उस समय तक (१५ अगस्त १०४७ की पूर्व-संध्या-१४ अगस्त तक) तो बंगाल अविभक्त था. हमलोग यह समझ सकते हैं कि, उस समय का बंगाल( बांग्ला-देश) क्या था! बंगाल का मान चित्र कैसा सुन्दर दिखता था!अविभक्त भारतवर्ष का मानचित्र देखने से हमारी यह जन्मभूमि सचमुच ' माँ ' जैसी ही दिखती थी.
हमलोग जिस बंग-देश (अविभक्त बंगाल) को ' बाँग्ला माँ ' कह कर पुकारा करते थे. मुझे तो याद है कि, उस समय के बंग-देश (बंगाल) में अपनी एक अद्भुत मोहिनी शक्ति भी थी.
वह बंगाल क्या हो गया, वह भारत कैसा हो गया! देश खण्ड-विखंड हो गया. धर्म धर्म के बीच सौहार्द ख़त्म हो गया, धर्म के नाम पर खून बहाया जाने लगा. अभी भी क्या-क्या चल रहा है. किन्तु इसी बंगाल के धरती पर स्वामी विवेकानन्द आविर्भूत हुए और विश्व को एक नयी वाणी सुनाये, श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने भी तो यहीं, इसी बंगाल की भूमि पर जन्म लेकर अपने जीवन से यह प्रमाणित कर दिखाया है कि, अलग अलग धर्म नहीं है, अलग अलग नाम से पुकारने पर भी धर्म धर्म में कोई अन्तर नहीं है.
एक ही तालाब में जिस प्रकार चार घाट होते हैं, और कोई व्यक्ति एक घाट से जल लेकर कहता है- यह है ' जल ', दूसरा व्यक्ति कहता है ' पानी ', तीसरा उसे ही ' वाटर ' (Water ) कहता है...है तो उसी तालाब का जल ! एक एक व्यक्ति, अलग अलग किनारे से जल उठाते है और अलग अलग नामों से पुकारते हैं. कोई कहता है हिन्दूधर्म, कोई कहता है ईस्लाम-धर्म, कोई कहता है श्रीईसा-प्रवर्तित धर्म (य़ा ईसाई-धर्म); आदि, आदि. उसी को कोई बौद्धधर्म, जैनधर्म कहते हैं,इस प्रकार एक ही धर्म को अलग अलग नामों से पुकारते हैं.धर्म के नाम अलग हैं किन्तु वस्तु तो एक ही है. ईश्वर एक है. कोई पार्थक्य नहीं है.इस जगत में, विश्व-ब्रह्माण्ड में एकत्व को प्रमाणित करना ही वेदान्त है, वेदान्त भी एकत्व की ही शिक्षा देता है.एवं श्रीरामकृष्ण के जीवन में यह ' एकत्व ' अद्भुत रूप से प्रमाणित हुआ है. उनके साधक- जीवन में ' अनेक साधनों की धारा ' एकत्र होकर मिलित हुई थी.
वह बंगाल क्या हो गया, वह भारत कैसा हो गया! देश खण्ड-विखंड हो गया. धर्म धर्म के बीच सौहार्द ख़त्म हो गया, धर्म के नाम पर खून बहाया जाने लगा. अभी भी क्या-क्या चल रहा है. किन्तु इसी बंगाल के धरती पर स्वामी विवेकानन्द आविर्भूत हुए और विश्व को एक नयी वाणी सुनाये, श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने भी तो यहीं, इसी बंगाल की भूमि पर जन्म लेकर अपने जीवन से यह प्रमाणित कर दिखाया है कि, अलग अलग धर्म नहीं है, अलग अलग नाम से पुकारने पर भी धर्म धर्म में कोई अन्तर नहीं है.
एक ही तालाब में जिस प्रकार चार घाट होते हैं, और कोई व्यक्ति एक घाट से जल लेकर कहता है- यह है ' जल ', दूसरा व्यक्ति कहता है ' पानी ', तीसरा उसे ही ' वाटर ' (Water ) कहता है...है तो उसी तालाब का जल ! एक एक व्यक्ति, अलग अलग किनारे से जल उठाते है और अलग अलग नामों से पुकारते हैं. कोई कहता है हिन्दूधर्म, कोई कहता है ईस्लाम-धर्म, कोई कहता है श्रीईसा-प्रवर्तित धर्म (य़ा ईसाई-धर्म); आदि, आदि. उसी को कोई बौद्धधर्म, जैनधर्म कहते हैं,इस प्रकार एक ही धर्म को अलग अलग नामों से पुकारते हैं.धर्म के नाम अलग हैं किन्तु वस्तु तो एक ही है. ईश्वर एक है. कोई पार्थक्य नहीं है.इस जगत में, विश्व-ब्रह्माण्ड में एकत्व को प्रमाणित करना ही वेदान्त है, वेदान्त भी एकत्व की ही शिक्षा देता है.एवं श्रीरामकृष्ण के जीवन में यह ' एकत्व ' अद्भुत रूप से प्रमाणित हुआ है. उनके साधक- जीवन में ' अनेक साधनों की धारा ' एकत्र होकर मिलित हुई थी.
हिन्दुधर्म के अन्तर्गत जितनी भी साधन-पद्धति है, एक एक कर समस्त पद्धति को जाँच कर देख लिये. फिर ईस्लाम धर्म की साधना किये थे, ईसाई धर्म की साधना किये हैं. इस प्रकार समस्त धर्मों की साधना-पद्धति का अनुसरण करते हुए समस्त धर्मों के भीतर एक ही सत्य सन्नहित है, इसी एकत्व को साधना के अन्त में प्राप्त किये हैं.
जिस समय वे ईस्लाम की साधना कर रहे थे, उन्होंने पछुआ खोंस कर धोती पहनना छोड़ दिया था. यहाँ तक कि मांस खाने की इच्छा भी हुई थी. वे तब केवल ' अल्ला ' नाम का ही जप करते थे, एवं उनको मोहम्मद साहब का दर्शन भी हुआ था.
ईसामसीह की साधना करते समय जब वे उसी में मग्न हो गये थे तब निकट के किसी मकान में माता मेरी के गोद में शिशु ईसा का चित्र देखते देखते उन्हें उसी प्रकार का दर्शन हुआ था.उन्होंने देखा था कि शिशु ईसा मेरी की गोद से उतर कर उनके पास आ रहे हैं.
एकदिन दक्षिणेश्वर में गंगा के किनारे रास्ते पर चलते चलते देखते हैं कि सामने से कोई दिव्य पुरुष आ रहे हैं, उनको देख कर उन्हें ऐसा लगा, अरे-यही तो ईसामसीह हैं! बाद में सभी से पूछते थे,' अच्छा ईसा की नाक कैसी थी? ' सबों ने कहा, उनकी नाक बिल्कुल नुकीली थी. यह सुन कर श्रीरामकृष्ण देव बोले, " किन्तु मैंने देखा है कि उनकी नाक थोड़ी चपटी है! पता नहीं, मैंने ऐसा क्यों देखा !" (श्रीरामकृष्ण- लीलाप्रसंग पृष्ठ ४३७)
बाद में ईसामसीह के जीवन के ऊपर कई गवेषणायें की गयी है. कमसे कम दो गवेषणाओं में स्वीकार किया गया है कि उनकी नाक लम्बी नहीं थी. ठाकुर के जीवन में सारे धर्म एकाकार हो गये थे. उनकी समस्त भेद-बुद्धि नष्ट हो गयी थी. किन्तु हमलोग,जो स्वयं को " श्रीरामकृष्ण का भक्त " कहते हैं- क्या कर रहे हैं ? क्या हमलोग भी अपने मन से इस भेदबुद्धि को दूर करने में सक्षम हो सके हैं?
क्या हमलोग सभी धर्मावलम्बियों को बिल्कुल अपने भाई के जैसा समझ सकते हैं? स्वामी विवेकानन्द जब विदेश से लौट कर आये तो रामकृष्ण मिशन को स्थापित किये, बाद में रामकृष्ण मठ भी स्थापित हुआ.
{ उसके उद्देश्य आदि नीचे उधृत किये जाते हैं: उद्देश्य - मनुष्यों के हितार्थ श्री रामकृष्ण ने जिन तत्वों की व्याख्या की और स्वयं अपने जीवन में प्रत्यक्ष किया है, उन सब का प्रचार तथा मनुष्यों की शारीरिक, मानसिक और पारमार्थिक उन्नति के निमित्त वे सब तत्व जिस प्रकार प्रयुक्त हो सकें, उसमे सहायता करना ही इस मिशन का उद्देश्य है.व्रत- जगत के सभी धर्ममतों (हिन्दु धर्म,इस्लाम धर्म,ईसाई धर्म, सीख,बौद्ध आदि,आदिनाम वाले धर्मों ) को ' ऐक्य '- बोध के (अक्षय सनातन) धर्म का रूपान्तर मात्र समझते हुए सभी धर्मावलम्बियों में मैत्री स्थापित करने के लिये श्रीरामकृष्णदेव ने जिस कार्य का प्रारम्भ किया था उसका परिचालन ही इस मिशन का व्रत है.कार्यप्रणाली - आमजनता को सांसारिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिये विद्या दान कर सकने में समर्थ व्यक्तियों को शिक्षित करना. शिल्पियों तथा श्रमजीवियों को स्वरोजगार के लिये प्रोत्साहित करना तथा वेदान्त एवं दूसरों धर्मों के भाव जिस रूप में श्रीरामकृष्ण के जीवन में अभिव्यक्त हुए थे,समाज में उन्हीं भावों को स्थापित करने का प्रयास करना.
भारतवर्षीय कार्य- भारतवर्ष के नगर-नगर, गाँव-गाँव में आचार्य-व्रत को ग्रहण करने के अभिलाषी गृहस्थ एवं सन्यासियों को प्रशिक्षित करने के लिये (युवा चरित्र-निर्माण कारी संगठनों एवं )आश्रमों की स्थापना करते हुए, ऐसे उपायों --{ युवा प्रशिक्षण शिविर (Youth Training Camp) युवा पाठ चक्र (Youth study Circle आदि } का अवलम्बन करना जिनके द्वारा वे प्रशिक्षित आचार्य बनकर भारतवर्ष के गाँव-गाँव तक पहुँच कर आम - जनता को शिक्षित बना सकें......(विवेकानन्द चरित पृष्ठ- २१३)}
' रामकृष्ण मिशन ' की जो नियमावली बनवाये,उसका जो आदर्श और उद्देश्य लिखे, उसमे स्वामी विवेकानन्द क्या कहते हैं, जरा उसकी बानगी पर गौर तो कीजिये:
- हमलोगों का प्रधान-कार्य (व्रत) होगा-- सभी धर्मों के अनुयायियों में आपसी प्रेम-पूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने के लिये उन्हें एकत्रित करना, उन सबों से प्रेम करना तथा जिस प्रकार के कार्य करने से पृथ्वी के सभी मनुष्यों के बीच ' ऐक्य ' स्थापित हो सकता हो, उसी प्रकार के कार्य को करते जाना.श्रीरामकृष्ण ने अपने जीवन द्वारा जिस प्रकार समस्त धर्मों में सन्निहित ऐक्य को प्रदर्शित करके दिखाया है, वही भाव जिससे आमजनता के बीच फ़ैल जाय, उसी का प्रयास करते रहना
- उसके साथ साथ लौकिक और आध्यात्मिक विद्या दान देने योग्य व्यक्तियों को भी प्रशिक्षित करना होगा.
- एवं हमलोगों का राजनीति के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा.}
वे जो कुछ कह रहे हैं, उसको लिख लेने के लिये कहते हैं- अमुक अमुक बातों को लिख लिया जाये.उन सब को पढने पर देखता हूँ कि वे सारे विचार सचमुच उनके मस्तिष्क में उसी मुहूर्त जन्म लेते जा रहे थे.
- उनका (श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव का) जीवन जिस असीम उदारता से गठित हुआ था उस जीवन की मंगल-वार्ता को हमलोग भी सबों में संचारित कर पाने के योग्य बन सकें.हमलोग भी इस भेद-बुद्धि को (अपना-पराया के अन्तर को) अपने मन से सदा के लिये निकाल देने में सक्षम हो सकें.( इसीलिये महामण्डल में इस " भेद-बुद्धि "को नष्ट कर " भावमुख-बुद्धि य़ा उभय-निष्ट बुद्धि" (Common Sens ) को अर्जित कर यथार्थ " मनुष्य बनने और बनाने-- का प्रशिक्षण " दिया जाता है )
- ( जाती,धर्म,भाषा,लींग(M /F) य़ा रंग-रूप के आधार पर ) मनुष्य मनुष्य के बीच के अन्तर (भेद-बुद्धि) को मन से पूरी तरह निकाल कर, सभी धर्मावलम्बियों के बीच (पुरानी बातों, य़ा गलतियों के लिये-एक,दूसरे क्षमा करके) जिससे भातृत्व-बोध और सभी धर्मों में अन्तर्निहित 'ऐक्य' की अनुभूति करते हुए सच्चा सौहार्द स्थापित हो सके- यही प्रयास करते जाना हमलोगों का प्रधान कर्तव्य होना चाहिये.
यहाँ स्वामी विवेकानन्द अपने अनुयायियों को कितना अदभुत जीवन लक्ष्य निर्धारित करने की प्रेरणा दे रहे हैं! अपने गुरु, अपने सर्वस्व श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के जीवन को " ध्रुव-तारा " के जैसा सामने रख कर- अपने जीवन को उसी आदर्श साँचे में ढाल लेने की एक व्यवहारिक पद्धति अपने अनुयायियों के समक्ष उद्घाटित करते हुए कहते हैं- " बनो और बनाओ ! "" Be and Make ! " Let this be our motto !
यही हमारा आदर्श-वाक्य बने ! इसप्रकार से देखने पर यह समझा जा सकता है कि; मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माण का प्रशिक्षण देने वाली कितनी अदभुत-नूतन भावधारा (श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द भाव आन्दोलन) का प्रवर्तन स्वामीजी ने किया है !
{ तभी तो मद्रास में दिये गये अपने तीसरे व्याख्यान में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " ....इस समय केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि यदि मैंने जीवन भर में एक भी सत्य वाक्य कहा है तो वह उन्हीं का (श्री रामकृष्ण " परमहंसदेवजी " का) वाक्य है;पर यदि मैंने ऐसे वाक्य कहे हैं जो असत्य, भ्रमपूर्ण अथवा मानवजाति के लिये हितकारी न हों, तो वे सब मेरे ही वाक्य हैं, उनके लिये पूरा उत्तरदायी मैं ही हूँ! "कलकत्ते में स्वर्गीय राधाकान्त देव के मकान पर जब उनकी अभ्यर्थना हुई, उस समय भी उन्होंने कहा था कि - " श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव की शक्ति आज सम्पूर्ण पृथ्वी में क्रियाशील है ! हे भारतवासियो, तुम लोग (नकली-ढोंगी बाबाओं-नेताओं के फंदे से बच कर) केवल उनका चिन्तन करो, (ध्रुवतारा के समान उनको ही अपने नेत्रों के सामने रखो) तभी सब विषयों में उन्नति करोगे! "
उन्होंने कहा-
" ....यदि यह जाति उठना चाहती है, तो मैं निश्चयपूर्वक कहूँगा, इस नाम (रामकृष्ण) से सभी (भारत-प्रेमियों) को प्रेमोन्मत्त हो जाना चाहिये.श्रीरामकृष्ण देव का प्रचार मैं, तुम य़ा चाहे जो कोई भी करे इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता; तुम्हारे सामने मैं इस महान आदर्श-पुरुष को रखता हूँ, (इन्हें अपने जीवन में अपना) लो, अब (श्रेय-प्रेय का विचार करते हुए इनको (परमहंसदेव जी को) अपने जीवन का ध्रुवतारा बनाओगे य़ा किसी ढोंगी बाबा - नेता को ? विचार का भर तुम पर है. इस महान आदर्श-पुरुष को लेकर क्या करोगे, इसका निश्चय तुम्हें अपने राष्ट्र के कल्याण के लिये अभी (युवा-काल में ही) कर डालना चाहिये ! "
" ...उनके तिरोभाव के दस वर्ष के भीतर ही इस शक्ति ने सम्पूर्ण संसार को घेर लिया है...|मुझे देखकर उनका विचार न करना| मैं एक बहुत ही क्षूद्र-यन्त्र मात्र हूँ| उनके चरित का विचार मुझे देख कर न करना | वे इतने बड़े थे कि मैं, य़ा उनके शिष्यों में से कोई दूसरा, सैकड़ों जन्मों तक चेष्टा करते रहने पर भी उनके यथार्थ स्वरूप के एक करोड़वें अंश के बराबर भी न हो सकेगा|..."
- ' भारत में विवेकानन्द ' से उधृत
इसी नवीन-भावधारा के अनुसार अपने जीवन को गठित कर पृथ्वी के समस्त मनुष्यों के बीच आपसी-प्रेम और सौहार्द स्थापित करने की इस मंगल-वार्ता को प्रसारित करते जाने से हम सभी(हिन्दू-मुसलमान-ईसाई) एवं देश-विदेश के सभी मनुष्य " एक " हो जायेंगे!हमलोग अक्सर कहा करते हैं कि अमेरिका ने उनको (श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव को) अपना लिया है,उस देश ने अपना लिया है- किन्तु ऐसा कहना बहुत सही नहीं है.
यह ठीक है कि दो-चार, दो-चार व्यक्ति करके सभी देशों के मनुष्यों ने श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव को अपना लिया है.यह भी सच है कि,हमलोगों के देश के दो-चार व्यक्तियों ने भी उनको अपना लिया है. किन्तु ज्वलन्त प्रश्न तो यह है कि क्या पूरा भारतवर्ष (य़ा हिन्दी-भाषी भारत भी) श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव को-" आमादेर जिवनेर ध्रुवतारा " --अर्थात " हमलोगों के जीवन के ध्रुवतारा हैं " --ऐसा समझ पाने में सक्षम हो सका है?
क्या पूरे समाज ने उनकी शिक्षाओं को अपना लिया है? य़ा हम ( रामकृष्ण-मंत्र की दीक्षा ले लेने वाले) लोग, जो यह कह कर अपना परिचय देते हैं कि - " मैं तो श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव का/की भक्त हूँ ! " क्या दीक्षा ले लेने वाले हम सभी लोगों ने ठाकुर की उस असीम-उदारता, उनके महत्व को अपने व्यक्ति-जीवन में, आचरण में, वाणी में, दूसरों के साथ व्यवहार करते समय- अभिव्यक्त करना सीखा है ?
हमलोग कहलाने के लिये तो, स्वयं को उनका (परमहंस का) भक्त कहते हैं. किन्तु क्या हमारे दैनन्दिन जीवन के द्वारा, हमारे आचरण के द्वारा, यह प्रमाणित हो पाता है कि, सचमुच हमलोग भी - स्वामी विवेकानन्द के गुरु, उनके सर्वस्व, श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के भक्त हैं ? - आत्म-निरिक्षण करते हुए हमे इस बात पर अवश्य ही चिन्तन करना चाहिये.
ऐसा न कर, केवल मुख से ही स्वयं को परमहंसदेव का भक्त कहते रहना हमलोगों के लिये उचित नहीं होगा.अतः परमहंसदेव का/की भक्त होने की मर्यादा का ध्यान रखते हुए दूसरों के साथ व्यवहार करते समय- हमलोगों को अपने आचरण पर सतर्क-दृष्टि रखनी होगी.
"...जो दूसरी बात मैं तुम्हें बतलाना चाहता हूँ, वह यह है कि धर्म केवल सिद्धान्तों य़ा मतवादों में नहीं है|...सभी धर्मों का चरम लक्ष्य है- आत्मा में परमात्मा की अनुभूति! यही एक सार्वभौमिक धर्म है| समस्त धर्मों में यदि कोई सार्वभौमिक सत्य है तो वह है- ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करना| परमात्मा और उनकी प्राप्ति के साधनों के सम्बन्ध में विभिन्न धर्मों की धारणाएँ भिन्न भिन्न भले ही हों, पर उन सब में वही एक केंद्रीय भाव है|
सहस्र विभिन्न त्रिज्याएँ भले ही हों, पर वे सब एक ही केन्द्र में मिलती हैं, और वह केन्द्र है ईश्वर का साक्षात्कार -- इस इन्द्रियग्राह्य जगत के पीछे, इस निरन्तर खाने-पीने और थोथी बकवास के पीछे, इन विलीन होते हुए छायास्वप्नों और स्वार्थ से भरे इस संसार के पीछे, विद्यमान किसी एकमेव आद्वितीय सत्ता (ब्रह्म य़ा सच्चिदानन्द) की अनुभूति!
समस्त ग्रंथों और धर्म मतों के अतीत, इस जगत की असारता से परे ' वह ' विद्यमान है, जिसकी अपने भीतर ईश्वर के रूप में प्रत्यक्ष -अनुभूति होती है| कोई व्यक्ति संसार के समस्त गिर्जाघरों में आस्था भले ही रखता हो, अपने सिर में समस्त धर्मग्रंथों का बोझा लिये भले ही घूमता हो, इस पृथ्वी की समस्त नदियों में उसने भले ही बपतिस्मा लिया हो, फिर भी यदि उसे ईश्वर-दर्शन न हुआ हो तो मैं उसे घोर नास्तिक ही मानूंगा|..."
स्वामीजी ने अपने राजयोग नामक ग्रन्थ में लिखा है--
" ....सभी धर्माचार्यों ने ईश्वर को देखा था| उन सभी ने 'आत्म-साक्षात्कार ' किया था; अपने अनन्त स्वरुप का बोध सभी को हुआ था,अपनी भविष्य अवस्था देखी थी, और जो कुछ उन्होंने देखा था, उसी का प्रचार कर गये हैं|
भेद इतना ही है कि प्रायः सभी धर्मों में, विशेषतः आजकल के, एक अद्भुत दावा यह किया जा रहा है कि - इस समय वे अनुभूतियाँ (जो बुद्ध को हुई थीं, य़ा ईसा मसीह को हुई थी, य़ा मोहम्मद साहब को हुई होंगी) असम्भव हैं !जो धर्म के प्रथम संस्थापक हैं, जिनके नाम से बाद में उस धर्म का प्रवर्तन और प्रचलन हुआ है, केवल उन थोड़े आदमियों को ही ऐसा प्रत्याक्षनुभव सम्भव हुआ था; अब ऐसे अनुभव के लिये रास्ता नहीं रहा, फलतः अब धर्मों पर केवल विश्वास भर कर लेना होगा|
मैं उनके दावे को पूरी शक्ति से अस्वीकृत करता हूँ| यदि संसार में किसी प्रकार के वैज्ञानिक सत्य (जैसे गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त आदि) को किसी ने कभी प्रत्यक्ष उपलब्धि की है, तो इससे यह सिद्ध हो जाता है कि पहले भी करोड़ो बार उसकी उपलब्धि की सम्भावना थी, बाद में भी अनन्त काल तक उसकी उपलब्धि की सम्भावना बनी रहेगी| समवर्तन ही प्रकृति का बली नियम है| एक बार जो घटित हुआ है, वह फिर घटित हो सकता है|..."
स्वामीजी ने न्यूयार्क में ९ जनवरी १८९६ के भाषण कहते हैं--"... इन सब विभिन्न योगों को हमें कार्य में परिणत करना ही होगा; केवल उनके सम्बन्ध में तर्क-वितर्क करते रहने से कुछ भी न हाँसिल हो सकेगा|
' श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः |'
पहले उनके सम्बन्ध में सुनना पड़ेगा--फिर (गुरु-मुख से) श्रुत विषयों पर चिन्तन-मनन करना होगा...|इसके बाद उनका ध्यान और उपलब्धि करनी पड़ेगी-- जब तक कि हमारा समस्त जीवन तदभाव भावित न हो उठे| तब धर्म हमारे लिये केवल कतिपय धारणा, मतवाद-समष्टि य़ा कोरी कल्पना मात्र न रह जायेगा|...यथार्थ धर्म कभी परिवर्तित नहीं होता|
धर्म अनुभूति की वस्तु है-- वह मुख की बात, मतवाद अथवा युक्तिमूलक कल्पना मात्र नहीं है--चाहे वह जितना ही सुन्दर हो; वह केवल सुनने य़ा मान लेने की चीज नहीं है| आत्मा की ब्रह्मस्वरुपता को अपने अनुभव से जान लेना, तद्रूप हो जाना, उसका साक्षात्कार करना -- यही धर्म है|.."(श्रीरामकृष्ण वचनामृत खण्ड ३: अध्याय श्रीरामकृष्ण तथा नरेन्द्र : पृष्ठ ५८६ से ५९३)
" प्रेम का धर्म कितना अदभुत है! यह बात तो उन्होंने बार बार कही, परन्तु कितने लोग समझ सके? आचार्य केशव सेन थोड़ा सा समझे सके थे| और स्वामी विवेकानन्द ने तो दुनिया के सामने इसी प्रेम-धर्म का प्रचार अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर किया है| श्रीरामकृष्ण देव ने तआस्सुबी-बुद्धि (भेद-बुद्धि) रखने का बार बार निषेध किया था|
' मेरा धर्म सत्य है और तुम्हारा धर्म झूठा '--इसी का नाम है तआस्सुबी बुद्धि--यह बड़े अनर्थ की जड़ है|स्वामीजी ने इसी अनर्थ से सतर्क रहने की बात शिकागो-धर्मसभा के सामने कही थी| उन्होंने कहा-- ईसाई,मुसलमान,आदि अनेकों ने धर्म के नाम पर मार-काट मचायी है|
" ...साम्प्रदायिकता, संकीर्णता और इनसे उत्पन्न भयंकर धर्मविषयक उन्मत्तता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुके हैं| इनके घोर अत्याचार से पृथ्वी भर गयी है; इन्होंने अनेक बार मानव-रक्त से धरती को सींचा, सभ्यता नष्ट कर डाली तथा समस्त जातियों को हताश कर डाला है|..."
(वचनामृत-३:५९८)
{ श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव जी ने हृदयंगम किया था कि अद्वैत भाव में सुप्रतिष्ठित होना ही समस्त साधनों का चरम लक्ष्य है,...इसीलिये अद्वैत भाव के विषय में पूछने पर बारम्बार वे हमसे यही कहा करते थे- " वह तो अन्तिम बात है रे, अन्तिम बात; ईश्वरप्रेम की चरम परिणति में स्वतः ही वह भाव साधक के जीवन में आकार उपस्थित होता है; समस्त धर्ममतों के अनुसार ही उसे अन्तिम बात समझनी चाहिये - एवं जितने मत हैं, उतने ही पथ हैं !"
(श्रीरामकृष्ण लीला-प्रसंग खण्ड १ पृष्ठ - ३८१)
श्रीरामकृष्ण परमहंस देव जी अन्यत्र कहते हैं-- "पहले डुबकी लगाओ. डूबकर रत्न उठाओ, उसके बाद दूसरा काम. पहले माधव की स्थापना करो,उसके बाद चाहो तो लेक्चर दे सकते हो. कोई डुबकी लगाना नहीं चाहता.साधन नहीं, भजन नहीं, विवेक-वैराग्य नहीं, दो-चार बातें सीख लीं, बस लगे लेक्चर देने!
" लोगों को सिखाना कठिन काम है. भगवान के दर्शन बाद यदि किसी को उनका आदेश प्राप्त हो, तो वह लोक-शिक्षा दे सकता है. "...इसीलिये नरेन्द्र ने गुरुदेव की बात को मानकर संसार छोड़ दिया था और एकान्त में गुप्त रूप से बहुत तपस्या की थी. उसके बाद उन्ही की शक्ति से शक्तिशाली बन कर, इस लोक-शिक्षा के व्रत को ग्रहण कर उन्होंने कठिन प्रचार कार्य प्रारम्भ किया था.
काशीपुर में जिस समय (१८८६ ई०) श्रीरामकृष्ण रुग्न थे, उस समय उन्होंने एक कागज पर लिखा था, " नरेन्द्र शिक्षा देगा." एक पत्र में स्वामी विवेकानन्द लिखे थे कि वे श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के दास हैं, उन्हीं के दूत बनकर वे उनकी मंगल-वार्ता समग्र जगत को सुना रहे हैं. (श्रीरामकृष्ण वचनामृत पृष्ठ- ५८६-५८७) }
यदि इसी भाव को हमलोग भारतवर्ष के समस्त युवा समाज के समक्ष यथोचित उपायों का अवलम्बन कर सही-सही ढंग से परिवेशन कर पाते तो हमारे समाज का, देश का, पूरी जाति का कैसा सुन्दर नवोत्थान हो सकता था! अभी ऐसा किया जाय तो समाज और देश का चेहरा कितना उज्जवल बन सकता है!
किन्तु इसकी प्रचेष्टा कहाँ हो रही है ? अखिल भारत स्तर पर इसका प्रयास किया जाय--ऐसा आग्रह भी कितने जन में है ? (हिन्दी भाषी प्रान्तों में - कितने लोग परमहंस देव को अपने जीवन का ध्रुवतारा मानते हैं ?) हमलोग सदैव केवल यही चाहते हैं कि- " मेरा उत्थान हो, मेरा परिवार बड़ा बने, धनवान हो, सुखी हो, भोगी हो! और अधिक भोग हमें प्राप्त हो!"
किन्तु थोड़ा भी विवेक-विचार किया जाय तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि - भोगों में कुछ नहीं रखा है; त्याग के भीतर ही सारे सत्य निहित हैं, सभी तरह के मंगल (अमृत तत्त्व) केवल त्याग से प्राप्त होते हैं! किन्तु हममे से अधिकांश लोग (त्याग की महत्ता को स्वीकार कर के भी) इस ओर (ध्रुवतारे की उत्तर दिशा में) जाना नहीं चाहते हैं|
हमलोग अक्सर कहते हैं -- मैंने वचनामृत ( श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के अमृतदायी- वचनों को) सुना है, मैंने गीता सुना है, हमने श्रीमदभागवत सुना है,(तब भी जीवन में त्याग की प्रतिष्ठा न हो सकी!) तब यह देखें कि किनसे सुना है?
एक बार इसी प्रकार का गीता-पाठ सुनने का दुर्भाग्य मुझे प्राप्त हुआ था| एक बार रास्ते से जाते-जाते मेरे कानों में आवाज आयी कि कोई गीता पर प्रवचन दे रहे हैं| मैं रास्ता के किनारे खड़े होकर प्रवचन सुनने लगा.एक जन सन्यासी-वेशधारी वक्ता कह रहे थे--" सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकम शरणम् व्रज "अर्थात यहाँ पर श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि-
काशीपुर में जिस समय (१८८६ ई०) श्रीरामकृष्ण रुग्न थे, उस समय उन्होंने एक कागज पर लिखा था, " नरेन्द्र शिक्षा देगा." एक पत्र में स्वामी विवेकानन्द लिखे थे कि वे श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के दास हैं, उन्हीं के दूत बनकर वे उनकी मंगल-वार्ता समग्र जगत को सुना रहे हैं. (श्रीरामकृष्ण वचनामृत पृष्ठ- ५८६-५८७) }
यदि इसी भाव को हमलोग भारतवर्ष के समस्त युवा समाज के समक्ष यथोचित उपायों का अवलम्बन कर सही-सही ढंग से परिवेशन कर पाते तो हमारे समाज का, देश का, पूरी जाति का कैसा सुन्दर नवोत्थान हो सकता था! अभी ऐसा किया जाय तो समाज और देश का चेहरा कितना उज्जवल बन सकता है!
किन्तु इसकी प्रचेष्टा कहाँ हो रही है ? अखिल भारत स्तर पर इसका प्रयास किया जाय--ऐसा आग्रह भी कितने जन में है ? (हिन्दी भाषी प्रान्तों में - कितने लोग परमहंस देव को अपने जीवन का ध्रुवतारा मानते हैं ?) हमलोग सदैव केवल यही चाहते हैं कि- " मेरा उत्थान हो, मेरा परिवार बड़ा बने, धनवान हो, सुखी हो, भोगी हो! और अधिक भोग हमें प्राप्त हो!"
किन्तु थोड़ा भी विवेक-विचार किया जाय तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि - भोगों में कुछ नहीं रखा है; त्याग के भीतर ही सारे सत्य निहित हैं, सभी तरह के मंगल (अमृत तत्त्व) केवल त्याग से प्राप्त होते हैं! किन्तु हममे से अधिकांश लोग (त्याग की महत्ता को स्वीकार कर के भी) इस ओर (ध्रुवतारे की उत्तर दिशा में) जाना नहीं चाहते हैं|
हमलोग अक्सर कहते हैं -- मैंने वचनामृत ( श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के अमृतदायी- वचनों को) सुना है, मैंने गीता सुना है, हमने श्रीमदभागवत सुना है,(तब भी जीवन में त्याग की प्रतिष्ठा न हो सकी!) तब यह देखें कि किनसे सुना है?
एक बार इसी प्रकार का गीता-पाठ सुनने का दुर्भाग्य मुझे प्राप्त हुआ था| एक बार रास्ते से जाते-जाते मेरे कानों में आवाज आयी कि कोई गीता पर प्रवचन दे रहे हैं| मैं रास्ता के किनारे खड़े होकर प्रवचन सुनने लगा.एक जन सन्यासी-वेशधारी वक्ता कह रहे थे--" सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकम शरणम् व्रज "अर्थात यहाँ पर श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि-
" हे पार्थ, सर्व धर्म छोड़ कर मेरे हिन्दू-धर्म को ग्रहण करो !"??
--क्या सचमुच गीता का यही अर्थ है ? इस प्रकार शास्त्रों के अर्थ को तोड़-मरोड़ कर व्याख्या करने का क्या परिणाम होगा ? क्या उसके ऊपर कुछ विचार करना उचित नहीं है? हमलोगों ले पास अब भी चेत जाने का समय है|
अब भी यदि युवाओं का एक दल; कमर कस कर खड़ा हो जाये और यह घोषणा करे--" अभी समाज में जो पाश्चात्य भोग-वादी संस्कृति की प्रबलधारा बह रही है; हमलोग उस प्रवाह में बिल्कुल ही डूब जाने को तैयार नहीं हैं! हमारे भीतर आत्म-निर्भर रहने, अपने पैरों पर खड़े रहने की जो क्षमता है-- क्या उसे( तुच्छ इन्द्रिय-विषयों के लालच में) खो कर, इस प्रवाह के साथ हम बिल्कुल ही बह जायेंगे? क्या हमलोग इस भोग-सागर में डूब कर नष्ट हो जायेंगे ? कदापि ऐसा नहीं होने देंगे !"
इस भोगवादी प्रवाह को रोक देना होगा! हमे अपने पैरों को अपने देश की सख्त मिट्टी(त्यागवादी संस्कृति) पर मजबूती से रोप कर, किसी मजबूत परकोटे के समान अपना चरित्र गठित कर लेने होगा - जिसे टकरा कर यह भोग-वादी प्रवाह थम जायेगा| एवं (परमहंस देव के समान) प्रेय को छोड़ कर श्रेय की ओर, ( ध्रुवतारे की दिशा में ) आँखे खोल कर देखना होगा, एवं उसी दिशा में अग्रसर बने रहने हेतु यथेष्ट साहस और शक्ति अर्जित करनी होगी, तथा उन्हें व्यवहार में लाना होगा! तभी कुछ आशा कर सकते हैं कि हमारे समाज और देश कि अवस्था में परिवर्तन होगा !