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मंगलवार, 16 जून 2009

चरित्र निर्माण आन्दोलन में महामण्डल की द्विभाषी पत्रिका (मुखपत्र) 'VIVEK - JIVAN' की भूमिका !

स्वाधीनता प्राप्ति के पूर्व आम जनता के मन में यह धारणा घर कर गई थी कि देश को अभी जिन
' दरिद्रता, अनाहार, अशिक्षा,'  आदि समस्यायों - से  जूझना पड़ रहा है, उन सारी समस्याओं का मूल कारण केवल पराधीनता ही है। स्वाधीनता-संग्राम के सेनानी अपने प्राणों की आहुति इसीलिये दे रहे थे कि भारत जब अंग्रेजों कि दासता से मुक्त हो कर राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर लेगा, वैसे ही यहाँ कि सारी समस्याएँ मिट जाएँगी और देश में समृद्धि का ज्वार आ जाएगा ! 
परन्तु स्वाधीनता प्राप्ति के बाद, एक-एक कर २० वर्ष बीत जाने पर भी- जब दरिद्रता, अशिक्षा, अनाहार, बेरोजगारी आदि समस्याएँ वैसे ही मुँह फैलाए खडी थीं, अब भी लोग भूख के कारण मर रहे थे। इन समस्याओं में थोडी भी कमी नहीं हो रही थी, देश समृद्ध बन जाने के बजाये हर क्षेत्र में पिछड़ा दिखने लगा तो- सारे देशवासी, विशेष रूप से पढ़ा-लिखा युवा समुदाय 'स्वप्न-भंग' कि वेदना से विक्षुब्ध हो उठा। 
उन्हें इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं मिल पा रहा था कि, राजनैतिक दृष्टि से स्वाधीन हो जाने के बाद भी हमलोग अपने राष्ट्र की  मूल समस्याओं का समाधान अभी तक क्यों नहीं कर पाए हैं ? अभी तक देश के गाँव-गाँव तक सड़क, बिजली, पानी, चिकत्सा, शिक्षा आदि मूलभूत सुविधाएँ क्यों नहीं पहुंचाईजा सकी हैं? इतना सारा धन खर्च करने के बाद भी सारी पंचवर्षीय योजनायें व्यर्थ क्यों हो रही हैं ? जब अंग्रेज भारत छोड़ कर जा चुके हैं, तो अब स्वतंत्रता के शुभ्र-प्रकाश में भी देशवासी स्वयं को छला हुआ सा क्यों अनुभवकर रहे हैं? विलम्ब से भी सही, पर आज किस उपाय से हमलोग अपना तथा अपने देशवासियों का यथार्थ कल्याणकर सकते हैं ?
जब सभी देशप्रेमी युवाओं का मन ऐसे प्रश्नों से आलोडित हो रहा था, तब कुछ स्वार्थान्ध राजनीतिज्ञों ने युवाओं के इस विक्षोभ को सत्ता की कुर्सी प्राप्त करने का सुनहरा मौका समझा, उनके प्रश्नों का सही उत्तर न देकर, युक्ति-तर्क से यथार्थ मार्गदर्शन देने के बजाय, वे युवाओं के मन में विध्वंसात्मक और नेतिवाचक भावनाओं को भड़का कर, उन्हें और ज्यादा अशांत और उन्मादी बनाने का प्रयास करने लगे।  जब स्वार्थी तत्त्व, पढे-लिखे युवा समुदाय को ध्वंसात्मक और सर्वनाशी हिंसक आन्दोलनों (नक्सल -वादी, आतंक-वादी) में झोंक कर देश को और भी पतन की गर्त में धकेलने का षड्यंत्र करने लगे, उस समय देश के ऊपर घोर संकट के काले बादल छा गये थे।
इसीलिये स्वाधीनता प्राप्ति के २० वें वर्ष (१९६७) में ही 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' का आविर्भाव अनिवार्य हो गया था। और महामण्डल स्थापित होने के २ वर्ष बाद १९६९ में जब इसकी मासिक संवाद पत्रिका- 'Vivek- Jivan' ने अपना पहला आत्मप्रकाश किया था, उस समय  भी देश एक संकटपूर्ण दौर से गुजर रहा था। 


इस वर्ष (२००९ में) , इस अंग्रेजी और बंगला में प्रकाशित होने वाली द्विभाषी मासिक संवाद पत्रिका ने अपने निर्बाध प्रकाशन के ४० वें वर्ष में कदम रखा है।  'महामण्डल' और 'Vivek-Jivan' को इसीलिये आविर्भूत होना ही पड़ा - क्योंकि, उस समय युवाओं को यह समझा देना अत्यन्त आवश्यक हो गया था कि, आख़िर इतनी कुर्बानियों से प्राप्त यह राजनैतिक स्वाधीनता भी देश और देशवासियों का यथार्थ कल्याण करने में, क्यों विफल सिद्ध हो गई ? स्वाधीनता प्राप्ति के २० वर्ष बाद भी हम लोग दरिद्रता, अनाहार, अशिक्षा, बेरोजगारी जैसी समस्याओं को दूर क्योंनहीं कर सके? इस विफलता का मूल कारण क्या है? 
विलम्ब से भी सही, आज किस उपाय से इतने वर्षों कि विफलता को दूर कर देश को पुनः प्रगति के पथ पर आरूढ़ कराया जा सकता है ? इन प्रश्नों परविवेक-विचार पूर्ण या तर्क सम्मत उत्तर ढूंढ निकलना, फ़िर देश-प्रेमी युवाओं को सही दिशानिर्देश देना, तब  उतना कठिन भी नहीं था। क्योंकि स्वामी विवेकानन्द ने स्वाधीनता प्राप्ति के ५० वर्ष पूर्व ही, राजनैतिक स्वाधीनता कि प्रयोजनीयता को स्वीकार करते हुए भी, यह बात स्पष्ट रूप से समझा दिया था कि- " यथार्थ मनुष्यों का निर्माण किए बिना, केवल राजनातिक स्वाधीनता प्राप्त करने मात्र से ही देश की मूल समस्याओं का समाधान हो पाना कभी संभव न होगा।" उन्होंने अपनी ऋषि दृष्टि से पहले ही यह जान लिया था कि, सत्, निःस्वार्थी, चरित्रवान, देशप्रेमी मनुष्यों को तैयार किए बिना, राष्ट्र कि सत्ता यदि असत्, स्वार्थी, भ्रष्ट ' अमानुषों' के हांथों में सौंप दी गई तो वे लोग सत्ता का दुरूपयोग करते हुए केवल अपने 'स्वार्थ-सिद्धि' में ही रत रहेंगे। वे लोग कभी भी राष्ट्र कि साधारण जनता के कल्याण में सत्ता कि शक्ति का सदुपयोग नहीं करेंगे, और वैसी स्वाधीनता देश तथा देशवासियों का कल्याण साधन करने में निश्चित रूप से व्यर्थ सिद्ध होगी।
तभी तो स्वामी विवेकानन्द ने-" यथार्थ मनुष्य गढ़ने को " ही अपना जीवन- व्रत घोषित करते हुए, भारत निर्माण का एक अभ्रांतसूत्र दिया था- " Be & Make " अर्थात ' मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ'। वे जानते थे कि भ्रष्ट, स्वार्थी, देशद्रोही, अमानुषों का नेतृत्व कभी भी भारत कल्याण नहीं कर सकता। किन्तु
स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् देश की दुरावस्था के लिए कौन कौन लोग जिम्मेवार हैं, केवल उनका नाम ले ले कर, उन्हें कोसते रहने, या शासक वर्ग के विरुद्ध उग्र प्रतिक्रिया दिखाते हुए तोड़-फोड़ करने, रेल-बस आदि सरकारी सम्पत्तियों को जला कर राख कर देने, या युवाओं को उग्रवाद या आतंकवाद में झोंक देने से ही देश की दुरावस्था का अवसान कभी संभव न होगा। 
आज आवश्यकता है देश की दुरावस्था के मूल कारण को समझ कर, उसके अवसान के पथ पर अग्रसर होने की, और स्वामीजी द्वारा निर्देशित वह पथ है- ' संगठित होकर यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने की की प्रक्रिया को साथ- साथ चलाना।' देश की उन्नति की पहली शर्त यही है- "Be & Make" अर्थात 'मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ' के कार्यक्रम को एक आन्दोलन के जैसा पूरे भारत में फैला देना होगा। देशवासियों के समक्ष, विशेषकर स्वप्नभंग की वेदना से विक्षुब्ध देशप्रेमी युवाओं के समक्ष, यही संदेश रखने की आवश्यकता थी कि,वे अपना जीवन गठित कर पहले स्वयं एक ' आदर्श युवा ', यथार्थ मनुष्य बन कर दिखा दें और मनुष्य बनाने कि पद्धति को आन्दोलनका रूप देकर बड़वानल की तरह देश के कोने-कोने तक फैला दें। समय की इसी माँग को पुरा करने के लिए, 'महामण्डल' तथा इसकी संवाद पत्रिका 'Vivek-Jivan' ने अपना आत्मप्रकाश किया था। इनके माध्यम से महामण्डल सभी राष्ट्र-प्रेमी देशवासियों, विशेषकर युवाओं को यही संदेश देता चला आ रहा है कि :




* सभी देशप्रेमी युवाओं के आदर्श ' नेता' हैं----------- स्वामी विवेकानन्द !
* महामण्डल का उद्देश्य है----------------------- भारत कल्याण !
* 'भारत-कल्याण' का उपाय है --------------------- चरित्र-निर्माण !
 *स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्देशित राष्ट्र-निर्माण का सूत्र है- ' Be & Make' !
 

अपने जन्म के समय से ही ' महामण्डल' तथा इसकी मासिक संवाद पत्रिका ' vivek-jivan' स्वामीजी द्वारा निर्देशित- ' मनुष्य-निर्माणकारी तथा चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' का प्रचार-प्रसार करता चला आ रहा है। इन चार दशकों के लंबे अन्तराल में हमारे द्वारा किए गए कार्यों का समाज तथा युवाओं के मन के ऊपर कितना प्रभाव पड़ा है, इसकी समीक्षा- इस विराट देश की विपुल जनसंख्या के परिप्रेक्ष्य में कर पाना उतना सहज नहीं है। 
फ़िर भी एक बात तो पूरे निश्चय के साथ कही जा सकती है कि, आज से ४० वर्ष पूर्व बहुत थोड़े से लोग ही यह विश्वास करते थे कि स्वामी विवेकानन्द को युवा आदर्श (Role model) के रूप में स्थापित करा कर उनके मार्गदर्शन में चलने से, दरिद्रता और अशिक्षा को समाप्त करके सामाजिक परिवर्तन द्वारा एक सुखी और समृद्ध भारत का निर्माण करना संभव है। इस बात से कोई भी सज्जन व्यक्ति इंकार नहीं कर सकते कि, आज से ४० वर्ष पूर्व देशवासी या युवा समुदाय को स्वामी विवेकानन्द  के विचार उद्दीप्त भले कर देते हों, या तब भी वे उनको श्रद्धा भरी दृष्टि से देखते हों, किन्तु उनमे से अधिकांश लोग यही सोचा करते थे कि, सामाजिक परिवर्तन या आर्थिक उन्नति के लिए किसी न किसी 'विशिष्ट' तरह के राजनैतिक मतवाद को तो स्वीकार करना ही पडेगा। 
यहाँ तक कि जो लोग अपने को स्वामी विवेकानन्द का अनुगामी समझते थे, वे भी उनको मूलतः केवल एक 'हिंदू' सन्यासी ही मानते थे। वे उन्हें एक ' हिंदू पुनरुत्थानवादी ' या 'आध्यात्मिक राष्ट्रवादी ' संत के रूप में ही देखा करते थे। अधिकांश लोगों के लिए स्वामीजी के प्रति श्रद्धा-भक्ति केवल रोमांच पैदा कर देने वाली एक विद्युत-स्पर्श के झटके जैसी ही थी। उस समय स्वामी विवेकानन्द में श्रद्धा रखने वाले बहुत कम लोग ही यह सोच पाते थे कि- " मनुष्य बनना और मनुष्य बनाना " ही स्वामीजी के संदेशों का सार है, या 'मनुष्य-निर्माण' ही उनके समग्र चिंतन का केन्द्र-बिन्दु है। या उनके भारत-निर्माण सूत्र- " Be & Make" के निर्देशानुसार  केवल यथार्थ मनुष्य गढ़ने से ही भ्रष्टाचार को मिटाया जा सकता है और देश कि समस्त समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।
विगत चार दशकों से चलाये जा रहे इस -'मनुष्य निर्माण और चरित्र निर्माण आन्दोलन' के फलस्वरूप अब हमलोग जन-मानस में एक विशिष्ट परिवर्तन देख पा रहे हैं। भारत के अधिकांश लोग अब इस तथ्य को समझने तथा उस पर विश्वास करने लगे हैं कि, यथार्थ मनुष्य का निर्माण किए बिना जगत का सारा धन उडेल देने से भी पूरे देश के उन्नयन की बात तो दूर, एक गाँव को भी उन्नत कर पाना सम्भव नहीं है। (राजीव गाँधी भी मानते थे कि, केन्द्र से चला 'एक रुपया' गाँव तक पहुँचते-पहुँचते ८५% पाइप लाइन से चू जाता है और केवल '१५ पैसा' ही जरुरत मंदों तक पहुँच पाता है।)
हम लोग देश के कल्याण के लिए चाहे जिस नाम से, कैसी भी बडी-बडी योजनायें (मनरेगा आदि) क्यों न बना लें, उस परिकल्पना को धरातल पर उतारने वाले नेता, प्रशासक, कर्मचारी, एवं व्यापारी लोग यदि यथार्थ मनुष्य नहीं हों तो वे सारी योजनायें व्यर्थ ही सिद्ध होंगी। आज के अधिकांश चिन्तनशील व्यक्ति इस बात पर स्वामीजी के साथ पूरीतरह से सहमत हैं कि, देश कि दुरावस्था का मूल कारण- ईमानदार, चरित्रवान या यथार्थ मनुष्यों का आभाव ही है।
आज स्वामीजी के प्रति केवल आवेश-आवेग पूर्ण श्रद्धा व्यक्त करके, उनकी जयंती मानाने के बजाय उनके महावाक्य-'Be & Make' कि सत्यता को युवा समुदाय महामण्डल के 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' में प्रयोगगत यथार्थ के रूप में उपलब्ध कर रहे हैं, तथा शिविर से लौटने के बाद अपने-अपने गाँव में स्वेच्छा से महामण्डल कि शाखाएं स्थापित कर रहे हैं।  ४८ वर्षों के बाद युवाओं तथा देशवासियों की सोंच में ऐसा जो परिवर्तन दिखाई दें रहा है, इस परिवर्तन के पीछे, ' रात्रि के निःशब्द ओस की बूंदों के समान' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल" तथा "Vivek-Jivan" की भी एक भूमिका रही है, ऐसा हमारा विश्वास है।
दरिद्रता और अशिक्षा के दलदल में निमज्जित करोडो-करोड़ देशवासियों की चिंता से विह्वल स्वामीजी का संदेश वाहक बनाकर, उनके निर्देशानुसार सैंकडो युवाओं को समस्त प्रकार की आत्म-केन्द्रिकता, भोगविलास और सुख पाने की इच्छा से मुक्त होकर, अपने  जीवन को एक आदर्श उदाहरण के रूप में गठित करके  कश्मीर से कन्याकुमारी तक "Be & Make" का प्रचार-प्रसार करने में जुट जाना होगा। इस कार्य को दक्षता के साथ रूपायित कर पाने पर ही 'महामण्डल' तथा 'Vivek-Jivan' की सफलता निर्भर करती है। 

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शनिवार, 13 जून 2009

'AN APPEAL' from AKHIL BHARAT VIVEKANANDA YUVA MAHAMANDAL

 'AN APPEAL'

We appeal to all thinking young men, who have faith in the leadership of Swami Vivekananda, in his undying message for mankind, and the soul-stirring call to the nation, to come forward and join the Mahamandal and work silently, shunning all ' Newspaper Humbug' for ushering in a new life through a ' Man-making and Character-building education' which is the only panacea for all the evils of the society the world over.  
Any interested individual, institution, or association may contact the Secretary by writing to the Registered office:-

  " Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal 

6/1A, Justice Manmatha Mukherjee Row,  
KOLKATA, 
INDIA-700 009
 Phone : (033) 2350-6898, 2352-4714 
E.mail-abvymcityoffice@gmail.com 
Website: www.abvym.org  
 
THE REAL LIMBS OF the Mahamandal : ITS UNITS The units are the real limbs of the Mahamandal, through which its life is manifested, it works, moves, and grows, and has its being. 

The central organization, viz. the Mahamandal, acts as the cementing force of these units, which are the actual centers to work out the ideas and ideals of the Mahamandal, thus making them living organs of a grat body. 

 Work is now going on in West Bengal, Tripura, Assam, Bihar, Jharkhand, Orissa, Andhra Pradesh, Karnatka, and Delhi. In January 2009 there were 35o affiliated units of the Mahamandal.  

ACTIVITIES  

The items of social work undertaken by the units include-Free Coaching, Adult Education, Games, Drills, Study Circles, Physical Training, Libraries, Slum work, First Aid, Training in First Aid, Training in Music, Medical Aid, Health Scheme, Nutrition and Feeding Schemes, Cottage Industry, Student's Home. 

Besides the unit organize cultural functions, celebrations of important occasions, public meetings, educational competitions,etc. Mass feeding, distribution of garments, relief to indigent persons and the distressed in natural calmities, and other types of social works are also undertaken by the units of the Mahamandal, jointly or severally. 

JOINT MEETS or Periodical Special Training Camp Besides, the Mahamandal holds periodical joint meets,(called Shiksha -o-Samiksha Asars) for discussions, where often eminent educationists give talks on various interesting subjects which are closely connected with our activities. Here active members and workers of each unit get an opportunity to exchange their ideas with their counterparts of other units. 
 
" THE ANNUAL ALL INDIA YOUTH TRAINING CAMP " 

  The biggest joint activity of the Mahamandal is its 'Annual Youth Training Camp' which tries to strike a balance between the training of the '3H's- Hand(body), Head(mind) and Heart(soul) of the campers.  

The general programme includes, ' Mental-Concentration', Physical Training, Leadership Training, Practical Methods for Character-Building, Parade, First Aid Training, Games, Vivek-Vahini training to start children wings, prayers, music and discourses on different subjects covering cultural heritage of India, Sociology, Morality, Health, etc. vis-a-vis the teachings of Swami Vivekananda.

 It also provides the participants ample scope for self-expression. Local Youth Training Camps more or less on district basis, State Level Camps, Interstate Level Camps, are also organized by the different units of different state. Training camp for organizers are also held.  
" THE VIVEK- JIVAN " The Mahamandal publishes a bi-lingual (English & Bengali) monthly organ, " Vivek Jivan", Edited and published by Sri Nabaniharan Mukhopadhyay,President, from the Registered Office and printed by him at ' Vivekananda Mudranalya ', Chakdaha, Nadia. Assistant Editor: Arunabha Sengupta, for spreading the teachings of Swami Vivekananda, to initiate the youth of the country into ' A LIFE OF DISCRIMINATION' , to coordinate the activities of the units, and to disseminate the ideas of the Mahamandal far and wide.  

Its ' HINDI ' translation-(विवेक अंजन ) is published from Jhumritelaiya,(Jharkhand) unit of the Mahamandal, under supervision and direction of Sri Nabaniharan Mukhopadhyay to spred the man-making education in hindi belt of India. 

  PUBLICATIONS 
 Booklets are also published to cater the ideas the Mahamandal believes to be useful. 
 List of Publication: 

Swami Vivekananda: A study.......Rs.45/= 
Swami Vivekananda and the World of Youth......Rs.15/= 
A new Youth Movement.........................................Rs.15/= By Questioning..........................................................Rs.10/=
Vivekananda, Youth and New India- by Swami Ranganathananda........Rs.10/= 
What Every Student ought to know- by Swami Harshananda.................Rs.5/=
 Vivekananda- the Power................................................................................Rs.1/=
 A Plan for Action..............................................................................................Rs.2/=
 The Problem of the Youth: Its Solution........................................................Rs.5/= 
The Role of the Common Man in India's Regeneration...............................Rs.5/=
 Vision to Reality through the New Revolution..............................................Rs.5/=
Mental Concentration..................................................................Rs.5/=  
The Mahamandal has so far published more than 150 books and booklets in different languages on subjects which may interest the youth. 
महामंडल के हिन्दी प्रकाशन :
महामंडल की समस्त पुस्तिकाओं एवं इसकी सम्वाद पत्रिका विवेक अंजन का अध्यन करने से युवाओं को अपना सुन्दर जीवन गठित करने में बहुत सहायता मिलेगी, प्रत्येक जाति और धर्म के युवा इससे लाभान्वित होंगे. यहाँ तक कि जो युवा भाई किसी धर्म या ईश्वर में विश्वास नहीं करते किन्तु भारत से प्यार करते हों तो उनको भी इन पुस्तिकाओं के अध्यन से बहुत लाभ होगा. 
किशोरावस्था अथवा अल्पायु में मानव जीवन का मूल्य तथा चरित्र-गठन की अनिवार्यता समझ में नहीं आती और उम्र बढ़ जाने के बाद उस दिशा में प्रयत्न करने पर हताशा ही हाथ लगती है. यदि कम उम्र में ही कोई तरुण इन पुस्तिकाओं का अध्यन कर लें तो वैसी सम्भावना नहीं रहेगी. इन पुस्तिकाओं का अध्यन करने तथा उनमें दिए गये परामर्शों को अमल में लाने पर युवाओं के जीवन में विफलता कभी नहीं आ सकती.
महामण्डल द्वारा हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकों की सूचि : 
१. मनः संयोग (मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण)..................८.०० रूपये 
२.जीवन गठन .....................................................................५.०० 
३. चरित्र गठन .  ...........................................८.००  
४. चरित्र के गुण ..................................................................१२.०० 
५. एक युवा आन्दोलन ..........................................................१५.०० 
६. विवेकानन्द और युवा आन्दोलन .......................................१५.०० 
७. जिज्ञासा तथा समाधान ......................................................१०.०० 
८. अल्मोड़ा का आकर्षण .........................................................३.०० 
९.पुनरुज्जीवन के उपाय..........................................................१.०० 
१०.नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण-------------------------------------------------------१५.०० 
११. युवा समस्या एवं स्वामी विवेकानन्द---------------------------------- १० /=
१२.जीवन नदी के हर मोड़ पर ----------------------------------------------------------१००/= 
 १३.स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना------------------------------------------   १५/= 
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" नया भारत गढ़ो !" ( Swami Vivekananda and Modern India )

उन्होंने कहा था - " मनुष्य, केवल मनुष्य भर चाहिये ; बाकी सब कुछ अपने आप हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वि, श्रद्धा-सम्पन्न और दृढविश्वासी निष्कपट नवयुवकों की। ऐसे सौ मिल जाएँ, तो संसार का कायाकल्प हो जाय।"  और मनुष्य निर्माण करने का अर्थ है- मनुष्य के तीन प्रमुख अवयवों '3H' -ह्रदय (Heart),मन (Mind) और शरीर(Hand)-का विकास करने वाली शिक्षा ! स्वतन्त्र भारत की राष्ट्रिय शिक्षा नीति में रोजगार प्राप्त करने वाली शिक्षा के साथ साथ यथार्थ मनुष्य बनने की शिक्षा का समावेश भी अवश्य होना चाहिये।
 

१. स्वस्थ ह्रदय के लिये दैनिक प्रार्थना : जो युवा प्रार्थना की शक्ति में विश्वास करते हैं, उन्हें प्रतिदिन ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये कि ' हे जगतजननी माँ ! जैसा सोचने, बोलने से करने से मुझे अपने चरित्र का निर्माण करने में मदद मिलती हो, आप मुझे केवल वैसे ही कर्मों में संलग्न रखिये।' जो लोग पहले से प्रार्थना की प्रभावकारिता पर विश्वास नहीं करते हों, वे भी स्वयं परिक्षण कोशिश करके देख सकते हैं कि जगत-जननी जगदम्बा से ' माँ, तुम मुझे अपना अच्छा पुत्र बना दो ' की प्रार्थना करने का असर कितना शीघ्र होता है! क्योंकि प्रार्थना में अतिप्राकृतिक या पारलौकिक शक्ति जैसी कोई (supernatural) बातें नहीं होती; बल्कि प्रार्थना मानवमात्र में अन्तर्निहित अव्यक्त शक्ति को केवल जाग्रत भर कर देती है, जिसकी सहायता से मनुष्य स्वयं अपने चरित्र का निर्माण कर सकता है। 
 

२. एकाग्रता का अभ्यास एवं स्वाध्याय : मन को वशीभूत करने और बुद्दि को तीक्ष्ण बनाने में सहायता प्रदान करता है; इसके नियमित अभ्यास एवं स्वाध्याय के द्वारा 'बुद्धि' को इतना तीक्ष्ण बनाया जा सकता है कि वह मनुष्य को निरंतर विवेक-विचार पूर्वक कर्म करने के लिये ही अनुप्रेरित करती रहती है। विवेकानन्द रचनावली या साहित्य का अध्ययन करने से  हमें स्वयं के साथ जुड़ जाने में बहुत अधिक सहायता प्राप्त होती है।अतः प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन अपना कुछ समय स्वामी विवेकानन्द की रचनाओं को पढ़ने में लगाना चाहिये। प्रत्येक ब्यक्ति को प्रारम्भ में क्रमशः 'भारत और उसकी समस्यायें', 'राष्ट्र को आह्वान', 'जाति-संस्कृति और समाजवाद', 'कोलम्बो से अल्मोड़ा  भाषण', 'विवेकानन्द पत्रावली', ' विवेकानन्द साहित्य संचयन' आदि पुस्तकों को पढ़ना चाहिये।
 

३. स्वस्थ शरीर :  एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का विकास संभव है। इसलिए, प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी उपयुक्त व्यायाम के माध्यम से अपने शरीर को स्वस्थ और मजबूत रखने का इच्छुक होना चाहिए। महामण्डल का प्रत्येक केन्द्र अपने सदस्यों के लिये इससे सम्बन्धित सुविधाओं को संचालित करने की योजना शुरू करने पर विचार कर सकता है।
 

४. समेकित बाल कल्याण योजना (Integrated child-welfare scheme): आज जो बच्चे हैं, वे ही कल किशोर या युवा के रूप विकसित होंगे ! अतः महामण्डल की सभी इकाइयों के द्वारा अपने क्षेत्र के बच्चों और युवाओं के लिए एक विस्तृत 'आत्म अनुशासन योजना' का प्रारम्भ  किया जाना चाहिये। बाल-कल्याण योजनाओं में उन बातों पर पर्याप्त  ध्यान देना होगा जो उन्हें एक स्वस्थ शरीर, ह्रदय और मन के युवा में परिवर्तित करने में सक्षम हों। समस्त महामण्डल केन्द्रों या समाज-सेवी संगठनों को अपने यहाँ बालकों के सर्वतोमुखी-विकास के लिये एक ' शिशु-विभाग' (बालक-विंग) रखना उचित होगा। बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिये उन्हें स्वस्थ खेल-कूद, अनुशासित ड्रिल का अभ्यास, संगीत, प्रार्थना, आदि का प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिये। महामण्डल अपने प्रत्येक केन्द्र को बच्चों का विंग ' विवेक-वाहिनी ' का प्रारम्भ करने के लिए विस्तृत सुझाव देने के लिए तैयार है।
 

५. प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र (Adult Education Centers): विशेष रूप से अविकसित क्षेत्रों, स्लम आदि में अशिक्षा को को दूर करने का प्रयास शुरू करना चाहिये।६. 'नि:शुल्क कोचिंग क्लासेस' (Free Coaching Classes) बहुत से बच्चे और युवा निजी ट्यूटर्स रखने का खर्च वहन नहीं कर सकते। इसलिये महामण्डल के केन्द्र यदि विद्यालय के छात्रों, विशेष रूप से जरूरतमंद छात्रों के लिये 'निःशुल्क कोचिंग क्लासेस' आरम्भ करें तो समाज की अच्छी सेवा हो सकती है।
 

७. पाठ चक्र (Study Circles) के माध्यम से 'सांस्कृतिक विरासत' (Cultural Heritage) की जानकारी: युवाओं के मन में अपने देश के प्रति  सच्चा प्रेम भारतवर्ष के उन प्राचीन-मूल्यों को समझने से ही उत्पन्न हो सकता है, जिसने हमारे देश को विश्व-गुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया था। स्कूलों और कॉलेजों के पाठ्यक्रम इसके लिए पर्याप्त जानकारी प्रदान नहीं करते हैं, उन उच्च विचारों को बाहर से पूरा किया जाना चाहिये। अतः युवाओं के मन में हिमालय, गंगा, गीता, त्रिवेणी, काशीविश्वनाथ, राम-कृष्ण-बुद्ध-चैतन्य, ईसा, मोहम्मद आदि की शिक्षाओं के तुलनात्मक अध्यन के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करने का प्रयत्न करना चाहिये। यह कार्य "अध्ययन सर्किलों" के माध्यम से सर्वोत्तम तरीके से किया जा सकता है। जहाँ युवाओं का एक समूह, उद्देश्य की प्राप्ति के लिये नियमित रूप से निर्धारित समय और दिन आपस में बैठकर, इस तरह के विषयों का अध्यन और पूर्ण-विवरण पर गंभीरता के साथ चिन्तन-मनन करके राष्ट्र-निर्माण 'Nation-Building'  कार्य के प्रति खुद को समर्पित करता है। हम अपने पाठ-चक्र (Study Circles) में स्वामी विवेकानन्द की रचनाओं के साथ भारतीय संस्कृति का अध्ययन शुरू कर सकते हैं।
 

८. 'संस्कृत-भाषा' ही हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत की गहराई के भीतर प्रविष्ट करवा सकती है। संस्कृत के समृद्ध भाषा-भण्डार की सम्यक जानकारी पर्याप्त करने के लिये इस भाषा को सीखने और सिखाने का हर सम्भव प्रयास किया जाना चाहिए। प्राथमिक संस्कृत व्याकरण सिखाने एवं 'गीता' एवं 'उपनिषदों' की बुनियादी अवधारणा की शिक्षा की व्यवस्था अवश्य होनी चाहिये।
 

९.ह्रदय का विस्तार करने हेतु शिव-ज्ञान से जीव सेवा - स्थानीय चिकित्सा कर्मियों और प्रशिक्षित कर्मियों के सहयोग से होम्योपैथी दवाओं का वितरण, टीकाकरण और बाल कल्याण सहित अन्य कार्य भी जरूरत है और परिस्थितियों के अनुसार किए जा सकते हैं। निर्धन बच्चों के लिए दूध का नि: शुल्क वितरण, खाद्य वस्तुओं, कपड़े, किताबों, आदि से बहुत मदद की जा सकती है। लावारिश या जररूरतमन्दों के शवों का समय पर निस्तारण कर देना भी एक महान सेवा हो सकती है।
 

१०.'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त साहित्य पुस्तकालय' जहाँ भी संभव हो एक सार्वजानिक पुस्तकालय मुख्य रूप 'Ramakrishna-Vivekananda' Vedanta  literature". की पुस्तकों के साथ शुरू करना चाहिये। स्कूल और कॉलेज के छात्रों के लिए बुक बैंक (पाठ बुक लाइब्रेरी) शुरू करने की संभावना का भी पता लगाया जा सकता है। कार्यक्रम सम्बंधित सारे सुझाव केवल परामर्श हैं, सुविधा के अनुसार ही लेने चाहिये।




 

                                               समर्पित कार्यकर्ता
                                        (DEDICATED WORKERS)
इस तरह के कार्यक्रमों के माध्यम से ऐसे समर्पित कार्यकर्ता सामने आने लगेंगे, जो स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं का पालन करके बेहतर नागरिक बनने और एक बेहतर समाज का निर्माण करने (Be and Make) के लिए दूसरों की मदद करने का प्रयास करेंगे। लिहाजा विचारों का आदान प्रदान करने  और काम के विभिन्न तरीकों को देखने के समय वे हमेशा स्वयं से पहले 'समाज की सेवा' करने की चिन्ता करेंगे।
किसी केन्द्र के सदस्य न केवल स्वयं को इस प्रकार अपने ह्रदय का विस्तार करने वाले समाज सेवा में संलग्न रखेंगे,बल्कि दूसरों  को भी उसी प्रकार अपने नाम-यश की चिंता को छोड़ कर निःस्वार्थ तरीके से समाज-सेवा करने के लिये उत्साहित करते रहेंगे। और इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये निकट के दूसरे केन्द्रों पर आयोजित कार्यक्रमों में भाग लेकर विचारों का आदान-प्रदान करते हुए मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के नये नये गतिविधियों को भी आविष्कृत कर सकेंगे। इस प्रकार धीरे-धीरे महामण्डल के विभिन्न केन्द्रों में कार्यरत सभी सदस्यों के बीच एक सच्चे भाईचारे (true brotherhood) का विकास भी होता रहेगा।  
                                 महामण्डल की अवधारणा का प्रचार-प्रसार
                                        (DIFFUSION OF THE IDEA)
किसी केन्द्र के सभी सदस्यों को दूसरे इलाके में रहने वाले अपने मित्रों से संपर्क करके उन्हें भी इसी ढंग से एक पाठ-चक्र अपने क्षेत्र में स्थापित करने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये। यदि कोई संगठन इसी अवधारणा पर कार्य करता हो, तो उन्हें भी महामण्डल के साथ जोड़ने की चेष्टा करनी चाहिये। तथा महामण्डल के केन्द्रीय-कार्यालय के साथ संपर्क में रहते हुए इस ' मनुष्य बनो और बनाओ ' आन्दोलन को भारत के गाँव गाँव तक पहुंचा देने के लिये यथा-सम्भव प्रयत्न करना चाहिये। इसके लिये विभिन्न विद्यालय, महाविद्यालय के परिचित छात्रों, शिक्षकों और प्राध्यापकों को इस 'चरित्र-निर्माण द्वारा राष्ट्र-निर्माण ' या ( Man-making and Nation- building activity) की अभिनव अवधारणा के साथ जोड़ने के लिये व्यक्तिगत तौर से सम्पर्क करना बहुत लाभदायक सिद्ध होगा। उन्हें उस क्षेत्र में कार्यरत पाठ-चक्र से जुड़ने या अपने इलाके में नये पाठ -चक्र खोलने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये। 

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शुक्रवार, 12 जून 2009

" Know the Mahamandal "


The Background : Thought precedes work and often such thought is provoked by objective conditions. Man is a product of the society, which itself is shaped by man himself. Thus society is not lifeless; and anything possessed of life strives for perfection, though throughout the process, imperfection is always met with.It is men that constitute society and any striving for a better and healthy society -must, therefore, be preceded by a molding of the human material. 

The dynamism that is needed to make society throb with life is inherent in youth. Thus the future of every country depends upon the strength of character In fact, today the crisis they are facing may be termed as 'Crisis Of Values' - a crisis that has created an idealistic vacuum in their minds characterized by drift and restlessness. and the development of personality of its youth. But all thinking persons today are perturbed by the lack of direction and purpose in the life of the youth of our country.

It is obvious from the condition obtaining that all is not well with the processing of the human material. A closer examination reveals that the only remedy that could be thought of lies in placing before the youth abiding values,which are true to the ancient cultural traditions of the land, on the one hand, and modern enough to inspire them to selfless activity for the uplift of the society, on the other For, without accepting the new, there can hardly be any movement, and for that matter,any progress; while progress itself will have no meaning, if it is divorced from all connection with the past.  

These are the objective conditions that have influenced the initiators of this movement into this venture, undeterred by the magnitude of the problem and the insignificance of their resources.

THE IDEA:-  

The AKHIL BHARAT VIVEKANANDA YUVA MAHAMANDAL, formed in 1967 thinks that Swami Vivekananda, the patriot-prophet of modern India, provides the youth with ideas and ideals which are most suited for their - blooming into true manhood and can prompt them to dedication and selfless service to the motherland.

Thus, it stands for the welfare of the youth and harnessing their energy to purposeful activity that could mold individual characters. The Mahamandal acts as a coordinating agency with the idea of forging a unity under one ideal, supplying ideas and plans for united action, intensifying and expanding the work of all affiliated associations, and assisting in all possible ways. For, as indicated by Swami Vivekananda, 

" the whole secret lies in organization, accumulation of power, co-ordination of wills." A sense of social responsibility resulting in constructive involvement of the youth can only lead to a true national integration and international understanding and banish all ideas of various types of parochialism. The field of the Mahamandal is the whole of India.It respects her heritage and culture, and make no discrimination on grounds of religion, cast, or creed.

  AIMS AND OBJECTS :- It cannot be overemphasized that there is an urgent need for infusing a sense of, self-discipline, team work, and above all 'shraddha' in the minds of our youth.

They need to be shown the way to a regulated life that would help in the blossoming of their personalities. This can be brought about only through the culturing of the body, mind and heart in right proportions as a means to- " Man-making and Character- building Education." In the words of Swami Vivekananda, ' purity, patience, and perseverance are the essentials to success and above all LOVE.' 

These qualities can be developed only through PRACTICE, which makes a man 'PERFECT'. Thus, ' Character-Building' is possible only if, along with studies of the science and humanities and upkeep of the physique, and a peep into the past for a glimpse of the nation's hoary heritage, the young man engages himself in some work, to be done with a sense of service and without any selfish motive. 

 'Man-Making'- is never possible only through bookish learning. The youth 
should, ' plunge heart,soul and body' into self-less work for the good of others. That is the only way to follow the 'motto' provided by Swamiji in his pointed and forceful expression: " BE AND MAKE. " 

Thus the 'object' of the Mahamandal is to propagate abiding values of Indian culture as generally embodied in the character-building and man-making ideals of Swami Vivekananda particularly among the youth, and to harness youthful energy in a disciplined manner for nation-building activities through selfless service to the country, the ultimate aim being to have better human material for a better society. 
 
THE METHOD:- ' Being of one mind is the secret of success.' - For this purpose, it is necessary first to bring together various institutions and individuals working or thinking on the similar lines in (different states) various parts of the country. In fact, work has started in several states.  

There are many institutions, organizations,etc.which may find the aims and objects of the Mahamandal acceptable,without loss of their identity, they can become affiliated with the Mahamandal to forge a unity of purpose or in other words to find greater scope for united efforts in fulfilling their ideals.

 They will immediately find that they are already engaged in the execution of some of the common programme provided by the Mahamandal and they are not alone in this regard. Their work will gain extra vigor as soon as it will be found that similar work is going on elsewhere, that their work is not insignificant, but part of much bigger scheme with a momentum of its own.' Individuals ', interested in the Mahamandal's 'Aims & Objects' may also become associated with the Mahamandal by trying to form a 'New Unit' in his area under the Mahamandal or forming a group first, which may join the Mahamandal later. 

He may also join any of the existing units of the Mahamandal or work directly with the Central Organization. Students and teachers of educational institutions may also join the Mahamandal in any one of the above methods or form a group in the institution or outside, which becomes a unit of the Mahamandal. New students may replace old members of such groups as the old students pass out.
  
THE SPIRIT OF WORK The common programme of work which the Mahamandal intends to follow, puts emphasis on the 'spirit' with which such activity are pursued. The items themselves are nothing new, but any work done in a particular spirit leaves a special mark on the character of the doer. ' Upon ages of struggle a character is built,' said Swamiji.

 Thus we must start right now. ' The life is short and the vanities of the world are transient, but those only live who live for others, the rest are more dead than alive.' 

' Let us perfect the means; the end will take care of itself.' For the world can be good and pure, only if our lives are good and pure. Therefore, let us purify ourselves. Let us make ourselves perfect.' And that is possible only if we work in a spirit of sacrifice and service.  

' Those that want to help man-kind must take their own pleasure and pain, name and fame, and all sorts of interests, and make a bundle of them and throw them into the sea," said Swamiji.

' Never think you can make the world better and happier.' It is our privilege to be allowed to be charitable, for only so can we grow'
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सोमवार, 13 अप्रैल 2009

स्वामी विवेकानन्द रचित -" स्वदेश मन्त्र"

  "स्वदेश मन्त्र !"
हे भारत ! यह परानुवाद ,परानुकरण , परमुखापेक्षा ,इन दासों की सी दुर्बलता ,इस घृणित ,जघन्य निष्ठुरता से ही, तुम बड़े बड़े अधिकार प्राप्त करोगे ? क्या इसी लज्जास्पद कापुरुषता से, तुम वीरभोग्या स्वाधीनता प्राप्त करोगे ?
हे भारत ! मत भूलना की ,तुम्हारी नारी जाति का आदर्श -सीता,सावित्री और दमयन्ती है। मत भूलना कि , तुम्हारे उपास्य -उमानाथ ! सर्वत्यागी शंकर हैं ! 
मत भूलना कि ,तुम्हारा विवाह ,धन,और तुम्हारा जीवन ,इन्द्रिय-सुख के लिए ,अपने व्यक्तिगत सुख के लिए नही है ! मत भूलना कि ,तुम जन्म से ही माता के लिए ,बलिस्वरूप रखे गए हो ! मत भूलना, कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया कि छाया मात्र है ! मत भूलना, कि नीच ,अज्ञानी ,चमार और मेहतर; तुम्हारा रक्त और तुम्हारे भाई हैं !
हे वीर ! साहस का अवलम्बन करो ,गर्व से बोलो , कि मै भारतवासी हूँ ! और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है। तुम गर्व से कहो, कि अज्ञानी भारतवासी ,दरिद्र भारतवासी ,ब्राह्मण भारतवासी ,चांडाल भारतवासी सब मेरे भाई हैं ! 
तुम भी कटिमात्र वस्त्रावृत हो कर ,गर्व से पुकार कर कहो, कि भारतवासी मेरे भाई हैं ! भारतवासी मेरे प्राण हैं!भारत के सभी देवी-देवता मेरे ईश्वर हैं! भारत का समाज मेरी शिशुशय्या ,मेरे यौवन का उपवन और मेरे वार्धक्य कि वाराणसी है।  
भाई,बोलो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है ! भारत के कल्याण में, मेरा कल्याण है । और रात-दिन कहते रहो कि ; हे गौरीनाथ ! हे जदम्बे ! मुझे मनुष्यत्व दो ! माँ ! मेरी दुर्बलता और कापुरुषता दूर कर दो! माँ, मुझे मनुष्य बना दो !
----स्वामी विवेकानन्द  ।


 https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9sx57aZWhpE4tUwRVrQkn0qTfBMZVMJw9LmRAwRddfdonyA8APiriDUfFoXue5estju6rwy9241kY6gUrofOczR6dy3pIkxtAyL_-H8umnGxHE-CtlbHhYYBJt02YLOMU-eTXM4McpiA/s1600/ma+mujhe+manushya+bana+do.JPG

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामंडल के
 


अध्यक्ष
 

 श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय द्वारा
 

 " स्वदेश मंत्र " की व्याख्या

कलकत्ता-वासियों के अभिनन्दन पत्र का उत्तर देते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " मनुष्य अपनी व्यक्तिगत सत्ता को, अपनी व्यष्टि चेतना को सार्वभौम चेतना में विलीन कर देना चाहता है, वैराग्य के महाकाश में उड़ जाना चाहता है। वह अपने समस्त पुराने दैहिक संस्कारों को सम्पूर्ण रूप से छोड़ने की चेष्टा करता है, यहाँ तक की वह एक देहधारी संवेदनशील मनुष्य है, इसे भी भूल जाने की प्राण-पण चेष्टा करता है। परन्तु उसे अपने ह्रदय के अंतस्तल में सदा ही एक मृदु अस्फुट ध्वनि सुनाई पड़ती है, उसके हृदयतंत्री में मानो सदा एक ही धुन गूंजती रहती है, न जाने कौन रात- दिन उसके कानों में मधुर स्वर में कहता रहता है- "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"। 
इसी क्रम में आगे कहते हैं- " मातृभूमि से बाहर आने के पहले मैं भारत को प्यार करता था, अब तो भारत का प्रत्येक धुल-कण भी मेरे लिए पवित्र है, भारत की हवा मेरे लिए पावन है, अब भारत मेरे लिए तीर्थ है, मेरी पुण्यभूमि है।"  सारे पश्चिमी जगत का परिभ्रमण करने के बाद उन्होंने स्पष्ट रूप में देख लिया था कि पूरे विश्व में भारत ही एक मात्र ऐसा देश है जहाँ सम्पूर्ण-मानवता का कल्याण करने में सक्षम- "आध्यात्म-तत्व" का बीज पूर्णरूप से विकसित हुआ था और आज तक सुरक्षित है। विदेश-यात्रा के पूर्व, परिव्राजक बन कर उन्होंने भारत के गौरवशाली विरासत तथा उसके प्राचीन वैभवपूर्ण दीर्घकालीन इतिहास का गंभीर अनुसन्धान किया था और "वर्तमान-भारत" के पतनावस्था के मूल कारण को ढूंढ़ निकाला था। उन्होंने केवल वर्तमान-भारत के पतनावस्था का वर्णन करने में ही, अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर दी थी, बल्कि इसके- " पुननिर्माण-मंत्र " कि भी रचना किये थे, जिसे आज " स्वदेश-मंत्र " के नाम से जाना जाता है। 
जिन शब्दों पर मनन करने से त्राण मिलता है उसी को "मंत्र " कहा जाता है। मनन करने में सुविधा हो इसी कारण मंत्र को संक्षिप्त ही रखा जाता है, किंतु उसका अर्थ तथा प्रभाव गंभीर सुदूर प्रसारी होता है। स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त " स्वदेश-मन्त्र " का मनन और तदनिर्देषित आचरण करने से भारत अपना खोया हुआ प्राचीन गौरव पुनः प्राप्त कर महान (विश्वगुरु) बन सकता है।
जिस प्रकार कुरुक्षेत्र में अर्जुन को किंकर्तव्यविमूढ़ देख कर, भगवान श्री कृष्ण ने ललकारते हुए कहा था," हे अर्जुन! ऐसे विषम समय में  आर्यों को शोभा न देने वाला, स्वर्ग-विरोधी और अपकीर्ति प्रदान करने वाला मोह तुम में कहाँ से आ गया है? गांडीवधारी पार्थ! नपुंसकों के जैसा आचरण तुझे शोभा नहीं देता, अतः ह्रदय की इस दुर्बलता को त्याग कर उठ खड़े हो जाओ! "
                                   क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
                                    क्षुद्रं  हृदयदौर्बल्यं  त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ।। २/ ३

 " वर्तमान भारत " [ '१० मई २०१३ का भारत' -जिसका प्रधानमंत्री नाईट-वाचमैन की भूमिका में है, रेल-मंत्री, और कानून-मंत्री भ्रष्ट हैं, सीबीआई पिंजड़े का तोता है, पार्लियामेन्ट में एक एम.पी. हमारे राष्ट्र-गीत 'वन्दे मातरम' की अवमानना करता है, और उसे बिना उचित  सजा दिये ही पार्लियामेन्ट बन्द कर दिया जाता है !] 

की अवस्था को देखकर जब आम भारतवासी हताश और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। तब ... ठीक श्रीकृष्ण के अंदाज में स्वामी विवेकानन्द भी हम भारत वासियों को " स्वदेश-मंत्र " के माध्यम से अपनी  समस्त दुर्बलताओं  को त्याग  देने का  आह्वान करते हैं।
आइये इस मंत्र के शब्दों पर मनन किया जाय:- "परानुवाद",अर्थात दूसरों की हर बात में हाँ में हाँ मिलाना, चाटुकारिता, "परानुकरण"- दूसरे (पाश्चात्य देश) की चाल-ढाल, वेश-भूषा का अन्धानुकरण करते हुए," परमुखापेक्षी होना" माने आत्मविश्वास खो कर हर बात के लिए पश्चिम (उस समय इंग्लैण्ड आज अमेरिका) का मुख देखने वाली मानसिकता आदि उन भयंकर मानवीय  दुर्बलताओं के नाम  हैं, जो केवल दासों (गुलाम-जाति) में ही पायी जाती  हैं।
जो स्वयं को "बुद्धिजीवी" समझ कर फूले नहीं समाते, (जो ऊँची जाति में जन्म लेने के कारण या उच्च-डिग्री प्राप्त ' लाल-बत्ती ' की कार में घूमने वाले तथाकथित 'बाबू','साहेब' या 'नेता' लोग ऐरोगेंट हो गये हैं।) - जरा आत्म-विश्लेष्ण कर के देखें, कि दूसरों की  अपेक्षा यहाँ उन्हें कुछ विशेषाधिकार भोगने का अवसर मिल  जायेगा, क्या यही सोचकर या स्वार्थबुद्धि द्वारा प्रेरित होकर  तो उन्होंने अर्थ कमाने वाली विद्या और धर्म के विषय में जो कुछ अल्प-ज्ञान उनके पास है- को  अर्जित तो नहीं किया है? 

 "घृणित और जघन्य निष्ठुरता "-से बड़े बड़े अधिकार प्राप्त करने की इच्छा का तात्पर्य-  यही है कि स्वयं को ' कुलीन ' वंश में उत्पन्न समझने वाले लोग, उन मनुष्यों के प्रति  जो  सामाजिक स्तर पर हम से पिछड़ गए हैं , मन में घृणा रखते हुए, हृदयहीन होकर उनके साथ निष्ठुर व्यवहार, उनका शोषण और तिरस्कार रूपी जघन्य वृत्तियों का अवलंबन करते रहते हैं;  क्या इस प्रकार का आचरण करने से उन्हें कभी उच्चाधिकार प्राप्त हो सकता है? यह तो वीरता नहीं कापुरुषता है।  यदि हम सचमुच सम्मान और बड़े-बड़े अधिकार पाना चाहते हों तो हमें समदर्शी बनना होगा, और दूसरों को भी अपने ही जैसा मनुष्य समझ कर, सबों को अपना ही जानते हुए, एकात्मता एवं सहानुभूति को अपनाते हुए इस क्षूद्र स्वार्थ-बुद्धि को त्याग देना होगा। इसके लिये पहले हमें अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखने की विद्या अर्जित करनी होगी। दूसरों को सम्मान देने और सबों का कल्याण करने में तत्पर व्यक्ति को ही उच्चाधिकार प्राप्त होता है। मन और इन्द्रिय के दासों को उच्चाधिकार नहीं मिल सकता। स्वतंत्र तो वही है जो अपने इन्द्रिय-मन का गुलाम नहीं है, जिसने अपने मन को जीत लिया है, जो निजी स्वार्थ और कामना-वासना का दास नहीं है वही बड़े-बड़े अधिकार प्राप्त करने का योग्य पात्र है।
जिस कापुरुषता को भगवान श्री कृष्ण ने आर्यों (श्रेष्ठ जनों) के लिए अनुपयुक्त और अपकीर्तिकर कहते हुए धिक्कारा था, उसी को स्वामीजी "लज्जाकर" कहते हैं। ये दुर्बलताएं ही कापुरुषता है, जिन्हें दूर करना होगा। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष में भी स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि ' दुर्बल तथा कापुरुष  ' मनुष्यों  के द्वारा स्वाधीनता कि प्राप्ति और रक्षा भी सम्भव नहीं  है। व्यक्तिगत और राष्ट्रीय स्वाधीनता का उपभोग केवल वीर पुरूष ही कर सकते हैं। इसिलिये स्वमीजी ने अन्यत्र कहा था-" वीरानमेव करतल गताः मुक्ति।" अर्थात मुक्ति भी केवल वीर ही प्राप्त कर सकते हैं।
वर्तमान-भारत जिन मनुष्योचित मूल्यों को भूलता जा रहा है, स्वामीजी यहाँ उसका स्मरण भी करा देते हैं। अन्यत्र उन्हों ने कहा है- " जिस देश (राजधानी दिल्ली तक) में नारी जाती का आदर्श सुरक्षित नहीं रह पाता, उस देश का अधोपतन हो जाता है।" इसीलिए यहाँ वे भारत की नारी-जाती के "सतीत्व" की गौरवपूर्ण आदर्श प्रतीकों -सीता, सावित्री,दमयंती के नामों का स्मरण भी करा देते हैं। पश्चिमी संस्कृति के अन्धानुकरण की दौड़ में फंस कर यदि नारी-जाती के इन महान आदर्शों को त्याग दिया गया तो भारत का पुनरुत्थान कभी सम्भव न होगा। हमारे देश के शास्त्रों में "रामायण" तथा "महाभारत" को  भारत के इतिहास के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। नारी-आदर्श के तीनों उज्ज्वल नामों को स्वामीजी ने इन्हीं इतिहासों से उधृत किया है।रामायण में 'सीता' तथा महाभारत में- 'सावित्री' और 'दमयंती' के भव्य आदर्श को चित्रित किया गया है। सनातन भारतीय जीवन के इतिहास में इन तीनों सतियों के नाम, चिर काल से अमलिन और अक्षुण बने हुए हैं।
एक स्थान पर स्वामीजी कहते हैं- " महिमामयी सीता साक्षात् पवित्रता की अपेक्षा अधिक पवित्रतरा हैं, वे तो सहिष्णुता की चरम आदर्श हैं।" उन्हों ने सीता, सावित्री, दमयन्ती आदि नामों के साथ-साथ लीलावती, खना, मीरा, मैत्रेयी, गार्गी, झाँसी-की-रानी, आदि भारतीय नारी आदर्शों का उल्लेख बहुत श्रद्धा के साथ किया है। स्वामीजी अन्यत्र कहते हैं-" नारी-चरित्र के जितने भी आदर्श गुण हैं, वे सभी एक साथ 'माता सीता' के चरित्र में दृष्टिगोचर होते हैं।" फ़िर उन्हों ने -सीता,सावित्री और दमयन्ती इन तीन नामों का क्यों उल्लेख किया? क्योंकि इन तीनों नारी-आदर्शों में जो गुण मूल रूप में विद्दमान है, वह गुण है-"पवित्रता"। 

इनकी पवित्रता सैंकडों दुःखद परीक्षाओं से गुजरने पर भी कहीं पराभूत नहीं होती। सीता तो जन्म-दुःखिनी ठहरीं, परन्तु कोई भी दुःख उन नित्य-साध्वी, नित्य विशुद्ध-स्वभाव को आदर्श-पत्नी सत्ता से विचलित न कर सका। जबकि सावित्री और दमयन्ती जन्म-दुःखिनी नहीं  थीं, दोनों राजमहलों में पलीं और बढी थीं। किंतु सावित्री ने मन ही मन एक बार जब 'सत्यवान' को अपना पति मान लिया और  बाद में ज्ञात हुआ कि वर्ष के अंत में उनके पति का शरीर नहीं रहेगा, तब भी अपनी एकनिष्ठ पवित्रता को उन्हों ने नहीं त्यागा। पति से वियोग हो जाने के पश्चात् वह भी 'नचिकेता' के समान यमराज के समक्ष पहुँच कर उनकी जिज्ञाषा को संतुष्ट कर अपने पति के प्राण वापस लौटा लाती हैं। 
उधर दमयन्ती सुख-चैन से रहने कि आश ले कर 'रजा नल ' के साथ विवाह करतीं हैं, किंतु सर्वस्व हार चुके 'रजा-नल' के वन-गमन में उनकी अनुगामिनी होकर जाती हैं तथा वन में राजा नल के द्वारा त्याग दिए जाने पर भी पतिव्रत-धर्म कि अवमानना नहीं करतीं तथा सहिष्णु हो कर एकनिष्ठता रखते हुए 'बुद्धि-योग' का सहारा ले कर पति का प्रत्यावर्तन सम्भव कर लेतीं हैं। जीवन-वृतांतों में विभिन्नता रहने पर भी ये तीनों नारियाँ-पातिव्रत्य,सहिष्णुता, और मातृत्व में अनन्या स्मरणीय,पूज्या तथा आदर्शस्वरूपा हैं। ये ही भारतीय नारियों के लिए मूल प्रेरक आदर्श उदाहरण हैं। 
भारत को उसके उपास्य देवता- "भगवान शंकर" के अनुकरणीय लक्षणों का स्मरण कराते हुए, उसे पुनः 'शिवत्व' या कल्याण की उपासना करने का निर्देश देते हैं। इनकी उपासना करने की सर्वश्रेष्ठ विधि है-अपने जीवन में 'त्याग' को धारण करना।  परम कल्याण की प्राप्ति सर्वस्व-त्याग से ही होती है, इसीलिए हमें अपने उस 'क्षुद्र-अहम्' (कच्चा मै) को त्याग देना चाहिए जो स्वार्थ,पशु-प्रवृत्ति, भोगसुख, निष्ठुरता और इन्द्रियों की गुलामी में ही आसक्त रहना चाहता है। क्योंकि इस 'क्षुद्र-अहम्' को त्याग देने पर ही परम-कल्याण या 'सार्वभौमिक-कल्याण'-"शिवत्व " की प्राप्ति हो सकती है। इसीलिए - "सर्वत्यागी भगवान 'शंकर' ही भारत के आदर्श या उपास्य देवता हैं। शक्ति के बिना कोई भी वस्तु प्राप्त नहीं की जा सकती, अतः शक्ति के महत्व को इंगित कराने के लिए कहा- " उमानाथ सर्वत्यागी भगवान शंकर" अर्थात वे परम-कल्याण रूपी शिव केवल "उमा" या शक्ति की कृपा से ही मिल सकते हैं। उपनिषदों में भी 'उमा हैमवती' के रूप में शक्ति के आविर्भूत होने की कथा मिलती है।  इसी कारण स्वामीजी प्राचीन शत्-शास्त्रों को विस्मृत करने से मना करते हैं। सांसारिक-जीवन में धन-अर्जन,विवाह, इन्द्रिय-सुख आदि के अवसर प्राप्त हो जाते हैं; परन्तु हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए की ये सभी केवल अपने निजी सुख-भोग प्राप्त करने के लिए नहीं है। ये सब भी समाज और देश का मंगल करने हेतु प्राप्त हुए हैं। मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन जाने-अंजाने आजन्म मातृभूमि की सेवा में समर्पित है, बलिस्वरूप है। क्योंकि यह सृष्टि कल्याणस्वरूप शंकर या ईश्वर की शक्ति- 'महामाया-उमा' की रचना है। यह मानव-समाज, देश, जगत सबकुछ उन्ही का प्रतिबिम्ब (परछाई या छाया) मात्र है। वे ही आदि-शक्ति, जगत-प्रसविनी, जगत-जननी माँ -'जगदम्बा' हैं। वस्तुतः "माता जगदम्बा" ही हमारी; "भारत-माता" हैं।
यदि हम जन्म-जन्मान्तर तक स्वयं को उन्ही 'राष्ट्र-माता' के चरणों में समर्पित कर दें, अपने 'क्षुद्र-अहं ' को बलिस्वरूप बना कर सारे भारतवासियों के मंगल साधना का व्रत उठा लें; तभी समाज का यथार्थ कल्याण हमसे सम्भव होगा,और हमारा जीवन भी धन्य हो जाएगा। इस दृष्टि को प्राप्त कर लेने पर , हम फ़िर किसी को भी अपने से हीन समझ कर उसे अज्ञ, मूर्ख, नीच-जाती, अनार्य या मलेच्छ जैसे नामों से कैसे सम्बोधित कर सकते हैं? फ़िर हम किसी भी मनुष्य को उसकी,"जाति-धर्म" के आधार पर - " ये लोग हमारे नहीं हैं " कह कर अपने से भिन्न कैसे समझ सकते हैं? यही परम-उदार ज्ञानमयी दृष्टि सम्पूर्ण जगत को 'ब्रह्ममय' देखने लगती है। यही दृष्टि कहती है- " कोई पराया नहीं, सम्पूर्ण जगत तुम्हारा अपना है।"...नीच जाति, मूर्ख, अज्ञ, दरिद्र, मोची और मेहतर सभी- "तुम्हारे रक्त " तथा तुम्हारे ही 'भाई' हैं। " परानुकरण करने में रत तत्कालीन-भारत"- स्वयं को भारतवासी कहने में भी संकोच करने लगा था, इसीलिए स्वामीजी साहसपूर्वक,गर्व के साथ स्वयं को "भारतवासी" कहने का निर्देश देते हैं। चूँकि "समदर्शन " के इस सिद्धांत का आविष्कार प्राचीन काल में भारतवर्ष में ही हुआ है, इसी आध्यात्मिक ज्ञान के गौरव से भर कर घोषणा करने के लिए कहते हैं- " गर्व से कहो कि मैं भारतवासी हूँ ; और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है।" यह राष्ट्रीय एकता, राष्ट्र-पुनर्गठन, तथा एकत्वबोध का अनुपम सूत्र है। यहाँ मूर्ख, दरिद्र, ब्राह्मण, चाण्डाल सभी 'एकाकार' हो जाते हैं, वे सब मेरे भाई हैं, मेरे ही प्राणस्वरूप हैं। विदेशियों के बहकावे में आकर अपने देश के जाग्रत देवी-देवताओं को भूल मत जाना, वे सब हमारे सर्वमंगलदाता ईश्वर हैं, सर्वगत स्वरूप में 'वे' ही विराजित हैं। भारत के समाज में इतनी क्षमता है कि वह हमारे शैशव, यौवन, और बृद्धावस्था की समस्त आकांक्षाओं को पुरा कर सकता है, परमुखापेक्षी होने कि आवश्यकता नहीं है। 

यदि कहीं स्वर्ग है, तो देश कि मिट्टी ही स्वर्ग है। सम्पूर्ण भारत के कल्याण में ही मेरा व्यक्तिगत कल्याण भी निर्भर करता है। इस मंत्र में व्यक्ति का निजी शुभ-अशुभ पुरी तरह से देश के शुभाशुभ के साथ एकाकार हो गया है, इसीलिए यह स्वदेश-मंत्र है। इसी मंत्र के अनुचिंतन से भारत का पुनरुत्थान होगा, अतः हमे इसी मंत्र का ध्यान करना चाहिए। इसिकेलिए हमे एकाग्रमन से 'उमानाथ' के श्री चरणों में दिन-रात प्रार्थना करनी चाहिए।
शक्तिस्वरूपा महामाया जगदम्बा से प्रार्थना है कि हमारी अकर्मण्यता, कापुरुषता आदि को दूर कर दें।  एक बार फ़िर से भारतवर्ष अपनी तमोगुण जन्य पशुता और जड़ता के ऊपर विजय प्राप्त  कर- " मननशील, मनीषी, मुनि " बन जाये ।  भारत ने जिस आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास, आत्म-निर्भरता को खो दिया था उसे पुनः प्राप्त करने के लिए हमलोगों को 'जगदम्बा' से केवल इतनी ही  प्रार्थना करनी है कि- " माँ मुझे मनुष्य बना दो !" अर्थात हे माँ ! तू मुझे भी ऐसे  "मनुष्यत्व" का अधिकारी बना दे,जो अपनी शक्ति को जान ले,जो सब को अपना समझे, जो त्याग करने में समर्थ हो, जो परहित के लिए अपने प्राणों को भी न्योछावर करने को भी तत्पर रहे।
इसी मंत्र की साधना करने से भारत की वर्तमान अवस्था में परिवर्तन लाया जा सकता है, "यथार्थ-मनुष्य" ही वर्तमान भारत को नवीन भारत में रूपांतरित कर सकते है। 
(श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय लिखित मूल बंगला पुस्तिका- " स्वामिजीर वर्तमान भारत " के १२ वें परिच्छेद का हिन्दी भावानुवाद )
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