शिकागो वक्तृता
स्वामी विवेकानन्द द्वारा 19 सित. 1893 को
"हिन्दू धर्म" विषय पर दिया गया व्याख्यान
" हिन्दू जाति ने अपना धर्म श्रुति — वेदों से प्राप्त किया हैं । उसकी धारणा हैं कि वेद अनादि और अनन्त हैं। श्रोताओं को, सम्भव हैं, यब बात हास्यास्पद लगे कि कोई पुस्तक अनादि और अनन्त कैसे हो सकती हैं ? किन्तु वेदों का अर्थ कोई पुस्तक हैं ही नहीं । वेदों का अर्थ हैं , भिन्न भिन्न कालों में भिन्न भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष।
जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत मनुष्यों के पता लगने से पूर्व भी अपना काम करता चला आया था और आज यदि मनुष्यजाति उसे भूल जाए, तो भी वह नीयम अपना काम करता रहेगा , ठीक वही बात आध्यात्मिक जगत् का संचालन करनेवाले नियमों के सम्बन्ध में भी हैं । एक आत्मा का दूसरी आत्मा के साथ और जीवात्मा का आत्माओं के परम पिता-ईश्वर के साथ जो नैतिक तथा आध्यात्मिक सम्बन्ध हैं, वे उनके आविष्कार के पूर्व भी थे और हम यदि उन्हें भूल भी जाएँ, तो बने रहेंगे । इन आध्यात्मिक नियमों या सत्यों का आविष्कार करनेवाले ऋषि कहलाते हैं, और हम उनको पूर्णत्व तक पहुँची हुई आत्मा मानकर सम्मान देते हैं। श्रोताओं को यह बतलाते हुए मुझे हर्ष होता हैं कि इन महानतम ऋषियों में कुछ स्त्रियाँ भी थीं । १/८
यहाँ यह कहा जा सकता हैं कि ये नियम, नियम के रूप में अनन्त भले ही हैं, पर इनका आदि तो अवश्य ही होना चाहिए । वेद हमें यह सिखाते हैं कि सृष्टि का न आदि हैं न अन्त । विज्ञान ने हमें सिद्ध कर दिखाया हैं कि समग्र विश्व की सारी ऊर्जा-समष्टि का परिमाण सदा एक सा रहता हैं । तो फिर, यदि ऐसा कोई समय था , जब कि किसी वस्तु का आस्तित्व ही नहीं था, उस समय यह सम्पूर्ण ऊर्जा कहाँ थी ? कोई कोई कहता हैं कि ईश्वर में ही वह सब अव्यक्त रूप में निहित थी । तब तो ईश्वर कभी अव्यक्त और कभी व्यक्त हैं; इससे तो वह विकारशील हो जाएगा । प्रत्येक विकारशील पदार्थ यौगिक होता हैं और हर यौगिक पदार्थ में वह परिवर्तन अवश्वम्भावी हैं, जिसे हम विनाश कहते हैं। इस तरह तो ईश्वर की मृत्यु हो जाएगी, जो अनर्गल हैं । अतः ऐसा समय कभी नहीं था, जब यह सृष्टि नहीं थी ।
मैं एक उपमा दूँ; स्रष्टा और सृष्टि मानो दो रेखाएँ हैं, जिनका न आदि हैं , न अन्त, और जो समान्तर चलती हैं। ईश्वर नित्य क्रियाशील विधाता हैं, जिसकी शक्ति से प्रलयपयोधि में से नित्यशः एक के बाद एक ब्रह्माण्ड का सृजन होता हैं, वे कुछ काल तक गतिमान रहते हैं, और तत्पश्चात् वे पुनः विनष्ट कर दिये जाते हैं । ’ सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वकल्पयत् ’ अर्थात इस सूर्य और इस चन्द्रमा को विधाता ने पूर्व कल्पों के सूर्य और चन्द्रमा के समान निर्मित किया हैं — इस वाक्य का पाठ हिन्दू बालक प्रतिदिन करता है।
यहाँ पर मैं खड़ा हूँ और अपनी आँखें बन्द करके यदि अपने अस्तित्व — ’मैं’, ’मैं’, ’मैं’ को समझने का प्रयत्न करूँ , तो मुझमे किस भाव का उदय होता हैं ? इस भाव का कि मैं शरीर (M/F) हूँ । तो क्या मैं भौतिक पदार्थों के संघात के सिवा और कुछ नहीं हूँ ? वेदों की घोषणा हैं — ’नहीं, मैं शरीर में रहने वाली आत्मा हूँ , मैं शरीर नहीं हूँ । शरीर मर जाएगा, पर मैं नहीं मरूँगा । मैं इस शरीर में विद्यमान हूँ और इस शरीर का पतन होगा, तब भी मैं विद्यमान रहूँगा ही । मेरा एक अतीत भी हैं ।’ आत्मा की सृष्टि नहीं हुई हैं, क्योकि सृष्टि का अर्थ हैं, भिन्न भिन्न द्रव्यों का संघात, और इस संघात का भविष्य में विघटन अवश्यम्भावी हैं । अतएव यदि आत्मा का सृजन हुआ, तो उसकी मृत्यु भी होनी चाहिए ।
कुछ लोग जन्म से ही सुखी होते हैं और पूर्ण स्वास्थ्य का आनन्द भोगते हैं, उन्हे सुन्दर शरीर, उत्साहपूर्ण मन और सभी आवश्यक सामग्रियाँ प्राप्त रहती हैं । दूसरे कुछ लोग जन्म से ही दुःखी होते हैं, किसी के हाथ या पाँव नहीं होते , तो कोई मूर्ख होते हैं, और येन केन प्रकारेण अपने दुःखमय जीवन के दिन काटते हैं। ऐसा क्यों ? यदि सभी एक ही न्यायी और दयालु ईश्वर ने उत्पन्न किये हों , तो फिर उसने एक को सुखी और दुसरे को दुःखी क्यों बनाया ? ईश्वर ऐसा पक्षपाती क्यों हैं ? फिर ऐसा मानने से बात नहीं सुधर सकती कि जो वर्तमान जीवनदुःखी हैं, भावी जीवन में पूर्ण सुखी रहेंगे । न्यायी और दयालु ईश्वर के राज्य में मनुष्य इस जीवन में भी दुःखी क्यों रहे ? दूसरी बात यह हैं कि सृष्टि – उत्पादक ईश्वर को मान्यता देनेवाला सिद्धान्त वैषम्य की कोई व्याख्या नहीं करता, बल्कि वह तो केवल एक सर्वशक्तिमान् पुरुष का निष्ठुर आदेश ही प्रकट करता हैं। अतएव इस जन्म के पूर्व ऐसे कारण होने ही चाहिए, जिनके फलस्वरुप मनुष्य इस जन्म में सुखी या दुःखी हुआ करते हैं । और ये कारण हैं, उसके ही पुर्वनुष्ठित कर्म ।
क्या मनुष्य के शरीर और मन की सारी प्रवृत्तियों की व्याख्या उत्तराधिकार से प्राप्त क्षमता द्वारा नहीं हो सकती ? यहाँ जड़ (शरीर) और चैतन्य (मन) , सत्ता की दो समानान्तर रेखाएँ हैं । यदि जड़ और जड़ के समस्त रूपान्तर ही, जो कुछ यहाँ दिख रहा है, वे ही उसके कारण सिद्ध हो सकते, तो फ़िर आत्मा के अस्तित्व को मानने की कोई आवश्यकता ही न रह जाती । किन्तु यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि चैतन्य (विचार) का विकास जड़ से हुआ हैं। और यदि कोई दार्शनिक अद्वैतवाद अनिवार्य हैं, तो आध्यात्मिक अद्वैतवाद निश्चय ही तर्कसंगत हैं। हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि शरीर कुछ प्रवृत्तियों को आनुवंशिकता से प्राप्त करता है ; किन्तु ऐसी प्रवृत्तियों का अर्थ केवल शरीरिक रूपाकृति से है, जिसके माध्यम से केवल एक विशेष मन एक विशेष प्रकार से काम कर सकता है ।
एक विशेष प्रवृत्तिवाली जीवात्मा ’ योग्यं योग्येन युज्यते ’ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करती है, जो उस सहज-प्रवृत्ति ( propensities) के प्रकट करने के लिए सब से उपयुक्त आधार हो। यह विज्ञान-संगत है, क्योंकि विज्ञान हर प्रवृत्ति की व्याख्या आदत से करना चाहता है, और आदत आवृत्तियों से बनती है- यानि एक ही कार्य को बार बार करने से बनती हैं । अतएव नवजात प्राणी की नैसर्गिक आदतों की व्याख्या के लिए आवृत्तियाँ-बारम्बारता (Frequencies-बार बार एक ही काम करने की आदत ही propensities- सहज प्रवृत्ति बन जाती है) अनिवार्य हो जाती है । और चूँकि वे प्रस्तुत जीवन में प्राप्त नहीं होती, अतः वे पिछले जीवनों से ही आयी होंगी ।
एक और दृष्टिकोण हैं । ये सभी बातें यदि स्वयंसिद्ध (self-evident-बिना प्रमाण के सिद्ध) भी मान लें , तो मैं अपने पूर्व जन्म (previous life) की कोई बात स्मरण क्यों नहीं रख पाता ? इसका समाधान सरल हैं । मैं अभी अंग्रेजी बोल रहा हूँ । वह मेरी मातृ भाषा नहीं हैं । वस्तुतः इस समय मेरी मातृभाषा का कोई भी शब्द मेरे चित्त में उपस्थित नहीं हैं , पर उन शब्दों को सामने लाने का थोड़ा प्रयत्न करते ही वे मन में उमड़ आते हैं । इससे यही सिद्ध होता है कि चेतना (consciousness) मानससागर की ऊपरी सतह मात्र हैं और भीतर, उसकी गहराई में, हमारी समस्त अनुभवराशि संचित हैं । केवल प्रयत्न और उद्यम किजिए, वे सब ऊपर उठ आएँगे । और आप अपने पूर्व जन्मों का भी ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे । (बतक का बच्चा जन्म लेते ही पानी में तैरने कैसे लगता है ?) यह प्रत्यक्ष एवं प्रमाणित (provable) प्रमाण है। सत्यसाधन ही किसी परिकल्पना का पूर्ण प्रमाण होता हैं , और ऋषिगण यहाँ समस्त संसार को एक चुनौती दे रहे हैं । हमने उस रहस्य का (अष्टांग-योग का) पता लगा लिया हैं , जिससे स्मृतिसागर की गम्भीरतम गहराई तक- (जाग्रत,स्वप्न, सुषुप्ति से परे -तुरीय अवस्था, अतिचेतन तक या विवेक-ख्याति तक) मन्थन किया जा सकता हैं — उसका प्रयोग कीजिए और आप अपने पूर्व जन्मों का सम्पूर्ण संस्मृति प्राप्त कर लेंगे।
अतएव हिन्दू का यह विश्वास हैं कि वह शरीर नहीं आत्मा हैं । ’ उसको शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि दग्ध नहीं कर सकती, जल भीगो नहीं सकता और वायु सुखा नही सकती । ’ गीता २/२३ हिन्दुओं की यह धारणा हैं कि आत्मा एक ऐसा वृत्त हैं जिसकी कोई परिधि नहीं हैं, किन्तु जिसका केन्द्र शरीर में अवस्थित हैं; और मृत्यु का अर्थ हैं, इस केन्द्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानान्तरित हो जाना । यह आत्मा जड़ की उपाधियों से बद्ध नहीं हैं । वह स्वरूपतः नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव हैं । परन्तु किसी कारण से (मोहनिद्रा और तीनों ऐषणाओं की आसक्ति से ?) वह अपने को जड़ से बँधी हुई पाती हैं , और अपने को जड़ ही समझती हैं ।....... अतएव मनुष्य की आत्मा अनादि और अमर हैं, पूर्ण और अनन्त हैं, और मृत्यु का अर्थ हैं — एक शरीर से दूसरे शरीर में केवल केन्द्र-परिवर्तन । वर्तमान अवस्था हमारे पूर्व जन्म में अनुष्ठित कर्मों द्वारा निश्चित होती हैं और भविष्य, वर्तमान कर्मों द्वारा । जीवात्मा (आत्मा-मिथ्या अहं) जन्म और मृत्यु के चक्र में लगातार घूमती हुई कभी ऊपर विकास करती हैं, कभी प्रत्यागमन करती हैं ।
पर यहाँ एक दूसरा प्रश्न उठता हैं — क्या मनुष्य प्रचण्ड तूफान में ग्रस्त वह छोटी सी नौका हैं , जो एक क्षण किसी वेगवान तरंग के फेनिल शिखर पर चढ़ जाती हैं और दूसरे क्षण भयानक गर्त में नीचे ढकेल दी जाती हैं ? अपने शुभ और अशुभ कर्मों की दया पर केवल इधर-उधर भटकती फिरती हैं ? क्या मनुष्य कार्य-कारण (cause and effect ) की सततप्रवाही, निर्मम, भीषण तथा गर्जनशील धारा में पड़ा हुआ अशक्त, असहाय भग्न पोत है? क्या वह उस कारणता के चक्र (the wheel of causality) के नीचे पड़ा हुआ एक क्षुद्र पतंगा (tiny moth) है, जो विधवा के आँसुओं तथा अनाथ बालक की आहों की तनिक भी परवाह न करते हुए, अपने मार्ग में आनेवाली सभी वस्तुओं को कुचल डालता हैं ? इस प्रकार के विचार से अन्तःकरण काँप उठता हैं , पर यही प्रकृति का नियम हैं । तो फिर क्या कोई आशा ही नहीं हैं ? क्या इससे बचने का कोई मार्ग नहीं हैं ?
— यही करुण पुकार निराशाविह्वल हृदय के अन्तस्तल से उपर उठी और उस करुणामय (Compassionate One) के सिंहासन तक जा पहुँची । वहाँ से आशा तथा सान्त्वना की वाणी निकली और उसने एक वैदिक ऋषि को अन्तःस्फूर्ति (inspiration- शानदार विचार ) प्रदान की,और उसने संसार के सामने खड़े होकर तूर्यस्वर में इस आनन्द-सन्देश की घोषणा की - "शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः"-’ हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !! हे मोक्षमार्ग के पालन करनेवाले मनुष्यो ! तुम सब लोग सुनो ! मैंने उस अनादि, पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया हैं, जो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है । केवल उस पुरुष को जानकर (अवतारवरिष्ठ ठाकुर देव के नाम को जानकर) ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो । दूसरा कोई पथ नहीं ।’ — (श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २.५, ३-८) ॥
’अमृत के पुत्रो ’ — कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन हैं यह ! बन्धुओ ! इसी मधुर नाम – अमृत के अधिकारी से – आपको सम्बोधित करूँ, आप इसकी आज्ञा मुझे दे । निश्चय ही हिन्दू आपको पापी कहना अस्वीकार करता हैं । आप ईश्वर की सन्तान हैं , अमर आनन्द के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं, आप इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं । आप भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, वह मानव स्वरूप पर घोर लांछन हैं । आप उठें ! हे सिंहो ! आएँ , और इस मिथ्या भ्रम को झटक कर दूर फेक दें की आप भेंड़ हैं । आप हैं आत्मा अमर, आत्मा मुक्त, आनन्दमय और नित्य ! आप जड़ नहीं हैं , आप शरीर नहीं हैं; जड़ तो आपका दास हैं , न कि आप हैं जड़ के दास ।
अतः वेद ऐसी घोषणा नहीं करते कि यह सृष्टि – व्यापार कतिपय निर्मम विधानों का सघात हैं , और न यह कि वह कार्य-कारण की अनन्त कारा हैं ; वरन् वे यह घोषित करते हैं कि इन सब प्राकृतिक नियमों के मूल नें , जड़तत्त्व (matter) और शक्ति (Energy) के प्रत्येक अणु-परमाणु में ओतप्रोत वही एक ब्रह्म (माँ जगदम्बा) विराजमान हैं जिसके भय से सूर्य तपता है - 'भयात्तपति सूर्यः।’ जिसके आदेश से वायु चलती हैं, अग्नि दहकती हैं, बादल बरसते हैं और मृत्यु पृथ्वी पर नाचती हैं। ’ — (कठोपनिषद् ॥२.३.३॥)
और उस पुरुष का स्वरूप क्या हैं ? वह सर्वत्र हैं, शुद्ध, निराकार, सर्वशक्तिमान् हैं, सब पर उसकी पूर्ण दया हैं । ’तू हमारा पिता हैं, तू हमारी माता हैं, तू हमारा परम प्रेमास्पद सखा हैं, तू ही सभी शक्तियों का मूल हैं; हमैं शक्ति दे । तू ही इन अखिल भुवनों का भार वहन करने वाला हैं; तू मुझे इस जीवन के क्षुद्र भार को वहन करने में सहायता दे ।’ वैदिक ऋषियों ने यही गाया हैं । हम उसकी पूजा किस प्रकार करें ? प्रेम के द्वारा ।’ ऐहिक तथा पारत्रिक समस्त प्रिय वस्तुओं से भी अधिक प्रिय जानकर उस परम प्रेमास्पद की पूजा करनी चाहिए ।’ वेद हमें प्रेम के सम्वन्ध में इसी प्रकार की शिक्षा देते हैं ।
अब देखें कि श्रीकृष्ण ने, जिन्हें हिन्दू लोग पृथ्वी पर ईश्वर का पूर्णावतार मानते हैं , इस प्रेम के सिद्धांत का पूर्ण विकास किस प्रकार किया हैं और हमें क्या उपदेश दिया हैं । उन्होेंने कहा हैं कि मनुष्य को इस संसार में पद्मपत्र की तरह रहना चाहिए । पद्मपत्र जैसे पानी में रहकर भी उससे नहीं भीगता, उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में रहना चाहिए — उसका हृदय ईश्वर में लगा रहे और हाथ कर्म में लगें रहें ।
इहलोक या परलोक में पुरस्कार की प्रत्याशा (expectation of reward- आर्त , अर्थार्थी , जिज्ञासु और ज्ञानी ) से ईश्वर से प्रेम करना बुरी बात नहीं, पर केवल प्रेम के लिए ही ईश्वर से प्रेम करना (निःस्वार्थ प्रेम करना) सब से अच्छा हैं , और उसके निकट यही प्रार्थन करनी उचित हैं, "हे भगवन्, मुझे न तो सम्पत्ति चाहीए,न सन्तति, न विद्या (कामिनी-कांचन, प्रसिद्धि)। यदि तो सहस्रों बार जन्म-मृत्यु के तक्र में पडूँगा; पर हे प्रभो, केवल इतना ही दे कि मैं फल की आशा छाड़कर तेरी भक्ति करूँ, केवल प्रेम के लिए ही तुझ पर मेरा निःस्वार्थ प्रेम हो ।’ — शिक्षाष्टक ॥४॥
वेद कहते हैं कि आत्मा दिव्यस्वरूप हैं, वह केवल पंचभूतों के बन्धन में बँध गयी हैं और उन बन्धनों के टूटने पर वह अपने पूर्णत्व को प्राप्त कर लेगीं । इस अवस्था का नाम मुक्ति हैं, जिसका अर्थ हैं स्वाधीनता — अपूर्णता के बन्धन से छुटकारा , जन्म-मृत्यु से छुटकारा । और यह बन्धन केवल ईश्वर की दया से ही टूट सकता हैं और वह दया पवित्र लोगों को ही प्राप्त होती हैं । अतएव पवित्रता (मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा) ही उसके अनुग्रह की प्राप्ति का उपाय हैं। उसकी दया किस प्रकार काम करती हैं? वह पवित्र हृदय में अपने को प्रकाशित करता हैं । पवित्र और निर्मल मनुष्य [चरित्रवान मनुष्य] इसी जीवन में ईश्वर दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता हैं ।
ॐ भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे॥
परात्पर परब्रह्म का साक्षात्कार कर लेने पर, धीर पुरूष के रूप में जीवात्मा के हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सारे सन्देह दूर हो जाते हैं। साथ ही कर्मों का भी क्षय हो जाता है। (मुण्डको-पनिषद् ॥२.२.८॥ तब वह कार्य-कारण के भयावह नियम के हाथ खिलौना नहीं रह जाता । यही हिन्दू धर्म का मूलभूत सिद्धांत हैं — यही उसका अत्यंत मार्मिक भाव हैं । अध्यात्म (अवतार वरिष्ठ की भक्ति करने का) का सबसेबड़ा लाभ है कि इसमें ग्रंथियाँ टूटती हैं, गाँठें टूटती हैं। धर्म या मानव की ग्रंथियों का विमोचन करता है, अध्यात्म व्यक्तियों के ग्रन्थ का विमोचन करता है। अध्यात्म कहता है कि, भक्ति के मार्ग पर चलोगे तो गाँठें टूट जाएँगी ग्रंथियाँ समाप्त हो जाएँगी । संशय समाप्त हो जाएगा। कर्म करते करते, आप, नैष्यकर्म की अवस्था में, पहुँच जाएँगे, जो धर्म की, अध्यात्म की, सर्वोच्च अवस्था है।
हिन्दू शब्दों और सिद्धांतों के जाल में जीना नहीं चाहता । यदि इन साधारण इन्द्रिय-संवेद्य विषयों के परे और भी कोई (इन्द्रियातीत) सत्ता है, तो वह उनका प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहता हैं । यदि उसमें कोई आत्मा हैं , जो जड़ वस्तु नहीं हैं, यदि कोई दयामय सर्वव्यापी विश्वात्मा हैं , तो वह उसका साक्षात्कार करेगा । वह उसे अवश्य देखेगा और मात्र उसी से समस्त शंकाएँ दूर होंगी ।अतः हिन्दू ऋषि आत्मा के विषय में, ईश्वर के विषय में यही सर्वोत्तम प्रमाण देता हैं : 'मैंने आत्मा का दर्शन किया हैं; मैंने ईश्वर का दर्शन किया हैं ।’ और यही पूर्णत्व की एकमात्र शर्त हैं । हिन्दू धर्म भिन्न भिन्न मत-मतान्तरों या सिद्धांतों पर विश्वास करने के लिए संघर्ष और प्रयत्न में निहित नहीं हैं, वरन् वह साक्षात्कार हैं, वह केवल विश्वास कर लेना नहीं है, वह होना और बनना हैं । इस प्रकार हिन्दूओं की सारी साधनाप्रणाली का लक्ष्य हैं — सतत अध्यवसाय द्वारा पू्र्ण बन जाना, दिव्य बन जाना, ईश्वर को प्राप्त करना और उसके दर्शन कर लेना। ब्रह्मविद ब्रह्मवैभवति -ब्रह्म को जानकर वही बन जाना। उस स्वर्गस्थ पिता के समान पूर्ण (निःस्वार्थपर = ईश्वर) हो जाना — हिन्दूओं का धर्म हैं ।
और जब मनुष्य पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता हैं, तब क्या होता हैं ? तव वह असीम परमानन्द का जीवन व्यतीत करता हैं। भारत के विविध सम्प्रदायों का यह सामान्य धर्म हैं । परन्तु पूर्ण निरपेक्ष होता हैं, और निरपेक्ष दो या तीन नहीं हो सकता । उसमें कोई गुण नहीं हो सकता, वह व्यक्ति नहीं हो सकता । अतः जब आत्मा पूर्ण और निरपेक्ष हो जाती हैं, तब वह ईश्वर को केवल सच्चिदानन्द के रूप में (परम् सत्, परम् चित्, परम् आनन्द के रूप में) प्रत्यक्ष करती हैं । — इसी साक्षात्कार के विषय में हम बारम्बार पढ़ा करते हैं कि उसमें मनुष्य अपने व्यक्तित्व को खोकर जड़ता प्राप्त करता हैं या पत्थर के समान बन जाता हैं । मैं आपको बताता हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं होती ।
-"जाके पाँव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई!" जिसके पैरों में छाले पड़े, वही दूसरे का दर्द समझेगा।’जिन्हें चोट कभी नहीं लगी हैं, वे ही चोट के दाग की ओर हँसी की दृष्टि से देखते हैं ।’यदि इस एक क्षुद्र शरीर की चेतना से इतना आनन्द होता हैं, तो दो शरीरों की चेतना का आनन्द अधिक होना ताहिए ,और उसी प्रकार क्रमशः अनेक शरीरों की चेतना के साथ आनन्द की मात्रा भी अधिकाधिक बढ़नी चाहिए। और विश्वचेतना का बोध होने पर आनन्द की परम अवस्था ( ultimate state of Bliss) प्राप्त हो जाएगी ।
अतः उस असीम विश्वव्यक्तित्व की प्राप्ति के लिए (अर्थात माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं' के साथ एकत्व की अनुभूति प्राप्त करने के लिए); इस कारास्वरूप दुःखमय क्षुद्र व्यक्तित्व का (M/F वाले देहाध्यास) का अन्त होना ही चाहिए । जब मैं प्राण स्वरूप से एक हो जाऊँगा, तभी मृत्यु के हाथ से मेरा छुटकारा हो सकता हैं ! जब मैं आनन्दस्वरूप हो जाऊँगा, तभी दुःख का अन्त हो सकता हैं; जब मैं ज्ञानस्वरूप हो जाऊँगा, तभी सब अज्ञान का अन्त हो सकता हैं, और यह अनिवार्य वैज्ञानिक निष्कर्ष भी हैं। विज्ञान ने हमारे निकट यह सिद्ध कर दिया हैं कि हमारा यह 'भौतिक व्यक्तित्व' भ्रम (illusion-M/F वाला देहाध्यास) मात्र हैं, वास्तव में मेरा यह शरीर (और मन ?) एक अविच्छन्न जड़सागर में एक क्षुद्र सदा परिवर्तित होता रहने वाला पिण्ड है। और मेरे दूसरे पक्ष — आत्मा — के सम्बन्ध में अद्वैत (non-duality) ही अनिवार्य निष्कर्ष हैं ।
विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं हैं । ज्योंहि कोई विज्ञान पूर्ण एकता तक पहुँच जाएगी, त्यों ही उसकी प्रगति रूक जाएगी; क्योंकि तब वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा।उदाहरणार्थ, रसायनशास्त्र यदि एक बार उस मूल-तत्व का पता लगा ले, जिससे और सब द्रव्य बन सकते हैं, तो फिर वह आगे नहीं बढ़ सकेगा । वैसे भौतिक शास्त्र जब उस मूल शक्ति का पता लगा लेगा, अन्य शक्तियाँ जिसकी अभिव्यक्ति हैं, तब वह रुक जाएगा । वैसे ही, धर्मशास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त कर लेगा, जब वह उसको खोज लेगा, जो इस मृत्यु- लोक में एक मात्र जीवन हैं। जो इस परिवर्तनशील जगत् का शाश्वत आधार हैं, जो एकमात्र परमात्मा हैं, अन्य सब आत्माँयें जिसकी प्रतीयमान अभिव्यक्तियाँ हैं । इस प्रकार अनेकता और द्वैत में से होते हुए, पहले विशिष्टाद्वैत , फिर इस परम अद्वैत की प्राप्ति होती हैं। धर्म इससे आगे (अद्वैत से आगे) नहीं जा सकता । यही समस्त विज्ञानों का चरम लक्ष्य हैं । समग्र विज्ञान अन्ततः इसी निष्कर्ष पर अनिवार्यतः पहुँचेंगे । आज विज्ञान का शब्द अभिव्यक्ति (projection-प्रक्षेपण) है, सृष्टि (creation-सृजन) नहीं ! और हिन्दू को यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हैं कि जिसको वह अपने अन्तस्तल में इतने युगों से महत्त्व देता रहा हैं, अब उसी की शिक्षा अधिक सशक्त भाषा में विज्ञान के नूतनतम निष्कर्षों के (सर्न प्रयोगशाला -LHC में गॉड पार्टिकल के) अतिरिक्त प्रकाश में दी जा रही हैं ।
अब हम वेदान्त (अद्वैत) दर्शन की आदर्श से उतरकर ज्ञानरहित लोगों के धर्म की ओर आते हैं। यह मैं प्रारम्भ में ही आप को बता देना चाहता हूँ कि भारतवर्ष में अनेकेश्वरवाद-(polytheism) बिल्कुल भी नहीं हैं । प्रत्येक मन्दिर में यदि कोई खड़ा होकर सुने , तो यही पाएगा कि भक्तगण सर्वव्यापित्व आदि ईश्वर के सभी गुणों का आरोप उन मूर्तियों में करते हैं । यह अनेकेश्वरवाद नहीं हैं, और न एकदेव-वाद (monotheism) से ही इस स्थिति की व्याख्या हो सकती हैं । ’ गुलाब को चाहे दूसरा कोई भी नाम क्यों न दे दिया जाए, पर वह सुगन्धि तो वैसी ही मधुर देता रहेगा ।’ नाम ही व्याख्या नहीं होती ।(The name itself is not an explanation)
यहाँ बचपन की एक बात मुझे याद आती है। एक ईसाई पादरी कुछ मनुष्यों की भीड़ जमा करके धर्मोंपदेश कर रहा था । वहुतेरी मजेदार बातों के साथ वह पादरी यह भी कह गया , ”अगर मैं तुम्हारी देवमूर्ति को एक डंडा लगाऊँ, तो वह मेरा क्या कर सकती हैं ?” एक श्रोता ने चट चुभता सा जवाब दे डाला, ”अगर मैं तुम्हारे ईश्वर को गाली दे दूँ, तो वह मेरा क्या कर सकता हैं ?” पादरी बोला,”मरने के बाद वह तुम्हें सजा देगा ।” हिन्दू भी तनकर बोल उठा, ” तुम मरोगे, तब ठीक उसी तरह हमारी देवमूर्ति भी तुम्हें दण्ड देगी ।” "फलेन परिचीयते वृक्षः" अर्थात् फल से ही वृक्ष का परिचय होता है। जब मूर्तिपूजक कहे जानेवाले लोगों में ऐसे मनुष्यों को पाता हूँ, जिनकी नैतिकता, आध्यात्मिकता और प्रेम अपना सानी नहीं रखते, तब मैं रुक जाता हूँ और अपने से यही पूछता हूँ — ’क्या पाप से भी पवित्रता की उत्पत्ति हो सकती हैं?"
अन्धविश्वास (Superstition) मनुष्य का महान् शत्रु हैं, पर धर्मान्धता (fanaticism)- तो उससे भी बढ़कर हैं । ईसाई गिरजाघर क्यों जाता हैं ? क्रूस क्यों पवित्र (sacred) हैं? प्रार्थना के समय आकाश की ओर मुँह क्यों किया जाता हैं ? कैथोलिक ईसाइयों के गिरजाघरों में इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं ? प्रोटेस्टेन्ट ईसाइयों के मन में प्रार्थना के समय इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं ? मेरे भाइयो ! मन में किसी मूर्ति के आए बिना कुछ सोच सकना उतना ही असम्भव हैं, जितना श्वास लिये बिना जीवित रहना । साहचर्य के नियम (law of association) के नुसार भौतिक मूर्ति से मानसिक भावविशेष का उद्दीपन हो जाता हैं , अथवा मन में भावविश्ष का उद्दीपन होने से तदनुरुप मूर्तिविशेष के चारित्रिक गुणों का आविर्भाव भी भक्त में होता हैं । इसीलिए तो हिन्दू आराधना के समय बाह्य प्रतीक का उपयोग करता हैं ।
वह आपको बतलाएगा कि यह बाह्य प्रतीक उसके मन को ध्यान के विषय परमेश्वर में एकाग्रता से स्थिर रखने में सहायता देता हैं । वह भी यह बात उतनी ही अच्छी तरह से जानता हैं, जितना आप जानते हैं कि वह मूर्ति न तो ईश्वर ही हैं और न सर्वव्यापी ही । और सच पूछिए तो दुनिया के लोग ’सर्वव्यापीत्व’ (omnipresent) का क्या अर्थ समझते हैं ? वह तो केवल एक शब्द या प्रतीक मात्र हैं । क्या परमेश्वर का भी कोई क्षेत्रफल हैं ? यदि नहीं, तो जिस समय हम सर्वव्यापी शब्द का उच्चारण करते हैं , उस समय विस्तृत आकाश या देश की ही कल्पना करने के सिवा हम और क्या करते हैं ? अपनी मानसिक सरंचना के नियमानुसार, हमें किसी प्रकार अपनी अनन्तता की भावना को नील आकाश या अपार समुद्र की कल्पना से सम्बद्ध करना पड़ता हैं। उसी तरह हम पवित्रता के भाव को अपने स्वभावनुसार गिरजाघर, मसजिद, किसी पवित्र ग्रन्थ या क्रूस के साथ जोड़ लेते हैं ।
प्रश्न हो सकता है कि हिन्दू लोग पवित्रता, नित्यत्व, सर्वव्यापित्व आदि आदि भावों का सम्बन्ध विभिन्न देव-देवियों की मूर्तियों और रूपों से ही क्यों जोड़ते हैं ? अन्तर यह हैं कि जहाँ अन्य लोग अपना सारा जीवन किसी गिरजाघर की मूर्ति की भक्ति में ही बिता देते हैं; और उससे आगे नहीं बढ़ते। क्योकि उनके लिए तो धर्म का अर्थ इतना ही है कि कुछ विशिष्ट सिद्धान्तों (theory of Genesis) को वे अपनी बुद्धि द्वारा स्वीकार कर लें और अपने मानव-बन्धुओं की भलाई करते रहें। — वहीं एक हिन्दू की सारी धर्मभावना प्रत्यक्ष अनुभूति या आत्मसाक्षात्कार में केन्द्रीभूत होती हैं । मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके दिव्य बनना हैं । मूर्तियाँ, मन्दिर , गिरजाघर या ग्रन्थ तो धर्म जीवन में केवल आघार या सहायकमात्र हैं; पर उसे उत्तरोतर उन्नति ही करनी चाहिए । मनुष्य को कहीं पर रुकना नहीं चाहिए । शास्त्र का वाक्य हैं कि ’बाह्य पूजा या मूर्तिपूजा सबसे नीचे की अवस्था हैं; आगे बढ़ने का प्रयास करते समय मानसिक प्रार्थना साधना की दूसरी अवस्था हैं, और सबसे उच्च अवस्था तो वह हैं, जब परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाए ।’ — महानिर्वाणतन्त्र ॥४.१२ ॥
देखिए, वही अनुरागी साधक, जो पहले मूर्ति के सामने प्रणत रहता था, अब (समाधि से उतरने के बाद ?) क्या कह रहा है —
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥
’सूर्य उस परमात्मा को प्रकाशित नहीं कर सकता, न चन्द्रमा या तारागण ही; वब विद्युत प्रभा भी परमेश्वर को उद्भासित नहीं कर सकती, तब इस सामान्य अग्नि की बात ही क्या ! ये सभी इसी परमेश्वर के कारण प्रकाशित होते हैं ।’ — कठोपनिषद् ॥२.२.१५॥ परन्तु अब एकत्व की अनुभूति करने के बाद भी वह किसी की मूर्ति को गाली नहीं देता और न उसकी पूजा को पाप ही बताता हैं । वह तो उसे जीवन की एक आवश्यक अवस्था (पड़ाव) जानकर उसको स्वीकार करता हैं । ’बालक ही मनुष्य का जनक हैं ।’ तो क्या किसी वृद्ध पुरुष के बचपन या युवावस्था को पाप या बुरा कहना उचित होगा ? उसी तरह यदि कोई मनुष्य अपने दिव्य स्वरूप को मूर्ति की सहायता से अनुभव कर सकता हैं , तो क्या उसे पाप कहना ठीक होगा ? और जब वह अवस्था से परे पहुँच गया हैं, तब भी उसके लिए मूर्ति पूजा को भ्रमात्मक कहना उचित नहीं हैं । हिन्दू की दृष्टि में मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं जा रहा हैं, वह तो सत्य से सत्य की ओर, निम्न श्रेणी के सत्य से उच्च श्रेणी के सत्य की ओर अग्रसर हो रहा हैं । १/१८
[" बालक ही मनुष्य का जनक है " (Child is father of the man) एक मुहावरा है जो विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता "माई हार्ट लीप्स अप" से लिया गया है। इस मुहावरे की कई अलग-अलग व्याख्याएँ हैं, जिनमें से सबसे लोकप्रिय व्यख्या यह है कि मनुष्य यदि अपने विद्यार्थीजीवन में या युवावस्था में जिन शुभ-अशुभ आदतों को अपनी सहजात -प्रवृत्ति के रूप में विकसित कर लेता है- उसका जीवन, उसका चरित्र उन्हीं शुभाशुभ आदतों का उदाहरण स्वरुप बन जाता है ! "Child is father of the man" is an idiom originating from the poem "My Heart Leaps Up" by William Wordsworth. There are many different interpretations of the phrase, the most popular of which is that man is the product of habits and behavior developed in youth.]
हिन्दू के मतानुसार निम्न जड़-पूजावाद (lowest idol-worship) से लेकर सर्वोच्च अद्वैतवाद (highest Advaita) तक जितने धर्म हैं, वे सभी अपने जन्म तथा साहर्चय की अवस्था द्वारा निर्धारित होकर उस असीम के ज्ञान तथा उपलब्धि के निमित्त मानवत्मा के विविध प्रयत्न हैं ,और यह प्रत्येक मनुष्य उन्नति की एक अवस्था को सूचित करता हैं । प्रत्येक मनुष्य उस युवा गरुड़ पक्षी के समान हैं , जो धीरे धीरे उँचा उ़ड़ता हुआ तथा अधिकाधिक शक्तिसंपादन करता हुआ अन्त नें उस भास्वर सूर्य तक पहुँच जाता हैं । "अनेकता में एकता" प्रकृति का विधान हैं (Unity in diversity is the law of nature) और हिन्दुओं ने इसे स्वीकार किया हैं ।१/१८
अन्य प्रत्येक धर्म में कुछ निर्दिष्ट मतवाद सभी के लिए विधि-बद्ध (codified-कूटबद्ध) कर दिये गये हैं और सारे समाज को उन्हें मानना अनिवार्य कर दिया जाता हैं । वह समाज के समाने केवल एक कोट रख देता हैं, जो जैक, जाँन और हेनरी, सभी को ठीक होना चाहिए । यदि जाँन या हेनरी के शरीर में ठीक नहीं आता, तो उसे अपना तन ढँकने के लिए बिना कोट के ही रहना होगा । हिन्दुओं ने यह जान लिया हैं कि निरपेक्ष ब्रह्मतत्त्व का साक्षात्कार , चिन्तन या वर्णन सापेक्ष (मूर्त आदर्श) के सहारे ही हो सकता हैं। और मूर्तियाँ, क्रूस या नवोदित चन्द्र केवल विभिन्न प्रतीक हैं, वे मानो बहुत सी खूँटियाँ हैं , जिनमें धार्मिक भावनाएँ लटकायी जाती हैं । ऐसा नहीं हैं कि इन प्रतीकों की आवश्यकता हर एक के लिए हो, किन्तु जिनको अपने लिए इन प्रतीकों की सहायता की आवश्यकता नहीं हैं, उन्हें यह कहने का अधिकार नहीं हैं कि वे गलत हैं । हिन्दू धर्म में वे अनिवार्य अंग नहीं हैं ।
एक बात आपको अवश्य बतला दूँ । भारतवर्ष में मूर्ति पूजा कोई जधन्य बात नहीं हैं । वह व्यभिचार की जननी नहीं हैं । वरन् वह अविकसित मन के लिए उच्च आध्यात्मिक भाव को ग्रहण करने का उपाय हैं । अवश्य, हिन्दुओं के बहुतेरे दोष हैं , उनके कुछ अपने अपवाद हैं, पर यह ध्यान रखिए कि उनके दोष अपने शरीर को ही उत्पीड़ित करने तक सीमित हैं , वे कभी अपने पड़ोसियों का गला नहीं काटने जाते। कोई हिन्दू धर्मान्ध भले ही चिता पर अपने आप के जला डाले , पर वह विधर्मियों को जलाने के लिए ’इन्क्विजिशन ’ (विधर्मियों की जाँच) की अग्नि कभी भी प्रज्वलित नहीं करेगा । और इस बात के लिए उससे अधिक दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जितना डाइनों को जलाने का दोष ईसाई धर्म पर मढ़ा जा सकता हैं ।
अतः हिन्दुओं की दृष्टि में समस्त धर्मजगत् भिन्न भिन्न रुचिवाले स्त्री-पुरुषों की, विभिन्न अवस्थाओं एवं परिस्थियों में से होते हुए एक ही लक्ष्य की ओर यात्रा हैं, प्रगति हैं । प्रत्येक धर्म जड़भावापन्न मानव (पशु-मानव से देव-मानव तक ) एक ईश्वर का उद्भव कर रहा हैं, और वही ईश्वर उन सब धर्मों का प्रेरक हैं । तो फिर इतने परस्पर विरोध क्यों हैं ? हिन्दुओं का कहना हैं कि ये विरोध केवल आभासी हैं । उनकी उत्पत्ति सत्य के द्वारा भिन्न अवस्थाओं और प्रकृतियों के अनुरुप अपना समायोजन करते समय होती हैं । वही एक ज्योति भिन्न भिन्न रंग के काँच में से भिन्न भिन्न रूप से प्रकट होती हैं । समायोजन के लिए इस प्रकार की अल्प विविधता आवश्यक हैं ।
परन्तु प्रत्येक के अन्तस्तल में उसी सत्य का राज हैं । ईश्वर ने अपने कृष्णावतार में हिन्दुओं को यह उपदश दिया हैं , "मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।7.7।।" ’प्रत्येक धर्म में मैं , मोती की माला में सूत्र की तरह पिरोया हुआ हूँ ।’ — गीता ॥७.७॥ ’जहाँ भी तुम्हें मानवसृष्टि को उन्नत बनानेवाली और पावन करनेवाली अतिशय पवित्रता और असाधारण शक्ति दिखाई दे, तो जान लो कि वह मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ हैं ।’ –गीता ॥१०.४१॥
और इस शिक्षा का परिणाम क्या हुआ ? सारे संसार को मेरी चुनौती हैं कि वह समग्र संस्कृत दर्शनशास्त्र में मुझे एक ऐसी उक्ति दिखा दे, जिसमें यह बताया गया हो कि केवल हिन्दुओं का ही उद्धार होगा और दूसरों का नहीं । व्यास कहते हैं, ’हमारी जाति और सम्प्रदाय की सीमा के बाहर भी पूर्णत्व तक पहुँचे हुए मनुष्य हैं ।’ –वेदान्तसूत्र ॥३.४.३६॥ एक बात और हैं । ईश्वर में ही अपने सभी भावों को केन्द्रित करनेवाला हिन्दू अज्ञेयवादी बौद्ध और निरीश्वरवादी जैन धर्म पर कैसे श्रद्धा रख सकता हैं ?यद्यपि बौद्ध और जैन ईश्वर पर निर्भर नहीं रहते, तथापि उनके धर्म की पूरी शक्ति प्रत्येक धर्म के महान् केन्द्रिय सत्य — मनुष्य में ईश्वरत्व — के विकास की ओर उन्मुख हैं । उन्हौंने पिता को भले न देखा हो, पर पुत्र को अवश्य देखा हैं । और जिसने पुत्र को देख लिया , उसने पिता को भी देख लिया ।
भाइयों ! हिन्दुओं के धार्मिक विचारों की यहीं संक्षिप्त रूपरेखा हैं । हो सकता हैं कि हिन्दू अपनी सभी योजनाओं की कार्यान्वित करने में असफल रहा हो , पर यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म (मनुष्य बनो और बनाओ) होना हैं, तो वह किसी देश या काल से सीमाबद्ध नहीं होगा, वह उस असीम ईश्वर के सदृश ही असीम होगा, जिसका वह उपदेश देगा।
जिसका सूर्य श्रीकृष्ण और ईसा के अनुयायियों पर, सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाश विकीर्ण करेगा , जो न तो ब्रह्माण होगा , न बौद्ध, न ईसाई और न इस्लाम , वरन् इन सब की समष्टि होगा। किन्तु फिर भी जिसमें विकास के लिए अनन्त अवकाश होगा; जो इतना उदार होगा कि पशुओं के स्तर से सिंचित उन्नत निम्नतम घृणित जंगली मनुष्य से लेकर अपने हृदय और मस्तिष्क के गुणों के कारण मानवता से इतना ऊपर उठ गये हैं कि उच्चतम मनुष्य तक को, जिसके प्रति सारा समाज श्रद्धामत हो जाता हैं और लोग जिसके मनुष्य होने में सन्देह करते हैं, अपनी बाहुओं से आलिंगन कर सके और उनमें सब को स्थान दे सके ।
वह सार्वभौमिक धर्म " Be and Make " ऐसा होगा, जिसकी नीति में उत्पीड़ित या असहिष्णुता का स्थान नहीं होगा ; वह प्रत्येक स्त्री और पुरुष में अंतर्निहित दिव्यता का स्वीकार करेगा, और उसका सम्पूर्ण बल और सामर्थ्य मानवता को अपनी सच्ची दिव्य प्रकृति का साक्षात्कार करने के किए सहायता देने में ही केन्द्रित होगा । आप ऐसा ही धर्म - " Be and Make " सामने रखिए , और सारे राष्ट्र आपके अनुयायी बन जाएँगे । सम्राट् अशोक की परिषद् बौद्ध परिषद थी । अकबर की नवरत्न परिषद् अधिक उपयुक्त होती हुई भी, केवल बैठकबाजों की गोष्ठी भर थी ।
किन्तु पृथ्वी के कोने कोने में यह घोषणा करने का गौरव अमेरिका के लिए ही सुरक्षित था कि ’प्रत्येक धर्म में ईश्वर हैं ।’ वह, जो हिन्दुओं का बह्म, पारसियों का अहुर्मज्द, बौद्धो का बुद्ध, यहूदियों का जिहोवा और ईसाइयों का स्वर्गस्थ पिता हैं , आपको अपने उदार उद्देश्य को कार्यन्वित करने की शक्ति प्रदान करे ! नक्षत्र पूर्व गगन में उदित हुआ और कभी धुँधला और कभी देदीप्यमान होते हुए धीरे धीरे पश्चिम की ओर यात्रा करते करते उसने समस्त जगत् की परिक्रमा कर डाली और अब फिर प्राची के क्षितिज में सहस्र गुनी अधिक ज्योति के साथ उदित हो रहा हैं ! ऐ स्वाधीनता की मातृभूमि कोलम्बिया तू धन्य हैं ![अमेरिका का दूसरा नाम-कोलम्बस ने इसका आविष्कार किया था, इसीलिए इसका नाम कोलम्बिया पड़ा], यह तेरा सौभाग्य हैं कि तूने अपने पड़ोसियों के रक्त से अपने हाथ कभी नहीं भिगोये , तूने अपने पड़ोसियों का सर्वस्व हरण कर सहज में ही धनी और सम्पन्न होने की चेष्टा नहीं की, अतएव समन्वय की ध्वजा फहराते हुए सभ्यता की अग्रणी होकर चलने का सौभाग्य तेरा ही था ।
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