'अहम् से परम की यात्रा'
शिक्षा और धर्म को स्वामी विवेकानन्द एक दूसरे का पूरक मानते थे। वे कहते हैं, धर्म वह वस्तु है, जिसका अनुशीलन करने से दानव (पाशविक प्रवॄत्ति वाला घोर स्वार्थी जीव) मानव में, और मानव देवता (निःस्वार्थपरता) में रुपतान्तरित हो जाता है।और शिक्षा मन का वैसा प्रशिक्षण है, जिसका अनुशीलन करने से, हमारा संकल्प इतना दृढ़ हो जाता है,कि हम अपनी इच्छाशक्ति के प्रवाह को नश्वर किन्तु प्रेय (pleasant) वस्तुओं से खींच कर अविनश्वर श्रेय (good) वस्तु में लगाने में सक्षम हो जाते हैं, एवं पहले से विद्य्मान हमारी अन्तर्निहित पूर्णता अभिव्यक्त होने लगती है! स्वामी विवेकानन्द डार्विन के विकासवाद के सिद्धान्त की तुलना पतंजली के सिद्धान्त- 'प्रकृत्यापुरात' की व्याख्या के साथ करते हुए कहते हैं, कि शरीर के मरने के बाद भी जीवात्मा रहती है, और जब तक अपने यथार्थ स्वरुप को नहीं जान लेती तब तक उसका देहान्तर (या पुनर्जन्म) होता रहता है!
वे कहते हैं, " वर्तमान काल में सबसे बड़ा प्रश्न है-अगर ज्ञात और ज्ञेय जगत का आदि और अन्त, अनन्त अज्ञात और अनन्त अज्ञेय द्वारा सीमाबद्ध है, तो उस अज्ञात को जानने के लिये हम प्रयास ही क्यों करें? क्यों न हम ज्ञात जगत में सन्तुष्ट रहें ? ऐसे प्रश्न अक्सर सुनने को मिलते हैं। विद्वान् प्राध्यापक से लेकर तुतलाते बच्चों तक को सिखाया जाता है, कि ' संसार की भलाई करो; यही सारा धर्म है, इस जगत के परे क्या है -इससे जुड़े प्रश्नों से व्यर्थ अपने को परेशान मत करो। ' यह बात इतनी चल पड़ी है कि उसने एक कहावत का रूप ले लिया है। … किन्तु अगर हम इस जगत के परे के तत्व को न जाने, तो जीवन रेगिस्तान बन जायेगा। मानव जीवन निस्सार हो जायेगा। यह कहना तो बहुत अच्छा है कि प्रस्तुत क्षण की वस्तुओं से ही सन्तुष्ट रहो। गाय और कुत्ते तो वैसे सन्तुष्ट हैं ही; सभी जानवर ही उस तरह सन्तुष्ट हैं, और यही उन्हें जानवर बनाये हुए है। यह धर्म ही है, पूर्णत्व की खोज ही है, जो मनुष्य और पशु में भेद करती है। मनुष्य वर्तमान में जो है, वह इस धर्म की शक्ति से ही हुआ है, और उससे ही ऊपर उठकर यह मनुष्य नामक प्राणी देवता बनेगा। क्या कोई भी गति सीधी रेखा में होती है? और यदि सीधी रेखा अनन्त दूरी तक बढ़ायी जाय, तो वह एक वृत्त बना देती है, और प्रारम्भ-बिन्दु पर लौट आती है। जहाँ से तुमने प्रारम्भ किया था, वहीं लौटकर आना पड़ेगा। अगर तुमने ईश्वर से प्रारम्भ किया है, तो अन्ततः ईश्वर ही के पास लौट आना होगा। तब शेष क्या रह जायेगा? तुम्हारा स्फुट कार्य। अनन्त काल तक तुमको स्फुट कार्य करते रहना पड़ेगा। अगर हम उस दैवी सत्ता के साथ एक हो चुके हों, तो इस अर्थ में आगे और प्रगति नहीं हो सकती। ज्ञान का अर्थ है, विविधता में इस एकता की उपलब्धि। मैं यदि तुम लोगों के बीच स्त्री और पुरुष देखता हूँ -यह हुई विविधता। यदि मैं तुम सब लोगों को एक ही वर्ग में रखकर मानव कहूं, तो यह वैज्ञानिक ज्ञान कहा जायेगा। " ४/१८८-९०
इण्डो वेदान्तिक धर्म जिसे भारत में सनातन धर्म कहा जाता है, के अनुसार यह जीवन अहम् से परम तक की यात्रा है। किसी ब्रह्मज्ञ गुरु से दीक्षा लेकर, उनसे ब्रह्म के नाम-जप के मन्त्र का श्रवण-मनन- निदिध्यासन करने से अंत में जो समाधी या ‘क्रम-मुक्ति' (Gradual Liberation) प्राप्त होती है, यही मुक्ति-प्राप्त करने का सामान्य और आदर्श मार्ग है। किन्तु श्रीरमण महर्षि कुछ ऐसे भाग्यवान लोगों में एक थे, जिन्होंने अपने मौत के अनुभव के बाद कहा था, " उपर्युक्त चरणों में से किसी भी चरण से गुजरने से पहले ही, मैं 'अक्रम-मुक्ति' (Sudden Liberation) से आवेशित हो गया, जो कि ज्ञान-योग के वेदान्त मार्ग से प्राप्त होने वाले 'क्रम-मुक्ति' के विपरीत है।"
महर्षि रमण मनुष्य मात्र के ही नहीं अपितु पशु पक्षियों के भी हितैषी थे, गाय, चिड़िया, बंदर तथा गिलहरी उनके आश्रमवासी थे, उनके संगी साथी थे। उनका आश्रम प्राचीन मुनियों के आश्रम की याद दिलाता था। वे सदैव उन्हें सम्मानित ढ़ंग से आप कहकर संबोधित करते थे। जब उनकी लक्ष्मी नामक गाय मर गई तब वे फूट-फूट कर रोए थे। वे कहते हैं, " वर्तमान काल में सबसे बड़ा प्रश्न है-अगर ज्ञात और ज्ञेय जगत का आदि और अन्त, अनन्त अज्ञात और अनन्त अज्ञेय द्वारा सीमाबद्ध है, तो उस अज्ञात को जानने के लिये हम प्रयास ही क्यों करें? क्यों न हम ज्ञात जगत में सन्तुष्ट रहें ? ऐसे प्रश्न अक्सर सुनने को मिलते हैं। विद्वान् प्राध्यापक से लेकर तुतलाते बच्चों तक को सिखाया जाता है, कि ' संसार की भलाई करो; यही सारा धर्म है, इस जगत के परे क्या है -इससे जुड़े प्रश्नों से व्यर्थ अपने को परेशान मत करो। ' यह बात इतनी चल पड़ी है कि उसने एक कहावत का रूप ले लिया है। … किन्तु अगर हम इस जगत के परे के तत्व को न जाने, तो जीवन रेगिस्तान बन जायेगा। मानव जीवन निस्सार हो जायेगा। यह कहना तो बहुत अच्छा है कि प्रस्तुत क्षण की वस्तुओं से ही सन्तुष्ट रहो। गाय और कुत्ते तो वैसे सन्तुष्ट हैं ही; सभी जानवर ही उस तरह सन्तुष्ट हैं, और यही उन्हें जानवर बनाये हुए है। यह धर्म ही है, पूर्णत्व की खोज ही है, जो मनुष्य और पशु में भेद करती है। मनुष्य वर्तमान में जो है, वह इस धर्म की शक्ति से ही हुआ है, और उससे ही ऊपर उठकर यह मनुष्य नामक प्राणी देवता बनेगा। क्या कोई भी गति सीधी रेखा में होती है? और यदि सीधी रेखा अनन्त दूरी तक बढ़ायी जाय, तो वह एक वृत्त बना देती है, और प्रारम्भ-बिन्दु पर लौट आती है। जहाँ से तुमने प्रारम्भ किया था, वहीं लौटकर आना पड़ेगा। अगर तुमने ईश्वर से प्रारम्भ किया है, तो अन्ततः ईश्वर ही के पास लौट आना होगा। तब शेष क्या रह जायेगा? तुम्हारा स्फुट कार्य। अनन्त काल तक तुमको स्फुट कार्य करते रहना पड़ेगा। अगर हम उस दैवी सत्ता के साथ एक हो चुके हों, तो इस अर्थ में आगे और प्रगति नहीं हो सकती। ज्ञान का अर्थ है, विविधता में इस एकता की उपलब्धि। मैं यदि तुम लोगों के बीच स्त्री और पुरुष देखता हूँ -यह हुई विविधता। यदि मैं तुम सब लोगों को एक ही वर्ग में रखकर मानव कहूं, तो यह वैज्ञानिक ज्ञान कहा जायेगा। " ४/१८८-९०
इण्डो वेदान्तिक धर्म जिसे भारत में सनातन धर्म कहा जाता है, के अनुसार यह जीवन अहम् से परम तक की यात्रा है। किसी ब्रह्मज्ञ गुरु से दीक्षा लेकर, उनसे ब्रह्म के नाम-जप के मन्त्र का श्रवण-मनन- निदिध्यासन करने से अंत में जो समाधी या ‘क्रम-मुक्ति' (Gradual Liberation) प्राप्त होती है, यही मुक्ति-प्राप्त करने का सामान्य और आदर्श मार्ग है। किन्तु श्रीरमण महर्षि कुछ ऐसे भाग्यवान लोगों में एक थे, जिन्होंने अपने मौत के अनुभव के बाद कहा था, " उपर्युक्त चरणों में से किसी भी चरण से गुजरने से पहले ही, मैं 'अक्रम-मुक्ति' (Sudden Liberation) से आवेशित हो गया, जो कि ज्ञान-योग के वेदान्त मार्ग से प्राप्त होने वाले 'क्रम-मुक्ति' के विपरीत है।"
श्रीरमण महर्षि (१८७९ -१९५०)
यूरोप के एक लेखक पॉल ब्रंटन और ने रमण महर्षि की ख्याति के बारे में सुना तो वे उत्सुकतावश महर्षि से मिलने के लिए आश्रम पहुँचे। वहाँ उनके साथ जो घटना घटी, उसने उनकी आंखें खोल दी। वे रात को एक मचान पर सोने की तैयारी कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि मचान पर एक जहरीला साँप चढ़ रहा है। उन्हें लगा कि आज उनकी मृत्यु निश्चित है। तभी रमण महर्षि का एक सेवक वहाँ आया औऱ साँप को मनुष्य की तरह संबोधित करते हुए कहा- "ठहरो बेटा"। साँप एक आज्ञाकारी बालक की तरह जहाँ का तहाँ रुक गया और फिर पहाड़ों की तरफ़ गया और गायब हो गया। यह अद्भुत घटना थी। पाल ब्रंटन के लिए यह चकित करने वाली घटना थी। उन्होंने आश्रम के सेवक से पूछा- "आखिर तुमने यह चमत्कार कैसे किया?" सेवक ने कहा- "यह मैंने नहीं, रमण महर्षि ने चमत्कार किया। उनका कहना है कि जीव- जंतु किसी से भी अगर हम गहरे प्यार से बोलेंगे तो वह जरूर सुनेगा।"
पॉल ब्रंटन (: २१ अक्टूबर,१८९८ -२७ जुलाई, १९८१)
[पॉल ब्रंटन (Paul Brunton) एक ब्रिटिश दार्शनिक, रहस्यवादी और यात्री थे। उन्होंने योगियों, मनीषियों, और पवित्र लोगों के बीच रह कर, प्राच्य तथा पाश्चात्य की गूढ़ शिक्षाओं का अध्यन करने के उद्देश्य से अपने पत्रकारिता के कैरियर का त्याग कर दिया था।]
१९३० के दशक में, ब्रंटन भारत की यात्रा पर निकले, और इस यात्रा के क्रम में वे मेहर बाबा, कांचीपुरम के श्री शंकराचार्य और श्री रमण महर्षि जैसे अध्यात्मिक दिग्गजों के संपर्क में आये। १९३१ में ब्रंटन ने श्री रमण महर्षि के आश्रम में की पहली यात्रा की। ब्रंटन ने उनसे "ईश्वर प्राप्ति के लिए रास्ता क्या है?"… आदि आदि कई सवाल पूछे। और महर्षि ने कहा: " विचार कर के देखो, अपने आप पूछो- 'मैं कौन हूं?' अपने स्वयं के प्रकृति की जांच कर देखो।"
अपनी 'A Search in Secret India' या 'अ सर्च इन सीक्रेट इण्डिया' तथा 'The Secret Path' 'द सीक्रेट पाथ' नामक दो पुस्तकों के माध्यम से, पाश्चात्य जगत् को श्रीरमण महर्षि से परिचित कराने का श्रेय पॉल ब्रंटन को ही दिया जाता है। और एक दिन जब ब्रंटन, रमण महर्षि के सानिध्य में बैठे हुए थे, उन्हें एक ऐसी 'अनुभूति' हुई, जिस अनुभूति का वर्णन करते हुए, स्टीव टेलर (Steve Taylor) कहते हैं, " परम सत्य के ज्ञान की वह एक ऐसी अनुभूति थी, जिसने पॉल ब्रंटन को हमेशा के लिये एक अन्य प्रकार के मनुष्य में परिणत कर दिया था।"
इधर जुंग भी यह मानते थे कि जीवन के अचेतन की चेतना के पार भी कुछ आध्यात्मिक आयाम होते हैं। कार्ल गुस्ताफ जुंग ने पॉल ब्रान्टन की पुस्तक 'अ सर्च इन सीक्रेट इंडिया' पढ़ी। इसमें इन्हें भारतीय संत महर्षि रमण व उनकी आध्यात्म विद्या की अनुसंधान विधि का पता चला। जिज्ञासु जुंग की इनसे मिलने की इच्छा हुई। संयोगवश 1938 में भारत आ गए। दिल्ली पहुंचकर उन्होंने सरकारी काम निपटाया, फिर निकल पड़े तिरुवन्नमलाई के अरूणाचलम पर्वत की तरफ। महर्षि रमण का यहीं निवास था। शाम को अरूणाचलम की तलहटी में खुले स्थान पर महर्षि से मुलाकात हुई। महर्षि उस समय शरीर पर केवल कौपीन धारण किए हुए थे। उनके चेहरे पर हल्की दाढ़ी, होठों पर बालसुलभ निर्दोष हँसी, आँखों में आध्यात्मिक प्रकाश के साथ प्रगाढ़ अपनापन था। प्रख्यात् मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग को महर्षि अपने से लगे। एक दिन जुंग, रमन महर्षि के साथ वार्तालाप करते हुए धीमे कदमों से टहल रहे थे। उनके मन में शंका भी उठी कि ग्रामीण जनों की तरह दिखने वाले ये महर्षि क्या उनके वैज्ञानिक मन की जिज्ञासाओं का समाधान कर पाएँगे?
उनके मन में आए इस प्रश्र के उत्तर में महर्षि ने हल्की सी मीठी हंसी के साथ कहा- भारत के प्राचीन ऋषियों की अध्यात्म विद्या की अनुसंधान विधि सम्पूर्णतया वैज्ञानिक है। आधुनिक वैज्ञानिक एवं वैज्ञानिक चिन्तन- चेतना के लिए इसे वैज्ञानिक अध्यात्म कहना ठीक रहेगा। टहलते- टहलते रमन महर्षि ने स्विस मनोचिकित्सक कार्ल गुस्ताव जुंग से कहा- "इस आध्यात्मिक जिज्ञाषा के समाधान के लिये मैंने ‘नेति-नेति विचार’ (ज्ञान-योग contemplation) तथा राज-योग (meditation) की अनुसंधान विधि का चयन किया।"
“ मेरे आध्यात्मिक प्रयोग की वैज्ञानिक जिज्ञासा थी- मैं कौन हूँ ? इसके समाधान के लिए मैंने मनन एवं ध्यान की अनुसन्धान विधि का चयन किया। इसी अरूणाचलम पर्वत की विरूपाक्षी गुफा में शरीर व मन की प्रयोगशाला में मेरे प्रयोग चलते हैं। इन प्रयोगों के परिणाम में अपरिष्कृत अचेतन परिष्कृत होता गया। चेतना की नयी- नयी परतें खुलती गयी। इनका मैंने निश्चित कालक्रम में परीक्षण एवं ऑकलन किया। और अन्त में मैं निष्कर्ष पर पहुँचा, मेरा अहं आत्मा में विलीन हो गया। बाद में आत्मा- परमात्मा से एकाकार हो गयी। “ अहं के आत्मा में स्थानान्तरण ने मनुष्य को भगवान् में रूपान्तरित कर दिया।”
महर्षि
रमण के चरणों में बैठकर उन्होंने उच्च आध्यात्मिक जीवन का रहस्य सीखा।
जुंग एक सिद्ध साधक के रूप में उभरें व विश्व के यह ज्ञान दिया कि मानव के
भीतर असीमित शक्तियाँ छिपी पड़ी है यदि वासनाओं एवं इच्छाओं को रूपान्तरित ( या उद्दातीकरण Sublimation) कर दिया जाए तो मानव जीवन एक अनमोल वरदान बन सकता है ओर मनुष्य निहाल हो सकता है। महर्षि रमण से इस भेंट के बाद वह भारत से वापस लौटे। और फिर इसी वर्ष १९३८ ई. में उन्होंने येले विश्वविद्यालय में अपना व्याख्यान दिया ‘मनोविज्ञान एवं धर्म’। इसमें उनके नवीन दृष्टिकोण का परिचय था। बाद के वर्षों में उन्होंने ‘श्री रमण एण्ड हिज़ मैसेज टु माडर्न मैन’ के प्राक्कथन में अपनी ओर से लिखा- श्री रमन भारत भूमि के सच्चे पुत्र हैं। वह अध्यात्म की वैज्ञानिक अभिव्यक्ति के प्रकाशपूर्ण स्तम्भ हैं और साथ में कुछ अद्भुत भी। उनके जीवन एवं शिक्षा में हमें पवित्रतम् भारत के दर्शन होते हैं, जो समूची मानवता को वैज्ञानिक अध्यात्म के मूलमन्त्र का सन्देश दे रहा है। परन्तु यह हमारा दुर्भाग्य है कि फ्रायड के रूचि के साथ पढ़ते है जानते ओर मानते है परन्तु जुंग के बहुत ही कम लोग जानते है। क्या कहीं जानबूझकर ही तो ऐसे व्यक्तित्वों के समाज में प्रसिद्ध नहीं किया जाता जो भारतीय दर्शन के प्रशंसक रहे हो ?
रमण महर्षि : को अद्वैत ज्ञान का साकार रूप माना जाता है। अधिकांश व्यक्तियों को लक्ष्य की ओर धीमी एवं श्रमसाध्य यात्रा करनी पड़ती है किन्तु कुछ व्यक्ति, समस्त अस्तित्वों के स्रोत – सर्वोच्च आत्मा में निर्विघ्न उड़ने के लिए जन्मजात प्रतिभा लिए पैदा होते हैं । जब कभी ऎसा कोई ऋषि प्रकट होता है तो सामान्यतया मानवजाति उसे अपने हृदय में स्थान देती है। किन्तु जब कभी ऐसी घटना घटित होती है तो उससे समस्त मानव जाति लाभान्वित होती तथा उसके समक्ष आशा का एक नया आयाम खुल जाता है । यद्यपि उनके साथ गति रखना संभव नहीं होता किन्तु उनकी उपस्थिति एवं सान्निध्य में उस आन्नद की अनुभूति होती है जिसके समक्ष सांसारिक सुख नहीं के बराबर होते हैं ।
रमण महर्षि का जन्म ३० दिसम्बर, सन १८७९ में मदुरई, के पास 'तिरुचुली' नामक गाँव (तमिलनाडु) में हुआ था। तिरुवन्नमलई, बेंगलुरु से २१० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. जन्म के बाद रमण के माता-पिता ने उनका नाम वेंकटरमण अय्यर रखा था।
१८९२ में, जब उनकी उम्र १३ वर्ष थी, वेंकटरमण के पिता सुंदरम अय्यर अचानक गंभीर रूप से बीमार हो गये और अप्रत्याशित रूप से ४२ वर्ष की उम्र में कई दिनों के बाद उनका निधन हो गया. अपने पिता की मृत्यु के बाद, कुछ घंटे तक वे मृत्यु के रहस्य पर विचार करने लगे, और यह सोचने लगे कि, पिता का शरीर तो अभी भी वहाँ था, किन्तु उनका 'मैं' कहाँ चला गया होगा ? मनुष्य , ईश्वर से जो माँगता है, ईश्वर उसे वही देते हैं । ये उनकी कृपा है। परंतु , जो भक्त , ईश्वर को , अपना सर्वस्व दे देते हैं और शरणागति अपना लेते हैं और ईश्वर में दृढ आस्था और विश्वास स्थापित करते हैं, उन्हें ईश्वर, अपना प्रेम प्रदान करते हैं । भक्ति का स्वीकार और ईश्वर की अनुकम्पा का प्रसाद , तभी प्राप्त होता है। और ईश्वर भक्त को सर्वस्व मिल जाता है।
रमण को १७ वर्ष की अवस्था में आध्यात्मिक अनुभव हुआ। एक दिन रमण एकांत में अपने चाचा के घर की पहली मंजिल पर बैठे थे। हमेशा की तरह वें पूर्णतः स्वस्थ थे। अचानक से उन्हें मृत्यु के भय का अनुभव हुआ। उन्होंने महसूस किया कि वे मरने के लिए जा रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा था, वह नहीं जानते थे। लेकिन आने वाली मृत्यु से वे बौखलाए नहीं।
उन्होंने शांतिपूर्वक सोचा कि क्या करना चाहिए। उन्होंने अपने आप से कहा- "अब मृत्यु आ गयी है!" इसका क्या मतलब है? वह क्या है जो मर रहा है? यह शरीर मर जाता है। वह तत्काल लेट गए। अपने हाथ पैरों को सख्त कर लिया और साँस को रोककर होठों को बंद कर लिया। इस समय उनका जैविक शरीर एक शव के समान था। अब क्या होगा? यह शरीर अब मर चुका है। यह अब जला दिया जायेगा और राख में बदल जायेगा। लेकिन शरीर की मृत्यु के साथ क्या मैं भी मर गया हूँ? क्या मैं शरीर हूँ? यह
शरीर तो शांत और निष्क्रिय है। लेकिन मैं तो अपनी पूर्ण शक्ति और यहाँ तक
कि आवाज को भी महसूस कर पा रहा हूँ। मैं इस शरीर से परे एक आत्मा हूँ। शरीर
मर जाता है, पर आत्मा को मृत्यु नहीं छू पाती। मैं अमर आत्मा हूँ।बाद में रमण ने इस अनुभव को अपने भक्तों को सुनाया और बताया कि यह अनुभव तर्क की प्रक्रिया से परे है। उन्होंने सीधे सच को जाना (आत्मसाक्षात्कार द्वारा) और मृत्यु का डर सदा के लिए गायब हो गया।
इस प्रकार युवा वेंकटरमण ने बिना किसी साधना के अपने आप को आध्यात्मिकता के शिखर पर पाया। उनका अहंकार स्वयं जागरूकता की बाढ़ में कहीं खो गया। युवा ऋषि का जीवन अचानक बदल गया। जो वस्तुएँ पहले मूल्यवान थीं, उन्होंने अपना मूल्य खो दिया। अध्ययन, मित्र, रिश्तेदार, परिवार आदि का उनके जीवन में कोई महत्व नहीं रह गया। वह पूरी तरह अपने परिवेश के प्रति उदासीन हो गये। १७ वर्ष की अल्पायु में ही रमण का व्यवहार एक योगी के समान था। विनय, गैर प्रतिरोधकता और अन्य गुण उनके श्रंगार बन गये। उनके सामने बैठने वाले लोगों को विशेष अनुभव होता था। कुछ ने अनुभव किया कि जैसे समय रुक गया है। कुछ ने एक असीम शांति, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, का अनुभव उनकी मुस्कुराती शांत आँखों में देखते हुए किया।
रमण ने १९४५ में उस अवस्था का वर्णन करते हुए एक आगंतुक से कहा था, मुझे यह अनुभव हुआ कि "अहम् स्फुरणा (स्व जागरूकता) शास्वत-चैतन्य है- 'I am That !' और जिसे हमलोग शरीर, नाम-रूप या ‘ मैं ’ कहते हैं, वह हमारा यथार्थ मैं नहीं है। इस आत्मचेतना (self-awareness) का कभी क्षय नहीं होता, इसमें कोई विकार नहीं आता, यह शरीर-मन या नाम-रूप से असंबद्ध है, आत्म-प्रदीप्त है।"
समाधी से पुनरुत्थान होने के बाद रमण को पहले-पहल ऐसा लगा उस पर कोई भूत सवार हो गया है, जो उसके शरीर में प्रविष्ट हो गया है, यही भावना हफ्तों बनी रही थी। बाद के जीवन में, उन्होंने अपने मौत के अनुभव को ‘ अक्रम-मुक्ति ‘ (sudden liberation) की संज्ञा दी थी, जो कि ज्ञान-योग के वेदान्त मार्ग से प्राप्त होने वाले 'क्रम-मुक्ति' (gradual liberation) के विपरीत है। किसी ब्रह्मज्ञ गुरु से दीक्षा लेकर, उनसे ब्रह्म के नाम-जप के मन्त्र का श्रवण-मनन-निदिध्यासन करने से अंत में जो समाधी प्राप्त होती है, यही मुक्ति-प्राप्त करने का सामान्य और आदर्श मार्ग है। इसको क्रम-मुक्ति [gradual liberation] कहा जाता है। किन्तु " मैं उपर्युक्त चरणों में से किसी भी चरण से गुजरने से पहले ही, मैं 'अक्रम-मुक्ति' (sudden liberation या अकस्मात मुक्ति] से आवेशित हो गया।"
शुद्ध तत्वज्ञान की दृष्टि से ‘मैं’ आत्मज्ञान की तरफ इशारा करता है और आत्मज्ञान कभी होता ही नहीं। ये तो कबीर जैसे अवधूत कह सकते हैं - 'जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिं' ---जब ‘मैं’ था अर्थात जब तक अहं था, तब हरि नहीं, अब हरि है ‘मैं’ नाहिं, मगर सत्य का एक खोजी होने के कारण मैं यह भूल नहीं पाता कि मनुष्य मल्टीसाइकिक है। वह पल-पल में चेहरा बदलता है।' रमण महर्षि कहते हैं, 'अपना विश्लेषण स्वयं करो'। काफी सतर्क होकर इस ‘मैं’ नाम वाले विषाणु का पीछा करो।
अपने को थर्ड पर्सन मानकर ‘मैं’ की कारगुजारी का अवलोकन करो। वह दिन जरूर आएगा कि तुम्हारा ‘अहं’ कपूर की तरह उड़ गया होगा और तुम्हें अपने भीतर चिति की आभा झलकती दिखेगी। यह भी लगेगा कि मेरे भीतर कुछ है, जो न कभी जन्मा था और न मरेगा। जैसे-जैसे यह अहसास खरा होता जाता है, आदमी व्यावहारिक जीवन कम तात्विक जिंदगी ज्यादा जीने लगता है।
यूँ , सभी को स्वतंत्रता प्रिय है। फ़िर भी , आत्मा को कर्म के बंधन से मुक्त करना ये कार्य दुसाध्य लगता है - इस ग्रंथि को तोड़ना और विलग होकर, मुक्त होना यही प्रथम , कदम है । उस अवस्था में , व्यक्ति का परिचय या नाम-रूप का अंत हो जाता है और कर्म की अच्छी या बुरी पकड़ से पर की अवस्था ही मुक्ति कहलाती है। जहाँ व्यक्ति के अहम् का नाश हो जाता है। वही अहम् से परम की यात्रा है ।महर्षि रमण के मतानुसार मन के कुविचारों को शुद्ध करने का एकमात्रा मार्ग है आत्मचिंतन। वे हमेशा अपने शिष्यों को आत्मचिंतन के जरिये अपने कुविचारों को शुद्ध करने की सलाह दिया करते थे।
१९४७ में उनके बाएं हाथ की कोहनी में एक गाँठ हो गयी। आश्रम के चिकित्सकों ने इसे काटकर बाहर निकाला, लेकिन एक महीने में यह फिर से हो गयी। जब शल्य क्रिया प्रारंभ करने का समय आया, तब चिकित्सकों ने महर्षि रमण को मूर्च्छावस्था में ले जाना चाहा, जिसे करने से उन्होंने मना कर दिया। उन्होंने कहा- "जिस शरीर पर तुम शल्य क्रिया कर रहे हो, वह मैं नहीं हूँ। मैंने अपने आपको शरीर से अलग कर रखा है और वेदना तो शरीर को होती है।" शल्य क्रिया के बाद भी वह गाँठ ठीक नहीं हो पायी। इसके बाद शल्य चिकित्सकों ने महर्षि का हाथ अलग करने का सुझाव दिया, जिसे उन्होंने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है, यह शरीर नश्वर है और आत्मा स्वाश्वत अमर है। इसलिए इस नश्वर शरीर के लिए दुखी नहीं होना चाहिए। और इस प्रकार महर्षि रमण अपनी जीवन लीला को समेटते हुए २४ अप्रैल १९५० को अंतिम सांस लेकर महासमाधि को उपलब्ध हो गये।
========
महर्षि रमण के कुछ उद्धरण :
- “ हालांकि दुष्ट-बुद्धि (या मक्कार) लोगों से भी तुम्हारा सामना हो सकता है, किन्तु उनसे नफरत या घृणा करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है। पसंद और नापसंद, प्यार और नफरत भी समान रूप से त्याज्य हैं। मन के लिये यह उचित नहीं है, कि उसको हमेशा भौतिक पदार्थों या सांसारिक विषयों के चिन्तन में लगाये रखा जाये। जहां तक संभव हो, दूसरों के मामलों में हमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।"
- “ यह प्रतीयमान जगत,विचार के सिवा अन्य कुछ भी नहीं है। जब मन सभी प्रकार के विचारों से मुक्त हो जाता है, उस समय व्यक्ति की दृष्टि से यह जगत-प्रपंच भी ओझल हो जाता है, और मन - निजानन्द या स्वयं के आनंद का भोग करता है। इसके विपरीत, जब जगत दिखाई देता है, अर्थात जब विचार प्रकट होने लगते हैं, उस समय मन दर्द और पीड़ा का अनुभव करता है। “
- “ जिस प्रकार मकड़ी अपने ही भीतर से जाला के धागे को बाहर निकालती है, और फिर अपने भीतर खींच लेती है, ठीक उसी तरह से मन अपने भीतर के जगत को बाहर प्रक्षिप्त करता है, और स्वयं ही उसको अपने भीतर समाहित कर लेता है।”
- “ किसी मनुष्य को अपने उन व्यक्तिगत स्वार्थों (कामिनी-कांचन में आसक्ति ) को त्याग देना चाहिये जो उसे इस नश्वर जगत से बाँध देता है। मिथ्या अहंकार (मैं -पन ) को त्याग देना ही सच्चा त्याग है। “
- “ प्रत्येक मनुष्य स्वभावतः दिव्य और ओजस्वी है। जो कुछ दुर्बल और अशुभ दिख रहे हैं, वे उसकी आदतें, वासनायें और विचार हैं, किन्तु वह स्वयं वैसा नहीं है।”
- “ वे जो अपना जन्मदिन मनाना चाहते हों,-सुने ! तुम पहले यह खोजो कि तुम्हारा जन्म कब हुआ था ? किसी व्यक्ति का वास्तविक जन्मदिन वह है, जिस दिन (१४-४-१९९२) वह अपने को एक अजन्मा, अविनाशी, अमृत-सन्तान के रूप में पहचान लेता है !
- " किसी व्यक्ति को कम से कम, अपने जन्मदिन के अवसर पर, इस संसार (जन्म-मृत्यु के चक्र) में प्रविष्ट होने की मूर्खता के लिये अफ़सोस प्रकट करना चाहिये। क्योंकि शरीर-यौवन पर गौरवान्वित होना और जश्न मनाना तो किसी लाश को अलंकृत करने, या शव का श्रृंगार करने जैसा है। अपनी आत्मा की खोज करना, और स्वयं में विलीन हो जाना -- इसीको ज्ञान या अपने सत्य-स्वरुप की पहचान कहते हैं।”
- “ एकाकी आत्मा या ‘स्व’ ही जगत् है, 'मैं' और भगवान (ब्रह्म) है! यह सारी कायनात, या जिस वस्तु का भी अस्तित्व है, वह सब किन्तु, उसी ब्रह्म (Supreme-परम) की अभिव्यक्ति है ! "“The Self alone is the world, the ‘I’ and God. All that exists is but the manifestation of the Supreme.”
- “ (3H-) वह चेतना…. जो इस भौतिक शरीर में ‘मैं' के रूप में पैदा होती है, ‘मन’ (mind या Head) है। यदि कोई व्यक्ति यह पता लगाने की चेष्टा करे, कि शरीर (body या Hand) के किस स्थान से ‘मैं’-पन का विचार उठता है--तो उसे पहला दृष्टान्त यही मिलेगा कि वह विचार सर्वप्रथम ‘हृदयम्’ या ‘Heart’ से उतपन्न होता है।” 3H - That which arises in the physical body as ’I′ is the mind..(Head) If one enquires whence the ’I′ thought in the body (Hand) arises in the first instance, it will be found that it is from ‘hrdayam’ or the (Heart).”
- " जो कुछ भी हम दूसरों को अर्पित करते हैं, वह सब कुछ वास्तव में अपने आप को ही अर्पित करना है; और जिसे केवल इसी सच्चाई का एहसास हो गया हो, वह भला दूसरों को कुछ भी देने से कैसे मना कर सकता है?”
- "कर्म-मय जीवन का परित्याग करने की आवश्यकता नही है। यदि आप हर दिन एक या दो घंटे के लिए ध्यान करें तो आप अपने जीवन के कर्तव्यों को आसानी से जारी रख सकते हैं।” “The life of action need not be renounced. If you meditate for an hour or two every day, you can then carry on with your duties.”
- “ कोई एक सत्ता अवश्य है, जो इस जगत् को नियंत्रित (governs) करती है, और यह उसकी चौकसी या निगेहबानी है कि वह दुनिया की रखवाली कैसे करती है, या इसे कैसे सँभालती है ? वही सत्ता (माँ जगद्धात्री) इस दुनिया का बोझ उठाती है, न कि तुम उठाते हो ! "
- " मन के सात्विक गुणों को विकसित करने का सबसे अनुकूल तरीका, सर्वोत्कृष्ट आचार-नीति है - आहार का नियमन; अर्थात केवल सात्विक आहार- ग्रहण करना, वह भी परिमित मात्रा में।“
- “ प्रश्न : मैं जगत् की सहायता करना चाहता हूँ, क्या मैं संसार का मददगार या उपकारी नहीं बन सकता? उत्तर : हाँ ! स्वयं की सहायता करके, आप जगत् की सहायता करते हैं। आपकी स्थिति जगत में इस प्रकार है ---कि आप ही जगत हैं। आप जगत से भिन्न नहीं हैं, और न यह जगत ही आपसे अलग है। “
- “ जब आप लक्ष्य तक पहुँच जाते हैं, अर्थात आप ज्ञाता को भी जान लेते हैं, उसके बाद यदि आप लंदन में एक घर में रहते हैं, या आप किसी जंगल के एकांत में रहते हैं, --दोनों के बीच आपको कोई अंतर महसूस नहीं होता। " “When the goal is reached, when you know the knower, there is no difference between living in a house in London and living in the solitude of a jungle.”
- “ मानव-जाति का मार्ग-दर्शक नेता, वह है जिसने पूरी तरह से केवल भगवान पर ध्यान किया, और अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व को ब्रह्म-समुद्र में डूबो दिया, तथा उसे तब तक भुलाये रखा है जब तक वह केवल भगवान का एक यंत्र नहीं बन जाता। और अब जब उसका मुंह खुलता है, तो वह बिना अग्रचिंता किये ही भगवान के शब्द बोलता है, और जब वह अपना हाथ उठाता है, तब पुनः भगवान की कृपा ही कोई चमत्कार करने के लिए, उस के माध्यम से बहती है। "
- "महर्षि रमण की एक और विशेषता यह है, कि वे जब खाने के लिए बैठते हैं, तो अपना भोजन ग्रहण करने के पूर्व वे दूसरों के बारे में पूछते हैं, और यह देखते हैं, कि वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति की सेवा निष्पक्ष होकर की जा रही है, या नहीं ? यदि कोई चावल नहीं लेता हो, तो उसके लिये फल या जो कुछ भी वह पसन्द करता हो, उसे परोसने की व्यवस्था रहती है।”
- " आत्मा में एक अद्वितीय शक्ति है - मन, जिसके द्वारा किसी व्यक्ति में विचार प्रकट होते हैं।यदि इस बात का सूक्ष्म परिक्षण किया जाय, कि सभी विचारों के समाप्त हो जाने के बाद क्या बच जाता है ? तो यही पाया जायेगा कि विचार से अलग मन नामक कोई वस्तु है ही नहीं। तोफिर, इससे यही सिद्ध होता है कि विचार खुद ही के मन का निर्माण करता है।"
- " मन के स्वभाव के बारे में एक नियमित और निरन्तर अन्वेषण करने से, मन उस वस्तु में रूपान्तरित हो जाता है, जिसे हमलोग ‘मैं’ कहकर उद्धृत करते है, और जो वास्तव में आत्मा ही है।”
- " हमारा मन में असंख्य विषय-वासनायें ( इन्द्रिय-भोगों की परितुष्टि देने वाली वस्तुओं के संबंध में मन की सूक्ष्म प्रवृत्तियों), सागर की लहरों की तरह एक के बाद एक करके उठती-गिरती रहती हैं, जिसके कारण मन हमेशा चंचल बना रहता है। तथापि अपने आत्मस्वरूप पर ध्यान करने से या आत्मा पर ध्यान करने से, वे विचार कम होते जाते हैं, और प्रगतिशील अभ्यास के साथ अंत में बिल्कुल नष्ट हो जाते हैं. "
श्री रमण महर्षि के उपदेश :
- “ हर व्यक्ति अपने आप से सर्वाधिक प्रेम करता है| इस प्रेम का कारण केवल आनन्द है, इसलिए आनन्द अपने स्वयं के भीतर होना चहिए । उस आनन्द की अनुभूति, गहन निद्रा में जब मन अनुपस्थित रहता तो प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन करता है | उस प्राकृतिक आनन्द की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को अपने स्वयं के बारे में जानना चाहिए | इसके लिए आत्म – विचार – ‘मैं कौन हूँ?’ प्रमुख साधन है |”
- “सत या चित एक मात्र वास्तविकता है | चेतना + जाग्रत को हम जाग्रति कहते हैं | चेतना + नींद को हम निद्रा कहते हैं | चेतना + स्वप्न को हम स्वप्न कहते हैं | चेतना वह परदा है जिस पर सभी तस्वीरें आती एवं जाती हैं | परदा वास्तविक है जबकि तस्वीरें उस पर छाया मात्र हैं |
- “मैं कौन हूँ?’ आत्म विचार: समस्त विचारों का स्रोत – ‘मैं’ का विचार है | मन केवल आत्म – विचार – मैं कौन हूँ द्वारा विगलित होगा| ‘मैं कौन हूँ’ का विचार अन्य सभी विचारों को नष्ट कर देगा और अन्त में स्वयं को भी नष्ट कर देता है| यदि आप ‘मैं कौन हूँ’; का आत्म-विचार करते हैं तो मन अपने स्रोत पर वापिस पहुँच जायेगा | विचार जो उदित हुआ था, अस्त भी हो जायेगा | इसका आप जितना अधिक अभ्यास करते हैं, मन की अपने स्रोत में निवास करने की शक्ति बढ़ती जाती है|”
- “आत्म – समर्पण के दो तरीके हैं | एक – मैं के स्रोत का पता लगाना तथा उस स्रोत मे विलीन हो जाना | दूसरा यह है कि अपने आपको असहाय अनुभव करें | केवल ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है तथा अपने आपको पूरी तरह से उसके उपर छोड़ देने के अतिरिक्त मेरे लिए सुरक्षा का दूसरा साधन नहीं है| क्रमक्ष: यह विश्वास दृढ़ करें कि केवल ईश्वर ही अस्तित्वमान है तथा अपने अंहकार का कोई महत्व नहीं है| दोनो ही रास्ते एक ही ल्क्ष्य पर पहुँचाते हैं| पूर्ण – समर्पण, मुक्ति, ज्ञान का ही दूसरा नाम है|”
- “ अनुग्रह और गुरु: मैने नहीं कहा है कि गुरु की आवश्यकता नहीं है किन्तु गुरु का व्यक्ति की आकृति के रुप में सदैव होना आवश्यक नहीं है। सर्वप्रथम व्यक्ति सोचता है कि वह एक निम्न (छोटा) है तथा कोई एक श्रेष्ठ , सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान ईश्वर है जो उसके तथा संसार के भाग्य का नियंत्रण करता है। वह , उस ईश्वर की पूजा या भक्ति करता है। जब वह एक निश्चित अवस्था में पहुँचता है अथवा ज्ञान प्राप्ति के पात्र हो जाता है तो वही ईश्वर जिसकी वह पूजा कर रहा था , एक गुरु के रुप में आता तथा उसका मार्गदर्शन करता है। गुरु, उसे केवल यह बताने आता है कि ईश्वर तुम्हारे स्वयं की आत्मा में है। भीतर गोता लगाओ और परमात्मा, गुरु एवं आत्मा को एक रूप में अनुभव करो।”
- “ परित्याग: यह पूछे जाने पर कि मोक्ष की व्यवस्था में एक गृहस्थ का क्या भविष्य है ? भगवान ने कहा, ‘ आप क्यों सोचते हैं कि आप गृहस्थ हैं? यदि आप एक सन्यासी हो जाते हैं तो उसी प्रकार का एक विचार कि आप सन्यासी है, आपका पीछा करेगा| आप गृहस्थ जीवन में रहते हैं या इसे त्यागकर सन्यास ग्रहणकर जंगल चले जाते हैं, आपका मन आपके साथ जाता है|
- अहंकार समस्त विचारों का स्रोत है| यह, शरीर एवं संसार की रचना करता है तथा आप गृहस्थ हैं, सोचने पर विवश करता है| यदि आप संसार का त्याग कर देते हैं तो गृहस्थ की जगह सन्यासी का विचार तथा घर की जगह जंगल का वातावरण स्थानापन्न हो जायेगा| किन्तु मानसिक अवरोध, तब भी वहाँ रहेंगे बल्कि नये वातावरण में वह ओर बढ़ जाते हैं| वातावारण परिवर्तन से कोई सहयोग नहीं मिलेगा । अवरोध, मन है | चाहें घर पर हों या जंगल में, उसे दूर करना चाहिए ।यदि यह आप जंगल में कर सकते हैं तो घर पर क्यों नहीं? इसलिए आप अपना परिवेश क्यों बदलते हैं? आप चाहें जिस वातावरण में हों, आपके प्रयास अभी से होना चाहिए| आपकी इच्छानुसार वातावरण कभी नहीं बदलेगा|”
- “भाग्य एवं स्वतंत्र इच्छा: स्वतंत्र इच्छा एवं भाग्य का सदैव आस्तित्व रहता है | भाग्य पूर्व कर्मों का फल है| उसका संबंध शरीर से है | शरीर के लिए जो उपयुक्त है उसे करने दें| आप इसके बारे में चिन्ता क्यों करते हैं? उस पर ध्यान क्यों देते हैं? स्वतत्र इच्छा एवं भाग्य तब तक हैं जबतक कि शरीर है किन्तु ज्ञान इन दोनो के पार है| आत्मा, ज्ञान एवं अज्ञान की सीमा के बाहर है| जो कुछ होता है वह स्वयं के पूर्व कर्मों दैविक इच्छा एवं अन्य तथ्यों का परिणाम है|
- भाग्य को जीतने या इससे स्वतंत्र होने के दो तरीके हैं| एक है कि मालूम करें कि भाग्य किसके लिए है तथा यह खोज करने पर पता चलता है कि केवल अहंकार भाग्य से बंधा है न की आत्मा | और अहंकार तो अस्तित्व रहित है !
- अहंकार को मारने का दूसरा तरीका है – ईश्वर को समर्पित करना| अपनी असमर्थता अनुभव करते हुए सदा स्मरण रखना कि मैं नही केवल परमात्मा का अस्तित्व है| मैं और मेरे के विचार को छोड़ते हुए अपने आपको पूरी तरह से ईश्वर पर छोड़ देना कि उसकी जैसी इच्छा हो करे | भाग्य को जीतने के लिए अहंकार का पूर्णरूप से नष्ट होना आवश्यक है, आप इसकी प्राप्ति चाहें आत्म – विचार से करें या भक्ति मार्ग से|
- “ ज्ञानी: ज्ञानी ने जीवित रहते हुए मुक्ति प्राप्त की| उनके लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि वह कहाँ और कब शरीर छोडते हैं | कुछ ज्ञानी पीडा में दिखायी पड़ सकते हैं, अन्य समाधि में हो सकते हैं | कुछ मृत्यु के पूर्व ही टृश्य से विलुप्त हो सकते हैं किन्तु उनसे उनके ज्ञान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है |”
श्री रमणाश्रमम
तिरुवण्णामलै कस्बा चिन्नै (मद्रास) से १२० मील – दूर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है | यह दक्षिण रेलवे के विल्लूपुरम – काटपाडी रेलवे मार्ग पर अवस्थित है| चेन्गम रोड पर स्थित प्रमुख बस स्टैन्ड तथा रेलवे स्टेशन से आश्रम दो मील दूरी पर है| सड़क के उत्तरी छोर पर यह प्रमुख स्थान है जिसे यात्री को मालूम करने में कोई कठिनाई नहीं होती |
उनकी मृत्यु के कुछ समय पूर्व जब कुछ भक्तों ने शिकायत की कि वे उन्हें छोड्कर जा रहे हैं तो भगवान ने उत्तर दिया, ‘ आप शरीर से अत्याधिक आसक्त हैं’ | इसका आशय स्पष्ट था ” शरीर उन्हें छोड्कर जा रहा था, वह नहीं | वह पहले की भाँति गुरु के रूप में सतत रहेंगे | ऋषि जिसने सार्वभौम आत्मा के साथ अपनी पहचान कर ली है, उनके लिए कहाँ आना, कहाँ जाना? कहाँ यहाँ कहाँ वहाँ? यहा वहाँ कुछ भी नहीं | केवल परिवर्तन रहित सत्ता अस्तित्वमान है तो भी उनके शव्दों का भौतिक प्रभाव है| बनायी गयी एक वसीयत में उन्होंने कहा है कि आश्रम एक आध्यात्मिक केन्द्र के रूप में कार्य करेगा | यह उनके छोटे भाई श्री निरन्जनान्द स्वामी थे जिसने भवनों के निर्माण एवं आश्रम के विकास के कोर्य को सँभाला| वह उसके सर्वाधिकारी या मैनेजर बने| महर्षि ने स्वयं को अकेले एकान्त में रखा तथा पूर्ण सादगी से रहते थे| वह किसी को आने या किसी को जाने के लिए नहीं कहते थे | महर्षि जैसे ही विरव्यात हुए, दान का प्रवाह आता गया तथा अनेक ईमारतें खड़ी हो गयीं |मृत्यु के कुछ समय पूर्व उन्होंने कहा ‘वे कहते हैं कि मैं जा रहा हूँ | किन्तु मैं कहा जा सकता हूँ? मैं यहाँ हूँ! अपने जीवनकाल में महर्षि अक्सर कह्ते थे कि, “केवल शरीर यात्रा करता है, आत्मा अविचलित सत्ता है। पावन पर्वत अरुणाचल के तल पर स्थित रमणाश्रम् जाना एक अनुकम्पा है|
महर्षि की समाधि-मन्दिर:
अपने बीस की आयु में वह एक युवा व्यक्ति थे तो भी श्री रमण महर्षि एक पवित्र, शान्त एवं तेजस्वी ऋषि थे | महर्षि अपने अनुयायियों के साथ छोटी गुफा में कुछ वर्षों के निवास के उपरान्त, पर्वत के स्कन्दाश्रम में रहने चले गये| यह भी एक गुफा थी किन्तु पहले से बड़ी तथा अधिक लोगों के निवास के लिए बनायी गयी थी | उनकी माँ, संसार का परित्याग करते हुए उनके साथ संयुक्त हो गयीं | उन्होंने छोटे समूह के लिए भोजन पकाना आरंभ किया जबकि उसके पूर्व शिष्यों के भिक्षाटन से प्राप्त भोजन पर गुजारा होता था |माँ का १९२२ में देहावसान हो गया |पावन पर्वत पर दफनाना वर्जित है इसलिए उन्हें पर्वत के तल पर दक्षिण कोण पर दफनाया गया| यह वह स्थान है जहाँ रमणाश्रमम् की नीव पड़ी|उस समय श्री रमण महर्षि की आयु चालीस की थी तथा उन्होंने आत्मज्ञानी ऋषि के रूप में २६ वर्ष व्यतीत किये किन्तु तो भी वे दक्षिण भारत के बाहर अधिक विख्यात नहीं थे | उन्होंने प्रचार की उपेक्षा की तथा लोगों को आकर्षित करने हेतु चमत्कार आदि का प्रयोग नहीं किया| आश्रम का कोई कार्यालय नहीं था |महर्षि ने स्वयं को अकेले एकान्त में रखा तथा पूर्ण सादगी से रहते थे| वह किसी को आने या किसी को जाने के लिए नहीं कहते थे | ध्यान कक्ष में लोग ध्यान के किए बैठते थे तथा महर्षि बिना बोले उनका निरीक्षण एवं मार्गदर्शन करते थे | ऐसी पावंदिया नहीं थीं कि हर कोई एक निश्चित समय पर या निश्चित तरीके से ध्यान करे |सामान्य रूप से यह कभी भी आवासीय आश्रम नहीं था यध्यपि एक बड़े छत की व्यवस्था की गई जहाँ लोग जमीन पर अपना विस्तर लगा सकते थे | औरतों के किसी काम के नहीं थे जिन्हें रात्रि को आश्रम परीसर में रहने की अनुमति नहीं थी| अनेक भक्तों ने इसके चारो ओर अपने घर बनाये और इस प्रकार से मकानो का विकास हुआ | आश्रम के निकट साधुओं ने एक कालोनी बनायी तथा गुफाओं एवं झोपड़ियों में रहने लगे| एक महाराजा ने एक अतिथि घर दान में दिया | इन सबके वावजूद आवास की समस्या बनी हुई है|
माँ के मंदिर के उत्तरी दीवार के दरवाजे को पार करने पर व्यक्ति महर्षि की समाधि पर बने मंदिर में पहुँचता है | इसमें एक मन्टप है तथा उसे घेरते हुए एक गुंबद है । नक्काशी किये गये चार बड़े ग्रेनाइट स्तम्भ पर यह गुंबद रवड़ा है | मन्टप के बीच में कमलाकार सफेद् मारबल स्थापित है जिस पर पवित्र शिवलिंग की स्थापना हुई है| इस मंदिर में फर्श पर मारबल का बना एक विशाल ध्यान कक्ष है | समाधि कक्ष के उत्तरी दरवाजे को पारकर यात्री पुराने कक्ष में पहुँचता है | यह स्थान तथा निर्वाण कक्ष जो महर्षि की उपस्थिति का विशेष रूप से आभास कराते हैं, का संक्षिप्त वर्णन करना आवश्यक है| इस कक्ष में हजारों भक्तों ने उनके दर्शन (एक पवित्र व्यक्ति या आकृति के रूप में ) किये | अपने अन्तिम समय के एक वर्ष पूर्व तक उन्होंने अधिकांश समय कक्ष में स्थापित दीवान पर बिताया | यह वह स्थान है जहाँ भक्तों ने वर्षों तक उनकी उपस्थिति में उत्सर्जित जीवन्त शान्ति का अनुभव किया | भक्तों एवं निवासियों के लिए पुराना कक्ष ध्यान के लिए सबसे अनुकूल है |
जो यहाँ आते हैं वे परम शक्तिशाली आध्यात्मिक सहयोग प्राप्त करते हैं| इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनकी शक्ति एवं मार्गदर्शन उनके तिरुवण्णामलै अश्रम में केन्द्रीभूत है| आश्रम का कोई आध्यात्मिक मुखिया नहीं है न ही मानव शरीर में कोई वसीयत के रूप में है | महर्षि की उपस्थित इतनी तीव्र एवं शक्तिशाली है कि वह सर्वशक्तिमान, अवैयक्तिक रमण शाश्वत गुरु तथा यहाँ के मुख्य ईष्ट हैं|सन 1953 में सर्वाधिकारी का निधन हुआ | उनके पुत्र टी.एन. वेंकटरामन ने अध्यक्ष के रूप में व्यवस्था संभाली | 1994 में वह सेवा-निवृत हुए तथा भगवान की वसीयत के अनुसार अपने सबसे बड़े पुत्र वी.एस.रमणन् को आश्रम के अध्यक्ष के रूप में सेवा करने का निर्देश दिया|
श्री रमण पुस्तकालय:- इस पुस्तकालय में आध्यात्मिक विषयों पर अनेक भाषाओं में पुस्तकों का संग्रह है | यह प्रात: ८ से ११ बजे तथा दोपहर में २ से ५ बजे तक खुला रहता है | यात्रियों के लिए यहाँ पढ़ने की व्यवस्था है तथा जो सदस्य हैं वे पुस्तके पढ़ने के लिए ले जा सकते हैं |आश्रम की यह परम्परा नहीं है कि यात्रियों या आवासियों के लिए कठिन आध्यात्मिक कक्षाएँ आयोजित करे फिर भी महर्षि के उपदेशों का पाठ नित्य समाधि कक्ष में होता है । महर्षि की रचनाओं का पाठ पुरुष स्त्रियों की उपस्थित में सायंकाल होता है | विशिष्ट अवसरों पर समर्थ व्यक्तियों के व्याख्यान होते हैं |
=========
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें