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शनिवार, 5 अक्तूबर 2024

🔱🕊 🏹 🙋परिच्छेद ~137 "श्रीरामकृष्ण तथा कर्मफल 🏹 [(अप्रैल 16, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-137]🔱ज्ञानलाभ (विवेकज-ज्ञान, संसार मिथ्या का ज्ञान होने) के पश्चात् संसार में रहने पर अवश्य ही ईश्वर-प्राप्ति होती है ।🔱🕊 🏹प्रकृति के नियमों में परिवर्तन नहीं होता । 🔱🕊 🏹हरि रस पीया जाँणिये, जे कबहूँ न जाइ खुमार। 🕊 🏹 🙋

 परिच्छेद -१३७.

 🙋ईश्वर-लाभ के उपाय 🙋

(१)

 [(अप्रैल 16, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-137]

🏹 काशीपुर उद्यान भवन में श्री रामकृष्ण- गिरीश और मास्टर 🏹

      काशीपुर के बगीचे के पूर्व की ओर तालाब है, जिसमें पक्का घाट बँधा हुआ है । उद्यान, पथ और तरु-लताएँ चाँदनी की उज्ज्वल छटा में खूब चमक रही हैं । तालाब के पश्चिम की ओर दुमँजले मकान में दीपक जल रहा है । कमरे में श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । दो-एक भक्त भी कमरे में चुपचाप बैठे हैं । कोई कोई इस कमरे से उस कमरे में आ-जा रहे हैं । घाट से नीचे के कमरों का उजाला भी दिखायी पड़ रहा है । एक कमरे में भक्तगण रहते हैं । यह कमरा दक्षिण की ओर है ।

   The moon was shining brilliantly, flooding the garden paths, the trees, and the water of the lake with its white rays. Girish, M., Latu, and a few other devotees were seated on the steps leading to the lake. The house stood to the west of the lake. A lamp burnt in the Master's room on the second floor. Sri Ramakrishna was sitting on his bed. There were several devotees in the room.

কাশীপুর বাগানের পূর্বধারে পুষ্করিণীর ঘাট। চাঁদ উঠিয়াছে। উদ্যানপথ ও উদ্যানের বৃক্ষগুলি চন্দ্রকিরণে স্নাত হইয়াছে। পুষ্করিণীর পাশ্চিমদিকে দ্বিতল গৃহ। উপরের ঘরে আলো জ্বলিতেছে, পুষ্করিণীর ঘাট হইতে সেই আলো খড়খড়ির মধ্য দিয়া আসিতেছে, তাহা দেখা যাইতেছে। কক্ষমধ্যে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ শয্যার উপর বসিয়া আছেন। একটি-দুটি ভক্ত নিঃশব্দে কাছে বসিয়া আছেন বা এ-ঘর হইতে ও-ঘর যাইতেছেন। ঠাকুর অসুস্থ, চিকিৎসার্থে বাগানে আসিয়াছেন। ভক্তেরা সেবার্থ সঙ্গে আছেন। পুষ্করিণীর ঘাট হইতে নিচের তিনটি আলো দেখা যাইতেছে। একটি ঘরে ভক্তেরা থাকেন, তাহার আলো দেখা যাইতেছে। 

   मकान के बीच से जो प्रकाश आ रहा है, वह श्रीमाताजी (माँ सारदा देवी) के कमरे का है । श्रीमाताजी श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए आयी हुई हैं । तीसरा प्रकाश भोजनगृह से आ रहा है । यह कमरा मकान के उत्तर की ओर है । उद्यान के भीतर से पूर्व की ओर घाट तक एक रास्ता गया है । रास्ते के दोनों ओर, विशेषकर, दक्षिण की ओर फूलों के बहुत से पेड़ हैं ।

       মা ঠাকুরের সেবার্থ আসিয়াছেন। তৃতীয় আলোটি রান্নাঘরের। সেই ঘর গৃহের উত্তরদিকে। উদ্যান মধ্যস্থিত ওই দুতলা বাড়ির দক্ষিণ-পূর্ব কোণ হইতে একটি পথ পুষ্করিণীর ঘাটের দিকে গিয়াছে। পূর্বাস্য হইয়া ওই পথ দিয়া ঘাটে যাইতে হয়। পথের দুই ধারে, বিশেষতঃ দক্ষিণ পার্শ্বে, অনেক ফল-ফুলের গাছ।

 [(अप्रैल 16, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-137]

🔱🕊 🏹प्रकृति के नियमों में परिवर्तन नहीं होता । 🔱🕊 🏹

The laws of nature do not change.

तालाब के घाट पर गिरीश, मास्टर, लाटू तथा दो-एक भक्त और बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में बातचीत हो रही है । आज शुक्रवार है, १६ अप्रैल, १८८६, चैत्र शुक्ल त्रयोदशी । कुछ देर बार गिरीश और मास्टर उस रास्ते पर टहल रहे हैं और बीच बीच में वार्तालाप कर रहे हैं

চাঁদ উঠিয়াছে। পুকুরঘাটে গিরিশ, মাস্টার, লাটু আরও দুই-একটি ভক্ত বসিয়া আছেন। ঠাকুরের কথা হইতেছে। আজ শুক্রবার, ১৬ই এপ্রিল, ১৮৮৬, ৪ঠা বৈশাখ, ১২৯৩। চৈত্র শুক্লা ত্রয়োদশী। কিয়ৎক্ষণ পরে গিরিশ ও মাস্টার ওই পথে বেড়াইতেছেন ও মাঝে মাঝে কথাবার্তা কহিতেছেন।

A few minutes later Girish and M. were strolling along a garden path lined with flowering plants and fruit trees.

मास्टर - "यह चाँदनी कितनी सुंदर है ! कितने अनन्त काल से प्रकृति के ये नियम चले आ रहे हैं!

M: "'How beautiful this moonlight is! Perhaps nature has had the same Laws from time out of mind."

মাস্টার — " কি সুন্দর চাঁদের আলো! কতকাল ধরে এই নিয়ম চলছে!

गिरीश - तुम्हें कैसे मालूम हुआ ?

GIRISH: "How do you know that?"

গিরিশ — কি করে জানলে?

मास्टर - प्रकृति के नियमों में परिवर्तन नहीं होता । विलायत के पण्डित टेलिस्कोप(Telescope) से नये नये नक्षत्र देख रहे हैं । उन्होंने देखा है, चन्द्रलोक में बड़े बड़े पहाड़ हैं

M: "There is no change in the uniformity of nature. European scientists have been discovering new stars through the telescope. There are mountains on the moon; they have seen them."

মাস্টার — প্রকৃতির নিয়ম বদলায় না (Uniformity of Nature) আর বিলাতের লোকেরা নূতন নূতন নক্ষত্র টেলিস্‌কোপ দিয়ে দেখেছে। চাঁদে পাহাড় আছে, দেখেছে।

गिरीश - यह कहना कठिन है, उनकी बातों पर विश्वास नहीं होता ।

GIRISH: "It is difficult to be sure of that. It is hard for me to believe it."

গিরিশ — তা বলা শক্ত, বিশ্বাস হয় না।

मास्टर - क्यों ? टेलिस्कोप से तो सब बिलकुल ठीक ठीक दीख पड़ता है ।

M: "Why? The mountains have been observed through the telescope."

মাস্টার — কেন, টেলিস্‌কোপ দিয়ে ঠিক দেখা যায়।

गिरीश - पर तुम कैसे कह सकते हो कि पहाड़ आदि सब ठीक ठीक ही देखे गये हैं । मान लो, पृथ्वी और चन्द्रमा के बीच में कुछ और चीजे हों, तो उनमें से प्रकाश आने पर सम्भव है ऐसा दिखता हो

GIRISH: "How can you be sure that they have been rightly observed? Suppose there are other things between the moon and the earth. Light passing through them may conjure up such visions."

গিরিশ — কেমন করে বলব, ঠিক দেখেছে। পৃথিবী আর চাঁদের মাঝখানে যদি আর কোন জিনিস থাকে, তার মধ্যে দিয়ে আলো আসতে আসতে হয়তো অমন দেখায়।

       किशोर भक्त-मण्डली सदा ही बगीचे में रहती है, श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए, - नरेन्द्र, राखाल, निरंजन, शरद, शशि, बाबूराम, काली, योगिन, लाटू आदि । जो संसारी भक्त हैं, उनमें से कोई कोई रोज आते हैं और रात में भी कभी कभी रह जाते हैं । उनमें से कोई कभी कभी आया करते हैं । आज नरेन्द्र, काली और तारक दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर के बगीचे में गये हुए हैं । नरेन्द्र वहाँ पंचवटी के नीचे बैठकर तपस्या और साधना करेंगे इसीलिए दो-एक गुरुभाइयों को भी साथ लेते गये हैं

Narendra, Rakhal, Niranjan, Sarat, Sashi, Baburam, Kali, Jogin, Latu, and a few other young devotees had been living at the Cossipore garden house to nurse Sri Ramakrishna. That evening Narendra, Kali, and Tarak had gone to Dakshineswar. They were going to spend the night in the Panchavati, meditating on God.

বাগানে ছোকরা ভক্তেরা ঠাকুরের সেবার জন্য সর্বদা থাকেন। নরেন্দ্র, রাখাল, নিরঞ্জন, শরৎ, শশী, বাবুরাম, কালী, যোগীন, লাটু ইত্যাদি; তাঁহারা থাকেন। যে ভক্তেরা সংসার করিয়াছেন, কেহ কেহ প্রত্যহ আসেন ও মাঝে মাঝে রাত্রেও থাকেন। কেহ বা মধ্যে মধ্যে আসেন। আজ নরেন্দ্র, কালী ও তারক দক্ষিণেশ্বর-কালীবাড়ির বাগানে গিয়াছেন। নরেন্দ্র সেখানে পঞ্চবটী বৃক্ষমূলে বসিয়া ঈশ্বরচিন্তা করিবেন; সাধন করিবেন। তাই দুই-একটি গুরুভাই সঙ্গে গিয়াছেন।

(२)

 [(अप्रैल 16, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-137]

श्रीरामकृष्ण का भक्तों के प्रति स्नेह*

   गिरीश, लाटू और मास्टर ने ऊपर जाकर देखा, श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । शशि और दो-एक भक्त उसी कमरे में श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए थेक्रमशः बाबूराम, निरंजन और राखाल भी आ गयेकमरा बड़ा है । श्रीरामकृष्ण की शय्या के पास औषधि तथा अन्य आवश्यक वस्तुएँ रखी हुई हैं । कमरे के उत्तर की ओर एक दरवाजा है, जीने से चढ़कर उस कमरे में प्रवेश किया जाता है । उस द्वार के सामनेवाले कमरे के दक्षिण की ओर एक और द्वार है । इस द्वार से दक्षिण की छोटी छत पर चढ़ सकते हैं छत पर खड़े होने पर बगीचे के पेड़-पौधे, चाँदनी और पास का राजपथ भी दीख पड़ता है

Girish, Latu, and M. went to Sri Ramakrishna's room and found him sitting on the bed. Sashi and one or two devotees had been tending the Master. Baburam, Niranjan, and Rakhal also entered the room. It was a large room. Some medicines and a few other accessories were kept near the bed. One entered the room by a door at the north end.

গিরিশ, লাটু, মাস্টার উপরে গিয়া দেখেন, ঠাকুর শয্যায় বসিয়া আছেন। শশী ও আরও দু-একটি ভক্ত সেবার্থ ওই ঘরে ছিলেন, ক্রমে বাবুরাম, নিরঞ্জন, রাখাল, ইঁহারাও আসিলেন। ঘরটি বড়। ঠাকুরের শয্যার নিকট ঔষাধি ও নিতান্ত প্রয়োজনীয় জিনিসাদি রহিয়াছে। ঘরের উত্তরে একটি দ্বার আছে, সিঁড়ি হইতে উঠিয়া সেই দ্বার দিয়া ঘরে প্রবেশ করিতে হয়। সেই দ্বারের সামনাসামনি ঘরের দক্ষিণ গায়ে আর-একটি দ্বার আছে। সেই দ্বার দিয়া দক্ষিণের ছোট ছাদটিতে যাইয়া যায়। সেই ছাদের উপর দাঁড়াইলে বাগানের গাছপালা, চাঁদের আলো, অদূরে রাজপথ ইত্যাদি দেখা যায়

भक्तों को रात में जागना पड़ता है । वे बारी बारी से जागते हैं । मसहरी लगाकर, श्रीरामकृष्ण को शयन कराने के पश्चात् जो भक्त कमरे में रहते हैं, वे कमरे के पूर्व की ओर चटाई बिछाकर कभी बैठे रहते हैं और कभी लेटे अस्वस्थता के कारण श्रीरामकृष्ण की आँख नहीं लगती । इसलिए जो रहते हैं, उन्हें कई घण्टे जागते ही रहना पड़ता है

Since Sri Ramakrishna had to be tended all night, the devotees stayed awake by turns. The devotee who tended him fixed Sri Ramakrishna's mosquito net and then either lay on a mat on the floor or spent the night sitting up. Since Sri Ramakrishna got very little sleep on account of his illness, his attendant, too, slept very little.

ভক্তদের রাত্রি জাগরণ করিতে হয়, তাঁহারা পালা করিয়া জাগেন। মশারি টাঙ্গাইয়া ঠাকুরকে শয়ন করাইয়া যে ভক্তটি ঘরে থাকিবেন, তিনি ঘরের পূর্বধারে মাদুর পাতিয়া কখনও বসিয়া, কখনও শুইয়া থাকেন। অসুস্থতানিবন্ধন ঠাকুরের প্রায় নিদ্রা নাই! তাই যিনি থাকেন, তিনি কয়েক ঘণ্টা প্রায় বসিয়া কাটাইয়া দেন।

आज श्रीरामकृष्ण की बीमारी कुछ कम है । भक्तों ने आकर भूमिष्ठ हो प्रणा किया, फिर सब के सब जमीन पर श्रीरामकृष्ण के सामने बैठ गये ।

That evening Sri Ramakrishna was somewhat better. The devotees saluted the Master and sat down on the floor. The Master asked M. to bring the lamp near him. He greeted Girish cordially.

আজ ঠাকুরের অসুখ কিছু কম। ভক্তেরা আসিয়া ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিলেন এবং ঠাকুরের সম্মুখে মেঝের উপর বসিলেন।

श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से दीपक जरा नजदीक ले आने के लिए कहा । श्रीरामकृष्ण गिरीश से आनन्दपूर्वक बातचीत कर रहे हैं । 

श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - कहो, अच्छे हो न ? (लाटू से) इन्हें तम्बाकू पिला और पान दे ।

MASTER (to Girish): "Are you quite well? (To Latu) Prepare a smoke for him and give him a betel-leaf."

ঠাকুর আলোটি কাছে আনিতে মাস্টারকে আদেশ করিলেন। ঠাকুর গিরিশকে সস্নেহ সম্ভাষণ করিতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশের প্রতি) — ভাল আছ? (লাটুর প্রতি) এঁকে তামাক খাওয়া। আর পান এনে দে।

कुछ क्षण के बाद बोले, 'इन्हें कुछ मिठाई दे ।' लाटू - पान दे दिया है । दूकान से मिठाई लेने के लिए आदमी भेजा है ।

A few minutes afterward he asked Latu to give Girish some refreshments. Latu said that they had been sent for.

কিয়ৎক্ষণ পরে আবার বলিলেন, “কিছু জলখাবার এনে দে।”লাটু — পানটান দিয়েছি। দোকান থেকে জলখাবার আনতে যাচ্ছে।

श्रीरामकृष्ण बैठे हैं । एक भक्त ने कई मालाएँ लाकर श्रीरामकृष्ण को अर्पण कर दीं । श्रीरामकृष्ण ने मालाओं को लेकर गले में धारण कर लिया । फिर उनमें से दो मालाएँ निकालकर गिरीश को दे दीं ।

Sri Ramakrishna was sitting up. A devotee offered him some garlands of flowers. Sri Ramakrishna put them around his neck one by one. Was he thus worshipping God who dwelt in his heart? The devotees looked at him wonderingly. He took two garlands from his neck and gave them to Girish.

ঠাকুর বসিয়া আছেন। একটি ভক্ত কয়গাছি ফুলের মালা আনিয়া দিলেন। ঠাকুর নিজের গলায় একে একে সেগুলি ধারণ করিলেন। ঠাকুরের হৃদয়মধ্যে হরি আছেন, তাঁকেই বুঝি পূজা করিলেন। ভক্তেরা অবাক্‌ হইয়া দেখিতেছেন। দুইগাছি মালা গলা হইতে লইয়া গিরিশকে দিলেন।

बीच-बीच में जलपान की मिठाई के सम्बन्ध में श्रीरामकृष्ण पूछ रहे हैं - 'क्या मिठाई आयी ?'

Every now and then Sri Ramakrishna asked whether the refreshments had been brought.

ঠাকুর মাঝে মাঝে জিজ্ঞাসা করিতেছেন, “জলখাবার কি এলো?”

मणि श्रीरामकृष्ण को पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण के पास किसी भक्त का दिया हुआ चन्दन की लकड़ी का एक पंखा था । श्रीरामकृष्ण ने उसे मणि के हाथ में दिया । उसी पंखे को लेकर मणि हवा कर रहे हैं । गले से दो मालाएँ निकालकर श्रीरामकृष्ण ने मणि को भी दी ।

M. was fanning the Master. On the bed was a sandal-wood fan, the offering of a devotee. The Master gave it to M., who continued to fan him with it. He also gave M. two garlands.

মণি ঠাকুরকে পাখা করিতেছেন। ঠাকুরের কাছে একটি ভক্তপ্রদত্ত চন্দনকাষ্ঠের পাখা ছিল। ঠাকুর সেই পাখাখানি মণির হাতে দিলেন। মণি সেই পাখা লইয়া বাতাস করিতেছেন। মণি পাখা করিতেছেন, ঠাকুর দুইগাছি মালা গলা হইতে লইয়া তাঁহাকেও দিলেন।

लाटू श्रीरामकृष्ण से एक भक्त की बात कह रहे हैं । उनका एक सात-आठ साल का लड़का आज डेढ़ साल हुए गुजर गया है । उस लड़के ने भक्तों के बीच में श्रीरामकृष्ण को कई बार देखा था ।

M. had lost a son aged seven or eight about a year and a half before. The child had seen the Master many a time. Latu was telling Sri Ramakrishna about M.

লাটু ঠাকুরকে একটি ভক্তের কথা বলিতেছেন। তাঁহার একটি সাত-আট বৎসরের সন্তান প্রায় দেড় বৎসর হইল দেহত্যাগ করিয়াছে। সে ছেলেটি ঠাকুরকে কখন ভক্তসঙ্গে কখন কীর্তনানন্দে অনেকবার দর্শন করিয়াছিল।

लाटू - (श्रीरामकृष्ण से) - ये अपने लड़के की पुस्तक देखकर कल रात को बहुत रोये थे । इनकी स्त्री भी बच्चे के शोक से पागल-सी हो गयी है । अपने दूसरे बच्चों को मारती है और उठाकर पटक देती है । ये कभी कभी यहाँ रहते हैं, इसलिए बड़ा हल्ला मचाती है ।

LATU: "M. wept bitterly last night at the sight of some books that had belonged to his dead child. His wife is almost mad with grief. She sometimes treats her other children violently. She creates a scene at home because he spends the night here now and then."

লাটু (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — ইনি এঁর ছেলেটির বই দেখে কাল রাত্রে বড় কেঁদেছিলেন। পরিবারও ছেলের শোকে পাগলের মতো হয়ে গেছে। নিজের ছেলেপুলেকে মারে, আছড়ায়। ইনি এখানে মাঝে মাঝে থাকেন তাই বলে ভারী হেঙ্গাম করে।

श्रीरामकृष्ण उस शोक-समाचार को सुनकर मानो चिन्तित हो चुप हो रहे ।

Sri Ramakrishna seemed worried to hear of this.

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ এই শোকের কথা শুনিয়া যেন চিন্তিত হইয়া চুপ করিয়া রহিলেন।

गिरीश - अर्जुन ने इतनी गीता पढ़ी परन्तु वे भी पुत्र (अभिमन्यु ) के शोक से मूर्च्छित हो गये, तो इनके शोक के लिए आश्चर्य प्रकट करने की कोई बात नहीं ।

GIRISH: "It is nothing to be wondered at. Even after receiving the instruction of the Bhagavad Gita, Arjuna fainted from grief at the death of his son Abhimanyu."

গিরিশ — অর্জুন অত গীতা-টীতা পড়ে অভিমন্যুর শোকে একেবারে মূর্চ্ছিত। তা এঁর ছেলের জন্য শোক কিছু আশ্চর্য নয়।

 [(अप्रैल 16, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-137]

🔱🕊 🏹*संसार में ईश्वर-लाभ किस प्रकार होता है*🔱🕊 🏹

[সংসারে কি হলে ঈশ্বরলাভ হয়? ]

गिरीश के जलपान के लिए मिठाई आयी है । फागू की दूकान की गर्म कचौड़ियाँ, पूड़ियाँ और दूसरी मिठाइयाँ । फागू की दूकान वराहनगर में (रेनेन दा के घर के पास ?) है । श्रीरामकृष्ण ने अपने सामने वह सब सामान रखकर प्रसाद कर दिया-(अर्थात कचौड़ी -पूरी का एक ग्रास खाकर) । फिर स्वयं उठाकर मिष्टान्न और पूड़ियों का दोना गिरीश को दिया । कहा, 'कचौड़ियाँ बहुत अच्छी हैं ।' गिरीश सामने बैठकर खा रहे हैं । गिरीश को पीने के लिए पानी देना है । श्रीरामकृष्ण के पलंग के पश्चिम की ओर सुराही में पानी है । गरमी का समय है, वैशाख का महीना। श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'यहाँ बड़ा अच्छा पानी [सुराही का ?]  है ।'

Girish was given the refreshments on a tray. Sri Ramakrishna took a grain and Girish accepted the rest as prasad. He sat in front of the Master and began to eat. He needed water to drink. There was an earthen jug in the southeast corner of the room. It was the month of April, and the day was hot. Sri Ramakrishna said, "There is some nice water here."

গিরিশের জন্য জলখাবার আসিয়াছে। ফাগুর দোকানের গরম কচুরি, লুচি ও অন্যান্য মিষ্টান্ন। বরাহনগরে ফাগুর দোকান। ঠাকুর নিজে সেই সমস্ত খাবার সম্মুখে রাখাইয়া প্রসাদ করিয়া দিলেন। তারপর নিজে হাতে করিয়া খাবার গিরিশের হাতে দিলেন। বলিলেন, বেশ কচুরি। গিরিশ সম্মুখে বসিয়া খাইতেছেন। গিরিশকে খাইবার জল দিতে হইবে। ঠাকুরের শয্যার দক্ষিণ-পূর্ব কোণে কুঁজায় করিয়া জল আছে। গ্রীষ্মকাল, বৈশাখ মাস। ঠাকুর বলিলেন, “এখানে বেশ জল আছে।

श्रीरामकृष्ण बहुत ही अस्वस्थ हैं । खड़े होने की शक्ति तक नहीं रह गयी है । भक्तगण आश्चर्यचकित होकर देख रहे हैं - श्रीरामकृष्ण की कमर में वस्त्र नहीं है, दिगम्बर हो रहे हैं । बालक की तरह पलंग पर बैठे सरक-सरककर बढ़ रहे हैं - इच्छा है, खुद पानी दे दें । श्रीरामकृष्ण की वह अवस्था देखकर भक्तों की साँस मानो रुक गयी । श्रीरामकृष्ण ने गिलास में पानी ढाला । गिलास से थोड़ासा पानी हाथ में लेकर देख रहे हैं कि पानी ठण्डा है या नहीं । उन्होंने देखा, पानी अधिक ठण्डा नहीं है । अन्त में यह सोचकर कि दूसरा अच्छा पानी यहाँ मिल नहीं सकता, श्रीरामकृष्ण ने इच्छा न होते हुए भी गिरीश को वही पानी पीने के लिए दियागिरीश मिठाइयाँ खा रहे हैं । चारों ओर भक्तगण बैठे हुए हैं । मणि श्रीरामकृष्ण को पंखे से हवा कर रहे हैं

The Master was so ill that he had not enough strength even to stand up. And what did the disciples see to their utter amazement? They saw him leave the bed, completely naked, and move toward the jug! He himself was going to pour the water into a tumbler. The devotees were almost frozen with fear. The Master poured the water into a glass. He poured a drop or two into his hand to see whether it was cool. He found that it was not very cool; but since nothing better could be found, he reluctantly gave it to Girish. Girish was eating the sweets. The devotees were sitting about, and M. was fanning Sri Ramakrishna.

ঠাকুর অতি অসুস্থ। দাঁড়াইবার শক্তি নাই। ভক্তেরা অবাক্‌ হইয়া কি দেখিতেছেন? দেখিতেছেন — ঠাকুরের কোমরে কাপড় নাই। দিগম্বর! বালকের ন্যায় শয্যা হইতে এগিয়ে এগিয়ে যাচ্ছেন। নিজে জল গড়াইয়া দিবেন। ভক্তদের নিশ্বাসবায়ু স্থির হইয়া গিয়াছে। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ জল গড়াইলেন। গেলাস হইতে একটু জল হাতে লইয়া দেখিতেছেন, ঠাণ্ডা কিনা। দেখিতেছেন জল তত ঠাণ্ডা নয়। অবশেষে অন্য ভাল জল পাওয়া যাইবে না বুঝিয়া অনিচ্ছাসত্ত্বেও ওই জলই দিলেন। গিরিশ খাবার খাইতেছেন। ভক্তগুলি চতুর্দিকে বসিয়া আছেন। মণি ঠাকুরকে পাখা করিতেছেন।  

गिरीश - (श्रीरामकृष्ण से) - देवेन्द्रबाबू # संसार का त्याग करेंगे। [भवसागर तारण कारण हे गुरुवन्दना के रचयिता- देवेन्द्रनाथ मजूमदार (1844-1911) संसार का त्याग करेंगे ।]

GIRISH (to the Master): "Deben Babu has decided to renounce the world."

গিরিশ (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — দেবেনবাবু সংসারত্যাগ করবেন।

श्रीरामकृष्ण सब समय बातचीत नहीं कर सकते, बड़ा कष्ट होता है । अपने ओठों में उँगली छुआकर उन्होंने इशारे से पूछा, 'फिर उनके घरवालों के भरण-पोषण की क्या व्यवस्था होगी, - संसार कैसे चल सकेगा ?"

On account of his illness Sri Ramakrishna could hardly talk. Touching his lips with his finger, he asked Girish, by signs, "Who will feed his wife and children?"

ঠাকুর সর্বদা কথা কহিতে পারেন না, বড় কষ্ট হয়। নিজের ওষ্ঠাধর অঙ্গুলি দ্বারা স্পর্শ করিয়া ইঙ্গিত করিলেন, “পরিবারদের খাওয়া-দাওয়া কিরূপে হবে — তাদের কিসে চলবে?”

गिरीश - मुझे नहीं मालूम कि वे क्या करेंगे ।

सब लोग चुप हैं । गिरीश खाते-खाते फिर बातचीत करने लगे ।

গিরিশ — তা কি করবেন জানি না।

সকলে চুপ করিয়া আছেন। গিরিশ খাবার খাইতে খাইতে কথা আরম্ভ করিলেন।

GIRISH: "I don't know."

The other devotees remained silent. Girish began talking again while he ate the refreshments.

 [(अप्रैल 16, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-137]

[विवेकज-ज्ञानलाभ के पश्चात् ,सब मिथ्या समझकर संसार (कामिनी -कांचन) 

 में रहने पर (त्यागपूर्वक भोग करने पर) अवश्य ही ईश्वर-प्राप्ति होती है ।]

🔱🕊 🏹भोग और त्याग के संतुलन में ही वास्तविक आनंद🔱🕊 🏹

गिरीश - अच्छा महाराज, कौनसा ठीक है ? गिरीश: "महाशय, कौन-सा अधिक बुद्धिमानी भरा है - संसार को खेदपूर्वक त्याग देना, या गृहस्थ जीवन जीते हुए ईश्वर को पुकारना?"

["अच्छा महाराज, समझदारी किस बात में है? अपने विवाहित होने के दुर्भाग्य को कोशते हुए परिवार छोड़कर संन्यासी हो जाना? या संसार के कर्तव्यकर्मों को करते हुए ईश्वर को पुकारना -यानि Be and Make आन्दोलन- मनुष्य के भीतर खुली आँखों से ईश्वर को देखने के आंदोलन में लगे रहना ? ]

গিরিশ — আচ্ছা, মহাশয় — কোনটা ঠিক! কষ্টে সংসার ছাড়া না সংসারে থেকে তাঁকে ডাকা?   

GIRISH: "Sir, which is wiser to renounce the world regretfully, or to call on God, leading a householder's life?"

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) -  "क्या तुमने गीता नहीं पढ़ी? अनासक्त हो संसार में रहकर कर्म करते रहने पर, सब मिथ्या समझकर ज्ञानलाभ के पश्चात् संसार में रहने पर अवश्य ही ईश्वर-प्राप्ति होती है ।

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — গীতায় দেখনি? অনাসক্ত হয়ে সংসারে থেকে কর্ম করলে, সব মিথ্যা জেনে জ্ঞানের পর সংসারে থাকলে, ঠিক ঈশ্বরলাভ হয়।

MASTER (to M.): "Haven't you read the Gita? One truly realizes God if one performs one's worldly duties in a detached spirit, if one lives in the world after realizing that everything is illusory.

श्रीरामकृष्ण : "कष्ट में पड़कर जो लोग संसार का त्याग करते हैं, वे निम्न कोटि के मनुष्य हैं ।

"Those who regretfully renounce the world belong to an inferior class.

“যারা কষ্টে ছাড়ে, তারা হীন থাকের লোক

"संसार में रहनेवाला ज्ञानी कैसा है - जानते हो ? - जैसे काँच के घर में रहने वाला मनुष्य, - वह भीतर-बाहर सब देखता है ।" सब लोग चुप हैं ।

"Do you know what a householder jnani is like? He is like a person living in a glass house. He can see both inside and outside."Again there was silence in the room.

“সংসারী জ্ঞানী কিরকম জানো? যেমন সার্সীর ঘরে কেউ আছে। ভিতর বার দুই দেখতে পায়।” আবার সকলে চুপ করিয়া আছেন।

[#स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण के मुख से गीता -सार >  "क्या तुमने गीता नहीं पढ़ी? यदि कोई व्यक्ति अनासक्त भाव से अपने सांसारिक कर्तव्यों का पालन करता है, यदि वह ज्ञानलाभ = विवेकज-ज्ञान, संसार मिथ्या है या नश्वर है का ज्ञान लाभ होने के पश्चात् / यह समझकर संसार में रहता है कि सब कुछ मिथ्या है, तो उसे ईश्वर का सच्चा साक्षात्कार हो जाता है।(यानि कामिनी -कांचन को ईश्वर का आवास समझकर अर्थात  सब कुछ मिथ्या है- समझकर वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के कर्तव्यों का पालन करता है।, तो उसे ईश्वर का सच्चा साक्षात्कार हो जाता है। ज्ञानलाभ = विवेकज-ज्ञान, संसार मिथ्या है या नश्वर है का ज्ञान लाभ होने के पश्चात् /अनासक्त हो यानि  'मने करबि तुमि एकजन शिक्षक (नेता, पैगम्बर)' यह समझकर संसार में रहने पर अवश्य ही ईश्वर-प्राप्ति होती है। 'संसार'- अर्थात 'कामिनी -कांचन' में रहने वाला- देवेन्द्र बाबू (भवसागर तारण कारण के रचयिता) जैसा 'गृहस्थ ज्ञानी' कैसा है-जानते हो ?- जैसे काँच के घर में रहने वाला मनुष्य-वह भीतर-बाहर सब देखता है।  

देवेन्द्र — श्री श्री ठाकुर के गृहस्थ भक्त। उनका जन्म यशोहर जिले के नड़ाईल उपमंडल के जगन्नाथपुर गांव में - 'मजूमदार' की उपाधि के साथ बंदोपाध्याय (बनर्जी) परिवार में  हुआ था। पिता का नाम प्रसन्ननाथ और माता का नाम वामासुन्दरी देवी। चूंकि उनका प्रारंभिक जीवन गरीबी में बीता था, इसलिए उन्होंने कोलकाता के जोड़ासांको के टैगोर परिवार की जमींदारी कचहरी में नौकरी कर ली। साहित्य में भी उनकी रूचि थी। वे योगाभ्यास किया करते थे, इस दौरान उन्हें कई देवी-देवताओं के दर्शन होते थे। 1884 में उन्हें दक्षिणेश्वर में श्री रामकृष्ण के प्रथम दर्शन हुए। इसी समय 'परमहंस रामकृष्ण' शीर्षक एक पुस्तक के कुछ अंश को पढ़कर बहुत आकर्षण अनुभव किये और तुरंत दक्षिणेश्वर पहुँचकर (परमहंस आचार्य देव) श्री रामकृष्ण के देवदुर्लभ आचरण को देखकर बहुत प्रभावित हुए परन्तु उसी दिन अचानक अस्वस्थ हो गए , जिसके फलस्वरूप उनको वापस कलकत्ता लौट आना पड़ा। जब श्री रामकृष्ण तेज बुखार से पीड़ित थे तब वे नियमित रूप से उनसे मिलने जाते थे। इसके बाद वे दोबारा बलराम बोस के घर ठाकुरदेव से मिलने गये थे समय-समय पर दक्षिणेश्वर जाने लगे। इसी समय देवेन्द्रनाथ ने एक दिन कलकत्ता में अपने घर पर ठाकुरदेव को निमंत्रित कर उनकी सेवा की थी। जब देवेन्द्रनाथ ने ठाकुर से गृहस्थ होकर भी 'संन्यास' लेने की प्रार्थना की तो ठाकुर देव इसके लिए सहमत नहीं हुए। देवेन्द्र- नाथ ने बाद में "श्री रामकृष्ण अर्चनालय" की स्थापना की जहाँ उन्होंने स्वरचित कीर्तन-भजन प्रस्तुत करने की व्यवस्था की थी। और वही सब गाने बाद में " देवगीति " नाम से प्रकशित हुई। उनके द्वारा रचित सबसे प्रसिद्द भजन है - 'गुरुवन्दना' -

भवसागर तारण कारण हे । रविनन्दन बन्धन खण्डन हे ॥

शरणागत किंकर भीत मने ।गुरुदेव दया करो दीनजने ॥१॥  

--दो चरणों में ईश्वर दर्शन - (1) गुरुदेव से प्रशिक्षण - कामिनी -कांचन ही संसार है , अतः पहले चरण में स्वयं को एक शिक्षक समझकर संसार से अनासक्त हो जाना है। (2) फिर ज्ञानलाभ के पश्चात् सब (M/F देहध्यास) मिथ्या समझकर संसार (कामिनी- कांचन) में रहने पर अवश्य ही हर भेष में ईश्वर के ही दर्शन होते हैं !  তাঁহার বিখ্যাত “ভব সাগর তারণ কারণ” ইত্যাদি গুরুবন্দনা ও অন্যান্য ভক্তিমূলক ভজন বহুল গীত হইয়া থাকে।]

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - कचौड़ियाँ गर्म हैं, बहुत ही अच्छी हैं ।

MASTER (to M.): "The refreshments are hot and good."

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — কচুরি গরম আর খুব ভাল।

मास्टर - (गिरीश से) - फागू की दूकान की कचौड़िया प्रसिद्ध हैं ।

M. (to Girish): "Yes, they were bought from Fagu's shop. The place is famous."

মাস্টার (গিরিশের প্রতি) — ফাগুর দোকানের কচুরি! বিখ্যাত।

श्रीरामकृष्ण – हाँ, प्रसिद्ध हैं ।

MASTER (smiling): "Yes, famous."

শ্রীরামকৃষ্ণ — বিখ্যাত!

गिरीश - (गिरीश का पूड़ी से अधिक जोर कचौड़ी पर था? खाते ही खाते, सहास्य) - जी, बहुत ही अच्छी हैं ।

GIRISH: "They are really nice.

গিরিশ (খাইতে খাইতে, সহাস্যে) — বেশ কচুরি।

श्रीरामकृष्ण - पूड़ियाँ रहने दो, कचौड़ियाँ खाओ । (मास्टर से) परन्तु कचौड़ी रजोगुणी भोजन है ।

শ্রীরামকৃষ্ণ — লুচি থাক, কচুরি খাও। (মাস্টারকে) কচুরি কিন্তু রজোগুণের।

গিরিশ খাইতে খাইতে আবার কথা তুলিলেন।

 [(अप्रैल 16, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-137]

🔱🕊गृहस्थ का मन और त्यागी (संन्यासी) के मन के बीच अंतर🔱🕊

[সংসারীর মন ও ঠিক ঠিক ত্যাগীর মনের প্রভেদ ]

[गार्गी-सुदीप प्रश्न :] गिरीश - (श्रीरामकृष्ण से) - अच्छा महाराज, मन अभी इतनी उच्च भूमि पर है, फिर नीचे भला क्यों गिर जाता है ?

(To the Master) "Sir, my mind is now on a very lofty plane. Why does it come down again?"

গিরিশ (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — আচ্ছা মহাশয়, মনটা এত উঁচু আছে, আবার নিচু হয় কেন?

श्रीरामकृष्ण - संसार (गृहस्थ जीवन) में रहने से ऐसा होता ही है । कभी मन ऊँचे चढ़ जाता है, कभी गिर जाता है ? कभी बहुत अच्छी भक्ति होती है, कभी भक्ति की मात्रा घट जाती है । कामिनी और कांचन लेकर रहना पड़ता है न, इसीलिए ऐसा होता है । संसार में रहकर जीवन जीने से ऐसा होता है ? संसार में रहकर # भक्त कभी ईश्वर-चिन्ता करता है, कभी उनका स्मरण-कीर्तन करता है, कभी वही मन कामिनी और कांचन की ओर लगा देता है । जैसे साधारण मक्खी – कभी बर्फियों पर बैठती है, और कभी सड़े घाव और विष्ठा पर भी बैठती है

MASTER: "That always happens when one leads a worldly life. Sometimes the householder's mind goes up; sometimes it goes down. Sometimes he feels a great deal of devotion; sometimes he feels less. This happens because he lives in the midst of 'woman and gold'. Sometimes a householder contemplates God or chants His name, and sometimes he diverts his mind to 'woman and gold'. He is like an ordinary fly, which now sits on a sweetmeat and now on filth or rotting sores.

শ্রীরামকৃষ্ণ — সংসারে থাকতে গেলেই ও-রকম হয়। কখনও উঁচু, কখনও নিচু। কখনও বেশ ভক্তি হচ্ছে, আবার কমে যায়। কামিনী-কাঞ্চন নিয়ে থাকতে হয় কিনা, তাই হয়। সংসারে ভক্ত কখন ঈশ্বরচিন্তা, হরিনাম করে; কখন বা কামিনী-কাঞ্চনে মন দিয়ে ফেলে। যেমন সাধারণ মাছি — কখন সন্দেশে বসছে, কখন বা পচা ঘা বা বিষ্ঠাতেও বসে।

 [(अप्रैल 16, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-137]

गुरुप्रदत्त हरि नाम-रस का पान करने वालों की पहचान क्या है ?

श्रीरामकृष्ण : त्यागियों (संन्यासियों) की बात और है । वे लोग अपने मन को कामिनी और कांचन से हटाकर केवल ईश्वर में ही लगाते हैं ।  वे केवल हरि-रस का ही पान करते हैं । जो यथार्थ त्यागी हैं, उन्हें ईश्वर के सिवा और कोई वस्तु अच्छी नहीं लगती । विषय-चर्चा होने पर वे वहाँ से उठ जाते हैं । ईश्वरीय प्रसंग वे ध्यान से सुनते हैं । जो यथार्थ त्यागी है, वह ईश्वर की बात छोड़ और दूसरी चर्चा करता ही नहीं

"But it is quite different with sannyasis. They are able to fix their minds on God alone, completely withdrawing them from 'woman and gold'. They can enjoy the Bliss of God alone. A man of true renunciation cannot enjoy anything but God. He leaves any place where people talk of worldly things; he listens only to spiritual talk. A man of true renunciation never speaks about anything but God. 

“ত্যাগীদের আলাদা কথা। তারা কামিনী-কাঞ্চন থেকে মন সরিয়ে এনে কেবল ঈশ্বরকে দিতে পারে; কেবল হরিরস পান করতে পারে। ঠিক ঠিক ত্যাগী হলে ঈশ্বর বই তাদের আর কিছু ভাল লাগে না। বিষয়কথা হলে উঠে যায়; ঈশ্বরীয় কথা হলে শুনে। ঠিক ঠিক ত্যাগী হলে নিজেরা ঈশ্বরকথা বই আর অন্যবাক্য মুখে আনে না।

"मधुमक्खी फूल पर ही बैठती है - मधु पीने के लिए । और कोई चीज उसे अच्छी नहीं लगती ।"

The bees light only on flowers, in order to sip honey; they do not enjoy anything else."

“মৌমাছি কেবল ফুলে বসে — মধু খাবে বলে। অন্য কোন জিনিস মৌমাছির ভাল লাগে না।”

गिरीश दक्षिण की छोटी छत पर हाथ धोने के लिए गये । 

Girish went to the small terrace to rinse his hands.

গিরিশ দক্ষিণের ছোট ছাদটির উপর হাত ধুইতে গেলেন

श्रीरामकृष्ण (श्री 'म' से)-"मनुष्य को अपना पूरा ध्यान भगवान पर केन्द्रित करने के लिए भगवान की कृपा (माँ सारदा देवी के आशीर्वाद) की आवश्यकता होती है। अच्छा, गिरीश ने बहुत सारी मिठाइयाँ खा ली हैं। उससे कहो कि आज रात कुछ और न खाए।"

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — ঈশ্বরের অনুগ্রহ চাই, তবে তাঁতে সব মন হয়। অনেকগুলো কচুরি খেলে, ওকে বলে এসো আজ আর কিছু না খায়।

MASTER (to M.): "A man needs the grace of God to fix his whole mind on Him. Well, Girish has eaten a great many sweets. Tell him not to eat anything else tonight."

 [(अप्रैल 16, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-137]

 🏹*अवतार वेद-विधि के परे हैं* 🏹

[जिनको सत्य-असत्य-मिथ्या विवेक हो गया है -वे परिवार में आसक्त नहीं होंगे ! ] 

गिरीश फिर कमरे में श्रीरामकृष्ण के सामने आकर बैठे, पान खा रहे हैं ।

Girish returned to the room and sat in front of the Master. He was chewing a betel-leaf.

গিরিশ পুনর্বার ঘরে আসিয়া ঠাকুরের সম্মুখে বসিয়াছেন ও পান খাইতেছেন।

श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - राखाल आदि ने अब समझा है कि कौनसा अच्छा है और कौनसा बुरा, क्या सत्य है और क्या मिथ्या । ये लोग जो संसार में जाकर रहते हैं, जान-बूझकर ऐसा करते हैं । स्त्री है, लड़का भी हो गया है, परन्तु समझ में आ गया है कि यह सब मिथ्या है, अनित्य है । राखाल आदि जितने है ये संसार में लिप्त न होंगे

MASTER (to Girish): "Rakhal has now understood what is good and what is bad, what is real and what is unreal. He lives with his family, no doubt, but he knows what it means. He has a wife. And a son has been born to him. But he has realized that all these are illusory and impermanent. Rakhal will never be attached to the world.

শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশের প্রতি) — রাখাল-টাখাল এখন বুঝেছে কোন্‌টা ভাল, কোন্‌টা মন্দ; কোন্‌টা সত্য, কোন্‌টা মিথ্যা। ওরা যে সংসারে গিয়ে থাকে, সে জেনেশুনে। পরিবার আছে, ছেলেও হয়েছে — কিন্তু বুঝেছে যে সব মিথ্যা। অনিত্য। রাখাল-টাখাল এরা সংসারে লিপ্ত হবে না

"जैसे 'पाँकाल' मछली । वह रहती तो पंक(कीच) के भीतर है, परन्तु उसकी देह में कीच कहीं छू भी नहीं जाता ।"

"He is like a mudfish. The fish lives in the mud, but there is not the slightest trace of mud on its body."

“যেমন পাঁকাল মাছ। পাঁকের ভিতর বাস, কিন্তু গায়ে পাঁকের দাগটি পর্যন্ত নাই!”

गिरीश - महाराज, यह सब मेरी समझ में नहीं आता । आप चाहें तो सब को निर्लिप्त और शुद्ध कर दे सकते हैं । संसारी हो या त्यागी, सब को आप शुद्ध कर सकते हैं । मेरा विश्वास है, मलयानिल के प्रवाहित होने पर सब काठ चन्दन बन जाते हैं ।

GIRISH: "Sir, I don't understand all this. You can make everyone pure and unattached if you want to. You can make everyone good, whether he is a worldly man or a sannyasi. The Malaya breeze, I believe, turns all trees into sandal-wood."

গিরিশ — মহাশয়, ও-সব আমি বুঝি না। মনে করলে সব্বাইকে নির্লিপ্ত আর শুদ্ধ করে দিতে পারেন। কি সংসারী কি ত্যাগী সব্বাইকে ভাল করে দিতে পারেন! মলয়ের হাওয়া বইলে, আমি বলি, সব কাঠ চন্দন হয়

श्रीरामकृष्ण - सार वस्तु के बिना रहे चन्दन नहीं बनता । सेमर तथा इसी तरह के कुछ अन्य पेड़ चन्दन नहीं बनते ।

MASTER: "Not unless there is substance in them. There are a few trees, the cotton-tree for instance, which are not turned into sandal-wood."

শ্রীরামকৃষ্ণ — সার না থাকলে চন্দন হয় না। শিমূল আরও কয়টি গাছ, এরা চন্দন হয় না।

गिरीश - यह मैं नहीं मानता ।

GIRISH: "I don't care."

গিরিশ — তা শুনি না।

श्रीरामकृष्ण - किन्तु नियम तो ऐसा ही है ।

MASTER: "But this is the law."

শ্রীরামকৃষ্ণ — আইনে এরূপ আছে।

गिरीश – आपका सब कुछ नियम के बाहर है ।

GIRISH: "But everything about you is illegal."

গিরিশ — আপনার সব বে-আইনি!

भक्तगण निर्वाक् होकर सुन रहे हैं । मणि का हाथ पंखा झलते हुए कभी कभी रुक जाता है ।

The devotees were listening to this conversation in great amazement. Every now and then the fan in M.'s hand stopped moving.

ভক্তেরা অবাক্‌ হইয়া শুনিতেছেন। মণির হাতের পাখা এক-একবার স্থির হইয়া যাইতেছে।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, हो सकता है । भक्ति-नदी के उमड़ने पर चारों ओर बाँसभर पानी चढ़ जाता है ।" जब भक्ति-उन्माद होता है, तब वेद-विधि नहीं रह जाती । दूर्वादल तोड़कर भक्त फिर चुनता नहीं । हाथ में जो कुछ आ जाता है, वही ले लेता है । तुलसी-दल लेते समय उसकी डाल तक तोड़ लेता है । अहा, कैसी अवस्था बीत चुकी है ! (मास्टर से) "भक्ति के होने पर और कुछ नहीं चाहता ।"

শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, তা হতে পারে; ভক্তি-নদী ওথলালে ডাঙ্গায় একবাঁশ জল। “যখন ভক্তি উন্মাদ হয়, তখন বেদবিধি মানে না। দূর্বা তোলে; তা বাছে না! যা হাতে আসে, তাই লয়। তুলসী তোলে, পড়পড় করে ডাল ভাঙে! আহা কি অবস্থাই গেছে!(মাস্টারের প্রতি) — “ভক্তি হলে আর কিছুই চাই না!”

MASTER: "Yes, that may be true. When the river of bhakti overflows, the land all around is flooded with water to the depth of a pole. "When a man is inebriated with divine love, he doesn't abide by the injunctions of the Vedas. He picks durva grass for the worship of the Deity, but he doesn't clean it. He picks whatever he lays his hands on. While gathering tulsi-leaves he even breaks the branches. Ah! What a state of mind I passed through! (To M.) "When one develops love of God, one needs nothing else."

मास्टर - जी हाँ

M: "Yes, sir."

মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ।

 [(अप्रैल 16, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-137]

[ सीता और श्री राधा - रामअवतार और कृष्ण-अवतार के विभिन्न भाव]

[সীতা ও শ্রীরাধা — রামাবতার ও কৃষ্ণাবতারের বিভিন্ন ভাব ]

स्त्रियाः समस्ताः सकला जगत्सु

श्रीरामकृष्ण - (भक्त को/ (M/F शरीर आसक्ति से ऊपर उठने के लिए ?) किसी एक भाव का आश्रय लेना पड़ता है । रामावतार में शान्त, दास्य, वात्सल्य, सख्य, ये सब भाव थे; कृष्णावतार में ये सब तो थे ही, मधुरभाव एक ज्यादा था । "श्रीमती (राधा) के मधुरभाव में प्रणय है । सीता में वह बात नहीं है, उसका शुद्ध सतीत्व है । "उन्हीं की लीला है । जब जैसा भाव उचित हो, उसे धारण करते हैं ।"

MASTER: "But a devotee must assume toward God a particular attitude. God in His Incarnation as Rama demonstrated santa, dasya, vatsalya, and sakhya. But Krishna demonstrated madhur, besides all these. "Radha cherished the attitude of madhur toward Krishna. Her love was romantic. But in the case of Sita it was the pure love of a chaste wife for her husband. There was no romance in her love. "But all this is the lila of God. He demonstrates different ideals to suit different times."

শ্রীরামকৃষ্ণ — একটা ভাব আশ্রয় করতে হয়। রামাবতারে শান্ত, দাস্য, বাৎসল্য, সখ্য ফখ্য। কৃষ্ণাবতারে ও-সবও ছিল, আবার মধুরভাব।“শ্রীমতীর মধুরভাব — ছেনালি আছে। সীতার শুদ্ধ সতীত্ব — ছেনালি নাই। “তাঁরই লীলা। যখন যে ভাব।”

विजय गोस्वामी के साथ दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में एक पगली-सी स्त्री श्रीरामकृष्ण को गाना सुनाने के लिए जाया करती थी । वह काली-संगीत और ब्रह्मसमाज के गीत गाती थी । सब लोग उसे पगली कहते थे वह काशीपुर के बगीचे में भी प्रायः आया करती है और श्रीरामकृष्ण के पास जाने के लिए बड़ा उपद्रव मचाती है । भक्तों को इसीलिए सदा सतर्क रहना पड़ता है ।

A crazy woman used to accompany Vijay Goswami to the Kali temple at Dakshineswar and sing for Sri Ramakrishna. Her songs were about Kali. She also used to sing the songs of the Brahmo Samaj. The devotees called her "Pagli" (The Bengali word for "crazy woman".) and tried to keep her away from the Master.

বিজয়ের সঙ্গে দক্ষিণেশ্বরে কালীবাড়িতে একটি পাগলের মতো স্ত্রীলোক ঠাকুরকে গান শুনাইতে যাইত। শ্যামাবিষয়ক গান ও ব্রহ্ম সঙ্গীত। সকলে পাগলী বলে। সে কাশীপুরের বাগানেও সর্বদা আসে ও ঠাকুরের কাছে যাবার জন্য বড় উপদ্রব করে। ভক্তদের সেই জন্য সর্বদা ব্যস্ত থাকতে হয়।

श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - पगली का मधुरभाव है । दक्षिणेश्वर में एक दिन गयी थी, एकाएक रोने लगी । मैंने पूछा, 'तू क्यों रोती है ?' उसने कहा, 'सिर में दर्द हो रहा है ।' (सब लोग हँसते हैं) "एक दिन और गयी थी । मैं भोजन करने के लिए बैठा था । एकाएक उसने कहा, ‘आपकी कृपा नहीं हुई ?' मैं भोजन कर रहा था, उसके मन में क्या था मुझे मालूम नहीं । उसने कहा, 'आपने मुझे मन से उतार क्यों दिया ?' मैंने पूछा, 'तेरा भाव क्या है ?' उसने कहा, 'मधुरभाव' । मैंने कहा, 'अरे, मेरी मातृयोनि है । मेरे लिए सब स्त्रियाँ माताएँ है ।' तब उसने कहा, 'यह मैं कुछ नहीं जानती ।'तब मैंने रामलाल को पुकारकर कहा, 'रामलाल, जरा सुन तो, 'मन से उतारने' का प्रयोग यह किस अर्थ में कर रही है ?' उसमें वही भाव अब भी है ।"

MASTER (to Girish and the others): "Pagli cherishes the attitude of madhur toward me. One day she came to Dakshineswar. Suddenly she burst out crying. 'Why are you crying?' I asked her. And she said, 'Oh, my head is aching!' (All laugh.) Another day I was eating when she came to Dakshineswar. She suddenly said, 'Won't you be kind to me?' I had no idea of what was passing through her mind, and went on eating. Then she said, 'Why did you push me away mentally?' I asked her, 'What is your attitude?' She said, 'Madhur.' 'Ah!' I said. 'But I look on all women as manifestations of the Divine Mother. All women are mothers to me.' Thereupon she said, 'I don't know all that.' Then I called Ramlal and said to him: 'Ramlal, listen to her! What is she talking about — this "pushing away mentally"?' Even now she keeps up that attitude."

শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশাদি ভক্তের প্রতি) — পাগলীর মধুরভাব। দক্ষিণেশ্বরে একদিন গিছল। হঠাৎ কান্না। আমি জিজ্ঞাসা করলুম, কেন কাঁদছিস? তা বলে, মাথাব্যথা করছে। (সকলের হাস্য)“আর-একদিন গিছল। আমি খেতে বসেছি। হঠাৎ বলছে, ‘দয়া করলেন না?’ আমি উদারবুদ্ধিতে খাচ্চি। তারপর বলছে, ‘মনে ঠেল্লেন কেন?’ জিজ্ঞাসা করলুম, ‘তোর কি ভাব?’ তা বললে, ‘মধুরভাব!’ আমি বললাম, ‘আরে আমার যে মাতৃযোনি! আমার যে সব মেয়েরা মা হয়!’ তখন বলে, ‘তা আমি জানি না।’ তখন রামলালকে ডাকলাম। বললাম, ‘ওরে রামলাল, কি মনে ঠ্যালাঠেলি বলছে শোন দেখি।’ ওর এখনও সেই ভাব আছে।”

गिरीश - वह पगली धन्य है ! चाहे वह पगली हो, और चाहे भक्तों द्वारा मारी भी जाय, परन्तु आठों पहर वह करती तो आप ही की चिन्ता है । - वह चाहे जिस भाव से करे, उसका अनिष्ट कभी हो ही नहीं सकता

GIRISH: "Blessed indeed is Pagli! Maybe she is crazy. Maybe she is beaten by the devotees. But she meditates on you twenty-four hours a day. No matter how she meditates on you, no harm can ever befall her.

গিরিশ — সে পাগলী — ধন্য! পাগল হোক আর ভক্তদের কাছে মারই খাক আপনার তো অষ্টপ্রহর চিন্তা করছে! সে যে ভাবেই করুক, তার কখনও মন্দ হবে না!

गिरीश : "महाराज, क्या कहूँ, पहले मैं क्या था और आपको सोचकर क्या हो गया ! पहले आलस्य था, इस समय वह आलस्य ईश्वरनिर्भरता में परिणत हो गया । पहले पापी था, परन्तु अब निरहंकार हो गया हूँ । और क्या क्या कहूँ !”

"Sir, how can I express my own feelings about it? Think what I was before, and what I have become now by meditating on you! Formerly I was indolent; now that indolence has turned into resignation to God. Formerly I was a sinner; now I have become humble. What else can I say?"

“মহাশয়, কি বলব! আপনাকে চিন্তা করে আমি কি ছিলাম, কি হয়েছি! আগে আলস্য ছিল, এখন সে আলস্য ঈশ্বরে নির্ভর হয়ে দাঁড়িয়েছে! পাপ ছিল, তাই এখন নিরহংকার হয়েছি! আর কি বলব!

भक्तगण चुप हैं । राखाल पगली की बातें कहते हुए दुःख प्रकट कर रहे हैं । उन्होंने कहा, 'क्या कहें, दुःख होता है, वह उपद्रव करती है, इसीलिए उसे बहुत कुछ कष्ट भी मिलता है ।'

The devotees remained silent. Rakhal expressed his sympathy for Pagli. He said: "We all feel sorry for her. She causes so much annoyance, and for that she suffers, too."

ভক্তেরা চুপ করিয়া আছেন। রাখাল পাগলীর কথা উল্লেখ করিয়া দুঃখ করিতেছেন। বললেন, দুঃখ হয়, সে উপদ্রব করে আর তার জন্য অনেকে কষ্টও পায়।

निरंजन - (राखाल से) - तेरे बीबी है, इसीलिए तेरा मन इस तरह छटपटाता है । हम लोग तो उसे लेकर बलि चढ़ा सकते हैं !

NIRANJAN (to Rakhal): "You feel that way for her because you have a wife at home. But we could kill her."

নিরঞ্জন (রাখালের প্রতি) — তোর মাগ আছে তাই তোর মন কেমন করে। আমরা তাকে বলিদান দিতে পারি

राखाल - (विरक्ति से) - बड़ी बहादुरी करोगे ! उनके (श्रीरामकृष्ण के) सामने ये सब बातें कर रहे हो !

RAKHAL (sharply): "Such bragging! How dare you utter such words before him [meaning Sri Ramakrishna]?"

রাখাল (বিরক্ত হইয়া) — কি বাহাদুরি! ওঁর সামনে ওই সব কথা!

 [(अप्रैल 16, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-137]

*रुपये में आसक्ति या रूपये (कामिनी -कांचन) का सदव्यवहार  *

श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - कामिनी और कांचन, यही संसार है । बहुतसे लोग ऐसे हैं, जो रुपये को अपनी देह के खून के बराबर समझते हैं । रुपये पर कितना भी प्यार क्यों न करो, परन्तु एक दिन वह अपने प्यार करनेवाले को सदा के लिए छोड़कर निकल जायगा

MASTER (to Girish): "'Woman and gold' alone is the world. Many people regard money as their very life-blood. But however you may show love for money, one day, perhaps, every bit of it will slip from your hand.

শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশের প্রতি) — কামিনী-কাঞ্চনই সংসার। অনেকে টাকা গায়ের রক্ত মনে করে। কিন্তু টাকাকে বেশি যত্ন করলে একদিন হয়তো সব বেরিয়ে যায়।

"हमारे देश में खेतों पर मेड़ बाँधते हैं । मेड़ जानते हो ? जो लोग बड़े प्रयत्न से चारों ओर मेड़ बाँधते हैं, उनकी मेड़ें पानी के तेज बहाव से ढह जाती हैं, और जो लोग एक ओर घास जमा देते हैं, उनकी मेड़ें मजबूत हो जाती हैं और पानी के रुकने के कारण खूब धान पैदा होता है ।"जो लोग रुपये का सद्व्यवहार करते हैं - श्रीठाकुरजी और साधुओं की सेवा में, दान आदि सत्कर्मों में खर्च करते हैं, वास्तव में उन्हीं का धनोपार्जन सफल होता है । उन्हीं की खेती तैयार होती है ।

“আমাদের দেশে মাঠা আল বাঁধে। আল জানো? যারা খুব যত্ন করে চারিদিকে আল দেয়, তাদের আল জলের তোড়ে ভেঙে যায়। যরা একদিকে খুলে ঘাসের চাপড়া দিয়ে রাখে, তাদের কেমন পলি পড়ে, কত ধান হয়। “যারা টাকার সদ্ব্যবহার করে, ঠাকুরসেবা, সাধু ভক্তের সেবা করে, দান করে তাদেরই কাজ হয়। তাদেরই ফসল হয়।

"In our part of the country the farmers make narrow ridges around their paddy-fields. You know what those ridges are. Some farmers make ridges with great care all the way around their fields. Such ridges are destroyed by the rush of the rain-water. But some farmers leave a part of the ridge open and put sod there. The water flows through the sod, leaving the field covered with silt after the rain. They reap a rich harvest."They alone make good use of their money who spend it for the worship of God or the service of holy men and devotees. Their money bears fruit.

"डाक्टर और कविराजों की चीजें मैं नहीं खा सकता । जो लोग दूसरों के शारीरिक रोग-दुःखों का व्यापार करते हैं और उसी के अर्थोपार्जन करते हैं, उनका धन मानो खून और पीब है ।"

"I cannot cat anything offered by physicians. I mean those who traffic in human suffering. Their money is blood and pus."

“আমি ডাক্তার কবিরাজের জিনিস খেতে পারি না। যারা লোকের কষ্ট থেকে টাকা রোজগার করে! ওদের ধন যেন রক্ত-পুঁজ!”

यह कहकर श्रीरामकृष्ण ने दो चिकित्सकों के नाम लिये ।

Sri Ramakrishna mentioned two physicians in this connection.

এই বলিয়া ঠাকুর দুইজন চিকিৎসকের নাম করিলেন।

गिरीश - राजेन्द्र दत्त बहुत ही श्रेष्ठ मनुष्य है । किसी से एक पैसा भी नहीं लेता । वह दान भी करता है ।

GIRISH: "Dr. Rajendra Dutta is a generous person. He doesn't accept a penny from anybody. He gives away money in charity."

গিরিশ — রাজেন্দ্র দত্তের খুব দরাজ মন; কারু কাছে একটি পয়সা লয় না। তার দান-ধ্যান আছে।

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भोग और त्याग के संतुलन में ही वास्तविक आनंद : हमारे आध्यात्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि संपूर्ण भौतिक संपदा का स्वामी ईश्वर है, इसलिए उसकी संपदा को त्याग भाव से भोगने वाला मनुष्य ही सुखी रहता है…

ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्वित् धनं ॥

इस वैश्व गति में, इस अत्यन्त गतिशील समष्टि-जगत् में जो भी यह दृश्यमान गतिशील वैयक्तिक जगत् (=कामिनी-कांचन) है- यह सब का सब ईश्वर के आवास के लिए है। इस सब के त्याग द्वारा तुझे इसका उपभोग करना चाहिये; किसी भी दूसरे की धन-सम्पत्ति पर ललचाई दृष्टि मत डाल।

    यजुर्वेद के ईशोपनिषद में वर्णित है कि ईश्वर इस जगत के कण-कण में व्याप्त है, जो भी जड़ और चेतन पदार्थ हैं उन सबका स्वामी ईश्वर ही है। इसलिए संसार के समस्त भौतिक पदार्थों का त्याग भाव से उपभोग करो। किसी दूसरे के धन का लालच मत करो। आध्यात्मिक ग्रंथ वेद में भी मनुष्य जीवन को उन्नत बनाने के लिए समस्त पदार्थों का त्यागपूर्वक भोग करने का संदेश दिया गया है। इस संसार की प्रत्येक वस्तु व पदार्थ पर परमात्मा का अधिकार है। संपूर्ण भौतिक संपदा का स्वामी वह ईश्वर ही है, इसलिए उसकी संपदा को त्याग भाव से भोगने वाला मनुष्य ही सुखी रहता है। कभी भी भोगमयी प्रवृत्ति को अंतःकरण में प्रबल नहीं होने देना चाहिए। भोग (प्रवृत्ति) मनुष्य को बंधन में बांधता है और त्याग (निवृत्ति अस्तु महाफला) मोक्ष मार्ग को प्रशस्त करता है। भोगों में अत्यधिक संलिप्तता मनुष्य की विचारधारा को स्वार्थी व क्षुद्र बना देती है। 

राजा कवि भर्तृहरि ने अपने वैराग्य शतक ग्रंथ में भोगवादी प्रवृत्ति का मार्मिक चित्रण करते हुए कहा है कि विषयों को हमने नहीं भोगा, किन्तु विषयों ने हमारा भुगतान कर दिया। 

भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः

तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।

कालो न यातो वयमेव याताः

तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥

(हमने भोगों को नहीं भोगा, बल्कि भोगों ने ही हमें भोग लिया है। हमने तप नहीं किया, बल्कि त्रिविध (आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक) तापों ने हमें ही तप्त कर दिया (जला डाला) है। (नाना प्रकार के भोगों को भोगते हुये) हम समय को व्यतीत नहीं कर पाये, बल्कि स्वयं ही व्यतीत (शैशव से यौवन और पुनः जरावस्था को प्राप्त) हो गये। हमारी तृष्णा (और अधिक पाने की लालसा) जीर्ण नहीं हुई, बल्कि हम स्वयं ही जीर्ण शीर्ण (वृद्ध) हो गये।)

भोगी व्यक्ति केवल अपने उदर पूर्ति तक सीमित रहता है। त्याग ईश्वरीय मार्ग को प्रशस्त करता है। भोग व त्याग का यही संतुलन मानव जीवन को शाश्वत शांति की प्राप्ति में सहायक होता है। भोग व त्याग का समन्वय ही संपूर्ण विश्व को शांति पथ की ओर अग्रसर  करता है। 

मनुष्य जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए भौतिक पदार्थों की परम आवश्यकता है। बिना इन पदार्थों के भोग के मनुष्य जीवन की कल्पना करना संभव नहीं है। भौतिक सामग्री का उपयोग हम किस भावना से कर रहे हैं, यह समझना बहुत जरूरी है। हमारी आध्यात्मिक विरासत, वेदों में भी मनुष्य जीवन को सम्यक रूप से चलाने के लिए भोग और त्याग का अद्भुत समन्वय स्थापित करते हुए कहा गया है, कि संसार की समस्त वस्तुओं का प्रयोग त्याग भाव से करो, अर्थात त्याग करते हुए भोगने का सूत्र

 त्याग और भोग साथ-साथ कैसे रह सकते हैं ? त्यागी तो योगी होता है और भोगी संसारी। वास्तव में भोग और योग दोनों हमारे भीतर ही हैं। आवश्यकता है दोनों में संतुलन बैठाने की। हम त्याग भी करते हैं और भोग भी, लेकिन हम कितना त्याग करते हैं और कितना भोग करें ?, यही बड़ा प्रश्न है। प्रत्येक वस्तु का उपभोग करते हुए हमारी भावना त्याग की होनी चाहिए। जितनी भौतिक सामग्री से हमारा जीवन सम्यक रूप से चले, उतनी का ही भोग करो। यही आनंद का नैतिक सूत्र है। संसार में रहते हुए संपूर्ण भौतिक सामग्री का संग्रह करो, परंतु दूसरों के हितों को देखते हुए त्याग की भावना को आत्मसात करते हुए उसका प्रयोग करो। हमारी ऋषि परंपरा भी इसी सिद्धांत की अनुगामी रही है कि भोग उतना ही होना चाहिए जितना जीवन के लिए जरूरी होता है। मात्र भोगों में आसक्त हो जाना राक्षस/पशु प्रवृत्ति है। भोग जब तक त्याग के दायरे में रहता है, तब तक वह मनुष्य के लिए हितकर होता है। 

जब त्याग की भावना समाप्त हो जाती है, उसी समय मनुष्य की लालसा विशाल रूप ले लेती है, जिसका कोई अंत नहीं है। भोग की यही भावना संपूर्ण विश्व के कल्याण व स्वयं मनुष्य के आनंद में बाधक बनती है। अत्यधिक भोगने की प्रवृत्ति मनुष्य के जीवन को अधोगति की ओर ले जाती है। इसके विपरीत त्याग की भावना मानसिक आनंद, शांति की प्राप्ति करवाती है। त्यागपूर्वक भोग करने वाला मनुष्य अपने जीवन से सदा संतुष्ट रहता है। विवेकहीन होकर केवल भोगी बनना आसुरी प्रवृत्ति/ पाशविक प्रवृत्ति है। त्यागपूर्वक भोगना दैवी प्रवृत्ति है। 

कविगुरु रविन्द्रनाथ टैगोर ने भी अपने विश्लेषण में कहा है कि भोग और त्याग का सम्यक संतुलन ही मनुष्य को सांसारिक सुख एवं आत्मिक आनंद की प्राप्ति करवाता है। हमारी वैदिक ऋषि संस्कृति भी भोग और त्याग के संतुलन का उपदेश देती है।

[#संसार में रहकर माने ? मानहूँष की अवस्था खोकर !  गृहस्थ जीवन में डूबकर यानि गुरुमुख से हरिनाम को नहीं सुनने के कारण, मानहूँष की अवस्था खोकर, और स्वयं को केवल M/F शरीर समझकर और पति-पत्नी, मेरे पुत्र-पुत्री , मेरा सन्तान मानकर , भाई-बहन, मामा -मामी सम्बन्धों को सच्चा मानकर, घोर आसक्तिमय जीवन जीने से ऐसा होता है - कि विपरीत लिंग के देह का आकर्षण उसे- Binary stars - (बाइनरी स्टार्स - एक दूसरे की परिक्रमा करने वाले अरुन्धती-वशिष्ठ जैसे आदर्श पतिपत्नी नहीं  स्वार्थी पशु बना देता है। अपनी पत्नी को या क्लास फ्रैंड को कभी बहन, कभी प्रेमिका की दृष्टि से देखता है। या शरीर को सुख देने के लिए, सजाने के लिए -सोने के गहने बनवाता है , या दूसरों के मुख से अपने मिथ्या नाम-रूप धारी  शरीर की प्रशंषा सुनने , माला पहनाने या चादर ओढ़ाने से - मिथ्या अहं की सन्तुष्टि को आत्मा की संतुष्टि समझता है ??? !!! 

लेकिन संन्यासियों के मामले में स्थिति बिलकुल अलग है।  संन्यासी लोग (ज्ञानी-भक्त लोग) अपने मन को इन्द्रिय विषयों में जाने से खींचकर -तीनों प्रकार की ऐषणाओं- पुत्रैषणा,वित्तैषणा, लोकैषणा से हटाकर केवल गुरुप्रदत्त हरि नाम-रस का ही पान करते हैं । (अवतार वरिष्ठ राम-ओ -कृष्णो नाम का रस ?] 

हरि रस पीया जाँणिये, जे कबहूँ न जाइ खुमार। 

मैमंता घूँमत रहै, नाँहीं तन की सार॥  

अर्थ: जिसने भी हरी नाम का रस पिया है उस पर से इसका नशा जीवन भर नहीं उतरता है, एस भक्ति रस में डूबा व्यक्ति हरी के ध्यान में ही झूमता फिरता है उसे तो अपने तन का भी कोई ध्यान नहीं रहता है ।

राम के प्रेम का रस पान करने का नशा नहीं उतरता। राम-रस पीने वाले की पहचान भी यही  है। प्रेम-रस से मस्त होकर भक्त मतवाले की तरह इधर-उधर घूमने लगता है। उसे अपने शरीर की सुधि भी नहीं रहती। भक्ति-भाव में डूबा हुआ व्यक्ति, सांसारिक व्यवहार की परवाह नहीं करता और उसकी दृष्टि में देह-धर्म नगण्य हो जाता है

रैदास प्रेम नहिं छिप सकई, लाख छिपाए कोय। 

प्रेम न मुख खोलै कभऊँ, नैन देत हैं रोय॥ 

रैदास कहते हैं कि प्रेम कोशिश करने पर भी छिप नहीं पाता, वह प्रकट हो ही जाता है। प्रेम का बखान वाणी द्वारा नहीं हो सकता। प्रेम को तो आँखों से निकले हुए आँसू ही व्यक्त करते हैं।साभार https://www.hindwi.org/dohe/hari-ras-piya-janniye-kabir-dohe

 समस्त विद्याओं की और समस्त स्त्रियों में मातृभाव की प्राप्ति -

विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।

त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्ति :॥

अर्थ :- देवि! सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगदम्ब! एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थो से परे एवं परा वाणी हो।

All the learnings in this world are your forms, All the women in this world are your embodiment. You are pervaded in all this world, What could be your praise, you are much above than your praise.


অয়ি   ভুবনমনোমোহিনী,   মা,

অয়ি   নির্মলসূর্যকরোজ্জ্বল ধরণী   জনকজননিজননী ॥

নীলসিন্ধুজলধৌতচরণতল,   অনিলবিকম্পিত-শ্যামল-অঞ্চল,

অম্বরচুম্বিতভালহিমাচল, শুভ্রতুষারকিরীটিনী ॥

প্রথম প্রভাত উদয় তব গগনে,   প্রথম সামরব তব তপোবনে,

প্রথম প্রচারিত তব বনভবনে   জ্ঞানধর্ম কত কাব্যকাহিনী।

চিরকল্যাণময়ী তুমি ধন্য,   দেশবিদেশে বিতরিছ অন্ন--

জাহ্নবীযমুনা বিগলিত করুণা পুণ্যপীষুষস্তন্যবাহিনী ॥

রাগ: ভৈরবী

তাল: কাহারবা

রচনাকাল (বঙ্গাব্দ): 1303

রচনাকাল (খৃষ্টাব্দ): 1896

স্বরলিপিকার: সরলা দেবী

महालया :2 अक्टूबर, 2024/ https://tagoreweb.in/Songs/swadesh-234/ayi-bhubanmanamohini-5026/

जनक जननी जननी 

जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥4॥

भावार्थ-

राजा जनक की पुत्री, जगत् की माता और करुणा निधान श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री जानकीजी के दोनों चरण कमलों को मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि पाऊँ॥4॥(बालकाण्ड)

हिन्दू धर्म मे तीन देव को सुपर माना गया है ।

ब्रह्मा, विष्णु और महेश। ब्रह्मा को सृष्टि निर्माता माना गया है । ब्रह्ना का सम्बंध सरस्वती से है जो ज्ञान की देवी है । ब्रह्मा के ज्ञान सृस्टि बनी है ये मन से सम्बंधित है और ब्रह्ना जी भी मन के ज्ञान से सृष्टि बनाई थी । विष्णु को को सृष्टि का पालनकर्ता माना गया है तो उनका सम्बन्ध लक्ष्मी से है जो धन की देवी है ।महेश यानी शंकर यानी महादेव जिन्हें सृष्टि संहार के रूप मे माना गया है । इनका सम्बन्ध दुर्गा या काली से है जो दुष्टों का संहार करती है । वैसे ये तीनो देवियां इन तीनो देव की शक्ति है पत्नी नही है

जी हाँ त्रिदेवी- सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा एक ही प्रकृति के तीन रूप हैं। परमात्मा के दो प्रकार हैं- पुरुष और प्रकृति। पुरुष सर्व प्रथम तीन रूप में प्रकट हुए, त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु और शिव, इन तीन रूपों में परमात्मा रचना, संचालन और विलय करते हैं। प्रकृति तीन रूप में(त्रिदेवी- सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती) त्रिदेव की सहायता करती हैं। ज्ञान की देवी सरस्वती सृजनकर्ता ब्रह्मा की पत्नी हैं, धन एवं ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी पालनकर्ता नारायण की पत्नी हैं और शक्ति की देवी दुर्गा अर्थात पार्वती विलीनकर्ता महादेव अर्थात शिव जी की पत्नी हैं। 

वाक्-सरस्वती -ब्रह्मा -मन से सृष्टि  /क्या सती ही पार्वती और दुर्गा है? जी सती ही पार्वती और दुर्गा हैं। देखिये मूल प्रकृति मानी जाती हैं माँ आदि शक्ति, जो अनंत हैं अपने पति भगवान शिव की तरह। शिव जी की अर्धांगिनी हैं शक्ति माता। वे जब भी जन्म लेती हैं तो महादेव यानी शिव जी से ही विवाह करती हैं, क्योंकि शिव और शक्ति एक दूसरे से अलग नहीं हो सकते।

     सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा जी ने भगवान शिव से सहायता माँगी, तब भगवान अपने अर्धानारिश्वर रूप में ब्रह्मा जी के सामने आए, उन्होंने ब्रह्मा जी की सहायता करने के लिए अपने आपको दो भागों में विभाजित किया.. अर्थात शिव और शक्ति जिनका शरीर एक था, वे अब दो शरीर बन चुके थे.. अब ईश्वर के दो रूप हो चुके थे पुरुष (शिव) और प्रकृति (शक्ति)। 

    ठीक इसी प्रकार भगवान विष्णु के लिए देवी लक्ष्मी प्रकट हुई, कहा जाता हैं कि वे नारायण यानी विष्णु जी के हृदय से प्रकट हुई थीं। ब्रह्मा जी ने भी स्वयं से सरस्वती माता को अलग कर दिया और अब परमेश्वर के 6 रूप बन चुके थे 3 पुरुष और 3 स्त्री प्रकृति। 3 पुरुष यानी ब्रह्मा विष्णु महेश (शिव) त्रिदेव कह लाए, 3 देवियाँ यानी सरस्वती लक्ष्मी शक्ति त्रिदेवी कह लाई।              सरस्वती ब्रह्मा की पत्नी हुई, विष्णु की पत्नी लक्ष्मी, लेकिन शिव और शक्ति का विवाह तुरंत नहीं हुआ। ब्रह्मा जी के पुत्र प्रजापति दक्ष ने शक्ति माता की आराधना करी और उनसे अपनी पुत्री के रूप में जन्म लेने को कहा। शक्ति माता जन्म लिया, उन्हें सती नाम मिला और उनका विवाह शिव से हुआ.. कहानी बहुत लंबी है, बस इतना कहूँगा कि सती माता ने अपना शरीर त्याग दिया था.. उनके मंदिर शक्ति पीठ कहलाते हैं। 

      शक्ति माता ने अपने सती जीवन का अंत करने के बाद हिमावत महाराज और रानी मेनवती के घर जन्म लिया, पर्वत की राजकुमारी होने के कारण शक्ति माता को 'पार्वती' नाम मिला। उन्होंने शिव जी को ही अपना पति माना और वे हैं भी.. लेकिन शिव जी ने उन्हें तुरंत पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं किया.. पार्वती जी को कड़ी तपस्या करनी पड़ी.. तब भगवान शिव ने उनसे विवाह किया.. क्योंकि संघर्ष तो जरूरी है। शिव और शक्ति के इस पुनर्मिलन को हम महाशिवरात्रि के रूप में मनाते हैं।

     शक्ति जिनका नाम अब पार्वती हो चुका था, उन्होंने दुर्गमासुर नामक राक्षस का वध करने के लिए एक शक्तिशाली रूप धारण किया, दुर्गमासुर का वध करने के बाद शक्ति माता या कहें पार्वती माता को दुर्गा नाम मिला, दुर्गम का नाश करने वाली माँ दुर्गा। बाद में इसी दुर्गा रूप में पार्वती जी ने 9 बार और विस्तार किया, ये 9 रूप नवदुर्गा कहलाते हैं। जो छटा रूप हैं उसे कात्यायनी कहलाता है, इस रूप में माता ने महिषासुर नामक क्रूर दानव का वध किया और तब माता रानी को महिषासुर मर्दिनी नाम मिला। माता रानी को गोरे होने की वजह से गौरी भी कहते हैं। यदि उन्हें बहुत क्रोध आए तो वे महाकाली रूप धारण कर राक्षसों का विनाश करती हैं। तो भगवती माता शक्ति जो भगवान शिव की पत्नी हैं उन्ही के हैं ये सारे नाम, चाहे आप उन्हें शक्ति कहें, या सती, पार्वती, गौरी, जगदंबा, दुर्गा, भवानी, काली, अन्नपूर्णा कहें.. वे हैं तो एक ही महादेवी। महादेवी महादेव की अर्धांगिनी हैं, उनकी प्रिय पत्नी। भगवान शंकर अगर जगत पिता हैं तो पार्वती जी जगत जननी हैं। 

सरस्वती- (क):

 ज्ञान रूप-सृष्टि के मूल तत्त्व का विस्तार ३ प्रकार से देखा जाता है-आकाश का विस्तार अव्यक्त पदार्थ महाकाली, व्यक्त पदार्थ महालक्ष्मी, उसकी वाक् या सलिल् (तरङ्ग) रूप ऊर्जा महा सरस्वतीवाक् द्वारा ही दूरस्थ पिण्ड का अनुभव या ज्ञान वाक् तरङ्ग द्वारा ही पहुंचता है, अतः यह ज्ञान या वेद रूप है। यह मार्कण्डेय पुराण के चण्डी पाठ में है। इनको वेद में इळा, सरस्वती, मही या भारती कहा गया है।

 भारतीळे सरस्वति या वः सर्वा उपब्रुवे। 

ता नश्चोदयत श्रिये॥ (ऋक्, १/१८८/८)

पदार्थ

१. 'भारत' सूर्य का नाम है, उसकी सम्बन्धिनी भारती द्युलोक की देवता है । 'इळा' भूदेवी है और 'सरस्वती' अन्तरिक्ष की देवता है (सरः वागू, उदकं वा अस्यास्तीति) । हे (भारति) = द्युलोक देवते! (इळे) = भूदेवि! (सरस्वति) = अन्तरिक्ष देवते! (याः सर्वाः) = जो आप सब हैं, (वः) = [युष्मान्] उनको (उपब्रुवे) = मैं प्रार्थना करता हूँ। 

२. (ताः) = वे आप सब (न:) = हमें श्रिये शोभा के लिए (चोदयत्) = [प्रेरयत-Inspired] प्रेरित कीजिए। ज्ञान की प्रेरक शक्ति भी सरस्वती है जिसे यहां ’चोदयत’ लिखा है। प्रेरित हो कर ही सभी कर्म या यज्ञ होते हैं, मनुष्य पवित्र और शक्तिशाली होता है।

अध्यात्म में 'मस्तिष्क' द्युलोक है, 'शरीर' पृथ्वीलोक है और 'हृदय' अन्तरिक्षलोक है। मस्तिष्क की देवता आदित्य की भाँति चमकता हुआ ज्ञान है। शरीर की देवता पृथिवी के समान 'दृढ़ता' व 'शक्ति' है । हृदय की देवता में वायु की भाँति 'कर्म का संकल्प' है । 'ज्ञान, शक्ति व कर्मसंकल्प' – ये सब मिलकर हमें श्रीसम्पन्न करें । ज्ञान (आत्मज्ञान) की प्रेरक शक्ति भी सरस्वती है जिसे यहां ’चोदयत’ लिखा है। प्रेरित (Inspired) हो कर ही सभी कर्म (Be and Make) या यज्ञ होते हैं, जिसमें लगे रहने से मनुष्य पवित्र और शक्तिशाली होता है

भावार्थ

भावार्थ – 'भारती, इळा व सरस्वती' हमारे जीवन की त्रिलोकी की देवता हों। बालकों को पोषण करने में कुशल स्त्री ‘भारती’, उत्तम ज्ञान निष्ठ वा कर्मनिष्ठ स्त्री ‘इळा’ और उत्तम ज्ञान विज्ञान का व्याख्यान करने वाली ‘सरस्वती’ इत्यादि नाना गुणवती स्त्रियां हमारे राष्ट्र और गृह की शोभा की वृद्धि के लिये पुरुषों को प्रेरित किया करें। ऐसा उनको मैं उपदेश करूं। जिससे ये हमारे जीवन को श्रीयुक्त करें। हम इन तीनों देवताओं का आराधन करें ।

महो अर्णः सरस्वती प्रचेतयति केतुना। 

श्रियो विश्वा विराजति॥ (ऋक्, २/११/८)

अर्णः या अर्णव का सामान्य अर्थ जल या उसका विस्तार समुद्र है, किन्तु यहां चेतना और प्रेरणा प्रसङ्ग में प्रयोग है। ज्ञान दो प्रकार के हैं। जिन वस्तुओं को गिना जा सके उनका ज्ञान गणेश है। कण = 1पिण्ड, गण = कण का समूह जिसकी गणना हो सकेपदार्थ अलग अलग (चिकेत) दीखते हैं तो उनको गिना जा सकता है (नचिकेता), जल बिंदुओं की तरह मिले जुले हों तो किसी अलग बिन्दु के बारे में कोई ज्ञान नहीं होगा। यह जल या रस जैसा फैलाव है अतः इसे रसवती या सरस्वती कहते हैं। ज्ञान के २ रूप रामचरितमानस के मङ्गलाचरण में हैं- 

"वर्णानामर्थसङ्घानां रसानां छन्दसामपि।

 मङ्गलानां च कर्त्तारौ, वन्दे वाणी विनायकौ॥

वर्णानाम (Letters and numbers) अर्थ्संघानाम  (meanings) रसानां  (the 9 Rasa that express the feelings of each emotion) छन्दसाम  (the Chands) च  (and)  मंगलानाम  (prosperity, success) कर्तारौ  (make it possible) वाणी   (Mata Saraswati) अपि  (as well as) विनायक  (Sri Ganesh Ji) वन्दे  (Worship)

संत तुलसीदास जी माता सरस्वती और श्री गणेश प्रभु की विनय और वन्दना करते हुए कहते हैं -अक्षरों को बनाने वाले, उनके अर्थों को बनाने और समझानेवाले, इन अक्षरों से जो 9 रस प्राप्त होते हैं उनको बनाने वाले , छन्दों को बनाने वाले, जिनकी कृपा के बिना हमारी यह अपार रचना सफल नहीं हो पायेगी , हे माता सरस्वती और श्रीगणेश जी मैं आप दोनों को (दोनों प्रकार के ज्ञान को) प्रणाम और वन्दना करता हूँ

[नौ रस- जीवन की नौ मनोदशाएँ।/The nine moods of life.श्रृंगार रस, हास्य रस, रौद्र रस, करुणा रस, बीभत्स रस,  भयानक रस, वीर रस,  अद्भुत रस। ]

Sri Tulsidas Ji says, all the letters and numbers and their meanings, all the types of feelings and moods expressed by these, all the Chands used in Sri RCM, and without whose blessings of success and prosperity on this enormous and extensive task of writing Sri RCM, Mata Saraswati & Sri Ganesh Ji, I worship you both.

सरस्वती (ख): ब्रह्माण्ड रूप-आकाश के सबसे बड़े पिण्ड ब्रह्माण्ड का विस्तार सरस्वान् समुद्र है। असंख्य ब्रह्माण्डों में फैला पदार्थ निर्माण का मूल स्रोत नियति है, उसका ज्ञान ब्रह्माण्ड से आरम्भ हुआ, वह सरस्वती है। ब्रह्माण्ड के १०० अरब कणों में १ हमारा सूर्य है, जिसके द्वारा अपने क्षेत्र में पृथ्वी तथा उस पर जीवन का निर्माण हो रहा है। अतः सूर्य सविता है तथा उसका क्षेत्र या ऊर्जा सावित्री है। हमारा भौतिक शरीर या गात्र पृथ्वी पर बन रहा है, अतः वह गायत्री है। अन्य प्रकार से गायत्री के ३ रूप गायत्री, सावित्री, सरस्वती हैं। गायत्री २४ अक्षर का छन्द है जिससे लोकों की माप होती है। मनुष के आकार को २४ बार २ गुणा (प्रायः १ कोटि गुणा) करेंगे तो पृथ्वी का आकार होगा.; जो गायत्री है। पुनः १ कोटि या गायत्री गुणा सौर मण्डल का आकार होगा जो सावित्री है। पुनः गायत्री गुणा ब्रह्माण्ड का आकार होगा जिसका विस्तार सरस्वती है। 

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