About Me

My photo
Active worker of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal.

Monday, April 13, 2009

स्वामी विवेकानन्द रचित -" स्वदेश मन्त्र"

  "स्वदेश मन्त्र !"
हे भारत ! यह परानुवाद ,परानुकरण , परमुखापेक्षा ,इन दासों की सी दुर्बलता ,इस घृणित ,जघन्य निष्ठुरता से ही, तुम बड़े बड़े अधिकार प्राप्त करोगे ? क्या इसी लज्जास्पद कापुरुषता से, तुम वीरभोग्या स्वाधीनता प्राप्त करोगे ?
हे भारत ! मत भूलना की ,तुम्हारी नारी जाति का आदर्श -सीता,सावित्री और दमयन्ती है। मत भूलना कि , तुम्हारे उपास्य -उमानाथ ! सर्वत्यागी शंकर हैं ! 
मत भूलना कि ,तुम्हारा विवाह ,धन,और तुम्हारा जीवन ,इन्द्रिय-सुख के लिए ,अपने व्यक्तिगत सुख के लिए नही है ! मत भूलना कि ,तुम जन्म से ही माता के लिए ,बलिस्वरूप रखे गए हो ! मत भूलना, कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया कि छाया मात्र है ! मत भूलना, कि नीच ,अज्ञानी ,चमार और मेहतर; तुम्हारा रक्त और तुम्हारे भाई हैं !
हे वीर ! साहस का अवलम्बन करो ,गर्व से बोलो , कि मै भारतवासी हूँ ! और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है। तुम गर्व से कहो, कि अज्ञानी भारतवासी ,दरिद्र भारतवासी ,ब्राह्मण भारतवासी ,चांडाल भारतवासी सब मेरे भाई हैं ! 
तुम भी कटिमात्र वस्त्रावृत हो कर ,गर्व से पुकार कर कहो, कि भारतवासी मेरे भाई हैं ! भारतवासी मेरे प्राण हैं!भारत के सभी देवी-देवता मेरे ईश्वर हैं! भारत का समाज मेरी शिशुशय्या ,मेरे यौवन का उपवन और मेरे वार्धक्य कि वाराणसी है।  
भाई,बोलो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है ! भारत के कल्याण में, मेरा कल्याण है । और रात-दिन कहते रहो कि ; हे गौरीनाथ ! हे जदम्बे ! मुझे मनुष्यत्व दो ! माँ ! मेरी दुर्बलता और कापुरुषता दूर कर दो! माँ, मुझे मनुष्य बना दो !
----स्वामी विवेकानन्द  ।


 https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9sx57aZWhpE4tUwRVrQkn0qTfBMZVMJw9LmRAwRddfdonyA8APiriDUfFoXue5estju6rwy9241kY6gUrofOczR6dy3pIkxtAyL_-H8umnGxHE-CtlbHhYYBJt02YLOMU-eTXM4McpiA/s1600/ma+mujhe+manushya+bana+do.JPG

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामंडल के
 


अध्यक्ष
 

 श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय द्वारा
 

 " स्वदेश मंत्र " की व्याख्या

कलकत्ता-वासियों के अभिनन्दन पत्र का उत्तर देते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " मनुष्य अपनी व्यक्तिगत सत्ता को, अपनी व्यष्टि चेतना को सार्वभौम चेतना में विलीन कर देना चाहता है, वैराग्य के महाकाश में उड़ जाना चाहता है। वह अपने समस्त पुराने दैहिक संस्कारों को सम्पूर्ण रूप से छोड़ने की चेष्टा करता है, यहाँ तक की वह एक देहधारी संवेदनशील मनुष्य है, इसे भी भूल जाने की प्राण-पण चेष्टा करता है। परन्तु उसे अपने ह्रदय के अंतस्तल में सदा ही एक मृदु अस्फुट ध्वनि सुनाई पड़ती है, उसके हृदयतंत्री में मानो सदा एक ही धुन गूंजती रहती है, न जाने कौन रात- दिन उसके कानों में मधुर स्वर में कहता रहता है- "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"। 
इसी क्रम में आगे कहते हैं- " मातृभूमि से बाहर आने के पहले मैं भारत को प्यार करता था, अब तो भारत का प्रत्येक धुल-कण भी मेरे लिए पवित्र है, भारत की हवा मेरे लिए पावन है, अब भारत मेरे लिए तीर्थ है, मेरी पुण्यभूमि है।"  सारे पश्चिमी जगत का परिभ्रमण करने के बाद उन्होंने स्पष्ट रूप में देख लिया था कि पूरे विश्व में भारत ही एक मात्र ऐसा देश है जहाँ सम्पूर्ण-मानवता का कल्याण करने में सक्षम- "आध्यात्म-तत्व" का बीज पूर्णरूप से विकसित हुआ था और आज तक सुरक्षित है। विदेश-यात्रा के पूर्व, परिव्राजक बन कर उन्होंने भारत के गौरवशाली विरासत तथा उसके प्राचीन वैभवपूर्ण दीर्घकालीन इतिहास का गंभीर अनुसन्धान किया था और "वर्तमान-भारत" के पतनावस्था के मूल कारण को ढूंढ़ निकाला था। उन्होंने केवल वर्तमान-भारत के पतनावस्था का वर्णन करने में ही, अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर दी थी, बल्कि इसके- " पुननिर्माण-मंत्र " कि भी रचना किये थे, जिसे आज " स्वदेश-मंत्र " के नाम से जाना जाता है। 
जिन शब्दों पर मनन करने से त्राण मिलता है उसी को "मंत्र " कहा जाता है। मनन करने में सुविधा हो इसी कारण मंत्र को संक्षिप्त ही रखा जाता है, किंतु उसका अर्थ तथा प्रभाव गंभीर सुदूर प्रसारी होता है। स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त " स्वदेश-मन्त्र " का मनन और तदनिर्देषित आचरण करने से भारत अपना खोया हुआ प्राचीन गौरव पुनः प्राप्त कर महान (विश्वगुरु) बन सकता है।
जिस प्रकार कुरुक्षेत्र में अर्जुन को किंकर्तव्यविमूढ़ देख कर, भगवान श्री कृष्ण ने ललकारते हुए कहा था," हे अर्जुन! ऐसे विषम समय में  आर्यों को शोभा न देने वाला, स्वर्ग-विरोधी और अपकीर्ति प्रदान करने वाला मोह तुम में कहाँ से आ गया है? गांडीवधारी पार्थ! नपुंसकों के जैसा आचरण तुझे शोभा नहीं देता, अतः ह्रदय की इस दुर्बलता को त्याग कर उठ खड़े हो जाओ! "
                                   क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
                                    क्षुद्रं  हृदयदौर्बल्यं  त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ।। २/ ३

 " वर्तमान भारत " [ '१० मई २०१३ का भारत' -जिसका प्रधानमंत्री नाईट-वाचमैन की भूमिका में है, रेल-मंत्री, और कानून-मंत्री भ्रष्ट हैं, सीबीआई पिंजड़े का तोता है, पार्लियामेन्ट में एक एम.पी. हमारे राष्ट्र-गीत 'वन्दे मातरम' की अवमानना करता है, और उसे बिना उचित  सजा दिये ही पार्लियामेन्ट बन्द कर दिया जाता है !] 

की अवस्था को देखकर जब आम भारतवासी हताश और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। तब ... ठीक श्रीकृष्ण के अंदाज में स्वामी विवेकानन्द भी हम भारत वासियों को " स्वदेश-मंत्र " के माध्यम से अपनी  समस्त दुर्बलताओं  को त्याग  देने का  आह्वान करते हैं।
आइये इस मंत्र के शब्दों पर मनन किया जाय:- "परानुवाद",अर्थात दूसरों की हर बात में हाँ में हाँ मिलाना, चाटुकारिता, "परानुकरण"- दूसरे (पाश्चात्य देश) की चाल-ढाल, वेश-भूषा का अन्धानुकरण करते हुए," परमुखापेक्षी होना" माने आत्मविश्वास खो कर हर बात के लिए पश्चिम (उस समय इंग्लैण्ड आज अमेरिका) का मुख देखने वाली मानसिकता आदि उन भयंकर मानवीय  दुर्बलताओं के नाम  हैं, जो केवल दासों (गुलाम-जाति) में ही पायी जाती  हैं।
जो स्वयं को "बुद्धिजीवी" समझ कर फूले नहीं समाते, (जो ऊँची जाति में जन्म लेने के कारण या उच्च-डिग्री प्राप्त ' लाल-बत्ती ' की कार में घूमने वाले तथाकथित 'बाबू','साहेब' या 'नेता' लोग ऐरोगेंट हो गये हैं।) - जरा आत्म-विश्लेष्ण कर के देखें, कि दूसरों की  अपेक्षा यहाँ उन्हें कुछ विशेषाधिकार भोगने का अवसर मिल  जायेगा, क्या यही सोचकर या स्वार्थबुद्धि द्वारा प्रेरित होकर  तो उन्होंने अर्थ कमाने वाली विद्या और धर्म के विषय में जो कुछ अल्प-ज्ञान उनके पास है- को  अर्जित तो नहीं किया है? 

 "घृणित और जघन्य निष्ठुरता "-से बड़े बड़े अधिकार प्राप्त करने की इच्छा का तात्पर्य-  यही है कि स्वयं को ' कुलीन ' वंश में उत्पन्न समझने वाले लोग, उन मनुष्यों के प्रति  जो  सामाजिक स्तर पर हम से पिछड़ गए हैं , मन में घृणा रखते हुए, हृदयहीन होकर उनके साथ निष्ठुर व्यवहार, उनका शोषण और तिरस्कार रूपी जघन्य वृत्तियों का अवलंबन करते रहते हैं;  क्या इस प्रकार का आचरण करने से उन्हें कभी उच्चाधिकार प्राप्त हो सकता है? यह तो वीरता नहीं कापुरुषता है।  यदि हम सचमुच सम्मान और बड़े-बड़े अधिकार पाना चाहते हों तो हमें समदर्शी बनना होगा, और दूसरों को भी अपने ही जैसा मनुष्य समझ कर, सबों को अपना ही जानते हुए, एकात्मता एवं सहानुभूति को अपनाते हुए इस क्षूद्र स्वार्थ-बुद्धि को त्याग देना होगा। इसके लिये पहले हमें अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखने की विद्या अर्जित करनी होगी। दूसरों को सम्मान देने और सबों का कल्याण करने में तत्पर व्यक्ति को ही उच्चाधिकार प्राप्त होता है। मन और इन्द्रिय के दासों को उच्चाधिकार नहीं मिल सकता। स्वतंत्र तो वही है जो अपने इन्द्रिय-मन का गुलाम नहीं है, जिसने अपने मन को जीत लिया है, जो निजी स्वार्थ और कामना-वासना का दास नहीं है वही बड़े-बड़े अधिकार प्राप्त करने का योग्य पात्र है।
जिस कापुरुषता को भगवान श्री कृष्ण ने आर्यों (श्रेष्ठ जनों) के लिए अनुपयुक्त और अपकीर्तिकर कहते हुए धिक्कारा था, उसी को स्वामीजी "लज्जाकर" कहते हैं। ये दुर्बलताएं ही कापुरुषता है, जिन्हें दूर करना होगा। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष में भी स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि ' दुर्बल तथा कापुरुष  ' मनुष्यों  के द्वारा स्वाधीनता कि प्राप्ति और रक्षा भी सम्भव नहीं  है। व्यक्तिगत और राष्ट्रीय स्वाधीनता का उपभोग केवल वीर पुरूष ही कर सकते हैं। इसिलिये स्वमीजी ने अन्यत्र कहा था-" वीरानमेव करतल गताः मुक्ति।" अर्थात मुक्ति भी केवल वीर ही प्राप्त कर सकते हैं।
वर्तमान-भारत जिन मनुष्योचित मूल्यों को भूलता जा रहा है, स्वामीजी यहाँ उसका स्मरण भी करा देते हैं। अन्यत्र उन्हों ने कहा है- " जिस देश (राजधानी दिल्ली तक) में नारी जाती का आदर्श सुरक्षित नहीं रह पाता, उस देश का अधोपतन हो जाता है।" इसीलिए यहाँ वे भारत की नारी-जाती के "सतीत्व" की गौरवपूर्ण आदर्श प्रतीकों -सीता, सावित्री,दमयंती के नामों का स्मरण भी करा देते हैं। पश्चिमी संस्कृति के अन्धानुकरण की दौड़ में फंस कर यदि नारी-जाती के इन महान आदर्शों को त्याग दिया गया तो भारत का पुनरुत्थान कभी सम्भव न होगा। हमारे देश के शास्त्रों में "रामायण" तथा "महाभारत" को  भारत के इतिहास के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। नारी-आदर्श के तीनों उज्ज्वल नामों को स्वामीजी ने इन्हीं इतिहासों से उधृत किया है।रामायण में 'सीता' तथा महाभारत में- 'सावित्री' और 'दमयंती' के भव्य आदर्श को चित्रित किया गया है। सनातन भारतीय जीवन के इतिहास में इन तीनों सतियों के नाम, चिर काल से अमलिन और अक्षुण बने हुए हैं।
एक स्थान पर स्वामीजी कहते हैं- " महिमामयी सीता साक्षात् पवित्रता की अपेक्षा अधिक पवित्रतरा हैं, वे तो सहिष्णुता की चरम आदर्श हैं।" उन्हों ने सीता, सावित्री, दमयन्ती आदि नामों के साथ-साथ लीलावती, खना, मीरा, मैत्रेयी, गार्गी, झाँसी-की-रानी, आदि भारतीय नारी आदर्शों का उल्लेख बहुत श्रद्धा के साथ किया है। स्वामीजी अन्यत्र कहते हैं-" नारी-चरित्र के जितने भी आदर्श गुण हैं, वे सभी एक साथ 'माता सीता' के चरित्र में दृष्टिगोचर होते हैं।" फ़िर उन्हों ने -सीता,सावित्री और दमयन्ती इन तीन नामों का क्यों उल्लेख किया? क्योंकि इन तीनों नारी-आदर्शों में जो गुण मूल रूप में विद्दमान है, वह गुण है-"पवित्रता"। 

इनकी पवित्रता सैंकडों दुःखद परीक्षाओं से गुजरने पर भी कहीं पराभूत नहीं होती। सीता तो जन्म-दुःखिनी ठहरीं, परन्तु कोई भी दुःख उन नित्य-साध्वी, नित्य विशुद्ध-स्वभाव को आदर्श-पत्नी सत्ता से विचलित न कर सका। जबकि सावित्री और दमयन्ती जन्म-दुःखिनी नहीं  थीं, दोनों राजमहलों में पलीं और बढी थीं। किंतु सावित्री ने मन ही मन एक बार जब 'सत्यवान' को अपना पति मान लिया और  बाद में ज्ञात हुआ कि वर्ष के अंत में उनके पति का शरीर नहीं रहेगा, तब भी अपनी एकनिष्ठ पवित्रता को उन्हों ने नहीं त्यागा। पति से वियोग हो जाने के पश्चात् वह भी 'नचिकेता' के समान यमराज के समक्ष पहुँच कर उनकी जिज्ञाषा को संतुष्ट कर अपने पति के प्राण वापस लौटा लाती हैं। 
उधर दमयन्ती सुख-चैन से रहने कि आश ले कर 'रजा नल ' के साथ विवाह करतीं हैं, किंतु सर्वस्व हार चुके 'रजा-नल' के वन-गमन में उनकी अनुगामिनी होकर जाती हैं तथा वन में राजा नल के द्वारा त्याग दिए जाने पर भी पतिव्रत-धर्म कि अवमानना नहीं करतीं तथा सहिष्णु हो कर एकनिष्ठता रखते हुए 'बुद्धि-योग' का सहारा ले कर पति का प्रत्यावर्तन सम्भव कर लेतीं हैं। जीवन-वृतांतों में विभिन्नता रहने पर भी ये तीनों नारियाँ-पातिव्रत्य,सहिष्णुता, और मातृत्व में अनन्या स्मरणीय,पूज्या तथा आदर्शस्वरूपा हैं। ये ही भारतीय नारियों के लिए मूल प्रेरक आदर्श उदाहरण हैं। 
भारत को उसके उपास्य देवता- "भगवान शंकर" के अनुकरणीय लक्षणों का स्मरण कराते हुए, उसे पुनः 'शिवत्व' या कल्याण की उपासना करने का निर्देश देते हैं। इनकी उपासना करने की सर्वश्रेष्ठ विधि है-अपने जीवन में 'त्याग' को धारण करना।  परम कल्याण की प्राप्ति सर्वस्व-त्याग से ही होती है, इसीलिए हमें अपने उस 'क्षुद्र-अहम्' (कच्चा मै) को त्याग देना चाहिए जो स्वार्थ,पशु-प्रवृत्ति, भोगसुख, निष्ठुरता और इन्द्रियों की गुलामी में ही आसक्त रहना चाहता है। क्योंकि इस 'क्षुद्र-अहम्' को त्याग देने पर ही परम-कल्याण या 'सार्वभौमिक-कल्याण'-"शिवत्व " की प्राप्ति हो सकती है। इसीलिए - "सर्वत्यागी भगवान 'शंकर' ही भारत के आदर्श या उपास्य देवता हैं। शक्ति के बिना कोई भी वस्तु प्राप्त नहीं की जा सकती, अतः शक्ति के महत्व को इंगित कराने के लिए कहा- " उमानाथ सर्वत्यागी भगवान शंकर" अर्थात वे परम-कल्याण रूपी शिव केवल "उमा" या शक्ति की कृपा से ही मिल सकते हैं। उपनिषदों में भी 'उमा हैमवती' के रूप में शक्ति के आविर्भूत होने की कथा मिलती है।  इसी कारण स्वामीजी प्राचीन शत्-शास्त्रों को विस्मृत करने से मना करते हैं। सांसारिक-जीवन में धन-अर्जन,विवाह, इन्द्रिय-सुख आदि के अवसर प्राप्त हो जाते हैं; परन्तु हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए की ये सभी केवल अपने निजी सुख-भोग प्राप्त करने के लिए नहीं है। ये सब भी समाज और देश का मंगल करने हेतु प्राप्त हुए हैं। मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन जाने-अंजाने आजन्म मातृभूमि की सेवा में समर्पित है, बलिस्वरूप है। क्योंकि यह सृष्टि कल्याणस्वरूप शंकर या ईश्वर की शक्ति- 'महामाया-उमा' की रचना है। यह मानव-समाज, देश, जगत सबकुछ उन्ही का प्रतिबिम्ब (परछाई या छाया) मात्र है। वे ही आदि-शक्ति, जगत-प्रसविनी, जगत-जननी माँ -'जगदम्बा' हैं। वस्तुतः "माता जगदम्बा" ही हमारी; "भारत-माता" हैं।
यदि हम जन्म-जन्मान्तर तक स्वयं को उन्ही 'राष्ट्र-माता' के चरणों में समर्पित कर दें, अपने 'क्षुद्र-अहं ' को बलिस्वरूप बना कर सारे भारतवासियों के मंगल साधना का व्रत उठा लें; तभी समाज का यथार्थ कल्याण हमसे सम्भव होगा,और हमारा जीवन भी धन्य हो जाएगा। इस दृष्टि को प्राप्त कर लेने पर , हम फ़िर किसी को भी अपने से हीन समझ कर उसे अज्ञ, मूर्ख, नीच-जाती, अनार्य या मलेच्छ जैसे नामों से कैसे सम्बोधित कर सकते हैं? फ़िर हम किसी भी मनुष्य को उसकी,"जाति-धर्म" के आधार पर - " ये लोग हमारे नहीं हैं " कह कर अपने से भिन्न कैसे समझ सकते हैं? यही परम-उदार ज्ञानमयी दृष्टि सम्पूर्ण जगत को 'ब्रह्ममय' देखने लगती है। यही दृष्टि कहती है- " कोई पराया नहीं, सम्पूर्ण जगत तुम्हारा अपना है।"...नीच जाति, मूर्ख, अज्ञ, दरिद्र, मोची और मेहतर सभी- "तुम्हारे रक्त " तथा तुम्हारे ही 'भाई' हैं। " परानुकरण करने में रत तत्कालीन-भारत"- स्वयं को भारतवासी कहने में भी संकोच करने लगा था, इसीलिए स्वामीजी साहसपूर्वक,गर्व के साथ स्वयं को "भारतवासी" कहने का निर्देश देते हैं। चूँकि "समदर्शन " के इस सिद्धांत का आविष्कार प्राचीन काल में भारतवर्ष में ही हुआ है, इसी आध्यात्मिक ज्ञान के गौरव से भर कर घोषणा करने के लिए कहते हैं- " गर्व से कहो कि मैं भारतवासी हूँ ; और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है।" यह राष्ट्रीय एकता, राष्ट्र-पुनर्गठन, तथा एकत्वबोध का अनुपम सूत्र है। यहाँ मूर्ख, दरिद्र, ब्राह्मण, चाण्डाल सभी 'एकाकार' हो जाते हैं, वे सब मेरे भाई हैं, मेरे ही प्राणस्वरूप हैं। विदेशियों के बहकावे में आकर अपने देश के जाग्रत देवी-देवताओं को भूल मत जाना, वे सब हमारे सर्वमंगलदाता ईश्वर हैं, सर्वगत स्वरूप में 'वे' ही विराजित हैं। भारत के समाज में इतनी क्षमता है कि वह हमारे शैशव, यौवन, और बृद्धावस्था की समस्त आकांक्षाओं को पुरा कर सकता है, परमुखापेक्षी होने कि आवश्यकता नहीं है। 

यदि कहीं स्वर्ग है, तो देश कि मिट्टी ही स्वर्ग है। सम्पूर्ण भारत के कल्याण में ही मेरा व्यक्तिगत कल्याण भी निर्भर करता है। इस मंत्र में व्यक्ति का निजी शुभ-अशुभ पुरी तरह से देश के शुभाशुभ के साथ एकाकार हो गया है, इसीलिए यह स्वदेश-मंत्र है। इसी मंत्र के अनुचिंतन से भारत का पुनरुत्थान होगा, अतः हमे इसी मंत्र का ध्यान करना चाहिए। इसिकेलिए हमे एकाग्रमन से 'उमानाथ' के श्री चरणों में दिन-रात प्रार्थना करनी चाहिए।
शक्तिस्वरूपा महामाया जगदम्बा से प्रार्थना है कि हमारी अकर्मण्यता, कापुरुषता आदि को दूर कर दें।  एक बार फ़िर से भारतवर्ष अपनी तमोगुण जन्य पशुता और जड़ता के ऊपर विजय प्राप्त  कर- " मननशील, मनीषी, मुनि " बन जाये ।  भारत ने जिस आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास, आत्म-निर्भरता को खो दिया था उसे पुनः प्राप्त करने के लिए हमलोगों को 'जगदम्बा' से केवल इतनी ही  प्रार्थना करनी है कि- " माँ मुझे मनुष्य बना दो !" अर्थात हे माँ ! तू मुझे भी ऐसे  "मनुष्यत्व" का अधिकारी बना दे,जो अपनी शक्ति को जान ले,जो सब को अपना समझे, जो त्याग करने में समर्थ हो, जो परहित के लिए अपने प्राणों को भी न्योछावर करने को भी तत्पर रहे।
इसी मंत्र की साधना करने से भारत की वर्तमान अवस्था में परिवर्तन लाया जा सकता है, "यथार्थ-मनुष्य" ही वर्तमान भारत को नवीन भारत में रूपांतरित कर सकते है। 
(श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय लिखित मूल बंगला पुस्तिका- " स्वामिजीर वर्तमान भारत " के १२ वें परिच्छेद का हिन्दी भावानुवाद )
==================

4 comments:

Anil Kumar said...

इस संदेश की याद हम सबको दिलाने के लिये धन्यवाद! यदि थोड़ी व्याख्या भी लिख देते तो शब्दों का बल और बढ़ जाता!

Bijaypilot said...

इस संदेश की याद हम सबको दिलाने के लिये धन्यवाद

Bijaypilot said...

इस संदेश की याद हम सबको दिलाने के लिये धन्यवाद

Anonymous said...

Very nice