शनिवार, 1 मई 2010

"ग्रामीण भाषा में वेदान्त " 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' [18]

माँ सारदा देवी  द्वारा कथित ग्रामीण भाषा में वेदान्त का सार "
 " जगत में कोई पराया नहीं, सभी तुम्हारे अपने हैं !"  " जगत तोमार आपनार, केऊ पर नय !"[৩২]

एक बार यादवपुर यूनिवर्सिटी में स्वामी विवेकानन्द के ऊपर एक Seminar (अध्यन-गोष्ठी) का आयोजन होने वाला था| तब वहाँ के Head of the department of Philosophy जो थे, उन्होंने ने हठात एक दिन मुझे फोन किया-पता नहीं मेरा फोन न० उनको कहाँ से मिला, मेरा उनसे कोई पूर्व परिचय भी नहीं था| फोन पर उन्होंने कहा- ' मेरा नाम अमुक है, मैं यादवपुर यूनिवर्सिटी में विभागाध्यक्ष हूँ| हमलोग स्वामीजी के ऊपर एक सेमिनार करना चाहते हैं- मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि उसमे क्या क्या हो और क्या न हो |' 
' बताइए क्या पूछना चाहते हैं,किन बातों की जानकारी चाहते हैं? वे बोले- ' यही परामर्श चाहता था कि किन किन विषयों पर चर्चा होनी चाहिये और व्याख्यान देने के किन-किन को आमंत्रित किया जाय? यह सब आप यदि बाद में भी बताना चाहें तो कोई बात नहीं , मैं बाद आपको फोन कर लूँगा |' मैंने कहा बाद में फोन करने की आवश्यकता नहीं, मैं अभी ही कह देता हूँ| उन्होंने कहा, बोलिए |मैंने टेलीफोन पर उसी समय ४-५ विषय बता दिये और वक्ताओं के नाम भी बता दिये| मैंने दिनेश शास्त्री महाशय का नाम का उल्लेख किया, अमिओ दा (महामण्डल के प्रथम अध्यक्ष) और नीरद बाबू (महामण्डल के द्वितीय अध्यक्ष) के नामों का भी उल्लेख किया| उन्होंने कहा- यह सब तो ठीक है पर आपको भी किसी विषय पर व्याख्यान देना होगा| मैंने कहा ठीक है -बोल दूंगा| सेमिनार हुआ, सभी वक्ताओं ने पहले अपने अपने विषय के papers पढ़ कर सुनाये, तत्पश्चात प्रश्नोत्तरी का कार्यक्रम रखा गया था| उस कार्यक्रम में पता नहीं क्यों, उनलोगों ने नीरद बाबू का और मेरा नाम अनाउंस कर दिया कि, ये दोनों आपके प्रश्नों के उत्तर देंगे|इस प्रकार प्रश्नोत्तरी का सत्र चलने लगा- किसी प्रश्न का उत्तर वे दे रहे थे, किसी प्रश्न का उत्तर मैं दे रहा था| इसी बीच थोड़ा वयोवृद्ध से दिखने वाले व्यक्ति, जिनको देखकर ही मुझे ऐसा लगा कि वे philosophy के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर होंगे, ने अपनी ऊँगली से मेरी ओर इंगित करके कहा, ' यह प्रश्न मैं आपसे कर रहा हूँ, आप ही इसका उत्तर दीजियेगा|' 
मैं बहुत डर गया, ये इस प्रकार बोल रहे हैं, मैं तो कोई philosophy का प्रोफ़ेसर नहीं हूँ, कुछ भी नहीं जानता,बहुत हुआ तो दो-चार पृष्ठ कहीं से पढ़ लिया होऊँगा| पर उससे क्या होना था|वे बोले, " अच्छा आज सुबह से ही यहाँ स्वामीजी के विषय में जितने व्याख्यान दिये गये हैं, उसको सामग्रिक रूप से लेने पर यही अर्थ निकलता है कि, हमलोग आज सारा दिन वेदान्त के विषय पर चर्चा किये हैं|तो आप यह बताइए कि वेदान्त के सार को अत्यन्त सरल भाषा में कहना हो तो उसे कैसे कहेंगे? "  मैं थोड़ा-बहुत जो भी जानता हूँ, माँ ने मुझे जितना बताया है, उतना ही जानता हूँ, जो नहीं बताया,वह नहीं जानता|  इसीलिये मेरे मुख से निकल गया- " अच्छा, यदि किसी बिल्कुल अशिक्षिता (अनपढ़)  ग्रामीण (देहाती) महिला के मुख से अत्यन्त सरल भाषा में निकले वेदान्त के सार को मैं उधृत करूँ, तो क्या यहाँ उपस्थित विद्वत समाज उसे सुनने को तैयार हैं ? " 
मेरे इतना कहते ही कई लोग एक साथ बोल पड़े- " बोलिए,बोलिए, बोलिए !" उस समय मुख से निकला, ' मैंने कहा ' ऐसा बोल नहीं पा रहा हूँ| मेरे मुख से निकला कि- " उस अशिक्षिता ग्रामीण महिला  का नाम है, श्रीश्री सारदा देवी, जिनको हमलोग मात्र श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव कि धर्मपत्नी के रूप में ही जानते हैं|" 
मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि माँ सारदा देवी द्वारा अत्यन्त सरल भाषा, जिससे अधिक सरल भाषा में कहा ही नहीं जा सकता, में दिये गये एक उपदेश को - " अत्यन्त सरल भाषा में वेदान्त का सार " कहा जा सकता है | द्वारा वह उपदेश है- " जगत तोमार आपनार, केऊ पर नय !" 
        
" कोई पराया नहीं, संसार तुम्हारा अपना है ! " 

 यह उपदेश उन्होंने शरीर छोड़ने के जब केवल ५ दिन शेष रह गये थे तब -भक्त अन्नपूर्णा की माँ को दिया था - जो उन्हें देखने आयीं थीं| पूरा उपदेश इस प्रकार है -" यदि शान्ति चाहती हो, बेटी, तो किसी का दोष मत देखना |दोष केवल अपना ही देखना | संसार को अपना बनाना सीखो |कोई पराया नहीं, बेटी, संसार तुम्हारा है| " (स्वामी गम्भीरनन्द द्वारा लिखित पुस्तक-' श्रीमाँ सारदा देवी ': पृष्ठ संख्या ६२१)}
इतना सुनते ही सभी एक ही साथ हर्ष ध्वनी करने लगे- जिन्होंने प्रश्न किया था, वे आगे आकर मुझे बाँहों में भर लिये और जिस प्रकार हौले से कानों में कोई बात कही जाति है, उस प्रकार बोले- " आपनी ठाकुरेर कृपा पेयेछेन !" ( आपको ठाकुर 'श्रीरामकृष्ण' की कृपा प्राप्त हुई है !)यह सब उस सेमिनार में हो रहा था, जिसमें श्रोता के रूप में फिलोसफी के छात्र- छात्राएं उपस्थित थे, फिलोसफी के अध्यापक- अध्यापिकाएं उपस्थित थे, और कुछ दूसरे लोग भी होंगे य़ा नहीं कह नहीं सकता| सभी एकसाथ,वाह-वाह अद्भुत कहते हुए महाआनन्द में झूम उठे!
उसके बाद की घटना- और भी मजे की थी! लगभग एक-दो वर्ष के बाद अमिय दा के सभी परिचित लोगों ने यह तय किया कि उनके जन्म दिन के उपलक्ष्य में, उनके विवेकानन्द रोड स्थित घर पर एकसाथ जमा होकर- थोड़ी देर तक एक विचार-गोष्ठी जैसा कुछ करेंगे जिसमे उनकी बातों पर चर्चा करेंगे-सुनेंगे| प्रत्येक ने मुझसे भी आने के लिये कहा| वहाँ पहुँचा तो उनलोगों ने मुझसे भी कुछ कहने का अनुरोध किये | मैं सोंचने लगा, यहाँ बोलने के लायक क्या बोलना ठीक हगा| तो वहाँ पर मैंने इसी घटना का उल्लेख किया था| वहाँ पर बहुत थोड़े से ही लोग समवेत हुए थे, और उनमें से अधिकांश लोग फिलोसफी के ही प्राध्यापक लोग थे| उन्हीं लोगों में से किसी व्यक्ति ने मुझसे पूछा- ' आच्छा जिस व्यक्ति ने आपसे वाह प्रश्न किया था, उसको क्या आप पहचानते हैं ? मैंने कहा, 'अभी देख कर उनको पहचान पाउँगा य़ा नहीं, वह मैं अभी कह नहीं पा रहा हूँ 'इसपर उन्होंने कहा, " वह व्यक्ति मैं ही हूँ!" यह एक अद्भुत घटना घटी थी| सब कुछ कितना आश्चर्यजनक है! इसीलिये केवल इतना सोंचता हूँ कि, उन लोगों की (त्रिदेवों की) प्रसन्नता प्राप्त हो जाने से - उनकी कृपा से क्या नहीं हो सकता है !! 
  " मूकं करोति वाचलम पंगुम लंघयते गिरिम |" 
अर्थ -" ठाकुर माँ स्वामीजी - मूक को वाक्शक्ति-सम्पन्न और लंगड़े को पर्वत पार कर जाने में समर्थ करते हैं  !" यह बात केवल मुख से कही जाने वाली कोई कहावत मात्र ही नहीं है, यह बात कितनी सत्य है, मैं स्वयं इस बात का अनुभव करता हूँ| उनलोगों की कृपा होने से- ऐसा सचमुच होता है, सचमुच होता है ! 
 " सचमुच ऐसा अनुभव करता हूँ,जीवन में कोई नैराश्य नहीं है, अन्य कोई आशा नहीं है| कोई चाह बाकी नहीं है ! जीवन में धन्यता का अनुभव होता है,  जन्म लेना सार्थक हुआ मुझे ऐसा प्रतीत होता है ! कोई आभाव नहीं है, कोई आकांक्षा नहीं है! आनन्द से ह्रदय भरा हुआ है, आनन्द से छाती भरी हुई है !
ये  त्रिदेव- ठाकुर, माँ, स्वामीजी ही सर्वदा मेरे धेय्य हैं, मन में यथासंभव इन्हीं लोगों का स्मरण सर्वदा बना रहता है,चलता रहता है| मेरा मन उनके स्मरण में न लगा रहता हो, ऐसी अवस्था बहुत कम, एकदम अल्प समय के लिये होती है| बैठने पर- नित्य उनके उपदेशों पर चिन्तन करने की आदत है, घर में रहते समय, ये जो घर के स्थापित देव-देवी हैं- उनकी संक्षेप में नित्य पूजा करने की आदत है| उन्ही के बीच ठाकुर, माँ, स्वामीजी की भी संक्षेप में नित्य पूजा करता हूँ| (पूजा करते समय) उनलोगों का ध्यान-मंत्र भी बोलना पड़ता है| 
किन्तु उनलोगों का ध्यान-मंत्र बोलने से (स्वच्छन्दे मानस चक्षे ) -" मुक्त मानस नेत्रों से " - उन लोगों को, ठाकुर-माँ-स्वामीजी को  देखा जा सकता है, बिल्कुल स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है! ...इस बात को मैं पुस्तक से पढ़कर नहीं बोल रहा हूँ, किताब में पढ़ कर ' मानस-चक्षू ' की बात नहीं कर रहा हूँ! सचमुच अन्तर में एक आँख है, आन्तरिक जगत नाम की एक " वस्तु " होती है, जिसको अपने भीतर (अन्तर में झांक कर ) में देखा जाता है! इच्छा करने मात्र से ही वह (अन्तः चक्षु) प्राप्त होती है ! शरीर में क्या रक्खा है ? उसके रूप में क्या रखा है ?  वह भाव रूप  के भीतर छुपा हुआ है ! उनलोगों को देख पाने में सक्षम-समर्थ बनने का अर्थ है- उनलोगों के भावों का स्मरण- जिसका अर्थ होता है वह भाव अपने भीतर भी उत्पन्न करने में समर्थ होना - वह क्या है ?  जैसा स्वामीजी ने कहा है-   " प्रेम, प्रेम, प्रेम| एई मात्र  धन ! "  स्वामीजी अपनी कविता ' सखा के प्रति '- में कहते हैं,
' देव देव ' वह और कौन है ?
 कहो चलाता सबको कौन ? 
' प्रेम-प्रेम ' धन लो पहचान !
(वि० सा० ख० ९:३२४)
( स्वामी विवेकानन्द के अनुसार यही है वेदान्त का सार है !) श्री रामकृष्ण के उपदेशों की बात कहते समय भी बोले हैं- ' Love ', " ईश्वरः प्रेमस्वरुपः !" स्वामीजी ने कहा है- ईश्वर प्रेमस्वरूप हैं ! " उनका चिन्तन करना ' का अर्थ है, प्रेम से ह्रदय का भर जाना (परिपूर्ण हो जाना Be) एवं उसी प्रेम LOVE को सबों के भीतर प्रवाहित करा देना(make)!  " सब सेई "- ( सब कुछ वे ही बने हैं !)
 " All are HE "' इस बात का बोध ' -  उस दिन हुआ था, जब  उड़ीसा के किसी सुदूरवर्ती ग्राम (?) में शिविर-स्थल के सामने - " एक छोटी सी नदी है, उसके पीछे पहाड़ है, वहाँ ठाकुर के उपदेश कहते कहते ऐसा प्रतीत हुआ - मानो ये सारे मुखडे- यह पहाड़, यह नदी, हरी-हरी घासें, ये गाँछ-वृक्ष, यह नीला आसमान ! सबकुछ  ठाकुर ( -माँ-स्वामीजी के ) के ही मुखड़े हैं! वे ही तो सबकुछ बने हैं !
- " सबई तिनीई !" 
इसके ( इस बात को अपने अनुभव से जान लेने के) बाद कि  - " सबकुछ वे ही बने हैं ! " मनुष्य को और क्या चाहिये ?( really this is height of  knowledge ) यदि यह शरीर, ऐसा मन, ऐसा ह्रदय, ऐसी विद्या सबों के काम न आ सकी, सबों को हम यदि अपना न बना सके, तो ( निजेर कुक्षिगत करे ) अपने को सीमित बना कर ' इतना सब मेरा है ' सोंच कर अपने पास ही रखे रह गये, तो ऐसे मनुष्य जीवन से क्या लाभ ? शरीर का यह पिंजरा खुल जाये- प्राण पखेरू उड़ जाएँ, य़ा यह तन जल कर रख बन जाये- क्या रखा है मनुष्य के शरीर में ? अन्त में तो सब छोड़ना ही पड़ेगा| सब कुछ छोड़ना  होगा, सब चला जायेगा, कुछ भी नहीं रहेगा| इसीलिये स्वामीजी ने कहा था - " They alone live who live for others. The rest are more dead than alive ."
{ " आत्मवत सर्वभूतेषु, क्या यह वाक्य केवल मात्र पोथी में निबद्ध रहने के लिये है ?... सब प्रकार का विस्तार ही जीवन है और सब प्रकार की संकीर्णता मृत्यु है| जहाँ प्रेम है, वहीं विस्तार है और जहाँ स्वार्थ है, वहीं संकोच| अतः प्रेम ही जीवन का एक मात्र विधान है| जो प्रेम करता है, जो दूसरों के लिये जीता है, वही जीवित है; जो स्वार्थी है, वह मृतक से भी अधम है ! " (४:३१०) }
स्वामीजी यह उपदेश पढ़ कर, कंटस्थ करके लेक्चर देने की चीज नहीं है| यही सबसे बड़ी सच्चाई है ! प्रबन्ध लिखने के लिये अच्छा विषय ही नहीं है, इसी एक पंक्ति के ऊपर पुस्तक पर पुस्तक निकल रहे हैं, रिसर्च पेपर (शोध-पत्र)  के ऊपर रिसर्च पेपर निकल रहे हैं|इन सब से कुछ नहीं होगा| 
ह्रदय में वह विद्या बैठ गयी, य़ा नहीं - जीवन में कार्यों में दैनिक दिनचर्या में, बातचीत करते समय, दूसरों के साथ परस्पर व्यवहार करते समय, अपने आचरण में वह " विद्या " (जो विनय देती है ! ' विद्या ददाति विनयम ') दृष्टिगोचर भी हो रही है य़ा नहीं ? यदि व्यवहार करते समय यह विद्या - 
माँ का अत्यन्त सरल और मधुर ग्राम्य भाषा में दिया वेदान्त का सार उपदेश- " कोई पराया नहीं, बेटी, संसार तुम्हारा है| " हमलोगों के व्यवहार से नहीं झलके तो, वैसे तोता-रटन्त विद्या का कोई फल न होगा! सारी शिक्षा व्यर्थ हो जाएगी | [৩৪]



          
 
     

कोई टिप्पणी नहीं: