शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

'विश्व को समर्पित भारत का उपहार है : आध्यात्मिक संस्कृति।'[ 'Be and Make' Syllabus-2 ]

भारतीय संस्कृति की विशेषतायें 
1.हमारी जीवन-व्यवस्था ही हमारी संस्कृति हैसंसार में देश भेद से अनेक प्रकार के मनुष्य है। अतः उनकी संस्कृतियाँ भी अनेक हैं। संस्कृति का शब्दार्थ है - उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह अपने विवेक के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। विचार और कर्म के क्षेत्रों में राष्ट्र का जो सृजन है वही उसकी संस्कृति है।  यही संस्कृति शब्द आगे अर्थानन्तर में 'सोडष संस्कार' शब्द को जन्म देती है।   हमारी जीवन-व्यवस्था ही हमारी संस्कृति है। भारत में रहने वाली, चार पुरुषार्थ,चार आश्रम और सोलह संस्कारों में आधारित हमारी जीवनव्यवस्था (वर्णाश्रम धर्म या संस्कृति) ही भारतीय संस्कृति कही जाती है।  मनुष्य जीवन रुकता नहीं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी निरन्तर आगे बढ़ता रहता है। इसके साथ-साथ संस्कृति के रूपों का उत्तराधिकार भी हमारे साथ चलता है अत एव हमारे सनातन धर्म, दर्शन, कला तथा साहित्य आदि इसी संस्कृति के अंग हैं। 
सभ्यता (Civilization) से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है।
2.विश्व धर्म का आदर्श : भारतीय संस्कृति विश्व के प्रति अनन्त मैत्री की भावना का नाम है। आचार्य परम्परा (या श्रुति परम्परा) में आधारित हमारी यह प्राचीन संस्कृति ही है जो हमें दर्शन और धर्म के माध्यम से 'सत्य' के निकट लाती है।अपने से भिन्न प्रकार के मन और पूजा पद्धति का पालन करने वाले मनुष्यों को भी अपने प्रेमालिंगन में बाँध लेने सक्षम विश्व धर्म का आदर्श : अर्थात मेरा -तेरा संकीर्ण धर्म नहीं, सच्चा धर्म जिसकी अनुभूति मनुष्य को ब्रह्मविद बना देती है, और वह देहाध्यास जन्य 'व्यष्टि अहं' को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित करके.... विभिन्न प्रकार के मन - शांत मन या सनकी मन के व्यक्तियों को भी  गले लगा लेने में समर्थ नेता/शिक्षक बन जाता है। क्योंकि तब उसे कोई पराया नहीं दीखता, सभी अपने हो जाते हैं।  " निषादराज को प्रेमालिंगन में बांधने वाले भगवान् राम तथा आधुनिक युग में 'शरद और अमजद' को एक समान देखने में सक्षम माँ सारदादेवी के जीवन में इसी धर्म का स्पष्ट दर्शन होता है। तभी तो महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं- राम मूर्तिमान् धर्म हैं---"रामो विग्रहवान् धर्म।"  
उसी 'विश्व धर्म का आदर्श' को परिभाषित करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा है -" धर्म अनुभूति का नाम है। वह बहस का विषय , मतवाद , या युक्तिमूलक कल्पना मात्र नहीं है, चाहे वह जितना भी सुंदर क्यों न हो। ' It is BEING AND BECOMING , not hearing or acknowledging' -अर्थात  इन्द्रियातीत सत्य या ब्रह्म को जानकर, तद्रूप हो जाना -उसका साक्षात्कार करना , यही धर्म है -वह केवल सुनने या मान लेने की वस्तु नहीं है। समस्त मन-प्राण विश्चास की वस्तु के साथ एक हो जायेगा। यही धर्म है।" [ख० 3.159] 
{ Religion is realisation; not talk, nor doctrine, nor theories, however beautiful they may be. It is BEING AND BECOMING , not hearing or acknowledging; it is the whole soul becoming changed into what it believes. That is religion."
(The Ideal of a Universal Religion : How It Must Embrace Different Types Of Minds And Methods.) 2/396 
धर्म कोई उपासना पद्धति न होकर एक विराट और विलक्षण जीवन-व्यवस्था है। यह दिखावा नहीं, दर्शन है। यह घुटनों की कवायद का प्रदर्शन नहीं, यह विवेक-प्रयोग है। यह चिकित्सा है मनुष्य को आधि, व्याधि, उपाधि से मुक्त कर सार्थक जीवन तक पहुँचाने की। यह स्वयं द्वारा स्वयं की खोज है।  धर्म, आदमी को पशुता से मानवता की ओर प्रेरित करता है। अनुशासन के अनुसार चलना धर्म है। हृदय की पवित्रता ही धर्म का वास्तविक स्वरूप है। धर्म का सार जीवन में संयम का होना है। 
इसी विश्व धर्म या धर्म के मौलिक स्वरूप की परिभाषा करते हुए महर्षि कणाद कहते हैं- "यतोऽभ्युदयः निःश्रेयस् सिद्धिः स धर्मः"अर्थात् जिसके धारण करने से व्यक्ति और समाज का अभ्युदय हो और जीवन का श्रेष्ठतम प्राप्तव्य प्राप्त हो सके वह धर्म है। 'अभ्युदय' का अर्थ है लौकिक सम्पदा और भौतिक उन्नति के माध्यम से अधिकाधिक विषयों के उपभोग के द्वारा सुख प्राप्त करना। तथा 'निःश्रेयस'  का अर्थ है अनात्मबंध से मोक्ष (d-hypnotized या भ्रममुक्त अवस्था की प्राप्ति।) धर्म उन सिद्धान्तों, तत्त्वों और जीवन प्रणाली को कहते हैं, जिसका पालन करने से  मानव जाति परमात्मा प्रदत्त शक्तियों के विकास से अपना लौकिक जीवन सुखी बना सके (अभ्युदय) तथा परलौकिक जीवन में जीवात्मा शान्ति का अनुभव (निःश्रेयस) भी प्राप्त  कर सके। इसमें मनुष्य अपने आत्मस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करता है जो सम्पूर्ण जगत् का अधिष्ठान है। इस स्वरूपानुभूति में संसारी जीव की समाप्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है। आत्मानुभवी पुरुष (ब्रह्मवेत्ता पुरुष) अपने आनन्दस्वरूप का अखण्ड अनुभव करता है। भोग अनित्य है और मोक्ष नित्य।  एक में संसार का पुनरावर्तन है तो अन्य में अपुनरावृत्ति। अभ्युदय में जीवभाव बना रहता है जबकि ज्ञान में आत्मभाव दृढ़ बनता है।  अर्थात जीवन के ऐहिक और पारलौकिक दोनों पक्षों से धर्म को जोड़ा गया था। धर्म की इससे अधिक उदार परिभाषा और क्या हो सकती है
इसी धर्म की व्याख्या करते हुए स्वामी विवेकानन्द अन्यत्र कहते हैं- " सत्य दो प्रकार का होता है: (१) इन्द्रिय ग्राह्य सत्य (Sensible Truthविज्ञान) - वह सत्य है जो मनुष्य की पंचेन्द्रियों के माध्यम से और उस पर आधारित तर्क द्वारा ग्रहण किया जाय। [ मनुष्य की पाँच इंद्रियों और उसके आधार पर तर्क द्वारा संज्ञानात्मक;जैसे सेव को नीचे गिरता हुआ देखकर न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को आविष्कृत कर लिया था,  पूर्णिमा के चन्द्रमा का प्रकाश उसका अपना नहीं सूर्य का प्रतिबिम्बित प्रकाश है। इस तथ्य को तर्क से जान लेना विज्ञान है। ]
(२) अतीन्द्रिय सत्य (Supersensible truths-वेद) - वह सत्य जो इन्द्रियातीत सूक्ष्म योगज शक्ति द्वारा ग्रहण किया जाय। प्रथम उपाय से संकलित ज्ञान को 'विज्ञान' कहते हैं; और दूसरे प्रकार के संकलित ज्ञान को 'वेद' कहा जाता है। ..... यह अतीन्द्रिय शक्ति , जिस व्यक्ति (या आध्यात्मिक संगठन ?) में आविर्भूत अथवा प्रकाशित होती है, उसका नाम 'ऋषि' है, और उस शक्ति के द्वारा वे जिस अलैकिक सत्य की उपलब्धि करते हैं, उसका नाम 'वेद' है। यह ऋषित्व और वेद-दृष्टि का लाभ करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। जब तक यह अवस्था प्राप्त न हो, तब तक धर्म केवल कहने की बात है। और यही मानना पड़ेगा कि धर्मराज्य की प्रथम सीढ़ी भी हमने पैर नहीं रखा है। (हिन्दू धर्म और श्री रामकृष्ण' 10 . 139) 
{Truth is of two kinds: (1) that which is cognizable by the five ordinary senses of man, and by reasonings based thereon; (2) that which is cognizable by the subtle, supersensible power of Yoga.Knowledge acquired by the first means is called science; and knowledge acquired by the second is called the Vedas.The person in whom this supersensible  power is manifested is called a Rishi, and the supersensible truths which he realises by this power are called the Vedas.This Rishihood, this power of supersensible  perception of the Vedas, is real religion. And so long as this does not develop in the life of an initiate, so long is religion a mere empty word to him, and it is to be understood that he has not taken yet the first step in religion'Hinduism and Sri Ramakrishna' C.W.6.181 }
महर्षि पतंजलि विश्व भर के मानव इतिहास में सर्वाधिक अनूठे मनोवैज्ञानिक हैं। उन्हें मानव चेतना का सम्यक् ज्ञान है। महर्षि इस सच्चाई को अच्छी तरह जानते हैं कि गन्तव्य पता हो, तो ही चलने वाले के पाँवों में गति आती है। पहले मंजिल का पता, फिर राह की बातें महर्षि की यही नीति है।  योग साधक का प्राप्तव्य एवं गन्तव्य- वस्तु या लक्ष्य ही अपने यथार्थ स्वरुप से योग हो जाना है। इसी कारण वह पहले समाधिपाद के सूत्रों का बयान करते हैं, बाद में साधन- पाद के सूत्र बताते हैं। अन्य दोनों पादों का क्रम इनके बाद आता है। समाधिपाद के तीसरे सूत्र में महायोगी महर्षि बताते हैं- "तदा द्रष्टु: स्वरूपेऽवस्थानम्'' (तदा) उस अवस्था में (द्रष्टुः, स्वरूपे) परमात्मा के स्वरूप में (अवस्थानम्) स्थिति होती है। चित्त वृत्ति का निरोध हुआ यानि कि मन का शासन मिटा। तब उसको अपने वास्तविक स्वरूप का विशेष ज्ञान और ईश्वर (ब्रह्म) के वास्तविक स्वरूप का परिज्ञान होता है। और तब साधक- सिद्ध हो जाता है। वह योगी बनता है, द्रष्टा बनता है, साक्षी भाव को उपलब्ध होता है। वह स्वयं में, अपने अस्तित्व के केन्द्र में, अपनी आत्मचेतना में अवस्थित हो जाता है। यही बुद्धत्व का अनुभव है। योगिवर स्वामी विवेकानन्द ने इसी गन्तव्य पर पहुँचकर गाया था- 'नाही सूर्य नाही ज्योति ' ... सूर्य भी नहीं है, ज्योति- सुन्दर शशांक नहीं, छाया सा यह व्योम में यह विश्व नजर आता है। मनोआकाश अस्फुट, भासमान विश्व वहाँ, अहंकार स्रोत ही में तिरता डूब जाता है। धीरे- धीरे छायादल लय में समाया जब, धारा निज अहंकार मन्दगति बहाता है। बन्द वह धारा हुई, शून्य से मिला है शून्य, ‘अवाङ्गमनसगोचरम्’ वह जाने जो ज्ञाता है ! (आत्मा,अहं नहीं है)। मन के पार यही है—बोध की स्थिति। यही है अपने स्वरूप में अवस्थिति। इसी 'अतीन्द्रिय सत्य ' में स्थित होकर महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 अभ्यास करने वाला साधक द्रष्टा बनता है, योगी बनता है
हमारे युगनायक स्वामी विवेकानन्द व श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय ने महामण्डल के माध्यम से हमें धर्ममय विज्ञान से साक्षात्कार करवाया है । सदकर्मों के माध्यम से- अर्थात Be and Make ' आंदोलन के माध्यम से 3H ' विकास की ओर आरुढ़ होना तथा चलना हमारा धर्म है। अंत में इतना ही कि विज्ञान हमें विकास की राह पर ले जाकर विकास से हमारा साक्षात्कार कराता है । इसीलिए श्रुति ने सम्पूर्ण मानवजाति के कल्याण  के लिए, सम्पूर्ण समाज की नैतिक रक्षा के करने में समर्थ होने के कारण इस विश्व धर्म को ही सबसे श्रेष्ठ, समाज की आन्तरिक शक्तिरूप शासक होने से शासकों का भी शासक माना है। श्रुति (केनोपनिषद् - 2.1.5) के शब्दों में-
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।2
जिस व्यक्ति ने मानव शरीर पाकर यदि इस जन्म में ही ईश्वर का अनुभव (परम सत्य का अनुभव) कर लिया तब तो  उसने जीवनसत्य (अविनाशी परमात्मा या ब्रह्म) को प्राप्त कर लिया। { जिस व्यक्ति ने इसी जन्म में अपने व्यष्टि अहं को  माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं बोध में रूपांतरित कर लिया, तब तो वह ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म ही हो गया।} और यदि इस जन्म में ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं किया तो बहुत बड़ी हानि हो जायेगी (अर्थात जन्म मरण के चक्कर में फंस कर अनन्त दुखों को भोगना पड़ेगा।) अतः सर्वत्र सभी प्राणियों में उस विशिष्ट रूप से व्याप्त चेतना (या सर्व व्यापक ब्रह्म) का बिशेष रूप से चिंतन करके बुद्धिमान महापुरुष इस शरीर (लोक) से मुक्त हो जाते हैं। 
याद रखें, यदि इस मनुष्य जन्म में आप भगवान का साक्षात्कार न कर सके तो ‘महतौ विनष्टिः’ सर्वस्वनाश हो जायगा। क्योंकि, जब दो रुपये की हानि की आशंका से रात को नींद नहीं आती तो सर्वस्वनाश की आशंका होने पर-महामण्डल द्वारा निर्देशित 3H विकास के लिए प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेकप्रयोग आदि 5 अभ्यास करने में आलस्य कैसे सतायेगा? इस संबंध में एक और  वेदमंत्र (ईशावास्योपनिषद-6) में कहा गया है -
 यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते॥६॥
जो व्यक्ति सभी प्राणियों को अपने में (आत्मा मे) देखता है और सभी प्राणियों में अपने को (आत्मा को) 
देखता है तब वह इस [सर्वात्म दर्शन]- के कारण ही किसी से घृणा/या किसी की निन्दा नहीं करता ॥ 
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म व्यक्ति का जीवन है, तथा धर्म ही राष्ट्र का और समाज का प्राण है। अभ्युदय और निःश्रेयस ये वे दो लक्ष्य हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए मनुष्य अपने जीवन में प्रयत्न (पुरुषार्थ ) करते हैं। इसी धार्मिक चेतना में स्थित होने से मनुष्य के हृदय का उद्गार फूट पड़ता  है - ‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।'
यह संस्कृति ही है जो हमें चरित्रवान मनुष्य  बनाती है और दूसरे मानवों के निकट सम्पर्क में लाती है और इसी के साथ हमें प्रेम, सहिष्णुता और शान्ति का पाठ पढ़ाती है।  संस्कृति के द्वारा हम दूसरों के साथ सन्तुलित स्थिति (poise- आत्मविश्वास, शांतचित्त)  प्राप्त करते हैं।
मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता। वह केवल भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और आत्मा भी है। भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा तो अतृप्त ही बने रहते हैं। इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए-  मनुष्य जब मन को एकाग्र करने और विवेक-प्रयोग करने का प्रशिक्षण प्राप्त करके अपने 3H को (शरीर,मन और हृदय को) विकसित और उन्नत बना लेता है, तब उस मनुष्य को सुसंस्कृत मनुष्य कहते हैं।  इस प्रकार हम देखते हैं कि मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं - शरीर (हैण्ड)  ,मन (हेड) और आत्मा (हार्ट्) । जिसको स्वामी विवेकानन्द 3'H' से इंगित करते थे ; इन तीनों को सुसमन्वित रूप से विकसित करके ही हम उन्नत मनुष्य या सुसंस्कृत मनुष्य बन सकते हैं। जबकि " Be and Make लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन " में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक/नेता भी लोक कल्याण के लिए कार्य करते हैं। 
धर्म (वेद) और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं : हां यह शत-प्रतिशत सत्य है कि भारत ही युगों-युगों से विश्व गुरु रहा है । वर्तमान युग में विज्ञान के क्षेत्र में अधिकांश उपलब्धि भारत की ही देन है। क्योंकि आज से लाखों वर्ष पूर्व जो विज्ञान भारत में था आज का विज्ञान सिर्फ उस दिशा में किया गया प्रयास भर है । यह विज्ञान हमारे यहां सतयुग, द्वापर व त्रेतायुग में अपने चरम पर था । हमारे यहां उस समय उन्नत प्रौद्द्योगिकी थी । सतयुग में (लाखों वर्ष पूर्व) हमारे यहां वायुयान बन गए थे । जो आजकल के वायुयानों से कई मायनों में उन्नत थे जोकि हमारे धर्मग्रन्थ रामायण में पुष्पक विमान के नाम से वर्णित हैं ।
फिर धीरे-धीरे कलयुग तक आते-आते यह धर्म ग्रन्थों में सीमित होकर रह गया। स्वामी जी के अनुसार रसोई की हांड़ी में सीमित होकर रह गया।  और कुछ सदियों पूर्व हमारे यहां हुए विदेशियों के आक्रमण के बाद तो ये संस्कृत में लिखे धर्मग्रन्थ भी विदेशी लोग अपने यहां ले गये, और इसीलिए खासतौर पर यूरोपीय देशों का विज्ञान नयी ऊंचाइयों पर पहुंच गया ।
रामायण काल में भगवान श्रीराम ने श्रीलंका जाने के लिए पुल का निर्माण करवाया था, जो कि आज की अभियान्त्रिकी से कई गुना विकसित थी । इस पुल के बारे में नासा द्वारा लिए गए चित्रों में स्पष्ट संकेत है, कि यह पुल 30 किलोमीटर लम्बा व 17 लाख वर्ष पुराना है जो कि रामायणकालीन बताया गया है जिसका नाम ‘एडम्सब्रिज’ रखा गया है ।
विज्ञान का क्षेत्र बहुत विस्तृत है, चाहे वह सामाजिक विज्ञान, राजनीति विज्ञान या जीवन विज्ञान ही क्यों न हो । ऐसे कई प्रकार और विज्ञान हमारे दैनिक जीवन के धर्मों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है । यदि इस विज्ञान को सुव्यवस्थित ढंग से संवारकर जीव-जगत के कल्याण के उपयोग में लाया जाये तो यह धर्म बन जाते है । कुछ व्यक्ति या संगठन धर्म के नाम पर अपने कुकृत्यों को सही ठहराते हैं जिसे किसी भी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता ।
माना कि व्यक्ति जिस जगह रहता है, वहां के वातावरण व वहां की सांस्कृतिक रीतिरिवाज, पूजापाठ, सामाजिक बन्धनों में वह बन्धा रहता है । लेकिन, इन सब को एक अलग धर्म का नाम दे देना व इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अलग करके देखना यथार्थ नहीं है । कोई सम्प्रदाय इसके लिए, इसे ही सबकुछ समझकर जिये मरे यह उचित नहीं है । वैज्ञानिक सोच में तो धर्म का अर्थ ही अलग है । धर्म को इस परिभाषा में जीव जगत के समस्त प्राणियों के कल्याण की कामना की गयी है ।
हमारे धर्मग्रन्थों/ शास्त्रों  में कहा गया है, कि सुबह सोकर ब्रह्म-मूहूर्त में उठना चाहिए । ब्रह्म-मूहूर्त में उठने की वैज्ञानिक सोच यह है, कि दिन भर की कई क्रियाकलापों व प्रदूषित वातावरण के कारण हमें श्वसन सम्बन्धी रोग हो सकते हैं, इसलिए जब सुबह सूर्योदय से पहले उठकर हम अपनी दिनचर्या प्रारंभ करते हैं तो चूंकि सुबह हवा शुद्ध व प्रदूषण मुक्त होती है तथा यह आसानी से श्वसन क्रिया के माध्यम से अंदर जा सकती है । इससे श्वसन सम्बन्धी रोगों को दूर किया जा सकता है । सूर्योदय से पहले स्नान करना भी हमारे धर्मग्रन्थों में है, इसको भी विज्ञान स जोड़ने के पीछे वैज्ञानिक कारण हैं । रात्रि के समय जितने भी प्रदूषक होते हैं वे हमारे शरीर पर एकत्रित हो जाते हैं । इसीलिए उन्हें,जितना जल्दी हो सके हटाना अतिआवश्यक है । इसके पश्चात सूर्यनमस्कार, क्योंकि सूर्य की पहली किरण स्वास्थ्यवर्धक व ऊर्जामय होती है । इसलिए हमारे धर्मग्रन्थों में सूर्योदय से पहले स्नान व फिर सूर्यनमस्कार करना बताया गया है । व इसके साथ-साथ कुछ योगासन भी बताए गए हैं जो सूर्यनमस्कार में करने होते है । इसी तरह, चन्दन व सिन्दूर का टीका लगाना है । इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि हमारी दोनों आंखों के मध्य पीनीयल ग्रन्थी रहती है । व इसके थोड़ा पीछे पीटयूटरी ग्रन्थी होती है जोकि मास्टरग्रन्थी भी कहलाती है । सिन्दूर और चन्दन का टीका लगाने से यह सक्रिय हो जाती है । चूंकि चन्दन ठण्डी प्रवृत्ति के लोगों के लिए तथा सिन्दूर गर्म प्रवृत्ति के लोगों के लिए लाभदायक होते है ।
मानव जीवन को यदि  एक ऐसी तराजू  माने , जिसके दो पलड़े, पहले को धर्म व दूसरे को विज्ञान कहा जाय तो  कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । धर्म जीवन जीने की प्रेरणा देता है, और जीवन को किस तरह जीया जाये, उसका नाम विज्ञान है । सुनने में थोड़ा अजीब-सा लगेगा, कि जो भी हम दिन भर-अपना  कर्तव्य-कर्म  करते हैं, वही  हमारा धर्म है । बशर्ते कि वह सुकर्म हो,  या शास्त्र-सम्मत कर्म हो, निषिद्ध कर्म न हों, व जिसके द्वारा हम अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हों। वह विज्ञान है धर्म व विज्ञान का परस्पर सामंजस्य भारतवर्ष के अलावा हमें विश्व में कहीं भी नहीं दिखने को मिलता है ।
 भारत की संस्कृति विश्व की समस्त संस्कृतियों के लिए मार्ग-दर्शिका है। भारत की सनातन संस्कृति न केवल भारतीयों को एकजुट रखने में सामर्थ्यशालिनी है अपितु इस सार्वभौम संस्कृति में संसार के सभी राष्ट्रों को एकसूत्र में बाँधने का परम-तत्त्व भी समाया हुआ है। इस सनातन संस्कृति के चार मूल-सिद्धान्त हैं जो विश्व-शान्ति का मार्ग प्रशस्त करने में पूर्ण सक्षम है-
1. एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति - सत्य एक है, विद्वान् इसे विभिन्न माध्यमों से कहते हैं। 
2. वसुधैव कुटुम्बकम् - समस्त विश्व एक कुटुम्ब या परिवार है।
3. सर्वे भवन्तु सुखिनः - सभी का कल्याण हो, सभी सुखी होवें।
4. यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे - जो पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में है।
अध्यात्मिकता, त्याग, सत्य और अहिंसा पर आधारित यह संस्कृति मनुष्य के चरित्र को सुधार कर समाज में एकता और बन्धुत्व के भावों का समावेश करती है तथा देश और समाज से लेने की अपेक्षा देने की प्रेरणा देती है। भारतीय संस्कृति ईश्वर की सर्वव्यापक सत्ता को स्वीकार कर मनुष्य के व्यक्तित्व में त्याग भाव का आरोपण करती है -
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्। 
तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥
इसके अनुसार परमात्मा की स्थिति को निरन्तर अपने साथ समझते हुए, इस संसार में अनासक्त भाव से सांसारिक, विषयों, द्रव्यों एवं पदार्थों आदि का उपभोग करना चाहिए।  भारतीय संस्कृति ही है, जो हमें बताती है कि विषयों का उपभोग करने से कामना कभी भी शान्त नहीं होती अपितु अग्नि में घी के सदृश निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होती रहती है-
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाऽभिवर्धते॥ 
किन्तु जब तक मनुष्य वासनाओं, तृष्णाओं को सत्य मानकर चलता है तथा उसमें लिप्त रहता है, वह ‘ब्रह्म सत्य है-और जगत मिथ्या ’ इस सिद्धांत की कल्पना भी नहीं कर सकता। अभ्यास के लिए यह सत्य है किन्तु अभ्यास कि उपरान्त व्यावहारिक दृष्टि से ‘सर्व खल्विदं-ब्रह्म’ को ही उपयोगी मानना पड़ता है। जगत को मिथ्या मानने वाले अपने प्रति भले ही अत्याचार न करते हो किन्तु यह भावना बनाकर समाज का घोर अहित करते है। अन्य व्यक्ति भी उनके इस आचरण का अनुकरण करके सामाजिक उत्तरदायित्वों से विमुख होने लगते हैं। 
संसार को माया मानकर कर्म को त्यागकर बैठना, एक प्रकार का पलायनवाद है। इसे अपनाकर कोई भी पूर्णता का जीवन लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता। भारत की इस कर्म-प्रधान संस्कृति में अकर्मण्यता का कोई स्थान नहीं है। निष्काम भाव से किया हुआ कार्य न तो आत्मा को बाँधता है न ही उसे मलिन करता है। जीवन का अस्तित्व कर्म पर ही टिका है। कर्म के बिना तो एक क्षण भी नहीं रहा जा सकता है। प्रश्न यह नहीं है कि मैं क्या करूं कि मेरा उद्धार हो जाय वरन् यह है कि मैं किस भावना से कार्य करूं जिससे अपनी आत्मा को निर्लिप्त एवं निसर्ग रखने के साथ ही साथ संसार का परित्याग भी नहीं करना पड़े।  ‘ईशावास्योपनिषद्’ कर्मवाद का समर्थन करते हुए कहता है-कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः। ईशावास्योपनिषद-2/ कर्मयोग निष्ठा  के साथ जुड़े रहने से ही (अर्थात महामण्डल के  मनुष्यनिर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन जैसे निष्काम कर्म के साथ जुड़े रहने से ही) मानव समाज शतजीवी हो सकता है। 
सांस्कृतिक विकास एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। हमारे पूर्वजों ने बहुत सी बातें अपने पुरखों से सीखी है। समय के साथ उन्होंने अपने अनुभवों से उसमें और वृद्धि की। जो अनावश्यक था, उसको उन्होंने छोड़ दिया। हमने भी अपने पूर्वजों से बहुत कुछ सीखा। जैसे-जैसे समय बीतता है, हम उनमें नए विचार, नई भावनाएँ जोड़ते चले जाते हैं और इसी प्रकार जो हम उपयोगी नहीं समझते उसे छोड़ते जाते हैं। इस प्रकार संस्कृति एक पीढी से दूसरी पीढी तक हस्तान्तरिक होती जाती है। 
‘जगत मिथ्या ?’ है की पारम्परिक मान्यता (conventional acceptance) से प्रभावित कोई व्यक्ति कर्म से विरत होकर नई खोज (innovation -नवाचार) और पुरुषार्थ या उद्यमिता (entrepreneurship) से विरत हो जाये, तो वह उस परम् सत्य की खोज कभी नहीं कर सकता।
पुरातन (Convention)और नूतन (innovation-नवाचार) के बीच हमेशा खींचातानी रहती है। जब भी कोई कुछ नया करना चाहता है तो एक वर्ग उसका मजाक उड़ाता है, विरोध करता है।" अधिकतर लोग कालीदास के ‘मेघदूत’ और ‘शकुन्‍तला’ के बारे में तो जानते हैं लेकिन बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि कालीदास ने अपने संस्कृत नाटक 'मालविकाग्निमित्रम्' **में दस्तूर (Convention) और नई खोज (innovation) के बारे में एक मजेदार बात कही है।  [ **नाटक की कथावस्तु राजकुमारी मालविका और विदिशा नरेश अग्निमित्र के मध्य प्रेम पर केन्द्रित है। विदर्भ राज्य की स्थापना अभी कुछ ही दिनों पूर्व हुई थी। इसी कारण इस नाटक में विदर्भ राज्य को "नवसरोपणशिथिलस्तरू" (जो सद्यः स्थापित है) कहा गया है। ]  इस नाटक के प्रारम्भ में ही कालिदास ने परम्परा और नई खोज (innovation-नवपरिवर्तन) के बारे में सूत्रधार से कहलवाया है -
पुराणमित्येव न साधु सर्वं, न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।
 सन्त: परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते, मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः॥
अर्थात पुरानी होने से (ही न तो सभी वस्तुएँ अच्छी होती हैं और न नयी होने से बुरी तथा हेय। विवेकशील व्यक्ति अपनी बुद्धि से परीक्षा करके या विवेक-प्रयोग करने के बाद श्रेष्ठकर वस्तु को अंगीकार कर लेते हैं और मूर्ख लोग दूसरों द्वारा बताने पर ग्राह्य अथवा अग्राह्य का निर्णय करते हैं। इसलिए जो पुराना है उसे केवल इसी कारण अच्छा नहीं माना जा सकता और जो नया है उसका इसलिए तिरस्कार करना भी उचित नहीं।
वर्तमान समय में आवश्यकता है अपनी संस्कृति में निहित आत्मतत्त्व को पहचान कर उसे आत्मस्थ करने की जिससे भारतीय संस्कृति की जड़ें और भी विस्तार को प्राप्त करें। निरन्तर प्रगति करने तथा प्रगति का मार्ग खुला रखने के लिए आवश्यक यह भी होगा कि नये और पुराने सिद्धान्तों में सुलझा हुआ दृष्टिकोण रखकर उन्हें परस्पर संघर्ष से मुक्त रखा जाए। पुरातन (अध्यात्म) तथा नूतन (विज्ञान)  का जहाँ मेल होता है वहीं उच्च संस्कृति की उपजाऊ भूमि है।
इस मनुष्य जीवन में दो विभाग हैं एक तो इसके सामने पुराने कर्मों (प्रारब्ध) के फलरूप में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है।  और दूसरा यह नया पुरुषार्थ (नये कर्म) करता है। मनुष्य शरीर में दो बातें हैं - प्रारब्ध का या पुराने कर्मों का फलभोग और नया पुरुषार्थ। जबकि दूसरी योनियों में केवल पुराने कर्मों का फलभोग है अर्थात् कीट-पतंग, पशु-पक्षी, देवता, से लेकर ब्रह्म-लोक तक की योनियाँ भोग योनियाँ हैं। इसलिये उनके लिये 'ऐसा करो और ऐसा मत करो' [do's and don't यम-नियम पालन] का  विधान नहीं है। अथवा  विवेक-प्रयोग करने के बाद ही कोई कार्य करो - ऐसा नियम नहीं है। परन्तु मनुष्य-शरीर तो केवल नये पुरुषार्थ के लिये ही मिला है; जिससे यह सर्वश्रेष्ठ प्राणी अपना उद्धार कर ले ! { अपना उद्धार करले अर्थात ब्रह्म (अपरिवर्तनीय परम् सत्य) को जानकर, (या अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव कर) ब्रह्म हो जाये - या स्वयं को विसम्मोहित( d-hypnotized) कर ले। }   यदि हर समय मन में यह भाव बना रहे कि - " मैं Exam Hall में बैठा हूँ और exam दे रहा हूँ" - इस मनोभाव के साथ विवेक-प्रयोग या विवेक-दर्शन करने के बाद ही नए कर्मों को करता है, तब  नये कर्मों के अनुसार ही इसके भविष्य का निर्माण होता है। इसलिये शास्त्र, सन्त-महापुरुषों का विधि-निषेध राज्य आदि का शासन केवल मनुष्यों के लिये ही होता है। क्योंकि मनुष्य योनि में पुरुषार्थ की प्रघानता है नये कर्मों को करने की स्वतन्त्रता है।
इसमें एक विशेष समझने की बात है कि इस मनुष्य जीवन में प्रारब्ध के अनुसार जो भी शुभ या अशुभ परिस्थिति (14 अप्रैल 1992 बनारस में एक्सीडेंट) अवश्य सामने आती है, किन्तु उस परिस्थिति से सुखी या दुःखी होना कर्मों का फल नहीं हैं प्रत्युत मूर्खता का फल है। कारण कि परिस्थिति तो बाहर से बनती हैऔर सुखी-दुःखी होता है (मृत्यु के भय डरता है?) यह स्वयं (आत्मा नहीं नामरूप में तादात्म्य रखने वाला अहं) । उस परिस्थिति के साथ तादात्म्य करके ही यह सुख-दुःख का भोक्ता बनता है। अगर मनुष्य उस परिस्थिति के साथ तादात्म्य न करके उसका सदुपयोग करे तो वही परिस्थिति उसका उद्धार करने के (आत्मसाक्षात्कार) लिये साधन-सामग्री बन जायगी। 
भारतीय संस्कृति के मूल तत्व : (The Foundations of Indian Culture) :[ सोलह संस्कार, 4 वर्णाश्रम, चार पुरुषार्थ। अनेकता (विविधता) में एकता - unity in diversity-भारत की विशेषता।  Samskaras, Varnashrama, Purusharthas.] भौगोलिक दृष्टि से भारत विविधताओं का देश है।  इस भौगोलिक विभिन्नता के अतिरिक्त इस देश में आर्थिक और सामाजिक भिन्नता भी पर्याप्त रूप से विद्यमान है।  फिर भी सांस्कृतिक दृष्टि से एक इकाई के रूप में इसका अस्तित्व प्राचीनकाल से बना हुआ है। भारत अनेक धर्मों, सम्प्रदायों, मतों और पृथक् आस्थाओं एवं विश्वासों का महादेश है, तथापि इसका सांस्कृतिक समुच्चय और 'विविधता  में एकता' (Unity in Diversity) का स्वरूप संसार के अन्य देशों के लिए विस्मय का विषय रहा है। वस्तुत: इन भिन्नताओं के कारण ही भारत में अनेक सांस्कृतिक उपधाराएँ विकसित होकर पल्लवित और पुष्पित हुई हैं। भाषाओं की विविधता अवश्य है फिर भी संगीत, नृत्य और नाट्य के मौलिक स्वरूपों में आश्चर्यजनक समानता है। संगीत के सात स्वर और नृत्य के त्रिताल सम्पूर्ण भारत में समान रूप से प्रचलित हैं।
भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि हज़ारों वर्षों के बाद भी यह संस्कृति आज भी अपने मूल स्वरूप में जीवित है, जबकि मिस्र, असीरिया, यूनान और रोम की संस्कृतियों अपने मूल स्वरूप को लगभग विस्मृत कर चुकी हैं।  चीनी संस्कृति के अतिरिक्त पुरानी दुनिया की अन्य सभी –प्राचीन  मिस्र , यूनान और रोम की-संस्कृतियाँ काल के कराल गाल में समा चुकी हैं।  कुछ ध्वंसावशेष ही उनकी गौरव-गाथा गाने के लिए बचे हैं; किन्तु भारतीय संस्कृति कई हज़ार वर्ष तक काल के क्रूर थपेड़ों को खाती हुई आज तक जीवित है। इसीलिए मोहम्मद इक़बाल ने कहा था- कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा। " ---(वो) क्या बात है, कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ? 
 इसी विषय पर बोलते हुए  स्वामी जी कहते हैं -" क्या कारण है कि एक राष्ट्र जीवित रहता है, तथा दूसरा नष्ट हो जाता है ? जीवन तो अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने का संग्राम है , और उस जीवनसंग्राम में घृणा टिक सकती है या प्रेम ? भोगविलास चिरस्थायी है अथवा त्याग ? भौतिकता टिक सकती है अथवा आध्यात्मिकता?  हमारी जीवन समस्या को हल करने का रास्ता है वैराग्य , त्याग, निर्भीकता तथा प्रेम। बस ये ही सब टिकने योग्य हैं। जो राष्ट्र इन्द्रियों की आसक्ति (कामिनी -कांचन में घोर आसक्ति का) त्याग कर देता है, वही टिक सकता है। और इसका प्रमाण यह है कि आज इतिहास हमें इस बात की गवाही दे रहा है कि प्रायः प्रत्येक सदी में बरसाती मेढकों की तरह नये राष्ट्रों का उत्थान तथा पतन होता रहता है। वे लगभग शून्य से प्रारम्भ करते हैं, कुछ दिनों तक खुराफात मचाते हैं, और फिर समाप्त हो जाते हैं।" 5 /100 ] 
"प्रत्येक व्यक्ति की तरह प्रत्येक राष्ट्र का भी एक ध्येय (साध्य) होता है, और उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए प्रत्येक राष्ट्र का एक विशेष निर्धारित मार्ग (साधन) भी होता है, जो उसके लिए संजीवनी बुट्टी की तरह कार्य करता है। और भारतवर्ष का विशेषत्व है धर्म !" (अर्थात चरित्रनिर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना ही भारत का धर्म है। ) वि० सा० 5 /99]
 जीवनसंग्राम में आने वाली चुनौतियों का सामना करने का भारतीय तरीका : ( Indian way to  'Face the Challenge of life): मनुष्य जीवन चुनौतियों का सामना करने के लिए उस संघर्ष या पुरुषार्थ का नाम है, जो कोई व्यक्ति अपनी अन्तर्निहित दिव्यता का अनावरण और विकास के लिए -(unfoldment and development of a being under the circumstances tending to press it down) या स्वयं को विसम्मोहित करने के लिए करता है।} 
 भारतीय आचार्य-परम्परा भौतिकता (अविद्या) एवं आध्यात्मिकता (विद्या) एवं  एक दूसरे का पूरक मानती है,  इसलिए भारतीय मनीषा ने जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए भौतिकता और आध्यात्मिकता में समन्वय बनाकर चलने की अपनी अनूठी जीवन-व्यवस्था आविष्कृत की है।  श्रुति-परम्परा (आचार्य परम्परा) में 'पुरुषार्थ' आधारित प्राचीन भारतीय संस्कृति में भौतिक सुखों को (कामिनी -कांचन को) आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति में साधक माना गया है, बाधक नहीं । दोनों घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं । दोनों का समन्वित स्वरूप पुरुषार्थों के माध्यम से प्रतिपादित किया गया है। पाश्चात्य संस्कृति जहाँ केवल भौतिकता को ही सर्वोच्च प्राथमिकता देती है, वहीँ चार पुरुषार्थ, चार आश्रम, चार वर्ण और १६ संस्कार में आधारित भारतीय संस्कृति में भौतिकता को महत्वपूर्ण मानते हुये भी आध्यात्मिकता को प्राथमिकता दी गयी है । आध्यात्मिकता और भौतिकता के इस समन्वय में भारतीय संस्कृति की वह विशिष्ट अवधारणा परिलक्षित होती है, जो मनुष्य के इस लोक और परलोक को सुखी बनाने के लिए भारतीय मनीषियों ने निर्मित की थी।  चार पुरुषार्थों के माध्यम से भारतीय मनीषा ने प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, आसक्ति एवं त्याग के बीच सुन्दर समन्वय स्थापित किया है । हमारे पूर्वज ऋषि -मुनियों ने हमारी संस्कृति में जीवन के ऐहिक (कर्ममार्ग- प्रवृत्ति धर्म) और पारलौकिक (ज्ञानमार्ग -निवृत्ति धर्म)  दोनों पहलुओं के साथ धर्म को सम्बद्ध कर दिया है। 
भारतीय आचार्य-परम्परा (श्रुति परम्परा) भौतिक सुखों (कामिनी- कांचन) को क्षणिक मानते हुये भी उन्हें पूर्णतया त्याज्य नहीं समझती, बल्कि उनके प्रति अतिशय आसक्ति का ही विरोध करती है । पुरुषार्थों का उद्देश्य मनुष्य के भौतिक सुख (प्रवृत्ति धर्म) तथा आध्यात्मिक सुखों (निवृत्ति धर्म) के बीच सामंजस्य स्थापित करना है ।  मनुष्य भौतिक सुखों के संयमित उपभोग (त्याग पूर्वक भोग के)   द्वारा ही आध्यात्मिक सुख प्राप्त करता है । साहित्य, संगीत और कला की सम्पूर्ण विधाओं के माध्यम से भी भारतीय संस्कृति के इस आध्यात्मिक एवं भौतिक समन्वय को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। 
मनुष्य-जीवन का उद्देश्य है - पुरुषार्थचतुष्टय (The Object of Human Pursuit) : भारतीय मनीषा ने मनुष्य तथा समाज की उन्नति के निमित्त जिन आदर्शों का विधान प्रस्तुत किया उन्हें “पुरुषार्थ” की संज्ञा दी जाती है। इसलिए इन्हें 'पुरुषार्थचतुष्टय' भी कहते हैं। पुरुषार्थों का सम्बन्ध मनुष्य तथा समाज दोनों से है । वस्तुतः चारो पुरुषार्थ मनुष्य एवं समाज एवं उनके अन्तर्सम्बन्धों के नियामक हैं । ये मनुष्य तथा समाज के बीच सम्बन्धों की व्याख्या करते हैं, उन्हें नियमित बनाते हैं तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों को नियन्त्रित भी करते हैं । वे मनुष्य तथा समाज के बीच के सम्बन्धों की व्याख्या करते हुए उन्हें न्यायसंगत बनाते हैं । दोनों के उचित सम्बन्धों पर वे प्रकाश डालते हैं तथा उनके अनुचित सम्बन्धों को उजागर भी करते हैं ताकि मनुष्य उनसे बच सके ।
 पुरुषार्थ (Efforts)  = पुरुष+अर्थ, अर्थात मानव को 'क्या' प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए?  दूसरे शब्दों में मनुष्य के जीवन का उद्देश्य (The Object of Human Pursuit) क्या होना चाहिए ? मनुष्य के लिये वेदों में प्रायः चार पुरुषार्थों का नाम लिया गया है - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।  
इनमें धर्म की स्थिति सर्वोच्च है । अर्थ तथा काम का उचित उपभोग धर्म के माध्यम से ही सम्भव है । प्रारंभ के तीन पुरुषार्थों को साध लेने के बाद ही मनुष्य मोक्ष को साधने में (भ्रममुक्त या d-hypnotized हो जाने में) समर्थ होता है। अपने कर्तव्य कर्मों का (अर्थात धर्म का) पालन किए बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकती। मनुष्य मात्र को चाहिए कि वह धर्म के पथ पर चलते हुए , अर्थ अर्थात धन प्राप्त करें । उस अर्थ के द्वारा अपनी कामनाओं को, आवश्यकताओं को पूरा करें। इसीलिए हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति में जीवन के ऐहिक और पारलौकिक दोनों पहलुओं से धर्म को सम्बद्ध किया गया है। यहाँ काम तथा अर्थ साधन है जबकि धर्म एवं मोक्ष साध्य स्वरूप हैं । त्रिवर्ग में तीनों पुरुषार्थों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है ।  भारतीय संस्कृति  में मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य स्वीकार किया गया है जिसकी प्राप्ति सभी चारो वर्णों में जन्मे मनुष्यों का परम लक्ष्य है ।
मोक्ष का अर्थ है पुनर्जन्म अथवा आवागमन चक्र से मुक्ति प्राप्त कर आत्मा का परमात्मा में विलीन हो जाना।शरीर नश्वर है, आत्मा अमर है, यह अमरता मोक्ष से जुड़ी हुई है।  और यह मोक्ष पाने के लिए अर्थ और काम के पुरुषार्थ करना भी जरूरी है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति में धर्म और मोक्ष आध्यात्मिक सन्देश एवं अर्थ और काम की भौतिक अनिवार्यता परस्पर सम्बद्ध है।
मनुस्मृति में त्रिवर्ग -धर्म,अर्थ, काम के समन्वय पर बल दिया गया है । मनुस्मृति के अनुसार ‘कुछ कहते हैं कि मनुष्य का लाभ धर्म तथा अर्थ में है, कुछ के अनुसार यह काम तथा अर्थ में है, जबकि कुछ लोग केवल धर्म में ही मनुष्य का लाभ देखते हैं । किन्तु वस्तु-स्थिति यह है कि मनुष्य का कल्याण तीनों पुरुषार्थों के समुचित समन्वय में ही निहित है ।’ मनुस्मृति में विहित है कि इन्द्रिय विरोधी राग-द्वेष रहित तथा अहिंसा परायण व्यक्ति ही मोक्ष की प्राप्ति करता है । चार्वाक् के अतिरिक्त अन्य सभी विचारधारायें इस सत्य को स्वीकार करती हैं- कि आत्मा अजर, अमर एवं परमात्मा का ही अंश है । पुराणों में मोक्ष के लिये दया, प्राणियों में समभाव, क्षमा, अक्रोध, सत्य, लोभ, मोह, कामादि का त्याग आदि गुणों का आचरण आवश्यक बताया गया है । इन्द्रिय, मन तथा बुद्धि पर नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति को मोक्ष स्वयंमेव प्राप्त हो जाता है ।
मनुस्मृति के टीकाकार कुल्लूक भट्ट का विचार है कि लौकिक दृष्टि से अर्थ एवं काम महत्वपूर्ण हैं किन्तु पारलौकिक दृष्टि से विचार करने पर मोक्ष ही एकमात्र अभीष्ट रह जाता है तथा अन्य पुरुषार्थ इसकी प्राप्ति में सहायक बन जाते हैं ।
गीता ज्ञान के स्थान पर भक्ति को प्रधानता देती है तथा मोक्ष के लिये ईश्वर की कृपा को आवश्यक बताती है। कृष्ण अर्जुन से कहते है कि सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आओ । मैं तुम्हें सभी  पापों से मुक्त कर दूँगा । जैन तथा बौद्ध दर्शन में भी अविद्या के विनाश को ही मोक्ष का उपाय माना गया है । जैन इसके लिये त्रिरत्नों (सम्यक् दर्शन, ज्ञान तथा चरित्र) एवं बौद्ध अष्टांगिक मार्ग (सम्यक दृष्टि, संकल्प, वाक्, कर्मान्त, आजीव, व्यायाम, स्मृति तथा समाधि) का विधान प्रस्तुत करते हैं ।
चार आश्रमों के द्वारा जीवनयापन करता हुआ (पुरुषार्थ करता हुआ) चारो वर्णों का व्यक्ति, अपनी रूचि और प्रवृत्ति के अनुसार चार पुरुषार्थों के माध्यम से समाज एवं परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का पूर्ण निर्वाह करता है । चार पुरुषार्थ कहे गए हैं -धर्म, अर्थ ,काम और अंतिम तथा सबसे महत्वपूर्ण पुरुषार्थ है "मोक्ष" !  तीन प्रकार के= (आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक) दुःखों से सर्वथा छूट जाना पुरुष= आत्मा का अन्तिम लक्ष्य है, (इसी को मुक्ति कहते हैं)। इसी से समस्त दुखों की निवृत्ति होती है। यहां यह शंका स्वाभाविक है कि मोक्ष से ही समस्त दुखों की निवृत्ति क्यों ? धर्म, अर्थ और काम से क्यों नहीं?इसका समाधान यह है कि सांसारिक साधनों से एक दुख दूर होता है तो दूसरा नया दुख उत्पन्न हो जाता है। किंतु मोक्ष मिल जाने से समस्त दुख एक साथ ही छूट जाते हैं । इस लोक में तीन प्रकार के दुःख आध्यात्मिक, अधिभौतिक, एवं अधिदैविक नाम से प्रसिद्ध हैं। तीन प्रकार के दुखों से अत्यन्त निवृत्ति अर्थात पूर्णरूपेण मुक्ति - या सदा के लिए दुःखो का तिरोभाव ही अत्यन्त पुरूषार्थ अर्थात मोक्ष हैं ।
इसीलिए सांख्य-दर्शन के प्रथम सूत्र में मोक्ष को ही समूल दुख निवृत्ति का या  सब प्रकार के दुःखों से छुटकारा पाने के लिए प्रयत्न करने को परम पुरुषार्थ (Supreme effort) कहा गया है।   'सांख्य' का शाब्दिक अर्थ है - 'संख्या सम्बंधी' या विश्लेषण। भारतीय संस्कृति में किसी समय सांख्य दर्शन का अत्यंत ऊँचा स्थान था। देश के उदात्त मस्तिष्क सांख्य की विचार पद्धति से सोचते थे। इसकी सबसे प्रमुख धारणा सृष्टि के प्रकृति-पुरुष से बनी होने की है। यहाँ प्रकृति (यानि पञ्चमहाभूतों से बनी) जड़ है और पुरुष (यानि जीवात्मा) चेतन। भारतीय दर्शन के छः प्रकारों में से सांख्य भी एक है। परम पुरुषार्थ (Supreme effort) अर्थात मनुष्य के 'उद्यम' का उद्देश्य क्या होना चाहिए है ?
सांख्य-दर्शन का प्रथम सूत्र कहता है - अथ त्रिविधदुख: खात्यन्त: निवृत्तिरत्यन्त पुरूषार्थ:।। १।।  
- अर्थात् अब इस ग्रन्थ में हम तीनों प्रकार के -आधिभौतिक (शारीरिक), आधिदैविक एवं आध्यात्मिक दु:खों  से स्थायी एवं निर्मूल रूप से छुटकारा पाने के लिए सर्वोकृष्ट प्रयत्न (Supreme effort- परम पुरुषार्थ) का वर्णन कर रहे हैं।
त्रिविध दुःखों की निवृत्ति को साख्य में अत्यंत पुरुषार्थ कहा है। प्रधान दुःख जरा और मरण है जिनसे लिंगशरीर अर्थात महाभूत के शरीर की निवृत्ति के बिना चेतन (witness consciousness) या पुरुष मुक्ती नहीं पा सकता है । इस प्रकार की मुक्ति या अत्यंत दुःख निवृत्ति तत्वज्ञान द्वारा— प्रकृति और पुरुष के भेद ज्ञान (प्रकृति और पुरुष के विवेकज-ज्ञान)  द्वारा—ही संभव है । वेदांत ने सुखदुःख ज्ञान को अविद्या कहा है । इसकी निवृत्ति ब्रह्माज्ञान (विद्या)  द्वारा हो जाती है ।
 १) आधिभौतिक दुःख :-   यह मनुष्य को होने वाली शारीरिक दु:ख है - जैसे बीमारी, अपाहिज होना इत्यादि। आधिभौतिक दुःख वह हैं जो स्थावर, जंगम (पशु, पक्षी, साँप, मच्छड़ आदि) भूतों के द्वार अर्थात पंच महाभूत के शरीर द्वारा उत्पन्न होता है।सर्प, व्याघ्र आदि के काटने ,चोट लगने, धन चोरी हो जाने आदि से प्राप्त होने वाले दुख को आधिभौतिक दुख कहते हैं। 
२) आधिदैविक दुःख :- यहां दैविक शब्द देवता शक्ती संबंध से जो विपादा उत्पन्न होता हैं या प्रकृति के संयोग वश कोई प्राणघाती दुर्घटना उत्पन्न होता हैं उसे भी आधिदैविक कहते हैं। यह देवी प्रकोपों द्वारा होने वाले दु:ख है जैसे बाढ़, आंधी, तूफान, भूकंप इत्यादि के प्रकोप ।  तथा अतिवृष्टि, अनावृष्टि ,वज्रपात ,आग लगने, बाढ़ आने आदि प्राकृतिक आपदाओं से उत्पन्न होने वाले दुख को आधिदैविक दुख कहते हैं। 
३) अध्यात्मिक दुःख –  आत्मा को शरीर या मन से प्राप्त होने वाले दुख को आध्यात्मिक दुख है। यह दु:ख सीधे मनुष्य की आत्मा को होते हैं।  जैसे कि कोई मनुष्य शारीरिक व दैविक दु:खों के होने पर भी दुखी होता है। उदाहरणार्थ-कोई अपनी संतान अपना माता-पिता के बिछुड़ने पर दु:खी होता है अथवा कोई अपने समाज की अवस्था को देखकर दु:खी होता है।
भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्व हैं - संस्कार, वर्णाश्रम व्यवस्था और पुरुषार्थ चतुष्टय। यहाँ गर्भधान से मृत्यु तक १६ संस्कारों (षोडश संस्कार) का उल्लेख किया जाता है जो मानव को उसके गर्भ में जाने से लेकर मृत्यु के बाद तक किए जाते हैं।  इनमें से विवाह या पाणिग्रहण संस्कार और  यज्ञोपवीत आदि संस्कार बड़े धूमधाम से मनाये जाते हैं।  जब  युवक-युवतियों में परिवार निर्माण के प्रति कर्त्तव्य-निर्वाह की आर्थिक योग्यता और शारीरिक तथा मानसिक परिपक्वता आ जाती है, तब वैसे सद्गृहस्थ बनने  योग्य   युवक-युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है। समाज के सम्भ्रान्त व्यक्तियों की, गुरुजनों की, कुटुम्बी-सम्बन्धियों की, देवताओं की उपस्थिति इसीलिए इस धर्मानुष्ठान के अवसर पर आवश्यक मानी जाती है।  पति-पत्नी इन सन्भ्रान्त व्यक्तियों के सम्मुख अपने निश्चय की, प्रतिज्ञा-बन्धन की घोषणा करते हैं। यह प्रतिज्ञा समारोह ही विवाह संस्कार या पाणिग्रहण संस्कार है। ताकि दोनों में से कोई यदि इस कत्तर्व्य-बन्धन की उपेक्षा करे, तो गुरुजन उन्हें  रोकें और गृहस्थों के धर्म या विवाह के उद्देश्य का स्मरण करा सकें। इसीलिए भारत में तलाक का दर पाश्चत्य देशों की अपेक्षा बहुत कम है।
 पश्चिमी देशों के मुक़ाबले भारत में महिलाओं का विवाहित जीवन ज़्यादा सुरक्षित हैं और उनकी देख-रेख बहेतर तरीक़े से होती है।  कई बार तो लड़कियां  माता पिता के घर से ज़्यादा खुश ससुराल में रहती हैं।  उनकी परेशानियां और दर्द उनके परिवार में सुलझा लिया जाता है। हो सकता है कि परिवार से उनका सामंजस्य कभी कभार बहुत बुरा रहता हो, लेकिन इन सबके बाद भी परिवार बना रहता है। बहुत बड़ी आबादी के बीच तो तलाक़ की कभी कोई चर्चा भी नहीं होती है, क्योंकि भारतीय समाज इसे निंदनीय समझता है। 'Unified Lawyers ' नामक एक फर्म  की रिपोर्ट के हिसाब से भारत में सिर्फ 1% शादियां टूटती हैं और ये दुनिया के सबसे कम डिवोर्स रेट वाले देशों में से एक है। और इसी रिपोर्ट में दावा किया गया है कि यूरोपीय देश लक्समबर्ग (Luxembourg) में सबसे ज्यादा शादियां टूटती हैं. लक्समबर्ग में करीब 87% शादियां तलाक में बदल जाती हैं। 
ऋग्वेद में कहा भी गया है -समानी व आाकूतिः समाना हृदयानि वः। समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति॥  संस्कृति के द्वारा हम स्थूल भेदों के भीतर व्याप्त एकत्व के अन्तर्यामी सूत्र तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं और उसे पहचान कर उसके प्रति अपने मन को विकसित करते हैं। अतः भारतीय संस्कृति का अध्यन और अनुशीलन जीवन-गठन के लिए परम आवश्यक है।
भाग्य और पुरुषार्थ एक दूसरे के पूरक हैं :  पुरुषार्थी अथवा कर्मवीर व्यक्ति जीवन में आने वाली बाधाओं व समस्याओं को सहजता से स्वीकार करते हैं । कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी वे विचलित नहीं होते हैं अपितु साहसपूर्वक उन कठिनाइयों का सामना करते हैं । जीवन संघर्ष में वे निरंतर विजय की ओर अग्रसित होते हैं और सफलता की ऊँचाइयों तक पहुंचते हैं। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो भाग्यवादी होते हैं । ये व्यक्ति थोड़ी-सी सफलता अथवा खुशी मिलने पर अत्यंत खुश हो जाते हैं परंतु दूसरी ओर कठिनाइयों से बहुत ही शीघ्र विचलित हो जाते हैं । उनमें निराशा घर कर जाती है, फलत: सफलता सदैव उनसे दूर रहती है । इन परिस्थितियों में वे स्वयं की कमियों को खोजने तथा उनका हल ढूँढ़ने के स्थान पर अपने भाग्य को दोष देते हैं । इतिहास में ऐसे अनगिनत मनुष्यों की गाथाएँ हैं जिन्होंने अपने पुरुषार्थ के बल पर असाध्य को साध्य कर दिखाया है ।
यदि हम विश्व के अग्रणी देशों का इतिहास जानने की कोशिश करें तो हम देखते हैं कि यहाँ के नागरिक अधिक स्वावलंबी हैं । वे भाग्य पर नहीं बल्कि पुरुषार्थ पर विश्वास रखते हैं । जापान भौगोलिक दृष्टि से बहुत ही छोटा देश है परंतु विकास की राह पर जिस तीव्रता से यह अग्रसर हुआ है वह अन्य विकासशील देशों के लिए अनुकरणीय है । अत: यदि हमें अपने परिवार, समाज और देश को उन्नत बनाना है तो यह आवश्यक है कि देश के नवयुवक भाग्य पर नहीं अपितु अपने पुरुषार्थ पर विश्वास करें एवं स्वावलंबी बनें । दूसरों पर आश्रित रहने की प्रवृत्ति को त्यागें । 
गीता में श्रीकृष्ण ने सच ही कहा है :“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन: ।”कर्म का मार्ग पुरुषार्थ का मार्ग है । धैर्यपूर्वक अपने कर्तव्य पथ पर अडिग रहना ही पुरुषार्थ को दर्शाता है । पुरुषार्थी व्यक्ति ही जीवन में यश अर्जित करता है । वह स्वयं को ही नहीं अपितु अपने परिवार, समाज तथा देश को गौरवान्वित करता है । पर कभी-कभी अपने भाग्य को (हरि की इच्छा और हरिकृपा को)  स्वीकार कर लेना ही श्रेयस्कर है क्योंकि इस स्थिति में हमें संतोष और धैर्य का अनायास ही साथ मिल जाता है जो जीवन में उन्नति के लिए आवश्यक है । 
भीष्म पितामह कहते हैं - बेटा युधिष्ठिर! तुम सदा पुरुषार्थ के लिये प्रयत्नशील रहना। पुरुषार्थ के बिना केवल प्रारब्ध (भाग्य)  राजाओं का प्रयोजन नहीं सिद्ध कर सकता। यद्यपि कार्य की सिद्धी में प्रारब्ध और पुरुषार्थ - ये दोनों साधारण कारण माने गये है, तथापि मैं पुरुषार्थ को ही प्रधान मानता हूँ। प्रारब्ध तो पहले से ही निश्चित बताया गया है। अतः यदि आरम्भ किया हुआ कार्य पूरा न हो सके अथवा उसमें बाधा पड़ जाय तो इसके लिये तुम्हें अपने मन में दुःख नहीं मानना चाहिये। तुम सदा अपने आपको पुरुषार्थ में ही लगाये रखो। यही राजाओं की सर्वोत्तम नीति है। सत्य के सिवा दूसरी कोई वस्तु राजाओं के लिये सिद्धिकारक नहीं है। सत्यपरायण राजा इहलोक और परलोक में भी सुख पाता है। 
‘चरैवेति-चरैवेति’ : भारतीय संस्कृति में धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूपी पुरुषार्थ-चतुष्टय का सिद्धान्त ही जीवन को सार्थक करने और लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर करता है। निरन्तर गति मानव जीवन का वरदान है। व्यक्ति हो अथवा राष्ट्र जो भी एक पड़ाव पर टिक जाता है, उसका जीवन ढलने लगता है। भारतीय संस्कृति का ‘चरैवेति-चरैवेति’ सिद्धान्त जीवन को निरन्तर गतिमान् रखता है। अतः इसकी धुन जब तक भारतीय संस्कृति की आचार्य परम्परा रूपी रथ-चक्रों में गूँजती रहेगी तब तक व्यक्ति तथा राष्ट्र में निरन्तर उन्नति होती रहेगी।
भारतीय संस्कृति का जो साधना पक्ष है, तप उसका प्राण है - तपोमयं जीवनम्। तप का तात्पर्य है तत्त्व का साक्षात् दर्शन करने का सत्य प्रयत्न - सत्यपरिपालनम्। तप हमारी संस्कृति का मेरुदण्ड है। तप की शक्ति के बिना भारतीय संस्कृति में जो कुछ ज्ञान है वह स्वादहीन रह जाता है। तप से ही यहाँ का चिन्तन सशक्त और रसमय बना है। उसका मुख्य कारण - भारतीय संस्कृति में पुरूषार्थ-चतुष्टय का विशिष्ट स्थान रहा है। रंभा रुपसुंदरी है और शुकदेवजी मुनि शिरोमणि ! रंभा यौवन और शृंगार का वर्णन करते नहीं थकती, तो शुकदेवजी ईश्वरानुसंधान का । दोनों के बीच हुआ संवाद अति सुंदर है।  रम्भा कहती है : हे मुनि ! हर मार्ग में (जीवन नदी के हर मोड़ पर)  पाँच बाणों को धारण करनेवाले कामदेव मन को बेचेन बनाते हैं । शुकदेवजी कहते हैं - 
मार्गे मार्गे जायते साधुसङ्गः , सङ्गे सङ्गे श्रूयते कृष्णकीर्तिः ।
कीर्तौ कीर्तौ नस्तदाकारवृत्तिः,वृत्तौ वृत्तौ सच्चिदानन्द भासः ॥ 
हे रंभा ! हर मार्ग में साधुजनों का संग होता है, (जीवन नदी के हर मोड़ पर जिसको Be and Make शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित नेता C-IN-C नवनीदा का संग - अर्थात मार्गदर्शन प्राप्त होता रहता है। उसको)  उन हर एक सत्संग में भगवान कृष्णचंद्र के गुणगान (अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण देव-माँ सारदा देवी -स्वामी विवेकानन्द का जीवन चरित)  सुनने मिलते हैं । हर गुणगाण सुनते वक्त हमारी चित्तवृत्ति भगवान के ध्यान में लीन होती है, और हर वक्त सच्चिदानंद का आभास होता है ।
सुरुपं शरीरं नवीनं कलत्रं,धनं मेरुतुल्यं वचश्चारुचित्रम् ।
हरस्याङ्घि युग्मे मनश्चेदलग्नं,ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥
हे Body is handsome, the wife is attractive,Fame spread far and wide, wealth is enormous and stable like Mount Meru;But if the mind is not immersed in devotion to the lotus feet of the Guru Vivekananda, Really of what use is all these, what use, what use, what use?हे रंभा ! शरीर युवा और सुंदर हो, पत्नी आकर्षक हो, प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई हो, मेरु पर्वत की तरह धन-संपत्ति विशाल और स्थिर बनी हुई हो; लेकिन अगर मन अपने गुरु देव (मार्गदर्शक नेता C-IN-C नवनीदा) के चरण कमलों की भक्ति में डूबा नहीं है, तो वास्तव में इन सभी का क्या उपयोग है, क्या उपयोग, क्या उपयोग? अर्थात स्वामी विवेकानन्द के दर्शन का अभ्यास किये बिना इन सबका कोई महत्व नहीं है। 
वस्तुत: इन पुरुषार्थों ने ही भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिकता के साथ भौतिकता का एक अदभुत समन्वय कर दिया है। कर्म और तप, अध्यात्म और दर्शन, धर्म और शिक्षा की विशिष्ट साधना पद्धतियों के माध्यम से अनन्त सर्वव्यपाक रस-तत्त्व तक पहुँचने की सतत चेष्टा (पुरुषार्थ) भारतीय संस्कृति में पायी जाती है।  जिसमें आध्यात्मिक भावना, वर्णाश्रम व्यवस्था, कर्मवाद, पुनर्जन्मवाद, मोक्ष, अहिंसापालन, मातृ-पितृ-गुरु भक्ति और स्त्री समादर इत्यादि का समावेश रहता है।  इस प्रकार प्राचीन आश्रम व्यवस्था में आधारित भारतीय संस्कृति में 'मोक्ष' को ही मनुष्य जीवन  का चरम लक्ष्य माना गया है । ब्रह्मचर्य आश्रम में ही विद्यार्थी को इसका बोध हो जाता था तथा जीवन-पर्यन्त वह अपनी समस्त क्रियाओं को उसी ओर नियोजित करता था । जीवन के अन्तिम संन्यास आश्रम से इस लक्ष्य की पूर्ण प्राप्ति होती थी ।
सुखी मानव-जीवन का निर्माण करने के लिए ऐसी जीवन-व्यवस्था विश्व की अन्य संस्कृतियाँ में प्राप्य नहीं हैं। परिवर्तनशील आश्रम - व्यवस्था के साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे चार पुरुषार्थों के द्वारा आध्यात्मिकता एवं भौतिकता का समन्वय, प्राचीन भारतीय संस्कृतिकी अपनी व्यवस्था है- जो विश्व की अन्य संस्कृतियों में सर्वथा अप्राप्य है ।  एक महान आध्यात्मिक संस्कृति हम भारतवासियों को अपने पूर्वजों से विरासत में प्राप्त हुई है, जिसको हमें पूरे विश्व को दानस्वरूप देना होगा; क्योंकि आज पूरी दुनिया उदग्रीव होकर इसकी प्रतीक्षा कर रही है। 
इसीलिए विवेकानन्द ने कहा था -" भारत ही वह भूमि है , जहाँ से उमड़ती हुई बाढ़ की तरह धर्म और आध्यात्मिक संस्कृति ने सम्पूर्ण विश्व को बार -बार आप्लावित कर दिया था। और यही वह भूमि है , जहाँ से पुनः ऐसी ही (आध्यात्मिक) तरंगे उठेंगी और विश्व के निस्तेज मनुष्यों में शक्ति और जीवन का संचार कर देंगी। " 5.179/
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