' विवेकानन्द - दर्शनम् '
(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )
[ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ]
[ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ]
श्री श्री माँ सारदा और आप , मैं ...या कोई भी ...
नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||
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(सरस्वती-रहस्य उपनिषद् ३.२-२४ के आधार पर माँ सारदा की स्तुति )
नमस्ते सारदे देवि कोआलपारावासिनी।
त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे ॥१॥
नामरूपात्मना व्यक्ता सा मां पातु सरस्वति ॥२ ॥
2. Brahman has two states of existence, said the Brihadaranyaka Upanishad (2.3.1)
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।।३/२७ ।।
सर्वश: = संपूर्ण ; कर्माणि = कर्म ; प्रकृते: = प्रकृति के ; गुणै: = गुणोंद्वार ; कि्यमाणानि = किये हुए हैं (तो भी) ; अहंकारविमूढात्मा = अहंकारसे मोहित हुए अन्त:करणवाला पुरुष ; अहम् = मैं ; कर्ता = कर्ता हूं ; इति = ऐसे ; मन्यते = मान लेता है ;
भारतवर्ष एक शाश्वत सनातन धर्म का देश है. आध्यात्मिकता उसकी अमूल्य सम्पत्ति है. स्वामी विवेकानन्द ने भारत के इस आध्यात्मिक-सम्पदा को वहन करके विश्व-सभा (रंगमंच) तक पहुंचा दिया था। एवं उनके गुरुभाई स्वामी अभेदानन्द जी ने उसको द्वार द्वार तक पहुंचा दिया था. पाश्चात्य देशों के शिक्षित एवं तर्कशील मनुष्यों के बीच वेदान्त का प्रचार करना कोई आसन कार्य नहीं था. क्योंकि वे लोग अकस्मात् प्रज्वलित वैज्ञानिक-प्रकाश के आलोक में आलोकित थे. इसलिए वैसे लोगों के द्वारा प्राचीन भारतीय- दर्शन एवं वेदान्त प्रचार के एक नवीन भावधारा को ग्रहण कर लेना जितना आश्चर्य जनक था, ठीक उसी प्रकार इस प्रचार कार्य में सफलता प्राप्त करना भी कम आश्चर्य जनक नहीं था. स्वामी अभेदानन्दजी के प्रचार-साफल्य से अभिभूत हो कर एक बार स्वामी प्रेमानन्दजी ने स्वामीजी से बहुत आग्रह पूर्वक कहा था कि, - " कोलकाता में वेदान्त की शिक्षा प्रदान करने के लिए, काली-भाई (अभेदानन्द ) को उस देश (अमेरिका) से यहाँ बुलवा लो। क्योंकि काली-भाई ही यहाँ के शिक्षित लोगों को वेदान्त समझाने में समर्थ व्यक्ति है।
उसके उत्तर में स्वामीजी ने कहा था- " काली को यहाँ बुला लूँगा तो जानते हो क्या होगा ?- वह क्षेत्र (पाश्चात्य जगत) बिल्कुल अँधेरे में डूब जायेगा... उसने अपने अथक प्रयास से न्यूयॉर्क जैसे विशाल और आधुनिक शहर में एक हाल भाड़े पर लेकर, वेदान्त-सोसाईटी को एक firm footing (दृढ नींव ) पर प्रतिष्ठित कर दिया है। और चारो तरफ भ्रमण करते हुए लेक्चर देकर ऐसा प्रभाव जमा दिया है कि, वहाँ के बड़े बड़े विद्वान् साहेब लोग उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते। नवधनाड्य अमेरिका वासियों से वाहवाही (स्वीकृति ) प्राप्त कर लेना कोई छोटी बात नहीं है ! चपरास (प्रभु का आदेश ) नहीं हो, तो उस देश में वेदान्त-प्रचार कर पाना क्या ऐसे-वैसे लोगों का कर्म है ! " ( ' स्मृतिसंचय ' : विश्ववाणी, चैत्र १३५१, पृष्ठ २१ )
पाश्चात्य देशों में वेदान्त-प्रचार का कार्य स्वामी विवेकानन्द-कर्मधारा के उत्तरसाधक स्वामी अभेदानन्द के माध्यम से कितना साफल रूप में सम्पादित हुआ था - उस सम्बन्ध में एक प्रत्यक्ष-प्रतिवेदन में भगिनी निवेदिता इस प्रकार लिखती है-" These two names Vivekananda and Abhedananda are names as inseparable as is the confluence of stream, as are revers sides of a single coin. "
- अर्थात " विवेकानन्द और अभेदानन्द - ये दो नाम ऐसे नाम हैं, जो भिन्न होने पर भी अभिन्न थे, मानों दो नदियाँ संगम में पहुँचकर एक और अविभाज्य हो गयी हों। ये दोनों नाम वास्तव में एक ही सिक्के के दो पहलू हैं! "
इस समबन्ध में प्रत्यक्ष दर्शी अध्यापक बिनय कुमार सरकार कहते हैं - " इन दो बंग-वीरों के माध्यम से भारतमाता सम्पूर्ण जगत में अपने रक्त-मांस में गुंथे हुए स्वधर्म, शक्तियोग की दिग्विजय साधना का निर्यात कर रही थी. विवेक-अभेद उस समय भारत से विदेश गए कोई सौदागर नहीं थे; बल्कि ये दोनों बंगवीर अभिनव रक्त-मांस वाले कर्मनिष्ठ-जीवन के भारतीय प्रतिनिधि थे."
किसी पत्र में स्वयं स्वामीजी ने कालीभाई (अभेदानन्दजी) की प्रशंसा की है- यह सुन कर लाटुमहाराज (अद्भुतानन्दजी) आनन्द से झूम कर बोल उठे- " जानते हो, काली-भाई अक्सर वराहनगरमठ से पैदल ही शांखारी-टोला स्थित डाक्टर महेंद्र सरकार के घर पुस्तकों का अध्यन करने जाया करता था, और कभी कभी तो वहाँ से गट्ठर की गट्ठर पुस्तकें उठा कर मठ में ले आता और घंटों पढ़ता रहता था। किसी के भी साथ अधिक मेल-जोल नहीं बढ़ाता था, व्यर्थ की बातें नहीं करता था, व्यर्थ की गप्पबाजी उसे पसंद नहीं थी। काली इतना अधिक गहन-गम्भीर मुद्रा में रहता था कि जब भक्त लोग मठ में आते थे तो उनके नजदीक व्यर्थ में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे। वह अपने कमरे में बैठ कर घंटों केवल पढ़ाई-लिखाई करने या ध्यान-धारणा करने में ही डूबा रहता था। इसी प्रकार से उसने कितने दीर्घ काल तक अपना समय व्यतीत किया था, तभी तो आज लोग काली का महत्व समझ पा रहे हैं ! काली ने कठिन परिश्रम से अपना जीवन इतना सुन्दर रूप में गठित कर लिया था कि, बड़े बड़े विद्वान् भी आज उससे प्यार करते हैं ! " ( ' स्मृति- संचयन ' : विश्ववाणी, चैत्र १३५१, पृष्ठ २२ )
स्वामी अभेदानन्द का एक और नाम है- ' काली-वेदान्ती '. बचपन से ही उनके भीतर वेदान्त-दर्शन के प्रति तीव्र आकर्षण था. वेदान्त मत का उन्होंने गम्भीर-निष्ठा एवं अध्यवसाय के साथ अध्यन किया था, और आत्मसात भी कर लिया था. सांसारिक स्थूल बातों (नून-तेल-लकड़ी की चिन्ता ) को छोड़ कर, वे सदैव सूक्ष्म-वेदान्तिक तत्वों के गहन चिन्तन-मनन में ही डूबे रहते थे. जिसका मन सदैव वेदान्त के सूक्ष्म आत्मतत्व में ही निमग्न रहता हो, उसके भीतर शरीर की असारता का बोध उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है.
काली-महारज भी इसी ज्ञान-मार्ग के पथिक थे. इस पथ में युक्ति-तर्क के आधार पर यह सिद्ध किया जाता है कि - ' ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या '. दिन-रात इसी विचार मग्न रहने के कारण सभी लोग उनको नास्तिक समझने लगे थे. एक बार उनके संगीसाथी साथियों ने श्रीरामकृष्ण के पास अभियोग भी लगाया था कि-' काली-वेदान्ती ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार कर रहा है. ' यह सब सुनकर अद्वैत-ज्ञानी श्रीरामकृष्ण धीरे से मुस्कुरा दिए और बोले- ' तुम लोग देख लेना एक दिन वह सबकुछ मानने लगेगा, सबकुछ जान जायेगा. '
वेदान्त के मतानुसार यह जगत मायामय स्वप्नवत होने के कारण मिथ्या (असत नहीं ) है. यह तो तात्विक-सत्य है; किन्तु क्या किसी ने अपने जीवन में इसका प्रयोग किया है ? प्रयोगात्मक वेदान्तवादी कहाँ है ? ऐसा वेदान्तविद व्यक्ति कहीं मिल सकता है, जो अद्वैत-वेदान्त के तत्वों को अपने जीवन में प्रयोग कर सचमुच वेदान्त-मूर्ति बन चुका हो ? शिवसंहिता आदि योगशास्त्र में, स्पष्ट कहा गया है कि पुस्तक पढ़ कर योगसाधना करना उचित नहीं है, किसी उपयुक्त सिद्ध-योगिगुरु के सानिध्य में रहते हुए योगशिक्षा का अभ्यास करना जरूरी होता है.
पुनः सोंच में पड़ गए, कहाँ से किसी सिद्ध-योगि गुरु का पता खोजा जाय ? आहार-निद्रा सब कुछ त्याग दिए, मन में केवल एक ही विचार था, दिन-रात पद्मासन में बैठ कर कैसे समाधिस्त रहा जाये. अपने मन की बात किसी से कह भी नहीं सकते थे, क्योंकि यह सुनकर सभी हँसते और मजाक उड़ाते थे. योगी होने की बात सुन कर चारो ओर से बाधाएँ भी आने लगी. शास्त्र-वचन मूर्तमान हो उठा- ' श्रेयांसि बहुबिघ्नानी '. इसी समय एक दिन सहपाठी यज्ञेश्वर भट्टाचार्य के साथ मुलाकात हो गयी. सैकड़ो बाधाओं से अवसन्न कालीप्रसाद को देख कर मित्र ने पूछा- तुम्हारी समस्या क्या है ?
कालीमहाराज बोले, ' देखो, मेरी तीव्र इच्छा योगसाधना करने की है. किन्तु केवल पुस्तक पढ़ने और अपनी चेष्टा से ही तो यह सब हो नहीं सकता. गुरु की आवश्यकता होती है. क्या तुम बता सकते हो कि वैसा योगिगुरु कहाँ मिल सकते हैं ? 'कालीप्रसाद की व्याकुलता को देख कर यज्ञेश्वर ने कहा-' बता सकता हूँ, दक्षिणेश्वर में रानी रासमणि के काली-मन्दिर में एक अद्भुत योगी हैं- परमहंस हैं. सभी लोग ऐसा कहते हैं कि उनमे कोई ढोंग-ढकोसला नहीं है. वे एक यथार्थ योगी ही नहीं- महायोगी हैं. कोलकाता के बहुत से सम्भ्रान्त लोग भी उनके पास आते-जाते हैं.वे भी बीच बीच में कोलकाता आते रहते हैं. तुम यदि उनसे अपनी योगशिक्षा ग्रहण करने की ईच्छा उनको सुनोगे तो लगता है, वे तुम्हारी इस ईच्छा को पूर्ण कर सकते हैं. '
अपने बाल-सखा यज्ञेश्वर की बातें सुन कर, कालीप्रसाद का ह्रदय उत्साह, आनन्द, आत्मविश्वास से भर उठा. उन्होंने तय कर लिया कि, अपने गुरु के रूप में मुझे केवल परमहंसदेव को ही वरण करना है. जैसे भी हो, मुझे एक बार दक्षिणेश्वर के काली-मन्दिर में जाना ही होगा, एवं उनके साथ अवश्य ही भेंट करनी होगी.परमयोगी परमहंसदेव से मिलने की व्याकुलता क्रमशः बढती चली गयी.एक दिन बिना किसी को बताये अकेले ही- चल पड़े दक्षिणेश्वर की ओर. काली-मन्दिर पहुँच कर किसी से पूछे - परमहंसदेव हैं क्या ? एक आगन्तुक युवक ने बताया नहीं वे तो कोलकाता गए हैं. वह युवक थे उस समय के शशिभूषण चक्रवर्ती जो आगे चल कर स्वामी रामकृष्णानन्द हुए.
कालीप्रसाद भूख-प्यास और पैदल चलने की थकान से बहुत अवसन्न अनुभव कर रहे थे; यह देख कर शशिभूषण ने उनको परामर्श दिया कि,' गंगा में स्नान कर के माँ काली का प्रसाद ग्रहण करके थोडा विश्राम कर लो; जब उनके साथ मुलाकात करने के लिए इतना कष्ट सह कर आये हो, तो मिलने के बाद ही कोलकाता जाना.' परमहंसदेव का दर्शन करने की ईच्छा से उनके परामर्श के अनुसार कालीप्रसाद इंतजार करने लगे. दोपहर बीत जाने के बाद शाम हो गयी. उसके बाद रात्रि के समय बरामदे में चटाई बिछा कर तीन-जन विश्राम कर रहे थे. इसी समय रामलाल दादा ने समाचार दिया कि परमहंसदेव बग्घी पर सवार होकर आ रहे हैं. कालीप्रसाद उठ खड़े हुए. उनकी धड़कने तेज हो गयीं. परमहंसदेव ने गुरुगम्भीर स्वर से तीन बार ' काली ' नाम का उच्चारण करके अपने कमरे में प्रविष्ट हुए, और छोटी सी चौकी पर बैठ गए.
कालीप्रसाद पलक झपकाए बिना परमहंसदेव का दर्शन करने लगे, सोच रहे हैं- योगी-सन्यासी का अर्थ तो जटाजूट-धारी, लाललाल-आँखों वाले, पूरे शरीर पर राख मले किसी रूद्र मूर्ति होना चाहिए. किन्तु इनको तो एक अति सहज, सरल, शान्त, सौम्यमूर्ति के रूप में देखता हूँ. अब उन्होंने श्रद्धापूर्वक भक्तिपूर्ण ह्रदय से प्रणाम किया. परमहंसदेव ने उनको स्नेहपूर्वक बैठने को कहा, तथा पूछा- ' तुम कौन हो? तुम्हारा घर कहाँ है ? तुम किस लिए इतना कष्ट सह कर यहाँ आये हो ? क्या चाहते हो ? '
भक्ति में गदगद कंठ से कालीप्रसाद उत्तर दिए- ' योगशिक्षा ग्रहण करने की मेरी तीव्र ईच्छा है. क्या आप दया करके मुझको योग-शिक्षा प्रदान करेंगे ? इसी आशा को लेकर मैं यहाँ आया हूँ. '
श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर मौन रहकर सोचे, उसके बाद बोले- ' इतने कम उम्र में ही, तुम्हारे अन्दर योगशिक्षा ग्रहण करने की इच्छा हुई है- यह तो बड़ा ही शुभ लक्ष्ण है. तुम पूर्वजन्म में एक बड़े योगी थे. थोडा बाकी रह गया था, यही तुम्हारा अंतिम जन्म है. आज रात्रि में यहीं विश्राम करो, कल सुबह में फिर आना.'
दुसरे दिन प्रातः काल में कालीप्रसाद गंगा स्नान करके, श्रीरामकृष्ण परमहंस के चरणों में बैठ गए. उन्होंने पूछा - तुमने कौन कौन सी पुस्तकें पढ़ी हैं ? कालीप्रसाद ने कहा- रघुवंश, कुमारसम्भव, गीता, पातन्जल-दर्शन, शिव-संहिता आदि. सुन कर श्रीरामकृष्ण बड़े प्रसन्न हुए और आशीर्वाद दिए. उसके बाद सस्नेह बोले- ' योगासन में बैठ कर अपनी जीभ बाहर निकालो '. कालीप्रसाद ने जिह्वा को प्रसारित कर दिया. तब उनकी जिह्वा के बीच में दाहिने हाथ के बीच वाली ऊँगली से श्रीरामकृष्ण ने मूलमंत्र लिख दिया. साथ ही साथ उनके सम्पूर्ण अंगों में एक अद्भुत शक्ति संचारित हो गयी. कालीप्रसाद का वाह्यज्ञान जाता रहा और वे गम्भीर ध्यान में समाधिस्त हो गए !
योगशिक्षा का जितना बाकी रह गया था, उतना योगिराज श्रीरामकृष्ण ने दे दिया. उनकी आजन्म-आकांक्षित वह समाधी परम योगी के परम स्पर्श से घटित हो गयी. इसी योग-समाधि में तो वे निमग्न रहना चाहते थे. कुछ समय के बाद सर्वयोग-सिद्ध श्रीरामकृष्ण ने कालीप्रसाद के ह्रदय का स्पर्श करके, कुण्डलिनी शक्ति को निचे उतार दिया, और स्वाभाविक अवस्था में वापस लौटा दिया. महायोगी श्रीरामकृष्ण विशाल-योगशक्ति के अधकारी थे, योगीगण जिस योगबल को आजीवन तपस्या करने के बाद भी नहीं प्राप्त कर सकते थे, उसे वे केवल स्पर्श-मात्र से प्रदान कर सकते थे.
योग्शास्त्रों में कहा गया है,- परमात्मा के साथ जीवात्मा के मिलन को ' योग ' कहा जाता है. यहाँ श्रीरामकृष्ण रूपी परमात्मा के साथ कालीप्रसाद रूपी जीवात्मा घुल-मिल कर एकाकार हो गये, - और उत्तरण हुए योगी अभेदानन्द !
और सिद्धगुरु के रूप में उन्होंने अद्वैताचार्य श्रीरामकृष्ण को प्राप्त कर लिया; जो अद्वैतवाद के प्रबल-पक्षधर थे. अद्वैत-वेदान्त के ' नेति नेति ' विचार-पद्धति को काली-महाराज भी बहुत पसन्द करते थे. इसको वेदान्त का ज्ञान मार्ग कहा जाता है. यहाँ पर ईश्वर का अस्तित्व अन्ध-विश्वास के उपर प्रतिष्टित नहीं है. इसमें न्याय-विचार करके सभी मतों का खण्डन कर दिया जाता है. इस अद्वैत-वाद में युक्ति-तर्क की सहायता से एक परम-सत्य तक पहुँचना होता है. यह मार्ग चरम विवेक-विचार के उपर प्रतिष्ठित है.काली-महाराज के जिज्ञासु मन में उठते रहने वाले प्रश्नों का कोई अन्त नहीं था. किन्तु जब तक कोई प्रत्यक्ष-प्रमाण नहीं मिलजाता वे अपनी खोज बन्द करने वालों में से नहीं थे. क्योंकि, अपनी आँखों के सामने जिस जगत को बिलकुल स्पष्ट देख रहा हूँ, वह जगत वेदान्त-मत के अनुसार मिथ्या कैसे हो जाता है ?
इस प्रश्न का उत्तर तत्वज्ञ श्रीरामकृष्ण से इस प्रकार दिया- " ' नेति नेति ' करते हुए आत्मा की उपलब्धी करने का नाम ज्ञान है. पहले ' नेति नेति ' विचार करना पड़ता है. ईश्वर पंचभूत नहीं है, इन्द्रिय नहीं हैं, मन, बुद्धि, अहंकार नहीं हैं, वे सभी तत्वों के अतीत हैं; - और यह होते ही यह सब स्वप्नवत हो जाता है. विचार दो प्रकार से किया जाता है- अनुलोम और विलोम . पहले के द्वारा मनुष्य जीव-जगत से नित्य ब्रह्म में जाता है और दूसरे के द्वारा देखता है कि, ब्रह्म ही जीव-जगत के रूप में लेलायित है. छत पर चढ़ने के लिए एक एक कर सब सीढ़ियों का त्याग करते हुए जाना होता है. सीढियाँ छत नहीं हैं. किन्तु छत पर जा पहुँचने के बाद दिखाई देता है कि जिन ईंट, चुना, सुर्खी आदि वस्तुओं से छत बनी है, उन्हीं से सीढ़ियाँ भी बनी हैं. जो परब्रह्म है, वही यह जीव-जगत बना है, चौबीस तत्व बना है. जो आत्मा है, वही पंचभूत बना है. तुम कहोगे, मिट्टी अगर आत्मा से ही बनी है तो वह इतनी कड़ी कैसे है ? उनकी इच्छा से सब कुछ सम्भव हो सकता है. क्या रज-वीर्य से हड्डी और मांस का निर्माण नहीं होता है ?
अनुलोम और विलोम. ' नेति नेति ' करते हुए समाधी में पहुँचकर तुम्हारा ' अहं ' ब्रह्म में विलीन हो जाता है. फिर जब तुम समाधी से उतरकर नीचे आते हो तब तुम्हें दिखाई देता है कि ब्रह्म ही तुम्हारे
' अहं ' के रूप में तथा सारे जगत के रूप में व्यक्त हो रहा है....इसी प्रकार नित्य ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन करने के पश्चात् विचार आया- ' जो नित्य हैं, वे ही लीला में जगत बने हैं.'..यदि कहो- अखण्डस्वरुप आत्मा खण्डित जीवात्माओं में कैसे विभक्त हुआ ? कोई अद्वैत-वादी तार्किक विचार-बुद्धि के बल पर इसका उत्तर नहीं दे सकता. उसे यही कहना पड़ता है कि- ' मैं नहीं जानता '. ब्रह्मज्ञान होने पर ही इसका योग्य उत्तर मिल पाता है.
जब तक मनुष्य कहता है, ' मैं जानता हूँ ' या ' मैं नहीं जानता ' तब तक वह स्वयं को एक व्यक्ति (M /F ) समझता है. तब तक उसे इस विविधता ( जगत-प्रपंच ) को सत्य ही मानना पड़ता है- वह इसे भ्रम नहीं कह सकता. परन्तु जब व्यक्तित्व-बोध का;' मैं '-पन का सम्पूर्ण विनाश हो जाता है, तब- 'समाधी ' में ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है. अहंकार के दूर हो जाने पर जीवत्व का नाश हो जाता है.तब जीव नहीं आत्मा ही परमात्मा (ब्रह्म) का साक्षात्कार करता है. इस अवस्था में समाधी में ब्रह्म का साक्षात्कार होता है.
समाधी अवस्था में उपलब्ध ब्रह्म मानो दूध है, साकार-निराकार ईश्वर मानो माखन हैं, और चौबीस तत्वों से बना जगत मानो छाछ. जब तक तुम माया के राज्य में हो तब तक तुम्हें माखन और छाछ - ईश्वर और जगत - दोनों स्वीकार करना होगा. ...जब तक ' अहं ' है, तब तक साकार ईश्वर भी सत्य हैं; जीव-जगत के रूप में उनकी लीला भी सत्य है.यथार्थ ज्ञान होने पर अहंकार नहीं रहता. समाधी हुए बिना ठीक-ठाक ज्ञान नहीं होता. भरे दोपहर में सूरज जब ठीक माथे के उपर रहता है; उस समय मनुष्य चारों ओर देखता है, पर उसे अपनी छाया नहीं दिखाई देती वैसे ही, यथार्थ ज्ञान होने पर, समाधी होने पर अहंकाररूपी छाया नहीं रहती. यदि ठीक-ठाक ज्ञान होने के बाद भी किसी में ' अहं ' दिखाई पड़े, तो ऐसा जानना कि वह ' विद्या का अहं ' है, ' अविद्या का अहं ' नहीं.
..समाधी में अद्वैतबोध का अनुभव करने के पश्चात् पुनः नीचे उतर कर ' अहं ' बोध का अवलम्बन कर रहा जाता है. ईश्वरदर्शन या आत्मज्ञान हो जाने के बाद सब कुछ चिन्मय लगने लगता है. काली के मन्दिर में जाकर देखता हूँ - प्रतिमा चिन्मय, पूजा कि वेदी, कोष-कुशी, मन्दिर का चौखट, मार्बल पत्थर सबकुछ ही चिन्मय है. उस समय बिल्ली को देखने से भी बोध होता है कि, चिन्मयी माँ ही यह सब बनीं है. "
वेदान्त-वादी काली-महाराज ने श्रीरामकृष्ण के अद्वैत-अनुभूति की बातों को बहुत ध्यान से सुना. किन्तु तब भी उनका तार्किक वेदान्ती-मन इसे मानने को तैयार नहीं था. वे स्वयं द्रष्टा होना चाहते थे- जगत के जड़-जीव आदि समस्त वस्तुओं में एकमात्र परमात्मा ही ओतप्रोत हैं, तो वे उस परमात्मा को प्रत्यक्ष करना चाहते थे. वे वेदान्त के उस सर्वोच्च-शिखर पर पहुँचना चाहते थे, - जहाँ से सबकुछ ( जड़-जीव ) के साथ एकात्मबोध की अनुभूति होती है.
यही आत्म-साक्षात्कार या आत्मबोध हो जाने पर मनुष्य सर्वत्र ईश्वर के अस्तित्व का अनुभव करने में समर्थ हो जाता है. जबतक यह अभेदानुभूती नहीं हो जाती, तबतक नेति नेति विचार करना होता है. इस प्रकार ' नेति नेति ' विचार करके जिन्होंने ' ईति ' कर लिया है, वे ही सच्चे अद्वैत-वेदान्ती हैं.वहाँ पहुँच जाने के बाद, फिर (ज्ञाता और ज्ञेय ) दो नहीं रह जाता, सबकुछ एक हो जाता है. सभी वस्तुओं के भीतर ' एक ' को प्रत्यक्ष कर लेने को ही अद्वैतानुभूती कहते हैं.
आध्यात्म-मार्ग का यह सर्वोच्च स्तर (शिखर) है. यहाँ पहुँच जाने पर वेदान्त-विचार (ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ) बोध (अनुभूति ) में परिणत हो जाता है. इसीलिए हमें समझना चाहिए कि अद्वैत-वेदान्त केवल तार्किक विचार-बुद्धि उपर ही प्रतिष्ठित नहीं है. बल्कि तर्क-युक्ति से मुक्ति प्राप्त कर लेना ही इसका उद्देश्य है. वेदान्तोक्त तात्वि-सत्य को व्यवहारिक सत्य में परिणत कर लेने के लिए ही वेदान्त-
साधना की जाती है. ज्ञान-विचार करते करते ज्ञान की चरम सीमा पर पहुँच जाना ही अद्वैतवेदान्त की ईति है.
अनुभूति-प्राप्त करने के लिए ही काली-महाराज की वेदान्त-साधना चल रही थी. दिन रात वे ज्ञान-विचार में निमग्न रहने लगे. जब तक वे ज्ञान की चरम पराकाष्ठा में उपनीत नहीं हो जाते वे साधना से विरत नहीं हो सकते थे. अद्वैत तत्व के अनुसन्धान कर अभेददर्शन के उद्देश्य से वे पुनः गम्भीर ध्यान में डूब गए.
अध्यवसायी, आत्मज्ञान के इच्छुक- काली-महाराज के लिए वेदान्त एक अन्वेषण था. उनके प्राणों की भूख थी. उनका मन उस व्याकुलता के आवेग से आर्तनाद से भरा हुआ था. वे श्रीरामकृष्ण के दिव्यसनिध्य में उपविष्ट थे. उनकी ज्ञानान्वेषी वेदान्तिक तर्कशील मानसिकता अंतर की व्याकुलता को अवदमित कर रही थी.उनके प्राणों में यह प्रश्न बार बार उठ रहा था- ' क्या सचमुच, किसी को अभिन्न-दृष्टि प्राप्त हो जाती है ? सर्वभूतों में क्या, किसी को सचमुच आत्मदर्शन होता है ? क्या कोई मुझे 'ज्ञानांजन ' प्रदान करके मेरी आत्मदृष्टि को भी उन्मोचित करने में समर्थ है? यदि कोई समर्थ गुरु हैं, तो वह अद्वैत-ज्ञानी साधक कहाँ मिलेंगे ?
वे इस प्रकार सोच ही रहे थे कि, सिद्धान्त को व्यवहार रूपांतरित होते देखने का समय उपस्थित हो गया. शायद अन्तर्यामी अद्वैतवादी श्रीरामकृष्ण ने अपनी अद्वैतानुभूती के द्वारा काली-महाराज की आन्तरिक वासना (तीव्र इच्छा) को अपने ह्रदय में अनुभव कर लिया था. इसीलिए उन्होंने काशीपुर-उद्यानबाड़ी में स्वयं इसके दृष्टान्त-स्वरुप बन कर, काली-महाराज को आवेगपूर्ण शब्दों में आदेश दिया- " बाहर जा कर देखो, जो आदमी मठ की हरी-हरी घासों पर टहल रहा है, उसको घास पर चलने से मना कर दो. मुझे बहुत कष्ट हो रहा है. ऐसा महसूस हो रहा है, मानो वह मेरी छाती के उपर ही चल रहा हो."
काली-महाराज अवाक् रह गए. मन में उठा प्रश्न मन में ही रह गया. सोचने लगे- ' इन्होंने मेरे मन की बात को जान कैसे लिया ? स्तम्भित काली-वेदान्ती ठाकुर के निर्देशानुसार शीघ्रता से बाहर निकल कर देखे- अरे बिलकुल सच ! बाहर एक व्यक्ति मठ की हरी हरी दूबों के उपर टहल रहा था. जल्दी से वहाँ पहुँच कर उसको घास के उपर उस प्रकार चहल-कदमी करने से मना किया.
आदेश को सुन कर, उस व्यक्ति ने घास के उपर चलना जैसे ही बन्द किया, उन्होंने देखा कि, ठाकुर श्रीरामकृष्ण थोड़ा स्वस्थ अनुभव करने लगे हैं. अब आश्चर्य-चकित होकर, काली-महाराज अवाक् हो गए और अपलक-दृष्टि से श्रीरामकृष्ण को देखते रह गए; मानो अद्वैत-विज्ञान किसे कहते है, उसके प्रत्यक्ष-प्रमाण स्वरुप जीवन्त वेदान्त-मूर्ति को देख कर मिला रहे हों.
अद्वैतानुभूती को, आज उन्होंने अपनी आँखों के सम्मुख प्रमाणित होते देख लिया था. विचार कर रहे हैं- इसको ही आत्मज्ञान कहते हैं, इसको ही आत्मदृष्टि कहते है. तृणादि जड़-चेतन, जीव-जगत, सबकुछ के भीतर अपने को देखना ही तो ' अभेदज्ञान ' है. यही तो अद्वैत-वेदान्त का चरम तत्व है- जिसको निज-अनुभव से जानने के लिए साधक को साधनारुपी सोपानों से होकर गुजरना होता है.
काली-वेदान्ती इसी आत्मानुभूति को प्राप्त करना चाहते थे. श्रीरामकृष्ण ने आज उसीको दृष्टान्त-सापेक्ष प्रमाण द्वारा दिखा दिया था. उन्होंने अभेदतत्व को प्रयोग-द्वारा वास्तविकता में परिणत कर दिया था. जड़-पदार्थों के प्रति अभिन्न दृष्टि को व्यवहारिक रूप से दृष्टिगोचर करा दिया था.
यही सत्य हजारों वर्ष पूर्व ऋषि कन्ठ से घोषित हुआ था-
भौतिक विज्ञान में 'श्रोडिंगर समीकरण' की सहायता से जड तन्त्र (Matter) में ऊर्जा (Energy) का सामञ्जस्य दिखया जाता है। जिसके अनुसार स्थैतिज ऊर्जा व गतिज ऊर्जा के योग को एक स्थिरांक के रूप में प्रदर्शित किया जाता है । स्थिरांक का अर्थ होगा कि यदि किसी जड तन्त्र की स्थैतिज ऊर्जा में वृद्धि होती है तो उसकी गतिज ऊर्जा में ह्रास हो जाएगा । यदि गतिज ऊर्जा में वृद्धि होगी तो स्थैतिक ऊर्जा में ह्रास हो जाएगा ।
लेकिन वैदिक साहित्य में ऊर्जा के दो रूप नहीं, अपितु तीन रूप निर्धारित किए गए हैं - इच्छा, ज्ञान और क्रिया। ज्ञान को स्थैतिक ऊर्जा तथा क्रिया को गतिज ऊर्जा माना जा सकता है। लेकिन आज के भौतिक विज्ञान में इच्छा के लिए अभी कोई स्थान नहीं है। नाम, रूप व कर्म के संदर्भ में नाम को ज्ञान के समकक्ष, इच्छा को रूप के समकक्ष और क्रिया को कर्म के समकक्ष माना जा सकता है। शिव पुराण के अनुसार तो ज्ञान, क्रिया व इच्छा रूपी दृष्टि-त्रय द्वारा ही रूप का निर्धारण होता है।
बृहदारण्यक उपनिषद १.४.१ का यह कथन प्राप्त होता है कि नाम, रूप व कर्म यह तीन हैं । इनमें नामों का 'उक्थ्य'= उत्थान करने वाला है वाक्, रूपों का चक्षु और कर्मों का आत्मा है। फिर इससे आगे कहा गया है कि प्राण विकल्प से अमृत है ( अर्थात् प्राण को प्रयत्न द्वारा अमृत बनाया जा सकता है ) और 'नाम-रूप' सत्य हैं ( अर्थात् नाम व रूप को प्रयत्न से सत्य बनाया जा सकता है )।
नाम-रूप प्राण को आच्छादित किए हुए हैं । नाम के विषय में कहा गया है कि नाम वह है जो सोते हुए प्राणों को जगा दे। जैसा नाम लिया (जपा या पुकारा) जाएगा, वैसे ही प्राणों को वह जाग्रत करेगा। यहां प्राण को कर्म के तुल्य माना जा सकता है जिसका उक्थ्य आत्मा कहा गया है ।
नाम, रूप व कर्म के इस त्रिक के अन्य रूप भी उपलब्ध होते हैं। लौकिक रूप में जिसे निधन या मृत्यु कहते हैं, योग मार्ग या भक्ति मार्ग में समाधि की अवस्था को निधन कहते हैं। समाधि से व्युत्थान के पश्चात् प्रथम अवस्था अस्ति, दूसरी भाति, तीसरी प्रिय, चौथी नाम और पांचवीं रूप की होती है। 'सरस्वती-रहस्य उपपनिषद' (३.२३-२४) में कहा गया है -
संसार की हर वस्तु के पाँच अंश होते है- अस्तित्व, चेतना, प्रियता, रूप ( form) और नाम. इन अंशपंचकों में से पहले तीन परमात्मा की ओर संकेत करते है, और आख़री दो जगत् की ओर। जब हम दुनिया (M/F) की ओर देखते है तब सिर्फ वस्तु के बाह्य रूप और नाम से मतलब रखते है। इसलिए हमारे मन में संसार की वस्तुओं के लिए या तो लालच पैदा हो जाती है या नफ़रत. और यही दुःख का मूल है। जब तक समत्व की दृष्टि से हम नही देखते, संसार दुःखमय ही प्रतीत होगा. दृष्टि गोचर जगत में जिस किसी वस्तु या व्यक्ति को देखो उसमें से ब्रह्म के अंतिम दो पहलु (नाम और रूप) को द्रष्टा-दृश्य विवेक प्रयोग के द्वारा अलग कर लो, और उनके पहले वाले तीन पहलु ' अस्ति = सत् (being)', 'भाति = चित् (Shining)', 'प्रिय = आनन्द (loving)' को अपने ह्रदय में अथवा बाहर देखने के लिये, निरंतर तत्पर होकर एकाग्रता (concentration) का अभ्यास करो!
अस्तित्व, चेतना, प्रियता जिन्हें सच्चिदानन्द भी कहा जाता है- यही परमात्मा का शुद्ध स्वरूप है, जो वस्तु का अंतरंग है।अतः यह कहा जा सकता है कि 'अस्ति, भाति और प्रिय'- प्राण के तुल्य हैं। तैत्तिरीय संहिता में यज्ञ में आयु को ध्रुव कहा गया है और आयु को ही प्राणों में उत्तम कहा गया है । पुराणों में उत्तानपाद - पुत्रों ध्रुव व उत्तम के रूप में साधना के दो पक्षों का उदय हुआ है - एक तो यम- नियम - तप आदि के द्वारा ध्रुव स्थिति प्राप्त करना तथा दूसरे यम - नियम आदि से रहित केवल आनन्द की स्थिति, उत्तम एक स्थिति का नाम है । उस स्थिति में - रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव - बृहदारण्यक उपनिषद २.५.१९ अर्थात् कण - कण में दिव्य रूप के दर्शन हो रहे हों , यही मधु अवस्था है।
ऋग्वेद ६.४७.१८ की प्रसिद्ध ऋचा रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव है जिसकी व्याख्या बृहदारण्यक उपनिषद २.५.१९ में उपलब्ध है । इस व्याख्या के अनुसार जब यह पृथिवी सब भूतों के लिए मधु बन जाए और सब भूत इस पृथिवी के लिए मधु बन जाएं तो वह मधु विद्या है । दूसरे शब्दों में, जहां उच्चतर और निम्नतर में संघर्ष की स्थिति समाप्त हो जाती है, वह मधु विद्या है और मधु विद्या की स्थिति ही रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव की स्थिति है । दधीचि ऋषि मधु विद्या के ज्ञाता हैं जो अश्विनी कुमारों को मधु विद्या का उपदेश देते हैं - रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव अर्थात् कण - कण में दिव्य रूप के दर्शन हो रहे हों , यही मधु अवस्था है । दधीचि ऋषि ने देवों के अस्त्रों के तेज को पीकर उन्हें अपनी अस्थियों में आत्मसात् कर लिया था। इस कथा का मूल स्रोत ऋग्वेद १.८४.१३ की सार्वत्रिक ऋचा है।
डा. फतहसिंह के शब्दों में अस्ति अर्थात् समाधि में केवल अस्तित्व मात्र । फिर समाधि से व्युत्थान पर भाति, भासता है। प्रह्लाद समाधि से व्युत्थान की कोई अवस्था हो सकती है। प्रह्लाद को भगवन्नाम स्मरण में बहुत रुचि थी । एक स्थिति ऐसी है जब रूप स्पष्ट नहीं हुआ है, एकरूप है । वह नाम की स्थिति है । दूसरी स्थिति में रूप प्रकट हुआ है।
पुराणों में मृ्त्यु पश्चात् गंगा में अस्थि प्रवाह का जो वर्णन है, वैदिक साहित्य में उसका रूप इस प्रकार है कि अस्थियां यज्ञ की समिधाएं हैं। यज्ञ में कुछ काष्ठ खण्डों पर आज्य/घृत का लेप करके उनके बीच में अग्नि प्रज्वलित की जाती है। इसी प्रकार अस्थि रूपी समिधाओं पर अस्थियों के अन्दर स्थित मज्जा रूपी आज्य का लेप करके इनके बीच अग्नि को प्रज्वलित करना है। यह अग्नि कौन सी है, इसके विषय में शतपथ ब्राह्मण का कथन है कि आत्मा ही अग्नि है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार प्राण जो अमृत है, वही अग्नि है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार मज्जा के लिए अग्नि प्राण है, अस्थि के लिए अग्नि अपान, स्नायु के लिए व्यान, मांस के लिए उदान और मेद के लिए समान है। अस्थि स्वयं में निर्जीव है, उसमें प्राण नहीं है। प्राणों द्वारा, अग्नि द्वारा अमेध्य अस्थि आदि को मेध्य बनाते हैं।
अतः ईश्वर को समझने से पूर्व भूत शब्द को समझना होगा। "अस्थि" = अस्थि शब्द अस्ति का द्योतक है। हरेक जीव की चेतना अस्थि/अस्ति है। - फतहसिंह। अस्थि और समाधि के संदर्भ को समझने में शतपथ ब्राह्मण १०.४.१.१७ का उल्लेख सहायक होगा। इसके अनुसार लोम, त्वक्, असृक्, मेद, मांस, स्नायु, अस्थि और मज्जा यह सब २-२ अक्षरों वाले हैं। इन्हें मिलाकर १६ कलाएं बनती हैं। इनमें विचरने वाला प्राण प्रजापति कहलाता है जो १७वां है। यह १६ कलाएं प्राण प्रजापति के लिए अन्न का आहरण करती हैं। वैदिक साहित्य में अस्थियों का अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी, दोनों अवस्थाओं से सम्बन्ध जोडा गया है। अस्थियों को इष्टकाएं/ईंट कहा गया है जो इष्ट कामना की पूर्ति करती हैं।
यह याद रखते हुए, और यह समझते हुए कि सारा साकार जगत् ही उस ब्रह्म का रूप है, सामान्य जन को क्रमशः इस मूर्त-रूप की ओर ले जाना उचित ही है इसलिये मूर्ति-पूजा की आत्यंतिक निन्दा करना अनुचित है।
पुराणों में दक्ष यज्ञ की कथा में दक्ष को ईश्वर शिव की सत्ता का ज्ञान नहीं हो पाता, वह शिव की कल्पना घोर रूप में ही करता है । लेकिन दधीचि ऋषि को ईश्वर की सत्ता का ज्ञान है , वह दक्ष को समझाने का प्रयत्न करते हैं लेकिन असफल रहते हैं । शतपथ ब्राह्मण के आधार पर ऐसा अनुमान है कि दक्ष से तात्पर्य प्राणों की दक्षता प्राप्त करना है - श्वास के अंदर जाते हुए भी आनन्द की अनुभूति और बाहर आते हुए भी आनन्द की अनुभूति । समाधि से व्युत्थान पर पहले अहंकार स्थिति प्रकट होती है , फिर शब्द , स्पर्श , रूप , रस व गन्ध नामक पांच तन्मात्राओं की और उसके पश्चात् आकाश , वायु , अग्नि , जल व पृथिवी नामक पांच महाभूतों का प्राकट्य होता है । इन्हीं भूतों के प्रकट होने से मनुष्य में विभिन्न इन्द्रियों का विकास होता है ।
सन्त तुलसीदास जी भक्ति और ज्ञान के विषय में कहते हैं - ' ग्यानहिं प्रभुहिं बिसेसि पियारा।
भागितिहि ज्ञानहिं नहीं कछु भेदा।'
सगुनहिं अगुनहिं नहीं कछु भेदा। गावहिं मुनि पूरान बुध वेदा।
अगुन सगुन दुई ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा।।
सगुन और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है। जो निर्गुण ,अरूप(निराकार ),अलख (अव्यक्त )और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण 'श्रीरामकृष्ण' के रूप में प्रकट हो जाता है। जब परमात्मा अनन्त रूपाकारों में इस संसार की रचना कर सकता है तब क्या अपनी स्वयं की रूपाकृति नहीं गढ़ सकता ?
ईश्वर तो सर्व शक्ति मान है सब कारणों का कारण है किन्तु स्वयं उसका कोई कारण नहीं है।
इसलिए वह अपनी योगमाया से एक साथ एक ही समय पर अलग -अलग जगहों पर अलग- अलग नाम रूपों में हो सकता है।
और यदि हम कहें कि वह ऐसा नहीं कर सकता फिर हमें यह भी मानना पड़ेगा कि वह बाकी सब काम कर सकता है लेकिन अपनी रूपाकृति नहीं रच सकता यानी तब उसकी एक शक्ति कम हो जाएगी वह सर्वशक्तिमान नहीं रह जाएगा। लेकिन यदि हम ऐसा मानते ही हैं कि नहीं वह सर्वशक्तिमान तो है फिर यह भी मान लेना पड़ेगा वह स्वयं भी किसी रूप प्रगट हो सकता है। वह सब जगह मौजूद है सारी सृष्टि में व्यापक है। उसके इस सर्वव्यापकत्व को बनाए रखने के लिए उसका निर्गुण निराकार होना भी ज़रूरी है।
‘बृहदारण्यक’ उपनिषद् में वर्णन आता है कि बह्मविद् लोग संसार का पुनः निर्माण करते हैं। जीवात्मा भी इन दो स्वरूपों में प्रकट है। आत्मा निराकार है तथा गोचर शरीर भी धारण करता है एक नहीं अनेक बार। फिर परमात्मा तो सर्व-आत्माओं का प्रभु है, वह क्यों नहीं ऐसा कर सकता? इसीलिए वेद परमात्मा के दोनों स्वरूपों की पुष्टि करते हैं। दोनों सत्य हैं। जगत भी सत्य, ब्रह्म भी सत्य। जगत है ब्रह्म की देह, ब्रह्म है जगत का प्राण। दोनों साथ-साथ हैं। और दोनों हैं, इसलिए जीवन अति सुंदर है! फलतः निष्काम भाव से किया हुआ कार्य न तो आत्मा को बाँधता है न ही उसे मलिन करता है। जब तक उस ब्रह्माण्डीय प्रक्रिया की समाप्ति नहीं हो जाती तब तक जीवन-मुक्त पुरुष भी विश्वात्मा के लिए कार्य करते रहते हैं। ऐसी स्थिति में जब कर्म का क्षेत्र भी यह दृश्यमान जगत है, तो उसको मिथ्या मानकर चलना अविवेकपूर्ण है। ब्रह्म सत्य तो है किन्तु उस सत्य तक पहुँचने के लिए जगत को भी सत्य मानकर चलना होगा। निष्काम भाव से कर्म करते हुए तभी परम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।
यदि जगत अथवा सृष्टि से ज्ञान निकल जाए तो पदार्थ बिना आधार का हो जाएगा और सृष्टि तत्काल नष्ट हो जायेगी। इसलिये भविष्य का मनुष्य वैज्ञानिक और धार्मिक साथ-साथ होगा। अर्थात जो धार्मिक होगा (या श्रीरामकृष्ण का भक्त होगा) वह साथ ही साथ वैज्ञानिक (ऋषि या पैग़म्बर) भी होगा। "हरि ॐ" शब्द रूप दोनों स्वरूपों की स्मृति है "हरि" (श्रीरामकृष्ण) सगुन रूप विष्णु हैं तो "ॐ" निराकार ब्रह्म हैं।
यह अभेदतत्व अभी तक केवल वेदान्त-शास्त्रों के पन्नों में निबद्ध था. श्रीरामकृष्ण ने स्व-अनुभूत आचरण के द्वारा - शास्त्रोक्त सत्यतत्व को ' तथ्य ' में परिणत कर दिखाया था. काली-महाराज के सत्यार्थी मन ने वेदान्त के जिस सारतत्व का अन्वेषण किया था, श्रीरामकृष्ण ने उसे दिव्य-दृष्टि की सहायता से उन्मोचित कर दिया था. पवित्र-सानिध्य प्रदान कर परम-प्राप्ति को वास्तविकता में परिणत कर दिया था.
श्रीरामकृष्ण स्वयं अद्वैत-वेदान्ती थे, वे कहते थे-' अद्वैतज्ञान को आँचल में बाँध कर जो चाहो करो, तुम्हें कोई दोष नहीं लगेगा. ' इसीलिए वे काली-वेदान्ती के अद्वैत साधना का असमर्थन नहीं कर सकते थे. परन्तु यदि कोई जानना चाहता तो उसको, वे तत्व और तथ्य (सिद्धान्त और व्यव्हार दोनों ) की सहायता से प्रमाणित कर कर के दिखला देते थे.
इसीलिए वेदान्त के जो तात्विक-सिद्धान्त हजारों वर्ष पूर्व,उपनिषद-कारों के ध्यान-नेत्र या ऋषि-दृष्टि के सामने उद्भाषित हो उठे थे, आज वही तत्व श्रीरामकृष्ण के जीवन से प्रमाणित हो रहे थे, एवं काली-
महाराज ने स्वयम अपने आँखों से परख कर देख लिया था. उनकी अद्वैत-वेदान्त की साधना सार्थक हो गयी थी; और उसके साथ ही साथ गुरुभाइयों द्वारा दिया गया - ' काली-वेदान्ती ' नाम का सही मुल्यांकन भी हो गया था.
कालीमहाराज तपस्वी थे, वे बहुत कठोर तप करते थे. इसीलिए बड़ानगर मठ में उनका एक अलग कमरा था. उस कमरे को ' काली- तपस्वी ' का कमरा कहा जाता था. फिर वे वेदान्त की भी गहराई (नsआसीत, नsअस्ति, नsभविष्यति ) में भी प्रवेश कर जाते थे, वेदान्त-चर्चा करने में बड़े पारंगत थे, इसीलिए कोई कोई उनको ' काली-वेदान्ती ' भी कहा करते थे.
एकदिन अमेरिका के एक हाल में ' मनःसंयोग ' के विषय पर अभेदानन्दजी का व्याख्यान चल रहा था. श्रोतागण पुरे मनोयोग के साथ ' मनसंयम ' के उपर अभेदानन्दजी के व्याख्यान को सुनने में निमग्न थे. उन्ही श्रोताओं में से एक विख्यात दार्शनिक ने दूसरे दिन महाराज को कहा था- ' आपका मनःसंयोग के ऊपर दिया गया व्याख्यान सार्थक सिद्ध हुआ है. क्योंकि आप जब हमलोगों का मनसंयोग विषय पर क्लास ले रहे थे, उसी समय निकट के रस्ते से बैंड बजाते हुए एक शोभायात्रा निकली थी, किन्तु हममें से किसी को उसका पता नहीं चला. ' अभेदानन्दजी भी व्याख्यान देने में इतने तल्लीन थे कि, उनको भी इसका पता न चल सका था, इसीलिए उन्होंने पूछा- ' ऐसा क्या ?'
उन्होंने कहा- ' हाँ, व्याख्यान चलते समय एक शोभायात्रा हाल के बिलकुल निकट से होकर गुजरी थी. किन्तु हममें से किसी को इसका पता नहीं चला. इस से यह सिद्ध होता है कि आपका ' मनः संयोग ' के विषय में दिया गया व्याख्यान हमलोगों के लिए सार्थक हो गया है, क्योंकि आपके ' मनःसंयोग ' - क्लास में हम सभी लोग इतनी तल्लीनता से सुन रहे थे, कि हमारा मन उसके भावों में बहते हुए एक दूसरे ही लोक में पहुँच गया था.'
स्वामी अभेदानन्दजी एक ही आधार में वक्ता, दार्शनिक, लेखक एवं मनोवैज्ञानिक भी थे. वे एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे. उन्होंने पाश्चात्य देशों में विभिन्न विषयों पर जितने भी व्याख्यान दिए थे, वह आज पुस्तकों में लिपिबद्ध है. उदहारण के लिए, मृत्यु के पार, मृत्यू रहस्य, पुनर्जन्म-वाद, मनोविज्ञान और आत्मतत्व आदि कुछ प्रमुख पुस्तकों का नाम लिया जा सकता है. पश्चात्यवासी उनके प्रतिभा को देख कर मुग्ध हो गए थे.
अभेदानन्दजी के साथ पाश्चात्य देशों के विख्यात ज्ञानी-गुणि मनीषियों यथा- अध्यापक मैक्समुलर, पाल डायसन, विलियम जेम्स, जोसिया रयेस, राल्फ ओयलेंडो, लायनमैन, हडसन आदि के घनिष्ट सम्बन्ध था. यहाँ तक कि ग्रामोफोन के आविष्कारक टॉमस आलवा एडिसन के साथ भी उनकी गहरी मित्रता थी. उन्होंने उनको अपने द्वारा आविष्कृत प्रथम ग्रामोफोन उपहार में दिया था, जो रामकृष्ण वेदान्त मठ में आज भी चालू हालत में संरक्षित है.
स्वामी अभेदानान्दजी हावर्ट, कोलम्बिया, इयेल, कर्नेल, केम्ब्रिज, वर्कले, क्लार्क, कैलिफोर्निया आदि यूनिवर्सिटी में नियमित व्याख्यान दिया करते थे. इसके अतिरिक्त वे दर्शन और विज्ञान के सम्बन्ध में अमेरिका, कनाडा, अलास्का, मेक्सिको, तथा यूरोप के बड़े बड़े यूनिवर्सिटी में भी नियमित भाषण देते थे.
वे एक सफल प्रचारक थे. भारत के वेदान्त-दर्शन को उन्होंने ही विश्व के समक्ष उजागर किया था. वेदान्त प्रचार करने के लिए १७ बार आटलनटिक महासगर को पार किया है. अमेरिका में उनके द्वारा दिए गए व्याख्यान- ' India and her people ' ने सभी का ध्यान आकर्षित कर लिया था. इस व्याख्यान का बंगला अनुवाद ' भारत और उसकी संस्कृति ' के नाम से बंगला में छपा था; उस समय यह पुस्तिका भारतप्राण व्यक्तियों की पाठ्यवस्तु बन गयी थी. इसीलिए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इस पुस्तिका पर प्रतिबन्ध लगा दिया था. उनका कहना था कि यह पुस्तक स्वाधीन चेता भारतियों को स्वाधीनता संग्राम के लिए उद्बुद्ध कर रहा था.
स्वामी अभेदानान्दजी अमेरिका पच्चीस वर्षों तक रहने के दौरान १९०९ ई० में छ' महीनों के लिए भारतवर्ष आये थे. भारत आकर स्वाधीनता-संग्रामियों को उद्दीप्त किये थे. इसके बाद वे पुनः अमेरिका लौट गए एवं दीर्घ २५ वर्षों तक अमेरिका में भारतीय-दर्शन एवं वेदान्त का प्रचार किये थे. १९२१ ई० में वे भारत लौट आये थे. वापस लौटते समय चीन, जापान, फिलिपाईन्स, सिंगापूर, कोयलालमपूर, रंगून आदि देशों में भी उन्होंने भारत के वेदान्त को वहाँ की जनता के समक्ष उजागर किया था.
१९२२ ई० में वे रामकृष्ण मठ एवं मिशन के उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए, उसके बाद भारत के प्राण-केन्द्र कोलकाता में भी वेदान्त-प्रचार करने के लिए एक अस्थायी ' वेदान्त समिति ' गठित किये. इस समय भी उनके पास भारत के महान महान व्यक्ति आया करते थे. भिन्न भिन्न समय पर सर सी. भी. रमन, महात्मा गाँधी, चितरंजन दास, सुभाषचन्द्र बोस, जैसे महापुरुष-गण उनके निकट सानिध्य में आये थे एवं उनकी ज्ञान-गर्भित वार्ताओं को सुन कर मुग्ध हुए थे.
१९२१ ई० में भारत लौट आने के बाद २५ दिसम्बर को कोलकाता में उनके लिए विशेष अभ्यर्थना और अभिनन्दन सभा आयोजित की गयी थी. परिव्राजक स्वामी अभेदानन्दजी १९२२ ई० में पुनः तिब्बत और काश्मीर का पर्यटन करने निकल पड़े. वहाँ से बौद्ध-दर्शन एवं तिब्बतीय सामाजिक-तत्वों के सम्बन्ध में बहुत से तथ्यों का संग्रह किये थे.
तत्पश्चात १९२३ ई० में ' वेदान्त समिति ' को स्थापित किये एवं दार्जलिंग में ' रामकृष्ण वेदान्त आश्रम' की स्थापना १९२५ ई० में किये. स्वामी अभेदानन्दजी ने १९२७ ई० में मासिक मुखपत्र के रूप में 'विश्व-वाणी ' पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया; एवं १४ मार्च १९३१ को ' रामकृष्ण वेदान्त मठ ' की स्थापना की थी. एवं १९३१ ई० के मार्च महीने में ही आयोजित श्रीरामकृष्ण के शतवार्षिकी ( सौवाँ जन्मोत्सव ) महासभा की अध्यक्षता स्वामी अभेदानन्द जी ने ही की थी. किसी विशाल समारोह में दिया गया, यही उनके जीवन का आखरी व्याख्यान था.
८ सितम्बर १९३९ को विश्वविजयी वेदान्तिक भारत माता की कीर्ति को दुनिया भर में प्रचारित करने वाले इस योग्य भारत-सन्तान ने महासमाधि प्राप्त की. उनकी अन्तिम इच्छा के अनुसार ' काशीपुर-महाश्मशान ' में उनके गुरुदेव श्रीरामकृष्ण की समाधी के निकट ही उनको भी भष्मीभूत करके समाहित कर दिया गया.
देवी सरस्वति
(माँ सारदा) किसी धर्म, जाती, सम्प्रदाय की नहीं, बल्कि ज्ञान, बुद्धि,
विवेक की देवी हैं। वे डैकत अमजद की माँ हैं, तो स्वामी सरदानन्द की भी
माँ हैं। लोक व्यवहार में सरस्वती को शिक्षा की देवी माना गया है । शिक्षा
संस्थाओं में वसंत पंचमी को सरस्वती का जन्म दिन समारोह पूर्वक मनाया जाता
है । पशु को मनुष्य बनाने का -- अंधे को नेत्र मिलने का श्रेय शिक्षा को
दिया जाता है । मनन से मनुष्य बनता है । मनन बुद्धि का विषय है । भौतिक
प्रगति का श्रेय बुद्धि- वर्चस् को दिया जाना और उसे सरस्वती का अनुग्रह
माना जाना उचित भी है।
मेधा
से ही हमारे जीवन में विनम्रता और सौम्यता आती है। हम जीवन की सच्चाईयों
को समझ सकते हैं। मेधा संपन्न व्यक्ति ही दोषों का प्रक्षालन कर सकता है,
दोषों पर दृष्टिपात कर सकता है, अपने दोषों को स्वीकार कर सकता है और
भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति से बच सकता है। ये सारे गुण सिंह की भांति
चलते-2 भी पीछे को देखने की (सिंहावलोकन) प्रवृत्ति को बताते हैं। ऐसे गुण
सच्चे तीर्थ स्नानी प्रभु प्रेमी और दिव्य मेधा संपन्न व्यक्ति में ही
मिलते हैं।
सरस्वती
विद्या की देवी है, वह वीणा वादिनी है। विद्या हृदयस्थ की जाती है। हमारा
शरीर एक वाद्ययंत्र है। जब इसमें वीणावादिनी सरस्वती विद्या की देवी हमारे
ह्रदय में विराजमान हो जाती है, तो शरीर का रोम रोम आलोकित हो उठता है। जब
हम किसी संकट में फंसे तो हमें आत्मनिरीक्षण करना चाहिये कि मेरा दोष क्या
था, जो ये संकट आया ? सच्चे हृदय से विद्या की देवी सरस्वती के हृदय मंदिर
में दोषों की स्वीकाराक्ति करने से हम प्रभु कृपा के पात्र बन जाते हैं।
वही पवित्र अवस्था ही सरस्वती स्नान कहलाता है।
योगानुसार जब हमारा स्वांस दोनो
नासिकाओं से सम रूप में प्रवाहित होता है तो वह एक तीसरी नाड़ी सुषुमना
यानी सरस्वती से होकर प्रवाहित होने लगता है. अर्थात इडा, पिंगला और सुषुम्ना ये तीन नाडिय़ां ही गंगा यमुना सरस्वती इन
नामों से जानी जाती है। मनुष्य के शरीर में 72 हजार नाडिय़ां हैं, इनमें
इडा पिंगला और सुषुम्ना तीन महत्वपूर्ण हैं। योगी मन को एकाग्र करने के (Concentration) अभ्यास के माध्यम से इनमें स्नान करता
है पर जब अभ्यास बढ़ जाता है तो शनै शनै सुषुम्णा जागृत होने लगती है और
हमारा शरीर नीरोगता का अनुभव करता है। यही वास्तविक सरस्वती नदी है जो
अदृश्य रहती है पर जब योगी इसके दर्शन कर लेता है-ज्ञान गंगा में डुबकी
लगाने का अभ्यासी हो जाता है तो उसका जीवन ही धन्य हो उठता है। इसी को अन्तःसलिला कहा गया है। यही वह सरिता है जो हमारे जीवन को उन्नत शील और
ऊध्र्वगामी बनाती है।
इडा गंगेति विज्ञेया पिंगला यमुना नदी।
मध्ये सरस्वती विद्यात्प्रयागादि समस्तया।। (शिवस्व 374)
अगर आप प्रयाग गये होंगे तो अपने देखा होगा कि वहाँ
पर गंगा और जमुना नदियों का मिलन होता है. पुराणों मे लिखा है कि यहाँ पर
तीन नदियाँ आकर मिलती हैं- गंगा, जमुना और सरस्वती! गंगा और जमुना का
प्रवाह तो दिखाई देता है मगर सरस्वती दिखाई नही देती वह अदृश्य है। दरअसल
सरस्वती न तो वहाँ पर है और न ही कभी वहाँ रही है। यह सिर्फ़ एक रहस्य को
प्रतीक रूप में कहने का ढंग है।
योग कहता है कि हमारे मूलाधार चक्र से
दो नाडियाँ ईडा और पिंग्ला या गंगा और जमुना हमारे मेरुदण्ड को
क्रिस-क्रॉस करती हुई उपर की तरफ आती हैं. हमारी बाईं नासिका गंगा नाड़ी
से और दाईं नासिका जमुना नाड़ी से जुड़ी हैं. इन दोनो नाडिओं गंगा और
जमुना का मिलन हमारी त्रिकुटी, जिसे त्रिवेणी भी कहा जाता है और जिस
स्थान पर हिंदू टीका लगाते है, पर होता है। शास्त्रों में इनका मूल नाम श्री और श्री पंचमी है। श्वेत हंस, वीणा, अक्षमालिका और पुस्तक इनके प्रतीक हैं। लेखनी और ग्रंथ में
सरस्वती का निवास होता है। इनकी स्तुति और ध्यान करने के लिए श्लोक विख्यात
हैं-
या कुन्देन्दु तुषार हार धवला या शुभ्रवस्त्रावृता या वीणा
वरदण्डमण्डित करा या श्वेत पद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकर
प्रभृत्तिाभिर्देवै: सदा वन्दिता सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेष
जाड्यापहा।।
शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्या जगदव्यापिनी। वीणापुस्तक
धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फटिक मालिकां विदधतीं पद्मासने
संस्थितां वन्दे तां परमेश्वरी भगवतीं बुद्धिप्रदांशारदाम।।
ऋग्वेद काल से ही देवी के रूप में सरस्वती को मान्यता मिल गयी थी। ज्ञान, विद्या और कला की देवी सरस्वती की
अर्चना कवि कालिदास ने वाक् और अर्थ को समाहित करते हुए की है- वागर्थाविव
सम्पृक्तौ वागर्थप्रति प्रत्तये। जगत: पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ। देवी सरस्वती की प्रसिद्ध 'द्वादश
नामावली' का पाठ करने पर भगवती प्रसन्न होती हैं-
प्रथमं भारती नाम द्वितीयं
च सरस्वती।
तृतीयं सारदा देवी चतुर्थ हंस वाहिनी।।
पञ्चमं जगतीख्याता षष्ठं
वागीश्वरी तथा
सप्तमं कुमुदी प्रोक्ता अष्टमें ब्रह्मचारिणी।
नवमं
बुद्धिदात्री च दशमं वरदायिनी।
एकादशं चन्द्रकान्ति द्वादशं भुवनेश्वरी।
कालांतर
में ब्राह्मण ग्रंथों (शतपथ ब्राह्मण तथा ऐतरेय ब्राह्मण) में इस
रूप का और अधिक विकास हुआ। शतपथ ब्राह्मण में स्पष्ट रूप से
कहा गया- 'वाक वै सरस्वती'।शायद बहुत कम लोगों को यह ज्ञात है कि
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने कलकत्ता कॉलेज में इस बात के लिए धरना दिया था
कि छात्रों को सरस्वती पूजा का अधिकार मिलना ही चाहिए । इस
धरने में विभिन्न जातियों एवं पंथों के छात्रों ने धरने में भाग लिया था ।
स्वामी
विवेकानन्द ने मद्रास के अपने एक शिष्य आलासिंगा पेरुमल को शिकागो से धर्म
संसद के समक्ष भाषण देने के संबंध में २ नवम्बर १८९३ को एक पत्र लिखा था।
जिसमें वे लिखते हैं -" कल्पना करो नीचे एक बड़ा हॉल और उपर एक बहुत बड़ी
गैलरी, दोनों में छः सात हजार आदमी खचाखच भरे हैं जो इस देश के चुने हुए
सुसंस्कृत स्त्री-पुरुष हैं, तथा मंच पर विश्व के सभी जातियों के बड़े बड़े
विद्वान् एक ही पंक्ति में बैठाये गये हैं। और मुझे, जिसने अब तक कभी समाज
में भाषण नहीं दिया इस विराट जनसमुदाय में भाषण देना होगा !! … निःसन्देह
मेरा ह्रदय धड़क रहा था और जबान सूख रही थी। मैं इतना घबड़ाया हुआ था कि
सबेरे बोलने की हिम्मत न हुई। मजूमदार की वक्तृता सुन्दर रही। चक्रवर्ती की
तो उससे भी सुन्दर। दोनों के भाषणों में खूब करतल-ध्वनि हुई। वे सब अपने
भाषण तैयार करके आये थे। मैं अबोध था और बिना किसी प्रकार की तैयारी के था।
डॉ. बैरोज ने मेरा नाम पुकारा और परिचय कराया - मैंने पहले देवी सरस्वती को नमन किया और उसके पश्चात् बोलने के लिए मंच पर चढ़ गया।" उपनिषद काल में तो मुख्यत: सरस्वती पर ही एक उपनिषद की भी रचना कर दी गयी- " सरस्वती-रहस्य उपनिषद्" (कृष्ण यजुर्वेद, शाक्त उपिनषद्)
नमस्ते सारदे देवि कोआलपारावासिनी।
त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे ॥१॥
माँ सारदा देवि को नमस्कार, जो अपने कोआलपारा के बैठकखाने
में अपनी सन्तानों को समस्त विद्याओं का सार," द्रष्टा-दृश्य विवेक " देने
के लिये विद्द्यमान् रहती हैं । उनकी मैं सदैव प्रार्थना किया करता हूं -
वे मुझको 'योग्य ज्ञान' का दान अर्पित करें ।
Bowing to Thee, Sarada ! Dweller in Koalpara-’s city office, Thee I petition for ever – Grant me the gift of right knowledge (दृग्दृश्यविवेकःThe seer seen discrimination.)!
या वेदान्तार्थतत्त्वैकस्वरूपा परमार्थतः ।नामरूपात्मना व्यक्ता सा मां पातु सरस्वति ॥२ ॥
जिनका स्वभाव वेदान्त का सार है, जो परम शक्ति हैं, जो नाम और रूप में प्रकट हुई हैं
– वो सरस्वति (माँ सारदा) मेरी रक्षा करें ॥
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विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम्
' विवेकानन्द - वचनामृत '
१८.
ब्रह्म सत्यं जगत सूक्तं ब्रह्मयं सनातनम् ।
द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे बृहदारण्यकं जगौ ॥
1. Brahman alone is real and it has been well been said that the world, which is also eternal, is nothing but Brahman.
2. Brahman has two states of existence, said the Brihadaranyaka Upanishad (2.3.1)
1.
Brahman alone is real…अर्थात एक मात्र ब्रह्म ही सत्य है। किन्तु इसके
साथ साथ यह भी बड़े सुन्दर ढंग से कहा गया है कि चूँकि प्रवाह रूप में यह
जगत भी शाश्वत है, इसीलिये निश्चित रूप से यह जगत भी ब्रह्म ही है।
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:।।
'ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है' तथा जीव ब्रह्म ही है, कोई अन्य नहीं। भगवत्पाद जगद्गुरू शंकराचार्य का यह कथन उनका अपना अनुभव है। उन्होंने
समाधी की उच्चतम अवस्था में इस सत्य को अनुभूत किया था। दार्शनिक दृष्टि से यह श्लोक अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें अद्वैत दर्शन
का प्रतिपादन सूत्र के रूप में किया गया है। यहां मिथ्या शब्द असत् से भिन्न है। इन दृश्यमान जगत में सत्य
क्या है, मिथ्या क्या है तथा जीव और ब्रह्म में परस्पर संबंध है- इन
महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर है इसमें।
किन्तु हमारे भौतिकविदों (physicists) को अपने चर्म-चक्षुओं के द्वारा या टेलिस्कोप से भी वह ब्रह्म कहीं पर दिखता नहीं है, उन्हें केवल जगत ही जगत
दिखता है;इसीलिये पश्चिम के लोगों ने कहा कि ब्रह्म मिथ्या, जगत सत्य। वे उपरोक्त सूत्र को ही उल्टा- 'जगत सत्यम् ब्रम्ह
मिथ्या' समझते हैं। और जगत को सत्य मानकर उन्होंने कुछ भौतिक विज्ञान
के सूत्रों का आविष्कार किया जिससे मनुष्य का भौतिक जीवन तो समृद्ध बन गया। विज्ञान तो खूब फला; लेकिन ध्यान खो गया। धन का अंबार
लग गया; लेकिन भीतर आदमी बिलकुल दरिद्र हो गया।
आज के भौतिक विज्ञानी भी कह रहे हैं कि पदार्थ (Matter) का
कोई अस्तित्व नहीं है, यह घनीभुत उर्जा (Energy) ही है जो अपनी आवृतियों द्वारा
पदार्थ के रूप में व्यक्त हो रही है। किस अणु में कितने इलेक्ट्रोन हैं वे
तय करते हैं कि पदार्थ का बाह्य रूप क्या हो। अंततः ऊर्जा भी एक विचार
मात्र है--- सृष्टिकर्ता के मन की इच्छा या संकल्प। यह बात
वैज्ञानिक दृष्टी से तो सत्य है पर जो इसे नहीं समझता उसके लिए असत्य। आज
के वैज्ञानिक जिस सत्य को अपनी प्रयोगशालाओं में सिद्ध करना चाह रहे हैं, उसी सत्य को
भारतीय ऋषियों ने समाधी की अवस्था में हजारों वर्ष पहले अपनी अनुभूति के द्वारा जान लिया था। इस सत्य को आचार्य जगद्गुरू
शंकराचार्य ने चेतना के जिस स्तर को उपलब्ध होकर कहा, उसे हम भी चेतना के उस
स्तर पर जाकर ही समझ सकते हैं। बुद्धि द्वारा किसी निर्णय पर नहीं पहुँच
सकते।
कलि
का अर्थ हो सकता है काल के साथ क्षय को प्राप्त होने वाली स्थिति । अतः इस
स्थिति से बाहर निकलने का उपाय है अज स्थिति को प्राप्त होना । अज का
शाब्दिक अर्थ है कि जहां कोई जन्म न हो, जहां से कोई ऊर्जा बाहर भी न निकले
। आधुनिक विज्ञान में ऊर्जा को धारण करने के लिए केविटी बनाने का प्रयास
किया जाता है । यदि हम सूर्य की किरणों को संधारित करना चाहें तो हमें आमने
- सामने २ दर्पण लगाने होंगे ।
काल का अस्तित्व सूर्य, पृथिवी और चन्द्रमा
की परस्पर गतियों से है । यदि पृथिवी सूर्य की परिक्रमा न करे तो अकाल की
स्थिति होगी, काल से रहित। अध्यात्म में सूर्य, पृथिवी व चन्द्रमा का
रूपान्तर क्रमशः प्राण, वाक् व मन के रूप में किया जा सकता है । भौतिक जगत
में तो पृथिवी और सूर्य आदि के बीच स्वाभाविक आकर्षण है, लेकिन लगता है कि
अध्यात्म में इस आकर्षण को उत्पन्न करना पडेगा । भौतिक विज्ञान की दृष्टि
से २ प्रकार के कण होते हैं - एक तो वह जिनके बीच आकर्षण -
विकर्षण होता है । उन्हें फर्मी कण नाम दिया गया है । दूसरे वह होते हैं
जिनके बीज आकर्षण - विकर्षण नहीं होता । उन्हें बोस कण (हिग्स बोसॉन) नाम दिया गया है ।
ऊर्जा की कोई किरण किसी स्थूल कण से कितने अंशों में टकराएगी, यह उस कण की
प्रकृति पर निर्भर करता है । बाह्य जगत में सूर्य, पृथिवी व चन्द्रमा के
आपेक्षिक परिभ्रमण के आधार पर आन्तरिक सूर्य/प्राण, पृथिवी/वाक् और
चन्द्रमा/मन के परस्पर परिभ्रमण के आधार पर की गई है । यही वास्तविक यज्ञ
हो सकता है जब यह एक दूसरे से स्वतन्त्र परिभ्रमण न कर पाएं ।
रात को आप नींद में चले जाते हैं. नींद में दो तत्त्व रहते है नींद और नींद
का बोध करने वाला. यही सृष्टि का रहस्य है. इसे आप ज्ञान और अज्ञान समझ
लें. अब इस अज्ञान रुपी नींद के सीने से स्वप्न उदय होता है यह ही जगत है
जो असत है पर जो नींद और स्वप्न में जो एक सा था जिसे बोध कहते हैं वह सत
है. इन दोनों ज्ञान अज्ञान की एक स्थिति अव्यक्त ब्रह्म कही जाती है. इस
अज्ञान के साथ रहते हुए इसके गुणों से आकर्षित हुआ बोध इनकी कामना करने
लगता है और वह शुद्ध चैतन्य 'मैं' इस के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है और
अपने ब्रह्म स्वरुप को भूल जाता है और जीव कहलाता है. वह इस जगत से
आकर्षित हुआ अपनी आसक्ति में मस्त अपने शुद्ध स्वरुप को भूल जाता है. इस
जीव को चेताने के लिए शंकर कहते हैं 'ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या' !
शंकराचार्य के दर्शन पर जड़वादियों (materialist) ने तमाम सवाल उठाए गए कि संसार मिथ्या कैसे हो
सकता है ? तब शंकर ने अपने मायावाद के सिद्धांत से उनका जवाब दिया।
मायावाद के अनुसार, ब्रहम के अलावा जो कुछ भी है, वह माया या अविद्द्या है।
माया ब्रहम की ही शक्ति है, जो सत्य को ढक लेती है। उसकी जगह पर किसी दूसरी
चीज के होने का भ्रम पैदा कर देती है। यह जगत ब्रह्म का विवर्त है, परिणाम
नहीं। जैसे दूध का दही परिणाम बन जाता है, वैसे ब्रह्म यह जगत नहीं बना है। मसलन रस्सी से सांप का भ्रम हो जाता
है। माया ब्रहम की शक्ति तो है पर ब्रहम पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता। ठीक
जादूगर की तरह, जो अपनी कला से दर्शकों को भ्रमित तो कर सकता है पर खुद
भ्रमित नहीं होता।
क्योंकि
जिसने इसे अपने अनुभव से जाना है, उसके लिए यह 'ब्रह्म' सत्य है, और जो
सिर्फ बुद्धि से या पूर्वाग्रह से कह रहा है
उसके लिए वह सर्वसाक्षी ब्रह्म 'असत्य' है। उन्हें क्रमशः मूर्त से अमूर्त
की ओर ले जाना होगा, इसीलिये गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन् ॥गीता ३/२६ ॥
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन् ॥गीता ३/२६ ॥
विद्वान् = ज्ञानी पुरुष (को चाहिये कि) ; कर्मसग्डिनाम् = कर्मोंमें
आसक्तिवाले ; अज्ञानाम् = अज्ञानियोंकी ; बुद्धिभेदम् = बुद्धिमें भ्रम
अर्थात् कर्मोंमें अश्रद्धा ; न जनयेत् = उत्पन्न न करे (किन्तु स्वयं);
युक्त: = परमात्माके स्वरूपमें स्थित हुआ (और) ; सर्वकर्माणि = सब
कर्मोको ; समाचरन् = अच्छी प्रकार करता हुआ (उनसे भी वैसे ही) ; जोषयेत् =
करावे ;
परमात्मा स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिये कि वह कर्मफल में आसक्त
अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे
तथा स्वयं (अनासक्त होकर ) समस्त कर्मों को भलीभांति करता हुआ दूसरों को भी
वैसा ही करने की प्रेरणा दे।
माँ सारदा की कृपा प्राप्त, प्रतिभा संपन्न व्यक्ति की महत्ता उसके दो विरोधी विचारों और विरोधाभासों को संभालने की क्षमता में है; जैसे संसार में 'निरासक्त-आसक्ति' के साथ जी कर दिखाना ।
अधिकाँश व्यक्ति केवल तभी परिश्रमपूर्वक काम करते हैं ,जब उन्हें कर्मफल
के भोग या आर्ष ध्येय की प्राप्ति की प्रवर्तक शक्ति ऐसा करने की प्रेरणा
देती है। ऐसे व्यक्तियों को हतोत्साहित नहीं करना चाहिए, न उनकी भर्त्सना
करना ज़रूरी है।
संपत्ति के प्रति अत्यधिक आसक्ति दुःख कारण है, न कि स्वयं
संपत्ति दुःख का कारण बनती है। जिस प्रकार व्यक्ति के लिए पूजा ,प्रार्थना
आदि करने में पूर्ण एकाग्रता ज़रूरी है, उसी प्रकार व्यक्तियों के लिए
सांसारिक कर्तव्यों की पूर्ती में भी सम्पूर्णत:ध्यानावस्थित होना आवश्यक
है, पूरी तरह यह भी जानते हुए कि संसार और इसके क्रियाकलाप क्षणिक हैं,
संचारी हैं। सांसारिक कर्तव्यों की अवहेलना करके व्यक्ति को भगवान् के
ध्यान में रत नहीं रहना चाहिए। ध्यान के प्रति भी उतनी ही निष्ठा रखो
जितनी धनोपार्जन में। व्यक्ति को केवल एकतरफा (एक-पक्षीय) जीवन नहीं जीना चाहिए।
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।।३/२७ ।।
सर्वश: = संपूर्ण ; कर्माणि = कर्म ; प्रकृते: = प्रकृति के ; गुणै: = गुणोंद्वार ; कि्यमाणानि = किये हुए हैं (तो भी) ; अहंकारविमूढात्मा = अहंकारसे मोहित हुए अन्त:करणवाला पुरुष ; अहम् = मैं ; कर्ता = कर्ता हूं ; इति = ऐसे ; मन्यते = मान लेता है ;
वास्तव में सारे संसार के कार्य 'माता प्रकृति ' के गुणरुपी परमेश्वर की शक्ति के द्वारा किये जाते हैं, परन्तु
अज्ञानवश मनुष्य अपने आपको ही कर्ता समझ लेता है, और कर्मफल की आसक्ति रुपी
बन्धनों से बंध जता है। सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते
हैं तो भी जिसका अन्त:करण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं
कर्ता हूँ' ऐसा मानता है । हमीं कर्ता हैं ,हमीं भोक्ता हैं ,ऐसा विचार कर्म बंधन को जन्म देता है।
आत्मज्ञानी और साधारण व्यक्ति के द्वारा किया गया एक ही काम भिन्न भिन्न
परिणाम देता है। आत्मज्ञानी द्वारा किया गया कर्म आध्यात्मिक हो जाता है और
कर्मबंधन को जन्म नहीं देता है,क्योंकि आत्मज्ञानी स्वयं को कर्ता या
भोक्ता नहीं मानता। सामान्य -जन द्वारा किया गया काम कर्मबंधन को जन्म देता
है। वास्तव में ईश्वर सब कर्मों का कर्ता है। सब कुछ माँ जगदम्बा की इच्छा के अधीन है। व्यक्ति स्वयं की मृत्यु के प्रति भी स्वतन्त्र नहीं है। श्रीरामकृष्ण के गुरु तोतापुरी जी भी गंगाजी में डूबने लायक पानी नहीं पा सके थे। व्यक्ति तब तक प्रभुदर्शन
नहीं कर सकता, जब तक वह यह सोचता है कि मैं ही कर्ता हूँ। ईश्वर की कृपा से
उसे यदि यह अनुभूति हो जाती है कि वह कर्ता नहीं है ,तो वह जीवन मुक्त हो
जाता है।
'ब्रह्म सत्य है तथा जगत मिथ्या ' - यह सिद्धांत सत्य है, पर इस सिद्धांत को
समझने में प्रायः भ्रम हो जाता है। विषय वासनाओं के प्रति साधक के हृदय में
वैराग्य उत्पन्न करने के लिए प्रतिपादन हुआ था कि न कि उस जगत के
प्रति-जिसके द्वारा हमें जीवनोपयोगी संसाधनों की प्राप्ति होती है। ‘जगत
मिथ्या’ की मान्यता से कर्म से विरत होकर उस परम् सत्य की खोज ही
सम्भव नहीं है। जीवन का अस्तित्व कर्म पर ही टिका है। कर्म के बिना तो एक
क्षण भी नहीं रहा जा सकता है। जीवनमुक्त भी लोक कल्याण के लिए कार्य करते
हैं। संसार को माया मानकर कर्म को त्यागकर बैठना, एक प्रकार का पलायनवाद
है। इसे अपनाकर कोई भी पूर्णता का जीवन लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता।अभ्यास के लिए यह सत्य है किन्तु अभ्यास कि उपरान्त व्यावहारिक दृष्टि से
‘सर्व खल्विदं-ब्रह्म’ को ही उपयोगी मानना पड़ता है।
जब
तक मनुष्य वासनाओं, तृष्णाओं को सत्य मानकर चलता है तथा उसमें लिप्त
रहता है, वह ‘ब्रह्म सत्य है’ इस सिद्धांत की कल्पना भी नहीं कर सकता।
पंचेंद्रियों में फँसा हुआ जीव स्वभावतः द्वैतवादी होता है. जब तक हम पंचेंद्रियों में पड़े हैं, तबतक हम सगुण ईश्वर ही देख सकते हैं. परन्तु मनुष्य के जीवन में ऐसा भी समय आता है, जब शरीर-ज्ञान बिल्कुल चला जाता है, जब मन भी क्रमशः सूक्ष्मानुसूक्ष्म होता हुआ आत्मा में लीन हो जाता है (मन मर जाता है), जब देहाध्यास में डाल देने वाली भावना, मृत्यु का डर और दुर्बलता सभी मिट जाते हैं. तभी - केवल तभी उस प्राचीन महान उपदेश की सत्यता समझ में आती है. वह उपदेश क्या है?
मनुष्य तो 'परम शक्ति ' आदत-अभ्यास-प्रवृत्ति-चरित्र या 'चित्तवृत्ति' के हाथ की कठपुतली मात्र है । किन्तु इस चित्त-वृत्ति को बदलने का सामर्थ्य भी मनुष्य में है। कोई सामान्य युवा कम उम्र से ही 'विवेक-प्रयोग', 'चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया' तथा 'चरित्र के गुण' को
सीख कर मनुष्य पशु-मानव से देव-मानव में रूपान्तरित हो सकता है। वह
परमात्मा (ब्रह्म) जो सर्वव्याप्त सत्ता है, जो सृष्टि में अनुस्यूत है !
उसे मन और इन्द्रियों के माध्यम जाना ही नहीं जा सकता। उसको जानने के लिये
इसकी पूर्वशर्त (precondition) है- मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव (3H) 'शरीर-मन-ह्रदय' को योग्य शिक्षक (सच्चे नेता) के पथप्रदर्शन में प्रशिक्षित कर उस ब्रह्म वस्तु (अपने यथार्थ स्वरुप) का अनुभव करने योग्य बना लेना।
इसीलिये " अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल " विगत ४७ वर्षों से योग्य पथ-प्रदर्शकों ने निर्देशन में महर्षि पतंजली निर्देशित प्रशिक्षण-प्रणाली- 'अष्टांग-योग' पर आधारित ' चरित्र-निर्माणकारी युवा प्रशिक्षण शिविर' का आयोजन करता आ रहा है। शिविर-प्रशिक्षण एवं पाठचक्र के माध्यम से 'सत-
असत विवेक' के विषय में 'श्रवण-मनन-निदिध्यासन' करना
सीख कर युवाओं को स्वयं सत्यद्रष्टा ऋषि (पैग़म्बर या नेता) बनो और बनाओ -
'Be and Make' आन्दोलन से जुड़ने का अवसर मिलता है।
जो युवा जीवन-गठन या '3H-निर्माण पद्धति' में
प्रशिक्षित नहीं हुए हैं, वे इस ऋषियों के देश में जन्म लेकर भी, जीवन भर
पाश्चात्य जड़वादीयों के समान प्रत्यक्ष प्रमाण वादी होते हैं, उन्हें
वही सत्य
लगता है जो प्रत्यक्ष दिखाई दे, ब्रम्ह को ना देख पाने के कारण वे ब्रम्ह
को सत्य और जगत को मिथ्या कैसे मान सकते हैं ? अतः नहीं मानते।
और वह प्रशिक्षण पद्धति
जिसे स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस से सीखा था, वह
आधुनिक युग के अंग्रेजी-पद्धति में पढ़े लिखे युवाओं के लिये द्वारा
'राज-योग' पर अंग्रेजी में लिखित भाष्य के रूप उपलब्ध है। किन्तु बिना किसी
योग्य पथ-प्रदर्शक (नेता) के निर्देशन में उस योगसूत्र में वर्णित,
'यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधि' का करना खतरनाक हो
सकता है। '3H-निर्माण पद्धति' या चरित्र-निर्माण के लिये मन को
प्रशिक्षित करने का अभ्यास बिना योग्य पथप्रदर्शक के केवल पुस्तक पढ़ कर
करने से दिमाग बिगड़ भी सकता है। इसीलिये योग्य मार्गदर्शक या नेता के
निर्देशन में अष्टांग का अभ्यास करने के लिये महामण्डल का 'युवा
प्रशिक्षण-शिविर' एवं 'पाठचक्र' भारत के हर प्रान्त के प्रत्येक जिले में
आयोजित होना आवश्यक है।
अभी
१२५ करोड़ की आबादी वाले देश में अभी केवल ३१५ केन्द्रों में ही यह प्रशिक्षण
दिया जा रहा है, और उसमें भी अधिकांश केन्द्र पश्चिम बंगाल में है।
इसे सम्पूर्ण भारत में पहुंचा देना ही, आज के उन युवाओं के सामने जो अपने
देश से प्यार करते हों, सबसे बड़ी चुनौती है। और इस चुनौती को उठाने में
हमारे गुरुभाई स्वामी विवेकानन्द सहायता करने के लिये आज भी तत्पर हैं,
क्योंकि उन्होंने वादा किया है- "
हो सकता है कि एक पुराने वस्त्र को त्याग देने के सदृश, अपने शरीर से बाहर
निकल जाने को मैं अधिक व्यवहार्य (उपादेय viable) पाऊँ। लेकिन मैं काम
करना नहीं छोड़ूँगा। But I shall not cease to work! I shall
inspire men everywhere, जब तक सारी दुनिया यह न जान ले, मैं सब जगह लोगों
को यही प्रेरणा देता रहूँगा कि वह परमात्मा के साथ एक है।" १०/२१७
विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण कहते थे- " जो मनुष्य सर्वदा ईश्वर-चिन्तन करता है, वही जान सकता है कि उनका स्वरूप क्या है। वही मनुष्य जानता है कि वे अनेकानेक रूपों में दर्शन देते हैं, अनेक भावों में दीख पड़ते हैं- वे सगुण हैं और निर्गुण भी। दूसरे लोग केवल वादविवाद करके कष्ट उठाते हैं। कबीर कहते थे;- ‘ निराकार मेरा पिता है और साकार मेरी माँ। ’
एक वृक्ष पर एक गिरगिट था। एक व्यक्ति ने देखा हरा, दूसरे ने देखा काला, और तीसरे ने पीला, इस प्रकार अलग-अलग व्यक्ति अलग अलग रंग देख गए। बाद में वे आपस में विवाद कर रहे हैं। एक कहता है, वह जन्तु हरे रंग का है। दूसरा कहता है, नहीं लाल रंग का, कोई कहता है पीला, और इस प्रकार आपस में सब झगड़ रहे हैं। उस समय वृक्ष के नीचे एक व्यक्ति बैठा था, सब मिलकर उसके पास गए। उसने कहा, ‘‘मैं इस वृक्ष के नीचे रात दिन रहता हूँ, मैं जानता हूँ, यह बहुरुपिया है। क्षण क्षण में रंग बदलता है, और फिर कभी इसके कोई रंग नहीं रहता। "
स्वामीजी एक ओर जहाँ आचार्य शंकर के अद्वैतवाद के प्रवक्ता हैं, उपनिषदों के ऊपर उनकी अटूट श्रद्धा है; वहीँ दूसरी ओर वे श्रीरामकृष्ण को अवतारवरिष्ठ भी कहते हैं। स्वामी विवेकानन्द अद्वैतवादी थे या भक्त ? जैसे भगवान शंकर श्री रामचन्द्र के सबसे बड़े भक्त हैं, वैसे ही श्री रामकृष्ण के सबसे बड़े भक्त स्वामी विवेकानन्द हैं। क्योंकि उन्होंने श्रीरामकृष्ण को बहुत निकट से देखा था। तो फिर स्वामी विवेकानन्द अमेरिका जाकर अद्वैत के प्रवक्ता क्यों बने?
अगर
आप लोग कहें कि स्वामी विवेकानन्द गलत रहे होंगे। न न, वे स्वयं भगवान
शंकर के अवतार
हैं। यदि हम स्वयं को सचमुच स्वामी विवेकानन्द के गुरुभाई समझते हैं, तो हमें ऐसा
सोचना भी नहीं चाहिये। उस समय स्वयं श्रीरामकृष्ण ने कह रखा था- मुझे
प्रकट न करना संसार में छुपा कर रखना। मेरा दूसरा रूप जो है ब्रह्म वाला,
निराकार वाला उसको प्रकट करना। मेरा सगुण साकार रूप प्रकट न करना।
श्रीरामकृष्ण के आदेश को स्वामी जी
ने पालन किया। क्योंकि श्रीरामकृष्ण के सबसे बडे़ भक्त हैं स्वामी
विवेकानन्द जी। ठाकुर ने स्वामी जी को वैसा आदेश क्यों दिया होगा इसका
उत्तर बृहदारण्यक उपनिषद के निम्न श्लोक में प्राप्त होता है -
द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे - मूर्तं चैवामूर्तं च ।
मर्त्यं चामृतं च । स्थितं च यच्च । सच्च त्यच्च ।।
बृहदारण्यक उपनिषद (२.३.१)
- अर्थात ब्रह्म दो रूपों वाला है, वह एक साथ मूर्त भी है और अमूर्त भी; स्थूल भी है और सूक्ष्म भी, नश्वर भी है और अविनाशी भी, ससीम और असीम भी, परिभाषित भी है और अपरिभाषित (defined and undefined) भी ।
सभी सत्यद्रष्टा ऋषियों का कहना है कि ' ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या' पूर्ण ब्रह्म या ईश्वर- निराकार हैं। वह अपरिवर्तनशील परम-तत्व न स्थूल है और न सूक्ष्म है। किन्तु यहाँ, वृहदारण्यक (२.३.१) में ब्रह्म को जो दो स्वविरोधी रूपों वाला - स्थूल और सूक्ष्म बतलाया जा रहा है, वे प्राण (Energy) के ही भौतिक रूप (material form) हैं। प्राण-शक्ति ही भौतिक
गुणों या विशेषताओं (material attributes) को धारण किया हुआ नाम-रूपात्मक
जगत बन गया है। क्योंकि जड़ को ही हम भ्रमवश ईश्वर की इच्छा
(will of the Divine) का प्रतिनिधित्व करने वाला समझ बैठते हैं। नतीजतन ब्रह्म के लिये प्रयुक्त शेष समस्त विशेषण भी, प्राण (जीवनी शक्ति) के भीतर रहने वाली सृजन की इच्छा के लिये प्रयुक्त हुए हैं।
आइन्स्टाइन ने एक बार कहा था - आकाश और काल (time and space) में कोई कण एक समय पर एक ही जगह अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवा सकता है। वह एक समय में एक ही जगह पर हो सकता है, एक साथ दो जगह नहीं हो सकता या तो वह यहाँ है या फिर वहां। स्टीवन हाकिंग्स ने कहा था -यदि कोई ईश्वर है तो वह कार्य -कारण सम्बन्ध से मुक्त नहीं हो सकता।
किन्तु जब हमलोग ईश्वर को सर्वशक्तिमान, सब कारणों का कारण, और स्वयंम उसका कोई कारण नहीं है- कहते हैं। तो वे अपनी योगमाया से एक साथ एक ही समय पर अलग -अलग जगहों पर अलग- अलग नाम रूपों में क्यों नहीं हो सकते ?
और यदि हम कहें कि वह ऐसा नहीं कर सकता फिर हमें यह भी मानना पड़ेगा कि वह
बाकी सब काम कर सकता है लेकिन अपनी रूपाकृति नहीं रच सकता। यानी तब उसकी
एक शक्ति कम हो जाएगी वह सर्वशक्तिमान नहीं रह जाएगा। लेकिन यदि हम ऐसा
मानते ही हैं कि नहीं वह सर्वशक्तिमान तो है फिर यह भी मान लेना पड़ेगा वह
स्वयं भी किसी रूप प्रगट हो सकता है। वह सब जगह मौजूद है सारी सृष्टि में
व्यापक है। उसके इस सर्वव्यापकत्व को बनाए रखने के लिए उसका निर्गुण
निराकार होना भी ज़रूरी है। आइन्स्टाइन ने एक बार कहा था - आकाश और काल (time and space) में कोई कण एक समय पर एक ही जगह अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवा सकता है। वह एक समय में एक ही जगह पर हो सकता है, एक साथ दो जगह नहीं हो सकता या तो वह यहाँ है या फिर वहां। स्टीवन हाकिंग्स ने कहा था -यदि कोई ईश्वर है तो वह कार्य -कारण सम्बन्ध से मुक्त नहीं हो सकता।
भारतवर्ष एक शाश्वत सनातन धर्म का देश है. आध्यात्मिकता उसकी अमूल्य सम्पत्ति है. स्वामी विवेकानन्द ने भारत के इस आध्यात्मिक-सम्पदा को वहन करके विश्व-सभा (रंगमंच) तक पहुंचा दिया था। एवं उनके गुरुभाई स्वामी अभेदानन्द जी ने उसको द्वार द्वार तक पहुंचा दिया था. पाश्चात्य देशों के शिक्षित एवं तर्कशील मनुष्यों के बीच वेदान्त का प्रचार करना कोई आसन कार्य नहीं था. क्योंकि वे लोग अकस्मात् प्रज्वलित वैज्ञानिक-प्रकाश के आलोक में आलोकित थे. इसलिए वैसे लोगों के द्वारा प्राचीन भारतीय- दर्शन एवं वेदान्त प्रचार के एक नवीन भावधारा को ग्रहण कर लेना जितना आश्चर्य जनक था, ठीक उसी प्रकार इस प्रचार कार्य में सफलता प्राप्त करना भी कम आश्चर्य जनक नहीं था. स्वामी अभेदानन्दजी के प्रचार-साफल्य से अभिभूत हो कर एक बार स्वामी प्रेमानन्दजी ने स्वामीजी से बहुत आग्रह पूर्वक कहा था कि, - " कोलकाता में वेदान्त की शिक्षा प्रदान करने के लिए, काली-भाई (अभेदानन्द ) को उस देश (अमेरिका) से यहाँ बुलवा लो। क्योंकि काली-भाई ही यहाँ के शिक्षित लोगों को वेदान्त समझाने में समर्थ व्यक्ति है।
उसके उत्तर में स्वामीजी ने कहा था- " काली को यहाँ बुला लूँगा तो जानते हो क्या होगा ?- वह क्षेत्र (पाश्चात्य जगत) बिल्कुल अँधेरे में डूब जायेगा... उसने अपने अथक प्रयास से न्यूयॉर्क जैसे विशाल और आधुनिक शहर में एक हाल भाड़े पर लेकर, वेदान्त-सोसाईटी को एक firm footing (दृढ नींव ) पर प्रतिष्ठित कर दिया है। और चारो तरफ भ्रमण करते हुए लेक्चर देकर ऐसा प्रभाव जमा दिया है कि, वहाँ के बड़े बड़े विद्वान् साहेब लोग उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते। नवधनाड्य अमेरिका वासियों से वाहवाही (स्वीकृति ) प्राप्त कर लेना कोई छोटी बात नहीं है ! चपरास (प्रभु का आदेश ) नहीं हो, तो उस देश में वेदान्त-प्रचार कर पाना क्या ऐसे-वैसे लोगों का कर्म है ! " ( ' स्मृतिसंचय ' : विश्ववाणी, चैत्र १३५१, पृष्ठ २१ )
पाश्चात्य देशों में वेदान्त-प्रचार का कार्य स्वामी विवेकानन्द-कर्मधारा के उत्तरसाधक स्वामी अभेदानन्द के माध्यम से कितना साफल रूप में सम्पादित हुआ था - उस सम्बन्ध में एक प्रत्यक्ष-प्रतिवेदन में भगिनी निवेदिता इस प्रकार लिखती है-" These two names Vivekananda and Abhedananda are names as inseparable as is the confluence of stream, as are revers sides of a single coin. "
- अर्थात " विवेकानन्द और अभेदानन्द - ये दो नाम ऐसे नाम हैं, जो भिन्न होने पर भी अभिन्न थे, मानों दो नदियाँ संगम में पहुँचकर एक और अविभाज्य हो गयी हों। ये दोनों नाम वास्तव में एक ही सिक्के के दो पहलू हैं! "
इस समबन्ध में प्रत्यक्ष दर्शी अध्यापक बिनय कुमार सरकार कहते हैं - " इन दो बंग-वीरों के माध्यम से भारतमाता सम्पूर्ण जगत में अपने रक्त-मांस में गुंथे हुए स्वधर्म, शक्तियोग की दिग्विजय साधना का निर्यात कर रही थी. विवेक-अभेद उस समय भारत से विदेश गए कोई सौदागर नहीं थे; बल्कि ये दोनों बंगवीर अभिनव रक्त-मांस वाले कर्मनिष्ठ-जीवन के भारतीय प्रतिनिधि थे."
किसी पत्र में स्वयं स्वामीजी ने कालीभाई (अभेदानन्दजी) की प्रशंसा की है- यह सुन कर लाटुमहाराज (अद्भुतानन्दजी) आनन्द से झूम कर बोल उठे- " जानते हो, काली-भाई अक्सर वराहनगरमठ से पैदल ही शांखारी-टोला स्थित डाक्टर महेंद्र सरकार के घर पुस्तकों का अध्यन करने जाया करता था, और कभी कभी तो वहाँ से गट्ठर की गट्ठर पुस्तकें उठा कर मठ में ले आता और घंटों पढ़ता रहता था। किसी के भी साथ अधिक मेल-जोल नहीं बढ़ाता था, व्यर्थ की बातें नहीं करता था, व्यर्थ की गप्पबाजी उसे पसंद नहीं थी। काली इतना अधिक गहन-गम्भीर मुद्रा में रहता था कि जब भक्त लोग मठ में आते थे तो उनके नजदीक व्यर्थ में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे। वह अपने कमरे में बैठ कर घंटों केवल पढ़ाई-लिखाई करने या ध्यान-धारणा करने में ही डूबा रहता था। इसी प्रकार से उसने कितने दीर्घ काल तक अपना समय व्यतीत किया था, तभी तो आज लोग काली का महत्व समझ पा रहे हैं ! काली ने कठिन परिश्रम से अपना जीवन इतना सुन्दर रूप में गठित कर लिया था कि, बड़े बड़े विद्वान् भी आज उससे प्यार करते हैं ! " ( ' स्मृति- संचयन ' : विश्ववाणी, चैत्र १३५१, पृष्ठ २२ )
स्वामी अभेदानन्द का एक और नाम है- ' काली-वेदान्ती '. बचपन से ही उनके भीतर वेदान्त-दर्शन के प्रति तीव्र आकर्षण था. वेदान्त मत का उन्होंने गम्भीर-निष्ठा एवं अध्यवसाय के साथ अध्यन किया था, और आत्मसात भी कर लिया था. सांसारिक स्थूल बातों (नून-तेल-लकड़ी की चिन्ता ) को छोड़ कर, वे सदैव सूक्ष्म-वेदान्तिक तत्वों के गहन चिन्तन-मनन में ही डूबे रहते थे. जिसका मन सदैव वेदान्त के सूक्ष्म आत्मतत्व में ही निमग्न रहता हो, उसके भीतर शरीर की असारता का बोध उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है.
काली-महारज भी इसी ज्ञान-मार्ग के पथिक थे. इस पथ में युक्ति-तर्क के आधार पर यह सिद्ध किया जाता है कि - ' ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या '. दिन-रात इसी विचार मग्न रहने के कारण सभी लोग उनको नास्तिक समझने लगे थे. एक बार उनके संगीसाथी साथियों ने श्रीरामकृष्ण के पास अभियोग भी लगाया था कि-' काली-वेदान्ती ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार कर रहा है. ' यह सब सुनकर अद्वैत-ज्ञानी श्रीरामकृष्ण धीरे से मुस्कुरा दिए और बोले- ' तुम लोग देख लेना एक दिन वह सबकुछ मानने लगेगा, सबकुछ जान जायेगा. '
वेदान्त के मतानुसार यह जगत मायामय स्वप्नवत होने के कारण मिथ्या (असत नहीं ) है. यह तो तात्विक-सत्य है; किन्तु क्या किसी ने अपने जीवन में इसका प्रयोग किया है ? प्रयोगात्मक वेदान्तवादी कहाँ है ? ऐसा वेदान्तविद व्यक्ति कहीं मिल सकता है, जो अद्वैत-वेदान्त के तत्वों को अपने जीवन में प्रयोग कर सचमुच वेदान्त-मूर्ति बन चुका हो ? शिवसंहिता आदि योगशास्त्र में, स्पष्ट कहा गया है कि पुस्तक पढ़ कर योगसाधना करना उचित नहीं है, किसी उपयुक्त सिद्ध-योगिगुरु के सानिध्य में रहते हुए योगशिक्षा का अभ्यास करना जरूरी होता है.
पुनः सोंच में पड़ गए, कहाँ से किसी सिद्ध-योगि गुरु का पता खोजा जाय ? आहार-निद्रा सब कुछ त्याग दिए, मन में केवल एक ही विचार था, दिन-रात पद्मासन में बैठ कर कैसे समाधिस्त रहा जाये. अपने मन की बात किसी से कह भी नहीं सकते थे, क्योंकि यह सुनकर सभी हँसते और मजाक उड़ाते थे. योगी होने की बात सुन कर चारो ओर से बाधाएँ भी आने लगी. शास्त्र-वचन मूर्तमान हो उठा- ' श्रेयांसि बहुबिघ्नानी '. इसी समय एक दिन सहपाठी यज्ञेश्वर भट्टाचार्य के साथ मुलाकात हो गयी. सैकड़ो बाधाओं से अवसन्न कालीप्रसाद को देख कर मित्र ने पूछा- तुम्हारी समस्या क्या है ?
कालीमहाराज बोले, ' देखो, मेरी तीव्र इच्छा योगसाधना करने की है. किन्तु केवल पुस्तक पढ़ने और अपनी चेष्टा से ही तो यह सब हो नहीं सकता. गुरु की आवश्यकता होती है. क्या तुम बता सकते हो कि वैसा योगिगुरु कहाँ मिल सकते हैं ? 'कालीप्रसाद की व्याकुलता को देख कर यज्ञेश्वर ने कहा-' बता सकता हूँ, दक्षिणेश्वर में रानी रासमणि के काली-मन्दिर में एक अद्भुत योगी हैं- परमहंस हैं. सभी लोग ऐसा कहते हैं कि उनमे कोई ढोंग-ढकोसला नहीं है. वे एक यथार्थ योगी ही नहीं- महायोगी हैं. कोलकाता के बहुत से सम्भ्रान्त लोग भी उनके पास आते-जाते हैं.वे भी बीच बीच में कोलकाता आते रहते हैं. तुम यदि उनसे अपनी योगशिक्षा ग्रहण करने की ईच्छा उनको सुनोगे तो लगता है, वे तुम्हारी इस ईच्छा को पूर्ण कर सकते हैं. '
अपने बाल-सखा यज्ञेश्वर की बातें सुन कर, कालीप्रसाद का ह्रदय उत्साह, आनन्द, आत्मविश्वास से भर उठा. उन्होंने तय कर लिया कि, अपने गुरु के रूप में मुझे केवल परमहंसदेव को ही वरण करना है. जैसे भी हो, मुझे एक बार दक्षिणेश्वर के काली-मन्दिर में जाना ही होगा, एवं उनके साथ अवश्य ही भेंट करनी होगी.परमयोगी परमहंसदेव से मिलने की व्याकुलता क्रमशः बढती चली गयी.एक दिन बिना किसी को बताये अकेले ही- चल पड़े दक्षिणेश्वर की ओर. काली-मन्दिर पहुँच कर किसी से पूछे - परमहंसदेव हैं क्या ? एक आगन्तुक युवक ने बताया नहीं वे तो कोलकाता गए हैं. वह युवक थे उस समय के शशिभूषण चक्रवर्ती जो आगे चल कर स्वामी रामकृष्णानन्द हुए.
कालीप्रसाद भूख-प्यास और पैदल चलने की थकान से बहुत अवसन्न अनुभव कर रहे थे; यह देख कर शशिभूषण ने उनको परामर्श दिया कि,' गंगा में स्नान कर के माँ काली का प्रसाद ग्रहण करके थोडा विश्राम कर लो; जब उनके साथ मुलाकात करने के लिए इतना कष्ट सह कर आये हो, तो मिलने के बाद ही कोलकाता जाना.' परमहंसदेव का दर्शन करने की ईच्छा से उनके परामर्श के अनुसार कालीप्रसाद इंतजार करने लगे. दोपहर बीत जाने के बाद शाम हो गयी. उसके बाद रात्रि के समय बरामदे में चटाई बिछा कर तीन-जन विश्राम कर रहे थे. इसी समय रामलाल दादा ने समाचार दिया कि परमहंसदेव बग्घी पर सवार होकर आ रहे हैं. कालीप्रसाद उठ खड़े हुए. उनकी धड़कने तेज हो गयीं. परमहंसदेव ने गुरुगम्भीर स्वर से तीन बार ' काली ' नाम का उच्चारण करके अपने कमरे में प्रविष्ट हुए, और छोटी सी चौकी पर बैठ गए.
कालीप्रसाद पलक झपकाए बिना परमहंसदेव का दर्शन करने लगे, सोच रहे हैं- योगी-सन्यासी का अर्थ तो जटाजूट-धारी, लाललाल-आँखों वाले, पूरे शरीर पर राख मले किसी रूद्र मूर्ति होना चाहिए. किन्तु इनको तो एक अति सहज, सरल, शान्त, सौम्यमूर्ति के रूप में देखता हूँ. अब उन्होंने श्रद्धापूर्वक भक्तिपूर्ण ह्रदय से प्रणाम किया. परमहंसदेव ने उनको स्नेहपूर्वक बैठने को कहा, तथा पूछा- ' तुम कौन हो? तुम्हारा घर कहाँ है ? तुम किस लिए इतना कष्ट सह कर यहाँ आये हो ? क्या चाहते हो ? '
भक्ति में गदगद कंठ से कालीप्रसाद उत्तर दिए- ' योगशिक्षा ग्रहण करने की मेरी तीव्र ईच्छा है. क्या आप दया करके मुझको योग-शिक्षा प्रदान करेंगे ? इसी आशा को लेकर मैं यहाँ आया हूँ. '
श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर मौन रहकर सोचे, उसके बाद बोले- ' इतने कम उम्र में ही, तुम्हारे अन्दर योगशिक्षा ग्रहण करने की इच्छा हुई है- यह तो बड़ा ही शुभ लक्ष्ण है. तुम पूर्वजन्म में एक बड़े योगी थे. थोडा बाकी रह गया था, यही तुम्हारा अंतिम जन्म है. आज रात्रि में यहीं विश्राम करो, कल सुबह में फिर आना.'
दुसरे दिन प्रातः काल में कालीप्रसाद गंगा स्नान करके, श्रीरामकृष्ण परमहंस के चरणों में बैठ गए. उन्होंने पूछा - तुमने कौन कौन सी पुस्तकें पढ़ी हैं ? कालीप्रसाद ने कहा- रघुवंश, कुमारसम्भव, गीता, पातन्जल-दर्शन, शिव-संहिता आदि. सुन कर श्रीरामकृष्ण बड़े प्रसन्न हुए और आशीर्वाद दिए. उसके बाद सस्नेह बोले- ' योगासन में बैठ कर अपनी जीभ बाहर निकालो '. कालीप्रसाद ने जिह्वा को प्रसारित कर दिया. तब उनकी जिह्वा के बीच में दाहिने हाथ के बीच वाली ऊँगली से श्रीरामकृष्ण ने मूलमंत्र लिख दिया. साथ ही साथ उनके सम्पूर्ण अंगों में एक अद्भुत शक्ति संचारित हो गयी. कालीप्रसाद का वाह्यज्ञान जाता रहा और वे गम्भीर ध्यान में समाधिस्त हो गए !
योगशिक्षा का जितना बाकी रह गया था, उतना योगिराज श्रीरामकृष्ण ने दे दिया. उनकी आजन्म-आकांक्षित वह समाधी परम योगी के परम स्पर्श से घटित हो गयी. इसी योग-समाधि में तो वे निमग्न रहना चाहते थे. कुछ समय के बाद सर्वयोग-सिद्ध श्रीरामकृष्ण ने कालीप्रसाद के ह्रदय का स्पर्श करके, कुण्डलिनी शक्ति को निचे उतार दिया, और स्वाभाविक अवस्था में वापस लौटा दिया. महायोगी श्रीरामकृष्ण विशाल-योगशक्ति के अधकारी थे, योगीगण जिस योगबल को आजीवन तपस्या करने के बाद भी नहीं प्राप्त कर सकते थे, उसे वे केवल स्पर्श-मात्र से प्रदान कर सकते थे.
योग्शास्त्रों में कहा गया है,- परमात्मा के साथ जीवात्मा के मिलन को ' योग ' कहा जाता है. यहाँ श्रीरामकृष्ण रूपी परमात्मा के साथ कालीप्रसाद रूपी जीवात्मा घुल-मिल कर एकाकार हो गये, - और उत्तरण हुए योगी अभेदानन्द !
और सिद्धगुरु के रूप में उन्होंने अद्वैताचार्य श्रीरामकृष्ण को प्राप्त कर लिया; जो अद्वैतवाद के प्रबल-पक्षधर थे. अद्वैत-वेदान्त के ' नेति नेति ' विचार-पद्धति को काली-महाराज भी बहुत पसन्द करते थे. इसको वेदान्त का ज्ञान मार्ग कहा जाता है. यहाँ पर ईश्वर का अस्तित्व अन्ध-विश्वास के उपर प्रतिष्टित नहीं है. इसमें न्याय-विचार करके सभी मतों का खण्डन कर दिया जाता है. इस अद्वैत-वाद में युक्ति-तर्क की सहायता से एक परम-सत्य तक पहुँचना होता है. यह मार्ग चरम विवेक-विचार के उपर प्रतिष्ठित है.काली-महाराज के जिज्ञासु मन में उठते रहने वाले प्रश्नों का कोई अन्त नहीं था. किन्तु जब तक कोई प्रत्यक्ष-प्रमाण नहीं मिलजाता वे अपनी खोज बन्द करने वालों में से नहीं थे. क्योंकि, अपनी आँखों के सामने जिस जगत को बिलकुल स्पष्ट देख रहा हूँ, वह जगत वेदान्त-मत के अनुसार मिथ्या कैसे हो जाता है ?
इस प्रश्न का उत्तर तत्वज्ञ श्रीरामकृष्ण से इस प्रकार दिया- " ' नेति नेति ' करते हुए आत्मा की उपलब्धी करने का नाम ज्ञान है. पहले ' नेति नेति ' विचार करना पड़ता है. ईश्वर पंचभूत नहीं है, इन्द्रिय नहीं हैं, मन, बुद्धि, अहंकार नहीं हैं, वे सभी तत्वों के अतीत हैं; - और यह होते ही यह सब स्वप्नवत हो जाता है. विचार दो प्रकार से किया जाता है- अनुलोम और विलोम . पहले के द्वारा मनुष्य जीव-जगत से नित्य ब्रह्म में जाता है और दूसरे के द्वारा देखता है कि, ब्रह्म ही जीव-जगत के रूप में लेलायित है. छत पर चढ़ने के लिए एक एक कर सब सीढ़ियों का त्याग करते हुए जाना होता है. सीढियाँ छत नहीं हैं. किन्तु छत पर जा पहुँचने के बाद दिखाई देता है कि जिन ईंट, चुना, सुर्खी आदि वस्तुओं से छत बनी है, उन्हीं से सीढ़ियाँ भी बनी हैं. जो परब्रह्म है, वही यह जीव-जगत बना है, चौबीस तत्व बना है. जो आत्मा है, वही पंचभूत बना है. तुम कहोगे, मिट्टी अगर आत्मा से ही बनी है तो वह इतनी कड़ी कैसे है ? उनकी इच्छा से सब कुछ सम्भव हो सकता है. क्या रज-वीर्य से हड्डी और मांस का निर्माण नहीं होता है ?
अनुलोम और विलोम. ' नेति नेति ' करते हुए समाधी में पहुँचकर तुम्हारा ' अहं ' ब्रह्म में विलीन हो जाता है. फिर जब तुम समाधी से उतरकर नीचे आते हो तब तुम्हें दिखाई देता है कि ब्रह्म ही तुम्हारे
' अहं ' के रूप में तथा सारे जगत के रूप में व्यक्त हो रहा है....इसी प्रकार नित्य ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन करने के पश्चात् विचार आया- ' जो नित्य हैं, वे ही लीला में जगत बने हैं.'..यदि कहो- अखण्डस्वरुप आत्मा खण्डित जीवात्माओं में कैसे विभक्त हुआ ? कोई अद्वैत-वादी तार्किक विचार-बुद्धि के बल पर इसका उत्तर नहीं दे सकता. उसे यही कहना पड़ता है कि- ' मैं नहीं जानता '. ब्रह्मज्ञान होने पर ही इसका योग्य उत्तर मिल पाता है.
जब तक मनुष्य कहता है, ' मैं जानता हूँ ' या ' मैं नहीं जानता ' तब तक वह स्वयं को एक व्यक्ति (M /F ) समझता है. तब तक उसे इस विविधता ( जगत-प्रपंच ) को सत्य ही मानना पड़ता है- वह इसे भ्रम नहीं कह सकता. परन्तु जब व्यक्तित्व-बोध का;' मैं '-पन का सम्पूर्ण विनाश हो जाता है, तब- 'समाधी ' में ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है. अहंकार के दूर हो जाने पर जीवत्व का नाश हो जाता है.तब जीव नहीं आत्मा ही परमात्मा (ब्रह्म) का साक्षात्कार करता है. इस अवस्था में समाधी में ब्रह्म का साक्षात्कार होता है.
समाधी अवस्था में उपलब्ध ब्रह्म मानो दूध है, साकार-निराकार ईश्वर मानो माखन हैं, और चौबीस तत्वों से बना जगत मानो छाछ. जब तक तुम माया के राज्य में हो तब तक तुम्हें माखन और छाछ - ईश्वर और जगत - दोनों स्वीकार करना होगा. ...जब तक ' अहं ' है, तब तक साकार ईश्वर भी सत्य हैं; जीव-जगत के रूप में उनकी लीला भी सत्य है.यथार्थ ज्ञान होने पर अहंकार नहीं रहता. समाधी हुए बिना ठीक-ठाक ज्ञान नहीं होता. भरे दोपहर में सूरज जब ठीक माथे के उपर रहता है; उस समय मनुष्य चारों ओर देखता है, पर उसे अपनी छाया नहीं दिखाई देती वैसे ही, यथार्थ ज्ञान होने पर, समाधी होने पर अहंकाररूपी छाया नहीं रहती. यदि ठीक-ठाक ज्ञान होने के बाद भी किसी में ' अहं ' दिखाई पड़े, तो ऐसा जानना कि वह ' विद्या का अहं ' है, ' अविद्या का अहं ' नहीं.
..समाधी में अद्वैतबोध का अनुभव करने के पश्चात् पुनः नीचे उतर कर ' अहं ' बोध का अवलम्बन कर रहा जाता है. ईश्वरदर्शन या आत्मज्ञान हो जाने के बाद सब कुछ चिन्मय लगने लगता है. काली के मन्दिर में जाकर देखता हूँ - प्रतिमा चिन्मय, पूजा कि वेदी, कोष-कुशी, मन्दिर का चौखट, मार्बल पत्थर सबकुछ ही चिन्मय है. उस समय बिल्ली को देखने से भी बोध होता है कि, चिन्मयी माँ ही यह सब बनीं है. "
वेदान्त-वादी काली-महाराज ने श्रीरामकृष्ण के अद्वैत-अनुभूति की बातों को बहुत ध्यान से सुना. किन्तु तब भी उनका तार्किक वेदान्ती-मन इसे मानने को तैयार नहीं था. वे स्वयं द्रष्टा होना चाहते थे- जगत के जड़-जीव आदि समस्त वस्तुओं में एकमात्र परमात्मा ही ओतप्रोत हैं, तो वे उस परमात्मा को प्रत्यक्ष करना चाहते थे. वे वेदान्त के उस सर्वोच्च-शिखर पर पहुँचना चाहते थे, - जहाँ से सबकुछ ( जड़-जीव ) के साथ एकात्मबोध की अनुभूति होती है.
यही आत्म-साक्षात्कार या आत्मबोध हो जाने पर मनुष्य सर्वत्र ईश्वर के अस्तित्व का अनुभव करने में समर्थ हो जाता है. जबतक यह अभेदानुभूती नहीं हो जाती, तबतक नेति नेति विचार करना होता है. इस प्रकार ' नेति नेति ' विचार करके जिन्होंने ' ईति ' कर लिया है, वे ही सच्चे अद्वैत-वेदान्ती हैं.वहाँ पहुँच जाने के बाद, फिर (ज्ञाता और ज्ञेय ) दो नहीं रह जाता, सबकुछ एक हो जाता है. सभी वस्तुओं के भीतर ' एक ' को प्रत्यक्ष कर लेने को ही अद्वैतानुभूती कहते हैं.
आध्यात्म-मार्ग का यह सर्वोच्च स्तर (शिखर) है. यहाँ पहुँच जाने पर वेदान्त-विचार (ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ) बोध (अनुभूति ) में परिणत हो जाता है. इसीलिए हमें समझना चाहिए कि अद्वैत-वेदान्त केवल तार्किक विचार-बुद्धि उपर ही प्रतिष्ठित नहीं है. बल्कि तर्क-युक्ति से मुक्ति प्राप्त कर लेना ही इसका उद्देश्य है. वेदान्तोक्त तात्वि-सत्य को व्यवहारिक सत्य में परिणत कर लेने के लिए ही वेदान्त-
साधना की जाती है. ज्ञान-विचार करते करते ज्ञान की चरम सीमा पर पहुँच जाना ही अद्वैतवेदान्त की ईति है.
अनुभूति-प्राप्त करने के लिए ही काली-महाराज की वेदान्त-साधना चल रही थी. दिन रात वे ज्ञान-विचार में निमग्न रहने लगे. जब तक वे ज्ञान की चरम पराकाष्ठा में उपनीत नहीं हो जाते वे साधना से विरत नहीं हो सकते थे. अद्वैत तत्व के अनुसन्धान कर अभेददर्शन के उद्देश्य से वे पुनः गम्भीर ध्यान में डूब गए.
अध्यवसायी, आत्मज्ञान के इच्छुक- काली-महाराज के लिए वेदान्त एक अन्वेषण था. उनके प्राणों की भूख थी. उनका मन उस व्याकुलता के आवेग से आर्तनाद से भरा हुआ था. वे श्रीरामकृष्ण के दिव्यसनिध्य में उपविष्ट थे. उनकी ज्ञानान्वेषी वेदान्तिक तर्कशील मानसिकता अंतर की व्याकुलता को अवदमित कर रही थी.उनके प्राणों में यह प्रश्न बार बार उठ रहा था- ' क्या सचमुच, किसी को अभिन्न-दृष्टि प्राप्त हो जाती है ? सर्वभूतों में क्या, किसी को सचमुच आत्मदर्शन होता है ? क्या कोई मुझे 'ज्ञानांजन ' प्रदान करके मेरी आत्मदृष्टि को भी उन्मोचित करने में समर्थ है? यदि कोई समर्थ गुरु हैं, तो वह अद्वैत-ज्ञानी साधक कहाँ मिलेंगे ?
वे इस प्रकार सोच ही रहे थे कि, सिद्धान्त को व्यवहार रूपांतरित होते देखने का समय उपस्थित हो गया. शायद अन्तर्यामी अद्वैतवादी श्रीरामकृष्ण ने अपनी अद्वैतानुभूती के द्वारा काली-महाराज की आन्तरिक वासना (तीव्र इच्छा) को अपने ह्रदय में अनुभव कर लिया था. इसीलिए उन्होंने काशीपुर-उद्यानबाड़ी में स्वयं इसके दृष्टान्त-स्वरुप बन कर, काली-महाराज को आवेगपूर्ण शब्दों में आदेश दिया- " बाहर जा कर देखो, जो आदमी मठ की हरी-हरी घासों पर टहल रहा है, उसको घास पर चलने से मना कर दो. मुझे बहुत कष्ट हो रहा है. ऐसा महसूस हो रहा है, मानो वह मेरी छाती के उपर ही चल रहा हो."
काली-महाराज अवाक् रह गए. मन में उठा प्रश्न मन में ही रह गया. सोचने लगे- ' इन्होंने मेरे मन की बात को जान कैसे लिया ? स्तम्भित काली-वेदान्ती ठाकुर के निर्देशानुसार शीघ्रता से बाहर निकल कर देखे- अरे बिलकुल सच ! बाहर एक व्यक्ति मठ की हरी हरी दूबों के उपर टहल रहा था. जल्दी से वहाँ पहुँच कर उसको घास के उपर उस प्रकार चहल-कदमी करने से मना किया.
आदेश को सुन कर, उस व्यक्ति ने घास के उपर चलना जैसे ही बन्द किया, उन्होंने देखा कि, ठाकुर श्रीरामकृष्ण थोड़ा स्वस्थ अनुभव करने लगे हैं. अब आश्चर्य-चकित होकर, काली-महाराज अवाक् हो गए और अपलक-दृष्टि से श्रीरामकृष्ण को देखते रह गए; मानो अद्वैत-विज्ञान किसे कहते है, उसके प्रत्यक्ष-प्रमाण स्वरुप जीवन्त वेदान्त-मूर्ति को देख कर मिला रहे हों.
अद्वैतानुभूती को, आज उन्होंने अपनी आँखों के सम्मुख प्रमाणित होते देख लिया था. विचार कर रहे हैं- इसको ही आत्मज्ञान कहते हैं, इसको ही आत्मदृष्टि कहते है. तृणादि जड़-चेतन, जीव-जगत, सबकुछ के भीतर अपने को देखना ही तो ' अभेदज्ञान ' है. यही तो अद्वैत-वेदान्त का चरम तत्व है- जिसको निज-अनुभव से जानने के लिए साधक को साधनारुपी सोपानों से होकर गुजरना होता है.
काली-वेदान्ती इसी आत्मानुभूति को प्राप्त करना चाहते थे. श्रीरामकृष्ण ने आज उसीको दृष्टान्त-सापेक्ष प्रमाण द्वारा दिखा दिया था. उन्होंने अभेदतत्व को प्रयोग-द्वारा वास्तविकता में परिणत कर दिया था. जड़-पदार्थों के प्रति अभिन्न दृष्टि को व्यवहारिक रूप से दृष्टिगोचर करा दिया था.
यही सत्य हजारों वर्ष पूर्व ऋषि कन्ठ से घोषित हुआ था-
" यदिदं किञ्चित जगत सर्वं प्राण एजति निःसृतम "|
- अर्थात जीव-जगत सभी कुछ के भीतर एक ही प्राणसत्ता चैतन्य (स्पंदन) रूप में निहित है. भौतिक विज्ञान में 'श्रोडिंगर समीकरण' की सहायता से जड तन्त्र (Matter) में ऊर्जा (Energy) का सामञ्जस्य दिखया जाता है। जिसके अनुसार स्थैतिज ऊर्जा व गतिज ऊर्जा के योग को एक स्थिरांक के रूप में प्रदर्शित किया जाता है । स्थिरांक का अर्थ होगा कि यदि किसी जड तन्त्र की स्थैतिज ऊर्जा में वृद्धि होती है तो उसकी गतिज ऊर्जा में ह्रास हो जाएगा । यदि गतिज ऊर्जा में वृद्धि होगी तो स्थैतिक ऊर्जा में ह्रास हो जाएगा ।
लेकिन वैदिक साहित्य में ऊर्जा के दो रूप नहीं, अपितु तीन रूप निर्धारित किए गए हैं - इच्छा, ज्ञान और क्रिया। ज्ञान को स्थैतिक ऊर्जा तथा क्रिया को गतिज ऊर्जा माना जा सकता है। लेकिन आज के भौतिक विज्ञान में इच्छा के लिए अभी कोई स्थान नहीं है। नाम, रूप व कर्म के संदर्भ में नाम को ज्ञान के समकक्ष, इच्छा को रूप के समकक्ष और क्रिया को कर्म के समकक्ष माना जा सकता है। शिव पुराण के अनुसार तो ज्ञान, क्रिया व इच्छा रूपी दृष्टि-त्रय द्वारा ही रूप का निर्धारण होता है।
बृहदारण्यक उपनिषद १.४.१ का यह कथन प्राप्त होता है कि नाम, रूप व कर्म यह तीन हैं । इनमें नामों का 'उक्थ्य'= उत्थान करने वाला है वाक्, रूपों का चक्षु और कर्मों का आत्मा है। फिर इससे आगे कहा गया है कि प्राण विकल्प से अमृत है ( अर्थात् प्राण को प्रयत्न द्वारा अमृत बनाया जा सकता है ) और 'नाम-रूप' सत्य हैं ( अर्थात् नाम व रूप को प्रयत्न से सत्य बनाया जा सकता है )।
नाम-रूप प्राण को आच्छादित किए हुए हैं । नाम के विषय में कहा गया है कि नाम वह है जो सोते हुए प्राणों को जगा दे। जैसा नाम लिया (जपा या पुकारा) जाएगा, वैसे ही प्राणों को वह जाग्रत करेगा। यहां प्राण को कर्म के तुल्य माना जा सकता है जिसका उक्थ्य आत्मा कहा गया है ।
नाम, रूप व कर्म के इस त्रिक के अन्य रूप भी उपलब्ध होते हैं। लौकिक रूप में जिसे निधन या मृत्यु कहते हैं, योग मार्ग या भक्ति मार्ग में समाधि की अवस्था को निधन कहते हैं। समाधि से व्युत्थान के पश्चात् प्रथम अवस्था अस्ति, दूसरी भाति, तीसरी प्रिय, चौथी नाम और पांचवीं रूप की होती है। 'सरस्वती-रहस्य उपपनिषद' (३.२३-२४) में कहा गया है -
अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम्। २३
आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम् ।। २४
संसार की हर वस्तु के पाँच अंश होते है- अस्तित्व, चेतना, प्रियता, रूप ( form) और नाम. इन अंशपंचकों में से पहले तीन परमात्मा की ओर संकेत करते है, और आख़री दो जगत् की ओर। जब हम दुनिया (M/F) की ओर देखते है तब सिर्फ वस्तु के बाह्य रूप और नाम से मतलब रखते है। इसलिए हमारे मन में संसार की वस्तुओं के लिए या तो लालच पैदा हो जाती है या नफ़रत. और यही दुःख का मूल है। जब तक समत्व की दृष्टि से हम नही देखते, संसार दुःखमय ही प्रतीत होगा. दृष्टि गोचर जगत में जिस किसी वस्तु या व्यक्ति को देखो उसमें से ब्रह्म के अंतिम दो पहलु (नाम और रूप) को द्रष्टा-दृश्य विवेक प्रयोग के द्वारा अलग कर लो, और उनके पहले वाले तीन पहलु ' अस्ति = सत् (being)', 'भाति = चित् (Shining)', 'प्रिय = आनन्द (loving)' को अपने ह्रदय में अथवा बाहर देखने के लिये, निरंतर तत्पर होकर एकाग्रता (concentration) का अभ्यास करो!
अस्तित्व, चेतना, प्रियता जिन्हें सच्चिदानन्द भी कहा जाता है- यही परमात्मा का शुद्ध स्वरूप है, जो वस्तु का अंतरंग है।अतः यह कहा जा सकता है कि 'अस्ति, भाति और प्रिय'- प्राण के तुल्य हैं। तैत्तिरीय संहिता में यज्ञ में आयु को ध्रुव कहा गया है और आयु को ही प्राणों में उत्तम कहा गया है । पुराणों में उत्तानपाद - पुत्रों ध्रुव व उत्तम के रूप में साधना के दो पक्षों का उदय हुआ है - एक तो यम- नियम - तप आदि के द्वारा ध्रुव स्थिति प्राप्त करना तथा दूसरे यम - नियम आदि से रहित केवल आनन्द की स्थिति, उत्तम एक स्थिति का नाम है । उस स्थिति में - रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव - बृहदारण्यक उपनिषद २.५.१९ अर्थात् कण - कण में दिव्य रूप के दर्शन हो रहे हों , यही मधु अवस्था है।
ऋग्वेद ६.४७.१८ की प्रसिद्ध ऋचा रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव है जिसकी व्याख्या बृहदारण्यक उपनिषद २.५.१९ में उपलब्ध है । इस व्याख्या के अनुसार जब यह पृथिवी सब भूतों के लिए मधु बन जाए और सब भूत इस पृथिवी के लिए मधु बन जाएं तो वह मधु विद्या है । दूसरे शब्दों में, जहां उच्चतर और निम्नतर में संघर्ष की स्थिति समाप्त हो जाती है, वह मधु विद्या है और मधु विद्या की स्थिति ही रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव की स्थिति है । दधीचि ऋषि मधु विद्या के ज्ञाता हैं जो अश्विनी कुमारों को मधु विद्या का उपदेश देते हैं - रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव अर्थात् कण - कण में दिव्य रूप के दर्शन हो रहे हों , यही मधु अवस्था है । दधीचि ऋषि ने देवों के अस्त्रों के तेज को पीकर उन्हें अपनी अस्थियों में आत्मसात् कर लिया था। इस कथा का मूल स्रोत ऋग्वेद १.८४.१३ की सार्वत्रिक ऋचा है।
डा. फतहसिंह के शब्दों में अस्ति अर्थात् समाधि में केवल अस्तित्व मात्र । फिर समाधि से व्युत्थान पर भाति, भासता है। प्रह्लाद समाधि से व्युत्थान की कोई अवस्था हो सकती है। प्रह्लाद को भगवन्नाम स्मरण में बहुत रुचि थी । एक स्थिति ऐसी है जब रूप स्पष्ट नहीं हुआ है, एकरूप है । वह नाम की स्थिति है । दूसरी स्थिति में रूप प्रकट हुआ है।
पुराणों में मृ्त्यु पश्चात् गंगा में अस्थि प्रवाह का जो वर्णन है, वैदिक साहित्य में उसका रूप इस प्रकार है कि अस्थियां यज्ञ की समिधाएं हैं। यज्ञ में कुछ काष्ठ खण्डों पर आज्य/घृत का लेप करके उनके बीच में अग्नि प्रज्वलित की जाती है। इसी प्रकार अस्थि रूपी समिधाओं पर अस्थियों के अन्दर स्थित मज्जा रूपी आज्य का लेप करके इनके बीच अग्नि को प्रज्वलित करना है। यह अग्नि कौन सी है, इसके विषय में शतपथ ब्राह्मण का कथन है कि आत्मा ही अग्नि है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार प्राण जो अमृत है, वही अग्नि है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार मज्जा के लिए अग्नि प्राण है, अस्थि के लिए अग्नि अपान, स्नायु के लिए व्यान, मांस के लिए उदान और मेद के लिए समान है। अस्थि स्वयं में निर्जीव है, उसमें प्राण नहीं है। प्राणों द्वारा, अग्नि द्वारा अमेध्य अस्थि आदि को मेध्य बनाते हैं।
अतः ईश्वर को समझने से पूर्व भूत शब्द को समझना होगा। "अस्थि" = अस्थि शब्द अस्ति का द्योतक है। हरेक जीव की चेतना अस्थि/अस्ति है। - फतहसिंह। अस्थि और समाधि के संदर्भ को समझने में शतपथ ब्राह्मण १०.४.१.१७ का उल्लेख सहायक होगा। इसके अनुसार लोम, त्वक्, असृक्, मेद, मांस, स्नायु, अस्थि और मज्जा यह सब २-२ अक्षरों वाले हैं। इन्हें मिलाकर १६ कलाएं बनती हैं। इनमें विचरने वाला प्राण प्रजापति कहलाता है जो १७वां है। यह १६ कलाएं प्राण प्रजापति के लिए अन्न का आहरण करती हैं। वैदिक साहित्य में अस्थियों का अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी, दोनों अवस्थाओं से सम्बन्ध जोडा गया है। अस्थियों को इष्टकाएं/ईंट कहा गया है जो इष्ट कामना की पूर्ति करती हैं।
यह याद रखते हुए, और यह समझते हुए कि सारा साकार जगत् ही उस ब्रह्म का रूप है, सामान्य जन को क्रमशः इस मूर्त-रूप की ओर ले जाना उचित ही है इसलिये मूर्ति-पूजा की आत्यंतिक निन्दा करना अनुचित है।
पुराणों में दक्ष यज्ञ की कथा में दक्ष को ईश्वर शिव की सत्ता का ज्ञान नहीं हो पाता, वह शिव की कल्पना घोर रूप में ही करता है । लेकिन दधीचि ऋषि को ईश्वर की सत्ता का ज्ञान है , वह दक्ष को समझाने का प्रयत्न करते हैं लेकिन असफल रहते हैं । शतपथ ब्राह्मण के आधार पर ऐसा अनुमान है कि दक्ष से तात्पर्य प्राणों की दक्षता प्राप्त करना है - श्वास के अंदर जाते हुए भी आनन्द की अनुभूति और बाहर आते हुए भी आनन्द की अनुभूति । समाधि से व्युत्थान पर पहले अहंकार स्थिति प्रकट होती है , फिर शब्द , स्पर्श , रूप , रस व गन्ध नामक पांच तन्मात्राओं की और उसके पश्चात् आकाश , वायु , अग्नि , जल व पृथिवी नामक पांच महाभूतों का प्राकट्य होता है । इन्हीं भूतों के प्रकट होने से मनुष्य में विभिन्न इन्द्रियों का विकास होता है ।
सन्त तुलसीदास जी भक्ति और ज्ञान के विषय में कहते हैं - ' ग्यानहिं प्रभुहिं बिसेसि पियारा।
भागितिहि ज्ञानहिं नहीं कछु भेदा।'
सगुनहिं अगुनहिं नहीं कछु भेदा। गावहिं मुनि पूरान बुध वेदा।
अगुन सगुन दुई ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा।।
जब जब होई धर्म कै हानी। बाढ़ै असुर अधम अभिमानी।
तब तब प्रभु धरी विविध सरीरा। हरहिं कृपा निधि सज्जन पीरा।।
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेमबस सगुन सो होई।।
तब तब प्रभु धरी विविध सरीरा। हरहिं कृपा निधि सज्जन पीरा।।
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेमबस सगुन सो होई।।
सगुन और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है। जो निर्गुण ,अरूप(निराकार ),अलख (अव्यक्त )और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण 'श्रीरामकृष्ण' के रूप में प्रकट हो जाता है। जब परमात्मा अनन्त रूपाकारों में इस संसार की रचना कर सकता है तब क्या अपनी स्वयं की रूपाकृति नहीं गढ़ सकता ?
ईश्वर तो सर्व शक्ति मान है सब कारणों का कारण है किन्तु स्वयं उसका कोई कारण नहीं है।
इसलिए वह अपनी योगमाया से एक साथ एक ही समय पर अलग -अलग जगहों पर अलग- अलग नाम रूपों में हो सकता है।
और यदि हम कहें कि वह ऐसा नहीं कर सकता फिर हमें यह भी मानना पड़ेगा कि वह बाकी सब काम कर सकता है लेकिन अपनी रूपाकृति नहीं रच सकता यानी तब उसकी एक शक्ति कम हो जाएगी वह सर्वशक्तिमान नहीं रह जाएगा। लेकिन यदि हम ऐसा मानते ही हैं कि नहीं वह सर्वशक्तिमान तो है फिर यह भी मान लेना पड़ेगा वह स्वयं भी किसी रूप प्रगट हो सकता है। वह सब जगह मौजूद है सारी सृष्टि में व्यापक है। उसके इस सर्वव्यापकत्व को बनाए रखने के लिए उसका निर्गुण निराकार होना भी ज़रूरी है।
‘बृहदारण्यक’ उपनिषद् में वर्णन आता है कि बह्मविद् लोग संसार का पुनः निर्माण करते हैं। जीवात्मा भी इन दो स्वरूपों में प्रकट है। आत्मा निराकार है तथा गोचर शरीर भी धारण करता है एक नहीं अनेक बार। फिर परमात्मा तो सर्व-आत्माओं का प्रभु है, वह क्यों नहीं ऐसा कर सकता? इसीलिए वेद परमात्मा के दोनों स्वरूपों की पुष्टि करते हैं। दोनों सत्य हैं। जगत भी सत्य, ब्रह्म भी सत्य। जगत है ब्रह्म की देह, ब्रह्म है जगत का प्राण। दोनों साथ-साथ हैं। और दोनों हैं, इसलिए जीवन अति सुंदर है! फलतः निष्काम भाव से किया हुआ कार्य न तो आत्मा को बाँधता है न ही उसे मलिन करता है। जब तक उस ब्रह्माण्डीय प्रक्रिया की समाप्ति नहीं हो जाती तब तक जीवन-मुक्त पुरुष भी विश्वात्मा के लिए कार्य करते रहते हैं। ऐसी स्थिति में जब कर्म का क्षेत्र भी यह दृश्यमान जगत है, तो उसको मिथ्या मानकर चलना अविवेकपूर्ण है। ब्रह्म सत्य तो है किन्तु उस सत्य तक पहुँचने के लिए जगत को भी सत्य मानकर चलना होगा। निष्काम भाव से कर्म करते हुए तभी परम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।
यदि जगत अथवा सृष्टि से ज्ञान निकल जाए तो पदार्थ बिना आधार का हो जाएगा और सृष्टि तत्काल नष्ट हो जायेगी। इसलिये भविष्य का मनुष्य वैज्ञानिक और धार्मिक साथ-साथ होगा। अर्थात जो धार्मिक होगा (या श्रीरामकृष्ण का भक्त होगा) वह साथ ही साथ वैज्ञानिक (ऋषि या पैग़म्बर) भी होगा। "हरि ॐ" शब्द रूप दोनों स्वरूपों की स्मृति है "हरि" (श्रीरामकृष्ण) सगुन रूप विष्णु हैं तो "ॐ" निराकार ब्रह्म हैं।
यह अभेदतत्व अभी तक केवल वेदान्त-शास्त्रों के पन्नों में निबद्ध था. श्रीरामकृष्ण ने स्व-अनुभूत आचरण के द्वारा - शास्त्रोक्त सत्यतत्व को ' तथ्य ' में परिणत कर दिखाया था. काली-महाराज के सत्यार्थी मन ने वेदान्त के जिस सारतत्व का अन्वेषण किया था, श्रीरामकृष्ण ने उसे दिव्य-दृष्टि की सहायता से उन्मोचित कर दिया था. पवित्र-सानिध्य प्रदान कर परम-प्राप्ति को वास्तविकता में परिणत कर दिया था.
श्रीरामकृष्ण स्वयं अद्वैत-वेदान्ती थे, वे कहते थे-' अद्वैतज्ञान को आँचल में बाँध कर जो चाहो करो, तुम्हें कोई दोष नहीं लगेगा. ' इसीलिए वे काली-वेदान्ती के अद्वैत साधना का असमर्थन नहीं कर सकते थे. परन्तु यदि कोई जानना चाहता तो उसको, वे तत्व और तथ्य (सिद्धान्त और व्यव्हार दोनों ) की सहायता से प्रमाणित कर कर के दिखला देते थे.
इसीलिए वेदान्त के जो तात्विक-सिद्धान्त हजारों वर्ष पूर्व,उपनिषद-कारों के ध्यान-नेत्र या ऋषि-दृष्टि के सामने उद्भाषित हो उठे थे, आज वही तत्व श्रीरामकृष्ण के जीवन से प्रमाणित हो रहे थे, एवं काली-
महाराज ने स्वयम अपने आँखों से परख कर देख लिया था. उनकी अद्वैत-वेदान्त की साधना सार्थक हो गयी थी; और उसके साथ ही साथ गुरुभाइयों द्वारा दिया गया - ' काली-वेदान्ती ' नाम का सही मुल्यांकन भी हो गया था.
कालीमहाराज तपस्वी थे, वे बहुत कठोर तप करते थे. इसीलिए बड़ानगर मठ में उनका एक अलग कमरा था. उस कमरे को ' काली- तपस्वी ' का कमरा कहा जाता था. फिर वे वेदान्त की भी गहराई (नsआसीत, नsअस्ति, नsभविष्यति ) में भी प्रवेश कर जाते थे, वेदान्त-चर्चा करने में बड़े पारंगत थे, इसीलिए कोई कोई उनको ' काली-वेदान्ती ' भी कहा करते थे.
एकदिन अमेरिका के एक हाल में ' मनःसंयोग ' के विषय पर अभेदानन्दजी का व्याख्यान चल रहा था. श्रोतागण पुरे मनोयोग के साथ ' मनसंयम ' के उपर अभेदानन्दजी के व्याख्यान को सुनने में निमग्न थे. उन्ही श्रोताओं में से एक विख्यात दार्शनिक ने दूसरे दिन महाराज को कहा था- ' आपका मनःसंयोग के ऊपर दिया गया व्याख्यान सार्थक सिद्ध हुआ है. क्योंकि आप जब हमलोगों का मनसंयोग विषय पर क्लास ले रहे थे, उसी समय निकट के रस्ते से बैंड बजाते हुए एक शोभायात्रा निकली थी, किन्तु हममें से किसी को उसका पता नहीं चला. ' अभेदानन्दजी भी व्याख्यान देने में इतने तल्लीन थे कि, उनको भी इसका पता न चल सका था, इसीलिए उन्होंने पूछा- ' ऐसा क्या ?'
उन्होंने कहा- ' हाँ, व्याख्यान चलते समय एक शोभायात्रा हाल के बिलकुल निकट से होकर गुजरी थी. किन्तु हममें से किसी को इसका पता नहीं चला. इस से यह सिद्ध होता है कि आपका ' मनः संयोग ' के विषय में दिया गया व्याख्यान हमलोगों के लिए सार्थक हो गया है, क्योंकि आपके ' मनःसंयोग ' - क्लास में हम सभी लोग इतनी तल्लीनता से सुन रहे थे, कि हमारा मन उसके भावों में बहते हुए एक दूसरे ही लोक में पहुँच गया था.'
स्वामी अभेदानन्दजी एक ही आधार में वक्ता, दार्शनिक, लेखक एवं मनोवैज्ञानिक भी थे. वे एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे. उन्होंने पाश्चात्य देशों में विभिन्न विषयों पर जितने भी व्याख्यान दिए थे, वह आज पुस्तकों में लिपिबद्ध है. उदहारण के लिए, मृत्यु के पार, मृत्यू रहस्य, पुनर्जन्म-वाद, मनोविज्ञान और आत्मतत्व आदि कुछ प्रमुख पुस्तकों का नाम लिया जा सकता है. पश्चात्यवासी उनके प्रतिभा को देख कर मुग्ध हो गए थे.
अभेदानन्दजी के साथ पाश्चात्य देशों के विख्यात ज्ञानी-गुणि मनीषियों यथा- अध्यापक मैक्समुलर, पाल डायसन, विलियम जेम्स, जोसिया रयेस, राल्फ ओयलेंडो, लायनमैन, हडसन आदि के घनिष्ट सम्बन्ध था. यहाँ तक कि ग्रामोफोन के आविष्कारक टॉमस आलवा एडिसन के साथ भी उनकी गहरी मित्रता थी. उन्होंने उनको अपने द्वारा आविष्कृत प्रथम ग्रामोफोन उपहार में दिया था, जो रामकृष्ण वेदान्त मठ में आज भी चालू हालत में संरक्षित है.
स्वामी अभेदानान्दजी हावर्ट, कोलम्बिया, इयेल, कर्नेल, केम्ब्रिज, वर्कले, क्लार्क, कैलिफोर्निया आदि यूनिवर्सिटी में नियमित व्याख्यान दिया करते थे. इसके अतिरिक्त वे दर्शन और विज्ञान के सम्बन्ध में अमेरिका, कनाडा, अलास्का, मेक्सिको, तथा यूरोप के बड़े बड़े यूनिवर्सिटी में भी नियमित भाषण देते थे.
वे एक सफल प्रचारक थे. भारत के वेदान्त-दर्शन को उन्होंने ही विश्व के समक्ष उजागर किया था. वेदान्त प्रचार करने के लिए १७ बार आटलनटिक महासगर को पार किया है. अमेरिका में उनके द्वारा दिए गए व्याख्यान- ' India and her people ' ने सभी का ध्यान आकर्षित कर लिया था. इस व्याख्यान का बंगला अनुवाद ' भारत और उसकी संस्कृति ' के नाम से बंगला में छपा था; उस समय यह पुस्तिका भारतप्राण व्यक्तियों की पाठ्यवस्तु बन गयी थी. इसीलिए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इस पुस्तिका पर प्रतिबन्ध लगा दिया था. उनका कहना था कि यह पुस्तक स्वाधीन चेता भारतियों को स्वाधीनता संग्राम के लिए उद्बुद्ध कर रहा था.
स्वामी अभेदानान्दजी अमेरिका पच्चीस वर्षों तक रहने के दौरान १९०९ ई० में छ' महीनों के लिए भारतवर्ष आये थे. भारत आकर स्वाधीनता-संग्रामियों को उद्दीप्त किये थे. इसके बाद वे पुनः अमेरिका लौट गए एवं दीर्घ २५ वर्षों तक अमेरिका में भारतीय-दर्शन एवं वेदान्त का प्रचार किये थे. १९२१ ई० में वे भारत लौट आये थे. वापस लौटते समय चीन, जापान, फिलिपाईन्स, सिंगापूर, कोयलालमपूर, रंगून आदि देशों में भी उन्होंने भारत के वेदान्त को वहाँ की जनता के समक्ष उजागर किया था.
१९२२ ई० में वे रामकृष्ण मठ एवं मिशन के उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए, उसके बाद भारत के प्राण-केन्द्र कोलकाता में भी वेदान्त-प्रचार करने के लिए एक अस्थायी ' वेदान्त समिति ' गठित किये. इस समय भी उनके पास भारत के महान महान व्यक्ति आया करते थे. भिन्न भिन्न समय पर सर सी. भी. रमन, महात्मा गाँधी, चितरंजन दास, सुभाषचन्द्र बोस, जैसे महापुरुष-गण उनके निकट सानिध्य में आये थे एवं उनकी ज्ञान-गर्भित वार्ताओं को सुन कर मुग्ध हुए थे.
१९२१ ई० में भारत लौट आने के बाद २५ दिसम्बर को कोलकाता में उनके लिए विशेष अभ्यर्थना और अभिनन्दन सभा आयोजित की गयी थी. परिव्राजक स्वामी अभेदानन्दजी १९२२ ई० में पुनः तिब्बत और काश्मीर का पर्यटन करने निकल पड़े. वहाँ से बौद्ध-दर्शन एवं तिब्बतीय सामाजिक-तत्वों के सम्बन्ध में बहुत से तथ्यों का संग्रह किये थे.
तत्पश्चात १९२३ ई० में ' वेदान्त समिति ' को स्थापित किये एवं दार्जलिंग में ' रामकृष्ण वेदान्त आश्रम' की स्थापना १९२५ ई० में किये. स्वामी अभेदानन्दजी ने १९२७ ई० में मासिक मुखपत्र के रूप में 'विश्व-वाणी ' पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया; एवं १४ मार्च १९३१ को ' रामकृष्ण वेदान्त मठ ' की स्थापना की थी. एवं १९३१ ई० के मार्च महीने में ही आयोजित श्रीरामकृष्ण के शतवार्षिकी ( सौवाँ जन्मोत्सव ) महासभा की अध्यक्षता स्वामी अभेदानन्द जी ने ही की थी. किसी विशाल समारोह में दिया गया, यही उनके जीवन का आखरी व्याख्यान था.
८ सितम्बर १९३९ को विश्वविजयी वेदान्तिक भारत माता की कीर्ति को दुनिया भर में प्रचारित करने वाले इस योग्य भारत-सन्तान ने महासमाधि प्राप्त की. उनकी अन्तिम इच्छा के अनुसार ' काशीपुर-महाश्मशान ' में उनके गुरुदेव श्रीरामकृष्ण की समाधी के निकट ही उनको भी भष्मीभूत करके समाहित कर दिया गया.
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