भगवद गीता का संदेश | स्वामी शुद्धिदानंद
Message of Bhagavad Gita |
(Swami Shuddhidananda)
[श्रीमद स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज , अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम (मायावती) द्वारा , रामकृष्ण मिशन विवेकानंद मेमोरियल, बड़ोदरा (गुजरात) में 1 दिसंबर 2024 को दिया गया भाषण। ]
मेरे प्रिय स्वामी इष्टमयानन्द जी , और यहाँ पर उपस्थित अन्यान्य संन्यासीगण, ब्रह्मचारी गण आप सभी को मेरा प्रणाम। और मेरे समक्ष उपस्थित भगवत स्वरुप भक्तवृन्द आप सभी को मेरा प्रणाम। आजका मेरा विषय है - 'श्रीमद भगवद गीता और उसका सार।' भगवद्गीता हमारे हिन्दू सनातन धर्म का एक मुख्य ग्रन्थ हैं। आप सभी लोग जानते होंगे कि यह ग्रन्थ महाभारत के अन्तर्गत है , और इस ग्रन्थ में सन्देश देने वाले जो योगीश्वर हैं वे हैं, भगवान, श्रीकृष्ण। और श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रति ये उपदेश करते हैं। इस ग्रन्थ में 700 श्लोक हैं। वैसे तो तह ग्रन्थ बृहद है, देखने में हमें कठिन लगेगा। लेकिन भगवान कृष्ण ने अर्जुन को 700 श्लोकों में जो उपदेश दिया है; उसको हमलोग दो भागों में विभाजित कर सकते हैं। भगवतगीता हमें दो चीजें बता रही है।
जिस किसी ने भी गीता को पढ़ा हो वह, बहुत सरल भाव से यह देख सकता हैं कि भगवान श्रीकृष्ण समस्त मानवसमाज के सामने एक बहुत बड़ी सच्चाई, बहुत बड़ा सत्य रखते हैं। वो सच्चाई क्या है ? वो सच्चाई है, मनुष्य का पारमार्थिक स्वरुप। हम जो जीव हैं, मनुष्य हैं हमारा सत्य स्वरुप या पारमार्थिक स्वरुप क्या है ? यह और हम अपनी इन्द्रियों से अपने सामने जिस जगत को देख रहे हैं , इस जगत का जो पारमार्थिक स्वरुप है, वो क्या है? एक है जीव और दूसरा है जगत। इन दोनों का जो पारमार्थिक स्वरुप (आध्यात्मिक स्वरुप) है , वो क्या है ? इसी सच्चाई को भगवान कृष्ण हमारे सामने रखते हैं। ये हुआ एक पक्ष। (4:16)
अच्छा , अब पारमार्थिक स्वरुप तो हमें बता दिया कि परमार्थ दृष्टि से अगर देखो तो यह जीव क्या है ? यह बात तो भगवान कृष्ण ने हमें बता दिया। लेकिन इस पारमार्थिक सत्ता को हम प्राप्त कैसे करेंगे ? उस पारमार्थिक सत्ता को प्राप्त करने का उपाय भी भगवान श्री कृष्ण हमें बताते हैं। तो भगवत गीता को जब देखते हैं , तो पाते हैं कि इस ग्रन्थ में इन दोनों चीजों का बहुत स्पष्ट शब्दों में और विस्तार से उल्लेख हम पाते हैं। एक है कि व्यक्ति का पारमार्थिक स्वरुप क्या है ? हम जिसे जगत कहते हैं , विश्वप्रपंच कहते हैं , इसके पीछे की जो सच्चाई है -वो क्या है ? हम इस जगत को जैसा देखते हैं , क्या यह वैसा है ? या इसके पीछे कोई और एक सच्चाई है ? ये बात हमको भगवान कृष्ण हमको बताते हैं। और इसी सच्चाई को बताकर वे रुकते नहीं हैं , वे हमें यह भी बताते हैं कि हम उस परमार्थ सत्ता (आध्यात्मिक स्वरुप) को प्राप्त कैसे करेंगे ? अब इस परमार्थ सत्ता को जब प्राप्त करने के उपाय का विषय आता है , वहीँ पर एक बहुत सुंदर शब्द आपको गीता में बारम्बार देखने को मिलेगा , और वो शब्द है योग ! (5:49)
इस योग शब्द का अर्थ क्या है ? वैसे योग शब्द का मतलब जो हमारे व्यवहार में प्रचलित है , उसका व्यवहार कई अर्थों में होता है। योगासन या विभिन्न प्रकार के शरीरिक व्यायाम आदि से हम योग शब्द को जोड़ते हैं। लेकिन वास्तव में ये योग शब्द सिर्फ शारीरिक व्यायाम तक सीमित नहीं है। योग एक अत्यंत गंभीर शब्द है , जिसका मूल अर्थ भगवान शंकराचार्यजी अपने भाष्य में कहते हैं। योग क्या है ? संस्कृत में कहते हैं योग है - तत् प्राप्ति उपाय ! क्या मतलब है इसका ? उस परमार्थ सत्ता (आध्यात्मिक स्वरुप/शक्ति) को प्राप्त करने के उपाय को हम योग कहते हैं। (6:48)
मनुष्य का दो पहचान है। एक हमारे अंदर जो एक व्यावहारिक सत्ता है , एक व्यावहारिक व्यक्ति है, जिसको हम जीव कहते हैं। जो दैनंदिन जीवन में व्यवहार करता है। उठता है , बैठता है , अपने परिवार वालों के साथ रहता है। इसको हम व्यावहारिक जीव कहते हैं। लेकिन उसका जो असली स्वरुप है वह उसे अभी पता नहीं है। उसका जो असली स्वरुप है , उसका जो परमार्थक स्वरुप है , उसको हम 'आत्मा ' शब्द से इंगित करते हैं। लक्षित करते हैं। हर व्यक्ति का जो सत्य स्वरुप है , उसी को हमारे वेदांत में उपनिषदों में और भगवत गीता में उसको आत्मा शब्द से इंगित किया गया है। हम सभी मनुष्य यह देहधारी जीव नहीं हैं , हम अपने स्वरुप से अजर, अमर , नित्य , शुद्ध , बुद्ध मुक्त स्वाभाव आत्मा हैं। (8:03) इस आत्मा को प्राप्त करने का जो उपाय है , इस आत्मा को प्राप्त करने का जो साधन है , उसको योग कहते हैं। और जब योग की बात आती है। भगवत गीता में आप देखेंगे 18 अध्याय हैं, प्रत्येक अध्याय की अपनी विशेषता है, और सच्चाई से देखें तो 18 अध्याय ही एक एक योग है। इस प्रकार 18 प्रकार के योग का यहाँ वर्णन भगवान कृष्ण हमें बताते हैं।
आप सभी जानते हैं , प्रथम अध्याय की भूमिका अतिसुंदर है। वो बिल्कुल हमारे ही जीवन की कहानी है। हर व्यक्ति के जीवन की कहानी , में घटित होता है उसको गीता के प्रथम अध्याय में बताया गया है। प्रथम अध्याय में हम देखते हैं कि अर्जुन विषाद ग्रस्त हो जाता है। हम सब जीवन में कभी न कभी विषादग्रस्त (depressed) हो जाते हैं। ये जीवन की सच्चाई है। जीवन का जो प्रवाह है , ये एक जैसा नहीं होता। इसमें अगर सुख की 2 घड़ियाँ हैं , तो दुःख की 10 घड़ियाँ होती हैं। ये जीवन सुख-दुःख का मिश्रण है। इसी प्रवाह में हमलोग आज बंधे हुए हैं। और जब हम विषण्ण होते हैं, विषादग्रस्त होते हैं , तब हमें समझ में नहीं आता इससे बाहर कैसे निकलें ? अर्जुन की यही समस्या थी। जिस प्रकार आपकी समस्या है , मेरी समस्या है। हम प्रत्येक जीव की ये समस्या है। हम देखेंगे की जीवन के किसी न किसी पड़ाव पर हम विषादग्रस्त हो जाते हैं। (10 :12)
प्रथम अध्याय में इस विषाद को कैसे योग बना दिया जाये ? यह विषाद अपने आप में उस परमार्थ सत्य स्वरुप तक पहुँचने का मार्ग बन सकता है। हमारे जीवन में आने वाले दुःख की घड़ियां है , विषाद की घड़ियाँ हैं , वह अपने आप में सत्य को पहचानने का एक कारण बन सकता है। व्यक्ति जब दुखी होता है तो क्यों दुखी होता है ? बड़ा प्रश्न है। अर्जुन क्यों विषादग्रस्त हो गया था ?
अगर इस प्रश्न का उत्तर हम ढूँढ़े - तो उसका एकमात्र उत्तर है , जब हम ठीक से जानते नहीं हैं कि हम कौन हैं ? हमारा समझ जब ठीक नहीं होता , हम अपनेआप को ही ठीक ठीक जान नहीं रहे हैं। और न ही इन्द्रियों से हम जिस जगत को देख रहे हैं , उसको ही हम ठीक से समझ पा रहे हैं। जब हम ठीक दर्शन नहीं कर रहे हैं , जब हमारा दर्शन ही गलत हो , तब जाकरके हम जीवन में विषादग्रस्त हो जाते हैं। और विषाद के चपेट आ जाने के बाद उससे बाहर निकलने में हम असमर्थ हो जाते हैं। तो दो चीजें हैं एक है असम्यक दर्शन (जीवन को देखने का गलत दृष्टिकोण) और दूसरा है -सम्यक दर्शन (सही दृष्टिकोण) । (11:41)
सम्यक दर्शन का मतलब क्या है ? वेदान्त में यह शब्द बार-बार आता है। सम्यक दर्शन का मतलब है , जब हम ठीक ठीक दर्शन करना शुरू करें ! दर्शन का मतलब ये नहीं समझना कि जब हम किसी 'एक रूप' के दर्शन करें, यहाँ रूप के दर्शन करने की बात नहीं हो रही है। ठीक ठीक देखना, सच्चाई को देखना। हम जिसको विश्वप्रपंच (phenomenal world-अद्भुत जगत) कहते हैं , इसके पीछे की सच्चाई को जब हम देखते हैं , तब हम सम्यक दर्शी होते हैं। (सही दृष्टिकोण वाला व्यक्ति होते है।) अपने-आप के विषय में भी जब हमारे अंदर सम्यक दर्शन आ जाती है तो हम अपने सत्य स्वरुप से जुड़ जाते हैं। इस प्रकार सम्यक दर्शन ही है जीवन के सभी समस्याओं का समाधान । मैं दुबारा कहता हूँ , ये बहुत महत्वपूर्ण बात है। हमारे जीवन की सभी समस्याओं का समाधान एकमात्र ही है, और वो है सम्यक दर्शन !! अपने सत्य स्वरुप के विषय में असम्यक दर्शन जो है, वही हमारी सभी समस्याओं का मूल जड़ है , बीज है। (12:46)
यह सम्यक-दर्शन भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रदान करते हैं। और जब अर्जुन इस सम्यक दर्शन को प्राप्त करते हैं , तब जाकर के वह युद्ध करने के लिए प्रस्तुत होता है। ये तो आपलोग जानते ही हैं। अर्जुन जब उस कुरुक्षेत्र की रणभूमि में आया था , तब युद्ध करने के निश्चय से ही आया था। अपने समय का सबसे शक्तिशाली योद्धा था , क्षत्रिय था। लेकिन युद्धभूमि में आकर के जब उसने सामने देखा - सामने कौन खड़े हैं ? ये सब मेरे भाई हैं , चचेरे भाई है , मेरे मामा हैं , मेरे काका हैं, मेरे नाना हैं। जब हमारा दर्शन अपने रिश्तों- नातों तक ही सीमित होता है , तब इन रिश्तों- नातों के कारण हम मोह में पड़ जाते हैं , और मोहित हुआ जो कोई भी व्यक्ति है वह अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर सकता। मोहित हुआ व्यक्ति क्या करता है ? जो करना है, उसको नहीं करता। और जो नहीं करना है , उसको कर बैठता है। अर्जुन की यही दुविधा थी। उसका जो कर्तव्य था , उसको वो नहीं कर रहा था। और जो उसको नहीं करना था, वह करने जा रहा था। तब श्रीकृष्ण ने उसको सम्यक दर्शन प्रदान किये , और तब जाकर के उसका मोह दूर हुआ। और तब जाकर के अर्जुन रणभूमि में युद्ध के लिए प्रस्तुत हुआ। (14:25-सभी महाराज-ब्रह्मचारी मनोयोग पूर्वक श्रवण कर रहे हैं। )
तो देखिये गीता-ज्ञान की यह अतिसुंदर भूमिका है, कि यह विषाद (दुःख) ही अपने आप में एक योग बन सकता है। हमारे जीवन में जब दुःख आता है , जब हम मोहित हो जाते हैं , तब हमें अपनेआप से एक प्रश्न करना है - कि इस दुःख के मूल में क्या है ? मैं दुखी क्यों हूँ ? और यह दुःखी जीव कौन है ? हमारे दुःख और हमारे दुःख के मूल में जाकर के अगर हम प्रश्न करना शुरू कर दें , तो यही दुःख , यही विषाद जो है हमारे पारमार्थिक स्वरूप के साथ जुड़ने का उपाय बन जाता है , वही दुःख फिर योग बन जाता है। (15:04)
हमारे भगवतगीता का जो प्रथम अध्याय है , उसको 'अर्जुनविषाद योग' कहते हैं । हमारा दुःख स्वयं हमारे पारमार्थिक स्वरुप के साथ जुड़ने का माध्यम बन जाता है। तो देखिये यहाँ हमारे दैनंदिन जीवन में - हम सभी दुःख को अनुभव करते हैं। लेकिन जैसे ही दुःख आता है , हमें उस दुःख के चपेट में दबे हुए रहने की जरूरत नहीं है। उस वक्त विवेक का उदय होना चाहिए। और विवेक का उदय हो जाने पर हमें यह प्रश्न करना चाहिए -कि इस दुःख का मूल कारण क्या है ? हम क्यों दुखी हैं ? और ये दुखी व्यक्ति वास्तविक रूप में कौन है ?
प्रश्न यह उठेगा कि मैं कौन हूँ ? मेरा असली सत्य स्वरुप क्या है ? यह प्रश्न है। और इस प्रश्न का उत्तर हमें जिस दिन मिलेगा, आप इस सुख-दुःख की चपेट से ऊपर उठ जाओगे। गीता के इस 18 अध्याय में यही बात भगवान श्रीकृष्ण बार- बार पूरे मानवसमाज के सामने रखते हैं। यह एक ऐसा अजर-अमर विद्या है , जिसको हमलोग अध्यात्मविद्या कहते हैं, आत्मविद्या कहते हैं। यह आत्मविद्या (आत्मज्ञान) ही है समस्त मानवजाति के समस्यायों का एकमात्र समाधान। (16:30)
तो संक्षेप में, मैंने क्या कहा ? इस भगवत गीता में दो चीजें हैं। एक हमारा जो सत्य स्वरुप है उसका प्रस्तुतिकरण। और दूसरा उस सत्य स्वरुप को , अपने पारमार्थिक स्वरुप को प्राप्त कैसे करें, उसका उपाय, -जिसको हमलोग योग कहते हैं।
इसलिए देखिए हमने प्रथम अध्याय को अर्जुन विषाद योग नाम दे दिया। जिसमें हम विषाद को ही अपने सत्य स्वरुप से जोड़ने का हम मार्ग बना देते हैं। इस प्रकार भगवतगीता के 18 अध्याय का प्रत्येक अध्याय एक योग है।( हमारे पास समय तो ज्यादा नहीं है , बस 20 -25 मिनट बचे हैं 7.30 तो हो ही गया। ठीक है -8.15 तक) तो देखिये ये जो 18 अध्यायों में 18 प्रकार के योग का जो विवरण दिया गया है। हमलोग इसको और भी simplify कर सकते हैं , इसको सरल बना सकते हैं।
अगर हम इन सभी योगों का आगे और भी विश्लेषण करें, तो हम देखेंगे कि इन सभी योगों को चार वर्गों /गुटों में हम बाँट सकते हैं। इसे सरल भाषा में कहें तो एक है -कर्मयोग, दूसरा है ज्ञानयोग , तीसरा है भक्तियोग , चौथा है ध्यानयोग। गीता के 18 अध्यायों में 18 प्रकार के जो ईश्वर से जुड़ने के पथ बताये गए हैं। ईश्वर से जुड़ने का पथ, अर्थात आत्मा से जुड़ने का पथ। जिसे हम आत्मा कहते हैं - ये आत्मा (ह्रदय में बैठा) ही तो ईश्वर है। ईश्वर कोई आपसे भिन्न नहीं है ! (18:12)
हमें एक बात याद रखना चाहिए। उपनिषदों का मूल सिद्धान्त क्या है ? सृष्टिकर्ता और सृष्ट जीव, ये दोनों अलग-अलग हैं क्या ? मैं दुबारा कहता हूँ। सृष्टिकर्ता- इस सृष्टि को बनाने वाला , इस सृष्टि के पीछे एक सृष्टिकर्ता है ! हम सभी इसको मानके ही चलते हैं। है कि नहीं ? अब प्रश्न ये है कि ये सृष्टिकर्ता जो है, और जो सृष्ट हुआ है। तो कौन सृष्ट हुआ है ? जीव सृष्ट हुआ है। तो ये सृष्ट जीव और सृष्टिकर्ता, ये दोनों अलग हैं क्या ? ये भिन्न हैं क्या ? जिस दिन मनुष्य , जीव अपने सृष्टिकर्ता के साथ जो अभिन्न सम्बन्ध है , जिस दिन वह उसको अनुभव करेगा , वो सारी समस्याओं से मुक्त हो जायेगा। (19:04)
इसी बात को भगवान श्रीकृष्ण भगवतगीता में तरह -तरह से हमारे सामने रखते हैं। हमें यह जान लेना चाहिए कि सृष्ट जीव जो है , अपने वास्तविक स्वरुप से अगर देखो तो भिन्न नहीं है, अभिन्न है। अद्वैत है। आज हमें लगता होगा कि मैं अलग हूँ , भगवान , ईश्वर (-आत्मा?) अलग है। हम ईश्वर (आत्मा) को किसी मंदिर में खोजते हैं। यहाँ-वहाँ खोजते हैं। आप जिसको ढूँढ रहे हो , वो आपके हृदय में पहले से ही बैठा हुआ है। श्रीकृष्ण हमारा ध्यान वहाँ पर केन्द्रित करने के लिए कहते हैं कि तुम जिस ईश्वर को ढूँढ रहे हो , वो तुम्हारे ह्रदय में पहले से ही बैठा हुआ है। उसके साथ सम्बन्ध बनाना। ईश्वर-सम्बन्ध बना लेना यही भगवतगीता का मुख्य सन्देश है। (20:00)
ये ईश्वर सम्बन्ध बनता कैसे है ? ईश्वर के साथ सम्बन्ध बनाने का जो मार्ग है, उसी को 'योग' कहते हैं ! योग क्या है ? भगवान शंकराचार्यजी का जो शब्द है , अति सुंदर है -'तत् प्राप्ति उपाय! तो ईश्वर सम्बन्ध बनाने के चार रास्ते हैं। एक भक्तिमार्ग है , जो सभी लोग जानते हैं। अभी थोड़ीदेर पहले जो यहाँ पर भजन हुआ। इस भजन के द्वारा क्या हुआ ? आप बताइये मुझे। थोड़ी देर के लिए उस भजन और संगीत के माध्यम से आप हृदय में विद्यमान ईश्वर (आत्मा) के साथ आप सम्बन्ध बना रहे थे। तो इसी भक्ति मार्ग की तरह ही ईश्वर से जुड़ने का एक और मार्ग है , ज्ञान मार्ग। अतिसुंदर। ज्ञानमार्ग तो सीधे अपने लक्ष्य की ओर जाता है। जिसके अंदर योग्यता हो , वो उसका अभ्यास करे।
ज्ञान मार्ग में हमें बताया जाता है कि आप सभी लोग वही दिव्य आत्मा हो। थोड़ा सा विवेक करके देखिये, और उसके साथ वैराग्य (अनासक्ति) का अनुशीलन भी हो आपके जीवन में , तो आप अपने सत्य स्वरुप को अभी इसी वक्त आप उसको अनुभव कर पायेंगे, हृदय में ही आत्मा या ईश्वर की उपस्थिति को आप पहचान पायेंगे। ईश्वर (आत्मा) आपसे ज्यादा दूर नहीं है। ईश्वर हृदय में ही जब पहले से बैठा है , तब दूरी की बात करना ही गलत है। जब हम दूरी की बात करते हैं , तो हम एक distance बना देते हैं। जैसे की दो चीजें भिन्न हों। दो चीजें अगर भिन्न हों तो उसके बीच में दूरी हो जाती है। लेकिन दूरी कहाँ है ? ये दूरी सिर्फ अविद्या सृष्ट है , अज्ञान सृष्ट है। अज्ञान की दशा में हमको लगता है कि ईश्वर मुझसे भिन्न है , और मैं उससे अलग हूँ। (21:43)
जब विवेक और वैराग्य (अनासक्ति) का अनुशीलन होगा, तब ज्ञानमार्ग के द्वारा हम देखेंगे की जीव जो है, अपने सत्यस्वरूप के साथ अपने-आप को अभिन्न पहचानेगा , अभिन्न जानेगा। अनुभव करेगा , उसको साफ-साफ दिखाई देने लगेगा , और उसका जीवन आमूल परिवर्तित हो जायेगा। वो सारे दुःख -कष्ट से ऊपर उठ जाता है। ऐसा व्यक्ति भले अब जीवन में कुछ भी हो जाये , उसको कोई भी घटना अब टस से मस हिला नहीं सकता। श्रीकृष्ण गीता 6/22 में कहते हैं - यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।6.22।।
यम् लब्ध्वा च अपरम् लाभम् मन्यते न अधिकम् ततः।
यस्मिन् स्थितः न दुःखेन, गुरुणा अपि विचाल्यते।।
ये (आत्म -साक्षात्कार) ऐसी विद्या है, ये ऐसी प्राप्ति है , जिसको प्राप्त करने के उपरान्त इससे बढ़कर और कोई प्राप्ति नहीं है। (योगी बड़े भारी दुःख से भी विचलित नहीं होता।) मनुष्य जीवन का एकमात्र लक्ष्य है , अपने सत्यस्वरूप को पहचानना। अगर हम वह नहीं कर रहे हैं , तो हम एक बहुत बड़ा अवसर हम खो रहे हैं। ये हम जान लें।
भगवान शंकराचार्य जी उनके अद्भुत ग्रंथ विवेकचूड़ामणि के शुरुआत में ही कहते हैं। मनुष्यजीवन किस काम के लिए है ? और मनुष्य जीवन की दुर्लभता क्या है ? इस दुर्लभ मनुष्य जीवन का एकमात्र परम उद्देश्य है। गौण उद्देश्य कई भी हो सकते हैं। (23:13) दो प्रकार के लक्ष्य हैं , हमारे जीवन में। एक है परम लक्ष्य , द्वितीय है गौण लक्ष्य। गौण लक्ष्य कई हो सकते हैं , होना भी चाहिए। हम डॉक्टर बनना चाहते हैं , इंजीनियर बनना चाहते हैं। यह बनना चाहते हैं, वह बनना चाहते हैं , ये सब गौण लक्ष्य हैं - और ये होना चाहिए। और इन लक्ष्यों की प्राप्ति होनी भी चाहिए।
लेकिन परम लक्ष्य जो है , वो सबोंके लिए एक ही है , और वो परम लक्ष्य है हमारे (ह्रदय) सत्यस्वरूप को पहचानना। इस मनुष्य शरीर में जीवित रहकर के अगर हमने हमारे सत्य स्वरुप को पहचानने का प्रयास अगर नहीं किया, तो इससे बढ़कर दुर्भाग्य की बात और कुछ नहीं हो सकती। यही बात भगवान शंकराचार्यजी अपने ग्रंथों में पुनः पुनः कहते हैं। लेकिन यह केवल भगवान शंकराचार्यजी की ही बात नहीं है। सभी सन्त महात्माओं की एक ही वाणी है। भगवान श्री रामकृष्ण बंगला भाषा बहुत सुंदर ढंग से कहते हैं -मनुष्य जीवनेर एकमात्र उद्देश्य ईश्वरलाभ ! उसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार होगा, कि "मनुष्य जीवन का सिर्फ एक ही उद्देश्य है, वो है ईश्वर लाभ। " अब ईश्वरलाभ शब्द से हम बहुत कुछ अनुमान लगाना शुरू कर देते हैं। ईश्वरलाभ का मतलब और कुछ नहीं - हमारे सत्यस्वरूप (आत्मा) को पहचानना! वही लाभ है, और कुछ नहीं ! (24:34)
तो इस प्रकार से हम देखते हैं भक्तिमार्ग है , ज्ञानमार्ग है। फिर ध्यानमार्ग है। अतिसुंदर ध्यान के माध्यम से भी हम उस हमारे सत्य स्वरुप तक पहुँच सकते हैं। उसीका विस्तार से प्रस्तुति कारण छठवें अध्याय में आता है। जिसको हमलोग ध्यानयोग कहते हैं। उसको आत्मसंयम योग भी कहते हैं। देखिये 'ध्यान' हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग होना चाहिए। हमारी दिनचर्या की शुरुआत ध्यान से होनी चाहिए। और दिन की समाप्ति पर निद्रा से पहले उसकी समाप्ति भी ध्यान से ही होनी चाहिए। हमने अगर ईश्वर (आत्मा) से सम्बन्ध नहीं बनाया तो उसका दुष्परिणाम भी हमहीं को भोगना पड़ता है। अब अंतिम जो मार्ग है, वो है कर्मयोग। अब थोड़ा सा समय जो बचा हुआ है , उसमें चारों योगों के संबन्ध में मैं विस्तार से तो बता नहीं पाउँगा। लेकिन कर्मयोग पर थोड़ी चर्चा जरुरी है। क्योंकि कर्म तो हमें करना पड़ता है। कोई भी व्यक्ति एक क्षण के लिए भी कर्म विहीन नहीं रहता। नहीं रह सकता। प्रकृति का नियम है। (26:00) भगवान कृष्ण गीता 3 /5 में कहते हैं -
नहि कश्चित् क्षणम् अपि जातु तिष्ठति अकर्मकृत्।
कार्यते हि अवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैः गुणैः।।
एक क्षण के लिए भी कोई भी जीव, सिर्फ मनुष्य नहीं , कोई भी जीव एक क्षण के लिए भी चुप नहीं बैठ सकता। प्रकृति है , ये देखिये हाथ चल रहे हैं , साँसे चल रही हैं। कौन व्यक्ति है जो यहाँ पर चुप बैठ सकता है ? कोई चुप नहीं बैठ सकता। प्रकृति अपना काम कर रही है। कर्म को तो हमें करना ही पड़ेगा। लेकिन यदि हमारे क्रियाओं का आधार यदि गलत हो , तो वैसा कर्म हमारे लिए बंधन का कारण बन जाता है। (26:53)
और उसी कर्म का मूल आधार अगर सही हो , तो यही कर्म हमें मुक्ति के द्वार तक ले जाता है। तो कर्म एक दोधारी तलवार के समान है। जिसका धार दोनों तरफ है। कर्म हमें बाँध भी सकती है, और यही कर्म हमें मुक्त भी कर सकती है, यही कर्म हमें संसार के दुःख से ऊपर भी उठा सकती है। तो कर्म का एक विज्ञान है। कर्म करने की यह विद्या है , इस विद्या को अगर हम सीख लें, तभी आप जीवन को कर्म के माध्यम से अतिसुंदर बना सकोगे। और उसी विद्या को भगवान श्रीकृष्ण यहाँ पर कर्मयोग नाम से प्रस्तुत करते हैं। तो योग क्या है ? योग हमारे सत्य स्वरुप या परमार्थ स्वरुप को प्राप्त करने का उपाय है। और कर्म अपने आप में एक उपाय बन सकता है। (27:55)
और जैसा मैंने पहले कहा , हमारे दो पहचान हैं। एक है व्यावहारिक पहचान जिसको हमलोग व्यावहारिक जीव कहते हैं। और एक है हमारा जो असली पहचान है , वो है कि हम अजर अमर अविनाशी आत्मा हैं। लेकिन शरीर के साथ जुड़ा हुआ हमारा जो पहचान है, यह सिर्फ तात्कालिक (temporary-अनित्य) है। मैं दोबारा कहता हूँ , हमारा जो इस शरीर, मन और बुद्धि के साथ जुड़ा हुआ हमारा जो पहचान है , हमारी जो Identity है। अंग्रेजी में जिसको कहें तो - This is our Fictional Identity' अवास्तविक या काल्पनिक मैं (This 'I' meaning associated with this body, mind and the intellect. ) इसको हम मान के ही चल रहे हैं कि यही हमारा सत्य स्वरूप है।
ये सबसे बड़ी गलती है। जब तक आप यह प्रश्न नहीं करोगे , क्या मैं बस इस शरीर में ही सीमित हूँ क्या ? जिस दिन आपका स्वयं से यह प्रश्न पूछना शुरू होगा, आपका जो परमार्थ सत्ता को प्राप्त करने की जो यात्रा है , वो शुरू हो जाएगी। जिस दिन हम यह प्रश्न करना शुरू कर देंगे कि क्या हमारी अपनी पहचान इस हड्डी-मांस से बने स्थूल शरीर तक ही सीमित है ? उस दिन से आपके अपने सत्य स्वरुप तक पहुँचने की यात्रा शुरू हो जाएगी। जितनी जल्दी ये यात्रा शुरू हो जाये, उतना ही हमारा जीवन धन्य हो जाता है।
तो जैसा मैंने कहा - हमारे दो पहचान हैं। We have two identities , one is the fictional identity, and other is our real Identity ! हमारी दो पहचान हैं, एक तात्कालिक पहचान और दूसरी हमारी असली पहचान है। स्वामी विवेकानन्द अपने ज्ञानयोग के भाषण में इसके लिए दो शब्द use करते हैं - 'The Real man and the Apparent man '
शंकराचार्य जी उसको कहेंगे -एक है व्यावहारिक जीव और एक है पारमार्थिक सत्य। जो हमारा पारमार्थिक सत्यस्वरूप है , वही वास्तविक मनुष्य है। हम सब वही हैं , आज हम जान नहीं पा रहे हैं, ये अलग बात है। लेकिन यह हम अभी क्यों नहीं जान पा रहे हैं ? यही प्रश्न है ? और अगर जानने का प्रयास हम शुरू कर दें , तो देखोगे कि एक अतिसुंदर हमारे सामने एक नए दृश्य का उद्घाटन होता है। खुल जाता है।
तो इस प्रकार हमारी ये दो पहचान है , एक है व्यावहारिक पहचान , और दूसरा है पारमार्थिक पहचान। अब हमारी जो भी गतिविधियां , क्रियाकलाप अपने तात्कालिक पहचान (fictional identity) में आधारित होगी। कर्मयोग का ये रहस्य है -ध्यान से सुन लीजिये , जो भगवान कृष्ण हमें उनके भगवतगीता में अतिसुंदर शब्दों में हमारे सामने रखते हैं। जो भी क्रिया कलाप इस fictional identity' व्यावहारिक पहचान से निकल रही हैं , इस व्यावहारिक जीव के माध्यम से होने वाले जितने भी क्रियाकलाप हैं , इस व्यावहारिक जीव को ही आधार बनाकर जो क्रियायें हो रही हैं, उसी को हमलोग कर्म कहते हैं। दोबारा कहता हूँ , जब कोई कर्म हम इस व्यावहारिक जीव के प्रति सत्यत्व बुद्धि रखते हुए करते हैं -अर्थात मैं यह व्यावहारिक जीव हूँ और मैं कर्ता हूँ ! यह बोध।
हम सभी लोग एक शब्द use करते हैं , 'अहम कर्ता !' मैंने ये किया। मैंने वो किया। मैं ये कर रहा हूँ , मैं वो कर रहा हूँ। मैं यह नहीं करूँगा , मैं कल वो करने वाला हूँ। ये सब करने की बात जो मैं के आधार से उत्पन्न होता है , जिसमें मैं का अर्थ गलत लगा दिया गया है - इस तात्कालिक मैं से होने वाली सभी क्रियायें हमें बाँध देती हैं। अपने देह-मन की पहचान को ही सत्य मानकर किया हुआ कर्म हमें बांध देती हैं। बन्धन का कारण बनता है। इसको कर्म करते हैं। हम सभी लोग जीवन में कर्म कर रहे हैं , कोई भी कर्मयोग नहीं कर रहा हैं।
हम सुबह से लेके रात तक कर्म शुरू हो जाता है। मैं ये करूँगा , मैं वो करूँगा। "अहम् कर्ता।" मैं कर्ता। इसलिए ये शब्द अहंकार क्या है ? अहं कर्ता भाव है। मैं कर्ता। मैं का मतलब क्या है ? मैं माने -ये शरीर जो मांस और हड्डी से बना हुआ शरीर है। इस शरीर से जुड़ा हुआ ये जो व्यक्ति है , मैं कर्ता हूँ !
अब प्रश्न यह है कि क्या यह स्थूल शरीर कुछ कर सकता है ? क्या ये जो मांस और हड्डी से बना हुआ ढाँचा है , ये क्या आप कुछ कर रहे हो ? इसके अंदर जो पाचनक्रिया हो रही है , उसको क्या आप जानबूझ के कर रहे हो ? आप जो साँसे ले रहे हो , क्या आप के हाथ में उसका नियंत्रण है ? इस शरीर के अंदर जो भी गतिविधियाँ हो रही हैं , उसमें हमारा कुछ नियंत्रण है ? लेकिन हम कहते तो हैं - मैं ही कर्ता हूँ !
तो ये जो मैं कर्ता भाव है , इसमें से उत्पन्न सारी क्रियायें हमें बाँध देती हैं। ऐसा कर्म हमें बाँध देता है। अब इसके ठीक विपरीत कर्म करने की एक दूसरी विधि है , एक विज्ञान है , जिसको हमलोग कर्मयोग कहते हैं। (34:18) अब क्रियायें तो होंगी , यहाँ कोई भी चुप तो नहीं बैठ सकता। लेकिन इन क्रियाओं को हमें एक दूसरी दिशा प्रदान करनी है , वही भगवान कृष्ण भगवद गीता में हमें बताते हैं।
जिस प्रकार सारी क्रियायों का आधार यह व्यावहारिक जीव हो सकता है , उसको निकाल करके ; सारी क्रियाओं का आधार अगर हम प्रभु परमेश्वर , ईश्वर (आत्मा) को बना देते हैं ,जब हम ये जनकरके कर्म कर रहे हैं कि यह सब ईश्वर ही कर रहे हैं , ईश्वर ही पूरे विश्वप्रपंच को चलाने वाले हैं। सभी के मूल में वही हैं। सबके अंदर जो क्रिया करने की शक्ति है , वहीँ से (ईश्वर या आत्मा से ) आ रही है। इसमें हमारा कुछ नहीं है , मैं जो भी कर रहा हूँ , मैं उसीको समर्पित करते हुए कर रहा हूँ , तो वही क्रियायें जो हैं कर्मयोग बन जाता है।
यह कर्मयोग आपको बंधन से मुक्त करा देगी। ये कर्मयोग आपको अपने सत्यस्वरूप (आत्मा) के साथ जोड़ देगी। इस प्रकार की क्रिया को योग कहते हैं। इसीलिए जीवन में हमें कर्म नहीं करना है , कर्मयोग करना है। जब हम अहंकार आधारित कर्म सिर्फ कर्म करते हैं , तो याद रख लीजिये उसका जो फल है हमें भोगना ही पड़ता है , उससे आपको मुक्ति नहीं है। अच्छा कर्म करते हैं , तो अच्छा फल मिलता है। बुरा कर्म करते हैं , तो बुरा फल मिलता है। 'पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेन।' ये सिद्धान्त है। जब हम पुण्य कर्म कर रहे हैं , अहंकार से कर रहे हैं। तो अच्छा फल मिलता है। अहंकार से ही किया हुआ जो बुरा कर्म है , उसका बुरा फल निश्चित है। उससे आप बच नहीं सकते हो। आप समाज के कोर्ट के विधि से बच जाओगे , लेकिन कर्म के फल से आप बच नहीं सकते हो। अगर मैंने कोई बुरा कर्म किया है , तो वो तो मेरे पास आएगा ही। उससे कोई छटकारा नहीं हो सकता। यह सिद्धांत है।
तो कर्म कैसे करें ? दो प्रकार हैं - एक तो हम सबकुछ ईश्वर को समर्पित करते हुए कर्म करें। यह जानें कि इस पूरी सृष्टि के मूल में एक सृष्टिकर्ता ईश्वर है जो मेरा ही सत्य स्वरुप है। उसी को सबकुछ समर्पित करते हुए - ईश्वर समर्पण बुद्ध्या कृतं कर्म ! शंकराचार्य जी ऐसा कहते हैं। ईश्वर समर्पित बुद्धि क्या है ? हमारे जो इष्टदेव -भगवान श्रीरामकृष्ण हैं , हम जो भी कर रहे हैं - सब श्री रामकृष्णार्पणं अस्तु। के भाव में करते हैं। जो भी हमलोग श्रीरामकृष्णार्पणं अस्तु का भाव रखते हुए करते हैं , मतलब ईश्वर (आत्मा) अर्पण बुद्धि और कुछ नहीं। श्रीरामकृष्ण क्या हैं -उसी ईश्वर (आत्मा) का एक नाम और रूप है। उसी ईश्वर को आप किसी भी रूप से देख सकते हैं। हमलोग यहाँ श्रीरामकृष्ण के रूप में देखते हैं। जो शिव के भक्त होंगे वे उसी ईश्वर को शिव के रूप में दखेंगे। जो कृष्ण के भक्त होंगे , वे उसी ईश्वर को कृष्ण के रूप में देखेंगे। वे कहेंगे -कृष्णार्पणं अस्तु। इस प्रकार ईश्वरार्पणं बुद्धि से हम जब कर्म करते हैं , तो हमारी सारी क्रियाएं हमारी मुक्ति साधन बन जाता है। हमारे सारे दुखों से छुटकारा पाने का यह मार्ग बन जाता है। तो ये एक तरीका है। (37:43)
दूसरा तरीका गीता में ज्ञानयोग वाली प्रक्रिया है। ये थोड़ा कठिन है। ईश्वरार्पणं बुद्धि से कर्म करना ये सहज है। लेकिन ज्ञानयोग वाला कठिन और सहज ये व्यक्ति पर निर्भर करता है। हम ऐसा नहीं कह सकते कि यह कठिन है , बहुत लोगों को यह सहज लगता है। तो जिसको जो सहज लगता है वो उस मार्ग का अनुशीलन करें। ज्ञानयोग की दृष्टि से देखो तो इसमें हमको भगवान कृष्ण हमें यह बताते हैं कि - नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्। पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्।।5.8।। प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।5.9।।
न एव किञ्चित्- करोमि इति युक्तः मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यन्- श्रृण्वन्- स्पृशन्- जिघ्रन्, अश्नन्, गच्छन् , स्वपन्, श्वसन्।।
प्रलपन् विसृजन्- गृह्णन्- उन्मिषन्- निमिषन्- अपि।
इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते इति धारयन्।
मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूँ, मैं इन सारे गतिविधियों का द्रष्टा - आत्मा हूँ। 'I am the witness', and this is the true position of the man ! हमारा जो सत्यस्वरूप है - हम सिर्फ द्रष्टा मात्र ही हैं। सच्चाई में हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं। आपने कभी भी कुछ किया ही नहीं। आप बड़े हँसेंगे , ये कैसे सम्भव है ? मैं तो दिनरात करता ही रहता हूँ। लेकिन सच्चाई ये है कि हमारा जो सत्यस्वरूप है , वहाँ (आत्मा) से अगर हमलोग देखें तो हमलोगों ने कभी कुछ किया ही नहीं। आप कुछ कर सकते ही नहीं हो।
तो ये क्या चल रहा है ? यही तो एक महा अद्भुत अनिर्वचनीय खेल यहाँ पर चल रहा है। भगवान शंकराचार्यजी के भाष्य में ये बड़ा अद्भुत है। कुछ न करते हुए भी हमारे अंदर जो ये कर्ता भाव है , यही एक अद्भुत चीज है। सच्चाई यह है कि अगर आप इस पोज़िशन को लें , मैं कुछ नहीं करता हूँ , मैं सिर्फ द्रष्टा मात्र ही हूँ।
शरीर जो है , मन जो है - आप इसका द्रष्टा बन सकते हो। आप मन का द्रष्टा बन सकते हो। थोड़ी देर के लिए आप अपने मन को देखने का अभ्यास कीजिये। आपको दिखाई देगा कि आप मन नहीं हो। आप मन के द्रष्टा हो। You are the witness of the mind , you are the witness of the intellect, you are the witness of the ego itself . आप मन के साक्षी हैं, आप बुद्धि के साक्षी हैं, आप स्वयं अहंकार के साक्षी हैं। This is a great practice. according to great principles of vedanta . यह वेदांत और महान सिद्धांतों के अनुसार एक बहुत अच्छा अभ्यास है। वेदांत का जो मूल सिद्धान्त है , उसके अनुसार अगर हम देखें तो हम सब स्वरुप से अकर्ता हैं, (केवल साक्षी हैं) । इस प्रकार से अगर आप आत्मा को हमारे क्रियाओं का आधार बना देते हैं , तब भी वह कर्मयोग हो जाता है। (40:21)
इसलिए कर्म की जो दो प्रकार की दिशा है , उसको हम मोड़ दे सकते हैं। एक है भक्ति के द्वारा। जब हम कहते हैं कि ईश्वरार्पणबुद्धि से आप कर कीजिये। ये बहुतों के लिए सहज है। और वही हमें करना भी चाहिए। और दूसरा कर्मयोग का तरीका है , इस प्रकार के पोज़िशन को लें -कि मैं कुछ भी नहीं करता ! मैं सिर्फ द्रष्टा मात्र हूँ। अब इसमें से दो चीजें हमें समझ लेनी चाहिए।
कहने के लिए तो मैंने कह दिया कि मैं कुछ नहीं करता। लेकिन जो भी हमारे शरीर को मैं मानकर , यहाँ से निकले हुए कर्मों का मुझे ठीक से फल नहीं मिलेगा तो मुझे गुस्सा आ जाता है। मैंने कोई भला समझकर काम किया , लेकिन मैंने जैसा चाहा , वैसा फल यदि मुझे नहीं मिला , तो मुझे गुस्सा आ गया। या मेरे किये हुए का कुछ अच्छा फल मिला (सारा बिजनेस मैंने किया और बहुत अच्छा चला) तो मैं उस फल से (अपने नाम-यश) से चिपक जाता हूँ। आसक्त हो जाता हूँ। ये दोनों भी परस्पर विरोधी हैं। अगर आप कहते हो कि मैंने कुछ नहीं किया, तब आपको फल की चिंता भी नहीं होगी। ये निष्काम कर्म का मापदण्ड है। अगर आप यह कहते हो कि मैं अकर्ता आत्मा हूँ , और यह सब प्रकृति ही कर रही है। अगर आप इस पोज़िशन को ले रहे हो। तब फिर आपको फल की चिंता नहीं होगी।
अच्छा फल हो बुरा फल हो , दोनों में आप सम रहोगे। आपका मन एक समत्व भूमि में प्रतिष्ठित हो जायेगा। ये उसका लक्षण है। अब ईश्वरार्पणं बुद्धि से कर्म करने में भी यही होता है। अपने जब अपने सारे कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर दिया, तो फिर आपको उस कर्म के फल के ऊपर कोई अधिकार नहीं है। उसके बाद आप ये नहीं कह सकते हो कि मुझे इस प्रकार का ही फल चाहिए। मुझे अच्छा ही फल चाहिए , मुझे बुरा फल नहीं चाहिए। और अच्छा फल मिलता है तो उसके प्रति आपकी आसक्ति हो , यह सम्भव नहीं है। जिसने ठीक ठीक ईश्वरार्पणं बुद्धि से कर्म किया , हो तो ये उसका लक्षण है।
तो ईश्वरार्पणं बुद्धि से किया हुआ कर्म हो या आत्मदृष्टि से किया हुआ कर्म हो दोनों का जो प्रतिफलन होगा , वो इस प्रकार होगा कि आपका जो मन है -वह निरंतर , सबसमय एक समत्व भूमि में रहेगा। जीवन में अच्छा हो या बुरा हो , दोनों परिस्थितियों में आप समदृष्टि में प्रतिष्ठित होंगे। आप अटल रहोगे। आप अविचलित रहोगे , आप अनासक्त रहोगे। यह उसका लक्षण है। इस प्रकार जब आप कर्म करते हो , तब वो कर्म योग हो जाता है।
इस प्रकार जब हम दीर्घकाल तक साक्षी भाव में स्थित होकर कर्म को होता हुआ देखने का अभ्यास करते हैं , कर्म करते- करते-करते देखेंगे यह जो सत्यस्वरूप- सच्चिदानन्द स्वरुप आत्मा का जो विविरण भगवत गीता मिलता है -वही हमारे लिए अनुभगम्य हो जाती है। हम अपने सत्यस्वरूप का अनुभव कर पाएंगे। इस प्रकार से और पांच मिनट बोलकर , पराग महाराज मुझे थोड़ा समय दे रहे हैं। (43:37)
अब भगवत गीता में योग की परिभाषा देते हुए भगवान कृष्ण अति सुंदर बात कह रहे हैं। कृष्ण भगवान अर्जुन से कहते हैं - योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गम् - त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समः भूत्वा समत्वम् योगः उच्यते।।
भगवत गीता में यही योग की परिभाषा है। सोच के देखिये अर्जुन को लड़ना है। इससे बढ़कर भयंकर परिस्थिति जीवन की क्या हो सकती है ? आप रणभूमि में हो। आपको युद्ध करना है। आपके सामने आपके जो दुश्मन लोग खड़े है। उसका सामना करना है, उनको शस्त्र से जवाब देना है। इससे बड़ा कठिन कार्य क्या हो सकता है ?
Just look to the kind of involvement it demands ! It demands 100% involvement ! Just imagin a soldir who is standing in the battlefield .What will be the kind of demanding situation? उसका शरीर , उसकी इन्द्रियां , उसका मन बुद्धि सब कुछ कितना उस युद्ध रूपी भीषण कर्म से कितना युक्त होना चाहिए, कितना Involve होना चाहिए ?
भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं - पूरे involvement के साथ युद्ध कर अर्जुन। लेकिन इस युद्ध करने की क्रिया के पीछे एक तरीका है। कैसे ? योगस्थः कुरु कर्माणि ! योग में प्रतिष्ठित होकर के तूँ अपना कर्म कर। अब योग में प्रतिष्ठित होने का मतलब क्या है ? योगस्थः कुरु कर्माणि - में दो चीजें हैं, वहां पर उसमें भगवान कृष्ण कहते हैं - समत्वम् योगः उच्यते।'
योग क्या है ? समता! अच्छा, समता का मतलब क्या है ? सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा' सिद्धि हो , या असिद्धि हो , दोनों परिस्थिति को सामान रूप से देखने की क्षमता। सिद्धि हो , माने आपको अपने किये हुए कर्म में सफलता मिले , या आपके पक्ष में विफलता आये। सफलता -विफलता दोनों भी परिस्थिति में आप अगर सम रह पाते हो, तब आप योगस्थ हो।
तो योगस्थ होने का एक मापदण्ड क्या है ? सिद्धि में भी और असिद्धि में भी आप सम हो जाते हो। सफलता में भी और विफलता में भी आप सम हो जाते हो। यह योग का एक मापदण्ड है। ये कोई भी चीज theory नहीं है। आप उसको अपने जीवन में उतार कर देख सकते हो। दैनन्दिन जीवन में अपने परिवार में आप देखोगे , अच्छी चीज आपके पास आएगी , बुरी चीज आपके पास आएगी। दोनों में सम रहने का जो अभ्यास है , वही आपको 'योगी ' बनाता है।
भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते है -तस्मात् योगी भव अर्जुन ! (गीता 6:46) अर्जुन योगी बन ! योगी बन ! योगी बनने का मतलब कहीं जंगल में भागना नहीं है। योगी बनने की बात कहते हैं , तो हमको डर लगता है , कहीं गेरुआ पहनना है ? नहीं !! गेरुआ नहीं पहनना है , कहीं जंगल में नहीं भागना है , दाढ़ी-जटा बढ़ाना नहीं है। कुछ शब्दों के बारे में हम ऐसे गलत धारणा बना लेते हैं। योगी बनने का मतलब है समत्व का अभ्यास ! जीवन के उतार-चढाव में सब में सम रहने की योग्यता जो व्यक्ति प्राप्त कर ले वह योगी है।
अब ये हुआ एक मापदण्ड। दूसरा मापदण्ड बहुत सुंदर और अत्यंत महत्वूर्ण है। वो क्या है? सङ्गम् - त्यक्त्वा । Very Important ! योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गम् - त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वम् योगः उच्यते।। तो ये जो 'समत्वम् ' शब्द है , उसका मतलब हमने देख लिया।
सिद्धि और असिद्धि में सम रहना इसको योग कहते हैं। इसका और एक पक्ष है, सङ्गम् - त्यक्त्वा। वो है संग वर्जित कर्म करना है , 3K में अनासक्त होकरके कर्म करना है। ये अनासक्ति (वैराग्य) ही है योग का द्वितीय मापदण्ड। तो आप योगी हो या नहीं ? मैं योगी हूँ या नहीं ? इसको परख के मुझे ही देखना है। (48:15) आपको ही देखना है। और जब आप देखोगे कि आप योगी बन रहे हो, जितना आप योग में सफल हो रहे हो , उतना ही आप ईश्वर के साथ सम्बन्ध बनाने में आप सफल हो जाओगे।
ईश्वर सम्बन्ध , योग से बनता है। ईश्वर सम्बन्ध या हमारे परमार्थ स्वरुप (आत्मा -ठाकुर) के साथ जो सम्बन्ध है , वो योग से बनता है। और योग क्या है ? समत्व का अभ्यास। समत्व का अभ्यास उसका एक पक्ष है। उसका द्वितीय पक्ष है अनासक्ति। गीता में आप देखोगे दर्जनों बार भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से यही कहते हैं कि अर्जुन ! तुझे कर्म करना है , लेकिन करोगे कैसे? सङ्गं त्यक्त्वा, सङ्गं त्यक्त्वा,सङ्गं त्यक्त्वा कितनी बार भगवान श्रीकृष्ण यही बात दोहराते रहते हैं। इसलिए भगवत गीता को अनासक्ति योग भी कहते हैं। भगवत गीता का अगर मूल सन्देश देखें तो वो अनासक्ति योग है। आसक्ति नहीं होना चाहिए। आसक्ति नहीं होने का क्या मतलब है ?
देखिये ये सब को सिद्धांत में कहने की बात नहीं है , इसे हमें अपने जीवन में उतारना है। अनासक्त होने से ही हमारा जीवन सुंदर और प्रभावशाली (sublime) होगा। जीवन की महान उपलब्धियां योग के अभ्यास से प्राप्त होंगी। दूसरा अनासक्ति का मतलब क्या है ? इसको अंग्रेजी में हमलोग detachment कहते हैं। ये non attachment , या अनासक्ति शब्द बड़ा खतरनाक है। क्योंकि 99 % लोग इसका गलत अर्थ ही लगा लेते हैं। अनासक्त होने का अर्थ हम क्या लगा लेते हैं ? अनासक्त होने का मतलब ये है कि मैं किसी भी काम में Involve नहीं होऊँगा। मैं दरवाजा बंद करके अपने कमरे में बैठा रहूँगा। मैं अनासक्त हूँ मैं detached हूँ।
ये अनासक्ति है ही नहीं , ये तो एक मानसिक बीमारी है। ये न तो योग है , न तो अध्यात्म है , न ही अनासक्ति है। सरल शब्दों में कहो तो ये सिर्फ एक मानसिक रोग है। ये अनासक्ति नहीं है। अनासक्त होने के नाम पर जो दूसरों के साथ नहीं रह सकता , इसको अनासक्ति नहीं कहेंगे। अनासक्त होने के नाम पर हम किसी भी सामाजिक -पारिवारिक समारोह में शामिल नहीं होना चाहते हैं। यह अनासक्ति नहीं है। समाज के साथ तो शामिल होना ही है। लेकिन परिवार-समाज में शामिल होने का मतलब यह भी नहीं है कि आप किसी से attached हो जाओ।
मैं दोबारा कहता हूँ। detachment का मतलब यह नहीं है कि आप किसी भी सामाजिक उत्सव में शामिल नहीं होंगे। और शामिल होने का यह मतलब नहीं है कि किसी एक में जाकर चिपक जाओ। आपको पूरी तरह शामिल होना है , और साथ ही साथ अनासक्त भी रहना है। जिसने इसको जान लिया उसने जीने की कला सीख ली। यही जीने की कला है , हम सब में शामिल हैं , लेकिन कहीं भी चिपके नहीं हैं -आसक्त नहीं हैं। जीने की यही महान कला है , जिसे भगवान कृष्ण अर्जुन के माध्यम से सम्पूर्ण मानवजाति को सीखा रहे हैं। सबके साथ रहना है, सबका देखभाल करना है। पति हो , पत्नी हो बच्चे हो , भाईबहन हो , सबके साथ मिलजुल करके ईमानदारी के साथ सबके साथ शामिल होकर के , हमें अपने कर्तव्य तो करने ही हैं। लेकिन किसी भी व्यक्ति-वस्तु में आसक्त नहीं होना है। यही है जीने की कला।
आप इसका उदाहरण देख लीजिये। आप बताइये स्वामी विवेकानंद आसक्त थे या अनासक्त थे ? क्या वे सब में शामिल नहीं थे क्या ? स्वामी विवेकानंद से ज्यादा involved कौन थे इस पूरे संसार और मानवजाति के कल्याण के लिए। मनुष्य के रूप में वे वहुत हमदर्दी थे।
शंकराचार्यजी आसक्त थे या अनासक्त थे ? लेकिन क्या मानव-कल्याण में शमिल नहीं थे ? पूरे involved थे। लेकिन किसी में आसक्त थे क्या ? और सबसे बड़ा योगेश्वर जो भगवान श्रीकृष्ण हैं , वो क्या involved नहीं थे ? वे तो पूरे संसार में involved थे। वे तो हस्तिना पुर के पूरे Politics में involved हैं ,वे सभी जगह घनिष्ट रूप से जुड़े हुए हैं -involved हैं, लेकिन कहीं भी attached नहीं हैं। ये जीने की कला है।
हमें इस जीवन में इस प्रकार से रहना है कि हम सबके साथ हैं ,लेकिन कहीं भी हम attached नहीं हैं। इसी प्रकार के जीवन का एक सुंदर उदाहरण भगवान कृष्ण हमारे सामने रखते हुए कहते हैं - ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।5.10।।
ब्रह्मणि आधाय कर्माणि, सङ्गम्- त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न सः पापेन , पद्मपत्रम्- इव अम्भसा।
भगवान यहाँ एक असतिसुन्दर दृष्टान्त हमारे सामने रखते हैं। तो कर्म करोगे कैसे ? हमें कर्म करना कैसे है ? कर्म इस प्रकार करना है - कैसे करना है ? ब्रह्मणि आधाय कर्माणि; सारे कर्म जो हैं , उसका आधार आत्मा को बनाओ ! 'मैं'-अहंकार से करने वाला कर्म नहीं। मैं ' वो अकर्ता (साक्षी) आत्मा हूँ ; यह सब प्रकृति ही कर रही है। इस भाव से करो। या तो सबकुछ ईश्वर को (ठाकुर देव को) समर्पित करके करो। इस प्रकार से कर्म करो -ब्रह्मणि आधाय कर्माणि; सङ्गम्- त्यक्त्वा करोति, और अनासक्त होकर के, पूरे Involvement के साथ कर्म करो।
सो भगवान कृष्ण कहते हैं -इसका परिणाम क्या होगा ? लिप्यते न सः पापेन - आप किसी भी पाप से आप लिप्त नहीं होंगे। मतलब दुःख आपको स्पर्श नहीं कर सकता। दुःख, कोई भी कष्ट इस व्यक्ति को स्पर्श नहीं कर सकता।
तो इसका उदाहरण क्या है ? पद्मपत्रम्- इव अम्भसा। पद्मपत्रम्- इव अम्भसा' का मतलब क्या है ? जैसे कि कमल का जो फूल होता है , और कमल के जो पत्ते होते हैं , कमल कहाँ खिलता है ?? पानी में खिलता है। पानी में तैरता है। कमल के जो पत्ते हैं , पानी में तैर रहा है। पानी में डूबा हुआ है, कमल का पत्ता पूरा involved है कि नहीं ? लेकिन उन पत्तों को अगर आप पानी से ऊपर उठाओ , तो एक भी पानी का बून्द जो है उस पत्ते से चिपक नहीं सकता। अनासक्त है ! क्या सुंदर दृष्टान्त है ! यह जो कमल का पत्ता जो है , पूरी तरह पानी में संलग्न है -पूरी तरह से involved है। संलग्न होते हुए भी पानी का जो बून्द है , एक भी बून्द इस पत्ते के साथ चिपक नहीं सकता।
इसी प्रकार हमें जीवन को जीना है , सबके साथ रहकर के। यही जीने की कला है। लेकिन कहीं भी चिपकना नहीं है। तो मैं अक्सर कहता हूँ , हमारा जो अंतिम जो philosophy है, ये क्या है ? पता है ? आप इसको लिख के रख लीजिये। 'चिपकना मना है।' अच्छा, चिपकना मना है, ऐसा नहीं; चिपकना सख्त मना है। 'Sticking is strictly prohibited' अंग्रेजी में अगर कहो - 'Sticking is strictly prohibited' ! Be with everybody . इस सारे , संसार के सारे गतिविधियों में संलग्न रहो , लेकिन कहीं भी चिपको मत। (56:26)
>>ये चिपको मत क्यों ? आप जिससे चिपक रहे हो , वह सब अनित्य है। सब चला जायेगा। आप जिसको पकड़ रहे हो ये सब चला जायेगा। इसको आप लिख के रख लीजिये। कोई भी आपके साथ में नहीं रहेगा। यह सब सिर्फ 2 मिनट का ड्रामा चल रहा है , यहाँ पर। देखते देखते सब चला जायेगा। आप जिस चीज को पकड़ने का जितना ही प्रयास करोगे , वह चीज वह उतना ही आपके दुःख का कारण बनता है।
इसलिए इसको intelligently handle करना # , यही जीने की कला है। और यही कला भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के माध्यम से हम सबको भगवत गीता में सिखाते हैं। उसमें कर्मयोग जो है, ये प्रधान है। मैं इसको प्रधान इस लिए कहता हूँ कि कर्म हमारे जीवन का मुख्य अंग है। कोई भी व्यक्ति चुप नहीं बैठ सकता। अगर हम चुप नहीं बैठ सकते हैं , तो हम जो भी कर रहे हैं , उसको करेंगे कैसे ?
इसको इस प्रकार करना है कि हम करते रहें ,लेकिन कहीं भी हम चिपके नहीं। इस व्यक्ति ने जीवन जीने की कला को सीख लिया है , और यही महान सन्देश भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के माध्यम से पूरे , मानवसमाज के सामने रखते हैं। मैं यही कह करके अपने वक्तव्य को विराम देता हूँ। और भगवान श्रीकृष्ण से जो योगेश्वर हैं , उनसे मैं यही प्रार्थना करता हूँ , कि यह जो जीने की कला है , हमारे जीवन में प्रतिफलित हो। और हम सब का जीवन जो है , सुखमय हो। वो सुख जो परमार्थ आत्मा से सम्बन्ध बना लेने से आता है। ईश्वर सम्बन्ध बनाने से आता है।
>>तो अंतिम बात - ईश्वर सम्बन्ध बनाना है। ईश्वर सम्बन्ध बनाना है - ईश्वर सम्बन्ध के बगैर हमारा जीवन व्यर्थ हो जाता है। दुःखमय हो जाता है। और ईश्वर के साथ सम्बन्ध बनाने का जो उपाय है - उसी को योग कहते हैं। इसलिए भगवान कृष्ण कहते हैं -तस्मात् योगी भव अर्जुन ! सबों को योगी होना है। हम सभी को योगी होना है। ॐ शांति (58:39)
कर्मनिष्ठा और ज्ञान निष्ठा दोनों में श्रेष्ठ क्या है ? भगवान कृष्ण स्वयं कहते हैं -इसमें कोई श्रेष्ठ कनिष्ठ की बात नहीं है। आप इन दोनों में से कोई एक निष्ठा को पकड़ लीजिये आप अपने गंतव्य स्थान तक पहुँच जाओगे। पाँचवें अध्याय में भगवान कृष्ण स्वयं इस प्रश्न का उत्तर देते हैं। अर्जुन भी यही प्रश्न करते है। कि हे भगवान कृष्ण तुमने तो दो निष्ठा की बात की है। एक है सांख्य निष्ठा और दूसरा है योग निष्ठा। तो मुझे कौन सा करना है ? तो भगवान कृष्ण कहते हैं , इन दोनों में से कोई भी एक निष्ठा को पकड़ लो। तुम अपने गंतव्य स्थान तक पहुँच जाओगे।
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>>कर्मयोग और कर्म में अंतर क्या है ?
गीता 5/6 में भगवान कृष्ण कहते हैं -
संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।।5.6।।
।।5.6।। परन्तु हे महाबाहो ! कर्मयोग के बिना (कर्म) संन्यास सिद्ध होना कठिन है। मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।
कर्मयोग के सम्बन्ध में श्रीरामकृष्ण देव का आदेश है - " किसी भी कर्म के द्वारा ईश्वर (आत्मा) के साथ युक्त होकर रहना, य ईश्वर (आत्मा) के साथ सम्बन्ध बना कर, या युक्त होकर कर्म करना - वही कर्मयोग है। " अर्थात कर्म के द्वारा ईश्वर (आत्मा) के साथ सम्बन्ध बना लेना या युक्त हो जाना ही कर्मयोग है। जो कर्म के ईश्वर या आत्मा से सम्बन्ध बनाये बगैर, आत्मा से संयुक्त हुए बगैर, केवल अहं कर्ता के भाव से किया जाता है, वो कर्मयोग नहीं है -वह केवल कर्म मात्र है।
[ 'अहं-कर्ता' भाव को ईश्वर, भगवान (आत्मा) में संलग्न कर दो। इस प्रकार 'मैं कर्ता हूँ' अहंकर्ता ऐसी बुद्धि को त्याग कर , मैं केवल साक्षी हूँ अकर्ता हूँ, बाकि सब कार्य प्रकृति ही कर रही है , इस भाव से करो। जो व्यक्ति कर्मयोग करने वाला योगी नहीं है , अज्ञान की दशा में 'अहंकर्ता'- यानि 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा समझकर अपने कर्म को ' मिथ्या अहं' के ऊपर स्थापित करके पुण्य-या पाप जो भी करेगा, उसका फल भी उसी लो लेना होगा। और विवेकी या आत्मज्ञानी 'अहंकर्ता' भाव 'अहं अभिमान' छोड़कर (दासोहं) या साक्षी भाव से, समत्व में स्थित कर्म को फलसहित ब्रह्म में अर्पित करते हैं।]
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।2.38
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।6.46।।
>> intelligently handle कैसे करना ? # ईश्वर या आत्मा के साथ सम्बन्ध बनाकर या भगवान (आत्मा) के साथ संयुक्त होकर धर्म के पक्ष में खड़े होना , और अधर्म का सामना करने के लिए "कामड़ाबी ना फोंस कोरबी ", "हाथी नारायण -महावत नारायण" उपाय से कर्मयोग करना।]
(हम ईश्वर को देवालय में खोजते हैं ? तो यह देह क्या देवालय नहीं है ? जिस M/F देह के हर ह्रदय में मायाधीश ईश्वर- शुद्ध,बुद्ध आत्मा के रूप में, परमात्मा परमेश्वर के रूप में , ईश्वर के रूप में , ठाकुर , माँ , स्वामीजी के रूप में , काली और कृष्ण के भक्तों के लिए काली और कृष्ण के रूप में हमारे हृदय में पहले से ही बैठा है !)
>>भगवान श्रीरामकृष्ण के भक्त पाठचक्र में क्या करते हैं?
भक्त भगवान कृष्ण गीता में कहते है - मेरे भक्त जब एक जगह मिलते हैं , पाठचक्र में भाग लेते हैं , तो क्या करते हैं ?
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।10.9।।
।।10.9।।। मेरेमें चित्तवाले, मेरेमें प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन आपसमें मेरे गुण, प्रभाव आदिको जानते हुए और उनका कथन करते हुए ही नित्य-निरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं और मेरेमें प्रेम करते हैं।
[Bhakta Sammelan || Speech by Swami Shuddhidananda/Ramakrishna Mission, New Delhi]
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