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Monday, May 17, 2010

विवेक-प्रयोग के साथ कर्म करना ही कर्मयोग है ![23]

कर्मयोग का रहस्य 
हममें से प्रत्येक के भीतर ' महान ' बनने की सम्भावना अन्तर्निहित है, हम कितने महान हो सकते हैं-इसकी कोई सीमा नहीं है ! किन्तु हमलोग अपने थोड़े से विकास से ही संतुष्ट हो जाते हैं| थोड़ा पढना-लिखना सीख लिया, कोई नौकरी प्राप्त हो गयी, शादी-विवाह करके थोड़ा पारिवारिक सुख लिया, एक दो सन्तान हो गया, फिर जैसे तैसे जीवन कट ही जाता है| भले ही दुःख-कष्ट में जीना पड़े य़ा  पीड़ा और यंत्रणा में य़ा  हिंसा-अत्याचार-प्रताड़ना में य़ा फिर लोगों को ठग कर ही सही किसी प्रकार गुजर-बसर तो हो ही जाता है| इसी लिये बंगला में कहावत है- ' अल्प लईया थाकि ताई, जाहा पाई  ताहा चाई ना |' - हम लोग थोड़े को ही लेकर जीवन बिता देते हैं(क्षूद्र अहं को ही अपना यथार्थ स्वरूप समझते हैं.), इसी लिये जितना भी प्राप्त होता है, उसे चाहते नहीं हैं ! (उपनिषद में कहा गया है- ' न अल्पस्य सुखं भूमैव सुखम ')   
 इन्हीं में से कोई यदि (तथा कथित) विद्वान् निकल गया( जीवन की सार्थकता का अर्थ नहीं समझा) तो वह कुमार्ग में जाकर और भी भटक जाता है| इसीलिये स्वामी विवेकानन्द के कर्मयोग इत्यादि पर चर्चा करते हुए एक सन्यासी ने किसी पत्रिका में स्वामी जी द्वारा कही गयी एक कहानी का उदहारण दे कर जो समझाया था, वह अति सुन्दर कहानी बीच-बीच में याद आ जाती है- 
  किसी गाँव में गाँव के बिल्कुल एक छोर पर एक सन्यासी वास करते थे, उनकी एक कुटिया थी| और उसी ग्राम में एक डकैत भी रहता था, उस डकैत ने अनेक बार डाका डाला था, डाका डालने के क्रम में अनेकों खून भी किये थे|
जब उसकी उम्र कुछ अधिक हुई तो उस डकैत के मन में विचार आया- नहीं, यह सब कार्य - डाका डालना,किसी मनुष्य की हत्या करना आदि ठीक कार्य नहीं है, अब और ऐसा जघन्य कार्य नहीं करूँगा| फिर सोचने लगा, यह छोड़ कर रहूँगा कहाँ,कहाँ जाना ठीक होगा ? फिर उसने सोंचा, साधु लोग तो अक्सर परोपकार करने का उपदेश देते हैं, जो लोग किसी संकट में पड़ जाते हैं, उनको आश्रय देते हैं, तो क्यों नहीं साधु महाराज कहा जाय ?
वे साधु के पास जा कर बोले- " मैं इस प्रकार का एक भयंकर डकैत हूँ, अनेकों मनुष्यों की हत्या कर चुका हूँ, कई डाके डाले हैं, किन्तु मुझे अब यह सब अच्छा नहीं लगता है| मैं यहाँ आपके आश्रय में रहना चाहता हूँ, मुझे यहाँ रहने देंगे? " साधु बोले- " ठीक है, रह जाओ |" कुछ दिन उनके सत्संग में रहने के बाद, उस डकैत ने पुनः कहा- " मैंने तो अनेकों पाप किये हैं थोड़ा पुण्य संचय करने के लिये तीर्थाटन- स्नान आदि करने की इच्छा हो रही है|"
साधु बोले- " अच्छा यह बताओ कि स्नान आदि करने से तुम्हारे पाप मिट गये हैं य़ा नहीं - इस बात को तुम समझोगे कैसे ? " उसने सोंचा- ' बिल्कुल ठीक बात है, सचमुच मैं कैसे जान पाउँगा कि मेरे पाप गये हैं य़ा नहीं? साधु बोले- " तुम एक काम करो, थोड़ा सफ़ेद कपड़े का एक टुकड़ा ले आओ |" वह डकैत आधा गज सफ़ेद कपड़ा का टुकड़ा ले आया| साधु बोले- ' वहाँ पर दावात रखा है, तुम उसकी थोड़ी स्याही इस सफ़ेद कपड़े पर डाल दो|"
वह डाल दिया| फिर साधु बोले - " इस कपड़े को तुम अपनी मोटरी में रख लो| जब किसी तीर्थ स्थान में जाकर स्नान करोगे तो, स्नान करने के बाद बाहर निकलते ही इस कपड़े को मोटरी से बाहर निकाल कर देख लोगे- यदि देखो कि कपड़ा तो काला ही है, तो समझ लेना कि तुम्हारा पाप अभी मिटा नहीं है, और जब पाप मिट जायेगा तो देखोगे कि कपड़ा फिर से सादा हो गया है! " 
अब वह जगह विभिन्न तीर्थ स्थानों का दर्शन करने के बाद जहाँ-जहाँ स्नान करता प्रत्येक बार उस कपड़े को बाहर निकाल कर देख लेता, पर उसका कालापन मिटता नहीं था- जैसा था वैसा ही बना रहता| बहुत उदास मन से वापस लौट रहा था|
वापस लौटते समय रास्ते में एक घना जंगल भी पार करना पड़ता था | जब वह उसी घने जंगल से गुजर रहा था, तो उसे किसी स्त्री की आर्तनाद- ' बचाओ-बचाओ ' की पुकार सुनाई दी | वह उसी आवाज का अनुसरण करता हुआ जब घटना स्थल पर पहुँचा, तो देखा कि एक नव-विवाहिता स्त्री को पकड़ कर, रस्सी के द्वारा कुछ डकैत लोग उसे एक पेंड़ से बांध दिया है, और उसका सब गहना-गुड़िया लूट रहा है| 
तीर्थाटन करके वापस लौटते हुए डकैत के मन में हठात बोध जागा- ' नहीं नहीं इस अकेली महिला को तो बचाना ही होगा! 'लूटने वाले डकैत की ही कुल्हाड़ी जमीन पर गिरी हुई थी| उसी कुल्हाड़ी को उठाकर बोला- ' जहाँ बावन वाँ वहीं तिरपन वाँ !' 
 और झट से एक डकैत के माथे पर वार कर दिया|उसका सर फट गया और रक्त-रंजित हो कर वह वहीं गिर पड़ा, उसकी हालत देख कर अन्य सब डकैत भाग गये| 
तब उस नारी का बन्धन खोल दिया, उसका समस्त गहना आदि को एकत्र करके एक पोटली में बांध कर उस लड़की के हाथ में देकर बोला- ' तुम्हारा घर किस गाँव में है, कहाँ रहती हो ?' फिर उसके बताये रास्ते तक उसे छोड़ कर, साधु के पास वापस लौट आया | 
जब साधु के पास पहुँचा तो साधु ने पूछा- " क्या समाचार है, बताओ तुम्हारे पाप -टाप मिटे य़ा नहीं ? डकैत बहुत दुखी होकर बोला- " पाप मिटना तो दूर की बात है, और एक नया खून कर के आया हूँ !" 
कैसे, क्या हुआ ? पूरा विवरण कह सुनाया- इस प्रकार इसप्रकार सब हुआ है | तब साधु महाराज बोले- ' ठीक है, तुम जरा अभी अपनी मोटरी से उस गंदे कपड़े को बाहर निकाल कर देखो तो |' जब उसने गंदे कपड़े को बाहर निकाला तो देखता है- अब वहाँ थोड़ी भी स्याही नहीं है, पूरा कपड़ा बिल्कुल सफ़ेद हो गया है! हमलोग इस मुहाबरे- ' जहाँ बावनवाँ वहीं तिरपनवाँ ' को अक्सर व्यवहार में लाते हैं | 
इस उदहारण से साधु महाराज ने कर्म-योग के मूल रहस्य को इस प्रकार समझाया- " यह खून- जो तुमने अभी अभी किया है, वहाँ वह खून करना ही तुम्हारा कर्तव्य था, एक अबला स्त्री की रक्षा करने के लिये तुमने किया है| इसके पहले तुमने जितने खून किये थे, उसके पीछे तुम्हारा उद्देश्य उनकी हत्या करके लूट-पाट करना था |और अभी जो खून किया वह किसी के कल्याण के लिये किया है! इसलिए हत्या जैसा जघन्य कर्म भी विवेक पूर्वक करने से कर्मयोग हो सकता है ! "   
यह धर्म-बोध, इस प्रकार विवेक-पूर्वक कर्म करने की क्षमता - हममे से प्रत्येक के भीतर रहना आवश्यक है! यह शिक्षा- हर समय अपने विवेक को जाग्रत रखते हुए कर्म करने की शिक्षा हमलोगों को कहाँ प्राप्त हो रही है ? 
आधुनिक साहित्य के नाम पर इन दिनों  इन्टरनेट, टीवी, सिनेमा आदि विभिन्न माध्यमों से जो सब प्रचारित किया जा रहा है, समाचार पत्रों में जैसे-जैसे चित्र और सम्वाद निकल रहे हैं इन सब को देख कर ऐसा प्रीत होता है कि, भारत की प्राचीन संस्कृति नष्ट हो चुकी है, और हमलोग यह मान चुके हैं कि अब हमलोगों यही सब आहरण करना होगा|
पर यह बात सच नहीं है, हमारी सांस्कृतिक विरासत पूरी तरह से नष्ट नहीं हुई है, अब भी जितना कुछ बचा हुआ है, आवश्यकता केवल उस ओर दृष्टि रखने की है|इसीलिये जिन के भीतर थोड़ी सी भी सदबुद्धि है, जिनको थोड़ा भी समाज और देश के कल्याण की चिन्ता है, उनको चाहिये कि अपने इसी प्राचीन धरोहर से इस प्रकार के उच्च भावों को आहरण करके उनलोगों के समक्ष रख दें जो अभी तरुण अवस्था में हैं|अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो देश बचेगा कैसे?
आज सम्पूर्ण विश्व में ' वैश्वीकरण ' के नाम पर जो कुछ चल रहा है, जो सब हो रहा है,उससे वे सारे गरीब देश जो चाहे पूरब के हों य़ा युरोप के, वे सब  गरीब होते जा रहे हैं, एवं और भी होते चले जायेंगे|आज हमारे देश के गरीबों की अवस्था कैसी हो गयी है? उन गरीबों के हताश-निराश मलिन चेहरे की तरफ नजर उठा कर देखने वाला भी कोई है? कोई नहीं है| 
केवल धनि लोगों का धन और भी बढेगा , और जो निर्धन हैं वे और अधिक निर्धन होते चले जाएँ| भूखे रहने के कारण यदि उनकी मृत्यु भी हो जाये तो कोई देखने वाला नहीं है, उनकी सहायता करने के लिये कुछ भी तो नहीं है, क्यों ? इसीलिये कि हमलोगों का जो यथार्थ मनुष्यत्व है, जिसको हम हृदयवत्ता के नाम से जानते हैं, उसमे वृद्धि करने के लिये कोई हमलोग कोई प्रयास नहीं कर रहे हैं|
हमलोगों का प्रयास है तो शरीर को बढ़ाने पर, शरीर की शक्ति बढ़ाने पर (सरकारी प्राइमरी स्कूल में कुंग-फु सिखाया जा रहा है),अर्थ बढ़ाने, धन-बल बढ़ाने, हमलोगों का अहंकार बढे, हमारा ऐश्वर्य बढे, हमारी आकांक्षाओं को बढ़ाने का भरपूर प्रयास हो रहा है| यह जो पाश्चात्य भोगवाद है, वह तो आज नहीं बहुत दिन पहले (२०० साल पहले) ही भारत में आ चुका है! इसीलिये इसने(पाश्चात्य भोगवादी संस्कृति ने) हमलोगों को पूरी तरह से अपना ग्रास बना डाला है|  
[तभी तो अख़बार में फोटो छपता है -कोई गरीब बाप अपनी बेटियों को ही बैल की जगह लगाकर खेत जोत रहा है ? या एम्बुलेंस नहीं मिलने से कोई गरीब पती अपनी पत्नी की लाश को ३० कि.मी सायकिल पर ढो कर ले जा रहा है ?]       

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