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सोमवार, 9 दिसंबर 2019

"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः" [ 'Be and Make' Syllabus-1 ]

स्त्रियों के प्रति मानसिक व्यभिचार (Mental adultery) या वाचिक हिंसा रोकना प्रथम धर्म है। 
हैदराबाद में डॉक्टर बिटिया के साथ हुई वारदात के बाद ... दुष्कर्मियों के पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने से देशभर की स्त्रियों ने राहत की साँस ली है। लेकिन सबसे जरुरी है, उस मानसिकता को जड़ से खत्म करना, जिसकी वजह से स्त्रियों के प्रति ऐसे गंभीर अपराध होते हैं। वरिष्ठ साहित्यकार नीरजा माधव का मानना है कि ऐसे घिनौने अपराधों का 'बीज-तत्व ' है स्त्रियों से जुड़े अपशब्दों का समाज में बड़े ही सहज भाव और धड़ल्ले से प्रयोग। बोल-चाल की यह बदजुबानी कब बदनीयती में बदल जाती है , पता ही नहीं चलता ... 
अन्ततः हैदराबाद की दुःखद घटना का पटाक्षेप हो गया। डॉक्टर बिटिया के दुष्कर्मियों को 9 दिन के अंदर ही उनके किये कर्मों की सजा मिल गई। इस 'सफाई ' के बाद अब जरूरत है विचारों की सफाई के लिए एक आंदोलन या अभियान छेड़ने की; उन नारी-सूचक अपशब्दों के विरोध में, जिन्हें पूरा का पूरा स्त्री-समाज [मातायें -बहने -बेटियाँ ] न जाने कब से से पचाती और नजर-अंदाज करती या दृष्टि-ओझल करतीं, सुनकर भी अनसुना करती चली आ रही हैं। ये नारी -सूचक शब्द का प्रयोग करके, (slang) बोलने या अपशब्द बोलने की कूप्रथा,या गवाँरु भाषा में गाली -गलौज (slang) करने की कूप्रथा-- कुछ इस प्रकार हमारे समाज की जुबान पर रच-बस गए कि, आज  [गया जिला ?] के पढ़े-लिखे व्यक्ति भी इसका धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं। उन्हें इस बात का थोड़ा भी ध्यान नहीं रहता कि इससे पूरे स्त्री-समाज का (मातृ-जाति) का अपमान हो रहा है।
शर्मनाक पहलु: इस प्रकार आजादी के बाद भी मानसिक व्यभिचार (Mental adultery) या वाचिक हिंसा होती रहती है और हमलोग चुपचाप उसे देखते -सुनते रहते हैं। दो मित्र यदि आपस में चुहल कर रहे हों, तो बेधड़क माँ -बहन के लिए अक्सर अपशब्दों का प्रयोग होता है। आपस में विवाद (dispute -तकरार) हो तो ऐसे ही अपशब्दों की बौछार होती है। पुलिस वाले , टैक्सी -रिक्शेवाले, बसड्राइवर -खलासी , पढ़े-लिखे या अनपढ़ , स्कूली छात्र या झुग्गी-झोपडी में रहने वाले युवा, बच्चे-बूढ़े सभी किसी न किसी बात में एक दूसरे की माँ ,बहन या बेटी के लिए अपशब्दों का प्रयोग करते हैं। और इस बात की तनिक परवाह नहीं करते वहीँ सामने की सीट पर मातायें -बहने -बेटियां भी बैठी हुई हैं या नहीं ? भारत की आधी आबादी स्त्रियों की है, किन्तु पूरी आबादी इन अपशब्दों को सुनने के लिए अभिशप्त होती है। यौनिक संबन्धों के सूचक इन अपशब्दों का प्रयोग स्कूलों -कॉलेजों और पढ़े-लिखे वर्ग में भी किया जाता है। अब तो अधिक आधुनिक कहलाने की होड़ में छात्राओं ने भी अपने सहपाठियों के लिए ऐसे अपशब्दों का प्रयोंग करना सीख लिया है। यदि हिन्दी में अपशब्द नहीं होंगे तो अंग्रेजी के अपशब्द होंगे -पर होंगे जरूर। चाहे प्यार में हों, या तकरार में। यह शर्मनाक पहलु है।
मानसिक-व्यभिचार और वाचिक हिंसा ही शारीरिक हिंसा के लिए उसकाने का काम करती हैं - मनुष्य ही नहीं , अपितु पशु या निर्जीव वस्तुओं की भी माँ, बहन , बेटियों भद्द पिटती रहती है। तांगे का घोडा या बैलगाड़ी का बैल यदि दायें -बायें मुड़ जाये तो चालक का अभद्र रिश्ता बैलों की माँ-बहन-बेटी से जुड़ जाता है। स्कूटर-चालक के सामने बाधा आने पर उनके जुबान को सुनने से क्षोभ होता है। नाविक लोगों का झगड़ा हो, या उच्च स्तर के प्रोफेसर का -स्त्रियों से सम्बंधित अपशब्द बोलने में कोई वर्ग पीछे नहीं है। हाँ , आश्चर्यजनक ढंग से इन स्त्री-सूचक अपशब्दों में पत्नी का कोई स्थान नहीं है। शायद सामने वाले का खून माँ-बहन-बेटी के लिए अपमान जनक शब्द सुनने पर ही खौल सकता है, यह सोच हावी हो ? 
भारतीय समाज का स्वाभाविक रूप से अपशब्द को बर्दास्त करते रहना ही वह मूल कारण है, जिसके चलते कोई बच्चा या युवा स्त्रियों के प्रति असम्मान सूचक शब्दों को सामान्य बोलचाल की भाषा समझ लेता है। वह मातृजाति की मर्यादा के प्रति सजग हो ही नहीं पाता , क्योंकि उसे बचपन से ही स्त्रियों के इसी रूप को बार-बार देखने और सुनने का परिवेश मिलता रहा है। स्त्रियों के प्रति यही वाचिक हिंसा उसे क्रूर शारीरिक हिंसा या बलात्कार जैसे कुकृत्यों के लिए उकसाती है। 
खो गयी वेदों की वाणी : यह सब देखकर आश्चर्य होता है, कि क्या हम उसी भारतीय संस्कृति के अंग हैं, जहाँ के शास्त्रों में स्त्रियों के लिए सम्मान प्रकट करते हुए मनु महाराज कहते हैं - "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।  यत्र तु एताः न पूज्यन्ते तत्र सर्वाः क्रियाः अफलाः (भवन्ति) । मनुस्मृति ३/५६ ।।
जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नही होती है, उनका सम्मान नही होता है वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं। भारतीय नारी हमेशा कुलदेवी समझी जाती है। वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति सभी प्रकार से अच्छी थी। उनको एक ऊँचा स्थान प्राप्त था। लड़कियाँ भी जब गुरु के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने जाती थीं, तब ब्रह्मचर्य का पालन करती थीं।
[ शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् । न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ।। मनुस्मृति ३/५७ ।।जिस कुल में स्त्रियाँ कष्ट भोगती हैं ,वह कुल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और जहाँ स्त्रियाँ प्रसन्न रहती है वह कुल सदैव फलता फूलता और समृद्ध रहता है । (परिवार की पुत्रियों, बधुओं, नवविवाहिताओं आदि जैसे निकट संबंधिनियों को ‘जामि’ कहा गया है ।)]
पत्नी के द्वारा ही धर्म, अर्थ, काम आदि त्रिवर्ग का फल प्राप्त होता है। गृह का निवास, सुख के लिए होता है और घर के सुख का मूल पत्नी ही है। भारतीय मनीषा ने नारी सम्मान और राष्ट्र की प्रगति को एक-दूसरे से जुड़ा हुआ माना है। पुराणों और स्मृतियों में भी नारी सम्मान का उल्लेख बार बार मिलता है। विष्णुपुराण में नारी का अपमान न करने का उपदेश देते हुए कहा है -'योषिता नावमन्येत । '[विष्णुपुराण ३.१२.३०] 
अर्थात योषिता = स्त्री, युवती का / नावमन्येत = न अवमन्येत  / नारियों का असम्मान नहीं करना चाहिए। ऋग्वेद और अथर्ववेद में कहा गया है कि नारी के सम्मान और सुरक्षा के बिना कोई भी राष्ट्र सुरक्षित नहीं रह सकता। अथर्ववेद में पत्नी को ‘रथ की धुरी’ कहकर गृहस्थ का आधार माना गया है। आधुनिक युग के कवी जयशंकर प्रसाद ने लिखा है - 'नारी! तुम केवल श्रद्धा हो,विश्वास-रजत-नग पगतल में।पीयूष-स्रोत-सी बहा करो,जीवन के सुंदर समतल में।' स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा है कि वे ही देश उन्नति कर सकते हैं, जहाँ स्त्रियों को उचित सम्मान प्राप्त होता है।
 माँ की ममता का वह आंचल जो सबको आश्रय देता है, सभी रिश्ते उससे जुड़कर ही सार्थक होते हैं। किन्तु क्या हम वास्तव में नारी समुदाय को सम्मान या श्रद्धा दे पा रहे हैं ? आज समाचार-पत्र खोलते ही स्त्री उत्पीडन की बातें ही दिखाई देती हैं। माँ , बहन के प्रति किये गए अश्रद्धापूर्ण व्यवहार से क्या हम प्रतिदिन अपने राष्ट्र का चरित्र कलंकित नहीं कर रहे हैं। वह राष्ट्र जिसकी वंदना हम माता के रूप में करते हैं, किन्तु दो दोस्त आपस में बातचीत करते हुए भी एक-दूसरे की माँ , बहन का अपमान करते हैं। वे इन अपशब्दों का उच्चारण करने में इतने अभ्यस्त हो गए हैं, अब वही उनकी प्रवृत्ति बन गयी है, और उन्हें इसमें कुछ भी बुरा या अश्लील नहीं दिखाई देता। जबकि यही वाचिक हिंसा क्रमशः कर्म में परिवर्तित होने की दिशा में अग्रसर होने लगता है। 
उदार-दृष्टि के नाम पर, आजादी के बाद एक खास विचारधारा से प्रभावित साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा गया जिसमें यथार्थ-उदारता के नामपर अपशब्दों और नग्नता का भरपूर चित्रण किया गया। बिना यह परवाह किये कि, उनके इस विकृत सृजन का भावी पीढ़ी के युवाओं पर क्या मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ेगा। इस प्रकार के साहित्य पाठ्यक्रमों में भी शामिल किये गए, जिसके फलस्वरूप पूर्ण विकृत मानसिकता वाली एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो गयी, जो स्त्रियों की मर्यादा के प्रति असंवेदनशील रही। भाषा की शुचिता , सह शिक्षा में परस्पर पवित्र व्यवहार जैसे विराट उद्देश्य साहित्य से दूर होते चले गए। और एक संक्रामक बीमारी की तरह स्त्रियों के प्रति अपमानजनक शब्दों ने पूरे समाज को अपनी जकड़ में ले लिया। 
यहाँ मूक हर आवाज क्यों ? आश्चर्य होता है कि जो बुद्धिजीवी , साहित्यकार , कथाकार, राजनेता , टीआरपी बढ़ाने वाली मिडिया जो बच्चियों और स्त्रियों के प्रति प्रायः घटने वाली दुराचार , हिंसा के विरोध में मोमबत्तियां लेकर जुलुस निकालते हैं, वे कभी स्त्री-सूचक अमर्यादित अपशब्दों को अपने संज्ञान में क्यों नहीं लेते ? इसके लिए टीवी चैनलों पर आज तक कोई बहस नहीं दिखाई पड़ी। वाचिक हिंसा , भाषायी अश्लीलता के विरोध में कभी कोई संगठन खड़ा नहीं हुआ। स्त्रियों के हित में कानून बना है, पर उनकी इज्जत को तार तार करते इन क्रूर अपशब्दों का प्रयोग करने के विरोध में और अपशब्द कहने वाले को सजा देने के पक्ष में कोई कानून क्यों नहीं बना ? हर बात पर अनर्गल फतवे जारी करने वाले मुल्लाओं ने भी इन अपशब्दों को बंद करने के लिए कोई फतवा आजतक जारी नहीं किया है।
मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के प्रचार-प्रसार की अनिवार्यता : नारियों को इस शब्द हिंसा से बचाने के लिए , राजनीतिज्ञों से पहले धार्मिक नेताओं को [अर्थात  " Be and Make वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित जीवन्मुक्त शिक्षकों को] आगे आना होगा। उनके जीवन को पहले गठित करना होगा। भाषा के संस्कार को समझना होगा। लोगों को 3'H' --(हैण्ड,हेड,हार्ट्) को विकसित कर मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा देनी होगी। समाज के लिए भाषा का संस्कार और शुचिता क्यों आवश्यक है , इसके लिए साहित्यकारों, साधु-संतों को आगे आना होगा। सर्वप्रथम भाषायी उत्पीड़न को रोकना होगा तब स्त्रियों के प्रति अपराध रुकेंगे। 
सबसे अधिक पुलिस वालों को अपनी भाषा के प्रति सतर्क होना होगा, जिनकी जुबान पर स्त्री-सूचक गालियाँ लॉ ऐंड ऑर्डर मेन्टेन करने के नाम पर सबसे पहले आती हैं। यह कैसी विडंबना है ? शिक्षण संस्थानों को भी इसके लिए आगे आना होगा कि नैतिकता का पाठ,रित्र-निर्माण की प्रशिक्षण पद्धति नई पीढ़ी को सीखने के लिए वे ही अनुप्रेरित कर सकते हैं। जब से चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के पाठ हमारे पाठ्यक्रमों से कम हुए हैं, समाज में अराजकता बढ़ी है। स्त्रियों के प्रति वाचिक -शारीरिक अत्याचार और शोषण की घटनाएं बढ़ी हैं। 
जनसंख्या वृद्धि के जो दुष्परिणाम होते हैं, उसके कारण भारत में अशिक्षितों और असंस्कारित लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग रहता है,  जो स्त्रियों के प्रति अपशब्दों का प्रयोग साँस लेने की क्रिया के तरह करता रहता है। स्त्री इन अपशब्दों के मकड़जाल में फंसी कसमसा रही है। वह अब सोच रही है कि क्या अशिक्षित, शिक्षित , अमीर -गरीब , हिन्दू-मुसलमान , सिख-ईसाई अर्थात समाज के सभी वर्ग में जड़ें जमाये इन स्त्री-सूचक अपशब्दों पर क्या कभी रोक लग सकती है ? क्या स्त्री को अकारण अपमानित करने का यह देशव्यापी रोग समाप्त हो सकता है ? कौन पहल करेगा इसे रोकने के लिए ? कानून, समाज या स्वयं स्त्री ? आशा की एकमात्र किरण है, कि इन अपशब्दों को अपने अपने स्तरों से रोकने का एक अभियान  छिड़ सके। संकल्प कठिन है, पर असम्भव नहीं है। हो सकता है कि कुछ समय लगे, पर स्त्रियों की मर्यादा को लेकर सभी एकजुट होंगे और स्त्री -सूचक अपशब्दों का अपने जीवन , समाज के जीवन और राष्ट्र के जीवन से भी बहिष्कार करेंगे तो स्त्रियों के प्रति हो रही अस्वाभाविक गंदी घटनाओं और हिंसा पर रोक लग सकेगी। अपशब्दों को रोकना ही शारीरिक हिंसा को रोकने का प्रारम्भ बिंदु है।                
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[साभार : 'हम भारत के बदजुबान लोग' -नीरजा माधव/मधुवन, एस ए 14/598, सारंगनाथ कॉलोनी, सारनाथ, वाराणसी, 221007 (उ. प्र.)/ neerjamadhav@gmail.com/ दैनिक जागरण / 8 दिसंबर 2019 /91-542-2595344, 91-9792411451/] 

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