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मंगलवार, 11 अगस्त 2015

पंचम वेद - ५ " जो यहाँ नानात्व देखता और बरतता है वो मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है।"

'अनेक दीखने पर भी परमात्मा तत्वतः एक ही हैं—एकम् एवं अद्वितीयम् !
पंचम वेद -भाग ४ में हमलोगों ने, भगवान श्रीरामकृष्ण एवं मास्टर महाशय के बीच प्रथम भेंट-वार्ता के आधार पर
'पुनर्जन्मवाद,'  'कर्मफल वाद,' के अनुसार छः भिन्न प्रकार के कर्मों - काम्य कर्म, निषिद्ध कर्म।  नित्यकर्म, निमित्त कर्म, नैमित्तिक कर्म, प्रायश्चित कर्म,क्रियमान कर्मों में सर्वश्रेष्ठ है -'BE AND MAKE' रूपी  उपासना कर्म !  आदि  सनातन धर्म के कुछ प्रमुख सिद्धान्तों - को विस्तार से समझा था।
जब श्री म प्रथम बार श्रीरामकृष्ण से मिलते हैं, तो उनके कुछ शब्दों को सुनते ही उनकी तरफ आकर्षित हो जाते हैं। पर उनके मित्र सिधू पर वैसा कुछ असर क्यों नहीं हुआ ? किसी के ऊपर अवतार का प्रभाव पड़ना, या नहीं पड़ना पुनर्जन्मवाद के सीद्धान्त के अनुसार ही घटित होता है। बाद में श्रीरामकृष्ण इसके कारण को स्पष्ट करते हुए कहा था कि तुम पिछले जन्म में चैतन्य के दल में रहे थे !
 यही इस प्रश्न का उत्तर है कि, क्यों महामण्डल के पाठचक्र में बहुत थोड़े से लोग ही मनःसंयोग, चरित्र के गुण और चरित्रनिर्माण की पद्धति सुनना पसन्द करते हैं?जबकि अन्य बहुत से अच्छे लोग ऐसे भी हैं - जो किसी को धोखा नहीं देते, किसी को नुकसान नहीं पहुँचाते, वे किसी ऐसे मनोरंजक मित्र-मण्डली या क्लबों में जाना पसंद करते हैं, और जो भी पारिवारिक जिम्मेदारी उनके ऊपर है, उसे पूरा करने के लिये जो कार्य करना पड़े करते रहना ही अपना परम कर्तव्य समझते हैं ।
तो कुछ लोग ढेरों उपन्यास पढने, पेपर में आर्टिकल भी लिखने। दोस्तों के साथ पार्लियामेंट में चल रही लॉग जाम पर सांसदों की पे कटे या नहीं इस पर बहस करते रहना ही देशभक्ति समझते हैं ! हो सकता है वे कुछ जरूरत मंदों की सहायता भी करते हों । किन्तु ऐसे मनुष्यों को धार्मिक मनुष्य नहीं कहा जा सकता, इसीलिए बहुत थोड़े से चुने हुए यथार्थ धर्मपरायण लोग ही श्रीरामकृष्ण की पुकार को सुनकर उनके पास आ सके थे।
भगवान स्वयं, दक्षिणेश्वर मंदिर के अपने कमरे के छत पर खड़े होकर कोलकाता की और मुख करके, भारत की तात्कालीन राजधानी में रहने वाले यथार्थ जिज्ञासु लोगों को पुकार रहे थे !  गंगा के ऊपर से बहने वाली वायु ने उस गूँज को चारों और फैला दिया, बहुत से लोगों ने इस पुकार को सुना किन्तु बहुत थोड़े से लोगों ने ही उसका प्रतिउत्तर दिया ?
जिन लोगों ने उस पुकार का प्रतिउत्तर दिया उनका पिछला जन्म अवश्य ही बहुत अच्छा रहा होगा। जो लोग उनके निकट रहते थे, वे भी नहीं आना चाहते थे, जो लोग आते भी थे वे इतने अहंकार से भरे होते थे कि कोई नई बात देखते ही कटुआलोचना करते हुए आना ही छोड़ देते थे। क्या घर में कोई काम दिया जाता है, और उसके करने पर भी यदि कोई संबंधी आपकी आलोचना करता है, या अन्य प्रकार से करने की सलाह देता है, तो क्या हम उससे अपना सम्बन्ध ही तोड़ लेते हैं ? नहीं, किन्तु  किसी अच्छे संगठन में भी परस्पर के बीच गहरा प्रेम नहीं रहने के कारण ऐसा दिखाई पड़ता है।
सदियों से दुनिया के अधिकांश आधुनिक मनुष्यों में यह भ्रम बना ही रहता है कि क्या 'भगवान, खुदा, या गॉड' निराकार-साकार दोनों हो सकते हैं ? विगत १००० वर्षों की गुलामी के कारण भारत में भी भगवान के साकार या निराकार होने पर बहस छिड़ा हुआ था। भारतीय जनमानस के बीच सबसे जटिल समस्या यही रही है कि ‘वास्तव में भगवान क्या है? उसे हम कैसे प्राप्त कर सकते हैं, और उनकी परख-पहचान कैसे कर सकते हैं?’ एक पक्ष कहता था 'अल्ला' परवरदिगार है, 'राम' तो बंदा है गुलाम भारत के हिन्दू डिग्री डिप्लोमा प्राप्त आलिम-फाजिल हिन्दू (मुसलमान में कन्भर्टेड हिन्दू)  लोग भी, अपने आकाओं से सुन सुन कर यह कहने लगे थे - 'राम' एक राजा या मज़हबी पेशवा का नाम है ! क्योंकि अल्लाहतऽला तो निराकार सर्वव्यापी सत्ता है, वह कभी साकार नहीं होता हाजिर- नाजिर नहीं हो सकता! किन्तु यह सत्य नहीं है ।  
मौलानाः 'सैय्यद मज़हर अली नक़वी अमरोहवी' कहते हैं - " यदि अल्लाहतऽला केवल निराकार ही होता है ! तो वहिस्त में अल्लाहतऽला सिंहासन पर बैठकर निर्णय कैसे करता है ?  उसमें फरिश्ते सब लाइन में खड़े  होते हैं, मोमिन लाइन में खड़े होते हैं । ये काफिर लाइन में खड़े होते हैं । ये सब क्या है निराकार का वर्णन है ? कुछ मुल्लाओं ने समाज में फैला दिया है की नमाज़ ,रोज़ा ,हज्ज ,दाढ़ी,का नाम मुसलमान है ।
 जबकि मुसलमान नाम है इस्लाम के बताये कानून पे चलने का और यह कानून बताते हैं की, लोगों पे ज़ुल्म न करो, इमानदार रहो, इर्ष्या , हसद और लालच से बचो। इस्लाम अपराध करने वाले जालिमो का साथ देने,उनसे सहानभूति करने वालों और ज़ुल्म देख के चुप रहने वालों को भी अपराधी करार देता है । आप कह सकते हैं की इस्लाम न अपराध करने वालों को पसंद करता है और न ही अपराध को बढ़ावा देने वालों को पसंद करता है ।  यह फ़िक्र करने की बात है कि इंसानियत का सबक सिखाने वाला इस्लाम आज आतंकवादियों के शिकंजे में कैसे फँस गया ?
यदि आप को यह पहचानना हो कि यह शख्स इस्लाम को मानने वाला है या नहीं; सच्चा मुसलमान है या नहीं ? तो न उसके सजदों को देखो और न उसकी नमाज़ों को देखो, कि उसके लिलार में काला निशान बना है या नहीं ? बल्कि देखो उसके किरदार को ,उसकी सीरत को ,और यदि वो हज़रत मुहम्मद (स.अ.व) से मिलती हो, यदि वो शख्स समाज में अमन और शांति फैलाता दिखे या वो शख्स इंसानों मेंआपस में मुहब्बत पैदा करता दिखे तो समझ लेना मुसलमान है ।" 
कठोपनिषद् १/१/२१ में नचिकेता के पूछने पर यम कहते हैं -
अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम्॥
नचिकेता ! यह ‘आत्मतत्त्वम् (परमतत्त्वम्)’ अत्यंत सूक्ष्म विषय है। इसका समझना सहज नहीं है। पहले देवताओं को भी इस विषय में सन्देह हुआ था। उनमें भी बहुत सा विचार विनिमय हुआ था, परन्तु वे भी इसको जान नहीं पाये। अतएव तुम दूसरा वर माँग लो। मैं तुम्हें तीन वर देने का वचन कर चुका हूँ, अतएव तुम्हारा ऋणी हूँ। पर तुम इस वर के लिए जैसे महाजन ऋणी को दबाता हैं, वैसे मुझको मत दबाओ। इस ‘आत्मतत्त्वम् (परमतत्त्वम्)’ विषयक वर को मुझे लौटा दो। इसको मेरे लिए छोड़ दो।
यही बात श्रीरामकृष्ण मास्टर महाशय के माध्यम से हमें सीखा रहे हैं।  पिछले सत्र में हमने सुना था श्रीरामकृष्ण पूछते हैं - "वेल, डू यू बिलीव इन गॉड विथ फॉर्म और विदाउट फॉर्म?" अच्छा, तुम ईश्वर के 'साकार ' रूप पर विश्वास करते हो या 'निराकार' पर ?   'म ' बहुत सोच-समझकर उत्तर देते हैं -' महाशय, निराकार मुझे अधिक पसंद है । ' श्रीरामकृष्ण  यह प्रश्न क्यों पूछते हैं ? 
विगत ६-७ शताब्दियों से इसी बात पर विवाद चल रहा था कि ईश्वर साकार हैं या निराकार ?  राम तो बंदा है, और अल्ला परवरदिगार ? राम अभी कहाँ हैं ? उस समय, गुलाम भारत में -ईश्वर केवल निराकार हैं, मूर्ति पूजा नहीं करनी चाहिए, इन बातों को आर्यसमाज और ब्रह्मसमाज के लोगों ने पढ़े-लिखे लोगों के बीच इतना अधिक प्रचारित कर दिया था; निराकार पर विश्वासी को एजुकेटेड और साकार मूर्ति मानने वाले पर अनपढ़-गँवार नॉन एजुकेटेड का ठप्पा लग जाता था ! उन दोनों जो लोग इंगिलश मीडियम स्कूलों में, कन्वेंट स्कूलों में नहीं पढ़े हैं, इंग्लैण्ड  से बैरिस्टरी नहीं पास किये हैं, पाश्चात्य वेश-भूषा नहीं है, उनको एजुकेटेड ही नहीं माना जाता था। जबकि उस समय के संस्कृत विद्यालयों में जो उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, या भारतीयशिक्षा ग्रहण करते थे, उन्हें अच्छे लोग होने से भी शिक्षित नहीं समझा जाता था। केवल यूरोपीय शिक्षा का ही प्रचार हो रहा था। अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग अपने को तर्कसंगत अक्लमंद या रैशनल व्यक्ति समझते थे, वे कैसे कह सकते थे की मूर्तिपूजा करना उचित है ! इसीलिये जब भारत पर ब्रिटिश रुल लागु हो गया, तबतो अधिकांश एजुकेटेड लोग यह मानने लगे कि चूँकि ईश्वर सर्वव्याप्त है, इसलिये वे साकार कैसे हो सकते हैं ? 

 

राजा राममोहन राय अंग्रेजी -संस्कृत-फ़ारसी के विद्वान थे, इन्होने ब्रह्मसमाज की स्थापना की थी, क्योंकि वे हिन्दू समाज को बचाना चाहते थे। क्योंकि तब अधिकांश उच्च शिक्षित लोग सेमेटिक धर्मों में धर्मान्तरित होने लगे थे। उन्होंने सोचा केवल मूर्ति होने से लोगों को आपत्ति है, तो अगर साकार रूप को हटाकर ईश्वर को 'निराकार किन्तु सगुण' के रूप में प्रतिष्ठित किया जाय , तो अंग्रेजी लिखे -पढ़े लोग भी भगवान से प्रार्थना कर सकते हैं, किन्तु उनका कोई मूर्त रूप नहीं माना जायेगा।
 नॉर्थईस्ट में नामघर सम्प्रदाय कृष्णा विदाउट फॉर्म की प्रार्थना करते थे। उनके मंदिरों में नाम की पूजा होती थी, किन्तु रूप की पूजा वर्जित थी। मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण की जीवनी पढ़ते थे, श्रीमद्भागवत पुस्तक रखकर उसकी पूजा करते थे, पर श्रीकृष्ण की मूर्ति नहीं रखते थे। तो ऐसा ही मनोभाव एमए पास मास्टर का भी था, ठीक वही भाव नरेन्द्रनाथ का भी था। 'म ' बहुत सोच-समझकर उत्तर देते हैं -' महाशय, निराकार मुझे अधिक पसंद है।' 
श्रीरामकृष्ण के विचारों की उदारता देखिये ! ठाकुर  क्षणमात्र में इस बहस को समाप्त करते हुए कहते हैं - तुम जिस पर विश्वास करते हो उसी को पकडे रहो ! पर यह न कहना कि केवल यही सत्य है, और सब झूठ !श्रीरामकृष्ण कहते हैं - " अच्छी बात है। किसी एक पर विश्वास रखने से काम हो जायेगा। निराकार पर विश्वास करते हो, अच्छा है। पर यह न कहना यही सत्य है, और सब झूठ । यह समझना कि  निराकार भी सत्य है और साकार भी सत्य है। जिस  पर तुम्हारा विश्वास हो उसी को पकड़े रहो । " 
 श्रीरामकृष्ण क्षणभर में समाधान कैसे कर सके ? क्योंकि श्रीरामकृष्ण स्वयं भगवान हैं, इस सत्य को वे जानते थे, और दूसरे लोग केवल ईश्वर के विषय में सोचते थे ! हम लोग के जीवन में देखा जाता है, कुछ लोग बोलते हैं, नवनी दा को मछली नहीं आलू ज्यादा पसंद है, पर नवनी दा ही जानते हैं कि उन्हें क्या पसंद है। 
स्वामी विवेकानन्द कहते थे - " हमारे गुरुदेव बिल्कुल मौलिक थे, (वे कभी जर्मन फिलॉसफर की दुहाई नहीं देते थे) वे जानते थे कि गीता स्वयं ईश्वर की वाणी है, क्योंकि गीता का उपदेश स्वयं उन्होंने ने ही दिया  था।
 इसीलिए हम सबों को भी मौलिक ही होना होगा !" जब हमलोग स्वयं आत्मसाक्षात्कार कर लेंगे, ब्रह्मविद् बन जायेंगे तभी कह सकेंगे मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ क्यों कहा गया है ? मास्टर यह सुनकर चकित हो गये कि -दोनों सत्य हैं ! यह बात उनके किताबी ज्ञान में तो थी नहीं !! इसे - ' नेति, नेति से इति इति' को  तो केवल अपने अनुभव से ही जाना जा सकता है !
 तीसरी बार धक्का खाकर उनका अहंकार चूर्ण हुआ ! क्योंकि जो व्यक्ति उनकी बातों को गलत सिद्ध कर रहा था, वह तथाकथित रूप से बिल्कुल अनएजुकेटेड था ! इसके बावजूद म उनकी बातों को बिल्कुल सही अर्थों में ग्रहण कर रहे थे। 
माँ सारदा देवी कहती थी, 'किसी का दोष मत देखना, दोष देखना तो सिर्फ अपना ' ताकि तुम उसका सुधार कर सको ! यह काम कौन कर सकता है ? केवल वही जिसका अपना कोई अहंकार नहीं है ! जब हममें उतना ज्यादा अहंकार नहीं रहता है, तभी हम दूसरों की बातों को साकारात्मक रूप में ग्रहण कर सकते हैं । 
का अहंकार तीसरी बार चूर्ण हुआ, पर अभी कुछ रह गया था; इसीलिये फिर वे तर्क करने को आगे बढे -  "सर, सपोज वन विलिव्स इन गॉड विथ फॉर्म. सर्टेनली ही इज नॉट द क्ले इमेज!"श्रीरामकृष्ण कहते है -   "बट व्हाई क्ले? इट इज अ इमेज ऑफ़ स्पिरिट. - मिट्टी की मूर्ति वे क्यों होने लगे ? चिन्मयी मूर्ति ! हम सभी लोग किसी न किसी मूर्ति की पूजा करते हैं, किन्तु पत्थर की मूर्ति, या कागज में बना फोटो देखते हैं, क्या कभी सोचा है कि वह मूर्ति -इमेज ऑफ़ स्पिरिट है ? यह चिन्मयी मूर्ति क्या चीज है ? यह बात मास्टर न समझ सके । वे खुद नहीं समझ सके पर ठाकुर से कहते है -' अच्छा, जो मिट्टी की मूर्ति पूजते हैं, उन्हें किसी को समझना भी तो चाहिये कि मिट्टी की मूर्ति ईश्वर नहीं है;  और मूर्ति के सामने ईश्वर की पूजा करना ही ठीक है, किन्तु मूर्ति की नहीं!' 
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहीं लिखा है - 'जारा तोदेर प्राण देन तादेर आचे कि प्राण ?' जब पुजारी घट-स्थापित करते हैं, तो ध्यान में बैठकर स्वयं को भगवान में रूपांतरित करके अपने ही सिर पर फूल चढ़ाते हैं, फिर उस फूल को सूँघकर घट पर चढ़ा देते हैं, मानों वे मूर्ति में प्राण संचारित कर रहे हों ! कविगुरु कहते हैं, वह ईश्वर जिसने सबों में प्राण का संचार किया है, और ये लोग इतने अज्ञानी हैं कि उस ईश्वर में प्राण फूंकने का दुस्साहस कर रहे हैं ? जो तुम्हें प्राण अर्थात जीवन दे रहे हैं, क्या उनमें प्राण है ? 
 युवा नरेन्द्रनाथ भी उसी समय की शिक्षा से प्रभावित थे, क्योंकि समाज के समाजसुधारक नेता लगातार पानी पी पी कर इसी सब चर्चा कर रहे थे, बहुत थोड़े से लोग थे जिनका कोई अपना मौलिक दर्शन था, यहाँ श्रीरामकृष्ण हैं! कोलकाता के बहुत नजदीक रहते थे, वहाँ चल रहे चर्चाओं की जानकारी रखते थे, पर उनपर इन ब्राह्म नेताओं का कुछ प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि वे ओरिजिनल थे मौलिक थे। किन्तु म इतने अधिक प्रभावित थे कि ठाकुर के सामने जब बार बार -  ' मिट्टी की मूर्ति ईश्वर नहीं है' का प्रश्न उठाने लगे, तो ठाकुर ने कहा -   ' माटी केनो गो, चिन्मयी प्रतिमा '! बंगाली में 'गो' का कोई अर्थ नहीं है, पर इसका प्रयोग वाक्य में मधुरता भर देता है।  जैसे महाशय माने महा आशय ! अर्थात 'पर्सन हैविंग एक्सीलेंट थॉट !'
दयानन्द सरस्वती स्वयं बड़े शास्त्रज्ञ- विद्वान थे, वे भी कहते थे कि मूर्ति-पूजा नहीं होनी चाहिये। दिल्ली में बहुत से लोग आर्यसमाजी हैं । लोग जब फल-मिठाई लेकर मंदिर जाते थे, तो उनसे कहते थे, विग्रह में क्यों चढ़ाते हो, पंडितों को दे दो ! जो पंडित उन मूर्तियों की पूजा करते हैं, उनकी क्या गलती है ? म सोच रहे हैं थे ये जो कुछ बोल रहे हैं क्या वह श्रुति -स्मृति के अनुकूल है ? श्रुति अर्थात वेद तथा स्मृति का अर्थ है -गीता। छान्दोग्य उपनिषद में ऋषि आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को शिक्षा दे रहे हैं - 
सदेव (सद एव ) सौम्‍य इदम् अग्रे आसीत्, एकम् एवं अद्वि‍तीयम् (छान्‍दोग्‍य ६ -२ -१ ) 
‘हे सोम्य ! आरम्भमें (सृष्टि के पहले , इन द बिगनिंग ) यह एकमात्र अद्वितीय सत् (दैट नेवर चेंजेज ) ही था’ । -अकेला और अद्वि‍तीय;  कोई दूसरा था ही नहीं ! सेमेटिक धर्म भी कहता है- गॉड इज वन ! किन्तु किस प्रकार का एकम् है ? इसकी व्याख्या नहीं करता। वेदान्त ब्रह्म को भेद-रहित कहता है !  तात्पर्य है कि वह तत्त्व अद्वैत है । उस तत्त्वमें किसी भी तरहका भेद नहीं है । 
भेद तीन तरहका होता है—स्वगत भेद, सजातीय भेद और विजातीय भेद । जैसे, एक शरीरमें भी पैर अलग हैं, हाथ अलग हैं, पेट अलग हैं, सिर अलग हैं—यह ‘स्वगत भेद’ है । इतने भिन्न रंग-रूप के हैं फिर भी मानव रूप में सभी मनुष्य एक है,वृक्ष-वृक्षमें कई भेद हैं, गाय-गायमें अनेक भेद हैं—यह ‘सजातीय भेद’ है ।  वृक्ष अलग हैं और गाय, भैंस, भेंड़ आदि पशु अलग हैं—यह स्थावर और जंगम का भेद ‘विजातीय भेद’ है । 
जबकि परमात्मतत्त्व ऐसा है कि उसमें न स्वगत भेद है, न सजातीय भेद है और न विजातीय भेद है । परमात्मतत्त्वमें कोई अवयव नहीं है, इसलिये उसमें ‘स्वगत भेद’ नहीं है । जीव भिन्न-भिन्न होने पर भी स्वरूपसे एक ही हैं; अत: उसमें ‘सजातीय भेद’ भी नहीं है । वह परमात्मतत्त्व सत्तारूपसे एक ही है । जैसे, समुद्रमें तरंगें उठती हैं, बुदबुद पैदा होते हैं, ज्वार-भाटा आता है, पर यह सब-का-सब जल ही है। इसी तरह सोनेके अनेक गहने होते हैं । उनका अलग-अलग उपयोग, माप-तौल, मूल्य, आकार आदि होते हैं । परन्तु तत्त्वसे देखें तो सब सोना-ही-सोना है । पहले भी सोना था, अन्तमें भी सोना रहेगा और बीचमें अनेक रूपसे दीखने पर भी सोना ही है।इसी प्रकार पहले भी परमात्मा थे, बादमें भी परमात्मा रहेंगे और बीचमें संसार रूपसे अनेक दीखने पर भी तत्त्व से परमात्मा ही हैं—एकम् एवं अद्वितीयम् ! 
ब्रह्म काल-अन्तराल-निमित्त से परे हैं, हमारे मन-वाणी से भी परे हैं ! हम ब्रह्म क्या हैं-मुख से नहीं कह सकते ।
ऋषि आरुणि ने कहा- हे सौम्य! वह ‘सत्’ इस नमक की भाँति है जो संसार में सर्वत्र घुला हुआ है जो कि आँखों से दिखाई नहीं देता तथापि अनुभव से जाना जा सकता है! वह सत् है और वहीं आत्मा है। श्वेतकेतु! (तत्वमसि) वह आत्मा तू ही है। 'आचार्यवान् पुरुषो वेद' =गुरु के द्वारा उपदिष्ट पुरुष ही परम तत्व को जानता है; आरुणि का यह उपदेश गुरुतत्व की आधारशिला है। 
वेदान्त सिर्फ एक उच्चकोटिका दर्शन ही नहीं वह एक सशक्त एवं जीवन्त जीवनदर्शन भी है। सारा भारतीय चिन्तन वेदान्त व्याख्याओं से ओतप्रोत रुप में प्रभावित है। रामकृष्ण के इस कथन का -'यह समझना कि  निराकार भी सत्य है और साकार भी सत्य है। जिस  पर तुम्हारा विश्वास हो उसी को पकड़े रहो ।
 उनके इस कथन का दूसरा समर्थन भी श्रुति से प्राप्त होता है ! ‘एको अहं  बहु स्याम्।
‘मैं एक हूं अनेक हो जाऊं।‘ ऐसी इच्छा उनमें क्यों जागी ? क्यों , क्या मेरी इच्छा है ! सनातन धर्म कहता है -यह उनकी लीला है, इस पर आप प्रश्न नहीं उठा सकते ! कठोपनिषद के ऋषि भी आत्मसाक्षात्कार के बाद कहते हैं
एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा
एकं रूपं बहुधा यः करोति।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीराः
तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्॥१२॥ 
एक ही सत्ता सभी मनुष्यों के हृदय में रहती है, जिस प्रकार एक ही अग्नितत्त्व सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रवेश करके प्रत्येक आधारभूत वस्तु के अनुरूप हो जाता है, उसी प्रकार समस्त प्राणियों में स्थित अन्तरात्मा(ब्रह्म) एक होने पर भी अनेक रूपों में प्रतिभासित होता है। वही भीतर है और वही बाहर है। जो विद्वान सब में इस एक को देखते हैं उन्हीं को शाश्वत सुख मिलता है दूसरों को नहीं। 
आचार्य शंकर ८ वर्ष की उम्र में ही उपनिषदों के सत्य को समझ चुके थे, किशोरावस्था में ही उन्हें ज्ञात था कि उनका जन्म किस उद्देश्य के लिए हुआ है! किन्तु उनकी माँ उन्हें संन्यास लेने की आज्ञा नहीं दे रही थीं । शंकर एक दिन अपने गाँव की नदी में नहा रहे थे, तो एक मगरमच्छ ने उन्हें पकड़ लिया, वे माँ से बोले अभी लास्ट समय आ गया है, अभी मुझे संन्यास लेने की अनुमति दे दो ! जैसे ही माँ ने अनुमति दे दी मगरमच्छ उनको छोड़ कर चला गया। शंकर ने कहा - ' माँ अब मैं जा रहा हूँ किन्तु जब तुम बुलाओगी मैं मिलने आ जाऊंगा। १६ वर्ष में उन्होंने अद्वैत वेदान्त को प्रतिष्ठित कर दिया, बिना एक भी व्यक्ति की हत्या किये! भारत में शास्त्र चर्चा से हराया जाता है, तलवार से नहीं !'
 मनुष्य अलग ईश्वर अलग ऐसा नहीं है-सब एक है ! तो अलग क्यों प्रतीत होते हैं ? माया के कारण । माया सत्य पर आवरण दाल देती है, और दूसरी वस्तु को उस पर आरोपित करती है । रज्जु-सर्प का उदाहरण है - माया कैसे हटेगी ? इसका आदि नहीं है, किन्तु अंत है ! कैसे ? जैसे ही तुम समझते हो कि रस्सी है, सांप नहीं है, वैसे ही तुम्हारा भ्रम चला जाता है! जब हम बहुत को देखते हैं, तो भय होता है, सब में जब हम एक को देखना सीख जाते हैं, तो भ्रम चला जाता है। 
स्वामी विवेकानन्द टेक्सास में वेदान्त पर लेक्चर देते हुए कहते हैं-वेदान्त केवल निर्भयता की शिक्षा देता है ! शंकर के बाद वे भी अद्वैतवादी थे, यहाँ के काउबॉय (घुड़सवार अहीर) ने सुना तो उनके चारो तरफ फायरिंग करने लगे, वे कानों के पास से निकलते बुलेट की कोई परवाह नहीं किये, तो ये लोग बड़े खुश हुए। कूदते हुए बोले वाह, ये ही रियल मैन हैं सचमुच इनको भय नहीं है। दूसरे लोग चिल्ला रहे थे-गोली मत चलाओ लग जाएगी। कोई व्यक्ति को धक्का देकर नदी में फेंक दिया जाय और बाहर निकले यह साहस नहीं है, सच्चा साहस कहाँ से आता है ? इसी सत्य की अनुभूति करने से ! कि मैं ही सब हूँ कोई दूसरा नहीं है ! 
एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा/ एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति'अर्थ"वह ईश्वर एक है, विद्वान भाँति भाँति की शिक्षाओं द्वारा उसी एक सत्य का निरूपण करवाते हैं" उपनिषद बार बार सावधान करते हैं जो यहाँ एक के बदले अनेक देखता है, उसे बार बार जन्म लेना और मरना पड़ता है ! वह श्रुति --कठोपनिषद में यम कहते हैं -  

" मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति। "

जो यहाँ नानात्व देखता और बरतता है वो मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है। अपने शुद्ध स्वरूप मैं रहना ही जीवन है और प्रकृति में अहं -मम  भाव रखकर बरतना ही मृत्यु है।  जो परब्रह्म यहाँ है, वही वहाँ (दूसरे के शरीर में भी) है, एक ही परमात्मा अखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। जो उन एक ही परब्रह्म को विभिन्न नाम-रूपों में प्रकाशित देखकर मोहवश उनमें नानात्व की कल्पना करता है, उसे पुनः पुनः मृत्यु के अधीन होना पड़ता है।
हमारे वास्तविक स्वरूप का किसी काल में नाश नही होता है। यह तो प्रकृति --शरीर , मन ,बुद्धि ,अहंकार  में  ही परिवर्तन  होता है। यह  अनुभव भी है --हमारा शुद्ध स्वरूप ज्यों का त्यों  ही रहता है जाग्रत ,स्वप्न ,सुषुप्ति में परन्तु प्रकृति में निरन्तर ही परिवर्तन होता रहता है।  शरीर ,बुद्धि आदि सबका  विकास होता है फिर क्षय होता है। 
आई ऐम होलियर देन दाऊ ' - सबसे खराब मनोभाव है ! जो यह कहते हैं कि मुझे मत छूओ , मेरे मंदिर में मत आना ! उन्हें यह श्लोक याद रखना चाहिये! अपरा-रणेन दा - भावप्रचार परिषद - महामण्डल में भेद ? जीजस कहते हैं, पाप को देखो -पापी  को नहीं;यदि हम उनको सुधरने का मौका नहीं देंगे, उन्हें खींचकर ऊपर नहीं उठाएंगे तो कौन उठाएगा ? ऐसी मानसिकता कहाँ से प्राप्त होती है ? ठाकुर-माँ-स्वामीजी के जीवन से ! गीता १०/२० में भगवान कहते हैं -  

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित: ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ।।

हे अर्जुन ! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ। हम वैष्णव लोग गीता को सिर पर रखते हैं, पर पढ़ते नहीं है। जब पढ़ते हैं, तब समझ नहीं पाते हैं, जब हम इस तथ्य को समझ जाते हैं, तब जगत के प्रति हमारी दृष्टि बदल जाती है।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥ १३ ॥ 
गुण और कर्मोंके विभागपूर्वक चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) मैंने रचे हैं । इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्मका कर्ता होनेपर भी तू मुझे अकर्ता-अविकारी ही जान ।   अर्थात् मैंने ही गुण एवं कर्मों को आधार बनाकर चार वर्णों की रचना की है। इसे कुछ इस प्रकार से समझा जा सकता है कि मनुष्य की चार प्रकृतियाँ होती हैं, जो केवल मानवमात्र में ही नहीं बल्कि पशु-पक्षियों एवं वनस्पतियों में भी पाई जाती हैं।
ये प्रकृतियाँ तीन गुणों पर आधारित हैं - सत्त्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण। सत्त्वगुण की प्रधानता से ब्राह्मण की, रजोगुण की प्रधानता एवं सत्त्वगुण की गौणता से से क्षत्रिय की, रजोगुण की प्रधानता एवं तमोगुण की गौणता से वैश्य की तथा तमोगुण की प्रधानता से शूद्र की उत्पत्ति होती है।
इसी प्रकार गोवंश ब्राह्मण-प्रकृतिक, शेर, चीता आदि क्षत्रिय-प्रकृतिक, हाथी, ऊँट आदि वैश्य-प्रकृतिक एवं शूकर आदि शूद्र-प्रकृतिक हैं। इतना ही नहीं बल्कि शरीर में सिर ब्राह्मण, हाथ क्षत्रिय, उदर वैश्य एवं पैर शूद्र प्रकृतिक हैं। वस्तुतः यह सारी सृष्टि ही त्रिगुण आधारित है और तदनुसार ही व्यवहार भी करती है। यह सार्वभौमिक व्यवस्था कर्म पर आधारित है।
 इसे आज जाति आधरित मानकर अनुचित कहा जाता है, किन्तु जो सार्वभौम सत्य और तथ्य है कि ये वस्तुतः मानवीय प्रकृतियाँ हैं और कोई भी मानव अपनी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करता है अथवा उसकी रुचि उन्हीं कर्मों में होती है।
इसीलिये अपने जीवन से श्री रामकृष्ण यह दिखलाते हैं कि जिन्हें समाज में अछूत समझा जाता है, देवघर में उन्हीं के बीच जाकर बैठ जाते हैं और मथुर बाबू से कहते हैं - ' जब तक तुम इन जीवन्त शिव को भरपेट भोजन तथा सिर में तेल नहीं देते,मैं काशी तीर्थ में जाकर भगवान शिव का दर्शन नहीं करूँगा। ' श्री रामकृष्ण स्वयं माँ काली के पुजारी हैं, वे माँ काली की चिन्मयी मूर्ति के सामने बैठकर प्रार्थना करते हैं - " माँ मुझे दर्शन दो ! " किन्तु माँ जब आती हैं तो किस रूप में आती हैं ? चैतन्य स्वरूप में दर्शन देतीं हैं, यही सनातन धर्म की सुंदरता है ! किन्तु स्वयं को हिन्दू कहने वाले अधिकांश लोग इस दर्शन का अर्थ नहीं समझ पाते हैं।
इसीलिये वचनामृत के प्रारंभिक दो पृष्ठों में ही श्री रामकृष्ण सनातन धर्म के प्रमुख सिद्धान्तों- जैसे कर्मवाद, ईश्वर ही विश्व-ब्रह्माण्ड के रचयिता हैं, अवतार में भक्ति, फिर साकार और निराकार दोनों ईश्वर के स्वरूप हैं, हिन्दू धर्म के समस्त विशेष पहलू को स्पष्ट कर देते हैं।
जिस प्रकार गीता के दूसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को सनातन धर्म के सभी प्रमुख बिन्दुओं को स्पष्ट रूप से समझा दिया था, इन दो पृष्ठों में ठाकुर भी ठीक वैसा ही करते हैं । जैसे गीता के बाद के अध्यायों में पुनः उन्ही बिन्दुओं को स्पष्ट किया गया है, उसी प्रकार वचनामृत  में भी आगे इसके अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं।
एक व्यक्ति ह्रदय ठाकुर के बहुत निकट रहकर उनकी सेवा करते थे, ठीक उसी प्रकार जैसे  बासुदेव बाघ, केदार दा आदि लोग नवनी दा की सेवा करते हैं। जो लोग अवतार की सेवा करते हैं, यदि वे सावधान नहीं रहे तो उनमें एक विशेष प्रकार का अहंकार बढ़ जाता है । ह्रदय तो ठाकुर के भगिना थे, एक दिन ठाकुर से कहते हैं, मामा तुम सभी से रोज एक ही बात क्यों कहते हो ? ठाकुर से मिलने के लिये रोज नये नये लोग आते थे, तो ठाकुर को सभी से सत्य क्या है, कहना ही पड़ता था।
 श्रीरामकृष्ण ने कहा, " सत्य बहुत सरल है - वही यह कि एक 'सत' या 'गॉड'  हैज बिकम मेनी ! अब हमें क्या करना है ? अनेक से एक में जाना है ! बस धर्म हमें अनेकता से एकता में जाने का मार्ग बतलाता है ! " मेरा यही दृष्टिकोण है, तुम्हें क्या लगता है, तुम वही मानो!
एक दिन ठाकुर नरेन्द्रनाथ से कहते हैं- मैंने एक दिन इस मंदिर, चौखट, बिल्ली सबकुछ को देखा तो लगा सब कुछ चैतन्य है ! नरेन्द्र १८ -१९ वर्ष के युवा थे, वे अपनी हँसी रोक नहीं पाये और बाहर निकल गये। तथा हाजरा के पास बैठकर हँसते हुए कहा - ' तब तो लोटा भी ब्रह्म थाली भी ब्रह्म है !'
ठाकुर प्रताप हाजरा को नरेन्द्र का 'फ्रैन्डो' कहते थे ! अनपढ़ थे न फ्रेंड को फ्रैन्डो कहते थे ? (जैसे नितीश दा मेरा फ्रैन्डो है !) प्रताप चन्द्र हाजरा बहुत से पुस्तकों को पढ़ते थे, पर समझ नहीं पाते थे। दर्शनशास्त्र के कितने ही प्रोफेसर हैं जो धर्म क्या है बिल्कुल नहीं समझते। ठाकुर ने केवल नरेन्द्र को छू लिया, ठाकुर स्वयं भगवान थे, उनमे अद्भुत शक्ति थी जो इस बात में विश्वास करेगा - वह तुरंत रूपांतरित हो जायेगा !
एक शास्त्रपण्डित नाव से जा रहे थे, माँझी  शास्त्रार्थ करने लगे, अरे तुमने भागवत पढ़ा है ? उपनिषद भी नहीं पढ़ा ? मैंने तो नाम भी नहीं सुना ! २५ +२५=५० % तुम्हारा जीवन नष्ट हो गया।  गीता भी नहीं पढ़ा ? गीता नाम की स्त्री मेरे पड़ोस में रहती है । ७५% जीवन नष्ट हो गया ! उसी समय तूफान आ गया-माँझी ने पंडित से पूछा महाशय क्या आपको तैरना आता है ? नो ? १००% तुम्हारा जीवन गया !
जब नानेन्द्रनाथ बाद में विविदिशानन्द और विवेकानन्द में रूपांतरित होकर राजस्थान का भ्रमण  कर रहे थे, तो  अलवर के राजा भी मूर्तिपूजा नहीं मानते थे।  स्वामीजी ने राजा के फोटो को पैर से मसलने/थूकने को कहा ! आप तो उस चित्र में नहीं हैं, यह कागज पर बनी तस्वीर है ! फिर भी लोग इस चित्र में आपको ही देखते हैं ! उसी तरह भक्त मिट्टी की मूर्ति में 'इमेज ऑफ़ स्पिरिट' (चिन्मयी मूर्ति को )देखते हैं !
 ठाकुर भी म को यही सीखा रहे हैं कि ऑंखें बंद करके मूर्ति को प्रणाम करते हो, वैसे ही शिव ज्ञान से जीव सेवा आँखों  खोलकर करो ! भारत के ग्रामीण भी जब हम यह समझ जायेंगे कि स्वयं ब्रह्म ही श्री रामकृष्ण के रूप में अवतरित हुए हैं, तो क्या होगा ? हमलोग स्वयं ब्रह्म बन जायेंगे ! ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति ! ब्रह्म (परमतत्व) को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है। अनेकता में एकता - निराकार ही साकार बना है ; यह मान्यता ही भारत की विशेषता है ! किन्तु संकीर्ण लोग उन्हें बंगाली समझते हैं, कहते हैं यदि वे भगवान थे तो उनके गले में कैंसर कैसे हुआ ? उन्होंने शास्त्र -गीता कुछ नहीं पढ़ा, उन्होंने भगवत गीता पर कोई भाष्य भी नहीं लिखा, उनको हम अपना गुरु कैसे माने ?  श्री मद्भगवद् गीता २/२९ भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य: ।
आश्चर्यवच्चैनमन्य: श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।।

[कश्र्चित् आश्र्चर्यवत्  पश्यति/ अन्य:आश्र्चर्यवत् वदति/ अन्य: एनम् आश्र्चर्यवत् श्रृणोति/  और  कश्र्चित्  श्रुत्वा अपि  एनम्  न एव  वेद।]
भावार्थ----‘कोई कोई विरला प्राप्त कर्त्ता ही इस ‘परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम्’ को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई तत्त्वज्ञान दाता सत्पुरुष ही इसके ‘तत्त्व’ का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरे कोई भगवत् कृपा पात्र  ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है ; और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जान पाता ।‘  
श्री रामचंद्र जी लंका-विजय प्राप्त कर अयोध्या में राज्याभिषेक के पश्चात् जब राज्य भार संभाले, और प्रजा को बुलवाकर जब उपदेश देने लगे, तो उनका उपदेश बजाय एक राजा और प्रजा के, एक सच्चे धर्मोपदेशक भगवदवतारी के ही रूप में होता देख करके वशिष्ठ जी अपने को रोक नहीं पाये, और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे।
 (जबकि वशिष्ठ जी अपने आपमें एक श्रेष्ठ अध्यात्मवेत्ता थे। योग-वाशिष्ठ्य उनके द्वारा विरचित ग्रन्थ भी है।) अध्यात्मवेत्ता को जब अपने से श्रेष्ठतर कोई महापुरुष दिखाई देता है, तो वे उसे भगवदवतार मानने हेतु दिल-दिमाग से मजबूर हो जाते हैं। ठीक यही स्थिति यहाँ पर गुरु वशिष्ठ जी की भगवदवतारी श्रीराम जी के प्रति हुई। वशिष्ठ जी अपने को रोक नहीं पाये थे, भाव विह्वल होकर प्रार्थना करते हुये बोल पड़े थे कि-------

 राम सुनहु मुनि कह कर जोरी । कृपा सिंधु बिनती कछु मोरी ।
देखि देखि आचरन तुम्हारा । होत मोह मम हृदय अपारा ।।  

वशिष्ठ जी भी सप्त ऋषियों में से एक ब्रम्हर्षि भी थे, साथ ही साथ एक उपदेशक व अध्यात्मवेत्ता भी थे, फिर भी श्रीराम जी के भगवत्ता के प्रति मोहित (भ्रमित) हो रहे थे क्योंकि भगवदवतार की भगवत्ता और व्यवहार दोनों बिल्कुल ही भिन्न होते  हैं । भगवत्ता तो सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड के मालिक के रूप में है और आचरण-व्यवहार एक साधारण नर जैसा। भगवदवतार के प्रति भ्रम-सन्देह का कारण यही द्वैध स्थिति ही है।
 जो साकार थे वे ही निराकार हो गए हैं, और जो निराकार थे वे ही साकार जाते हैं ! जो राम हैं वे ही शिव हो जाते हैं और जो शिव हैं वे ही राम हो जाते हैं !
स्वामी जी कहते हैं,  "  दूसरे की देह कौन देखता है ? जो अपने को देह समझता है। जिस क्षण तुम देहभाव-रहित होगे, उसी क्षण फिर तुम जगत नहीं देखने पाओगे। वह चिर काल के लिये अन्तर्हित हो जायेगा। भला-बुरा कौन देखता है ? वही जिसके निज के भीतर भला-बुरा बना हुआ रहता है। ज्ञानी केवल बौद्धिक विचार स्वीकृति के बल से इस जड़-बन्धन से 'चिज्जड़-ग्रन्थि ' से अपने को विच्छिन्न करते हैं। यही नेति-नेति मार्ग है।" (6/299)  
 श्रीरामकृष्ण एम को समझाते हैं (अप्रसन्न होकर )- " तुम्हारे कलकत्ते के आदमियों में यही एक धुन सवार है, दूसरों को सिर्फ लेक्चर देना, दूसरों को समझाना !  पर अपने को कौन समझाये ? इसका ठिकाना नहीं ! अजी समझाने वाले तुम, होते कौन हो ? जिनका संसार है, वे समझायेंगे ! जिन्होंने सृष्टि रची है,सूर्य-चन्द्र, मनुष्य, जीव-जन्तुओं के भोजन के उपाय सोचे हैं,उनका पालन करने के लिये माता-पिता बनाये हैं। माता-पिता में वातसल्य का संचार किया है --वे समझायेंगे ! जब उन्होंने इतने सारे उपाय किये हैं, तो यह उपाय वे न करेंगे ? अगर समझाने की जरूरत होगी, तो वे समझायेंगे ; क्योंकि वे अन्तर्यामी हैं ! यदि मिटटी की मूर्ति पूजने में कोई भूल होगी, तो क्या वे नहीं जानते कि पूजा उन्हीं की हो रही है ? वे उसी पूजा से सन्तुष्ट होते हैं । इसके लिये तुम्हारा सिर क्यों धमक रहा है ? तुम यह चेष्टा करो जिससे तुम्हें ज्ञान हो -भक्ति हो !" 
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