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शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

" आशुतोष मुखोपाध्याय तथा सर जॉन वूड्रोफ ~ तन्त्र साधना " 'जीवन नदी के हर मोड़ पर [10]'

     (पृष्ठ -20) उसके पहले आशुतोष मुखोपाध्याय के साथ भी उनकी गहरी घनिष्टता थी, बहुत अच्छा परिचय था। आशुतोष मुखोपाध्याय के पौत्र चित्त तोष मुखोपाध्याय ( कलकाता हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश थे) ने हमलोगों के महामण्डल के एक ' All India Camp ' का उद्घाटन किया था जो पांशकूड़ा में हुआ था। उनको वहाँ पहुँचने में आधे मिनट की देरी हो गयी थी, इसलिए वे महामण्डल ध्वज (flag ) को फहराने से वंचित रह गये थे। किसी अन्य संगठन में ऐसी-'समयानुवार्तिता ' और ' नियमानुवार्तिता ' का पालन होता है या नहीं, यह तो हम नहीं जानते, किन्तु महामण्डल में इसका पालन होता है, उसे सभी देख पा रहे हैं।  
      मेरे पितामह के साथ आशुतोष मुखोपाध्याय का अत्यन्त घनिष्ट सम्बन्ध था इसलिये वे प्रायः मेरे घर आया करते थे, और पितामह के साथ उनकी लम्बी अवधि तक बातें होती रहती थीं। कोर्ट से वापस लौटते हुए वे पितामह के लिये भीम नाग के यहाँ से सन्देश भी लेते हुए आते थे। वे मेरे पितामह से दीक्षा (तंत्र-दीक्षा) भी लेना चाहते थे। एक बार दीक्षा के विषय में दोनों के बीच बात चली तो आशुतोष मुखोपाध्याय ने कहा था-"अगर कभी किसी से दीक्षा लूँगा तो आप से ही लूँगा। "
किन्तु यह संभव नहीं हो पाया था। क्योंकि डुमराओं महाराज के किसी मुक़दमे में पैरवी के सिलसिले में, वे एक बार पटना (बिहार) गये थे, वहीँ ६० साल की उम्र में उनका देहान्त हो गया था। इसीलिये पितामह से दीक्षा लेने की उनकी अभिलाषा अधूरी ही रह गई थी।  
    उस समय के एक और उल्लेखनीय व्यक्ति थे - " सर जॉन वूड्रोफ।" वे कलकाता हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश थे। पितामह से भी उनका परिचय था। उन दोनों के बीच की कड़ी थी-' तंत्र-विद्या'। जिस प्रकार मैक्समूलर ने भारतवर्ष के ' वेद ' को विश्व के समक्ष पुनः नये रूप में स्थापित किया था, ठीक उसी प्रकार सर जॉन वूड्रोफ ने भी ' तंत्र ' को नये रूप में लोगों के बीच लाने की चेष्टा की थी। तंत्र के सम्बन्ध में उनका अध्यन और अनुसन्धान असाधारण था, उन्होंने तंत्र के ऊपर पुस्तक भी लिखी थी, तथा वे स्वयं तान्त्रिक साधना भी किया करते थे। इसी कारण से पितामह के साथ उनका अच्छा परिचय भी हो गया था। {सर जॉन वूड्रोफ ने तंत्र को पुनः नये शीरे से अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों प्रदान करने वाली परा विद्या (Metaphysics) या 'श्री विद्या' के रूप में स्थापित करने की चेष्टा की थी !} 
        आन्दुल में जो राजबाड़ी है, जिसको आन्दुल राजा का महल के नाम से जाना जाता है। वह मित्र वंश के राजाओं का निवासस्थान रहा है। उनका वह निवासस्थान अति प्राचीन है, अतः उस महल में अनेकों प्राचीन पुस्तकें भी संग्रहित थीं। सर जॉन वूड्रोफ को किसी ने इसकी सूचना दी तो यह सोच कर कि वहाँ तंत्र के ऊपर पुरानी -पुरानी पुस्तकें या पाण्डुलिपियाँ भी देखने को मिल सकती हैं। वे एक दिन आन्दुल राजबाड़ी चले आये।  
        वे राजबाड़ी में जैसे ही पहुँचे राज परिवार के कई लोग पितामह के पास आकर बोले -" मास्टर मोशाय जी सर, घर पर कलकाता हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश -' सर जॉन वूड्रोफ ' आये हैं। समस्या यह है कि उनके साथ बातचीत कौन करेगा ? इसलिए ऐसा आग्रह कर वे लोग हेडमास्टर मोशाय को अपने घर ले गये। 
सर जॉन वूड्रोफ के साथ मेरे पितामह का चित्र हमलोगों के खड़दह वाले घर में अब भी लगा हुआ है। मैंने उसे देखा है। परिचय होने पर उन्होंने पितामह को अपने घर पर आमंत्रित किया था। प्रायः ही पितामह उनके घर पर उनसे मिलने के लिये जाया करते थे। सर जॉन वूड्रोफ अपने घर पर गेरुआ चादर ओढ़ते थे, और पछुआ खोंस कर धोती पहनते थे।  

Sir John Woodroffe in Hindu attire  
at The Konark Sun Temple of Orissa, India.

वे जब घर पर होते तो उनके गले में यज्ञोपवित (जनेऊ) रहता था, और खुले वदन पर एक चादर लपेटे रहते थे! जबकि वे एक अंग्रेज साहेब थे, कलकाता हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस थे! तंत्र-विद्या को लेकर मेरे पितामह की बातचीत उनके साथ होती रहती थी। उस चर्चा के क्रम में सर जॉन वूड्रोफ कई पुस्तकों का उल्लेख किया करते थे। एक दिन वे कहते हैं -अमुक , अमुक पुस्तक में 64 प्रकार के तंत्रों की बात कही गयी है।   
इस पर पितामह ने उन्हें बताया कि - " 64 प्रकार के तंत्र नहीं होते, तंत्र-विद्या में तीन क्रान्ता का जिक्र है, और प्रत्येक क्रान्ता में 64 प्रकार के ग्रन्थ होते हैं। इस प्रकार तंत्र शास्त्र के अन्तर्गत, 64  का तीन गुना - अर्थात कुल 192 ग्रन्थ हुए, इसके अलावा तंत्र के ऊपर और भी न जाने कितने ग्रन्थ हैं। आखिर तंत्र के इतने सारे ग्रंथों में से आपने कितने ग्रंथों का अध्यन किया होगा ? 
पितामह ने एक दिन शिव-पार्वती संवाद (आगम-निगम) के विषय पर चर्चा करते हुए उनसे कहा की भगवान शिव ने स्वयं अपने मुख से कहा है ~ " सप्तकोटि महाग्रंथः मम वक्रात विनिश्रीताः"  अर्थात भगवान शिव माता पार्वती से कह रहे हैं कि मेरे मुख से ' सप्तकोटि महाग्रंथ ' - अर्थात सात कड़ोड़ महाग्रंथ निसृत हुए हैं। तो बताइये आपने इनमे से कितने ग्रंथो का अध्यन किया है-सर जॉन ? 
      पुनः पितामह ने कहा कि हो सकता है कि सप्तकोटि ग्रन्थ कि संख्या - " May not be literally true. " अर्थात बढ़ा-चढ़ा कर बताई गयी हो ? इस पर सर जॉन वूड्रोफ ने कहा कि " No,no, when Sadashiva says so, it must be literally true." इस प्रकार यह समझा जा सकता है कि उन दिनों चारों ओर कैसी हवा बह रही थी ! (तात्पर्य यह कि , गुरु-शिष्य परम्परा के अनुसार साधना किये बिना केवल अध्यन करने से तंत्र-विद्या का फल-जीवनमुक्ति प्राप्त नहीं होती।)  
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{ तन्त्र साधना शब्द शास्त्र के अनुसार तन्त्र शब्द ‘तन’ धातु से बना है जिसका अर्थ है विस्तार। शैव सिद्धान्त’ के ‘कायिक आगम’ में इसका अर्थ किया गया है, ‘वह शास्त्र जिसके द्वारा ज्ञान का विस्तार किया जाता है- " तन्यते विस्तार्यते ज्ञानम् अनेन्, इति तन्त्रम्।’’ 

तन्त्र की निरुक्ति ‘तन्’ (विस्तार करना) और ‘त्रै’ (रक्षा  करना), इन दोनों धातुओं के योग से सिद्ध होती है। इसका तात्पर्य यह है कि तन्त्र अपने समग्र अर्थ में ज्ञान का विस्तार करने के साथ उस पर आचरण करने वालों का त्राण भी करता है। तन्त्र-शास्त्र का एक नाम आगम शास्त्र भी है। इसके विषय में कहा गया है-आगमात् शिववक्त्रात् गतं च गिरिजा मुखम्। सम्मतं वासुदेवेन आगमः इति कथ्यते।।

वाचस्पति मिश्र ने योग भाष्य की तत्व वैशारदी व्याख्या में ‘आगम’ शब्द का अर्थ करते हुए लिखा है कि जिससे अभ्युदय (लौकिक कल्याण) और निःश्रेयस (मोक्ष) के उपाय बुद्धि में आते हैं, वह ‘आगम’ कहलाता है। 

शास्त्रों के एक अन्य स्वरूप को ‘निगम’ कहा जाता है। इसमें वेद, पुराण, उपनिषद आदि आते हैं। इसमें ज्ञान, कर्म और उपासना आदि के विषय में बताया गया है। इसीलिए वेद-शास्त्रों को निगम कहते हैं। 

उस स्वरूप को व्यवहार आचरण और व्यवहार में उतारने वाले उपायों का रूप जो शास्त्र बतलाता है, उसे ‘आगम’ कहते हैं। तन्त्र के सभी ग्रन्थ शिव और पार्वती के संवाद के अन्तर्गत ही प्रकट हैं। देवी पार्वती प्रश्न करती हैं और शिव उनका उत्तर देते हुए एक-एक विधि का उपदेश करते हैं।

अधिकांश प्रश्न समस्या प्रधान ही हैं। सिद्धान्त के सम्बन्ध में भी कोई प्रश्न पूछा गया हो तो भी शिव उसका उत्तर कुछ शब्दों में देने के उपरान्त विधि का ही वर्णन करते हैं। आगम शास्त्र के अनुसार- " करना ही जानना है " और कोई जानना ज्ञान की परिभाषा में नहीं आता। जब तक कुछ किया नहीं जाता साधना में प्रवेश नहीं  होता, तब तक कोई उत्तर या समाधान नहीं है।

---साभार तन्त्र साधना से सिद्धि केदारनाथ मिश्र}

सम्पूर्ण सृष्टि में जो आकर्षण व प्रेम है उसकी मूल विद्या ही छिन्नमस्ता है, शास्त्रों में देवी को ही प्राणतोषिनी कहा गया है। देवी की कृपा से साधक मानवीय सीमाओं को पार कर देवत्व प्राप्त कर लेता है। देवी के भक्त को मृत्यु भय नहीं रहता वो इच्छानुसार जन्म ले सकता है। तन्त्र किसी भी काम के करने का एक तरिका हे। उदाहरण के लिए राजतन्त्र लिजिये। राजतन्त्र, राज+तन्त्र से बना हुआ शब्द है । राजतन्त्र का बृहद अर्थ हे जो व्यवस्था राजा चलाते हे और राजनीति इसका अंग है।  
और तन्त्र वह साधन है जिसकी सहायता से आप ध्यान में जा सकते हैं । भगवान शिव सभी तन्त्र का जनक हे। तन्त्र दर्शनों में प्रयोगात्मक पक्ष ज्यादा है। जब तक साधक का एक निश्चित स्तर न आ जाये उसे बाह्यगत पूजा /साधना का सहारा लेना ही पड़ता है। और जब कुण्डलिनी और चक्र जागरण की एक एक उच्चावस्था आ जाती हैं तब साधक अंतर्पूजा विधान या साधना के लिए उपयुक्त हो जाता हैं।  
 इस पथ मे बढते रहने से ..उसके पशु भाव क्षीण होता जाता हैं और वीर भाव मे प्रवेश होता हैं। और जीवन में इतनी भी उच्चता या  श्रेष्ठता प्राप्त करना कोई साधारण बात नही हैं। तन्त्र वीर लोगों के लिए हे क्योंकि ईश्वर की उपासना वीर और दिव्य (या सन्तान भाव) दो भाव से किया जा सकता हे।
 नागा-वीर  – प्रारम्भिक दीक्षा के बाद व्यक्ति को लज्जा निवारण अर्थ वस्त्रों का त्याग कराया जाता है। इस स्तर पर व्यक्ति के तीन पाश-लज्जा-घृणा-भय से मुक्ति होती है। श्मसान ही एक ऐसा स्थान है जिसके चौखट कों पार करने पर व्यक्ति के मन में भले ही थोड़ी देर के लिए ही क्यों ना हो विरक्ति, मोह विमुख, आसक्ति मुक्त और वासना रहित विचारों का आडोलन होता ही है।  शमशान में व्यक्ति कभी कामुक नहीं हो सकता ना ही ऐसे विचार मन में आ सकते है। 
 जो श्मशान  एक विशिष्ट अवधि सम्पन्न तथा विशिष्ट संख्या में चीता ज्वलन संस्कार के आकड़े को पार कर चुके होते है, वे महाश्मशान (crematorium) कहलाते है। ...  जैसे काशी, बकरेश्वर, कामाख्या, उज्जैन आदि स्थानों पर जो स्मशान स्थित हे वे महाशमशान कहलाते है.. वहां पर प्राण ऊर्जा का प्रभाव अत्यंत तीव्र है.. वहा का औरामंडल बहुत ही शक्ति संपन्न और दिव्य होता है यही कारण हे की बहुत सी साधनाओ के लिए स्मशान भूमि का महत्व है। 
     कैसे समझे की साधना-मार्ग पर हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं या नहीं ? ..... साधना काल के अतिरिक्त भी मन खुश प्रसन्न रहे, एक गहरी निश्चितता का अनुभव हो,  आपकी बातों का प्रभाव सामने वाले पर कहीं जयादा असरदायक हो, आप अपने मित्र वर्ग मे और अधिक प्रिय हो जाए,  आपके चेहरे का तेज बढ़ने लगे, सौम्यता और शालीनता स्वत ही आपके व्यवहार मे परिलक्षित होने लगे। तब समझ सकते हैं कि आप सही दिशा में जा रहे हैं। 
निर्विकल्प समाधी का त्याग करके जो, वापस चेतना की सामान्य भूमि पर लौट आते हैं, ईश्वर-कोटि या अवतारी होते हैं;  वे हमेशा मुस्कुराते हैं। एक स्मित मुस्कान उनके  मुख पर हमेशा देखी जा सकती हैं। स्मित हास्य सदैव उनके मनोहर मुख मंडल मे रहता हैं वे अट्टहास नही करते।   सभी ने जगतगुरु श्रीरामकृष्णदेव के दिव्य मुख मंडल मे हमेशा छाई रहने वाली वह स्मित मुस्कान देखी ही हैं ! भला उसकी मिसाल दूसरी कहाँ ?   
अन्न मय कोष इसमें जीव रहता हैं इस शरीर का निर्माण मे अन्न की प्रमुख विशेषता हैं। जैसे ही साधक अपने आसन पर बैठता हैं और मंत्र जप करना शुरू करते ही साधक के अंतर्मन मे देव-असुर संग्राम चलने लगता है। प्रयास लगातार करता रहे तो धीरे धीरे यह कोष शुद्ध होने लगता हैं और आगे के लिए मार्ग खुलता जाता हैं। मंत्र की अपनी एक शक्ति हैं और उसके लगातार उच्चरण से भले ही सिद्धि जैसा बाह्य्गत कुछ न दिखता हो पर अंतर मन मे स्वतः महत परिवर्तन होता रहता है । 
प्राण मय कोष हैं।  यह वायु पर आधारित होता हैं क्योंकि वायु चंचल होती हैं।  अतः ऐसे साधक का या इस अवस्था मे ...मन साधना मे जल्दी लगता हैं और हटता भी जल्दी हैं। मनोमय कोष मन का बहुत बडी भूमिका हैं। मानो सारा साधना जगत का एक बहुत बड़ा आधार हैं ये मन, जो एक पल मे आपको स्वर्ग की उचाई तो अगले पल मे नर्क की गहराई भी दिखा सकता हैं। यह मानसिकता की हमेशा सुन्दर और लुभावने अनुभव होंगे यह कोई आवश्यक नही हैं, क्योंकि चित्त में। जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों के जो  मैल पड़े हैं, उनको हटाये जाने पर, कई तरह के अनुभव आ सकते  हैं। कई कई बार तो व्यक्ति को अपना ही रूप देख कर स्वयं पर आश्चर्य होता है। 
 स्वामी विवेकानंद जी ने अपने गुरू भाई स्वामी अद्भुतानद जी के बारे मे लिखा हैं की निरक्षर लाटू सद्गुरु कृपा से हनुमान की भांति एक छलांग लगा कर वहां सीधे ही पहुच गया, जहाँ पर पहुँचने के लिए हम लोगों को ज्ञान अज्ञान के कितने नदी नाले पार करने पड़े थे । 
      षड्चक्र भेदन की साधना :साधक को भी वास्तविकता का कुछ अनुभव भी हो, कहते हैं की जो ह्रदय कमल होता हैं उसका मुंह अब ऊपर की ओर होने लगता हैं चूँकि अब परिवर्तन का समय हैं तो जैसे जैसे कमल का मुंह ऊपर उठेगा, मानो शेषनाग हिल रहा हैं और साधक के सारे करम होने लगते हैं मतलब जो हो सो कम हैं । 
यह समय बहुत ही कठिन होता हैं एक साधक के लिए ..कहते हैं इस अवस्था से पार सिर्फ गुरू कृपा ही करा सकती हैं।  मन मे जो देव असुर संग्राम होता हैं उसका कोई जबाब ही नही।  जो साधक होता हैं वह वास्तव मे द्वैत अवस्था की बात होती हैं।  और जो सिद्ध होते हैं या सिद्धावस्था हैं वह तो अद्वैत अवस्था की बात हैं।  मतलब हमें द्वित से अद्वैत अवस्था तक की यात्रा जल्दी से जल्दी पूरी करनी हैं खुद ब खुद मंत्र जप चलने लगता हैं और ध्यान भी लगने लगता हैं। 
सर जॉन वूड्रोफ जैसे प्रख्यात तःन्त्र विद्वानों ने अपनी अनेक कृतियों मे जिस विद्वता का परिचय दिया हैं वह सराहनीय हैं और दाँतों तले अंगुली दवा लेने वला भी। ...... की किस तरह एक विदेशी व्यक्ति जो कलकत्ता मे न्यायाधिश पद को सुशोभीत कर रहा हो तंत्र जगत मे इतनी विशेषज्ञता कैसे प्राप्त कर सका?  
उसके ज्ञान की सभी ने प्रशंशा की है, उस व्यक्ति ने तो कितने उच्च पद पर कितनी जिम्मेदारी का काम करते हुये कैसे यह सब किया ? महाविद्याए सिद्ध की और केवल सिद्धांत रूप मे ही नही बल्कि सीधे प्रयोगिक रूप मे तंत्र को समझा, जाना और जिया भी। उन्होंने अपनी कृतियों मे वाममार्ग की अनेको भ्रांतियां जो हमें घृणा युक्त लगती हैं, या जिन पदार्थ का नाम भी घृणास्पद है, उसका भी दिव्यतम रूप समझाया है।  
और बताया की किस तरह अनेको महापुरुषों के माध्यम से यह मार्ग भी कितनी उच्चता लिए हुये रहा है ! कुछ बहुत ही उच्च आदर्श,और उच्च चरित्र वाले व्यक्तियों को, जिनकी मन मे स्त्री पुरुष का भाव मिट गया हो..उनके लिए ही यह मार्ग था। और अन्य सभी सामान्य जनों के लिए ,इस  मार्ग पर चलना ..आज के समय मे ठीक नही हैं। बल्कि कई कई गुणा पतन का रास्ता भी खोलने के सामान हैं। आज की परिस्थिति और अनेको दूरसंचार माध्यम के कारण स्वाभाविक सा हैं की विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण कुछ बहुत ज्यादा होता जा रहा हैं, सारे बंधन शिथिल हो गए हैं । इसलिये किसी भी मार्ग के साधक को अपने चरित्र और अपने स्वाभिमान और आत्मसम्मान पर कभी भी ...कोई भी समझोता नही करना चाहिये।
.हर हाल मे इन सबका पर ध्यान रखना होगा, चरित्र की रक्षा हर हाल मे हर कीमत पर करना चाहिये । आप अपने दिल दिमाग का उपयोग करें .और हर निर्णय वह छोटा हो या बड़ा हो उसमे स्व विवेक का उपयोग करें, तभी इस मार्ग पे आपकी यात्रा और भी सफलता दायक होगी। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि दूसरों के अनुभव से जो लाभ उठाता हैं वही श्रेष्ठ हैं, अन्यथा स्वयं हर चीज को अपने से अनुभव करने पर तो सारा जीवन ही नष्ट हो जायेगा। 
सफल आध्यात्मिक जीवन के लिए 'एक गुरू- एक मंत्र- एक साधना' ही सर्वोपरि है। गुरू साक्षात् पार ब्रह्म  हैं, ध्यान रहे  " गुरु को ब्रह्म नही पार ब्रह्म कहा गया है " संशय एक शिष्य के लिए घातक होता हैं और शिष्य नष्ट हो जाता हैं और श्रद्धावान लभते ज्ञान।
एक भक्त ने श्रीरामकृष्ण से कहा, " महाराज  मेरा ध्यान नही लगता हैं , मन भटकते रहता हैं .यही मेरी समस्या है यह सुन कर ठाकुर का श्री मुख बहुत प्रसन्नता से खिल उठा , उन्होंने बहुत ही स्नेह से कहा-  " आश्चर्य हैं कि आज के  समय मे भी यह किसी की समस्या है, और वह उसके लिए वह परेशां हैं। जबकि यहाँ तो सिर्फ अपनी परिवार और अपनी भौतिक समस्या के लिए ही लोग आते हैं ,मैं बहुत खुश हूँ .कि तुमने यह बात रखी। और सदगुरुदेव जी ने पास मे रखी हुयी गुलाब की कुछ पंखुडिया उठाई और मेरे सिर पर डालते गए और कुछ मंत्र का उच्चरण करते गए, मैं तो अपने होश मे ही नही रहा कि क्या हो रहा हैं .जब थोडा चैतन्य हुआ तो देखा वह मुस्कुरा रहे हैं और उन्होंने बहुत ही करूणा से कहा कि जा अब से यह समस्या नही रहेगी ,स्वत ही गंभीर ध्यान तेरा लगने लगेगा ."
“ध्यान मूलं गुरू पदम”
ध्यान रहे एक बार स्वामी विवेकानंद जी की किसी बात पर नाराज़ होकर परमहंसजी ने उन्हें जाने को कह दिया पर .उसके बाद भी स्वामीजी रोज आते और दूर बैठे रहते ..एक दिन परमहंसजी ने कहा तू यहाँ आता अब क्यों हैं .स्वामीजी ने कहा ..मैं तो बस आपको निहारने ही आता हूँ। और एक शिष्य अपने सदगुरुदेव को निहारते निहारते कहाँ से कहाँ पहुच गया ........ तो क्या सदगुरुदेव जी की करूणा को हम ...समझ सकते हैं . 
राम कृष्ण परमहंस जी ने एक बार बस थोडा सा निर्विकल्प समाधि अनुभव करा कर स्वामी विवेकानंद जी को कभी भी उसका फिर से कुछ घन्टे तक के लिए दुबारा अनुभव नही कराया ,उन्होने कह दिया था की कहीं नरेंद्र को अपने सत्य स्वरुप का जरा भी भान लग गया तो उसका शरीर गिर जायेगा मतलब नष्ट हो जायेगा .वह इस शरीर मे पल भर नही रुकेगा ..और जिस दिन उसे पता चल गया की वह हैं कौन ..वस् वह फिर नही रुकेगा ..... इसलिए स्वामी जी के सारे गुरू भाई उनके स्वरुप के बारे मे उनसे गंभीर बात कभी नही करते थे .
       किसी भी देवता की उपासना मे पूर्ण सफलता तभी पाई जा सकती हैं जब साधक और देवता एक हो जाये। यह बात समझा तो जा सकता हैं, पर सम्भव कैसे हो ? इस लिए दो तरीके के पूजा या साधना के विधान हैं पहला तो बाह्य जगत में और दूसरा अन्तर्जगत में। जब तक साधक का एक निश्चित स्तर न आ जाये उसे बाह्य्गत पूजा /साधना का सहारा लेना ही पड़ता हैं। जिस प्रकार गौमाता के सारे शरीर मे दूध होने पर भी दूधउसके स्तनों के माध्यम से क्षरित होता हैं। ठीक उसी प्रकार परमात्मा की शक्ति सर्वत्र व्याप्त होने पर भी वह प्रतिमा के माध्यम से प्रगट होती हैं।  और जब कुण्डलिनी और चक्र जागरण की एक एक उच्चावस्था आ जाती हैं तब साधक अंतर्पूजा विधान या साधना के लिए उपयुक्त हो जाता हैं।  
       और जब इसी तरह इस पथ मे बढते रहने से ..उसके पशु भाव क्षीण होता जाता हैं और वीर भाव मे प्रवेश होता हैं ..और इतना होना  भी जीवन की उच्चता हैं श्रेष्ठता है, यह कोई साधारण बात नही हैं .पर जब हम लगातार उच्च उच्च साधना करते जाते हैं तो हमें पता ही नही चलता और हम एक दिन उस अवस्था मे आ जाते हैं जिसे दिव्य भाव (सन्तान भाव) की अवस्था कहा जाता हैं।  और इस दिव्य भाव मे देवता और साधक या इष्ट और साधक का भेद ही मिट जाता हैं ,और यहाँ सिद्धि हैं। 
       ...और यहाँ सिद्धि से भी आगे की अवस्था ..संभव हैं ...क्योंकि जीवन का अर्थ तो तभी हैं जब साधक इष्ट मे कोई अंतर ही न रहे दोनों एक आत्म हो जाए।  जो साधक होता हैं वह वास्तव मे द्वैत अवस्था की बात होती हैं ..और जो सिद्ध होते हैं या सिद्धावस्था हैं वह तो अद्वैत अवस्था की बात हैं।   मतलब हमें द्वित से अद्वैत अवस्था तक की यात्रा जल्दी से जल्दी पूरी करनी हैं। पर क्यों ? जब तक साधक समाधी की अवस्था मे न आ जाये तब तक उस पर पूर्ण रूप से विश्वास नही किया जा सकता की वह .इस साधना मार्ग मे ..हमेशा आगे बढता रहेगाक्योंकि पतन की संभावनाए तो हर समय रहती हैं। ]
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" The Tantra "
There is probably no body of traditional literature that has suffered such widespread criticism, from Western and Eastern  scholars alike, as the Tantras, due mainly to their esoteric character. which made it impossible for scholars to obtain adequate information of their true content. The ban on their investigation was finally re- moved by the fruitful labours of the late Sir John Woodroffe, the first to defend the outraged Tantras, and now the field of Tantrik literature can be intelligently investigated. 
For a correct and complete understanding of Indian culture, it is imperative that this body of traditional literature is properly understood; therefore, a brief  out-line of their position in the history of Hindu thought will be helpful. 
The word Tantra is derived from the root tan, "to spread," and the agential suffix tra, "to save," meaning that knowledge which is "spread to save." It is a generic term under which a whole culture of a certain epoch of Indian history found expression. According to their own definition, Tantra denotes that body of religious scriptures 
(Sastra) which is stated to have been revealed by Siva as a specific scripture for the fourth and present age (Kali Yuga). They are without authorship, for they are revealed by divine inspiration to rsis (sages) who record them for the benefit of men living during this age.   
A Tantra is generally cast in the form of a dialogue between Siva, the deification of the Ultimate Principle, and his female consort, Parvati, the active aspect of the Ultimate Principle. When Parvati asks the questions and Siva answers them, the treatise is called an Agama, that which has come down; when Siva asks the questions and Parvati answers them, the treatise is called a Nigama. The Tantras are said to be the truest exegesis of the Vedas, and their origin is certainly as ancient as those of some of the classical Upanisads. 
The Tantras not only issued from the same source as did the Upanisads, but it is said that they have been as widespread in India. According to tradition, India had been divided into three regions called Krantas, These Krantas were Visnukranta, Rathakranta, and Asvakranta. 
    Visnukranta extended from the Vindhya Mountain in Cattala (Chittagong), thus including Bengal; Rathakranta, from the same mountain to Mahacma (Tibet), including Nepal; and Asvakranta, from the same mountain to "the great ocean," apparently including the rest of India. Sixty-four Tantras had been assigned to each region, and all of them could be classified according to the three interpretations of philosophy, Abheda, Bedha, and Bhedabheda, that is, non-dualism, dualism, and dualism and non-dualism. 
A Tantra is said to consist of seven marks or topics: (i) creation, (2) destruction of the universe, (3) worship, (4) spiritual exercises (Yoga), (5) rituals and ceremonies, (6) six actions, and (7) meditation. 
They were the encyclopedias of knowledge of their time, for they dealt with all subjects from the creation of the universe to the regulation of society, and they have always been the repository of esoteric spiritual beliefs and practices, especially the spiritual science of Yoga.
The Tantras are commonly called Agama, and these are divided into three main groups according to which deity is worshipped: Siva, Sakti, or Visnu. Together they form the three principal divisions of modern Hinduism, namely Saivism, Saktism, and Vaisnavism. All of them have their seeds of origin in the hoary antiquity of time, and they have passed through many transitions according to the in- terpretations of their many leaders.
OSMANIA UNIVERSITY LIBRARY Call No.U9 9/B25H, Accession No. 27998 Author Bernard T, PH. D, Title Hindu philo sophy ,)  
 
Sir John Woodroffe :
Early life : Born on December 15, 1865 as the eldest son of James Tisdall Woodroffe, Advocate-General of Bengal and his wife Florence, he was educated at Woburn Park School and University College, Oxford, where he graduated in jurisprudence and the Bachelor of Civil Law Examination In 1890, He moved to India and enrolled as an advocate in Calcutta High Court. 
He was soon made a Fellow of the Calcutta University and appointed Law Professor there. He was appointed Standing Counsel to the Government of India in 1902 and two years later was raised to the High Court Bench.
After serving for eighteen years in the bench, he became Chief Justice of the Calcutta High Court in 1915. After retiring to England he became Reader in Indian Law at the University of Oxford, and finally moved to France in his retirement, where he died in 1936.
 Sanskrit Studies Alongside his judicial duties he studied Sanskrit and Hindu philosophy and was especially interested in the esoteric Hindu Tantric Shakti system. He translated some twenty original Sanskrit texts, and under his pseudonym Arthur Avalon. He published and lectured prolifically on Indian philosophy and a wide range of Yoga and Tantra topics.
As TMP Mahadevan wrote in the foreword to Woodroffe's Garland of Letters: "By editing the original Sanskrit texts, as also by publishing essays on the different aspects of Shaktism, he showed that the religion and worship had a profound philosophy behind it, and that there was nothing irrational or obscurantist about the technique of worship it recommends.
Serpent Power and Garland of Letters 
Brow Chakra vision from Woodroffe's Serpent Power 1918
Woodroffe's The Serpent Power – The Secrets of Tantric and Shaktic Yoga, is the source of many modern Western adaptions of Kundalini yoga practice.       

Sir Ashutosh Mukhopadhyay :-

Ashutosh Mukhopadhyay , perhaps the most emphatic figure of Indian education, was a man of great personality, high self-respect, courage and towering administrative ability. Born on 29th June, 1894 at Bowbazar, Kolkata, Ashutosh Mukherjee was brought up in an atmosphere of science and literature.
Throughout his educational career got opportunity to mingle with other stalwarts of Bengal, such as, Vidyasagar, Prafulla Chandra Roy, Bhupendra Nath Bose and so on. In 1885, he completed his M.A. degree with major in Mathematics and in 1886 M.Sc in physical science. In the same year he received the coveted Premchand Roychand scholarship.
He became a Doctor in Law in 1894 and appointed as Tagore Law Professor in 1898 and became a judge of the Kolkata High court in 1904 & retired in 1923, officiating for a few months as Chief Justice of Bengal in 1920. He was knighted in 1911.
Ashutosh Mukhopadhyay believed that to unbound the society from racism and discrimination of the British rule it was necessary to spread the light of knowledge from grass root to higher level of education. Thus he resolved to create a modern university out of his Alma Mater, the Calcutta University and in 1906 he was appointed Vice Chancellor.
He believed in the acceptance of Western cultural values, but not at the cost of his own dignity and torchbearer of a new outlook, which was totally Indian yet entirely free from conservatism. This great son of Bengal passed away on May 25th, 1924 in Patna.

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"स्कूल में वन्देमातरम गान " [जीवन नदी के हर मोड़ पर -9]

"बंग-भंग आन्दोलन और स्कूल में अंग्रेज पुलिस आफिसर "
[* मेरे पितामह वर्ष १९०१ से लेकर १९५३ तक, अर्थात कुल ५२ वर्षों तक उस स्कूल में हेडमास्टर रहे थे: ]
और भी कई महत्वपूर्ण घटनाएँ इस स्कूल में घटित हुई हैं, ' बंग-भंग आन्दोलन ' के समय हमारे स्कूल के छात्रों ने,  १९०५ में विदेशी कपड़ों का होलिकादहन किया था| यह खबर इंग्लैंड के अख़बार में 
छप गया ! उस समय भारतवर्ष की राजधानी तो कलकाता ही हुआ करती थी, इसीलिये इंग्लैंड के अख़बार में खबर देख कर उसके जाँच का आदेश, कलकाता आया है!
उस आदेश के अनुसार कलकाता से लालबाजार का एक बड़ा पुलिस ऑफिसर घोड़े पर सवार हो कर मामले की तहकीकात करने के लिये आन्दुल-स्कूल जा रहे हैं| स्कूल चल रहा है, बाहर का विशाल गेट बन्द है, घोड़े को लिये हुए स्कूल के गेट के सामने आये हैं| गेट पर एक दरवान खड़ा है, नजदीक आकर बोले- ' ऐ दरवान, गेट खोलो ! ' 
दरवान आकर बोला- ' स्कूल चलते समय गेट नहीं खोला जाता है |' " तुम खोलते हो या नहीं ?" दरवान-  " नहीं, अभी गेट नहीं खुलेगा, जब स्कूल बन्द हो जायेगा, छुट्टी होगी, तब गेट खुलेगा ! उसके पहले नहीं खुलेगा |" - " कितने बजे छुट्टी होगी? " " चार बजे छुट्टी होगी " 
समय बिताने के लिये वे स्कूल के नजदीक स्थित ' गुलाब-बाग ' नामक एक पुराने मकान में चले गये, वह विशाल भवन था जो अब खंडहर हो गया था, उसमे एक छोटा सा तालाब, विशाल झील और बगीचा था| उस भवन में कुछ दिनों तक बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय (बंदे मातरम गीत के रचनाकार ) भी निवास किये थे|
पुलिस आफिसर वहीँ जाकर प्रतीक्षा करने लगे और ४ बजते ही घोड़े पर चढ़ कर गेट पर पहुँचे| उस समय स्कूल में छुट्टी हो गयी है, टप-टप टप-टप करते घोड़े की टाप पर भीतर प्रविष्ट हो गये| हमलोगों के स्कूल का भव्य बिल्डिंग , आज भी वैसे ही खड़ा है, उसको देखने से बहुत हद तक उसकी आकृति कलकाता यूनिवर्सिटी के उस सेनेट हौल जैसी गथिक स्ट्रक्चर की है, जिसे हाल में तोड़ डाला गया था| उसका उपरी भाग बहुत ऊँचा है, सामने का हिस्सा भी उसी तरह है, छत बड़े बड़े खम्भों पर टिकी हुई है, उसके मुख्य द्वार पर हमलोगों के स्कूल का शुभ वाक्य - " सरस्वती श्रुतमहतां महियसाम " लिखा हुआ है |
[ " राजा प्रकृति रंजनात्"  अर्थात् सब प्रकार से प्रजा को प्रसन्न रखने वाला ही राजा या आई.ए.एस. हो सकता है। 

प्रवर्तताँ प्रकृति पार्थिवः सरस्वती श्रुतमहतां महीयसाम्।
ममापि च क्षपयतु नील लोहितः पुनभवं परिगतशक्तिरात्मभूः।।]

व्यास यदि मनुष्य को सृष्टि का श्रेष्ठतम जीव मानते हैं, तो कालिदास प्रकृति अर्थात् प्रजा के हित को सर्वोपरि स्थान देते हैं। पग-पग पर राजा या प्रशासक को कालिदास की कविता प्रकृति रंजन का स्मरण दिलाती है। अभिज्ञान शाकुन्तलम् के अंत में नाटककार का भरत वाक्य है कि राजा प्रजा के हित में रत रहे। विद्या में वृद्धि हो। शिव हम सबका शुभ करें। 
सुसंस्कृत भारत की संस्कृति पूजा-पाठ प्रधान नहीं, धर्म और कर्म प्रधान है। धर्म और शिक्षा की व्याख्या में समष्टि का मंगल विधान सर्वोपरि है, बाह्याडंबर नहीं। धर्म की अवधारणा प्रजा और समाज के धारण या रक्षण करने से अर्थवती है। 
धारणाद्धर्म इत्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः।
               यत् स्यात् धारणासंयुक्तं स धर्म इत्युदाहृतः। - महाभारत

वे कर्म और यम-नियम, जो ध्वंस से बचाते हैं और चरित्र-निर्माण करते हैं, उन्हें धर्म कहते हैं। वे आचरण जो आतंक नहीं, आनन्द और अभय़ प्राणि मात्र के लिए सिरजते हैं, उन्हें धर्म की मर्यादा कहते हैं।जो अर्थ धर्मार्जित नहीं होता, अनीति अन्याय व दुष्ट साधनों से अर्जित होता है, वह अनर्थकारी होता है। गलाकाट प्रतियोगिता व लूट-खसोट को बढ़ावा देता है। आदमी को आदमी नहीं रहने देता। वह धर्म अर्थात शिक्षा से अनुशासित न रहने पर हवस का रूप ले लेता है। अनुजा तनुजा, परजा में भेद भूल जाता है। आसुरी बन जाता है। 
धर्म रहित राज्यकी भी यही दशा होती है। हस्तिनापुर का राज्य उसे छोटा लगता है। जो प्राप्त भाग है उसका विकास भूलकर काश्मीर की रट लगाने लगता है। मानों काश्मीर मील जाने पर उसकी कोई इच्छा शेष नहीं रहेगी। यह देश हमेशा धर्म को कमोबेश केन्द्र में रखता चला आया है। लंका जीतकर लंकावासी को और बंगलादेश बंगलावीसी को सुशासन के लिए सौंप दिये गये। यह भारतीय धर्म या शिक्षा का मंगल भाव है जिससे हमारा जीवन, हमारे आचार-व्यवहार और हमारी राजनीति अनुशासित है। यह धर्म आध्यात्मिकता की ऊँचाई पर पहुँचकर जीवन के बहुविध अच्छे कर्मों को ही शिव की आराधना मानता है।]

उसी रास्ते से गड़ गड़ करते चले गये| वहाँ से भीतर प्रविष्ट होने के लिये तीन दरवाजे हैं| एक दरवाजा बड़ा है, पास में दो छोटे छोटे दरवाजे हैं|छोटे दरवाजों से छात्र लोग अपने क्लास में चले जायेंगे और शिक्षक लोग बीच वाले दरवाजे से जायेंगे| दरवाजे से लगा एक छोटा हौल है, उसके बाद दोनों ओर बरामदा है| उस हौल के ठीक बीचो बीच ' सेन्ट टेम्स ' की घड़ी अब भी लगी हुई है| १९०१ ई में भी यह घडी थी या नहीं बता नहीं सकता, किन्तु है वह बहुत पुरानी | वहीँ पर एक विशाल गोल टेबल है, वहीँ पर हेडमास्टरमशाई बैठते हैं|
लालबाजार से भेजे गये वे अंग्रेज पुलिस आफिसर गड़ गडाते हुए गये हैं, और उनके सामने पहुँच कर बोले, ' Are you the Headmaster ? ' तुम्हारे लड़के इस प्रकार क्लास में खुले-आम ' बंदे मातरम' गीत गा रहे हैं? ' ' मेरे लड़के " बंदे मातरम " गीत गा रहे हैं ? ' ' स्कूल में तो छुट्टी हो गयी है, गीत कैसे गा सकते हैं ?' ; ' मैंने आते समय सुना है, हर एक क्लास में " बंदे मातरम " गीत गया जा रहा था '|
" आपके कहने से ही हो गया " | बोले, " आप मेरे साथ चलिए और खुद ही देख लीजिये कि छात्र लोग कहाँ हैं|" वे जैसे ही आये हैं पितामह कुछ बोले बिना, उनके टेबल पर रखे एक स्प्रिंगदार घंटी को बजा दिये थे, जिसके बजते ही कोई पिउन या अन्य कोई आ जाते थे| जैसे ही उनको पुलिस आफिसर आते दिखे उन्होंने उस घंटी को केवल एक बार बजा दिया था|   
और जो छोटे छोटे दरवाजे थे, उसके ऊपर झिर्रीदार पर्दा लगा हुआ था, समस्त क्लास से लड़कों के बाहर निकाल जाने के बाद भी कोई उन्हें देख नहीं सकता था| जैसे ही यह घंटी बजाये कि समस्त स्कूल के छात्र बाहर निकाल कर रोड पर आ गये और अपने अपने घर चले गये | वे जाकर खोज रहे हैं, " कहाँ गये तुम्हारे लड़के ?" " न न वे यहाँ कहाँ मिलेंगे, अभी तो मेरे स्कूल में एक भी छात्र नहीं है, छुट्टी जो हो चुकी है|" - कहते हैं, ' नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? '- वे बहुत गुस्सा किये हैं, आँख मुख लाल हो गया है | हेडमास्टरमशाई बोले, " आप स्वयं मेरे स्कूल को देख कर मुयायना कर आइये "| सारा स्कूल छान मारे, एक भी छात्र नहीं मिला| तब उस अंग्रेज साहब ने कहा- " इसका रहस्य क्या है, जरा बताइए तो !"
बोले, " ऐसा कुछ भी नहीं है|" ' Ah, that is a miracle. I have never seen such discipline anywhere else, I go back with the warrant of arrest ' कहे, और किसी को  arrest किये बिना ही वापस लौट गये|
वर्ष १९०१ से लेकर वर्ष १९५३ तक, अर्थात कुल ५२ वर्षों तक पितामह उस स्कूल में रहे थे| स्कूल में जब उनकी सेवा के पचास वर्ष पूरे हुए तो, बहुत समारोह पूर्वक उनकी ' प्रधान शिक्षकता ' की स्वर्ण जयन्ती मनाई गयी थी| वह समारोह बहुत विराट स्तर पर मनाया गया था| 
उसके पहले आशुतोष मुखोपाध्याय के साथ भी उनकी गहरी घनिष्टता थी, बहुत अच्छा परिचय था|       

" हमारे शिक्षक " 'जीवन नदी के हर मोड़ पर [8]

 " विश्व के इतिहासकारों इतिहास "
सतीशचन्द्र दास ( सतीश चन्द्र मुदी) मास्टरमशाई (शिक्षक-महोदय) स्कूल में बंगला पढ़ाते थे| उन दिनों मैं क्लास टेन में पढता था, एक दिन की घटना याद आती है, स्कूल में छुट्टी हो गयी है, सभी लड़के घर चले गये हैं, वे पढ़ा रहे हैं| क्लास के बाद एक घंटा और बीत गया है, हमलोग स्टेचू के जैसा मंत्र मूग्ध होकर उनको सुन रहे हैं, स्कूल कब खाली हो गया पाता तक नहीं चला | उनके पढ़ाने का तरीका भी असाधारण था| लड़के उनको ' मुदी मास्टर ' कहते थे, यह हेडमास्टर महोदय (पितामह ) को अच्छा नहीं लगता था| उन्होंने उनको ' मुदी ' न लिख कर 'दास ' लिखने को कहा|
एवं उसके बाद से वे वही लिखने लगे| उनके मुख पर किसी बात की नाराजगी नहीं दिखती थी| सेवा करना क्या होता है, पितामह की वैसी सेवा इन्होने कर के दिखाया है| पिउन के न रहने पर वे पितामह के थाली-ग्लास भी माँज दिया करते थे| 
नाईन और टेन क्लास को स्कूल के ' सहायक प्रधान-शिक्षक ' तारेश चन्द्र कर महोदय - इतिहास का विषय पढाया करते थे। वे गम्भीर प्रकृति के व्यक्ति थे, किन्तु छात्रों से बहुत प्रेम करते हैं- यह उनके व्यवहार से प्रकट हो जाता था| वे स्कूल में कत्थई रंग का कुरता और धोती पहन कर आया करते थे| क्लास नाईन और टेन के लडकों को इतिहास पढ़ाते थे|
उस समय हमलोग क्लास टेन में थे, वे एक दिन पढ़ाते-पढ़ाते एक पिउन को बुलाये और एक स्लिप में कुछ लिख कर दिये| वह लाइब्रेरी से - " Historian's History of the World " का एक खण्ड ले आया|


 
The Historians' History of the World
वे जिस विषय को उस समय पढ़ा रहे थे, उससे संबन्धित अंश को उसी खण्ड में से खोज कर निकाले- और उसमे से पढ़ कर लडकों को समझा दिये|स्कूल में इतिहास के विषय को पढ़ाने में वे इतने सतर्क रहते थे! अक्सर ही उनको देखता था कि वे क्लास में आने के पूर्व हौल में टहलते टहलते कोई पुस्तक पढ़ रहे हैं 
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[Title page.
The Historians' History of the World, subtitled A Comprehensive Narrative of the Rise and Development of Nations as Recorded by over two thousand of the Great Writers of all Ages, is a 25-volume encyclopedia of world history originally published in English near the beginning of the 20th century. 
It is quite extensive but its perspective is entirely Eurocentric. It was compiled by Henry Smith Williams, a medical doctor and author of many books on medicine, science, and history, as well as other authorities on history, and published in New York in 1904 by Encyclopædia Britannica, it was also published in London printed by Morrison & Gibb Limited, of Edinburgh.Others involved were historian Walter Lynwood Fleming, and Rupert Hughes as editor.]
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" तीन आना ऋण " [जीवन नदी के हर मोड़ पर [7]

' फणीन्द्रनाथ पाल मशाई (महोदय )' हमलोगों के विज्ञान शिक्षक थे| उस समय स्कूल में ही विज्ञान की किस साखा का ज्ञान न दे दिया जाता हो, बता नहीं सकता ! क्या नहीं पढाया जाता था ! फिजियोलोजी से लेकर ज्युओलोजी, बोटनी, फिजिक्स, केमिस्ट्री, एस्ट्रोनोमी, आदि सारे विषय पढाये जाते थे| एवं उस समय किसी स्कूल में लैबरोटरी भी हो यह कल्पना तक नहीं की जा सकती थी, किन्तु हमारे स्कूल में विज्ञान का क्लास लेने के लिये एक अलग बिल्डिंग में गैलरी थी, जिसमे लैबरोटरी थी|  १९४२-४३ तक पश्चिम बंगाल तो क्या पूरे भारत में शायद ही किसी स्कूल लैबरोटरी होगी,और जिसके गैलरी में विज्ञान का क्लास चलता हो, पर हमारे स्कूल में था| 
मेरे विज्ञान के क्लास में एक बार बहुत हँसी की घटना घटित हुई थी| बीच बीच में उसकी याद हो आती है| मास्टर मशाई (मास्टरसाहेब) पढ़ाना शुरू किये हैं, कह रहे हैं - " आज की कक्षा में मैं तुम लोगों को साबुन -निर्माण की विधि पढ़ाऊंगा साथ ही साथ प्रयोगशाला में उसका निर्माण करना भी सीखा दूंगा| परन्तु उससे पूर्व क्या कोई लड़का मुझे यह बता सकता है कि साबुन कैसे तैयार होता है ?"
हम लोग बोले नहीं जानते हैं सर ! 
मास्टरसाहेब (मास्साब ) पुनः चुनौती भरे लहजे में पूछे- " साबुन का निर्माण करना तो उतना कठिन कार्य नहीं है, कोई नहीं जानता ?" 
तब एक लड़के के मन में विचार उठा कि, यह तो पूरे क्लास के लड़कों के लिये लज्जा की बात होगी, वह खड़ा हो कर बोला- " आमी जानि सर "! मैं जानता हूँ सर, सर ने कहा - ' बलो '| उसने कहा -" मैं ने एकबार साबुन बनते हुए अपनी आँखों से देखा था सर "| सर ने पूछा, ' अच्छा बताओ क्या देखे थे?' तब वह बताना शुरू किया - " पहले तो मैंने देखा कि वहाँ एक बहुत बड़ा सा चूल्हा था, सर ! और उस पर एक बहुत बड़ा सा कड़ाह चढ़ाया हुआ था! उस कड़ाह में न जाने क्या दो , एक ठो कुछ डाल दिया सर ! उसके बाद फिर (फिन से और कुच्छो) उसमे डाल दिया सर! चूल्हे से बहुत आँच ऊपर कि ओर उठने लगी| उसके बाद एक विशाल आकर के डब्बू जैसे चीज से हिलाने लगा- और साबुन बन गया सर !" 
उसके भोलेपन से भरे उत्तर को सुन कर, सारे क्लास के लड़के ठहक्का मार कर हँसने लगे ! कितने आनन्द से भरे दिन कटे हैं, उनकी यादें भुलाये नहीं भूलतीं |  
सतीश चन्द्र दास मशाई हमलोगों को बंगला पढ़ाते थे| वे इन्टरमिडीयट तक पढ़े थे | बाद के जीवन में कुछ दिनों तक स्काटिश चर्च कॉलेज में पढ़ा हूँ, उस समय वहाँ बंगला के विख्यात विख्यात अध्यापक थे, अंग्रेजी के थे, विभिन्न विषयों के थे| हमलोगों के स्कूल के ही दो छात्र उस समय स्काटिश चर्च कॉलेज के प्रोफ़ेसर थे | वे हमारे ही स्कूल के प्रोडक्ट थे, इस दृष्टि से ' सतीर्थ ' कहा जा सकता है|
उनमे से एक हमलोगों को बंगला पढ़ाते थे, और दूसरे मैथेमेटिक्स पढ़ाते थे| जो मैथेमेटिक्स पढ़ाते थे
वे ' ईषान स्कालर ' थे|( ?)हमलोगों के स्काटिश चर्च से निकल जाने के बाद, स्काटिश चर्च में पढ़ाते पढ़ाते वे भी आई .आई. टी. खड़कपुर चले गये थे| वहाँ पर कितने दिनों तक थे यह ज्ञात नहीं है, वहाँ पढ़ाते समय भी अमेरिका के विभिन्न विश्वविद्यालयों में ' भिजिटिंग प्रोफ़ेसर ' के रूप में मैथेमेटिक्स पढ़ाने जाया करते थे|
स्काटिश चर्च कॉलेज में जो हमारे बंगला के प्रोफ़ेसर थे उनका नाम था- विपिन कृष्ण घोष, और स्कूल के बंगला पढ़ाने वाले शिक्षक थे सतीश चन्द्र दास महाशय, किन्तु वे दोनों स्वयं भी हमारे स्कूल के ही छात्र थे| वे दोनों अद्भुत मनुष्य थे, असाधारण मनुष्य थे|
" कार कथा बलबो, आर कार कथा ना, कतटा बलबो, आर कतटा बलबो ना ! "
' किसे भूलूं किसे याद करूँ ?' - ' कितना कहूँ और कितना छोड़ दूँ ?'
कॉलेज स्ट्रीट में - जहाँ पर पहले महामण्डल का ऑफिस हुआ करता था, उसके पीछे वाली गली में एक मेस था, जो किसी बिल्कुल ही जीर्ण-शीर्ण दोतल्ला या तीन तल्ला मकान में था| उसी मेस के एक कमरे में वे ( विपिन कृष्ण घोष ) रहा करते थे| अक्सर मेस (लौज में) में सीढ़ी से चढ़ने पर, जहाँ वह सीढ़ी मुड़ती है, उसके सामने ही कई लोग एक छोटा सा कमरा बनवा देते हैं, एक दम छोटा सा कमरा | उसी एक छोटे से कमरे में वे रहते थे|
कमरे में एक छोटी सी चौकी रखी हुई थी| किन्तु वह चौकी तो सर्वदा   पुस्तकों से भरी रहा करती थी; इसीलिये सीढ़ी जहाँ से मुड़ती थी, वहाँ से दो धाप (स्टेप) नीचे उतर कर कमरे में प्रवेश करते और और नीचे फर्श पर ही चटाई बिछा कर सो जाते थे| ऐसा साधारण रहन सहन, किन्तु तीन कालेजों में अध्यापन करते थे| स्काटिश चर्च कॉलेज में बंगला पढ़ाते थे, हावड़ा के नरसिंह दत्त कॉलेज में तथा सेंट लुईस कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाते थे|
क्योंकि वे अत्यन्त अल्प-वित्त परिवार में जन्म ग्रहन किये थे, इसीलिये मासिक शुल्क चुका कर स्कूल में पढने की क्षमता नहीं थी | उनके पिताजी उनको लेकर हमलोगों के स्कूल के हेडमास्टर पास गये, और यह कहते हुए आँखों में आँसू आ गये कि, " मैं अपने लड़के को आपके स्कूल में देना चाहता हूँ, किन्तु मासिक शुल्क देने में कष्ट होगा, क्या फ्री कर देंगे ? " और वह हो गया ! रामायण - महाभारत के पात्रों का जैसा अपूर्व चरित्र उनके जीवन से प्रतिबिम्बित होता है, इन लोगों के जीवन को भी उनसे थोड़ा भी कम करके नहीं आँका जा सकता|         
उस समय भूगोल की एक पुस्तक का मूल्य तीन आना था, किन्तु उनके अभिभावक के पास, उनके लिये  भूगोल की नयी पुस्तक खरीद पाने की क्षमता भी नहीं थी| इसीलिये किसी अन्य छात्र से भूगोल की पुस्तक को मांग कर उनकी माँ और उनके ' बड़दादा ' (बड़ेभैया) ने - सम्पूर्ण पुस्तक को हाथ से लिख कर उनको दिया था| और इस तीन आने का जो ऋण उनके ऊपर था- उसका पाई-पाई उन्होंने चुकता कर दिया था ! 
उस समय आन्दुल में एक बड़ा सा जेनरल स्टोर हुआ करता था, जिसमे घर के जरुरत के सारे समान मिल जाते थे, साथ साथ उसमे कॉपी- किताब, पेंसिल रबड़ आदि भी मिलते थे| उस दुकान में उनका ३००/=(तीन सौ रुपया) सदा जमा रहा करता था| और दुकान के मालिक को उनका निर्देश था
कि - " कोई भी गरीब का लड़का या लड़की आपके पास, से किताब-कॉपी या पेन्सिल आदि - जो भी लेना चाहते हो उनको दे दीजियेगा और आपके पास जमा रुपया कम पड़ जाय तो मुझसे कहियेगा | "   

अब वे तीन कालेजों में पढ़ाते थे|कलकाता में भी उनके कई छात्र-छ्त्रायें ऐसे थे जनके पास धन की थोड़ी कमी थी, जिसके कारण वे परीक्षा शुल्क चुकाने में असमर्थ थे, या कॉलेज का फी नहीं दे पा रहे थे उनके लिये भी वे अपने पास से व्यवस्था कर देते थे, या उनके लिये भी पुस्तकें भी खरीद दिया करते थे| इस प्रकार से लड़के -लडकियों के लिखने-पढने के लिये उन्होंने उस जमाने में भी तीन लाख रूपए दिये थे|
कितने वर्षों पहले इतना दान कर दिये, और जब लगभग बिल्कुल फकीर हो गये तब, आन्दुल में एक कॉलेज के स्थापना की बात चलने लगी|
 वहाँ के जो लोग कॉलेज खोलने के लिये प्रयासरत थे, वे लोग उनसे मिलने एक दिन मेस में पहुंचे| उनसे बोले- " विपिन दा आन्दुल में हमलोग कॉलेज खोलना चाह रहे हैं, क्या इसमें आप अपना कुछ सहयोग नहीं करेंगे ?" 
उन्होंने बताया- " मेरे पास अब देने के लिये ज्यादा कुछ बचा हुआ नहीं है|" उनलोगों ने कहा - " आपको यहाँ से कुछ नहीं देना होगा, आन्दुल- मौड़ी पोस्टऑफिस में आपका एक आकाउंट (बचत-खाता) है न ? "उन्होंने कहा - " हाँ, एक खाता बहुत दिनों पूर्व वहाँ था, किन्तु कई वर्षों से मैंने उसे operate नहीं किया है, खाता खोलने के बाद उसमे न तो कुछ जमा किया, न निकाला हूँ|"

वे लोग बोले - " वह सब आपको नहीं सोचना है, हमलोग एक withdrawal form साथ में लेकर आये हैं, आप तो बस एक दस्तखत कर दीजिये, वहाँ जितना भी है हमलोग निकाल लेंगे |" और उनलोगों ने आन्दुल कॉलेज के लिये उनका वह बचा-खुचा पैसा भी निकाल लिया |
मेस के जिस कमरे में वे रहते थे, उसके सारे दीवाल पर केवल ठाकुर के (श्रीरामकृष्ण के), चेहरे का चित्र सटा हुआ था| अपने कमरे के सारे दीवालों को उन्होंने ठाकुर के चेहरे से ढँक रखा था|अर्थात कमरे में प्रवेश करने के बाद वे ठाकुर के चेहरे के सिवा अन्य कुछ भी देखना नहीं चाहते थे|

 प्रत्येक रविवार को वे कॉलेज स्ट्रीट से पैदल ही चलकर दक्षिणेश्वर पहुँच जाते थे|फिर दक्षिणेश्वर से बालि-ब्रिज पार करके पैदल ही बेलुड़ मठ दर्शन करके वहाँ से भी पैदल हावड़ा ब्रिज होते हुए कॉलेज स्ट्रीट के मेस में लौट जाते थे| यही उनके प्रत्येक रविवार का कार्य था|
बुढ़ापे के समय उतनी शक्ति न रही, कालेज की नौकरी भी समाप्त हो गयी और वे सभी कालेजों से रिटायर हो गये | रिटायर हुए, अर्थात वे बंगला साहित्य के एम्. ए. कोर्स में फर्स्ट-क्लास-फर्स्ट थे, अंग्रेजी में फर्स्ट-क्लास-सेकण्ड, और बी.टी. में भी फर्स्ट-क्लास फर्स्ट थे! तीन कालेजों में अंग्रेजी और बंगला पढ़ाते थे| पार जब उनका सारा रुपया ख़त्म हो गया तो, अपने गाँव लौट आये|
आन्दुल-मौड़ी ग्राम के सभी घरों में उनका कोई न कोई छात्र था ही, इसीलिये किसी छात्र के घर पर सुबह में जा कर कहते- " आज दोपहर के समय तुमलोगों के घर में कुछ खाना चाहूँगा |"  वे कहते " हाँ हाँ आइयेगा सर, आइयेगा सर |"संध्या के समय भी किसी के यहाँ जाकर बोल आते- " आज रात का भोजन तुम्हारे यहाँ करूँगा |"
रिटायर होने के बाद वे जितने भी दिन जीवित रहे, इसी तरह जीवन बीता दिये, किन्तु अपना सर्वस्व दूसरों के कल्याण में समर्पित कर गये ! अपने कमरे में ठाकुर के चेहरे के सिवा किसी का चेहरा 
नहीं देखे | अपने लिये इलेक्ट्रिक-फैन तो क्या, कभी हाथ-पंखा का व्यवहार भी नहीं किये थे | मैं कभी कभी उनके यहाँ जाया करता था|
 एक दिन देखा कि, वहाँ एक हाथ-पंखा रखा हुआ है| जब उन्होंने मुझे पंखे की ओर देखते हुए देखा तो, समझ गये| वे कहने लगे- " क्या करता, एक बहुत मोटी सी लड़की कुछ दिनों के लिये पढने आती थी, उसको गर्मी बिल्कुल बर्दास्त नहीं थी, उसी के लिये हाथ-पंखा खरीदना पड़ गया था |" उन्होंने जीवन में कभी हाथ पंखे की हवा तक नहीं खायी थी, जीवन में कभी इलेक्ट्रिक का फैन भी नहीं चलाया| 

उनका शरीर जब एकदम अस्वस्थ रहने लगा तब डाक्टर ने कहा था- " रात के समय दही और सन्देश (बंगाल की एक प्रसिद्ध मिठाई ) के सिवा और कुछ मत खाइएगा |" लोगों को बताते थे, " थोड़ा दही दे ले आता हूँ, एक-दो सन्देश ले आता हूँ, रात के समय वही खाता हूँ|" 
किन्तु दही और सन्देश का स्वाद जीभ को अच्छा लगने लगेगा, इससे बचने के लिये वे दही-सन्देश में एक निम्बू, थोड़ा नमक, और ऐसा ही कुछ घोंट-घांट कर खा लेते थे| ऐसे ऐसे मेरे शिक्षक थे- स्कूल के जिस तरह, उसी तरह कालेज के भी शिक्षक थे|       

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

चार ही वर्षों में स्कूली शिक्षा समाप्त ' जीवन नदी के हर मोड़ पर 6]'


बचपन में घर पर रहते समय हमलोगों को पढ़ाने लिखाने की अलग से कोई विशेष व्यवस्था नहीं की गयी थी| दो-चार दिन के लिये घर पर पढ़ाने के लिये, एक-दो लोग आये जरुर थे, किन्तु आते ही बाबूजी को या पितामह से कहने लगते -" आमादेर आसते बलबेन ना, उरा पड़बे ना "! -हमलोगों को और आने मत बोलियेगा, ये दोनों पढने वाले नहीं हैं!"
मेरे बड़े भाई उम्र में मुझसे बहुत ज्यादा बड़े नहीं थे, मेरे दादा (बड़े भाई) और मेरी उम्र में २ वर्ष से भी कम का अन्तर था| 
इस प्रकार घर में रहकर पढाई करने की कोई खास व्यवस्था न हो सकी थी| आजकल जैसे तीन वर्ष होते न होते स्कूल भेज दिया जाता है, उस प्रकार बचपन से ही स्कूल जाने की बात तो दूर रही, हम दोनों भाइयों ने अपने बचपन में कभी स्कूल का मुख तक नहीं देखा था| थोड़ा बड़े होने पर माँ पितामह को कहने लगीं- ' इन लोगों के पढने लिखने की कोई व्यवस्था नहीं करेंगे ?' उन्होंने कहा - ' हाँ हाँ, होगा '| पहली बार सीधा आन्दुल-मौड़ी के स्कूल के ' क्लास सेवेन '(7th) में ही नाम लिखवाया गया| हमदोनों भाई एक क्लास में, एक साथ पढ़े हैं| क्लास सेवेन,ऐट, नाइन और टेन चार वर्ष की शिक्षा में- स्कूल की पढाई समाप्त हो गई थी|
 किन्तु उस समय के शिक्षक भी कैसे कैसे थे ! ' अमलराय मास्टरमशाई ' (अमलराय मास्टरमहोदय)- हमलोगों को अंग्रेजी पढाया करते थे| उन्होंने हमलोगों को क्लास सेवेन में ही अंग्रेजी का ग्रामर और Conjugation इत्यादि को इतने अच्छे तरीके से समझा दिया था, कि अंग्रेजी का जड़ ही मजबूत हो गया|
 सुबोध कुमार चटखंडी महोदय हमलोगों को भूगोल पढ़ाते थे| उनका भारीभरकम चेहरा था, वे जब क्लास में आते तो एक हाथ में बहुत बड़े साइज़ का लपेटा हुआ मैप (भौगोलिक नक़्शे) का बंडल हुआ करता और दूसरे हाथ में एक बेंत| प्रथम दिन जब उनको देखा तो मन में विचार उठा, ' उ बाबा - इनि कि आबार बेंत दिये मारबेन नाकि ? ' ( अरे बाप, ये इस बेंत से मारेंगे क्या ?) ' उमा ता नय ' (अर्थात वैसी कोई बात नहीं थी)| 
प्लेटफॉर्म के ऊपर शिक्षक के बैठने के लिये टेबल और चेयर है, बगल में एक ब्लैकबोर्ड रखा है, जिस दिन जिस देश के बारे में पढ़ाना होता, उस दिन उसी देश का मैप ब्लैकबोर्ड के ऊपर टांग देते थे| और चेयर के ऊपर बैठे बैठे उस बेंत के द्वारा नक़्शे पर उस स्थान विशेष को दिखा दिखा कर पढ़ाते थे|
उनके पढ़ाने का तरीका भी अलग ही ढंग का था |बीच बीच में पढाये गये अंश के बारे में पूछ भी लेते थे- ' तूमि बलो ' ! अर्थात ' तुम बताओ अभी मैं क्या पढाया ?' 
जो लड़का उत्तर न दे पाता उसे खड़े ही रहना पड़ता था, फिर उसके बाद वाले लड़के की बारी आती -
' तूमि बलो '! वह भी खड़ा रह गया, फिर ' तूमि बलो ' वह भी खड़ा रह गया | अब चौथे लड़के की बारी आयी- ' तूमि बलो '! हो सका तो उसने ठीक ठीक बता दिया| तब मास्टर महोदय उसको आदेश देते-
 " काने पाक थाबड़ा लागाउ "! (अर्थात कान ऐंठ कर हलके से चपत लगाओ !) 
तात्पर्य यह कि सही उत्तर देने वाला - उन लडकों के कान ऐंठ कर आस्ते से चपत लगाएगा जिन्होंने सही उत्तर नहीं दिया है| यह उनकी अपनी निराली पद्धति थी| एक दिन मेरा भी दुर्भाग्य हुआ| मेरे पहले बैठे कई लड़के सही उत्तर नहीं दे सके, तो मुझको आदेश दिये- " काने पाक थाबड़ा लागाउ "! 
आवाज को धीमा रखते हुए, पूरी विनम्रता के साथ मैंने कहा, ' सर, यह कार्य मैं नहीं कर पाउँगा, यह करने मुझे मत कहिये गा|'उस दिन के बाद भूगोल की कक्षा में से- " काने पाक थाबड़ा लागाओ " की प्रथा, अर्थात " कनैठी देकर थपड़ीया दो " वाली प्रथा का अन्त हो गया |

मंगलवार, 30 मार्च 2010

शिक्षक के रूप में पितामह -श्री शिरीषचन्द्र मुखोपाध्याय [जीवन नदी के हर मोड़ पर -5] थॉमस ग्रे द्वारा लिखित 'elegy' शोकगीत

इस स्कूल के समस्त शिक्षकगण भी असाधारण थे और उनके पढ़ाने का तरीका भी निराला था! आन्दुल-मौड़ी ग्राम में आपको कई ऐसे परिवार मिल जायेंगे, जिनकी तीन पीढ़ियाँ इस स्कूल के एक ही  प्रधान शिक्षक के छात्र रहे हैं|हमारे परिवार की भी तीन पीढ़ियाँ इसी स्कूल के छात्र थे| 
मेरे ' बड़दादू ' अर्थात पितामह के अग्रज थे यतीश चन्द्र, पितामह शिरीष चन्द्र, और उनसे भी छोटे भाई थे विभूति भूषण | विभूतिभूषण इसी स्कूल में पढ़े हैं| मेरे बाबूजी, मेरे दोनों काका अर्थात ' बड़दादू ' यतीश चन्द्र के दोनों पुत्र - देवदेव और राजराज भी इसी स्कूल में पढ़ते थे|पितामह के भगिना लोग भी इसी स्कूल में पढ़ते थे| इसीलिये हमलोगों के तीनपुरुष (तीन पीढ़ियाँ) इसी एक स्कूल में और एक ही प्रधान शिक्षक के छात्र रहे हैं| 
मेरे पितामह ने वर्ष १९०१ से इस स्कूल को ज्वाइन किया था, तब से वहाँ अध्यापन करना प्रारम्भ किये थे| वर्ष १९०२ में स्वामी विवेकानन्द ने जब अपना शरीर त्याग दिया तब, उन्होंने स्कूल में ही उनकी स्मृति में एक स्मरण-सभा का आयोजन भी किया था| उस सभा में स्कूल के प्रधान-शिक्षक ने अंग्रेजी में भाषण देते हुए अपने छात्रों को बताया था कि दक्षिणेश्वर के मन्दिर में (पंचवटी के निकट ) स्वामीजी को अपने सामने प्रत्यक्ष खड़े होकर भाषण देते हुए देखने और सुनने पर उन्हें किस अलौकिक आनन्द कि अनुभूति हुई थी। उस दिन कि स्मृति-सभा में कई असाधारण कोटि के छात्र भी उपस्थित थे, उन सबके बारे में यदि कहने लगूँ तो एक महाभारत की ही रचना हो जाएगी ! 
उन्हीं में से एक छात्र ने ' माष्टारमशाई '(शिक्षकमहोदय ) के मुख से जो भाषण सुना उसे उसे साथ ही साथ यथासंभव लिखते भी चले गये और बाद में उनको दिखला कर त्रुटिरहित बनाकर छपवाया| छात्रों के बीच उस भाषण का वितरण किया गया था| उस भाषण के साथ इस प्रसंग का उल्लेख, अध्यापक शैलेन्द्र नाथ धर ने अपनी पुस्तक- " A Comprehensive Biography of Swami Vivekananda " नामक ग्रन्थ में भी किया है| इसी अंचल (आन्दुल- मौड़ी) के एक व्यक्ति रामकृष्ण मठ मिशन में सन्यासी हुए थे| उनको भी कहीं से यह ज्ञात हो गया था कि जिस दिन पितामह दक्षिणेश्वर गये थे और स्वामीजी को देखे थे वह, दिन वर्ष १८९७ का ७ मार्च ही था| उन सन्यासी महाराज ने अमेरिका में रामकृष्ण मठ मिशन का कार्य काफी लम्बे समय तक किया था, और बाद में वहीँ उनका देहान्त भी हो गया था| 
उसी स्कूल में पढ़ाते हुए शिरीष चन्द्र काफी वर्ष बीता दिये थे| वे वहाँ पर शेक्सपीयर की उन्हीं  रचनाओं को पढ़ाते थे, जिसके ऊपर प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ते समय स्वयं अभिनय भी किये थे| वहाँ के छात्रों को शेक्सपीयर पढ़ाते समय उस स्व-अभिनीत नाटक ' हैमलेट ' के संवादों को बंगला में अनुवाद करके पढाया करते थे| एक बानगी देखिये -

" हउ तूमि स्वस्तिकात्मा कोन  
किम्वा कोन पिशाच पातकी
एने थाको साथे करे सवर्ग ह'ते सूपवन, किम्वा झंझावात नरकेर,
चाहे प्राण चाय सस्तुषी तोमाय, राजराजेश्वर ||"

" Be thou a spirit of health,
or goblin damned..
bring with thee airs from heaven, or blast from hell..
be thy intents wicked or charitable..
I'll call thee Hamlet..king,father..royal Dane."

हिन्दी अनुवाद कुछ इस प्रकार होगा -
" हो कोई स्वस्तिक-आत्मा तुम,
या शापित प्रेतामात्मा हो तुम ?
संग में अपने स्वर्ग से सुगन्धित पवन लाते हो,
 या नरक से झुलसाने वाली झंझावात ?
मनोरथ चाहे तुम्हारा हितैषी हो या दुष्टता पूर्ण,
प्राण यही चाहता की पुकारूँ तुम्हें -
राजराजेश्वर ! पिता-हैमलेट !!"
 इतने ही प्रेम के साथ वे छात्रों को Gray's " Elegy Written in a Country in a churchyard " भी पढाया करते थे| उन्होंने सम्पूर्ण Gray's Elegy को बंगला में अनुवाद किया था| अभी कुछ ही समय पूर्व इस बंगला अनुवाद को पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया है|
( Elegy का अर्थ होता है ' शोक गीत '  या मौत के अवसर पर पढ़ी जाने वाली ' मर्सिया ', इस शोक-गीत को कवि ने किसी गाँव के कब्रिस्तान में बैठ कर लिखा था, Thomas Gray's की इस रचना को सर्वप्रथम १७५१ ई में प्रकाशित किया गया था|)
इसी ' Gray's Elegy ' या किसी ग्राम्य कब्रिस्तान में बैठकर थॉमस ग्रे द्वारा लिखित शोकगीत को मेरे पितामह जब क्लास में पढ़ाते तो उसे बंगला में अनुवाद करके अपने छात्रों को पढ़ाते हुए इस प्रकार सुनाते थे - 

" सांझेर झाँजरे गाजे दिवा अवसान ,
मन्थरगामिनी गाभि प्रान्तरेर पारे;
हम्बा रवे डाकि डाकि चली आसे आँकीबाँकी,
श्रान्तपदे गृहमुखे फिरिछे कृषान
विसर्जि ब्रह्माण्ड एबे आँधारे आमारे || "


हिन्दी भावानुवाद :
" सांझ के समय गौओं की झुण्ड,
मंथर गति से ग्राम की और लौट रहीं हैं,
 ग्राम की टेढ़ी-मेढ़ी सड़कों पर हम्बा-हम्बा कहकर
 लौटती हुई गौओं के पीछे-पीछे-
थाके-मांदे पग रखते हुए किसान भी 
अपने घर में लौट जाता है,
तब मेरे और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में मानो अँधेरा छा जाता है !"
इस प्रकार कक्षा में वे छात्रों को पढ़ाते समय मन-प्राण निवेशित करके पढ़ाते थे| 

एक बार कक्षामें ' विद्यासागर महाशय ' (ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ) के सम्बन्ध में कुछ पढ़ा रहे थे| इनदिनों मेरी स्मरण शक्ति कुछ कमजोर हो गयी है, किन्तु उस दिन विद्यासागर महाशय के सम्बन्ध में पढ़ाते हुए जो बोले थे, उसे कोशिश करने से लगता है मैं आज भी दुहरा सकता हूँ -

" जिनके द्वारा रचित 'वर्ण परिचय ',
 बंग-वासियों का वर्ण परिचय हो गया
जिनके द्वारा रचित ' बोधोदय 'से , 

बंगाल के लोगों में बोधोदय हो गया, 
जिसके विवाह में ( विधवा -विवाह में), 
और बनवास में (सीता का बनवास में)
बंग-वासी आज भी रो पड़ते हैं, 
जिनके करुणा के सागर में प्रेमगगन
 रूपी नीलिमा मिश्रित हुई है'
" - सेई  विद्यासागर के प्रणाम ! "
- ऐसे विद्या के सागर को मैं अपना प्रणाम निवेदित करता हूँ !"
मेरा स्कूली जीवन जिस आनन्द में बीता है, उससे जुड़ी हुई जितनी यादें हैं, उन सब को पूरी तरह से बता पाना मेरे सामर्थ्य से बाहर है|
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एक ग्राम्य कब्रिस्तान में बैठकर थॉमस ग्रे द्वारा लिखित शोकगीत

the Elegy Lines 1-4:

" The Curfew tolls the knell of parting day,
the lowing herd wind slowly o'er the lea,
the plowman plods his weary way,
And leaves the world to darkness and to me. "


In the first stanza, the speaker observes the signs
of a country day drawing to a close:
A curfew bell ringing, a herd of cattle moving across the pasture,
and a farm laborer returning home.

The speaker is then left alone to contemplate
the isolated rural scene.
the first line of the poem sets a distinctly somber tone:
The curfew bell does not simply ring;
it " Knells " - 
- a term usually applied to bells rung at a death or funeral.
in this way from the start of the poem, Gray reminds us-
of human mortality.}

An elegy is a poem which laments the dead. Gray's " Written in a Country Churchyard " is noteworthy in that it mourns the death not of great or famous people,but of common men. The speaker of this poem sees a country churchyard at sunset,which impels him to meditate on the nature of human mortality. 
The poem invokes the classical idea of ' memento mori ' - a Latin phrase which states plainly to all mankind, " Remember that you must die." The speaker considers the fact that in death, there is no difference between great and common people. Or the Death is a great leveler !

" Gray's Elegy " is one of the best-known poems about death in all of European literature.The poem presents the reflections of an observer who, passing by a Churchyard that is out in a country,stops for a moment to think about-the significance of the strangers buried there !!

Scholars of medieval times sometimes kept human skulls on there desktops,
to keep themselves conscious of the fact -that someday they, like the skulls' former  occupants, would die;from this practice we get the phrase 
" Memento mori "
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" आन्दुल-मौड़ी प्रियूनिवर्सिटी स्कूल " [जीवन नदी के हर मोड़ पर -4]


मेरे पितामह ने वकालत के पेशे को ठुकरा दिया: परवर्तीकाल में (प्रेसिडेंसी कॉलेज से पढाई पूरी करने के बाद) पितामह ने "ओर्डिगनाम कम्पनी " (Orr Dignam & Co, The well -known Solicitors; as mentiond by Montague Massey.) में योगदान किया था, किन्तु इसी बीच मेरी पितामही की मृत्यु होगई| तब उन्होंने तय किया कि मैं अपनी आजीविका के लिये क़ानूनी पेशे में नहीं जाऊंगा, क्योंकि किसी विधवा की सम्पत्ति को हड़पने की नियत से कोई व्यक्ति मेरे पास मुकदमा लेकर आयेगा, तो ? ...  मैं इस तरह के मुकदमों की पैरवी नहीं कर पाउँगा| इस प्रकार क़ानूनी व्यवसाय को उन्होंने त्याग दिया| 

इसी बीच प्रसिद्ध अंग्रेजी अख़बार स्टेट्समैन में एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ -" Wanted Headmaster for Andul H.C.E.School, Howrah, Consolidated pay Rs.100 " हावड़ा जिले के ' आन्दुल-मौड़ी ' को एक जुड़वे-ग्राम के रूप में जाना जाता था| 





(New Andul Higher Class School got its birth on 10th February 1941after the Kundu Chaudhurys renamed the century old ANDUL HIGHER CLASS ENGLISH SCHOOL to bear their flag. Behind the establishment of this school at this sight there was a long struggle of "Andul H.C.E. School Samman Rakshan Samity".)
आन्दुल का राजमहल आज भी विद्यमान है, तथा मौड़ी ग्राम के जमींदारवंश के कुंडू चौधरी एवं मल्लिक वंश के योगेन्द्रनाथ मल्लिक काफी धनाड्य व्यक्ति थे, उन्होंने ही वर्ष 1841 में इस स्कूल की स्थापना की थी| यह एक प्रि-यूनिवर्सिटी स्कूल था, (2016 में इसका 175 वाँ वर्षगाँठ मनाया जायेगा -पूज्य नवनी दा भी जाने वाले हैं ) और उस समय वहाँ प्रधान शिक्षक का पद रिक्त था| उस समय तक भारतवर्ष में एक भी विश्वविद्यालय नहीं था| जहाँ तक मुझे याद है, वर्ष 1859 में सर्वप्रथम तीन स्थानों पर -   कलकाता, बम्बई और मद्रास में, तीन यूनिवर्सिटी स्थापित हुई थी| इसके पूर्व तक भारतवर्ष में एक भी यूनिवर्सिटी नहीं था| किन्तु आन्दुल का यह स्कूल प्रि-यूनिवर्सिटी था ! 

और वर्ष 1853 से 1856 तक सर आशुतोष मुखोपाध्याय (जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के पिता) के बड़ेचाचा दुर्गाप्रसाद मुखोपाध्याय इस स्कूल के प्रथम प्रधान शिक्षक थे; एवं आशुतोष मुखोपाध्याय के पिता गंगाप्रसाद मुखोपाध्याय इसी स्कूल के छात्र थे|  संस्कृत श्लोकों के उद्भट- संग्रह्कार, कविभूषण पूर्णचंद्र दे महाशय भी हमारे स्कूल में कुछ दिनों तक प्रधान शिक्षक रहे थे| उन्होंने सम्पूर्ण भारत में प्रचलित लगभग पाँच हजार उद्भट श्लोकों का संग्रह किया था| उनके द्वारा लिखित
' उद्भट-श्लोक-संग्रह ' नामक पुस्तिका में चुने हुए 360 श्लोक हैं।  कलकाता के किसी मकान में अनेक पण्डित आएथे, इनके माध्यम से ही उन्होंने लगभग 3000  श्लोकों का संग्रह किया था|
सधारायणतया ' उद्भट ' कहने से हमलोग अलौकिक या अद्भुत समझते हैं, यहाँ वैसा नहीं है फिर भी कई श्लोकों को तो निश्चय ही अद्भुत कहा जा सकता है| क्योंकि एक-एक श्लोकों में आश्चर्यजनक तरीके से किसी विशेष परिस्थिति के संकट एवं संकटमोचन का सूत्र  उपलबध है। तथा विशेष परिस्थितियों में उनके प्रभावों का उल्लेख भी है। एक उदहारण देखिये- 

विद्या विवादाय धनं मादाय, 
शक्तिः परेषाम परपीड़नाय। 
  खलस्य साधोः विपरीतमेतत, 
        ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।।      

- अर्थात विद्द्या, धन-सम्पत्ति और शारीरिक शक्ति खल-व्यक्ति (या दुर्जन) और साधू-व्यक्ति (सज्जन) दोनों पर अलग-अलग प्रभाव डालते हैं। विपरीत अर्थात एकदम उलटे फल प्रदान करते हैं| दुर्जन या खल व्यक्ति को अगर विद्द्या मिल जाय तो विवाद करने में खर्च होती है, धन-सम्पत्ति यदि मिल जाय तो उनमे बहुत अहंकार भर जाता है, और अपनी शारीरिक-शक्ति का दुष्प्रयोग वे दूसरों को कष्ट पहुँचाने में करते हैं| जब की सज्जन व्यक्ति विद्या का उपयोग ज्ञान के लिये, धन को दान के लिये और शारीरिक शक्ति को दूसरों की रक्षा में वलगाता है।  
 बहरहाल , शिरीषचन्द्र (पितामह) ने जब विज्ञापन देखा तो उस स्कूल में ' प्रधान-शिक्षक ' के पद पर नियुक्ति पाने के लिये अपना आवेदन-पत्र भेज दिया| वहाँ से साक्षात्कार का बुलावा आया, और वे वहाँ चले गये। वहाँ पर स्कूल से संबन्धित लोगों ने उन्हें सूचना दी कि यहाँ एक डाक्टर हैं जो इस स्कूल कि व्यवस्था भी देखते हैं, उनका नाम डा० बाबुराम मुखोपाध्याय है| वे केवल एक डाक्टर ही नहीं बल्कि विद्वान् व्यक्ति भी हैं, वे ही आपसे बातचीत करेंगे (या आपका साक्षात्कार लेंगे)|
उनके साथ मुलाकात हुई, बातचीत हुई| साक्षात्कार क्या लेंगे, बातचीत होने पर पता चला कि दोनों ही शेक्सपीयर के घोर प्रशंसक हैं। जो बाबुराम डाक्टर के नाम से वहाँ विख्यात थे उनका वास्तविक नाम अमर चाँद मुखोपाध्याय था। तथा इधर जो साक्षात्कार दे रहे थे, वे थे शिरीष चन्द्र मुखोपाध्याय ! दोनों के बीच शेक्सपीयर को लेकर बहुत लम्बे समय तक आनंददायी बातें होते रहीं, इस चर्चा में दोनों के आनंद का कोई ठिकाना न था।  शेक्सपीयर के अतिरिक्त उन दोनों के बीच अन्य कोई बात तो हुई ही नहीं।  और इस प्रकार वर्ष 1901 में पितामह इस स्कूल के ' प्रधान-शिक्षक ' के पद पर नियुक्त हो गये, तथा तब से उस विद्यालय में उनका शिक्षादान का कार्य आरम्भ हो गया। 
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सोमवार, 29 मार्च 2010

जीवन नदी के हर मोड़ पर [3] ' प्रेसिडेंसी कॉलेज का कम्बाइन्ड कोर्स 'जीवन नदी के हर मोड़ पर [3]

प्रेसिडेंसी कॉलेज : हैमलेट की भूमिका में पितामह 

पितामह और उनके अग्रज, दोनों भाई प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ते थे| उन दिनों प्रेसिडेंसी कॉलेज में दो प्रकार के कोर्स पढाये जाते थे, एक सिंगल कोर्स दूसरा कम्बाइन्ड कोर्स|दोनों भाइयों ने कम्बाइन्ड कोर्स में पढाई पूरी की थी|अतः उनको फिजिक्स,केमिस्ट्री और मैथेमेटिक्स के साथ साथ हिस्ट्री और फिलासफी पढने का भी अवसर मिला था, वहीँ अंग्रेजी साहित्य का विषय तो खैर दोनों ही कोर्स में अनिवार्य रूप से पढना पड़ता था| किन्तु अंग्रेजी पढ़ाने वाले प्रोफ़ेसर गण भी अंग्रेज ही हुआ करते थे, Tawney, Percival आदि अंग्रेजी साहित्य के बड़े प्रसिद्ध अंग्रेज अध्यापक थे| उनलोगों ने आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय से केमिस्ट्री पढ़ा था और आचार्य जगदीश चंद्र बसु उन्हें फिजिक्स पढाया करते थे, वहीँ Tawney, Percival जैसे प्राध्यापक उन्हें अंग्रेजी साहित्य पढ़ाते थे|
छात्र अवस्था में ही, अर्थात प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ते समय ही कोलकाता और आसपास के प्रबुद्ध समाज में दोनों भाइयों का नाम फ़ैल चुका था- कि दो बड़े ही अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न लड़के प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढाई कर रहे हैं| कॉलेज में एकबार शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक ' हैमलेट ' के मंचन कि व्यवस्था हुई थी, और उस नाटक में पितामह ने बहुत सुन्दर, यादगार अभिनय कर के दिखाया था
उनके अभिनय को देखकर एक अंग्रेज अध्यापक ने उनके अभिनय से अभिभूत होकर कहा था- " He acted like Beerbohm Tree !" उस समय हर्बर्ट बिर्भोम ट्री (Herbert Beerbohm Tree) इंगलैंड में शेक्सपियर के नाटकों में अभिनय करने वाले एक विख्यात अभिनेता थे और विशेष तौर से ' हैमलेट ' का किरदार निभाने के लिये प्रसिद्ध थे|

किन्तु पितामह के अभिनय को देखने के बाद सभी दर्शकों का यही कहना था कि - हैमलेट की भूमिका निभाते समय उनकी वेशभूषा और भावभंगिमा कुछ अलग हे ढंग की थी जिसने उनके अभिनय को हर्बर्ट बिर्भोम ट्री के जैसा जीवन्त बना दिया था!  
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" हैमलेट का अन्तर्द्वन्द है - to Be or not to Be....?"

गीता की सीख है - न दैन्यं न पलायनम ! 

[हैमलेट शेक्सपीयर का लिखा एक प्रसिद्द नाटक है इसी नाटक में हैमलेट द्वारा अक्सर उधृत किया जाने वाला डॉयलॉग है- हैमलेट का एकालाप....to be or not to be.... यह हैमलेट के अंतर्द्वंद का चित्रण है।  जिसमें हैमलेट तर्क देता  है कि जीवन बेहतर है या मृत्यु. इसी का एक अंश है जिसमें हैमलेट कहता है कि मृत्यु एक नींद है...पर नींद के बाद कैसे सपने आयेंगे...? यानी कि मृत्यु के बाद का जीवन, जिसे 'आफ्टर लाइफ़' कहते हैं उसके बाद क्या होता है ये भी नहीं पता है ?

भगवद्गीता के आरम्भ में परस्पर–विरुद्ध दो धर्मों की उलझन में फँस जाने के कारण अर्जुन जिस तरह कर्त्तव्यमूढ़ हो गया था और उस पर जो मौक़ा आ पड़ा था, वह कुछ अपूर्व नहीं है। युद्ध के आरंभ में ही अर्जुन को कर्त्तव्य–जिज्ञासा और मोह हुआ। ऐसा मोह युधिष्ठिर को युद्ध में मरे हुए अपने रिश्तेदारों का श्राद्ध करते समय हुआ था। उसके इस मोह को दूर करने के लिए ‘शांति–पर्व’ कहा गया है। 
कर्माकर्म संशय के ऐसे अनेक प्रसंग ढूढ़कर अथवा कल्पित करके उन पर बड़े–बड़े कवियों ने सुरस काव्य और उत्तम नाटक लिखे हैं। उदाहरणार्थ, सुप्रसिद्ध अंग्रेज़ नाटककार शेक्सपीयर का हैमलेट नाटक ही ले लीजिए। डेनमार्क देश के प्राचीन राजपुत्र हैमलेट के चाचा ने, राज्यकर्त्ता अपने भाई हैमलेट के बाप को मार डाला, हैमलेट की माता को अपनी स्त्री बना लिया और राजगद्दी भी छीन ली।
तब उस राजकुमार के मन में यह झगड़ा पैदा हुआ कि ऐसे पापी चाचा का वध करके पुत्र–धर्म के अनुसार अपने पिता के ऋण से मुक्त हो जाऊँ; अथवा अपने सगे चाचा, अपनी माता के पति और गद्दी पर बैठे हुए राजा पर दया करूं? इस मोह में पड़ जाने के कारण कोमल अंतःकरण के हैमलेट की कैसी दशा हुई। श्रीकृष्ण के समान कोई भी मार्ग–दर्शक और हितकर्त्ता न होने के कारण वह कैसे पागल हो गया और अंत में ‘जियें या मरें’ इसी बात की चिंता करते–करते उसका अंत कैसे हो गया, इत्यादि बातों का चित्र इस नाटक में बहुत अच्छी तरह से दिखाया गया है।]


Sir Herbert Beerbohm Tree

 (born Dec. 17, 1853, London, Eng. — died July 2, 1917,

London)




" That skull had a tongue in it, and could sing once ! " 

English actor Herbert Beerhohm Tree as Hamlet in c1892

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