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मंगलवार, 6 जुलाई 2010

[33]" भारतवर्षीय आकाश के ध्रुवतारा हैं - श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव !"

उस समय तक (१५ अगस्त १०४७ की पूर्व-संध्या-१४ अगस्त तक) तो  बंगाल अविभक्त था. हमलोग यह समझ सकते हैं कि, उस समय का बंगाल( बांग्ला-देश) क्या था! बंगाल का मान चित्र कैसा सुन्दर दिखता था!अविभक्त भारतवर्ष  का मानचित्र देखने से हमारी यह जन्मभूमि सचमुच ' माँ ' जैसी ही दिखती थी.
हमलोग जिस बंग-देश (अविभक्त बंगाल) को ' बाँग्ला माँ ' कह कर पुकारा  करते थे. मुझे तो याद है कि, उस समय के बंग-देश (बंगाल) में अपनी एक अद्भुत मोहिनी शक्ति भी थी.
 वह बंगाल क्या हो गया, वह भारत कैसा हो गया! देश खण्ड-विखंड हो गया. धर्म धर्म के बीच सौहार्द ख़त्म हो गया, धर्म के नाम पर खून बहाया जाने लगा. अभी भी क्या-क्या चल रहा है. किन्तु इसी बंगाल के धरती पर स्वामी विवेकानन्द आविर्भूत हुए और विश्व को एक नयी वाणी सुनाये, श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने भी तो यहीं, इसी बंगाल की भूमि पर जन्म लेकर अपने जीवन से यह प्रमाणित कर दिखाया है कि, अलग अलग धर्म नहीं है, अलग अलग नाम से पुकारने पर भी धर्म धर्म में कोई अन्तर नहीं है. 
एक ही तालाब में जिस प्रकार चार घाट होते हैं, और कोई व्यक्ति एक घाट से जल लेकर कहता है- यह है ' जल ', दूसरा व्यक्ति कहता है ' पानी ', तीसरा उसे ही ' वाटर ' (Water ) कहता है...है तो उसी तालाब का जल ! एक एक व्यक्ति, अलग अलग किनारे से जल उठाते  है और अलग अलग नामों से पुकारते हैं. कोई कहता है हिन्दूधर्म, कोई कहता है ईस्लाम-धर्म, कोई कहता है श्रीईसा-प्रवर्तित धर्म (य़ा ईसाई-धर्म); आदि, आदि. उसी को कोई बौद्धधर्म, जैनधर्म कहते हैं,इस प्रकार एक ही धर्म को अलग अलग नामों से पुकारते हैं.धर्म के नाम अलग हैं किन्तु वस्तु तो एक ही है. ईश्वर एक है. कोई पार्थक्य नहीं है.इस जगत में, विश्व-ब्रह्माण्ड में एकत्व को प्रमाणित करना ही वेदान्त है, वेदान्त भी एकत्व की ही शिक्षा देता है.एवं श्रीरामकृष्ण के जीवन में यह ' एकत्व ' अद्भुत रूप से प्रमाणित हुआ है. उनके साधक- जीवन में ' अनेक साधनों की धारा ' एकत्र होकर मिलित हुई थी.
हिन्दुधर्म के अन्तर्गत जितनी भी साधन-पद्धति है, एक एक कर समस्त पद्धति को जाँच कर देख लिये. फिर ईस्लाम धर्म की साधना किये थे, ईसाई धर्म की साधना किये हैं. इस प्रकार समस्त धर्मों की साधना-पद्धति का अनुसरण करते हुए समस्त धर्मों के भीतर एक ही सत्य सन्नहित है, इसी एकत्व को साधना के अन्त में प्राप्त किये हैं. 
जिस समय वे ईस्लाम की साधना कर रहे थे, उन्होंने पछुआ खोंस कर धोती पहनना छोड़ दिया था. यहाँ तक कि मांस खाने की इच्छा भी हुई थी. वे तब केवल ' अल्ला ' नाम का ही जप करते थे, एवं उनको मोहम्मद साहब का दर्शन भी हुआ था.
ईसामसीह की साधना करते समय जब वे उसी में मग्न हो गये थे तब निकट के किसी मकान में माता मेरी के गोद में शिशु ईसा का चित्र देखते देखते उन्हें उसी प्रकार का दर्शन हुआ था.उन्होंने देखा था कि शिशु ईसा मेरी की गोद से उतर कर उनके पास आ रहे हैं
एकदिन दक्षिणेश्वर में गंगा के किनारे रास्ते पर चलते चलते देखते हैं कि सामने से कोई दिव्य पुरुष आ रहे हैं, उनको देख कर उन्हें ऐसा लगा, अरे-यही तो ईसामसीह हैं! बाद में सभी से पूछते थे,
' अच्छा ईसा की नाक कैसी थी? ' सबों ने कहा, उनकी नाक बिल्कुल नुकीली थी. यह सुन कर श्रीरामकृष्ण देव बोले, " किन्तु मैंने देखा है कि उनकी नाक थोड़ी चपटी है! पता नहीं, मैंने ऐसा क्यों देखा !" (श्रीरामकृष्ण- लीलाप्रसंग पृष्ठ ४३७) 
   बाद में ईसामसीह के जीवन के ऊपर कई गवेषणायें की गयी है. कमसे कम दो गवेषणाओं में स्वीकार किया गया है कि उनकी नाक लम्बी नहीं थी. ठाकुर के जीवन में सारे धर्म एकाकार हो गये थे. उनकी समस्त भेद-बुद्धि नष्ट हो गयी थी. किन्तु हमलोग,जो स्वयं को " श्रीरामकृष्ण का भक्त " कहते हैं- क्या कर रहे हैं ? क्या हमलोग भी अपने मन से इस भेदबुद्धि को दूर करने में सक्षम हो सके हैं? 
क्या हमलोग सभी धर्मावलम्बियों को बिल्कुल अपने भाई के जैसा समझ सकते हैं? स्वामी विवेकानन्द जब विदेश से लौट कर आये तो रामकृष्ण मिशन को स्थापित किये, बाद में रामकृष्ण मठ भी स्थापित हुआ.
 { उसके उद्देश्य आदि नीचे उधृत किये जाते हैं: 
उद्देश्य - मनुष्यों के हितार्थ श्री रामकृष्ण ने जिन तत्वों की व्याख्या की और स्वयं अपने जीवन में प्रत्यक्ष किया है, उन सब का प्रचार तथा मनुष्यों की शारीरिक, मानसिक और पारमार्थिक उन्नति के निमित्त वे सब तत्व जिस प्रकार प्रयुक्त हो सकें, उसमे सहायता करना ही इस मिशन का उद्देश्य है.व्रत- जगत के सभी धर्ममतों (हिन्दु धर्म,इस्लाम धर्म,ईसाई धर्म, सीख,बौद्ध आदि,आदिनाम वाले धर्मों ) को ' ऐक्य '- बोध के (अक्षय सनातन) धर्म का रूपान्तर मात्र समझते हुए सभी धर्मावलम्बियों में मैत्री स्थापित करने के लिये श्रीरामकृष्णदेव ने जिस कार्य का प्रारम्भ किया था उसका परिचालन ही इस मिशन का व्रत है.कार्यप्रणाली - आमजनता को सांसारिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिये विद्या दान कर सकने में समर्थ व्यक्तियों को शिक्षित करना. शिल्पियों तथा श्रमजीवियों को स्वरोजगार के लिये प्रोत्साहित करना तथा वेदान्त एवं दूसरों धर्मों के भाव जिस रूप में श्रीरामकृष्ण के जीवन में अभिव्यक्त हुए थे,समाज में उन्हीं भावों को स्थापित करने का प्रयास करना. 
भारतवर्षीय कार्य- भारतवर्ष के नगर-नगर, गाँव-गाँव में आचार्य-व्रत को ग्रहण करने के अभिलाषी गृहस्थ एवं सन्यासियों को प्रशिक्षित करने के लिये (युवा चरित्र-निर्माण कारी संगठनों एवं )आश्रमों की स्थापना करते हुए, ऐसे उपायों --{ युवा प्रशिक्षण शिविर (Youth Training  Camp) युवा पाठ चक्र (Youth study Circle  आदि } का अवलम्बन करना जिनके द्वारा वे प्रशिक्षित आचार्य बनकर भारतवर्ष के गाँव-गाँव तक पहुँच कर आम - जनता को शिक्षित बना सकें......(विवेकानन्द चरित पृष्ठ- २१३)}  
' रामकृष्ण मिशन ' की जो नियमावली बनवाये,उसका जो आदर्श और उद्देश्य लिखे, उसमे स्वामी विवेकानन्द क्या कहते हैं, जरा उसकी बानगी पर गौर तो कीजिये: 
  •  हमलोगों का प्रधान-कार्य (व्रत) होगा-- सभी धर्मों के अनुयायियों में आपसी प्रेम-पूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने के लिये उन्हें एकत्रित करना, उन सबों से प्रेम करना तथा जिस प्रकार के कार्य करने से पृथ्वी के सभी मनुष्यों के बीच ' ऐक्य ' स्थापित हो सकता हो, उसी प्रकार के कार्य को करते जाना.श्रीरामकृष्ण ने अपने जीवन द्वारा जिस प्रकार समस्त धर्मों में सन्निहित ऐक्य को प्रदर्शित करके दिखाया है, वही भाव जिससे आमजनता के बीच फ़ैल जाय, उसी का प्रयास करते रहना
  • उसके साथ साथ लौकिक और आध्यात्मिक विद्या दान देने योग्य व्यक्तियों को भी प्रशिक्षित  करना होगा.
  • एवं हमलोगों का राजनीति के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा.}    
वे जो कुछ कह रहे हैं, उसको लिख लेने के लिये कहते हैं- अमुक अमुक बातों को लिख लिया जाये.उन सब को पढने पर देखता हूँ कि वे सारे विचार सचमुच उनके मस्तिष्क में उसी मुहूर्त जन्म लेते जा रहे थे.
  •  उनका (श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव का) जीवन जिस असीम उदारता से गठित हुआ था उस जीवन की मंगल-वार्ता को हमलोग भी सबों में संचारित कर पाने के योग्य बन सकें.हमलोग भी इस भेद-बुद्धि को (अपना-पराया के अन्तर को) अपने मन से सदा के लिये निकाल देने में सक्षम हो सकें.( इसीलिये महामण्डल में इस " भेद-बुद्धि "को नष्ट कर " भावमुख-बुद्धि य़ा   उभय-निष्ट बुद्धि"  (Common Sens ) को अर्जित कर यथार्थ " मनुष्य बनने और बनाने-- का प्रशिक्षण " दिया जाता है ) 
  • ( जाती,धर्म,भाषा,लींग(M /F) य़ा रंग-रूप के आधार पर ) मनुष्य मनुष्य के बीच के अन्तर (भेद-बुद्धि) को मन से पूरी तरह निकाल कर, सभी धर्मावलम्बियों के बीच (पुरानी बातों, य़ा गलतियों के लिये-एक,दूसरे क्षमा करके) जिससे भातृत्व-बोध और सभी धर्मों में अन्तर्निहित 'ऐक्य' की अनुभूति करते हुए सच्चा सौहार्द स्थापित हो सके- यही प्रयास करते जाना हमलोगों का प्रधान कर्तव्य होना चाहिये.
यहाँ स्वामी विवेकानन्द अपने अनुयायियों को कितना अदभुत जीवन लक्ष्य निर्धारित करने की प्रेरणा दे रहे हैं! अपने गुरु, अपने सर्वस्व श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के जीवन को " ध्रुव-तारा " के जैसा सामने रख कर- अपने जीवन को उसी आदर्श साँचे में ढाल लेने की एक व्यवहारिक पद्धति अपने अनुयायियों के समक्ष उद्घाटित करते हुए कहते हैं- " बनो और बनाओ ! "" Be and Make ! "  Let this be our motto !   
यही हमारा आदर्श-वाक्य बने !  इसप्रकार से देखने पर यह समझा जा सकता है कि; मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माण का प्रशिक्षण देने वाली कितनी अदभुत-नूतन  भावधारा  (श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द भाव आन्दोलन) का प्रवर्तन स्वामीजी ने किया है !
 { तभी तो मद्रास में दिये गये अपने तीसरे व्याख्यान में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " ....इस समय केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि यदि मैंने जीवन भर में एक भी सत्य वाक्य कहा है तो वह उन्हीं का (श्री रामकृष्ण " परमहंसदेवजी " का) वाक्य है;पर यदि मैंने ऐसे वाक्य कहे हैं जो असत्य, भ्रमपूर्ण अथवा मानवजाति के लिये हितकारी न हों, तो वे सब मेरे ही वाक्य हैं, उनके लिये पूरा उत्तरदायी मैं ही हूँ! "कलकत्ते में स्वर्गीय राधाकान्त देव के मकान पर जब उनकी अभ्यर्थना हुई, उस समय भी उन्होंने कहा था कि - " श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव की शक्ति आज सम्पूर्ण पृथ्वी में क्रियाशील है ! हे भारतवासियो, तुम लोग (नकली-ढोंगी बाबाओं-नेताओं के फंदे से बच कर) केवल उनका चिन्तन करो, (ध्रुवतारा के समान उनको ही अपने नेत्रों के सामने रखो) तभी सब विषयों में उन्नति करोगे! " 
उन्होंने कहा- 
" ....यदि यह जाति उठना चाहती है, तो मैं निश्चयपूर्वक कहूँगा, इस नाम (रामकृष्ण) से सभी (भारत-प्रेमियों) को प्रेमोन्मत्त हो जाना चाहिये.श्रीरामकृष्ण देव का प्रचार मैं, तुम य़ा चाहे जो कोई भी करे इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता; तुम्हारे सामने मैं इस महान आदर्श-पुरुष को रखता हूँ, (इन्हें अपने जीवन में अपना) लो, अब (श्रेय-प्रेय का विचार करते हुए इनको (परमहंसदेव जी को) अपने जीवन का ध्रुवतारा बनाओगे य़ा किसी ढोंगी बाबा - नेता को ? विचार का भर तुम पर है. इस महान आदर्श-पुरुष को लेकर क्या करोगे, इसका निश्चय तुम्हें अपने राष्ट्र के कल्याण के लिये अभी (युवा-काल में ही) कर डालना चाहिये ! "
" ...उनके तिरोभाव के दस वर्ष के भीतर ही इस शक्ति ने सम्पूर्ण संसार को घेर लिया है...|मुझे देखकर उनका विचार न करना| मैं एक बहुत ही क्षूद्र-यन्त्र मात्र हूँ| उनके चरित का विचार मुझे देख कर न करना | वे इतने बड़े थे कि मैं, य़ा उनके शिष्यों में से कोई दूसरा, सैकड़ों जन्मों तक चेष्टा करते रहने पर भी उनके यथार्थ स्वरूप के एक करोड़वें अंश के बराबर भी न हो सकेगा|..."
                                                                                                           - ' भारत में विवेकानन्द ' से उधृत
इसी नवीन-भावधारा के अनुसार अपने जीवन को गठित कर पृथ्वी के समस्त मनुष्यों के बीच आपसी-प्रेम और सौहार्द स्थापित करने की इस मंगल-वार्ता को प्रसारित करते जाने से हम सभी(हिन्दू-मुसलमान-ईसाई) एवं देश-विदेश के सभी मनुष्य " एक " हो जायेंगे!हमलोग अक्सर कहा करते हैं कि अमेरिका ने उनको (श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव को) अपना लिया है,उस देश ने अपना लिया है- किन्तु ऐसा कहना बहुत सही नहीं है.
यह ठीक है कि दो-चार, दो-चार व्यक्ति करके सभी देशों के मनुष्यों ने श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव को अपना लिया है.यह भी सच है कि,हमलोगों के देश के दो-चार व्यक्तियों ने भी उनको  अपना लिया है. किन्तु ज्वलन्त प्रश्न तो यह है कि क्या पूरा भारतवर्ष (य़ा हिन्दी-भाषी भारत भी) श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव को-" आमादेर जिवनेर ध्रुवतारा "  --अर्थात " हमलोगों के जीवन के ध्रुवतारा हैं " --ऐसा समझ पाने में सक्षम हो सका है? 
क्या पूरे समाज ने उनकी शिक्षाओं को अपना लिया है? य़ा हम ( रामकृष्ण-मंत्र की दीक्षा ले लेने वाले)   लोग, जो यह कह कर अपना परिचय देते हैं कि - " मैं तो श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव का/की भक्त हूँ ! " क्या दीक्षा ले लेने वाले हम सभी लोगों ने ठाकुर की उस असीम-उदारता, उनके महत्व को अपने व्यक्ति-जीवन में, आचरण में, वाणी में, दूसरों के साथ व्यवहार करते समय- अभिव्यक्त करना सीखा है ? 
हमलोग कहलाने के लिये तो, स्वयं को उनका (परमहंस का) भक्त कहते हैं. किन्तु क्या हमारे दैनन्दिन जीवन के द्वारा, हमारे आचरण के द्वारा, यह प्रमाणित हो पाता है कि, सचमुच हमलोग भी - स्वामी विवेकानन्द के गुरु, उनके सर्वस्व, श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव  के भक्त हैं ? - आत्म-निरिक्षण करते हुए हमे इस बात पर अवश्य ही चिन्तन करना चाहिये. 
ऐसा न कर, केवल मुख से ही स्वयं को परमहंसदेव का भक्त कहते रहना हमलोगों के लिये उचित नहीं होगा.अतः परमहंसदेव का/की भक्त होने की मर्यादा का ध्यान रखते हुए दूसरों के साथ व्यवहार करते समय- हमलोगों को अपने आचरण पर सतर्क-दृष्टि रखनी होगी.
{अमेरिका में अनेक स्थानों में स्वामीजी ने भाषण दिया और सभी स्थानों में उन्होंने यही बात कही| हार्टफोर्ड (Hartford) नामक स्थान में उन्होंने कहा था- 
"...जो दूसरी बात मैं तुम्हें बतलाना चाहता हूँ, वह यह है कि धर्म केवल सिद्धान्तों य़ा मतवादों में नहीं है|...सभी धर्मों का चरम लक्ष्य है- आत्मा में परमात्मा की अनुभूति! यही एक सार्वभौमिक धर्म है| समस्त धर्मों में यदि कोई सार्वभौमिक सत्य है तो वह है- ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करना| परमात्मा और उनकी प्राप्ति के साधनों के सम्बन्ध में विभिन्न धर्मों की धारणाएँ भिन्न भिन्न भले ही हों, पर उन सब में वही एक केंद्रीय भाव है| 
सहस्र विभिन्न त्रिज्याएँ भले ही हों, पर वे सब एक ही केन्द्र में मिलती हैं, और वह केन्द्र है ईश्वर का साक्षात्कार -- इस इन्द्रियग्राह्य जगत के पीछे, इस निरन्तर खाने-पीने और थोथी बकवास के पीछे, इन विलीन होते हुए छायास्वप्नों और स्वार्थ से भरे इस संसार के पीछे, विद्यमान किसी एकमेव आद्वितीय सत्ता (ब्रह्म य़ा सच्चिदानन्द) की अनुभूति! 
समस्त ग्रंथों और धर्म मतों के अतीत, इस जगत की असारता से परे ' वह ' विद्यमान है, जिसकी अपने भीतर ईश्वर के रूप में प्रत्यक्ष -अनुभूति होती है| कोई व्यक्ति संसार के समस्त गिर्जाघरों में आस्था भले ही रखता हो, अपने सिर में समस्त धर्मग्रंथों का बोझा लिये भले ही घूमता हो, इस पृथ्वी की समस्त नदियों में उसने भले ही बपतिस्मा लिया हो, फिर भी यदि उसे ईश्वर-दर्शन न हुआ हो तो मैं उसे घोर नास्तिक ही मानूंगा|..."
स्वामीजी ने अपने राजयोग नामक ग्रन्थ में लिखा है--
" ....सभी धर्माचार्यों ने ईश्वर को देखा था| उन सभी ने 'आत्म-साक्षात्कार ' किया था; अपने अनन्त स्वरुप का बोध सभी को हुआ था,अपनी भविष्य अवस्था देखी थी, और जो कुछ उन्होंने देखा था, उसी का प्रचार कर गये हैं| 
भेद इतना ही है कि प्रायः सभी धर्मों में, विशेषतः आजकल के, एक अद्भुत दावा यह किया जा रहा है कि - इस समय वे अनुभूतियाँ (जो बुद्ध को हुई थीं, य़ा ईसा मसीह को हुई थी, य़ा मोहम्मद साहब को हुई होंगी) असम्भव हैं !जो धर्म के प्रथम संस्थापक हैं, जिनके नाम से बाद में उस धर्म का प्रवर्तन और प्रचलन हुआ है, केवल उन थोड़े आदमियों को ही ऐसा प्रत्याक्षनुभव सम्भव हुआ था; अब ऐसे अनुभव के लिये रास्ता नहीं रहा, फलतः अब धर्मों पर केवल विश्वास भर कर लेना होगा|
मैं उनके दावे को पूरी शक्ति से अस्वीकृत करता हूँ| यदि संसार में किसी प्रकार के वैज्ञानिक सत्य (जैसे गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त आदि) को किसी ने कभी प्रत्यक्ष उपलब्धि की है, तो इससे यह सिद्ध हो जाता है कि पहले भी करोड़ो बार उसकी उपलब्धि की सम्भावना थी, बाद में भी अनन्त काल तक उसकी उपलब्धि की सम्भावना बनी रहेगी| समवर्तन ही प्रकृति का बली नियम है| एक बार जो घटित हुआ है, वह फिर घटित हो सकता है|..."
स्वामीजी ने न्यूयार्क में ९ जनवरी १८९६ के भाषण कहते हैं--"... इन सब विभिन्न योगों को हमें कार्य में परिणत करना ही होगा; केवल उनके सम्बन्ध में तर्क-वितर्क करते रहने से कुछ भी न हाँसिल हो सकेगा|
' श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः |'
पहले उनके सम्बन्ध में सुनना पड़ेगा--फिर (गुरु-मुख से) श्रुत विषयों पर चिन्तन-मनन करना होगा...|इसके बाद उनका ध्यान और उपलब्धि करनी पड़ेगी-- जब तक कि हमारा समस्त जीवन तदभाव भावित न हो उठे| तब धर्म हमारे लिये केवल कतिपय धारणा, मतवाद-समष्टि य़ा कोरी कल्पना मात्र न रह जायेगा|...यथार्थ धर्म कभी परिवर्तित नहीं होता|
धर्म अनुभूति की वस्तु है-- वह मुख की बात, मतवाद अथवा युक्तिमूलक कल्पना मात्र नहीं है--चाहे वह जितना ही सुन्दर हो; वह केवल सुनने य़ा मान लेने की चीज नहीं है| आत्मा की ब्रह्मस्वरुपता को अपने अनुभव से जान लेना, तद्रूप हो जाना, उसका साक्षात्कार करना -- यही धर्म है|.."(श्रीरामकृष्ण वचनामृत खण्ड ३: अध्याय श्रीरामकृष्ण तथा नरेन्द्र : पृष्ठ ५८६ से ५९३)
" प्रेम का धर्म कितना अदभुत है! यह बात तो उन्होंने बार बार कही, परन्तु कितने लोग समझ सके? आचार्य केशव सेन थोड़ा सा समझे सके थे| और स्वामी विवेकानन्द ने तो दुनिया के सामने इसी प्रेम-धर्म का प्रचार अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर किया है| श्रीरामकृष्ण देव ने तआस्सुबी-बुद्धि (भेद-बुद्धि) रखने का बार बार निषेध किया था| 
' मेरा धर्म सत्य है और तुम्हारा धर्म झूठा '--इसी का नाम है तआस्सुबी बुद्धि--यह बड़े अनर्थ की जड़ है|स्वामीजी ने इसी अनर्थ से सतर्क रहने की बात शिकागो-धर्मसभा के सामने कही थी| उन्होंने कहा-- ईसाई,मुसलमान,आदि अनेकों ने धर्म के नाम पर मार-काट मचायी है|
" ...साम्प्रदायिकता, संकीर्णता और इनसे उत्पन्न भयंकर धर्मविषयक उन्मत्तता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुके हैं| इनके घोर अत्याचार से पृथ्वी भर गयी है; इन्होंने अनेक बार मानव-रक्त से धरती को सींचा, सभ्यता नष्ट कर डाली तथा समस्त जातियों को हताश कर डाला है|..." 
(वचनामृत-३:५९८)
 { श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव जी ने हृदयंगम किया था कि अद्वैत भाव में सुप्रतिष्ठित होना ही समस्त साधनों का चरम लक्ष्य है,...इसीलिये अद्वैत भाव के विषय में पूछने पर बारम्बार वे हमसे यही कहा करते थे- " वह तो अन्तिम बात है रे, अन्तिम बात; ईश्वरप्रेम की चरम परिणति में स्वतः ही वह भाव साधक के जीवन में आकार उपस्थित होता है; समस्त धर्ममतों के अनुसार ही उसे अन्तिम बात समझनी चाहिये - एवं जितने मत हैं, उतने ही पथ हैं !"
 (श्रीरामकृष्ण लीला-प्रसंग खण्ड १ पृष्ठ - ३८१)
श्रीरामकृष्ण परमहंस देव जी अन्यत्र कहते हैं-- "पहले डुबकी लगाओ. डूबकर रत्न उठाओ, उसके बाद दूसरा काम. पहले माधव की स्थापना करो,उसके बाद चाहो तो लेक्चर दे सकते हो. कोई डुबकी लगाना नहीं चाहता.साधन नहीं, भजन नहीं, विवेक-वैराग्य नहीं, दो-चार बातें सीख लीं, बस लगे लेक्चर देने!
" लोगों को सिखाना कठिन काम है. भगवान के दर्शन बाद यदि किसी को उनका आदेश प्राप्त हो, तो वह लोक-शिक्षा दे सकता है. "...इसीलिये नरेन्द्र ने गुरुदेव की बात को मानकर संसार छोड़ दिया था और एकान्त में गुप्त रूप से बहुत तपस्या की थी. उसके बाद उन्ही की शक्ति से शक्तिशाली बन कर, इस लोक-शिक्षा के व्रत को ग्रहण कर उन्होंने कठिन प्रचार कार्य प्रारम्भ किया था. 
काशीपुर में जिस समय (१८८६ ई०) श्रीरामकृष्ण रुग्न थे, उस समय उन्होंने एक कागज पर लिखा था, " नरेन्द्र शिक्षा देगा." एक पत्र में स्वामी विवेकानन्द लिखे थे कि वे श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के दास हैं, उन्हीं के दूत बनकर वे उनकी मंगल-वार्ता समग्र जगत को सुना रहे हैं. (श्रीरामकृष्ण वचनामृत पृष्ठ- ५८६-५८७) } 
यदि इसी भाव को हमलोग भारतवर्ष के समस्त युवा समाज के समक्ष यथोचित उपायों का अवलम्बन कर सही-सही ढंग से परिवेशन कर पाते तो हमारे समाज का, देश का, पूरी जाति का कैसा सुन्दर नवोत्थान हो सकता था! अभी ऐसा किया जाय तो समाज और देश का चेहरा कितना उज्जवल बन सकता है!
किन्तु इसकी प्रचेष्टा कहाँ हो रही है ? अखिल भारत स्तर पर इसका प्रयास किया जाय--ऐसा आग्रह भी कितने जन में है ? (हिन्दी भाषी प्रान्तों में - कितने लोग परमहंस देव को अपने जीवन का ध्रुवतारा मानते हैं ?) हमलोग सदैव केवल यही चाहते हैं कि- " मेरा उत्थान हो, मेरा परिवार बड़ा बने, धनवान हो, सुखी हो, भोगी हो! और अधिक भोग हमें प्राप्त हो!"  
किन्तु थोड़ा भी विवेक-विचार किया जाय तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि - भोगों में कुछ नहीं रखा है; त्याग के भीतर ही सारे सत्य निहित हैं, सभी तरह के मंगल (अमृत तत्त्व) केवल त्याग से प्राप्त होते हैं! किन्तु हममे से अधिकांश लोग (त्याग की महत्ता को स्वीकार कर के भी) इस ओर (ध्रुवतारे की उत्तर दिशा में) जाना नहीं चाहते हैं|
हमलोग अक्सर कहते हैं -- मैंने वचनामृत ( श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के अमृतदायी- वचनों को) सुना है, मैंने गीता सुना है, हमने श्रीमदभागवत सुना है,(तब भी जीवन में त्याग की प्रतिष्ठा न हो सकी!) तब यह देखें कि किनसे सुना है? 
एक बार इसी प्रकार का गीता-पाठ सुनने का दुर्भाग्य मुझे प्राप्त हुआ था| एक बार रास्ते से जाते-जाते मेरे कानों में आवाज आयी कि कोई गीता पर प्रवचन दे रहे हैं| मैं रास्ता के किनारे खड़े होकर प्रवचन सुनने लगा.एक जन सन्यासी-वेशधारी वक्ता कह रहे थे--" सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकम शरणम् व्रज "अर्थात यहाँ पर श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि-
" हे पार्थ, सर्व धर्म छोड़ कर मेरे हिन्दू-धर्म को ग्रहण करो !"??
--क्या सचमुच गीता का यही अर्थ है ? इस प्रकार शास्त्रों के अर्थ को तोड़-मरोड़ कर व्याख्या करने का क्या परिणाम होगा ? क्या उसके ऊपर कुछ विचार करना उचित नहीं है? हमलोगों ले पास अब भी चेत जाने का समय है| 
अब भी यदि युवाओं का एक दल; कमर कस कर खड़ा हो जाये और यह घोषणा करे--" अभी समाज में जो पाश्चात्य भोग-वादी संस्कृति की प्रबलधारा बह रही है; हमलोग उस प्रवाह में बिल्कुल ही डूब जाने को तैयार नहीं हैं! हमारे भीतर आत्म-निर्भर रहने, अपने पैरों पर खड़े रहने की जो क्षमता है-- क्या उसे( तुच्छ इन्द्रिय-विषयों के लालच में) खो कर, इस प्रवाह के साथ हम बिल्कुल ही बह जायेंगे? क्या हमलोग इस भोग-सागर में डूब कर नष्ट हो जायेंगे ? कदापि ऐसा नहीं होने देंगे !" 
इस भोगवादी प्रवाह को रोक देना होगा! हमे अपने पैरों को अपने देश की सख्त मिट्टी(त्यागवादी संस्कृति) पर मजबूती से रोप कर, किसी मजबूत परकोटे के समान अपना चरित्र गठित कर लेने होगा - जिसे टकरा कर यह भोग-वादी प्रवाह थम जायेगा| एवं (परमहंस देव के समान) प्रेय को छोड़ कर श्रेय की ओर, ( ध्रुवतारे की दिशा में ) आँखे खोल कर देखना होगा, एवं उसी दिशा में अग्रसर बने रहने हेतु यथेष्ट साहस और शक्ति अर्जित करनी होगी, तथा उन्हें व्यवहार में लाना होगा! तभी कुछ आशा कर सकते हैं कि हमारे समाज और देश कि अवस्था में परिवर्तन होगा !            
       
                                            

रविवार, 4 जुलाई 2010

[32] " टुकड़ों में बँटा भारत "

हमलोगों के समय में स्कूल की पढ़ाई केवल दसवीं कक्षा तक पढने के बाद ही समाप्त हो जाति थी.उस समय दसवीं की परीक्षा भी विश्वविद्यालय द्वारा ली जाती थी.तब केवल कलकाता विश्वविद्यालय ही अस्तित्व में था.  १५ अगस्त  १९४७ में भारतवर्ष स्वाधीन हुआ था और उसी वर्ष मैं दसवीं की परीक्षा में बैठा था; और संयोगवश मेरा जन्मदिन भी १५ अगस्त ही है. उस दिन (१४ अगस्त को स्वाधीनता दिवस की पूर्व संध्या के समय)  मन में इच्छा हुई थोड़ा गंगा के किनारे खड़े होकर सूर्य को अस्त हुए देखा जाय. एक लाल बड़े से आग के गोले के रूप में सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा था. उसे देख कर याद आया- 
" वरषी अनल राशि सहस्रकिरण 
पातियाछे विश्रामिते क्लान्त कलेवर 
दूर तरुराजि शिरे स्वर्ण सिंहासन | "
' पहले ऐसा कहा जाता था कि ब्रिटश साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता. सूर्य दिन भर अपनी हजार हजार किरणों से अग्नि की वर्षा करने के बाद सूर्यास्त के समय ऐसा लगता है की अब वह थक कर वह विश्राम करने जा रहा हो,किन्तु दूर पेड़ों के शिखर पर पड़ती हुई सूर्यास्त की लालिमा को देख कर ऐसा लगता है मानो उसने पुनः स्वर्ण-सिंहासन का रूप धारण कर लिया हो. मैंने सूर्य से कहा-
" हे सूर्य, पराधीन भारत में आज तुम अन्तिम बार अस्त हो रहे हो.
कल प्रातःकाल जब तुम पूर्व के आकाश में उदित होओगे,
तब तक भारत स्वाधीन हो चुका होगा ! "  
सूर्य से यह सब कहते हुए मन में कितना आनन्द हो रहा था ! सभी मनुष्य आनन्द से भर कर उन्मत्त हो रहे थे. भारत का राष्ट्रिय-ध्वज चारों ओर छाया हुआ था. और बिजली-बत्ती की क्या अद्भुत रौशनी सजाई गयी थी, मानो आज ही दीपावली मनाई जा रही हो ! 
सड़क पर, घर के अन्दर सर्वत्र सभी मनुष्यों का मन मानो उद्वेलित हो उठा था. सबों के किलकारियों में आनन्द छलक रहा था. रात्रि के ठीक बारह बजे सभी घरों से एक साथ समवेत स्वर में शंख-ध्वनी होने लगी.
किन्तु सुबह होने के पहले से ही मन में कुछ कुछ  . 
 भारत के मानचित्र को देखने से ऐसा महसूस होता था, मानो सचमुच यह जन्म-भूमि ही हमारी साक्षात् जननी है! नीचे की ओर देखने से ऐसा लगता मानो माँ दोनों पैरों को आपस में मिला कर खड़ी हैं. कश्मीर का अँचल मानो माँ का मुखमंडल है. हिमालय का पूरा फैलाव माँ की साड़ी का ही कुंचित भाग है और पूर्व में ब्रह्मदेश (बर्मा) को स्पर्श से करते हुए उसके असंख्य समुद्री द्वीपों के ऊपर उनका ही आँचल लहरा रहा है. मानो जीवन्त भारतमाता का ही दर्शन हो रहा हो. 
कालिदास ने अपने ' कुमारसंभव ' ग्रन्थ के प्रथम श्लोक में भारतवर्ष का सुन्दर चित्रण करते हुए लिखा है:  
अस्त्य् उत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः। पूर्वापरौ तोयनिधी विगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः॥१.१॥
- पूर्व एवं पश्चिम समुद्र को स्पर्श करती हुई देवताओं की निवास भूमि को जो विराट पर्वत मानो पृथ्वी के मानदण्ड के समान समस्त उत्तर दिशा को अपने में समेटे हुए खड़ा है, उसका नाम है- हिमालय !
इसीका हिंदी अनुवाद  -रामधारी सिंह 'दिनकर' ने इस प्रकार किया है- 
  मेरे नगपति! मेरे विशाल!
        साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
     पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल
         मेरी जननी के हिम-किरीट 
             मेरे भारत के दिव्य भाल।"


                                                               
आनन्द मूग्ध रात्रि की खुमारी समाप्त होते ही मन में विचार उठा- क्या भारत सचमुच स्वाधीन हो गया? पर राजनीति के नेताओं में व्याप्त सत्ता-सुख भोगने के लोभ ने देश-माँ को तो खण्ड खण्ड  कर दिया था. क्रमशः तीन देशों में भारत के नक़्शे को बँटा हुआ दिखाया गया - जिसके एक टुकड़े को हमने स्वाधीन भारत का नाम दिया.



{ 1947 में जब ब्रिटिश भारत को स्वतंत्रता मिली तो साथ ही भारत का विभाजन करके 14 अगस्त को पाकिस्तानी डोमिनियन (बाद में इस्लामी जम्हूरिया ए पाकिस्तान) और 15 अगस्त को भारतीय यूनियन (बाद में भारत गणराज्य) की संस्थापना की गई।
इस घटनाक्रम में मुख्यतः ब्रिटिश भारत के बंगाल प्रांत को पूर्वी पाकिस्तान और भारत के पश्चिम बंगाल राज्य में बाँट दिया गया और इसी तरह ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत को पश्चिमी पाकिस्तान के पंजाब प्रांत और भारत के पंजाब राज्य में बाँट दिया गया। 
15 अगस्त 1947 की आधी रात को भारत और पाकिस्तान कानूनी तौर पर दो स्वतंत्र राष्ट्र बने। लेकिन पाकिस्तान की सत्ता परिवर्तन की रस्में 14 अगस्त को कराची में की गईं ताकि आखिरी ब्रिटिश वाइसराय लुइस माउंटबैटन कराची और नई दिल्ली दोनों जगह की रस्मों में हिस्सा ले सके।
इसलिए पाकिस्तान में स्वतंत्रता दिवस 14 अगस्त और भारत में 15 अगस्त को मनाया जाता है। भारत के विभाजन से करोड़ों लोग प्रभावित हुए। विभाजन के दौरान हुई हिंसा में करीब 5 लाख लोग मारे गए, और करीब 1.45 करोड़ शरणार्थियों ने अपना घर-बार छोड़कर बहुमत संप्रदाय वाले देश में शरण ली।हाय, यह इतिहास का कैसा परिहास है! 
आपसी मार-काट ने माँ के शरीर को रक्त-रंजित कर दिया. भाई भाई अलग अलग हो गये. शायद इस प्रकार से भाइयों के बंटवारा हो जाने को ही स्वाधीनता प्राप्त करना कहते हैं. यह सोचने में भी लज्जा आती है कि आज मैं भी उसी टुकड़े में बँटे भारत का एक वृद्ध नागरिक हूँ!
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[विभाजन की प्रक्रिया भारत के विभाजन के ढांचे को 3 जून प्लान या माउंटबैटन प्लान का नाम दिया गया। भारत और पाकिस्तान के बीच की सीमारेखा लंदन के वकील सर सिरिल रैडक्लिफ ने तय की। हिन्दू बहुमत वाले इलाके भारत में और मुस्लिम बहुमत वाले इलाके पाकिस्तान में शामिल किए गए। 18 जुलाई 1947 को ब्रिटिश संसद ने इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट (भारतीय स्वतंत्रता कानून) पास किया जिसमें विभाजन की प्रक्रिया को अंतिम रूप दिया गया। इस समय ब्रिटिश भारत में बहुत से राज्य थे जिनके राजाओं के साथ ब्रिटिश सरकार ने तरह-तरह के समझौते कर रखे थे। इन 565 राज्यों को आज़ादी दी गयी कि वे चुनें कि वे भारत या पाकिस्तान किस में शामिल होना चाहेंगे।अधिकतर राज्यों ने बहुमत धर्म के आधार पर देश चुना। जिन राज्यों के शासकों ने बहुमत धर्म के अनुकूल देश चुना उनके एकीकरण में काफ़ी विवाद हुआ (देखें भारत का राजनैतिक एकीकरण)। विभाजन के बाद पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र में नए सदस्य के रूप में शामिल किया गया और भारत ने ब्रिटिश भारत की कुर्सी संभाली।

 संपत्ति का बंटवारा

ब्रिटिश भारत की संपत्ति को दोनों देशों के बीच बाँटा गया लेकिन यह प्रक्रिया बहुत लंबी खिंचने लगी। गांधीजी ने भारत सरकार पर दबाव डाला कि वह पाकिस्तान को धन जल्दी भेजे जबकि इस समय तक भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध शुरु हो चुका था,और दबाव बढ़ाने के लिए अनशन शुरु कर दिया। भारत सरकार को इस दबाव के आगे झुकना पड़ा और पाकिस्तान को धन भेजना पड़ा। नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी के इस काम को उनकी हत्या करने का एक कारण बताया 

दंगा फ़साद - बहुत से विद्वानों का मत है कि ब्रिटिश सरकार ने विभाजन की प्रक्रिया को ठीक से नहीं संभाला। चूंकि स्वतंत्रता की घोषणा पहले और विभाजन की घोषणा बाद में की गयी, देश में शांति कायम रखने की जिम्मेवारी भारत और पाकिस्तान की नयी सरकारों के सर पर आई।

किसी ने यह नहीं सोचा था कि बहुत से लोग इधर से उधर जाएंगे। लोगों का विचार था कि दोनों देशों में अल्पमत संप्रदाय के लोगों के लिए सुरक्षा का इंतज़ाम किया जाएगा। लेकिन दोनों देशों की नयी सरकारों के पास हिंसा और अपराध से निबटने के लिए आवश्यक इंतज़ाम नहीं था। फलस्वरूप दंगा फ़साद हुआ और बहुत से लोगों की जाने गईं, और बहुत से लोगों को घर छोड़कर भागना पड़ा। अंदाज़ा लगाया जाता है कि इस दौरान लगभग 5 लाख लोग मारे गये, कुछ दंगों में, तो कुछ यात्रा की मुश्किलों से। भारत का विभाजन - मुख्य घटनाएं-सर सैयद अहमद खान, जिसने "मोहम्मडन एंग्लो-ओरियन्टल कॉलेज'' की स्थापना की थी और जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय कहलाया, को अंग्रेजी सरकार ने इस बात के लिए प्रेरित किया कि वह राजनीति को साम्प्रदायिक बनाएं।अंग्रेजों की सरकारी नीति के तहत पंजाब में १२ प्रतिशत सिखों को १५ प्रतिशत प्रतिनिधित्व दिया गया। बिहार और उड़ीसा के १० प्रतिशत मुसलमानों को २५ प्रतिशत आरक्षण दिया गया।१९४० में मोहम्मद अली जिन्ना ने पृथक मुस्लिम राज्य ÷पाकिस्तान' को मुसलमान बाहुल क्षेत्र में बनाने की बात लोगों के सामने रखी। यह सिखों के लिए हैरान करने वाली बात थी।  लेकिन पं. जवाहर लाल नेहरू का एक महत्वकांक्षी चेहरा  भी सामने आ रहा था।
  १९४२ में, अंग्रेजी सरकार ने अलग मुस्लिम राज्य अथवा देश बनाने के लिए सर स्टीफोर्ड क्रिप्स कमीशन की घोषणा की। अंग्रेजों की नियत भारत के विभाजन की थी।१६ अगस्त १९४६ को जिन्ना और मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान प्राप्ति के लिए"डायरेक्ट एक्सन' की घोषणा की। 
चारों तरफ दंगे फसाद कराए गए। भारत भू का रंग रक्त से लाल हो गया था।दिल्ली में नए वायसराय माउन्टबेटन केवल भारत विभाजन की नियत से आया था।पं. नेहरू पंजाब और बंगाल के विभाजन के लिए सहर्ष तैयार हो गए, क्योंकि उन्हें प्रधानमंत्री बनने की जल्दी थी।इस प्रकार १९४७ में भारत का विभाजन हो गया। 
मजहब के आधार पर आरक्षण की नीति का अन्त विभाजन से हुआ।ज्वलंत प्रश्न : एडविना-नेहरू प्रेम संबंध से आहत थे माउंटबेटन.इस बात का खुलासा उनकी ही बेटी पामेला ने ÷इंडिया रिमेम्बर्ड : ए पर्सनल एकाउंट ऑपफ द माउंटबेटंस ड्यूरिंग द ट्रांसपफर ऑपफ पावर' में किया है ।क्या १९४७ में भारत का विभाजन मजहब के आधर पर नहीं हुआ था?
क्या विभाजन के अहदनामें पर कांग्रेस के नेता पं. जवाहर लाल नेहरू के हस्ताक्षर नहीं थे? सेक्यूलरवाद की बात करने वाले नेहरू मजहब के आधर पर विभाजन के प्रश्न पर सहमत कैसे हो गए?अंग्रेजों के लिए भारत विभाजन का खेल खेलने वाले वायसराय माउंटबेटन और भारत के नेता पं. नेहरू परस्पर मित्र कैसे बन गये ?}


गुरुवार, 1 जुलाई 2010

[31] " प्रथम अखिल भारत संगीत सम्मेलन १९१६ "

पितामह की संगीत पर अच्छी पकड़ थी, गायन के क्षेत्र में तो विशेष पारदर्शी थे. जिस प्रकार थियेटर के क्षेत्र में अच्छे जानकर थे उसी प्रकार गायन की अभी अच्छी जानकारी थी.वे अपनी माताजी को अपना गायन सुनाया करते थे. किन्तु गायन के विषय में उनकी पहुँच कहाँ तक थी, इसका पता मुझे भी नहीं था. किन्तु बाद में, कुछ बड़ा होने पर ज्ञात हुआ कि वर्ष १९१६ में पण्डित भातखण्डे (पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे) ने भारतवर्ष में प्रथम बार All India Music Conference  का जो आयोजन बड़ौदा में करवाया था.
 उस आयोजन का सारा खर्च और सम्पूर्ण व्यवस्था बड़ौदा के तत्कालीन ' गायकवाड़ ' महाराज ने के द्वारा उठाया गया था.उस कॉन्फ्रेंस में पूरे बंगाल से केवल तीन लोगों को ही आमंत्रित किया गया था. एक थे- रवीन्द्रनाथ ठाकुर, दूसरे थे- गोपेश्वर बन्दोपध्याय के पिता- बाँकुड़ा के  कृष्णधन बन्दोपध्याय जो बंगदेशीय- संगीत मार्ग के विख्यात व्यक्ति थे.और तीसरे व्यक्ति थे मेरे पितामह- आचार्य शिरीष चन्द्र मुखोपाध्याय. उस युग का, ( अंग्रेजों के समय का ) प्रथम अखिल भारत संगीत सम्मेलन (1st All India Music conference ) था, जिसमे मेरे पितामह को भी निमन्त्रण पत्र भेजा गया था. 

 File:Bhatkhande.jpg
Pandit Vishnu Narayan Bhatkhande 
(August 10, 1860 – September 19, 1936) 

कृष्णघन बन्दोपध्याय द्वारा लिखित एक पुस्तक हमलोगों के घर में था, जिसे मैंने पढ़ा भी है.किन्तु उस संगीत-सम्मेलन के होने से पहले ही किसी कारणवश कृष्णघनबाबू अस्वस्थ हो गये थे य़ा शायद उनका  शरीरान्त भी हो गया था. इसीलिये वे जा नहीं सके.रवीन्द्रनाथ ठाकुर नहीं गये, क्यों नहीं गये यह मुझे ज्ञात नहीं है. इसलिए बंगलादेश (अविभाजित बंगाल प्रान्त) से निमंत्रित सदस्य के रूप में केवल एक व्यक्ति- शिरीषचन्द्र मुखोपाध्याय ही उस सम्मेलन में भाग ले सके थे.
उस युग का संगीत-सम्मेलन का अर्थ केवल गाने-बजाने का जलसा ही नहीं समझना चाहिये. उस सम्मलेन में संगीत के विभिन्न theoretical पोर्सन के ऊपर व्याख्यान देने के लिये अलग-अलग व्यक्तियों के ऊपर जम्मेदारी सौंपी गयी थी. एवं उस विषय पर अपना वक्तव्य प्रस्तुत करने के बाद उसे किसी वाद्य-यंत्र य़ा कन्ठ-संगीत के माध्यम से संगीत में कार्यरूप से बजा कर य़ा गा कर दिखाना पड़ता था. 
यही उस म्यूजिक कॉन्फ्रेंस की रीति थी. पितामह ने संगीत की भारतीय-पद्धति के बाइस श्रुतियों के ऊपर एक thesis (प्रबन्ध ) प्रस्तुत किया था; एवं दक्षिण भारत की एक महिला वीणा-वादिनी ने संगीत की उन श्रुतियों को वाद्य-यन्त्र पर बजा कर सुनाया था. उनके इस thesis ने उस सम्मेलन में प्रचूर प्रसंशा प्राप्त की थी.  


उस सम्मेलन का एक चित्र अब भी खड़दह के घर में है.मैंने उस thesis को बहुत कम उम्र में ही पढ़ा था, अभी वह सब नष्ट हो चुका है.
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[Chaturpandit Vishnu Narayan Bhatkhande (1860-1936) was an Indian musicologist who wrote the first modern treatise on (North Indian) Hindustani Classical Music, an art which had been propagated earlier for a few centuries mostly through oral traditions. During those earlier times, the art had undergone several changes, rendering the raga grammar documented in scant old texts outdated.Ragas used to be classified into Raga (male), Ragini (female), and Putra (children). Bhatkhande reclassified them into the currently used 'Thaat system'.
He noted that several ragas did not conform to their description in ancient Sanskrit texts. He explained the ragas in an easy-to-understand language and composed several bandishes which explained the grammar of the ragas. He borrowed the idea of lakshan geet from the Carnatic music scholar Venkatamakhi Chaturpandit Vishnu Narayan Bhatkhande (1860-1936) is considered by many to be the father of modern Hindustani music. A lawyer by profession, Pandit Bhatkhande was the most important Hindustani musicologist of the 20th century.
He researched prevalent practices in various gharanas in early 20th century north India. This followed his trip to south Indian musical centers where he learnt about the work of Venkatmukhi and the classification of Raagas into 72 Melas. 
His treatise on Hindustani music was presented in 4 volumes of his Marathi book Hindustani Sangeetha Padhathi between 1909 - 1932. He described hundred and eighty ragas and classified them into ten basic thaats, or musical scales or frameworks -Bilawal, Kalyan, Khamaj, Bhairav, Poorvi, Marwa, Kafi, Asavari, Bhairavi and Todi. He also devised musical notation that could be used to write music. 
That was perhaps the first attempt at writing music in India ... where for thousands of years music had been orally transmitted. He also collected more than two thousand compositions from different gharanas and brought them out into the public sphere. He helped starting a college of music, Sangeeta Maha Vidyalaya in Baroda using his system of music teaching.
He trained music teachers. He wrote graded text- books on music. They are known as Kramic Putstaka Malika. With the help of the Maharaja of Baroda, Bhatkhande convened in 1916 the first All-India Music Conference in Baroda, a first of its kind.
Legends
TANSEN Tansen is considered to be one of the greatest musicians that ever lived. He was the court musician of the famous Mogul Emperor Akbar (16th century). He was so highly valued in the court that he was called one of the “Nine Jewels” in his court (navarathna).
 The details of Tansen’s life are incomplete. He was born in a Hindu community and had his musical training under the great Swami Haridas. 
He then went to the court of the Raja Ram Baghela, a great patron of the arts. From there he migrated to the court of Akbar.
 It is said that Tansen could work miracles with his singing. This is called nada siddha in Sanskrit.He is supposed to have acquired such supernatural abilities through the association with the saintly Swami Haridas.
It is said that on occasion he could create rain by singing the monsoon rag Megh Malhar. It is also said that he could create fire by singing ragDipak.Many rag are ascribed to Tansen. Such rag as Mian ki Malhar, Mian ki Todi and Darbari Kanada are the most famous. Today his followers are refered to as “Senia Gharana

Pt V N BHATKHANDE (1860-1936)
Chaturpandit Vishnu Narayan Bhatkhande is considered by many to be the father of modern Hindustani music. He was the most important Hindustani musicologist and composer of the 20th century, a true crusader and a renaisance man.
Born into a cultured Maharastrian family in Balukeshwar, Bombay on December 31st, 1860, Bhatkhande acquired his sweet voice and initial training from his mother. 

He learnt the flute, Sitar and vocal music from some very eminent gurus like Jairajgir, Raojibua Belbagkar, Ali Husain Khan, Vilayat Hussain Khan and others.
Along with his academic studies, he devoted nearly 15 years to the study of all the available ancient music-treatises in Sanskrit, Telugu, Bengali, Gujarati, Urdu, German, Greek and English with the help of scholars and interpreters. He also became proficient in Sanskrit.
For a brief period after his LLB he served as a successful lawyer at the Karachi High Court.
Death of his wife and daughter turned him away from the wordly life to a life devoted to music. His sole objective, as he wrote, “has been to place before my educated, music-loving brothers and sisters, the present condition of the Art”.
He started his musical quest by first touring every important music center of India talking to all the great musicians and scholars of the day, going through all the books and manuscripts he could find in various libraries. 
He had to confront social, intellectual, and finally, professional prejudices. These took shape as positive obstacles, definite active resistance. 

By his infinite patience, presuasive ways, and utter sincerity of purpose, Bhatkhande was gradually able to break down the opposition and suspicion of some of the great ustads of the day.
Once he had collected enormous amount of information, Bhatkhande set about sifting though it all and publishing all the knowledge he had gained. Then followed a period of prolific publications – in Sanskrit, Marathi, Hindi and English such as: 
Abhinavaragamanjari, Abhinavatalamanjari, Lakshya Sangeetam, the Hindustani Sangeet Paddhati, the Kramik series in 6 volumes, the Swara-malika and Geet Malika series, Grantha sangeetam, Bhavi Sangeetam, A Short Historical Survey of Music, Philosophy of Music, and so on using his pen names, Vushnu Sharma or ChaturPandit
In Kramik series, he published more than 2000 of traditional Dhrupads, Dhamars, Khayals, Sadras, Taraanas, Chaturangs and Thumris he had collected from all the gharana-s. The volumes also had about 250 of his own compositions, mostly khayals and Lakshna Geeth-s using the pen-name Chatura. 
He also published several ancient music-granthas whose manuscripts he had salvaged during his country-wide tours.
Most important of his works is his treatise on Hindustani music, presented in 4 volumes of his Marathi book Hindustani Sangeetha Padhathi between 1909 – 1932. 
He described hundred and eighty ragas and classified them into ten basic thaats, or musical scales or frameworks -Bilawal, Kalyan, Khamaj, Bhairav, Poorvi, Marwa, Kafi, Asavari, Bhairavi and Todi. He also devised musical notation that could be used to write music. That was perhaps the first attempt at writing music in India … where for thousands of years music had been orally transmitted.
He helped to start the first college of music, Sangeeta Maha Vidyalaya in Baroda using his system of music teaching. He trained music teachers. He wrote graded text- books on music. They are known as Kramic Putstaka Malika.

With the help of the Maharaja of Baroda, .Bhatkhande convened in 1916 the first All-India Music Conference in Baroda, a first of its kind
In the 5th All-India Music Conference in 1925 it was decided to open a College of Music at Lucknow and the following year the Marris College of Hindustani Music was established in the name of Governor of the province. 

This has been renamed as Bhtakhande University on the centenery year of his birth. Bhatkhande used to supervise the work of this college in its early years.
His efforts continued till he became bedridden and finally passed away in 1933. His dedicated disciples, particularly Pt S N Ratanjankar, continued the great work of Bhatkhande. Govt of India honoured Bhatkhande with a release of a stamp in his name.}

 THE DAGAR HERITAGE
by Joep Bor and Philippe Bruguiere
The first time Mohinuddin and Aminuddin Dagar came to Europe for a concert tour in the mid-sixties, dhrupad was perhaps at its lowest ebb in India. The appreciative response of Western audiences was beyond expectation, and their performances in Venice, Berlin and Paris are still engraved in the memories of those present. 
The Dagar Brothers, as they are known, belonged to a prestigious family of dhrupad singers whose founder was Baba Gopal Das, a Hindu who is said to have converted to Islam at the time of Emperor Muhammad Shah. His younger son Behram Khan established himself in Jaipur, where he became a court musician of great repute. He taught his brother's grandsons Allabande and Zakiruddin Khan who used to sing together, quickly asserting themselves as the foremost dhrupad vocalists of their time.
Zakiruddin, an erudite musician, was offered the privileged rank of first court musician in Udaipur, whereas his brother was employed at Alwar court. 
A report from the first All India Music Conference held in Baroda in 1916 praises the two brothers' vocal duet. Musicologist Vishnu Narayan Bhatkhande was deeply impressed by Zakiruddin's knowledge, and so was the renowned binkar Bande Ali Khan, who gave the brothers his two daughters in marriage.
One of the four sons of Allabande, Nasiruddin Khan was a highly sensitive and imaginative artist. His mastery of alap captivated audiences, but unfortunately he died in the prime of his career in Indore, and left a void in the field of dhrupad. He was survived by four sons, later known as the elder (Mohinuddin and Aminuddin) and the younger (Zahiruddin and Faiyazuddin) Dagar brothers. Fahimuddin Dagar is the son of Rahimuddin Khan Dagar, a younger brother of Nasiruddin.
Both were also well-versed in the Sanskrit and Persian languages. Rahimuddin added the suffix Dagar to his name, and this new patronymic was then adopted by the whole family.

[30 ] " स्वामीजी के घर में रामनाम-संकीर्तन गान "

प्रथम दिन वेदान्त मठ जाने पर जिन वीरेश्वर चक्रवर्ती महोदय का गायन सुना था, बाद में क्रमशः उनके साथ परिचय भी हुआ. परिचय होने पर यह दिखायी दिया कि, जिनका परिचय एक प्रसिद्ध रेडिओ आर्टिस्ट और बहुत बड़े गायक के रूप में दिया गया था; वे निःसंदेह बहुत अच्छा गाते थे- किन्तु उनमे अभिमान का लेशमात्र भी नहीं था. उनका रहन-सहन बिल्कुल सामान्य लोगों जैसा ही था. उनके साथ जब प्रथम बार बात-चीत हुई, उसी समय उन्होंने मुझको बिल्कुल अपने सगे भाई के जैसा महा आनन्द प्रकट करते हुए अपने ह्रदय से जोड़ लिया. 
ज्ञात हुआ कि जब वे हाफ-पैन्ट पहनते थे (किशोरावस्था), तभी से गाना गाया करते थे,किन्तु जब हमलोगों के साथ उनका परिचय हुआ था, तब वे ' कलकाता रेडिओ ' पर संगीत के पाँच विविध विषयों के " A "- क्लास आर्टिस्ट थे. 
उन दिनों वेदान्त मठ में सप्ताह में एक दिन रामनाम-संकीर्तन भी गाया जाता था, उनके साथ रहते रहते इतनी प्रगाढ़ता हो गयी थी कि रामनाम-संकीर्तन गाने वाली उनकी मण्डली के साथ बैठ कर मैं भी गाने लगा. बहुत दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा.उसके बाद नौकरी के जीवन में मुझे एक बार फिर से कलकाता के बाहर स्थानान्तरित होकर जाना पड़ा.
जब पुनः वहाँ से वापस लौट आया तो एकदिन मैं फिरसे वेदान्त मठ गाया. वहाँ पहुँचने पर मेरे पूर्व-परिचित लोगों ने, विशेषकर ' रामनाम-संकीर्तन गायन मण्डली ' के भाईओं ने कहा- " आप बहुत दिनों के बाद आये हैं, हमलोगों की मण्डली के साथ रामनाम-संकीर्तन गाने के लिये आप भी चलिए. 
" इसपर स्वामी सदात्मानन्दजी ने हँसते हुए कहा- " तोमरा जाओ, ओ एइखाने बासुक, आर रामनाम गाईबे ना, ओर भूत छेड़े गेछे."- " तुम लोग जाओ, उसे यहीं पर बैठने दो, वह अब और रामनाम-संकीर्तन नहीं गायेगा, उसका भूत उतर गया है."  
एक दिन स्वामीजी के घर में बैठकर रामनाम-संकीर्तन गाने का परम-सौभाग्य भी हमलोगों को प्राप्त हुआ था. उस समय स्वामीजी के दोनों भाई, महेन्द्रनाथ दत्त और भूपेन्द्रनाथ दत्त जीवित थे. रामनाम-संकीर्तन करने वाली पूरी गायक मण्डली तथा कुछ अन्य लोगों के साथ वीरेश्वरदा भी थे, और हम सभी लोग एक साथ मिलकर स्वामीजी के घर जा रहे थे!
जाते समय मन में विचार उठ रहा था- ' स्वामीजी के घर जा रहा हूँ! ' उनका पुराना वाला घर जाने के लिये एक गली से होकर जाने पर बायीं ओर दरवाजा पड़ता था. उस दरवाजे से प्रविष्ट होते ही, दाहिनी ओर के एक स्थान पर कमरा है. उसी कमरे में महेन्द्रनाथ दत्त लेटे हुए थे, तब उनकी आयू अधिक हो चुकी थी, और शरीर भी उतना स्वस्थ नहीं था.
मैं उस स्थान पर पहुँचा तो थोड़ी देर तक खिड़की के सामने खड़ा हुआ. यहाँ उस घटना का उल्लेख करना ठीक होगा य़ा नहीं कह नहीं सकता किन्तु जो कुछ हुआ था...वह हुआ,(जो बिल्कुल सत्य था)!
पुराने ढंग का मकान था इसी लिये उस कमरे के सामने केवल एक दरवाजा था और एक छोटी सी खिड़की थी, कमरे में कोई बत्ती नहीं जल रही थी;किन्तु स्वयं उनके ही शरीर से ही मानो किसी प्रकार की ज्योतिर्वलय य़ा प्रभा-मण्डल की किरणें निःसृत हो रही थीं।  जिसके फल-स्वरूप वह पूरा कमरा मानो प्रकाशित हो उठा था. (एक दिन बातचीत के क्रम में नवनीदा ने कहा था, वह प्रभावलय पानी के एक छड़ी के जैसा खिड़की से बाहर की ओर जाता हुआ दिखा था।)
महेन्द्रनाथ दत्त ने अपनी " श्रीरामकृष्ण का अनुध्यान " शीर्षक एक पुस्तक में ठीक ऐसी ही घटना का जिक्र करते हुए लिखा है, कि ठाकुर के शरीर से भी इसी तरह की प्रकाश-किरणों को निःसृत होते हुए सभी लोगों ने बार-बार देखा है.तथा उस जगह उन्होंने इसे 'Effluvium' (या efflux बहिः स्त्रवण) कहा है. बिल्कुल अद्भुत घटना है. उन्हों ने इसी प्रकार की आश्चर्यजनक घटनाओं से भरपूर कई पुस्तकें लिखी हैं.
Mahendranath Dutta's Sri Ramakrishner Anudhyan, ("Sacred Memories of Sri Ramakrishna"),
पृथ्वी की उत्पत्ति कैसे हुई, सूर्य की उत्पत्ति के विषय में य़ा अन्य कितने ही खगोलीय विषयों (Astronomy) के ऊपर बिल्कुल नवीन सिद्धान्तों (Theories) को आविष्कृत करने वाली उनकी अनेकों पुस्तकें- उपलब्ध हैं. ठाकुर-देव के ऊपर, स्वामीजी के ऊपर, उनके जीवन की घटनाओं के सम्बन्ध में भी कितनी ही पुस्तकें उन्होंने लिखी हैं.
उपरोक्त घटना का उल्लेख करते हुए, वे अपनी पुस्तक " श्रीरामकृष्णेर अनुध्यान " में लिखते हैं- ".... हमसभी कलकाता के शिक्षित परिवार से तथा बड़े घरों में रहने वाले लड़के थे, और केवल 'राम डाक्टर ' के कहने पर....उनके इस अति-साधारण दिखने वाले ' गुरु ' को देखने के लिये आये थे. किन्तु वहाँ पहुँचने पर देखते हैं कि- " परमहंस महोदय '(ठाकुर-देव) के शरीर से मानो किसी प्रकार की एक आभा (Effluvium) य़ा शक्ति.... निःसृत होकर समस्त कमरे को आपूरित कर रही थी ...और उस कमरे की खिड़की के फाँक से होते हुए, बाहर निकलते हुए बरामदे में मानो किरणों का ज्वार आया हुआ हो ऐसा आभास उत्पन्न कर रही थीं. " 
Chambers English Dictionary में Effluvium - शब्द का अर्थ लिखा है, " Minute particles that flow out from bodies ". (- अर्थात चैंबर के डिक्सनरी में Effluvium शब्द का अर्थ लिखा हुआ है- " वैसे अतिसूक्ष्म कण जो शरीर से निःसृत होते हैं.")  
भूपेन्द्रनाथ दत्त उम्र में स्वामीजी से छोटे थे, वे अमेरिका आदि कई देशों में गये थे तथा कई विषयों के ज्ञाता भी थे. वे  वेदान्त मठ अक्सर जाया करते थे तथा प्रज्ञानन्द महाराज के साथ भी उनका घनिष्ट सम्बन्ध था.हमलोग उसदिन जब रामनाम-संकीर्तन करने के लिये स्वामीजी के घर में प्रविष्ट कर रहे थे उस समय वे थोड़े अनमनस्क हो कर/ विरक्त होकर घर से बाहर निकल रहे थे.तेजी से जाते हुए कह रहे थे- ' यह देखो हनुमान लोग आ गया है, अभी सब मिल कर रामनाम करेगा.हनुमान सब आ गया है, इसीलिये मुझे यहाँ जाना चाहिये.' इसप्रकार कहते हुए चले गये और वेदान्त मठ जाकर प्रज्ञानन्द महाराज के साथ बातचीत करने लगे. 
उधर स्वामीजी के घर में बैठ कर रामनाम-संकीर्तन गाने में हमलोगों को जो अपूर्व आनन्द मिला था, उसको याद करने से अभी भी कैसी अनुभूति हो रही है.अब तो उसे घटित हुए कई वर्ष बीत चुके हैं.उस दिन वहाँ से कुछ मिठाई-विठाई खा कर महा आनन्द मानते हुए बाहर निकले. 
हमलोग वेदान्त मठ में ही एकत्रित होकर स्वामीजी के घर तक आये थे, पुनः सभी लोग मठ में ही लौट रहे थे की वहीं से सभी अपने-अपने घर लौट जायेंगे. वेदान्त मठ लौटने पर देखे कि भूपेन दत्त महोदय भी प्रज्ञानन्द महाराज के साथ बैठ कर बातें कर रहे हैं. जैसे ही हमलोगों को देखे तो बोल पड़े- ' यह देखो, हनुमान सब लौट आया है. अब मुझे घर लौट जाना चाहिये.' कहते हुए घर लौट गये.  
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{The long cherished wish of countless admirers and followers of Swami Vivekananda came true when the ancestral house of Swamiji, renovated and restored by Ramakrishna Mission, was inaugurated on September 26th 2004 by revered Swami Ranganathanandaji Maharaj, the President of Ramakrishna Order. About 500 monks and nearly a lakh devotees visited this sacred place to pay their reverential homage to Swamiji. Doordarshan telecast the programme live on its Calcutta Channel.


The large house in which Swamiji was born had been built by his great grandfather Rammohan Dutta 300 years ago. Rammohan was an associate of an English solicitor and earned a lot of wealth through his profession. The house was located in Simla Palli, a locality in north Calcutta. During Swamiji's time the house was surrounded by a garden and beyond that there was a large open space. 
But in later years, owing to the city's growth and the overcrowding of buildings, the approach road to the house got narrowed into a lane, now known as Gour Mohan Mukherjee Street.


Swamiji's house, originally, was a large structure. A massive doorway opened to the street outside. On one side of the doorway there was a small room meant for the durwan or gatekeeper.


As you entered the premises by the doorway, you would see the spacious courtyard, at a corner of which there was a stable for horses. The courtyard was bordered on two sides by the main building which had two parts. To the right was a single-storied structure having rooms for men-folk. In front of these rooms was a long veranda where feasts were laid out for guests on special occasions.
Facing the doorway and across the courtyard, adjoining the men's rooms, rose the ladies' apartment, two storeys in height. The ground floor of this was used as kitchen and dining hall. Above this were the dwelling chambers. From the latticed enclosure here the purdah ladies could watch the grand Pujas and other religious ceremonies held in the courtyard. The roof of this building served as the place where the ladies met, talked, and moved freely. It was in a small temporary shed on this roof that the future Swami Vivekananda was born. It may be mentioned here that, as in some other religious traditions, in Hindu religious tradition also 'accouchement' प्रसूति गृह or giving birth used to be regarded as a form of social defilement 'दूषित करना' and so it was arranged either in an outhouse or a shed on the roof. This is the reason why Swamiji's actual birthplace happened to be on the roof of his house.

The untimely death of Naren's father brought out the weak links in family relationships. Hardly had the days of mourning been over when some of the relatives put forth claims to the ownership of the property. The dispute was taken to the court and the legal battle dragged on. After the high court case was settled, the whole property was divided into ten parts. A portion of the house was demolished to make a common passage for the occupants of the building. After the time of Swami Vivekananda and his mother, his two younger brothers Mahendranath Dutta and Bhupendranath Dutta continued to live in a part of the building till the end of their lives.}