[( 23 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-124]
श्रीरामकृष्ण तथा डा. सरकार
(१)
पूर्वकथा
श्रीरामकृष्ण चिकित्सा के लिए श्यामपुकुरवाले मकान में भक्तों के साथ रहते हैं । आज शरद पूर्णिमा है, शुक्रवार २३ अक्टूबर १८८५ । दिन के दस बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण मास्टर के साथ बातचीत कर रहे हैं । मास्टर उनके पैरों में मोजा पहना रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - मफलर को काटकर पैरों में न पहन लिया जाय ? वह खूब गरम है ।
मास्टर हँस रहे हैं ।
कल बृहस्पतिवार की रात को डाक्टर सरकार के साथ बहुतसी बातें हुई थीं । उनका वर्णन करते हुए श्रीरामकृष्ण हँसकर मास्टर से कह रहे हैं – ‘कल कैसा मैंने तूँऊँ-तूँऊँ कहा !’
कल श्रीरामकृष्ण ने कहा था, "त्रिताप की ज्वाला में जीव झुलस रहे हैं, फिर भी कहते हैं - 'हम बड़े मजे में हैं ।' हाथ में काँटा चुभ गया है, धर-धर खून बह रहा है, फिर भी कहते हैं, 'हमारे हाथ में कहीं कुछ नहीं हुआ ।' ज्ञानाग्नि में इस काँटे को जलाना होगा ।"
इन बातों को याद कर छोटे नरेन्द्र कह रहे हैं - "कल के टेढ़े काँटेवाले की बात बड़ी अच्छी थी । ज्ञानाग्नि में जला देना ।"
श्रीरामकृष्ण - उन सब अवस्थाओं को मैं खुद भोग चुका हूँ ।
"कुटीर के पीछे से जाते हुए जान पड़ा कि देह में मानो होमाग्नि जल उठी !
"पद्मलोचन ने कहा था, 'सभा करके मैं तुम्हारी अवस्था का हाल लोगों से कहूँगा ।' परन्तु इसके बाद उसकी मृत्यु हो गयी ।"
ग्यारह बजे के लगभग श्रीरामकृष्ण का संवाद लेकर डाक्टर सरकार के यहाँ मणि गये । हाल सुनकर डाक्टर उन्हीं के सम्बन्ध में बातचीत करने लगे और उनका हाल सुनने के लिए उत्सुकता प्रकट करने लगे ।
डाक्टर (सहास्य) – मैंने कल कैसा कहा, 'तूँऊँ-तूँऊँ’ कहने के लिए धुनिये के हाथ में जाना पड़ता है !
मणि - जी हाँ, उस तरह के गुरु के हाथ में बिना पड़े अहंकार दूर नहीं होता ।
“कल भक्तिवाली बात कैसी रही । भक्ति स्त्री है, वह अन्तःपुर तक जा सकती है ।”
डाक्टर – हाँ, वह 'बात' बड़ी अच्छी है । परन्तु इसलिए कहीं ज्ञान थोड़े ही छोड़ दिया जा सकता है!
मणि - श्रीरामकृष्णदेव ऐसा करने को कहते भी तो नहीं हैं । वे ज्ञान और भक्ति दोनों लेते हैं, - साकार और निराकार । वे कहते हैं, ‘भक्ति की शीतलता से जल का कुछ अंश बर्फ बना, फिर ज्ञानसूर्य के उगने पर वह बर्फ गल गया, अर्थात् भक्तियोग से साकार और ज्ञानयोग से निराकार।’
"और आपने देखा है, ईश्वर को (माँ काली को) वे इतना समीप देखते हैं कि उनसे बातचीत भी करते हैं । छोटे बच्चे की तरह कहते हैं - 'माँ, दर्द बहुत होता है ।’
“और उनका Observation (दर्शन-पर्यवेक्षण) भी कितना अद्भुत है ! म्यूजियम में उन्होंने लकड़ी तथा जानवरों को देखा था जो फॉसिल (पत्थर) हो गये हैं । बस वहीं उन्हें साधु-संग की उपमा मिल गयी । जिस तरह पानी और कीच के पास रहते हुए लकड़ी आदि पत्थर हो गये हैं, उसी तरह साधु के पास रहते हुए आदमी साधु बन जाता है ।”
डाक्टर - ईशानबाबू कल अवतार-अवतार कर रहे थे । अवतार कौनसी बला है - आदमी को ईश्वर कहना ?
मणि - उन लोगों का जैसा विश्वास हो, इस पर तर्कवितर्क क्यों ?
डाक्टर – हाँ, क्या जरूरत ?
मणि - और उस बात से कैसा हँसाया उन्होंने ! - एक आदमी ने देखा था कि मकान धँस गया है, परन्तु अखबार में वह बात लिखी नहीं थी, अतएव उस पर विश्वास कैसे किया जाता !
डाक्टर चुप हैं; क्योंकि श्रीरामकृष्ण ने कहा था, 'तुम्हारे Science (विज्ञान) में अवतार की बात नहीं है, अतएव तुम्हारी दृष्टि से अवतार नहीं हो सकता ।'
दोपहर का समय है । डाक्टर मणि को साथ लेकर गाड़ी पर बैठे । दूसरे रोगियों को देखकर अन्त में श्रीरामकृष्ण को देखने जायेंगे ।
डाक्टर उस दिन गिरीश का निमन्त्रण पाकर 'बुद्धलीला' अभिनय देखने गये थे । वे गाड़ी में बैठे हुए मणि से कह रहे हैं, ‘बुद्ध को दया का अवतार कहना अच्छा था; -विष्णु का अवतार क्यों कहा ?’
डाक्टर ने मणि को हेदुए के चौराहे पर उतार दिया ।
(२)
[( 23 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-124]
🔱🙏श्रीरामकृष्ण की परमहंस अवस्था🔱🙏
दिन के तीन बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण के पास दो-एक भक्त बैठे हुए हैं । बालक की तरह अधीर होकर श्रीरामकृष्ण बार बार पूछ रहे हैं, 'डाक्टर कब आयेगा ? क्या बजा है?' आज सन्ध्या के बाद डाक्टर आनेवाले हैं ।
एकाएक श्रीरामकृष्ण की बालक जैसी अवस्था हो गयी, - तकिया गोद में लेकर वात्सल्य-रस से भरकर बच्चे को जैसे दूध पिला रहे हों । भावावेश में हैं, बालक की तरह हँस रहे हैं, और एक खास ढंग से धोती पहन रहे हैं ।मणि आदि आश्चर्य में आकर देख रहे हैं ।
कुछ देर बाद भाव का उपशम हुआ । श्रीरामकृष्ण के भोजन का समय आ गया । उन्होंने थोड़ी सूजी की खीर खायी ।
मणि को एकान्त में बहुत ही गुप्त बातें बतला रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (मणि से, एकान्त में) - अब तक भावावस्था में मैं क्या देख रहा था, जानते हो ? – सिऊड़ के रास्ते में तीन-चार कोस का एक मैदान है, वहाँ मैं अकेला हूँ । बड़ के नीचे मैंने जो १५-१६ साल के लड़के की तरह एक परमहंस देखा था, फिर ठीक उसी तरह देखा ।
चारों ओर आनन्द का कुहरा-सा छाया है - उसी के भीतर से १३-१४ साल का एक लड़का निकला, केवल उसका मुँह दीख पड़ता था । पूर्ण की तरह का था । हम दोनों ही दिगम्बर ! - फिर आनन्दपूर्वक मैदान में दोनों ही दौड़ने और खेलने लगे ।
दौड़ने से पूर्ण को प्यास लगी । एक पात्र में उसने पानी पिया, पानी पीकर मुझे देने के लिए आया । मैंने कहा, 'भाई, तेरा जूठा पानी तो मैं न पी सकूँगा ।' तब वह हँसते हुए गिलास धोकर मेरे लिए पानी ले आया ।
श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हैं । कुछ देर बाद प्राकृत अवस्था में आकर मणि के साथ बातचीत कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - अवस्था फिर बदल रही है । अब मैं प्रसाद नहीं ले सकता । सत्य और मिथ्या एक हुए जा रहे है ! - फिर क्या देखा, जानते हो ? - ईश्वरी रूप ! भगवती मूर्ति ! - पेट के भीतर बच्चा है - उसे निकालकर फिर निगल रही हैं ! - भीतर बच्चे का जितना अंश जा रहा है, उतना बिलकूल शून्य हुआ जा रहा है । मुझे दिखला रही थीं कि सब शून्य है । “मानो कह रही हैं, देख, तू भानुमती का खेल देख !”
मणि श्रीरामकृष्ण की बात सोच रहे हैं, 'बाजीगर ही सत्य है और सब मिथ्या है ।'
श्रीरामकृष्ण - उस समय पूर्ण पर मैंने आकर्षण का प्रयोग किया, परन्तु क्यों कुछ न हुआ ? उससे विश्वास घटा जा रहा है ।
मणि - ये तो सब सिद्धियाँ हैं ।
श्रीरामकृष्ण - निरी सिद्धि !
मणि - उस दिन अधर सेन के यहाँ से गाड़ी पर हम लोग आपके साथ जब दक्षिणेश्वर जा रहे थे, तब बोतल फूट गयी थी । एक ने कहा, 'आप बतलाइये, इससे क्या हानि होगी ?' आपने कहा, 'मुझे क्या गरज जो यह सब बतलाऊँ ? - यह सब तो सिद्धि का काम है ।'
श्रीरामकृष्ण – हाँ, लोग बीमार बच्चों को जमीन पर लिटा देते हैं और फिर कुछ लोग भगवान का नाम लेकर मन्त्र जपने लगते हैं जिससे वह अच्छा हो जाय । इसी प्रकार लोग अन्य बीमारियाँ भी मन्तर-जन्तर से अच्छी कर देते हैं । ये सब विभूतियाँ हैं । जिनका स्थान बहुत ही निम्न है वे ही लोग रोग अच्छा करने के लिए ईश्वर को पुकारते हैं ।
(३)
[( 23 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-124]
🔱🙏श्रीमुखकथित चरितामृत🔱🙏
शाम हो गयी । श्रीरामकृष्ण चारपाई पर बैठे हुए जगन्माता की चिन्ता करते हुए उनका नाम ले रहे हैं । कई भक्त चुपचाप उनके पास बैठे हुए हैं ।
कमरे में लाटू, शशि, शरद, छोटे नरेन्द्र, पल्टू, भूपति, गिरीश आदि बहुत से भक्त बैठे हुए हैं । गिरीश के साथ स्टार -थिएटर के श्रीयुत रामतारण भी आये हैं - ये गाना गायेंगे । कुछ देर बाद डाक्टर सरकार आये ।
डाक्टर (श्रीरामकृष्ण से) - कल रात तीन बजे तुम्हारे लिए मुझे बड़ी चिन्ता हुई थी । पानी बरसने लगा, तब मैंने सोचा, ‘परमात्मा जाने, तुम्हारे कमरे की दरवाजे - खिड़कियाँ खुली हैं या बन्द कर दी गयी हैं ।’
डाक्टर का स्नेह देखकर श्रीरामकृष्ण प्रसन्न हुए । और कहा - "कहते क्या हो ! जब तक देह है, तब तक उसके लिए प्रयत्न करना पड़ता है । "
गिरीश (भक्तों के प्रति) - पण्डित शशधर ने इनसे कहा था, 'आप समाधि की अवस्था में शरीर की ओर मन को ले आया करें तो बीमारी अच्छी हो जाय ।' और इन्हें भाव में ऐसा दिखा कि शरीर केवल हाड़-माँस का एक ढेर है ।
श्रीरामकृष्ण - बहुत दिन हुए, मुझे उस समय सख्त बीमारी थी । कालीमन्दिर में मैं बैठा हुआ था । माता के पास प्रार्थना करने की इच्छा हुई । पर ठीक ठीक खुद न कह सका । कहा, ‘माँ, हृदय मुझसे कहता है कि मैं तुम्हारे पास अपनी बीमारी की बात कहूँ ।’ पर और अधिक मैं न कह सका ।
कहते ही कहते सोसायटी के अजायबघर(Asiatic Society's Museum) की याद आ गयी । वहाँ का तारों से बँधा हुआ मनुष्य का अस्थिपंजर आँखों के सामने आ गया । झट मैंने कहा, 'माँ, मैं केवल यही चाहता हूँ कि तुम्हारा नाम-गुण गाता रहूँ । इतने के लिए ही इस शरीर के अस्थिपंजर को तारों से कसे भर रखना, उस अजायबघर के अस्थिपंजर की तरह ।'
"सिद्धि की प्रार्थना मुझसे होती ही नहीं । पहले-पहल हृदय ने कहा था - मैं हृदय के 'अण्डर'(आधीन) था न - 'माँ से कुछ विभूति माँगो ।' मैं कालीमन्दिर में प्रार्थना करने के लिए गया । जाकर देखा एक अधेड़ विधवा, कोई ३०-३५ वर्ष की होगी, तमाम मल से सनी हुई है । तब मुझे यह स्पष्ट हुआ कि सिद्धियाँ इस मल के सदृश ही हैं । तब तो हृदय पर मुझे बड़ा क्रोध आया, - क्यों उसने मुझसे कहा कि मैं सिद्धियों के लिए प्रार्थना करू ?"
रामतारण का गाना हो रहा है । गिरीश घोष के 'बुद्धदेव' नाटक का एक गीत वे गा रहे हैं ।
(भावार्थ) "मेरी यह वीणा मुझे बड़ी प्रिय है । उसके तार बड़े यत्न से गूँथे हुए हैं । उस वीणा को जो यत्नपूर्वक रखना जानता है वही उसे बजाता है, और तब उससे अनवरत सुधा-धारा बह चलती है । ताल-मान के साथ उसके तारों को कसने पर माधुरी शत धाराओं से होकर प्रवाहित होने लगती है । तारों के ढीले रहने पर वह नहीं बजती, और अधिक खींचने से उसके कोमल तार टूट जाते हैं।"
डाक्टर (गिरीश से) - क्या यह सब गान मौलिक है ?
गिरीश - नहीं, ये एड्विन आर्नल्ड के भाव हैं ।
रामतारण 'बुद्धदेव' नाटक का एक गीत, गा रहे हैं :
"जुड़ाना चाहता हूँ,.... परन्तु कहाँ जुड़ाऊँ ? न जाने कहाँ से आकर कहाँ बहा जा रहा हूँ ! बार बार आता हूँ, न जाने कितना हँसता और कितना रोता हूँ । सदा मुझे यही सोच लगा रहता है कि मैं कहाँ जा रहा हूँ ।... ऐ जागनेवाले, मुझे भी जगा दो । हाय ! कब तक और यह स्वप्न चलता रहेगा ? क्या तुम सचमुच जाग रहे हो, यदि नहीं तो अब अधिक मत सोओ ? ऐ सोनेवाले ! नींद से उठो, और कहीं फिर मत सो जाना । यह घोर निबिड़ अन्धकार बड़ा दारुण है, बड़ा कष्टदायी है । इस अन्धकार का नाश करो, हे प्रकाश ! तुम्हारे बिना और कोई उपाय ही नहीं है - तुम्हारे श्रीचरणों में मैं शरण चाहता हूँ !"
यह गीत सुनते ही सुनते श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो रहा है ।
गाना – “सन् सन् सन् चल री आँधी ।”
गाने के समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, "यह क्या किया ? खीर खिलाकर फिर नीम की तरकारी ?
"इन्होंने ज्योंही गाया ‘करो तमोनाश’ त्योंही मैंने देखा सूर्य ! - उदय होने के साथ ही चारों ओर का अन्धकार दूर हो गया । और उसी के चरणों में सब लोग शरणागत होकर गिर रहे हैं!"
रामतारण फिर गा रहे हैं –
गाना -
दीनतारिणी, दुरितवारिणी, सत्त्वरजस्तम त्रिगुणधारिणी,
सृजनपालन-निधनकारिणी, सगुणा निर्गुणा सर्वस्वरूपिणी। ....
गाना -
धरम करम सकली गेलो, श्यामापूजा बुझी होलो ना !
मन निवारित नारि कोन मते, छि, छि, कि ज्वाला बोलो ना।।
मेरा धर्म और कर्म सब तो चला गया, परन्तु मेरी श्यामापूजा शायद पूरी नहीं हुई ! ....
यह गीत सुनकर श्रीरामकृष्ण फिर भावाविष्ट हो गये ।
गवैये ने फिर गाया, “ओ माँ, तेरे चरणों में लाल जवा फूल किसने चढ़ाया ?..”
(४)
🔱🙏* संन्यासी तथा गृहस्थ के कर्तव्य*🔱🙏
गाना समाप्त हो गया । भक्तों में बहुतों को भावावेश हो गया है । सब चुपचाप बैठे हैं । छोटे नरेन्द्र ध्यानमग्न हो काठ के पुतले की तरह बैठे हुए हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (छोटे नरेन्द्र को दिखाकर, डाक्टर से) - यह बहुत ही शुद्ध है । इसमें विषय-बुद्धि छू भी नहीं गयी । डाक्टर नरेन्द्र को देख रहे हैं । अब भी उनका ध्यान नहीं छूटा ।
मनोमोहन (डाक्टर से हँसकर) - आपके बच्चे की बात पर ये (श्रीरामकृष्ण) कहते हैं, ‘बच्चा अगर मिल जाय तो मुझे उसके बाप की चाह नहीं है ।’
डाक्टर - यही तो ! इसीलिए तो कहता हूँ, तुम लोग बच्चे को लेकर भूल जाते हो ! (अर्थात् मनुष्य बच्चे को - अवतार को – लेकर, पिता को - ईश्वर को - भूल जाता है ।)
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - मैं यह नहीं कहता कि मुझे बाप की कुछ भी चाह नहीं है ।
डाक्टर - यह मैं समझ गया, इस तरह दो-एक बातें बिना कहे काम कैसे चल सकेगा ?
"बच्चे सब मानो नयी हण्डियाँ हैं, पात्र अच्छा है, इसलिए निश्चिन्त होकर दूध रखा जा सकता है । उन्हें ज्ञानोपदेश देने पर बहुत शीघ्र चैतन्य होता है । विषयी आदमियों को शीघ्र होश नहीं होता । जिस हण्डी में दही जमाया जा चुका है, उसमें दूध रखते भय होता है कि कहीं दूध नष्ट न हो जाय।
"तुम्हारे लड़के में अभी विषय-बुद्धि – कामिनी-कांचन का प्रवेश नहीं हुआ ।"
डाक्टर - बाप की कमाई उड़ा रहे है न ! अपने को करना पड़ता तब मैं देखता कि ये अपने को सांसारिकता से कैसे अलग रख सकते थे ।
श्रीरामकृष्ण - यह ठीक है । परन्तु बात यह है कि विषय-बुद्धि से वे बहुत दूर हैं, नहीं तो वे मुट्ठी में ही हैं । (सरकार और डाक्टर दोकौड़ी से) कामिनी और कांचन का त्याग आप लोगों के लिए नहीं है । आप लोग मन ही मन त्याग करेंगे । गोस्वामियों से इसलिए मैंने कहा, 'तुम लोग त्याग की बात क्यों कर रहे हो ? - त्याग करने से तुम्हारा काम नहीं - चल सकता - श्यामसुन्दर की सेवा जो है ।'
"त्याग संन्यासी के लिए है । उसके लिए स्त्रियों का चित्र भी देखना निषिद्ध है । स्त्री उसके लिए विष की तरह है । कम से कम दस हाथ की दूरी पर रहना चाहिए । अगर बिलकुल न निर्वाह हो तो एक हाथ का अन्तर स्त्रियों से हमेशा रखना चाहिए । स्त्री चाहे लाख भक्त हो, परन्तु उससे अधिक बातचीत नहीं करनी चाहिए । "यहाँ तक कि संन्यासी को ऐसी जगह रहना चाहिए जहाँ स्त्रियाँ बिलकुल नहीं या बहुत कम जाती हों ।
" रुपया भी संन्यासी के लिए विषवत् है । रुपये के पास रहने से ही चिन्ताएँ, अहंकार, देह-सुख की चेष्टा, क्रोध आदि सब आ जाते हैं । रजोगुण की वृद्धि होती है । और रजोगुण के रहने से ही तमोगुण होता है । इसलिए संन्यासी कांचन का स्पर्श नहीं करते । कामिनी-कांचन ईश्वर को भुला देते हैं ।
"तुम्हें यह समझना चाहिए कि रुपये से दाल-रोटी मिलती है, पहनने के लिए वस्त्र मिलता है, रहने की जगह मिलती है, श्रीठाकुरजी की सेवा होती है और साधुओं तथा भक्तों की सेवा होती है ।
"धन संचय की चेष्टा मिथ्या है । मधुमक्खी बड़े कष्ट से छत्ता तैयार करती है, और कोई दूसरा आकर उसे तोड़ ले जाता है ।"
डाक्टर - लोग रुपये इकट्ठा करते हैं । किसके लिए ? एक बदमाश बच्चे के लिए ।
श्रीरामकृष्ण - लड़का ही आवारा निकला या बीबी किसी दूसरे के साथ फँस गयी – शायद तुम्हारी ही घड़ी और चेन अपने यार को लगाने के लिए दे दे !
"परन्तु स्त्री का बिलकुल त्याग करना तुम्हारे लिए नहीं है । अपनी पत्नी से उपभोग करने में दोष नहीं है; परन्तु लड़के बच्चे हो जाने पर भाई-बहन की तरह रहना चाहिए ।
“कामिनी और कांचन में आसक्ति के रहने पर विद्या का अहंकार, धन का अहंकार, उच्च पद का अहंकार - यह सब होता है ।”
(५)
[ ( 23 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-124]
🔱🙏अहंकार तथा विद्या का 'मैं' 🔱🙏
श्रीरामकृष्ण - अहंकार के बिना गये ज्ञानलाभ नहीं होता । ऊँचे टीले पर पानी नहीं रुकता । नीची जमीन में ही चारों ओर का पानी सिमटकर भर जाता है ।
डाक्टर - परन्तु नीची जमीन में जो चारों ओर का पानी आता है, उसके भीतर अच्छा पानी भी रहता है और दूषित भी । पहाड़ के ऊपर भी नीची जमीन है । नैनीताल, मानसरोवर ऐसे स्थान हैं जहाँ आकाश का ही शुद्ध पानी रहता है ।
श्रीरामकृष्ण - आकाश का ही शुद्ध पानी - यह बहुत अच्छा है !
डाक्टर - इसके आलावा ऊँचे स्थान से पानी चारों ओर वितरित भी किया जा सकता है ।
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - एक व्यक्ति ने (श्री रामानुजाचार्य स्वामी ? अपने गुरु से ) सिद्ध मन्त्र पाया था । उसने पहाड़ पर खड़े होकर चिल्लाते हुए कह दिया – ‘तुम लोग इस मन्त्र को जपकर ईश्वर-लाभ कर सकोगे ।’
डाक्टर – हाँ ।
श्रीरामकृष्ण - परन्तु एक बात है, जब ईश्वर के लिए प्राण विकल होते हैं, तब यह विचार नहीं रहता कि यह पानी अच्छा है और यह बुरा । तब उन्हें जानने के लिए कभी भले आदमी के पास जाया जाता है, कभी बुरे आदमी के पास । उनकी कृपा होने पर गँदले पानी से कोई नुकसान नहीं होता। जब वे ज्ञान देते हैं, तब यह सुझा देते हैं कि कौन अच्छा है और कौन बुरा ।
"पहाड़ के ऊपर नीची जमीन रह सकती है, परन्तु वैसी जमीन बदजात 'मैं' रूपी पहाड़पर नहीं रहती । विद्या का 'मैं', भक्त का 'मैं' यदि हो, तभी आकाश का शुद्ध पानी आकर जमता है ।
“ऊँची जगह का पानी चारों ओर काम में लगाया जा सकता है, यह ठीक है । परन्तु यह काम विद्या के 'मैं' - रूपी पहाड़ से ही सम्भव है ।
"उनके आदेश के बिना लोक-शिक्षा नहीं होती । शंकराचार्य ने ज्ञान के बाद विद्या का 'मैं' रखा था -लोकशिक्षा के लिए। लेकिन उन्हें प्राप्त किये बिना ही लेक्चर ! इससे आदमियों का क्या उपकार होगा?
"मैं नन्दनबाग के ब्राह्मसमाज में गया था । उपासना आदि के बाद उनके प्रचारक ने एक वेदी पर बैठकर लेक्चर दिया । उन्होंने वह लेक्चर घर पर तैयार किया था । लेक्चर वे पढ़ते जाते थे और चारों ओर देखते भी जाते थे । ध्यान करते समय वे कभी कभी आँखें खोलकर लोगों को देखते जाते थे !
"जिसने ईश्वर के दर्शन नहीं किये, उसका उपदेश असर नहीं करता । एक बात अगर ठीक हुई, तो दूसरी बेसिर-पैर की निकल जाती है।
"सामाध्यायी ने लेक्चर दिया । कहा, 'ईश्वर वाणी और मन से परे हैं । उनमें कोई रस नहीं है - तुम लोग अपने प्रेम और भक्तिरस से उनकी अर्चना किया करो ।’ देखो, जो रसस्वरूप हैं, आनन्द-स्वरूप हैं, उनके लिए ऐसी बातें कही जा रही थीं । इस तरह के लेक्चर से क्या होगा ? इसमें क्या कभी लोक-शिक्षा होती है ? एक आदमी ने कहा था ‘मेरे मामा के यहाँ गोशाले भर घोड़े हैं ।’ गोशाले में घोड़ा ! (सब हँसते हैं) इससे समझना चाहिए कि घोड़ा-वोड़ा कहीं कुछ भी नहीं है !"
डाक्टर (सहास्य) – गौएँ भी न होंगी ! (सब हँसते हैं)
जिन भक्तों को भावावेश हो गया था, उनकी प्राकृत अवस्था हो गयी है । भक्तों को देखकर डाक्टर आनन्द कर रहे हैं । डाक्टर मास्टर से भक्तों का परिचय पूछ रहे हैं । पल्टू, छोटे नरेन्द्र, भूपति, शरद, शशी आदि लड़कों का, एक एक करके, मास्टर ने परिचय दिया ।
श्रीयुत शशी के सम्बन्ध में मास्टर ने कहा, 'ये बी. ए. की परीक्षा देंगे ।' डाक्टर कुछ अन्यमनस्क हो रहे थे ।
श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - देखो जी, ये क्या कह रहे हैं । डाक्टर ने शशी का परिचय सुना ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर को बताकर, डाक्टर से) - ये स्कूल के लड़कों को उपदेश देते हैं ।
डाक्टर - यह मैंने सुना है ।
श्रीरामकृष्ण - कितने आश्चर्य की बात है ! मैं मूर्ख हूँ, फिर भी पढ़े-लिखे लोग यहाँ आते हैं । यह कितने आश्चर्य की बात है ! इससे तो मानना पड़ता है कि यह ईश्वर की लीला है।
आज शरद पूर्णिमा है । रात के नौ बजे का समय होगा । डाक्टर छः बजे से बैठे हुए ये सब बातें सुन रहे हैं ।
गिरीश - (डाक्टर से) - अच्छा महाशय, आपको ऐसा कभी होता है कि यहाँ आने की इच्छा न होते हुए भी मानो कोई शक्ति खींचकर यहाँ ले आती हो ? मुझे तो ऐसा होता है और इसीलिए आपसे भी पूछ रहा हूँ ।
डाक्टर - पता नहीं, परन्तु हृदय की बात हृदय ही जानता है । (श्रीरामकृष्ण से) और बात यह है कि यह सब कहने में लाभ ही क्या है ?
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