मेरे बारे में

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

विरजाहोम का मंत्र कैसे प्राप्त हुआ ? " रामकृष्ण-संघ में सन्यासव्रत "

रामकृष्ण-संघ में सन्यासव्रत कैसे आया ?
उनदिनों श्रीरामकृष्ण का शरीर अस्वस्थ था. उनकी सेवाशुश्रुषा करने के उद्देश्य से उन्हें ' काशीपुर उद्द्यान बाड़ी ' में रखा जा रहा था. उनके जितने भी अन्तरंग-पार्षदगण थे वे सभी पारी बांध कर उनकी सेवा में नियुक्त थे. इन सभी सेवकों में गोपालचन्द्र सूर एक ज्ञानी अनुभवी और उम्रदराज होने के कारण सबके अभिभावक जैसे थे. इसीलिए उनको गोपालदादा भी कहते थे. 
व्यस्क गोपालदादा को साधू-सन्तों की सेवा करना बहुत पसंद था. उनकी ईच्छा हुई कि गंगासागर मेले में आये कुछ साधुओं को वस्त्र दान करना चाहिए. केवल वस्त्र ही नहीं उसके साथ रुद्राक्ष की माला भी देने की ईच्छा थी. ये वस्त्र उनको सन्यासियों को देने थे, इसीलिए एक दिन गोपालदादा उन कपड़ों को गेरुआ-मिटटी से रंग रहे थे.
  यह समाचार एक कान से दुसरे कान तक होते हुए श्रीरामकृष्ण तक पहुँच गयी, श्रीरामकृष्ण ने गोपालदादा को बुलवा भेजा. उन्होंने पूछा- ' इतने सारे वस्त्रों को गेरुआ रंग में क्यों रंग रहे हो ? '
इसके उत्तर में भक्तिभाव रखने वाले गोपालदादा ने कहा- ' गंगासागर मेला में जाने के लिए जगन्नाथ घाट पर कुछ साधू लोग आये हुए हैं. उनलोगों के जीर्ण-मलिन वस्त्रों को देख कर उन्हें नए वस्त्र देने की इच्छा हुई है. इसीलिए नए कपड़े खरीद लाया था, इन्हें साधुओं को देना है, इसीलिए इनको गेरुआ रंग में रंग रहा हूँ. '
यह बात सुन कर श्रीरामकृष्ण ने कहा- " अच्छी बात है, किन्तु तुम्हारे इस जगन्नाथ घाट पर एकत्रित
रमता ( घुमक्कड़ ) योगियों को गेरुआ वस्त्र देने से जितना फल मिलेगा,  तुम इन वस्त्रों को यदि मेरे त्यागी संतानों को अर्पित कर दो तो, तो उससे हजारगुना अधिक फल प्राप्त होगा. इनके जैसा त्यागी-साधू और कहाँ खोजोगे !
क्या तुम यह नहीं देख सकते कि, इनलोगों ने अपनी समस्त कामना-वासना की जलांजलि कर दी है ! इनमे से एक-एक लड़के तुम्हारे इनजैसे हजार साधुओं के बराबर है. ये सभी ' हजारी-साधू  ' ( १=१०००) हैं ! समझते हो भाई ? " 
गोपाल दादा श्रीश्री ठाकुर के पास बहुत दिनों से आ रहे थे. किन्तु इस बात पर तो उन्होंने कभी गौर नहीं किया था. इसीलिए ठाकुर की बात सुन कर वे आश्चर्य-चकित हो गए. वे सोचने लगे सचमुच इनलोगों को इतने दिनों से देख रहा हूँ, किन्तु पहचान नहीं सका था. ये लोग भी तो कामिनी-कांचन त्यागी हैं. वैराज्ञ की त्याग-अग्नि में इनलोगों ने अपनी समस्त कामना-वासना का होम कर दिया है. इसिलए ये भी कुछ कम साधू नहीं है.  इसीलिए ये गेरुआ-वस्त्र, अपने इन गुरुभाइयों को ही अर्पित करना उचित है. 
तब  गोपाल दादा ने उन गेरुआ-वस्त्रों एवं रुद्राक्ष की माला आदि को त्यागीश्वर श्रीरामकृष्ण के हाथों में ही सौंप दिया- जो करना है, वे ही करें. वे ही इस विषय में अधिकारी व्यक्ति हैं. श्रीरामकृष्ण ने उन बारह गैरिक-वस्त्र और माला को मन्त्रपूत एवं स्पर्श करके, गोपाल दादा को इन्हें लड़कों में वितरण कर देने का आदेश दिया.
स्वामी अभेदानन्दजी ने इसके बाद की घटना को अपनी आत्मजीवनी में इस प्रकार लिपिबद्ध किया है- " गोपाल दादा ने हमलोगों को वे गैरिक-वस्त्र और रुद्राक्ष की मालाएं पहना दी. हमलोग गैरिक वस्त्र पहन कर ठाकुर को प्रणाम करने गए. वे हमलोगों को गैरिक-वस्त्रों में देखकर बहुत आनन्दित हुए. इसी प्रकार से उन्होंने हमलोगों को सन्यास-व्रत में दीक्षित किया था. उसी दिन से हमलोग सफ़ेद कपड़ो का त्याग कर गैरिक-वस्त्र पहनने लगे. "
उस दिन काशीपुर में श्रीश्री ठाकुर ने वहाँ उपस्थित अपने एग्यारह त्यागी सन्तानों ( नरेन्, राखाल, काली, शशी, शरत, निरन्जन, बाबुराम, योगीन, लाटू, तारक और बूढ़े-गोपाल ) को गेरुआ वस्त्र और माला प्रदान किये थे, और बचे हुए एक गैरिक वस्त्र को गिरीश बाबु को देने के लिए निर्देश दिए थे. बाद में उस वस्त्र को प्राप्त करने पर कृतज्ञता पूर्वक अपने माथे पर रख लिया था. किन्तु उन्होंने जीवन में कभी गेरुआ वस्त्र धारण नहीं किया था. उन्होंने अपने मन (अन्तरंग-सत्ता ) को ही गेरुआ रंग में रंग लिया था, किन्तु अपने वाह्य-वस्त्रों को त्याग के रंग में रंगना नहीं चाहते थे. 
यहाँ पर इस बात का उल्लेख किया जा सकता है कि, इसके पहले दक्षिणेश्वर में रहते समय भी श्रीरामकृष्ण ने अपनी एक लीला सहचरी को भी गेरुआ वस्त्र प्रदान किया था. केवल इतना ही नहीं, सन्यास के लिए अनुष्ठित होम-पूजा में ठाकुर स्वयं अर्घ्य प्रदान करके उस सन्यासिनी को ' गौरी-आनन्द ' का नाम प्रदान किये थे. बाद में सभी लोग उनको ' गौरीमाँ ' या ' गौरीपूरी ' के नाम से जानते थे. 
किन्तु श्रीरामकृष्ण के द्वारा अपनी संतानों को गैरिक-वस्त्र प्रदान किये जाने के बाद भी अनुष्ठानिक रीति से उनलोगों की सन्यास-दीक्षा उस समय तक नहीं  हो सकी थी. क्योंकि तबतक न तो बिरजाहोम हुआ था, न योग्प्त हुआ, नया नामकरण भी नहीं हुआ था. केवल उनलोगों को गैरिक वस्त्र मिल गया था. इसीबीच १६ अगस्त १८८६ ई० को श्रीरामकृष्ण महासमाधि को प्राप्त हो गए थे. 
अभिभावक विहीन त्यागव्रत-धारी संतानों का ह्रदय बोझिल हो गया था. श्रीश्री ठाकुर के इहलीला समाप्ति के पश्चात् भग्न-ह्रदय त्यागी-पार्षद लोग गैरिक-वस्त्र पहन कर तीर्थों में भ्रमण करने लगे. 
 उस समय श्रीश्री माँ ने श्रीश्री ठाकुर के पास आन्तरिक प्रार्थना निवेदित करते हुए कहा- ' हे ठाकुर, तुम आये और केवल लीला दिखा कर चले गए...मेरे लड़के सब जो तुम्हारे नाम के सहारे सबकुछ छोड़ कर यहाँ आ गए, अब वे दो मुट्ठी अन्न के लिए इधर-उधर मारे फिरेंगे, मैं यह सब देख नहीं पाऊँगी. तुम देखना, कि तुम्हारे नाम पर जो लोग घर छोड़ कर निकलेंगे, उनको सामान्य भोजन-वस्त्र का कोई आभाव न हो. वे सभी तुमको और तुम्हारे भाव-उपदेश को ले कर संघ-बद्ध हो कर रहेंगे; और संसार के ताप-दग्ध मनुष्य उनके पास आकर तुम्हारी बातें सुन कर शान्ति पाएंगे. ' उनकी इस कातर प्रार्थना को सुनकर मानो श्रीश्री ठाकुर राजी हो गए, और उन्हीं की इच्छा से १९ अक्तूबर १८८६ ई० को वराहनगर मठ शुरू हो गया. उसके बाद एक एक कर सभी गुरुभाई लोग संघ-बद्ध होने के लिए मठ में आने लगे. 
इसीबीच २४ दिसम्बर १८८६ को आटपूर में एक अद्भुत घटना घट गयी. बाबुराम महाराज की जननी मातंगनी देवी के आमंत्रण पर घूमने के लिए नरेन्द्रनाथ अपने गुरुभाइयों के साथ हुगली जिले के आँटपूर ग्राम में गए थे.  तरुण तपस्वी लोग ग्राम के निर्जन मनोरम परिवेश में जप-ध्यान में लगे हुए थे.शान्त परिवेश में ईश्वर-चर्चा और भजन-गान करने में सभी निमग्न हो गए थे.
उस दिन ईसामसीह के आविर्भाव का प्राक-मुहूर्त था, इसीलिए वे लोग ईसामसीह के त्याग-वैराज्ञ पूर्ण जीवन-आदर्श के ऊपर चर्चा करने लगे. खुले आसमान के नीचे धुनी जला कर उसके चारोओर बैठ कर वे सभी त्याग-मार्ग का अवलम्बन कर सभी ध्यान आदि करते थे. ईसामसीह के आत्मत्याग की महिमा का वर्णन करते करते नरेन्द्रनाथ और उनके सभी गुरुभाई लोग इतने भाव से भर उठे कि, धुनी की पवित्र अग्नि शिखा को साक्षी मान कर  सदा के लिए संसार त्याग करने का दृढ संकल्प कर लिए. और उसी वैराज्ञ की अग्नि में समस्त कामना-वासना की आहुति देकर, नरेन, शरत, काली, तारक, शशी, बाबुराम, निरंजन, सारदा और गंगाधर आदि ९ गुरुभाइयों ने संघबद्ध होने का संकल्प लिया.
इसके बाद श्रीरामकृष्ण के त्यागी पार्षदों ने अपना संघबद्ध जीवन शुरू किया. उस समय वे लोग सन्यास के प्रतीक गैरिक-वस्त्रों को पहनने लगे थे, किन्तु मन में इच्छा रहने के बाद भी उससमय तक उन लोगों ने  अनुष्ठानिक रीती से पूर्णरूपेण सन्यास-व्रत धारण नहीं किया था. स्वयं स्वामीजी (नरेन्द्र नाथ )ने एक दिन शास्त्र-विधि के अनुसार सन्यासी बनने की इच्छा प्रकट की. किन्तु सन्यास लेने के लिए विरजाहोम के मंत्र, मठ, मड़ी, प्रेयमन्त्र, योगपट आदि सन्यास के मंत्र में प्रयुक्त होने वाली सामग्रियाँ कहाँ से आएँगी ? इस प्रसंग में उनके गुरुभाई स्वामी अभेदानन्दजी अपनी आत्मजीवनी में इस प्रकार किया है - " एक दिन नरेन्द्रनाथ ने हम सबों से कहा, ' यदि हमलोग अभी शास्त्र-विधान के अनुसार भी विधिवत सन्यास ग्रहण कर लें तो कैसा रहेगा ? इस बारे में तुमलोगों का क्या विचार है ?
' मैंने कहा, हाँ शास्त्र के अनुसार सन्यास ग्रहण करने के लिए हम सबों को विरजाहोम करना पड़ेगा. मेरे पास बिरजाहोम का मंत्र है. ' यह सुन कर नरेन्द्रनाथ ने आग्रह पूर्वक पूछा, ' तुमको विरजाहोम का मंत्र कैसे प्राप्त हुआ ? ' तब मैंने बताया कि एक बार मैं  ' बराबर पहाड़ ' ( जानीबीघा विवेकानन्द युवा महामण्डल, गया से २४ कि.मी. पर स्थित ) गया था.
Lomas Rishi Caves, Exterior
   ( The Barabar Caves are the oldest surviving rock-cut caves in India, mostly dating from the Mauryan period (322–185 BC), and some with Ashokan inscriptions, located in Bihar, India, 24 km north of Gaya.)
These rock-cut chambers date back to the 3rd century BC, Maurya period, of Ashoka (r. 273 BC to 232 BC.) and his son, Dasaratha. Though Buddhists themselves, they allowed various Jain sects to flourish under a policy of religious tolerance.
These caves were used by ascetics from the Ajivika sect , founded by Makkhali Gosala, a contemporary of Siddhartha Gautama, the founder of Buddhism, and of Mahavira, the last and 24th Tirthankara of Jainism . Also found at the site were several rock-cut Buddhist and Hindu sculptures .)
वहाँ एक दशनामी ' पूरी ' नाम के सन्यासी से विरजाहोम का मन्त्र, मठ, मड़ी, प्रेष-मन्त्र आदि संग्रह कर के एक कापि में लिख कर रख लिया था. जब नरेन्द्रनाथ ने मेरी पूरी बात को सुना, तो आनन्द से प्रफुल्लित हो कर बोल पड़े - ' यह सब श्रीश्री ठाकुर की इच्छा और कृपा से हुआ ! फिर ठीक है, आओ एक दिन हमलोग पूजा-होम आदि करके विरजाहोम का अनुष्ठान करते हैं और शास्त्र-विधि के अनुसार सन्यास-मन्त्र में दीक्षित होते हैं. '
हम सभी लोग बड़े आनन्द से अपनी सम्मति प्रदान किये.
दिन भी तय हो गया. १२९३ बंगाब्द के माघ महीने के आरम्भ में सभी लोग एकदिन प्रातः काल गंगा में स्नान करके, वराहनगर मठ के ठाकुर-मन्दिर में श्रीश्री ठाकुर की पवित्र पादुका के सम्मुख बैठ गए. शशी ( रामकृष्णानन्द ) ने विधि के अनुसार पूजा समाप्त किया. विरजाहोम के लिए कुछ बेल की लकड़ी, बेल के बारह दण्ड, और गाय की घी आदि एकत्र किये गए. होमाग्नि प्रज्ज्वलित की गयी थी. नरेन्द्रनाथ के आदेशानुसार मैं तंत्र-धारक के रूप में अपनी कापि खोल कर सन्यास के प्रेषमन्त्रों का पाठ करने लगा.
पहले नरेन्द्रनाथ उसके बाद राखाल, निरंजन, शरत, शशी, सारदा, लाटू, आदि सभी मेरे पाठ के साथ साथ प्रेष-मन्त्र का पाठ कतरे हुए प्रज्ज्वलित अग्नि में आहुति दान किये. बाद में मैं स्वयं ही प्रेष-मन्त्र पढ़ कर अग्नि में आहुति दिया. यह बात ठीक है कि सन्यास-दीक्षा भी हमलोगों ने पहले ही श्रीश्रीठाकुर से प्राप्त कर लिया था."
वराहनगर मठ में इसप्रकार अनुष्ठानिक रूप से जो सन्यास-व्रत ग्रहण किया था, उसमें मुख्य भूमिका स्वामी अभेदानन्दजी की ही थी.
 श्रीरामकृष्ण के स्पर्श से पवित्र  गैरिक-वस्त्र प्राप्त करने के अधिकारी होने के कारण तपोव्रती सन्यासी होने पर भी,  वे स्वामी अभेदानन्द-संग्रहित और प्रदत्त प्रेष-मन्त्र का पाठ करते हुए, वैदिक रीति से विरजाहोम करके अनुष्ठानिक रूप से पहली बार सन्यासी बने थे. उन्हीं की तपोपूत प्रचेष्टा से श्रीरामकृष्ण के पार्षदगण दशनामी संन्यासी-संप्रदाय से जुड़ सके थे.
आदि शंकराचार्यकृत ' दशनामी सन्यास-पद्धति ' गुरु-शिष्य परम्परा पर आधारित है. शाश्त्रीय मतानुसार वैदिक-सन्यास ग्रहण करने की यह भावधारा, स्वामी अभेदानन्दजी के माध्यम से ही पहली बार रामकृष्ण-संघ में आई थी.
इस पवित्र सन्यास-ग्रहण के प्रसंग में स्वामी अभेदानन्दजी ने अनुभूति-जन्य एक एक घटना को अपनी दैनिक डायरी में लिपिबद्ध किया है. सन्यास ग्रहण करने पर नाम परिवर्तित हो जाता है, अभेदानन्दजी अपनी जीवनकथा में इस बात का भी जिक्र किया है कि प्रत्येक गुरुभाई का नामकरण उस समय किस प्रकार हुआ था- " सबसे पहले नरेन्द्रनाथ ने अपना सन्यास नाम रखा- ' विविदिषानन्द ', उसके बाद राखाल, बाबुराम, शरत आदि के अपने अपने स्वाभाव के अनुसार अपना नामकरण किया- ' ब्रह्मानन्द ', ' प्रेमानन्द ',  ' सारदानन्द ', आदि.
मैं वराहनगर मठ के एक कमरे में दरवाजों को बंद  करके दिनरात ध्यान किया करता था, वेदान्त-दर्शन (ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ) पढ़ कर ( नेति नेति ) विचार किया किया करता था और ' अद्वैतवाद ' का समर्थन करते हुए सबों के साथ उसी विषय में चर्चा किया करता था, इसीलिए सबों ने मेरा नाम ही ' काली-वेदान्ती ' रख दिया था. तीव्र तपस्या में रत रहने के कारण कुछ लोग मुझे ' काली-तपस्वी ' कहकर भी बुलाया करते थे. 
मैं ' अभेद-ज्ञान ' को ही श्रेष्ठ और चरम-ज्ञान मानता था इसीलिए नरेन्द्रनाथ ने मेरा नाम रखा- ' अभेदानन्द '.
शशी दिनरात श्रीश्री ठाकुर रामकृष्णदेव की पूजा और सेवा में ही लगा रहता था, इसीलिए नरेन्द्रनाथ ने उसका नाम रखा- ' रामकृष्णानन्द '. लाटू और योगीन ने बाद में सन्यास ग्रहण किया था.
लाटू दिनरात ध्यान-धारणा में अपना समय बिताता था, इसीलिए उसका नाम ' अद्भुतानन्द ' रखा गया था. तारक दादा ( शिवानन्द ) उस समय एक लंगोटी पहन कर शवासन में लेट कर ध्यान किया करता था. हमलोग जब विरजाहोम करके सन्यास ले रहे थे, उस अनुष्ठान में उसने पहले भाग नहीं लिया था; हमलोगों ने होम में भाग लेने के लिए उससे अनुरोध भी किया था, किन्तु किसी भी उपाय से उसको मनाया नहीं जा सका. बाद में गंगा में प्रवेश कर हमलोगों ने दण्ड को विसर्जित कर दिया. उसके बाद से हमलोगों के लिए पूजा-होम आदि कर्मकाण्ड करने का अधिकार समाप्त हो जाता है, क्योंकि शास्त्र के अनुसार  तब हमलोग ' परमहंस '
हो जाते हैं." 
वराहनगर मठ में अनुष्ठानिक रूप विरजाहोम करके प्रथम जो  ९ गुरुभाई तापस सन्यासी हुए थे, उनके नाम इस प्रकार हैं- स्वामी विविदिषानन्द ( बाद में स्वामी विवेकानन्द ), ब्रह्मानन्द, अभेदानन्द, प्रेमानन्द, रामकृष्णानन्द, सारदानन्द, अद्वैतानन्द, निरंजनानन्द और त्रिगुणातीतानन्द . इसके अतिरिक्त परवर्तीकाल में विभिन्न समय में संन्यास ग्रहण किये- स्वामी शिवानन्द, अद्भुतानन्द, योगानन्द, तुरीयानन्द, अखंडानन्द, निर्मलानन्द, सुबोधानन्द और कृपानन्द.
इसके बाद १८९२ ई० में वराहनगर से मठ स्थानान्तरित होकर आलमबाजार चला गया. वहाँ से फिर १८९८ ई० में मठ बेलूड़ चला आ गया. इस बेलूड़ मठ में केवल स्वामी विज्ञानानन्द ने सन्यास ग्रहण किया था. यद्दपि ये सभी लोग श्रीरामकृष्ण के दिव्य-सानिध्य में आये थे, एवं इनलोगों को विभिन्न समय पर श्रीश्रीठाकुर का संग भी प्राप्त हुआ था. किन्तु श्रीरामकृष्ण के सन्यासी शिष्यों में से केवल योगानन्द और त्रिगुणातीतानन्द ही श्रीश्रीमाँ सारदा से दीक्षित हुए थे. इनके अतिरिक्त भी शायद कुछ लोगों ने श्रीश्रीठाकुर या श्रीश्रीमाँ से दीक्षा ग्रहण किये थे पर उनके नाम संख्या का ठीक से पता नहीं है. किन्तु श्रीरामकृष्ण के दिव्य सानिध्य पाने और दर्शन करने के अधिकार से इनसबों को श्रीरामकृष्ण त्यागीपार्षदों  के रूप में ही जाना जाता है. 
किन्तु यदि श्रीरामकृष्ण-प्रदत्त गैरिकवस्त्र- प्राप्ति के अधिकार के आधार पर सन्यासी शिष्यों की गणना की जाय तो उनकी संख्या ११ ठहरती है. क्योंकि श्रीरामकृष्ण ने जिन १२ गेरुआ वस्त्रों को स्पर्श और मन्त्रपूत किया था, उनमे से एक गिरीश बाबु के लिए संरक्षित था. पुनः स्वामी अभेदानन्दजी द्वारा संग्रहित प्रेषमन्त्र आदि के आधार पर विरजाहोम करके प्रथम शास्त्रानुसार अनुष्ठानिक सन्यासी की गणना की जाय तो कुल ९ लोग उस समय सन्यासी हुए थे. 
इनके अतिरिक्त बाद में वराहनगर मठ में अन्य ८ लोगों ने सन्यास ग्रहण किया था; इसके भी बहुत दिनों बाद बेलूड़ मठ में और १ व्यक्ति का सन्यास हुआ था. इसीलिए वुभिन्न समय पर सन्यास होने पर भी, श्रीरामकृष्ण के पवित्र-सानिध्य और दर्शन का अधिकारी होने से ये सभी लोग श्रीरामकृष्ण के सन्यासी शिष्य  है, तथा एकमात्र प्रथम सन्यासिनी शिष्या गौरीपूरी देवी थीं या श्रीश्री माँ थीं. 
किन्तु भगवान श्रीरामकृष्ण के दिव्य दर्शन या स्पर्शन के अधिकार से ये सभी वैसे अन्तरंग योगी पार्षद हैं; जिनका दिव्यजीवन- त्याग्व्रत और सेवाव्रत को अपना जीवनव्रत बनाने में उत्सर्ग हो गया है. ध्यानमग्न ऋषि तुल्य इन तरुण तपस्वियों ने ' आत्मनो मोक्षार्थं जगत-हिताय च ' व्रत को अपना ध्येय मन्त्र  मानते हुए अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया था. 
इन समस्त व्रत-धारियों के त्याग-तितिक्षा और सेवापरायणता पर आधारित,  ज्ञान-भक्ति-कर्म के समन्वय से यह अनूठा संघ गठित हुआ है.
*****************
तथ्यसूत्र -
' আমার জীবনকথা ' - স্বামী অভেদানন্দ | ( ' मेरी जीवनकथा ' - स्वामी अभेदानन्द '. )
' গৌরিমা ' - শ্রী দূর্গাপুরি দেবী | ( ' गौरीमाँ ' - श्री दुर्गापूरी देवी' )
' নবযুগের মহাপুরুষ ' - স্বামী জাগ্দিশ্বারানন্দ | ( ' नवयुग के महापुरुष ' - स्वामी जगदीश्वरानन्द. )
' শ্রীরামকৃষ্ণ মঠের আদিকথা ' - স্বামী প্রভানন্দ | ( ' श्रीरामकृष्ण मठ की आदिकथा ' - स्वामी प्रभानन्द. )                       -----------------------------------------------------------------------------------
* ' वर्तमान ' २४ दिसम्बर 2007 तारीख को प्रकाशित
                         
               
         

बुधवार, 3 अगस्त 2011

' काली- तपस्वी ' का कमरा " वेदान्तिक अभेदानन्द "

वेदान्तिक अभेदानन्द 
स्वामी अभेदानन्द श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग-लीलापार्षदों में अन्यतम पार्षद थे. उनका जन्म २ अक्तूबर १८६६ को उत्तर कोलकाता के आहिरीटोला में हुआ था. उनके पुर्वाश्रम का नाम काली-प्रसाद एवं पिता का नाम रसिकलाल चन्द्र था. माता का नाम नयनतारा देवी था. बचपन में उन्होंने आहिरीटोला स्थित यदु पण्डित की पाठशाला में, तथा बाद में बंग विद्यालय एवं ओरिएंटल सेमिनरी में शिक्षा ग्रहण किया था. पढ़ने-लिखने में वे एक मेधावी छात्र थे. 
किन्तु बचपन से ही उनमे योगसाधना के प्रति तीव्र आकर्षण था. इसी योगसाधना के प्रति गहरे आकर्षण को लेकर १८८३ ई० वे श्रीरामकृष्ण के सानिध्य दक्षिणेश्वर आ गए. श्रीरामकृष्ण ने कालीप्रसाद को देखते ही पहचान लिया एवं कहा - ' अपने पूर्वजन्म में तूँ एक योगी था. तुम्हारा कुछ बाकी रह गया था. यही जन्म तेरा अंतिम जन्म है. ' जौहरी-श्रीरामकृष्ण ने कालीप्रसाद रूपी खरे सोने को ठीक ठीक पहचान लिया था. 
श्रीरामकृष्ण कालीप्रसाद से बहुत स्नेह करते थे, वे कहते- ' लडकों में तूँ बुद्धिमान है. नरेन के नीचे ही तेरी बुद्धि का स्थान है. नरेन जिस प्रकार एक मत चला सकता है, तुम भी वैसा कर सकोगे. ' श्रीरामकृष्ण का यह आशीर्वाद उनके उपर वर्षित हुआ था. परवर्तीकाल में उनके कर्म-दक्षता को देखने से यह महसूस होता है कि श्रीरामकृष्ण का आशीर्वाद सत्य सिद्ध हुआ था.
कालीप्रसाद तार्किक व्यक्ति थे. युक्ति-तर्क के कसौटी पर परखने के बाद ही वे किसी बात को ग्रहण करते थे. उस समय श्रीरामकृष्ण अस्वस्थ थे, सेवा-शुश्रूषा करने के उद्देश्य से उनको काशीपुर उद्द्यानबाड़ी में रखा गया था. उस समय काली-महाराज भी श्रीरामकृष्ण की सेवा में नियुक्त रहते थे. एक दिन सेवक कालीप्रसाद काशीपुर उद्द्यान के भीतर तालाब में बंशी डाल कर मछली पकड़ रहे थे. यह बात सुनकर श्रीरामकृष्ण ने उनको मना किया और कहा- ' उस प्रकार बंशी से मछली नहीं पकड़ना चाहिए. बंशी के हुक में चारा डाल कर मछलियों को जल से बाहर खींच लेना उचित नहीं है.' इतना ही नहीं बंशी डाल कर मछली पकड़ने की बात सुन कर ठाकुर को कष्ट भी हुआ था. किन्तु काली-महाराज तो वेदान्ती थे.
वेदान्त के युक्ति-तर्क को वे पसन्द करते थे. ' नेति नेति ' कर के ' ईति ' तक पहुँचना उनका उद्देश्य था.
काली-महाराज शास्त्र-वचनों को केवल शास्त्रों में ही आबद्ध नहीं रखना चाहते थे. शास्त्र के तत्वों को वे व्यवहार में और अपने आचरण में उतार कर मिलान करना चाहते थे. इसीलिए उन्होंने श्रीरामकृष्ण से ( शास्त्र की बात को तर्क के आधार पर व्याख्या करते हुए)  कहा-
' शास्त्रों में कहा गया है- आत्मा अमर, नित्य, शाश्वत है. जिसको अग्नि में जलाया नहीं जा सकता, शस्त्र इस आत्मा को काट नहीं सकते, तथा आत्मा का अस्तित्व सर्वत्र है. ' आत्मा किसी की हत्या नहीं करता, किसी के द्वारा हत भी नहीं होता.' इसलिए ' मछली की हत्या भी नहीं होती,या हमलोगों के द्वारा वह हत भी नहीं होता '  क्योंकि मछली भी तो आत्म-स्वरुप है.
इसीप्रकार कालीप्रसाद सूतीक्ष्ण बुद्धि के द्वारा अपने मत को प्रतिष्ठित करा सकते थे. कई बार तो अपने इस स्नेहभाजन सन्तान के युक्ति-तर्क को सुन कर श्रीरामकृष्ण को भी परास्त होना पड़ता था. फिरभी ऐसी बुद्धि-दीप्त प्रतिभा के लिए श्रीरामकृष्ण उनसे बहुत स्नेह करते थे. 
यही काली-महाराज श्रीरामकृष्ण की कृपा से वेदान्त के चरम उपलब्धी के स्तर तक पहुँच गए थे. उन्होंने जिव-जगत सभी वस्तुओं के भीतर आत्मा का दर्शन किया था. श्रीरामकृष्ण के निर्देशानुसार वे जो कुछ दर्शन करते श्रीरामकृष्ण से कह सुनाते थे.
एक दिन काली-महाराज श्रीरामकृष्ण के चरणों को सहला रहे थे. इसी समय उनको अनुभव हुआ - ' मानो श्रीरामकृष्ण ही स्वयं जगन्माता हैं. एवं मातृरूप धारण कर के उनको अपना स्तन पान करा रहे हैं.इस अद्भुत अनुभूति के प्रसंग का वर्णन अभेदानन्द महाराज अपनी आत्मजीवनी में इस प्रकार किया है-
  ' एक दिन वे (अभेदानन्दजी )  समाधी में चले गए थे. उनका वाह्य-ज्ञान पूरी तरह से चला गया था. वे मानो अनन्त-आकाश के नीचे मुक्त पंछी के जैसा विचरण कर रहे थे. इस सम्पूर्ण जगत को ध्यान में देख रहे थे. विचरण करते हुए वे एक अतीन्द्रिय जगत में जा पहूंचे थे, देखते हैं एक भव्य भवन है. उसी विराट भवन में वे अकेले ध्यान मग्न हैं. 
और उस भवन के मध्यमणि होकर बैठे हुए हैं श्रीरामकृष्ण. वे मानो सूर्य के जैसा एक प्रकाशपुंज हों और उनके भीतर से रश्मियों के रूप एक एक देवताओं की प्रतिमुर्तियाँ प्रस्फुटित हो रही थीं. फिर देखते हैं समस्त देव-देवियाँ मानो पुनः उन्हीं के भीतर समाती जा रही हैं.
  इस अद्भुत दर्शन का जब कोई मर्म समझ में नहीं आया तो श्रीरामकृष्ण के पास जाकर उनको बताया. श्रीरामकृष्ण उनके इस दर्शन को सुन कर बोले- ' तुमको वैकुण्ठ का दर्शन मिल गया है. तुमने समस्त देव-देवियों का दर्शन कर लिया है, एवं तुम अखण्ड घर तक जा पहूंचे हो. इसके बाद फिर तुमको किसी देव-देवी का दर्शन नहीं होगा. '  
काली-महाराज ने इस दर्शन के समय यह अनुभव किया था कि, भगवान श्रीरामकृष्ण ही समस्त अवतारी पुरुषों के घनीभूत विग्रह हैं. श्रीकृष्ण, ईसामसीह, जराथ्रुष्ट, नानक, चैतन्य, शंकराचार्य, यहाँ तक कि दशावतार में गण्य- मत्स्य, कूर्म, से लेकर श्रीरामचन्द्र, बुद्ध आदि समस्त अवतार ही 
मानो श्रीरामकृष्ण में समाहित होकर एकाकार हो गए हैं. ठाकुर उनके इस दिव्य-दर्शन की बातों को सुन कर पुनः बोले- ' वैकुण्ठ का दर्शन कर लेने के बाद तुम सरूप-दर्शन की चरम सीमा तक पहुँच गए हो, अब तुम्हारे लिए और कुछ दर्शन करना बाकी नहीं है. अब से तुम अरूप और निराकार के क्षेत्र में उठोगे. '
  श्रीरामकृष्ण की कृपा से समस्त देव-देवियों का दर्शन करके कठोरी काली-महाराज का नाम ' काली-तपस्वी ' पड़ गया. 
इसके बाद श्रीरामकृष्ण ने १६ अगस्त १८८६ ई० को अपनी नरलीला का समापन कर दिया. सभी गुरुभाई लोग एकत्रित होकर वराहनगर मठ में आश्रमी जीवन बिताने लगे. श्रीरामकृष्ण ने उन सबको त्यागव्रत में अग्रसर करने के उद्देश्य से गेरुआ-वस्त्र तो दिया था, किन्तु अनुष्ठानिक विधि-विधान से सन्यास-दीक्षा नहीं प्रदान की थी.
बाद में बड़ानगर मठ में विरजाहोम करके उनलोगों ने  आनुष्ठानिक विधि से भी सन्यास ग्रहण कर लिया था.  सन्यास लेने से पहले विरजाहोम करना पड़ता है. इस विरजाहोम के लिए हवनसामग्री, मन्त्र, मठ. मड़ी इत्यादि वस्तुओं का जोगाड़ काली-महाराज ने किया था. सन्यास ग्रहण करने के बाद काली-महाराज का नाम - ' स्वामी अभेदानन्द ' हो गया था. क्योंकि साधना के द्वारा उन्होंने अभेद-तत्व की अनुभूति प्राप्त की थी.
सन्यास ग्रहण करने के बाद काली-महाराज परिव्राजक के वेश में विभिन्न तीर्थों का भ्रमण करने निकल पड़े. 
काली-महाराज तपस्वी थे, वे बहुत कठोर तप करते थे. इसीलिए बड़ानगर मठ में उनका एक अलग कमरा था. उस कमरे को ' काली- तपस्वी ' का कमरा कहा जाता था. फिर वे वेदान्त की भी गहराई (नsआसीत, नsअस्ति, नsभविष्यति ) में भी प्रवेश कर जाते थे, वेदान्त-चर्चा करने में बड़े पारंगत थे, इसीलिए कोई कोई
उनको ' काली-वेदान्ती ' भी कहा करते थे.
काली-महाराज पैदल ही काशीधाम पहुँच गए. वहाँ पहुँच कर तैलंगस्वामी, भाष्करानन्द सरस्वती के साथ वेदान्त विचार किये. इसके अतिरिक्त पहाड़ो की कन्दराओं में भी उन्होंने कठोर तपस्या की थी. हृषीकेश के कैलास मठ में धनराज गिरी से उन्होंने वेदान्त-दर्शन के शंकर भाष्य की शिक्षा ली थी. वे बहुत एकांत-प्रिय थे, तथा कपर्दकहिन् तपस्वी के रूप में तीर्थ-भ्रमण किया करते थे. 
बहुत दिनों तक तपस्या करने के बाद जब वे १८९५ ई० में वापस लौटे, तो मठ बड़ानगर से स्थानान्तरित होकर आलमबाजार में जा चुका था. वहां पर भी वे गम्भीर साधन-स्वाध्याय और शास्त्र अध्यन में निमग्न रहते थे.  इसी समय १८९६ ई० में स्वामी विवेकानंद के आह्वान पर वेदान्त का प्रचार करने के लिए वे पाश्चात्य गए. पाश्चात्य में २१ अक्तूबर १८९६ को लन्दन के ' क्राइस्ट थिओसोफिकल सोसाईटी ' में, उन्होंने अपना पहला व्याख्यान दिया था. उनके भाषण का विषय था, वेदान्त का ' पंचदशी '.
  स्वामी विवेकानन्द ने उनके प्रथम व्याख्यान को सुनने के बाद उपस्थित श्रोताओं के बीच घोषित किया था-
" Even if I perish out of this plane, my message will be sounded through these dear lips and world will hear it. "अर्थात, जब वे इस स्थूल शरीर में नहीं रहेंगे, तब उनकी वाणी को जगतवासी उनके गुरुभ्राता स्वामी अभेदानन्द के कण्ठ से सुनेंगे. 
 स्वामीजी का यह आशीर्वाद वर्षित हुआ था, एवं उनके आशीस के कारण ही, अभेदानान्दजी ने  अमेरिका में निरन्तर २५ वर्षों तक वेदान्त प्रचार के कार्य में निमग्न रहे थे.स्वामीजी के निर्देश पर अभेदानन्दजी १८९७ ई० में लन्दन से अमेरिका चले गए. अमेरिका के न्यू यार्क शहर में उन्होंने वेदान्त, गीता, और धर्म के ऊपर ३ महीनों में लगभग ९० व्याख्यान दिए थे.
  अमेरिका के समस्त बड़े बड़े विश्वविद्यालयों में नियमित रूप से उनका व्याख्यान हुआ करता था. उस समय के अमेरकी राष्ट्रपति मैककिनली के आमंत्रण पर उनके साथ भारतीय-दर्शन के विषय पर चर्चा किये थे. इसके अतिरिक्त पाश्चात्य के जितने नामी-गिरामी दार्शनिक, वैज्ञानिक, साहित्यकार, अन्वेषक, आदि लोग थे, उन सभी के साथ उनकी अन्तरंग मित्रता हो गयी थी. स्वामीजी के इच्छानुसार, उनके वार्ता-वाहक होकर अभेदानन्दजी अमेरिका में कई वर्षों तक रहे थे. 
एकदिन अमेरिका के एक हाल में ' मनःसंयोग ' के विषय पर अभेदानन्दजी का व्याख्यान चल रहा था. श्रोतागण पुरे मनोयोग के साथ ' मनसंयम ' के उपर अभेदानन्दजी के व्याख्यान को सुनने में निमग्न थे. उन्ही श्रोताओं में से एक विख्यात दार्शनिक ने दूसरे दिन महाराज को कहा था- ' आपका मनःसंयोग के ऊपर दिया गया व्याख्यान सार्थक सिद्ध हुआ है. क्योंकि आप जब हमलोगों का मनसंयोग विषय पर क्लास ले रहे थे, उसी समय निकट के रस्ते से बैंड बजाते हुए एक शोभायात्रा निकली थी, किन्तु हममें से किसी को उसका पता नहीं चला. ' अभेदानन्दजी भी व्याख्यान देने में इतने तल्लीन थे कि, उनको भी इसका पता न चल सका था, इसीलिए उन्होंने 
पूछा- ' ऐसा क्या ?'
 उन्होंने कहा- ' हाँ, व्याख्यान चलते समय एक शोभायात्रा हाल के बिलकुल निकट से होकर गुजरी थी. किन्तु हममें से किसी को इसका पता नहीं चला.
इस से यह सिद्ध होता है कि आपका ' मनः संयोग ' के विषय में दिया गया व्याख्यान हमलोगों के लिए सार्थक हो गया है, क्योंकि आपके ' मनःसंयोग ' - क्लास में हम सभी लोग इतनी तल्लीनता से सुन रहे थे, कि हमारा मन उसके भावों में बहते हुए एक दूसरे ही लोक में पहुँच गया था.'
स्वामी अभेदानन्दजी एक ही आधार में वक्ता, दार्शनिक, लेखक एवं मनोवैज्ञानिक भी थे. वे एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे. उन्होंने पाश्चात्य देशों में विभिन्न विषयों पर जितने भी व्याख्यान दिए थे, वह आज पुस्तकों में लिपिबद्ध है. उदहारण के लिए, मृत्यु के पार, मृत्यू रहस्य, पुनर्जन्म-वाद, मनोविज्ञान और आत्मतत्व आदि कुछ प्रमुख पुस्तकों का नाम लिया जा सकता है. 
पश्चात्यवासी उनके प्रतिभा को देख कर मुग्ध हो गए थे. अभेदानन्दजी के साथ पाश्चात्य देशों के विख्यात ज्ञानी-गुणि मनीषियों यथा- अध्यापक मैक्समुलर, पाल डायसन, विलियम जेम्स, जोसिया रयेस, राल्फ ओयलेंडो, लायनमैन, हडसन आदि के घनिष्ट सम्बन्ध था. यहाँ तक कि ग्रामोफोन के आविष्कारक टॉमस आलवा एडिसन के साथ भी उनकी गहरी मित्रता थी. उन्होंने उनको अपने द्वारा आविष्कृत प्रथम ग्रामोफोन उपहार में दिया था, जो रामकृष्ण वेदान्त मठ में आज भी चालू हालत में संरक्षित है. 
स्वामी अभेदानान्दजी हावर्ट, कोलम्बिया, इयेल, कर्नेल, केम्ब्रिज, वर्कले, क्लार्क, कैलिफोर्निया आदि यूनिवर्सिटी में नियमित व्याख्यान दिया करते थे. इसके अतिरिक्त वे दर्शन और विज्ञान के सम्बन्ध में अमेरिका, कनाडा, अलास्का, मेक्सिको, तथा यूरोप के बड़े बड़े यूनिवर्सिटी में भी नियमित भाषण देते थे. 
वे एक सफल प्रचारक थे. भारत के वेदान्त-दर्शन को उन्होंने ही विश्व के समक्ष उजागर किया था. वेदान्त प्रचार करने के लिए १७ बार आटलनटिक महासगर को पार किया है.
अमेरिका में उनके द्वारा दिए गए व्याख्यान- ' India and her people ' ने सभी का ध्यान आकर्षित कर लिया था. इस व्याख्यान का बंगला अनुवाद  ' भारत और उसकी संस्कृति ' के नाम से बंगला में छपा था; उस समय यह पुस्तिका भारतप्राण व्यक्तियों की पाठ्यवस्तु बन गयी थी. इसीलिए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इस पुस्तिका पर प्रतिबन्ध लगा दिया था. उनका कहना था कि यह पुस्तक स्वाधीन चेता भारतियों को स्वाधीनता संग्राम के लिए उद्बुद्ध कर रहा था. 
स्वामी अभेदानान्दजी अमेरिका पच्चीस वर्षों तक रहने के दौरान १९०९ ई० में छ' महीनों के लिए भारतवर्ष आये थे. भारत आकर स्वाधीनता-संग्रामियों को उद्दीप्त किये थे. इसके बाद वे पुनः अमेरिका लौट गए एवं दीर्घ २५ वर्षों तक अमेरिका में भारतीय-दर्शन एवं वेदान्त का प्रचार किये थे. १९२१ ई० में वे भारत लौट आये थे. वापस लौटते समय चीन, जापान, फिलिपाईन्स, सिंगापूर, कोयलालमपूर, रंगून आदि देशों में भी उन्होंने भारत के वेदान्त को वहाँ की जनता के समक्ष उजागर किया था. 
१९२२ ई० में वे रामकृष्ण मठ एवं मिशन के उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए, उसके बाद भारत के प्राण-केन्द्र कोलकाता में भी वेदान्त-प्रचार करने के लिए एक अस्थायी ' वेदान्त समिति ' गठित किये. इस समय भी उनके पास भारत के महान महान व्यक्ति आया करते थे. भिन्न भिन्न समय पर सर सी. भी. रमन, महात्मा गाँधी, चितरंजन दास, सुभाषचन्द्र बोस, जैसे महापुरुष-गण उनके निकट सानिध्य में आये थे एवं उनकी ज्ञान-गर्भित वार्ताओं को सुन कर मुग्ध हुए थे. 
 १९२१ ई० में भारत लौट आने के बाद २५ दिसम्बर को कोलकाता में उनके लिए  विशेष अभ्यर्थना और अभिनन्दन सभा आयोजित की गयी थी. परिव्राजक स्वामी अभेदानन्दजी १९२२ ई० में पुनः तिब्बत और काश्मीर का पर्यटन करने निकल पड़े. वहाँ से बौद्ध-दर्शन एवं तिब्बतीय सामाजिक-तत्वों के सम्बन्ध में बहुत से तथ्यों का संग्रह किये थे.
तत्पश्चात १९२३ ई० में ' वेदान्त समिति ' को स्थापित किये एवं दार्जलिंग में ' रामकृष्ण वेदान्त आश्रम ' की स्थापना १९२५ ई० में किये. स्वामी अभेदानन्दजी ने १९२७ ई० में मासिक मुखपत्र के रूप में ' विश्व-वाणी ' पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया;
  एवं १४ मार्च १९३१ को ' रामकृष्ण वेदान्त मठ ' की स्थापना की थी. एवं १९३१ ई० के मार्च महीने में ही आयोजित श्रीरामकृष्ण के शतवार्षिकी ( सौवाँ जन्मोत्सव ) महासभा की अध्यक्षता स्वामी अभेदानन्द जी ने ही की थी. किसी विशाल समारोह में दिया गया, यही उनके जीवन का आखरी व्याख्यान था. 
८ सितम्बर १९३९ को विश्वविजयी वेदान्तिक भारत माता की कीर्ति को दुनिया भर में प्रचारित करने वाले इस योग्य भारत-सन्तान ने महासमाधि प्राप्त की. उनकी अन्तिम इच्छा के अनुसार ' काशीपुर-महाश्मशान ' में उनके गुरुदेव श्रीरामकृष्ण की समाधी के निकट ही उनको भी भष्मीभूत करके समाहित कर दिया गया.
------------------------
( ' আলোকপাত ' পত্রিকায় প্রকাশিত | ' आलोकपात ' नामक पत्रिका में प्रकाशित )  
                                                 
             

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

अद्वैतवेदान्त की ईति- " काली-वेदान्ती "

काली-वेदान्ती
स्वामी अभेदानन्द का एक और नाम है- ' काली-वेदान्ती '. बचपन से ही उनके भीतर वेदान्त-दर्शन के प्रति तीव्र आकर्षण था. वेदान्त मत का उन्होंने गम्भीर-निष्ठा एवं अध्यवसाय के साथ अध्यन किया था, और आत्मसात भी कर लिया था. सांसारिक स्थूल बातों (नून-तेल-लकड़ी की चिन्ता ) को छोड़ कर, वे सदैव सूक्ष्म-वेदान्तिक तत्वों के गहन चिन्तन-मनन में ही डूबे रहते थे. जिसका मन सदैव वेदान्त के सूक्ष्म आत्मतत्व में ही निमग्न रहता हो, उसके भीतर शरीर की असारता का बोध उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है. 
इसीलिए सबकुछ छोड़-छाड़ कर एक दिन वे उपयुक्त गुरु की खोज में निकल पड़े. और सिद्धगुरु के रूप में उन्होंने अद्वैताचार्य श्रीरामकृष्ण को प्राप्त कर लिया; जो अद्वैतवाद के प्रबल-पक्षधर थे. अद्वैत-वेदान्त के 
' नेति नेति ' विचार-पद्धति को काली-महाराज भी बहुत पसन्द करते थे. इसको वेदान्त का ज्ञान मार्ग कहा जाता है. यहाँ पर ईश्वर का अस्तित्व अन्ध-विश्वास के उपर प्रतिष्टित नहीं है. इसमें न्याय-विचार करके सभी मतों का खण्डन कर दिया जाता है. इस अद्वैत-वाद में युक्ति-तर्क की सहायता से एक परम-सत्य तक पहुँचना होता है. यह मार्ग चरम विवेक-विचार के उपर प्रतिष्ठित है. 
काली-महारज भी इसी ज्ञान-मार्ग के पथिक थे. इस पथ में युक्ति-तर्क के आधार पर यह सिद्ध किया जाता है कि - ' ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या '. दिन-रात इसी विचार मग्न रहने के कारण सभी लोग उनको नास्तिक समझने लगे थे. उनके संगीसाथी साथियों ने श्रीरामकृष्ण के पास अभियोग लगाया कि - ' काली-वेदान्ती ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार कर रहा है. ' यह सब सुनकर अद्वैत-ज्ञानी श्रीरामकृष्ण धीरे से मुस्कुरा दिए और बोले- ' तुम लोग देख लेना एक दिन वह सबकुछ मानने लगेगा, सबकुछ जान जायेगा. ' 
वेदान्त के मतानुसार यह जगत मायामय स्वप्नवत होने के कारण मिथ्या (असत नहीं ) है. यह तो तात्विक-सत्य है; किन्तु क्या किसी ने अपने जीवन में इसका प्रयोग किया है ? प्रयोगात्मक वेदान्तवादी कहाँ है ? ऐसा वेदान्तविद व्यक्ति कहीं मिल सकता है, जो अद्वैत-वेदान्त के तत्वों को अपने जीवन में प्रयोग कर सचमुच वेदान्त-मूर्ति बन चुका हो ?
  काली-महाराज के जिज्ञासु मन में उठते रहने  वाले प्रश्नों का कोई अन्त नहीं था. किन्तु जब तक कोई प्रत्यक्ष-प्रमाण नहीं मिलजाता वे अपनी खोज बन्द करने वालों में से नहीं थे. क्योंकि, अपनी आँखों के सामने जिस जगत को बिलकुल स्पष्ट देख रहा हूँ, वह जगत वेदान्त-मत के अनुसार मिथ्या कैसे हो जाता है ?                     
इस प्रश्न का उत्तर तत्वज्ञ श्रीरामकृष्ण से इस प्रकार दिया- " ' नेति नेति ' करते हुए आत्मा की उपलब्धी करने का नाम ज्ञान है. पहले ' नेति नेति ' विचार करना पड़ता है. ईश्वर पंचभूत नहीं है, इन्द्रिय नहीं हैं, मन, बुद्धि, अहंकार नहीं हैं, वे सभी तत्वों के अतीत हैं; - और यह होते ही यह सब स्वप्नवत हो जाता है.
विचार दो प्रकार का है - अनुलोम और विलोम . पहले के द्वारा मनुष्य जीव-जगत से नित्य ब्रह्म में जाता है और दूसरे के द्वारा देखता है कि, ब्रह्म ही जीव-जगत के रूप में लेलायित है. छत पर चढ़ने के लिए एक एक कर सब सीढ़ियों का त्याग करते हुए जाना होता है. सीढियाँ छत नहीं हैं. किन्तु छत पर जा पहुँचने के बाद दिखाई देता है कि जिन ईंट, चुना, सुर्खी आदि वस्तुओं से छत बनी है, उन्हीं से सीढ़ियाँ भी बनी हैं. जो परब्रह्म है, वही यह जीव-जगत बना है, चौबीस तत्व बना है. जो आत्मा है, वही पंचभूत बना है.
  तुम कहोगे, मिट्टी अगर आत्मा से ही बनी है तो वह इतनी कड़ी कैसे है ? उनकी इच्छा से सब कुछ सम्भव हो सकता है. क्या रज-वीर्य से हड्डी और मांस का निर्माण नहीं होता है ?
 अनुलोम और विलोम. ' नेति नेति ' करते हुए समाधी में पहुँचकर तुम्हारा ' अहं ' ब्रह्म में विलीन हो जाता है. फिर जब तुम समाधी से उतरकर नीचे आते हो तब तुम्हें दिखाई देता है कि ब्रह्म ही तुम्हारे ' अहं ' के रूप में तथा सारे जगत के रूप में व्यक्त हो रहा है....इसी प्रकार नित्य ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन करने के पश्चात् विचार आया
- ' जो नित्य हैं, वे ही लीला में जगत बने हैं.'
..यदि कहो- अखण्डस्वरुप आत्मा खण्डित जीवात्माओं में कैसे विभक्त हुआ ? कोई अद्वैत-वादी तार्किक विचार-बुद्धि के बल पर इसका उत्तर नहीं दे सकता. उसे यही कहना पड़ता है कि- ' मैं नहीं जानता '. ब्रह्मज्ञान होने पर ही इसका योग्य उत्तर मिल पाता है.
जब तक मनुष्य कहता है, ' मैं जानता हूँ ' या ' मैं नहीं जानता ' तब तक वह स्वयं को एक व्यक्ति (M /F ) समझता है. तब तक उसे इस विविधता ( जगत-प्रपंच ) को सत्य ही मानना पड़ता है- वह इसे भ्रम नहीं कह सकता. परन्तु जब व्यक्तित्व-बोध का;' मैं '-पन का सम्पूर्ण विनाश हो जाता है, तब- ' समाधी ' में ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है.
अहंकार के दूर हो जाने पर जीवत्व ( M / F -पने ) का नाश हो जाता है. इस अवस्था में समाधी में ब्रह्म का साक्षात्कार होता है. जीव नहीं ब्रह्म ही ब्रह्म का साक्षात्कार करता है.  
समाधी अवस्था में उपलब्ध ब्रह्म मानो दूध है, साकार-निराकार ईश्वर मानो माखन हैं, और चौबीस तत्वों से बना जगत मानो छाछ. जब तक तुम माया के राज्य में हो तब तक तुम्हें माखन और छाछ - ईश्वर और जगत - दोनों स्वीकार करना होगा. ...जब तक ' अहं ' है, तब तक साकार ईश्वर भी सत्य हैं; जीव-जगत के रूप में उनकी लीला भी सत्य है.
यथार्थ ज्ञान होने पर अहंकार नहीं रहता. समाधी हुए बिना ठीक-ठाक ज्ञान नहीं होता. भरे दोपहर में सूरज जब ठीक माथे के उपर रहता है; उस समय मनुष्य चारों ओर देखता है, पर उसे अपनी छाया नहीं दिखाई देती वैसे ही, यथार्थ ज्ञान होने पर, समाधी होने पर अहंकाररूपी छाया नहीं रहती. यदि ठीक-ठाक ज्ञान होने के बाद भी किसी में ' अहं ' दिखाई पड़े, तो ऐसा जानना कि वह ' विद्या का अहं ' है, ' अविद्या का अहं ' नहीं.
..समाधी में अद्वैतबोध का अनुभव करने के पश्चात् पुनः नीचे उतर कर ' अहं ' बोध का अवलम्बन कर रहा जाता है.  ईश्वरदर्शन या आत्मज्ञान हो जाने के बाद सब कुछ चिन्मय लगने लगता है. काली के मन्दिर में जाकर देखता हूँ - प्रतिमा चिन्मय, पूजा कि वेदी, कोष-कुशी, मन्दिर का चौखट, मार्बल पत्थर सबकुछ ही चिन्मय है. उस समय बिल्ली को देखने से भी बोध होता है कि, चिन्मयी माँ ही यह सब बनीं है. "     
वेदान्त-वादी काली-महाराज ने श्रीरामकृष्ण के अद्वैत-अनुभूति की बातों को बहुत ध्यान से सुना. किन्तु तब भी उनका तार्किक वेदान्ती-मन इसे मानने को तैयार नहीं था. वे स्वयं द्रष्टा होना चाहते थे- जगत के जड़-जीव आदि समस्त वस्तुओं में एकमात्र परमात्मा ही ओतप्रोत हैं, तो वे उस परमात्मा को प्रत्यक्ष करना चाहते थे. वे वेदान्त के उस सर्वोच्च-शिखर पर पहुँचना चाहते थे, - जहाँ से सबकुछ ( जड़-जीव ) के साथ एकात्मबोध की अनुभूति होती है.
यही आत्म-साक्षात्कार या आत्मबोध हो जाने पर मनुष्य सर्वत्र ईश्वर के अस्तित्व का अनुभव करने में समर्थ हो जाता है. जबतक यह अभेदानुभूती नहीं हो जाती, तबतक नेति नेति विचार करना होता है. इस प्रकार
' नेति नेति ' विचार करके जिन्होंने ' ईति ' कर लिया है, वे ही सच्चे अद्वैत-वेदान्ती हैं.
वहाँ पहुँच जाने के बाद, फिर (ज्ञाता और ज्ञेय ) दो नहीं रह जाता, सबकुछ एक हो जाता है. सभी वस्तुओं के भीतर ' एक ' को प्रत्यक्ष कर लेने को ही अद्वैतानुभूती कहते हैं.आध्यात्म-मार्ग का यह सर्वोच्च स्तर (शिखर) है. यहाँ पहुँच जाने पर वेदान्त-विचार (ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ) बोध (अनुभूति ) में परिणत हो जाता है. 
इसीलिए हमें समझना चाहिए कि अद्वैत-वेदान्त केवल तार्किक विचार-बुद्धि उपर ही प्रतिष्ठित नहीं है. बल्कि तर्क-युक्ति से मुक्ति प्राप्त कर लेना ही इसका उद्देश्य है. वेदान्तोक्त तात्वि-सत्य को व्यवहारिक सत्य में परिणत कर लेने के लिए ही वेदान्त-साधना की जाती है. ज्ञान-विचार करते करते ज्ञान की चरम सीमा पर पहुँच जाना ही अद्वैतवेदान्त की ईति है. 
अनुभूति-प्राप्त करने के लिए ही काली-महाराज की वेदान्त-साधना चल रही थी. दिन रात वे ज्ञान-विचार में निमग्न रहने लगे. जब तक वे ज्ञान की चरम पराकाष्ठा में उपनीत नहीं हो जाते वे साधना से विरत नहीं हो सकते थे. अद्वैत तत्व के अनुसन्धान कर अभेददर्शन के उद्देश्य से वे पुनः गम्भीर ध्यान में डूब गए.
अध्यवसायी, आत्मज्ञान के इच्छुक- काली-महाराज के लिए वेदान्त एक अन्वेषण था. उनके प्राणों की भूख थी. उनका मन उस व्याकुलता के आवेग से आर्तनाद से भरा हुआ था. वे श्रीरामकृष्ण के दिव्यसनिध्य में उपविष्ट थे. 
उनकी ज्ञानान्वेषी वेदान्तिक तर्कशील मानसिकता अंतर की व्याकुलता को अवदमित कर रही थी.
उनके प्राणों में यह प्रश्न बार बार उठ रहा था- ' क्या सचमुच, किसी को अभिन्न-दृष्टि प्राप्त हो जाती है ? सर्वभूतों में क्या, किसी को सचमुच आत्मदर्शन होता है ? क्या कोई मुझे ' ज्ञानांजन ' प्रदान करके मेरी  आत्मदृष्टि को भी उन्मोचित करने में समर्थ है? यदि कोई समर्थ गुरु हैं, तो वह अद्वैत-ज्ञानी साधक 
कहाँ मिलेंगे ?
वे इस प्रकार सोच ही रहे थे कि, सिद्धान्त को व्यवहार रूपांतरित होते देखने का समय उपस्थित हो गया. शायद अन्तर्यामी अद्वैतवादी श्रीरामकृष्ण ने अपनी अद्वैतानुभूती के द्वारा काली-महाराज की आन्तरिक वासना (तीव्र इच्छा) को अपने ह्रदय में अनुभव कर लिया था. इसीलिए उन्होंने काशीपुर-उद्यानबाड़ी में स्वयं इसके दृष्टान्त-स्वरुप बन कर, काली-महाराज को आवेगपूर्ण शब्दों में आदेश दिया- " बाहर जा कर देखो, जो आदमी मठ की हरी-हरी घासों पर टहल रहा है, उसको घास पर चलने से मना कर दो. मुझे बहुत कष्ट हो रहा है. ऐसा महसूस हो रहा है, मानो वह मेरी छाती के उपर ही चल रहा हो. " 
काली-महाराज अवाक् रह गए. मन में उठा प्रश्न मन में ही रह गया. सोचने लगे- ' इन्होंने मेरे मन की बात को जान कैसे लिया ? स्तम्भित काली-वेदान्ती ठाकुर के निर्देशानुसार शीघ्रता से बाहर निकल कर देखे- अरे बिलकुल सच ! बाहर एक व्यक्ति मठ की हरी हरी दूबों के उपर टहल रहा था. जल्दी से वहाँ पहुँच कर उसको घास के उपर उस प्रकार चहल-कदमी करने से मना किया.
आदेश को सुन कर, उस व्यक्ति ने घास के उपर चलना जैसे ही बन्द किया, उन्होंने देखा कि, ठाकुर श्रीरामकृष्ण थोड़ा स्वस्थ अनुभव करने लगे हैं. अब आश्चर्य-चकित होकर, काली-महाराज अवाक् हो गए और अपलक-दृष्टि से श्रीरामकृष्ण को देखते रह गए; मानो अद्वैत-विज्ञान किसे कहते है, उसके प्रत्यक्ष-प्रमाण स्वरुप जीवन्त वेदान्त-मूर्ति को देख कर मिला रहे हों. 
अद्वैतानुभूती को, आज उन्होंने अपनी आँखों के सम्मुख प्रमाणित होते देख लिया था. विचार कर रहे हैं- इसको ही आत्मज्ञान कहते हैं, इसको ही आत्मदृष्टि कहते है. तृणादि जड़-चेतन, जीव-जगत, सबकुछ के भीतर अपने को देखना ही तो ' अभेदज्ञान ' है. यही तो अद्वैत-वेदान्त का चरम तत्व है- जिसको निज-अनुभव से जानने के लिए साधक को साधनारुपी सोपानों से होकर गुजरना होता है. 
काली-वेदान्ती इसी आत्मानुभूति को प्राप्त करना चाहते थे. श्रीरामकृष्ण ने आज उसीको दृष्टान्त-सापेक्ष प्रमाण द्वारा दिखा दिया था. उन्होंने अभेदतत्व को प्रयोग-द्वारा वास्तविकता में परिणत कर दिया था. जड़-पदार्थों के प्रति अभिन्न दृष्टि को व्यवहारिक रूप से दृष्टिगोचर करा दिया था. यही सत्य हजारों वर्ष पूर्व ऋषि कन्ठ से घोषित हुआ था-
" यदिदं किञ्चित जगत सर्वं प्राण एजति निःसृतम "|
- अर्थात जीव-जगत सभी कुछ के भीतर एक ही प्राणसत्ता चैतन्य रूप में निहित है. 
यह अभेदतत्व अभी तक केवल वेदान्त-शास्त्रों के पन्नों में निबद्ध था. श्रीरामकृष्ण ने स्व-अनुभूत आचरण के द्वारा - शास्त्रोक्त सत्यतत्व को ' तथ्य ' में परिणत कर दिखाया था. काली-महाराज के सत्यार्थी मन ने वेदान्त के जिस सारतत्व का अन्वेषण किया था, श्रीरामकृष्ण ने उसे दिव्य-दृष्टि की सहायता से उन्मोचित कर दिया था. पवित्र-सानिध्य प्रदान कर परम-प्राप्ति को वास्तविकता में परिणत कर दिया था. 
श्रीरामकृष्ण अद्वैत-वेदान्ती थे, वे कहते थे-' अद्वैतज्ञान को आँचल में बाँध कर जो चाहो करो, तुम्हें कोई दोष नहीं लगेगा. '
इसीलिए वे काली-वेदान्ती के अद्वैत साधना का असमर्थन नहीं कर सकते थे. परन्तु यदि कोई जानना चाहता तो उसको, वे तत्व और तथ्य (सिद्धान्त और व्यव्हार दोनों ) की सहायता से प्रमाणित कर कर के दिखला देते थे. 
इसीलिए वेदान्त के जो तात्विक-सिद्धान्त हजारों वर्ष पूर्व,उपनिषद-कारों के ध्यान-नेत्र या ऋषि-दृष्टि के सामने उद्भाषित हो उठे थे, आज वही तत्व श्रीरामकृष्ण के जीवन से प्रमाणित हो रहे थे, एवं काली-महाराज ने स्वयम अपने आँखों से परख कर देख लिया था. उनकी अद्वैत-वेदान्त की साधना सार्थक हो गयी थी; और उसके साथ ही साथ गुरुभाइयों द्वारा दिया गया - ' काली-वेदान्ती ' नाम का सही मुल्यांकन भी हो गया था.         
            ********************************

रविवार, 31 जुलाई 2011

पुस्तक पढ़ कर योगसाधना करना उचित नहीं है, " योगी अभेदानन्द "

योगी अभेदानन्द 
उस समय स्वामी अभेदानन्द थे कालीप्रसाद. उनमे योग-साधना करने की प्रबल ईच्छा थी. एक दिन वे कालेज-स्ट्रीट स्थित अलबर्ट-हाल में उपस्थित हुए. उस दिन वहाँ ' पातन्जल-योगसूत्र ' के उपर चर्चा हो रही थी. वक्ता थे, उस समय के विख्यात पण्डित शशधर तर्कचूड़ामणि. वक्ता ने इतने सहज-सरल भाषा में ज्ञान-गर्भित व्याख्यान दिया कि उसने कालीप्रसाद के ह्रदय को छू लिया.
{Swami Abhedananda was born on 2 October 1866 as Kaliprasad Chandra. He was a direct disciple of Sri Ramakrishna and was known as "Kali Tapaswi" to his fellow discipiles. His father was Rasiklal Chandra and his mother was Nayantara Devi. After the passing away of Sri Ramakrishna, he formally became a Sanyasi along with Swami Vivekananda and others, and came to be known as "Swami Abhedananda".
During his life as a monk he travelled extensively throughout India, depending entirely on alms. During this time he met several famous sages like Paohari Baba, Trailanga Swami and Swami Bhaskaranand. He went to the sources of the Ganga and the Yamuna, and meditated in the Himalayas. He was a forceful orator, prolific writer, yogi and intellectual with devotional fervor. Swami Vivekananda asked him to propagate the message of Vedanta in the West, which he did with great success. He went to USA in 1897 and preached messages of Vedanta and teachings of his Guru for about 25 years. In 1921, he returned to India.
In 1922, he crossed the Himalayas on foot and reached Tibet, where he studied Buddhistic philosophy and Lamaism. In Hemis Monastery, he discovered a manuscript on the unknown life of Jesus Christ[citation needed], which has been incorporated in the book Swami Abhedananda's Journey Into Kashmir & Tibet published by the Ramakrishna Vedanta Math, Kolkata. He formed the 'Ramakrishna Vedanta Society' in Kolkata in 1923, which is now known as Ramakrishna Vedanta Math. In 1924, he established Ramakrishna Vedanta Math in Darjeeling in West Bengal. In 1927, he started publishing Visvavani, the monthly magazine from 'Ramakrishna Vedanta Society', which is published today as well.
He died on 8 September 1939.}

बिना देरी किये अपनी जेब-खर्च के पैसों को इकट्ठा करके एक पातन्जल-दर्शन खरीद लिए. खरीदने का उद्देश्य था, योग-सूत्र पढ़ कर और अच्छी तरह से समझना होगा, और भी गहराई में उतर कर इसे जानना होगा. 
योग-सूत्र पढ़ना तो सहज है, किन्तु केवल पढ़ कर क्या इसके गूढ़ मर्मार्थ को भी समझ लेना संभव है ! इसीलिए इस विषय के अधिकारी पुरुष ' शशधर तर्कचूड़ामणि महाशय ' के साथ मुलाकात किये. उनके निकट पूरे विनय के साथ अपने मन की इच्छा प्रकट किये; --' दया कर के यदि आप पातन्जल-दर्शन के सूत्रों की व्याख्या कर देंगे, तो मेरी बहुत दिनों की ईच्छा तो पूर्ण होगी ही, मेरा आपके निकट आना भी सफल हो जायेगा. ' 
 बालक कालीप्रसाद की ईच्छा सुनकर, पण्डित महाशय अति प्रसन्न हुए, बोले-  ' अच्छी बात है, तुम्हारी इस सदिच्छा को साधुवाद देता हूँ. किन्तु देखो, बेटे देखता हूँ की तुम्हारी आयु अभी बहुत कम है. इसी आयु में तुमको योग-सूत्र पढ़ने की ईच्छा हुई है, इसे देख कर मैं बहुत खुश हुआ हूँ. किन्तु अभी मेरे पास समय की बहुत कमी है, क्योंकि मुझे अक्सर विभिन्न स्थानों में व्याख्यान आदि देने में बहुत व्यस्त रहना पड़ता है. पर तुम यदि एक काम करो तो लगता है, तुम्हारा उद्देश्य सिद्ध हो सकता है. ' 
{अष्टांग योगमहर्षि पतञ्जलि ने योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' के रूप में परिभाषित किया है | उन्होंने 'योगसूत्र' नाम से योगसूत्रों का एक संकलन किया है, जिसमें उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है | अष्टांग योग (आठ अंगों वाला योग), को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है | योग के ये आठ अंग हैं:
१) यम, २) नियम, ३) आसन, ४) प्राणयाम, ५) प्रत्यहार, ६) धारणा ७) ध्यान ८) समाधि
१. यम: पांच सामाजिक नैतिकता
(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना
(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना
(ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना
(घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं:
  • चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
  • सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना
(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना
२. नियम: पाच व्यक्तिगत नैतिकता
(क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि
(ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना
(ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना
(घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना
(च) इश्वर-प्रणिधान - इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा
३. आसन: योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण
४. प्राणायाम: श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण
५. प्रत्याहार: इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना
६ . धारणा: एकाग्रचित्त होना
७. ध्यान: निरंतर ध्यान
८. समाधि: आत्मा से जुड़ना: शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था हम सभी समाधि का अनुभव करें !!!}
कालीप्रसाद ने विनम्र स्वर में कहा- ' आप आदेश दीजिये पण्डित महाशय.'
' देखो, तुम एकबार ' कालीवर वेदान्तवागीश ' के पास जाओ, मैं सोचता हूँ कि वे तुम्हारे लिए थोडा समय अवश्य निकाल पाएंगे. उनसे कहना कि, मैंने तुमको उनके पास भेजा है. तब वे तुमको ना नहीं कर पाएँगे, तथा नीश्चय ही तुमको आनन्द के साथ पढ़ाएंगे. '
पण्डित महाशय के इस निर्देशानुसार कालीप्रसाद, कालीवर वेदान्तवागीश के साथ मिलने के लिए चल पड़े. उनसे भी विनम्रता के साथ मन कि इच्छा कह सुनाये. वेदान्तवागीश महाशय ने विशेष आग्रह के साथ कालीप्रसाद के आवेदन को सुना, एवं अपने समयाभाव की बात इस प्रकार कहे- " इस समय मैं पातन्जल-योगदर्शन का बंगला में अनुवाद कर रहा हूँ और मेरे पास, थोडा भी समय नहीं है. किन्तु तुम एक काम कर सकते हो, स्नान करने के पहले थोडा अवकाश मिलता है, इस समय एक सेवक मेरे शरीर पर तेल मालिश करता है, यदि उस समय आ सको तो, योग-सूत्र का कुछ अर्थ तुमको समझा सकता हूँ. फिर स्नान करने के उपरान्त भी लिखना पड़ता है, इसीलिए बस उतना ही समय है, अब तुम सोचो क्या करना चाहोगे !"
कोई उपाय न देख कर कालीप्रसाद को अपने आशैशव आकांक्षित योगशिक्षा अर्जित करने के लिए इसी शर्त पर राजी होना पड़ा. और कालीप्रसाद प्रतिदिन प्रातः ८-९ बजे पातन्जल-योगसूत्र का पाठ करने, कालीवर वेदान्तवागीश महाशय के घर जाना शुरू कर दिए.
इस ग्रन्थ में हठयोग, कुण्डलिनी योग, प्राणायाम और राजयोग की साधन-पद्धति को बहुत सुन्दर ढंग से वर्णित किया गया है. पूरे पुस्तक को अच्छी तरह से पढ़ कर पण्डित महाशय ने सुन्दर तरीके से समझा दिया. कालीप्रसाद को वह सब अच्छा ही लगा, मन तो भरा किन्तु प्राण नहीं भरा. तत्वतः योगशिक्षा तो मिल गयी, किन्तु कार्यतः व्यवहारिक शिक्षा की प्राप्ति नहीं हुई. इस इच्छा ने मन में उथल-पुथल मचा दिया. योगियों के समान उनका मन-प्राण हर समय योग-साधना में निमग्न रहना चाहता था. योगी लोग जिस प्रकार खेचरी-मुद्रा का अभ्यास करके जड़-समाधि में तल्लीन हो कर रहते हैं, उसीप्रकार कालीप्रसाद की इच्छा भी योग-साधना में डूबे रहने की थी.
किन्तु योगशिक्षा हो कैसे,- शिवसंहिता आदि योगशास्त्र में, स्पष्ट कहा गया है कि पुस्तक पढ़ कर योगसाधना करना उचित नहीं है, किसी उपयुक्त सिद्ध-योगिगुरु के सानिध्य में रहते हुए योगशिक्षा का अभ्यास करना जरूरी होता है. पुनः सोंच में पड़ गए, कहाँ से किसी सिद्ध योगिगुरु का पता खोजा जाय. आहार-निद्रा सब कुछ त्याग दिए, मन में केवल एक ही विचार था, दिन-रात पद्मासन में बैठ कर कैसे समाधिस्त रहा जाये. अपने मन की बात किसी से कह भी नहीं सकते थे, क्योंकि यह सुनकर सभी हँसते और मजाक उड़ाते थे. योगी होने की बात सुन कर चारो ओर से बाधाएँ भी आने लगी. शास्त्र-वचन मूर्तमान हो उठा- ' श्रेयांसि बहुबिघ्नानी ' . 
इसी समय एक दिन सहपाठी यज्ञेश्वर भट्टाचार्य के साथ मुलाकात हो गयी. सैकड़ो बाधाओं से अवसन्न कालीप्रसाद को देख कर मित्र ने पूछा- तुम्हारी समस्या क्या है ?
' देखो, मेरी तीव्र इच्छा योगसाधना करने की है. किन्तु केवल पुस्तक पढ़ने और अपनी चेष्टा से ही तो यह सब हो नहीं सकता. गुरु की आवश्यकता होती है. क्या तुम बता सकते हो कि वैसा योगिगुरु कहाँ मिल सकते हैं ? '
कालीप्रसाद की व्याकुलता को देख कर यज्ञेश्वर ने कहा-
' बता सकता हूँ, दक्षिणेश्वर में रानी रासमणि के काली-मन्दिर में एक अद्भुत योगी हैं- परमहंस हैं. सभी लोग ऐसा कहते हैं कि उनमे कोई ढोंग-ढकोसला नहीं है. वे एक यथार्थ योगी ही नहीं- महायोगी हैं. कोलकाता के बहुत से सम्भ्रान्त लोग भी उनके पास आते-जाते हैं.
वे भी बीच बीच में कोलकाता आते रहते हैं. तुम यदि उनसे अपनी योगशिक्षा ग्रहण करने की ईच्छा उनको सुनोगे तो लगता है, वे तुम्हारी इस ईच्छा को पूर्ण कर सकते हैं. ' 
अपने बाल-सखा यज्ञेश्वर की बातें सुन कर, कालीप्रसाद का ह्रदय उत्साह, आनन्द, आत्मविश्वास से भर उठा. उन्होंने तय कर लिया कि, अपने गुरु के रूप में मुझे केवल परमहंसदेव को ही वरण करना है. जैसे भी हो, मुझे  एक बार दक्षिणेश्वर के काली-मन्दिर में जाना ही होगा, एवं उनके साथ अवश्य ही भेंट करनी होगी.परमयोगी परमहंसदेव से मिलने की व्याकुलता क्रमशः बढती चली गयी.
एकदिन बिना किसी को बताये अकेले ही- चल पड़े दक्षिणेश्वर की ओर. काली-मन्दिर पहुँच कर किसी से पूछे - परमहंसदेव हैं क्या ? एक आगन्तुक युवक ने बताया नहीं वे तो कोलकाता गए हैं. वह युवक थे उस समय के शशिभूषण चक्रवर्ती जो आगे चल कर स्वामी रामकृष्णानन्द हुए.
कालीप्रसाद भूख-प्यास और पैदल चलने की थकान से बहुत अवसन्न अनुभव कर रहे थे; यह देख कर शशिभूषण ने उनको परामर्श दिया कि,' गंगा में स्नान कर के माँ काली का प्रसाद ग्रहण करके थोडा विश्राम कर लो; जब उनके साथ मुलाकात करने के लिए इतना कष्ट सह कर आये हो, तो मिलने के बाद ही कोलकाता जाना.' परमहंसदेव का दर्शन करने की ईच्छा से उनके परामर्श के अनुसार कालीप्रसाद इंतजार करने लगे.
दोपहर बीत जाने के बाद शाम हो गयी. उसके बाद रात्रि के समय बरामदे में चटाई बिछा कर तीन-जन विश्राम कर रहे थे. इसी समय रामलाल दादा ने समाचार दिया कि परमहंसदेव बग्घी पर सवार होकर आ रहे हैं. कालीप्रसाद उठ खड़े हुए. उनकी धड़कने तेज हो गयीं. परमहंसदेव ने गुरुगम्भीर स्वर से तीन बार ' काली ' नाम का उच्चारण करके अपने कमरे में प्रविष्ट हुए, और छोटी सी चौकी पर बैठ गए. 
कालीप्रसाद पलक झपकाए बिना परमहंसदेव का दर्शन करने लगे, सोच रहे हैं- योगी-सन्यासी का अर्थ तो जटाजूट-धारी, लाललाल-आँखों वाले, पूरे शरीर पर राख मले किसी रूद्र मूर्ति होना चाहिए. किन्तु इनको तो एक अति सहज, सरल, शान्त, सौम्यमूर्ति के रूप में देखता हूँ. अब उन्होंने श्रद्धापूर्वक भक्तिपूर्ण ह्रदय से प्रणाम किया. परमहंसदेव ने उनको स्नेहपूर्वक बैठने को कहा, तथा पूछा- ' तुम कौन हो? तुम्हारा घर कहाँ है ? तुम किस लिए इतना कष्ट सह कर यहाँ आये हो ? क्या चाहते हो ? '
भक्ति में गदगद कंठ से कालीप्रसाद उत्तर दिए- ' योगशिक्षा ग्रहण करने की मेरी तीव्र ईच्छा है. क्या आप दया करके मुझको योग-शिक्षा प्रदान करेंगे ? इसी आशा को लेकर मैं यहाँ आया हूँ. '
श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर मौन रहकर सोचे, उसके बाद बोले- ' इतने कम उम्र में ही, तुम्हारे अन्दर योगशिक्षा ग्रहण करने की इच्छा हुई है- यह तो बड़ा ही शुभ लक्ष्ण है. तुम पूर्वजन्म में एक बड़े योगी थे. थोडा बाकी रह गया था, यही तुम्हारा अंतिम जन्म है. आज रात्रि में यहीं विश्राम करो, कल सुबह में फिर आना.' 
दुसरे दिन प्रातः काल में कालीप्रसाद गंगा स्नान करके, श्रीरामकृष्ण परमहंस के चरणों में बैठ गए. उन्होंने पूछा - तुमने कौन कौन सी पुस्तकें पढ़ी हैं ? कालीप्रसाद ने कहा- रघुवंश, कुमारसम्भव, गीता, पातन्जल-दर्शन, शिव-संहिता आदि. सुन कर श्रीरामकृष्ण बड़े प्रसन्न हुए और आशीर्वाद दिए. उसके बाद सस्नेह बोले- ' योगासन में बैठ कर अपनी जीभ बाहर निकालो '. कालीप्रसाद ने जिह्वा को प्रसारित कर दिया. तब उनकी जिह्वा के बीच में दाहिने हाथ के बीच वाली ऊँगली से श्रीरामकृष्ण ने मूलमंत्र लिख दिया. साथ ही साथ उनके सम्पूर्ण अंगों में एक अद्भुत शक्ति संचारित हो गयी. कालीप्रसाद का वाह्यज्ञान जाता रहा और वे गम्भीर ध्यान में समाधिस्त हो गए !
योगशिक्षा का जितना बाकी रह गया था, उतना योगिराज श्रीरामकृष्ण ने दे दिया. उनकी आजन्म-आकांक्षित वह समाधी परम योगी के परम स्पर्श से घटित हो गयी. इसी योग-समाधि में तो वे निमग्न रहना चाहते थे. कुछ समय के बाद सर्वयोग-सिद्ध श्रीरामकृष्ण ने कालीप्रसाद के ह्रदय का स्पर्श करके, कुण्डलिनी शक्ति को निचे उतार दिया, और स्वाभाविक अवस्था में वापस लौटा दिया. महायोगी श्रीरामकृष्ण विशाल-योगशक्ति के अधकारी थे, योगीगण जिस योगबल को आजीवन तपस्या करने के बाद भी नहीं प्राप्त कर सकते थे, उसे वे केवल स्पर्श-मात्र से प्रदान कर सकते थे. 
योग्शास्त्रों में कहा गया है,- परमात्मा के साथ जीवात्मा के मिलन को ' योग ' कहा जाता है. यहाँ श्रीरामकृष्ण रूपी परमात्मा के साथ कालीप्रसाद रूपी जीवात्मा घुल-मिल कर एकाकार हो गये, - और उत्तरण हुए योगी अभेदानन्द !
 -----------------
( ' वर्तमान ' २२ सितम्बर २०००, स्वामी अभेदानन्द जन्मतिथि के उपलक्ष पर प्रकाशित )