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शनिवार, 7 अगस्त 2010

[44] " स्वामी विवेकानन्द निर्देशित शिक्षा-प्रणाली "

-अद्वैत आश्रम में  जनवरी 1968 में आयोजित महामण्डल की दूसरी बैठक में लिए गए निर्णय के अनुसार उस नव आविर्भूत युवा संगठन का नाम ' महामण्डल ' (अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ) निर्धारित हो गया। प्रख्यात शिक्षाविद और प्रेसीडेन्सी कॉलेज कोलकाता, में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक अमियदा (श्री अमिय कुमार मजूमदार) महामण्डल के प्रथम अध्यक्ष बने। (उस समय अमियदा 'Indian Philosophical Congress' के सचिव थे तथा डॉ ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन उसके अध्यक्ष थे।)
 अब हमलोगों को स्वामी विवेकानन्द निर्देशित शिक्षा प्रणाली के अनुसार, अरियादह में महामण्डल का " प्रथम अखिल भारत वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर " शिविर आयोजित करने की तैयारी करनी थी। प्रश्न यह उठा कि उस नव आविर्भूत युवा संगठन-  'महामण्डल ' द्वारा  के आदर्श (Role Model) , उद्देश्य और पाठ्यक्रम  (Purpose and Syllabus-curriculum)  तथा प्रशिक्षक कौन हों -संन्यासी या अनुशासित जीवन में प्रतिष्ठित कोई गृहस्थ ?
..... दूसरी बैठक में उपस्थित सभी लोगों ने सर्वसम्मत निर्णय लिया कि - यह सब तय करने के लिये आगे जो कुछ भी सोचना या करना है , वह आपको ही (नवनीदा को ही) करना है ! फिर यही विचार मन में रात-दिन चलने लगा।  
पहले मन में प्रश्न उठा कि इस ' युवा महामण्डल ' का आदर्श-पुरुष (Ideal-प्रेरणाश्रोत/ इष्ट) किसको बनाना चाहिये ?  स्वाभाविक उत्तर है कि युवा महामण्डल के आदर्श-पुरुष (प्रेरणाश्रोत/ इष्ट/ साँचा य़ा Role -Model) तो चिर-युवा  स्वामी विवेकानन्द ही हो सकते हैं ! क्योंकि स्वामी विवेकाननन्द की विचारधारा ~ "भौतिकवाद और अध्यात्मवाद में समन्वय" की बुनियाद पर युवाओं के बीच इस प्रकार का कार्य करना होगा जिससे उनके भीतर सुमति (सदबुद्धि) वापस आजाय, य़ा युवा-वर्ग सुमति ( आत्मश्रद्धा ) प्राप्त करने में सक्षम हो जाएँ ! इस युवा-संगठन का मूल कार्य तो यही है। इसीलिये उस नव आविर्भूत युवा संगठन के आदर्श हैं  - स्वामी विवेकानन्द !  (महामण्डल का  कार्यक्षेत्र य़ा)  कार्य की परिधि है - सारा भारतवर्ष !  
 सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह था कि युवा-प्रशिक्षण शिविर के लिए स्वामी विवेकानन्द निर्देशित प्रशिक्षण -पद्धति (शिक्षा प्रणाली) कैसी होनी चाहिये ? युवा -प्रशिक्षण का उद्देश्य, पाठ्यविषय और पाठ्यक्रम (syllabus and curriculum) क्या होना चाहिये ?  यह संगठन किस प्रकार अपना कार्य करेगा ? स्वामीजी बार बार यही कहते थे कि, Man-making and Character Building Education - मनुष्य निर्माण एवं चरित्र-गठन करने वाली शिक्षा सभी युवाओं को देनी होगी ! क्योंकि प्रचलित शिक्षा व्यवस्था में युवाओं को चरित्र-निर्माण की पद्धति नहीं सिखाई जाती है।   
आज (स्वतंत्र भारत में ) भी देश में ऐसी कोई राष्ट्रीय शिक्षा नीति नहीं है जिसमे - मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-गठन कराने की शिक्षा देने की व्यवस्था हो, और पहले (गुलाम भारत में ) तो खैर ऐसी शिक्षा देने का सवाल ही नहीं था। उसके भी और पहले की तो -बात ही अलग थी। जिस समय में नेताजी सुभाष चन्द्र स्कूल में पढ़ते थे, या जब उन्हीं के जैसे अन्य लोग स्कूल में पढ़ते थे, जिन्होंने देश के लिये प्राण न्योछावर कर दिये थे , या त्यागने के लिये प्रस्तुत थे, उनके समय के शिक्षक लोग दूसरे ही ढंग की चीज (प्रेरणा) छात्रों को देते थे. किन्तु यह चीज (संजीवनी-बुट्टी 3 'H ' - विकास की शिक्षा ) तो उनके समय में भी नहीं थी !
इसी के पहले वाली शताब्दी के साठवें दशक तक, सत्तर के दशक तक भी नहीं था।  तब इसके ऊपर चिन्तन करना पड़ा, और (विवेकानन्द साहित्य का मन्थन कर) स्वामीजी द्वारा प्रदत्त मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-गठन की पद्धति ~ 'Be and Make' को ढूंढ़ कर महामण्डल की कार्यपद्धति के रूप में निर्धारित कर लिया गया। 
 फिर यह तय हुआ कि "  स्वामी विवेकानन्द निर्देशित शिक्षा-प्रणाली " के अनुसार ' चरित्र-गठन ' एवं ' मनुष्य- निर्माण ' के कार्य को सारे भारतवर्ष में फैला देना, अर्थात भारत का कल्याण (Welfare of India) ही इस संघ का उद्देश्य होगा ! 
अब इसका एक Leaflet (पत्रक) लिखा गया और शिविर आयोजित होने से पहले ही उसको छपवा कर परिचित लोगों के बीच वितरित कर दिया गया। (सभी विद्यालयों , विश्वविद्यालयों में वह पत्रक, शिविर-नियमावली, आवेदन -प्रपत्र आदि को पोस्ट के द्वारा भेज दिया गया। उस Leaflet का  प्रथम हिन्दी प्रारूप 1988 में तैयार किया गया ! ) फिर ' महामण्डल का आदर्श और उद्देश्य '  शीर्षक देकर एक छोटी सी पुस्तिका तैयार की गयी। ये सभी कार्य ऑफिस के टेबल पर बैठ कर ही करने पड़ते थे। बहुत से लोग पूछते थे- आप ऑफिस के कार्य कैसे निबटाते हैं ?  ऑफिस के काम की मैंने कभी उपेक्षा नहीं की है, उस समय तक नौकरी करते हुए मुझे कई वर्ष हो चुके थे।  क्योंकि बहुत कम उम्र में ही मुझे नौकरी में आना पड़ा था, एवं विभिन्न स्तर पर मैंने कार्य किया है। उस समय जितने कार्यों का दायित्व मेरे ऊपर था, उन समस्त कार्यों का उचित ढंग से निष्पादन करने में एक पुरा दिन लग जाना तो दूर रहा, सारे कार्य दिन के एक-चौथाई समय में ही समाप्त हो जाते थे। 
निष्ठापूर्वक कार्यों का निष्पादन करने के फलस्वरूप मेरे कार्यालय के जो प्रधान थे, उन्होंने स्पष्ट आदेश दे रखा था कि, समस्त फ़ाइल चाहे जिस किसी के पास भी जाएँ, उसके  दस्तावेज य़ा विवरण एकबार इनके पास अवश्य भेजनी होगी।  उसके बाद ही कोई चिट्ठी डिसपैच के लिये भेजी जा सकेगी। बाद में मैंने हिसाब लगाकर देखा था कि, दिन भर में 150 के करीब फाइलें मेरे पास आया करती थीं।  किन्तु ऑफिस के किसी भी आज के फ़ाइल को, कल के लिये कभी पेन्डिंग नहीं छोड़ा। मैं यदि कभी यह पाता कि कोई आवश्यक फ़ाइल अपराह्न में तीन बजे आ गया है, तब मैं डिसपैच सेक्सन को खबर कर देता कि- ' पाँच बज जाने के बाद भी एक चपरासी को रोक लीजियेगा। और डायरेक्टर के स्टेनो-बाबू ( stenographer ) को ही बुलवा लेता था। क्योंकि डायरेक्टर ने बोल रखा था कि  आपको जब कभी जरुरत हो, मेरे साथ मिल सकते हैं।  
      उनको बुलवाकर साथ ही साथ उस फ़ाइल की उचित व्यवस्था करके पाँच बज जाने के बाद भी उसको भिजवा देना य़ा बहुतजरुरी फ़ाइल रहा तो जल्दी-जल्दी उसे  हाथो- हाथ राइटर्स बिल्डिंग में मिनिस्टर के पास य़ा सेक्रेटरी के पास ही सीधा भिजवा देता था।  मैंने स्वयं आजमा कर देखा है कि, पूरे दिन के एक-चतुर्थांश य़ा बहुत हुआ तो एक-तृतीयांश समय में ही सारे दिन का कार्य समाप्त  हो जाता था।  
यदि किसी कार्य के लिये और भी कुछ जानकारी, य़ा और कुछ तत्थ्य संग्रह किये बिना पुरा करना सम्भव नहीं रहता तो, उनको कलेक्ट करने में जितना समय लगता, उतनाही समय तक उस फ़ाइल को अपने पास रखता था.इसीलिए कह सकता हूँ कि ऑफिस के काम के प्रति कोई लापरवाही दिखाए बिना, ऑफिस के टेबल पर बैठ कर ही  मनः संयोग , चरित्र-गठन , चरित्र के गुण आदि कई महामण्डल पुस्तिकाएँ लिखी गयीं हैं।  घर में वापस लौटने के बाद, रात्रि में भी काम करना पड़ता था, कभी कभी तो देर रात (डेढ़-दो बजे तक भी) तक काम करना पड़ता था।  
अब प्रश्न उठा कि, स्वामीजी की शिक्षा पद्धति के अनुसार शिक्षा कैसे दी जाएगी ? हमलोग तो स्कूल, कालेज बनायेंगे नहीं।  तब यह तय हुआ कि, महामण्डल के द्वारा युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया जायेगा।  इसके लिये पहले युवाओं का आह्वान करके प्रशिक्षण शिविर परिसर में एकत्र करके रखा जायेगा।  फिर पूरे दिन का एक कार्यक्रम बना कर, उनको चरित्र-गठन किस प्रकार किया जाता है, चरित्र कहते किसे हैं, मनुष्य-निर्माण किस प्रकार होता है, कोई भी मनुष्य का ढाँचा रखने वाला व्यक्ति आखिर ' मनुष्य ' बनता किस प्रकार है, मनुष्य बन कर समाज के लिये क्या किया जा सकता है (सर्वोत्तम समाज-सेवा  किस प्रकार की जाती है) - इन सब विषयों की शिक्षा दी जाएगी।  
 ' स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्देशित मनुष्य-निर्माण की पद्धति के अनुसार '  इस प्रकार से प्रशिक्षण देने की व्यवस्था महामण्डल के सिवा आज भी कहीं और नहीं है।  उस समय (1967 तक ) भी नहीं थी। मनुष्य-निर्माण की पद्धति आखिर है क्या ?  प्रशिक्षण के द्वारा धीरे धीरे मनुष्य कैसे बना जाता है ? स्वामीजी ने तो कहा है, बार बार कहा है कि,मनुष्य के तीन मौलिक components ( अवयव य़ा घटक) हैं-शरीर, मन और ह्रदय ! **  इनको ही हमलोगों के देश में - शरीर, मन और आत्मा भी कहा जाता है !  ये  तीन बातें पहले भी कही जाती थीं, पहले किसी ने कहा ही नहीं हो ऐसा नहीं है।  किन्तु स्वामीजी शरीर, मन, और आत्मा नहीं कहते थे।  क्योंकि- आत्मा  क्या है ? - इसको साधारण मनुष्यों को समझा देना उतना सहज नहीं है।  किन्तु  ह्रदय की भाषा को तो हर कोई समझ लेता है।  ह्रदय वह वस्तु है जिसे आत्मा को अभिव्यक्त करने वाला यन्त्र कहा जा सकता हैं, य़ा माध्यम भी कहा जा सकता है। 
किसी व्यक्ति की आत्मा किस प्रकार कार्य कर रही है, इसको उस मनुष्य के ह्रदय से समझा जा सकता है। मनुष्य का ह्रदय सहानुभूति-सम्पन्न रहना चाहिये, दूसरों के दुःख में दुखी होने वाला, दूसरों के आनन्द में आनन्दित होने वाला विस्तृत ह्रदय, समस्त विश्व के साथ (एकात्मता का बोध करने वाला ह्रदय) अपने को जुड़ा हुआ मानने वाला ह्रदय होगा।  प्रत्येक मनुष्य का ह्रदय इतना विस्तृत हो सकता है, कि वह समस्त विश्व के साथ एकात्मता का अनुभव कर पाने में सक्षम होगा.         
 किन्तु केवल ह्रदय के विकास करने य़ा विस्तृत बना लेने से ही तो काम नहीं चलेगा।  ह्रदय को अपने भीतर धारण करने के लिये एक शरीर भी तो है ?  उसकी भी आवश्यकता रहती है.इसीलिये शरीर को शख्त, सबल, निरोग, कर्मठ रखना होगा।  शख्त, सबल, निरोग, कर्मठ शरीर बनाने के लिये क्या आवश्यक है ? नियमित रूप से व्यायाम आदि करना आवश्यक है।  इसीलिये खाली हाथ का व्यायाम आदि करने का प्रशिक्षण देना इस शिक्षा का एक अंग होगा। (महामण्डल के पूर्व उपाध्यक्ष में से एक - पश्चिम बंगाल के प्रसिद्ध बॉडी बिल्डर निलमोनी दास ('Iron-man' Nilmoni Das) महामण्डल के प्रथम शारीरिक प्रशिक्षक थे। अभी उनके सुपुत्र श्री स्वप्न दास हैं। )
      उसी प्रकार हमलोगों का मन भी है; बल्कि मन ही तो सबकुछ है। हमारे शास्त्रों में  कहा गया है कि ~मन  ही मनुष्यों के बन्धन और मुक्ति का कारण है !  
 मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । 
इस मन के द्वारा ही हमलोग प्रत्येक कार्य को करने में समर्थ होते हैं।  किन्तु हमलोग अपने मन की हमलोग कोई सुध नहीं लेते, उसका समुचित मूल्य नहीं समझते हैं।  इसीलिये मन हमलोगों के द्वारा उसकी जो इच्छा  हो वही करवा लेता है, और उसके बहकावे में आकार  हमलोग विवेक-विचार किये बिना ही मन जो कुछ चाहता है, उसीको पाने के लिये दौड़ जाते हैं।  हमलोग मन के दास बन गये हैं, किन्तु हमें मन को अपना दास बनाना होगा।  जिस प्रकार मनुष्य अर्थ का भी दास नहीं होता, उसका प्रभु होता है। किन्तु अभी रूपया ही मनुष्य का स्वामी बन गया है, रुपया मनुष्य का दास नहीं है। जिस प्रकार हम सभी लोग रूपये के दास बन गये हैं, उसी प्रकार हमसभी लोग मन के भी दास बन गये हैं।  मन हमारा दास नहीं है, वह हमारे आदेश के अनुसार कार्य नहीं करता। इसीलिये इस बिगड़े हुए मन को पहले अपने वश में लाना होगा !  मन को अपने वश में कैसे लाऊंगा, उसकी पद्धति क्या है ? इस पद्धति को प्रशिक्षण शिविर में सिखाया जायेगा। 
     इसी प्रकार हमलोगों के  ह्रदय का विस्तार कैसे होता है-  भारत के विभिन्न प्रान्तों से आये विभिन्न भाषा-भाषी मनुष्यों के साथ मिलकर शिविर के विविध कार्यक्रमों में भाग लेने से हमारे अनजाने ही वह भी हो जाता है।  इसीलिये मनुष्य-निर्माण पद्धति को स्वामीजी एक सूत्र में कहते हैं- 3H विकास ! ' HAND ' standing for the body, ' HEAD ' standing for one 's itellect and mind; तथा ' HEART ' या हृदय जो मनुष्य की आत्मा की अभिव्यक्ति का माध्यम/यंत्र है, जिसके द्वारा मनुष्य की आत्मा का परिचय प्राप्त होता है।  जैसे किसी किसी मनुष्य को ' महात्मा ' कहा जाता है - ' महात्मा ' का अर्थ क्या है ? वैसा मनुष्य  जिसका ह्रदय अति विस्तृत हो गया हो।  जो ह्रदय सबों के सुख-दुःख को अपने ही सुख-दुःख जैसा अनुभव करने में समर्थ होता है, और जो दुःख-कष्ट में गिरा हुआ है, उसके दुखों को दूर करने के लिये, उसकी सहयता करने के लिये जिसका ह्रदय उसे प्रेरणा देता है, उदबुद्ध करता है, उसके ह्रदय का प्रेम जाग्रत हो जाता है. और वह अपने शरीर की शक्ति, अपना अर्थबल, सब कुछ को वह दूसरे मनुष्यों का दुःख-कष्ट दूर करने में व्यवहार करता है। (महात्मा गाँधी का प्रिय भजन था - वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीर परायी जाने रे !  यही तो है- स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा।  स्वामीजी इसी प्रकार का  मनुष्य (पूर्णतया निःस्वार्थपर  - महात्मा  मनुष्य   य़ा चरित्रवान-मनुष्य का ही निर्माण करना चाहते थे ! 
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{*** उपासक और उपास्य-खण्ड-3 , २१४ / Worshipper and Worshipped -E6/49) " हम उस मनुष्य को देखना चाहते हैं , जिसका विकास समन्वित रूप से हुआ हो -हृदय से विशाल , मन से उच्च और कर्म में महान। ( great in heart, great in mind, great in deed)  हम ऐसा मनुष्य चाहते हैं , जिसका हृदय संसार के दुःख-दर्दों को गहराई से अनुभव करता हो , जो न केवल अनुभव करता हो,वरन उसके मूल कारण को खोज लेने में भी सक्षम हो। हम चाहते हैं ऐसा मनुष्य , जो यहाँ भी न रुके बल्कि उसके हाथ इतने सबल हों, वह उन दुःख के कारणों को दूर करने में समर्थ हो। हम मस्तिष्क (Head), हृदय (Heart) और हाथों (Hand) के ऐसे ही संयोजन (3H) को प्रत्येक युवा में देखना चाहते हैं। हम उस महाकाय मनुष्य का निर्माण क्यों न करें -जो समान रूप से क्रियाशील, ज्ञानवान और प्रेमवान भी हो ? क्या यह असम्भव है ? निश्चय ही नहीं। यही है भविष्य का मनुष्य। इस समय ऐसे तीनों अवयवों के संतुलित विकास द्वारा निर्मित मनुष्य बहुत थोड़ी संख्या में हैं। लेकिन ऐसे मनुष्यों की संख्या तब तक बढ़ती रहेगी जब तक कि समस्त संसार का मानवीकरण नहीं हो जाता। ... धर्म (शिक्षा, निःस्वार्थपरता) वह वस्तु है जो पशु को मनुष्य में और मनुष्य को देवता में उन्नत कर देता है।   
(What we want is to see the man who is harmoniously developed . . . great in heart, great in mind, [great in deed] . . . . We want the man whose heart feels intensely the miseries and sorrows of the world. . . . And [we want] the man who not only can feel but can find the meaning of things, who delves deeply into the heart of nature and understanding. [We want] the man who will not even stop there, [but] who wants to work out [the feeling and meaning by actual deeds]. Such a combination of head, heart, and hand is what we wantWhy not [have] the giant who is equally active, equally knowing, and equally loving? Is it impossible? Certainly not. This is the man of the future, of whom there are [only a] few at present. [The number of such will increase] until the whole world is humanized. Religion is the idea which is raising the brute into man, and man into God.)]           
[स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा - Be and Make' में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक /नेता (C-IN-C) बनने और बनाने को ही महामण्डल युवा प्रशिक्षण शिविर के पाठ्यविषय और पाठ्यक्रम के रूप में निर्धारित कर लिया गया।]   
 

बुधवार, 4 अगस्त 2010

[43] " इस युवा-संगठन के आविर्भूत होने की पृष्ठभूमि ! "

...उन दिनों (1967 के आस-पास ) भारत के कई प्रान्तों में, विशेष रूप से कलकत्ते में युवा वर्ग (Youth) के बीच एक विशेष प्रकार का अस्थैर्य (Unrest) दिखाई देने लगा था, मानो उनके मन को भीतर ही भीतर कोई चीज उद्वेलित कर रही हो- इस प्रकार के लक्षण दिखायी देने लगे थे। वे अब किसी की भी बात मान लेने को तैयार नहीं थे, कुछ भी सुनना नहीं चाहते थे। 
[महामण्डल की स्थापना 1947 में भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बीस साल बाद वर्ष 1967 में हुई थी। और  लगभग उसी समय भारत के पूर्वी भाग (नक्सलबाड़ी) में एक " कृषक आंदोलन " (Agrarian Movement) भी  हुआ था।  जिसके बाद पश्चिम बंगाल, कुछ अन्य पूर्वी राज्यों (बिहार -उड़ीसा)  तथा दक्षिणी भारत के कुछ हिस्सों - विशेष रूप से आंध्र प्रदेश का उच्च शिक्षित युवावर्ग, खुद को ठगा हुआ और दिशाहीन महसूस करने लगा था। और हड़बड़ी में पहले अपने चरित्र-निर्माण और जीवनगठन का कार्य शुरू किये बिना ही, व्यवस्था-परिवर्तन के लिये उतावला हो रहा था। जिसके फलस्वरूप कई शिक्षित युवाओं का जीवन भी नष्ट होने के कागार पर पहुँच गया था।]
..... अद्वैत आश्रम से पार्क-सर्कस तक जयराम महाराज ( स्वामी स्मरणानन्द, रामकृष्ण मिशन के वर्तमान अध्यक्ष)   एवं स्वामी अनन्यानन्द जी (गोविन्द महाराज) के साथ भ्रमण करने के क्रम में एक दिन अनन्यानन्द जी कहने लगे कि, " एक दिन एक लड़का मेरी ओर इशारा करके ; मेरी खिल्ली उड़ाते हुए कह रहा था- " बहुत खाता है न, इसीलिये ऐसा हो गया है !"  चलते चलते महाराज (स्वामी अनन्यानन्दजी ) कह रहे थे -  "उस लड़के की बातों को सुन कर मेरे मन में विचार उठा, आज के युवाओं को यह क्या होता जा रहा है ? यह अच्छी बात नहीं हो रही है। युवाओं के बीच ऐसा कोई कार्य-क्रम अवश्य चलाना चाहिये जिससे उनमे आत्मश्रद्धा बढ़े। "   
उसके बाद उन दोनों ( स्वामी स्मरणानन्द जी एवं स्वामी अनन्यानन्द जी ) के बीच आपस में क्या बातें हुई होंगी इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं है। किन्तु बाद में एक दिन मुझ से उन्होंने कहा-" देखून नवनीबाबू, आमादेर  भक्तरा अनेकेई बलेन जे, आपनारा अनेक किछू करेछेन,किन्तु युवकदेर जोन्य  आपनारा किछू करछेन ना केनो  ? एई जे युवकरा विपथे चले जाच्छे, केमन हये जाच्छे, तादेर मध्ये कोन श्रृंखला बोध तो नेई-ई, कोन रकम एकटा नरम भावउ किछू नेई, सबई जेन भेंगेचूरे किछू एकटा करबे एरकम एकटा भाव, अस्थैर्य, एदेर जन्ये एकटा किछू हउआ दरकार ! " 
  " - देखिये नवनीबाबू, कई भक्त के मुख से हमलोग यह सुनते हैं कि, आप लोग बहुत से (समाजोपयोगी ) कार्यक्रम चलाते हैं, किन्तु युवाओं के लिये आपलोग क्यों कुछ नहीं कर रहे हैं ? ये जो युवकगण कुमार्ग पर चले जा रहे हैं, अजीब ढंग के होते जा रहे हैं, उन लोगों के भीतर किसी प्रकार का अनुशासन तो नहीं ही है, उनके व्यवहार में कहीं से थोड़ी सी विनम्रता भी नहीं झलकती- मालूम पड़ता है जैसे वे हड़बड़ी में (अपने चरित्र का गठन किये बिना ही) सब कुछ तोड़-फोड़ कर कुछ करना चाहते हैं, इन लोगों के लिये कुछ होना आवश्यक है!
तुरन्त फिर वे दोनों सम्मिलित रूप से कहने लगे, किन्तु यह कार्य रामकृष्ण मिशन के सन्यासियों के द्वारा  भी होने वाला नहीं है ! क्योंकि संन्यासी लोग युवाओं के बीच जैसे ही - 'मन को वशीभूत करने के लिये विवेक-प्रयोग ' आदि शैक्षणिक विषयों पर चर्चा करना प्रारम्भ करेंगे कि उनके (मुण्डित मस्तक आदि को देखकर) सामान्य युवाओं के मन में हमलोगों द्वारा बचपन में सुनी हुई " दो छोटे भाई और गणित ट्यूटर "  की कहानी के समान- पहले से ही कुछ शंकायें उठने लगेंगी !
उस बालकथा के अनुसार दो छोटे भाइयों को घर पर ही ट्यूशन देने के लिये एक मास्टर-साहेब आये थे। बारामदे में अपने स्थान पर बैठने के बाद  छत की ओर इशारा करते हुए बच्चों से पूछते हैं, " अच्छा , बताओ तो बच्चों बरामदे के छत में कितने बीम हैं, और कितनी सिल्लियाँ लगी हैं ?) एक भाई (दोनों भाई एक ही कक्षा में पढ़ते थे ) अपने दूसरे भाई को कुहनी मारते हुए कहता है- " अरे भैया, कुछ समझ रहे हो ? ये मास्टर साहेब तो हमें गणित सिखायेंगे रे!" 
बचपन में यह किस्सा सुना था। उसी प्रकार युवाओं के मन में भी शंका होगी कि, पता नहीं इन लोगों असली उद्देश्य क्या है ? सन्यासियों के पास जाने से ही वे लोग हमलोगों को भी सन्यासी बना देंगे य़ा अन्य कुछ बना देंगे। अतः युवा लोग संन्यासियों द्वारा आयोजित किसी शैक्षणिक कार्यक्रम में सम्मिलित ही नहीं होना चाहेंगे।  इसलिए यह कार्य सन्यासियों के माध्यम से नहीं हो सकता है। संन्यासी नहीं, बल्कि गृही-संसारी होकर भी देशभक्त तथा अनुशासित जीवन जीने वाले  कुछ चुने हुए युवा  यदि सामने आयें,  और इस कार्य को करने का बीड़ा स्वयं उठा लें- तब उसका कुछ फल हो सकता है। यही है इस युवा-संगठन के आविर्भूत होने की पृष्ठभूमि !  
      आपस में निर्णय लिया गया कि,  विभिन्न स्थानों में ठाकुर-स्वामीजी के भाव ( रामकृष्ण- विवेकानन्द भावधारा ) के उपर विभिन्न स्थानों में कई छोटे छोटे संगठन जो कार्य कर रहे हैं, और उनमे से जो लोग यहाँ (अद्वैत आश्रम में ) आना-जाना  करते हैं उनमे से कुछ व्यक्तियों को बुला कर अद्वैत आश्रम में एक मीटिंग किया जाय, और उस बैठक में यह विचार किया जाय कि युवाओं को साथ में लेकर क्या कुछ किया जा सकता है ?
उस प्रथम बैठक में कितने लोग आये थे, मुझे ठीक से याद नहीं है; फिर भी अगर बहुत होंगे तो बारह-चौदह व्यक्ति से अधिक नहीं रहे होंगे।  वे लोग आये आपस में विचार-विमर्श हुआ, बैठक में मैंने भी अपना मन्तव्य रखा.वे सभी लोग मेरे लिये अपरिचित थे और मैं भी उनके लिये अपरिचित था.उनमे से कोई भी व्यक्ति मुझको नहीं पहचानते थे. वे लोग बोले आपने अभी जो कहा वह तो बड़ी अच्छी बात है. एक इससे भी बड़ी बैठक बुलवाई जाये. और उस आगामी मीटिंग को आहूत करने के लिये वे लोग बोले, " हमलोग आपको ही कन्वेनर बनाते हैं | " ( उसी " पहली- बैठक " के बाद क्या स्वामीजी ने आपको पकड़ा था ? वहाँ पर बैठक वाले कमरे में स्वामीजी का कौन सा चित्र लगा हुआ था ?) 
कन्वेनर बनकर फिर से एक नोटिस देकर पुनः कुछ और लोगों को दूसरी बैठक में  बुलाया गया. दुबारा एक मीटिंग हुई, उसमे भी कितने लोग उपस्थित थे मुझे ठीक से याद नहीं किन्तु शायद पच्चीस- तिस लोग रहे होंगे. उस दिन की बैठक के बाद यह तय किया गया कि एक " युवा-संगठन " को स्थापित किया जायेगा !
जिस प्रकार स्वामीजी की भावधारा के निर्मित होने के पीछे ठाकुर हैं (श्रीरामकृष्ण के द्वारा दक्षिणेश्वर में दी गयी शिक्षा है), माँ हैं ( माँ सारदा देवी की प्रेरणा और हिम्मत बढ़ाने की कृपा है ) ठीक उन्ही भावों की बुनियाद पर, युवाओं का जीवन-गठन करना अनिवार्य है- और इसी कार्य को पुरा करने के लिये यह संस्था गठित की जाएगी ! उस संस्था का नाम क्या होगा ? यही प्रश्न जब मुझ से पूछा गया तो मैंने कहा, ' देखिये नाम के विषय में मुझे ज्यादा कुछ कहना नहीं है कि 'यह नाम' रखना होगा य़ा 'वह नाम' रखना होगा- "गोलाप जे नामे डाको, गन्ध वितरे ! " ~ अर्थात गुलाब को चाहे किसी भी नाम से पुकारो, वह तो सुगंध ही विखेरता है ! 
फिर भी, मेरा केवल यही कहना है कि, इस संघ के नाम में ' विवेकानन्द ' नाम  एवं ' युवा संस्था ' यह दोनों रहना आवश्यक है; अर्थात ' विवेकानन्द युवा ' - इतना रहना आवश्यक है. एक व्यक्ति ने कहा यदि इसको ' महामण्डल ' कहा जाय ? मैंने कहा, कहिये. उसके बाद चर्चा होने लगी कि इस संस्था की ' परिधि ' - कहाँ तक होगी ? यह संस्था कितने प्रान्तों में कार्य करेगी ? मैंने कहा कि, " देखून जदि एई काज करते हय, एकटा बड़ काजेई हात दिते जाउया हछे बले मने हय- एटा एकटा शुधू कलकाता वा शुधू पश्चिमबंगे करले फल हबे ना ! एटा सारा भारतवर्षे हउय़ा दरकार ! " 
 - देखिये, यदि हमलोग सचमुच ही इस कार्य को पुरा करने का बीड़ा उठा रहे हैं, तब तो मुझे यही अनुभव होता है कि, हमलोग किसी बहुत बड़े ( महान ) कार्य में हाथ डालने जा रहे हैं, अतः इस संस्था को केवल कलकाता य़ा केवल पश्चमी बंगाल तक ही सीमित कर देने से कोई विशेष फल नहीं होगा, इस कार्य को सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैला देना आवश्यक है ! "   तब सबों ने कहा कि ' अखिल भारत ' रखा जाय. मैंने कहा रखिये। इसी लिये बहुत बड़ा नाम रखा गया- " अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल " नाम के पीछे का इतिहास इतना ही है.
        उसके बाद चर्चा होने लगी महामण्डल की कार्यकारिणी समिति में किन -किन लोगों को रखा जाये? अमुक को लेने से कैसा होगा , उनको लेने से कैसा रहेगा आदि आदि। जो लोग वहाँ उपस्थित थे सबों को तो मैं पहचानता नहीं था, वे लोग ही कमिटी के सदस्य के लिए नामों का प्रस्ताव दे रहे थे। इसी प्रकार कुछ नामों को प्रस्तावित करके उनलोगों ने कहा, इन- इन लोगों को कमिटी में ले लिया जाय। फिर प्रश्न उठा कि प्रेसिडेन्ट कौन होंगे ? मुझसे राय माँगी गयी कि , प्रेसिडेन्ट  किनको बनाया जाय ? 
         मैंने पूछा , आप लोग किस प्रकार के व्यक्ति को अपना प्रेसिडेन्ट बनाना चाहते हैं ? क्या ऐसे किसी व्यक्ति को संस्था का अध्यक्ष बनाना चाहते हैं -जिसका बड़ा नाम-धाम है ? अथवा किसी ऐसे व्यक्ति को चाहते हैं जो अच्छा परामर्श दे सकते हों और आवश्यक्तानुसार कार्यकारिणी समिति की बैठकों में भी सम्मिलित हो  सकते हों ? बोले, हाँ उसी प्रकार के व्यक्ति को चाहते हैं।  मैंने कहा कलकाता के विख्यात लोगों में से कुछ लोगों- जैसे रमेश मजुमदार महाशय ***, सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय  महाशय आदि के साथ मेरा परिचय है।  अन्य कुछ लोग जैसे उस समय के विश्वभारती के उप-आचार्य (Vice -chancellor) कालिदास भट्टाचार्य थे. वे कहीं पर व्याख्यान दे रहे थे, उनके व्याख्यान को सुन कर मैंने कहा, आपका व्याख्यान तो मुझे बहुत ही अच्छा लगा है, किन्तु समूचा भाषण तो याद रह नहीं पायेगा। मुझे आपके व्याख्यान को पढने की इच्छा हो रही है। विश्व - भारती के वाईस चांसलर वे अपने क्लास के लिये जितना लेक्चर लिख कर लाये थे, सम्पूर्ण नोट (प्रबन्ध) को मुझे सौंप दिये- जबकि वे मुझे पहचानते तक नहीं थे. वे बोले, " आप इसको पढने के बाद, इस नोट को डाक से भिजवा दीजियेगा। "  फिर मैंने उसे पढ़ लेने के बाद डाक से भेज दिया. इसी प्रकार से, उस तरह के कई प्रसिद्ध व्यक्तियों के साथ मेरा परिचय था। 
जिस प्रकार रमेश मजुमदार महाशय के साथ- जितना परिचय था उसी के आधार पर ' महामण्डल ' गठित हो जाने के बाद जब स्वामीजी के जन्मदिवश के उपलक्ष्य में एक शोभा-यात्रा (जुलुस) की समाप्ति के बाद सभा को आयोजित करने की बात उठी, तब किसी ने कहा, उस अवसर पर कौन से विशिष्ठ व्यक्ति लेक्चर देंगे ? तब दो-चार लोगों के नाम सामने आये. परन्तु बहुत से लोगों को वे नाम जँचे नहीं. तब मैंने कहा, क्या रमेश मजुमदार महाशय यदि व्याख्यान दें तो ठीक होगा ? सभी खुश हो गये- अरे अरे रमेश मजुमदार महाशय के बोलने से नहीं होगा ? ठीक है, तो मैं उनको कहूँगा. 
वे आयेंगे क्या ?  
मैंने कहा, मैं उम्मीद रखता हूँ कि उनको अनुरोध करने से वे आयेंगे. रमेश मजुमदार महाशय को एक फोन किया।  उधर से बोले, ' नवनी, क्या समाचार ? 'मैंने बताया, हमलोगों का स्वामी विवेकानन्द के नाम पर युवाओं के लिये  इस प्रकार का एक संघ स्थापित किया है, हमलोग मैदान ( कलकाता का मयदान - धरम-तल्ला) में स्वामीजी का जन्मदिन मनाना चाहते हैं, वहाँ पर एक सभा होगी; क्या आप उस सभा में बोलने के लिये आयेंगे ?" हाँ, निश्चय ही आऊंगा ! कब होने वाला है ? " मैंने तारीख बतला दिया। उन्होंने फिर पूछा - " मयदान में कहाँ पर होगा ?  मैंने कहा ठीक मनुमेंट के नीचे।  तो फिर आपको लाने के लिये मैं किसी को भेज दूंगा. वे बोले, ' नहीं, नहीं, किसीको भेजने की जरुरत नहीं है, ठीक मनुमेंट के नीचे  ही तो ?  मैं खुद वहाँ पहुँच जाऊंगा! '  वे स्वयम वहाँ आये और व्याख्यान देकर चले गये- इसी तरह का परिचय था। किन्तु मैदान ( धरमतल्ला मैदान ) में स्वामीजी का जन्मदिन आयोजित करने का अनोखा विचार (हसरत, अरमान) पहले पहल स्वामी रंगनाथानान्दजी के मन में आया था। 
एक दिन उन्होंने मुझसे कहा- " Nabani, bring Swami Vivekananda to maidan ! "  वहाँ पर केवल राजनीतिक मीटिंग होते हुए ही लोगों ने देखा है, तुम वहाँ पर स्वामीजी को ले आओ ! 
    वहाँ उपस्थित जनसमुदाय के बीच स्वामीजी की वाणी को सुनाओ ! तब से शुरू होकर आज तक, कितने ही वर्ष बीत चुके हैं- वह ' आम-सभा ' जिसमे उपस्थित व्यक्ति सचमुच लाभ उठा सकते हैं, वहाँ होता चला आ रहा है।  किन्तु हाल-फ़िलहाल में, एक-दो वर्षों से, वह सभा धरमतल्ला में न होकर हेदुआ में ( स्वामीजी के घर के निकट ) आयोजित होती है।
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Interview with R.C. Majumdar: 
The history may repeat itself but great historians like Dr. R.C. Mazumdar are rarely born again. Just before he passed away in 1980, I met with him at his residence in Calcutta. Excerpts from the interview.-- Jyotsna Kamat : (Interview conducted on  April 29, 1979/Article First Published: May 1980 in Mallige Monthly.This Web Page Last Updated: June 15,2010)
Ramesh Chandra Majumdar was born in 1888 in East Bengal (present day Bangladesh) in the village of Khandarapara of Faridapur District. His talent knew no bounds, like the Padma (Podda) river that flows there. The story of this famous historian is also interesting. In East Bengal, there are rivers, lakes, and streams everywhere, and children grow up with water. In Majumdar's house, even to go from one room to another, he had to walk in ankleful of water! When it poured, the whole house was flooded. When he was an infant, one day he was about to be swept away in the floods in the night. "Somehow my aunt was woken up, and I am alive today to tell you my story." -- He laughed.

Childhood Memoirs

"In those days, there were neither buses nor trains; there were not even the roads. So learning swimming was inevitable. No need for fuel, no need to stand in the line (in 1980 when this interview was held, there was fuel shortage in India and it was common to stand in a queue for hours to purchase kerosene or petrol), just jump into the water and swim to the destination! When we went to school we used to make rafts from the banana tree stamps or hollow palm logs to stay dry. There were palm leaves to write upon, but in my school, we preferred banana leaves as they were available in plenty. We used sharp bamboo sticks to write on them. There were no girls in my class. Probably helping boys to focus on learning." He winked and laughed.

R.C. Majumdar 1888 - 1980
"The girls were married when very young. It was believed that an educated woman is bad for husband's longevity and education was not offered to them. (see also: Women of India section at this site) They taught us using textbooks written by Ishwar Chandra Vidyasagar. When I graduated after learning in Dhaka and Calcutta,Vice-Chancellor . 
"I was encouraged by Ashutosh Mukherji to take up graduate studies and was ranked 1st to the university. In those days, the most attractive job was that of a deputy magistrate. I had gotten through the preliminary interviews, but just as I was to leave for the final interview to complete the process, my wife fell ill, and I could not go. My life changed completely because of this. 
I became a teacher instead. I took to research, and got a doctorate. When the University of Dhaka was started in 1921, I became its first professor. Even in those days, they paid me 1000 Rupees of salary a month with servants, house, and a car. Eventually I became the vice-chancellor of the university.
In those days, the teachers and professors earned that position through merit and the students respected them as well as loved them. However, there were problems. It was the time when Gandhi's ideology was taking the country by storm.
During the Saraswati pooja (campus festivities) in the campus, some students and faculty wanted to involve the Harijans (low caste Indians a.k.a. the untouchables). But another student body opposed the move and ambushed me in my office. I patiently waited till their anger subsided, and quietly said  that I was ashamed of my students for opposing such a novel idea.
This did the trick, and the students now wanted to go one step ahead, and wanted to share a meal with the untouchables! I wonder how many educationists wield this type of influence today."

Comprehensive History of India

"Dr. K M Munshi liked my work on ancient Bengal and asked me to work on a comprehensive volume on Indian history. He introduced me to many great scholars. In my seventy years of career that work was to become a great achievement. Dr. Munshi was also a great researcher and historian, and I truly enjoyed working with him.
We did have our differences, but he always let me prevail. Since I could not ignore his opinion, I had to include both view points often contradicting each other, in several places. It took 35 years to complete all the volumes! I was happy that it was completed before Munshiji breathed his last."
"Munshi believed that a government sponsored institution can never document history in a honest manner. I realized this truth in the later years.  
The federal government built an editorial board to document India's freedom struggle with me as the chief editor.
I discovered that other fellow historians were so eager to write history glorifying their friends in politics that I had to get out.
We should not write corrupted history, however bitter the proceedings may be. Many countries have the tradition of changing history as their leaders change. 
We should not let India become one of those. History should be written based on sound proof and reasoning and not focused around famous personalities."
Unambiguous Roots
"As new and more information is becoming available about Indian history, do you think we can expect some changes in what we have believed as our history?"-- I asked pointing to advances in carbon dating technology, satellite imagery and new findings during excavations.
"Indian history is based on strong foundation and I do not think its fundamentals will ever be altered. New information will only confirm what we have believed" -- said he.
"I have been greatly influenced by Ramakrishna Paramahamsa and Swami Vivekananda. I distinctly remember seeing Swami Vivekananda in a public meeting."Two of my best friends became Sanyasis. The first one Madhavanand went on to become the president of the Ramakrishna mission and another, became its vice president. 
When I went to Chicago in 1968, I went to the library where Vivekananda had spoken and retrieved his lectures. They gave me all kinds of cooperation.Even The Chicago Daily Tribune helped me by retrieving their archival microfilms. I do not know when such a day will come in our country where libraries assist the researchers."
Few months after this interview, On February 11, 1980 Dr. R. C. Majumdar passed away. He was 92.  He was great scholar and a genius. His contribution to our nation and Indian history is unparalleled.
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सोमवार, 2 अगस्त 2010

[42]" परानुकरण की पराकाष्ठा के प्रति विक्षोभ "

सम्बुद्धानन्दजी महाराज के मुख से सुनी हुई एक घटना का उल्लेख यहाँ किये बिना रहा नहीं जा सकता. वे बहुत वर्षों तक रामकृष्ण मिशन के बाम्बे (मुंबई) केन्द्र प्रधान रहे थे. उनके समय में अमेरिका के राष्ट्रपति की पुत्री भारतवर्ष को देखने के लिये आयी थी. पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार जहाज से उतरने के बाद , बाम्बे  आश्रम में कुछ दिन रहने के बाद भारत भ्रमण के लिये निकल पड़ी. वापस लौट आने के बाद महाराज ने उनसे पूछा कि, उन्होंने भारत को कैसा देखा ? वे अपना मुँह थोड़ा बिचका कर बोलीं -   
" When America cannot digest  something she vomits it out. 
Europe is there to swallow that vomited matter.Not being able to digest it Europe again vomits it. I saw India unhesitatingly swallowing all that is vommitted by Europe.
( इसका हिन्दी अनुवाद नहीं करना ही अच्छा होगा)  
हाँ तो, उतनी व्यस्तता के कारण- रंगनाथानान्दजी के साथ अब और अधिक मिलना-जुलना सम्भव नही रह गया था. एक बार अचानक कहीं भेंट हो गयी तो बोले-
" Nabani, how are you ? You are quite comfortable now ! " 
मैंने कहा, " No Maharaj.वहाँ पर सोने के लिये जो डनलप का बिछौना मिला है, वैसा मेरे खानदान में कभी किसी ने देखा नहीं है. एयर कन्डीशंड कमरा, डानलो पिलो का बिछावन, मुझे तो रात के समय गिर न जाऊं, गिर न जाऊं लगता रहता है. "  उन्होंने पूछा-  " What about your food ? "
  मैंने कहा, " महाराज काँटा चम्मच-टम्मच घर में था, उन सबका व्यवहार करना जानता हूँ, किन्तु क्या उस प्रकार खाने से संतुष्टि होती है ? "
" Why are you staying there ? Why don't you come and stay with us ? " तुम वहाँ रह क्यों रहे हो ? " 
मैंने कहा, "  महाराज, भाष्यानन्दजी  ने वहाँ रहने को कहा है, इसीलिये मैं हूँ ! "
" No, no, you come here." फिर, और जितने दिनों तक शतवार्षिकी अनुष्ठान चलता रहा,  मुझको सन्यासियों के साथ रख दिये.कुछ दिनों बाद तो गोलपार्क में मेरा आना-जाना बहुत बढ़ गया. वहाँ पर  ' School of Humanistic Studies ' का प्रारम्भ हुआ था. लगभग एक वर्ष तक उसमे भी भर्ती हुआ. वहाँ पर संध्या के समय विभिन्न विषयों पर कुछ लेक्चर इत्यादि हुआ करता था.उसके प्रोग्राम को बहुत सुन्दर ढंग से निर्धारित किया गया था. वैसे अनेक विषयों को जिन्हें साधारणतया जान लेना सबों के लिये प्रयोजनीय होते हैं, ऐसे विषयों के ऊपर कई विशिष्ट वक्ता, इन विषयों में जो सम्यक जानकारी रखने वाले अध्यापक आदि थे, वैसे विषय पर उनसे व्याख्यान दिलवाया जाता था एवं उस भाषण का सारांश पहले से ही समस्त श्रोताओं में वितरित कर दिया जाता था.
कुछ दिनों तक रहते रहते एक रोज भाष्यानन्दजी बोले, ( वे ही उस प्रोग्राम कि देखरेख किया करते थे ) - " You take charge of this." फिर तीन वर्षों तक इस " School of Humanistic Studies " - के समस्त कार्यक्रमों  को सन्चालित करना, उसकी व्यवस्था देखना आदि जैसे कार्यों में लगा रहा. इसी प्रकार जो पब्लिक लेक्चर इत्यादि होते थे, उसमे जिन वक्ताओं को आमन्त्रित किया जाता था, उनको साथ में ले आना, उनकी यथोचित आतिथ्य प्रदान ( आव-भगत) करना, उनको सभा-कक्ष में ले जाकर व्याख्यान दिलवाना, उनके वापसी का इन्तजाम करना. यह सब देख कर बहुत से लोग यह सोचते थे कि, शायद मैं भी यहीं का एक कर्मचारी होऊँगा, य़ा इसमें संलग्न अन्य कोई कर्मी होऊँगा और क्या ! बहुत समय तक इसी प्रकार चला.
इसी बीच एक दिन भाष्यानन्दजी बोले, " नवनी, एक दिन तुमलोगों के घर जाऊंगा | "  मैंने कहा, "महाराज, यह तो मेरे लिये बहुत आनन्द की बात होगी | " इस पर उन्होंने कहा- " नहीं, तुम्हारे आनन्द के लिये नहीं जाऊंगा; मेरा कुछ अपना काम है." मैंने कहा, " जी बहुत, अच्छा !" वे बोले -
" मैं अमेरिका जाने वाला हूँ. मुझको शिकागो भेजा जा रहा है. अमेरिका तो जा रहा हूँ, किन्तु अभी तक मैंने ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं देखा है- जिसने स्वामीजी को देखा हो !
" शुनेछि तोमार ठाकुरदादा स्वामीजी के देखेछिलेन ! ताई तोमार ठाकुर दादा के देखते जाबो ! " 
(- मैंने सुना है कि तुम्हारे बाबा (पितामह) ने स्वामीजी को देखा था, इसीलिये तुम्हारे पितामह को देखने के लिये जाऊंगा !
इसके बाद मेरे घर जाने का एक दिन तय हो गया. उस दिन मेरे घर कौन-कौन गये थे सभी के नाम मुझे याद नहीं हैं, किन्तु ८-१० सन्यासी लोग मेरे घर पर आये थे.स्वामी रंगनाथानान्दजी भी आये थे. भाष्यानन्दजी का ट्रांसफर हो चुका था, इसीलिये उनकी जगह पर असिस्टेंट सेक्रेट्री होकर स्वामी अनन्यानन्दजी लन्दन से आये थे. वे, भाष्यानन्दजी, स्वामी निरामयानन्दजी, इत्यादि कई वरिष्ठ सन्यासी गण दो-तीन गाड़ियों में बैठ कर खड़दह आये थे.

हमलोगों के देश में घर में पधारे हुए सन्यासियों की अभ्यर्थना जिस रीति से की जाती है, उसके अनुसार प्रवेशद्वार पर (उठाने ) उन सभी के चरणों को (पीतल के कठौते में रख कर) धोया गया.(फिर तौलिये से पोछ दिया गया). मेरे पितामह प्रत्येक साधु के गले में फूलों की माला पहना दिये. 
फिर उनलोगों के साथ पितामह की बातचीत होने लगी, उनलोगों की बैठक बहुत देर तक चली. सभी लोग एक साथ बैठ कर भोजन ग्रहण किये.भोजनोपरान्त वापस लौटते समय मोटा-मोटी यह जाना गया कि कौन कहाँ से आये थे. मालूम पड़ा कि दो सन्यासी अद्वैत आश्रम से आये थे.उनमे से एक सन्यासी, स्वामी स्मरणानन्दजी (जयराम महाराज )  अभी वर्तमान में (सन २०१० में ) " रामकृष्ण मठ मिशन " के 'सह-अध्यक्ष' (Vice -President ) हैं !
उस समय मैं उनको नहीं पहचानता था, उनके साथ मेरा परिचय नहीं हुआ था. उन्होंने कहा, " नवनिबाबू, आप अद्वैत आश्रम में क्यों नहीं आते हैं ? " मैंने कहा, महाराज बहुत से स्थानों में जाना सम्भव नहीं हो पाता, मैं तो पहले ( स्वामी रंगनाथानन्दजी के आने से पहले ) गोलपार्क भी नहीं जाता था. अभी रंगनाथानन्द जी के व्याख्यानों  को सुनने के लिये वहाँ जाता हूँ, और अन्यान्य स्थानों में भी कभी कभी गया हूँ. कुछ दिनों के बाद स्वामी अनन्यानन्दजी गोलपार्क से अद्वैत आश्रम में चले आये.
किन्तु बाद में अद्वैत आश्रम में आना-जाना शुरू कर दिया. फलसवरूप अब प्रतिदिन गोलपार्क नहीं जा पाता था, ऑफिस के बाद रोज अद्वैत आश्रम ही जाया करता था, वह नजदीक भी पड़ता था. आते जाते ऐसा होगया कि वहाँ पहुँचते ही तीसरे तल्ले पर लेजा कर कुछ चाय-वाय खिलाते थे. चाय-वाय करके संध्या के समय में जयराम महाराज और स्वामी अनन्यानन्दजी - ये दोनों व्यक्ति टहलने के लिये थोड़ा बाहर जाते थे. वे लोग अद्वैत आश्रम से निकलकर पार्क-सर्कस तक जाते थे, मैं भी उनके साथ जाया करता था.
उनदिनों विशेष कर कलकत्ते में एवं अन्य भी कई जगहों पर, युवाओं के भीतर एक प्रकार का अस्थैर्य (छटपटाहट ) जैसा, मानो भीतर भीतर कहीं कुछ (परानुकरण की पराकाष्ठा के प्रति विक्षोभ ) चल रहा हो, ऐसा भाव परिलक्षित होने लगा था.                   
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{ Swami Bhashyananda (1917-1996)
 
Born April 18, 1917 in Akola in Maharashtra state, Swami Bhashyananda was given the name Vasant Vishwanath Natu.


His father, Vishwanath Vasudev Natu, and his mother, Annapurna, were pious, orthodox brahmins, and he began his Vedic studies in early childhood. 


At the age of five his father began to teach him how to sit for meditation.

Vasant received his Master in Arts from the University of Nagpur in central India, and held the highest academic degree at that time in Sanskrit from a recognized Indian university. 

Before graduating from college, he began to attend and finally joined the Ramakrishna order in Nagpur in about 1936.

Under the guidance of his Guru, Swami Virajananda, then president of the Ramakrishna Math and Mission, he practiced Raja yoga for several years. 



In 1962 he was transferred to Calcutta 
to assist Swami Ranganathananda
in the work of 
the Ramakrishna Mission Institute of Culture,
where he became assistant director.

In 1964 he was transferred to New York to assist Swami Nikhilananda, where he became well adjusted to American ways. And finally,



on July 28, 1965, on the passing of Swami Vishwananda, he was appointed Swami-in-Charge of the Vivekananda Vedanta Society in Chicago.

Swami Bhashyananda's work in Chicago was distinguished by vigorous expansion. Within a year of taking charge, the congregation of the center tripled and in 1966 he moved the center from its Elm Street location to its present address.


He also purchased a nearby bungalow for use of women devotees. His most dramatic expansion of the Society was the purchase and development of the Ganges Retreat facility in Ganges, Michigan.

Swami Bhashyananda was a frequent traveler, making semi-annual pilgrimages to India and dividing his time between Chicago and Ganges, as well as establishing over 40 "satellite" Vedanta groups throughout the United States and Canada.

A tall, well-proportioned, athletic man with regal features and a broad smile, Swami possessed an excellent sense of humor, and was an able story teller. His knowledge of the Hindu scriptures was broad and he had a talent of making lucid the most abstruse philosophical points.

In college, wrestling and soccer had been favorites of his and after the Vedanta Center moved to its present location in the Hyde Park area of Chicago, he would take long walks along the lakefront. Once, he and two of the bramhacharis took a walk that lasted for 22 miles!

In the mid-1980's, Swami Bhashyananda suffered the first of eight strokes. He continued to perform his duties as Swami-in-Charge for several more years, before Swami Chidananda was sent from India to assist him.

He passed away on October 4, 1996}

शनिवार, 31 जुलाई 2010

[41] " कर्तव्य निष्ठा " [अंग्रेजी कविता- 'कॉसाबियांका ' (Casabianca)]

स्वामी विवेकानन्द  की शतवार्षिकी
' रामनाम ' सुनने के लिये वेदान्त मठ जाते रहने से केष्टोदा (महामण्डल के वरिष्ट कर्मी पूजनीय उषादा) के साथ मेरी अच्छी जान-पहचान हो गयी थी।  केष्टोदा ने एक दिन कहा, " जानते हैं, स्वामी रंगनाथानान्दजी ( रामकृष्ण मठ मिशन के १३ वें अध्यक्ष ) दिल्ली से स्थानान्तरित होकर कलकाता के गोलपार्क रामकृष्ण मिशन ईन्सटिटिऊड ऑफ़ कल्चर  में आ गये हैं- और वे बड़े असाधारण वक्ता हैं!"    
मैंने कई लोगों के भाषण सुने हैं, राधाकृष्णन (सर्वपल्ली डाक्टर राधाकृष्णन, भारत के पूर्व राष्ट्रपति ) का भाषण भी सुना है.राधाकृष्णन एवं रंगनाथानान्दजी को एक एक साथ सुना है।  उनके जैसा भाषण अपने पूरे जीवन में कभी नहीं सुना है।  उनदिनों मेरी यह बिल्कुल आदत  बन गयी थी कि, ऑफिस से निकलने के बाद, जो पण्डित-व्यक्ति (विशिष्ट शिक्षाविद य़ा ज्ञानी-ध्यानी व्यक्ति) होते थे उनका भाषण होने से, उनको सुनने के लिये मैं अवश्य ही पहुँच जाता था।     
मेरी आदत यह भी थी कि, भाषण सुनने के लिये मैं अपने साथ एक डायरी और पेन लेकर जाता था, और उनके भाषण में से चुने हुए अंश को लिख लिया करता था।  जब मैंने सुना कि ऐसे एक वक्ता आये हैं, तब तो उनको सुनना ही होगा।  एक दिन गोलपार्क चला गया. वहाँ जाने पर देखता हूँ कि, Hall (सभा-भवन) पूरी तरह से ऊपर-नीचे- श्रोताओं से एकदम भरा हुआ है.वे (स्वामी रंगनाथानन्द) आकार बैठे, बैठने के बाद बोलना प्रारम्भ किये.  उनके चेहरे को देखने से कुछ समझ नहीं सका।  रीढ़ की हड्डी बिल्कुल सीधी रख कर बोलते थे।  शान्तिवाचन " सहनाववतु, सहनौ भुनक्तु ...." कहते हुए प्रारम्भ किये।  उस समय गीता के ऊपर उनका धारावाहिक प्रवचन चल रहा था।  थोड़ा सा सुनते ही देखा, अरे वाः! सचमुच ही तो, ये एक बिल्कुल अनोखे वक्ता हैं !
  इसके पहले मैंने राधाकृष्णन का भाषण सुना था, रमेशचन्द्र मजुमदार, सुनीति कुमार चटोपाध्याय, जवाहरलाल नेहरु का भाषण सुना था, कलकाता के तो अनेकों वक्ताओं को तो न केवल सुना था, बल्कि उनका स्नेह भी प्राप्त किया था. इनसब में राधाकृष्णन एवं जवाहरलाल नेहरु ये दोनों ही व्यक्ति अंग्रेजी में भाषण देने वाले अदभुत वक्ता थे।  उनके अंग्रेजी भाषण को भी सुना था. किन्तु वे जिस तरह बोल रहे थे, वैसा तो कभी सुना नहीं था।  मै तो दंग रह गया, साथ-साथ अपनी डायरी में नोट करने लगा।      
भाषण समाप्त हो जाने पर वे धीरे धीरे स्टेज से नीचे उतरे, कई लोग उनको प्रणाम करने लगे. मैं पीछे जाकर, जहाँ से हो कर वे आश्रम में प्रवेश करते, वहीं पर उनके आने की प्रतीक्षा करने लगा. वे बिल्कुल अकेले थे, मैंने प्रणाम किया।  मेरे सिर को उठाते ही हँसते हुए उन्होंने पूछा- " What is your name ? "  बतला दिया. " Good, where do you stay ? " बता दिया. उन्होंने कहा, " Do come, do come here." कह कर चले गये। 
मैं जाने लगा. एक तरह से रंगनाथानान्दजी के पास प्रतिदिन जाय़ा करता था..एक दिन शाम को उनके पास गया पहुँचा, वे अपने ऑफिस के कमरे में बैठ कर कोई कार्य कर रहे थे, मुझे लगा मानो वे कुछ लिख रहे थे. उनके सामने एक कुर्सी थी, मैं उस पर जाकर बैठ गया. उन्होंने मुँह उठा कर देखा तक नहीं.
वे जो लिख रहे थे उसको लिखते हुए ही बोले- " So; Nabani, what are you going to do now? "
मेरे कुछ कहने के पहले ही कहने लगे- " Certainly you will now choose a subject for a Ph.D ! " तो जैसे वे बोल रहे थे,  उन्ही के टोन में, बल्कि थोड़ा जोर देते हुए ही कहा- " Who told you so ? "     
  वे बोले," No, no, its true you never told me that, but Bengalee boys cannot think of anything else. "  फिर मुझे कुछ कहने का अवसर दिये बिना ही बोले, " I say don't do it, do Swamiji's work."  यह सन १९६५ ई०  की बात है. किन्तु बाद में  किसी किसी को Ph.D, य़ा M.Phil करने करने के लिये कहीं कहीं पर बौद्धिक परामर्श अवश्य देना पड़ा है।  
 दूसरी ओर प्रवचन के बाद, अब वे मुझे भी अपने साथ साधु निवास की ओर ले जाने लगे. उनदिनों वहाँ के दक्षिणी गेट (जो अक्सर बन्द ही रहा करता था) के समीप एक छोटे से दोतल्ला मकान में उपरी तल्ले पर बने कुछ छोटे छोटे कमरों में साधु लोग (सन्यासीगण ) निवास करते थे. 
वहीं एक छोटी सी रसोई और भोजन-कक्ष भी था.जो ब्रह्मचारी वहाँ की सारी व्यवस्था देखते थे, उनके पास मुझे लेजाकर बोले- " He is Nabaniharan, he will often come, take care of him." उसके बाद फिर मैं जब कभी भी वहाँ जाता, तो वे मुझे वहाँ बैठा कर कुछ खाने के लिये देते थे, ऐसा अक्सर होता था। 
 स्वामी रंगनाथानान्दजी के साथ मेरा परिचय क्रमशः प्रगाढ़ होता चला गया. आत्मीयता बहुत बढ़ जाने के बाद, कहना शुरू किये- " Today don't go home stay with us. "  इसके बाद सन्यासियों के साथ मुझे भी उसी आश्रम में ठहरा देना, संध्या के बाद जब कभी साधु-ब्रह्मचारियों के लिये कोई विशेष अनुष्ठान हुआ करता उसमे भी वे मुझको अपने साथ ले जाना, उनके साथ मिलवाना बातचीत करना यह सब भी चलने लगा.
क्रमशः वहाँ के जो तत्कालीन Assistant Secretary थे- स्वामी भाष्यानन्द जी उनके साथ भी परिचय हुआ.उन्ही दिनों स्वामी विवेकानन्द  की शतवार्षिकी मानाने का अवसर उपस्थित हुआ. तब भाष्यानन्दजी मुझको कहे- " Nabani, you have to stay and work here. "  मैंने कहा " हाँ महाराज, आऊंगा, करूँगा. " उन्होंने कहा- " नहीं, तुमको यहीं पर रहना होगा. "  उस समय आयोजन में कुछ ही दिन बाकी रह गये थे. 
अमेरिका से कुछ प्राचीन सन्यासीगण आये, अन्यान्य जगहों से भी सन्यासी लोग आना शुरू किये. बहुत से सन्यासी वहाँ निवास कर रहे थे. मुझको अपने साथ ले जाकर भाष्यानन्दजी ईन्टरनेशनल गेस्ट हॉउस में रहने के लिये एक कमरा ठीक कर दिये. और वहाँ का किचेन और डाइनिंग के जगह का जो व्यवस्थापक लोग थे, उनसे मेरा परिचय करवाते हुए बोले, " यह यहीं रहेगा, रोज सुबह, शाम, रात्रि में जब भी आयेगा, उस समय जो भी खाने का हो दे देना." परिचय करा कर चले गये. मैं वहीं रहने लगा.  
अब वहाँ पर कार्य शुरू हो गया.  पार्क सर्कस मैदान में जहाँ पर प्रधान अनुष्ठान होने वाला था, एक बहुत विशाल पण्डाल का निर्माण किया गया था. मेरी डिउटी वहीं पर लगायी गयी थी.किन्तु कुछ व्याख्यान कल्चर के ईन्सटिचियुट में भी होते थे. जैसे वहाँ पर मैंने स्वामी निखिलानन्दजी का व्याख्यान सुना है.और स्वामी प्रभवानन्द जी इसीलिये उनके साथ प्रति दिन मेरी थोड़ी बहुत बातचीत हो जाया करती थी. निखिलानन्द जी का भाषण सुना हूँ, उनकी लिखी पुस्तकों को पढ़ा हूँ. विशेष रूप में उनके द्वारा लिखित स्वामी विवेकानन्द की जीवनी मुझे बहुत अच्छी लगती है. इसे तो मैंने उनसे मिलने से पहले ही पढ़ लिया था. क्नितु उनको देखने एवं उनकी बातें सुनकर बहुत आनन्द हुआ.
पार्क सर्कस मयदान में निर्मित जिस बहुत बड़े पण्डाल में इतना विशाल कार्यक्रम इतने दिनों तक चलने वाला था; उसके टिकट काउन्टर को सन्चालित करने का दायित्व मुझे दिया गया था. बहुत सारे टिकट काउन्टर बनाये गये थे, टिकट बिक्री करने के लिये बहुत से लोगों को नियुक्त किया गया था.किन्तु मेरा कार्य था काउन्टर में टिकट देना, बेचे गये टिकटों का हिसाब रखना, बिक्री से आये समस्त रुपये-पैसों को संभाल कर रखना. तथा भाष्यानन्दजी, अनुष्ठान प्रारम्भ होने के पहले ही मुझको प्रति दिन गोलपार्क से अपनी गाड़ी पर लेजा कर वहाँ उतार देते थे, और सब हो जाने के बाद,  लौटते समय वे मुझे अपने साथ ही लेकर आ जाते थे. मेरे पास रुपयों से भरी एक बड़ी सी झोली (बोरी जैसी ) हुआ करती थी, जिसमे कई प्रकार के नोट, खुचरा आदि सब रखे होते थे.
एक दिन ऐसा हुआ, यह मैं सुबह के समय की बात कह रहा हूँ - निर्धारित गायक के नहीं आने के कारण, वहाँ प्रातः काल में आयोजित होने वाले कार्यक्रम में मुझे ही प्रारंभिक गीत गाना पड़ा था. उस समय तक मैंने एक दो गीत, थोड़ा-बहुत गाना  सीखा था. अतः मुझे याद है कि, प्रातः काल में उपयुक्त समय न रहने से भी, ' तुम्ही ब्रह्म रामकृष्ण '- को मैंने उदघाटन संगीत के रूप में गया था. यह एक विशेष भाग्य जैसा महसूस हुआ था।  
एक रोज रात के समय ऐसा हुआ, सारे दिन का कार्यक्रम शेष हो चुका था, सभी लोग जो जिस व्यवस्था में नियुक्त थे अपना-अपना काम समाप्त करके जा चुके थे.
और मैं भी अपने उसी टिकट काउन्टर के अन्दर था, काउंटर के लिये जो एक बहुत लम्बा सा कमरा बनाया गया था, उसके भीतर रहने से बाहर का दृश्य कुछ दिखता नहीं था. मैं अन्दर बैठ कर सोंच रहा था, भाष्यानन्दजी कब आएंगे, और मुझे ले जायेंगे ! थोड़ी देर बाद मुझे ऐसा लगा जैसे सबकुछ निस्तब्ध हो चुका है, कहीं से कोई आवाज नहीं आ रही थी; काउन्टर से बाहर निकल कर देखता हूँ , तो पूरे पण्डाल में एक भी प्राणी नहीं है और लोहे के बड़े बड़े कोलैपसिबुल गेट में विशाल विशाल ताले झूल रहे हैं.
उसदिन टिकटें भी प्रचूर बिकी थीं. रुपयों से भरी एक लम्बी सी बोरी और बचे हुए टिकटों के अंश को लेकर उस समय मैं जाता भी तो कहाँ ? भय किस चिड़िया का नाम है, इस तरह की कोई चीज कभी महसूस हुई हो मुझे याद नहीं है. ठीक है, अब यहाँ से निकलने नहीं सकूँगा, अब आज तो जाना होगा नहीं, किन्तु इस ' बोरी ' को कहाँ रखूं ? बहुत निरिक्षण-परिक्षण कर के यही तय किया कि रुपयों से भरी इस झोली को लेकर मंच के ऊपर चढ़ा जाय और इसी के ऊपर सिर रख कर सो लिया जाय ! सो भी गया. भोजन तो दूर कि बात, पीने के लिये पानी भी नहीं था. सुबह में उठ कर देखता हूँ कि, गेट खोल कर कुछ लोग आये हैं और सब कुछ की सफाई हो रही है. मैं उस बोरी को लेकर, किसी प्रकार खींचते हुए एक ट्राम पर चढ़ गया, और मौलाली चला आया.
  निकट में ही सूरमहाशय के एक मकान में, स्वामीजी का शतवार्षिकी ऑफिस था.स्वामी सम्बुद्धानन्दजी जो ठाकुर और माँ के विश्वव्यापी शतवार्षिकी कमिटी के सचिव थे, उन्ही के ऊपर इसका दायित्व भी दिया गया था. उनके साथ मेरा बहुत पुराना परिचय था.
 वे उस समय शिमला मोहल्ला के एक भक्त के घर में रहते हुए, स्वामीजी का सिमला वाला पुश्तैनी मकान को बेलुड़ मठ के अधीन लाने के दायित्व का पालन कर रहे थे. तब से लेकर कितने वर्ष बीत जाने के बाद अभी हाल ही में तो स्वामीजी के पुश्तैनी मकान को नये ढंग से सजा-सवांर कर  नया रूप दिया जा सका है. उनकी आदत थी, जाते ही एक डायरी रखते थे, उसको खोलकर नाम लिखते थे कौन आया है.
और मुझसे कहा करते थे :- 
" नबनीहरण मुखोपाध्याय | एदिके आये, देख, हात टा तूले, देख ! 
देख मसल टा देख हातेर, पाएर मसल टा देख, 
घूषी मार, घुषी मार
स्वामीजी बोले छिलेन, ' Muscles of Iron, nerves of steel '
- मेरे ही जैसा, तुझे भी अपना शरीर  हृष्ट-पुष्ट बनाना होगा समझे ?  
उनका चेहरा बिल्कुल विशाल था. स्वामीजी की बातों को अनोखे ढंग से कहा करते थे. उनके ऊपर इतने बड़े अनुष्ठान का पुरा दायित्व दिया गया है, किन्तु उनके चेहरे पर व्यस्तता का एक भी चिन्ह नहीं था. सुबह का सारा कार्य समाप्त कर के शान्त हो कर चुपचाप बैठे थे. जिस समय पर जो कार्य करना होता था, ठीक उसी समय पर निबटा लेते थे. तो वहाँ पर मुझे प्रविष्ट होते देख कर कहते हैं- " नवनी, तुम अभी यहाँ क्यों आये हो ? " मैंने कहा, " महाराज, कल के बचे हुए इन टिकटों को लेकर आया हूँ." वे बोले, " यह तो पहले तुम नहीं लाते नहीं थे ! "
तब मैंने उनको जैसे सारी बातें सुनाई, वे व्यस्त होकर दूसरों को बोले, " पहले उसको खिलाओ, उसके बाद कुछ दूसरा काम होगा- इसने तो सारी रात से कुछ खाया नहीं है !"

वहाँ से जब गोलपार्क लौटा तो मुझको देखते ही भाष्यानन्दजी महाराज ने अपने सिर तक दोनों हाथों को उठा कर कहा, " Oh, what have I done ! " ( अरे, यह मैंने क्या कर डाला ! ) 
मैंने कहा, " महाराज ऐसा कुछ नहीं हुआ है, इतने कार्य में व्यस्त रहने के कारण एक दिन भूल गये तो क्या हो गया, - मुझे थोड़ी भी परेशानी नहीं हुई. एक रात नहीं खाने से, एक रात अच्छी तरह से ना सो पाने से क्या होता है ? कुछ भी फर्क नहीं पड़ता. "                  
वे कहने लगे, " फिर तुमने क्या किया " मैंने कहा- " महाराज, सारे रुपये मैंने सम्बुद्धानन्द महाराज के पास जमा करवा दिये हैं."  वे निश्चिन्त हुए, बोले- " अच्छा, अच्छा, बैठो ! "
और मुझे एक बहुत सुन्दर अभिज्ञता हुई। बहुत अच्छा अनुभव रहा। मैंने अपने अनुभव से जाना कि कार्य करते समय कितना निश्चिन्त होकर रहा जा सकता है ! किसी कठिन से कठिन  परिस्थिति में घिर जाने से भी, 'मनुष्य' में भय का नामो-निशान नहीं रहेगा ! किसी भी आभाव में पड़ने से भी कष्टबोध नहीं होगा; जो भी दायित्व सौप दिया गया हो, उसको सम्पूर्णतया पालन करना होगा। उस अंग्रेजी कविता 'कॉसाबियांका ' (Casabianca^*)  में वर्णित वीर बालक की गाथा के जैसा कर्तव्यनिष्ठ होना होगा; कवि कहता है -

The boy stood on the burning deck
Whence all but he had fled;
The flame that lit the battle's wreck
Shone round him o'er the dead.
  
जहाज में आग लग गई है, लेकिन उस वीर बालक के पिता ने जिस पद का दायित्व सँभालने की आज्ञा दी है , उसे उस पद के दायित्व का पालन करना ही होगा। उसको जहाँ पर खड़े रहने को कहा गया है- उसको वहीं पर खड़ा रहना होगा. आग के डर से भागना नहीं होगा. यदि हम ऐसा कर लिये (अपने कर्तव्य से उन्मत्तप्रेम कर लिए) , तो इस में ही महाआनन्द है !  

[^* अंग्रेजी कविता- 'कॉसाबियांका ' (Casabianca) is a poem in English, It is about the true story of a boy who was obedient enough to wait for his father's ordersyoung Casabianca refuses to desert his post without orders from his father. not knowing that his father is no longer alive. 
 

{उस समय ईशारउड ( Isherwood ) भी वहीं ठहरे थे. सुबह के समय में जब Break-fast करने के लिये, ईन्टरनेशनल गेस्ट हॉउस जाता था, तब स्वामी प्रभवानंदजी, ईशारउड (Isherwood) एवं मैं एक ही टेबल पर बैठते थे!

 Christopher Isherwood

Born at Wyberslegh Hall, High Lane, Cheshire in North West England, Isherwood spent his childhood in various towns where his father, a Lieutenant-Colonel in the British Army, was stationed. After his father was killed in the First World War, he settled with his mother in London and at Wyberslegh.
After visiting New York on their way back to Britain, Auden and Isherwood decided in January 1939 to emigrate to the United States. Their emigration happened just months before Britain entered the Second World War, and exposed them to charges that they lacked patriotism and commitment to the war effort. After a few months with Auden in New York, Isherwood settled in Hollywood, California.
He met Gerald Heard, the mystic-historian who founded his own monastery at Trabuco Canyon that was eventually gifted to the Vedanta Society of Southern California. Through Heard, who was the first to discover Swami Prabhavananda and Vedanta, 

Isherwood joined an extraordinary band of mystic explorers that included Aldous Huxley, Bertrand Russell, Chris Wood (Heard's lifelong friend), John Yale and J. Krishnamurti. He embraced Vedanta, and, together with Swami Prabhavananda, he produced several Hindu scriptural translations, Vedanta essays, the biography Ramakrishna and His Disciples, novels, plays and screenplays, all imbued with the themes and character of Vedanta and the Upanishadic quest. Through Huxley, Isherwood befriended the Russian composer Igor Stravinsky.

In 1931 he met Jean Ross, the inspiration for his fictional character Sally Bowles. He also met Gerald Hamilton, the inspiration for the fictional Mr. Norris. In September 1931 the poet William Plomer introduced him to E. M. Forster.
They became close and Forster served as his mentor. Isherwood's second novel, The Memorial (1932), was another story of conflict between mother and son, based closely on his own family history.
After leaving Berlin in 1933, he moved around Europe, and lived in Copenhagen, Sintra, and elsewhere. He collaborated on three plays with Auden: The Dog Beneath the Skin (1935), The Ascent of F6 (1936), and On the Frontier (1939). 
Isherwood wrote a lightly fictionalized autobiographical account of his childhood and youth, Lions and Shadows (1938), using the title of an abandoned novel. Auden and Isherwood traveled to China in 1938 to gather material for their book on the Sino-Japanese War called Journey to a War (1939).
On Valentine's Day 1953, at the age of 48, he met teen-aged Don Bachardy among a group of friends on the beach at Santa Monica. Reports of Bachardy's age at the time vary, but Bachardy later said " at the time I was, probably, 16." Despite the age difference, this meeting began a partnership that, though interrupted by affairs and separations, continued until the end of Isherwood's life.
During the early months of their affair, Isherwood finished–and Bachardy typed–the novel on which he had worked for some years, The World in the Evening (1954). Isherwood also taught a course on modern English literature at Los Angeles State College (now California State University, Los Angeles) for several years during the 1950s and early 1960s.The more than 30-year age difference between Isherwood and Bachardy raised eyebrows at the time, but the two became a well-known and well-established couple in Southern Californian society with many Hollywood friends.} Swami Prabhavananda Founder of the Vedanta Society of Southern California Swami Prabhavananda was one of the pioneer swamis sent to America by the direct disciples of Ramakrishna to build on the work started by Swami Vivekananda at the turn of the century.

The swami was born in India on December 26, 1893. In 1914, after graduating from Calcutta University, he joined the Ramakrishna Order of India and was initiated by Swami Brahmananda, a direct disciple of Sri Ramakrishna.

In 1923, Swami Prabhavananda came to the United States. After two years as assistant minister of the Vedanta Society of San Francisco, he established the Vedanta Society of Portland. In December 1929, he came to Los Angeles where he founded the Vedanta Society of Southern California the following year.
Under the able care of the swami, the Society grew into one of the largest Vedanta Societies in the West, with monasteries in Hollywood and Trabuco Canyon and convents in Hollywood and Santa Barbara.
Swami Prabhavananda was a man of letters as well as a man of God. He wrote and translated a number of books with the object of making the spiritual classics of India available and understandable to Western readers. He was assisted on several of the projects by Christopher Isherwood or Frederick Manchester.

His comprehensive knowledge of philosophy and religion attracted such disciples as Aldous Huxley and Gerald Heard. His publications, which include the Bhagavad-Gita, The Upanishads, Breath of the Eternal, How to Know God: The Yoga Aphorisms of Pantanjali, The Eternal Companion, and The Sermon on the Mount According to Vedanta, continue to this day to capture interest and draw people to the Vedanta philosophy.

Swami Prabhavananda passed away on the bicentennial of America's independence, July 4th 1976, fitting for one who gave so much of his life to this country.}