No idea here is an out-flow of any particular individual human brain.Every idea is borrowed from Swami Vivekananda and their linking has only one purpose:Regeneration or ushering in a new India.If use of a new coinage is allowed,it may be said:Here is an attempt to study "Applied Vivekananda" in the national context.
"If you like something, leave a comment!"
--Bijay Kumar Singh, Jhumritelaiya Vivekananda Yuva Mahamandal .
56'th वां वार्षिक अखिल भारत युवा प्रशिक्षण शिविर, 2024.
56'th Annual All India Youth Training Camp , 2024
उजान हरिपद हाई स्कूल,
(पी.एस.-पिंगला/पश्चिम मेदिनीपुर)
शिविरार्थियों के लिए कार्यक्रम
(Programme For Campers)
प्रतिदिन - प्रातः 4.55 बजे से 10.30 बजे तक :
महामंडल गान के साथ ध्वजारोहण, मानसिक एकाग्रता, शारीरिक व्यायाम, परेड, खेल,महामंडल के आदर्श और उद्देश्य , भारतीय सांस्कृतिक विरासत, चरित्र निर्माण की विधियां, संगठन का प्रबंधन और नेतृत्व, समाज सेवा, राष्ट्रीय एकता, धार्मिक सद्भावना, आदि विषयों के साथ "स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण तथा चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा" (Man-making and Character-Building Education of Swami Vivekananda) पर चर्चा की जायेगी।
खुला कार्यक्रम
बुधवार, 25 दिसंबर 2024
4:50 अपराह्न उद्घाटन, उद्घाटन गीत, स्वागत भाषण।
उद्घाटन भाषण:श्रीमत स्वामी हितकामानन्द जी महाराज,सचिव, रामकृष्ण मिशन शिलांग।
भाषण (संस्कृत) : श्री प्रभात कुमार मैती, टियरबेरिया विवेकानन्द युवा पाठ चक्र।
भाषण (उड़िया): श्री प्रदीप कुमार साहू, गुआमल विवेकानन्द युवा महामंडल, ओडिशा।
भाषण (हिन्दी): श्री रितेश सिन्हा, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल, झुमरीतिलैया शाखा।
भाषण (बंगाली) : श्री रंजीत मिश्रा, लालट विवेकानन्द युवा महामंडल।
गुरुवार, 26 दिसंबर 2024
सायं 6.30 से 7.30 बजे तक : ''वर्तमान समय में स्वामी विवेकानन्द की प्रासंगिकता"- (बंगाली) वक्ता हैं -
श्री अमित कुमार दत्त, महासचिव,
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल।
7.30 से 8.45 बजे तक : 'महामण्डल के कौमी तराने'(देशभक्ति मूलक संगीत। )
शुक्रवार 27 दिसंबर, 2024 :
शाम 6.30 से 7.30 बजे तक :"स्वामी विवेकानन्द का जीवन एवं सन्देश" (हिन्दी)
श्री गजानंद पाठक,
हज़ारीबाग़ विवेकानन्द युवा महामंडल
7.30 से 8.45 बजे तक : "भक्ति-संगीत के साथ देशभक्ति गीत''- श्री पृथ्विश बिस्वास और श्री दीप्येंदु जाना।
शनिवार, 28 दिसंबर 2024
सायं 6.30 से 7.30 बजे तक। :"भारतीय संस्कृति का सार" (अंग्रेजी- 'The Essence of Indian Culture') :
वक्ता : श्रीमत स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज,
अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम, मायावती।
7.30 से 8.45 बजे तक : महामण्डल संगीत - श्री पार्थ मिश्रा एवं अन्य।
रविवार, 29 दिसंबर 2024
10.30 से 12 बजे तक : रक्तदान
शाम 4.00 बजे - "महामण्डल के सिंह-शिशु दल (विवेक वाहिनी) द्वारा विविध कार्यक्रम।
शाम 6.30 से 7.30 बजे तक : "जनसाधारण के विवेकानन्द "(बंगाली)।"
वक्ता : डॉ. समीर कुमार दासगुप्ता,
(अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के कार्यकारिणी समिति के माननीय सदस्य। )
सोमवार, 30 दिसंबर, 2024
विदाई सत्र :
मुख्य अतिथि - श्रीमत् स्वामी बलभद्रानन्द जी महाराज,
सहायक महासचिव,
रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन, बेलूर मठ , हावड़ा।
अतिथि वक्ता : श्री नरेंद्र नाथ मन्ना,
प्रधानाध्यापक, उजान हरिपद हाई स्कूल
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नोट : प्रतिदिन सन्ध्या 6 बजे प्रार्थना होगी।
पुस्तक- विक्रय केन्द्र , सह प्रदर्शनी
कैम्प साइट पर "श्री रामकृष्ण - विवेकानन्द वेदान्त साहित्य" तथा "स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा " के ऊपरअखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा हिन्दी, बंगाली, गुजराती, उड़िया, तेलुगु, कन्नड़ आदि विभिन्न भारतीय भाषाओं में प्रकाशित महामण्डलकीपुस्तिकायेंभी बिक्रय के लिए उपलब्ध रहेंगी।
शिविर प्रतिदिन शाम 4.00 बजे से रात 8.45 बजे तक साधारण जनता के लिए खुला रहेगा।
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PROGRAMME FOR CAMPERS
4.55 a.m. to 10.30 p.m. Daily :
Flag hoisting with Mahamandal Anthem, Mental Concentration, Physical Exercise , Parade, Games, and Discussion on the "Man-making and Character -building Education of Swami Vivekananda", Aims and Objects of The Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal, Indian Cultural Heritage, Methods of Character Building, Management of Organization and Leadership, Social Service , National Integration, Harmony of Religion , etc.
OPEN PROGRAMME
Wednesday, 25th December, 2024
4:50 P.M. Inauguration
Opening Song, Welcome Address
Inaugural Speech :Srimat Swami Hitakamananda ji Maharaj,
N.B. -Evening Prayers will be held every day at 6:00 pm.
Sri Ramakrishna-Vivekananda Vedanta literature and Booklets published by Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal in various Indian languages like Hindi, Bengali, Gujarati, Oriya, Telugu, Kannada etc. on "Swami Vivekananda's Man-making and Character-Building Teachings"will also be available for sale at the camp site.
With the strength of your mind give up indolence and weeping or any fear from fate -- these do not behove you.
(गुरुदेव, माँ सारदा देवी की कृपा से) तुम्हारा मन तो प्रबल इच्छासम्पन्न है, आत्मनिरीक्षण के अभ्यास में आलस्य मत करो , किसी भी प्रारब्ध से मत डरो- ये सब तुझे शोभा नहीं देते।
प्रसंग : वनवास के दौरान राम,लक्ष्मण और सीता को कष्ट में देख कर जब निषादराज माता कैकई और मंथरा को दोषी ठहराते हैं। तब लक्ष्मणजी निषादराज रजसे गुह से कहते हैं ‒
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।
अहं करोमीति वृथाभिमानः
स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ॥
(अध्यात्मरामायण )
अर्थात सुख और दुःख का दाता कोई और नहीं है। कोई दूसरा (हमें सुख और दुःख) देने वाला है - ऐसा समझना कुबुद्धि - मंदबुद्धि और अल्प-ज्ञान का सूचक है। 'मैं ही सब का कर्ता हूँ ' यह मानना भी मिथ्याभिमान है । सभी लोग अपने अपने पूर्व कर्मों के सूत्र से बंधे हुए हैं । (निषादराज गृहक कैकेयी और मंथराको दोष देता है तब लक्षमण की उक्ति)
यही बात तुलसीकृत रामायण में भी कही गई है‒
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥
(राम चरित मानस - अयोध्या काण्ड)
तुलसीकृत रामायण (मानस २/९२/२) में तब लक्ष्मणजी निषादराजत गुहसे कहते हैं, सुख और दुःख का दाता कोई और नहीं है। हे भाई - सब अपने अपने कर्मों के अनुसार ही सुख- दुःख भोगते हैं।
हम अक़्सर अपनी किसी बात - किसी घटना या अपने किसी काम के परिणाम की जिम्मेवारी नहीं लेना चाहते। ख़ास तौर पर अपने दुःख और कष्टों के लिए किसी और को जिम्मेवार और दोषी ठहरा कर हमें कुछ राहत और सांत्वना सी महसूस होती है। लेकिन अगर हम अपने भाग्य एवं परिस्थितियों के लिए स्वयं को जिम्मेवार समझेंगे तो आगे के लिए हर काम को समझदारी से करने की कोशिश करेंगे। अगर हम ये अच्छी तरह से समझ लें कि हमारे कर्म (आदत-प्रवृत्ति-व्याभिचार -सदाचार) ही हमारे भाग्य का निर्माण करते हैं तो हम हमेशा अच्छे कर्म ही करने की कोशिश करेंगे। वर्तमान के शुभ कर्मो के द्वारा पिछले कर्मों के दुष्परिणाम को भी बहुत हद तक बदला जा सकता है। इसीलिए धर्म ग्रन्थ और संत महात्मा हमें सत्संग, भक्ति, नम्रता, त्याग और सेवा भावना इत्यादि की प्रेरणा देते रहते हैं। लेकिन अगर किसी का भला नहीं कर सकते तोकम-से -कम किसी का बुरा तो न करें।
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥
जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है। मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु ~ 'मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ' अर्थात किसी का धन - किसी का हक़ छीनने की कभी कोशिश न करो और 'यह सब मेरा है' के भाव के साथ' पदार्थों का संग्रह न करो।
विषयवस्तु : ‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः’ (२/१३) में पतञ्जलि कहते हैं कि-जिस प्रकार एक बछड़ा हजार गायों के बीच में अपनी माँ को पहचान लेता है, उसी प्रकार पूर्व में किया गया कर्म अपने कर्ता को ढूंढ लेता है। मन-वचन-काया से पहले किये हुए कर्मों के फल तीन रूपों -जन्म, आयु और भोग में प्राप्त होते हैं। जैसा कर्म वैसा फल ! ' Ignorance of Law is no excuse' अर्थात कानून की अनभिज्ञता कोई बहाना नहीं है। शरीर तो अविनाशी आत्मा का वस्त्र है! प्रारब्ध भोग कर आज ही क्षय कर लो, शमी की लकड़ी से शनि ग्रह को भगाने की चेष्टा मत करो।
श्लोक -१०.
मनःसंयोग ही सर्वश्रेष्ठ विज्ञान है !
मन एव महच्छत्रुर्बन्धुरपि तदेव हि।
मनोदासः प्रभुस्तस्य यदेकोSसि तथा भवेत्॥ १०।।
1. Mind is a great enemy and may also be the best friend.
2. You may be a servant or the master of your mind.
3. If you are a servant, it will pose as an enemy; if you master it, it will become a trusted friend.
4. ' The mind uncontrolled and unguided will drag us down...,and guided will save us, free us.'
१. (अनियंत्रित) मन ही मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है और यही मन जब वशीभूत हो जाता है- मनुष्य का सबसे अच्छा दोस्त भी बन सकता है।
२. तुम अपने के गुलाम हो सकते हो, और तुम यदि चाहो तो अपने मन के मालिक भी हो सकते हो।
३. यदि तुम अपने मन के दास बने रहोगे, तो यह तुम्हारे एक दुश्मन के रूप में तुमसे बहुत बुरा व्यव्हार करेगा। यदि तुम इसे वशीभूत कर लोगे तो यही मन तुम्हारा सबसे विश्वसनीय मित्र बन जायगा।
४. " अनियंत्रित और अनिर्दिष्ट मन हमें सदैव उत्तरोत्तर नीचे की ओर घसीटता रहेगा -हमें चींथ डालेगा, हमें मार डालेगा; और नियंत्रित तथा निर्दिष्ट मन हमारी रक्षा करेगा, हमें मुक्त करेगा। इसलिये वह अवश्य नियंत्रित होना चाहिये, और मनोविज्ञान सिखाता है कि इसे कैसे करना चाहिये।"
प्रसंग : 'मनःसंयोग' (दी साइन्स अव साइकालजी) या मनोविज्ञान एक सर्वश्रेष्ठ विज्ञान है।" (हिन्दी ४/११२)
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🔱🕊श्लोक -११🔱🕊
🏹 🙋श्रीरामकृष्ण परमहंस देव जीवन्मुक्त भी थे और आचार्य भी 🏹 🙋
(कामिनी-कांचन में डूबा व्यक्ति और एक महान दैवी शक्ति श्रीरामकृष्ण !)
जगति सति सत्ये तु न लाभश्चेत् किमु क्षतिः।
प्रपञ्चस्यापि देहस्य प्रयोगे पुरुषार्थता ॥ ११।।
1. What is the gain or loss by kicking up a row over the reality of this world ?
2. Objects of human life are attained by making the best use of human body and the visible world.
3. " Anyone and everyone cannot be an Âchârya (teacher of mankind); but many may become Mukta (liberated). ' The Acharya has to take a stand between the two states. He must have the knowledge that the world is true, or else why should he teach ? Againif he had not realized the world as a dream, then he is no better than an ordinary man, and what could he teach ?'
१. इस जगत के सच्चाइयों की जो लम्बी कतार (स्वप्नवत) है, उसके ऊपर दुलत्ती मारते रहने (या असन्तोष प्रकट करते रहने) में लाभ क्या और हानी क्या?
[# प्रसंग :माँ श्री सारदा (तारा -जनकराजकिशोरी) जैसे डकैत अमजद की भी माँ है, और स्वामी सारदानन्द की भी माँ है ! (चिरंतनी 5 am-कोलकाता 22-11-2024) जीवे प्रेम करे जेई जन, से सेवेच्छे ईश्वर ! परस्पर भावयन्तः, बहुजनहिताय -बहुजन सुखाये- इस जगत के सच्चाइयों की जो लम्बी कतार (सिनेमा के पर्दे पर महाभारत या फिल्म शोले के जैसा स्वप्नवत) है, उसके ऊपर दुलत्ती मारते रहने (या असन्तोष प्रकट करते रहने) में लाभ क्या और हानी क्या?
२. इस मूर्खता को छोड़कर, देवदुर्लभ मानव शरीर एवं दृष्टिगोचर जगत का सर्वोत्तम उपयोग करने से मनुष्य जीवन का उद्देश्य (लक्ष्य) सिद्ध हो जाता है !
[#जगत सत्य है या मिथ्या ? इसी मूर्खतापूर्ण प्रश्न को लेकर जीवन भरसिर खपाते रहने से लाभ क्या और हानी क्या? इस मूर्खता को छोड़कर, दृष्टिगोचर जगत और देवदुर्लभ मानव शरीर दोनों का सर्वोत्तम उपयोग करने से (प्रवृत्ति से निवृत्ति में स्थित हो जाने से) मनुष्य जीवन का उद्देश्य- (लक्ष्य) सिद्ध हो जाता है !]
३. " हर कोई आचार्य (देव) या 'गुरु'नहीं हो सकता,(teacher of mankind-मानवजाति का मार्गदर्शक नेतानहीं हो सकता), किन्तु मुक्त बहुत से लोग हो सकते हैं। मुक्त पुरुषों को यह जगत स्वप्नवत जान पड़ता है, किन्तु आचार्य को मानो स्वप्न और जाग्रत, इन दोनों अवस्थाओं के बीच खड़ा होना पड़ता है। उसे यह ज्ञान रखना ही पड़ता है कि जगत सत्य है, अन्यथा वह शिक्षा किसे और क्यों देगा ? फिर, यदि उसे यह अनुभूति न हुई हो कि जगत स्वप्नवत है, तो उसमें और एक साधारण आदमी में अन्तर ही क्या? - और वह शिक्षा भी क्या दे सकेगा ?
[# मुक्त पुरुषों को यह जगत स्वप्नवत जान पड़ता है, किन्तु आचार्य देवको मानो स्वप्न और जाग्रत, इन दोनों अवस्थाओं के बीच खड़ा होना पड़ता है। उसे यह ज्ञान रखना ही पड़ता है कि जगत सत्य है, अन्यथा वह शिक्षा (=मंत्र-दीक्षा ?? श्री शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय मंत्रदीक्षा भी देते थे, आसुतोष मुखोपाध्याय नहीं ले सके थे !!!)किसे और क्यों देगा ? फिर, यदि उसे यह अनुभूति न हुई हो कि जगत स्वप्नवत है, तो उसमें और एक साधारण आदमी में अन्तर ही क्या ? - और वह शिक्षा भी क्या दे सकेगा ?
निम्नलिखित पंक्तियों में सन्त रैदास जी भक्त और भगवान के बीच के संबंध का वर्णन करते हुए कहते हैं -
प्रभु जी तुम दीपक, हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी तुम मोती, हम धागा, जैसे सोने मिलत सुहागा ॥
भाव स्पष्टीकरण : भगवान और भक्त के बीच के संबंध को स्पष्ट करते हुए रैदास जी कहते हैं कि भगवान के बिना भक्त का कोई अस्तित्व नहीं है। प्रभु जी यदि दीप हैं तो भक्त वर्तिका के समान है। दोनों मिलकर प्रकाश फैलाते हैं। प्रभु जी यदि मोती हैं तो भक्त धागा है, दोनों मिलकर सुंदर हार बन जाते हैं। दोनों का मिलन सोने पे सुहागे के समान है। दास्य भक्ति, शरणागत तत्व भी इसमें दर्शाया गया है। वे (रैदास) प्रभुजी को स्वामी मानते हैं और अपने को उनका दास या सेवक मानते हैं। विशेष : दास्य भक्ति की पराकाष्ठा इसमें है।
प्रसंग : 'भक्तियोग के आचार्य' (teacher of mankind- मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) श्रीरामकृष्ण जीवन्मुक्त भी थे और आचार्य भी ! ३/२६१ : ON BHAKTI-YOGA/Volume- 5-page -265/
संन्यासी और गृहस्थ
(खण्ड ३ : १८५)
The Sanyasin and the Householder
(5: 260-61)
" धनवानों का आदरसत्कार करना और आश्रय (support : भरण-पोषण) के लिये उनका मुँह जोहना यह हमारे देश के सभी संन्यासी सम्प्रदायों के लिये अभिशाप स्वरुप रहा है। सच्चे संन्यासी को इस बात में बड़ा सावधान रहना चाहिए और इससे बिल्कुल बचकर रहना चाहिए। इस प्रकार का व्यवहार तो वैश्याओं के लिये ही उचित है, न कि संसार-त्यागी संन्यासी के लिये। (जो प्रवृत्ति से होकर उसकी निस्सारता को समझकर निवृत्ति में स्थित आचार्य नहीं है, संसारी है -"How should a man immersed in Kâma-Kânchana (lust and greed) become a devotee of one whose central ideal is the renunciation of Kama-Kanchana? ")
कामिनी-कांचन (lust and greed) में डूबा व्यक्ति उस 'व्यक्ति' का भक्त कैसे हो सकता है, जिनके जीवन का मुख्य आदर्श कामिनी -कांचन का त्याग है ? श्री रामकृष्ण तो रो रोकर जगन्माता से प्रार्थना किया करते थे , "माँ, मेरे पास बात करने के लिए एक तो ऐसा भेज दो, जिसमें काम -कांचन का लेश मात्र भी न हो। संसारी लोगों से बातचित करने में मेरा मुँह जलने लगता है। " वे यह भी कहते थे - " मुझे अपवित्र और विषयी लोगों का स्पर्श तक सहन नहीं होता। " त्यागियों के बादशाह (That King of Sannyasins) यतिराज श्रीरामकृष्ण के उपदेशों का प्रचार विषयी लोगों के द्वारा कभी नहीं हो सकता। ऐसे लोग (विषयों में 3'K' में घोर रूप से आसक्त भोगी गृहस्थ) कभी भी पूर्ण रूप में सच्चे नहीं हो सकते; क्योंकि उनके कार्यों में कुछ न कुछ स्वार्थ (तीनों ऐषणाओं में कोई एक ऐषणा) रहता ही है। "The latter can never be perfectly sincere; for he cannot but have some selfish motives to serve."
" यदि स्वयं भगवान (श्रीराम, श्रीकृष्ण और श्रीरामकृष्ण ?) भी गृहस्थ (संसारी) के रूप में अवतीर्ण हों, तो मैं उसे भी सच्चा न समझूँ। जब कोई गृहस्थ (संसारी -कामिनी-कांचन में डूबा व्यक्ति) किसी धार्मिक सम्प्रदाय के 'नेता-पद' [जेनरल -सेक्रेटरी] पर प्रतिष्ठित हो जाता है, तो वह आदर्श (ॐ नमः श्री यति राजाय विवेकानन्द सूरये, सत्चित् - सुख स्वरूपाय स्वामिने तापहारिने।) की ओट में अपना ही स्वार्थ-साधन करने लगता है। और फल यह होता है कि वह सम्प्रदाय बिल्कुल सड़ जाता है। गृहस्थों के नेतृत्व में सभी धार्मिक आन्दोलनों का यही नसीब हुआ है। त्याग (और सेवा) के बिना धर्म खड़ा ही नहीं रह सकता। " (३/१८५)
[If Bhagavân (God) incarnates Himself as a householder, I can never believe Him to be sincere. When a householder takes the position of the leader of a religious sect, he begins to serve his own interests in the name of principle, hiding the former in the garb of the latter, and the result is the sect becomes rotten to the core. All religious movements headed by householders have shared the same fate. Without renunciation religion can never stand." (5:261)]
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' विवेकानन्द - वचनामृत '
१२.
🔱🕊 🏹 🙋 विधाता ने हमारे लिये जो कार्य सौंपा है "🔱🕊 🏹 🙋
"The task before us"
देहोSयं वदति व्यासः परुषस्याखिलार्थदः।
लब्धव्यं प्राक् बलं देहे ततः परं मनोबलम्॥ (१२)
1. This body, says Vyasa (Bhagavata, 9.9.28(24) fulfills all desires of man.
2. But 'If there is no strength in body and mind the atman cannot be realized. first you have to build the body-then only the mind be strong.'
3. ' All power is within you , you can do anything and everything.'
१. व्यासदेव जी श्रीमद्भागवत-महापुराण ९.२८ में कहते हैं -
देहोऽयं मानुषो राजन् पुरुषस्याखिलार्थदः ।
तस्मादस्य वधो वीर सर्वार्थवध उच्यते ॥ २८ ॥
राजन् ! यह मनुष्य शरीर ही मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष --चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति करानेवाला है। इसलिये हे वीर ! इस शरीर को (दुर्बल बना लेना) नष्ट कर देना सभी पुरुषार्थों की हत्या कही जाती है।
२. "नायमात्मा बलहीनेन लभ्य :--'दुर्बल-कमजोर लोग आत्मा की अनुभूति नहीं कर सकते।' अर्थात शरीर और मन में दृढ़ता न रहने कोई भी, अपने ह्रदय में इस आत्मा की उपस्थिती का अनुभव नहीं कर सकता। पहले व्यायाम और पौष्टिक भोजन से शरीर को बलिष्ठ करना होगा, तभी तो मन का बल बढ़ेगा। मन तो शरीर का ही सूक्ष्म अंश है। मन और वाणी में तुम्हें महान ओजस्विता रखनी चाहिये। ' मैं हीन हूँ' , ' मैं दीन हूँ' ऐसा कहते कहते मनुष्य वैसा ही हो जाता है।"(६.९३)
३. आत्मश्रद्धा - आत्मविश्वास :
'All power is within you, you can do anything and everything.'
" समस्त शक्ति तुम्हारे भीतर है, तुम कुछ भी कर सकते हो और सब कुछ कर सकते हो। इस बात पर विश्वास करो, यह मत विश्वास करो कि तुम दुर्बल हो। आजकल हम में से अधिकांश जैसे अपने को अधपागल समझते हैं, तुम अपने को वैसा मत समझो। इतना ही नहीं, तुम किसी भी काम को बिना किसी के मार्गदर्शन के, अकेले ही करने में सक्षम हो । तत्काल निर्णय लेने की शक्ति (popover) तुम्हारे ही भीतर है। कमर कस लो, और तुममें जो Inherent Divinity है, जो अंतर्निहित दिव्यता है, जो देवत्वछिपा हुआ है, उसे प्रकट करो !
हमारे शास्त्रों में बार बार कहा गया है कि बाह्य-इन्द्रियों के ज्ञान के द्वारा धर्म कभी प्राप्त नहीं हो सकता। धर्म वही है, जो हमें उस अक्षर पुरुष का साक्षात्कार कराता है, और हर एक के लिये यही धर्म है। जिसने इस इन्द्रियातीत सत्ता का साक्षात्कार कर लिया, जिसने आत्मा का स्वरुप उपलब्ध कर लिया, जिसने भगवान को प्रत्यक्ष देखा -हर वस्तु में देखा, वही ऋषि (पैग़म्बर) हो गया।
हमें भी इस ऋषित्व का लाभ करना होगा, मन्त्रद्रष्टा होना होगा, ईश्वर-साक्षात्कार करना होगा। प्राचीन भारत में सैकड़ों ऋषि थे, और अब हमारे बीच लाखों होंगे -निश्चय ही होंगे। इस बात पर तुममें से हर एक जितनी जल्दी विश्वास करेगा, भारत का और समग्र संसार का उतना ही अधिक कल्याण होगा। तुम जो कुछ विश्वास करोगे, तुम वही हो जाओगे ! यदि तुम अपने को महापुरुष समझोगे तो कल ही तुम महापुरुष हो जाओगे। तुम्हें रोक सके-ज़माने में इतना दम नहीं ! और जितनी शीघ्रता से इस सिद्धान्त में श्रद्धा और विश्वास कर सकोगे, उतना ही तुम्हारा कल्याण होगा! " [ सन्दर्भ"The task before us" -" विधाता ने हमारे लिये जो कार्य सौंपा है !" 'कोलम्बो से अल्मोड़ा तक- व्याख्यान' पुस्तक के कामट्रिप्लिकेन लिटरेरी सोसाइटी, मद्रास में दिया गया भाषण। ५/१७८: ]
श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर व्याख्या -
श्री रामकृष्ण वचनामृत : " मेरी माँ (जगन्माता भवतारिणी काली ) ने कह दिया है कि वही वेदान्त का ब्रह्म है। जीव के 'कच्चे मैं' (मिथ्या अहं) को पूरी तरह नष्ट कर उसे ब्रह्मज्ञान देने की शक्ति उसी में है। माँ की इच्छा हुई तो तुम या तो विचारमार्ग से ब्रह्मज्ञान लाभ कर सकते हो , या फिर उसी ज्ञान को भक्तिमार्ग से भी प्राप्त कर सकते हो।
भक्तिमार्ग ही सार है -ज्ञानभक्ति के लिए व्याकुल होकर निरंतर प्रार्थना करना , माँ के चरणों में आत्मनिवेदन करना। इस तरह पहले माँ की शरण आओ। मेरी बात पर विश्वास रखो कि यदि तुम हृदय से पुकारोगे तो माँ अवश्य तुम्हारी पुकार सुनेगी -तुम्हारी इच्छा पूरी करेगी। फिर यदि तुम उसके निर्गुणनिराकर स्वरुप का दर्शन करना चाहते हो तो उसी से प्रार्थना करो। सर्वशक्तिरूपिणी जगन्माता की कृपा से तुम समाधि में ब्रह्मज्ञान लाभ कर सकते हो।
पंचभूतों के फन्दे में पड़कर ब्रह्म को भी रोना पड़ता है। तुम आँख मूँदकर स्वयं को समझते हुए बार बार का सकते हो कि 'कांटा नहीं है , कांटा नहीं है। ' पर ज्योंही तुम कांटे को हाथ लगते हो त्योंही वह तुम्हें चुभ जाता है , और तुम दर्द से उफ़ करके हाथ खींच लेते हो। तुम मन को कितना भी क्यों न समझाओ कि तुम्हारे जन्म नहीं , मृत्यु नहीं , पुण्य नहीं , शोक नहीं दुःख नहीं ; क्षुधा नहीं, तृष्णा नहीं ; तुम जन्मरहित , निर्विकार , सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मा हो , परन्तु ज्यों ही रोग होकर देह अस्वस्थ हो जाती है , ज्योंही मन संसार में काम-कांचन के आपात सुख के भुलावे पड़कर कोई कुकर्म कर बैठता है , त्यों ही मोह , यातना , दुःख आ खड़े होते हैं। और वे तुम्हारे सारे विवेक-प्रयोग शक्ति को आच्छादित कर, स्वयं देहधारी समझने के बदले देहध्यास तुम्हें बेचैन कर देते हैं।
इसलिए यह जान लो कि ईश्वर की कृपा हुए बिना , माया के द्वार छोड़े बिना किसी को आत्मज्ञान नहीं होता , दुःख-कष्टों का अंत नहीं होता। सुना नहीं दुर्गासप्तशती में कहा है ,
"सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये *
(दु.स.श. 1./53---58)
जब तक महामाया पथ के विघ्नों को हटा न दे तब तक कुछ नहीं हो पाता। ज्योंही महामाया की कृपा होती है , त्योंही जीव को ईश्वरदर्शन होते हैं ; और वह समस्त दुःख-कष्टों के हाथ से छुटकारा पा जाता है। नहीं तो लाख विचार करो, कुछ नहीं होता। ऐसा कहते हैं कि अजवायन का एक दाना चावल के सौ दानों को पचा डालता है। पर जब पेट की बीमारी होती है तब सौ अजवायन के दाने भी एक चावल के दाने को हजम नहीं करा सकते। यह भी ऐसा ही जानना।
ज्ञान-योगी निर्गुण , निराकार , निर्विशेष ब्रह्म को जानना चाहता है। परन्तु इस युग के लिए भक्तियोग ही सहज मार्ग है। भक्तिभाव से ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिए , उनके पूर्ण शरणागत होना चाहिए। भगवान भक्त की रक्षा करते हैं। और यदि भक्त चाहे तो भगवान उसे ब्रह्मज्ञान भी देते हैं। साधारणतः भक्त ईश्वर का सगुणसाकार रूप ही देखना चाहता है। परन्तु इच्छामय ईश्वर यदि चाहें तो भक्त को सब ऐश्वर्यों का अधिकारी बनाते हैं , भक्ति भी देते हैं और ज्ञान भी। उसे भावसमाधि में रूपदर्शन भी होते हैं , और निर्विकल्प समाधि में निर्गुण स्वरुप के दर्शन भी। अगर कोई किसी तरह एक बार कलकत्ता आ पहुँचे तो उसे वहाँ के प्रसिद्द किले का मैदान , मानुमेंट , अजायबघर सभी कुछ दिख सकता है।अहंकार के आसन्न मृत्यु के क्षणों में भी परहित के लिए प्राणों को न्योछावर करने का साहस करते हीभावसमाधि में रूपदर्शन (साक्षात् माँ सारदा देवी के रूप दर्शन ? 1987 बेलघड़िया) और निर्विकल्प समाधि में निर्गुण स्वरूप की अनुभूति (1992 -ऊँच, बनारस ??)]
अद्वैत ज्ञान श्रेष्ठ है (वेदान्त का Oneness और Inherent Divinity की अनुभूति श्रेष्ठ है) परन्तु शुरू में ईश्वर की आराधना सेव्य -सेवक भाव से , उपास्य-उपासक भाव से करनी चाहिए। यह सबसे सहज पथ है , इसी से आगे चलकर अद्वैत ज्ञान सरलता सेप्राप्त होता है।
साधारणतया भक्त ब्रह्मज्ञान नहीं चाहता। वह ईश्वर के साकार रूप के दर्शन करना चाहता हैं -जगज्जननी काली या श्रीकृष्ण, श्रीचैतन्य आदि अवतारों के रूप ही उसे अच्छे लगते हैं। वह नहीं चाहता कि समाधि मैं-पन (मिथ्या अहं) का पूर्ण नाश हो जाये। वह इतना मैं-पन (दासस्य दासोऽहं) बनाये रखना चाहता है , जिसके द्वारा वह भगवान के साकार रूप के दर्शन [शिवज्ञान से जीवसेवा 'Be and Make' आन्दोलन] का आनंद लूट सके। वह चीनी खाना चाहता है , स्वयं चीनी बनना नहीं चाहता।
शक्ति का उपासक अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या-माँ सारदा देवी) को 'माया' नहीं मानता बल्कि जगत जननी समझता है, अपनी 'माँ' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह - चाहे अमजद डकैत हो या स्वामी सारदानन्द जी' उनके सभी भक्त सदैव निर्भय रहते हैं; क्योंकि माँ श्री सारदा सभी की माँ हैं ! क्योंकि उसकी माँ तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वे स्वयं इतनी प्रकाशमयी हैं कि उनकी सन्तानों का मायारूपी अन्धकार (पंचक्लेश) स्वत: ही नष्ट हो जाते हैं ।]
(संकलन साभार / स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
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महामण्डल पुस्तिका विवेकानन्द दर्शनम् (1-8) का सारांश
श्लोक -१.
यह जगत क्या है; और ऐसा वैषम्य पूर्ण जगत रचना का उद्देश्य क्या है ?
नान्यदेका चित्रमाला जगदेतच्चराचरम् |
एष वर्णमयो वर्गो भावमेकं प्रकाशते || (1)
' After all, this world is a series of pictures. ' This colorful conglomeration expresses one idea only.
" सत्य-सा प्रतीत होते हुए भी, आखिरकार- यह चराचर जगत् सतत परिवर्तनशील छाया-चित्रों की एक श्रृंखला मात्र ही तो है। और चलचित्रों के इस सतरंगी छटा-समुच्चय के द्वारा केवल एक ही उद्देश्य अभिव्यक्त होता है।"----और वह उद्येश्य क्या है ?
श्लोक -२.
🏹मनुष्य क्रमशः पूर्णत्व प्राप्ति की ओर अग्रसर हो रहा है ! 🏹
2. Man is marching towards perfection. That is -- ' the great interest running through. We were all watching the making of men, and that alone.'
२.अपने भ्रमों-भूलों को त्यागता हुआ - मनुष्य क्रमशः पूर्णत्व प्राप्ति (100 % निःस्वार्थपरता अविरोध आदर्श) की ओर अग्रसर हो रहा है ! ' इस संसार-चलचित्र रूपी धारावाहिक के माध्यम से हम सभी लोग अभी तक केवल मनुष्य को ' मानहूश ' अर्थात आप्त-पुरुष या ब्रह्मविद् ' मनुष्य ' बनते हुए देख रहे थे !
श्लोक :३
[Oneness of Existence and Inherent Divinity]
'मानव जाति के 'अस्तित्व की एकता और अंतर्निहित दिव्यता '
[का पता बता दो, जगत उसे सुनने को बाध्य है !)
आदर्शस्य वर्णनञ्च् कियत् शब्दैः तु शक्यते-
ब्रह्मत्वञ्च् मनुष्याणामाचारे तत् प्रकाशनम्॥ 3
" My ideal indeed can be put into a few words and that is: to preach unto mankind their Inherent Divinity, and how to make it manifest in every movement of life."
मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है- मनुष्य जाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे प्रकट करने का उपाय बताना ।
श्लोक-४.
🏹भारत को पहले आध्यात्मिक विचारों से आप्लावित कर दो 🏹
अन्नदानं वरं मन्ये विद्यादानं ततः परम् -
ज्ञानदानं सदा श्रेष्ठं ज्ञानेन हि विमुच्यते॥ ४।।
1. 'First of all, comes the gift of food; next is the gift of learning, and the highest of all is the gift of knowledge.'
2. 'only knowledge can make you free.
१. ' पहले अन्नदान; उसके बाद विद्यादान और सर्वोपरि है ज्ञानदान !'
अतएव - " भारत को पहले आध्यात्मिक विचारों से आप्लावित कर दो, फिर अन्य विचार अपने आप ही आ जायेंगे। आध्यात्मिकता और आध्यात्मिक ज्ञान (Spiritual Knowledge) का दान सर्वोत्तम दान है, क्योंकि यह हमें संसार के आवागमन से मुक्त कर देता है। इसके बाद है लौकिक ज्ञान (Secular Knowledge) का दान, क्योंकि यह आध्यात्मिक ज्ञान के लिये हमारी आँखें खोल देता है। इसके बाद अत है जीवन-दान, और चौथा है अन्न दान।" (३:२६०)
२. " कोई भी कर्म तुम्हें मुक्ति नहीं दे सकता, केवल ज्ञान (आत्मज्ञान) के द्वारा ही मुक्ति हो सकती है।"
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श्लोक :५
🔱अन्तर्निहित ब्रह्मत्व (दिव्यता) को अभिव्यक्त करो 🔱
ज्ञानभक्तिक्रियायोगैः राजयोगसमाश्रये -
समं वै लभते ज्ञानमेकेनैवाधिकेन वा ॥ ५।।
'By Work, or Worship, or Psychic control, or Philosophy - by one, or more, or all of these ' - the same knowledge is attainable.
कर्म, उपासना, मनःसंयम, अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह्मभाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया-कलाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं।
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श्लोक :६
युवावस्था से ही धर्मशील, चरित्रवान मनुष्य बनो और व्यभिचार से बचो !
ईश्वरो वै यविष्ठः स्यादिति श्रुतिविवेचना -
युवानो धर्मशीलाः स्युधर्मः शीलस्य भूषणम् ॥ ६।।
1. God is the most youthful --- so holds the Vedas (Rig Veda 1.26.2)
2. ' One should be devoted to religion even in one's youth.'
3. Youths should be righteous, ' be moral, be brave', and learn the right code of conduct ; virtue and righteousness beautify character.
१. वेदों में कहा गया है - " नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः " अर्थात जो चरित्रबल के अतिशय उत्साह और साहस से सर्वस्मिन्काले(सदा) भरा रहे उसे देवतुल्य 'युवा' (यविष्ठ) कहते हैं! "
२. जीवन की अनित्यता के कारण युवाकाल में ही धर्मशील (चरित्रवान-विवेकी) मनुष्य बनना चाहिये। कौन जानता है कब किसका शरीर छूट जायगा ?
३. युवाओं के लिये नीतिपरायणता तथा साहस को छोड़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है।' पूर्ण नीतिपरायण अर्थात 'कामिनी -कांचन' में अनासक्त तथा साहसी बनो, सद्गुण एवं धार्मिकता ही मनुष्य के चरित्र को अलंकृत करते हैं। युवा अवस्था से ही धर्मपरायण होना चाहिए, व्यभिचार, चोरी, झूठ, नशा अदि से बचना चाहिए क्योंकि धर्मनिष्ठा सदाचार का आभूषण है।
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श्लोक:७
(Para-Bhakti or Supreme Devotion:परा-भक्ति या सर्वोच्च भक्ति)
तुम नश्वर देह नहीं , मनुष्य-देहधारी अविनाशी आत्मा हो !
जीवः शिव इति ज्ञानं नरो नारायणो ध्रुवम् -
जीवसेवा परो धर्मः परोपकृतये वयम् ।। ७।।
1. Every being is God (Shiva) --this is true knowledge; ' man is the greatest of all beings.'
2. ' There is no greater Dharma than this service of living beings.'
3. ' Blessed are they whose bodies get destroyed in the service of others.'
१. प्रत्येक जीव ईश्वर (शिव) है --यही सच्चा ज्ञान है; " मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है ! "
२. ' जीव-सेवा से बढ़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है।'
३. " धन्य हैं वे, जो अपने शरीर को दूसरों की सेवा में न्योछावर कर देते हैं।"
[प्रसंग -समष्टि की माँ ' डकैत, हत्यारा अमजद और स्वामी सारदानन्द - दोनों की माँ !! जगत-जननी माँ श्रीश्री सारदा देवी से प्रेम किये बिना हम किसी ईर्ष्यालु ,हत्यारे , व्यभिचारी भाई से प्रेम कैसे कर सकते हैं ? परा-भक्ति या सर्वोच्च भक्ति " विश्वप्रेम और उससे आत्मसमर्पण का उदय" (४/५६) : (Universal Love and How It Leads to Self-Surrender): "How can we love the Vyashti the particular, without first loving the Samashti, the universal (Mother)?" Volume 3 Page 81/ Para-Bhakti or Supreme Devotion/ ]
समष्टि से प्रेम किये बिना हम व्यष्टि से कैसे प्रेम कर सकते हैं ? भक्त उस एक सर्वव्यापी पुरुष (अवतार वरिष्ठ-माँ काली) की साक्षात् उपलब्धि कर लेना चाहता है, जिससे प्रेम करने से वह सारे विश्व से प्रेम कर सके। भक्त इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि यदि तुम केवल एक के बाद दूसरे व्यक्ति (हत्यारा ,डकैत -साधु या शरीर M/F) से प्रेम करते चले जाओ , तो भी अनन्त समय तक संसार को एक समष्टि के रूप में प्यार करने में समर्थ न हो सकोगे। पर अन्त में जब यह मूल सत्य ज्ञात हो जाता है कि समस्त प्रेम की समष्टि ईश्वर है, संसार के बद्ध, मुमुक्षु , मुक्त या नित्यमुक्त सारे जीवात्माओं की आदर्श-समष्टि ही ईश्वर है, तभी यह विश्वप्रेम सम्भव होता है। ईश्वर ही समष्टि है और यह दृष्टिगोचर जगत उसीका परिच्छिन्न भाव है - उसीकी अभिव्यक्ति है। यदि हम इस समष्टि को प्यार करें, तो इससे सभी को प्यार करना हो जाता है। तब जगत को प्यार करना और उसका कल्याण करना सहज हो जाता है। किन्तु, पहले भगवत्प्रेम के द्वारा(ठाकुर-माँ -स्वामीजी-या उनके दासों के दास की भक्ति के द्वारा) हमें यह शक्ति प्राप्त कर लेनी होगी, अन्यथा संसार की भलाई करना कोई हँसी -खेल नहीं है। (महामण्डल का कर्मी बनना , विश्व का कल्याण करना - युवाओं को चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने ' Be and Make ' की शिक्षा देना कोई हँसीखेल नहीं है।) भक्त कहता है , " सब कुछ उसीका है, वह मेरा प्रियतम है, मैं उससे प्रेम करता हूँ। "इस प्रकार भक्त को सब कुछ पवित्र प्रतीत होने लगता है, क्योंकि सभी >उसीकी सन्तान हैं, उसके अंगस्वरूप हैं, उसके रूप हैं। तब फिर हम किसीको कैसे चोट पहुँचा सकते हैं? दूसरों को बिना प्यार किये हम कैसे रह सकते हैं ? (>>>अमजद डकैत और स्वामी सारदानन्द दोनों माँ तारा -श्री सारदा देवी की सन्तान हैं !) जब जीवात्मा इस परम प्रेमानन्द को आत्मसात करने में सफल होती है (परमात्मा बुद्धिगम्य नहीं, आत्मगम्य हैं ! जानकर भी जीवित बच जाती है !???), तब वह ईश्वर को सर्वभूतों में देखने लगती है। इस प्रकार [विवेक-दर्शन के अभ्यास से विवेक-स्रोत उद्घाटित होते ही] हमारा ह्रदयप्रेम का एक अनन्त श्रोत (Love -Dynamo) बन जाता है। तब मनुष्य मनुष्य के रूप में नहीं दीखता , वरन साक्षात् ईश्वर के रूप में ही दीख पड़ता है ; ऐसे प्रेमी की आँखों से बाघ का भी बाघ-रूप लुप्त हो जाता है और उसमें स्वयं भगवान प्रकाश-मान दिख पड़ता है। इस प्रकार भक्ति की इस प्रगाढ़ अवस्था में सभी प्राणी हमारे लिए उपास्य हो जाते हैं। — "Knowing that Hari, the Lord, is in every being, the wise have thus to manifest unswerving love towards all beings."
एवं सर्वेषु भूतेषु भक्तिरव्यभिचारिणी।
कर्तव्या पण्डितैर्ज्ञात्वा सर्वभूतमयं हरिम्॥
'हरि को या नारायण को सब भूतों में अवस्थित देखकर ज्ञानी को सब प्राणियों के प्रति अव्यव्य-भिचारिणी भक्ति रखनी चाहिए। इस प्रगाढ़, सर्वग्राही प्रेम के फलस्वरूप पूर्ण आत्मसमर्पण की अवस्था उपस्थित होती है। तब यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि संसार में भला-बुरा जो कुछ होता है, कुछ भी हमारे लिए अनिष्टकर नहीं। शास्त्रों में इसीको अप्रातिकुल्य (Aprâtikulya.-अविरोध) कहा जाता है।
जहाँ पहुँचकर गम और ख़ुशी का फर्क महसूस ही नहीं होता, तो वह शिकायत किस बात की करे ? शास्त्रों ने इसी को 'अप्रातिकूल्य' कहा है। ऐसे अनन्य प्रेमी के जीवन में जब कोई दुःख आता है, तो कहता है - " दुःख ! स्वागत है तुम्हारा।" यदि सर्प आये तो कहेगा," विराजो, सर्प!" यहाँ तक कि मृत्यु भी आये, तो वह अपने अधरों पर मुस्कान लिये उसका स्वागत करेगा। हम शेर से अपनी शरीर की रक्षा क्यों करें ? हम उसे शेर को क्यों न दे दें ? यह प्रेम-धर्म की वह चोटी है, सिर को चकरा देनेवाली ऐसी ऊँचाई है, जिस पर बहुत थोड़े से लोग ही चढ़ पाते हैं। हम अपने इस शरीर को अल्प अथवा अधिक समय तक भले ही बनाये रख लें, पर उससे क्या ? हमारे शरीर का एक न एक दिन नाश होना तो अवश्यम्भावी है। उसका अस्तित्व चिरस्थायी नहीं है। Blessed are they whose bodies get destroyed in the service of others. धन्य हैं वे जो अपने जीवन को दूसरों की सेवा में न्योछावर कर देते हैं ! (४/५८)
इस संसार में जब मृत्यु निश्चित है, तो श्रेष्ठ यही है कि यह शरीर नीच कार्य की अपेक्षा भारत कल्याण में ही अर्पित हो जाये। ' हम भले ही अपने जीवन को 76- 84-100 वर्ष तक खींच ले जायें, पर उसके बाद ? उसके बाद क्या होता है ? ऐसा समय अवश्य आता है, जब उसे विघटित होना पड़ता है। ईसा, बुद्ध और मुहम्मद सभी दिवंगत हो गए। संसार के महापुरुष और आचार्यगण (नवनीदा के पितामह आचार्यदेव शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय) आज इस धरती से उठ गए हैं।
भक्त कहता है, इस क्षणभंगुर संसार में, जहाँ प्रत्येक वस्तु टुकड़े-टुकड़े हो धूल में मिली जा रही है , हमें अपने समय का सदुपयोग कर लेना चाहिए। और वास्तव में जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे सर्वभूतों की सेवा में न्योछावर कर दिया जाये। हमारा सबसे बड़ा भ्रम यह है कि हमारा/(दूसरों का ? यह काला या गोरा)यह शरीर ही हम हैं और जिस प्रकार से हो, इसकी रक्षा करनी होगी, इसे सुखी रखना होगा। यह भयानक देहात्मबुद्धि ही संसार में सब प्रकार की स्वार्थपरता जड़ है। यदि तुम यह निश्चित रूप से जान सको कि तुम शरीर से बिल्कुल पृथक हो, तो फिर इस दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं रह जायेगा , जिसके साथ तुम्हारा विरोध हो सके। [तुम अविरोध में प्रतिष्ठित हो जाओगे। तब तुम सब प्रकार की स्वार्थपरता से अतीत हो जाओगे।- यही सच्ची शरणागति है - 'जो होने का है, हो। यही 'तेरी इच्छा पूर्ण हो ' का तात्पर्य है। ४/५९
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श्लोक :८
" श्रीरामकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन ही सर्वधर्म समन्वय का मूर्तमान स्वरुप था !
उत्तिष्ठत चरैवेति गुणान् तामसिकान् जहि ।
जातश्चेत् प्रेहि संसारात् त्वक्त्वा चिह्नमनूत्तमम् ॥ ८
1. ' Arise ! Awake ! and stop not till the goal is reached !'
2. ' Onward ! Onward !' Give up all numbing qualities.
3. ' As you have come into this world, leave some mark behind.'
१. ' उठो, जागो, जब तक वांछित लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक निरंतर उसकी ओर बढ़ते जाओ।'
२. ' आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो ! जड़वत कर देने वाली आदतों का परित्याग कर दो।'
३. ' काम में लग जा कितने दिनों का है यह जीवन ? संसार में जब आया है, तब एक स्मृति छोड़कर जा।'
प्रसंग- [१. कोलकाता-अभिनन्दन का उत्तर:५: २०३/ २. ग्रीष्मकाल, १८९४ में स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित पत्र/३. (From the Diary of a disciple २३ / बेलूड़ मठ निर्माण के समय वर्ष १८९८ ]
परिच्छेद 139 ~🙋श्रीरामकृष्ण का भक्तों के प्रति प्रेम🙋
(१)
[(22 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
राखाल, शशि आदि भक्तों के संग में
काशीपुर के बगीचे में शाम को राखाल, शशि और मास्टर टहल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण बीमार हैं, बगीचे में चिकित्सा कराने के लिए आये हुए हैं । वे ऊपर के कमरे में हैं । भक्तगण उनकी सेवा कर रहे हैं । आज बृहस्पतिवार है, 22 अप्रैल, 1886।
কাশীপুরের বাগান। রাখাল, শশী ও মাস্টার সন্ধ্যার সময় উদ্যানপথে পাদচারণ করিতেছেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ পীড়িত — বাগানে চিকিৎসা করাইতে আসিয়াছেন। তিনি উপরে দ্বিতলের ঘরে আছেন, ভক্তেরা তাঁহার সেবা করিতেছেন। আজ বৃহস্পতিবার, ২২শে এপ্রিল ১৮৮৬ খ্রীষ্টাব্দ, গুড ফ্রাইডে-এর পূর্বদিন।
In the evening Rakhal, Sashi, and M. were strolling in the garden at Cossipore.
[(22 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
🕊🏹सा चातुरी चातुरी 🕊🏹
मास्टर - वे तो तीनों गुणों से परे एक बालक हैं ।
M: "The Master is like a child — beyond the three gunas."
মাস্টার — তিনি তো গুণাতীত বালক।
शशि और राखाल - श्रीरामकृष्ण ने वैसा ही कहा है ।
SASHI AND RAKHAL: "He himself has said that."
শশী ও রাখাল — ঠাকুর বলেছেন, তাঁর ওই অবস্থা।
राखाल - जैसे एक ऊँची मीनार । वहाँ बैठने पर सब समाचार मिलता रहता है, सब कुछ देख सकते हैं, परन्तु वहाँ कोई पहुँच नहीं सकता ।
RAKHAL: "He sits in a tower, as it were, from which he gets all information and sees everything; but others cannot go there and reach him."
রাখাল — যেমন একটা টাওয়ার। সেখানে বসে সব খবর পাওয়া যায়, দেখতে পাওয়া যায়, কিন্তু কেউ যেতে পারে না, কেউ নাগাল পায় না।
मास्टर - उन्होंने कहा है, 'इस अवस्था में सदा ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं ।' विषयरूपी रस के न रहने के कारण सूखी लकड़ी आग जल्दी पकड़ती है ।
M: "He said, 'In such a state of mind one sees God constantly.' In him there is not the slightest trace of worldliness. His mind is like dry fuel, which catches fire quickly."
মাস্টার — ইনি বলেছেন, এ-অবস্থায় সর্বদা ঈশ্বরদর্শন হতে পারে। বিষয়রস নাই, তাই শুষ্ক কাঠ শীঘ্র ধরে যায়।
शशि - बुद्धि में कितने भेद हैं, यह वे चारु को बतला रहे थे । जिस बुद्धि से ईश्वर की प्राप्ति होती है, वही बुद्धि ठीक है । जिस बुद्धि से रुपया मिलता है, घर बनता है, डिप्टी मैजिस्ट्रेट या वकील होता है, वह बुद्धि नाममात्र की है । वह पतले दही की तरह है, जिसमें पानी का भाग अधिक है । उसमें सिर्फ चिउड़ा भीग सकता है । वह जमे दही की तरह अच्छा दही नहीं है । जिस बुद्धि से ईश्वर की प्राप्ति होती है, वही बुद्धि जमे दही की तरह उत्कृष्ट कहलाती है ।
[दादा कहते थे :
या राका शशिशोभना गतघना सा यामिनी यामिनी !
या सौर्न्दययुता मन पतिरता सा कामिनी कामिनी !
या गोविन्द पदारविन्द मधुरा सा माधुरी माधुरी !
या लोकद्वय साधिनी चतुरता सा चातुरी चातुरी !
पूर्णिमा की रात्रि मेँ चन्द्रमा जब पूर्ण रुप से उदय होता है, वह रात्रि बहुत शोभायमान होती है।सौर्न्दय से युक्त जिस नारी के जीवन मेँ पतिव्रत धर्म होता है, वही धन्य है वही सुन्दरी है !भगवान के पदारविन्दो मेँ जिनका प्रेम हो, वही मानव जीवन की मधुरिमा है !और जिस चतुरता से लोक और परलोक दोनो सुधर जाय वही मानव जीवन की चतुरता है !]
SASHI: "He described the different kinds of intelligence to Charu. The right intelligence is that through which one attains God: but the intelligence that enables one to become a deputy magistrate or a lawyer, or to acquire a house, is a mean intelligence. It is like thin and watery curd, which merely soaks flattened rice but does not add any flavour to it. It is not like thick, superior curd. But the intelligence through which one attains God is like thick curd."
শশী — বুদ্ধি কত রকম, চারুকে বলছিলেন। যে বুদ্ধিতে ভগবানলাভ হয়, সেই ঠিক বুদ্ধি। যে বুদ্ধিতে টাকা হয়, বাড়ি হয়, ডেপুটির কর্ম হয়, উকিল হয় সে বুদ্ধি চিঁড়েভেজা বুদ্ধি। সে বুদ্ধিতে জোলো দইয়ের মতো চিঁড়েটা ভেজে মাত্র। শুকো দইয়ের মতো উঁচুদরের দই নয়। যে বুদ্ধিতে ভগবানলাভ হয়, সেই বুদ্ধিই শুকো দইয়ের মতো উৎকৃষ্ট দই।
मास्टर – अहा ! कैसी सुन्दर बात है !
M: "Ah, what wonderful words!"
মাস্টার — আহা! কি কথা!
[(22 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
🔱🕊 🏹जीव का आनन्द विषयानन्द, ऋषियों का आनन्द ब्रह्मानन्द🔱🕊 🏹
शशि - काली तपस्वी (स्वामी अभेदानन्द) ने श्रीरामकृष्ण से कहा था, “आनन्द से क्या होगा ? आनन्द तो भीलों के भी है । जंगली लोग भी 'हो हो' करके नाचते और गाते हैं ।"
SASHI: "Kali1 said to the Master: 'What's the good of having joy? The Bhils are joyous. Savages are always singing and dancing in a frenzy of delight.'"
শশী — কালী তপস্বী ঠাকুরের কাছে বলেছিলেন, ‘কি হবে আনন্দ? ভীলদের তো আনন্দ আছে। অসভ্য হো-হো নাচছে-গাইছে।’
राखाल - उन्होंने (श्रीरामकृष्ण ने) कहा, 'यह क्या ? ब्रह्मानन्द और विषयानन्द क्या एक हैं ? जीव विषयानन्द (Worldly pleasure) लेकर है । सम्पूर्ण विषयासक्ति के बिना गये ब्रह्मानन्द कभी मिल नहीं सकता । एक ओर रुपये और इन्द्रिय-सुख का आनन्द है और दूसरी ओर है ईश्वर-प्राप्ति का आनन्द । क्या ये दो कभी समान हो सकते हैं ? ऋषियों ने इस ब्रह्मानन्द (Bliss of Brahman)का भोग किया था ।'
RAKHAL: "He [meaning the Master] replied to Kali: 'What do you mean? Can the Bliss of Brahman be the same as worldly pleasure? Ordinary men are satisfied with worldly pleasure. One cannot enjoy the Bliss of Brahman unless one completely rids oneself of attachment to worldly things. There is the joy of money and sense experience, and there is the Bliss of God-realization. Can the two ever be the same? The rishis enjoyed the Bliss of Brahman.'"
রাখাল — উনি বললেন, সে কি? ব্রহ্মানন্দ আর বিষয়ানন্দ এক? জীবেরা বিষয়ানন্দ নিয়ে আছে। বিষয়াসক্তি সব না গেলে ব্রহ্মানন্দ হয় না। একদিকে টাকার আনন্দ, ইন্দ্রিয়সুখের আনন্দ, আর-একদিকে ঈশ্বরকে পেয়ে আনন্দ। এই দুই কখন সমান হতে পারে? ঋষিরা এ ব্রহ্মানন্দ ভোগ করেছিলেন।
[(22 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
🏹सन्तानोत्पत्ति करने की शक्ति और ईश्वर-प्राप्ति की शक्ति दोनों क्या एक है ?🏹
[Spirituality in Childbearing Women :https://pmc.ncbi.nlm.nih.gov/articles/PMC2866430/]
मास्टर - काली इस समय बुद्धदेव की चिन्ता करते हैं न; इसलिए आनन्द के उस पार की बातें कह रहे हैं ।
M: "You see, Kali nowadays meditates on Buddha; that is why he speaks of a state beyond Bliss."
মাস্টার — কালী এখন বুদ্ধদেবকে চিন্তা করেন কিনা তাই সব আনন্দের পারের কথা বলছেন।
राखाल - श्रीरामकृष्ण के पास भी बुद्धदेव की बातचीत काली ने उठायी थी । श्रीरामकृष्णदेव ने कहा, 'बुद्धदेव अवतार-पुरुष हैं । उनके साथ किसी की क्या तुलना ? बड़े घर की बड़ी बातें ।'काली ने कहा था, 'ईश्वर की शक्ति ही तो सब कुछ है । उसी शक्ति से ईश्वर का आनन्द मिलता है, और उसी से विषय का भी ।'
RAKHAL: "Yes, Kali told the Master about Buddha. Sri Ramakrishna said to him: 'Buddha is an Incarnation of God. How can you compare him to anybody else? As he is great, so too is his teaching great.' Kali said to him: 'Everything, indeed, is the manifestation of God's Power. Both worldly pleasure and the Bliss of God are the manifestation of that Power.'"
রাখাল — তাঁর কাছেও বুদ্ধদেবের কথা তুলেছিল। পরমহংসদেব বললেন, “বুদ্ধদেব অবতার, তাঁর সঙ্গে কি ধরা? বড় ঘরের বড় কথা।” কালী বলেছিল, “তাঁর শক্তি তো সব। সেই শক্তিতেই ঈশ্বরের আনন্দ আর সেই শক্তিতেই তো বিষয়ানন্দ হয় —”
मास्टर - फिर उन्होंने क्या कहा ?
M: "What did the Master say to that?"
মাস্টার — ইনি কি বললেন?
राखाल - उन्होंने (श्रीरामकृष्ण ने) कहा 'ऐसा कैसे हो सकता है?-- सन्तानोत्पत्ति करने की शक्ति और ईश्वर-प्राप्ति की शक्ति दोनों क्या एक है ?’
RAKHAL: "He said: 'How can that be? Is the power to beget a child the same as the power through which one realizes God?'"
রাখাল — ইনি বললেন, সে কি? সন্তান উৎপাদনের শক্তি আর ঈশ্বরলাভের শক্তি কি এক?
[(22 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
🏹कामिनी-कांचन और कीर्ति के जंजाल से निकलना बहुत कठिन है 🏹
बगीचे के दुमँजले कमरे में भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । शरीर अधिकाधिक अस्वस्थ होता जा रहा है । आज फिर डाक्टर महेन्द्र सरकार और डाक्टर राजेन्द्र दत्त देखने के लिए आये हैं । कमरे में राखाल, नरेन्द्र, शशि, मास्टर, सुरेन्द्र, भवनाथ तथा अन्य बहुतसे भक्त बैठे हैं ।
Sri Ramakrishna was sitting in his room on the second floor. Narendra, Rakhal, Sashi, Surendra, M., Bhavanath, and other devotees were present. Dr. Mahendra Sarkar and Dr. Rajendra Dutta were also there to examine him. His condition was growing worse.
বাগানের সেই দোতলার ‘হল’ ঘরে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। শরীর উত্তরোত্তর অসুস্থ হইতেছে, আজ আবার ডাক্তার মহেন্দ্র সরকার ও ডাক্তার রাজেন্দ্র দত্ত দেখিতে আসিয়াছেন — যদি চিকিৎসার দ্বারা কোন উপকার হয়। ঘরে নরেন্দ্র, রাখাল, শশী, সুরেন্দ্র, মাস্টার, ভবনাথ ও অন্যন্য অনেক ভক্তেরা আছেন।
बगीचा पाकपाड़ा के बाबुओं का है । किराये से है, ६०-६५ रुपये देने पड़ते हैं । भक्तों में जो कम उम्र के हैं, वे बगीचे में ही रहते हैं । दिन-रात श्रीरामकृष्ण की सेवा वहीं किया करते हैं ।गृही भक्त भी बीचबीच में आते हैं और उनकी सेवा किया करते हैं । वहीं रहकर श्रीरामकृष्ण की सेवा करने की इच्छा उन्हें भी है, परन्तु अपने-अपने कार्य में लगे रहने के कारण सदा वहाँ रहकर वे उनकी सेवा नहीं कर सकते । बगीचे का खर्च चलाने के लिए अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार वे आर्थिक सहायता देते हैं । अधिकांश खर्च सुरेन्द्र ही देते हैं । उन्हीं के नाम से किराये पर बगीचे की लिखा-पढ़ी हुई है। एक रसोइया और दासी, ये दो नौकर भी सदा वहीं रहते हैं ।
The house-rent was between sixty and sixty-five rupees. Surendra bore most of the expenses and had rented the house in his name. The other householder devotees contributed financial help according to their power. A cook and a maid had been engaged to look after the members of the house-hold.
বাগানটি পাকপারার বাবুদের। ভাড়া দিতে হয় — প্রায় ৬০ - ৬৫ টাকা। ছোকরা ভক্তেরা প্রায় বাগানেই থাকেন। তাঁহারাই নিশিদিন ঠাকুরের সেবা করেন। গৃহী ভক্তেরা সর্বদা আসেন ও মাঝে মাঝে রাত্রেও থাকেন। তাঁহাদেরও নিশিদিন ঠাকুরের সেবা করিবার ইচ্ছা। কিন্তু সকলে কর্মে বদ্ধ — কোন না কোন কর্ম করিতে হয়। সর্বদা ওখানে থাকিয়া সেবা করিতে পারেন না। বাগানের খরচ চালাইবার জন্য যাহার যাহা শক্তি ঠাকুরের সেবার্থ প্রদান করেন; অধিকাংশ খরচ সুরেন্দ্র দেন! তাঁহারই নামে বাগানভাড়ার লেখাপড়া হইয়াছে। একটি পাচক ব্রাহ্মণ ও একটি দাসী সর্বদা নিযুক্ত আছে।
श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर सरकार आदि से) - बड़ा खर्च हो रहा है ।
MASTER (to Dr. Sarkar and the others): "The expenses are mounting."
শ্রীরামকৃষ্ণ (ডাক্তার সরকার ইত্যদির প্রতি) — বড় খরচা হচ্ছে।
डाक्टर - (भक्तों की ओर इशारा करके) - ये सब लोग तैयार भी तो हैं । बगीचे का सम्पूर्ण खर्च देते हुए भी इन्हें कोई कष्ट नहीं है । (श्रीरामकृष्ण से) अब देखो, कांचन की आवश्यकता आ पड़ी।
DR. SARKAR (pointing to the devotees) "But they are ready to bear them. They do not hesitate to spend money. (To Sri Ramakrishna) Now, you see, gold is necessary."
ডাক্তার (ভক্তদিগকে দেখাইয়া) — তা এরা সব প্রস্তুত। বাগানের খরচ সমস্ত দিতে এদের কোন কষ্ট নাই। (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — এখন দেখ, কাঞ্চনচাই।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - बोल ना ?
MASTER (to Narendra): "Why don't you answer?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রের প্রতি) — বল্ না?
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को उत्तर देने की आज्ञा दे रहे हैं । नरेन्द्र चुप हैं । डाक्टर फिर बातचीत कर रहे हैं ।
Narendra remained silent. Dr. Sarkar resumed the conversation.
ঠাকুর নরেন্দ্রকে উত্তর দিতে আদেশ করিলেন। নরেন্দ্র চুপ করিয়া আছেন। ডাক্তার আবার কথা কহিতেছেন।
डाक्टर - कांचन चाहिए । और फिर कामिनी भी चाहिए ।
DR. SARKAR: "Gold is necessary, and also woman."
ডাক্তার — কাঞ্চন চাই। আবার কামিনীও চাই।
राजेन्द्र डाक्टर - इनकी स्त्री इनके लिए खाना पका दिया करती हैं ।
RAJENDRA: "Yes, his [meaning Sri Ramakrishna's] wife has been cooking his meals."
রাজেন্দ্র ডাক্তার — এঁর পরিবার রেঁধে বেড়ে দিচ্ছেন।
डाक्टर सरकार - (श्रीरामकृष्ण से) – देखा ?
DR. SARKAR (to the Master): "Do you see?"
ডাক্তার সরকার (ঠাকুরের প্রতি) — দেখলে?
श्रीरामकृष्ण - ( जरा मुस्कराकर) - है लेकिन बड़ा झंझट ।
MASTER (smiling): "Yes — but very troublesome!"
শ্রীরামকৃষ্ণ (ঈষৎ হাস্য করিয়া) — বড় জঞ্জাল!
डाक्टर सरकार - झंझट न रहती, तो सब लोग परमहंस हो गये होते ।
DR. SARKAR: "If there were no troubles, then all would become paramahamsas."
ডাক্তার সরকার — জঞ্জাল না থাকলে তো সবাই পরমহংস।
श्रीरामकृष्ण - स्त्री छू जाती है, तो तबीयत अस्वस्थ हो जाती है ! और जिस जगह छू जाती है, वहाँ बड़ी देर तक सींगी मछली के काँटे के चुभ जाने के समान पीड़ा होती रहती है ।
MASTER: "If a woman touches me I fall ill. That part of my body aches as if stung by a horned fish."
শ্রীরামকৃষ্ণ — স্ত্রীলোক গায়ে ঠেকলে অসুখ হয়; যেখানে ঠেকে সেখানটা ঝনঝন করে, যেন শিঙি মাছের কাঁটা বিঁধলো।
डाक्टर - यह विश्वास तो होता है, परन्तु अपनी ओर से देखता हूँ तो कामिनी और कांचन के बिना काम ही नहीं चलता ।
DR. SARKAR: "I believe that. But how can you get along without woman?"
ডাক্তার — তা বিশ্বাস হয়, — তবে না হলে চলে কই?
श्रीरामकृष्ण - रुपया हाथ में लेता हूँ तो हाथ टेढ़ा हो जाता है - साँस रुक जाती है । रुपये से अगर कोई विद्या का संसार चला सके, ईश्वर और साधुओं की सेवा कर सके, तो उसमें दोष नहीं रह जाता ।
MASTER: "My hand gets all twisted up if I hold money in it; my breathing stops. But there is no harm in spending money to lead a spiritual life in the world — if one spends it, for instance, in the worship of God and the service of holy men and devotees.
শ্রীরামকৃষ্ণ — টাকা হাতে করলে হাত বেঁকে যায়! নিঃশ্বাস বন্ধ হয়ে যায়। টাকাতে যদি কেউ বিদ্যার সংসার করে, — ঈশ্বরের সেবা — সাধু-ভক্তের সেবা করে — তাতে দোষ নাই।
"स्त्री लेकर माया का संसार करने से मनुष्य ईश्वर को भूल जाता है । जो संसार की माँ हैं, उन्हीं ने इस माया का रूप - स्त्री का रूप धारण किया है । इसका यथार्थ ज्ञान हो जाने पर फिर माया के संसार पर जी नहीं लगता ।सब स्त्रियों पर मातृज्ञान के होने पर मनुष्य विद्या का संसार कर सकता है ।ईश्वर के दर्शन (# प्रबोध चंद्रोदय) हुए बिना स्त्री क्या वस्तु है । यह समझ में नहीं आता ।"
"A man forgets God if he is entangled in the world of maya through a woman. It is the Mother of the Universe who has assumed the form of maya, the form of woman. One who knows this rightly does not feel like leading the life of maya in the world.But he who truly realizes that all women are manifestations of the Divine Mother may lead a spiritual life in the world. Without realizing God one cannot truly know what a woman is."
“স্ত্রীলোক নিয়ে মায়ার সংসার করা! তাতে ঈশ্বরকে ভুলে যায়। যিনি জগতের মা, তিনিই এই মায়ার রূপ — স্ত্রীলোকের রূপ ধরেছেন। এটি ঠিক জানলে আর মায়ার সংসার করতে ইচ্ছা হয় না। সব স্ত্রীলোককে ঠিক মা বোধ হলে তবে বিদ্যার সংসার করতে পারে। ঈশ্বর দর্শন না হলে স্ত্রীলোক কি বস্তু বোঝা যায় না।”
होमियोपैथिक दवा का सेवन करके श्रीरामकृष्ण कुछ दिनों से जरा अच्छे रहते हैं । राजेन्द्र - अच्छे होकर आपको स्वयं होमियोपैथिक डाक्टरी करनी चाहिए, नहीं तो फिर इस मानव-जीवन का क्या उपयोग होगा ? (सब हँसते हैं ।)
Sri Ramakrishna had felt a slight improvement as a result of the homeopathic treatment. RAJENDRA (to the Master): "After getting rid of this illness you must begin to practise medicine as a homeopath. Otherwise, what's the use of this human life?" (All laugh.)
হোমিওপ্যাথিক ঔষধ খাইয়া ঠাকুর কয়দিন একটু ভাল আছেন। রাজেন্দ্র সেরে উঠে আপনার হোমিওপ্যাথি মতে ডাক্তারি করতে হবে। আর তা না হলে বেঁচে বা কি ফল? (সকলের হাস্য)
नरेन्द्र - जो मोची का काम करता है, वह कहता है कि इस संसार में चमड़े से बढ़कर और कोई चीज नहीं है ! (सब हँसे)
NARENDRA: "Nothing like leather!"2 (All laugh.)
নরেন্দ্র — Nothing like leather (যে মুচির কাজ করে, সে বলে, চামড়ার মতো উৎকৃষ্ট জিনিস এ জগতে আর কিছু নাই।) (সকলের হাস্য)
(२)
[(22 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
*श्रीरामकृष्ण की उच्च अवस्था*
कुछ देर बाद दोनों डाक्टर चले गये । श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत कर रहे हैं । कामिनी के सम्बन्ध में अपनी अवस्था बतला रहे हैं ।
A few minutes later the physicians took their leave. Sri Ramakrishna and M. were engaged in conversation. The Master was telling M. how he felt about woman.
কিয়ৎক্ষণ পরে ডাক্তারেরা চলিয়া গেলেন।ঠাকুর মাস্টারের সহিত কথা কহিতেছেন। ‘কামিনী’ সম্বন্ধে আপনার অবস্থা বলিতেছেন!
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - ये लोग कहते हैं, कामिनी और कांचन के बिना चल नहीं सकता । मेरी क्या अवस्था है, यह ये लोग नहीं जानते ।
MASTER (to M.): "They say I cannot get along without 'woman and gold'. They don't understand the state of my mind.
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — এরা কামিনী-কাঞ্চন না হলে চলে না, বলছে। আমার যে কি অবস্থা তা জানে না।
"स्त्रियों की देह में हाथ लग जाता है तो ऐंठ जाता है, वहाँ पीड़ा होने लगती है । “यदि आत्मीयता के विचार से किसी के पास जाकर बातचीत करने लगता हूँ तो बीच में एक न जाने किस तरह का पर्दा-सा पड़ा रहता है;उसके उस तरफ जाया ही नहीं जाता ।
"If I touch a woman my hand becomes numb; it aches. If in a friendly spirit I approach a woman and begin to talk to her, I feel as if a barrier had been placed between us. It is impossible for me to cross that barrier.
“মেয়েদের গায়ে হাত লাগলে হাত আড়ষ্ট, ঝনঝন করে।“যদি আত্মীয়তা করে কাছে গিয়ে কথা কইতে যাই, মাঝে যেন কি একটা আড়াল থাকে, সে আড়ালের ওদিকে যাবার জো নাই।"
कमरे में अकेला बैठा हुआ हूँ, ऐसे समय अगर कोई स्त्री आये तो एकदम बालक की-सी अवस्था हो जाती है और उसे माता की दृष्टि से देखता हूँ ।"
"If a woman enters my room when I am alone, at once I become like a child and regard her as my mother."
“ঘরে একলা বসে আছি, এমন সময় যদি কোন মেয়ে এসে পড়ে, তাহলে একেবারে বালকের অবস্থা হয়ে যাবে; আর সেই মেয়েকে মা বলে জ্ঞান হবে।”
मास्टर निर्वाक् होकर श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हुए ये सब बातें सुन हैं | कुछ दूर भवनाथ के साथ नरेन्द्र बातचीत कर रहे हैं । भवनाथ ने विवाह किया है, अब नौकरी की खोज में हैं । काशीपुर के बगीचे में श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए अधिक नहीं आ सकते । श्रीरामकृष्ण भवनाथ के लिए बड़ी चिन्ता किया करते हैं । कारण, भवनाथ संसार में फँस गये हैं । भवनाथ की उम्र २३-२४ वर्ष की होगी ।
As M. listened to these words, he became speechless with wonder at Sri Ramakrishna's exalted state of mind. Bhavanath and Narendra were sitting at a distance, talking together. Bhavanath had married and was trying to find a job; so he could not visit Sri Ramakrishna frequently at Cossipore.
মাস্টার অবাক্ হইয়া ঠাকুরের বিছানার কাছে বসিয়া এই সকল কথা শুনিতছেন। বিছানা হইতে একটু দূরে ভবনাথের সহিত নরেন্দ্র কথা কহিতেছেন। ভবনাথ বিবাহ করিয়াছেন; — কর্ম কাজের চেষ্টা করিতেছেন। কাশীপুরের বাগানে ঠাকুরকে দেখিতে আসিতে বেশি পারেন না। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ভবনাথের জন্য বড় চিন্তিত থাকেন, কেন না ভবনাথ সংসারে পড়িয়াছেন। ভবনাথের বয়স ২৩।২৪ হইবে।
MASTER (to Narendra): "Give him a lot of courage."
শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রের প্রতি) — ওকে খুব সাহস দে।
नरेन्द्र और भवनाथ श्रीरामकृष्ण की ओर देखकर मुस्कराने लगे । श्रीरामकृष्ण इशारा करके फिर भवनाथ से कह रहे हैं - "खूब वीर बनो । घूँघट के भीतर अपनी स्त्री के आँसू देखकर अपने को भूल न जाना ।ओह ! औरतें कितना रोती हैं ! - वे तो नाक छिनकने में भी रोती हैं!(नरेन्द्र, भवनाथ और मास्टर हँसते हैं ।)
Narendra and Bhavanath smiled. Sri Ramakrishna said to Bhavanath, by signs: "Be a great hero. Don't forget yourself when you see her weeping behind her veil. Oh, women cry so much — even when they blow their noses! (Narendra, Bhavanath, and M. laugh.)
নরেন্দ্র ও ভবনাথ ঠাকুরের দিকে তাকাইয়া একটু হাসিতে লাগিলেন। ঠাকুর ইশারা করিয়া আবার ভবনাথকে বলিতেছেন — “খুব বীরপুরুষ হবি। ঘোমটা দিয়ে কান্নাতে ভুলোসনে। শিকনি ফেলতে ফেলতে কান্না! (নরেন্দ্র ও মাস্টারের হাস্য)
"ईश्वर में मन को अटल भाव से स्थापित रखना ।वीर वह है, जो स्त्री के साथ रहने पर भी उससे प्रसंग नहीं करता । स्त्री के साथ केवल ईश्वरीय बातें करते रहना ।"
"Keep your mind firm on God. He who is a hero lives with a woman but does not indulge in physical pleasures.Talk to your wife only about God."
“ভগবানেতে মন ঠিক রাখবি; যে বীরপুরুষ সে রমণীর সঙ্গে থাকে, না করে রমণ! পরিবারের সঙ্গে কেবল ঈশ্বরীয় কথা কবি।”
कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण फिर इशारा करके भवनाथ से कह रहे हैं - “आज यहीं भोजन करना ।"
A few minutes later Sri Ramakrishna said to Bhavanath, by a sign, "Take your meal here today."
কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর আবার ইশারা করিয়া ভবনাথকে বলিতেছেন, “আজ এখানে খাস।”
भवनाथ - जी, बहुत अच्छा । आप मेरी चिन्ता बिलकुल न कीजिये ।
BHAVANATH: "Yes, sir. I am quite all right. Don't worry about me."
ভবনাথ — জে আজ্ঞা। আমি বেশ আছি।
सुरेन्द्र आकर बैठे । महीना वैशाख का है । भक्तगण सन्ध्या के बाद रोज श्रीरामकृष्ण को मालाएँ पहनाया करते हैं । सुरेन्द्र चुपचाप बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण ने प्रसन होकर उन्हें दो मालाएँ दीं । सुरेन्द्र ने प्रणाम करके मालाओं को पहले सिर पर धारण किया, फिर गले में डाल लिया ।
Surendra came in and took a seat. The devotees offered garlands of flowers to the Master every evening. Sri Ramakrishna put these garlands around his neck. Surendra sat quietly in the room. Sri Ramakrishna was in a very happy mood and gave him two garlands. Surendra saluted the Master and put them around his neck.
সুরেন্দ্র আসিয়া বসিয়াছেন। বৈশাখ মাস। ভক্তেরা ঠাকুরকে সন্ধ্যার পর প্রত্যহ মালা আনিয়া দেন। সেই মালাগুলি ঠাকুর এক-একটি করিয়া গলায় ধারণ করেন। সুরেন্দ্র নিঃশব্দে বসিয়া আছেন। ঠাকুর প্রসন্ন হইয়া তাঁহাকে দুইগাছি মালা দিলেন। সুরেন্দ্রও ঠাকুরকে প্রণাম করিয়া সেই মালা মস্তকে ধারণ করিয়া গলায় পরিলেন।
सब लोग चुपचाप बैठे हुए श्रीरामकृष्ण को देख रहे हैं । सुरेन्द्र उन्हें प्रणाम करके खड़े हो गये । वे चलनेवाले हैं । जाते समय भवनाथ को बुलाकर उन्होंने कहा, 'खस की टट्टी लगा देना ।'
All sat in silence and looked at Sri Ramakrishna. Surendra saluted the Master again and stood up. He was about to leave. He asked Bhavanath to hang the straw screens over the windows.
🕊 🏹जगत समस्या का एकमात्र समाधान सर्वेश्वरवाद में है ! 🕊 🏹
"Our only refuge is in pantheism"
[श्रीरामकृष्ण का उपदेश - "जो कुछ है सो तू ही है" - नरेंद्र और हीरानंद की भूमिका। ]
श्रीरामकृष्ण ऊपरवाले कमरे में बैठे हैं । सामने हीरानन्द, मास्टर तथा दो-एक भक्त और हैं । हीरानन्द के साथ दो-एक मित्र भी आये हैं । हीरानन्द सिन्ध में रहते हैं । कलकत्ते के कॉलेज में अध्ययन समाप्त करके देश चले गये थे, अब तक वहीं थे । श्रीरामकृष्ण की बीमारी का समाचार पाकर उन्हें देखने के लिए आये हैं । सिन्ध देश कलकत्ते से कोई बाईस सौ मील होगा । हीरानन्द को देखने के लिए श्रीरामकृष्ण भी उत्सुक रहते थे ।
[1883 में कलकत्ता में अपनी कॉलेज की शिक्षा पूरी करने के बाद, वे सिंध लौट आए थे और दो अख़बारों, सिंध टाइम्स और सिंध सुधार के संपादन का कार्यभार संभाला था। कलकत्ता में पढ़ाई के दौरान वे अक्सर केशव चंद्र सेन से मिलने जाते थे और उन्हें करीब से जानते थे।]
Hirananda came in with two of his friends. He was a native of Sindh, about twenty-two hundred miles from Calcutta. After finishing his college education in Calcutta in 1883, he had returned to Sindh and taken charge of editing two papers, the Sindh Times and the Sind Sudhar. While studying in Calcutta he had often visited Keshab Chandra Sen and had come to know him intimately. He had met Sri Ramakrishna at the Kali temple at Dakshineswar and had spent an occasional night there with the Master. Hearing of Sri Ramakrishna's illness, he now came to Calcutta from Sindh to see him. The Master himself had been very eager to see Hirananda.
কাশীপুরের বাগান। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ উপরের হলঘরে বসিয়া আছেন। সম্মুখে হীরানন্দ, মাস্টার, আরও দু-একটি ভক্ত, আর হীরানন্দের সঙ্গে দুইজন বন্ধু আসিয়াছেন। হীরানন্দ সিন্ধুদেশনবাসী। কলিকাতার কলেজে পড়াশুনা করিয়া দেশে ফিরিয়া গিয়া সেখানে এতদিন ছিলেন। শ্রীরামকৃষ্ণের অসুখ হইয়াছে শুনিয়া তাঁহাকে দেখিতে আসিয়াছেন। সিন্ধুদেশ কলিকাতা হইতে প্রায় এগার শত ক্রোশ হইবে। হীরানন্দকে দেখিবার জন্য ঠাকুর ব্যস্ত হইয়াছিলেন।
श्रीरामकृष्ण हीरानन्द की ओर उँगली उठाकर मास्टर को इशारा कर रहे हैं । मानो कह रहे हैं - 'यह बड़ा अच्छा लड़का है ।' श्रीरामकृष्ण - क्या तुमसे परिचय है ?
Sri Ramakrishna pointed to Hirananda and said to M., by signs: "A very fine boy. Do you know him?"
ঠাকুর হীরানন্দের দিকে অঙ্গুলি নির্দেশ করিয়া মাস্টারকে ইঙ্গিত করিলেন, — যেন বলিতেছেন, ছোকরাটি খুব ভাল।শ্রীরামকৃষ্ণ — আলাপ আছে?
मास्टर - जी हाँ, है ।
M: "Yes, sir."
মাস্টার — আজ্ঞে আছে।
श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द और मास्टर से) - तुम लोग जरा बातचीत करो, मैं सुनूँ ।
MASTER (to Hirananda and M.): "Please talk a little. I want to hear you both."
শ্রীরামকৃষ্ণ (হীরানন্দ ও মাস্টারের প্রতি) — তোমরা একটু কথা কও, আমি শুনি।
मास्टर को चुप रहते हुए देखकर श्रीरामकृष्ण ने पूछा - "क्या नरेन्द्र है ? उसे बुला लाओ ।"
When M. remained silent, Sri Ramakrishna asked him: "Is Narendra here? Call him."
नरेन्द्र - इस संसार का प्रबन्ध देखकर यह जान पड़ता है कि इसकी रचना किसी शैतान ने की है । मैं इससे अच्छे संसार की सृष्टि कर सकता था ।
NARENDRA: "The plan of the universe is devilish. I could have created a better world."
নরেন্দ্র — The scheme of the universe is devilish! I could have created a beter world! (এ জগতের বন্দোবস্ত দেখে বোধ হয় যে, শয়তানে করেছে, আমি এর চেয়ে ভাল জগৎ সৃষ্টি করতে পারতাম।)
हीरानन्द - दुःख के बिना क्या कभी सुख का अनुभव होता है ?
HIRANANDA: "Can one feel happiness without misery?"
হীরানন্দ — দুঃখ না থাকলে কি সুখ বোধ হয়?
नरेन्द्र - मैं यह नहीं कहता कि संसार की सृष्टि किस उपादान से की जाय, किन्तु मेरा मतलब यह है कि संसार का अभी जो प्रबन्ध दीख पड़ रहा है, वह अच्छा नहीं ।
"परन्तु एक बात पर विश्वास करने पर सब निपटारा हो जायगा ।"Our only refuge is in pantheism"[(pan = all; theos = God)> सर्वेश्वरवाद ] - सब ईश्वर हैं, यह विश्वास किया जाय तो उलझन सुलझ जायेगी।ईश्वर ही सब कुछ कर रहे हैं ।"
NARENDRA: "I am not making a plan for a universe, but simply giving my opinion of the present plan.
"But all these problems are solved if we have faith only in one thing, and that ispantheism #.All doubts disappear if one believes that everything is God.God alone is responsible for all that happens."
নরেন্দ্র — I am giving no scheme of the universe but simply my opinion of the present scheme. (জগৎ কি উপাদানে সৃষ্টি করতে হবে, আমি তা বলছি না। আমি বলছি — যে বন্দোবস্ত সামনে দেখছি, সে বন্দোবস্ত ভাল নয়।)
“তবে একটা বিশ্বাস করলে সব চুকে যায়।Our only refuge is in pantheism:সবই ঈশ্বর, — এই বিশ্বাস হলেই চুকে যায় !আমিই সব করছি।”
हीरानन्द - यह कहना सहज है ।
HIRANANDA: "Very easy to say that."
হীরানন্দ — ও-কথা বলা সোজা।
नरेन्द्र मधुर स्वर से निर्वाणषट्क कह रहे हैं –
ॐ मनोबुद्ध्ययहंकारचित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिव्हे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥१॥
न च प्राणसंज्ञो न वै पंचवायुर्न वा सप्तधातुर्न वा पंचकोषः ।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायुश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥२॥
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः ।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥३॥
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं न मन्त्रो न तीर्थो न वेदा न यज्ञाः ।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ताश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥४॥
न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेदः । पिता नैव में नैव माता न जन्म ।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥५॥
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् ।
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेयश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥६॥
Narendra sang Sankara's Six Stanzas on Nirvana:
Om. I am neither mind, intelligence, ego, nor chitta,Neither ears nor tongue nor the senses of smell and sight; Nor am I ether, earth, fire, water, or air: I am Pure Knowledge and Bliss: I am Siva! I am Siva!
I am neither the prana nor the five vital breaths,Neither the seven elements of the body nor its five sheaths,Nor hands nor feet nor tongue, nor the organs of sex and voiding: I am Pure Knowledge and Bliss: I am Siva! I am Siva!
Neither loathing nor liking have I, neither greed nor delusion; No sense have I of ego or pride, neither dharma nor moksha; Neither desire of the mind nor object for its desiring: I am Pure Knowledge and Bliss: I am Siva! I am Siva!
Neither right nor wrongdoing am I, neither pleasure nor pain, Nor the mantra, the sacred place, the Vedas, the sacrifice; Neither the act of eating, the eater, nor the food: I am Pure Knowledge and Bliss: I am Siva! I am Siva!
Death or fear I have none, nor any distinction of caste; Neither father nor mother nor even a birth have I; Neither friend nor comrade, neither disciple nor guru: I am Pure Knowledge and Bliss: I am Siva! I am Siva!
I have no form or fancy; the All-pervading am I; Everywhere I exist, yet I am beyond the senses; Neither salvation am I, nor anything that may be known: I am Pure Knowledge and Bliss: I am Siva! I am Siva!
ন চাসঙ্গতং নৈব মুক্তির্নমেয়শ্চিদানন্দরূপং শিবোঽহং শিবোঽহম্ ॥ ৬
हीरानन्द – वाह !
HIRANANDA: "Good!"
হীরানন্দ — বেশ।
श्रीरामकृष्ण ने हीरानन्द को इसका उत्तर देने के लिए कहा ।
SRI RAMAKRISHNA (to Hirananda, by a sign): "Give him an answer."
ঠাকুর হীরানন্দকে ইশারা করিলেন, ইহার জবাব দাও।
हीरानन्द - एक कोने से घर को देखना जैसा है, वैसा ही घर के बीच में रहकर भी देखना है । 'हे ईश्वर ! मैं तुम्हारा दास हूँ' - इससे भी ईश्वर का अनुभव होता है और 'मैं वही हूँ, सोऽहम्' - इससे भी ईश्वर का अनुभव होता है । एक द्वार से भी कमरे में जाया जाता है और अनेक द्वारों से भी जाया जाता है । सब लोग चुप हैं ।
HIRANANDA: "It is all the same, whether you look at a room from a corner or look at it from the middle. It is the same God-Consciousness that one feels, whether one says. 'O God, I am Thy servant', or, 'I am He.' One may enter a room by several doors."
হীরানন্দ — এককোণ থেকে ঘর দেখাও যা, ঘরের মাঝখানে দাঁড়িয়ে ঘর দেখাও তা। হে ঈশ্বর! আমি তোমার দাস — তাতেও ঈশ্বরানুভব হয়, আর সেই আমি, সোঽহম্ — তাতেও ঈশ্বরানুভব। একটি দ্বার দিয়েও ঘরে যাওয়া যায়, আর নানা দ্বার দিয়েও ঘরে যাওয়া যায়।
हीरानन्द ने नरेन्द्र से गाने के लिए अनुरोध किया । नरेन्द्र कौपीनपंचक गा रहे हैं –
वेदान्तवाक्येषु सदा रमन्तो भिक्षान्नमात्रेण च तुष्टिमन्तः ।
अशोकमन्तः करणे चरन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥१॥
अहर्निशं ब्रह्मणि ये रमन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥३॥
[जो चार महावाक्यों (वेदान्तिक घोषणाओं- Oneness, Inherent Divinity) के विचारों में रमता है, जिसे भिक्षा में प्राप्त अल्प अन्न से तृप्ति मिलती है, जो बिना किसी शोक के विचरण करता है, वह मनुष्य सचमुच भाग्यशाली है। VJ ब्लॉग रविवार, 25 मई 2014/' विवेकानन्द - दर्शनम् ' (6) - श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय।]
All sat in silence. Hirananda said to Narendra, "Please sing some more." Narendra sang the Five Stanzas on the Kaupin:
Roaming ever in the grove of Vedanta, Ever pleased with his beggar's morsel, Ever walking with heart free from sorrow, Blest indeed is the wearer of the loin-cloth.
Sitting at the foot of a tree for shelter, Using the palms of his hands for eating, Wrapped in a garment fine or ugly, Blest indeed is the wearer of the loin-cloth.
Satisfied fully by the Bliss within him, Curbing wholly the cravings of his senses, Contemplating day and night the Absolute Brahman, Blest indeed is the wearer of the loin-cloth.
(The loin-cloth of the sannyasi; it is an emblem of renunciation.)
অহনির্শ ব্রহ্মণি যে রমন্তঃ, কৌপীনবন্তঃ খলু ভাগ্যবন্তঃ ॥ ৩
श्रीरामकृष्ण ने ज्योंही सुना - 'अहर्निशं ब्रह्मणि ये रमन्तः' कि धीरे धीरे कहने लगे - 'अहा !' और इशारा करके बतलाने लगे कि यही योगियों का लक्षण है ।
As Sri Ramakrishna heard the line, "Contemplating day and night the Absolute Brahman", he said in a very low voice, "Ah!" Then, by a sign, he said to the devotees, "This is the characteristic of the yogi."
Witnessing the changes of mind and body, Naught but the Self within him beholding, Thinking not of outer, of inner, or of the middle, Blest indeed is the wearer of the loin-cloth.
Chanting "Brahman", the Word of redemption, Meditating only on "I am Brahman", Living on alms and wandering freely, Blest indeed is the wearer of the loin-cloth..
ভিক্ষাশিনো দিক্ষু পরিভ্রমন্তঃ, কৌপীনবন্তঃ খলু ভাগ্যবন্তঃ ॥ ৫
नरेन्द्र फिर गा रहे हैं -
“परिपूर्णमानन्दम् ।
अंगविहीनं स्मर जगन्निधानम् ।
श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचम् ।
वागतीतं प्राणस्य प्राणं परं वरेण्यम् ।"
Again Narendra sang:
Meditate on Him, the Perfect, the Embodiment of Bliss; Meditate on Him, the Formless, the Root of the Universe, The Hearer behind the ear, the Thinker behind the mind, The Speaker behind the tongue, Himself beyond all words: He is the Life of life, the Ultimate, the Adorable!
"हरएक के दिल में' यह सुनकर श्रीरामकृष्ण इशारा करके कह रहे हैं कि वे हरएक के हृदय में हैं, वे अन्तर्यामी हैं ।‘जहाँ देखा नजर तू ही आया’ यह सुनकर हीरानन्द नरेन्द्र से कह रहे हैं, “सब तू ही है, अब 'तुम तुम' हो रहा है । मैं नहीं, तुम ।
As the Master listened to the line, "Thou hast entered every heart", he said by a sign: "God dwells in everybody's heart. He is the Inner Guide."
As Narendra sang the line, "I see Thee wherever I look: all that exists art Thou", Hirananda said to-him: "Yes, 'All that exists art Thou.' Now you say: 'Thou! Thou! Not I, but Thou!'"
“হরিয়েক্ দিল্মে” এই কথাগুলি শুনিয়া ঠাকুর ইশারা করিয়া বলিতেছেন যে, তিনি প্রত্যেকের হৃদয়ে আছেন, তিনি অন্তর্যামী। “যাঁহা মায় দেখা তুহি নজর মে আয়া, যো কুছ্ হ্যায় সো তুঁহি হ্যায়!” হীরানন্দ এইটি শুনিয়া নরেন্দ্রকে বলিতেছেন, — সব্ তুঁহি হ্যায়; এখন তুঁহুঁ তুঁহুঁ। আমি নয়; তুমি!
नरेन्द्र - तुम मुझे एक दो, मैं तुम्हें एक लाख दूँगा । (अर्थात्, एक के मिलने पर आगे शून्य रखकर एक लाख कर दूगा ।) तुम ही मैं, मैं ही तुम, मेरे सिवा और कोई नहीं है ।
NARENDRA: "Give me a one and I'll give you a million. Thou art I; I am Thou. Nothing exists but I."
নরেন্দ্র — Give me one and I will give you a million (আমি যদি এক পাই, তাহলে নিযুত কোটি এ-সব আনায়াসে করতে পারি — অর্থাৎ ১-এর পর শূন্য বসাইয়া।) তুমিও আমি, আমিও তুমি, আমি বই আর কিছু নাই।
यह कहकर नरेन्द्र अष्टावक्रसंहिता से कुछ श्लोकों की आवृत्ति करने लगे । सब लोग चुपचाप बैठे हैं ।
Narendra recited a few verses from the Ashtavakra Samhita. The room again became silent.
এই বলিয়া নরেন্দ্র অষ্টাবক্রসংহিতা হইতে কতকগুলি শ্লোক আবৃত্তি করিতে লাগিলেন। আবার সকলে চুপ করিয়া বসিয়া আছেন।
श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द से, नरेन्द्र की ओर संकेत करके) - मानो म्यान से तलवार निकालकर घूम रहा है ।
(मास्टर से, हीरानन्द की ओर संकेत करके) "कितना शान्त है ! सँपेरे के पास विषधर साँप जैसे फन फैलाकर चुपचाप पड़ा हो !"
MASTER (to Hirananda, pointing to Narendra): "He seems to be walking with an unsheathed sword in his hand. (To M., pointing to Hirananda) How quiet! Like a cobra, quiet before charmer, with its hood spread."
শ্রীরামকৃষ্ণ (হীরানন্দের প্রতি, নরেন্দ্রকে দেখাইয়া) — যেন খাপখোলা তরোয়াল নিয়ে বেড়াচ্চে।(মাস্টারের প্রতি, হীরানন্দকে দেখাইয়া) — “কি শান্ত! রোজার কাছে জাতসাপ যেমন ফণা ধরে চুপ করে থাকে!’
(४)
[(22 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
🕊गुह्य कथा🕊
[जगतपति प्रभु का स्मरण करने से जन्म -मरण नष्ट हो जाते हैं ।]
श्रीरामकृष्ण अर्न्तर्मुख हैं । पास ही हीरानन्द और मास्टर बैठे हैं । कमरे में सन्नाटा छाया हुआ है । श्रीरामकृष्ण की देह में घोर पीड़ा हो रही है । भक्तगण जब एक-एक बार देखते हैं, तब उनका हृदय विदीर्ण हो जाता है । परन्तु श्रीरामकृष्ण ने सब को दूसरी बातों में डालकर उधर से मन हटा रखा है । बैठे हुए हैं, श्रीमुख से प्रसन्नता टपक रही है ।
Sri Ramakrishna fell into an inward mood. Hirananda and M. were seated near him There was complete silence in the room. The Master's body was being racked with indescribable pain. The devotees could not bear the sight of this illness; but somehow the Master made them forget his suffering. He sat there, his face beaming as if there were no trace of illness in his throat.
ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ অন্তর্মুখ। কাছে হীরানন্দ ও মাস্টার বসিয়া আছেন। ঘর নিস্তব্ধ। ঠাকুরের শরীরে অশ্রুতপূর্ব যন্ত্রণা; ভক্তেরা যখন এক-একবার দেখেন, তখন তাঁহাদের হৃদয় বিদীর্ণ হয়। ঠাকুর কিন্তু সকলকেই ভুলাইয়া রাখিয়াছেন। বসিয়া আছেন সহাস্যবদন!
भक्तों ने फूल और माला लाकर समर्पण किया है। फूल लेकर कभी सिर पर चढ़ाते हैं, कभी हृदय से लगाते हैं, जैसे पाँच वर्ष का बालक फूल लेकर क्रीड़ा कर रहा हो । जब ईश्वरी भाव का आवेश होता है, तब श्रीरामकृष्ण कहा करते हैं कि शरीर में महावायु ऊर्ध्वगामी हो रही है । महावायु के चढ़ने पर ईश्वरानुभव होता है । यह बात सदा वे कहा करते हैं । अब श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत कर रहे हैं ।
The devotees had placed flowers and garlands before him as their loving offerings. He picked up a flower and touched with it first his head, then his throat, heart, and navel. To the devotees he seemed a child playing with flowers. Sri Ramakrishna used to tell the devotees that his divine visions and moods were accompanied by the rising of a spiritual current inside his body.
ভক্তেরা ফুল ও মালা আনিয়া দিয়াছেন। ঠাকুরের হৃদয়মধ্যে নারায়ণ, তাঁহারই বুঝি পূজা করিতেছেন। এই যে ফুল লইয়া মাথায় দিতেছেন। কণ্ঠে, হৃদয়ে, নাভিদেশে। একটি বালক ফুল লইয়া খেলা করিতেছে। ঠাকুরের যখন ঈশ্বরীয়ভাব উপস্থিত হয়, তখন বলেন যে, শরীরের মধ্যে মহাবায়ু ঊর্ধ্বগামী হইয়াছে। মহাবায়ু উঠিলে ঈশ্বরের অনুভূতি হয়, — সর্বদা বলেন। এইবার মাস্টারের সহিত কথা কহিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - वायु कब चढ़ गयी, मुझे मालूम भी नहीं हुआ । “इस समय बालकभाव है, इसीलिए फूल लेकर इस तरह किया करता हूँ । क्या देख रहा हूँ, जानते हो ? शरीर मानो बाँस की कमानियों का बनाया हुआ है और ऊपर से कपड़ा लपेट दिया गया है । वही मानो हिल रहा है । भीतर कोई है इसीलिए हिल रहा है ।”
Now he talked to M.MASTER: "I don't remember when the current went up. Now I am in the mood of a child. That is why I am playing with the flowers this way. Do you know what I see now? I see my body as a frame made of bamboo strips and covered with a cloth. The frame moves. And it moves because someone dwells inside it.
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — বায়ু কখন উঠেছে জানি না। “এখন বালকভাব। তাই ফুল নিয়ে এই রকম কচ্ছি। কি দেখছি জানো? শরীরটা যেন বাঁখারিসাজানো কাপড়মোড়া, সেইটে নরছে। ভিতরে একজন আছে বলে তাই নড়ছে।
“जैसे बिना बीज और गूदे का कद्दू । भीतर कामादि आसक्तियाँ नहीं हैं, सब साफ है । और –”श्रीरामकृष्ण को बातचीत करते हुए कष्ट हो रहा है । बहुत ही दुर्बल हो गये हैं । वे क्या कहने जा रहे हैं इसका अनुमान लगाकर मास्टर शीघ्र ही कह उठे - “और भीतर आप ईश्वर को देख रहे हैं ।”
"Again, I see the body to be like a pumpkin with the seeds scooped out. Inside this body there is no trace of passion or worldly attachment. It is all very clean inside, and —" It became very painful for Sri Ramakrishna to talk further. He felt very weak. M. quickly guessed what the Master wanted to tell the devotees, and said, "And you are seeing God inside yourself "
“যেন কুমড়ো-শাঁসবিচি ফেলা। ভিতরে কামাদি-আসক্তি কিছুই নাই। ভিতর সব পরিষ্কার। আর —” ঠাকুরের বলিতে কষ্ট হইতেছে। বড় দুর্বল। মাস্টার তাড়াতাড়ি ঠাকুর কি বলিতে যাইতেছেন একটা আন্দাজ করিয়া বলিতেছেন, “আর অন্তরে ভগবান দেখছেন।”
श्रीरामकृष्ण - भीतर बाहर दोनों जगह देख रहा हूँ - अखण्ड सच्चिदानन्द । सच्चिदानन्द इस शरीर का आश्रय लेकर इसके भीतर भी हैं और बाहर भी । यही मैं देख रहा हूँ ।
MASTER: "Both inside and outside. The Indivisible Satchidananda — I see It both inside and outside. It has merely assumed this sheath [meaning his body] for a support and exists both inside and outside. I clearly perceive this.
শ্রীরামকৃষ্ণ — অন্তরে বাহিরে, দুই দেখছি। অখণ্ড সচ্চিদানন্দ! সচ্চিদানন্দ কেবল একটা খোল আশ্রয় করে এই খোলের অন্তরে-বাহিরে রয়েছেন! এইটি দেখছি।
मास्टर और हीरानन्द यह ब्रह्मदर्शन की बात सुन रहे हैं । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण उनकी ओर सस्नेह दृष्टि करके बातचीत करने लगे ।
M. and Hirananda listened intently to these words about his exalted state of God-Consciousness. A few moments later Sri Ramakrishna looked at them and resumed the conversation.
মাস্টার ও হীরানন্দ এই ব্রহ্মদর্শনকথা শুনিতেছেন। কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর তাঁহাদের দিকে দৃষ্টি করিয়া কথা কহিতেছেন।
[শ্রীরামকৃষ্ণ ও যোগাবস্থা — অখণ্ডদর্শন ]
[(22 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
श्रीरामकृष्ण तथा योगावस्था
अखण्ड दर्शन
🔱🕊 🏹 🙋अपने सत्यस्वरूप से एकत्व की अनुभूति का फल 🔱🕊 🏹 🙋
[The result of realizing oneness with one's true nature]
[নিজের প্রকৃত প্রকৃতির সাথে একত্ব উপলব্ধির ফল]
श्रीरामकृष्ण (मास्टर और हीरानन्द से) - तुम लोग आत्मीय जान पड़ते हो । कोई दूसरे नहीं मालूम पड़ते । "
MASTER: "You all seem to me to be my kinsmen. I do not look on any of you as a stranger."
सब को देख रहा हूँ, एक-एक गिलाफ (sheaths, शरीर को म्यान, आवरण या कोष कह रहे हैं। ) - के अन्दर रहकर सिर हिला रहे हैं ।“
I see you all asso many sheaths, (Referring to their bodies.)and the heads are moving.
“সব দেখছি একটা খোল নিয়ে মাথা নাড়ছে।“
(भगवान श्री रामकृष्णदेव कहते हैं) :" देख रहा हूँ, जब उनसे ***मन का संयोग हो जाता है तब कष्ट एक ओर पड़ा रहता है ।
I notice that when my mind is united with God (The Real Man) the suffering of the body is left aside.
"इस समय केवल यही देख रहा हूँ कि अखण्ड सच्चिदानन्द ही इस त्वचा से ढका हुआ है और इसी में एक ओर यह गले का घाव पड़ा रहता है ।"
"Now I perceive only this: this: indivisible Satchidananda is covered with skin, and this sore in the throat is on one side of it."
“এখন কেবল দেখছি একটা চামড়া ঢাকা অখণ্ড, আর-একপাশে গলার ঘা-টা পড়ে রয়েছে।”
“দেখছি, যখন তাঁতে মনের যোগ হয়, তখন কষ্ট একধারে পড়ে থাকে।১
[১ যং লব্ধ্বা চাপরং লাভং মন্যতে নাধিকং ততঃ।
যস্মিন্ স্থিতো ন দুঃখেন গুরুণাপি বিচাল্যতে ॥ ]
[***
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।
(गीता 6.22)
जिस लाभ की प्राप्ति होने पर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके मानने में भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दु:ख से भी विचलित नहीं होता है।।
ये मनःसंयोग (ध्यानयोग -राजयोग) ऐसी विद्या है -ऐसी प्राप्ति है , जिसको प्राप्त करने के बाद इससे बढ़कर और कोई प्राप्ति नहीं है। मनुष्यजीवन का एकमात्र लक्ष्य है -अपने सत्यस्वरूप को पहचानना। अगर हम उसके लिए यदि वैराग्यपूर्वक विवेकदर्शन का अभ्यास नहीं करते हों तो बहुत बड़ा एक अवसर हम खो रहे हैं। यह हमें जान लेना चाहिए।
आचार्य शंकर ने 'विवेक-चूड़ामणि' नामक एक अद्भुत ग्रंथ लिखा है। उसमें वे कहते हैं-
दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरूषसंश्रय: ॥ ३।
3. तीन चीजें ऐसी हैं जो सचमुच दुर्लभ हैं और केवल भगवान श्रीरामकृष्ण देव की कृपा से ही प्राप्त होती हैं - अर्थात् मानव जन्म, मोक्ष की लालसा और सदगुरुदेव (या किसी सिद्ध सन्त महात्मा-CINC) की संरक्षणात्मक देखभाल (भगवन्त दुर्लभ नहीं हैं - सन्त की संगति प्राप्ति देवदुर्लभ है protective care of a perfect Mahatma)।
इस देवदुर्लभमनुष्य जीवन का चरम उद्देश्य (Highest Aim of life) या सर्वोच्च लक्ष्य -एक ही है , और वह है अपने सत्यस्वरूप को पहचान लेना। जबकि गौण उद्देश्य कई हो सकते हैं। जैसे हममें से कोई डॉक्टर बनना चाहता है , कोई इंजीनियर बनना चाहता है , कोई पायलट बनना चाहता है -आदि आदि। ये सभी हमारे जीवन के गौण लक्ष्य हैं , ये होने चाहिए और इन लक्ष्यों की प्राप्ति भी होनी चाहिए। लेकिन हमारे मनुष्य जीवनका जो परम लक्ष्य है वो है अपने सत्य-स्वरूप को पहचानना। यदि यह लक्ष्य प्राप्त नहीं हुआ तो इससे बड़ा दुर्भाग्य नहीं है। यही बात भगवान शंकराचार्यजी अपने ग्रंथों में बारबार कहते हैं। और सभी सन्त महात्मा यही कहते हैं।
यही बात बंगला भाषा में भगवान श्रीरामकृष्ण कहते हैं - 'मनुष्य जीवनेर एकमात्र उद्देश्य -ईश्वरलाभ !' हिन्दी अनुवाद इस प्रकार होगा - 'मनुष्य-जीवन का सिर्फ एक ही उद्देश्य है -वो है ईश्वर लाभ!'अब इस ईश्वरलाभ शब्द से हम बहुत कुछ अनुमान लगाना शुरू कर देते हैं। (चार हाथ या दो हार्थ ?) ईश्वर-लाभ का केवल इतना ही अर्थ है -हमारे सत्यस्वरूप को पहचानना। वही सबसे बड़ा लाभ है - और अपने सत्य-स्वरुप को जान लेने से बढ़कर अन्य कोई लाभ नहीं है !!
स्वामी विवेकानन्द जी ने अपने सत्यस्वरूप को जान लेने , या अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने या अस्तित्व के एकत्व को अनुभव जानने के चार प्रमुख मार्गों का उल्लेख किया है। ईश्वर से जुड़ने का , अपने सत्य स्वरुप को प्राप्त करने और पहचानने का पहले भक्ति मार्ग है। फिर ज्ञान मार्ग है, फिर अतिसुन्दर ध्यान मार्ग है। भक्ति मार्ग, फिर सबसे सुन्दर है ध्यानमार्ग। ध्यान के माध्यम से भी हम अपने सत्यस्वरूप तक पहुँच सकते हैं। उस मनःसंयोग (अष्टांग योग) विद्या को गीता के छठे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने बहुत विस्तार से बतलाया है। इसे राजयोग भी कहते है। कुछ लोग छठवें अध्याय को आत्मसंयम योग [मनःसंयोग] भी कहते हैं।
मनःसंयोग -या ध्यानयोग हमारे जीवन का अभिन्न अंग होना चाहिए। हमारे दिनचर्या की शुरुआत ही ध्यान (चरित्रवान मनुष्य बनने के संकल्प ग्रहण पद्धति- Autosuggestion या योगनिद्रा के अनुसार में) से होनी चाहिए। और दिन की जो अंतिम घड़ी है, वह भी ध्यान से (चरित्रवान मनुष्य बनने के संकल्प ग्रहण से) ही समाप्त होना चाहिए। क्योंकि यदि हमने ईश्वर के साथ, अर्थात अपने सत्यस्वरूप (आत्मा) के साथ जुड़ने का प्रयास नहीं किया तो उसका परिणाम भी हमीं को भुगतना पड़ता है। इसीलिए इस वर्ष2024 के 21 दिसम्बर को संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व ध्यान दिवसघोषित किया गया है। (< स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज, अद्वैत आश्रम, मायावती द्वारा की गयी व्याख्या: साभार https://www.youtube.com/watch?v=Ywbb_tcqU-0&t=2631s) (https://www.thehindu.com/news/international/unga-declares-december-21-as-world-meditation-day-unanimously-adopts-resolution-co-sponsored-by-india/article68957740.ece]
श्रीरामकृष्ण चुप हो रहे । कुछ देर बाद फिर कहने लगे - “जड़ की सत्ता को चेतन समझ लिया जाता है और चेतन की सत्ता को जड़ । इसीलिए शरीर में रोग होने पर मनुष्य कहता है, 'मैं बीमार हूँ ।' ”
The Master again fell silent. A few minutes later he said: "The attributes of matter are superimposed on Spirit, and the attributes of Spirit are superimposed on matter. Therefore when the body is ill a man says, 'I am ill.'"
इस बात को समझाने के लिए हीरानन्द ने आग्रह किया । मास्टर कहने लगे - "गर्म पानी में हाथ के जल जाने पर लोग कहते हैं, पानी में हाथ जल गया; परन्तु बात ऐसी नहीं, वास्तव में ताप से ही हाथ जला है ।"
Hirananda wanted to understand what the Master had just said; so M. told him, "When hot water scalds the hand, people say that the water scalds; but the truth is that it is the heat that scalds."
ঠাকুর আবার চুপ করিলেন। কিয়ৎক্ষণ পরে আবার বলিতেছেন, জড়ের সত্তা চৈতন্য লয়, আর চৈতন্যের সত্তা জড় লয়। শরীরের রোগ হলে বোধ হয় আমার রোগ হয়েছে।
হীরানন্দ ওই কথাটি বুঝিবার জন্য আগ্রহ প্রকাশ করিলেন। তাই মাস্টার বলিতেছেন — “গরম জলে হাত পুড়ে গেলে বলে, জলে হাত পুড়ে গেল। কিন্তু তা নয়, হীট (Heat)-এতে হাত পুড়ে গেছে।
M. and Hirananda listened intently to these words about his exalted state of God-Consciousness. A few moments later Sri Ramakrishna looked at them and resumed the conversation.
हीरानन्द - (श्रीरामकृष्ण से) - आप बतलाइये, भक्त को कष्ट क्यों होता है ?
HIRANANDA (to the Master): "Please tell us why a devotee of God suffers."
श्रीरामकृष्ण शायद कुछ और कहें इसलिए दोनों प्रतीक्षा कर रहे हैं ।
Sri Ramakrishna seemed about to say something more. Hirananda and M. eagerly awaited his words.
ঠাকুর আবার কি বলিবেন। উভয়ে অপেক্ষা করিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण – समझे ?
Sri Ramakrishna said, "Do you understand?"
ঠাকুর বলিতেছেন — “বুঝতে পারলে?”
मास्टर धीरे धीरे हीरानन्द से कुछ कह रहे हैं । मास्टर – लोक-शिक्षा के लिए । उदाहरण सामने है कि इतने कष्ट के भीतर भीमन का संयोग सोलहों आने ईश्वर से हो रहा है ।
M. said to Hirananda, in a whisper: "The body suffers for the purpose of teaching men. His life is like a book of reference. In spite of so much physical suffering, his mind is one hundred per cent united with God."
हीरानन्द - हाँ, जैसे ईशू को सूली देना । परन्तु रहस्य की बात तो यह है कि इन्हें इतना कष्ट क्यों मिला ?
HIRANANDA: "Yes, it is like Christ's crucifixion. But still the mystery remains — why should he, of all people, suffer like this?"
হীরানন্দ — হাঁ, যেমন Christ-এর Crucifixion। তবে এই Mystery, এঁকে কেন যন্ত্রণা?
मास्टर - ये जैसा कहते हैं - माता की इच्छा । यहाँ उनकी ऐसी ही लीला हो रही है ।
M: "The Master says it is the will of the Divine Mother. This is how She is sporting through his body."
মাস্টার — ঠাকুর যেমন বলেন, মার ইচ্ছা। এখানে তাঁর এইরূপই খেলা।
M. said to Hirananda, in a whisper: "The body suffers for the purpose of teaching men. His life is like a book of reference. In spite of so much physical suffering, his mind is one hundred per cent united with God."
ये दोनों आपस में धीरे धीरे बातचीत कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण इशारा करके हीरानन्द से पूछ रहे हैं । हीरानन्द इशारा समझ नहीं सके । इसलिए श्रीरामकृष्ण फिर इशारा करके पूछ रहे हैं, 'वह क्या कहता है ?'
हीरानन्द - ये कहते हैं कि आपकी बीमारी लोक-शिक्षा के लिए है ।
The two devotees were talking in whispers. Sri Ramakrishna asked Hirananda, by a sign, what M. was talking about. Since Hirananda could not understand the sign, Sri Ramakrishna repeated it.
HIRANANDA: "He says that your illness is for the teaching of men."
ইঁহারা দুজন আস্তে আস্তে কথা কহিতেছেন। ঠাকুর ইশারা করিয়া হীরানন্দকে জিজ্ঞাসা করিতেছেন। হীরানন্দ ইশারা বুঝিতে না পারাতে ঠাকুর আবার ইশারা করিয়া জিজ্ঞাসা করিতেছেন, “ও কি বলছে?”
হীরানন্দ — ইনি লোকশিক্ষার কথা বলছেন।
श्रीरामकृष्ण - यह बात अनुमान की ही तो है ।
MASTER: "But that's only his guess.
(मास्टर और हीरानन्द से) "अवस्था बदल रही है । सोच रहा हूँ, सब के लिए न कहूँ कि चैतन्य हो। कलिकाल में पाप अधिक है, वह सब पाप आ जाता है ।"
(To M. and Hirananda) "My mood is changing. I think that I should not say to everyone, 'May your spiritual consciousness be awakened.' People are so sinful in the Kaliyuga; if I awaken their spiritual consciousness I shall have to accept the burden of their sins."
শ্রীরামকৃষ্ণ — ও-কথা অনুমানের বই তো নয়। (মাস্টার ও হীরানন্দের প্রতি) — অবস্থা বদলাচ্ছে, মনে করিছি চৈতন্য হউক, সকলেকে বলব না। কলিতে পাপ বেশি, সেই সব পাপ এসে পড়ে।
मास्टर (हीरानन्द से) - समय को बिना देखे हुए ये ऐसी बात (मनुष्य की आध्यात्मिक चेतना को जगाने का उपदेश - उठो ! जागो !) न कहेंगे । जिसके लिए चैतन्य होने का समय आया है, उसे ही कहेंगे ।
M. (to Hirananda):"He will not awaken people's spiritual consciousness except at the right time. When a person is ready, he will awaken his spiritual consciousness."
মাস্টার (হীরানন্দের প্রতি) — সময় না দেখে বলবেন না। যার চৈতন্য হবার সময় হবে, তাকে বলবেন।
(५)
[(23 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
प्रवृत्ति या निवृत्ति ?
( हीरानन्द के प्रति उपदेश)
[प्रवृत्ति (कामिनी-कांचन भोग) से होकर निवृत्ति (त्याग) में प्रतिष्ठित हो जाना बेहतर है !]
[প্রবৃত্তি না নিবৃত্তি? হীরানন্দকে উপদেশ — নিবৃত্তিই ভাল]
[Instinct or abstinence? Advice to Hiranand — abstinence is better]
हीरानन्द श्रीरामकृष्ण के पैरों पर हाथ फेर रहे हैं । पास ही मास्टर बैठे हैं । लाटू तथा अन्य दो-एक भक्त कमरे में आते-जाते हैं । आज शुक्रवार, 23 अप्रैल, 1886 है।दिन के 12-1 बजे का समय होगा । हीरानन्द ने आज यहीं भोजन किया है । श्रीरामकृष्ण की बड़ी इच्छा थी कि हीरानन्द यहीं ('काशीपुर उद्यान भवन' - Cossipore garden house.)में रहें ।
It was-Good Friday. Hirananda had taken his midday meal at the Cossipore garden house. About one o'clock in the afternoon he was stroking Sri Ramakrishna's feet. M. sat near by. Latu and one or two other devotees were going in and out of the room. It was the Master's earnest desire that Hirananda should stay for some time at the Cossipore garden house.
হীরানন্দ ঠাকুরের পায়ে হাত বুলাইতেছেন। কাছে মাস্টার বসিয়া আছেন। লাটু ও আর দু-একটি ভক্ত ঘরে মাঝে মাঝে আসিতেছেন। শুক্রবার, ২৩শে এপ্রিল, ১৮৮৬ খ্রীষ্টাব্দ। আজ গুড্ ফ্রাইডে, বেলা প্রায় দুই প্রহর একটা হইয়াছে। হীরানন্দ আজ এখানেই অন্নপ্রসাদ পাইয়াছেন।ঠাকুরের একান্ত ইচ্ছা হইয়াছিল যে, হীরানন্দ এখানে থাকেন।
हीरानन्द श्रीरामकृष्ण के पैरों पर हाथ फेरते हुए उनसे वार्तालाप कर रहे हैं । वैसी ही मधुर बातें, मुख हास्य और प्रसन्नता से भरा हुआ, - जैसे बालक को समझा रहे हों । श्रीरामकृष्ण अस्वस्थ हैं, डाक्टर सदा ही उन्हें देख रहे हैं ।
While massaging the Master's feet, Hirananda conversed with him. He spoke in a very sweet voice, as if trying to console a child.
হীরানন্দ পায়ে হাত বুলাইতে বুলাইতে ঠাকুরের সহিত কথা কহিতেছেন। সেই মিষ্ট কথা আর মুখ হাসি হাসি। যেন বালককে বুঝাইতেছেন। ঠাকুর অসুস্থ। ডাক্তার সর্বদা দেখিতেছেন।
हीरानन्द - आप इतना सोचते क्यों हैं ? डाक्टर पर विश्वास करके निश्चिन्त हो जाइये । आप बालक तो हैं ही ।
HIRANANDA: "Why should you worry so much? You can enjoy peace of mind if you have faith in the physician. You are a child."
হীরানন্দ — তা অত ভাবেন কেন? ডাক্তারে বিশ্বাস করলেই নিশ্চিন্ত। আপনি তো বালক।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - डाक्टर पर विश्वास कैसे होगा ? सरकार (डाक्टर) ने कहा है, बिमारी अच्छी न होगी ।
MASTER (to M.): "How can I have faith in the doctor? Dr. Sarkar said that I would not recover."
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — ডাক্তারে বিশ্বাস কই? সরকার (ডাক্তার) বলেছিল, “সারবে না”।
हीरानन्द - तो इतनी चिन्ता क्यों करते हैं ? जो कुछ होना है, होगा ।
HIRANANDA: "But why should you worry so much about that? What is to happen must happen."
হীরানন্দ — তা অত ভাবনা কেন? যা হবার হবে।
मास्टर - (हीरानन्द से, एकान्त में) - ये अपने लिए कुछ नहीं सोच रहे हैं । इनकी शरीर-रक्षा भक्तों के लिए है ।
M. (to Hirananda, aside): "He is not worrying about himself. The preservation of his body is for the welfare of the devotees."
মাস্টার (হীরানন্দের প্রতি, জনান্তিকে) — উনি আপনার জন্য ভাবছেন না। ওঁর শরীররক্ষা ভক্তের জন্য।
[(23 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
🔱🕊दादा के रुम में खिड़की पर पल्ला नहीं बिचाली पर पानी 🔱🕊
[जानीबीघा जेठ की गर्मी में कैम्प तीन कहार वाली पालकी-चौथा काहार ?]
गर्मी जोरों की हो रही है । और फिर दोपहर का समय । खस की टट्टी लगायी गयी है । हीरानन्द उठकर टट्टी ठीक कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण देख रहे हैं ।
It was a sultry day and the room became very hot at noontime. The straw screens had been hung over the windows. (जानिबिघा में दादा का रूम ?) Hirananda adjusted them. The Master looked at him.
श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द से) - तो पाजामा भेज देना ।
MASTER (to Hirananda): "Please don't forget to send the pajamas."
শ্রীরামকৃষ্ণ (হীরানন্দের প্রতি) — তবে পাজামা পাঠিয়ে দিও।
हीरानन्द ने कहा है कि उसके देश (सिन्ध) का पाजामा पहनकर श्रीरामकृष्ण को आराम होगा । इसीलिए श्रीरामकृष्ण उन्हें पाजामा भेज देने की याद दिला रहे हैं ।
Hirananda had told Sri Ramakrishna that he would feel more comfortable if he wore the pajamas used in Sindh. Sri Ramakrishna was reminding him of them.
হীরানন্দ বলিয়াছেন, তাদের দেশের পাজামা পরিলে ঠাকুর আরামে থাকিবেন। তাই ঠাকুর স্মরণ করাইয়া দিতেছেন, যেন তিনি পাজামা পাঠাইয়া দেন।
हीरानन्द का भोजन ठीक नहीं हुआ । चावल अच्छी तरह पके नहीं थे । श्रीरामकृष्ण को सुनकर बड़ा दुःख हुआ । बार बार उनसे जलपान करने के लिए कह रहे हैं । इतना कष्ट है कि बोल भी नहीं सकते, परन्तु फिर भी बार बार पूछ रहे हैं ।फिर लाटू से पूछ रहे हैं, 'क्या तुम लोगों को भी वही चावल दिया गया था ?'
Hirananda had not eaten well. The rice had not been well cooked. The Master felt very sorry about it and asked him again and again whether he would have some refreshments. On account of his illness he could hardly talk; but still he repeated the question. He said to Latu, "Did you too eat that rice?"
হীরানন্দের খাওয়া ভাল হয় নাই। ভাত একটু চাল চাল ছিল। ঠাকুর শুনিয়া বড় দুঃখিত হইলেন, আর বার বার তাঁহাকে বলিতেছেন, জলখাবার খাবে? এত অসুখ, কথা কহিতে পারিতেছেন না; তথাপি বারবার জিজ্ঞাসা করিতেছেন। আবার লাটুকে জিজ্ঞাসা করিতেছেন, তোদেরও কি ওই ভাত খেতে হয়েছিল?
[(23 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
🔱'महामण्डल के एक उपाध्यक्ष 'तनुदा' को 104 वर्ष की आयु प्राप्त हुई थी'🔱
श्रीरामकृष्ण कमर में कपड़ा नहीं सम्हाल सकते । प्रायः बालक की तरह दिगम्बर होकर ही रहते हैं । हीरानन्द के साथ दो ब्राह्म भक्त आये हुए हैं; इसीलिए एक-आध बार श्रीरामकृष्ण धोती को कमर की ओर खींच रहे हैं ।
Sri Ramakrishna could hardly keep the cloth on his body. He was almost always naked, like a child. Hirananda had brought with him one or two of his Brahmo friends. Therefore every now and then the Master pulled the cloth to his waist.
ঠাকুর কোমড়ে কাপড় রাখিতে পারিতেছেন না। প্রায় বালকের মতো দিগম্বর হইয়াই থাকেন। হীরানন্দের সঙ্গে দুইটি ব্রাহ্ম ভক্ত আসিয়াছেন। তাই কাপড়খানি এক-একবার কোমরের কাছে টানিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द से) - धोती के खुल जाने पर क्या तुम लोग असभ्य कहते हो ?
MASTER (to Hirananda): "Will you take me for an uncivilized person if I don't cover my body with my cloth?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (হীরানন্দের প্রতি) — কাপড় খুলে গেলে তোমরা কি অসভ্য বল?
हीरानन्द - आपको इससे क्या ? आप तो बालक हैं ।
HIRANANDA: "What difference does that make with you? You are but a child."
হীরানন্দ — আপনার তাতে কি? আপনি তো বালক।
श्रीरामकृष्ण (एक ब्राह्म भक्त प्रियनाथ की ओर उँगली उठाकर) - वे ऐसा कहते हैं ।
MASTER (pointing to a Brahmo devotee): "But he feels that way "
শ্রীরামকৃষ্ণ (একটি ব্রাহ্ম ভক্ত প্রিয়নাথের দিকে অঙ্গুলি নির্দেশ করিয়া) — উনি বলেন।
[(23 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
🔱ठाकुरदेव के सिन्धी भक्त हीरानन्द बी. ए.-दो अख़बारों के सम्पादक थे 🔱
हीरानन्द अब बिदा होंगे । दो-एक रोज कलकत्ते में रहकर वे फिर सिन्ध देश जायेंगे । वे वहीं काम करते हैं । दो अखबारों के सम्पादक हैं । १८८४ ई. से लगातार चार साल तक उन्होंने सम्पादन कार्य किया था । उनके पत्रों के नाम थे - सिन्ध टाइम्स (Sindh Times) और सिन्ध-सुधार (Sindh Sudhar )। हीरानन्द ने १८८३ ई. में बी. ए. की उपाधि प्राप्त की थी ।
[Hiranand will take leave this time. He will stay in Calcutta for a day or two and then go back to Sindh. He has work there. He is the editor of two newspapers. He did that work for four years from 1884 AD. The names of the newspapers are Sind Times and Sind Sudhar; Hiranand received his B. A. degree in 1883 AD. Hiranand is a native of Sindh. He studied in Calcutta. He used to visit Sri Keshav Sen and talk to him always. Hiranand used to come to Sri Ramakrishna's Kalibari from time to time.
হীরানন্দ এইবার বিদায় গ্রহণ করিবেন। তিনি দু-একদিন কলিকাতায় থাকিয়া আবার সিন্ধুদেশে গমন করিবেন। সেখানে তাঁহার কাজ আছে। দুইখানি সংবাদপত্রের তিনি সম্পাদক। ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ হইতে চার বৎসর ধরিয়া ওই কার্য করিয়াছিলেন। সংবাদপত্রের নাম, সিন্ধু টাইমস্ (Sindh Times) এবং সিন্ধু সুধার (Sindh Sudhar); হীরানন্দ ১৮৮৩ খ্রীষ্টাব্দে বি. এ. উপাধি পাইয়াছিলেন। হীরানন্দ সিন্ধুবাসী। কলিকাতায় পড়াশুনা করিয়াছিলেন। শ্রীযুক্ত কেশব সেনকে সর্বদা দর্শন ও তাঁহার সহিত সর্বদা আলাপ করিতেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের কাছে কালীবাড়িতে মাঝে মাঝে আসিয়া থাকিতেন।]
[(23 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
🔱हीरानन्द का परीक्षण - प्रवृत्ति या निवृत्ति🔱
[Hiranand's test — Instinct or Inhibition]
[হীরানন্দের পরীক্ষা — প্রবৃত্তি না নিবৃত্তি ]
श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द से) - वहाँ न जाओ तो ?
MASTER (to Hirananda): "Suppose you don't go to Sindh."
শ্রীরামকৃষ্ণ (হীরানন্দের প্রতি) — সেখানে নাই বা গেলে?
हीरानन्द (सहास्य) - वहाँ और कोई मेरा काम करनेवाला नहीं है । मुझे तो वहाँ नौकरी करनी पड़ती है ।
HIRANANDA (smiling): "But there is nobody there to do my work. I have my duties."
হীরানন্দ (সহাস্যে) — বাঃ আর যে সেখানে কেউ নাই! আর সব যে চাকরি করি।
श्रीरामकृष्ण - क्या वेतन पाते हो ?
MASTER: "How much do you earn?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — কি মাহিনা পাও?
हीरानन्द - इन सब कामों में वेतन कम है ।
HIRANANDA (smiling): "My work doesn't bring me a large salary."
হীরানন্দ (সহাস্যে) — এ-সব কাজে কম মাহিনা।
श्रीरामकृष्ण – कितना ?
MASTER: "Still, how much?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — কত?
हीरानन्द हँस रहे हैं ।
Hirananda laughed.
হীরানন্দ হাসিতে লাগিলেন।
श्रीरामकृष्ण - यहीं रहो न ।
MASTER: "Why don't you live here?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — এখানে থাক না?
हीरानन्द चुप हैं ।
Hirananda did not reply.
[হীরানন্দ চুপ করিয়া আছেন।]
श्रीरामकृष्ण - काम करके क्या होगा ?
MASTER: "Suppose you give up the job."
শ্রীরামকৃষ্ণ — কি হবে কর্মে?
हीरानन्द चुप हैं ।
थोड़ी देर और बातचीत करके हीरानन्द बिदा हुए ।
Hirananda said nothing. He was ready to take his leave.
হীরানন্দ চুপ করিয়া আছেন। হীরানন্দ আর একটু কথাবার্তার পর বিদায় গ্রহণ করিলেন।
श्रीरामकृष्ण - कब आओगे ?
MASTER: "When will you see me again?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — কবে আসবে?
हीरानन्द - परसों सोमवार को देश जाऊँगा । सोमवार को सुबह आकर दर्शन करूँगा ।
HIRANANDA: "I shall leave for Sindh on Monday, the day after tomorrow. I shall see you that morning."
হীরানন্দ — পরশু সোমবার দেশে যাব। সোমবার সকালে এসে দেখা করব।
(६)
[(23 अप्रैल, 1886)-श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
*मास्टर, नरेन्द्र, शरत आदि के संग में*
[Master, Narendra, Sarat etc.
মাস্টার, নরেন্দ্র, শরৎ প্রভৃতি]
मास्टर श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हुए हैं । हीरानन्द को गये अभी कुछ ही समय हुआ होगा ।
Hirananda left. M. was seated by the Master's side.
মাস্টার ঠাকুরের কাছে বসিয়া। হীরানন্দ এইমাত্র চলিয়া গেলেন।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - बहुत अच्छा है, न ?
MASTER (to M.): "He is a fine young man, isn't he?"
मास्टर - जी हाँ, स्वभाव बड़ा मधुर है ।
M: "Yes, sir. He has a very sweet nature."
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — খুব ভাল; না?
श्रीरामकृष्ण - उसने बतलाया २२ सौ मील - इतनी दूर से देखने आया है !
MASTER: "He said that Sindh is twenty-two hundred miles from Calcutta; and he has come all that way to see me."
শ্রীরামকৃষ্ণ — বললে এগার শো ক্রোশ। অত দূর থেকে দেখতে এসেছে।
मास्टर - जी हाँ, बिना अधिक प्रेम के ऐसी बात नहीं होती ।
M: "True, sir. That would be impossible without real love."
মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ, খুব ভালবাসা না থাকলে এরূপ হয় না।
श्रीरामकृष्ण - मेरी बड़ी इच्छा है कि मुझे भी उस देश में कोई ले जाय ।
MASTER: "He wants very much to take me to Sindh."
শ্রীরামকৃষ্ণ — বড় ইচ্ছা, আমায় সেই দেশে নিয়ে যায়।
मास्टर - जाते हुए बड़ा कष्ट होगा, चार-पाँच दिन तक रेल पर बैठे रहना होगा ।
M: "The journey is very painful. It takes four or five days by train."
মাস্টার — যেতে বড় কষ্ট হবে। রেলে ৪।৫ দিনের পথ।
श्रीरामकृष्ण - तीन पास कर चुका है । (युनिवर्सिटी की तीन उपाधियाँ हैं ।)
MASTER: "He has three university degrees."
শ্রীরামকৃষ্ণ — তিনটে পাস!
मास्टर - जी हाँ ।
M: "Yes, sir."
মাস্টার — আজ্ঞে, হাঁ।
श्रीरामकृष्ण कुछ शान्त हैं, विश्राम करेंगे । श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - खिड़की की झंझरियों को खोल दो और चटाई बिछा दो ।मास्टर पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण को नींद आ रही है ।
Sri Ramakrishna was tired. He wanted to take a little rest. He asked M. to open the shutters of the windows and spread the straw mat over his bed. M. was fanning him. Sri Ramakrishna became drowsy.
ঠাকুর একটু শ্রান্ত হইয়াছেন। বিশ্রাম করিবেন।শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — পাখি খুলে দাও আর মাদুরটা পেতে দাও। ঠাকুর খড়খড়ির পাখি খুলিয়া দিতে বলিতেছেন। আর বড় গরম, তাই বিছানার উপর মাদুর পাতিয়া দিতে বলিতেছেন।মাস্টার হাওয়া করিতেছেন। ঠাকুরের একটু তন্দ্রা আসিয়াছে।.
After a short nap Sri Ramakrishna said to M., "Did I sleep?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (একটু নিদ্রার পর, মাস্টারের প্রতি) — ঘুম কি হয়েছিল?
मास्टर - जी हाँ, कुछ लगी थी ।
M: "A little."
মাস্টার — আজ্ঞে, একটু হয়েছিল।
नरेन्द्र, शरद, और मास्टर नीचे हॉल (Hall) के पूर्व ओर बातचीत कर रहे हैं ।नरेन्द्र - कितने आश्चर्य की बात है !इतने साल तक पढ़ने पर भी विद्या नहीं होती ! फिर किस तरह लोग कहते हैं कि 'मैंने दोन-तीन दिन साधना की; अब क्या, अब ईश्वर मिलेंगे !'ईश्वर-प्राप्ति क्या इतनी सीधी है ? (शरद से) तुझे शान्ति मिली है, मास्टर महाशय को भी शान्ति मिली है, परन्तु मुझे अभी तक शान्ति नहीं मिली।
Narendra, Sarat, and M. were talking downstairs. NARENDRA: "How amazing it is! One learns hardly anything though one reads books for many years. How can a man realize God by practising sadhana for two or three days?Is it so easy to realize God? (To Sarat) You have obtained peace. M., too, has obtained it. But I have no peace."
নরেন্দ্র, শরৎ ও মাস্টার নিচে হলঘরের পূর্বদিকে কথা কহিতেছেন। নরেন্দ্র — কি আশ্চর্য! এত বৎসর পড়ে তবু বিদ্যা হয় না; কি করে লোকে বলে যে, দু-তিনদিন সাধন করেছি, ভগবানলাভ হবে! ভগবানলাভ কি এত সোজা! (শরতের প্রতি) তোর শান্তি হয়েছে; মাস্টার নহাশয়ের শান্তি হয়েছে, আমার কিন্তু হয় নাই।
(७)
[(23 अप्रैल, 1886)-श्री रामकृष्ण वचनामृत-139]
*केदार, सुरेन्द्र आदि भक्तों के संग में*
दिन का पिछला पहर है । ऊपरवाले हॉल में कई भक्त बैठे हुए हैं । नरेन्द्र, शरद, शशि, लाटू, नित्यगोपाल, गिरीश, राम, मास्टर और सुरेश आदि अनेक भक्त बैठे हुए हैं । केदार आये । बहुत दिनों के बाद वे श्रीरामकृष्ण को देखने आये हैं । वे अपने ऑफिस के कार्य के सम्बन्ध में ढाके में थे । वहाँ से श्रीरामकृष्ण की बीमारी का हाल पाकर आये हैं ।
It was afternoon. Many devotees were sitting in the Master's room. Narendra, Sarat, Sashi, Latu, Nityagopal, Girish, Ram, M., and Suresh were present. Kedar came in. This was his first visit to the Master for some time. While staying in Dacca, in connection with his official duties, he had heard of Sri Ramakrishna's illness.
সকলের অগ্রে নিত্যগোপাল আসিয়াছেন ও ঠাকুরকে দেখিবামাত্র তাঁহার চরণে মস্তক দিয়া বন্দনা করিয়াছেন। উপবেশনানন্তর নিত্যগোপাল বালকের ন্যায় বলিতেছেন কেদারবাবু এসেছে। কেদার অনেকদিন পরে ঠাকুরকে দেখিতে আসিয়াছিলেন। তিনি বিষয়কর্ম উপলক্ষে ঢাকায় ছিলেন। সেখানে ঠাকুরের অসুখের কথা শুনিয়া আসিয়াছেন।
केदार ने कमरे में प्रवेश करके श्रीरामकृष्ण की पदधूलि पहले अपने सिर पर धारण की, फिर आनन्दपूर्वक उसे औरों को भी देने लगे । भक्तगण नतमस्तक होकर उसे ग्रहण कर रहे हैं । केदार शरद को भी देने के लिए बढ़े, परन्तु उन्होंने स्वयं श्रीरामकृष्ण की धूलि लेकर मस्तक पर धारण की । यह देखकर मास्टर हँसने लगे । उनकी ओर देखकर श्रीरामकृष्ण भी हँसे ।
On entering Sri Ramakrishna's room he took the dust of the Master's feet on his head and then joyously gave it to the others. The devotees accepted it with bowed heads. As he offered it to Sarat, the latter himself took the dust of Sri Ramakrishna's feet. M. smiled. The Master also smiled, looking at M.
কেদার ঘরে প্রবেশ করিয়াই ঠাকুরের ভক্তসম্ভাষণ দেখিতেছেন। কেদার ঠাকুরের পদধূলি নিকে মস্তকে গ্রহণ করিলেন ও আনন্দে সেই ধূলি লইয়া সকলেকে বিতরণ করিতেছেন। ভক্তেরা মস্তক অবনত করিয়া সেই ধূলি গ্রহণ করিতেছেন। শরৎকে দিতে যাইতেছেন, এমন সময় তিনি নিজেই ঠাকুরের চরণধূলি লইলেন। মাস্টার হাসিলেন। ঠাকুরও মাস্টারের দিকে চাহিয়া হাসিলেন।
भक्तगण चुपचाप बैठे हुए हैं । इधर श्रीरामकृष्ण के भावावेश के पूर्वलक्षण प्रकट हो रहे हैं । रह-रहकर साँस छोड़ते हुए मानो वे भाव को दबाने की चेष्टा कर रहे हैं । अन्त में गिरीष घोष के साथ तर्क करने के लिए केदार के प्रति इशारा करने लगे ।
The devotees sat without uttering a word. Sri Ramakrishna seemed about to go into an ecstatic mood. Now and then he breathed heavily as if trying to suppress his emotion. He said to Kedar, by a sign, "Argue with Girish."
ভক্তেরা নিঃশব্দে বসিয়া আছেন। ঠাকুরের ভাব-লক্ষণ দেখা যাইতেছে। মাঝে মাযে নিঃশ্বাস ত্যাগ করিতেছেন, যেন ভাব চাপিতেছেন। অবশেষে কেদারকে ইঙ্গিত করিতেছেন — গিরিশ ঘোষের সহিত তর্ক কর।
गिरीश अपने कान ऐंठ कर कह रहे हैं, "महाराज, कान पकड़ा । पहले मैं नहीं जानता था कि आप कौन हैं । उस समय जो मैंने तर्क किया, वह और बात थी ।" (श्रीरामकृष्ण हँसते हैं)
Girish said to Kedar: "Sir, I beg your pardon. At first I did not know who you were. That is why I argued with you. But now it is quite different."
গিরিশ কান-নাক মলিতেছেন আর বলিতেছেন, “মহাশয় নাক-কান মলছি! আগে জানতাম না, আপনি কে! তখন তর্ক করেছি; সে এক!” (ঠাকুরের হাস্য)
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र की और उँगली उठाकर इशारा करते हुए केदार से कह रहे हैं - "इसने सर्वस्व का त्याग कर दिया है । (भक्तों से) केदार ने नरेन्द्र से कहा था, 'अभी चाहे तर्क करो और विचार करो, परन्तु अन्त में ईश्वर का नाम लेकर धूलि में लोटना होगा ।' (नरेन्द्र से) केदार के पैरों को धूलि लो ।"
Sri Ramakrishna smiled. The Master drew Kedar's attention to Narendra and said: "He has renounced everything. (To the devotees) Kedar once said to Narendra, 'You may reason and argue now, but in the end you will roll on the ground, chanting Hari's name.' (To Narendra) Take the dust of Kedar's feet.
শ্রীরামকৃষ্ণ নরেন্দ্রের প্রতি অঙ্গুলি নির্দেশ করিয়া কেদারকে দেখাইতেছেন ও বলিতেছেন, “সব ত্যাগ করেছে! (ভক্তদের প্রতি) কেদার নরেন্দ্রকে বলেছিল, এখন তর্ক কর বিচার কর, কিন্তু শেষে হরিনামে গড়াগড়ি দিতে হবে। (নরেন্দ্রের প্রতি) — কেদারের পায়ের ধুলা নাও।”
केदार - (नरेन्द्र से) - उनके पैरों की धूलि लो, इसी से हो जायगा ।
KEDAR (to Narendra): "Take the dust of his [meaning the Master's] feet. That will do."
কেদার (নরেন্দ্রকে) — ওঁর পায়ের ধুলা নাও; তাহলেই হবে।
सुरेन्द्र भक्तों के पीछे बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण ने जरा मुस्कराकर उनकी ओर देखा । केदार से कह रहे हैं, “अहा ! कैसा स्वभाव है !” केदार श्रीरामकृष्ण का इशारा समझकर सुरेन्द्र की ओर बढ़कर बैठे ।
Surendra was seated behind the other devotees. The Master looked at him with a smile and said to Kedar, "Ah, how sweet his nature is!" Kedar understood the Master's hint and went toward Surendra.
সুরেন্দ্র ভক্তদের পশ্চাতে বসিয়া আছেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ঈষৎ হাস্য করিয়া তাঁহার দিকে তাকাইলেন। কেদারকে বলিতেছেন, আহা, কি স্বভাব! কেদার ঠাকুরের ইঙ্গিত বুঝিয়া সুরেন্দ্রের দিকে অগ্রসর হইয়া বসিলেন।
सुरेन्द्र जरा अभिमानी हैं । भक्तों में से कुछ लोग बगीचे के खर्च के लिए बाहर के भक्तों के पास से अर्थ-संग्रह करने गये थे । इस पर सुरेन्द्र को बड़ा दुःख है । बगीचे का अधिकतर खर्च सुरेन्द्र ही देते हैं ।
Surendra was very sensitive. Some of the devotees had been collecting funds from the householder devotees to meet the expenses of the Cossipore garden house. Surendra felt piqued at this. He was bearing most of the expenses himself.
সুরেন্দ্র একটু অভিমানী। ভক্তেরা কেহ কেহ বাগানের খরচের জন্য বাহিরের ভক্তদের কাছে অর্থ সংগ্রহ করিতে গিয়াছিলেন। তাই বড় অভিমান হইয়াছে। সুরেন্দ্র বাগানের অধিকাংশ খরচ দেন।
सुरेन्द्र - (केदार से) - इतने साधुओं के बीच मैं क्या बैठूँ ! और कोई कोई (नरेन्द्र) तो कुछ दिन हुए, संन्यासी बनकर बुद्ध-गया गये हुए थे, - बड़े बड़े साधुओं के दर्शन करने ।
SURENDRA (to Kedar): "How can I sit near all these holy people? A few days ago some of them [referring to Narendra] put on the ochre robe of the sannyasi and went on a pilgrimage to Buddha-Gaya. They wanted to see bigger sadhus there."
সুরেন্দ্র (কেদারের প্রতি) — অত সাধুদের কাছে কি আমি বসতে পারি! আবার কেউ কেউ (নরেন্দ্র) কয়দিন হইল, সন্ন্যাসীর বেশে বুদ্ধগয়া দর্শন করিতে গিয়াছিলেন। বড় বড় সাধু দেখতে!
श्रीरामकृष्ण सुरेन्द्र को शान्त कर रहे हैं । कह रहे हैं, "हाँ, वे अभी बच्चे हैं, अच्छी तरह समझ नहीं सकते ।"
Sri Ramakrishna was trying to console Surendra. He said: "You are right. They are mere children. They don't know what is good."
ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ সুরেন্দ্রকে ঠাণ্ডা করিতেছেন। বলছেন, হাঁ, ওরা ছেলেমানুষ, ভাল বুঝতে পারে না।
सुरेन्द्र - (केदार से) - क्या गुरुदेव जानते नहीं, किसका क्या भाव है ? वे रुपये से नहीं, वे तो भाव लेकर सन्तुष्ट होते हैं ।
SURENDRA (to Kedar): "Doesn't our gurudeva (Referring to Sri Ramakrishna) know our inner feelings? He does not care for money. It is our inner attitude that pleases him."
সুরেন্দ্র (কেদারের প্রতি) — গুরুদেব কি জানেন না, কার কি ভাব। উনি টাকাতে তুষ্ট নন; উনি ভাব নিয়ে তুষ্ট!
श्रीरामकृष्ण सिर हिलाकर सुरेन्द्र की बात का समर्थन कर रहे हैं । 'भाव लेकर सन्तुष्ट होते हैं' इस कथन को सुनकर केदार भी प्रसन्न हुए ।
Sri Ramakrishna with a nod of his head approved Surendra's words.
ঠাকুর মাথা নাড়িয়া সুরেন্দ্রের কথায় সায় দিতেছেন। “ভাব নিয়ে তুষ্ট”, এই কথা শুনিয়া কেদারও আনন্দ প্রকাশ করিতেছেন।
भक्तों ने मिठाइयाँ लाकर श्रीरामकृष्ण के सामने रखीं । उनमें से एक छोटासा टुकड़ा ग्रहण करके श्रीरामकृष्ण ने सुरेन्द्र के हाथ में प्रसाद की थाली दी और कहा, 'दूसरे भक्तों को भी प्रसाद दे दो ।' सुरेन्द्र नीचे गये । प्रसाद नीचे ही दिया जायगा ।
The devotees had brought various food offerings for the Master and placed them in front of him. Sri Ramakrishna put a grain on his tongue and gave the plate to Surendra. He asked Surendra to distribute the prasad to the devotees. Surendra went downstairs with the offerings.
ভক্তেরা খাবার আনিয়াছেন ও ঠাকুরের সামনে রাখিয়াছিলেন। ঠাকুর জিহ্বাতে কণিকামাত্র ঠেকাইলেন। সুরেন্দ্রের হাতে প্রসাদ দিতে বলিলেন ও অন্য সকলকে দিতে বলিলেন।সুরেন্দ্র নিচে গেলেন। নিচে প্রসাদ বিতরণ হইবে।
श्रीरामकृष्ण (केदार से) - तुम समझा देना । जाओ बकझक करने की मनाही कर देना ।
MASTER (to Kedar): "You had better go downstairs and explain it all to Surendra. See that they don't get into any hot arguments."
सन्ध्या हो रही है । गिरीश और श्री 'म' (मास्टर) तालाब के किनारे टहल रहे हैं ।
It was about dusk. Girish and M. were strolling near the small reservoir in the garden.
সন্ধ্যা হয় হয়! গিরিশ ও শ্রীম — পুকুরধারে বেড়াইতেছেন।
गिरीश - क्यों जी, सुना है, तुमने श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में कुछ # लिखा है ?
GIRISH: "I understand that you are writing something about the Master.4 Is it true?"
[# श्री रामकृष्ण की मृत्यु के बाद एम. ने श्रीरामकृष्ण के साथ अपनी बातचीत के नोट्स पाँच खंडों में प्रकाशित किए। द गॉस्पेल ऑफ श्री रामकृष्ण (^The Gospel of Sri Ramakrishna) श्री रामकृष्ण का सुसमाचार) मूल बंगाली से इन पुस्तकों का अंग्रेजी अनुवाद है।]
গিরিশ — ওহে তুমি ঠাকুরের বিষয় — কি নাকি লিখেছো?
श्री 'म' - किसने कहा आपसे ?
M: "Who told you that?"
শ্রীম — কে বললে?
गिरीश - मैंने सुना है । क्या मुझे दोगे - पढ़ने के लिए ?
GIRISH: "I have heard about it. Will you give it to me?"
গিরিশ — আমি শুনেছি। আমায় দেবে?
श्री 'म' - नहीं, जब तक मैं यह न समझ लूँ कि किसी को देना उचित है, मैं न दूँगा । वह मैंने अपने लिए लिखा है, किसी दूसरे के लिए नहीं ।
M: "No, I won't part with it unless I feel it is right to do so. I am writing it for myself, not for others."
শ্রীম — না; আমি নিজে না বুঝে কারুকে দেব না — ও আমি নিজের জন্য লিখেছি। অন্যের জন্য নয়!
गिरीश - क्या बोलते हो ?
GIRISH: "What do you mean?"
গিরিশ — বল কি!
'श्री 'म' - जब मेरा देहान्त हो जायगा तब पाओगे ।
M: "You may get it when I die."
শ্রীম — আমার দেহ যাবার সময় পাবে।
“श्रीरामकृष्ण - अहेतुक कृपासिन्धु”
[" ঠাকুর অহেতুক-কৃপাসিন্ধু "
— ব্রাহ্মভক্ত শ্রীযুক্ত অমৃত ]
सन्ध्या होने पर श्रीरामकृष्ण के कमरे में दीपक जलाये गये । ब्राह्मभक्त श्रीयुत अमृत बसु उन्हें देखने के लिए आये हैं । श्रीरामकृष्ण उन्हें देखने के लिए पहले ही से उत्सुक थे । मास्टर तथा दो चार भक्त और बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण के सामने केले के पत्ते में बेला और जुही की मालाएँ रखी हुई हैं । कमरे में सन्नाटा छाया है । एक महायोगी मानो चुपचाप योगयुक्त होकर बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण एक-एक बार मालाओं को उठा रहे हैं । जैसे गले में डालना चाहते हो ।
It was evening. A lamp was lighted in the Master's room. Amrita Basu, a Brahmo devotee, came in. Sri Ramakrishna had expressed his eagerness to see him. M. and a few other devotees were there. A garland of jasmine lay in front of the Master on a plantain-leaf. There was perfect silence in the room. A great yogi seemed to be silently communing with God. Every now and then the Master lifted the garland a little, as if he wanted to put it around his neck.
AMRITA (tenderly): "Shall I put it around your neck?"
অমৃত (স্নেহপূর্ণস্বরে) — মালা পরিয়ে দেব?
मालाएँ पहन लेने पर श्रीरामकृष्ण अमृत से बड़ी देर तक बातचीत करते रहे । अमृत अब चलनेवाले हैं ।श्रीरामकृष्ण - तुम फिर आना ।
Sri Ramakrishna accepted the garland. He had a long conversation with Amrita. When the latter was about to take his leave, the Master said, "Come again."
মালা পরা হইলে, ঠাকুর অমৃতের সহিত অনেক কথা কহিলেন। অমৃত বিদায় লইবেন।শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি আবার এসো।
अमृत - जी, आने की तो बड़ी इच्छा है । बड़ी दूर से आना पड़ता है, इसलिए हमेशा मैं नहीं आ सकता ।
AMRITA: "Yes, sir. I like to come very much. But I live at a great distance; so I cannot always come."
অমৃত — আজ্ঞে, আসবার খুব ইচ্ছা। অনেক দুর থেকে আসতে হয় — তাই সব সময় পারি না।
श्रीरामकृष्ण - तुम आना, यहाँ से बग्घी का किराया ले लिया करना ।
MASTER: "Do come, and take the carriage hire from here."
শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি এসো। এখান থেকে গাড়িভাড়া নিও।
अमृत के लिए श्रीरामकृष्ण का यह अकारण स्नेह देखकर भक्तगण आश्चर्यचकित हो गये ।
The devotees were amazed at the Master's tender love for Amrita.
অমৃতের প্রতি ঠাকুরের অহেতুক স্নেহ দেখিয়া সকলে অবাক্।
[श्री रामकृष्ण और भक्त के स्त्री -पुत्र]
दूसरे दिन शनिवार हैं, २४ अप्रैल । श्री 'म' अपनी स्त्री तथा सात साल के लड़के को लेकर श्रीरामकृष्ण के पास आये हैं । एक साल हुआ, उनके एक आठ वर्ष के लड़के का देहान्त हो गया है । उनकी स्त्री तभी से पागल की तरह हो गयी है । इसीलिए श्रीरामकृष्ण कभी कभी उसे आने के लिए कहते हैं ।
The next day M. came to the garden house accompanied by his wife and a son. The boy was seven years old. It was at the Master's request that he brought his wife, who was almost mad with grief owing to the death of one of her sons.
পরদিন শনিবার, ২৪শে এপ্রিল। একটি ভক্ত আসিয়াছেন। সঙ্গে পরিবার ও একটি সাত বছরের ছেলে। একবৎসর হইল একটি অষ্টমবর্ষীয় সন্তান দেহত্যাগ করিয়াছে। পরিবারটি সেই অবধি পাগলের মতো হইয়াছেন। তাই ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁহাকে মাঝে মাঝে আসিতে বলেন।
रात को श्रीमाताजी ऊपरवाले कमरे में श्रीरामकृष्ण को भोजन कराने के लिए आयी । श्री 'म' की स्त्री उनके साथ साथ दीपक लेकर गयी ।
That day the Master several times allowed M.'s wife the privilege of waiting on him. Her welfare seemed to occupy his attention a great deal. In the evening the Holy Mother came to the Master's room to feed him. M.'s wife accompanied her with a lamp.
भोजन करते हुए श्रीरामकृष्ण उससे घर-गृहस्थी की बातें पूछने लगे । फिर उन्होंने कुछ दिन श्रीमाताजी के पास आकर रहने के लिए कहा, इसलिए कि इससे उसका शोक बहुत-कुछ घट जायगा । उसके एक छोटी लड़की थी । श्रीमाताजी उसे मानमयी कहकर पुकारती थीं । श्रीरामकृष्ण ने उसे भी ले आने के लिए कहा ।
The Master tenderly asked her many questions about her household. He requested her to come again to the garden house and spend a few days with the Holy Mother, not forgetting to ask her to bring her baby daughter.
খাইতে খাইতে, ঠাকুর তাঁহাকে ঘরকন্নার কথা অনেক জিজ্ঞাসা করিলেন ও কিছুদিন ওই বাগানে আসিয়া শ্রীশ্রীমার কাছে থাকিতে বলিলেন। তাহা হইলে শোক অনেক কম পড়িবে। তাঁহার একটি কোলের মেয়ে ছিল। পরে শ্রীশ্রীমা তাহাকে মানময়ী বলিয়া ডাকিতেন। ঠাকুর ইঙ্গিত করিয়া বলিলেন, তাকেও আনবে।
श्रीरामकृष्ण के भोजन के पश्चात् श्री 'म' की स्त्री ने उस जगह को साफ कर दिया । श्रीरामकृष्ण के साथ कुछ देर तक बातचीत हो जाने के बाद श्रीमाताजी जब नीचे के कमरे में गयीं, तब श्री 'म' की स्त्री भी उन्हें प्रणाम करके नीचे चली आयी।
When the Master had finished his meal M.'s wife removed the plates. He chatted with her a few minutes.
ঠাকুরের খাওয়ার পর ভক্তটির পরিবার স্থানটি পরিষ্কার করিয়া লইলেন। ঠাকুরের সঙ্গে কিয়ৎক্ষণ কথাবার্তার পর, শ্রীশ্রীমা যখন নিচের ঘরে গেলেন, তিনি ঠাকুরকে প্রণাম করিয়া সেই সঙ্গে গমন করিলেন।
रात के नौ बजे का समय हुआ । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ उसी कमरे में बैठे हैं । गले में फूलों की माला पड़ी हुई है । श्री 'म' पंखा झल रहे हैं ।
About nine o'clock in the evening Sri Ramakrishna was seated in his room with the devotees. He had a garland of flowers around his neck.