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बुधवार, 18 अगस्त 2010

[46]विद्यार्थियों के लिये ध्यान नहीं एकाग्रता (मनःसंयोग) सीखना लाभप्रद है !

स्वामी विवेकानन्द ने प्राचीन ग्रंथों (महाभारत, उपनिषद आदि) से-  " चरित्र निर्माणकारी एवं मनुष्यत्व उन्मेषक " भावों को ढूंढ़ ढूंढ़ कर अपने जीवन में उतार लिया था| महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में चरित्र-निर्माण की वैज्ञानिक पद्धति बताई गयी है, इस बात को स्वामीजी भी पहले नहीं जानते थे, पहले पहल इस तथ्य को उन्होंने अपने गुरुदेव " श्रीरामकृष्ण परमहंस देव " से ही सुना था.
जिस प्रकार महावाक्यों (चार महावाक्य) का अर्थ केवल पढ़ लेने य़ा रट लेने से ही स्पष्ट नहीं होता, बल्कि उसके ऊपर अनुध्यान अर्थात दीर्घ काल तक चिन्तन-मनन करने य़ा मनः संयोग करने से ही उसका अर्थ स्पष्ट होता है. किसी विषय पर दीर्घ काल तक चिन्तन मनन करके उसका अर्थ समझने की पद्धति को " मनःसंयोग " कहते हैं. यह पद्धति भी आधुनिक युवाओं (स्वामीजी के समकालीन अंग्रेजी शिक्षा में पले-बढ़े युवओं को ) सबसे पहले श्रीरामकृष्ण परमहंस देव से ही प्राप्त हुई थी.
ठाकुर ने प्राचीन ग्रंथों की बहुमूल्य शिक्षा को अत्यन्त सरल भाषा में और बिल्कुल संक्षिप्त करके  (आधुनिक युग के महावाक्य में परिणत करके ) अपने निकट आये हुए युवकों को सिखाया था.  (जैसे - " जितने मत उतने पथ " य़ा " " दया नहीं सेवा - शिवज्ञान से जीव सेवा " आदि ठाकुर द्वारा रचित" नये महावाक्य " हैं !) 

उनके उपदेशों में जितने भी पुराने पुराने भाव थे उन सबको, उन्हीं प्राचीन सद्ग्रंथों से खोज-खोज कर स्वामीजी ने, तथा ठाकुर के निकट आये अन्य युवाओं ने भी अपने जीवन में उतार लिया था. किन्तु यह भी सत्य है कि, समस्त सदगुणों को अपने जीवन में धारण करने की शिक्षा (मनः संयोग की विधि आदि ) उन्होंने श्रीरामकृष्ण परमहंस देव से ही प्राप्त कि थी. } 
- ठीक वही शिक्षा परिकल्पना की थी; उस पताका में अंकित ' वज्र '-' दधिची ऋषि की हड्डियों से निर्मित वज्र  के जैसा ठोस-चरित्र गठन की पद्धति ' जिसे श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने दक्षिणेश्वर में अपने निकट आये हुए युवकों को दिया था) अभी इस अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा आयोजित - युवा प्रशिक्षण शिविर, पाठचक्र  आदि विभिन्न कार्यकर्मों के माध्यम से भारतवर्ष के १० राज्यों में महामण्डल के २८० केन्द्रों  में वैसा ही- ' वज्र ' के जैसा ठोस चरित्र गठित करने कार्य चलाया जा रहा हैं !  एवं लगभग प्रत्येक महामण्डल केन्द्रों में कम से कम एक दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर तो आयोजित होता ही है. कुछ केन्द्रों को एक साथ मिला कर, भी एक दिवसीय शिविर भी किया जाता है. एक ' जिला स्तरीय  शिविर ' होता है.
कुछ जिलों को मिला कर ' प्रमंडल के स्तर पर ' शिविर होता है. एक होता है, दो य़ा तीन राज्यों को मिला कर ' राज्य स्तरीय शिविर '; ' अंतर्राज्य स्तरीय शिविर ' (Intar State Camp) होता है. एक ' सर्व भारतीय  शिविर ' ( All India Camp ) होता है. इस प्रकार लगभग १०० युवा प्रशिक्षण शिविर, प्रत्येक वर्ष आयोजित किये जाते हैं.
बिल्कुल नये नये जगहों पर शिविर आयोजित हो रहे हैं, और हमलोग लगभग विगत ४० वर्षों से देखते आ रहे हैं, उनमे से अनेकों  शिविरार्थी बिल्कुल नये नये होते हैं. ऐसे-ऐसे किशोर और युवा आते हैं, जिन्होंने शायद कभी यह भी  नहीं सुना हो कि,
चरित्र कहते किसे हैं ' What is Character '? 
य़ा मन किसे कहते हैं - ' What is Mind ' ? 
मन को एकाग्र करना ' Mental Concentration ' क्या है ? 
क्या हमलोग अपने मन को वश में ला भी सकते हैं ?
मन को वश में लाने की पद्धति क्या है ?
(ये सभी विषय वे पहली बार इसी कैम्प सुनते है. ) 
ह्रदय को भी हम लोग स्वयं विशाल बना सकते हैं, दूसरों के सुख-दुःख को बिल्कुल अपने सुख-दुःख के जैसा (प्यार एहसास है - उसे ' रूह ' से महसूस करो ) अपनी आत्मा में अनुभव किया जा सकता है ! 
आदि बातों को तो उन्होंने कभी जीवन में सुना ही नहीं तो, जीवन में क्या उतार पायेंगे ? किन्तु जब यहाँ वे इन सब के बारे में सुनते हैं, तो वे इससे इतने अभिभूत हो जाते हैं कि, वे (विस्मय से भर कर ) इसके बारे में दूसरों से भी चर्चा करते हैं, जिसे सुनकर और प्रभावित होकर इनदिनों 
' All India Camp ' (सर्व भारतीय शिविर) में १००० से भी अधिक युवक भाग लेते हैं. एग्यारह सौ, साढ़े एग्यारह सौ, बारह सौ, तेरह सौ से भी अधिक युवा आ रहे हैं. राज्य स्तरीय शिविर में भी ५००-६०० कि संख्या में किशोर और युवा लोग आते हैं. यह सब जो हो रहा है, तो इसकी छाप तो उनके ' मन ' पर पड़ ही रही है, वे इन भावों को ग्रहण भी कर रहे हैं.
किन्तु आज हमलोगों के समाज की जो अवस्था है, मन की ही धून पर नाचते-नाचते, हमलोगों ने समाज को जिस निम्न स्तर पर ला खड़ा किया है, और दिनोदिन उसे और भी नीचे ले जाने का विविध उपायों को सर्व-सुलभ बनाते जा रहे हैं, क्या हम कल्पना भी कर सकते है की यदि शीघ्रातिशीघ्र इस में परिवर्तन लाने का प्रयास नहीं किया गया तो समाज किस निम्नतर स्तर तक गिर सकता है ?
समाचार पत्रों में, रेडिओ -टीवी में अनेकों तरह की अच्छी अच्छी चीजें आती रहतीं है, किन्तु उनके साथ मन को नीचे गिराने वाली चीजें भी आ जातीं हैं. तो जैसा कि एक कहावत है न, बाल्टी भर दूध में यदि एक भी बून्द चूना डाल दिया जाया तो सारा दूध फट जाता है. उसी तरह अनेकों अच्छी चीजें हो रहीं हैं, कितु उसके साथ थोड़ा चूना भी मिला रहता है. चरित्र जिससे निम्नगति को प्राप्त हो, अधोमुखी हो जाये बहुत बड़े पैमाने पर इसकी व्यवस्था देखी जा सकती है. ऐसी विषम परिस्थिति में भी यदि दो-चार लोगों को भी बचा लिया जाये तो कितनी बड़ी बात होगी ! ऐसा होने से ही तो भारतवर्ष बच सकता है. 
एवं यही भाव धीरे धीरे यदि अन्य स्थानों में भी पहुँच जाये, जहाँ भी जायेगा उस स्थान का मंगल होगा. जिस स्थान पर भी ठाकुर, माँ स्वामीजी का भाव जायेगा, वहीं का मंगल होगा. क्योंकि ठाकुर माँ स्वामीजी के भाव के भीतर, उनके जीवन और संदेष के भीतर जितने भी उच्चतम भाव हैं, जितने भी आध्यात्मिक और चरम उपलब्धि के जो विषय के जितने सारी वस्तुएँ इन त्रिदेवों से प्राप्त हो सकती हैं, पहले ही पहल प्रारंभिक अवस्था में ही वो सब सबों के लिये नहीं हैं. इसीलिये एक कहावत है- " जार पेटे जा सय "! 
-" अर्थात जिसके पेट में जो पच सकने लायक हो वैसा ही भोजन उसे दो !"
इसीलिये आज यदि सभी युवाओं को बैठा कर (पात्रता का विचार किये बिना) यह कहा जाय कि, " तुम सभी लोगों को ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना होगा"-  तो इससे कुछ बहुत अधिक लाभ नहीं होगा. य़ा यदि इस तरह कहा जाय कि, 'आज तुम लोगों को ध्यान करना सीखा देता हूँ , तुमलोगों को ध्यान करने की शिक्षा दे रहा हूँ, देखो तुमलोग इस तरह बैठ कर ध्यान करना ' - और बस उनलोगों का ध्यान हो जायेगा. ध्यान, इतना सहज नहीं है.  
बहुत वर्ष पहले एक बार किसी आश्रम में ठाकुर का जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में गया था. वहाँ पर एक लाइब्रेरी कक्ष में एक चौकी पर बिछौना बिछा कर मेरे ठहरने की व्यवस्था की गयी थी. जो सज्जन ठहरने की व्यवस्था किये थे, वे आकर बोले- इस लाइब्रेरी की सभी अलमारियाँ मैंने खोल दी हैं, जिस पुस्तक को भी पढने की ईच्छा हो आप पढ़ सकते हैं. मैं मन ही मन सोंचा, मैं इस कमरे में रहूँगा ही कितनी देर, और इतनीं सारी आलमारियों में बन्द इन पुस्कों को खोल कर पढने का समय कहाँ है?
इसी बीच हमलोगों ( के महामण्डल ) का ही एक लड़का वहाँ आया और ' प्रबुद्ध भारत '(पत्रिका ) की अनेकों प्रतियों को वहाँ रख गया, कम से कम १४-१५ अंक तो अवश्य ही रहे होंगे. मैंने कहा, इन सब का क्या होगा ? ' मैंने सोंचा, शायद आप इनको पढना पसन्द करेंगे.' मैंने कहा- " मैं तो यहाँ यह सब पढने के लिये नहीं आया हूँ. एक लाइब्रेरी कक्ष में मुझे ठहरा दिया गया है, किन्तु मैं यहाँ पढाई लिखाई करने के लिये तो नहीं आया हूँ. सम्भव हुआ तो दोपहर में थोड़ा आराम करूँगा, य़ा रात्रि में सोऊंगा. "
  फिर मन में विचार आया, इतना आयोजन कर दिया है एक भी अंक को हाथ में नहीं लूँगा ? यही सोंच कर उतने सारे ' प्रनुद्ध भारत ' में से जो अंक सबसे ऊपर रखा था, उसी को खोल कर देखने लगा, बहुत पुराना अंक था. इधर उधर के पन्नों को उलटने पलटने के बाद एक लेख पर दृष्टि पड़ी. किसी अमेरिकन द्वारा लिखा हुआ प्रबन्ध था. वे बाद में रामकृष्ण मठ मिशन में सन्यासी हुए थे. उस प्रबन्ध के ऊपर में उसके लेखक का एक परिचय भी छपा हुआ था, उसमे कहा गया था की वे एक अमेरिकन थे जिन्होंने सबकुछ छोड़ मठ में अपना योगदान दिया था.वे एक बार बेलुड़ मठ आये थे. 
उनके वहाँ प्रवास करने के बीच में ही माँ की जन्मतिथी पड़ी थी. वे अमेरिका से आये थे, इसलिए उस अवसर पर वहाँ जो सम्मलेन हो रहा था, उसमे कुछ बोलने के लिये अन्य सन्यासियों ने उनसे भी अनुरोध किया. तब उन्होंने कहा - ' नहीं नहीं माँ के सम्बन्ध में मेरे द्वारा कुछ भी कहना सम्भव नहीं होगा, मैं बिल्कुल नहीं बोल पाउँगा. ' तब उनसे कहा गया, आप जो भी कहना चाहते हों वही कहिये. उस समय बेलुड मठ की उस सभा में माँ की जन्मतिथि पर खड़े होकर जो कुछ कहा था, उनका वही भाषण, 'प्रबुद्ध भारत ' में छपा था. उसको पढ़ कर देखा. मुझे तो वह प्रबन्ध बहुत उपयोगी प्रतीत हुआ.
हमलोग अक्सर कहते हैं- ' अमुक ' जगह पर जाने से ' यह ' सीखा जा सकता है, उस जगह पर जाने से ' ध्यान ' सीखा जा सकता  है, अमुक जगह पर जाने से ही यह हो जाता है, वैसा होता है, वह हो जाता है; आदि आदि. वे कहते हैं, " मैं माँ के सम्बन्ध में कह नहीं पाउँगा, पर यदि आप मुझसे मेरे जीवन के अनुभव के बारे में कुछ सुनना चाहें तो मैं अपने अनुभव आपके साथ शेयर कर सकता हूँ. मैं अमेरिका के अमुक स्थान में रहता था, वहाँ जिस सड़क से होकर मुझे आना जाना पड़ता था, उसी सड़क पर रामकृष्ण मिशन का एक केन्द्र है. अक्सर उसके साईन बोर्ड पर मेरी दिर्ष्टि पड़ जाती थी. उसको देखते देखते एक बार मन में विचार उठा कि देखने से तो यह कोई भारतीय लोगों कि संस्था प्रतीत होती है, क्यों नहीं एक बार इसके भीतर चल कर देखा जाय कि इसमें क्या होता है? 
भीतर चला गया. जाकर देखता हूँ कि कुछ लोग बेंच-कुर्सी पर बैठे हुए थे और एक गेरुआ धारी वृद्ध सन्यासी, जिनकी उम्र बहुत अधिक हो चुकी थी, वे उनलोगों से कुछ कह रहे थे. मैं भी पीछ की खाली कुर्सी पर जाकर बैठ गया. बैठे बैठे सुनने लगा. सुनने से, उनकी बातें बड़ी भली लगीं. वे ध्यान के सम्बन्ध में कह रहे थे. ध्यान के विषय में सुनने से मुझे अच्छा लगा. तब मैंने सोचा बीच बीच में मुझे यहाँ आना चाहिये. फिर पता लगा कर वे सप्ताह के जिन दो दिनों में अपना प्रवचन देते हैं, उन्ही दिनों में वहाँ गया. कुछ दिनों तक उनको सुनने के बाद मन में विचार उठा, उनके साथ थोड़ा परिचय किया जाय. उनसे मिलकर उनके साथ जान पहचान किया. परिचय होने के बाद उनसे कहा कि आपका प्रवचन मुझे बहुत अच्छा लगता है. मैं तो इसी रास्ते से अनेक दिनों से आया जाया करता था, कभी भीतर नहीं आया था.प्रथम दिन आया तब आपका प्रवचन सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा, इसीलिये लगातार कुछ दिनों तक सुना हूँ. किन्तु सुनने के बाद मुझे महसूस हो रहा है कि, केवल सुनलेने से क्या होगा ? यदि मैं स्वयं इसे नहीं कर सका. 
केवल ध्यान पर प्रवचन सुनकर क्या लाभ यदि मैं खुद ध्यान नहीं कर पाया. आपने एकदिन यह बतलाया था कि ' ध्यान ' करने में सफल हो जाने से क्या होता है, मुझे तो वह सुनकर बहुत अच्छा लगा था. यदि यह (परमानन्द) पाया जा सकता है, तब तो करना उचित है. क्या आप मुझे ध्यान सिखाइएगा?  उन्होंने प्रश्न किया, " तुम ध्यान (Meditation) क्यों सीखना चाहते हो ?"
" ध्यान करने से जो प्राप्त होता है, ध्यान की जो प्राप्ति है, मैं उसी वस्तु को पाना चाहता हूँ. "
" क्या सचमुच तुम उसे पाना चाहते हो ? "
" हाँ चाहता हूँ| ध्यान की जो अन्तिम प्राप्ति (उपलब्धी, समाधी य़ा आत्मसाक्षात्कार तक) होती है,मैं वहाँ तक जाना चाहता हूँ . "
उन्होंने कहा, " यदि ऐसी बात है, तो तुम अच्छी तरह से सोंच-विचार करके देख लो, सब कुछ भली भाँति देख लेने के बाद, मुझे बताओ. यदि सचमुच चाहते हो तो तुम्हें किन्तु कुछ शर्तें पूरी करनी होंगी." ' क्या हैं वे ? '
" तुमको अपना घर-परिवार छोड़ना होगा, तुमको अपनी नौकरी छोडनी पड़ेगी, तुम्हारे जितने सामान्य तौर से आवश्यक सामग्रियां और कपड़े-लत्ते हैं, केवल उतना ही लेकर आना होगा और यहीं पर वास करना होगा. मैं जिस प्रकार कहूँगा, तुमको सिखाऊंगा, ठीक उसी प्रकार प्रतिदिन अभ्यास करना होगा. अभ्यास करते करते तुम धीरे धीरे इस दिशा में अग्रसर हो सकोगे. " मैं उनके बताये अनुसार सबकुछ किया था. नौकरी छोड़ दिया, घर छोड़ दिया, और परिवार छोड़ कर कुछ सामान्य वस्तुओं को लेकर आया और आश्रम में रहने लगा. 
वहाँ रहते हुए सुबह-शाम जिस प्रकार अभ्यास करने को कहे उसी तरह करने लगा. मैं ध्यान का अभ्यास करने लगा. इसी प्रकार अभ्यास करते करते कितने ही वर्ष बीत गये. कुछ वर्ष बीत जाने के बाद एक दिन मैंने उनसे कहा- " महाराज, आपने जैसा करने को कहा था, मैंने तो सब कुछ किया है. किन्तु कहाँ, अभी तक तो कुछ मिला नहीं है. ध्यान तो मेरा अभी तक हो नहीं सका है|"
तब वे सन्यासी बोले- " मैं तो विगत साठ वर्षों से ध्यान कर रहा हूँ. किन्तु इन साठ वर्षों में केवल कुछ ही बार, मानो कुछ सेकेण्ड के लिये ' ध्यान ' किसे कहते हैं, यह समझ सका हूँ. एवं केवल कुछ ही बार, मानो कुछ सेकेण्ड के लिये ही ' ध्यान ' क्या है- इस वस्तु को समझ पाने से जो आनन्द मिला है, उससे यह महसूस हो रहा है कि मेरा मनुष्य योनी में जन्म लेना लगता है, सार्थक हो गया है. यह इतना सहज प्राप्य वस्तु नहीं है. हम सभी लोग ऐसा सोचते हैं- ध्यान कौन सी बड़ी बात है, सीख लेने मात्र से ही होने लगता है |" 
इसी लिये महामण्डल में ध्यान सिखाने की व्यवस्था नहीं है. महामण्डल में (ध्यान नहीं), ' मनः संयोग ' सिखाया जाता है. मनः संयोग का अर्थ है ' मन को लगाना '. हमलोग कोई भी कार्य तबतक नहीं कर सकते जबतक उस कार्य में हम मन को नियोजित न कर सकें. जैसे मान लीजिये जो भोजन बना रहे हैं, वे यदि भोजन बनाने में मन न लगायें, तो भोजन अच्छा नहीं बनेगा|
कोई पढ़ाई कर रहे हैं, यदि पढ़ाई में मन नहीं लगायें, तो जिस विषय को पढ़ रहे थे उसको ठीक से सीख नहीं पायेंगे. कोई यदि खेती-बाड़ी  कर रहे हों, पर वे यदि खेती-बाड़ी भी मन लगा कर न करें तो अच्छे ढंग से खेती-बाड़ी भी नहीं हो पायेगी. बिजनेस- व्यापार करने जाएँ और उसमे सही ढंग से मन नहीं लगायें, तो बिजनेस-व्यापार भी नहीं होगा. जिस किसी भी कार्य को करना हो, तो उसमे मन को लगाने से ही सारे कार्य होते हैं. हमलोग बाहर में हाथ-पैर य़ा अन्यान्य वस्तुओं के द्वारा कार्य करते हैं. किन्तु मन का दायित्व, मन का कर्तव्य, मन की क्षमता य़ा सामर्थ्य सबसे अधिक होता है. 
मन यदि हमारा सहायक नहीं बने, तो अन्य किसी भी इन्द्रियों की सहायता से हम कुछ भी नहीं कर सकते.इसीलिये मन को अपने वश में लाकर उसे अपना सहयोगी मित्र बना लेने की चेष्टा करनी होगी. मन को अपना सहयोगी बनाने का उपाय है, जिसे मन को संयोग करना कहते हैं, मन की इच्छा से नहीं, अपनी ईच्छा से, अपने लिये अत्यन्त उपयोगी समझ कर जो जो कार्य करने जा रहे हों ( जैसे पढ़ाई करना, व्यापार करना, खेती करना, खेलना...आदि आदि) उसमे मन को नियोजित रखना, इसीको मनः संयोग कहते हैं. इसके लिये मन को शान्त करना होगा. मन की जो चंचलता होती है,उसको पहले दूर करना जरुरी हो जाता है, उसको अनेक विषयों में जाने से वापस खींच कर किसी एक ही विषय पर एकाग्र करने की चेष्टा करनी होती है. इस कार्य को केवल बार बार अभ्यास करने से ही सीखा जा सकता है, ' रसरी आवत जात से सील पर पडत निशान '. एवं महामण्डल इन्ही सब चीजों की शिक्षा दी जाती है. उसी प्रकार शरीर को स्वस्थ और निरोग रखने की शिक्षा भी दी जाती है.
( दुनिया के सभी धर्म कहते हैं कि, भगवान, अल्ला य़ा ईश्वर एक ही है, पर आजकल तो ३०-४० लोग अपने को भगवान कहने लगे हैं , उनमे से आधे तो अमेरिका चले गये हैं, कुछ मार-खप गये हैं, फिर भी ३-४ भगवान तो आज भी जीवित होने का दावा करते हैं। साथ ही साथ ध्यान सिखाने का दावा भी करते हैं। - खुशवन्त सिंह पत्रकार) युवक लोग ध्यान किसका करेंगे !आज कल तो बहुत कुछ चल रहा है, हजार हजार लोग एक साथ बैठ कर ध्यान करते हैं. बहुत से लोग ध्यान करना सीख कर एक साथ ध्यान करते हैं.
 ' ध्यान ' भी क्या इकट्ठे मिलकर किया जाता है ? एक साथ बैठ कर ध्यान नहीं होता है. सामूहिक रूप से  बैठ कर ध्यान करना कभी सम्भव नहीं है. 
काशीपुर उद्यान-बाड़ी में रहते समय एकदिन स्वामी विवेकानन्द और स्वामी अभेदानन्द दोनों आस-पास बैठ कर ध्यान कर रहे थे. किसी प्रकार स्वामीजी का हाथ अभेदानन्द के शरीर से छू गया था,तब ठाकुर ने स्वामीजी को बुलवाकर बहुत डांट लगाई थी-" कि रे,कि करली रे ! ओर गाये हात दिये दिली ? ओर भाव टा नष्ट करे दिली ? " - " क्यों रे, यह तुमने क्या कर डाला ! उसके शरीर पर हाथ रख दिय़ा? उसके भाव को नष्ट कर दिय़ा? "  

ध्यान इतना सहज नहीं है. हमलोग ५० व्यक्ति, १०० जन, ५०० जन, एक साथ बैठ कर ध्यान किये- इस प्रकार से ध्यान होता है का मनगढ़ंत किस्सा जो सुनने को राजी है, वह हो जाये राजी.हम उसमे क्या कर सकते हैं ? परन्तु हमलोग इस तरह का बकवास सुनने को तैयार नहीं  हैं. इस प्रकार से ध्यान नहीं होता.
     

बुधवार, 11 अगस्त 2010

[45] " मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र गठन "

 " " न कृतः शीलविलयः : अपने चरित्र को कभी नष्ट न होने देना"
भारत की प्राचीन 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में 'मनुष्य निर्माण और चरित्र गठन' का प्रशिक्षण देने के कौशल को विवेकानन्द ने अपने गुरु श्रीरामकृष्ण (ठाकुर) से ही सीखा था ! कोई साधारण मनुष्य एक ' चरित्रवान- मनुष्य ' के रूप में कैसे रूपान्तरित हो जाता है ? 
इस कौशल को महाभारत में बड़े ही सुन्दर ढंग से समझा कर  बताया गया है ! मनुष्य जो कुछ भी विचार करता है, जो भी कुछ बोलता है, जो कुछ भी करता है उसकी एक छाप (कार्बन कॉपी की तरह ) उसके मन (चित्त) पर पड़ जाती है. 
सदैव सद्चिन्तन करते रहने से, सदवचन कहते रहने से, सदैव सद्कर्म  करते रहने से - मनुष्य के मन की गहराई (य़ा चित्त) में एकत्रित इन समस्त छापों के समुच्य (agglomeration य़ा ढेर) को ही मनुष्य का चरित्र कहते हैं. इसीलिये स्वामीजी ने कहा है की हमलोगों को सदैव सत-चिन्तन करने ,सत-वचन बोलने और केवल सत-कर्म करते रहने का बार बार अभ्यास करते रहना चाहिये.इस प्रकार बार बार सत-कर्म ही करते रहने से, निरन्तर सत-चिन्तन और सत-वचन कहने का अभ्यास करते करते हमें उसकी आदत पड़ जाती है. आदत जब प्रगाढ़ हो जाती है, पक्की हो जाती है तो वह एक अन्य वस्तु में बदल जाती है, जिसे propensity - प्रवृत्ति (य़ा झोंक) कहते हैं. 
वही आदतें मनुष्य के स्वाभाविक झुकाव में परिणत हो जातीं हैं. अब मनुष्य को कार्य करने के पहले विवेक-प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं रह जाती, अर्थात सद्प्रवृत्तियों के झोंक य़ा स्वाभाविक-झुकाव के अनुसार उसके द्वारा केवल सत-कर्म ही होते हैं- उसे यह उचित है यह अनुचित है इस प्रकार का विवेक-विचार करना आवश्यक नही रह जाता; उसमे सत-कर्म करने की एक स्वाभाविक प्रवणता आ जाती है. इस प्रवणता को ही propensity कहते हैं.
पहले मन में इच्छा उठती है, मन में केवल ' सत-इच्छा ' को उठने देने का अभ्यास करने से, उसी इच्छा के अनुसार ' सतकर्म ' करने का अभ्यास (habit )हो जाता है, habit प्रगाढ़ हो जाने से propensity और जब अनेकों प्रकार की propensity को एक साथ मिला दिया जाय, तो उसी से मनुष्य का सद्-चरित्र निर्मित हो जाता है. अतः महामण्डल के प्रशिक्षण शिविर का उद्देश्य- इसी लक्ष्य को प्राप्त करना होगा.
मनुष्य का शरीर जिस प्रकार स्वस्थ, सबल, कर्मठ, निरोग रह सके इसके लिये व्यायाम आदि करना. विभिन्न विषयों के बारेमे अध्यन करना, चिन्तन-मनन करना एवं स्वाभाविक रूप से सर्वाधिक प्रयोजनीय अध्यन होगा- स्वामीजी के द्वारा लिखे एवं कहे उपदेशों को पढना. स्वामीजी के उपदेशों को पढने का अर्थ स्वामीजीने जो कहा है उसको केवल पढ़ लेना ही नहीं है, उसपर मनन करना है. मनन करते रहने से स्वामीजी के विचार, उनकी वाणी - बिल्कुल हमारे ह्रदय के भीतर बैठ जायेंगे. साथ ही साथ स्वामीजी का जीवन के ऊपर भी चिन्तन मनन करते रहना चाहिये.
उसके बाद यदि कुछ लोग थोड़ा और भी आगे जाना चाहते हों तो उन्हें ' माँ सारदा ' का जीवन, उनकी वाणी, ठाकुर का जीवन और ' श्रीरामकृष्ण वचनामृत ' आदि का भी अध्यन करना चाहिये. यहाँ तक कि स्वामीजी ने अपने जीवन में जो कुछ भी किया है, जो कुछ भी कहा है- यदि उन सबका गहराई से विश्लेषण किया जाय तो, यह स्पष्ट हो जायेगा कि स्वामीजी ने सारी शिक्षा, समस्त ज्ञान ठाकुर से ही (सीखा) प्राप्त किया था.
तत्पश्चात स्वामीजी ने उन्हीं कि शिक्षाओं को, उस समय के मनुष्यों के लिये बोधगम्य भाषा में अभिव्यक्त किया था. मनुष्य कैसे बना जाता है ? इस सम्बन्ध में अभी हमारी धारणा स्पष्ट न रहने के कारण, हो सकता है कि हममें से कुछ लोगों को ठाकुर के उपदेश और स्वामीजी के उपदेश में थोड़ी सी विभिन्नता दृष्टिगोचर हो, हमें ऐसा प्रतीत हो सकता है कि ठाकुर ने तो ऐसा कहा था, स्वामीजी इस प्रकार क्यों बोले ? ऐसा हमारी समझ के भ्रम के कारण लगता है, किन्तु वास्तव में स्वामीजी और ठाकुर की शिक्षाओं में कहीं भी भिन्नता नहीं है.
चाहे वेदान्त- तत्व (नव वेदान्त ) के विषय में हों य़ा अन्य किसी भी प्रकार के जीवन के- विषय में हो, गृहस्थ-जीवन, सामाजिक-जीवन, आर्थिक-जीवन, मनुष्य के य़ा ईश्वर के विषय में हो, ठाकुर ने जो कहा है, स्वामीजी ने ठीक वही कहा है, हमलोग ही कई बार उसे ठीक से समझ नहीं पाते हैं.
जिस में वे दक्षिणेश्वर में रहते थे, क्या एक दिन अपने कमरे की छत पर खड़े होकर, व्यथित ह्रदय से यह कहते हुए बिल्कुल रो नहीं पड़े थे-  " माँ, बलेछिले युवकदेर एने देबे, कई, युवकरा तो आसछे ना ? "" - माँ, तुमने तो कहा था, युवाओं को यहाँ ले आओगी,पर कहाँ, युवा लोग तो आ नहीं रहे हैं ? "
श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था- " अरे तुम लोग कौन कहाँ हो, शिघ्रातीशीघ्र मेरे पास चले आओ ! " और कुछ युवक उनके पास आये थे. उन युवकों को इस प्रकार तैयार कर दिये कि, वे लोग, सम्पूर्ण जगत में एक नवीन विचार-धारा का संचार करने में समर्थ हो गये थे. उन मुट्ठी भर युवकों ने ' श्रीरामकृष्ण भावान्दोलन ' को सम्पूर्ण पृथ्वी पर फैला दिया था, एवं उसके फलस्वरूप एक " संघ " स्थापित हो गया था. यह कितनी अभूतपूर्व ऐतिहासिक घटना थी. ऐसा दृष्टान्त किसी अन्य पुराण में है, हमें नहीं मालूम, किसी दूसरे देश के इतिहास में है, पता नहीं |
दुनिया के कई देशों में विभिन प्रकार की घटनाएँ घटीं हैं, नये नये धर्मों की उत्पत्ति हुई है. किन्तु श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने किसी नये धर्म का प्रवर्तन नही किया है. पर जो कार्य उनके द्वारा हुआ है, वह कार्य उनके पहले कभी किसी के द्वारा नहीं किया गया है. कई महापुरुषों ने, इस पृथ्वी पर- एक के बाद दूसरा कई धर्म चलाये हैं, एवं एक धर्म के साथ दूसरे धर्म के साथ संघर्ष, होते रहे हैं. धर्म के नाम पर मनुष्यों का कितना रक्त बहाया गया है! पहले जितने सारे धर्मयुद्ध हुए थे, उसमे अनगिनत लोग मारे गये थे. इस धर्म के लोग उस धर्म के लोगों की हत्या करते थे, उस धर्म के लोग इस धर्म के लोगों की हत्या करते थे. आज भी थोड़ा बहुत वैसा ही संघर्ष, लड़ाई-झगड़ा आदि दिखायी देता है. 
जिस शिक्षा के आभाव में आज समस्त विश्व के मनुष्य जिस दुःख-कष्ट में पड़े हुए हैं, सम्पूर्ण पृथ्वी पर मनुष्य जाती जिस दुर्गति को भोग रही है- उस दुरावस्था में परिवर्तन लाने के लिये क्या करना होगा ? सर्वप्रथम तो
" ' मनुष्य ' -( के 3H ) की ओर दृष्टि डालनी होगी ! " 
हमलोग बाहर की ओर, प्रकृति  की ओर (चन्द्रमा और मंगल) देख रहे हैं, धन-दौलत की ओर देख रहे हैं, भोगों की आकांक्षा की ओर देख रहे हैं, किन्तु इन समस्त कार्यों के मूल में पहले जिस मनुष्यत्व को अर्जित करना जरुरी होता है, उसकी कोई चेष्टा हमलोगों ने नहीं की है. अपने चरित्र को सही ढंग से गठित नहीं किया है. चरित्र कितनी अनुपम वस्तु है, उसका कितना महत्व है, इसे हम ठीक से नहीं समझते; योगी कवि भर्तृहरि कहते हैं- 
" वरं तुंगात श्रृंगात गुरुशिखरिणः  क्वापि विषमे 
   पतित्वायं कायः कठिनदृषदन्तर्विदलितः |
वरं न्यस्तो हस्तः फणिपतिमुखे तीक्ष्णदंशने
         वरं वह्नौ पातास्तदपि न कृतः शीलविलयः || "
- भले ही ऊँचे पर्वत-शिखर से कूद पड़ने के कारण तुम्हारा अंग भंग क्यों न हो जाय, काले नाग के मुख में हाँथों को डाल देने पर सर्प के दंश से तुम्हारे प्राण क्यों न छूट जाएँ, अग्नि में गिर पड़ने से तुम्हारा शरीर भी जल कर खाक क्यों न होता हो, लेकिन - " न कृतः शीलविलयः !! " अपने चरित्र को कभी नष्ट न होने देना|
कैसी अदभूत शिक्षा थी- भर्तृहरि की ! कैसा आह्वान था ! यदि तुम्हारे किसी कृत्य से, तुम्हारे चरित्र के गिरने की सम्भावना हो; तब तुम्हारे लिये यही अच्छा होगा कि तुम किसी ऊँचे पहाड़ से कूद कर अपनी अपनी हड्डियाँ तुडवा लो, य़ा किसी विषधर सर्प के मुख में हाथ डाल दो और उसके काटने से प्राण निकल जाएँ, य़ा फिर अग्नि में कूद कर अपने शरीर को जल कर राख हो जाने दो, किन्तु किसी भी परिस्थिति में अपने चरित्र को नष्ट नहीं होने दो !
 - ये सब वाणियाँ हजारो वर्ष पूर्व भारत में गुंजायमान हुई थीं| इन प्राचीन सद्ग्रंथों में दिये गये उपदेशों को अपने जीवन में उतार लेने से भारत के युवाओं का चरित्र इतना ठोस होगा कि कोई भी प्रलोभन (कामिनी-कान्चन) उसको नष्ट नहीं कर पायेगा! पर वैसा चरित्र अभी किसी भी व्यक्ति में (नेता, आईएस, शिक्षक, किसान, व्यापारी...आदि में)कहाँ दिखायी देता है? इस तरह के चरित्र का निर्माण करने की चेष्टा भी हमलोग कहाँ कर रहे हैं?
 शंकराचार्य ने भी इसी बात को समझाते हुए कहा था-( " त्रये दुर्लभं " ), उसमे वे भी चरित्र के महत्व को ही समझा रहे हैं !हमने दुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त किया है, मनुष्य के दुर्लभ (विवेक-सम्पन्न) मन को प्राप्त किया है, किन्तु इनकी सहायता से हमलोग जो कर सकते थे, उसे हमने अभी तक नहीं किया है. हमलोग बाकी सबकुछ  (२०१० में Common  Wealth Games ) कर रहे हैं,किन्तु जिसके होने से सबकुछ होता है,
' चरित्र-निर्माण ' वही पीछे छूट गया है ! 
 स्वामी विवेकानन्द ने उन्हीं प्राचीन ग्रंथों (महाभारत, उपनिषद आदि) से- " चरित्र निर्माणकारी एवं मनुष्यत्व उन्मेषक " भावों को ढूंढ़ ढूंढ़ कर अपने जीवन में उतार लिया था|
{ महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में चरित्र-निर्माण की वैज्ञानिक पद्धति बताई गयी है, इस बात को स्वामीजी भी पहले नहीं जानते थे, पहले पहल इस तथ्य को उन्होंने अपने गुरुदेव " श्रीरामकृष्ण परमहंस देव " से ही सुना था. जिस प्रकार महावाक्यों (चार महावाक्य) का अर्थ केवल पढ़ लेने य़ा रट लेने से ही स्पष्ट नहीं होता, बल्कि उसके ऊपर अनुध्यान अर्थात दीर्घ काल तक चिन्तन-मनन करने य़ा मनः संयोग करने से ही उसका अर्थ स्पष्ट होता है.
 किसी विषय पर दीर्घ काल तक चिन्तन मनन करके उसका अर्थ समझने की पद्धति को " मनःसंयोग " कहते हैं. यह पद्धति भी आधुनिक युवाओं (स्वामीजी के समकालीन अंग्रेजी शिक्षा में पले-बढ़े युवओं को ) सबसे पहले श्रीरामकृष्ण परमहंस देव से ही प्राप्त हुई थी.
ठाकुर ने प्राचीन ग्रंथों की बहुमूल्य शिक्षा को अत्यन्त सरल भाषा में और बिल्कुल संक्षिप्त करके  (आधुनिक युग के महावाक्य में परिणत करके ) अपने निकट आये हुए युवकों को सिखाया था. 
( जैसे - " जितने मत उतने पथ " य़ा " " दया नहीं सेवा - शिवज्ञान से जीव सेवा " आदि ठाकुर द्वारा रचित" नये महावाक्य " हैं !}

उनके उपदेशों में जितने भी पुराने पुराने भाव समाहित थे उन सबको, उन्हीं प्राचीन सद्ग्रंथों से खोज-खोज कर स्वामीजी ने, तथा ठाकुर के निकट आये अन्य युवाओं ने भी अपने जीवन में उतार लिया था. किन्तु यह भी सत्य है कि, समस्त सदगुणों को अपने जीवन में धारण करने की शिक्षा (मनः संयोग आदि)उन्होंने श्रीरामकृष्ण परमहंस देव से ही प्राप्त कि थी   

शनिवार, 7 अगस्त 2010

[44] " स्वामी विवेकानन्द निर्देशित शिक्षा-प्रणाली "

-अद्वैत आश्रम में  जनवरी 1968 में आयोजित महामण्डल की दूसरी बैठक में लिए गए निर्णय के अनुसार उस नव आविर्भूत युवा संगठन का नाम ' महामण्डल ' (अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ) निर्धारित हो गया। प्रख्यात शिक्षाविद और प्रेसीडेन्सी कॉलेज कोलकाता, में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक अमियदा (श्री अमिय कुमार मजूमदार) महामण्डल के प्रथम अध्यक्ष बने। (उस समय अमियदा 'Indian Philosophical Congress' के सचिव थे तथा डॉ ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन उसके अध्यक्ष थे।)
 अब हमलोगों को स्वामी विवेकानन्द निर्देशित शिक्षा प्रणाली के अनुसार, अरियादह में महामण्डल का " प्रथम अखिल भारत वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर " शिविर आयोजित करने की तैयारी करनी थी। प्रश्न यह उठा कि उस नव आविर्भूत युवा संगठन-  'महामण्डल ' द्वारा  के आदर्श (Role Model) , उद्देश्य और पाठ्यक्रम  (Purpose and Syllabus-curriculum)  तथा प्रशिक्षक कौन हों -संन्यासी या अनुशासित जीवन में प्रतिष्ठित कोई गृहस्थ ?
..... दूसरी बैठक में उपस्थित सभी लोगों ने सर्वसम्मत निर्णय लिया कि - यह सब तय करने के लिये आगे जो कुछ भी सोचना या करना है , वह आपको ही (नवनीदा को ही) करना है ! फिर यही विचार मन में रात-दिन चलने लगा।  
पहले मन में प्रश्न उठा कि इस ' युवा महामण्डल ' का आदर्श-पुरुष (Ideal-प्रेरणाश्रोत/ इष्ट) किसको बनाना चाहिये ?  स्वाभाविक उत्तर है कि युवा महामण्डल के आदर्श-पुरुष (प्रेरणाश्रोत/ इष्ट/ साँचा य़ा Role -Model) तो चिर-युवा  स्वामी विवेकानन्द ही हो सकते हैं ! क्योंकि स्वामी विवेकाननन्द की विचारधारा ~ "भौतिकवाद और अध्यात्मवाद में समन्वय" की बुनियाद पर युवाओं के बीच इस प्रकार का कार्य करना होगा जिससे उनके भीतर सुमति (सदबुद्धि) वापस आजाय, य़ा युवा-वर्ग सुमति ( आत्मश्रद्धा ) प्राप्त करने में सक्षम हो जाएँ ! इस युवा-संगठन का मूल कार्य तो यही है। इसीलिये उस नव आविर्भूत युवा संगठन के आदर्श हैं  - स्वामी विवेकानन्द !  (महामण्डल का  कार्यक्षेत्र य़ा)  कार्य की परिधि है - सारा भारतवर्ष !  
 सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह था कि युवा-प्रशिक्षण शिविर के लिए स्वामी विवेकानन्द निर्देशित प्रशिक्षण -पद्धति (शिक्षा प्रणाली) कैसी होनी चाहिये ? युवा -प्रशिक्षण का उद्देश्य, पाठ्यविषय और पाठ्यक्रम (syllabus and curriculum) क्या होना चाहिये ?  यह संगठन किस प्रकार अपना कार्य करेगा ? स्वामीजी बार बार यही कहते थे कि, Man-making and Character Building Education - मनुष्य निर्माण एवं चरित्र-गठन करने वाली शिक्षा सभी युवाओं को देनी होगी ! क्योंकि प्रचलित शिक्षा व्यवस्था में युवाओं को चरित्र-निर्माण की पद्धति नहीं सिखाई जाती है।   
आज (स्वतंत्र भारत में ) भी देश में ऐसी कोई राष्ट्रीय शिक्षा नीति नहीं है जिसमे - मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-गठन कराने की शिक्षा देने की व्यवस्था हो, और पहले (गुलाम भारत में ) तो खैर ऐसी शिक्षा देने का सवाल ही नहीं था। उसके भी और पहले की तो -बात ही अलग थी। जिस समय में नेताजी सुभाष चन्द्र स्कूल में पढ़ते थे, या जब उन्हीं के जैसे अन्य लोग स्कूल में पढ़ते थे, जिन्होंने देश के लिये प्राण न्योछावर कर दिये थे , या त्यागने के लिये प्रस्तुत थे, उनके समय के शिक्षक लोग दूसरे ही ढंग की चीज (प्रेरणा) छात्रों को देते थे. किन्तु यह चीज (संजीवनी-बुट्टी 3 'H ' - विकास की शिक्षा ) तो उनके समय में भी नहीं थी !
इसी के पहले वाली शताब्दी के साठवें दशक तक, सत्तर के दशक तक भी नहीं था।  तब इसके ऊपर चिन्तन करना पड़ा, और (विवेकानन्द साहित्य का मन्थन कर) स्वामीजी द्वारा प्रदत्त मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-गठन की पद्धति ~ 'Be and Make' को ढूंढ़ कर महामण्डल की कार्यपद्धति के रूप में निर्धारित कर लिया गया। 
 फिर यह तय हुआ कि "  स्वामी विवेकानन्द निर्देशित शिक्षा-प्रणाली " के अनुसार ' चरित्र-गठन ' एवं ' मनुष्य- निर्माण ' के कार्य को सारे भारतवर्ष में फैला देना, अर्थात भारत का कल्याण (Welfare of India) ही इस संघ का उद्देश्य होगा ! 
अब इसका एक Leaflet (पत्रक) लिखा गया और शिविर आयोजित होने से पहले ही उसको छपवा कर परिचित लोगों के बीच वितरित कर दिया गया। (सभी विद्यालयों , विश्वविद्यालयों में वह पत्रक, शिविर-नियमावली, आवेदन -प्रपत्र आदि को पोस्ट के द्वारा भेज दिया गया। उस Leaflet का  प्रथम हिन्दी प्रारूप 1988 में तैयार किया गया ! ) फिर ' महामण्डल का आदर्श और उद्देश्य '  शीर्षक देकर एक छोटी सी पुस्तिका तैयार की गयी। ये सभी कार्य ऑफिस के टेबल पर बैठ कर ही करने पड़ते थे। बहुत से लोग पूछते थे- आप ऑफिस के कार्य कैसे निबटाते हैं ?  ऑफिस के काम की मैंने कभी उपेक्षा नहीं की है, उस समय तक नौकरी करते हुए मुझे कई वर्ष हो चुके थे।  क्योंकि बहुत कम उम्र में ही मुझे नौकरी में आना पड़ा था, एवं विभिन्न स्तर पर मैंने कार्य किया है। उस समय जितने कार्यों का दायित्व मेरे ऊपर था, उन समस्त कार्यों का उचित ढंग से निष्पादन करने में एक पुरा दिन लग जाना तो दूर रहा, सारे कार्य दिन के एक-चौथाई समय में ही समाप्त हो जाते थे। 
निष्ठापूर्वक कार्यों का निष्पादन करने के फलस्वरूप मेरे कार्यालय के जो प्रधान थे, उन्होंने स्पष्ट आदेश दे रखा था कि, समस्त फ़ाइल चाहे जिस किसी के पास भी जाएँ, उसके  दस्तावेज य़ा विवरण एकबार इनके पास अवश्य भेजनी होगी।  उसके बाद ही कोई चिट्ठी डिसपैच के लिये भेजी जा सकेगी। बाद में मैंने हिसाब लगाकर देखा था कि, दिन भर में 150 के करीब फाइलें मेरे पास आया करती थीं।  किन्तु ऑफिस के किसी भी आज के फ़ाइल को, कल के लिये कभी पेन्डिंग नहीं छोड़ा। मैं यदि कभी यह पाता कि कोई आवश्यक फ़ाइल अपराह्न में तीन बजे आ गया है, तब मैं डिसपैच सेक्सन को खबर कर देता कि- ' पाँच बज जाने के बाद भी एक चपरासी को रोक लीजियेगा। और डायरेक्टर के स्टेनो-बाबू ( stenographer ) को ही बुलवा लेता था। क्योंकि डायरेक्टर ने बोल रखा था कि  आपको जब कभी जरुरत हो, मेरे साथ मिल सकते हैं।  
      उनको बुलवाकर साथ ही साथ उस फ़ाइल की उचित व्यवस्था करके पाँच बज जाने के बाद भी उसको भिजवा देना य़ा बहुतजरुरी फ़ाइल रहा तो जल्दी-जल्दी उसे  हाथो- हाथ राइटर्स बिल्डिंग में मिनिस्टर के पास य़ा सेक्रेटरी के पास ही सीधा भिजवा देता था।  मैंने स्वयं आजमा कर देखा है कि, पूरे दिन के एक-चतुर्थांश य़ा बहुत हुआ तो एक-तृतीयांश समय में ही सारे दिन का कार्य समाप्त  हो जाता था।  
यदि किसी कार्य के लिये और भी कुछ जानकारी, य़ा और कुछ तत्थ्य संग्रह किये बिना पुरा करना सम्भव नहीं रहता तो, उनको कलेक्ट करने में जितना समय लगता, उतनाही समय तक उस फ़ाइल को अपने पास रखता था.इसीलिए कह सकता हूँ कि ऑफिस के काम के प्रति कोई लापरवाही दिखाए बिना, ऑफिस के टेबल पर बैठ कर ही  मनः संयोग , चरित्र-गठन , चरित्र के गुण आदि कई महामण्डल पुस्तिकाएँ लिखी गयीं हैं।  घर में वापस लौटने के बाद, रात्रि में भी काम करना पड़ता था, कभी कभी तो देर रात (डेढ़-दो बजे तक भी) तक काम करना पड़ता था।  
अब प्रश्न उठा कि, स्वामीजी की शिक्षा पद्धति के अनुसार शिक्षा कैसे दी जाएगी ? हमलोग तो स्कूल, कालेज बनायेंगे नहीं।  तब यह तय हुआ कि, महामण्डल के द्वारा युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया जायेगा।  इसके लिये पहले युवाओं का आह्वान करके प्रशिक्षण शिविर परिसर में एकत्र करके रखा जायेगा।  फिर पूरे दिन का एक कार्यक्रम बना कर, उनको चरित्र-गठन किस प्रकार किया जाता है, चरित्र कहते किसे हैं, मनुष्य-निर्माण किस प्रकार होता है, कोई भी मनुष्य का ढाँचा रखने वाला व्यक्ति आखिर ' मनुष्य ' बनता किस प्रकार है, मनुष्य बन कर समाज के लिये क्या किया जा सकता है (सर्वोत्तम समाज-सेवा  किस प्रकार की जाती है) - इन सब विषयों की शिक्षा दी जाएगी।  
 ' स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्देशित मनुष्य-निर्माण की पद्धति के अनुसार '  इस प्रकार से प्रशिक्षण देने की व्यवस्था महामण्डल के सिवा आज भी कहीं और नहीं है।  उस समय (1967 तक ) भी नहीं थी। मनुष्य-निर्माण की पद्धति आखिर है क्या ?  प्रशिक्षण के द्वारा धीरे धीरे मनुष्य कैसे बना जाता है ? स्वामीजी ने तो कहा है, बार बार कहा है कि,मनुष्य के तीन मौलिक components ( अवयव य़ा घटक) हैं-शरीर, मन और ह्रदय ! **  इनको ही हमलोगों के देश में - शरीर, मन और आत्मा भी कहा जाता है !  ये  तीन बातें पहले भी कही जाती थीं, पहले किसी ने कहा ही नहीं हो ऐसा नहीं है।  किन्तु स्वामीजी शरीर, मन, और आत्मा नहीं कहते थे।  क्योंकि- आत्मा  क्या है ? - इसको साधारण मनुष्यों को समझा देना उतना सहज नहीं है।  किन्तु  ह्रदय की भाषा को तो हर कोई समझ लेता है।  ह्रदय वह वस्तु है जिसे आत्मा को अभिव्यक्त करने वाला यन्त्र कहा जा सकता हैं, य़ा माध्यम भी कहा जा सकता है। 
किसी व्यक्ति की आत्मा किस प्रकार कार्य कर रही है, इसको उस मनुष्य के ह्रदय से समझा जा सकता है। मनुष्य का ह्रदय सहानुभूति-सम्पन्न रहना चाहिये, दूसरों के दुःख में दुखी होने वाला, दूसरों के आनन्द में आनन्दित होने वाला विस्तृत ह्रदय, समस्त विश्व के साथ (एकात्मता का बोध करने वाला ह्रदय) अपने को जुड़ा हुआ मानने वाला ह्रदय होगा।  प्रत्येक मनुष्य का ह्रदय इतना विस्तृत हो सकता है, कि वह समस्त विश्व के साथ एकात्मता का अनुभव कर पाने में सक्षम होगा.         
 किन्तु केवल ह्रदय के विकास करने य़ा विस्तृत बना लेने से ही तो काम नहीं चलेगा।  ह्रदय को अपने भीतर धारण करने के लिये एक शरीर भी तो है ?  उसकी भी आवश्यकता रहती है.इसीलिये शरीर को शख्त, सबल, निरोग, कर्मठ रखना होगा।  शख्त, सबल, निरोग, कर्मठ शरीर बनाने के लिये क्या आवश्यक है ? नियमित रूप से व्यायाम आदि करना आवश्यक है।  इसीलिये खाली हाथ का व्यायाम आदि करने का प्रशिक्षण देना इस शिक्षा का एक अंग होगा। (महामण्डल के पूर्व उपाध्यक्ष में से एक - पश्चिम बंगाल के प्रसिद्ध बॉडी बिल्डर निलमोनी दास ('Iron-man' Nilmoni Das) महामण्डल के प्रथम शारीरिक प्रशिक्षक थे। अभी उनके सुपुत्र श्री स्वप्न दास हैं। )
      उसी प्रकार हमलोगों का मन भी है; बल्कि मन ही तो सबकुछ है। हमारे शास्त्रों में  कहा गया है कि ~मन  ही मनुष्यों के बन्धन और मुक्ति का कारण है !  
 मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । 
इस मन के द्वारा ही हमलोग प्रत्येक कार्य को करने में समर्थ होते हैं।  किन्तु हमलोग अपने मन की हमलोग कोई सुध नहीं लेते, उसका समुचित मूल्य नहीं समझते हैं।  इसीलिये मन हमलोगों के द्वारा उसकी जो इच्छा  हो वही करवा लेता है, और उसके बहकावे में आकार  हमलोग विवेक-विचार किये बिना ही मन जो कुछ चाहता है, उसीको पाने के लिये दौड़ जाते हैं।  हमलोग मन के दास बन गये हैं, किन्तु हमें मन को अपना दास बनाना होगा।  जिस प्रकार मनुष्य अर्थ का भी दास नहीं होता, उसका प्रभु होता है। किन्तु अभी रूपया ही मनुष्य का स्वामी बन गया है, रुपया मनुष्य का दास नहीं है। जिस प्रकार हम सभी लोग रूपये के दास बन गये हैं, उसी प्रकार हमसभी लोग मन के भी दास बन गये हैं।  मन हमारा दास नहीं है, वह हमारे आदेश के अनुसार कार्य नहीं करता। इसीलिये इस बिगड़े हुए मन को पहले अपने वश में लाना होगा !  मन को अपने वश में कैसे लाऊंगा, उसकी पद्धति क्या है ? इस पद्धति को प्रशिक्षण शिविर में सिखाया जायेगा। 
     इसी प्रकार हमलोगों के  ह्रदय का विस्तार कैसे होता है-  भारत के विभिन्न प्रान्तों से आये विभिन्न भाषा-भाषी मनुष्यों के साथ मिलकर शिविर के विविध कार्यक्रमों में भाग लेने से हमारे अनजाने ही वह भी हो जाता है।  इसीलिये मनुष्य-निर्माण पद्धति को स्वामीजी एक सूत्र में कहते हैं- 3H विकास ! ' HAND ' standing for the body, ' HEAD ' standing for one 's itellect and mind; तथा ' HEART ' या हृदय जो मनुष्य की आत्मा की अभिव्यक्ति का माध्यम/यंत्र है, जिसके द्वारा मनुष्य की आत्मा का परिचय प्राप्त होता है।  जैसे किसी किसी मनुष्य को ' महात्मा ' कहा जाता है - ' महात्मा ' का अर्थ क्या है ? वैसा मनुष्य  जिसका ह्रदय अति विस्तृत हो गया हो।  जो ह्रदय सबों के सुख-दुःख को अपने ही सुख-दुःख जैसा अनुभव करने में समर्थ होता है, और जो दुःख-कष्ट में गिरा हुआ है, उसके दुखों को दूर करने के लिये, उसकी सहयता करने के लिये जिसका ह्रदय उसे प्रेरणा देता है, उदबुद्ध करता है, उसके ह्रदय का प्रेम जाग्रत हो जाता है. और वह अपने शरीर की शक्ति, अपना अर्थबल, सब कुछ को वह दूसरे मनुष्यों का दुःख-कष्ट दूर करने में व्यवहार करता है। (महात्मा गाँधी का प्रिय भजन था - वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीर परायी जाने रे !  यही तो है- स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा।  स्वामीजी इसी प्रकार का  मनुष्य (पूर्णतया निःस्वार्थपर  - महात्मा  मनुष्य   य़ा चरित्रवान-मनुष्य का ही निर्माण करना चाहते थे ! 
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{*** उपासक और उपास्य-खण्ड-3 , २१४ / Worshipper and Worshipped -E6/49) " हम उस मनुष्य को देखना चाहते हैं , जिसका विकास समन्वित रूप से हुआ हो -हृदय से विशाल , मन से उच्च और कर्म में महान। ( great in heart, great in mind, great in deed)  हम ऐसा मनुष्य चाहते हैं , जिसका हृदय संसार के दुःख-दर्दों को गहराई से अनुभव करता हो , जो न केवल अनुभव करता हो,वरन उसके मूल कारण को खोज लेने में भी सक्षम हो। हम चाहते हैं ऐसा मनुष्य , जो यहाँ भी न रुके बल्कि उसके हाथ इतने सबल हों, वह उन दुःख के कारणों को दूर करने में समर्थ हो। हम मस्तिष्क (Head), हृदय (Heart) और हाथों (Hand) के ऐसे ही संयोजन (3H) को प्रत्येक युवा में देखना चाहते हैं। हम उस महाकाय मनुष्य का निर्माण क्यों न करें -जो समान रूप से क्रियाशील, ज्ञानवान और प्रेमवान भी हो ? क्या यह असम्भव है ? निश्चय ही नहीं। यही है भविष्य का मनुष्य। इस समय ऐसे तीनों अवयवों के संतुलित विकास द्वारा निर्मित मनुष्य बहुत थोड़ी संख्या में हैं। लेकिन ऐसे मनुष्यों की संख्या तब तक बढ़ती रहेगी जब तक कि समस्त संसार का मानवीकरण नहीं हो जाता। ... धर्म (शिक्षा, निःस्वार्थपरता) वह वस्तु है जो पशु को मनुष्य में और मनुष्य को देवता में उन्नत कर देता है।   
(What we want is to see the man who is harmoniously developed . . . great in heart, great in mind, [great in deed] . . . . We want the man whose heart feels intensely the miseries and sorrows of the world. . . . And [we want] the man who not only can feel but can find the meaning of things, who delves deeply into the heart of nature and understanding. [We want] the man who will not even stop there, [but] who wants to work out [the feeling and meaning by actual deeds]. Such a combination of head, heart, and hand is what we wantWhy not [have] the giant who is equally active, equally knowing, and equally loving? Is it impossible? Certainly not. This is the man of the future, of whom there are [only a] few at present. [The number of such will increase] until the whole world is humanized. Religion is the idea which is raising the brute into man, and man into God.)]           
[स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा - Be and Make' में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक /नेता (C-IN-C) बनने और बनाने को ही महामण्डल युवा प्रशिक्षण शिविर के पाठ्यविषय और पाठ्यक्रम के रूप में निर्धारित कर लिया गया।]   
 

बुधवार, 4 अगस्त 2010

[43] " इस युवा-संगठन के आविर्भूत होने की पृष्ठभूमि ! "

...उन दिनों (1967 के आस-पास ) भारत के कई प्रान्तों में, विशेष रूप से कलकत्ते में युवा वर्ग (Youth) के बीच एक विशेष प्रकार का अस्थैर्य (Unrest) दिखाई देने लगा था, मानो उनके मन को भीतर ही भीतर कोई चीज उद्वेलित कर रही हो- इस प्रकार के लक्षण दिखायी देने लगे थे। वे अब किसी की भी बात मान लेने को तैयार नहीं थे, कुछ भी सुनना नहीं चाहते थे। 
[महामण्डल की स्थापना 1947 में भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बीस साल बाद वर्ष 1967 में हुई थी। और  लगभग उसी समय भारत के पूर्वी भाग (नक्सलबाड़ी) में एक " कृषक आंदोलन " (Agrarian Movement) भी  हुआ था।  जिसके बाद पश्चिम बंगाल, कुछ अन्य पूर्वी राज्यों (बिहार -उड़ीसा)  तथा दक्षिणी भारत के कुछ हिस्सों - विशेष रूप से आंध्र प्रदेश का उच्च शिक्षित युवावर्ग, खुद को ठगा हुआ और दिशाहीन महसूस करने लगा था। और हड़बड़ी में पहले अपने चरित्र-निर्माण और जीवनगठन का कार्य शुरू किये बिना ही, व्यवस्था-परिवर्तन के लिये उतावला हो रहा था। जिसके फलस्वरूप कई शिक्षित युवाओं का जीवन भी नष्ट होने के कागार पर पहुँच गया था।]
..... अद्वैत आश्रम से पार्क-सर्कस तक जयराम महाराज ( स्वामी स्मरणानन्द, रामकृष्ण मिशन के वर्तमान अध्यक्ष)   एवं स्वामी अनन्यानन्द जी (गोविन्द महाराज) के साथ भ्रमण करने के क्रम में एक दिन अनन्यानन्द जी कहने लगे कि, " एक दिन एक लड़का मेरी ओर इशारा करके ; मेरी खिल्ली उड़ाते हुए कह रहा था- " बहुत खाता है न, इसीलिये ऐसा हो गया है !"  चलते चलते महाराज (स्वामी अनन्यानन्दजी ) कह रहे थे -  "उस लड़के की बातों को सुन कर मेरे मन में विचार उठा, आज के युवाओं को यह क्या होता जा रहा है ? यह अच्छी बात नहीं हो रही है। युवाओं के बीच ऐसा कोई कार्य-क्रम अवश्य चलाना चाहिये जिससे उनमे आत्मश्रद्धा बढ़े। "   
उसके बाद उन दोनों ( स्वामी स्मरणानन्द जी एवं स्वामी अनन्यानन्द जी ) के बीच आपस में क्या बातें हुई होंगी इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं है। किन्तु बाद में एक दिन मुझ से उन्होंने कहा-" देखून नवनीबाबू, आमादेर  भक्तरा अनेकेई बलेन जे, आपनारा अनेक किछू करेछेन,किन्तु युवकदेर जोन्य  आपनारा किछू करछेन ना केनो  ? एई जे युवकरा विपथे चले जाच्छे, केमन हये जाच्छे, तादेर मध्ये कोन श्रृंखला बोध तो नेई-ई, कोन रकम एकटा नरम भावउ किछू नेई, सबई जेन भेंगेचूरे किछू एकटा करबे एरकम एकटा भाव, अस्थैर्य, एदेर जन्ये एकटा किछू हउआ दरकार ! " 
  " - देखिये नवनीबाबू, कई भक्त के मुख से हमलोग यह सुनते हैं कि, आप लोग बहुत से (समाजोपयोगी ) कार्यक्रम चलाते हैं, किन्तु युवाओं के लिये आपलोग क्यों कुछ नहीं कर रहे हैं ? ये जो युवकगण कुमार्ग पर चले जा रहे हैं, अजीब ढंग के होते जा रहे हैं, उन लोगों के भीतर किसी प्रकार का अनुशासन तो नहीं ही है, उनके व्यवहार में कहीं से थोड़ी सी विनम्रता भी नहीं झलकती- मालूम पड़ता है जैसे वे हड़बड़ी में (अपने चरित्र का गठन किये बिना ही) सब कुछ तोड़-फोड़ कर कुछ करना चाहते हैं, इन लोगों के लिये कुछ होना आवश्यक है!
तुरन्त फिर वे दोनों सम्मिलित रूप से कहने लगे, किन्तु यह कार्य रामकृष्ण मिशन के सन्यासियों के द्वारा  भी होने वाला नहीं है ! क्योंकि संन्यासी लोग युवाओं के बीच जैसे ही - 'मन को वशीभूत करने के लिये विवेक-प्रयोग ' आदि शैक्षणिक विषयों पर चर्चा करना प्रारम्भ करेंगे कि उनके (मुण्डित मस्तक आदि को देखकर) सामान्य युवाओं के मन में हमलोगों द्वारा बचपन में सुनी हुई " दो छोटे भाई और गणित ट्यूटर "  की कहानी के समान- पहले से ही कुछ शंकायें उठने लगेंगी !
उस बालकथा के अनुसार दो छोटे भाइयों को घर पर ही ट्यूशन देने के लिये एक मास्टर-साहेब आये थे। बारामदे में अपने स्थान पर बैठने के बाद  छत की ओर इशारा करते हुए बच्चों से पूछते हैं, " अच्छा , बताओ तो बच्चों बरामदे के छत में कितने बीम हैं, और कितनी सिल्लियाँ लगी हैं ?) एक भाई (दोनों भाई एक ही कक्षा में पढ़ते थे ) अपने दूसरे भाई को कुहनी मारते हुए कहता है- " अरे भैया, कुछ समझ रहे हो ? ये मास्टर साहेब तो हमें गणित सिखायेंगे रे!" 
बचपन में यह किस्सा सुना था। उसी प्रकार युवाओं के मन में भी शंका होगी कि, पता नहीं इन लोगों असली उद्देश्य क्या है ? सन्यासियों के पास जाने से ही वे लोग हमलोगों को भी सन्यासी बना देंगे य़ा अन्य कुछ बना देंगे। अतः युवा लोग संन्यासियों द्वारा आयोजित किसी शैक्षणिक कार्यक्रम में सम्मिलित ही नहीं होना चाहेंगे।  इसलिए यह कार्य सन्यासियों के माध्यम से नहीं हो सकता है। संन्यासी नहीं, बल्कि गृही-संसारी होकर भी देशभक्त तथा अनुशासित जीवन जीने वाले  कुछ चुने हुए युवा  यदि सामने आयें,  और इस कार्य को करने का बीड़ा स्वयं उठा लें- तब उसका कुछ फल हो सकता है। यही है इस युवा-संगठन के आविर्भूत होने की पृष्ठभूमि !  
      आपस में निर्णय लिया गया कि,  विभिन्न स्थानों में ठाकुर-स्वामीजी के भाव ( रामकृष्ण- विवेकानन्द भावधारा ) के उपर विभिन्न स्थानों में कई छोटे छोटे संगठन जो कार्य कर रहे हैं, और उनमे से जो लोग यहाँ (अद्वैत आश्रम में ) आना-जाना  करते हैं उनमे से कुछ व्यक्तियों को बुला कर अद्वैत आश्रम में एक मीटिंग किया जाय, और उस बैठक में यह विचार किया जाय कि युवाओं को साथ में लेकर क्या कुछ किया जा सकता है ?
उस प्रथम बैठक में कितने लोग आये थे, मुझे ठीक से याद नहीं है; फिर भी अगर बहुत होंगे तो बारह-चौदह व्यक्ति से अधिक नहीं रहे होंगे।  वे लोग आये आपस में विचार-विमर्श हुआ, बैठक में मैंने भी अपना मन्तव्य रखा.वे सभी लोग मेरे लिये अपरिचित थे और मैं भी उनके लिये अपरिचित था.उनमे से कोई भी व्यक्ति मुझको नहीं पहचानते थे. वे लोग बोले आपने अभी जो कहा वह तो बड़ी अच्छी बात है. एक इससे भी बड़ी बैठक बुलवाई जाये. और उस आगामी मीटिंग को आहूत करने के लिये वे लोग बोले, " हमलोग आपको ही कन्वेनर बनाते हैं | " ( उसी " पहली- बैठक " के बाद क्या स्वामीजी ने आपको पकड़ा था ? वहाँ पर बैठक वाले कमरे में स्वामीजी का कौन सा चित्र लगा हुआ था ?) 
कन्वेनर बनकर फिर से एक नोटिस देकर पुनः कुछ और लोगों को दूसरी बैठक में  बुलाया गया. दुबारा एक मीटिंग हुई, उसमे भी कितने लोग उपस्थित थे मुझे ठीक से याद नहीं किन्तु शायद पच्चीस- तिस लोग रहे होंगे. उस दिन की बैठक के बाद यह तय किया गया कि एक " युवा-संगठन " को स्थापित किया जायेगा !
जिस प्रकार स्वामीजी की भावधारा के निर्मित होने के पीछे ठाकुर हैं (श्रीरामकृष्ण के द्वारा दक्षिणेश्वर में दी गयी शिक्षा है), माँ हैं ( माँ सारदा देवी की प्रेरणा और हिम्मत बढ़ाने की कृपा है ) ठीक उन्ही भावों की बुनियाद पर, युवाओं का जीवन-गठन करना अनिवार्य है- और इसी कार्य को पुरा करने के लिये यह संस्था गठित की जाएगी ! उस संस्था का नाम क्या होगा ? यही प्रश्न जब मुझ से पूछा गया तो मैंने कहा, ' देखिये नाम के विषय में मुझे ज्यादा कुछ कहना नहीं है कि 'यह नाम' रखना होगा य़ा 'वह नाम' रखना होगा- "गोलाप जे नामे डाको, गन्ध वितरे ! " ~ अर्थात गुलाब को चाहे किसी भी नाम से पुकारो, वह तो सुगंध ही विखेरता है ! 
फिर भी, मेरा केवल यही कहना है कि, इस संघ के नाम में ' विवेकानन्द ' नाम  एवं ' युवा संस्था ' यह दोनों रहना आवश्यक है; अर्थात ' विवेकानन्द युवा ' - इतना रहना आवश्यक है. एक व्यक्ति ने कहा यदि इसको ' महामण्डल ' कहा जाय ? मैंने कहा, कहिये. उसके बाद चर्चा होने लगी कि इस संस्था की ' परिधि ' - कहाँ तक होगी ? यह संस्था कितने प्रान्तों में कार्य करेगी ? मैंने कहा कि, " देखून जदि एई काज करते हय, एकटा बड़ काजेई हात दिते जाउया हछे बले मने हय- एटा एकटा शुधू कलकाता वा शुधू पश्चिमबंगे करले फल हबे ना ! एटा सारा भारतवर्षे हउय़ा दरकार ! " 
 - देखिये, यदि हमलोग सचमुच ही इस कार्य को पुरा करने का बीड़ा उठा रहे हैं, तब तो मुझे यही अनुभव होता है कि, हमलोग किसी बहुत बड़े ( महान ) कार्य में हाथ डालने जा रहे हैं, अतः इस संस्था को केवल कलकाता य़ा केवल पश्चमी बंगाल तक ही सीमित कर देने से कोई विशेष फल नहीं होगा, इस कार्य को सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैला देना आवश्यक है ! "   तब सबों ने कहा कि ' अखिल भारत ' रखा जाय. मैंने कहा रखिये। इसी लिये बहुत बड़ा नाम रखा गया- " अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल " नाम के पीछे का इतिहास इतना ही है.
        उसके बाद चर्चा होने लगी महामण्डल की कार्यकारिणी समिति में किन -किन लोगों को रखा जाये? अमुक को लेने से कैसा होगा , उनको लेने से कैसा रहेगा आदि आदि। जो लोग वहाँ उपस्थित थे सबों को तो मैं पहचानता नहीं था, वे लोग ही कमिटी के सदस्य के लिए नामों का प्रस्ताव दे रहे थे। इसी प्रकार कुछ नामों को प्रस्तावित करके उनलोगों ने कहा, इन- इन लोगों को कमिटी में ले लिया जाय। फिर प्रश्न उठा कि प्रेसिडेन्ट कौन होंगे ? मुझसे राय माँगी गयी कि , प्रेसिडेन्ट  किनको बनाया जाय ? 
         मैंने पूछा , आप लोग किस प्रकार के व्यक्ति को अपना प्रेसिडेन्ट बनाना चाहते हैं ? क्या ऐसे किसी व्यक्ति को संस्था का अध्यक्ष बनाना चाहते हैं -जिसका बड़ा नाम-धाम है ? अथवा किसी ऐसे व्यक्ति को चाहते हैं जो अच्छा परामर्श दे सकते हों और आवश्यक्तानुसार कार्यकारिणी समिति की बैठकों में भी सम्मिलित हो  सकते हों ? बोले, हाँ उसी प्रकार के व्यक्ति को चाहते हैं।  मैंने कहा कलकाता के विख्यात लोगों में से कुछ लोगों- जैसे रमेश मजुमदार महाशय ***, सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय  महाशय आदि के साथ मेरा परिचय है।  अन्य कुछ लोग जैसे उस समय के विश्वभारती के उप-आचार्य (Vice -chancellor) कालिदास भट्टाचार्य थे. वे कहीं पर व्याख्यान दे रहे थे, उनके व्याख्यान को सुन कर मैंने कहा, आपका व्याख्यान तो मुझे बहुत ही अच्छा लगा है, किन्तु समूचा भाषण तो याद रह नहीं पायेगा। मुझे आपके व्याख्यान को पढने की इच्छा हो रही है। विश्व - भारती के वाईस चांसलर वे अपने क्लास के लिये जितना लेक्चर लिख कर लाये थे, सम्पूर्ण नोट (प्रबन्ध) को मुझे सौंप दिये- जबकि वे मुझे पहचानते तक नहीं थे. वे बोले, " आप इसको पढने के बाद, इस नोट को डाक से भिजवा दीजियेगा। "  फिर मैंने उसे पढ़ लेने के बाद डाक से भेज दिया. इसी प्रकार से, उस तरह के कई प्रसिद्ध व्यक्तियों के साथ मेरा परिचय था। 
जिस प्रकार रमेश मजुमदार महाशय के साथ- जितना परिचय था उसी के आधार पर ' महामण्डल ' गठित हो जाने के बाद जब स्वामीजी के जन्मदिवश के उपलक्ष्य में एक शोभा-यात्रा (जुलुस) की समाप्ति के बाद सभा को आयोजित करने की बात उठी, तब किसी ने कहा, उस अवसर पर कौन से विशिष्ठ व्यक्ति लेक्चर देंगे ? तब दो-चार लोगों के नाम सामने आये. परन्तु बहुत से लोगों को वे नाम जँचे नहीं. तब मैंने कहा, क्या रमेश मजुमदार महाशय यदि व्याख्यान दें तो ठीक होगा ? सभी खुश हो गये- अरे अरे रमेश मजुमदार महाशय के बोलने से नहीं होगा ? ठीक है, तो मैं उनको कहूँगा. 
वे आयेंगे क्या ?  
मैंने कहा, मैं उम्मीद रखता हूँ कि उनको अनुरोध करने से वे आयेंगे. रमेश मजुमदार महाशय को एक फोन किया।  उधर से बोले, ' नवनी, क्या समाचार ? 'मैंने बताया, हमलोगों का स्वामी विवेकानन्द के नाम पर युवाओं के लिये  इस प्रकार का एक संघ स्थापित किया है, हमलोग मैदान ( कलकाता का मयदान - धरम-तल्ला) में स्वामीजी का जन्मदिन मनाना चाहते हैं, वहाँ पर एक सभा होगी; क्या आप उस सभा में बोलने के लिये आयेंगे ?" हाँ, निश्चय ही आऊंगा ! कब होने वाला है ? " मैंने तारीख बतला दिया। उन्होंने फिर पूछा - " मयदान में कहाँ पर होगा ?  मैंने कहा ठीक मनुमेंट के नीचे।  तो फिर आपको लाने के लिये मैं किसी को भेज दूंगा. वे बोले, ' नहीं, नहीं, किसीको भेजने की जरुरत नहीं है, ठीक मनुमेंट के नीचे  ही तो ?  मैं खुद वहाँ पहुँच जाऊंगा! '  वे स्वयम वहाँ आये और व्याख्यान देकर चले गये- इसी तरह का परिचय था। किन्तु मैदान ( धरमतल्ला मैदान ) में स्वामीजी का जन्मदिन आयोजित करने का अनोखा विचार (हसरत, अरमान) पहले पहल स्वामी रंगनाथानान्दजी के मन में आया था। 
एक दिन उन्होंने मुझसे कहा- " Nabani, bring Swami Vivekananda to maidan ! "  वहाँ पर केवल राजनीतिक मीटिंग होते हुए ही लोगों ने देखा है, तुम वहाँ पर स्वामीजी को ले आओ ! 
    वहाँ उपस्थित जनसमुदाय के बीच स्वामीजी की वाणी को सुनाओ ! तब से शुरू होकर आज तक, कितने ही वर्ष बीत चुके हैं- वह ' आम-सभा ' जिसमे उपस्थित व्यक्ति सचमुच लाभ उठा सकते हैं, वहाँ होता चला आ रहा है।  किन्तु हाल-फ़िलहाल में, एक-दो वर्षों से, वह सभा धरमतल्ला में न होकर हेदुआ में ( स्वामीजी के घर के निकट ) आयोजित होती है।
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Interview with R.C. Majumdar: 
The history may repeat itself but great historians like Dr. R.C. Mazumdar are rarely born again. Just before he passed away in 1980, I met with him at his residence in Calcutta. Excerpts from the interview.-- Jyotsna Kamat : (Interview conducted on  April 29, 1979/Article First Published: May 1980 in Mallige Monthly.This Web Page Last Updated: June 15,2010)
Ramesh Chandra Majumdar was born in 1888 in East Bengal (present day Bangladesh) in the village of Khandarapara of Faridapur District. His talent knew no bounds, like the Padma (Podda) river that flows there. The story of this famous historian is also interesting. In East Bengal, there are rivers, lakes, and streams everywhere, and children grow up with water. In Majumdar's house, even to go from one room to another, he had to walk in ankleful of water! When it poured, the whole house was flooded. When he was an infant, one day he was about to be swept away in the floods in the night. "Somehow my aunt was woken up, and I am alive today to tell you my story." -- He laughed.

Childhood Memoirs

"In those days, there were neither buses nor trains; there were not even the roads. So learning swimming was inevitable. No need for fuel, no need to stand in the line (in 1980 when this interview was held, there was fuel shortage in India and it was common to stand in a queue for hours to purchase kerosene or petrol), just jump into the water and swim to the destination! When we went to school we used to make rafts from the banana tree stamps or hollow palm logs to stay dry. There were palm leaves to write upon, but in my school, we preferred banana leaves as they were available in plenty. We used sharp bamboo sticks to write on them. There were no girls in my class. Probably helping boys to focus on learning." He winked and laughed.

R.C. Majumdar 1888 - 1980
"The girls were married when very young. It was believed that an educated woman is bad for husband's longevity and education was not offered to them. (see also: Women of India section at this site) They taught us using textbooks written by Ishwar Chandra Vidyasagar. When I graduated after learning in Dhaka and Calcutta,Vice-Chancellor . 
"I was encouraged by Ashutosh Mukherji to take up graduate studies and was ranked 1st to the university. In those days, the most attractive job was that of a deputy magistrate. I had gotten through the preliminary interviews, but just as I was to leave for the final interview to complete the process, my wife fell ill, and I could not go. My life changed completely because of this. 
I became a teacher instead. I took to research, and got a doctorate. When the University of Dhaka was started in 1921, I became its first professor. Even in those days, they paid me 1000 Rupees of salary a month with servants, house, and a car. Eventually I became the vice-chancellor of the university.
In those days, the teachers and professors earned that position through merit and the students respected them as well as loved them. However, there were problems. It was the time when Gandhi's ideology was taking the country by storm.
During the Saraswati pooja (campus festivities) in the campus, some students and faculty wanted to involve the Harijans (low caste Indians a.k.a. the untouchables). But another student body opposed the move and ambushed me in my office. I patiently waited till their anger subsided, and quietly said  that I was ashamed of my students for opposing such a novel idea.
This did the trick, and the students now wanted to go one step ahead, and wanted to share a meal with the untouchables! I wonder how many educationists wield this type of influence today."

Comprehensive History of India

"Dr. K M Munshi liked my work on ancient Bengal and asked me to work on a comprehensive volume on Indian history. He introduced me to many great scholars. In my seventy years of career that work was to become a great achievement. Dr. Munshi was also a great researcher and historian, and I truly enjoyed working with him.
We did have our differences, but he always let me prevail. Since I could not ignore his opinion, I had to include both view points often contradicting each other, in several places. It took 35 years to complete all the volumes! I was happy that it was completed before Munshiji breathed his last."
"Munshi believed that a government sponsored institution can never document history in a honest manner. I realized this truth in the later years.  
The federal government built an editorial board to document India's freedom struggle with me as the chief editor.
I discovered that other fellow historians were so eager to write history glorifying their friends in politics that I had to get out.
We should not write corrupted history, however bitter the proceedings may be. Many countries have the tradition of changing history as their leaders change. 
We should not let India become one of those. History should be written based on sound proof and reasoning and not focused around famous personalities."
Unambiguous Roots
"As new and more information is becoming available about Indian history, do you think we can expect some changes in what we have believed as our history?"-- I asked pointing to advances in carbon dating technology, satellite imagery and new findings during excavations.
"Indian history is based on strong foundation and I do not think its fundamentals will ever be altered. New information will only confirm what we have believed" -- said he.
"I have been greatly influenced by Ramakrishna Paramahamsa and Swami Vivekananda. I distinctly remember seeing Swami Vivekananda in a public meeting."Two of my best friends became Sanyasis. The first one Madhavanand went on to become the president of the Ramakrishna mission and another, became its vice president. 
When I went to Chicago in 1968, I went to the library where Vivekananda had spoken and retrieved his lectures. They gave me all kinds of cooperation.Even The Chicago Daily Tribune helped me by retrieving their archival microfilms. I do not know when such a day will come in our country where libraries assist the researchers."
Few months after this interview, On February 11, 1980 Dr. R. C. Majumdar passed away. He was 92.  He was great scholar and a genius. His contribution to our nation and Indian history is unparalleled.
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सोमवार, 2 अगस्त 2010

[42]" परानुकरण की पराकाष्ठा के प्रति विक्षोभ "

सम्बुद्धानन्दजी महाराज के मुख से सुनी हुई एक घटना का उल्लेख यहाँ किये बिना रहा नहीं जा सकता. वे बहुत वर्षों तक रामकृष्ण मिशन के बाम्बे (मुंबई) केन्द्र प्रधान रहे थे. उनके समय में अमेरिका के राष्ट्रपति की पुत्री भारतवर्ष को देखने के लिये आयी थी. पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार जहाज से उतरने के बाद , बाम्बे  आश्रम में कुछ दिन रहने के बाद भारत भ्रमण के लिये निकल पड़ी. वापस लौट आने के बाद महाराज ने उनसे पूछा कि, उन्होंने भारत को कैसा देखा ? वे अपना मुँह थोड़ा बिचका कर बोलीं -   
" When America cannot digest  something she vomits it out. 
Europe is there to swallow that vomited matter.Not being able to digest it Europe again vomits it. I saw India unhesitatingly swallowing all that is vommitted by Europe.
( इसका हिन्दी अनुवाद नहीं करना ही अच्छा होगा)  
हाँ तो, उतनी व्यस्तता के कारण- रंगनाथानान्दजी के साथ अब और अधिक मिलना-जुलना सम्भव नही रह गया था. एक बार अचानक कहीं भेंट हो गयी तो बोले-
" Nabani, how are you ? You are quite comfortable now ! " 
मैंने कहा, " No Maharaj.वहाँ पर सोने के लिये जो डनलप का बिछौना मिला है, वैसा मेरे खानदान में कभी किसी ने देखा नहीं है. एयर कन्डीशंड कमरा, डानलो पिलो का बिछावन, मुझे तो रात के समय गिर न जाऊं, गिर न जाऊं लगता रहता है. "  उन्होंने पूछा-  " What about your food ? "
  मैंने कहा, " महाराज काँटा चम्मच-टम्मच घर में था, उन सबका व्यवहार करना जानता हूँ, किन्तु क्या उस प्रकार खाने से संतुष्टि होती है ? "
" Why are you staying there ? Why don't you come and stay with us ? " तुम वहाँ रह क्यों रहे हो ? " 
मैंने कहा, "  महाराज, भाष्यानन्दजी  ने वहाँ रहने को कहा है, इसीलिये मैं हूँ ! "
" No, no, you come here." फिर, और जितने दिनों तक शतवार्षिकी अनुष्ठान चलता रहा,  मुझको सन्यासियों के साथ रख दिये.कुछ दिनों बाद तो गोलपार्क में मेरा आना-जाना बहुत बढ़ गया. वहाँ पर  ' School of Humanistic Studies ' का प्रारम्भ हुआ था. लगभग एक वर्ष तक उसमे भी भर्ती हुआ. वहाँ पर संध्या के समय विभिन्न विषयों पर कुछ लेक्चर इत्यादि हुआ करता था.उसके प्रोग्राम को बहुत सुन्दर ढंग से निर्धारित किया गया था. वैसे अनेक विषयों को जिन्हें साधारणतया जान लेना सबों के लिये प्रयोजनीय होते हैं, ऐसे विषयों के ऊपर कई विशिष्ट वक्ता, इन विषयों में जो सम्यक जानकारी रखने वाले अध्यापक आदि थे, वैसे विषय पर उनसे व्याख्यान दिलवाया जाता था एवं उस भाषण का सारांश पहले से ही समस्त श्रोताओं में वितरित कर दिया जाता था.
कुछ दिनों तक रहते रहते एक रोज भाष्यानन्दजी बोले, ( वे ही उस प्रोग्राम कि देखरेख किया करते थे ) - " You take charge of this." फिर तीन वर्षों तक इस " School of Humanistic Studies " - के समस्त कार्यक्रमों  को सन्चालित करना, उसकी व्यवस्था देखना आदि जैसे कार्यों में लगा रहा. इसी प्रकार जो पब्लिक लेक्चर इत्यादि होते थे, उसमे जिन वक्ताओं को आमन्त्रित किया जाता था, उनको साथ में ले आना, उनकी यथोचित आतिथ्य प्रदान ( आव-भगत) करना, उनको सभा-कक्ष में ले जाकर व्याख्यान दिलवाना, उनके वापसी का इन्तजाम करना. यह सब देख कर बहुत से लोग यह सोचते थे कि, शायद मैं भी यहीं का एक कर्मचारी होऊँगा, य़ा इसमें संलग्न अन्य कोई कर्मी होऊँगा और क्या ! बहुत समय तक इसी प्रकार चला.
इसी बीच एक दिन भाष्यानन्दजी बोले, " नवनी, एक दिन तुमलोगों के घर जाऊंगा | "  मैंने कहा, "महाराज, यह तो मेरे लिये बहुत आनन्द की बात होगी | " इस पर उन्होंने कहा- " नहीं, तुम्हारे आनन्द के लिये नहीं जाऊंगा; मेरा कुछ अपना काम है." मैंने कहा, " जी बहुत, अच्छा !" वे बोले -
" मैं अमेरिका जाने वाला हूँ. मुझको शिकागो भेजा जा रहा है. अमेरिका तो जा रहा हूँ, किन्तु अभी तक मैंने ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं देखा है- जिसने स्वामीजी को देखा हो !
" शुनेछि तोमार ठाकुरदादा स्वामीजी के देखेछिलेन ! ताई तोमार ठाकुर दादा के देखते जाबो ! " 
(- मैंने सुना है कि तुम्हारे बाबा (पितामह) ने स्वामीजी को देखा था, इसीलिये तुम्हारे पितामह को देखने के लिये जाऊंगा !
इसके बाद मेरे घर जाने का एक दिन तय हो गया. उस दिन मेरे घर कौन-कौन गये थे सभी के नाम मुझे याद नहीं हैं, किन्तु ८-१० सन्यासी लोग मेरे घर पर आये थे.स्वामी रंगनाथानान्दजी भी आये थे. भाष्यानन्दजी का ट्रांसफर हो चुका था, इसीलिये उनकी जगह पर असिस्टेंट सेक्रेट्री होकर स्वामी अनन्यानन्दजी लन्दन से आये थे. वे, भाष्यानन्दजी, स्वामी निरामयानन्दजी, इत्यादि कई वरिष्ठ सन्यासी गण दो-तीन गाड़ियों में बैठ कर खड़दह आये थे.

हमलोगों के देश में घर में पधारे हुए सन्यासियों की अभ्यर्थना जिस रीति से की जाती है, उसके अनुसार प्रवेशद्वार पर (उठाने ) उन सभी के चरणों को (पीतल के कठौते में रख कर) धोया गया.(फिर तौलिये से पोछ दिया गया). मेरे पितामह प्रत्येक साधु के गले में फूलों की माला पहना दिये. 
फिर उनलोगों के साथ पितामह की बातचीत होने लगी, उनलोगों की बैठक बहुत देर तक चली. सभी लोग एक साथ बैठ कर भोजन ग्रहण किये.भोजनोपरान्त वापस लौटते समय मोटा-मोटी यह जाना गया कि कौन कहाँ से आये थे. मालूम पड़ा कि दो सन्यासी अद्वैत आश्रम से आये थे.उनमे से एक सन्यासी, स्वामी स्मरणानन्दजी (जयराम महाराज )  अभी वर्तमान में (सन २०१० में ) " रामकृष्ण मठ मिशन " के 'सह-अध्यक्ष' (Vice -President ) हैं !
उस समय मैं उनको नहीं पहचानता था, उनके साथ मेरा परिचय नहीं हुआ था. उन्होंने कहा, " नवनिबाबू, आप अद्वैत आश्रम में क्यों नहीं आते हैं ? " मैंने कहा, महाराज बहुत से स्थानों में जाना सम्भव नहीं हो पाता, मैं तो पहले ( स्वामी रंगनाथानन्दजी के आने से पहले ) गोलपार्क भी नहीं जाता था. अभी रंगनाथानन्द जी के व्याख्यानों  को सुनने के लिये वहाँ जाता हूँ, और अन्यान्य स्थानों में भी कभी कभी गया हूँ. कुछ दिनों के बाद स्वामी अनन्यानन्दजी गोलपार्क से अद्वैत आश्रम में चले आये.
किन्तु बाद में अद्वैत आश्रम में आना-जाना शुरू कर दिया. फलसवरूप अब प्रतिदिन गोलपार्क नहीं जा पाता था, ऑफिस के बाद रोज अद्वैत आश्रम ही जाया करता था, वह नजदीक भी पड़ता था. आते जाते ऐसा होगया कि वहाँ पहुँचते ही तीसरे तल्ले पर लेजा कर कुछ चाय-वाय खिलाते थे. चाय-वाय करके संध्या के समय में जयराम महाराज और स्वामी अनन्यानन्दजी - ये दोनों व्यक्ति टहलने के लिये थोड़ा बाहर जाते थे. वे लोग अद्वैत आश्रम से निकलकर पार्क-सर्कस तक जाते थे, मैं भी उनके साथ जाया करता था.
उनदिनों विशेष कर कलकत्ते में एवं अन्य भी कई जगहों पर, युवाओं के भीतर एक प्रकार का अस्थैर्य (छटपटाहट ) जैसा, मानो भीतर भीतर कहीं कुछ (परानुकरण की पराकाष्ठा के प्रति विक्षोभ ) चल रहा हो, ऐसा भाव परिलक्षित होने लगा था.                   
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{ Swami Bhashyananda (1917-1996)
 
Born April 18, 1917 in Akola in Maharashtra state, Swami Bhashyananda was given the name Vasant Vishwanath Natu.


His father, Vishwanath Vasudev Natu, and his mother, Annapurna, were pious, orthodox brahmins, and he began his Vedic studies in early childhood. 


At the age of five his father began to teach him how to sit for meditation.

Vasant received his Master in Arts from the University of Nagpur in central India, and held the highest academic degree at that time in Sanskrit from a recognized Indian university. 

Before graduating from college, he began to attend and finally joined the Ramakrishna order in Nagpur in about 1936.

Under the guidance of his Guru, Swami Virajananda, then president of the Ramakrishna Math and Mission, he practiced Raja yoga for several years. 



In 1962 he was transferred to Calcutta 
to assist Swami Ranganathananda
in the work of 
the Ramakrishna Mission Institute of Culture,
where he became assistant director.

In 1964 he was transferred to New York to assist Swami Nikhilananda, where he became well adjusted to American ways. And finally,



on July 28, 1965, on the passing of Swami Vishwananda, he was appointed Swami-in-Charge of the Vivekananda Vedanta Society in Chicago.

Swami Bhashyananda's work in Chicago was distinguished by vigorous expansion. Within a year of taking charge, the congregation of the center tripled and in 1966 he moved the center from its Elm Street location to its present address.


He also purchased a nearby bungalow for use of women devotees. His most dramatic expansion of the Society was the purchase and development of the Ganges Retreat facility in Ganges, Michigan.

Swami Bhashyananda was a frequent traveler, making semi-annual pilgrimages to India and dividing his time between Chicago and Ganges, as well as establishing over 40 "satellite" Vedanta groups throughout the United States and Canada.

A tall, well-proportioned, athletic man with regal features and a broad smile, Swami possessed an excellent sense of humor, and was an able story teller. His knowledge of the Hindu scriptures was broad and he had a talent of making lucid the most abstruse philosophical points.

In college, wrestling and soccer had been favorites of his and after the Vedanta Center moved to its present location in the Hyde Park area of Chicago, he would take long walks along the lakefront. Once, he and two of the bramhacharis took a walk that lasted for 22 miles!

In the mid-1980's, Swami Bhashyananda suffered the first of eight strokes. He continued to perform his duties as Swami-in-Charge for several more years, before Swami Chidananda was sent from India to assist him.

He passed away on October 4, 1996}