सन्त कबीर दास (1398 -1518)
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अध्यापन विज्ञान (Pedagogy)
[उपदेशक (preacher) को पहले स्वयं अमलकर्ता (implementer) बनना होगा ]
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1.साधारण परिचय : पूरा नाम : संत कबीरदास- अरबी भाषा में कबीर का अर्थ महान होता है। भक्ति-काल ई ० सन् 1398 में जन्म, जन्मस्थान - काशी, लहरतारा, वाराणसी, उत्तर प्रदेश। मृत्यु- सन् 1518-मगहर । लालन पालन– नीरू और नीमा नामक जुलाहे के द्वारा। पत्नी का नाम– लोई, पुत्र और पुत्री – कमाल और कमाली। कार्यक्षेत्र - समाज सुधारक, कवि, कपड़े के लिए सूत काटना, कपड़े बनाना। कर्म स्थल - काशी, आधुनिक वाराणसी।
महात्मा गाँधी के जीवन दर्शन से साम्यता रखते हुए , कबीर को भी शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सद्भाव, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। कबीर एक ऐसे साधक है जिनकी विचारधारा में एकता, समता और बंधुत्व पूर्ण रूप से समाहित है। कबीर आज भी प्रासंगिक हैं उनका मानवतावादी दृष्टिकोण सम्यक और संपूर्ण समाज की आवश्यकता-सी बन गई है । गाँधी जी की 150 वीं जयंती के उपलक्ष्य में दिल्ली पब्लिक स्कूल ग्रेटर नोएडा के लगभग 500 विद्यार्थियों ने पूरी तरह विद्यालय द्वारा तैयार 16 नवंबर 2019 को नृत्य नाटिका ‘मेरा साहिब मुझमें’ का विद्यालय के सभागार में शानदार मंचन किया । अपने संबोधन में अतिथियों का स्वागत करते हुए विद्यालय की प्रधानाचार्या श्रीमती रेणु चतुर्वेदी जी ने कहा कि ‘मेरा साहिब मुझमें’ बच्चों की प्रतिभा, कौशल, ऊर्जा, बुद्धि और कल्पना का प्रदर्शन है। कबीर की साखियाँ आज आधुनिकता के संदर्भ में भी पूरी तरह से प्रासंगिक हैं। सभा के अंत में मुख्याध्यापिका श्रीमती श्रीमती मंजू वर्मा ने सबको बधाई देते हुए धन्यवाद ज्ञापन किया।
कबीर दास 15वीं सदी के भारतीय कवि माने जाते हैं। इनके नाम पर कबीर-पंथ नामक संप्रदाय भी प्रचलित है। ये मध्यकालीन भारत के स्वाधीन चेता महापुरुष थे और इनका परिचय प्रायः इनके जीवनकाल से ही इन्हें सफल साधक, भक्त कवि, मत-प्रवर्तक अथवा समाज सुधारक मानकर दिया जाता रहा है। इनका जन्म काशी में हुआ था जिनका वर्णन कबीर जी खुद किया है-“काशी में परगट भये, रामानंद चेताये”इस वाक्य में कबीर ने अपने जन्मस्थान और अपने गुरु का नाम रामानंद बताया था। 2. बचपन : इनके जन्म के विषय में प्रसिद्ध है कि कबीर ने किसी विधवा ब्राह्मणी की कोख से जन्म लिया। विधवा होने के कारण वह इन्हें अपना न सकी और इन्हें लहरतारा नामक तालाब के किनारे छोड़ दिया। नीरू और नीमा के एक जुलाहा-दम्पति ने इन्हें वहां से जाते से जाते हुए देखा। वह निसंतान थे इसलिए ख़ुशी इन्हें भगवन का प्रसाद समझकर इन्हें गले लगाये और इनकी परवरिश की। वह समाज में लोक-लाज के कारण अपने इस शिशु को काशी के लहरतारा नामक तालाब के किनारे छोड़ गई। वहाँ से इस शिशु को सन्तानहीन जुलाहा दम्पती नीरू-नीमा ने उठा लिया, और इनका लालन-पालन अपने पुत्र के समान किया। कबीरदास का लालन-पालन जुलाहा परिवार में हुआ था, इसलिए उनके मत का महत्त्वपूर्ण अंश यदि इस जाति के परंपरागत विश्वासों से प्रभावित रहा हो, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। यद्यपि जुलाहा शब्द फारसी भाषा का है, तथापि इस जाति की उत्पत्ति के विषय में संस्कृत पुराणों में कुछ न कुछ चर्चा मिलती ही है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खंड के दसवें अध्याय में बताया गया है कि म्लेच्छ और किसी कुविंद-कन्या के संयोग से [कुविंद का सम्बन्ध कोरी (कोली) जाति से है। ] जोला या जुलाहा जाति की उत्पत्ति हुई है। अर्थात् म्लेच्छ पिता और कुविंद माता से जो संतति हुई वही जुलाहा कहलाई। कबीर बड़े होने लगे।
3. कबीर दास जी की शिक्षा: कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। अपनी अवस्था के बालकों से एकदम भिन्न रहते थे। कबीरदास की खेल में कोई रुचि नहीं थी। मदरसे भेजने लायक साधन पिता-माता के पास नहीं थे। जिसे हर दिन भोजन के लिए ही चिंता रहती हो, उस पिता के मन में कबीर को पढ़ाने का विचार भी न उठा होगा। यही कारण है कि वे किताबी विद्या प्राप्त न कर सके। किंवदंती है कि जब कबीर भजन गा-गा कर उपदेश देने लगे, तब उन्हें पता चला कि बिना किसी गुरु से दीक्षा लिये हमारे उपदेश मान्य नहीं होंगे। क्योंकि लोग उन्हें 'निगुरा' कहकर चिढ़ाते थे। लोगों का कहना था कि जिसने स्वयं किसी गुरु से उपदेश नहीं ग्रहण किया, वह भला औरों को क्या उपदेश देगा ? अतएव कबीर को किसी को गुरु बनाने की चिंता हुई। कबीर के समय में गुरु रामानन्द उच्च कोटि के संत माने जाते थे। कई लोगो ने कबीर जी को उनके पास जाकर शिक्षा दीक्षा लेने को कहा।
प्रत्येक आत्मा (जीव) संभावित परमात्मा है केवल आत्मसाक्षात्कार का फर्क है ! (Each Soul is potentially Divine, The only difference is self-realization.): गुरु स्वामी रामानन्द वैष्णव सम्प्रदाय (वल्ल्भ दर्शन) के संत थे और भगवान् श्री राम को अपना ईष्ट देवता मानते थे। वैष्णव सम्प्रदाय के सन्त स्वामी रामानंद का मत था भगवान् राम ही सर्वोपरि सत्य वस्तु (पुरुषोत्तम) हैं, और भगवान् विष्णु के अवतार है। इसके अतिरिक्त आदि शंकारचार्य के अद्वैतवाद के सिद्धांत में भी इनका विश्वास था। अद्वैत मत के अनुसार जीव (आत्मा) और ब्रह्म (परमात्मा) अलग अलग नहीं हैं, दोनों एक ही है। और प्रत्येक जीवात्मा संभावित ब्रह्म (परमात्मा) है, केवल आत्मसाक्षात्कार का फर्क है।
कई बार कहने के बाद कबीर जी रामानंद जी के पास गये और उन्हें शिक्षा देने को कहा। लेकिन उस ज़माने में उच-नीच और जाति पाती इस कदर हावी था की रामानंद ने कबीर को अपना शिष्य बनाने से मना कर दिया। लेकिन जन्म से फक्कड़ स्वभाव के कबीरदास एक बार जो ठान लेते उसे पूरा करके ही दम लेते थे। उनके साथ रहने वालो ने बताया की अगर एक बार कोई उनके चरणों में आ गया तो उनका जीवन धन्य हो जायेगा, तो अब कबीर जी ठान लिए थे रामानंद को अपना गुरु बनाकर रहेगे।
रामानंदजी पंचगंगा घाट पर नित्य प्रति प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में ही स्नान करने जाया करते थे। बस एकदिन कबीर जी पहले से ही उनके रास्ते में पड़ने वाले सीढियों पर लेट रहे। और फिर हल्का अँधेरा होने की वजह से रामानंद जी जब उस रास्ते से गुजरे तो अँधेरे की वजह रामानंद एक पैर कबीर जी के सीने पर पड़ गया। तो इतने में रामानंद के मुँह से 'राम राम' निकल पड़ा। और फिर पछताते हुए बोले मुझसे कैसा पाप हो गया, और कबीर को उठाते हुए अपने इस कृत्य के लिए क्षमा माँगने लगे।
किन्तु कबीर जी का तो काम ही बन गया। गुरुजी के दर्शन भी हो गए, उनकी पादुकाओं का स्पर्श भी मिल गया और गुरुमुख से रामनाम का मंत्र भी मिल गया। अब दीक्षा में बाकी क्या रहा, कबीर जी नाचते, गाते, गुनगुनाते रामानंद के पैरो में तुरंत गिर गये और बोले अगर गुरुदेव आप अपने कृत्य का पश्चाताप करना चाहते है तो मुझे अपना शिष्य बना ले। इस बार रामानंद जी मना नही कर सके, और इस तरह कबीर जी रामानंद के शिष्य बन चुके थे और इस प्रकार कबीर जी शिक्षा दीक्षा का ज्ञान रामानंद जी से मिला। अत्यंत स्नेहपूर्वक हृदय से गुरुमंत्र का जप करते, गुरुनाम का कीर्तन करते साधना करने लगे।
जीवनपर्यंत राम नाम रटते रहे जो स्पष्टतः रामानंद के प्रभाव का सूचक है; अतएव स्वामी रामानंद को कबीर का गुरु मानने में कोई अड़चन नहीं है। चाहे उन्होंने स्वयं उन्हीं से मंत्र ग्रहण किया हो अथवा उन्हें अपना मानस गुरु बनाया हो। उन्होंने किसी मुसलमान फकीर को अपना गुरु बनाया हो इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता। जो महापुरुष जहां पहुंचे हैं, वहां की अनुभूति उनका भावपूर्ण हृदय से चिंतन करने वाले को भी होने लगती है। काशी के पंडितों ने देखा कि यवन का पुत्र कबीर राम नाम जपता है, रामानंद के नाम का कीर्तन करता है! उस यवन को राम नाम की दीक्षा किसने दी, पंडितों को इस बात की ईर्ष्या हो गई।
4. वैवाहिक जीवन :कबीर का विवाह वनखेड़ी बैरागी की पालिता कन्या लोई के साथ हुआ था। उनके नाम का जिक्र उनके पद में भी हुआ है-कहत कबीर सुनहु रे लोई।हरि बिन राखन हार न कोई। कबीर के पुत्र का नाम कमाल तथा पुत्री का नाम कमाली था। उनका पुत्र उनकी तरह साधु जीवन से शायद सहमत न रहा होगा। वे उससे दुखी थे, यह तथ्य उनकी इस काव्य-पंक्ति से पता चलता है-बूड़ा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल। हरि का सिमरन छोडि के, घर ले आया माल।
ग्रंथ साहब के एक श्लोक से विदित होता है कि कबीर का पुत्र कमाल उनके मत का विरोधी था। कबीर की पुत्री कमाली का उल्लेख उनकी बानियों में कहीं नहीं मिलता है। कहा जाता है कि कबीर के घर में रात-दिन मुडियों का जमघट रहने से बच्चों को रोटी तक मिलना कठिन हो गया था। इस कारण से कबीर की पत्नी झुंझला उठती थी। उधर कबीर को कबीर पंथ में बाल-ब्रह्मचारी माना जाता है। इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या। लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रूप में भी किया है। वस्तुतः कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे।
5.$$$कबीर के समकालीन सामाजिक परिस्थितियां : वि.सं. 1081 में मूर्तियों की अशक्तता (debility) बड़ी स्पष्टता से प्रगट हो चुकी थी। जब महमूद ग़ज़नी (971-1030) ने आत्मरक्षा से विरत, हाथ पर हाथ रखकर बैठे हुए श्रद्धालुओं को देखते-देखते सोमनाथ का मंदिर नष्ट करके, उन लाखों श्रद्धालुओं में से हजारों को तलवार के घाट उतारा था। और वहाँ के सोने को लूटकर ग़ज़नी, जो मध्य अफ़गानिस्तान में स्थित एक छोटा सा शहर था, को उस लुटेरे ने बगदाद साम्राज्य के धनी और प्रांतीय शहर के रूप में बदल दिया था।
गजेंद्र की एक ही टेर सुनकर दौड़ आने वाले और ग्राह से उसकी रक्षा करने वाले सगुण भगवान जनता के घोर संकट-काल में भी उसकी रक्षा के लिए आते हुए न दिखाई दिए। अतएव उन सगुण मूर्तियों की भक्ति करने की ओर जनता को सहसा भक्ति मार्ग में प्रवृत्त कर सकना असंभव था। उस समय के हिन्दुओं को मृत्यु या धर्मपरिवर्तन के अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं दिख पड़ता था। काल की कठोर आवश्यकताएँ महात्माओं को जन्म देती हैं। कबीर का जन्म भी समय की विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ था।
भारत की लक्ष्मी पर लुब्ध लूटेरे मुसलमानों का विकराल स्वरूप, जिसे उनकी धर्मांधता ने और भी अधिक विकराल बना दिया था,अलाउद्दीन खिलजी (सं. 1352-1372) के समय में भलीभाँति प्रकट हुआ। हिंदू जाति के लिए जीवन धीरे-धीरे एक भार-सा होने लगा, कहीं से आशा की झलक तक न दिखाई देती थी। चारों ओर निराशा और निरवलम्बता का अंधकार छाया हुआ था। वह समय और परिस्थिति अनीश्वरवाद के लिए बहुत ही अनुकूल थी, यदि उसकी लहर चल पड़ती तो उसे रोकना बहुत ही कठिन हो जाता। परंतु कबीर ने बड़े हीकौशल से इस अवसर से लाभ उठाकर जनता को भक्तिमार्ग की ओर प्रवृत्त किया और भक्तिभाव का प्रचार किया।
प्रत्येक प्रकार की भक्ति के लिए जनता इस समय तैयार नहीं थी। यद्यपि धर्मज्ञ तत्वज्ञों ने सगुण उपासना से क्रमशः आगे बढ़ते चढ़ते निर्गुण उपासना तक पहुँचने का सुगम मार्ग बतलाया है। और वास्तव में यह तत्व बुद्धिसंगत भी जान पड़ता है। किन्तु उस समय मूर्तियों की अशक्तता और सगुण उपासना की निःसारता का जनता को परिचय मिल चुका था, और उस पर से उनका विश्वास भी हट चुका था। अतएव कबीर को अपनी व्यवस्था उलटनी पड़ी। यहाँ के सूफ़ी मुसलमान भी निर्गुण उपासक थे। अतएव उनसे मिलते-जुलते पथ पर लगाकर कबीर ने हिंदू जनता को संतोष और शांति प्रदान करने का उद्योग किया।
महात्मा कबीरदास के जन्म के समय में भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक दशा शोचनीय थी। एक तरफ मुसलमान शासकों की धर्मांधता से जनता परेशान थी और दूसरी तरफ हिंदू धर्म के कर्मकांड, विधान और पाखंड से धर्म का ह्रास हो रहा था। जनता में भक्ति-भावनाओं का सर्वथा अभाव था। पंडितों के पाखंडपूर्ण वचन समाज में फैले थे। ऐसे संघर्ष के समय में, कबीरदास का प्रादुर्भाव हुआ। जिस युग में कबीर आविर्भूत हुए थे, उसके कुछ ही पूर्व भारतवर्ष के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना घट चुकी थी। ऐसा माना जाता है कि अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ की रानी पद्मिनी की सुन्दरता पर मोहित था। इसका वर्णन मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी रचना पद्मावत में किया है। रावल रतन सिंह युद्ध में शहीद हुये और उनकी पत्नी रानी पद्मिनी ने अन्य स्त्रियों के साथ जौहर कर लिया,ये चर्चा का विषय है। अन्ततः 28 जनवरी 1303 ई. को अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ गढ़ के क़िले पर अधिकार करने में सफल हुआ। यह घटना इस्लाम जैसे एक सुसंगठित संप्रदाय का आगमन था। इस घटना ने भारतीय धर्म-मत और समाज व्यवस्था को बुरी तरह से झकझोर दिया था। उसकी अपरिवर्तनीय समझी जाने वाली जाति-व्यवस्था को पहली बार जबरदस्त ठोकर लगी थी। सारा भारतीय वातावरण संक्षुब्ध था। बहुत-से पंडितजन इस संक्षोभ का कारण खोजने में व्यस्त थे और अपने-अपने ढंग पर भारतीय समाज और धर्म-मत को संभालने का प्रयत्न कर रहे थे। और ऐतिहासिक अनिवार्यता को पूर्ण के लिए, खिलजी की मृत्यु (1372) के 26 वर्ष बाद 1398 ई महात्मा कबीर को अवतरित होना पड़ा।
6. आध्यात्मिक क्रांति के मशाल वाहक नेता/ शिक्षक कबीर : लोक कल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर को वास्तव में एक सच्चे विश्व-प्रेमी का अनुभव था। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी। समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है।कबीर संत कवि और समाज सुधारक थे। उनकी कविता का एक-एक शब्द पाखंडियों के पाखंडवाद और धर्म के नाम पर ढोंग व स्वार्थपूर्ति की निजी दुकानदारियों को ललकारता हुआ आया और असत्य व अन्याय की पोल खोल धज्जियां उड़ाता चला गया। कबीर का अनुभूत सत्य अंधविश्वासों पर बारूदी पलीता था। सत्य भी ऐसा जो आज तक के परिवेश पर सवालिया निशान बन चोट भी करता है और खोट भी निकालता है। संत कबीरदास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे।
समाज की चिंता उनकी कविता का प्रधान स्वर है। उन्होंने आज से पांच सौ साल पहले जो विचार व्यक्त किये वे आज भी उतने ही खरे और प्रासंगिक हैं। वे परमात्मा की तलाश बाहर करने की बजाय अपनी आत्मा में ही करने पर विश्वास करते थे। कबीरदास कभी भी किसी भी धर्म की आलोचना करने से पीछे नहीं हटे अगर वह किसी चीज को गलत देखते तो उसकी आलोचना करते चाहे वह हिंदू धर्म की हो या मुस्लिम धर्म की।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
कबीर कहते हैं कि - राम और रहीम उस परमसत्य -परमात्मा के ही दो नाम है, जो लोगों ने देश-काल भेद से -अपनी सुविधा और क्षेत्र-विशेष के आधारपर रख लिए हैं। पृथक नाम रखकर लोग इनकी श्रेष्ठता के लिए आपस में वादविवाद करते हैं। लड़ते -झगड़ते हैं। पर कोई सृष्टि के मर्म नहीं जानता कि -समस्त सृष्टि का पालनहार और ईश्वर एक ही है, चाहे उसे जिस नाम से पुकारा जाय। हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। दोनों में श्रेष्ठ कौन है ? ... इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।कबीर जी आडम्बरो के घोर विरोधी थे उस समय धर्म के नाम पर समाज में अनेक बुराईया फैली हुई थी जिस कारण वे इन कुरूतियो का खुलकर विरोध करते थे जिसका वर्णन इस दोहे में मिलता है-
पाथर पूजे हरी मिले, तो मै पूजौ पहार।
इससे तो घर की चाकी भली, जाके पिसे खाए संसार।
अर्थात यदि पत्थर की मूर्ति की पूजा करने से भगवान् मिलते है तो कबीर पूरे पहाड़ की ही पूजा करेगे, लेकिन यदि पत्थर की ही पूजा करनी है तो हमे घर में पत्थर के बने उस चाकी की पूजा करनी चाहिए जिसके पिसने से हम भोजन खाते है और सारा संसार जीता है। उसी प्रकार मुस्लिम कर्मकाण्डियों पर कहते थे -
कांकर- पाथर जोरि कै , मस्जिद लई चीनाय।
ता चढ़ी मुल्ला बांग दे ,क्या बहिरा हुआ खुदाय ?
हिन्दू मूये राँम कहि, मूसलमान खुदाइ ।
कहै कबीर सो जीवता, दुइ मैं कदे न जाइ ।।
हिन्दू लोग परमतत्व (ब्रह्म या सच्चिदानन्द, existence-consciousness-bliss, या pure consciousness) के लिए ‘राम-राम’ रटते हुए, और मुसलमान परमतत्व को ‘खुदा’ में सीमित करके विनष्ट हो गये। कबीर कहते हैं कि वास्तव में वही जीवित हैं जो राम और खुदा में भेद नहीं करता, और दोनों में व्याप्त अद्वैत-तत्त्व को ही देखता है। जीवन की सार्थकता इस अपने-पराये की भेद-बुद्धि से ऊपर उठने में है।विवेकानन्द के गुरु भगवान श्री रामकृष्ण देव की तरह संत कबीर भी औपचारिक रूप से पढ़े-लिखे नहीं थे, पर वे एक सिद्ध पुरुष और आत्मज्ञानी संत थे। उन्होंने अपने पदों में गहरी दार्शनिक चेतना प्रस्तुत की है। रहस्यवाद उनकी रचनाओं का मूल स्वर है। उन्होंने कहा है –मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।तब मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है, कि जब वे लिखना-पढ़ना ही नहीं जानते थे, तब उनके ग्रंथ कहां से आ गये ? इसका उत्तर यह है कि वे अपने मन में उठने वाले विचारों को पद के स्वरूप में गाया करते थे। उनके शिष्य उन पदों को कंठस्थ कर लेते थे। इसलिये उनका संपूर्ण साहित्य ही स्मृति साहित्य है।
संत कबीर कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ झलकती है। वे अपनी आजीविका कमाने के लिये वे स्वयं कपड़ा बुनते थे। यह नहीं कि साधु हैं तो भिक्षाटन करें और समाज पर बोझ बन जायें। वे स्वाभिमानी और यथार्थवादी व्यक्ति थे। जब उनके शिष्यगण सत्संग के लिये उनके घर पर आया करते थे। तब कबीर उनसे कहते कि वे थोड़ा इंतज़ार करें, जब तक वे आज के खर्च के लिये कपड़ा नहीं बुन लेंगे, तब तक सत्संग आरंभ न होगा।
7.कबीरदास एवं धर्म :-मान्यताओं के अनुसार कबीरदास एक मुस्लिम घर में जन्मे परंतु एक हिंदू गुरु के द्वारा दीक्षित या शिक्षित संत थे। अतएव उनके उपदेशों या उनकी कविताओं में दोनों ही धर्मों का योगदान मिलता है। कबीरदास का पूरा जीवन हिंदू मुस्लिम एकता का एक उदाहरण है । कबीरपंथी उन्हें अपना संत मानते हैं तो मुस्लिम उन्हें सूफी कवि मानते हैं। इसीलिए कबीर गाते थे -
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
साधु या विद्वान् (ब्रह्मवेत्ता) की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार (आत्मा) का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का। [ 3'H' के हार्ट् में विद्यमान आत्मा (pure consciousness) का ही मूल्य होता है, सूक्ष्म शरीर (हेड -reflected consciousness) स्थूल (हैण्ड) -का।] 8. मृत्यु : जन्म की भांति इनकी मृत्यु तिथि एवं घटना को लेकर भी मतभेद हैं, किंतु अधिकतर विद्वान् उनकी मृत्यु संवत 1575 विक्रमी (सन 1518 ईस्वी) मानते हैं। विभिन्न दस्तावेजो के आधार पर इनकी पूरी आयु 120 साल मानी जाती है। और अपने अंतिम समय में कबीर जी मगहर चले गये थे। क्योंकि कबीर ने अपना सारा जीवन लोगों की गलत मान्यताओं को दूर करने में बिताया तो वे आपने मृत्यु का उपयोग भी इसी कार्य के लिए करना चाहते थे। ऐसे में कबीर ने काशी जो कि स्वर्ग जाने का रास्ता माना जाता था को छोड़कर मगहर में अपनी अंतिम सांस लेने का निर्णय लिया । ऐसी मान्यता है कि किसी बहुत ही उच्च ब्राह्मण ने मगहर को श्राप दिया था कि जो कोई व्यक्ति इस जगह अपनी अंतिम सांस लेगा उसे स्वर्ग में कोई स्थान नहीं दिया जाएगा। ऐसा कहा जाता था की मगहर में मरने वालो को कभी भी मुक्ति नही मिलती । उस समय और शायद आज भी मगहर को बहुत ही अपशकुन वाला स्थान माना जाता था। बहुत से लोगो ने उन्हें वहा न जाने के लिए समझाया भी था लेकिन कबीर जी नही माने, उन्होंने कहा-
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।
जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा।
- अर्थात जिसके ह्रदय में राम विराजमान हो,उसके लिए काशी और मगहर में कोई भेद नही है। यदि ह्रदय में राम होने के बावजूद मैंने काशी प्राण त्यागे तो फिर राम का क्या अहसान है मुझपर ? क्योंकि काशी में मरने वालों को तो बैसे ही स्वर्ग मिलता है और मगहर वालों नरक, इसलिए मैं मगहर में ही प्राण त्याग कर इस गलत मान्यता (पाखण्ड) को दुनियाँ से मिटा सकता हूँ। इस प्रकार सन 1518 में 120 वर्ष की आयु में कबीरदास जी ने अंतिम साँस लिया और मगहर में ही अपना शरीर त्याग किया। चुकी कबीरदास जी की शिक्षाओं को मानने वाले हिंन्दु और मुसलमान दोनों धर्मो से लोग थे। इसलिए सभी अपने अपने परंपरा के अनुसार इनकी आखिरी क्रियाकर्म करना चाहते थे। अतः कबीर की मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था। जब कबीर की मृत्यु हुई तो उनकी हिंदू अनुयाई एवं मुस्लिम अनुयाई आपस में लड़ने लगे, कि आगे उनका दाह संस्कार किया जाए, या दफनाया जाय? हिंदू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से। परंतु कबीरदास तो कबीरदास थे, पूरे जीवन भर एकता और इंसानियत का पाठ पढ़ाने वाले कबीर जीमरने के बाद भी भाईचारे का संदेश-अनेकता में एकता का सन्देश दे गए ।
सभी शिष्य जब कबीर जी के शरीर को लेने के लिए जैसे ही कफन उठाया तो तो उसके नीचे फूलों का ढेर पड़ा देखा। बाद में वहां से आधे फूल हिंदुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने। मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया। इस प्रकार कबीर जी इस दुनिया से जाते जाते भी एकता का संदेश देते चले गये। और तब से लेकर अब तक लोग अपनी अपनी श्रद्धा के अनुसार मजार अथवा समाधि स्थल पर अपने पुष्प चढ़ाने जाते हैं।
कई विशेषज्ञों का मानना है कि गुरु नानक साहिब भी कबीरदास को अपना गुरु मानते थे। और उनकी कही गयी बाते आज भी उतनी ही प्रांसगिक है जितना की उस ज़माने में थी। यानी कबीर जी बताये गये रास्ते पर हम सभी चले तो निश्चित ही मानव मात्र का कल्याण हो सकता है। वाराणसी के कबीर चौरा के निकट कबीरदास के लिए एक समाधि स्थल और एक मज़ार का निर्माण कराया, जो एक दूसरे के बाजू में बनाई गई है। यह स्थान अब कबीर की शिक्षा को सीखने का स्थल है। यहाँ कबीर के धर्म को समझने के लिए दूर दूर से विद्वान आते हैं और यही ठहरते हैं।
9.उपदेशक (preacher) को पहले स्वयं अमलकर्ता (implementer) बनना होगा : कबीर का जन्म एवं कबीर की मृत्यु तो सिर्फ तारीखें हैं, कबीरदास की विरासत तो उनकी शिक्षा है, जो सदैव भारत वासियों के हृदय में जीवित रहेगी और उन्हें सही रास्ता दिखाते रहेंगी। वे कहते थे -
काबा फिर कासी भया, राँमहि भया रहीम।
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम॥
सभी सम्प्रदाय के अपने-अपने आग्रहों को छोड़कर मध्यम मार्ग को अपनाने पर काबा भी काशी हो जाता है और राम रहीम बन जाते हैं। सम्प्रदायों की रूढ़ियाँ समाप्त हो जाती हैं। भेदों का मोटा आटा अभेद का मैदा बन जाता है। हे कबीर! तू इस अभेद रूपी मैदे का भोजन कर, स्थूल भेदों के द्वन्द्व में न पड़। कबीरदास की रचनाएं कालजई थी वे उनकी मृत्यु के सैकड़ों साल पश्चात भी लोगों को सही रास्ता दिखाती रही इसके कई उदाहरण हमें मिलते हैं -
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
कबीर जी कहते हैं इस संसार में ग्रन्थों को पढ़ने वाले न जाने कितने ही मृत्यु को प्राप्त हो गए। किन्तु इतना ज्ञान होने के बाद भी यदि उन्हें प्रेम की समझ नही है तो उन्हें विद्वान नही माना जा सकता। किताबों के ज्ञान से अलग वह व्यक्ति जिसने प्रेम को समझ लिया है, और विनयशील हो गया है, वो ही सबसे बड़ा ज्ञानी है। हिन्दी में जो शब्द है-प्रेम, उसमें ढाई अक्षर हैं; लेकिन इस छोटे से दोहे में जीवन का ज्ञान है। हमारा ज्ञान, पांडित्य व्यर्थ है, यदि यह हमें विनीत नहीं बनाता, सबों से प्रेम करना नहीं सीखाता। जिसने यह जान लिया, जीवन में उतार लिया, वही सच्चा ज्ञानी है। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा। ऐसे व्यक्ति (नवनीदा जैसे सच्चे साधु) के मन में सभी के लिए (पशुमानव के लिए भी) प्रेम होता है। तथा उसका आचरण छल कपट से मुक्त होता है।
उसका हृदय प्रेम की अनुभूति से अवगत होता है- वह जानता है कि- " प्रत्येक आत्मा संभावित परमात्मा है, केवल साक्षात्कार का फर्क है। " (Each Soul is potentially Divine, The only difference is self-realization ) ऐसे व्यक्ति को ही कबीर जी वास्तविक विद्वान (ब्रह्मविद) मानते हैं। यदि आचार्य परम्परा में प्रशिक्षित कोई शिक्षक जो उपदेश दूसरों को देता है,( 3'H' विकास के 5 अभ्यास से कामिनी- कांचन में आसक्ति के त्याग का उपदेश) किन्तु खुद उसका पालन नहीं करता, तो उसकी दशा भी मनुष्य नहीं कुत्ते जैसी हो सकती है ।
पर उसके गुरु -जो सच्चा साधु है, मृत्यु पर्यन्त उसका कल्याण करते हैं, शरीर छोड़ने के बाद भी धिक्कार देकर उसे जगा देते हैं, और वो सीधे नरक जाने से बच जाता है। गोस्वामी तुलसी दास ने भी कहा है -- पर उपदेश कुशल बहुतेरे । जे आचरहिं ते नर न घनेरे ।। दूसरों को उपदेश देना तो बहुत आसान है लेकिन स्वयं उन उपदेशों पर अमल करना कठिन। वर्तमान समय में उपदेशक अधिक है, अमलकर्ता नहीं। यदि व्यक्ति स्वयं आदर्शों का पालन करने लग जाए तो उसे उपदेश देने की ज़रूरत नहीं होगी।
कबीर दास जी भी श्रीरामकृष्ण देव की तरह सामान्य जीवन उपयोग में आने वाली वस्तुओं का उदाहरण देकर अपनी गहन सत्य बातों को लोगों तक पहुचाते थे। जिससे सामान्य जनमानस भी उनके उपदेशों को समझ सके। एक दोहे में कबीर दास जी कहते हैं कि-
" साधु (C-in-C) ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।
अर्थ : इस संसार (शिविर) को चलाने के लिए ऐसे सज्जन नेताओं [विवेकशील उपदेशकों C-IN-C] की जरूरत हैं, जैसे अनाज साफ करने वाला सूप होता हैं। सूप अपने पास अच्छे अनाज को रख कर उसकी गन्दगी साफ कर देता है। उसी प्रकार सज्जन पुरुष सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे। उसी प्रकार " परमहंस- विवेक वाहिनी वेदान्त प्रशिक्षण परम्परा- Be and Make ! " में प्रशिक्षित प्रथम नीर- क्षीर विवेकी (C-IN-C) स्वामी विवेकानन्द के अनुयाइयों, सज्जनों (मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओ या जीवनमुक्त शिक्षकों) का जीवन ऐसा होना चाहिये जिस प्रकार सूप का स्वभाव होता है। इस दोहे के भावों के विपरीत हमारा समाज ऐसे नेताओं से भरा पड़ा है।
ऐसा देखा जाता है कि जो अविवेकी लोग सज्जन या नेता पद पर स्थापित हो जाते हैं, वे अपने से छोटों को या समकक्ष व्यक्ति को उत्साहित करने में दारिद्रता दिखाते हैं। जैसे हंस पानी को अलग कर देती है व दूध को अलग। ठीक वैसे ही जीवनमुक्त शिक्षक /नेता लोगों को अपने अंदर अच्छाइयों को ग्रहण करके बुराइयों को दूर कर देना चाहिए। क्योंकि जिनको तुच्छ समझ कर आज वे अपमानित कर रहे हैं, कल वे ही उनके लिए कष्टकारक बन सकते हैं -
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
अर्थ :संत कबीरदास जी कहते हैं, कभी भी किसी को छोटा (तुच्छ या खत्त्म) नहीं समझना चाहिए। जैसे एक छोटे से तिनके को आप कुचलकर आगे बढ़ जाते हैं अगर वही तिनका आपके आंख में पड़ जाएं तो आपको बहुत ही पीड़ा होगी आप कोई काम नहीं कर पाएंगे।भारत के पहले कानून मंत्री एवं भारतीय संविधान के निर्माता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर भी कबीरदास को अपना पहला गुरु मानते थे। कबीरदास के ग्रंथों का अंग्रेजी में रूपांतरण कर गुरु रविंद्र नाथ टैगोर ने पूरी दुनिया तक कबीरदास की शिक्षाओं को पहुंचाया। कबीरदास की विरासत का एक बड़ा हिस्सा कबीर पंथ है जो उनकी मृत्यु के पश्चात बना और आज भी भारत में फल-फूल रहा है। ऐसा माना जाता है कि कबीर पंथ को मानने वाले लोगों की संख्या लगभग 98 लाख के करीब है। कबीरपंथी शाकाहारी होते हैं एवं शराब से हमेशा दूर रहते हैं।
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आध्यात्मिक क्रांति
क्या ऐसी आध्यात्मिक क्रांति संभव है, जिसमें बच्चा-बच्चा ’‘अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) का जयघोष कर उठे ?जहाँ प्रत्येक मनुष्य ’’‘तत्त्वमसि’ (तुम भी वही (ब्रह्म) हो) के भाव से आविष्ट हो?।
क्या धरती पर ऐसे दिव्य मानवों की संभावना है, जिनका होना ‘ब्रह्म’ का प्राकट्य हो, जिनका पारस्परिक आचरण ‘लीला’ हो एवं कर्म ‘सृजन के लिए सृजन’ हो?
ऐसे विचारों और कल्पनाओं में हजारों पंख लगाए जा सकते है, और सैकड़ों दिशाओं में इनकी उड़ानों का चित्र देखा जा सकता है। लेकिन क्या 21वीं सदी इन संभावनाओं के यथार्थ प्रकटीकरण की सदी हो सकती है?
इस प्रश्न की प्रासंगिकता जितनी आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। क्योंकि गत 100 वर्षों में संपन्न भौतिकी की खोजों ने, (न्यूटन से लकर हाॅकिन्स तक), विज्ञान को अध्यात्म की दहलीज पर ला खड़ा कर दिया है।
क्वाण्टम फिजिक्स की आधुनिक अवधारणाएं, हजारों वर्षों पूर्व प्रस्फुटित वैदिक ऋचाओं का तार्किक वैज्ञानिक प्रस्तुतिकरण सिद्ध हो रही हैं।
आधुनिक क्वाण्टम भौतिकी की अवधारणा, अद्वैत वेदान्त के वैज्ञानिक दर्शन शास्त्र की तरह सामने आई हैं।
दलाई लामा के शब्दों में ‘‘क्वाण्टम भौतिकी, विज्ञान और धर्म (अध्यात्म) के बीच एक ऐसा सेतु बनकर आया है जिसे हम ‘पार का विज्ञान’ (Science of transcendence) कह सकते है, जिसकी तीव्रता से प्रतीक्षा थी’’
क्वाण्टम भौतिकी, के नवीनतम सिंद्धातों ने अब साफ कर दिया है कि विश्व का कारण पदार्थ नहीं है। और आइंस्टीन ने यह सिद्ध कर दिया है कि पदार्थ (Matter) और शक्ति (Energy) समतुल्य हैं (E=M), इसलिए अब क्वाण्टम फिजिक्स कहता है कि जगत का कारण पदार्थ या ऊर्जा नहीं बल्कि 'जगत साक्षिणी ' चेतना (Witness consciousness / Existence -consciousness-bliss)है ....यह उद्घोष भारतीय प्राचीन वेदों ने हजारों वर्ष पूर्व ही कर दिया था कि...
.... 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' ~ ‘‘विश्व में चेतना ही सर्वत्र है और कुछ नहीं’’ (छान्दोग्योपनिषद्, 4.1) इस चेतना को ही वैदिक ग्रंथों में ‘ब्रह्म’ कहा गया है। समूचा वैदिक साहित्य इस ‘ब्रह्म’ (सच्चिदानन्द) का ही बखान है।
विषय में उतरने से पूर्व वेदान्त दर्शन के कुछ महावाक्यों पर दृष्टिपात करें :
‘ब्रह्म’ सर्वम’ ब्रह्म ही सब कुछ है (ब्रह्म सूत्र शांकरभाष्य, 1. 4.9)
'सर्वं हृोतद् ब्रह्म'~ यह सब कुछ ब्रह्म है, (माण्डूक्योपनिषद्, 2)
'अयं आत्मा ब्रह्म' ~ यह आत्मा ब्रह्म है (माण्डूक्योपनिषद्, 2)
'ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति' ~ जो ब्रह्म को जानता है, ब्रह्म ही हो जाता है। (मुण्डकोपनिषद्, 3.2.9) 'ईशावास्यमिदं सर्वम्' ~ सभी में ईश्वर का वास है, (ईशावास्योपनिषद्, 1)
'एकोहं बहुस्याम्' ~ मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ, (आर्षग्रन्थों में सुविख्यात उक्ति)
'एकमेवाद्वितीयं' ~ ब्रह्म एक मात्र है, अद्वितीय है (छान्दोग्योपनिषद्, 6.2.1)
‘‘पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।’’
अदः (आधार) भी पूर्ण है, इदं (विस्तार) भी पूर्ण है। क्योंकि पूर्ण से पूर्ण ही निकलता है। पूर्ण का पूर्ण निकाल लेने पर पूर्ण ही शेष रहता है (बृहदारण्यकोपनिषद् 5.1.1)
'ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः' ~ सभी प्राणियों में मेरा (परमात्मा) ही अंश है (भगवद्गीता, 15.7.) 'एक इवाग्निर्बुहुध समिद्ध एकः सूर्यो विश्वमनु प्रभूतः।
एकैवोषाः सर्वमिदं वि भात्येकं वा इदं वि बभूव सर्वम्।।'
‘एक ही अग्नि अनेक रूपों में प्रज्वलित होती है । एक सूर्य सम्पूर्ण विश्व को उत्पन्न करता है । एक ही ऊषा से यह सम्पूर्ण जगत् आलोकित होता है। वास्तम में यह सम्पूर्ण जगत् एक ही विशेषतत्त्व से उत्पन्न हुआ है’। (ऋक्वेद, 8.58.2)
ऐसे हजारों महावाक्यों, मंत्रों, सूक्तों, ऋचाओं, सूत्रों एवं श्लोकों से वैदिक साहित्य ओतप्रोत है। आधुनिक भौतिकी के सामने उपस्थित सभी प्रश्नों के उत्तर इसमें निहित है।
वैदिक साहित्य का आधुनिक भौतिकी के संदर्भ में पुनः अनुशीलन किया जाना आवश्यक है। यह न केवल आधुनिक विज्ञान को अनन्त ऊंचाइयों पर पहुँचा सकता है। किन्तु मानवीय चेतना के विकास की अप्रतिम विधियों द्वारा इस धरती पर उच्चतम मानवीय चेतना से अभिपूरित मानवों का आदर्श भी मूर्त रूप में स्थापित कर सकता है।
इस महान कार्य हेतु आध्यात्मिक प्रज्ञा एवं वैज्ञानिक मेधा सम्पन्न मनुष्यों की आवश्यकता है।अद्वैत वेदान्त दर्शन एवं भौतिक विज्ञान का संगम होना 21वीं सदी की परम आवश्यकता है।
इस अनिवार्यता को समझते हुए ही स्वामी विवेकानन्द ने 19 वीं सदी के अन्त में भारत की भावी पीढ़ी के युवाओं के समक्ष अखिल भारतीय स्तर पर 'आचार्य परम्परा' में 'युवा प्रशिक्षण शिविर ' आयोजित करने की चुनौती देते हुए कहा था -- कि ‘‘चाहे कोई भी मार्ग अपनाओ या सभी मार्गों का एकसाथ अनुगमन करो, किन्तु, वज्र (थंडरबोल्ट) के समान मनुष्यों का निर्माण किये बिना चैन से नहीं बैठो ! (-शाहिद के बेटे के शब्दों में 'सुतो मत !') यदि आचार्य परम्परा में 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से संपन्न' प्रवृत्ति मार्ग के कम से कम 100 पूर्णतः निःस्वार्थपर सप्त राजर्षि (Torch -bearers of change ) का निर्माण किया जा सके, तो सम्पूर्ण विश्व में ऐसी आध्यात्मिक क्रांति संभव है, जिसमें बच्चा-बच्चा 'अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) का जयघोष कर उठे ! अतः "Be and Make" ~ let this be our motto ! " बनो और बनाओ' ~ यही हमारा आदर्श वाक्य रहे। ~ उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’’ (कठोपनिषद, 1.3.14)"
और स्वामी विवेकानन्द के द्वारा भारत के युवाओं के समक्ष 19 वीं सदी में रखे गए ' Be and Make ' ~ के द्वारा आध्यात्मिक क्रांति लाने के इस चुनौती, या ~आह्वान के मर्म को 20 वीं सदी में पश्चिम बंगाल के एक 35 वर्षीय युवक ने समझा। और उस परिवर्तन (आध्यात्मिक क्रांति) - जिसमें भारत का बच्चा बच्चा 'अहं ब्रह्मास्मि ' (मैं ब्रह्म हूँ) का जयघोष कर उठे - को साकार करने में समर्थ - 'परिवर्तन के मशाल वाहक नेताओं ( Torch -bearer of change)/ या जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण बहुत बड़ी संख्या में करने उद्देश्य से ' एक नया युवा आंदोलन : अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' को 1967 में पूज्य नवनीदा (श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय) के नेतृत्व में आविर्भूत होना ही पड़ा।
इस युवा संगठन द्वारा आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर में विगत 53 वर्षों से " प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में सामंजस्य" स्थापित करने की आचार्य परम्परा " में प्रशिक्षित शिक्षकों/नेताओं (परिवर्तन के मशाल वाहक) का निर्माण करने के उद्देश्य से " मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव " 3H " हैण्ड , हेड और हार्ट् को विकसित करने के 5 अभ्यास--- 'प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग ' की अप्रतिम विधियों (unique methods) का प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
21 वीं सदी में भारत के आर्थिक दृष्टी से संपन्न युवाओं ने यदि आध्यात्मिक दृष्टि से जागृत करने वाले इस 'मनुष्य निर्माण और चरित्र निर्माणकारी आंदोलन' से अपना सम्बन्ध तोड़ लिया तो वैसी आर्थिक प्रगति का कोई अर्थ नहीं होगा।
अतः 21 वीं सदी के युवाओं का यह दायित्व है कि " श्री कृष्ण-अर्जुन गीता नेतृत्व -कौशल विकास या शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में आधारित " विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" अथवा " Be and Make Leadership training tradition" में प्रशिक्षित " आध्यात्मिक प्रज्ञा एवं वैज्ञानिक मेधा सम्पन्न " 100 % पूर्णतः निःस्वार्थपर थंडरबोल्ट अप्रतिरोध्य 'नवनीदा' जैसे प्रथम आचार्य या कमाण्डर इन चीफ ('C-in-C') मनुष्यों (राजर्षियों) का निर्माण करने के आंदोलन को भारत के गाँव गांव तक पहुँचा दें।
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अध्यापन विज्ञान
(Pedagogy- पेडागौगी )
उच्चतम सफलता का अचूक मंत्र :
प्रेम की असाध्यसाधनी शक्ति में विश्वास करो।
भारत के महानतम समाज सुधारक, विचारक और दार्शनिक स्वामी विवेकानन्द अध्यात्म एवं विज्ञान में समन्वय एवं आर्थिक समृद्धि के प्रबल समर्थक थे। उनका मानना था कि लोकतंत्र में पूजा जनता-जनार्दन की होनी चाहिए। क्योंकि प्रत्येक आत्मा सभावित परमात्मा है, केवल साक्षात्कार का फर्क है। अतः दुनिया में जितने भी पशु−पक्षी तथा मानव हैं वे सभी परमात्मा के अंश हैं।'' स्वामी विवेकानन्द ने अपने प्रिय शिष्य अलासिंगा पेरुमल को 27 अक्टूबर, 1894 को लिखे एक पत्र के माध्यम से युवाओं को जीवन का उच्चतम सफलता का अचूक मंत्र इस विचार के रूप में दिया था− " क्या तुम अपने भाइयों से प्रेम करते हो ? तुम ईश्वर की खोज करने कहां जा रहे हो ? - क्या सभी गरीब, दुखी, और कमजोर मनुष्य तुम्हारे ईश्वर नहीं हैं? पहले उनकी पूजा क्यों नहीं करते? गंगा के तट पर एक कुआँ खोदने क्यों जाते हो ? प्रेम की सर्वशक्तिमान शक्ति में विश्वास करो।... 'उठो, जागो और तब तक मत रूको, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये।''[Do you love your fellow men? Where should you go to seek for God — are not all the poor, the miserable, the weak, Gods? Why not worship them first? Why go to dig a well on the shores of the Gangâ? Believe in the omnipotent power of love.]
स्वामी विवेकानंद का यह दृढ़ विश्वास था कि “अध्यात्मविद्या, भारतीय धर्म एवं दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा।” उनका मत था कि ‘यदि मनुष्य के पास संसार की प्रत्येक वस्तु है, पर अध्यात्म नहीं है तो कुछ भी नहीं है। उनकी दृष्टि में मनुष्य की यह परा-प्रकृत्ति-आत्मा उतनी ही सत्य है, जितना कि किसी पाश्चात्य व्यक्ति की इन्द्रियों के लिए कोई भौतिक पदार्थ। भारतीय दर्शन ग्रन्थ अध्यात्मिकता के महत्व को प्रतिपादित करते हैं।
गीता 8.3 में अध्यात्म को परिभाषित करते हुए कहा गया है - “परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते “- परम अक्षर ब्रह्म है और उसी परब्रह्म का जो प्रत्येक शरीर में अन्तरात्मभाव है, उसका नाम स्वभाव है वह स्वभाव ही अध्यात्म कहलाता है। सम्पूर्ण संसार ईश्वर से व्याप्त है। परमात्मा का साक्षात्कार ही जीवात्मा का चरम लक्ष्य है। आत्मा-परमात्मा का ही स्वरूप है। जीव-आत्मा-परमात्मा का अन्तर्सम्बन्ध ही अध्यात्म की विषय-वस्तु है। आत्मा परमात्मा का अंश है यह तो सर्विविदित है। आत्मतत्व रूप परब्रह्म से उत्पन्न होकर उसी में विलीन हो जाता है। अध्यात्म की अनुभूति सभी मनुष्यों में सामान रूप से निरंतर होती रहती है।
वेदान्त के 'कनककुण्डलन्याय' के अनुसार जिस प्रकार सोने के कुण्डल बनता है और उस कुण्डल के टूटटाट अथवा पिघल जाने पर वह सोना ही रहता है, उसी प्रकार नामरूपात्मक दृश्यों की उत्पत्ति ब्रह्म से होती है और ब्रह्म ही में वे समा जाते हैं।जिस प्रकार एक छोटे से बीज के अन्दर वट का बृहदाकार वृक्ष अंतर्हित रहता है उसी प्रकार यह सृष्टि भी ब्रह्म में अंतर्हित रहती है। और जिस प्रकार दूध में घी व्याप्त रहता है उसी प्रकार ब्रह्म भी इस अंडकटाह में सर्वत्र व्याप्त रहता है। इस विषय में सन्त कबीरदास का यह कथन दृष्टव्य है –
'पाणी ही तैं हिम भया, हिम गया बिलाइ।
जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाइ।।
अर्थ : पानी ही से तो हिम बना था और अंत में पिघल कर वही फिर पानी बन गया ! संत कबीर समझाना चाहते है कि ठीक उसी प्रकार ब्रह्म ही जगत् में एकमात्र सत्ता है यहाँ - जो है सो ब्रह्म है। उसके अलावा बाकी सभी रूप - रंग अस्थायी एवं क्षणभंगुर है। हम जहाँ से आए हैं, वहीं हमें चले जाना है, हम जिससे बने हैं अंततः उसी तत्व में विलीन हो जाना ही हमारी नियति है। यहाँ जो है - वही हमेशा रहता है, सब उसी ब्रह्म के भिन्न - भिन्न नाम -रूप हैं। सर्वव्यापि ब्रह्म जब अपनी लीला का विस्तार करता है तब इस नामरूपात्मक जगत् की सृष्टि होती है। इसके आगे कुछ कहा ही नहीं जा सकता। आत्मा का परमात्मा में विलय ही कबीर की रहस्यवादी विचारधारा का निचोड़ है।
विज्ञान रत्न लक्ष्मण प्रसाद कहते हैं - आचार्य परम्परा या Be and Make वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में अध्यापन करना, शिक्षा देना (teaching, ट्रेनिंग देना, सिखाना), सीखने की एक सतत प्रक्रिया है। इसका शिष्य पर एक अमिट छाप पड़ती है। छात्र कई तथ्यों (महावाक्यों) को रट सकते हैं, और सीख सकते हैं, लेकिन वे उन्हें समझ नहीं सकते हैं या उन्हें अपने आसपास की दुनिया से संबंधित करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं। "शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम को (Be and Make leadership training tradition को) अधिक प्रभावी और रोचक बनाने के लिए निम्नलिखित नवीन शिक्षण पद्धतियों, तकनीकों और कार्यप्रणालियों को आजमाया जा सकता है। [Teaching is a continuous process of learning and it has a rippling effect.The children may learn and remember many facts, but they may not understand them or be able to relate them to the world around them.]
1. शिक्षक की भूमिका में छात्र निर्माण की शिक्षण पद्धति (Participating Teaching Methodology): अध्यापन शुरू करने से पहले, शिक्षक छात्रों को शिक्षण सत्र में बहुत सावधान और चौकस (careful and attentive) रहने का निर्देश देता है, और निर्धारित समय से लगभग 15 मिनट पहले शिक्षण सत्र बंद कर देता है। इसके बाद छात्रों द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर, छात्रों के द्वारा ही दिया जाता है। शिक्षक जब देखता है कि किसी छात्र को समझाने या जवाब देने में कठिनाई हो रही है, तब शिक्षक योग्य शिष्य के बचाव में आता है और अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर देता है।
यह तकनीक शिष्य में आत्मविश्वास पैदा करने में मदद करती है। इस प्रकार, छात्र (भावी शिक्षक ) अपने सहपाठियों के प्रश्न सुनते हैं और अपने ज्ञान और क्षमता का पूरी तरह से या आंशिक रूप से उपयोग करते हुए उनके सवालों का जवाब देते हैं।
2. प्रासंगिक सामयिक जागरूकता (करंट अफेयर्स) टीचिंग प्रैक्टिस ( Relevant Current Affairs Teaching Practice) : इस पद्धति के तहत, शिक्षक पहले किसी सबक (महावाक्य) को पढ़ाता है और इसे कुछ प्रासंगिक वर्तमान मामलों / घटनाओं के साथ जोड़ता है। यह तकनीक छात्रों को करंट अफेयर्स से अवगत कराने के अलावा पाठ को अधिक रोचक और शिक्षाप्रद बना देता है। जैसे कोई शिक्षक यदि अंतरिक्ष अन्वेषण (space exploration) के बारे में पढ़ा रहा है, तो वह इसे श्रीमती सुनीता विलियम्स के उदाहरण के साथ जोड़ सकता है, जो हाल ही में अंतरिक्ष में वैज्ञानिक खोज में शामिल हुई थीं।
3. प्रशंसा या सराहना करने की तकनीक (Applauding /Appreciating Technique) : इसमें शिक्षक सहपाठियों के प्रश्नों उत्तर, पूरे आत्मविश्वास के साथ देने के लिए छात्रों को प्रोत्साहित करता है। इस प्रणाली के तहत जब कोई छात्र शिक्षक द्वारा पूछे गए प्रश्न का सही उत्तर देता है, तो उसे न केवल शिक्षक द्वारा बल्कि सभी सहपाठियों द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है।
4. प्रस्तुतीकरण या उपस्थापन पद्धति (Presentation Methodology) : इस प्रणाली के तहत छात्रों को शिक्षक द्वारा व्यक्तिगत रूप से एक पाठ तैयार करने और उसके प्रस्तुतिकरण के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। छात्रों को अपने पुस्तकालय से, दोस्तों से चर्चा करके, या उनके शिक्षकों, माता-पिता आदि के साथ परामर्श करके पाठ तैयार करने के लिए एक सप्ताह का समय दिया जाता है। सभी छात्र इसमें भाग ले सकें, इसे देखते हुए, स्कूल-व्यवस्थापक चाहे तो छात्रों, शिक्षकों, कर्मचारियों आदि से विचारों को एकत्र कर एक “Bank of Creative and Innovative Ideas” (रचनात्मक और नवीन विचारों का बैंक) की स्थापना भी कर सकता है। छात्रों-शिक्षकों के विचारों को प्राप्त करने के लिए, प्रत्येक कक्षा पर अपने अभिनव और रचनात्मक विचार /या प्रश्न को अपने बैज न ० के साथ कागज के एक टुकड़े पर लिखकर
रिसेप्शन हॉल या सभागार (auditorium) के बाहर रखे एक "स्पेशल बॉक्स" में डालने के लिए एनाउंस करना चाहिए।
शिक्षण-प्रशिक्षण में अभिनव पद्धति की शुरूआत करने पर, वह स्कूल बड़ी संख्या में ज्ञान-दाता सत्यार्थीयों का निर्माण करने में मदद कर सकता है। 21 वीं सदी ज्ञान की सदी है। यह " आचार्य परम्परा में शिक्षक -प्रशिक्षण ' की व्यावसायिक शिक्षा ( Professional education) शिष्यों (भावी नेताओं) को मार्गदर्शक नेता ‘knowledge leaders' में रूपांतरित कर सकती है।
इसलिए, यदि हम भारत को तीव्र गति से वैज्ञानिक उन्नति , आर्थिक रूप से समृद्ध और आध्यात्मिक दृष्टि से जागृत एक महान विकसित राष्ट्र में परिणत करना चाहते हों, तो आम लोगों के कल्याण और सामाजिक परिवर्तन के सभी क्षेत्रों में परिवर्तन के मशालवाहक नेताओं - 'knowledge leaders' in different areas का निर्माण करना होगा। (Therefore, the country needs a large number of knowledge leaders in different areas for rapid economic development and growth as well as social change for betterment of the common people.)
मिशन नालन्दा : नई शिक्षा-नीति बनाने के लिए प्राप्त सुझावों के अनुसार एक शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम 'निर्गुण-निराकार ब्रह्म की उपासना का मार्ग' की आचार्य परम्परा।' (निवृत्ति मार्ग के त्यागी गुरु-अर्थात प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आये हुए अल्लाह के 99 नामों की सूफ़ी परम्परा में शिक्षक -प्रशिक्षण)काशी के फ़कीर सन्त कबीर द्वारा प्रतिपादित ~'विविधता में एकता' ~ देखने वाली तहज़ीब।" अथवा 'गंगा-जमुनी तहजीब' अर्थात हिन्दू-मुस्लिम पूजा पद्धति में सहिष्णुता/ उदारता स्थापित करने वाली तहजीब या शिक्षा : ... पाहन पूजे हरि मिले,.. ता चढ़ी मुल्ला बांग दे, ... नारी छोड़न से हरि मिले तो बहुत रहे हैं खोजा, ... साधन करना चाहिए मनवा , भजन करना चाहिए'...मन लागो मेरो यार फ़कीरी में,... ऐसी करनी कर चलो के तुम हँसो जग रोये, ... ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होये। ' आदि शिक्षाओं में आधारित शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम का नाम - मिशन नालन्दा होना चाहिए।
मिशन तक्षशिला : का शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम 'सगुण -साकार ब्रह्म की उपासना का मार्ग' की आचार्य परम्परा - जैसे " श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक परम्परा में प्रशिक्षित ( चपरास प्राप्त त्यागी) गुरु से (ब्रह्मवेत्ता) मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा पद्धति -'Be and Make' शिक्षक-प्रशिक्षण कार्क्रम की शिक्षा।
हालांकि वैज्ञानिक कस्तूरी रंगन का मानना है कि आजकल के अधिकतर भारतीय विद्यार्थियों में अपनी प्राचीन भारतीय संस्कृति में आधारित 'आचार्य परम्परा' [Pedagogy : पेडागौजी (अध्यापन विज्ञान या काशी के 650 वर्ष पुरानी गंगा-जमुनी तहज़ीब में शिक्षक-प्रशिक्षण प्रणाली) के विषय में गर्व की वह भावना नहीं है। क्योंकि वे सन्त कबीर या आधुनिक युग के " अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द भावधारा " में समाहित भारतीय ज्ञान परंपरा की समृद्धि से परिचित नहीं हैं।
"अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानाम तु वसुधैव कुटुंबकम् ।। "
अपने और पराये की गणना छोटे चित्त के लोग करते हों उदार मन वालों के लिए ये सम्पूर्ण धरती अपना घर है। इसी वेदान्त के सार - 'विविधता में एकता' के सूत्र को अत्यन्त सरल ग्रामीण भाषा में व्यक्त करते हुए माँ श्री सारदा देवी ने कहा था -" जगत तोमार आपनार, केऊ पर नय !" -अर्थात "कोई पराया नहीं, बेटी, सम्पूर्ण जगत तुम्हारा अपना है ! [" जदि शान्ति चाउ , माँ कारो दोष देखो ना। दोष देखबे निजेर। जगत के आपनार करे निते शेखो। केउ पर नय, माँ , जगत तोमार।]--" यदि शान्ति चाहती हो, बेटी, तो किसी का दोष मत देखना। दोष केवल अपना ही देखना। संसार को अपना बनाना सीखो। " (स्वामी गम्भीरानन्द लिखित -श्रीमाँ सारदा देवी /पेज-६२१/) ]
ये सोच भारत के अतिरिक्त अन्य किसी भी देश में आपको नहीं मिलेगी। हमारा सनातन धर्म एक महान धर्म है, हमारी संस्कृति महान संस्कृति और हमारी सभ्यता संसार की सबसे प्राचीन सभ्यता है। मुझे गर्व है ऐसे महान देश में जन्म लेंने पर जहाँ मुझे महान धर्म और महान संस्कृति व् विश्व की सबसे अच्छी सभ्यता प्राप्त हुई।
आज भारत को एक युवा राष्ट्र की संज्ञा दी जा रही है, विश्व मनीषा को भारत के नवयुवकों में विशिष्ट ऊर्जा दिखाई दे रही है। विकास और प्रगतिशीलता की इस आंधी में विश्व बिरादरी को भारत के बाजार अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। आर्थिक रूप से सशक्त सभी देश भारत में ही अपना निवेश करना चाहते हैं। विश्व के युवा राष्ट्र के रूप में हमारे पास युवाओं की असीम शक्ति है। युवा शक्ति का सदुपयोग इस बात पर निर्भर करेगा कि किस प्रकार हम इन्हें संस्कारित कर राष्ट्र निर्माण के लिए प्रेरित करें। सम्पूर्ण विश्व में आध्यात्मिक क्रांति लाने के उद्देश्य से भारत की युवा शक्ति का सदुपयोग इस बात पर निर्भर करेगा कि किस प्रकार हम इन्हें -स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित 'Man making and Character Building Education' या मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा-पद्धति '~' तुम स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों में मनुष्यत्व उन्मेषित करने में सहायता करो ' की 'आचार्य परम्परा' में संस्कारित कर राष्ट्र-निर्माण के लिए प्रेरित करें !
{ युवओं को राष्ट्र-निर्माण के मशाल वाहक, आचार्य परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षकों/नेताओं / राजर्षियों का निर्माण करने के उद्देश्य से -स्वामी विवेकानन्द के मार्गदर्शन व प्रेरणा तथा श्री रामकृष्ण एवं माँ श्री सारदा देवी आशीर्वाद तथा (विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित 'C-in-C')श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय जैसे दूरद्रष्टा की कोशिशों से सन् 1967 में ई. में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल, कोलकाता की स्थापना हो सकी।
राष्ट्र-निर्माण के लिए प्रेरित करने में सक्षम शिक्षकों का निर्माण अर्थात 'Be and Make' Leadership Training Tradition- या " श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" ~ जहां प्रथम गुरु (श्री रामकृष्ण देव लीडर) अपने शिष्यों (नरेन्द्रनाथ आदि 12 शिष्यों) को कोई शिक्षा या विद्या ( 3 'H' विकास के 5 अभ्यास द्वारा ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनने और बनाने की विद्या) सिखाते हैं और फिर शिष्य (नरेन्द्रनाथ) गुरु (स्वामी विवेकानन्द) के रूप में किसी और को (would be Leader-कैप्टन सेवियर को) वही शिक्षा देने में प्रशिक्षित (पूज्य नवनीदा जैसे चपरास प्राप्त कम से कम 100) भावी शिक्षकों/नेताओं या 'would be leaders' का निर्माण करने वाले युवा संगठन ~ " अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल " के गठन का चपरास सौंप देते हैं।
🙏🙏🙏 - जहां आचार्य परम्परा में प्रशिक्षित गुरु (चपरास प्राप्त C-in-C) अपने शिष्यों को [would be Leader- (C-in-C) को] 3'H' - विकास के 5 अभ्यास द्वारा चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा-पद्धति या ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने की विद्या (ब्रह्मविद्या) सिखाते हैं और फिर शिष्य गुरु के रूप में किसी और को वही शिक्षा (ब्रह्मविद्या) देते हैं। वैज्ञानिक जागरूकता एवं आर्थिक समृद्धि के साथ आध्यात्मिक क्रांति के लक्ष्य को हासिल करने के लिए बहुत बड़ी संख्या में आध्यात्मिक क्रांति के युवा मशाल वाहकों का निर्माण करना होगा। और इस कार्य के लिए प्रत्येक राज्य के क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा देने में समर्थ शिक्षकों का निर्माण करना ही महामण्डल द्वारा आयोजित सर्वभारतीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर का उद्देश्य है। आंध्र प्रदेश या दक्षिण भारत से आये युवाओं को दिए जाने वाले लीडरशिप ट्रेनिंग (Swami Vivekananda -Alasinga perumal 'Be and Make' Leadership training tradition) को मिशन तक्षशिला के नाम से जाना जायेगा। और इस शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम का पाठ्यक्रम तय करने और उसे चलाने के लिए विचार-विश्लेषण जारी है।}
ईश्वर के सत्य को जानने के लिए है - सत्यार्थी (देवकुलीश) की खोज :
स्वामी विवेकानन्द के पूर्वाश्रम का नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता के एक सफल वकील थे और मां श्रीमती भुवनेश्वरी देवी एक शिक्षित महिला थी। अध्यात्म एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण के नरेंद्र के मस्तिष्क में 'ईश्वर के सत्य' (अविनाशी , अपरिवर्तनीय तत्व) को जानने के लिए खोज शुरू हो गयी। इसी दौरान नरेंद्र को दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पुजारी श्री रामकृष्ण परमहंस के बारे में पता चला। वह साधारण दृष्टि से पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन वह एक महान भक्त थे, स्वयं अवतार वरिष्ठ थे ! नरेंद्र ने उन्हें अपने गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया। श्री रामकृष्ण परमहंस और उनकी पत्नी श्री श्री मां सारदा देवी दोनों ही ऊपर से जितने घर-परिवार से संयुक्त प्रतीत होते थे, वास्तव वे उतने आध्यात्मिक भी थे। नरेन्द्र श्री मां सारदा देवी को ठाकुर से भी अधिक सम्मान देते थे। रामकृष्ण परमहंस का 1886 में कैंसर-बीमारी के कारण देहांत हो गया। उन्होंने मृत्यु के दो दिन पूर्व नरेंद्र को लिखित चपरास - 'नरेन् शिक्खा देबे' देकर अपने उत्तराधिकारी के रूप में नामित कर दिया था। अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव ने स्वयं कहा था कि वे अपने साथ निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में से एक नरेंद्र को लेकर अवतरित हुए थे। इसलिए उनके सभी त्यागी शिष्यों ने निवृत्ति मार्ग के (त्यागी) संन्यासी बनकर मानव सेवा के लिए प्रतिज्ञाएं लीं। [अध्यात्म और विज्ञान में समन्वय द्वारा आर्थिक रूप से समृद्ध और आध्यात्मिक दृष्टि से जागृत राजर्षी (राजा + ऋषि) बनने और बनाने की आचार्य परम्परा में युवा को प्रशिक्षित करना चाहते थे।]
यहाँ जो है - वही हमेशा रहता है, सब उसी ब्रह्म के भिन्न - भिन्न नाम -रूप हैं। सर्वव्यापि ब्रह्म जब अपनी लीला का विस्तार करता है तब इस नामरूपात्मक जगत् की सृष्टि होती है। इसके आगे कुछ कहा ही नहीं जा सकता। आत्मा का परमात्मा में विलय ही कबीर की रहस्यवादी विचारधारा का निचोड़ है।
आत्मा-परमात्मा के सम्बन्ध की विवेचना के लिए ”तैत्तिरीय उपनिषद्” में वर्णित है- 'यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति। यत् प्रयन्त्यभि संविशन्ति। तद्विजिज्ञासस्व । तद् ब्रह्मेति ।(तैत्तिरीय॰ ३ । १) ‘ये सब प्रत्यक्ष दीखनेवाले प्राणी जिससे उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जिसके सहारे जीवित रहते हैं तथा अन्तमें इस लोकसे प्रयाण करते हुए जिसमें प्रवेश करते हैं, उसको तत्त्वसे जाननेकी इच्छा कर, वही ब्रह्म है । ’ [वह जो समझ गया कि वास्तव में शब्द ब्रह्म ही प्राण है। वास्तव में,ये ब्रह्म ही सब का प्राण है। यहां सब जीव प्राण तत्व से उपत्तपन्न होते हैं। जब प्राण , छुट जाता है तब सबके प्राण ब्रह्म के प्राण तत्व में प्रवेश करते हैं। अर्थात ब्रह्म बन जाते हैं। आगे कहा गया है कि हमें तपस्या करके ब्रह्म को समझने की इच्छा रखनी चाहिए। वहीं सब कुछ है वही तप हैं, उन्होंने ही तप किया था और अब भी तप कर रहा है। अर्थात ब्रह्म समस्त जगत के रचना के लिए अपने तप (बल) को सृजन किया था उसके पालन करने के लिए तप (बल) को सृजन कर रहा हैं इसलिए वहीं समस्त तप (बल) हैं वहीं समस्त भूतों में व्याप्त हैं इसलिए वहीं जानने योग्य हैं। इसलिए उसको ही उत्पादन एवं निमित्त कारण माना जाता हैं।]
स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि मनुष्य का भविष्य उसके सही अर्थों में वैज्ञानिक और सच्चे आध्यात्मिक होने पर टिका है। विज्ञान को जहां धर्म से मानवीयता की सीख लेने की जरूरत है, वहीं धर्म के क्षेत्र में वैज्ञानिक पद्धतियों के प्रयोग की आवश्यकता है।
“विवेकानन्द जी अध्यात्म और विज्ञान को एक-दूसरे का विरोधी नहीं मानते थे। उनका विचार था कि पाश्चात्य विज्ञान का भारतीय वेदान्त के साथ समन्वय करके की विश्व में सुख-समृद्धि व शांति उत्पन्न की जा सकती है। विज्ञान ने मानव जीवन को अनेक कष्टों से मुक्त किया है तथा जीवन की अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने में योगदान दिया है। परन्तु वेदांत के अभाव में यही विज्ञान विनाशकारी भी बन सकता है। वेदांत तथा विज्ञान के समन्वय से मनुष्य चिन्तन और विवेक-प्रयोग करने कौशल को सीखकर औचित्य- बोध में (धर्म -राइटसनेस) में प्रतिष्ठित हो जाता है, जिसके फलस्वरूप मानवता अधिक सुखी हो जाती है। पश्चिमी राष्ट्र वैज्ञानिक संस्कृति में कितने ही उन्नत क्यों न हो तत्व एवं आध्यात्मिक शिक्षा से वे अभी नीरे बालक ही हैं। भौतिक विज्ञान केवल लौकिक सुख दे सकता है परन्तु अध्यात्मक विज्ञान का आदर्श मनुष्य को अनन्त आनन्द देता है। वह उसे स्वयं को देह समझने के भ्रम से मुक्त या 'de-hypnotized' करके, अनेकता में एकता देखने वाला 100 % निःस्वार्थी मनुष्य बना देता है। जबकि भौतिकवाद अनेकता, उच्छृखलता और निरर्थक महत्वाकांक्षा को जन्म देती है। व्यक्ति तथा राष्ट्र को मृत्यु को की ओर ले जाती है।”
विवेकानंद जी कहते थे , ” पाश्चात्य शिक्षा का एक दोष है कि वह मनुष्य को अत्यंत स्वार्थी बना देती है। बुद्धि व्यक्ति को उस सर्वोच्च स्तर पर नहीं पहुंचा सकती है जिस पर हृदय उसे पहुंचाता है। हृदय ज्ञान का प्रकाश है। अतः हृदय का परिष्कार करो। ईश्वर हृदय के माध्यम से ही हमें संदेश देता है।”
उनकी हमेशा यही शिक्षा रही कि 'Be and Make ' -अर्थात आज के युवक को उसके 3 प्रमुख अवयव शारीर (हैण्ड) और मन (हेड) को विकसित करने के साथ ही साथ हृदय (हार्ट्) -3'H' को विकसित करके यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने के लिए प्रशिक्षित करना आवश्यक है। छात्रों को वैज्ञानिक आविष्कार के द्वारा आर्थिक रूप से समृद्ध बनने के साथ ही साथ आध्यात्मिक रूप से जागृत -राजर्षि (राजा +ऋषि) की शिक्षा देने जरूरत है।
पत्रावली (द्वितीय खड), पृ. 80- भौतिक विज्ञान भौतिक विज्ञान केवल लौकिक समृद्धि दे सकता है, परंतु अध्यात्म-विज्ञान शाश्वत जीवन के लिए है। यदि शाश्वत जीवन न भी हो तो भी आध्यात्मिक विचारों का आदर्श मनुष्य को अधिक आनंद देता है और उसे अधिक सुखी बनाता है। परंतु जड़वाद की मूर्खता ही स्पद्ध, अयोग्य और तीव्र अभिलाषा, एवं व्यक्ति तथा राष्ट्र की अंतिम मृत्यु का साधन होती है।
उन्होंने ही युवकों को प्रेरणा देते हुए कहा था कि पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है, फिर उसका विरोध होता है और अंत में उसे स्वीकार कर लिया जाता है। वे युवकों में जोश भरते हुए कहा करते थे कि उठो मेरे सिंहों (शेरों) ! इस भ्रम को मिटा दो कि तुम निर्बल (भेंड़) हो। वे एक बात और कहते थे कि जो तुम सोचते हो वह हो जाओगे- 'किंवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत् ॥ (अष्टावक्र गीता १/११ ॥) यह किंवदन्ती सत्य है कि 'जैसी मति वैसी गति' ... या मति सा गति भवेत । ऐसी ही कुछ प्रेरणाएं हैं जो आज भी युवकों को आन्दोलित करती हैं, पथ दिखाती हैं और जीने का दर्शन प्रदत्त करती हैं। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नया भारत निर्मित करने की बात कर रहे हैं, उसका आधार स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाएं एवं प्रेरणाएं ही हैं।
स्वामी विवेकानन्द के रूप में कौनसी महाशक्ति इस धरातल पर अवतीर्ण हुई थी इसकी कुछ कल्पना हमें उनके पत्रों से प्राप्त होती है। उनका सार्वजनीन प्रेम, उनकी गहन आध्यात्मिकता तथा अत्यन्त उच्च कोटी का देशप्रेम इन्हीं पत्रों में दृष्टिगोचर होता है।
उनके जीवन के माध्यम से में हमें ऐसे महत्वपूर्ण तथ्य प्राप्त होते हैं, जिनके चिन्तन-मनन से हम हमारा दैनंदिन जीवन सुचारू रूप से व्यतीत कर सकते हैं।
आज इस नवयुग में स्वामी विवेकानन्दजी के विचार ही एकमात्र आशा का प्रदीप है, जिसके आलोक में भारतवर्ष तथा भारतवासी अपनी खोयी हुई विरासत पुन: प्राप्त कर सकते हैं।
5 जनवरी, 1890 को लिखे पत्र में कहते हैं - " पूर्ण नीतिपरायण तथा साहसी बनो-अपने प्राणों के लिए भी कभी न डरो, अन्त:करण (मन) पूर्णतया शुद्ध रहना चाहिए।। धार्मिक मत-मतान्तरों को लेकर व्यर्थ में माथापच्ची न करना। कायर लोग ही पापाचरण करते हैं, वीर पुरुष कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते-यहाँ तक कि कभी वे अपने मन में भी पापचिन्ता का उदय नहीं होने देते। प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो।"
20 सितम्बर, 1892 को लिखे पत्र में स्वामी जी ने लिखा था -... " न जाने क्यों मेरी इतनी अधिक प्रशंसा हो रही है। ईसा मसीह का कहना है कि ‘‘एक ईश्वर को छोड़कर कोई भला नहीं’’ (None is good, save one, that is God) बाकी सब उसके हाथ की कतपुतलीया (निमित्तमात्र) हैं। उस सर्वशक्तिमान की अथवा अधिकारी पुरुषों की जय-जयकार हो, न कि मुझ जैसे अनधिकारी व्यक्ति की। यह दास पुरस्कार के सर्वथा अरोग्य है (The servant is not worthy of the hire) और विशेषत: एक फकीर तो किसी प्रकार की प्रशंसा पाने का अधिकारी ही नहीं। क्या केवल अपना कर्त्तव्य पालन करने वाले सेवक की आप प्रशंसा करेंगे?"
... 30 अप्रैल, 1891' के पत्र में लिखते हैं - ‘‘तुम लोग पहले भगवान् के राज्य का अन्वेषण करो, ऐसा करने पर सब कुछ स्वत: ही प्राप्त कर सकोगे।’’ (Seek ye first kingdom of God and all good things will be added unto you.) भगवान् का अनुसरण करने पर धन सम्मान अपने आप मिल जायगा।"
उन्होंने कहा था कि सभी धर्म बराबर हैं, और ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति के भीतर रहता है, अतः सम्पूर्ण भी मानवजाति एक ही है : 1890 में नरेंद्रनाथ ने परिव्राजक सन्यासी के रूप में अपने देश वासियों की प्राचीन गौरवशाली और वर्तमान दयनीय अवस्था के कारणों को समझने के लिए कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत के सभी भागों की जनजागरण यात्रा की। इस यात्रा के दौरान बचपन से ही अच्छी और बुरी चीजों में विभेद करने, या विवेक-प्रयोग के स्वभाव के कारण उन्हें स्वामी विवेकानन्द का नाम मिला।
विवेकानंद अपनी यात्रा के दौरान राजा के महल में रहे, तो गरीब की झोंपड़ी में भी रहे। वह भारत के विभिन्न क्षेत्रों की संस्कृतियों और लोगों के विभिन्न वर्गों के संपर्क में आये। उन्होंने देखा कि वर्तमान भारतीय समाज में बहुत असंतुलन है और जाति के नाम पर बहुत अत्याचार हैं। भारत सहित विश्व को धार्मिक अज्ञानता, गरीबी तथा अंधविश्वास से मुक्ति दिलाने के संकल्प के साथ 1893 में स्वामी विवेकानंद शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए अमेरिका गए।
विवेकानन्द की जब भी बात होती है तो अमरीका के शिकागो की धर्म संसद में साल 1893 में दिए गए भाषण की चर्चा ज़रूर होती है। ये वो भाषण है जिसने पूरी दुनिया के सामने भारत को एक मजबूत आध्यात्मिक छवि के साथ पेश किया। लेकिन उस भाषण में उन्होंने कहा क्या था ? यह बहुत कम ही लोग बता पाते हैं। ये हैं स्वामी विवेकानन्द के उस भाषण की खास बातें:
1. अमरीकी भाइयों और बहनों, आपने जिस स्नेह के साथ मेरा स्वागत किया है उससे मेरा दिल भर आया है। मैं दुनिया की सबसे पुरानी संत परंपरा (आचार्य परम्परा) और सभी धर्मों की जननी की तरफ़ से धन्यवाद देता हूं। सभी जातियों और संप्रदायों के लाखों-करोड़ों हिंदुओं की तरफ़ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। 2. मैं इस मंच पर बोलने वाले कुछ वक्ताओं का भी धन्यवाद करना चाहता हूं जिन्होंने यह ज़ाहिर किया कि सम्पूर्ण विश्व में धार्मिक सहिष्णुता का सन्देश पूरब के देशों से ही फैला है।
3. मुझे गर्व है कि मैं उस सनातन धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सर्वधर्म समन्वय को सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ़ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते बल्कि, हम सभी धर्मों को सच और एक ही ईश्वर तक पहुँचने के विभिन्न मार्ग के रूप में स्वीकार करते हैं।
4. मुझे गर्व है कि मैं उस देश से हूं जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के सताए गए लोगों को अपने यहां शरण दी। मुझे गर्व है कि हमने अपने दिल में इसराइल की वो पवित्र यादें संजो रखी हैं जिनमें उनके धर्मस्थलों को रोमन हमलावरों ने तहस-नहस कर दिया था और फिर उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली।
5. मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं जिसने पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और लगातार अब भी उनकी मदद कर रहा है।
6. मैं इस मौके पर वह श्लोक सुनाना चाहता हूं जो मैंने बचपन से याद किया और जिसे रोज़ करोड़ों लोग दोहराते हैं. ''जिस तरह अलग-अलग जगहों से निकली नदियां, अलग-अलग रास्तों से होकर आखिरकार समुद्र में मिल जाती हैं। ठीक उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा से अलग-अलग रास्ते चुनता है। ये रास्ते देखने में भले ही अलग-अलग लगते हैं, लेकिन ये सब ईश्वर तक ही जाते हैं।
7. मौजूदा सम्मेलन जो कि आज तक की सबसे पवित्र धर्म सभाओं में से एक है। वह अपने आप में गीता में कहे गए इस उपदेश इसका प्रमाण है: ''जो भी मुझ तक आता है, चाहे कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग अलग-अलग रास्ते चुनते हैं, परेशानियां झेलते हैं, लेकिन आखिर में सभी मुझ तक ही पहुंचते हैं।''
8. सांप्रदायिकता, कट्टरता और इसके भयानक वंशजों के धार्मिक हठ ने लंबे समय से इस खूबसूरत धरती को जकड़ रखा है। उन्होंने इस धरती को हिंसा से भर दिया है और कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हो चुकी है। न जाने कितनी सभ्याताएं तबाह हुईं और कितने देश मिटा दिए गए।
9. यदि ये ख़ौफ़नाक राक्षस नहीं होते तो मानव समाज कहीं ज़्यादा बेहतर होता, जितना कि अभी है। लेकिन उनका वक़्त अब पूरा हो चुका है। मुझे उम्मीद है कि इस सम्मेलन का बिगुल सभी तरह की कट्टरता, हठधर्मिता और दुखों का विनाश करने वाला होगा। चाहे वह तलवार से हो या फिर कलम से।
'स्वामी विवेकानंद ने 11 सितम्बर 1893 में अमेरिका के शिकागो की विश्व धर्म संसद में ऐतिहासिक तथा सार्वभौमिक सत्य का बोध कराने वाला भाषण दिया था। इस भाषण का सार यह था कि - सभी धर्म बराबर हैं, ईश्वर एक है तथा मानव जाति एक है।
स्वामी जी की प्रेरणा से सिस्टर निवेदिता ने महिला जागरण हेतु एक गर्ल्स स्कूल कलकत्ता में खोला:
स्वामी विवेकानंद अपनी विदेश की जनजागरण यात्रा के दौरान इंग्लैंड भी गए। स्वामी विवेकानंद इंग्लैंड की अपनी प्रमुख शिष्या, जिसे उन्होंने नाम दिया था भगिनी (बहन) निवेदिता। विवेकानंद सिस्टर निवेदिता को महिलाओं की शिक्षा के क्षेत्र में काम करने के लिए भारत लेकर आए थे। स्वामी जी की प्रेरणा से सिस्टर निवेदिता ने महिला जागरण हेतु एक गर्ल्स स्कूल कलकत्ता में खोला। वह घर−घर जाकर गरीबों के घर लड़कियों को स्कूल भेजने की गुहार लगाने लगीं। विधवाओं और कुछ गरीब औरतों को आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से वह सिलाई, कढ़ाई आदि स्कूल से बचे समय में सिखाने लगीं। जाने−माने भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस की सिस्टर निवेदिता ने काफी मदद की, ना केवल धन से बल्कि विदेशों में अपने रिश्तों के जरिए। वर्ष 1899 में कोलकाता में प्लेग फैलने पर सिस्टर निवेदिता ने जमकर गरीबों की मदद की।
स्वामी विवेकानंद ने 1897 में रामकृष्ण मिशन की शुरूआत की :
पाश्चात्य भ्रमण के बाद स्वामी जी ने यह अनुभव किया कि समाज सेवा या राष्ट्र-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार केवल संघबद्ध होकर संगठित अभियान और ठोस प्रयासों द्वारा ही संभव है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए- स्वामी विवेकानंद ने 1897 में रामकृष्ण मिशन की शुरूआत की और अध्यात्म, वैज्ञानिक जागरूकता एवं आर्थिक समृद्धि के लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपने युगानुकूल विचारों का प्रसार लोगों में किया।
अगले दो वर्षों में उन्होंने बेलूर में गंगा के किनारे रामकृष्ण मठ की स्थापना की। उन्होंने भारतीय संस्कृति का अलख जगाने के लिए एक बार फिर जनवरी 1899 से दिसंबर 1900 तक पश्चिमी देशों की यात्रा की। स्वामी विवेकानंद का देहान्त 4 जुलाई, 1902 को कलकत्ता के पास बेलूर मठ में हो गया। स्वामी जी देह रूप में हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके अध्यात्म, वैज्ञानिक जागरूकता एवं आर्थिक समृद्धि के विचार युगों−युगों तक मानव जाति का मार्गदर्शन करते रहेंगे।
अध्यात्म व विज्ञान के समन्वय से देश की समस्याओं का हल चाहते थे स्वामी विवेकानन्द : प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी स्वामी विवेकानंद को अपना आदर्श मानते हैं। भारतीय संस्कृति की सोच को विश्वव्यापी विस्तार देने की प्रक्रिया में आज प्रधानमंत्री श्री मोदी निरन्तर अथक प्रयास कर रहे हैं। जब से उन्होंने देश की बागडोर अपने हाथों में ली है, तब से सनातन संस्कृति की शिक्षा को आधार मानते हुए इसके प्रसार के लिए वे 'अग्रदूत' की भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। श्री मोदी न केवल सनातन संस्कृति के ज्ञान को माध्यम बनाकर विश्व समुदाय को जीवन जीने का नवीन मार्ग बता रहे हैं, बल्कि भारत को एक बार फिर विश्वगुरु के रूप में स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस दृष्टिकोण को उन्होंने 'माय आइडिया ऑफ इंडिया' के रूप में कई बार संसार के समक्ष भी रखा है। श्री मोदी का कहना है कि स्वामी विवेकानन्द द्वारा बताए गए मार्ग पर चलते हुए हमें देश के प्रत्येक व्यक्ति का आत्मविश्वास तथा जीवन स्तर बढ़ाने के लिए कड़ी मेहनत करनी है। स्वामी विवेकानन्द जी का आध्यात्मिक, वैज्ञानिक एवं आर्थिक दृष्टिकोण से सम्पन्न राजर्षियों के निर्माण का सूत्र है - Be and Make !
देश के प्रसिद्ध विज्ञानरत्न लक्ष्मण प्रसाद (86 वर्षीय 'Vigyan Ratna' Lakshman Prasad): - देश में नवाचार आंदोलन (Innovation movement) के जनक। जन्म : 19 अक्तूबर, 1930, अलीगढ़ (उ.प्र.)। सन् 1954 में लखनऊ विश्वविद्यालय से सामाजिक कार्यों में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। 1984 में स्वैच्छिक अवकाश के पश्चात् अपने नवाचारों पर आधारित उद्योगों की स्थापना। 1995 में विकलांग कल्याण केंद्र की स्थापना, जिसके द्वारा कृत्रिम अंग एवं कैलीपर का निःशुल्क वितरण। 'Fostering Innovation in Students' अथवा 'विद्यार्थियों में आविष्कारक सोच' (Vidyarthiyon Mein Avishkarak Soch- अर्थात छात्रों में नई खोज की प्रवृत्ति (Innovation-नवोन्मेष/ मनुष्यत्व उन्मेष / नवाचार) को बढ़ावा देना) उनकी प्रसिद्द पुस्तक है।
नवाचार/आविष्कार : राष्ट्रीय महत्त्व के 25 नवाचार, जिनमें से 12 नवाचारों का सफलतापूर्वक व्यापारीकरण। लेखन एवं प्रकाशन : लगभग सवा सौ लेख और 16 पुस्तकें, जिनमें 4 पुस्तकें अंग्रेजी और 12 हिंदी में प्रकाशित। दोनों भाषाओं में मिलाकर 12 पुस्तकें नवाचार/आविष्कारों पर आधारित। सम्मान/पुरस्कार : ‘डॉ. मेघनाद साहा सम्मान’ तथा ‘बाल किशोर साहित्य सम्मान’ से पुरस्कृत। विज्ञान एवं नवाचार के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए ‘विज्ञानरत्न’ सहित भारत सरकार द्वारा 8 राष्ट्रीय, 3 राज्यस्तरीय सम्मानों से विभूषित। विकलांग कल्याण क्षेत्र में भी एक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार और दूसरा राष्ट्रीय ‘मोदी फाउंडेशन सम्मान’ से पुरस्कृत।को कई विभिन्न सम्मान मिल चुके हैं। इन्होंने रेलवे की सेल्फ इंकिंग रेलवे टिकेटिंग मशीन, माइक्रो मिनी प्रिंटर, ऑटोमैटिक बैच कोडिंग मशीन समेत कई अविष्कार किये हैं।
17 जून 2008 को ताउम्र नहीं भूल पाएंगे। जब उन्हें खबर मिली कि पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम उनके घर आ रहे हैं। जिला प्रशासन भी हक्का-बक्का था, क्योंकि मिसाइलमैन का दोस्त से मिलने का कार्यक्रम अचानक बना था। एसएसपी रहे असीम अरुण काफिले के संग डॉ. कलाम को ए.एम.यू से लेकर मैरिस रोड स्थित लक्ष्मण प्रसाद के घर पहुंचे थे। लक्ष्मण प्रसाद कहते हैं, 'मैंने डॉ. अब्दुल कलाम जी की सलाह पर, स्वामी विवेकानन्द जी पर एक पुस्तक लिखने का निश्चय किया।'
विज्ञानरत्न लक्ष्मण प्रसाद को अनेक बार यूरोप, अमेरिका, कनाडा आदि पश्चिमी देशों में जाने का अवसर मिला है। श्री लक्ष्मण प्रसाद को अथक परिश्रम तथा अमेरिका और कनाडा की विश्वविख्यात लाइब्रेरियों में बहुत खोज करने के बाद स्वामी विवेकानंद के विषय में एक विशेष पुस्तक पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिसमें स्वामी विवेकानंद जी के वैज्ञानिक एवं आर्थिक दृष्टिकोण का विस्तृत वर्णन था। इस पुस्तक को पढ़कर वह बहुत प्रभावित हुए। ऐसी पुस्तक उन्हें भारत में नहीं मिली थी। विदेश से लौटने के उपरान्त उन्होंने स्वामी जी के व्यक्तित्व पर ”स्वामी विवेकानन्द: वैज्ञानिक जागरूकता एवं आर्थिक समृद्धि के प्रबल समर्थक” नामक प्रेरणादायी पुस्तक लिखी है।
स्वामी जी ने अमेरिका भ्रमण में पाया कि बिजली के आगमन से अमेरिकियों के जीवन स्तर में आधुनिक बदलाव आया है। स्वामी जी ने अपने छोटे भाई महेन्द्रनाथ दत्त को संन्यास की दीक्षा नहीं दी तथा विद्युत शक्ति का अध्ययन करने के लिए उन्हें तैयार किया। उन्होंने कहा कि देश को विद्युत इंजीनियरों की ज्यादा आवश्यकता है अपेक्षाकृत संन्यासियों के।
विज्ञान ही आपका राष्ट्रीय संग्राम होना चाहिए :
जब प्रख्यात भारतीय वैज्ञानिक डॉ. जगदीश चन्द्र बसु को वैज्ञानिक जगत में सफलता मिली तब स्वामीजी ने विश्वास व्यक्त किया कि अब भारतीय विज्ञान का पुनर्जन्म हो गया और यह कालान्तर में सत्य साबित हुआ। जब डॉ. जे सी बसु की मुलाकात नोबेल पुरस्कार से सम्मानित फ्रांसीसी लेखक और नाटककार रोमा रोलां से हुई, और उन्होंने अपनी भेंट में भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने की इच्छा व्यक्त की; तो स्वामी जी ने उन्हें न सिर्फ रोका बल्कि चेतावनी देते हुए कहा कि ''विज्ञान ही आपका राष्ट्रीय संग्राम होना चाहिए।'' स्वामी जी ने डॉ. बसु को समझाया कि भारत के भावी संघर्ष के लिए विज्ञान में प्रगति आवश्यक है। भविष्य में बहुत कठिन प्रतियोगिता का वातावरण उत्पन्न होगा और उसमें अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए भारत को वैज्ञानिक देश बनाना आवश्यक है।
विज्ञान के अद्भुत विकास के साथ धर्म की सोच में भी परिवर्तन की आवश्यकता है:
इस पुस्तक के अनुसार स्वामी जी का स्पष्ट मत था कि विज्ञान के अद्भुत विकास के साथ धर्म की सोच में भी परिवर्तन की आवश्यकता है। स्वामी जी पूरे समाज को एक स्तर पर लाना चाहते थे और यही उनका समाजवाद था। उनका समाजवाद कार्ल मार्क्स की पुस्तकों पर नहीं वरन् वेदान्त पर आधारित था। विवेकानंद के अनुसार वेदान्त में विशेषाधिकार आधारित व्यवस्था का विरोध किया गया है। विवेकानंद का मानना था कि आध्यात्मिक विस्तार के साथ व्यापारिक विस्तार भी आवश्यक है। स्वामी जी ने उन भारतीयों को प्रोत्साहित किया जो निजी तौर पर विदेशों से व्यापार के लिए आगे बढ़ रहे थे।
संसार के सभी संसाधनों में मानव संसाधन सबसे ज्यादा मूल्यवान है :
स्वामी जी ने उत्पादन व्यवस्था में श्रम के मूल्य का भी महत्व बतलाया। उनके अनुसार संसार के सभी संसाधनों में मानव संसाधन सबसे ज्यादा मूल्यवान है। उनके अनुसार एक व्यक्ति का अधिक शक्तिशाली होना, कमजोर व्यक्तियों के शोषण का कारण बनता है। दूरदर्शी विवेकानंद ने भांप लिया था कि आने वाले समय में अकुशल तथा अर्धकुशल श्रमिकों की मांग कम होती चली जायेगी। दूसरी ओर कुशल मजदूरों की मांग तेजी से बढ़ेगी। इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने भारतीय मजदूरों की तकनीकी शिक्षा पर जोर दिया।
जमशेदजी टाटा चाहते थे संन्यासी तैयार किये जाएं जो भारत की प्रगति में सक्रिय योगदान करें:
देश के प्रसिद्ध उद्योगपति तथा औद्योगिक घराने टाटा समूह के संस्थापक जमशेदजी टाटा चाहते थे कि ऐसे दृढ़ संकल्प वाले संन्यासी तैयार किये जाएं जो भारत की प्रगति में सक्रिय योगदान करें। जब जमशेदजी ने स्वामी जी से अपने भावी व्यवसाय की चर्चा की तो स्वामी जी ने उसमें खास रूचि ली। जब जमशेदजी ने उन्हें बताया कि वे जापान से माचिस आयात करके भारत में बेचेंगे तो उन्होंने राय दी कि आयात करने के बजाय वे भारत में बेहतर निर्माण हेतु कारखाना लगाएं। इसमें न सिर्फ आपको बेहतर मुनाफा होगा वरन् तमाम भारतीयों को रोजगार मिलेगा। देश का धन देश में ही रहेगा। स्वामी जी ने भारत में सिर्फ माचिस निर्माण ही नहीं वरन् हर चीज के उत्पादन करने की क्षमता विकसित करने के लिए लगातार चिंतन किया।
स्वामी विवेकानन्द के मार्गदर्शन व आशीर्वाद तथा जमशेदजी टाटा जैसे दूरद्रष्टा की कोशिशों से सन् 1909 ई. में भारतीय विज्ञान संस्थान−बंगलोर की स्थापना हो सकी। भारतीय विज्ञान संस्थान दो महान् व्यक्तियों की दूरदृष्टि (प्रकारान्तर से विज्ञान व अध्यात्म के सम्मिलित प्रयत्न से) से स्थापित हो सका। यह भौतिकी, एयरोस्पेस, प्रौद्योगिकी, ज्ञान आधारित उत्पाद, जीव विज्ञान और जैव प्रौद्योगिकी का एक विश्वस्तरीय संस्थान है। 21वीं सदी का उज्ज्वल भविष्य अध्यात्म एवं विज्ञान के मिलन में निर्भर है।
विज्ञान की कोशिश है कि लोगों का भौतिक जीवन बेहतर हो, जबकि अध्यात्म का प्रयास है कि प्रार्थना आदि उपायों से इन्सान सच्ची राह चले। विज्ञान और अध्यात्म के मिलन से तेजस्वी नागरिक [क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से सम्पन्न नागरिक] का निर्माण होता है। तर्क और युक्ति विज्ञान व अध्यात्म के मूल तत्त्व हैं। धार्मिक व्यक्ति का लक्ष्य आध्यात्मिक अनुभूति प्राप्त करना है, जबकि वैज्ञानिक का मकसद कोई महान् खोज या आविष्कार करना होता है। यदि जीवन के ये दो पहलू आपस में मिल जाएँ तो हम चिन्तन के उस शिखर पर पहुँच जाएँगे जहाँ उद्देश्य एवं कर्म एक हो जाते हैं। इस आधार पर उच्चतम विकसित समाज का निर्माण साकार होगा।
नवयुग का नवीन दर्शन और नवीन विज्ञान है - वैज्ञानिक अध्यात्म :
अध्यात्म एवं विज्ञान में समन्वय एवं आर्थिक समृद्धि के प्रबल समर्थक विवेकानंद जी केवल भारत के ही गुरु नहीं वरन् वह जगत गुरु के रूप में भारत का प्रतिनिधित्व करने की उपयुक्त योग्यता रखते थे। उन्होंने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से विभिन्न धर्मों के सारभौतिक सत्य को आत्मसात किया था। नवयुग का नवीन दर्शन और नवीन विज्ञान है− वैज्ञानिक अध्यात्म। स्वामी जी का मानना था कि अध्यात्म एवं विज्ञान में समन्वय के विचारों में विश्व की सभी समस्याओं के समाधान निहित हैं! "
साभार − प्रदीप कुमार सिंह [https://www.prabhasakshi.com/]
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19 वीं सदी के अन्त में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - "मनुष्य, केवल मनुष्य भर चाहिये! शेष सब कुछ अपने आप हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी --'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से सम्पन्न' दृढ-विश्वासी, निष्कपट- नवयुवकों की! ऐसे सौ (100) मिल जायें तो संसार का कायाकल्प हो जाय। पहले उनके जीवन का निर्माण करना होगा। तब कहीं काम होगा।" - और यही महामण्डल का उद्देश्य तथा कार्यक्रम भी है। तथा यही 'सर्वतोकृष्ट' समाज सेवा भी है ! (५/११८)
" Men, men, these are wanted: everything else will be ready, but strong, vigorous, believing young men, sincere to the backbone, are wanted. A hundred such and the world becomes revolutionized."... Arise, awake, and stop not till the goal (100 ब्रह्मविद मनुष्य !) is reached! vol/3/223 ]
प्रश्न उठता है कि क्या हमलोग इस समय मनुष्य नहीं हैं ? प्रश्न उठता है कि 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से सम्पन्न मनुष्यों का निर्माण' --अर्थात 'वैज्ञानिक मेधा एवं आध्यात्मिक प्रज्ञा सम्पन्न मनुष्यों का निर्माण' कैसे किया जा सकता है ? हमारे शास्त्रों में कहा गया है -
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष:धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
- 'आहार, निद्रा, भय, मैथुन'-- ये चार गुण पंचभौतिक-अन्नमय शरीर की सहज प्रवृत्तियां (instinct) है। धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्म अर्थात - " righteousness,औचित्य-बोध, विवेक या Wisdom" ही मनुष्य में विशेष गुण है जिसके कारण वह पशुओं से भिन्न होता है। और धर्म वह वस्तु है जो व्यक्ति को पशुत्व से मनुष्यत्व में और मनुष्यत्व से देवत्व की ओर प्रेरित करता है। 'आहार, निद्रा [ठांस भोजन -चाप निद्रा] अर्थात मांस-भात पर टूट पड़ना और सोना , भय माने मृत्यु से डरना और मैथुन माने वंशविस्तार करना' पशु स्तर का जीवन है। धर्म अर्थात औचित्यबोध या श्रेय-प्रेय विवेक से रहित मनुष्य तो पशुतुल्य होता है। संस्कृत में नीतिकार कहते हैं-‘धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।’ - अर्थात धर्माचरण अर्थात सुन्दर चरित्र रहित मनुष्य तो पशु तुल्य होता है। चाणक्य नीति में भी कहा गया है -
येषां न विद्या न तपो न दानं , ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः , मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥
जिसके पास न विद्या है, न तप है, न दान है , न ज्ञान है , न शील है , न गुण है और न धर्म है ; वे मृत्युलोक पृथ्वी पर भार होते है और मनुष्य रूप तो हैं पर पशु की तरह चरते हैं (जीवन व्यतीत करते हैं ) ।चरित्र ही मनुष्य के जीवन को शोभा या रौनक प्रदान करता है। 'आचार्य परम्परा ' में प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में सामंजस्य स्थापित करने वाले - " एक नया युवा आन्दोलन" के प्रणेता तथा [स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा ~ 'Be and Make Leadership training tradition"] में प्रशिक्षित- " प्रथम कमांडर इन चीफ (C-in-C) -- " The First commander in chief' श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय (15 अगस्त, 1931 - 26 सितम्बर 2016) कहते थे - " स्वामी विवेकानन्द निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में से एक ऋषि थे, जिनके कन्धों पर- 'शिशु के रूप में झूलते हुए' भगवान श्री रामकृष्ण ने कहा था- मैं जा रहा हूँ , मेरे पीछे तुम्हें भी आना पड़ेगा ! " और ठीक उसी प्रकार , 21 वीं सदी के भारत का जैसा चित्र स्वामी विवेकानन्द के सपनों में था (India of the dreams of Swami Vivekananda in the 21st century) , उसको धरातल पर उतारने के लिए ही 1967 में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' को आविर्भूत होना पड़ा।
पूज्य नवनीदा कहते थे - " चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करना --केवल तभी सम्भव है, जब आज का युवा विज्ञान, साहित्य, दर्शन, मैनेजमेन्ट, रॉकेट साइंस आदि प्रचलित विषयों को पढ़ने के साथ-साथ, भारत की प्राचीन आध्यात्मिक संस्कृति (आचार्य परम्परा या काशी की गंगा-जमुनी तहज़ीब) का आस्वादन भी प्राप्त करे। क्योंकि, हमलोग यदि आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी (Modern Science and Technology) के नये-नये आविष्कारों को ग्रहण नहीं करेंगे, तो हमारे लिए प्रगति करना और '5 ट्रिलियन डॉलर का विकसित राष्ट्र' बनना सम्भव नहीं होगा। किन्तु यदि आधुनिक और विकसित राष्ट्र (Developed country) बनने की स्पर्धा में, हमलोगों ने यदि भारत वर्ष की गौरवशाली आध्यतमिक संस्कृति के साथ अपने सारे सम्बन्ध तोड़ लिए, तो उस आधुनिकता और विकास का कोई अर्थ ही नहीं होगा।"
प्रसिद्ध विधिवेत्ता (jurist) तथा सम-सामयिक समस्याओं (current problems) के विश्लेषक नानी पालखीवाला (1920 – 2002) " भारतवर्ष को, आर्थिक दृष्टि से सोया हुआ एक महाकाय दैत्य (तिमंगल) मानते थे। [तिमंगल- यानि अपनी 5 ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी बनने की सम्भावना (क्षमता) के प्रति सोया हुआ देश मानते थे।], जिसने निद्रा की लंबी रात के बाद, अब फिर से अंगड़ाई लेना शुरू कर दिया है ! उन्होंने कहा था -“Enlightened citizens cannot be produced in the factory – it has to come through education. Thus teachers are the torch-bearers of change, change for the whole nation, change for the whole world.”
एनलाइटेंड सिटिजंस -अर्थात अपने अनतर्निहीत बहुमूल्य खजाने " The Treasure within" के प्रति जागरूक मनुष्यों का निर्माण-- कारखानों में नहीं हो सकता; यह केवल शिक्षा के माध्यम से सम्भव है। इस प्रकार हम यह समझ सकते हैं, कि 'चंचल मन को शांत और वशीभूत करने ' करने का प्रशिक्षण देने में समर्थ और आचार्य परम्परा में प्रशिक्षित गुरु (C-in-C) ही सम्पूर्ण भारत और सम्पूर्ण विश्व में आध्यात्मिक क्रांति के मशाल वाहक नेता (the Torch -bearer of change) हैं ! "
किसी गरीब या विकासशील देश के नागरिकों को दुनिया अपना नेता नहीं मान सकती । एनलाइटेंड सिटिजंस - किस प्रकार के नागरिकों को कहा जा सकता है ? ऐसी उपमा उसी देश के नागरिकों को दी जा सकती है, जो 'आध्यात्मिक प्रज्ञा एवं वैज्ञानिक मेधा सम्पन्न' है ~ अर्थात जो 'आर्थिक रूप से समृद्ध और आध्यात्मिक दृष्टि से जागृत' नागरिक ( financially rich and spiritually awakened citizens) - होने के बावजूद पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य या राजर्षि (राजा + ऋषि ) है।
अर्थात जो राजा जनक जैसे (प्रवृत्ति मार्गी) राजा होकर भी (निवृत्ति मार्गी) भगवान बुद्ध के जैसे ब्रह्मवेत्ता और 100 % निःस्वार्थी मनुष्य है। और ऐसे एनलाइटेंड सिटिजंस या ब्रह्मवेत्ता राजर्षियों का निर्माण कारखानों में नहीं हो सकता; यह केवल शिक्षा के माध्यम से सम्भव है। इसीलिए तैत्तरीय उपनिषद की 'शीक्षा वल्ली ' में एन्लाइटेन्ड मनुष्यों का निर्माण करने में समर्थ 'आचार्य परम्परा ' (अप्रतिम प्रशिक्षण-प्रणाली-Unique Training Method, अद्वितीय गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा) को -'श' में दीर्घ 'इकार' लगाकर 'शीक्षा' कहा गया है ।
क्या (Be and Make Leadership training tradition) में आमूल परिवर्तन या सम्पूर्ण क्रांति के कम से कम 100 मशाल वाहक 'नेता '/ राजर्षि (Torch -bearer of change) बनो और बनाओ आंदोलन ' के माध्यम से .....
भारतीय समाज में पौराणिक काल से ही शिक्षा और गुरु का बड़ा ही अहम स्थान रहा है। 'गुरु-शिष्य शिक्षक-प्रशिक्षण पंरपरा' (आचार्य -परम्परा) प्रारम्भ से ही सनातन धर्म का आधार रही है। जहां गुरु अपने शिष्यों को कोई शिक्षा या विद्या सिखाते हैं और फिर शिष्य गुरु के रूप में किसी और को (would be Leader को) वही शिक्षा देते हैं।
भारत के पहले शिक्षा मंत्री और भारत रत्न मौलाना अबुल कलाम आजाद (Maulana Abul Kalam Azad) के जन्मदिन 11 नवंबर को भारत में राष्ट्रीय शिक्षा दिवस (National Education Day) के रूप में मनाया जाता हैं। साल 2008 में वैधानिक रूप से इसकी शुरुआत हुई। बता दें कि अबुल कलाम ने 1947 से 1958 तक स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री के रूप में कार्य किया। उन्होंने हमेशा सादगी का जीवन पसंद किया था। आपको जानकर हैरानी होगी जब उनका निधन हुआ था, उस दौरान भी उनके पास कोई संपत्ति नहीं थी और न ही कोई बैंक खाता था। उनकी निजी अलमारी में कुछ सूती अचकन, एक दर्जन खादी के कुर्ते पायजामें, दो जोड़ी सैंडल, एक पुराना ड्रैसिंग गाऊन और एक उपयोग किया हुआ ब्रुश मिला। किंतु वहां अनेक दुर्लभ पुस्तकें थी जो अब राष्ट्र की सम्पत्ति हैं।
यहां पर जानिए मौलाना अबुल कलाम आजाद के जीवन से जुड़ी 7 बातें :
1. मौलाना सैयद अबुल कलाम गुलाम मुहियुद्दीन अहमद बिन खैरुद्दीन अल-हुसैन आजाद को पूरी दुनिया मौलाना आजाद के नाम से जानती है। मौलाना आजाद महात्मा गांधी के सिद्धांतों का समर्थन करते थे। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए कार्य किया और वो अलग मुस्लिम राष्ट्र (पाकिस्तान) के सिद्धांत का विरोध करने वाले मुस्लिम नेताओ में से एक थे।
2. मौलाना आजाद का जन्म 11 नवंबर 1888 में मक्का में हुआ था। उनके पिता का नाम मोहम्मद खैरुद्दीन था, जो एक मुस्लिम विद्वान (Islamic scholar) थे। आजाद भारत के शिक्षा मंत्री रहते हुए मौलाना आजाद ने राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली बनाई। मुफ्त प्राथमिक शिक्षा उनका मुख्य उद्देश्य था।
3. वह आजादी के बाद उत्तर प्रदेश के रामपुर जिले से 1952 में सांसद चुने गए और भारत के पहले शिक्षा मंत्री बने। सेंट्रल एडवायजरी बोर्ड ऑफ एजुकेशन (CBSE) की पहली बैठक को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि 'किसी भी एजुकेशन सिस्टम का प्राथमिक लक्ष्य एक ऐसा 'संतुलित दिमाग' (प्रशिक्षित मन) को तैयार करना होता है जिसे गलत रास्ते पर नहीं ले जाया जा सके।'
4. मौलाना अबुल कलाम का मानना था कि ~ हमारे स्कूल ऐसी प्रोयगशालाएं हैं जहां भावी नागरिकों का उत्पादन किया जाता है।
5. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्लोनॉजी (IIT) और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) की स्थापना का श्रेय मौलाना आजाद को ही जाता है।
6. उन्होंने शिक्षा और संस्कृति के विकास के लिए संगीत नाटक अकादमी (1953), साहित्य अकादमी (1954) और ललितकला अकादमी (1954) जैसे उत्कृष्ट संस्थानों की भी स्थापना की।
7. शिक्षा के क्षेत्र में अप्रतिम योगदान के लिए मौलाना आजाद को मरणोपरांत साल 1992 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारतरत्न से सम्मानित किया गया।
भारत के वर्तमान शिक्षा मंत्री (HRD मंत्री ?) श्री रमेश पोखरियाल निशंक ने National Education Day: 11 Nov 2019 के अवसर पर कहा कि -शिक्षा से ही देश के समग्र विकास की राह खुलती है। नई शिक्षा नीति में परिवर्तन के माध्यम से हमें इसे अधिक से अधिक उपयोगी बनाने का प्रयास करना चाहिए। वैश्विक परिवेश की नई चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए हमें एक नई शिक्षा नीति की आवश्यकता है।
इसरो के प्रख्यात अंतरिक्ष वैज्ञानिक डॉ. के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में नौ सदस्यीय समिति का गठन वर्ष 2017 में हुआ था , और उन्हें यह जिम्मेदारी दी गई कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा की आवश्यकतानुसार शिक्षा नीति सुझाएं। 31 मई को इसरो के वैज्ञानिक डॉ. कस्तूरीरंगन समिति ने नई शिक्षा नीतिका मसौदा तैयार कर मानव संसाधन विकास मंत्रालय को सौंप दिया। 484 पन्नों का यह दस्तावेज विस्तृत योजना का खाका पेश करता है। नई शिक्षा नीति का ड्राफ्ट स्वीकार कर जब हमने नई शिक्षा नीति को पब्लिक डोमेन में डाला और समस्त हितधारकों से जुड़ने की कोशिश की तो यह विश्व में मुक्त नवाचार का अपनी किस्म का सबसे बड़ा प्रयोग था। नई शिक्षा नीति (NEP) के लिए हमारे पास अब तक सवा दो लाख सुझाव प्राप्त हुए जिनका विश्लेषण जारी है।
मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि हम अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का मुकाबला अमेरिका, जर्मनी, जापान की नकल कर के नहीं कर सकते, हमें भारत बनकर ही वैश्विक चुनौतियों से निपटना होगा। हम विश्व गुरु रहे हैं। हमने पूरे विश्व को नेतृत्व दिया है, मार्गदर्शन दिया है, नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला जैसे केंद्रों ने संपूर्ण विश्व को नई दिशा दिखाई। यह सब इसलिए हुआ कि हमारी शिक्षा नीति मूल्यों और संस्कारों पर आधारित थी। 'भारत एक अनोखी सभ्यता है। यहां नालंदा और तक्षशिला ने लाखों लोगों को ज्ञान दिया और दुनियाभर से विद्वान लोग यहां आए। कई दूसरे देशों को यह हैसियत हासिल नहीं थी।
चाहे हमारे गुरुकुल रहे हों, चाहे विश्वविद्यालय रहे हों, सर्वत्र मानवीय मूल्यों की शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका थी। श्रुति परम्परा (आचार्य परम्परा) में आधारित होने के कारण - हमारी अजर अमर भारतीय संस्कृति हमें उन मानवीय मूल्यों के दर्शन कराती है जो सर्वोत्कृष्ट समाज और राष्ट्र के निर्माण का आधार स्तंभ है।
अगर देखा जाए तो भारत आदिकाल से ही विविधता में एकता (Unity in Diversity) की अनूठी मिसाल प्रस्तुत करता रहा है।
हमारे पूर्वजों ने हजारों साल पहले आचार्य परम्परा में इस सूत्र (या महावाक्य) को आविष्कृत कर लिया था कि ~ "एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति !" अर्थात सत्य एक है परन्तु ज्ञानी उसे विभिन्न नामो से पुकारते हैं। 'अनेकता में एकता' के इस महावाक्य (सूत्र) के द्वारा हमने न केवल भारत को जोड़ने की बात कही है, अपितु 'वसुधैव कुटुंबकम' ~ का संदेश देकर पूरे विश्व को अपना परिवार माना है। विश्व बंधुत्व का संदेश देने वाला भारत दुनिया को अन्य देशों की तरह एक बाजार के रूप में नहीं देखता, बल्कि अपने परिवार का ही एक हिस्सा मानता है। इस संस्कृति में हमें एकात्म मानववाद से प्रेरित भावनात्मक एकता के दर्शन होते हैं। यही 'अनेकता में एकता' हमारी शक्ति है, यही कारण है कि हजारों वर्षों के विदेशी आक्रमणों के बावजूद हमने अपनी पहचान नहीं खोई है। इसीलिए मशहूर शायर इकबाल ने कहा है- कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
हमारी अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन डॉलर की होने जा रही है। आर्थिक रूप से समृद्ध हो जाने के बाद विद्यार्थियों के मन में अगला सवाल यह उठेगा कि, ~आध्यात्मिक दृष्टि से मैं कौन हूं ?... मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है ? और इस दुनिया में मेरी और मेरे देश की पोजिशन क्या है? उन्हें यह समझना चाहिए कि वे एक समृद्ध परंपरा (आचार्य परम्परा) से जुड़े हैं, और उन्हें इस 'भारतीय वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित (अर्थात चपरारस प्राप्त) शिक्षक बनने और बनाने की पद्धति~ " Be and Make " के विषय में कुछ जानकारी भी होनी चाहिए।
इसलिए नई शिक्षा नीति में-पतंजलि के योगसूत्र और पाणिनि के व्याकरण सूत्रों को पढ़ाने में समर्थ 'आचार्य परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षकों ' के निर्माण पर विषय पर जोर दिया गया है। भारत की जो नई शिक्षानीति अभी लागू होने वाली है, इसको इसरो के वैज्ञानिक कस्तूरी रंगन समिति द्वारा यूनेस्को के डेलर्स कमिटी 96' की सिफारिश लर्निंग 'the Treasure within' को ध्यान में रखकर बनाई गयी है।
समिति ने स्तरहीन शिक्षक-शिक्षण संस्थानों को बंद करने और शिक्षक शिक्षण के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बदलाव का भी प्रस्ताव रखा है। 4-वर्षीय एकीकृत चरण वाले विशिष्ट बी.एड. कार्यक्रम के माध्यम से शिक्षकों को अंततः न्यूनतम डिग्री की योग्यता प्राप्त हो सकेगी। यह शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम दो मिशनों द्वारा संचालित होंगा- मिशन नालन्दा और मिशन तक्षशिला ।
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