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सोमवार, 11 जुलाई 2022

🙏 🙏 "समन्वय और शान्ति के लिये धर्म" [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना -34]

समन्वय और शान्ति के लिये धर्म 

    'धर्म', 'समन्वय' और 'शान्ति' के विषय में हमारी धारणा अत्यन्त अस्पष्ट (vague) है। हम लोग इन सब विषयों के बारे में एक प्रकार से संदेहात्मक विचार रखते हैं। हम कहते हैं - मैं धर्म में विश्वास रखता हूँ। समन्वय का अर्थ हमलोग सम्मिलन (reunion) समझते हैं। शान्ति कहते समय हम लोग क्या सोचते हैं -ठीक ठीक बता नहीं सकते। 

      धर्म वह वस्तु है जो मनुष्य को धारण करती है। सृष्टि रचने के साथ ही साथ ब्रह्माजी ने यह विचार किया कि सृष्टि की रक्षा के लिए कोई व्यवस्था रहनी जरुरी है। इसीलिये उन्होंने सृष्टि की रक्षा के लिये एक मंगलवस्तु का निर्माण किया - यह बात बृहदारण्यक उपनिषद में कही गयी है। उसी मंगलवस्तु (कल्याणकारी पद्धति) का नाम है -धर्म। धर्म की दो दिशायें हैं।  पहला उसकी तात्विक (आध्यात्मिक essence) दिशा है , और दूसरा उसे व्यावहारिक रूप देने की दिशा है , बृहदारण्यक में भी यही बात कही गयी थी। स्वामीजी ने धर्म के इसी व्यावहारिक पक्ष  ऊपर अधिक बल दिया है। स्वामीजी की मान्यता यह थी कि जो धर्म या  दर्शन यदि मनुष्य के  कल्याण के लिए, उसकी यथार्थ उन्नति के लिए, उसे अपने व्यवहार में लाने का उपाय न बता  सके, तो वैसे धर्म या दर्शन का कोई मोल नहीं है,वह व्यर्थ है। इसीलिए स्वामीजी अक्सर व्यावहारिक धर्म (वेदान्त) पर चर्चा करते थे। 

        हमारे शास्त्रों में कहा गया है -केवल शास्त्रों को पढ़ने या जान लेने से ही दर्शन का ज्ञान  नहीं होता, धर्मलाभ नहीं होता। जो मनुष्य क्रियाशील है, वही विद्वान है। जो लोग शास्त्रों में बतलाये गये उपदेशों का प्रयोग अपने जीवन में कर सकते हैं, सच्चे विद्वान् तो वे ही हैं। केवल कुछ विषयों को 'जान लेने ' से ही वे विद्या (Knowledge) अनुशासन में परिणत नहीं हो जाती। विद्या का प्रयोग भी होना चाहिए। यदि हम उसे 'प्रयोग' में नहीं लाएँ तो वह व्यर्थ है। हमलोग जब कोई चीज जानते हैं , या कोई की ज्ञान की बात दूसरों को 'सुनाते' हैं , और जब उसी ज्ञान का व्यवहार  अपने दैनंदिन जीवन में भी करते हैं - उसी चार समय पर हमारी विद्या प्रभावी होती है।

      पतंजलि ने अपने व्याकरण -महाभाष्य में बहुत सुंदर ढंग से कहा है। कोई भी विद्या चार भागों में उपयुक्त होती है। जिस समय उसे सीख रहा हूँ, यह उसकी एक उपयुक्तता है , सीखी हुई विद्या को अपनी स्मृति में रखने के बार- बार उसको दुहराता हूँ, उसमें महारत हासिल करने , चरित्रगत करने या आत्मसात करने के लिए जिस विषय की चर्चा हमलोग बार-बार करते हैं, फिर अपने जीवन में ढाल लेने के लिए -जब हम कोई क्रिया करते हैं , फिर उस विद्या के विषय में दूसरों को बतलाते हैं , और स्वयं जब उसका व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करते हैं। जो धर्म कार्यान्वित नहीं हो सके, जो धर्म केवल मंदिर -मस्जिद -गिरजा में बंधा हो वह धर्म नहीं है।  धर्म तो व्यवहार में अपनाने की चीज है। शंकरचार्य इस उपनिषद के भाष्य में कहते हैं -धर्म दो कार्य करेगा। एक वह सत्य देगा और उसको व्यवहार करना बतलायेगा। सत्य और प्रयोग। धर्म की दो दिशायें हैं।  इन्हीं दो को एक साथ रखना धर्म है। जब हमलोग धर्म के इस बात को समझ लेते हैं , तब उसीको महाभारत में कहा गया है - जो धारण करे वही धर्म है। 

      यदि धर्म के इसी भाव को हमलोग ग्रहण करें तो यह प्रश्न कहाँ  उठता कि मैं हिन्दू हूँ या मुसलमान , या ईसाई , सिख ,बौद्ध या जैन हूँ -और कुछ हूँ। असली बात तो यह है कि क्या मैं धर्म चाहता हूँ ? यदि चाहता हूँ , तो मुझे यह जानने की कोई आवश्यकता नहीं कि- कौन सा धर्म? धर्म दो प्रकार के हैं , स्वामीजी कहते थे - छोटे- छोटे लेबल लगा धर्म एक प्रकार का है , और दूसरे प्रकार का धर्म है -महाधर्म।  जिस धर्म का कार्य होगा  - सभी प्राणियों , सभी मनुष्यों की रक्षा करना। उनको ऊपर उठने में सहायता करना।  महाभारत में कहा गया है -

" प्रभवार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम् ।

        य: स्यात्प्रभवसंयुक्त: स धर्म इति निश्चयः।। " 

(महाभारत १२.१०९.१० )' प्रभवार्थाय ' ---अर्थात धर्म होता है मनुष्यों की उन्नति के लिये, उनके विकास के लिए।  महर्षियों ने मनुष्य की उन्नति के लिए ही धर्म का प्रवचन किया है। जिससे मनुष्य का कल्याण होता हो वही धर्म है। (The sole aim with which Dharma is advocated is to bring about the evolution of living beings. A doctrine preaches that that which is able to bring about evolution is Dharma. - Mahabharat 12.109.10) 

      कैसी सुंदर अनुभूति है। यह सोचने का कोई कारण नहीं कि चूँकि यह महाभारत में कहा गया है , इसलिए यह केवल हिन्दुओं के लिए है। नहीं , वैसी बात नहीं है।  यह तो सम्पूर्ण विश्व के लिए है। मानवमात्र के लिए कहा गया है। हमलोगों के देश का धर्म केवल इसी देश के लिए निर्मित नहीं हुआ था। वेद संहिता में कहा गया है यह धर्म जिस प्रकार देश के लिए उपयुक्त है , वैसे ही विदेश के लिए भी। हमलोग क्या इस धर्म को केवल भारतवर्ष में , मंदिरों में या हमलोगों के अन्य दो-चार जो स्थान हैं ,वहीं तक सिमित कर देंगे ? वेद क्या कहता है ? यही कि हमलोग अभी जिस धर्म की चर्चा कर रहे हैं , जो कल्याणकारी धर्म है , वह सभी मनुष्यों के लिए है , उसे सभी मनुष्यों को दो। 

  यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। 

ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च।"  

इस कल्याणी वेद-वाणी को " आवदानि जनेभ्यः "  -सभी मनुष्यों को दो।  " ब्रह्मराजन्याभ्यां" ब्राह्मणों को दो, क्षत्रियों को दो।"शूद्राय चार्याय च" -वैश्य को दो , शूद्र को दो। "स्वाय चारणाय च" -इस देश के लोगों को दो विदेशी लोगों को दो। वेद कह रहा है , हमलोगों या तो पढ़ा नहीं है, या उसका अर्थ नहीं समझा है। ठाकुर ने स्वामीजी को अपना यंत्र बनाकर, उनसे यही कार्य करवाया था। क्योंकि वेद कहता है - " कृण्वन्तो विश्‍वमार्यम् । - (ऋग्वेद ९।६३।५) सारे संसार के मनुष्यों को श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाव वाले बनाओ।  

      विश्व के इतिहास में स्वामीजी के पहले ऐसी घटना कभी नहीं घटित हुई थी। वेद ने कितने हजार वर्ष पहले ही कह दिया था- इस देश के लोगों को और विदेशी लोगों को धर्म के तत्व सुनाओ !  धर्म माने जो यथार्थ में महाधर्म है , लेबल वाला छोटा-धर्म नहीं, उसी को दो। स्वामी विवेकानन्द हिन्दू धर्म पर भाषण देने के लिए पाश्चात्य देशों में नहीं गए थे। ऐतिहासिक रूपसे ऐसा कहना ठीक नहीं होगा कि स्वामीजी ने विश्वधर्म महासभा में हिन्दू धर्म को प्रतिष्ठित कर दिया था , या हिन्दू धर्म की विजय-पताका लहरा आये थे। स्वामीजी ने कहा था , मुझे  वहां  'हिन्दुधर्म' पर जो निबंध पढ़ना  पड़ा था , उसे मैंने अपना उत्तरदायित्व समझकर कष्ट से पढ़ा था। दक्षिण भारत में स्वामीजी के विदेश जाने के लिए, जो धन इकट्ठा किया गया था, उसे  स्वामीजी ने--  शिकागो जाकर मुझे  हिन्दुधर्म के बारे में बोलना होगा, यदि इस शर्त पर आपलोग धन देंगे तो वापस कर दूंगा , यह कहकर उन्होंने दो बार धन वापस भी लौटा दिया था। मैं वहां जाकर क्या बोलूंगा , या नहीं बोलूंगा यह सब मैं कुछ नहीं जानता। मैं वहां क्यों जा रहा हूँ यह भी नहीं जनता। कन्याकुमारी में विदेश जाने की एक प्रेरणा आयी है। ठाकुर ने संकेत में कहा है , समुद्र के पार जाओ। माँ का आशीर्वाद मिल गया है , जाऊंगा। किन्तु यदि आप लोग यह कहेंगे कि हमलोगआपको धन इसीलिए  दे रहे हैं कि आपको अमेरिका जाकर हिन्दुधर्म के विषय में बोलना होगा तो मैं आपलोगों से धन नहीं लूंगा।  

      स्वामीजी के जीवन का इतिहास अच्छे से पढ़ने की जरूत है। पत्र-पत्रिका में या इधर-उधर से शिकागो भाषण पर एक -दो लेख पढ़कर,  जो हो सकता है गलत तथ्य से भरे हों , स्वामीजी के सम्बन्ध में कोई धारणा बना लेना उचित नहीं है।  स्वामीजी ने एक जगह कहा है , " मेरे देश में अनगिनत लोग कुपोषण से, बिना आवास और वस्त्र के मर रहे हैं रे , तुम्हारे शिकागो में होने वाले  विश्वधर्म  संसद की परवाह कौन करता है? इसे पढ़कर समझने की जरूरत है। स्वामीजी कहते हैं -मैं तो वहां इसी प्रेरणा से  गया था कि विदेश जाकर इनके लिए कुछ कर सकूंगा ।

     प्रोफेसर राईट ने स्वामीजी से कहा था , " देखिये संयोग वश हिन्दू धर्म  पर बोलने के लिए किसी को निमंत्रण पत्र नहीं भेजा गया था। उसके कई कारण थे , वे सब हास्यास्पद बातें हो सकती हैं। और बिना निमंत्रण आप यह सोचकर यहाँ आ गए हैं कि आप विश्वधर्म सभा में भाग ले सकेंगे ! लेकिन आपको वहां कोई बोलने का अवसर नहीं देगा क्योंकि अनुमति देने का समय तो निकल चुका  है। मेरे कहने से हो सकता है , वे लोग मान भी जाएँ लेकिन वहाँ जाने के लिए आपको  किसी एक धर्म का प्रतिनिधित्व करना होगा। यह ठीक है कि आप यहाँ किसी लेबल वाले धर्म का प्रचार करने के लिए नहीं आये हैं। लेकिन हिन्दुधर्म का प्रतिनिधि होकर यहाँ कोई नहीं आया है , यदि आप हिन्दुधर्म बोलने के लिए राजी हो जाएँ , तो मैं कोई उपाय निकाल सकता हूँ। " बाध्य होकर स्वामीजी हिन्दुधर्म पर बोलने के लिए राजी होना पड़ा। स्वामीजी को जीवन में पहली बार एक लिखित निबंध का पाठ  करना पड़ा। हमलोग नहीं जानते कि उन्होंने अपने जीवन में फिर कभी दूसरी बार कहीं लिखित निबंध पढ़कर भाषण दिया हो।  क्योंकि उसमें जो कुछ उन्होंने कहा था , वह उनके मन से नहीं निकला था।  विश्व धर्म महासभा में हिन्दुधर्म का प्रतिनधि के रूप स्वीकृत होने के लिए उन्हें  'Paper on Hinduism' का लिखित व्यख्यान पढ़ना पड़ा था।  

      स्वामी विवेकानन्द साहित्य, जो हिन्दी में  पहली बार 1963 ई ० में 10 खण्डों में प्रकाशित हुआ था , वह सर्वप्रथम 1907 ई ० में  अंग्रेजी में 8 खण्डों में प्रकाशित हुआ था। उसकी भूमिका में भगिनी निवेदिता लिखती हैं -" Of the Swami's address before the Parliament of Religions, it may be said that when he began to speak it was of "the religious ideas of the Hindus", but when he ended, Hinduism had been created."--अर्थात " विश्व धर्म महासभा के समक्ष जब स्वामी जी ने अपना भाषण आरम्भ किया, तो विषय था; `हिन्दुओं के धार्मिक विचार ' किन्तु जब उन्होंने समाप्त किया, तब तक 'हिन्दुत्व' (Hinduism या हिन्दू धर्म) का जन्म हो चुका था । निवेदिता विदेशिनी होकर भी भारत से प्रेम करती थीं , भारत के  धर्म को हिन्दुधर्म कहा जाता है, केवल कुछ बोल देना है, क्या इसीलिए निवेदिता ने हिन्दुत्व (Hinduism) शब्द का प्रयोग किया था ? नहीं, जिसे यह तथाकथित हिन्दुधर्म  कहा जाता है ,(कोट पर जनेऊ पहन लेने या टिक्का लगा लेने को?), उस धर्म की मूल बात कहते कहते समय जब अपनी बात को उन्होंने समाप्त किया, उस समय आधुनिक युग में धरती पर पहली बार 'मनुष्य के धर्म' का जन्म हुआ था। हिन्दुत्व या हिन्दू धर्म ने  जन्म-ग्रहण  नहीं किया था। क्योंकि उस भाषण में स्वामीजी ने बार-बार उसकी सभ्यता की बात कही थी , अमुक धर्म या वह धर्म नहीं कहा था। तो वहां नए रूप में हिन्दु धर्म  जन्म कैसे ले सकता था ? निवेदिता भारतवर्ष को नए परिचय के कारण प्रेम करती थीं , इस पर श्रद्धा रखती थीं , इसमें कुछ संदेह नहीं है। किन्तु इसीलिए उन्होंने हिन्दुत्व (Hinduism) शब्द का प्रयोग किया होगा, वैसा सोचना ठीक नहीं। स्वामीजी ने आधुनिक युग के मनुष्यों को जो धर्म दिया था , वे उसको इंगित करना चाहती थीं। रवीन्द्रनाथ ने 'मनुष्य का धर्म' (Religion of Man) के नाम से एक विशाल भाषण दिया था , उसके प्रत्येक पंक्ति में स्वामीजी के इन्हीं विचारों का प्रभाव दिखाई देता है ।  

    हमने जो पहले वेद के आदेश को सुना " कृण्वन्तो विश्‍वमार्यम् ।" अर्थात विश्व को आर्य बनाओ।  आर्य बनाने का अर्थ हमलोग क्या समझेंगे ? हमलोगों के  आर्य बुद्धि , हिन्दू बुद्धि  की बातें तो आजकल बहुत चल रही हैं।  आर्य का अर्थ होता है संस्कृत। हमलोग न तो आर्य का अर्थ समझते हैं न संस्कृत का अर्थ समझते हैं। अंग्रेजी में कहने से हो सकता है समझेंगे - Cultured, आर्य का अर्थ हुआ Cultured , और संस्कृत का अर्थ भी हुआ Cultured , इस प्रकार   " कृण्वन्तो विश्‍वमार्यम् ।"का अर्थ हुआ समस्त विश्व के मनुष्यों को Cultured करो  ! हम कहते हैं वहां का Cultural level अत्यन्त Low है। Cultured होने का प्रमाण क्या है ? Culture -की परिभाषा क्या है ? जिसको हमलोग आमतौर पर 'संस्कृति ' कहते हैं , रवीन्द्रनाथ ने उसके लिए एक नए शब्द का प्रयोग किया था - कृष्टि (कृषि 'Agriculture'?) -इसका क्या अर्थ हुआ ? इसका ठीक ठीक परिभाषा मिलना कठिन है। किन्तु स्वामीजी ने कहा है , " उसी राष्ट्र की संस्कृति या Culture उतना अधिक श्रेष्ठ है , जहाँ के बहुसंख्यक (numerous, अनगिनत ) मनुष्यों की आध्यात्मिक उन्नति हुई है। " स्वामीजी ने कहा है की  Culture की कसौटी (Criteria) है आध्यात्मिक उन्नति , इस प्रकार जगत मनुष्यों को आर्य करने , संस्कृत करने या Cultured करने का अर्थ हुआ मनुष्यजाति के संस्कृति के स्तर को उन्नत करना। स्वामीजी ने यही कार्य किया था। जहाँ जैसी प्रकार का भेद नहीं हो , द्वंद्व नहीं हो - वहीँ है Harmony -या समन्वय।  

        हम लोग समन्वय का अर्थ समझते हैं -' Put together ' सब कुछ को इकट्ठा  करना। श्रीरामकृष्णदेव ने हिन्दुधर्म की साधना की थी , इस्लाम की साधना की थी , ईसाई धर्म की साधना की थी। इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई को एक बना दिया था। ठाकुरदेव के अमृत-उपदेशों को देखने से ही यह बात समझ में आ जाती है। उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि सभी एक हैं। अलग-अलग मार्ग की साधना करके , तीन चार प्रकार के खीर अलग-अलग कटोरी में  खाने या  उसका भिन्न-भिन्न स्वाद लेने के बाद उन्होंने कहा था - सब कुछ खीर ही रे ! अर्थात सभी कटोरी के खीर में दूध है। चीनी की मिठास सभी खीर में है। इसलिए सभी में खीर है।  ऐसा करने का अर्थ यह नहीं कि जो हिन्दुधर्म है , वही इस्लाम धर्म है और वही ईसाई धर्म है। समन्वय का तात्पर्य यह नहीं है। 

        समन्वय का अर्थ है -'अविरोधिता, अविरोध ' अर्थात कोई धर्म दूसरे के प्रतिकूल (against या विरुद्ध) नहीं है। इस बात को  समझ लेना पड़ता है।  और बिना खाये तो इसे समझा नहीं जा सकता। जैसे मैंने किसी एक कटोरी का खीर खाया , उसे खाने के बाद सोच सकता हूँ कि दूसरी कटोरी में रखी चीज खीर नहीं है। किन्तु जब उसको भी खाया , तब देखा नहीं,  कोई विरुद्धता (repugnance) नहीं है। इस  खीर में बतासा दिया है , उस खीर को गुड़ डालकर बनाया है , एक में चीनी दिया है , किसी में हो सकता है मिश्री दिया हो। और कोई अन्तर नहीं है। सभी कटोरीयों  में खीर ही है। अलग-अलग धर्मों की साधना करके  और सभी मार्ग से एक ही सत्य या ईश्वर की उपलब्धि करके, श्रीरामकृष्ण देव ने इस बात को समझाया है कि धर्मों के बीच संघर्ष का कोई स्थान ही नहीं है। सभी मार्गों से एक ही अविनाशी सत्य की उपलब्धि करने के बाद उन्होंने घोषित किया  - ' यत मत , तत पथ ' --अर्थात " जितने मत उतने पथ"।" सर्व धर्म समन्वय" कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि -सारे धर्म समाप्त हो जायेंगे , और एक नया धर्म बनेगा - हो सकता है कि उसका नाम 'रामकृष्ण धर्म ' ही दिया जाये ! ठाकुर के मन में या स्वामीजी के मन में कभी ऐसी कोई बात नहीं थी। बिल्कुल ही नहीं थी , ऐसा होने से यथार्थ शान्ति आ सकती है। 

  शान्ति का अर्थ है , बाह्य समाज  में उथल- पुथल , अराजकता या अव्यवस्था इन सबों का समाप्त हो जाना, और मनुष्य के मन में सांत्वना (consolation) या ढाढ़स रहना। हमारे 'मानस सागर ' (या चित्त सरोवर का जल) में  विभिन्न प्रकार के विषय-तूफान उठते रहने से ,हर समय हमलोगों का मन बहुत घबड़ाया  हुआ और चिंतित रहता है। इसलिए मनो-समुद्र में हर समय लहरे उठती रहती है , और मन हर समय अशान्त बना रहता है। यदि हमलोग नियमित मनःसंयोग का अभ्यास करके धीरे धीरे अपने मन को "प्रशांत महासागर" (pacific ocean)  में परिणत कर सकें , वह तूफान (चक्रवात) शान्त हो जायेगा। प्रत्येक मनुष्य के ह्रदय में यदि शान्ति रहे , तो इस प्रकार के मनुष्यों के संयोजन से बना हुआ समाज शान्ति से परिपूर्ण रहेगा। इसीलिए यह कार्य केवल धर्म ही कर सकता है। और इसके लिए एकमात्र यथार्थ धर्म ही समन्वय और शान्ति का प्रावधान करने में सक्षम है। 

      इसीलिए शिकागो धर्म महासभा के अंतिम अधिवेशन में  27 सितम्बर , 1893 को स्वामी जी ने जो छोटा सा भाषण दिया था , उसके सबसे अंत में कहा था -  " If anybody dreams of the exclusive survival of his own religion and the destruction of the others, I pity him from the bottom of my heart, and point out to him that upon the banner of every religion will soon be written, in spite of resistance: "Help and not Fight," "Assimilation and not Destruction," "Harmony and Peace and not Dissension."

" यदि कोई ऐसा स्वप्न देखे कि अन्यान्य सारे धर्म नष्ट हो जायेंगे और केवल उसका धर्म ही जीवित रहेगा , तो उस पर मैं अपने ह्रदय के अंतस्तल से दया करता हूँ और उसे स्पष्ट बतलाये देता हूँ कि शीघ्र ही , सारे प्रतिरोधों के बावजूद , प्रत्येक धर्म की पताका पर यह लिखा रहेगा - ' सहायता करो , लड़ो मत। '  'पर भाव ग्रहण , न कि पर भाव- विनाश, 'समन्वय और शान्ति , न कि मतभेद और कलह !   

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'9/11  से 27 सितम्बर, 1893 ' तक चलने वाले विश्व धर्म महासभा के कुल  17 दिनों में स्वामी विवेकानंद ने छह व्याख्यान दिए थे, जिसके माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति, सभ्यता और दर्शन को विश्व भर से आये हुए लोगो के सामने रखा था।  भारत जो उस समय गुलाम था, जिसको सांप और सपेरों का देश माना जाता था उसके पास दुनिया को देने के लिए सन्देश भी है यह विदेशियों को पहली बार पता चला था। 

      स्वामीजी का बोला हुआ हर शब्द, मात्र शब्द नहीं था वो उनकी साधना , तपस्या और संयम का निचोड़ था।  वो उस भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे जिसको उन्होंने पिछले पांच वर्षों तक पैदल चलकर, घोड़ा, गाड़ी और रेल के माध्यम से जाना था।  इस दौरान वो अनेकों बार वह पेड़ के नीचे सोये, अनेकों अनेक दिन बिना भोजन के बिताए, लेकिन हार नहीं मानी।  भारतवर्ष  के पुनरुत्थान का कार्य करना ही  स्वामीजी की प्राथमिकता में था, जिसके लिए उन्होंने हर चुनौती को स्वीकार किया था और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही स्वामीजी विदेश गए थे।

      2 नवंबर 1893 को मद्रास के अपने शिष्य आलासिंगा पेरुमल को 11 सितम्बर 1893 भाषण के सन्दर्भ में लिखे हुए पत्र में स्वामीजी लिखते हैं, ‘बाकी सभी प्रतिनिधि तैयारी के साथ आये थे और मैं बिना तैयारी के था।  मैंने माता सरस्वती को प्रणाम किया और अपने भाषण की शुरुआत की। ’ प्रो. शैलेन्द्रनाथ धर द्वारा लिखित पुस्तक ‘स्वामी विवेकानंद समग्र जीवन दर्शन’ के अनुसार विश्व धर्म महासभा में दुनियाभर के दस प्रमुख धर्मों के अनेकों प्रतिनिधि आये हुए थे, जिसमें यहूदी , हिन्दू , इस्लाम , बौद्ध , ताओ, कनफयूशियम, शिन्तो, पारसी, कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट इत्यादि शामिल थे, लेकिन स्वामीजी का वक्तव्य सबसे अधिक सफल हुआ था।  

     आज भी जब विश्व सम्प्रदायों और पंथो में बंटा हुआ है, अपनी मान्यताओं को दूसरों पर थोपने का प्रचलन चल रहा है।  हर भौगोलिक दृष्टि से बड़ा देश छोटे देश को दबाने में लगा है उसकी जमीन हड़पने में लगा है।  इस दौर में स्वामीजी का यह विश्व बंधुत्व का संदेश सबके लिए एक मार्ग है, जो विश्व के कल्याण की बात करता है, सभी को स्वीकार करने की प्रेरणा देता है।  जो मानव समाज को कटुता से बाहर निकालता है और सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार के तौर पर देखने की दृष्टि प्रदान करता है।  हमे स्वामी जी के धर्म महासभा के अंतिम अधिवेशन में दिए हुए भाषण के इन शब्दों को भी याद करना चाहिए जहां वो कहते हैं, ‘ ईसाई को हिन्दू या बौद्ध नहीं हो जाना चाहिए , और न हिन्दू अथवा बौद्ध को ईसाई ही।  पर हां , प्रत्येक को चाहिए कि वह दूसरों के सार- भाग को आत्मसात करके पृष्टि – लाभ करे और अपने वैशिष्टय कि रक्षा करते हुए अपनी निजी वृद्धि के नियम के अनुसार वृद्धि को प्राप्त हो। ‘

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सोमवार, 4 जुलाई 2022

$$$🙏🔆 परिच्छेद- 105 [(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ] 🔆🙏'देवी चौधरानी' का पठन🔆🙏

 *परिच्छेद १०५*

*दक्षिणेश्वर मन्दिर में श्रीरामकृष्ण*

🔆🙏'देवी चौधरानी' का पठन🔆🙏

आज शनिवार है, २७ दिसम्बर, १८८४, पूस की शुक्ला सप्तमी । बड़े दिन की छुट्टियों में भक्तों को अवकाश मिला है । कितने ही श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने आये हैं । सुबह को ही बहुतेरे आ गये हैं । मास्टर और प्रसन्न ने आकर देखा, श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के दक्षिण दालान में थे । उन लोगों ने आकर श्रीरामकृष्ण की चरण-वन्दना की ।

श्रीयुत शारदा प्रसन्न ने पहले ही पहल श्रीरामकृष्ण को देखा है ।

श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा - "क्यों जी, तुम बंकिम को नहीं ले आये ?"

बंकिम स्कूल का विद्यार्थी है । श्रीरामकृष्ण ने उसे बागबाजार में देखा था । दूर से देखकर ही कहा था, लड़का अच्छा है ।

बहुत से भक्त आये हुए हैं । केदार, राम, नृत्यगोपाल, तारक, सुरेश आदि और बहुत से भक्तबालक भी आये हुए हैं । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ पंचवटी में जाकर बैठे । भक्तगण उन्हें चारों ओर से घेरे हुए हैं - कोई बैठे हैं, कोई खड़े हैं । श्रीरामकृष्ण पंचवटी में ईंटों के बने हुए चबूतरे पर बैठे हैं । दक्षिण-पश्चिम की ओर मुँह किये हुए हैं । हँसते हुए मास्टर से उन्होंने पूछा, क्या तुम पुस्तक ले आये हो ?

मास्टर - जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण - जरा पढ़कर मुझे सुनाओ तो ।

भक्तगण उत्सुकता के साथ देख रहे हैं कि कौन सी पुस्तक है । पुस्तक का नाम है 'देवी चौधरानी।' श्रीरामकृष्ण सुन रहे हैं । देवी चौधरानी में निष्काम कर्म की बातें लिखी हैं । वे लेखक श्रीयुत बंकिमचन्द्र की तारीफ भी सुन चुके थे । पुस्तक में उन्होंने क्या लिखा है, इसे सुनकर वे उनके मन की अवस्था समझ लेंगे । 

मास्टर ने कहा, यह स्त्री डाकुओं के पाले पड़ी थी, इसका नाम प्रफुल्ल था, बाद में देवी चौधरानी हुआ था । जिस डाकू के साथ यह स्त्री पड़ी थी, उसका नाम भवानी पाठक था । भवानी पाठक बड़ा अच्छा आदमी था । उसी ने प्रफुल्ल से बहुत कुछ साधना करायी थी, और किस तरह निष्काम कर्म किया जाता है, इसकी शिक्षा दी थी । डाकू दुष्टों से रुपया-पैसा छीनकर गरीबों को दिया करता था, उनके भोजन-वस्त्र के लिए । प्रफुल्ल से उसने कहा था, मैं दुष्टों का दमन और शिष्टों का पालन करता हूँ ।

श्रीरामकृष्ण - यह तो राजा का काम है ।

मास्टर - और एक जगह भक्ति की बातें हैं । भवानी' ने प्रफुल्ल के पास रहने के लिए एक लड़की को भेजा था, उसका नाम था निशि, वह लड़की बड़ी भक्तिमती थी । वह कहती थी, मेरे स्वामी श्रीकृष्ण हैं । प्रफुल्ल का विवाह हो गया था । उसके बाप न था, माँ थी । अकारण एक कलंक लगाकर गाँववालों ने उसे जाति-पाति से अलग कर दिया था; इसीलिए प्रफुल्ल को उसका ससुर अपने यहाँ नहीं ले गया । अपने लडके के उसने और दो विवाह कर दिये थे । प्रफुल्ल अपने पति को बहुत चाहती थी । इस भूमिका के बाद अब पुस्तक का यह अंश समझ में आ जाएगा ।

निशि - उनकी (भवानी पाठक की) कन्या हूँ, वे मेरे पिता हैं । उन्होंने भी एक तरह से मेरा विवाह कर दिया है

प्रफुल्ल - एक तरह से, इसके क्या मानी ?

निशि - मैंने अपना सब कुछ श्रीकृष्ण को अर्पित किया है ।

प्रफुल्ल - वह कैसे ?

निशि - मेरा रूप, यौवन और प्राण ।

प्रफुल्ल - क्या वही तुम्हारे स्वामी हैं ?

निशि - हाँ, क्योंकि जिनका मुझ पर पूर्ण अधिकार हैं, वे ही मेरे स्वामी हैं ।

प्रफुल्ल ने एक लम्बी साँस छोड़कर कहा, "मैं नहीं कह सकूँगी । कभी तुमने पति का मुख नहीं देखा, इसीलिए कह रही हो । पति को अगर देखा होता तो कभी श्रीकृष्ण पर तुम्हारा मन न जाता।"

मूर्ख व्रजेश्वर (प्रफुल्ल का पति) यह न जानता था कि उसकी स्त्री उससे इतना प्रेम करती है ।

निशि ने कहा, "श्रीकृष्ण पर सब का मन लग सकता है, क्योंकि उनका रूप अनन्त है, यौवन अनन्त है, ऐश्वर्य अनन्त है ।"

यह युवती भवानी पाठक की शिष्या थी, निरक्षर प्रफुल्ल उसकी बातों का उत्तर न दे सकी । केवल हिन्दू-समाजधर्म के प्रणेतागण उत्तर जानते थे । मैं जानता हूँ, ईश्वर अनन्त हैं, परन्तु अनन्त को इस छोटे से हृदय-पिञ्जर में हम रख नहीं सकते, सान्त को रख सकते हैं । इसीलिए अनन्त ईश्वर हिन्दुओं के हृदय-पिञ्जर में सान्त श्रीकृष्ण के रूप में हैं । पति और भी अच्छी तरह सान्त है । इसीलिए प्रेम के पवित्र होने पर, पति ईश्वर के पथ पर चढ़ने का प्रथम सोपान है । यही कारण है कि पति ही हिन्दू स्त्रियों का देवता है । इस जगह दूसरे समाज हिन्दू समाज से निकृष्ट हैं ।

प्रफुल्ल मूर्खा थी, वह कुछ समझ न सकी । उसने कहा, "बहन, मैं इतनी बातें नहीं समझ सकती। तुम्हारा नाम क्या है, तुमने तो अब तक नहीं बताया ।"

निशि बोली, "भवानी पाठक ने मेरा नाम निशि रखा है । मैं दिवा की बहन निशि हूँ । दिवा   को एक दिन तुमसे मिलने के लिए लाऊँगी; परन्तु मैं जो कह रही थी, सुनो । एकमात्र ईश्वर हमारे स्वामी हैं । स्त्रियों का पति ही देवता है । श्रीकृष्ण सब के देवता हैं । क्यों बहन, दो देवता फिर क्यों रहें ? इस छोटे से जी में जो जरा भक्ति है, उसके दो टुकड़े कर डालने पर फिर कितना बच रहता है ?"

प्रफुल्ल - अरी चल ! स्त्रियों की भक्ति का भी कहीं अन्त है ?

निशि – स्त्रियों के प्यार का तो अन्त नहीं है, परन्तु भक्ति और चीज है, प्यार और चीज

मास्टर - भवानी पाठक प्रफुल्ल से आध्यात्मिक साधना कराने लगे ।

"पहले साल भवानी पाठक प्रफुल्ल के घर किसी पुरुष को न जाने देते थे, और न घर के बाहर किसी पुरुष से उसे मिलने ही देते थे । दूसरे साल मिलने-जुलने में इतनी रोक-टोक न रही; परन्तु उसके यहाँ किसी पुरुष को न जाने देते थे । फिर तीसरे साल, जब प्रफुल्ल ने सिर घुटाया, तब भवानी पाठक अपने चुने हुए चेलों को लेकर उसके पास जाया करते थे - प्रफुल्ल सिर घुटाये आँखें नीची करके शास्त्रीय चर्चा किया करती थी

"फिर प्रफुल्ल की शिक्षा का आरम्भ हुआ । वह व्याकरण समाप्त कर चुकी; रघुवंश, कुमार, नैषध, शाकुन्तल पढ़ चुकी । कुछ सांख्य, कुछ वेदान्त और कुछ न्याय भी उसने पढ़ा ।"

श्रीरामकृष्ण - इसका मतलब समझे ? बिना पढ़े ज्ञान नहीं होता । जिसने लिखा है, वैसे आदमियों का यही मत है । वे सोचते हैं, पहले पढ़ना-लिखना है, फिर ईश्वर है । यदि ईश्वर को समझना है तो पढ़ना-लिखना अत्यावश्यक है । परन्तु अगर मुझे यदु मल्लिक से मिलना है, तो उसके कितने मकान हैं, कितने रुपये हैं, कितने का कम्पनी का कागज है, क्या यह सब पहले जानने की आवश्यकता है ? मुझे इतनी खबरों का क्या काम ? स्तव या स्तुति करके किसी भी तरह से हो अथवा दरवान के धक्के ही सहकर, किसी तरह घर के भीतर घुसकर यदु मल्लिक से मिलना चाहिए । और अगर रुपया-पैसा और ऐश्वर्य के जानने की इच्छा हो, तो यदु मल्लिक से पूछने ही से काम सिद्ध हो जाता है । बहुत सहज में ही मतलब निकल जाता है । पहले राम हैं, फिर राम का ऐश्वर्य यह संसार । इसलिए वाल्मीकी ने 'मरा' जाना था । 'म' अर्थात् ईश्वर और 'रा' अर्थात् संसार - उनका ऐश्वर्य। 

[(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

 (२)

निष्काम कर्म और श्रीरामकृष्ण । फल-समर्पण और भक्ति 

मास्टर - प्रफुल्ल के अध्ययन समाप्त करने और बहुत दिनों तक साधना कर चुकने के पश्चात् भवानी पाठक उससे मिलने के लिए आये । अब वे उसे निष्काम कर्म का उपदेश देना चाहते थे । उन्होंने गीता का एक श्लोक कहा –

तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचार ।

असक्तो ह्याचरन कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥3.19।।

अनासक्ति के उन्होंने तीन लक्षण बतलाये –(१) इन्द्रिय-संयम (२) निरहंकार (३) श्रीकृष्ण के चरणों में फल-समर्पण । निरहंकार के बिना धर्माचरण नहीं होता । गीता में और भी कहा गया है –

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।

अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।3.27।।

इसके पश्चात् श्रीकृष्ण को सब कर्मों का फलार्पण । उन्होंने गीता के श्लोक का उल्लेख किया –

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।9.27।।

निष्काम कर्म के ये तीन लक्षण कहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - यह अच्छा है । गीता की बात है । अकाट्य है । परन्तु एक बात है । श्रीकृष्ण को फलार्पण कर देने के लिए तो कहा, परन्तु उन पर भक्ति करने की बात तो नहीं कही

मास्टर - यहाँ यह बात विशेषतया नहीं कही गयी ।

फिर धन का व्यय किस तरह करना चाहिए, यह बात हुई । प्रफुल्ल ने कहा, यह सब धन श्रीकृष्ण के लिए मैने समर्पित किया ।

प्रफुल्ल - जब मैंने अपने सब कर्म श्रीकृष्ण को समर्पित किये, तब अपने धन का भी समर्पण मैंने श्रीकृष्ण को ही कर दिया । भवानी - सब ? प्रफुल्ल – सब ।

भवानी - तो कर्म वास्तव में अनासक्त कर्म न हो सकेगा । अगर तुम्हें अपने भोजन के लिए प्रयत्न करना पड़ा तो इससे आसक्ति होगी । अतएव, सम्भवतः तुम्हे भिक्षावृत्ति के द्वारा भोजन का संग्रह करना होगा या इसी धन से अपनी शरीर-रक्षा के लिए कुछ रखना होगा । भिक्षा में भी आसक्ति है, अतएव तुम्हें इसी धन से अपने शरीर की रक्षा करनी चाहिए

श्रीरामकृष्ण - हाँ, यह इनका पटवारीपन है । हिसाबी बुद्धि है । जो ईश्वर को चाहता है, वह एकदम कूद पड़ता है । देह-रक्षा के लिए इतना रहे, यह हिसाब नहीं आता ।

मास्टर - फिर भवानी ने पूछा, - 'धन लेकर श्रीकृष्ण के लिए समर्पण कैसे करोगी ?' प्रफुल्ल ने कहा, 'श्रीकृष्ण सर्व भूतों में विराजमान हैं । अतएव सर्व भूतों के लिए इसका व्यय करूँगी ।' भवानी ने कहा, 'यह बहुत ही अच्छा है;’ और वे गीता के श्लोक पढ़ने लगे –

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।

सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥

[गीता-अ. ६, श्लोक ३०-३१-३२]

श्रीरामकृष्ण - ये उत्तम भक्त के लक्षण हैं ।

मास्टर पढ़ने लगे ।

“सर्व भूतों को दान करने के लिए बड़े परिश्रम की आवश्यकता है । इसलिए कुछ साज-सजावट, कुछ भोग-विलास की जरूरत है । भवानी पाठक ने इसीलिए कहा, 'कभी कभी कुछ दूकानदारी की भी आवश्यकता होती है ।”

श्रीरामकृष्ण - (विरक्ति के भाव से) - 'दुकानदारी की भी आवश्यकता होती है ।' जैसा आकर है, बात भी वैसी ही निकलती है । दिन-रात विषय की चिन्ता, मनुष्यों से धोखेबाजी, यह सब करते हुए बातें भी उसी ढंग की हो जाती हैं । मूली खाने पर मूली की ही डकार आती है । 'दूकानदारी' न कहकर वही बात अच्छे ढंग से भी कही जा सकती थी; वह कह सकता था, 'अपने को अकर्ता समझ कर्ता की तरह कार्य करना ।’ उस दिन एक आदमी गा रहा था । उस गाने के भीतर लाभ और घाटा, इन्हीं बातों की भरमार थी । मैंने मना किया । आदमी दिन-रात जो चिन्ताएँ किया करता है, मुँह से वही बातें निकलती रहती हैं

[(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

(३)

🔆🙏योग की दूरबीन। पतिव्रता -धर्म 🔆🙏     

पठन जारी है । अब ईश्वर-दर्शन की बात आयी । प्रफुल्ल अब देवी चौधरानी हो गयी है । वैशाख शुक्ला सप्तमी तिथि है । देवी छप्परवाली नाव पर बैठी हुई दिवा के साथ बातचीत कर रही है । चन्द्रोदय हो गया है । नाव का लंगर छोड़ दिया गया है, गंगा के वक्ष पर नाव स्थिर भाव से खड़ी है। नाव की छत पर देवी और उसकी दोनों सहेलियाँ बैठी हुई हैं । ईश्वर प्रत्यक्ष होते हैं या नहीं, यही बात हो रही है । देवी ने कहा, जैसे फूल की सुगन्ध घ्राणेन्द्रिय के निकट प्रत्यक्ष है, उसी तरह ईश्वर मन के निकट प्रत्यक्ष होते है ।

श्रीरामकृष्ण - जिस मन के निकट प्रत्यक्ष होते हैं, वह यह मन नहीं, वह शुद्ध मन है, तब यह मन नहीं रहता, विषयासक्ति के जरा भी रहने पर नहीं होता । मन जब शुद्ध होता है, तब चाहे उसे शुद्ध मन कह लो, चाहे शुद्ध आत्मा

मास्टर - मन के निकट सहज ही वे प्रत्यक्ष नहीं होते, यह बात कुछ आगे है । कहा है, प्रत्यक्ष करने के लिए दूरबीन चाहिए । दूरबीन का नाम योग है । फिर जैसा गीता में लिखा है, योग तीन तरह के हैं - ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग । इस योगरूपी दूरबीन से ईश्वर दीख पड़ते हैं ।

श्रीरामकृष्ण - यह बड़ी अच्छी बात है । गीता की बात है ।

मास्टर - अन्त में देवी चौधरानी अपने स्वामी से मिली । स्वामी पर उसकी बड़ी भक्ति थी । स्वामी से उसने कहा - 'तुम मेरे देवता हो । मैं दूसरे देवता की अर्चना करना सीख रही थी, परन्तु सीख नहीं सकी । तुमने सब देवताओं का स्थान अधिकृत कर लिया है ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - 'सीख न सकी ।' इसे पतिव्रता का धर्म कहते हैं । यह भी एक मार्ग है ।

पठन समाप्त हो गया, श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं । भक्तगण टकटकी लगाये देख रहे हैं, कुछ सुनने के आग्रह से ।

श्रीरामकृष्ण - (हँसकर, केदार तथा भक्तों से) - यह एक प्रकार से बुरा नहीं । इसे पतिव्रता-धर्म कहते हैं । प्रतिमा में ईश्वर की पूजा तो होती है, फिर जीते-जागते आदमी में क्यों नहीं होगी ! आदमी के रूप में वे ही लीला कर रहे हैं

"कैसी अवस्था बीत चुकी है ! हरगौरी (शिव और दुर्गा) के भाव में कितने ही दिनों तक रहा था । फिर कितने ही दिन श्रीराधाकृष्ण भाव में बीते थे ! कभी सीताराम का भाव था । राधा के भाव में रहकर 'कृष्ण-कृष्ण' कहता था, सीता के भाव में 'राम-राम ।'

"परन्तु लीला ही अन्तिम बात नहीं है । इन सब भावों के बाद मैंने कहा, माँ, इन सब में विच्छेद है। जिसमें विच्छेद नहीं है, ऐसी अवस्था कर दो; इसीलिए अनेक दिन अखण्ड सच्चिदानन्द के भाव में रहा । देवताओं की तस्वीरें मैने कमरे से निकाल दीं । "उन्हें सर्व भूतों में देखने लगा । पूजा उठ गयी । यही बेल का पेड़ है, यहाँ मै बेल-पत्र लेने आया करता था । एक दिन बेलपत्र तोड़ते हुए कुछ छाल निकल गयी । मैने पेड़ में चेतना देखी । मन में कष्ट हुआ । दूर्वादल लेते समय देखा, पहले की तरह मैं चुन नहीं सकता । तब बलपूर्वक चुनने लगा ।

"मै नीबू नहीं काट सकता । उस रोज बड़ी मुश्किल से 'जय काली' कहकर उनके सामने बलि देने की तरह एक नीबू में काट सका था । एक दिन मैं फूल तोड़ रहा था । उसने दिखलाया पेड़ में फूल खिले हुए हैं, जैसे सामने विराट की पूजा हो रही हो - विराट के सिर पर फूल के गुच्छे रखे हुए हों । फिर मैं फूल तोड़ न सका ।

"वे आदमी होकर भी लीलाएँ कर रहे हैं । मैं तो साक्षात् नारायण को देखता हूँ । काठ को घिसने से जिस तरह आग निकल पड़ती है, उसी तरह भक्ति का बल रहने पर आदमी में भी ईश्वर के दर्शन होते हैं । बंसी में अगर बढ़िया मसाला लगाया हो, तो 'रेहू' और 'कातला' फौरन उसे निगल जाती हैं । प्रेमोन्माद होने पर सर्व भूतों में ईश्वर का साक्षात्कार होता है । गोपियों ने सर्व भूतों में श्रीकृष्ण के दर्शन किये थे । सब को कृष्णमय देखा, कहा था, 'मैं ही कृष्ण हूँ ।' तब उनकी उन्मादावस्था थी । पेड़ देखकर उन लोगों ने कहा, 'ये तपस्वी हैं, कृष्ण का ध्यान कर रहे हैं । तृणों को देखकर कहा था, 'श्रीकृष्ण के स्पर्श से पृथ्वी को रोमाञ्च हो रहा है ।’

"पतिव्रता-धर्म में स्वामी देवता है, और यह होगा भी क्यों नहीं ? मूर्ति की पूजा तो होती है, फिर जीते-जागते आदमी की क्यों नहीं होगी ? 

"प्रतिमा में ईश्वर की अनुभूति करने  के लिए तीन बातों की जरूरत होती है - पहली बात, पुजारी में भक्ति हो; दूसरी, प्रतिमा सुन्दर हो, तीसरी गृहस्वामी स्वयं भक्त हो । वैष्णवचरण ने कहा था, अन्त में नरलीला में ही मन लीन हो जाता है ।

"परन्तु एक बात है - उन्हें बिना देखे इस तरह लीला-दर्शन नहीं होता । साक्षात्कार का लक्षण जानते हो ? देखनेवाले का स्वभाव बालक जैसा हो जाता है । बालस्वभाव क्यों होता है ? इसलिए कि ईश्वर स्वयं बालस्वभाव है । अतएव जिसे उनके दर्शन होते हैं, वह भी उसी स्वभाव का हो जाता है

"यह दर्शन होना चाहिए । अब उनके दर्शन भी कैसे हों ? तीव्र वैराग्य होना चाहिए । ऐसा चाहिए कि कहे - 'क्या तुम जगत्पिता हो, तो मैं क्या संसार से अलग हूँ ? मुझ पर तुम दया न करोगे ? – साला !’

"जो जिसकी चिन्ता करता है, उसे उसी की सत्ता मिलती है । शिव की पूजा करने पर शिव की सत्ता मिलती है । श्रीरामचन्द्रजी का एक भक्त था । वह दिन-रात हनुमान की चिन्ता किया करता । वह सोचता था, मैं हनुमान हो गया हूँ । अन्त में उसे दृढ़ विश्वास हो गया कि उसके जरा सी पूँछ भी निकली है । 

“शिव के अंश से ज्ञान होता है, विष्णु के अंश से भक्ति । जिनमें शिव का अंश है, उनका स्वभाव ज्ञानियों जैसा है, जिनमें विष्णु का अंश है, उनका भक्तों जैसा स्वभाव है ।"

मास्टर - चैतन्यदेव के लिए तो आपने कहा था, उनमें ज्ञान और भक्ति दोनों थे ।

श्रीरामकृष्ण - (विरक्तिपूर्वक) - उनकी और बात है । वे ईश्वर के अवतार थे । उनमें और जीवों में बड़ा अन्तर है । उन्हें ऐसा वैराग्य था कि सार्वभौम ने जब जीभ पर चीनी डाल दी, तब चीनी हवा में 'फर-फर' करके उड़ गयी, भीगी तक नहीं । वे सदा ही समाधिमग्न रहते थे । कितने बड़े कामजयी थे वे, जीवों के साथ उनकी तुलना कैसे हो ? सिंह बारह वर्ष में एक बार रमण करता है, परन्तु मांस खाता है; चिड़ियाँ दाने चबाती हैं, परन्तु दिन रात रमण करती है । उसी तरह अवतार और जीव है । जीव काम का त्याग तो करते हैं, परन्तु कुछ दिन बाद कभी भोग कर लेते हैं,  सँभाल नहीं सकते

मास्टर से-लज्जा क्यों ? जो पार हो जाता है, वह आदमी को कीड़े के बराबर देखता है । 'लज्जा, घृणा और भय, ये तीन न रहने चाहिए । ये सब पाश हैं । 'अष्ट पाश' है न ?

“जो नित्यसिद्ध है, उसे संसार का क्या डर ? बँधे घरों का खेल है, पासे फेंकने से कुछ और न पड़ जाय, यह डर उसे फिर नहीं रहता । "जो नित्यसिद्ध है, वह चाहे तो संसार में भी रह सकता है । कोई कोई दो तलवारें भी चला सकते हैं - वे ऐसे खिलाड़ी हैं कि कंकड़ फेंककर मारो तो तलवार में लगकर अलग हो जाता है।"

भक्त - महाराज, किस अवस्था में ईश्वर के दर्शन होते हैं ?

श्रीरामकृष्ण - बिना सब तरफ से मन को समेटे ईश्वर के दर्शन थोड़े ही होते हैं ? भागवत में शुकदेव की बातें हैं - वे रास्ते पर जा रहे थे - मानो संगीन चढ़ाई हुई हो ! किसी ओर नजर नहीं जाती ! एक लक्ष्य - केवल ईश्वर की ओर दृष्टि, योग यह है

"चातक बस स्वाति का जल पीता है । गंगा, यमुना, गोदावरी सब नदियों में पानी भरा हुआ है, सातों सागर पूर्ण है, फिर भी उनका जल वह नहीं पीता । स्वाति में वर्षा होगी तब वह पानी पीयेगा।

"जिसका योग इस तरह का हुआ हो, उसे ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं । थिएटर में जाओ तो जब तक पर्दा नहीं उठता तब तक आदमी बैठे हुए अनेक प्रकार की बातें करते हैं - घर की बातें, आफिस की बातें, स्कूल की बातें, यही सब पर्दा उठा नहीं कि सब बाते बन्द ! जो नाटक हो रहा है, टकटकी लगाये उसे ही देखते हैं । बड़ी देर बाद अगर एक-आध बातें करते भी हैं तो उसी नाटक के सम्बन्ध की ।

"शराबखोर शराब पीने के बाद आनन्द की ही बातें करता है ।”

 [(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

(४)

🔆🙏पंचवटी में श्रीरामकृष्ण 🔆🙏 .

 नित्यगोपाल सामने बैठे हुए हैं । सदा ही भावस्थ रहते हैं, बिलकुल चुपचाप ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) – गोपाल ! तू तो बस चुपचाप बैठा रहता है ।

नृत्यगोपाल - (बालक की तरह) - मैं नहीं जानता ।

श्रीरामकृष्ण - मैं समझा, तू क्यों कुछ नहीं बोलता । शायद तू अपराध  से डरता है। 

"सच है । जय और विजय नारायण के द्वारपाल थे । सनक सनातन आदि ऋषियों को भीतर जाने से उन्होंने रोका था । इसी अपराध से उन्हें इस संसार में तीन बार जन्म ग्रहण करना पड़ा था ।

 “श्रीदामा गोलोक में विरजा के द्वारी थे । श्रीमती (राधिका) कृष्ण को विरजा के मन्दिर में पकड़ने के लिए उनके द्वार पर गयी थीं, और भीतर घुसना चाहा - श्रीदामा ने घुसने नहीं दिया; इस पर राधिका ने शाप दिया कि तू मर्त्यलोक में असुर होकर पैदा हो । श्रीदामा  ने भी शाप दिया था । (सब मुस्कराये ।) परन्तु एक बात है - बच्चा अगर अपने बाप का हाथ पकड़ता है, तो वह गड्ढे में गिर भी सकता है, परन्तु जिसका हाथ बाप पकड़ता है, उसे फिर क्या भय है ?" 

श्रीदामा  की बात ब्रह्मवैवर्त पुराण में है ।

केदार चैटर्जी इस समय ढाका में रहते हैं । वे सरकारी नौकरी करते हैं । पहले उनका आफिस कलकत्ते में था । अब ढाके में है । वे श्रीरामकृष्ण के परम भक्त हैं । ढाके में बहुत से भक्तों का साथ हो चुका है । वे भक्त सदा ही उनके पास आते और उपदेश ले जाया करते हैं । खाली हाथ दर्शनों के लिए न जाना चाहिए, इस विचार से वे भक्त केदार के लिए मिठाइयाँ ले आया करते हैं।

केदार - (विनयपूर्वक) - क्या मैं उनकी चीजें खाया करूँ ?

श्रीरामकृष्ण - अगर ईश्वर पर भक्ति करके देता हो तो दोष नहीं है । कामना करके देने से वह चीज अच्छी नहीं होती ।

केदार - मैंने उन लोगों से कह दिया है । मैं अब निश्चिन्त हूँ । मैंने कहा है, मुझ पर जिन्होंने कृपा की है, वे सब जानते हैं ।

श्रीरामकृष्ण – (सहास्य) – यह तो सच है, यहाँ बहुत तरह के आदमी आते हैं, वे अनेक प्रकार के भाव भी देखते हैं ।

केदार - मुझे अनेक विषयों के जानने की जरूरत नहीं है ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - नहीं जी, जरा जरा सा सब कुछ चाहिए । अगर कोई पंसारी की दूकान खोलता है, तो उसे सब तरह की चीजें रखनी पड़ती हैं । कुछ मसूर की दाल भी चाहिए और कहीं जरा इमली भी रख ली - यह सब रखना ही पड़ता है । "जो बाजे का उस्ताद है, वह कुछ कुछ सब तरह के बाजे बजा सकता है ।"

श्रीरामकृष्ण झाऊतल्ले में शौच के लिए गये । एक भक्त गड्डुआ लेकर वहीं रख आये ।भक्तगण इधर-उधर घूम रहे हैं । कोई श्रीठाकुरमन्दिर की ओर चले गये, कोई पंचवटी की ओर लौट रहे हैं। श्रीरामकृष्ण ने वहाँ आकर कहा - "दो तीन बार शौच के लिए जाना पड़ा, मल्लिक के यहाँ का खाना - घोर विषयी है, पेट गरम हो गया ।”

श्रीरामकृष्ण के पान का डब्बा पंचवटी के चबूतरे पर अब भी पड़ा हुआ है; और भी दो एक चीजें पड़ी हुई हैं ।

श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा - "वह डब्बा, और क्या क्या है, कमरे में ले आओ ।” यह कहकर श्रीरामकृष्ण अपने कमरे की ओर जाने लगे । पीछे पीछे भक्त भी आ रहे हैं । किसी के हाथ में पान का डब्बा है, किसी के हाथ में गडुआ आदि ।

श्रीरामकृष्ण दोपहर के बाद कुछ विश्राम कर रहे हैं । दो-चार भक्त भी वहाँ आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण छोटी खाट पर एक छोटे तकिये के सहारे बैठे हुए हैं ।  

एक भक्त ने पूछा – "महाराज, ज्ञान के द्वारा क्या ईश्वर के गुण समझे जाते हैं ?"

श्रीरामकृष्ण ने कहा - "वे इस ज्ञान से नहीं समझे जाते; एकाएक क्या कभी कोई उन्हें जान सकता है ? साधना करनी चाहिए । एक बात और, किसी भाव का आश्रय लेना । जैसे दासभाव । ऋषियों का शान्तभाव था । ज्ञानियों का भाव क्या है, जानते हो ? स्वरूप की चिन्ता करना । (एक भक्त के प्रति हँसकर) तुम्हारा क्या है ?"

भक्त चुपचाप बैठे रहे ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - तुम्हारे दो भाव हैं । स्वरूपचिन्ता करना भी है और सेव्य-सेवक का भाव भी है । क्यों, ठीक है या नहीं ?

भक्त - (सहास्य और ससंकोच) - जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - इसीलिए हाजरा कहता है, तुम मन की बातें सब समझ लेते हो । यह भाव कुछ बढ़ जाने पर होता है । प्रह्लाद को हुआ था । 

"परन्तु उस भाव की साधना के लिए कर्म चाहिए

"एक आदमी बेर का काँटा एक हाथ से दबाकर पकड़े हुए हैं - हाथ से खून टप-टप गिर रहा है, फिर भी वह कहता है, मुझे कुछ नहीं हुआ । लगा नहीं । पूछने पर कहता है, मैं खूब अच्छा हूँ । मुझे कुछ नहीं हुआ । पर यह बात केवल जबान से कहने से क्या होगा ? भाव की साधना होनी चाहिए ।”

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सोमवार, 20 जून 2022

$$$🔆🙏परिच्छेद ~104 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]🔆सहज अवस्था ही उत्तम अवस्था है ।🙏 उन्हें आम मुख्त्यारी दे दो , उनकी जो इच्छा हो , वे करें ! 🙏उस त्रिभंग के एक ही भ्रूभंग से मनुष्य इस घोर तरंग को पार कर जाता है ।🙏ईश्वर ही वस्तु है, और सब अनित्य और अवस्तु - दो दिन के लिए है,🙏विवेक और वैराग्य के होने पर संसार में भी ईश्वर प्राप्ति होती है ।,🙏शक्ति की उपासना में सन्तानभाव बहुत अच्छा है वीरभाव अच्छा नहीं। 🙏भक्ति का अर्थ है-मन, वाणी और कर्म से उन्हें पुकारना ।🔆तुम माता के नाम पर विश्वास करना, बस हो आयेगा ।🙏अहेतुकी भक्ति ईश्वर-कोटि को होती है । जीव-कोटि को नहीं होती 🙏

*परिच्छेद -१०४*

*स्टार थियेटर में प्रह्लाद-चरित्र का अभिनय-दर्शन*

[(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

(१)

🔆🙏समाधि में🔆🙏 

श्रीरामकृष्ण आज स्टार थिएटर में प्रह्लाद-चरित्र का अभिनय देखने आये हैं । साथ में राम मास्टर, नारायण आदि हैं । तब स्टार थिएटर बिडन स्ट्रीट में था । बाद में इसी रंगमंच पर एमरेल्ड थिएटर और क्लासिक थिएटर का अभिनय होता था ।

आज रविवार है । १४ दिसम्बर, १८८४ । श्रीरामकृष्ण एक बाक्स में उत्तर की ओर मुँह किये हुए बैठे हैं । रंगमंच रोशनी से जगमगा रहा है । श्रीरामकृष्ण के पास बाबूराम, मास्टर और नारायण बैठे हैं । गिरीश आये हैं, अभी अभिनय का आरम्भ नहीं हुआ है । श्रीरामकृष्ण गिरीश से बातचीत कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) - वाह, तुमने तो यह सब बहुत अच्छा लिखा है ।

गिरीश – महाराज, धारणा कहाँ ? सिर्फ लिखता गया हूँ ।

श्रीरामकृष्ण - नहीं, तुम्हें धारणा है । उसी दिन तो मैंने तुमसे कहा था, भीतर भक्ति हुए बिना कोई मनुष्य 'भगवान की दिव्य लीला' का ऐसा चित्र नहीं खींच सकता ।

इसके लिए भी धारणा होनी चाहिए । केशव के यहाँ मैं नव-वृन्दावन नाटक देखने गया था । मैंने वहाँ एक डिप्टी मजिस्ट्रेट को देखा जो आठ सौ रुपये महीने कमाता था। सब लोगों ने कहा, बड़ा पण्डित है; परन्तु देखा वह गोद में एक बच्चा लिए हैरान-परेशान हो रहा था ।

क्या किया जाय जिससे बच्चा अच्छी जगह बैठे, अच्छी तरह नाटक देखे, इसी के लिए वह व्याकुल हो रहा था । इधर ईश्वरी बातें हो रही थीं, उसका जी नहीं लगता था । बच्चा बार बार पूछ रहा था, 'बाबूजी, यह क्या है ? वह क्या है ?' वह भी बच्चे के साथ उलझा हुआ था। उसने बस पुस्तकें पढ़ी हैं, धारणा नहीं हुई है ।" 

गिरीश - दिल में आता है अब थियेटर-सिएटर छोड़ दूँ , क्या करूँ ?

श्रीरामकृष्ण - नहीं, नहीं, इसका रहना जरूरी है, इससे लोकशिक्षा होगी ।

अभिनय होने लगा । प्रह्लाद पाठशाला में पढ़ने के लिए आये हैं । प्रह्लाद को देखकर श्रीरामकृष्ण 'प्रह्लाद प्रह्लाद' कहते हुए एकदम समाधिमग्न हो गये ।

प्रह्लाद को हाथी के पैरों के नीचे देखकर श्रीरामकृष्ण रो रहे हैं । अग्निकुण्ड में जब वे फेंक दिये गये तब भी श्रीरामकृष्ण के आँसू बह चले । गोलोक में लक्ष्मीनारायण बैठे हैं | प्रह्लाद के लिए नारायण सोच रहे हैं ! यह दृश्य देखकर श्रीरामकृष्ण फिर समाधिमग्न हो गये ।


 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

(2)

🔆🙏 ईश्वरदर्शन का उपाय। कर्मयोग तथा चित्तशुद्धि🔆🙏

[गृहस्थ जीवन में सोने से पहले पवित्र-वाणी श्रवण अनिवार्य है। ]

थियेटर -भवन के जिस कमरे में गिरीश रहते हैं , अभिनय हो जाने पर श्रीरामकृष्ण को वहीं ले गए।  गिरीश ने पूछा- 'महाराज, क्या आप  " विवाह-विभ्राट" प्रहसन देखना चाहेंगे ? 

श्रीरामकृष्ण ने कहा , " नहीं , प्रह्लाद -चरित्र के बाद यह सब क्या है ? मैंने इसीलिए गोपाल उड़िया के दल से कहा था -" तुम लोग प्रोग्राम खत्म होने के बाद अन्त में कुछ ईश्वरी बातें किया करो। " बहुत अच्छी ईश्वरी बातें हो रही थीं , फिर 'विवाह -विभ्राट ' --संसार की बात आ गयी ! "जो मैं था , वही हो गया ? " फिर वही पहले के भाव आ जाते हैं।  " श्रीरामकृष्ण गिरीश आदि के साथ ईश्वरी बातें कह रहे हैं।

गिरीश पूछ रहे हैं , " महाराज , आपने कैसा देखा ? " 

श्रीरामकृष्ण - साक्षात् वे ही सबकुछ हुए हैं। नाटक में जो नटी  विभिन्न स्त्रि पात्रों की भूमिका निभा रही थीं, मैंने उन्हें साक्षात् आनन्दमयी माता के अवतार के रूप में देखा। और जो लोग गोलोक -धाम के गोपाल बने थे , उन्हें मैंने साक्षात् श्रीमन्नारायण देखा। वे ही सब कुछ हुए हैं। 

परन्तु ईश्वर- दर्शन ठीक होता है या नहीं इसके लक्षण हैं। एक लक्षण तो आनन्द है। दूसरा , संकोच का लोप हो जाना। जैसे समुद्र में ऊपर तो हिलोरें और आवर्त उठ रहे हैं , परन्तु भीतर गंभीर जल है। 

जिसे ईश्वर के दर्शन हो चुके हैं , वह कभी पागल की तरह रहता है , कभी पिशाच की तरह। शुचि और अशुचि में भेद नहीं रहता है ; कभी जड़ की तरह है , क्योंकि भीतर और बाहर ईश्वर के दर्शन करके आश्चर्यचकित हो गया है। 

कभी बालकवत है , दृढ़ता नहीं है , जैसे बालक बगल में धोती दबाये घूमता है। इस अवस्था में कभी तो बाल्य-भाव होता है, कभी तरुणभाव - तब दिल्लगी सूझती है , कभी युवाभाव - तब कर्म करता है, लोक-शिक्षा देता है, तब वह सिंहतुल्य है।     

जीवों में अहंकार है , इसीलिए वे ईश्वर को नहीं देख पाते। मेघों के उमड़ने पर फिर सूर्य  नहीं दिख पड़ता।  सूर्य दिख नहीं पड़ता इसलिए क्या कभी यह कहना चाहिए कि सूर्य है ही नहीं ? सूर्य अवश्य है।  

" परन्तु बालक के 'मैं ' में दोष नहीं , बल्कि उपकार है। साग के खाने से बीमारी होती है , परन्तु 'हींचा' साग के खाने से उपकार होता है। इसीलिए हींचा की गिनती साग में नहीं है। इसी प्रकार मिश्री की गिनती भी मिठाइयों में नहीं होती। दूसरी मिठाइयों से बीमारी होती है , परन्तु मिश्री से कफ का दोष होता ही नहीं। 

" इसीलिए मैंने केशव सेन से कहा था , तुम्हें और अधिक कहने से फिर यह दल न रह जायेगा। केशव डर गया।  तब मैंने कहा , बालक का 'मैं ' , दास का 'मैं ' - इनमें दोष नहीं है। 

" जिन्होंने ईश्वर का दर्शन किया है , वे देखते हैं , ईश्वर ही जीव और जगत हुए हैं। सब कुछ वे ही हैं। उन्हें ही उत्तम भक्त कहते हैं। "   

गिरीश - (सहास्य) - सब कुछ तो वे ही हैं , परन्तु जरा सा 'मैं ' रह जाता है , इसमें कोई दोष नहीं है। 

श्रीरामकृष्ण - (हँसकर ) - हाँ , इससे हानि नहीं। वह 'मैं ' केवल सम्भोग के लिए है।  'मैं ' अलग और 'तुम ' अलग जब होता है , तभी सम्भोग हो सकता है , सेव्य-सेवक के भाव से।  

" और मध्यम दर्जे के भी भक्त हैं। वे देखते हैं , ईश्वर सब भूतों में अन्तर्यामी के रूप में विराजमान हैं। अधम दर्जे के भक्त कहते हैं , --वे हैं - अर्थात आकाश के उस पार ! (सब हँसे)  

"गोलोक के गोपालों को देखकर मुझे यह ज्ञात हुआ कि वे ही सब कुछ हुए हैं । जिन्होंने ईश्वर को देखा है वे स्पष्ट देखते हैं, ईश्वर ही कर्ता हैं, वे ही सब कुछ कर रहे हैं ।

गिरीश - महाराज, मैंने ठीक समझा है कि वे ही सब कुछ कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - मैं कहता हूँ, 'माँ, मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री हो, मैं जड़ हूँ, तुम चेतना भरनेवाली हो; तुम जैसा कराती हो, मैं वैसा ही करता हूँ; जैसा कहलाती हो, वैसा ही कहता हूँ ।' जो अज्ञान दशा में हैं, वे कहते हैं, 'कुछ तो वे करते हैं, कुछ मैं करता हूँ ।'

गिरीश - महाराज, मैं और करता ही क्या हूँ ? और अब कर्म ही क्यों किये जायँ ?

श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, कर्म करना अच्छा है । जमीन जुती हुई हो तो उसमें जो कुछ बोओगे वही होगा । परन्तु इतना है कि कर्म निष्काम भाव से करना चाहिए ।

🙏तन्नो हंस: प्रचोदयात् 🙏

"परमहंस दो तरह के हैं । ज्ञानी परमहंस और प्रेमी परमहंस । जो ज्ञानी हैं, उन्हें अपने काम से काम । जो प्रेमी हैं, जैसे शुकदेवादि, वे ईश्वर को प्राप्त करके फिर लोक-शिक्षा देते हैं । कोई अपने आप ही आम खाकर मुँह पोंछ डालता है, और कोई और पाँच आदमियों को खिलाता है । 

कोई कुआँ खोदते समय टोकरी और कुदार अपने घर उठा ले जाते हैं, कोई कुआँ खुद जाने पर टोकरी और कुदार उसी कुएँ में डाल देते हैं; कोई दूसरों के लिए रख देते हैं ताकि पड़ोसियों के ही काम आ जाय । शुकदेव आदि ने दूसरों के लिए टोकरी और कुदार रख दी ।

 (गिरीश से) तुम भी दूसरों के लिए रखना ।"
गिरीश - तो आप आशीर्वाद दीजिये ।
श्रीरामकृष्ण - तुम माता के नाम पर विश्वास करना, बस हो आयेगा ।

गिरीश - मैं पापी तो हूँ ।

श्रीरामकृष्ण - जो सदा पाप पाप सोचा करता है, वह पापी हो जाता है ।

गिरीश - महाराज, मैं जहाँ बैठता था, वहाँ की मिट्टी भी अशुद्ध है ।

श्रीरामकृष्ण - यह क्या ! हजार साल के अँधेरे घर में अगर उजाला आता है तो क्या जरा जरा करके उजाला होता है या एकदम ही प्रकाश फैल जाता है ?

गिरीश - आपने आशीर्वाद दिया ।

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारे अन्दर से अगर यही बात हो तो मैं इस पर क्या कह सकता हूँ ? मैं तो खाता-पीता हूँ और उनका नाम लिया करता हूँ ।

गिरीश - आन्तरिकता है नहीं, परन्तु यह कृपया आप दे जाइये ।

श्रीरामकृष्ण - क्या मैं ? नारद, शुकदेव, ये लोग होते तो दे देते ।

गिरीश - नारदादि तो दृष्टि के सामने हैं नहीं, पर आप मेरे सामने हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - अच्छा, तुम्हें विश्वास है !

सभी कुछ देर चुप रहे । फिर बातचीत होने लगी ।

गिरीश - एक इच्छा है, अहेतुकी भक्ति की ।

श्रीरामकृष्ण - अहेतुकी भक्ति ईश्वर-कोटि को होती है । जीव-कोटि को नहीं होती ।

श्रीरामकृष्ण ऊर्ध्वदृष्टि हैं । आप ही आप गाने लगे – "श्यामा को क्या सब लोग पाते हैं ? नादान मन समझाने पर भी नहीं समझता । उन सुरंजित चरणों से मन लगना शिव के लिए भी असाध्य साधन है । जो माता की चिन्ता करता है, उसके लिए इन्द्रादि का सुख और ऐश्वर्य भी तुच्छ हो जाता है । अगर वे कृपा की दृष्टि फेरती हैं, तो भक्त सदा ही आनन्द में मग्न रहता है । योगीन्द्र, मुनीन्द्र और इन्द्र उनके श्रीचरणों का ध्यान करके भी उन्हें नहीं पाते । निर्गुण में रहकर भी कमलाकान्त उन चरणों की चाह रखता है ।"

गिरीश - निर्गुण में रहकर भी कमलाकान्त उन चरणों की चाह रखता है !

 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

(३)

* क्या संसार में ईश्वर लाभ होता है ?*

श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - तीव्र वैराग्य के होने पर वे मिलते हैं । प्राणों में विकलता होनी चाहिए। शिष्य ने गुरु से पूछा था, क्या करूँ जो ईश्वर को पाऊँ ? गुरु ने कहा, मेरे साथ आओ । यह कहकर गुरु ने उसे एक तालाब में डुबाकर ऊपर से पकड़ रखा ।

कुछ देर बाद उसे पानी से निकाल लिया और पूछा, 'पानी के भीतर तुम्हें कैसा लगता था ?' महाराज, मेरे प्राण डूबते-उतराते थे, जान पड़ता था अभी प्राण निकलना चाहते हैं ।' गुरु ने कहा, 'देखो, इसी तरह ईश्चर के लिए जब जी डूबता उतराता है तब उनके दर्शन होते हैं।'

“इस पर मैं कहता हूँ, जब तीनों आकर्षण एकत्र होते हैं तब ईश्वर मिलते हैं । विषयी का जैसा आकर्षण विषय की ओर है, सती का पति की ओर तथा माता का सन्तान की ओर, इन तीनों को अगर एक साथ मिलाकर कोई ईश्वर को पुकार सके तो उसी समय उनके दर्शन हो जायँ ।

     'मन ! जिस तरह पुकारा जाता है उस तरह तू पुकार तो सही, देखूं भला कैसे माँ श्यामा रह सकती है ?' उस तरह व्याकुल होकर पुकारने पर उन्हें दर्शन देना ही होगा ।

"उस दिन तुमसे मैंने कहा था - भक्ति का अर्थ क्या है । वह है मन, वाणी और कर्म से उन्हें पुकारना । कर्म - अर्थात् हाथों से उनकी पूजा और सेवा करना, पैरों से उनके स्थानों तक जाना, कानों से भगवान और उनके नाम, गुणों और भजनों को सुनना, आँखों से (हर चेहरे में) उनकी मूर्ति के दर्शन करना और खुश रहना । और मन से सदा उनका ध्यान - उनकी चिन्ता करना तथा उनकी लीलाओं का स्मरण करना। वाणी से उनकी स्तुतियाँ पढ़ना, उनके भजन गाना।    

[“সেদিন তোমায় যা বললুম ভক্তির মানে কি — না কায়মনোবাক্যে তাঁর ভজনা।]  
 
"कलिकाल के लिए नारदीय भक्ति है - सदा उनके नाम और गुणों का कीर्तन करना । जिन्हें समय नहीं है, उन्हें कम से कम शाम को तालियाँ बजाकर एकाग्र चित्त हो 'श्रीमन्नारायण नारायण नारायण -हरि हरि ' कहकर उनके नाम का कीर्तन करना चाहिए । 

"भक्ति के 'मैं' में अहंकार नहीं होता । वह अज्ञान नहीं लाता, बल्कि ईश्वर की प्राप्ति करा देता है। यह 'मैं' में नहीं गिना जाता, जैसे 'हिंचा' साग नहीं गिना जाता । दूसरे सागों से बीमारी हो सकती है, परन्तु 'हिंचा' साग पित्तनाशक है; इससे उपकार ही होता है । मिश्री मिठाइयों में नहीं गिनी जाती । दूसरी मिठाइयों के खाने से अपकार होता है, परन्तु मिश्री के खाने से अम्लविकार हटता है।

"निष्ठा के बाद भक्ति होती है । भक्ति की परिपक्व अवस्था भाव है । भाव के घनीभूत होने पर महाभाव होता है । सब से अन्त में है प्रेम ।

"प्रेम रज्जु है । प्रेम के होने पर भक्त के निकट ईश्वर बँधे रहते हैं, फिर भाग नहीं सकते । साधारण जीवों को केवल भाव तक होता है । ईश्वर-कोटि के हुए बिना महाभाव या प्रेम नहीं होता। प्रेम चैतन्यदेव को हुआ था
"ज्ञान वह है, जिस रास्ते से चलकर मनुष्य स्वरूप का पता पाता है । ब्रह्म ही मेरा रूप है, यह बोध होना चाहिए । [It is the path by which a man can realize the true nature of his own Self; it is the awareness that Brahman alone is his true nature. ] 

"प्रह्लाद कभी स्वरूप (Oneness) में रहते थे । कभी देखते थे 'एक मैं हूँ और एक तुम', तब वे भक्तिभाव में रहते थे । [Prahlada sometimes was aware of his identity with Brahman. And sometimes he would see that God was one (समुद्र)  and he another (तरंग) ; at such times he would remain in the mood of bhakti.]

"हनुमान ने कहा था, 'राम, कभी देखता हूँ, तुम पूर्ण हो, मै अंश हूँ; कभी देखता हूँ, तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ; और राम, जब तत्त्वज्ञान होता है, तब देखता हूँ, तुम्हीं मैं हो, मैं ही तुम हूँ ।'
गिरीश - अहा ! 

श्रीरामकृष्ण - संसार में होगा क्यों नहीं ? परन्तु विवेक और वैराग्य चाहिए । ईश्वर ही वस्तु है, और सब अनित्य और अवस्तु - दो दिन के लिए है, यह विचार दृढ़ रहना चाहिए । ऊपर -ऊपर उतराते रहने से न होगा । डुबकी मारनी चाहिए

"एक बात और याद रखना; समुद्र में काम आदि घड़ियालों का भय है ।"

गिरीश - परन्तु यम का भय मुझे नहीं है ।

श्रीरामकृष्ण - नहीं, काम आदि घड़ियालों का भय है । इसीलिए हलदी लगाकर डुबकी मारनी चाहिए - हलदी है विवेक और वैराग्य

"संसार में किसी किसी को ज्ञान होता है । इस पर दो तरह के योगियों की बात कही गयी है - गुप्त योगी और व्यक्त योगी । जिन लोगों ने संसार का त्याग कर दिया है, वे व्यक्त योगी हैं, उन्हें सब लोग पहचानते हैं । गुप्त योगी व्यक्त नहीं होता । जैसे नौकरानी - सब काम तो करती है, परन्तु मन अपने देश में बालबच्चों पर लगाये रहती है ।
और जैसा मैंने तुमसे कहा है, व्यभिचारणी औरत घर का कुल काम तो बड़े उत्साह से करती है, परन्तु मन से वह सदा अपने यार की याद करती रहती है । विवेक और वैराग्य का होना बड़ा मुश्किल है, 'मैं कर्ता हूँ' और 'ये सब चीजें मेरी हैं’, यह भाव बड़ी जल्दी दूर नहीं होता
    
   "एक डिप्टी मजिस्ट्रेट को मैंने देखा, आठ सौ रुपया महीना पाता है; ईश्वरी बातें हो रही थीं, उधर उसका जरा भी मन नहीं लगा । वह अपने लड़कों में से एक लड़के को अपने साथ ले आया था, उसे कभी यहाँ बैठाता था, कभी वहाँ । मैं एक और आदमी को जानता हूँ, उसका नाम न लूँगा, खूब जप करता था, परन्तु दस हजार रुपयों के लिए उसने झूठी गवाही दी थी ।

 "इसीलिए कहा, विवेक और वैराग्य के होने पर संसार में भी ईश्वर प्राप्ति होती है ।”

गिरीश - इस पापी के लिए क्या होगा ?

श्रीरामकृष्ण ऊर्ध्वदृष्टि हो गाने लगे –

 "ऐ जीवो, उस नरकान्तकारी श्रीकान्त का चिन्तन करो, इस तरह कृतान्त के भय का अन्त हो जायेगा । उनका स्मरण करने पर भवभावना दूर हो जाती है, उस त्रिभंग के एक ही भ्रूभंग से मनुष्य इस घोर तरंग को पार कर जाता है । सोचो तो, किस तत्त्व की प्राप्ति के लिए तुम इस मर्त्यलोक में आये, पर यहाँ आकर चित्त में बुरी वृत्तियाँ भरना शुरू कर दिया ! यह कदापि उचित नहीं, इस तरह तुम अपने को डुबा दोगे । अतएव उस नित्यपद की चिन्ता करके अपने इस चित्त का प्रायश्चित्त करो ।"
श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से)  उस त्रिभंग के एक ही भ्रूभंग से मनुष्य इस घोर तरंग को पार कर जाता है ।
"महामाया के द्वार छोड़ने पर उनके दर्शन होते हैं, महामाया की दया चाहिए । इसीलिए शक्ति की उपासना की जाती है । देखो न, पास ही भगवान हैं, फिर भी उन्हें जानने के लिए कोई उपाय नहीं, बीच में महामाया है, इसलिए राम, सीता और लक्ष्मण जा रहे हैं; आगे राम हैं, बीच में सीता और पीछे लक्ष्मण । राम बस ढाई हाथ के फासले पर हैं, फिर भी लक्ष्मण उन्हें नहीं देख पाते ।

"उनकी उपासना करने के लिए एक भाव का आश्रय लिया जाता है । मेरे तीन भाव हैं, सन्तानभाव, दासीभाव और सखीभाव । दासीभाव और सखीभाव में मैं बहुत दिनों तक था । उस समय स्त्रियों की तरह गहने और कपड़े पहनता था । सन्तानभाव बहुत अच्छा है ।

"वीरभाव अच्छा नहीं। मुण्डे और मुण्डियाँ , भैरव और भैरवियाँ, ये सब वीरभाव के उपासक हैं, अर्थात् प्रकृति को स्त्रीरूप से देखना और रमण के द्वारा उसे प्रसन्न करना - - इस भाव में प्रायः पतन हुआ करता है ।"

गिरीश - मुझ में एक समय वही भाव आया था । 

श्रीरामकृष्ण चिन्तित हुए-से गिरीश को देखने लगे ।

गिरीश - इस भाव का कुछ अंश अब भी शेष है । अब उपाय क्या है, बतलाइये ।

श्रीरामकृष्ण - (कुछ देर चिन्ता करके) - उन्हें `आम मुखत्यारी' दे दो, उनकी जो इच्छा हो, वे करें।

  [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

(4)

🔆🙏सत्त्वगुण तथा ईश्वरलाभ🔆🙏

श्री रामकृष्ण भक्त बालकों की बातें कर रहे हैं। 
श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - ध्यान करता हुआ मैं उनके सब लक्षण देख लेता हूँ। 'घर सँवारूँगा' यह भाव उनमें नहीं है। स्त्री-सुख की इच्छा नहीं है। जिनके स्त्री है भी , वे उसके साथ नहीं सोते। बात यह है कि रजोगुण के बिना गये, शुद्ध सत्त्वगुण के बिना आये , ईश्वर पर मन स्थिर नहीं होता, उन पर प्यार नहीं होता , उन्हें मनुष्य पा नहीं सकता।     

गिरीश: आपने मुझे आशीर्वाद दिया है।

श्रीरामकृष्ण – कब ? परन्तु हाँ, यह कहा है कि आन्तरिकता के होने पर सब हो जायेगा ।

    बातचीत करते हुए श्रीरामकृष्ण 'आनन्दमयी' कहकर समाधिलीन हो रहे हैं । बड़ी देर तक समाधि की अवस्था में रहे । जरा समाधि से उतरकर कह रहे हैं - "ये सब कहाँ गये ?” मास्टर बाबूराम को बुला लाये । श्रीरामकृष्ण बाबूराम और दूसरे भक्तों की ओर देखकर बोले - “सच्चिदानन्द ही अच्छा है, और कारणानन्द?"

इतना कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे –

“अबकी बार मैंने अच्छा सोचा है । एक अच्छे सोचनेवाले से मैंने सोचने का ढंग सीखा है । जिस देश में रात नहीं है, मुझे उसी देश का एक आदमी मिला है । दिन की तो बात ही न पूछो, सन्ध्या को भी मैंने बन्ध्या बना डाला है । मेरी आँखें खुल गयी हैं, अब क्या फिर मैं सो सकता हूँ ? मैं योग और याग में जाग रहा हूँ । माँ, योगनिद्रा तुझे देकर नींद को ही मैंने सुला दिया है। सोहागा और गन्धक को पीसकर मैंने बड़ा ही सुन्दर रंग चढ़ाया है, आँखों की कूँची बनाकर मैं मणि-मन्दिर को साफ कर लूँगा । रामप्रसाद कहते हैं, भुक्ति और मुक्ति दोनों को सिर पर रखे हुए हूँ और 'काली ही ब्रह्म है' यह मर्म समझकर धर्म और अधर्म, दोनों को मैंने छोड़ दिया है ।"
फिर उन्होंने दूसरा गाना गाया ।
"यदि 'काली काली' कहते मेरी मृत्यु हो जाय तो गंगा, गया, काशी, कांची, प्रभासादि क्षेत्रों में मैं क्यों जाऊँ ?"
फिर वे कहने लगे, “मैंने माँ से प्रार्थना करते हुए कहा था, माँ, मैं और कुछ नहीं चाहता, मुझे शुद्धा भक्ति दो ।"

गिरीश का शान्त भाव देखकर श्रीरामकृष्ण को प्रसन्नता हुई है । वे कह रहे हैं, "तुम्हारी यही अवस्था अच्छी है । सहज अवस्था ही उत्तम अवस्था है ।"

श्रीरामकृष्ण नाट्यभवन के मैनेजर के कमरे में बैठे हुए हैं । एक ने आकर पूछा, "क्या आप 'विवाह-विम्राट' देखेंगे ? अब अभिनय हो रहा है ?"

श्रीरामकृष्ण ने गिरीश से कहा, "यह तुमने क्या किया ? प्रह्लाद-चरित्र के बाद विवाह-विभ्राट ? पहले खीर देकर पीछे से कड़वी तरकारी ?"

अभिनय समाप्त हो जाने पर गिरीश के आदेश से रंगमंच की अभिनेत्रियाँ (actresses) श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करने आयीं । सब ने भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया । भक्तगण कोई खड़े, कोई बैठे हुए देख रहे हैं । उन्हें देखकर आश्चर्य होने लगा । अभिनेत्रियों में कोई-कोई श्रीरामकृष्ण के पैरों पर हाथ रखकर प्रणाम कर रही हैं । पैरों पर हाथ रखते समय श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, "माँ, बस हो गया - माँ बस, रहने दो ।" बातों में करुणा सनी हुई थी ।
उनके प्रणाम करके चले जाने पर श्रीरामकृष्ण भक्तों से कह रहे हैं - "सब वही हैं - एक एक अलग रूप में।
अब श्रीरामकृष्ण गाड़ी पर चढ़े। गिरीश आदि भक्तों ने उनके साथ चलकर उन्हें गाड़ी पर चढ़ा दिया। गाड़ी पर चढ़ते ही श्रीरामकृष्ण गम्भीर समाधि में लीन हो गये । नारायण आदि भक्त भी गाड़ी में बैठे । गाड़ी दक्षिणेश्वर की ओर चल दी ।
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[सबरी के बैर सुदामा के तण्डुल / विद्यापति]
श्रीमन्नारायण नारायण नारायण, 
सबरी के बैर सुदामा के तण्डुल, 
रुचि-रुचि भोग लगाबायन। 
शिब नारायण-नारायण-नारायण…..
श्रीमन्नारायण नारायण नारायण।।  
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