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बुधवार, 12 अगस्त 2015

पंचम वेद -६ " वेदान्त का मूल मन्त्र है- आत्मानं विद्धि।"

 " नेता को सिर्फ दो ही कार्य करने होते हैं -' BE AND MAKE ' धर्मपालन और धर्मशिक्षा ! "
पिछले सत्र में हमने देखा कि मास्टर महाशय के मन में मूर्ति पूजा को लेकर उठे सन्देह को श्री रामकृष्ण दूर करने का प्रयास कर रहे हैं। मानव समाज में कोई न कोई थीसिस (वाद या पूर्वपक्ष ) प्रभावित रहती है, किन्तु जैसे ही कोई वाद प्रचलित होती है, उसके विरोध में कोई ऐन्टिथिसिस (प्रतिवाद) भी प्रारम्भ हो जाता है। और जब ऐन्टिथिसिस की चर्चा जोर पकड़ने लगती है, तब अंतिम रूप में दोनों के बीच एक सिन्थिसिस (सम्मिलन बिन्दु) स्थापित हो जाती है। यहाँ भगवान श्री रामकृष्ण में हम उसी थीसिस, ऐन्टिथिसिस के -या परस्पर विरोधी सिद्धान्तों के सम्मिलन बिन्दु को देख सकते हैं।
प्राचीन युग में हिन्दू धर्म में भी मूर्ति पूजा का प्रचलन नहीं था। ऋषियों ने आविष्कृत किया था कि एक ही सत वस्तु कण -कण में विद्यमान है, किन्तु साधारण मनुष्य इस बात को समझ नहीं पा रहे थे। तब धीरे धीरे द्वैत वाद की परिकल्पना प्रचलित हुई। सामान्य जनता की भलाई को ध्यान में रखकर ही ईश्वर के विभिन्न रूपों की अवधारणा प्रतिस्थापित की जाने लगी। इसके बाद जो लोग ईश्वर को निराकार मानते थे, और जो उनको सगुण साकार रूपों में देखते थे -दोनों परस्पर विरोधाभासी अवधारणाओं में संघर्ष होने लगा। और यह संघर्ष हजारों वर्षों तक जारी रहा। किन्तु हिन्दू धर्म की यह विशेषता है कि इसमें किसी भी विचारधारा को दूसरों पर जबरन थोपने का प्रयास कभी नहीं किया जाता है। जो मार्ग आपको अच्छा लगे आप उसी मार्ग पर चलने को स्वतंत्र हैं !
आचार्य श्रीहरिभद्र ने 'षड्दर्शन-समुच्चय' नाम का अपने ग्रन्थ में - ' न्याय, वैशेषिक,सांख्य,योग,मीमांसा और वेदान्त' -- इन छ: को वैदिक दर्शन (आस्तिक-दर्शन) तथा चार्वाक,बौद्ध और जैन-इन तीन को 'अवैदिक दर्शन' (नास्तिक-दर्शन) कहा है  और उन सब पर विस्तृत विचार प्रस्तुत किया है। वेद को प्रमाण मानने वाले आस्तिक और न मानने वाले नास्तिक हैं, इस दृष्टि से उपर्युक्त न्याय-वैशेषिकादि षड्दर्शन को आस्तिक और चार्वाकादि दर्शन को नास्तिक कहा गया है।
न्याय दर्शन के प्रतिष्ठाता गौतम मुनि हैं।  ईसा से ४०० वर्ष पूर्व उनका जन्म हुआ था। यह दर्शन तर्क पर आधारित है। ५ मार्च, १८८२ को श्री रामकृष्ण मास्टर महाशय से पूछते हैं - " अंग्रेजी में क्या कोई तर्क की किताब है ? मास्टर - जी हाँ है, अंग्रेजी में इसको न्यायशास्त्र (Logic) कहते हैं। श्रीरामकृष्ण - अच्छा, कैसा है कुछ सुनाओ तो !
मास्टर अब मुश्किल में पड़े। आखिर कहने लगे - 'इसमें तर्क के आधार पर साधारण सिद्धान्त से विशेष सिद्धान्त पर पहुँचने की चेष्टा की जाती है; जैसे यह कौआ काला है, वह कौआ काला है और जितने भी कौए दिख पड़ते हैं, वे भी काले हैं, इसलिये निष्कर्ष यह निकला कि सभी कौए काले हैं ! '-किन्तु उस प्रकार के सिद्धान्त से भूल भी हो सकती है; क्योंकि सम्भव है ढूंढ़ -तलाश करने से किसी देश में सफ़ेद कौआ भी मिल सकता है। " ऐसे तर्क को ठाकुर ने महत्व नहीं दिया है ।
इस पर एक मजेदार कहानी है -किसी छात्र ने तर्कशास्त्र के प्रोफेसर से पूछा सर, इस प्रकार तो हम सिद्ध कर सकते हैं कि इस बकरे को दाढ़ी है, उस बकरे को दाढ़ी है, सभी बकरों को दाढ़ी है; और आपको भी दाढ़ी है -तो क्या निष्कर्ष निकाले कि आप भी बकरा हैं ?
इसके बाद आता है, वैशेषिक दर्शन - इसके प्रतिष्ठाता कणाद मुनि हैं। वे सत्य की अनेकता पर विश्वास रखते हैं, उनका मानना है कि दृष्टिगोचर प्रत्येक वस्तुएँ कण से बनी हैं, इसलिये इसके प्रतिष्ठाता को कणाद कहा गया है। अणु -परमाणु पर आधारित दर्शन है। इन सभी सिद्धांतों से जीव, ईश्वर , जगत और उनके संबन्ध को समझाने की चेष्टा की गयी है । दर्शन शास्त्र तीन प्रश्नों का उत्तर खोजता है १. इस जगत का रचयिता कौन है ? २.इन जीवों तथा मनुष्यों का उस रचयिता (ईश्वर) से क्या सम्बन्ध है ? ३. मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है ?
इसके बाद सांख्य-दर्शन आता है, यह बहुत प्रसिद्द दर्शन है, इसके प्रतिष्ठाता कपिल मुनि हैं । इस दर्शन का मुख्य बिन्दु है -पुरुष और प्रकृति ! पुरुष एक हैं प्रकृति अनेक हैं
इसके बाद योग-दर्शन का स्थान आता है, इसके प्रतिष्ठाता महर्षि पतंजलि हैं ! यह दर्शन सांख्य दर्शन पर आधारित है। इसमें मन को पूर्णतः नियंत्रित करने पद्धति बतलायी गयी है। इस प्रकार पुरुष से प्रकृति को अलग करके पुरुष को प्राप्त करने का उपाय कहा गया है। सांख्य और योग दर्शन एक दूसरे से सम्बंधित हैं।
इसके बाद मीमांसा का स्थान है, इसके दो भेद हैं -पूर्वमीमांसा और उत्तर मीमांसा। इसके प्रतिष्ठाता जैमिनी मुनि हैं। जैमनी दर्शन का भी लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना ही है। किन्तु ये लोग किसी ईश्वर या रचयिता पर विश्वास नहीं करते हैं।
वेदान्त को सबसे महत्वपूर्ण दर्शन माना गया है, इसीलिये भारत में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, और योग दर्शन के उतने अधिक अनुयायी नहीं पाये जाते हैं। हमलोग कह सकते हैं कि इसके प्रतिष्ठाता व्यासदेव हैं । इनके मतानुसार 'ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ' है ! अर्थात ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और जो कुछ भी यह विश्व-ब्रह्माण्ड दिखाई दे रहा है, सब केवल माया,भ्रम या धोखा (elusion) है । हम जगत को जिस रूप में देखना चाहते हैं, वह हमें उसी रूप में दिखाई देता है। वेदान्त का मूल मन्त्र है- 'आत्मानं विद्धि।' अर्थात आत्मा को जानो। पिण्ड-ब्रह्माण्ड में ओतप्रोत हुआ एकमेव आत्म-तत्त्व का दर्शन (साक्षात्कार) कर लेना ही मानव जीवन का अन्तिम साध्य है, ऐसा वेद कहता है। इसके लिये तीन उपाय हैं- वेदमन्त्रों का श्रवण, मनन और निदिध्यासन। इसीलिये तो मनीषी लोग कहते हैं- 'यस्तं वेद स वेदवित्।' अर्थात ऐसे आत्मतत्त्व को जो सदाचारी व्यक्ति जानता है, वह वेदज्ञ (वेद को जानने वाला) है।
भगवान श्रीरामकृष्ण को हम अद्वैत वेदान्ती मान सकते हैं। कुछ लोग उनको विशिष्टाद्वैत और द्वैतवादी भी कहते हैं। क्योंकि वे ' जितने मत उतने पथ ' को सही मानते थे, वे सर्वधर्म समन्वय के मूर्त रूप थे। सभी लोग यही दावा करते हैं कि मात्र मेरा ही मत सही है, बाकि सभी गलत हैं, तो आम आदमी किसे सत्य माने ? ठाकुर कहते थे -'सभी लोग अपनी घड़ी को ही सही बतलाते हैं ! मेरी घड़ी में अभी १२ बज रहा हो तो सभी की घड़ी में १२ ही बजना चाहिए ? ' शास्त्रों के महारण्य में सत्य को ढूँढना ही मुश्किल हो गया था। विभिन्न धार्मिक ग्रन्थ विभिन्न बातें कह रहे थे। संस्कृत का श्लोक है -
  "वेदा विभिन्नौः स्मृतयो विभिन्ना
नासौ मुनिर्यस्य मतं न भिन्नम्।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां
महाजनो येन गतः स पन्थाः॥"

अर्थात् - वेद अर्थात ज्ञान भिन्न-भिन्न हैं स्मृतियाँ भिन्न-भिन्न हैं , 'न असौ मुनि यस्य मतं न भिन्नं'  ----ऐसे सन्त मुनि नहीं है जिनमें मतों की भिन्नता ना हो ऐसे में , किया क्या जाय ? महापुरुष जिस मार्ग पर चले वही सही मार्ग है । 
 वे आगे के पृष्ठों में कहते हैं ब्रह्म भी सत्य है तो जगत भी सत्य है, यदि ऐसा नहीं है तब तो मेरी जन्मभूमि कामारपुकुर भी असत्य हो जाएगी ?
वचनामृत में मास्टर महाशय ' जगद्गुरु-श्रीरामकृष्ण स्तोत्रम् ' से एक श्लोक को उद्धृत करते हैं -

संसारार्णवघोरे यः कर्णधारस्वरूपकः
नमोऽस्तु रामकृष्णाय तस्मै श्रीगुरवे नमः॥१२॥

संसार जो नित्य परिवर्तनशील है, संसार रूपी समुद्र में निरंतर बड़ी बड़ी लहरें उठती गिरती रहती हैं। ऐसे घोर तूफान में भी जो हमारी जीवन नौका के खेवैया हैं, या जहाज के कप्तान हैं, उन भगवान श्रीरामकृष्ण को मैं अपना गुरु मानकर नमस्कार करता हूँ ! संसार भी ठीक इसी तरह है, अभी सब कुछ बहुत सुंदर ढंग से चल रहा है, पर अगले ही क्षण क्या घटित हो जायेगा , कोई नहीं जानता। जब बोट  हिचकोले खा रही है, उस समय स्टीयरिंग को कौन थामे रहेंगे ? 'मैं और मेरा' का जन्म अहंकार से होता है। मैं सब जानता हूँ, मैं जो कह रहा हूँ वही ठीक है ! गुरु क्या करते है ? वे उस अहंकार पर ही चोट करते हैं। अधिकांश गुरु अपने शिष्यों को अत्यन्त संकीर्ण क्षेत्र में विश्वास करने की सीख देते हैं। उस मंदिर में मत जाना, उनका प्रसाद मत खाना, उस मूर्ति को मत छूना; इस किताब के सिवा अन्य किसी किताब को नहीं पढ़ना । फिर यह भी कहते हैं कि ईश्वर ने ही इस सृष्टि को रचा है। 
जब मास्टर महाशय यह कहते हैं कि, " अच्छा, जो मिट्टी की मूर्ति पूजते हैं, उन्हें समझाना भी तो चाहिये कि मिट्टी की मूर्ति ईश्वर नहीं है । "
वर्तमान युग के  विश्व-गुरु श्री रामकृष्ण हमें उदार हृदय के मनुष्य बनने की शिक्षा देते हुए कहते हैं - " अजी समझाने वाले तुम हो कौन ? जिनका संसार है वे समझायेंगे। जिन्होंने सृष्टि रची है, सूर्य-चन्द्र, मनुष्य, जीव-जन्तु बनाये हैं, जीव-जन्तुओं के भोजन के उपाय सोचते हैं, उनका पालन करने के लिये माता-पिता बनाये हैं, माता-पिता में स्नेह का संचार किया है- वे समझायेंगे। " अपने शिष्य को वे सिखा रहे हैं कि आध्यात्मिक व्यक्ति को कभी संकीर्ण बुद्धि नहीं रखनी चाहिये। आगे कहते हैं - " यदि मिट्टी की मूर्ति पूजने में कोई भूल होगी तो क्या वे नहीं जानते कि पूजा उन्हीं की हो रही है ? वे उसी पूजा से सन्तुष्ट हैं, तो इससे तुम्हारा सिर क्यों धमक रहा है ? तुम यह चेष्टा करो जिससे तुम्हें ज्ञान हो -भक्ति हो। ....  जिनका यह संसार है उन्होंने ही ज्ञान के विभिन्न स्तर पर खड़े व्यक्तियों के लिये, जो जैसा अधिकारी है, उसके लिए वैसे पूजाओं की योजना ईश्वर ने की है। लड़के को जो भोजन रुचता है, और जो उसके पेट में पच सकता है, वही भोजन माँ उसके लिये पकाती है,-- समझे ? बंगला में पूछते हैं - क्या तुम मुझे समझे ? मैं कौन हूँ ? " 
यह नहीं समझने सकने के कारण बहुत से पढ़े-लिखे वयस्क लोग धार्मिक-आस्था का प्रसंग उठने से -मुस्टैच बेबी- मूंछो वाले बच्चों जैसा झगड़ना शुरू कर देते हैं। हजारों लाखों लोग हज्ज करने या तीर्थ यात्रा पर जाते हैं, वे क्या भक्ति से जाते हैं, या मार्केटिंग से प्रभावित होकर जाते हैं ? गायत्री मंत्र को “गुरु मंत्र” के रुप मे जाना जाता है। (ओम भूर्भवः स्वः तत्स वितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात॥)  गायत्री मंत्र में प्रार्थना है - 'धीमहि धियो योनः प्रचोदयात'  अर्थात वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे ! 
बड़े बड़े वकील लोग कानून की सभी धाराओं को याद रखते हैं, अन्तर्राष्ट्रीय कानून तक की जानकारी रखते हैं, डॉक्टर लोग चिकित्सा शास्त्र की जानकारी रखते हैं, केमिस्ट्री-फिजिक्स कहीं भी आप देखें ये लोग सूक्ष्म बातों की जानकारी रखते हैं। किन्तु जैसे ही तुम उनसे ईश्वर के बारे में चर्चा करो,  बिल्कुल नासमझ बन जाते हैं ! क्यों ? वे गुरु मंत्र से प्रार्थना -धीमहि धियो योनः प्रचोदयात' की प्रार्थना नहीं करते। इसीलिये अवतार तत्व को समझ नहीं पाते हैं। 
 इसीलिये ठाकुर जब पूछते हैं - मुझे समझे ? मास्टर कहते हैं - अज्ञे हाँ ! अज्ञे का अर्थ है -रिवीयर्ड सर, मैं आपको समझ रहा हूँ ! जब मनुष्य का अहंकार चला जाता है, तभी उसमें चरित्र के चौबीसो गुण प्रविष्ट हो पाते हैं। गीता में बहुत सुंदर ढंग से बताया गया है कि कौन व्यक्ति ज्ञान को समझ सकता है ? तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥ प्रणिपात का अर्थ है - अत्यंत विनम्रता से ; उसे (ज्ञानको) तू प्रणाम करके, दूसरा परिप्रश्नेन - बार बार सब प्रकारके प्रश्न कर जब तक तुम्हारे सारे सन्देह मिट नहीं जाते, तीसरा है सेवया - अर्थात सेवा द्वारा जान ले; तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुष तुझे उस ज्ञानका उपदेश करेंगे ।" 
सिस्टर निवेदिता जब स्वामीजी के पास आती हैं तो सैकड़ो प्रश्न पूछती हैं , किन्तु प्रश्न करने का अर्थ बच्चों जैसा सवाल करना नहीं है ! 
अहंकार हट जाने के बाद, भगवान हैं या नहीं ऐसे प्रश्न समाप्त हो जाते हैं, अब मास्टर महाशय विनीत भाव से पूछते हैं - " महाशय, ईश्वर में मन को किस तरह लगाया जाता है ? हाउ कैन आई फिक्स माई माइंड ऑन गॉड ? " इस सुंदर प्रश्न को सुनकर ठाकुर प्रसन्न हो जाते हैं, वे नहीं पूछते कि क्या तुम ब्राह्मण हो ? शाकाहारी हो या नहीं ? रोज गंगा-स्नान करके लाल टिका लगाते हो या नहीं ? वे उत्तर देते हैं - " सर्वदा ईश्वर के नाम का गुण-गान करना चाहिये, सत्संग करना चाहिये --बीच बीच में भक्तों और साधुओं से मिलना चाहिये। दिनरात सांसरिक विषय-भोगों में पड़े रहने से मन ईश्वर में नहीं लगता। कभी कभी निर्जन स्थान में जाकर ईश्वर पर मन को एकाग्र करना बहुत जरूरी है। प्रथम अवस्था में बीच बीच में एकान्तवास किये बिना ईश्वर में मन को लगाना बड़ा कठिन है। " 
तुरंत एक उपमा द्वारा बात को स्पष्ट करते हैं - " पौधा जब छोटा होता है, उसके चारों ओर घेरा बाँधना पड़ता है, नहीं तो बकरी चर लेगी।" उपमा कालिदासस्य -कालिदास उपमा के लिये प्रसिद्द हैं । उपमा देकर युवाओं को समझा रहे हैं, जब संडे स्टडी सर्कल में जाने की बात अपने दोस्तों से करोगे, तो वे तुमसे कहेंगे -मूर्ख, वहाँ जाकर अपना समय क्यों बर्बाद करता है, चलो सिनेमा चलें ! इस प्रस्ताव से कच्चे उम्र में या प्रारम्भ में मन भटक सकता है। 
फिर वे तीन प्रकार से मनःसंयोग करने की शिक्षा देते हैं - " सर्वदा ईश्वर के नाम का गुण-गान करना चाहिये, सत्संग करना चाहिये --बीच बीच में भक्तों और साधुओं से मिलना चाहिये।" ईश्वर के तो अनेक नाम हैं, और सभी पवित्र हैं, मानलो तुम सभी नामों को दुहराने लगे तो क्या होगा ? इसीलिये सिर्फ नाम नहीं दुहराना है, उसके साथ साथ भगवान के गुणों पर भी चिंतन करना है। नहीं तो लोग इतने चतुर हैं कि अपने बच्चों का नाम भगवान पर रखते हैं, किन्तु काली छोड़कर रखते है । सोचते हैं जब मैं उन्हें पुकारूँगा भगवान को पुकारना हो जायेगा। कुछ लोग माला जपते रहते हैं और साथ  मोल-भाव भी करते रहते है। किन्तु वे भगवान के उपदेशों का पालन नहीं करते हैं। भगवान के गुण का क्या अर्थ है ? भगवान के उपदेश की चर्चा ही तो है ! रिपीट द गॉड्स नेम ऐंड सिंग हिज ग्लोरी ! का अर्थ यह नहीं कि अपने घर के छत पर चारों कोन में माइक लगा कर पड़ोसियों की नींद हराम कर दो। आध्यात्मिक विकास का क्या अर्थ है ? संत तुलसीदास जी कहते हैं - 

राम नाम  मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार |  
 तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर || 

 हे मनुष्य ,यदि तुम भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला (लौकिक एवं पारमार्थिक ज्ञान) चाहते हो तो मुखरूपी द्वार की जीभरुपी देहलीज़ पर राम-नामरूपी मणिदीप [हवा के झोंके अथवा तेल की कमी से कभी न बुझने वाला नित्य प्रकाशमय दीप  ] को रखो | अर्थात् प्रत्येक स्वांस के साथ जीभ के द्वारा अखण्डरूप से श्रीराम-नाम का जप करता रह ।
कैसे गुणगान किया जाता है ? यह तरीका गुरु बतलाते हैं ! ठाकुर कहीं जाते थे तो अपने भक्तों को वहाँ आने को बोल देते थे, इससे उनके भक्त लोग संघबद्ध होना सीख रहे थे। वे मास्टर महाशय को बलराम के घर पर आने का आदेश देते हैं। बलराम बोस बहुत धनी जमींदार थे, वहाँ गेट पर दरवान भी खड़े रहते थे, जो परिचयपत्र देखकर ही किसी को अंदर जाने देते थे। मास्टर पूछे क्या वे मुझे अंदर जाने देंगे ? ठाकुर ने कहा तुम मेरा नाम लेना , वे तुम्हें अंदर आने देंगे। 
ठाकुर यही कहना चाहते थे कि तुम श्री रामकृष्ण का केवल नाम ले लो -सभी बंद दरवाजे खुल जायेंगे ! हमने अपने इस छोटे से जीवन में इस वेदांत को सत्य होते देखा है ! जहाँ उम्मीद की कोई किरण भी नहीं थी, उन स्थानों में भी कैम्प स्वतः होने लगे ! माम् अनुस्मर युद्धश्च ! असम्भव सिग्नेचर भी मिल जाते हैं ! 
भगवान का नाम भगवान से भी बड़ा है ! अंजना देवी हनुमान की माँ बोली मेरा बेटा वहाँ है तो विश्वामित्र भी राम के भक्त का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। राम का बाण बिना शत्रु को मारे लौट आया ? नारद से कारण पूछा तो नारद ने कहा राम , आपका बाण आपको कैसे छू सकता है ? हनुमान के पूरे शरीर में आपका नाम बसा हुआ है। किसी बीमार से मिलो तो भगवान से प्रार्थना करो ! हमें हमेशा विवेक-प्रयोग करके सोचना चाहिये - 'जब कोई हमें प्रणाम करता है, तो वो मेरे माध्यम से श्रीरामकृष्ण को ही प्रणाम कर रहा है ! '
 नेता को सिर्फ दो ही कार्य करने हैं - " धर्म-पालन और धर्म-शिक्षा' महामण्डल नेता के व्यवहार से लोग श्रीरामकृष्ण के संतान की समीक्षा करते हैं ! इसलिये 'नाम गुणगान सर्वदा ' । यह शिक्षा ठाकुर दे रहे हैं। गुण तो अच्छे और बुरे दोनों हो सकते हैं । अच्छे गुण यदि भगवान से आते हैं, तो बुरे गुण कहाँ से आते हैं ? कुछ लोग मानते हैं कि वे शैतान से आते हैं । पशुओं को सिंघ और पूँछ कौन देता है ? यदि अच्छे बुरे दोनों प्रकार के गुण भगवान में रहते हैं, तो क्या दुर्गुण का असर भगवान पर भी पड़ता है ? नहीं ! सर्प के मुख में जहर रहता है, पर क्या उस जहर का असर सर्प पर होता है ? नहीं, हमें सदगुणों को अर्जित करना है और दुर्गुणों को निकालना है । इसलिये प्रार्थना है भगवान आप दक्षिणामुखं ही रहें - केवल सदगुणों को आने दें। राम के गुण क्या हैं ? वे भीलनी के जूठे बैर खा रहे हैं । श्रीकृष्ण का गुण -अनासक्ति है। वे चाहते तो चक्रवर्ती सम्राट हो सकते थे, पर कुछ नहीं लिया।
हमलोग राम, कृष्ण, बुद्ध, जीसस क्राइस्ट, के अनुयायी हैं उन्होंने क्षमा करने की शिक्षा दी है। हमलोग जीसस का नाम लेते हैं, किन्तु उनके उपदेशों का पालन करते हैं ? दिखावा छोड़कर अभ्यास में लाना होगा। गीता के १२ वें अध्याय के १३-१९ तक केवल ७ श्लोकों का स्मरण कर लो। १६ वें अध्याय का केवल ४ श्लोक अद्वेष्टा और अभयं सर्वभूतेषु का अभ्यास करो. भक्त का जीवन दूसरों के लिये प्रेरणा स्वरूप होना चाहिये, अपने ड्राइंग रूम में दो टांग पर खड़े घोड़े का नहीं भगवान का चित्र लगाना चाहिए, सद्साहित्य रखना चाहिये, व्यवहार में विनम्रता रखनी चाहिये।
माँ सारदा ने कहा है, जब तुम ठाकुर के फोटो को देखते हो तो तुम जीवंत भगवान को ही देख रहे हो ! उनके गुण तुममें कैसे आयेंगे ? जब तुम उनके भक्तों के यहाँ जाओगे, महामण्डल कैम्पों में जाओगे ! बीच बीच में निर्जनवास करो का अर्थ है - महामण्डल का वार्षिक शिविर कभी मत छोड़ो ! नवनी दा का संग करने का जहाँ अवसर हाथ लगे, जरूर पहुँचो ! आमी सकल काजे पायी हे समय तोमाके डाकिते पायी ने - ऐसी लाचारी महामण्डल कर्मी में कभी नहीं आ सकती है ! हमलोग सर्वोत्तम भगवान श्रीरामकृष्ण के भक्त हैं, आधुनिक युग के भगवान के भक्त हैं, वे अत्यंत सरल भाषा में कहते हैं - ' आमी ईश्वर के देखेची, तोके ऊ देखाते पारी! ' उपाय क्या है ? बस तीन कार्य करो - " सर्वदा ईश्वर के नाम का गुण-गान करना चाहिये, सत्संग करना चाहिये --बीच बीच में भक्तों और साधुओं से मिलना चाहिये।"तुमको अवश्य ईश्वर लाभ होगा ! भगवान स्वयं कह रहे हैं- तुम्हें केवल इस पर विश्वास करना है, इसका अभ्यास करना है, और दूसरों को भी इसका अभ्यास करने के लिये प्रेरित करना है ! तुम्हारा एकमात्र लक्ष्य है - 'धर्मपालन और धर्मशिक्षा' BE AND MAKE ! 
अर्जुन के अहंकार को तोड़ते हुए कृष्ण ने कहा था -

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैततत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥३॥

 हे पार्थ ! नपुसंकताको मत प्राप्त हो, तुझमें यह उत्पन्न मत होने दे ! हे परंतप ! हृदयकी तुच्छ दुर्बलताको त्यागकर खडा हो जा । यहाँ मास्टर महाशय भी एम.ए पास हैं, उनकी ईश्वर संबन्धी अवधारणा को सही करने के लिये कहते हैं -निराकार को मानो पर यह कभी मत कहना कि केवल यही मत सही है। वह एक ही अनेक बन गया है, अब हमें अनेक से एक में पहुँचना है ! 
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