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सोमवार, 11 जुलाई 2022

🙏 🙏 "समन्वय और शान्ति के लिये धर्म" [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना -34]

समन्वय और शान्ति के लिये धर्म 

    'धर्म', 'समन्वय' और 'शान्ति' के विषय में हमारी धारणा अत्यन्त अस्पष्ट (vague) है। हम लोग इन सब विषयों के बारे में एक प्रकार से संदेहात्मक विचार रखते हैं। हम कहते हैं - मैं धर्म में विश्वास रखता हूँ। समन्वय का अर्थ हमलोग सम्मिलन (reunion) समझते हैं। शान्ति कहते समय हम लोग क्या सोचते हैं -ठीक ठीक बता नहीं सकते। 

      धर्म वह वस्तु है जो मनुष्य को धारण करती है। सृष्टि रचने के साथ ही साथ ब्रह्माजी ने यह विचार किया कि सृष्टि की रक्षा के लिए कोई व्यवस्था रहनी जरुरी है। इसीलिये उन्होंने सृष्टि की रक्षा के लिये एक मंगलवस्तु का निर्माण किया - यह बात बृहदारण्यक उपनिषद में कही गयी है। उसी मंगलवस्तु (कल्याणकारी पद्धति) का नाम है -धर्म। धर्म की दो दिशायें हैं।  पहला उसकी तात्विक (आध्यात्मिक essence) दिशा है , और दूसरा उसे व्यावहारिक रूप देने की दिशा है , बृहदारण्यक में भी यही बात कही गयी थी। स्वामीजी ने धर्म के इसी व्यावहारिक पक्ष  ऊपर अधिक बल दिया है। स्वामीजी की मान्यता यह थी कि जो धर्म या  दर्शन यदि मनुष्य के  कल्याण के लिए, उसकी यथार्थ उन्नति के लिए, उसे अपने व्यवहार में लाने का उपाय न बता  सके, तो वैसे धर्म या दर्शन का कोई मोल नहीं है,वह व्यर्थ है। इसीलिए स्वामीजी अक्सर व्यावहारिक धर्म (वेदान्त) पर चर्चा करते थे। 

        हमारे शास्त्रों में कहा गया है -केवल शास्त्रों को पढ़ने या जान लेने से ही दर्शन का ज्ञान  नहीं होता, धर्मलाभ नहीं होता। जो मनुष्य क्रियाशील है, वही विद्वान है। जो लोग शास्त्रों में बतलाये गये उपदेशों का प्रयोग अपने जीवन में कर सकते हैं, सच्चे विद्वान् तो वे ही हैं। केवल कुछ विषयों को 'जान लेने ' से ही वे विद्या (Knowledge) अनुशासन में परिणत नहीं हो जाती। विद्या का प्रयोग भी होना चाहिए। यदि हम उसे 'प्रयोग' में नहीं लाएँ तो वह व्यर्थ है। हमलोग जब कोई चीज जानते हैं , या कोई की ज्ञान की बात दूसरों को 'सुनाते' हैं , और जब उसी ज्ञान का व्यवहार  अपने दैनंदिन जीवन में भी करते हैं - उसी चार समय पर हमारी विद्या प्रभावी होती है।

      पतंजलि ने अपने व्याकरण -महाभाष्य में बहुत सुंदर ढंग से कहा है। कोई भी विद्या चार भागों में उपयुक्त होती है। जिस समय उसे सीख रहा हूँ, यह उसकी एक उपयुक्तता है , सीखी हुई विद्या को अपनी स्मृति में रखने के बार- बार उसको दुहराता हूँ, उसमें महारत हासिल करने , चरित्रगत करने या आत्मसात करने के लिए जिस विषय की चर्चा हमलोग बार-बार करते हैं, फिर अपने जीवन में ढाल लेने के लिए -जब हम कोई क्रिया करते हैं , फिर उस विद्या के विषय में दूसरों को बतलाते हैं , और स्वयं जब उसका व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करते हैं। जो धर्म कार्यान्वित नहीं हो सके, जो धर्म केवल मंदिर -मस्जिद -गिरजा में बंधा हो वह धर्म नहीं है।  धर्म तो व्यवहार में अपनाने की चीज है। शंकरचार्य इस उपनिषद के भाष्य में कहते हैं -धर्म दो कार्य करेगा। एक वह सत्य देगा और उसको व्यवहार करना बतलायेगा। सत्य और प्रयोग। धर्म की दो दिशायें हैं।  इन्हीं दो को एक साथ रखना धर्म है। जब हमलोग धर्म के इस बात को समझ लेते हैं , तब उसीको महाभारत में कहा गया है - जो धारण करे वही धर्म है। 

      यदि धर्म के इसी भाव को हमलोग ग्रहण करें तो यह प्रश्न कहाँ  उठता कि मैं हिन्दू हूँ या मुसलमान , या ईसाई , सिख ,बौद्ध या जैन हूँ -और कुछ हूँ। असली बात तो यह है कि क्या मैं धर्म चाहता हूँ ? यदि चाहता हूँ , तो मुझे यह जानने की कोई आवश्यकता नहीं कि- कौन सा धर्म? धर्म दो प्रकार के हैं , स्वामीजी कहते थे - छोटे- छोटे लेबल लगा धर्म एक प्रकार का है , और दूसरे प्रकार का धर्म है -महाधर्म।  जिस धर्म का कार्य होगा  - सभी प्राणियों , सभी मनुष्यों की रक्षा करना। उनको ऊपर उठने में सहायता करना।  महाभारत में कहा गया है -

" प्रभवार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम् ।

        य: स्यात्प्रभवसंयुक्त: स धर्म इति निश्चयः।। " 

(महाभारत १२.१०९.१० )' प्रभवार्थाय ' ---अर्थात धर्म होता है मनुष्यों की उन्नति के लिये, उनके विकास के लिए।  महर्षियों ने मनुष्य की उन्नति के लिए ही धर्म का प्रवचन किया है। जिससे मनुष्य का कल्याण होता हो वही धर्म है। (The sole aim with which Dharma is advocated is to bring about the evolution of living beings. A doctrine preaches that that which is able to bring about evolution is Dharma. - Mahabharat 12.109.10) 

      कैसी सुंदर अनुभूति है। यह सोचने का कोई कारण नहीं कि चूँकि यह महाभारत में कहा गया है , इसलिए यह केवल हिन्दुओं के लिए है। नहीं , वैसी बात नहीं है।  यह तो सम्पूर्ण विश्व के लिए है। मानवमात्र के लिए कहा गया है। हमलोगों के देश का धर्म केवल इसी देश के लिए निर्मित नहीं हुआ था। वेद संहिता में कहा गया है यह धर्म जिस प्रकार देश के लिए उपयुक्त है , वैसे ही विदेश के लिए भी। हमलोग क्या इस धर्म को केवल भारतवर्ष में , मंदिरों में या हमलोगों के अन्य दो-चार जो स्थान हैं ,वहीं तक सिमित कर देंगे ? वेद क्या कहता है ? यही कि हमलोग अभी जिस धर्म की चर्चा कर रहे हैं , जो कल्याणकारी धर्म है , वह सभी मनुष्यों के लिए है , उसे सभी मनुष्यों को दो। 

  यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। 

ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च।"  

इस कल्याणी वेद-वाणी को " आवदानि जनेभ्यः "  -सभी मनुष्यों को दो।  " ब्रह्मराजन्याभ्यां" ब्राह्मणों को दो, क्षत्रियों को दो।"शूद्राय चार्याय च" -वैश्य को दो , शूद्र को दो। "स्वाय चारणाय च" -इस देश के लोगों को दो विदेशी लोगों को दो। वेद कह रहा है , हमलोगों या तो पढ़ा नहीं है, या उसका अर्थ नहीं समझा है। ठाकुर ने स्वामीजी को अपना यंत्र बनाकर, उनसे यही कार्य करवाया था। क्योंकि वेद कहता है - " कृण्वन्तो विश्‍वमार्यम् । - (ऋग्वेद ९।६३।५) सारे संसार के मनुष्यों को श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाव वाले बनाओ।  

      विश्व के इतिहास में स्वामीजी के पहले ऐसी घटना कभी नहीं घटित हुई थी। वेद ने कितने हजार वर्ष पहले ही कह दिया था- इस देश के लोगों को और विदेशी लोगों को धर्म के तत्व सुनाओ !  धर्म माने जो यथार्थ में महाधर्म है , लेबल वाला छोटा-धर्म नहीं, उसी को दो। स्वामी विवेकानन्द हिन्दू धर्म पर भाषण देने के लिए पाश्चात्य देशों में नहीं गए थे। ऐतिहासिक रूपसे ऐसा कहना ठीक नहीं होगा कि स्वामीजी ने विश्वधर्म महासभा में हिन्दू धर्म को प्रतिष्ठित कर दिया था , या हिन्दू धर्म की विजय-पताका लहरा आये थे। स्वामीजी ने कहा था , मुझे  वहां  'हिन्दुधर्म' पर जो निबंध पढ़ना  पड़ा था , उसे मैंने अपना उत्तरदायित्व समझकर कष्ट से पढ़ा था। दक्षिण भारत में स्वामीजी के विदेश जाने के लिए, जो धन इकट्ठा किया गया था, उसे  स्वामीजी ने--  शिकागो जाकर मुझे  हिन्दुधर्म के बारे में बोलना होगा, यदि इस शर्त पर आपलोग धन देंगे तो वापस कर दूंगा , यह कहकर उन्होंने दो बार धन वापस भी लौटा दिया था। मैं वहां जाकर क्या बोलूंगा , या नहीं बोलूंगा यह सब मैं कुछ नहीं जानता। मैं वहां क्यों जा रहा हूँ यह भी नहीं जनता। कन्याकुमारी में विदेश जाने की एक प्रेरणा आयी है। ठाकुर ने संकेत में कहा है , समुद्र के पार जाओ। माँ का आशीर्वाद मिल गया है , जाऊंगा। किन्तु यदि आप लोग यह कहेंगे कि हमलोगआपको धन इसीलिए  दे रहे हैं कि आपको अमेरिका जाकर हिन्दुधर्म के विषय में बोलना होगा तो मैं आपलोगों से धन नहीं लूंगा।  

      स्वामीजी के जीवन का इतिहास अच्छे से पढ़ने की जरूत है। पत्र-पत्रिका में या इधर-उधर से शिकागो भाषण पर एक -दो लेख पढ़कर,  जो हो सकता है गलत तथ्य से भरे हों , स्वामीजी के सम्बन्ध में कोई धारणा बना लेना उचित नहीं है।  स्वामीजी ने एक जगह कहा है , " मेरे देश में अनगिनत लोग कुपोषण से, बिना आवास और वस्त्र के मर रहे हैं रे , तुम्हारे शिकागो में होने वाले  विश्वधर्म  संसद की परवाह कौन करता है? इसे पढ़कर समझने की जरूरत है। स्वामीजी कहते हैं -मैं तो वहां इसी प्रेरणा से  गया था कि विदेश जाकर इनके लिए कुछ कर सकूंगा ।

     प्रोफेसर राईट ने स्वामीजी से कहा था , " देखिये संयोग वश हिन्दू धर्म  पर बोलने के लिए किसी को निमंत्रण पत्र नहीं भेजा गया था। उसके कई कारण थे , वे सब हास्यास्पद बातें हो सकती हैं। और बिना निमंत्रण आप यह सोचकर यहाँ आ गए हैं कि आप विश्वधर्म सभा में भाग ले सकेंगे ! लेकिन आपको वहां कोई बोलने का अवसर नहीं देगा क्योंकि अनुमति देने का समय तो निकल चुका  है। मेरे कहने से हो सकता है , वे लोग मान भी जाएँ लेकिन वहाँ जाने के लिए आपको  किसी एक धर्म का प्रतिनिधित्व करना होगा। यह ठीक है कि आप यहाँ किसी लेबल वाले धर्म का प्रचार करने के लिए नहीं आये हैं। लेकिन हिन्दुधर्म का प्रतिनिधि होकर यहाँ कोई नहीं आया है , यदि आप हिन्दुधर्म बोलने के लिए राजी हो जाएँ , तो मैं कोई उपाय निकाल सकता हूँ। " बाध्य होकर स्वामीजी हिन्दुधर्म पर बोलने के लिए राजी होना पड़ा। स्वामीजी को जीवन में पहली बार एक लिखित निबंध का पाठ  करना पड़ा। हमलोग नहीं जानते कि उन्होंने अपने जीवन में फिर कभी दूसरी बार कहीं लिखित निबंध पढ़कर भाषण दिया हो।  क्योंकि उसमें जो कुछ उन्होंने कहा था , वह उनके मन से नहीं निकला था।  विश्व धर्म महासभा में हिन्दुधर्म का प्रतिनधि के रूप स्वीकृत होने के लिए उन्हें  'Paper on Hinduism' का लिखित व्यख्यान पढ़ना पड़ा था।  

      स्वामी विवेकानन्द साहित्य, जो हिन्दी में  पहली बार 1963 ई ० में 10 खण्डों में प्रकाशित हुआ था , वह सर्वप्रथम 1907 ई ० में  अंग्रेजी में 8 खण्डों में प्रकाशित हुआ था। उसकी भूमिका में भगिनी निवेदिता लिखती हैं -" Of the Swami's address before the Parliament of Religions, it may be said that when he began to speak it was of "the religious ideas of the Hindus", but when he ended, Hinduism had been created."--अर्थात " विश्व धर्म महासभा के समक्ष जब स्वामी जी ने अपना भाषण आरम्भ किया, तो विषय था; `हिन्दुओं के धार्मिक विचार ' किन्तु जब उन्होंने समाप्त किया, तब तक 'हिन्दुत्व' (Hinduism या हिन्दू धर्म) का जन्म हो चुका था । निवेदिता विदेशिनी होकर भी भारत से प्रेम करती थीं , भारत के  धर्म को हिन्दुधर्म कहा जाता है, केवल कुछ बोल देना है, क्या इसीलिए निवेदिता ने हिन्दुत्व (Hinduism) शब्द का प्रयोग किया था ? नहीं, जिसे यह तथाकथित हिन्दुधर्म  कहा जाता है ,(कोट पर जनेऊ पहन लेने या टिक्का लगा लेने को?), उस धर्म की मूल बात कहते कहते समय जब अपनी बात को उन्होंने समाप्त किया, उस समय आधुनिक युग में धरती पर पहली बार 'मनुष्य के धर्म' का जन्म हुआ था। हिन्दुत्व या हिन्दू धर्म ने  जन्म-ग्रहण  नहीं किया था। क्योंकि उस भाषण में स्वामीजी ने बार-बार उसकी सभ्यता की बात कही थी , अमुक धर्म या वह धर्म नहीं कहा था। तो वहां नए रूप में हिन्दु धर्म  जन्म कैसे ले सकता था ? निवेदिता भारतवर्ष को नए परिचय के कारण प्रेम करती थीं , इस पर श्रद्धा रखती थीं , इसमें कुछ संदेह नहीं है। किन्तु इसीलिए उन्होंने हिन्दुत्व (Hinduism) शब्द का प्रयोग किया होगा, वैसा सोचना ठीक नहीं। स्वामीजी ने आधुनिक युग के मनुष्यों को जो धर्म दिया था , वे उसको इंगित करना चाहती थीं। रवीन्द्रनाथ ने 'मनुष्य का धर्म' (Religion of Man) के नाम से एक विशाल भाषण दिया था , उसके प्रत्येक पंक्ति में स्वामीजी के इन्हीं विचारों का प्रभाव दिखाई देता है ।  

    हमने जो पहले वेद के आदेश को सुना " कृण्वन्तो विश्‍वमार्यम् ।" अर्थात विश्व को आर्य बनाओ।  आर्य बनाने का अर्थ हमलोग क्या समझेंगे ? हमलोगों के  आर्य बुद्धि , हिन्दू बुद्धि  की बातें तो आजकल बहुत चल रही हैं।  आर्य का अर्थ होता है संस्कृत। हमलोग न तो आर्य का अर्थ समझते हैं न संस्कृत का अर्थ समझते हैं। अंग्रेजी में कहने से हो सकता है समझेंगे - Cultured, आर्य का अर्थ हुआ Cultured , और संस्कृत का अर्थ भी हुआ Cultured , इस प्रकार   " कृण्वन्तो विश्‍वमार्यम् ।"का अर्थ हुआ समस्त विश्व के मनुष्यों को Cultured करो  ! हम कहते हैं वहां का Cultural level अत्यन्त Low है। Cultured होने का प्रमाण क्या है ? Culture -की परिभाषा क्या है ? जिसको हमलोग आमतौर पर 'संस्कृति ' कहते हैं , रवीन्द्रनाथ ने उसके लिए एक नए शब्द का प्रयोग किया था - कृष्टि (कृषि 'Agriculture'?) -इसका क्या अर्थ हुआ ? इसका ठीक ठीक परिभाषा मिलना कठिन है। किन्तु स्वामीजी ने कहा है , " उसी राष्ट्र की संस्कृति या Culture उतना अधिक श्रेष्ठ है , जहाँ के बहुसंख्यक (numerous, अनगिनत ) मनुष्यों की आध्यात्मिक उन्नति हुई है। " स्वामीजी ने कहा है की  Culture की कसौटी (Criteria) है आध्यात्मिक उन्नति , इस प्रकार जगत मनुष्यों को आर्य करने , संस्कृत करने या Cultured करने का अर्थ हुआ मनुष्यजाति के संस्कृति के स्तर को उन्नत करना। स्वामीजी ने यही कार्य किया था। जहाँ जैसी प्रकार का भेद नहीं हो , द्वंद्व नहीं हो - वहीँ है Harmony -या समन्वय।  

        हम लोग समन्वय का अर्थ समझते हैं -' Put together ' सब कुछ को इकट्ठा  करना। श्रीरामकृष्णदेव ने हिन्दुधर्म की साधना की थी , इस्लाम की साधना की थी , ईसाई धर्म की साधना की थी। इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई को एक बना दिया था। ठाकुरदेव के अमृत-उपदेशों को देखने से ही यह बात समझ में आ जाती है। उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि सभी एक हैं। अलग-अलग मार्ग की साधना करके , तीन चार प्रकार के खीर अलग-अलग कटोरी में  खाने या  उसका भिन्न-भिन्न स्वाद लेने के बाद उन्होंने कहा था - सब कुछ खीर ही रे ! अर्थात सभी कटोरी के खीर में दूध है। चीनी की मिठास सभी खीर में है। इसलिए सभी में खीर है।  ऐसा करने का अर्थ यह नहीं कि जो हिन्दुधर्म है , वही इस्लाम धर्म है और वही ईसाई धर्म है। समन्वय का तात्पर्य यह नहीं है। 

        समन्वय का अर्थ है -'अविरोधिता, अविरोध ' अर्थात कोई धर्म दूसरे के प्रतिकूल (against या विरुद्ध) नहीं है। इस बात को  समझ लेना पड़ता है।  और बिना खाये तो इसे समझा नहीं जा सकता। जैसे मैंने किसी एक कटोरी का खीर खाया , उसे खाने के बाद सोच सकता हूँ कि दूसरी कटोरी में रखी चीज खीर नहीं है। किन्तु जब उसको भी खाया , तब देखा नहीं,  कोई विरुद्धता (repugnance) नहीं है। इस  खीर में बतासा दिया है , उस खीर को गुड़ डालकर बनाया है , एक में चीनी दिया है , किसी में हो सकता है मिश्री दिया हो। और कोई अन्तर नहीं है। सभी कटोरीयों  में खीर ही है। अलग-अलग धर्मों की साधना करके  और सभी मार्ग से एक ही सत्य या ईश्वर की उपलब्धि करके, श्रीरामकृष्ण देव ने इस बात को समझाया है कि धर्मों के बीच संघर्ष का कोई स्थान ही नहीं है। सभी मार्गों से एक ही अविनाशी सत्य की उपलब्धि करने के बाद उन्होंने घोषित किया  - ' यत मत , तत पथ ' --अर्थात " जितने मत उतने पथ"।" सर्व धर्म समन्वय" कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि -सारे धर्म समाप्त हो जायेंगे , और एक नया धर्म बनेगा - हो सकता है कि उसका नाम 'रामकृष्ण धर्म ' ही दिया जाये ! ठाकुर के मन में या स्वामीजी के मन में कभी ऐसी कोई बात नहीं थी। बिल्कुल ही नहीं थी , ऐसा होने से यथार्थ शान्ति आ सकती है। 

  शान्ति का अर्थ है , बाह्य समाज  में उथल- पुथल , अराजकता या अव्यवस्था इन सबों का समाप्त हो जाना, और मनुष्य के मन में सांत्वना (consolation) या ढाढ़स रहना। हमारे 'मानस सागर ' (या चित्त सरोवर का जल) में  विभिन्न प्रकार के विषय-तूफान उठते रहने से ,हर समय हमलोगों का मन बहुत घबड़ाया  हुआ और चिंतित रहता है। इसलिए मनो-समुद्र में हर समय लहरे उठती रहती है , और मन हर समय अशान्त बना रहता है। यदि हमलोग नियमित मनःसंयोग का अभ्यास करके धीरे धीरे अपने मन को "प्रशांत महासागर" (pacific ocean)  में परिणत कर सकें , वह तूफान (चक्रवात) शान्त हो जायेगा। प्रत्येक मनुष्य के ह्रदय में यदि शान्ति रहे , तो इस प्रकार के मनुष्यों के संयोजन से बना हुआ समाज शान्ति से परिपूर्ण रहेगा। इसीलिए यह कार्य केवल धर्म ही कर सकता है। और इसके लिए एकमात्र यथार्थ धर्म ही समन्वय और शान्ति का प्रावधान करने में सक्षम है। 

      इसीलिए शिकागो धर्म महासभा के अंतिम अधिवेशन में  27 सितम्बर , 1893 को स्वामी जी ने जो छोटा सा भाषण दिया था , उसके सबसे अंत में कहा था -  " If anybody dreams of the exclusive survival of his own religion and the destruction of the others, I pity him from the bottom of my heart, and point out to him that upon the banner of every religion will soon be written, in spite of resistance: "Help and not Fight," "Assimilation and not Destruction," "Harmony and Peace and not Dissension."

" यदि कोई ऐसा स्वप्न देखे कि अन्यान्य सारे धर्म नष्ट हो जायेंगे और केवल उसका धर्म ही जीवित रहेगा , तो उस पर मैं अपने ह्रदय के अंतस्तल से दया करता हूँ और उसे स्पष्ट बतलाये देता हूँ कि शीघ्र ही , सारे प्रतिरोधों के बावजूद , प्रत्येक धर्म की पताका पर यह लिखा रहेगा - ' सहायता करो , लड़ो मत। '  'पर भाव ग्रहण , न कि पर भाव- विनाश, 'समन्वय और शान्ति , न कि मतभेद और कलह !   

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'9/11  से 27 सितम्बर, 1893 ' तक चलने वाले विश्व धर्म महासभा के कुल  17 दिनों में स्वामी विवेकानंद ने छह व्याख्यान दिए थे, जिसके माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति, सभ्यता और दर्शन को विश्व भर से आये हुए लोगो के सामने रखा था।  भारत जो उस समय गुलाम था, जिसको सांप और सपेरों का देश माना जाता था उसके पास दुनिया को देने के लिए सन्देश भी है यह विदेशियों को पहली बार पता चला था। 

      स्वामीजी का बोला हुआ हर शब्द, मात्र शब्द नहीं था वो उनकी साधना , तपस्या और संयम का निचोड़ था।  वो उस भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे जिसको उन्होंने पिछले पांच वर्षों तक पैदल चलकर, घोड़ा, गाड़ी और रेल के माध्यम से जाना था।  इस दौरान वो अनेकों बार वह पेड़ के नीचे सोये, अनेकों अनेक दिन बिना भोजन के बिताए, लेकिन हार नहीं मानी।  भारतवर्ष  के पुनरुत्थान का कार्य करना ही  स्वामीजी की प्राथमिकता में था, जिसके लिए उन्होंने हर चुनौती को स्वीकार किया था और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही स्वामीजी विदेश गए थे।

      2 नवंबर 1893 को मद्रास के अपने शिष्य आलासिंगा पेरुमल को 11 सितम्बर 1893 भाषण के सन्दर्भ में लिखे हुए पत्र में स्वामीजी लिखते हैं, ‘बाकी सभी प्रतिनिधि तैयारी के साथ आये थे और मैं बिना तैयारी के था।  मैंने माता सरस्वती को प्रणाम किया और अपने भाषण की शुरुआत की। ’ प्रो. शैलेन्द्रनाथ धर द्वारा लिखित पुस्तक ‘स्वामी विवेकानंद समग्र जीवन दर्शन’ के अनुसार विश्व धर्म महासभा में दुनियाभर के दस प्रमुख धर्मों के अनेकों प्रतिनिधि आये हुए थे, जिसमें यहूदी , हिन्दू , इस्लाम , बौद्ध , ताओ, कनफयूशियम, शिन्तो, पारसी, कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट इत्यादि शामिल थे, लेकिन स्वामीजी का वक्तव्य सबसे अधिक सफल हुआ था।  

     आज भी जब विश्व सम्प्रदायों और पंथो में बंटा हुआ है, अपनी मान्यताओं को दूसरों पर थोपने का प्रचलन चल रहा है।  हर भौगोलिक दृष्टि से बड़ा देश छोटे देश को दबाने में लगा है उसकी जमीन हड़पने में लगा है।  इस दौर में स्वामीजी का यह विश्व बंधुत्व का संदेश सबके लिए एक मार्ग है, जो विश्व के कल्याण की बात करता है, सभी को स्वीकार करने की प्रेरणा देता है।  जो मानव समाज को कटुता से बाहर निकालता है और सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार के तौर पर देखने की दृष्टि प्रदान करता है।  हमे स्वामी जी के धर्म महासभा के अंतिम अधिवेशन में दिए हुए भाषण के इन शब्दों को भी याद करना चाहिए जहां वो कहते हैं, ‘ ईसाई को हिन्दू या बौद्ध नहीं हो जाना चाहिए , और न हिन्दू अथवा बौद्ध को ईसाई ही।  पर हां , प्रत्येक को चाहिए कि वह दूसरों के सार- भाग को आत्मसात करके पृष्टि – लाभ करे और अपने वैशिष्टय कि रक्षा करते हुए अपनी निजी वृद्धि के नियम के अनुसार वृद्धि को प्राप्त हो। ‘

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सोमवार, 4 जुलाई 2022

🔆🙏🔆🙏🔆🙏🔆 परिच्छेद- 105 [(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

 *परिच्छेद १०५*

*दक्षिणेश्वर मन्दिर में श्रीरामकृष्ण*

🔆🙏'देवी चौधरानी' का पठन🔆🙏

आज शनिवार है, २७ दिसम्बर, १८८४, पूस की शुक्ला सप्तमी । बड़े दिन की छुट्टियों में भक्तों को अवकाश मिला है । कितने ही श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने आये हैं । सुबह को ही बहुतेरे आ गये हैं । मास्टर और प्रसन्न ने आकर देखा, श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के दक्षिण दालान में थे । उन लोगों ने आकर श्रीरामकृष्ण की चरण-वन्दना की । श्रीयुत शारदा प्रसन्न ने पहले ही पहल श्रीरामकृष्ण को देखा है ।

[Saturday, December 27, 1884, It was the Christmas season. Taking advantage of the holiday, many devotees came to the temple garden to visit the Master, some of them arriving in the morning. Among these were Kedar, Ram, Nityagopal, Tarak, Surendra, M., Sarada Prasanna, and a number of young devotees. This was Sarada Prasanna's first visit.

আজ শনিবার, ২৭শে ডিসেম্বর, ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ, (১৩ই পৌষ) শুক্লা সপ্তমী তিথি। যীশুখ্রীষ্টের জন্ম উপলক্ষে ভক্তদের অবসর হইয়াছে। অনেকে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণকে দেখিতে আসিয়াছেন। সকালেই অনেকে উপস্থিত হইয়াছেন। মাস্টার ও প্রসন্ন আসিয়া দেখিলেন ঠাকুর তাঁহার ঘরে দক্ষিণদিকে দালানে রহিয়াছেন। তাঁহারা আসিয়া তাঁহার চরণ বন্দনা করিলেন।ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণকে শ্রীযুক্ত সারদাপ্রসন্ন এই প্রথম দর্শন করেন।

श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा - "क्यों जी, तुम बंकिम को नहीं ले आये ?"

[MASTER (to M.): "Where is Bankim? Haven't you brought him with you?"

ঠাকুর মাস্টারকে বললেন, “কই, বঙ্কিমকে আনলে না?”

बंकिम स्कूल का विद्यार्थी है । श्रीरामकृष्ण ने उसे बागबाजार में देखा था । दूर से देखकर ही कहा था, लड़का अच्छा है ।

[Bankim was a schoolboy whom Sri Ramakrishna had met in Baghbazar. Noticing him even from a distance, the Master had said that he was a fine boy.

বঙ্কিম একটি স্কুলের ছেলে। ঠাকুর বাগবাজারে তাঁহাকে দেখিয়াছিলেন। দূর থেকে দেখিয়াই বলিয়াছিলেন, ছেলেটি ভাল।

बहुत से भक्त आये हुए हैं । केदार, राम, नृत्यगोपाल, तारक, सुरेश आदि और बहुत से भक्तबालक भी आये हुए हैं । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ पंचवटी में जाकर बैठे । भक्तगण उन्हें चारों ओर से घेरे हुए हैं - कोई बैठे हैं, कोई खड़े हैं । श्रीरामकृष्ण पंचवटी में ईंटों के बने हुए चबूतरे पर बैठे हैं । दक्षिण-पश्चिम की ओर मुँह किये हुए हैं । हँसते हुए मास्टर से उन्होंने पूछा, क्या तुम पुस्तक ले आये हो ?

[After a while Sri Ramakrishna went to the Panchavati with the devotees. They surrounded him, some sitting and some standing. He was seated on the cement platform around the tree, facing the southwest. He asked M. with a smile, "Have you brought the book?"

ভক্তেরা অনেকেই আসিয়াছেন। কেদার, রাম, নিত্যগোপাল, তারক, সুরেন্দ্র (মিত্র) প্রভৃতি ও ছোকরা ভক্তেরা অনেকে উপস্থিত। কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর ভক্তসঙ্গে পঞ্চবটীতে গিয়া বসিয়াছেন। ভক্তেরা চতুর্দিকে ঘেরিয়া রহিয়াছেন, কেহ বসিয়া — কেহ দাঁড়াইয়া। ঠাকুর পঞ্চবটীমূলে ইষ্টকনির্মিত চাতালের উপর বসিয়া আছেন। দক্ষিণ-পশ্চমদিকে মুখ করিয়া বসিয়া আছেন। সহাস্যে মাস্টারকে বলিলেন, “বইখানা কি এনেছ?”

मास्टर - जी हाँ ।

[M: "Yes, sir."

মাস্টার — আজ্ঞা, হাঁ।

श्रीरामकृष्ण - जरा पढ़कर मुझे सुनाओ तो ।

MASTER: "Read a little to me."

শ্রীরামকৃষ্ণ — পড়ে আমায় একটু একটু শোনাও দেখি।

 [(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105]

🔆🙏श्री रामकृष्ण और राजा के कर्तव्य 🔆🙏

[ Sri Ramakrishna and Duties of the King]

[শ্রীরামকৃষ্ণ ও রাজার কর্তব্য ]

भक्तगण उत्सुकता के साथ देख रहे हैं कि कौन सी पुस्तक है । पुस्तक का नाम है 'देवी चौधरानी।' श्रीरामकृष्ण सुन रहे हैं । देवी चौधरानी में निष्काम कर्म की बातें लिखी हैं । वे लेखक श्रीयुत बंकिमचन्द्र की तारीफ भी सुन चुके थे । पुस्तक में उन्होंने क्या लिखा है, इसे सुनकर वे उनके मन की अवस्था समझ लेंगे । 

[The devotees were eager to know the name of the book. It was called Devi Choudhurani. The Master had heard that the book dealt with motiveless action. He had also heard of the great renown of its author, Bankim Chandra Chatterji, whom he had met some days before, and he wanted to gauge the author's mind from the book.

ভক্তেরা আগ্রহের সহিত দেখিতেছেন কি পুস্তক। পুস্তকের নাম “দেবী চৌধুরানী”। ঠাকুর শুনিয়াছেন, দেবী চৌধুরানীতে নিষ্কামকর্মের কথা আছে। লেখক শ্রীযুক্ত বঙ্কিমের সুখ্যাতিও শুনিয়াছিলেন। পুস্তকে তিনি কি লিখিয়াছেন, তাহা শুনিলে তাঁহার মনের অবস্থা বুঝিতে পারিবেন।

मास्टर ने कहा, यह स्त्री डाकुओं के पाले पड़ी थी, इसका नाम प्रफुल्ल था, बाद में देवी चौधरानी हुआ था । जिस डाकू के साथ यह स्त्री पड़ी थी, उसका नाम भवानी पाठक था । भवानी पाठक बड़ा अच्छा आदमी था । उसी ने प्रफुल्ल से बहुत कुछ साधना करायी थी, और किस तरह निष्काम कर्म किया जाता है, इसकी शिक्षा दी थी । डाकू दुष्टों से रुपया-पैसा छीनकर गरीबों को दिया करता था, उनके भोजन-वस्त्र के लिए । प्रफुल्ल से उसने कहा था, मैं दुष्टों का दमन और शिष्टों का पालन करता हूँ ।

[M. said: "A young girl — the heroine — fell into the hands of a robber named Bhavani Pathak. Her name had been Prafulla, but the robber changed it to 'Devi Choudhurani'. At heart Bhavani was a good man. He made Prafulla go through many spiritual disciplines; he also taught her how to perform selfless action. He robbed wicked people and with that money fed the poor and helpless. He said to Prafulla, 'I chastise the wicked and protect the virtuous.'

মাস্টার বলিলেন, “মেয়েটি ডাকাতের হাতে পড়িয়াছিল। মেয়েটির নাম প্রফুল্ল, পরে হল দেবী চৌধুরানী। যে ডাকাতটির হাতে মেয়েটি পড়েছিল, তার নাম ভবানী পাঠক। ডাকাতটি বড় ভাল। সেই প্রফুল্লকে অনেক সাধন-ভজন করিয়েছিল। আর কিরকম করে নিষ্কামকর্ম করতে হয়, তাই শিখিয়েছিল। ডাকাতটি দুষ্ট লোকেদের কাছ থেকে টাকা-কড়ি কেড়ে এনে গরিব-দুঃখীদের খাওয়াত — তাদের দান করত। প্রফুল্লকে বলেছিল, আমি দুষ্টের দমন, শিষ্টের পালন করি।”

श्रीरामकृष्ण - यह तो राजा का कर्तव्य (धर्म) है ।

[MASTER: "But that is a king's duty."

শ্রীরামকৃষ্ণ — ও তো রাজার কর্তব্য।

[(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

🔆🙏अनन्त असीम ईश्वर को ससीम ह्रदय में रखने का उपाय है पतिव्रत धर्म🔆🙏

[श्रीकृष्ण भक्ति और पति के प्रति प्यार में अन्तर ] 

मास्टर - और एक जगह भक्ति की बातें हैं । भवानी' ने प्रफुल्ल के पास रहने के लिए एक लड़की को भेजा था, उसका नाम था निशि, वह लड़की बड़ी भक्तिमती थी । वह कहती थी, मेरे स्वामी श्रीकृष्ण हैं । प्रफुल्ल का विवाह हो गया था । उसके बाप न था, माँ थी । अकारण एक कलंक लगाकर गाँववालों ने उसे जाति-पाति से अलग कर दिया था; इसीलिए प्रफुल्ल को उसका ससुर अपने यहाँ नहीं ले गया । अपने लडके के उसने और दो विवाह कर दिये थे । प्रफुल्ल अपने पति को बहुत चाहती थी । इस भूमिका के बाद अब पुस्तक का यह अंश समझ में आ जाएगा ।

[M: "In one place the author writes of bhakti. Bhavani Pathak sent a girl named Nishi to keep Prafulla company. Nishi was full of piety and looked on Krishna as her husband. Prafulla was already married; she had lost her father and lived with her mother. The neighbours had created a scandal about her character and avoided her, and so her father-in-law had not allowed her to live with his son. Later her husband had married again; but Prafulla was extremely devoted to her husband. (To Sri Ramakrishna) "Now, sir, you can follow the story."

মাস্টার — আর-এক জায়গায় ভক্তির কথা আছে। ভবানী ঠাকুর প্রফুল্লর কাছে থাকবার জন্য একটি মেয়েকে পাঠিয়ে দিছলেন। তার নাম নিশি। সে মেয়েটি বড় ভক্তিমতী। সে বলত, শ্রীকৃষ্ণ আমার স্বামী। প্রফুল্লর বিয়ে হয়েছিল। প্রফুল্লর বাপ ছিল না, মা ছিল। মিছে একটা বদনাম তুলে পাড়ার লোকে ওদের একঘরে করে দিছল। তাই শ্বশুর প্রফুল্লকে বাড়িতে নিয়ে যায় নাই। ছেলের আরও দুটি বিয়ে দিছল। প্রফুল্লর কিন্তু স্বামীর উপর বড় ভালবাসা ছিল। এইখানটা শুনলে বেশ বুঝতে পারা যাবে —

M. read: मास्टर पढ़ रहे हैं -

निशि - उनकी (भवानी पाठक की) कन्या हूँ, वे मेरे पिता हैं । उन्होंने भी एक तरह से मेरा विवाह कर दिया है ।

[NISHI: "I am a daughter of Bhavani Pathak. He is my father. He has also, in a way, given me in marriage."

“নিশি — আমি তাঁহার (ভবানী ঠাকুরের) কন্যা, তিনি আমার পিতা। তিনিও আমাকে একপ্রকার সম্প্রদান করিয়াছেন।

प्रफुल्ल - एक तरह से, इसके क्या मानी ?

[PRAFULLA: "What do you mean?"

প্রফুল্ল — একপ্রকার কি?

निशि - मैंने अपना सब कुछ श्रीकृष्ण को अर्पित किया है ।

[NISHI: "I have surrendered my all to Krishna."

নিশি — সর্বস্ব শ্রীকৃষ্ণে।

प्रफुल्ल - वह कैसे ?

[PRAFULLA: "How is that?"

প্রফুল্ল — সে কিরকম?

निशि - मेरा रूप, यौवन और प्राण ।

[NISHI: "My beauty, youth, and soul."

নিশি — রূপ, যৌবণ, প্রাণ।

प्रफुल्ल - क्या वही तुम्हारे स्वामी हैं ?

[PRAFULLA: "Then He is your husband."

প্রফুল্ল — তিনিই তোমার স্বামী?

निशि - हाँ, क्योंकि जिनका मुझ पर पूर्ण अधिकार हैं, वे ही मेरे स्वामी हैं ।

[NISHI: "Yes, because he alone is my husband who completely possesses me."

নিশি — হাঁ — কেননা, যিনি সম্পূর্ণরূপে আমাতে অধিকারী, তিনিই আমার স্বামী।

प्रफुल्ल ने एक लम्बी साँस छोड़कर कहा, "मैं नहीं कह सकूँगी । कभी तुमने पति का मुख नहीं देखा, इसीलिए कह रही हो । पति को अगर देखा होता तो कभी श्रीकृष्ण पर तुम्हारा मन न जाता।"

[PRAFULLA (with a sigh): "I do not know. You talk that way because you do not know what a husband is. If you had a real husband, you could never have liked Sri Krishna."

প্রফুল্ল দীর্ঘনিঃশ্বাস ত্যাগ করিয়া বলিল, ‘বলিতে পারি না। কখনও স্বামী দেখ নাই, তাই বলিতেছ — স্বামী দেখিলে কখনও শ্রীকৃষ্ণে মন উঠিত না।’

मूर्ख व्रजेश्वर (प्रफुल्ल का पति) यह न जानता था कि उसकी स्त्री उससे इतना प्रेम करती है ।

[The foolish Brajeswar — Prafulla's husband — was unaware that his wife loved him so much.

মূর্খ ব্রজেশ্বর (প্রফুল্লের স্বামী) এত জানিত না!

निशि ने कहा, "श्रीकृष्ण पर सब का मन लग सकता है, क्योंकि उनका रूप अनन्त है, यौवन अनन्त है, ऐश्वर्य अनन्त है ।"

[NISHI: "All can love Sri Krishna, because He has infinite beauty, infinite youth, and infinite splendour."

বয়স্যা বলিল, ‘শ্রীকৃষ্ণে সকল মেয়েরই মন উঠিতে পারে; কেন না, তাঁর রূপ অনন্ত, যৌবন অনন্ত, ঐশ্বর্য অনন্ত।’

यह युवती भवानी पाठक की शिष्या थी, निरक्षर प्रफुल्ल उसकी बातों का उत्तर न दे सकी । केवल हिन्दू-समाजधर्म के प्रणेतागण उत्तर जानते थे । मैं जानता हूँ, ईश्वर अनन्त हैं, परन्तु अनन्त को इस छोटे से हृदय-पिञ्जर में हम रख नहीं सकते, सान्त को रख सकते हैं । इसीलिए अनन्त ईश्वर हिन्दुओं के हृदय-पिञ्जर में सान्त श्रीकृष्ण के रूप में हैं । पति और भी अच्छी तरह सान्त है । इसीलिए प्रेम के पवित्र होने पर, पति ईश्वर के पथ पर चढ़ने का प्रथम सोपान है । यही कारण है कि पति ही हिन्दू स्त्रियों का देवता है । इस जगह दूसरे समाज हिन्दू समाज से निकृष्ट हैं ।

[This young lady was a disciple of Bhavani and well-versed in logic. But Prafulla was illiterate; she could not answer Nishi's arguments. But the writers of the Hindu social laws knew the reply. God is infinite, no doubt; but one cannot keep the infinite in the small cage of the heart. One can do so only with the finite. Therefore the infinite Creator of the universe is worshipped by the Hindu in the cage of his heart as Sri Krishna, the finite Personal God. The husband of a woman has a still more definite form. Therefore if the wife cherishes pure conjugal love, the husband becomes the first step toward God. Hence the husband is the only Deity to the Hindu woman. Other societies are inferior to Hindu society in this respect.

এ-যুবতী ভবানী ঠাকুরের চেলা, কিন্তু প্রফুল্ল নিরক্ষর — এ-কথার উত্তর দিতে পারিল না। হিন্দুধর্ম প্রণেতারা উত্তর জানিতেন। ঈশ্বর অনন্ত জানি। কিন্তু অনন্তকে ক্ষুদ্র হৃদয় পিঞ্জরে পুরিতে পারি না, কিন্তু সান্তকে পারি। তাই অনন্ত জগদীশ্বর হিন্দুর হৃৎপিঞ্জরে সান্ত শ্রীকৃষ্ণ। স্বামী আরও পরিষ্কার রূপে সান্ত। এইজন্য প্রেম পবিত্র হইলে স্বামী ঈশ্বরে আরোহণের প্রথম সোপান। তাই হিন্দু-মেয়ের পতিই দেবতা। অন্য সব সমাজ, হিন্দু সমাজের কাছে এ-অংশে নিকৃষ্ট।

प्रफुल्ल मूर्खा थी, वह कुछ समझ न सकी । उसने कहा, "बहन, मैं इतनी बातें नहीं समझ सकती। तुम्हारा नाम क्या है, तुमने तो अब तक नहीं बताया ।"

[Prafulla was an ignorant girl; she could not understand Nishi's arguments. She said, "Friend, I do not understand all these arguments; but you haven't yet told me your name."

প্রফুল্ল মূর্খ মেয়ে, কিছু বুঝিতে পারিল না। বলিল, ‘আমি অত কথা ভাই বুঝিতে পারি না। তোমার নামটি কি, এখনও তো বলিলে না?’

निशि बोली, "भवानी पाठक ने मेरा नाम निशि रखा है । मैं दिवा की बहन निशि हूँ । दिवा (Day)  को एक दिन तुमसे मिलने के लिए लाऊँगी; परन्तु मैं जो कह रही थी, सुनो । एकमात्र ईश्वर हमारे स्वामी हैं । स्त्रियों का पति ही देवता है । श्रीकृष्ण सब के देवता हैं । क्यों बहन, दो देवता फिर क्यों रहें ? इस छोटे से जी में जो जरा भक्ति है, उसके दो टुकड़े कर डालने पर फिर कितना बच रहता है ?"

[NISHI: "Bhavani Pathak has given me the name of Nishi, Night. I am the sister of Diva, Day. One day I shall introduce my sister to you. Let me continue what I was saying. God alone is the real Husband; and to a woman the husband is her only God. Sri Krishna is the God of all. Why should we cherish two Deities, two Gods? If you divide the little bhakti of this small heart, how little there will be!"

বয়স্যা বলিল, ভবানী ঠাকুর নাম রাখিয়াছিলেন নিশি। আমি দিবার বহিন নিশি। দিবাকে একদিন আলাপ করিতে লইয়া আসিব। কিন্তু যা বলিতেছিলাম শোন। ঈশ্বরই পরম স্বামী। স্ত্রীলোকের পতিই দেবতা। শ্রীকৃষ্ণ সকলের দেবতা। দুটো দেবতা কেন ভাই? দুই ঈশ্বর? এ ক্ষুদ্র প্রাণের ক্ষুদ্র ভক্তিটুকুকে দুই ভাগ করিলে কতটুকু থাকে?

प्रफुल्ल - अरी चल ! स्त्रियों की भक्ति का भी कहीं अन्त है ?

[PRAFULLA: "Don't be silly. Is there any limit to a woman's bhakti?"

প্রফুল্ল — দূর! মেয়েমানুষের ভক্তির কি শেষ আছে?

निशि – स्त्रियों के प्यार का तो अन्त नहीं है, परन्तु भक्ति और चीज है, प्यार और चीज ।

[NISHI: "There is no end to a woman's love. But bhakti is one thing, and love another."

নিশি — মেয়েমানুষের ভালবাসার শেষ নাই। ভক্তি এক, ভালবাসা আর।”

[(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

🔆🙏भगवान की भक्ति से पहले या शिक्षा ? मरा -म=पहले ईश्वर,फिर रा =संसार 🔆🙏

[जादूगर पहले फिर उसका जादू ]

[আগে ঈশ্বরসাধন — না আগে লেখাপড়া ]

मास्टर - भवानी पाठक प्रफुल्ल से आध्यात्मिक साधना कराने लगे ।

[Summarizing part of the book, M. said that Bhavani initiated Prafulla into spiritual life.

মাস্টার — ভবানী ঠাকুর প্রফুল্লকে সাধন আরম্ভ করালেন।

"पहले साल भवानी पाठक प्रफुल्ल के घर किसी पुरुष को न जाने देते थे, और न घर के बाहर किसी पुरुष से उसे मिलने ही देते थे । दूसरे साल मिलने-जुलने में इतनी रोक-टोक न रही; परन्तु उसके यहाँ किसी पुरुष को न जाने देते थे । फिर तीसरे साल, जब प्रफुल्ल ने सिर घुटाया, तब भवानी पाठक अपने चुने हुए चेलों को लेकर उसके पास जाया करते थे - प्रफुल्ल सिर घुटाये आँखें नीची करके शास्त्रीय चर्चा किया करती थी

[He continued reading:During the first year Bhavani did not allow any man to enter Prafulla's house nor did he allow her to speak to any man outside the house. During the second year the rule about speaking was withdrawn, but no man was allowed inside her house. In the third year Prafulla shaved her head. Now Bhavani allowed his select disciples to see her. The shaven-headed disciple would converse with them on scriptural topics, keeping her eyes cast on the ground.

“প্রথম বৎসর ভবানী ঠাকুর প্রফুল্লের বাড়িতে কোন পুরুষকে যাইতে দিতেন না বা তাহাকে বাড়ির বাহিরে কোন পুরুষের সঙ্গে আলাপ করিতে দিতেন না। দ্বিতীয় বৎসর আলাপ পক্ষে নিষেধ রহিত করিলেন। কিন্তু তাহার বাড়িতে কোন পুরুষকে যাইতে দিতেন না। পরে তৃতীয় বৎসরে যখন প্রফুল্ল মাথা মুড়াইল, তখন ভবানী ঠাকুর বাছা বাছা শিষ্য সঙ্গে লইয়া প্রফুল্লের নিকটে যাইতেন — প্রফুল্ল নেড়া মাথায় অবনত মুখে তাহাদের সঙ্গে শাস্ত্রীয় আলাপ করিত।

"फिर प्रफुल्ल की शिक्षा का आरम्भ हुआ । वह व्याकरण समाप्त कर चुकी; रघुवंश, कुमार, नैषध, शाकुन्तल पढ़ चुकी । कुछ सांख्य, कुछ वेदान्त और कुछ न्याय भी उसने पढ़ा ।"

[M. then read that Prafulla began the study of the scriptures; that she finished grammar and read Raghuvamsa, Kumara Sambhava, Sakuntala, and Naishadha; and that she studied a little of the Samkhya, Vedanta, and Nyaya philosophies.

“তারপর প্রফুল্লের বিদ্যাশিক্ষা আরম্ভ। ব্যাকরণ পড়া হল, রঘু, কুমার, নৈষধ, শকুন্তলা। একটু সাংখ্য, একটু বেদান্ত, একটু ন্যায়।”

श्रीरामकृष्ण - इसका मतलब समझे ? बिना पढ़े ज्ञान नहीं होता । जिसने लिखा है, वैसे आदमियों का यही मत है । वे सोचते हैं, पहले पढ़ना-लिखना है, फिर ईश्वर है । यदि ईश्वर को समझना है तो पढ़ना-लिखना अत्यावश्यक है । परन्तु अगर मुझे यदु मल्लिक से मिलना है, तो उसके कितने मकान हैं, कितने रुपये हैं, कितने का कम्पनी का कागज है, क्या यह सब पहले जानने की आवश्यकता है ? मुझे इतनी खबरों का क्या काम ? स्तव या स्तुति करके किसी भी तरह से हो अथवा दरवान के धक्के ही सहकर, किसी तरह घर के भीतर घुसकर यदु मल्लिक से मिलना चाहिए । और अगर रुपया-पैसा और ऐश्वर्य के जानने की इच्छा हो, तो यदु मल्लिक से पूछने ही से काम सिद्ध हो जाता है । बहुत सहज में ही मतलब निकल जाता है । पहले राम हैं, फिर राम का ऐश्वर्य यह संसार । इसलिए वाल्मीकी ने 'मरा' जाना था । 'म' अर्थात् ईश्वर (जादूगर) और 'रा' अर्थात् संसार - उनका ऐश्वर्य (जादू)  

[MASTER: "Do you know what that means? People like the author of this book believe that knowledge is impossible without the study of books. They think that first comes the knowledge of books and then comes the knowledge of God. In order to know God one must read books! But if I want to know Jadu Mallick, must I first know the number of his houses and the amount of money he has in government securities? Do I really need all this information? Rather I should somehow enter his house, be it by flattering his gate-keepers or by disregarding their rough treatment, and talk to Jadu Mallick himself. Then, if I want to know about his wealth or possessions, I shall only have to ask him about them. Then it will be a very easy matter for me. First comes Rama, then His riches, that is, the universe. This is why Valmiki repeated the mantra, 'mara'. 'Ma' means God, and 'ra' the world, that is to say, His riches."

শ্রীরামকৃষ্ণ — এর মানে কি জানো? না পড়লে শুনলে জ্ঞান হয় না। যে লিখেছে, এ-সব লোকের এই মত। এরা ভাবে, আগে লেখাপড়া, তারপর ঈশ্বর; ঈশ্বরকে জানতে হলে লেখাপড়া চাই। কিন্তু যদু মল্লিকের সঙ্গে যদি আলাপ করতে হয় তাহলে তার কখানা বাড়ি, কত টাকা, কত কোম্পানির কাগজ — এ-সব আগে আমার অত খবরে কাজ কি? জো-সো করে — স্তব করেই হোক, দ্বারবানদের ধাক্কা খেয়েই হোক, কোন মতে বাড়ির ভিতর ঢুকে যদু মল্লিকের সঙ্গে আলাপ করতে হয়। আর যদি টাকা-কড়ি ঐশ্বর্যের খবর জানতে ইচ্ছা হয়, তখন যদু মল্লিককে জিজ্ঞাসা কল্লেই হয়ে যাবে! খুব সহজে হয়ে যাবে। আগে রাম, তারপরে রামের ঐশ্বর্য — জগৎ। তাই বাল্মীকি ‘মরা’ মন্ত্র জপ করেছিলেন। ‘ম’ অর্থাৎ ঈশ্বর, তারপর ‘রা’ অর্থাৎ জগৎ — তার ঐশ্বর্য!

भक्त लोग बड़े ध्यान से श्रीरामकृष्ण के वचनों को सुन रहे हैं ।

[The devotees listened to the Master's words with rapt attention.

ভক্তেরা অবাক হইয়া ঠাকুরের কথামৃত পান করিতেছেন।


(२)

निष्काम कर्म और श्रीरामकृष्ण ।

[(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

🔆🙏 निरहंकार और आसक्तिरहित  हुए बिना धर्माचरण नहीं होता । गीता ज्ञान  🔆🙏

मास्टर - प्रफुल्ल के अध्ययन समाप्त करने और बहुत दिनों तक साधना कर चुकने के पश्चात् भवानी पाठक उससे मिलने के लिए आये । अब वे उसे निष्काम कर्म का उपदेश देना चाहते थे ।

[M. continued with the story of Prafulla: Prafulla finished her studies and then practised spiritual austerity for many days. Then one day Bhavani visited her; he wanted to instruct her about selfless work. 

 उन्होंने गीता का एक श्लोक (3.19) कहा –

तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचार ।

असक्तो ह्याचरन कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥3.19।।

।।3.19।। इसलिये तू निरन्तर आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्म का भली-भाँति आचरण कर; क्योंकि आसक्ति रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

अनासक्ति के उन्होंने तीन लक्षण बतलाये –(१) इन्द्रिय-संयम (२) निरहंकार-अनासक्ति का अर्थ है अहंकार और स्वार्थ का परित्याग। (३) श्रीकृष्ण के चरणों में फल-समर्पण । निरहंकार के बिना धर्माचरण नहीं होता ।

[He quoted to her from the Gita: "Therefore do thou always perform obligatory actions without attachment; by performing action without attachment one attains to the highest."

He told her the three characteristics of disinterested action: first, control of the sense-organs; second, absence of egotism; and third, surrendering the fruit of action to Sri Krishna. He further told her that no dharma is possible for the egotistic person. 

[মাস্টার — অধ্যয়ণ শেষ হলে আর অনেকদিন সাধনের পর ভবানী ঠাকুর প্রফুল্লের সঙ্গে আবার দেখা করতে এলেন। এইবার নিষ্কামকর্মের উপদেশ দিবেন। গীতা থেকে শ্লোক বললেন —

তস্মাদসক্তং সততং কার্যং কর্ম সমাচর।

অসক্তো হ্যাচরন্‌ কর্ম পরমাপ্নোতি পুরুষঃ।১

১অতএব অনাসক্ত হইয়া সর্বদা কর্ম কর। কারণ অনাসক্ত হইয়া কার্য করিলে পুরুষ সেই শ্রেষ্ঠ ভগবৎ পদ লাভ করেন। [গীতা, ৩।১৯]

অনাসক্তির তিনটি লক্ষণ বললেন —

(১) ইন্দ্রিয়সংযম। (২) নিরহংকার। (৩) শ্রীকৃষ্ণে ফল সমর্পণ। নিরহংকার ব্যতীত ধর্মাচরণ হয় না। 

गीता (3.27)में और भी कहा गया है –

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।

अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।3.27।।

[।।3.27।। सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष,  "मैं कर्ता हूँ"  ऐसा मान लेता है।।

[Quoting from the Gita, he said: "The gunas of Prakrit; perform all action. With the understanding deluded by egotism, man thinks, I am the doer."

গীতা থেকে আবার বললেন —

প্রকৃতেঃ ক্রিয়মাণানি গুণৈঃ কর্মাণি সর্বশঃ।

অহঙ্কারবিমূঢ়াত্মা কর্তাহমিতি মন্যতে।।২

২সমুদয় কর্মই প্রকৃতির গুণসমূহের দ্বারা কৃত হইতেছে। কিন্তু অহংকার-বিমুগ্ধ ব্যক্তি আপনাকে কর্তা বলিয়া মনে করে। [গীতা, ৩।২৭]

इसके पश्चात् श्रीकृष्ण को सब कर्मों का फलार्पण । उन्होंने गीता के श्लोक का उल्लेख किया –

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।9.27।।

।।9.27।। हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो।। निष्काम कर्म के ये तीन लक्षण कहे हैं ।

[Bhavani next spoke to her about surrendering the fruit of action to Sri Krishna. Again he quoted from the Gita: "Whatever thou doest, whatever thou eatest, whatever thou givest away, whatever austerity thou practisest, O son of Kunti, do that as an offering unto Me."

যৎ করোষি যদশ্নাসি যজ্জুহোষি দদাসি যৎ।

যৎ তপ্যসি কৌন্তেয় তৎ কুরুষ্ব মদর্পণম্‌।।৩

[নিষ্কামকর্মের এই তিনটি লক্ষণ বলেছেন।

৩যাহা কিছু কর, যাহা খাও, যে হোম কর, যাহা দান কর, যে তপস্যা কর, তাহাই আমাতে সমর্পণ কর। [গীতা ৯।২৭]

श्रीरामकृष्ण - यह अच्छा है । गीता की बात है । अकाट्य है । परन्तु एक बात है । श्रीकृष्ण को फलार्पण कर देने के लिए तो कहा, परन्तु उन पर भक्ति करने की बात नहीं कही

[MASTER: "This is fine. These are the words of the Gita; one cannot refute them. But something else must be noted. The author speaks about surrendering the fruit of action to Sri Krishna, but not about cultivating bhakti for Him."

শ্রীরামকৃষ্ণ — এ বেশ। গীতার কথা। কাটবার জো নাই। তবে আর-একটি কথা আছে। শ্রীকৃষ্ণে ফল সমর্পণ বলেছে; শ্রীকৃষ্ণে ভক্তি বলে নাই।

मास्टर - यहाँ यह बात विशेषतया नहीं कही गयी ।

[M: "No, that is not especially mentioned here.

মাস্টার — এখানে এ-কথাটি বিশেষ করে বলা নাই। 

[(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

🔆🙏पटवारी बुद्धि व्यर्थ है, बेझिझक मनुष्य निर्माण आन्दोलन में कूद पड़ो 🔆🙏

[হিসাব বুদ্ধিতে হয় না — একেবারে ঝাঁপ ]

फिर धन का व्यय किस तरह करना चाहिए, यह बात हुई । प्रफुल्ल ने कहा, यह सब धन श्रीकृष्ण के लिए मैने समर्पित किया ।

["Next Prafulla and Bhavani talked about the use of money. Prafulla said that she offered all her wealth to Krishna."

“তারপর ধনের কি ব্যবহার করতে হবে, এই কথা হল। প্রফুল্ল বললে, এ-সমস্ত ধন শ্রীকৃষ্ণে অর্পণ কল্লাম।

प्रफुल्ल - जब मैंने अपने सब कर्म श्रीकृष्ण को समर्पित किये, तब अपने धन का भी समर्पण मैंने श्रीकृष्ण को ही कर दिया । भवानी - सब ? प्रफुल्ल – सब ।

[M. read from the book again.PRAFULLA: "Like my actions, I offer all my wealth to Sri Krishna."BHAVANI: "All?"PRAFULLA: "Yes, all."

“প্রফুল্ল — যখন আমার সকল কর্ম শ্রীকৃষ্ণে অর্পণ করিলাম, তখন আমার এ-ধনও শ্রীকৃষ্ণে অর্পণ করিলাম।ভবানী — সব?প্রফুল্ল — সব।

भवानी - तो कर्म वास्तव में अनासक्त कर्म न हो सकेगा । अगर तुम्हें अपने भोजन के लिए प्रयत्न करना पड़ा तो इससे आसक्ति होगी । अतएव, सम्भवतः तुम्हे भिक्षावृत्ति के द्वारा भोजन का संग्रह करना होगा या इसी धन से अपनी शरीर-रक्षा के लिए कुछ रखना होगा । भिक्षा में भी आसक्ति है, अतएव तुम्हें इसी धन से अपने शरीर की रक्षा करनी चाहिए

[BHAVANI: "In that case you won't be able to perform action in a detached spirit. If you have to work to earn your food, you will be attached to that work. Hence there are two alternatives before you: either you will have to get your food by begging, or you will have to live on your money. Even a beggar becomes attached to the alms he receives; therefore you must use your own money to maintain your body."

ভবানী — ঠিক তাহা হইলে কর্ম অনাসক্ত হইবে না। আপনার আহারের জন্য যদি তোমাকে চেষ্টা হইতে হয়, তাহা হইলে আসক্তি জন্মিবে। অতএব তোমাকে হয় ভিক্ষাবৃত্ত হইতে হইবে, নয় এই ধন হইতেই দেহরক্ষা করিতে হইবে। ভিক্ষাতেও আসক্তি আছে। অতএব সেই ধন হইতে আপনার দেহরক্ষা করিবে।”

मास्टर - (श्रीरामकृष्ण से) - यह इनका पटवारीपन है ।

[M. (to the Master, smiling): "That is the nature of the calculating mind."

মাস্টার (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি সহাস্যে) — ওইটুকু পাটোয়ারী।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, यह इनका पटवारीपन है । हिसाबी बुद्धि है । जो ईश्वर को चाहता है, वह एकदम कूद पड़ता है । देह-रक्षा के लिए इतना रहे, यह हिसाब नहीं आता ।

[MASTER: "Yes, that is the nature of the calculating mind; that is the way the worldly man thinks. But he who seeks God plunges headlong; he doesn't calculate about how much or how little he needs for the protection of his body."

শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, ওইটুকু পাটোয়ারী, ওইটুকু হিসাববুদ্ধি। যে ভগবানকে চায়, সে একেবারে ঝাঁপ দেয়। দেহরক্ষার জন্য এইটুকু থাকলো — এ-সব হিসাব আসে না।

मास्टर - फिर भवानी ने पूछा, - 'धन लेकर श्रीकृष्ण के लिए समर्पण कैसे करोगी ?' प्रफुल्ल ने कहा, 'श्रीकृष्ण सर्व भूतों में विराजमान हैं । अतएव सर्व भूतों के लिए इसका व्यय करूँगी ।' भवानी ने कहा, 'यह बहुत ही अच्छा है;’ और वे गीता के श्लोक पढ़ने लगे –

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥

[।।6.30।। जो सब में मुझे देखता है और सब को मुझ में देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥

।।6.31।। जो पुरुष एकत्वभाव में स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतों में स्थित मुझे भजता है, वह योगी सब प्रकार से वर्तता हुआ (रहता हुआ) मुझ में स्थित रहता है।।

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।

सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥

।।6.32।। हे अर्जुन ! जो (ध्यानयुक्त ज्ञानी महापुरुष) अपने शरीर की उपमा से सब जगह अपने को समान देखता है और सुख अथवा दुःख को भी समान देखता है, जैसे मुझे सुख प्रिय है वैसे ही सभी प्राणियों को सुख अनुकूल है।  और जैसे दुःख मुझे अप्रिय प्रतिकूल है वैसे ही वह सब प्राणियों को अप्रिय प्रतिकूल है। इस प्रकार जो सब प्राणियों में अपने समान ही सुख और दुःख को तुल्य भाव से अनुकूल और प्रतिकूल देखता है किसी के भी प्रतिकूल आचरण नहीं करता यानी अहिंसक है। उसे ही परम योगी माना गया है।[गीता-अ. ६, श्लोक ३०-३१-३२]

[M: "Next Bhavani asked Prafulla, 'How will you offer all this money to Sri Krishna?' Prafulla said: 'Why, Sri Krishna dwells in all beings. I shall distribute the money among them.' Bhavani answered, 'Good! Good!'

"Quoting from the Gita, Bhavani said: 'He who sees Me in all things and all things in Me, never becomes separated from Me, nor do I become separated from him. That yogi who, established in unity, worships Me dwelling in all beings, abides in Me, whatever his mode of life. O Arjuna, that yogi is regarded as the highest who judges the pleasure and pain of all beings by the same standard that he applies to himself."

 মাস্টার — তারপর আছে, ভবানী জিজ্ঞাসা কল্লে, ধন নিয়ে শ্রীকৃষ্ণে অর্পণ কেমন করে করবে? প্রফুল্ল বললে, শ্রীকৃষ্ণ সর্বভূতে আছেন। অতএব সর্বভূতে ধন বিতরণ করব। ভবানী বললে, ভাল ভাল। আর গীতা থেকে শ্লোক বলতে লাগল, —

যো মাং পশ্যতি সর্বত্র সর্বঞ্চ ময়ি পশ্যতি।

তস্যাহং ন প্রণশ্যামি স চ মে ন প্রণশ্যতি।।

সর্বভূতস্থিতং যো মাং ভজত্যেকত্বমাস্থিতঃ।

সর্বথা বর্তমানোঽপি স যোগী ময়ি বর্ততে।।

আত্মৌপম্যেন সর্বত্র সমং পশ্যতি যোঽর্জুনঃ।

সুখং বা যদি বা দুঃখং স যোগী পরমো মতঃ।।৪

৪যে ব্যক্তি সর্বত্র আমাকে দেখিয়া থাকে এবং সকল বস্তুকে আমাতে দেখিয়া থাকে, তাহার নিকট আমি কখন অদৃষ্ট থাকি না, সে কখনও আমার দৃষ্টির দূরে থাকে না। যে ব্যক্তি জীব ও ব্রহ্মে অভেদদর্শী হইয়া আর্বভূতস্থিত আমাকে ভজনা করে, যে কোন অবস্থাতেই থাকুক না, সেও যোগী আমাতেই অবস্থান করে। হে অর্জুন, সুখই হউক, দুঃখই হউক, যিনি নিজের তুলনায় সকলের প্রতিই সমদর্শন করেন, সেই যোগীই আমার মতে সর্বশ্রেষ্ঠ। [গীতা, ৬।৩০, ৩১, ৩২]

श्रीरामकृष्ण - ये उत्तम भक्त के लक्षण हैं ।

[MASTER: "These are the characteristics of the highest bhakta."

শ্রীরামকৃষ্ণ — এগুলি উত্তম ভক্তের লক্ষণ।

[(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

🔆🙏विषय लोग और उनकी भाषा -मन मुख करें विचार,बोली कर्म 🔆🙏

[বিষয়ী লোক ও তাহাদের ভাষা — আকরে টানে ]

मास्टर पढ़ने लगे ।

“सर्व भूतों को दान करने के लिए बड़े परिश्रम की आवश्यकता है । इसलिए कुछ साज-सजावट, कुछ भोग-विलास की जरूरत है । भवानी पाठक ने इसीलिए कहा, 'कभी कभी कुछ दूकानदारी की भी आवश्यकता होती है ।”

[M. again read from the book:A man must work hard if he wants to help all beings with charity. Hence it is necessary for him to make a little display of clothes, of pomp and luxury. Therefore Bhavani said, "A little shopkeeping is necessary."

মাস্টার পড়িতে লাগিলেন।“সর্বভূতে দানের জন্য অনেক শ্রমের প্রয়োজন। কিছু বেশবিন্যাস কিছু ভোগবিলাসের ঠাটের প্রয়োজন। ভবানী তাই বললেন, কখন কখন কিছু ‘দোকানদারী’ চাই।”

श्रीरामकृष्ण - (विरक्ति के भाव से) - 'दुकानदारी की भी आवश्यकता होती है ।' जैसा आकर है, बात भी वैसी ही निकलती है । दिन-रात विषय की चिन्ता, मनुष्यों से धोखेबाजी, यह सब करते हुए बातें भी उसी ढंग की हो जाती हैं । मूली खाने पर मूली की ही डकार आती है । 'दूकानदारी' न कहकर वही बात अच्छे ढंग से भी कही जा सकती थी; वह कह सकता था, 'अपने को अकर्ता समझ कर्ता की तरह कार्य करना ।’उस दिन एक आदमी गा रहा था । उस गाने के भीतर लाभ और घाटा, इन्हीं बातों की भरमार थी । मैंने मना किया । आदमी दिन-रात जो चिन्ताएँ किया करता है, मुँह से वही बातें निकलती रहती हैं ।

[MASTER (sharply): "'A little shopkeeping is necessary'! One speaks as one thinks. If a man thinks of worldly things day and night, and deals with people hypocritically, then his words are coloured by his thoughts. If one eats radish, one belches radish. Instead of talking about 'shopkeeping', he should rather have said, 'A man should act as if he were the doer, knowing very well that he is really not the doer.' The other day a man was singing here. The song contained words like 'profit' and 'loss'. I stopped him. If one contemplates a particular subject day and night, one cannot talk of anything else."

শ্রীরামকৃষ্ণ (বিরক্তভাবে) — “দোকানদারী চাই”। যেমন আকর তেমনি কথাও বেরোয়! রাতদিন বিষয়চিন্তা, লোকের সঙ্গে কপটতা এ-সব করে করে কথাগুলো এইরকম হয়ে যায়। মূলো খেলে মূলোর ঢেঁকুর বেরোয়। দোকানদারী কথাটা না বলে ওইটে ভাল করে বললেই হত, “আপনাকে অকর্তা জেনে কর্তার ন্যায় কাজ করা”। সেদিন একজন গান গাচ্ছিল। সে গানের ভিতরে ‘লাভ’ ‘লোকসান’ এই সব কথাগোলো অনেক ছিল। গান হচ্ছিল, আমি বারণ কল্লুম। যা ভাবে রাতদিন, সেই বুলিই উঠে!

(३)

[(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

🔆🙏जैसे एक बार सूँघने से गुलाब की सुगंध चित्त में बस जाती है,

वैसे ही एकबार का अनुभूत आत्मस्वरुप शुद्ध मन में बसा रहता है 🔆🙏     

पठन जारी है । अब ईश्वर-दर्शन की बात आयी । प्रफुल्ल अब देवी चौधरानी हो गयी है । वैशाख शुक्ला सप्तमी तिथि है । देवी छप्परवाली नाव पर बैठी हुई दिवा के साथ बातचीत कर रही है । चन्द्रोदय हो गया है । नाव का लंगर छोड़ दिया गया है, गंगा के वक्ष पर नाव स्थिर भाव से खड़ी है। नाव की छत पर देवी और उसकी दोनों सहेलियाँ बैठी हुई हैं । ईश्वर प्रत्यक्ष होते हैं या नहीं, यही बात हो रही है । देवी ने कहा, जैसे फूल की सुगन्ध घ्राण -न्द्रिय के निकट प्रत्यक्ष है, उसी तरह ईश्वर मन के निकट प्रत्यक्ष होते है ।

[The reading continued. The author was describing the realization of God. Prafulla had become Devi Choudhurani. It was the month of Vaisakh. Devi was seated on the roof of her house-boat talking with Diva and another woman companion. The moon was up. The boat had cast anchor in the Ganges. The conversation turned to the question of whether one could see God. Devi said, "As the aroma of a flower is directly perceived by the nose, so God is directly perceived by the mind."

পাঠ চলিতে লাগিল। এইবার ঈশ্বরদর্শনের কথা। প্রফুল্ল এবার দেবী চৌধুরাণী হইয়াছেন। বৈশাখী শুক্লা সপ্তমী তিথী। দেবী বজরার উপর বসিয়া দিবার সহিত কথা কহিতেছেন। চাঁদ উঠিয়াছে। গঙ্গাবক্ষে বজরা নঙ্গর করিয়া আছে। বজরার ছাদে দেবী ও সখীদ্বয়। ঈশ্বর কি প্রত্যক্ষ হন, এই কথা হইতেছে। দেবী বললেন, যেমন ফুলের গন্ধ ঘ্রাণের প্রত্যক্ষ সেইরূপ ঈশ্বর মনের প্রত্যক্ষ হন। “ঈশ্বর মানস প্রত্যক্ষের বিষয়।

श्रीरामकृष्ण - जिस मन के निकट प्रत्यक्ष होते हैं, वह यह मन नहीं, वह शुद्ध मन है, तब यह मन नहीं रहता, विषयासक्ति के जरा भी रहने पर नहीं होता । मन जब शुद्ध होता है, तब चाहे उसे शुद्ध मन कह लो, चाहे शुद्ध आत्मा

[At this point the Master interrupted and said: "Yes, God is directly perceived by the mind, but not by this ordinary mind. It is the pure mind that perceives God, and at that time this ordinary mind does not function. A mind that has the slightest trace of attachment to the world cannot be called pure. When all the impurities of the mind are removed, you may call that mind Pure Mind or Pure Atman."

শ্রীরামকৃষ্ণ — মনের প্রত্যক্ষ। সে এ-মনের নয়। সে শুদ্ধমনের। এ-মন থাকে না। বিষয়াসক্তি একটুও থাকলে হয় না। মন যখন শুদ্ধ হয়, শুদ্ধমনও বলতে পার, শুদ্ধ আত্মাও বলতে পার

[(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

🔆🙏योग रूपी विप्लवी -दूरबीन से ईश्वर दिखाई पड़ते हैं । पतिव्रता-धर्म🔆🙏

[Yoga is the telescope to see God]

[যোগ-দূরবীন দিয়ে ঈশ্বরকে দেখা যায়] 

मास्टर - मन के निकट सहज ही वे प्रत्यक्ष नहीं होते, यह बात कुछ आगे है । कहा है, प्रत्यक्ष करने के लिए दूरबीन चाहिए । दूरबीन का नाम योग है । फिर जैसा गीता में लिखा है, योग तीन तरह के हैं - ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग । इस योगरूपी दूरबीन से ईश्वर दीख पड़ते हैं ।

[M: "The author says a little later that God cannot easily be perceived by the mind. He says that one needs a telescope to have that direct vision. Yoga is the telescope. Yoga, as it is described in the Gita, is of three kinds: jnana, bhakti, and karma. One is able to see God through this telescope of yoga."

মাস্টার — মনের দ্বারা প্রত্যক্ষ যে সহজে হয় না, এ-কথা একটু পরে আছে। বলেছে প্রত্যক্ষ করতে দূরবীন চাই। ওই দূরবীনের নাম যোগ। তারপর যেমন গীতায় আছে, বলেছে, যোগ তিনরকম — জ্ঞানযোগ, ভক্তিযোগ, কর্মযোগ। এই যোগ-দূরবীন দিয়ে ঈশ্বরকে দেখা যায়।

श्रीरामकृष्ण - यह बड़ी अच्छी बात है । गीता की बात है ।

[MASTER: "That is very good. These are the words of the Gita."

শ্রীরামকৃষ্ণ — এ খুব ভাল কথা। গীতার কথা।

मास्टर - अन्त में देवी चौधरानी अपने स्वामी से मिली । स्वामी पर उसकी बड़ी भक्ति थी । स्वामी से उसने कहा - 'तुम मेरे देवता हो । मैं दूसरे देवता की अर्चना करना सीख रही थी, परन्तु सीख नहीं सकी । तुमने सब देवताओं का स्थान अधिकृत कर लिया है ।

[M: "At last Devi Choudhurani met her husband. She showed him great devotion and said to him: 'You are my God. I wanted to learn the worship of another God but I did not succeed. You have taken the place of all gods.'

"মাস্টার — শেষে দেবী চৌধুরানীর স্বামীর সঙ্গে দেখা হল। স্বামীর উপর খুব ভক্তি। স্বামীকে বললে, “তুমি আমার দেবতা। আমি অন্য দেবতার অর্চনা করিতে শিখিতেছিলাম, শিখিতে পারি নাই। তুমি সব দেবতার স্থান অধিকার করিয়াছ।”

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - 'सीख न सकी ।' इसे पतिव्रता का धर्म कहते हैं । यह भी एक मार्ग है ।

[MASTER (smiling): "'I did not succeed.' This is the dharma of a woman totally devoted to her husband. This also is a path."

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — “শিখিতে পারি নাই!” এর নাম পতিব্রতার ধর্ম। এও আছে।

पठन समाप्त हो गया, श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं । भक्तगण टकटकी लगाये देख रहे हैं, कुछ सुनने के आग्रह से ।

[The reading was over. The Master was smiling. The devotees looked at him, eagerly waiting to hear what he would say.

পাঠ সমাপ্ত হইল। ঠাকুর হাসিতেছেন। ভক্তেরা চাহিয়া আছেন, ঠাকুর আবার কি বলেন।

श्रीरामकृष्ण - (हँसकर, केदार तथा भक्तों से) - यह एक प्रकार से बुरा नहीं । इसे पतिव्रता-धर्म कहते हैं । प्रतिमा में ईश्वर की पूजा तो होती है, फिर जीते-जागते आदमी में क्यों नहीं होगी ! आदमी के रूप में वे ही लीला कर रहे हैं

[MASTER (to the devotees, smiling): "This is not so bad; it is called the dharma of chastity, the single-minded devotion of a wife to her husband. If God can be worshipped through an image, why shouldn't it be possible to worship Him through a living person? It is God Himself who sports in the world as men.

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে, কেদার ও অন্যান্য ভক্তদের প্রতি) — এ একরকম মন্দ নয়। পতিব্রতাধর্ম। প্রতিমায় ঈশ্বরের পূজা হয় আর জীয়ন্ত মানুষে কি হয় না? তিনিই মানুষ হয়ে লীলা করছেন।

[(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

 🔆🙏प्लु-धातु के अनुसार योग रूपी विप्लवी दूरबीन से श्रीरामकृष्ण की
 
साम्य अवस्था और सर्वभूतों में ईश्वर दर्शन🔆🙏 

[পূর্বকথা — ঠাকুরের ব্রহ্মজ্ঞানের অবস্থা ও সর্বভূতে ঈশ্বরদর্শন ]

"कैसी अवस्था बीत चुकी है ! हरगौरी (शिव और दुर्गा) के भाव में कितने ही दिनों तक रहा था । फिर कितने ही दिन श्रीराधाकृष्ण भाव में बीते थे ! कभी सीताराम का भाव था । राधा के भाव में रहकर 'कृष्ण-कृष्ण' कहता था, सीता के भाव में 'राम-राम ।'

["Oh, what a state I passed through! I passed some days absorbed in Siva and Durga, some days absorbed in Radha and Krishna, and some days absorbed in Sita and Rama. Assuming Radha's attitude, I would cry for Krishna, and assuming Sita's attitude, I would cry for Rama.

“কি অবস্থা গেছে। হরগৌরীভাবে কতদিন ছিলুম। আবার কতদিন রাধাকৃষ্ণভাবে! কখন সীতারামের ভাবে! রাধার ভাবে কৃষ্ণ কৃষ্ণ করতুম, সীতার ভাবে রাম রাম করতুম!

"परन्तु लीला ही अन्तिम बात नहीं है । इन सब भावों के बाद मैंने कहा, माँ, इन सब में विच्छेद है। जिसमें विच्छेद नहीं है, ऐसी अवस्था कर दो; इसीलिए अनेक दिन अखण्ड सच्चिदानन्द के भाव में रहा । देवताओं की तस्वीरें मैने कमरे से निकाल दीं । "उन्हें सर्व भूतों में देखने लगा । पूजा उठ गयी । यही बेल का पेड़ है, यहाँ मै बेल-पत्र लेने आया करता था । एक दिन बेलपत्र तोड़ते हुए कुछ छाल निकल गयी । मैने पेड़ में चेतना देखी । मन में कष्ट हुआ । दूर्वादल लेते समय देखा, पहले की तरह मैं चुन नहीं सकता । तब बलपूर्वक चुनने लगा ।

["But lila is by no means the last word. Passing through all these states, I said to the Divine Mother: 'Mother, in these states there is separation. Give me a state where there is no separation.' Then I remained for some time absorbed in the Indivisible Satchidananda. I removed the pictures of the gods and goddesses from my room. I began to perceive God in all beings. Formal worship dropped away. You see that bel-tree. I used to go there to pluck its leaves. One day, as I plucked a leaf, a bit of the bark came off. I round the tree full of Consciousness. I felt grieved because I had hurt the tree. One day I tried to pluck some durva grass, but I found I couldn't do it very well. Then I forced myself to pluck it.

“তবে লীলাই শেষ নয়। এই সব ভাবের পর বললুম, মা এ-সব বিচ্ছেদ আছে। যার বিচ্ছেদ নাই, এমন অবস্থা করে দাও। তাই কতদিন অখণ্ড সচ্চিদানন্দ এই ভাবে রইলুম। ঠাকুরদের ছবি ঘর থেকে বার করে দিলুম।“তাঁকে সর্বভূতে দর্শন করতে লাগলুম। পূজা উঠে গেল! এই বেলগাছ! বেলপাতা তুলতে আসতুম! একদিন পাতা ছিঁড়তে গিয়ে আঁশ খানিকটা উঠে এল। দেখলাম গাছ চৈতন্যময়! মনে কষ্ট হল। দূর্বা তুলতে গিয়ে দেখি, আর-সেরকম করে তুলতে পারিনি। তখন রোখ করে তুলতে গেলুম।

"मै नीबू नहीं काट सकता । उस रोज बड़ी मुश्किल से 'जय काली' कहकर उनके सामने बलि देने की तरह एक नीबू में काट सका था । एक दिन मैं फूल तोड़ रहा था । उसने दिखलाया पेड़ में फूल खिले हुए हैं, जैसे सामने विराट की पूजा हो रही हो - विराट के सिर पर फूल के गुच्छे रखे हुए हों । फिर मैं फूल तोड़ न सका ।

["I cannot cut a lemon. The other day I managed to cut one only with great difficulty; I chanted the name of Kali and cut the fruit as they slaughter an animal before the Goddess. One day I was about to gather some flowers. They were everywhere on the trees. At once I had a vision of Virat; it appeared that His worship was just over. The flowers looked like a bouquet placed on the head of the Deity. I could not pluck them.

“আমি লেবু কাটতে পারি না। সেদিন অনেক কষ্টে, ‘জয় কালী’ বলে তাঁর সম্মুখে বলির মতো করে তবে কাটতে পেরেছিলুম। একদিন ফুল তুলতে গিয়ে দেখিয়ে দিলে, — গাছে ফুল ফুটে আছে, যেন সম্মুখে বিরাট — পূজা হয়ে গেছে — বিরাটের মাথায় ফুলের তোড়া! আর ফুল তোলা হল না!

"वे आदमी होकर भी लीलाएँ कर रहे हैं । मैं तो साक्षात् नारायण को देखता हूँ । काठ को घिसने से जिस तरह आग निकल पड़ती है, उसी तरह भक्ति का बल रहने पर आदमी में भी ईश्वर के दर्शन होते हैं । बंसी में अगर बढ़िया मसाला लगाया हो, तो 'रेहू' और 'कातला' फौरन उसे निगल जाती हैं । प्रेमोन्माद होने पर सर्व भूतों में ईश्वर का साक्षात्कार होता है । गोपियों ने सर्व भूतों में श्रीकृष्ण के दर्शन किये थे । सब को कृष्णमय देखा, कहा था, 'मैं ही कृष्ण हूँ ।' तब उनकी उन्मादावस्था थी । पेड़ देखकर उन लोगों ने कहा, 'ये तपस्वी हैं, कृष्ण का ध्यान कर रहे हैं । तृणों को देखकर कहा था, 'श्रीकृष्ण के स्पर्श से पृथ्वी को रोमाञ्च हो रहा है ।’

["God sports through man as well. I see man as the embodiment of Narayana. As fire is kindled when you rub two pieces of wood together, so God can be seen in man if you have intense devotion. If there is suitable bait, big fish like carp gulp it down at once. When one is intoxicated with prema, one sees God in all beings. The gopis saw Krishna in everything; to them the whole world was filled with Krishna. They said that they themselves were Krishna. They were then in a God-intoxicated state. Looking at the trees, they said, These are hermits absorbed in meditation on Krishna.' Looking at the grass they said, The hair of the earth is standing on end at the touch of Krishna.'

“তিনি মানুষ হয়েও লীলা করছেন। আমি দেখি, সাক্ষাৎ নারায়ণ। কাঠ ঘষতে ঘষতে আগুন বেরোয়, ভক্তির জোর থাকলে মানুষেতেই ঈশ্বর দর্শন হয়। তেমন টোপ হলে বড় রুই কাতলা কপ্‌ করে খায়।প্রেমোন্মাদ হলে সর্বভূতে সাক্ষাৎকার হয়। গোপীরা সর্বভূতে শ্রীকৃষ্ণ দর্শন করেছিল। কৃষ্ণময় দেখেছিল। বলেছিল, আমি কৃষ্ণ! তখন উন্মাদ অবস্থা! গাছ দেখে বলে, এরা তপস্বী, শ্রীকৃষ্ণের ধ্যান করছে। তৃণ দেখে বলে, শ্রীকৃষ্ণকে স্পর্শ করে ওই দেখ পৃথিবীর রোমাঞ্চ হয়েছে।

"पतिव्रता-धर्म में स्वामी देवता है, और यह होगा भी क्यों नहीं ? मूर्ति की पूजा तो होती है, फिर जीते-जागते आदमी की क्यों नहीं होगी ? 

["Devotion to the husband is also a dharma. The husband is God. Why shouldn't it be so? If God can be worshipped through an image, why not also through a living man?

“পতিব্রতাধর্ম; স্বামী দেবতা। তা হবে না কেন? প্রতিমায় পূজা হয়, আর জীয়ন্ত মানুষে কি হয় না?”

[(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

🔆🙏छवि में ठाकुर का आविर्भाव - मनुष्य में विवेकदर्शन ? 

नित्यसिद्धि और संसार/अन्त में नरलीला में ही मन लीन हो जाता है ।🔆🙏

[প্রতিমায় আবির্ভাব — মানুষে ঈশ্বরদর্শন কখন? নিত্যসিদ্ধি ও সংসার ]

"प्रतिमा में ईश्वर की अनुभूति करने  के लिए तीन बातों की जरूरत होती है - पहली बात, पुजारी में भक्ति हो; दूसरी, प्रतिमा सुन्दर हो, तीसरी गृहस्वामी  (householder) स्वयं भक्त हो । वैष्णवचरण ने कहा था, अन्त में नरलीला में ही मन लीन हो जाता है ।

[ But three things are necessary in order to feel the presence of God in an image: first, the devotion of the priest; second, a beautiful image; and third, the devotion of the householder. Vaishnavcharan once said that in the end the mind of the devotee is absorbed in the human manifestation of God.

“প্রতিমায় আবির্ভাব হতে গেলে তিনটি জিনিসের দরকার, — প্রথম পূজারীর ভক্তি, দ্বিতীয় প্রতিমা সুন্দর হওয়া চাই, তৃতীয় গৃহস্বামীর ভক্তি। বৈষ্ণবচরণ বলেছিল, শেষে নরলীলাতেই মনটি কুড়িয়ে আসে

"परन्तु एक बात है - उन्हें बिना देखे इस तरह लीला-दर्शन नहीं होता । साक्षात्कार का लक्षण जानते हो ? देखनेवाले का स्वभाव बालक जैसा हो जाता है । बालस्वभाव क्यों होता है ? इसलिए कि ईश्वर स्वयं बालस्वभाव है । अतएव जिसे उनके दर्शन होते हैं, वह भी उसी स्वभाव का हो जाता है

["But you must remember one thing. One cannot see God sporting as man unless one has had the vision of Him. Do you know the sign of one who has God-vision? Such a man acquires the nature of a child. Why a child? Because God is like a child. So he who sees God becomes like a child.

“তবে একটি কথা একটি আছে, — তাঁকে সাক্ষাৎকার না করলে এরূপ লীলাদর্শন হয় না। সাক্ষাৎকারের লক্ষণ কি জান? বালকস্বভাব হয়। কেন বালকস্বভাব হয়? ঈশ্বর নিজে বালকস্বভাব কি না! তাই যে তাঁকে দর্শন করে, তারও বালকস্বভাব হয়ে যায়।

 [(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

🔆🙏ठाकुर, माँ, स्वामीजी को देखने का उपाय-  तीव्र वैराग्य 

और यह भावना कि ठाकुर मेरे 'पिता ' हैं, 

माँ सारदा मेरी अपनी माँ हैं, और स्वामीजी बड़े भाई हैं🔆🙏

[ঈশ্বরদর্শনের উপায় — তীব্র বৈরাগ্য ও তিনি আপনার ‘বাপ’ এই বোধ ]

"यह दर्शन होना चाहिए । अब उनके दर्शन भी कैसे हों ? तीव्र वैराग्य होना चाहिए । ऐसा चाहिए कि कहे - 'क्या तुम जगत्पिता हो, तो मैं क्या संसार से अलग हूँ ? मुझ पर तुम दया न करोगे ? – साला !’

["God-vision is necessary. Now the question is, how can one get it? Intense renunciation is the means. A man should have such intense yearning for God that he can say, 'O Father of the universe, am I outside Your universe? Won't You be kind to me, You wretch?'

“এই দর্শন হওয়া চাই। এখন তাঁর সাক্ষাৎকার কেমন করে হয়? তীব্র বৈরাগ্য। এমন হওয়া চাই যে, বলবে, জ্ঞকি! জগৎপিতা? আমি কি জগৎ ছাড়া? আমায় তুমি দয়া করবে না? শালা!’

"जो जिसकी चिन्ता करता है, उसे उसी की सत्ता मिलती है । शिव की पूजा करने पर शिव की सत्ता मिलती है । श्रीरामचन्द्रजी का एक भक्त था । वह दिन-रात हनुमान की चिन्ता किया करता । वह सोचता था, मैं हनुमान हो गया हूँ । अन्त में उसे दृढ़ विश्वास हो गया कि उसके जरा सी पूँछ भी निकली है । “शिव के अंश से ज्ञान होता है, विष्णु के अंश से भक्ति । जिनमें शिव का अंश है, उनका स्वभाव ज्ञानियों जैसा है, जिनमें विष्णु का अंश है, उनका भक्तों जैसा स्वभाव है ।"

["You partake of the nature of him on whom you meditate. By worshipping Siva you acquire the nature of Siva. A devotee of Rama meditated on Hanuman day and night. He used to think he had become Hanuman. In the end he was firmly convinced that he had even grown a little tail. Jnana is the characteristic of Siva, and bhakti of Vishnu. One who partakes of Siva's nature becomes a jnani, and one who partakes of Vishnu's nature becomes a bhakta."

“যে যাকে চিন্তা করে, সে তার সত্তা পায়। শিবপূজা করে শিবের সত্তা পায়। একজন রামের ভক্ত, রাতদিন হনুমানের চিন্তা করত! মনে করত, আমি হনুমান হয়েছি। শেষে তার ধ্রুব বিশ্বাস হল যে, তার একটু ল্যাজও হয়েছে! “শিব অংশে জ্ঞান হয়, বিষ্ণু অংশে ভক্তি হয়। যাদের শিব অংশ তাদের জ্ঞানীর স্বভাব, যাদের বিষ্ণু অংশ, তাদের ভক্তের স্বভাব।”

 [(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

🔆🙏🔆🙏चैतन्यदेव (अवतार या ईश्वरकोटि) की इच्छाशक्ति (Willpower) प्रबल  

 और साधारण कोटि के जीव की संकल्पशक्ति दुर्बल 🔆🙏🔆🙏 

[Weak-Willpower and Strong Willpower]

[চৈতন্যদেব অবতারের ইচ্ছাশক্তি প্রবল — সামান্য জীবের ইচ্ছাশক্তি  দুর্বল ]

[(तैत्तरीय शीक्षा-"जार यथार्थ शिक्षा होय से लोक पोक देखे ! `लज्जा घृणा भय , तीन थाकते नय। 'mating and meat eating of Lion-sheep) संभोग मांस खाने पर निर्भर नहीं करता यथार्थ शिक्षा  द्वारा साधारण कोटि का मनुष्य भी अपनी इच्छाशक्ति को संयमित और नियंत्रित करना सीखकर -चैतन्य देव जैसा प्रबल वैराग्य (प्रबल अनुराग रहने से) एक ही आधार में ज्ञानी और भक्त दोनों बन सकता है!  ]  

मास्टर - चैतन्यदेव के लिए तो आपने कहा था, उनमें ज्ञान और भक्ति दोनों थे ।

[M: "But what about Chaitanyadeva? You said he had both knowledge and devotion."

মাস্টার — চৈতন্যদেব? তাঁর তো আপনি বলেছিলেন, জ্ঞান ও ভক্তি দুই ছিল।

श्रीरामकृष्ण - (विरक्तिपूर्वक) - उनकी और बात है । वे ईश्वर के अवतार थे । उनमें और जीवों में बड़ा अन्तर है । उन्हें ऐसा वैराग्य था कि सार्वभौम ने जब जीभ पर चीनी डाल दी, तब चीनी हवा में 'फर-फर' करके उड़ गयी, भीगी तक नहीं । वे सदा ही समाधिमग्न रहते थे । कितने बड़े कामजयी थे वे, जीवों के साथ उनकी तुलना कैसे हो ? सिंह बारह वर्ष में एक बार रमण करता है, परन्तु मांस खाता है; चिड़ियाँ दाने चबाती हैं, परन्तु दिन रात रमण करती है । उसी तरह अवतार और जीव है । जीव काम का त्याग तो करते हैं, परन्तु कुछ दिन बाद कभी भोग कर लेते हैं,  सँभाल नहीं सकते । (मास्टर से-कमजोर-इच्छाशक्ति और मजबूत इच्छाशक्ति के कारण) लज्जा क्यों ? (यथार्थ शिक्षा प्राप्त कर ) जो पार हो जाता है, वह (भोगी) आदमी को कीड़े के बराबर देखता है । 'लज्जा, घृणा और भय, ये तीन न रहने चाहिए । ये सब पाश हैं । 'अष्ट पाश' है न ?

MASTER (sharply): "His case was different. He was an Incarnation of God. There is a great difference between him and an ordinary man. The fire of Chaitanya's renunciation was so great that when Sarvabhauma poured sugar on his tongue, instead of melting, it evaporated into air. He was always absorbed in samadhi. How great was his conquest of lust! To compare him with a man! A lion eats meat and yet it mates only once in twelve years; but a sparrow eats grain and it indulges in sex-life day and night. Such is the difference between a Divine Incarnation and an ordinary human being. An ordinary man renounces lust; but once in a while he forgets his vow. He cannot control himself. (To M.) [due to Weak-Willpower and Strong Willpower] "He who has realized God looks on man as a mere worm. 'One cannot succeed in religious life if one has shame, hatred, or fear.' These are fetters. Haven't you heard of the eight fetters?

শ্রীরামকৃষ্ণ (বিরক্ত হইয়া) — তাঁর আলাদা কথা। তিনি ঈশ্বরের অবতার। তাঁর সঙ্গে জীবের অনেক তফাত। তাঁর এমন বৈরাগ্য যে, সার্বভৌম যখন জিহ্বায় চিনি ঢেলে দিলে, চিনি হাওয়াতে ফরফর করে উড়ে গেল, ভিজলো না। সর্বদাই সমাধিস্থ! কত বড় কামজয়ী! জীবের সহিত তাঁর তুলনা! সিংহ বার বছরে একবার রমণ করে, কিন্তু মাংস খায়; চড়ুই কাঁকর খায়, কিন্তু রাতদিনই রমণ করে। তেমনি অবতার আর জীব। জীব কাম ত্যাগ করে, আবার একদিন হয়তো রমণ হয়ে গেল; সামলাতে পারে না। (মাস্টারের প্রতি) লজ্জা কেন? যার হয় সে লোক পোক দেখে! ‘লজ্জা ঘৃণা ভয়, তিন থাকতে নয়।’ এ-সব পাশ। ‘অষ্ট পাশ’ আছে না?

“जो नित्यसिद्ध है, उसे संसार का क्या डर ? बँधे घरों का खेल है, पासे फेंकने से कुछ और न पड़ जाय, यह डर उसे फिर नहीं रहता । "जो नित्यसिद्ध है, वह चाहे तो संसार में भी रह सकता है । कोई कोई [राजर्षि जनक ] दो तलवारें भी चला सकते हैं - वे ऐसे खिलाड़ी हैं (दोनों तलवारों को इतनी तीव्रता से घुमाते हैं) कि कंकड़ फेंककर मारो तो तलवार में लगकर अलग हो जाता है।"

["How can one who is eternally perfect be afraid of the world? He knows how to play his game. An eternally perfect soul can even lead a worldly life (Bh) if he desires. There are people who can fence with two swords at the same time; they are such expert fencers that, if stones are thrown at them, the stones hit the swords and come back."

“যে নিত্যসিদ্ধ তার আবার সঘসারে ভয় কি? ছকবাঁধা খেলা; আবার ফেললে কি হয়, চকবাঁধা খেলাতে এ-ভয় থাকে না। “যে নিত্যসিদ্ধ, সে মনে করলে সগসারেও থাকতে পারে। কেউ কেউ দুই তলোয়ার (Bh) নিয়ে খেলতে পারে। এমন খেলোয়াড় যে, ঢিল পড়লে তলোয়ারে লেগে ঠিকরে যায়!”

 [(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

श्रीरामकृष्ण और मनःसंयोग 

🔆🙏विवेकदर्शन का अभ्यास ही योग है - योगी के लक्षण🔆🙏

[দর্শনের উপায় যোগ — যোগীর লক্ষণ ]

[सटीक लक्ष्य (मनःसंयोग) ही होगा आपकी सफलता का मूलमंत्र- अर्जुन से सीखें लक्ष्य पाने की तरकीब : हम सब अपने जीवन में कुछ पाना, कुछ बनना चाहते हैं, लेकिन सबको अपना लक्ष्य नहीं मिल पाता है। क्या है कारण, और क्या है उपाय...? गुरु द्रोणाचार्य  जो कुछ भी जानते थे, वह सब कुछ उन्होंने सिर्फ अर्जुन को बताया। इसके पीछे वजह यह नहीं थी कि द्रोणाचार्य पक्षपात करते थे। इसकी सीधी सी वजह यह थी कि अर्जुन के अलावा किसी और में वे गुण ही नहीं थे, कि उनकी दी गई सारी विद्या को ग्रहण कर पाते। ..... सभी से उन्होंने एक ही सवाल पूछा कि निशाना साधने के वक्त तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है, और कितना % उम्मीद करते हो कि रिंग अपने लक्ष्य में फंस जायेगा , और याद रखना सिर्फ 7 चांस मिलेगा  ? 20 दूर है लक्ष्य- एक लम्बी लकीर वहाँ तक खींची हुई है , तो बताओ कि तुम कहाँ पर खड़े होकर पहला रिंग फेंकोगे ? बाकि 6 रिंग फेंकने के लिए कहाँ खड़े होंगे ?    द्रोणाचार्य ने वही सवाल दोहराया, 'तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है, अर्जुन?’अर्जुन ने कहा, 'तोते की गर्दन पर बस एक निशान गुरुदेव, और कुछ भी नहीं।’ ऐसे ही लोग कुछ हासिल करते हैं।आपको भी अर्जुन की तरह ही होना चाहिए। अपना ध्यान लक्ष्य पर केंद्रित कीजिए। फिर जो होना होगा, हो जाएगा। एक लक्ष्य - केवल ईश्वर (स्वामी विवेकानन्द)  की ओर दृष्टि (विवेकदर्शन का अभ्यास -विवेक-स्रोत उद्घाटित हो जायेगा। ) , योग यह है ।]

भक्त - महाराज, किस अवस्था में ईश्वर के दर्शन होते हैं ?

[A DEVOTEE: "Sir, how can one see God?"

ভক্ত — মহাশয়, কি অবস্থায় ঈশ্বরের দর্শন পাওয়া যায়?

श्रीरामकृष्ण - बिना सब तरफ से मन को समेटे ईश्वर के दर्शन थोड़े ही होते हैं ? भागवत में शुकदेव की बातें हैं - वे रास्ते पर जा रहे थे - मानो संगीन चढ़ाई हुई हो ! किसी ओर नजर नहीं जाती ! एक लक्ष्य - केवल ईश्वर की ओर दृष्टि, योग यह है

[MASTER: "Can you ever see God if you do not direct your whole mind toward Him? The Bhagavata speaks about Sukadeva. When he walked about he looked like a soldier with fixed bayonet. His gaze did not wander; it had only one goal and that was God. This is the meaning of yoga.

শ্রীরামকৃষ্ণ — মন সব কুড়িয়ে না আনলে কি হয়। ভগবতে শুকদেবের কথা আছে — পথে যাচ্ছে যেন সঙ্গীন চড়ান। কোনদিকে দৃষ্টি নাই। এক লক্ষ্য — কেবল ভগবানের দিকে দৃষ্টি। এর নাম যোগ।

"चातक बस स्वाति का जल पीता है । गंगा, यमुना, गोदावरी सब नदियों में पानी भरा हुआ है, सातों सागर पूर्ण है, फिर भी उनका जल वह नहीं पीता । स्वाति में वर्षा होगी तब वह पानी पीयेगा।

["The chatak bird drinks only rain-water. Though the Ganges, the Jamuna, the Godavari, and all other rivers are full of water, and though the seven oceans are full to the brim, still the chatak will not touch them. It will drink only the water that falls from the clouds.

“চাতক কেবল মেঘের জল খায়। গঙ্গা, যমুনা, গোদাবরী, আর সব নদী জলে পরিপূর্ণ, সাত সমুদ্র ভরপুর, তবু সে জল খাবে না। মেঘের জল পড়বে তবে খাবে।

"जिसका योग इस तरह का हुआ हो, उसे ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं । थिएटर में जाओ तो जब तक पर्दा नहीं उठता तब तक आदमी बैठे हुए अनेक प्रकार की बातें करते हैं - घर की बातें, आफिस की बातें, स्कूल की बातें, यही सब पर्दा उठा नहीं कि सब बाते बन्द ! जो नाटक हो रहा है, टकटकी लगाये उसे ही देखते हैं । बड़ी देर बाद अगर एक-आध बातें करते भी हैं तो उसी नाटक के सम्बन्ध की ।

["He who has developed such yoga can see God. In the theatre the audience remains engaged in all kinds of conversation, about home, office, and school, till the curtain goes up; but no sooner does it go up than all conversation comes to a stop, and the people watch the play with fixed attention. If after a long while someone utters a word or two, it is about the play.

“যার এরূপ যোগ হয়েছে, তার ঈশ্বরের দর্শন হতে পারে। থিয়েটারে গেলে যতক্ষণ না পর্দা ওঠে ততক্ষণ লোকে বসে বসে নানারকম গল্প করে — বাড়ির কথা, আফিসের কথা, ইস্কুলের কথা এই সব। যাই পর্দা উঠে, অমনি কথাবার্তা সব বন্ধ। যা নাটক হচ্ছে, একদৃষ্টে তাই দেখতে থাকে। অনেকক্ষণ পরে যদি এক-আধটা কথা কয় সে ওই নাটকেরই কথা।

"शराबखोर शराब पीने के बाद आनन्द की ही बातें करता है ।”

["After a drunkard has drunk his liquor he talks only about the joy of drunkenness."

“মাতাল মদ খাওয়ার পর কেবল আনন্দের কথাই কয়।”

*

(४)

 [(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

🔆🙏'अवतार' को कोई 'अपराध' नहीं लगता; जय-विजय का उदाहरण 🔆🙏 .

[নিত্যগোপাল [নিত্যগোপাল বসু — জ্ঞানানন্দ অবধূত] (১৮৫৫ - ১৯১১) — শ্রীরামকৃষ্ণের স্নেহধন্য ভক্ত। রামচন্দ্র এবং মনোমোহন মিত্রের মাসতুতো ভাই। তুলসীচরণ দত্ত (পরে স্বামী নির্মলানন্দ) নিত্যগোপালের ভাগিনেয়। কলিকাতা আহিরীটোলায় বিখ্যাত বসু বংশের সন্তান। পিতা জনমেজয়, মাতা গৌরী দেবী। নিত্যগোপাল কখনো একা কখনো রামচন্দ্রের সহিত ঠাকুরকে দর্শন করিতে আসিতেন। তিনি সর্বদা ভগবদ্ভাবে বিভোর হইয়া থাকিতেন। শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁহার আধ্যাত্মিক অবস্থা লক্ষ্য করিয়া তাঁহাকে অত্যন্ত স্নেহ করিতেন। ঠাকুর তাঁহার অবস্থা দেখিয়া তাঁহার সম্পর্কে ‘পরমহংস অবস্থা’ বলিতেন। ঠাকুর তাঁহার সম্বন্ধে বলিতেন যে তাঁহার আধ্যাত্মিক অনুভূতিলাভ বিশেষ সাধন-ভজনাদির উদ্যোগ ব্যতীতই হয়। নিত্যগোপালের পৃথক ভাবে জন্য ঠাকুর তাঁহার অন্যান্য ভক্তদের তাঁহার সঙ্গে মিশিতে নিষেধ করিতেন। বলিতেন, “ওর ভাব আলাদা, ও এখানকার লোক নয়।” ঠাকুরের তিরোধানের পর ঠাকুরের অস্থিভস্ম কাঁকুড়গাছির যোগোদ্যানে রাখা হয় এবং নিত্যগোপাল তখন পাঁচ-ছয় মাস কাল ঠাকুরের নিত্যপূজা করিতেন। নিত্যগোপাল সেইসময়ে দিনের অধিকাংশ সময় ধ্যান করিয়া কাটাইতেন। তিনি ‘জ্ঞানানন্দ অবধূত’ নাম গ্রহণ করেন। ১১৩ নং রাসবিহারী এভেনিউতে ‘মহানির্বাণ মঠ’ স্থাপন করেন। পানিহাটিতে তাঁহার প্রতিষ্ঠিত অন্য মঠের নাম কৈবল্য মঠ। তাঁহার রচিত প্রায় ২৫ খানা গ্রন্থের মধ্যে কিছু কিছু ইংরেজীতে অনূদিত হইয়াছে।]

 नित्यगोपाल सामने बैठे हुए हैं । सदा ही भावस्थ रहते हैं, बिलकुल चुपचाप ।

[Nityagopal was seated in front of Sri Ramakrishna. He was always in ecstasy. He sat there in silence.

নিত্যগোপাল সামনে উপবিষ্ট। সর্বদা ভাবস্থ, মুখে কথা নাই।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) – गोपाल ! तू तो बस चुपचाप बैठा रहता है ।

[MASTER (to Nityagopal, smiling): "Gopal! Why are you always silent?" Nityagopal answered like a child, 

"I — do — not — know."শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — গোপাল! তুই কেবল চুপ করে থাকিস!

नृत्यगोपाल - (बालक की तरह) - मैं नहीं जानता ।

[Nityagopal answered like a child, "I — do — not — know."

নিত্য (বালকের ন্যায়) — আমি — জানি — না।

श्रीरामकृष्ण - मैं समझा, तू क्यों कुछ नहीं बोलता । शायद तू आज्ञालंघन (transgression) के अपराध  से डरता है। "सच है । जय और विजय नारायण के द्वारपाल थे । सनक सनातन आदि ऋषियों को भीतर जाने से उन्होंने रोका था । इसी अपराध से उन्हें इस संसार में तीन बार *जन्म ग्रहण करना पड़ा था ।

[तीन बार जन्म ** जय और विजय को तीन जन्मों तक पाप-योनि में जन्म लेना पड़ा और भगवान से अगाध शत्रुता के कारण सदैव नारायण के बारे में ही सोचते रहे। पहले जन्म में जय और विजय हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के रूप में जन्मे।  और भगवान विष्णु ने वाराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष तथा नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकशिपु का वध किया। अगले जन्म में उन्होंने रावण और कुम्भकर्ण के रूप में जन्म लिया और भगवान के राम अवतार के हाथों मारे गए। तीसरे और अंतिम जन्म में वे शिशुपाल और दंतवक्र के रूप में जन्मे तथा नारायण के कृष्ण अवतार के हाथों मृत्यु पाकर इस शाप से मुक्त होकर पुनः वैकुण्ठ में स्थान प्राप्त किया।] 

[MASTER: "I understand why you don't say anything, perhaps you are afraid of committing a transgression. You are right. Jaya and Vijaya were gate-keepers for Narayana. They refused Sanaka, Sanatana, and other rishis admission into His palace. For this transgression Jaya and Vijaya had to be born three times on earth.

শ্রীরামকৃষ্ণ — বুঝেছি কিছু বলিস না কেন। অপরাধ?“বটে বটে। জয় বিজয় নারায়ণের দ্বারী, সনক সনাতনাদি ঋষিদের, ভিতরে যেতে বারণ করেছিল। সেই অপরাধে তিনবার এই সংসারে জন্মাতে হয়েছিল।

 “श्रीदामा गोलोक में विरजा के द्वारी थे । श्रीमती (राधिका) कृष्ण को विरजा के मन्दिर में पकड़ने के लिए उनके द्वार पर गयी थीं, और भीतर घुसना चाहा - श्रीदामा ने घुसने नहीं दिया; इस पर राधिका ने शाप दिया कि तू मर्त्यलोक में असुर होकर पैदा हो । श्रीदामा  ने भी शाप दिया था । (सब मुस्कराये ।) परन्तु एक बात है - बच्चा अगर अपने बाप का हाथ पकड़ता है, तो वह गड्ढे में गिर भी सकता है, परन्तु जिसका हाथ बाप पकड़ता है, उसे फिर क्या भय है ?" श्रीदामा  की कथा ब्रह्मवैवर्त पुराण ** में है ।

[ब्रह्मवैवर्त पुराण ** में वर्णित कहानी :  श्रीकृष्ण की सोलह हजार आठ पत्नियां होने के बाद भी राधा रानी का नाम श्रीकृष्ण के साथ पहले जपा जाता है।  लेकिन फिर भी राधा और कृष्ण का कभी मिलन नहीं हो पाया था।  इसका कारण था एक श्राप। इस पुराण के अनुसार देवी राधा भगवान श्रीकृष्ण के साथ गोलोक में निवास करती थी। एक बार राधा गोलोक से कहीं बाहर गयी थी उस समय श्री कृष्ण अपनी विरजा नाम की सखी के साथ विहार कर रहे थे। संयोगवश राधा वहां आ गई। विरजा के साथ कृष्ण को देखकर राधा क्रोधित हो गईं और कृष्ण एवं विरजा को भला बुरा कहने लगी। लज्जावश विरजा नदी बनकर बहने लगी। कृष्ण के प्रति राधा के क्रोधपूर्ण शब्दों को सुनकर कृष्ण का मित्र श्रीदामा आवेश में आ गया। श्रीदामा ने  कृष्ण का पक्ष लेते हुए राधा से आवेशपूर्ण शब्दों में बात करने लगा। श्रीदामा के इस व्यवहार को देखकर राधा नाराज हो गई। देवी राधा ने श्रीदामा को दानव रूप में जन्म लेने का शाप दे दिया। क्रोध में भरे हुए श्रीदामा  ने भी हित अहित का विचार किए बिना राधा को मनुष्य योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। राधा के शाप से श्रीदामा शंखचूर नाम का दानव बना जिसका वध भगवान शिव ने किया। श्रीदामा  के शाप के कारण देवी राधा को (मनुष्य रूप में ) कीर्ति और वृषभानु की पुत्री के रुप में राधाष्टमी (भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी)  के दिन जन्म लेना पड़ा, लेकिन इनका जन्म देवी कीर्ति के गर्भ से नहीं हुआ था। ]

 [(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

🔆🙏विभिन्न आधार के मनुष्यों के प्रति श्री रामकृष्ण की विभिन्न "अवस्थायें और विचार "🔆🙏

[সবরকম লোকের জন্য শ্রীরামকৃষ্ণের নানারকম “ভাব ও অবস্থা” ]

केदार चैटर्जी ** इस समय ढाका में रहते हैं । वे सरकारी नौकरी करते हैं । पहले उनका आफिस कलकत्ते में था । अब ढाके में है । वे श्रीरामकृष्ण के परम भक्त हैं । ढाके में बहुत से भक्तों का साथ हो चुका है । वे भक्त सदा ही उनके पास आते और उपदेश ले जाया करते हैं । अवतारी महापुरुष (संन्यासियों , जीवनमुक्त शिक्षकों या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं) के दर्शनों के लिए खाली हाथ न जाना चाहिए, इस विचार से वे भक्त केदार के लिए मिठाइयाँ ले आया करते हैं।

[Kedar, who was a government official, had been living at Dacca for some time. He had been transferred there from Calcutta. He was a devotee of Sri Ramakrishna and had gathered together at Dacca many devotees, who came to him regularly for spiritual instruction. As one should not come empty-handed to a religious man, the devotees would bring Kedar sweets and other offerings.

কেদার (চাটুজ্যে) এখন ঢাকায় থাকেন, তিনি সরকারি কর্ম করেন। আগে কর্মস্থল কলিকাতায় ছিল, এখন ঢাকায়। তিনি ঠাকুরের পরমভক্ত। ঢাকায় অনেকগুলি ভক্তের সঙ্গ হইয়াছে। সেই সকল ভক্তেরা তাঁর কাছে সর্বদা আসেন ও উপদেশ গ্রহণ করেন। শুধু হাতে ভক্তদর্শনে আসতে নাই। অনেকে মিষ্টান্নাদি আনেন ও কেদারকে নিবেদন করেন।

[केदार (केदारनाथ चट्टोपाध्याय) ** Kedar (Kedarnath Chattopadhyay) - ठाकुर के  एक विशेष प्रिय गृही शिष्य। हालीशहर निवासी केदारनाथ का मूल आवास ढाका में है। वे  ढाका के एक सरकारी कार्यालय में अकाउंटेंट के रूप में काम करते थे । 1880 ई. में उन्हें ठाकुर के प्रथम दर्शन हुए। अपने प्रारंभिक जीवन में, केदारनाथ ब्रह्म समाज, करताभजा , नवरसिक सम्प्रदाय आदि जैसे विभिन्न सम्प्रदायों में शामिल हो गए थे। परन्तु अंत में दक्षिणेश्वर में श्री रामकृष्ण की शरण ली। ढाका में रहते हुए, वे श्री श्री विजयकृष्ण गोस्वामी के साथ श्री रामकृष्ण की चर्चा करते थे। जैसे ही वे ढाका से कलकत्ता आते थे, वे दक्षिणेश्वर में ठाकुर के पास जाते थे। केदारनाथ को नरेंद्रनाथ के साथ बहस करते देखकर ठाकुर को बहुत आनन्द होता था।]

केदार - (विनयपूर्वक) - क्या मैं उनकी चीजें खाया करूँ ?

[KEDAR (to the Master, humbly): "Should I eat those offerings?"

কেদার (অতি বিনীতভাবে) — তাদের জিনিস কি খাব?

श्रीरामकृष्ण - अगर ईश्वर पर भक्ति करके देता हो तो दोष नहीं है । कामना करके देने से वह चीज अच्छी नहीं होती ।

[MASTER: "It won't injure you it the offerings are given out of love for God. But they are harmful if they are given with any selfish motive."

শ্রীরামকৃষ্ণ — যদি ঈশ্বরে ভক্তি করে দেয়, তাহলে দোষ নাই। কামনা করে দিলে সে জিনিস ভাল নয়।

केदार - मैंने उन लोगों से कह दिया है । मैं अब निश्चिन्त हूँ । मैंने कहा है, मुझ पर जिन्होंने कृपा की है, वे सब जानते हैं ।

[KEDAR: "I have explained everything to the devotees and now I feel relieved. I have told them that he (Sri Ramakrishna) who has given me his blessing knows all."

 কেদার — আমি তাদের বলেছি, আমি নিশ্চিন্ত। আমি বলেছি, যিনি আমায় কৃপা করেছেন, তিনি সব জানেন।

श्रीरामकृष्ण – (सहास्य) – यह तो सच है, यहाँ बहुत तरह के आदमी आते हैं, वे अनेक प्रकार के भाव भी देखते हैं ।

[MASTER (smiling): "That is true. You see, people of all sorts come here. So they find here different things."

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তা তো সত্য। এখানে সবরকম লোক আসে, তাই সবরকম ভাব দেখতে পায়।

केदार - मुझे अनेक विषयों के जानने की जरूरत नहीं है ।

[KEDAR: "I do not need to know different things."

কেদার — আমার নানা বিষয় জানা দরকার নাই।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - नहीं जी, जरा जरा सा सब कुछ चाहिए । अगर कोई पंसारी की दूकान खोलता है, तो उसे सब तरह की चीजें रखनी पड़ती हैं । कुछ मसूर की दाल भी चाहिए और कहीं जरा इमली भी रख ली - यह सब रखना ही पड़ता है । "जो बाजे का उस्ताद है, वह कुछ कुछ सब तरह के बाजे बजा सकता है ।"

[MASTER (smiling): "Why not? One should know a little of everything. If a man starts a grocery-shop, he keeps all kinds of articles there, including a little lentil and tamarind. An expert musician knows how to play a little on all instruments."

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — না গো, সব একটু একটু চাই। যদি মুদীর দোকান কেউ করে, সবরকম রাখতে হয় — কিছু মুসুর ডালও চাই, হলো খানিকটা তেঁতুল, — এ-সব রাখতে হয়। “বাজনার যে ওস্তাদ, সব বাজনা সে কিছু কিছু বাজাতে পারে।”

श्रीरामकृष्ण झाऊतल्ले में शौच के लिए गये । एक भक्त गड्डुआ लेकर वहीं रख आये ।भक्तगण इधर-उधर घूम रहे हैं । कोई श्रीठाकुरमन्दिर की ओर चले गये, कोई पंचवटी की ओर लौट रहे हैं। श्रीरामकृष्ण ने वहाँ आकर कहा - "दो तीन बार शौच के लिए जाना पड़ा, मल्लिक के यहाँ का खाना - घोर विषयी है, पेट गरम हो गया ।”

[Sri Ramakrishna left the room and went toward the pine-grove. The devotees began to walk about in the garden. Several went to the Panchavati. Sri Ramakrishna met them there and said: "I have indigestion. I took a meal' at the Mallicks'. They are very worldly people."

ঠাকুর ঝাউতলায় বাহ্যে গেলেন — একটি ভক্ত গাড়ু লইয়া সেইখানে রাখিয়া আসিলেন।ভক্তেরা এদিক-ওদিক বেড়াইতেছেন — কেহ বা ঠাকুরের ঘরের দিকে গমন করিলেন, কেহ কেহ পঞ্চবটীতে ফিরিয়া আসিতেছেন। ঠাকুর সেখানে আসিয়া বলিলেন — “দু-তিনবার বাহ্যে গেলুম। মল্লিকের বাড়ি খাওয়া; — ঘোর বিষয়ী। পেট গরম হয়েছে।”


 [(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

🔆🙏समाधिस्त पुरुष (श्री रामकृष्ण) पान के डब्बे (Nda नस्सी डब्बे) का स्मरण🔆🙏

[সমাধিস্থ পুরুষের (শ্রীরামকৃষ্ণের) পানের ডিবে স্মরণ ]

श्रीरामकृष्ण के पान का डब्बा पंचवटी के चबूतरे पर अब भी पड़ा हुआ है; और भी दो एक चीजें पड़ी हुई हैं ।

श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा - "वह डब्बा, और क्या क्या है, कमरे में ले आओ ।” यह कहकर श्रीरामकृष्ण अपने कमरे की ओर जाने लगे । पीछे पीछे भक्त भी आ रहे हैं । किसी के हाथ में पान का डब्बा है, किसी के हाथ में गडुआ आदि ।

[A few of the Master's personal things lay scattered on the cement platform of the Panchavati, and he asked M. to bring them. He proceeded to his room and the devotees followed.

ঠাকুরের পানের ডিবে পঞ্চবটীর চাতালে এখনও পড়িয়া রহিয়াছে। আরও দু-একটি জিনিস। শ্রীরামকৃষ্ণ মাস্টারকে বললেন, “ওই ডিবে আর কি কি আছে, ঘরে আন।” এই বলিয়া ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ নিজের ঘরের দিকে দক্ষিণাস্য হইয়া আসিতে লাগিলেন। ভক্তেরা সঙ্গে সঙ্গে পশ্চাতে আসিতেছেন। কাহারও হাতে পানের ডিবে, কাহারও হাতে গাড়ু ইত্যাদি।

श्रीरामकृष्ण दोपहर के बाद कुछ विश्राम कर रहे हैं । दो-चार भक्त भी वहाँ आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण छोटी खाट पर एक छोटे तकिये के सहारे बैठे हुए हैं । 

[In the afternoon the Master rested awhile. Afterwards a few devotees arrived. The Master sat on the small couch reclining against a pillow.

ঠাকুর মধ্যাহ্নের পর একটু বিশ্রাম করিয়াছেন। দুই-চারিটি ভক্ত আসিয়া বসিলেন। ঠাকুর ছোট খাটটিতে একটি ছোট তাকিয়া হেলান দিয়া বসিয়া আছেন।

  [(27 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 105 ]

🔆🙏क्या साधना करके एक ही आधार में ज्ञानी और भक्त का भाव रहना सम्भव है🔆🙏 

[জ্ঞানী ও ভক্তের ভাব একাধারে কি হয়? সাধনা চাই ]

 एक भक्त ने पूछा – "महाराज, ज्ञान के द्वारा क्या ईश्वर के गुण समझे जाते हैं ?"

[A DEVOTEE: "Sir, can one know God's attributes through the intellect?"

একজন ভক্ত জিজ্ঞাসা করিলেন —“মহাশয়, জ্ঞানে কি ঈশ্বরের Attributes — গুণ — জানা যায়?

श्रीरामकृष्ण ने कहा - "वे इस ज्ञान से नहीं समझे जाते; एकाएक क्या कभी कोई उन्हें जान सकता है ? साधना करनी चाहिए । एक बात और, किसी भाव का आश्रय लेना । जैसे दासभाव । ऋषियों का शान्तभाव था । ज्ञानियों का भाव क्या है, जानते हो ? स्वरूप की चिन्ता करना । (एक भक्त के प्रति हँसकर) तुम्हारा क्या है ?"

[MASTER: "Certainly not by this ordinary intellect. Can one know God so easily? One must practise sadhana. One must also adopt a particular attitude toward God, for instance, the attitude of a servant toward his master. The. rishis of old had the attitude of santa. Do you know the attitude of the jnanis? It is to meditate on one's own Self. (To a devotee, with a smile) What is your attitude?"

ঠাকুর বলিলেন, “সে এ-জ্ঞানে নয়। অমনি কি তাঁকে জানা যায়? সাধন করতে হয়। আর, একটা কোন ভাব আশ্রয় করতে হয়। দাসভাব। ঋষীদের শান্তভাব ছিল! জ্ঞানীদের কি ভাব জানো? স্ব-স্বরূপকে চিন্তা করা। (একজন ভক্তের প্রতি, সহাস্যে) — তোমার কি?”

भक्त चुपचाप बैठे रहे ।

[The devotee gave no answer.

ভক্তটি চুপ করিয়া রহিলেন।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - तुम्हारे दो भाव हैं । स्वरूपचिन्ता करना भी है और सेव्य-सेवक का भाव भी है । क्यों, ठीक है या नहीं ?

[MASTER (smiling): "You have two attitudes: you meditate on your own Self and also cherish toward God the attitude of a servant. Am I not right?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তোমার দুইভাব — স্ব-স্বরূপকে চিন্তা করাও বটে, আবার সেব্য-সেবকেরও ভাব বটে। কেমন ঠিক কি না?

भक्त - (सहास्य और ससंकोच) - जी हाँ ।

[DEVOTEE (hesitating and smiling): "Yes, sir."

ভক্ত (সহাস্যে ও কুণ্ঠিতভাবে) — আজ্ঞা, হাঁ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - इसीलिए हाजरा कहता है, तुम मन की बातें सब समझ लेते हो । यह भाव कुछ बढ़ जाने पर होता है । प्रह्लाद को हुआ था । "परन्तु उस भाव की साधना के लिए कर्म चाहिए ।

[MASTER (smiling): "You see, as Hazra says, I can read people's thoughts. "One can maintain those two attitudes only at a very advanced stage. Prahlada maintained them. But one must work hard in order to practise this ideal.

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্য) — তাই হাজরা বলে, তুমি মনের কথা সব বুঝতে পার। ও-ভাব খুব এগিয়ে গেলে হয়। প্রহ্লাদের হয়েছিল। “কিন্তু ও ভাব সাধন করতে গেলে কর্ম চাই।

"एक आदमी बेर का काँटा एक हाथ से दबाकर पकड़े हुए हैं - हाथ से खून टप-टप गिर रहा है, फिर भी वह कहता है, मुझे कुछ नहीं हुआ । लगा नहीं । पूछने पर कहता है, मैं खूब अच्छा हूँ । मुझे कुछ नहीं हुआ । पर यह बात केवल जबान से कहने से क्या होगा ? भाव की साधना होनी चाहिए ।”

["Let me give an illustration. Suppose a man is grasping the thorny branch of a plum-tree. His hand bleeds profusely; but he says, There is nothing the matter with me; I am not hurt.' If you ask him about his wound, he will say, 'It's all right; I am quite well.' Now is there any meaning in the mere utterance of these words? One must practise discipline in keeping with this ideal."

“একজন কুলগাছের কাঁটা টিপে ধরে আছে — হাত দিয়ে রক্ত দরদর করে পড়ছে, কিন্তু বলে, আমার কিছু হয় নাই, লাগে নাই! জিজ্ঞাসা করলে বলে, — ‘বেশ বেশ’। এ-কথা শুধু মুখে বললে কি হবে? ভাব সাধন করতে হয়।”

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*परिच्छेद- १०५ के विचार बिन्दु * - 

1*प्रसंग बंकिमचन्द्र लिखित 'देवी चौधरानी ' में प्रफुल्ल नामक स्त्री आध्यात्मिक डाकू भवानी ठाकुर के पल्ले पड़ी थी। बाद में इसका नाम देवी चौधरानी हुआ।  इस पुस्तक में निष्काम कर्म की बातें  लिखी हैं - राजा जनक का कर्तव्य  : गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए -'दुष्टदलन और शिष्ट पालन।' 

2 * अनन्त को इस छोटे से हृदय-पिञ्जर में हम रख नहीं सकते, सान्त को रख सकते हैं।  असीम-अनन्त भगवान को ससीम ह्रदय में रखने का उपाय है-पतिव्रता धर्म । पुरुष-स्त्री -जब मूर्ति में भगवान हैं , तो पति -पत्नी एक दूसरे को हरगौरी (शिव-दुर्गा) की दृष्टि से क्यों नहीं देख सकते।  प्रेम के पवित्र होने पर, पति ईश्वर के पथ पर चढ़ने का प्रथम सोपान है । यही कारण है कि पति ही हिन्दू स्त्रियों का देवता है । इस जगह (पतिपरमेश्वर-भाव ) में , दूसरे समाज की विवाह पद्धति हिन्दू समाज की विवाह-पद्धति से निकृष्ट हैं ।

3.भवानी पाठक प्रफुल्ल को पहले  'Single Gender Education '  `opposite of education of both sexes together.? शिक्षा पद्धति में आध्यात्मिक शिक्षा  देने लगे।  क्योंकि भगवान की भक्ति से पहले या शिक्षा ? मरा -म=पहले ईश्वर,फिर रा =संसार। 

4. निरहंकार और आसक्तिरहित  हुए बिना धर्माचरण नहीं होता ।

5. उत्तम भक्त बनना है तो - पटवारी बुद्धि व्यर्थ है, बेझिझक मनुष्य निर्माण आन्दोलन में कूद पड़ो। 

6. विषय लोग और उनकी भाषा - `मन मुख एक करें विचार,बोली कर्म।' 

7. जैसे एक बार सूँघने से गुलाब की सुगंध चित्त में बस जाती है,वैसे ही एकबार का अनुभूत आत्मस्वरुप शुद्ध मन में बसा रहता है।   

8. देवी चौधरानी का सार योग रूपी विप्लवी -दूरबीन से ईश्वर दिखाई पड़ते हैं । पतिव्रता-धर्म का मर्म । 

9. प्लु-धातु के अनुसार योग रूपी विप्लवी दूरबीन से  प्रथम विप्लवी या प्रथम इन्कलाबी श्रीरामकृष्ण की (ब्रह्मवेत्ता अवस्था) साम्य अवस्था और सर्वभूतों में ईश्वर दर्शन: पाल् धातु रूप: पाल लगाकर  पवन की शक्ति द्वारा किसी वाहन को जल, हिम या धरती पर आगे धकेलने के एक साधन को कहते हैं। आमतौर पर पाल कपड़े या अन्य किसी सामग्री से बनी होती है।  पाली ज़िला भारत के राजस्थान राज्य का एक ज़िला है। ज़िले का मुख्यालय पाली है। ज़िले की पूर्वी सीमाएं अरावली पर्वत श्रृंखला से जुड़ी हैं। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की रूपरेखा तैयार करने में प्रमुख श्री बिपिन चंद्र पाल एक भारतीय क्रांतिकारी थे। पालि साहित्य में मुख्यत: बौद्ध धर्म के संस्थापक  “पाल राजवंश” को “पाल क्षत्रिय "  भगवान् बुद्ध के उपदेशों का संग्रह है। [संस्कृत अभ्यास : प्लु धातु रूप - लट् लकार : प्रथम पुरुष -एकवचन-प्लवते/ द्विवचन-प्लवेते/ बहुवचन- प्लवन्ते। कर्मणि प्रयोग आत्मनेपद : प्रथम पुरुष- एकवचन- प्लूयते/ द्विवचन-प्लूयेते/ बहुवचन-प्लूयन्ते। संस्कृत क्रियापद अभ्यास - प्लु - प्लुङ् गतौ भ्वादिः - कर्तरि प्रयोग लट् लकार परस्मैपद। लट् (वर्तमानकाल -Present Tense)/ लुट् (सामान्य भविष्यत्काल Common Future Tense)/ लुङ् (हतुहेतुमद् भविष्यत्काल Help Past Tense) / लङ् (अनद्यतन भूतकाल Anadhatan Past Tense)/ लोट् (आदेशवाचक Commander)/ विधिलिङ् (अनुज्ञा-विधिवाचक - चपरास में प्राप्त License) ]  

10. छवि में ठाकुर का आविर्भाव - मनुष्य में विवेकदर्शन ? /नित्यसिद्धि और संसार/अन्त में नरलीला में ही मन लीन हो जाता है ।

11. ठाकुर, माँ, स्वामीजी को देखने का उपाय-  तीव्र वैराग्य /और यह भावना कि ठाकुर मेरे 'पिता ' हैं, माँ सारदा मेरी अपनी माँ हैं, और स्वामीजी बड़े भाई हैं। 

12. चैतन्यदेव (अवतार या ईश्वरकोटि) की इच्छाशक्ति (Willpower) प्रबल और साधारण कोटि के जीव की संकल्पशक्ति दुर्बल। 

13. विवेकदर्शन का अभ्यास ही योग है - योगी के लक्षण। 

14. 'अवतार' को कोई 'अपराध' नहीं लगता; जय-विजय का उदाहरण ,जय-विजय को सनत कुमारों का श्राप और, श्रीदामा को श्रीराधा का श्राप।  

15. विभिन्न आधार के मनुष्यों के प्रति श्री रामकृष्ण की विभिन्न "अवस्थायें और विचार।  "

16 .समाधिस्त पुरुष (श्री रामकृष्ण) पान के डब्बे (Nda नस्सी डब्बे) का स्मरण। 

17 . क्या साधना करके एक ही आधार (नवनीदा) में ज्ञानी और भक्त का भाव रहना सम्भव है?

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