मेरे बारे में

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

अष्टांग-योग के पाँच सोपानों में सम्पूर्ण शिक्षा का सार है !

शिक्षा शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘शिक्ष्’ धातु से हुयी है, जिससे अभिप्राय है, सीखना- अर्थात गुरु-वाक्य में निहित भावों य़ा सिद्धान्तों को आत्मसात कर लेना. स्वामी विवेकानन्द चरित्र-निर्माणकारी एवं मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा पर बल देते हुए वे कहते हैं- " क्या तुमने इतिहास में नहीं पढ़ा है कि देश के मृत्यु का चिन्ह अपवित्रता (भ्रष्टाचार) य़ा चरित्रहीनता के भीतर से होकर आया है- जब यह किसी जाति में प्रवेश कर जाति है, तो समझना कि उसका विनाश निकट आ गया है....इस समय हम पशुओं की अपेक्षा कोई अधिक नीतिपरायण नहीं हैं. यदि समाज आज कह दे कि चोरी करने से अब दण्ड नहीं मिलेगा, तो हम इसी समय दूसरे की सम्पत्ति लूटने को दौड़ पड़ेंगे. पुलिस का डण्डा ही हमें सच्चरित्र बनाये रखता है, य़ा सामाजिक प्रतिष्ठा के लोप की आशंका ही हमें नीतिपरायण बनाती है, और वास्तविकता तो यही है कि हम पशुओं थोड़ा अधिक बेहतर हैं." (ज्ञान-योग :३२,२७५)  
अन्यत्र वे कहते हैं- " Education is assimilation of ideas  - भावों (पढने के बाद गाय जैसा पागुर करके भावों को पचा लेना) का आत्मसातीकरण ही शिक्षा है." 
और गुरु-वाक्य में निहित भावों को तबतक आत्मसात नहीं किया जा सकता जब तक मन को एकाग्र करने का कौशल न सीख लिया जाय.शिक्षा के लिये मनः संयोग य़ा एकाग्रता का कितना महत्व है, इसे स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं-" मेरे विचार से तो शिक्षा का सार मन की एकाग्रता प्राप्त करना है, तथ्यों का संकलन नहीं. यदि मुझे फिर से अपनी शिक्षा आरम्भ करनी हो और इसमें मेरा वश चले, तो मैं तथ्यों का अध्यन कदापि न करूँ. मैं मन की एकाग्रता और अनासक्ति की सामर्थ्य बढ़ाता और उपकरण के पूर्णतया तैयार होने पर उससे इच्छानुसार तथ्यों का संकलन करता." 
हम यह भी समझ सकते हैं कि मन में अनन्त शक्ति है जिसका प्रयोग करके नये-नये आविष्कारों द्वारा मानव-सभ्यता ने इतनी आश्चर्य जनक प्रगति की है. किन्तु उसके अत्यधिक चंचल हो जाने के कारण हम उसका अपनी इच्छानुसार प्रयोग करके जीवन-लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल हो जाते हैं. अतः मन को अतिरिक्त चंचल बना देने वाले - काम, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या आदि रिपुओं को अपना सबसे बड़ा शत्रू समझ कर उनके साथ युद्ध करके सबसे पहले उनको ही परास्त कर देना होगा. असली वीरता बाहर के शत्रुओं को जीत लेने में नहीं है, अपने मन में छुपे शत्रुओं को पहचान कर उनको खत्म करने में है. जिनके रहने के कारण मन इतना अधिक चंचल हो जाता है कि उसको एकाग्र करना बहुत कठिन जान पड़ता है; और हम मन कि असीम शक्ति को अपने उपयोग में लाकर अपने जीवन के चरम लक्ष्य (अमृतत्व ) की प्राप्ति करने से वंचित रह जाते हैं.
इन्ही सब कारणों को ध्यान में रख कर बहुत प्राचीन काल में ही महर्षि पतंजली ने आठ सोपान में मन को एकाग्र करने की एक वैज्ञानिक पद्धति का आविष्कार किया था- जिसे ' अष्टांग योग ' कहा जाता है. इस पद्धति को उन्होंने संस्कृत-सूत्र के रूप लिख कर संग्रहित किया था, साधारण मनुष्य उन सूत्रों को बिल्कुल नहीं समझ पाते थे. प्राचीन ऋषि लोग ऐसा मानते थे कि जो मनुष्य उच्च विद्या ग्रहण करने का योग्य अधिकारी होगा वह इन इन सूत्रों को पढ़ कर स्वयं ही समझ जायेगा.
किन्तु समस्त मानवता से प्रेम करने वाले आधुनिक ऋषि स्वामी विवेकानन्द अपने ' भारत का भविष्य' नामक अपने Lecture में कहते हैं- " मेरा विचार है, पहले हमारे शास्त्र में भरे पड़े आध्यात्मिकता के रत्नों को, जो कुछ ही व्यक्तियों के अधकार में मठों और अरण्यों में छिपे हुए हैं, बाहर लाना है. जिन मठाधीशों के अधिकार में ये छिपे हुए हैं, केवल उन्हीं से इस ज्ञान का उद्धार करना नहीं, वरन उससे भी दुभेद्य पेटिका अर्थात जिस भाषा (संस्कृत य़ा बंगला भाषा) में ये सुरक्षित हैं, उन शताब्दियों के पर्त खाए हुए संस्कृत शब्दों से उन्हें निकालना होगा. तात्पर्य यह कि मैं उन्हें सबके लिये सुलभ कर देना चाहता हूँ. मैं इन तत्वों को निकलकर सबकी, भारत के प्रत्येक मनुष्य की, सामान्य सम्पत्ति बनाना चाहता हूँ, चाहे वह संस्कृत जानता हो य़ा नहीं...अतः मनुष्यों की बोलचाल की भाषा (हिन्दी) में उन विचारों की शिक्षा देनी होगी. साथ ही संस्कृत की भी शिक्षा अवश्य होती रहनी चाहिये, क्योंकि संस्कृत शब्दों की ध्वनी मात्र से ही जाति को एक प्रकार का गौरव, शक्ति और बल प्राप्त हो जाता है." (५:१८३-८४) 
 अष्टांग-योग को 'योग-सूत्र '-अर्थात ‘योग के सूत्रों का संग्रह या संकलन' के नाम से भी जाना जाता है.
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोः – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, अष्टौ – ये आठ, अङ्गानि— (योग के) अंग हैं।
  किन्तु अपने गुरु श्रीरामकृष्ण से प्राप्त निर्देश के अनुसार स्वामी विवेकानन्द युवाओं को यह परामर्श देते हैं कि अष्टांग-योग के तीन सोपान - प्राणायाम, ध्यान और समाधि का अभ्यास इस समय करने कि जरूरत नहीं है, इसके सेष बचे पाँच चरणों - 'यम,नियम, आसान, प्रत्याहार, धारणा' तक का अभ्यास करने से ही मन को एकाग्र किया जा सकता है. 
उसमे से पहले दो सोपान - 'यम और नियम' का अभ्यास अपने दैनन्दिन जीवन में प्रतिदिन प्रति मुहूर्त करना है. सेष तीन-' आसन, प्रत्याहार, धारणा ' का अभ्यास प्रतिदिन दो बार निर्दिष्ट समय पर प्रातः और संध्या के समय करना है.
यम का अर्थ है- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह. इस यम से चित्तशुद्धि होती है. शरीर,मन, वचन के द्वारा किसी को क्लेश न देना -यह अहिंसा कहलाता है. अहिंसा से बढ़ कर कोई धर्म नहीं है. सत्य के द्वारा हम कर्म-फल के भागी होते हैं, सत्य से सबकुछ मिलता है; सत्य में सबकुछ प्रतिष्ठित है. यथार्थ कथन को ही सत्य कहते हैं. चोरी से य़ा धमकी देकर दूसरों की चीज न लेने का नाम है अस्तेय. कभी भी संयम को त्याग कर पशु अस्तर में नहीं गिरना, शरीर मन से पवित्र रहने को ब्रह्मचर्य कहते हैं. अत्यन्त कष्ट के समय भी किसी मनुष्य से कोई उपहार (रिश्वत) ग्रहण न करने को अपरिग्रह कहते हैं.अपरिग्रह साधना का उद्देश्य यह है कि किसी से कुछ gift य़ा घूस लेने से ह्रदय अपवित्र हो जाता है, वह अपनी स्वतंत्रता खो बैठता है और बद्ध एवं आसक्त हो जाता है. अतः ये 5 do not doe's हैं, इन सबसे विरत रहना है. 
नियम- अर्थात नियमित अभ्यास और व्रत परिपालन. शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणीधान- इन्हें नियम कहते हैं. बाह्य और आन्तरि दोनों ही शुद्धि आवश्यक है. तृष्णा कि पूर्ति कभी नहीं हो सकती, अतः जितना आवश्यक है, उतना मिल जाने पर संतुष्ट रहना चाहिये.स्वाध्याय -सद्ग्रंथों का पाठ करना.ईश्वरप्रणीधान- यह विश्वास करना कि सृष्टि के पीछे एक स्रष्टा जरुर है, वही सत्य हमारी आत्मा में हैं, जिसके कारण यह स्थूल शरीर -चलता,बोलता है. 'माटी के पुतलो कैसे नचत हैं ?' अपने अन्तर्निहित सत्य को जानने के लिये सतत प्रयत्नशील रहना. और उस सत्य तक पहुँचने के लिये किसी भी कष्ट को सहने के लिये- तप के लिये तत्पर रहना. य़ा लक्ष्य तक पहुँचने के लिये कष्ट उठाने को तत्पर रहना. प्रातः काल उठना स्वाध्याय नित्य करना.  ये हैं 5 doe's इनका तथा उपरोक्त 5 do not doe's का अभ्यास प्रति मुहूर्त करना है. यह तो यम और नियम के बारे में हुआ. उसके बाद है आसन. 2.46    स्थिरसुखम् स्थिर पूर्वक तथा सुखयुक्त (बैठने की स्थिति) आसनम् आसन है।
आसन के आन्तरिक महत्व को समझना-इस प्रकार बैठना जिससे शरीर में कष्ट न हो. मेरुदण्ड और गर्दन सीधा रख कर straight बैठना है. परिवेश को स्वच्छ, सुगन्धित बना लेने से मन आनन्दित रहता है. अतः ऐसा नहीं समझना चाहिये की संख बजाना, घंटी-चंवर डोलना, होम-हवन करना य़ा पद्मासन में बैठने से ही एकाग्रता का अभ्यास किया जा सकता है. यह सब बाह्य-अनुष्ठान य़ा rituals है, इसको ही महत्व नहीं देना है. अर्धपद्मासन में बैठ कर य़ा सुखासन में बैठ कर भी एकाग्रता का अभ्यास किया जा सकता है. 
किसी आश्रम में साधुजी सुबह में जब अपने शिष्यों को प्रवचन देते थे, तो उसी समय उनकी एक पालतू बिल्ली आ कर उन्हें disturb करती थी. उन्होंने अपने प्रधान शिष्य को यह आदेश दिया कि प्रवचन के समय इस बिल्ली को एक खूंटे से बांध देना. कालान्तर में बूढ़े होकर वह साधुजी, उनका प्रधान शिष्य भी मर गये और वह बिल्ली भी मर गयी. जो नये साधु गद्दी पर बैठे- उन्होंने सोंचा कि जब तक एक काली बिल्ली को खोज कर उस खूंटे से न बंधा जाये तबतक प्रवचन का प्रारम्भ ही नहीं हो सकता. इसी तरह बाह्य अनुष्ठान को ही सबकुछ नहीं मान लेना है.
प्रत्याहार - अब कोई पूछे,कि एकाग्रता का अभ्यास करने के लिये फिर आसान में बैठने की भी क्या आवश्यकता है? "अनुभव-शक्तियुक्त इन्द्रियाँ लगातार बहिर्मुखी हो कर काम कर रही हैं और बाहर की वस्तुओं के सम्पर्क में आ रही हैं. उनको अपने वश में लाने को प्रत्याहार कहते हैं. अपनी ओर खींचना अर्थात अन्तर्यामी गुरु, विवेक-शक्ति की ओर आहरण करना- यही प्रत्याहार शब्द का प्रकृत अर्थ है."   चुपचाप silence में बैठ कर मन का पर्यवेक्षण करना है- मन में उठने वाले विचारों, दृश्यों को देखने के लिये- अपने मन में उठ रहे विचारों के बुलबुलों का पर्यवेक्षण करने से अन्तरदृष्टि विकसित हो जाति है. इसके लिये बहिर्मुखी मन को अन्तर्मुखी य़ा गुरुमुखी बना कर इसे दो भाग में मानो बाँट दिया जाता है- और द्रष्टा मन से दृश्य मन में उठने वाले विचारों य़ा उभरते हुए चित्रों का अवलोकन करना है. 
अर्धपद्मासन में बैठ कर पहले टकटकी बांध कर अपने पहले से चयनित युवा-आदर्श (Role -Model) के चित्र को थोड़ी देर तक देखने के बाद आँखों को मूंद कर पहले मन को उसकी इच्छानुसार किसी भी इन्द्रिय विषयों में जाने की छूट देंगे. जब मन किसी मतवाले हाथी की तरह उन्मत्त दिखाई देने लगेगा तो उसे वस में करने के लिये विवेक रूपी अंकुश मार कर, श्रेय-प्रेय का विचार करके एक ओर, श्रेय की ओर खींचेंगे.
धारणा - इन्द्रिय विषयों से खींच कर अन्तर्मुखी बने मन को अपने शरीर में किसी विशिष्ट स्थान- ह्रदय कमल में धारण करना होगा. किसी निराकार आदर्श के बारे में चिन्तन करना कठिन होता है, तथा किसी मूर्तमान पवित्र आदर्श पर मन को टिकाये रखना य़ा साकार नाम-रूप का चिन्तन करना सरल होता है. अतः अपने ह्रदय कमल पर बैठाने के लिये पहले से ही किसी मूर्त आदर्श का चयन कर लेना अच्छा होगा. हमारा परामर्श है कि अपने ह्रदय कमल पर मूर्त आदर्श के रूप में स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति स्थापित कर- उनके ऊपर मन को धारण करना - Concentrate  करना  उचित होगा. अर्थात उस समय मन को past-future के बारे में बकबक करने से रोक कर अपने इष्ट के नाम-रूप-वाणी के ऊपर चिन्तन करना है - मानो वे कह रहे हों - " तुम हो मेरे भाई निरंजन, शुद्ध-बुद्ध-निष्पाप! उठो, जाग्रत हो जाओ. हे महान, यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती. उठो, यह मोह तुम्हें भाता नहीं. तुम अपने को दुर्बल और दुखी समझते हो ?
हे सर्वशक्तिमान, उठो, जाग्रत होओ, अपना स्वरुप प्रकाशित करो. तुम अपने को पापी समझते हो, यह तुम्हें सोभा नहीं देता.
तुम अपने को दुर्बल समझते हो, यह तुम्हारे लिये उचित नहीं है. जगत से यही कहते रहो, अपने से यही कहते रहो- देखो इसका क्या शुभफल होता है; देखो, कैसी विद्युत् की चौंध जैसा सबकुछ प्रकाशित हो जाता है, और क्षण मात्र में सबकुछ कैसे परिवर्तित हो जाता है. 
मनुष्यजाति से यही कहते रहो - उसे उसकी शक्ति दिखा दो. " (व्यवहारिक जीवन में वेदान्त-२०)   
व्यास के द्वारा महर्षि पतञ्जलि के योग सूत्र पर दी गयी व्याख्या य़ा ' व्यास-भाष्य' 1.12॥ में कहा गया है-
चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च।या तु,
 कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। 
संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा।तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिली क्रियते।

विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः।
-अर्थात चित्तनदी (मन) का प्रवाह दोनों तरफ हो सकता है, वह कल्याण की दिशा य़ा पाप की दिशा में भी प्रवाहित हो सकती है. जब उसका प्रवाह विवेक के तली से, अन्तर्मुखी दिशा में होता है, तो वह कल्याण की दिशा है. जब मन बहिर्मुखी होकर इन्द्रियविषयों के भोगों के लोभ वश संसार की ओर अधिक दौड़ने लगे तो, उस 'पापवहा'-प्रवाह को वैराग्य का फाटक लगा कर, अर्थात लालच कम करके, अन्तर्यामी गुरु 'विवेक' का दर्शन करने का अभ्यास करने से 'विवेकस्रोत' उदघाटित हो जाता है. 
 चित्त की वृत्तियों का निरोध- अर्थात 'योग' इन्हीं दो प्रवाहों पर निर्भर है." अतः हमलोग पवित्रता और प्रेम के मूर्त रूप चिर-युवा स्वामी विवेकानन्द के चित्र पर ही मन को एकाग्र करने का प्रयास करेंगे, शायद इसी लिये भारत सरकार ने भी १२ जनवरी को युवा दिवश घोषित किया है. 
परन्तु किसी के इष्ट पहले से ही पवित्रता और प्रेम के मूर्ति कोई अन्य महापुरुष - ईसा, नानक, बुद्ध, राम, कृष्ण , य़ा काबा का पवित्र पत्थर हो, तो वह उनके ऊपर भी मन को एकाग्र करने का अभ्यास कर सकते हैं. य़ा यदि कोई नास्तिक हो, तो वह कैंडल के लौ पर भी मन को एकाग्र रखने का अभ्यास कर सकता है. यही है धारणा.
किन्तु चेष्टा करने से भी मन तुरन्त दास नहीं बन जाता. वह बिगड़ा हुआ बच्चे जैसा है, उसकी आदतें खराब हैं- वह हाथ से लगाम खींच कर पुनः रूप,रस, गंध, शब्द, स्पर्श आदि इन्द्रिय विषयों में भाग जाता है, बहिर्मुखी हो जाता है. उसकी भाग-दौड़ से हार माने बिना, पुनः खींच कर सामने लाना है, उसको आदेश देना है, साथ साथ बालक जैसा समझाना है- ' तू क्या मुझे पशु बनाना चाहता है? तू मेरा यंत्र है, मैं तुम्हारा प्रभु हूँ, अभी मेरे सामने बैठ कर चुपचाप स्वामीजी की वाणी य़ा त्रिदेवों की वाणी पर चिन्तन करना है- थोड़ी देर तक भूत-भविष्य के बारे में बकबक करना बन्द करके इनकी वाणी सुनो!
कुछ लोग इस भाग-दौड़ से घबडा कर प्रश्न करते हैं- ६ महिना से तो मनः संयोग का अभ्यास कर रहा हूँ, पूर्ण तौर पर मन को नियन्त्रण करने में अभी और कितना दिन लग जायेगा ? यह कोर्स कितने  दिनों का है ? स्वामी विवेकानन्द इसी बात पर एक कथा कहते थे-
."नारद नामक एक महान देवर्षि थे. जैसे मनुष्यों में ऋषि य़ा बड़े बड़े योगी रहते हैं, वैसे ही देवताओं में भी बड़े बड़े योगी हैं नारद भी वैसे ही एक अच्छे और अत्यन्त महान योगी थे वे सर्वत्र भ्रमण किया करते थे.नारदजी प्रभु के परम-भक्त थे, श्रीहरी के पास उनका आना-जाना लगा रहता था. वे जब कभी चाहें नारायण के पास आ-जा सकते थे. नारद के लिये भगवान के पास जाने, य़ा इस दृष्टिगोचर जगत के परे जाने य़ा beyond time and space जाने में कोई बाधा नहीं थी. 
एक दिन नारदजी वीणा बजाते हुए हरी-नाम करते हुए प्रभु के यहाँ (बैकुण्ठ-लोक) जा रहे थे, वन में से जाते हुए उन्होंने देखा कि एक मनुष्य ध्यान में इतना मग्न है, और इतने दिनों से एक ही आसन पर बैठा है कि उसके चारों ओर दीमक का ढेर लग गया है. उसने नारद से पूछा, ' प्रभो, आप कहाँ जा रहे हैं'? नारदजी ने उत्तर दिया, 'मैं बैकुण्ठ जा रहा हूँ.' तब उसने कहा,'अच्छा,आप भगवान से पूछते आयें, वे मुझ पर कब कृपा करेंगे, मैं कब मुक्ति प्राप्त करूँगा.' फिर कुछ दूर और जाने पर नारदजी ने एक दूसरे मनुष्य को देखा. वह कूद-फांद रहा था, कभी नाचता था तो कभी गाता था. उसने भी नारदजी से वही प्रश्न किया. उस व्यक्ति का कंठस्वर, वागभ्न्गी आदि सभी उन्मत्त के समान थे. नारदजी ने उसे भी पहले के समान उत्तर दिया. वह बोला, 'अच्छा, तो भगवान से पूछते आयें, मैं कब मुक्त होऊँगा.' 
 लौटते समय नारदजी ने दीमक के ढेर के अन्दर रहनेवाले उस ध्यानस्थ योगी को देखा. उस योगी ने पूछा, ' देवर्षे, क्या आपने मेरी बात पूछी थी ?' नारदजी बोले, 'हाँ, पूछी थी.' योगी ने पूछा, 'तो उन्होंने क्या कहा ?' नारदजी ने उत्तर दिया,' भगवान ने कहा- ' अभी जितनी कठोर तपस्या कर रहा है, ऐसी ही कठोर तपस्या और चार जन्मो तक करेगा, इस प्रकार बार बार तपने और मरने के बाद उसे मुक्ति प्राप्त होगी.' तब तो वह योगी घोर विलाप करते हुए कहने लगा, ' हे भगवान तुम कितने निष्ठूर हो ! तुमने मुझ पर थोड़ी भी दया नहीं की ?मैंने इतना ध्यान किया है कि मेरे चारों ओर दीमक का ढेर लग गया, फिर भी मुझे और चार जन्म लेने पड़ेंगे!!' 
थोड़ी दूर जाने पर फिर वही भजनानन्दी साधु मिले, जो नाचते-गाते भजन कर रहे थे.उसने भी पूछा, ' क्या आपने मेरी बात भगवान से पूछी थी?' नारदजी बोले, ' भगवान ने कहा है, 'उसके सामने जो इमली का पेड़ है, उसके जितने पत्ते हैं, उतनी बार उसको जन्म ग्रहण करना पड़ेगा.' यह बात सुन कर, वह व्यक्ति हताश होने के बजाय और जोर जोर से नाच-गा कर प्रभु का नाम कीर्तन करने लगा और बोला,' हे प्रभु, तुम कितने दयालु हो ! तुमने मुझ जैसे अकिंचन का भी ध्यान रखा है ! और मैं इतने जन्मो तक तेरा नाम कीर्तन करता रहूँगा तो मेरी मुक्ति अवश्य होगी.' वह बड़े आनन्द से नृत्य करने लगा.'
मैं इतने कम समय में मुक्ति प्राप्त करूँगा !' तब एक आकाशवाणी सुनाई पड़ी, एक देववाणी हुई- 'वत्स, मैं तुम पर अति प्रसन्न हूँ, तुम इसी क्षण मुक्ति प्राप्त करोगे.' ईश्वर का यह वरदान उनको अपने अध्यवसाय-शीलता, य़ा अटूट धैर्य का पुरष्कार के रूप में प्राप्त हुआ. 
कथा का मर्म यह है कि,
वह दूसरा व्यक्ति इतना अध्यवसाय सम्पन्न था ! उसने ठान लिया था कि परम वस्तु को पाने के लिये मैं लाख जन्मों तक भी साधना करने को तैयार हूँ! उसे यह दृढ विश्वास था, कि यदि एकाग्रता का अभ्यास लगातार करता रहूँगा- पूरे अध्यवसाय के साथ तो मुझे अवश्य सफलता मिलेगी. परन्तु जो योगी चार जन्मों की बात सुनकर ही घबड़ा गया, और धैर्य छोड़ दिया उसको फल नहीं मिला. परन्तु जो व्यक्ति नारद जी के वचन को सत्य मान कर उनकी आज्ञानुसार लाख जन्मों तक साधना करने को प्रस्तुत था- उसको उसी क्षण मुक्ति मिल गयी." (१:१०५-६) 
सार बात यही है कि एकाग्रता की विद्या अर्जित करने के लिये हमे भी - अष्टांग के ५ अंगों का अभ्यास पूरे अध्यवसाय के साथ करते रहना होगा, तथा इस देह के नाश होने के बाद जब दूसरा देह प्राप्त होगा- तो उस देह से भी पुनः इसी अभ्यास को करूँगा और सिद्धि प्राप्त किये बिना नहीं रुकुंगा. ' लक्ष्य तक पहुँचे बिना विश्राम नहीं लूँगा ! इसी को दृढ संकल्प कहते हैं. 
हमे भी अष्टांग योग के ५ अंगों- 'यम,नियम, आसन, प्रत्याहार, धारणा ' को दो भागों में विभक्त कर, प्रथम दो अंग- ' यम-नियम' पर बहुत जोर देना होगा. महामण्डल के वरिष्ठ सदस्य लोग कई जगहों पर जाते हैं, उन्हें अक्सर सुनने को मिलता है- ' भैया जी, इतने दिनों से तो अभ्यास कर रहा हूँ, पर मनः संयोग कहाँ हो पाता है?' 
४४ साल के अनुभव के आधार पर जब वे उनसे पूछते हैं- ' मनः संयोग की पद्धति को जानते हो? तब वह भाई योग सूत्र के केवल ५ अंग बोलने के बजाय आठो सोपान फटाफट बोल जाता है. परन्तु जब वे उनसे पूछते हैं- ' क्या तुम सर्वदा झूठ बोलने से बचते हो और सत्य बात ही कहते हो ? लोभ कम हुआ है? संतोष आया है? परम तत्व को पाने के लिये, ' तपः ' - कुछ कष्ट उठाकर भी अभ्यास की दिनचर्या का पालन करते हो? काम,लोभ,ईर्ष्या, परदोष दर्शन य़ा पर-चर्चा में ही तो समय नहीं बिताते? अहंकार आदि मन के विकार कम हुए ? ईर्ष्या तो नहीं करते? 
आचरण में यदि यम-नियम का पालन २४ घन्टा प्रर्ति मुहूर्त करते रहा जाय- तो मन की अतिरिक्त चंचलता अवश्य दूर हो जाएगी. अगर हम मन को पूरीतरह से वशीभूत करके उसको अपना दास न भी बना सके तो कोई हर्ज नहीं, किन्तु 5 do not doe's और 5 doe's का अभ्यास करने से इतना लाभ तो अवश्य हगा कि मन कि अतिरिक्त चंचलता अवश्य दूर हो जाएगी, जीवन में संयम आयेगा हमारा चरित्र भी क्रमशः सुन्दर होने लगेगा. अधिकांश व्यक्ति मनः संयोग के दूसरे अंग,'आसन-प्रत्याहार-धारणा' का अभ्यास दिन भर में दो बार कर लेना यथेष्ट समझते हैं, और शिकायत करते हैं- कहाँ कुछ हो रहा है ? इसके साथ साथ ५ यम और ५ नियम का प्रति मुहूर्त अभ्यास करने से ही चरित्र गठित होता है. स्वामी विवेकानन्द कहते थे, ' यम-नियम का पालन करना केवल मनः संयोग का ही नहीं, वरन चरित्र-गठन का भी प्रथम सोपान है.' 
  इसी बात को रेखांकित करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " असत अभ्यास (भ्रष्टाचार) का एकमात्र प्रतिकार है- उसका विपरीत अभ्यास. हमारे चित्त में जितने असत अभ्यास (रिश्वतखोरी आदि)  संस्कारबद्ध हो गये हैं, उन्हें सत अभ्यास द्वारा नष्ट करना होगा. केवल सत्कार्य कार्य(यम-नियम का पालन) करते रहो, सर्वदा पवित्र चिन्तन करो; असत संस्कार (भ्रष्टचार) रोकने का बस, यही एक उपाय है. ऐसा कभी मत कहो कि अमुक (आयेदिन छापे में पकड़ने वाले भ्रष्ट नेताओं और पदाधिकारियों) के उद्धार की कोई आशा नहीं है. क्यों? इसलिए कि वह व्यक्ति केवल एक विशिष्ट प्रकार के चरित्र का - कुछ अभ्यासों की समष्टि मात्र है, और ये अभ्यास नये और सत अभ्यास से दूर किये जा सकते हैं.चरित्र बस, पुनः पुनः अभ्यास की समष्टि मात्र है और इस प्रकार (यम-नियम) का पुनः पुनः अभ्यास ही चरित्र का सुधार (य़ा भ्रष्टाचार मुक्त) कर सकता है."
अष्टांग योग के केवल ५ सोपानों, 'यम-नियम-आसन-प्रत्याहार- धारणा ' के अभ्यास को शिक्षा का अंग बना लेने से भारत की समस्त समस्याओं का निदान हो सकता है, क्योंकि पतंजलि वैज्ञानिक भाषा में बात करते हैं।
     अष्टांग-साधना के बारे में इस वैज्ञानिक पद्धति के आविष्कारक महर्षि पतंजलि स्वयं कहते हैं- 2.31    जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः – (उपरोक्त संयम) जाति, देश, काल और समय की सीमा से रहित, सार्वभौमा सार्वभौम होने पर, महाव्रतम् महाव्रत (के स्वरूप वाले) हैं।
अतः इसका अभ्यास किसी भी धर्म-संप्रदाय के अनुयायी य़ा नास्तिक भी कर सकते हैं." अष्टांग-योग " कोई धर्म-ग्रन्थ नहीं बल्कि एक विज्ञान है। योग का इस्लाम, हिंदू, जैन या ईसाई से कोई संबंध नहीं है। योग एक विज्ञान है, विश्वास नहीं है। जो कोई भी व्यक्ति इसका अभ्यास करेगा, सब को एक ही परिणाम प्राप्त होगा- उसका चरित्र अवश्य निर्मित हो जायेगा.
 

सोमवार, 17 जनवरी 2011

विवेकानन्द का दर्शन करने के अभ्यास से - ' विवेक स्रोत ' उदघाटित होता है !

पिछले तीन सम्पादकीय लेखों में हमने ' मनः संयोग ' की पद्धति को सीखने की आवश्यकता तथा शिक्षा को आत्मसात करने में इसके महत्व को समझा है. स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " मनुष्य और पशु में मूख्य अन्तर उनकी मन की एकाग्रता की शक्ति में है. किसी भी कार्य में सारी सफलता इसी एकाग्रता का परिणाम है....एकाग्रता की शक्ति में अन्तर के कारण ही एक मनुष्य दूसरे से भिन्न होता है. छोटे से छोटे आदमी की तुलना ऊँचे से ऊँचे आदमी से करो. अन्तर मन की एकाग्रता की मात्रा में होता है." 
इसी एकाग्रता के महत्व को रेखांकित करते हुए स्वामीजी कहते हैं- " अर्थ का उपार्जन हो, चाहे भगवद आराधना हो- जिस काम में जितनी अधिक एकाग्रता होगी, वह कार्य उतने ही अधिक अच्छे प्रकार से सम्पन्न होगा. द्वार के निकट जाकर पुकारने य़ा खटखटाने से जैसे द्वार खुल जाता है, उसी भाँति केवल इस उपाय से ही प्रकृति के भण्डार का द्वार खुल कर प्रकाश बाढ़ के रूप में बाहर आता है." 
हमलोगों ने यह भी समझा था, कि स्वाभाविक रूप से चंचल मन कामना-वासना कि मदिरा, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या आदि विकारों से ग्रस्त हो कर अतिरिक्त चंचल हो जाता है; फलस्वरूप उसको एकाग्र करना कठिन हो जाता है. इसीलिये ऋषि पतंजलि ने आठ चरणों में मन को वशीभूत करने की पद्धति का आविष्कार किया था, और उसे सूत्र बद्ध करके योग-सूत्र दिया था- यम, नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि.  हमलोग जो यथार्थ मनुष्य बनना चाहते हैं, उनके लिये स्वामीजी ने प्राणायाम, ध्यान और समाधि को बाद करके केवल पाँच अंगों का अभ्यास करना ही पर्याप्त माना था. इन पाँच अंगों को दो भाग में बाँट कर -' यम और नियम ' का पालन प्रति मुहूर्त करना है,तथा ' आसान-प्रत्याहार-धारणा ' का अभ्यास दिन में दो बार सुबह और शाम अपनी सुविधा के अनुसार निर्दिष्ट समय पर करना है. आज हमारे जीवन में व्यस्तता बढ़ गयी है इसलिए यदि संध्या में अभ्यास के लिये बैठना सम्भव न हुआ तो कम से कम रात में सोने से पहले बिछावन पर बैठ कर भी कर सकते हैं.  
मन की अतिरिक्त चंचलता को कम करने के लिये पहले जीवन में संयम लाना होगा, इसीलिये 5 do not doe's and 5 doe's अर्थात ' यम और नियम ' का पालन (अभ्यास) प्रति मुहूर्त २४ घंटे करना है.
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः – अहिंसा, सत्य, अस्तेय(अचौर्य या चोरी का अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह(संग्रह का अभाव), यमाः – ये पाँच यम हैं।
 शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान, नियमाः – (ये पाँच) नियम हैं। इसप्रकार हमने ५ यम और ५ नियम के बारे में जान लिया.
अब मनुष्य बनने के प्रशिक्षण के दूसरे भाग अर्थात-' आसान-प्रत्याहार-धारणा ' के ऊपर चर्चा करेंगे.एकाग्रता का अभ्यास करने के लिये बैठने का ढंग- अर्थात ' आसान '  कैसा होना चाहिये ?

 स्थिरसुखम् आसनम् – – स्थिर पूर्वक तथा सुखयुक्त (बैठने की स्थिति) आसन है।)
प्राचीन ऋषि-मुनी लोग पद्मासन में बैठ कर ध्यान लगाने का अभ्यास कर सकते थे, पर जो लोग उस प्रकार बैठने में अभ्यस्त नहीं हैं, उनको उस प्रकार बैठने पर शरीर में कष्ट होगा तो, मन उधर ही चला जायेगा. इसलिए सुखासन में य़ा बाबू जैसा पालथी मरकर भी बैठा जा सकता है. सर्वोत्तम ढंग है- अर्धपद्मासन में बैठना. इस प्रकार बैठने से - मेरुदण्ड, गर्दन और सर सीधा और सरल रेखा में रहता है जिससे शरीर के किसी भी अंग पर जोर नहीं पड़ता और हम बिना हिले-डुले काफी देर तक इसप्रकार बैठ सकते हैं. अर्धपद्मासन में बैठ कर प्रत्याहार का अभ्यास करना है.
स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः ।।54।।
प्रत्याहार का अर्थ है- एक और आहरण करना यानि खींचना।  मन इंद्रियों के माध्यम से जगत के भोगों के पीछे दौड़ता है। मन की बहिर्गति को रोक कर उसे इंद्रियों की अधीनता से मुक्त करा कर अन्तर्मुखी करना - भीतर की ओर खींचना प्रत्याहार है।इसके लिये लिये कुछ समय चुपचाप बैठ कर मन का पर्यवेक्षण करना होगा. उसकी गतिविधियों का निरिक्षण करना है. मन में कई चित्र उभर रहे हैं- उनको  देखना है. 
पर मन को देखा कैसे जाता है ? हमलोग बाहरी वस्तुओं को आँखों से देख लेते हैं, परन्तु मन तो भीतर की वस्तु है और अत्यन्त सूक्ष्म है- उसको इन चर्म- चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता है. मन को देखने का यन्त्र भी मन ही है. यह मन ही मानो दो भागों में बंट जाता है; ' द्रष्टा मन और दृश्य मन ''.  - मन का ही भाग द्रष्टा मन (Subjective mind ) बन कर दृश्य मन (Objective mind) को देखने लगता है. 
अभ्यास करने से मन एक साथ दो भाग में बंट सकता है, य़ा Double presence of mind हो सकता है. इसके लिये बाहरी आँखों को मूंद लेने से- मन में क्या क्या विचार उठ रहे हैं, उसमे कैसे चित्र उभर रहे हैं उनको देखना सरल हो जाता है. मन में Past-Future के विचार उठ रहे हैं, मन मानो भूत-भविष्य के बारे में लगातार कुछ न कुछ बक बक करता ही रहता है. उसमे ऐसे ऐसे विचार भी दृश्य बन कर उभर रहे हैं जो मन को नीचे भी ले जा सकते हैं. यदि इस प्रकार के दृश्य आ भी रहे हों, तो पहले मन को उन सबको देखने की छूट देनी है- जो भी कुछ दिखाई पड़ रहा हो चुपचाप उसे देखते रहो. 
इस प्रकार कुछ क्षणों तक स्वाधीनता देने के बाद, Objective Mind को आदेश देना पड़ेगा- सीमा के बाहर मत जाओ ! उसके साथ बातचीत करो- क्या तुम हर समय Past-Future के बारे में ही बकबक करते रहोगे ? क्या तुम मेरे सामने बैठ कर पवित्र नाम-रूप का श्रवण-मनन नहीं करोगे ? क्या तुम मुझे पशु बनाना चाहते हो ? मन को बालक के जैसा समझाना होगा- तुम मेरा यंत्र है, मेरा गुलाम है, मैं तुम्हारा स्वामी हूँ, तुम्हारा प्रभु हूँ- तुमको मेरी बात माननी ही पड़ेगी. मन को भूत-भविष्य में जाने से खींच कर तथा उसके बारे में बकबक करने से रोकर, अपने सामने वर्तमान में चुचाप मौन रहकर बैठने को मना लेना होगा. जैसे समझाने-बुझाने से बिगडैल बच्चे भी थोड़ी देर के लिये हमारी बात मान लेते हैं, वैसे ही मन भी सामने आकर बैठ जायेगा. परन्तु मन को खींच कर केवल सामने लाने से ही नहीं होगा, मन भी प्रकृति का अंश है, इसलिए कभी Vacuum होकर य़ा शून्य होकर नहीं रह सकता - उसमे फिर से सद्-असद चिन्तन उठने लगेगा. तब उसको एकाग्र करने का लक्ष्य सिद्ध नहीं होगा. इसी लिये मन का पर्यवेक्षण करके बहिर्मुखी मन को खींच कर, य़ा वैराग्य का फाटक लगाकर इन्द्रिय विषयों में जाने से लौटा कर उसे किसी पवित्र य़ा Positive आदर्श का चिन्तन करने का आदेश देना होगा.
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ।।1।।॥3.1॥ नाभिचक्रे हृदयपुण्डरीके मूध्र्नि ज्योतिषि नासिकाग्रे जिह्वाग्र इत्येवमादिषु देशेषु बाह्ये वा विषये चित्तस्य वृत्तिमात्रेण बन्ध इति धारणा।श्रीमद्व्यासभाष्ये)
धारणा - इन्द्रिय विषयों से खींच कर अन्तर्मुखी बने मन को अपने शरीर में किसी विशिष्ट स्थान- ह्रदय कमल में धारण करना होगा. किसी निराकार आदर्श के बारे में चिन्तन करना कठिन होता है, तथा किसी मूर्तमान पवित्र आदर्श पर मन को टिकाये रखना य़ा साकार नाम-रूप का चिन्तन करना सरल होता है. अतः अपने ह्रदय कमल पर बैठाने के लिये पहले से ही किसी मूर्त आदर्श का चयन कर लेना अच्छा होगा.
  हमारा परामर्श है कि अपने ह्रदय कमल पर मूर्त आदर्श के रूप में स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति स्थापित कर- उनके ऊपर मन को धारण करना - Concentrate  करना  उचित होगा. 
महर्षि पतञ्जलि के योग सूत्र पर प्रथम प्रमाणिक व्याख्या “व्यास भाष्य” के रूप में प्राप्त होती है। व्यास भाष्य से तात्पर्य है- व्यास के द्वारा महर्षि पतञ्जलि के योग सूत्र पर दी गयी व्याख्या। पतंजलि योग-सूत्र ॥1.12॥ पर व्यासदेव अपने भाष्य में मन के बहिर्मुखी प्रवाह को अन्तर्मुखी बनाने का सरल उपाय बताते हुए कहते हैं-

चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च।
या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। 
संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा।
तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिली क्रियते।
विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः। 

"- विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत " इसे पढने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो  व्यासदेव हजारों साल पहले जान चुके थे, कि 'विवेक-शक्ति ' ही सभी के ह्रदय में विद्यमान अन्तर्यामी गुरु है ! तथा एक दिन  (१२ जनवरी १८६३) को वे स्वयं ही स्वामी विवेकानन्द के रूप में आविर्भूत होंगे; तब उनके मूर्त रूप पर मन को धारण करने से ही ' विवेक-स्रोत ' उदघाटित हो जायेगा !
क्योंकि निराकार अन्तर्यामी गुरु के रूप में ' विवेक-शक्ति ' सबके ह्रदय में अवस्थित हैं, जो हमे सर्वदा श्रेय (Good)  और प्रेय (Pleasant ) में से चयन कर केवल श्रेय पथ पर चलने को अनुप्रेरित करते रहते हैं.  क्योंकि वास्तव में जो भी सारयुक्त, श्रेष्ठ, एवं श्रेयस है उसी से जुड़ना योग है।उसी निराकार अन्तर्यामी गुरु - ' विवेकशक्ति ' के मूर्तमान रूप हैं - स्वामी विवेकानन्द ! स्वामी विवेकानन्द के नाम-रूप पर मन को धारण करने के साथ ही साथ चरित्र के समस्त गुणों का ध्यान भी हो जाता है. वे २४ गुणों के मूर्तमान रूप हैं- उनका चित्र युवाओं का सर्वाधिक प्रिय और पसन्दीदा चित्र है- इसलिए उनके अनुकर्णीय चरित्र तथा उपदेशों को हमारा मन आसानी से चिन्तन कर सकता है. इसीलिये तो भारत सरकार ने भी उनके जन्म-दिन ' १२ जनवरी '  को ' राष्ट्रीय युवा दिवस ' घोषित किया है. 
अब हम मन से थोड़ा अलग हट कर मन में उठने वाले विचारों का कुछ समय पर्यवेक्षण कर सकते है. थोड़ा प्रत्याहार सध जाने पर हम देखते हैं की मन अब Past-Future के बारे में बकबक करना छोड़ कर, हमारे पूर्व चयनित आदर्श - स्वामी विवेकानन्द का ही चिन्तन करने में लगा है, परन्तु 1-2 second के बाद ही हाँथ से लगाम खींच कर मन फिर से इन्द्रिय विषयों में भाग गया है. पर मैं मन से हार नहीं मानूंगा- वह तो मेरा यन्त्र है, मैं उसका प्रभु हूँ, उसको फिर से खींच कर अपने सामने लाऊंगा. आज मन को हराना ही है - ' संतोष ' के द्वारा (देने वाले का ध्यान करके, जो मिला है उसका ध्यान नहीं करके ) लोभ को परास्त कर दूंगा,  कामना-वासना,  अहंकार, ईर्ष्या आदि रिपुओं को स्वामी विवेकानन्द के जीवन-चरित और उपदेश के द्वारा हरा दूंगा. मन पर यदि अधिक दबाव महसूस होने लगे तो उसे कुछ समय के लिये ढील देने के बाद- फिर से खींच कर सामने लाओ. इसी प्रकार ढीलदेते और खींचते हुए उसे अपने पूर्ण नियन्त्रण में लाना ही होगा. 
कोई पूछ सकते हैं क्या केवल स्वामी विवेकानन्द पर ही मन को एकाग्र रखने का अभ्यास करना होगा ? मेरे तो इष्ट-देव बुद्ध हैं, ईसा हैं, नानक हैं, कृष्ण हैं, राम हैं- अलग इष्ट हैं मेरे,  मैं बुद्ध पर ध्यान क्यों न करूँ ? भगवान  ईशू जो माता मेरी के गोद में हैं, उस पर ध्यान क्यों न करूँ ? कोई व्यक्ति यदि अपने गुरु य़ा इष्ट पर मन को धारण करे य़ा चैतन्य महाप्रभु अथवा राधा-कृष्ण पर मन को धारण करना चाहे तो उसमे कोई हर्ज नहीं है. परन्तु हमारा परामर्श केवल इतना है कि वह मूर्त आदर्श ' पवित्र ' तो होना ही चाहिये. किसी Sports-Man का ध्यान करना अच्छा नहीं है- क्योंकि कोई व्यक्ति अच्छा खेल सकता है, पर उसका चरित्र खराब भी हो सकता है. अतः स्वामी विवेकानन्द के विकल्प के रूप में जिस किसी भी मूर्त-आदर्श को चयन करें तो तुलना कर के देख लेना चाहिये कि वह महापुरुष भी - 'पवित्रता' और ' प्रेम ' की दृष्टि से इन्ही ' त्रिदेवों '  (श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा-स्वामी विवेकानन्द ) के प्रतिमूर्ति ही हों. 
फिर भी यदि मन भाग जाये, य़ा अत्यधिक दबाव का अनुभव करने लगे, तो अपनी आँखों को खोल कर अपने आदर्श के चित्र को फिर से टकटकी बांध कर देखो. देखोगे कि मन अभी आँख खोल कर देखने पर भी वहाँ से भाग जा रहा है. परन्तु इस लड़ाई में हमे उससे हारना नहीं है, हम उसके प्रभु हैं, मन हमारा दास है- उसको बाह्य विषयों में जाने से खींच कर पुनः एक बार अपने इष्ट की मूर्ति पर धारण करना है. पुनः पुनः इसका अभ्यास करते रहने से - धीरे धीरे मन वश में आने लगता है.                      


रविवार, 16 जनवरी 2011

अष्टांग-सूत्र के पाँच अंग का अभ्यास ही यथेष्ट है.

पिछले दो सम्पादकीय लेखों में हमने यह समझ लिया, कि शिक्षा एक आन्तरिक प्रक्रिया है, तथा केवल मन को एकाग्र करके ही गुरुवाक्य में निहित भावों को आत्मसात किया जा सकता है. मन में अनन्त शक्ति है, किन्तु इस तथ्य को हमलोग अक्सर समझ नहीं पाते हैं; क्योंकि यह स्वभावतः चंचल है तथा  अभी कामना-वासना की मदिरा पीने से किसी उन्मत्त बन्दर की तरह मतवाला हो गया है.
अत्यधिक भोगों के लोभ वश, अहंकार का भूत सवार हो गया है, ईर्ष्या का बिच्छू इसे सदा डंक मरता रहता है. इसीलिये ऐसे अत्यधिक चंचल मन को वशीभूत करने का प्रशिक्षण प्राप्त कर किसी प्रयोजनीय विषय पर मन को एकाग्र रखने की क्षमता प्राप्त करने को ही स्वामी विवेकानन्द शिक्षा का मूल विषय कहते थे. 
विश्व में सर्वप्रथम हमारे प्राचीन ऋषियों ने ही इस तथ्य को समझा था, कि मन में अनन्त शक्ति है,तथा अपने चंचल मन को वशीभूत करके यदि हम अपने दिव्यत्व को अभिव्यक्त करें तो जीवन के किसी भी क्षेत्र में सम्पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकते हैं. इसीलिये ऋषि पतंजली ने मन को पूरी तरह से वशीभूत करने की एक विज्ञान सम्मत पद्धति का आविष्कार किया था, जिसको हमलोग ' अष्टांग योग ' य़ा राजयोग के नाम से जानते हैं. 
 किन्तु उन्होंने अपने आविष्कारों को सूत्र के रूप में लिखा था इसीलिये साधारण मनुष्य उन सूत्रों को बिल्कुल नहीं समझ पाते थे. प्राचीन ऋषि लोग ऐसा मानते थे,कि उच्च शिक्षा सभी के लिये नहीं है, तथा जो मनुष्य इस विद्या को ग्रहण करने का अधिकारी होगा, वह इन सूत्रों को पढ़ कर स्वयं ही समझ जायेगा. 
किन्तु आधुनिक ऋषि स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- इन ज्ञान-रत्नों को मठ-मन्दिर की चाहार्दिवारों से, अरण्य की कन्दराओं से बाहर निकाल कर गाँव,गाँव में घर घर में वितरित कर देना होगा. इसीलिये स्वामीजी ने पतंजली योगसूत्र य़ा अष्टांग योग पर अंग्रेजी में भाष्य लिखा और इस विद्या को भारत के साथ साथ पूरे विश्व तक पहुँचा दिया. मन के ऊपर आठ चरणों में पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त करने का अष्टांग-सूत्र  इस प्रकार है- " यम-नियम-आसान-प्राणायाम- प्रत्याहार- धारणा- ध्यान- समाधि."
किन्तु सभी के लिये युवा अवस्था में ही इन आठों अंगों का अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं है. श्रीरामकृष्ण चाहते थे कि युवा लोग वैयक्तिक मुक्ति के मोह में न पड़ कर अपने को संसार की सेवा के योग्य बनाएं. अपना चरित्र-निर्माण करके पहले स्वयं यथार्थ मनुष्य बने, फिर सम्पूर्ण मानवता के भीतर मनुष्यत्व-जागरण का शंख फूँकने की तैयारी करें. 
 परन्तु नरेन्द्रनाथ ने जब श्रीरामकृष्ण से कहा कि मैं शुकदेव की तरह सर्वदा निर्विकल्प समाधि में ही मग्न रहना चाहता हूँ; तब वे उनकी भर्त्सना करते हुए कहते हैं - ' छिः नरेन्, बार बार यही बात कहते तुझे लज्जा नहीं आती ? केवल अपनी मुक्ति की बात सोचना तो तुच्छ बात है- जब तक दूसरों की मुक्ति नहीं होती तुम्हें समाधि में नहीं जाना चाहिये. मैंने तो सोचा था, समय आने पर कहाँ तो तु विशाल बरगद का वृक्ष बन कर सबको शान्ति और छाया प्रदान करेगा, और कहाँ आज तु खुद एक स्वार्थी व्यक्ति की तरह अपनी ही मुक्ति के लिये बेचैन है ? इतना क्षूद्र आदर्श क्यों पाल रहा है ? निमीलित चक्षुओं से ईश्वर के दर्शन करने की इतनी उत्सुकता क्यों ? क्या खुली आँखों से तुम उन्हें नहीं देख सकते ? वे तो सब मनुष्यों में रमे हैं. मानव-मात्र में ' शिवजी ' विराजित हैं, इसीलिये (शिव-ज्ञान से ) मानव-सेवा ही भगवान की सर्वोच्च सेवा है ." 
नरेन्द्र बोले- ' निर्विकल्प समाधि न होने से मेरा मन पूरी तरह से शान्त नहीं होगा, यदि वह न हुआ, तो मैं वह सब कुछ न कर सकूँगा.' 
श्रीरामकृष्ण देव बोले - ' तु क्या अपनी ईच्छा से करेगा ? जगदम्बा तेरी गर्दन पकड़ कर करवाएंगी, तू नहीं करे, तेरी हड्डियाँ करेंगी.' 
 इसीलिये श्रीरामकृष्ण ने स्वामी विवेकानन्द के माध्यम से भविष्य के युवाओं को समाधि में न जाने का जो परामर्श दिया था, उसीको स्वीकार करते हुए- युवा महामण्डल के सदस्यों को 'ध्यान और समाधि' के steps को छोड़ देना है. 
स्वामी विवेकानन्द यह भी कहा करते थे कि, किसी योग्य गुरु के सानिध्य में रहे बिना प्राणायाम करने से दिमाग बिगड़ भी सकता है, अतः इसे भी बाद करना है. इस प्रकार अष्टांग के आठ अंगों में से तीन अंगों- प्राणायाम, ध्यान और समाधि को बाद करके केवल पाँच steps - यम, नियम, आसान, प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास ही हमारे लिये यथेष्ट है. इन पाँच अंगों को भी दो भाग में बाँटा जा सकता है. प्रथम भाग में केवल दो अंग- ' यम और नियम ' का अभ्यास प्रतिदिन चौबीसों घंटे करना है, एक मिनट के लिये भी इसके अभ्यास से विमुख नहीं रहना है. द्वितीय भाग में तीन अंग- 'आसान, प्रत्याहार, धारणा ' का अभ्यास अपनी सुविधा के अनुसार निर्दिष्ट समय पर १०-१५ मिनट तक दिन में दो बार सुबह और शाम करना है. परन्तु पहले भाग- ' यम और नियम ' का अभ्यास प्रतिदिन और प्रति मुहूर्त करना है.   
यम का अर्थ है संयम. वे पाँच काम क्या क्या हैं, जिन्हें करने से हमे विरत रहना होगा. 5 do not doe's हैं- सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, आस्तेय, अपरिग्रह. सत्य- हर समय जो सच हो वही बात कहनी चाहिये, झूठ कहने से बचना चाहिये. अहिंसा- हाथों से तो क्या मन से भी किसी का बुरा नहीं सोचना चाहिये, 
आस्तेय- चोरी कर लेने का भाव, बिना पूछे किसी दूसरे की कोई वस्तु ले लेने का भाव भी मन में नहीं उठना चाहिये. अपरिग्रह- दूसरे से मांग कर कुछ उपहार य़ा gift लेने का लोभ मन में नहीं रखना है, पर दूसरों के दिल पर ठेस न पहुँचे इसीलिये किसी की दी गई भेंट को यादगार समझ कर ग्रहण किया जा सकता है. श्रीरामकृष्ण भी उपहार में सिल्क का चादर और चाँदी का हुक्का ग्रहण करके एकबार शरीर पर रख कर त्याग दिये थे.यदि कोई श्रद्धा के साथ कुछ देता है तो, उसे श्रद्धा की निशानी समझ कर रखा जा सकता है. ब्रह्मचर्य- मन वचन शरीर से पवित्र जीवन जीना चाहिये, न तो अत्यधिक भोगों में डूबे रहना चाहिये और न तो कठोर तपस्वी जैसा रातभर जप-तप करते रहना चाहिये, य़ा हफ्ते ३ दिन व्रत-उपवास रखना चाहिये. बुद्धदेव का शरीर जब कठोर जप-तप आदि के कारण सूख कर काँटा हो गया तब सुजाता ने खीर दिया, जिसे खाने के बाद ही बुद्ध को ज्ञान हुआ था. कठोर-ब्रह्मचर्य य़ा liberal ब्रह्मचर्य जैसे वाद-विवाद में नहीं पड़ना है. ब्रह्मचर्य का तात्पर्य है- न तो अत्यधिक भोग का लालच रखना, और न ही अत्यधिक कठोरता पूर्वक जीवन जीना. 
५ नियम- किन कार्यों को करना उचित होगा ? 5 doe's - "शौच, संतोष, तपः, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणीधानम." शौच- शुचिता रखना, बाहरी स्वच्छता और आन्तरिक शुचिता जैसे गंदे कपड़े नहीं पहनुगा वैसे ही मन में गंदे विचार भी नहीं उठने दूंगा. तन-मन से शुद्ध पवित्र रहना. संतोष- अधिक भोग के लालायित नहीं रहना, जितना जीने के लिये आवश्यक हो, उतना मिल जाने से तृप्त रहना. स्वाध्याय- गन्दी पुस्तक नहीं पढना, बुरे चित्र नहीं देखना, सदग्रंथ य़ा स्वामी विवेकानन्द की रचनाओं को पढना. तपः - पूर्णत्व की प्राप्ति के लिये सहर्ष कष्ट सहन करने को प्रस्तुत रहना. ईश्वर के साथ पुनर्मिलन के आनन्द को पाने य़ा सत्य का दर्शन करने में जितना तप आवश्यक हो उसे सहन करना. ईश्वरप्रणीधान- इस जगत के कोई स्रष्टा हैं, इस पर विश्वास रखना और उनको जानने के लिये चेष्टा करना .
इस प्रकार यम और नियम का पालन जीवन में प्रति मुहूर्त करते रहने से जीवन में संयम आयेगा तो मन की अतिरिक्त चंचलता क्रमशः कम होती जाएगी, तथा हम अपना चरित्र गठित करने की योग्यता प्राप्त कर लेंगे. 

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

शिक्षा की परिभाषा

जहाँ तक आंकड़ों का प्रश्न है, आज के भारत में साक्षरता का प्रतिशत बढ़ा है. किन्तु समाज में नैतिक मूल्यों की कमी आ रही है. जो भ्रष्टाचार का बोलबाला दिखाई दे रहा है, सर्वत्र स्वार्थ का जो नग्न नृत्य दिखाई देता है, उसे देखकर सहज प्रश्न उठता है, क्या हमारा ' सर्व शिक्षा का अभियान ' सही दिशा में जा रहा है? क्या स्वामी विवेकानन्द के परामर्श पर अमल करते हुए देश की शिक्षा नीति का नाम और लक्ष्य- " सर्व  मनुष्य निर्माणकारी शिक्षा का अभियान " नहीं होना चाहिये? 
स्वामीजी ने कहा है- ' एजुकेशन इज मैनिफेस्टेशन ऑफ़ परफेक्शन आलरेडी इन मैन." शिक्षा मनुष्य के भीतर निहित पूर्णता का विकास है.' स्वामीजी पुनः कहते हैं, ' शिक्षा क्या है? क्या वह किताबी ज्ञान है ? - तो क्या वह बहुमुखी ज्ञान है ? -वह भी नहीं. शिक्षा वास्तव में एक ऐसा प्रशिक्षण है, जिसके द्वारा ईच्छा-शक्ति की अभिव्यक्ति और उसकी प्रवृत्ति को विवेक-सम्पन्न बुद्धि के नियन्त्रण में लाकर लाभदायक संकल्प में परिणत कर लिया जाता है. '
'What is education? Is it book-learning ? Is it diverse knowledge? Not even that. The training by which the current and expression of will are brought under control and become fruitful is called education. ' (4:490)
स्वामीजी ने एक बात और कही थी, जिसके बड़े दूरगामी मनोवैज्ञानिक अर्थ हैं. उन्होंने कहा कि शिक्षा दी नहीं जा सकती.जानने की प्रक्रिया द्वारा मनुष्य कोई कोई नई चीज नहीं जानता, बल्कि वह आविष्कार करता है. सारा ज्ञान मनुष्य के भीतर निहित है, अध्यापक, पुस्तक, और विषय की साहायता से वह उस ज्ञान को अपने भीतर अनुभव कर पाता है. अर्थात शिक्षा य़ा शिक्षण पद्धति एक सहायक-उद्दीपक मात्र है, अनुकूल वातावरण दिये जाने पर व्यक्ति अपने भीतर के ज्ञान को आविष्कृत कर लेता है, तो इससे यह सिद्ध हो जाता है कि शिक्षा एक आन्तरिक प्रक्रिया है. शिक्षा का भारतीय आदर्श मन के ऊपर ऐसा नियन्त्रण प्राप्त करना है, जिससे हम उसे जब और जहाँ चाहें ठीक वहीं लगा सकें और ईच्छा मात्र से वहाँ से अनासक्त होकर, उस विषय से खींच कर अन्य किसी प्रयोजनीय विषय में लगा देने में भी समर्थ हों. स्वामीजी कहते हैं- " Knowledge is inherent in man; no knowledge comes from outside; it is all inside... We say Newton discovered gravitation. Was it sitting anywhere in a corner waiting for him ? It was in his own mind; the time came and he found it out. All knowledge that the world has ever received comes from the mind; the infinite library of the universe is in your own mind. The external world is simply the suggestion, the occasion, which sets you to study your own mind."  (1.28)  
मानव सभ्यता के इतिहास में हम जो भी प्रगति देखते हैं, वह सब मन कि शक्ति के प्रयोग द्वारा ही संभव हुआ है. यदि हम अपने दैनिन्दन जीवन की छोटी छोटी घटनाओं पर भी विचार करें तो हम जान सकते हैं कि बिना मन की सहायता के हम देख य़ा सुन भी नहीं सकते हैं. हम सभी लोगों का यह अनुभव है कि हमारा मन और कहीं लगा हो और सामने से कोई व्यक्ति चला जाये तो हम उसे देख नहीं पाते हैं. ईश्वरचंद्र विद्यासागर की आँखे खुली थी, सामने से बारात-पार्टी गुजर गया पर चुकी उस समय उनका मन पढ़ाई करने में तल्लीन था, इसीलिये वे देख नहीं सके कि बारात किस तरफ मुड़ा है.  
आँखें - यह खिड़की है, दर्शन इन्द्रिय (optic -nerve ) मस्तिष्क में स्थित गोलक हैं, उके साथ चूँकि मन संयुक्त नहीं था इसीलिये वे नहीं देख सके थे. उसी तरह कान भी खुला हुआ हो पर हम अनमनस्क रहें, अर्थात मन मस्तिष्क में स्थित श्रवण-इन्द्रिय से संयुक्त न हो तो हम सुन भी नहीं पाते है.
पढ़ाई करते समय किताब सामने है, आँखें भी खुली हैं पर मन यदि क्रिकेट के मैदान में चला गया तो हम कुछ पढ़ नहीं पाते हैं.पढने का वास्तविक साधन केवल ये आँखे नहीं हैं, बल्कि मस्तिष्क में स्थित दर्शन-इन्द्रियाँ और मन इन तीनों को हम किसी ज्ञातव्य विषय पर जितना अधिक एकाग्र राख सकेंगे, हमे उसी परिमाण में अधिक सफलता प्राप्त होगी.  
आज हमारी प्रचलित शिक्षण पद्धति में पढने के आन्तरिक साधन मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण देने की कोई व्यवस्था व्यक्ति नहीं है. हमलोग शैक्षणिक डिग्रियों को गाउन पहन कर ग्रहण करते हैं, फिर उसे गाउन की तरह ही उतार कर दीवाल पर टांग देते हैं. यह शिक्षा हमारे भीतर नहीं घटती है, उसको आत्मसात कर के हम इसे अपने स्वरुप का हिस्सा नहीं बनाते. यह केवल तथ्यों को रट लेने जानकारियों को संग्रहित कर लेने के स्तर पर आकर रुक जाती है. इसीलिये इसके द्वारा व्यक्ति के चरित्र में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं हो पाता. गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' कहते हैं -

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं;
 वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं 

 स्वामीजी कहते हैं- "  जिस शिक्षा से हम अपना जीवन-गठन कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र-निर्माण कर सकें और भावों को आत्मसात कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है. यदि तुम पाँच ही भावों को हजम कर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित कर सके हो तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है, जिसने एक पूरी लाइब्रेरी ही कंठस्त कर ली है."  
किसी भी मनुष्य में तीन प्रमुख अवयव होते हैं- शरीर, मन और ह्रदय य़ा आत्मा. मनुष्य का अस्तित्व इन्हीं तीनों पर निर्भर रहता है. यह शरीर पञ्चभूतों से य़ा स्थूल पधार्थों से बना है, मन अति सूक्ष्म है, आत्मा उससे भी ज्यादा सूक्ष्मतर है. इसीलिये स्वामी विवेकानन्द मन को आत्मा का दिव्य चक्षू य़ा आत्मा का यन्त्र भी कहते हैं. अर्थात आत्मा मन का प्रभु है, मन का स्वामी है. मन आत्मा का Instrument य़ा यन्त्र जैसा है. मन में असीम शक्ति है, इसकी सहायता से हम किसी भी विषय का ज्ञान अर्जित कर जीवन में सफलता प्राप्त कर सकते हैं.
मन को एकाग्र कर के इससे भी श्रेष्ठ उपलब्धि प्राप्त हो सकती है, हम लोग सत्य-द्रष्टा य़ा ऋषि बनकर मानव जाती के सच्चे नेता भी बन सकते हैं, किन्तु हममे से अधिकांश मनुष्य इस चरम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाते हैं.  कारण यह है कि, मन स्वाभाविक रूप से ही अत्यन्त चंचल है, १ सेकंड के लिये भी एक जगह पर नहीं टिकता है, अभी हमलोग यहाँ बैठे हैं, आँखे खुली हैं, कान खुले हैं, पर मन घर चला गया. अभी यहाँ कितना ठंढा है, घर में होते तो कितना अच्छा होता, य़ा घर में अभी माँ क्या नास्ता बना रही होगी, आदि आदि बातों में मन दौड़ता रहता है. इस प्रकार यदि हमारा मन एकाग्र न हो, हर समय विभिन्न विषयों में बिखरा रहता हो- तो हम मन की शक्ति को समझ नहीं पाते हैं. मन हमेशा इन्द्रिय विषयों में बिखरा रहता है, इसीलिये इसकी असीम शक्ति को अपनी इच्छानुसार किसी विषय में लगा कर उसका ज्ञान अर्जित करने में असफल रह जाते हैं. 
हम जानते हैं कि सूर्य में प्रचण्ड ताप है, यदि सारे दिन कोई व्यक्ति धूप में खड़ा रहे तो उसका शरीर उत्तप्त जरुर हो जायेगा, किन्तु जल कर राख तो नहीं हो जायेगा. इतना तो कोई अनपढ़ व्यक्ति भी जानता है कि सूर्य में ताप है, जिसके कारण खाली पैर चलने से पैर में जलन होने लगती है.परन्तु सौर ऊर्जा की शक्ति केवल उतनी ही नहीं है.यदि एक convex lens को कागज पर रख कर सूर्य की किरणों को केन्द्रीभूत किया जाय तो वे जिस बिन्दु पर focused रहती हैं, उस बिन्दु पर कागज पहले काला होने लगता है, फिर उसमे से धुआं उठने लगता है, फिर उस कागज में आग पकड़ लेता है, कागज जल कर राख हो जाता है. 
कागज को जलाने की शक्ति उस लेंस में नहीं है, उस कागज को जलाने में उसकी एक भूमिका जरुर है, किन्तु वह आग उस लेंस में नहीं थी, लेंस को कागज पर रखने से कागज को कुछ नहीं होगा. पर लेन्स को धूप में रख कर focus करने से उसकी ऊष्मा concentrate होकर कागज को भी जला देती है.  
आजकल तो सौर ऊर्जा को नियन्त्रित करके उससे चूल्हा,लैम्प, बैटरी, वाटर हीटर आदि का उपयोग भी हो रहा है.हमलोग जानते हैं कि atomic power, petroleum power, coal power आदि का स्टॉक लिमिटेड है. जिस रफ़्तार से पेट्रोल-डीजल कि खपत बढती जा रही है, भविष्य में कुछ दशकों के बाद ही उसका reserve समाप्त हो जायेगा, तो क्या हमें कल-कारखाने बन्द करने होंगे ? मोटर-गाड़ी, रेल, हवाई जहाज आदि चलने बन्द हो जायेंगे?
नहीं, वैज्ञानिक लोग कहते हैं यदि हमलोग सौर ऊर्जा को प्रयोग करने कि विधि को और विकसित करें तो इसका उपयोग हम हर जगह में कर सकते हैं. अभी इसी दिशा में शोध कार्य चल भी रहा है. आज ही १३ जनवरी २०११ के समाचार पत्र के अनुसार आस्ट्रेलिया में एक सौर ऊर्जा से चलने वाली कार का भी आविष्कार हुआ है जो ८८ की.मी. प्रति घंटे की रफ़्तार से चल सकती है. सौर ऊर्जा के अक्षय भण्डार की तरह ही हमलोगों के मन में भी असीम शक्ति है, उसको संयमित और एकाग्र रखने से सबकुछ प्राप्त किया जा सकता है. 
किन्तु वह अत्यन्त चंचल है. वह अत्यन्त द्रुत गति सदा दौड़ता रहता है, इसीलिये हम अभी मन की शक्ति का पूरा उपयोग नहीं कर पा रहे हैं. जो छात्र अपने प्रयास द्वारा, अपने मन को जितना अधिक एकाग्र रख पाता है, वह दूसरों की अपेक्षा उतनी ही अधिक मात्रा में ज्ञान भी अर्जित कर सकता है. अतः इस चंचल मन को अपनी प्रयोजनीयता के अनुसार किसी ज्ञातव्य विषय पर एकाग्र करने और इच्छामात्र से हटा लेने का कौशल अवश्य सीख लेना होगा.
यह मन स्वाभाविक रूप से जितना चंचल होता है, उतना ही रहता तो, उसे आसानी से संयमित और एकाग्र किया जा सकता था. किन्तु मन में रहने वाले षडरिपू- काम, क्रोध, लोभ,मोह,मत्सर और अहंकार आदि के कारण उसकी चंचलता कई गुणा अधिक बढ़ जाती है. कामना-वासना ( मन में उठते रहने वाले Desires), लोभ, और अहंकार, ईर्ष्या आदि विकार मन को अत्यन्त चंचल बना देते हैं, जिसके कारण यह हर समय बेचैन बना रहता है, एकाग्र होना ही नहीं चाहता.
अतः यदि हम मन को एकाग्र करना चाहते हों तो सबसे पहले इन षड-रिपुओं को ही परास्त करना होगा. स्वामी विवेकानन्द मन की तुलना एक बन्दर से किये हैं, वह हर समय चंचल रहता है, हाथ पैर हिलाता रहता है, कभी एक जगह पर बैठता नहीं है, आँख भी पिट-पिट करता रहता है. वैसा चंचल बन्दर यदि शराब पी ले तो क्या होगा? और भी ज्यादा चंचल हो जायेगा. फिर उस बन्दर को कोई बिच्छू डंक मार दे तब तो वह और भी ज्यादा उछलने-कूदने लगेगा. अब यदि उस बन्दर पर एक भूत भी सवार हो जाये, तब उस बन्दर की हालत कैसी होगी ? उस बन्दर के चंचलता की कोई सीमा नहीं होगी.
अभी हमलोगों के मन की अवस्था ठीक उसी मदमस्त बन्दर जैसी है. हमलोगों ने भी कामना- वासना रूपी मदिरा का पान कर लिया है. भले ही हमने कभी शराब को छुआ भी नहीं हो, किन्तु मन में अत्यधिक भोग प्राप्त करने के लिये जो लोभ रूपी मदिरा मन में है उसी मदिरा ने मन को और अधिक मतवाला बना दिया है. जीवन में संतोष बिल्कुल नहीं है, लोभ इतना बढ़ गया है कि सबकुछ रहने पर भी - और चाहिये, और अधिक भोग मिलना चाहिये, की रट लगी ही रहती है. जीवन की आवश्यकताओं को तो पूरा किया जा सकता है, किन्तु संतोष नहीं रहने से लोभ जब तृष्णा बन जाता है, तो उसकी पूर्ति नहीं की जा सकती है. फिर ईर्ष्या का बिच्छू डंक मारने लगता है. किसी दूसरे को अपने से आगे बढ़ता देख कर मन में हिंसा, जलन होने लगता है. पर-निन्दा, पर-चर्चा करने से मन में ईर्ष्या का बीज पड़ जाता है, जिसके दंशन से मन हमेशा छट-पट करता रहता है. अब जो आगे बढ़ गया उसको किसी भी तरह नीचे करके ही दम लूँगा- ऐसा अहंकार रूपी भूत भी सवार हो जाता है. इसीलिये मन अतरिक्त चंचल बना रहता है. ऐसे बिल्कुल चंचल मन को कैसे शान्त कर पायेंगे ? 
इसके लिये तो पहले कामना-वासना, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या आदि मन के विकारों पर विजय प्राप्त करना होगा. इन शत्रुओं को पराजित करने का उपाय है- लालच को कम करते हुए नित्य अभ्यास करना. इसी कौशल को सीख लेना होगा. 
==============



 

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

शिक्षा क्या है ? शिक्षा का सार है -"अच्छा मनुष्य बनना "

" शिक्षा का आदर्श है, साधन (मन) को योग्य बनाना" 
महामण्डल द्वारा जो चरित्र-गठन एवं मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन विगत ४४ वर्षों से चलाया जा रहा है, उसके अन्तर्गत मनः संयोग के विषय का प्रशिक्षण ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि इसी विषय को सीखने से अच्छा मनुष्य बना जा सकता है.  
स्वामी विवेकानन्द प्रचलित शिक्षा-प्रणाली को भ्रान्त महसूस करते हुए कहते हैं- " वर्तमान शिक्षा प्रणाली पुर्णतः दोषपूर्ण है, चिन्तन शक्ति का विकास होने के पूर्व ही मस्तिष्क में बहुत सी बातों को भर दिया जाता है. मन के संयम की शिक्षा पहले दी जानी चाहिये.यदि मुझे अपनी शिक्षा फिर से प्रारम्भ करनी हो, और उसमे कुछ मेरी भी चले, तो मैं सर्वप्रथम अपने मन का स्वामी बनना सीखूंगा और तब यदि मुझे आवश्यकता होगी, तो ही तथ्यों का संग्रह करूँगा. (८:१४४)"
" शिक्षा का आदर्श है, साधन (मन) को योग्य बनाना,(अर्थात भैंसे जैसी मोटी अकल को सूक्ष्म बना लेना) और अपने मन पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करना. यदि किसी विषय पर मन को केन्द्रित करना चाहूँ, तो उसे वहाँ जाना चाहिये, और जिस क्षण कहूँ, वह पुनः मुक्त हो जाये.लोगों को सीखने में बहुत देर लगती है, क्योंकि वे अपने मन को इच्छानुसार एकाग्र नहीं कर पाते.(४:१५७)"
" To me the very essence of education is concentration of mind, not the collecting facts. If I had to do my education over again, and had any voice in the matter, I would not study facts at all, I would develop the power of concentration and detachment, and then with a perfect instrument I could collect facts at will. (4:38-39)       
इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वामी विवेकानन्द मन के ऊपर नियन्त्रण करने, उसे एकाग्र करने और उस पर प्रभुत्व प्राप्त करने को ही यथार्थ शिक्षा कहते थे. वर्तमान शिक्षा पद्धति में हमलोग केवल तथ्यों को रट लेते हैं, तथा उसको संग्रहित रखने को शिक्षा कहते हैं, परन्तु उसमे निहित भावों (ज्ञान) को आत्मसात नहीं कर पाते हैं, जिसके कारण हमलोग बदहजमी का शिकार हो जाते हैं. स्वामी विवेकानन्द भारत का भविष्य नामक भाषण में कहते हैं- " शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूँस दी जाएँ कि मन में अन्तर्द्वन्द्व चलने लगे, और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर पचा न सके. जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र गठन कर सकें और उसमे निहित भावों को आत्मसात कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है. यदि तुम पाँच ही भावों को पचाकर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित कर सके हो, तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी कि अपेक्षा बहुत अधिक है, जिसने एक पूरे पुस्तकालय को कंठस्त कर रखा है...यदि बहुत तरह की तथ्यों का संचय करना ही शिक्षा है, तब तो ये पुस्तकालय संसार में सर्वश्रेष्ठ मुनी हैं और विश्वकोष ही ऋषि हैं !"(५:१९५) 
" Education is not the amount of information that is put into your brain and runs riot there, undigested all your life. If you have assimilated five ideas and made them your life and character, you have more education than any man who has got by heart a whole library. " (3:302) 
शरीर को हृष्ट-पुष्ट रखने के लिये, हमलोग पौष्टिक आहार खाते हैं, परन्तु यदि हम उन्हें पचा नही सकें तो हमारा शरीर भी स्वस्थ नहीं रहेगा. उसी तरह वर्तमान शिक्षा व्यवस्था (स्वाधीन भारत की ६३ वर्ष बाद भी कोई राष्ट्रीय शिक्षा नीति नहीं है.) के फलस्वरूप हमलोग बदहजमी से पीड़ित समाज के रूप में परिणत हो गये हैं. जरा सुनिए इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द स्वाधीनता प्राप्ति से ५० वर्ष पूर्व क्या कहते थे-  " कुछ डिग्रियाँ प्राप्त कर लेने य़ा अच्छा भाषण दे सकने से ही क्या किसी व्यक्ति को शिक्षित कहा जा सकता है ? जो शिक्षा साधारण व्यक्ति को जीवन-संग्राम में समर्थ नहीं बना सकती, जो मनुष्य में चरित्र बल, पर-हित भावना तथा सिंह के समान साहस नहीं ला सकती, वह भी कोई शिक्षा है ? जिस शिक्षा के द्वारा जीवन में अपने पैरों पर खड़ा हुआ जाता है, वही शिक्षा है. आजकल के इन सब स्कूल कालेजों में पढ़ कर तुम लोग न जाने बदहजमी के रोगियों की कैसी एक जमात तैयार कर रहे हो. केवल मशीन की तरह परिश्रम कर रहे हो और ' जायस्व- म्रियस्व ' के साक्षी रूप में खड़े हो!" (६:१०६)
जिस व्यक्ति को अनपच हो जाता है, पेट में गैस हो जाने से, उसको बहुत कष्ट होता है. उसी तरह नई कक्षा में जाते ही पुस्तकों की एक तालिका दे दी जाती है और चेष्टा की जाती है कि सारी पाठ्य-पुस्तकों को रट कर दिमाग में ढूका लेंगे और परीक्षा के दिन उस विषय को उगल देंगे. इसीलिये बदहजमी के शिकार व्यक्ति के जैसा, परीक्षा के समय हमलोगों का मन अत्यन्त उद्विग्न हो जाता है. और रोज एक-एक विषय के अनपचे तथ्यों को उगलते उगलते क्रमशः मन हल्का होता जाता है, अन्तिम परीक्षा के रोज मन बहुत हल्का और शान्त महसूस करता है. ठीक उसी प्रकार जैसे बदहजमी हो जाने पर सब उलटी हो जाने के बाद शान्ति महसूस होती है.
स्वामीजी के अनुसार- " शिक्षा का अर्थ है-मानसिक शक्तियों का विकास- केवल शब्दों को रटना भर नहीं, अथवा इसे व्यक्तियों को दक्षता पूर्वक ईच्छा करने (विवेक-प्रयोग के बाद ही मन-वचन-कर्म से कुछ करने) का प्रशिक्षण देना कह सकते हैं." (४:२६८) 
स्वामीजी ने प्रचलित शिक्षा-प्रणाली कि कमियों को दूर करने का प्रशिक्षण अपने गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस से सीखा था. और कहते थे अगर मुझे पुनः शिक्षा ग्रहण करनी पड़े तो मैं सबसे पहले अपने मन को इच्छानुसार - नियन्त्रित और एकाग्र करने की शिक्षा ग्रहण करूँगा. क्योंकि भावों के आत्मसातीकरण को ही शिक्षा कहते हैं. यदि कोई व्यक्ति सारा पुस्तकालय ही क्यों न कंठस्त कर ले, और कोई केवल पाँच भावों को ही आत्मसात करे- तो उसे ही अधिक शिक्षित माना जायेगा. स्वामी विवेकानन्द कहते थे- भावों को आत्मसात कर लेने में दक्ष हो जाना ही शिक्षित होने का प्रमाण है.
यदि यथार्थ शिक्षा व्यवस्था का अनुशरण किया जाय तो बचपन के समय से ही जब हमलोग वर्ण-परिचय से - क,ख,ग,य़ा अ,आ,इ,ई से पढ़ाई शुरू करते हैं, फिर दो अक्षर के शब्द के बाद तीन अक्षर के शब्दों को पढना लिखा सीख जाते हैं तब वाक्य-लिखना सिखया जाता है. बचपन में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा लिखित वाक्य-विन्यास की पुस्तिका से पढ़ाई शुरू की जाती है. उनकी पुस्तिका में छोटे-छोटे वाक्यों में जो महत भाव दिये गये हैं, हमलोग उसे भी आत्मसात करना सीख सकते हैं. पहला वाक्य जो हमे लिखना सिखया जाता है वह है-" सदा सच बोलना चाहिये ." अथवा " झूठ बोलने से बचना ही उचित है ." इस छोटे से वाक्य में दिये गये भाव को आत्मसात करने की पद्धति को सीख कर हमलोग सत्यवादी मनुष्य में परिणत हो सकते हैं. 
राजनीति विज्ञान के छात्र परीक्षा के समय पुस्तक में लिखे ' प्रबुद्ध नागरिकों के गुण ' के बारे में पढ़ कर उसे रट लेते हैं, कि उनमे कौन कौन से गुण होने चाहिये; फिर उसीको उत्तरपुस्तिका में लिख देते हैं तो उनको २०/२० अंक मिल जाते हैं.परन्तु अपने व्यक्ति-जीवन में तुम यदि दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते हो, तब तुम्हारे आचरण से ही यह प्रकट हो जाता है कि भले तुमको पोलिटिकल साइंस में फर्स्ट क्लास मिल जाये किन्तु तुमने किसी योग्य नागरिक य़ा प्रबुद्ध नागरिक में रहने वाले गुणों को, उसके सत भावों को आत्मसात नहीं किया है. 
उसी तरह बचपन में सीखे गये उस छोटे से वाक्य में निहित आन्तरिक भाव को ग्रहण करके यदि मैं सत्यवादी मनुष्य नहीं बन सका तो मेरी शिक्षा अधूरी ही है. पर यदि मै इस वाक्य में निहित सत्य कि उपयोगिता को समझ कर अपने जीवन में धारण करके सत्यवादी मनुष्य बन सकता तो मेरी शिक्षा सम्पूर्ण हो जाती. मुझे तभी एक शिक्षित मनुष्य कहा जा सकता था. परन्तु मैंने किसी सत-नागरिक में कौन कौन से गुण रहने चाहिये उसे रट कर परीक्षा में लिख दिया और डिग्री मिल गया पर उन भावों को यदि मैं स्वयं भी अपने जीवन में भी धारण कर लेता तो आज हमारे नागरिकों में जितने असत भाव दिखाई दे रहे हैं, उतना तो नहीं होता.  
हमारे देश के १० करोड़ नागरिकों में से १० के भीतर भी प्रबुद्ध-नागरिकों में जितने सारे सदगुण रहने चाहिये उतने गुण नहीं हैं. हमलोगों कि शिक्षा व्यवस्था में योग्य नागरिक बनने का प्रशिक्षण देने का कोई प्रावधान ही नहीं है, इसिलए अधिकांश देश-वासी योग्य-नागरिक बनने से वंचित रह जाते हैं. शिक्षा की सार बात है, मन के ऊपर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त कर लेना. मैं अपने मन को जो भी आदेश दूँ उसे तत्काल मेरी आज्ञा का पालन करना चाहिये, मैं उसे जब चाहूँ विषयों से खींच कर अपनी ईच्छा और प्रयोजनीयता के अनुसार जहाँ चाहूँ एकाग्र रखने में समर्थ बन जाऊं तभी मेरी शिक्षा पूर्ण कही जा सकती है.
किन्तु  वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में केवल माध्यमिक,उच्च माध्यमिक की परीक्षा में अच्छा अंक लाना, डिसटिंकसन प्राप्त करके डाक्टर,इंजीनियर य़ा बहुत हुआ तो आई.ए.एस  बन जाना ही हमारी शिक्षा का उद्देश्य रह गया है.
किन्तु आज की मानव सभ्यता में जितना भी विकास दिखाई दे रहा है, वह सब मन की शक्ति के द्वारा ही सम्भव हुआ है. हमारे मन के भीतर जो अनन्त शक्ति है, उसीको उपयोग में लाकर हमने बाह्य प्रकृति को नियंत्रि करके अपने अनुकूल और उपयोगी बना लिया है. २१वीं शदी आते आते विश्व-सभ्यता इतनी अधिक उन्नत हो गयी है कि सारी पृथ्वी की भौगोलिक दूरी सिमट गयी है और पूरा विश्व एक ग्राम जितना छोटा प्रतीत होता है. 
सर्दी के दिनों में रूम हीटर, पानी गर्म करने का गीजर आदि का निर्माण, गर्मी के दिनों में जब तापमान ५० डिग्री तक बढ़ जाता है, वातावरण में गर्म लू चलने लगती है, तब हमलोग वातानुकूल यन्त्र ए.सी./फ्रिज बना कर उसे भी अपने अनुकूल कर लिये हैं.हजारों किलोमीटर की यात्रा चन्द घंटों में पूरी करके पृथ्वी के एक सीरे से दूसरे सीरे तक जा पहुँचते हैं.यदि माइक का अविष्कार न हुआ होता, तो किसी विशाल सभा कक्ष में कोई भी शैक्षणिक सत्र नही चल सकता था. प्रतिदिन मनः संयोग का अभ्यास करने के लिये जब अमृत-वेला में उठते हैं, उस समय भी अँधेरा ही रहता है, यदि बिजली का आविष्कार न हुआ होता तो तैयार होकर अभ्यास करना भी सम्भव न होता.
वर्तमान समय में हमलोग ये सब जितने आधुनिक आविष्कार माईक,पंखा, ए.सी., हीटर, आदि देख रहे हैं वह सब आदिम युग के मानवों के पास नहीं था. कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर कहते हैं- सृष्टि के आदि में विधाता बार-बार प्राकृतक आपदाएं भेज-भेज कर इस सृष्टि को पुनः पुनः रचते और भंग करते रहते थे. मनुष्य प्रकृति के सामने बिलुल असहाय अवस्था में था. परन्तु आज हमलोग क्रमशः जल,वायु,अग्नि, आदि प्राकृतिक शक्तियों को नियन्त्रण में रखना सीख कर बहुत प्रगति कर लिये हैं, हमारा रहन सहन, हमारी सभ्यता पहले से बहुत विकसित हो चुकी है. यह सारी उन्नति केवल मन की शक्तियों को कार्य में लगाने से ही प्राप्त हो गयी है. 
न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण की शक्ति का आविष्कार कैसे किया ? उन्होंने जब सेव को पेड़ से टूट कर नीचे गिरते देखा तो विचार करने लगे, स्वयं से प्रश्न पूछने लगे- ' गिरने के बाद सेव ऊपर क्यों नहीं गया,  नीचे क्यों जाता है ? इसी प्राकृतिक घटना के ऊपर उन्होंने अपने मन को एकाग्र किया और इसके पीछे जो सत्य (प्राकृतिक नियम) था उसको आविष्कृत कर लिया- तथा इस प्रकार Law of Gravitation नामक यह नया सत्य उदघाटित हो गया. उसी प्रकार सभ्यता की सारी उन्नति मन की शक्ति को प्रयोग में लाने से ही सम्भव हुई है. बाह्यप्रकृति में घटने वाली घटनाओं को देखने के बाद मनोयोगपूर्वक उसका विश्लेषण करने से उसके नियम उदघाटित हो जाते हैं, फिर उन्हें अपनी प्रयोजनीयता के अनुसार उनका कुशल प्रयोग करके उस सत्य य़ा प्राकृतिक-शक्ति (LAW धम्म) को अपने अनुकूल बना लेते हैं. इस प्रकार हम देख सकते हैं कि सारे वैज्ञानिक आविष्कार मन की शक्ति से ही होते हैं.      
अतः अब हमलोग अपने मन की शक्ति को व्यर्थ में बर्बाद नहीं होने देंगे, हमारे मन में जो अनन्त शक्ति अन्तर्निहित है, उसे हम किसी भी विषय पर लगा कर उसका समस्त ज्ञान अर्जित कर सकते हैं और खुद को अधिक शक्तिशाली बना सकते है. जब हम किसी भी कार्य को पूरी एकाग्रता के साथ करना सीख जायेंगे, तो हमे जीवन के हर क्षेत्र में असीम सफलता प्राप्त हो सकेगी. अतः महामण्डल के किसी भी नजदीकी केन्द्र से महामण्डल द्वारा प्रकाशित पुस्तिका मनः संयोग को खरीद कर और उसका अभ्यास करके हमे मन को एकाग्र करने की पद्धति सीख लेनी चाहिये.
=================

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

धर्म क्या है ? 2 G स्‍पेक्‍ट्रम ?



न्यायाधीश जी.एस. सिंघवी और न्यायाधीश ए.के. गांगुली की पीठ ने कहा, " 2G स्‍पेक्‍ट्रम के आवंटन में उचित प्रक्रिया नहीं अपनाने से सरकारी खजाने को करीब 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपये  का नुकसान हुआ। देश के अन्य सभी घोटालों की राशि देखने पर उतनी शर्मिदगी नहीं आती कि जितनी कि आवंटन घोटाले की राशि पैदा कर रही है।"  2G घोटाले में शामिल राशि की मात्रा को देखते हुए सर्वोच्चा न्यायालय ने कहा कि अन्य सभी घोटालों की राशि मिला देने पर भी यह घोटाला उस राशि पर भारी प़डेगा। 
स्पेक्ट्रम घोटाला मामले की जेपीसी से जांच कराने की मांग पर सरकार और विपक्ष के बीच गतिरोध के चलते ही संसद का पूरा सत्र सोमवार (१३ दिसम्बर २०१०)  को समाप्त होने जा रहा है। इसी के साथ पूरे सत्र के दौरान एक भी दिन कामकाज नहीं हो पाने का देश के संसदीय इतिहास में एक रिकॉर्ड बन जाएगा।  किन्तु चाहे सत्ता पक्ष हो य़ा विपक्ष दोनों में से कोई भी पक्ष यह बता पाने में असमर्थ है किआखिर इस सुरसा के मुख के समान दिनों-दिन फैलते हुए इस 'सर्वव्यापक' भ्रष्टाचार से मुक्ति पाकर भारत माता को पुनः उसके गौरवशाली सिंहासन पर आरूढ़ किस प्रकार कराया जा सकता है?
आखिर हमारे इस विश्व के के सबसे बड़े लोकतंत्र के समक्ष यह किंकर्तव्य विमूढ़ कर देने वाली अवस्था क्यों आ गयी है ?यह इसीलिये है कि हमारी जनता ने जिनके हाथों में संसद का पक्ष और विपक्ष चलाने की जिम्मेदारी सौंपी है, उन दोनों पक्षों के शीर्ष पर बैठे नेताओं में से किसी ने भी भारत के महान देशभक्त युवा नेता ऋषि स्वामी विवेकानन्द द्वारा १०० वर्ष पूर्व ही आविष्कृत " भारत पुनर्निर्माण सूत्र " - ' Be and Make'  को समझने का प्रयास ही नहीं किया है.
आइये यहाँ हमलोग यह समझने का प्रयास करते हैं कि आखिर इस छोटे से सूत्र को समझ लेने से ही भारत माता को इस भ्रष्टाचार दुराचार के दल-दल से निकाल कर, कैसे एकबार पुनः उसे अपने गौरवशाली सिंहासन पर आरूढ़ कराया जा सकता है? अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि Robert Browning (१८१२-१८८९) की एक प्रसिद्ध उक्ति है- 

" Progress, man’s distinctive mark alone, 
Not God’s, and not the beasts’: 
God is, they are, 
Man partly is and wholly hopes to be."  

- " विकास करना केवल मनुष्य योनी की विशिष्ट पहचान है, यह विशिष्टता न तो देवताओं में है और न तो पशुओं में ही, क्योंकि देवता और पशु तो पहले से ही हैं (उनको पशु बनने के लिये कहना नहीं पड़ता है).किन्तु मनुष्य अभी अधुरा है, 'अंश' है, तथा वह ' पूर्ण-मनुष्य ' बन जाने की सम्भावना रखता है!" 
पशु लोग जिस अवस्था में जन्म लेते हैं, उसी अवस्था में बूढ़े होकर मर जाते हैं. परन्तु मनुष्य जिस अवस्था में जन्म लेता है, बूढ़े हो जाने तक भी वह उसी अवस्था में नहीं रहता.वह चाहे तो विद्या सीख कर अपना चारित्रिक विकास कर सकता है, और पशु-मानव से देव-मानव में उन्नत होने के बाद अपने शरीर का त्याग कर सकता है. यह ठीक है कि जन्म के समय मनुष्य अपूर्ण रहता है.
 एक अबोध शिशु के रूप में वह पैर के अंगूठे को मुख में डाल कर चूसता रहता है. किन्तु उस अवस्था में भी मनुष्य मात्र के भीतर 'पूर्णत्व' क्रमसंकुचित अवस्था में विद्यमान रहता है. यही पूर्णत्व पशुयोनियों में भी क्रमसंकुचित रहती है, किन्तु वहाँ इस पूर्णता को अभिव्यक्त करने की विद्या सीखने के लिये अनुप्रेरित करने वाला 'विवेक' सम्पन्न परिष्कृत 'अंतःकरण' नहीं रहता. 
किन्तु मनुष्य के पास वैसा एक परिष्कृत अंतःकरण है, जो अपने मिथ्या अहंकार को हटा कर शिष्य बन सकता है, तथा अपने अन्तर्यामी गुरु से श्रेय और प्रेय के बीच विवेक करना सीख लेता है. और वह विवेकी मनुष्य केवल ' प्रेय ' ( आहार, निद्रा, भय, मैथुन ) में ही लिप्त रहकर पशुओं के जैसा मर जाने को बाध्य नहीं होता. इसी विवेक के निर्देशन में, स्वयं अपने पुरुषार्थ से वह 'अंश' से ' पूर्ण ' जाता है ! 
इसी प्रकार अंश से पूर्ण-मनुष्य बन जाने का आह्वान करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " Be " तथा उपाय बताया था- " Make "! अर्थात तुम ' स्वयं मनुष्य बनो तथा दूसरों को भी मनुष्य बनने में साहायता करो' | 
तथा विशेष रूप से युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था- " चरैवेति ! चरैवेति !!"  अर्थात मनुष्य बनने और बनने का प्रयास तबतक निरन्तर करते रहो, जब तक यह चरित्र-निर्माणकारी और मनुष्य निर्माणकारी विद्या (शिक्षा) एक आन्दोलन के रूप में भारत के गाँव गाँव तक नहीं फैल जाय - तुम विश्राम मत लो !
वे कहते थे- " Arise ! Awake !! and stop not till the goal is reached ."" उठो ! जागो !! और लक्ष्य प्राप्त होने तक विश्राम मत लो !" यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है, तथा यही भ्रष्टाचार रूपी कैंसर से छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय है. कहा गया है-
" आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत पशुर्भी नराणाम |
    एको ही तेषाम अधिको विशेषो धर्मेण हीनः पशुर्भी समानः ||"
पशु से मनुष्य में अन्तर कहाँ आता है ? मनुष्यों को एक विशेष वस्तु ईश्वर की ओर से प्राप्त है जिसको 'धर्म' कहा जाता है. यह धर्म जिस मनुष्य के जीवन में नहीं उतरा है, वह तो पशु के समान ही है. किन्तु यह 'धर्म' क्या है ? 
इसके बारे में महामण्डल के अध्यक्ष श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय (नवनी दा) कहते है- " यदि एक लाख मनुष्यों में से एक मनुष्य भी यह समझ लेता है कि धर्म क्या है, तो बहुत कहा जायेगा. अधिकांश लोग अपने अपने मन के अनुसार सोंच कर, मनमाने ढंग से धर्म की कोई परिभाषा य़ा धारणा गढ़ लेते हैं; तथा 
' धर्मावलम्बी ' होने को ' मतावलम्बी ' होने का पर्यायवाची मान कर धर्म के नाम पर एक दूसरे के साथ लड़ते-झगड़ते रहते हैं, दंगा-फसाद करने पर भी उतारू हो जाते हैं." महाभारत में कहा गया है- 

श्रुतिर्विभिन्ना स्मृतयो विभिन्नाः,
नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् ।
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां ,
महाजनो येन गतः सः पन्थाः ॥
- महाभारत
अर्थ- वेद और धर्मशास्त्र अनेक प्रकार के हैं । कोई एक ऐसा मुनि नहीं है जिसका वचन प्रमाण माना जाय । अर्थात् श्रुतियों,स्मृतियों, और मुनियों के मत भिन्न-भिन्न हैं । धर्म का तत्व अत्यंत गूढ है- वह साधारण मनुष्यों की समझ में नही आ सकता । ऐसी दशा में , महापुरूषों ने - जिस मार्ग का अनुकरण किया हो , वहीं धर्म का मार्ग है, उसी को अपनाना चाहिए ।
" धारणात धर्मः ईति आहू- स धर्म ईति निश्चयः "
धर्म उसे कहते हैं, जो हमारे मनुष्यत्व बोध को धारण करता है. अर्थात अपने आचरण और व्यवहार में जिस गुण ( श्रेय-प्रेय विवेक से उत्पन्न निःस्वार्थपरता ) को धारण करने के कारण ही हम मनुष्य कहलाने योग्य बनते हैं, उसे ही धर्म कहा जाता है. 
जब इस सर्व-श्रेष्ठ मनुष्य शरीर में जन्म हो गया जिसमे ' विवेक ' हमारी विशिष्ट पहचान (Distinctive Mark ) है, तब हमे फिर पशु जैसा जीवन न बिताकर, इस " देवदुर्लभ विवेक " को सदा जाग्रत रखते हुए, इसे बढ़ाते जाना है और 'अंश' (पशुमानव) से 'पूर्ण'(देवमानव) में रूपान्तरित हो जाने तक विश्राम नहीं लेना है.    
 धर्म को जीवन में धारण करने य़ा ' धर्मावलम्बी ' होने का अर्थ- त्रिपुण्ड धारण करना अथवा रामनामी चादर ओढ़ कर मन्दिर-मन्दिर मत्था टेकते रहना.य़ा हर शुक्रवार को मस्जिद जाकर नमाज पढ़ लेना अथवा सन्डे-सन्डे गिरिजा में जाना और - अपने अपने घर वापस आने के बाद फिर वैसा ही पशुओं जैसा जीवन जीना नहीं है. 
धार्मिक मनुष्य होने का दावा करने के बाद भी अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिये देश की य़ा दूसरों की क्षति करने वाला पशुमानव बने रहने को धर्म नहीं कहा जाता है.इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते थे- " यदि धार्मिक कर्म-कांडों में (या घुटनों की कवायद) में ही जीवन भर अटके रहने को धर्म समझते हो, तो उससे अच्छा यह होगा कि घड़ी-घन्टा को गंगाजी में बहा दो, और पण्डित-मौलवी को बंगोपसागर में डुबो दो. "
हमलोग आज जो इतने सारे मन्दिर गली-गली में देख रहे हैं, वैसा वैदिक युग में नहीं था.तब इतने अधिक मन्दिर और मूर्तियाँ नहीं हुआ करती थीं, यह सब तो बाद में आ गये हैं. पूर्व काल में भारत के लोग अपने ह्रदय-मन्दिर में ही 'भगवान' को प्रतिष्ठित करने की विद्या जानते थे, इसीलिये उन दिनों भगवान का दर्शन करने के लिये मन्दिर-मन्दिर जाने की प्रथा भी नहीं थी. सभी शरीरों को ही देवालय कहा जाता था- ' देहो देवालय प्रोक्तः '!  
सभी शरीरों के भीतर ' आदिगुरु ' (ब्रह्म) ही अन्तर्यामी होकर विराज रहे हैं, उस समय ऐसा विश्वास था कि भगवान श्रीराम अपने ह्रदय रूपी अयोध्या में ही विद्यमान हैं. सभी मनुष्यों में आदि गुरु के रूप में ब्रह्म ही विद्यमान हैं, कण-कण के भीतर श्रीराम ही रम रहे हैं, कण-कण में राम ही परिव्याप्त हैं. कोई भी वस्तु जड़ नहीं है सबकुछ चैतन्य ही है. 
 इसी बात को आज विज्ञान इस तरह कहता है- E = M (energy-matter equation ) य़ा पदार्थ (matter) भी ऊर्जा (energy) का ही रूपान्तरण है ! यह बोध किन्तु विज्ञान को भी आइन्स्टीन से पहले नहीं हुआ था.दूसरे मतावलम्बियों में भी यह बोध- (आत्मवत सर्वभूतेषु) बहुत देर के बाद, श्री रामकृष्ण परमहंसदेव के द्वारा ' सर्वधर्म समन्वय ' की साधना को सम्पन्न कर लेने के बाद ही आया था. 
 स्वामीजी कहते हैं- ' Be and Make ' ! क्या बनना है? जो हम यथार्थ में हैं, वही बनना है.जब हम मनुष्य शरीर प्राप्त कर लिये हैं तो विवेक-विचार रहित जड़ पशुओं के समान जीवन बीता कर मर नहीं जाना है, इसी जीवन में यथार्थ मनुष्य बन जाने के बाद ही इस शरीर का त्याग करना है.
किन्तु अज्ञानता वश हमलोग चरित्र-गठन की प्रक्रिया को जीवन में अपना कर - 'मनुष्य बनने और बनाने ' के बजाय, मनुष्य-निर्माण कारी शिक्षा को गाँव गाँव तक फ़ैलाने के बजाय; मनुष्य निर्माण करने के बदले मन्दिर- मस्जिद का निर्माण करने के लिये आपस में मुकदमा लड़ते हैं य़ा दंगा-फसाद करते हैं, और सोंचते हैं हम धर्म कर रहे हैं. 
मन्दिर-मस्जिद बनाने में कोई खराबी नहीं है, यदि हमलोग वहाँ से आने के बाद भी मनुष्य ही बने रहें तथा दूसरे मतावलम्बियों को भी अपने ही जैसा एक मनुष्य समझ कर उनसे घृणा नहीं करें, तथा मन,वचन, कर्म से दूसरों की थोड़ी भी क्षति पहुँचाने की चेष्टा न करें. इंग्लैण्ड में अभी केवल १६ % लोग ही चर्च में जाते हैं, बाकी बचे ८४%  धर्म क्या है इसे समझने के लिये भारत की तरफ देख रहे हैं.
क्योंकि जो व्यक्ति वास्तव में धर्म क्या है इसे जान जायेगा, फिर वह विभिन्न मतावलम्बियों से अपने के बीच कोई भेदभाव नहीं देख पायेगा. तब उसे यह ज्ञात हो जायेगा कि सभी तरह की क्षूद्र संकीर्णता, स्वार्थपरता, असम्पूर्णता को पीछे छोड़ कर पूर्ण हो जाना ही धर्मावलम्बी होना है. ' अंश ' से पूर्ण हो जाना, बिन्दु से सिन्धु बन जाना यही धर्म का सार है. 
ऐसा मनुष्य बनने और बनाने से ही मानव जाति का मंगल हो सकता है. भ्रष्टाचार, आतंकवाद, भय-भूख, आदि जितनी भी समस्यायों से आज देश जूझ रहा है, उन सबों का निराकरण  केवल मनुष्य बनने से ही हो सकता है. इसीलिये दूसरों को कोसना छोड़ कर, आइये पहले हमलोग इस मनुष्य निर्माण आन्दोलन - ' Be and Make ' से जुड़ जाएँ !           


सोमवार, 22 नवंबर 2010

'श्रवण-मनन-निदिध्यासन' के लिए - महामण्डल का साप्ताहिक पाठचक्र -' Study Circles'


(महामण्डल का साप्ताहिक "शैक्षिक-सत्र ")
जिस किसी भी स्थान में महामण्डल का एक केन्द्र होता है, वहाँ पर सप्ताह में कम से कम एक पाठचक्र तो अवश्य ही होता है. भले ही हम इसको एक ' पाठचक्र ' की संज्ञा देते हों, किन्तु यह केवल एक चिन्तन गोष्ठी ही नहीं है;बल्कि यह उन समस्त स्थानीय युवाओं की मिलन-स्थली भी है जो महामण्डल के सिद्धान्तों (चरित्र-निर्माण आन्दोलन के प्रचार प्रसार ) में उत्कट अभिरुचि रखते हैं| क्योंकि इसका मूख्य उद्देश्य केवल पढ़ाकू बनना और बनाना ही नहीं है.
जब वे अनूठे देश-प्रेमी युवा (जो भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच में गाल पर तिरंगे का चित्र बनवाने को ही देश भक्ति नहीं समझते ) बल्कि - जो स्वामी विवेकानन्द के भारत पुनर्निर्माण मन्त्र -'तुम स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में साहायता करो'  को ही अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य निर्धारित कर चुके हैं; एक साथ इकट्ठे होते हैं, तो उनको यह अनुभव होता है कि महामण्डल के सिद्धान्तों (Be and Make आदि) को अपने जीवन में धारण करने के अभियान में वे बिल्कुल एकाकी नहीं हैं | 
वे यहाँ आकर अपने जैसे दूसरे युवा भाइयों के साथ मित्रता के इस अनूठे बन्धन को भी ह्रदय से महसूस करते हैं. प्रत्येक सप्ताह यहाँ पहुँच कर वे अपने नेता स्वामी विवेकानन्द के उत्साह-अग्नि से अपने ह्रदय को फिर से चार्ज कर लेते हैं.
महामण्डल वैसे लोगों की संस्था नहीं है- जो सन्यासी बन चुके हों य़ा जिन लोगों ने जगत का परित्याग कर दिया हो;बल्कि यह उन साधारण युवाओं के लिये है जो समाज के अन्य साधारण गृहस्थ लोगों के जैसा ही अपने घर-परिवार के बीच निवास करते हैं.
किन्तु एक अन्तर अवश्य है- वे लोग (अन्य साधारण कैरियरिस्ट युवाओं की तरह केवल अपने ही बारे में नहीं सोंचते बल्कि) मनुष्य-जीवन का अर्थ एवं अपने समाज की ज्वलंत आवश्यकताओं को समझने के लिये प्रयासरत रहते हैं, तथा उसी समझ के आलोक में अपना जीवन गठित करने के लिये कठोर परिश्रम भी करते हैं.
वे लोग भी दूसरे सामान्य युवाओं की तरह ही विद्यालय तथा महाविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करते हैं, तत्पश्चात अपनी जीविका चलाने के लिये किसी न किसी व्यवसाय से जुड़ जाते हैं. बावजूद इसके वे उन साधारण किस्म के युवाओं (जो महामण्डल को नहीं जानते ) की तरह नहीं होते, क्योंकि वे सामान्य कोटि के युवाओं की अपेक्षा कुछ हद तक कठिन जीवन शैली को चुनना पसन्द करते हैं. 
अपने जीवन की - ' प्रत्येक गतिविधि ' में उनको एक आदर्श का अनुसरण करना पड़ता है.अतः स्वाभाविक रूप से उनको ज़माने के प्रवाह के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ता है.
इसीलिये उनको अपनी जीवन-यात्रा का प्रारम्भ अपने जीवन लक्ष्य (निशाना)  की स्पष्ट धारणा बनाने के बाद ही करनी चाहिये. भारत के पुनर्निर्माण के लिये राष्ट्र-व्यापी स्तर पर जैसा युवा-आन्दोलन चलाने का स्वप्न स्वामी विवेकानन्द ने देखा था, उनके उसी सपने को महामण्डल कार्यान्वित करना चाहता है- वही स्वप्न क्रमशः इन युवाओं के मन में भी बस जाना चाहिये.
यह साप्ताहिक पाठचक्र, विवेकानन्द साहित्य के अध्यन एवं बोधगम्य परिचर्चा के माध्यम से उनलोगों में  ऐसे मनोभाव को विकसित करने में सहायता करता है. साप्ताहिक पाठचक्र में क्या अध्यन करना अच्छा रहेगा, इसका चुनाव युवाओं को खुद से करना उतना आसान नहीं भी हो सकता है.इसीलिये महामण्डल पाठचक्र के लिये छोटी छोटी चुनिन्दा पुस्तिकाओं (महामण्डल का उद्देश्य और कार्यक्रम, एक युवा आन्दोलन, नेतृत्व का अर्थ एवं गुण, जीवन-गठन, चरित्र गठन, मनः संयोग आदि ) से अध्यन करने का परामर्श देता है.
ये पुस्तिकाएँ ही हमारे उद्देश्य तक ले जाने के लिये यथेस्ट हैं. हमलोगों को इन पुस्तिकाओं का गहराई से बार बार अध्यन करना चाहिये, एवं उनके मूल-विषय पर चिन्तन-मनन भी करना चाहिये. इसप्रकार उन सिद्धान्तों को हम समझ जाते हैं, तथा तब हम उनको अपने जीवन में उतार भी सकते हैं. 
इस प्रकार वे समस्त श्रेष्ठ सिद्धान्त जो स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुष (सदगुरु ) के मुख से निःसृत हुई हैं,इन महामण्डल पुस्तिकाओं के माध्यम से  हमारे समक्ष सहज रूप में उपलब्ध हो जातीं हैं.किसी भी महान और कल्याणकारी ज्ञान को तीन चरणों में आत्मसात (य़ा जीवन में धारण किया) जा सकता है।
  पहला है - " श्रवण "(य़ा Study Seriously), 
दूसरा है-   " मनन "(य़ा Think deeply and freely), 
एवं तत्पश्चात " निदिध्यासन " (य़ा Apply - 'put them into practice ') 
केवल साहित्यिक ज्ञान तुमको एक पण्डित तो बना सकता है, किन्तु न तो यह तुम्हारे जीवन को बदल सकता है, और न ही किसी विशिष्ट विषय की स्पष्ट अवधारणा ही प्रदान कर सकता है. यदि हम सभी लोग, खास तौर पर वे जो पाठचक्र का नेतृत्व करना चाहते हैं, यदि स्वयं अपने दैनन्दिन जीवन में स्वामीजी की वाणी को उपरोक्त विधि (तीन चरणों में ) से आत्मसात करने के लिये गंभीरता के साथ प्रयासरत रहते हों,केवल तभी हमारा पाठचक्र पर्याप्त उत्साह एवं जीवन्त अंदाज के साथ जारी रह सकता है.
केवल इतना ही नहीं, हमारे अन्दर विकसित मनुष्योचित गुणों से प्रभावित होकर, तब बहुत से नवागन्तुक भी इस ओर आकर्षित होंगे, उनमे भी यथोचित समझदारी का विकास होगा तथा वे स्वयं भी इस कार्य (मनुष्य-निर्माण आन्दोलन) में योगदान करने के लिये स्वेच्छा से जुट जायेंगे.
पाठचक्र में चलने वाली परिचर्चा इतनी स्पष्ट होनी चाहिये कि वहाँ उपस्थित सारे युवा उसको पकड़ सकें. वहाँ पर जो कोई भी सिद्धान्त/ज्ञान/ य़ा जानकारी युवाओं के समक्ष प्रस्तुत किये जाएँ, उनका स्तर आवश्यकता से अधिक ऊँचा य़ा उनके जगत से बहुत ज्यादा अलग हट कर नहीं होना चाहिये. जो युवा पाठचक्र में आ रहे हैं, उनको यहाँ प्राप्त होने वाली नई नई जानकारियाँ इस ढंग से दी जानी चाहिये कि को वे इन नवीन विचारों ( 'मन', 'विवेक', 'श्रद्धा',अथवा अन्तर्यामी " सत्ता " सम्बन्धित ज्ञान) को अपने जीवन के अनुभवों के साथ सम्बद्ध करके समझने में सक्षम हो सकें. 
हम जानते हैं कि किसी विषय का तजुर्बा करके जो ज्ञान होता है- वही सर्वोत्तम शिक्षक है.
( Experience is the great teacher). जब वे लोग यहाँ से सीखे हुए नई नई जानकारियों (सिद्धान्तों) को प्रयोग में लायेंगे, उनको नये नये अनुभव प्राप्त होने लगेंगे;तथा वे स्वयं ही इन सिद्धान्तों कि सच्चाई के कायल हो जायेंगे. 
हमलोगों को यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि हमलोगों का सारा फोकस (मूख्य-मुद्दा)- अपने सामान्य व्यवसाय,य़ा घर-परिवार का त्याग किये बिना,अपना सारा ध्यान अपने व्यवहारिक जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने पर ही केन्द्रित रखना है. समाज को आज इसी बात की आवश्यकता है, क्योंकि ज्ञान के साथ जीवन में व्यवहारिक तालमेल ही, हमें यथार्थ मनुष्य में परिणत कर देता है. 
हमें अपने सभी सदस्यों को,घर से ही अध्यन करके आने के लिये एवं परिचर्चा में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये. हमें अपने किसी भी सदस्य के विचारों की कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये, बल्कि उनके समझ को बहुत ही दोस्ताना तथा सकारात्मक ढंग से क्रमशः बेहतर य़ा उत्कृष्ट बनाने का प्रयास करना चाहिये. तुम यह कभी मत भूलो कि तुम कोई ' गुरु '- नहीं हो, पाठचक्र/परिचर्चा में ' गुरु-गिरी ' करने के लिये नहीं आये हो, बल्कि तुम भी वैसे ही एक ' विद्यार्थी ' हो जैसा कोई अन्य सहभागी है.
हमारे पाठचक्र में कोई- ' सदन के नेता ' य़ा " Leader of the House " की अवधारणा नहीं है. इसीलिये पाठचक्र में किसी भी योजना का अनुशरण तो पूरी ईमानदारी के साथ करना चाहिये, किन्तु जबरन थोपे गये अनुशासन की अधिक मात्रा देकर इसे एक यांत्रिक (मशीनी) समारोह में परिणत करने से भी बचना चाहिये.नवयुवकों को ताजगी और उत्साह से भरपूर एक खिले हुए पुष्प के जैसा ह्रदय को लेकर ही अपने 'युवा नेता' विवेकानन्द के समक्ष आने एवं उनके ह्रदय के निष्काम प्रेम के स्पर्श के स्पन्दन को महसूस करने के लिये भी अनुप्रेरित करना चाहिये.
जो लोग 'शैक्षिक सत्र ' को सन्चालित करते हैं,उन्हें महामण्डल पुस्तिकाओं का गहन अध्यन न केवल इसके अभिनव विचारों को आत्मसात करने के उद्देश्य को ध्यान में रखकर करना चाहिये, वरण युवा मन के समीप पहुँचने के लिये महामण्डल के अनूठे पद्धति का भी अनुसरण करना चाहिये. हमें उनलोगों से उसी भाषा में बात करनी चाहिये जिसे वे आसानी से समझ सकते हों.' धर्म ', 'आध्यात्मिकता', 'योग','भक्ति','अद्वैत वेदान्त ' जैसे कठिन -कठिन शब्दों का अत्यधिक प्रयोग करके नवयुवकों के मन को बोझिल करने से कोई विशेष लाभ नहीं होता है.
 क्योंकि अक्सर इन सभी शब्दों का अर्थ समाज में कुछ का कुछ निकाल लिया जाता है, इसीलिये ऐसे युवाओं की संख्या बहुत ज्यादा है, जो इन बातों में तनिक भी दिलचस्पी नहीं रख सकते हैं. इनमे से कोई भी शब्द - ' यह य़ा वह ' उनकी आसन्न जरूरतें भी नहीं हैं. स्वामीजी ने एक पत्र में अपने कुछ युवा मित्रों को सम्बोधित करते हुए लिखा था- 
" Be moral , Be brave - keep your heart completely pure . 
Be strictly moral, brave unto desperation. Do not bother  
your heads with religious theories. " 
- " मेरे युवा मित्रों, तुम वीर (बहादुर और निडर ) बनो, 
नीति-परायण बनो, 
अपने ह्रदय को संपूर्णतः पवित्र रखने के लिये पाँच सदाचार 
(सत्य,अहिंसा, ब्रह्मचर्य, आस्तेय, अपरिग्रह यम-नियम आदि) 
का पालन पूरी कठोरता के साथ करो,
(यदि इस काम में कभी नैराश्य आ जाय तो- इस) 
नैराश्य का सामना पूरी निडरता के साथ करो. 
तथा अन्य प्रकार धार्मिक सिद्धान्तों (मतवादों) से -
              अपने मन को बिल्कुल ही व्याकुल य़ा परेशान मत होने दो!  "  
हमें इसी पत्र की भावना को ध्यान में रखते हुए ' शैक्षिक सत्र ' का सञ्चालन करना चाहिये.आज के युवाओं में सही दृष्टिकोण को क्रमशः विकसित होने दो. नवागन्तुक भाइयों को तुम अपनी सनक य़ा धुन दिखला कर उसको डराने य़ा चौंका देने की चेष्टा मत करो. उनलोगों की जरूरतें, योग्यता (पात्रता), और अभिरुचियों को समझने की चेष्टा करो. 
उनलोगों को पहले यह समझने दो कि वे लोग अपने " 3H " (Hand,head और heart ) अर्थात शरीर,मन और ह्रदय को कैसे विकसित कर सकते हैं. उनलोगों को मनुष्य जीवन के उद्देश्य को जानने वाला - ' एक सिद्धान्ती और (निडर) आत्मविश्वासी ' पूरी तरह से एक नीतिपरायण एवं चरित्रवान मनुष्य बनने में सहायता करो. उनलोगों को अपने देशवासियों की अकथनीय, दारुण दुर्दशा को समझ कर, उसे दूर करने के उपाय, ' त्याग और सेवा ' के प्रति समर्पित कार्यकर्ता बनने के लिये अपने जीवन से अनुप्रेरित करो.
इस प्रकार की प्रचेष्टा के द्वारा स्वामी विवेकानन्द के नेतृत्व में युवाओं का एक ऐसा राष्ट्रव्यापी बलिदानी-जत्था निर्मित हो जायेगा- जो भारत में आमूलचूल परिवर्तन ला देगा, जिसके आविर्भूत होने की भविष्यवाणी स्वामीजी ने स्वयं की थी. किन्तु जो अभी तक साकार रूप नहीं ले सका है.
(अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की द्विभाषी सम्वाद पत्रिका " Vivek-Jivan" के नवम्बर २०१० में अंग्रेजी में प्रकाशित सम्पादकीय का हिन्दी संस्करण.)  

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

Advice of Swami Vivekananda

(Letter of Swami Vivekananda )
{... " It is not the building that makes the home, but it is the wife that makes it, " says a Sanskrit poet, and how true it is ! The roof that affords you shelter from heat and cold and rain is not to be judged by the pillars that support it- the finest Corinthian columns though they be- but by the real spirit-pillar who is the center, the real support of the home- the woman (Letter of Swami Vivekananda: pg 75) 
य़ा श्रीः स्वयं सुक्रितिनाम भवनेषु - 
" Who is the Goddess of Fortune in the families of meritorious." 
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः
" The gods are pleased where the women are held in esteem- says the old Manu. 
त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी - 
" Thou art the women, Thou art the man. Thou art the boy and the girl as well " (Shvetashvatar Upnishad )
सर्वशास्त्र पुरानेषु व्यासस्य वचनं ध्रुवं |
परोपकार अस्तु पुण्याय पापाय परपीडनम ||
- " Amidst all the scriptures and Puranas, know that statement of Vyasa to be true, that doing good to others conduces to merit, and doing harm to them leads to sin. "...Is there any sex-distinction in the Atman (Self) ? Out with the differentiation between man and woman - all is Atman! Give up the identification with the body, and stand up ! Say, " Asti, Asti "- Everything is ! - cherish positive thoughts. By dwelling too much upon " Nasti, Nasti " - " It is not! It is not ! " (negativism), the whole country is going to ruin ! " 
Soham, Soham, Shivoham "- " I am He ! I am He ! I am Shiva ! " What a botheration! In every soul is infinite strength, and should you turn yourselves into cats and dogs by harbouring negative thoughts ? Who dares to preach negativism? Whom do you call weak and powerless ? say " Shiivoham, Shivoham " -"- I am Shiva ! I am Shiva !"
- marriage is the truest goal for 99% of the human race, and they will live the happiest life as soon as they have learn t and are ready to abide by the eternal lesson- that we are bound to bear and forbear and that life to every one must be a compromise.
Believe me, dear Harriet (Miss Harriet Hale), perfect life is a contradiction in terms. Therefore we must always expect to find things not up to our highest ideal. Knowing this, we are bound to make the best of every thing. From what I know of you, you have the calm power which bears and forbears to a great degree, and  therefore I am safe to prophesy that your married life will be very happy.
...The best I can do in the circumstances is to quote from Kalidasa's Shakuntla, where rishi kanva gives his benediction to Shakuntla on the eve of her departure to her husbands place- " May you always enjoy the undivided love of your husband, helping him in attaining all the that is desirable in this life, and when you have seen your children's children,
and the drama of life is nearing its end, may you help each other in reaching that infinite ocean of Existence, Knowledge, and Bliss(सत्- चित्-आनन्द ); at the touch of whose waters all distinction melt away and we are all one ! }
( His letter dated 17th Sept 1896)