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शनिवार, 17 जुलाई 2010

[36] " भारतीय नृत्य की एक कुसुमावली "

" An Anthology of Indian Dance"
संगीत का थोड़ा श्रवण, इसे सीखने का प्रयास, एवं इसका अभ्यास थोड़ा-बहुत हमसे भी हुआ है. गाने भी यथेष्ट सुने गये हैं. इसके साथ साथ, संगीत वाद्ययंत्र बजाने एवं गायन के क्षेत्र में जो लोग भारत विख्यात संगीत विशारद माने जाते हैं, उन बड़े बड़े संगीतज्ञों का- गायन और वादन भी कमों-बेश सुना गया है. 
घटनाक्रम वश ' नृत्य ' के विषय में भी कुछ चिन्तन-मनन करने का सूयोग प्राप्त हुआ है. अकस्मात एक बार किसी कारण-वश मेरे ऊपर यह दायित्व सौंप दिया गया कि, आपको नृत्य के विषय में एक पुस्तक के आकार का वृहत-प्रबन्ध जैसा कुछ लिखना पड़ेगा. 
किसी ' नृत्यकला शिक्षण संस्थान ' के एक विशिष्ट नृत्य-शिक्षक के संवर्धना के उपलक्ष्य में नृत्य  के ऊपर एक अनुष्ठान होने वाला था; उसी अवसर पर उस पुस्तकाकार निबन्ध का विमोचन होना भी तय  था. दायित्व ऐसे किसी व्यक्ति के माध्यम से आया, जिसे टाला भी नहीं जा सकता था. उस समय कलकाता के इनसब विषय में जानकर परिचित लोगों, यथा- रविन्द्रभारती विश्वविद्यालय के उपाचार्य, ' य़ू.सि.गांगुली ' जिनकी गणना संगीत-नृत्य के क्षेत्र में एक विशिष्ट व्यक्ति के रूप में होती थी, उन्ही के समान अनेकों लोगों के पास जा-जाकर, एवं ' यन्त्र-संगीत ' तथा  ' कन्ठ संगीत ' के विषय में अनेका-नेक पुस्तकों को संग्रहित कर के मुझे नृत्य के ऊपर भी  
' भारतीय नृत्य की एक कुसुमावली य़ा संकलन '
नामक एक स्मारक ग्रन्थ को प्रकाशित करना पड़ा था. स्वाभाविक रूप से उसकी भूमिका लिखने का दायित्व भी पड़ा था. इसीलिये ' भारतीय नृत्य विद्या ' के सम्बन्ध में कुछ पुस्तकों को संग्रहित कर उनका गहराई से अध्यन करके इसकी भूमिका को भी एक 'शोध-पत्र ' के जैसा लिखना पड़ा था. अनेक दृष्टिकोण से इस विद्या को देखने के कारण वह भूमिका थोड़ी  वृहत हो गयी थी.उस समय स्वामी प्रज्ञानन्द महाराज के पास तो मैं अक्सर जाया करता था.बातों बातों में किसी ' शोध-पत्र ' के सदृश्य इस ' भारतीय नृत्य विद्या ' पर लिखी भूमिका के विषय में भी चर्चा हुई |
उन्होंने कहा कि, ' तुम जरा मुझे एक बार सुनाओ तो कि तुमने उस शोध-पत्र में क्या चीज लिखा है|' तब मैंने कहा कि, ' महाराज, वह तो कम्पोज हो गया है, लालचाँद प्रेस में छपने के लिये दे दिया हूँ|' वे बोले, ' तुम उसे ले आओ, प्रेस में जितना कम्पोज हुआ है, उस प्रूफ को ही ले कर आ जाओ|' लालचाँद प्रेस कलकाता का एक विख्यात छापाखाना है, कलकाता के बहुत अच्छे प्रिंटर्स में उनकी गिनती होती है, उनलोगों के पास ही इस स्मारक-ग्रन्थ को छापने के लिये दिया गया था.प्रूफ वहाँ से मांग कर ले आया.कितने पृष्ठ थे अभी ठीक से याद नहीं, किन्तु सात-आठ पन्ने तो होंगे ही. 
देर शाम में प्रूफ लेकर प्रज्ञा महाराज के पास पहुँचा. निचले तल्ले पर अपने कमरे में टेबल के सामने जिस प्रकार से बैठा करते थे, उसी प्रकार बैठे हुए थे. मैं उनके सामने वाले चेयर पर बैठ कर, जैसे ही उसे खोलना प्रारम्भ किया कि, उन्होंने कहा-" मैं नहीं पढूंगा, तुम उसे पढ़ कर मुझे सुनाओ, मैं केवल सुनूंगा |" मैंने इधर पढना प्रारम्भ किया, उधर उन्होंने अपनी आँखों को बन्द कर लिया. पूरा निबन्ध पढ़ कर उनको सुना दिया. तब धीरे धीरे अपनी आँखों को खोल कर वे बोले- " नवनी, तूमि लिखेछो बलछो बले आमि विश्वास करछी. एटो अन्य केऊ गानेर, नाचेर आर्टेर जगतेर लोक यदि एने,पड़े शुनिये बलतो- ' एटा आमि लिखेछी '- आमि विश्वास करतूम ना|..."
अर्थात ' नवनी, यह तूम कह रहे हो कि इसे मैंने लिखा है, इसीलिये मैं विश्वास कर लेता हूँ| किन्तु तुम्हारी जगह पर, नृत्य-संगीत आर्ट से जुड़ा कोई भी अन्य व्यक्ति यदि इसे लाकर सुनाता और कहता - ' यह मैंने लिखा है ' - तो मैं कदापि विश्वास नहीं करता| तुम्हारे इस शोध-पत्र में जितना सारगर्भित material है, यदि किसी इस प्रकार के क्षेत्र से जुड़े किसी नामी व्यक्ति को भी लिखने के लिये कहो, तो वह भी ऐसा नहीं लिख पायेगा| इस निबन्ध को अब उस स्मारक-ग्रन्थ में छापने के लिये नहीं भेजना है| तुमने तो इस निबन्ध को preface के रूप में लिखा हैं न? " 
मैंने कहा- ' हाँ ' उन्होंने कहा- " एर तो एकटा नाम देउया दरकार|एटा preface हबे ना, तूमि एटा देबे ना | "(अर्थात यह शोध-पत्र तो अपने-आप में ही इतना पूर्ण है कि)" इसको तो एक शीर्षक देने की आवश्यकता है|यह अब भूमिका के रूप में नहीं छपेगा, तूम इसको उस प्रेस में मत देना |" मैंने कहा - " महाराज, फिर इस निबन्ध का होगा क्या ? इसको तो प्रेस में कम्पोज भी करवा चुका हूँ|" 
वे बोले- " तूम, एक-दो पन्नों की एक छोटी सी भूमिका लिख करवहाँ भेज दो, और इसे मुझे दे दो|इसको तो मैं स्वामी अभेदानन्द महाराज के शतवार्षिकी स्मारक ग्रन्थ- जो अंग्रेजी में निकलने वाला हैं, उसमे छपवा दूंगा|
 एवं इसका नाम होगा, ' The Philosophy of Indian Dance ' (अर्थात ' भारतीय नृत्य विद्या का दार्शनिक-पक्ष' )|एवं मैं यह तुमसे कहता हूँ, दक्षिण भारत के, नृत्य-कला के विषय में एक विश्व-विख्यात नृत्यांगना हैं- ' रुक्मिणी देवी अरूंडेल ', वे भी ऐसा नहीं लिख सकती हैं ! "


http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/1/1c/Rukmini_Devi.jpg 
Rukmini Devi Arundale
29 February 1904-24 February 1986 (aged 81)
Padma Bhushan: 1956-Sangeet Natak Akademi Fellowship: 1967
मैंने वह निबन्ध महाराज को दे दिया|तब अलग से (भूमिका के लिये ) दो पृष्ठ लिख कर वह स्मारक-ग्रन्थ प्रकशित हुआ| उसके बाद नौकरी के सिलसिले में मुझे पुनः कुछ वर्षों के लिये कलकाता के बाहर जाकर प्रवास करना पड़ा था.जब कुछ अधिक दिनों के बीत जाने के बाद जब वापस लौटा, तो ज्ञात हुआ कि,  अभेदानन्द महाराज का शतवार्षिकी स्मारक ग्रन्थ तो प्रकाशित भी हो चुका है| तब मैं थोड़े संकोच के साथ महाराज से पूछा- " महाराज, मेरे उस निबन्ध का क्या हुआ ?  
" वे बोले- " ओह, मैं तो एकदम से भूल ही गया नवनी! क्या होगा!
जो हो, अब किया भी क्या जा सकता है बोलो,बिल्कुल ही भूल गया था| उसको तूम ले जाओ |" 
तब से अपने पूरे जीवन-काल में- एकबार सदात्मनान्दजी के कहने पर स्वामीजी के ऊपर जो निबन्ध लिखा था, उसके बाद कोई निबन्ध नहीं लिखा-- लिखने की न तो कभी इच्छा हुई, न कोई आवश्यकता ही हुई|
किन्तु इसके बाद भी तो विविध प्रकार के विषयों पर लिखता ही रहा हूँ मैं| 
संगीत के विषय में जो प्रबन्ध लिखा था, वह विभिन्न जगहों में प्रकाशित हुआ है| स्वामी अभेदानन्द की शतवार्षिकी के ऊपर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखा हूँ.उस समय के प्रसिद्ध ' भारतवर्ष ' जैसी मासिक पत्रिकाओं में -अन्यान्य विषयों पर प्रबन्ध (शोध-पत्र) लिखा हूँ, कविता लिखा हूँ, गाना लिखा हूँ | उनदिनों ' भारतवर्ष ' और ' प्रवासी ' नामक दो विख्यात मासिक पत्रिकाएं हुआ करतीं थीं. ' भारतवर्ष ' में तो मेरी कितनी ही रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं, ' कथासाहित्य ' में प्रकाशित हुई हैं,' उद्बोधन ', ' विश्ववाणी ', ' प्रबुद्ध भारत', ' उज्जीवन ' इत्यादि और भी अन्यान्य पत्रिकाओं में मेरी रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं|    

{ भारतीय नृत्य

नृत्य भी मानवीय अभिव्यक्तियों का एक रसमय प्रदर्शन है। यह एक सार्वभौम कला है, जिसका जन्म मानव जीवन के साथ हुआ है। बालक जन्म लेते ही रोकर अपने हाथ पैर मार कर अपनी भावाभिव्यक्ति करता है कि वह भूखा है- इन्हीं आंगिक -क्रियाओं से नृत्य की उत्पत्ति हुई है। यह कला देवी-देवताओं- दैत्य दानवों- मनुष्यों एवं पशु-पक्षियों को अति प्रिय है।
भारतीय पुराणों में यह दुष्ट नाशक एवं ईश्वर प्राप्ति का साधन मानी गई है। अमृत मंथन के पश्चात जब दुष्ट राक्षसों को अमरत्व प्राप्त होने का संकट उत्पन्न हुआ तब भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अपने लास्य नृत्य के द्वारा ही तीनों लोकों को राक्षसों से मुक्ति दिलाई थी। 
इसी प्रकार भगवान शंकर ने जब कुटिल बुद्धि दैत्य भस्मासुर की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि वह जिसके उपर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाए- तब उस दुष्ट राक्षस ने स्वयं भगवान को ही भस्म करने के लिये कटिबद्ध हो उनका पीछा किया- एक बार फिर तीनों लोक संकट में पड़ गये थे तब फिर भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अपने मोहक सौंदर्यपूर्ण नृत्य से उसे अपनी ओर आकृष्ट कर उसका वध किया।
भारतीय संस्कृति एवं धर्म की आरंभ से ही मुख्यत- नृत्यकला से जुड़े रहे हैं। देवेन्द्र इन्द्र का अच्छा नर्तक होना- तथा स्वर्ग में अप्सराओं के अनवरत नृत्य की धारणा से हम भारतीयों के प्राचीन काल से नृत्य से जुड़ाव की ओर ही संकेत करता है।
विश्वामित्र-मेनका का भी उदाहरण ऐसा ही है। स्पष्ट ही है कि हम आरंभ से ही नृत्यकला को धर्म से जोड़ते आए हैं। पत्थर के समान कठोर व दृढ़ प्रतिज्ञ मानव हृदय को भी मोम सदृश पिघलाने की शक्ति इस कला में है। यही इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष है। जिसके कारण यह मनोरंजक तो है ही- धर्म- अर्थ- काम- मोक्ष का साधन भी है। स्व परमानंद प्राप्ति का साधन भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो यह कला-धारा पुराणों- श्रुतियों से होती हुई आज तक अपने शास्त्रीय स्वरूप में धरोहर के रूप में हम तक प्रवाहित न होती। 
इस कला को हिन्दु देवी-देवताओं का प्रिय माना गया है।भगवान शंकर तो नटराज कहलाए- उनका पंचकृत्य से संबंधित नृत्य सृष्टि की उत्पत्ति- स्थिति एवं संहार का प्रतीक भी है। भगवान विष्णु के  अवतारों में श्रीकृष्ण नृत्यावतार ही हैं। इसी कारण वे 'नटवर' कृष्ण कहलाये। भारतीय संस्कृति एवं धर्म के इतिहास में कई ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि जिससे सफल कलाओं में नृत्यकला की श्रेष्ठता सर्वमान्य प्रतीत होती है।
भारतीय नृत्य के प्रकार
भारतीय नृत्य उतने ही विविध हैं जितनी हमारी संस्कृति, लेकिन इन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है- शास्त्रीय नृत्य तथा लोकनृत्य। हाल ही में बॉलीवुड नृत्य की एक नई शैली लोकप्रिय होती जा रही हैं जो भारतीय सिनेमा पर आधारित है। इसमें भारतीय शास्त्रीय, भारतीय लोक और पाश्चात्य शास्त्रीय तथा पाश्चात्य लोक का समन्वय देखने को मिलता है।
जिस तरह भारत में कोस-कोस पर पानी और वाणी बदलती है वैसे ही नृत्य शैलियाँ भी विविध हैं। प्रमुख भारतीय शास्त्रीय नृत्य हैं:
  • कथक
  • ओडिसी
  • भारतनाट्यम
  • कुचिपुडि
  • मणिपुरी एवं
  • कथकलि

लोक नृत्यों
में प्रत्येक प्रांत के अनेक स्थानीय नृत्य हैं। जैसे पंजाब में भांगड़ा,उत्तर-प्रदेश का पखाउज, झारखण्ड का छऊ आदि

भारतीय नृत्य का इतिहास 

नृत्य का प्राचीनतम ग्रंथ भरत मुनि का नाट्यशास्त्र है। लेकिन इसके उल्लेख वेदों में भी मिलते हैं, जिससे पता चलता है कि प्रागैतिहासिक काल में नृत्य की खोज हो चुकी थी। इतिहास की दृष्टि में सबसे पहले उपलब्ध साक्ष्य गुफाओं में प्राप्त आदिमानव के उकेरे चित्रों तथा हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाईयों में प्राप्त मूर्तियाँ हैं, जिनके संबंध में पुरातत्वेत्ता नर्तकी होने का दावा करते हैं। ऋगवेद के अनेक श्लोकों में नृत्या शब्द का प्रयोग हुआ है।  

इन्द्र यथा हयस्तितेपरीतं नृतोशग्वः । 

तथा  

नह्यंगं नृतो त्वदन्यं विन्दामि राधसे। 

अर्थात- इन्द्र तुम बहुतों द्वारा आहूत तथा सबको नचाने वाले हो। इससे स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज में नृत्यकला का प्रचार-प्रसार सर्वत्र था। इस युग में नृत्य के साथ निम्नलिखित वाद्यों का प्रयोग होता था। 

वीणा वादं पाणिघ्नं तूणब्रह्मं तानृत्यान्दाय तलवम्। 

अर्थात- नृत्य के साथ वीणा वादक और मृदंगवादक और वंशीवादक को संगत करनी चाहिये और ताल बजाने वाले को बैठना चाहिये।

यर्जुवेद में भी नृत्य संबंधी सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। नृत्य को उस युग में व्यायाम के रूप में माना गया था। शरीर को अरोग्य रखने के लिये नृत्यकला का प्रयोग किया जाता था। हरिवंश पुराण में भी नृत्य संबंधी घटनाओं का उल्लेख है। भगवान नेमिनाथ के जन्म के समय के कलापूर्ण नृत्य व गायन के समारोहों का वर्णन इसमें मिलता है। 
श्रीमदभागवत महापुराण, शिव पुराण तथा कूर्म पुराण में भी नृत्य का उल्लेख कई विवरणों में मिला है। रामायण और महाभारत में भी समय-समय पर नृत्य पाया गया है। इस युग में आकर नृत्त- नृत्य- नाट्य तीनों का विकास हो चुका था। भरत के नाट्य शास्त्र के समय तक भारतीय समाज में कई प्रकार की कलाओं का पूर्णरूपेण विकास हो चुका था।
इसके बाद संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों जैसे कालिदास के शाकुंतलम- मेघदूतम- तथा मृच्छकटिकम आदि ग्रंथों में इन नृत्य का विवरण हमारी भारतीय संस्कृति की कलाप्रियता को दर्शाता है। आज भी हमारे समाज में नृत्य- संगीत को उतना ही महत्व दिया जाता है कि हमारे कोई भी समारोह नृत्य के बिना संपूर्ण नहीं होते। भारत के विविध शास्त्रीय नृत्यों की अनवरत शिष्य परंपराएँ हमारी इस सांस्कृतिक विरासत की धारा को लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित करती रहेंगी।
भारतीय डाकटिकटों में नृत्य: कत्थक " भरतनाट्यम "ओडिसी, कुचीपुडी,कथकली, मणिपुरी}


{Essential ideas

Bharatanatyam PerformanceBharatanatyam is the manifestation of the South Indian idea of the celebration of the eternal universe through the celebration of the beauty of the material body. 
In Hindu mythology the whole universe is the dance of the Supreme Dancer, Nataraja, a name for Lord Shiva, the Hindu ascetic yogi and divine purveyor of destruction of evil.
Bharatanatyam is considered to be a fire-dance, being the mystic manifestation in the human body of the metaphysical element of fire, is one of the five major styles that include Odissi(element of water), and Mohiniattam (element of air). The movements of an authentic Bharatanatyam dancer resemble the movements of a dancing flame.
Contemporary Bharatanatyam is practiced as Natya Yoga, a sacred Hindu meditational tradition by a few orthodox schools. A professional danseuse (patra), according to Abhinayadarpanam (one of the two most authoritative texts on Bharatanatyam), must possess the following qualities.

She has to be- young, slender, beautiful, with large eyes, self-confident, witty, pleasing,  well aware of when to dance and when to stop, able to follow the flow of songs and music, and to dance to the time (thalam),with splendid costumes, and of a happy disposition.
The performance concludes with the chanting of a few religious verses as a form of benediction. When a dancer has mastered all the elements of dance, as a coming out performance, he or she generally performs an Arangetram, which everyone in his/her institute attends. After that, he/she is entitled to teach and his/her lessons are finally over.
Bharata Natyam dancerCostume - From the ancient texts and sculptures, one can see that the original costume did not cover most of the dancers' bodies.
The medieval times, with the puritanistic drive, caused the devadasis to wear a special, heavy saree that severely restricted the dance movements. There are several varieties of Bharatanatyam costumes, some of which do not restrict the dancer's movements, while the others do.
The modern costumes are deeply symbolic, as their purpose is to project the dancer's subtle body.
  • Music - The music is in the Carnatic style of south India, "purer" than the classical music of north India (Hindustani music) only in the sense that it was not heavily influenced by traditions, like those of the Persians, from outside of India.
  • Ensemble - Instruments for Bharatanatyam include, the mridangam (drum), nagaswaram (long black wood pipe horn made from a black wood), the flute, violin and veena (stringed instrument traditionally associated with Saraswati, the Hindu goddess of the arts and learning).
  • Languages - Tamil (predominant), Sanskrit, Telugu and Kannada are traditionally used in Bharatanatyam.
Local kings often invited temple dancers devadasis to dance in their courts, the ocurrence of which created a new category of dancers and modified the technique and themes of the recitals. 
By that time, devadasis had already gone from being high-status life-long celibate priestesses (brahmacharya) to being lower-status temple servants.
Rukmini Devi Arundale 
   
She had the vision of a poet and looked at the beautiful side of things. It was this sense of beauty that made her life a thing of joy. She tirelessly spread the message of Indian art and heritage within the country and outside. She was not only a famous dancer but also an animal lover and a champion of vegetarianism. 
She was nominated twice to India`s Upper House of Parliament, the Rajya Sabha, where she pushed and got passed the Bill for Prevention of Cruelty to Animals. Morarji Desai suggested her name for the office of President of the Indian Republic. It was she who brought Maria Montessori to India and organized her public talks and set up the first Montessori kindergarten in India.
Rukmini Devi was born at Madurai on February 29, 1904 -during the auspicious Mahamagam festival. Rukmini Devi was one of eight children of her parents. Her father Nilakantha Sastri belonged to an orthodox Brahmin family of Sanskrit scholars. During her childhood, she had fleeting glimpses of Bharatanatyam at the Navaratri festival organized by her father for the Maharaja. In those days, dance was an integral part of temple festivals.

She married George Arundale, a foreigner and a leading member of the Theosophical Society. The marriage helped her to get exposure to foreign audiences and also to widen her mental horizon. Once she went to meet Anna Pavlova, a dancer of fame and recognition. This was a turning point in her life. She expressed to Pavlova, her desire to dance with her, to which she replied, "You don`t have to dance, for if you just walk across the stage, it will be enough. People will come to watch you do that". These words of Anna Pavlova created in her the enthusiasm for dancing.

She learnt Sadir, the art of the devadasis from a hereditary guru and displayed her marvelous achievement under a banyan tree at the International Theosophical Conference. First she renamed Sadir as "Bharata Natyam", the dance of Bharata. 
This struck a deep dual chord, not only does it mean the dance of the sage Bharatha (author of the Natya Shastra,) but also connotes the dance of `Bhaarata` (India), the land of the hero Bharata.
Moreover, it stands for Bhava (emotion), Raga (melody) and Tala (Rhythm), the three components of the dance.





She was the founder of Kalakshetra `The Temple of Arts`. Training in Kalakshetra was perfect. Rukmini Devi was a purist who never compromised on the quality of classical arts. 
There were great masters like Papanasam Sivan and Mysore Vasudeva Acharya as the staff of Kalakshetra. The teaching was in Gurukula style. Most of the classes were in the open, under the shade of the great banyan trees of Adyar. 
It was like the Shantiniketan of Tagore. .Kalakshetra will remain as a living monument to her. Besides Kalakshetra, she found schools in mem-ory of Annie Besant and Arundale.

The great dancer died on February 1986. Rukrnini Devi Arundale was India`s cultural queen and her life reflected a many-sided splendour. 
Posterity will remember her not only as a leading exponent of Indian art but also as a fearless crusader for social change. 
She had charm, vision, deep-rooted moral convictions and remark-able courage. Rukmini Devi left a memorable imprint on our culture and art. 
No other person, in recent history, has contributed so much to Indian art as Rukrnini Devi did, and therein lie her greatness.}

 

बुधवार, 14 जुलाई 2010

[35] " श्री रामकृष्ण परमहंसदेव को अवतार वरिष्ठ क्यों कहते हैं ?

नवगोपाल घोष के नवनिर्मित गृह में श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव की (अमेरिका से लाये गये) छवि को आसान पर बैठा कर पूजा करते समय,स्वामी विवेकानन्द उनके लिये ' स्वतःस्फूर्त प्रणाम-मन्त्र ' की रचना करते हुए कहते हैं :
 ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे |
   अवतारवरिष्ठाय   रामकृष्णाय ते  नमः || 
परमहंसदेव के लिये स्वामीजी के द्वारा दिये गये इस विशेषण 
'अवतारवरिष्ठ' को सुनने से मन में कुछ प्रश्न उठने शुरू हो जाते हैं, जो बिल्कुल स्वाभाविक हैं. क्योंकि पहले हमने तो स्वयं ठाकुर (परमहंसदेव जी) के मुख से (वचनामृत में) सुना है कि सारे धर्म समान हैं,आदि आदि !
 सभी धर्मों के अनुयायी ' अवतार ' के रूप में किसी न किसी व्यक्ति के आविर्भूत होने का दावा करते हैं. अब यदि उन सबों के बीच श्रीरामकृष्ण को यदि 'अवतारवरिष्ठ '- कहा जाय, तो सभी धर्म के अनुयायियों के मन कई प्रकार के प्रश्न,सन्देह,तर्क आदि का उठना बिल्कुल स्वाभाविक है.किन्तु इस प्रश्न का समाधान है. गीता के चौथे अध्याय के सातवें श्लोक में श्रीकृष्ण ने कहा है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
    अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम || 
--हे भारत (अर्जुन), जब जब धर्म की कमी और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब मैं शरीर धारण कर अवतीर्ण होता हूँ. (अन्य सभी लोग भले-बुरे कर्म के अनुसार जन्म ग्रहण करते हैं, किन्तु मैं कर्म के वश में नहीं हूँ. केवल संसार के कल्याण का संकल्प लेकर अपनी त्रिगुणात्मिका माया की सहायता से 'तदा आत्मानं सृजामि अहं ' मैं अपने को सृष्टि करता हूँ ' अर्थात मनुष्य-देह धारण कर संसार में आविर्भूत होता हूँ !) 
सर्वशक्तिमान भगवान का जीव-जगत के कल्याण के लिये मनुष्यदेह धारण कर आविर्भूत होना संसार के आध्यात्मिक इतिहास में एक बहुत बड़ी घटना है. काल के प्रभाव से जब संसार पाप के भार से आक्रान्त होता है, तब वे मानो अपने कर्तव्य पालन के उद्देश्य से धर्म की ग्लानि दूर करने संसार में अवतीर्ण होते हैं.धर्म के प्रसार में जो विघ्न सामने आते हैं वे उन्हें विभिन्न प्रकार से दूर करके धर्म के प्रवाह को बाधा-रहित कर देते हैं. प्रत्येक युग में ऐसा ही होता आया है. 
किन्तु हमे ऐसा नहीं मान लेना चाहिये कि प्रत्येक युग में धर्म-संस्थापन का कार्य केवल (राक्षसों य़ा) पापियों का वध कर के ही करना पड़ता है.किस उपाय से धर्म को संस्थापित करना होगा- इसे श्रीभगवान अच्छी तरह जानते हैं. ...प्रत्येक अवतार के धर्मसंस्थापन की पद्धति विभिन्न प्रकार की होती है -- देश,काल और प्रयोजन के अनुसार कार्य-प्रणाली बदल जाति है.
वर्तमान युग में भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने अपनी साधना और आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा पृथ्वी पर विद्यमान सभी धर्मों की ग्लानि को दूर किया है. साथ ही धर्म के संस्थापन के लिये अत्यन्त करुणा करके इसबार उन्होंने अनेक पापियों का पाप-भार अपने ऊपर ले कर उनको भी धर्मात्मा बनने का मौका दिया है, और अपनी भूल को सुधार कर साधु यथार्थ मनुष्य बनने की शिक्षा दी है; उसी प्रकार साधु पुरुषों के साधन-मार्ग के विघ्न को दूर कर उन्हें साधु बनाया है. 
" स यत प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते "  
--अर्थात वे अपने जीवन द्वारा जिसे प्रमाणित करते हैं लोग उसी का अनुसरण करते हैं. 
केवल धर्मग्रन्थ से काम नहीं चलता. आदर्श जीवन कैसा होता है- उसे जी कर भी दिखाना होता है. उनके जीवनादर्श से शिक्षा पाकर लोग धर्ममार्ग का अनुसरण करते हैं.(टीका- स्वामी अपूर्वानन्द)} (गीता ४: ७ के) उपरोक्त श्लोक का उच्चारण यदि हमलोग इस प्रकार करें --
यदा ही सर्वधर्मानाम ग्लानिर्वभूव भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं ससर्ज सः ||
-- हे भारतवासी, जब पृथ्वी के समस्त धर्म अधोपतित हो गये थे एवं उसके साथ 'अभ्युत्थानमधर्मस्य '  अधर्म का भी अभ्युत्थान हो गया था; तब उस विकट परिस्थिति में ' उन्होंने '(अद्वैत ब्रह्म परमहंसदेव ने) स्वयं को सृष्ट किया था !
जब एक एक (अलग अलग)  देश का धर्म पतित हुआ था, तब उसको उठाने के लिये एक एक अवतार आये थे.किन्तु जब सम्पूर्ण पृथ्वी के धर्म अधोपतित हो गये एवं समग्र पृथ्वी में- ' अधर्म का अभ्युत्थान ' हो गया तब ' धर्म-वस्तु ' का ही नवोत्थान करने के लिये उन्होंने (परमहंसदेवजी) स्वयं की सृष्टि की थी. इसीलिये श्रीरामकृष्ण अवतार वरिष्ठ हैं !-इसीलिये वे अवतारवरिष्ठ हैं.
 " अवतारवरिष्ठस्तत रामकृष्णो हि केवलः।
          इतिहासपुराणेषू समः कोअपि न विद्यते।।"   
जब से सृष्टि बनी है, तब से लेकर आज तक मानव इतिहास में 
"परमहंसदेव" (ठाकुर) के जैसा (त्यागी) दूसरा कोई नहीं हुआ है. किसी भी देश य़ा किसी भी धर्म का पुराण क्यों न हो - किसी भी पुराण में, " श्रीरामोकृष्णो " के जैसा और कोई नहीं हुआ.
ऐसा कहना - किसी को छोटा करना य़ा बड़ा करना नहीं है, किसी के साथ तर्क-कुतर्क य़ा झगड़े में पड़ने की कोई जरुरत नहीं है. स्वामीजी ने उस दिन क्या सोंच कर ठाकुर को (परमहंसदेवजी को)'अवतारवरिष्ठ' कहा होगा- यह तो केवल स्वामीजी जानते होंगे.किन्तु ठंढे दिमाग से (पूर्वाग्रह से रहित होकर) यदि हम चिन्तन-मनन करें तो हमलोग इस विशेषण " अवतारवरिष्ठ " को - अत्यन्त आनन्द के साथ ग्रहन कर सकते हैं.एवं यह घोषणा भी कर सकते हैं कि, सम्पूर्ण जगत के मानव-समाज के परित्राण के लिये वर्तमान युग में उपाय - एकमात्र श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव से ही प्राप्त किया जा सकता है. एवं उनके उपदेश- स्वामी विवेकानन्द के जीवन में जिस प्रकार उक्त, व्यक्त,  और प्रचारित तथा आचरित हुए हैं, उनका थोड़ा भी अनुसरण करने से अपने जीवन भी उतार सकते हैं|               

   
       



         
 

रविवार, 11 जुलाई 2010

[34] " न विद्या संगीतात परा "

  " संगीत से श्रेष्ठ अन्य कोई विद्या नहीं है !" 
क्रमशः वीरेश्वर दा (बाबू) से संगीत सीखना आरम्भ हुआ, कुछ कुछ अभ्यास चलने लगा. वे थोड़ी-बहुत संगीत कि शिक्षा देने लगे. ज्यादा कुछ नहीं सिखलाते थे, वे कहते - " सारेगामापाधानिसा, सानिधापामागारेसा " - का अभ्यास करो, और खींच-खींच कर करो ( अर्थात सा रे गा.... में से एक-एक स्वर को पकड़ कर-- उसका( आरोह और अवरोह का) अभ्यास करो, जल्दी-जल्दी नहीं). मैं भी सरगम का अभ्यास - उसी प्रकार (एक-एक स्वर को पकड़ पकड़ कर) खींच खींच कर करने लगा. उनका कहना था- " एक साधे सब सधे, सब साधे (--तो) सब जाय ! " 
कुछ समय के बाद संगीत सीखते समय एकदिन, मैंने वीरेश्वर बाबू से पूछा- " प्राचीन भारतीय संगीत परम्परा में जिसको 'मार्ग संगीत' Classical Music कहते हैं,उसके अन्तर्गत शायद बाइस प्रकार की श्रुतियों के प्रयोग करने की बात थी. ये बाइस श्रुतियां क्या गले से बाहर निकाली जा सकतीं हैं?
{भारतीय शास्त्रीय संगीत या मार्ग, भारतीय संगीत का अभिन्न अंग है । शास्त्रीय संगीत को ही ‘क्लासिकल म्जूजिक’ भी कहते हैं। शास्त्रीय गायन ध्वनि-प्रधान होता है, शब्द-प्रधान नहीं । इसमें महत्व ध्वनि का होता है (उसके चढ़ाव-उतार का, शब्द और अर्थ का नहीं)। इसको जहाँ शास्त्रीय संगीत-ध्वनि विषयक साधना के अभ्यस्त कान ही समझ सकते हैं, अनभ्यस्त कान भी शब्दों का अर्थ जानने मात्र से देशी गानों या लोकगीत का सुख ले सकते हैं। इससे अनेक लोग स्वाभाविक ही ऊब भी जाते हैं पर इसके ऊबने का कारण उस संगीतज्ञ की कमजोरी नहीं, लोगों में जानकारी की कमी है।}
उन्होंने कहा-- " हाँ, वैसा किया जा सकता है |" मैं थोड़ा अवाक् हो गया. कोई व्यक्ति केवल अपने गले से बाईस प्रकार की श्रुति निकाल लेता हो-- ऐसा तो मैंने कभी सुना न था. मेरे अपने मन में यह विचार उठा था इसीलिये उनसे पूछ बैठा था. इस पर मैं बोला- " क्या यह मैं सुन सकता हूँ, किसी दिन मुझे भी सुनाइएगा ? उन्होंने कहा था-- " ठीक है, कभी सुना दूंगा|" 
बात आयी-गयी हो गयी, बहुत दिनों बाद एक दिन उनसे संगीत सीखने हम जितने लोग जाया करते थे, उनमे से कोई भी नहीं पहुँचा| मैं अकेला ही पहुँच सका| उस दिन उन्होंने ही कहा-- " उस दिन आपने २२ श्रुति सुनाने का आग्रह किया था, तो आज उसे सुना देता हूँ ! " और बैठे बैठे सुना दिये थे. 
नीचे का ' सा ' (उदारा) से ऊपर का ' सा ' (तारा)  तक २२ श्रुति को पुनः-पुनः एक के बाद दूसरे का  ऊपर से नीचे उतरना और फिर नीचे से ऊपर चढ़ना, चढ़ना-उतरना, चढना -उतरना इस प्रकार बार बार सुनाये थे. अपने कानों से २२ श्रुतियों का पुनः-पुनः श्रवण करने से, कान उसके सूक्ष्म अन्तर को भी बिकुल स्पष्ट रूप से पकड़ सकते हैं| 
यही जो सूक्ष्म स्वर-स्थान आदि हैं, यदि इनका प्रयोग सही ढंग से नहीं होने पर संगीत का माधुर्य जाता रहता है. इन्ही के विभिन्न प्रयोग के ऊपर ही संगीत की रचना होती है. संगीत का माधुर्य इनके ऊपर ही निर्भर करता है. उपयुक्त स्वर-स्थान न रहने से संगीत कभी भी श्रुति-सुखकर नहीं होता. कान निर्मित हो जाने (अभ्यस्त होने) से, अब कठिनाई हो रही है- सुर-विहीन गाने कर्ण-कटू जान पड़ते हैं | जो हो इसी प्रकार चलता रहा. कहा गया है -
' न विद्या संगीतात परा '
-- संगीत से श्रेष्ठ अन्य कोई विद्या नहीं है !
प्रसंगवश ' ठाकुर ' (परमहंसदेव) एवं ' स्वामीजी ' (स्वामी विवेकानन्द) के संगीत की बातें याद आ रही हैं. ठाकुर का कन्ठ-स्वर अत्यन्त मधुर था, और वे एक असाधारण गायक थे. उनकी सुमधूर गले के विषय में, उनके संगीत के विषय में बहुत कुछ लिखा गया है. किसी ने लिखा है, " उनके समकालीन जो लोग उनके संगीत को सुने हैं, उन सबों का कहना है कि उनके गले के जैसा मधुर गला और दूसरा कहीं सुना नहीं है ! "
स्वामीजी जिस उस्ताद (संगीत के गुरु) से संगीत सीखे थे, मेदनीपुर जिले के एक गाँव के एक धनी परिवार के कई लोगों ने भी, उनसे ही संगीत सीखा था. एक बार उस घर में जाने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ था. उनके घर में अलग से एक संगीत-कक्ष भी बना हुआ है, जो किसी हाल जितना बड़ा था.उस संगीत कक्ष में लगता है, कम से कम ३०-४० प्रकार के तो वाद्य-यन्त्र (Musical -Instruments) ही रखे हुए थे. उसी जगह पर संगीत का अभ्यास किया जाता था. उनलोगों के जो गुरु थे, स्वामी विवेकानन्द के भी संगीत गुरु वे ही थे.
स्वामीजी कितना सुन्दर गाते थे! उनका कन्ठ-स्वर कितना असाधारण (अनोखा) था. हमलोगों ने तो सुना ही नहीं है, अतः उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते. शायद बड़ानगर मठ की बात है, एक दिन रात को लगभग १० बजे सेवक को कहते हैं, " अरे, जरा हारमोनियम देना तो| " और हारमोनियम ले कर वे एक ही संस्कृत श्लोक( गायत्री आह्वान का मन्त्र) को विभिन्न रागों में गाने लगे--
         " आयातु   वरदे   देवी    त्रैक्षरे    ब्रह्मवादिनी |
                गायत्रीच्छ्न्दस्याम माता ब्रह्मयोने  नमोस्तु ते ||  "
(--हे, अपने भक्तों को वर देने वाली देवी ! त्रिभुवन (स्वर्ग-मर्त्य-पाताल लोक) -तीनों लोकों में {ॐ} परमात्मा ही(शाश्वत चैतन्य बिजली शक्ति य़ा प्राण की तरह) समाया हुआ है!यह जितना भी विश्व ब्रह्माण्ड है, परमात्मा की एक जीवित-जाग्रत साकार प्रतिमा है! कण-कण में भगवान समाये हुए हैं| इस सर्वव्यापक परमात्मा को सर्वत्र देखते हुए--मुझे कुविचारों और कुकर्मों से सदा दूर रहना चाहिये! मेरी बुद्धि को इस प्रकार के ज्ञान से उदभासित कर देने वाली- गायत्री के छन्द में, ' ॐ भू: भुवः स्वः ' रूपिणी देवी !सम्पूर्ण चराचर जगत की सृष्टि करने वाली ब्रह्म-योनी माते ! तुम्हें मेरा नमस्कार है ! )
इसी श्लोक को बारी बारी से विभिन्न रागों में दुहराए जा रहे थे. बहुत रात बीत जाने तक भी यही क्रम चलता रहा. सभी लोग बेसुध होकर सुन रहे थे. उनको समय का ज्ञान भी न रह गया था.तब ब्रह्मनान्दजी प्रातः ४ बजे स्वामीजी को विराम करवाए. 
शास्त्रीय संगीत के भारत विख्यात ग्वालियर घराना-- के संगीत-गुरु (उस्ताद) रामकृष्ण भंज (अधिकांश लोग उनको बूय़ा नाम से जानते हैं) ने अपनी आत्मकथा (आत्मजीवनी) में लिखा है कि, स्वामी विवेकानन्द ने उनको लगभग १०० ध्रुपद-गाने सिखाये थे. 
जब परिव्राजक के रूप में स्वामीजी उत्तर भारत का भ्रमण कर रहे थे, तब एक भक्त के घर में ठहरे थे. उसी घर के नजदीक एक धनी परिवार के घर में ' महफ़िल ' चल रही थी,(संगीत-सभा को वहाँ महफ़िल कहा जाता है)|वहाँ शास्त्रीय संगीत चल रहा था, जिसे स्वामीजी भी सुन पा रहे थे. कोई व्यक्ति संगीत का अच्छा-जानकर है य़ा नहीं, इस बात को श्रोता के अच्छे-बुरे संगीत को सुनकर उसके चेहरे पर होने वाली प्रतिक्रिया को देख कर भी समझा जा सकता है. 
तो उस घर के लोग भी उनको देखकर यह समझ गये कि, निःसंदेह स्वामीजी संगीत के बहुत अच्छे ज्ञाता हैं. उनलोगों ने सोंचा, कि जो संगीत के इतने अच्छे ज्ञाता हैं, वे निश्चय ही स्वयं भी कुछ गाते होंगे. अतः उनसे अनुरोध किये," स्वामीजी ऐसा प्रतीत होता है कि आप गाना गाते हैं, क्या कोई गाना हमें भी सुनायेंगे ? पर स्वामीजी राजी नहीं हो रहे थे. तब वे लोग जिद करने लगे, " नहीं, स्वामीजी कोई न कोई गाना तो आप को सुनना ही पड़ेगा|" 
स्वामीजी बोले, " आज तो नहीं हो पायेगा; यदि कहो तो कल सुना सकता हूँ." दूसरे दिन उनलोगों को घन्टों तक गा कर सुनाये. कितना अनोखा उनका कन्ठ-स्वर था, जो भी सुनता वह मूग्ध हो जाता था! और ध्रुपद-ताल में उन्होंने " ठाकुर- परमहंसदेव " के लिये जिस आरात्रिक की रचना की है, वह कितना असाधारण है; ठाकुर का प्रणाम-मन्त्र भी कितना अनूठा है!
स्वामीजी ने हावड़ा के जिस भवन में, ठाकुर-परमहंसदेव के लिये " प्रणाम-मन्त्र " की रचना की थी उस भवन में जाने का सौभाग्य मुझे भी मिला है.श्रीरामकृष्ण के एक भक्त-- " नवगोपाल घोष "  ने सुना, कि हावड़ा जिले में " रामकृष्णपुर " नाम से एक नया अँचल बनाया गया है.यह सुनकर कलकाता के पुराने निवास को छोड़,वे वहीं जाकर वास करने लगे.
अमेरिका से स्वदेश वापस लौटने के बाद स्वामीजी उस भवन में गये थे; एवं उस भवन के प्रथम तल्ले पर बने एक कमरे में श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव की अमेरिका से लायी गयी एक छवि को आसान पर बैठा कर पूजा किये थे. स्वामीजी ने अपने हाथों से ठाकुर-परमहंसदेव की जिस छवि को आसान पर बैठा कर पूजा की थी, वह वहाँ आज भी है. अभी तीसरे तल्ले पर नवनिर्मित- पूजाघर में उस चित्र की नित्य पूजा होती है. 
किन्तु जब स्वामीजी ठाकुर के उस छवि की पूजा किये थे, तब पहले तल्ले पर बने एक कमरे में आसान पर बैठा कर पूजा किये थे. अभी उस भवन के सबसे उपरी तल्ले पर अलग से एक पूजा का कमरा बना कर उस छवि को रखा गया है. उस स्थान पर बैठ कर, उस छवि में ठाकुर " परमहंसदेव " की पूजा करने का सौभाग्य मुझे मिला है. उसी भवन में स्वामीजी ने पूजा के साथ साथ-" ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः || " 
मन्त्र की रचना कर के ठाकुर-परमहंसदेव के चरणों में अपना प्रणाम निवेदित किया था. और ठाकुर परमहंसदेव को केवल अवतार ही नहीं, " अवतारवरिष्ठ " कह कर सम्बोधित किया था !!   
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{संगीत- बोलचाल की भाषा में सिर्फ़ गायन को ही संगीत समझा जाता है मगर संगीत की भाषा में गायन, वादन व नृत्य तीनों के समुह को संगीत कहते हैं। संगीत वो ललित कला है जिसमें स्वर और लय के द्वारा हम अपने भावों को प्रकट करते हैं। कला की श्रेणी में ५ ललित कलायें आती हैं- संगीत, कविता, चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला। इन ललित कलाओं में संगीत को सर्वश्रेष्ठ माना गया है।

संगीत पद्धतियाँ- भारतवर्ष में मुख्य दो प्रकार का संगीत प्रचार में है जिन्हें संगीत पद्धति कहते हैं। उत्तरी संगीत पद्धति व दक्षिणी संगीत पद्धति । ये दोनों पद्धतियाँ एक दूसरे से अलग ज़रूर हैं मगर कुछ बातें दोनों में समान रूप से पायी जाती हैं।

ध्वनि- वो कुछ जो हम सुनते हैं वो ध्वनि है मगर संगीत का संबंध केवल उस ध्वनि से है जो मधुर है और कर्णप्रिय है।
ध्वनि की उत्पत्ति कंपन से होती है। संगीत में कंपन (वाइब्रेशन) को आंदोलन कहते हैं। किसी वाद्य के तार को छेड़ने पर तार पहले ऊपर जाकर अपने स्थान पर आता है और फिर नीचे जाकर अपने स्थान पर आता है। इस प्रकार एक आंदोलन पूरा होता है। 
एक सेकंड मॆं तार जितनी बार आंदोलित होता है, उसकी आंदोलन संख्या उतनी मानी जाती है। जब किसी ध्वनि की आंदोलन एक गति में रहती है तो उसे नियमित और जब आंदोलन एक रफ़्तार में नहीं रहती तो उसे अनियमित आंदोलन कहते हैं। इस तरह जब किसी ध्वनि की अंदोलन कुछ देर तक चलती रहती है तो उसे स्थिर आंदोलन और जब वो जल्द ही समाप्त हो जाती है तो उसे अस्थिर आंदोलन कहते हैं।
नाद- संगीत में उपयोग किये जाने वाली मधुर ध्वनि को नाद कहते हैं। अगर ध्वनि को धीरे से उत्पन्न किया जाये तो उसे छोटा नाद और ज़ोर से उत्पन्न किया जाये तो उसे बड़ा नाद कहते हैं।

श्रुति- एक सप्तक (सात स्वरों का समुह) में सा से नि तक असंख्य नाद हो सकते हैं। मगर संगीतज्ञों का मानना है कि इन सभी नादों में से सिर्फ़ २२ ही संगीत में प्रयोग किये जा सकते हैं, जिन्हें ठीक से पहचाना जा सकता है। इन बाइस नादों को श्रुति कहते हैं।

स्वर- २२ श्रुतियों में से मुख्य बारह श्रुतियों को स्वर कहते हैं। इन स्वरों के नाम हैं - सा(षडज), रे(ऋषभ), ग(गंधार), म(मध्यम), प(पंचम), ध(धैवत), नि(निषाद) अर्थात सा, रे, ग, म, प ध, नि स्वरों के दो प्रकार हैं- शुद्ध स्वर और विकृत स्वर। 
बारह स्वरों में से सात मुख्य स्वरों को शुद्ध स्वर कहते हैं अर्थात इन स्वरों को एक निश्चित स्थान दिया गया है और वो उस स्थान पर शुद्ध कहलाते हैं। इनमें से ५ स्वर ऐसे हैं जो शुद्ध भी हो सकते हैं और विकृत भी अर्थात शुद्ध स्वर अपने निश्चित स्थान से हट कर थोड़ा सा उतर जायें या चढ़ जायें तो वो विकृत हो जाते हैं। उदाहरणार्थ- अगर शुद्ध ग आठवीं श्रुति पर है और वो सातवीं श्रुति पर आ जाये और वैसे ही गाया बजाया जाये तो उसे विकृत ग कहेंगे। 
जब कोई स्वर अपनी शुद्ध प्रकार से नीचे होता है तो उसे कोमल विकृत और जब अपने निश्चित स्थान से ऊपर हट जाये और गाया जाये तो उसे तीव्र कहते हैं। सा और प अचल स्वर हैं जिनके सिर्फ़ शुद्ध रूप ही हो सकते हैं।
सप्तक- क्रमानुसार सात शुद्ध स्वरों के समुह को सप्तक कहते हैं। ये सात स्वर हैं- सा, रे, ग, म, प, ध, नि । जैसे-जैसे हम सा से ऊपर चढ़ते जाते हैं, इन स्वरों की आंदोलन संख्या बढ़ती जाती है। 'प' की अंदोलन संख्या 'सा' से डेढ़ गुनी ज़्यादा होती है।'सा' से 'नि' तक एक सप्तक होता है, 'नि' के बाद दूसरा सप्तक शुरु हो जाता है जो कि 'सा' से ही शुरु होगा मगर इस सप्तक के 'सा' की आंदोलन संख्या पिछले सप्तक के 'सा' से दुगुनी होगी। इस तरह कई सप्तक हो सकते हैं मगर गाने बजाने में तीन सप्तकों का प्रयोग करते हैं।

१) मन्द्र २) मध्य ३) तार । संगीतज्ञ साधारणत: मध्य सप्तक में गाता बजाता है और इस सप्तक के स्वरों का प्रयोग सबसे ज़्यादा करता है। मध्य सप्तक के पहले का सप्तक मंद्र और मध्य सप्तक के बाद आने वाला सप्तक तार सप्तक कहलाता है।


भारतीय संगीत का अभिन्न अंग है भारतीय शास्त्रीय संगीत। आज से लगभग ३००० वर्ष पूर्व रचे गए वेदों को संगीत का मूल स्रोत माना जाता है। ऐसा मानना है कि ब्रह्मा जी ने नारद मुनि को संगीत वरदान में दिया था। चारों वेदों में, सामवेद के मंत्रों का उच्चारण उस समय के वैदिक सप्तक या समगान के अनुसार सातों स्वरों के प्रयोग के साथ किया जाता था। 
गुरू शिष्य परंपरा के अनुसार, शिष्य को गुरू से वेदों का ज्ञान मौखिक ही प्राप्त होता था व उन में किसी प्रकार के परिवर्तन की संभावना से मनाही थी। इस तरह प्राचीन समय में वेदों व संगीत का कोई लिखित रूप न होने के कारण उनका मूल स्वरूप लुप्त होता गया।
भरत मुनि द्वारा रचित भरत नाट्यशास्त्र, भारतीय संगीत के इतिहास का प्रथम लिखित प्रमाण माना जाता है। इसकी रचना के समय के बारे में कई मतभेद हैं। आज के भारतीय शास्त्रीय संगीत के कई पहलुओं का उल्लेख इस प्राचीन ग्रंथ में मिलता है। भरत् नाट्य शास्त्र के बाद शारंगदेव रचित संगीत रत्नाकर, ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। बारहवीं सदी के पूर्वाद्ध में लिखे सात अध्यायों वाले इस ग्रंथ में संगीत व नृत्य का विस्तार से वर्णन है।
संगीत रत्नाकर में कई तालों का उल्लेख है व इस ग्रंथ से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय पारंपरिक संगीत में अब बदलाव आने शुरू हो चुके थे व संगीत पहले से उदार होने लगा था। १००० वीं सदी के अंत तक, उस समय प्रचलित संगीत के स्वरूप को प्रबंध कहा जाने लगा। प्रबंध दो प्रकार के हुआ करते थे... निबद्ध प्रबंध व अनिबद्ध प्रबंध। निबद्ध प्रबंध को ताल की परिधि में रह कर गाया जाता था जबकि अनिबद्व प्रबंध बिना किसी ताल के बंधन के, मुक्त रूप में गाया जाता था। प्रबंध का एक अच्छा उदाहरण है जयदेव रचित गीत गोविंद।

युग परिवर्तन के साथ संगीत के स्वरूप में भी परिवर्तन आने लगा मगर मूल तत्व एक ही रहे। मुगल शासन काल में भारतीय संगीत फ़ारसी व मुसलिम संस्कृति के प्रभाव से अछूता न रह सका। उत्तर भारत में मुगल राज्य ज़्यादा फैला हुआ था जिस कारण उत्तर भारतीय संगीत पर मुसलिम संस्कृति व इस्लाम का प्रभाव ज़्यादा महसूस किया जा सकता है। जबकि दक्षिण भारत में प्रचलित संगीत किसी प्रकार के बाहरी प्रभाव से अछूता ही रहा। इस तरह भारतीय संगीत का दो भागों में विभाजन हो गया :
१) उत्तर भारतीय संगीत या हिन्दुस्तानी संगीत
२) कर्नाटक शैली।
उत्तर भारतीय संगीत में काफ़ी बदलाव आए। संगीत अब मंदिरों तक सीमित न रह कर शहंशाहों के दरबार की शोभा बन चुका था। इसी समय कुछ नई शैलियॉं भी प्रचलन में आईं जैसे ख़याल, ग़जल आदि और भारतीय संगीत का कई नए वाद्यों से भी परिचय हुआ जैसे सरोद, सितार इत्यादि।
बाद में सूफ़ी आंदोलन ने भी भारतीय संगीत पर अपना प्रभाव जमाया। आगे चलकर देश के विभिन्न हिस्सों में कई नई पद्धतियों व घरानों का जन्म हुआ। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान कई नए वाद्य प्रचलन में आए। आम जनता में भी प्रसिद्ध आज का वाद्य हारमोनियम, उसी समय प्रचलन में आया। इस तरह भारतीय संगीत के उत्थान व उसमें परिवर्तन लाने में हर युग का अपना महत्वपूर्ण योगदान रहा।
भारतीय शास्त्रीय संगीत का आधार
भारतीय शास्त्रीय संगीत आधारित है स्वरों व ताल के अनुशासित प्रयोग पर।सात स्वरों व बाईस श्रुतियों के प्रभावशाली प्रयोग से विभिन्न तरह के भाव उत्पन्न करने की चेष्टा की जाती है। सात स्वरों के समुह को सप्तक कहा जाता है। भारतीय संगीत सप्तक के ये सात स्वर इस प्रकार हैं
षडज (सा), ऋषभ(रे), गंधार(ग), मध्यम(म), पंचम(प), धैवत(ध), निषाद(नि)।
सप्तक को मूलत: तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है...मन्द्र सप्तक़, मध्य सप्तक व तार सप्तक।अर्थात सातों स्वरों को तीनों सप्तकों में गाया बजाया जा सकता है।षड्ज व पंचम स्वर अचल स्वर कहलाते हैं क्योंकि इनके स्थान में किसी तरह का परिवर्तन नहीं किया जा सकता और इन्हें इनके शुद्ध रूप में ही गाया बजाया जा सकता है जबकि अन्य स्वरों को उनके कोमल व तीव्र रूप में भी गाया जाता है। इन्हीं स्वरों को विभिन्न प्रकार से गूँथ कर रागों की रचना की जाती है।
राग क्या हैं :
राग संगीत की आत्मा हैं, संगीत का मूलाधार। राग शब्द का उल्लेख भरत नाट्य शास्त्र में भी मिलता है। रागों का सृजन बाईस श्रुतियों के विभिन्न प्रकार से प्रयोग कर, विभिन्न रस या भावों को दर्शाने के लिए किया जाता है। 
प्राचीन समय में रागों को पुरूष व स्त्री रागों में अर्थात राग व रागिनियों में विभाजित किया गया था।सिर्फ़  यही नहीं, कई रागों को पुत्र राग का भी दर्जा प्राप्त था। उदाहरणत: राग भैरव को पुरूष राग, और भैरवी, बिलावली सहित कई अन्य रागों को उसकी रागिनियॉं तथा राग ललित, बिलावल आदि रागों को इनके पुत्र रागों का स्थान दिया गया था।बाद में आगे चलकर पं व़िष्णु नारायण भातखंडे ने सभी रागों को दस थाटों में बॉंट दिया। 
अर्थात एक थाट से कई रागों की उत्पत्ति हो सकती थी। अगर थाट को एक पेड़ माना जाए व उससे उपजी रागों को उसकी शाखाओं के रूप में देखा जाए तो गलत न होगा। उदाहरणत: राग शंकरा, राग दुर्गा, राग अल्हैया बिलावल आदि राग थाट बिलावल से उत्पन्न होते हैं।
थाट बिलावल में सभी स्वर शुद्ध माने गए हैं अत: तकनीकी दृष्टि से इस थाट से उपजे सभी रागों में सारे स्वर शुद्ध प्रयोग किए जाने चाहिए। मगर दस थाटों के इस सिद्धांत के बारे में कई मतांतर हैं क्योंकि कुछ राग किसी भी थाट से मेल नहीं खाते मगर उन्हें नियमरक्षा हेतु किसी न किसी थाट के अंतर्गत सम्मिलित किया जाता है।
किसी भी राग में ज़्यादा से ज़्यादा सात व कम से कम पॉंच स्वरों का प्रयोग करना ज़रूरी है।इस तरह रागों को मूलत: ३ जातियों में विभाजित किया जा सकता है...
१) औडव जाति जहॉं राग विशेष में पॉंच स्वरों का प्रयोग होता हो
२) षाडव जाति जहॉं राग में छ: स्वरों का प्रयोग होता हो
३) संपूर्ण जाति जहॉं राग में सभी सात स्चरों का प्रयोग किया जाता हो।
राग के स्वरूप को आरोह व अवरोह गाकर प्रदर्शित किया जाता है जिसमें राग विशेष में प्रयुक्त होने वाले स्वरों को क्रम में गाया जाता है।
उदाहरण के लिए राग भूपाली का आरोह कुछ इस तरह है:
सा रे ग प ध सां।

किसी भी राग में दो स्वरों को विशेष महत्व दिया जाता है। इन्हें वादी स्वर व संवादी स्वर कहते हैं। वादी स्वर को राग का राजा भी कहा जाता है क्योंकि राग में इस स्वर का बहुतायत से प्रयोग होता है। दूसरा महत्वपूर्ण स्वर है संवादी स्वर जिसका प्रयोग वादी स्वर से कम मगर अन्य स्वरों से अधिक किया जाता है। इस तरह किन्हीं दो रागों में जिनमें एक समान स्वरों का प्रयोग होता हो, वादी और संवादी स्वरों के अलग होने से राग का स्वरूप बदल जाता है। उदाहरणत: राग भूपाली व देशकार में सभी स्वर समान हैं मगर वादी व संवादी स्वर अलग होने के कारण इन रागों में आसानी से फ़र्क बताया जा सकता है। 

 
हर राग में एक विशेष स्वर समुह के बार बार प्रयोग से उस राग की पहचान दर्शायी जाती है। जैसे राग हमीर में 'ग म ध' का बार बार प्रयोग किया जाता है और ये स्वर समूह राग हमीर की पहचान हैं।
मुगल़कालीन शासन के दौरान ही शायद रागों के गाने बजाने का निर्धारित समय कभी प्रचलन में आया। जिन रागों को दोपहर के बारह बजे से मध्यरात्रि तक गाया बजाया जाता था उन्हें पूर्व राग कहा गया और मध्यरात्रि से दोपहर के बीच गाए बजाए जाने वाले रागों को उत्तर राग कहा गया। कुछ राग जिन्हें भोर या संध्याकालीन समय में गाया जाता था उन्हें संधिप्रकाश राग कहा गया। यही नहीं कुछ राग ऋतुप्रधान भी माने गए। जैसे राग मेघमल्हार वर्षा ऋतु में गाया जाने वाला राग है। इसी तरह राग बसंत को बसंत ऋतु में गाए जाने की प्रथा है।

चैत में गाई जाने वाली चैती
चैत्र के महीने में गाई जाने वाली उप-शास्त्रीय संगीत में एक प्रकार की बंदिश है चैती। इसमें रामा शब्द का प्रयोग बार बार होता है और इसमें कोयल की कूक, विरह, प्रेम, साजन से प्रेम निवेदन, और कई बार राम जी का वर्णन होता है। क्योंकि चैत्र मास में होली आती है, कई बार चैती में होली का वर्णन भी होता है। मन को छूने वाली चैती की जन्मभूमि बनारस मानी जाती है। बिहार में भी चैती गाई जाती है।आज शुभा मुद्गल की आवाज़ में सुनते हैं ये चैती- 
सपना देखीला पलकनवा हो रामा, सैंया के आवनवा
  हमारी संस्कृति का एक स्तंभ भारतीय शास्त्रीय संगीत, जीवन को संवारने और सुरुचिपूर्ण ढंग से जीने की कला है। यह आधार है हर तरह के संगीत का साथ ही ऐसी गरिमामयी धरोहर है जिससे लोक और लोकप्रिय संगीत की अनेक धाराएँ निकलती हैं जो न सिर्फ हमारे तीज त्योहारों में राग रंग भरती हैं बल्कि हमारे विभिन्न संस्कारों और अवसरों में भी उल्लासमय बनाते हुए अनोखी रौनक प्रदान करती हैं। 
साभार संगीत विद्या की ज्ञाता
--मानोशी  

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

[33]" भारतवर्षीय आकाश के ध्रुवतारा हैं - श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव !"

उस समय तक (१५ अगस्त १०४७ की पूर्व-संध्या-१४ अगस्त तक) तो  बंगाल अविभक्त था. हमलोग यह समझ सकते हैं कि, उस समय का बंगाल( बांग्ला-देश) क्या था! बंगाल का मान चित्र कैसा सुन्दर दिखता था!अविभक्त भारतवर्ष  का मानचित्र देखने से हमारी यह जन्मभूमि सचमुच ' माँ ' जैसी ही दिखती थी.
हमलोग जिस बंग-देश (अविभक्त बंगाल) को ' बाँग्ला माँ ' कह कर पुकारा  करते थे. मुझे तो याद है कि, उस समय के बंग-देश (बंगाल) में अपनी एक अद्भुत मोहिनी शक्ति भी थी.
 वह बंगाल क्या हो गया, वह भारत कैसा हो गया! देश खण्ड-विखंड हो गया. धर्म धर्म के बीच सौहार्द ख़त्म हो गया, धर्म के नाम पर खून बहाया जाने लगा. अभी भी क्या-क्या चल रहा है. किन्तु इसी बंगाल के धरती पर स्वामी विवेकानन्द आविर्भूत हुए और विश्व को एक नयी वाणी सुनाये, श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने भी तो यहीं, इसी बंगाल की भूमि पर जन्म लेकर अपने जीवन से यह प्रमाणित कर दिखाया है कि, अलग अलग धर्म नहीं है, अलग अलग नाम से पुकारने पर भी धर्म धर्म में कोई अन्तर नहीं है. 
एक ही तालाब में जिस प्रकार चार घाट होते हैं, और कोई व्यक्ति एक घाट से जल लेकर कहता है- यह है ' जल ', दूसरा व्यक्ति कहता है ' पानी ', तीसरा उसे ही ' वाटर ' (Water ) कहता है...है तो उसी तालाब का जल ! एक एक व्यक्ति, अलग अलग किनारे से जल उठाते  है और अलग अलग नामों से पुकारते हैं. कोई कहता है हिन्दूधर्म, कोई कहता है ईस्लाम-धर्म, कोई कहता है श्रीईसा-प्रवर्तित धर्म (य़ा ईसाई-धर्म); आदि, आदि. उसी को कोई बौद्धधर्म, जैनधर्म कहते हैं,इस प्रकार एक ही धर्म को अलग अलग नामों से पुकारते हैं.धर्म के नाम अलग हैं किन्तु वस्तु तो एक ही है. ईश्वर एक है. कोई पार्थक्य नहीं है.इस जगत में, विश्व-ब्रह्माण्ड में एकत्व को प्रमाणित करना ही वेदान्त है, वेदान्त भी एकत्व की ही शिक्षा देता है.एवं श्रीरामकृष्ण के जीवन में यह ' एकत्व ' अद्भुत रूप से प्रमाणित हुआ है. उनके साधक- जीवन में ' अनेक साधनों की धारा ' एकत्र होकर मिलित हुई थी.
हिन्दुधर्म के अन्तर्गत जितनी भी साधन-पद्धति है, एक एक कर समस्त पद्धति को जाँच कर देख लिये. फिर ईस्लाम धर्म की साधना किये थे, ईसाई धर्म की साधना किये हैं. इस प्रकार समस्त धर्मों की साधना-पद्धति का अनुसरण करते हुए समस्त धर्मों के भीतर एक ही सत्य सन्नहित है, इसी एकत्व को साधना के अन्त में प्राप्त किये हैं. 
जिस समय वे ईस्लाम की साधना कर रहे थे, उन्होंने पछुआ खोंस कर धोती पहनना छोड़ दिया था. यहाँ तक कि मांस खाने की इच्छा भी हुई थी. वे तब केवल ' अल्ला ' नाम का ही जप करते थे, एवं उनको मोहम्मद साहब का दर्शन भी हुआ था.
ईसामसीह की साधना करते समय जब वे उसी में मग्न हो गये थे तब निकट के किसी मकान में माता मेरी के गोद में शिशु ईसा का चित्र देखते देखते उन्हें उसी प्रकार का दर्शन हुआ था.उन्होंने देखा था कि शिशु ईसा मेरी की गोद से उतर कर उनके पास आ रहे हैं
एकदिन दक्षिणेश्वर में गंगा के किनारे रास्ते पर चलते चलते देखते हैं कि सामने से कोई दिव्य पुरुष आ रहे हैं, उनको देख कर उन्हें ऐसा लगा, अरे-यही तो ईसामसीह हैं! बाद में सभी से पूछते थे,
' अच्छा ईसा की नाक कैसी थी? ' सबों ने कहा, उनकी नाक बिल्कुल नुकीली थी. यह सुन कर श्रीरामकृष्ण देव बोले, " किन्तु मैंने देखा है कि उनकी नाक थोड़ी चपटी है! पता नहीं, मैंने ऐसा क्यों देखा !" (श्रीरामकृष्ण- लीलाप्रसंग पृष्ठ ४३७) 
   बाद में ईसामसीह के जीवन के ऊपर कई गवेषणायें की गयी है. कमसे कम दो गवेषणाओं में स्वीकार किया गया है कि उनकी नाक लम्बी नहीं थी. ठाकुर के जीवन में सारे धर्म एकाकार हो गये थे. उनकी समस्त भेद-बुद्धि नष्ट हो गयी थी. किन्तु हमलोग,जो स्वयं को " श्रीरामकृष्ण का भक्त " कहते हैं- क्या कर रहे हैं ? क्या हमलोग भी अपने मन से इस भेदबुद्धि को दूर करने में सक्षम हो सके हैं? 
क्या हमलोग सभी धर्मावलम्बियों को बिल्कुल अपने भाई के जैसा समझ सकते हैं? स्वामी विवेकानन्द जब विदेश से लौट कर आये तो रामकृष्ण मिशन को स्थापित किये, बाद में रामकृष्ण मठ भी स्थापित हुआ.
 { उसके उद्देश्य आदि नीचे उधृत किये जाते हैं: 
उद्देश्य - मनुष्यों के हितार्थ श्री रामकृष्ण ने जिन तत्वों की व्याख्या की और स्वयं अपने जीवन में प्रत्यक्ष किया है, उन सब का प्रचार तथा मनुष्यों की शारीरिक, मानसिक और पारमार्थिक उन्नति के निमित्त वे सब तत्व जिस प्रकार प्रयुक्त हो सकें, उसमे सहायता करना ही इस मिशन का उद्देश्य है.व्रत- जगत के सभी धर्ममतों (हिन्दु धर्म,इस्लाम धर्म,ईसाई धर्म, सीख,बौद्ध आदि,आदिनाम वाले धर्मों ) को ' ऐक्य '- बोध के (अक्षय सनातन) धर्म का रूपान्तर मात्र समझते हुए सभी धर्मावलम्बियों में मैत्री स्थापित करने के लिये श्रीरामकृष्णदेव ने जिस कार्य का प्रारम्भ किया था उसका परिचालन ही इस मिशन का व्रत है.कार्यप्रणाली - आमजनता को सांसारिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिये विद्या दान कर सकने में समर्थ व्यक्तियों को शिक्षित करना. शिल्पियों तथा श्रमजीवियों को स्वरोजगार के लिये प्रोत्साहित करना तथा वेदान्त एवं दूसरों धर्मों के भाव जिस रूप में श्रीरामकृष्ण के जीवन में अभिव्यक्त हुए थे,समाज में उन्हीं भावों को स्थापित करने का प्रयास करना. 
भारतवर्षीय कार्य- भारतवर्ष के नगर-नगर, गाँव-गाँव में आचार्य-व्रत को ग्रहण करने के अभिलाषी गृहस्थ एवं सन्यासियों को प्रशिक्षित करने के लिये (युवा चरित्र-निर्माण कारी संगठनों एवं )आश्रमों की स्थापना करते हुए, ऐसे उपायों --{ युवा प्रशिक्षण शिविर (Youth Training  Camp) युवा पाठ चक्र (Youth study Circle  आदि } का अवलम्बन करना जिनके द्वारा वे प्रशिक्षित आचार्य बनकर भारतवर्ष के गाँव-गाँव तक पहुँच कर आम - जनता को शिक्षित बना सकें......(विवेकानन्द चरित पृष्ठ- २१३)}  
' रामकृष्ण मिशन ' की जो नियमावली बनवाये,उसका जो आदर्श और उद्देश्य लिखे, उसमे स्वामी विवेकानन्द क्या कहते हैं, जरा उसकी बानगी पर गौर तो कीजिये: 
  •  हमलोगों का प्रधान-कार्य (व्रत) होगा-- सभी धर्मों के अनुयायियों में आपसी प्रेम-पूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने के लिये उन्हें एकत्रित करना, उन सबों से प्रेम करना तथा जिस प्रकार के कार्य करने से पृथ्वी के सभी मनुष्यों के बीच ' ऐक्य ' स्थापित हो सकता हो, उसी प्रकार के कार्य को करते जाना.श्रीरामकृष्ण ने अपने जीवन द्वारा जिस प्रकार समस्त धर्मों में सन्निहित ऐक्य को प्रदर्शित करके दिखाया है, वही भाव जिससे आमजनता के बीच फ़ैल जाय, उसी का प्रयास करते रहना
  • उसके साथ साथ लौकिक और आध्यात्मिक विद्या दान देने योग्य व्यक्तियों को भी प्रशिक्षित  करना होगा.
  • एवं हमलोगों का राजनीति के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा.}    
वे जो कुछ कह रहे हैं, उसको लिख लेने के लिये कहते हैं- अमुक अमुक बातों को लिख लिया जाये.उन सब को पढने पर देखता हूँ कि वे सारे विचार सचमुच उनके मस्तिष्क में उसी मुहूर्त जन्म लेते जा रहे थे.
  •  उनका (श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव का) जीवन जिस असीम उदारता से गठित हुआ था उस जीवन की मंगल-वार्ता को हमलोग भी सबों में संचारित कर पाने के योग्य बन सकें.हमलोग भी इस भेद-बुद्धि को (अपना-पराया के अन्तर को) अपने मन से सदा के लिये निकाल देने में सक्षम हो सकें.( इसीलिये महामण्डल में इस " भेद-बुद्धि "को नष्ट कर " भावमुख-बुद्धि य़ा   उभय-निष्ट बुद्धि"  (Common Sens ) को अर्जित कर यथार्थ " मनुष्य बनने और बनाने-- का प्रशिक्षण " दिया जाता है ) 
  • ( जाती,धर्म,भाषा,लींग(M /F) य़ा रंग-रूप के आधार पर ) मनुष्य मनुष्य के बीच के अन्तर (भेद-बुद्धि) को मन से पूरी तरह निकाल कर, सभी धर्मावलम्बियों के बीच (पुरानी बातों, य़ा गलतियों के लिये-एक,दूसरे क्षमा करके) जिससे भातृत्व-बोध और सभी धर्मों में अन्तर्निहित 'ऐक्य' की अनुभूति करते हुए सच्चा सौहार्द स्थापित हो सके- यही प्रयास करते जाना हमलोगों का प्रधान कर्तव्य होना चाहिये.
यहाँ स्वामी विवेकानन्द अपने अनुयायियों को कितना अदभुत जीवन लक्ष्य निर्धारित करने की प्रेरणा दे रहे हैं! अपने गुरु, अपने सर्वस्व श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के जीवन को " ध्रुव-तारा " के जैसा सामने रख कर- अपने जीवन को उसी आदर्श साँचे में ढाल लेने की एक व्यवहारिक पद्धति अपने अनुयायियों के समक्ष उद्घाटित करते हुए कहते हैं- " बनो और बनाओ ! "" Be and Make ! "  Let this be our motto !   
यही हमारा आदर्श-वाक्य बने !  इसप्रकार से देखने पर यह समझा जा सकता है कि; मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माण का प्रशिक्षण देने वाली कितनी अदभुत-नूतन  भावधारा  (श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द भाव आन्दोलन) का प्रवर्तन स्वामीजी ने किया है !
 { तभी तो मद्रास में दिये गये अपने तीसरे व्याख्यान में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " ....इस समय केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि यदि मैंने जीवन भर में एक भी सत्य वाक्य कहा है तो वह उन्हीं का (श्री रामकृष्ण " परमहंसदेवजी " का) वाक्य है;पर यदि मैंने ऐसे वाक्य कहे हैं जो असत्य, भ्रमपूर्ण अथवा मानवजाति के लिये हितकारी न हों, तो वे सब मेरे ही वाक्य हैं, उनके लिये पूरा उत्तरदायी मैं ही हूँ! "कलकत्ते में स्वर्गीय राधाकान्त देव के मकान पर जब उनकी अभ्यर्थना हुई, उस समय भी उन्होंने कहा था कि - " श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव की शक्ति आज सम्पूर्ण पृथ्वी में क्रियाशील है ! हे भारतवासियो, तुम लोग (नकली-ढोंगी बाबाओं-नेताओं के फंदे से बच कर) केवल उनका चिन्तन करो, (ध्रुवतारा के समान उनको ही अपने नेत्रों के सामने रखो) तभी सब विषयों में उन्नति करोगे! " 
उन्होंने कहा- 
" ....यदि यह जाति उठना चाहती है, तो मैं निश्चयपूर्वक कहूँगा, इस नाम (रामकृष्ण) से सभी (भारत-प्रेमियों) को प्रेमोन्मत्त हो जाना चाहिये.श्रीरामकृष्ण देव का प्रचार मैं, तुम य़ा चाहे जो कोई भी करे इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता; तुम्हारे सामने मैं इस महान आदर्श-पुरुष को रखता हूँ, (इन्हें अपने जीवन में अपना) लो, अब (श्रेय-प्रेय का विचार करते हुए इनको (परमहंसदेव जी को) अपने जीवन का ध्रुवतारा बनाओगे य़ा किसी ढोंगी बाबा - नेता को ? विचार का भर तुम पर है. इस महान आदर्श-पुरुष को लेकर क्या करोगे, इसका निश्चय तुम्हें अपने राष्ट्र के कल्याण के लिये अभी (युवा-काल में ही) कर डालना चाहिये ! "
" ...उनके तिरोभाव के दस वर्ष के भीतर ही इस शक्ति ने सम्पूर्ण संसार को घेर लिया है...|मुझे देखकर उनका विचार न करना| मैं एक बहुत ही क्षूद्र-यन्त्र मात्र हूँ| उनके चरित का विचार मुझे देख कर न करना | वे इतने बड़े थे कि मैं, य़ा उनके शिष्यों में से कोई दूसरा, सैकड़ों जन्मों तक चेष्टा करते रहने पर भी उनके यथार्थ स्वरूप के एक करोड़वें अंश के बराबर भी न हो सकेगा|..."
                                                                                                           - ' भारत में विवेकानन्द ' से उधृत
इसी नवीन-भावधारा के अनुसार अपने जीवन को गठित कर पृथ्वी के समस्त मनुष्यों के बीच आपसी-प्रेम और सौहार्द स्थापित करने की इस मंगल-वार्ता को प्रसारित करते जाने से हम सभी(हिन्दू-मुसलमान-ईसाई) एवं देश-विदेश के सभी मनुष्य " एक " हो जायेंगे!हमलोग अक्सर कहा करते हैं कि अमेरिका ने उनको (श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव को) अपना लिया है,उस देश ने अपना लिया है- किन्तु ऐसा कहना बहुत सही नहीं है.
यह ठीक है कि दो-चार, दो-चार व्यक्ति करके सभी देशों के मनुष्यों ने श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव को अपना लिया है.यह भी सच है कि,हमलोगों के देश के दो-चार व्यक्तियों ने भी उनको  अपना लिया है. किन्तु ज्वलन्त प्रश्न तो यह है कि क्या पूरा भारतवर्ष (य़ा हिन्दी-भाषी भारत भी) श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव को-" आमादेर जिवनेर ध्रुवतारा "  --अर्थात " हमलोगों के जीवन के ध्रुवतारा हैं " --ऐसा समझ पाने में सक्षम हो सका है? 
क्या पूरे समाज ने उनकी शिक्षाओं को अपना लिया है? य़ा हम ( रामकृष्ण-मंत्र की दीक्षा ले लेने वाले)   लोग, जो यह कह कर अपना परिचय देते हैं कि - " मैं तो श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव का/की भक्त हूँ ! " क्या दीक्षा ले लेने वाले हम सभी लोगों ने ठाकुर की उस असीम-उदारता, उनके महत्व को अपने व्यक्ति-जीवन में, आचरण में, वाणी में, दूसरों के साथ व्यवहार करते समय- अभिव्यक्त करना सीखा है ? 
हमलोग कहलाने के लिये तो, स्वयं को उनका (परमहंस का) भक्त कहते हैं. किन्तु क्या हमारे दैनन्दिन जीवन के द्वारा, हमारे आचरण के द्वारा, यह प्रमाणित हो पाता है कि, सचमुच हमलोग भी - स्वामी विवेकानन्द के गुरु, उनके सर्वस्व, श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव  के भक्त हैं ? - आत्म-निरिक्षण करते हुए हमे इस बात पर अवश्य ही चिन्तन करना चाहिये. 
ऐसा न कर, केवल मुख से ही स्वयं को परमहंसदेव का भक्त कहते रहना हमलोगों के लिये उचित नहीं होगा.अतः परमहंसदेव का/की भक्त होने की मर्यादा का ध्यान रखते हुए दूसरों के साथ व्यवहार करते समय- हमलोगों को अपने आचरण पर सतर्क-दृष्टि रखनी होगी.
{अमेरिका में अनेक स्थानों में स्वामीजी ने भाषण दिया और सभी स्थानों में उन्होंने यही बात कही| हार्टफोर्ड (Hartford) नामक स्थान में उन्होंने कहा था- 
"...जो दूसरी बात मैं तुम्हें बतलाना चाहता हूँ, वह यह है कि धर्म केवल सिद्धान्तों य़ा मतवादों में नहीं है|...सभी धर्मों का चरम लक्ष्य है- आत्मा में परमात्मा की अनुभूति! यही एक सार्वभौमिक धर्म है| समस्त धर्मों में यदि कोई सार्वभौमिक सत्य है तो वह है- ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करना| परमात्मा और उनकी प्राप्ति के साधनों के सम्बन्ध में विभिन्न धर्मों की धारणाएँ भिन्न भिन्न भले ही हों, पर उन सब में वही एक केंद्रीय भाव है| 
सहस्र विभिन्न त्रिज्याएँ भले ही हों, पर वे सब एक ही केन्द्र में मिलती हैं, और वह केन्द्र है ईश्वर का साक्षात्कार -- इस इन्द्रियग्राह्य जगत के पीछे, इस निरन्तर खाने-पीने और थोथी बकवास के पीछे, इन विलीन होते हुए छायास्वप्नों और स्वार्थ से भरे इस संसार के पीछे, विद्यमान किसी एकमेव आद्वितीय सत्ता (ब्रह्म य़ा सच्चिदानन्द) की अनुभूति! 
समस्त ग्रंथों और धर्म मतों के अतीत, इस जगत की असारता से परे ' वह ' विद्यमान है, जिसकी अपने भीतर ईश्वर के रूप में प्रत्यक्ष -अनुभूति होती है| कोई व्यक्ति संसार के समस्त गिर्जाघरों में आस्था भले ही रखता हो, अपने सिर में समस्त धर्मग्रंथों का बोझा लिये भले ही घूमता हो, इस पृथ्वी की समस्त नदियों में उसने भले ही बपतिस्मा लिया हो, फिर भी यदि उसे ईश्वर-दर्शन न हुआ हो तो मैं उसे घोर नास्तिक ही मानूंगा|..."
स्वामीजी ने अपने राजयोग नामक ग्रन्थ में लिखा है--
" ....सभी धर्माचार्यों ने ईश्वर को देखा था| उन सभी ने 'आत्म-साक्षात्कार ' किया था; अपने अनन्त स्वरुप का बोध सभी को हुआ था,अपनी भविष्य अवस्था देखी थी, और जो कुछ उन्होंने देखा था, उसी का प्रचार कर गये हैं| 
भेद इतना ही है कि प्रायः सभी धर्मों में, विशेषतः आजकल के, एक अद्भुत दावा यह किया जा रहा है कि - इस समय वे अनुभूतियाँ (जो बुद्ध को हुई थीं, य़ा ईसा मसीह को हुई थी, य़ा मोहम्मद साहब को हुई होंगी) असम्भव हैं !जो धर्म के प्रथम संस्थापक हैं, जिनके नाम से बाद में उस धर्म का प्रवर्तन और प्रचलन हुआ है, केवल उन थोड़े आदमियों को ही ऐसा प्रत्याक्षनुभव सम्भव हुआ था; अब ऐसे अनुभव के लिये रास्ता नहीं रहा, फलतः अब धर्मों पर केवल विश्वास भर कर लेना होगा|
मैं उनके दावे को पूरी शक्ति से अस्वीकृत करता हूँ| यदि संसार में किसी प्रकार के वैज्ञानिक सत्य (जैसे गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त आदि) को किसी ने कभी प्रत्यक्ष उपलब्धि की है, तो इससे यह सिद्ध हो जाता है कि पहले भी करोड़ो बार उसकी उपलब्धि की सम्भावना थी, बाद में भी अनन्त काल तक उसकी उपलब्धि की सम्भावना बनी रहेगी| समवर्तन ही प्रकृति का बली नियम है| एक बार जो घटित हुआ है, वह फिर घटित हो सकता है|..."
स्वामीजी ने न्यूयार्क में ९ जनवरी १८९६ के भाषण कहते हैं--"... इन सब विभिन्न योगों को हमें कार्य में परिणत करना ही होगा; केवल उनके सम्बन्ध में तर्क-वितर्क करते रहने से कुछ भी न हाँसिल हो सकेगा|
' श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः |'
पहले उनके सम्बन्ध में सुनना पड़ेगा--फिर (गुरु-मुख से) श्रुत विषयों पर चिन्तन-मनन करना होगा...|इसके बाद उनका ध्यान और उपलब्धि करनी पड़ेगी-- जब तक कि हमारा समस्त जीवन तदभाव भावित न हो उठे| तब धर्म हमारे लिये केवल कतिपय धारणा, मतवाद-समष्टि य़ा कोरी कल्पना मात्र न रह जायेगा|...यथार्थ धर्म कभी परिवर्तित नहीं होता|
धर्म अनुभूति की वस्तु है-- वह मुख की बात, मतवाद अथवा युक्तिमूलक कल्पना मात्र नहीं है--चाहे वह जितना ही सुन्दर हो; वह केवल सुनने य़ा मान लेने की चीज नहीं है| आत्मा की ब्रह्मस्वरुपता को अपने अनुभव से जान लेना, तद्रूप हो जाना, उसका साक्षात्कार करना -- यही धर्म है|.."(श्रीरामकृष्ण वचनामृत खण्ड ३: अध्याय श्रीरामकृष्ण तथा नरेन्द्र : पृष्ठ ५८६ से ५९३)
" प्रेम का धर्म कितना अदभुत है! यह बात तो उन्होंने बार बार कही, परन्तु कितने लोग समझ सके? आचार्य केशव सेन थोड़ा सा समझे सके थे| और स्वामी विवेकानन्द ने तो दुनिया के सामने इसी प्रेम-धर्म का प्रचार अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर किया है| श्रीरामकृष्ण देव ने तआस्सुबी-बुद्धि (भेद-बुद्धि) रखने का बार बार निषेध किया था| 
' मेरा धर्म सत्य है और तुम्हारा धर्म झूठा '--इसी का नाम है तआस्सुबी बुद्धि--यह बड़े अनर्थ की जड़ है|स्वामीजी ने इसी अनर्थ से सतर्क रहने की बात शिकागो-धर्मसभा के सामने कही थी| उन्होंने कहा-- ईसाई,मुसलमान,आदि अनेकों ने धर्म के नाम पर मार-काट मचायी है|
" ...साम्प्रदायिकता, संकीर्णता और इनसे उत्पन्न भयंकर धर्मविषयक उन्मत्तता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुके हैं| इनके घोर अत्याचार से पृथ्वी भर गयी है; इन्होंने अनेक बार मानव-रक्त से धरती को सींचा, सभ्यता नष्ट कर डाली तथा समस्त जातियों को हताश कर डाला है|..." 
(वचनामृत-३:५९८)
 { श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव जी ने हृदयंगम किया था कि अद्वैत भाव में सुप्रतिष्ठित होना ही समस्त साधनों का चरम लक्ष्य है,...इसीलिये अद्वैत भाव के विषय में पूछने पर बारम्बार वे हमसे यही कहा करते थे- " वह तो अन्तिम बात है रे, अन्तिम बात; ईश्वरप्रेम की चरम परिणति में स्वतः ही वह भाव साधक के जीवन में आकार उपस्थित होता है; समस्त धर्ममतों के अनुसार ही उसे अन्तिम बात समझनी चाहिये - एवं जितने मत हैं, उतने ही पथ हैं !"
 (श्रीरामकृष्ण लीला-प्रसंग खण्ड १ पृष्ठ - ३८१)
श्रीरामकृष्ण परमहंस देव जी अन्यत्र कहते हैं-- "पहले डुबकी लगाओ. डूबकर रत्न उठाओ, उसके बाद दूसरा काम. पहले माधव की स्थापना करो,उसके बाद चाहो तो लेक्चर दे सकते हो. कोई डुबकी लगाना नहीं चाहता.साधन नहीं, भजन नहीं, विवेक-वैराग्य नहीं, दो-चार बातें सीख लीं, बस लगे लेक्चर देने!
" लोगों को सिखाना कठिन काम है. भगवान के दर्शन बाद यदि किसी को उनका आदेश प्राप्त हो, तो वह लोक-शिक्षा दे सकता है. "...इसीलिये नरेन्द्र ने गुरुदेव की बात को मानकर संसार छोड़ दिया था और एकान्त में गुप्त रूप से बहुत तपस्या की थी. उसके बाद उन्ही की शक्ति से शक्तिशाली बन कर, इस लोक-शिक्षा के व्रत को ग्रहण कर उन्होंने कठिन प्रचार कार्य प्रारम्भ किया था. 
काशीपुर में जिस समय (१८८६ ई०) श्रीरामकृष्ण रुग्न थे, उस समय उन्होंने एक कागज पर लिखा था, " नरेन्द्र शिक्षा देगा." एक पत्र में स्वामी विवेकानन्द लिखे थे कि वे श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के दास हैं, उन्हीं के दूत बनकर वे उनकी मंगल-वार्ता समग्र जगत को सुना रहे हैं. (श्रीरामकृष्ण वचनामृत पृष्ठ- ५८६-५८७) } 
यदि इसी भाव को हमलोग भारतवर्ष के समस्त युवा समाज के समक्ष यथोचित उपायों का अवलम्बन कर सही-सही ढंग से परिवेशन कर पाते तो हमारे समाज का, देश का, पूरी जाति का कैसा सुन्दर नवोत्थान हो सकता था! अभी ऐसा किया जाय तो समाज और देश का चेहरा कितना उज्जवल बन सकता है!
किन्तु इसकी प्रचेष्टा कहाँ हो रही है ? अखिल भारत स्तर पर इसका प्रयास किया जाय--ऐसा आग्रह भी कितने जन में है ? (हिन्दी भाषी प्रान्तों में - कितने लोग परमहंस देव को अपने जीवन का ध्रुवतारा मानते हैं ?) हमलोग सदैव केवल यही चाहते हैं कि- " मेरा उत्थान हो, मेरा परिवार बड़ा बने, धनवान हो, सुखी हो, भोगी हो! और अधिक भोग हमें प्राप्त हो!"  
किन्तु थोड़ा भी विवेक-विचार किया जाय तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि - भोगों में कुछ नहीं रखा है; त्याग के भीतर ही सारे सत्य निहित हैं, सभी तरह के मंगल (अमृत तत्त्व) केवल त्याग से प्राप्त होते हैं! किन्तु हममे से अधिकांश लोग (त्याग की महत्ता को स्वीकार कर के भी) इस ओर (ध्रुवतारे की उत्तर दिशा में) जाना नहीं चाहते हैं|
हमलोग अक्सर कहते हैं -- मैंने वचनामृत ( श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के अमृतदायी- वचनों को) सुना है, मैंने गीता सुना है, हमने श्रीमदभागवत सुना है,(तब भी जीवन में त्याग की प्रतिष्ठा न हो सकी!) तब यह देखें कि किनसे सुना है? 
एक बार इसी प्रकार का गीता-पाठ सुनने का दुर्भाग्य मुझे प्राप्त हुआ था| एक बार रास्ते से जाते-जाते मेरे कानों में आवाज आयी कि कोई गीता पर प्रवचन दे रहे हैं| मैं रास्ता के किनारे खड़े होकर प्रवचन सुनने लगा.एक जन सन्यासी-वेशधारी वक्ता कह रहे थे--" सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकम शरणम् व्रज "अर्थात यहाँ पर श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि-
" हे पार्थ, सर्व धर्म छोड़ कर मेरे हिन्दू-धर्म को ग्रहण करो !"??
--क्या सचमुच गीता का यही अर्थ है ? इस प्रकार शास्त्रों के अर्थ को तोड़-मरोड़ कर व्याख्या करने का क्या परिणाम होगा ? क्या उसके ऊपर कुछ विचार करना उचित नहीं है? हमलोगों ले पास अब भी चेत जाने का समय है| 
अब भी यदि युवाओं का एक दल; कमर कस कर खड़ा हो जाये और यह घोषणा करे--" अभी समाज में जो पाश्चात्य भोग-वादी संस्कृति की प्रबलधारा बह रही है; हमलोग उस प्रवाह में बिल्कुल ही डूब जाने को तैयार नहीं हैं! हमारे भीतर आत्म-निर्भर रहने, अपने पैरों पर खड़े रहने की जो क्षमता है-- क्या उसे( तुच्छ इन्द्रिय-विषयों के लालच में) खो कर, इस प्रवाह के साथ हम बिल्कुल ही बह जायेंगे? क्या हमलोग इस भोग-सागर में डूब कर नष्ट हो जायेंगे ? कदापि ऐसा नहीं होने देंगे !" 
इस भोगवादी प्रवाह को रोक देना होगा! हमे अपने पैरों को अपने देश की सख्त मिट्टी(त्यागवादी संस्कृति) पर मजबूती से रोप कर, किसी मजबूत परकोटे के समान अपना चरित्र गठित कर लेने होगा - जिसे टकरा कर यह भोग-वादी प्रवाह थम जायेगा| एवं (परमहंस देव के समान) प्रेय को छोड़ कर श्रेय की ओर, ( ध्रुवतारे की दिशा में ) आँखे खोल कर देखना होगा, एवं उसी दिशा में अग्रसर बने रहने हेतु यथेष्ट साहस और शक्ति अर्जित करनी होगी, तथा उन्हें व्यवहार में लाना होगा! तभी कुछ आशा कर सकते हैं कि हमारे समाज और देश कि अवस्था में परिवर्तन होगा !            
       
                                            

रविवार, 4 जुलाई 2010

[32] " टुकड़ों में बँटा भारत "

हमलोगों के समय में स्कूल की पढ़ाई केवल दसवीं कक्षा तक पढने के बाद ही समाप्त हो जाति थी.उस समय दसवीं की परीक्षा भी विश्वविद्यालय द्वारा ली जाती थी.तब केवल कलकाता विश्वविद्यालय ही अस्तित्व में था.  १५ अगस्त  १९४७ में भारतवर्ष स्वाधीन हुआ था और उसी वर्ष मैं दसवीं की परीक्षा में बैठा था; और संयोगवश मेरा जन्मदिन भी १५ अगस्त ही है. उस दिन (१४ अगस्त को स्वाधीनता दिवस की पूर्व संध्या के समय)  मन में इच्छा हुई थोड़ा गंगा के किनारे खड़े होकर सूर्य को अस्त हुए देखा जाय. एक लाल बड़े से आग के गोले के रूप में सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा था. उसे देख कर याद आया- 
" वरषी अनल राशि सहस्रकिरण 
पातियाछे विश्रामिते क्लान्त कलेवर 
दूर तरुराजि शिरे स्वर्ण सिंहासन | "
' पहले ऐसा कहा जाता था कि ब्रिटश साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता. सूर्य दिन भर अपनी हजार हजार किरणों से अग्नि की वर्षा करने के बाद सूर्यास्त के समय ऐसा लगता है की अब वह थक कर वह विश्राम करने जा रहा हो,किन्तु दूर पेड़ों के शिखर पर पड़ती हुई सूर्यास्त की लालिमा को देख कर ऐसा लगता है मानो उसने पुनः स्वर्ण-सिंहासन का रूप धारण कर लिया हो. मैंने सूर्य से कहा-
" हे सूर्य, पराधीन भारत में आज तुम अन्तिम बार अस्त हो रहे हो.
कल प्रातःकाल जब तुम पूर्व के आकाश में उदित होओगे,
तब तक भारत स्वाधीन हो चुका होगा ! "  
सूर्य से यह सब कहते हुए मन में कितना आनन्द हो रहा था ! सभी मनुष्य आनन्द से भर कर उन्मत्त हो रहे थे. भारत का राष्ट्रिय-ध्वज चारों ओर छाया हुआ था. और बिजली-बत्ती की क्या अद्भुत रौशनी सजाई गयी थी, मानो आज ही दीपावली मनाई जा रही हो ! 
सड़क पर, घर के अन्दर सर्वत्र सभी मनुष्यों का मन मानो उद्वेलित हो उठा था. सबों के किलकारियों में आनन्द छलक रहा था. रात्रि के ठीक बारह बजे सभी घरों से एक साथ समवेत स्वर में शंख-ध्वनी होने लगी.
किन्तु सुबह होने के पहले से ही मन में कुछ कुछ  . 
 भारत के मानचित्र को देखने से ऐसा महसूस होता था, मानो सचमुच यह जन्म-भूमि ही हमारी साक्षात् जननी है! नीचे की ओर देखने से ऐसा लगता मानो माँ दोनों पैरों को आपस में मिला कर खड़ी हैं. कश्मीर का अँचल मानो माँ का मुखमंडल है. हिमालय का पूरा फैलाव माँ की साड़ी का ही कुंचित भाग है और पूर्व में ब्रह्मदेश (बर्मा) को स्पर्श से करते हुए उसके असंख्य समुद्री द्वीपों के ऊपर उनका ही आँचल लहरा रहा है. मानो जीवन्त भारतमाता का ही दर्शन हो रहा हो. 
कालिदास ने अपने ' कुमारसंभव ' ग्रन्थ के प्रथम श्लोक में भारतवर्ष का सुन्दर चित्रण करते हुए लिखा है:  
अस्त्य् उत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः। पूर्वापरौ तोयनिधी विगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः॥१.१॥
- पूर्व एवं पश्चिम समुद्र को स्पर्श करती हुई देवताओं की निवास भूमि को जो विराट पर्वत मानो पृथ्वी के मानदण्ड के समान समस्त उत्तर दिशा को अपने में समेटे हुए खड़ा है, उसका नाम है- हिमालय !
इसीका हिंदी अनुवाद  -रामधारी सिंह 'दिनकर' ने इस प्रकार किया है- 
  मेरे नगपति! मेरे विशाल!
        साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
     पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल
         मेरी जननी के हिम-किरीट 
             मेरे भारत के दिव्य भाल।"


                                                               
आनन्द मूग्ध रात्रि की खुमारी समाप्त होते ही मन में विचार उठा- क्या भारत सचमुच स्वाधीन हो गया? पर राजनीति के नेताओं में व्याप्त सत्ता-सुख भोगने के लोभ ने देश-माँ को तो खण्ड खण्ड  कर दिया था. क्रमशः तीन देशों में भारत के नक़्शे को बँटा हुआ दिखाया गया - जिसके एक टुकड़े को हमने स्वाधीन भारत का नाम दिया.



{ 1947 में जब ब्रिटिश भारत को स्वतंत्रता मिली तो साथ ही भारत का विभाजन करके 14 अगस्त को पाकिस्तानी डोमिनियन (बाद में इस्लामी जम्हूरिया ए पाकिस्तान) और 15 अगस्त को भारतीय यूनियन (बाद में भारत गणराज्य) की संस्थापना की गई।
इस घटनाक्रम में मुख्यतः ब्रिटिश भारत के बंगाल प्रांत को पूर्वी पाकिस्तान और भारत के पश्चिम बंगाल राज्य में बाँट दिया गया और इसी तरह ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत को पश्चिमी पाकिस्तान के पंजाब प्रांत और भारत के पंजाब राज्य में बाँट दिया गया। 
15 अगस्त 1947 की आधी रात को भारत और पाकिस्तान कानूनी तौर पर दो स्वतंत्र राष्ट्र बने। लेकिन पाकिस्तान की सत्ता परिवर्तन की रस्में 14 अगस्त को कराची में की गईं ताकि आखिरी ब्रिटिश वाइसराय लुइस माउंटबैटन कराची और नई दिल्ली दोनों जगह की रस्मों में हिस्सा ले सके।
इसलिए पाकिस्तान में स्वतंत्रता दिवस 14 अगस्त और भारत में 15 अगस्त को मनाया जाता है। भारत के विभाजन से करोड़ों लोग प्रभावित हुए। विभाजन के दौरान हुई हिंसा में करीब 5 लाख लोग मारे गए, और करीब 1.45 करोड़ शरणार्थियों ने अपना घर-बार छोड़कर बहुमत संप्रदाय वाले देश में शरण ली।हाय, यह इतिहास का कैसा परिहास है! 
आपसी मार-काट ने माँ के शरीर को रक्त-रंजित कर दिया. भाई भाई अलग अलग हो गये. शायद इस प्रकार से भाइयों के बंटवारा हो जाने को ही स्वाधीनता प्राप्त करना कहते हैं. यह सोचने में भी लज्जा आती है कि आज मैं भी उसी टुकड़े में बँटे भारत का एक वृद्ध नागरिक हूँ!
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[विभाजन की प्रक्रिया भारत के विभाजन के ढांचे को 3 जून प्लान या माउंटबैटन प्लान का नाम दिया गया। भारत और पाकिस्तान के बीच की सीमारेखा लंदन के वकील सर सिरिल रैडक्लिफ ने तय की। हिन्दू बहुमत वाले इलाके भारत में और मुस्लिम बहुमत वाले इलाके पाकिस्तान में शामिल किए गए। 18 जुलाई 1947 को ब्रिटिश संसद ने इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट (भारतीय स्वतंत्रता कानून) पास किया जिसमें विभाजन की प्रक्रिया को अंतिम रूप दिया गया। इस समय ब्रिटिश भारत में बहुत से राज्य थे जिनके राजाओं के साथ ब्रिटिश सरकार ने तरह-तरह के समझौते कर रखे थे। इन 565 राज्यों को आज़ादी दी गयी कि वे चुनें कि वे भारत या पाकिस्तान किस में शामिल होना चाहेंगे।अधिकतर राज्यों ने बहुमत धर्म के आधार पर देश चुना। जिन राज्यों के शासकों ने बहुमत धर्म के अनुकूल देश चुना उनके एकीकरण में काफ़ी विवाद हुआ (देखें भारत का राजनैतिक एकीकरण)। विभाजन के बाद पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र में नए सदस्य के रूप में शामिल किया गया और भारत ने ब्रिटिश भारत की कुर्सी संभाली।

 संपत्ति का बंटवारा

ब्रिटिश भारत की संपत्ति को दोनों देशों के बीच बाँटा गया लेकिन यह प्रक्रिया बहुत लंबी खिंचने लगी। गांधीजी ने भारत सरकार पर दबाव डाला कि वह पाकिस्तान को धन जल्दी भेजे जबकि इस समय तक भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध शुरु हो चुका था,और दबाव बढ़ाने के लिए अनशन शुरु कर दिया। भारत सरकार को इस दबाव के आगे झुकना पड़ा और पाकिस्तान को धन भेजना पड़ा। नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी के इस काम को उनकी हत्या करने का एक कारण बताया 

दंगा फ़साद - बहुत से विद्वानों का मत है कि ब्रिटिश सरकार ने विभाजन की प्रक्रिया को ठीक से नहीं संभाला। चूंकि स्वतंत्रता की घोषणा पहले और विभाजन की घोषणा बाद में की गयी, देश में शांति कायम रखने की जिम्मेवारी भारत और पाकिस्तान की नयी सरकारों के सर पर आई।

किसी ने यह नहीं सोचा था कि बहुत से लोग इधर से उधर जाएंगे। लोगों का विचार था कि दोनों देशों में अल्पमत संप्रदाय के लोगों के लिए सुरक्षा का इंतज़ाम किया जाएगा। लेकिन दोनों देशों की नयी सरकारों के पास हिंसा और अपराध से निबटने के लिए आवश्यक इंतज़ाम नहीं था। फलस्वरूप दंगा फ़साद हुआ और बहुत से लोगों की जाने गईं, और बहुत से लोगों को घर छोड़कर भागना पड़ा। अंदाज़ा लगाया जाता है कि इस दौरान लगभग 5 लाख लोग मारे गये, कुछ दंगों में, तो कुछ यात्रा की मुश्किलों से। भारत का विभाजन - मुख्य घटनाएं-सर सैयद अहमद खान, जिसने "मोहम्मडन एंग्लो-ओरियन्टल कॉलेज'' की स्थापना की थी और जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय कहलाया, को अंग्रेजी सरकार ने इस बात के लिए प्रेरित किया कि वह राजनीति को साम्प्रदायिक बनाएं।अंग्रेजों की सरकारी नीति के तहत पंजाब में १२ प्रतिशत सिखों को १५ प्रतिशत प्रतिनिधित्व दिया गया। बिहार और उड़ीसा के १० प्रतिशत मुसलमानों को २५ प्रतिशत आरक्षण दिया गया।१९४० में मोहम्मद अली जिन्ना ने पृथक मुस्लिम राज्य ÷पाकिस्तान' को मुसलमान बाहुल क्षेत्र में बनाने की बात लोगों के सामने रखी। यह सिखों के लिए हैरान करने वाली बात थी।  लेकिन पं. जवाहर लाल नेहरू का एक महत्वकांक्षी चेहरा  भी सामने आ रहा था।
  १९४२ में, अंग्रेजी सरकार ने अलग मुस्लिम राज्य अथवा देश बनाने के लिए सर स्टीफोर्ड क्रिप्स कमीशन की घोषणा की। अंग्रेजों की नियत भारत के विभाजन की थी।१६ अगस्त १९४६ को जिन्ना और मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान प्राप्ति के लिए"डायरेक्ट एक्सन' की घोषणा की। 
चारों तरफ दंगे फसाद कराए गए। भारत भू का रंग रक्त से लाल हो गया था।दिल्ली में नए वायसराय माउन्टबेटन केवल भारत विभाजन की नियत से आया था।पं. नेहरू पंजाब और बंगाल के विभाजन के लिए सहर्ष तैयार हो गए, क्योंकि उन्हें प्रधानमंत्री बनने की जल्दी थी।इस प्रकार १९४७ में भारत का विभाजन हो गया। 
मजहब के आधार पर आरक्षण की नीति का अन्त विभाजन से हुआ।ज्वलंत प्रश्न : एडविना-नेहरू प्रेम संबंध से आहत थे माउंटबेटन.इस बात का खुलासा उनकी ही बेटी पामेला ने ÷इंडिया रिमेम्बर्ड : ए पर्सनल एकाउंट ऑपफ द माउंटबेटंस ड्यूरिंग द ट्रांसपफर ऑपफ पावर' में किया है ।क्या १९४७ में भारत का विभाजन मजहब के आधर पर नहीं हुआ था?
क्या विभाजन के अहदनामें पर कांग्रेस के नेता पं. जवाहर लाल नेहरू के हस्ताक्षर नहीं थे? सेक्यूलरवाद की बात करने वाले नेहरू मजहब के आधर पर विभाजन के प्रश्न पर सहमत कैसे हो गए?अंग्रेजों के लिए भारत विभाजन का खेल खेलने वाले वायसराय माउंटबेटन और भारत के नेता पं. नेहरू परस्पर मित्र कैसे बन गये ?}