मेरे बारे में

बुधवार, 20 नवंबर 2013

'काम-शक्ति' का आध्यात्मिक ऊर्जा में रूपान्तरण!

  अनादि काल से सभी प्राणीयों में आहार, निद्रा, भय और मैथुन की प्रवृत्ति इतनी  प्रबल है कि इन्हीं चार भाव के अनुकूल किसी भी विचार-धारा को वे तुरंत स्वीकार कर लेते हैं | इसी कारण बुद्धिजीवी समाज ब्रह्मचर्य के बारे में किये गये अनुसंधानों को जितनी शीघ्रता से आचरण में नहीं अपना पाता उससे कहीं अधिक शीघ्रता से वह तथाकथि फ्रायड जैसे मानसशास्त्रियों के निष्कर्षों को स्वीकार कर लेता है। किन्तु बीसवीं सदी के महानतम मनौवैज्ञानिकों में से एक, स्विस मनोचिकित्सक कार्ल जुंग (सी. जी. युंग) काम-वासना को जीवन की सामान्य शक्ति, या जैविक प्रक्रियाओं की शक्ति मानते थे। युंग का यह मानना था कि इस अभेद्य जीवन-शक्ति का उद्दातीकरण (Sulimation) करने से, यह काम-शक्ति रूपान्तरित होकर आध्यात्मिक ऊर्जा या सृजनात्मक गतिविधियों के माध्यम से अभिव्यक्त होने लगती हैं। इसी मान्यता के अधर पर युंग एक शक्तिशाली, स्वस्थ एवं सफल जीवन जीने समर्थ हुए ।  
कार्ल युंग के अनुसार मन के तीन भाग किये जा सकते हैं- चेतनात्मक, अचेतनात्मक और सामूहिक अचेतनात्मक।युंगका यह मानना था कि चित्रमय भाषा या भावों का आद्यरूप ‘archetypes’(आर्किटाइप) ही विभिन्न मनुष्यों के आचरण या व्यक्तित्व के प्रतिरूप (मॉडल) हैं। उनके अनुसार मानस (psyche) तीन मौलिक घटकों से बना होता है- अहंकार (the ego या ‘मैं’-पन), व्यक्तिगत अचेतन मन, और कलेक्टिव सबकान्शस या सामूहिक अवचेतन मन। युंग के अनुसार, अहंकार चेतन मन का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि व्यक्तिगत अवचेतन मन में पूर्व-जन्मों की वैसी समस्त स्मृतियाँ संचित रहती हैं,जिनको दबा दिया गया होता है,मानस का यह हिस्सा, ‘collective subconscious’ कलेक्टिव-अवचेतन (चित्त या मन-वस्तु) वैसा अनूठा घटक है, जो मनोवैज्ञानिक विरासत के रूप में कार्य करता है, और पूर्व-जन्मों में एक प्रजाति के रूप से क्रम-विकसित होने का सारा अनुभव और ज्ञान हमसे साझा करता है।
कलेक्टिव सबकान्शस या सामूहिक अवचेतन (Collective Subconscious): कार्ल युंग के द्वारा परिभाषित सामूहिक अवचेतन या कलेक्टिव सबकान्शस, मूल रूप से चित्त भूमि की गहराई में अवस्थित अचेतन मन (deepest unconscious mind) के एक खंड को दर्शाता है।  व्यक्तिगत अवचेतन  (personal subconscious), जो लंबे समय से भूला दी गयी स्मृतियों  और अनुभवों से बना है, उसके ठीक विपरीत, सामूहिक अवचेतन उन चित्रमय भाषा (archetypes) में बना होता है, जो विरासत से प्राप्त विश्वासों और समझ के एक समुच्य का प्रतिनिधित्व करते हैं।
युंग के अनुसार अचेतन ही अधिक सक्रिय रहता है। युंग ने दो प्रकार के व्यक्तियों में भी प्रभेद किया है -बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी। वे कहते हैं -सामाजिक रुचि-प्रधान व्यक्ति बहिर्मुखी तथा स्वकेन्द्रित व्यक्ति अंतर्मुखी होता है।

 
कार्ल गुस्ताव जुंग (1875-1961)
उनकी प्रतिभा व जीवन को सम्पूर्णता प्रदान की थी भारत के एक तपस्वी श्री रमण जी ने। महर्षि रमण से इस भेंट के बाद जुंग भारत से वापस लौटे। और फिर इसी वर्ष १९३८ ई. में उन्होंने येले विश्वविद्यालय में अपना व्याख्यान दिया ‘मनोविज्ञान एवं धर्म’। इसमें उनके नवीन दृष्टिकोण का परिचय था। बाद के वर्षों में उन्होंने ‘श्री रमण एण्ड हिज़ मैसेज टु माडर्न मैन’ के प्राक्कथन में अपनी ओर से लिखा- “श्री रमन भारत भूमि के सच्चे पुत्र हैं। वह अध्यात्म की वैज्ञानिक अभिव्यक्ति के प्रकाशपूर्ण स्तम्भ हैं और साथ में कुछ अद्भुत भी। उनके जीवन एवं शिक्षा में हमें पवित्रतम् भारत के दर्शन होते हैं, जो समूची मानवता को वैज्ञानिक अध्यात्म के मूलमन्त्र का सन्देश दे रहा है।”परन्तु यह हमारा दुर्भाग्य है कि फ्रायड को तो हम रूचि के साथ पढ़ते है जानते ओर मानते है; परन्तु युंग को बहुत ही कम लोग जानते है।  
यह चित्रमय भाषा या आद्यरूप (archetypes) कमो-बेस सभी मनुष्यों में विद्यमान हैं। बहुत से लोग ऐसा मानते हैं, कि जिन विश्वासों या आस्थाओं को विश्व स्तर पर स्वीकार किया जाता है, या मान्यता प्राप्त है उन नयी जानकारियों को, अपने भीतर समाविष्ट करने के लिये समय के साथ, सामूहिक अवचेतन या कलेक्टिव सबकान्शस क्रम-विकसित या स्वतः परिवर्तित भी होता रहता है।
उदहारण: हमारे चित्त की गहराई या 'कलेक्टिव सबकान्शस' में जमे हुए, आध्यात्म और धर्म से संबन्धित विश्वास, आंशिक रूप से इसी चित्रमय भाषा (archetypes) के कारण भी हो सकते हैं। वर्षा काल समाप्त होते ही देवताओं के उत्सव शुरू हो जाते हैं। महाराष्ट्र में गणेश, बंगाल और उत्तर भारत में माँ दुर्गा, काली, सरस्वती, लक्ष्मी पूजा, दक्षिण में कार्तिकेय या अन्य स्थानीय देवता। कभी आपने सोचा कि इन देवताओं के रूप ऐसे विचित्र क्यों बनाए गए? या रामकृष्ण आश्रम में सन्यासियों के द्वारा भी पूजित होने वाली माँ जगद्धात्री !
आजकल बच्चे यह सवाल पूछ लेते हैं- क्या देवता साधारण मनुष्य की तरह नहीं दिखाए जा सकते? क्या मनुष्य पूजा करने योग्य नहीं बन सकते हैं? विज्ञान और टेक्नोलॉजी पर पली आज की पीढ़ी के लिए ये कहानियां किस तरह प्रस्तुत की जाएं? बच्चे अगर पूछें कि आदमी के शरीर पर हाथी का सिर कैसे रह सकता है, तो क्या जवाब होगा? विज्ञान के अनुसार तो आदमी के धड़ पर हाथी का सिर जिंदा रह नहीं सकता। क्या बच्चों को हम आज भी विश्वास करना सिखाएं या उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बीज डालें? सही जवाब तो यह होगा कि ये सब प्रतीक हैं, गहरी बात कहने का पुराने लोगों का अंदाज था। हर देवता के जन्म की कोई न कोई कहानी है। बड़े लोग उन्हें कोई पौराणिक कहानी सुना देते हैं, लेकिन सही जवाब उनके पास भी नहीं होता।
गणेशजी हैं बुद्धि के देवता, उनका वाहन चूहा मन के स्वाभाव का प्रतीक है, भीतर कुरेदने वाला संदेह है। बुद्धिजीवी आदमी के भीतर संदेह, तर्क और कुतर्क सदा चूहे की तरह कुतरते रहते हैं। बुद्धि अगर संदेह पर खड़ी हो, तो कभी प्रज्ञा नहीं बन पाएगी, उससे कभी शांति नहीं मिलेगी। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताफ जुंग ने देवताओं के प्रतीक का अर्थ समझाया है।
आद्यरूप का आदि-कारण: The Origins of Archetypes : “
आर्किटाइप या चित्रमय भाषा का उद्गम : माँ दुर्गा, माँ काली,भगवान शंकर, या ' श्रीगणेश भगवान ' की ऐसी आकृतियाँ आखिर किस प्रकार की चित्रमय भाषा ‘archetypes’ से उपजी होगी ? जुंग ने मन के अचेतन पर्तों की खोज कर पाया कि मन के कई गहरे तल होते हैं, जिन्हें वह सामूहिक अवचेतन या कलेक्टिव सबकान्शस कहते हैं।
यह कलेक्टिव सबकान्शस शब्दों में नहीं सोचता, इसकी भाषा चित्रमय होती है। यह शब्दों में नहीं सोचता,बल्कि चित्रमय भाषा में देखता है। इसे आर्चटाईप कहा जाता है। जैसे मन में देशी-गाय या जर्सी गाय का विचार या भाव पैदा हो, इससे पहले ही चित्त में उस विशिष्ट गाय के चित्र उभर आते हैं। उन्होंने कहा कि ये मॉडल अन्तर्जात, स्वाभाविक, सार्वभौमिक और वंशानुगत हैं। ये सभी आर्किटाइप सहज  होते हैं, और हम कुछ चीजों का अनुभव कैसे करेंगे, उन्हें व्यवस्थित करने का कार्य करते हैं। श्री जुंग अपनी पुस्तक “The Structure of the Psyche” या ‘मानस की संरचना’ नामक पुस्तक में इस प्रश्न कि व्याख्या करते हुए कहते हैं- " मानव-इतिहास में सबसे शक्तिशाली विचार, चित्रमय लिपि में ही प्राप्त होते हैं।”

“Ganesha Archetypal Ideas”
गणेशजी संबन्धी आद्यप्ररूपीय विचार

 इसीलिये हमलोग मानव इतिहास में जितना पीछे जाते हैं, उतना अधिक चित्रमय भाषा देखते हैं। बहुत प्राचीन सभ्यताओं की लीपि तो अभी तक पढ़ी भी नहीं जा सकी है। शब्द तो बहुत बाद में पैदा हुए, ध्वनि बहुत प्राचीन और गहरी है। मन में विचार या भाव पैदा हो इससे पहले चित्र उभरते हैं। ये चित्र किन्हीं शक्तियों के प्रतीक होते हैं। 
इसलिए अतीत में जब भी देवी- देवताओं की ये प्रतिमाएं बनी होंगी, तब वे किसी सामूहिक अवचेतन में उभरी प्रतिमाओं की छवियां रही होंगी। इसीलिए हर देश के इतिहास में अलग- अलग मूर्तियां हैं। गणेश को ग्रीस या इजिप्ट में नहीं पाया जाएगा, क्योंकि वहां का समूह मन अलग है। इस समझ के साथ अगर हमारे सांकृतिक उत्सवों (दुर्गा-पूजा,गणेश-पूजा) को देखें तो हम उनका सार ग्रहण कर पाएंगे। कहते हैं कि किसी भी चीज की शुरुआत भगवान गणेश का नाम लेकर ही की जाती है। गौर से देखने पर हम पाएंगे कि भगवान गणेश की प्रतिमा ही मैनेजमेंट के कई बड़े गुर सिखा जाती है।
बड़ा सिर
गणेश की प्रतिमा देखने पर उनका बड़ा सिर बडे़ विचार की तरफ इशारा करता नजर आता है। कहते हैं, जितना बड़ा सोचोगे उतने बड़े बनोगे। मैनेजमेंट में भी कहा जाता है, थिंक बिग। बस गणेश का बड़ा सिर इसी बड़ी सोच की ओर इशारा करता है।
छोटी आंखें
भगवान गणेश भले ही भारी शरीर वाले हों लेकिन उनकी आंखें काफी छोटी हैं। ये छोटी आंखें इशारा करती हैं पैनी नजर पर। छोटी आंखों का सीधा मतलब है कि हर चीज को ध्यान से और गहराई से परखें। मैनेजमेंट में किसी भी सही फैसले पर पहुंचने से पहले हर पहलू को पारखी नजर से देखने की जरूरत पर जोर दिया गया है।


बड़े कान-छोटा मुंह
मैनेजमेंट में किसी भी हालात को भांपने के लिए जरूरी है कि सबकी बातों को ध्यान से सुना जाए। कोई जरूरी बात अगर छूट जाए तो पूरी प्लैनिंग पर असर पड़ सकता है। बड़े कान सभी को सुनने पर जोर देते हैं। छोटा मुंह इस बात का प्रतीक है कि जब भी बात की जाए सोच-समझ कर की जाए। उतना ही बोला जाए जितना जरूरी है।


बड़ी नाक (सूंड़)
गणेश का रूप उनकी सूंड़ की वजह से सबसे निराला है। यह सूंड़ बच्चों से लेकर बड़ों तक सबको अपनी ओर खींचती है। इस सूंड़ में भी बड़ा मेसेज छुपा है। बड़ी नाक का मतलब है दूर की चीज को सूंघ लेना। मतलब साफ है कि आने वाले किसी भी हालात को भांपना ही मैनेजमेंट के हिसाब से सबसे बड़ा गुण माना गया है।


बड़ा पेट
भगवान गणेश का एक नाम लंबोदर भी है जिसका मतलब है बड़े पेट वाला। बड़ा पेट कहता है कि हर तरह की बातों को पचाया जाए। वे अच्छी हों या बुरी, बातों को पचाने की ताकत बेहतर मैनेजमेंट का सबसे बड़ा मंत्र है।


छोटे पैर
मैनेजमेंट में संतुलन का बहुत महत्व है। छोटे-छोटे पैरों पर बड़ा शरीर बेहतर संतुलन की ओर इशारा करता है। भगवान गणेश का बड़ा शरीर छोटे पैरों पर इस तरह से संतुलित है कि किसी को भी बेहतर मैनेजमेंट की प्रेरणा दे सकता है। यह वैसे ही है जैसे कोई छोटी मैनेजमेंट टीम बड़ी जिम्मेदारी को भी सटीकता से पूरी कर जाए।


टूटा दांत
कहते हैं हाथी के दांत दिखाने के और खाने के और। भगवान गणेश के भी दो दिखाने के दांत हैं लेकिन उनमें से एक टूटा है। वैसे तो टूटा दांत खूबसूरती कम कर देता है लेकिन गणेश के मामले में यह उनकी खूबसूरती बढ़ा देता है। इसकी वजह है दांत को गंवाने के पीछे की त्याग भावना। भगवान गणेश ने अपने दांत को तोड़ कर महर्षि व्यास को महाभारत की रचना के लिए दे दिया था। मैनेजमेंट में सभी के भले के लिए त्याग को भी बहुत जरूरी बताया गया है।
हमारे पूर्वजों ने, प्रत्येक पूजा और त्यौहार के लिये जिन-जिन धार्मिक आलंबनों को प्रतीक के रूप में निर्धारित किया है, उसको समझने और समझाने के लिये हम उपरोक्त विज्ञानिक ढंग से या सामूहिक अवचेतन के चित्रमय-भाषा (Archetypal Ideas) के सिद्धान्त की सहायता ले सकते हैं। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि पूर्वजों ने जब किन्हीं नैसर्गिक शक्तियों का अनुभव किया होगा, तब उनके सामूहिक अवचेतन में एक चित्रमय छवि उभर आयी होगी। और यही छवि आगे चलकर देवी-देवता के रूप में रूढ़ हुई। समाजशास्त्री कहते हैं कि ये सब प्रतीक हैं, गहरी बात कहने का पुराने लोगों का यही तरीका था। अब इन पौराणिक कथाओं में वर्णित मूर्तियों (माँ जगद्धात्री की मूर्ति ?) को आज के संदर्भ में 'डीकोड' करने का तरीका हमें स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण का वचनामृत पढ़कर सीखना और सिखाना होगा। 
http://vimokshananda.files.wordpress.com/2009/10/450px-2006-11-01_jagaddhatripuja5_06_009.jpg
 Magnanimous Mother : 'उदारशील माता'
( generous or forgiving, especially towards a rival or less powerful person)
' श्रीरामकृष्ण वचनामृत ' : २१ जुलाई, १८८३
मणि  : ग्रीस देश में सुकरात नामक एक आदमी था। यह दैववाणी हुई थी कि सब लोगों में वही ज्ञानी है। यह सुनकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने निर्जन में बैठकर बहुत देर तक ध्यान किया, और तब जाकर उसे इस दैववाणी का अभिप्राय समझ में आया। तब उसने अपने मित्रों से कहा, ' केवल मुझे ही मालूम हुआ है कि मैं कुछ नहीं जानता; पर दूसरे सब लोग कहते हैं कि वे ज्ञानी हैं। परन्तु वास्तव में जो खुद को ज्ञानी समझते हैं, वे सभी अज्ञानी हैं ! … (अविद्या माया के हटने से ) विद्या प्राप्त होने पर कम से कम एक लाभ अवश्य हो जाता है कि -' मैं कुछ नहीं जानता, और मैं कुछ नहीं हूँ !' "
श्रीरामकृष्ण - ठीक है, ठीक है। मैं कुछ नहीं हूँ, मैं कुछ नहीं हूँ ! अच्छा  पाश्चात्य जगत के खगोल विद्या पर तुम्हें विश्वास है ? 
मणि : पाश्चात्य खगोल विद्या (Western astronomy) के नियमानुसार नये नये आविष्कार करना सम्भव है। यूरेनस ग्रह (वरुण ग्रह -Uranus) की अनियमित चाल देखकर उन्होंने दूरबीन से पता लगाकर देखा कि एक नया ग्रह नेपच्यून ( जल देवता या वरुण Neptune) चमक रहा है । वे लोग इसी विद्या के आधार पर ग्रहण लगने की भविष्यवाणी भी कर सकते हैं।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, सो तो होती है। लेकिन तुम सत्य में रहना तभी ईश्वर मिलेंगे।
मणि -एक और बात आपने नवद्वीप गोस्वामी से कही थी- ' हे ईश्वर, मैं तुम्हीं को चाहता हूँ। देखना, अपनी भुवनमोहिनी माया के ऐश्वर्य से मुझे मुग्ध न करना। मैं तुम्हीं को चाहता हूँ। '
श्रीरामकृष्ण -हाँ, यह दिल से कहना होगा।
रामलाल गाना गा रहे हैं - (भावार्थ) हे माँ हरमोहिनी, तूने संसार को भुलावे में डाल रखा है। मूलाधार महाकमल में तू वीणावादन करती हुई चित्तविनोदन करती है।  महामन्त्र का अवलम्बन कर तू शरीररूपी यंत्र के सुषुम्णादि तीन तारों में तीन गुणों के अनुसार तीन ग्रामों में संचरण करती है। मूलधारचक्र में तू भैरव राग के रूप में अवस्थित है; स्वधिष्ठानचक्र के षड्दल कमल में तू श्री राग तथा मणिपुर चक्र में मल्हार राग है। तू वसन्त राग के रूप में हृदयस्थ अनाहत चक्र में प्रकाशित होती है। तू विशुद्धचक्र में हिण्डोल तथा आज्ञाचक्र में कर्णाटक राग है। तान-मान- लय-सुर के सहित तू मन्द्र-मध्य-तार इन तीन सप्तकों का भेदन करती है। हे महामाया, तूने मोहपाश के द्वारा सब को अनायास बाँध लिया है। तत्वाकाश में तू मानो स्थिर सौदामनी की तरह विराजमान है। 'नन्दकुमार' कहता है कि तेरे तत्व का निश्चय नहीं किया जा सकता। तीन गुणों के द्वारा तूने जीव की दृष्टि को आच्छादित कर रखा है। "
रामलाल ने फिर गाया - (भावार्थ ) " हे भवानी, मैंने तुम्हारा भयहर नाम सुना है, इसीलिये तो अब मैंने तुम पर अपना भार सौंप दिया है। अब तुम मुझे तारो या न तारो ! माँ, ब्रह्माण्ड जननी हो, ब्रह्माण्ड व्यापिनी हो । तुम काली हो या राधिका -यह कौन जाने ! हे जननी, तुम घट घट में विराजमान हो। मूलाधार के चतुर्दल कमल में तुम कुलकुण्डलिनी के रूप में विदयमान हो। तुम्हीं सुषुम्ना मार्ग से ऊपर उठती हुई स्वाधिष्ठान चक्र के षड्दल तथा मणिपुर चक्र के दशदल कमल में पहुँचती हो। हे कमलकामिनी, तुम ऊर्ध्वोर्ध्व कमलों में निवास करती हो। हृदयस्थित अनाहतचक्र के द्वादश कमल को अपने पादपद्म के द्वारा प्रस्फुटित कर तुम ह्रदय के अज्ञानतिमिर का विनाश करती हो। इसके ऊपर कण्ठस्थित विशुद्धचक्र में धूम्रवर्ण षोडशदल कमल है । इस कमल के मध्यभाग में जो आकाश है, वह यदि अवरुद्ध हो जाये तो सर्वत्र आकाश ही रह जाता है । 
 

[यह सुनकर श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा-" यह सुनो, इसी का नाम है निराकार सच्चिदानन्द -दर्शन ! विशुद्धचक्र का भेदन होने पर- 'सर्वत्र आकाश ही रह जाता है।' … इस मायामय जीव-जगत के पार हो जाने  पर तब कहीं नित्यस्वरूप में पहुँचा जा सकता है। नाद-भेद होने पर ही समाधी लगती है। 'ॐ'-कार साधना करते करते नाद-भेद होता है और समाधी लगती है। " ]
इसके ऊपर ललाट में अवस्थित आज्ञाचक्र के द्विदल कमल में पहुँचकर मन आबद्ध हो जाता है, वह वहीँ रहकर मजा देखना चाहता है, और ऊपर नहीं उठना चाहता। इससे ऊपर मस्तक में सहस्रार चक्र है । वहाँ अत्यन्त मनोहर सहस्रदल कमल है, जिसमें परमशिव स्वयं विराजमान हैं। हे शिवानी, तुम वहीँ शिव के निकट जा विराजो ! हे माँ, तुम आद्द्या शक्ति हो। योगी तथा मुनिगण तुम्हारा नगेन्द्रनन्दिनी उमा के रूप में ध्यान करते हैं। तुम शिव की शक्ति हो । तुम मेरी वासनाओं का हरण करो ताकि मुझे फिर इस भवसागर में पतित न होना पड़े। माँ, तुम्हीं पंचतत्व हो, फिर तुम तत्वों के अतीत हो। तुम्हें कौन जान सकता है ! हे माँ, संसार में भक्तों के हेतु तुम साकार बनी हो, परन्तु पंचेंद्रियाँ पंचतत्व में विलीन हो जानेपर तुम्हारे निराकार स्वरुप का ही अनुभव होता है । "
श्रीरामकृष्ण - " एक पण्डित को बड़ा अभिमान था। वह ईश्वर का रूप नहीं मानता था । परन्तु ईश्वर का कार्य कौन समझे ? वे आद्द्याशक्ति के रूप में उसके सामने प्रकट हुए। पण्डित बड़ी देर तक बेहोश रहा। जरा होश सम्हालने पर लगातार 'का,का, का' (अर्थात, काली) की रट लगाता रहा । … उत्तम भक्त कहता है,-ईश्वर स्वयं ही सब कुछ हुए हैं; जो भी कुछ दिख पड़ता है वह उन्हीं का एक एक रूप है; वे ही माया, जीव, जगत् आदि बने हैं, उनके सिवा दूसरा कुछ भी नहीं है ।
२२ जुलाई, १८८३ 
श्रीरामकृष्ण - मैंने केशव सेन से कहा, ' मैं सम्प्रदाय का नेता हूँ, मैंने सम्प्रदाय बनाया है, मैं लोगों को शिक्षा दे रहा हूँ '- इस तरह का अभिमान 'कच्चा अहं ' है। किसी मत का प्रचार करना करना बड़ा कठिन काम है। वह ईश्वर की आज्ञा बिना नहीं हो सकता। ईश्वर का आदेश होना चाहिये। शुकदेव को भागवत की कथा सुनाने के लिये आदेश मिला था। ' … तुम आद्याशक्ति(Divine Mother, the Primal Energy) को मानो। ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं-जो ब्रह्म हैं वे ही शक्ति हैं । जब तक ' मैं देह हूँ ' यह बोध रहता है, तब तक दो अलग अलग प्रतीत होते हैं। It is only when a man tries to describe what he sees that he finds duality. कहने के समय दो आ ही जाते हैं। केशव ने काली (शक्ति) को मान लिया था।
(मास्टर के प्रति ) " ईश्वर का रूप मानना पड़ता है। जगद्धात्री रूप का अर्थ जानते हो ? जिन्होंने जगत् को धारण कर रखा है-उनके न धारण करने से, उनके पालन न करने से जगत् नष्टभ्रष्ट हो जाय। मनरूपी हाथी को जो वश में कर सकता है, उसी के ह्रदय में जगद्धात्री उदित होती हैं। "
राखाल - मन मतवाला हाथी है ।
श्रीरामकृष्ण -सिंहवाहिनी का सिंह इसीलिये हाथी को दबाये हुए है ।
[बेलघरिया के गोविन्द मुखर्जी और उनके कुछ मित्रों ने आकर उनको प्रणाम किया और जमीन पर बैठे।
श्रीरामकृष्ण ( भावमग्न हैं या semi-conscious state)- तुम लोगों को कोई शंका हो तो पूछो। मैं तुम्हारे प्रश्नों का समाधान कर दूंगा ।] "
गोविन्द - महाराज, श्यामारूप क्यों हुआ ? 

 
श्रीरामकृष्ण - तुम उनके शरीर का रंग काला देखते हो, क्योंकि अभी तुम उनसे बहुत दूर हो। जब उनके पास जाओगे तो पाओगे कि उनका तो कोई रंग ही नहीं है ! तालाब का पानी दूर से कला दिखता है। पास जाकर हाथ से उठाकर देखो, कोई रंग नहीं। आकाश दूर से नीले रंग का दिखता है; पास के आकाश को देखो कोई रंग नहीं। ईश्वर के जितने समीप जाओगे उतनी ही धारणा होगी कि उनके नाम-रूप नहीं। कुछ दूर हट जाने से फिर वही 'मेरी श्यामा माता'। 
Is Syama male or female? " श्यामा पुरुष है या प्रकृति ? किसी भक्त ने पूजा की थी। कोई दर्शन करने आया तो उनसे देवी के गले में जनेऊ देखकर कहा, ' तुमने माता के गले में जनेऊ पहनाया है ! ' भक्त ने कहा, ' भाई, तुम्हीं ने माता को पहचाना है। मैं अब तक न पहचान स्का कि वे पुरुष हैं या प्रकृति ! इसीलिये जनेऊ पहना दिया था। ' " जो श्यामा हैं वे ही ब्रह्म हैं। जिनका रूप है, वे ही रूपहीन भी हैं। जो सगुण हैं, वे ही निर्गुण हैं। ब्रह्म ही शक्ति है और शक्ति ही ब्रह्म। दोनों में कोई भेद नहीं । एक सच्चिदानन्दमय है और दूसरी सच्चिदानन्दमयी । " 
गोविन्द -योगमाया क्या है ? 
श्रीरामकृष्ण -योगमाया अर्थात पुरुष-प्रकृति का योग। जो कुछ देखते हो, वह सब पुरुष-प्रकृति का योग है। शिव-काली की मूर्ति में शिव के ऊपर काली खड़ी हैं। 

 Ma-Dakshineswari-2009[1]
शिव शव के भाँति पड़े हैं, काली शिव की ओर देख रही हैं, -यह सब पुरुष-प्रकृति का योग है। पुरुष निष्क्रिय है, इसीलिये शिव शव हो रहे हैं। पुरुष के योग से प्रकृति सब काम करती है -सृष्टि,स्थिति,प्रलय करती है। 
" राधा-कृष्ण की युगलमूर्ति का भी यही अभिप्राय है। इसी योग के लिये वक्र-भाव है। और यही योग दिखने के लिये श्रीकृष्ण के नाक में मुक्ता और श्रीमती की नाक में नीलम है। श्रीमती का रंग गोरा, मुक्ता जैसा उज्ज्वल है। 
 

श्रीकृष्ण का रंग साँवला है, इसीलिये श्रीमती नीलम धारण करती है। फिर श्रीकृष्ण के वस्त्र पीले और श्रीमती के नीले हैं। " 
" शक्ति का ही अवतार होता है। एक मत से राम और कृष्ण चिदानन्द समुद्र की दो लहरें हैं। अद्वैतज्ञान के बाद चैतन्य होता है। तब मनुष्य देखता है कि ईश्वर ही सब प्राणियों में चैतन्य रूप से विद्द्यमान हैं। चैतन्यलाभ के बाद आनन्द होता है-
 


'अद्वैत-चैतन्य-नित्यानन्द। ' (पंद्रहवीं शताब्दी में नदिया में तीन महापुरुष भी इन्हीं नामों के हुए थे। उनमें श्रीचैतन्य भगवान के अवतार समझे जाते हैं। शेष दो उनके पार्षद थे।)
(मास्टर से) " और तुमसे कहता हूँ-ईश्वर के रूप पर अविश्वास मत करना। यह विश्वास करना कि ईश्वर के रूप हैं, फिर जो रूप तुम्हें पसन्द हो उसी का ध्यान करना। "
 " जो ब्रह्म है, वही शक्ति है। मैं उन्हीं को माँ कहकर पुकारता हूँ। जब वे निष्क्रिय रहते हैं तब उन्हें ब्रह्म कहते हैं, और जब वे सृष्टि, स्थिति, संहार कार्य करते हैं, तब उन्हें शक्ति कहते है। जिस प्रकार स्थिर जल और हिलता -डुलता जल। शक्ति की लीला से ही अवतार होते हैं। अवतार मानो प्रेम-भक्ति सिखाने आते हैं। अवतार मानो गाय के स्तन हैं। दूध स्तन से ही मिलता है। मनुष्यरूप में वे अवतीर्ण होते हैं। " कोई कोई भक्त सोच रहे हैं, क्या विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण भी अवतारी पुरुष हैं ? जैसे श्रीकृष्ण, चैतन्यदेव या ईसा, बुद्ध, मोहम्म्द आदि थे ? " (श्रीरामकृष्ण वचनामृत से)
स्वामी विमोक्षानन्दजी राँची रामकृष्ण मिशन द्वारा संचालित एक टी.बी.अस्पताल (TB -Sanatorium ) में माँ जगद्धात्री की पूजा का वर्णन करते हुए लिखते हैं- " हिन्दू शास्त्रों के प्राचीन पौराणिक कथा के अनुसार, महिषासुर पर विजय के बाद देवता लोग जल्द ही अत्यधिक अहंकारी हो गये थे। उन लोगों ने सोचा कि अपने शस्त्रों को दुर्गाजी को उधार में दे दिया था, शायद इसीलिये उन्होंने शक्तिशाली असुरों को मार गिरायाउन्हें यह समझने के लिये कि हमारे प्रत्येक कर्मों के पीछे केवल मात्र आद्याशक्ति ही मौलिक कारण होती हैं, ब्रह्म दीप्तिमान यक्ष के रूप में देवताओं के समक्ष प्रकट हो गये। उनको इस प्रकार प्रकट होते देखकर सभी देवता घबड़ा गये,और यक्ष का परिचय पाने के लिए एक एक करके उनके निकट गए। सबसे पहले वायु देवता पहुँचे। वे यक्ष से कुछ पाते, कि उससे पहले यक्ष ने ही पूछ लिया- तुम क्या कर सकते हो ? पवन देव ने बड़े गर्व से कहा, आप मुझे नहीं जानते ? मैं बड़े बड़े वृक्षों को तो क्या, ऊँचे ऊँचे पहाड़ों को भी दूर फेंक सकता हूँ। यह सुनकर यक्ष ने घास का एक छोटा सा तिनका उनके समक्ष रखा और बोले- जरा इस तिनके को तो उड़ाकर दिखाओ ! पवन देव ने अपनी सारी शक्ति लगा दी, फिरभी वे उस तिनके को रंचमात्र भी अपनी जगह से हटा न सके। उसी प्रकार अग्निदेव भी लाख कोशिशें करके उसे जला न सके। इसी तरह एक के बाद एक सारे देवता विफल हो गये। और तब जाकर,ये बात उनकी समझ में आयी, कि उनकी शक्तियाँ वास्तव में उनकी अपनी नहीं हैं, बल्कि उस परम सत्ता से से व्युत्पन्न हुई हैं, जो सम्पूर्ण सृष्टि की रक्षा करने वाली माता हैं, इसीलिये उनको जगद्धात्री माता के नाम से जाना जाता है। जो कोई भी व्यक्ति माँ जगद्धात्री की पूजा करता है, वह बिल्कुल अहं शून्य हो जाता है, और उस जगत का एक सच्चा सेवक बन जाता है, जो ब्रह्म की अभिव्यक्ति के सिवा अन्य कुछ भी नहीं है।"
स्वामी विमोक्षानन्दजी आगे कहते हैं, " मां जगद्धात्री के बारे में सोचते समय, कुछ पाठकों को इस बात पर आश्चर्य हो सकता है कि यह पूजा राँची रामकृष्ण मिशन द्वारा संचालित एक टी.बी. 
अस्पताल (TB Sanatorium ) में क्यों और कैसे शुरू हुई होगी ? मैं इस संबन्ध में आपके साथ एक सच्ची घटना को साझा करना चाहता हूँ, जिसे मैंने एक प्रत्यक्षदर्शी साक्षी के मुख से सुना है ! इस अस्पताल के इस अविस्मरणीय पूजा का प्रारम्भ, वास्तव में एक रोगी के द्वारा वर्ष 1958 में हुआ था। हावड़ा के उस निवासी का नाम स्वर्गीय भूपति बोस था। ऐसा कहा जाता है कि उनको एक दिन स्वप्न में इस देवी की पूजा करने का दैवी आदेश प्राप्त हुआ था। उस समय के सचिव स्वामी वेदान्तानन्दजी महाराज ने उनके प्रस्ताव को यह कहकर अस्वीकृत कर दिया था, कि एक अस्प्ताल में इस दुर्गा की पूजा करना कोई मजाक नहीं हैलेकिन सेक्रटरी महाराज के इस निर्णय से व्यथित होकर भूपति ने, माँ से प्रार्थना की और उनकी इच्छा को पूर्ण करने में अपनी अक्षमता के लिए उनसे क्षमा याचना कीकिन्तु अन्ततोगत्वा दैवी इच्छा को कौन रोक सकता है ? उसने पुनः एक दिन माँ को सपने में देखा, जो उससे कह रही थीं, कि मात्र एक दिन में ही माँ की पूजा करने का प्रावधान उपलब्ध है ! दूसरी बार भी वैसे ही स्वप्न के बारे में सुनने के बाद, स्वामी वेदान्तानन्दजी अपने फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार हो गये, और असप्ताल परिसर में ही जगद्धात्री पूजा करने के रोगी के अनुरोध को स्वीकार कर लिया गया। भूपति ने स्वयं दो वर्षों तक लगातार माँ कि सुन्दर प्रतिमा को गढ़ा था। असप्ताल के समस्त कर्मचारी और सभी रोगियों ने एक साथ मिलकर एक-दिवसीय पूजा का आयोजन महान भक्ति के साथ किया।

इस प्रकार हम यह देख सकते हैं, कि विश्व की  सभी संस्कृतियों में जितने भी देवी- देवता हैं, वे सब मनुष्य के मन का निर्माण हैं। और सभी बड़े ही विचित्र आकार- प्रकार के, अजीब वेष धारी अद्भुत शक्तियों से लैस। आदमी खुद ही उन्हें बनाता है और खुद ही पूजा करता है। हमारे ऋषि-मुनि पूर्वजों ने इन प्रतीकों के माध्यम से यही शिक्षा दी है, कि मनुष्य भी यदि आध्यात्मिक शक्तियों या ओजस को अर्जित कर ले तो वह स्वयं भी इन देवी-देवताओं जैसा पूजा करने योग्य मनुष्य बन सकता है।

इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - हम ऐसी शिक्षा चाहते हैं जिससे चरित्र निर्माण हो। मानसिक शक्ति का विकास हो। ज्ञान का विस्तार हो और जिससे हम खुद के पैरों पर खड़े होने में सक्षम बन जाएं।” इसलिये आधुनिक 'सेमेटिक-भाव' से प्रभावित पाश्चात्य शिक्षा में पले-बढ़े युवाओं को हमारे मन्दिरों में प्रतिष्ठित मूर्तियों को श्रद्धापूर्वक प्रणाम करने में लज्जा का अनुभव, या दकियानूसी कहे जाने का शर्म त्याग देना चाहिये। स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण स्वयं माँ भवतारिणी (दक्षिणेश्वर की काली माता) के परम-भक्त थे। और आज का पाश्चात्य जगत उन्हें अपना अनुकरणीय आदर्श मानता है ! हम अपने परिवार या समाज में ऐसे कई उदाहरण देख सकते हैं, कि जो बच्चा बचपन से ही किसी भगवान की पूजा या भक्ति करता हैं, वह आगे चलकर जीवन में हर प्रकार की सफलता प्राप्त करने के साथ साथ एक अच्छा मनुष्य भी बनता है।किन्तु जो युवा सेमेटिक-विचारों से प्रभावित होकर नास्तिक (या कम्युनिस्ट) होने में गर्व का अनुभव करते हैं और किसी भी मूर्ति के आगे अपना सिर नहीं झुकाते हैं, वे भले ही उच्च शिक्षा प्राप्त कर लें किन्तु अच्छा मनुष्य नहीं बन पाते हैं।
मार्क्स का चिंतन कहने के लिए निरिश्वरवादी है लेकिन एक शक्ति में वह भी विश्वास करता है। पाश्चात्य दृष्टि से कहा जाय तो इस समय विश्व में दो प्रकार के धर्म ही प्रचलित हैं-एक इंडो वैदिक दूसरे सेमेटिक। इंडो वैदिक धर्म जिसे भारत में सनातन धर्म (हिन्दू धर्म) कहा जाता है, से उपजे हुए पंथ हैं-शैव, वैष्णव,जैन, बौद्ध, सिख,आदि सेमेटिक धर्म से उपजे पंथ हैं, यहूदी, ईसाई, इस्लाम आदि। इंडो वैदिक धर्म मानता है कि ईश्वर एक है।  इसलिए उनमें टकराव नहीं होता क्योंकि उनका मूल धर्म उन्हें इसकी इजाजत नहीं देता। क्यों उसके लक्षणों में धैर्य , क्षमा , संयम , चोरी न करना , शौच ( स्वच्छता ), इन्द्रियों को वश मे रखना , बुद्धि , विद्या , सत्य और क्रोध न करना ;शामिल हैं। उसका मानना है कि ईश्वर कण कण में है तो शिव जी की मूर्ति में भी है। हनुमान जी की मूर्ति में भी, गुरुद्वारे में है तो मंदिर में भी और चर्च में है तो मस्जिद में भी.
इसलिये एकेश्वरवादी होने के बावजूद आप उसके (अद्वै-तत्व के) किसी भी रूप में उसकी उपासना कर सकते हैं। लेकिन धर्म परायण होने के नाते आप दूसरे के उपास्य की निंदा नहीं कर सकते। गाली नहीं दे सकते। इसीलिए हनुमान भक्त भी शिव मंदिर से गुजरता है तो सिर झुका लेता है। वह मुस्लिम संत साईं बाबा की उपासना भी करता है। अजमेर शरीफ की भी और वैष्णों देवी की भी। कभी इस बात पर संघर्ष नहीं होता कि तुम्हारा उपास्य गलत है। वह तो चर्च को भी प्रणाम कर लेता है और मस्जिद को भी। इंडो वैदिक धर्म कि विशेषता है कि वह अपने पंथों में और पंथों को जोड़ने से परहेज नहीं करता।
सेमेटिक धर्मों के अनुसार में मरने वाले की प्रेतात्मा को कयामत के दिन का इन्तजार रहता है, कयामत के दिन उनके कर्मों के अनुसार उनकी मुक्ति या बन्धन का निर्णय खुदा करता है। इंग्लैंड नामक द्वीप पर फ्रांसिस बैकन नामक एक चिंतक पैदा हुआ। जिसने कहा कि प्रकृति एक स्त्री के समान है, जिसके बाहों को मरोडने से वह अपने रहस्यों को उगल देगी। बैकन के उस सिध्दांत से यूरोप में प्रकृति के खिलाफ संघर्ष का श्रीगणेश हो गया जो आज तक चल रहा है। बैकन का चिंतन कार्ल मार्क्स के चिंतन से मिलता है और कार्ल मार्क्स का चिंतन शुक्राचार्य के चिंतन से मिलता है।  
सेमेटिक चिंतन को दानवी चिंतन से जोडकर देखा जाये,तब बातें समझ में आएगी। इस चिंतन के असली प्रणेता शुक्राचार्य को ही माना जाना चाहिए। दानव गुरू शुक्राचार्य भी संघर्ष और बलात आधिपत्य पर विश्वास करते थे। देव दानव की लडाई में इन्द्र ने छल से रंभ नामक दानव की हत्या कर दी। इस घटना की जानकारी जब शुक्राचार्य को हुई तो उन्होंने रंभ के मृत्य देह से वीर्य निकाल एक भैंस के गर्भ में प्रतिस्थापित कर दिया और उससे महिषासुर नामक दानव का निर्माण किया। शुक्राचार्य यही नहीं रूके उन्होंने महिषासुर की मृत्यु के बाद उसके वीर्य को हथनी के गर्भ में प्रतिस्थापित कर हथासुर नामक दानव पैदा कर दिया। शुक्राचार्य अपने इस अभियान में कितना सफल हुए यह तो पता नहीं लेकिन इससे प्रकृति के खिलाफ संघर्ष के इतिहास का पता चलता है। सेमेटिक धर्म के पंथ भी एकेश्वरवाद में विश्वास रखते हैं। मतलब एकेश्वरवाद दोनों में कॉमन है। संघर्ष का कारण अगला चरण है। सेमेटिक धर्म से उपजे पंथ एकेश्वरवाद के साथ ही एकोपास्यवाद में भरोसा रखता हैं। दूसरे का उपास्य और उपासना पद्धति उन्हें स्वीकार नहीं। उसके प्रति वे असहिष्णु हैं। ईसाई पंथ के रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टैंट पंथों में टकराव, इस्लाम में शिया सुन्नी टकराव इसी का कारण है। और अगर आपको बुरा न लगे तो कह दूं कि विश्व भर में आतंक का कारण भी सेमेटिक धर्म से उपजे पंथों की एकोपास्यवाद की सोच ही है।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " नारी के आर्य और सेमेटिक आदर्श सदा ही एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत रहे हैं। सेमेटिक लोग स्त्रियों क़ी उपस्थिति को उपासना विधि में घोर विघ्न स्वरूप मानते हैं.. उनके अनुसार स्त्रियों को किसी प्रकार के धर्म कर्म का अधिकार नही है, यहाँ तक क़ी आहार के लिये पक्षी (मुर्गा) मारना भी उनके लिये निषिद्ध है..आर्यों के अनुसार तो सहधर्मिणी के बिना पुरुष कोई धार्मिक कार्य कर ही नही सकता।" ४/२६६
 " वास्तविक शिक्षा की (भारतीय शिक्षा पद्धति की) तो अभी हम लोगों में कल्पना भी नहीं की गयी है। … फिर भी हम इसे मानसिक शक्तियों का विकास-केवल शब्दों का रटना मात्र नहीं, अथवा व्यक्तियों को ठीक तरह से और दक्षतापूर्वक इच्छा-शक्ति का प्रयोग करने का प्रशिक्षण देना कह सकते हैं। इस प्रकार हम भारत की लिये महान निर्भीक नारियाँ तैयार करेंगे,-नारियाँ जो संघमित्रा,लीला, अहल्याबाई, और मीराबाई की परम्पराओं को चालू रख सकें, नारियाँ जो वीरों की मातायें होने के योग्य हों, इसलिये कि वे पवित्र और आत्मत्यागी हैं, और उस शक्ति से शक्तिशाली हैं, जो भगवान के चरण छूने से आती है। मैं धर्म को शिक्षा का अन्तरतम अंग समझता हूँ. इंडो वैदिक धर्म (हिन्दू धर्म) मानवात्मा के लिये एक, केवल एक कर्तव्य बताता है- और वह है, नश्वरता के बीच अविनश्वर को पाने की खोज ! यदि हमारा धर्म नारी के लिये ब्रह्मचर्य (सतीत्व) को ऊँचा स्थान देता है, तो वह वही बात पुरुष के लिये भी करता है। हमें स्त्री पुरुष में भेद का विचार नही करना चहिये। केवल यही चिन्तन करना चाहिए क़ी हम सभी मानव हैं और परस्पर एक दुसरे के प्रति सद्व्यवहार और सहायता करने के लिये उत्पन्न हुए हैं. भारत में विश्वास करो और हमारे भारतीय धर्म में विश्वास करो। श्रद्धा रखो ,तेजस्वी बनो ,हृदय में उत्साह भरो...भारत में जन्म लेने के कारण लज्जित न हों, वरन उसमें गौरव का अनुभव करो,स्मरण रखो, यद्यपि हमें दुसरे देशों से कुछ लेना अवश्य है ,पर हमारे पास दुनियां को देने के लिये ,दूसरों क़ी अपेक्षा सहस्त्र गुना अधिक है।" ४/२६९]
इसीलिये कार्ल युंग कहते हैं- धार्मिक भावों को चित्रमय भाषा में व्यक्त करने के लिये, सामुहिक अवचेतन विशेष रूप से सत्य तो हैं ही, लेकिन विज्ञान की केंद्रीय अवधारणायें, दर्शन और नैतिकता भी इस नियम के अपवाद नहीं हैं। अपने वर्तमान स्वरूप में वे आद्यप्ररूपीय धारणाओं (Archetypal Ideas) के विविध रूप हैं, जिन्हें समझ-बूझ कर वास्तविकता के अनुरूप और प्रयोग के योग्य बनाया गया है। क्योंकि वे धारणायें चेतना (अभिज्ञता या consciousness) के कार्य हैं, जो बाह्य जगत को इन्द्रियों के माध्यम से न केवल पहचानते और आत्मसात करते हैं, बल्कि हमारे अन्तर्जगत को एक दृष्टिगोचर वास्तविकता के रूप में भी परिवर्तित कर देते हैं।”   
जिसे हम प्रभामण्डल (aura) के नाम से जानते हैं, हमारा स्व या पहचान 'The Self ' क्या है ? उसे परिभाषित करते हुए युंग कहते हैं -

 

हमारा  ‘स्व’ या पहचान भी एक वैसा आद्यरूप (archetype) है जो किसी व्यक्ति के चेतन और अवचेतन के एकीकरण का प्रतिनिधित्व करता है। इस स्व का निर्माण, उस प्रक्रिया के माध्यम से होता है, जिसे व्यक्ति के विशेषीकरण (Individuation) के नाम से जाना जाता है, जिसमें व्यक्तित्व के विभिन्न पहलु एकीकृत होकर कर रहते हैं। जुंग ने अक्सर इस स्व का निरूपण एक वृत्त, वर्ग या मंडल के रूप किया है। 

 

जिसे हम अपना व्यक्तित्व ' Personality ' या विशिष्ट चरित्र कहते हैं, यह हमारी वह छवि (persona) है जिसके माध्यम से हम स्वयं को जगत के समक्ष प्रस्तुत प्रस्तुत करते है।

यह शब्द ‘persona’ एक लैटिन शब्द "mask." से व्युत्पन्न हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है "मुखौटा." तथापि, यह कोई सचमुच का मुखौटा नहीं है. यह ‘persona’ हमारी उस छवि का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे विभिन्न समूहों और स्थितियों के बीच, हम विभिन्न सामाजिक अवसर पर एक मुखौटे के रूप में पहन लेते हैं। यह हमारे अहंकार (मैं-पन) के नकारात्मक छवियों को ढाँक देने का कार्य करता है।  
पर्सोना किसी व्यक्ति के चरित्र का वह पहलू है, जिसे वह दूसरों के समक्ष प्रस्तुत करता है, या दूसरों के द्वारा उसे जिस रूप में जाना-माना जाता है। उदहारण के लिये - her public persona या उसकी सार्वजनिक छवि। पर्सोना शाब्दिक अर्थ है मुखौटा ' जिसे कोई अभिनेता अपना किरदार निभाते समय ओढ़ लेता है।’ जुंग के अनुसार, ये छवियाँ (persona) सपने में भी दिखाई देती हैं, और कई प्रकार के विभिन्न रूप-आकारों को धारण कर सकती हैं। 
 Other Archetypes: अन्य प्रकार के आद्यरूप
जुंग ने कहा है कि प्रचलित आद्यरूपों (archetypes) की संख्या स्थैतिक या पूर्व-निर्धारित नहीं होती हैं। इसके बजाय वह किसी भी समय में कई अलग अलग प्रकार के आद्यरूप (archetypes) एक दूसरे को ओवरलैप (आच्छादित) कर सकते हैं, या आपस में सम्मिश्रित भी हो सकते हैं। नीचे विभिन्न प्रकार के कुछ प्रमुख आदिरूपों (archetypes) का वर्णन किया जा रहा है जिनका उल्लेख स्वयं जुंग ने किया है -
  1. पिता (The Father) : 
    Authority figure; stern; powerful. अथॉरिटी या सत्ताधारी के व्यक्तित्व वाला, कठोर, शक्तिशाली
  2. माता (The Mother)

     
     Nurturing; comforting.पालन-पोषण करने वाली, सुख-साधन देने वाली, सान्त्वना देने वाली माँ !

  3. सन्तान (The child) :
     Longing for innocence; rebirth; salvation. नासमझ बालक-बालिकायें, अभिलाषाओं को पाने का भोलापन, पुनर्जन्म, मोक्ष पाने की व्याकुलता।
  4. बुद्धिमान बूढ़ा व्यक्ति (The wise old man

     
     Guidance; knowledge; wisdom. अँधकार से प्रकाश में (मृत्यु से अमरत्व में) ले जाने वाला मार्गदर्शक, ज्ञान,भक्ति  विवेक-वैराग्य के दाता गुरु-देव!
  5. नेता या आदर्श (The Hero) :

     

     Champion; defender; rescuer. सर्वोत्तम शूरवीर, रक्षक, बचानेवाला।
  6. कुमारी युवती (The Maiden):  

     

    Innocence; desire; purity. सरलता, कामना या इच्छा, पवित्रता।
  7. मक्कार (The Trickster, ट्रिक्स्टर) : 

     

     Deceiver; liar; trouble-maker. महिषासुर, भस्मासुर आदि जैसे धोखेबाज, झूठा, उपद्रवी लोग  ।


कोई टिप्पणी नहीं: