गुरुवार, 4 जून 2015

२१ जून अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस: स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित 'योग-विज्ञान' (2)

ज्ञानयोग का परिचय (६/२४८) देते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " योग मीन्स द मेथड ऑफ़ जोइनिंग मैन एंड गॉड.-अर्थात मनुष्य (बन्दा)और ईश्वर (परवरदिगार-अल्ला) को जोड़ने की पद्धति को ही योग कहते हैं। जब आप इस तथ्य को भलीभाँति समझ लेते हैं, तब आप मनुष्य और ईश्वर के बारे में अपनी अपनी मान्यताओं को लेकर भी आगे बढ़ सकते हैं। और आप देखेंगे कि 'मनुष्य और ईश्वर ' के संबन्ध में विभिन्न धर्मावलम्बियों के मन में जो भी धारणा क्यों न हो, 'योग' शब्द हर परिभाषा के साथ ठीक बैठ जाता है। ' रीमेम्बर ऑलवेज, देयर आर डिफरेंट योगाज फॉर डिफरेंट माइंडस'- हमेशा याद रखें कि विभिन्न प्रकार की मानसिकता रखने वालों के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार के योग-मार्ग हैं; यदि कोई एक योग-मार्ग आपके अनुकूल नहीं है,तो दूसरा हो सकता है। 
संसार के सभी धर्म 'थ्योरी एंड प्रैक्टिस' - सिद्धान्त और अभ्यास में विभाजित हैं। पाश्चात्य मानसिकता ने धर्म के सैद्धान्तिक पक्ष का त्याग कर दिया है, तथा वह शुभ कर्मों के रूप में धर्म के केवल अभ्यास-पक्ष को ही ग्रहण करता है। योग धर्म का अभ्यास-पक्ष या व्यवहारिक पहलू है। और यह दिखला देता है कि धर्म शुभ कर्मों के आलावा एक-' प्रैक्टिकल पावर '(व्यवहारिक शक्ति) भी है।
उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मनुष्य ने बुद्धि के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त करने की चेष्टा की, जिसके परिणाम स्वरूप आस्तिकता ( Deism-डीइज़म, ईश्वरवाद) की उत्पत्ति हुई। इस प्रक्रिया के द्वारा जो कुछ थोड़ा-बहुत ईश्वर बचा, उसे डार्विनिज़म और मिल-इज्म ने नष्ट कर दिया। तब मजबूर होकर लोगों को -' हिस्टोरिकल एंड कम्पेरेटिव रिलिजन'- ऐतिहासिक और तुलनात्मक धर्म की शरण में जाना पड़ा। वे समझते थे कि धर्म की उत्पत्ति 'एलिमेंट वरशिप' या पाँच तत्वों की पूजा से हुई होगी। (यहाँ सूर्य-अग्नि संबन्धी कथाओं आदि पर मैक्समूलर के विचार द्रष्टव्य हैं) हर्बर्ट स्पेन्सर यह मानते थे कि धर्म -'एन्सेस्टर वरशिप' (पूर्वजों की पूजा) से उत्पन्न हुआ होगा। किन्तु ये पद्धतियाँ सम्पूर्णतः असफल सिद्ध हुईं। क्योंकि ' मैन कैनाट गेट ऐट ट्रुथ बाई एक्सटर्नल मेथड्स.' - मनुष्य बाह्य-पद्धतियों (घुटनों की कवायद ) से सत्य तक नहीं पहुँच सकता।
वेदों में कहा गया है - ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ -ब्रह्माण्ड नाद (Big-bang) का ही स्थूल रूप है और पिण्ड उस ब्रह्माण्ड का संक्षिप्त रूप है। सारा विश्व इसी योजना पर बना है। 'यदि मैं मिट्टी के एक टुकड़े को जान लूँ तो मैं मिट्टी की सम्पूर्ण राशि को जान लूँगा।' व्यक्ति तो मिट्टी के एक टुकड़े के समान केवल एक अंश है। यदि हम मानव आत्मा -जो कि एक अणु है , के प्रारम्भ और सामान्य इतिहास को जान लें, तो हम सम्पूर्ण प्रकृति को जान सकते हैं। जन्म-वृद्धि-विकास-जरा-मृत्यु, -सम्पूर्ण प्रकृति में यही क्रम है (इसी  कारणत्व के नियम से बँधी है) और वनस्पति तथा मनुष्य में समान रूप से विद्यमान है। भिन्नता केवल काल (time या नाम-रूप) की है। एक दृष्टान्त में जन्म-मृत्यु का पूरा चक्र केवल एक दिन में पूर्ण हो सकता है और दूसरे में ७० वर्ष में पर ढंग एक ही है। ब्रह्माण्ड के सुनिश्चित विश्लेषण तक पहुँचने का एकमात्र मार्ग - स्वयं हमारे अपने मन का विश्लेषण है। " ६/२४८
" पहले मन के 'फिजियोलॉजी' को समझें, हमारी इन्द्रियाँ हैं, जिनको 'ओर्गन्स ऑफ़ परसेप्शन' (ज्ञान-इन्द्रिय) एवं 'ओर्गन्स ऑफ़ एक्शन' (कर्मेन्द्रिय) में विभाजित किया जाता है। इन्द्रियों से मेरा अभिप्राय -एक्सटर्नल सेन्स-इंस्ट्रूमेंट्स, (बाह्य इन्द्रिय-यंत्रों) से नहीं है मस्तिष्क में अवस्थित स्नायु-केंद्र 'ऑप्टिक नर्भ' ही हमारी वास्तविक दर्शन इन्द्रिय है, आँख तो केवल बाहरी उपकरण है। यही बात प्रत्येक इन्द्रियों पर लागू होती है, उसकी क्रिया अभ्यान्तरिक (मस्तिष्क में अवस्थित विभिन्न स्नायु-केन्द्रों में) होती है। जब मन उन इन्द्रियों (स्नायु-केन्द्रों) के साथ जुड़ा होता है, और प्रतिक्रिया करता है, तभी किसी इन्द्रिय-विषय का प्रत्यक्ष-बोध होता है। 'द सेंसरी एंड मोटर-नर्व्स आर नेसेसरी टू परसेप्शन.' प्रत्यक्ष-ज्ञान के लिये 'सेंसरी एंड मोटर-नर्व्स' पेशीय और संवेदी नाड़ियाँ दोनों आवश्यक होती हैं। 
इसके बाद स्वयं मन है। मन की तुलना किसी शांत सरोवर से की जाती है, जो कि आघात किये जाने पर, जैसे पत्थर द्वारा, तरंगायित होने लगता है। लहरें एकत्र होकर पत्थर पर प्रतिक्रिया करतीं हैं, जिन्हें सरोवर के किनारे तक फैलते हुए अनुभव किया जा सकता है। मन भी उसी झील के समान है,जिसमें निरन्तर पाँच विषयों के ढेले गिरते रहते हैं, और वह स्पन्दित होता रहता है। उसका प्रत्येक स्पंदन मन पर एक छाप छोड़ जाता है। अर्थात मन निरंतर यह क्या है? वह क्या है ? (किस चीज की आवाज है, आदि) --करता रहता है। बुद्धि निर्णय करती है, उसके बाद 'अहं' या व्यक्तिगत स्व या 'मैं' का विचार जाग्रत हो उठता है-'मैं जान गया कि यह ढोलक की आवाज है । 'मैं' का विचार इन स्पंदनों का परिणाम होता है। इसलिये यह 'मैं' (अहं) - शक्ति का एक अत्यन्त द्रुत सम्प्रेषण -'वेरी रैपिड ट्रांसमिशन ऑफ़ फ़ोर्स'- मात्र है, वह स्वयं सत्य नहीं है। 
अब यह समझें कि 'माइंड-स्टफ' या 'मन-वस्तु'- जिससे मन का निर्माण होता है-वह क्या है ? मन-वस्तु को 'चित्त' कहते हैं, यह एक अत्यंत सूक्ष्म 'मटेरियल इंस्ट्रूमेंट'-या भौतिक यन्त्र है, जो प्राण धारण करने में प्रयुक्त होता है। जब कोई मनुष्य मर जाता है, तो उसका शरीर मर जाता है, किन्तु अन्य सब कुछ नष्ट हो  जाने के बाद भी मन का थोड़ा भाग, उसका बीज (अहं) बच जाता है। यही नये शरीर का बीज होता है, जिसे संत पॉल ने 'द स्प्रिचुअल बॉडी' या 'आध्यात्मिक शरीर' कहा है। मन के भौतिक-पदार्थ होने का यह सिद्धान्त सभी आधुनिक सिद्धान्तों से मेल खाता है।
मूर्ख (जड़) व्यक्ति में बुद्धि कम होती है, क्योंकि उसका 'मन-वस्तु' या चित्त आहत (व्यथित) होता है। भौतिक पदार्थों में बुद्धि नहीं हो सकती और न यह पदार्थ के किसी संघात द्वारा उत्पन्न की जा सकती है; तब बुद्धि कहाँ होती है ? वह भौतिक पदार्थ के पीछे होती है, वह जीव है, भौतिक-यन्त्र (चित्त) के माध्यम से कार्य करने वाली आत्मा है। (शुद्ध बुद्धि पवित्र चित्त के माध्यम से कार्य करने वाली आत्मा है) ' ट्रांसमिशन ऑफ़ फ़ोर्स इज नॉट पॉसिबल विदाउट मैटर' - बिना पदार्थ के शक्ति का संचारण सम्भव नहीं है, और चूँकि जीव (अपने जीवन-धन प्रभु या आत्मा के बिना) एकाकी यात्रा नहीं कर सकता, इसीलिये मृत्यु के द्वारा सब कुछ ध्वस्त हो जाने पर मन का एक अंश (अहं) एक संचारण-माध्यम 'ट्रांसमीटिंग मीडियम' के रूप में बच जाता है। ' ६/२४९   
प्रत्यक्ष-ज्ञान या अभिज्ञता कैसे होती है ? सामने की दीवार (या यह पंडाल) एक प्रभाव-चित्र मुझे भेजती है, किन्तु जब तक मेरा मन प्रतिक्रिया नहीं करता, मैं दीवार नहीं देखता। अर्थात केवल आँख रहने से ही मन दीवार को नहीं जान सकता। जो प्रतिक्रिया मनुष्य को दीवार को प्रत्यक्ष देखने की क्षमता प्रदान करती है, वह एक 'इंटेलेक्चुअल प्रोसेस' या बौद्धिक प्रक्रिया है। इसी प्रकार यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड हमारी आँखों प्लस मन (प्रत्यक्षीकरण की आंतरिक शक्ति) द्वारा देखा जाता है। जिसे हम बाद में अपनी व्यक्तिगत टेंडेंसी (प्रवृत्ति) के अनुसार निश्चित रूप से रंग देते हैं। (धरती माता या चंदा मामा का रिश्ता जोड़ लेते हैं) वास्तविक पंडाल या वास्तविक चन्द्रमा मस्तिष्क के बाहर होता है और अज्ञात तथा अज्ञेय होता है। इस ब्रह्माण्ड को 'क' कहिये तो हमारा कहना है कि दृश्य-जगत होगा 'क' + मन । 
जो बात बाह्य जगत के लिये सत्य है, वही आभ्यांतर जगत पर भी अवश्य लागू होनी चाहिये। मन भी अपने को जानना चाहता है, किन्तु यह आत्मा केवल मन के माध्यम से जानी जा सकती है; और दीवार की तरह अज्ञात है। इस आत्मा को हम यदि 'ख' कहें तो, कथन इस प्रकार होगा कि 'ख'+मन हमारा आभ्यंतरिक 'अहं' है। सर्वप्रथम कांट मन (बुद्धि,चित्त,अहंकार) के इस विश्लेषण पर पहुँचे थे, किन्तु वेदों में यह बहुत पहले कहा जा चुका था। इस प्रकार मन चाहे जो कुछ भी हो (आत्मा की दिव्य चक्षु या पूल) हमारे पास 'क'(विश्व) और 'ख' (आत्मा) के बीच मन उपस्थित है और दोनों पर प्रतिक्रिया कर रहा है। 
यदि 'क' (विश्व) अज्ञात है, तो उस पर जो भी गुण (भला-बुरा) हम आरोपित करते हैं, वे हमारे अपने ही मन से उद्भूत होते हैं। " टाइम, स्पेस, ऐंड कॉज़ेशन आर द थ्री कंडीशंस थ्रू व्हिच माइंड पर्सिवस." देश, काल और कारणता वे तीन शर्तें हैं, जिनके माध्यम से मन को प्रत्यक्ष-ज्ञान होता है।'टाइम इज द कंडीशन फॉर  द ट्रांसमिशन ऑफ़ थॉट' काल (सूक्ष्म ) विचार के संचारण की शर्त है, और 'स्पेस फॉर द वाइब्रेशन ऑफ़ ग्रॉसर मैटर.'  -देश अधिक स्थूल पदार्थ के स्पंदन के लिये है। कारणता (कार्य-कारण संबन्ध) वे अनुक्रम हैं, जिसमें वे (देश-काल के स्पंदन) आते हैं। मन केवल इन्हीं त्रयी के द्वारा किसी वस्तु को जान सकता है। (आत्मा मन और बुद्धि से परे है)  इसलिये जो वस्तु मन से परे होगी, वह देश, काल और कारणत्व से भी परे होगी। 
अन्धे व्यक्ति को जगत का ज्ञान स्पर्श और शब्द (ध्वनि) द्वारा होता है। हम 'रूप-रस-गंध-शब्द-स्पर्श' आदि विषयों को पंचेन्द्रिय के माध्यम से ग्रहण कर सकते हैं, इसीलिए हमारा जगत अंधों के जगत से भिन्न प्रकार का हो जाता है। यदि हममें से कोई विद्युत संवेदना का विकास करे और विद्युत तरंगों को देखने की क्षमता भी प्राप्त कर ले, तो उसे यह संसार भिन्न दिखाई देगा। तथापि 'क' के रूप में जो ब्रह्माण्ड है, वह इन सबके लिये समान है। चूँकि हरेक प्राणी अपना पृथक मन लेकर धरती पर आता है, इसलिये वह अपने विशेष संसार को ही देखता है। 'क'+ एक इन्द्रिय, 'क'+दो इन्द्रियाँ, और इसी प्रकार जैसा कि हम जानते हैं-मनुष्य को पांच तक हैं। परिणाम निरंतर विविधतापूर्ण होता है, किन्तु 'क' (विश्व ) सदैव अपरिवर्तित रहता है। 'ख' (आत्मा) भी हमारे मानसों से परे है, इसलिये वह देश, काल तथा कारणता से भी परे रहता है।
परन्तु आप पूछ सकते हैं कि , " हम यह कैसे जानते हैं कि 'क' (विश्व) और 'ख' (आत्मा) दो अलग अलग वस्तुएं हैं जो देश,काल और कारणता से परे हैं ? " यह बात बिल्कुल सत्य है कि समय या काल ही जगत और ब्रह्म में भेद-बुद्धि ले आता है, पर यदि दोनों वास्तव में काल से परे हैं, तो उन्हें वास्तव में अवश्य ही एक होना चाहिये। जब मन बाह्य जगत को देखता है, तो उसे वह 'क' नाम से पुकारता है, जब वह अंतः जगत को (अपने हृदय में विराजित ) देखता है तो उसी को भिन्न नाम 'ख' (ठाकुर देव) कहता है। ब्रह्म ही जगत बने हैं - इस एकत्व का अस्तित्व है, और उसे (मनःसंयोग के अभ्यास में ) मन के लैंस से देखा जाता है। हमारे समक्ष सर्वत्र विभिन्न नाम-रूपों में प्रकट होने वाली सत्ता पूर्ण ब्रह्म, या ईश्वर ही है ! -' हर देश में तू हर वेश में तू , तेरे नाम अनेक तू एक ही है ' - यह भेद-बुद्धि रहित अद्वैत -दशा ही पूर्णता की दशा है, और अन्य सब द्वैत की दशायें अस्थायी और निम्नतर होती हैं।
(जब ब्रह्म ही जगत बने हैं तो ) विभेदरहित सत्ता (ब्रह्म) मन को विभेदयुक्त क्यों प्रतीत होती है ? यह उसी प्रकार का प्रश्न है, जैसा यह कि अशुभ और स्वतंत्र इच्छा का आदि कारण (origin) क्या है ? यह प्रश्न स्वयं अन्तर्विरोधी ( contradictory) और असम्भव है; क्योंकि यह प्रश्न कारण-कार्य संबन्ध या कारणत्व को स्वयंसिद्ध मान लेता है। ' अन्डिफरेन्शीऐटिड' या अविभेद की अवस्था में कारण-कार्य का संबन्ध भी नहीं होता है, जबकि प्रश्न यह मानकर किया जा रहा है कि अविभेद, विभेद की स्थिति में भी रहता है। जबकि ' क्यों ' और 'कहाँ से' का प्रश्न 'मन' बन जाने के बाद ही उठ सकता है। 'द सेल्फ इज  बियॉन्ड कॉज़ेशन ' - आत्मा कारणता से परे है और केवल वही स्वतंत्र है। इसका ही प्रकाश मन के हर रूप (मन-बुद्धि-चित्त- अहंकार) से अभिव्यक्त होता है। हर कार्य के साथ मैं दावा करता हूँ कि मैं स्वतंत्र हूँ, किन्तु मेरा हर कार्य यह सिद्ध करता है कि मैं बद्ध हूँ। वास्तविक आत्मा (ह्रदय या पक्का मैं) स्वतंत्र है, किन्तु मन और शरीर के साथ तादात्म्य कर लेने पर वह स्वतंत्र नहीं रह जाती। वास्तविक आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति इच्छा है; इसीलिये आत्मा को ससीमता में बाँधने वाली प्रथम शक्ति इच्छा ही है। इच्छा आत्मा (हर्ट -हृदय) और मन (हेड) का एक - कम्पाउन्ड, मिश्रण या यौगिक पदार्थ है। किन्तु कोई यौगिक पदार्थ नित्य या स्थायी नहीं हो सकता। इसीलिये जब 'हम' जीवित रहने की इच्छा करते हैं, तो हमें अवश्य मरना चाहिये। अमर जीवन परस्पर विरोधी शब्द है। क्योंकि जीवन एक यौगिक पदार्थ होने के कारण कभी शास्वत या स्थायी नहीं हो सकता। हमारी वास्तविक सत्ता या सत्य अभेद और शास्वत है।
यह पूर्ण सत्ता इच्छा, मन और विचार आदि अशुद्ध वस्तुओं से संयुक्त कैसे हो जाती है ? वास्तव में सत्ता कभी संयुक्त या मिश्रित नहीं हुई है। तुम्हीं वास्तविक तुम हो, (हमारे पूर्व कथन के 'ख' - सच्चिदानन्द ठाकुर देव) तुम कभी इच्छा न थे, तुम कदापि नहीं बदले हो, एक व्यक्ति (M/F) के रूप में कभी तुम्हारा अस्तित्व न था; वह एक भ्रम था -सिंह कभी भेड़ नहीं बन गया था ! तब आप कहेंगे कि भ्रम (रज्जु में सर्प देखने का भ्रम) के गोचर पदार्थ किस वस्तु पर आश्रित हैं ? यह एक अतिप्रश्न या कूप्रश्न है। भ्रम कभी सत्य पर आश्रित नहीं होता, भ्रम तो भ्रम पर ही आश्रित होता है। इन भ्रमों के पूर्व जो था, उसी पर लौटने के लिये-सचमुच स्वतंत्र (जीवन-मुक्त) होने के लिये, हर वस्तु संघर्ष कर रही है। तब जीवन का मूल्य क्या है ? वह हमें अनुभव देने के निमित्त है। क्या यह विचार विकासवाद की अवहेलना करता है ? नहीं, इसके विपरीत वह उसे स्पष्ट करता है। विकास वस्तुतः भौतिक पदार्थ के सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया है। जिससे वास्तविक आत्मा को अपनी अभिव्यक्ति करने में सहायता मिलती है। वह हमारे और किसी अन्य वस्तु के बीच किसी पर्दे या आवरण जैसा है। पर्दे (अहं) के क्रमशः हटने पर, वस्तु  (आत्मा) स्पष्ट हो जाती है। प्रश्न केवल उच्चतर आत्मा की अभिव्यक्ति का है !"
Time, Space, and Causation देश, काल और कारणत्व (कारण-कार्य संबन्ध= अहं का पुनर्जन्म) को अधिक स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द 'ब्रह्म एवं जगत ' (२/८५) पर दिये भाषण में कहते हैं - " इस जगत में कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं जो पूरी तरह से बुरा (शैतान ) हो, जिसे अच्छे मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य में रूपान्तरित नहीं किया जा सकता हो; क्योंकि ब्रह्म  ही वह अंतिम सत्य हैं, जिनसे सम्पूर्ण जगत अभिव्यक्त हुआ है। नीचे दिये चित्र में (a) दी एब्सोल्यूट अर्थात ब्रह्म है और (b) दी यूनिवर्स अर्थात जगत है! यहाँ पर जगत शब्द से केवल जड़-जगत ही नहीं, किन्तु सूक्ष्म तथा आध्यात्मिक जगत, स्वर्ग, नरक और वास्तव में जो कुछ भी है, सबको इसके अन्तर्गत लेना होगा। मन एक प्रकार के परिणाम का नाम है, शरीर एक दूसरे प्रकार के परिणाम का-इत्यादि, इत्यादि। इन सबको लेकर अपना यह जगत निर्मित हुआ है। 



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यह ब्रह्म (a) दी एब्सोल्यूट, (c) टाइम-स्पेस-कॉज़ेशन देश-काल-निमित्त या  (कारणता; कारण-कार्य संबंध ) में से होकर आने से (b) जगत या दी यूनिवर्स बन गया है। यही अद्वैतवाद की मूल बात है। हम देश-काल-निमित्त रूपी चश्मे से ब्रह्म को देख रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि जहाँ ब्रह्म है, वहाँ देश-काल-निमित्त नहीं है। काल वहाँ रह नहीं सकता, क्योंकि वहाँ न मन है, न विचार। देश भी वहाँ नहीं रह सकता, क्योंकि वहाँ कोई बाह्य परिणाम नहीं है।
और जहाँ सत्ता केवल एक है, वहाँ करणत्व (causality या कारण-कार्य वाद) भी नहीं  सकता; क्योंकि निमित्त ब्रह्म के नाम-रूप में अधःपतित होने के बाद ही होता है, उससे पहले नहीं। और हमारी इच्छा, वासना आदि जो कुछ है, वे सब उसके बाद ही आरम्भ होते हैं। " २/८५
श्रीमती ओलि बुल को उनके पिता की मृत्यु के अवसर पर २० जनवरी, १८९५ को लिखित पत्र में स्वामी विवेकानन्द ने कहा है - " समुद्र के सतह पर लहरें बारी बारी से उठती-गिरती रहती हैं, किन्तु द्रष्टा आत्मा को - जो ज्योति की सन्तान है, प्रत्येक लहरों के डूबने की गहराई तक, समुद्र के तल में मोती और मूंगों की परतें ही प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं। आना और जाना (जन्म-मृत्यु या causality) केवल भ्रम है। आत्मा न आती है, न जाती है। वह किस स्थान में जायगी, जब कि सम्पूर्ण स्पेस (देश) आत्मा में ही स्थित है? प्रवेश करने और प्रस्थान करने का कौन समय होगा, जब समस्त काल आत्मा के भीतर ही है।
पृथ्वी घूमती है और सूर्य के घूमने का भ्रम उत्पन्न होता है। किन्तु सूर्य नहीं घूमता। इसी प्रकार प्रकृति या माया चंचल और परिवर्तनशील है। यहाँ नाम-रूपों में निरंतर परिवर्तन होता रहता है, और इसी क्रम में एक के बाद दूसरा घूँघट उठता चला जाता है; माया इस जगत रूपी विराट पुस्तक के पन्ने पर पन्ने बदलती जाती है, जबकि साक्षी आत्मा अप्रभावित (अन्मूव्ड), और अपरिणामी (अन्चेन्ज्ड=रज्जु-सर्प न्याय) रहकर ज्ञान का पान करती है। 
जितनी भी जीवात्माएं हो चुकी हैं या होंगी,सभी वर्तमान काल में हैं -और यदि जड़ जगत की एक उपमा की सहायता लेकर कहें, तो वे सभी दिवंगत या भावी आत्माएँ एक ही ज्यामितीय बिन्दु (जोमेट्रिकल पॉइंट) पर स्थित हैं। चूँकि आत्मा में देश का भाव नहीं रहता, इसलिये जो हमारे थे, वे हमारे हैं, सर्वदा हमारे रहेंगे और सर्वदा हमारे साथ हैं। वे सर्वदा हमारे साथ थे, और हमारे साथ रहेंगे। हम उनमें हैं, वे हममें। निम्नांकित कोषाणुओं (सेल्ज्स) के  रेखा-चित्र (डायग्राम) देखो ।  
यद्द्पि इनमें से प्रत्येक पृथक है, तथापि वे सब के सब (A) देह और (B) प्राण को जोड़ने वाली रेखा (AB-आत्मा) के इन दो बिन्दुओं में अभिन्न भाव से संयुक्त हैं। वहाँ सब हैं। प्रत्येक देहाध्यासि जीवात्मा -a',a'',a''' (मनुष्य) और  b',b'',b''' (अन्य दृष्टिगोचर या सूक्ष्म जीव-जड़ वस्तुओं ) का अलग अलग व्यक्तित्व (नाम-रूप) है, परन्तु वे सब 'AB' बिन्दुओं पर एक हैं। 
कोई भी उस अक्ष-रेखा (ऐक्सिस 'AB' -आत्मा या भगवान ) से निकलकर भाग नहीं सकता। और उसकी परिधि चाहे कितनी टूटी या फूटी क्यों न हो, परन्तु अक्ष-रेखा में खड़े होने से हम किसी भी कक्ष (चैम्बर) में प्रवेश  सकते हैं। यह अक्ष-रेखा ईश्वर (आत्मा) है। वहाँ उससे हम अभिन्न हैं, सब सबमें  है, और सब ईश्वर में है। चन्द्रमा के मुख पर चलते हुए बादल यह भ्रम उतपन्न करते हैं कि चन्द्रमा चल रहा है। 
 इसी प्रकार प्रकृति, शरीर और जड़ वस्तुएँ  (a',a'',a''' (मनुष्य) और  b',b'',b''') ही गतिशील हैं और उनकी गति (जन्म-बचपन-कैशोर्य-यौवन-प्रौढ़-बुढ़ापा -मृत्यु ) उनकी यह अनिवार्य गति ही ऐसा भ्रम उतपन्न करती है कि मानों (AB) आत्मा ही गतिशील है!! इस प्रकार अन्त में हमें यह पता चलता है कि जिस जन्मजात-प्रवृत्ति (अथवा अन्तः स्फुरणा ? ) से सब जातियाँ -उच्च या निम्न -दिवंगत आत्माओं (मृत व्यक्तियों ) की उपस्थिति अपने समीप अनुभव करती  हैं, यह घटना युक्ति की दृष्टि (इन्टलेक्चूअली बौद्धिक रूप से ) से भी सत्य है!! 
प्रत्येक दिवंगत जीवात्मा एक नक्षत्र है, और ये सभी नक्षत्र ईश्वररूपी उस अनन्त निर्मल नील गगन में विन्यस्त हैं। वही ईश्वर प्रत्येक जीवात्मा का मूलस्वरूप है, वही प्रत्येक का यथार्थ स्वरुप और वही प्रत्येक और सबका प्रकृत व्यक्तित्व है। इन जीवात्मा -रूप नक्षत्रों में से कुछ के, जो हमारी दृष्टि-सीमा से भी परे चले गये हैं, अनुसन्धान से ही धर्म का आरम्भ हुआ और यह अनुसन्धान तब समाप्त हुआ, जब हमने पाया कि उन सबकी अवस्थिति (AB-आत्मा) या परमात्मा में ही है और हम भी उसी में हैं। अब सारा रहस्य यह है कि आपके पिता ने जो जीर्ण वस्त्र पहना था, उसका त्याग उन्होंने कर दिया, और वे वहीँ अवस्थित हैं, जहाँ वे अनन्त काल से थे। 
इस लोक में या किसी और लोक में क्या वे फिर ऐसा ही कोई वस्त्र पहनेंगे ? मैं सच्चे दिल से प्रार्थना करता हूँ कि ऐसा न हो, जब तक कि वे स्वयं ऐसा पूरे ज्ञान के साथ न करें। मैं प्रार्थना करता हूँ कि अपने पूर्व कर्म की अदृश्य शक्ति से परिचालित होकर कोई भी मनुष्य अपनी इच्छा के विरुद्ध कहीं भी न ले जाया जाय। मैं प्रार्थना करता हूँ कि सभी मुक्त हो जायें अर्थात वे यह अपने अनुभव से जान लें कि वे यहाँ और अभी इसी शरीर में मुक्त हैं !! और यदि वे पुनः कोई स्वप्न देखना चाहें (संसार को मुक्त कराने  इच्छा से ?) तो वे सब स्वप्न आनन्द और  शान्ति के ही स्वप्न हों।" 
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