महामण्डल का परिचय
पृष्ठभूमि (The Background) : कार्य को करने से पहले मन में विचार उठता है 'Thought precedes work', और अक्सर वही विचार हमें कार्य करने के लिये जोश से भर सकता है, जो उद्देश्य तक पहुँचा देने में सहायक परिस्थितियों के द्वारा उत्पन्न होते हैं। मनुष्य उस समाज का दर्पण है, जिसे वह अपनी रूचि और व्यवहार के अनुसार स्वयं ही निर्मित करता है। इस प्रकार समाज कोई निर्जीव पदार्थ नहीं है; और जिस वस्तु में भी जीवन होता है, वह सर्वोत्कृष्टता या पूर्णता (perfection) प्राप्त करने का प्रयत्न अवश्य करता है; तथापि उस पूर्णता को अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया के दौरान, कुछ न कुछ कमी भी रह ही जाती है। समाज उसमें रहने वाले मनुष्यों के द्वारा गठित होता है, और यदि एक बेहतर और स्वस्थ समाज का निर्माण करना ही हमारा उद्देश्य हो, तो पहले जिन मनुष्यों से मिलकर वह समाज गठित होगा, उस मानव-सामग्री (Human Material) को किसी आदर्श मनुष्य के साँचे में ढालना (molding ) अनिवार्य हो जाता है।
और वह आवश्यक गतिशीलता (Dynamism), जो समाज में परिवर्तन लाने के लिये, समाज-जीवन की हर धड़कन को जीवन्त बना सकती है, केवल युवाओं में ही निहित है ! इससे यह स्पष्ट हो जाता है, कि किसी भी देश का भविष्य, उस देश के युवाओं के चरित्र की ताकत पर निर्भर करता है। वस्तुतः आज के युवा जिस संकट का सामना कर रहे हैं, उसे 'मूल्यों का संकट' (Crisis Of Values) - के रूप में देखा जा सकता है। आज देश के हर क्षेत्र में व्याप्त नैतिक मूल्यों में गिरावट की पराकाष्ठा--(The decline of moral values जहाँ देश का प्रधान-मंत्री भी कोयला घोटाला कर रहा है!) ने युवाओं के दिमाग में एक आदर्शवादी-शून्यता का सृजन कर दिया है। और वही खालीपन (आदर्श-विहीन जीवन) युवाओं के व्यक्तित्व में विकास होने के बदले, आवारगी और बेचैनी (drift and restlessness) के रूप में परिलक्षित हो रही है।
किन्तु आज देश के सभी चिन्तनशील व्यक्ति, हमारे युवाओं के दिशाहीन और उद्देश्यहीन जीवन को देखकर उद्विग्न हो रहे हैं। इस अवस्था को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है, कि जिस मानव-सामग्री (human
material) से समाज गठित होता है, उनके प्रसंस्करण (processing) संसाधन की पद्धति में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। निकट से परीक्षा करने पर, एकमात्र उपाय जिसके बारे में सोचा जा सकता है बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है, कि अब युवाओं के समक्ष शास्वत नैतिक-मूल्यों का प्रतिस्थापन करना ही होगा। किन्तु युवाओं के जीवन और आचरण में केवल उन्हीं अनुकरणीय नैतिक-मूल्यों को प्रविष्ट कराया जा सकता है, जो एक ओर हमारे देश की प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं की कसौटी पर खरा उतरते हों तो दूसरी ओर इतने आधुनिक भी हों, कि उन्हें समाज के उत्थान के लिए अनुप्रेरित कर नि:स्वार्थ कार्यकलापों में जोश भर सकें। क्योंकि नूतन परिस्थितियों को स्वीकार किये बिना, किसी सकारात्मक-आंदोलन को शायद ही खड़ा किया जा सकता है; और उसी प्रकार अपने गौरवशाली अतीत के अनुभवों से शिक्षा प्राप्त किये बिना भी किसी प्रगतिशील-आंदोलन की संरचना की जाये तो उस प्रगति का कोई अर्थ नहीं होगा।
ये कुछ वैसे वस्तुनिष्ठ-दृष्टिकोण हैं जिसने समस्याओं की जटिलता और नगण्य संसाधनों के बावजूद,
आन्दोलन के आरम्भकर्ताओं को, इस साहसिक कार्य में कूद पड़ने के लिये अनुप्रेरित किया है।
आन्दोलन के आरम्भकर्ताओं को, इस साहसिक कार्य में कूद पड़ने के लिये अनुप्रेरित किया है।
हमारी अवधारणा (THE IDEA): आज से ४७ वर्ष पूर्व, १९६७ ई० में गठित अखिल भारत विवेकानंद युवा महामंडल यह विश्वास करता है, कि आधुनिक भारत के एकमात्र राष्ट्रभक्त-पैगम्बर या ईश्वर-दूत स्वामी विवेकानन्द (the Patriot-Prophet of Modern India) का जीवन और सन्देश ही युवाओं को अपनी मातृभूमि की निःस्वार्थ सेवा करने के लिये अनुप्रेरित कर सकता है। क्योंकि ' भारत के राष्ट्रिय युवा-आदर्श ' -- चिर-युवा स्वामी विवेकानन्द ने ही अपने जीवन और संदेशों के माध्यम से आधुनिक भारत के युवाओं को समक्ष वैसे विचार और आदर्श प्रस्तुत किये हैं, जो उनके सच्चे पौरुष को खिला देने के लिया सर्वाधिक उपयुक्त हैं। इसलिये यह संगठन युवाओं के कल्याण के लिये उनकी ऊर्जा को उद्देश्यपूर्ण गतिविधियों नियोजित कर, उनके व्यक्तिगत चरित्र को आदर्श मनुष्य के साँचे ढालना चाहता है।
महामण्डल राष्ट्रिय-एकता को विकसित करने के उद्देश्य से, स्वामी विवेकानन्द की ' मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा ' को भारत के गाँव-गाँव तक एक आन्दोलन के रूप में फैला देना चाहता है। इसीलिये अपने सभी संबद्ध-केन्द्रों (all affiliated associations) को संघबद्ध होकर तीव्रता के साथ प्रयास करने के लिये, महामण्डल एक समन्वयकारी माध्यम (Coordinating Agency) के रूप में सशक्त विचारों और योजनाओं की आपूर्ति करता है, तथा हर संभव तरीके से उनकी सहायता करता है।
महामण्डल का लक्ष्य और उपाय (AIMS AND OBJECTS ) : देश की वर्तमान अवस्था को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि, 'आत्म-अनुशासन, मिलजुलकर काम करने की भावना, और सर्वोपरि 'श्रद्धा' की भावना ' युवाओं के चित्त में तत्काल बैठा देने की आवश्यकता है। आज सबसे बड़ी आवश्यकता अपने जीवन को उदहारण स्वरुप गढ़कर, युवाओं के समक्ष इस प्रकार प्रस्तुत करना है, जिसे देखकर वे भी ऐसा व्यवस्थित-जीवन जीते हुए अपने व्यक्तित्व का विकास करने के लिये अनुप्रेरित हों। तथा यह कार्य केवल " मनुष्य-निर्माण (man with capital 'M' बनाने) और चरित्र निर्माणकारी शिक्षा." के एक साधन के रूप में मनुष्य के तीन प्रमुख अवयों-'3H'-निर्माण या ' शरीर, मन और ह्रदय ' के सुसमन्वित विकास और संवर्धन के माध्यम से ही किया जा सकता है। स्वामी विवेकानंद के शब्दों में, सफलता प्राप्त करने के लिये अत्यावश्यक वस्तुएँ हैं; (3P+ L) ' पवित्रता, धैर्य तथा अध्यवसाय ' और सर्वोपरि है प्रेम ' LOVE '!
इन गुणों को केवल वैसे अभ्यास (PRACTICE) के माध्यम से विकसित किया जा सकता है, जो किसी व्यक्ति को पूर्ण 'PERFECT' बना देते हैं। इस प्रकार, 'चरित्र निर्माण' केवल तभी सम्भव है, जब युवा लोग अपने देश की पुरातन विरासत की एक झलक पाने के लिए अतीत में झाँककर देखें, और (science and humanities) विज्ञान और मानव-सौहार्द में विकास की पढाई के साथ साथ शारीरिक बल-वृद्धि (upkeep of the physique) की शिक्षा भी प्राप्त करें। तथा स्वयं को कुछ ऐसे कार्यों में नियोजित रखें, जो सेवा भावना के साथ बिना किसी निजी स्वार्थ कि इच्छा से किये जाते हों।
मनुष्य-निर्माण (Man-Making): ' मनुष्य बनना और बनाना ' एक ऐसा महत्वपूर्ण कार्य है, जो केवल किताबी शिक्षा के माध्यम से कभी संभव नहीं है। युवाओं को चाहिये कि दूसरों की भलाई के लिए अपने क्षुद्र स्वार्थ (नाम-यश) को भूलकर इसी कार्य में अपने - 'ह्रदय, मन और शरीर' को नियोजित करदें। स्वामीजी द्वारा प्रदत्त 'आदर्श वाक्य'- " Be and Make " की सशक्त अभिव्यक्ति के अनुसरण करने का यही एक मात्र रास्ता है।
इस प्रकार महामंडल का ' सामान्य उद्देश्य' स्वामी विवेकानन्द के चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माण के आदर्शों में सन्निहित भारतीय संस्कृति के मूल्यों का व्यापक तौर से, विशेष रूप से युवाओं के बीच प्रचार-प्रसार करना है। और इसका 'चरम उद्देश्य' युवा ऊर्जा को नि:स्वार्थ सेवा के माध्यम से अनुशासित करके उसे राष्ट्र निर्माण की गतिविधियों में नियोजित कर, एक बेहतर समाज के लिए बेहतर मानव सामग्री (better human material for a better society) का निर्माण करना है।
महामण्डल की कार्य-पद्धति (THE METHOD): " एक मन हो जाना ही सफलता का रहस्य है। "- इस दृष्टि से देश के विभिन्न हिस्सों, विभिन्न राज्यों में समान उद्देश्य एवं विचारों के अनुरूप कार्यरत विभिन्न संस्थानों और चिन्तकों को एक दूसरे के करीब लाना हमारी सबसे पहली आवश्यकता है। वास्तव में, यह काम कई राज्यों में शुरू भी हो गया है।
भारत के विभिन्न राज्यों में ऐसे कई चिंतक संस्थायें और संगठन हैं, जो महामण्डल के उद्देश्य और कार्यपद्धति को स्वीकार्य समझकर, सामान-उद्देश्य की एकता को प्रगाढ़ करने के लिए, या दूसरे शब्दों में कहें तो लक्ष्य की प्राप्ति में सशक्त संयुक्त प्रयास करने के लिए, अपनी पहचान को खोये बिना भी, महामंडल के साथ संबद्ध हो सकते हैं।
उनको बहुत शीघ्र ही यह पता चल जायेगा, कि महामंडल द्वारा प्रदत्त कई सामान्य कार्यक्रम में से कुछ के निष्पादन में वे अकेले नहीं हैं, बल्कि पहले से ही लगे हुए हैं। जैसे ही उन्हें यह पता चलेगा, कि स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं के अनुरुप युवाओं के चरित्र-निर्माण की दृष्टि से, उन्होंने अब तक जो कुछ भी कार्य किये हैं वे तुच्छ नहीं है, बल्कि स्वतः क्रियाशील बहुत बड़ी योजना (Divine Plan) का हिस्सा हैं, वैसे ही उनके कार्य को अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त हो जायेगी।
यदि महामंडल के ' लक्ष्य और कार्यपद्धति ' में वैयक्तिक रूप से भी किसी को अभिरुचि हो, तो वे महामंडल की मौजूदा इकाइयों में से किसी में शामिल हो सकते हैं, या चाहें तो सीधा केंद्रीय-संगठन के साथ मिलकर भी काम कर सकते हैं। यदि वे अपने कार्यक्षेत्र में पहले कोई समिति स्थापित करना चाहते हों, तो बाद में वे भी महामण्डल के साथ जुड़ सकते हैं। या यदि कोई व्यक्ति महामण्डल के निर्देशन में अपने क्षेत्र में 'नई इकाई' स्थापित करने की कोशिश करना चाहते हों, वे भी महामंडल में शामिल हो सकते हैं।
शिक्षण संस्थानों के छात्र और शिक्षक-गण भी यदि चाहें, तो उपर्युक्त विधियों में से किसी एक को अपना कर में महामंडल में शामिल हो सकते हैं, और वे अपनी संस्था के भीतर या बाहर एक समिति गठित करने के बाद महामण्डल की एक सम्बद्ध इकाई बन सकते हैं। यदि पुराने छात्र शिक्षा-संस्थान से पास करके बाहर चले जाते हैं, तो नए छात्रों से इस तरह के समूहों के पुराने सदस्यों की जगह को भरा जा सकता है।
कार्य के पीछे की भावना (THE SPIRIT OF WORK): महामंडल जिस सामान्य कार्यक्रम का अनुशरण करने का इरादा रखता है, उस सामान्य कार्यक्रम में ' भाव की शुद्धता ' को अक्षुण्ण बनाये रखने पर वह सर्वाधिक बल देता है। महामण्डल की मनुष्य-निर्माणकारी जीवन-गठन के प्रशिक्षण कार्यवाही में नया कहने जैसा कुछ भी नहीं है। किन्तु यहाँ किसी भी कार्य को, यहाँ तक कि छोटे से छोटे कार्य को भी इतनी निष्ठां और शुद्धता के साथ करने का प्रशिक्षण दिया जाता है, जो कार्य-कर्ता के चरित्र पर अपना विशिष्ट छाप छोड़ जाता है । स्वामीजी ने कहा था, ' युगों-युगों तक संघर्ष करने के बाद एक चरित्र को गठित किया जाता है।'
इसलिये अब बिना देर किये है, हमें यथार्थ मनुष्य बनने का प्रशिक्षण लेना प्रारम्भ कर देना चाहिये, क्योंकि- " जिंदगी छोटी है और जगत के आकर्षण बड़े क्षणिक हैं, किन्तु यहाँ वे लोग ही जीवित रहते हैं, जो दूसरों के लिये जीते हैं, बाकी लोग तो मृत से भी ज्यादा अधम हैं। "
' यदि हम साधन को ठीक कर लेते हैं, तो साध्य स्वयं अपनी ध्यान रख लेगा।'' Let us perfect the means; the end will take care of itself.' ' जगत कार्य है, और हम हैं कारण, इसलिये यह जगत तभी अच्छा और पवित्र हो सकता है, जब हमारे स्वयं का जीवन अच्छा है और पवित्र हो; इसलिए आओ- हम स्वयं को पवित्र बना लें !" For the world can be good and pure, only if our lives are good and pure. Therefore, let us purify ourselves. Let us make ourselves perfect.' और यह तभी संभव हो सकता है, जब 'हम त्याग और सेवा की भावना' में काम करना सिख लें ! And that is possible only if we work in a spirit of sacrifice and service. क्योंकि मानव-जाति के मार्ग-दर्शक नेतृत्व का रहस्य " सेवा करना और प्रेरणा भरना है!"
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " हमें विश्वास है कि सभी जीव ब्रह्म हैं। प्रत्येक आत्मा मानो अज्ञान के बादल से ढके हुए सूर्य के समान है और एक मनुष्य से दुसरे का अन्तर केवल यही है कि कहीं सूर्य के ऊपर बादलों का घना आवरण है और कहीं कुछ पतला। हमें विश्वास है कि यही वेदों का सार है, हर एक मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरे मनुष्य को इसी तरह, अर्थात् ईश्वर समझकर, सोचे और उससे उसी तरह अर्थात् ईश्वर-दृष्टि से बर्ताव करे; उससे घृणा न करे, उसे कलंकित न करे और न उसकी निन्दा ही करे। किसी भी तरह से उसे हानी पहुँचाने कि चेष्टा भी न करे। (ऐसा साधू बनना ) यह केवल सन्यासी का ही नहीं, वरन सभी नर-नारियों का कर्तव्य है।" (वि० सा० ख० २: ३२६-२७ ) ' जो व्यक्ति मानव-जाति की सहायता करना चाहते हों, उन्हें अपने स्वयं के सुख और दुख, नाम- यश, एवं समस्त प्रकार के निजी स्वार्थों और भोगों को एक बंडल बनाकर और समुद्र में फेंक देना चाहिए। " ' Those that want to help man-kind must take their own pleasure and pain, name and fame, and all sorts of interests, and make a bundle of them and throw them into the sea,"
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " हमें विश्वास है कि सभी जीव ब्रह्म हैं। प्रत्येक आत्मा मानो अज्ञान के बादल से ढके हुए सूर्य के समान है और एक मनुष्य से दुसरे का अन्तर केवल यही है कि कहीं सूर्य के ऊपर बादलों का घना आवरण है और कहीं कुछ पतला। हमें विश्वास है कि यही वेदों का सार है, हर एक मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरे मनुष्य को इसी तरह, अर्थात् ईश्वर समझकर, सोचे और उससे उसी तरह अर्थात् ईश्वर-दृष्टि से बर्ताव करे; उससे घृणा न करे, उसे कलंकित न करे और न उसकी निन्दा ही करे। किसी भी तरह से उसे हानी पहुँचाने कि चेष्टा भी न करे। (ऐसा साधू बनना ) यह केवल सन्यासी का ही नहीं, वरन सभी नर-नारियों का कर्तव्य है।" (वि० सा० ख० २: ३२६-२७ ) ' जो व्यक्ति मानव-जाति की सहायता करना चाहते हों, उन्हें अपने स्वयं के सुख और दुख, नाम- यश, एवं समस्त प्रकार के निजी स्वार्थों और भोगों को एक बंडल बनाकर और समुद्र में फेंक देना चाहिए। " ' Those that want to help man-kind must take their own pleasure and pain, name and fame, and all sorts of interests, and make a bundle of them and throw them into the sea,"
' ऐसा कभी मत सोचना कि तुम जगत को बेहतर और ज्यादा-खुशतर बना सकते हो । '' Never think you can make the world
better and happier.' केवल इतना ही सोचो कि ' यह हमारा सौभाग्य है, कि दानी बनने का विशेषाधिकार हमें प्राप्त हुआ है, ताकि हम स्वयं को विकसित कर सकें ' ' It is our privilege to be allowed to be charitable,
for only so can we grow'
" यद्यपि ईश्वर सर्वत्र है, तो भी उसको हम केवल मनुष्य चरित्र में और उसके द्वारा ही जान सकते हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंस के जैसा पूर्ण चरित्र कभी किसी महापुरुष का नहीं हुआ और इसीलिए हमें उन्हीं को केन्द्र बनाकर संगठित होना पड़ेगा। हाँ,
हर एक आदमी उनको अपनी-अपनी भावना के अनुसार ग्रहण करे, इसमे कोई बाधा
नहीं डालनी चाहिए। चाहे कोई उन्हें ईश्वर माने, चाहे परित्राता या आचार्य,
या आदर्श पुरूष अथवा मार्गदर्शक महापुरुष- जो जैसा चाहे।
संगठन बनाकर सेवा करने के महत्व पर स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " ज्ञानमार्ग अच्छा है, परन्तु
उसके शुष्क तर्क में परिणत हो जाने का डर रहता है। प्रेम बड़ी ही उच्च
वस्तु है, पर निरर्थक भावुकता में परिणत होकर उसके विनष्ट होने का भय रहता
है। हमें इन सभी का समन्वय ही अभीष्ट है। श्री रामकृष्ण का जीवन ऐसा ही समन्वयपूर्ण था। ऐसे महापुरुष जगत् में बहुत कम ही आते हैं, परन्तु हम उनके जीवन और उपदेशों को आदर्श के रूप में सामने रखकर आगे बढ़ सकते है। यदि हममे से प्रत्येक उस आदर्श की पूर्णता
को व्यक्तिगत रूप में प्राप्त न कर सकें, तो भी हम उसे सामूहिक रूप में
परस्पर एक दुसरे के परिमार्जन, सन्तुलन, आदान-प्रदान से एवं सहायक बनकर
प्राप्त कर सकते हैं। यह समन्वय कई एक व्यक्तियों द्वारा साधित होगा और यह
अन्य सभी प्रचलित धर्ममतों की अपेक्षा श्रेष्ठ होगा।"
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