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मंगलवार, 11 सितंबर 2012

'स्वामी विवेकानन्द और युवा समस्या की पहचान ' [ SVHS- 3.3 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना : खण्ड 3 -स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज ] [>>>ग्रीक दर्शन के अनुसार शिक्षा छात्र को # 'capable of receiving बनाती है। भारत की गुरु-शिष्य परम्परा - पार्थसारथी अवतार वरिष्ठ के शिष्य स्वामी विवेकानन्द बचपन से ही हमारे सारथि बनना चाहते थे ! अंतर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करने का उपाय बताती है। ] मनुष्य जीवन के उद्देश्य - 'मिथ्या अहंकार M/F देहाध्यास से भ्रम-मुक्ति और शाश्वत जीवन की प्राप्ति' /- "व्यष्टि अहं को सर्वगत अहं में रूपांतरित करने के व्रत के व्रती (votary)" हम युवा लोग कैसे बनें ?/ 'जेमन भाव, तेमन लाभ ' / ["जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू,सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥"/मनुष्य के अमूर्त विचारों की अपेक्षा जीवन्त उदाहरण देखने से अधिक विश्वास होता है। /जब तक 'मुक्ति का रहस्य' उद्घाटित नहीं हो जाता, जीवन कभी स्थिर नहीं रह सकता है।/जर्मन साहित्य की प्रसिद्द रचना फ़ाउस्ट (Faust)-असीमित सांसारिक सुख भोगने के लिए अपनी आत्मा को ही शैतान के पास गिरवी रख देता है। / हस्तामलकस्तोत्रम्/


      स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना   

 [Swami Vivekananda and our potential ] 

[खण्ड 3 -स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज] 

[ Volume 3 - Swami Vivekananda and Youth Society]

 3.

 " स्वामी विवेकानन्द और युवा समस्या की पहचान "

' शिक्षा, धर्म और आध्यात्मिकता में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है। '

'There is no fundamental difference between 
education, religion and spirituality. ,
[Swami Vivekananda and identification of youth problem]   
         
   [1.>>ग्रीक दर्शन के अनुसार शिक्षा (पाश्चात्य शिक्षा) छात्र को # 'capable of receiving बनाती है। किन्तु गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में चपरास प्राप्त शिक्षक से प्राप्त होने वाली भारत की (दीर्घ 'ईo' वाली) मनुष्यत्व-उन्मेषक 'शीक्षा' अंतर्निहित (दिव्यता, पूर्णता) को अभिव्यक्त करने का उपाय बताती है।] 
       प्रसिद्द ग्रीक दार्शनिक प्लेटो से एक बार पूछा गया, कि आप वास्तविक या सर्वश्रेष्ठ शिक्षा किसे समझते हैं, तो उन्होंने इसके उत्तर में कहा था " वास्तविक या सर्वश्रेष्ठ शिक्षा वह है जो मनुष्य को तथा उसकी आत्मा को इतने परिमाण में माधुर्य (sweetness) और दोषशून्यता (flawlessness-परिपूर्णता, निष्कलंकता) प्रदान कर सके जितने परिमाण में वह उसे ग्रहण करने में सक्षम हो।" यदि हम इस परिभाषा के साथ स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा की परिभाषा को मिलाकर कर देखें, तो पायेंगे कि वह अधिक स्पष्ट तथा सारगर्भित है। स्वामीजी कहते हैं- "मनुष्य के भीतर जो पूर्णता (perfection-निःस्वार्थपरता) पहले से विद्यमान है, उसकी अभिव्यक्ति को  (विकास और प्रकाश (Manifestation-3H विकास और चरित्र से प्रकाश को) शिक्षा कहते है।
     प्लेटो के कथन-'मनुष्य को उसके शरीर और आत्मा को इतना माधुर्य और दोषशून्यता (flawlessness) प्रदान कर सके, जितने परिमाण में वह उसे ग्रहण करने में (capable of receiving) सक्षम हो।' स्वामीजी के कथन - " मनुष्य के भीतर जो पूर्णता पहले से विद्यमान है उसकी अभिव्यक्ति (Manifestation-विकास और प्रकाश या व्यवहार में प्रकट करने) को शिक्षा कहते हैं। " और अधिक गहराई में जाकर सत्य को स्पष्ट करती है , मनुष्य में अन्तर्निहित दिव्यता को स्पष्ट करती है। 
              शिक्षा की प्रथम परिभाषा में शिक्षा प्राप्त करने (प्रशिक्षण) की पद्धति या उसे ग्रहण करने की समस्या के समाधान का कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता।  किन्तु शिक्षा की दूसरी परिभाषा में शिक्षा प्राप्त करने की वैज्ञानिक पद्धति का स्पष्ट संकेत मिलता है कि शिक्षा (शीक्षा -दीर्घ ई वाली) कभी बाहर से भीतर नहीं आयेगी । क्योंकि शिक्षा यदि बाहर से भीतर आएगी, तो किस वाहन के माध्यम से आयेगी, और विद्यार्थी उस शिक्षा को धारण कैसे करेगा ? स्वामी जी द्वारा दी गयी परिभाषा इन सभी अवांतर प्रश्नों (Internal questions) को  क्षण भर में शान्त कर देती है। दूसरी बात ' पूर्णता ' शब्द 'सौन्दर्य' को अलग से उल्लेख करने के दोष  को भी मिटा देता है, क्योंकि 'पूर्णता' शब्द के भीतर ही ' सत्य,शिव और सुन्दर ' का भाव अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है किन्तु, कोई पूछ सकता है कि इतनी  समस्याओं के रहते हुए भी अचानक शिक्षा की बात क्यों हो रही है? इसी कारण से हो रही है कि शिक्षा अपने-आप में तथा विशेषरूप में युवाओं के लिए- बहुत महत्वपूर्ण विषय है। चूँकि, युवावस्था ही जीवन गठन का सबसे उत्कृष्ट समय है और उसका सर्वश्रेष्ठ उपाय है-शिक्षा, इसलिए इस पर चर्चा हो रही है। 
  2.>>>मनुष्य जीवन की सर्वोच्च सम्भावना के प्रति, छात्रों में श्रद्धा उत्पन्न कर देना शिक्षक/नेता का दायित्व है। सर्वोच्च सम्भावना को व्यक्त करने का उपाय है -शिक्षा।        
       श्रीरामकृष्ण के कथन-' जावत बाँची तावत सिखी ' का अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि -आजीवन शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। इस कथन के भीतर इस बात का संकेत भी मिलता है कि 'मनुष्य जीवन का उद्देश्य ही शिक्षा प्राप्त करना है।'  स्वामी विवेकानन्द जब यह कहते हैं - 'यह जगत एक अध्यात्मिक व्यायामशाला है'- तो उनके इस कथन में भी जीवनोद्देश्य का संकेत प्राप्त होता है। किन्तु मनुष्य-जीवन का एक विशेष उद्देश्य है, इस बात को युवावस्था में ही समझ लेने की बात तो दूर रही, अधिकांश लोग तो जीवन की संध्या बेला में भी नहीं समझ पाते हैं!  और विशेष करके युवा जीवन की समस्या यहीं से प्रारम्भ होती है।  
       हम जानते हैं कि किसी लक्ष्य (उद्देश्य)  तक पहुँच जाने के सिवा किसी नदी की गति (या प्रवाह) का कोई अर्थ नहीं होता। और बिना उद्देश्य के प्रारम्भ हुई जीवन यात्रा यदि बुढ़ापा आते-आते विभिन्न समस्यायों से घिर जाये तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? यदि हम युवा जीवन की समस्त समस्याओं को हल करना चाहते हों तो सभी युवाओं में मनुष्य जीवन के मूल्य बोध को जाग्रत करना होगा। सभी युवाओं को समझना होगा की यह मानव-जीवन एक महान अवसर है, यह जैसे-तैसे व्यतीत कर देने की वस्तु नहीं है, यह एक महान सम्भावना है। इस सम्भावना को अभिव्यक्त कर देना ही जीवन का उद्देश्य है और इस सम्भावना को अभिव्यक्त करने का उपाय है-शिक्षा! 
       स्वामी विवेकानन्द के वेदान्त आधारित विचारों का विश्लेषण करने पर हम समझ पाते हैं कि शिक्षा, धर्म और आध्यात्मिकता में मूलतः कोई अन्तर नहीं है। इसीलिए किसी युवा में यदि धर्म या आध्यात्मिकता के बारे में कोई अवधारणा नहीं हो, उसको जानने के प्रति कोई आकर्षण नहीं हो, फिर भी यदि वह शिक्षा के प्रति उत्साही हो तो उसको भी वही लाभ मिलेगा, जो धर्म के प्रति आग्रही रहने से मिलता है। स्वामीजी कहते हैं- 'जो जिस स्तर पर खड़ा हो, उसके स्तर पर उतर कर यदि सम्भव हो तो उसका हाथ पकड़ कर उसको थोड़ा उपर उठा दो।' यदि युवाओं के मन में किसी प्रकार मनुष्य जीवन (की सर्वोच्च सम्भावना) के प्रति श्रद्धा उत्पन्न कर दी जाय तो उतने से भी बहुत लाभ होगा।
          यदि किसी प्रकार युवावस्था में ही बोध हो जाय कि यह मानव-जीवन अत्यंत मूलयवान है तब मन में अपनी अनन्त सम्भावना को अभिव्यक्त करने की ललक पैदा हो जायेगी। इस चेष्टा का नाम ही शिक्षा है। किन्तु मनुष्य में अन्तर्निहित सर्वोच्च सम्भावना [अहं का दासो अहं में रूपांतरण] को अभिव्यक्त करने की बात को भूलकर हमलोग शिक्षा को अन्ततोगत्वा 'अर्थकारी विद्या' में परिणत कर देते हैं। इसी कारण जो शिक्षा जीवन की मौलिक समस्या (#3 एषणा में आसक्ति) के समाधान में सहायक हो सकती थी, वह उल्टे नई-नई समस्याओं को उत्पन्न करने का कारण बन जाती है।
         पश्चिम के एक विचारशील लेखक का उल्लेख करना, यहाँ अत्यंत प्रासंगिक होगा -" किसी बच्चे के लिये सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात यह होगी कि वह ऐसे परिवेश में पले-बढ़े जहाँ सृष्टि के सौन्दर्य बोध (जीवन के माधुर्य) के प्रति प्रेम न होकर,केवल धन-लोलुपता का ही मनोभाव हो ;  जहाँ उसको बचपन से ही दैनन्दिन जीवन में सबसे अधिक मूल्यवान वस्तु अधिक मनुष्यत्व, अधिक गुण, अधिक सौंदर्यबोध कैसे प्राप्त होता है- यह सब न सिखाकर केवल यही सिखाया जाता हो कि किस उपाय से अधिक से अधिक धन, अधिक ऐश्वर्य प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार की कूशिक्षा के द्वारा किसी नये जीवन को 'ईश्वराभिमुखी परिक्रमा पथ' से जबरदस्ती हटाकर, आध्यात्मिक केन्द्र से खींचकर मूल्यहीन साधारण सांसारिक लक्ष्य की ओर धकेल देना बहुत ही निर्दयता का कार्य है। क्योंकि जबतक उसका मन (ह्रदय ?) कोमल है तभी तक उसे अच्छे-बुरे किसी भी साँचे में आसानी से ढाला जा सकता है।" 
        श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द की शिक्षाओं को यदि बहुत सरल ढंग से समझने की चेष्टा की जाये तो उसे निम्न प्रकार से व्यक्त करना गलत नहीं होगा -" मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य अपने अन्तर्निहित सत्य, अन्तर्निहित सत्ता, पहले से विद्यमान पूर्णता (100 % निःस्वार्थपरता) की ओर अग्रसर होते रहना है। या अपने 'कच्चे मैं' को 'पके मैं' में परिवर्तित कर लेना है। क्षुद्र अहं बोध को सर्वगत अहंकार में निमज्जित कर देना है। पराये के लिए भी अपने क्षुद्र स्वार्थ को बिल्कुल त्याग देना है। अपने क्षूद्र व्यक्तित्व को एकमात्र अखण्ड व्यक्तित्व (माँ जगदम्बा) से अभिन्न बना लेना है, समस्त शक्तियों को (प्राण ऊर्जा को) प्रेम में रूपान्तरित कर लेना है।"
               अर्थात अपने  अहंकार और  स्वार्थबोध को जीतकर हृदय में अवस्थित सत्य,मंगल और प्रेमपूर्ण सत्ता को अपने कर्मों के माध्यम से अभिव्यक्त [विकास और प्रकाश]  करने का प्रयत्न  करते जाना है। ...और जो ऐसा करने में पूरी तरह से समर्थ हो पाते हैं,वे ईश्वरलाभ कर चुके होते हैं। अन्य लोग जिस परिमाण में ऐसा जीवन जी पाते हैं , उन्होंने उसी परिमाण में देवत्व या मनुष्यत्व अर्जित किया होता है। मनुष्य जीवन की समस्त समस्याओं के समाधान का यही एकमात्र पथ है , इसके सिवा अन्य कोई पथ नहीं है। चुँकि, युवा कोई मनुष्येतर प्राणी नहीं है , इसीलिए युवा समस्याओं के समाधान का भी यही एकमात्र पथ है। यहाँ तक कि यदि युवावस्था में ही इस  'पथ' (सन्मार्ग) को ग्रहण कर लिया जाय तो मनुष्य-जीवन की अनगिनत समस्याओं के समाधान का मार्ग आसन हो जायेगा। फिर भी यह सवाल तो उठता ही है कि आखिर हम इस कठिन व्रत के व्रती किस प्रकार बन सकते हैं ?  
       >> उच्च विचारों से उच्च जीवन-गठन होगा यही है'The Law of Success' : इसका उपाय श्रीरामकृष्ण द्वारा निर्देशित एक छोटे से उपदेश - 'जेमन भाव, तेमन लाभ ' में है। अर्थात, जिसकी जैसी भावना होगी, उसको वैसा ही फल मिलेगा। जो कुछ हम पाना चाहते हैं, उपलब्धि करना चाहते हैं, उस भावना को [उसी ज्वलन्त इच्छा - बर्निग डिज़ायर को, The Law of Success को] पहले हमें अपने ह्रदय में संजोना होगा। जैसा पहले चर्चा हो रही थी, जब तक मन कोमल है उसको जिस आदर्श (विवेकानन्द) के साँचे में ढाला जायेगा, वह उसी के भाव में ढल जायेगा। तथा उसी भाव के ज्वलंत इच्छा के अनुरूप विचार ही स्वतः उसमें प्रविष्ट होने लगेंगे। इस विषय में एक पाश्चात्य मनीषी (नेपोलियन हिल) कहते हैं, " अपने मन की आँखों के सामने, अर्थात अपनी कल्पना में  तुम जिस प्रकार के आदर्श की छवि को रखने की चेष्टा करोगे, अपने हृदय  सिंहासन पर जिस आदर्श को आसीन रखोगे, वही आदर्श तुम्हारे जीवन को आकार देने लगेगा, और तुम स्वयं भी वही बन जाओगे। " 
    >>>वैराग्य पूर्वक प्रत्याहार -धारणा का निरन्तर अभ्यास द्वारा जीवनगठन बिल्कुल यही बात यहाँ भी कही जा रही है। मनुष्य का जीवन वाह्य सामग्रियों द्वारा गठित नहीं होता है। हमारा मन ही अपने आदर्श के अनुसार जीवन को गठित करता है। स्वामीजी कहते थे- ' या मतिः सा गतिर्भवेत।' इस प्रकार हम यह देख सकते हैं- कि मन के भाव या आदर्श के उपर ही जीवन- गठन निर्भर करता है। इसके लिये दो कार्य करने होंगे। पहला, मन को अपने वश में लाकर, उसे प्रयोजन के अनुसार कार्य में नियोजित करना होगा। दूसरा, ह्रदय में धारण करने के लिए पहले से किसी उच्च भाव या श्रेष्ठ युवा -आदर्श का सही चुनाव कर लेना होगा।  किन्तु, मन का स्वाभाव अत्यन्त चंचल है, मन के शक्ति की कोई सीमा नहीं है। सच तो यह है कि हमलोग मन की सहायता के बिना कोई भी कार्य नहीं कर सकते हैं। इसीलिये, मन को एकाग्र और नियंत्रित रखते हुए उसकी शक्ति की सहायता से हमलोगों को सभी कार्य करने पड़ते हैं।  हमारा मन ही किसी पवित्र भाव या आदर्श को धारण करता है। कल्पना में जो आदर्श (साँचा) निरंतर हमारे आँखों के सामने रहता है , जिनके विचारों (उपदेशों) को हम क्रियान्वित करना चाहते हैं, वैसा क्रियान्वन मन की कल्पना शक्ति (Power of Imagination)  द्वारा ही सम्भव होता है। 
      किन्तु चित्त यदि चंचल बना रहे तो आदर्श की वह छवि विकृत हो जाती है।  तथा उसे उचित रूप से समझने की चेष्टा में ही मन की सारी शक्ति नष्ट हो जाती है और दुर्बल मन फिर उस आदर्श को वास्तविकता के धरातल पर उतारने में असमर्थ हो जाता है। इसीलिये मन को एकाग्र और नियंत्रित करने का अभ्यास नियमित रूप से करते रहना विशेष रूप से आवश्यक है। इसके लिए मन पर  मन के द्वारा ही शासन करना पड़ता है। (Double presence of mind -मन अपने को ही द्रष्टा  मन और दृश्य मन में बाँट लेता है। ) उसे वश में रखने का एक मात्र उपाय है - निरंतर अभ्यास करते रहना।  निरंतर अभ्यास करते रहने से मन धीरे -धीरे नियन्त्रण में आने लगता है, और वशीभूत मन एकाग्र-चित्त होकर किसी  भाव या आदर्श को मूर्तरूप देने लगता है। 
    मन को एकाग्र रखने में 'वैराग्य'  बहुत सहायक सिद्ध होता है। मन स्वभावतः रूप-रस आदि इन्द्रिय-विषयों में बिना चेष्टा के ही आकृष्ट हो जाता है। किसी विशेष भोग वस्तु के प्रति यदि हमारे मन में विशेष आकर्षण रहे तो इसमें ही मन की सारी शक्ति व्यर्थ में खर्च होती है। अतः हम यदि किसी भी प्रयोजनीय विषय में मन को एकाग्र करना चाहते हों, या उसको नियन्त्रित करके उसकी शक्ति को बढ़ाना चाहें तो यथा संभव वैराज्ञ परायण होना आवश्यक  है। भोगों में आसक्त नहीं रहने से मन आसानी से बिना किसी दबाव के किसी भी उच्चतर विषय में अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ प्रयुक्त हो कर उपयुक्त परिणाम दे सकता है। इस प्रकार वशीभूत मन को (अर्थात भोगों में अनासक्त पवित्र मन को ) पूरी एकाग्रता के साथ किसी भी आदर्श पर नियोजित रखने मात्र से ही हमलोग उस आदर्श को अपने जीवन में रूपायित कर सकते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि किसी सुन्दर आदर्श को (माधुर्य से परिपूर्ण और दोषरहित आदर्श को) अपने जीवन में रूपायित कर पाने से ही हमलोगों का सुंदर जीवन-गठन  (beautiful Life -building ) होता है। 
         >>युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द ही क्यों ? 
        अब प्रश्न है, कि वह प्रेरक और सुन्दर आदर्श क्या है ? कोई सर्वश्रेष्ठ आदर्श वह भाव-समष्टि है, जिसमें बहुत सारे परस्पर सम्बद्ध भाव ग्रथित होकर इस प्रकार एकत्र हो जाते हैं कि उन भावों को क्रियान्वित करने से व्यक्ति या समाज हर दृष्टि से पूर्ण विकास करने लगता है। इसीलिये सच्चा आदर्श वह है जो किसी व्यक्ति या समाज को पहले तो एक 'समग्र-जीवन दृष्टि' का उपहार प्रदान करता है, फिर जीवन-यात्रा को लक्ष्य तक पहुँचा देने के लिए ज्ञातव्य तथ्य प्रदान कर सहायता करता है। तथा श्रेय-मार्ग से चलते समय कहीं फिसल न जायें इसके लिए समयानुसार विशिष्ट परामर्श भी देता रहता है।
      आदर्श के भी दो रूप हैं- मूर्त और अमूर्त। वह आदर्श कोई निराकार भवमूर्ति हो सकता है या आदर्श जीवन। [स्वामी जी के भाव में भावित जीवन जैसे C-IN-C नवनीदा)] ! निराकार भावमूर्ति किसी व्यक्ति की पूर्णता की उच्चतम धारणा का वहन करता है। यह आदर्श एक ऐसी काल्पनिक आकृति (माँ भवतारिणी काली की ? सर्वत्यागी शंकर ) है, जो किसी वास्तविक वस्तु के समान ही हमारे मन के समक्ष निरन्तर जगमगाता रहता है , और जिसका अनुकरण करके हमलोग आसानी से अपने जीवन को विकसित कर सकते हैं। किन्तु, आदर्श में रूपायित कोई जीवन बहुत विरले ही देखने को मिलता है। लेकिन ऐसा जीवन निराकार भावमूर्तिरूपी किसी काल्पनिक आदर्श की अपेक्षा बहुत अधिक लाभदायक सिद्ध होता है। वास्तविक जीवन की उष्णता से कल्पनालोक में चित्रित आदर्श की विचार मूर्तियों में प्राण  स्पन्दित होने लगते हैं तथा वे विचार आसानी से मन में भीतर तक प्रविष्ट हो जाते हैं। मनुष्य को अमूर्त विचारों की अपेक्षा जीवन्त उदाहरण देखने से अधिक विश्वास होता है। मानव की महानता तथा मनुष्य जीवन की संभावनाओं के जिस महान आदर्श का प्रचार स्वामी विवेकानन्द ने किया था,  वे स्वयं उसके एक जीवन्त प्रतिमूर्ति हैं। 
>>>Chief Aim of Life :(जीवन का मुख्य उद्देश्य का मार्गदर्शन देने वाला आदर्श) :
हमलोग स्वामी विवेकानन्द रूपी इस जीवन्त आदर्श के माध्यम से एक असाधारण जीवन दर्शन, जीवन का एक महान उद्देश्य, उसे प्राप्त करने का आलोकित पथ तथा फिसलन भरे मार्ग पर रपट पड़ने की आशंका  को दूर करने वाला बज्र जैसा मजबूत हाथों का सहारा-एक साथ प्राप्त कर सकते हैं। दुर्गम यात्रा पथ पर साहस पूर्वक चलने का आत्म-विश्वास, उत्साह और इसी जीवन में पूर्णता प्राप्त करने का आशीर्वाद - यह सब कुछ हम विवेकानन्द से  प्राप्त कर सकते हैं। उनका  आदर्श, उनकी भावमूर्ति आज नश्वर शरीर के न रहने पर चिर-अपरिवर्तनीय  होकर पूर्व की अपेक्षा अधिक प्रेरणास्पद तथा माननीय हो उठी है।  
              >>>Life Building : जीवन-गठन :   युवा जीवन की समस्याओं के गहराई में प्रविष्ट होकर अब हम यह देखने की कोशिश करेंगे कि स्वामीजी के आदर्श से इस समस्या का समाधान किस प्रकार संभव हो सकता है?  युवा जीवन प्राण उर्जा से छलकती रहती है, इस आयु में उत्साह और उत्कण्ठा का कोई आभाव नहीं होता। क्रियाशीलता अपने चरम पर रहती है। किन्तु युवाकाल में विवेक (और श्रद्धा ) पर्याप्त मात्रा में क्रियाशील नहीं रहता है। युवाकाल में प्राणशक्ति  (अन्तर्निहित जीवनी-शक्ति या vitality) बेलगाम घोड़ों की तरह उछाल मारता रहता है, इसीलिए जीवन का आदर्श, उद्देश्य क्या है, कैसा होना चाहिए, इन सब बातों को जानना क्यों जरुरी है - युवाकाल में इन सब बातों का यथोचित मात्रा में  ज्ञान नहीं रहता।  यदि युवा काल में ही दृढ़ उत्साह, उत्कण्ठा, क्रियाशीलता के साथ आदर्श, उद्देश्य और उपाय को ग्रहण कर लिया जाय, फिर आत्मविश्वास के साथ सफलता की सम्भावना में अटल आस्था रखते हुए यदि दृढ संकल्प , धैर्य, अध्यवसाय , और पवित्रता के साथ प्रयत्न किया जाये तो जीवन केवल समस्यामुक्त ही नहीं होता बल्कि सौन्दर्य-बोध से मण्डित भी हो जाता है। किन्तु , अक्सर युवाकाल में इन विषयों के बारे में सुनने को नहीं मिलता है।  इसीलिए इस ओर ध्यान भी नहीं जाता है। जिसके फलस्वरूप युवा जीवन समस्यायों से भर उठता है। इसका मुख्य कारण है, स्वाभाविक अज्ञानता जो मुक्ति की धारणा को अस्पष्ट बना देती है, जिसके फलस्वरूप युवा संयमहीनता को ही शक्ति की अभिव्यक्ति समझ बैठता है।  
           >>>'मुक्ति का रहस्य' प्राणों के साथ जुड़ी होने के कारण 'मुमुक्षुत्व' या मुक्ति की भावना हर वस्तु में रहती है। [विद्युत् शक्ति, चुंबकीय-शक्ति आदि समस्त शक्तियों का अंतिम रूपांतरण प्राण में और आकाश में स्थित हर वस्तु सूर्य -पृथ्वी ब्रह्माण्ड के लुप्त हो जाने पर जो बचेगा वह आकाश भी ! प्राण और आकाश दोनों अव्यक्त में लीन हो जाता है। ] मनुष्य जीवन का उद्देश्य इसी मुक्ति की समग्रता का अनुसन्धान करना है। जब तक 'मुक्ति का रहस्य' उद्घाटित नहीं हो जाता, जीवन कभी स्थिर नहीं रह सकता है। विविध प्रकार की चंचलताओं के माध्यम से युवा सर्वदा मुक्ति का ही अनुसन्धान कर रहा होता है। उसका जीवन मुक्ति की खोज में जगह -जगह जाता है फिर 'यहाँ नहीं ', 'यहाँ नहीं' कहीं और देखो " - करके भागता रहता है। यही है युवा जीवन की समस्याओं का वास्तविक कारण [रामकृष्ण मिशन में संन्यासियों की संख्या बहुत कम है, अतएव - सांख्य और वेदान्त की इन बातों को, हमारी वास्तविक सत्ता , अविनाशी आत्मा -नश्वर शरीर-मन स भिन्न है, इस सू -समाचार को सम्पूर्ण भारत के युवाओं तक पहुँचा देने का उत्तरदायित्व महामण्डल ने अपने कंधों पर उठा लिया है।
       ऊपर से युवा जीवन में जो समस्यायें दिखाई देतीं हैं, वे सभी आमतौर से बाहरी  या गौण हैं। किन्तु, मूल समस्या आंतरिक है। इसका मूल अज्ञानता में है, जो उसको मुक्ति के सच्चे रूप को देखने नहीं देती और वह संयमहीन जीवनीशक्ति के उफान में ही मुक्ति की पहेली का हल ढूँढ़ता है। युगों-युगों से युवाओं के प्रति जिन कटाक्षों और अपशब्दों का प्रयोग किया गया हैं, आज के युवा यदि उन पर ध्यान देने लगें तो अपने आप पर से उनकी श्रद्धा ही उठ जाएगी।
       किन्तु,यदि वे सचमुच अपने युवा जीवन में युगान्तकारी परिवर्तन लाने का दृढ़ संकल्प कर लें, तो स्वामी विवेकानन्द को अपने आदर्श के रूप ग्रहण करके उनके मार्गदर्शन में चलकर देख सकते हैं। किन्तु,युवाओं को अपनी एक पारम्परिक मान्यता का त्याग करना होगा कि दूरस्थ कल्याण की  अस्पष्ट सम्भावना की अपेक्षा अभी का अस्थि-चर्म अनुभूत सुख ही बड़ा है। यह भूलना नहीं चाहिए कि बंगला कवि रामप्रसाद के सुर से सुर मिलते हुए एक पाश्चात्य कवी ने भी गाया है- ' मानव की सबसे बड़ी गलती - 'जो सृष्ट हुआ है उसका दुरूपयोग (misuse)करना है  तथा सम्पूर्ण अतीत (डिविनिटी) को अर्थहीन वर्तमान में डुबो देना है।'
             जर्मन साहित्य की प्रसिद्द रचना फ़ाउस्ट (Faust)*** के जंगल के एकान्त में स्वगतगान है- "अरे देखो, मानवों की ऐसी भग्न दशा और जानने की चेष्टा करो कि हमारी अपूर्णता कहाँ है" ( অহো ! হের মনুষ্যের হেন ভগ্ন দশা !  এবে জানি আমাদের অপূর্ণতা কোথা।)
        क्या मनुष्य अपनी अपूर्णता को पूर्णता में परिणत नहीं कर सकता ? जो सृष्ट हुआ (तुमने नहीं बनाया) है, उस शक्ति का दुरूपयोग करना क्या हम बन्द नहीं कर सकते ? क्या मनुष्य दूरस्थ कल्याण की ( तुच्छ अहं का बलिदान और विवेकज आनन्द की प्राप्ति ) के अस्पष्ट सम्भावना को, अनुभूत विश्वास (दासो अहं -मैं माँ काली का बेटा हूँ) में परिणत नहीं कर सकता है? निश्चय ही कर सकता है ? यौवन की उत्ताल प्राण-शक्ति को अनुशासित करना होगा। मुक्ति के स्वरूप पर अज्ञान का जो आवरण पड़ा है उसे क्रमशः उन्मोचित करते हुए , पूर्णतः अनावृत करने के साथ ही साथ स्पष्ट रूप से देख लेना होगा। [“Lord Parthasarathy is there for us, ready to be our Sarathy in Life and guide us all the way through if we are ready to offer selfless service”.तुच्छ अहं का बलिदान देकर विसम्मोहित होते हुए या स्वयं को दासोऽहं मानते हुए, अपने यथार्थ स्वरुप को -हस्तामकलकवत्-हाथ पर रखे आँवले के समान देख लेना होगा) ।]   
                मन को नियंत्रित करके प्रकृति के उपर प्रभुत्व स्थापित करना होगा। तब केवल स्वस्थ और पवित्र विचार ही हमारे मन को उत्प्रेरित कर सकेंगे, जीवन का एक नया दर्शन प्राप्त होगा, एक लक्ष्य निर्धारित हो जायेगा, मार्ग पर लगे मील के पत्थर  (रोहनिया ऊँच से बनारस कितनी दूर?)  दिखाई देने लगेंगे।  इच्छाएं [श्रेय -प्रेय विवेक से चुनी गयी एषणायें -वित्तैषणा, पुत्रैषणा तथा लोकैषणा ] उपयोगी होकर काम में आएँगी, उनको नियंत्रण में रखने का सामर्थ्य भी प्राप्त होगा। और हमारे चरित्र में (बाहरी व्यवहार में, अपने घर और मुहल्ले के लिए  त्याग और सेवा रूपी व्यावहारिक वेदान्त ) उसकी  अभिव्यक्ति प्रतिबिंबित होगी। इसके परिणाम स्वरुप चरित्रबल आएगा, जीवन गठित होने लगेगा, और सुगठित जीवन में समस्त समस्याओं का समाधान मिलने  लगेगा। 
स्वामी विवेकानन्द के विचारों के आलोक में युवाओं की समस्या का विश्लेषण करने से उसके समाधान का ऐसा ही मार्गदर्शन प्राप्त होता है। किन्तु, सामान्य प्रचलित विचार-धारा की अपेक्षा यह मार्ग  इतना अलग है, कि हर कोई आसानी से इस विचारधारा का स्वागत करने का साहस नहीं कर पायेगा।  इसका कारण यह है कि हमलोग अपने को चाहे कितना भी क्रान्तिकारी प्रदर्शित क्यों न करें पर किसी नई विचारधारा को स्वीकार करने से हमें बहुत डर लगता है।
      सचमुच स्वामी जी  विचारधारा जीवन के समस्त पहलूओं में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने में सक्षम है। किन्तु उनकी नई क्रान्ति के आह्वान के प्रतिउत्तर में  जनकल्याण के कार्यों में अपने जीवन तक को न्योछावर कर देने वाला साहस से भरपूर मन का बहुत बड़ी संख्या में मिलना संभव नहीं है। किन्तु, जितने भी युवा साहसी और मरजीवड़े है, जो उल्टी धारा के तैराक हों -उनके सामने आ जाने का समय अब आ गया है। वे लोग भी स्वामीजी के जैसा कहने का साहस रखकर कहेंगे, " सारी दुनिया भी हाथों में तलवार लेकर मेरे विरुद्ध क्यों न खड़ी हो जाये, किन्तु मैं एक बार जिसे 'सत्य,शिव और सुन्दर' समझ कर ग्रहण कर लिया हूँ, उसको छोड़ नहीं सकता।" 
        हमलोग इस देव-दुर्लभ मनुष्य जीवन की उपेक्षा करके इसे नष्ट नहीं होने देंगे। तात्क्षणिक देह-सुख के बदले हम भूमानन्द पाने की सम्भावना को धूल में फेंकना नहीं चाहेंगे। करोड़ों भुखमरी के शिकार मनुष्यों के आर्तनाद को अनसुनी  कर व्यक्तिगत स्वार्थों को पाने की चेष्टा नहीं करेंगे, जीवन्त देवता की अनदेखी करके उसकी अनन्त अभिव्यक्ति का अपमान नहीं होने देंगे।"
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>>> पार्थसारथी अवतार वरिष्ठ के शिष्य स्वामी विवेकानन्द बचपन से ही हमारे सारथि बनना चाहते थे ! 

A Very Inspiring Letter from Swami Vivekananda to his disciple from Madras, Alasinga Perumal, immediately after reaching the West as an unknown monk and in the period of his severe initial struggles.
[Published by >  Pankaj Pramanik  : 
Global CEO Chairman & President US Pioneer Global VC DIFCHQ Singapore Swiss . 
The words from the last two paragraphs of this letter to Alasinga Perumal ring my ears and permeates through my heart and mind, every night when I go to sleep. Truly words of fire.]

BREEZY MEADOWS, 
METCALF, MASSACHUSETTS., 
20th August, 1893

DEAR ALASINGA,
Received your letter yesterday. Perhaps you have by this time got my letter from Japan. From Japan I reached Vancouver. The way was by the Northern Pacific. It was very cold and I suffered much for want of warm clothing. However, I reached Vancouver anyhow, and thence went through Canada to Chicago. I remained about twelve days in Chicago. And almost every day I used to go to the Fair. It is a tremendous affair. One must take at least ten days to go through it. The lady to whom Varada Rao introduced me and her husband belong to the highest Chicago society, and they were so very kind to me. I took my departure from Chicago and came to Boston. Mr. Lâlubhâi was with me up to Boston. He was very kind to me.
The expense I am bound to run into here is awful. You remember, you gave me £170 in notes and £9 in cash. It has come down to £130 in all!! On an average it costs me £1 every day; a cigar costs eight annas of our money. The Americans are so rich that they spend money like water, and by forced legislation keep up the price of everything so high that no other nation on earth can approach it. Every common coolie earns nine or ten rupees a day and spends as much. All those rosy ideas we had before starting have melted, and I have now to fight against impossibilities. A hundred times I had a mind to go out of the country and go back to India. But I am determined, and I have a call from Above; I see no way, but His eyes see. And I must stick to my guns, life or death.
Just now I am living as the guest of an old lady in a village near Boston. I accidentally made her acquaintance in the railway train, and she invited me to come over and live with her. I have an advantage in living with her, in saving for some time my expenditure of £1 per day, and she has the advantage of inviting her friends over here and showing them a curio from India! And all this must be borne. Starvation, cold, hooting in the streets on account of my quaint dress, these are what I have to fight against. But, my dear boy, no great things were ever done without great labour.
Know, then, that this is the land of Christians, and any other influence than that is almost zero. Nor do I care a bit for the enmity of any — ists in the world. I am here amongst the children of the Son of Mary and the Lord Jesus will help me. They like much the broad views of Hinduism and my love for the Prophet of Nazareth. I tell them that I preach nothing against the Great One of Galilee. I only ask the Christians to take in the Great Ones of Ind along with the Lord Jesus, and they appreciate it.
Winter is approaching and I shall have to get all sorts of warm clothing, and we require more warm clothing than the natives. Look sharp, my boy, take courage. We are destined by the Lord to do great things in India. Have faith. We will do. We, the poor and the despised, who really feel, and not those. . . .
Yesterday Mrs. Johnson, the lady superintendent of the women's prison, was here. They don't call it prison but reformatory here. It is the grandest thing I have seen in America. How the inmates are benevolently treated, how they are reformed and sent back as useful members of society; how grand, how beautiful, You must see to believe! And, oh, how my heart ached to think of what we think of the poor, the low, in India. They have no chance, no escape, no way to climb up. The poor, the low, the sinner in India have no friends, no help — they cannot rise, try however they may. They sink lower and lower every day, they feel the blows showered upon them by a cruel society, and they do not know whence the blow comes. They have forgotten that they too are men. And the result is slavery.
Thoughtful people within the last few years have seen it, but unfortunately laid it at the door of the Hindu religion, and to them, the only way of bettering is by crushing this grandest religion of the world. Hear me, my friend, I have discovered the secret through the grace of the Lord. Religion is not in fault. On the other hand, your religion teaches you that every being is only your own self multiplied. But it was the want of practical application, the want of sympathy — the want of heart. The Lord once more came to you as Buddha and taught you how to feel, how to sympathise with the poor, the miserable, the sinner, but you heard Him not. Your priests invented the horrible story that the Lord was here for deluding demons with false doctrines! True indeed, but we are the demons, not those that believed. And just as the Jews denied the Lord Jesus and are since that day wandering over the world as homeless beggars, tyrannised over by everybody, so you are bond-slaves to any nation that thinks it worth while to rule over you. Ah, tyrants! you do not know that the obverse is tyranny, and the reverse slavery. The slave and the tyrant are synonymous.
Balaji and G. G. may remember one evening at Pondicherry — we were discussing the matter of sea-voyage with a Pandit, and I shall always remember his brutal gestures and his Kadâpi Na (never)! They do not know that India is a very small part of the world, and the whole world looks down with contempt upon the three hundred millions of earthworms crawling upon the fair soil of India and trying to oppress each other. This state of things must be removed, not by destroying religion but by following the great teachings of the Hindu faith, and joining with it the wonderful sympathy of that logical development of Hinduism — Buddhism.
A hundred thousand men and women, fired with the zeal of holiness, fortified with eternal faith in the Lord, and nerved to lion's courage by their sympathy for the poor and the fallen and the downtrodden, will go over the length and breadth of the land, preaching the gospel of salvation, the gospel of help, the gospel of social raising-up — the gospel of equality.
No religion on earth preaches the dignity of humanity in such a lofty strain as Hinduism, and no religion on earth treads upon the necks of the poor and the low in such a fashion as Hinduism. The Lord has shown me that religion is not in fault, but it is the Pharisees and Sadducees in Hinduism, hypocrites, who invent all sorts of engines of tyranny in the shape of doctrines of Pâramârthika and Vyâvahârika.
Despair not; remember the Lord says in the Gita, "To work you have the right, but not to the result." Gird up your loins, my boy. I am called by the Lord for this. I have been dragged through a whole life full of crosses and tortures, I have seen the nearest and dearest die, almost of starvation; I have been ridiculed, distrusted, and have suffered for my sympathy for the very men who scoff and scorn. Well, my boy, this is the school of misery, which is also the school for great souls and prophets for the cultivation of sympathy, of patience, and, above all, of an indomitable iron will which quakes not even if the universe be pulverised at our feet. I pity them. It is not their fault. They are children, yea, veritable children, though they be great and high in society. Their eyes see nothing beyond their little horizon of a few yards — the routine-work, eating, drinking, earning, and begetting, following each other in mathematical precision. They know nothing beyond — happy little souls! Their sleep is never disturbed, their nice little brown studies of lives never rudely shocked by the wail of woe, of misery, of degradation, and poverty, that has filled the Indian atmosphere — the result of centuries of oppression. They little dream of the ages of tyranny, mental, moral, and physical, that has reduced the image of God to a mere beast of burden; the emblem of the Divine Mother, to a slave to bear children; and life itself, a curse. But there are others who see, feel, and shed tears of blood in their hearts, who think that there is a remedy for it, and who are ready to apply this remedy at any cost, even to the giving up of life. And "of such is the kingdom of Heaven". Is it not then natural, my friends, that they have no time to look down from their heights to the vagaries of these contemptible little insects, ready every moment to spit their little venoms?
       Trust not to the so-called rich, they are more dead than alive. The hope lies in you — in the meek, the lowly, but the faithful. Have faith in the Lord; no policy, it is nothing. Feel for the miserable and look up for help — it shall come. I have travelled twelve years with this load in my heart and this idea in my head. I have gone from door to door of the so-called rich and great. With a bleeding heart I have crossed half the world to this strange land, seeking for help. The Lord is great. I know He will help me. I may perish of cold or hunger in this land, but I bequeath to you, young men, this sympathy, this struggle for the poor, the ignorant, the oppressed. 
    Go now this minute to the temple of Pârthasârathi, (Shri Krishna as Sârathi, charioteer, of Pârtha or Arjuna.) and before Him who was friend to the poor and lowly cowherds of Gokula, who never shrank to embrace the Pariah Guhaka, who accepted the invitation of a prostitute in preference to that of the nobles and saved her in His incarnation as Buddha — yea, down on your faces before Him, and make a great sacrifice, the sacrifice of a whole life for them, for whom He comes from time to time, whom He loves above all, the poor, the lowly, the oppressed. Vow, then, to devote your whole lives to the cause of the redemption of these three hundred millions, going down and down every day.
       It is not the work of a day, and the path is full of the most deadly thorns. But Parthasarathi  is ready to be our Sârathi — we know that. And in His name and with eternal faith in Him, set fire to the mountain of misery that has been heaped upon India for ages — and it shall be burned down. Come then, look it in the face, brethren, it is a grand task, and we are so low. But we are the sons of Light and children of God. Glory unto the Lord, we will succeed. 
     Hundreds will fall in the struggle, hundreds will be ready to take it up. I may die here unsuccessful, another will take up the task. You know the disease, you know the remedy, only have faith. Do not look up to the so-called rich and great; do not care for the heartless intellectual writers, and their cold-blooded newspaper articles
   Faith, sympathy — fiery faith and fiery sympathy! Life is nothing, death is nothing, hunger nothing, cold nothing. Glory unto the Lord — march on, the Lord is our [C-IN-C] General. Do not look back to see who falls — forward — onward! Thus and thus we shall go on, brethren. One falls, and another takes up the work.

Yours,
VIVEKANANDA
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#>>>स्वामीजी ने 'ठाकुर-माँ ' को अपने जीवन का  शाश्वत आदर्श कैसे बनाया ? : ['Human glory' अर्थात ब्रह्म को (ससीम शरीर में अनन्त के अवतार वरिष्ठ ठाकुर देव को पहचान लेने)  का सामर्थ्य तथा मनुष्य जीवन की संभावनाओं-  (क्षुद्र अहंकार को सर्वगत अहंकार में रूपांतरित करने की क्षमता) के जिस महान आदर्श का प्रचार स्वामी विवेकानन्द ने किया था-
"जो ब्रह्मविद सो ब्रह्म है, ताको वाणी वेद।  
संस्कृत या भाषा में करत भ्रम का छेद ।।'  
का प्रचार किया था वे स्वयं उसके एक जीवन्त प्रतिमूर्ति हैं। -श्री धर्मेन्द्र सिंह पद्धति : =अमित दत्ता -अनूपदत्ता पद्धति : पहले स्वामी विवेकानन्द का सन्देश समझें , फिर उनके जीवन से मिलाकर देखें। उनके जन्म के सम्बन्ध में भी ठाकुर एक अद्भुत घटना का उल्लेख करते थे , समय कम है , इसलिए उस घटना को अभी छोड़ता हूँ। अनन्त के प्रतीक के रूप में किसी 5.5 के मनुष्य को अपना इष्ट चुन लेना, बहुत बहादुरी और आश्चर्य का काम है! 
[ श्री मुखोपाध्याय -श्रीसिंह पद्धति -आदर्श के भी दो रूप हैं- मूर्त और अमूर्त ! आदर्श की सिर्फ छवि देखकर पागल हो जाना !   फिर नचिकेता जैसा आत्मश्रद्धा और आत्मविश्वास के साथ (अहं की मृत्यु के रहस्य) को जानने में  सफलता की सम्भावना में अटल आस्था रखते हुए यदि दृढ़ संकल्प,धैर्य,अध्यवसाय और पवित्रता (निष्कपटता) के साथ प्रयत्न किया जाय तो जीवन केवल समस्या-मुक्त ही नहीं होता, बल्कि सौन्दर्यमण्डित भी हो जाता है।  किन्तु, इन विषयों के बारे में  युवा काल में अक्सर सुनना भी मयस्सरनहीं होता। इसलिये युवाओं का ध्यान भी इस ओर नहीं जाता है। जिसके फलस्वरूप युवाजीवन समस्याओं से भर उठता है। इसका मुख्य कारण है स्वाभाविक अज्ञानता (अविद्या ) है जो 'मुक्ति' या 'मोक्ष' (या मिथ्या अहं के भ्रममुक्ति) की अवधारणा को ही असपष्ट बना देती है, जिसके परिणाम स्वरूप युवा समुदाय संयमहीनता को ही शक्ति (ऊर्जा) की अभिव्यक्ति समझ बैठता है। ]
     स्वामीजी के गुरु , उनके आदर्श श्रीरामकृष्ण का जीवन पहले देखें , फिर उनके सन्देश को स्वामीजी के मुख से सुनें ! क्योंकि -सबसे पहले स्वामी जी ने ही जीवन में दुःख आने के समय ब्रह्म और काली को अभिन्न जाना और घोषित कर दिया  - ठाकुर देव ही अवतार वरिष्ठ हैं ! 

"जो ब्रह्मविद सो ब्रह्म है, ताको वाणी वेद, 
संस्कृत या भाषा में करत भ्रम का छेद।'  

स्त्री गुरु , अद्वैत गुरु तोतापुरी काली जगदम्बा को नहीं समझकर निराकार आदर्श की दीक्षा दिए का पूर्वनिर्धारण करें, निराकार- साकार  12 साल की साधना का समस्त फल माँ के श्री चरणों में समर्पित कर दिया , ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं है , इसीलिए कहा नरेन् शिक्षा देगा , क्योंकि 12 साल तक ब्रह्मचर्य धारण करने से मेधा नाड़ी खुल जाती है , जिसकी तुलना ठाकुर नरेन् को सहस्र दल कमल से क्यों करते थे ? -27 दिसम्बर, 2023 को श्रीधर्मेन्द्र का भाषण ! ]
  उसका उपाय - 'पश्य एतान महा भागान  और सनातन धर्म की परिभाषा' बताकर मनुष्य बनने में सहायता करता है। दादा के अनुसार श्रद्धा, विवेक और जीवन सार्थक कैसे होता है ?तथा सन्मार्ग पर चलते समय कहीं फिसल न जाएँ इसके लिए समयानुकूल विशिष्ट परामर्श भी देता रहता है। स्वामीजी ने कहा था - मुझे अपना नश्वर शरीर छोड़ना पड़ सकता है , किन्तु मेरी आत्मा सदैव तुम्हारे साथ काम करती रहेगी ! जैसे नवनी दा का आदर्श और उनकी भावमूर्ति  आज नश्वर शरीर में नहीं रहने पर भी चिर-अपरिवर्तनीय (अविनाशी) होकर, पूर्व की अपेक्षा अधिक  प्रेरणास्पद तथा माननीय हो उठी है।]
[#1 . ग्रीक दर्शन के अनुसार शिक्षा छात्र को  # 'capable of receiving बनाती है। अर्थात पाश्चात्य शिक्षा - यह समझती है कि "मनुष्यत्व " (दिव्यता या पूर्णत्व) बाहर से भीतर प्रविष्ट करा देने की वस्तु है , और छात्र किसी शिक्षक के माध्यम से पूर्णता (दिव्यता) को उतनी ही मात्रा में बाहर से भीतर  ग्रहण कर सके, जितने परिमाण में वह उसे ग्रहण करने में सक्षम हो। ग्रीक दर्शन के अनुसार-पूर्णता अर्थात 'माधुर्य (sweetness-'दासो अहं' वाली विनम्रता) और दोषशून्यता ' (flawlessness माँ सारदा देवी जैसी 'निष्कलंकता ' और -ठाकुर जैसी पूर्णता /परिपूर्णता (धोती समेटने में पूर्णता, शौच -सन्तोष -तपः आदि  भोजन की थाली, पढ़ाई का टेबल, पूजा की बेदी पर फूल सजाना,जैसे गुण मनुष्य में पहले से अन्तर निहित नहीं रहते हैं ??? बल्कि  बाहर से इंजेक्शन लगाकर भद्रता, शिष्टता  'manner and etiquette' आदि चारित्रिक गुण उसके भीतर उतनी ही मात्रा में  डालते हैं, जितना कोई व्यक्ति उन्हें ग्रहण करने में सक्षम हो। अर्थात ग्रीक शिक्षा पद्धति में मानव चरित्र में जो स्वाभाविक रूप से निहित 24 -चारित्रिक गुण हैं, उन्हें किसी शिक्षक ने शिक्षा-के द्वारा (मार-पिटाई >?) के द्वारा बाहर से भीतर प्रविष्ट/प्रदान करा दिया जाता है। जबकि  स्वामीजी की परिभाषा में भारतीय दर्शन के अनुसार ('यम-नियम' की सहायता से) अभ्यास और वैराग्य द्वारा मन को वशीभूत करके अपने व्यवहार द्वारा उस 'पूर्णता' ( दिव्यता या निःस्वार्थपरता आदि चरित्र के 24 गुणों को) अभिव्यक्ति करने की शिक्षा देते हैं,जो मनुष्य में पहले से ही विद्यमान है।" (Education is manifestation of that perfection which already exists in man.") शिक्षा की यह परिभाषा गहराई में जाकर मनुष्य में अन्तर्निहत दिव्यत्व, पूर्णत्व को या उसकी वास्तविक सत्ता को विकसित कर के उसे प्रकट या प्रकाशित कर देती है। इसी प्रसंग में 23 दिसम्बर 1900 को श्रीमती मृणालिनी बसु को लिखित पत्र में कहते हैं -" विशालकाय रेल के इंजन को दूर से आते देखकर, नन्हा सा कीड़ा अपने जीवन की रक्षा के लिये रेल की पटरी से हट गया- क्योंकि वह बुद्धिमान है ? मशीन में इच्छाशक्ति का कोई प्रकाश नहीं है। यन्त्र कभी नियम को उल्लंघन करने की कोई इच्छा नहीं रखता। कीड़ा नियम का विरोध करना चाहता (स्वयं को डी -हिप्नोटाइज्ड करना चाहता है), और नियम के विरुद्ध जाता है, चाहे उस प्रयत्न में वह सिद्धि लाभ करे या असिद्धि; इसलिए वह बुद्धिमान है। जिस परिमाण में इच्छाशक्ति के प्रकट होने में सफलता होती है, उसी अंश में सुख अधिक होता है और जीव उतना ही ऊँचा होता है। परमात्मा की इच्छाशक्ति पूर्ण रूप से सफल होती है इसलिए वह उच्चतम है।  जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है। "29अक्टूबर 1896 को लन्दन में अपरोक्षानुभूति (कठोपनिषद) पर व्याख्यान देते हुए कहते हैं -यदि मुझे फिर से अपनी शिक्षा आरम्भ करनी हो और इसमें मेरा वश चले, तो मैं तथ्यों का अध्ययन कदापि न करूँ। मैं मन की एकाग्रता और अनासक्ति का सामर्थ्य बढ़ाता और उपकरण के तैयार होने पर इच्छानुसार तथ्यों का संकलन करता। " (4.108]
#2 मनुष्य जीवन की सर्वोच्च सम्भावना क्या है ? : किसी नदी की गति या प्रवाह का किसी लक्ष्य या उद्देश्य सागर तक पहुँचने या  पशु अवस्था से मनुष्यत्व उन्मेष तक फिर मनुष्यत्व से देवत्व तक (सागर-100 % निःस्वार्थपरता) तक पहुँचने के सिवा अन्य कोई अर्थ नहीं होता। यदि हम युवा जीवन की समस्त-समस्याओं को हल करना चाहते हों तो सभी युवाओं में -'मानव जीवन' के मूल्य-बोध को जाग्रत करना होगा। हीरा जनम अमोल था-कौड़ी बदले जाय ? 'त्रय दुर्लभं' -क्यों ? इस कथन के मर्म को समझना होगा ! Jesus Christ के क्रूस (cross) जैसा अपने अहं को 'I ' को cross कर लेना, और सम्पूर्ण जगत मुझे मित्र की दृष्टि से देखे और मैं सम्पूर्ण जगत को मित्र की दृष्टि से देखूं । (Pda -Randa-Mituda) इसी जीवन में व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के-मातृहृदय के विराट अहं में रूपान्तरित कर लेना; इस सम्भावना को अभिव्यक्त कर देना ही जीवन का उद्देश्य है, और इस  सम्भावना को अभिव्यक्त  करने का उपाय है-शिक्षा ! श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त भावधारा में आधारित विचारों का विश्लेषण करने पर हम समझ पाते हैं कि शिक्षा, धर्म और आध्यात्मिकता में कोई मुलभुत अन्तर नहीं है। इसीलिये किसी युवा में यदि धर्म या आध्यात्मिकता की कोई धारणा नहीं हो, या इन्हें जानने के प्रति कोई आकांक्षा भी नहीं हो, फिर भी यदि वे शिक्षा के प्रति उत्साही हों, तो उसको भी वही लाभ मिलेगा, जो धर्म और आध्यात्मिकता के प्रति आग्रही रहने से मिलता है। उच्च पदस्थ लोग तो रिटायरमेन्ट के बाद भी, कोई दूसरी नौकरी की खोज करते हैं , मनुष्य जीवन के उद्देश्य - 'मिथ्या अहंकार M/F देहाध्यास से भ्रम-मुक्ति और शाश्वत जीवन की प्राप्ति' को नहीं समझ पाते हैं, इसीलिए स्वामी जी उन्हें मूछों वाले शिशु कहते थे ! और विशेष करके युवा जीवन की समस्या का प्रारम्भ भी यहीं से होता है। सभी युवाओं को समझना होगा कि यौवन की उसी तेज पूर्ण अवस्था में मिथ्या अहं का त्याग अर्थात रूपांतरण करने की सम्भावना को यह जीवन प्राण-ऊर्जा और दासो -अहं का जुड़ जाना एक महान अवसर है', यह जैसे-तैसे बिता देने की वस्तु नहीं है, एक महान सम्भावना है।  [अपने क्षुद्र अहं या M/F के देहाध्यास को सर्वव्यापी, सर्वगत चैतन्य या 'विराट अहं-बोध' में निम्मज्जित कर देने में समर्थ होने की सम्भावना है। [ एक शब्द में - अपने व्यष्टि मैं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं'-बोध में रूपान्तरित कर लेना है। ???] बचपन में बालक का मन -ह्रदय कोमल होता है इसीलिए विदुषी माँ अपने बालक को बचपन में ही  बालक ध्रुव की कहानी सुनकर, श्री कृष्ण को भोग लगाने की शिक्षा देकर और किशोरावस्था में आनन्द मठ और देवदास उपन्यास का फर्क बतला कर नॉवेल पढ़ने से मना कर देती है।]  
[3 #= ऐषणा से प्रेरित परानुकरण वाली लालची मानसिकता के कारण, एक होटल क्या ? कई होटलों का चेन बना दूँगा ! नाम-यश की ऐषणा अमेरिका के सभी dental क्लिनिक मेरे होंगे, जिससे कमाया हुआ पैसा मिशन के महाराज को अमेरिका आने का टिकट भेजकर मैं सदुपयोग करूँगा। इसी परानुकरण वाली मानसिकता के कारण। 
[4# सन्मार्ग : क्षुद्र अहं और स्वार्थबोध को जीत कर हृदय में अवस्थित पूर्णता या ' सत्य- मंगल-प्रेममय' सत्ता' (होली ट्रायो) के प्रेम की तुलना  'सत्य -मंगल -सुन्दर ' से करना   पाश्चात्य भाव है। भारत का भाव है - " सत्यं -आननन्दं- ब्रह्म " को अपने दैनन्दिन व्यवहार या चरित्र से अभिव्यक्त करने का प्रयत्न करते जाना- जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। ... और जो लोग अपने जीवन में  अपने और परायों के भेद को भूलकर हर किसी के साथ {ठाकुर की बीमारी दूर करने के लिए माँ ने तारकेश्वर में धरना दिया था , एक स्वप्न के बाद उन्होंने धरना त्याग दिया कि यहाँ के नाटक की भूमिका में कौन किसका अपना है ? जिसके लिए धरना दिया जाये ?} जो व्यवहार में भी इस प्रकार  " सत्य-मंगल और प्रेममय' को पूरी तरह से अभिव्यक्त करने में समर्थ हो पाते हैं, वे ईश्वर लाभ कर चुके होते हैं। यादवपुर यूनिवर्सिटी में सेमिनार की घटना -ग्रामीण महिला के शब्दों में वेदान्त का सार- सुनाने के बाद वहां के HOD ने कहा था 'आपनार निश्चय ही ईश्वर लाभ होयेचे!' ! उनके (N.da) अतिरिक्त अन्य लोग (Pda, Bda, Rda, vda ..... आदि) जो  जिस परिमाण में ऐसा जीवन जी पाते हैं उन्होंने उसी परिमाण में देवत्व या मनुष्यत्व अर्जित किया होता है। अतः 'मनुष्यत्व-अर्जन' करना ही मनुष्य-जीवन की समस्त समस्याओं के समाधान का एकमात्र पथ है, इसके सिव अन्य कोई पथ नहीं है। किन्तु प्रश्न उठता है,तीन-दिवसीय नहाये-खाये, कद्दूभात, अस्ताचल सूर्य को अर्घ, उदयाचल सूर्य को अर्घ देने से भी कठिन,  छठ से भी कठिन-  "व्यष्टि अहं को सर्वगत अहं में रूपांतरित करने के व्रत के व्रती (votary)" हम युवा लोग कैसे बनें ? इसका उपाय, यानि अपने व्यष्टि अहं को सर्वगत अहं में रूपांतरित के व्रत का व्रती बनने का उपाय -श्रीरामकृष्ण  द्वारा निर्देशित एक छोटे से उपदेश-'जेमन भाव तेमन लाभ' और (माँसारदा द्वारा निर्देशित उपदेश -' जखन जेमन, तखन तेमन' में है। ??) 
[(जीवन-गठन' यानि Life Building'  बाह्य सामग्रियों के द्वारा निर्मित नहीं होता है।)"जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू,सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥" रामचरितमानस के बालकाण्ड का प्रसंग है। रामचरित मानस की इस चौपाई का अर्थ तो सरल एवं स्पष्ट है। यदि किसी को आप सच्चे मन से चाहेंगे, तो वह आपको अवश्य मिलेगा।  यह सीता-स्वयंवर से संबंधित प्रसंग है। इसकी पृष्ठभूमि यह है कि सीता-राम वाटिका में एक दूसरे को देख चुके हैं। दोनों एक दूसरे की ओर आकर्षित हैं। स्वयंवर में सीता माता घबरा रही हैं, आंशका होती है कि कहीं रामजी स्वयंवर की शर्त को पूरा करने या धनुष उठाने में चुक न जाएँ। शंका स्वाभाविक है, पर शीघ्र उन्हें अपने प्रेम, चाह, स्नेह पर पूरा भरोसा हो जाता है। तभी वो भगवान का ध्यान करके कहती हैं कि उनको रघुवीर की दासी बना दें अर्थात उनका मन पूर्ण समर्पित पत्नी होने का है । व्यापक अर्थ में कह सकते हैं कि ईश्वर को पाने के लिए सच्ची श्रद्धा, अनन्य भक्ति, पूर्ण विश्वास एवं गहरी आस्था चाहिए, तभी उनके दर्शन हो सकते हैं। आगे वह सोचती हैं कि जिसका जिसपर सच्चा स्नेह होता है वह तो उसे मिलता ही है इसमें क्या संदेह। यदि उनका स्नेह सत्य है तो रघुवीर उन्हें ही प्राप्त होंगे। और आगे ऐसा ही होता है। रामजी शिवधनुष ना केवल उठा लेते हैं बल्कि प्रत्यंचा चढ़ाते समय वो टूट भी जाती है। इस प्रकार सीता स्वयंवर जीत कर श्रीराम जानकी के और जानकी श्रीराम की हो जाती हैं।यह सत्य भी सिद्ध हो जाता है कि सच्चा प्रेम अवश्य अपने प्रेमी को प्राप्त कर लेता है। " 'जैसी मति वैसी गति' अर्थात् जैसा सोचते हो तुम उसी प्रकार बनने लगते हो।  'मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि। किम्वदन्तीह् सत्येयं या मति: सा गतिर्भवेत्॥चाणक्य नीति में कहा गया है - "देवे तीर्थे द्विजे मन्त्रे दैवज्ञे भेषजे गुरौ । यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ।।अर्थः---देवता, तीर्थस्थल, ब्राह्मण, मन्त्र, ज्योतिषी, वैद्य और गुरु---इनके प्रति मनुष्य की जैसी भावना होती है, वैसी ही उसको सिद्धि (सफलता) प्राप्त होती है ।  मन रंगरेज का कपड़ा है, उसे जिस रंग में रंगोगे उसी रंग में रंग जायेगा। तथा उसी भाव के अनुरूप (पवित्र या अपवित्र) विचार उसमें प्रविष्ट होने लगेंगे। 
[फ़ाउस्ट (Faust)***फॉस्ट की एक जर्मन दन्त कथा  का नायक  है, जो ऐतिहासिक Johann Georg Faust (c. 1480–1540) पर आधारित है। वैसे तो फॉस्ट बेहद सफल व्यक्ति और विद्वान पुरुष (erudite) है, लेकिन अपने जीवन से असंतुष्ट है। उसका यह असन्तोष उसे जीवन के एक दोराहे पर (crossroads,प्रेय-श्रेय का चयन करते समय  उसे शैतान के साथ समझौता करने पर मजबूर कर देता है।  और वह असीमित सांसारिक सुख भोगने के लिए अपनी आत्मा को ही शैतान के पास गिरवी रख देता है। किन्तु, फ़ॉस्ट की दन्तकथा (legend) कई साहित्यिक, कलात्मक, सिनेमाई और संगीतमय रचनाओं का आधार रहा है, जिसने युगों युगों से इस उपाख्यान को जीवित बनाये रखा है। "Faust"का विशेषण (adjective) "Faustian"या "फॉस्टियन" को किसी ऐसे अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति के लिए प्रयुक्त किया जाता है, जो मात्र सीमित अवधि तक सत्ता और सफलता पाने के लिए अपनी नैतिकता और सत्यनिष्ठा का परित्याग कर देता है। ]   
>>>प्लेटो के गुरु अरस्तू (सुकरात) का ऐसा मानना था कि -"  ह्रदय को शिक्षित किये बिना मन को शिक्षित करना, किसी भी प्रकार से कोई शिक्षा ही नहीं है।" Educating the mind without educating the heart is no education at all.- Aristotle अरस्तू          
         अपने गुरु सुकरात की भांति प्लेटो ने भी आदर्श समाज का सपना देखा था, जहां कानून का राज हो।  मगर कानून का कर्तव्य अपने नागरिकों को अनुशासन में बांधने तक सीमित नहीं है।  बलप्रयोग से जेलखाना तो चलाया जा सकता है, समाज नहीं।  समाज को चलाने के लिए नैतिक बल की जरूरत पड़ती है।  वह चाहता था कि व्यक्ति का नैतिक स्तर इतना ऊंचा हो कि समाज में अनुशासन और व्यवस्था बनाए रखने के लिए कानून की आवश्यकता ही नहीं पड़े।  चरित्र-निर्माण में शिक्षा की महत्ता को समझते हुए वह बच्चों को बहुआयामी शिक्षा दिए जाने के पक्ष में था, ताकि उनका बहुमुखी विकास हो सके।  वह चाहता था कि बच्चों को गीत-संगीत की शिक्षा मिले, ताकि उनमें थोड़ी संवेदनशीलता हो और वे सुहृदय नागरिक की भांति व्यवहार कर सकें। 
           प्लेटो ने अपना आदर्श राज्य के सर्वोच्च शासनाधिकारी के रूप में ‘दार्शनिक नेता (सम्राट) ’ को रखा है। दार्शनिक सम्राट वह बन सकता है जो बुद्धि, विवेक, साहस, ज्ञान, समानता, दयालुता, निष्पक्षता आदि मानवीय गुणों से संपन्न हो।  उनमें भौतिक वस्तुओं, विशेषकर विलासितापूर्ण सामग्री के प्रति कोई आकर्षण नहीं होना चाहिए, इसलिए कि ऐसी वस्तुएं निरर्थक स्पर्धा और आपसी ईर्ष्या को बढ़ाती हैं। इसलिए  उन्हें इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि उनमें विलासिता की सामग्री के प्रति स्वतः अनाकर्षण हो। उन्हें गंभीर और मननशील होना चाहिए, ताकि वे निजी आकांक्षाओं से बच सकें।           
            प्लेटो के दो प्रमुख ‘संवाद’ ‘रिपब्लिक’ एवं ‘दि स्टेट्समेन’ में जहां दार्शनिक सम्राट का उल्लेख होता है, वहीं ‘लॉज‘ में वह संरक्षक वर्ग में से चुने गए प्रतिनिधि–मंडल को राज्य की बागडोर सौंपने का समर्थन करता है।  ‘लॉज‘ प्लेटो के अंतिम दिनों की रचना है। ‘लॉज‘ तक आते–आते प्लेटो को लगने लगा था कि कुछेक व्यक्तियों, चाहे वे दार्शनिक ही क्यों न हों, के हाथ में सत्ता का सिमटना घातक हो सकता है, इसके निदान के लिए वह दार्शनिक मंडल के हाथों में सत्ता सौंपने का विचार प्रस्तुत करता है, जो गणतंत्र की भावना के अपेक्षाकृत निकट है। 
         प्लेटो का यह भी मानना था कि शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति स्वयं को समाज के लिए उपयोगी बना सकता है  शिक्षा की महत्ता को समझते हुए उसने ‘अकादमी’ की स्थापना की थी. प्लेटो का शिक्षा–दर्शन उसकी संवाद–पुस्तकों ‘रिपब्लिक’ तथा ‘लॉज‘ में विस्तारपूर्वक सामने आया है। यह पूछे जाने पर शिक्षा का लाभ क्या है, प्लेटो इसी संवाद में एक एथेंसवासी के माध्यम से स्पष्ट करता है—‘यदि तुम यह जानना चाहते हो कि शिक्षा का सामान्य लाभ क्या है, तो इसका उत्तर बहुत आसान है—शिक्षा मनुष्य को सदगुण–संपन्न करती है; और सद्गुण–संपन्न व्यक्ति विनम्रतापूर्ण व्यवहार करता है।  अपनी विनम्रता के बल पर वह युद्ध में अपने शत्रुओं का हृदय भी जीत लेता है.’
                नियमित व्यायाम को उसने शिक्षा के अनिवार्य हिस्से के रूप में उल्लिखित किया है।  प्लेटो नागरिकों को शारीरिक और मानसिक रूप से हृष्ट–पुष्ट देखना चाहता था।  धैर्य, अनुशासन और साहस को उसने शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य के रूप में लिया था।  अपनी पुस्तक ‘लाज’ में उसने लिखा है कि किशोरा-वस्था में कदम रखने के साथ ही बालक को एक कुशल स्वास्थ्य प्रशीक्षक के सुपुर्द कर देना चाहिए।  शरीर को चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए उनको व्यायाम की भी शिक्षा दी जाए।  इसके साथ-साथ गणित और विज्ञान की शिक्षा भी अनिवार्यतः दी जानी चाहिए, ताकि वे प्रकृति में होने वाले बदलावों को भली-भांति समझ सकें।
            प्लेटो शिक्षा के बारे में कहते हैं :  शिक्षा से मेरा तात्पर्य, युवास्था से ही वह उत्कृष्ट प्रशिक्षण है - जो एक इंसान के अन्दर एक आदर्श नागरिक बनने की तीव्र लालसा उत्पन्न कर दे, और उसे न्याय के साथ शासन करना और आज्ञा मानना सिखाये।' शिक्षा का काम आत्मा की आंखों को प्रकाश दिखाना है, उसकी स्वतंत्र आध्यात्मिक गतिशालता को बाधित करना नहीं।  यानि शिक्षा का काम आत्मा के आंतरिक गुणों के निखारने का माहौल प्रदान करना है, आत्मा अपना विषय तथा उसका रास्ता खुद खोज लेगी। 
[By education I mean that training in excellence from youth upward which makes a man passionately desire to be a perfect citizen, and teaches him to rule, and to obey, with justice. This is the only education which deserves the name.- Plato ]
             प्लेटो यहां निर्दिष्ट करता है शिक्षा देने का दायित्व मंत्री स्तर के उस व्यक्ति को सौंपा जाना चाहिए तो उदार, गुणी और भेदभाव रहित हो।  वह किसी प्रतिष्ठित परिवार में जन्मा हो तथा उसकी उम्र ‘कम से कम पचास वर्ष’ होनी चाहिए। उसके अनुसार मां और नर्स का कर्तव्य है कि वे बच्चों को केवल साहस, धैर्य और कर्तव्यपरायणता से भरपूर कहानियां सुनाएं। 
            प्लेटो के अनुसार किशोरों को यह पढ़ाया जाना चाहिए कि बुराइयां कभी भी ईश्वर की ओर से नहीं आतीं।  सृष्टि में व्याप्त ‘शुभ–अशुभ’ में से केवल ‘शुभ’ ही ईश्वर की निर्मिति है।  ‘अशुभ’ या तो भ्रांति है अथवा मानवीय लालच और अज्ञानता की उपज। शिक्षा का उद्देश्य बालकों में जोश भरना, वीरता और युद्धक्षेत्र में शहीद हो जाने की भावना पैदा करना भी है। अतः किशोरों को सिखाया जाना चाहिए कि दासता मृत्यु से कहीं बदतर है।  इसलिए उन्हें रोने–धोने वाले मनुष्य की कहानी सुनाने से बचना चाहिए। 
[साभार https://omprakashkashyap.wordpress.com]

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 हस्तामलकस्तोत्रम्

(हस्तामलकीय-इंद्रवज्र छंद )

गुरु शिष्य के मध्य संवाद में आत्मज्ञान हथेली पर रखे आँवले की तरह (हस्तामलक  वत) स्पष्ट रूप में शब्दांकित है | हस्तामलक भगवान श्री पितृ जी के शिष्य थे।  उन्हें बालपन में ही आत्मसाक्षात्कार हो गया था।  वह बालक बचपन से ही सृष्टि कार्य की प्रतिपुष्टि वृत्ति थी। उनका व्यवहार एक गूंगे और बहले बालक के समान था। एक बार जब आचार्य शंकर अपने शिष्यों के साथ इस गांव में पधारे तब महादेव अपने पागल जैसे दिखने वाले पुत्र को लेकर आचार्य भगवान शंकर के समीप पहुंच गए। उस बालक ने आचार्य को साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया। उन्होंने  ने उस बालक को प्रश्न पूछा। वह बालक बहरा या गूंगा न था। उन्होंने तो पूर्णतः प्रकाशित ज्ञानी था, जीवनमुक्त था। उस बालक ने बालक द्वारा पूछे गए आदर्श के बारे में पूछा जो उत्तर दिए जाने पर वे एक स्तोत्र के रूप में प्रसिद्ध हो गए। गुरु शिष्य के मध्य संवाद में आत्मज्ञान हथेली पर रखे आँवले की तरह स्पष्ट रूप में शब्दांकित है।   ये प्रश्नोत्तरी इस प्रकार हैं-

कस्त्वं शिशो कस्य कुतोऽसि गंता
     किं नाम ते त्वं कुत आगतोऽसि।
एतन्मयोक्तं वद् चार्भक त्वं
     मत्प्रीतये प्रीति विवर्धनोऽसि ॥ 

श्री शंकराचार्य हस्तामलक से प्रश्न करते हैं -  ʹहे शिशो (बालक)  ! तू कौन है ? किसका पुत्र है ? तू कहाँ जा रहा है ? तेरा नाम क्या है ? तू कहाँ से आया है ? मेरी प्रीति के लिए हे बालक ! तू मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दे। तू हमें बहुत प्रिय लगता है। 

हस्तामलक उवाच।

नहं मनुष्यो न च देव-यक्षौ
     न ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्रः।
न ब्रह्मचारी न गृही वनस्थो
     संन्यासी चाहं निजबोध रूपः ॥ 2॥

ʹमैं मनुष्य नहीं हूँ, देव या यक्ष नहीं हूँ, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र भी नहीं हूँ। मैं ब्रह्मचारी, गृहस्थी या वानप्रस्थी भी नहीं हूँ और संन्यासी भी नहीं हूँ। मैं तो ज्ञानस्वरूप परम पवित्र परमानंदरूप ब्रह्म हूँ।ʹ
      (भुजङ्गप्रयत छंद -)
निमित्तं मनश्चक्षुरादि प्रवृत्तौ
     दर्शनाखिलोपाधिराकाशकल्पः।
रविर्लोकचेष्टानिमित्तं यथा यः
     स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥ 3॥
ʹजिस प्रकार सूर्य लोगों को अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त होने की प्रेरणा करता है, उसी प्रकार मन और इन्द्रियों को अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त होने की प्रेरणा करने वाला एवं आकाशादि उपाधियों से रहित ऐसा शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ
यमग्न्याष्णुवन्नित्यबोध स्वरूपम्
     मनश्चक्षुरादिन्यबोधात्मकानि।
नवीनतम सहयोगी निष्कम्पमेकं
     स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥ 4॥
ʹजैसे अग्नि का स्वभाव उष्णता है, ऐसे ही अविकारी और शुद्ध चित्स्वरूपवान मैं शाश्वत आत्म-ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ, जिसका आश्रय लेकर स्थूल मन तथा इन्द्रियाँ अपने-अपने व्यवहार में प्रवृत्त रहते हैं।ʹ
मुखाभासको दर्पणे दृश्यमानो
     मुखत्वात् अलगावत्वेन नैवस्ति वस्तु।
चिदाभासको दिषु जीवोऽपि तद्वत्
     स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥ 5॥
ʹजैसे दर्पण में दिखता हुआ मुख का प्रतिबिम्ब वस्तुतः बिम्बरूप मुख से पृथक नहीं है, किन्तु बिम्बरूप ही है वैसे ही बुद्धिरूपी दर्पण में जीवरूप से प्रतीयमान चैतन्य का प्रतिबिम्ब बिम्बरूप चैतन्य से पृथक नहीं है किन्तु चैतन्य रूप ही है। वही नित्य, शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ
यथा दर्पणभाव आभाशानौ
     मुखं विद्यते कल्पनाहीनमेकम।
तथा धी वियोगे निराभासको यः
     स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥ 6॥

ʹजिस प्रकार दर्पण के या दर्पण में दिखने वाले चेहरे के प्रतिबिम्ब के अभाव में भी चेहरे का अस्तित्व तो होता ही है, उसी प्रकार बुद्धि के अभाव में भी अस्तित्व रखने वाला मैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ।ʹ

मनश्चक्षुरादेर्वियुक्तः स्वयं यो
     मनश्चक्षुरादेर्मनश्चक्षुरादिः।
मनश्चक्षुरादेर्गम्यस्वरूपः
     स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥ 7॥
ʹमैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ, जो मन और चक्षु आदि से परे है, जो मन का भी मन और चक्षु आदि का भी चक्षु आदि है एवं जो मन, चक्षु आदि से प्राप्त नहीं है।ʹ
य एको विभाति स्वतः शुद्धचेताः
     प्रकाशस्वरूपोऽपि नानेव दिषु।
श्रावोदकस्थो यथा भानुरेकः
     स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥ 8॥
ʹजो स्वयं अकेला ही अपने विशुद्ध स्वप्रकाश अखंड चैतन्यरूप से प्रकाशता है… जैसे जल से भरे हुए अनेक मटकों में एक ही सूर्य अनेक रूप से भासता है उसी प्रकार एक ही स्वयं ज्योति आत्मा अनेक बुद्धियों में अनेक रूप से भासता है, वही नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ
यथाऽनेकचक्षुः-प्रकाशो रविर्न
     क्रमेण प्रकाशैक्रोति प्रकाश्यम्।
अन्या धियो यस्तथैकः प्रबोधः
     स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥ 9॥
ʹजैसे सूर्यदेवता अनेक नेत्रों को क्रम से प्रकाश न करता हुआ एक साथ ही प्रकाश करता है वैसे ही अनेक बुद्धियों को एक ही साथ सत्ता-स्फूर्ति देने वाला नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ
विवस्वत् प्रभातं यथा रूपमक्षं
     प्रगृह्णाति नाभातमेवं विवस्वान्।
यदाभत् आभासत्यक्षमेकः
     स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥ 10॥
ʹजैसे सूर्य से प्रकाशित रूप को ही नेत्र ग्रहण कर सकता है यानी देख सकता है, सूर्य से अप्रकाशित रूप को नेत्रेन्द्रिय ग्रहण नहीं कर सकती वैसे ही सूर्य भी जिस चैतन्य आत्मा से प्रकाशित हुआ ही रूप, नेत्र आदि प्रकाश देता है। आत्मा से अप्रकाशित सूर्य किसी को कभी भी प्रकाश नहीं दे सकता यानी सर्व-लोक प्रकाशक सूर्यादि ज्योति आत्मप्रकाश से प्रकाशित होती है, वही नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

यथा सूर्य एकोऽपस्वनेकश्चलासु
     स्थिरस्वप्न्याद्विभाव्यस्वरूपः।
प्रभिन्नासु दिश्वेवमेकः
     स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥ 11 ॥

ʹजिस प्रकार एक ही सूर्य स्थिर और अस्थिर जल के विषय में अलग-अलग प्रतिबिम्बित होता हुआ दृश्यमान होता है, उसी प्रकार चर और अचर – इन दोनों प्रकार की बुद्धियों को प्रकाशित करने वाला मैं अद्वितीय शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

घनच्छन्नदृष्टिअर्घ्नच्छन्नमर्कम्
     यथा निष्प्रभं मन्यते चातिमूढः।
तथा बद्धवद्भाति यो मूढ-दृष्टतेः
     स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥ 12॥

ʹजिस प्रकार बादलों से ढके हुए सूर्य को मंद बुद्धिवाला पुरुष तेज और प्रकाशरहित समझता है, उसी प्रकार मूढ़ बुद्धिवाले पुरुष को जो बद्ध-स्वरूप दिखता है वह शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप मैं हूँ।ʹ

समग्रेषु वस्तुश्वानुस्युतमेकं
     समग्रानि वस्तुनि यन्न सृशन्ति।
वियद्वत्सदा शुद्धमच्छस्वरूपं
     स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥ 13॥

ʹजो सदा शुद्ध और निर्मल है तथा जो समस्त पदार्थों के अंतर्गत स्थित होते हुए भी वे पदार्थ उसे स्पर्श नहीं कर सकते या उसे दूषित नहीं कर सकते वह मैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ।ʹ

उपाधौ यथा भेदता सन्मानिनं
     तथा भेदता बुद्धिभेदेषु तेऽपि।
यथा चन्द्रिकाणां जले चञ्चलत्वं
     तथा चञ्चलत्वं तवापीह विष्णो ॥ 14॥

ʹजिस प्रकार रंग और आकार में भेद होने के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के मणियों में भेद की कल्पना होती है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न बुद्धियों के भेद की उपाधि के कारण एक ही आत्मा भिन्न-भिन्न स्वरूप से दृश्यमान होता है। जैसे जल में चंद्र अनेक एवं चंचल दिखता है ऐसे ही हे विष्णु ! तुम भिन्न-भिन्न दिखते हो। (वस्तुतः तो तुम एक, नित्य, शुद्ध और अविकारी हो।ʹ)

॥ इति श्रीहस्तमालाचार्यार्चितं
       हस्तामलकसंवादस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

ब्राह्मण पुत्र के ये उत्तर सुनकर  शंकराचार्य इस भजन से बहुत प्रभावित हुए कि उन्होंने इस पर एक टिप्पणी लिखी। श्रीमद् आद्य शंकराचार्य समझ गये कि यह बालक तो ब्रह्म को 'हस्तामकलकवत् ' यानी हाथ में रखे हुए आँवले की तरह स्पष्टतः जानने वाला ब्रह्मवेत्ता हैअतः उन्होंने उसका नाम भी हस्तामलक रख दिया और वह प्रश्नोत्तररूप स्तोत्र ʹहस्तामलक स्तोत्रʹ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। हस्तामलक आगे चलकर शंकराचार्य के चार पट्टशिष्यों में से एक हुए।

' शिक्षा, धर्म और आध्यात्मिकता में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है। ' [ खण्ड 3 -स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज ]
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