योग क्या है ? इस तथ्य को आविष्कृत कर लेना कि हमलोग मात्र शरीर नहीं आत्मा हैं। जब हम टी.वी. पर रामदेव बाबा को कपालभाति-अनुविलोम करते देखते हैं, तो सोचते हैं कि योग केवल शारीरिक व्यायाम है, शरीर को टेढ़ा-मेढ़ा कर लेना ही योग है। हमलोगों में से शायद ही कोई व्यक्ति होगा -जो योग क्या है ? - के सच्चे अर्थ को जानता होगा। योग वह प्रणाली है जो हमें अपने मन को नियंत्रित करने में सहायता करता है और हमें उस अवस्था में ले जाता है, जहाँ हमें यह प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है कि, हम मात्र नश्वर शरीर नहीं, बल्कि अजर,अमर,अविनाशी आत्मा हैं!
योग की इस अवधारणा को विस्तार से समझने के लिए स्वामी विवेकानन्द के कुछ शक्तिशाली व्याख्यानों का यहाँ हिन्दी भावानुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है।
स्वामी विवेकानन्द ने आज से ११४ वर्ष पूर्व १३ अप्रैल, १९०० को टुकर हॉल, अल्मेडा, कैलिफोर्निया में 'योग-विज्ञान ' पर दिए भाषण में कहा था - ' योग: चित्त-वृत्ति निरोध:' कहकर प्राचीन संस्कृत शब्द 'योग' की परिभाषा की गयी है। अर्थात योग वह विज्ञान है, जो हमें चित्त की परिवर्तनशील अवस्था से निरुद्ध कर उसे वश में करने की शिक्षा देता है। चित्त वह वस्तु है जिससे हमारे मन का निर्माण होता है; और जो निरंतर बाह्य तथा आंतरिक प्रभावों से प्रभावित होकर इच्छा-तरंगों को उछालता रहता है। योग हमें सिखाता है कि मन का किस प्रकार नियमन किया जाय, जिससे हमारा चित्त अपना स्वाभाविक सन्तुलन खोकर तरंगायित न होने पाये। (अर्थात मन-बुद्धि-अहं की वृत्तियाँ निरुद्ध हो जायें। )
इसका अर्थ क्या है ? विभिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्यन करने से यह पता चल जाता है कि धार्मिक ग्रंथों में लिखे गए ९९ % विचार केवल अटकलबाजी (speculations) हैं। भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान और गणित में तो तुम इस प्रकार की अटकलबाजी नहीं करते । फिर क्या धर्म-विज्ञान भी अन्य विज्ञानों की भाँति इतना सटीक नहीं, हो सकता कि पृथ्वी के जिस समय और जिस स्थान पर भी किसी भी धर्म का अनुयायी अपने-अपने धर्म में रहते हुए भी उसका प्रयोग या अभ्यास क्यों न करे, सभी को एक ही परिणाम प्राप्त हो ? धर्म के विद्यार्थी पिछले दो हजार, चार हजार वर्षों से -ठीक कितने काल से; किसी को ज्ञात नहीं -लोग नयी नयी धार्मिक व्यवस्थाओं का अध्यन करते आ रहे हैं । एक धर्म का अनुयायी सोचता है कि धर्म यह है, तो दूसरे धर्म का अनुयायी सोचता है कि धर्म वह है। जब वे तर्कों से समाधान नहीं कर पाते, तो कहते हैं -"विश्वास करो "। अगर कोई व्यक्ति दूसरे से अधिक चतुर हुआ, तो वह दूसरे मतावलम्बियों के अटकलों का खण्डन कर देता है, और उसे अपने धर्म की परिभाषा के अनुसार धर्मान्तरण करने (या 'घर-वापसी' ) करने का प्रयास करता है। यदि वे शक्तिशाली हुए तो दूसरे मतावलम्बियों पर अपना विश्वास जबरन लादने के लिये बम-बन्दूक तक का सहारा लेते हैं। आज भी ऐसा हो रहा है ! क्या धार्मिक कट्टरता से निस्तार का कोई मार्ग नहीं ? व्हाई कैन-नॉट द साइंस ऑफ़ रिलिजन बी लाइक एनी अदर साइंस? क्यों धर्म का विज्ञान भी किसी अन्य विज्ञान की तरह नहीं हो सकता?
प्राचीन भारतीय योगियों ने निर्भीक होकर इस प्रश्न को इस रूप में प्रस्तुत किया -'यदि वास्तव में मनुष्य की आत्मा (रूह या सोल) का अस्तित्व है, यदि वह अमर है, ' इफ गॉड रियली इग्ज़िस्ट्स ऐज द रूलर ऑफ़ दिस यूनिवर्स — ही मस्ट बी [ नोन] हियर; एंड ऑल दैट मस्ट बे [रियलाइज्ड] इन [यूओर ओन] कांशसनेस.' यदि सचमुच ईश्वर (अल्ला, ब्रह्म या गॉड) की सत्ता है और वह जगत का शास्ता है, तो उसका अनुभव हमें यहीं (इसी शरीर में) होना चाहिये, और वह सब बोध अन्य समस्त इन्द्रियानुभूतियों के सदृश तुम्हारी ही अंतश्चेतना (consciousness या होश) में होना चाहिये । "
मन का विश्लेषण किसी बाहरी मशीन की सहायता से नहीं किया जा सकता। मान लो जब मैं विचार कर रहा हूँ, तब तुम मेरे मस्तिष्क का चित्र देख रहे हो । उस समय केवल तुम कुछ अणुओं को इंटरचेंज्ड होते (अदल-बदल) ही देख पाओगे, तुम मेरे मनोभावों, विचारों, मानस-प्रतिमाओं को नहीं देख सकते। तुम केवल बड़े पैमाने पर केमिकल एंड फिजिकल चेंजेज की कुछ कम्पनों की राशि को ही देख पाओगे। इस दृष्टान्त से हम समझ सकते हैं, कि मस्तिष्क का ऐसा यांत्रिक विश्लेषण करने से काम नहीं चलेगा।
क्या मन को मन के रूप में ही विश्लेषण करने का कोई अन्य तरीका है ? यदि कोई तरीका है, तभी धर्म का सच्चा विज्ञान सम्भव है। राज-योग के विज्ञान का दावा है कि ' मनःसंयोग ' ही वह पद्धति है जिसके द्वारा मन को मन के रूप में ही विश्लेषित किया जा सकता है। हममें से कोई भी मनुष्य इसका अभ्यास कर सकता है, और कुछ अंश तक (इसके आठ सोपानों में से पाँच सोपान --यम,नियम, आसन, प्रत्याहार धारणा तक ) सफल भी हो सकता है। शेष तीन सोपानों -प्राणायाम, ध्यान और समाधि के सोपानों तक चढ़ने में एक बड़ी कठिनाई यह है कि समस्त 'एक्सटर्नल साइंसेज' या बाहरी विज्ञान इन्द्रीय-गोचर होते हैं जिसमें ज्ञेय वस्तु को देखना अपेक्षाकृत सरल होता है। ज्ञेय पदार्थ और विश्लेषण के उपकरण दोनों ही स्थूल और इन्द्रियगोचर होते हैं, किन्तु मन का विश्लेषण करने में ज्ञेय वस्तु (साध्य भी मन है जो इन्द्रियगोचर नहीं है) और विश्लेषण करने वाला यंत्र या साधन भी मन ही है जो स्थूल नहीं है । मनःसंयोग या मन का विश्लेषण करते समय द्रष्टा मन और दृश्य मन सब्जेक्टिव माइंड और ऑब्जेक्टिव माइंड या साधन और साध्य दोनों एक ही होते हैं।
फिर यदि मन का विश्लेषण बाहरी यंत्र से करें तो मशीन केवल 'ब्रेन मैपिंग' करेगा जिससे केवल इतना पता लगेगा कि उसमें कौन से भौतिक या रासायनिक परिवर्तन हो रहे हैं। इससे मन के पीछे कोई आत्मा- जो इसका शासनकर्ता भी है, है या नहीं - इस प्रश्न का हल निकालने में कभी सफलता नहीं मिलेगी। यह चेतना (होश या कांशसनेस) क्या है ? तुम्हारी कल्पना-शक्ति क्या है ? मन में इतने बड़े पैमाने पर कल्पनायें कहाँ से उठती हैं ; और फिर कहाँ चली जातीं हैं ? मन में निरंतर तरह तरह के विचार आते-जाते रहते हैं -हम इस बात से इंकार तो नहीं कर सकते। वे तथ्य हैं। मैंने अपना मस्तिष्क कभी नहीं देखा, फिर भी मुझे निश्चित रूप से मानना पड़ेगा कि मेरा मस्तिष्क है। उसी प्रकार कोई मनुष्य अपनी चेतन कल्पनाओं -'कोंसियस इमेजिनेशन' को भी कभी अस्वीकार नहीं कर सकता।
आत्मा को अनुभव करने में सबसे बड़ी समस्या हमलोग स्वयं हैं, हमारा मिथ्या 'मैं-पन' या अपने नाम-रूप से तादात्मय किया हुआ 'अहं' है। क्या मेरा 'मैं'--पन एक ऐसी लम्बी श्रृंखला है , जिसे मैं देख नहीं पाता ? मैं कौन हूँ -का विचार करते समय एक कड़ी के बाद तत्काल दूसरी कड़ी आती है, परन्तु क्या वे बिल्कुल असम्बद्ध हैं ? क्या मैं चैतन्य की कोई ऐसी अवस्था (अहं) हूँ, जो परिवर्तन के सतत प्रवाह की अवस्था है? या मैं उससे कुछ अधिक - वह सार तत्व (entity), सत्ता हूँ -जिसे हमारे देश में आत्मा कहते हैं ? दूसरे शब्दों में, मनुष्य में आत्मा होती है या नहीं ? क्या मनुष्य किसी असंबद्ध चैतन्य अवस्थाओं की एक गठरी है, या वह एक एकीकृत वस्तु (ब्रह्म) है? यह एक बड़े वाद-विवाद का विषय हो सकता है । यदि हम केवल 'चेतना की गठरी ' मात्र हैं, -तब अमरत्व जैसा प्रश्न केवल एक भ्रम बन कर रह जायेगा। दूसरी ओर यदि हमारे भीतर (मन के पीछे-हमारे हृदय में) कोई ऐसी वस्तु है -जो यौगिक नहीं तत्व है, जो इकाई है, सार है, तब तो मैं अवश्य अमर हूँ ! 'द यूनिट कैन नॉट बी डेस्ट्रोएड और ब्रोकन इन्टु पीसेज.'- क्योंकि इकाई को, तत्व को कभी नष्ट नहीं किया जा सकता और न उसे खण्डों में विभाजित किया जा सकता है। केवल यौगिक पदार्थों 'कंपाउंड्स'- को ही विभाजित किया जा सकता है।
बौद्ध धर्म को छोड़ कर शेष सभी धर्मों का ऐसा किसी अविनाशी तत्व में विश्वास है और वे किसी न किसी तरीके से उसको जानने के लिये संघर्ष भी कर रहे हैं। बौद्ध धर्म ऐसे अविनाशी तत्व को अस्वीकार करता है, और उससे पूर्ण संतुष्ट है। वह कहता है-'आत्मा,परमात्मा अमृतत्व आदि प्रश्नों के ऊपर अपना सिर मत खपाओ'; किन्तु दुनिया के अन्य सभी धर्म इस प्रकार के अविनाशी सार तत्व को अंगीकार करते हैं। उन सबका विश्वास है कि सब परिवर्तनों के बावजूद मानव में आत्मा ही सार है, और जगत में परमेश्वर ही सार है। उन सबका विश्वास है कि आत्मा अजर,अमर,अविनाशी है ! किन्तु यह भी उनका अनुमान ही है, क्योंकि अभी तक इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। अब बौद्धों और ईसाईयों के इस विवाद का निपटारा कौन करे ? ईसाई कहता है, 'मेरे बाइबिल में ऐसा ही कहा गया है'। बौद्ध कहता है, 'आपके ग्रन्थ में मेरा विश्वास नहीं है। '
प्रश्न यह है कि क्या हम अविनाशी तत्व आत्मा (इस्लाम में इसे "रूहروح "और "नफ्सنفس "भी कहा गया है। हरेक व्यक्ति को उसके जीवन भर में किये गए प्रत्येक शुभ अशुभ कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है .चाहे वह यही जीवन हो ,और चाहे मृत्यु के बाद का जीवन हो .यह एक अटल नियम है .इसे भारत में "कर्मसिद्धांत Law of Karma "कहा जाता है .सूफी इसे "उसूल अल अमल اصول العمل"कहते हैं। इस्लाम में इस विज्ञान को "रूहानियतروحانيت "और यूरोप में इसे Spiritualism कहा जाता है। ) हैं,या सूक्ष्म जड़ पदार्थ मन हैं -जो नित्य परिवर्तनशील और तरंगायित रहता है ? हमारे मन में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं। उसके भीतर वह अपरिवर्तनशील तत्व कहाँ है ? हम अभी तो उसका अनुभव नहीं कर पा रहे हैं। मैं इस समय कुछ हूँ, और फिर थोड़ी ही देर में अन्य कुछ बन जाता हूँ। यदि कोई एक क्षण के लिये भी इन परिवर्तनों को रोक दे, तो उस सार तत्व के प्रति मेरा विश्वास हो जायेगा।
निस्सन्देह ईश्वर और स्वर्ग संबन्धी सभी विश्वास संगठित धर्मों के क्षुद्र विश्वास हैं। कोई भी वैज्ञानिक धर्म इस तरह की प्रस्तावना नहीं कर सकता। योग वह विज्ञान है, जो हमें चित्त (माइंड-स्टफ, मन-वस्तु) को इन परिवर्तनों में पड़ने से निरुद्ध कर देना सिखाता है। मानलो कि मनःसंयोग (यम-नियम-आसन-प्रत्याहार-धारणा) का अभ्यास करते करते ही किसी क्षण तुम मन को पूर्ण योग-युक्त अवस्था (प्राणायाम-ध्यान-समाधी) तक पहुँचाने में सफल हो गये। उसी क्षण तुम मैं कौन हूँ कि समस्या का समाधान कर लोगे। तुम अपने अनुभव से यह जान जाओगे -कि वास्तव में तुम कौन (सच्चिदानन्द) हो ! फिर मन के सभी परिवर्तनों पर तुम्हारा प्रभुत्व हो जायगा। इसके बाद तुम मन को उसकी इच्छानुसार विचरण करने की अनुमति दे भी दो, तो तुम पाओगे कि अब वह पहले जैसा (उछृंखल) मन नहीं रह गया है। वह पूर्णतया तुम्हारे वश में आ गया है। अब तुम्हारा मन उस जंगली घोड़े जैसा नहीं रह गया है, जो तुमको अपने ऊपर सवारी नहीं करने देता, तुम्हें नीचे गिरा देता है। क्योंकि तुमने ईश्वर (सच्चिदानन्द) का दर्शन कर लिया है। अब वह अनुमान का विषय नहीं रह गया। अब वह पुराना वाला श्री अमुक नहीं रह गया। अब उसे अपने यथार्थ स्वरूप के संबन्ध में किसी ग्रन्थ या वेदों की, या धर्मोपदशकों के वितण्डावाद को सुनने, समझने की कोई आवश्यकता नहीं रही। तुमने स्वयं आत्मसाक्षात्कार कर, अपने अनुभव से यह जान लिया है कि -मैं इन परिवर्तनों से परे आत्मा हूँ ! मैं नित्य परिवर्तनशील मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार नहीं हूँ, यदि मैं ऐसा होता, तो उन्हें रोक नहीं सकता। योग-विज्ञान की यही पराकाष्ठा है !
ये परिवर्तन हमें पसंद नहीं। परिवर्तनों (जन्म-जरा-मृत्यु) को हम जरा नहीं चाहते। प्रत्येक परिवर्तन हमारे ऊपर जबरन थोपा जाता है। हमारे देश में तेल निकालने लिये बैल के कंधों पर जुआ रखा जाता है, जो एक लट्ठे के द्वारा तेल कोल्हू में जुड़ा रहता है। जुए के आगे निकले लट्ठे में बैल को ललचाने के लिये हरे चारे की एक गठरी बँधी रहती है, जो इतनी दूरी पर होती है कि बैल उस तक पहुँच नहीं पाता। वह घास खाना चाहता है, और घास पर मुँह मारने के लिये थोड़ा आगे बढ़ता है, इस प्रकार घास खाने की लालच में फंस कर कोल्हू घुमाने लगता है। हमलोग इन्हीं कोल्हू के बैलों के समान हैं, जो सदैव घास खाने के प्रयत्न में रहते हैं और वहाँ तक पहुँचने के लिये गर्दन बढ़ाते रहते हैं। इस प्रकार हम बार बार जन्म-मृत्यु का चक्कर लगाते रहते हैं। कोई ऐसे परिवर्तनों को पसंद नहीं करता। निश्चय ही नहीं! ये सभी परिवर्तन हम पर बलात लादे गये हैं। हमारे पास कर्म के विधान से बचने का कोई चारा नहीं। एक बार जब हमने स्वयं अपने को (देश-काल-कारणता की ) मशीन में डाल दिया, तो हम निरन्तर चक्कर काटते ही रहेंगे। (बिना आत्मसाक्षात्कार हुए ) रुक जाना नहीं तूँ कहीं हार के, क्योंकि रुक जाने में आगे चलने की अपेक्षा और अधिक अनिष्ट है, इसलिये चरैवेति-चरैवेति !
[' अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं ' - कर्मों के तीन प्रारूप संचित,प्रारब्ध और क्रियमाण का कर्म चक्र जाल है। क्रियमाण –के प्रति सजगता ही ज्ञानपूर्वक जीने की विधा है क्योंकि प्रत्येक आकर्षक वस्तु एक चेतावनी है. कोई भी इन्द्रिय तुम्हारे सुख को चुरा सकती है, दास बना सकती है. भोग से उपजे संस्कार सदा ही दुःख दायी होते हैं. विवेकी जनों के लिए सब कर्मफल दुःख हेतु ही हैं. जो तपश्चर्या भोग की लालसा से की जाती है उनसे दुःख के साधन ही जुटते हैं. दुःख का स्वरुप कोई भी हो पर उसकी जड़ें चित्त में ही कहीं ना कहीं जमी होती है. इनसे मिलने वाले सुख-दुःख देह के विकार, मन के विकार हैं. तो जन्म -मरण आत्मा के विकार हैं. अविकारी केवल परब्रह्म है. जन्म -मरण दारुण दुःख के स्वरुप हैं. इनसे मुक्त होने की चाह ही मोक्ष की चाह का मूल कारण है; कृत कर्मों का प्रारब्ध—–जो अवश्य ही भोगना ही पड़ता है । पुनरपि जन्मं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनं यहि संसारे फल दुषतारे कृपया पारे पाहि मुरारे भज् गोविन्दं भज् गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते. यह आत्मा अविनाशी होने पर भी मरणधर्मा शरीर के साथ आबद्ध होने से विविध योनियों में जाता है । यह अपनी धारण क्षमता से ही उन शरीरों में आती और शरीरों से पृथक् होती रहती है । ये दोनों शरीर और आत्मा शाश्वत एवं गतिशील होते हुए विपरीत गतियों से युक्त है । लोग इनमें से एक (शरीर) को जानते हैं, पर दूसरे (आत्मा) को नहीं समझते ।योग-विज्ञान जीव को मृत्यु का भय हटाकर मृत्यु का बोध कराता है. योग-विज्ञान जीना सिखाता है और मरना भी सिखाता है. वस्त्र की तरह देह को त्याग देना परम ज्ञान है. बीज को फल से अलग होना ही है. पकने पर सबसे अलग होना है. किनारा आने पर नाव छोडनी ही पड़ती है. नाव साथ लेकर कोई नहीं चलता. यदि जीवन में किये कर्म मंगलमय हैं तो विसर्जन भी मंगलमय है,आना तो सबका ही साधारण होता है, जाना विशिष्ट हो तो सार्थकता है। तब महाप्रयाण उत्सव बन जाए। उत्सर्ग पूजा बन जाए । - जो मृत्यु के वश हुआ वह भोगी है, मृत्यु जिसके वश हुई वह योगी है.
त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।—ऋग्वेद 7.59.12/ यजुर्वेद ३/६०
हम सुरभित पुण्य, कीर्ति एवं पुष्टिवर्धक तथा तीन प्रकार से संरक्षण देने वाले त्र्यम्बक भगवान् की उपासना करते हैं । वे रुद्रदेव हमें उर्वारुक (ककडी, खरबूजा) आदि की तरह मृत्युबन्धन से मुक्त करें, किन्तु अमरता (मोक्ष) के सूत्रों से दूर न करे। ]
निश्चय ही हमारे ऊपर दुःख आते हैं। यह सब परिवर्तन दुःख-स्वरुप है, क्योंकि सब अनिच्छापूर्वक आते हैं। यह सब हमारे ऊपर जबरन लादा गया है। प्रकृति आदेश देती है और हम उसके आदेश को मानने के लिये बाध्य हो जाते हैं। किन्तु प्रकृति और हममें किंचित भी सद्भाव नहीं है। हमारे सभी कार्यों में प्रकृति से छुटकारा पाने (या प्रकृति पर विजय प्राप्त करने) का प्रयास रहता है। हम कहते तो हैं कि हम प्रकृति के मजे लूट रहे हैं;किन्तु यदि हम यदि ईमानदारी से अपना विश्लेषण करें, तो पता लगता है कि हम प्रत्येक वस्तु से बचने का प्रयास करते हैं और किसी न किसी पदार्थ से सुख-भोग का मार्ग आविष्कृत करने का प्रयास करते रहते हैं। प्रकृति उस 'फ्रेंच-मैन' (फ़्रांसिसी व्यक्ति) की तरह है, जिसने अपने एक 'अंग्रेज-मित्र' को शराब पीने के लिये यह कह कर आमंत्रित किया था कि उसके वाइन की आलमारी में पुरानी शराब की बोतलें पड़ी हुई हैं। उसने पुरानी शराब की एक बोतल मँगवायी, वह बोतल बड़ी खूबसूरत थी, जिसके भीतर बढ़िया शराब सोने जैसी दमक रही थी। नौकर ने गिलास में शराब उड़ेली, जिसे अंग्रेज चुपचाप पी गया। नौकर ले आया था रेंड़ी के तेल की बोतल! उसी प्रकार हमलोग भी हर समय रेंड़ी का तेल ही पी रहे हैं, इससे बच नहीं सकते, क्योंकि हमने श्रेय-प्रेय का विवेक करना सीखा ही नहीं है !
निरंतर विवेक-प्रयोग नहीं करने के कारण प्रायः लोग रोबोट की भाँति इतने जड़ हो चुके हैं कि वे विवेक करने के विषय में सोंच भी नहीं सकते। इसीलिये वे भी- कुत्तों, बिल्लियों तथा अन्य पशुओं की भाँति प्रकृति द्वारा चाबुक से हाँके जाते हैं। वे कभी प्रकृति की आज्ञा का उल्ल्ंघन नहीं करते, यहाँ तक कि उसकी कल्पना तक नहीं करते। किन्तु चाबुक खाते खाते,उन्हें भी अपने जीवन में विवेक-प्रयोग के महत्व का थोड़ा-बहुत अनुभव हो ही जाता है। चाबुक खाने के बाद कुछ लोगों को होश आता है, और वे प्रश्न पूछने लगते हैं -यह क्या है ? ये सब अनुभव किस लिये हैं ? (मैंने तो पुरानी शराब समझकर पी लिया था, अंडी का तेल है क्यों नहीं समझ सका?) फिर वे शास्वत-नश्वर का विवेक करने लगते हैं कि -सत्य-असत्य और मिथ्या क्या है ? आत्म-तत्व क्या है ? क्या जन्म-मृत्यु के चक्र से बचने का कोई उपाय भी है ? क्या मनुष्य-जीवन का कोई उद्देश्य भी है ? जीवन का कोई अर्थ है ? जीवन क्या है ?
अब हम अपनी परिभाषा पर पुनः लौट रहे हैं- ' योग: चित्त-वृत्ति निरोध:' अर्थात मन-वस्तु या चित्त को इन परिवर्तनों (मन-बुद्धि-अहंकार) में परिणत होने से रोक देना ही योग है। जब मन की समस्त सृष्टियों को रोक लिया जाता है, …यदि चित्त को तरंगायित होने से रोकना सम्भव हो; तो हम स्वयं देख लेंगे कि वास्तव में हम क्या हैं? हम हैं वह अज, वह सृष्टिकर्ता , जो अपने को ही विभिन्न नाम-रूपों में प्रकट करता रहता है।
योग की इस अवधारणा को विस्तार से समझने के लिए स्वामी विवेकानन्द के कुछ शक्तिशाली व्याख्यानों का यहाँ हिन्दी भावानुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है।
स्वामी विवेकानन्द ने आज से ११४ वर्ष पूर्व १३ अप्रैल, १९०० को टुकर हॉल, अल्मेडा, कैलिफोर्निया में 'योग-विज्ञान ' पर दिए भाषण में कहा था - ' योग: चित्त-वृत्ति निरोध:' कहकर प्राचीन संस्कृत शब्द 'योग' की परिभाषा की गयी है। अर्थात योग वह विज्ञान है, जो हमें चित्त की परिवर्तनशील अवस्था से निरुद्ध कर उसे वश में करने की शिक्षा देता है। चित्त वह वस्तु है जिससे हमारे मन का निर्माण होता है; और जो निरंतर बाह्य तथा आंतरिक प्रभावों से प्रभावित होकर इच्छा-तरंगों को उछालता रहता है। योग हमें सिखाता है कि मन का किस प्रकार नियमन किया जाय, जिससे हमारा चित्त अपना स्वाभाविक सन्तुलन खोकर तरंगायित न होने पाये। (अर्थात मन-बुद्धि-अहं की वृत्तियाँ निरुद्ध हो जायें। )
इसका अर्थ क्या है ? विभिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्यन करने से यह पता चल जाता है कि धार्मिक ग्रंथों में लिखे गए ९९ % विचार केवल अटकलबाजी (speculations) हैं। भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान और गणित में तो तुम इस प्रकार की अटकलबाजी नहीं करते । फिर क्या धर्म-विज्ञान भी अन्य विज्ञानों की भाँति इतना सटीक नहीं, हो सकता कि पृथ्वी के जिस समय और जिस स्थान पर भी किसी भी धर्म का अनुयायी अपने-अपने धर्म में रहते हुए भी उसका प्रयोग या अभ्यास क्यों न करे, सभी को एक ही परिणाम प्राप्त हो ? धर्म के विद्यार्थी पिछले दो हजार, चार हजार वर्षों से -ठीक कितने काल से; किसी को ज्ञात नहीं -लोग नयी नयी धार्मिक व्यवस्थाओं का अध्यन करते आ रहे हैं । एक धर्म का अनुयायी सोचता है कि धर्म यह है, तो दूसरे धर्म का अनुयायी सोचता है कि धर्म वह है। जब वे तर्कों से समाधान नहीं कर पाते, तो कहते हैं -"विश्वास करो "। अगर कोई व्यक्ति दूसरे से अधिक चतुर हुआ, तो वह दूसरे मतावलम्बियों के अटकलों का खण्डन कर देता है, और उसे अपने धर्म की परिभाषा के अनुसार धर्मान्तरण करने (या 'घर-वापसी' ) करने का प्रयास करता है। यदि वे शक्तिशाली हुए तो दूसरे मतावलम्बियों पर अपना विश्वास जबरन लादने के लिये बम-बन्दूक तक का सहारा लेते हैं। आज भी ऐसा हो रहा है ! क्या धार्मिक कट्टरता से निस्तार का कोई मार्ग नहीं ? व्हाई कैन-नॉट द साइंस ऑफ़ रिलिजन बी लाइक एनी अदर साइंस? क्यों धर्म का विज्ञान भी किसी अन्य विज्ञान की तरह नहीं हो सकता?
प्राचीन भारतीय योगियों ने निर्भीक होकर इस प्रश्न को इस रूप में प्रस्तुत किया -'यदि वास्तव में मनुष्य की आत्मा (रूह या सोल) का अस्तित्व है, यदि वह अमर है, ' इफ गॉड रियली इग्ज़िस्ट्स ऐज द रूलर ऑफ़ दिस यूनिवर्स — ही मस्ट बी [ नोन] हियर; एंड ऑल दैट मस्ट बे [रियलाइज्ड] इन [यूओर ओन] कांशसनेस.' यदि सचमुच ईश्वर (अल्ला, ब्रह्म या गॉड) की सत्ता है और वह जगत का शास्ता है, तो उसका अनुभव हमें यहीं (इसी शरीर में) होना चाहिये, और वह सब बोध अन्य समस्त इन्द्रियानुभूतियों के सदृश तुम्हारी ही अंतश्चेतना (consciousness या होश) में होना चाहिये । "
मन का विश्लेषण किसी बाहरी मशीन की सहायता से नहीं किया जा सकता। मान लो जब मैं विचार कर रहा हूँ, तब तुम मेरे मस्तिष्क का चित्र देख रहे हो । उस समय केवल तुम कुछ अणुओं को इंटरचेंज्ड होते (अदल-बदल) ही देख पाओगे, तुम मेरे मनोभावों, विचारों, मानस-प्रतिमाओं को नहीं देख सकते। तुम केवल बड़े पैमाने पर केमिकल एंड फिजिकल चेंजेज की कुछ कम्पनों की राशि को ही देख पाओगे। इस दृष्टान्त से हम समझ सकते हैं, कि मस्तिष्क का ऐसा यांत्रिक विश्लेषण करने से काम नहीं चलेगा।
क्या मन को मन के रूप में ही विश्लेषण करने का कोई अन्य तरीका है ? यदि कोई तरीका है, तभी धर्म का सच्चा विज्ञान सम्भव है। राज-योग के विज्ञान का दावा है कि ' मनःसंयोग ' ही वह पद्धति है जिसके द्वारा मन को मन के रूप में ही विश्लेषित किया जा सकता है। हममें से कोई भी मनुष्य इसका अभ्यास कर सकता है, और कुछ अंश तक (इसके आठ सोपानों में से पाँच सोपान --यम,नियम, आसन, प्रत्याहार धारणा तक ) सफल भी हो सकता है। शेष तीन सोपानों -प्राणायाम, ध्यान और समाधि के सोपानों तक चढ़ने में एक बड़ी कठिनाई यह है कि समस्त 'एक्सटर्नल साइंसेज' या बाहरी विज्ञान इन्द्रीय-गोचर होते हैं जिसमें ज्ञेय वस्तु को देखना अपेक्षाकृत सरल होता है। ज्ञेय पदार्थ और विश्लेषण के उपकरण दोनों ही स्थूल और इन्द्रियगोचर होते हैं, किन्तु मन का विश्लेषण करने में ज्ञेय वस्तु (साध्य भी मन है जो इन्द्रियगोचर नहीं है) और विश्लेषण करने वाला यंत्र या साधन भी मन ही है जो स्थूल नहीं है । मनःसंयोग या मन का विश्लेषण करते समय द्रष्टा मन और दृश्य मन सब्जेक्टिव माइंड और ऑब्जेक्टिव माइंड या साधन और साध्य दोनों एक ही होते हैं।
फिर यदि मन का विश्लेषण बाहरी यंत्र से करें तो मशीन केवल 'ब्रेन मैपिंग' करेगा जिससे केवल इतना पता लगेगा कि उसमें कौन से भौतिक या रासायनिक परिवर्तन हो रहे हैं। इससे मन के पीछे कोई आत्मा- जो इसका शासनकर्ता भी है, है या नहीं - इस प्रश्न का हल निकालने में कभी सफलता नहीं मिलेगी। यह चेतना (होश या कांशसनेस) क्या है ? तुम्हारी कल्पना-शक्ति क्या है ? मन में इतने बड़े पैमाने पर कल्पनायें कहाँ से उठती हैं ; और फिर कहाँ चली जातीं हैं ? मन में निरंतर तरह तरह के विचार आते-जाते रहते हैं -हम इस बात से इंकार तो नहीं कर सकते। वे तथ्य हैं। मैंने अपना मस्तिष्क कभी नहीं देखा, फिर भी मुझे निश्चित रूप से मानना पड़ेगा कि मेरा मस्तिष्क है। उसी प्रकार कोई मनुष्य अपनी चेतन कल्पनाओं -'कोंसियस इमेजिनेशन' को भी कभी अस्वीकार नहीं कर सकता।
आत्मा को अनुभव करने में सबसे बड़ी समस्या हमलोग स्वयं हैं, हमारा मिथ्या 'मैं-पन' या अपने नाम-रूप से तादात्मय किया हुआ 'अहं' है। क्या मेरा 'मैं'--पन एक ऐसी लम्बी श्रृंखला है , जिसे मैं देख नहीं पाता ? मैं कौन हूँ -का विचार करते समय एक कड़ी के बाद तत्काल दूसरी कड़ी आती है, परन्तु क्या वे बिल्कुल असम्बद्ध हैं ? क्या मैं चैतन्य की कोई ऐसी अवस्था (अहं) हूँ, जो परिवर्तन के सतत प्रवाह की अवस्था है? या मैं उससे कुछ अधिक - वह सार तत्व (entity), सत्ता हूँ -जिसे हमारे देश में आत्मा कहते हैं ? दूसरे शब्दों में, मनुष्य में आत्मा होती है या नहीं ? क्या मनुष्य किसी असंबद्ध चैतन्य अवस्थाओं की एक गठरी है, या वह एक एकीकृत वस्तु (ब्रह्म) है? यह एक बड़े वाद-विवाद का विषय हो सकता है । यदि हम केवल 'चेतना की गठरी ' मात्र हैं, -तब अमरत्व जैसा प्रश्न केवल एक भ्रम बन कर रह जायेगा। दूसरी ओर यदि हमारे भीतर (मन के पीछे-हमारे हृदय में) कोई ऐसी वस्तु है -जो यौगिक नहीं तत्व है, जो इकाई है, सार है, तब तो मैं अवश्य अमर हूँ ! 'द यूनिट कैन नॉट बी डेस्ट्रोएड और ब्रोकन इन्टु पीसेज.'- क्योंकि इकाई को, तत्व को कभी नष्ट नहीं किया जा सकता और न उसे खण्डों में विभाजित किया जा सकता है। केवल यौगिक पदार्थों 'कंपाउंड्स'- को ही विभाजित किया जा सकता है।
बौद्ध धर्म को छोड़ कर शेष सभी धर्मों का ऐसा किसी अविनाशी तत्व में विश्वास है और वे किसी न किसी तरीके से उसको जानने के लिये संघर्ष भी कर रहे हैं। बौद्ध धर्म ऐसे अविनाशी तत्व को अस्वीकार करता है, और उससे पूर्ण संतुष्ट है। वह कहता है-'आत्मा,परमात्मा अमृतत्व आदि प्रश्नों के ऊपर अपना सिर मत खपाओ'; किन्तु दुनिया के अन्य सभी धर्म इस प्रकार के अविनाशी सार तत्व को अंगीकार करते हैं। उन सबका विश्वास है कि सब परिवर्तनों के बावजूद मानव में आत्मा ही सार है, और जगत में परमेश्वर ही सार है। उन सबका विश्वास है कि आत्मा अजर,अमर,अविनाशी है ! किन्तु यह भी उनका अनुमान ही है, क्योंकि अभी तक इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। अब बौद्धों और ईसाईयों के इस विवाद का निपटारा कौन करे ? ईसाई कहता है, 'मेरे बाइबिल में ऐसा ही कहा गया है'। बौद्ध कहता है, 'आपके ग्रन्थ में मेरा विश्वास नहीं है। '
प्रश्न यह है कि क्या हम अविनाशी तत्व आत्मा (इस्लाम में इसे "रूहروح "और "नफ्सنفس "भी कहा गया है। हरेक व्यक्ति को उसके जीवन भर में किये गए प्रत्येक शुभ अशुभ कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है .चाहे वह यही जीवन हो ,और चाहे मृत्यु के बाद का जीवन हो .यह एक अटल नियम है .इसे भारत में "कर्मसिद्धांत Law of Karma "कहा जाता है .सूफी इसे "उसूल अल अमल اصول العمل"कहते हैं। इस्लाम में इस विज्ञान को "रूहानियतروحانيت "और यूरोप में इसे Spiritualism कहा जाता है। ) हैं,या सूक्ष्म जड़ पदार्थ मन हैं -जो नित्य परिवर्तनशील और तरंगायित रहता है ? हमारे मन में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं। उसके भीतर वह अपरिवर्तनशील तत्व कहाँ है ? हम अभी तो उसका अनुभव नहीं कर पा रहे हैं। मैं इस समय कुछ हूँ, और फिर थोड़ी ही देर में अन्य कुछ बन जाता हूँ। यदि कोई एक क्षण के लिये भी इन परिवर्तनों को रोक दे, तो उस सार तत्व के प्रति मेरा विश्वास हो जायेगा।
निस्सन्देह ईश्वर और स्वर्ग संबन्धी सभी विश्वास संगठित धर्मों के क्षुद्र विश्वास हैं। कोई भी वैज्ञानिक धर्म इस तरह की प्रस्तावना नहीं कर सकता। योग वह विज्ञान है, जो हमें चित्त (माइंड-स्टफ, मन-वस्तु) को इन परिवर्तनों में पड़ने से निरुद्ध कर देना सिखाता है। मानलो कि मनःसंयोग (यम-नियम-आसन-प्रत्याहार-धारणा) का अभ्यास करते करते ही किसी क्षण तुम मन को पूर्ण योग-युक्त अवस्था (प्राणायाम-ध्यान-समाधी) तक पहुँचाने में सफल हो गये। उसी क्षण तुम मैं कौन हूँ कि समस्या का समाधान कर लोगे। तुम अपने अनुभव से यह जान जाओगे -कि वास्तव में तुम कौन (सच्चिदानन्द) हो ! फिर मन के सभी परिवर्तनों पर तुम्हारा प्रभुत्व हो जायगा। इसके बाद तुम मन को उसकी इच्छानुसार विचरण करने की अनुमति दे भी दो, तो तुम पाओगे कि अब वह पहले जैसा (उछृंखल) मन नहीं रह गया है। वह पूर्णतया तुम्हारे वश में आ गया है। अब तुम्हारा मन उस जंगली घोड़े जैसा नहीं रह गया है, जो तुमको अपने ऊपर सवारी नहीं करने देता, तुम्हें नीचे गिरा देता है। क्योंकि तुमने ईश्वर (सच्चिदानन्द) का दर्शन कर लिया है। अब वह अनुमान का विषय नहीं रह गया। अब वह पुराना वाला श्री अमुक नहीं रह गया। अब उसे अपने यथार्थ स्वरूप के संबन्ध में किसी ग्रन्थ या वेदों की, या धर्मोपदशकों के वितण्डावाद को सुनने, समझने की कोई आवश्यकता नहीं रही। तुमने स्वयं आत्मसाक्षात्कार कर, अपने अनुभव से यह जान लिया है कि -मैं इन परिवर्तनों से परे आत्मा हूँ ! मैं नित्य परिवर्तनशील मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार नहीं हूँ, यदि मैं ऐसा होता, तो उन्हें रोक नहीं सकता। योग-विज्ञान की यही पराकाष्ठा है !
ये परिवर्तन हमें पसंद नहीं। परिवर्तनों (जन्म-जरा-मृत्यु) को हम जरा नहीं चाहते। प्रत्येक परिवर्तन हमारे ऊपर जबरन थोपा जाता है। हमारे देश में तेल निकालने लिये बैल के कंधों पर जुआ रखा जाता है, जो एक लट्ठे के द्वारा तेल कोल्हू में जुड़ा रहता है। जुए के आगे निकले लट्ठे में बैल को ललचाने के लिये हरे चारे की एक गठरी बँधी रहती है, जो इतनी दूरी पर होती है कि बैल उस तक पहुँच नहीं पाता। वह घास खाना चाहता है, और घास पर मुँह मारने के लिये थोड़ा आगे बढ़ता है, इस प्रकार घास खाने की लालच में फंस कर कोल्हू घुमाने लगता है। हमलोग इन्हीं कोल्हू के बैलों के समान हैं, जो सदैव घास खाने के प्रयत्न में रहते हैं और वहाँ तक पहुँचने के लिये गर्दन बढ़ाते रहते हैं। इस प्रकार हम बार बार जन्म-मृत्यु का चक्कर लगाते रहते हैं। कोई ऐसे परिवर्तनों को पसंद नहीं करता। निश्चय ही नहीं! ये सभी परिवर्तन हम पर बलात लादे गये हैं। हमारे पास कर्म के विधान से बचने का कोई चारा नहीं। एक बार जब हमने स्वयं अपने को (देश-काल-कारणता की ) मशीन में डाल दिया, तो हम निरन्तर चक्कर काटते ही रहेंगे। (बिना आत्मसाक्षात्कार हुए ) रुक जाना नहीं तूँ कहीं हार के, क्योंकि रुक जाने में आगे चलने की अपेक्षा और अधिक अनिष्ट है, इसलिये चरैवेति-चरैवेति !
[' अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं ' - कर्मों के तीन प्रारूप संचित,प्रारब्ध और क्रियमाण का कर्म चक्र जाल है। क्रियमाण –के प्रति सजगता ही ज्ञानपूर्वक जीने की विधा है क्योंकि प्रत्येक आकर्षक वस्तु एक चेतावनी है. कोई भी इन्द्रिय तुम्हारे सुख को चुरा सकती है, दास बना सकती है. भोग से उपजे संस्कार सदा ही दुःख दायी होते हैं. विवेकी जनों के लिए सब कर्मफल दुःख हेतु ही हैं. जो तपश्चर्या भोग की लालसा से की जाती है उनसे दुःख के साधन ही जुटते हैं. दुःख का स्वरुप कोई भी हो पर उसकी जड़ें चित्त में ही कहीं ना कहीं जमी होती है. इनसे मिलने वाले सुख-दुःख देह के विकार, मन के विकार हैं. तो जन्म -मरण आत्मा के विकार हैं. अविकारी केवल परब्रह्म है. जन्म -मरण दारुण दुःख के स्वरुप हैं. इनसे मुक्त होने की चाह ही मोक्ष की चाह का मूल कारण है; कृत कर्मों का प्रारब्ध—–जो अवश्य ही भोगना ही पड़ता है । पुनरपि जन्मं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनं यहि संसारे फल दुषतारे कृपया पारे पाहि मुरारे भज् गोविन्दं भज् गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते. यह आत्मा अविनाशी होने पर भी मरणधर्मा शरीर के साथ आबद्ध होने से विविध योनियों में जाता है । यह अपनी धारण क्षमता से ही उन शरीरों में आती और शरीरों से पृथक् होती रहती है । ये दोनों शरीर और आत्मा शाश्वत एवं गतिशील होते हुए विपरीत गतियों से युक्त है । लोग इनमें से एक (शरीर) को जानते हैं, पर दूसरे (आत्मा) को नहीं समझते ।योग-विज्ञान जीव को मृत्यु का भय हटाकर मृत्यु का बोध कराता है. योग-विज्ञान जीना सिखाता है और मरना भी सिखाता है. वस्त्र की तरह देह को त्याग देना परम ज्ञान है. बीज को फल से अलग होना ही है. पकने पर सबसे अलग होना है. किनारा आने पर नाव छोडनी ही पड़ती है. नाव साथ लेकर कोई नहीं चलता. यदि जीवन में किये कर्म मंगलमय हैं तो विसर्जन भी मंगलमय है,आना तो सबका ही साधारण होता है, जाना विशिष्ट हो तो सार्थकता है। तब महाप्रयाण उत्सव बन जाए। उत्सर्ग पूजा बन जाए । - जो मृत्यु के वश हुआ वह भोगी है, मृत्यु जिसके वश हुई वह योगी है.
त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।—ऋग्वेद 7.59.12/ यजुर्वेद ३/६०
हम सुरभित पुण्य, कीर्ति एवं पुष्टिवर्धक तथा तीन प्रकार से संरक्षण देने वाले त्र्यम्बक भगवान् की उपासना करते हैं । वे रुद्रदेव हमें उर्वारुक (ककडी, खरबूजा) आदि की तरह मृत्युबन्धन से मुक्त करें, किन्तु अमरता (मोक्ष) के सूत्रों से दूर न करे। ]
निश्चय ही हमारे ऊपर दुःख आते हैं। यह सब परिवर्तन दुःख-स्वरुप है, क्योंकि सब अनिच्छापूर्वक आते हैं। यह सब हमारे ऊपर जबरन लादा गया है। प्रकृति आदेश देती है और हम उसके आदेश को मानने के लिये बाध्य हो जाते हैं। किन्तु प्रकृति और हममें किंचित भी सद्भाव नहीं है। हमारे सभी कार्यों में प्रकृति से छुटकारा पाने (या प्रकृति पर विजय प्राप्त करने) का प्रयास रहता है। हम कहते तो हैं कि हम प्रकृति के मजे लूट रहे हैं;किन्तु यदि हम यदि ईमानदारी से अपना विश्लेषण करें, तो पता लगता है कि हम प्रत्येक वस्तु से बचने का प्रयास करते हैं और किसी न किसी पदार्थ से सुख-भोग का मार्ग आविष्कृत करने का प्रयास करते रहते हैं। प्रकृति उस 'फ्रेंच-मैन' (फ़्रांसिसी व्यक्ति) की तरह है, जिसने अपने एक 'अंग्रेज-मित्र' को शराब पीने के लिये यह कह कर आमंत्रित किया था कि उसके वाइन की आलमारी में पुरानी शराब की बोतलें पड़ी हुई हैं। उसने पुरानी शराब की एक बोतल मँगवायी, वह बोतल बड़ी खूबसूरत थी, जिसके भीतर बढ़िया शराब सोने जैसी दमक रही थी। नौकर ने गिलास में शराब उड़ेली, जिसे अंग्रेज चुपचाप पी गया। नौकर ले आया था रेंड़ी के तेल की बोतल! उसी प्रकार हमलोग भी हर समय रेंड़ी का तेल ही पी रहे हैं, इससे बच नहीं सकते, क्योंकि हमने श्रेय-प्रेय का विवेक करना सीखा ही नहीं है !
निरंतर विवेक-प्रयोग नहीं करने के कारण प्रायः लोग रोबोट की भाँति इतने जड़ हो चुके हैं कि वे विवेक करने के विषय में सोंच भी नहीं सकते। इसीलिये वे भी- कुत्तों, बिल्लियों तथा अन्य पशुओं की भाँति प्रकृति द्वारा चाबुक से हाँके जाते हैं। वे कभी प्रकृति की आज्ञा का उल्ल्ंघन नहीं करते, यहाँ तक कि उसकी कल्पना तक नहीं करते। किन्तु चाबुक खाते खाते,उन्हें भी अपने जीवन में विवेक-प्रयोग के महत्व का थोड़ा-बहुत अनुभव हो ही जाता है। चाबुक खाने के बाद कुछ लोगों को होश आता है, और वे प्रश्न पूछने लगते हैं -यह क्या है ? ये सब अनुभव किस लिये हैं ? (मैंने तो पुरानी शराब समझकर पी लिया था, अंडी का तेल है क्यों नहीं समझ सका?) फिर वे शास्वत-नश्वर का विवेक करने लगते हैं कि -सत्य-असत्य और मिथ्या क्या है ? आत्म-तत्व क्या है ? क्या जन्म-मृत्यु के चक्र से बचने का कोई उपाय भी है ? क्या मनुष्य-जीवन का कोई उद्देश्य भी है ? जीवन का कोई अर्थ है ? जीवन क्या है ?
मनुष्य
सज्जन हो या दुर्जन दोनों को एक न एक दिन मरना तो पड़ेगा ही। राजा भी
मरेंगे, तो भिखारी भी मरेंगे। इसलिये राजा या भिखारी होना दुःख का कारण
नहीं है, सबसे बड़ा दुःख तो यह 'मृत्यु' ही है! जिससे एक न एक दिन हम सभी
को सामना करना होना ही होगा- यदि मैं चिदानन्द स्वरूप आत्मा हूँ, तो
क्यों नहीं अभी ही यह देख लिया जाय कि मरता कौन है ? (यदि हम साहस पूर्वक
मृत्यु को देखने का प्रयास करें -तो तुरंत पता चल जाता है कि मैं कभी नहीं
मरूँगा! मरता तो मिथ्या अहं है !) किन्तु हममें मृत्यु के सत्य को जानने का
साहस नहीं होता, अपने नाम-रूप के मिथ्या तादात्म्य को छोड़ने के प्रति इतना
मोह होता है कि हर वक्त हम मृत्यु को अपने से दूर रखने का प्रयत्न करते
हैं। यदि हम किसी 'कम्फर्टेबल रिलिजन' -ब्राण्डेड धर्म
(हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई आदि ) में रहते हुए मर गये, तो हम कल्पना करते
हैं कि मरने के बाद हम स्वर्ग में अपने प्रिय जॉन या जैक को देख सकेंगे, और
चैन की वंशी बजेगी।
तुम्हारे
देश में, कुछ लोग प्रेतविद्या संबन्धी बैठकें आयोजित करते हैं, जिसमें
जॉन और जैक को नीचे उतार कर तुमको दिखाते हैं। मैंने ऐसे व्यक्तियों को कई
बार देखा है और उनसे हाथ मिलाया है। तुममें से भी बहुतों ने उन्हें देखा
होगा। वे पियानो बजाते हैं और गाते हैं "Beulah Land" -'ब्यूला-लैण्ड'।
[ I’ve reached the land of corn and wine,
And all its riches freely mine;
Here shines undimmed one blissful day,
For all my night has passed away.
Refrain
O Beulah Land, sweet Beulah Land,
As on thy highest mount I stand,
I look away across the sea,
Where mansions are prepared for me,
And view the shining glory shore,
My Heav’n, my home forever more!
My Savior comes and walks with me,
And sweet communion here have we;
He gently leads me by His hand,
For this is Heaven’s border land.
Refrain
A sweet perfume upon the breeze,
Is borne from ever vernal trees,
And flow’rs, that never fading grow
Where streams of life forever flow.
Refrain
The zephyrs seem to float to me,
Sweet sounds to Heaven’s melody,
As angels with the white robed throng
Join in the sweet redemption song.
And all its riches freely mine;
Here shines undimmed one blissful day,
For all my night has passed away.
Refrain
O Beulah Land, sweet Beulah Land,
As on thy highest mount I stand,
I look away across the sea,
Where mansions are prepared for me,
And view the shining glory shore,
My Heav’n, my home forever more!
My Savior comes and walks with me,
And sweet communion here have we;
He gently leads me by His hand,
For this is Heaven’s border land.
Refrain
A sweet perfume upon the breeze,
Is borne from ever vernal trees,
And flow’rs, that never fading grow
Where streams of life forever flow.
Refrain
The zephyrs seem to float to me,
Sweet sounds to Heaven’s melody,
As angels with the white robed throng
Join in the sweet redemption song.
Words: Edgar P. Stites:एडगर पेज स्टिटेट्स:
It was in 1876 that I wrote ‘Beulah Land.’ I could write only two
verses and the chorus, when I was overcome and fell on my face. That
was one Sunday. On the following Sunday I wrote the third and fourth
verses, and again I was so influenced by emotion that I could only
pray and weep. The first time it was sung was at the regular Monday
morning meeting of Methodists in Philadelphia [Pennsylvania].
Bishop McCabe sang it to the assembled ministers. Since then it is
known wherever religious people congregate. I have never
received a cent for my songs. Perhaps that is why they have had such a
wide popularity. I could not do work for the Master and receive
pay for it.Sweet Beulah Land ( This is a memorial song, sung by Squire Parsons. This video is in remembrance of love ones that have passed. ) ]
अमेरिका एक विशाल देश है। मेरा देश दुनिया के उस पार है। लेकिन 'ब्यूलालैण्ड ' कहाँ है,वह मुझे मालूम नहीं। तुम भूगोल के किसी नक्शे में उसे नहीं पाओगे। जरा हमारे 'गुड कम्फर्टेबल रिलिजन' -सुखद धर्म, जो हमें ऑंखें मूँद कर विश्वास करने को कहता है; को तो देखो ! वही पुराने सड़ियल विश्वास !
जो लोग विवेक-विचार नहीं कर सकते, या करना ही नहीं चाहते - उनके लिये क्या किया जा सकता है ? भवसागर ने उन्हें उदरस्थ कर लिया है। उनमें विवेक-विचार करने की शक्ति शेष नहीं रह गयी है। वे अंदर से खोखले हो गये हैं, उनका मस्तिष्क जड़ हो गया है। उनके प्रति मेरी सहानुभूति है। स्वर्ग में पहुँचकर जो सुख चैन मिलेगा-उसकी कल्पना उन्हें मुबारक हो। देखने में आता है कि कुछ लोग 'ब्यूलालैण्ड' से आये हुए अपने पूर्वजों का दर्शन कर बड़े आश्वस्त हो जाते हैं।
माध्यम बनने वालों में से एक ने मुझे कहा, कहिये तो आपके पूर्वजों को भी आपके पास बुला दूँ। मैंने कहा, 'बस रुक जा; तुझे जो अच्छा लगे, वह कर। लेकिन अगर तू मेरे पूर्वजों को ले आया, तो मैं नहीं जानता कि मैं अपने को रोक पाउँगा या नहीं ? मीडियम ने बड़ी कृपा की, वह रुक गया।
हमारे देश में जब हम उलझनों में पड़ कर परेशान हो जाते हैं, तो पुरोहितों को कुछ दान-दक्षिणा देकर भगवान से सौदा पटाते हैं। कुछ समय के लिये भार हल्का भी हो जाता है, नहीं तो हम पुरोहितों (बंगाली तांत्रिकों) को दक्षिणा नहीं देते। थोड़ी सांत्वना तो मिलती है, पर शीघ्र ही वह प्रतिक्रिया में बदल जाती है। इस प्रकार दुःख पुनः वापस लौट आता है। यहाँ कोई न कोई उलझन आती ही रहती है, और सदा वही दुःख बना रहता है। तुम्हारे यहाँ के धर्म-प्रचारक हमारे देश में कहते हैं -" यदि आप हमारे ईसाई-धर्म को अपना लेंगे, तो आपका सर्व प्रकार से मंगल होगा।" हमारे यहाँ के निम्न वर्ग के लोग (दलित-आदिवासी) तुम्हारे सिद्धान्तों पर विश्वास कर लेते हैं। अंतर इतना ही होता है कि वे भिखमंगे बन जाते हैं। पर क्या यह धर्म-प्रचार है ? धर्म है ? नहीं, यह तो धर्मान्तरण की राजनीति है। तुम इसे धर्म कह सकते हो, पर धर्म शब्द की छीछा-लेदर करके ही। किन्तु इस प्रकार के धर्मान्तरण (या घर-वापसी) को आध्यात्मिकता का प्रचार तो कदापि नहीं कह सकते।
हजारों नर-नारियों में से कोई एक इस जीवन (आहार-निद्रा-भय-मैथुन) से परे किसी उच्चतर वस्तु (योग) को पाने की दिशा में प्रवृत्त होता है। अन्य लोग तो भेड़ जैसे हैं। हजारों में से एक 'धर्म' को समझने का यत्न करता है, कोई पशु-जीवन और मनुष्य-जीवन के अंतर को समझने का प्रयास करता है। हजारों में से कोई एक मुक्ति का मार्ग खोजता है। प्रश्न यह है कि क्या कोई मुक्ति का मार्ग है ? यदि मुक्ति का कोई मार्ग है, तो वह आत्मा से योग के भीतर है, अन्यत्र कहीं नहीं है। अन्य सूत्रों के मार्गों को काफी आजमाया गया है, किन्तु सब में कमी पायी गयी है। आत्मसाक्षात्कार हुए बिना लोगों को संतुष्टि नहीं होती। ढेर के ढेर सिद्धान्तों और पन्थों का होना - यह सिद्ध करता है कि लोगों को सन्तोष-लाभ नहीं हो रहा है।
' द साइंस ऑफ़ योगा ' योग-विज्ञान एक मार्ग बतलाता है -'उद्धरेत् आत्मा आत्मानं'; अर्थात हमें आत्मा के द्वारा ही अपनी आत्मा का उद्धार करना होगा। 'वी हैव टु इंडिभिजुअलाइज ऑवर-सेल्वस'- हमें स्वयं को अविभाज्य तत्व बनाना होगा। यदि कोई ऐसी वस्तु है जो सत्य स्वरूप है, तो हम उसे अपने यथार्थ सार-तत्व के रूप में अनुभव कर सकते हैं। एक बार भी यदि आत्मसाक्षात्कार हो गया, तो दर दर प्रकृति द्वारा मारा मारा फिरना बन्द हो जायगा।
इन्द्रिय-गोचर जगत, यह प्रतीयमान विश्व उस अपरिवर्तनशील, शास्वत सत्ता तक पहुँचने के लिये- निरन्तर परिवर्तित हो रहा है- और वही हमारा भी लक्ष्य है। हम उस अपरिवर्तनशील ब्रह्म को अपने अनुभव से जानकर स्वयं वही बनना चाहते हैं। उस ब्रह्म (सत्य) का साक्षात्कार करके ब्रह्म बन जाने मार्ग में बाधा क्या है ? जो बाधा (देश-काल-कारणत्व) है, वह सृष्टि का तथ्य है। सृजनात्मक मन सदैव सृष्टि कर रहा है, और अपनी ही सृष्टि के प्रपंच - (मैं और मेरा ) में पड़ जाता है। किन्तु हमें यह अवश्य याद रखना चाहिये कि, मनुष्य ही ईश्वर की वह सर्वोत्कृष्ट सृष्टि है -जिसने ईश्वर का अनुसन्धान किया। फिर इसी सृष्टि -मनुष्य ने ही प्रत्येक आत्मा में उस ब्रह्म का अनुसन्धान किया [और कहा -तुझमें राम मुझमें राम, सबमें राम समाया है । कर लो सभी से प्यार जगत में कोई नहीं पराया है ।
योगाभ्यास (अष्टांग योग) के कई सोपान हैं, उनमें से कुछ (प्राणायाम-ध्यान-समाधि) का अभ्यास करना बहुत कठिन है, अंतिम अवस्था- 'समाधी' तक पहुँचने के लिये किसी योग्य गुरु के सानिध्य में रहते हुए दीर्घ-काल तक प्रशिक्षण लेना आवश्यक होता है। जिनमें वैसे अभ्यास के लिये दृढ़ता और बल होता है, उन्हें निर्विकल्प समाधि प्राप्त हो जाती है। किन्तु योगाभ्यास के कुछ सोपान -'यम-नियम-आसन-प्रत्याहार-धारणा' तक अभ्यास करना अपेक्षाकृत सरल होता है। जिनमें वैसी दृढ़ता और बल न हों, जो अभी विद्यार्थी-जीवन में हैं, वे 'मनःसंयोग' की सरल विधि ('यम-नियम-आसन-प्रत्याहार-धारणा' तक) सीखकर लाभ उठा सकते हैं, और अपने चरित्र को सुन्दर रूप से गठित तो कर ही सकते हैं।
जहाँ तक मन के समुचित विश्लेषण का प्रश्न है, हमें एकाग्रता या मनःसंयोग का अभ्यास शुरू करते ही तत्काल यह मालूम हो जाता है कि मन को वश में करना कितना कठिन है। हमलोगों ने '3H' के विकास की शिक्षा नहीं ली है; हमें नहीं पता कि मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं -'Hand-Head-Heart' शरीर, मन और हृदय; अब हम केवल शरीर बन गये हैं। हमने इसे पूरी तौर पर भुला दिया है कि हम आत्मा हैं। जब अपने को सोचते हैं, तो तुरन्त शरीर (M/F) की कल्पना कर लेते हैं। हम शरीरवत व्यवहार करते हैं, शरीरवत् वार्ता करते हैं। हम सब शरीर मात्र बन चुके हैं। इस शरीर से हमें आत्मा (ह्रदय) को पृथक करना है। इसीलिये शरीर से ही योग के प्रथम सोपान, या चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया 'यम-नियम' का श्रीगणेश होता है। चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने (BE AND MAKE) का कार्य, तब तक चलता है, जब तक कि अन्त में कर्मी की आत्मा अपने को व्यक्त नहीं कर देती। युवा प्रशिक्षण शिविर में इन सभी यम-नियम-आसन-प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास या मनःसंयोग का अभ्यास करने का प्रमुख अभिप्राय यह है कि चित्त की एकाग्रता की वह शक्ति, जिसे ध्यान-शक्ति कहते हैं, हमें विद्यार्थी जीवन में ही उपलब्ध हो जाये।
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