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बुधवार, 17 जुलाई 2013

वेदान्ती साम्यवाद

 
जब कोई व्यक्ति बिन्दु से सिन्धु बन जाता है, या यथार्थ मनुष्य बन जाता है तो उसका ह्रदय अनन्त तक विस्तृत हो जाता है। तब उसे धर्म लाभ होता है, और वह बोल पड़ता है -
अयं निजो परेवेति गणना लघुचेतसाम, 
उदारचरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम।
किन्तु जब इस तरह के यथार्थ धर्म का पतन हो जाता है तब हर स्थान में कोई महापुरुष आविर्भूत हो जाते हैं, जो धर्म को पुनः स्थापित करते हैं। एक ऐसा समय भी आया था जब सभी धर्म पतित हो गये थे। उस समय सभी धर्मों को फिर से स्थापित करने के लिये श्रीरामकृष्ण देव आविर्भूत हुए थे। उन्होंने केवल हिन्दू धर्म को ही स्थापित नहीं किया था, बल्कि इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म, सिख धर्म सभी उपासना मार्गों से धर्म लाभ करने के बाद कहा था - 'जितने मत उतने पथ।' इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने ' ठाकुर देव ' को 
अवतार वरिष्ठ घोषित करते हुए प्रणाम-मन्त्र की रचना की थी - 
ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे,
 अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः।
हमें यह नहीं सोचना चाहिये कि श्रीरामकृष्ण देव स्वामी विवेकानन्द के गुरु थे इसीलिये पक्षपात करके उन्हें अवतार वरिष्ठ कह दिया होगा। जब ' शिकागो भाषण ' के बाद पूरे अमेरिका में उनका नाम प्रसिद्द हो गया, जब सम्पूर्ण भारत उनको जानने लगा, तो लोगों में यह स्वाभाविक जिज्ञाषा हुई कि ऐसे विलक्षण वक्ता का गुरु कौन है ? सभी लोग उनसे अनुरोध करने लगे कि आप अपने गुरुदेव के बारे में कुछ बताइये। किन्तु वे  उनके विषय में कुछ कहने में हिचकिचाहट महसूस कर रहे थे। जब उनसे बहुत अनुरोध किया गया तब उन्होंने कहा, " मेरे गुरुदेव इतने महान थे, इतने असीम थे, कि उनके बारे में कुछ भी कहने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि असीम अनन्त को शब्दों में कैसे बांधा जा सकता है। कई बार पूछने से वे इतना ही कह सके कि - " श्रीरामकृष्ण प्रेमस्वरूप हैं !
 " He is LOVE personified !" वे तो प्रेम की साकार मूर्ति थे ! " उन्होंने इस प्रणाम मन्त्र को हावड़ा में जिस गृहस्थ के पूजा-गृह में ठाकुर की जिस छवि के सामने बैठकर रचा था, वह चित्र आज भी वहाँ उसी प्रकार रखी हुई है। प्रश्न हो सकता है कि प्रेम-स्वरूप भगवान (ठाकुर देव) को " अवतार-वरिष्ठ " मनुष्य देह धारण करके आविर्भूत क्यों होना पड़ा ? क्योंकि यह मानव मनोविज्ञान (human psychology ) का एक नियम है कि "श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है।"
   
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरा जन: ।
                     स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।गीता 3 /21।।

केवल धर्म-ग्रंथों से ही काम नहीं चलता है; यत्  यत्  अचरति  श्रेष्ठ: = श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता है; इतरः जनः -दूसरे लोग भी उसी का अनुसरण करते हैं। " स: यत्  प्रमाणम्  कुरुते लोक: तत् अनुवर्तते " -पुरुषोत्तम (भगवान) स्वयं मनुष्य शरीर धारण करके अपने जीवन द्वारा जिसे प्रमाणित करते हैं लोग उसी का अनुसरण करते हैं। श्रेष्ठ लोग (वर्तमान सन्दर्भ में नेता ) जैसा आचरण करते हैं उसी का अनुकरण जनता भी करती है । इसीलिये महामण्डल के जो 'नेता ' केवल भाषण या प्रवचन देकर ही नहीं, बल्कि स्वामीजी के आदर्श को अपने जीवन में उतार कर, अपने जीवन को ही ' उदहारण स्वरुप ' गठित करके लोगों के समक्ष रखने में समर्थ होंगे, दूसरे लोग उसका ही अनुसरण करेंगे। इसी कारण सर्व शक्तिमान भगवान मनुष्य शरीर धारण करके अपने जीवन में आचरण द्वारा शास्त्र को मर्यादा देते हैं, और अपने जीवन को ही प्रमाण बनाकर
' युग-धर्म ' के आदर्श को लोगों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। उनके जीवनादर्श से शिक्षा प्राप्त करके अन्य लोग उनके द्वारा निर्देशित धर्म-मार्ग का अनुसरण करते हैं। इसी प्रकार श्री भगवान संसार में धर्म-संस्थापन करते हैं।     
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
           अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।4 /7।।

हे भारत ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने रूपको रचता हूँ (अर्थात् साकार रूपसे प्रकट होता हूँ) । इसीलिये समय के प्रवाह में जब संसार में अधर्म बढ़ जाता है, तब वे मानों अपना कर्तव्य पालन के उद्देश्य से धर्म की ग्लानी दूर करने के लिये भगवान संसार में अवतीर्ण होते रहते हैं। जीव-जगत के कल्याण के लिये स्वयं श्रीभगवान का आविर्भूत होना जगत के अध्यात्मिक इतिहास में घटित होने वाली एक अनिवार्य घटना है। हर युग में ऐसा ही होता आया है। 
इसीलिये जब सभी धर्मों में ग्लानी आ गयी और अधर्म का उत्थान हो गया तो श्रीभगवान (श्रीरामकृष्ण) ने अपनी आत्मा को प्रकट कर दिया, यही सार बात है। " तदात्मानं सः सृजस -इमानी बभूव भारत ।"  ऐसा नहीं है कि बुद्ध देव ने तो केवल इतना ही कहा था कि " मैं जाग गया हूँ "; इसीलिये ठाकुर देव उनसे बड़े थे। बल्कि वर्तमान युग में विभिन्न नाम वाले धर्मों के लिये एक दूसरे के प्रती केवल सहिष्णुता (tolerance ) या सम-भाव रखना ही पर्याप्त नहीं हो रहा था, वर्तमान युग की आवश्यकता विश्व के समस्त धर्मों में समन्वय लाने की थी, अर्थात एक दूसरे के धर्म में निहित सार बातों को अंगीकार (acceptance ) करने की थी। इसीलिये  विभिन्न मतावलम्बियों के भिन्न भिन्न उपासना पद्धतियों द्वारा साधना (तुलनात्मक अध्यन ) करके सभी धर्मों के भीतर एक ही सत्य अन्तर्निहित है - को  उद्घाटित करना होगा, उन्हें संस्कारित करना होगा, अर्थात सभी सम्प्रदायों के मतावलम्बियों के भीतर 'धर्म ' की भावना को जाग्रत करके पुनः प्रतिष्ठित करना, युग-धर्म है ! यह बोध विश्व के अध्यात्मिक इतिहास में केवल श्रीरामकृष्ण ने ही स्थापित किया है, इसीलिये स्वामीजी उनको  अवतार-वरिष्ठ कहते हैं।
' तद समः कोSपी न दृश्यते '- उनके बराबर का दूसरा कोई अवतार दिखाई नहीं देता है। श्रीरामकृष्ण ने यह कभी नहीं कहा कि केवल मेरा धर्म ही ठीक है, अतः विश्व के सभी मनुष्यों को मेरा धर्म ग्रहण करना ही पड़ेगा ! उन्होंने तो यह कहा था कि विश्व के सभी धर्म सही हैं ! ' जितने मत उतने पथ ' हैं, और सभी ठीक हैं। ठाकुर देव की इसी उक्ति को प्रतिध्वनित करते हुए स्वामीजी कहते हैं - "  वेदान्त सब धर्मों का बौद्धिक सार है। वेदान्त के सागर में हिन्दू, पारसी, मुसलमान, सिख, ईसाई सभी एक हो जाते हैं। " आज तक के मानव इतिहास में इस तरह की घोषणा अन्य किसी महापुरुष ने नहीं की है। यह बात पुराणों में भी नहीं है। श्रीरामकृष्ण के धरती पर अवतरित होने के पहले तक धर्म के ही नाम पर एक धर्म का दूसरे धर्म के साथ संघर्ष, हत्या, दंगा-फसाद क्या क्या नहीं होता रहा है, क्या इसी को धर्म कहा जाता है ? एक लाख में से कोई एक आदमी ही शायद धर्म को सही रूप में समझते होंगे। जिसको हमलोग हिन्दू धर्म कहते है, वास्तव में उसका नाम सनातन धर्म है।
" तंत्र  वक्ता शिव साक्षात् " तन्त्रों के वक्ता स्वयं साक्षात् शिव हैं, और सुनने वाली स्वयं माता पार्वती हैं। जब भगवान शिव बोलते हैं, और माता पार्वती सुनती हैं, तो उसको आगम कहा जाता है, और जब माँ पार्वती बोलती हैं, और शिव श्रोता होते हैं, उसे निगम कहा जाता है। [आगम और निगम आध्यात्म के दो पंख हैं। जिनके सहारे साधक साधना जगत में उड़ान भरते हैं। उन्होंने कहा कि दोनों के संयोग से त्रिगुणातीत की अवस्था प्राप्त होती है जिससे समाधि प्राप्त होना तय है।] यही है सनातन धर्म जो शास्वत है। उसको धर्म नहीं कहते हैं, जिसका एक दिन जन्म होता है, जो कुछ वर्षों तक स्थित रहता है, फिर उसका अन्त हो जाता है। जिस सम्प्रदाय या मतवाद में ऐसी मान्यता हो उसे मतवाद (Religion) कहा जा सकता है, किन्तु उसे धर्म नहीं कह सकते हैं। भागवत में युधिष्ठिरजी देवर्षि नारद से पूछते हैं कि " सनातन धर्म क्या है ? आप मुझे समझाइये। " भगवन् श्रोतुमिच्छामि नृणां धर्मं सनातनम् । " (७/११/२) 
उसके उत्तर में नारदजी ने जो बताया है, वह मार्क्स के साम्यवाद से हजार गुना उत्कृष्ट सिद्धान्त है-नारदजी कहते हैं, "वक्ष्ये सनातनं धर्मं नारायणमुखात् श्रुतम् ॥ ७/११/ ५ ॥ " युधिष्ठिर ! अजन्मा भगवान ही समस्त धर्मों के मूल कारण हैं। मनुष्यों के धर्म सेतुस्वरुप भगवान को प्रणाम करके मैं आज बतलाऊंगा कि सनातन धर्म क्या है, जिसे मैंने स्वयं नारायण के मुख से सुना है।" 

अन्नाद्यादेः संविभागो भुतेभ्यश्च यथार्थतः ।

             तेष्वात्मदेवताबुद्धिः सुतरां नृषु पाण्डव ॥७/११/ १०॥



अर्थात समाज में अन्नादि (खेतों में या फैक्ट्रियों में ) जो कुछ भी उत्पादन होगा, उस 'सकल घरेलू उत्पाद' 'GDP' को समस्त प्राणियों में यथायोग्य विभाजन, समाज के सभी वर्ग के लोगों में जिसकी जितनी आवश्यकता हो, उसी हिसाब से वितरण करना होगा। किन्तु 'सकल घरेलू उत्पाद' का वितरण करने वाले (जो कर्मचारी या नेता) होंगे उनको वितरण करते समय विशेष करके मनुष्यों -" तेष्वात्मदेवताबुद्धिः" में अपनी आत्मा या अपने इष्टदेव को देखते हुए वितरण करना होगा। इसको कहते हैं- सनातन धर्म !! 
 (इसका पालन करने से स्कूलों में मिड डे मिल खाने वाले बच्चे कभी मर नहीं सकते हैं।)-अर्थात जिनको भी मैं अन्न या विद्या दान कर रहा हूँ, वे सभी मनुष्य हमलोगों के अपनी ही आत्मा-देवता  हैं इस बुद्धि से देना होगा। ' शिव ज्ञान से जीव सेवा करना ' -यही है सनातन धर्म ! किन्तु मार्क्स यह नहीं बता सके कि सकल घरेलू उत्पाद को क्यों सभी मनुष्यों में उसकी आवश्यकता के अनुसार वितरित करनी चाहिये ? वहीँ सनातन धर्म इस सच्चाई को स्पष्ट करता है, की सभी मनुष्य बिल्कुल मेरी आत्मा ही हैं। या सभी मानव शरीर देवालय है, जिसमें मेरे इष्टदेव रहते हैं, इस बुद्धि से वितरित करना होगा।
 किन्तु इस धर्म का नाम सनातन धर्म है, हिन्दू -धर्म नहीं है।  स्वयं को सनातन -धर्म या वैदिक धर्म का अनुयायी अथवा  "वेदान्ती " नहीं कहकर हिन्दू कहना स्वयं को छोटा करना है। यदि आज के युवा धर्म की इस परिभाषा को समझ ले, और अपना जीवन गठित करके यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने के कार्य में लग जाये तो उस नये मनुष्यों से नया और महान भारत निर्मित हो जायेगा। हमलोग जो कुछ यहाँ सुन रहे हैं, उसे अपने जीवन में उतार लें, तो हमारा जीवन बदल जायेगा, जिसके फलस्वरूप समाज भी बदल जायेगा, नई दुनिया आ जाएगी। सबकुछ चेतन है, जड़ कुछ भी नहीं है, सब कुछ एक है, दो कुछ नहीं है, भीतर से सब एक हैं, हाँ अभिव्यक्ति के तारतम्य में अन्तर अवश्य होता है। श्रीरामकृष्ण सम्पूर्ण जगत को इसी भाव की शिक्षा देने के लिए अवतरित हुए हैं। कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी तर्क दे सकते हैं, कि उनको तो व्याकरण का कुछ भी ज्ञान नहीं था, वे स्वयं अनपढ़ थे तो मूर्ख व्यक्ति हमें क्या सिखा सकता है? इसीलिये आचार्य शंकर ने कहा था -
संप्राप्ते सन्निहिते काले, न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१॥ (भज गोविन्दम्)
हे मोह से ग्रसित बुद्धि वाले मित्र, गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के नियम याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है। 
श्रीरामकृष्ण एक कथा सुनाते थे- " एक दिन कोई शास्त्रों के ज्ञाता पण्डितजी एक नाव में बैठकर नदी पार कर रहे थे, उसी समय वे माँझी को शास्त्र का उपदेश देने लगे। उन्होंने माँझी से प्रश्न किया, क्या तुमने रामायण या भागवत आदि कुछ नहीं पढ़ा है ? तब तो तुम्हारा आधा जीवन व्यर्थ ही बीत गया। माँझी ने कहा, बाबा मैं तो अनपढ़ हूँ, आप शास्त्रों के ज्ञाता हैं, किन्तु मैं तैरना जानता हूँ। क्या आप तैरना जानते हैं ? देखिये सामने बहुत बड़ा तूफान आ रहा है, और आप यदि तैरना नहीं जानते हैं, तब तो आपका पूरा जीवन ही चला गया - मैं तो चला, और वो नाव से कूद गया। " ' डुकृञ् ' व्याकरण का सूत्र है जो क्रिया पद में लगता है, यह बात कोई जानता हो, किन्तु तैरना नहीं सीखा हो, अर्थात सत्संग या पाठ-चक्र में नहीं जाता हो, तो उसको इस भव-सागर में संसार-समुद्र में डूबना ही होगा। 
हम युवाओं को स्वयं से यह प्रश्न करना चाहिये - धर्म किसे कहते हैं ? क्या मैंने धर्म को सीखा है ? यदि स्वयं नहीं सीख सकते हो, तो किसी खेवैया के ' तरणी ' को पकड़ लो। ' वैतरणी ' कहते हैं, उस माँझी को जो स्वयं नहीं डूबे और तुम्हें भी पार करा दे। यही है धर्म का सच्चा भाव जो ठकुर,माँ स्वामीजी के जीवन से प्राप्त होता है। दक्षिणेश्वर स्थित ठाकुर के कमरे में आप आज भी बुद्ध, महाबीर, ईसा, चैतन्य सभी के चित्र देख सकते हैं।
इसीलिये स्वामीजी कहते थे,   "वेदान्त जगत को उड़ा नहीं देता, उसकी व्याख्या करता है। वेदान्त में वैराग्य का अर्थ है, जगत को ब्रह्मरूप देखना। वेदान्त का प्रतिपाद्य है - ' विश्व का एकत्व', केवल विश्व बन्धुत्व नहीं। धर्मान्धों का कोई धर्म नहीं होता। प्रत्येक सम्प्रदाय एक एक महान सत्य को अभिव्यक्त कर रहा है। हर बून्द अपने में सम्पूर्ण सागर छिपाये हुए है। सम्प्रदाय अवश्य रहें, पर साम्प्रदायिकता दूर हो जाये। विश्व में केवल एक आत्म-तत्व (अल्ला या ब्रह्म) है, सब कुछ केवल ' उसी ' की अभिव्यक्ति है। अब प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में धर्म का कोई उपयोग है ? हाँ, वह मनुष्य को अमर बना देता है, उसने मनुष्य के निकट उसके यथार्थ स्वरुप को प्रकाशित किया है और वह मनुष्य को ईश्वर बनायेगा। यह है धर्म की उपयोगिता। मानवसमाज से धर्म को पृथक कर लो, तो क्या रह जायेगा ? कुछ नहीं, केवल पशुओं का समूह।"



मंगलवार, 16 जुलाई 2013

धर्म क्या है ? [एक लाख लोगों में से कोई एक व्यक्ति भी समझ ले तो बहुत है ! 1.कैम्प नोट २००५ सरीसा आश्रम ]

[PC पूज्य दादा ने कहा है कि २००५ का ऐन्युअल कैम्प का मनःसंयोग क्लास सबसे अच्छा हुआ था। उस कैम्प में आठ राज्यों से १०६६ कैम्पर्स आये थे।अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर जैसे आयोजन अगर जीवन में आगे बढ़ने और चलते रहने का पाठ पढ़ाते हैं तो कहीं यह सीख भी देते हैं कि पल भर ठहरकर हम अवोकन कर लें, अपनी दिशाएं स्पष्ट कर लें और पीछे जो भूलें हुई हैं, उन्हें ठीक करते हुए आगे बढ़ चलें। यह शिविर विचार मंथन का अवसर है। यह केवल स्वामी विवेकानन्द का गुणगान करने या उनके प्रति आस्था और  विश्वास व्यक्त करने का उत्सव नहीं है। यह एक ऐसी घड़ी है, जो विगत ४५ वर्षों से प्रति  वर्ष २५ से ३० दिसम्बर तक आयोजित होती आ रही है। और एक युवाओं को एक नए युग के द्वार पर छोड़ जाती है। यही वह घड़ी है जो सोने वालों को जगाने, जागे हुओं को उठ खड़े होने और जो उठ गए हैं, उन्हें चल पड़ने की सीख देती है।अब कोई कारण नहीं है कि भारत के एक सौ बीस करोड़ लोग निराशा के भाव में जीने को विवश हों और कोई कारण नजर नहीं आता कि स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त भारत-निर्माण सूत्र - ' Be and Make ' को जीवन में उतार  लेने से भारत का उदय न हो! 
अगर महेन्द्र और संघमित्रा, तथागत की करुणा और प्रेम लेकर श्रीलंका जाते हैं तो क्या वे उदय की ही बात नहीं करते? जब स्वामी विवेकानंद सात समंदर पार जाकर भारत की आध्यात्मिक ऊर्जा फैलाते हैं तो क्या वह वैभव के शिखर पर पहुंचने की उत्कंठा का असर नहीं है ?  और गुलामी के काले, अंधेरे दिनों में श्रीरामकृष्ण और विवेकानन्द जैसी विभूतियों का अवतरित होना क्या यह नहीं बताता कि भारत में उदय होने की प्राणशक्ति उपस्थित है? यह युवा प्रशिक्षण शिविर उदय का उत्सव है, जो यह स्मरण कराने आता है कि उठो, जागो और चल पड़ो, तुम्हारी विजय सुनिश्चित है। स्वामीजी ने सिंहनाद करते हुए घोषणा की थी, " विश्व के वर्तमान मानचित्र पर आज के अनेक विकसित और विकासशील राष्ट्रों का जब नामोनिशान भी नहीं था और आज के अनेक मत-पंथों और उनके सूत्रधारों को पैदा होने में भी जब कई सदियां शेष थीं, तब भी भारत का जगमगाता हुआ अस्तित्व था।"
हमारी संस्कृति "बीती ताहि बिसारिए" में विश्वास रखती है ताकि आगे की सुध ली जा सके। हम वर्तमान में विश्वास रखते हैं ताकि भविष्य की मजबूत बुनियाद खड़ी कर सकें, अलगाव में हमारी आस्था नहीं है। हम केवल अपने हित की नहीं सोचते, दूसरों के कल्याण की कामना भी करते हैं। यही उचित अवसर है जब हम अपनी सनातन संस्कृति की अमृतधारा से टूटकर अलग हुए समुदायों को निकट लाएं और हमारे ये प्रयास तब तक जारी रहें जब तक कि हम उन्हें उसी अमृतधारा से नहीं जोड़ लेते। हमलोग पन्थ-निरपेक्ष हैं या धर्म-निरपेक्ष हैं ? अगर राष्ट्र सर्वोपरि है तो संस्कृति की धारा में हमें एक साथ चलना होगा और वही सच्चे अर्थों में एकता होगी। पंथ-निरपेक्षता का भी तभी कोई अर्थ होगा। जब तक मजहबी मान्यताएं राष्ट्र की मूल सांस्कृतिक धारा के साथ जुड़ना नहीं सिखातीं तब तक यह चुनौती शेष है। इसलिए वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर जैसे समागम एक प्रकार से बार-बार आते आमंत्रण हैं, जो समस्त सम्प्रदाय के युवाओं को बिना किसी भेदभाव के एक जगह एकत्र होने का अवसर देते हैं।
यह शिविर समस्त समाज, राष्ट्र और मानव जाति के लिए शुभ का निमित्त बने, यही कामना है। हम अपने आस-पास के खतरों के प्रति सजग रहें, चुनौतियों का सामना करने में सबल हों, सोये हुओं को जगाएं, जागे हुओं को खड़ा करें और जो उठकर खड़े हो सके हैं, उन्हें अपनी शुभयात्रा का साथी बनाएं। स्वयं भी गतिमान हों और दूसरों को भी गति दें, ' Be and  Make ' ! क्योंकि यही जीवन का लक्षण है, यही ऋषियों का संदेश है और प्रशिक्षण-शिविर का सार भी यही है- चरैवेति, चरैवेति। ॐ भद्रं ताक्षर्यो अरीष्ट्नेमिः हम भगवान का आराधन करते हुए अपने कानो से केवल कल्याणमय वचनों को ही सुने,गरुड़ देव हमारे कल्याण का पोषण करें।]
कल शाम को महामण्डल का आदर्श उद्देश्य एवं प्रतीक चिन्ह (Emblem ) तथा ध्वजा के बारे में सुना कि
 ' मनुष्य' बनना पड़ता है। अंग्रेजी के कवी ब्राउनिङ्ग की प्रसिद्ध कविता है  - 
  " Progress, man's distinctive mark alone,
 

Not God's, and not the beasts: God is, they are;
 

Man partly is, and wholly hopes to be. "
 
 
 " उन्नति की आशा - केवल मनुष्यों की है विशिष्ट पहचान !  
   
 यह तो पशु प्रजातियों की है, 

  और नहीं है भगवान की पहचान
।   


ब्रह्म तो हैं ही पूर्ण, रहते सदा स्व-महिमा में स्थित,

      
पशु-प्रजातियाँ भी हैं बँधी, जो थीं; रहती उम्र-भर उसी में ग्रथित।   

 
  मनुष्य - अभी तो है अपूर्ण, फिर भी उसे आशा -
 

' पूर्ण ' बन जाने की है !



 -अर्थात उन्नति,आरोहण या संसार-सागर से पार-गमन (crossing) की चेष्टा करने की आवश्यकता ईश्वर को  नहीं है, पशुओं में तो इसकी क्षमता भी नहीं है,यह केवल मनुष्यों का ही वैशिष्ट्य है। ईश्वर तो पूर्णता में ही विराजमान रहते हैं, उनके आरोहण (ascension) का तो प्रश्न ही नहीं उठता। पशु की प्रजातियाँ (गाय-भैंसें,गधे आदि) ' सतयुग ' में जैसे थे, आज तक  वैसी ही हैं। किन्तु अपूर्ण होने पर भी मनुष्य पूर्णता में पहुँचने की आशा लेकर उन्नति के लिये प्रयत्न करता है। और जीवन-मृत्यु से होता हुआ मनुष्य निरन्तर अंश से पूर्णता की दिशा में ही बढ़ता  रहता है।
यह ठीक है कि मनुष्य जन्म के समय अपूर्ण रहता है, किन्तु पूर्णता या बुद्धत्व उसके भीतर जन्म के समय से ही क्रम-संकुचित रहता है। स्वामीजी कहते हैं- " Religion is the manifestation of the natural strength that is in man. A spring of infinite power is coiled up and is inside this little body, and that spring is spreading itself. ...This is the history of man, of religion, civilization, or progress. "   
" मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसको अभिव्यक्त करना ही धर्म है। असीम शक्ति का स्प्रिंग इस छोटी सी काया में कुण्डली मारे विद्यमान ( बीज में वृक्ष के जैसा-क्रमसंकुचित) है, और वह स्प्रिंग अपने को फैला रहा है। ...यही है मनुष्य का,धर्म का, सभ्यता या प्रगति का-इतिहास !" 
यही बुद्धत्व या पूर्णत्व पशु योनियों में भी क्रम-संकुचित अवस्था में रहता है, किन्तु उनको पुरुषार्थ करने या सद्गुरु के पास जाकर अपने पूर्णत्व को अभिव्यक्त करने की विद्या सीखने का अवसर नहीं है।पशुओं का अन्तःकरण मनुष्यों के जैसा उन्नत नहीं होता कि वे भी अपने गुरु के पास जाकर शाश्वत और नश्वर में विवेक-विचार करना सीख सकें। इसलिये वे जीवन भर पशु के जैसा-आहार,निद्रा, भय और मैथुन करते हुए ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। 
किन्तु मनुष्य योनि सर्व-श्रेष्ठ योनि है, वह भोग योनि नहीं है, मनुष्य भी पशु के जैसा आहार,निद्रा, भय और वंश-विस्तार करते हुए एक दिन बूढ़ा होकर मर जाने के लिये बाध्य नहीं है। मनुष्य अपने गुरु से विवेक-प्रयोग करने की विद्या सीखकर आंशिक मनुष्य और आंशिक पशु की मिली-जुली अवस्था से पूर्ण-मनुष्य में उन्नत हो सकता है। गुरु स्वामी विवेकानन्द ने इसी अंश से पूर्ण मनुष्य बन जाने का आह्वान करते हुए युवाओं से कहा था-" मनुष्य तीन प्रकार के गुणों से निर्मित है,पाशविक, मानवीय और दैवी। जो तुममें दैवी गुण बढ़ाता है वह पूण्य है और जो तुममें पशुता बढ़ाता है वह पाप है।  तुमको पाशविक वृत्ति को समाप्त कर 'मनुष्य ' बनना चाहिये -अर्थात प्रेममय तथा उदार होना चाहिये। इससे भी उपर उठकर तुम्हें शुद्ध आनन्द, सच्चिदानन्द, अदाहक अग्नि के समान, अद्भुत प्रेममय किन्तु मानवीय प्रेम की दुर्बलता से रहित, दुःख की भावना से रहित बनना चाहिये।" युवाओं के प्रति उनका आह्वान था- Be and Make ! पहले Be होने अर्थात यथार्थ मनुष्य बनने को कहा फिर उसका उपाय बताते हुए कहा था- Make ! ' अपने भीतर ब्रह्म-भाव को जाग्रत रखने का सबसे सरल तरीका है, दूसरों को इस कार्य में सहायता करना। ' तुम स्वयं यथार्थ मनुष्य बनने और दूसरों को मनुष्य बनाने के प्रयत्न (पुरुषार्थ) में आगे बढ़ो! आगे बढ़ो! चरैवेति चरैवेति ! यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। 
" कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।

 उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् । 

चरैवेति चरैवेति॥
 ऐतरेय ब्राह्मण के इस श्लोक का अर्थ है- जो सो रहा है अर्थात जो पाशविक वृत्तियों को तुष्ट करने में लगा हुआ है वह कलि है, निद्रा से उठ बैठने वाला द्वापर है, उठकर खड़ा हो जाने वाला त्रेता है (वीरभाव या सन्तान भाव का साधक है) लेकिन जो चल पड़ता है, वह कृतयुग, सतयुग और स्वर्णयुग (देवभाव का साधक) बन जाता है। इसलिए चलते रहो, चलते रहो। लक्ष्य के प्राप्त होने तक बिना विश्राम लिये चलना और चलते रहना ही जीवन का लक्षण है।
 आहार निद्रा भय मैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।

धर्मो हि तेषामधिको विशेष:
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये तो इन्सान और पशु में समान है । इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के लोग पशुतुल्य है ।  किन्तु धर्म क्या है ? यदि एक लाख लोगों में कोई एक व्यक्ति भी इस बात को समझ सकता हो तो बहुत होगा। प्रत्येक व्यक्ति अपने मन के अनुसार विचार करके धर्म के बारे में अपनी कोई धारणा बना लेता हैधर्म के बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात – जिसे समझना हर किसी को जरूरी है, वह है-धर्म और मत (Religion या सम्प्रदाय जो किसी व्यक्ति के द्वारा स्थापित किया जाता है।) का अंतर। इसे न समझने के कारण मत यानी मजहब (सम्प्रदाय) को भी धर्म कह कर, ' धर्मावलम्बी ' होने को ' मतावलम्बी ' होने का पर्यायवाची  मान कर जीवन भर भ्रम में पड़ा रह हर मजहबी टकराव को धर्म का फंसाद कह दिया जाता है।
  मनुष्य और पशु में अन्तर क्या है ? पशु पराधीन रहता है, वह इन्द्रियों के वश में रहता है। स्वर्ग प्राप्ति की कामना, भोग वांछा की कामना, कल्प-वृक्ष पाने की कामना,कामधेनु की कामना भी पशु भाव है।  भीतर की पशुता से मुक्त हो जाने की साधना का नाम ही पुरुषार्थ है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चार पुरुषार्थ में पहला पुरुषार्थ है- " धर्म "! मनुष्य को एक विशेष वस्तु प्राप्त है, जिसको धर्म कहा जाता है। ये ' धर्म ' जिसमें नहीं है, उसका ढाँचा तो मनुष्य का है, किन्तु आचरण में वह पशु के बराबर होता है, क्योंकि वह भी इन्द्रियों के वश में रहता है।
 हमारे शास्त्र कहते हैं -
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम् ।
 आत्मनः प्रतिकूलानि , परेषां न समाचरेत् ॥ 
- अर्थात धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो ! उसको भली-भांति धारण करो। जो कुछ तुम्हें अपने लिए हितकर प्रतीत नहीं होता, उसका व्यवहार दूसरों पर न करो। अर्थात सम्पूर्ण धर्म का सार एक ही है इसीलिये कभी किसी पर अपनी मान्यता बलपूर्वक न थोपो। कुछ नादान लोग " धर्म " का अर्थ Religion,या मतवाद या मजहब समझते हैं, इसीलिये वे इस धारणा को किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं करते। उनकी धारणा के अनुसार उनकी जो मान्यता है वही सत्य है और जो उसका स्वीकार नहीं करेंगे उन्हें तलवार की धार से वे समाप्त कर देंगे। 
 इसीलिये मात्र राजनीति के लिए ' सर्व-धर्म समभाव ' की लुभावनी बातें करना एक अलग बात है तथापि, दुर्भाग्य से विभिन्न नाम वाले  मजहबों; में सम-भाव बैठाना जिन्हें "धर्म "(या रूहानियत) कहना ही ठीक प्रतीत नहीं होता, एक टेढ़ी खीर है। इसीलिये श्रीरामकृष्ण देव (स्वामी विवेकानन्द के गुरु ) " सर्व-धर्म समन्वय " अर्थात विश्व में प्रचलित समस्त उपासना पद्धतियों में सामान्य (common) सार बात में समन्वय लाना आज के विश्व की प्रमुख आवश्यकता मानते थे। अपनी विशिष्ट साम्प्रदायिक-पहचान को सबसे पृथक रखना विभिन्न मतावलम्बियों (सम्प्रदायों) की एक बड़ी समस्या है। प्रश्न यह है कि- जीवन के लिए आवश्यक क्या है ? पृथक पहचान या धर्मानुशीलन ? सच्चाई यह है कि धर्म आचरण में उतारने या धारण करने की चीज है न कि टकराव पैदा करने की। अतः किसी सम्प्रदाय विशेष की केवल पहचान ( प्रतीक-चिन्ह -त्रिपुण्ड,रामनामी चादर,चेक का तौलिया आदि ) धारण करके घूमना पाखण्ड है और धर्मानुशीलन आचरण है। 
टकराव वहां पैदा होता है जहां धर्म का लोप हो जाता है। ब्रह्माण्ड के असंख्य स्थूल पिंडों की गमन-व्यवस्था कितनी आश्चर्यजनक है ! सभी ग्रहों के आकार भिन्न हैं, सबकी दिशाएँ भिन्न हैं, गतियाँ भिन्न हैं किन्तु कहीं पारस्परिक मुठभेड़ नहीं होता। भिन्नता के बाद भी टकराव क्यों नहीं होता ? इनमें से कोई भी एक दूसरे के कार्यों में बाधा उत्पन्न नहीं करता, कोई ग्रह यह नहीं कहता कि हमारी ही दिशा सही है, हमारी ही गति सही है, सब ग्रहों को हमारा ही अनुसरण करना होगा। क्योंकि उन भौतिक पिंडों को पता है,पता है कि सब एक दूसरे का अनुसरण करने लगेंगे तो आपस में मुठभेड़ हो जायेगी। सब का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।  इसलिए सब अपने-अपने रास्ते में अपनी-अपनी गति से गमनशील हैं, सब एक दूसरे का सम्मान करते हुए, उनकी परम्पराओं का सम्मान करते हुए, उनके सिद्धांतों का आदर करते हुए गतिमान हैं। तथापि कुछ नियम हैं जिनका पालन सबके लिए अनिवार्य है। जैसे गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांतों का धर्मपालन किये बिना, गति के सामान्य सिद्धांतों का धर्मपालन किये बिना उनका अस्तित्व संभव ही नहीं है। वस्तुतः भिन्नता के कारण ही टकराव नहीं होता है। एकरूपता होती तो सोचिये क्या होता? । दूसरी बात धर्म किसी एक व्यक्ति के द्वारा उद्धाटित और स्थापित नहीं किया जाता है जबकि मत या मजहब (Religion) एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के जरिए स्थापित या संचालित किया जाता है। भारत के आयातित पन्थ अभी तक अपने को इनके समान नहीं बना सके हैं,  विवाद का एक बड़ा कारण यही है।  
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, "  धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु  मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है। " हमारे शास्त्रों के अनुसार मानव , किसी भी लोक- लोकांतर में या किसी प्रकार के निर्जन स्थानों मै भी क्यों न चला जाये, वहाँ भी मानवोचित कर्तव्य (विवेक-सम्मत कर्तव्य) को पालना करने का नाम धर्म है।  क्या प्रतिमास घटने वाली नक्सली क्रान्तियां, राजनीतिक हत्याएं, गोली वर्षा अथवा राग, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, अभिमान का प्रदर्शन कम हो गया है ? क्या इस सम्पूर्ण तकनीकी उन्नति से मानव मन को शान्ति प्राप्त हो रही है? शान्ति, सुख, निश्चिन्तता और निर्भयता तो दिखाई देती नहीं। यह क्यों ?व्यास का यह वाक्य
‘ऊध्र्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चित श्रृणोति माम,

 धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्यते?’ 


(स्वर्गारोहण पर्व 5.62।)
 अर्थात ‘मैं अपनी बाहें उठाकर लोगों को समझा रहा हूं कि धर्म से मोक्ष तो सिद्ध होता ही है, अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं, तो भी लोग उसका सेवन क्यों नहीं करते?  अर्थोपार्जन मनुष्य का पवित्र कर्तव्य है। परन्तु उसके लिए धर्माचरण का ठोस आधार अवश्यंभावी है। धर्म से विमुख हो कर अर्थोपार्जन में सलंग्न हम प्राकृतिक संपदा का विवेकहीन दोहन  करके संसार के पर्यावरण संतुलन को नष्ट करते हैं। काम को धर्म और अर्थ के बाद तीसरा स्थान दिया गया है। काम को धर्म और अर्थ दोनों पर ही आश्रित होना चाहिए।  यदि मनुष्य में कोई इच्छा ही नहीं रहेगी तो वह मृतप्राय ही हो जाएगा। त्याग भाव से उपभोग करो। पहले त्याग करें अन्य सभी का ध्यान रखे, फिर स्वयं उपभोग करें। दूसरों को खिलाकर तब स्वयं खाएं।  मोक्ष का स्थान अन्त में आता है। यह हमें तभी प्राप्त हो सकेगा जब हमारा अर्थ व, काम दोनों ही धर्म से संचालित होंगे। धर्म की जिस दुरवस्था पर वेदव्यास सरीखा क्रांतदर्शी कवि रो रहा है (‘विरौमि’ष्) वह धर्म क्या है?  धर्म कोई उपासना पद्धति नहीं है।  महाभारत में व्यास-मुनि कहते हैं,
 धारणात धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः ।
 यश्च  धारण संयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ।।
  अर्थात्—‘जो हमारे मनुष्यत्व को धारण करता है, एकत्र करता है, अलगाव को दूर करता है, उसे ‘‘धर्म’’ कहते हैं। जिसके रहने से ही हमलोग मनुष्य कहलाने योग्य बनते हैं, ऐसा धर्म प्रजा को धारण करता है। जिसमें प्रजा को 'एकात्मबोध ' में बाँध देने की ताकत है, वह निश्चय ही धर्म है।’ विवेक-प्रयोग करके चरित्र के जिन गुणों (निःस्वार्थपरता आदि) को धारण करने से हमलोग पशुत्व से उपर उठकर मनुष्य बन सकें और, उससे उपर उठकर देवता बन सकते हों वही धर्म है। 
 हमारा मन-मष्तिस्क, ह्रदय  या आत्मा गहन चिंतन और विचार द्वारा स्वतंत्रता से, बिना किसी डर या दबाव के श्रेय-प्रेय,शाश्वत और नश्वर के बीच विवेक-प्रयोग करने के बाद, जिस तथ्य को अपना मानवोचित कर्तव्य समझकर  धारण करे वही धर्म है ! जैसे महर्षि दधिची का अस्थिदान धर्मं था, भगवान राम का पिता का आदेश पालन धर्मं था, अर्जुन का युद्ध धर्मं था।  
जब मनुष्य शरीर प्राप्त हो गया है तो पशु जैसा जीवन नहीं बिताना चाहिये हमें जो विशेष वस्तु धर्म या विवेक-शक्ति (आध्यात्मिकता या रूहानियत) प्राप्त हुई है, उसका उपयोग करके इसे बढ़ाते रहना चाहिये। त्रिपुण्ड धारण करने या रामनामी चादर ओढ़ कर मन्दिर जाने को धर्म नहीं कहते हैं। उसी तरह मन्दिर,मस्जिद या सन्डे-सन्डे गिरजे में चले जाना किन्तु वहाँ से आकर फिर पशु जैसा जीवन जीने, अपने स्वार्थ के लिये दूसरों की क्षति करने वाला पशु-मानव बने रहने को भी धर्म नहीं कहते हैं। 
इसीलिये स्वामीजी ने कहा था, " यदि जीवन भर उपासना पद्धति में ही अटके रहने को ही धर्म समझते हो तो यही अच्छा है कि घड़ी-घन्टे को गंगाजी में बहा दो, और पण्डित-मौलवी को बंगाल के सागर में फेंक दो ! " आज हमलोग जो इतना अधिक मन्दिर देख रहे हैं, वैसा वैदिक युग में नहीं था। तब मन्दिर और मूर्तियों की संख्या इतनी अधिक नहीं थी, ये सब बाद में आये हैं। पहले भारत के लोग अपने ह्रदय गुम्फा में ही भगवान को प्रतिष्ठित करने की विधि जानते थे, इसीलिये भगवान का दर्शन करने के लिये मन्दिर जाने की प्रथा भी नहीं थी। उस समय सभी जीवों के शरीर को ही देवालय समझा जाता था-
" देहो देवालयः प्रोक्तः स जीवः केवलः शिवः ॥ "
भारत के लोग यह जानते थे कि सभी शरीरों में ब्रह्म ही ' अन्तर्यामी ' होकर बैठे हैं। हृदय रूपी अयोध्या में ही भगवान राम निवास करते हैं। सभी मनुष्यों में ब्रह्म हैं, कण कण में श्रीराम अर्थात चैतन्य ही परिव्याप्त हैं। वे जानते थे कोई वस्तु जड़ नहीं है, सब कुछ चैतन्य है। energy is equal to mass या E = M, अर्थात उर्जा (शक्ति) द्रव्यमान (वस्तु परिमाण) के बराबर है। वैज्ञानिक भी गलत कहते हैं C square ! बिल्कुल सीधा समीकरण है, E=M अर्थात कुछ भी जड़ नहीं है, सब शक्ति है। किन्तु यह बोध विज्ञान को आइन्स्टीन के पहले नहीं हुआ था। स्वामीजी और निकोला टेस्ला के संवाद के बाद ही आइन्स्टीन ने अपना शोधपत्र तैयार किया था। पहले B.A.में डबल कोर्स था, आर्ट्स-साइंस दोनों होता था, किन्तु स्वामीजी केवल आर्ट्स पढ़े थे। दूसरे मतावलम्बियों में भी यह दृष्टिकोण - ' Unity in Diversity ' का बोध भी श्रीरामकृष्ण के द्वारा 'सर्वधर्म समन्वय ' या ' जितने मत उतने पथ ' की साधना के बाद ही दिखलाई देने लगा। 
स्वामीजी कहते हैं- बनो और बनाओ ! किन्तु क्या बनना है ? हमलोग जो यथार्थ में हैं, वही बनना है। हमलोग जब मनुष्य योनि में आ गये हैं,तो हमें पशु जैसा नहीं रहना है- 'यथार्थ मनुष्य' बन जाना है। इसी जीवन में अंश से पूर्ण मनुष्य बन जाने के बाद ही यहाँ से जाना है। [अर्थात मर जाने और शरीर त्याग देने में क्या अन्तर है- इसको अपने अनुभव से जान लेने के बाद ही जाना है।] क्योंकि मनुष्य बनने और बनाने से ही मानव जाति का मंगल हो सकता है। भय-भूख-भ्रष्टाचार-कालाधन आदि जितनी भी समस्यायें हैं, सबों का निराकरण हो सकता है। किन्तु हमलोग मनुष्य बनने और बनाने के पहले मन्दिर-मस्जिद बनाना चाहते हैं, और सोचते हैं-हम तो धर्म कर रहे हैं, बड़े धार्मिक हैं। मन्दिर-मस्जिद में जाना खराब नहीं है, यदि वहाँ से आने के बाद भी मनुष्य बने रहने का प्रयत्न करते रहें, और दूसरे मतावलम्बियों से घृणा नहीं करें, उनके साथ झगड़ा-फ़साद नहीं करें। अभी इंग्लैण्ड में धर्म के नाम पर केवल १६ % लोग ही चर्च में जाते हैं, शेष बचे ८४ % लोग धर्म क्या है ? यह जानने के लिये भारत की ओर उदग्रीव होकर निहार रहे हैं, या उनके पास कुछ भी नहीं है। जो व्यक्ति यह समझ लेगा कि धर्म क्या है ? वह विभिन्न मतवादों के नाम पर या अन्य ब्राण्ड वाले धर्म को लेकर दूसरे मतावलम्बियों से भेद-भाव नहीं करेगा। तभी उसको यह समझ में आएगा कि सभी तरह की संकीर्णता या असम्पूर्णता को पीछे छोड़ कर पूर्ण-मनुष्य हो जाना ही धर्म का मार्ग है। 
हमारे किसी भी शास्त्र में, वेदों या उपनिषदों में " हिन्दू-धर्म " कहकर किसी धर्म की चर्चा नहीं हुई है। अठारह पुराणों में नहीं है, महाभारत में नहीं है, रामायण में भी नहीं है। हमारे यहाँ किसी व्यक्ति के द्वारा स्थापित धर्म का पालन नहीं होता है, हमारा धर्म " सनातन-धर्म " है,या उसे वैदिक धर्म भी कह सकते हैं। यह तो विदेशी आक्रमणकारियों की भाषा में 'स' को 'ह' कहने की परम्परा थी, इसीलिये उनलोगों ने ' सिन्धु नदी ' के पूर्वी भाग में रहने वाली मानव-जाति को 'हिन्दू' के नाम से सम्बोधित किया था। 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " जिस हिन्दू नाम से परिचित होना आजकल हम लोगों में प्रचलित है, इस समय उसकी कुछ सार्थकता नहीं है, क्योंकि उस शब्द का केवल यह अर्थ था- सिन्धुनद पूर्वी छोर पर बसने वाले। प्राचीन फारसियों के गलत उच्चारण (स को ह कहने) से सिन्धु शब्द 'हिन्दू 'हो गया है। वे सिन्धु नदी के इस पार रहनेवाले सभी लोगों को हिन्दू कहते थे। इस प्रकार हिन्दू शब्द हमें मिला है। फिर मुसलमानों के शासनकाल में हमने अपने आप यह शब्द अपने लिए स्वीकार कर लिया था। इस शब्द के व्यवहार करने में कोई हानी न भी हो, (अब हिन्दुओं से कोई जजिया टैक्स नहीं ले सकता) पर मैं पहले ही कह चूका हूँ कि अब इसकी कोई सार्थकता नहीं रही; क्योंकि तुम लोगों को इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि वर्तमान समय में सिन्धु नदी के इस पारवाले (पूर्वी हिस्से में रहने वाले) सब लोग प्राचीनकाल की तरह एक ही धर्म को नहीं मानते। इसलिये उस शब्द से केवल हिन्दू मात्र का ही बोध नहीं होता, बल्कि मुसलमान, ईसाई, जैन तथा भारत में विदेशों से आकर बस गए सभी अन्यान्य अधिवासियों का भी होता है। अतः मैं हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं करूँगा। तो हम किस शब्द का प्रयोग करें ? हम वैदिक हैं (अर्थात वेद के माननेवाले हैं) अथवा वेदान्ती शब्द का प्रयोग अपने लिये कर सकते हैं, जो उससे भी अच्छा है।" (वि० सा० ख० ५ पृष्ठ १९)  
इसको ऐसे समझें कि जैसे किसी व्यक्ति का नाम ' पंचानन मुखोपाध्याय ' को बिगाड़ कर कोई उसे, अरे ' पेंचो ' कहे तो क्या उससे उस व्यक्ति का गौरव बढ़ेगा ? उसे स्वयं को ' पेंचो ' कहे जाने पर गर्व क्यों होना चाहिये ? बहुत से उपनिषद आधुनिक काल के शाशकों के द्वारा भी लिखवाये गए थे। उन्हीं में से एक " अल्लोपनिषद " पढ़ने का मौका मिला था। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में और छन्दों में लिखा गया है, किन्तु उन छन्दों को पढ़ने से कोई अर्थ ही नहीं निकलता है। अंश से पूर्ण हो जाना, बिन्दू से सिन्धु (हिन्दू नहीं) बन जाना यही धर्म का सार है। 

गुरुवार, 2 मई 2013

" जीवन गठन " [ - श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय रचित 'महामण्डल पुस्तिका' ' জীবন গড়া ' का हिन्दी अनुवाद ]

[१] 
जीवन गढ़ना किसे कहते हैं ? 
मनुष्य कितनी ही वस्तुओं का निर्माण करने में सक्षम है ! हमलोग अपनी कल्पना शक्ति से मूर्ति बना सकते हैं, चित्र बना सकते हैं, साहित्य की रचना कर सकते हैं। गाने लिख सकते हैं, उसकी धुन बना सकते हैं। मिट्टी, सोना, आदि विभिन्न धातुओं से कितनी ही प्रकार की वस्तुओं का निर्माण कर लेते हैं। एक धातु में दूसरी धातु को मिला कर नयी धातु का निर्माण कर सकते हैं। इन निर्माण-कार्यों में हम कभी अपने हाथों का प्रयोग करते हैं, या कभी हस्तचालित उपकरणों की सहायता भी लेनी पड़ती हैं। कोई कोई व्यक्ति तो  इतने विशाल उद्द्योग-धन्धों की स्थापना भी कर सकते हैं, जिसमें उत्पादों का निर्माण केवल विशालकाय स्वचालित मशीनों के द्वारा ही संभव होता है। उनके निर्माण में हाथों का प्रयोग लगभग नहीं के बराबर होता है। अब यदि कोई व्यक्ति मनुष्यों की ऐसी कल्पना शक्ति ओर निर्माण शक्ति से अभिभूत होकर  सोचे, कि मनुष्य के भीतर यह जो इतना कुछ निर्माण कर लेने कि क्षमता है, शायद इसी को मनुष्य का 'मनुष्यत्व' कहते होंगे ? तो इससे अधिक गलत और भ्रामक धारणा और कुछ हो ही नहीं सकती।  
यदि मनुष्य के पास सचमुच ऐसी कोई विशिष्ट-क्षमता है, जिसे उसके साहस का प्रदर्शन या उपलब्धि कहकर उसकी पीठ थपथापाई जा सकती हो, तो वह यह है कि-मनुष्य स्वयं अपने जीवन का निर्माण कर सकता है! अपने मन पसन्द साँचे मे स्वयं के जीवन को गढ़ सकता है। जबकि अन्य कोई भी प्राणी ऐसा करने में सक्षम नहीं है। प्राणीविज्ञान (zoology) तथा रसायन-शास्त्र के अध्यन से यह पता चलता है कि अत्यन्त छोटे छोटे कीड़े-मकोड़े भी कई विलक्षण और बहुमूल्य वस्तुओं का निर्माण कर सकते हैं। क्योंकि गढ़ने अथवा निर्माण करने का तात्पर्य इतना ही है मूल भौतिक वस्तु को रूपान्तरित कर देना। अब कोई यह दावा करे कि एक वस्तु को दूसरी वस्तु मे रूपांतरित करने की यह क्षमता केवल मनुष्यों के ही पास है, तो ऐसा कहना वैज्ञानिक दृष्टि से बिल्कुल बच्चों जैसी बात होगी। 
मनुष्यत्व का उन्मेष: किन्तु मनुष्य के अलावा अन्य कोई प्राणी स्वयं को नहीं गढ़ सकता है। अपने जीवन का निर्माण करना या स्वयं को गढ़ने का तात्पर्य क्या है ? क्या इसका अर्थ अपने स्थूल शरीर को गढ़ना है? नहीं, ऐसा भौतिक शरीर  तो सभी प्राणियों का होता है, जो प्रकृतिक नियमों के अनुसार बढ़ता है, और समय आने पर नष्ट हो जाता है। कोई भी प्राणी इसका अपवाद नहीं होता। किन्तु जीवन-गठन से तात्पर्य यह है कि मनुष्य स्वयं को गढ़ सकता है- अर्थात वह अपने जीवन का निर्माण सुन्दर ढंग से कर सकता है। क्योंकि मनुष्यों का जीवन सुन्दर भी बन सकता है, और असुन्दर भी बन सकता है। सद्गुणों को अर्जित करके मनुष्य अपने जीवन को महापुरुष या भगवान के जैसा बना सकता है, यदि गुणों को अर्जित नहीं करे तो पशु के जैसा बुरा जीवन भी हो  सकता है। सद्गुणों को अर्जित करके मनुष्य अपने जीवन को महापुरुष या भगवान के जैसा बना सकता है, यदि गुणों को अर्जित नहीं करे तो पशु के जैसा बुरा जीवन भी हो  सकता है। [किसी व्यक्ति में इसी बोध के जागरण को मनुष्यत्व का उन्मेष होना कहते हैं।]    
जीवन यदि सुन्दर ढंग से निर्मित हो जाय तो क्या होता है? जीवन मे शान्ति आती है, सच्चा सुख प्राप्त होता है, और हमारा जीवन समाज के अन्य मनुष्यों के लिये भी सुख,शान्ति और कल्याण का हेतु बन जाता है।यदि जीवन असुन्दर हो गया तो जीवन में शान्ति नहीं रहती, सच्चा सुख प्राप्त नहीं होता, और वह जीवन दूसरों के लिये भी अशान्ति, दुःख और विषाद का कारण बन जाता है। स्वामीजी ने कहा है- " वास्तव में केवल वे ही जीवित हैं, जो दूसरों के कल्याण के लीये जीवन धारण करते हैं, बाकी तो मृत से भी अधम हैं। " एवं जीवन-गठन की पृष्टभूमि में सबसे महत्वपूर्ण बात भी यही है। इसीलिये अपने जीवन को सुन्दर रूप से गठित करना हमलोगों का एक सामाजिक दायित्व भी बन जाता है। कैसे ?
मनुष्य का जीवन समाज-सापेक्ष है:  इतना तो मैं समझ सकता हूँ, कि मेरा जीवन सुन्दर बन जाने से मेरे जीवन मे सुख-शान्ति रहेगी, नहीं बनने से सुखी नहीं हो पाऊँगा। किन्तु मेरे जीवन के सुन्दर बनने या न बनने से, दूसरों को क्या फर्क पड़ता है ? नहीं, ऐसी बात कोई नहीं का सकता;ऐसा कहने का अधिकार किसी भी व्यक्ति को नहीं है। क्योंकि -" मनुष्य का  जीवन 'समाज-सापेक्ष ' होता है, या यूँ कह सकते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति समाज के साथ जुड़ा हुआ है, कोई भी मनुष्य अकेले अपना जीवन यापन नहीं कर सकता है। " इसलिये अपना जीवन गठित नहीं करने से यदि केवल तुम्हीं दुःखी रह जाते- तब हो सकता था कि उससे दूसरों को कोई अंतर नहीं पड़ता। किन्तु तुम्हारा जीवन यदि सुन्दर ढंग से निर्मित नहीं हुआ, तो तुम्हारे कारण समाज के अन्य व्यक्तियों को दुःख-कष्ट पहुँचने की संभावना बढ़ जायेगी। इसीलिये तुम्हें अपने जीवन को भद्दा (ugly), कुरूप, अशिष्ट या अशोभनीय (unbecoming) बनाये रखने का कोई अधिकार नहीं है। 
अपने पड़ोसियों या समाज के साथ अच्छा बर्ताव करने की जो नैतिक-बाध्यता तुम्हारे उपर है, उसके कारण तुम्हें अपना जीवन सुन्दर रूप मे गढ़ने के लिये प्रयत्नशील होना ही पड़ेगा- यही तुम्हारा कर्तव्य है। जब कोई व्यक्ति समाज-विरोधी आचरण करने लगता है, तो उसके विरुद्ध समाज को भी - पुलिस, कोर्ट,या कड़े कानून की व्यवस्था भी करनी पड़ती है। प्रसाशन-तंत्र को कहना पड़ता है कि सार्वजनिक स्थानों में नशा या धूम्रपान करना मना है, अशिष्ट या अशोभनीय आचरण करना दण्डनीय अपराध है आदि,आदि।
किन्तु, जो लोग मानव-मात्र से सच्चा और निःस्वार्थ प्रेम करते हैं, अधिक संवेदनशील हैं और जो उसके भले-बुरे के प्रति चिन्तित रहते हैं, वे केवल कानून का डर दिखाकर, या वैधानिक चेतावनी लिख कर समाज में शांति-व्यवस्था बनाये रखना को पर्याप्त नहीं मानते। वे हमें समझाते हुए कहते हैं- नहीं, एकान्त स्थान में भी नशा करना अच्छी बात नहीं है, सार्वजनिक स्थानों में ही नहीं, किसी भी स्थान में अशोभनीय आचरण करना या धूम्रपान करना अच्छी बात नहीं है। क्योंकि इससे स्वास्थ्य की हानी तो होती ही है, मनुष्य की गरिमा का भी हनन होता है, मनुष्य पशु के स्तर पर ही नहीं, राक्षस के स्तर तक उतर जाता है। इसिलिये हमारे पूर्वजों ने हितोपदेश में कहा था -
" मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत् ।
    आत्मवत् सर्व भूतेषु यः पश्यति स पश्यति ।। "
 -अर्थात जो व्यक्ति परायी स्त्रियों को माता के समान, दूसरों के धन-वैभव को मिट्टी के ढेले के समान और सभी प्राणियों को अपने समान-जो व्यक्ति ऐसा देख पाता है, वही व्यक्ति वास्तव में देखता है।
लोरी सुनाने के समय से ही जीवन -गठन: महामण्डल के जो कार्यकर्ता (नेता)  श्रीरामकृष्ण-स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित मनुष्य-निर्माण पद्धति  ' Be and Make ' के अनुसार- '3H' निर्माण के प्रशिक्षण द्वारा ' मनुष्य बनो और बनाओ ! ' के मर्म को समझने में समर्थ हैं, वे मनुष्य को उसकी सम्पूर्णता में देखते हैं। जो व्यक्ति (ब्रह्मवेत्ता ऋषि या नेता ) 'मनुष्य ' को उसकी संपूर्णता में जानते हैं। वे प्रत्येक मनुष्य मे विद्यमान अनन्त संभावना को प्रत्यक्ष देख सकते हैं, वे जब किसी मनुष्य को पाशविक कृत्य करते देखते हैं, तो उस व्यक्ति के अपूर्णता की वेदना को अपने हृदय में अनुभव करते हैं, तथा अश्रु-पूरित नेत्रों से उच्च स्वर में पुकार उठते हैं-
" उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ! "
" उठो ! जागो ! और लक्ष्य तक पहुँचने के पहले कहीं विश्राम मत लो। "
जिस समाज में अनेकों व्यक्ति (विशेष तौर से युवा ) उनकी इस पुकार को सुन पाते हैं, तथा उस आह्वान से अनुप्रेरित होकर, लक्ष्यप्राप्ति की दिशा (जीवन गठन या चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने) मेँ निष्ठापूर्वक प्रयत्नशील हो जाते हैं, और सर्वप्रथम अपने अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गढ़ने के लिये कमर कसकर जुट जाते हैं, वही समाज सच्चे रूप मे उन्न्त हो पाता है। [इसीलिये पहले भारत में पालने में झुलाकर लोरी सुनाने के समय से ही जीवन-गठन की शिक्षा दी जाती थी। इसीलिये सुप्रीम कोर्ट में किशोर-किशोरियों की उम्र को १८ वर्ष ऐ घटाकर १५ वर्ष करने की याचिका नहीं आती थी। दिल्ली दामिनी बलात्कार काण्ड के लिये ' Juvenile Court ' या " किशोर न्यायालय " की आवश्यकता भी नहीं होती थी।]
सामाजिक दायित्व का बोध: जो मनुष्य स्वामी विवेकानन्द के - " स्वदेश-मन्त्र " के मर्म को समझ पाने में सक्षम हो जाता है;  केवल वही व्यक्ति यह समझ पाता है, कि जीवन-गठन या चरित्र-निर्माण की शिक्षा  किशोरावस्था में ही नहीं, बल्कि पालने पर लोरी सुनाने के समय से ही क्यों प्रारम्भ कर देना चाहिये ? ' जो लोग इस तथ्य को समझ पाने मेँ सक्षम हैं, केवल उनमें ही सामाजिक दायित्व का बोध होता है। किसी ऐरे-गैरे-नत्थु-खैरे को पाँच साल में एक बार वोट डाल देने मात्र से ही समाज के प्रति हमारे त्तरदायित्व का पालन नहीं हो जाता। जो व्यक्ति स्वामी विवेकानन्द के इस आह्वान- " उत्तीष्ठत ! जाग्रत ! " को समझ पाने मेँ सक्षम हो जाता है, केवल वही व्यक्ति यह जानता है कि- ' वह जन्म से ही माता के लीये बलीप्रदत्त है।' वही जान पाता है कि ' उसका विवाह, धन और जीवन ' - इन्द्रिय सुख के लिये, अपने व्यक्तिगत सुख के लिये नहीं है ! "क्योंकि, व्यक्ति से ही समाज बनता है; इसलिये -" व्यक्ति को अच्छा बनाये बिना, समाज को कभी अच्छा नहीं बनाया जा सकता है। " इतना सरल समीकरण (equation ' E= M ' के जैसा सरल ) जितनी जल्दी सबको समझ मे आ जाए, समाज के लिये उतना ही कल्याणप्रद है। 
जनसंख्या वृद्धि-दर में कमी लाने के अंकगणितीय पद्धति द्वारा  जोरदार प्रयत्न करने के फलस्वरूप, 'रेखा गणितीय श्रेणी '(geometric progression) नियमानुसार यथार्थ मनुष्यों की संख्या में कमी होती जा रही है। सभ्य मानव-समाज के लिये इससे अधिक खतरे की घण्टी और क्या हो सकती है ?  यदि हमलोग इस आसन्न खतरे से मानवता की रक्षा करना चाहते हों, मनुष्यता के स्तर से गिर कर पशुता के स्तर तक, या उससे भी नीचे राक्षस के स्तर  तक पहुँचने से रोकना चाहते, तो जितने बड़े पैमाने पर ऊर्जा-संकट, आर्थिक वृद्धि-दर में कमी, वन-रोपण के द्वारा गिरते जल-स्तर आदि के संकट से बचने के लिये प्रयास किये जा रहे हैं, उसकी तुलना में कई गुणा अधिक प्रयास मनुष्य-निर्माण के लिये करना होगा। एवं वर्तमान में प्रचलित ' Money-making and character losing education.' अर्थात ' पैसा बनाने और चरित्र खोने 'वाली शिक्षा-पद्धति, के बदले स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित ' Man-making and character building education.' अर्थात मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-निर्माण  करने वाली शिक्षा-नीति को भारतवर्ष के गाँव-गाँव तक फैला देना होगा, जिसका तो उपाय भी हमलोग प्रायः भूल ही चुके हैं।
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[२] मार्गदर्शक प्रकाश-स्तम्भ के रूप में जीवन-गठन:  
भारत में युवाओं की संख्या : समान्यतः पन्द्रह वर्ष से लेकर पैंतीस वर्ष आयु तक के लोगों को युवा माना जाता है।  सम्पूर्ण विश्व में युवाओं की संख्या लगभग एक सौ करोड़ है, इसका लगभग सातवाँ हिस्सा भारत में वास करता है। इस हिसाब से भारत में युवाओं की संख्या चौदह करोड़ से कुछ अधिक है। हमें यह ज्ञात है कि युवाओं के भीतर अपरिमित ऊर्जा होती है। 'आंखों में उम्मीद के सपने, नयी उड़ान भरता हुआ मन, और दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने का साहस रखने वालों को ही युवा कहा जाता है। युवा शब्द ही मन में उड़ान और उमंग पैदा करता है।' और भारतवर्ष के युवाओं के ऊपर स्वामी विवेकानन्द को गहरी आस्था थी। 
आमतौर से वयोवृद्ध लोग युवाओं के प्रति कभी पूरी तरह से संतुष्ट नहीं रहते। किन्तु स्वामी विवेकानन्द की रचनाओं या संदेशों मे युवकों के लिये कभी किसी कटु शब्द का प्रयोग हुआ हो, ऐसा कहीं देखने को नहीं मिलता; इसका कारण क्या है ? इसका कारण यही है, कि स्वामीजी ने मनुष्य को बिल्कुल उसकी गहराई मे प्रविष्ट होकर देखा था। स्वामीजी ने स्पष्ट रूप से देख लिया था कि इन समस्त युवाओं के भीतर भी वही एक ब्रह्म विराजमान हैं। इसिलिये उन्होंने कहा था, " मैंने इतनी तपस्या करके यही सार समझा है कि जीव-जीव में वे अधिष्ठित हैं; इसके अतिरिक्त ईश्वर और कुछ भी नहीं है। सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठतम मंदिर है; मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है। मनुष्य सब प्रकार के प्राणियों से -यहाँ तक कि देवादि से भी श्रेष्ठ है। मनुष्य से श्रेष्ठतर कोई और नहीं है। देवताओं को भी ज्ञान-लाभ करने के लिये मनुष्य देह धारण करनी पड़ती है। एकमात्र मनुष्य ही ज्ञान-लाभ का अधिकारी है, यहाँ तक कि देवता भी नहीं। यहूदी और मुसलमानों के मतानुसार, ईश्वर ने देवदूत और अन्य सब प्रकार के जीवों की रचना करने के बाद जब मनुष्य की रचना की तब उन्हें बड़ा आनन्द हुआ। क्योंकि वह अपने बनाने वाले (ब्रह्म) को भी जान सकने में समर्थ था। इसीलए ईश्वर ने सभी देवदूतों से मनुष्य को प्रणाम और अभिनन्दन करने के लिये कहा। इबलीस को छोड़कर बाक़ी सबने ऐसा किया। अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप दे दिया। इससे वह शैतान बन गया। इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार में मनुष्य-जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। पशु किसी ऊँचे तत्व की धारणा नहीं कर सकते। देवदूत या देवता भी मनुष्य-जन्म लिये बिना मुक्ति-लाभ नहीं कर सकते। " (१/५३)इसीलिए स्वामी विवेकानन्द प्रत्येक जीव को, विशेष रूप से प्रत्येक मनुष्य को  पूजा की वस्तु समझते थे।  
युवावस्था में ही जीवन-लक्ष्य का निर्धारण: उन्होंने  युवाओं को संबोधित करते हुए कहा था, " तुम्हारे लिये अपने भावी जीवन का मार्ग चुन लेने का यही सबसे उपयुक्त समय है। जब तक तुम्हारे भीतर यौवन का तेज है, जब तक तुम मेहनत करने से थकते नहीं, तुम्हारे भीतर यौवन की नवीनता और तेजस्वी विचार हैं- काम में लग जाओ ! यही तो समय है।" युवावस्था में ही जीवन-लक्ष्य को प्राप्त करने की चुनौती का सामना दृढ़ता के साथ करने संकल्प उठा लेना चाहिये। क्योंकि इसी समय यदि हम अपने भविष्य (जीवन-लक्ष्य) को निर्धारित करने,या अपने जीवनादर्श के चयन के विषय में, कोई ठोस  निर्णय नहीं ले सकें, तथा उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये दृढ़-संकल्प ग्रहण नहीं कर सके तो यह निश्चित है, कि हम ( विवेक-प्रयोग के द्वारा) अपने जीवन को सार्थक बनाने में अवश्य असफल हो जाएंगे। क्योंकि यदि कोई मनुष्य  अपने जीवन की वृत्तियों (quest) को यदि निरन्तर भोगोन्मुख या बहिर्मुखी ही बनाये रखे, तो यह निश्चित है, कि वह अपने मनुष्य -जीवन को कभी सार्थक नहीं कर पायेगा। या अपने इस दुर्लभ मनुष्य जीवन का 'सच्चा-सुख ' नहीं भोग पायेगा, सही ढंग से आनन्द नहीं ले पायेगा। चूँकि (संकल्प-ग्रहण विधि को सीख कर निरन्तर विवेक-प्रयोग करके) अपने जीवन को सार्थक बना लेने की सम्भावना प्रत्येक युवा में अन्तर्निहित है, इसिलिये युवाओं में कुछ दोष-त्रुटि रहने के बावजूद भी, स्वामीजी ने कभी युवाओं का तिरस्कार नहीं किया था। बल्कि उन्होंने युवाओं को हमेशा उत्साह और आशा का संचार हो ऐसे संदेश- सुनाये थे। उनको ऐसी आशाप्रद बातें सुनाई हैं, ताकि प्रत्येक युवा अपने निश्चित रूप से गौरवशाली भविष्य के बारे में जानकर, यह आस्था अर्जित कर सकें कि ' मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है!'   
स्वामी विवेकानन्द युवाओं से कहते हैं, " मोहग्रस्त लोगों की ओर दृष्टिपात करो। हाय ! हृदय भेदकारी करुणापूर्ण उनके आर्तनाद को सुनो। हे वीरों, बद्धों को पाशमुक्त करने, दरिद्रों के कष्ट को कम करने तथा अज्ञ जनों का हृदयान्धकार दूर करने के लीए आगे बढ़ो, ' डरो नहीं' ', 'डरो नहीं' - यही वेदान्त-दुन्दुभि का स्पष्ट उद्घोष है। चिकने-चुपड़े पर तेल लगाना तो पागलों का काम है। दरिद्र, पद दलित तथा अज्ञ लोग तुम्हारे ईश्वर बनें। अपने मेँ ब्रह्मभाव को अभिव्यक्त करने का यही एकमात्र उपाय है कि इस विषय मेँ दूसरों की सहायता की जाये। "     
" तुम जरा विश्व की तरफ आखें उठाकर देखो, और यह समझने की चेष्टा करो कि वास्तव में मनुष्य दुःख भोगता ही क्यों है ? हमलोग यदि वेदान्त की दृष्टि से इस प्रश्न को समझने की चेष्टा करें, तो पायेंगे कि हमारे समस्त दुःखों का एक-मात्र कारण है- अज्ञान ! इसिलिये यदि तुम अपने हृदय में सत्य की ज्योति का आविष्कार करके, इस अज्ञान के अन्ध्कार से मुक्त हो जाओ; या यदि इस सत्य के ज्योति की थोड़ी सी  झलक भी सचमुच प्राप्त कर सके, तो तुम स्वयं ही यह समझ जाओगे कि वास्तव में हमारा यह जीवन कितना अधिक मूल्यवान है !" 
सत्य की ज्योति से प्रकाशित जीवन का गठन : यदि हमलोग अपने जीवन को इस सत्य की ज्योति से प्रकाशित करने में समर्थ हो जाएँ, तो इस बात में कोई सन्देह नहीं सम्पूर्ण विश्व के मानव-जाति का भविष्य भी उज्ज्वल और सुरक्षित हो जायेगा। समस्त मानव-जाति के समक्ष जो संकट के काले बादल छाये हुए हैं, जैसा अंधकार घनीभूत हो गया है, वह सारा संकट, सारा अँधेरा  दूर हो जायेगा।   इसीलिये स्वामीजी युवाओं का आह्वान करते हैं, "वत्स, बढ़े चलो, समग्र जगत ज्ञानालोक के लिये लालायित है, उस ज्ञानालोक को प्राप्त करने के लिये उत्सुकतापूर्ण दृष्टि से जगत हमारी ओर देख रहा है। एकमात्र भारत के पास ही ऐसा ज्ञानालोक (पारसमणि-चार महावाक्य) विद्यमान है, जो वैदिक-ऋषियों द्वारा आविष्कृत उच्चतम आध्यात्मिक सत्य में प्रतिष्ठित है। जगत को इस तत्व की शिक्षा प्रदान करने के लिये ही प्रभु ने इस जाति को विभिन्न दुःख-कष्टों के भीतर भी आज तक जीवित रखा है। अब उस वस्तु को देने का समय आ गया है। हे वीरह्रदय युवकों, तुम यह विश्वास रखो कि अनेक महान कार्य करने के लिये तुम लोगों का जन्म हुआ है। " 
वर्तमान विश्व में हम कई प्रकार के विरोधाभास देख सकते हैं। एक ओर घोर दरिद्रता है तो दूसरी ओर प्रचुरता का अम्बार लगा है। एक ओर विज्ञान जहाँ निरन्तर प्रगति की ओर अग्रसर है, वहीं दूसरी ओर यथार्थ 'प्रज्ञा ' का घोर अभाव भी दृष्टिगोचर होता है। आधुनिक मानव के जीवन में सच्चे सुख का अभाव तो है ही, वह युद्ध की विभीषिका से भी त्रस्त है। कई प्रकार के घात-प्रतिघात, द्वन्द एवं घृणा के भाव से सामाजिक जीवन छिन्न-भिन्न होता जा रहा है। स्वार्थपरता और लोभ अपने चरम पर पहुँच गया है, सहानुभूति और सद्भावना का घोर अभाव हो गया है, विद्वेष और घृणा का मनोभाव चारों तरफ फैला हुआ है। अर्थ तथा भोग की आकांक्षाओं ने हमारे यथार्थ स्वरूप को आवृत कर लिया है। वर्तमान युग की भोगवादी संस्कृति एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अभाव ने हमारी आँखों पर पर्दा डाल रखा है।इसीके कारण मनुष्य समाज के अन्दर घृणा, द्वेष, हिंसा, द्वन्द तथा युद्धोन्माद आदि मानसिक विकृत्तियाँ उत्पन्न हो रही  हैं।                           
दो प्रकार की विद्यायें: यदि हमलोग अपने लौकिक ज्ञान में वृद्धि के साथ-साथ , विवेक-शक्ति को जाग्रत भी जाग्रत रखने का प्रयास (बुद्ध बनने का प्रयास) नहीं करें,  तो हमारी ' प्रज्ञा ' (अभेद-दृष्टि) भी विकसित नहीं हो सकती है। इसके फलस्वरूप सम्पूर्ण मानवता ही खतरे में पड़ सकती है। इसिलिये हजारों-हजार वर्षों से हमारे पूर्वज, इस  'प्रज्ञा' को जाग्रत कराने की प्रचेष्टा में निरन्तर प्रयत्नशील रहते आए हैं। इसीलिये उन्होंने  उपनिषद युग से ही मनुष्य के लिये दो प्रकार के विज्ञान को सीखने तथा उनके बीच समन्वय स्थापित करने पर सर्वाधिक बल दिया था। एक को वे 'अपरा-विद्या' (External- technology) और दूसरे को 'परा-विद्या' (Internal -technology) कहते थे। जैसे मुण्डक उपनिषद् में शौनक ऋषि की इस जिज्ञासा पर, कि "वह कौन सा ज्ञान है जिसे जानने पर सब कुछ जान लिया जाता है?" 
 महर्षि अंगिरा उत्तर देते हैं कि, "दो प्रकार की विद्यायें हैं- एक है 'परा' व दूसरी है 'अपरा' । अपरा विद्या के अन्तर्गत सभी प्रकार की विद्यायें, कला, संगीत, भौतिक, रसायन, जीव, वनस्पति विज्ञान आदि सब कुछ आ जाते हैं। इन सभी विद्याओं द्वारा जीव और जगत् का विश्लेषण तो सम्भव है, परन्तु इससे अंतिम तत्व (आत्मा या ब्रह्म) जिससे यह सारा अस्तित्व अभिव्यक्त हुआ है, जिसमें स्थित है और जिसमें लय  हो जाता है, उस आत्मा या ' ब्रह्म ' को नहीं जाना जा सकता। अत: जो विद्या उस अंतिम तत्व (ब्रह्म) का प्रतिपादन करे, यह परा विद्या है। 
 हमारे पूर्वजों ने इन दोनों विज्ञानों में पर्याप्त प्रगति की थी, तथा दोनों विज्ञानों मे समन्वय भी स्थापित कर लिया था। किन्तु समय के अन्तराल में हमलोगों ने 'बाह्य-प्रौद्योगिकी' तथा 'आन्तरिक-प्रौद्योगिकी' के बीच समन्वय रखने के कौशल को खो धीरे धीरे बिल्कुल  ही भुला दिया था। किन्तु अभी हाल की अवधि मे, विशेष रूप से विगत शताब्दी के शेष  भाग में, स्वामी विवेकानन्द ने इन दोनों विज्ञानों के बीच समन्वय स्थापित करने की प्राचीन पद्धति को पुनर्स्थापित का प्रारम्भ किया,  ताकि सम्पूर्ण मानव-जाति अपने ब्रह्मवेत्ता पूर्वजों के मार्ग पर चल कर पुनः सुख-शान्ति के साथ अपना जीबन निर्वाह करने योग्य बन सके।
" आत्मविश्वास रख। तुम्हीं लोग तो पूर्व काल में वैदिक ऋषि थे ! अब केवल शरीर बदल कर आये हो। मैं दिव्य चक्षु से देख रहा हूँ, तुम लोगों में अनन्त शक्ति है। उस शक्ति को जगा दे ! उठ, उठ, लग जा, कमर कस ! क्या होगा दो दिन का धन-मान लेकर ? मेरा भाव जानता है ? --मैं मुक्ति आदि कुछ नहीं चाहता हूँ। मेरा काम है तुम लोगों में इन्हीं भावों को जगा देना। एक मनुष्य तैयार करने में लाख जन्म भी लेने पड़ें तो मैं उसके लिये भी तैयार हूँ। " 
" यदि तुम सचमुच मेरी सन्तान हो, तो तुम किसी वस्तु से न डरोगे और किसी बात पर न रुकोगे। तुम सिंहतुल्य होगे। हमें भारत को और पूरे संसार को जाग्रत करना है। ...मेरी सन्तान को आवश्यकता पड़ने पर एवं कार्य की सिद्धि के लिये, आग में कूदने को भी तैयार रहना चाहिये। ...मृत्युपर्यन्त काम करो - मैं तुम्हारे साथ हूँ ! और जब मैं न रहूँगा, तब मेरी आत्मा तुम्हारे साथ काम करेगी। यह जीवन आता है और जाता है -नाम, यश, भोग यह सब थोड़े दिन के हैं। संसारी कीड़ों की तरह मरने से अच्छा है कि - ' कर्तव्य के क्षेत्र में सत्य का उपदेश देते हुए मरो ! आगे बढ़ो! "
आज का यक्ष प्रश्न : जगत को प्रकाश कौन देगा ? स्वामीजी ने कहा था, " एक बात जो मैं सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट देखता हूँ, वह यह कि अज्ञान ही दुःख का कारण है और कुछ नहीं। जगत को प्रकाश कौन देगा ? भूतकाल मेँ बलिदान का नियम था और अफसोस युगों तक ऐसा ही रहेगा। संसार के वीरों को और सर्व-श्रेष्ठों को 'बहुजनहिताय, बहुजन सुखाय' अपना बलिदान करना होगा। असीम दया और प्रेम से परिपूर्ण सैकड़ों बुद्धों की अवश्यकता है। वत्स, बढ़े चलो, समग्र जगत ज्ञानालोक के लिये लालायित है, उस ज्ञानालोक को प्राप्त करने के लिये उत्सुकतापूर्ण दृष्टि से जगत हमारी ओर देख रहा है। "

" हमारे सामने यह सारा संसार है जो महादुःख से परिपूर्ण है। बुद्ध के समान इस संसार-सागर में गोता लगाकर या तो इस संसार के दुख को दूर करो या इस प्रयत्न मेँ प्राण त्याग दो। अपने को भूल जाओ; आस्तिक हो या नास्तिक, अज्ञेयवादी हो या वेदान्ती, ईसाई हो या मुसलमान -प्रत्येक के लिये यही सबसे पहला पाठ है।"
" एक नवीन भारत निकल पड़े -निकले हल पकड़कर, किसानों की कुटी भेदकर, मछुआ, मोची, मेहतरों की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकान से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से। निकले झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से। "  यदि भारत के युवा - ' उपनिषदों में वर्णित 'परा-विद्या'-अर्थात अन्तर्जगत या अन्तःप्रकृति पर विजय प्राप्त करने की तकनीक (Internal -technology)  को सीख कर, अपने हृदय को सत्य की 'ज्योति' से आलोकित करके अपने जीवन को मार्गदर्शक प्रकाश-स्तम्भ (Light House) के रूप मे गठित कर सकें, तो मानव-जाति का भविष्य सचमुच उज्ज्वल हो जायेगा। आज सम्पूर्ण मानव-जाति के सामने जो संकट उपस्थित हो गया है, जैसा अँधेरा घनीभूत हो गया है, वह सारा संकट, सारा  अँधेरा दूर भाग जाएगा।
जिनके पास सत्य को स्पष्ट रूप से देखने की क्षमता (ऋषि-दृष्टि) है, वे अवश्य देख सकते हैं कि हाल के दिनों से (स्वामी विवेकानन्द प्रदत्त ' Be and Make ' पद्धति द्वारा ) धीरे धीरे, पुनः एकबार बाह्य-विज्ञान और अंतर-विज्ञान  इन दोनों विज्ञानों के बीच संतुलित समन्वय विकसित होता जा रहा है।

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[३] 
 " भारत निर्माण का  अर्थ है-  ' मनुष्य निर्माण '
भारत की वर्तमान अवस्था: आज के भारतवर्ष में हम क्या देखते हैं ? हम यहाँ देखते हैं कि मात्र बीस परिवारों ने देश के अधिकांश अर्थ पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है। कुछ धनवान और विदेशी-डिग्री प्राप्त सुविधा भोगी व्यक्ति (दागी-राजनीतिज्ञों PMO और CBI का गठजोड़) अपनी मर्जी से देश चला रहे (या लूट रहे ?) हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ की एक समीक्षा रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत कुल जनसंख्या का ७४॰५ प्रतिशत असुविधा भोगी लोगों की श्रेणी में जीवन जीने के लिये मजबूर हैं। क्या हमलोग इसे सहन कर सकते हैं ? आज भी भारत की लगभग आधी आबादी अशिक्षा के अंधकार में डुबी हुई है। जिन्हें हम साक्षर कहते हैं, उनमें ३० से ३५ प्रतिशत लोग किसी तरह अपना नाम लिख सकते हैं। इनको शिक्षित नहीं कहा जा सकता। भारत की लगभग आधी जनसंख्या किसी प्रकार से पेट भरने और तन ढकने का जो स्तर होता है, उससे भी निम्नस्तर का जीवन-यापन करती है। सच कहा जाय तो भारत के अधिकांश मनुष्यों के पास रहने के लायक घर तक नहीं है। असंख्य मनुष्यों के पास चिकित्सा का कोई साधन नहीं है; अधिकांश मनुष्य न्याय पाने के लिये न्यायालय के पास नहीं जा पाते हैं। यहाँ जो सबके लिये एक समान न्यायिक व्यवस्था होने का दावा किया जाता है, या जब कुछ जोकर टाईप भ्रष्ट नेता लोग 'चेकदार तौलिया-टोपी ' पहन कर  ' सांप्रदायिक-सदभाव और  सामाजिक-न्याय ' की बातें करते हैं, वह सब कोरा बकवास मात्र है। 
सामजिक व्यवस्था में परिवर्तन कैसे: भारतवर्ष की ऐसी भयावह और घोर विषादपूर्ण दुरावस्था (छपरा में मिड डे मिल खाकर २३ बच्चों की मौत ) को देख कर भी, क्या हमलोगों को पशुओं की भाँति अपने-अपने क्षूद्र स्वार्थों को पूरा करने में लगे रहना शोभा देता है ? स्वामी विवेकानन्द समाज की सरल परिभाषा देते हुए कहते हैं- 'व्यष्टि से मिलकर समष्टि बनती है' एक एक व्यक्तियों से मिलकर समाज बनता है।' इसी परिभाषा के आधार पर स्वामीजी इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, कि तुमलोग यदि समाज को उन्न्त बनाना चाहते हो तो तुम्हें,  जिससे समाज बनता है, समाज के उपदान को -अर्थात व्यष्टि मनुष्य (हिन्दू-मुसलमान, अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित ) को हर दृष्टि से उन्न्त (प्रज्ञा-वान मनुष्य ) बनाने का प्रयत्न करना होगा। 
 स्वामी विवेकानन्द कहते थे , "  दुनिया तभी पवित्र और अच्छी हो सकती है, जब हम स्वयं पवित्र और अच्छे हों। वह है कार्य और हम हैं उसके कारण। इसलिये आओ, हम अपने को पवित्र बना लें ! आओ, हम अपने को पूर्ण बना लें !" उनका यह मानना था कि  सामाजिक उन्नति का तात्पर्य है- व्यष्टि मानव की उन्नति अर्थात समाज में रहने वाले मनुष्यों की चारित्रिक उन्नति ! 
 जिन्होंने स्वामीजी को बहुत नजदीक से देखा था- भगिनी निवेदिता, उनके विषय में लिखती हैं- "वे अपने जीवन के ध्येय को अत्यन्त कठोरता के साथ संक्षिप्त करते हुए कहते थे-'मनुष्य निर्माण' करना ही मेरा धर्म है।' एवं कभी गुरु रूप में, कभी पिता रूप में, कभी शिक्षक के रूप में, उन्होंने इसी मनुष्य-निर्माण के कार्य को आजीवन, बहुत कठोर परिश्रम के साथ लगातार किया था। जहाँ और जब किसी को उनकी जरूरत महसूस हुई वे उसी रूप से मनुष्य बनने में उसकी सहायता करते थे। क्योंकि वे जानते थे कि मनुष्य निर्माण करना ही भारतवर्ष को पुनरुज्जीवित करने का एकमात्र उपाय है। " 
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " मेरा भाव क्या है, जानता हो ? - मैं मुक्ति आदि नहीं चाहता हूँ। मेरा काम है, तुम लोगों में इन्हीं भावों को जगा देना। एक मनुष्य तैयार करने में यदि लाख जन्म भी लेने पड़ें तो मैं उसके लिये भी तैयार हूँ। " देश की वर्तमान अवस्था में परिवर्तन लाने का दूसरा कोई उपाय नहीं है। स्वाधीन भारत के ६५ वर्ष के इतिहास में उनकी यही भविष्य वाणी सच होती दिख रही है। 
इसीलिये हमारा लक्ष्य है, अपनी प्यारी मातृभूमि भारतवर्ष का सर्वव्यापी पुनरुत्थान ! तथा यह कार्य केवल हमारे व्यक्तिगत चरित्र गठन के माध्यम से ही संभव है। इसलिये यह कहा जा सकता है, कि हमलोगों के जीवन का उद्देश्य है- चरित्र गठन, जीवन गठन, आत्म-विकास या मनुष्य बन जाना। वस्तुतः ये सभी बातें एक ही विषय की ओर इंगित करती हैं, और वह है मनुष्य के रूप में हमलोगों का जीवन किस प्रकार सार्थक हो सकता है, उसी के प्रयास में जुट जाना चाहिये।  इसी विषय को स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने बहुत संक्षेप में कहा है- " यह जीवन क्षणभंगुर है, जगत की सभी वस्तुएं -धन, मान, ऐश्वर्य आदि क्षणिक हैं, वास्तव में केवल वे ही जीवित हैं जो दूसरों का कल्याण करने की इच्छा से जीवन धारण करते हैं। शेष मनुष्य, जो केवल अपने लिये जीवन धारण करते हैं, वे तो मृत से भी अधम हैं।"
श्रीकृष्ण ने भी अपनी युवावस्था में मनुष्य-जीवन को सार्थक करने सम्बंध में ठीक इसी प्रकार का संदेश गोप युवाओं को दिया था। श्रीमद्भागवत महापुराण की कथा के अनुसार एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण गोचारण करते हुए वृन्दावन से बहुत दूर निकल गये। ग्रीष्म ऋतु के संताप से व्यकुल होकर सभी गऊयेँ तथा ग्वाल-बाल आदि घने वृक्षों की शीतल छाया में विश्राम करने लगे। वे वृक्षों की टहनियों से पंखों का काम ले रहे थे। यह सब देख कर,अचानक श्रीकृष्ण अपने साथियों को सम्बोधित करते हुए कहने लगे—
पश्यैतान् महाभागान् परार्थैकान्त जीवितान्।
वात वर्षातपहिमान् सहन्तो वारयन्ति नः।।
अहो एषां वरं जन्म, सर्व प्राण्युपजीविनम्। 
सुजनस्यैव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः।।
पत्र, पुष्प, फलच्छाया, मूल, वल्कल दारुभिःगंध,
निर्यास भस्मास्थि तोक्मैः कामान् वितन्वते।।

-" प्रिय मित्रों ! इन भाग्यशाली वृक्षों को देखो, इनका जीवन कितना महान है ! ये केवल दूसरों के कल्याण के लिये   ही जीवित हैं। ये वृक्ष हम सबकी आँधी, वर्षा, ओला, पाला, धूप से बचाते हैं और स्वयं इनको झेलते हैं। इन (वृक्षों) का जीवन धन्य (यशस्वी) है क्योंकि ये सब प्राणियों को उपजीवन (सहारा) देते हैं। अर्थात् ये वृक्ष पत्र, पुष्प, फल, छाया, मूल (Roots), वल्कल (Bark), दारू या लकड़ी (Timbers), गंध (Scent), निर्यास या गोंद (Gum and Resin), भस्म (Ash), अस्थि (coal), तोक्म (Seeds) आदि पदार्थों के द्वारा, मनुष्यों की कामना को पूर्ण करते हैं। वास्तव में इनका जीवन ही सार्थक है, क्योंकि ये वृक्ष दूसरों की भलाई के लिये ही जीवित हैं। "
जीवन-गठन की तीन शर्तें-उद्देश्य-आदर्श एवं कार्यपद्धति: श्रीकृष्ण ने गोप युवकों के समक्ष मनुष्य-जीवन के जिस आदर्श को, जिस प्रकार के विशाल वृक्षों की उपमा देते हुए  प्रस्तुत किया था, ठीक उसी प्रकार हमलोगों के समक्ष भी ऐसे ही एक सर्वश्रेष्ठ तथा सर्वोच्च आदर्श स्वरूप एक जीवन्त-महावृक्ष हैं- स्वामी विवेकानन्द ! युवाओं का आदर्श कैसा होना चाहिये इस विषय में स्वामी जी ने कहा था- " हमें इस अवसर पर मुख्यतः आवश्यकता है एक वीर के आदर्श की - ऐसा वीर जो सत्य को जानने के लिये समुद्र को भी लाँघ जाय, जीवन-गठन के संग्राम में कूद पड़े और प्राणों तक का मोह न करे।  ऐसा वीर जिसका कवच त्याग हो और खड़ग ज्ञान। "
यदि हमलोग स्वयं स्वामी विवेकानन्द को ही अपने जीवन-आदर्श के रूप में ग्रहण करके उनके भावों को अपने आचरण में उतारने, या उनके गुणों को चरित्रगत करने की चेष्टा करें तो इस बात में कोई सन्देह नहीं कि हमलोगों का जीवन और समाज भी अवश्य महान बन जाएगा।यदि हम अपना आत्म-विकास करने के इच्छुक हों, अपने जीवन को सुंदर रूप में गठित करने के प्रति आग्रही हों, तो तीन बातों के ऊपर हमें अनिवार्य रूप से ध्यान देना होगा। 
सर्वप्रथम तो हमें अपना एक विशिष्ट जीवन-लक्ष्य या उद्देश्य (Definite Chief Aim of Life) निर्धारित कर लेना होगा। द्वितीयतः अपने जीवन को सुंदर रूप में गठित के लिये एक सर्वोत्कृष्ट साँचा या सर्वश्रेष्ठ आदर्श का चयन कर लेना होगा। और तृतीयतः उद्देश्य को प्राप्त करने का एक कार्यकारी वैज्ञानिक पद्धति या उपाय को भी पूर्वनिर्धारित कर लेना होगा। ताकि हम अपने आदर्श को सामने रख कर, उस वैज्ञानिक प्रक्रिया के माध्यम से अपने उस विशिष्ट जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर लें।   
 हमलोगों ने यह समझ लिया होगा कि हमारे  जीवन का उद्देश्य है (आम आदमी से ) यथार्थ मनुष्य (Man with capital- 'M') बन जाना ! (मोटा पैसा और डिग्री नहीं) शरीर-मन और हृदय - प्रत्येक दृष्टिकोण से (3H) में विकसित हो जाना।  (ह्रदयवत्ता-ह्रदय-कमल को खिला लेने या -ह्रदय में प्रेमस्वरूप को प्रतिष्ठित कर लेने की पद्धति को सीखकर) अपने व्यष्टि-जीवन की परिधि को क्रमशः विस्तृत करते हुए अपने व्यक्तित्व (जीवन-पुष्प) को पूर्ण रूप में विकसित या प्रस्फुटित कर लेना होगा। इसके फलस्वरूप हमलोग सभी प्रकार के स्वार्थी विचारों, स्वार्थी भावनाओं को त्याग करने में सक्षम हो जाएंगे, तथा किसी स्वार्थी व्यक्ति के जैसा केवल अपने सुख-भोग के लिये जीवन धारण के लिये प्रयत्नशील रहने में संतुष्ट नहीं रह सकेंगे। क्योंकि यथार्थ मनुष्य  समष्टि-जीवन के साथ एकात्मता की अनुभूति करने में समर्थ हो जाता है। 
इतने महान लक्ष्य तक पहुँचने के लिये एक महान आदर्श को सामने रखना आवश्यक है। क्योंकि उस महान आदर्श का आकर्षण ही हमलोगों को लक्ष्य को प्राप्त करने, या लक्ष्य तक पहुँच जाने की यात्रा में  निरन्तर अग्रसर रहने के लिये अनुप्रेरित करता रहता है। कोई पूर्ण आदर्श हमलोगों के समक्ष उन महान भाव को इतनी स्पष्टता प्रस्तुत करता है, कि उन्हें आत्मसात करते जाने से हमारे जीवन का क्रमशः उन्न्ततर रूपान्तरण भी संभव हो जाता है।
 जीवन्त महावृक्ष रूपी स्वामी विवेकानन्द जैसे महान आदर्श, अपने अनुयायी या समाज को 'समग्र जीवन-दृष्टि ' या जीवन-दर्शन का उपहार प्रदान कर देते हैं। उनका जीवन-दर्शन ही जीवन पथिक को जीवन-गठन के ज्ञातव्य तथ्यों से परिचित करवाकर, लक्ष्य की ओर अग्रसर होते समय विपत्ति आने पर, या पतन का संकट उपस्थित होने पर उसकी सहायता करता है। किसी महान आदर्श का यही कार्य है। स्वामी विवेकानन्द के शानदार (यशस्वी) जीवन से इन समस्त भावों को सर्वोत्त्म उपहार के रूप में प्राप्त किया जा सकता है।
जीवन कहते किसे हैं ? अंतर्निहित एक शक्ति (प्रेमस्वरूपता) अपने को विकसित एवं अभिव्यक्त करने के लिये निरन्तर अपने आसपास के उस वातावरण तथा परिवेश के विरुद्ध संघर्ष कर रही है, जो सर्वदा उसे दबाये (स्वार्थी या पशु बन जाने को बाध्य) रखना चाहती हैं।  अपने परिवेश या आसपास के उस वातावरण के विरुद्ध संघर्ष करके अपनी वास्तविक सत्ता (प्रेमस्वरूपता) की विकास  और अभिव्यक्ति (Amplification and manifestation) करना ही वास्तव में जीवन है।  मनुष्य की अन्तः प्रकृति और बाह्य प्रकृति सर्वदा उसकी सुप्त संभावना को, उसकी अंतर्निहित सुप्त शक्ति (प्रेमस्वरूपता) को जागृत होने में बाधा पहुँचना चाहती है। किन्तु जीवन, इन बाधाओं को अस्वीकार करके तथा अपनी सुप्त संभावनाओं या अंतर्निहित शक्ति को विकसित करते हुए अभिव्यक्त हो ही जाता है। यहाँ दो बातें अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं- सुप्त शक्तियों का ' विकास ' एवं  ' अभिव्यक्ति '(Amplification and expression)। 
 पहले हमें अपनी अन्तर्निहित शक्तियों को विकसित करना होगा -अर्थात 'आत्म-विकास' करना होगा, एवं तत्पश्चात उन्हें अपने जीवन-व्यवहार में अभिव्यक्त भी करना होगा । किन्तु हृदय में अंतर्निहित इस सुप्त शक्तियों को कैसे विकसित करेंगे और कहाँ अभिव्यक्त करेंगे ? महामण्डल द्वारा जीवन-गठन के लिये अनुशंसित पांचो दैनन्दिन अभ्यासों में अपनी आत्मशक्ति (विवेक और प्रेम ) का प्रयोग करने से वे शक्तियाँ विकसित हो जाती हैं, जिसे हम जीवन के प्रत्येक कार्यों में, प्रत्येक क्षण अभिव्यक्त कर सकते हैं
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[४]  
' जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने  की पद्धति '
लोकशिक्षक के कार्य या समाज-सेवा के कार्य में कूदने के पहले हमें उसकी योग्यता अर्जित करनी चाहिये : यदि स्वयं मनुष्य बनना और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करना चाहते हों, तो सर्वप्रथम हमें यह जानना होगा कि मनुष्य कहने से हमलोग समझते क्या हैं? स्वामीजी ने कहा है-" शरीर, मन तथा आत्मा के संयोजन से गठित एक अस्तित्व का नाम है- मनुष्य ! इसी बात को और सरल भाषा में एक सूत्र के माध्यम से समझाते हुए कहते हैं- मनुष्य 3'H's का पुंज है !" (या मनुष्य 3H का संकलन फल -aggregate) है। हमलोगों के ही तरह प्रत्येक मनुष्य में तीन प्रमुख अवयव हैं- शरीर है,मन है और आत्मा हैं! यहाँ मनुष्य की दैहिक शक्ति या बाहु-बल का प्रतीक है-हाथ !, बुद्धि शक्ति का प्रतीक है उसका मस्तिष्क ,तथा उसकी प्रेम करने की शक्ति या आत्म-बल का प्रतीक है-हृदय। अर्थात हाथ [Hand], मस्तिष्क  [Head] और हृदय [Heart] इन तीनों को मिला कर एक मनुष्य बनता है। अतः मनुष्य बनने या जीवन गठन करने के लिए इन्हीं तीनों प्रमुख अवयवों की शक्ति के ऊपर गहराई से विचार करना होगा,तथा इन तीनों सुप्त 'शक्तियों'को जागृत (awaken) और विकसित (Amplified) करने का उपाय सीखना होगा।
स्वामी विवेकानन्द के संदेशों से हमलोगों ने यह समझ लिया है कि अलग-अलग व्यक्तियों को जोड़ने से समाज बन जाता है। इसिलिये यदि एक एक आदमी के चरित्र को सुन्दर रूप में विकसित कर लिया जाय,तो इसे ही समाज को उत्कृष्टतर रूप में विकसित करना माना जायेगा। (किसी भी राजनैतिक या प्रशासन व्यवस्था को मनुष्य ही चलाता है, इसिलिये स्वामीजी का मानना था कि मनुष्य-निर्माण करना ही भारत-निर्माण या व्यवस्था परिवर्तन का एक मात्र उपाय है।) मनुष्य बनने के लिये कोई व्यक्ति यदि अपने शरीर की देखभाल करे, अपने मन का ध्यान रखे, अपने हृदय का देख-भाल करे, तथा इन तीनों - शरीर, मन और हृदय की शक्तियों को प्रवर्धित करे, तो वह स्वयं अपने जीवन को सुंदर रूप में निर्मित कर लेता है। और ऐसा करके वह वास्तव में समाज को ही प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाता है, इसलिये अपने चरित्र को उत्कृष्ट रूप से गढ़ लेना सबसे बड़ी समाज सेवा है।
व्यायाम और पौष्टिक आहार : शरीर को स्वस्थ और सबल किस प्रकार बनाया जाता है ?- इस विषय को हममें से प्रत्येक व्यक्ति थोड़ा-बहुत तो जानता ही है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिये दो बातों पर ध्यान देना अत्यन्त अवश्यक है-एक है व्यायाम और दूसरा है पौष्टिक आहार। और यही दोनों बातें मन की शक्ति को जाग्रत तथा प्रवर्धित करने के लिये भी, समानरूप से प्रयोज्य (applicable) हैं। यदि हमलोग अपने मन को या बुद्धि-शक्ति को प्रवर्धित करना चाहेते हों, यदि उसको अधिक शक्तिशाली बना कर और अधिक कार्यसाधक (efficient) बनाना चाहते हों,तो'मन का व्यायाम तथा पौष्टिक आहार'- दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। मन की शक्ति को हमलोग 'मनःसंयोग' के माध्यम से जाग्रत करा सकते हैं। तथा मन की शक्ति को विकसित या प्रवर्धित करने के लिये दो प्रकार के अभ्यास विशेष महत्वपूर्ण हैं।
विवेक-प्रयोग एवं संकल्प-ग्रहण: पहला है ' विवेक-प्रयोग ' का अभ्यास। अर्थात उचित-अनुचित में अन्तर बताने वाली विवेक-शक्ति (Discriminative-Power) का प्रयोग करके, हमलोग   अच्छा-बुरा, अविनाशी और नश्वर, खोटा-खरा (Moldy - Candid) या श्रेय-प्रेय (good and pleasant) के बीच के अंतर को पहचान सकते हैं। और दूसरा है -' संकल्प ग्रहण-विधि ' (Autosuggestion) या  'स्व-परामर्श ' का अभ्यास। 
इस अभ्यास के द्वारा हमलोग यथार्थ मनुष्य बनने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये अपनी संकल्प-शक्ति दृढ़ बना कर, इच्छा-शक्ति के प्रवाह (मन के गति की दिशा) को निरन्तर अविनाशी या श्रेय वस्तु की ओर संचालित रखते हुए अपने मन की शक्ति को विकसित  कर सकते हैं।
मन के लिये पौष्टिक आहार: ["स्वामी विवेकानन्द के असाधारण जीवन तथा विस्मयकारी रचनाओं का श्रवण और मनन करने से बढ़कर, मन के लिये कुछ दूसरा पौष्टिक आहार हो ही नहीं सकता है।]
किन्तु मन के लिये पौष्टिक आहार क्या हो सकता है ? मन के द्वारा निरंतर महान भावों, उच्च भावों, या शक्तिदायी विचारों पर चिन्तन-मनन करते रहने से ही मन को पौष्टिक खुराक देना संभव होता है। इसिलिये स्वामीजी कहते हैं," तुम जो कुछ सोचोगे, तुम वही हो जाओगे; यदि तुम अपने को दुर्बल समझोगे, तो तुम दुर्बल हो जाओगे; बलवान सोचोगे तो बलवान बन जाओगे। सिद्ध होना हो, तो प्रबल अध्यवसाय चाहिये, मन का अपरिमित बल चाहिये। अध्यवसायशील साधक कहता है, " मैं चुल्लू से समुद्र पी जाऊँगा। मेरी इच्छा मात्र से पर्वत चूर-चूर हो जायेंगे।" इस प्रकार का उत्साह, इस प्रकार का दृढ़ संकल्प लेकर कठोर साधना करो। उस परमपद की प्राप्ति अवश्य होगी।" मन को सदैव ऊँचे-ऊँचे विचारों से, ऊँचे ऊँचे आदर्शों से परिपूर्ण रखना चाहिये। रात-दिन अपने मन के सम्मुख उन्हीं ऊँच्च भावों को प्रतिष्ठित रखो, केवल तभी बड़े बड़े कार्य सम्पन्न हो सकेंगे। इसके साथ साथ हर प्रकार के अपवित्र विचारों, हीन भावनाओं का परित्याग करो। मन में किसी दुर्बल विचार को प्रविष्ट तक नहीं होने दो; क्योंकि उन विचारों से केवल तुम्हारी क्षति ही होगी ।"
 आज संचार क्रांति के युग में, मन के लिये पौष्टिक आहार प्राप्त करना तो और अधिक आसान हो गया है। स्वामी विवेकानन्द के सन्देश, उनके शक्तिदायी विचार इन्टरनेट पर, और पुस्तक के रूप में भी सर्वत्र उपलब्ध हैं। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के ज्ञान-समुद्र का मंथन करके जो ज्ञानमृत निकाला था, उसे अपने संदेशों के माध्यम से सम्पूर्ण मानव-समाज में वितरण कर दिया है। इसिलिये स्वामी विवेकानन्द के असाधारण जीवन तथा विस्मयकारी रचनाओं का श्रवण और मनन करने से बढ़कर, मन के लिये कुछ दूसरा पौष्टिक आहार हो ही नहीं सकता है। 
देहाध्यास : यदि हमलोग स्वयं को केवल 'शरीर' मात्र ही मानें, तो स्वभावतः हमलोग केवल उन्हीं इन्द्रिय विषयों के आस्वादन करने के ऊपर ज़ोर देंगे, जिनके कारण बाद में शरीर का सत्यानाश  हो जाता है। [ स्वयं को शरीर-मात्र समझने से स्वरुप-संपर्क विच्छेद - स्वयं को शरीर-इन्द्रिय समष्टि मात्र सोचने (देहाध्यास) के परिणामस्वरूप हमलोग स्वार्थी बन जाते हैं, और अपने ह्रदय (आत्मा) के साथ हमारा संपर्क विच्छेद हो जाता है, (फ्यूज वायर -मन को जोड़ना होगा)] इसीलिये अपने को केवल शरीर समझने के फलस्वरूप हमारा मनुष्य-जीवन सार्थक नहीं हो सकेगा, जीवन असफल होने को बाध्य होगा। या इसके विपरीत यदि हमलोग ऐसा समझें कि- मनुष्य वास्तव में देह-मन की समष्टि (Body - mind complex) है, तब भी हमारे ' मनुष्य-जीवन '  का जो वास्तविक मूल्य है, उस मूल्यबोध से हमलोग वंचित रह जाएंगे, वह हमारे लिये अलक्षित (unperceived) या अननुभूत (unrealized) ही बना रह जाएगा। क्योंकि, तब हमलोग केवल बौद्धिक विकास के ऊपर ही बहुत ज़ोर देने लगेंगे, तथा बुद्धि को विकसित करने के नाम पर बौद्धिक-विलासिता (या पाण्डित्य का प्रदर्शन) करने में ही व्यस्त रह सकते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वयं को केवल शरीर-मन की समष्टि मानकर, केवल दैहिक और मानसिक शक्तियों को जागृत और पुष्ट करने का व्यायाम करते रहने से भी जीवन कभी सार्थक (या अर्थ-प्रकाशक) नहीं हो सकता। यदि हम यह जान लें कि हमारे शरीर और मन के पीछे, अनन्त ज्ञान, अनन्त प्रेमस्वरूप एक सर्व-नियामक (All controller)- 'आत्मा'  हैं, केवल तभी हमलोग जीवन-मूल्य को भलीभाँति समझ सकेंगे, तथा  उसके उद्देश्य को सफल करने में सक्षम हो जायेंगे । इसिलिये स्वामीजी ने कहा था- " प्रत्येक मनुष्य में छुपी हुई जो ब्रह्मशक्ति (ब्रह्मत्व-प्रेम स्वरूपता) प्रकट होने का इन्तजार कर रही है, उसे पूर्ण रूप से प्रकटीकरण करना ही धर्म है।" इसिलिये उस सुप्त (dormant ) अंतर्यामी ब्रह्मशक्ति को पूर्ण रूप से जागृत (awakening ) करके अभिव्यक्त (brought forward) करना ही हमलोगों का प्रयत्न होगा। और हमारे जीवन के वास्तविक  उद्देश्य के पीछे की  मूल  भावना भी यही है। 
सम्मोहन के प्रभाव को हटा दो:   हमें इसी काम में कठोर परिश्रम करने को प्रोत्साहित करते हुए स्वामीजी कहते हैं, " प्रयत्न करते रहो ! अविराम प्रयत्न करते चलो। जब चारों ओर अन्ध्कार ही अन्ध्कार दीखता था तब मैं कहता था-प्रयत्न करते रहो, अब तो थोड़ा थोड़ा उजाला दिखायी दे रहा है, पर अब भी मैं कहता हूँ कि प्रयत्न करते जाओ। वत्स, डरो मत ! प्रत्येक व्यक्ति सम्मोहित हो चुका है। मुक्त होने, अपने वास्तविक स्वरूप के बोध होने कार्य इसमें है कि सम्मोहन के प्रभाव को हटा दिया जाय। इस बात को सदैव याद रखना चाहिये कि हमलोग कोई शक्ति कहीं बाहर से प्राप्त नहीं कर रहे है। वे हममें पहले से ही हैं। शक्तियों को विकसित करने की पूरी प्रक्रिया है सम्मोहन का प्रभाव हटाना। " ४/१८१ 
स्वयं को इस (देहाध्यास) या सम्मोहन के प्रभाव से  मुक्त करने के लिये, हमें स्वयं ही प्रयत्न करना होगा। यदि हम (अनुभूति के द्वारा) यह समझ सकें कि हम केवल शरीर मात्र नहीं, मन मात्र नहीं हैं, वास्तव में हमलोग आत्मा हैं। तब हमलोग यह भी समझ सकेंगे कि यही आत्मा विश्व के समस्त मनुष्यों में, समस्त जीवों में सर्वत्र ओतप्रोत होकर अनुस्यूत है। ' जिस प्रकार फूलों की माला में सूत अनुस्यूत रहता है,उसी प्रकार 'सर्वत्र, सर्वभूतों में एक ही ब्रह्म का अस्तित्व है '- केवल ऐसी  अनुभूति ही सम्पूर्ण विश्व में अविभाज्य एकत्व को स्थापित कर सकती हैं। यह अनुभूति-जन्य ज्ञान ही हमारे भीतर वह 'प्रज्ञा' उत्पन्न कर देती है, जिस प्रज्ञा के अधिकारी बनने के बाद हमलोग यह बात स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं, कि बाह्य-दृष्टि से मुझमें और दूसरों में अन्तर दिखाई देने पर भी मूलतः हम सभी लोग एक और अभिन्न हैं। ' हम सभी आत्मायें प्रेमस्वरूप हैं ' - ऐसा अनुभूति जन्य ज्ञान ही हमारे मन से परस्पर के प्रति घृणा, द्वेष को दूर हटाकर हमलोगों को प्रेम के एक अटूट बंधन में बांध देती है। 
तथा परायों को भी अपना समझकर अपने आलिंगन में बांध लेने के लिये उत्प्रेरित करती है। यही नज़रिया (attitude) हमारे भीतर वैसी  'आस्तिक्य बुद्धि ' या आस्तिकता की समझ उत्पन्न करा देती है, जिसके परिणाम स्वरूप हमलोग श्रद्धावान बन सकते हैं; निर्भीक या अभिः (भय-शून्य) बन सकते हैं। इसी (श्रद्धा) के परिणाम स्वरूप (consequently) हम परायों के दुःख-दर्द को बिल्कुल अपना या व्यक्तिगत  दुःख-दर्द के जैसा अनुभव करके, दूसरों के कल्याण के लिये व्यक्तिगत आत्महित (self interest) और आनन्द को तिलांजलि देने के सच्चे प्रयास के द्वारा, परस्पर के लिये त्याग की भावना को अपनाकर, एक-दूसरों की सेवा में अपने जीवन को समर्पित करने के माध्यम से हमलोग अपने हृदय की शक्ति (प्रेम) को विकसित और प्रकाशित कर सकते हैं।
'त्याग और सेवा ': (इन्द्रियों की गुलामी से मुक्त होने का उपाय है- त्याग और सेवा ) इसिलिये स्वामीजी ने कहा था, " भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं- 'त्याग और सेवा ' आप इन दो धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिए-शेष सबकुछ अपने आप ही हो जाएगा। " 
 " तुम्हारे घर के पास, बस्ती के पास, कितने अभावग्रस्त तथा दुःखी लोग रहते हैं, उनकी तुम्हें यथासाध्य सेवा करनी होगी। जो पीड़ित हैं, उनके लिये औषधि और पथ्य का प्रबन्ध करो और शरीर के द्वारा उनकी सेवा-शुश्रूषा करो। दुखियों का दर्द समझो और ईश्वर के पास सहायता की प्रार्थना करो- सहायता अवश्य मिलेगी। मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊँ, परन्तु मेरे नवयुवको, मैं गरीब, भूखों और उत्पीड़ितों के लिये इस सहानुभूति और प्राणपण प्रयत्न को थाती के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हूँ।" 

"इस देश में साध्य तो अनेक हैं, किन्तु साधन नहीं। मस्तिष्क तो है, परन्तु हाथ नहीं। हमलोगों के पास वेदान्त मत है, लेकिन उसे कार्य में परिणत करने की क्षमता नहीं है। हमारे ग्रन्थों में सार्वभौम साम्यवाद का सिद्धान्त है, किन्तु कार्यों में महा भेद-वृत्ती है।...मेरा भी विश्वास है कि यदि हतश्री, अभागे, निर्बुद्धि, पददलित, चिर-बुभुक्षित, झगड़ालू और ईर्ष्यालु भारतवासियों को कोई हृदय से प्यार करने लगेगा तो भारत पुनः जाग्रत हो जाएगा। "
स्वामीजी के ऐसे शक्तिदायी विचार, हमलोगों के समक्ष एक समग्र जीवन-आदर्श उपस्थापित करता है; हमें एक उत्कृष्ट जीवन-दर्शन से परिचय कराता है, ऐसा उत्कृष्ट जीवन-दर्शन ही हमलोगों का अपना जीवन उत्कृष्ट  रूप से गढ़ने के लिये उत्प्रेरित करता है। इसी उत्कृष्ट जीवन-दर्शन के आलोक में हमलोग भी अपना 'जीवन-गठन के संकल्प ग्रहण-विधि'(या आत्मसुझाव) का अभ्यास के महत्व को समझकर उसका अभ्यास करने  के प्रति जागृत (awakened) हो जाते हैं। 
प्रसंगवश यहाँ उल्लेख किया जा सकता है कि 'त्याग और सेवा' के प्रत्यक्ष मूर्ति (मूर्तमान-रूप) स्वामी विवेकानन्द के जीवन एवं संदेश के प्रशिक्षण के माध्यम से हमलोग अपनी हृदयवत्ता (सुप्त हृदय कि शक्ति) को सर्वोत्कृष्ट रूप से जागृत और प्रवर्धित कराकर अपने जीवन को सार्थक (अर्थ-प्रकाशक) बना सकते हैं। 
आमतौर से जब तक हमलोगों आत्मानुभूति नहीं हो जाती, या जब तक मैं केवल एक शरीर हूँ- ऐसा देहाध्यास बना रहता है, तब तक स्वयं को जड़ शरीर मानकर बाह्य भौतिक-जगत में सफलता प्राप्त करने से ही जीवन में सार्थकता प्राप्त करने का भ्रम भी बना रहता है। किन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने भागवत में जीवन का वास्तविक उद्देश्य तथा उसकी सार्थकता के विषय मे बहुत सुन्दर ढंग से कहा है-

एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु।
प्राणैरर्थ धिया वाचा श्रेय एवाचरेत् सदा।।
- जीवन में सफलता कैसे प्राप्त होती है, या मनुष्य जीवन किस प्रकार सार्थक बन सकता है ? सदाचार के द्वारा, या अच्छे आचरण करने के द्वारा, अच्छे अच्छे कार्यों के द्वारा। ऐसा सदाचार किसे कहते हैं ? जब हमलोग अपने शरीर, बुद्धि और अपनी वाणी से, तथा  अर्थ रहने से अर्थ के द्वारा ऐसे कर्म करें जिससे दूसरों का कल्याण होता हो, तब उसे सदाचार कहा जाता है। इतना ही नहीं आवश्यकता होने से अपने प्राणों को न्योछावर करके भी दूसरों की भलाई करना सदाचार के अंतर्गत आता है। ऐसे सदाचरणों में ही जीवन की सार्थकता और सफलता छिपी रहती है। अतः मनुष्य जीवन की सफलता या सार्थक्ता इसी में है कि अपने धन से, विवेक, विचार से, अपनी वाणी तथा प्राणों से ऐसे कर्म किये जायें, जिनसे दूसरों का कल्याण हो।


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[५ ]
 हृदय का विस्तार !
'आत्मा '= ' हृदय ' (Heart) कैसे : मनुष्य का समग्र रूप से विकसित हो जाने का तात्पर्य है, जब कोई व्यक्ति अपने शरीर, मन तथा आत्मा की सुप्त शक्तियों को जाग्रत और विकसित करके, उनका सदुपयोग करने में पूर्णतया समर्थ बन जाता है, उसे ही उस व्यक्ति का समग्र सुधार (Overall improvement) या व्यक्तित्व विकास (Personality Development) कहा जाता है। हमलोग आसानी से यह समझ सकते हैं, कि स्वामी विवेकानन्द ने दैहिक-शक्ति के प्रतीक के रूप में 'हाथ' को तथा बौद्धिक-शक्ति के प्रतीक के रूप में'मस्तक' को क्यों लिया होगा; किन्तु 'आत्मा ' को समझाने के लिये उन्होंने ' हृदय ' (Heart) शब्द का प्रयोग क्यों किया  था ; - इस बात को समझना थोड़ा कठिन है। 
क्या हमलोग अपनी आत्मा का अनुभव कर सकते हैं ?  हम इस बात का अनुभव कैसे करें, कि हमारे भीतर आत्मा है ? थोड़ा ध्यान-पूर्वक विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि हमारी अन्तर्निहित आत्मा की शक्ति-(प्रेम) की अनुभूति  हमारे ह्रदय के विस्तार के द्वारा ही अभिव्यक्त हो सकती है। उदहारण के लिये, किसी भूखे व्यक्ति के घर आने पर उसे अपने भोजन की थाली दे दी जाये, और फिर बाद में इस सत्कृति को (मन के द्वारा) याद किया जाय, तो हमें अपने ह्रदय में सन्तोष और आनन्द की अनुभूति होती है। अन्दर से आत्मा की आवाज आती है- बहुत अच्छा किया ! इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि  हमारे हृदय के विस्तार के द्वारा, या हृदय की अनुभूति क्षमता के माध्यम से ही आत्मा की शक्ति अभिव्यक्त होती है। इसिलिये हमारे शास्त्रों  में भी कहा गया है-
" अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः । " 
(श्वेताश्वतरोपनिषत् ३/१३)
- अर्थात अंगुष्ठमात्र परिमाणवाले आत्मा (ब्रह्मशक्ति) सदा ही मनुष्यों के हृदय में सम्यक प्रकार से निवास करते हैं।"
एक दिन स्वामी विवेकानन्द के मन में भी यह प्रश्न उठा, कि यदि आत्मा हमारे भीतर रहते ही हों, तो उनका अधिष्ठान हमलोगों के शरीर में कहाँ पर हो सकता है ? वे, ' मस्तक ' से प्रारम्भ करके ' हृदय ' तक ('नेति नेति' या ना 'यह' ना 'वह' पद्धति से) एक एक करके शरीर के समस्त महत्वपूर्ण अंगों का 'Anatomy' के माध्यम से गहन-विश्लेषण करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि;  उनके (आत्मा या ब्रह्मशक्ति के) लिये शरीर के अन्य अंग-प्रत्यंगों के भीतर स्वयं को छुपा कर रखने की संभावना बहुत ही कम है। उन्होंने युक्ति-तर्क के माध्यम से यह सिद्ध कर दिया, कि यदि हमलोगों के शरीर से केवल हाथ-पैर या इसी प्रकार के दूसरे अंग-प्रत्यंगों में से किसी एक को भी काट कर अलग कर दिया जाय, तो आम तौर से हमलोग मर नहीं जाते हैं। किन्तु यदि हमारे मस्तक को तोड़-फोड़ दिया जाय, या हमारी छाती में जहाँ हृदय (हृदय वाल्व) अवस्थित रहता है, यदि उस स्थान को तोड़-मड़ोड़ दिया जाय तो समान्यतः हमलोग जीवित नहीं बच पाते हैं। इसिलिये स्वामीजी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि आत्मा अवश्य या तो हमारे मस्तक में, या हृदय के भीतर ही (छुपकर ) वास करते होंगे ! किन्तु इसी अनुसन्धान-क्रम में गहन-चिन्तन (Anatomy) के फलस्वरूप उन्हें यह पता चला कि मनुष्य का मस्तिष्क तो अधिकांशतः अपने क्षूद्र स्वार्थों को ही पूरा करने के विचारों में व्यस्त रहता है, अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को पूर्ण करने के विचारों से ही चिन्तित बना रहता है। पराये लोगों या दूसरे मनुष्यों के कल्याण के लिये (स्वयं भूखा रहकर अपना भोजन दूसरों को देने के लिये) उतना अधिक चिन्तित नहीं रहता। इसीलिये स्वामीजी  ने इस तथ्य को आविष्कृत कर लिया, कि जो मस्तिष्क स्वार्थपूर्ण विचारों में ही अधिक निमग्न रहता है, दूसरों के मंगल की कामना से अधिक भावित नहीं रहता, वह कभी आत्मा का निवास स्थान नहीं हो सकता।
सचमुच इसी प्रकार से युक्ति-तर्क के आधार पर गहन-विश्लेषण करके निषकर्ष तक पहुँचने की क्षमता को  ही वैज्ञानिक विश्लेषण या ' प्रयत्न-त्रुटि विधि से परीक्षण '  (Trial and Error Method) करना कहते हैं। वास्तव में स्वामी विवेकानन्द एक अत्यन्त प्रतिभावान तथा तीव्र-बुद्धि रखने वाले छात्र थे। 
स्वामीजी को समस्त शास्त्रों के व्युपत्ति विज्ञान (etymologies) में महारत हासिल थी। अन्य समस्त विद्याओं की तरह उन्होंने चिकित्सा विज्ञान (Medical science) के  Physiology (शरीर विज्ञान), यहाँ तक कि Anatomy (शरीर व्यवच्छेद-विद्या) आदि के विषय में भी उनका ज्ञान उत्कृष्ट कोटि का था। उन्होंने अपनी उसी उत्कृष्ट ज्ञान से आलोकित सत्यान्वेषी दृष्टि के द्वारा, चिकित्सा विज्ञान (Medical science) के इन प्रशाखाओं का गहराई से विश्लेषण करते हुए अध्यन किया था एवं  जाना था। दूसरे अंग-प्रत्यंगों में से किसी एक को भी काट कर अलग कर दिया जाय, तो आम तौर से हमलोग मर नहीं जाते हैं।यदि हमारे मस्तक को तोड़-फोड़ दिया जाय, या हमारी छाती में जहाँ हृदय (हृदय वाल्व) अवस्थित रहता है, यदि उस स्थान को तोड़-मड़ोड़ दिया जाय तो समान्यतः हमलोग जीवित नहीं बच पाते हैं। इसिलिये स्वामीजी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि आत्मा अवश्य या तो हमारे मस्तक में, या हृदय के भीतर ही (छुपकर ) वास करते होंगे ! किन्तु इसी अनुसन्धान-क्रम में गहन-चिन्तन (Anatomy) के फलस्वरूप उन्हें यह पता चला कि मनुष्य का मस्तिष्क तो अधिकांशतः अपने क्षूद्र स्वार्थों को ही पूरा करने के विचारों में व्यस्त रहता है, अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को पूर्ण करने के विचारों से ही चिन्तित बना रहता है। पराये लोगों या दूसरे मनुष्यों के कल्याण के लिये (स्वयं भूखा रहकर अपना भोजन दूसरों को देने के लिये) उतना अधिक चिन्तित नहीं रहता। इसीलिये स्वामीजी  ने इस तथ्य को आविष्कृत कर लिया, कि जो मस्तिष्क स्वार्थपूर्ण विचारों में ही अधिक निमग्न रहता है, दूसरों के मंगल की कामना से अधिक भावित नहीं रहता, वह कभी आत्मा का निवास स्थान नहीं हो सकता। इसिलिये उन्होंने अन्तिम निष्कर्ष के तौर पर कहा था- " हमलोगों के शरीर में कुछ स्नायु-ग्रन्थियाँ (Glands या ganglion) होती हैं; इसी प्रकार की एक ग्रन्थि हमलोगों के हृदय के निकट भी है, जिसका नाम 'Sympathetic Ganglion' (सहानुभूति नाड़ीग्रन्थि) है; यदि सचमुच आत्मा हमारे शरीर के किसी स्थान-विशेष  में छुप कर अधिष्ठान करते ही होंगे, तो निश्चित रूप से उनके छिपने के योग्य सर्वश्रेष्ठ अधिष्ठान यह (सहानुभूति नाड़ीग्रन्थि) या 'Sympathetic Ganglion' (सहानुभूति ग्रन्थि या चिज्जड़-ग्रन्थि?) ही है।" 
हृदयवान बनो ! यहाँ स्वामीजी वास्तव में जो कहना चाहते हैं, उसका तात्पर्य है कि -'प्रेम-सहानुभूति, एकात्मकता (Oneness), अविरोध (harmony), या अभेद का अनुभव करने वाला केन्द्र- आत्मा ही हैं। और जिस व्यक्ति का ह्रदय बड़ा हो जाता है, अर्थात जो व्यक्ति जितना अधिक परायों को भी अपना बना लेने में सक्षम होता है, जो दूसरों के दुःख-कष्ट, सुख-आनन्द को जितना अधिक अपने जैसा अनुभव करने में सक्षम होता है, जो दूसरों के प्रति जितना अधिक सहानुभूतिशील होता है, उसी से पता चलता है, कि उसके ह्रदय में विद्यमान आत्मा की शक्ति उतनी ही अधिक जागृत हो गयी है। प्रत्येक मानव-शरीर में छिपे रह कर,जो आत्मा (या ब्रह्मशक्ति ) अपने प्रकट होने  का  इन्तजार कर रहे हैं, तथा  जिनको पूर्ण रूप से प्रकटित कर लेना ही धर्म है। ' आत्मा की शक्ति-(प्रेम) की अनुभूति  हमारे ह्रदय के विस्तार के द्वारा ही अभिव्यक्त हो सकती है। इसिलिये विवेकानन्द कहतेहैं  हैं-

"दूसरों के लिये जीना सीखो!
"प्रेम का मार्ग ही एकमात्र उपाय है; प्रेम करना ही उपासना करना है।"
" विस्तार ही जीवन है, संकोच ही मृत्यु।"
 " निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है। " 
किन्तु जो व्यक्ति स्वार्थी होकर केवल अपने सुख-भोग के लिये जीना चाहता है, वह कभी अपने जीवन का सही रूप में उपभोग नहीं कर सकता है। उसे तो उम्र बहुत अधिक बीत जाने के बाद भी,बहुत ढूँढने से भी यह बात समझ मे नहीं आती कि मनुष्य जीवन को महामूल्यवान या देव-दुर्लभ क्यों कहा जाता है ?
'रामकृष्ण केवल 'LOVE' हैं: हमलोग यदि श्रीरामकृष्ण देव, माँ श्रीश्रीसारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द के जीवन को ध्यानपूर्वक देखें, तो यही पायेंगे कि वे तीनों सचमुच ही घनीभूत प्रेम की मूर्ति थे। वे पवित्रता से भी पवित्रतर तथा निःस्वार्थपरता से भी निःस्वार्थपर थे। ठीक उसी प्रकार जब हमलोग श्री चैतन्य महाप्रभु, भगवान बुद्ध, प्रभु ईसा मसीह, गुरु नानक देव पैगम्बर मोहम्म्द जैसे महापुरुषों के जीवन का विश्लेषण करते हैं, तो देखते हैं कि मानो उनके जीवन के माध्यम से भी जैसे 'प्रेम' ही मूर्तमान हो गया हो। एक दिन स्वामी विवेकानन्द को अनुरोध किया गया कि आप अपने गुरु श्रीरामकृष्ण के बारे में कुछ कहिये। बोलने के समय बहुत कोशिश करने के बाद, स्वामीजी अन्त मेँ केवल इतना ही कह सके थे कि  " उनके विषय मेँ बोलने कि क्षमता मुझमें नहीं है, मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि 'रामकृष्ण केवल 'LOVE' हैं- प्रेम के मूर्तमान विग्रह हैं।'  हमारे शास्त्रों मेँ भी ईश्वर को परिभाषित करते हुए कहा गया है- God is Love.'  " ईश्वरो ह प्रेम " -अर्थात ईश्वर केवल प्रेम-स्वरूप हैं। और उन्हीं (श्रीरामकृष्ण) की सन्तान होने के कारण, हम सभी लोग अपने वास्तविक रूप में वही प्रेमस्वरूप हैं।
इसिलिये हमलोगो को अपने दैहिक, बौद्धिक शक्ति के द्वारा भी अपने उसी प्रेम-स्वरूप को उद्घाटित या उन्मोचित करना चाहिये। प्रत्येक मनुष्य में अपने प्रेम-स्वरूप को उद्घाटित करने की संभावना विद्यमान है। कोई भी मनुष्य यदि प्रयत्न करे तो वह इस अनन्त संभावना को प्रवर्धित और अभिव्यक्त करा सकता हैं। वस्तुतः अपने इसी संभावना को' विकसित  और प्रकाशित ' करने के लिये निरन्तर प्रयत्न या संघर्ष करना प्रत्येक मनुष्य का उचित कर्तव्य है।

यदि कोई व्यक्ति केवल बाहु-बल को बढ़ा ले या उसके साथ साथ बुद्धि-बल को भी बढ़ा ले, तो उसके दैहिक और बौद्धिक शक्ति का यह विकास,उसे दूसरों का शोषण करने के लीये उत्प्रेरित कर सकती है। अपनी शारीरिक और बौद्धिक शक्ति के बल पर, दूसरों को वंचित करके भी, कोई मनुष्य अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को पूरा करने के लालच में पशु के स्तर तक, (या दशानन रावण के जैसा -राक्षस के स्तर तक) भी नीचे गिर सकता है। इसिलिये देह तथा मन की शक्ति को प्रवर्धित करने के साथ साथ अपने हृदय की शक्ति को भी प्रवर्धित करने की चेष्टा करना मनुष्य होने के नाते हमारा प्रथम और अनिवार्य कर्तव्य है।क्योंकि हृदय का विस्तार (Expansion of the heart) करने की चेष्टा के अनुपात में ही हमलोग दूसरों के प्रति प्रेम या सहानुभूति करने के अधिकारी 'मनुष्य' बन सकते हैं।
 प्रेम-प्रयोग द्वारा ह्रदय का विस्तार: हृदय का विस्तार या 'परायों से भी प्रेम करने की क्षमता' हमारे जीवन के लिये एक 'safety valve' या सुरक्षा वाल्व के जैसा कार्य करती  है। इसी बात (प्रेम-प्रयोग के उपाय)  को प्राचीन काल के राजा-कवि-दार्शनिक भर्तृहरी एक श्लोक में बड़े सुन्दर ढंग से कहा है -
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः-
त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभि: प्रीणयन्तः। 
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं,
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ॥

 अर्थात -ऐसे सन्त समाज में बहुत कम होते हैं; जिनके कार्य , मन तथा वाणी पुण्यरूप अमृत (पवित्रता ) से परिपूर्ण हैं, और जो सभी मनुष्यों का बहुत प्रकार से कल्याण करके त्रिभुवन को आनन्दित करते हैं। वे लोग त्रिभुवन को  किस उपाय से आनन्दित करते हैं ? किसी के भीतर यदि परमाणु के जितना छोटा भी गुण दिखता है, उसे वे पर्वत के जितना विशाल देखते और बखान करते हैं, और इस प्रकार अपने हृदय को सदैव विकसित करते रहते हैं। राजा कवि भर्तृहरी कहते हैं, ऐसे सन्त ' प्रेम-प्रयोग ' करके " जो दूसरों के परमाणु तुल्य या  अत्यंत स्वल्प गुण को भी- पर्वत प्रमाण बढ़ा कर " अपने हृदयों का विकास साधन करते हों, संसार में बहुत कम पाये जाते हैं।
यह सुरक्षा वाल्व: ऐसी सर्वग्रासी हृदयवत्ता वह सुरक्षा वाल्व है, जो हमारी दैहिक या बौद्धिक शक्ति के उद्देश्यहीन बर्बादी (Purposeless waste) को रोक देती है।  उसे बुरे रास्ते (परस्पर के प्रति घृणा-द्वेष बदले की भावना ) पर जाने से रोककर, संकलित और संयमित करती है, तथा उन शक्तियों को अपने एवं सम्पूर्ण मानव-जाति के कल्याण के प्रति नियोजित करने के लिये हमलोगों को अनुप्रेरित भी करती है। हमलोगों के हृदय का ऐसा विस्तार, या हमारी ह्रदयवत्ता ही हमें अपनी समस्त शक्ति एवं सामर्थ्य को, यहाँ तक कि अपने जीवन को भी जगत (जनता-जनार्दन) की सेवा में न्योछावर करने के लिये अनुप्रेरित करती है। इसलिये हमारा (महामण्डल का) उद्देश्य होगा- 
" पवित्र मातृभूमि भारतवर्ष की सर्वव्यापी जागृति (General Awakening) तथा कल्याण ! "
एवं इस लक्ष्य को प्राप्त करने का उपाय है - अपने शरीर-मन-हृदय की शक्तियों  में सुसमन्वित प्रवर्धन करके पूर्ण मनुष्यत्व में उन्न्त होकर  एक ' चरित्रवान नागरिक ' के रूप में अपना जीवन गठित करना।अर्थात भारत का कल्याण करने के लिये- 
हमारा उपाय होगा- ' चरित्र-निर्माण ! ' 
इसके लिये 
हमारे आदर्श होंगे- ' स्वामी विवेकानन्द ! '
 और 
हमारा जय-घोष (motto) होगा - " Be and Make ! " 
अर्थात तुम स्वयं एक प्रेमस्वरूप मनुष्य बनो और दूसरों को भी प्रेमस्वरूप मनुष्य बनने में सहायता करो-
" बनो और बनाओ !"
" उठो ! जागो ! और लक्ष्य को प्राप्त किये बिना विश्राम मत लो ! "


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[६]
जीवन गठन में ' प्रत्याहार ' की भूमिका
क्या चरित्र भी  जन्म-जात वस्तु है ?हमलोगों ने यह समझ लिया है कि चरित्र ही मनुष्य-जीवन का सार (essence) है, जीवन-पुष्प का सुगन्ध है, हमारे जीवन-नौका की पतवार है। चरित्र-निर्माण ही भारतवर्ष के कल्याण का एकमात्र उपाय है। किन्तु इस चरित्र-गठन का उपाय क्या है ? अथवा चरित्र कहते किसे हैं ? आजकल चरित्र के ऊपर हर स्थान पर चर्चा होती है, तथापि हममें से अधिकांश मनुष्यों (AAP आम आदमियों ) को यह स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है कि चरित्र शब्द वास्तविक अर्थ क्या है ? आम तौर पर हमलोग ऐसा सोचते हैं, कि मुख्य रूप से आसपास के वातावरण द्वारा प्रभावित होकर चरित्र स्वतः निर्मित हो जाता होगा। या फिर कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि चरित्र तो जन्म-जात वस्तु  है ! इसलिये उसमें कोई बदलाव नहीं लाया जा सकता है। 
यद्द्पि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि व्यक्ति-चरित्र के गठन में आसपास के वातावरण का प्रभाव भी पड़ता है, किन्तु वह प्रभाव वास्तव में इतना नगण्य होता है, कि चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया में उसकी भूमिका बिल्कुल गौण हो जाती है।
 वास्तविकता तो यह है, कि किसी व्यक्ति के ' सचेतन-प्रयास' (Conscious effort) या सतर्क होकर विवेक-प्रयोग के माध्यम से 3'H's की शक्तियों का सदुपयोग करने की क्षमता पर ही चरित्र गठन का सारा उत्तरदायित्व निर्भर  करता है। इससे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है, कि मनुष्य यदि ठान ले तो वह स्वयं ही अपने चरित्र को बदल सकता है !  वह अपने चरित्र में परिवर्तन लाकर, अपने जीवन को अपने मनचाहे साँचे में गढ़ सकता है। यदि कोई व्यक्ति समस्त प्रकार की, परिवेश आदि बाधाओं के विरुद्ध खड़े होकर, उसके साथ संग्राम करके, ' सचेतन-प्रयास ' के प्रति अध्यवसायशील बनकर, लगातार कठोर परिश्रम करता रहे, तो वह यथार्थ चरित्रवान मनुष्य बनने में समर्थ हो जाता हैं।
 सचेतन-प्रयास: इसिलिये यदि हम सचमुच अपने चरित्र को सुन्दर रूप में गढ़ना चाहते हों, तो हमलोगों को (अपने स्वरूप के प्रति) अत्यन्त सचेत रह कर निरन्तर विवेक-प्रयोग करते हुए, चरित्र-गठन का अविराम प्रयत्न (चरित्र के गुणों को अर्जित करना) करते रहना होगा। विवेक-प्रयोग के इस ' सचेतन-प्रयास' (Conscious effort) के साथ, 'मनःसंयोग का अभ्यास ' हृदय लगाकर' अर्थात हार्दिक (Warmest) रूप से या जोशपूर्वक तब तक करते रहना होगा जब तक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। अर्थात मन को एकाग्र रखने का प्रयत्न बहुत निष्ठा के साथ करना होगा।
आम तौर पर हमलोग चरित्र कहने से क्या समझते हैं ? समाज के दूसरे मनुष्यों के साथ उसका व्यवहार कैसा है,समाज के दूसरे व्यक्तियों के प्रति उसका मनोभाव,उसका आचरण,उसका पारस्परिक संबंध (Interpersonal Relationship) कैसा है- इत्यादि बातों पर गौर करने से किसी व्यक्ति के चरित्र के विषय में हमलोग अपनी धारणा बना लेते हैं, कि कोई व्यक्ति चरित्रवान है,या दुश्चरित्र  है? वह अपराधी प्रवृत्ति का है, या सज्जन ? हमारे मन में सतत उठने वाले विचार-समूह, हमारी बोलचाल की भाषा हमारा बर्ताव, हमारे समस्त क्रियाकलाप आदि सहज रूप में (spontaneously) हर समय हमारे चरित्र को ही अभिव्यक्त करते हैं। अर्थात हमारा चरित्र हमारे विचारों से, हमारी बोली से और हमारे कर्मों के माध्यम से प्रकट हो ही जाता है।
जीवन गठन में प्रत्याहार की भूमिका : स्वामीजी कहते हैं, " कोई अपराधी इसलिये अपराधी नहीं है कि वह वैसा बनना चाहता है, वरन इसलिये है कि उसका मन उसके वश में नहीं है। समस्त सांसरिक दुःखों का कारण है, इंद्रियों की दासता। दूसरों के दोष देखना हमारा काम नहीं, इससे कुछ लाभ नहीं होता। हमें तो उनकी कल्पना भी नहीं करनी चाहिये। गुणो से हमारा प्रयोजन है, दोषों को ढूँढने से नहीं। स्वयं अच्छा बनना हमारा लक्ष्य है। " ४/१२५ क्योंकि हमलोग अपने मन,वचन और कर्मों के द्वारा अक्सर जिन विषयों की पुनरावृत्ति करते रहते हैं, उन्हीं विषयों के संस्कारों की एक गहरी छाप हमारे मन के ऊपर पड़ जाती है, तथा उन विषयों की इंद्रियाँ हमारे मन को उन विषयों में खींच लेती हैं। और उन संस्कारों के अनुरूप ही हमारा चरित्र भी गठित हो जाता है।
इसीलिये स्वामीजी कहते थे, "केवल सत्कार्य कार्य करते रहो,सर्वदा पवित्र चिन्तन करो; असत संस्कार रोकने का बस यही एक उपाय है। ऐसा कभी मत कहो कि अमुक के उद्धार की कोई  आशा नहीं है। क्यों ? इसलिये कि वह व्यक्ति केवल कुछ विशिष्ट प्रकार के चरित्र का -कुछ अभ्यासों की समष्टि का द्योतक मात्र है, और ये अभ्यास नये और सत अभ्यास से दूर किये जा सकते हैं।चरित्र बस पुनः पुनः अभ्यास की समष्टि मात्र है और इस प्रकार का पुनः पुनः; सद-आचार ही चरित्र का  पुनर्गठन कर सकता है।" अतएव हमलोगों को अब सतर्क हो जाना चाहिये, तथा विचार करने, बोलने या व्यवहार करने के पहले, सचेतन-प्रयास या विवेक-प्रयोग करके उनकी शक्तियों को इस प्रकार प्रवर्धित या विकसित करना होगा, कि उन शक्तियों का सदुपयोग सबों के कल्याण के लिये या दूसरों की भलाई के लिये हो सके।
इसलिये हमलोगों को प्रति मुहूर्त, प्रति क्षण अपने मन के ऊपर सतर्क दृष्टि रखनी होगी, ताकि वह 'विवेक-प्रयोग' किये बिना, या उचित-अनुचित का निर्णय किए बिना, जिस किसी मनमाने विचारों में मग्न नहीं हो जाए। बहुत यह देखना होगा कि हमारे मुख से कोई ऐसा शब्द बाहर नहीं निकल जाये जिससे किसी को दुःख पहुंचे। या कोई अपशब्द जैसे ही मन में उठे, तुरन्त वही बात मुख से कहीं बाहर न निकल जाये। उसी प्रकार जो कर्म या आचरण, स्वभावतः या जन्मजात रूप से हमलोगों को अच्छे लगते हों, बिना विवेक-विचार किये ही हम कहीं उन्हीं कर्मों को करने पर उतारू न हो जाएँ।
इसलिये यदि हमलोग ऐसा चाहते हों कि समाज के दूसरे मनुष्यों के प्रति हमारा आचरण सुन्दर हो, हमारा व्यवहार शिष्ट हो, या हमारा चरित्र वास्तव में सुन्दर रूप मे गठित हो जाए, तो हमलोगोंको अपने विचार,वाणी तहा कर्मों के ऊपर, अपने आचरण एवं व्यवहार के ऊपर सतर्क दृष्टि रखनी होगी, तथा उन्हें सुन्दर रूप मे ढालने का प्रयत्न करना होगा।
महाभारत में वर्णित चरित्र-निर्माण का सूत्र :  चरित्र-निर्माण के विषय में महाभारत[ विदुर नीति,  में एक असाधारण सूत्र  दिया गया है-
कर्मणा मनसा वाचा यदभीक्ष्णं निषेवते ।
तदेवापहरत्येनं तस्मात्कल्याणमाचरेत्॥
 
[उद्योगपर्व/अध्यायः ३९/४२ ]

-शब्दार्थ : मनुष्य (मनसा) मन (वाचा) वाणी और (कर्मणा) कर्म से (यत) जिस [विषय] का (यदभीक्ष्णं) बार-बार  (निषेवते) सेवन करता है (तत,एव) वही (एनम) इसको (अपहरति) अपनी ओर खींच लेता है,  (तस्मात) इसलिये मनुष्य को (कल्याणम) शुभकर्मों का ही (आचरेत)  आचरण करना चाहिये।
भावार्थ : "मनुष्य मन, वचन और कर्म से जिस विषय का बार-बार सेवन करता है, वही (उन्हीं विषयों की इन्द्रियाँ उसके मन को ) इसको अपनी ओर  आकृष्ट कर लेती है, इसलिए मनुष्य को सदा शुभकर्मों का ही आचरण करना चाहिये।"
इसिलिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, -"प्रत्याहार का अर्थ है,एक ओर आहरण करना अर्थात खींचना -मन की बहिर्गति को रोककर, इन्द्रियों की अधीनता से मन को  मुक्त करके  उसे भीतर की ओर खींचना। इसमें  कृतकार्य होने पर ही हम यथार्थ में चरित्रवान मनुष्य बनेंगे,इससे  पहले तो हम मशीन मात्र हैं।"
क्योंकि हमलोग अपने मन,वचन और कर्मों के द्वारा अक्सर जिन विषयों की पुनरावृत्ति करते रहते हैं, उन्हीं विषयों के संस्कारों की एक गहरी छाप हमारे मन के ऊपर पड़ जाती है, तथा उन विषयों की इंद्रियाँ हमारे मन को उन विषयों में खींच लेती हैं। और उन संस्कारों के अनुरूप ही हमारा चरित्र भी गठित हो जाता है। इसीलिये स्वामीजी कहते थे, "केवल सत्कार्य कार्य करते रहो,सर्वदा पवित्र चिन्तन करो; असत संस्कार रोकने का बस यही एक उपाय है। ऐसा कभी मत कहो कि अमुक के उद्धार की कोई  आशा नहीं है। क्यों ? इसलिये कि वह व्यक्ति केवल कुछ विशिष्ट प्रकार के चरित्र का -कुछ अभ्यासों की समष्टि का द्योतक मात्र है, और ये अभ्यास नये और सत अभ्यास से दूर किये जा सकते हैं।चरित्र बस पुनः पुनः अभ्यास की समष्टि मात्र है और इस प्रकार का पुनः पुनः; सद-आचार ही चरित्र का  पुनर्गठन कर सकता है।"
 अतएव हमलोगों को अब सतर्क हो जाना चाहिये, तथा विचार करने, बोलने या व्यवहार करने के पहले, सचेतन-प्रयास या विवेक-प्रयोग करके उनकी शक्तियों को इस प्रकार प्रवर्धित या विकसित करना होगा, कि उन शक्तियों का सदुपयोग सबों के कल्याण के लिये या दूसरों की भलाई के लिये हो सके। इसलिये हमलोगों को प्रति मुहूर्त, प्रति क्षण अपने मन के ऊपर सतर्क दृष्टि रखनी होगी, ताकि वह 'विवेक-प्रयोग' किये बिना, या उचित-अनुचित का निर्णय किए बिना, जिस किसी मनमाने विचारों में मग्न नहीं हो जाए। बहुत यह देखना होगा कि हमारे मुख से कोई ऐसा शब्द बाहर नहीं निकल जाये जिससे किसी को दुःख पहुंचे। या कोई अपशब्द जैसे ही मन में उठे, तुरन्त वही बात मुख से कहीं बाहर न निकल जाये। उसी प्रकार जो कर्म या आचरण, स्वभावतः या जन्मजात रूप से हमलोगों को अच्छे लगते हों, बिना विवेक-विचार किये ही हम कहीं उन्हीं कर्मों को करने पर उतारू न हो जाएँ।
चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया को यदि एक लाईन में कहना हो, तो कहना होगा कि हमलोगों को अपने  शरीर-मन-हृदय की शक्तियों सदुपयोग निरन्तर विवेक-प्रयोग करते हुए, अपने विचार-वाणी-कर्म का उपयोग प्रति-मुहूर्त इस प्रकार करना होगा, कि वे और अधिक विकसित हो सकें; जिसके फलस्वरूप, वे मेरा तथा  दूसरों का यथार्थ कल्याण करने में सहायक बन जायें। अब हमलोग इस बातको अच्छी तरह से समझ सकते हैं कि चरित्र-निर्माण या जीवन-गठन के कार्य में सफल होने के लिये प्राथमिक तरीका तथा सबसे महत्वपूर्ण  विषयहै- "विवेक-प्रयोग !"
 अर्थात प्रति क्षण सत-असत, अविनाशी और नश्वर या समान्य रूप से कहें तो अच्छा-बुरा,शुभ-अशुभ,सबके लिये कल्याणकारी है या नहीं इन बिषयों के ऊपर विवेक-विचार करके या औचित्य-बोध के साथ विचार करने बोलने और कर्म करने की क्षमता विवेक-प्रयोग से ही अर्जित की जाती है। इस लिये हमें यह सदैव स्मरण रहना चाहिये कि, यदि हमलोग अपनी 'विवेक-शिखा' को निरन्तर जाग्रत नहीं रखें, या औचित्य-बोध को जाग्रत नहीं रखकर, मन के मुताबिक कार्य करते रहें, तो हमारे लिये चरित्र-गठन करना कभी संभव नहीं होगा। यदि हमलोग सर्वदा विवेक-प्रयोग करके अपने विचार-वाणी और कर्मों की शक्तियों  को उनके स्वाभाविक अधोगति से खींचकर, प्रति मुहूर्त उसको (ऊर्ध्वगति,या) कल्याण की दिशा, भलाई की दिशा या अच्छाई की दिशा में संचालित करने पर बहुत सतर्कता के साथ ध्यान रखें,तो पायेंगे कि यह-'विवेक-प्रयोग'भी वास्तव में 'आत्म-संयम' का ही दूसरा नाम है।
इसके माध्यम से हमलोग स्वयं अपनी ही इच्छा से, एक प्रकार के अनुशासन को स्वयं अपने ही ऊपर आरोपित करते हैं, क्योंकि हमलोग हर हाल में एक सुन्दर चरित्र का मनुष्य बनने की अभिलाषा रखते हैं। अतः विवेक-प्रयोग के द्वारा श्रेय-प्रेय या अच्छा-बुरा का निर्णय करके आत्म-संयम की सहायता से ही हमलोग प्रेय,क्षणभंगुर, या खराब विषय का त्याग करके अच्छाई की ओर या श्रेय की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं। किन्तु आत्म-अनुशासन का गुण यदि चरित्र में नहीं रहे,तो हमलोग कभी भी 'प्रेय' अर्थात -'आपात मनोहर'  किन्तु परिणाम में क्षति करने वाले (प्रारम्भ में स्वादिष्ट किन्तु परिणाम मेँ क्षतिकारक) विषयों का परित्याग करके,कभी भी कल्याणकारी विषय या'श्रेय'(अर्थात प्रारम्भ जो विषय अक्सर स्वादिष्ट नहीं लगती हो,बल्कि ऊपरी तौर से जो ' कड़वी ' दिखती हो, किन्तु परिणाम में अत्यन्त ' लाभकारी ' हो, उसका सेवन या  ग्रहण करने मेँ सक्षम नहीं हो सकेंगे।
प्रत्याहार-प्रयोग: यहाँ इस बात को याद रखना अत्यन्त आवश्यक होगा कि विवेक-प्रयोग, आत्म-संयम, आत्म-अनुशासन का पालन हमलोग कितनी दक्षता के साथ कर सकेंगे, यह पूरी तरह से इस बात पर निर्भर करेगा कि हमलोग 'प्रत्याहार-प्रयोग करके मनः संयम '  सीखने या अपने  मन को वश में रखने में हमलोग कितने सक्षम हुए हैं ?- क्योंकि यदि मन के ऊपर हमलोग थोड़ा नियंत्रण नहीं रख सकते हों,तो औचित्य बोध या विवेक-प्रयोग करने के बावजूद, हमलोग आत्म-संयम, या आत्म-अनुशासन का समुचित प्रयोग नहीं कर सकेंगे। जिसके फलस्वरूप हमलोग अपने वाणी-कर्म और विचार में अच्छा या अविनाशी को मजबूती से पकड़े रहने में सक्षम नहीं हो सकेंगे। 
इसिलिये यदि हम चरित्र निर्माण करना चाहते हों,तो पहले अपने मन के ऊपर थोड़ा नियंत्रण, अर्थात इच्छा-मात्र  से उसे किसी कार्य में नियोजित करने,या जरूरत पड़ने पर वहाँ से खींच लेने की, थोड़ी- बहुत क्षमता तो प्रत्येक मनुष्य में होनी ही चाहिये। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवन-गठन करने के लिये हमें प्रत्याहार और धारणा के निरन्तर अभ्यास के द्वारा मनः संयम सीखना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि मनुष्य के नैतिक बनने की प्रक्रिया मनःसंयोग (यम-नियम पालन ) सीखने से ही प्रारंभ होती है। एक सुन्दर चरित्र का अधिकारी बनने के लिये,तभी वह हर स्थान पर उचित-अनुचित को विचारित करने लगता है। स्वच्छन्दता के स्थान पर उसमें संयम या आत्मानुशासन की भावना का विकास होता है।
पवित्रता: इन तीनों प्राथमिक एवं सर्वाधिक अनिवार्य अभ्यास विवेक-प्रयोग, आत्म-संयम, और मनःसंयम के आलवे जिस अन्य एक विशेष महत्वपूर्ण गुण की आवश्यकता होती है वह है, पवित्रता। उत्कृष्ट चरित्र का अधिकारी बनने के लिये हमें मन, वचन और व्यवहार से सदैव पवित्र रहना होगा। विचार-वाणी और आचरण से सतत पवित्र बने रहने को ही ब्रह्मचर्य कहा जाता है। पवित्रता की रक्षा का प्रयत्न (निरन्तर  विवेक-सम्मत प्रत्याहार 'यदभीक्ष्णं' निषेवते) ही वह 'safety valve' या सुरक्षा वाल्व है, जो हमारी दैहिक या बौद्धिक शक्ति के उद्देश्यहीन बर्बादी (Purposeless waste) के मार्ग को बन्द कर देती है।  उसे बुरे रास्ते पर जाने से रोककर, संकलित और संयमित करती है, तथा उन शक्तियों को अपने एवं सम्पूर्ण मानव-जाति के कल्याण के प्रति नियोजित करने के लिये हमलोगों को अनुप्रेरित भी करती है। जिस पवित्रता की रक्षा करने से दैहिक,वाचिक और मानसिक शक्ति का संरक्षण (उर्जा का संरक्षण Conservation of energy) होता है, उसको ही ब्रह्मचर्य-पालन कहा जाता है।

सन्तोष धन ही सबसे बड़ा धन है :इस दैहिक,वाचिक और मानसिक शक्तियों का संरक्षण करने या ब्रह्मचर्य का पालन करने के बाद चरित्र-गठन करने के लिये एक अन्य आवश्यक गुण है- संतोष। अर्थात अनिवार्य रूप से जिस प्रकार के जीवन का हमलोग अधिकारी बन गये हों, उस में सन्तुष्ट रहना। तात्पर्य यह कि वर्तमान जीवनकी अवश्य कुछ सीमाएँ रह सकती हैं, मेरे जीवन में कुछ समस्याएँ भी रह सकती हैं, मेरी कुछ अपूर्ण आशा, आकांक्षा और कामनाएँ हो सकती हैं, किन्तु उसके चलते मैं अपना मानसिक संतुलन नहीं बिगड़ने दूंगा,  दुःख-कष्ट विचलित न होकर समस्याओं में घिरे रहने पर भी अपने जीवन से सन्तुष्टरहूँगा, जो मिला है उसी से सन्तुष्ट रहूँगा। क्योंकि यदि हर हाल में मेरे मन का संतोष बना रहता है, तो इसी सन्तोष के बल पर मैं जिस प्रफुल्लता एवं मानसिक शान्ति का अधिकारी बन जाऊंगा, वह मुझे अपना चरित्र-गठित करने में बहुत बड़ी सहायता करेगा।  इस प्रकार प्राथमिक रूप से इन अपरिहार्य चारित्रिक गुणो- विवेक, आत्म-संयम,आत्म-अनुशासन,मनःसंयम,ब्रह्मचर्य,पवित्रता और सन्तोष का (अथवा यम-नियम ) प्रतिमुहूर्त अभ्यास करते हुए चरित्र-गठन के संग्राम में अग्रसर रहने का प्रयत्न कर सकते हैं। स्वामीजी कहते हैं, "हम शरीर बन गये हैं। हमने इसे पूरी तौर से भुला दिया है कि हम आत्मा हैं। जब हम अपने को सोचते हैं, तो तुरन्त शरीर कि कल्पना कर लेते हैं। हम शरीरवत व्यवहार करते हैं, शरीरवत वार्ता करते हैं। हम सब अपने को शरीर ही मान चुके हैं। अब इस शरीर से हमें आत्मा को पृथक करना होगा। इसलिये शरीर से ही यम-नियम का श्रीगणेश होता है। यम-नियम का अभ्यास निरन्तर तब तक करते रहना है, जब तक अन्त में आत्मा अपने को व्यक्त नहीं कर देती। यम-नियम का मुख्य उद्देश्य एकाग्रता कि शक्ति अर्जित करना ही है।"४/१४६  


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[७]अवश्य अनुपालनीय पाँच-अभ्यास
विभिन्न व्यक्तियों का चरित्र भिन्न-भिन्न प्रकार का क्यों? हमलोगों ने यह देखा है कि हमारा चरित्र  हमारे बोल-चाल, हमारे व्यवहार या आचरण के तौर-तरीके द्वारा अवश्य ही  प्रकट हो जाता है। ध्यान से अवलोकन करने पर हम देखेंगे, कि विभिन्न मनुष्यों का आचरण या उनका व्यवहार अलग अलग ढंग का होता है। एक व्यक्ति के आचरण के साथ दूसरे व्यक्ति के आचरण की भिन्नता बहुत आसानी पकड़ में आ जाती है। क्योंकि विभिन्न मनुष्यों का चरित्र भिन्न भिन्न प्रकार का होने के फलस्वरूप उनका आचरण भी पृथक पृथक होने को बाध्य है। 
विभिन्न व्यक्तियों का चरित्र भिन्न-भिन्न प्रकार का क्यों होता है ? हमलोग यह जानते हैं कि हमारा चरित्र हमारी आदत-समूहों की समष्टि के सिवा और कुछ नहीं है। विभिन्न मनुष्यों की आदतें  विभिन्न प्रकार की होती हैं,इसिलिये उनका चरित्र  भिन्न-भिन्न प्रकार का होने को बाध्य है। सभी मनुष्यों की आदतें एक समान या उत्कृष्ट प्रकार की क्यों नहीं बन पाती हैं ? 
 इसका कारण यही है कि सभी व्यक्ति समान प्रकार कि उत्कृष्ट दक्षता के साथ 'विवेक-प्रयोग' करने में सक्षम नहीं होते, जीवन मे आत्म-संयम की भूमिका को समान रूप से महत्वपूर्ण मान कर उचित-अनुचित का निर्णय नहीं ले पाते। उसी प्रकार सभी मनुष्य समान रूप से ' पवित्रता या ब्रह्मचर्य ' पालन करने में भी समर्थ नहीं होते,सभी मनुष्य सभी परिस्थितियों में एक समान सन्तोष या मानसिक सन्तुलन बनाये रखने में सक्षम नहीं होते, इसीलिये सभी मनुष्य एक ही प्रकार की आदतों को अर्जित करने में  सक्षम भी  नहीं हो पाते हैं। और इसीके परिणामस्वरूप हमलोग विभिन्न प्रकार की आदतों को गठित करने के लिये बाध्य हो जाते हैं।  
ऐसा सोचना कि किसी व्यक्ति का चरित्र उसके आसपास के वातावरण के अनुसार, या रहन-सहन के प्रभाव से, स्वतः ही गठित हो जाता होगा- बिल्कुल गलत धारणा है। हालाँकि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता, कि चरित्र-निर्माण में वातावरण या परिवेश का प्रभाव, चाहे गौण रूप से ही क्यों न पड़े, किन्तु पड़ता अवश्य  है। वास्तव में हमारा चरित्र, हमारे अपने सचेतन प्रयास के द्वारा ही गठित होता है। 
सचेतन- प्रयास का तात्पर्य क्या है ? यही कि आसपास के वातावरण के प्रभाव या बाधाओं के प्रति मेरी प्रतिक्रिया कैसी होगी ? या तो मैं उनका सामना करूंगा या उनके समक्ष घुटने टेक दूंगा ? या तो मैं उसके सामने पराजय स्वीकार लूँगा, या उसके विरुद्ध संग्राम ठान कर उन बाधाओं का अतिक्रमण करने के लिये सचेतन -प्रयास करूंगा ? अर्थात आगे चल कर मेरा चरित्र कैसा बनेगा या मेरा भाग्य कैसा होगा ? क्या यह बात हमलोग नहीं देखते, कि संकल्प-ग्रहण की दृढ़ता में अंतर रहने के कारण ही एक ही परिवेश या वातावरण में प्रतिपालित विभिन्न व्यक्तियों का चरित्र अलग अलग ढंग का बन जाता है ?
वास्तव में ' चरित्र-निर्माण ' सचेतन प्रयत्न करके अपने लक्ष्य तक पहुँचने के 'संकल्प ग्रहण विधि (Autosuggestion) या ' आत्मसुझाव ' के अभ्यास की दृढ़ता, या प्रवणता के ऊपर निर्भर करता है। इससे  यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जीवन-गठन की साधना, पूरी तरह से मेरे संकल्प की दृढ़ता, मेरे उत्कृष्ट मनोभाव, या उत्कृष्ट आदतों के निर्माण के ऊपर ही निर्भर करती है।          
 व्यायाम और पौष्टिक आहार: परिवेश कैसा भी क्यों न हो, अपने शरीर को स्वस्थ-सबल रखने के लिये, हमें प्रतिदिन शारीरिक व्यायाम के लिये थोडा समय अवश्य निकालना चाहिये। इसके साथ ही साथ बुद्धि को कुशाग्र बनाने के लिये और मन को नियंत्रण में रखने के लिये,थोड़ा समय (२४ घन्टे का १० % भगवान का है, भक्ति में बहुत अधिक टोटरम नहीं है हो !  यथा लाभ तथा संतोषम। जो हमारा नहीं है, उसे लेने से कष्ट ही होगा। २४ घण्टा का कम से कम १०% भी) अवश्य निकालना चाहिये । मनःसंयोग का अभ्यास भी नियमित रूप से करते रहना होगा, तथा मन को निरन्तर शुभ  संकल्प में आरूढ़ रखने के लिये -उसे महान भावों, उन्न्त विचारों, के अध्यन-मनन- अनुशीलन या स्वाध्याय रूपी पौष्टिक आहार भी देना होगा। 
तभी तो बुद्धि-शक्ति को प्रवर्धित करके उसे सत के पथ से संचालित कर सकूँगा। इसके लिये यहाँ स्वामी विवेकानन्द का जीवन एवं संदेश का अध्यन तथा मनन - के ऊपर  बार बार ज़ोर दिया जाता है। इसके साथ ही साथ, ह्रदय का प्रसार करने के लिये भी हमारे आस-पास रहने वाले जो मनुष्य अभाव, दुःख-तकलीफ से जर्जर हैं, बेसहारा हैं, शोषित और भूख कि मार झेल रहे हों, उनके लिये भी कुछ करने, उनके जीवन के संस्पर्श में आने की चेष्टा करनी चाहिये। ऐसा करने से करने से हमलोग क्रमशः अपने हृदय को विशाल बना लेने में समर्थ हो जायेंगे।
किन्तु हमने यह भी देखा है कि यदि हमें अपने मन के ऊपर यथेष्ट नियंत्रण नहीं हो,तो इस  शरीर-मन-हृदय की शक्तियों को पूर्णतः प्रवर्धित नहीं किया जा सकता है। इसिलिये स्वामी विवेकानन्द कहते थे, " दूसरों के दोष देखना हमारा काम नहीं, इससे कुछ लाभ नहीं होता। हमें तो उनकी कल्पना भी नहीं करनी चाहिये। गुणो से हमारा प्रयोजन है, दोषों को ढूँढने से नहीं। स्वयं अच्छा बनना हमारा लक्ष्य है। " ४/१२५ अवश्य अनुपालनीय पाँच-अभ्यास: अतः दैनंदिन अवश्य अनुपालनीय पाँच-अभ्यासों में मनःसंयोग का अभ्यास नियमित रूप से करना अत्यन्त अवश्यक है। हमें यह बात स्मरण रखना चाहिये कि जीवन-गठन की प्रक्रिया मन के भीतर ही सम्पन्न की जाती है। वास्तव में चरित्र-गठन का कार्य मनुष्य के मन के ऊपर तथा मूलतः मन की सहायता से ही संपादित होती है। मनः संयोग का लगातार अभ्यास करते रहने से जैसे जैसे मन की एकाग्रता प्रवर्धित होती उसी परिमाण में मन संयम और नियंत्रण मे रहने लगता है, वैसे वैसे मन भी अधिक शक्तिशाली बनता जाता है। ऐसे शक्तिशाली मन की सहायता से ही प्रतिदिन थोड़ा थोड़ा करके शरीर -मन-ह्रदय की शक्तियों को विकसित करते हुए (आम आदमी से) यथार्थ मनुष्य में परिणत हो जाने की चेष्टा कर सकूँगा। 
प्रेम-प्रयोग: यहाँ एक अन्य महत्वपूर्ण अभ्यास -प्रार्थना या 'प्रेम-प्रयोग' का उल्लेख करना आवश्यक हो जाता है।  प्रतिदिन मनः संयोग का अभ्यास करने से ठीक पहले, भाव-विव्हल होकर, सच्चे ह्रदय से, पूरे मन से समस्त विश्व के समस्त प्राणियों, समस्त मनुष्यों के कल्याण के लिये, सभी के मंगल के लिये प्रार्थना करनी चाहिये- " हे प्रभु ! संसार के सभी मनुष्य सुखी हों, सभी शान्ति और आनन्द में रहें सबों को ईश्वर की प्राप्ति हो ! "
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया ।
 सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् ।।
- अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें, और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े । यह प्रार्थना किसी व्यक्ति के जीवन में, विषेशरूप से चरित्र-गठन के लिए कितना कार्यकारी या लाभप्रद है, या जीवन-गठन में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है- इस बात को तो वे लोग समझ भी नहीं सकते जिन्होंने इसका कभी अभ्यास करके देखा ही नहीं हो।  
यह प्रार्थना कोई अलौकिक या पारलौकिक विषय नहीं है, यह तो मनुष्य में ही अंतर्निहित अनन्त शक्ति को जागृत करने  में, उसके पुनरुत्थान में सहायता करती है। आधुनिक मनोविज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार करता है, कि व्यक्ति और समाज दोनों की भलाई के लिये,उसके हर प्रकार से कल्याण के लिये,' सर्वे भवन्तु सुखिनः '- जैसी प्रार्थनायें  या (Autosuggestion या  आत्मसुझाव) की भूमिका अपार और अथाह  है। 
हमलोगों ने इतना तो समझ लिया है, कि हमारे चित्त-भूमि पर अंकित संस्कारों, या मन की गहराई में  स्थापित समस्त प्रवृत्तियों (trends) का संक्षिप्त-रूप या संकलन-फल (summation) को ही चरित्र कहते हैं । किन्तु चित्त-भूमि में ये संस्कार या प्रवृत्तियाँ दृढ़ता के साथ अंकित  कैसे हो जाती हैं?जब कोई  आदत परिपक्व या दृढ़ हो जाती है,तो वही हमारे संस्कार या प्रवृत्ति के रूप में चित्त-भूमि पररेखांकित हो जाती है,या छप जाती है। 
किसी व्यक्ति को किसी विषय की लत कैसे लग जाती है?  जब हमलोग एक ही कार्य (मानसिक, वाचिक, शारीरिक) को बार बार दुहराते रहते हैं, तो हमें उस विषय की आदत पड़  जाती है, या लत लग जाती है। इसिलिये यदि हमलोग हर समय इसी प्रकार सचेत रह सकें, अपनी आत्म-संयम की शक्ति को प्रवर्धित करके निरन्तर ' विवेक-प्रयोग ' करते रहें, हमलोग स्वयं को निरन्तर केवल अच्छी बातों को सोचने, बोलने तथा करने में ही नियुक्त रख सकेंगे। और इसीके परिणाम स्वरूप हमलोग अवश्य अपने भीतर अच्छी आदतों का निर्माण कर लेंगे,  इसी प्रयास को यदि नियमित और अटूट धैर्य के साथ लगातार करते रहें, तो अर्थात दूसरे रूप से एक वास्तविक  रूप में सुंदर चरित्र के अधिकारी मनुष्य बन जाएंगे। अपने मन में केवल अच्छे विचारों को ही उठने दें, मुख से केवल शोभनीय वाणी को ही निकलने दें, बार बार केवल सद्कर्म ही करते रहें, तो हमारे भीतर केवल अच्छी बातों को ही सोचने, बोलने तथा करनेकी आदत पड़ जायेगी। और इन्हीं आदतों को बार बार दुहराते रहने या पुनरावृत्ति करने से, आदतें परिपक्व (ripen) या दृढ़ (seasoned) होकर अच्छे संस्कारों में परिणत हो जायेंगी और एक सुंदर चरित्र का निर्माण कर देंगी।
इसीलिये चरित्र-गठन की वास्तविक फलदायी प्रक्रिया है, हर समय सचेतन बने रहना, सावधान रहना, हर क्षण इस बात पर नजर रखना कि मेरे मन में कैसे विचार अपना सिर उठाना चाहते हैं, मुख से कैसे शब्द निकलने को आतुर हो रहे हैं, या हमलोग अभी किस कार्य को कर डालने के लिये तीव्र आग्रह का अनुभव कर रहे हैं ? यदि हमलोग हर समय इसी प्रकार सतर्क रह सकें, तथा इसके साथ ही साथ निरंतर विवेक-प्रयोग करने में समर्थ हों, तो हमलोग अच्छे विचार, अच्छी वाणी, अच्छे कर्मों में ही अपने को व्यस्त रखने में समर्थ बन जायेंगे। तथा अविरत धैर्य के साथ निरन्तर इसी प्रयत्न में लगे रहा सकें, तो उसके फलस्वरूप हमलोग अवश्य ही अच्छी आदतों को अर्जित कर सकेंगे, अर्थात सचमुच एक सुन्दर चरित्र के अधिकारी मनुष्य बन जायेंगे। (या जीवन का पहला पुरषार्थ- धर्म प्राप्त हो जायेगा। ) 
इसीलिये स्वामीजी आह्वान करते हैं, " कहो कि जिन कष्टों को हम अभी झेल रहे हैं, वे हमारे ही किये कर्मों के फल हैं। यदि यह मान लिया जाय, तो यह भी प्रमाणित हो जाता है कि वे फिर हमारे द्वारा नष्ट भी किये जा सकते हैं।  अतएव उठो, साहसी बनो ! वीर्यवान बनो! सब उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर लो। यह याद रखो कि तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो। निन्दावाद को एकदम छोड़ दो। तुम्हारा मुँह बन्द हो और हृदय खुल जाय। इस देश और सारे जगत का उद्धार करो। तुम लोगों में से प्रत्येक को यह सोचना होगा कि सारा भार तुम्हारे ही ऊपर है। वेदान्त का आलोक घर घर ले जाओ, घर घर में वेदान्त के आदर्श पर जीवन गठित हो। प्रत्येक जीवात्मा में जो ईश्वरत्व अंतर्निहित है, उसे जगाओ। "   
समाधी का त्याग स्वामी विवेकानन्द कहते हैं,  " भारत में धर्म की परिणति मुक्ति में होती है। पर समय आता है, कि इसे भी त्याग दिया जाता है और रह जाता है सब प्रेम केवल प्रेम के लिये। सबसे अंत में आता है, ' भेदभावहीन प्रेम '- एकात्मता ! एक ईरानी कविता है, जिसमें कहा गया कि कैसे एक प्रेमी अपनी प्रेमिका के द्वार पर पहुँचता है और दरवाजा खटखटाता है। वह पूछती है, " तू कौन है ? " और वह उत्तर देता है, " मैं अमुक हूँ, तेरा प्रिय! और वह केवल यही उत्तर देती है, " चलते बनो ! मैं ऐसे किसी को नहीं जानती। " पर जब वह चौथी बार पूछती है, तो वह कहता है, 
 " मैं तू ही हूँ, मेरी प्रिय, इसलिये मेरे लिये दरवाजा खोल !"
और द्वार खोल दिया जाता है। प्रेम इष्ट को देखता है। ईश्वर वह आदर्श है, जिसके द्वारा मनुष्य सबको (अपने में) देख सकता है। इसलिये हम स्वयं प्रेम से प्रेम करने लगते हैं, इस प्रेम को अभीव्यक्त नहीं किया जा सकता। कोई शब्द इसे व्यक्त नहीं कर सकते। हम इसके विषय में गूँगे हैं। " ३/२७६     
सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के लिये यही सबसे महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य कार्य है, किन्तु जब स्वामी विवेकानन्द ने यह देखा कि शिकागो के भयंकर ठंढ में पर्याप्त गर्म कपड़ों एवं भोजन के अभाव में ठाकुर द्वारा सौंपे गए कार्य को पूर्ण किए बिना ही उन्हें अपना शरीर छोड़ना पड़ सकता है, तब ११ सितम्बर १८९३ के अपने प्रसिद्ध भाषण से एक महीने पहले अपने शिष्य श्री आलासिंगा पेरुमल को २० अगस्त,१८९३ को लिखित पत्र में कहते हैं, " जाड़े का मौसम आ रहा है। मुझे सब प्रकार के गरम कपड़े कि आवश्यकता होगी, ...वत्स साहस का अवलंबन करो। भगवान की इच्छा है कि भारत में हमसे बड़े बड़े कार्य सम्पन्न होंगे।...हो सकता है कि मैं इस देश में भूख या जाड़े से मर भी जाऊँ, परन्तु, युवकों ! मैं गरीबों, मूर्खों और उत्पीड़ितों के लिये इस सहानुभूति और प्राणपण प्रयत्न को थाती के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हूँ। जाओ, इसी क्षण जाओ उस पार्थसारथी के मंदिर में,जो गोकुल के दीन-हीन ग्वालों के सखा थे,....जाओ उनके पास जाकर साष्टांग प्रणाम करो और उनके सम्मुख एक महाबलि दो,अपने समस्त जीवन की बलि दो- उन दीन-हीनों और उत्पीड़ितों के लिये, जिनके लिये भगवान युग युग में अवतार लिया करते हैं, और जिन्हें वे सबसे अधिक प्यार करते हैं। और तब प्रतिज्ञा करो कि अपना सारा जीवन इन तीस करोड़ (अभी १२० करोड़) लोगों के उद्धार-कार्य में लगा दोगे, जो दिनोंदिन अवनति के गर्त में गिरते जा रहे हैं। "

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