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शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

🔆🙏परिच्छेद ~ 98 [ (18 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] "आत्मानन्द में "- बाबूराम (स्वामी प्रेमानन्द) श्री रामलाल और हरिपद के साथ .

परिच्छेद ~ ९८  [ (18 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद) साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ ] 

परिच्छेद~ ९८

आत्मानन्द में 

(१)

🔆 श्री रामकृष्ण काली पूजा की महानिशा में दक्षिणेश्वर मन्दिर में भक्तों के संग🔆

[শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বরে কালীপূজা মহানিশায় ভক্তসঙ্গে] 

[মাস্টার, বাবুরাম, গোপাল, হরিপদ, নিরঞ্জনের আত্মীয়, রামলাল, হাজরা ]

आज काली-पूजा है, शनिवार, 18 अक्टूबर, 1884 ई.। रात के दस -ग्यारह बजे से काली-पूजा शुरू होगी। कुछ लोग इस गम्भीर अमावस की रात में श्रीरामकृष्ण के दर्शन करेंगे । इसलिए वे कदम बढ़ाये चले आ रहे हैं । रात आठ बजे के लगभग मास्टर अकेले आ पहुंचे ।

[আজ ৺কালীপূজা, ১৮ই অক্টোবর, ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ, শনিবার (৩রা কার্তিক, অমাবস্যা)। রাত দশটা-এগারটার সময় ৺কালীপূজা আরম্ভ হইবে। কয়েকজন ভক্ত এই গভীর অমাবস্যা নিশিতে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণকে দর্শন করিবেন, তাই ত্বরা করিয়া আসিতেছেন। মাস্টার রাত্রি আন্দাজ আটটার সময় একাকী আসিয়া পৌঁছিলেন। 

It was the day of the worship of Kali, the Divine Mother. The worship was to begin at eleven o'clock at night. Several devotees arrived at the temple garden early in the evening. They wanted to visit Sri Ramakrishna during the holy hours of the night of the new moon. M. came alone to the garden about eight o'clock in the evening.

बगीचे में आकर उन्होंने देखा, काली-मन्दिर की पूजा आरम्भ हो चुकी है । बगीचे में कहीं कहीं दीपक जलाये गये थे और काली-मन्दिर में तो रोशनी ही रोशनी दीख पड़ती है । बीच बीच में शहनाई भी बज रही है । कर्मचारीगण दौड़-दौड़कर इधर-इधर देखरेख कर रहे हैं ।

आज रानी रासमणि के काली-मन्दिर में बड़े समारोह के साथ पूजा होगी । दक्षिणेश्वर के आदमियों को यह सूचना पहले ही मिल चुकी थी । अन्त में नाटक होगा यह भी वे लोग सुन चुके हैं । गाँव से लड़के, जवान, बूढे और स्त्रियाँ सब देवीदर्शन के लिए चले आ रहे हैं ।

[বাগানে আসিয়া দেখিলেন, কালীমন্দিরে মহোৎসব আরম্ভ হইয়াছে। উদ্যানমধ্যে মাঝে মাঝে দীপ — দেবমন্দির আলোকে সুশোভিত হইয়াছে। মাঝে মাঝে রোশনচৌকি বাজিতেছে, কর্মচারীরা দ্রুতপদে মন্দিরের এ-স্থান হইতে ও-স্থানে যাতায়াত করিতেছেন। আজ রাসমণির কালীবাড়িতে ঘটা হইবে, দক্ষিণেশ্বরের গ্রামবাসীরা শুনিয়াছেন, আবার শেষরাত্রে যাত্রা হইবে। গ্রাম হইতে আবাল-বৃদ্ধ-বনিতা বহুসংখ্যক লোক ঠাকুরদর্শন করিতে সর্বদা আসিতেছে।

The great religious festival had already begun. Lamps had been lighted here and there in the garden, and the temples were brightly illuminated. Music could be heard in the nahabat. The temple officers were moving about hurriedly. There was to be a theatrical performance in the early hours of the morning. The villagers had heard of the festive occasion, and a large crowd of men and women, young and old, was streaming in..

दिन के पिछले पहर चण्डी-गीत हो रहा था, गवैये थे राजनारायण । श्रीरामकृष्ण ने भक्तों के साथ बड़े प्रेम से गाना सुना । देवी की पूजा की याद कर श्रीरामकृष्ण को अपार आनन्द हो रहा है ।

[বৈকালে চণ্ডীর গান হইতেছিল — রাজনারায়ণের চণ্ডীর গান। ঠাকুর ভক্তসঙ্গে প্রেমানন্দে গান শুনিয়াছেন। আজ আবার জগতের মার পূজা হইবে। ঠাকুর আনন্দে বিভোর হইয়াছেন।

In the afternoon there had been a musical recital of the Chandi by Rajnarayan. Sri Ramakrishna had been present with the devotees and had enjoyed the recital immensely. As the time for the worship approached, he was overwhelmed with ecstasy.

रात के आठ बजे वहाँ पहुँचकर मास्टर ने देखा, श्रीरामकृष्ण छोटी खाट पर बैठे हुए हैं, उन्हें सामने करके कई भक्त जमीन पर बैठे हैं - बाबूराम, छोटे गोपाल, हरिपद, किशोरी, निरंजन के एक आत्मीय नवयुवक और ऐंड़ेदा के एक और किशोर बालक । रामलाल और हाजरा कभी कभी आते हैं, फिर चले जाते हैं ।

निरंजन के आत्मीय नवयुवक श्रीरामकृष्ण के सामने बैठे हुए ध्यान कर रहे हैं - श्रीरामकृष्ण ने उन्हें ध्यान करने के लिए कहा है ।

[রাত্রি আটটার সময় পৌঁছিয়া মাস্টার দেখিতেছেন, ঠাকুর ছোট খাটটিতে বসিয়া আছেন, তাঁহাকে সম্মুখে করিয়া মেঝের উপর কয়েকটি ভক্ত বসিয়া আছেন — বাবুরাম, ছোট গোপাল, হরিপদ, কিশোরী, নিরঞ্জনের একটি আত্মীয় ছোকরা ও এঁড়েদার আর একটি ছেলে। রামলাল ও হাজরা মাঝে মাঝে আসিতেছেন ও যাইতেছেন।নিরঞ্জনের আত্মীয় ছোকরাটি ঠাকুরের সম্মুখে ধ্যান করিতেছেন, — ঠাকুর তাঁহাকে ধ্যান করিতে বলিয়াছেন —

M. found Sri Ramakrishna seated on the small couch in his room. Baburam, the younger Gopal, Haripada, Kishori, a relative of Niranjan, a young man from Ariadaha, and other devotees were seated on the floor facing him. Ramlal and Hazra were in the room part of the time. Niranjan's young relative was meditating in front of Sri Ramakrishna, as the Master had bidden.

मास्टर प्रणाम करके बैठे । कुछ देर बाद निरंजन के आत्मीय प्रणाम करके बिदा हुए । ऐंड़ेदा के दूसरे युवक भी प्रणाम कर खड़े हो गये । उनके साथ जायेंगे ।

श्रीरामकृष्ण (निरंजन के आत्मीय से)- तुम फिर कब आओगे ?

[মাস্টার প্রণাম করিয়া উপবিষ্ট হইলেন। কিয়ৎক্ষণ পরে নিরঞ্জনের আত্মীয় প্রণাম করিয়া বিদায় গ্রহণ করিলেন। এঁড়েদার দ্বিতীয় ছেলেটিও প্রণাম করিয়া দাঁড়াইলেন — ওই সঙ্গে যাবেন।শ্রীরামকৃষ্ণ (নিরঞ্জনের আত্মীয়ের প্রতি) — তুমি কবে আসবে?

M. saluted the Master and took a seat. After a while Niranjan's relative bowed low before Sri Ramakrishna and was about to depart. The young man from Ariadaha also wished to leave. The Master said to Niranjan's relative, "When will you come again?"

भक्त - जी, सोमवार तक – शायद ।

[ভক্ত — আজ্ঞা, সোমবার — বোধ হয়।

DEVOTEE: "Perhaps next Monday."

श्रीरामकृष्ण - (आग्रहपूर्वक) - लालटेन चाहिए ? - साथ ले जाओ ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (আগ্রহের সহিত) — লণ্ঠন চাই, সঙ্গে নিয়ে যাবে?

MASTER (eagerly): "Do you want a lantern to take with you?"

भक्त - जी नहीं, इस बगीचे के आस-पास तो रोशनी है - कोई जरूरत नहीं ।

[ভক্ত — আজ্ঞা না, এই বাগানের পাশে; — আর দরকার নাই।

DEVOTEE: "No, sir, I live next to this garden. I don't need a lantern."

श्रीरामकृष्ण - (ऐंड़ेदा के लड़के से) - क्या तू भी जा रहा है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (এঁড়েদার ছোকরাটির প্রতি) — তুইও চললি?

MASTER (to the young man from Ariadaha): "Are you going too?"

लड़का - जी हाँ, बड़ी सर्दी है ।

[ছোকরা — আজ্ঞা, সর্দি —

YOUNG MAN: "Yes, sir, I have a slight cold."

श्रीरामकृष्ण - अच्छा; सिर पर कपड़ा लपेट लेना ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা, বরং মাথায় কাপড় দিয়ে যেও।

MASTER: "All right. Cover your head."

दोनों लड़कों ने फिर से प्रणाम किया और चल दिये ।

[ছেলে দুটি আবার প্রণাম করিয়া চলিয়া গেলেন।

They again saluted the Master and took their leave.

(२)

[ (18 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏कालीपूजा की महानिशा और कीर्तनानन्द में श्रीरामकृष्ण 🔆🙏 

( দক্ষিণেশ্বরে ৺কালীপূজা মহানিশায় শ্রীরামকৃষ্ণ ভজনানন্দে)

अमावस की घोर रात्रि है । तिस पर जगन्माता की पूजा है । श्रीरामकृष्ण छोटी खाट पर तकिए के सहारे बैठे हुए हैं । अन्तर्मुख हैं । रह-रहकर भक्तों से दो-एक बातें करते हैं ।

एकाएक मास्टर तथा अन्य भक्तों की ओर देखकर कह रहे हैं - अहा, उस लड़के का कितना गम्भीर ध्यान था ! (हरिपद से) कैसा ध्यान था ?

[গভীর অমাবশ্যা নিশি। আবার জগতের মার পূজা। শ্রীরামকৃষ্ণ ছোট খাটটিতে বালিশে হেলান দিয়া আছেন। কিন্তু অন্তর্মুখ, মাঝে মাঝে ভক্তদের সঙ্গে একটি-দুইটি কথা কহিতেছেন। হঠাৎ মাস্টার ও ভক্তদের প্রতি তাকাইয়া বলিতেছেন, আহা, ছেলেটির কি ধ্যান! (হরিপদের প্রতি) — কেমন রে? কি ধ্যান!

It was the awe-inspiring night of the new moon. The worship of the Divine Mother added to its solemnity. Sri Ramakrishna was seated on the couch, leaning against a pillow. His mind was indrawn. Now and then he exchanged a word or two with the devotees. Suddenly he looked at M. and the other devotees and said: "Ah, how deep the young man's meditation was! (To Haripada) Wasn't it deep?"

हरिपद - जी हाँ, वह ठीक काठ की तरह स्थिर था ।

[হরিপদ — আজ্ঞা হাঁ, ঠিক কাষ্ঠের মতো।

HARIPADA: "Yes, sir, he was motionless as a log."

श्रीरामकृष्ण - (किशोरी से) - उस लड़के को जानते हो ? किसी सम्बन्ध से निरंजन का भाई लगता है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (কিশোরীর প্রতি) — ও ছেলেটিকে জান? নিরঞ্জনের কিরকম ভাই হয়।

MASTER (to Kishori): "Do you know that boy? He is a cousin of Niranjan."

फिर सब चुपचाप बैठे हुए हैं । हरिपद श्रीरामकृष्ण के पैर दबा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण धीरे धीरे गा रहे हैं, एकाएक उठकर बैठ गये और बड़े उत्साह से गाने लगे –

"यह सब उस पागल स्त्री का खेल है । वह खुद भी पागल है, उसके पति महेश भी पागल हैं, और दो चेले हैं वे भी पागल हैं । उसका रूप क्या है, गुण क्या है, चाल-ढाल कैसी है, कुछ कहा नहीं जाता । जिनके गले में विष की ज्वाला है, वे शिव उसका नाम बार बार लेते हैं । सगुण और निर्गुण का विवाद लगाकर वह रोड़े से रोड़ा फोड़ती है । वह सब विषयों में राजी है, बस कर्तव्यों के समय ही उसकी नाराजगी होती है । रामप्रसाद कहते हैं, संसार-सागर में अपना डोंगा डालकर बैठे रहो । जब ज्वार आये तब वह जहाँ तक ले जाय, चढ़ते जाओ और जब भाटा हो, तब जहाँ तक उतरना हो, उतरते जाओ ।"

[আবার সকলেই নিঃস্তব্ধ। হরিপদ ঠাকুরের পদসেবা করিতেছেন। ঠাকুর বৈকালে চণ্ডীর গান শুনিয়াছেন। গানের ফুট উঠিতেছে। আস্তে আস্তে গাইতেছেন:কে জানে কালী কেমন, ষড়দর্শনে না পায় দরশন।।মূলাধারে সহস্রারে সদা যোগী করে মনন।কালী পদ্মবনে হংসসনে হংসীরূপে করে রমণ।। আত্মারামের আত্মাকালী, প্রমাণ প্রণবের মতন।তিনি ঘটে ঘটে বিরাজ করেন ইচ্ছাময়ীর ইচ্ছা যেমন।।মায়ের উদরে ব্রহ্মাণ্ড-ভাণ্ড প্রকাণ্ড তা জান কেমন।মহাকাল জেনেছেন কালীর মর্ম অন্য কেবা জানে তেমন।।প্রসাদ ভাষে লোকে হাসে সন্তরণে সিন্ধু তরণ।আমার মন বুঝেছে প্রাণ বুঝে না, ধরবে শশী হয়ে বামন।।

Again there was silence in the room. Haripada was gently stroking the Master's feet. The Master was humming some of the songs he had heard that evening during the recital of the Chandi. He sang softly:Who is there that can understand what Mother Kali is? Even the six darsanas are powerless to reveal Her. . . .

गाते ही गाते श्रीरामकृष्ण मतवाले हो गये । उसी आवेश में उन्होंने और कई गाने गाये । एक और गाने का भाव नीचे दिया जाता है –

"काली ! तुम सदानन्दमयी हो, महाकाल के मन को भी मुग्ध कर लेती हो । तुम आप नाचती हो, आप गाती हो और आप ही तालियाँ बजाती हो । तुम आदिभूता हो, सनातनी हो, शून्यरूपा हो, तुम्हारे मस्तक पर चन्द्र शोभा दे रहा है । अच्छा माँ, तुम यह तो बतलाओ, जब ब्रह्माण्ड ही नहीं था, तब तुम्हें मुण्ड-माला कैसे मिली ? तुम्हीं यन्त्री हो, हम लोग तुम्हारे ही इशारे पर चलते हैं । तुम जिस तरह रखती हो, उसी तरह रहते हैं और जो कुछ कहलाती हो, वही कहते हैं । अशान्त होकर कमलाकान्त तुम्हें गालियाँ देता हुआ कहता है, अबकी बार तो, ऐ सर्वहरे ! खड्ग धारण करके मेरे धर्म और अधर्म दोनों को तुम खा गयी ।”

[ঠাকুর উঠিয়া বসিলেন। আজ মায়ের পূজা — মায়ের নাম করিবেন! আবার উৎসাহের সহিত গাইতেছেন: 

(৩) - সদানন্দময়ী কালী, মহাকালের মনোমোহিনী।তুমি আপনি নাচ, আপনি গাও, আপনি দাও মা করতালি।।আদিভূতা সনাতনী, শূন্যরূপা শশীভালী।ব্রহ্মাণ্ড ছিল না যখন, মুণ্ডমালা কোথায় পেলি।। সবে রাত্রে তুমি যন্ত্রী, আমরা তোমার তন্ত্রে চলি।যেমন রাখ তেমনি থাকি মা, যেমন বলাও তেমনি বলি।।অশান্ত কমলাকান্ত দিয়ে বলে গালাগালি। এবার সর্বনাশী ধরে অসি, ধর্মাধর্ম দুটো খেলি।।

এ সব ক্ষেপা মায়ের খেলা, (যার মায়ার ত্রিভুবন বিভোলা) (মাগীর আপ্তভাবে গুপ্তলীলা) সে যে আপনি ক্ষেপা, কর্তা ক্ষেপা, ক্ষেপা দুটো চেলা।।কি রূপ কি গুণ ভঙ্গী, কি ভাব কিছুই যায় না বলা। যার নাম জপিয়ে কপাল পোড়ে কণ্ঠে বিষের জ্বালা।।সগুণে নির্গুণে বাঁধিয়ে বিবাদ, ঢ্যালা দিয়ে ভাঙছে ঢ্যালা।মাগী সকল বিষয়ে সমান রাজী নারাজ কেবল কাজের বেলা।।প্রসাদ বলে থাকো বসে ভবর্ণবে ভাসিয়ে ভেলা। যখন আসবে জোয়ার উজিয়ে যাবে, ভাঁটিয়ে যাবে ভাঁটার বেলা।।

Sri Ramakrishna sat up. With intense fervour he began to sing about the Divine Mother: All creation is the sport of my mad Mother Kali; By Her maya the three worlds are bewitched. Mad is She and mad is Her Husband; mad are Her two disciples! None can describe Her loveliness, Her glories, gestures, moods; Siva, with the agony of the poison in His throat, Chants Her name again and again. The Personal does She oppose to the Impersonal, Breaking one stone with another; Though to all else She is agreeable, Where duties are concerned She will not yield. Keep your raft, says Ramprasad, afloat on the sea of life, Drifting up with the flood-tide, drifting down with the ebb.

[ঠাকুর গান করিতে করিতে মাতোয়ারা হইয়াছেন। বলিলেন, এ-সব মাতালের ভাবে গান। বলিয়া গাইতেছেন:
     (১) - এবার কালী তোমায় খাব।
     (২) - তাই তোমাকে সুধাই কালী।
The Master was quite overwhelmed with the song. He said that songs like these denoted a state of divine inebriation. He sang one after another: This time I shall devour Thee utterly, Mother Kali! For I was born under an evil star, And one so born becomes, they say, the eater of his mother. . . .
Then: O Kali, my Mother full of Bliss! Enchantress of the almighty Siva! In Thy delirious joy Thou dancest, clapping Thy hands together! . . .

श्रीरामकृष्ण ने फिर गाया –

"जय काली जय काली कहते हुए अगर मेरा प्राणान्त हो, तो मैं शिवत्व को प्राप्त करूँगा । वाराणसी की मुझे क्या जरूरत है ? काली अनन्तरूपिणी हैं, उनका अन्त पा सके, ऐसा कौन है ? उनका थोड़ासा ही माहात्म्य समझकर शिव उनके पैरों पर लोटते हैं ।”

.[(৪) - জয় কালী জয় কালী বলে যদি আমার প্রাণ যায়। শিবত্ব হইব প্রাপ্ত, কাজ কি বারাণসীতায়।।অনন্তরূপিণী কালী, কালীর অন্ত কেবা পায়?কিঞ্চিৎ মাহাত্ম জেনে শিব পড়েছেন রাঙা পায়।।

And then:If at the last my life-breath leaves me as I repeat the name of Kali, I shall attain the realm of Siva. What does Benares mean to me? Infinite are my Mother's glories; who can find the end of Her virtues? Siva, beholding their smallest part, lies prostrate at Her Lotus Feet.

गाना समाप्त हो गया । इसी समय राजनारायण के दो लड़कों ने आकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । सभामण्डप में दिन के पिछले पहर राजनारायण ने चण्डी-गीत गाया था । उनके साथ उन दोनों लड़कों ने भी गाया था । श्रीरामकृष्ण दोनों लड़कों के साथ फिर गाने लगे ।

[গান সমাপ্ত হইল এমন সময়ে রাজনারায়ণের ছেলে দুটি আসিয়া প্রণাম করিল। নাটমন্দিরে বৈকালে রাজনারায়ণ চন্ডীর গান গাইয়াছিলেন, ছেলে দুটিও সঙ্গে সঙ্গে গাইয়াছিল। ঠাকুর ছেলে দুটির আঙ্গে আবার গাইতেছেন: ‘এ সব ক্ষেপা মেয়ের খেলা’।

ছোট ছেলেটি ঠাকুরকে বলিতেছেন, — ওই গানটি একবার যদি —‘পরম দয়াল হে প্রভু’ —ঠাকুর বলিলেন, “গৌর নিতাই তোমরা দুভাই?” — এই বলিয়া গানটি গাইতেছেন:গৌর নিতাই তোমরা দুভাই পরম দয়াল হে প্রভু।

The singing was over. Two sons of Rajnarayan entered the room and bowed low before the Master. In the afternoon they had sung with their father the glories of the Divine Mother. The Master sang again with them: All creation is the sport of my mad Mother Kali . . .The younger brother requested Sri Ramakrishna to sing a certain song about Sri Gauranga. The Master sang: Gaur and Nitai, ye blessed brothers! I have heard how kind you are, And therefore I have come to you. . . .

श्रीरामकृष्ण के कई गाने गा चुकने पर कमरे में रामलाल आये । श्रीरामकृष्ण कहते हैं, तू भी कुछ गा, आज पूजा है । रामलाल गा रहे हैं –

"यह किसकी कामिनी है - समर को आलोकित कर रही है ? सजल जलद-सी इसकी देह की कान्ति है, दर्शनों में दामिनी की ध्युति दीख पड़ती है ! इसकी केशराशि खुली हुई है, सुरों और असुरों के बीच में भी इसे भय नहीं होता । इसके अट्टहास से ही दानवों का नाश हो जाता है । कमलाकान्त कहते हैं, जरा समझो तो, यह गजगामिनी कौन है !”

[গান সমাপ্ত হইল। রামলালের ঘরে আসিয়াছেন। ঠাকুর বলিতেছেন, ‘একটু গা, আজ পূজা।’ রামলাল গাইতেছেন:   (১) - সমর আলো করে কার কামিনী!সজল জলদ জিনিয়া কায়, দশনে প্রকাশে দামিনী।।এলায়ে চাঁচর চিকুর পাশ, সুরাসুর মাঝে না করে ত্রাস অট্টহাসে দানব নাশে, রণ প্রকাশে রঙ্গিণী।। কিবা শোভা করে শ্রমজ বিন্দু, ঘনতনু ঘেরি কুমুদবন্ধু,অমিয় সিন্ধু হেরিয়ে ইন্দু, মলিন এ কোন মোহিনী।।এ কি অসম্ভব ভব পরাভব, পদতলে শবসদৃশ নীরব,কমলাকান্ত কর অনুভব, কে বটে ও গজগামিনী।।(২) - কে রণে নাচিছে বামা নীরদবরণী।

Ramlal entered the room. The Master said to him: "Please sing something about the Divine Mother. It is the day of Her worship."Ramlal sang: Who is the Woman yonder who lights the field of battle?Darker Her body gleams even than the darkest storm-cloud, And from Her teeth there flash the lightning's blinding flames! Dishevelled Her hair is flying behind as She rushes about, Undaunted in this war between the gods and the demons. Laughing Her terrible laugh. She slays the fleeing asuras, And with Her dazzling flashes She bares the horror of war. . . .Again Ramlal sang: Who is this terrible Woman, dark as the sky at midnight? Who is this Woman dancing over the field of battle? . . .

श्रीरामकृष्ण नृत्य करते हैं, प्रेमानन्द में पागल हो रहे हैं । नाचते ही नाचते वे गाने लगे – “मेरा मनमिलिन्द काली के नीलकमलचरणों पर लुब्ध हो गया ।"

[ঠাকুর প্রেমানন্দে নাচিতেছেন। নাচিতে নাচিতে গান ধরিলেন: মজলো আমার মন ভ্রমরা শ্যামাপদ নীলকমলে!

Sri Ramakrishna began to dance to the song. Then he himself sang: The black bee of my mind is drawn in sheer delight, To the blue lotus flower of Mother Syama's feet, The blue flower of the feet of Kali, Siva's Consort. Tasteless, to the bee, are the blossoms of desire. My Mother's feet are black, and black, too, is the bee; Black is made one with black! This much of the mystery, These mortal eyes behold, then hastily retreat. But Kamalakanta's hopes are answered in the end; He swims in the Sea of Bliss, unmoved by joy or pain.

गाना और नृत्य समाप्त हो गया । श्रीरामकृष्ण अपनी छोटी खाट पर बैठे । भक्तगण भी जमीन पर बैठे।

मास्टर से श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - तुम न आये, चण्डीगीत कितना सुन्दर हुआ !

[গান ও নৃত্য সমাপ্ত হইল। ভক্তেরা আবার সকলে মেঝেতে বসিয়াছেন। ঠাকুরও ছোট খাটটিতে বসিলেন।মাস্টারকে বলিতেছেন, তুমি এলে না, চণ্ডীর গান কেমন হলো।

After the music and dancing Sri Ramakrishna sat on the couch and the devotees sat on the floor. He said to M.: "It is a pity you weren't here in the afternoon. The musical recital of the Chandi was very fine."

(३)

 [ (18 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆कालीपूजा की रात्रि और समाधि में श्रीरामकृष्ण-अन्तरंग पार्षदों के विषय में भविष्यवाणी🔆 

[কালীপূজা রাত্রে সমাধিস্থ — সাঙ্গোপাঙ্গ সম্বন্ধে দৈববাণী]

भक्तों में से कोई कोई काली-मन्दिर में देवीदर्शन करने के लिए चले गये । कोई कोई दर्शन करके अकेले गंगा के पक्के घाट पर बैठे हुए निर्जन में चुपचाप नाम-जप कर रहे हैं । रात के ग्यारह बजे होंगे। घोर अँधेरा छाया हुआ है । अभी ज्वार आने ही लगा है - भागीरथी उत्तरवाहिनी हो रही हैं ।

[ভক্তেরা কেহ কেহ কালীমন্দিরে ঠাকুর দর্শন করিতে গমন করিলেন। কেহ বা দর্শন করিয়া একাকী গঙ্গাতীরে বাঁধাঘাটের উপর বসিয়া নির্জনে নিঃশব্দে নামজপ করিতেছেন। রাত্রি প্রায় ১১টা। মহানিশা। জোয়ার সবে আসিয়াছে — ভাগীরথী উত্তরবাহিনী। তীরস্থ দীপালোকে এক-একবার কালো জল দেখা যাইতেছে।

Some of the devotees went to the temple to salute the image of the Divine Mother. Others sat quietly performing japa on the steps leading to the Ganges. It was about eleven o'clock, the most auspicious time for contemplation of the Divine Mother. The flood-tide was rising in the Ganges, and the lights on its banks were reflected here and there in its dark waters.

रामलाल 'पूजापद्धति' नाम की पुस्तक बगल में दबाये हुए माता के मन्दिर में एक बार आये । पुस्तक मन्दिर के भीतर रखना चाहते थे । मणि माता को तृषित लोचनों से देख रहे थे, उन्हें देखकर रामलाल ने पूछा, क्या आप भीतर आइयेगा ? अनुग्रह प्राप्त कर मणि मन्दिर के भीतर गये ।

देखा, माता की अपूर्व छटा थी । घर जगमगा रहा था । माता के सामने अदो-दीपदान थे, ऊपर झाड़, नीचे नैवेद्य सजाकर रखा गया था, जिससे घर भरा हुआ था । माता के पादपद्मों में जवा-पुष्प और बिल्वदल थे, श्रृंगार करनेवाले ने अनेक प्रकार के फूलों और मालाओं से माता को सजा रखा था । मणि ने देखा, सामने चामर लटक रहा है ।

एकाएक उन्हें याद आ गयी कि इसे लेकर श्रीरामकृष्ण व्यजन करते हैं । तब उन्हें संकोच हुआ । उसी संकुचित स्वर में उन्होंने रामलाल से कहा, क्या मैं यह चामर ले सकता हूँ ? रामलाल ने आज्ञा दी । मणि चामर लेकर व्यजन करने लगे । उस समय भी पूजा का आरम्भ नहीं हुआ था ।

[রামলাল পূজাপদ্ধতি নামক পুঁথি হস্তে মায়ের মন্দিরে একবার আসিলেন। পুঁথিখানি মন্দিরমধ্যে রাখিয়া দিবেন। মণি মাকে সতৃষ্ণ নয়নে দর্শন করিতেছেন দেখিয়া রামলাল বলিলেন, ভিতরে আসবেন কি? মণি অনুগৃহীত হইয়া প্রবেশ করিলেন। দেখিলেন, মা বেশ সাজিয়াছেন। ঘর আলোকাকীর্ণ। মার সম্মুখে দুই সেজ; উপরে ঝাড় ঝুলিতেছে। মন্দিরতল নৈবেদ্যে পরিপূর্ণ। মার পাদপদ্মে জবাবিল্ব। নানাবিধ পুষ্প মালায় বেশকারী মাকে সাজাইয়াছেন। মণি দেখিলেন, সম্মুখে চামর ঝুলিতেছে। হঠাৎ মনে পড়িল, ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ এই চামর লইয়া ঠাকুরকে কত ব্যজন করেন। তখন তিনি সঙ্কুচিতভাবে রামলালকে বলিতেছেন, “এই চামরটি একবার নিতে পারি?”রামলাল অনুমতি প্রদান করিলেন; তিনি মাকে ব্যজন করিতে লাগিলেন। তখনও পূজা আরম্ভ হয় নাই।

From outside the shrine M. was looking wistfully at the image. Ramlal came to the temple with a book in his hand containing the rules of the worship. He asked M. if he wanted to come in. M. felt highly favoured and entered the shrine. He saw that the Divine Mother was profusely decorated. The room was brilliantly illuminated by a large chandelier that hung from the ceiling. Two candles were burning in front of the image. On the floor were trays full of offerings. Red hibiscus flowers and bel-leaves adorned Her feet. She wore garlands round Her neck M.'s eyes fell on the chamara. Suddenly he remembered that Sri Ramakrishna often fanned the Divine Mother with it. With some hesitation he asked Ramlal if he might fan the image. The priest gave his permission. M. joyously fanned the image. The regular worship had not yet begun.

जो सब भक्त बाहर गये हुए थे, वे फिर श्रीरामकृष्ण के कमरे में आकर सम्मिलित हुए । श्रीयुत वेणीपाल ने न्योता दिया है । कल सींती के ब्राह्मसमाज में जाने के लिए श्रीरामकृष्ण को निमन्त्रण आया है । निमन्त्रणपत्र में तारीख की गलती है ।

[যে সকল ভক্তেরা বাহিরে গিয়াছিলেন, তাঁহারা আবার ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের ঘরে আসিয়া মিলিত হইলেন।শ্রীযুক্ত বেণী পাল নিমন্ত্রণ করিয়াছেন। আগামীকল্য সিঁথি ব্রাহ্মসমাজে যাইতে হইবে। ঠাকুরের নিমন্ত্রণ। নিমন্ত্রণ পত্রে কিন্তু তারিখ ভুল হইয়াছে।

The devotees again entered the Master's room. Beni Pal had invited Sri Ramakrishna to visit the Sinthi Brahmo Samaj the next day, but had made a mistake in his letter with regard to the date.

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - वेणीपाल ने न्योता भेजा है । परन्तु भला इस तरह क्यों लिखा ?

मास्टर - जी, लिखना ठीक नहीं हुआ । जान पड़ता है सोच-विचार कर नहीं लिखा ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — বেণী পাল নিমন্ত্রণ করেছে। তবে এরকম লিখলে কেন বল দেখি?

মাস্টার — আজ্ঞে, লেখাটি ঠিক হয় নাই। তবে অত ভেবে-চিন্তে লেখেন নাই।

MASTER (to M.): "Beni Pal has sent me an invitation. But why has he put the wrong date?" M: "The date was not written correctly. He wrote the letter carelessly."

श्रीरामकृष्ण कमरे में खड़े हैं । पास में बाबूराम हैं । श्रीरामकृष्ण पाल की चिट्ठी की बातचीत कर रहे हैं। बाबूराम के सहारे खड़े हुए एकाएक समाधिमग्न हो गये ।

[ঘরের মধ্যে ঠাকুর দাঁড়াইয়া, বাবুরাম কাছে দাঁড়াইয়া। ঠাকুর বেণী পালের চিঠির কথা কহিতেছেন। বাবুরামকে স্পর্শ করিয়া দাঁড়াইয়া আছেন। হঠাৎ সমাধিস্থ!

As Sri Ramakrishna spoke, he was standing in the middle of the room with Baburam by his side. He leaned toward the disciple, touching his body.

भक्तगण उन्हें घेरकर खड़े हो गये । सभी इस समाधिमग्न महापुरुष को टकटकी लगाये देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण समाधि अवस्था में बायाँ पैर बढ़ाये हुए खड़े हैं, कन्धा कुछ झुका हुआ है । बाबूराम की गरदन के पीछे श्रीरामकृष्ण का हाथ है ।

कुछ देर बाद समाधि छूटी । तब भी आप खड़े ही रहे । इस समय गाल पर हाथ रखे हुए जैसे बहुत चिन्तित भाव से खड़े हों ।

कुछ हँसकर भक्तों से बोले - “मैंने सब देखा - कौन कितना बढ़ा, राखाल, ये (मणि), सुरेन्द्र, बाबूराम, बहुतों को देखा ।"

[ভক্তেরা সকলে তাঁহাকে ঘেরিয়া দাঁড়াইয়াছেন। এই সমাধিস্থ মহাপুরুষকে অবাক্‌ হইয়া দেখিতেছেন। ঠাকুর সমাধিস্থ; বাম পা বাড়াইয়া দাঁড়াইয়া আছেন — গ্রীবাদেশ ঈষৎ আকুঞ্চিত। বাবুরামের গ্রীবার পশ্চাদ্দেশে কানের কাছে হাতটি রহিয়াছে। কিয়ৎক্ষণ পরে সমাধিভঙ্গ হইল। তখনও দাঁড়াইয়া। এইবার গালে হাত দিয়া যেন কত চিন্তিত হইয়া দাঁড়াইলেন। ঈষৎ হাস্য করিয়া এইবার ভক্তদের সম্বোধন করিয়া বলিতেছেন —শ্রীরামকৃষ্ণ — সব দেখলুম — কার কত দূর এগিয়েছে। রাখাল, ইনি (মণি), সুরেন্দ্র, বাবুরাম, অনেককে দেখলুম।

Suddenly he went into samadhi. The devotees stood around with their eyes fixed on him. The Master's left foot was advanced a little; the shoulder was slightly inclined to one side; his arm rested on Baburam's neck near the ear. After a while he came down from the ecstatic state. As he stood there he put one hand to his cheek and appeared to be brooding over something. Then, smiling, he addressed the devotees. MASTER: "I saw everything — how far the devotees had advanced. I saw Rakhal, him (pointing to M.), Surendra, Baburam, and many others."

हाजरा - मुझको भी ?

श्रीरामकृष्ण – हाँ ।

हाजरा - अब भी अनेक बन्धन हैं ?

श्रीरामकृष्ण – नहीं ।

हाजरा - नरेन्द्र का भी देखा ?

श्रीरामकृष्ण - नहीं - परन्तु अब भी कह सकता हूँ, कुछ फँस गया है; परन्तु देखा कि सब की बन जायेगी ।

(मणि की और देखकर) "सब को देखा, सब के सब तैयार हैं (पार जाने के लिए) ।"

भक्तगण निर्वाक् होकर यह देववाणी  [oracle, भविष्यवाणी] सुन रहे हैं ।

[ভক্তেরা অবাক্‌, দৈববাণীর ন্যায় অদ্ভুত সংবাদ শুনিতেছেন।

The devotees listened to these words with great wonder. It seemed to them that they were hearing an oracle (भविष्यवाणी) .

श्रीरामकृष्ण - परन्तु इसको (बाबूराम को) छूने पर ऐसा हुआ ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কিন্তু একে (বাবুরামকে) ছুঁয়ে ওরূপ হল!

MASTER: "But I got into that mood by touching Baburam."

हाजरा - पहला दर्जा किसका है ?

श्रीरामकृष्ण चुप हैं । कुछ देर बाद कहा - “नित्यगोपाल जैसे कुछ और भी मिल जाते तो बड़ा अच्छा होता !"

फिर चिन्ता कर रहे हैं । अब भी उसी भाव में खड़े हैं ।

फिर कहते हैं - “अधर सेन - अगर काम घट जाता, परन्तु भय होता है कि साहब डाँटने लगेगा । यह न कह बैठे - यह क्या है ?" (सब मुस्कराते हैं ।)

श्रीरामकृष्ण फिर अपने आसन पर जा बैठे । जमीन पर भक्तगण बैठे । बाबूराम और किशोरी श्रीरामकृष्ण की चारपाई पर जाकर उनके पैर दबाने लगे ।

श्रीरामकृष्ण - (किशोरी की ओर ताककर) - आज तो खूब सेवा कर रहे हो !

रामलाल ने आकर सिर टेककर प्रणाम किया और बड़े ही भक्ति-भाव से पैरों की धूलि ली । माता की पूजा करने जा रहे हैं ।

[রামলাল আসিয়া ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিলেন; ও আতিশয় ভক্তিভাবে পদধূলি গ্রহণ করিলেন। মায়ের পূজা করিতে যাইতেছেন।

Ramlal entered the room and saluted Sri Ramakrishna, touching the ground with his forehead. Then with great respect he touched the Master's feet. He was ready to worship the Divine Mother in the temple.

[रामलाल - ठाकुर के मँझले बड़े भाई रामेश्वर चट्टोपाध्याय के सबसे बड़े पुत्र। ठाकुर उन्हें प्यार से "रामनेलो" कहते थे। और बेलूर मठ के सभी लोग "रामलाल दादा" के नाम से जाने जाते थे। रामेश्वर के निधन के बाद, उन्हें दक्षिणेश्वर में माँ भवतारिणी के पुजारी के रूप में नियुक्त किया गया ,और उन्होंने  जीवन भर उस कर्तव्य को निभाया। वे  एक अच्छे गायक थे। उन्होंने श्री श्री ठाकुर के लिए कई बार गीत गाए हैं। ठाकुर ने काशीपुर में कल्पतरु दिवस पर रामलाल के ऊपर भी कृपा की थी। রামলাল — ঠাকুরের মধ্যম অগ্রজ রামেশ্বর চট্টোপাধ্যায়ের জ্যেষ্ঠ পুত্র। ঠাকুর তাঁহাকে স্নেহভরে “রামনেলো” বলিয়া ডাকিতেন। এবং বেলুড় মঠের সকলের নিকট তিনি “রামলাল দাদা” নামে পরিচিত ছিলেন। রামেশ্বর দেহত্যাগের পর তিনি দক্ষিণেশ্বরে ৺ভবতারিণীর পূজকের পদে নিযুক্ত হন এবং আজীবন সেই দায়িত্ব পালন করেন। তিনি সুগায়ক ছিলেন। শ্রীশ্রীঠাকুরকে অনেকবার গান শুনাইয়াছেন। ঠাকুর কাশীপুরে কল্পতরু দিবসে রামলালকেও কৃপা করেন।] 

रामलाल - तो मैं चलूँ ?

[রামলাল (ঠাকুরের প্রতি) — তবে আমি আসি।

RAMLAL: "Please permit me to go to the shrine."

श्रीरामकृष्ण - ॐ काली, ॐ काली । सावधानी से पूजा करना । [एक भेंड़ की बली भी देनी होगी।] 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ওঁ কালী, ওঁ কালী। সাবধানে পূজা করো। আবার মেড়া বলি দিতে হবে।

The Master twice uttered the words "Om Kali" and said: "Perform the worship carefully. There is also a sheep to be slaughtered."

महानिशा है । पूजा का आरम्भ हो गया । श्रीरामकृष्ण पूजा देखने के लिए गये । माता के दर्शन कर रहे हैं । [अब भेंड़ की  बली दी जाने वाली है। भेंड़ को देवी के सामने उत्सर्ग किया गया। जब भेड़ को  बलिवेदी के तरफ ले जाने का उपक्रम होने लगा, तब श्री रामकृष्ण मंदिर से अपने कमरे में लौट आए। वह बलि पड़ने के दृश्य को सहन नहीं कर सकते थे।

[মহানিশা। পূজা আরম্ভ হইয়াছে। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ পূজা দেখিতে আসিয়াছেন। মার কাছে গিয়া দর্শন করিতেছেন। এইবার বলি হইবে — লোক কাতার দিয়া দাঁড়াইয়াছে। বধ্য পশুর উৎসর্গ হইল। পশুকে বলিদানের জন্য লইয়া যাইবার উদ্যোগ হইতেছে। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ মন্দির ত্যাগ করিয়া নিজের ঘরে ফিরিয়া আসিলেন।ঠাকুরের সে অবস্থা নয়, পশুবধ দেখিতে পারিবেন না।

It was midnight. The worship began in the Kali temple. The Master went to watch the ceremony. During the worship he stood near the image. Now the sheep was going to be slaughtered. The animal was consecrated before the Deity. People stood in lines watching the ceremony. While the sheep was being taken to the block Sri Ramakrishna returned to his room. He could not bear the sight.

रात को दो बजे तक कोई कोई भक्त काली-मन्दिर में बैठे रहे । हरिपद ने काली-मन्दिर में जाकर सब से कहा, चलो, बुलाते हैं - भोजन तैयार है । भक्तों ने देवी का प्रसाद पाया और जिसको जहाँ जगह मिली, वहीं लेटा रहा ।

[রাত দুইটা পর্যন্ত কোন কোন ভক্ত মা-কালীর মন্দিরে বসিয়াছিলেন। হরিপদ কালীঘরে আসিয়া বলিলেন, চলুন, তিনি ডাকছেন, খাবার সব প্রস্তুত। ভক্তেরা ঠাকুরের প্রসাদ পাইলেন ও যে যেখানে পাইলেন, একটু শুইয়া পড়িলেন।

Several devotees remained in the temple till two o'clock in the morning. Haripada came and asked them to take the prasad to the Master's room. After finishing their meal they lay down wherever they could for the remainder of the night. 

[हरिपद - श्री रामकृष्ण के किशोर -भक्त थे । मास्टर महाशय द्वारा ठाकुर के पास लाये गए थे । वे समय-समय पर दक्षिणेश्वर जाया करता था। वे घोषपाड़ा मत के अनुसार  साधना करते थे। वे कथा- वाचन करना जानते थे;  और ध्यान करने पर उनका जोर रहता था।

হরিপদ — শ্রীরামকৃষ্ণের বালক ভক্ত। মাস্টার মহাশয় কর্তৃক ঠাকুরের নিকট আনীত। দক্ষিণেশ্বরে মাঝে মাঝে যাইতেন। ঘোষপাড়া মতে সাধন-ভজন করিতেন। কথকতা জানিতেন এবং খুব ধ্যান করিতেন।] 

सबेरा हुआ । माता की मंगल-आरती हो चुकी है । माता के सामने सभामण्डप में नाटक हो रहा है । श्रीरामकृष्ण भी नाटक देखने के लिए जा रहे हैं । मणि साथ जा रहे हैं - श्रीरामकृष्ण से बिदा होने के लिए ।

[ভোর হইল; মার মঙ্গল আরতি হইয়া গিয়াছে। মার সম্মুখে নাটমন্দির। নাটমন্দিরে যাত্রা হইতেছে, মা যাত্রা শুনিতেছেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ কালীবাড়ির বৃহৎ পাকা উঠান দিয়া যাত্রা শুনিতে আসিতেছেন। মণি সঙ্গে সঙ্গে আসিতেছেন — ঠাকুরের কাছে বিদায় লইবেন।

It was morning. The dawn service in the temples was over and the theatrical performance was going on in the open hall in front of the shrine. M. was coming through the courtyard with Sri Ramakrishna. He wanted to take leave of the Master.]

श्रीरामकृष्ण - क्या तुम इसी समय जाना चाहते हो ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন তুমি এখন যাবে?

MASTER: "Why should you go now?"

मणि - आज आप दिन के पिछले पहर सींती जायेंगे, मेरी भी जाने की इच्छा है; इसलिए घर होकर जाना चाहता हूँ ।

[মণি — আজ আপনি সিঁথিতে বৈকালে যাবেন, আমারও ইচ্ছা আছে, তাই বাড়িতে একবার যাচ্ছি।

M: "You are going to Sinthi in the afternoon. I too intend to be there. So I should like to go home for a few hours."

बातचीत करते हुए मणि काली-मन्दिर के पास आ गये । पास ही सभामण्डप है, नाटक हो रहा है । मणि ने सीढ़ियों के नीचे भूमिष्ठ हो श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।

[কথা কহিতে কহিতে মা-কালীর মন্দিরের কাছে আসিয়া উপস্থিত। অদূরে নাটমন্দির, যাত্রা হইতেছে। মণি সোপানমূলে ভূমিষ্ঠ হইয়া চরণ বন্দনা করিতেছেন।

They came to the Kali temple. At the foot of the steps M. saluted the Master.

श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'अच्छा, चलो, और आठ हाथ वाली दो धोतियाँ मेरे लिए लेते आना ।' स्नान करते समय मैं उनका उपयोग करूँगा। 

[ঠাকুর বলিলেন, “আচ্ছা এসো। আর দুখানা আটপৌরে নাইবার কাপড় আমার জন্য এনো।”

MASTER: "You are going? All right. Please bring two pieces of cheap cloth for me. I shall use them while taking my bath."

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गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

🔆🙏 $$$ 🔆🙏 परिच्छेद~ 97 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 'उत्तिष्ठत , जाग्रत '- ईशान को उपदेश !

 परिच्छेद ~ 97 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद) साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ

*परिच्छेद- 97

श्रीरामकृष्ण तथा कर्मकाण्ड*

(१)

[ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

 🔆🙏दक्षिणेश्वर में वेदान्त बागीश-ईशान आदि भक्तों के साथ 🔆🙏

দক্ষিণেশ্বরে বেদান্তবাগীশ — ঈশান প্রভৃতি ভক্তসঙ্গে

आज शनिवार है । 11 अक्टूबर,1884 ई.। श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में छोटे तख्त पर लेटे हुए हैं । दिन के दो बजे होंगे । जमीन पर मास्टर और प्रिय मुखर्जी बैठे हैं । मास्टर एक बजे स्कूल छोड़कर दो बजे के लगभग दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर आ पहुँचे हैं ।

[আজ শনিবার, ১১ই অক্টোবর, ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ (২৬শে আশ্বিন, কৃষ্ণা সপ্তমী)। ঠাকুর দক্ষিণেশ্বরে কালীবাড়িতে ছোট তক্তপোশে শুইয়া আছেন। বেলা আন্দাজ ২টা বাজিয়াছে। মেঝের উপর মাস্টার ও প্রিয় মুখুজ্জে বসিয়া আছেন।মাস্টার স্কুল হইতে ১টার সময় ছাড়িয়া দক্ষিণেশ্বরে কালীবাড়িতে প্রায় ২টার সময় পৌঁছিয়াছেন।

SRI RAMAKRISHNA lay on the small couch in his room at the Dakshineswar temple garden. It was about two in the afternoon. M. and Priya Mukherji were sitting on the floor. M. had left his school at one o'clock and had just arrived at Dakshineswar. The Master was telling anecdotes about the calculating nature of the wealthy Jadu Mallick.

श्रीरामकृष्ण - मैं यदु मल्लिक के घर गया था । जाते ही उसने पूछा – ‘गाड़ी का किराया कितना है ?’ जब मेरे साथवालों ने कहा, तीन रुपये दो आने, तब उसने मुझसे पूछा । उधर उसके एक आदमी ने आड़ में बग्गीवाले से पूछा । उसने बताया - तीन रूपये चार आने । (सब हँसते हैं ।) तब फिर हम लोगों के पास दौड़ा हुआ आया, पूछा, क्या किराया पड़ा ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — যদু মল্লিকের বাড়ি গিয়াছিলাম। একেবারে জিজ্ঞাসা করে গাড়িভাড়া কত! যখন এরা বললে তিন টাকা দুইআনা, তখন একবার আমাকে জিজ্ঞাসা করে আবার শুক্কুল ঠাকুর আড়ালে গাড়োয়ানকে জিজ্ঞাসা করছে। সে বললে তিন টাকা চারিআনা (সকলের হাস্য) তখন আবার আমাদের কাছে দৌড়ে আসে; বলে, ভাড়া কত?

MASTER: "Once I went to Jadu Mallick's house. He asked right away, 'How much is the carriage hire?' Someone told him it was three rupees and two annas. Then he questioned me about it. Next one of his people secretly asked the coachman, who said it was three rupees and four annas. (All laugh.) At that he ran to us and said, 'How much did you say the carriage hire was?'

 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏ज्यादा पैसा होने का दिखावा -जमीन दलाल से दोस्ती 🔆🙏 

“उसके पास दलाल आया था । उसने यदु से कहा, 'बड़ा बाजार में चार बिस्वा जगह बिक रही है, क्या आप लेंगे ?' यदु ने पूछा, 'दाम क्या है ? दाम में कुछ घटायेगा या नहीं ?' मैंने कहा, 'तुम लोगे नहीं, सिर्फ ढोंग कर रहे हो ।' तब मेरी ओर देखकर हँसने लगे । विषयी आदमियों का ऐसा ही दस्तूर है । पाँच आदमी आयेंगे, जायेंगे, बाजार में खूब नाम होगा ।

[“কাছে দালাল এসেছে। সে যদুকে বললে, বড়বাজারে ৪ কাঠা জায়গা বিক্রী আছে নেবেন? যদু বলে, কত দাম? দামটা কিছু কমায় না? আমি বললুম, ‘তুমি নেবে না কেবল ঢঙ করছ। না?’ তখন আবার আমার দিকে ফিরে হাসে। বিষয়ী লোকদের দস্তুরই; ৫টা লোক আনাগোনা করবে বাজারে খুব নাম হবে।"

A broker was present. He said to Jadu: 'There is a plot of land at Burrabazar for sale. Will you buy it?' Jadu asked the price and the broker told him. Jadu said, 'Won't he give it for less?' I said to Jadu: 'Come, come. You aren't going to buy the land. You're only bargaining. Isn't that so?' He turned to me and laughed."That is the nature of the worldly man. He wants people to come to him. That spreads his name in the market.

"वह अधर के घर गया था । मैंने उससे कहा तुम अधर के यहाँ गये थे, इससे अधर को बड़ा आनन्द हुआ था । तब वह 'हें-हैं' करने लगा था, पूछा - क्या सचमुच उन्हें आनन्द हुआ है ?

"यदु के यहाँ एक दूसरा मल्लिक आया था, वह बड़ा चतुर और शठ है । उसकी आँखें देखकर मैं समझ गया । आँख की ओर देखकर मैने कहा, 'चतुर होना अच्छा नहीं, कौआ बड़ा चतुर होता है, परन्तु विष्ठा खाता है ।' उसे मैंने देखा, बड़ा अभागा है । यदु की माँ ने आश्चर्यचकित होकर कहा, 'बाबा, तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि उसके कुछ है ?’ मैं चेहरे से समझ गया था ।"

[“অধরের বাড়ি গিছল তা আমি আবার বললাম, তুমি অধরের বাড়ি গিছিলে, তা অধর বড় সন্তুষ্ট হয়েছে। তখন বলে, ‘এ্যাঁ, এ্যাঁ, সন্তুষ্ট হয়েছে?’"“যদুর বাড়িতে — মল্লিক এসেছিল! বড় চতুর আর শঠ, চক্ষু দেখে বুঝতে পাল্লাম। চক্ষুর দিকে তাকিয়ে বললুম, ‘চতুর হওয়া ভাল নয়, কাক বড় সেয়ানা, চতুর, কিন্তু পরের গু খেয়ে মরে!’ আর দেখলাম লক্ষ্মীছাড়া। যদুর মা অবাক্‌ হয়ে বললে, বাবা, তুমি কেমন করে জানলে ওর কিছু নাই। চেহারা দেখে বুঝতে পেরেছিলাম।”

Jadu went to Adhar's house. I told him it had made Adhar very happy. He said: 'What? What? Was he really happy?' A certain Mallick came to Jadu's house. He was very clever and deceitful. I saw it in his eyes. I looked at him and said: 'It isn't good to be clever. The crow is very clever, but it eats others' filth.' I could tell he was badly off. Jadu's mother was amazed and said to me, 'How did you know he hadn't a penny?' I saw it from his appearance."

नारायण आये हुए हैं । वे भी जमीन पर बैठे हैं ।

নারাণ আসিয়াছেন, তিনিও মেঝেয় বসিয়া আছেন।

Narayan entered the room and sat on the floor.

श्रीरामकृष्ण - (प्रियनाथ से) - क्यों जी, तुम्हारा हरि तो बडा अच्छा है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (প্রিয়নাথের প্রতি) — হ্যাঁগা, তোমাদের হরিটি বেশ।

MASTER (to Priyanath): "Well, your Hari is a fine young man."

प्रियनाथ - ऐसा अच्छा क्या है - परन्तु हाँ, लड़का है ।

[প্রিয়নাথ — আজ্ঞা, এমন বিশেষ ভাল কি? তবে ছেলেমানুষ —

PRIYANATH: "What is so fine about him? Of course, he has a childlike nature."

नारायण - अपनी स्त्री को उसने माँ कहा है ।

[নারাণ — পরিবারকে মা বলেছে।

NARAYAN: "He addressed his wife as mother."

श्रीरामकृष्ण - यह क्या ! मैं ही नहीं कह सकता और उसने माँ कहा !

(प्रियनाथ से) बात यह है कि लड़का बड़ा शान्त है, ईश्वर की ओर मन है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সে কি! আমিই বলতে পারি না, আর সে মা বলেছে! (প্রিয়নাথের প্রতি) — কি জানো, ছেলেটি বেশ শান্ত, ঈশ্বরের দিকে মন আছে।

MASTER: "What! Even I can't do that. And he calls her mother! (To Priyanath) You see, the boy is very quiet. His mind is directed to God."

श्रीरामकृष्ण दूसरी बात करने लगे ।

ঠাকুর অন্য কথা পাড়িলেন।

Sri Ramakrishna changed the subject of conversation.

श्रीरामकृष्ण - सुना तुमने, हेम ^* क्या कहता था ? बाबूराम से उसने कहा, ईश्वर ही एक सत्य हैं और सब मिथ्या । (सब हँसते हैं ।) नहीं जी, उसने आन्तरिक भाव से कहा था । और मुझे घर ले जाकर कीर्तन सुनाने के लिए कहा था, परन्तु फिर हो नहीं सका । सुना उसके बाद कहता था - 'मैं अगर ढोल-करताल लूँगा तो आदमी क्या कहेंगे ?’ डर गया कि कहीं आदमी पागल न कहें ।

[हेम ^*हेम (रॉय बहादुर हेमचंद्र कर) - डिप्टी मजिस्ट्रेट। पल्टू के पिता, श्री श्री ठाकुर के भक्त।

[“হেম কি বলেছিল জানো? বাবুরামকে বললে, ঈশ্বরই এক সত্য আর সব মিথ্যা। (সকলের হাস্য) না গো, আন্তরিক বলেছে। আবার আমাকে বাড়িতে নিয়ে গিয়া কীর্তন শুনাবে বলেছিল। তা হয় নাই। তারপর নাকি বলেছিল, ‘আমি খোল-করতাল নিলে লোকে কি বলবে’। ভয় পেয়ে গেল, পাছে লোকে বলে পাগল হয়েছে।”

হেম ^* (রায় বাহাদুর হেমচন্দ্র কর) — ডেপুটি ম্যাজিস্ট্রেট। শ্রীশ্রীঠাকুরের ভক্ত পল্টুর পিতা।]

MASTER: "Do you know what Hem said? He said to Baburam, 'God alone is real; all else is illusory.' (All laugh.) Oh, no! He said it sincerely. Again, he told me he would take me to his house and sing kirtan. But he didn't do it. I understand that he said later on, 'What will people say if I sing with drums and cymbals?' He was afraid that people might think he was crazy.

🔆🙏घोषपाड़ा की स्त्रियों का  हरिपद के लिए गोपाल भाव  - कौमार्य - वैराग्य और स्त्रियाँ 🔆🙏

[ঘোষপাড়ার স্ত্রীলোকের হরিপদকে গোপালভাব — কৌমারবৈরাগ্য ও স্ত্রীলোক ]

"हरिपद घोषपाड़ा की एक स्त्री के फेर में पड़ गया है । छोडता नहीं ! कहता है, गोद में लेकर खिलाती है । सुनो, कहता है, उसका गोपाल-भाव है । मैंने तो बहुत सावधान कर दिया है । कहता तो वात्सल्यभाव है, पर उसी वात्सल्य से फिर नीच भाव पैदा होते हैं ।

[“হরিপদ ঘোষপাড়ার এক মাগীর পাল্লায় পড়েছে। ছাড়ে না। বলে কোলে করে খাওয়ায়। বলে নাকি গোপালভাব! আমি অনেক সাবধান করে দিইছি। বলে বাৎসল্যভাব। ওই বাৎসল্য থেকে আবার তাচ্ছল্য হয়।

"Haripada has fallen into the clutches of a woman of the Ghoshpara sect. He can't get rid of her. He says that she takes him on her lap and feeds him. She claims that she looks on him as the Baby Krishna. I have warned him a great many times. She says that she thinks of him as a child. But this maternal affection soon degenerates into something dangerous.

"बात यह है कि स्त्री से बहुत दूर रहना पड़ता है, तब कहीं ईश्वर के दर्शन होते हैं । जिनका अभिप्राय बुरा है, उन सब स्त्रियों के पास का आना-जाना या उनके हाथ का कुछ खाना बहुत बुरा है । ये सत्त्व हरण करनेवाली हैं । "बड़ी सावधानी से रहने पर तब कहीं भक्ति की रक्षा होती है ।

[“কি জানো? মেয়ে-মানুষ থেকে অনেক দূরে থাকতে হয়, তবে যদি ভগবান-লাভ হয়। যাদের মতলব খারাপ, সে-সব মেয়ে-মানুষের কাছে আনোগোনা করা, কি তাদের হাতে কিছু খাওয়া বড় খারাপ। এরা সত্তা হরণ করে।" “অনেক সাবধানে থাকলে তবে ভক্তি বজায় থাকে। 

भवनाथ, राखाल इन लोगों ने एक दिन अपने हाथ से भोजन पकाया । सब के सब भोजन करने बैठे, उसी समय एक बाउल उन लोगों की पाँत में बैठ गया और बोला, मैं भी खाऊँगा । मैंने कहा, फिर पूरा न पड़ेगा । अगर बच जायेगा तो तुम्हें दिया जायेगा । परन्तु वह गुस्से में आकर उठकर चला गया ।

ভবনাথ, রাখাল এরা সব একদিন আপনারা রান্না কল্লে। ওরা খেতে বসেছে, এমন সময় একজন বাউল এসে ওদের পঙ্‌ ক্তিতে বসে বলে, খাব। আমি বললাম, আঁটবে না; আচ্ছা যদি থাকে, তোমার জন্য রাখবে। তা সে রেগে উঠে গেল।

One day Bhavanath, Rakhal, and some other youngsters had cooked their own meal in the temple garden. They were sitting at their meal when a Baul arrived, sat down with them, and said he wanted to eat with them. I said that there was not enough food; if anything was left it would be kept for him. He became angry and left.

 विजया के दिन चाहे कोई भी आदमी अपने हाथ से खिला देता है, यह अच्छा नहीं है । शुद्धसत्व भक्त हो, तो उसके हाथ का खाया जा सकता है ।

[বিজয়ার দিনে যে সে মুখে খাইয়ে দেয়, সে ভাল নয়। শুদ্ধসত্ত্ব ভক্ত — এদের হাতে খাওয়া যায়।

 On the Vijaya day a man allows anyone and everyone to feed him with his own hand. It is not good. But one can eat food from the hand of a devotee who is pure in heart.

"स्त्रियों के पास बड़ी होशियारी से रहना चाहिए । गोपालभाव है, इस तरह की बातों पर बिलकुल ध्यान न देना चाहिए । स्त्रियों ने तीनों लोक निगल रखे हैं । कितनी स्त्रियाँ ऐसी हैं जो बढ़ती उम्र का लड़का देखकर नया जाल फैलाती हैं । इसीलिए गोपाल-भाव है ।

[“মেয়ে-মানুষের কাছে খুব সাবধান হতে হয়। গোপালভাব! এ-সব কথা শুনো না। মেয়ে ত্রিভুবন দিলে খেয়ে। অনেক মেয়ে-মানুষ জোয়ান ছোকরা, দেখতে ভালো, দেখে নূতন মায়া ফাঁদে। তাই গোপালভাব!"

You must be extremely careful about women. Women speak of the attitude of Gopala! Pay no attention to such things. The proverb says: 'A woman devours the three worlds.' Many women, when they see handsome and healthy young men, lay snares for them. That is what they call the 'attitude of Gopala'.

"जिन्हें कुमार-अवस्था में ही वैराग्य होता है, जो बचपन से ही ईश्वर के लिए व्याकुल होकर घूमते हैं, उनकी श्रेणी एक अलग है । वे शुद्ध-कुलीन हैं । ठीक-ठीक वैराग्य के होने पर वे औरतों से पचास हाथ दूर रहते हैं, इसलिए कि कहीं उनका भाव भंग न हो । वे अगर स्त्रियों के फेर में पड़ जायँ, तो फिर शुद्धकुलीन नहीं रह जाते, भग्नभाव हो जाते है, फिर उनका स्थान नीचा हो जाता है । जिनका बिलकुल कौमार-वैराग्य है, उनका स्थान बहुत ऊँचा है, उनकी देह में एक भी दाग नहीं लगा ।

[“যাদের কৌমারবৈরাগ্য; যারা ছেলেবেলা থেকে ভগবানের জন্য ব্যাকুল হয়ে বেড়ায়, সংসারে ঢোকে না, তারা একটি থাক আলাদা। তারা নৈকষ্য কুলীন। ঠিক ঠিক বৈরাগ্য হলে তারা মেয়ে-মানুষ থেকে ৫০ হাত তফাতে থাকে, পাছে তাদের ভাব ভঙ্গ হয়। তারা যদি মেয়ে-মানুষের পাল্লায় পড়ে, তাহলে তার নৈকষ্য কুলীন থাকে না, ভঙ্গ ভাব হয়ে যায়; তাদের ঘর নিচু হয়ে যায়। যাদের ঠিক কৌমারবৈরাগ্য তাদের উঁচু ঘর; অতি শুদ্ধভাব। গায়ে দাগটি পর্যন্ত লাগে না।”

"Those who develop dispassion from early youth, those who roam about yearning for God from boyhood, those who refuse all worldly life, belong to a different class. They belong to an unsullied aristocracy. If they develop true renunciation, they keep themselves at least fifty cubits away from women lest their spiritual mood should be destroyed. Once falling into the clutches of women, they no longer remain on the level of unsullied aristocracy. They fall from it and come to a lower level. People who practise renunciation from early youth belong to a very high level. Their ideal is very pure. They are stainless.

🔆🙏जितेन्द्रिय होने का उपाय - प्रकृतिभाव-साधना 🔆🙏

[জিতেন্দ্রিয় হবার উপায় — প্রকৃতিভাব সাধন ]

"जितेन्द्रिय किस तरह हुआ जाय ? अपने में स्त्री-भाव का आरोप करना पड़ता है । मैं बहुत दिनों तक सखीभाव में था । औरतों जैसे कपड़े और आभूषण पहनता था, उसी तरह सारी देह भी ढकता था । नहीं तो स्त्री(पत्नी) को आठ महीने तक पास रखा कैसे था ? - हम दोनों ही माँ की सखियाँ थे ।

"मैं अपने को पु (पुरुष) नहीं कह सकता ।

एक दिन मैं भाव में था, उसने(श्रीरामकृष्ण की धर्मपत्नी ने) पूछा- 'मैं तुम्हारी कौन हूँ ?' मैंने कहा - 'आनन्दमयी ।' 

[“জিতেন্দ্রিয় হওয়া যায় কিরকম ভাবে? আপনাতে মেয়ের ভাব আরোপ করতে হয়। আমি অনেকদিন সখীভাবে ছিলাম। মেয়েমানুষের কাপড়, গয়না পরতুম, ওড়না গায়ে দিতুম। ওড়না গায়ে দিয়ে আরতি করতুম! তা না হলে পরিবারকে আট মাস কাছে এনে রেখেছিলাম কেমন করে? দুজনেই মার সখী!“আমি আপনাকে পু (পুরুষ) বলতে পারি না। একদিন ভাবে রয়েছি (পরিবার) জিজ্ঞাসা কললে — আমি তোমার কে? আমি বললুম, ‘আনন্দময়ী’।

"एक मत तो कहता है कि जिस किसी के छाती पर माँ के स्तन जैसी घुण्डी हो , वह स्त्री ही है। अर्जुन और कृष्ण की छाती पर वैसी घुण्डी नहीं थी। 

🔆🙏शिवलिंग की पूजा मातृस्थान और पितृस्थान की पूजा है ।🔆🙏

"शिवपूजा का भाव जानते हो ? शिवलिंग की पूजा मातृस्थान और पितृस्थान की पूजा है । भक्त यह कहकर पूजा करता है - 'भगवान्, देखो, अब जैसे जन्म न लेना पड़े । शोणित, शुक्र के भीतर से मातृस्थान से होकर अब जैसे न आना हो ।’”

“এক মতে আছে, যার মাইয়ে বোঁটা আছে সেই মেয়ে। অর্জুন আর কৃষ্ণের মাইয়ে বোঁটা ছিল না। শিবপূজার ভাব কি জান? শিবলিঙ্গের পূজা, মাতৃস্থানের ও পিতৃস্থানের পূজা। ভক্ত এই বলে পূজা করে, ঠাকুর দেখো যেন আর জন্ম না হয়। শোণিত-শুক্রের মধ্য দিয়া মাতৃস্থান দিয়া আর যেন আসতে না হয়।”

"Do you know the significance of the Siva emblem? It is the worship of the symbols of fatherhood and motherhood. The devotee worshipping the image prays, 'O Lord, please grant that I may not be born into this world again; that I may not have to pass again through a mother's womb.'"

(२)

 साधक और स्त्री

[ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

 🔆🙏स्त्रियों को साथ लेकर साधना कभी मत करो ! - श्री रामकृष्ण का बार-बार निषेध 🔆🙏

স্ত্রীলোক লইয়া সাধন — শ্রীরামকৃষ্ণের পুনঃ পুনঃ নিষেধ

श्रीरामकृष्ण प्रकृतिभाव की बातचीत कर रहे हैं । श्रीयुत प्रिय मुखर्जी, मास्टर तथा और भी कुछ भक्त बैठे हुए हैं । इसी समय ठाकुरों के यहाँ के एक शिक्षक ठाकुरों के कई लड़कों को साथ लेकर आये ।

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ প্রকৃতিভাবের কথা বলিতেছেন। শ্রীযুক্ত প্রিয় মুখুজ্জে, মাস্টার, আরও কয়েকটি ভক্ত বসিয়া আছেন। এমন সময় ঠাকুরদের বাড়ির একটি শিক্ষক ঠাকুরদের কয়েকটি ছেলে সঙ্গে করিয়া উপস্থিত হইলেন।

A tutor of the Tagores entered the room with some boys of the family. Sri Ramakrishna continued talking.

 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏कृष्ण का मोरपंख योनि का प्रतिक -अर्थात श्रीकृष्ण ने प्रकृति को सिर पर रखते थे 🔆🙏 

श्रीरामकृष्ण - (भक्तों के प्रति) - श्रीकृष्ण के सिर पर मोरपंख रहता था, उसमें योनि-चिह्न होता है, इसका यह अर्थ है कि श्रीकृष्ण ने प्रकृति को सिर पर रखा था ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — শ্রীকৃষ্ণের শিরে ময়ূর পাখা, ময়ূর পাখাতে যোনি চিহ্ন আছে — অর্থাৎ শ্রীকৃষ্ণ প্রকৃতিকে মাথায় রেখেছেন।

MASTER (to the devotees): "Sri Krishna has a peacock feather on His crest. The feather bears the sign of the female sex. The significance of this is that Krishna carries Prakriti, the female principle, on His head. 

[ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

रास-मण्डल में श्रीकृष्ण का स्त्री-वेश धारण क्यों हुआ ?

🔆🙏जब तक कोई पुरुष स्वयं स्त्री का स्वभाव धारण नहीं कर लेता, वह स्त्रियों के साहचर्य में रहने का अधिकारी नहीं होता ! 🔆🙏

[নিজে প্রকৃতিভাব না হলে প্রকৃতির সঙ্গের অধিকারী হয় না। ]

Unless a man assumes the nature of a woman, he is not entitled to her company. 

"कृष्ण रास-मण्डल में गये । परन्तु वहाँ खुद प्रकृति बन गये । इसीलिए देखो, रास-मण्डल में उनका प्रकृति-वेश है । स्वयं प्रकृतिभाव के बिना धारण किये कोई प्रकृति के संग का अधिकारी नहीं होता । प्रकृतिभाव के होने पर ही रास और सम्भोग होता है; परन्तु साधक की अवस्था में बहुत सावधान रहना पड़ता है ।

उस समय स्त्रियों से बहुत दूर रहना पड़ता है । यहाँ तक कि भक्तिमती स्त्री होने पर भी उसके पास अधिक न जाना चाहिए । छत पर चढ़ते समय बहुत झूमना न चाहिए, क्योंकि इससे गिरने की सम्भावना है । जो कमजोर हैं, उन्हें दीवार के सहारे से चढ़ना पड़ता है । 

[“কৃষ্ণ রাসমণ্ডলে গেলেন। কিন্তু সেখানে নিজে প্রকৃতি হলেন। তাই দেখ রাসমণ্ডলে তাঁর মেয়ের বেশ। নিজে প্রকৃতিভাব না হলে প্রকৃতির সঙ্গের অধিকারী হয় না। প্রকৃতিভাব হলে তবে রাস, তবে সম্ভোগ। কিন্তু সাধকের অবস্থায় খুব সাবধান হতে হয়! তখন মেয়ে মানুষ থেকে অনেক অন্তরে থাকতে হয়। এমন কি ভক্তিমতী হলেও বেশি কাছে যেতে নাই। ছাদে উঠবার সময় হেলতে দুলতে নাই। হেললে দুললে পড়বার খুব সম্ভাবনা। যারা দুর্বল, তাদের ধরে ধরে উঠতে হয়।

When Krishna joined the circle of the gopis to dance with them, He appeared there as a woman. That is why you see Him wearing women's apparel in the company of the gopis. Unless a man assumes the nature of a woman, he is not entitled to her company. Assuming the attitude of a woman, he can sport with her and enjoy her company. But a man must be extremely careful during the early stages of spiritual discipline. Then he must live far away from any woman. He must not go too close to one even if she is a great devotee of God. You see, a man must not sway his body while climbing to the roof; he may fall. Weak people should hold on to a support while going up the stairs.

सिद्ध अवस्था की और बात है ।भगवान के दर्शन के बाद फिर अधिक भय नहीं रह जाता । तब बहुत कुछ निर्भयता हो जाती है । छत पर एक बार चढ़ना हुआ तो बस, काम सिद्ध है । छत पर चढ़कर फिर वहाँ चाहे कोई जितना नाचे । और देखो जो कुछ छोड़कर छत पर जाया जाता है, वहाँ फिर उसका त्याग नहीं करना पड़ता ।

“সিদ্ধ অবস্থায় আলাদা কথা। ভগবানকে দর্শনের পর বেশি ভয় নাই; অনেকটা নির্ভয়। ছাদে একবার উঠতে পাল্লে হয়। উঠবার পর ছাদে নাচাও যায়। সিঁড়িতে কিন্তু নাচা যায় না। আবার দেখ — যা ত্যাগ করে গিছি, ছাদে উঠবার পর তা আর ত্যাগ করতে হয় না। 

"But it is quite different when one reaches perfection. After the realization of God there is not much for a man to fear; he has become to a great extent secure. The important thing is for a man somehow to climb to the roof. After that he can even dance there. But he cannot dance on the steps. Again, after climbing to the roof, you need no longer discard what you discarded before. 

छत भी ईंट, चूने और मसाले से बनी और सीढ़ियाँ भी उन्हों चीजों से बनी हैं । जिस स्त्री के निकट इतनी सावधानी रखनी पड़ती है, ईश्वर-दर्शन के पश्चात् वही स्त्री साक्षात् भगवती जान पड़ती है । तब उसे माता समझकर उसकी पूजा करो, फिर विशेष भय की बात न रह जायेगी ।

[ছাদও ইট, চুন, সুড়কির তৈয়ারী, আবার সিঁড়িও সেই জিনিসে তৈয়ারী। যে মেয়েমানুষের কাছে এত সাবধান হতে হয়, ভগবানদর্শনের পর বোধ হবে, সেই মেয়েমানুষ সাক্ষাৎ ভগবতী। তখন তাঁকে মাতৃজ্ঞানে পূজা করবে। আর তত ভয় নাই।

You find that the stairs are made of the same materials — bricks, lime, and brick-dust — as the roof. The woman you have to be so careful about at the beginning will appear to you, after the realization of God, as the Divine Mother Herself. Then you will worship her as the Divine Mother. You won't fear her so much.

"बात यह है कि किसी तरह एक बार 'बूढ़ी -दादी' (granny) को छू लेना है, जैसा कि बच्चे लुका-छिपी के खेल में करते हैं। फिर तुम जो चाहो कर सकते हो।

“কথাটা এই, বুড়ী ছুঁয়ে যা ইচ্ছা কর।”

"The thing is to touch the 'granny', as children do in the game of hide-and-seek. Then you can do whatever you like.

[ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏 श्री रामकृष्ण और मनःसंयोग अर्थात बहिर्मुखी मन को अन्तर्मुखी बनाना  🔆🙏

[ধ্যানযোগ ও শ্রীরামকৃষ্ণ — অন্তর্মুখ ও বহির্মুখ ]

"बहिर्मुखी अवस्था में आदमी स्थूल देखता है । तब मन अन्नमय कोष में रहता है । इसके बाद है सूक्ष्मशरीर - लिंग शरीर । तब मनोमय और विज्ञानमय कोष में मन रहता है । इसके बाद है कारण शरीर । जब मन कारण शरीर में आता है, तब आनन्द होता है, मन आनन्दमय, कोष में रहता है । यह चैतन्यदेव की अर्धबाह्य दशा थी ।

[ "मनुष्य का मन जब बहिर्मुखी अवस्था में रहता है, वह बाह्य स्थूल जगत की ओर ही  देखता है, उस समय उसका मन न्नमयकोश, स्थूल शरीर  में रहता है। (the gross body- - अन्न तथा भोजन से निर्मित; आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है -शरीर और मस्तिष्क । 

इसके बाद है सूक्ष्म शरीर- लिंग शरीर। [Next is the subtle body] हिन्दू शास्त्रों के अनुसार मृत्यु के उपरान्त प्राणी की आत्मा को आवृत्त रखनेवाला वह सूक्ष्म शरीर जो पाँचों प्राण, पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, पाँचों सूक्ष्मभूतों, मन, बुद्धि , चित्त और अहंकार से युक्त होता है; परन्तु स्थूल अन्नमय कोश से रहित होता है। लोक-व्यवहार में इसी को सूक्ष्म-शरीर कहते हैं। (विशेष—कहते हैं कि जब तक पुनर्जन्म न हो या मोक्ष (भ्रममुक्त अवस्था -DeHypnotized State) की प्राप्ति न हो, तब तक यह शरीर बना रहता है

सूक्ष्म शरीर के माध्यम से कार्य करते समय , हमारा मन- मनोमयकोष (मन से बना हुआ ) तथा विज्ञानमय कोष (अन्तर्ज्ञान या सहज ज्ञान से बना हुआ) में रहता है। इसके बाद है कारण  शरीर (the causal body-आनंदानुभूति से बना हुआ )। कारण शरीर के माध्यम से कार्य करते समय हमारा मन  जब आनन्द का उपभोग करता है, तब यह आनन्दमय-कोष (आनन्दानुभूति से बना हुआ ) में रहता है। यह अवस्था चैतन्य देव के  द्वारा अनुभव की गई अर्ध-चेतन अवस्था (semi-conscious state) के सदृश है।]

[“বহির্মুখ অবস্থায় স্থূল দেখে। অন্নময় কোষে মন থাকে। তারপর সূক্ষ্ম শরীর। লিঙ্গ শরীর। মনোময় ও বিজ্ঞানময় কোষে মন থাকে। তারপর কারণ শরীর; যখন মন কারণ শরীরে আসে, তখন আনন্দ, — আনন্দময় কোষে মন থাকে। এইটি চৈতন্যদেবের অর্ধবাহ্যদশা।

"Man, looking outward, sees the gross; at that time his mind dwells in the annamayakosha, the gross body. Next is the subtle body. Functioning through the subtle body, the mind dwells in the manomayakosha and the vijnanamayakosha. Next is the causal body. Functioning through the causal body the mind enjoys bliss; it dwells in the anandamayakosha. This corresponds to the semi-conscious state experienced by Chaitanya.

"इसके बाद मन लीन हो जाता है । मन का नाश हो जाता है । महाकारण में मन का नाश होता है । मन का नाश हो जाने पर फिर कोई खबर नहीं रहती । यह चैतन्यदेव की अन्तर्दशा थी ।

[ सबसे अन्त में, मन (अहं) महान कारण में खुद को खो देता है। यह अदृश्य हो जाता है। यह महा कारण (Great Cause-ब्रह्म) में विलीन हो जाता है । उस महाकारण (ब्रह्म) में विलीन होने के  बाद जो अनुभव होता है उसे शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता। चेतना की इस अंतरतम अवस्था में चैतन्य (देव) को ही अपने सच्चिदानन्द स्वरुप की अनुभूति होती है ! ]

[“তারপর মন লীন হয়ে যায়। মনের নাশ হয়। মহাকারণে নাশ হয়। মনের নাশ হলে আর খবর নাই। এইটি চৈতন্যদেবের অন্তর্দশা।

Last of all, the mind loses itself in the Great Cause. It disappears. It merges in the Great Cause. What one experiences after that cannot be described in words. In his inmost state of consciousness, Chaitanya enjoyed this experience.

“अन्तर्मुख अवस्था कैसी है, जानते हो ? दयानन्द*(*आर्य समाज के संस्थापक) ने कहा था, 'अन्दर आओ, दरवाजा बन्द कर लो ।' अन्दर हरएक की पहुँच नहीं होती ।

[Do you know what this state is like? तुम क्या जानते हो कि यह अवस्था कैसी है? महर्षि दयानन्द सरस्वती ने इस अवस्था का  वर्णन करते हुए कहा है कि ,'अंतःपुर में प्रवेश कर जाओ और द्वार बन्द कर लो !' भवन के उस हिस्से में (अन्तःपुर में) कोई या हरएक व्यक्ति प्रवेश नहीं कर सकता। ]  

“অন্তর্মুখ অবস্থা কিরকম জানো? দয়ানন্দ বলেছিল, ‘অন্দরে এসো, কপাট বন্ধ করে! অন্দর বাড়িতে যে সে যেতে পারে না।’

Do you know what this state is like? Dayananda described it by saying, 'Come into the inner apartments and shut the door.' Anyone and everyone cannot enter that part of the house.

"मैं दीपशिखा पर यह भाव आरोपित करता था । उसकी ललाई को कहता था स्थूल, उसके भीतर सफेद भाग को कहता था सूक्ष्म, और सबके भीतर वाले काले हिस्से को कहता था कारण-शरीर ।

[“আমি দীপশিখাকে নিয়ে আরোপ করতুম। লালচে রঙটাকে বলতুম স্থূল, তার ভিতর সাদা সাদা ভাগটাকে বলতুম সূক্ষ্ম, সব ভিতরে কালো খড়কের মতো ভাগটাকে বলতুম কারণশরীর।

"I used to meditate on the flame of a light. I thought of the red part as gross, the white part inside the red as subtle, and the stick-like black part, which is the innermost of all, as the causal.

"ध्यान ठीक हो रहा है इसके कई लक्षण हैं । एक यह है कि जड़ समझकर सिर पर पक्षी बैठ जाया करेंगे ।

[“ধ্যান যে ঠিক হচ্ছে, তার লক্ষণ আছে। একটি লক্ষণ — মাথায় পাখি বসবে জড় মনে করে।”

"By certain signs you can tell when meditation is being rightly practised. One of them is that a bird will sit on your head, thinking you are an inert thing.


 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास यहीं तक है। ध्यान - खुली आँख से भी होता है। 🔆🙏

[पूर्ववृत्त  - 1864 ई तक केशव ने एकाग्रता की शक्ति से 
और ईश्वर की इच्छा से नाम-यश जो चाहा उन्हें प्राप्त हो गया।  ]

[পূর্বকথা — কেশবকে প্রথম দর্শন ১৮৬৪, ধ্যানস্থ — চক্ষু চেয়েও ধ্যান হয় ]

"केशव सेन को मैंने पहले आदि-समाज में देखा था । वेदी पर कई आदमी बैठे हुए थे, बीच में केशव । मैंने देखा, काष्ठवत् बैठा हुआ था । तब मैंने सेजो बाबू से कहा - देखो, इसकी बंसी का चारा मछली खा रही है । वह उतना ध्यानी था कि इसी एकाग्रता की शक्ति से और ईश्वर की इच्छा से उसने जो कुछ चाहा (धन-दौलत ,नाम, यश आदि ईश्वर नहीं ? ) उसे वह सब  प्राप्त हो गया ।

[“কেশব সেনকে প্রথম দেখি আদি সমাজে। তাকের (বেদীর) উপর কজন বসেছে, কেশব মাঝখানে বসেছে। দেখলাম যেন কাষ্ঠবৎ! সেজোবাবুকে বললুম দেখ ওর ফাতনায় মাছে খেয়েছে! ওই ধ্যানটুকু ছিল বলে ঈশ্বরের ইচ্ছায় যেগুনো মনে করেছিল (মান-টানগুলো) হয়ে গেল।"

I first met Keshab at a meeting of the Adi Samaj. Several members of the Samaj were sitting on the platform. Keshab was in the middle. I saw him motionless as a log. Pointing to Keshab, I said to Mathur Babu: 'Look there! That bait has been swallowed by a fish.' Because of that power of meditation he achieved what he wanted — name, fame, and so forth —, through the grace of God.

"आँख खोलकर भी ध्यान होता है । बातचीत के बीच में भी ध्यान होता है । जैसे, सोचो, किसी को दाँत की बीमारी है । दर्द हो रहा है ।

["One can meditate even with eyes open. One can meditate even while talking. Take the case of a man with toothache —"

ठाकुरों के शिक्षक - जी, यह बात खूब समझी हुई है । (हास्य)

[ঠাকুরদের শিক্ষক — আজ্ঞে, ওটি বেশ জানি। (হাস্য)

TUTOR OF THE TAGORES: "Yes, sir. I know that very well." (All laugh.)

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - हाँ जी, दाँत की बीमारी अगर किसी को होती है, तो वह सब काम तो करता है, परन्तु मन उसका दर्द पर रखा रहता है । इस तरह ध्यान आँख खोलकर भी होता है और बातचीत करते हुए भी होता है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — হ্যাঁগো, দাঁতের ব্যামো যদি থাকে, সব কর্ম করছে, কিন্তু দরদের দিকে মনটা আছে। তাহলে ধ্যান চোখ চেয়েও হয়, কথা কইতে কইতেও হয়।

MASTER (smiling): "Yes, even when his teeth ache he does all his duties, but his mind is on the pain. Likewise one can meditate with eyes open and while talking to others as well."

शिक्षक - उनका नाम पतितपावन है - यही हम लोगों का भरोसा है । वे दयामय हैं !

[শিক্ষক — পতিতপাবন নাম তাঁর আছে, তাই ভরসা। তিনি দয়াময়।

TUTOR: "One of the epithets of God is the Redeemer of the sinner'. That is our hope. God is compassionate."

🔆🙏[पूर्ववृत्त  - सिक्ख भक्त और श्री कृष्णदास के साथ बातचीत]🔆🙏

[পূর্বকথা — শিখরা ও শ্রীযুক্ত কৃষ্ণদাসের সহিত কথা ]

श्रीरामकृष्ण - सिक्खों ने भी कहा था, वे दयामय हैं । मैंने पूछा वे कैसे दयामय हैं ? उन्होंने कहा, 'क्यों महाराज, उन्होंने हमारी सृष्टि की है, हमारे लिए इतनी चीजें तयार की हैं, पग-पग पर हमें विपत्ति से बचाते हैं ।'

तब मैंने कहा, 'वे हमें पैदा करके हमारी देखरेख कर रहे हैं, खिलाते-पिलाते हैं इसमें कौनसी बड़ी तारीफ की बात है ? तुम्हारे अगर बच्चा हो तो क्या उसकी देखरेख कोई दूसरा आकर करेगा ?''

[শ্রীরামকৃষ্ণ — শিখরাও বলেছিল, তিনি দয়াময়। আমি বললুম, তিনি কেমন করে দয়াময়? তা তারা বললে, কেন মহারাজ! তিনি আমাদের সৃষ্টি করেছেন, আমাদের জন্য এত জিনিস তৈয়ারী করেছেন, আমাদের পদে পদে বিপদ থেকে রক্ষা করছেন। তা আমি বললুম, তিনি আমাদের জন্ম দিয়ে দেখছেন, খাওয়াচ্ছেন, তা কি এত বাহাদুরি? তোমার যদি ছেলে হয়, তাকে কি আবার বামুনপাড়ার লোক এসে মানুষ করবে?

MASTER: "The Sikhs, too, said that God was compassionate. I asked, 'How is He compassionate?' 'Why,' they answered, 'He has begotten us; He has created so many things for us; He has brought us up to be men; and He protects us from danger at every step.' Thereupon I said: 'After begetting us, God looks after us and feeds us. Is there much credit in that? Suppose a son is born to you. Do you expect a man from another part of the city to bring him up?'"

शिक्षक - जी, किसी का काम जल्दी हो जाता है और किसी का नहीं होता, इसका क्या अर्थ है ?

[শিক্ষক — আজ্ঞা, কারু ফস্‌ করে হয়, কারু হয় না, এর মানে কি?

TUTOR: "Revered sir, one man quickly succeeds in spiritual life, and another doesn't succeed at all. How do you explain that?"

🔆🙏लालाबाबू और रानी भवानी का वैराग्य  - पूर्वजन्म का संस्कार रहने से सत्वगुण🔆🙏 

[লালাবাবু ও রানী ভবানীর বৈরাগ্য — সংস্কার থাকলে সত্ত্বগুণ ]

श्रीरामकृष्ण - बात यह है कि बहुत कुछ तो पूर्वजन्म के संस्कारों से होता है । लोग सोचते हैं कि एकाएक हो रहा है ।

"किसी ने सुबह को प्याले भर शराब पी थी । उतने ही से मतवाला हो गया, झूमने लगा । लोग आश्चर्य करने लगे । वे सोचने लगे, यह प्याले भर में ही इतना मतवाला कैसे हो गया ? एक ने कहा, अरे रात भर इसने शराब पी होगी ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কি জান? অনেকটা পূর্বজন্মের সংস্কারেতে হয়। লোকে মনে করে হঠাৎ হচ্ছে। “একজন সকালে একপাত্র মদ খেয়েছিল, তাতেই বেজায় মাতাল, ঢলাঢলি আরম্ভ করলে — লোকে অবাক্‌। একপাত্রে এত মাতাল কি করে হল? একজন বললে, ওরে, সমস্ত রাত্রি মদ খেয়েছে। ​

MASTER: "The truth is that a man succeeds to a great extent because of tendencies inherited from his previous births. People think he has attained the goal all of a sudden. A man drank a glass of wine in the morning. It made him completely drunk. He began to behave improperly. People were amazed to see that he could be so drunk after one glass. But another man said, 'Why, he has been drinking all night.'

"हनुमान ने सोने की लंका जला दी । लोग आश्चर्य में पड़ गये कि एक बन्दर ने कैसे यह सब जला दिया; परन्तु फिर कहने लगे, वास्तव में बात यह है कि सीता की गरम साँस और राम के कोप से लंका जली है।

[“হনুমান সোনার লঙ্কা দগ্ধ করলে। লোকে অবাক্‌ একটা বানর এসে সব পুড়িয়ে দিলে। কিন্তু আবার বলেছে, আদত কথা এই — সীতার নিঃশ্বাসে আর রামের কোপে পুড়েছিল।

"Hanuman burnt down the golden city of Lanka. People were amazed that a mere monkey could burn the whole, city. But then they said, 'The truth is that the city was burnt by the sighs of Sita and the wrath of Rama.'

"और लालाबाबू ^* को देखो । इतना धन है, पूर्वजन्म के संस्कार के बिना क्या एकाएक कभी वैराग्य हो सकता था ? और रानी भवानी - स्त्री होने पर भी उसमें कितनी ज्ञान भक्ति थी !

[ लालाबाबू ^*  बंगाल के गौरव , पाइकपाड़ा के कृष्णचन्द्र सिंह एक प्रसिद्ध जमींदार,  जिन्होंने तीस वर्ष की कम उम्र  में ही सात लाख की वार्षिक आय के साथ अपनी जमीन्दारी का परित्याग कर दिया था। और मथुरा जाकर एक  वैष्णव साधु के रूप में रहते थे। उनकी पत्नी 'रानी कात्यायनी' निःसंतान थीं। उनके गुरु कृष्णदास बाबाजी भक्तमाल के बंगला भाषा के अनुवादक  थे।  

[“আর দেখ লালাবাবু ^*  — এত ঐশ্বর্য; পূর্বজন্মের সংস্কার না থাকলে ফস্‌ করে কি বৈরাগ্য হয়? আর রানী ভবানী — মেয়েমানুষ হয়ে এত জ্ঞান ভক্তি!”

[১ লালাবাবু, বাঙালী জাতির গৌরব, পাইকপাড়ার কৃষ্ণচন্দ্র সিংহ — সাত লক্ষ বার্ষিক আয়ের সম্পত্তি ত্যাগ। মথুরাবাস — ত্রিশ বৎসর বয়সে। চল্লিশে মাধুকরী, ভিক্ষাজীবী। বিয়াল্লিশে ৺প্রাপ্তি। পত্নী “রানী কাত্যায়নী” নিঃসন্তান। গুরু কৃষ্ণদাস বাবাজী, ভক্তমালের (বাঙলা পদ্যে) অনুবাদক।

"Look at Lala Babu.1 He had so much wealth. Could he have renounced it all so suddenly without the good tendencies of his previous births? And Rani Bhavani. So much knowledge and devotion in a woman!

[^A well-known landholder of Bengal who renounced the world at an early age and lived at Mathura as a Vaishnava monk.

 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏कृष्णदास का रजोगुण - जगत का कल्याण करने वाले तुम कौन हो ?🔆🙏

[কৃষ্ণদাসের রজোগুণ — তাই জগতের উপকার ]

“अन्तिम जन्म में सतोगुण होता है । तभी ईश्वर पर मन जाता है, उनके लिए विकलता होती है, और तरह तरह के विषय-कर्मों से मन हटता जाता है ।

[“শেষ জন্মে সত্ত্বগুণ থাকে, ভগবানে মন হয়; তাঁর জন্য মন ব্যাকুল হয়, নানা বিষয়কর্ম থেকে মন সরে আসে।"

In his last birth a man is endowed with sattva. His mind is directed to God. He longs for God. He withdraws his mind from worldly things.

"कृष्णदास पाल आया था । मैंने देखा उसमें रजोगुण था । परन्तु हिन्दू है, इसलिए जूते बाहर खोलकर रखे, कुछ बातचीत करके देखा, भीतर कुछ नहीं था ।

मैंने पूछा, 'मनुष्य का कर्तव्य क्या है ?' उसने कहा - 'संसार का उपकार करना ।' मैंने कहा, 'क्यों जी, तुम हो कौन ? और उपकार भी क्या करोगे और संसार क्या इतना छोटा है कि तुम उसका उपकार कर सकोगे ?"

[“কৃষ্ণদাস পাল এসেছিল। দেখলাম রজোগুণ! তবে হিন্দু, জুতো বাইরে রাখলে। একটু কথা কয় দেখলুম, ভিতরে কিছুই নাই। জিজ্ঞাসা করলুম, মানুষের কি কর্তব্য? তা বলে, ‘জগতের উপকার করব।’ আমি বললুম, হ্যাঁগা তুমি কে? আর কি উপকার করবে? আর জগৎ কতটুকু গা, যে তুমি উপকার করবে?”

"Krishnadas Pal came here. I found him full of rajas. But it must be said that he observed the Hindu customs. He left his shoes outside before entering the room. After a little conversation I discovered that he had no stuff inside. I asked him about man's duty. He said, To do good to the world.' I said: 'My dear sir, who are you? What good will you do to the world? Is the world such a small thing that you think you can help it?'"

नारायण आये हैं । श्रीरामकृष्ण को बड़ा आनन्द है । नारायण को छोटी खाट पर अपनी बगल में बैठाया। देह पर हाथ फेरते हुए स्नेह करने लगे । खाने के लिए मिठाई दी और स्नेहपूर्वक पानी के लिए पूछा । नारायण मास्टर के स्कूल में पढ़ते हैं । श्रीरामकृष्ण के पास आते हैं, इसलिए घर में उनकी पिटाई होती है। श्रीरामकृष्ण हँसते हुए स्नेहपूर्वक नारायण से कह रहे है, – “तू एक चमड़े का कुर्ता पहना कर, तो चोट कम लगेगा ।”

[নারান আসিয়াছেন। ঠাকুরের ভারী আনন্দ। নারায়ণকে ছোট খাটটির উপর পাশে বসাইলেন। গায়ে হাত দিয়ে আদর করিতে লাগিলেন। মিষ্টান্ন খাইতে দিলেন। আর সস্নেহে বললেন, জল খাবি? নারাণ মাস্টারের স্কুলে পড়েন। ঠাকুরের কাছে আসেন বলিয়া বাড়িতে মার খান। ঠাকুর সস্নেহে একটু হাসিতে হাসিতে নারায়ণকে বলছেন, তুই একটা চামড়ার জামা কর, তাহলে মারলে লাগবে না।

Narayan arrived. Sri Ramakrishna was very happy to see him. He seated Narayan by his side on the small couch. He showed him his love by stroking his body and giving him sweets to eat. Then he asked Naravan tenderly, "Will you have some water?" Narayan was a student at M.'s school. At home his people beat him for visiting Sri Ramakrishna. The Master said to Narayan with an affectionate smile, "You had better get a leather jacket; then the beating won't hurt." Turning to Harish, the Master said that he would like to have a smoke.

ठाकुर ने हरीश से कहा, मैं हुक्का पिऊंगा। 

ঠাকুর হরিশকে বললেন, তামাক খাব।

[ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏घोषपाड़ा मतानुसार स्त्रियों के साथ बैठकर साधना करने से ठाकुर का बार-बार निषेध🔆🙏

हरिपदेर सेइ पातानो माँ एसे छिलो ! क्या तुमने अपना आदमी ठीक कर लिया है ?

[স্ত্রীলোক লয়ে সাধন ঠাকুরের বারবার নিষেধ — ঘোষপাড়ার মত ]

হরিপদের সেই পাতানো মা এসেছিল।"

फिर नारायण से कहने लगे - "हरिपद की वह बनी हुई माँ आयी थी । मैने हरिपद को खूब सावधान कर दिया है । वे लोग घोषपाड़ा के मतवाले हैं । मैंने उससे पूछा था, क्या तुम्हारे कोई 'आश्रय' है ? उसने एक चक्रवर्ती को बतलाया ।"

[আবার নারায়ণকে সম্বোধন করে বলছেন, “হরিপদের সেই পাতানো মা এসেছিল। আমি হরিপদকে খুব সাবধান করে দিয়েছি। ওদের ঘোষপাড়ার মত। আমি তাকে জিজ্ঞাসা কল্লুম, তোমার কেউ আশ্রয় আছে? তা বলে, হাঁ — অমুক চক্রবর্তী।”

Again addressing Narayan, Sri Ramakrishna said: "That woman who has established an artificial relationship of mother and son with Haripada came here the other day. I have warned Haripada very often. She belongs to the Ghoshpara sect. I asked her if she had found her 'man'. She said yes, and mentioned a man's name.

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) – अहा ! उस दिन नीलकण्ठ आया था । कैसा भाव है ! - और एक दिन आने के लिए कह गया है । गाना सुनायेगा । आज उधर नाच हो रहा है, जाओ - देखो न । (रामलाल से) कमरे में तेल नहीं है; (डिब्बा देखकर) डिब्बे में तो नहीं है, शायद नौकर ने भरा नहीं होगा  ।

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — আহা নীলকণ্ঠ সেদিন এসেছিল। এমন ভাব! আর-একদিন আসবে বলে গেছে। গান শুনাবে। আজ ওদিকে নাচ হচ্ছে, দেখো গে যাও না। (রামলালকে) তেল নাই যে, (ভাঁড় দৃষ্টে) কই তেল ভাঁড়ে তো নাই।

(To M.) "Ah! Nilkantha came here the other day. What spiritual fervour he has! He said he would come here another day and sing for us. They are dancing over there. Why don't you go and see it? (To Ramlal) There is no oil in the room. (Looking at the oil-jar) The servant hasn't filled it."

(३)

 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏पुरुषप्रकृति-विवेक योग, राधा-कृष्ण कौन हैं? आद्याशक्ति  🔆🙏 

[वेदान्त वागीश , दयानंद सरस्वती, कर्नल अलकट्ट, सुरेंद्र, नारायण ]

পুরুষপ্রকৃতিবিবেক যোগ — রাধাকৃষ্ণ, তাঁরা কে? আদ্যাশক্তি

[বেদান্তবাগীশ, দয়ানন্দ সরস্বতী, কর্ণেল অল্‌কট্‌, সুরেন্দ্র, নারাণ ]

श्रीरामकृष्ण टहल रहे हैं, कभी घर के भीतर, कभी घर के दक्षिण ओर के बरामदे में कभी घर के पश्चिम ओर के गोल बरामदे में खड़े होकर गंगा-दर्शन कर रहे हैं । कुछ देर बाद फिर छोटी खाट पर बैठे । दिन के तीन बज चुके हैं ।

[এইবার ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ পাদচারণ করিতেছেন; কখনও ঘরের দক্ষিণদিকের বারান্দায়, কখনও বা ঘরের পশ্চিমদিকে গোল বারান্দাটিতে দাঁড়াইয়া, গঙ্গা দর্শন করিতেছেন।

Sri Ramakrishna was walking up and down, now in his room, now on the south verandah. Occasionally pausing on the semicircular porch west of his room, he would look at the Ganges.

🔆🙏श्रीरामकृष्ण के कमरे की सज्जा -  परिवेश के दोष तथा गुण , चित्र, पेड़, लड़के 🔆🙏

[সঙ্গ (Environment) দোষ গুণ, ছবি, গাছ, বালক ]

भक्तगण फिर जमीन पर आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण छोटी खाट पर चुपचाप बैठे हैं । रह-रहकर घर की दीवार की ओर देख रहे हैं । दीवार पर बहुत से चित्र हैं । श्रीरामकृष्ण की बाई ओर श्रीवीणापाणि का चित्र है । उससे कुछ दूर पर नित्यानन्द और गौरांग भक्त-समाज में कीर्तन कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण के सामने ध्रुव, प्रह्लाद और जगन्माता काली की मूर्ति है, दाहिनी ओर दीवार पर राजराजेश्वरी की मूर्ति है ।

पीछे ईसा की तस्वीर है - का पीटर डूबे जा रहे हैं और ईसा पानी से निकाल रहे हैं । एकाएक श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा - “देखो, घर में साधुओं और संन्यासिओं का चित्र रखना अच्छा है । सुबह उठकर दूसरे का मुँह देखने से पहले साधुओं और संन्यासिओं का मुख देखकर उठना अच्छा है । दीवार पर अंग्रेजी तस्वीर - धनी, राजा और रानी की तस्वीरें - रानी के लड़कों की तस्वीरें - साहब और मेम टहल रहे हैं, उनकी तस्वीरें - इस तरह की तस्वीरें आदि रखना रजोगुणी के लक्षण हैं

[কিয়ৎক্ষণ পরে আবার ছোট খাটটিতে বসিলেন। বেলা ৩টা বাজিয়া গিয়াছে। ভক্তেরা আবার মেঝেতে আসিয়া বসিলেন। ঠাকুর ছোট খাটটিতে বসিয়া চুপ করিয়া আছেন। এক-একবার ঘরের দেওয়ালের দিকে দৃষ্টিপাত করিতেছেন। দেওয়ালে অনেকগুলি পট আছে। ঠাকুরের বামদিকে শ্রীশ্রীবীণাপাণির পট, তাহার কিছু দূরে নিতাই গৌর ভক্তসঙ্গে কীর্তন করিতেছেন। ঠাকুরের সম্মুখে ধ্রুব ও প্রহ্লাদের ছবি ও মা-কালীর মূর্তি। ঠাকুরের ডানদিকে দেওয়ালের উপর রাজরাজেশ্বরী মূর্তি, পিছনের দেওয়ালে যীশুর ছবি রহিয়াছে — পীটার ডুবিয়া যাইতেছেন, যীশু তুলিতেছেন। ঠাকুর হঠাৎ মাস্টারকে বলিতেছেন, দেখ, সাধু-সন্ন্যাসীর পট ঘরে রাখা ভাল। সকাল বেলা উঠে অন্য মুখ না দেখে সাধু-সন্ন্যাসীদের মুখ দেখে উঠা ভাল। ইংরাজী ছবি দেওয়ালে — ধনী, রাজা, কুইন-এর ছবি — কুইন-এর ছেলের ছবি, সাহেব-মেম বেড়াচ্ছে তার ছবি রাখা — এ-সব রজোগুণে হয়।

After a little while he returned to his room and sat on the small couch. It was past three in the afternoon. The devotees took their seats on the floor. The Master sat in silence before them, now and then casting a glance at the walls, where many pictures were hanging. To Sri Ramakrishna's left was a picture of Sarasvati, and beyond it, a picture of Gaur and Nitai singing kirtan with their devotees. In front of the Master hung pictures of Dhruva, Prahlada, and Mother Kali. On the wall to his right was another picture of the Divine Mother, Rajarajesvari. Behind him was a picture of Jesus Christ raising the drowning Peter. Suddenly Sri Ramakrishna turned to M. and said: "You see, it is good to keep pictures of sannyasis and holy men in one's room. When you get up in the morning you should see the faces of holy persons rather than the faces of other men. People with rajasic qualities keep 'English' pictures on their walls — pictures of rich men, the King, the Queen, the Prince of Wales, and white men and women walking together. That shows their rajasic temperament.

"जिस तरह के परिवेश (या वातावरण)  में रहा जाता है, वैसा ही स्वभाव भी हो जाता है । इसीलिए तस्वीरों में भी दोष है । फिर मनुष्य जैसा है, वैसे ही संगी भी खोजता है । जो परमहंस होते हैं, वे पाँच-छ: साल के दो-चार लड़के अपने पास रख लेते हैं - उन्हें पास बुलाया करते हैं । उस अवस्था में बच्चों के बीच रहना खूब सुहाता है । बच्चे सत्त्व, रज और तम किसी गुण के वश नहीं हैं । 

[“যেরূপ সঙ্গের মধ্যে থাকবে, সেরূপ স্বভাব হয়ে যায়। তাই ছবিতেও দোষ। আবার নিজের যেরূপ স্বভাব, সেইরূপ সঙ্গ লোকে খোঁজে। পরমহংসেরা দু-পাঁচজন ছেলে কাছে রেখে দেয় — কাছে আসতে দেয় — পাঁচ-ছয় বছরের। ও অবস্থায় ছেলেদের ভিতর থাকতে ভাল লাগে। ছেলেরা সত্ত্ব রজঃ তমঃ কোন গুণের বশ নয়।"

You acquire the nature of the people whose company you keep. Therefore even pictures may prove harmful. Again, a man seeks the company that agrees with his own nature. The paramahamsas keep near them a few young boys five or six years old. They allow such boys to be near them. Attaining the state of a paramahamsa, a man loves the company of boys. Like the paramahamsas, the boys are not under the control of the gunas — sattva, rajas, or tamas.

"पेड़ देखने पर तपोवन की याद आती है, ऋषियों के तपस्या करने का भाव जाग जाता है ।” 

“গাছ দেখলে তপোবন, ঋষি তপস্যা করছে, উদ্দীপন হয়।”

"By looking at trees a man awakens in his heart the picture of a hermitage in which a rishi is practising austerity."

सींती के ब्राह्मण कमरे में आये, श्रीरामकृष्ण को उन्होंने प्रणाम किया । उन्होंने काशी में वेदान्त पढ़ा था। स्थूलकाय और सदा मुस्कुराते रहते वाला चेहरा। 

[সিঁথির একটি ব্রাহ্মণ ঘরের মদ্যে প্রবেশ করিলেন ও ঠাকুরকে প্রণাম করিলেন। ইনি কাশীতে বেদান্ত পড়িয়াছিলেন। স্থূলকায়, সদা হাস্যমুখ।

A brahmin from Sinthi entered the room and saluted Sri Ramakrishna. He had studied Vedanta in Benares. He was stout and had a smiling face.

श्रीरामकृष्ण - क्यों जी, तुम कैसे हो ? बहुत दिन बाद आये ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কিগো, কেমন সব আছ? অনেকদিন আস নাই।

MASTER: "Hello! How are you? You haven't been here in a long time."

पण्डित - (सहास्य) - जी, गृहस्थी के काम से छुट्टी नहीं मिली, आप तो जानते ही हैं ।

[পণ্ডিত (সহাস্যে) — আজ্ঞা, সংসারের কাজ। আর জানেন তো সময় আর হয় না

।PUNDIT (smiling): "Worldly duties, sir. You know I have very little leisure."

पण्डितजी ने आसन ग्रहण किया । उनसे बातचीत हो रही है ।

[পণ্ডিত আসন গ্রহণ করিলেন। তাঁহার সহিত কথা হইতেছে।

The pundit sat down, and the Master began to talk with him.

 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏 'दयानन्द ने मूर्तिपूजा के विषय में जो कुछ भी कहा है वह शास्त्र सम्मत नहीं है !'🔆🙏 

श्रीरामकृष्ण - बनारस तो बहुत दिन रहे, क्या क्या देखा कुछ कहो तो, कुछ दयानन्द की बातें बताओं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কাশীতে অনেকদিন ছিলে, কি সব দেখলে, কিছু বল। দয়ানন্দের কথা একটু বল।

MASTER: "You spent a long time in Benares. Tell us what you saw there. Tell us something about Dayananda."

पण्डित - दयानन्द से मुलाकात हुई थी । आपने तो देखा ही था ?

[পণ্ডিত — দয়ানন্দের সঙ্গে দেখা হয়েছিল। আপনি তো দেখেছিলেন?

PUNDIT: "Yes, I met him. You also met him, didn't you?"

श्रीरामकृष्ण - मैं देखने के लिए गया था । तब उस तरफ के एक बगीचे में वह टिका हुआ था । उस दिन केशव सेन के आने की बात थी । वह चातक की तरह उनके लिए तरस रहा था । बड़ा पण्डित है । बंगभाषा को 'गौराण्ड' भाषा कहता था । दयानन्द देवता को मानता था । केशव नहीं मानता था। कहता था, ईश्वर ने इतनी चीजें बनायीं और देवता क्या नहीं बना सकते थे ? लेकिन निराकारवादी था  कप्तान 'राम राम’ कह रहा था, उसने कहा इससे 'बर्फी वर्फी' क्यों नहीं रटते ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখতে গিছলুম, তখন ওধারে একটি বাগানে সে ছিল। কেশব সেনের আসবার কথা ছিল সেদিন। তা যেন চাতকের মতন কেশবের জন্য ব্যস্ত হতে লাগল। খুব পণ্ডিত। বাঙ্গালা ভাষাকে বলত, গৌরাণ্ড ভাষা। দেবতা মানত — কেশব মানত না! তা বলত, ঈশ্বর এত জিনিস করেছেন আর দেবতা করতে পারেন না! নিরাকারবাদী। কাপ্তেন “রাম রাম“ কচ্ছিল, তা বললে, তার চেয়ে “সন্দেশ সন্দেশ” বল।

MASTER: "Yes, I visited him. He was living then in a garden house on the other side of the Ganges. Keshab was expected there that day. He longed for Keshab as the chatak bird longs for rain. He was a great scholar and made fun of the Bengali language. He admitted the existence of the deities, but Keshab did not. Dayananda used to say: 'God has created so many things. Couldn't He have created the deities?' Dayananda believed the Ultimate Reality to be without form. Captain was repeating the name of Rama. Dayananda said to him sarcastically, 'Better repeat "sandesh"!'"

पण्डित - काशी में पण्डितों के साथ दयानन्द ^* का खूब शास्त्रार्थ हुआ । सब एक तरफ थे और वह एक तरफ । फिर लोगों ने उसे ऐसा बनाया कि भागते बन पड़ी । सब एक साथ ऊँची आवाज से कहने लगे - 'दयानन्द ने जो कुछ भी कहा है वह तिरस्कार करने योग्य  है!''दयानन्देन यदुक्तं तद्धेयम् ।'

[दयानन्दसरस्वती, 1824-1883।  ^* दयानन्द का मंगलवार 16 नवम्बर, 1869 को काशी के आनन्दबाग में अपरान्ह 3 बजे से सायं 7 बजे तक लगभग पांच हजार दर्शकों की उपस्थिति में विद्यानगरी काशी के शीर्षस्थ 30 पण्डितों से अकेले मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ हुआ था।  दयानन्द दिसंबर 1872 से  मार्च 1873 तक कलकत्ता स्थित, ठाकुरों के (रवीन्द्रनाथ के पैतृक ) 'नैनालय प्रमोद कानन'  में भी ठहरे थे। उसी समय श्री रामकृष्ण , केशव और कप्तान के साथ उनकी मुलाकात हुई थी । कैप्टन शायद उसी  समय ठाकुर देव का प्रथम दर्शन प्राप्त किये थे।विशेष :  इस शास्त्रार्थ में सनातन धर्म वा पौराणिक मत के दो शीर्ष पण्डित स्वामी विशुद्धानन्द तथा पं. बाल शास्त्री सम्मिलित थे। शास्त्रार्थ स्थल पर इस दिन हुई अपूर्व भीड़ में हिन्दी साहित्य के एक पुरोधा भारतेन्द्र हरिश्चन्द्र भी दर्शक के रूप में सम्मलित थे

১ দয়ানন্দ সরস্বতী, ১৮২৪-১৮৮৩। কাশীর আনন্দবাগে বিচার ১৮৬৯। কলিকাতায় স্থিতি, ঠাকুরদের নৈনালের প্রমোদ কাননে, ডিসেম্বর ১৮৭২ - মার্চ ১৮৭৩। ওই সময়ে শ্রীরামকৃষ্ণের ও কেশবের ও কাপ্তেনের দর্শন। কাপ্তেন ঠাকুরকে ওই সময় সম্ভবতঃ দর্শন করেন।

পণ্ডিত — কাশীতে দয়ানন্দের সঙ্গে পণ্ডিতদের খুব বিচার হল। শেষে সকলে একদিকে, আর ও একদিকে। তারপর এমন করে তুললে যে পালাতে পাল্লে বাঁচে। সকলে একসঙ্গে উচ্চৈঃস্বরে লাগল — ‘দয়ানন্দেন যদুক্তং তদ্ধেয়ম্‌’।

PUNDIT: "In Benares the pundits had great discussions with Dayananda. Finally he was left alone with all the others against him. They made it so hot for him that he thought the only way to save himself was by running away. All the pundits shouted with one voice, 'Whatever Dayananda has said is to be despised!'

🔆🙏श्री रामकृष्ण और थियोसॉफी - क्या वे व्याकुलता पूर्वक ईश्वर को खोजते हैं ?🔆🙏

[শ্রীরামকৃষ্ণ ও থিয়োসফি — ওরা কি ঈশ্বরকে ব্যাকুল হয়ে খোঁজে ]

"और कर्नल अलकट को भी मैंने देखा था । वे लोग कहते हैं, महात्मा भी हैं । और चन्द्रलोक, सूर्यलोक, नक्षत्रलोक ये भी सब हैं । सूक्ष्म शरीर उन सब स्थानों में जा सकता है - इस तरह की बहुत सी बातें कहीं । अच्छा महाराज, यह विचार आपको कैसा जान पड़ता है ?"

[“আবার কর্ণেল অল্‌কট্‌ কেও দেখেছিলাম। ওরা বলে সব ‘মহাত্মা’ আছে। আর চন্দ্রলোক, সূর্যলোক, নক্ষত্রলোক — এই সব আছে। সূক্ষ্মশরীর সেই সব জায়গায় যায় — এই সব অনেক কথা। আচ্ছা মহাশয়, আপনার থিয়োসফি কি-রকম বোধ হয়?”

"I saw Colonel Olcott too. The Theosophists believe in the existence of mahatmas, They also speak of the 'lunar', 'solar', 'stellar', and other planes. A Theosophist can go in his 'astral body' to all these planes. Oh, Olcott said many such things. Well, sir, what do you think of Theosophy?"

श्रीरामकृष्ण - भक्ति ही एकमात्र सार वस्तु है - ईश्वर की भक्ति । वे क्या भक्ति की खोज करते हैं ? अगर ऐसा हो, तो अच्छा है । अगर ईश्वरलाभ उनका उद्देश्य हो तो अच्छा है । चन्द्रलोक, सूर्यलोक, नक्षत्रलोक और महात्मा को लेकर ही अगर कोई रहे, तो ईश्वर की खोज इससे नहीं होती । उनके पाद-पद्मों में भक्ति होने के लिए साधना करनी चाहिए, व्याकुल होकर उन्हें पुकारना चाहिए । अनेक वस्तुओं से मन को खींचकर उनमें लगाना चाहिए ।"

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ভক্তিই একমাত্র সার — ঈশ্বরে ভক্তি! তারা কি ভক্তি খোঁজে? তাহলে ভাল। ভগবানলাভ যদি উদ্দেশ্য হয় তা হলেই ভাল। চন্দ্রলোক, সূর্যলোক, নক্ষত্রলোক, মহাত্মা এই নিয়ে কেবল থাকলে ঈশ্বরকে খোঁজা হয় না। তাঁর পাদপদ্মে ভক্তি হবার জন্য সাধন করা চাই, ব্যাকুল হয়ে ডাকা চাই। নানা জিনিস থেকে মন কুড়িয়ে এনে তাঁতে লাগাতে হয়।

MASTER: "The one essential thing is bhakti, loving devotion to God. Do the Theosophists seek bhakti? They are good if they do. If Theosophy makes the realization of God the goal of life, then it is good. One cannot seek God if one constantly busies oneself with the mahatmas and the lunar, solar, and stellar planes. A man should practise sadhana and pray to God with a longing heart for love of His Lotus Feet. He should direct his mind to God alone, withdrawing it from the various objects of the world."

यह कहकर श्रीरामकृष्ण रामप्रसाद के गीत गाने लगे –

मन कोरो कि तत्व ताँरे जेनो उन्मत्त आंधार घरे।

से जे भावेर विषय , भाव व्यतीत अभावे कि धरते पारे।।

से भाव लागि परम योगी योग करे युग युगान्तरे। 

होले भावेर उदय लोय से जेमन लोहा की चुम्बक धोरे।।

भावार्थ : - मन ! अंधेरे में पागल की तरह उनके तत्त्व का विचार तुम क्या करते हो ? वह तो भाव का विषय है, भाव के बिना अभाव के द्वारा क्या वह कभी मिल सकता है ? उस भाव के लिए योगीजन युग-युगान्तर तक तपस्या किया करते हैं । भाव का उदय होने पर वह मनुष्य को उसी तरह पकड़ता है जैसे लोहे को चुम्बक ।

বলিয়া ঠাকুর রামপ্রসাদের গান ধরিলেন:

মন কর কি তত্ত্ব তাঁরে যেন উন্মত্ত আঁধার ঘরে।

সে যে ভাবের বিষয়, ভাব ব্যতীত অভাবে কি ধরতে পারে ৷৷

সে ভাব লাগি পরম যোগী যোগ করে যুগ যুগান্তরে।

হলে ভাবের উদয় লয় সে যেমন লোহাকে চুম্বক ধরে ৷৷

The Master sang:How are you trying, O my mind, to know the nature of God?You are groping like a madman locked in a dark room. He is grasped through ecstatic love; how can you fathom Him without it? . . .And, for that love, the mighty yogis practise yoga from age to age; When love awakes, the Lord, like a magnet, draws to Him the soul.

"और चाहे शास्त्र कहो, चाहे दर्शन कहो, चाहे वेदान्त, किसी में वे नहीं हैं । उनके लिए प्राणों के विकल हुए बिना कहीं कुछ न होगा , कवि ने कहा है - 

षड दर्शने ना पाय दर्शन , आगम निगम तन्त्रसारे। 

से जे भक्ति-रसेर रसिक ,सदानन्दे विराज करे पूरे।। 

“षड्दर्शन, निगमागम और तन्त्रसार से उनके दर्शन नहीं होते । वे तो भक्ति-रस के रसिक हैं, आनन्दपूर्वक हृदय-पुर में विराजमान हैं ।

“আর শাস্ত্র বল, দর্শন বল, বেদান্ত বল — কিছুতেই তিনি নাই। তাঁর জন্য প্রাণ ব্যাকুল না হলে কিছু হবে না।

“ষড় দর্শনে না পায় দরশন, আগম নিগম তন্ত্রসারে।

সে যে ভক্তিরসের রসিক সদানন্দে বিরাজ করে পুরে ।।

[Continuing, the Master said: "You may speak of the scriptures, of philosophy. of Vedanta; but you will not find God in any of these. You will never succeed in realizing God unless your soul becomes restless for Him.Only through affirmation, never negation, can you know Him,Neither through Veda nor through Tantra nor the six darsanas.It is in love's elixir only that He delights, O mind;He dwells in the body's inmost depths, in Everlasting Joy.

"खूब व्याकुल होना चाहिए । एक गाने में है - राधिका के दर्शन सब को नहीं होते ।

[“খুব ব্যাকুল হতে হয়। একটা গান শোন:রাধার দেখা কি পায় সকলে,”

"One must be very earnest about God. Listen to another song:Can everyone have the vision of Radha? Can everyone taste her love?This, the rarest treasure of all, no earthly wealth can buy;Without devotions and sadhana none can ever obtain it.The raindrop falling upon the deep when Svati shines on highIs formed within the oyster's shell into a priceless pearl.Can such a pearl be formed from rain that falls at other times?Mothers with their babes in arms may beckon to the moonTo leave the sky and come to them; but only the babes are fooled.Does the moon ever leave the sky and dwell upon the earth?

[लोकशिक्षार्थ अवतार आदि भी साधना करते है -पहले साधना फिर ईश्वरदर्शन।] 

[অবতাররাও সাধন করেন — লোকশিক্ষার্থ — সাধন, তবে ঈশ্বরদর্শন ]

 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏$$ 🔆🙏अवतार भी साधना करते हैं – लोकशिक्षार्थ🔆🙏$$ 🔆🙏

"साधना की बड़ी जरूरत है । एकाएक क्या कभी ईश्वर के दर्शन होते हैं ।

[“সাধনের খুব দরকার, ফস্‌ করে কি আর ঈশ্বরদর্শন হয়?"

One must practise intense spiritual discipline. Can one obtain the vision of God all of a sudden, without any preparation?

"एक ने पूछा, हमें ईश्वर के दर्शन क्यों नहीं होते ? मेरे मन में उस समय यह बात उठी; - मैंने कहा, 'बड़ी मछली पकड़ना चाहते हो, तो उसके लिए आयोजन करो । जहाँ मछली पकड़ना चाहते हो, वहाँ मसाला डालो । डोरी-बंसी लाओ । मसाले की गन्ध पाकर गहरे जल से मछली उसके पास आयेगी । जब पानी हिलने लगे, तब तुम समझ जाओ कि बड़ी मछली आयी है ।'

“একজন জিজ্ঞাসা করলে, কই ঈশ্বরকে দেখতে পাই না কেন? তা মনে উঠল(मेरे ध्यान में यह विचार आया ), বললুম বড়মাছ ধরবে, তার আয়োজন কর। চারা (চার) কর। হাতসুতো, ছিপ যোগাড় কর। গন্ধ পেয়ে ‘গম্ভীর’ জল থেকে মাছ আসবে। জল নড়লে টের পাবে, বড় মাছ এসেছে।"

A man asked me, 'Why don't I see God?' I said to him, as the idea came to my mind: "You want to catch a big fish. First make arrangements for it. Throw spiced bait into the water. Get a line and a rod. At the smell of the bait the fish will come from the deep water. By the movement of the water you will know that a big fish has come.'

"अगर मक्खन खाने की इच्छा है तो ‘दूध में मक्खन है, दूध में मक्खन है’, ऐसा कहने से क्या होगा ? मेहनत करनी पड़ती है, तब मक्खन निकलता है । 'ईश्वर हैं', 'ईश्वर हैं' इस तरह बकते रहने से क्या कभी ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं ? साधना चाहिए ।

[“মাখন খেতে ইচ্ছা। তা দুধে আছে মাখন, দুধে আছে মাখন, — করলে কি হবে? খাটতে হয় তবে মাখন উঠে। ঈশ্বর আছেন, ঈশ্বর আছেন, বললে কি ঈশ্বরকে দেখা যায়? সাধন চাই!"

You want to eat butter. But what will you achieve by simply repeating that there is butter in milk? You have to work hard for it. Only thus can you separate butter from milk. Can one see God by merely repeating, 'God exists'? One needs sadhana.

"भगवती ने स्वयं पञ्चमुण्डी आसन पर बैठकर तपस्या की थी - लोकशिक्षा के लिए । श्रीकृष्ण साक्षात् पूर्ण ब्रह्म हैं, परन्तु उन्होंने भी तपस्या की थी, तब राधायन्त्र उन्हें पड़ा हुआ मिल गया था ।

[“ভগবতী নিজে পঞ্চমুণ্ডীর উপর বসে কঠোর তপস্যা করেছিলেন — লোকশিক্ষার জন্য। শ্রীকৃষ্ণ সাক্ষাৎ পূর্ণব্রহ্ম, তিনিও রাধাযন্ত্র কুড়িয়ে পেয়ে লোকশিক্ষার জন্য তপস্যা করেছিলেন।”

"The Divine Mother Herself practised austere sadhana to set an example for mankind. Sri Krishna, who is none other than the Ultimate Brahman, also practised sadhana to set an example to others.

🔆🙏राधा ही आद्यशक्ति या प्रकृति हैं - पुरुष और प्रकृति, ब्रह्म और शक्ति अभेद🔆🙏

 कामराधा-(चन्द्रावली), प्रेमराधा (श्रीमती) गोपाल को गोद में लिए हुए -नित्यराधा । 

[রাধাই আদ্যাশক্তি বা প্রকৃতি — পুরুষ ও প্রকৃতি, ব্রহ্ম ও শক্তি অভেদ ]

"कृष्ण पुरुष हैं और राधा प्रकृति, चित्शक्ति आद्याशक्ति है । राधा प्रकृति है - त्रिगुणमयी; इनके भीतर सत्त्व, रज और तम तीन गुण हैं । जैसे प्याज का छिलका निकालते जाओ, पहले लाल और काला दोनों रंग का मिला हुआ हिस्सा निकलता है, फिर लाल निकलता रहता है, फिर सफेद । वैष्णव शास्त्रों में लिखा है - कामराधा, प्रेमराधा, नित्यराधा । कामराधा चन्द्रावली हैं, प्रेमराधा श्रीमती । गोपाल को गोद में लिए हुए नित्यराधा को नन्द ने देखा था ।

[^काम-राधा, कामोत्तेजक (seductive- सम्मोहक) शक्ति से भरपूर, राधा का यह पहला पहलू है।  प्रेम-राधा, आनंदमय प्रेम से भरी, उसका दूसरा पहलू है।  नित्य-राधा; शाश्वत बीज - शक्ति (Primordial-Power.) के रूप में उनका तीसरा पहलू है।  राधा की सखियों में से एक, चंद्रावली का श्रीकृष्ण के प्रति कामातुर मनोभाव  (lustful attitude) था। श्री राधा का ही एक अन्य नाम श्रीमती है - जो सभी गोपियों  में प्रमुख हैं।  नंदा बाबा श्रीकृष्ण के पालक-पिता थे ही ।

[“শ্রীকৃষ্ণ পুরুষ, রাধা প্রকৃতি, চিচ্ছক্তি — আদ্যাশক্তি। রাধা প্রকৃতি ত্রিগুণময়ী! এঁর ভিতরে সত্ত্ব, রজঃ, তমঃ তিনগুণ। যেমন পেঁয়াজ ছাড়িয়ে যাও, প্রথমে লাল-কালোর আমেজ, তারপর লাল, তারপর সাদা বেরুতে থাকে। বৈষ্ণবশাস্ত্রে আছে, কামরাধা, প্রেমরাধা, নিত্যরাধা। কামরাধা চন্দ্রাবলী; প্রেমরাধা শ্রীমতী; নিত্যরাধা নন্দ দেখেছিলেন — গোপাল কোলে!

"Sri Krishna is the Purusha and Radha the Prakriti, the Chitsakti, the Adyasakti. Radha is the Prakriti, the embodiment of the three gunas. Sattva, rajas, and tamas are in her. As you remove the layers of an onion, you will first see tints of both black and red, then only red, and last of all only white. The Vaishnava scriptures speak of 'Kam-Radha', 'Prem-Radha', and 'Nitya-Radha'. Chandravali is Kam-Radha, and Srimati is Prem-Radha; Nanda saw Nitya-Radha holding Gopala in Her arms.2

^Kam-Radha, full of seductive power, is the first aspect of Radha; Prem-Radha, full of ecstatic love, is her second aspect; Nitya-Radha is her third aspect, as the eternal Primordial Power. Chandravali, one of the gopis, had a lustful attitude toward Sri Krishna. Srimati is another name of Radhika, the foremost of the gopis. Nanda was Sri Krishna's foster-father.

"यह चित्-शक्ति और वेदान्त का ब्रह्म दोनों अभेद हैं । जैसे जल और उसकी हिमशक्ति । पानी की हिमशक्ति को सोचने से पानी को भी सोचना पड़ता है और पानी को सोचने से उसकी हिमशक्ति भी आ जाती है । साँप की तिर्यक् गति को सोचने से साँप को भी सोचना पड़ता है । ब्रह्म कब कहते हैं ? - जब वे निष्क्रिय हैं या कार्य से निर्लिप्त हैं ।

पुरुष जब कपड़ा पहनता है, तब भी वह पुरुष ही रहता है । पहले दिगम्बर था, अब साम्बर हो गया है - फिर दिगम्बर हो सकता हैं । साँप के भीतर जहर है, परन्तु साँप को इससे कुछ नहीं होता । जिसे वह काटता है, उसी के लिए जहर है । ब्रह्म स्वयं निर्लिप्त हैं ।

[“এই চিচ্ছক্তি আর বেদান্তের ব্রহ্ম (পুরুষ) অভেদ। যেমন জল আর তার হিমশক্তি। জলের হিমশক্তি ভাবলেই জলকে ভাবতে হয়; আবার জলকে ভাবলেই জলের হিমশক্তি ভাবনা এসে পড়ে। সাপ আর সাপের তির্যগ্‌গতি। তির্যগ্‌ গতি ভাবলেই সাপকে ভাবতে হবে। ব্রহ্ম বলি কখন? যখন নিষ্ক্রিয় বা কার্যে নির্লিপ্ত। পুরুষ যখন কাপড় পরে, তখন সেই পুরুষই থাকে। ছিলে দিগম্বর হলে সাম্বর — আবার হবে দিগম্বর। সাপের ভিতর বিষ আছে, সাপের কিছু হয় না। যাকে কামড়াবে, তার পক্ষে বিষ। ব্রহ্ম নিজে নির্লিপ্ত।"

The Brahman of Vedanta and the Chitsakti are identical, like water and its wetness. The moment you think of water you must also think of its wetness, and the moment you think of water's wetness you must also think of water. Or it is like the snake and its wriggling motion. The moment you think of the snake you must also think of its wriggling motion, and the moment you think of the snake's wriggling motion you must also think of the snake. When do I call the Ultimate Reality by the name of Brahman? When It is actionless or unattached to action. When a man puts on a cloth he remains the same man as when he was naked. He was naked; now he is clothed. He may be naked again. There is poison in the snake, but it doesn't harm the snake. It is poison to him who is bitten by the snake. Brahman Itself is unattached..

🔆🙏नाम और रूप; प्रकृति (चित्-शक्ति) का ऐश्वर्य है🔆🙏

"नाम और रूप जहाँ हैं, वहीं प्रकृति का ऐश्वर्य है । सीता ने हनुमान से कहा था - 'वत्स, एक रूप से मैं ही राम हूँ और एक रूप से सीता बनी हुई हूँ - एक रूप से मैं इन्द्र हूँ और एक रूप से इन्द्राणी हूँ - एक रूप से ब्रह्मा हूँ और एक रूप से ब्रह्माणी - एक रूप से रुद्र हूँ और एक रूप से रुद्राणी । नाम-रूप जो कुछ है, सब चित्-शक्ति का ऐश्वर्य है । ध्यान और ध्याता भी चित्-शक्ति के ही ऐश्वर्य में से हैं ।

जब तक यह बोध है कि मैं ध्यान कर रहा हूँ, तब तक उन्हीं का इलाका है ।(मास्टर से) इन सब की धारणा करो । वेदों और पुराणों को सुनना चाहिए और वे जो कुछ कहते हैं, उसकी धारणा करनी चाहिए ।

[“নামরূপ যেখানে, সেইখানেই প্রকৃতির ঐশ্বর্য। সীতা হনুমানকে বলেছিলেন, ‘বৎসে! আমিই একরূপে রাম, একরূপে সীতা হয়ে আছি; একরূপে ইন্দ্র, একরূপে ইন্দ্রাণী — একরূপে ব্রহ্মা, একরূপে ব্রহ্মাণী — একরূপে রুদ্র, একরূপে রুদ্রাণী, — হয়ে আছি’! — নামরূপ যা আছে সব চিচ্ছক্তির ঐশ্বর্য। চিচ্ছক্তির ঐশ্বর্য সমস্তই; এমন কি ধ্যান ধ্যাতা পর্যন্ত। আমি ধ্যান কচ্চি, যতক্ষণ বোধ ততক্ষণ তাঁরই এলাকায় আছি। (মাস্টারের প্রতি) — এইগুলি ধারণা কর। বেদ পুরাণ শুনতে হয়, তিনি যা বলেছেন করতে হয়।

"Names and forms are nothing but the manifestations of the power of Prakriti. Sita said to Hanuman: 'My child, in one form I am Sita, in another form I am Rama. In one form I am Indra, in another I am Indrani. In one form I am Brahma, in another, Brahmani. In one form I am Rudra, in another, Rudrani.'3 Whatever names and forms you see are nothing but the manifestations of the power of Chitsakti. Everything is the power of Chitsakti — even meditation and he who meditates. As long as I feel that I am meditating, I am within the jurisdiction of Prakriti. (To M.) Try to assimilate what I have said. One should hear what the Vedas and the Puranas say, and carry it out in life.

[ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏साधुसंग -पाठचक्र -कैम्प से संसार-रोग बहुत हद तक घट जाता है 🔆🙏

(पण्डित से) "कभी कभी साधु-संग करना अच्छा है । रोग तो आदमी को लगा ही हुआ है । साधु-संग से उसका बहुत कुछ उपशम होता है ।

(পণ্ডিতের প্রতি) — “মাঝে মাঝে সাধুসঙ্গ ভাল। রোগ মানুষের লেগেই আছে। সাধুসঙ্গে অনেক উপশম হয়।”

(To the pundit) "It is good to live in the company of holy men now and then. The disease of worldliness has become chronic in man. It is mitigated, to a great extent, in holy company.

[ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆वेदांत वागीश को उपदेश - साधुसंग करो; 'मेरा' -कहकर कुछ नहीं है; मैं उनका दास हूँ 🔆

[বেদান্তবাগীশকে শিক্ষা — সাধুসঙ্গ কর; আমার কেউ নয়; দাসভাব ]

"मैं और मेरा-पन यही अज्ञान है । ‘हे ईश्वर ! सब कुछ तुम्हीं कर रहे हो और मेरे अपने आदमी तुम्हीं हो। यह सब घर, द्वार, परिवार, आत्मीय, बन्धु, सम्पूर्ण संसार तुम्हारा है ।’ इसी का नाम है यथार्थ ज्ञान । इसके विपरीत 'मैं ही सब कुछ कर रहा हूँ, कर्ता मैं, घर, द्वार, कुटुम्ब परिवार, लड़के-बच्चे सब मेरे हैं’ - इसका नाम है अज्ञान ।

[“আমি ও আমার। এর নামই ঠিক জ্ঞান — ‘হে ঈশ্বর! তুমিই সব করছ, আর তুমিই আমার আপনার লোক। আর তোমার এই সমস্ত ঘরবাড়ি, পরিবার, আত্মীয়, বন্ধু, সমস্ত জগৎ; সব তোমার!’ আর ‘আমি সব করছি, আমি কর্তা, আমার ঘরবাড়ি, পরিবার, ছেলেপুলে, বন্ধু, বিষয়’ — এ-সব অজ্ঞান।"

'I' and 'mine' — that is ignorance. True knowledge makes one feel: 'O God, You alone do everything. You alone are my own. And to You alone belong houses, buildings, family, relatives, friends, the whole world. All is Yours.' But ignorance makes one feel: 'I am doing everything. I am the doer. House, buildings, family, children, friends, and property are all mine.'

[ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏तुम्हारे अपने बस एक ही आदमी हैं – ईश्वर ।🔆🙏

"गुरु शिष्य को ये सब बातें समझा रहे थे । कह रहे थे - एकमात्र ईश्वर ही तुम्हारे अपने हैं, और कोई अपने नहीं । शिष्य ने कहा, 'महाराज, माता और स्त्री ये लोग तो मेरी बड़ी खातिर करते हैं, अगर मुझे नहीं देखते तो तमाम संसार में उनके लिए दुःख का अँधेरा छा जाता है, तो देखिये, वे मुझे कितना प्यार करती हैं ।’

गुरु ने कहा, "यह तुम्हारे मन को भूल है । मैं तुम्हें दिखलाये देता हूँ कि तुम्हारा कोई नहीं है । दवा की ये गोलियाँ अपने पास रखो, घर जाकर गोलियों को खाना और बिस्तरे पर लेटे रहना । लोग समझेंगे, तुम्हारी देह छूट गयी है । मैं उसी समय पहुँच जाऊँगा ।

[“গুরু শিষ্যকে এ-কথা বুঝাচ্ছিলেন। ঈশ্বর তোমার আপনার, আর কেউ আপনার নয়। শিষ্য বললে, ‘আজ্ঞা, মা, পরিবার এরা তো খুব যত্ন করেন; না দেখলে অন্ধকার দেখেন, কত ভালবাসেন। গুরু বললেন, ও তোমার মনের ভুল। আমি তোমায় দেখিয়ে দিচ্ছি, কেউ তোমার নয়। ওই ঔষধবড়ি কয়টি তোমার কাছে রেখে দাও। তুমি বাড়িতে গিয়ে খেয়ে শুয়ে থেকো। লোকে মনে করবে যে তোমার দেহত্যাগ হয় গেছে। কিন্তু তোমার সব বাহ্যজ্ঞান থাকবে, তুমি দেখতে শুনতে সব পাবে; — আমি সেই সময় গিয়ে পড়ব।’

"Once a teacher was explaining all this to a disciple. He said, 'God alone, and no one else, is your own.' The disciple said: 'But, revered sir, my mother, my wife, and my other relatives take very good care of me. They see nothing but darkness when I am not present. How much they love me!' The teacher said: 'There you are mistaken. I shall show you presently that nobody is your own. Take these few pills with you. When you go home, swallow them and lie down in bed. People will think you are dead, but you will remain conscious of the outside world and will see and hear everything. Then I shall visit your home.

"शिष्य ने वैसा ही किया । घर जाकर उसने गोलियों को खा लिया । थोड़ी देर में वह बेहोश हो गया । उसकी माँ, उसकी स्त्री, सब रोने लगीं । उसी समय गुरु वैद्य के रूप में वहाँ पहुँच गये । सब सुनकर उन्होंने कहा, अच्छा, इसकी एक दवा है - यह फिर से जी सकता है । परन्तु एक बात है ।

यह दवा पहले आप में से किसी को खानी चाहिए, फिर यह उसे दी जायेगी । परन्तु इसका जो आत्मीय यह गोली खायेगा, उसकी मृत्यु हो जायेगी । और यहाँ तो इसकी माँ भी हैं ? और शायद स्त्री भी है, इनमें से कोई न कोई अवश्य ही दवा खा लेगी । इस तरह यह जी जायेगा ।'

“শিষ্যটি তাই করলে। বাটীতে গিয়ে বড়ি ক’টি খেলে; খেয়ে অচেতন হয়ে পড়ে রহিল। মা, পরিবার, বাড়ির সকলে, কান্নাকাটি আরম্ভ করলে। এমন সময় গুরু কবিরাজের বেশে উপস্থিত হলেন। সমস্ত শুনে বললেন, আচ্ছা, এর ঔষধ আছে — আবার বেঁচে উঠবে। তবে একটি কথা আছে। এই ঔষধটি আগে একজন আপনার লোকের খেতে হবে, তারপর ওকে দেওয়া যাবে! যে আপনার লোক ওই বড়িটি খাবে, তার কিন্তু মৃত্যু হবে। তা এখানে ওঁর মা কি পরিবার এঁরা তো সব আছেন, একজন না একজন কেউ খাবেন, সন্দেহ নাই। তাহলেই ছেলেটি বেঁচে উঠবে।"

The disciple followed the instructions. He swallowed the pills and lay as if unconscious in his bed. His mother, wife, and other relatives began to cry. Just then the teacher came in, in the guise of a physician, and asked the cause of their grief. When they had told him everything, he said to them: 'Here is a medicine for him. It will bring him back to life. But I must tell you one thing. This medicine must first be taken by one of his relatives and then given to him. But the relative who takes it first will die. I see his mother, his wife, and others here. Certainly one of you will volunteer to take the medicine. Then the young man will come back to life.'

"शिष्य सब कुछ सुन रहा था । वैद्य ने पहले उसकी माता को बुलाया । माँ रोती हुई धूल में लोट रही थी । उसके आने पर कविराज ने कहा, 'माँ, अब तुम्हे रोना न होगा । तुम यह दवा खाओ तो लड़का अवश्य जी जायेगा, परन्तु तुम्हारी इससे मृत्यु हो जायेगी ।' माँ दवा हाथ में लिये सोचने लगी ।

बहुत कुछ सोच-विचार के पश्चात् रोते हुए कहने लगी 'बाबा, मेरे एक दूसरा लड़का और एक लड़की है, मैं अगर मर जाऊँगी, तो फिर उनका क्या होगा ? यही सोच रही हूँ । कौन उनकी देख-रेख करेगा, कौन उन्हें खाने को देगा, यही सोच रही हूँ ।' तब उसकी स्त्री को बुलाकर दवा दी गयी । उसकी स्त्री भी खूब रो रही थी । दवा हाथ में लेकर वह भी सोचने लगी ।

उसने सुना था, दवा खाने पर मृत्यु अनिवार्य है । तब उसने रोते हुए कहा, 'उन्हें जो होना था सो तो हो गया, अब मेरे बच्चों के लिए क्या होगा ? उनकी सेवा करनेवाला कौन है ? फिर... मैं कैसे दवा खाऊँ ?' तब तक शिष्य पर जो नशा था, वह उतर गया । वह समझ गया कि कोई किसी का नहीं है । तुरन्त उठकर वह गुरु के साथ चला गया । गुरु ने कहा, तुम्हारे अपने बस एक ही आदमी हैं – ईश्वर ।

[“শিষ্য সমস্ত শুনছে! কবিরাজ আগে মাকে ডাকলেন। মা কাতর হয়ে ধুলায় গড়াগড়ি দিয়ে কাঁদছেন। কবিরাজ বললেন, মা! আর কাঁদতে হবে না। তুমি এই ঔষধটি খাও, তাহলেই ছেলেটি বেঁচে উঠবে। তবে তোমার এতে মৃত্যু হবে। মা ঔষধ হাতে ভাবতে লাগলেন। অনেক ভেবে-চিন্তে কাঁদতে কাঁদতে বললেন, বাবা, আমার আর কটি ছেলেমেয়ে আছে, আমি গেলে কি হবে, এও ভাবছি। কে তাদের দেখবে, খাওয়াবে, তাদের জন্য ভাবছি। পরিবারকে ডেকে তখন ঔষধ দেওয়া হল, — পরিবারও খুব কাঁদছিলেন। ঔষধ হাত করে তিনিও ভাবতে লাগলেন। শুনলেন যে ঔষধ খেলে মরতে হবে। তখন কেঁদে বলতে লাগলেন, ওগো, ওঁর যা হবার, তা তো হয়েছে গো; আমার অপগণ্ডগুলির এখন কি হবে বল? কে ওদের বাঁচাবে? আমি কেমন করে ও ঔষধ খাই? শিষ্যের তখন ঔষধের নেশা চলে গেছে। সে বুঝলে যে, কেউ কারু নয়। ধড়মড় করে উঠে গুরুর সঙ্গে চলে গেল। গুরু বললেন, তোমার আপনার কেবল একজন, — ঈশ্বর।

"The disciple heard all this. First the physician called his mother, who was weeping and rolling on the ground in grief. He said to her: 'Mother, you don't need to weep any more. Take this medicine and your son will come to life. But you will die.' The mother took the medicine in her hand and began to think. After much reflection she said to the physician, with tears in her eyes: 'My child, I have a few more children. I have to think about them too. I am wondering what will happen to them if I die. Who will feed them and look after them?' The physician next called the wife and handed the medicine to her. She had been weeping bitterly too. With the medicine in her hand she also began to reflect. She had heard that she would die from the effect of the medicine. At last, with tears in her eyes, she said: 'He has met his fate. It I die, what will happen to my young children? Who will keep them alive? How can I take the medicine?' In the mean time the disciple had got over the effect of the pills. He was now convinced that nobody was really his own. He jumped out of bed and left the place with his teacher. The guru said to him, 'There is only one whom you may call your own, and that is God.'

"अतएव उनके पादपद्मों में जिससे भक्ति हो - जिससे वे मेरे हैं, इस तरह के सम्बन्ध से प्यार हो, वही करना चाहिए और वहीं अच्छा भी है । देखते हो, संसार दो दिन के लिए है । इसमें और कहीं कुछ नहीं है ।"

[“তাই তাঁর পাদপদ্মে ভক্তি হয়, — যাতে তিনিই ‘আমার’ বলে ভালবাসা হয় — তাই করাই ভাল । সংসার দেখছো, দুদিনের জন্য। আর এতে কিছুই নাই।”

"Therefore a man should act in such a way that he may have bhakti for the Lotus Feet of God and love God as his very own. You see this world around you. It exists for you only for a couple of days. There is nothing to it."

[ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆गृहस्थ सब कुछ त्याग नहीं सकता - ज्ञान अन्तःपुर में नहीं जाता - भक्ति जा सकती है🔆

[গৃহস্থ সর্বত্যাগ পারে না — জ্ঞান অন্তঃপুরে যায় না — ভক্তি যেতে পারে ]

पण्डित - (सहास्य) - जी, जब यहाँ आता हूँ, तब उस दिन पूर्ण वैराग्य हो जाता है । इच्छा होती है कि संसार का त्याग करके कहीं चला जाऊँ ।

[পণ্ডিত (সহাস্যে) — আজ্ঞে, এখানে এলে সেদিন পূর্ণ বৈরাগ্য হয়। ইচ্ছা করে — সংসার ত্যাগ করে চলে যাই।

PUNDIT (smiling): "Revered sir, I feel a spirit of total renunciation when I am here. I feel like going away, giving up the world."

[ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏गुरुगृहवास या कैम्प का महत्व 🔆🙏

श्रीरामकृष्ण - नहीं, त्याग क्यों करना होगा ? आप लोग मन में त्याग का भाव लाइये । संसार में अनासक्त होकर रहिये ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — না, ত্যাগ করতে হবে কেন? আপনারা মনে ত্যাগ কর। সংসারে অনাসক্ত হয়ে থাক।

MASTER: "No, no! Why should you give up? Give up mentally. Live unattached in the world.

"सुरेन्द्र ने कभी कभी आकर रहने की इच्छा से एक बिस्तरा यहाँ ला रखा था । दो एक दिन आया भी था । फिर उसकी बीबी ने कहा, 'दिन के समय चाहे जहाँ जाकर रहो, रात को घर से न निकलने पाओगे ।' तब सुरेन्द्र क्या कहता ? अब रात के समय कहीं रहने का उपाय भी नहीं रह गया ।

[“সুরেন্দ্র এখানে মাঝে মাঝে রাত্রে এসে থাকবে বলে একটা বিছানা এনে রেখেছিল। দু-একদিন এসেও ছিল, তারপর তার পরিবার বলেছে, দিনের বেলা যেখানে ইচ্ছা সেখানে যাও, রাত্রে বাড়ি থেকে বেরিয়ে যাওয়া হবে না। তখন সুরেন্দ্র আর কি করে? আর রাত্রে থাকবার জো নাই!

"Surendra wanted to spend the night here occasionally. He brought a bed and even spent a day or two here. Then his wife said to him, 'You may go anywhere you like during the day-time, but at night you must not leave home.' What could poor Surendra do? Now he has no way of spending the night away from home.

[ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏आदर्श (नेता -विवेकानन्द) के लिए व्याकुल होओ , उन्हें प्यार करना सीखो 🔆🙏

"और देखो, सिर्फ विचार, तर्क-वितर्क  करने से क्या होता है ? उनके लिए व्याकुल होओ, उन्हें प्यार करना सीखो । ज्ञान और विचार ये पुरुष हैं, इनकी पहुँच बस दरवाजे तक है । भक्ति स्त्री है, वह भीतर भी चली जाती है ।

[“আর দেখ শুধু বিচার কললে কি হবে? তাঁর জন্য ব্যাকুল হও, তাঁকে ভালবাসতে শেখ! জ্ঞান-বিচার — পুরুষমানুষ, বাড়ির বারবাড়ি পর্যন্ত যায়।“ভক্তি — মেয়েমানুষ অন্তঃপুর পর্যন্ত যায়।

"What will you achieve by mere reasoning? Be restless for God and learn to love Him. Reason, mere intellectual knowledge, is like a man who can go only as far as the outer court of the house. But bhakti is like a woman who goes into the inner court.

“इसी तरह के एक भाव का आश्रय लेना पड़ता है - तब मनुष्य ईश्वर को पाता है । सनकादि ऋषि शान्तभाव लेकर रहते थे । हनुमान दासभाव में थे । श्रीदास, सुदाम आदि व्रज के चरवाहों का सख्यभाव था । यशोदा का वात्सल्यभाव था - ईश्वर पर उनकी सन्तानबुद्धि थी । श्रीमती का मधुरभाव था । "हे ईश्वर, तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ, इस भाव का नाम है – दासभाव । साधक के लिए यह भाव बहुत अच्छा है ।"

[“একটা কোনরকম ভাব আশ্রয় করতে হয়। তবে ঈশ্বরলাভ হয়। সনকাদি ঋষিরা শান্ত রস নিয়ে ছিলেন। হনুমান দাসভাব নিয়ে ছিলেন। শ্রীদাম, সুদাম, ব্রজের রাখালদের — সখ্যভাব। যশোদার বাৎসল্যভাব ঈশ্বরেতে সন্তানবুদ্ধি! শ্রীমতীর মধুরভাব।“হে ঈশ্বর! তুমি প্রভু, আমি দাস, — এ-ভাবটির নাম দাসভাব। সাধকের পক্ষে এ-ভাবটি খুব ভাল।”

"One must take up a definite attitude toward God. Then alone can one realize Him. Rishis like Sanaka cherished the attitude of santa; Hanuman the attitude of a servant; the cowherd boys of Vrindavan, like Sridama and Sudama, the attitude of a friend; Yasoda the attitude of a mother; and Radha the attitude of a sweetheart."'O God, Thou art the Lord and I am Thy servant' — that is the servant's attitude, a very good one for aspirants."

पण्डित - जी हाँ ।

[পণ্ডিত — আজ্ঞা, হাঁ।

PUNDIT: "Yes, sir."

*(४)

[ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏ईशान को उपदेश - भक्ति योग और कर्मकाण्डीय पुरश्चरण - ज्ञान के लक्षण🔆🙏

ঈশানকে উপদেশ — ভক্তিযোগ ও কর্মযোগ — জ্ঞানের লক্ষণ

सींती के पण्डितजी चले गये हैं । सन्ध्या हो गयी । काली मन्दिर में देवताओं की आरती होने लगी । श्रीरामकृष्ण देवताओं को प्रणाम कर रहे हैं । छोटी खाट पर बैठे हुए हैं, मन ईश्वर-चिन्तन में है । कुछ भक्त आकर जमीन पर बैठ गये । घर में शान्ति है ।

[সিঁথির পণ্ডিত চলিয়া গিয়াছেন। ক্রমে সন্ধ্যা হইল। কালীবাড়িতে ঠাকুরদের আরতির বাজনা বাজিয়া উঠিল। শ্রীরামকৃষ্ণ ঠাকুরদের নমস্কার করিতেছেন। ছোট খাটটিতে বসিয়া উন্মনা। কয়েকটি ভক্ত মেঝেতে আসিয়া আবার বসিলেন। ঘর নিঃশব্দ।

The pundit from Sinthi left. If was dusk. Twilight hung over the Panchavati, the temples, and the river. Evening worship began in the different temples, accompanied by the sound of bells, gongs, and conch-shells. Sri Ramakrishna bowed before the pictures of the deities in his room. He was sitting on the small couch in an abstracted mood. A few devotees were on the floor. There was silence in the room.

एक घण्टा रात बीच चुकी है । ईशान मुखोपाध्याय और किशोरी आये । वे लोग श्रीरामकृष्णदेव को प्रणाम कर बैठ गये ।  वे शास्त्रों द्वारा निर्धारित विभिन्न प्रकार की पुरश्चरण (किसी मंत्र को सिद्ध करने के लिए उसका जपानुष्ठान)  आदि धार्मिक -विधियों (rites) और अचार-अनुष्ठानों ( ceremonies) के प्रति पूर्णतः समर्पित थे । अब श्रीरामकृष्ण बातचीत कर रहे हैं ।

[রাত্রি একঘন্টা হইয়াছে। ঈশান মুখোপাধ্যায় ও কিশোরী আসিয়া উপস্থিত। তাঁহারা ঠাকুরকে প্রণাম করিয়া আসন গ্রহণ করিলেন। ঈশানের পুরশ্চরণাদি শাস্ত্রোল্লিখিত কর্মে খুব অনুরাগ। ঈশান কর্মযোগী। এইবার ঠাকুর কথা কহিতেছেন —

An hour passed. Ishan and Kishori entered and sat down on the floor after saluting Sri Ramakrishna. Ishan was a great ritualist. He was devoted to the performance of the various rites and ceremonies prescribed by the scriptures. The Master opened the conversation.

 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏ज्ञान के दो लक्षण -ईश्वर में अनुराग और जाग्रत कुण्डलिनी शक्ति🔆🙏 

श्रीरामकृष्ण - ज्ञान ज्ञान कहने ही से कुछ थोड़े ही होता है ? ज्ञान के दो लक्षण हैं । पहला है अनुराग, अर्थात् ईश्वर को प्यार करना । केवल ज्ञान का विचार कर रहे हैं, परन्तु ईश्वर पर अनुराग नहीं है, प्यार नहीं है तो वह मिथ्या है । और दूसरा लक्षण है - कुण्डलिनी शक्ति का जागना । कुण्डलिनी जब तक सोती रहती है, तब तब ज्ञान नहीं होता । बैठे हुए पुस्तकें पढ़ते जा रहे हैं, विचार कर रहे हैं । परन्तु भीतर व्याकुलता नहीं है, वह ज्ञान का लक्षण नहीं है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — জ্ঞান জ্ঞান বললেই কি হয়? জ্ঞান হবার লক্ষণ আছে। দুটি লক্ষণ — প্রথম অনুরাগ অর্থাৎ ঈশ্বরকে ভালবাসা। শুধু জ্ঞানবিচার করছি, কিন্তু ঈশ্বরেতে অনুরাগ নাই, ভালবাসা নাই, সে মিছে। আর-একটি লক্ষণ কুণ্ডলিনী শক্তির জাগরণ। কুলকুণ্ডলিনী যতক্ষণ নিদ্রিত থাকেন, ততক্ষণ জ্ঞান হয় না। বসে বসে বই পড়ে যাচ্ছি, বিচার করছি, কিন্তু ভিতরে ব্যাকুলতা নাই, সেটি জ্ঞানের লক্ষণ নয়।

MASTER: "Can one attain knowledge of God by merely repeating the word 'God'? There are two indications of such knowledge. First, longing, that is to say, love for God. You may indulge in reasoning or discussion, but if you feel no longing or love, it is all futile. Second, the awakening of the Kundalini. As long as the Kundalini remains asleep, you have not attained knowledge of God. You may be spending hours poring over books or discussing philosophy, but if you have no inner restlessness for God, you have no knowledge of Him.

[ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏ईश्वरानुराग में कुण्डलिनी शक्ति का जाग्रत हो जाना ही भक्ति योग है🔆🙏 

 कुण्डलिनी शक्ति के जागने पर भाव, भक्ति और प्रेम यह सब होता है । इसे ही भक्तियोग कहते हैं। "कर्मयोग"  (यहाँ पुरश्चरण आदि कर्मकाण्डीय -अनुष्ठान आदि) बड़ा कठिन है,  उससे कुछ शक्ति होती है, विभूतियां (occult powers) मिलती हैं ।”

[“কুণ্ডলিনী শক্তির জাগরণ হলে ভাব, ভক্তি, প্রেম — এই সব হয়। এরই নাম ভক্তিযোগ। “কর্মযোগ বড় কঠিন। কর্মযোগে কতকগুলি শক্তি হয় — সিদ্ধাই হয়।”

"When the Kundalini is awakened, one attains bhava, bhakti, prema, and so on. This is the path of devotion."The path of karma (Here signifying religious rites and rituals.) is very difficult. Through it one obtains some powers — I mean occult powers."

ईशान - मैं हाजरा महाशय के पास जाता हूँ ।

[ঈশান — আমি হাজরা মহাশয়ের কাছে যাই।

ISHAN: "Let me go and see Hazra."

[ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏श्रीरामकृष्ण और षट्पद्मों में आदि-शक्ति (काम-उर्जा?) का ध्यान🔆🙏

श्रीरामकृष्ण चुप हैं । कुछ देर बाद ईशान फिर कमरे में आये, साथ साथ हाजरा भी थे । श्रीरामकृष्ण चुपचाप बैठे हुए हैं । कुछ देर बाद हाजरा ने ईशान से कहा - “चलिये, अभी ये ध्यान करेंगे ।" ईशान और हाजरा चले गये ।

[ঠাকুর চুপ করিয়া রহিলেন। কিয়ৎক্ষণ পরে ঈশান আবার ঘরের ভিতরে প্রবেশ করিলেন। সঙ্গে হাজরা। ঠাকুর নিঃশব্দে বসিয়া আছেন। কিয়ৎক্ষণ পরে হাজরা ঈশানকে বলিলেন, চলুন ইনি এখন ধ্যান করবেন। ঈশান ও হাজরা চলিয়া গেলেন।

Sri Ramakrishna sat in silence. After a while Ishan returned to the room accompanied by Hazra. The Master was still silent. A few moments later Hazra whispered to Ishan: "Let's leave him alone. Perhaps he will meditate now." Both left the room.

श्रीरामकृष्ण चुपचाप बैठे हुए हैं । कुछ समय में सचमुच ध्यान करने लगे । उँगलियों पर जप कर रहे हैं। वही हाथ एक बार सिर (सहस्त्रदल कमल) पर रखा, फिर ललाट (आज्ञा-चक्र) पर, फिर क्रमशः कण्ठ (विशुद्ध), हृदय (अनाहत-चतुर्थ भूमि ) और नाभि (मणिपूर) पर ।

भक्तों को जान पड़ा, श्रीरामकृष्ण षट्पद्मों में आदि-शक्ति का ध्यान  कर रहे हैं । शिवसंहिता आदि शास्त्रों में जो योग की बातें हैं, क्या वे यही है ?

[ঠাকুর নিঃশব্দে বসিয়া আছেন। ক্রমে সত্য সত্যই ধ্যান করিতেছেন। করে জপ করিতেছেন। সেই হাত একবার মাথার উপরে রাখিলেন, তারপর কপালে, তারপর কণ্ঠে, তারপর হৃদয়ে, তারপর নাভিদেশে।শ্রীরামকৃষ্ণ কি ষট্‌চক্রে আদ্যাশক্তির ধ্যান করিতেছেন? শিব সংহিতাদি শাস্ত্রে যে যোগের কথা আছে, এ কি তাই!

Sri Ramakrishna was still silent. In a few moments the devotees noticed that he was really meditating. Then he performed japa. He placed his right hand on his head, then on his forehead, then on his throat, then on his heart, and last of all on his navel. Was it meditation on the Primordial Energy in the six centres of the body?

(५)

 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

निवृत्तिमार्ग । वासना का मूल – महामाया

[ निवृत्ति मार्ग - ईश्वरत्व प्राप्ति के बाद कर्मत्याग ]

[নিবৃত্তিমার্গ — ঈশ্বরলাভের পর কর্মত্যাগ]

 [ईशान को उपदेश - 'उत्तिष्ठत , जाग्रत '- कर्मकाण्डी अनुष्ठान  बहुत कठिन है]

[ঈশানকে শিক্ষা — উত্তিষ্ঠত, জাগ্রত — কর্মযোগ বড় কঠিন ]

ईशान हाजरा के साथ काली-मन्दिर गये हुए थे । श्रीरामकृष्ण ध्यान कर रहे थे । रात के साढ़े सात बजे का समय होगा । उसी समय अधर आ गये ।

[ঈশান হাজরার সহিত কালীঘরে গিয়াছেন। ঠাকুর ধ্যান করিতেছিলেন। রাত্রি প্রায় ৭।। টা। ইতিমধ্যে অধর আসিয়া পড়িয়াছেন ।

Ishan and Hazra had gone to the Kali temple. Sri Ramakrishna was absorbed in meditation. Meanwhile Adhar had arrived. It was about half past seven.

कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण काली का दर्शन करने गये । दर्शन कर और पादपद्मों का निर्माल्य लेकर उन्होंने सिर पर धारण किया । माता को प्रणाम कर उन्होंने प्रदक्षिणा की और चामर लेकर व्यजन करने लगे । श्रीरामकृष्ण प्रेम में मतवाले हो रहे हैं । बाहर आते समय उन्होंने देखा, ईशान कोशाकुशी (ताम्र आचमन का पात्र)  लेकर सन्ध्या कर रहे हैं ।

[কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর মা-কালী দর্শন করিতে গিয়াছেন। দর্শন করিয়া পাদপদ্ম হইতে নির্মাল্য লইয়া মস্তকে ধারণ করিলেন — মাকে প্রণাম ও প্রদক্ষিণ করিলেন এবং চামর লইয়া মাকে ব্যজন করিলেন। ঠাকুর ভাবে মাতোয়ারা! বাহিরে আসিবার সময় দেখিলেন, ঈশান কোশাকুশি লইয়া সন্ধ্যা করিতেছেন।

A little later the Master went to the Kali temple. He looked at the image, took some sacred flowers from the feet of the Mother, and placed them on his head. He prostrated himself before the Mother and went round the image. He waved the chamara. He appeared ecstatic with divine fervour. Coming out, he found Ishan performing the sandhya with the kosakusi.

श्रीरामकृष्ण - (ईशान से) - क्या तुम तब के आये हुए सन्ध्योपासना ही कर रहे हो ? एक गाना सुनो-

गया गंगा प्रभासादि काशी काँची केबा चाय !

काली काली काली बोले आमार अजपा यदि फुराय।।

ईशान के पास बैठकर श्रीरामकृष्ण मधुर स्वर से गाने लगे - ‘गया, गंगा, प्रभास, काशी, काँची कौन चाहता है, अगर काली काली कहते हुए, वह अपनी देह त्याग सके ? त्रिसन्ध्या की बात लोग कहते हैं, परन्तु वह यह कुछ नहीं चाहता । सन्ध्या खुद उसकी खोज में फिरती है परन्तु कभी सन्धि नहीं पाती । दया, व्रत, दान आदि 'मदन' को कुछ नहीं सुहाते, ब्रह्ममयी के चरणकमल ही उसका याग-यज्ञ है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (ঈশানের প্রতি) — কি, আপনি সেই এসেছ? আহ্নিক করছ। একটা গান শুন।

ভাবে উন্মত্ত হইয়া ঈশানের কাছে বসিয়া মধুর কন্ঠে গাইতেছেন:

গয়া গঙ্গা প্রভাসাদি কাশী কাঞ্চী কেবা চায়!

কালী কালী কালী বলে আমার অজপা যদি ফুরায় ।।

ত্রিসন্ধ্যা যে বলে কালী, পূজা সন্ধ্যা সে কি চায়।

সন্ধ্যা তার সন্ধানে ফেরে কভু সন্ধি নাহি পায়।।

দয়া ব্রত দান আদি আর কিছু না মনে লয়,

মদনেরই যাগযজ্ঞ ব্রহ্মময়ীর রাঙ্গা পায়।

MASTER (to Ishan): "What? You are still here? Are you still performing the sandhya? Listen to a song:Why should I go to Ganga or Gaya, to Kasi, Kanchi, or Prabhas,So long as I can breathe my last with Kali's name upon my lips?What need of rituals has a man, what need o£ devotions any more,If he repeats the Mother's name at the three holy hours?Rituals may pursue him close, but never can they overtake him.Charity, vows, and giving of gifts do not appeal to Madan's mind;The Blissful Mother's Lotus Feet are his whole prayer and sacrifice. . . 

"सन्ध्या उतने ही दिनों के लिए है, जब तक उनके पादपद्मों में भक्ति न हो - उनका नाम लेते हुए आँखों में जब तक आँसू न आ जायें और शरीर में रोमांच न हो जाय ।

“रामप्रसाद के एक गाने में है - 

रामप्रसाद बोले भक्ति मुक्ति उभये माथाय रेखेछि,

आमि काली ब्रह्म जेने मर्म धर्माधर्म सब छेड़ेछि।     

मैंने भक्ति और मुक्ति दोनों को  कुछ प्राप्त कर लिया है, क्योंकि काली को ब्रह्म एक जान कर मैंने धर्माधर्म का त्याग कर दिया है ।

[इस रहस्य को जान लेने के बाद कि काली और ब्रह्म दोनों एक और अभिन्न हैं, मैंने भक्ति (ईश्वर को पाने की लालसा-desire to find god) और मुक्ति (liberation-भ्रममुक्ति ) दोनों को सिर पर रख लिया है , और धर्म तथा अधर्म दोनों को हमेशा के लिए त्याग दिया है।"  ] 

[“সন্ধ্যাদি কতদিন? যতদিন না তাঁর পাদপদ্মে ভক্তি হয় — তাঁর নাম করতে করতে চক্ষের জল যতদিন না পড়ে, — আর শরীর রোমাঞ্চ যতদিন না হয়।

রামপ্রসাদ বলে ভক্তি মুক্তি উভয়ে মাথায় রেখেছি,

আমি কালী ব্রহ্ম জেনে মর্ম ধর্মাধর্ম সব ছেড়েছি।

How long must a man continue the sandhya? As long as he has not developed love for the Lotus Feet of God, as long as he does not shed tears and his hair does not stand on end when he repeats God's name.I bow my head, says Prasad, before desire and liberation;Knowing the secret that Kali is one with the highest Brahman,I have discarded, once for all, both dharma and adharma.

"जब फल होता है तब फूल झड़ जाता है । जब भक्ति होती है, तब ईश्वर मिलते हैं - तब सन्ध्यादि कर्म दूर हो जाते हैं ।

"गृहस्थ की बहू के जब लड़का होने वाला होता है, तब उसकी सास काम घटा देती है । नौ महीने का गर्भ होने पर फिर घर का काम छूने नहीं देती । फिर सन्तान पैदा होने पर, वह बच्चे को ही गोद में लिये रहती है और उसी की सेवा करती है । फिर उसके लिए कोई काम नहीं रह जाता । ईश्वर प्राप्ति होने पर सन्ध्यादि कर्म छूट जाते हैं ।

[“যখন ফল হয়, তখন ফুল ঝরে যায়; যখন ভক্তি হয়, যখন ঈশ্বরলাভ হয়, — তখন সন্ধ্যাদি কর্ম চলে যায়।“গৃহস্থের বউর পেটে যখন সন্তান হয়, শাশুড়ী কাজ কমিয়ে দেয়। দশমাস হলে আর সংসারের কাজ করতে দেয় না। তারপর সন্তান প্রসব হলে সে কেবল ছেলেটিকে কোলে করে তার সেবা করে। কোন কাজই থাকে না। ঈশ্বরলাভ হলে সন্ধ্যাদি কর্ম ত্যাগ হয়ে যায়।"

When the fruit grows, the flower drops off. When One has developed love of God and has beheld Him, then one gives up the sandhya and other rites. When the young daughter-in-law is with child, the mother-in-law reduces her activities. When she has been pregnant for nine months, she is not allowed to perform any household duty. After the birth of the child, she only carries the child on her arm and nurses it. She has no other duty. After the attainment of God, the sandhya and other rites are given up.

 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆तीव्र वैराग्य चाहिए -माँ जगदम्बा के गुण गाते हुए उनमें पादपद्मों में अनुराग पैदा करना चाहिए🔆

[उठो , जागो , कमर कसो और लक्ष्य (ईश्वरत्व या 100 %निःस्वार्थपरता ) मिलने तक रुको नहीं !]

'उत्तिष्ठत , जाग्रत ' --उठे पड़े लागो। कोमर बाँधो ! 

 🔆🙏উঠে পড়ে লাগো। কোমর বাঁধো।" Be up and doing! Gird your loins! 🔆🙏

"तुम इस तरह धीमा तिताला बजाते रहोगे, तो कैसे काम चलेगा ? तीव्र वैराग्य चाहिए । १५ महीने का एक साल बनाओगे तो क्या होगा ? तुम्हारे भीतर मानो बल है ही नहीं - मानो दूध में भिगोये हुए चिउड़े के समान, एकदम लुगदी (mushy) बन गए हो ।  उठकर कमर कसो ।

[“তুমি এরকম ঢিমে তেতালা বাজালে চলবে না। তীব্র বৈরাগ্য দরকার। ১৫ মাসে এক বৎসর করলে কি হয়? তোমার ভিতরে যেন জোর নাই। শক্তি নাই। চিড়ের ফলার। উঠে পড়ে লাগো। কোমর বাঁধো।"

You cannot achieve anything by moving at such a slow pace. You need stern renunciation. Can you achieve anything by counting fifteen months as a year? You seem to have no strength, no grit. You are as mushy as flattened rice soaked in milk. Be up and doing! Gird your loins!

"इसीलिए मुझे यह गाना नहीं अच्छा लगता 'हरि सो लागि रहो रे भाई । तेरी बनत बनत बनि जाई ॥' 'बनत बनत बनि जाई' मुझे नहीं सुहाता । तीव्र वैराग्य चाहिए । हाजरा से भी मैं यही कहता हूँ ।"

[“তাই আমার ওই গানটা ভাল লাগে না! ‘হরিষে লাগি রহরে ভাই, তেরা বন্‌ত বন্‌ত বনি যাই।’ বন্‌ত বন্‌ত বনি যাই — আমার ভাল লাগে না। তীব্র বৈরাগ্য চাই। হাজরাকেও তাই আমি বলি।”

"I don't like that song: 'Brother, joyfully cling to God;Thus striving, some day you may attain Him.' I don't care for the line, 'Thus striving, some day you may attain Him.' You need stern renunciation. I say the same thing to Hazra.

 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

[श्री रामकृष्ण और योग सिद्धांत - कामिनी-कांचन में आसक्ति ही योग के विघ्न हैं ! ]

[শ্রীরামকৃষ্ণ ও যোগতত্ত্ব — কামিনী-কাঞ্চন যোগের বিঘ্ন ]

"पूछते हो, क्यों तीव्र वैराग्य नहीं होता ? इसमें रहस्य है । भीतर वासनाएँ और सब प्रकार की भोग प्रवृत्तियाँ हैं । यही मैं हाजरा से कहता हूँ । कामारपुकुर में खेतों में पानी लाया जाता है । खेतों के चारों और मेड़ बँधी रहती है, इसलिए कि कहीं पानी निकल न जाय । कीच की मेड़ बनायी जाती है और मेड़ के बीच बीच में नालियाँ कटी रहती हैं । लोग जप तप करते तो हैं परन्तु उनके पीछे वासना रहती है ।उसी वासना की नालियों से सब निकल जाया करता है

[“কেন তীব্র বৈরাগ্য হয় না জিজ্ঞাসা করছ? তার মানে আছে। ভিতরে বাসনা প্রবৃত্তি সব আছে। হাজরাকে তাই বলি। ও-দেশে মাঠে জল আনে, মাঠের চারিদিকে আল দেওয়া আছে, পাছে জল বেরিয়ে যায়। কাদার আল, কিন্তু আলের মাঝে মাঝে ঘোগ। গর্ত। প্রাণপণে তো জল আনছে, কিন্তু ঘোগ দিয়ে বেরিয়ে যাচ্ছে। বাসনা ঘোগ। জপতপ করে বটে, কিন্তু পেছনে বাসনা - ঘোগ দিয়ে সব বেরিয়ে যাচ্ছে।

"You ask me why you don't feel stern renunciation. There is a reason for it. You have desires and tendencies within you. The same is true of Hazra. In our part of the country I have seen peasants bringing water into their paddy-fields. The fields have low ridges on all sides to prevent the water from leaking out; but these are made of mud and often have holes here and there. The peasants work themselves to death to bring the water, which, however, leaks out through the holes. Desires are the holes. You practise japa and austerities, no doubt, but they all leak out through the holes of your desires.

 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]  

🔆🙏बाँस से बने 'षट्काकल जुगाड़' द्वारा मछली पकड़ना 🔆🙏

"बंसी से मछली पकड़ी जाती है । बाँस तो सीधा ही होता है, परन्तु सिरे पर झुका हुआ इसलिए रहता है कि उससे मछली पकड़ी जाय । वासना मछली है । इसीलिए मन संसार में झुका हुआ है । वासना के न रहने पर मन की सहज ही ऊर्ध्वगति होती है – ईश्वर की ओर ।

[মাছ ধরে শট্‌কা কল দিয়ে। বাঁশ সোজা থাকবার কথা; তবে নোয়ানো রয়েছে কেন? মাছ ধরবে বলে। বাসনা মাছ তাই মন সংসারে নোয়ানো রয়েছে। বাসনা না থাকলে সহজে ঊর্ধ্বদৃষ্টি হয়। ঈশ্বরের দিকে।

"They catch fish with a bamboo trap. The bamboo is naturally straight. But why is it bent in the trap? In order to catch the fish. Desires are the fish. Therefore the mind is bent down toward the world. If there are no desires, the mind naturally looks up toward God.

[षट्पद्मों में आदि-शक्ति का ध्यान ^* काली कुल और  श्री कुल : शाक्त सम्प्रदाय में आदि शक्ति (काम-उर्जा) को ब्रह्म की शक्ति  के रूप में पूजा जाता है।  जिसमे दो कुल है काली कुल और दूसरा श्री कुल। कुछ अन्य शाक्त, भगवती दुर्गा को ही आदि शक्ति मानते हैं । वैष्णव संप्रदाय वाले भगवती को राधा मान कर पूजते है, जबकि शैव संप्रदाय में  माता पार्वती अथवा शाकम्भरी को ही आदि शक्ति का सगुण स्वरूप मानते है। अधिकांश सिख सम्प्रदाय वाले  शक्ति को सगुण (शिवा - शिव की शक्ति) मानते हैं। सिख -सम्प्रदाय के देहधारी दशम गुरु गोविन्द सिंह गाते थे - "देहु शिवा वर मोहे इहै - शुभ कर्मण से कबहुँ न टरूँ !" और जो निर्गुण वादी सिख हैं उनके (एकोर्डिंग) मतानुसार चंडी अकाल पुरुख की ऊर्जा शक्ति है।

मुझे यह गाना पसन्द नहीं है - ' मैली चादर ओढ़ के कैसे द्वारा तुम्हारे आऊं ? ' महामण्डल के नेता को दसवें तथा अंतिम देह-रूपी सिख गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा माँ चण्डी की उपासना में कहा गया यह शबद ~ "देहु शिवा वर मोहे इहै " ही गाना चाहिए -  

" देहु शिवा बर मोहे इहै, शुभ करमन ते कबहुँ ना टरूँ।

 न डरों अरि  सो जब जाइ लरूं, निश्चै कर अपुनी जीत करूँ।।

अरू सिख हों आपने ही मन कौ, 'इह लालच' कि गुण तुम्हरे उचरों। 

जब आव की अउध निदान बनै, अति ही रन मै तब जूझ मरों।। 

 ब्रिजभाषा में रचित इस शबद का हिन्दी में अर्थ इस प्रकार है: हे चण्डी! मुझे ये वर दें (यहाँ शिवा शब्द माँ चण्डी के लिए कहा गया है),  मैं शुभ कर्म करने से  कभी पीछे ना हटूँ। (अर्थात 3H विकास के 5 अभ्यास करने से कभी पीछे ना हटूं !) और जब मैं (मनःसंयोग रूपी) युद्ध में जाऊँ तो शत्रु का मुझे कोई भय ना हो, और युद्ध में अपनी जीत निश्चित करूँ। और मैं अपने मन को  यह (अनुराग ) सीखा सकूँ, कि मेरा मन आपके गुणों का बखान करने के लिए सदैव लालायित रहे। और जब संसार से जाने का समय आए, तब मैं रण क्षेत्र में युद्ध करता हुआ मृत्यु को प्राप्त करूँ। चण्डी स्तुति में कहा गया यह शबद दसवें गुरु द्वारा दशम ग्रंथ के चण्डी चरित्र में लिखा गया है। -देहु शिवा बर मोहे इहै "  हे चण्डी! मुझे ये वर दें (यहाँ शिवा शब्द माँ चण्डी के लिए कहा गया है। ) शुभ करमन ते कबहुँ ना टरूँ: मैं शुभ कर्म करने से कभी पीछे ना हटूँ। न डरों अरि सो जब जाइ लरूं: और जब मैं युद्ध में जाऊँ तो शत्रु का मुझे कोई भय ना हो। निश्चै कर अपुनी जीत करूँ: और युद्ध में अपनी जीत निश्चित करूँ। अरू सिख हों आपने ही मन कौ.  इह लालच गुण तुम्हरे उचरों ! और मैं अपने मन को यह सीखा सकूँ कि ; कि मेरा मन आपके (माँ काली -जगतजननी के)  गुणों का बखान करने के लिए सदैव ललाहित रहे। 

🔆 देहु शिवा बर मोहे इहै" -  जब आव की अउध निदान बनै; अति ही रन मै तब जूझ मरों 🔆

हे चण्डी! मुझे ये वर दें (यहाँ शिवा शब्द माँ चण्डी के लिए कहा गया है) कि  जब संसार से जाने का समय आए।  तब मैं रण क्षेत्र में युद्ध करता हुआ मृत्यु को प्राप्त करूँ। [हे चण्डी! मुझे ये वर दें (यहाँ शिवा शब्द माँ चण्डी के लिए कहा गया है) कि  जब संसार से जाने का समय आए। Be and Make ' आंदोलन का प्रचार-प्रसार करने के रणक्षेत्र में, युद्ध करता हुआ मृत्यु को प्राप्त करूँ !)  चण्डी स्तुति में कहा गया यह शबद दसवें गुरु द्वारा दशम ग्रंथ के चण्डी चरित्र में लिखा गया है

कुण्डलिनी शक्ति को कुल कुण्डलिनी, भुजंगिनी, सर्पिणी, प्रचण्डशक्ति, मूलाधार निवासिनी,  सप्तचक्र भेदिनी, विश्वशक्ति, विद्युत प्रवाह रूपिणी, सर्व सौंदर्य शालिनी, सर्व सुख दायिनी, कुण्डले, अपराजिता, विषतंतुस्वरूपा, मूलविद्या, अधोमुख सर्पिणी, कुण्डलिनी आदि नामों से संबोधित किया गया है। तंत्र में इसे ”वागेश्वरी” कहा गया है, ”स्वर की उत्स, हे कुण्डलिनी तुम्हीं हो; (पंचाष्टवी)। वेदों ने इसे स्वीकार करते हुए कहा है, ”उसको जानकर ही मृत्यु को पार किया जा सकता है, इसका और कोई उपाय नहीं।”

” ऋग्वेद में यह वाग्देवी स्वयं घोषित करती है, “मैं जिसे चाहती हूं उसे महान शक्तिशाली, संत, ऋषि और ब्रह्म बना देती हूं।”अपना परिचय देते हुए वैदिक मंत्र में वाग्देवी (कुण्डलनी शक्ति ) ने आगे कहा है, ”ईश्वर या पिता शीर्षस्थ हैं जिन तक मेरी पहुंच है और मेरा निवास समुद्र में है।” इस प्रकार योग, तंत्र, पुराणों आदि में जिस कुण्डलिनी का उल्लेख है, उसकी वास्तविकता और महत्त्व को भारतीय ऋषियों ने सृष्टि के आदि काल से स्वीकार किया।

‘मिस्टीरियस कुण्डलिनी” की भूमिका में सर जॉन वुड्रॉफ़ ने लिखा है कि यह ”महाशक्ति” है। जब यह जाग जाती है, तब इसकी ऊर्ध्वगति आरंभ हो जाती है और एक तत्त्व को दूसरे तत्त्व में लीन करती हुई यह परम शिव से जा मिलती है। सहस्रार और मूलाधार का क्षेत्र विभाजन करते हुए मनीषियों ने मूलाधार से लेकर कण्ठ पर्यन्त का क्षेत्र एवं चक्र संस्थान 'शक्ति' भाग बताया है और कण्ठ से ऊपर का स्थान 'शिव' देश कहा है । 

सुषुम्ना कमलनाल जैसी है। उसकी भीतरी नाड़ी को ‘वज्रा’ कहा जाता है। इसके भीतर चित्रिणी नाड़ी है जिससे कुंडलिनी शक्ति संचारित होती है। इसी चित्रिणी में षट्चक्र हैं। जब कुंडलिनी शक्ति ऊर्ध्वगामी होती है तो ये चक्र खुलने लगते हैं। योग में इसे ही ‘चक्रवेध’ कहा गया है। कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत करने के लिए भारतीय ऋषियों ने कई उपाय बताए हैं : यथा भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, राजयोग आदि। कुण्डलिनी न जागने और प्रकृति तथा पुरुष अथवा शक्ति और शिव का संयोग न होने तक जन्म और मृत्यु का चक्र चलता रहता है। जब यह योग हो जाता है, तब अमरत्व या मोक्ष की प्राप्ति होती है।

पुराणों में एक कथा है-शिव के गले में मुंडों की माला देखकर शिवा ने पूछा कि ये मुंड किसके हैं और इन्हें आप क्यों धारण किए हुए हैं ? शिव ने उत्तर दिया, पार्वती तुम कई बार जन्मी और मृत्यु को प्राप्त हुईं। ये मुंड तुम्हारे ही हैं और सूचित करते हैं कि तुम्हारे कितने जन्म हुए। शिवा ने यह सुनकर अमरत्व की इच्छा प्रकट की और शिव ने उन्हें मंत्र दिया। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यही कहा है कि हे अर्जुन, तुम्हारे अनेक जन्म हुए, तुम यद्यपि मेरे ही अंश हो तथापि तुम इस ज्ञान को भूल गए हो। तुम्हें यह याद नहीं। मैं अब तुम्हें यह ज्ञान देता हूं। शिव और शक्ति का मिलन और फिर उनका कभी वियोग न होना ही अमरत्व है। 

वेदों ने इसे स्वीकार करते हुए कहा है, ‘उसे जानकर ही मृत्यु को पार किया जा सकता है। इसका कोई अन्य उपाय नहीं है।’अमृत आनन्द के पुत्र मेरी बात सुनें , तथा वे भी जो दिव्य धाम में निवास करते हैं।- May the sons of Immortal Bliss hearken to me - even they who occupy celestial regions !

शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌।

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥

(श्वेताश्वतरोपनिषद्, 3.8)   

मैं उस परम पुरुष को जान गया हूँ जो सूर्य के समान देदीप्यमान है और समस्त अन्धकार से परे है। जो उसे अनुभूति द्वारा जान जाता है वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है। जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा का कोई अन्य मार्ग नहीं है।

I have realized this Great Being who shines effulgent like the sun beyond all darkness. One passes beyond death only on realizing Him. There is no other way of escape from the circle of births and deaths.

श्वेताश्वतरोपनिषद्

एको हंसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः।

तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥ 

(श्वेताश्वतरोपनिषद्, 6. 15 )

इस सम्पूर्ण विश्व के अन्तर में 'एक' 'हंसस्वरूपी आत्मसत्ता' है एवं 'वह' अग्निस्वरूप' है जो जल की अतल गहराई में स्थित है। 'उसका' ज्ञान प्राप्त करके व्यक्ति मृत्यु की पकड़ से परे चला जाता है तथा इस महद्-गति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है।

One Swan of Being in the heart of all this Universe & He is Fire that lieth deep in the heart of water. By Knowledge of Him, the soul passeth beyond the pursuit of Death and there is no other road for the great passage.

 क्रिया भेद से कुण्डलिनी निम्न चार प्रकार से प्रकट होती है-  

"चतुर्विधा सा सन्दिष्टा क्रियावत्यादि भेदतः । 

क्रियावती वर्णमयी कलात्मा वेधमय्यपि ॥

जाग्रत कुंडलिनी शक्ति के बारे में कहा गया है : सूक्ष्मां सूक्ष्मतरां शक्तिं भित्वा षट्चक्रमांजसा। गच्छंति मध्यमार्गेण दिव्यां पर शिवावधिम। अर्थात कुंडलिनी शक्ति सुषुम्ना मार्ग से षट्चक्रों को वेधती हुई शिव से जा मिलती है। शंकराचार्य ने आनंद लहरी में इसका वर्णन यों किया है-महीं मूलाधारे कपमि मणिपूरे हुतवहम् स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदिमरुतमाकाशमुपरि मनोअपिभ्रूमध्ये सकलमपि भित्वाकुलपथम सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसि।

शंकराचार्य ने ”आनंद लहरी” में इसका वर्णन यों किया है- महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहम् स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदिमरुतमाकाशमुपरि मनोऽपिभ्रूमध्ये .........  कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार चक्र से उठकर मणिपूर चक्र से होती हुई हृदयाकाश और भूमध्य (आज्ञा चक्र) को पार करती हुई सहस्रार में अपने पति शिव के साथ विहार करती है।

योगशास्त्रों में सिर के ऊर्ध्व भाग में चंद्रमा का स्थान है, जिसे ‘सहस्रार’ कहा गया है। चंद्रमा से अमृत टपकता रहता है। यह अमृत शरीर में शक्ति के रूप में रहता है। नाभि-मंडल में सूर्य का निवास है। सूर्य और चंद्र दोनों अधोमुखी हैं। सूर्य इस अमृतमयी शक्ति को जलाता और नष्ट करता रहता है। योगदर्शन सूत्र और वाचस्पति भाष्य में कहा गया है, ”सूर्यद्वारे सुषुम्नायाम् नाड्यां।” अन्तरिक्षगतो वह्निवैद्युतः स्वान्तरात्मकः नभस्थ सूर्यरूपोऽग्निर्नाभिमण्डल आश्रितः विषं वर्षति सूर्योऽसौ स्रवत्यमृतमुन्मुखःतालुमूले स्थितश्चन्द्रः सुधावर्षयधोमुखः। आकाश में चमकने वाली विद्युत (बिजली) के समान इस शरीर के अंदर भी एक अग्नि है। आकाश में स्थित सूर्य के समान ही नाभि-मण्डल में एक सूर्य है। यह सूर्य विष टपकाता रहता है। लेकिन, जब उसे ऊर्ध्वमुखी कर दिया जाता है, तब इससे अमृत झरता है। तालुमूल में चंद्र स्थित है, जो अधोमुखी है और जिससे हमेशा अमृत बरसता रहता है।

जो प्राणधारा अधोमुखी होकर क्षीण होती रहती है, कुण्डलिनी के जागते ही अधोमुखी सूर्य ऊर्ध्वमुखी हो जाने से अमृत की वर्षा होने लगती है। इसके बाद कुण्डलिनी की भी ऊर्ध्वगति आरंभ हो जाती है। सुषुम्ना नाड़ी से होकर यह शक्ति सहस्रार की ओर बढ़ने लगती है। सुषुम्ना का वर्णन इस प्रकार किया गया है --सुषुम्ना जननी मुख्या पंकज तन्तुवत् सुषुम्ना मध्यदेशे तु वज्राख्या नाड़ी वैशुभा तत्र सूक्ष्मा हि चित्रिणी तत् श्रीकुण्डली गतिः तथा संग्राह्य तं नाड्या षट्पद्म सुमनोहरम्। जननी सुषुम्ना कमल नाल जैसी है। उसकी भीतरी नाड़ी को वज़ा कहा जाता है। इसके भीतर चित्रिणी नाड़ी है, जिससे कुण्डलिनी शक्ति संचरित होती है। इसी चित्रिणी में षट्चक्र है।कुण्डलिनी शक्ति जब ऊर्ध्वगामी होती है, तब ये चक्र खुलने लगते हैं। योग में इसे ही ‘चक्र वेध” कहा गया है।[साभार https://gurumantrasadhna.wordpress.com/2018/10/19//कुण्डलिनी-परिचय/ 2 -https://www.divyahimachal.com/2017/09/कुंडलिनी-की-अवस्थिति/]

“ठीक जैसे तराजू के काँटे । कामिनी-कांचन का दबाव है, इसलिए ऊपर का काँटा नीचे के काँटे की बराबरी पर नहीं रहता, इसलिए लोग योगभ्रष्ट हो जाते हैं । तुमने दीपशिखा देखी है न ? जरा सी हवा के लगने पर चंचल होती है । योगावस्था दीपशिखा की तरह है - जहाँ हवा नहीं लगती ।

[“কিরকম জানো? নিক্তির কাঁটা যেমন। কামিনী - কাঞ্চনের ভার আছে বলে উপরের কাঁটা নিচের কাঁটা এক হয় না। তাই যোগভ্রষ্ট হয়। দীপশিখা দেখ নাই? একটু হাওয়া লাগলেই চঞ্চল হয়। যোগাবস্থা দীপশিখার মতো — যেখানে হাওয়া নাই।

"Do you know what it is like? It is like the needles of a balance. On account of the weight of 'woman and gold' the two needles are not in line. It is 'woman and gold' that makes a man stray from the path of yoga. Haven't you noticed the flame of a candle? The slightest wind makes it waver. The state of yoga is like the candle-flame in a windless place.

"मन तितर-बितर हो रहा है । कुछ चला गया है ढाका, कुछ दिल्ली और कुछ कूचबिहार में है । उस मन को इकट्ठा करना होगा । इकट्ठा करके एक जगह रखना होगा । तुम अगर सोलह आने का कपड़ा खरीदो, तो कपड़ेवाले को सोलह आने तुम्हें देने पड़ेंगे या नहीं ? कुछ विघ्न के रहने पर फिर योग नहीं हो सकता । टेलीग्राफ के तार में अगर कहीं जरासा छेद हो जाय तो फिर तार नहीं जा सकता ।

[“মনটি পড়েছে ছড়িয়ে — কতক গেছে ঢাকা, কতক গেছে দিল্লী, কতক গেছে কুচবিহার। সেই মনকে কুড়ুতে হবে। কুড়িয়ে এক জায়গায় করতে হবে। তুমি যদি ষোল আনার কাপড় চাও, তাহলে কাপড়ওয়ালাকে ষোল আনা তো দিতে হবে। একটু বিঘ্ন থাকলে আর যোগ হবার জো নাই। টেলিগ্রাফের তারে যদি একটু ফুটো থাকে, তাহলে আর খবর যাবে না। ”

"The mind is dispersed. Part of it has gone to Dacca, part to Delhi, and another part to Coochbehar. That mind is to be gathered in; it must be concentrated on one object. If you want sixteen annas' worth of cloth, then you have to pay the merchant the full sixteen annas. Yoga is not possible if there is the slightest obstacle. If there is a tiny break in the telegraph-wire, then the news cannot be transmitted.

[ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏जब मैं भी जगतजननी काली के कुल :

"काली -ठाकुर परम्परा, विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर-परम्परा"  में पैदा हुआ हूँ

 तो माँ जगदम्बा की भक्ति पर मेरा भी अधिकार अवश्य है !🔆🙏  

{त्रैलोक्य विश्वास का जोर - निष्काम कर्म - अधिकार से पुकारो "मेरी माँ" !}

[ত্রৈলোক্য বিশ্বাসের জোর — নিষ্কামকর্ম কর — জোর করে বল “আমার মা”]

🔆🙏আমার হিস্যে আছে।I have a share in the estate! 🔆🙏

"परन्तु संसार में हो (गृहस्थ जीवन में हो ?) तो क्या हुआ ? सब कर्मों का फल ईश्वर को समर्पण करना चाहिए । स्वयं किसी फल की कामना न करनी चाहिए ।

"परन्तु एक बात है । भक्ति की कामना कामनाओं में नहीं है । भक्ति की कामना भक्ति के लिए प्रार्थना कर सकते हो ।

[“তা সংসারে আছ, থাকলেই বা। কিন্তু কর্মফল সমস্ত ঈশ্বরকে সমর্পণ করতে হবে। নিজে কোন ফলকামনা করতে নাই।“তবে একটা কথা আছে। ভক্তিকামনা কামনার মধ্যে নয়। ভক্তিকামনা, ভক্তিপ্রার্থনা — করতে পার।

You are no doubt in the world. What if you are? You must surrender the fruit of your action to God. You must not seek any result for yourself. But mark one thing. The desire for bhakti cannot be called a desire. You may desire bhakti and pray for it. 

"भक्ति का तमोगुण लाओ, माँ से जोर से कहो । रामप्रसाद के एक गाने में है -

माँये पाये मोकदद्मा धूम होबे रामप्रसाद बोले ,

तोखन शान्त होबो क्षान्त होये आमाय जखन कोरबी कोले ! 

'यह माता और पुत्र का मुकदमा है, बड़ी धूम मची है, जब मैं अपने को तेरी गोद में बैठा लूँगा, तब तेरा पिण्ड छोडूंगा !'

[“ভক্তির তমঃ আনবে। মার কাছে জোর কর। —

“মায়ে পোয়ে মোকদ্দমা ধুম হবে রামপ্রসাদ বলে,

তখন শান্ত হবো ক্ষান্ত হয়ে আমায় যখন করবি কোলে।

Practise the tamas of bhakti and force your demand upon the Divine Mother. This bitterly contested suit between the Mother and Her son —What sport it is! says Ramprasad. I shall not cease tormenting Thee Till Thou Thyself shalt yield the fight and take me in Thine arms at last.

"त्रैलोक्य ने कहा था, 'जब मैं कुटुम्ब में पैदा हुआ हूँ, तो मेरा हिस्सा जरूर है ।'

[“ত্রৈলোক্য বলেছিল, আমি যেকালে ওদের ঘরে জন্মেছি, তখন আমার হিস্যে আছে।

"Trailokya once remarked, 'As I was born into the family, I have a share in the estate.'

"अरे वह (माँ सारदा) तो तुम्हारी अपनी माँ है, कुछ बनी-बनायी माँ थोड़े ही है ? – न धर्म की माता है । अपना जोर उस पर न चलेगा, तो और किस पर चलेगा ?  [" अरे भगवान (माँ सारदा ) तो तुम्हारी अपनी  माँ हैं । क्या वे कोई सौतेली माँ हैं  ? क्या माँ  (जगतजननी)  के साथ तुम्हारा कोई बनावटी सम्बन्ध है ? यदि तुम अपनी माँ से जिद नहीं कर सकते, तो और किससे कर सकते हो ?  तुम्हारा जोर यदि माँ पर नहीं चलेगा , तो फिर और किस पर चलेगा ?] उससे कहो -  

आमि कि अठाशे छेले , आमि भय कोरिनि चोख रांगाले !

एबार कोरबो नालिस श्रीनाथेर आगे , डिक्री लोबो एक सवाले !! 

'माँ, मैं अठमासा बच्चा ^* ( ^*  समय से पहले का बच्चा आमतौर पर कमजोर और डरपोक होता है।)  थोड़े ही हूँ कि आँख दिखाओगी तो डर जाऊँगा ? अबकी बार श्रीनाथ जी ^*  के इजलास में नालिश करूंगा और एक ही सवाल पर डिगरी ले लूँगा ।"

[श्रीनाथ जी ^* श्रीकृष्ण भगवान के ७ वर्ष की अवस्था के रूप हैं। श्रीनाथजी  भगवान कृष्ण का एक रूप हैं, जो सात साल के बच्चे (बालक) के रूप में प्रकट होते हैं। श्रीनाथजी का प्रमुख मंदिर राजस्थान के उदयपुर शहर से 49 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में स्थित नाथद्वारा के मंदिर शहर में स्थित है। उससे कहो: माँ, मैं अठमासा बच्चा थोड़े हूँ कि , तुम आँख दिखाओगी तो डर जाऊँगा ? माँ , अब तुम अपनी ऑंखें लाल करके मुझे डरा नहीं सकती हो। मैं आपके पति शिव (ठाकुरदेव) के द्वारा अभिप्रमाणित एक 'चपरास पत्र' अपने हृदय में रखता हूँ ; यदि इस बार भी तुमने मुझे अपने चरण-कमलों में भक्ति नहीं दी, तो सीधा श्रीनाथ जी के इजलास में तुम पर मुकदमा करूँगा और एक ही सवाल पर डिगरी ले लूँगा !]    

[“তোমার যে আপনার মা, গো! এ কি পাতানো মা, এ কি ধর্ম মা! এতে জোর চলবে না তো কিসে জোর চলবে? বলো —

“আমি কি আটাশে ছেলে আমি ভয় করিনি চোখ রাঙ্গালে।

এবার করবো নালিস্‌ শ্রীনাথের আগে, ডিক্‌রি লব এক সওয়ালে।

"God (माँ जगदम्बा) is your own Mother. Is She a stepmother? Is it an artificial relationship? If you cannot force your demand on Her, then on whom can you force it? Say to Her: Mother, am I Thine eight-months child.?^* Thy red eyes cannot frighten me! A deed of gift I hold in my heart, attested by Thy Husband Siva;I shall sue Thee, if I must, and with a single point shall win.

[^A premature child is generally weak and fearful.

 [(11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆🙏तुम जिसके अंश होते हो, उसके प्रति तुममें एक स्वाभाविक आकर्षण रहता है🔆🙏

"If you are part of a thing, you feel its attraction." 

[शक्ति (तारा)की सत्ता शाक्त में, वैष्णव के भीतर नारायण की सत्ता-शैव के भीतर शिव की]    

“अपनी माँ है, जोर करो । जिसकी जिसमें सत्ता होती है, उसका उस पर आकर्षण भी होता है । माँ की सत्ता हमारे भीतर है इसीलिए तो माँ की ओर इतना आकर्षण होता है । जो यथार्थ शैव है, वह शिव की सत्ता भी पाता है । कुछ कण उसके भीतर आ जाते हैं । जो यथार्थ वैष्णव है, नारायण की सत्ता उसके भीतर आती हैं । और अब तो तुम्हें विषयकर्म भी नहीं करना पड़ता, अब कुछ दिन उन्हीं की चिन्ता करो । देख तो लिया कि संसार में कुछ नहीं है ।

[“আপনার মা! জোর কর! যার যাতে সত্তা থাকে, তার তাতে টানও থাকে। মার সত্তা আমার ভিতর আছে বলে তাই তো মার দিকে অত টান হয়। যে ঠিক শৈব, সে শিবের সত্তা পায়। কিছু কণা তার ভিতর এসে পড়ে। যে ঠিক বৈষ্ণব তার নারায়ণের সত্তা ভিতরে আসে। আর এ সময় তো আর তোমার বিষয়কর্ম করতে হয় না। এখন দিন কতক তাঁর চিন্তা কর। দেখলে তো সংসারে কিছু নাই।”ঠাকুর আবার সেই মধুর কণ্ঠে গাইতেছেন:

ভেবে দেখ মন কেউ কারু নয়, মিছে ভ্রম ভূমণ্ডলে।

ভুলো না দক্ষিণাকালী বদ্ধ হয়ে মায়াজালে।।

দিন দুই-তিনের জন্য ভবে কর্তা বলে সবাই মানে,

সেই কর্তারে দেবে ফেলে, কালাকালের কর্তা এলে।।

যার জন্য মর ভেবে, সে কি তোমার সঙ্গে যাবে,

সেই প্রেয়সী দিবে ছড়া, অমঙ্গল হবে বলে।।

"God is your own Mother. Enforce your demand. If you are part of a thing, you feel its attraction. Because of the element of the Divine Mother in me I feel attracted to Her. A true Saiva has some of the characteristics of Siva; he has in him some of the elements of Siva. He who is a true Vaishnava is endowed with some of the elements of Narayana."Nowadays you don't have to attend to worldly duties. Spend a few days thinking of God. You have seen that there is nothing to the world."The Master sang:

Remember this, O mind! Nobody is your own:Vain is your wandering in this world.Trapped in the subtle snare of maya as you are,Do not forget the Mother's name. Only a day or two men honour you on earth As lord and master; all too soon That form, so honoured now, must needs be cast away, When Death, the Master, seizes you.Even your beloved wife, for whom, while yet you live,You fret yourself almost to death,Will not go with you then; she too will say farewell,And shun your corpse as an evil thing.

 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏भक्त को पंचैती, मुखियागिरी, गुरुगिरि नहीं करनी चाहिए 🔆🙏

[नामयश के लिए - पंचैती, मुखियागिरी गुरुगिरि ,दातव्य औषधालय ,अस्पताल 

आदि बनवाने की इच्छा -- ये सब तो आदिकाण्ड (पैर का अँगूठा चूसने जैसा ) हैं ;

 लाल चुसनी का त्याग  हो जाने के बाद ईश्वर -लाभ (ईश्वरत्व प्राप्ति) होता है ! ] 

बंगला में कहावत है - 'लंकाय रावण मरलो, बेहुला केन्दे आकुल होलो !' 

 বলে ‘লঙ্কায় রাবণ মলো বেহুলা কেঁদে আকুল হলো!’

[সালিসী, মোড়লী, হাসপাতাল, ডিস্পেন্সারি করবার বাসনা

 — লোকমান্য, পাণ্ডিত্য, বাসনা — এ-সব আদিকাণ্ড —

 লালচুষি ত্যাগের পর তবে ঈশ্বরলাভ ]

"और तुम बिचवाई और मुखियाई यह सब क्या किया करते हो ? मैने सुना है, तुम लोगों के झगड़ों का फैसला किया करते हो - तुम्हें लोग सर-पंच मानते हैं । यह तो बहुत दिन कर चुके । जिन्हें यह सब करना है, वे करें । तुम इस समय उनके पादपद्मों में अधिक मन लगाओ । क्यों किसीकी बला अपने सिर लेते हो ? कहावत है कि  ' लंका में रावण  मरा तब बेहुला उसके लिए फूट-फूट कर रोई !' (कहावत है - बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना !] 

[^रावण और बेहुला दो अलग -अलग व्यक्ति थे तथा  एक-दूसरे से पूरी तरह से असंबंधित थे, देश-काल के आधार पर दूर-दूर तक उनमें कोई सम्बन्ध नहीं था। 

[“আর তুমি সালিসী মোড়লী ও-সব কি কচ্ছো? লোকের ঝগড়া বিবাদ মিটাও — তোমাকে সালিসী ধরে, শুনতে পাই। ও তো অনেকদিন করে আসছো। যারা করবে তারা এখন করুক। তুমি এখন তাঁর পাদপদ্মে বেশি করে মন দেও । বলে ‘লঙ্কায় রাবণ মলো বেহুলা কেঁদে আকুল হলো!’

Continuing, the Master said: "What are these things you busy yourself with — this arbitration and leadership? I hear that you settle people's quarrels and that they make you the arbiter. You have been doing this kind of work a long time. Let those who care for such things do them. Now devote your mind more and more to the 'Lotus Feet of God. The saying goes: 'Ravana died in Lanka and Behula5  wept bitterly for him!' (^Ravana and Behula were two persons totally unrelated to each other, having lived far apart in time and place).

“शम्भू ने कहा था, अस्पताल और दवाखाने बनवाऊँगा । वह भक्त था । इसीलिए मैंने कहा, ईश्वर के दर्शन होने पर क्या उनसे अस्पताल और दवाखाने चाहोगे ?

[“তা শম্ভুও বলেছিল। বলে হাসপাতাল ডিস্পেনসারি করব। লোকটা ভক্ত ছিল। তাই আমি বললুম, ভগবানের সাক্ষাৎকার হলে কি হাসপাতাল ডিস্পেনসারি চাইবে!

"Sambhu, too, said, 'I shall build hospitals and dispensaries.' He was a devotee of God; so I said to him, 'Will you ask God for hospitals and dispensaries when you see Him?'

[ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

 🔆🙏ईश्वर के दर्शन क्यों नहीं होते ? 🔆🙏

[जबतक  कामिनी-कांचन में ही आसक्त है, ईश्वरत्व की प्राप्ति नहीं होती] 

"केशव सेन ने पूछा, ईश्वर के दर्शन क्यों नहीं होते ? मैंने कहा, लोक-मर्यादा, विद्या यह सब लेकर तुम हो न, इसीलिए नहीं होता ।

बच्चा जब तक खिलौना लिये रहता है तब तक माँ नहीं आती । कुछ देर बाद खिलौना फेंककर जब वह चिल्लाने लगता है, तब माँ तवा उतारकर दौड़ती है ।

[“কেশব সেন বললে, ঈশ্বরদর্শন কেন হয় না! তা বললুম যে, লোকমান্য, বিদ্যা, — এ-সব নিয়ে তুমি আছ কি না, তাই হয় না। ছেলে চুষি নিয়ে যতক্ষণ চোষে, ততক্ষণ মা আসে না। লালচুষি। খানিকক্ষণ পরে চুষি ফেলে যখন চিৎকার করে তখন মা ভাতের হাঁড়ি নামিয়ে আসে।

"Keshab Sen asked me, 'Why do I not see God?' I said, 'You do not see God because you busy yourself with such things as name and fame and scholarship.' The mother does not come to the child as long as it sucks its toy —a red toy. But when, after a few minutes, it throws the toy away and cries, then the mother takes down the rice-pot from the hearth and comes running to the child.

“तुम भी मुखियाई कर रहे हो । माँ सोच रही है मेरा बच्चा मुखिया बनकर अच्छी तरह तो है, अच्छा रहे।"

ईशान ने श्रीरामकृष्ण के चरणों का स्पर्श करके विनयपूर्वक कहा - “मैं अपनी इच्छा से यह सब नहीं करता ।"

[“তুমিও মোড়লী কোচ্চ। মা ভাবছে, ছেলে আমার মোড়ল হয়ে বেশ আছে। আছে তো থাক।”

ঈশান ইতিমধ্যে ঠাকুরের চরণ স্পর্শ করিয়া বসিয়া আছেন। চরণ ধরিয়া বিনীতভাবে বলিতেছেন — আমি যে ইচ্ছা করে এ-সব করি তা নয়।

"You are engaged in arbitration. The Divine Mother says to Herself: 'My child over there is now busy arbitrating and is very happy. Let him be.'"

In the mean time Ishan had been holding Sri Ramakrishna's feet. He said humbly, "It is not my will that I should do those things."

 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏ऐषणाओं में आसक्ति  का मूल हैं ~  'महामाया' इसलिए पहले कर्मकाण्ड से चित्तशुद्धि🔆🙏

[বাসনার মূল মহামায়া — তাই কর্মকাণ্ড ]

श्रीरामकृष्ण - यह मैं जानता हूँ । वह माता का ही खेल है, उन्हीं की लीला है । संसार में फँसा रखना, यह महामाया की ही इच्छा है । बात यह है कि संसार में कितनी ही नावें तैरती और डूबती रहती हैं । और कितनी ही पतंगें उड़ती हैं, उनमें दो ही एक कटती हैं, और तब माँ हँसकर तालियाँ पीटती हैं । लाखों में कहीं दो-एक मुक्त होते हैं । रहे-सहे सब माँ की इच्छा से बँधे हुए हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তা জানি। সে মায়েরই খেলা! এঁরই লীলা! সংসারে বদ্ধ করে রাখা সে মহামায়ার ইচ্ছা! কি জান? ‘ভবসাগরে উঠছে ডুবছে কতই তরী।’ আবার — ‘ঘুড়ি লক্ষের দুটো একটা কাটে, হেসে দাও মা হাত চাপড়ি।’ লক্ষের মধ্যে দু-একজন মুক্ত হয়ে যায়। বাকী সবাই মার ইচ্ছায় বদ্ধ হয়ে আছে।

MASTER: "I know it. This is the Divine Mother's play — Her lila. It is the will of the Great Enchantress that many should remain entangled in the world. Do you know what it is like? How many are the boats, O mind,That float on the ocean of this world!How many are those that sink!Again,Out of a hundred thousand kites, at best but one or two break free;And Thou dost laugh and clap Thy hands, O Mother, watching them!Only one or two in a hundred thousand get liberation. The rest are entangled through the will of the Divine Mother.

“चोर-चोर खेल (लुकाछुपी खेल ) तुमने देखा है या नहीं ? बुढ़िया ढाई की इच्छा है कि खेल होता रहे । अगर सब लड़के दौड़कर ढाई को छू लें, तो खेल ही बन्द हो जाय । इसीलिए बुढ़िया ढाई की इच्छा नहीं है कि सब लड़के उसे छू लें ।

[“চোর চোর খেলা দেখ নাই; বুড়ীর ইচ্ছা যে খেলাটা চলে। সবাই যদি বুড়ীকে ছুঁয়ে ফেলে, তাহলে আর খেলা চলে না। তাই বুড়ির ইচ্ছা নয় যে, সকলে ছোঁয়।

"Haven't you seen the game of hide-and-seek? It is the 'granny's' will that the game should continue. If all touch her and are released, then the playing comes to a stop. Therefore it is not her will that all should touch her.

"और देखो, बड़ी बड़ी दूकानों में ऊँची छत तक चावल के बोरे भरे रहते हैं । चावल भी रहता है और दाल भी, परन्तु कहीं चूहे न खा जायँ, इसलिए दूकानदार कोठे के दरवाजे पर सूप में उनके लिए धान के लावे अलग रख देता है । उनमें कुछ गुड़ मिला रहता है । ये खाने में मीठे लगते हैं और गन्ध सोंधी होती है, इसलिए सब चूहे सूप पर ही टूट पड़ते हैं, अन्दर के बड़े बड़े कोठों की खोज नहीं करते । जीव कामिनी-कांचन में मुग्ध रहते हैं, ईश्वर की खबर नहीं पाते ।

[“আর দেখ, বড় বড় দোকানে চালের বড় বড় ঠেক থাকে। ঘরের চাল পর্যন্ত উঁচু। চাল থাকে — দালও থাকে। কিন্তু পাছে ইঁদুরে খায়, তাই দোকানদার কুলোয় করে খই মুড়কি রেখে দেয়। মিষ্ট লাগে আর সোঁধা গন্ধ — তাই যত ইঁদুর সেই কুলোতে গিয়ে পড়ে, বড় বড় ঠেকের সন্ধান পায় না! — জীব কামিনী-কাঞ্চনে মুগ্ধ হয়। ঈশ্বরের খবর পায় না।”

"You see, in big grain stores the merchants keep rice in great heaps that touch the ceiling. Beside them there are heaps of lentils. To protect the grain from the mice, the merchants leave trays of puffed rice and sweetened rice near it. The mice like the smell and the sweet taste of these and so stay around the trays. They don't find the big heaps of grain. Similarly, men are deluded by 'woman and gold'; they do not know where God is.

*(६)

🔆🙏उर्जिता भक्ति 🔆🙏

श्रीरामकृष्ण का सर्ववासना-त्याग । केवल भक्ति-कामना*

শ্রীরামকৃষ্ণের সব কামনা ত্যাগ — কেবল ভক্তিকামনা

श्रीरामकृष्ण - नारद से राम ने कहा, तुम हमारे पास किसी वर की याचना करो । नारद ने कहा, - 'राम ! मेरे लिए अब बाकी क्या रह गया ? मैं क्या वर माँगू ? परन्तु अगर तुम्हें वर देना ही है, तो यही वर दो, जिससे तुम्हारे चरणकमलों में शुद्धा भक्ति हो, फिर संसार को मोह लेनेवाली तुम्हारी इस माया में मुग्ध न होऊँ ।' राम ने कहा - 'नारद, कोई दूसरा वर लो । नारद ने कहा - 'राम ! मैं और कुछ नहीं चाहता । यही करो, जिससे तुम्हारे पादपद्मों में मेरी शुद्धा भक्ति हो ।'

[শ্রীরামকৃষ্ণ — নারদকে রাম বললেন, তুমি আমার কাছে কিছু বর নাও। নারদ বললেন, রাম! আমার আর কী বাকী আছে? কি বর লব? তবে যদি একান্ত বর দিবে, এই বর দাও যেন তোমার পাদপদ্মে শুদ্ধাভক্তি থাকে, আর যেন তোমার ভুবনমোহিনী মায়ায় মুগ্ধ না হই। রাম বললেন, নারদ! আর কিছু বর লও। নারদ আবার বললেন, রাম! আর কিছু আমি চাই না, যেন তোমার পাদপদ্মে আমার শুদ্ধাভক্তি থাকে, এই করো!

"Rama said to Narada, 'Ask a boon of Me.' Narada said: 'O Rama, is there anything I lack? What shall I ask of Thee? But if Thou must give me a boon, grant that I may have selfless love for Thy Lotus Feet and that I may not be deluded by Thy world-bewitching maya.' Rama said, 'Narada, ask something else.' Narada again replied: 'O Rama, I don't want anything else. Be gracious to me and see that I have pure love for Thy Lotus Feet.'

"मैंने माँ से प्रार्थना की थी और कहा था - 'माँ, मैं लोकसम्मान नहीं चाहता, माँ, अष्टसिद्धियाँ तो क्या, मैं शत सिद्धियाँ भी नहीं चाहता, मैं देह-सुख भी नहीं चाहता हूँ; बस यही करो कि तुम्हारे पादपद्मों में शुद्धा भक्ति हो ।'

[“আমি মার কাছে প্রার্থনা করেছিলাম; বলেছিলাম মা! আমি লোকমান্য চাই না মা, অষ্টসিদ্ধি চাই না মা, ও মা! শতসিদ্ধি চাই না মা, দেহসুখ চাই না মা, কেবল এই করো যেন তোমার পাদপদ্মে শুদ্ধাভক্তি হয় মা।"

I prayed to the Divine Mother: 'O Mother, I don't want name and fame. I don't want the eight occult powers. I don't want a hundred occult powers. O Mother, I have no desire for creature comforts. Please, Mother, grant me the boon that I may have pure love for Thy Lotus Feet.'

“अध्यात्म रामायण में है कि लक्ष्मण ने राम से पूछा - "राम, तुम तो कितने ही रूपों और कितने ही भावों में रहा करते हो, फिर किस तरह मैं तुम्हें पहचान पाऊँगा ?' राम ने कहा - 'भाई, एक बात समझ रखो, जहाँ ऊर्जिता भक्ति है, वहाँ मैं अवश्य ही हूँ ।" ऊर्जिता भक्ति के होने पर भक्त हँसता है, रोता है, नाचता है, गाता है । अगर किसी में ऐसी भक्ति हो, तो निश्चय समझना, ईश्वर वहाँ मौजूद हैं । चैतन्यदेव को ऐसा ही हुआ था ।”

[“অধ্যাত্মে আছে, লক্ষ্মণ রামকে জিজ্ঞাসা করলেন, রাম! তুমি কত ভাবে কত রূপে থাক, কিরূপে তোমায় চিনতে পারব? রাম বললেন, ‘ভাই! একটা কথা জেনে রাখ, যেখানে উজ্ঝিতা (ঊর্জিতা) ভক্তি, সেখানে নিশ্চই আমি আছি।’ উজ্ঝিতা (ঊর্জিতা) ভক্তিতে হাসে কাঁদে নাচে গায়! যদি কারু এরুপ ভক্তি হয়, নিশ্চয় জেনো, ঈশ্বর সেখানে স্বয়ং বর্তমান। চৈতন্যদেবের ওইরূপ হয়েছিল।”

"It is written in the Adhyatma Ramayana that Lakshmana asked Rama: 'Rama, in how many forms and moods do You exist? How shall I be able to recognize You?' Rama said: 'Brother, remember this. You may be certain that I exist wherever you find the manifestation of ecstatic love.' That love makes one laugh and weep and dance and sing. If anyone has developed such love, you may know for certain that God Himself is manifest there. Chaitanyadeva reached that state."

भक्तगण निर्वाक् हो सुन रहे हैं - देववाणी की तरह इन सब बातों को सुन रहे हैं । श्रीरामकृष्ण की अमृतमयी वार्ता फिर होने लगी । अब निवृत्ति मार्ग की बात हो रही हैं ।

[ভক্তেরা অবাক্‌ হইয়া শুনিতে লাগিলেন। দৈববাণীর ন্যায় এই সকল কথা শুনিতেছিলেন। কেহ ভাবিতেছেন, ঠাকুর বলিতেছেন, ‘প্রেমে হাসে কাঁদে নাচে গায়’; এ তো শুধু চৈতন্যদেবের অবস্থা নয়, ঠাকুরের তো এই অবস্থা। তবে কি এইখানে স্বয়ং ঈশ্বর সাক্ষাৎ বর্তমান?

The devotees listened spellbound to Sri Ramakrishna. His burning words entered their souls, spurring them along the path of renunciation.

 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏ईशान को उपदेश - चाटुकार लोगों  से सावधान, जगत का कल्याण और नाचीज मनुष्य🔆🙏

[ঈশান খোসামুদে হতে সাবধান — শ্রীরামকৃষ্ণ ও জগতের উপকার ]

श्रीरामकृष्ण - (ईशान से) - तुम खुशामदवाली बातों में न आ जाना । विषयी आदमियों को देखकर खुशामद करनेवाले आप उपस्थित हो जाते हैं ।

"मरा हुआ बैल देखकर दुनिया भर के गिद्ध इकट्ठे हो जाते हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (ঈশানের প্রতি) — তুমি খোসামুদের কথায় ভুলো না। বিষয়ী লোক দেখলেই খোসামুদে এসে জুটে! “মরা গরু একটা পেলে যত শকুনি এসে পড়ে।”

Now he spoke to Ishan in a serious voice.

MASTER: "Don't forget yourself because of what you hear from your flatterers. Flatterers gather around a worldly man. Vultures gather around the carcass of a cow.

"विषयी आदमियों में कुछ सार नहीं है । जैसे गोबर की टोकरी । खुशामद करनेवाले आकर कहेंगे, आप दानी हैं, बड़े ज्ञानी हैं । इसे बात की बात ही मत समझो - साथ में डण्डे भी हैं । यह क्या है ! कुछ संसारी ब्राह्मणों और पण्डितों को लेकर दिन-रात बैठे रहना और उनकी खुशामद सुनना ।

[“বিষয়ী লোকগুলোর পদার্থ নাই। যেন গোবরের ঝোড়া! খোসামুদেরা এসে বলবে, আপনি দানী, জ্ঞানী, ধ্যানী। বলা তো নয় অমনি — বাঁশ! ও কি! কতকগুলো সংসারী ব্রাহ্মণ-পণ্ডিত নিয়ে রাতদিন বসে থাকা, আর খোসামোদ শোনা!"

Worldly people have no stuff in them. They are like a heap of cow-dung. Flatterers come to them and say: 'You are so charitable and wise! You are so pious!' These are not mere words but pointed bamboos thrust at them. How foolish it is! To be surrounded day and night by a bunch of worldly brahmin pundits and hear their flattery!

 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]  

🔆🙏 सलाह लेनी हो तो संन्यासी से लो , गृहस्थ से नहीं 🔆🙏

[और  (नेतागिरी करने)  मुखियाई और सरपंची आदि की क्या जरूरत है ? ] 

"संसारी आदमी तीन के गुलाम हैं, फिर उनमें सार कैसे रह सकता है ? वे बीबी के गुलाम हैं, रुपये के गुलाम हैं और मालिक के गुलाम हैं । एक आदमी का नाम न लूँगा, उसकी आठ सौ रुपये महीने की तनख्वाह है । परन्तु बीबी का ऐसा गुलाम है कि उसी के इशारे पर उठता बैठता है ।

[“সংসারী লোকগুলো তিনজনের দাস, তাদের পদার্থ থাকে? মেগের দাস, টাকার দাস, মনিবের দাস। একজনের নাম করব না। আটশো টাকা মাইনে কিন্তু মেগের দাস, উঠতে বললে উঠে, বসতে বললে বসে!"

Worldly men are slaves of three things: they are slaves of their wives, slaves of their money, slaves of their masters. Can they have any inner stuff? There is a certain person whom I shall not name; he earns eight hundred rupees a month but is the slave of his wife. He stands up or sits down at her bidding.

"और मुखियाई और सरपंची (नेतागिरी करने) आदि की क्या जरूरत है ? दया, परोपकार ? - यह सब तो बहुत किया । यह सब लोग करते हैं, उनकी दूसरी ही श्रेणी है । तुम्हारे लिए अब तो यह है कि ईश्वर के पादपद्मों में मन लगाओ । उन्हें पा लेने पर सब कुछ प्राप्त हो जाता है ।

[रावण लंका में मरा और बेहुला उसके लिए फूट-फूट कर रोयी थी !']

[“আর সালিসী, মোড়লী — এ-সব কাজ কি? দয়া, পরোপকার? — এ-সব তো অনেক হলো! ও-সব যারা করবে তাদের থাক্‌ আলাদা। তোমার ঈশ্বরের পাদপদ্মে মন দিবার সময় হয়েছে। তাঁকে পেলে সব পাওয়া যায়। আগে তিনি, তারপর দয়া, পরোপকার, জগতের উপকার, জীব উদ্ধার। তোমার ও ভাবনায় কাজ কি?"“লঙ্কায় রাবণ মলো বেহুলা কেঁদে আকুল হলো।

Arbitration and leadership? How trifling these are! Charity and doing good to others? You have had enough of these. Those who are to devote themselves to such things belong to a different class. Now the time is ripe for you to devote your mind to the Lotus Feet of God. If you realize God, you will get everything else. First God, then charity, doing good to others, doing good to the world, and redeeming people. Why need you worry about these things. 'Ravana died in Lanka and Behula wept for him bitterly!'

पहले वे हैं ; और दया, परोपकार, संसार का उपकार जीवों का उद्धार, उन्हें पा लेने के बाद है । इन सब बातों की चिन्ता से तुम्हें क्या काम ? दूसरे की बला अपने सिर क्यों लादते हो ?

“तुम्हें यही हुआ है । कोई सर्वत्यागी (संन्यासी) तुम्हें यदि यह बतलाये कि ऐसा करो, वैसा करो, तो अच्छा हो । संसारियों की सलाह से पूरा नहीं पड़ने का, चाहे वह ब्राह्मण पण्डित हो या और कोई ।

[“তাই হয়েছে তোমার। একজন সর্বত্যাগী তোমায় বলে দেয়, এই এই করো তবে বেশ হয়। সংসারী লোকের পরামর্শে ঠিক হবে না। তা, ব্রাহ্মণ-পণ্ডিতই হউন আর যিনিই হউন।

"That's the trouble with you. It will be very good if a world-renouncing sannyasi gives you some spiritual instruction. The advice of the worldly man will not be right, be he a brahmin pundit or anyone else.

🔆🙏'ईशान नाम ' सार्थक करो , माँ ने ही यह उपदेश दिया 🔆🙏

[Ishan go crazy - "Mother gave all this advice"]

[ঈশান পাগল হও — “এ সমস্ত উপদেশ মা দিলেন” ]

"पागल हो जाओ - ईश्वर के प्रेम में पागल हो जाओ । लोग अगर यह समझें कि ईशान इस समय पागल हो गया है, अब यह सब काम नहीं कर सकता तो फिर वे तुम्हारे पास सरपंच बनाने के लिए न आयेंगे । घण्टी-वण्टी उठाकर फेंक दो, अपना ‘ईशान’* नाम सार्थक करो ।" (*सर्वत्यागी शिवजी का एक नाम)

[“পাগল হও, ঈশ্বরের প্রেমে পাগল হও। লোকে না হয় জানুক যে ঈশান এখন পাগল হয়েছে আর পারে না। তাহলে তারা সালসী মোড়লী করাতে আর তোমার কাছে আসবে না। কোশাকুশি ছুঁড়ে ফেলে দাও, ঈশান নাম সার্থক কর।"

Be mad! Be mad with love of God! Let people know that Ishan has gone mad and cannot perform worldly duties any more. Then people will no longer come to you for leadership and arbitration. Throw aside the kosakusi and justify your name of Ishan." (An epithet of the all-renouncing Siva.)

 " भावे ते भरलो  तनु, हरलो ज्ञान ।" -- इसमें जिस ज्ञान के हरने की बात है, वह बाह्य ज्ञान है ।

'माँ, मुझे पागल कर दे, ज्ञान-विचार की अब कोई जरूरत नहीं है ।’ इस भाव के गाने का एक पद ईशान ने कहा ।

[ঈশান — দে মা, পাগল করে। আর কাজ নাই মা জ্ঞানবিচারে।

Ishan quoted:O Mother, make me mad with Thy love!What need have I of knowledge or reason?

श्रीरामकृष्ण - पागल है या अच्छे दिमागवाला ? शिवनाथ ने कहा था, ईश्वर की अधिक चिन्ता करने पर आदमी पागल हो जाता है । मैंने कहा, 'क्या ! चेतन की चिन्ता करके क्या कभी कोई अचेतन हो जाता है ? वे नित्य हैं, शुद्ध और बोधरूप हैं । उन्हीं के ज्ञान से लोगों में ज्ञान है, उन्हीं की चेतना से सब चेतन हो रहा है ।’

उसने कहा, 'साहबों को ऐसा हुआ था, अधिक ईश्वरचिन्ता करते वे पागल हो गये थे । हो सकता है वे ऐहिक पदार्थ की चिन्ता करते रहे होंगे । " भावे ते भरल तनु, हरलो ज्ञान ।" -- इसमें जिस ज्ञान के हरने की बात है, वह बाह्य ज्ञान है । ईशान श्रीरामकृष्ण के पैर पकड़े हुए बैठे हैं और सब बातें सुन रहे हैं । वे रह-रहकर मन्दिर के भीतर कालीमूर्ति की और देख रहे हैं । प्रदीप के आलोक में माता हँस रही हैं ।['एक प्रकार का दिव्य उत्साह मेरे मन-मस्तिष्क पर छा जाता है, और मेरे होश उड़ जाते हैं। '  'Divine fervour fills my body and robs me of consciousness.' यहाँ जिस होश के चले जाने की  बात हो रही है , वह बाह्य जगत के ज्ञान चले जाने की है। ]

.[শ্রীরামকৃষ্ণ — পাগল না ঠিক? শিবনাথ বলেছিল, বেশি ঈশ্বরচিন্তা কল্লে বেহেড হয়ে যায়। আমি বললুম, কি? — চৈতন্যকে চিন্তা করে কি কেউ অচৈতন্য হয়ে যায়? তিনি নিত্যশুদ্ধবোধরূপ। যাঁর বোধে সব বোধ কচ্ছে যাঁর চৈতন্যে সব চৈতন্যময়! বলে নাকি কে সাহেবদের হয়েছিল — বেশি চিন্তা করে বেহেড হয়ে গিয়েছিল। তা হতে পারে। তারা ঐহিক পদার্থ চিন্তা করে। ‘ভাবেতে ভরল তনু, হরল গেয়ান!’ এতে যে জ্ঞানের (গেয়ানের) কথা আছে, সে জ্ঞান মানে বাহ্যজ্ঞান।

MASTER: "Mad! That's the thing! Shivanath once said that one 'loses one's head' by thinking too much of God. 'What?' said I. 'Can anyone ever become unconscious by thinking of Consciousness? God is of the nature of Eternity, Purity, and Consciousness. Through His Consciousness one becomes conscious of everything; through His Intelligence the whole world appears intelligent.' Shivanath said that some Europeans had gone insane, that they had lost their heads', by thinking too much about God. In their case it may be true; for they think of worldly things. There is a line in a song: 'Divine fervour fills my body and robs me of consciousness.' The consciousness referred to here is the consciousness of the outer world."

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের চরণ স্পর্শ করিয়া ঈশান বসিয়া আছেন ও সমস্ত কথা শুনিতেছেন। তিনি এক-একবার মন্দিরমধ্যবর্তী পাষাণময়ী কালীপ্রতিমার দিকে চাহিতেছিলেন। দীপালোকে মার মুখ হাসিতেছে, যেন দেবী আবির্ভূতা হইয়া ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের মুখনিঃসৃত বেদমন্ত্রতুল্য বাক্যগুলি শুনিয়া আনন্দ করিতেছেন।

Ishan was seated touching Sri Ramakrishna's feet and listening to his words. Now and then he cast a glance at the basalt image of Kali in the shrine. In the light of the lamp She appeared to be smiling. It was as if the living Deity, manifesting Herself through the image, was delighted to hear the Master's words, holy as the words of the Vedas.

ईशान - (श्रीरामकृष्ण से) - आप जो बातें कह रहे हैं, वे सब वहाँ से (देवी की ओर हाथ उठाकर) आती हैं।

[ঈশান (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — যে-সব কথা আপনি শ্রীমুখে বললেন, ও সব কথা ওইখান থেকে এসেছে।

ISHAN (pointing to the image): "Those words from your sacred lips have really come from there."

श्रीरामकृष्ण - मैं यन्त्र हूँ वे यन्त्री हैं, मैं गृह हूँ वे गृहिणी, मैं रथ हूँ वे रथी; वे जैसा चलाती हैं, मैं वैसा ही चलता हूँ; जैसा कहलाती है, वैसा ही कहता हूँ ।

"कलिकाल में दूसरी तरह की देववाणी नहीं होती, परन्तु बालक या पागल के मुँह से देववाणी होती है - देवता बोलते हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি যন্ত্র, উনি যন্ত্রী; — আমি ঘর, উনি ঘরণী; — আমি রথ, উনি রথী; উনি যেমন চালান, তেমনি চলি; যেমন বলান, তেমন বলি।“কলিযূগে অন্যপ্রকার দৈববাণী হয় না। তবে আছে, বালক কি পাগল, এদের মুখ দিয়ে তিনি কথা কন।

MASTER: "I am the machine and She is the Operator. I am the house and She is the Indweller. I am the chariot and She is the Charioteer. I move as She moves me; I speak as She speaks through me. In the Kaliyuga one does not hear the voice of God, it is said, except through the mouth of a child or a madman or some such person.

 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]  

🔆🙏हजार साल से बन्द  कमरे का अंधकार  जाने में हजार साल नहीं  लगते -दीपक जलाते ही सारा अंधकार एक क्षण में मिट जाता है।🔆🙏 

“आदमी कभी गुरु नहीं हो सकते । ईश्वर की इच्छा से ही सब हो रहा है । महापातक, बहुत दिनों के पातक, बहुत दिनों का अज्ञान, सब उनकी कृपा होने पर क्षण भर में मिट जाता है ।

"हजार साल के अँधेरे कमरे में अगर एकाएक उजाला हो तो वह हजार साल का अंधेरा जरा जरा सा हटता है या एक साथ ही चला जाता है ?

[“মানুষ গুরু হতে পারে না। ঈশ্বরের ইচ্ছাতেই সব হচ্ছে। মহাপাতক, অনেকদিনের পাতক, অনেকদিনের অজ্ঞান, তাঁর কৃপা হলে একক্ষণে পালিয়ে যায়। “হাজার বছরের অন্ধকার ঘরের ভিতর যদি হঠাৎ আলো আসে, তাহলে সেই হাজার বছরের অন্ধকার কি একটু একটু করে যায়, না একক্ষণে যায়? অবশ্য আলো দেখালেই সমস্ত অন্ধকার পালিয়ে যায়।"

A man cannot be a guru. Everything happens by the will of God. Heinous sins — the sins of many births — and accumulated ignorance all disappear in the twinkling of an eye, through the grace of God. When light enters a room that has been kept dark a thousand years, does it remove the thousand years' darkness little by little, or instantly? Of course, at the mere touch of light all the darkness disappears.

"आदमी यही कर सकता है कि वह बहुतसी बातें बतला सकता है, अन्त में सब ईश्वर के ही हाथ है । वकील कहता है, मुझे जो कुछ करना था, मैंने कर दिया । अब न्यायाधीश के हाथ की बात है ।

[“মানুষ কি করবে। মানুষ অনেক কথা বলে দিতে পারে, কিন্তু শেষে সব ঈশ্বরের হাত। উকিল বলে, আমি যা বলবার সব বলেছি, এখন হাকিমের হাত।

"What can a man do? He may speak many words, but after all is said and done everything rests with God. The lawyer says: 'I have said all that can be said. Now the verdict rests with the judge.'

[ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

🔆🙏आद्याशक्ति के प्रसन्न होने पर ही विष्णु की योगनिद्रा छूटती है🔆🙏 

"ब्रह्म निष्क्रिय हैं । वे सृष्टि, स्थिति, प्रलय आदि सब कार्य करते हैं, तब उन्हें आदिशक्ति कहते हैं । उसी आद्याशक्ति को प्रसन्न करना पड़ता है । चण्डी में है, जानते हो न पहले देवताओं ने आद्याशक्ति की स्तुति की । उनके प्रसन्न होने पर विष्णु की योग-निद्रा छूटती है ।"

[“ব্রহ্ম নিষ্ক্রিয়। তিনি যখন সৃষ্টি, স্থিতি, প্রলয় — এই সকল কাজ করেন, তখন তাঁকে আদ্যাশক্তি বলে। সেই আদ্যাশক্তিকে প্রসন্ন করতে হয়। চণ্ডীতে আছে জান না? দেবতারা আগে আদ্যাশক্তির স্তব কল্লেন। তিনি প্রসন্ন হলে তবে হরির যোগনিদ্রা ভাঙবে।”

"Brahman is actionless. When It is engaged in creation, preservation, and dissolution, It is called the Primal Power, Adyasakti. This Power must be propitiated. Don't you know that it is so written in the Chandi? The gods first sang a hymn to the Adyasakti in order to propitiate Her. Only then did Hari wake up from His yoga sleep."

ईशान - जी महाराज, मधुकैटभ के वध के समय देवताओं ने स्तुति की है -

 'त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारस्वरात्मिका ।

सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधामात्रात्मका स्थिता ॥

अर्धमात्रा स्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः ।

त्वमेव संध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा ॥

ब्रह्मा जी ने कहा – देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा और तम्ही वषट्कार ^* हो। स्वर भी, तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो। 

[^स्वाहा, स्वधा और वषट्कार संस्कृत के गूढ़ शब्दांश हैं। पहले दो का उच्चारण तब किया जाता है जब देवताओं को हविष्य अर्पण किया जाता है, और तीसरा जब हविष्य पितरों को अर्पित किया जाता है।^Svaha, Vashat, and Svadha are mystic syllables. The first two are uttered while oblations are being offered to the gods, and the third while they are being offered to the ancestors.]

नित्य अक्षर प्रणव (ॐ ) ^*  में,अकार, उकार, मकार –इन तीन मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो, तथा इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है,जिसका विशेष रूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता,वह (^ एक व्यंजन ध्वनि।^A consonant sound.) भी तुम्हीं हो।देवि! तुम्हीं संध्या, सावित्री ^* (^ ॐ  अधिष्ठात्री देवी , वेदों का सार।^The presiding deity of Om, the essence of the Vedas.) तथा परम जननी हो।

[^स्वर ध्वनि के उच्चारण के लिए समय की लंबाई। "तीन मात्रा" तीन अवधियों को दर्शाती है - छोटी, लंबी, या लंबी - स्वरों के उच्चारण के लिए आवश्यक।^The length of time for pronouncing a vowel sound. The "three matras" denote the three durations — short, long, or protracted — required for pronouncing vowels.

त्वयैतत् धार्यते विश्वं त्वयैतत् सृज्यते जगत् ।

त्वयैतत् पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा ॥

विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने ।

तथा संह्रतिरूपाऽन्ते जगतोऽस्य जगन्मये ॥*

देवि! तुम्हीं इस विश्व ब्रह्माण्ड को धारण करती हो। तुम से ही इस जगत की सृष्टि होती है। तुम्हीं से इसका पालन होता है और सदा तुम्ही कल्प के अंत में सबको अपना ग्रास बना लेती हो। जगन्मयी देवि!इस जगत की उत्पप्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालन-काल में स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो।

(* मार्कण्डेय चण्डी) 

श्रीरामकृष्ण - हाँ इसकी धारणा चाहिए 

(১ তুমি হোম, শ্রাদ্ধ ও যজ্ঞে প্রযুজ্য স্বাহা, স্বধা ও বষট্‌কাররূপে মন্ত্রস্বরূপা এবং দেবভক্ষ্য সুধাও তুমি। হে নিত্যে! তুমি অক্ষর সমুদায়ে হ্রস্ব, দীর্ঘ ও প্লুত এই তিন প্রকার মাত্রাস্বরূপ হইয়া অবস্থান করিতেছ এবং যাহা বিশেষরূপে অনুচার্য ও অর্দ্ধমাত্রারূপে অবস্থিত, তাহাও তুমি। তুমিই সেই (বেদ সারভূতা) সাবিত্রী; হে দেবি! তুমিই আদি জননী। তোমা কর্তৃকই সমস্ত জগৎ ধৃত এবং তোমা কর্তৃকই জগৎ সৃষ্ট হইয়াছে। তোমা কর্তৃকই এই জগৎ পালিত হইতেছে এবং তুমিই অন্তে ইহা ভক্ষণ (ধ্বংস) করিয়া থাক। হে জগদ্রূপে! তুমিই এই জগতের নানাপ্রকার নির্মাণকার্যে সৃষ্টিরূপা ও পালনকার্যে স্থিতিরূপা এবং অন্তে ইহার সংহার কার্যে তদ্রূপ সংহাররূপা। [মার্কণ্ডেয় চন্ডী, ১।৭২ — ৭৬]

শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ ওইটি ধারণা।

ISHAN: "Yes, sir. Brahma and the other gods sang this hymn at the time of the death of the demons Madhu and Kaitabha: Svaha, Vashat, and Svadha art Thou;6 Thou the inner Self of the mantra;Thou the Nectar of Immortality, O Everlasting One! Eternal and unutterable art Thou, and yet Thou art manifest In the three matras7 and the half matra.8 O Goddess, Thou art Savitri;9 Thou art the Ultimate Mother;All things have their support in Thee, by whom this universe was made.O Goddess, Thou sustainest all, and all by Thee is devoured!Thou it is that we call the Creator, when Thou Greatest the world,O Embodiment of creation!Thou it is that we call the Preserver, when Thou preservest it;Thou it is that we call the Destroyer, when Thou destroyest it."

MASTER: "Yes, but you must assimilate that."

(७)

[ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏 कर्मकाण्ड कठिन है - 'काली ही एकमात्र मर्म हैं ' इसीलिए भक्तियोग*🔆🙏 

कालीमन्दिर के सामने श्रीरामकृष्ण को चारों ओर से घेरकर भक्तगण बैठे हुए हैं । अब तक निर्वाक् रहकर श्रीरामकृष्ण की अमृतोपम वाणी सुन रहे थे । श्रीरामकृष्ण उठे । मन्दिर के सामने मण्डप के नीचे भूमिष्ठ होकर माता को प्रणाम किया । उसी समय भक्तों ने भी प्रणाम किया । प्रणाम कर श्रीरामकृष्ण अपने कमरे की ओर चले गये ।

श्रीरामकृष्ण ने मास्टर की ओर देखकर रामप्रसाद के एक गाने के दो चरण गाये । उनका भाव यह है - युक्ति और मुक्ति मुझे मिल चुकी है, क्योंकि काली ही एकमात्र मर्म हैं, यह जानकर मैंने धर्माधर्म छोड़ दिये हैं ।

[কালীমন্দিরের সম্মুখে ভক্তেরা শ্রীরামকৃষ্ণকে ঘেরিয়া চতুর্দিকে বসিয়া আছেন। এতক্ষণ অবাক্‌ হইয়া শ্রীমুখের বাণী শুনিতেছিলেন।এইবার ঠাকুর গাত্রোত্থান করিলেন। মন্দিরের সম্মুখে চাতালে আসিয়া ভূমিষ্ঠ হইয়া মাকে প্রণাম করিলেন। ভক্তেরা সকলে তাঁহার কাছে সত্বর আসিয়া তাঁহার পাদমূলে ভূমিষ্ঠ হইয়া পড়িলেন। সকলেই চরণধূলির ভিখারী। সকলে চরণবন্দনা করিলে পর, ঠাকুর চাতাল হইতে নামিতেছেন ও মাস্টারের সঙ্গে কথা কহিতে কহিতে নিজের ঘরের দিকে আসিতেছেন।

শ্রীরামকৃষ্ণ (গীত গাহিতে গাহিতে মাস্টারের প্রতি) —

“প্রসাদ বলে ভুক্তি মুক্তি উভয়ে মাথায় রেখেছি।

আমি কালী ব্রহ্ম জেনে মর্ম, ধর্মাধর্ম সব ছেড়েছি!

The Master rose. He mounted the platform in front of the shrine and saluted the Mother, touching the ground with his forehead. The devotees quickly gathered around him and fell at his feet. They all begged his grace. He descended from the platform and started toward his room, conversing with M. First he sang: I bow my head, says Prasad, before desire and liberation; Knowing the secret that Kali is one with the highest Brahman,I have discarded, once for all, both dharma and adharma.

 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏 वैधी धर्म को कर्मकाण्ड कहते हैं -निष्काम कर्म कठिन इसलिए भक्ति मार्ग सरल🔆🙏  

[ It is very hard to work without motive - Therefore  path of devotion.] 

श्रीरामकृष्ण - धर्माधर्म का अर्थ क्या है, जानते हो ? यहाँ धर्म का तात्पर्य वैधी धर्म से है - जैसे दान, श्राद्ध, कंगालों को खिलाना यह सब ।

"इसी धर्म को कर्मकाण्ड कहते हैं । यह मार्ग बड़ा कठिन है । निष्काम कर्म करना बहुत मुश्किल है । इसीलिए भक्ति-पथ का आश्रय लेने के लिए कहा गया है ।

[“ধর্মাধর্ম কি জানো? এখানে ‘ধর্ম’ মানে বৈধীধর্ম। যেমন দান করতে হবে, শ্রাদ্ধ, কাঙালীভোজন — এই সব।

“এই ধর্মকেই বলে কর্মকাণ্ড। এ-পথ বড় কঠিন। নিষ্কামকর্ম করা বড় কঠিন! তাই ভক্তিপথ আশ্রয় করতে বলেছে।

The Master continued: "Do you know the meaning of dharma and adharma? Here dharma means religious acts enjoined by the scriptures, such as charity, sraddha, feeding the poor, and the like.

"The performance of this dharma is called the path of karma. It is an extremely difficult path: it is very hard to act without motive. Therefore one is asked to pursue the path of devotion.

"किसी ने अपने घर पर श्राद्ध किया था । बहुत से आदमियों को खिलाया था । एक कसाई काटने के लिए गौ ले जा रहा था । गौ काबू में नहीं आ रही थी, कसाई हाँक रहा था । तब उसने सोचा, इसके यहाँ श्राद्ध हो रहा है, वहाँ चलकर कुछ खा लूँ । इस तरह कुछ बल बढ़ जायेगा, तब गौ को ले जा सकूँगा । अन्त में उसने वैसा ही किया । परन्तु जब उसने गौ को काटा तब जिसने श्राद्ध किया था, उसे भी गोहत्या का पाप लगा ।

"इसीलिए कहता हूँ, कर्मकाण्ड से भक्तिमार्ग अच्छा है ।"

[“একজন বাড়িতে শ্রাদ্ধ করেছিল। অনেক লোকজন খাচ্ছিল। একটা কসাই গরু নিয়ে যাচ্ছে, কাটবে বলে। গরু বাগ মানছিল না — কসাই হাঁপিয়ে পড়েছিল। তখন সে ভাবলে শ্রাদ্ধবাড়ি গিয়ে খাই। খেয়ে গায়ে জোর করি, তারপর গরুটাকে নিয়ে যাব। শেষে তাই কল্লে, কিন্তু যখন সে গরু কাটলে তখন যে শ্রাদ্ধ করেছিল, তারও গো-হত্যার পাপ হল।"“তাই বলছি, কর্মকাণ্ডের চেয়ে ভক্তিপথ ভাল।”

A man was performing the sraddha ceremony at his house. He was feeding many people. Just then a butcher passed, leading a cow to slaughter. He could not control the animal and became exhausted. He said to himself: 'Let me go into that house and enjoy the feast of the sraddha ceremony and strengthen my body. Then I shall be able to drag the cow along.' So he carried out his intention. But when he killed the cow, the sin of the slaughter fell also on the performer of the sraddha. That is why I say the path of devotion is better than the path of action."

श्रीरामकृष्ण कमरे में प्रवेश कर रहे हैं, मास्टर साथ हैं । श्रीरामकृष्ण गुनगुनाते हुए गा रहे हैं ।

[निवृत्ति मार्ग (त्याग) के महत्व पर जो अनुप्रेरक उपदेश उन्होंने अभी-अभी ईशान को दिए थे, उसी की अभिव्यक्ति उन गानों के बोल से भी हो रहे थे - उन्होंने गाया : 

"अवशेषे राखो गो माँ , हाड़ेर माला सिद्धि घोटा  ^*!"

माँ, बाकी सब कुछ मुझसे ले लो, लेकिन मेरी हड्डियों से बनी हुई माला और  भांग से भरे हुए घड़े को मेरे पास ही रहने देना ! ^सिद्धि, या भांग, और हड्डियों की माला , त्याग के आदर्श सर्वत्यागी शिव से जुड़ा हुआ है।^Siddhi, or hemp, and the necklace of bones are associated with Siva, the model of renunciation. Mother, take everything else away from me, But leave me my necklace of bones and my pot of hemp!

कमरे में पहुँचकर वे अपनी छोटी खाट पर बैठ गये । अधर, किशोरी तथा अन्य भक्त भी आकर बैठे ।

[ঠাকুর ঘরে প্রবেশ করিতেছেন, সঙ্গে মাস্টার। ঠাকুর গুনগুন করিয়া গাহিতেছেন। নিবৃত্তিমার্গের বিষয় যা বললেন, তারই ফুট উঠছে। ঠাকুর গুনগুন করে বলছেন — “অবশেষে রাখ গো মা, হাড়ের মালা সিদ্ধি ঘোটা।”ঠাকুর ছোট খাটটিতে বসিলেন। অধর, কিশোরী ও অন্যান্য ভক্তেরা আসিয়া বসিলেন।

The Master entered his room accompanied by M. He was humming a song. The forceful words of renunciation that he had just spoken to Ishan found expression through its words. He sang the lines:Mother, take everything else away from me, But leave me my necklace of bones and my pot of hemp!

 [ (11 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆🙏पुश्चरण का फल (निवृत्ति) ईशान को  क्यों नहीं मिला ? योग और भोग दोनों ? 🔆🙏

श्रीरामकृष्ण – (भक्तों से) - ईशान को देखा, कहीं कुछ नहीं हुआ । कहते क्या हो कि इसने पाँच महीने तक पुरश्चरण किया है ? कोई दूसरा होता तो उसमें एक और ही बात पैदा हो गयी होती ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — ঈশানকে দেখলুম — কই, কিছুই হয় নাই! বল কি? পুরশ্চরণ পাঁচমাস করেছে! অন্য লোকে এক কাণ্ড করত।

MASTER (to the devotees): "I was noticing Ishan. Why, he hasn't achieved anything! What can be the reason? He practised the purascharana for five months. That would have caused a revolution in any other person."

अधर - हम लोगों के सामने उन्हें इतनी बातें कहना अच्छा नहीं हुआ ।

[অধর — আমাদের সম্মুখে ওঁকে অত কথা বলা ভাল হয় নাই।

ADHAR: "It wasn't wise of you to say those things to him in front of us."

श्रीरामकृष्ण – क्यों क्या हुआ ? वह तो जापक है, उसके ऊपर शब्दों का क्या असर !

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সে কি! ও জাপক লোক, ওর ওতে কি?

MASTER: "How is that? He is so much given to japa! How can words affect him?"

कुछ देर तक बातें होने पर श्रीरामकृष्ण ने अधर से कहा “ईशान बड़ा दानी है और देखो, जप-तप बहुत करता है ।" भक्तगण जमीन पर बैठे टकटकी लगाये हुए श्रीरामकृष्ण को देख रहे हैं ।

एकाएक श्रीरामकृष्ण ने अधर से कहा - 'तुम लोगों के योग और भोग दोनों हैं ।'

কিয়ৎক্ষণ কথার পর ঠাকুর অধরকে বলিতেছেন, ঈশান খুব দানী। আর দেখ, জপতপ খুব করে।ঠাকুর কিছুকাল চুপ করিয়া আছেন। ভক্তেরা মেঝেতে বসিয়া একদৃষ্টে চাহিয়া আছেন।হঠাৎ ঠাকুর অধরকে উদ্দেশ করিয়া বলিতেছেন —আপনাদের যোগ ও ভোগ দুই-ই আছে।

After a while Sri Ramakrishna said to Adhar, "Ishan is very charitable, and he practises japa and austerity a great deal." The Master remained quiet a few moments. The eyes of the devotees were fixed on him. Suddenly Sri Ramakrishna said to Adhar, "You have both — yoga and bhoga."

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[शिवसंहिता : (साभार https://medium.com/vedic-pathshala/शिव-संहिता-का-अद्वैत-वेदांत-7c2bc2e74087) भूमिका : शिव संहिता को कुण्डलिनी योग परंपरा के तीन मुख्य ग्रंथों में से एक के रूप में जाना जाता है। अन्य दो ग्रंथों के नाम  “हठ योग प्रदीपिका” और “घेरण्ड संहिता” हैं। परंतु कई लोग यह नहीं जानते कि शिव संहिता, उपनिषदों द्वारा सिखाए जाने वाले ब्रह्मज्ञान या आत्म-ज्ञान के विषय में स्पष्ट विवरण भी करता है। हालाँकि कुछ लोग इसे पारंपरिक हठ योग शास्त्र में से एक मानते है, परंतु यह न केवल एक हठ योग शास्त्र है, बल्कि वेदांत-शास्त्र भी है। यह अद्वैत वेदांत से प्रभावित है और इसी कारण से किसी अन्य ज्ञात हठ योग शास्त्रों से अलग है।

शिव संहिता की सबसे महत्वपूर्ण  बात : यह भी है कि इसमें सनातन धर्म (या हिंदू धर्म) की चार पुरुषार्थ की शिक्षाओं की दोनों जीवन शैलियों  — धर्म, अर्थ और काम (प्रवृत्ति मार्ग) तथा मोक्ष (निवृत्ति मार्ग) में आयोजित किया है। इस शास्त्र ने इन दो जीवन शैलियों को बहुत स्पष्ट और व्यवस्थित रूप से प्रतिष्ठित किया है। यह बहुत दुर्लभ है क्योंकि अधिकांश वेदांत ग्रंथ आत्म-ज्ञान या ब्रह्मविद्या  शुरू करने से पहले प्रवृत्ति मार्ग की शिक्षाओं को  प्रस्तुत नहीं करते हैं, जो आमतौर पर साधन-चतुष्ट्य की एक संक्षिप्त चर्चा के बाद किया जाता है। लगभग सभी वेदांत ग्रंथों में धारणा होती है कि पाठक वेदान्त का एक अधिकारी  व्यक्ति (साधन-चतुष्ट्य सम्पन्न व्यक्ति) है, या पारंपरिक रूप से निवृत्ति मार्ग का एक अनुशासनिक (सन्यासी) होने का अधिकारी है । दूसरी तरफ, शिव संहिता ने सनातन धर्म के प्रवृत्ति मार्ग (गृहस्थों के लिए 'योग' ) और निवृत्ति मार्ग के अधिकारीयों के लिए संन्यास की शिक्षाओं में समन्वय स्थापित करने का ज़िम्मा लिया है

[श्री शंकराचार्य स्वयं निवृत्ति-मार्गी या संन्यासी थे; किन्तु उन्होंने अपने गीता भाष्य के आरंभ में ही कहा है कि वैदिक धर्म के दो मार्ग हैं –  'प्रवृत्ति लक्ष्णो योगः , ज्ञानं सन्यासलक्षणम्। 'अर्थात योग का अर्थ प्रवृत्ति–मार्ग और ज्ञान का अर्थ सन्यास या निवृत्ति–मार्ग है। आत्मज्ञान के साधन रूप  ये ही दो धर्म -प्रवृत्ति और निवृत्ति हैं ! ये दोनों ही धर्म अपने अपने स्थान में महत्वपूर्ण तथा गौरवशाली हैं। वेदों में दो प्रकार के धर्मों का उल्लेख है, एक है प्रवृत्ति का धर्म और दूसरा है निवृत्ति का धर्म।'योगी' और 'कर्मयोगी' दोनों ही शब्द समानार्थक हैं और इनका अर्थ 'युक्ति से कर्म करने वाला' होता है तथापि बड़े भारी 'कर्मयोग' शब्द का प्रयोग करने के बदले गीता  में छोटे से 'योग' शब्द का ही अधिक उपयोग किया गया है। चौथे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं 'मैंने तुम्हें जो यह योग बतलाया है इसी को पूर्वकाल में सूर्य (विवस्वान) से कहा था और विवस्वान ने मनु को बतलाया था। परंतु उस योग के नष्ट हो जाने पर फिर वही योग आज तुझसे कहना पड़ा।'  साभार http://vivek-anjan.blogspot.com/2018/07/6.html]

परिचय :शिवसंहिता योग से सम्बन्धित संस्कृत ग्रन्थ है। इसके रचनाकार के नाम के बारे में पता नहीं है। इस ग्रन्थ में शिव जी पार्वती को सम्बोधित करते हुए योग की व्याख्या कर रहे हैं।अपने पांच अध्यायों में से शिव संहिता का पहला अध्याय अद्वैत वेदांत के बारे में है और यही इस शोध पत्र “The Advait Vedanta of Siva Samhita”  का मुख्य केंद्र बिंदु है। यह आलेख वास्तव में किसी भी साधक के लिए एक आशीर्वाद है जो शिव संहिता के पहले अध्याय का उपयोग करके वेदांतिक अध्ययन शुरू करना चाहता है।शिव संहिता के प्रथम अध्याय के उपदेश , भगवान श्री शंकराचार्य द्वारा लोकप्रिय अद्वैत वेदांत परंपरा में लिखित ग्रन्थ 'अपरोक्षानुभूति ' से  बहुत अधिक समानता रखती है। यह माना जाता है कि यह वाराणसी, भारत में लिखा गया है जिसे बनारस या काशी भी कहा जाता है। हमारे अन्य ग्रंथो के सामने यह फिर भी नवीन है। जबकि शास्त्र 15वीं शताब्दी में लिखा गया था लेकिन इसका शिक्षण कालातीत और अनादी है।

दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि शिव संहिता का वर्गीकरण एक 'हठ योग शास्त्र' के रूप में होने के कारण यह वेदांतीयो के लिए अनजान ही रह गया था। यह भ्रांति “अद्वैत” शब्द को लेकर उत्पन्न हुई है। ध्यान-योग की निर्विकल्प अवस्था को भी 'अद्वैत ' कहा जा सकता है। लेकिन पहले अध्याय के हर श्लोक के माध्यम से, यह स्पष्ट होता है कि यह एक दुर्लभ वेदांत शिक्षण का ग्रन्थ है।

शिव समिति में कुल पांच अध्याय हैं और निम्न विषयों पर आधारित हैं:

अध्याय 1 — अद्वैत वेदांत (96 श्लोक)

अध्याय 2 — हठ योग और अद्वैत वेदांत (57 श्लोक)

अध्याय 3 — हठ योग (115 श्लोक)

अध्याय 4 — हठ योग (111 श्लोक)

अध्याय 5 — हठ योग और अद्वैत वेदांत (260 श्लोक) पांचवे अध्याय में साधक प्रकार व सप्त चक्रों का विस्तृत वर्णन है। वस्तुतः शिवसंहिता में क्रिया योग, श्रद्धा व विश्वास का समन्वय है व योग का महत्वपूर्ण ग्रंथ जिसका अध्यन आजकल सम्पूर्ण विश्व में किया जा रहा है।

मनःसंयोग (या हठ योग) और आत्मज्ञान का सम्बंध:हमारे ऋषियों ने हमेशा ज्ञान को सर्वोपरि रखा है, और ज्ञान अर्जित करने के लिए हमारे मन को एकाग्र करने, उसे वश में लाने  पर विशेष ध्यान दिया है। मन यदि अत्यधिक चंचल और अशांत बना हुआ रहे , तो ब्रह्म-ज्ञान तो दूर हम हमारे रोज़-मर्रा के कामों, जैसे पढाई-लिखाई या  बिजनेस-व्यापार  पर भी ध्यान नहीं दे सकते। और मन शांत के अनेक मार्ग बताए गए है जैसे भक्ति मार्ग, निष्काम कर्म मार्ग और हठ-योग या मनः संयोग का  मार्ग। इन मार्गों से चित्त-शुद्धि होती है, अर्थात मन शांत होता है। इस संदर्भ में चित्त-शुद्धि हमें आत्मा-ज्ञान प्राप्त करने  में लाभदायक सिद्ध होगी। और अद्वैत वेदांत हमें केवल मन-शांत करने को नहीं बोलता, अपितु इसके सहारे ज्ञान अर्जित करने को भी आग्रह करता है। जिस प्रकार एक शिशु जन्म से मुक्त नहीं होता, उसी प्रकार शांत मन, बिना ज्ञान के, मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि अविद्या का अस्तित्व शांत व अशांत मन दोनो में है। जैसा अपरोक्षअनुभूति — १४३ में कहा है:

एभिरङ्गैः समायुक्तो राजयोग उदाहृतः ।

किञ्चित्पक्वकषायाणां हठयोगेन संयुतः ॥143

Thus has been described Raja Yoga consisting of these steps mentioned above. With this is to be combined Hatha Yoga for the benefit of those whose worldly desires are partially attenuated. 

इस प्रकार राजयोग (आत्मज्ञान) का वर्णन किया गया है जिसमें इन चरणों का समावेश है।जिनके विषयोंमें राग नहीं रहे है उन योगियों के लिए हठयोग युक्त है।

सत्य के दो भेद हैं - विज्ञान और वेद ! बुद्धिमानों को (ज्ञानमार्गी)  पंचेन्द्रियग्राह्य दृश्यमान जगत को अदृश्य में से कम करके, ब्रह्मांड को वास्तविकता यानि आत्मा के साथ एक के रूप में सोचना चाहिए।  # यानि जो भी वस्तु दिखाई देरही है, एक- एक कर के, नेति -नेति यह भी नहीं है, यह भी नहीं है, क्योंकि इसका भी अंत हो जायेगा इस प्रकार विवेक-प्रयोग द्वारा उसका खंडन करना चाहिए! बाद में केवल एक ही शेष रह जायेगा, और वह है आत्मा या परमात्मा ! इस प्रकार वह केवल चेतना और आनंद से भरे मन के साथ शाश्वत आनंद में रहेगा। # भावार्थ - इस प्रकार ऊपर वर्णित इन चरणों से युक्त राज योग का वर्णन किया गया है। इसके साथ हठ योग को उन लोगों के लाभ के लिए जोड़ना है जिनकी सांसारिक इच्छाएं आंशिक रूप से क्षीण हो गई हैं। अपरोक्षानुभूति के अनुसार इस प्रकार से रोज खुद से पूछताछ करनी चाहिए, हम क्या हैं , मैं कौन हूँ , यह दुनिया कैसे पैदा हुयी और हम भी उस इन्द्रियातीत सत्य को जान सकते हैं ! जो ऐसा रोज करता है, रोज पढता है, वह परमात्मा के निकट रोज पहुंचता रहता है ! 

वेदांत एक ज्ञान साधना (विवेक-प्रयोग)  है, जबकि हठ योग (मनःसंयोग)  चित्तशुद्धी या मन के शुद्धीकरण की साधना है, जिससे आत्मज्ञान अर्जित करने में सहायता मिलती है।हठ योग अर्थात वैराग्यपूर्वक एकाग्रता या मनःसंयोग का अभ्यास (यम-नियम और आसान , प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास) आत्मज्ञान की पात्रता और चित्तशुद्धी के विकास के लिए एक सरल  प्रणाली है।  हठ योग (मनःसंयोग) व्यक्ति को 3H विकास के 5 अभ्यास करने के लिए कर्तव्यनिष्ट बनाता है और शारीरिक-मानसिक, तथा आध्यात्मिक  बल भी प्रदान करता है, जिसे आप अन्य हिंदू परंपराओं में नहीं पाते हैं। यही  प्रशिक्षण पद्धति  केन उपनिषद में भी पाया गया है, जहां आत्म-ज्ञान सिखाए जाने के बाद जो साधक पारंगत नहीं हुए थे उनके लिए प्रतीकात्मक ध्यान पढ़ाया गया है। 

शिवसंहिता का प्रथम अध्याय ईशा वास्यमिदँ सर्वं — यह सम्पूर्ण जगत् परमचेतना (ईश्वर) द्वारा व्याप्त है।जो अनेक उपनिषदो का उद्घोष है वहीं से इस संहिता का आरम्भ है।  यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण कथन है, क्योंकि यह , सद -असद विवेक या  सत्य और मिथ्या का भेद बताता है। अतिसूक्ष्मता के कारण इस ज्ञान या चैतन्य को समझना आसान नहीं है। क्योंकि वेदांत एक दर्शन के रूप में केवल तभी काम करता है जब इसे आपको इसे गुरु-शिष्य परम्परा (स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा Be and Make में प्रशिक्षित नवनीदा जैसे CINC या जीवनमुक्त शिक्षक या नेता के) उपदेश द्वारा प्रशिक्षित किया जाए जो आपकी आध्यात्मिक साधना को और दृढ़ बनाता हैं।तत्त्वमसि आदि महावाक्यों के समान यह प्रथम श्लोक इस संहिता का मूल है, जिस प्रकार ब्रह्मसुत्र के प्रथम ४ श्लोक, ब्रह्म-सूत्र के मूल है। यह प्रारंभिक श्लोक वेदांत का श्रेष्ठ कथन है। यह हर उपनिषद सिखाता है, एक तो सर्वोच्च वास्तविकता का ज्ञान और दूसरा उस ज्ञान के माध्यम से अज्ञानता का विनाश। 

उपनिषदों के इस उच्चतम ज्ञान को इस श्लोक के केवल एक वाक्य के साथ-“एकं ज्ञानं नित्यमाद्यन्तशून्यं”, प्रकट किया गया है। भावार्थ -इस संसार में केवल व केवल एक ज्ञान ही आदि अन्त से रहित शास्वत व नित्य है, एवं जगत् में इन्द्रिय-उपाधि भेद से जो कुछ भी दृष्टिगोचर है, वह परम सत्य ही है, क्योंकि इस संसार में दृष्टिगोचर सबकुछ नित्य अविनाशी परब्रह्मपरमात्मा महाशिव के संकल्प से ही उत्पन्न है।इससे पता चलता है कि न्यूनतम शब्दों के साथ, एक सूक्ष्म और गहरा अर्थगर्भित विषय प्रकट किया जा सकता है।जिस प्रकार वेदों का कोई लेखक नहीं होता उसी प्रकार शिव संहिता का आरम्भ “ईश्वरउवाच” से है। सनातन धर्म की परंपरा में यह महान मूल्य है कि ज्ञान हर किसी का जन्मसिद्ध अधिकार है और इसलिए आध्यात्मिक कार्यों पर कोई कॉपीराइट नहीं है।

अज्ञान, माया, मिथ्या, अविद्या, अनित्य आदि सभी शब्द  पर्यायवाची शब्द है। “जो नित्य होने से भी अनित्य” — ऐसे विरोधाभास शब्द वेदांत दर्शन में ही पाए जाते है, जिसका सूक्ष्म स्तर पर ही इसका अर्थ समझा जा सकता है। जैसे केनोपनिषद २.१.२ में कहा गया है:

नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च।

यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ।। २.१.२ ।।

मैं नहीं मानता कि मैं ‘उसे’ (परतत्त्व को) भली प्रकार जानता हूँ, तो भी मैं जानता हूँ कि ‘वह’ मेरे लिए अज्ञात नहीं है। हम लोगों में जो ‘इसे’ जानता है, वह उस ‘परतत्त्व’ को जानता है; वह जानता है कि ‘यह’ उसके लिए अज्ञात नहीं है।

किसी वेदांत साधक के लिए सबसे महत्वपूर्ण है विवेक-प्रयोग की पद्धति सीखकर नित्य-अनित्य का भेद जानना । शिव संहिता के प्रथम श्लोक का दूसरा भाग अविद्या  के बारे में है। “यद्भेदोस्मिन्निन्द्रियोपाधिना वै ज्ञानस्यायं भासते नान्यथैव”, जिसका अर्थ है कि “इस जगत् में जो विविधता दिखाई देती है वह चेतना के अलावा कुछ भी नहीं है बल्कि ज्ञानन्द्रियों के भिन्न-भिन्न सीमित अनुभव है”। भक्तों पर कृपा करने के उद्देश्य से मैंने यह योग का अनुशासन कहा है। सब भूतों की आत्मा मुक्तिदायक है। यह इस शास्त्र का लक्ष्य है जो मत विवादमय और दुर्ज्ञान के कारणरूप है, उनका त्याग करके आत्मज्ञान का आश्रय लें, यही भूतों की अनन्य गति है।

अज्ञान उस सर्प की भाँति है जो रज्जु पर अध्यारोपित है। जब तक आपको सर्प दिखता रहेगा तब तक अज्ञान है, और जिस समय आपको यह ज्ञात हुआ की वह रज्जु है उसी क्षण सर्प भी लुप्त हो जाएगा। या यह कहा जा सकता है की सर्प का अस्तित्व कभी था ही नहीं। ठीक इसी प्रकार अज्ञान का अस्तित्व तब तक है जब तक ज्ञान का अभाव है, ज्ञान-अज्ञान दोनो एक साथ एक समय पर नहीं हो सकते। या तो रज्जु होगा या फिर सर्प।

गुरु परम्परा : आचार्यवान् पुरुषो वेद - अर्थात गुरु के द्वारा उपदिष्ट पुरुष ही परम तत्व को जानता है !(श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा) जैसा की पहले बताया गया, वेदांत शास्त्र की महत्वपूर्ण कड़ी “गुरु परंपरा” है, जो ईश्वर (माँ काली)  से शुरू होकर, मध्य में भगवान श्री शंकराचार्य के साथ मेरे गुरु (CINC नवनीदा) तक है। अतिसूक्ष्मता के कारण इस ज्ञान या चैतन्य को समझना, बिना गुरु उपदेश के, आसान नहीं है। इस संहिता के द्वितीय और तृतीय श्लोक में इसी गुरु परंपरा का वर्णन है।

इस संहिता के माध्यम से ईश्वर अपना प्रेम भक्तों पर प्रकट कर रहे है। वेदांत साधक की षट् सम्पत्ति: शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान है। इनमें से साधक को शुरू से ही “श्रद्धा” को थामे रखना है। श्रद्धा ही है जो साधक को आत्म-ज्ञान तक लेकर जा सकता है। वेदांत के साधक को ईश्वर और गुरु पर अपनी श्रद्धा बनाए रखनी चाहिए। उनके वचनों को ध्यान-पूर्वक श्रवण कर, नित्य मनन और निधिध्यासन करना चाहिए। इसी प्रकार स्वयं को आत्म-ज्ञान के योग्य बनाना चाहिए.

नेती- नेती करके ढोंगी गुरु से भी बचना होगा  : अब ईश्वर आगे कई कर्म-संबंधित धारणाओं का खंडन करते है जो मोक्ष प्राप्ति का दावा करते है। आज के युग के कई विद्वानों में विप्र-लिप्सा के दोष बहुत  अधिक हो चुके है। जो आजकल के युवाओं को भ्रमित ही नहीं करते, अपितु उनका मार्ग भी भटका देते है। आगे के शलोको में शिव-संहिता हमें इन्ही पौरुषेय वाक्य से सावधान कर रहा है। लौकिक वाक्य पौरुषेय (पुरुषकृत) होने के कारण पुरुषगत भ्रम, प्रमाद, विप्रलंभ (विप्रलिप्सा), करणापाटव आदि दोषों से युक्त होता है, अतएव पौरुषेय वाक्य प्रमाण नहीं होता।

श्लोक ४ से १६ में निम्नलिखित सभी कारणो का खंडन किया गया है — मुक्ति / मोक्ष के संदर्भ में:सत्य बोलना,तपस्या और ध्यान,शुद्धता का पालन,क्षमा करना,मन की शांति और सरलता,दान करना,पूर्वजों के लिए अनुष्ठान,निष्काम कर्म करना,वैराग्य भाव लाना,गृहस्थ आश्रम के कर्तव्यों का पालन,अग्नि अनुष्ठान करना, मंत्र योग की साधना,तीर्थयात्रा करना इत्यादि। 

ऊपर दिए गए सभी कार्य कर्म के सिद्धांत के अंतर्गत आते है। और जहां कर्म है वहाँ पाप-पुण्य का चक्र है। यह सारे कर्म चित्त-शुद्धि के कारण हो सकते है परंतु मुक्ति के नहीं। कई विद्वान इसी भ्रम और द्वैतभाव का प्रचार करते है। कई प्रत्यक्षवादी और बुद्ध धर्म भी क्षणिकवाद या शून्यवाद की धारणा लिए लोगों को भ्रमित करते रहते है। इसी भ्रम के चलते अनेक साधक मुक्ति मार्ग से भटक जाते है और अपने अर्ध-ज्ञान से और भ्रम का विस्तार करते है।

एक साधक को इसका ज्ञान ले अपने मार्ग पर आगे बढ़ते रहना चाहिए। जब साधक धेर्ये, निष्ठा, विवेक और श्रद्धा से अनित्य की पहचान करता है तो स्वयं ही नित्य की ओर बढ़ता चला जाता है। ईशोपनिषद् का भी यही उद्घोष है: 

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभ्य सह ।

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वाऽमृतमश्नुते ॥ 

(Ishavasya Upanishad 1. 11)

जो विद्या और अविद्या-इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृतत्त्व (देवतात्मभाव = देवत्व) प्राप्त कर लेता है। जो तत् को इस ॐ के रूप में जानता है कि वह एक साथ विद्या और अविद्या दोनों है, वह अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमरता का आस्वादन करता है।

अधिकारी निरूपण :शिव-संहिता आगे साधक की अधिकारित्व गुण की व्याख्या कर रहे है। श्लोक 19 और भगवद गीता का श्लोक 18.67 एक ही बात बता रहे है की आत्मा-ज्ञान का अधिकारी कौन होना चाहिए और कौन नहीं होना चाहिए।

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति।।18.67।।

।।18.67।। यह ज्ञान ऐसे पुरुष से नहीं कहना चाहिए जो अतपस्क (तपरहित) है और न उसे जो अभक्त है। उसे भी नहीं जो अशुश्रुषु (सेवा में अतत्पर) है और उस पुरुष से भी नहीं कहना चाहिए जो मुझ (ईश्वर) से असूया करता है अर्थात् मुझ में दोष देखता है। वह महान जिज्ञासु भक्त (सत्यार्थी सुभक्त) होना चाहिए न कि आर्त-अर्थार्थी भक्त। सुभक्त जो जीवन में अपने लक्ष्य के बारे में स्पष्ट है। इस ज्ञान के साधक को यम और नियम का अवलोकन करना चाहिए या कम से कम उसके महत्व को समझता हो।

आत्मा-ज्ञान के लिए एक अधिकारी के पास ४ विशेष गुण होने चाहिए। साधन चतुष्टय:विवेक — नित्य-अनित्या का भेद,वैराग्य — अनित्य वस्तु से,षट् सम्पत्ति:,शम — मन निग्रह,दम — इंद्रिय निग्रह,उपरति — आसक्तियों से मुक्त,तितिक्षा — धैर्य,श्रद्धा — आस्तिक्य बुद्धि ,गुरु और वेदों पर विश्वास, समाधान — संशय रहित अवस्था ,मुमुक्षुत्व — मोक्ष की इच्छा। यह गुण हर साधक में होना आवश्यक नहीं, परंतु जो मोक्ष की इच्छुक है उन्हें इन गुणो की वृद्धि करनी चाहिए। और जैसे जैसे आप वेदांत का अध्ययन करते रहेंगे वैसे-वैसे इनकी वृद्धि होती रहेगी।

मुमक्षुओं का आचरण यानि चरित्रनिर्माण की अनिवार्यता :अधिकारी होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु एक मुमुक्षु का आचरण कैसा होना चाहिए उसके बारे में भी ध्यान देना है। शास्त्र-निर्मित आचरणों का श्रद्धापूर्वक पालन करने से वेदांत अध्ययन में सहायता मिलती है। कोई भी संहिता वेदों का वर्णन करे बिना अधूरा ही रहता है। शिव संहिता में भी वेदों के कर्मकांड और ज्ञानकांड का संक्षेप में विवरण दिया है। कर्म होगा तो संसार चक्र भी बना रहेगा। [श: २०-२९]

मुमक्षुओं को अपने नित्य कर्म के अलावा अन्य किसी भी प्रकार के कर्म में रुचि (आसक्ति) नहीं दिखानी चाहिए। अन्य सारे प्रकार के कर्म, जिसका फल सुख या दुःख है, वह बंधन का ही हेतु है। भगवद गीता में कहा गया है:

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।2.46।।

सब ओर से परिपूर्ण जलराशि के होने पर मनुष्य का छोटे जलाशय में जितना प्रयोजन रहता है, आत्मज्ञानी ब्राह्मण का सभी वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है।।

वैराग्य : नित्य स्वाध्याय या शास्त्र पठन-पाठन से मुमुक्षु का चित्त शांत होता है और अनित्य वस्तु के प्रति उसका वैराग्यभाव उत्पन्न होता है। विवेक और वैराग्य यह दोनो एक ही पक्षी के दो पंख के समान है — आत्मा-ज्ञान के लिए इन दोनो की आवश्यकता रहती है। उस योगी को ना कर्म में रुचि रहती है और ना ही कर्म-फल में और इन दोनो का त्याग ही सन्यास है। [श ३०]

जब वह साधक कर्मकांड के कर्म और उससे मिलने वाले कर्मफलों का भली प्रकार विवेक द्वारा त्याग कर देता है तो योगी कहलाने योग्य होता है।[श ३१] कर्म का त्याग करना सब छोड़ कर सो जाना नहीं है, कर्म का त्याग अर्थात कर्म के प्रति साधक की आसक्ति का त्याग करना है। जैसे गीता में श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे है।

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।

हे धनञ्जय तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धि में सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है। हर जिज्ञासु साधक (सत्यार्थी) को मुमुक्षु की ओर और मुमुक्षु से योगी या ज्ञानी की ओर बढ़ते रहना चाहिए

न्याय शास्त्र -शिव-संहिता के न्यायों में भी अद्वैत वेदांत की तरह कोई भेद नहीं है। यहाँ भी प्रसिद्ध न्यायों का उच्चारण हुआ है जैसे रज्जु-सर्प, सूर्य-प्रतिबिंब, स्वप्न-अवस्था, घटाकाश, सीपी-चाँदी और समुद्र-फेन।एक और उदाहरण, जैसे स्वप्न जगत् में अनेक भेद उत्पन्न होते है और नींद से जाग जाने के बाद कुछ शेष नहीं रहता, उसी प्रकार जैसे ही ब्रह्म का ज्ञान होता है, अविद्या भी नहीं रहती। माया है तो अविद्या है अन्यथा सब कुछ वह बोध-स्वरूप ब्रह्म ही है। साधक का मन-बुद्धि बाह्यगम्य होता है और ब्रह्म का ज्ञान अत्यंत सूक्ष्म है। मन-बुद्धि से इस सूक्ष्म तत्व को समझना सरल नहीं होता है परंतु न्याय के सहारे इसे समझने में मदद मिलती है।

आत्माज्ञान की प्रक्रिया :साधक अपने आचरणों पर , जीवनगठन और चरित्रनिर्माण पर ध्यान दे और स्वयं को आत्म-ज्ञान के योग्य बनाए। इसके लिए साधक को निष्ठापूर्वक श्रवण (गुरु वचनों को श्रद्धापूर्वक सुनना), मनन (उन वचनों पर विचार) और निद्धिध्यासन (ध्यान पूर्वक अर्जित ज्ञान का अनुभव) करना चाहिए। यही ज्ञान-मार्ग है। आगे शिव-संहिता अनेक प्रक्रियाओं के माध्यम से साधक का मार्ग दृढ़ करते है। यह प्रक्रियाएँ भी वेदांत शिक्षण में प्रसिद्ध है।

वाद दो प्रकार के है, पहला सृष्टि-दृष्टि वाद (सृष्टि हमेशा से थी और में इसे अनुभव कर रहा हूँ) और दूसरा है दृष्टि-सृष्टि वाद (में अनुभव कर रहा हूँ या मेरा अस्तित्व है इसीलिए यह सृष्टि मेरे समक्ष है)। इस प्रकार के वाद वाक्य शिव-संहिता में भी देखने को मिलते है। इसके प्रारंभिक भाग में सृष्टि-दृष्टि वाद और आगे दृष्टि-सृष्टि वाद का प्रयोग होता है।इन दोनों वादों से साधक को दृश्य और द्रष्टा में भेद पता चलता है। इससे विवेक और वैराग्य में वृद्धि होती है।

अध्यारोप अपवाद : अध्यारोप अपवाद -ब्रह्म के यथार्थ रूप का उपदेश देना अद्वैत मत के आचार्य का प्रधान लक्ष्य है। ब्रह्म स्वयं निष्प्रपंच है और इसका ज्ञान बिना प्रपंच की सहायता के किसी प्रकार भी नहीं कराया जा सकता। इसलिए आत्मा के ऊपर देहधर्मों का आरोप प्रथमत: करना चाहिए अर्थात्‌ आत्मा ही मन, बुद्धि, इंद्रिय आदि समस्त पदार्थ है। यह ‘प्राथमिक विधि अध्यारोप’ के नाम से प्रसिद्ध है।

अब युक्ति तथा तर्क के सहारे यह दिखलाना पड़ता है कि आत्मा न तो बुद्धि है, न संकल्प-विकल्परूप मन है, न बाहरी विषयों को ग्रहण करनेवाली इंद्रिय है और न भोग का आयतन यह शरीर है। इस प्रकार आरोपित धर्मों को एक-एक कर आत्मा से हटाते जाने पर अंतिम कोटि में उसका शुद्ध सच्चिदानंद रूप शेष रह जाता है और वही उसका सच्चा रूप होता है। इसका नाम है अपवाद विधि। ये दोनों एक ही पद्धति के दो अंश हैं।

समाधि : साधक को श्रवनम, मनन और निधिध्यासन कर अपने आपको नित्य आत्मा-चिंतन में लगाऐ रखना चाहिए। आत्मा अभेद, अद्वैत है — इसमें किसी भी प्रकार की कोई उपाधि नहीं है। नित्य-मुक्त ही समाधि की अवस्था है। और यही विचार शिव-संहिता में देखने को मिलता है।

माया-अंत में माया का वर्णन भी किया गया है। माया की दो शक्तियाँ है — आवरण (ज्ञान को ढँक देता है) और विक्षेप (भ्रम उत्पन्न करता है)। साधक को चाहिए नित्यानित्य का ज्ञान के भेद से विक्षेप का नाश करे और आवरन को काट डाले। और उस नित्य ब्रह्म में चित्त लगाए।

सारांश :इस तरह शिव संहिता इतना प्रचलित तो नहीं है परंतु इसकी विशेषताएँ अनेक है।इसका प्रथम अध्याय केवल अद्वैत वेदांत है जो कहता है की जीव-ब्रह्म एक (तत्वमअसि) है।अविध्या ही संसार / जगत् का कारण है।ज्ञान से ही अविध्या का नाश संभव है।उपनिषद, गीता और अन्य वेदांत शास्त्र का मूल है।न्यायों का समावेष — उदाहरण में भी कोई भेद नहीं।प्रवृत्ति ओर कर्म मार्ग का खंडन विस्तार से किया गया है।वेदांत प्रक्रियों का उपयोग।साधक फिर भी अगर समझने में असक्षम है तो आगे के हठ-योग अध्याय से चित्त-शुद्धि कर फिर प्रथम अध्याय का अध्ययन करे — मोक्ष की प्राप्ति निश्चय ही होगी।

षट्पद्मों में आदि-शक्ति का ध्यान ^* मनःसंयोग के अभ्यास और वैराग्य से अर्जित -'संयम' मनुष्य की शोभा ही नहीं, शक्ति भी है. अपनी इस शक्ति के सहारे उसे अपनी रक्षा करनी चाहिए।  इस प्रकार सस्ते में उसका अंत कर डालना न उचित है, न कल्याणककारी. कठिन साधनाएं न करने पर भी जो वीर्य (स्पर्म) को अखण्ड रख लेते हैं, वे अपने अन्दर शक्ति का अक्षय भण्डार अनुभव करते हैं और कुछ भी कर सकने की क्षमता रखते हैं. जीवन में कुछ अच्छा और बड़ा करना चाहते हैं तो आपको अपनी इस ताकत को बचाकर रखना होगा. 

सांसारिक भोगों (कामिनी -कांचन ) में एक विचित्र आकर्षण होता है. यही कारण है कि वे मनुष्य को सहज ही अपनी ओर खींच लेते हैं, किन्तु इससे भी अद्भुत बात यह है कि यह जितनी ही... अधिक मात्रा में प्राप्त होते हैं, मनुष्य का आकर्षण उतना ही उनकी ओर बढ़ता जाता है और शीघ्र ही वह दिन आ जाता है, जब मनुष्य इनमें डूब कर नष्ट हो जाता है. 

ब्रह्मचर्य सेक्सुअलिटी का विरोध नहीं है, बल्कि इसका ट्रांसफॉर्मेशन है. यौन ऊर्जा का अधोगमन है, नीचे की तरफ बह जाना है, ब्रह्मचर्य ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन है, ऊपर की तरफ उठ जाना है।  अगर पवित्र विचारों के जरिए सेक्सुअल एनर्जी को ओजस या आध्यात्मिक ऊर्जा में बदल लिया जाए तो इसे सेक्स-सबलीमेशन कहा जाता है. यह किसी तरह का दमन नहीं है बल्कि एक सकारात्मक और स्थानांतरण की प्रक्रिया है. यौन ऊर्जा पर अपना नियंत्रण स्थापित करके इसे संचित करके दूसरी तरफ मोड़ देना है. धीरे-धीरे आप इसे ओजस शक्ति में भी तब्दील कर लेंगे. जैसे ऊष्मा प्रकाश और विद्युत में परिवर्तित कर ली जाती है वैसे ही भौतिक ऊर्जा को आध्यात्मिक ऊर्जा में बदला जा सकता है. रासायनिक पदार्थों में होने वाले परिवर्तनों की तरह सेक्सुअल पावर को साधना के जरिए आध्यात्मिक ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है. 

इस प्रक्रिया से गुजरते हुए आत्मा के स्तर को ऊपर उठाना, शुद्ध विचारों की तरफ बढ़कर यौन ऊर्जा को ओजस शक्ति में परिवर्तित होकर दिमाग में संचित होती जाती है. इस संचित ऊर्जा को आप बड़े से बड़े कामों में लगा सकते हैं. अगर आपको बहुत क्रोध आता है या आपके पास शारीरिक बल ज्यादा है तो उसे भी ओजस शक्ति में  ट्रांसफॉर्म किया जा सकता है. जिसके दिमाग में ओजस शक्ति संचित हुई रहती है, उसकी मानसिक ताकत बहुत ज्यादा बढ़ जाती है. वह बहुत ही बुद्धिमान हो जाता है।  उसके चेहरे के पास एक दैवीय तेज झलकने लगता है. वह कुछ शब्द बोलकर ही दूसरों पर अपना प्रभाव छोड़ सकता है. उसका व्यक्तित्व फिर सामान्य नहीं रह जाता है, आसाधारण हो जाता है. 

शंकराचार्य, ईसा मसीह, श्रीरामकृष्ण -स्वामी विवेकानन्द  आदि महापुरुष जीवन भर ब्रह्मचारी रहे. ऊँचे उठे हुए आध्यात्मिक नेता ,गुरु , या जीवनमुक्त शिक्षक CINC -नवनीदा जैसे  लोग अधिकतर संयमी जीवन ही बिताने की चेष्टा किया करते हैं. वैज्ञानिक,दार्शनिक, विचारक, सुधारक तथा ऐसी ही उच्च चेतना वाले लोग संयम का ही जीवन जीते दृष्टिगोचर होते हैं. संयम से तात्पर्य मात्र शारीरिक ही नहीं, मानसिक व आध्यात्मिक ब्रह्मचर्य से भी है. 

यह एक सत्य है कि भोगों की अधिकता मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तीनों प्रकार की शक्तियों का नुकसान कर देती है. यह रोग युवावस्था में ही अधिक लगता  है. यद्यपि उठती आयु में शारीरिक शक्ति ज्यादा होती है, साथ ही कुछ-न-कुछ जीवन तत्व का नव निर्माण होता रहता है. इसलिए उसका बुरा असर शीघ्र नहीं दिखलाई पड़ता; लेकिन युवावस्था के ढलते ही इसके बुरे परिणाम सामने आने लगते हैं. युवा कई तरह की कमजोरियों के शिकार बन जाते हैं. थोड़ी आयु और ढलने पर सहारा खोजने लगते हैं. इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं और जीवन एक भार बन जाता है. शरीर...का तत्व वीर्य जो कि मनुष्य की शक्ति और वास्तविक जीवन कहा गया है, का अपव्यय होता चला जाता है, जिससे सारा शरीर एकदम खोखला हो जाता है. तमाम सिद्धहस्तों ने इसी वीर्य की ताकत का संचय कर बड़े-बड़े चमत्कार किए हैं. इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है कि हमारी अधिकतर ऊर्जा यौन ऊर्जा में संचित होती है. दृढ़ इच्छा शक्ति के जरिए हम अपनी यौन ऊर्जा को अद्भुत क्रिएटिविटी में तब्दील कर सकते हैं. इस प्रक्रिया को अपने जीवन में उतारने वाले कई विश्वप्रसिद्ध हस्तियों के उदाहरण हैं, जैसे- निकोलस टेस्ला, महात्मा गांधी, रिचर्ड वेंगर, दान्ते, होमर, हेनरी थोरू और लियोनार्डो द विन्सी. 

स्वामी रामतीर्थ कहा करते थे कि जैसे दीपक का तेल बत्ती के ऊपर चढ़कर प्रकाश के रूप में परिणत होता है, वैसे ही ब्रह्मचारी के अंदर का वीर्य तत्व सुषुम्ना नाड़ी द्वारा प्राण बनकर ऊपर चढ़ता हुआ ज्ञान दीप्ति में परिवर्तित हो जाता है. रेतस का जो तत्व रति (काम, यौन संबंध) बनाने के समय काम में लगता है, जितेन्द्रिय होने पर वही तत्व, प्राण, मन और शरीर की शक्तियों को पोषण देने वाले एक दूसरे ही तत्व में बदल जाता है. 

आधुनिक विज्ञान इतना विकसित हो जाने पर भी वीर्य की उत्पत्ति का कोई सिद्धान्त निश्चित नहीं कर पाया है. सामान्य रासायनिक रचना के अतिरिक्त उन्हें इतना ही पता है कि वीर्य का एक कोश (स्पर्म) स्त्री के डिम्ब (ओवम्) से मिल जाता है. यही वीर्य कोश पुनः उत्पादन आरंभ कर देता है और अपनी तरह तमाम कोश माँ से प्राप्त आहार द्वारा कोशिका विभाजन-प्रक्रिया के अनुसार विभक्त होता चला जाता है. कहना न होगा कि वीर्य का सूक्ष्मतम स्प चेतना का एक अति सूक्ष्म अंश है. इनकी लम्बाई 1/1600 से 1/1700 इंच तक होती है, जिसमें न केवल मनुष्य शरीर, वरन् विराट विश्व के शक्ति बीज छिपे होते हैं. सृष्टि को बहुगुणित बनाने की व्यवस्था भी इन्हीं बीजों में निहित होती है. उसकी शक्ति का अनुमान किया जाना कठिन है.

भ्रूण काल के निर्माण के बाद शिशु जब विकसित होना प्रारम्भ करता है, तो ओजस उसके मस्तिष्क में ही संचित होता है. यही कारण है कि गर्भ में सन्तान का सिर नीचे की ओर होता है. जन्म के समय 10 रत्ती वीर्य बालक के ललाट में होता है. शास्त्रों के अनुसार नौ से बारह वर्ष तक वीर्य शक्ति भौंहों से उतर कर कण्ठ में आ जाती है. प्रायः इसी समय बच्चे के स्वर में सुरीलापन आता है. इससे ठीक पूर्व दोनों की ध्वनि एक जैसी होती है. 12 से 16 वर्ष तक की आयु में वीर्य मेरुदण्ड से उपस्थ की ओर बढ़ता है और धीरे-धीरे मूलाधार चक्र में अपना स्थायी स्थान बना लेता है. 

काम विकार पहले मन में आता है, उसके बाद तुरन्त ही मूलाधार चक्र उत्तेजित हो उठता है और उसके उत्तेजित होने से वह सारा ही क्षेत्र जिसमें कि कामेन्द्रिय भी सम्मिलित होती है, उत्तेजित हो उठती है, ऐसी स्थिति में ब्रह्मचर्य की संभावना कठिन हो जाती है. 24 वर्ष तक की आयु में यह शक्ति मूलाधार चक्र में से समस्त शरीर में किस प्रकार व्याप्त हो जाती है इसका उल्लेख करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि जिस प्रकार दूध में घी,काष्ठ में अग्नि तत्व, तिल में तेल, तथा ईख में मीठापन सर्वत्र विद्यमान रहता है, उसी प्रकार वीर्य सारी काया में व्याप्त रहता है

ऊर्ध्वरेता बनना अर्थात् जीवन को, ओज को अपने उद्गम स्थल ललाट में लाना, जहाँ से वह मूलाधार तक आया था, योग विद्या का काम है. कुण्डलिनी साधना में प्राणायाम साधनाओं द्वारा सूर्य चक्र की ऊष्मा को प्रज्ज्वलित कर इसी वीर्य को पकाया जाता है और उसे सूक्ष्म शक्ति का रूप दिया जाता है, तब फिर उसकी  प्रवृत्ति ऊर्ध्वगामी होकर मेरु दण्ड से ऊपर चढ़ने लगती है. साधक उसे क्रमशः अन्य चक्रों में ले जाता हुआ फिर से ललाट में पहुँचाता है. शक्ति बीज का मस्तिष्क में पहुँच जाना और सहस्रार चक्र की अनुभूति कर लेना ही ब्रह्म निर्वाण है. 

[साभार /https://www.aajtak.in/religion/photo/transforming-sexual-energy-into-spiritual-one-tpra-579916-2018-01-18-15] Sunday , 26 th December 2021 : - [Trara Tower Partnership works to be done-kitty, Saroj dd-same language. why ?]  

न दैन्यं न पलायनम् - नहीं दैन्यता और पलायन- अर्जुन का उद्घोष था ‘न दैन्यं न पलायनम्‘। पिछला जीवन यदि पाण्डवों सा बीता हो तो आपके अन्दर छिपा अर्जुन भी यही बोले संभवतः। वीर, श्रमतत्पर, शान्त, जिज्ञासु, मर्यादित अर्जुन का यह वाक्य एक जीवन की कथा है, एक जीवन का दर्शन है और भविष्य के अर्जुनों की दिशा है। यह कविता पढ़ें अपने उद्गारों की ध्वनि में और यदि हृदय अनुनादित हो तो मान लीजियेगा कि आपके अन्दर का अर्जुन जीवित है अभी। उस अर्जुन को आज का समाज पुनः महाभारत में पुकार रहा है :- 

मन में जग का बोझ, हृदय संकोच लिये क्यों घिरता हूँ,

राजपुत्र, अभिशाप-ग्रस्त हूँ, जंगल जंगल फिरता हूँ,

देवदत्त हुंकार भरे तो, समय शून्य हो जाता है,

गांडीव अँगड़ाई लेता, रिपुदल-बल थर्राता है,

बहुत सहा है छल प्रपंच, अब अन्यायों से लड़ने का मन,

नहीं दैन्यता और पलायन ।


निर्णय तो जितने लेने थे, धर्मराज ने ले डाले,

मैं खड़ा रहा मर्यादावश, झूमे मदत्त गज मतवाले,

द्रुपदसुता के आँसू बन कायरता मेरी छलकी है,

हृदय धधकती लगातार, वह ज्वाला दावानल सी है,

क्षमतायें अब तक वंचित है, समझो मेरे मन का क्रंदन,

नहीं दैन्यता और पलायन ।


यह कहना क्या सही, क्या नहीं, मुझको कभी न भाया है,

मेरे हिस्से जब भी आया, निर्णय का क्षण आया है,

युद्ध नहीं होने देना, मेरी न कभी अभिलाषा थी,

और कौरवों को न कभी उकसाने वाली भाषा थी,

संभावित संहारों को मैं एकटक करता रहा मनन,

नहीं दैन्यता और पलायन ।


पीड़ा सबके घर आती है, या मैं हूँ या योगेश्वर,

सबको अपना भाग मिलेगा, जी लो उसको जी भर कर,

घुटना ना कभी मुझको भाया, व्यापकता मेरी थाती है,

मन की गहराई में जा, नीरवता सहज समाती है,

दिन सी उजली मन की स्थिति, हो कैसी भी रात बियावन,

नहीं दैन्यता और पलायन ।


मैने मन के पट नहीं कभी औरों के सम्मुख खोले हैं,

सम्बन्धों को अपनाया है और वचन यथोचित बोले हैं,

पर सदैव शतरंजी चालों को समझा, उदरस्थ किया,

और सभाओं की सम्मलित विद्वत-भाषा से त्यक्त जिया,

आज खड़ा निर्णय-क्षण, निर्मम अवसादों का पूर्ण दहन,

नहीं दैन्यता और पलायन ।