेष्टा की जाय तो वह ' दूसरों के मुख से मिर्ची खाने' जैसा है। इसके बजाय हमलोगों को उनके विचारों को स्वयं समझने तथा उन्हें व्यवहार में लाने की चेष्टा कर स्वामीजी से सीधा संपर्क स्थापित करना होगा। स्वामीजी ने स्वयं कहा या लिखा है, उसके अधिकृत अनुवाद को अच्छी तरह से पढ़ कर, उसके उपर गहन- चिन्तन करके हमलोग उनका परिचय प्राप्त कर सकते हैं। उनकी विचारधारा से सम्यक परिचय प्राप्त करने के लिए  ऐसा करना नितान्त आवश्यक है।         
          स्वामी जी ने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिया कार्य किया है परन्तु कुछ लोग उनको एक महान देशप्रेमी के रूप में जानते हैं। आश्चर्य की बात है कि कुछ लोग इसी विषय (उत्कट देशप्रेम) को लेकर उनकी आलोचना भी करते हैं। वास्तव में, स्वामीजी का देशप्रेम अतुलनीय था, फिर भी स्वामी जी सम्पूर्ण मानव जाति को ही अपने हृदय के अन्तस्तल से प्रेम करने में समर्थ थे। वे कहते हैं - " चाहे अमेरिका हो या भारत उनके लिए सभी देश सामान हैं। " किन्तु इतना होने पर भी जब वे पहली बार विदेश से वापस आये तो कहा था- " भारतवर्ष का प्रत्येक धूलकण मेरे लिये और अधिक महान हो गया है, भारत मुझे अपने प्राणों से भी  प्रिय प्रतीत हो रहा है। " ऐसा उन्होंने क्यों कहा था; इसको शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है। ऐसे विचार जिसके मन में जन्म ले वही इस बात को समझ सकता है। ऐसे विचार हमारे व्यक्तिगत  जीवन और समस्त मानव जाति  के लिए अत्यन्त मूल्यवान है। ऐसे शुद्ध , कल्याणकारी और सर्वजन हितकारी विचार किसी अन्य व्यक्ति में भी मिलते हों ऐसा कोई दूसरा उदाहरण हमें नहीं दिखाई देता जबकि कई अन्य लोगों ने भी अनेक अच्छी बातें अवश्य कही हैं, लेकिन किसी व्यक्ति के मुख से उसके सम्पूर्ण जीवनकाल में जो भी बातें निकली हों , वह सब की सब केवल मनुष्य के कल्याण हों , ऐसा कोई दूसरा उदाहरण (व्यक्ति) हमें नहीं दिखाई देता। स्वामी विवेकानन्द सभी मनुष्यों के कल्याण के विचारों से भरे एक ऐसे अक्षय कोष की तरह हैं, जो अतुलनीय है। वे अनुपम हैं और उनका विराट व्यक्तित्व अचम्भित कर देनेवाला है, इसीलिए वे हमारे अनन्य श्रद्धा के पात्र हैं और उन्हें हम सबको आदर्श के रूप में ग्रहण करना चाहिए।     

     स्वामीजी ने सम्पूर्ण मानवजाति के कल्याण के लिए कई विषयों पर अपने विचार विभिन्न प्रकार से व्यक्त किये हैं। और उन्होंने जो कुछ कहा है उसमें एक अविच्छिन्न तारतम्यता देखी जा सकती है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो उनके सारे विचार एक अद्भुत कड़ी से जुड़े हुए हैं। जाति-प्रथा, नारी-कल्याण तथा शिक्षा, विश्व एकता इत्यादि विभिन्न विषयों पर उन्होंने अपने विचार व्यक्त किये हैं। किन्तु एक- एक मुद्दे के उपर अलग से सोच-सोचकर कुछ नहीं कहा है। इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का सत्य -(एकोऽहं बहुस्याम् ) क्या है, यह तथ्य उनकी आँखों के सामने सदैव बना रहता था। उन्होंने जीवन और जगत के भ्रमरहित स्वरुप का साक्षात् दर्शन किया था, क्योंकि वे विवेकज-ज्ञान के अधिकारी थे, और उसी अधिकार से वे ऐसा कह और कर पाये  थे।
            अतः हमलोगों को पहले ही यह समझ लेना होगा कि अविवेकपूर्ण अनुसन्धान से हम स्वामी जी का वास्तविक परिचय नहीं प्राप्त कर सकते हैं। उनका नाम था - विवेकानन्द, जो विवेक-प्रयोग के द्वारा ज्ञान प्राप्त करके आनन्द का अधिकारी बना हो। हमलोग भी ज्ञान  प्राप्त करना चाहते हैं, आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं, सभी संसार के सभी प्रकार के दुःखों से छुटकारा पाना चाहते हैं, किन्तु विवेक का प्रयोग नहीं करते हैं। विवेक क्या है, इसका व्यवहार जीवन में किस प्रकार किया जाता है , इसको भली-भाँति सीख लेने से ही हमलोग अपने समस्त दुःखों के कारण को नष्ट कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " देवता, स्वर्ग और शक्तियों से बचने का फिर क्या उपाय है ? उपाय है विवेक -'सद असद विचार'--शाश्वत-नश्वर का विभेद, अर्थात शाश्वत क्या है, नश्वर क्या है ? -अन्तर को पहचानना ! 

[इस विवेकज-ज्ञान को दृढ़ करने के उद्देश्य से ही इस अद्भुत संयम का उपदेश दिया गया है - "क्षणतत्क्रमयोः संयमात्विवेकजं ज्ञानम् ।।" क्षणतत्क्रमयोः – क्षण और उसके क्रम में, संयमात् – संयम करने से, विवेकजम् – विवेकजनित, ज्ञानम् – ज्ञान उत्पन्न होता है। (पातंजल योग सूत्र 3 -52) में क्षण का अर्थ है, काल का सूक्ष्तम अंश। इस क्षण के पहले जो क्षण बीत चूका है और उसके बाद जो क्षण प्रकट होगा,-इस लगातार सिलसिले को 'क्रम' कहते हैं।  उपर्युक्त विवेकजनित ज्ञान को दृढ़ करने के लिये इसी 'क्षण' (काल का सूक्ष्तम अंश) और उसके क्रम में मन का संयम करना होता है। (विवेकानन्द साहित्य खण्ड 1/80)]  
लेकिन अच्छा-बुरा का निर्णय करते समय हम अक्सर भ्रम में पड़ जाते हैं। क्योंकि हमलोगों की प्रकृति या इन्द्रियों को जो अच्छा प्रतीत होता है उसी को हम अपने लिए अच्छा मानकर ग्रहण कर लेते हैं, और जो इन्द्रियों को अच्छा नहीं लगता उसे बुरा मान कर त्याग देते हैं। विवेकानन्द के नाम का तात्पर्य जानने के लिए हमें विवेक-प्रयोग करके उन्हीं के ऊपर मनोनिवेश करना होगा। विवेकज-ज्ञान किसे कहते हैं, इसको और स्पष्ट करते हुए पतंजलि योगसूत्र के विभूतिपाद में आगे कहा गया है - 
तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ।।3 -54।। 

 तारकम् – जो संसार समुद्र से तारने वाला है, सर्वविषयम् – सबको जानने वाला है,  सर्वथाविषयम् – सब प्रकार से जानने वाला है, च – एवं अक्रमम् – बिना क्रम में है वह, विवेकजम् – विवेक जनित, ज्ञानम् – ज्ञान है। इस ज्ञान को  तारक-ज्ञान  इसलिये कहा गया है कि वह योगी का जन्म-मृत्यु सागर से तारण करता है। समस्त  प्रकृति (वाह्य एवं अन्तः) की स्थूल और सूक्ष्म सभी अवस्थाएँ इस ज्ञान की ग्राह्य (विषय) हैं, तथा इस ज्ञान में किसी प्रकार का क्रम नहीं है। यह सारी वस्तुओं को क्षण भर में एक साथ ग्रहण कर लेता है। 'विवेकज-ज्ञान ' ऐसा ज्ञान है, जो हमें समस्त विषयों, समस्त अवस्थाओं तथा समस्त समस्याओं से मुक्ति प्रदान करने में समर्थ है। पुनः जो भूत, भविष्य और वर्तमान समस्त अवस्थाओं का ज्ञान हो उसे - ' अक्रमम '; अर्थात बिना क्रम में गये, एक ही क्षण में परिपूर्ण रूप से प्राप्त कर लिया जाय, वही  विवेकज ज्ञान है। जैसे अगर किसी कमरे में हजार वर्ष से भी अँधेरा हो, तो दीपक जलाने पर अँधेरा धीरे-धीरे नहीं जाता है, वरन एक ही बार में चला जाता है। वैसे ही विवेकज ज्ञान से अज्ञान रूपी अँधेरा एक ही बार में चला जाता है। जबकि साधारण ढंग से ज्ञान का अर्जन एक के बाद एक अर्थात क्रम से होता है। 
     अतः उसी 'विवेकज ज्ञान' प्राप्ति की बलवती इच्छा के साथ पूरी श्रद्धा रखते रखते हुए स्वामीजी के सन्देशों को पढ़ने, उसपर गहन चिन्तन करने और अपने जीवन में प्रयोग करने से हम भी उसको प्राप्त कर सकेंगे। आमतौर पर जो भी ज्ञान हम प्राप्त करते हैं, उसे केवल बुद्धि का प्रयोग करके प्राप्त करते हैं। उस लौकिक या बौद्धिक ज्ञान के द्वारा किसी वस्तु या विषय की जितनी जानकारी हमें मिलती है वह क्षणिक, सामयिक, सापेक्षिक और परिवर्तनशील होती है।  
          ज्ञाता और ज्ञेय वस्तुओं के बीच एक स्थानिक और त्वरित सम्पर्क स्थापक प्रक्रिया द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसके द्वारा मनुष्य जीवन और जगत की अपरिमित समस्यायों के मूल कारण  का परिचय नहीं मिल पाता है। जिस दृष्टि और अनुसन्धान से एक क्षण में समग्र जगत और विश्व- ब्रह्माण्ड भासित हो उठता है तथा समस्त समस्याओं का स्वरुप और समाधान-सूत्र दृष्टि पथ में आने लगता है, वही ज्ञान हम स्वामी जी से प्राप्त करते हैं। इसी दृष्टि के कारण वे निश्चित रूप से एक भविष्यद्रष्टा भी हैं। अपने सार्वभौम  वैश्विक दृष्टिकोण के आधार पर ही उन्होंने भविष्य के पथ का संकेत किया था। समग्र विश्व,उसकी समस्त समस्याएं और इसके आत्यंतिक समाधान को उन्होंने एक साथ देख लिया था।  उसके बाद उन्होंने उसे टुकड़ों में करके जो कहा, उन्हीं संदेशों से हमलोग विभिन्न प्रकार के विषयों से अवगत होते हैं और उनकी बातें हमें इतनी मूल्यवान लगती हैं।  जिस प्रकार गीता में भगवान श्री कृष्ण ने समस्त मुख्य-मुख्य वस्तुओं को  अपनी योग शक्ति रूपी तेज़ की अभिव्यक्ति बताकर कहा है कि समस्त जगत मेरी योग शक्ति के एक अंश से ही धारण किया हुआ हैं-
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।  
                        विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ।।गीता: 10: 42।।         
अर्थात हे अर्जुन ! तुम जो अनेक को जानने की चेष्टा कर रहे हो कि -यह क्या है, यह क्या है? इस प्रकार अलग- अलग जानने की क्या आवश्यकता है? केवल इतना ही जान लो की केवल मेरे एक चौथाई अंश में ही यह समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड अवस्थित है।  स्वामीजी के विचारों का भी यही वैशिष्ट्य है। उनके समस्त संदेशों के भीतर जो मूल बात है, वह है मनुष्य को 'मनुष्य' के रूप में गढ़ लेना।  वे कहते हैं - " तुम लोग समाज का पुनर्गठन करो, समाज का नवीकरण करो, समाज की सेवा करो। तुम लोग राजनीति का उपयोग करो, विज्ञान और अर्थनीति का उपयोग करो ! इन सब चीजों की आवश्यकता है, लेकिन इतना समझ लो कि सभी नीतियाँ और आर्थिक योजनाएं मनुष्य के कल्याण के लिए ही हैं। इसलिये यदि तुम मनुष्य को ही पूर्ण मनुष्य के रूप में नहीं गढ़ सको, उसकी अन्तर्निहित सत्ता को यदि  पूर्ण विकसित और प्रकाशित न करा सको, तो वैसे विज्ञान,प्रद्योगिकी, अर्थशास्त्र, समाज-विज्ञान, राजनीति, इतिहास, दर्शन - ये सभी किसी काम के नहीं होंगे। अगर तुम इस इस मूल को जान लो, तो बाकी सब कुछ को जान लोगे यही है सच्चा ज्ञान। " जैसा कि श्रीरामकृष्ण कहते थे, " एक को जानने का नाम है ज्ञान, और बहुत को जानने का नाम है अज्ञान।" हमलोगों की आकांक्षा होनी चाहिये कि हम भी सबकुछ जान लेंगे, नहीं तो मूल सत्य हृदयंगम नहीं होगा। स्वामीजी के अनुसार इसी क्षण सब कुछ को जान लेने का अर्थ है- मनुष्य के सच्चे स्वरूप को जान लेना और उसी ज्ञान की बुनियाद पर उससे संलग्न बाह्य विषयों को उचित रूप से अपने लिये उपयोगी बना लेना। 
             स्वामीजी ने मनुष्य के स्वरुप का अन्वेषण करके उसकी वास्तविक सत्ता का विकास करने तथा उसे अभिव्यक्त करने की साधना को ही प्राथमिक कार्य के रूप में कार्यान्वित करने पर जोर दिया था। विदेश से वापस लौटकर स्वामीजी ने भारत के प्रत्येक धूल-कण को पहले से भी अधिक पवित्र कहकर और अधिक प्रेम इसीलिये दर्शाया था कि सार्वभौमिक-कल्याण के महान तत्व (वसुधैव कुटुम्बकम- सर्वे भवन्तु सुखिनः ) का अविष्कार पृथ्वी पर सर्वप्रथम भारतवर्ष में ही हुआ था। वे यह देख पाने में समर्थ थे, उन्होंने अनुभव किया था, कि समस्त जगत का कल्याण करने के लिये, जिस मौलिक तत्व (ब्रह्म) को जानने की आवश्यकता होती है, उसका आविष्कार भारतवर्ष में ही हजारों वर्ष पूर्व यहाँ के ऋषि-मुनियों ने मनन-चिंतन तथा प्रत्यक्ष आत्मानुभूति के माध्यम से कर लिया था। उन्होंने देख लिया था कि यदि हृदयाकाश में उद्भासित, उस महान तत्व को, भारतवर्ष समग्र विश्व के मनुष्यों तक पहुँचा सका , तभी विश्व का यथार्थ कल्याण संभव होगा।
स्वामीजी सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों से अपने हृदय से प्रेम करते थे इसीलिये वे भारतवासियों से अपेक्षा करते थे कि हमलोग उस तत्व को जानने और अभिव्यक्त करने की साधना करेंगे और  उसकी अनुभूति प्राप्त करके, एक दिन सम्पूर्ण विश्व में उस ज्ञानालोक को फैला देंगे।  इसीलिये भारत की धरती उनके नेत्रों के समक्ष एक पुण्यभूमि के रूप में प्रकट हो गयी थी। 
           जो तत्व प्राचीनकाल में जटिल भाषा में लिपिबद्ध होने के कारण अगम था। जो अरण्यों, पर्वत की कन्दराओं में छिपा हुआ था एवं केवल साधू-महात्माओं के चर्चा का विषय समझा जाता था, उसी तत्व को स्वामीजी ने हमलोगों के समक्ष सरल भाषा में रख दिया है। स्वामी जी ने अपने भावी संतानों से यह अपेक्षा की थी कि वे उपनिषदों में वर्णित उसी महान तत्व को अरण्यों से निकालकर जनारण्य में ले जाएँ। अर्थात उस तत्व को जंगल-झाड़, पर्वत-पहाड़ से निकाल कर साधारण मनुष्यों तक, किसानों के झोपड़ियों तक, हाट-बाजारों में, खेतों-खलिहानों में, कल-कारखानों में सर्वत्र प्रचारित और प्रसारित कर दें। ऐसा होने पर किसानों के हल से, कारखानों के कल से, एक नया महान तेजस्वी भारत महाशक्ति के रूप में उठ खड़ा होगा।
            वह तत्व क्या है-- हम सभी लोगों के भीतर अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान और अनन्त प्रेम का एक  महासागर ठांठे मार रहा है, उसे ही जानना होगा उस सर्वग्रासी प्रेम को अभिव्यक्त करना होगा। हमलोग दीन-हीन नहीं हैं, हमलोग बहुत शक्तिशाली हैं, हमारा अमिट प्रताप है। हमलोग भूलवश या महाभ्रम के कारण अपने आप को असहाय मरण-धर्मा शरीर मात्र समझते हैं। इस निन्दनीय हीन भावना (Inferiority complex) के कारण ही हमलोगों ने स्वयं को अपने विराट स्वरुप से गिराकर देवमानव से पशु-मानव में परिणत कर लिया है, और पशुवत आचरण कर रहे हैं। भ्रम के कारण मनुष्य ने अपने आप को संकुचित कर लिया है,  उसे पुनः उसके जन्मसिद्ध बिराट स्वरुप में प्रतिष्ठित करा देना होगा, उसको ज्ञान आलोक से आलोकित कर देना होगा और प्रेम-सिन्धु में परिणत कर देना होगा।  स्वामी जी के उस विख्यात उपदेश से हम सभी अवगत हैं- " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, बाह्य एवं अन्तः प्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्म-भाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म,  उपासना, मनः संयम या ज्ञान, इनमें से एक, या एक से अधिक उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह-भाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, अथवा अन्य बाह्य कर्म-काण्ड तो उसके गौण संकेत मात्र हैं। " 
वे कह रहे हैं, कि हम सभी लोग स्वरूपतः ब्रह्मवस्तु हैं और हमलोगों का लक्ष्य अपनी प्रकृति को नियंत्रित एवं उसपर विजय प्राप्त कर ब्रह्मवस्तु को अभिव्यक्त कर लेना है। इसके लिये हमें अन्तः प्रकृति और वाह्य प्रकृति दोनों पर विजय प्राप्त करना होगा। हमलोग अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को, कर्म, मन को वशीभूत करने की साधना, संयम, ज्ञान चर्चा, सत्-असत - विवेक-विचार  तथा समस्त मनुष्यों की स्वार्थहीन सेवा में अपने आप को पूर्ण रूप से नियोजित करके अभिव्यक्त कर सकते हैं। 
      आधुनिक मनुष्य विज्ञान की सहायता से बाह्य प्रकृति के उपर जितना अधिक नियंत्रण प्राप्त करता जा रहा है, उसी अनुपात में वह अन्तःप्रकृति के सामने पराजय स्वीकार करता जा रहा है। मनुष्य की इस कंगाली (indigence) की तस्वीर स्वामी जी के मानस चक्षुओं के समक्ष स्पष्टता से प्रकट हुई थी। इसीलिये उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था, " तुमने बाह्य प्रकृति को जीत लिया  है , इसीलिये विज्ञान की बड़ाई करते नहीं अघाते, किन्तु तुम्हारी अन्तःप्रकृति तुम्हारे साथ बिलियर्ड के बॉल के जैसा छिछली (ricochet) का खेल, खेल रही है और तुम्हारी महा-मूल्यवान परिसम्पत्ति रास्ते की धूल में यहाँ-वहाँ गच्चे खा रही है। ऐसे में  बेमिसाल, वैभवशाली मूर्ति (देव-दुर्लभ मानव शरीर) पाशविक वृत्तियों में उलझकर मुरझा गई है !ऐसा होते रहने नहीं दिया जा सकता है। तुमलोग आन्तरिक प्रकृति को जीत लो ! वशीभूत करो ! आन्तरिक शक्ति के उपर अधिकार प्राप्त करके उसे बाह्य-जीवन में प्रकट करो। स्वयं को मोह-निद्रा से जाग्रत करो और आन्तरिक उर्जा से परिपूर्ण हो जाओ ! किन्तु उस शक्ति का घमण्ड नहीं करना।  शक्तिवान होकर स्वयं को सबों की पूजा में, सबों की सेवा में, सबों के भीतर छूपी उसी शक्ति को जागृत करने के कार्य में समर्पित कर दो ! अपनी इन्द्रियों के सुख-भोग में निमग्न रहने से, भौतिक-सम्पदा को अधिकाधिक बढ़ाते जाने से, या नाम-यश, स्वार्थपरता की छोटे से दायरे बंधा जीवन जीने से, वह शक्ति जाग्रत नहीं हो सकती।"
         स्वामीजी कहते हैं, " सचमुच में वही जीवित रहता है, जो दूसरों के लिये जीता है, बाकी लोगों का जीवन तो मृतक से भी अधम है। " उनके इसी सन्देश में छुपा है (सूत्र-रूप से) शक्तिमान मनुष्य बनने का आदर्श, जो अपने पैरों को जमीन पर जमा कर, दूसरों को अपने हाथों का सहारा देकर उपर उठा लेने में समर्थ है। स्वामीजी ने इसी आदर्श को हमारे समक्ष रखा है। यदि हम यथार्थ मनुष्य के रूप में जीना चाहते हैं, तो हमें दूसरों के लिये जीना सीखना पड़ेगा। हम लोग परस्पर एक दूसरे से प्रेम करेंगे, आलिंगन में बांध लेंगे, एक दूसरे को उपर उठाने का प्रयास करेंगे। स्वार्थ-शून्य, सेवापरायण, प्रेमी मनुष्य ही शक्तिमान होता है, वही देखने में सर्वांग-सुन्दर मनुष्य  प्रतीत होता है। उसीके जीवन में अग्रगति संभव है। कल्याणकारी नवविप्लव का अग्रदूत वही बन सकता है जो वास्तव में चरित्रवान मनुष्य है। 
     और इसी कारण हमलोगों को अपना सुंदर चरित्र गढ़ना होगा। महान जीवन के 'विवेकज आनन्द' को उत्तराधिकार को उत्तरदायित्व के रूप में ग्रहण करने के  महान लक्ष्य पर पहुँचने के लिए "यथार्थ मनुष्य " [हिन्दू-मुसलमान -ईसाई -या ब्राह्मण-क्षत्रिय -वैश्य -शूद्र नहीं]  बनना होगा। अपने जीवन को उन्नत बना लेना होगा। हमारे जीवन की सार्थकता इसी कार्य के पूर्ण होने पर निर्भर है। जितने भी अन्य सिद्धान्त या ज्ञान हैं उनका मूल्य केवल इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के उपाय के रूप में ही है।  
        स्वामीजी की विचार-धारा का सम्पूर्ण रूप से परिचय प्राप्त कर लेने पर, यही आधारभूत तथ्य या मूल सत्य प्रकट हो जाता है। इसी सत्य को जानना होगा, समझना होगा और अपने जीवन में प्रयोग करना होगा। इसीलिये विवेक-प्रयोग की सहायता से सत्य-असत्य का परिक्षण करके निष्ठा के साथ स्वामीजी का जीवन और सन्देश की ध्यानजन्य विवेचना और उनके विचारों पर मनोनिवेश का अभ्यास करना वर्तमान युग का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। इसी से चरित्र गठित होगा और जगत का यथार्थ कल्याण भी संभव होगा। 
          
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"एकोऽहं बहुस्याम् ।" (छान्दोग्योपनिषद्)  वेदों में कहा गया है, ब्रह्म एक था, उसमें इच्छा हुई, एक से अनेक होने की, और इस सृष्टि का निर्माण हुआ।  किंतु अनेक होने के बाद भी उसके एकत्व में कोई अंतर नहीं पड़ा। 
ऋग्वेद कहता है - मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्‌ (ऋग्वेद 10.53.6)- ज्ञान का मूलभूत सारतत्व यही है कि हे मनुष्य तू स्वयं सच्च मनुष्य बन तथा दिव्य गुणयुक्त सन्तानों को जन्म दे अर्थात्‌ सुयोम्य मानवों के निर्माण में सतत प्रयत्नशील रह। बौद्ध, हिन्दू ,मुस्लिम,सिख, इसाई बनने की बात वेदों में नहीं है। वेद कहता है – मनुर्भव – मनुष्य बनो ! जब एक बार कुछ लोगों ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन से संसार में व्याप्त दुःख एवं अशान्ति को दूर करने का उपाय पूछा तो वैज्ञानिक ने उत्तर दिया- ‘‘श्रेष्ठ मनुष्यों का निर्माण करो’’।  स्वस्ति पन्थामनुचरेम । (5.51.15) कल्याण मार्ग का अनुसरण करें ।/5. सं गच्छध्वम् सं वदध्वम् । (10.181.2) मिलकर  चलें, मिलकर बोलें।
यजुर्वेद कहता है - सुमना भव । अच्छे मन वाले बनें।  तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु । (34.1)
 यह मेरा मन शिव संकल्प युक्त हो। 'मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ।' (36.18) मित्र की दृष्टि से सर्वत्र देखें ।
अथर्ववेद कहता है  : मानवो मानवम् पातु - मनुष्य मनुष्य को पाले ।  माता भूमिः पुत्रोSहम् पृथिव्याः । माता भूमि है, पुत्र है हम पृथ्वी के ।ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत । (11.5.19) ब्रह्मचर्य के तप से देवों ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की । मधुमतीं वाचमुदेयम । (16.2.2) मैं मीठी वाणी बोलूँ ।

 वेदान्तडिण्डिम> "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।अनेन वेद्यं सच्छास्त्रम् इति वेदान्तडिण्डिमः।।अर्थ—ब्रह्म सत्य है। जगत् अर्थात् जगत के सभी नामरूप मिथ्या अर्थात् नाशवान हैं। जीव ही ब्रह्म है दूसरा नही,अर्थात् आत्मा एवं ब्रह्म मूलतः एक ही है।इसे सही शास्त्र(शास्त्रवचन)जानना चाहिए, यह वेदान्त का उद्घोष है।
 
>> चरित्र निर्माण :
एक बौद्ध कहावत है कि-विचार से कर्म की उत्पत्ति होती है, कर्म से आदत की उत्पत्ति होती है, आदत से चरित्र की उत्पत्ति होती है और चरित्र से चरित्र से आपके भाग्य (कर्म फल या प्रारब्ध) की उत्पत्ति होती है। उत्तम चरित्र व्यक्ति की सबसे बड़ी संपदा है।  चरित्र मन को उज्ज्वल करता है। जीवन को संवारता है। चरित्र से ही व्यक्तित्व आकार पाता है। चरित्र के प्रभाव से ही लोग मित्र बनते हैं और सुख संपत्ति के मार्ग खुलते हैं। संसार में मनुष्य के पास यदि सभी साधन हैं, परंतु आदर्श चरित्र नहीं है तो सब व्यर्थ। व्यक्ति को योग्यता की वजह से सफलता मिलती है और उस सफलता का संरक्षण आपके चरित्र से ही संभव है। जो सफल व्यक्ति अपने चरित्र को नहीं निखारते उनकी सफलता स्थायी नहीं रहतीरावण और कंस आदि पराक्रमियों के पास अपार शक्ति थी, परंतु उनका चरित्र आदर्श नहीं था। इसी कारण समाज उनका तिरस्कार करता है।
 वस्तुत: धन बल और बाहुबल से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है 'चरित्रवान मनुष्य ' बनना। इसलिए जीवन में चरित्र को सुधारना ही मनुष्य का परम लक्ष्य होना चाहिए। हम चाहे किसी भी क्षेत्र में सक्रिय हों, हमें चरित्र को बनाकर और बचाकर रखना चाहिए। जिस प्रकार पानी में डूबते हुए पुरुष के लिये जीवन रक्षक उपकरण (life-saving device-लाइफ जैकेट)  के अलावा अन्य कोई भी वस्तु अधिक महत्व की नहीं हो सकती उसी प्रकार एक मोहित जीव (Hypnotized-भेंड़) के लिये इस ज्ञानार्जन से बढ़कर कोई सम्पत्ति नहीं होती। या स्वप्न में कोई व्यक्ति नदी में डूब रहा हो और जोर से चिल्ला पड़े मैं डूब रहा हूँ मुझे बचाओ ! उसको बचाने के लिए लाइफ -जैकेट नहीं फेंकना होगा , नींद से जगा देना होगा। उसी प्रकार मृत्यु भी भ्रम है। मरता कोई नहीं है। पंचभूत पंचभूत में मिल गए -आत्मा तो अजर, अमर अविनाशी है है ! तब मरता कौन है ? जो "मैं" था  स्वयं को M/F शरीर मान रहा था/थी  70 -80 या 100 साल के बाद जो इस शरीर से हटता है ,विवेकज ज्ञान होने तक उसे जन्म-मृत्यु चक्र में घूमना पड़ता है।     

जैसे ज्ञान (आत्मज्ञान) के बिना - चरित्र का निर्माण नहीं हो सकता, उसी प्रकार आत्मश्रद्धा के बिना आत्मज्ञान भी सम्भव नहीं है।  गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से ज्ञान प्राप्ति के लिए तीन महत्वपूर्ण सूत्र बतलाते हैं- ‘श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रिय।’ (4.39) अर्थात, इंद्रिय संयम, तत्परता और श्रद्धा से युक्त पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है। जिस विषय को हम अपने अनुभव से नहीं जानते, पर शास्त्रों से, अनुभवी और अपने से श्रेष्ठ व्यक्तियों से, गुरुजनों आदि से सुनकर विश्वास कर लेते हैं उसका नाम श्रद्धा है। रामचरितमानस में श्रद्धा और विश्वास को माता पार्वती और भगवान शंकर का स्वरूप बताया है। श्रद्धा और विश्वास साथ ही रहते हैं। आध्यात्मिक मार्ग, जिसमें ज्ञान, कर्म (निष्काम कर्म-कर्मयोग ) और भक्ति  और भी सम्मिलित हैं, उसमें जाने के लिए श्रद्धा का होना बेहद जरूरी है। अगर श्रद्धा और तत्परता हमारे अंदर हैं, पर एकाग्रता नहीं है, इंद्रियां विषय भोगों में लगी रहती हैं, तब भी हम अपने ज्ञान के बहिरंग और अंतरंग साधनों पर अपना ध्यान नहीं लगा पाएंगे। इसलिए ज्ञान प्राप्ति के साधन हेतु तीसरे सूत्र की भी बहुत आवश्यकता है। जिसका मन और इंद्रियां उसके वश में हैं, वही मनुष्य संयतेंद्रिय है, अन्यथा अधिकांश मनुष्य तो इंद्रियों के ही वश में रहते हैं।  जैसा मन में आता है, बिना विचार किए अज्ञान के साथ कार्य शुरू कर देते हैं और फिर पछताते रहते हैं। इसलिए भगवान ने श्रद्धा, तत्परता के साथ संयतेंद्रिय (इन्द्रिय संयम) होने की भी बात कही है। अगर इंद्रियां हमारे वश में नहीं हैं और साधन में तत्परता नहीं है तब समझना चाहिए कि अभी हमारी श्रद्धा में कमी है।
ज्ञानपूर्वक कर्म करने पर हमारा प्रत्येक कर्म ही कर्मयोग (निष्काम कर्म)  के रूप में परम तत्व की प्राप्ति कराने वाला बन जाता है। इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला और कुछ भी नहीं है- भगवान ने गीता में कहा है, ‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।’ (4.38) इस लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला,  निसंदेह,  कुछ भी नहीं है। योग में संसिद्ध पुरुष स्वयं ही उसे (उचित) काल में आत्मा में प्राप्त करता है। योग में संसिद्धि अर्थात्  अन्तकरण की शुद्धि -प्राप्त पुरुष ही आत्मज्ञान को प्राप्त कर सकता है।
ज्ञान के बिना कर्म - कर्म के बिना ज्ञान बाँझ है - भक्ति के बिना कर्म और ज्ञान दोनों -भक्ति हो कैसे ? अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव के चरणों का ध्यान करना ही भक्ति का उत्कृष्ट उपाय है। 

" उठो, जागो ! अपनी अन्तर्निहित महिमा के प्रति सचेतन हो जाओ, और तब तक मत रुको जब तक तुम अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच जाते। - स्वामी विवेकानंद 


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