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गुरुवार, 22 जुलाई 2010

[38] नादब्रह्म मतं यस्य तस्मै श्रीगुरुवे नमः

महाकाल सब का ग्रास करने के लिये दौड़ रहा है
विषयासक्ति रहे तो सन्यास लेने पर भी कुछ नहीं होता-जैसे थूक को फेंककर फिर चाट लेना|" वीरेश्वरदा 
 कहा करते थे,देखो- सुर, ताल और शब्दों की सहायता से मन की भावनाओं को अभिव्यक्त कर देने को ही संगीत कहते हैं. इसीलिये बहुत दिनों पूर्व बाल-कौतुक (बचपना) के तरंग में आकर मन में यह विचार उठा था कि, गाना सिखाने वाले गुरु का प्रणाम-मन्त्र क्या होगा? मन (बुद्धि) ने उत्तर दिया

" रागश्रुति-लयज्ञानं यस्मिन भावाश्रेये स्थितम |
    नादब्रह्म  मतं  यस्य  तस्मै  श्रीगुरुवे   नमः   ||"

--जिस मनुष्य का मत यह है कि ' ॐ शब्द ' ही ब्रह्म ( प्रथम) है; उन सदगुरु को मेरा नमस्कार है ! इस (स्व-रचित) प्रणाम-मन्त्र को एक दिन उनको (वीरेश्वरदा को) भी सुना दिया, फिर तो उनके आनन्द के ठिकाना न था- वे बहुत खुश हुए!
नाद (शब्द य़ा ॐ ) ही तो ब्रह्म हैं !ब्रह्म तो अनन्त हैं, वे निश्चल हैं, उनका तो कोई ओर-छोर (आदि-अन्त) नहीं है| किन्तु जब वे कम्पायमान (य़ा स्पन्दित vibrate) होते हैं, उसी समय सृष्टि 
(Creation 'or better to say 'Projection ') अस्तित्व में आ जाती है!' नादब्रह्म ' " अर्थात नाद है प्रथम  " { प्रथम य़ा एक ही है- अद्वैत !}  उसी (शब्द ॐ य़ा नादब्रह्म) से प्रक्षेपित (निर्गत) होकर सृष्टि का प्रारम्भ हुआ, और यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आ गया  है !! 
आज का विज्ञान भी इसी बात को अन्य प्रकार से कहता है कि इस जगत में सबकुछ " एक " (महा-विस्फोट अथवा Big -Bang ) से आया है !! धीरे धीरे जगत में प्राणी (य़ा जीव - जिसमे जीवन स्पन्दित होता य़ा धड़कता है) का आविर्भाव हुआ | 
वह प्राणी बिल्कुल सूक्ष्म, ' कीटानुकीट ' छोटा सा कीट य़ा जीव-कोष (जीवाणु जो बढ़कर एक नया प्राणी (SPORE ) हो जाता है-  से आरम्भ करके कितने बड़े बड़े प्राणी ( डायनासोर आदि)की सृष्टि हो गयी वे सभी प्राणी समय के प्रवाह में {जीवों का क्रम- FOOD -CHAIN : जिसमें एक दूसरे को खाता है }लुप्त होते चले गये, पहले बहुत वृहद् आकार के मानो कोई छोटा सा पहाड़ हो, इतने विशाल-विशाल आदि, जीव हुआ करते थे. किन्तु इन सभी जीवों में ' मनुष्य ' नामक प्राणी एक विचित्र जीव है !!
श्रीमद भागवत (के " एकादश- स्कंध ") में बड़े ही सुन्दर ढंग से कहा गया है कि,  मनुष्य क्यों एक विचित्र (सर्वश्रेष्ठ) प्राणी है, एवं स्वामीजी की रचनाओं (विवेकानन्द साहित्य खंड १: पृष्ठ ५३ ) में भी हमलोग देख सकते हैं. ईसाईधर्म के ग्रन्थ (बाइबिल) में भी, सृष्टि की रचना का उल्लेख है:तो इस प्रकार भगवान ने नाना प्रकार की सृष्टि रचना की. किन्तु कोई मनुष्य जब किसी वस्तु की रचना करता है, तो उस रचना को देखने से उसको एक प्रकार का आनन्द भी प्राप्त होता है ! स्वयं किसी वस्तु का निर्माण करने से आनन्द होता है ! जैसे किसी कथाकार को एक अच्छी कहानी लिखने से,किसी को अच्छा निबन्ध लिखने से,किसी को एक सुन्दर कविता लिखने से,किसी को अपने द्वारा बनाय गये सुन्दर चित्र को देखने से ...से आरम्भ करके जो कुछ भी मनुष्य रचता है (सुन्दर-ढंग से बनाता है) उसमे उसको उस रचना करने का सुख य़ा आनन्द तो प्राप्त होता है| एक प्रकार के  संतुष्टि का भाव मन में अवश्य आता है. किन्तु भगवान को समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड रच देने के बाद भी आनन्द नहीं आ रहा था| तब उन्होंने मनुष्य की रचना की, और अपनी इस कीर्ति को देख कर स्वयम अवाक् रह गये|
भागवत में यह प्रसंग आता है--      
      सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्त्या |
          वृक्षान-सरीसृप-पशुन-खग- दंश- मत्स्यान ||  
    तैस्तैरतुष्टहृदयः    पुरुषं     विधाय |
           ब्रह्मावलोकधिष्णम       मुदमाप     देवः ||   
(भागवत : ११:९:२८)
 देव (सृष्टा य़ा परमहंस देव) ने पूर्व-काल में अपनी आत्मशक्ति के द्वारा भाँती-भाँति के स्थावर,जंगम सभी प्रकार के जीवों; यथा गाँछ-वृक्ष, सरीसृप, पशु-पक्षी, डंक मारने वाले, मत्स्य आदि जलचर जीवों की सृष्टि करके भी तृप्त नहीं हो सके, तब उन्होंने 'मनुष्य' की रचना की - जो मनुष्य ब्रह्म (प्रथम) को, अपने बनाने वाले को भी जान सकता है| जब (परमहंस) देव ने यह देखा कि मनुष्य तो ब्रह्म-ज्ञान तक प्राप्त कर सकता है, तब उनको अपनी इस अदभुत रचना को देख कर महा आनन्द हुआ|  
भगवान (ठाकुर) ने मनुष्य की रचना कर के कहा - " समस्त देवदूतदेर डेके आनो ! "" -- समस्त देवदूतों (messengers of God य़ा फरिस्तों) को बुलाकर ले आओ ! " 
सभी देवदूतगण (य़ा मानवजाति के सच्चे ' नेता ' गण) जब आये, तो आनन्द से पुलकित होकर भगवान बोले - देखो, देखो, मेरी इस रचना को देखो, इस बार मैंने कैसी अदभुत रचना की है- जरा इसको तो देखो! उनलोगों ने अवाक् होकर देखा | भगवान ने देवदूतों को आदेश दिया- 
" इस मनुष्य को तूम सभी लोग प्रणाम करो ! 
यही मेरी श्रेष्ठ रचना है, यह मनुष्य ही 
सबों के लिये प्रणम्य है; तुमलोग इसे प्रणाम करो !" 
सभी फरिस्तों ने तो प्रणाम किया, पर एक फरिस्ते ने प्रणाम नहीं किया| जिस देवदूत ने मनुष्य को प्रणाम नहीं किया- उसका नाम हुआ शैतान! जो ' मनुष्य '- मनुष्य के सामने अपने सिर को नहीं झुकाता है, वही है शैतान ! 
हमलोग ' श्रीरामकृष्ण परमहंस देव ' के जीवन में क्या देखते हैं ? हमलोगों ने देखा है कि वे सभी के सामने अपने सिर को झुका रहे हैं. बलराम बसु के घर पर गिरीश चन्द्र घोष को उनका प्रथम दर्शन हुआ था. उस दिन बलराम बसु के घर पर श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव आये हुए थे. उनके घर के बिल्कुल निकट में ही गिरीश चन्द्र घोष का मकान भी था. उनके साथ और एक विशिष्ठ व्यक्ति थे, जो पत्रकार थे. वे गिरीश घोष के बड़े करीबी मित्र थे. वे आकार गिरीश घोष को कहते हैं-
" वहाँ एक ' परमहंस ' आये हैं, आप भी देखने जायेंगे क्या ? "   
 परमहंस कहने के बाद कुछ लोग 'परमहंस'  की नकल किस प्रकार किया करते हैं- यह बात ठाकुर भी जानते थे| बगुला के आकार जैसा अपने हाथ को ऊँचा करके कहते थे "परमहंस", और पीछे से अपने मुँह को बगुला के जैसा बना कर दिखाते थे.यह बात को ' ठाकुर देव 'जानते थे - इस बात पर हँसा करते थे, तथा उसका आनन्द उठाते थे. 
जो हो, वह सज्जन मित्र अपने साथ गिरीश घोष को भी ले गये और सीढियों पर चढ़ कर बरामदे में पहुँचे. देखते हैं किनारे एक कमरा है, उसी कमरे में एक व्यक्ति बैठे हैं. कमरे के अन्दर नहीं गये हैं, खिड़की से ही झांक कर देख रहे हैं. बहुत से लोग उस कमरे के भीतर प्रवेश कर रहे हैं, एवं उनको प्रणाम कर रहे हैं. किन्तु किसी व्यक्ति के प्रणाम करने के पूर्व ही, जमीन पर सिर रख कर वे ही उसको प्रणाम कर दे रहे हैं. अच्छे-बुरे में भेद किये बिना सभी मनुष्य को प्रणाम कर रहे हैं.
सतोगुणी व्यक्ति बाहरी रूप से वैसा न कर, यदि मन ही मन समस्त मनुष्य को प्रणम्य बोध करे | (साधु और पापी में अन्तर देखे बिना) मानवमात्र को प्रणम्य बोध करते हुए, उसके समक्ष कम से कम मानसिक रूप से भी अपने सिर को झुकाने के लिये सदैव तत्पर रहता हो - तब ऐसे किसी मनुष्य को देख कर समझ लेना होगा कि वे साधारण मनुष्य नहीं हैं !
गिरीश चन्द्र के मित्र ने उनसे कहा- " परमहंस- को तो देख लिया न ? अब यहाँ से निकल लो !" 
किन्तु उसके बाद से तो गिरीश घोष के मन में उत्ताल तरंगे उठने लगीं ; कौन है यह अदभुत ' मनुष्य '? जो सभी मनुष्य को (नीच से नीच को भी) अवनत हो कर, (उसके चरणों में गिर कर) प्रणाम करने में समर्थ हुआ है?
{इसीलिये गाना के गुरु के प्रणाम मन्त्र में कहा गया है - 
Music maestro of the Mahamandal, 
" बीरेश्वर  चक्रबर्ती "

"नादब्रह्म मतं यस्य तस्मै श्रीगुरुवे नमः ||" }
इसी लिये तो, जब वृक्ष, लता, जल इत्यादि बनालिये, समुद्र इत्यादि बना लिये- तब भी उनको अपनी रचना में वह आनन्द नहीं मिला, तब -      
            "  .... पुरुषं  विधाय..ब्रह्मावलोकधिष्णम..."   
  ब्रह्म की ही प्रतिमूर्ति स्वरुप - 'मनुष्य'  की रचना करके, जो मनुष्य ब्रह्म को भी जान सकता है-- ऐसे अदभुत-मनुष्य का निर्माण करके, " मुदमापदेवः " - तब सृष्टा को महा आनन्द हुआ ! 
{२ जून १८८३ को श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर से कलकत्ता आ रहे हैं. ...श्रीरामकृष्ण गाड़ी में आते आते राखाल, मास्टर आदि भक्तों से कह रहे हैं,..." देखो, उन पर प्रेम हो जाने पर पाप आदि सब भाग जाते हैं, 
जैसे धूप से मैदान के तालाब का जल सुख जाता है....विषय की वासना तथा कामिनी-कांचन पर मोह रखने से कुछ नहीं होता. यदि विषयासक्ति रहे तो सन्यास लेने पर भी कुछ नहीं होता-जैसे थूक को फेंककर फिर चाट लेना|"
थोड़ी देर बाद गाड़ी में श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं, " ब्रह्मसमाजी लोग साकार को नहीं मानते| (हँसकर) नरेन्द्र कहता है, ' पुत्तलिका !' (गुड्डा-गुड्डी बनाकर उसकी पूजा करने वाले मूर्ति-पूजक) फिर कहता है, ' वे अभी तक कालीमंदिर जाते हैं|' 
श्रीरामकृष्ण बलराम के घर आये हैं, वे एकाएक भावाविष्ट हो गये हैं| सम्भव है देख रहे हैं,ईश्वर ही जीव तथा जगत बने हुए हैं, ईश्वर ही मनुष्य बनकर घूम रहे हैं|  जगन्माता से कह रहे हैं, " माँ, यह क्या दिखा रही हो ? रुक जाओ; यह सब क्या दिखा रही हो ? राखाल आदि के द्वारा क्या दिखा रही हो, माँ ! रूप आदि सब उड़ गया| अच्छा माँ, मनुष्य तो केवल ऊपर का ढाँचा ही है न ? चैतन्य (उसमे नाद य़ा vibration) तो तुम्हारा ही है! "(श्रीरामकृष्ण वचनामृत (प्रथम भाग) : पृष्ठ:२०६ )}
ये जो ब्रह्म हैं, जिनसे वह नाद (ॐ vibration) उथित हुआ था, और जिसके कारण ही प्रत्येक वस्तु ने अपनी चंचलता (य़ा चैतन्य) को प्राप्त किया है, समस्त सृष्टि बनी है, उस (नाद-ब्रह्म य़ा) ' प्रथम नाद ' से ही समस्त सृष्टि (जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, उद्भिज) निकली है ! ! - उस ' प्रथम-वस्तु ' (ब्रह्म) को कौन समझ सकता है ? - एकमात्र ' मनुष्य ' ही समझ सकता है, मनुष्य के जीवन का उद्देश्य भी यही है ! 
मनुष्य जीवन का श्रेष्ठ उद्देश्य (Chief Aim of Life) क्या है ? (मननशील) मनुष्य के मन में यह विचार अवश्य उठता है कि, मैं जहाँ से आया हूँ- उस उद्गम य़ा श्रोत को पहले जान लेना होगा! (जब सारे शास्त्र और गुरु कहते हैं कि नादब्रह्म य़ा) ब्रह्म से ही मैं भी आया हूँ, तो मुझे उस ब्रह्म (नाद, ॐ य़ा सत्य) को अवश्य ही जान लेना होगा| 
कुछ उपनिषदों में प्राचीन ऋषियों द्वारा उदघाटित य़ा आविष्कृत सत्यों  को " महावाक्य " कहा जाता है! महावाक्य के अन्तर्गत अनेक वाक्य कहे गये हैं| उन में से मात्र कुछ वाक्यों को लेकर, आचार्य शंकर ने (कुल ११) उपनिषदों पर भाष्य की रचना की है. महर्षि व्यासदेव ने ब्रह्मसूत्र की रचना की थी, एवं उसके ऊपर भाष्य लिखा था आचार्य-शंकर ने| उनमे अनेकों सूत्र दिये गये हैं, किन्तु उसमे कहे गये तीन सूत्रों  को सदा के लिये अपने मन में बैठा लेने की आवश्यकता है| वे तीन (प्रमुख) महावाक्य हैं- 
" तत्वमसि "   
 - 'तत ' वह ब्रह्म तत, ' त्वम असि '; अर्थात वह ब्रह्म तूम ही हो !
" अहं ब्रह्मास्मि " 
    - अर्थात मैं (पाका-आमि) ही ब्रह्म हूँ !
" सर्वं खल्विदं ब्रह्म "
- यह सब कुछ ब्रह्म ही हैं !  
इसी जीवन में इन तीनों सत्यों को स्वयं आविष्कृत कर लेना, य़ा (पहले सुन कर फिर अपने अनुभव से ) जान लेना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है| जिस उद्गम-श्रोत (य़ा उर्ध्व-मूल) से आया हूँ, उसी मूल में लौट जाना ही मेरे जीवन का परम-लक्ष्य य़ा श्रेष्ठ-उद्देश्य है! जिसको अपने इसी जीवन में इस सत्य की अनुभूति नहीं हुई - फिर उसका और क्या हुआ ? (यह दुर्लभ मनुष्य जीवन तो व्यर्थ में ही बीत गया)
यहाँ आया, खाया-पिया और नाना प्रकार के विषयों का भोग किया, सारे जीवन भर भोगों में डूबा रहा, फिर एकदिन -भोगों के बीच ही मर गया ! किन्तु भोगों के बीच ही मर जाने के समय तो कुछ बोध नहीं होगा। और अभी- यहाँ संसार में (जीवित ) रहते समय हमलोग क्या कर रहे हैं ? स्कूल में पढ़ते समय अपने पण्डित-महाशय (संस्कृत शिक्षक) से एक बहुत ही सुन्दर ' वैराग्यसूक्ति ' इसी सम्बन्ध में हमलोगों ने सुना था -
भेको धावति तं च धावति फणी सर्पं शिखी धावति
व्याघ्रो धावति केकिनं विधिवशाद् व्याधोऽपि तं धावति ।
स्वस्वाहारविहारसाधनविधौ सर्वे जना व्याकुलाः
कालस्तिष्ठति पृष्ठतः कचधरः केनापि नो दृश्यते ॥४५॥


  - एक बेंग दौड़ा जा रहा है. साप का खाद्य पदार्थ बेंग है, साप बेंग के पीछे से धोखा देकर उसको खा डालने के लिये दौड़ रहा है. मयूर साप को खाता है, साप के पीछे मयूर दौड़ता है. मयूर के पीछे बाघ, बाघ के पीछे शिकारी दौड़ता है. सभी अपने अपने आहार के पीछे दौड़े चले जाते हैं|और सबों के पीछे महाकाल सब का ग्रास करने के लिये दौड़ रहा है, पर उसकी ओर किसी का भी ध्यान नहीं जाता !
 [ जरासन्ध का पहला आक्रमण बालों पर होता  है, पर डाई करके हरा देते हैं। फिर डेन्टिस्ट से दांत ठीक करा लेते हैं। घुटनों पर होता है। आँखों पर होता है। ४ बार जरा संध को हमलोग हरा लेते हैं, ६० में रिटायर हो जाने के बाद भी हमलोग अपने को बूढ़ा नहीं समझते हैं। कुछ न कुछ उपार्जन के कार्य में या नयी नौकरी खोज लेते हैं। बूढ़ा तो हमलोग मरने के बाद होते हैं। मरने के पहले कोई बूढ़ा होने को तैयार नहीं होता। श्रीकृष्ण ने जरासंध को १७ बार हर दिया था। मथुरा हमारा शरीर है, मथुरा को एक दिन सब को छोड़ना पड़ेगा। श्रीकृष्ण ने मथुरा छोड़ने के पहले ही द्वारका का निर्माण कर लिया था। उसी प्रकार ६० के बाद ह्रदय को द्वारिका पहले बना लो, मथुरा छोड़ कर सीधा बैकुंठ धाम में रहने का प्रबन्ध कर लो। 
यदुवंशियों के पतन का समय आ गया था। धन बहुत आ जाता है, तो धर्म कम करते हैं, अपराध ज्यादा करते हैं। धन यौवन का मद -कपूर की तरह उड़ जायेगा। नारायण गोपाल भज क्यों चाटे जगधूल? धन का सदुपयोग करो, युवावस्था में सेवा करो, ताकत ज्यादा है तो ब्राह्मणों का अपमान मत करो। नृग राजा को गिरगिट योनि क्यों मिला ? सूर्यवंश में जन्म लिया था, दान तीन है। सतो गुणि दान करने वाला बदले में कुछ चाहता नहीं है। दान देने का अहंकार ही पतन का कारण है। देन हार कोई  और है, पर अहंकारी अपने को दानी समझता है। गलती से दूसरे की गाय दान कर दिया। नृग को गिरगिट बना दिया। पर भूख से अधिक मत खाओ, एक रोटी ज्यादा खा लोगे तो कोई दूसरा भूखा रहेगा। मातायें अन्न बचाने के बहाने ज्यादा खा लेती है।
प्रथम पत्नी रुक्मिणी का हरण करके द्वारका में लायें हैं, आपने कृष्ण-काले को क्यों पसंद किया ? शिशुपाल से तुम्हारी सगाई हो गयी है, फिर करा दूँ ?वो मजाक को नहीं समझने से बेहोश हो गयी। दाम्पत्य जीवन का लाभ है कि वे हर समय प्रसन्न रहें। 
भगवान को भी कलंक लगा था। ग्रह का प्रभाव था ? जामवन्त का गुफा (गुजरात) से युद्ध करना पड़ा। जामवंती के साथ दूसरा विवाह , तीसरा विवाह सत्यभामा से हुआ। १६००० स्त्रियों को स्वीकार किया। सत्यभामा के साथ अमरावती गए, कल्प वृक्ष को द्वारका ले आये। ]  
           



   


         
       

सोमवार, 19 जुलाई 2010

[37] मनुष्य के हृदय की भाषा

" ह्रदय की भाषा को कौन सुनता है, कौन याद रखता है ?"  
उसके बाद ( ' The Philosophy of Indian Dance 'वाली घटना के बाद) एक बड़े नामचीन चित्रकार हुए हैं ' दीपेन बसू ' एक दिन मुझसे बोले- " नवनी भाई, मैंने श्रीचैतन्य देव के जीवन के ऊपर सिरिज ऑफ़ पिक्चर्स (पेंटिंग्स की एक श्रृंखला) बनाई है, उसमे ठीक ठीक कितने पेंटिंग्स होंगे अभी याद नहीं किन्तु ३०-४० तो होंगे ही| इन तस्वीरों को मैं बहुत दिनों तक परिश्रम करके चित्रित किया है.
' एकाडमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स ' में इसीकी एक एक्सिबिसन (चित्र-प्रदर्शनी) लगने वाली है. इस कार्य में मुझे तुम्हारी भी थोड़ी सहायता चाहिये|" मैंने कहा, ' कैसी सहायता ?'" इसको inaugurate किस से करवाया जाय ? " 
मैंने कहा, " इस बारे में मेरी राय लेना चाहते हैं ! मैं भला आर्ट से सम्बन्धित कितने लोगों को जानता हूँ, अकाडमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स में एक्सिबिसन होगा आर्ट्स के ऊपर, उसका inauguration किसके द्वारा होगा, यह क्या मैं तय कर सकता हूँ ?"  
" तुम्ही तय कर दो भाई, चैतन्य के जीवन के ऊपर मैं कोई आर्टिस्ट य़ा उसी प्रकार के किसी प्रोफ़ेसर य़ा कहीं का वाईस-चांसलर जैसे लोगों को मैं नहीं चाहता, इसीलिये तुमको तय करने कह रहा हूँ. तुम्ही एक व्यक्ति को ठीक करो|"
मैं तो भारी मुश्किल में पड़ गया. तब मैंने कहा कि, " स्वामी रंगनाथानन्दजी के द्वारा कराने से कैसा रहेगा ? " 
" रंगनाथानान्दजी ! वे तैयार होंगे ? 
" मैंने कहा, " यदि रंगनाथानन्दजी  से मैं अनुरोध करूँ, तो आशा करता हूँ वे स्वीकार कर लेंगे|"
" फिर तो इससे अच्छा कुछ हो ही नहीं सकता है| तुम इसके लिये प्रयास करो|" उसी समय मैं रंगनाथानन्दजी से मिलने गोलपार्क स्थित Institute of Culture जा पहुँचा; वैसे भी मैं वहाँ अक्सर जाया करता था|
मैंने कहा कि, " महाराज, एक इस प्रकार का कार्य है- श्री चैतन्य के जीवन पर आधारित एक सिरिज ऑफ़ पेन्टिंग्स को एक कलाकार ने बनाया है, विख्यात चित्रकार हैं, अकाडमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स में उसका एक्सिबिसन होगा, उसका उदघाटन यदि आप करें तो बहुत अच्छा होगा|" 
उनका स्वाभाव जिस प्रकार का था, उसी तरह उन्होंने कहा- ' What do I know about art ? ' पर मैं तो उनके स्वाभाव को बहुत दिनों से जानता था.

    
Revered Swami Ranganathananda at a Mahamandal camp
Monks & Brahmacharis of the Ramakrishna Order
at the public session of a youth training camp

मैंने कहा कि, " महाराज, आप आर्ट के विषय में कितना जानते हैं, य़ा नहीं जानते हैं उसका परिचय नहीं देना होगा, चूँकि यह श्री चैतन्य की जीवनी है, अतः यदि कृपा करके आप वहाँ आकार उसका उदघाटन कर देंगे, तो उतने से ही सबों को बड़ी प्रसन्नता होगी !इसका उदघाटन अन्य किसी से करवाने की अपेक्षा, आप करेंगे तो,वह कार्यक्रम बहुत सुन्दर होगा|"
" जब इतना कह रहे हो, तो हो जायेगा " कर दिये| 
फिर तो अकाडमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स में भी मेरा आना-जाना प्रारम्भ हो गया. कई बड़े बड़े आर्टिस्टों के साथ मेरा परिचय हुआ. उसके पहले भी कुछ-कुछ था. क्योंकि उस 'Anthology of Indian Dance '  नामक ग्रन्थ में कलकाता के बड़े बड़े आर्टिस्टों ने भारतीय- नृत्य के बहुत से स्केच इत्यादि बनाये थे. जिमरमैन के History of Arts से नटराज के एक चित्र का बहुत बड़ा सा ब्लौक बनवा कर उस स्मारक-ग्रन्थ के मुख-पृष्ठ पर लगा दिया था.Ananda natanam, the cosmic dance of Shiva at Chidambaram

 उसके पहले और किसी ने उस चित्र को नहीं चुना था. अभी तो देखता हूँ कि किसी साधारण से संगीत के पुस्तक पर भी उसी चित्र को छाप देता है. किन्तु बहुत वर्ष पहले उस चित्र को पहली बार उस डांस के पुस्तक के ऊपर ही छापा गया था.
रंगनाथानन्दजी आये, उदघाटन किये, भाषण दिये. उस समय उस भाषण को लिख देने का दायित्व भी मुझे ही मिला था, और मैंने स्वयं उसे रिकॉर्ड भी किया था. उससमय तक आज-काल जैसा कैसेट-रेकॉर्डर नहीं उपलब्ध था, टेप रेकॉर्डर ही था, उससे ही रिकॉर्ड कर लिया. फिर उस पूरे रेकॉर्डिंग को लिख कर उनलोगों को दे दिया. उनलोगों ने उसको अन्य कहीं प्रकाशित किया य़ा और कहीं छपवाया, जो हो उनलोगों को बहुत आनन्द हुआ. 
श्री चैतन्य के जीवन पर आधारित जो एक्सिबिसन हुआ था, उसके ऊपर भी मैंने चार निबन्ध लिखे थे. 'भारतवर्ष', 'कथासाहित्य ', 'विश्ववाणी ' एवं 'उज्जीवन ' में चार चित्रों के साथ वे निबन्ध प्रकाशित हुए थे. 
उनमे से एक पेन्टिंग की एक छोटी सी कॉपी अभी भी मेरे कमरे में लगी है. उसमे दिखाया गया है कि, श्रीचैतन्य जमीन पर किसी बुत के समान (पाँचिल के जैसा) बैठे हुए हैं, उनके निकट किसी वृक्ष की एक टेंढी सी डाली है. और श्रीचैतन्य वहाँ पर बैठे हुए हैं, तीन सूखे हुए पत्ते वहीं पर गिरे हुए हैं.-
पर मैं तो आर्ट के सम्बन्ध में कुछ जानता नहीं हूँ, उसको परिभाषित कैसे करूँ, उसकी व्याख्या क्या होगी? जब मैं 'भारतवर्ष' में छापने के लिये उस पेन्टिंग्स पर निबन्ध लिख रहा था, उस समय याद हो आया कि, वहाँ पर तीन पत्ते क्यों दिये गये हैं? भागवत में कहा गया है- 
वदंति तत्‌ तत्वविदस्तत्वं. यज्‌ ज्ञानमद्वयम्‌
                      ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते।: (भाग. 1.2:11)
(भागवत का कथन है कि परमार्थत: एक ही अद्वय ज्ञान है। वही ज्ञानियों के द्वारा 'ब्रह्म', योगियों के द्वारा 'परमात्मा' तथा भगवद्भक्तों के द्वारा 'भगवान्‌' कहा जाता है। भेद है उपासकों की दृष्टि का तथा उपासना के केवल तारतम्य का। एक अभिन्न परम तत्व नाना उपासना की दृष्टि में भिन्न प्रतीत होता है, परंतु वह अभिन्न अद्वयज्ञान रूप शक्तियों की संपत्ति ही भगवान्‌ की भगवत्ता है। यह शक्ति एक न होकर अनेक हैं तथा अचिंतनीय है। अचिंत्यशक्ति का निवास होने के कारण वह 'लीलापुरुषोत्तम' है। इसी के कारण वह एक होते हुए भी अनेक प्रतीत होता है और भासित होने पर भी वह वस्तुत: एक है। इसीलिए वह बहुमूर्तिक होने पर भी एकमूर्तिक है।इसी शक्ति के कारण भगवान्‌ आश्रयशून्य, शरीररहित तया स्वयं अगुण होते हुए भी अपने स्वरूप के द्वारा ही इस सगुण विश्व की सृष्टि, स्थिति तथा संहार करते हैं, परंतु इन व्यापारों की सत्ता होने पर भी उनमें किसी भी प्रकार का बिकार उत्पन्न नहीं होता.)
भगवान के तीन प्रकार के रूप की चर्चा इसमें की गयी है. श्री चैतन्य चेहरे को नीचे कर के बैठे हैं, और सामने सूखे हुए तीन पत्ते गिरे हुए हैं. अर्थात ब्रह्म, परमात्मा, भगवान इत्यादि, आज हमलोगों के लिये किसी वृक्ष की डाली से टूट कर गिरे सूखे हुए पत्ते के जैसे ही हैं. किन्तु ये तीनों रूप अत्यन्त सजीव महावृक्ष से आये हैं. गीता के भाष्य में शंकराचार्य एक स्थान पर कहते हैं- 
" आजीव्यः सर्वभूतानाम ब्रह्मवृक्षः सनातनः |"
पुराणों में से मैंने कितने ही श्लोकों को लिखा है, किसी भी पुराण में ऐसा नहीं कहा गया है. किन्तु वहाँ पर एक श्लोक में यह भी लिखा है- उसी सनातन ब्रह्मवृक्ष (से सब कुछ निकला है)
दीपेनदा के भाई निताईदा सितार बजाया करते थे.' शिकागो धर्ममहासभा ' की पचहत्तर-वार्षिकी का अनुष्ठान कलकाता में केवल महामण्डल के द्वारा ही आयोजित किया गया था. एवं इसके शतवार्षिकी के अवसर पर श्रद्धानन्द पार्क में कुछ दिनों तक जो कार्यक्रम आयोजित हुआ था, उसने सबों के मन को छू लिया था.
उस दिन प्रचण्ड वर्षा हो रही थी- सामने बैठ कर बात कहने से भी अच्छी तरह से सुन पाना मुश्किल हो रहा था. और उसी के बीच निताईदा जिस तरह से सितार बजा रहे थे, उस ' सितार की  मधुरध्वनी और झंझावात की गूँज ' दोनों की जुगल-बन्दी से जो अदभुत स्वर-व्यंजना उत्पन्न हो रही थी उसका वर्णन शब्दों में नहीं हो सकता.
उसी कार्यक्रम के दौरान हुई एक अन्य घटना मैं भूल नहीं पाता हूँ.एक साधारण सा दिखने वाला कोई व्यक्ति आकार पूछते हैं- " जो लोग इस कार्यक्रम के आयोजन-कर्ता हैं,उनमे से किसी व्यक्ति के साथ मैं थोड़ी बातचीत करना चाहता हूँ." वहाँ उपस्थित एक व्यक्ति ने कहा- " बोलिए, आप मुझ से कह सकते हैं." उन्होंने कहा, " मैं इस पार्क के निकट वाले सिनेमा हॉल में काम करता हूँ. अभी एक व्याख्यान चल रहा था तब मैं भी सभा-कक्ष में एक किनारे बैठ कर सुन रहा था. वक्ता कह रहे थे, किसी जगह में बहुत से लोगों की दुर्गति की बात सुनकर स्वामीजी अधीर होकर कहे थे-
'उनके त्राण कार्य में यदि पैसे का आभाव होगा तो ' बेलुड़ मठ ' बेच दूंगा|'
मैं यहीं तक सुन पाया था कि सिनेमा का बेल बज गया, उसे सुन कर मैं शो शुरू होने के पहले लोगों को उनकी सीट पर बैठाने के लिये मुझे दौड़ जाना पड़ा.अब फिर दुबारा दौड़ कर यह जानने के लिये आया हूँ कि, स्वामीजी ने उस समय कहीं मठ को बेच तो नहीं दिया था?"ऐसे मनुष्य के ह्रदय की भाषा को कौन सुनता है, कौन याद रखता है ?    
                 
Once one great sant had explained that - " Dharma " is like a vast tree, different sampradayas are like its branches, and Adhyatma is its root.

Different Acharyas that take birth from time to time are like the fruits that the tree bears when the right season comes.

Depending upon which direction a branch faces - it takes a different shape, and develops in a different size. But the essence of the tree - the seeds - remain the same and are contained inside the fruits - the Acharyas.

So, as long as we see the tree is flowering and bearing fruits, we can be assured that the tree is healthy and potent.

This thread is to collect sayings, anecdotes, life and deeds of all the great Acharyas of all the various sampradayas of all the hues and shades of Sanatan Dharma.}

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शनिवार, 17 जुलाई 2010

[36] " भारतीय नृत्य की एक कुसुमावली "

" An Anthology of Indian Dance"
संगीत का थोड़ा श्रवण, इसे सीखने का प्रयास, एवं इसका अभ्यास थोड़ा-बहुत हमसे भी हुआ है. गाने भी यथेष्ट सुने गये हैं. इसके साथ साथ, संगीत वाद्ययंत्र बजाने एवं गायन के क्षेत्र में जो लोग भारत विख्यात संगीत विशारद माने जाते हैं, उन बड़े बड़े संगीतज्ञों का- गायन और वादन भी कमों-बेश सुना गया है. 
घटनाक्रम वश ' नृत्य ' के विषय में भी कुछ चिन्तन-मनन करने का सूयोग प्राप्त हुआ है. अकस्मात एक बार किसी कारण-वश मेरे ऊपर यह दायित्व सौंप दिया गया कि, आपको नृत्य के विषय में एक पुस्तक के आकार का वृहत-प्रबन्ध जैसा कुछ लिखना पड़ेगा. 
किसी ' नृत्यकला शिक्षण संस्थान ' के एक विशिष्ट नृत्य-शिक्षक के संवर्धना के उपलक्ष्य में नृत्य  के ऊपर एक अनुष्ठान होने वाला था; उसी अवसर पर उस पुस्तकाकार निबन्ध का विमोचन होना भी तय  था. दायित्व ऐसे किसी व्यक्ति के माध्यम से आया, जिसे टाला भी नहीं जा सकता था. उस समय कलकाता के इनसब विषय में जानकर परिचित लोगों, यथा- रविन्द्रभारती विश्वविद्यालय के उपाचार्य, ' य़ू.सि.गांगुली ' जिनकी गणना संगीत-नृत्य के क्षेत्र में एक विशिष्ट व्यक्ति के रूप में होती थी, उन्ही के समान अनेकों लोगों के पास जा-जाकर, एवं ' यन्त्र-संगीत ' तथा  ' कन्ठ संगीत ' के विषय में अनेका-नेक पुस्तकों को संग्रहित कर के मुझे नृत्य के ऊपर भी  
' भारतीय नृत्य की एक कुसुमावली य़ा संकलन '
नामक एक स्मारक ग्रन्थ को प्रकाशित करना पड़ा था. स्वाभाविक रूप से उसकी भूमिका लिखने का दायित्व भी पड़ा था. इसीलिये ' भारतीय नृत्य विद्या ' के सम्बन्ध में कुछ पुस्तकों को संग्रहित कर उनका गहराई से अध्यन करके इसकी भूमिका को भी एक 'शोध-पत्र ' के जैसा लिखना पड़ा था. अनेक दृष्टिकोण से इस विद्या को देखने के कारण वह भूमिका थोड़ी  वृहत हो गयी थी.उस समय स्वामी प्रज्ञानन्द महाराज के पास तो मैं अक्सर जाया करता था.बातों बातों में किसी ' शोध-पत्र ' के सदृश्य इस ' भारतीय नृत्य विद्या ' पर लिखी भूमिका के विषय में भी चर्चा हुई |
उन्होंने कहा कि, ' तुम जरा मुझे एक बार सुनाओ तो कि तुमने उस शोध-पत्र में क्या चीज लिखा है|' तब मैंने कहा कि, ' महाराज, वह तो कम्पोज हो गया है, लालचाँद प्रेस में छपने के लिये दे दिया हूँ|' वे बोले, ' तुम उसे ले आओ, प्रेस में जितना कम्पोज हुआ है, उस प्रूफ को ही ले कर आ जाओ|' लालचाँद प्रेस कलकाता का एक विख्यात छापाखाना है, कलकाता के बहुत अच्छे प्रिंटर्स में उनकी गिनती होती है, उनलोगों के पास ही इस स्मारक-ग्रन्थ को छापने के लिये दिया गया था.प्रूफ वहाँ से मांग कर ले आया.कितने पृष्ठ थे अभी ठीक से याद नहीं, किन्तु सात-आठ पन्ने तो होंगे ही. 
देर शाम में प्रूफ लेकर प्रज्ञा महाराज के पास पहुँचा. निचले तल्ले पर अपने कमरे में टेबल के सामने जिस प्रकार से बैठा करते थे, उसी प्रकार बैठे हुए थे. मैं उनके सामने वाले चेयर पर बैठ कर, जैसे ही उसे खोलना प्रारम्भ किया कि, उन्होंने कहा-" मैं नहीं पढूंगा, तुम उसे पढ़ कर मुझे सुनाओ, मैं केवल सुनूंगा |" मैंने इधर पढना प्रारम्भ किया, उधर उन्होंने अपनी आँखों को बन्द कर लिया. पूरा निबन्ध पढ़ कर उनको सुना दिया. तब धीरे धीरे अपनी आँखों को खोल कर वे बोले- " नवनी, तूमि लिखेछो बलछो बले आमि विश्वास करछी. एटो अन्य केऊ गानेर, नाचेर आर्टेर जगतेर लोक यदि एने,पड़े शुनिये बलतो- ' एटा आमि लिखेछी '- आमि विश्वास करतूम ना|..."
अर्थात ' नवनी, यह तूम कह रहे हो कि इसे मैंने लिखा है, इसीलिये मैं विश्वास कर लेता हूँ| किन्तु तुम्हारी जगह पर, नृत्य-संगीत आर्ट से जुड़ा कोई भी अन्य व्यक्ति यदि इसे लाकर सुनाता और कहता - ' यह मैंने लिखा है ' - तो मैं कदापि विश्वास नहीं करता| तुम्हारे इस शोध-पत्र में जितना सारगर्भित material है, यदि किसी इस प्रकार के क्षेत्र से जुड़े किसी नामी व्यक्ति को भी लिखने के लिये कहो, तो वह भी ऐसा नहीं लिख पायेगा| इस निबन्ध को अब उस स्मारक-ग्रन्थ में छापने के लिये नहीं भेजना है| तुमने तो इस निबन्ध को preface के रूप में लिखा हैं न? " 
मैंने कहा- ' हाँ ' उन्होंने कहा- " एर तो एकटा नाम देउया दरकार|एटा preface हबे ना, तूमि एटा देबे ना | "(अर्थात यह शोध-पत्र तो अपने-आप में ही इतना पूर्ण है कि)" इसको तो एक शीर्षक देने की आवश्यकता है|यह अब भूमिका के रूप में नहीं छपेगा, तूम इसको उस प्रेस में मत देना |" मैंने कहा - " महाराज, फिर इस निबन्ध का होगा क्या ? इसको तो प्रेस में कम्पोज भी करवा चुका हूँ|" 
वे बोले- " तूम, एक-दो पन्नों की एक छोटी सी भूमिका लिख करवहाँ भेज दो, और इसे मुझे दे दो|इसको तो मैं स्वामी अभेदानन्द महाराज के शतवार्षिकी स्मारक ग्रन्थ- जो अंग्रेजी में निकलने वाला हैं, उसमे छपवा दूंगा|
 एवं इसका नाम होगा, ' The Philosophy of Indian Dance ' (अर्थात ' भारतीय नृत्य विद्या का दार्शनिक-पक्ष' )|एवं मैं यह तुमसे कहता हूँ, दक्षिण भारत के, नृत्य-कला के विषय में एक विश्व-विख्यात नृत्यांगना हैं- ' रुक्मिणी देवी अरूंडेल ', वे भी ऐसा नहीं लिख सकती हैं ! "


http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/1/1c/Rukmini_Devi.jpg 
Rukmini Devi Arundale
29 February 1904-24 February 1986 (aged 81)
Padma Bhushan: 1956-Sangeet Natak Akademi Fellowship: 1967
मैंने वह निबन्ध महाराज को दे दिया|तब अलग से (भूमिका के लिये ) दो पृष्ठ लिख कर वह स्मारक-ग्रन्थ प्रकशित हुआ| उसके बाद नौकरी के सिलसिले में मुझे पुनः कुछ वर्षों के लिये कलकाता के बाहर जाकर प्रवास करना पड़ा था.जब कुछ अधिक दिनों के बीत जाने के बाद जब वापस लौटा, तो ज्ञात हुआ कि,  अभेदानन्द महाराज का शतवार्षिकी स्मारक ग्रन्थ तो प्रकाशित भी हो चुका है| तब मैं थोड़े संकोच के साथ महाराज से पूछा- " महाराज, मेरे उस निबन्ध का क्या हुआ ?  
" वे बोले- " ओह, मैं तो एकदम से भूल ही गया नवनी! क्या होगा!
जो हो, अब किया भी क्या जा सकता है बोलो,बिल्कुल ही भूल गया था| उसको तूम ले जाओ |" 
तब से अपने पूरे जीवन-काल में- एकबार सदात्मनान्दजी के कहने पर स्वामीजी के ऊपर जो निबन्ध लिखा था, उसके बाद कोई निबन्ध नहीं लिखा-- लिखने की न तो कभी इच्छा हुई, न कोई आवश्यकता ही हुई|
किन्तु इसके बाद भी तो विविध प्रकार के विषयों पर लिखता ही रहा हूँ मैं| 
संगीत के विषय में जो प्रबन्ध लिखा था, वह विभिन्न जगहों में प्रकाशित हुआ है| स्वामी अभेदानन्द की शतवार्षिकी के ऊपर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखा हूँ.उस समय के प्रसिद्ध ' भारतवर्ष ' जैसी मासिक पत्रिकाओं में -अन्यान्य विषयों पर प्रबन्ध (शोध-पत्र) लिखा हूँ, कविता लिखा हूँ, गाना लिखा हूँ | उनदिनों ' भारतवर्ष ' और ' प्रवासी ' नामक दो विख्यात मासिक पत्रिकाएं हुआ करतीं थीं. ' भारतवर्ष ' में तो मेरी कितनी ही रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं, ' कथासाहित्य ' में प्रकाशित हुई हैं,' उद्बोधन ', ' विश्ववाणी ', ' प्रबुद्ध भारत', ' उज्जीवन ' इत्यादि और भी अन्यान्य पत्रिकाओं में मेरी रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं|    

{ भारतीय नृत्य

नृत्य भी मानवीय अभिव्यक्तियों का एक रसमय प्रदर्शन है। यह एक सार्वभौम कला है, जिसका जन्म मानव जीवन के साथ हुआ है। बालक जन्म लेते ही रोकर अपने हाथ पैर मार कर अपनी भावाभिव्यक्ति करता है कि वह भूखा है- इन्हीं आंगिक -क्रियाओं से नृत्य की उत्पत्ति हुई है। यह कला देवी-देवताओं- दैत्य दानवों- मनुष्यों एवं पशु-पक्षियों को अति प्रिय है।
भारतीय पुराणों में यह दुष्ट नाशक एवं ईश्वर प्राप्ति का साधन मानी गई है। अमृत मंथन के पश्चात जब दुष्ट राक्षसों को अमरत्व प्राप्त होने का संकट उत्पन्न हुआ तब भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अपने लास्य नृत्य के द्वारा ही तीनों लोकों को राक्षसों से मुक्ति दिलाई थी। 
इसी प्रकार भगवान शंकर ने जब कुटिल बुद्धि दैत्य भस्मासुर की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि वह जिसके उपर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाए- तब उस दुष्ट राक्षस ने स्वयं भगवान को ही भस्म करने के लिये कटिबद्ध हो उनका पीछा किया- एक बार फिर तीनों लोक संकट में पड़ गये थे तब फिर भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अपने मोहक सौंदर्यपूर्ण नृत्य से उसे अपनी ओर आकृष्ट कर उसका वध किया।
भारतीय संस्कृति एवं धर्म की आरंभ से ही मुख्यत- नृत्यकला से जुड़े रहे हैं। देवेन्द्र इन्द्र का अच्छा नर्तक होना- तथा स्वर्ग में अप्सराओं के अनवरत नृत्य की धारणा से हम भारतीयों के प्राचीन काल से नृत्य से जुड़ाव की ओर ही संकेत करता है।
विश्वामित्र-मेनका का भी उदाहरण ऐसा ही है। स्पष्ट ही है कि हम आरंभ से ही नृत्यकला को धर्म से जोड़ते आए हैं। पत्थर के समान कठोर व दृढ़ प्रतिज्ञ मानव हृदय को भी मोम सदृश पिघलाने की शक्ति इस कला में है। यही इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष है। जिसके कारण यह मनोरंजक तो है ही- धर्म- अर्थ- काम- मोक्ष का साधन भी है। स्व परमानंद प्राप्ति का साधन भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो यह कला-धारा पुराणों- श्रुतियों से होती हुई आज तक अपने शास्त्रीय स्वरूप में धरोहर के रूप में हम तक प्रवाहित न होती। 
इस कला को हिन्दु देवी-देवताओं का प्रिय माना गया है।भगवान शंकर तो नटराज कहलाए- उनका पंचकृत्य से संबंधित नृत्य सृष्टि की उत्पत्ति- स्थिति एवं संहार का प्रतीक भी है। भगवान विष्णु के  अवतारों में श्रीकृष्ण नृत्यावतार ही हैं। इसी कारण वे 'नटवर' कृष्ण कहलाये। भारतीय संस्कृति एवं धर्म के इतिहास में कई ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि जिससे सफल कलाओं में नृत्यकला की श्रेष्ठता सर्वमान्य प्रतीत होती है।
भारतीय नृत्य के प्रकार
भारतीय नृत्य उतने ही विविध हैं जितनी हमारी संस्कृति, लेकिन इन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है- शास्त्रीय नृत्य तथा लोकनृत्य। हाल ही में बॉलीवुड नृत्य की एक नई शैली लोकप्रिय होती जा रही हैं जो भारतीय सिनेमा पर आधारित है। इसमें भारतीय शास्त्रीय, भारतीय लोक और पाश्चात्य शास्त्रीय तथा पाश्चात्य लोक का समन्वय देखने को मिलता है।
जिस तरह भारत में कोस-कोस पर पानी और वाणी बदलती है वैसे ही नृत्य शैलियाँ भी विविध हैं। प्रमुख भारतीय शास्त्रीय नृत्य हैं:
  • कथक
  • ओडिसी
  • भारतनाट्यम
  • कुचिपुडि
  • मणिपुरी एवं
  • कथकलि

लोक नृत्यों
में प्रत्येक प्रांत के अनेक स्थानीय नृत्य हैं। जैसे पंजाब में भांगड़ा,उत्तर-प्रदेश का पखाउज, झारखण्ड का छऊ आदि

भारतीय नृत्य का इतिहास 

नृत्य का प्राचीनतम ग्रंथ भरत मुनि का नाट्यशास्त्र है। लेकिन इसके उल्लेख वेदों में भी मिलते हैं, जिससे पता चलता है कि प्रागैतिहासिक काल में नृत्य की खोज हो चुकी थी। इतिहास की दृष्टि में सबसे पहले उपलब्ध साक्ष्य गुफाओं में प्राप्त आदिमानव के उकेरे चित्रों तथा हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाईयों में प्राप्त मूर्तियाँ हैं, जिनके संबंध में पुरातत्वेत्ता नर्तकी होने का दावा करते हैं। ऋगवेद के अनेक श्लोकों में नृत्या शब्द का प्रयोग हुआ है।  

इन्द्र यथा हयस्तितेपरीतं नृतोशग्वः । 

तथा  

नह्यंगं नृतो त्वदन्यं विन्दामि राधसे। 

अर्थात- इन्द्र तुम बहुतों द्वारा आहूत तथा सबको नचाने वाले हो। इससे स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज में नृत्यकला का प्रचार-प्रसार सर्वत्र था। इस युग में नृत्य के साथ निम्नलिखित वाद्यों का प्रयोग होता था। 

वीणा वादं पाणिघ्नं तूणब्रह्मं तानृत्यान्दाय तलवम्। 

अर्थात- नृत्य के साथ वीणा वादक और मृदंगवादक और वंशीवादक को संगत करनी चाहिये और ताल बजाने वाले को बैठना चाहिये।

यर्जुवेद में भी नृत्य संबंधी सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। नृत्य को उस युग में व्यायाम के रूप में माना गया था। शरीर को अरोग्य रखने के लिये नृत्यकला का प्रयोग किया जाता था। हरिवंश पुराण में भी नृत्य संबंधी घटनाओं का उल्लेख है। भगवान नेमिनाथ के जन्म के समय के कलापूर्ण नृत्य व गायन के समारोहों का वर्णन इसमें मिलता है। 
श्रीमदभागवत महापुराण, शिव पुराण तथा कूर्म पुराण में भी नृत्य का उल्लेख कई विवरणों में मिला है। रामायण और महाभारत में भी समय-समय पर नृत्य पाया गया है। इस युग में आकर नृत्त- नृत्य- नाट्य तीनों का विकास हो चुका था। भरत के नाट्य शास्त्र के समय तक भारतीय समाज में कई प्रकार की कलाओं का पूर्णरूपेण विकास हो चुका था।
इसके बाद संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों जैसे कालिदास के शाकुंतलम- मेघदूतम- तथा मृच्छकटिकम आदि ग्रंथों में इन नृत्य का विवरण हमारी भारतीय संस्कृति की कलाप्रियता को दर्शाता है। आज भी हमारे समाज में नृत्य- संगीत को उतना ही महत्व दिया जाता है कि हमारे कोई भी समारोह नृत्य के बिना संपूर्ण नहीं होते। भारत के विविध शास्त्रीय नृत्यों की अनवरत शिष्य परंपराएँ हमारी इस सांस्कृतिक विरासत की धारा को लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित करती रहेंगी।
भारतीय डाकटिकटों में नृत्य: कत्थक " भरतनाट्यम "ओडिसी, कुचीपुडी,कथकली, मणिपुरी}


{Essential ideas

Bharatanatyam PerformanceBharatanatyam is the manifestation of the South Indian idea of the celebration of the eternal universe through the celebration of the beauty of the material body. 
In Hindu mythology the whole universe is the dance of the Supreme Dancer, Nataraja, a name for Lord Shiva, the Hindu ascetic yogi and divine purveyor of destruction of evil.
Bharatanatyam is considered to be a fire-dance, being the mystic manifestation in the human body of the metaphysical element of fire, is one of the five major styles that include Odissi(element of water), and Mohiniattam (element of air). The movements of an authentic Bharatanatyam dancer resemble the movements of a dancing flame.
Contemporary Bharatanatyam is practiced as Natya Yoga, a sacred Hindu meditational tradition by a few orthodox schools. A professional danseuse (patra), according to Abhinayadarpanam (one of the two most authoritative texts on Bharatanatyam), must possess the following qualities.

She has to be- young, slender, beautiful, with large eyes, self-confident, witty, pleasing,  well aware of when to dance and when to stop, able to follow the flow of songs and music, and to dance to the time (thalam),with splendid costumes, and of a happy disposition.
The performance concludes with the chanting of a few religious verses as a form of benediction. When a dancer has mastered all the elements of dance, as a coming out performance, he or she generally performs an Arangetram, which everyone in his/her institute attends. After that, he/she is entitled to teach and his/her lessons are finally over.
Bharata Natyam dancerCostume - From the ancient texts and sculptures, one can see that the original costume did not cover most of the dancers' bodies.
The medieval times, with the puritanistic drive, caused the devadasis to wear a special, heavy saree that severely restricted the dance movements. There are several varieties of Bharatanatyam costumes, some of which do not restrict the dancer's movements, while the others do.
The modern costumes are deeply symbolic, as their purpose is to project the dancer's subtle body.
  • Music - The music is in the Carnatic style of south India, "purer" than the classical music of north India (Hindustani music) only in the sense that it was not heavily influenced by traditions, like those of the Persians, from outside of India.
  • Ensemble - Instruments for Bharatanatyam include, the mridangam (drum), nagaswaram (long black wood pipe horn made from a black wood), the flute, violin and veena (stringed instrument traditionally associated with Saraswati, the Hindu goddess of the arts and learning).
  • Languages - Tamil (predominant), Sanskrit, Telugu and Kannada are traditionally used in Bharatanatyam.
Local kings often invited temple dancers devadasis to dance in their courts, the ocurrence of which created a new category of dancers and modified the technique and themes of the recitals. 
By that time, devadasis had already gone from being high-status life-long celibate priestesses (brahmacharya) to being lower-status temple servants.
Rukmini Devi Arundale 
   
She had the vision of a poet and looked at the beautiful side of things. It was this sense of beauty that made her life a thing of joy. She tirelessly spread the message of Indian art and heritage within the country and outside. She was not only a famous dancer but also an animal lover and a champion of vegetarianism. 
She was nominated twice to India`s Upper House of Parliament, the Rajya Sabha, where she pushed and got passed the Bill for Prevention of Cruelty to Animals. Morarji Desai suggested her name for the office of President of the Indian Republic. It was she who brought Maria Montessori to India and organized her public talks and set up the first Montessori kindergarten in India.
Rukmini Devi was born at Madurai on February 29, 1904 -during the auspicious Mahamagam festival. Rukmini Devi was one of eight children of her parents. Her father Nilakantha Sastri belonged to an orthodox Brahmin family of Sanskrit scholars. During her childhood, she had fleeting glimpses of Bharatanatyam at the Navaratri festival organized by her father for the Maharaja. In those days, dance was an integral part of temple festivals.

She married George Arundale, a foreigner and a leading member of the Theosophical Society. The marriage helped her to get exposure to foreign audiences and also to widen her mental horizon. Once she went to meet Anna Pavlova, a dancer of fame and recognition. This was a turning point in her life. She expressed to Pavlova, her desire to dance with her, to which she replied, "You don`t have to dance, for if you just walk across the stage, it will be enough. People will come to watch you do that". These words of Anna Pavlova created in her the enthusiasm for dancing.

She learnt Sadir, the art of the devadasis from a hereditary guru and displayed her marvelous achievement under a banyan tree at the International Theosophical Conference. First she renamed Sadir as "Bharata Natyam", the dance of Bharata. 
This struck a deep dual chord, not only does it mean the dance of the sage Bharatha (author of the Natya Shastra,) but also connotes the dance of `Bhaarata` (India), the land of the hero Bharata.
Moreover, it stands for Bhava (emotion), Raga (melody) and Tala (Rhythm), the three components of the dance.





She was the founder of Kalakshetra `The Temple of Arts`. Training in Kalakshetra was perfect. Rukmini Devi was a purist who never compromised on the quality of classical arts. 
There were great masters like Papanasam Sivan and Mysore Vasudeva Acharya as the staff of Kalakshetra. The teaching was in Gurukula style. Most of the classes were in the open, under the shade of the great banyan trees of Adyar. 
It was like the Shantiniketan of Tagore. .Kalakshetra will remain as a living monument to her. Besides Kalakshetra, she found schools in mem-ory of Annie Besant and Arundale.

The great dancer died on February 1986. Rukrnini Devi Arundale was India`s cultural queen and her life reflected a many-sided splendour. 
Posterity will remember her not only as a leading exponent of Indian art but also as a fearless crusader for social change. 
She had charm, vision, deep-rooted moral convictions and remark-able courage. Rukmini Devi left a memorable imprint on our culture and art. 
No other person, in recent history, has contributed so much to Indian art as Rukrnini Devi did, and therein lie her greatness.}

 

बुधवार, 14 जुलाई 2010

[35] " श्री रामकृष्ण परमहंसदेव को अवतार वरिष्ठ क्यों कहते हैं ?

नवगोपाल घोष के नवनिर्मित गृह में श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव की (अमेरिका से लाये गये) छवि को आसान पर बैठा कर पूजा करते समय,स्वामी विवेकानन्द उनके लिये ' स्वतःस्फूर्त प्रणाम-मन्त्र ' की रचना करते हुए कहते हैं :
 ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे |
   अवतारवरिष्ठाय   रामकृष्णाय ते  नमः || 
परमहंसदेव के लिये स्वामीजी के द्वारा दिये गये इस विशेषण 
'अवतारवरिष्ठ' को सुनने से मन में कुछ प्रश्न उठने शुरू हो जाते हैं, जो बिल्कुल स्वाभाविक हैं. क्योंकि पहले हमने तो स्वयं ठाकुर (परमहंसदेव जी) के मुख से (वचनामृत में) सुना है कि सारे धर्म समान हैं,आदि आदि !
 सभी धर्मों के अनुयायी ' अवतार ' के रूप में किसी न किसी व्यक्ति के आविर्भूत होने का दावा करते हैं. अब यदि उन सबों के बीच श्रीरामकृष्ण को यदि 'अवतारवरिष्ठ '- कहा जाय, तो सभी धर्म के अनुयायियों के मन कई प्रकार के प्रश्न,सन्देह,तर्क आदि का उठना बिल्कुल स्वाभाविक है.किन्तु इस प्रश्न का समाधान है. गीता के चौथे अध्याय के सातवें श्लोक में श्रीकृष्ण ने कहा है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
    अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम || 
--हे भारत (अर्जुन), जब जब धर्म की कमी और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब मैं शरीर धारण कर अवतीर्ण होता हूँ. (अन्य सभी लोग भले-बुरे कर्म के अनुसार जन्म ग्रहण करते हैं, किन्तु मैं कर्म के वश में नहीं हूँ. केवल संसार के कल्याण का संकल्प लेकर अपनी त्रिगुणात्मिका माया की सहायता से 'तदा आत्मानं सृजामि अहं ' मैं अपने को सृष्टि करता हूँ ' अर्थात मनुष्य-देह धारण कर संसार में आविर्भूत होता हूँ !) 
सर्वशक्तिमान भगवान का जीव-जगत के कल्याण के लिये मनुष्यदेह धारण कर आविर्भूत होना संसार के आध्यात्मिक इतिहास में एक बहुत बड़ी घटना है. काल के प्रभाव से जब संसार पाप के भार से आक्रान्त होता है, तब वे मानो अपने कर्तव्य पालन के उद्देश्य से धर्म की ग्लानि दूर करने संसार में अवतीर्ण होते हैं.धर्म के प्रसार में जो विघ्न सामने आते हैं वे उन्हें विभिन्न प्रकार से दूर करके धर्म के प्रवाह को बाधा-रहित कर देते हैं. प्रत्येक युग में ऐसा ही होता आया है. 
किन्तु हमे ऐसा नहीं मान लेना चाहिये कि प्रत्येक युग में धर्म-संस्थापन का कार्य केवल (राक्षसों य़ा) पापियों का वध कर के ही करना पड़ता है.किस उपाय से धर्म को संस्थापित करना होगा- इसे श्रीभगवान अच्छी तरह जानते हैं. ...प्रत्येक अवतार के धर्मसंस्थापन की पद्धति विभिन्न प्रकार की होती है -- देश,काल और प्रयोजन के अनुसार कार्य-प्रणाली बदल जाति है.
वर्तमान युग में भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने अपनी साधना और आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा पृथ्वी पर विद्यमान सभी धर्मों की ग्लानि को दूर किया है. साथ ही धर्म के संस्थापन के लिये अत्यन्त करुणा करके इसबार उन्होंने अनेक पापियों का पाप-भार अपने ऊपर ले कर उनको भी धर्मात्मा बनने का मौका दिया है, और अपनी भूल को सुधार कर साधु यथार्थ मनुष्य बनने की शिक्षा दी है; उसी प्रकार साधु पुरुषों के साधन-मार्ग के विघ्न को दूर कर उन्हें साधु बनाया है. 
" स यत प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते "  
--अर्थात वे अपने जीवन द्वारा जिसे प्रमाणित करते हैं लोग उसी का अनुसरण करते हैं. 
केवल धर्मग्रन्थ से काम नहीं चलता. आदर्श जीवन कैसा होता है- उसे जी कर भी दिखाना होता है. उनके जीवनादर्श से शिक्षा पाकर लोग धर्ममार्ग का अनुसरण करते हैं.(टीका- स्वामी अपूर्वानन्द)} (गीता ४: ७ के) उपरोक्त श्लोक का उच्चारण यदि हमलोग इस प्रकार करें --
यदा ही सर्वधर्मानाम ग्लानिर्वभूव भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं ससर्ज सः ||
-- हे भारतवासी, जब पृथ्वी के समस्त धर्म अधोपतित हो गये थे एवं उसके साथ 'अभ्युत्थानमधर्मस्य '  अधर्म का भी अभ्युत्थान हो गया था; तब उस विकट परिस्थिति में ' उन्होंने '(अद्वैत ब्रह्म परमहंसदेव ने) स्वयं को सृष्ट किया था !
जब एक एक (अलग अलग)  देश का धर्म पतित हुआ था, तब उसको उठाने के लिये एक एक अवतार आये थे.किन्तु जब सम्पूर्ण पृथ्वी के धर्म अधोपतित हो गये एवं समग्र पृथ्वी में- ' अधर्म का अभ्युत्थान ' हो गया तब ' धर्म-वस्तु ' का ही नवोत्थान करने के लिये उन्होंने (परमहंसदेवजी) स्वयं की सृष्टि की थी. इसीलिये श्रीरामकृष्ण अवतार वरिष्ठ हैं !-इसीलिये वे अवतारवरिष्ठ हैं.
 " अवतारवरिष्ठस्तत रामकृष्णो हि केवलः।
          इतिहासपुराणेषू समः कोअपि न विद्यते।।"   
जब से सृष्टि बनी है, तब से लेकर आज तक मानव इतिहास में 
"परमहंसदेव" (ठाकुर) के जैसा (त्यागी) दूसरा कोई नहीं हुआ है. किसी भी देश य़ा किसी भी धर्म का पुराण क्यों न हो - किसी भी पुराण में, " श्रीरामोकृष्णो " के जैसा और कोई नहीं हुआ.
ऐसा कहना - किसी को छोटा करना य़ा बड़ा करना नहीं है, किसी के साथ तर्क-कुतर्क य़ा झगड़े में पड़ने की कोई जरुरत नहीं है. स्वामीजी ने उस दिन क्या सोंच कर ठाकुर को (परमहंसदेवजी को)'अवतारवरिष्ठ' कहा होगा- यह तो केवल स्वामीजी जानते होंगे.किन्तु ठंढे दिमाग से (पूर्वाग्रह से रहित होकर) यदि हम चिन्तन-मनन करें तो हमलोग इस विशेषण " अवतारवरिष्ठ " को - अत्यन्त आनन्द के साथ ग्रहन कर सकते हैं.एवं यह घोषणा भी कर सकते हैं कि, सम्पूर्ण जगत के मानव-समाज के परित्राण के लिये वर्तमान युग में उपाय - एकमात्र श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव से ही प्राप्त किया जा सकता है. एवं उनके उपदेश- स्वामी विवेकानन्द के जीवन में जिस प्रकार उक्त, व्यक्त,  और प्रचारित तथा आचरित हुए हैं, उनका थोड़ा भी अनुसरण करने से अपने जीवन भी उतार सकते हैं|               

   
       



         
 

रविवार, 11 जुलाई 2010

[34] " न विद्या संगीतात परा "

  " संगीत से श्रेष्ठ अन्य कोई विद्या नहीं है !" 
क्रमशः वीरेश्वर दा (बाबू) से संगीत सीखना आरम्भ हुआ, कुछ कुछ अभ्यास चलने लगा. वे थोड़ी-बहुत संगीत कि शिक्षा देने लगे. ज्यादा कुछ नहीं सिखलाते थे, वे कहते - " सारेगामापाधानिसा, सानिधापामागारेसा " - का अभ्यास करो, और खींच-खींच कर करो ( अर्थात सा रे गा.... में से एक-एक स्वर को पकड़ कर-- उसका( आरोह और अवरोह का) अभ्यास करो, जल्दी-जल्दी नहीं). मैं भी सरगम का अभ्यास - उसी प्रकार (एक-एक स्वर को पकड़ पकड़ कर) खींच खींच कर करने लगा. उनका कहना था- " एक साधे सब सधे, सब साधे (--तो) सब जाय ! " 
कुछ समय के बाद संगीत सीखते समय एकदिन, मैंने वीरेश्वर बाबू से पूछा- " प्राचीन भारतीय संगीत परम्परा में जिसको 'मार्ग संगीत' Classical Music कहते हैं,उसके अन्तर्गत शायद बाइस प्रकार की श्रुतियों के प्रयोग करने की बात थी. ये बाइस श्रुतियां क्या गले से बाहर निकाली जा सकतीं हैं?
{भारतीय शास्त्रीय संगीत या मार्ग, भारतीय संगीत का अभिन्न अंग है । शास्त्रीय संगीत को ही ‘क्लासिकल म्जूजिक’ भी कहते हैं। शास्त्रीय गायन ध्वनि-प्रधान होता है, शब्द-प्रधान नहीं । इसमें महत्व ध्वनि का होता है (उसके चढ़ाव-उतार का, शब्द और अर्थ का नहीं)। इसको जहाँ शास्त्रीय संगीत-ध्वनि विषयक साधना के अभ्यस्त कान ही समझ सकते हैं, अनभ्यस्त कान भी शब्दों का अर्थ जानने मात्र से देशी गानों या लोकगीत का सुख ले सकते हैं। इससे अनेक लोग स्वाभाविक ही ऊब भी जाते हैं पर इसके ऊबने का कारण उस संगीतज्ञ की कमजोरी नहीं, लोगों में जानकारी की कमी है।}
उन्होंने कहा-- " हाँ, वैसा किया जा सकता है |" मैं थोड़ा अवाक् हो गया. कोई व्यक्ति केवल अपने गले से बाईस प्रकार की श्रुति निकाल लेता हो-- ऐसा तो मैंने कभी सुना न था. मेरे अपने मन में यह विचार उठा था इसीलिये उनसे पूछ बैठा था. इस पर मैं बोला- " क्या यह मैं सुन सकता हूँ, किसी दिन मुझे भी सुनाइएगा ? उन्होंने कहा था-- " ठीक है, कभी सुना दूंगा|" 
बात आयी-गयी हो गयी, बहुत दिनों बाद एक दिन उनसे संगीत सीखने हम जितने लोग जाया करते थे, उनमे से कोई भी नहीं पहुँचा| मैं अकेला ही पहुँच सका| उस दिन उन्होंने ही कहा-- " उस दिन आपने २२ श्रुति सुनाने का आग्रह किया था, तो आज उसे सुना देता हूँ ! " और बैठे बैठे सुना दिये थे. 
नीचे का ' सा ' (उदारा) से ऊपर का ' सा ' (तारा)  तक २२ श्रुति को पुनः-पुनः एक के बाद दूसरे का  ऊपर से नीचे उतरना और फिर नीचे से ऊपर चढ़ना, चढ़ना-उतरना, चढना -उतरना इस प्रकार बार बार सुनाये थे. अपने कानों से २२ श्रुतियों का पुनः-पुनः श्रवण करने से, कान उसके सूक्ष्म अन्तर को भी बिकुल स्पष्ट रूप से पकड़ सकते हैं| 
यही जो सूक्ष्म स्वर-स्थान आदि हैं, यदि इनका प्रयोग सही ढंग से नहीं होने पर संगीत का माधुर्य जाता रहता है. इन्ही के विभिन्न प्रयोग के ऊपर ही संगीत की रचना होती है. संगीत का माधुर्य इनके ऊपर ही निर्भर करता है. उपयुक्त स्वर-स्थान न रहने से संगीत कभी भी श्रुति-सुखकर नहीं होता. कान निर्मित हो जाने (अभ्यस्त होने) से, अब कठिनाई हो रही है- सुर-विहीन गाने कर्ण-कटू जान पड़ते हैं | जो हो इसी प्रकार चलता रहा. कहा गया है -
' न विद्या संगीतात परा '
-- संगीत से श्रेष्ठ अन्य कोई विद्या नहीं है !
प्रसंगवश ' ठाकुर ' (परमहंसदेव) एवं ' स्वामीजी ' (स्वामी विवेकानन्द) के संगीत की बातें याद आ रही हैं. ठाकुर का कन्ठ-स्वर अत्यन्त मधुर था, और वे एक असाधारण गायक थे. उनकी सुमधूर गले के विषय में, उनके संगीत के विषय में बहुत कुछ लिखा गया है. किसी ने लिखा है, " उनके समकालीन जो लोग उनके संगीत को सुने हैं, उन सबों का कहना है कि उनके गले के जैसा मधुर गला और दूसरा कहीं सुना नहीं है ! "
स्वामीजी जिस उस्ताद (संगीत के गुरु) से संगीत सीखे थे, मेदनीपुर जिले के एक गाँव के एक धनी परिवार के कई लोगों ने भी, उनसे ही संगीत सीखा था. एक बार उस घर में जाने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ था. उनके घर में अलग से एक संगीत-कक्ष भी बना हुआ है, जो किसी हाल जितना बड़ा था.उस संगीत कक्ष में लगता है, कम से कम ३०-४० प्रकार के तो वाद्य-यन्त्र (Musical -Instruments) ही रखे हुए थे. उसी जगह पर संगीत का अभ्यास किया जाता था. उनलोगों के जो गुरु थे, स्वामी विवेकानन्द के भी संगीत गुरु वे ही थे.
स्वामीजी कितना सुन्दर गाते थे! उनका कन्ठ-स्वर कितना असाधारण (अनोखा) था. हमलोगों ने तो सुना ही नहीं है, अतः उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते. शायद बड़ानगर मठ की बात है, एक दिन रात को लगभग १० बजे सेवक को कहते हैं, " अरे, जरा हारमोनियम देना तो| " और हारमोनियम ले कर वे एक ही संस्कृत श्लोक( गायत्री आह्वान का मन्त्र) को विभिन्न रागों में गाने लगे--
         " आयातु   वरदे   देवी    त्रैक्षरे    ब्रह्मवादिनी |
                गायत्रीच्छ्न्दस्याम माता ब्रह्मयोने  नमोस्तु ते ||  "
(--हे, अपने भक्तों को वर देने वाली देवी ! त्रिभुवन (स्वर्ग-मर्त्य-पाताल लोक) -तीनों लोकों में {ॐ} परमात्मा ही(शाश्वत चैतन्य बिजली शक्ति य़ा प्राण की तरह) समाया हुआ है!यह जितना भी विश्व ब्रह्माण्ड है, परमात्मा की एक जीवित-जाग्रत साकार प्रतिमा है! कण-कण में भगवान समाये हुए हैं| इस सर्वव्यापक परमात्मा को सर्वत्र देखते हुए--मुझे कुविचारों और कुकर्मों से सदा दूर रहना चाहिये! मेरी बुद्धि को इस प्रकार के ज्ञान से उदभासित कर देने वाली- गायत्री के छन्द में, ' ॐ भू: भुवः स्वः ' रूपिणी देवी !सम्पूर्ण चराचर जगत की सृष्टि करने वाली ब्रह्म-योनी माते ! तुम्हें मेरा नमस्कार है ! )
इसी श्लोक को बारी बारी से विभिन्न रागों में दुहराए जा रहे थे. बहुत रात बीत जाने तक भी यही क्रम चलता रहा. सभी लोग बेसुध होकर सुन रहे थे. उनको समय का ज्ञान भी न रह गया था.तब ब्रह्मनान्दजी प्रातः ४ बजे स्वामीजी को विराम करवाए. 
शास्त्रीय संगीत के भारत विख्यात ग्वालियर घराना-- के संगीत-गुरु (उस्ताद) रामकृष्ण भंज (अधिकांश लोग उनको बूय़ा नाम से जानते हैं) ने अपनी आत्मकथा (आत्मजीवनी) में लिखा है कि, स्वामी विवेकानन्द ने उनको लगभग १०० ध्रुपद-गाने सिखाये थे. 
जब परिव्राजक के रूप में स्वामीजी उत्तर भारत का भ्रमण कर रहे थे, तब एक भक्त के घर में ठहरे थे. उसी घर के नजदीक एक धनी परिवार के घर में ' महफ़िल ' चल रही थी,(संगीत-सभा को वहाँ महफ़िल कहा जाता है)|वहाँ शास्त्रीय संगीत चल रहा था, जिसे स्वामीजी भी सुन पा रहे थे. कोई व्यक्ति संगीत का अच्छा-जानकर है य़ा नहीं, इस बात को श्रोता के अच्छे-बुरे संगीत को सुनकर उसके चेहरे पर होने वाली प्रतिक्रिया को देख कर भी समझा जा सकता है. 
तो उस घर के लोग भी उनको देखकर यह समझ गये कि, निःसंदेह स्वामीजी संगीत के बहुत अच्छे ज्ञाता हैं. उनलोगों ने सोंचा, कि जो संगीत के इतने अच्छे ज्ञाता हैं, वे निश्चय ही स्वयं भी कुछ गाते होंगे. अतः उनसे अनुरोध किये," स्वामीजी ऐसा प्रतीत होता है कि आप गाना गाते हैं, क्या कोई गाना हमें भी सुनायेंगे ? पर स्वामीजी राजी नहीं हो रहे थे. तब वे लोग जिद करने लगे, " नहीं, स्वामीजी कोई न कोई गाना तो आप को सुनना ही पड़ेगा|" 
स्वामीजी बोले, " आज तो नहीं हो पायेगा; यदि कहो तो कल सुना सकता हूँ." दूसरे दिन उनलोगों को घन्टों तक गा कर सुनाये. कितना अनोखा उनका कन्ठ-स्वर था, जो भी सुनता वह मूग्ध हो जाता था! और ध्रुपद-ताल में उन्होंने " ठाकुर- परमहंसदेव " के लिये जिस आरात्रिक की रचना की है, वह कितना असाधारण है; ठाकुर का प्रणाम-मन्त्र भी कितना अनूठा है!
स्वामीजी ने हावड़ा के जिस भवन में, ठाकुर-परमहंसदेव के लिये " प्रणाम-मन्त्र " की रचना की थी उस भवन में जाने का सौभाग्य मुझे भी मिला है.श्रीरामकृष्ण के एक भक्त-- " नवगोपाल घोष "  ने सुना, कि हावड़ा जिले में " रामकृष्णपुर " नाम से एक नया अँचल बनाया गया है.यह सुनकर कलकाता के पुराने निवास को छोड़,वे वहीं जाकर वास करने लगे.
अमेरिका से स्वदेश वापस लौटने के बाद स्वामीजी उस भवन में गये थे; एवं उस भवन के प्रथम तल्ले पर बने एक कमरे में श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव की अमेरिका से लायी गयी एक छवि को आसान पर बैठा कर पूजा किये थे. स्वामीजी ने अपने हाथों से ठाकुर-परमहंसदेव की जिस छवि को आसान पर बैठा कर पूजा की थी, वह वहाँ आज भी है. अभी तीसरे तल्ले पर नवनिर्मित- पूजाघर में उस चित्र की नित्य पूजा होती है. 
किन्तु जब स्वामीजी ठाकुर के उस छवि की पूजा किये थे, तब पहले तल्ले पर बने एक कमरे में आसान पर बैठा कर पूजा किये थे. अभी उस भवन के सबसे उपरी तल्ले पर अलग से एक पूजा का कमरा बना कर उस छवि को रखा गया है. उस स्थान पर बैठ कर, उस छवि में ठाकुर " परमहंसदेव " की पूजा करने का सौभाग्य मुझे मिला है. उसी भवन में स्वामीजी ने पूजा के साथ साथ-" ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः || " 
मन्त्र की रचना कर के ठाकुर-परमहंसदेव के चरणों में अपना प्रणाम निवेदित किया था. और ठाकुर परमहंसदेव को केवल अवतार ही नहीं, " अवतारवरिष्ठ " कह कर सम्बोधित किया था !!   
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{संगीत- बोलचाल की भाषा में सिर्फ़ गायन को ही संगीत समझा जाता है मगर संगीत की भाषा में गायन, वादन व नृत्य तीनों के समुह को संगीत कहते हैं। संगीत वो ललित कला है जिसमें स्वर और लय के द्वारा हम अपने भावों को प्रकट करते हैं। कला की श्रेणी में ५ ललित कलायें आती हैं- संगीत, कविता, चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला। इन ललित कलाओं में संगीत को सर्वश्रेष्ठ माना गया है।

संगीत पद्धतियाँ- भारतवर्ष में मुख्य दो प्रकार का संगीत प्रचार में है जिन्हें संगीत पद्धति कहते हैं। उत्तरी संगीत पद्धति व दक्षिणी संगीत पद्धति । ये दोनों पद्धतियाँ एक दूसरे से अलग ज़रूर हैं मगर कुछ बातें दोनों में समान रूप से पायी जाती हैं।

ध्वनि- वो कुछ जो हम सुनते हैं वो ध्वनि है मगर संगीत का संबंध केवल उस ध्वनि से है जो मधुर है और कर्णप्रिय है।
ध्वनि की उत्पत्ति कंपन से होती है। संगीत में कंपन (वाइब्रेशन) को आंदोलन कहते हैं। किसी वाद्य के तार को छेड़ने पर तार पहले ऊपर जाकर अपने स्थान पर आता है और फिर नीचे जाकर अपने स्थान पर आता है। इस प्रकार एक आंदोलन पूरा होता है। 
एक सेकंड मॆं तार जितनी बार आंदोलित होता है, उसकी आंदोलन संख्या उतनी मानी जाती है। जब किसी ध्वनि की आंदोलन एक गति में रहती है तो उसे नियमित और जब आंदोलन एक रफ़्तार में नहीं रहती तो उसे अनियमित आंदोलन कहते हैं। इस तरह जब किसी ध्वनि की अंदोलन कुछ देर तक चलती रहती है तो उसे स्थिर आंदोलन और जब वो जल्द ही समाप्त हो जाती है तो उसे अस्थिर आंदोलन कहते हैं।
नाद- संगीत में उपयोग किये जाने वाली मधुर ध्वनि को नाद कहते हैं। अगर ध्वनि को धीरे से उत्पन्न किया जाये तो उसे छोटा नाद और ज़ोर से उत्पन्न किया जाये तो उसे बड़ा नाद कहते हैं।

श्रुति- एक सप्तक (सात स्वरों का समुह) में सा से नि तक असंख्य नाद हो सकते हैं। मगर संगीतज्ञों का मानना है कि इन सभी नादों में से सिर्फ़ २२ ही संगीत में प्रयोग किये जा सकते हैं, जिन्हें ठीक से पहचाना जा सकता है। इन बाइस नादों को श्रुति कहते हैं।

स्वर- २२ श्रुतियों में से मुख्य बारह श्रुतियों को स्वर कहते हैं। इन स्वरों के नाम हैं - सा(षडज), रे(ऋषभ), ग(गंधार), म(मध्यम), प(पंचम), ध(धैवत), नि(निषाद) अर्थात सा, रे, ग, म, प ध, नि स्वरों के दो प्रकार हैं- शुद्ध स्वर और विकृत स्वर। 
बारह स्वरों में से सात मुख्य स्वरों को शुद्ध स्वर कहते हैं अर्थात इन स्वरों को एक निश्चित स्थान दिया गया है और वो उस स्थान पर शुद्ध कहलाते हैं। इनमें से ५ स्वर ऐसे हैं जो शुद्ध भी हो सकते हैं और विकृत भी अर्थात शुद्ध स्वर अपने निश्चित स्थान से हट कर थोड़ा सा उतर जायें या चढ़ जायें तो वो विकृत हो जाते हैं। उदाहरणार्थ- अगर शुद्ध ग आठवीं श्रुति पर है और वो सातवीं श्रुति पर आ जाये और वैसे ही गाया बजाया जाये तो उसे विकृत ग कहेंगे। 
जब कोई स्वर अपनी शुद्ध प्रकार से नीचे होता है तो उसे कोमल विकृत और जब अपने निश्चित स्थान से ऊपर हट जाये और गाया जाये तो उसे तीव्र कहते हैं। सा और प अचल स्वर हैं जिनके सिर्फ़ शुद्ध रूप ही हो सकते हैं।
सप्तक- क्रमानुसार सात शुद्ध स्वरों के समुह को सप्तक कहते हैं। ये सात स्वर हैं- सा, रे, ग, म, प, ध, नि । जैसे-जैसे हम सा से ऊपर चढ़ते जाते हैं, इन स्वरों की आंदोलन संख्या बढ़ती जाती है। 'प' की अंदोलन संख्या 'सा' से डेढ़ गुनी ज़्यादा होती है।'सा' से 'नि' तक एक सप्तक होता है, 'नि' के बाद दूसरा सप्तक शुरु हो जाता है जो कि 'सा' से ही शुरु होगा मगर इस सप्तक के 'सा' की आंदोलन संख्या पिछले सप्तक के 'सा' से दुगुनी होगी। इस तरह कई सप्तक हो सकते हैं मगर गाने बजाने में तीन सप्तकों का प्रयोग करते हैं।

१) मन्द्र २) मध्य ३) तार । संगीतज्ञ साधारणत: मध्य सप्तक में गाता बजाता है और इस सप्तक के स्वरों का प्रयोग सबसे ज़्यादा करता है। मध्य सप्तक के पहले का सप्तक मंद्र और मध्य सप्तक के बाद आने वाला सप्तक तार सप्तक कहलाता है।


भारतीय संगीत का अभिन्न अंग है भारतीय शास्त्रीय संगीत। आज से लगभग ३००० वर्ष पूर्व रचे गए वेदों को संगीत का मूल स्रोत माना जाता है। ऐसा मानना है कि ब्रह्मा जी ने नारद मुनि को संगीत वरदान में दिया था। चारों वेदों में, सामवेद के मंत्रों का उच्चारण उस समय के वैदिक सप्तक या समगान के अनुसार सातों स्वरों के प्रयोग के साथ किया जाता था। 
गुरू शिष्य परंपरा के अनुसार, शिष्य को गुरू से वेदों का ज्ञान मौखिक ही प्राप्त होता था व उन में किसी प्रकार के परिवर्तन की संभावना से मनाही थी। इस तरह प्राचीन समय में वेदों व संगीत का कोई लिखित रूप न होने के कारण उनका मूल स्वरूप लुप्त होता गया।
भरत मुनि द्वारा रचित भरत नाट्यशास्त्र, भारतीय संगीत के इतिहास का प्रथम लिखित प्रमाण माना जाता है। इसकी रचना के समय के बारे में कई मतभेद हैं। आज के भारतीय शास्त्रीय संगीत के कई पहलुओं का उल्लेख इस प्राचीन ग्रंथ में मिलता है। भरत् नाट्य शास्त्र के बाद शारंगदेव रचित संगीत रत्नाकर, ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। बारहवीं सदी के पूर्वाद्ध में लिखे सात अध्यायों वाले इस ग्रंथ में संगीत व नृत्य का विस्तार से वर्णन है।
संगीत रत्नाकर में कई तालों का उल्लेख है व इस ग्रंथ से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय पारंपरिक संगीत में अब बदलाव आने शुरू हो चुके थे व संगीत पहले से उदार होने लगा था। १००० वीं सदी के अंत तक, उस समय प्रचलित संगीत के स्वरूप को प्रबंध कहा जाने लगा। प्रबंध दो प्रकार के हुआ करते थे... निबद्ध प्रबंध व अनिबद्ध प्रबंध। निबद्ध प्रबंध को ताल की परिधि में रह कर गाया जाता था जबकि अनिबद्व प्रबंध बिना किसी ताल के बंधन के, मुक्त रूप में गाया जाता था। प्रबंध का एक अच्छा उदाहरण है जयदेव रचित गीत गोविंद।

युग परिवर्तन के साथ संगीत के स्वरूप में भी परिवर्तन आने लगा मगर मूल तत्व एक ही रहे। मुगल शासन काल में भारतीय संगीत फ़ारसी व मुसलिम संस्कृति के प्रभाव से अछूता न रह सका। उत्तर भारत में मुगल राज्य ज़्यादा फैला हुआ था जिस कारण उत्तर भारतीय संगीत पर मुसलिम संस्कृति व इस्लाम का प्रभाव ज़्यादा महसूस किया जा सकता है। जबकि दक्षिण भारत में प्रचलित संगीत किसी प्रकार के बाहरी प्रभाव से अछूता ही रहा। इस तरह भारतीय संगीत का दो भागों में विभाजन हो गया :
१) उत्तर भारतीय संगीत या हिन्दुस्तानी संगीत
२) कर्नाटक शैली।
उत्तर भारतीय संगीत में काफ़ी बदलाव आए। संगीत अब मंदिरों तक सीमित न रह कर शहंशाहों के दरबार की शोभा बन चुका था। इसी समय कुछ नई शैलियॉं भी प्रचलन में आईं जैसे ख़याल, ग़जल आदि और भारतीय संगीत का कई नए वाद्यों से भी परिचय हुआ जैसे सरोद, सितार इत्यादि।
बाद में सूफ़ी आंदोलन ने भी भारतीय संगीत पर अपना प्रभाव जमाया। आगे चलकर देश के विभिन्न हिस्सों में कई नई पद्धतियों व घरानों का जन्म हुआ। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान कई नए वाद्य प्रचलन में आए। आम जनता में भी प्रसिद्ध आज का वाद्य हारमोनियम, उसी समय प्रचलन में आया। इस तरह भारतीय संगीत के उत्थान व उसमें परिवर्तन लाने में हर युग का अपना महत्वपूर्ण योगदान रहा।
भारतीय शास्त्रीय संगीत का आधार
भारतीय शास्त्रीय संगीत आधारित है स्वरों व ताल के अनुशासित प्रयोग पर।सात स्वरों व बाईस श्रुतियों के प्रभावशाली प्रयोग से विभिन्न तरह के भाव उत्पन्न करने की चेष्टा की जाती है। सात स्वरों के समुह को सप्तक कहा जाता है। भारतीय संगीत सप्तक के ये सात स्वर इस प्रकार हैं
षडज (सा), ऋषभ(रे), गंधार(ग), मध्यम(म), पंचम(प), धैवत(ध), निषाद(नि)।
सप्तक को मूलत: तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है...मन्द्र सप्तक़, मध्य सप्तक व तार सप्तक।अर्थात सातों स्वरों को तीनों सप्तकों में गाया बजाया जा सकता है।षड्ज व पंचम स्वर अचल स्वर कहलाते हैं क्योंकि इनके स्थान में किसी तरह का परिवर्तन नहीं किया जा सकता और इन्हें इनके शुद्ध रूप में ही गाया बजाया जा सकता है जबकि अन्य स्वरों को उनके कोमल व तीव्र रूप में भी गाया जाता है। इन्हीं स्वरों को विभिन्न प्रकार से गूँथ कर रागों की रचना की जाती है।
राग क्या हैं :
राग संगीत की आत्मा हैं, संगीत का मूलाधार। राग शब्द का उल्लेख भरत नाट्य शास्त्र में भी मिलता है। रागों का सृजन बाईस श्रुतियों के विभिन्न प्रकार से प्रयोग कर, विभिन्न रस या भावों को दर्शाने के लिए किया जाता है। 
प्राचीन समय में रागों को पुरूष व स्त्री रागों में अर्थात राग व रागिनियों में विभाजित किया गया था।सिर्फ़  यही नहीं, कई रागों को पुत्र राग का भी दर्जा प्राप्त था। उदाहरणत: राग भैरव को पुरूष राग, और भैरवी, बिलावली सहित कई अन्य रागों को उसकी रागिनियॉं तथा राग ललित, बिलावल आदि रागों को इनके पुत्र रागों का स्थान दिया गया था।बाद में आगे चलकर पं व़िष्णु नारायण भातखंडे ने सभी रागों को दस थाटों में बॉंट दिया। 
अर्थात एक थाट से कई रागों की उत्पत्ति हो सकती थी। अगर थाट को एक पेड़ माना जाए व उससे उपजी रागों को उसकी शाखाओं के रूप में देखा जाए तो गलत न होगा। उदाहरणत: राग शंकरा, राग दुर्गा, राग अल्हैया बिलावल आदि राग थाट बिलावल से उत्पन्न होते हैं।
थाट बिलावल में सभी स्वर शुद्ध माने गए हैं अत: तकनीकी दृष्टि से इस थाट से उपजे सभी रागों में सारे स्वर शुद्ध प्रयोग किए जाने चाहिए। मगर दस थाटों के इस सिद्धांत के बारे में कई मतांतर हैं क्योंकि कुछ राग किसी भी थाट से मेल नहीं खाते मगर उन्हें नियमरक्षा हेतु किसी न किसी थाट के अंतर्गत सम्मिलित किया जाता है।
किसी भी राग में ज़्यादा से ज़्यादा सात व कम से कम पॉंच स्वरों का प्रयोग करना ज़रूरी है।इस तरह रागों को मूलत: ३ जातियों में विभाजित किया जा सकता है...
१) औडव जाति जहॉं राग विशेष में पॉंच स्वरों का प्रयोग होता हो
२) षाडव जाति जहॉं राग में छ: स्वरों का प्रयोग होता हो
३) संपूर्ण जाति जहॉं राग में सभी सात स्चरों का प्रयोग किया जाता हो।
राग के स्वरूप को आरोह व अवरोह गाकर प्रदर्शित किया जाता है जिसमें राग विशेष में प्रयुक्त होने वाले स्वरों को क्रम में गाया जाता है।
उदाहरण के लिए राग भूपाली का आरोह कुछ इस तरह है:
सा रे ग प ध सां।

किसी भी राग में दो स्वरों को विशेष महत्व दिया जाता है। इन्हें वादी स्वर व संवादी स्वर कहते हैं। वादी स्वर को राग का राजा भी कहा जाता है क्योंकि राग में इस स्वर का बहुतायत से प्रयोग होता है। दूसरा महत्वपूर्ण स्वर है संवादी स्वर जिसका प्रयोग वादी स्वर से कम मगर अन्य स्वरों से अधिक किया जाता है। इस तरह किन्हीं दो रागों में जिनमें एक समान स्वरों का प्रयोग होता हो, वादी और संवादी स्वरों के अलग होने से राग का स्वरूप बदल जाता है। उदाहरणत: राग भूपाली व देशकार में सभी स्वर समान हैं मगर वादी व संवादी स्वर अलग होने के कारण इन रागों में आसानी से फ़र्क बताया जा सकता है। 

 
हर राग में एक विशेष स्वर समुह के बार बार प्रयोग से उस राग की पहचान दर्शायी जाती है। जैसे राग हमीर में 'ग म ध' का बार बार प्रयोग किया जाता है और ये स्वर समूह राग हमीर की पहचान हैं।
मुगल़कालीन शासन के दौरान ही शायद रागों के गाने बजाने का निर्धारित समय कभी प्रचलन में आया। जिन रागों को दोपहर के बारह बजे से मध्यरात्रि तक गाया बजाया जाता था उन्हें पूर्व राग कहा गया और मध्यरात्रि से दोपहर के बीच गाए बजाए जाने वाले रागों को उत्तर राग कहा गया। कुछ राग जिन्हें भोर या संध्याकालीन समय में गाया जाता था उन्हें संधिप्रकाश राग कहा गया। यही नहीं कुछ राग ऋतुप्रधान भी माने गए। जैसे राग मेघमल्हार वर्षा ऋतु में गाया जाने वाला राग है। इसी तरह राग बसंत को बसंत ऋतु में गाए जाने की प्रथा है।

चैत में गाई जाने वाली चैती
चैत्र के महीने में गाई जाने वाली उप-शास्त्रीय संगीत में एक प्रकार की बंदिश है चैती। इसमें रामा शब्द का प्रयोग बार बार होता है और इसमें कोयल की कूक, विरह, प्रेम, साजन से प्रेम निवेदन, और कई बार राम जी का वर्णन होता है। क्योंकि चैत्र मास में होली आती है, कई बार चैती में होली का वर्णन भी होता है। मन को छूने वाली चैती की जन्मभूमि बनारस मानी जाती है। बिहार में भी चैती गाई जाती है।आज शुभा मुद्गल की आवाज़ में सुनते हैं ये चैती- 
सपना देखीला पलकनवा हो रामा, सैंया के आवनवा
  हमारी संस्कृति का एक स्तंभ भारतीय शास्त्रीय संगीत, जीवन को संवारने और सुरुचिपूर्ण ढंग से जीने की कला है। यह आधार है हर तरह के संगीत का साथ ही ऐसी गरिमामयी धरोहर है जिससे लोक और लोकप्रिय संगीत की अनेक धाराएँ निकलती हैं जो न सिर्फ हमारे तीज त्योहारों में राग रंग भरती हैं बल्कि हमारे विभिन्न संस्कारों और अवसरों में भी उल्लासमय बनाते हुए अनोखी रौनक प्रदान करती हैं। 
साभार संगीत विद्या की ज्ञाता
--मानोशी