समन्वय और शान्ति के लिये धर्म
'धर्म', 'समन्वय' और 'शान्ति' के विषय में हमारी धारणा अत्यन्त अस्पष्ट (vague) है। हम लोग इन सब विषयों के बारे में एक प्रकार से संदेहात्मक विचार रखते हैं। हम कहते हैं - मैं धर्म में विश्वास रखता हूँ। समन्वय का अर्थ हमलोग सम्मिलन (reunion) समझते हैं। शान्ति कहते समय हम लोग क्या सोचते हैं -ठीक ठीक बता नहीं सकते।
धर्म वह वस्तु है जो मनुष्य को धारण करती है। सृष्टि रचने के साथ ही साथ ब्रह्माजी ने यह विचार किया कि सृष्टि की रक्षा के लिए कोई व्यवस्था रहनी जरुरी है। इसीलिये उन्होंने सृष्टि की रक्षा के लिये एक मंगलवस्तु का निर्माण किया - यह बात बृहदारण्यक उपनिषद में कही गयी है। उसी मंगलवस्तु (कल्याणकारी पद्धति) का नाम है -धर्म। धर्म की दो दिशायें हैं। पहला उसकी तात्विक (आध्यात्मिक essence) दिशा है , और दूसरा उसे व्यावहारिक रूप देने की दिशा है , बृहदारण्यक में भी यही बात कही गयी थी। स्वामीजी ने धर्म के इसी व्यावहारिक पक्ष ऊपर अधिक बल दिया है। स्वामीजी की मान्यता यह थी कि जो धर्म या दर्शन यदि मनुष्य के कल्याण के लिए, उसकी यथार्थ उन्नति के लिए, उसे अपने व्यवहार में लाने का उपाय न बता सके, तो वैसे धर्म या दर्शन का कोई मोल नहीं है,वह व्यर्थ है। इसीलिए स्वामीजी अक्सर व्यावहारिक धर्म (वेदान्त) पर चर्चा करते थे।
हमारे शास्त्रों में कहा गया है -केवल शास्त्रों को पढ़ने या जान लेने से ही दर्शन का ज्ञान नहीं होता, धर्मलाभ नहीं होता। जो मनुष्य क्रियाशील है, वही विद्वान है। जो लोग शास्त्रों में बतलाये गये उपदेशों का प्रयोग अपने जीवन में कर सकते हैं, सच्चे विद्वान् तो वे ही हैं। केवल कुछ विषयों को 'जान लेने ' से ही वे विद्या (Knowledge) अनुशासन में परिणत नहीं हो जाती। विद्या का प्रयोग भी होना चाहिए। यदि हम उसे 'प्रयोग' में नहीं लाएँ तो वह व्यर्थ है। हमलोग जब कोई चीज जानते हैं , या कोई की ज्ञान की बात दूसरों को 'सुनाते' हैं , और जब उसी ज्ञान का व्यवहार अपने दैनंदिन जीवन में भी करते हैं - उसी चार समय पर हमारी विद्या प्रभावी होती है।
पतंजलि ने अपने व्याकरण -महाभाष्य में बहुत सुंदर ढंग से कहा है। कोई भी विद्या चार भागों में उपयुक्त होती है। जिस समय उसे सीख रहा हूँ, यह उसकी एक उपयुक्तता है , सीखी हुई विद्या को अपनी स्मृति में रखने के बार- बार उसको दुहराता हूँ, उसमें महारत हासिल करने , चरित्रगत करने या आत्मसात करने के लिए जिस विषय की चर्चा हमलोग बार-बार करते हैं, फिर अपने जीवन में ढाल लेने के लिए -जब हम कोई क्रिया करते हैं , फिर उस विद्या के विषय में दूसरों को बतलाते हैं , और स्वयं जब उसका व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करते हैं। जो धर्म कार्यान्वित नहीं हो सके, जो धर्म केवल मंदिर -मस्जिद -गिरजा में बंधा हो वह धर्म नहीं है। धर्म तो व्यवहार में अपनाने की चीज है। शंकरचार्य इस उपनिषद के भाष्य में कहते हैं -धर्म दो कार्य करेगा। एक वह सत्य देगा और उसको व्यवहार करना बतलायेगा। सत्य और प्रयोग। धर्म की दो दिशायें हैं। इन्हीं दो को एक साथ रखना धर्म है। जब हमलोग धर्म के इस बात को समझ लेते हैं , तब उसीको महाभारत में कहा गया है - जो धारण करे वही धर्म है।
यदि धर्म के इसी भाव को हमलोग ग्रहण करें तो यह प्रश्न कहाँ उठता कि मैं हिन्दू हूँ या मुसलमान , या ईसाई , सिख ,बौद्ध या जैन हूँ -और कुछ हूँ। असली बात तो यह है कि क्या मैं धर्म चाहता हूँ ? यदि चाहता हूँ , तो मुझे यह जानने की कोई आवश्यकता नहीं कि- कौन सा धर्म? धर्म दो प्रकार के हैं , स्वामीजी कहते थे - छोटे- छोटे लेबल लगा धर्म एक प्रकार का है , और दूसरे प्रकार का धर्म है -महाधर्म। जिस धर्म का कार्य होगा - सभी प्राणियों , सभी मनुष्यों की रक्षा करना। उनको ऊपर उठने में सहायता करना। महाभारत में कहा गया है -
" प्रभवार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम् ।
य: स्यात्प्रभवसंयुक्त: स धर्म इति निश्चयः।। "
(महाभारत १२.१०९.१० )' प्रभवार्थाय ' ---अर्थात धर्म होता है मनुष्यों की उन्नति के लिये, उनके विकास के लिए। महर्षियों ने मनुष्य की उन्नति के लिए ही धर्म का प्रवचन किया है। जिससे मनुष्य का कल्याण होता हो वही धर्म है। (The sole aim with which Dharma is advocated is to bring about the evolution of living beings. A doctrine preaches that that which is able to bring about evolution is Dharma. - Mahabharat 12.109.10)
कैसी सुंदर अनुभूति है। यह सोचने का कोई कारण नहीं कि चूँकि यह महाभारत में कहा गया है , इसलिए यह केवल हिन्दुओं के लिए है। नहीं , वैसी बात नहीं है। यह तो सम्पूर्ण विश्व के लिए है। मानवमात्र के लिए कहा गया है। हमलोगों के देश का धर्म केवल इसी देश के लिए निर्मित नहीं हुआ था। वेद संहिता में कहा गया है यह धर्म जिस प्रकार देश के लिए उपयुक्त है , वैसे ही विदेश के लिए भी। हमलोग क्या इस धर्म को केवल भारतवर्ष में , मंदिरों में या हमलोगों के अन्य दो-चार जो स्थान हैं ,वहीं तक सिमित कर देंगे ? वेद क्या कहता है ? यही कि हमलोग अभी जिस धर्म की चर्चा कर रहे हैं , जो कल्याणकारी धर्म है , वह सभी मनुष्यों के लिए है , उसे सभी मनुष्यों को दो।
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च।"
इस कल्याणी वेद-वाणी को " आवदानि जनेभ्यः " -सभी मनुष्यों को दो। " ब्रह्मराजन्याभ्यां" ब्राह्मणों को दो, क्षत्रियों को दो।"शूद्राय चार्याय च" -वैश्य को दो , शूद्र को दो। "स्वाय चारणाय च" -इस देश के लोगों को दो विदेशी लोगों को दो। वेद कह रहा है , हमलोगों या तो पढ़ा नहीं है, या उसका अर्थ नहीं समझा है। ठाकुर ने स्वामीजी को अपना यंत्र बनाकर, उनसे यही कार्य करवाया था। क्योंकि वेद कहता है - " कृण्वन्तो विश्वमार्यम् । - (ऋग्वेद ९।६३।५) सारे संसार के मनुष्यों को श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाव वाले बनाओ।
विश्व के इतिहास में स्वामीजी के पहले ऐसी घटना कभी नहीं घटित हुई थी। वेद ने कितने हजार वर्ष पहले ही कह दिया था- इस देश के लोगों को और विदेशी लोगों को धर्म के तत्व सुनाओ ! धर्म माने जो यथार्थ में महाधर्म है , लेबल वाला छोटा-धर्म नहीं, उसी को दो। स्वामी विवेकानन्द हिन्दू धर्म पर भाषण देने के लिए पाश्चात्य देशों में नहीं गए थे। ऐतिहासिक रूपसे ऐसा कहना ठीक नहीं होगा कि स्वामीजी ने विश्वधर्म महासभा में हिन्दू धर्म को प्रतिष्ठित कर दिया था , या हिन्दू धर्म की विजय-पताका लहरा आये थे। स्वामीजी ने कहा था , मुझे वहां 'हिन्दुधर्म' पर जो निबंध पढ़ना पड़ा था , उसे मैंने अपना उत्तरदायित्व समझकर कष्ट से पढ़ा था। दक्षिण भारत में स्वामीजी के विदेश जाने के लिए, जो धन इकट्ठा किया गया था, उसे स्वामीजी ने-- शिकागो जाकर मुझे हिन्दुधर्म के बारे में बोलना होगा, यदि इस शर्त पर आपलोग धन देंगे तो वापस कर दूंगा , यह कहकर उन्होंने दो बार धन वापस भी लौटा दिया था। मैं वहां जाकर क्या बोलूंगा , या नहीं बोलूंगा यह सब मैं कुछ नहीं जानता। मैं वहां क्यों जा रहा हूँ यह भी नहीं जनता। कन्याकुमारी में विदेश जाने की एक प्रेरणा आयी है। ठाकुर ने संकेत में कहा है , समुद्र के पार जाओ। माँ का आशीर्वाद मिल गया है , जाऊंगा। किन्तु यदि आप लोग यह कहेंगे कि हमलोगआपको धन इसीलिए दे रहे हैं कि आपको अमेरिका जाकर हिन्दुधर्म के विषय में बोलना होगा तो मैं आपलोगों से धन नहीं लूंगा।
स्वामीजी के जीवन का इतिहास अच्छे से पढ़ने की जरूत है। पत्र-पत्रिका में या इधर-उधर से शिकागो भाषण पर एक -दो लेख पढ़कर, जो हो सकता है गलत तथ्य से भरे हों , स्वामीजी के सम्बन्ध में कोई धारणा बना लेना उचित नहीं है। स्वामीजी ने एक जगह कहा है , " मेरे देश में अनगिनत लोग कुपोषण से, बिना आवास और वस्त्र के मर रहे हैं रे , तुम्हारे शिकागो में होने वाले विश्वधर्म संसद की परवाह कौन करता है? इसे पढ़कर समझने की जरूरत है। स्वामीजी कहते हैं -मैं तो वहां इसी प्रेरणा से गया था कि विदेश जाकर इनके लिए कुछ कर सकूंगा ।
प्रोफेसर राईट ने स्वामीजी से कहा था , " देखिये संयोग वश हिन्दू धर्म पर बोलने के लिए किसी को निमंत्रण पत्र नहीं भेजा गया था। उसके कई कारण थे , वे सब हास्यास्पद बातें हो सकती हैं। और बिना निमंत्रण आप यह सोचकर यहाँ आ गए हैं कि आप विश्वधर्म सभा में भाग ले सकेंगे ! लेकिन आपको वहां कोई बोलने का अवसर नहीं देगा क्योंकि अनुमति देने का समय तो निकल चुका है। मेरे कहने से हो सकता है , वे लोग मान भी जाएँ लेकिन वहाँ जाने के लिए आपको किसी एक धर्म का प्रतिनिधित्व करना होगा। यह ठीक है कि आप यहाँ किसी लेबल वाले धर्म का प्रचार करने के लिए नहीं आये हैं। लेकिन हिन्दुधर्म का प्रतिनिधि होकर यहाँ कोई नहीं आया है , यदि आप हिन्दुधर्म बोलने के लिए राजी हो जाएँ , तो मैं कोई उपाय निकाल सकता हूँ। " बाध्य होकर स्वामीजी हिन्दुधर्म पर बोलने के लिए राजी होना पड़ा। स्वामीजी को जीवन में पहली बार एक लिखित निबंध का पाठ करना पड़ा। हमलोग नहीं जानते कि उन्होंने अपने जीवन में फिर कभी दूसरी बार कहीं लिखित निबंध पढ़कर भाषण दिया हो। क्योंकि उसमें जो कुछ उन्होंने कहा था , वह उनके मन से नहीं निकला था। विश्व धर्म महासभा में हिन्दुधर्म का प्रतिनधि के रूप स्वीकृत होने के लिए उन्हें 'Paper on Hinduism' का लिखित व्यख्यान पढ़ना पड़ा था।
स्वामी विवेकानन्द साहित्य, जो हिन्दी में पहली बार 1963 ई ० में 10 खण्डों में प्रकाशित हुआ था , वह सर्वप्रथम 1907 ई ० में अंग्रेजी में 8 खण्डों में प्रकाशित हुआ था। उसकी भूमिका में भगिनी निवेदिता लिखती हैं -" Of the Swami's address before the Parliament of Religions, it may be said that when he began to speak it was of "the religious ideas of the Hindus", but when he ended, Hinduism had been created."--अर्थात " विश्व धर्म महासभा के समक्ष जब स्वामी जी ने अपना भाषण आरम्भ किया, तो विषय था; `हिन्दुओं के धार्मिक विचार ' किन्तु जब उन्होंने समाप्त किया, तब तक 'हिन्दुत्व' (Hinduism या हिन्दू धर्म) का जन्म हो चुका था । " निवेदिता विदेशिनी होकर भी भारत से प्रेम करती थीं , भारत के धर्म को हिन्दुधर्म कहा जाता है, केवल कुछ बोल देना है, क्या इसीलिए निवेदिता ने हिन्दुत्व (Hinduism) शब्द का प्रयोग किया था ? नहीं, जिसे यह तथाकथित हिन्दुधर्म कहा जाता है ,(कोट पर जनेऊ पहन लेने या टिक्का लगा लेने को?), उस धर्म की मूल बात कहते कहते समय जब अपनी बात को उन्होंने समाप्त किया, उस समय आधुनिक युग में धरती पर पहली बार 'मनुष्य के धर्म' का जन्म हुआ था। हिन्दुत्व या हिन्दू धर्म ने जन्म-ग्रहण नहीं किया था। क्योंकि उस भाषण में स्वामीजी ने बार-बार उसकी सभ्यता की बात कही थी , अमुक धर्म या वह धर्म नहीं कहा था। तो वहां नए रूप में हिन्दु धर्म जन्म कैसे ले सकता था ? निवेदिता भारतवर्ष को नए परिचय के कारण प्रेम करती थीं , इस पर श्रद्धा रखती थीं , इसमें कुछ संदेह नहीं है। किन्तु इसीलिए उन्होंने हिन्दुत्व (Hinduism) शब्द का प्रयोग किया होगा, वैसा सोचना ठीक नहीं। स्वामीजी ने आधुनिक युग के मनुष्यों को जो धर्म दिया था , वे उसको इंगित करना चाहती थीं। रवीन्द्रनाथ ने 'मनुष्य का धर्म' (Religion of Man) के नाम से एक विशाल भाषण दिया था , उसके प्रत्येक पंक्ति में स्वामीजी के इन्हीं विचारों का प्रभाव दिखाई देता है ।
हमने जो पहले वेद के आदेश को सुना " कृण्वन्तो विश्वमार्यम् ।" अर्थात विश्व को आर्य बनाओ। आर्य बनाने का अर्थ हमलोग क्या समझेंगे ? हमलोगों के आर्य बुद्धि , हिन्दू बुद्धि की बातें तो आजकल बहुत चल रही हैं। आर्य का अर्थ होता है संस्कृत। हमलोग न तो आर्य का अर्थ समझते हैं न संस्कृत का अर्थ समझते हैं। अंग्रेजी में कहने से हो सकता है समझेंगे - Cultured, आर्य का अर्थ हुआ Cultured , और संस्कृत का अर्थ भी हुआ Cultured , इस प्रकार " कृण्वन्तो विश्वमार्यम् ।"का अर्थ हुआ समस्त विश्व के मनुष्यों को Cultured करो ! हम कहते हैं वहां का Cultural level अत्यन्त Low है। Cultured होने का प्रमाण क्या है ? Culture -की परिभाषा क्या है ? जिसको हमलोग आमतौर पर 'संस्कृति ' कहते हैं , रवीन्द्रनाथ ने उसके लिए एक नए शब्द का प्रयोग किया था - कृष्टि (कृषि 'Agriculture'?) -इसका क्या अर्थ हुआ ? इसका ठीक ठीक परिभाषा मिलना कठिन है। किन्तु स्वामीजी ने कहा है , " उसी राष्ट्र की संस्कृति या Culture उतना अधिक श्रेष्ठ है , जहाँ के बहुसंख्यक (numerous, अनगिनत ) मनुष्यों की आध्यात्मिक उन्नति हुई है। " स्वामीजी ने कहा है की Culture की कसौटी (Criteria) है आध्यात्मिक उन्नति , इस प्रकार जगत मनुष्यों को आर्य करने , संस्कृत करने या Cultured करने का अर्थ हुआ मनुष्यजाति के संस्कृति के स्तर को उन्नत करना। स्वामीजी ने यही कार्य किया था। जहाँ जैसी प्रकार का भेद नहीं हो , द्वंद्व नहीं हो - वहीँ है Harmony -या समन्वय।
हम लोग समन्वय का अर्थ समझते हैं -' Put together ' सब कुछ को इकट्ठा करना। श्रीरामकृष्णदेव ने हिन्दुधर्म की साधना की थी , इस्लाम की साधना की थी , ईसाई धर्म की साधना की थी। इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई को एक बना दिया था। ठाकुरदेव के अमृत-उपदेशों को देखने से ही यह बात समझ में आ जाती है। उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि सभी एक हैं। अलग-अलग मार्ग की साधना करके , तीन चार प्रकार के खीर अलग-अलग कटोरी में खाने या उसका भिन्न-भिन्न स्वाद लेने के बाद उन्होंने कहा था - सब कुछ खीर ही रे ! अर्थात सभी कटोरी के खीर में दूध है। चीनी की मिठास सभी खीर में है। इसलिए सभी में खीर है। ऐसा करने का अर्थ यह नहीं कि जो हिन्दुधर्म है , वही इस्लाम धर्म है और वही ईसाई धर्म है। समन्वय का तात्पर्य यह नहीं है।
समन्वय का अर्थ है -'अविरोधिता, अविरोध ' अर्थात कोई धर्म दूसरे के प्रतिकूल (against या विरुद्ध) नहीं है। इस बात को समझ लेना पड़ता है। और बिना खाये तो इसे समझा नहीं जा सकता। जैसे मैंने किसी एक कटोरी का खीर खाया , उसे खाने के बाद सोच सकता हूँ कि दूसरी कटोरी में रखी चीज खीर नहीं है। किन्तु जब उसको भी खाया , तब देखा नहीं, कोई विरुद्धता (repugnance) नहीं है। इस खीर में बतासा दिया है , उस खीर को गुड़ डालकर बनाया है , एक में चीनी दिया है , किसी में हो सकता है मिश्री दिया हो। और कोई अन्तर नहीं है। सभी कटोरीयों में खीर ही है। अलग-अलग धर्मों की साधना करके और सभी मार्ग से एक ही सत्य या ईश्वर की उपलब्धि करके, श्रीरामकृष्ण देव ने इस बात को समझाया है कि धर्मों के बीच संघर्ष का कोई स्थान ही नहीं है। सभी मार्गों से एक ही अविनाशी सत्य की उपलब्धि करने के बाद उन्होंने घोषित किया - ' यत मत , तत पथ ' --अर्थात " जितने मत उतने पथ"।" सर्व धर्म समन्वय" कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि -सारे धर्म समाप्त हो जायेंगे , और एक नया धर्म बनेगा - हो सकता है कि उसका नाम 'रामकृष्ण धर्म ' ही दिया जाये ! ठाकुर के मन में या स्वामीजी के मन में कभी ऐसी कोई बात नहीं थी। बिल्कुल ही नहीं थी , ऐसा होने से यथार्थ शान्ति आ सकती है।
शान्ति का अर्थ है , बाह्य समाज में उथल- पुथल , अराजकता या अव्यवस्था इन सबों का समाप्त हो जाना, और मनुष्य के मन में सांत्वना (consolation) या ढाढ़स रहना। हमारे 'मानस सागर ' (या चित्त सरोवर का जल) में विभिन्न प्रकार के विषय-तूफान उठते रहने से ,हर समय हमलोगों का मन बहुत घबड़ाया हुआ और चिंतित रहता है। इसलिए मनो-समुद्र में हर समय लहरे उठती रहती है , और मन हर समय अशान्त बना रहता है। यदि हमलोग नियमित मनःसंयोग का अभ्यास करके धीरे धीरे अपने मन को "प्रशांत महासागर" (pacific ocean) में परिणत कर सकें , वह तूफान (चक्रवात) शान्त हो जायेगा। प्रत्येक मनुष्य के ह्रदय में यदि शान्ति रहे , तो इस प्रकार के मनुष्यों के संयोजन से बना हुआ समाज शान्ति से परिपूर्ण रहेगा। इसीलिए यह कार्य केवल धर्म ही कर सकता है। और इसके लिए एकमात्र यथार्थ धर्म ही समन्वय और शान्ति का प्रावधान करने में सक्षम है।
इसीलिए शिकागो धर्म महासभा के अंतिम अधिवेशन में 27 सितम्बर , 1893 को स्वामी जी ने जो छोटा सा भाषण दिया था , उसके सबसे अंत में कहा था - " If anybody dreams of the exclusive survival of his own religion and the destruction of the others, I pity him from the bottom of my heart, and point out to him that upon the banner of every religion will soon be written, in spite of resistance: "Help and not Fight," "Assimilation and not Destruction," "Harmony and Peace and not Dissension."
" यदि कोई ऐसा स्वप्न देखे कि अन्यान्य सारे धर्म नष्ट हो जायेंगे और केवल उसका धर्म ही जीवित रहेगा , तो उस पर मैं अपने ह्रदय के अंतस्तल से दया करता हूँ और उसे स्पष्ट बतलाये देता हूँ कि शीघ्र ही , सारे प्रतिरोधों के बावजूद , प्रत्येक धर्म की पताका पर यह लिखा रहेगा - ' सहायता करो , लड़ो मत। ' 'पर भाव ग्रहण , न कि पर भाव- विनाश, 'समन्वय और शान्ति , न कि मतभेद और कलह ! "
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'9/11 से 27 सितम्बर, 1893 ' तक चलने वाले विश्व धर्म महासभा के कुल 17 दिनों में स्वामी विवेकानंद ने छह व्याख्यान दिए थे, जिसके माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति, सभ्यता और दर्शन को विश्व भर से आये हुए लोगो के सामने रखा था। भारत जो उस समय गुलाम था, जिसको सांप और सपेरों का देश माना जाता था उसके पास दुनिया को देने के लिए सन्देश भी है यह विदेशियों को पहली बार पता चला था।
स्वामीजी का बोला हुआ हर शब्द, मात्र शब्द नहीं था वो उनकी साधना , तपस्या और संयम का निचोड़ था। वो उस भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे जिसको उन्होंने पिछले पांच वर्षों तक पैदल चलकर, घोड़ा, गाड़ी और रेल के माध्यम से जाना था। इस दौरान वो अनेकों बार वह पेड़ के नीचे सोये, अनेकों अनेक दिन बिना भोजन के बिताए, लेकिन हार नहीं मानी। भारतवर्ष के पुनरुत्थान का कार्य करना ही स्वामीजी की प्राथमिकता में था, जिसके लिए उन्होंने हर चुनौती को स्वीकार किया था और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही स्वामीजी विदेश गए थे।
2 नवंबर 1893 को मद्रास के अपने शिष्य आलासिंगा पेरुमल को 11 सितम्बर 1893 भाषण के सन्दर्भ में लिखे हुए पत्र में स्वामीजी लिखते हैं, ‘बाकी सभी प्रतिनिधि तैयारी के साथ आये थे और मैं बिना तैयारी के था। मैंने माता सरस्वती को प्रणाम किया और अपने भाषण की शुरुआत की। ’ प्रो. शैलेन्द्रनाथ धर द्वारा लिखित पुस्तक ‘स्वामी विवेकानंद समग्र जीवन दर्शन’ के अनुसार विश्व धर्म महासभा में दुनियाभर के दस प्रमुख धर्मों के अनेकों प्रतिनिधि आये हुए थे, जिसमें यहूदी , हिन्दू , इस्लाम , बौद्ध , ताओ, कनफयूशियम, शिन्तो, पारसी, कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट इत्यादि शामिल थे, लेकिन स्वामीजी का वक्तव्य सबसे अधिक सफल हुआ था।
आज भी जब विश्व सम्प्रदायों और पंथो में बंटा हुआ है, अपनी मान्यताओं को दूसरों पर थोपने का प्रचलन चल रहा है। हर भौगोलिक दृष्टि से बड़ा देश छोटे देश को दबाने में लगा है उसकी जमीन हड़पने में लगा है। इस दौर में स्वामीजी का यह विश्व बंधुत्व का संदेश सबके लिए एक मार्ग है, जो विश्व के कल्याण की बात करता है, सभी को स्वीकार करने की प्रेरणा देता है। जो मानव समाज को कटुता से बाहर निकालता है और सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार के तौर पर देखने की दृष्टि प्रदान करता है। हमे स्वामी जी के धर्म महासभा के अंतिम अधिवेशन में दिए हुए भाषण के इन शब्दों को भी याद करना चाहिए जहां वो कहते हैं, ‘ ईसाई को हिन्दू या बौद्ध नहीं हो जाना चाहिए , और न हिन्दू अथवा बौद्ध को ईसाई ही। पर हां , प्रत्येक को चाहिए कि वह दूसरों के सार- भाग को आत्मसात करके पृष्टि – लाभ करे और अपने वैशिष्टय कि रक्षा करते हुए अपनी निजी वृद्धि के नियम के अनुसार वृद्धि को प्राप्त हो। ‘
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