[(9 अप्रैल, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-135]
(१)
🔱🕊क्या बुद्धदेव नास्तिक थे🔱🕊
श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ काशीपुर के बगीचे में हैं । आज शुक्रवार, शाम के पाँच बजे का समय होगा, चैत की शुक्ल पंचमी है, ९ अप्रैल, १८८६ । नरेन्द्र, काली, निरंजन और मास्टर नीचे बैठे हुए बातचीत कर रहे हैं ।
IT WAS FIVE O'CLOCK in the afternoon. Narendra, Kali, Niranjan, and M. were talking downstairs in the Cossipore garden house.
শ্রীরামকৃষ্ণ ভক্তসঙ্গে কাশীপুরের বাগানে আছেন। আজ শুক্রবার বেলা ৫টা, চৈত্র শুক্লা পঞ্চমী। ৯ই এপ্রিল, ১৮৮৬।নরেন্দ্র, কালী, নিরঞ্জন, মাস্টার নিচে বসিয়া কথা কহিতেছেন।
निरंजन - (मास्टर से) - सुना है, विद्यासागर का एक नया स्कूल होनेवाला है । नरेन्द्र को इसमें अगर कोई काम –
NIRANJAN (to M.): "Is it true that Vidyasagar is going to open a new school? Why don't you try to secure employment there for Naren?"
নিরঞ্জন (মাস্টারের প্রতি) — বিদ্যাসাগরের নূতন একটা স্কুল নাকি হবে? নরেনকে এর একটা কর্ম যোগাড় করে —
नरेन्द्र - अब विद्यासागर के पास नौकरी करने की जरूरत नहीं है ।
NARENDRA: "I have had enough of service under Vidyasagar."
নরেন্দ্র — আর বিদ্যাসাগরের কাছে চাকরি করে কাজ নাই!
नरेन्द्र बुद्ध-गया से अभी ही लौटे हैं । वहाँ वे बुद्ध की मूर्ति के दर्शन कर उसके सामने गम्भीर ध्यान में मग्न हो गये थे । जिस पेड़ के नीचे तपस्या करके बुद्ध ने निर्वाण प्राप्त किया था, उस पेड़ की जगह एक दूसरा पेड़ उगा है, इसे भी उन्होंने देखा है । काली ने कहा, 'एक दिन गया के उमेशबाबू के यहाँ नरेन्द्र का गाना हुआ, मृदंग के साथ - ख्याल, ध्रुपद आदि ।'
Narendra had just returned from a visit to Bodh-Gaya, where he had gone with Kali and Tarak. In that sacred place he had been absorbed in deep meditation before the image of Buddha. He had paid his respects to the Bodhi-tree, which is an offshoot of the original tree under which Buddha attained Nirvana. Kali said, "One day at Gaya, at Umesh Babu's house, Narendra sang many classical songs to the accompaniment of the mridanga."
নরেন্দ্র বুদ্ধগয়া হইতে সবে ফিরিয়াছেন। সেখানে বুদ্ধমূর্তি দর্শন করিয়াছেন এবং সেই মূর্তির সম্মুখে গভির ধ্যানে নিমগ্ন হইয়াছিলেন। যে বৃক্ষের নিচে বুদ্ধদেব তপস্যা করিয়া নির্বাণ প্রাপ্ত হইয়াছিলেন, সেই বৃক্ষের স্থানে একটি নূতন বৃক্ষ হইয়াছে, তাহাও দর্শন করিয়াছিলেন। কালী বলিলেন, “একদিন গয়ার উমেশ বাবুর বাড়িতে নরেন্দ্র গান গাইয়াছিলেন, — মৃদঙ্গ সঙ্গে খেয়াল, ধ্রুপদ ইত্যাদি।”
श्रीरामकृष्ण बड़े कमरे में बिस्तरे पर बैठे हुए हैं । सन्ध्या का समय है । मणि अकेले पंखा झल रहे हैं । लाटू भी वहीं आकर बैठे ।
Sri Ramakrishna sat on his bed in the big hall upstairs. It was evening. M. was alone in the room, fanning the Master. Latu came in a little later.
শ্রীরামকৃষ্ণ হলঘরে বিছানায় বসিয়া। রাত্রি কয়েক দণ্ড হইয়াছে। মণি একাকী পাখা করিতেছেন। — লাটু আসিয়া বসিলেন।
श्रीरामकृष्ण - (मणि से ) - एक चद्दर और एक जोड़ा जूता लेते आना ।
MASTER (to M.): "Please bring a chaddar for me and a pair of slippers."
শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — একখানি গায়ের চাদর ও একজোড়া চটি জুতা আনবে।
मणि - जी बहुत अच्छा ।
M: "Yes, sir."
মণি — যে আজ্ঞা।
श्रीरामकृष्ण - (लाटू से) - चद्दर तो दस आने की हुई, और जूतों को मिलाकर कितने दाम होंगे ?
MASTER (to Latu): "The chaddar will cost ten annas, and then the slippers — what will be the total cost?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (লাটুকে) — চাদর দশ আনা ও জুতা, সর্বসুদ্ধ কত দাম?
लाटू - एक रुपया दस आने ।
LATU: "One rupee and ten annas."
লাটু — একটাকা দশ আনা।
श्रीरामकृष्ण ने मणि की ओर दामों की बात सुन लेने के लिए इशारा किया ।
Sri Ramakrishna asked M., by a sign, to note the price.
ঠাকুর মণিকে দামের কথা শুনিতে ইঙ্গিত করিলেন।
नरेन्द्र भी आकर बैठे । शशि, राखाल तथा दो-एक भक्त और आये ।
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र से पैरों पर हाथ फेरने के लिए कह रहे हैं । इशारे से श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र से पूछा - तूने कुछ खाया ?
Narendra entered the room and took a seat. Sashi, Rakhal, and one or two other devotees came in. The Master asked Narendra to stroke his feet. He also asked him whether he had taken his meal.
নরেন্দ্র আসিয়া উপবিষ্ট হলেন। শশী, রাখাল ও আরও দু-একটি ভক্ত আসিয়া বসিলেন। ঠাকুর নরেন্দ্রকে পায়ে হাত বুলাইয়া দিতে বলিতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ ইঙ্গিত করিয়া নরেন্দ্রকে বলিতেছেন — “খেয়েছিস?”
[(9 अप्रैल, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-135]
🏹🔱🕊 बुद्धदेव क्या नास्तिक थे ? "अस्ति और नास्ति के बीच की अवस्था 🏹🔱🕊
[বুদ্ধদেব কি নাস্তিক? “অস্তি নাস্তির মধ্যের অবস্থা” ]
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से, सहास्य) - यह वहाँ (बुद्ध-गया) गया था ।
MASTER (smiling, to M.): "He went there [referring to Bodh-Gaya]."
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি, সহাস্যে) — ওখানে (অর্থাৎ বুদ্ধগয়ায়) গিছল।
मास्टर - (नरेन्द्र से) - बुद्धदेव का क्या मत है ?
M. (to Narendra): "What are the doctrines of Buddha?"
মাস্টার (নরেন্দ্রের প্রতি) — বুদ্ধদেবের কি মত?
नरेन्द्र - तपस्या करके उन्होंने जो कुछ (??आत्मज्ञान ?) पाया था, वह मुख से नहीं कह सके । इसीलिए सब लोग उन्हें नास्तिक कहते हैं ।
NARENDRA: "He could not express in words what he had realized by his tapasya. So people say he was an atheist."
নরেন্দ্র — তিনি তপস্যার পর কি পেলেন, তা মুখে বলতে পারেন নাই। তাই সকলে বলে, নাস্তিক।
श्रीरामकृष्ण - (इशारा करके) - नास्तिक क्यों, नास्तिक नहीं । मुख से अपनी अवस्था का हाल वे नहीं कह सके । बुद्ध क्या है, जानते हो ? बोधस्वरूप (Pure Intelligence) की चिन्ता करके वही हो जाना - बोधस्वरूप बन जाना ।
MASTER (by signs): "Why atheist? He was not an atheist. He simply could not express his inner experiences in words. Do you know what 'Buddha' means? It is to become one with Bodha, Pure Intelligence, by meditating on That which is of the nature of Pure Intelligence; it is to become Pure Intelligence Itself."
শ্রীরামকৃষ্ণ (ইঙ্গিত করিয়া) — নাস্তিক কেন? নাস্তিক নয়, মুখে বলতে পারে নাই। বুদ্ধ কি জানো? বোধ স্বরূপকে চিন্তা করে করে, — তাই হওয়া, — বোধ স্বরূপ হওয়া।
नरेन्द्र - जी हाँ, इनके तीन दर्जे हैं, बुद्ध, अर्हत् और बोधिसत्त्व ।
NARENDRA: "Yes, sir. There are three classes of Buddhas: Buddha, Arhat, and Bodhisattva."
নরেন্দ্র — আজ্ঞে হাঁ। এদের তিন শ্রেণী আছে, — বুদ্ধ, অর্হৎ আর বোধিসত্ত্ব।
श्रीरामकृष्ण - यह उन्हीं की क्रीड़ा है, एक नयी लीला ।
MASTER: "This too is a sport of God Himself, a new lila of God.
শ্রীরামকৃষ্ণ — এ তাঁরই খেলা, — নূতন একটা লীলা।
“बुद्धदेव भला नास्तिक क्यों होने लगे ? जहाँ स्वरूप (सच्चिदानन्द) का बोध होता है, वहाँ अस्ति और नास्ति की बीचवाली अवस्था है ।”
"Why should Buddha be called an atheist? When one realizes Svarupa, the true nature of one's Self, one attains a state that is something between asti, is, and nasti, is-not."
“নাস্তিক কেন হতে যাবে! যেখানে স্বরূপকে বোধ হয়, সেখানে অস্তি-নাস্তির মধ্যের অবস্থা।”
[संस्कृत भाषा में अस्ति का अर्थ होता है कि "है" और नास्ति का अर्थ होता है कि "नहीं है। (नास्ति = न + अस्ति = नहीं है, अर्थात ईश्वर नहीं है। जो लोग वेद को परम प्रमाण नहीं मानते वे नास्तिक कहलाते हैं। जो लोग परलोक और मृत्युपश्चात् जीवन में विश्वास नहीं करते; वे नास्तिक कहलाते हैं। इस परिभाषा के अनुसार बौद्ध, जैन और चार्वाक मत (लोकायत) मतों के अनुयायी नास्तिक कहलाते हैं और ये तीनों दर्शन ईश्वर या वेदों पर विश्वास नहीं करते इसलिए वे नास्तिक दर्शन कहे जाते हैं। बौद्ध अनुयायी काल्पनिक ईश्वर में विश्वास नहीं करते है। चीन देश की आबादी में 91% से भी अधिक लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी है, इसलिए दुनिया के सबसे अधिक नास्तिक लोग चीन में है।
एक नगर में हाथी आया। छ: सूरदासों ने सुना तो सभी हाथी के पास पहुँचे। उनमें से एक ने पूँछ को छुआ और कहा कि ‘हाथी रस्सी की तरह है”। दूसरे ने उसके पैर को छुआ और कहा कि ‘हाथी तो खम्भे की तरह है”। तीसरे ने हाथी की सँड को छुआ और कहा ‘यह तो मूसल के समान है”। चौथे ने हाथी के पेट को छुआ और कहा ‘‘यह तो दीवार के समान है”। पाँचवें ने उसके कान को छुआ और कहा ‘यह तो सूप के समान है” छठवें सूरदास ने दाँत को छुआ और कहा‘यह तो धनुष के समान है”। छ: सूरदास एक स्थान पर बैठकर हाथी के विषय में झगड़ने लगे, सब अपनी-अपनी बात पर अड़े थे वहाँ से एक व्यक्ति निकला उसने उनके विवाद का कारण जानकर कहा, क्यों झगड़ते हो? तुम सबने हाथी के एक-एक अङ्ग का स्पर्श किया है, सम्पूर्ण हाथी का नहीं। इसलिए आपस में झगड़ रहे हो। ध्यान से सुनो-मैं तुम्हें हाथी का पूर्ण रूप बताता हूँ। पूँछ, पैर, सुंड, पेट, कान, दाँत आदि सभी अङ्गमिलाने से हाथी का पूर्ण रूप होता है। सूरदासों को बात समझ में आ गई। उन्हें अपनी-अपनी एक पक्षीय दृष्टि पर पश्चाताप हुआ।]
नरेन्द्र - (मास्टर से) - यह वह अवस्था है, जिसमें विरोधी भावों का एकीकरण होता है । जिस हाईड्रोजन (Hydrogen) और ऑक्सीजन (Oxygen) से ठण्डा पानी तैयार होता है, उसी हाईड्रोजन और ऑक्सीजन से उष्ण अग्नि-शिखाएँ भी (Oxy- Hydrogen blow-pipe) उत्पन्न होती हैं ।
NARENDRA (to M.): "It is a state in which contradictions meet. A combination of hydrogen and oxygen produces cool water; and the same hydrogen and oxygen are used in the oxy-hydrogen blowpipe.
"जिस अवस्था में कर्म और कर्मों का त्याग दोनों हो जाते हैं, अर्थात् निष्काम कर्म होता है, बुद्ध की वही अवस्था थी ।
"In that state both activity and non-activity are possible; that is to say, one then performs unselfish action.
“যে অবস্থায় কর্ম, কর্মত্যাগ দুইই সম্ভবে, অর্থাৎ নিষ্কাম কর্ম।
নরেন্দ্র (মাস্টারের প্রতি) — যে অবস্থায় contradictions meet, যে হাইড্রোজেন আর অক্সিজেন-এ শীতল জল তৈয়ার হয়, সেই হাইড্রোজেন আর অক্সিজেন দিয়ে Oxyhydrogen-blowpipe (জ্বলন্ত অত্যুষ্ণ অগ্নিশিখা) উৎপন্ন হয়।
"जो लोग संसारी हैं, इन्द्रियों के विषयों को लेकर हैं, वे कहते हैं, सब 'अस्ति' है; उधर मायावादी कहते हैं - सब 'नास्ति' है; बुद्ध की अवस्था इस 'अस्ति' और 'नास्ति' से परे की है ।"
"Worldly people, who are engrossed in sense-objects, say that everything exists — asti. But the mayavadis, the illusionists, say that nothing exists — nasti. The experience of a Buddha is beyond both 'existence' and 'non-existence'."
“যারা সংসারী, ইন্দ্রিয়ের বিষয় নিয়ে রয়েছে, তারা বলেছে, সব ‘অস্তি’; আবার মায়াবাদীরা বলছে, — ‘নাস্তি’; বুদ্ধের অবস্থা এই ‘অস্তি’ ‘নাস্তির’ পরে।”
श्रीरामकृष्ण - ये 'अस्ति' और 'नास्ति' प्रकृति के गुण हैं । जहाँ यथार्थ बोध है, वह 'अस्ति' और 'नास्ति' से परे की अवस्था है ।
MASTER: "This 'existence' and 'non-existence' are attributes of Prakriti. The Reality is beyond both."
শ্রীরামকৃষ্ণ — এ অস্তি নাস্তি প্রকৃতির গুণ। যেখানে ঠিক ঠিক সেখানে অস্তি নাস্তি ছাড়া।
[(9 अप्रैल, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-135]
*श्रीबुद्धदेव की दयालुता तथा वैराग्य और नरेन्द्र*
भक्तगण कुछ देर तक चुप हैं । श्रीरामकृष्ण फिर बातचीत करने लगे ।
The devotees remained silent a few moments.
ভক্তেরা কিয়ৎক্ষণ সকলে চুপ করিয়া আছেন। ঠাকুর আবার কথা কহিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - उनका (बुद्ध का) क्या मत है ?
MASTER (to Narendra): "What did Buddha preach?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রের প্রতি) — ওদের (বুদ্ধদেবের) কি মত?
नरेन्द्र - ईश्वर है या नहीं, ये बातें बुद्ध नहीं कहते थे । परन्तु वे दया लेकर थे ।
[ मेरा अनुवाद - "इसलिए वे अंगुलिमाल तक कि सेवा करने में समर्थ थे !" क्योंकि बुद्ध इन बातों पर बहस नहीं करते थे कि ईश्वर साकार है , या निराकार ? परन्तु मानवमात्र में ईश्वर को देखने का अभ्यास रहने के कारण उनका ह्रदय सदैव दयालुता से भरा रहता था ! इसीलिए बुद्धदेव ने भले-बुरे मनुष्यों से भरे इस जगत को, जो जैसा हो उसी रूप में उसको साक्षात् ईश्वर समझने का अभ्यास रहने के कारण; जीवन भर (न सही 4th July, 2024 से) उन्होंने दूसरों के प्रति करुणा दिखाई-अंगुलिमाल तक की सेवा की। अपने आसपास रहने वाले लोगों में ठाकुर-माँ-स्वामीजी को देखकर ईश्वरभाव/मित्र भावसे/मातृभाव से - उनकी सेवा कैसे करे ???]
NARENDRA: "He did not discuss the existence or non-existence of God. But he showed compassion for others all his life.
নরেন্দ্র — ঈশ্বর আছেন, কি, না আছেন, এ-সব কথা বুদ্ধ বলতেন না। তবে দয়া নিয়ে ছিলেন।
"एक बाज एक पक्षी को पकड़कर उसे खाना चाहता था । बुद्ध {महाराजा शिवि की दयालुता} ने उस पक्षी के प्राणों को बचाने के लिए अपने शरीर का माँस काटकर बाज को खिला दिया था ।"
"A hawk pounced upon a bird and was about to devour it. In order to save the bird, Buddha gave the hawk his own flesh."
“একটা বাজ পক্ষী শিকারকে ধরে তাকে খেতে যাচ্ছিল, বুদ্ধ শিকারটির প্রাণ বাঁচাবার জন্য নিজের গায়ের মাংস তাকে দিয়েছিলেন।
श्रीरामकृष्ण चुप हैं । नरेन्द्र उत्साह के साथ बुद्ध की और और बातें कह रहे हैं ।
Sri Ramakrishna remained silent. Narendra became more and more enthusiastic about Buddha.
ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ চুপ করিয়া আছেন। নরেন্দ্র উৎসাহের সহিত বুদ্ধদেবের কথা আরও বলিতেছেন।
नरेन्द्र - उन्हें वैराग्य भी कितना था ! राजपुत्र होकर भी उन्होंने सर्वस्व का त्याग किया ! जिनके कुछ नहीं है, कोई ऐश्वर्य नहीं है, वे और क्या त्याग करेंगे ?
NARENDRA: "How great his renunciation was! Born a prince, he renounced everything! If a man has nothing, no wealth at all, what does his renunciation amount to?
নরেন্দ্র — কি বৈরাগ্য! রাজার ছেলে হয়ে সব ত্যাগ করলে! যাদের কিছু নাই — কোনও ঐশ্বর্য নাই, তারা আর কি ত্যাগ করবে।
“जब बुद्ध होकर, निर्वाण प्राप्त करके एक बार वे घर आये तब उन्होंने अपनी स्त्री को, पुत्र को और राजवंश के बहुत से लोगों को वैराग्य धारण करने के लिए कहा । कैसा तीव्र वैराग्य था ! परन्तु व्यास को देखो । उन्होंने अपने पुत्र शुकदेव को संसार त्याग करने से मना किया और कहा, 'वत्स' धर्म का पालन गृहस्थ बने रहकर ही करो ।’ ”
After attaining Buddhahood and experiencing Nirvana, Buddha once visited his home and exhorted his wife, his son, and many others of the royal household to embrace the life of renunciation. How intense his renunciation was! But look at Vyasa's conduct! He forbade his son Sukadeva to give up the world, saying, 'My son, practise religion as a householder.'"
“যখন বুদ্ধ হয়ে নির্বাণলাভ করে বাড়িতে একবার এলেন, তখন স্ত্রীকে, ছেলেকে — রাজ বংশের অনেককে — বৈরাগ্য অবলম্বন করতে বললেন। কি বৈরাগ্য! কিন্তু এ-দিকে ব্যাসদেবের আচরণ দেখুন, — শুকদেবকে বারণ করে বললেন, পুত্র! সংসারে থেকে ধর্ম কর!”
श्रीरामकृष्ण चुप रहे, अब तक उन्होंने एक शब्द भी न कहा ।
Sri Ramakrishna was silent. As yet he had not uttered a word.
ঠাকুর চুপ করিয়া আছেন। এখনও কোন কথা বলিতেছেন না।
नरेन्द्र - बुद्ध ने शक्ति अथवा अन्य किसी उस प्रकार की चीज की कभी परवाह नहीं की । वे तो केवल निर्वाण के ही इच्छुक थे । कैसा तीव्र उनका वैराग्य था ! जब वे बोधि वृक्ष के नीचे तपस्या करने के लिए बैठे तो कहा, 'इहैव शुष्यतु मे शरीरम् ।' - अर्थात् अगर निर्वाण की प्राप्ति मैं न कर सकूँ तो मेरा शरीर यहीं शुष्क हो जाय - ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा !
NARENDRA: "Buddha did not care for Sakti or any such thing. He sought only Nirvana. Ah, how intense his dispassion was! When he sat down under the Bodhi-tree to meditate, he took this vow: 'Let my body wither away here if I do not attain Nirvana.' Such a firm resolve!
নরেন্দ্র — শক্তি-ফক্তি কিছু (বুদ্ধ) মানতেন না। — কেবল নির্বাণ। কি বৈরাগ্য! গাছতলায় তপস্যা করতে বসলেন, আর বললেন — ইহৈব শুষ্যতু মে শরীরম্! অর্থাৎ যদি নির্বাণলাভ না করি, তাহলে আমার শরীর এইখানে শুকিয়ে যাক — এই দৃঢ় প্রতিজ্ঞা!
“शरीर ही तो बदमाश है ! (इसे दंडित किये बिना)- उसे काबू में बिना किये क्या कुछ हो सकता है ?"
"This body, indeed, is the great enemy. Can anything be achieved without chastising it?"
“শরীরই তো বদমাইস! — ওকে জব্দ না করলে কি কিছু! —”
कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण फिर वार्तालाप करने लगे । उन्होंने इशारे से फिर बुद्धदेव की बात पूछी।
{ ये अंश हिन्दी अनुवाद में नहीं है - ...... शशि: "लेकिन यह तुम ही तो कहते हो कि मांस खाने से सत्व विकसित होता है। आप इस बात पर जोर देते हैं कि व्यक्ति को मांस खाना चाहिए?" नरेंद्र - "मैं मांस खाता हूँ, इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन मैं चावल, केवल चावल, पर भी जीवित रह सकता हूँ, वह भी बिना नमक के।"শশী — তবে যে তুমি বল, মাংস খেলে সত্ত্বগুণ হয়। — মাংস খাওয়া উচিত, এ-কথা তো বল।নরেন্দ্র — যেমন মাংস খাই, — তেমনি (মাংসত্যাগ করে) শুধু ভাতও খেতে পারি — লুন না দিয়েও শুধু ভাত খেতে পারি।}
श्रीरामकृष्ण - बुद्धदेव के सिर में क्या बड़े बड़े बाल थे ?
After a few minutes Sri Ramakrishna broke his silence. He asked Narendra, by a sign, whether he had seen a tuft of hair on Buddha's head.
কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ কথা কহিতেছেন। আবার বুদ্ধদেবের কথা ইঙ্গিত করিয়া জিজ্ঞাসা করিতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ — (বুদ্ধদেবের) কি, মাথায় ঝুঁটি?
नरेन्द्र - जी नहीं । बहुत सी रुद्राक्षों की मालाएँ एकत्र करने पर जैसा होता है, मालूम होता है, उनके सिर में वैसे ही बाल थे ।
NARENDRA: "No, sir. He seems to have a sort of crown; his head seems to be covered by strings of rudraksha beads placed on top of one another."
নরেন্দ্র — আজ্ঞা না, রুদ্রাক্ষের মালা অনেক জড় করলে যা হয়, সেই রকম মাথায়।
श्रीरामकृष्ण - और आँखें ?
MASTER: "And his eyes?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — চক্ষু?
नरेन्द्र - आँखें समाधिलीन ।
NARENDRA: "They show that he is in samadhi."
নরেন্দ্র — চক্ষু সমাধিস্থ।
[(9 अप्रैल, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-135]
🏹🔱🕊श्री रामकृष्ण देव का प्रत्यक्ष दर्शन -'मैं वह हूँ !' ['I am He']🏹🔱🕊
श्रीरामकृष्ण चुप हैं । नरेन्द्र तथा अन्य भक्त उन्हें एकदृष्टि से (intently) देख रहे हैं । एकाएक जरा मुस्कराकर वे फिर नरेन्द्र से बातचीत करने लगे । मणि पंखा झल रहे हैं ।
Sri Ramakrishna again became silent. Narendra and the other devotees looked at him intently. Suddenly a smile lighted his face and he began to talk with Narendra. M. was fanning him.
ঠাকুর চুপ করিয়া আছেন। নরেন্দ্র ও অন্যান্য ভক্তেরা তাঁহাকে একদৃষ্টে দেখিতেছেন। হঠাৎ তিনি ঈষৎ হাস্য করিয়া আবার নরেন্দ্রের সঙ্গে কথা আরম্ভ করিলেন। মণি হাওয়া করিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण – (नरेन्द्र से) – अच्छा, यहाँ तो सब कुछ है न ? मसूर और चने की दाल, और इमली तक ।
MASTER (to Narendra): "Well, here you find everything — even ordinary red lentils and tamarind. Isn't that so?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রের প্রতি) — আচ্ছা, — এখানে সব আছে, না? — নাগাদ মুসুর ডাল, ছোলার ডাল, তেঁতুল পর্যন্ত।
[(9 अप्रैल, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-135]
🔱अद्वैत -विशिष्टाद्वैत का भोग करने के बाद भक्त (द्वैत) की अवस्था प्राप्त होती है !🔱
नरेन्द्र - उन सब अवस्थाओं का भोग करके आप कुछ नीचे की अवस्था में रहते हैं ।
NARENDRA: "After experiencing all those states, you are now dwelling on a lower plane."
নরেন্দ্র — আপনি ও-সব অবস্থা ভোগ করে, নিচে রয়েছেন! —
मणि - (स्वगत) - उन सब उच्च अवस्थाओं का भोग करके भक्त की अवस्था में हैं ।
M. (to himself): "Yes, after realizing all those ideals, he is now living as a bhakta, a devotee of God."
মণি (স্বগত) — সব অবস্থা ভোগ করে, ভক্তের অবস্থায়! —
श्रीरामकृष्ण - किसी ने मानो नीचे खींच रखा है ।
(द्वैत की अवस्था में ? देहभाव में किसने खींच रखा है ?)
MASTER: "Someone seems to be holding me to a lower plane."
শ্রীরামকৃষ্ণ — কে যেন নিচে টেনে রেখেছে!
यह कहकर श्रीरामकृष्ण ने मणि के हाथ से पंखा खींच लिया और कहने लगे –"जैसे सामने यह पंखा देख रहा हूँ, प्रत्यक्ष रूप से, ठीक इसी तरह मैंने ईश्वर को प्रत्यक्ष देखा है। और देखा है -"
.Saying this, Sri Ramakrishna took the fan from M.'s hand and said: "As I see this fan, directly before me, in exactly the same manner have I seen God. And I have seen —"
এই বলিয়া ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ মণির হাত হইতে পাখাখানি লইলেন এবং আবার কথা কহিতে লাগিলেন। শ্রীরামকৃষ্ণ — এই পাখা যেমন দেখছি, সামনে — প্রত্যক্ষ — ঠিক অমনি আমি (ঈশ্বরকে দেখেছি! আর দেখলাম —
यह कहकर श्रीरामकृष्ण ने अपने हृदय पर हाथ रखा, और इशारे से नरेन्द्र से पूछा – “बताओ, भला मैंने क्या कहा ?”
With these words he placed his hand on his heart and asked Narendra, by a sign, "Can you tell me what I said?"
এই বলিয়া ঠাকুর নিজের হৃদয়ে হাত দিয়া ইঙ্গিত করিতেছেন, আর নরেন্দ্রকে বলিতেছেন, “কি বললুম বল দেখি?”
नरेन्द्र - मैं समझ गया ।
NARENDRA: "I have understood."
নরেন্দ্র — বুঝেছি।
श्रीरामकृष्ण - कहो तो सही ?
MASTER: "Tell me."
শ্রীরামকৃষ্ণ — বল দেখি?
नरेन्द्र - अच्छी तरह मैंने नहीं सुना ।
NARENDRA: "I didn't hear you well."
নরেন্দ্র ভাল শুনিনি।
श्रीरामकृष्ण फिर इंगित कर रहे हैं - "मैंने देखा, वे (ईश्वर) और हृदय में जो हैं, दोनों एक ही व्यक्ति हैं ।"
Sri Ramakrishna said again, by a sign, "I have seen that He and the one who dwells in my heart are one and the same Person."
শ্রীরামকৃষ্ণ আবার ইঙ্গিত করিতেছেন, — দেখলাম, তিনি (ঈশ্বর) আর হৃদয় মধ্যে যিনি আছেন এক ব্যক্তি।
नरेन्द्र - हाँ, हाँ, सोऽहम् ।
[नरेन्द्र: "हाँ, हाँ! सोहम् - मैं ही वह हूँ।"]
NARENDRA: "Yes, yes! Soham — I am He."
নরেন্দ্র — হাঁ, হাঁ, সোঽহম্।
श्रीरामकृष्ण - केवल एक रेखा मात्र है ('भक्त का मैं' है) - सम्भोग के लिए ।
[मास्टर: "लेकिन केवल एक रेखा ही दोनों को विभाजित करती है - ताकि मैं दिव्य आनंद का आनंद ले सकूं।]
"MASTER: "But only a line divides the two — that I may enjoy divine bliss."
শ্রীরামকৃষ্ণ — তবে একটি রেখামাত্র আছে — (‘ভক্তের আমি’ আছে) সম্ভোগের জন্য।
[(9 अप्रैल, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-135]
महापुरुष/नेता-पैगम्बर 'कुलीगिरी' अपने शौक से करते हैं !
🏹🔱🕊महापुरुष अपनी मुक्ति के बाद भी अपना अहंकार क्यों बनाए रखते हैं?🏹🔱🕊
घर बन जाने के बाद भी - कड़ाही, कुदाली कुछ लोग रख लेते हैं ?
🏹Why Great souls, retain their ego even after their own liberation?🏹
नरेन्द्र - (मास्टर से ) - महापुरुष (C-IN-C नवनीदा जैसे नेता, पैगम्बर) स्वयं पार होकर जीवों को पार करने के लिए रहते हैं, इसीलिए वे अहंकार और शरीर के सुख-दुःखों को लेकर रहते हैं ।
NARENDRA (to M.): "Great souls, even after their own liberation, retain the ego and experience the pleasure and pain of the body that they may help others to attain liberation.
নরেন্দ্র (মাস্টারকে) — মহাপুরুষ নিজে উদ্ধার হয়ে গিয়ে জীবের উদ্ধারের জন্য থাকেন, — অহঙ্কার নিয়ে থাকেন — দেহের সুখ-দুঃখ নিয়ে থাকেন।
"जैसे कुलीगिरी – मजदूरी। हम लोग कुलीगिरी बाध्य होकर करते हैं, परन्तु महापुरुष तो 'कुलीगिरी' अपने शौक से करते हैं ।"
["यह कुलीगिरी कार्य जैसा है। पहले पैसा तय करके पुल पार कराने का कार्य, कुली का कार्य (मजदूरी) हमलोग मजबूरी में बाध्य होकर करते हैं। लेकिन महापुरुष लोग (गुरु या नेता) अपनी खुशी के लिए ऐसा करते हैं- इसलिए दीक्षा के पहले दक्षिणा दिया जाता है।"]
"It is like coolie work. We perform coolie work under compulsion, but great souls do so of their own sweet pleasure."
“যেমন মুটেগিরি, আমাদের মুটেগিরি on compulsion (কারে পড়ে)। মহাপুরুষ মুটেগিরি করেন সখ করে।”
[(9 अप्रैल, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-135]
🔱🕊*श्रीरामकृष्ण परमहंस देव तथा गुरु-कृपा*🔱🕊
सब फिर चुप हैं। अहेतुक-कृपासिंधु श्री रामकृष्ण परमहंस देव फिर से बातचीत शुरू करते हैं। वे वास्तव में कौन हैं, वही तत्व नरेन्द्रादि भक्तों को पुनः समझा रहे हैं।
আবার সকলে চুপ করিয়া আছেন। অহেতুক-কৃপাসিন্ধু ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ আবার কথা কহিতেছেন। আপনি কে, এই তত্ত্ব নরেন্দ্রাদি ভক্তগণকে আবার বুঝাইতেছেন।
Again all fell into silence. After a time Sri Ramakrishna resumed the conversation.
श्रीरामकृष्ण – (नरेन्द्रादि भक्तों से) - छत दीख तो पड़ती है, परन्तु छत पर चढ़ना जरा कठिन काम है !
[ (नरेन्द्र से ): "छत स्पष्ट रूप से दिख तो रही है, लेकिन उस पर चढ़ें कैसे ?"
MASTER (to Narendra and the others): "The roof is clearly visible; but it is extremely hard to reach it."
শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রাদি ভক্তের প্রতি) — ছাদ তো দেখা যায়! — কিন্তু ছাদে উঠা বড় শক্ত!
नरेन्द्र - जी हाँ ।
NARENDRA: "Yes, sir."
নরেন্দ্র — আজ্ঞে হাঁ।
श्रीरामकृष्ण - परन्तु अगर कोई पहले से चढ़ा हो तो रस्सी नीचे डालकर वह दूसरे को भी चढ़ा ले सकता है।
MASTER: "But if someone who has already reached it drops down a rope, he can pull another person up.
শ্রীরামকৃষ্ণ — তবে যদি কেউ উঠে থাকে, দড়ি ফেলে দিলে আর-একজনকে তুলে নিতে পারে।
[(9 अप्रैल, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-135]
🔱🕊अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव को पाँच प्रकार की समाधि होती थी🔱🕊
"हृषीकेश का एक साधु आया था । उसने मुझसे कहा - यह बड़े आश्चर्य की बात है, तुममें पाँच तरह की समाधि मैंने देखी ।
"Once a sadhu from Hrishikesh came to Dakshineswar. He said to me: 'How amazing! I find five kinds of samadhi manifested in you.'
“হৃষীকেশের সাধু এসেছিল। সে (আমাকে) বললে, কি আশ্চর্য! তোমাতে পাঁচপ্রকার সমাধি দেখলাম!
["जिस प्रकार एक बन्दर पेड़ पर चढ़ता है, एक शाखा से दूसरी शाखा पर कूदता है, उसी प्रकार महावायु, महान ऊर्जा, शरीर में उठती है, एक केंद्र से दूसरे केंद्र पर कूदती है, और व्यक्ति समाधि में चला जाता है। व्यक्ति महान ऊर्जा के उठने को महसूस करता है, जैसे कि वह एक बन्दर की गति हो।]
"Just as a monkey climbs a tree, jumping from one branch to another, so also does the Mahavayu, the Great Energy, rise in the body, jumping from one centre to another, and one goes into samadhi. One feels the rising of the Great Energy, as though it were the movement of a monkey.
“কখন কপিবৎ — দেহবৃক্ষে বানরের ন্যায় মহাবায়ু যেন এ-ডাল থেকে ও-ডালে একেবারে লাফ দিয়ে উঠে, আর সমাধি হয়।
२.) "कभी मीनवत् - अर्थात् जिस प्रकार मछली पानी के भीतर फुर्ती से निकल जाती है और आनन्द से विहार करती रहती है, उसी तरह वायु भी देह के भीतर चलती रहती है और समाधि होती है ।
["जिस प्रकार मछली जल में उछलती-कूदती रहती है और बड़े आनंद से विचरण करती है, उसी प्रकार महावायु भी शरीर में ऊपर की ओर गति करती है, और व्यक्ति समाधि में चला जाता है। व्यक्ति महाशक्ति के ऊपर उठने का अनुभव करता है, मानो वह मछली की गति हो।]
"Just as a fish darts about in the water and roams in great happiness, so also does the Mahavayu move upward in the body, and one goes into samadhi. One feels the rising of the Great Energy, as though it were the movement of a fish.
“কখন মীনবৎ — মাছ যেমন জলের ভিতরে সড়াৎ সড়াৎ করে যায় আর সুখে বেড়ায়, তেমনি মহাবায়ু দেহের ভিতর চলতে থাকে আর সমাধি হয়।
३.) "कभी पक्षीवत्, - देह-वृक्ष के भीतर महावायु पक्षी की तरह कभी इस डाल पर और कभी उस डाल पर फुदकते हुए चढ़ती है ।
"Like a bird hopping from one branch to another, the Mahavayu goes up in the tree of the body, now to this branch and now to that. One feels the rising of the Great Energy, as though it were the movement of a bird.
“কখন বা পক্ষীবৎ — দেহবৃক্ষে পাখির ন্যায় কখনও এডালে কখনও ও-ডালে।
४.)“कभी पिपीलिकावत्, – चींटी की तरह धीरे-धीरे महावायु ऊपर चढ़ती रहती है । सहस्रार में चढ़ने पर समाधि होती है । "
५.) और कभी तिर्यग्वत्, - अर्थात् महावायु की गति सर्प की तरह वक्र होती है, फिर सहस्रार में पहुँचकर समाधि होती है ।"
"Like the slow creeping of an ant, the Mahavayu rises from centre to centre. When it reaches the Sahasrara one goes into samadhi. One feels the rising of the Great Energy, as though it were the movement of an ant.
“কখন পিপীলিকাবৎ — মহাবায়ু পিঁপড়ের মতো একটু একটু করে ভিতরে উঠতে থাকে, তারপর সহস্রারে বায়ু উঠলে সমাধি হয়।
५.) কখন বা তির্যক্বৎ — অর্থাৎ মাহবায়ুর গতি সর্পের ন্যায় আঁকা-ব্যাঁকা; তারপর সহস্রারে গিয়ে সমাধি।”
"Like the wriggling of a snake, the Mahavayu rises in a zigzag way along the spinal column till it reaches the Sahasrara, and one goes into samadhi. One feels the rising of the Great Energy, as though it were the movement of a snake."
राखाल - (भक्तों से) – अब बातचीत रहने दीजिये । बहुत देर हो गयी । उनकी बीमारी बढ़ जायगी ।
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>>समाधि :
मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई।
जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई ॥
योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञान दीप्तिराविवेकख्याते: ।। साधनपाद :28 ।।
अन्वय :- योगाङ्ग: अनुष्ठानात् अशुद्धि क्षये ज्ञानदीप्ति: आविवेकख्यातेः।
शब्दार्थ -योगाङ्गानुष्ठानात्- साधनपाद के अगले सूत्र:29 में कहे गए यम ,नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधयः ( कैवल्य अथवा मुक्ति की अवस्था) अष्टौ अङ्गानि। सूत्रार्थ :- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि – ये योग के आठ अंग हैं । जैसे ही साधक योग अर्थात समाधि के इन आठ अंगों का अभ्यास पूरी श्रद्धा भक्ति के साथ लम्बे समय तक, निरन्तरता के साथ करता है । वैसे ही साधक के सबसे पहले सभी पंच क्लेशों ( अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष व अभिनिवेश ) का नाश होता है । कलेशों का नाश होने पर साधक में शुद्ध सात्त्विक ज्ञान का उदय होता है । और वह शुद्ध सात्त्विक ज्ञान साधक में विवेकख्याति की अवस्था प्राप्त होने तक बना रहता है ।
विद्यार्थियों के लिए इन आठ अंगों में से कम से कम पाँच अंग, यम-नियम, आसन, प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास करते करते चित्तवृत्तियों का निरोध हो जाता है, फिर चित्त का विक्षेप नहीं होता। अविद्या-अस्मिता इत्यादि क्लेशों की निवृत्ति हो जाने से ज्ञान के आलोक की प्राप्ति- विवेकजज्ञान, प्रकृतिपुरुष-भेद ज्ञान यानि ब्रह्मसत्यं जगत-मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः का बोध- या जीव ही **ब्रह्म** है और भिन्न नहीं ' के ज्ञान उदय पर्यन्त (4 महावाक्यों का मर्म उदय पर्यन्त)-ज्ञानलोक की अंतिम सीमा है।
"ब्रह्म वास्तविक है, ब्रह्मांड मिथ्या है" का बोध- क्योंकि जगत को सत्य (वास्तविक) या असत्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता। "असत्य" का अर्थ होता है जो वास्तव मेँ झूठ है। जैसे आकाशकुसुम , बंध्यापुत्र , "खरगोश के सींग होना" असत्य है। निरन्तर परिवर्तनशील होने के कारण इस जगत को भी सत्य या असत्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता। यम, नियम इत्यादि -योग के अंगों का अनुष्ठान, आचरण या अभ्यास करते करते अशुद्धि-क्षये- जब चित्तगत सभी अपवित्रता या मोहजनित मल का नाश हो जाता है -यानि अविद्या, स्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश इत्यादि पंच क्लेशों या दुःख के 5 कारणों का अभाव हो जाता है। इति अर्थः = इन आठ योग-अङ्गों के अनुष्ठान या आचरण से सभी अशुद्धियों या क्लेशों का क्षय (मोहजनित मल का क्षय) हो जाता है। यह अभिप्राय है ॥ २८ ॥ तब -ज्ञानदीप्तिः, ज्ञान का आलोक प्रदीप्त हो उठता है; आविवेक-ख्यातेः - उसकी अन्तिम सीमा विवेकख्याति (विवेकज -ज्ञान की प्राप्ति तक) है।
व्याख्या : अब साधन की बात कही जा रही है। अभीतक जो कुछ कहा गया उच्चतर 'आदर्श' है। वह अभी हमसे बहुत दूर है ; किन्तु वही हमारा आदर्श है, हमारा एकमात्र लक्ष्य है। उस लक्ष्य-स्थल पर पहुँचने के लिए पहले शरीर और मन को संयत करना आवश्यक है। तभी उस आदर्श में हमारी अनुभूति स्थायी हो सकेगी। हमारा लक्ष्य क्या है , यह हमने जान लिया है, अब उसे प्राप्त करने के लिए साधन आवश्यक है।
१. यम : पांच सामाजिक नैतिकता
(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना। इन पञ्चविध यमों में शरीर से प्राण को वियुक्त, पृथक् करने के उद्देश्य से किया गया कार्य या चेष्टा हिंसा है और वहीं हिंसा सभी अनर्थों का मूल कारण है। उसी हिंसा का अभाव अहिंसा है। सभी प्रकार से ही हिंसा का परित्याग के योग्य, हिंसा के त्याज्य होने के कारण सबसे पहले उस हिंसा के अभावरूपी अहिंसा का उल्लेख किया गया है।
(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना। वाणी तथा मन का अर्थ के अनुरूप रहना अर्थात् अर्थ का जैसे स्वरूप है उसी के अनुसार वाणी से कहना तथा मन से वैसा मनन करना ही सत्य है।
(ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना। दूसरे के धन का अपहरण करना ही स्तेय या चोरी हैं। उस स्तेय का अभाव, दूसरे के धन, सत्त्व का अपहरण न करना ही अस्तेय है।
(घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं: पहला चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना, और दूसरा सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना। मुख्यतः उपस्थ इन्द्रिय के संयम को ब्रह्मचर्य कहते हैं।
(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना। भोग के साधनों का स्वीकार न करना, ग्रहण न करना ही अपरिग्रह है।
यम शब्द के द्वारा कह जाने वाले ये अहिंसा इत्यादि (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह- पाँच) योग सिद्धि में अङ्ग, सहायक रूप से वर्णन किये गये हैं
जाति-देश-काल-समयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ॥३१॥
शब्दार्थ :-जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः -- जाति, देश, काल समय अनवच्छिन्ना: ( इन सब बाधाओं से रहित ) सार्वभौमा: ( सभी परिस्थितियों में पालन करने के योग्य) महाव्रतम् ( ये यम ही महाव्रत हो जाते हैं । )
सूत्रार्थ :- ये अहिंसा आदि महाव्रत सभी जाति विशेष, स्थान विशेष, पर्व या तिथि विशेष व किसी भी अवसर विशेष आदि बाधाओं से रहित सभी परिस्थितियों में पालन करने योग्य होने से महाव्रत कहलाते हैं ।
व्याख्या :- इस सूत्र में यमों का पालन सभी अवस्थाओं में करने योग्य बताया गया है । ऊपर वर्णित सभी यम तभी महाव्रत कहलाते हैं । जब बिना किसी जाति, स्थान, काल व समय के बन्धन के सभी अवस्थाओं में इनका पालन समान रूप से किया जाए । इन विशेष अवस्थाओं का वर्णन इस प्रकार है –
जाति की सीमा से रहित :- जाति का अर्थ है कोई भी जीव या प्राणी जैसे – मनुष्य, पशु व पक्षी आदि । जब कोई व्यक्ति यह कहे कि मैं तो केवल पशुओं पर हिंसा करता हूँ, मनुष्यों पर नहीं । तो यह जाति विशेष अहिंसा कहलाती है । जबकि अहिंसा किसी जाति विशेष पर आधारित नहीं होनी चाहिए । अहिंसा का पालन सभी प्राणियों पर समान रूप से करना चाहिए । उसमें किसी भी प्रकार की जाति का बन्धन नहीं होना चाहिए । ठीक इसी प्रकार सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह का पालन भी जाति विशेष से रहित अर्थात सभी जातियों ( प्राणियों ) के साथ एक समान भाव से होना चाहिए ।
देश की सीमा से रहित :- देश का अर्थ किसी स्थान विशेष से है । जैसे कोई व्यक्ति यह कहे कि मैं हरिद्वार, बद्रीनाथ या किसी अन्य पुण्य स्थल पर हिंसा नहीं करता हूँ, बाकी सभी स्थानों पर करता हूँ । तो यह देश विशेष अहिंसा कहलाती है । जबकि अहिंसा का पालन तो सभी स्थानों पर समान रूप से होना चाहिए । उसके पालन में किसी प्रकार के स्थान को आधार नहीं बनाना चाहिए । ठीक इसी प्रकार सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह का पालन भी स्थान विशेष से रहित अर्थात सभी स्थानों पर एक समान रूप से होना चाहिए ।
काल की सीमा से रहित :- काल का अर्थ किसी दिन या पर्व विशेष से है । जब कोई व्यक्ति यह कहे कि मैं पूर्णमासी या अमावस्या जैसे पावन पर्व पर हिंसा नहीं करता हूँ, बाकी सभी दिनों में मैं हिंसा करता हूँ । तो यह काल पर आधारित अहिंसा कहलाती है । जबकि हमें सभी दिनों में समान रूप से अहिंसा का पालन करना चाहिए । उसके पालन में किसी दिन विशेष को आधार बनाया जाना सही नहीं है । ठीक इसी प्रकार हमें सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह का पालन भी काल की सीमा से रहित अर्थात सभी कालों में एक समान भाव से करना चाहिए ।
समय की सीमा से रहित :- समय का अर्थ किसी अवसर विशेष से है । जब कोई व्यक्ति यह कहे कि मैं अपने किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हिंसा करता हूँ । जैसे- जब कोई मेरे साथ अन्याय करता है, मैं तभी हिंसा करता हूँ । बाकी अन्य समय पर नहीं करता हूँ । यह समय विशेष पर आधारित अहिंसा होती है । जबकि अहिंसा का पालन समय की सीमा से परे अर्थात सभी समय होना चाहिए । हिंसा करने के लिए किसी अवसर को आधार नहीं बनाया जा सकता ।
इस प्रकार अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह का पालन किसी भी प्रकार की परिस्थिति या अवस्था के आधार पर नहीं करना चाहिए । बल्कि सभी परिस्थितियों व अवस्थाओं में इनका पालन समान रूप से करना चाहिए । तभी यह अहिंसा आदि यम महाव्रत कहलाते हैं ।
(॥३१॥ पातञ्जल योगसूत्र साधनपाद)
२. नियम: पाँच व्यक्तिगत नैतिकता
(क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि। अर्थात् पवित्रता दो प्रकार की होती है:- बाहरी पवित्रता और आन्तरिक शौच (अन्तःकरण की पवित्रता/शुद्धता)। मिट्टी, जल इत्यादि से शरीर इत्यादि के अङ्गों का धोना, स्वच्छ करना बाह्य स्वच्छता, पवित्रता है। मैत्री इत्यादि अर्थात् मैत्री-करुणा-मुदिता-उपेक्षा के द्वारा चित्त में रहने वाले राग-द्वेष, क्रोध-द्रोह-ईर्ष्या-असूया-मद-मोह-मत्सर-लोभ इत्यादि मलों, कलुषों, अशुद्धियों का निराकरण करना ही आन्तरिक स्वच्छता, पवित्रता है।
(ख) सन्तोष - सन्तुष्ट और प्रसन्न रहना। तुष्टि ही सन्तोष है। अर्थात् स्वकर्तव्य का पालन करते हुये, प्रबन्ध के ही अनुसार प्राप्त फल से सन्तुष्ट हो जाना, किसी प्रकार की तृष्णा का न होना ही सन्तोष है।
तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ॥ १ ।॥
शब्दार्थ :- तपः, ( सुख- दुःख, मान- अपमान व लाभ- हानि आदि द्वन्द्वों को सहना ) स्वाध्याय, ( गायत्री मन्त्र आदि का जप एवं मोक्षकारक ग्रन्थों का अध्ययन करना ) ईश्वरप्रणिधान, ( बिना किसी फल की इच्छा के अपने सभी कर्म अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर देना ) क्रियायोग, ( क्रियायोग अर्थात इन तीनो क्रियाओं का एक साथ पालन करना क्रियायोग कहलाता है । )
सूत्रार्थ :- सुख-दुःख, मान- अपमान व लाभ- हानि आदि सभी द्वन्द्वों को आसानी से सहन करना, गायत्री आदि मन्त्रो का जप व मोक्ष प्रदान करवाने वाले ग्रन्थों का अध्ययन करना व अपने समस्त कर्मों को बिना किसी तरह के फल की इच्छा के ईश्वर में समर्पित कर देना ही क्रियायोग कहलाता है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में क्रियायोग के स्वरूप को बताया गया है । क्रियायोग एक योग साधना मार्ग है । जिसके तप, स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान तीन अंग हैं । जिनका वर्णन इस प्रकार है –
तप :- तप क्रियायोग का पहला अंग है । तप का अर्थ है सभी प्रकार के द्वन्द्वों को सहजता से सहन करना । अब प्रश्न उठता है कि यह द्वन्द्व क्या हैं ? द्वन्द्व का अर्थ है विपरीत परिस्थितियों का आना । जैसे – सर्दी- गर्मी, भूख- प्यास, लाभ – हानि, जय- पराजय, सुख- दुःख व मान- अपमान आदि परिस्थितियों का आना । जब एक योगी साधक साधना करता है तो उसे इस प्रकार के द्वन्द्व परेशान करते हैं । साधनाकाल में इन सभी द्वन्द्वों को सहजता पूर्वक सहन करना ही तप कहलाता है । अर्थात सुख को देखकर इतराना नहीं, दुःख को देखकर घबराना नहीं, मान- सम्मान मिलने पर घमण्ड न करना और अपमान होने पर अपमानित महसूस न करना ही तप कहलाता है ।
सभी अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने आप को सम बनाएं रखना । जब तक स्वर्ण ( सोना ) आदि धातुओं को अग्नि में नहीं तपाया जाएगा, तब तक उनके दोष दूर नही हो सकते । ठीक उसी प्रकार जब तक तप रूपी भठ्ठी में साधक को न तपाया जाए, तब तक वह साधक साधना में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता ।
योग मार्ग में जिसने तप नहीं किया है उसका योग कभी सिद्ध नहीं होता है । अतः तप को क्रियायोग का पहला अंग बताते हुए इसकी पालन की बात कही है । कुछ व्यक्तियों का मानना है कि तप का अर्थ है अपने शरीर को तकलीफ या कष्ट देना । जैसे- चारों तरफ अग्नि जलाकर उसके बीच में बैठना या एक पैर पर कई महीनों तक खड़े रहना आदि- आदि । लेकिन यह तप का निकृष्ट ( निचला ) स्तर है । गीता में भी तप को बताते हुए इस प्रकार के कष्टकारी तप को तामसिक तप कहा है ।
योगदर्शन में तप के पालन की बात करते हुए कहा है कि तप में जो तपस्या होती है वह चित्त को प्रसन्न करने वाली होनी चाहिए न कि दुःखी करने वाली । अतः तप का वास्तविक स्वरूप द्वन्द्वों को सहजता पूर्वक, बिना किसी दिखावे के सहन करना ही तप है ।
स्वाध्याय :- स्वाध्याय का सामान्य अर्थ है स्वंम का अध्ययन या अवलोकन करना । यहाँ पर स्वाध्याय का अर्थ है गायत्री आदि वैदिक मंत्रों का अर्थ सहित जप करना । व जो भी मोक्ष प्रदान करवाने वाले ग्रन्थ जैसे वेद, उपनिषद आदि हैं उनका अध्ययन करना ही स्वाध्याय कहलाता है । स्वाध्याय करने से साधक को सही – गलत का ज्ञान हो जाता है । स्वाध्याय से ही साधक को पता चलता है कि कौन से कर्म करने योग्य हैं और कौन से करने योग्य नहीं हैं ? । इसलिए स्वाध्याय शील व्यक्ति हमेशा जीवन में उन्नति करता है ।
ईश्वरप्रणिधान :- ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है अपने सभी अच्छे व बुरे कर्मों का समर्पन ईश्वर में कर देना व उसके बदले किसी भी प्रकार के फल की आशा न करना ही ईश्वर प्रणिधान कहलाता है ।
इसमें भगवान के प्रति अनन्य ( उच्चतम ) भक्ति का परिचय दिया गया है । जब साधक पूरी सृष्टि का संचालक उस ईश्वर को मानने लगता है तब वह समस्त कर्मों, पदार्थों, धन – धान्य व प्राकृतिक पदार्थों को ईश्वर प्रदत्त ( ईश्वर द्वारा दिया गया ) मानकर उन सभी का समर्पण ईश्वर में ही कर देता है । तब भक्ति की यह उच्च अवस्था ईश्वर प्रणिधान कहलाती है ।
महर्षि पतंजलि ने समाधिपाद में भी ईश्वर प्रणिधान की महत्ता का प्रतिपादन किया है । ईश्वर प्रणिधान को उच्च योगियों की साधना माना है । अर्थात जो उच्च कोटि के योग साधक होते हैं जिनके पिछले जन्म के संस्कार मजबूत होते हैं । वह साधक केवल ईश्वर प्रणिधान के पालन से भी समाधि की प्राप्ति कर सकते हैं ।
व्याख्या - तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि= तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान- अवतार वरिष्ठ की भक्ति-विशेष, शरणागति, सभी कर्मफलों की समर्पण बुद्धि ही क्रियायोगः = क्रिया-योग है। अभ्यास किये गये ये तप इत्यादि, तप-स्वाध्याय-ईश्वरप्रणिधान चित्त में विद्यमान रहने वाले अविद्या इत्यादि अर्थात् अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेश क्लेशों को शिथिल, क्षीण करते हुए समाधि की उपकारिता उपयोगिता को प्राप्त होते हैं। इसलिये सबसे पहले क्रियायोग के विधान-पूर्वक, क्रियायोग के अभ्यास द्वारा योगी के द्वारा होना चाहिए अर्थात् योगी को क्रियायोग का अभ्यास करना चाहिये। इस विचार से क्रियायोग को कहा गया है, उपदेश, वर्णन किया गया है। यम, नियमों के पालन करने में हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य, परिग्रह इत्यादि वितर्कों से बाधा उपस्थित होने पर बराबर प्रतिपक्ष की भावना करनी चाहिए अर्थात् उन्हीं वितर्कों में दोष दर्शन करना चाहिए । वितर्कों से बाधित होने पर उन्हीं में दोषों की भावना का चिन्तन करना चाहिए ।
३. आसन: - योगासनों द्वारा शारीरिक नियंत्रण।
स्थिरसुखमासनम् ॥ ४६ ॥
शब्दार्थ :- स्थिर ( स्थिर अर्थात बिना हिले – डुले एक ही स्थिति में रहना ) सुखम् ( सुखमय अर्थात आरामदायक स्थिति या अवस्था ) आसनम् ( आसन होता है । )
सूत्रार्थ :- शरीर की वह स्थिति जिसमें शरीर बिना हिले- डुले स्थिर व सुखपूर्वक अवस्था में रहता है । वह आसन कहलाता है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में अष्टांग योग के सबसे प्रचलित अंग अर्थात ‘आसन’ की परिभाषा को बताया गया है । इस सूत्र को आसन की परिभाषा के रूप में प्रयोग किया जाता है । यह आसन की सबसे प्रमाणिक परिभाषा है ।सामान्य तौर पर भारतीय परम्परा के अनुसार अतिथि सत्कार के लिए भी आसन शब्द का प्रयोग किया जाता है । जब भी कोई अतिथि अथवा मेहमान हमारे घर आता है तो सबसे पहले हम उसे बैठने के लिए ही आमंत्रित करते हैं । जिसमें हम कहते हैं कि कृपया आसन ग्रहण कीजिए । अर्थात कृपया बैठ जाएं । इस प्रकार आसन को हम सामान्य बोलचाल में प्रयोग करते रहते हैं । लेकिन उस आसन और योग के आसन में काफी अन्तर होता है । जिसे हम आसन की परिभाषा से समझ सकते हैं । आसन की परिभाषा में दो ही शब्दों का प्रयोग किया गया है एक स्थिरता और दूसरा सुख । अतः शरीर की स्थिर व सुखमय अवस्था आसन कहलाती है । जिस अवस्था में हमारा शरीर ज्यादा समय तक बिना हिले- डुले रहता है । वह आसन कहलाता है । फिर चाहे वह बैठने की स्थिति हो, खड़े होने की या लेटने की । योगसूत्र में आसनों के कोई प्रकार या नाम नहीं बताए हैं । जिस प्रकार से अन्य योग ग्रन्थों में बताए गए हैं । इसलिए योगसूत्र के अनुसार आसन का दायरा बहुत व्यापक है । उसे कुछ आसनों में सीमित नहीं किया जा सकता । योग साधना में आसन इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि योग की सभी साधनाओं के लिए शरीर का स्थिर व सुखमय होना अनिवार्य है । इसलिए पहले आसनों में सिद्धि प्राप्त करना आवश्यक होता है । बाद में ही प्राणायाम व अन्य ध्यान आदि की विधियाँ की जा सकती हैं । इसलिए पहले आसन का सिद्ध होना जरूरी है । वर्तमान समय में आसन के विषय में बहुत सारी भ्रान्तियाँ फैली हुई हैं । उन सभी भ्रांतियों के निवारण के लिए योगसूत्र सबसे उपयुक्त साधन है । योगसूत्र योग का पहला प्रमाणित ग्रन्थ है । योगसूत्र में आसन के जिस स्वरूप को बताया गया है । उसी को आधार मानकर हम आसन से सम्बंधित सभी भ्रांतियों से बच सकते हैं ।आसन को योग का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता है । बहुत सारे व्यक्तियों का मानना है कि आसन ही सम्पूर्ण योग है । शायद कोई विरला ही होगा जो आसन के विषय में नहीं जानता होगा । जैसे ही हमारे मस्तिष्क में योग शब्द आता है वैसे ही आसनों का चित्र हमारे सामने आता है । महर्षि पतंजलि ने इसे अष्टांग योग के तीसरे (3) अंग के रूप में माना है । वहीं हठयोग आचार्य स्वामी स्वात्माराम ने अपनी अनुपम रचना “ हठप्रदीपिका” में आसन को योग के पहले अंग के रूप में मान्यता दी है । महर्षि घेरण्ड ने अपनी योग की अनुपम कृति “घेरण्ड संहिता” में आसन को योग के दूसरे अंग के रूप में मान्यता प्रदान की है ।
अर्थः-स्थिरसुखं= स्थिर भाव से, निश्चल रूप से तथा सुखपूर्वक बैठने को, आसनं = आसन कहते हैं। अथवा जिसके द्वारा स्थिरता तथा सुख की प्राप्ति हो, वह आसन है। इसके द्वारा स्थिरभाव से तथा सुखपूर्वक बैठा जाता है इसलिये इसे आसन कहते हैं। यथा- पद्मासन, दण्डासन, स्वस्तिकासन इत्यादि।
४. प्राणायाम: श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण
५. प्रत्याहार: इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना
६. धारणा: एकाग्रचित्त होना
७. ध्यान: निरंतर ध्यान
८. समाधि: आत्मा से जुड़ना, मन और वाणी (शब्दों) से परे परम-चैतन्य की अवस्था की अनुभूति।
समाधि स्तोत्र (THE HYMN OF SAMADHI) :
नाहि सूर्य नाहि ज्योतिः नाहि शशांक सुन्दर।
भासे व्योमे छाया -सम छवि विश्व -चराचर।।
अस्फुट मन आकाशे , जगत संसार भासे।
उठे भासे डूबे पुनः अहं-स्रोते निरन्तरे।।
धीरे धीरे छाया-दल, महालये प्रवेशिलो।
बहे मात्र 'आमि आमि' - एई धारा अनुक्षण।।
से धाराउ बद्ध होलो, शून्ये शून्य मिलाइलो।
'अवांग मनो सगोचरं', बोझे - प्राण बोझे जार।।
(बंगाली से अनुवादित)
Lo! The sun is not, nor the comely moon,
All light extinct; in the great void of space
Floats shadow-like the image-universe.
In the void of mind involute, there floats
The fleeting universe, rises and floats,
Sinks again, ceaseless, in the current "I".
Slowly, slowly, the shadow-multitude
Entered the primal womb, and flowed ceaseless,
The only current, the "I am", "I am".
Lo! 'Tis stopped, ev'n that current flows no more,
Void merged into void — beyond speech and mind!
Whose heart understands, he verily does.
अब देखो! यह भी रुक गया, यहाँ तक कि वह धारा भी अब प्रवाहित नहीं रही है - वाणी और मन से परे; शून्य शून्य में विलीन हो गया ! जिसका हृदय समझता है, वही सचमुच समझता है।
নাহি সূর্য নাহি জ্যোতিঃ নাহি শশাঙ্ক সুন্দর।
ভাসে ব্যোমে ছায়া-সম ছবি বিশ্ব-চরাচর॥
অস্ফুট মন আকাশে, জগত সংসার ভাসে,
ওঠে ভাসে ডুবে পুনঃ অহং-স্রোতে নিরন্তর॥
ধীরে ধীরে ছায়া-দল, মহালয়ে প্রবেশিল,
বহে মাত্র ‘আমি আমি’ — এই ধারা অনুক্ষণ॥
সে ধারাও বদ্ধ হল, শূন্যে শূন্য মিলাইল,
‘অবাঙমনসোগোচরম্’, বোঝে — প্রাণ বোঝে যার॥
विषय-प्रवेश (Theme) :
इस समाधि स्त्रोत्र (गीत) में स्वामी विवेकानन्द निर्विकल्प समाधि के अनुभवों का वर्णन करने की कोशिश करते हैं। निर्विकल्प समाधि को समझाने के लिए, वे कहते हैं, (निर्विकल्प समाधि में जाने के समय), वे एक ऐसी अवस्था का अनुभव करते हैं जहाँ उन्हें न तो सूर्य दिखाई देता है, न ही चंद्रमा, न ही किसी प्रकार का प्रकाश।
वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को ही छाया की तरह- शाश्वत स्पंदन की तरह आकाश में तैरता-तेजी से लुप्त हुआ अवलोकन करते है। वे प्रयवेक्षण करते हैं - कि ब्रह्माण्ड तेजी से उदीयमान हुआ, चलायमान हुआ, और लुप्त हो गया - और यह क्रम निरंतर चलता रहता है।
सम्पूर्ण जगत-ब्रह्माण्ड ही धीरे-धीरे छायाओं की भीड़ में परिणत होकर आदि गर्भ (primal womb-आद्या शक्ति) में प्रविष्ट हो जाती है, और केवल एक स्पंदन-धारा शेष रह जाती है, जो लगातार गूंजती रहती है - "मैं हूँ", "मैं हूँ"।
धीरे-धीरे, वह स्पंदन-धारा भी रुक जाती है, "शून्य शून्य में विलीन हो जाता है" और वह समाधि की एक अवस्था का अनुभव करता है, जिसे वह 'अवांग मनो सगोचरं'(मन और वाणी से परे) महसूस करता है।
अब देखो! यह भी रुक गया, यहाँ तक कि वह धारा भी अब प्रवाहित नहीं रही है, शून्य शून्य में विलीन हो गया - जिसे वह 'अवांग मनो सगोचरं' ~मन और वाणी से जो परे है, वह ध्यान से जाना जाता है, वाणी और मन से परे जो भी है, उसका अनुभव ह्रदय करता है! जिसका हृदय समझता है, वह सचमुच समझता है। एक जगह पर और स्वामी विवेकानन्द ने शिष्य से वार्तालाप करते समय (उस दिन बेलघड़िया कैम्प, 1987: शाम्भवी दीक्षा) निर्विकल्प समाधि का वर्णन इस प्रकार किया है ....
उस दिन सन्ध्या के समय ध्यान करते करते अपने शरीर को खोजा तो नहीं पाया। ऐसा प्रतीत हुआ कि शरीर बिल्कुल है ही नहीं। चंद्र,सूर्य, देश-काल,आकाश, सब मानो एकाकार होकर कहीं लय हो गये हैं। देहादि बुद्धि का प्रायः अभाव हो गया था और 'मैं ' भी बस लय सा ही हो रहा था। परन्तु मुझमें कुछ/कि बहुत ? 'अहं ' था, इसीलिए उस समाधि अवस्था से लौट आया था। इस प्रकार समाधि -काल में ही 'मैं' और 'ब्रह्म' में भेद नहीं रहता , सब एक हो जाता है ; मानो महासमुद्र है -जल ही जल और कुछ नहीं। भाव और भाषा का अंत हो जाता है। 'अवांगमन-सगोचरं' की उपलब्धि इसी समय होती है। नहीं तो जब साधक - 'अहंब्रह्मास्मि'- 'मैं ब्रह्म हूँ ' ऐसा विचार करता है या कहता है , तब भी 'मैं' और 'ब्रह्म' ये दो पदार्थ पृथक रहते हैं अर्थात द्वैतबोध रहता है। उसी अवस्था को दुबारा प्राप्त करने की मैंने बारम्बार चेष्टा की , परन्तु पा न सका। श्री रामकृष्णदेव को सूचित करने पर काने लगे , " उस अवस्था में दिन-रात रहने से माँ भगवती का कार्य तुमसे पूरा न हो सकेगा। इस लिए उस अवस्था को फिर प्राप्त न कर सकोगे ; कार्य का अन्त होने पर वह अवस्था फिर आ जाएगी।"
शिष्य - तो क्या निर्विकल्प समाधि के बाद फिर कोई अहं बोध का आश्रय लेकर, द्वैतभाव के राज्य में -इस संसार में -नहीं लौट सकता ?
स्वामी जी - श्री रामकृष्ण कहा करते थे कि एकमात्र ईश्वरकोटि (अवतारी पुरुष) ही जीव की मंगल कर उस समाधि से वापस शरीर में लौट सकते हैं। साधारण जीवों का फिर व्युत्थान नहीं होता। केवल 21 दिन जीवित अवस्था में रहने के बाद उनका शरीर सूखे पत्ते के समान संसार रूपी वृक्ष से झड़कर गिर पड़ता है।
शिष्य - शास्त्रों में कहा गया है - ब्रह्म से सृष्टि का विकास मरुस्थल में मृगजल के समान दिखाई देता है, परन्तु वास्तव में सृष्टि आदि कुछ भी नहीं है। भाव-वस्तु ब्रह्म में अभाव मिथ्यारूप माया के कारण ऐसा भ्रम दिखाई देता है।
स्वामी विवेकानन्द - " यदि सृष्टि ही मिथ्या है तो तुम जीव की निर्विकल्प समाधि और समाधि से व्युत्थान को भी मिथ्या कहकर मान सकते हो। जीव स्वतः ही ब्रह्मस्वरूप है। उसको फिर बन्धन की अनुभूति कैसी? 'मैं आत्मा हूँ ' ऐसा जो तुम अनुभव करना चाहते हो, वह भी तो भ्रम ही हुआ। क्योंकि शास्त्र कहते हैं- 'तत्त्वमसि' कि तुम तो पहले से ही ब्रह्म हो !'-You are already that !" अतएव "अयम् एव हि ते बन्धः समाधिम् अनुतिष्ठसि ?"-अर्थात यह समाधि लाभ करने की तुम्हारी चाह ही तुम्हारा बन्धन है। (अष्टावक्र गीता/श्लोक 1.15) "
[ जिस को सिद्धि लाभ अर्थात् आत्मज्ञान हो गया है उस को फिर योग के आठो अंगों के अनुष्ठान से क्या प्रयोजन है ? इस कारण ही राजा जनक के प्रति अष्टावक वर्णन करते हैं कि, तू जो समाधि का अनुष्ठान करता है य ही तेरा बंधन है, परंतु आत्मज्ञानविहीन पुरुष को ज्ञानप्राप्ति के निमित्त समाधि का अनुष्ठान करना आवश्यक है ॥ १५॥]
[ "If the creation is false, then you can also regard the Nirvikalpa Samadhi of Jiva and his return therefrom as seeming appearances. Jiva is Brahman by his nature. How can he have any experience of bondage? Your desire to realise the truth that you are Brahman is also a hallucination in that case -- for the scripture says, "You are already that." Therefore, "(Sanskrit)— this is verily your bondage that you are practising the attainment of Samadhi."]
शिष्य - यह तो बड़ी कठिन बात है। यदि मैं ब्रह्म ही हूँ, तो सर्वदा इस विषय की अनुभूति क्यों नहीं होती ?
स्वामीजी - यदि 'मैं -तुम ' के द्वैतमूलक चेतन स्तर पर इस बात का अनुभव करना हो तो एक करण (instrumentality साधन) की आवश्यकता है। मन ही हमारा यंत्र है। परन्तु मन स्वयं जड़ पदार्थ (non - intelligent substance) है। उसके पीछे जो आत्मा है, उसकी प्रभा से मन केवल चैतन्यवत प्रतीत होता है। इसलिए पंचदशी कार ने कहा है - "चिच्छायावेशतः शक्तिश्चेतनेव विभाति सा --अर्थात चित- स्वरुप आत्मा की प्रतिबिम्ब के कारण शक्ति चैतन्यमयी लगती है , और इसलिए मन भी चेतन पदार्थ कहकर माना जाता है। अतः यह निश्चित है कि मन के द्वारा शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा को नहीं जान सकते। मन के चारदीवारी के परे पहुँचना है। मन के परे अन्य कोई साधन तो है नहीं - एक आत्मा ही है। अतएव जिसको जानना चाहते हो , वही फिर करणस्थानीय हो जाता है। [वहाँ ज्ञान का विषय और ज्ञान का साधन एक ही हो जाते हैं।] इसीलिए श्रुति कहती है, "विज्ञातारमरे केन विजानीयात् -- इसका निचोड़ यह है कि द्वैतमूलक चेतन के ऊपर एक ऐसी अवस्था है - जहाँ ज्ञाता , ज्ञेय, ज्ञान का साधन (मन) आदि कुछ नहीं है। इसीको "Transcendent Perception" अपरोक्षानुभूति कहते हैं। ऐसी अपरोक्षानुभूति होने के बाद ईश्वरकोटि के अवतारी लोग (नेता CINC नवनीदा) नीचे द्वैत भूमि पर लौटकर अपने व्यवहार से उस अवस्था की कुछ झलक दिखा देते हैं। साधारण जीवों की अवस्था उस नमक के पुतले के समान है, जो समुद्र की गहराई नापने गया था, पर स्वयं उसमें घुल गया। समझते हो भाई ?
तात्पर्य यह कि तुम्हें इतना ही जानना होगा कि तुम वही अविनाशी आत्मा हो। तुम पहले से ब्रह्म हो , केवल एक जड़ मन (जिसको शास्त्र में माया कहा है) बीच में पड़कर तुम्हें इसको समझने नहीं देता। मन रूपी सूक्ष्म शरीर जड़ उपादानों [मन-वस्तु चित्त] से निर्मित है, जब यह शान्त रहना सीख जायेगा , तब आत्मा अपनी ज्योति से से आप ही उद्भासित हो जाएगी। जब इसको समझ जाओगे तो एक अखण्ड शाश्वत चैतन्य में मन लय हो जायेगा। तभी- this Atman is Brahman- 'अयमात्मा ब्रह्म' की अनुभूति होगी ! ( हिन्दी वि ० साहित्य-6 -पेज 98-102/ शरत चंद्र चक्रवर्ती, शिष्य से वार्तालाप: वर्ष -1898, स्थान - बेलूड़ किराये का मठ):
तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ।। (योगसूत्र - Vibhuti Paad-3.3) ।।
अव्यय :- तदेव अर्थमात्र निर्भासं स्वरूपशून्यम् इव समाधिः।
शब्दार्थ :- तदेव ( तब वह अर्थात ध्यान ही ) अर्थमात्र ( केवल उस वस्तु के अर्थ या स्वरूप का ) निर्भासं ( आभास करवाने वाला ) स्वरूपशून्यम् ( अपने निजी स्वरूप से रहित हुआ ) इव ( जैसा) समाधिः ( समाधि होती है । )
सूत्रार्थ :- अर्थात् इस अवस्था में बाह्य जगत् के साथ जीव का सम्बन्ध टूट जाता है और वह अपने स्वरूप नित्य पद को प्राप्त कर लेता है।
जो व्यक्ति समाधि को प्राप्त करता है उसे रूप, रस,शब्द,गंध एवं स्पर्श इन 5 विषयों की इच्छा नहीं रहती तथा उसे भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान तथा सुख-दुःख आदि किसी की अनुभूति नहीं होती/ अनासक्त रहता है।
जब योगी साधक अपने निजी स्वरूप (नामरूप वाले मिथ्या मैं ?) को भूलकर केवल ध्यान के ध्येय ( लक्ष्य ) में ही लीन हो जाता है । तब वह अवस्था समाधि कहलाती है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में समाधि को परिभाषित किया गया है । ध्यान करते हुए तीन भावों की प्रमुख रूप से विद्यमानता होती है – पहला होता है - ध्याता भाव, दूसरा होता है ध्येय भाव और तीसरा होता है ध्यान का भाव । अब यहाँ पर इन सभी भावों का संक्षिप्त रूप से वर्णन करते हैं ।
ध्याता : का अर्थ है ध्यान करने वाला । अर्थात जिसके द्वारा ध्यान को किया जा रहा है । वह साधक कहलाता है ।ध्येय :- ध्येय का अर्थ होता है लक्ष्य (इष्टदेवता) । अर्थात जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ध्यान किया जा रहा है । उसे ध्यान का ध्येय अर्थात लक्ष्य कहते हैं । ध्यान :- का अर्थ है वह मार्ग/ जिसके करने से लक्ष्य ~ 'समाधि' तक पहुँचा जाता है । जिस साधन के द्वारा साधना का सम्पादन किया जा रहा है । या वह उपाय जिसके द्वारा लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है । वह ध्यान कहलाता है।
जब कोई योगी, साधक या ध्याता अपने निजी स्वरूप (M/F भाव जन्य देहाध्यास) को भूलकर केवल ध्येय में अर्थात लक्ष्य में आरूढ़ हो जाता है । तब ध्यान की उस अवस्था को समाधि कहते हैं । जब तक साधक के भीतर यह भाव रहेगा कि 'मेरे' द्वारा (नाम-रूप द्वारा) ध्यान किया जा रहा है । तब तक समाधि की प्राप्ति नहीं हो सकती । लेकिन जैसे ही साधक अपने ध्याता भाव अर्थात अपने निजी स्वरूप को मिटाकर (नामरूप को भूलकर- जब में वास्तव में अविनाशी आत्मा हूँ ; तो देखता हूँ कि अभी - अगले ही क्षण में मरता कौन है ?) केवल लक्ष्य को ही आत्मसात कर लेता है । वैसे ही उसे समाधि की प्राप्ति हो जाती है । सामान्य तौर पर ध्यान की उन्नत अवस्था को समाधि कहते हैं । और ध्यान की उन्नत अवस्था तभी आती है जब साधक अपने ध्याता भाव को छोड़कर केवल लक्ष्य पर आरूढ़ या केन्द्रित रहता है ।
उदाहरण स्वरूप :- भ्रमर ( भंवरा ) एक प्रकार का कीट होता है । जिसे कमल के फूल का रस बहुत प्रिय होता है । और कमल के फूल की विशेषता होती है कि वह दिन के समय खिलता है और अँधेरा होते ही बन्द हो जाता है । जब भ्रमर कीट कमल के फूल का रस चूसने के लिए उसके अन्दर घुसता है तो वह उस रस में इतना तल्लीन ( पूरी तरह से लीन होना ) हो जाता है कि उसे इस बात का भी आभास नहीं रहता कि कब अँधेरा हुआ और कब वह कमल का फूल बन्द हो गया । इस प्रकार उस भ्रमर को फूल के रस के अतिरिक्त किसी प्रकार का कोई ध्यान नहीं रहता है । और इस वजह से वह स्वयं भी फूल के अन्दर ही बन्द हो जाता है ।
ठीक इसी प्रकार जब ध्याता ( ध्यान करने वाला ) अपने स्वरूप को पूरी तरह से भूलाकर केवल अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह से समर्पित होता है । तब उस स्थिति को समाधि की अवस्था कहते हैं । इस अवस्था में योगी साधक को लक्ष्य के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता है । यहाँ तक कि वह स्वयं के स्वरूप को भी भूल जाता है ।
[साभार /https://drsomveeryoga.com/yoga-sutra-3-3/
हठयोग : जिसके आदि प्रवर्तक अथवा पहले वक्ता स्वयं भगवान शिव हैं । भगवान शिव को आदिनाथ भी कहा जाता है । आदिनाथ के कारण ही इसे नाथयोग अथवा नाथ सम्प्रदाय का योग भी कहा जाता है । आज भी नाथ सम्प्रदाय भारत के सबसे बड़े सन्त सम्प्रदायों में से एक है । भारतवर्ष के प्रत्येक क्षेत्र में आपको नाथ सम्प्रदाय के मन्दिर और मठ बहुतायत मात्रा में देखने को मिलेंगे । हठयोग साधना का लक्ष्य केवल राजयोग की प्राप्ति करना है ।
हठयोग प्रदीपिका : इस अनुपम ग्रन्थ के रचयिता स्वामी स्वात्माराम हैं । हठप्रदीपिका की उपयोगिता का अनुमान केवल इसी बात से लगाया जा सकता है, कि योग का कोई भी सर्टिफिकेट, डिप्लोमा, ग्रेजुएशन व पोस्ट ग्रेजुएशन कोर्स ऐसा नहीं है, जो बिना हठप्रदीपिका के पूर्ण होता हो ।योग के सभी पाठ्यक्रमों के साथ- साथ राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा ( नेट ) व योग सर्टिफ़िकेशन बोर्ड ( YCB ) की परीक्षाओं में भी हठप्रदीपिका को मुख्य विषय के रूप में शामिल किया गया है ।
सलिले सैन्धवं यद्वत् साम्यं भजति योगतः।
तथात्म-मनसोर् ऐक्यं समाधिर् अभिधीयते॥(हठ योग प्रदीपिका-४.५॥)
जैसे पानी में घुलने वाला नमक उसके साथ एक हो जाता है, उसी प्रकार जब आत्मा और मन एक हो जाते हैं, तो इसे समाधि कहा जाता है।
न गंधं न रसं रूपं न च स्पर्श न निःस्वनम् ।
नात्मानं न परं वेत्ति योगी युक्तः समाधिना ।।
भावार्थ : प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास करते-करते - साधक पहले ध्यान की अवस्था में पहुँचता है - ध्यान की अवस्था का अभ्यास करते-करते साधक ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है कि उसे स्वयं का ज्ञान नहीं रह जाता और केवल ध्येय मात्र रह जाता है, तो उस अवस्था को समाधि कहते हैं। समाधि की अवस्था में सभी इन्द्रियां मन में लीन हो जाती है। व्यक्ति समाधि में लीन हो जाता है, तब उसे रस, गंध, रूप, शब्द इन 5 विषयों का ज्ञान नहीं रह जाता है। उसे अपना पराया, मान-अपमान आदि की कोई चिंता नहीं रह जाती है।
समाधि में लीन योगी को न तो गंध, स्वाद, रंग, स्पर्श, ध्वनि का अनुभव होता है, न ही वह स्वयं के प्रति सचेत रहता है।
दुर्लभो विषय-त्यागो दुर्लभं तत्त्व-दर्शनम्।
दुर्लभा सहजावस्था सद्-गुरोः करुणां विना॥हयो-४.९॥
सांसारिक सुखों के प्रति उदासीनता प्राप्त करना बहुत मुश्किल है, और परम सत्य (तुरीय अवस्था ) का ज्ञान प्राप्त करना भी उतना ही कठिन है। सच्चे गुरु/माँ सारदा की कृपा के बिना, समाधि की स्थिति प्राप्त करना बहुत मुश्किल है।
अमराय नमस् तुभ्यं सोऽपि कालस् त्वया जितः।
पतितं वदने यस्य जगद् एतच् चराचरम्॥हयो-४.१३॥
हे अमर (यानी, योगी या योगिनी जो समाधि की स्थिति में पहुंच गए हैं ), मैं आपको नमस्कार करता हूं! यहाँ तक कि स्वयं मृत्यु भी, जिसके मुँह में यह पूरी गतिशील और अचल दुनिया का प्रलय होकर गिर गई है, उस मृत्यु को भी तुम्हारे द्वारा जीत लिया गया है।
ज्ञानं कुतो मनसि सम्भवतीह तावत् प्राणोऽपि जीवति मनो म्रियते न यावत्।
प्राणो मनो द्वयम् इदं विलयं नयेद् यो मोक्षं स गच्छति नरो न कथंचिद् अन्यः॥हयो-४.१५॥
जब तक प्राण जीवित है और मन मर नहीं गया है, तब तक ज्ञान प्राप्त करना कैसे संभव हो सकता है? किसी और को मोक्ष नहीं मिल सकता सिवाय उसके जो अपने प्राण और मन को अव्यक्त कर सकता है।
सूर्य-चन्द्रमसौ धत्तः कालं रात्रिन्दिवात्मकम्।
भोक्त्री सुषुम्ना कालस्य गुह्यम् एतद् उदाहृतम्॥हयो-४.१७॥
समय (काल) , रात और दिन के रूप में, सूर्य और चंद्रमा द्वारा बनाया जाता है। यह एक बड़ा रहस्य है कि सुषुम्ना इस काल (मृत्यु) को भी निगल जाती है।
द्वा-सप्तति-सहस्राणि नाडी-द्वाराणि पञ्जरे।
सुषुम्णा शाम्भवी शक्तिः शेषास् त्व् एव निरर्थकाः॥हयो-४.१८॥
इस शरीर में 72,000 नाड़ियों के द्वार हैं; इनमें से, सुसुम्ना, जिसमें सांभवी शक्ति है, एकमात्र महत्वपूर्ण है, बाकी सब बेकार हैं।
हेतु-द्वयं तु चित्तस्य वासना च समीरणः।
तयोर् विनष्ट एकस्मिन् तौ द्वाव् अपि विनश्यतः॥हयो-४.२२॥
मन की गतिविधियों के दो कारण हैं; (1) वासना (इच्छाएं) और (2) श्वसन (प्राण)। इनमें से, एक का विनाश दोनों का विनाश है।
अथ शाम्भवी- अन्तर् लक्ष्यं बहिर् दृष्टिर् निमेषोन्मेष-वर्जिता।
एषा सा शाम्भवी मुद्रा वेद-शास्त्रेषु गोपिता॥ हयो-४.३६॥
पलकों को झपकाए बिना, बाहरी वस्तुओं की ओर निर्देशित करते हुए, अंदर की ओर ब्रह्म को निशाना बनाना, वेदों और शास्त्रों में छिपी या गुप्त सांभवी मुद्रा कहलाता है।
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🏹🔱🕊श्रीरामकृष्ण – ईश्वर दर्शन होने का लक्षण है! समाधि होती है ! समाधि पाँच प्रकार की होती है!
१) कपिवत् या बन्दर की गति – मानो महावायु कूदकर माथे पर उठ गयी और समाधि हो गयी!
("जिस प्रकार एक बन्दर पेड़ पर चढ़ता है, एक शाखा से दूसरी शाखा पर कूदता है, उसी प्रकार महावायु, महान ऊर्जा, शरीर में उठती है, एक केंद्र से दूसरे केंद्र पर कूदती है, और व्यक्ति समाधि में चला जाता है। व्यक्ति महान ऊर्जा के उठने को महसूस करता है, जैसे कि वह एक बन्दर की गति हो।)
२) मीनवत् या मछली की गति- जिस प्रकार मछली जल में उछलती-कूदती रहती है और बड़े आनंद से विचरण करती है, उसी प्रकार महावायु भी शरीर में ऊपर की ओर गति करती है, और व्यक्ति समाधि में चला जाता है। व्यक्ति महाशक्ति के ऊपर उठने का अनुभव करता है, मानो वह मछली की गति हो।
३) पक्षीवत् या पक्षी की गति – जिस प्रकार पक्षी एक शाखा से दूसरी शाखा पर जाता है। - देह-वृक्ष के भीतर महावायु पक्षी की तरह कभी इस डाल पर और कभी उस डाल पर फुदकते हुए चढ़ती है ।
४) पिपीलिकावत् या चींटी की गति – महावायु चींटी की तरह उठती है!
५) तिर्यग्वत् या तिर्यक गति- अर्थात् महावायु की गति सर्प की तरह वक्र होती है, फिर सहस्रार में पहुँचकर समाधि होती है ।"
और भी दो प्रकार की समाधि है! एक – स्थित समाधि, एकदम बाह्यशून्य; बहुत देर तक, सम्भव है, कई दिनों तक रहे! और दूसरी – उन्मना समाधी, एकाएक मन को चारों ओर से समेट कर ईश्वर में लगा देना!
1.🔱🕊🏹अद्वैत का अभिप्राय -(The Idea of Advaita)
ईश्वर (ब्रह्म), जीव (the living being) और जगत (universe, ब्रह्मांड) और - ये तीन सत्ताएँ हैं, जिनपर आध्यात्मिक अनुसन्धान करने की आवश्यकता है। विश्व के सारे दर्शन इन्हीं तीन सत्ताओं की सत्यता या असत्यता, उनके आपसी सम्बन्ध, उन्हें जानने की पद्धति इत्यादि बातों पर केंद्रित हैं। वेदान्त की तीन मुख्य धारायें हैं और कई उप धारायें हैं, जो उपरोक्त तीन सत्ताओं की सत्यता और मिथ्यात्व बारे में मतभेद पर आधारित हैं।
शंकराचार्य (ज्ञानी) माया के अस्तित्व को नहीं मानते हैं। इनके दर्शन में माया मिथ्या है इल्यूज़न है। अज्ञान के कारण ही हमें इसका बोध होता है। ज्ञान प्राप्त करने पर इसका लोप हो जाता है। क्योंकि आप एक ही सत्ता ब्रह्म की बात करते हैं इसीलिए इनके दर्शन को अ-द्वैत -वाद कहा गया है, (Non -Dualism ) .'अहम ब्रह्मास्मि' - आत्मा सो परमात्मा आदि चारों महावाक्य इसी स्कूल का प्रतिपाद्य है।
स्वामी विवेकानंद 6 मई, 1895 को श्री पेरुमल को लिखित पत्र में कहते हैं - ‘ अब मैं तुम्हें अपने आविष्कार के बारे में बताता हूँ। सारा धर्म वेदान्त में ही समाहित है, वेदांत दर्शन में द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत; एक के बाद एक क्रमशः जो तीन चरण आते हैं, वे वास्तव में मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति के तीन सोपान हैं। प्रत्येक सोपान से होकर गुजरना आवश्यक है। क्योंकि धर्म का आधारभूत तत्व यही है, अब तो धर्म का अर्थ ही अद्वैत है।’ और मायावती का अद्वैत आश्रम इस सर्वोच्च धर्म -'Vedanta' के प्रचार के प्रति समर्पित है।
वेदांत की तीन प्रमुख शाखाओं में से एक 'द्वैतवाद', उपरोक्त तीनों सत्ताओं- ईश्वर, जीव और जगत को सत्य, शाश्वत (eternal) और एक दूसरे से अलग मानता है। विशिष्टाद्वैतवाद- इस मत के अनुसार, यद्यपि जगत् और जीवात्मा दोनों ब्रह्म से भिन्न हैं, तथापि वे ब्रह्म से ही उद्भूत हैं और वे ब्रह्म से उसी प्रकार संबद्ध हैं, जैसे सूर्य से उसकी किरणें संबद्ध होती हैं। अतः ब्रह्म एक होने पर भी अनेक है। और अद्वैतवाद (अद्वैत वेदान्त ) के अनुसार, जीव और जगत दोनों ही मिथ्या हैं। केवल ब्रह्म ही वास्तविक और शाश्वत है। इस प्रकार, जैसा कि श्री रामकृष्ण बार-बार कहते थे, अद्वैत का अर्थ है कि केवल ब्रह्म ही सत्य है और बाकी सब कुछ- (परिवर्तनशील होने के कारण?) मिथ्या है। इस मत के अनुसार केवल एक ही सत्ता है- ईश्वर या ब्रह्म। आत्मा ब्रह्म से अलग नहीं है। अपने मूल रूप में ब्रह्म ही आत्मा है , लेकिन अज्ञान (अविद्या) इन्हें दो बनाए रहता है। ज्ञान प्राप्त होने पर आत्मा अपने मूल स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त कर लेती है।
2.🔱🕊 पूर्णता का मार्ग (The Path to Perfection) :
"एक शब्द में अद्वैत वेदान्त का उपदेश है -'तत्त्वमसि' - तुम्हीं वह ब्रह्म हो !' (व्यावहारिक जीवन में वेदान्त-(1)8/6) वेदान्त आदर्श का उपदेश देता है, और आदर्श हमेशा वास्तविक की अपेक्षा कहीं अधिक उच्च होता है। हमलोगों के जीवन में दो प्रवृत्तियाँ देखि जाती हैं। एक है उच्च आदर्श का सामंजस्य अपने जीवन से करना, और दूसरी है अपने जीवन को आदर्श के अनुरूप उच्च रूप में गठित कर लेना। इन दोनों का भेद भली भाँति समझ लेना चाहिए।" (व्यावहारिक जीवन में वेदान्त-(1)8 /5)
" वेदान्त सबसे पहले मनुष्य को अपने ऊपर विश्वास करने के लिए कहता है। जिस प्रकार पुराना धर्म कहता था कि जो व्यक्ति अपने से बाहर सगुण ईश्वर पर विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है, इसी प्रकार वेदान्त भी कहता है कि जो व्यक्ति अपने आप पर विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है। वेदान्त केवल यही घोषणा नहीं करता कि -" आदर्श को कार्यान्वित किया जा सकता है, अपितु यह भी कहता है कि आदर्श तो हमलोगों को पहले से ही प्राप्त है। और जिसे हम आदर्श कहते हैं वही हमारी प्रकृत सत्ता है -वही हमलोगों का स्वरुप है। " (8.6 -7)
"हमें यह देखना कि किस प्रकार यह वेदान्त हमारे दैनिक जीवन में, नागरिक जीवन में , ग्राम्य जीवन में , राष्ट्रीय जीवन में और प्रत्येक राष्ट्र के घरेलू जीवन में परिणत किया जा सकता है ? कारण, यदि धर्म (अर्थात वेदान्त ) यदि मनुष्य को जहाँ भी और जिस अवस्था में भी वह है, सहायता नहीं दे सकता, तो उसकी उपयोगिता अधिक नहीं -तब वह केवल कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लिए कोरा सिद्धान्त होकर रह जायेगा। धर्म यदि मानवता का कल्याण करना चाहता है, तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह मनुष्य की सहायता उसकी प्रत्येक दशा में कर सकने में तत्पर और सक्षम हो। चाहे वह (मन-इन्द्रियों की) गुलाम हो या आजाद , मनुष्य का घोर पतन हो चुका हो या अत्यन्त पवित्रता का जीवन जीता हो, उसे सर्वत्र मानव की सहायता कर सकने में समर्थ होना चाहिए। केवल तभी वेदान्त के सिद्धान्त अथवा धर्म के आदर्श - उन्हें तुम किसी भी नाम से पुकारो - कृतार्थ हो सकेंगे। " (8.12)
वेदान्त का मूल सिद्धांत 'आत्मा' का विचार है। शास्त्रों में कहा गया है कि हमारी निर्मिति तीन चीजों से हुई है - 3H' शरीर, मन और आत्मा। इनमें से आत्मा ही सर्व शक्तिशाली है। नश्वर शरीर और मन से परे जो शाश्वत/अविनाशी आत्मा है, जो सभी शक्तियों का भण्डार है। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि अपनी कमजोरी के बारे में (शरीर की नश्वरता पर) सोचते रहना कमजोरी का समाधान नहीं है। इसलिए, उन्होंने सकारात्मक सत्य - अविनाशी आत्मा की महिमा पर ध्यान केंद्रित करना सिखाया।
स्वामी विवेकानन्द ने घोषणा कर दी - " आत्मविशास का आदर्श ही हमारी सबसे अधिक सहायता कर सकता है। यदि इस आत्मविश्वास का - [स्वयं को (M/F) नश्वर शरीर (भेंड़) के बजाय, अविनाशी आत्मा (सिंह -शावक पद्धति 'Be and Make' का] विस्तृत रूप से प्रचार होता,और यह कार्यरूप में परिणत हो जाता, तो मेरा दृढ़ विश्वास है कि जगत में जितना दुःख और अशुभ है , उसका अधिकांश गायब हो जाता। मानवजाति के समग्र इतिहास में सभी महान स्त्री -पुरुषों में यदि कोई महान प्रेरणा सबसे अधिक सशक्त रही है तो वह यही आत्मविश्वास है। वे इस ज्ञान के साथ पैदा हुए थे कि वे महान बनेंगे (ईसा और बुद्ध जैसे प्रबल-इच्छाशक्ति सम्पन्न बनेंगे) और वे महान बने भी। मनुष्य कितनी ही अवनति की अवस्था में क्यों न पहुँच जाये , एक ऐसा समय अवश्य आता है, जब वह उस घटना से बेहद आर्त होकर एक उर्ध्वगामी मोड़ लेता है - और अपने में विश्वास करना सीखता है। किन्तु इस पद्धति को शुरू से या बचपन से ही (विवेक-वाहिनी के सिंह-शावक Be and Make' प्रशिक्षण शिविर में) सीख लेना अच्छा है। आत्मविशास सीखने के लिए हमें इतने कटु अनुभव से होकर क्यों गुजरना चाहिए ? " (8/12)
"हम में से प्रत्येक के भीतर अनन्त शक्ति है" - यह विश्वास ही हमें जबरदस्त ऊर्जा से भर देता है। स्वयं पर विश्वास या आत्मविश्वास का संवर्धन करने वाली कृषि (cultivation of faith) करने की पद्धति सीखने से - हमारी दुर्बलतायें क्रमशः दूर हो जाएगी और हम दिन-ब-दिन बलिष्ठ होते जाएंगे। (মন রে কৃষিকাজ জানো না-मन रे तुमि कृषिकाज जानो ना। एमोन मानव जमीन रोयिलो पतित, आबाद करले फोलतो सोना।-रामप्रसाद सेन, श्यामा संगीत) जो इतना डरपोक, मुर्दा और निर्बल है कि किसी की हिम्मत तोड़ने वाली, हतोत्साहित करने वाली इधर-उधर की क्या बातें सुनकर उसको इस बात से अंतर पड़ने लग जाए, या अपना B.P. ऊपर-नीचे होने लग जाये कि दस लोग कैसी-कैसी बातें कर रहे हैं ? तब तक आत्मा की प्राप्ति करना और उसकी महिमा में स्थिर रहना- ये सब बातें 'उसके' बस की नहीं हैं। क्योंकि - नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः (मुण्डकोपनिषद – 3/2/4)आत्मा को प्राप्त करने के लिये बल को प्राप्त करना आवश्यक है। जो बलहीन है वो कभी भी अपने स्वरुप के करीब नहीं पहुँच सकता।जिसको भी आत्मज्ञान पैदा न हुआ हो वो दरिद्र है - उस पर करुणा करो और उसके लिए ईश्वर से प्रार्थना करो। जीवन का सबसे बड़ा उपयोग यही है कि, इसे सभी प्राणियों की सेवा में न्योछावर कर दिया जाय।]
स्वामीजी कहते हैं, " पूर्णता का मार्ग यही है कि अपनी सभी सीमाओं को (ऐषणाओं में आसक्ति, या घोर स्वार्थपरता रूपी रुकावटों को) पीछे छोड़ देना और यह समझना कि हम सिर्फ आत्मा (100 निःस्वार्थपरता) हैं " --की और अग्रसर होते रहना ! " आत्मविश्वास के आदर्श पर चलते हुए हम अपने जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।- आत्मा की जो अनन्त शक्ति हमारे भीतर है, उसे अगर पदार्थ (matter-देह) पर लगाया जाए तो भौतिक विकास होता है। यदि उसी शक्ति को मन (mind) पर लगा दिया जाये तो बौद्धिक विकास (intellectual development) होता है। परन्तु, इसी शक्ति को यदि स्वयं अपने ऊपर ही घुमा दिया जाए तो यह हमें ईश्वर में (100 % निःस्वार्थपर देव-मानव में) रूपान्तरित कर देगी ! पहले हमें ईश्वर बन लेने दो। तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर बनाने में सहायता देंगे - बनो और बनाओ ! यही हमारा मूल-मन्त्र रहे।" (9/379) बस यही स्वामी विवेकानंद की शिक्षा है- 'Be and Make! '
[Through the Atman ideal, we can bring about success in every field. If infinite power that is within us is brought to bear upon matter, it brings about material development. If the same power is brought to bear upon the mind, it brings about intellectual development. If, however, this power is brought to bear upon itself, it will transform us into gods. This is the teaching of Swami Vivekananda.]
" Each soul is potentially divine " हममें से प्रत्येक व्यक्ति - आत्मा है; अनन्त ऊर्जा, प्रेम और पवित्रता का भण्डार (repository) है , इस बात को जान लेना और उसे अभिव्यक्त करना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। धर्म का मूलतत्व भी यही है। लेकिन इस जन्मजात दिव्यता ( innate divinity) को अभिव्यक्त कैसे किया जाए? " There are four faculties in human beings: thinking, feeling, willing and action." - मनुष्य में चार प्रकार की आन्तरिक शक्तियाँ (four faculties-क्षमता) हैं: सोचना, महसूस करना, इच्छा करना और कार्य करना। आत्मविश्वास को (या आत्मा को the inner Self को) जगाने के लिए इन चारों शक्तियों-ज्ञान, भक्ति, राजयोग और कर्म, में से अपनी-अपनी रूचि के अनुसार किसी एक का, दो का या तीन का या चारों का एकसाथ उपयोग किया जा सकता है। जिसकी रूचि चिन्तन क्षमता (thinking faculty) को विकसित करने में हो , वह ज्ञान-योग का मार्ग चुन सकता है। जिसकी रूचि महसूस करने की क्षमता (Feeling faculty-भावना संकाय) को विकसित करने में हो, वह भक्तियोग का मार्ग चुन सकता है। जिसकी रूचि इच्छाशक्ति को दृढ़ बनाने के मार्ग पर चलने की हो वह राजयोग का मार्ग चुन सकता है। और सबसे अंत में कर्मयोग या निःस्वार्थ भाव से कार्य करने का मार्ग आता है। " For this age, this last path has been specially stressed by Swamiji as this could be the religion of the masses." इस युग के लिए, स्वामीजी ने इस अंतिम मार्ग- कर्मयोग पर विशेष जोर दिया है क्योंकि यह जनसाधारण का धर्म हो सकता है।
3.🔱क्या धर्म व्यावहारिक है? (Is Religion Practical?) : अगला प्रश्न उपयोगिता का आता है। यदि धर्म का अर्थ ही अद्वैतवाद है, या वेदान्त ही धर्म का उच्चतम प्रकार है -तो इसका उपयोग क्या है ? विवेकानन्द कहते हैं - " अद्वैतवाद यदि सार्वभौमिक धर्म (universal religion) के स्थान पर आरूढ़ होना चाहता है, तो उसे सम्पूर्ण रूप से व्यावहारिक होना चाहिए। हमें अपने जीवन की सभी अवस्थाओं में उसे कार्यरूप में परिणत कर सकना चाहिए। केवल यही नहीं , अपितु आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है , उसे भी मिट जाना चाहिए। क्योंकि वेदान्त एक अखण्ड वस्तु ( oneness) के सम्बन्ध में उपदेश देता है - वेदान्त कहता है कि एक ही प्राण (one life) सर्वत्र विद्यमान है। " (८/३)
["The Vedanta, therefore, as a religion must be intensely practical. We must be able to carry it out in every part of our lives. And not only this, the fictitious differentiation between religion and the life of the world must vanish, for the Vedanta teaches oneness — one life throughout." (C.W.2/291 'PRACTICAL VEDANTA/ PART -I')
"दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद् ब्रह्ममयं जगत्" >>
देहबुद्धया तु दासोऽहं, जीवबुद्धया त्वदंशकः।
आत्मबुद्धया त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः।।
ज्ञानमय दृष्टि से संसार को ब्रह्ममय देखना चाहिए/ देहबुद्धि से तो मैं आपका दास हूँ, जीवबुद्धि से मैं आपका अंश ही हूँ, और आत्मबुद्धि से में वही हूँ जो आप हैं, यही मेरी निश्चित मति है॥ (चतुर्थ पाद में पाठभेद हैः ‘इति वेदान्तडिण्डिमः’ – अनुवादक।)
आध्यात्मिक साधक को गृहस्थ जीवन में रहकर साधना करते समय - आम तौर पर विरोध (conflict- मतभिन्नता) और व्याकुलता (confusion-घबड़ाहट) का सामना करते ही रहना पड़ता है। परस्पर विरोधी मानसिक स्थिति से पार पाने तथा परमानन्द की अवस्था (साम्यभाव की अवस्था) में निरंतर अवस्थित रहने की तीव्र इच्छा से साधक विवेकानन्द द्वारा निर्देशित एक विशेष मार्ग [Be and Make] का अनुसरण करने का अभ्यास करता है। लेकिन जब शांति और साम्यभाव के अंतिम लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अपने संगठन के ही कई भ्रातृतुल्य -और वरिष्ठ सदस्य भी अलग-अलग रास्ते अपनाते हैं। यह देखकर जब साधक उहापोह की स्थिति से बाहर निकलने का उपाय खोजने लगते हैं। तब आचार्य शंकर का वह प्रसिद्ध संस्कृत श्लोक सामने आता है जो हमें एक रास्ता बताता है और कहता है - "अपनी दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर इस जगत को ही 'ब्रह्म' के रूप में देखो।"
लेकिन जब प्रभु का काम [Be and Make] करते समय किसी अंगुलीमाल/या रावण की सेवा करनी हो तो कैसे करें ? भगवान राम हनुमान से पूछते हैं कि वे उन्हें किस रूप में देखते हैं। तब हनुमानजी कहते हैं - "हे प्रभु, जब मैं अपने शरीर के साथ अपनी पहचान करता हूँ, तो मैं आपका सेवक (द्वैत) हूँ। जब मैं अपने आप को व्यक्तिगत आत्मा (जीव - M/F conscious individual, Jiva) के रूप में मानता हूँ, तो मैं आपका अंश (विशिष्टाद्वैत) हूँ। लेकिन जब मैं अपने आप को आत्मा (शाश्वत चैतन्य Eternal consciousness) के रूप में देखता हूँ, तो मैं आपके (ईश्वर के) साथ एक हो जाता हूँ (अद्वैत)। यह मेरा निश्चित मत है।"
In this world conflict and confusion are regular companions of an spiritual aspirant. The seeker practice to follow a particular path with uttermost desire to surpass the conflicting mind set up and reach the destination of ever peaceful realm of bliss absolute. But many brotherly community spread different ways to the ultimate goal of tranquility and peace. Hence we are at a loss, and seek way out from this whole confused and distracted situation. Here comes this famous sanskrit verse which gives us a way out and speaks - Keep your vision enlightening and see this world as Brahman. When you are aware of your body then know that you are the slave, when you are the conscious individual ( Jiva) then know you are the part of the Supreme Being, and when you are the consciousness then know that- thou art that. This is my sure thought.
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🏹🔱🕊पतंजलि को गुरु परम्परा में मिली योग शिक्षा - योगसूत्र का सार-संक्षेप :
1) समाधिपाद :
अथ योग अनुशासन ॥१॥
शब्दार्थ– (अथ ) अब, ( योगानुशासनम् ) योग के अनुशासन का प्रतिपादन ।
सूत्रार्थ– अब योग के अनुशासन अर्थात स्वरूप को बताने वाले ग्रन्थ / शास्त्र को प्रारम्भ किया जाता है।
व्याख्या : योग शब्द का अर्थ वैसे तो बहुत व्यापक है, लेकिन यहा पर योग का अर्थ समाधि से लिया गया है। समाधि की प्राप्ति कैसे की जाए? इसके लिए सर्वप्रथम समाधि को समझना आवश्यक है । समाधि चित्त की सभी भूमियों में रहने वाला धर्म है। चित्त की क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्ध नामक पाँच भूमियाँ हैं। चित्त (मनवस्तु-mind stuff) का निर्माण - सत्त्व, रज, और तम से हुआ है। जिनमें से किसी भी पदार्थ ( तत्त्व ) की अधिकता या न्यूनता होने से चित्त की भूमियाँ बनती रहती है। यहाँ पर इन सभी चित्त भूमियों को विस्तार से जानने का प्रयास करते है।
(1) क्षिप्त– जब चित्त में रजोगुण की प्रधानता/ अधिकता होती है और सत्त्वगुण व तमोगुण गौण अवस्था में रहते है। तब रज के प्रभाव से व्यक्ति चञ्चल स्वभाव वाला हो जाता है। चंचलता के कारण वह अपने चित्त को अनेकों विषयों में चलाता रहता है। इस प्रकार चित्त एकाग्र नही हो पाता जिससे वह अपने लक्ष्य को निर्धारित ही नही कर पाता है। यह चित्त की क्षिप्त अवस्था है।
(2) मूढ़ – चित्त में तमोगुण के बढ़ने से और सत्त्वगुण व रजोगुण के गौण होने से व्यक्ति में आलस्य,निद्रा, तंद्रा, व मूर्छा आदि अवगुणों का प्रभाव बढ़ता है। चित्त की इस अवस्था को मूढं कहा है। इसमें किसी प्रकार के सही – गलत का भान ( ज्ञान ) नही होता है।
(3) विक्षिप्त– जब चित्त में सत्त्वगुण की अल्प मात्रा में प्रधानता होती है और साथ ही कभी – कभी रजोगुण का प्रभाव भी हो जाता है तो कुछ समय के लिए हमारा चित्त एकाग्र होता है। परन्तु रजोगुण के कारण वह एकाग्रता भंग हो जाती है। इसमें तमोगुण गौण रहता है। चित्त की इस अवस्था को विक्षिप्त कहा है।
(4) एकाग्र– जब चित्त में सत्त्वगुण की प्रधानता और रजोगुण व तमोगुण की न्यूनता होती है, तब व्यक्ति का चित्त किसी भी विषय या पदार्थ लम्बे समय तक एकाग्र होने लगता है। इससे योगी में विवेक और वैराग्य बढ़ता है। इस अवस्था में ‘सम्प्रज्ञात समाधि’ की प्राप्ति होती है जिससे वह असम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्त करने का अधिकारी बनता है। चित्त की इस अवस्था को एकाग्र कहा है।
(5) निरुद्ध– यह चित्त की अन्तिम अवस्था है। जब योगी सम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्त कर लेता है तो उसे उसमे भी कुछ दोष दिखाई देते है जिससे उसमे ‘परवैराग्य’ का भाव जागृत होने से चित्त की समस्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है। चित्त की इस निरुद्ध अवस्था को ही असम्प्रज्ञात समाधि कहा गया है।
इस असम्प्रज्ञात समाधि में ध्याता, ध्येय, व ध्यान की त्रिपुटी समाप्त होने से शुद्ध चैतन्य आत्मस्वरूप ही शेष रहता है। यही योगी के जीवन का अन्तिम लक्ष्य होता है, जिसमें ईश्वर का साक्षात्कार समाधि द्वारा होता है। इस अन्तिम लक्ष्य को कैसे प्राप्त किया जाए ?
समाधि में ध्याता, ध्येय, व ध्यान की त्रिपुटी समाप्त होने से शुद्ध चैतन्य आत्मस्वरूप ही शेष रहता है। यही योगी के जीवन का अन्तिम लक्ष्य होता है, जिसमें ईश्वर का साक्षात्कार समाधि द्वारा होता है। इस अन्तिम लक्ष्य को कैसे प्राप्त किया जाए ?
वह उपाय योगसूत्र के पहले ही सूत्र “ अथ योगानुशासनम्” में ही मिलता है। अनुशासन का अर्थ है किसी भी कार्य को उसके आवश्यक दिशा – निर्देशों का पालन करते हुए किया जाए।इन्ही आवश्यक दिशा- निर्देशों के पालन करने की बात इस सूत्र में कही गयी है। इस प्रकार से जब पूरी तरह से अनुशासित होकर किसी कार्य को प्रारम्भ किया जाता है तो उस कार्य की सफलता निश्चित हो जाती है। इसको हम एक उदाहरण के साथ समझने का प्रयास करेंगे:
मान लीजिए कि आपको किसी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना है। वहा तक पहुँचने के लिए आप अपनी सुविधानुसार एक मार्ग का चयन करतें है । इसके बाद इस बात का निर्णय लिया जाता, है कि वहाँ तक पहुँचने के लिए किस साधन (सबसे तेज वाहन - मन ) का प्रयोग किया जाए। जब आप अपनी यात्रा को शुरू करतें है तो आपको जगह- जगह पर दूरी, दिशा, रेड लाईट, ब्रेकर व अन्य सूचनाएं देते हुए साइन बोर्ड मिलते है। जिनसे आपको इस बात का पता चलता रहता है कि आपको कहाँ मुड़ना है? कहाँ गति अवरोधक है? कहाँ पर रेड लाईट है? तथा हाइवे पे गाड़ी की स्पीड कितनी होगी? लिंक रोड या लोकल रोड पर गति कितनी होगी? आदि सभी यातायात के नियमों का पालन करते हुए जब आप अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हो, तब आपकी यात्रा का सुखद व सफल होना सुनिश्चित हो जाता हैं। किसी भी प्रकार के व्यवधान की आशंका नही रहती है। क्योंकि आपने यात्रा के लिए आवश्यक दिशा- निर्देशों ( अनुशासन ) का पालन करते हुए यात्रा को पूर्ण किया है। ठीक इसी प्रकार हम अपनी योग यात्रा का प्रारम्भ भी उचित दिशा- निर्देशों ( अनुशासन ) के साथ करतें है तो सफलता निश्चित तौर से हमें मिलती है।
इसी लिए महर्षि पतंजलि ने पहले ही सूत्र में अनुशासन की बात कही है। और साथ ही हम देखें तो पूरे योगसूत्र की रचना भी एक अनुशासित तरीके से की गई है। पहले पाद का नाम है - समाधिपाद। जिसमें महर्षि पतंजलि ने पहले जीवन को अनुशासित करके मानवजीवन के लक्ष्य - चार पुरुषार्थों में अन्तिम पुरुषार्थ ( समाधि ) का निर्धारण किया है।
दूसरे पाद का नाम है -साधनपाद : में उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किस साधन ( योग साधना- मन को एकाग्र करने ) का प्रयोग किया जाए। इसके लिए अनेक योगमार्गों ( क्रिया योग, अष्टांग योग, अभ्यास- वैराग्य, ईश्वर- प्रणिधान, चित्त प्रसादन के उपाय ) का निर्देश किया है।जिनको साधक अपनी सुविधानुसार अपने अनुरूप योग मार्ग का चयन कर सके।
तीसरे विभूतिपाद में महर्षि पतंजलि जिन विभूतियों का वर्णन करते है, वो रास्ते में आने वाले सूचना पट्ट ( साइन बोर्ड ) का कार्य करती है। जिससे हमें यह पता चलता रहे कि हम सही दिशा में यात्रा कर रहें है। और इस प्रकार से ( अनुशासित होकर ) यात्रा करते हुए हम अपने जीवन के अन्तिम लक्ष्य अर्थात समाधि को प्राप्त करने के योग्य हो जाते है ।
इसी लक्ष्य को पुनः अन्तिम कैवल्य पाद में बताया गया है। अतः चाहे किसी स्थान की यात्रा हो या जीवन के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करने की यात्रा हो, उसकी सफलता को सुनिश्चित करने के लिए हमें पूर्ण रूप से अनुशासित होकर उस यात्रा को पूरा करना पड़ेगा। हमारा अनुशासन ही हमारी सफलता को निर्धारित करता है।
निष्कर्ष :
योगसूत्र योग का पहला व्यवस्थित ग्रन्थ है | जिसको चार पादो में विभक्त करते हुए महर्षि पतंजलि ने मानव जीवन के अन्तिम पुरुषार्थ अर्थात समाधि की प्राप्ति के लिए इसकी रचना की है। यह योगी साधकों के लिए योग साधना मार्ग को अत्यंत सुगम व सारगर्भित बनाने का अद्भुत कार्य किया है।]
चित्तकी वृत्तियों का निरोध ही योग है ॥२॥
तब द्रष्टा अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है ॥३॥
वृत्तियों का सारुप्य होता है इतर समय में ॥४॥
वृत्तियाँ पाँच प्रकार की - क्लेशक्त और क्लेशरहित ॥५॥
१-प्रमाण, २-विकल्प, ३-विपर्यय, ४-निद्रा तथा ५-स्मृति ॥६॥
१-प्रमाण:
प्रमाण के तीन भेद हैं: १-प्रत्यक्ष, २-प्रमाण और ३-आगम, ॥७॥
विपर्यय वृत्ति मिथ्या ज्ञान अर्थात् जिससे किसी वस्तु के यथार्थ रूप का ज्ञान न हो ॥८॥
ज्ञान जो शब्द से उत्पन्न होता है, पर वस्तु होती नहीं, विकल्प है॥९॥
ज्ञेय विषयों के अभाव को ज्ञान का आलंबन, निद्रा ॥१०॥
अनुभव में आए हुए विषयों का न भूलना, स्मृति ॥११॥
अभ्यास तथा वैराग्य के द्वारा उनका निरोध ॥१२॥
उनमें स्थित रहने का यत्न, अभ्यास ॥१३॥
वह अभ्यास दीर्घ काल तक निरन्तर सत्कार पुर्वक सेवन किए जाने पर दृढ़ भूमिका वाला होता है ॥१४॥
देखे हुए सुने हुए विषयों की तृष्णा रहित अवस्था वशीकार नामक वैराग्य है ॥१५॥
वैराग्य, जब पुरुष तथा प्रकृति की पृथकता का ज्ञान, उससे परे परम् वैराग्य जब तीनों गुणों के कार्य में भी तृष्णा नहीं रहती ॥१६॥
वितर्क विचार आनन्द तथा अस्मिता नामक स्वरूपों से संबंधित वृत्तियों का निरोध सम्प्रज्ञात है ॥१७॥
(वैराग्य से वृत्ति निरोध के बाद) शेष संस्कार अवस्था, असम्प्रज्ञात ॥१८॥
जन्म से ही ज्ञान, विदेहों अथवा प्रकृति लयों को होता है ॥१९॥
(गुरु, साधन, शास्त्र में) श्रद्धा, वीर्य (उत्साह), बुद्धि की निर्मलता, ध्येयाकार बुद्धि की एकाग्रता, उससे उत्पन्न होने वाली ऋतंभरा प्रज्ञा - पाँचों प्रकार के साधन, बाकि जो साधारण योगी हैं, उनके लिए ॥२०॥
तीव्र उपाय, संवेग वाले योगियों को शीघ्रतम सिद्ध होता है ॥२१॥
तीव्र संवेग के भी मृदु मध्य तथा अधिमात्र, यह तीन भेद होने से, अधिमात्र संवेग वाले को समाधि लाभ में विशेषता है ॥२२॥
या सब ईश्वर पर छोड़ देने से ॥२३॥ (ईश्वर प्रणिधान)
अविद्या अस्मिता राग द्वेष तथा अभिनिवेष यह पाँच क्लेश कर्म, शुभ तथा अशुभ, फल, संस्कार आशय से परामर्श में न आने वाला, ऐसा परम पुरुष, ईश्वर है ॥२४॥
उस (ईश्वर में) अतिशय की धारणा से रहित सर्वज्ञता का बीज है ॥२५॥
वह पूर्वजों का भी गुरु है, काल से पार होने के कारण ॥२६॥
उसका बोध कराने वाला प्रणव है (ॐ)॥२७॥
उस (प्रणव) का जप, उसके अर्थ की भावना सहित (करें) ॥२८॥
उससे प्रत्यक्ष चेतना की अनुभवी रूपी प्राप्ति होगी और अन्तरायों का अभाव होगा ॥२९॥
शारीरिक रोग, चित्त की अकर्मण्यता, संशय, लापरवाही, शरीर की जड़ता, विषयों की इच्छा, कुछ का कुछ समझना, साधन करते रहने पर भी उन्नति न होना, ऊपर की भुमिका पाकर उससे फिर नीचे गिरना, वित्त में विक्षेप करने वाले नौ विध्न हैं ॥३०॥
दुख, इच्छा पूर्ति न होने पर मन में क्षोभ, कम्पन, श्वास प्रवास विक्षेपों के साथ घटित होने वाले ॥३१॥
उनके प्रतिषेध के लिए एक तत्त्व का अभ्यास करना चाहिए ॥३२॥
सुखी, दुखी पण्यात्मा तथा पापात्मा व्यक्तियों के बारे में, यथा क्रम मैत्री, करुणा, हर्ष तथा उदासीनता, की भावना रखने से चित्त निर्मल एवं प्रसन्न होता है ॥३३॥
या, श्वास प्रवास की क्रिया को रोककर शरीर के बाहर स्थित करना अथवा अन्तर में धारण करने से वृत्ति निरोध होता है ॥३४॥
अथवा शब्द, स्पर्ष, रूप, गंध वाली दिव्य स्तर की वृत्ति, उत्पन्न होने पर चित्त वृत्ति का निरोध करती है क्यिंकि वह मन को बांधने वाली होती है ॥३५॥
अथवा ज्योतिषमती नाम की विशोका ज्योतियों से ॥३६॥
अथवा उनका महात्माओं का ध्यान करने से, जिनका चित्त वीतराग हो गया है ॥३७॥
अथवा निद्रा में ध्यान करने से ॥३८॥(पहले निद्रा को सत्वगुणी बनाना आवश्यक है, गीता में कहा गया है कि जब सब नींद में होते हैं, योगी जागता है। उससे यही अर्थ बनता है।)
अथवा जैसे भी (श्रद्धा से अभिमत) ध्यान ॥३९॥
(उस ध्यान से) परमाणु से परम महान तक उस निरुद्ध योगी की वशीकार अवस्था हो जाती है ॥४०॥
क्षीण हो गयी हैं वृत्तियाँ जिसकी, अभिजात मणि के समान वह द्रष्टा, वृत्तियों से उत्पन्न ज्ञान, जिन विषयों का ज्ञान ग्रहण किया जाता है, या जिस पर उस चित्त की सथिति होती है, उसी के समान रंगे जाने से, उसी के समान हो जाता है ॥४१॥
उन में से शब्द अर्थ तथा ज्ञान के तीनों विकल्प सहित मिली हुई, सवितर्क समापत्ती है ॥४२॥
शब्द तथा ज्ञान, इन विषयों के हट जाने पर तथा अपने स्वरूप की भी विस्मृती सी हो जाने पर, जब अर्थ मात्र का आभास ही शेष रह जाता है, निर्वितर्क सम्प्रज्ञात है ॥४३॥
इस प्रकार सवितर्क एवं निर्वितर्क समाधि के निरुपण से सविचार एवं निर्विचार सम्प्रज्ञात, जो कि सूक्ष्म विषय है, की भी व्याख्या हो गयी ॥४४॥
उन विषयों की सूक्ष्मता अव्यक्त प्रकृति तक है ॥४५॥
आगम तथा अनुमान से उदय ज्ञान से यह ज्ञान अलग है क्योंकि इस में विशेष रूप से अर्थ का साक्षात्कार होता है ॥४९॥
उस ऋतम्भरा प्रज्ञा से उदय होने वाले संस्कार, बाकी सब संस्कारों को काटने वाले होते हैं ॥५०॥
ऋतम्भरा प्रज्ञा के संस्कारों का भी निरोध हो जाने से, सभी संस्कारों का बीज नाश हो जाने से निर्बीज समाधि होती है ॥५१॥
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शिकागो वक्तृता : स्वामी विवेकानंद के द्वारा 19 सित. 1893 को "हिन्दू धर्म" – विषय पर दिए गए भाषण का सार संक्षेप।
" हिन्दू जाति ने अपना धर्म श्रुति — वेदों से प्राप्त किया हैं । उसकी धारणा हैं कि वेद अनादि और अनन्त हैं: श्रोताओ को, सम्भव हैं, यब बात हास्यास्पद लगे कि कोई पुस्तक अनादि और अनन्त कैसे हो सकती हैं ? किन्तु वेदों का अर्थ कोई पुस्तक हैं ही नहीं । वेदों का अर्थ हैं , भिन्न भिन्न कालों में भिन्न भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष ।
जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत मनुष्यों के पता लगने से पूर्व भी अपना काम करता चला आया था और आज यदि मनुष्यजाति उसे भूल जाए, तो भी वह नीयम अपना काम करता रहेगा , ठीक वही बात आध्यात्मिक जगत् का संचालन करनेवाले नियमों के सम्बन्ध में भी हैं । एक आत्मा का दूसरी आत्मा के साथ और जीवात्मा का आत्माओं के परम पिता-ईश्वर के साथ जो नैतिक तथा आध्यात्मिक सम्बन्ध हैं, वे उनके आविष्कार के पूर्व भी थे और हम यदि उन्हें भूल भी जाएँ, तो बने रहेंगे ।
इव नियमों या सत्यों का आविष्कार करनेवाले ऋषि कहलाते हैं और हम उनको पूर्णत्व तक पहुँची हुई आत्मा मानकर सम्मान देते हैं । श्रोताओं को यह बतलाते हुए मुझे हर्ष होता हैं कि इन महानतम ऋषियों में कुछ स्त्रियाँ भी थीं । १/८
यहाँ यह कहा जा सकता हैं कि ये नियम, नियम के रूप में अनन्त भले ही हैं, पर इनका आदि तो अवश्य ही होना चाहिए । वेद हमें यह सिखाते हैं कि सृष्टि का न आदि हैं न अन्त । विज्ञान ने हमें सिद्ध कर दिखाया हैं कि समग्र विश्व की सारी ऊर्जा-समष्टि का परिमाण सदा एक सा रहता हैं । तो फिर, यदि ऐसा कोई समय था , जब कि किसी वस्तु का आस्तित्व ही नहीं था , उस समय यह सम्पूर्ण ऊर्जा कहाँ थी ? कोई कोई कहता हैं कि ईश्वर में ही वह सब अव्यक्त रूप में निहित थी । तब तो ईश्वर कभी अव्यक्त और कभी व्यक्त हैं; इससे तो वह विकारशील हो जाएगा । प्रत्येक विकारशील पदार्थ यौगिक होता हैं और हर यौगिक पदार्थ में वह परिवर्तन अवश्वम्भावी हैं, जिसे हम विनाश कहते हैं। इस तरह तो ईश्वर की मृत्यु हो जाएगी, जो अनर्गल हैं । अतः ऐसा समय कभी नहीं था, जब यह सृष्टि नहीं थी ।
मैं एक उपमा दूँ; स्रष्टा और सृष्टि मानो दो रेखाएँ हैं, जिनका न आदि हैं , न अन्त, और जो समान्तर चलती हैं। ईश्वर नित्य क्रियाशील विधाता हैं, जिसकी शक्ति से प्रलयपयोधि में से नित्यशः एक के बाद एक ब्रह्माण्ड का सृजन होता हैं, वे कुछ काल तक गतिमान रहते हैं, और तत्पश्चात् वे पुनः विनष्ट कर दिये जाते हैं । ’ सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वकल्पयत् ’ अर्थात इस सूर्य और इस चन्द्रमा को विधाता ने पूर्व कल्पों के सूर्य और चन्द्रमा के समान निर्मित किया हैं — इस वाक्य का पाठ हिन्दू बालक प्रतिदिन करता है।
यहाँ पर मैं खड़ा हूँ और अपनी आँखें बन्द करके यदि अपने अस्तित्व — ’मैं’, ’मैं’, ’मैं’ को समझने का प्रयत्न करूँ , तो मुझमे किस भाव का उदय होता हैं ? इस भाव का कि मैं शरीर हूँ । तो क्या मैं भौतिक पदार्थों के संघात के सिवा और कुछ नहीं हूँ ? वेदों की घोषणा हैं — ’नहीं, मैं शरीर में रहने वाली आत्मा हूँ , मैं शरीर नहीं हूँ । शरीर मर जाएगा, पर मैं नहीं मरूँगा । मैं इस शरीर में विद्यमान हूँ और इस शरीर का पतन होगा, तब भी मैं विद्यमान रहूँगा ही । मेरा एक अतीत भी हैं ।’ आत्मा की सृष्टि नहीं हुई हैं, क्योकि सृष्टि का अर्थ हैं, भिन्न भिन्न द्रव्यों का संघात, और इस संघात का भविष्य में विघटन अवश्यम्भावी हैं । अतएव यदि आत्मा का सृजन हुआ, तो उसकी मृत्यु भी होनी चाहिए ।
कुछ लोग जन्म से ही सुखी होता हैं और पूर्ण स्वास्थ्य का आनन्द भोगते हैं, उन्हे सुन्दर शरीर, उत्साहपूर्ण मन और सभी आवश्यक सामग्रियाँ प्राप्त रहती हैं । दूसरे कुछ लोग जन्म से ही दुःखी होते हैं, किसी के हाथ या पाँव नहीं होते , तो कोई मूर्ख होते हैं, और येन केन प्रकारेण अपने दुःखमय जीवन के दिन काटते हैं। ऐसा क्यों ? यदि सभी एक ही न्यायी और दयालु ईश्वर ने उत्पन्न किये हों , तो फिर उसने एक को सुखी और दुसरे को दुःखी क्यों बनाया ? ईश्वर ऐसा पक्षपाती क्यों हैं ? फिर ऐसा मानने से बात नहीं सुधर सकती कि जो वर्तमान जीवनदुःखी हैं, भावी जीवन में पूर्ण सुखी रहेंगे । न्यायी और दयालु ईश्वर के राज्य में मनुष्य इस जीवन में भी दुःखी क्यों रहे ? दूसरी बात यह हैं कि सृष्टि – उत्पादक ईश्वर को मान्यता देनेवाला सिद्धान्त वैषम्य की कोई व्याख्या नहीं करता, बल्कि वह तो केवल एक सर्वशक्तिमान् पुरुष का निष्ठुर आदेश ही प्रकट करता हैं। अतएव इस जन्म के पूर्व ऐसे कारण होने ही चाहिए, जिनके फलस्वरुप मनुष्य इस जन्म में सुखी या दुःखी हुआ करते हैं । और ये कारण हैं, उसके ही पुर्वनुष्ठित कर्म ।
क्या मनुष्य के शरीर और मन की सारी प्रवृत्तियों की व्याख्या उत्तराधिकार से प्राप्त क्षमता द्वारा नहीं हो सकती ? यहाँ जड़ और चैतन्य (मन) , सत्ता की दो समानान्तर रेखाएँ हैं । यदि जड़ और जड़ के समस्त रूपान्तर ही, जो कुछ यहाँ दिख रहा है, वे ही उसके कारण सिद्ध हो सकते, तो फ़िर आत्मा के अस्तित्व को मानने की कोई आवश्यकता ही न रह जाती ।किन्तु यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि चैतन्य (विचार) का विकास जड़ से हुआ हैं, और यदि कोई दार्शनिक अद्वैतवाद अनिवार्य हैं, तो आध्यात्मिक अद्वैतवाद निश्चय ही तर्कसंगत हैं। हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि शरीर कुछ प्रवृत्तियों को आनुवंशिकता से प्राप्त करता है ; किन्तु ऐसी प्रवृत्तियों का अर्थ केवल शरीरिक रूपाकृति से है, जिसके माध्यम से केवल एक विशेष मन एक विशेष प्रकार से काम कर सकता है ।
एक विशेष प्रवृत्तिवाली जीवात्मा ’ योग्यं योग्येन युज्यते ’ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करती है, जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सब से उपयुक्त आधार हो । यह विज्ञान-संगत है, क्योंकि विज्ञान हर प्रवृत्ति की व्याख्या आदत से करना चाहता है, और आदत आवृत्तियों से बनती है- या एक ही कार्य को बार बार करने से बनती हैं । अतएव नवजात जीवात्मा की नैसर्गिक आदतों की व्याख्या के लिए आवृत्तियाँ अनिवार्य हो जाती है । और चूँकि वे प्रस्तुत जीवन में प्राप्त नहीं होती, अतः वे पिछले जीवनों से ही आयी होंगी ।
एक और दृष्टिकोण हैं । ये सभी बातें यदि स्वयंसिद्ध भी मान लें , तो में अपने पूर्व जन्म की कोई बात स्मरण क्यों नहीं रख पाता ? इसका समाधान सरल हैं । मैं अभी अंग्रेजी बोल रहा हूँ । वह मेरी मातृ भाषा नहीं हैं । वस्तुतः इस समय मेरी मातृभाषा का कोई भी शब्द मेरे चित्त में उपस्थित नहीं हैं , पर उन शब्दों को सामने लाने का थोड़ा प्रयत्न करते ही वे मन में उमड़ आते हैं । इससे यही सिद्ध होता है कि चेतना मानससागर की सतह मात्र हैं और भीतर, उसकी गहराई में, हमारी समस्त अनुभवराशि संचित हैं । केवल प्रयत्न और उद्यम किजिए, वे सब ऊपर उठ आएँगे । और आप अपने पूर्व जन्मों का भी ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे ।
यह प्रत्यक्ष एवं प्रतिपाद्य प्रमाण हैं । सत्यसाधन ही किसी परिकल्पना का पूर्ण प्रमाण होता हैं , और ऋषिगण यहाँ समस्त संसार को एक चुनौती दे रहे हैं । हमने उस रहस्य का (अष्टांग-योग का) पता लगा लिया हैं , जिससे स्मृतिसागर की गम्भीरतम गहराई तक मन्थन किया जा सकता हैं — उसका प्रयोग कीजिए और आप अपने पूर्व जन्मों का सम्पूर्ण संस्मृति प्राप्त कर लेंगे। अतएव हिन्दू का यह विश्वास हैं कि वह आत्मा हैं । ’ उसको शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि दग्ध नहीं कर सकती, जल भीगो नहीं सकता और वायु सुखा नही सकती । ’ गीता २/२३ हिन्दुओं की यह धारणा हैं कि आत्मा एक ऐसा वृत्त हैं जिसकी कोई परिधि नहीं हैं, किन्तु जिसका केन्द्र शरीर में अवस्थित हैं; और मृत्यु का अर्थ हैं, इस केन्द्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानान्तरित हो जाना । यह आत्मा जड़ की उपाधियों से बद्ध नहीं हैं । वह स्वरूपतः नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव हैं । परन्तु किसी कारण से वह अपने को जड़ से बँधी हुई पाती हैं , और अपने को जड़ ही समझती हैं ।
अब दूसरा प्रश्न हैं कि यह विशुद्ध, पूर्ण और विमुक्त आत्मा इस प्रकार जड़ का दासत्व क्यों करती हैं ? स्वमं पूर्ण होते हुए भी इस आत्मा को अपूर्ण होनें का भ्रम कैसे हो जाता हैं? पूर्ण ब्रह्म अपूर्ण कैसे हो सकता हैं ; शुद्ध, निरपेक्ष ब्रह्म अपने स्वभाव को सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण भर भी परिवर्तित कैसे कर सकता हैं ? पर हिन्दू ईमानदार हैं । वह मिथ्या तर्क का सहारा नहीं लेना चाहता । पुरुषोचित रूप में इस प्रश्न का सामना करने का साहस वह रखता हैं, और इस प्रश्न का उत्तर देता हैं - "मैं नहीं जानता ।" मैं नहीं जानता कि पूर्ण आत्मा अपने को अपूर्ण कैसे समझने लगी, जड़पदार्थों के संयोग से अपने को जड़नियमाधीन कैसे मानने लगी। ” पर इस सब के बावजूद तथ्य जो हैं , वही रहेगा । यह सभी की चेतना का एक तथ्य हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपने को शरीर मानता हैं । हिन्दू इस बात की व्याख्या करने का प्रयत्न नहीं करता कि मनुष्य अपने को शरीर क्यों समझता हैं । ’ यह ईश्वर की इच्छा हैे ’, यह उत्तर कोई समाधान नहीं हैं । यह उत्तर हिन्दू के ’मैं नहीं जानता’ के सिवा और कुछ नहीं हैं । अतएव मनुष्य की आत्मा अनादि और अमर हैं, पूर्ण और अनन्त हैं, और मृत्यु का अर्थ हैं — एक शरीर से दूसरे शरीर में केवल केन्द्र-परिवर्तन । वर्तमान अवस्था हमारे पूर्व जन्म में अनुष्ठित कर्मों द्वारा निश्चित होती हैं और भविष्य, वर्तमान कर्मों द्वारा । आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र में लगातार घूमती हुई कभी ऊपर विकास करती हैं, कभी प्रत्यागमन करती हैं ।
पर यहाँ एक दूसरा प्रश्न उठता हैं — क्या मनुष्य प्रचण्ड तूफान में ग्रस्त वह छोटी सी नौका हैं , जो एक क्षण किसी वेगवान तरंग के फेनिल शिखर पर चढ़ जाती हैं और दूसरे क्षण भयानक गर्त में नीचे ढकेल दी जाती हैं, अपने शुभ और अशुभ कर्मों की दया पर केवल इधर-उधर भटकती फिरती हैं ; क्या वह कार्य-कारण की सततप्रवाही, निर्मम, भीषण तथा गर्जनशील धारा में पड़ा हुआ अशक्त, असहाय भग्न पोत हैं, क्या वह उस कारणता के चक्र के नीचे पड़ा हुआ एक क्षुद्र शलभ हैं, जो विधवा के आँसुओं तथा अनाथ बालक की आहों की तनिक भी चिन्ता न करते हिए, अपने मार्ग में आनेवाली सभी वस्तुओं को कुचल डालता हैं ? इस प्रकार के विचार से अन्तःकरण काँप उठता हैं , पर यही प्रकृति का नियम हैं । तो फिर क्या कोई आशा ही नहीं हैं ? क्या इससे बचने का कोई मार्ग नहीं हैं ? — यही करुण पुकार निराशाविह्वल हृदय के अन्तस्तल से उपर उठी और उस करुणामय के सिंहासन तक जा पहुँची । वहाँ से आशा तथा सान्त्वना की वाणी निकली और उसने एक वैदिक ऋषि को अन्तःस्फूर्ति प्रदान की ,और उसने संसार के सामने खड़े होकर तूर्यस्वर में इस आनन्दसन्देश की घोषणा की - "शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः"-’ हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !! हे मोक्षमार्ग के पालन करनेवाले मनुष्यो ! तुम सब लोग सुनो ! मैंने उस अनादि, पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया हैं, जो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है । केवल उस पुरुष को जानकर (अवतारवरिष्ठ ठाकुर देव के नाम को जानकर) ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो । दूसरा कोई पथ नहीं ।’ — (श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २.५, ३-८) ॥
’अमृत के पुत्रो ’ — कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन हैं यह ! बन्धुओ ! इसी मधुर नाम – अमृत के अधिकारी से – आपको सम्बोधित करूँ, आप इसकी आज्ञा मुझे दे । निश्चय ही हिन्दू आपको पापी कहना अस्वीकार करता हैं । आप ईश्वर की सन्तान हैं , अमर आनन्द के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं, आप इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं । आप भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप बैं , वह मानव स्वरूप पर घोर लांछन हैं । आप उठें ! हे सिंहो ! आएँ , और इस मिथ्या भ्रम को झटक कर दूर फेक दें की आप भेंड़ हैं । आप हैं आत्मा अमर, आत्मा मुक्त, आनन्दमय और नित्य ! आप जड़ नहीं हैं , आप शरीर नहीं हैं; जड़ तो आपका दास हैं , न कि आप हैं जड़ के दास ।
अतः वेद ऐसी घोषणा नहीं करते कि यह सृष्टि – व्यापार कतिपय निर्मम विधानों का सघात हैं , और न यह कि वह कार्य-कारण की अनन्त कारा हैं ; वरन् वे यह घोषित करते हैं कि इन सब प्राकृतिक नियमों के मूल नें , जड़तत्त्व और शक्ति के प्रत्येक अणु-परमाणु में ओतप्रोत वही एक ब्रह्म (अवतार वरिष्ठ ठाकुरदेव या जगतजननी माँ काली) विराजमान हैं, ’ जिसके आदेश से वायु चलती हैं, अग्नि दहकती हैं, बादल बरसते हैं और मृत्यु पृथ्वी पर नाचती हैं। ’ — कठोपनिषद् ॥२.३.३॥
और उस पुरुष का स्वरूप क्या हैं ? वह सर्वत्र हैं, शुद्ध, निराकार, सर्वशक्तिमान् हैं, सब पर उसकी पूर्ण दया हैं । ’तू हमारा पिता हैं, तू हमारी माता हैं, तू हमारा परम प्रेमास्पद सखा हैं, तू ही सभी शक्तियों का मूल हैं; हमैं शक्ति दे । तू ही इन अखिल भुवनों का भार वहन करने वाला हैं; तू मुझे इस जीवन के क्षुद्र भार को वहन करने में सहायता दे ।’ वैदिक ऋषियों ने यही गाया हैं । हम उसकी पूजा किस प्रकार करें ? प्रेम के द्वारा ।’ ऐहिक तथा पारत्रिक समस्त प्रिय वस्तुओं से भी अधिक प्रिय जानकर उस परम प्रेमास्पद की पूजा करनी चाहिए ।’
वेद हमें प्रेम के सम्वन्ध में इसी प्रकार की शिक्षा देते हैं । अब देखें कि श्रीकृष्ण ने, जिन्हें हिन्दू लोग पृथ्वी पर ईश्वर का पूर्णावतार मानते हैं , इस प्रेम के सिद्धांत का पूर्ण विकास किस प्रकार किया हैं और हमें क्या उपदेश दिया हैं । उन्होेंने कहा हैं कि मनुष्य को इस संसार में पद्मपत्र की तरह रहना चाहिए । पद्मपत्र जैसे पानी में रहकर भी उससे नहीं भीगता, उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में रहना चाहिए — उसका हृदय ईश्वर में लगा रहे और हाथ कर्म में लगें रहें ।
शिक्षाष्टक : इहलोक या परलोक में पुरस्कार की प्रत्याशा से ईश्वर से प्रेम करना बुरी बात नहीं, पर केवल प्रेम के लिए ही ईश्वर से प्रेम करना (निःस्वार्थ प्रेम करना) सब से अच्छा हैं , और उसके निकट यही प्रार्थन करनी उचित हैं,"हे भगवन्, मुझे न तो सम्पत्ति चाहीए,न सन्तति, न विद्या। यदि तो सहस्रों बार जन्म-मृत्यु के तक्र में पडूँगा; पर हे प्रभो, केवल इतना ही दे कि मैं फल की आशा छाड़कर तेरी भक्ति करूँ, केवल प्रेम के लिए ही तुझ पर मेरा निःस्वार्थ प्रेम हो ।’ — शिक्षाष्टक ॥४॥
श्रीकृष्ण के एक शिष्य युधिष्ठिर- इस समय भारत के सम्राट् थे । उनके शत्रुओं ने (अशव्स्थामा के पिता द्रोणाचार्य से मिलकर) उन्हें राजसिंहासन से च्युत कर दीया और उन्हें अपनी सम्राज्ञी के साथ हिमालय के जंगलों में आश्रय लेना पड़ा था । वहाँ एक दिन सम्राज्ञी ने उनसे प्रश्न किया , ”मनुष्यों में सर्वोपरि पुण्यवान होते पुए भी आपको इतना दुःख क्यों सहना पड़ता हैं ?” युधिष्टर ने उत्तर दिया, ”महारानी, देखो, यह हिमालय कैसा भव्य और सुन्दर हैं। मैं इससे प्रेम करताहूँ। यह मुझे कुछ नहीं देता ; पर मेरा स्वभाव ही ऐसा हैं कि मैं भव्य और सुन्दर वस्तु से प्रेम करता हूँ और इसी कारण मैं उससे प्रेम करता हूँ। उसी प्रकार मैं ईश्वर से प्रेम करता हूँ। उस अखिल सौन्दर्य , समस्त सुषमा का मूल हैं । वही एक ऐसा पात्र हैं, जिससे प्रेम करना चाहिए । उससे प्रेम करना मेरा स्वभाव हैं और इसीलिए मैं उससे प्रेम करता हूँ । मैं किसी बात के लिए उससे प्रार्थना नहीं करता, मैं उससे कोई वस्तु नहीं माँगता । उसकी जहाँ इच्छा हो, मुझे रखें । मैं तो सब अवस्थाओं में केवल प्रेम ही उस पर प्रेम करना चाहता हूँ, मैं प्रेम में सौदा नहीं कर सकता ।” (–महाभारत, वनपर्व ॥३१.२.५॥)
वेद कहते हैं कि आत्मा दिव्यस्वरूप हैं, वह केवल पंचभूतों के बन्धन में बँध गयी हैं और उन बन्धनों के टूटने पर वह अपने पूर्णत्व को प्राप्त कर लेगीं । इस अवस्था का नाम मुक्ति हैं, जिसका अर्थ हैं स्वाधीनता — अपूर्णता के बन्धन से छुटकारा , जन्म-मृत्यु से छुटकारा । और यह बन्धन केवल ईश्वर की दया से ही टूट सकता हैं और वह दया पवित्र लोगों को ही प्राप्त होती हैं । अतएव पवित्रता ही उसके अनुग्रह की प्राप्ति का उपाय हैं। उसकी दया किस प्रकार काम करती हैं? वह पवित्र हृदय में अपने को प्रकाशित करता हैं । पवित्र और निर्मल मनुष्य इसी जीवल में ईश्वर दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता हैं ।
ॐ भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे॥
परात्पर परब्रह्म का साक्षात्कार कर लेने पर, धीर पुरूष के रूप में जीवात्मा के हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सारे सन्देह दूर हो जाते हैं। साथ ही कर्मों का भी क्षय हो जाता है। –मुण्डकोपनिषद् ॥२.२.८॥ तब वह कार्य-कारण के भयावह नियम के हाथ खिलौना नहीं रह जाता । यही हिन्दू धर्म का मूलभूत सिद्धांत हैं — यही उसका अत्यंत मार्मिक भाव हैं । अध्यात्म (अवतार वरिष्ठ की भक्ति करने का) का सबसेबड़ा लाभ है कि इसमें ग्रंथियाँ टूटती हैं, गाँठें टूटती हैं। धर्म या मानव की ग्रंथियों का विमोचन करता है, अध्यात्म व्यक्तियों के ग्रन्थ का विमोचन करता है। अध्यात्म कहता है कि, भक्ति के मार्ग पर चलोगे तो गाँठें टूट जाएँगी ग्रंथियाँ समाप्त हो जाएँगी । संशय समाप्त हो जाएगा। कर्म करते करते, आप, नैष्यकर्म की अवस्था में, पहुँच जाएँगे, जो धर्म की, अध्यात्म की, सर्वोच्च अवस्था है।
हिन्दू शब्दों और सिद्धांतों के जाल में जीना नहीं चाहता । यदि इन साधारण इन्द्रिय-संवेद्य विषयों के परे और भी कोई सत्ता है, तो वह उनका प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहता हैं । यदि उसमें कोई आत्मा हैं , जो जड़ वस्तु नहीं हैं, यदि कोई दयामय सर्वव्यापी विश्वात्मा हैं , तो वह उसका साक्षात्कार करेगा । वह उसे अवश्य देखेगा और मात्र उसी से समस्त शंकाएँ दूर होंगी ।अतः हिन्दू ऋषि आत्मा के विषय में, ईश्वर के विषय में यही सर्वोत्तम प्रमाण देता हैं : 'मैंने आत्मा का दर्शन किया हैं; मैंने ईश्वर का दर्शन किया हैं ।’ और यही पूर्णत्व की एकमात्र शर्त हैं । हिन्दू धर्म भिन्न भिन्न मत-मतान्तरों या सिद्धांतों पर विश्वास करने के लिए संघर्ष और प्रयत्न में निहित नहीं हैं, वरन् वह साक्षात्कार हैं, वह केवल विश्वास कर लेना नहीं है, वह होना और बनना हैं ।
इस प्रकार हिन्दूओं की सारी साधनाप्रणाली का लक्ष्य हैं — सतत अध्यवसाय द्वारा पू्र्ण बन जाना, दिव्य बन जाना, ईश्वर को प्राप्त करना और उसके दर्शन कर लेना। ब्रह्मविद ब्रह्मवैभवति -ब्रह्म को जानकर वही बन जाना। उस स्वर्गस्थ पिता के समान पूर्ण (निःस्वार्थपर = ईश्वर) हो जाना — हिन्दूओं का धर्म हैं ।
और जब मनुष्य पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता हैं, तब क्या होता हैं ? तव वह असीम परमानन्द का जीवन व्यतीत करता हैं। जिस प्रकार एकमात्र वस्तु में मनुष्य को सुख पाना ताहिए, उसे अर्थात् ईश्वर को पाकर वह परम तथा असीम आनन्द का उपभोग करता हैं और ईश्वर के साथ भी परमानन्द का आस्वादन करता हैं । यहाँ तक सभी हिन्दू एकमत हैं । भारत के विविध सम्प्रदायों का यह सामान्य धर्म हैं । परन्तु पूर्ण निरपेक्ष होता हैं, और निरपेक्ष दो या तीन नहीं हो सकता । उसमें कोई गुण नहीं हो सकता, वह व्यक्ति नहीं हो सकता । अतः जब आत्मा पूर्ण और निरपेक्ष हो जाती हैं, तब वह ईश्वर को केवल सच्चिदानन्द के रूप में (परम् सत्, परम् चित्, परम् आनन्द के रूप में) प्रत्यक्ष करती हैं । — इसी साक्षात्कार के विषय में हम बारम्बार पढ़ा करते हैं कि उसमें मनुष्य अपने व्यक्तित्व को खोकर जड़ता प्राप्त करता हैं या पत्थर के समान बन जाता हैं । मैं आपको बताता हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं होती ।
-"जाके पाँव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई!" जिसके पैरों में छाले पड़े, वही दूसरे का दर्द समझेगा।’जिन्हें चोट कभी नहीं लगी हैं, वे ही चोट के दाग की ओर हँसी की दृष्टि से देखते हैं ।’यदि इस एक क्षुद्र शरीर की चेतना से इतना आनन्द होता हैं, तो दो शरीरों की चेतना का आनन्द अधिक होना ताहिए ,और उसी प्रकार क्रमशः अनेक शरीरों की चेतना के साथ आनन्द की मात्रा भी अधिकाधिक बढ़नी चाहिए। और विश्वचेतना का बोध होने पर आनन्द की परम अवस्था प्राप्त हो जाएगी ।
अतः उस असीम विश्वव्यक्तित्व की प्राप्ति के लिए (अर्थात माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं' के साथ एकत्व की अनुभूति प्राप्त करने के लिए); इस कारास्वरूप दुःखमय क्षुद्र व्यक्तित्व का (M/F वाले देहाध्यास) का अन्त होना ही चाहिए । जब मैं प्राण स्वरूप से एक हो जाऊँगा, तभी मृत्यु के हाथ से मेरा छुटकारा हो सकता हैं ! जब मैं आनन्दस्वरूप हो जाऊँगा, तभी दुःख का अन्त हो सकता हैं; जब मैं ज्ञानस्वरूप हो जाऊँगा, तभी सब अज्ञान का अन्त हो सकता हैं, और यह अनिवार्य वैज्ञानिक निष्कर्ष भी हैं।
विज्ञान ने हमारे निकट यह सिद्ध कर दिया हैं कि हमारा यह 'भौतिक व्यक्तित्व' (M/F वाला देहाध्यास) भ्रम मात्र हैं, वास्तव में मेरा यह शरीर एक अविच्छन्न जड़सागर में एक क्षुद्र सदा परिवर्तित होता रहने वाला पिण्ड हैं , और मेरे दूसरे पक्ष — आत्मा — के सम्बन्ध में अद्वैत ही अनिवार्य निष्कर्ष हैं । विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं हैं । ज्यों हि कोई विज्ञान पूर्ण एकता तक पहुँच जाएगी, त्यों ही उसकी प्रगति रूक जाएगी; क्योंकि तब वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा ।
उदाहरणार्थ, रसायनशास्त्र यदि एक बार उस मूल-तत्व का पता लगा ले, जिससे और सब द्रव्य बन सकते हैं, तो फिर वह आगे नहीं बढ़ सकेगा । वैसे भौतिक शास्त्र जब उस मूल शक्ति का पता लगा लेगा, अन्य शक्तियाँ जिसकी अभिव्यक्ति हैं, तब वह रुक जाएगा । वैसे ही, धर्मशास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त कर लेगा, जब वह उस (आत्मा और ब्रह्म के एकत्व) को खोज लेगा, जो इस मृत्यु- लोक में एक मात्र जीवन हैं। जो इस परिवर्तनशील जगत् का शाश्वत आधार हैं, जो एकमात्र परमात्मा हैं, अन्य सब आत्माँयें जिसकी प्रतीयमान अभिव्यक्तियाँ हैं । इस प्रकार अनेकता और द्वैत में से होते हुए, पहले विशिष्टाद्वैत , फिर इस परम अद्वैत की प्राप्ति होती हैं । धर्म इससे आगे (अद्वैत से आगे) नहीं जा सकता । यही समस्त विज्ञानों का चरम लक्ष्य हैं । समग्र विज्ञान अन्ततः इसी निष्कर्ष पर अनिवार्यतः पहुँचेंगे । आज विज्ञान का शब्द अभिव्यक्ति (projection-प्रक्षेपण) हैं, सृष्टि (creation-सृजन) नहीं ! और हिन्दू को यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हैं कि जिसको वह अपने अन्तस्तल में इतने युगों से महत्त्व देता रहा हैं, अब उसी की शिक्षा अधिक सशक्त भाषा में विज्ञान के नूतनतम निष्कर्षों के (सर्न प्रयोगशाला -LHC में गॉड पार्टिकल के) अतिरिक्त प्रकाश में दी जा रही हैं ।
अब हम वेदान्त दर्शन की आदर्श से उतरकर ज्ञानरहित लोगों के धर्म की ओर आते हैं। यह मैं प्रारम्भ में ही आप को बता देना चाहता हूँ कि भारतवर्ष में अनेकेश्वरवाद बिल्कुल भी नहीं हैं । प्रत्येक मन्दिर में यदि कोई खड़ा होकर सुने , तो यही पाएगा कि भक्तगण सर्वव्यापित्व आदि ईश्वर के सभी गुणों का आरोप उन मूर्तियों में करते हैं । यह अनेकेश्वरवाद नहीं हैं, और न एकदेव-वाद से ही इस स्थिति की व्याख्या हो सकती हैं । ’ गुलाब को चाहे दूसरा कोई भी नाम क्यों न दे दिया जाए, पर वह सुगन्धि तो वैसी ही मधुर देता रहेगा ।’ नाम ही व्याख्या नहीं होती ।
यहाँ बचपन की एक बात मुझे याद आती है। एक ईसाई पादरी कुछ मनुष्यों की भीड़ जमा करके धर्मोंपदेश कर रहा था । वहुतेरी मजेदार बातों के साथ वह पादरी यह भी कह गया , ”अगर मैं तुम्हारी देवमूर्ति को एक डंडा लगाऊँ, तो वह मेरा क्या कर सकती हैं ?” एक श्रोता ने चट चुभता सा जवाब दे डाला, ”अगर मैं तुम्हारे ईश्वर को गाली दे दूँ, तो वह मेरा क्या कर सकता हैं ?” पादरी बोला,”मरने के बाद वह तुम्हें सजा देगा ।” हिन्दू भी तनकर बोल उठा, ” तुम मरोगे, तब ठीक उसी तरह हमारी देवमूर्ति भी तुम्हें दण्ड देगी ।”
वृक्ष अपने फलों से जाना जाता हैं । जब मूर्तिपूजक कहे जानेवाले लोगों में ऐसे मनुष्यों को पाता हूँ, जिनकी नैतिकता, आध्यात्मिकता और प्रेम अपना सानी नहीं रखते, तब मैं रुक जाता हूँ और अपने से यही पूछता हूँ — ’क्या पाप से भी पवित्रता की उत्पत्ति हो सकती हैं ?" अन्धविश्वास (Superstition) मनुष्य का महान् शत्रु हैं, पर धर्मान्धता (fanaticism)- तो उससे भी बढ़कर हैं । ईसाई गिरजाघर क्यों जाता हैं ? क्रूस क्यों पवित्र हैं? प्रार्थना के समय आकाश की ओर मुँह क्यों किया जाता हैं ? कैथोलिक ईसाइयों के गिरजाघरों में इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं ? प्रोटेस्टेन्ट ईसाइयों के मन में प्रार्थना के समय इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं ? मेरे भाइयो ! मन में किसी मूर्ति के आए बिना कुछ सोच सकना उतना ही असम्भव हैं, जितना श्वास लिये बिना जीवित रहना । साहचर्य के नियम (law of association) के नुसार भौतिक मूर्ति से मानसिक भावविशेष का उद्दीपन हो जाता हैं , अथवा मन में भावविश्ष का उद्दीपन होने से तदनुरुप मूर्तिविशेष के चारित्रिक गुणों का आविर्भाव भी भक्त में होता हैं । इसीलिए तो हिन्दू आराधना के समय बाह्य प्रतीक का उपयोग करता हैं ।
वह आपको बतलाएगा कि यह बाह्य प्रतीक उसके मन को ध्यान के विषय परमेश्वर में एकाग्रता से स्थिर रखने में सहायता देता हैं । वह भी यह बात उतनी ही अच्छी तरह से जानता हैं, जितना आप जानते हैं कि वह मूर्ति न तो ईश्वर ही हैं और न सर्वव्यापी ही । और सच पूछिए तो दुनिया के लोग ’सर्वव्यापीत्व’ (omnipresent) का क्या अर्थ समझते हैं ? वह तो केवल एक शब्द या प्रतीक मात्र हैं । क्या परमेश्वर का भी कोई क्षेत्रफल हैं ? यदि नहीं, तो जिस समय हम सर्वव्यापी शब्द का उच्चारण करते हैं , उस समय विस्तृत आकाश या देश की ही कल्पना करने के सिवा हम और क्या करते हैं ? अपनी मानसिक सरंचना के नियमानुसार, हमें किसी प्रकार अपनी अनन्तता की भावना को नील आकाश या अपार समुद्र की कल्पना से सम्बद्ध करना पड़ता हैं।
उसी तरह हम पवित्रता के भाव को अपने स्वभावनुसार गिरजाघर, मसजिद, किसी पवित्र ग्रन्थ या क्रूस के साथ जोड़ लेते हैं । प्रश्न हो सकता है कि हिन्दू लोग पवित्रता, नित्यत्व, सर्वव्यापित्व आदि आदि भावों का सम्बन्ध विभिन्न देव-देवियों की मूर्तियों और रूपों से ही क्यों जोड़ते हैं ? अन्तर यह हैं कि जहाँ अन्य लोग अपना सारा जीवन किसी गिरजाघर की मूर्ति की भक्ति में ही बिता देते हैं; और उससे आगे नहीं बढ़ते। क्योकि उनके लिए तो धर्म का अर्थ इतना ही है कि कुछ विशिष्ट सिद्धान्तों (theory of Genesis) को वे अपनी बुद्धि द्वारा स्वीकार कर लें और अपने मानव-बन्धुओं की भलाई करते रहें।
— वहीं एक हिन्दू की सारी धर्मभावना प्रत्यक्ष अनुभूति या आत्मसाक्षात्कार में केन्द्रीभूत होती हैं । मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके दिव्य बनना हैं । मूर्तियाँ, मन्दिर , गिरजाघर या ग्रन्थ तो धर्म जीवन में केवल आघार या सहायकमात्र हैं; पर उसे उत्तरोतर उन्नति ही करनी चाहिए । मनुष्य को कहीं पर रुकना नहीं चाहिए । शास्त्र का वाक्य हैं कि ’बाह्य पूजा या मूर्तिपूजा सबसे नीचे की अवस्था हैं; आगे बढ़ने का प्रयास करते समय मानसिक प्रार्थना साधना की दूसरी अवस्था हैं, और सबसे उच्च अवस्था तो वह हैं, जब परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाए ।’ — महानिर्वाणतन्त्र ॥४.१२ ॥ देखिए, वही अनुरागी साधक, जो पहले मूर्ति के सामने प्रणत रहता था, अब क्या कह रहा है —
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥
’सूर्य उस परमात्मा को प्रकाशित नहीं कर सकता, न चन्द्रमा या तारागण ही; वब विद्युत प्रभा भी परमेश्वर को उद्भासित नहीं कर सकती, तब इस सामान्य अग्नि की बात ही क्या ! ये सभी इसी परमेश्वर के कारण प्रकाशित होते हैं ।’ — कठोपनिषद् ॥२.२.१५॥ परन्तु एकत्व की अनुभूति करने के बाद भी वह किसी की मूर्ति को गाली नहीं देता और न उसकी पूजा को पाप ही बताता हैं । वह तो उसे जीवन की एक आवश्यक अवस्था (पड़ाव) जानकर उसको स्वीकार करता हैं । ’बालक ही मनुष्य का जनक हैं ।’ तो क्या किसी वृद्ध पुरुष के बचपन या युवावस्था को पाप या बुरा कहना उचित होगा ? उसी तरह यदि कोई मनुष्य अपने दिव्य स्वरूप को मूर्ति की सहायता से अनुभव कर सकता हैं , तो क्या उसे पाप कहना ठीक होगा ? और जब वह अवस्था से परे पहुँच गया हैं, तब भी उसके लिए मूर्ति पूजा को भ्रमात्मक कहना उचित नहीं हैं । हिन्दू की दृष्टि में मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं जा रहा हैं, वह तो सत्य से सत्य की ओर, निम्न श्रेणी के सत्य से उच्च श्रेणी के सत्य की ओर अग्रसर हो रहा हैं । १/१८
[" बालक ही मनुष्य का जनक है " (Child is father of the man) एक मुहावरा है जो विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता "माई हार्ट लीप्स अप" से लिया गया है। इस मुहावरे की कई अलग-अलग व्याख्याएँ हैं, जिनमें से सबसे लोकप्रिय व्यख्या यह है कि मनुष्य अपने विद्यार्थीजीवन में या युवावस्था में जिन शुभ-अशुभ आदतों को अपनी प्रवृत्ति के रूप में विकसित कर लेता है- उसका जीवन, उसका चरित्र उन्हीं शुभाशुभ आदतों का उदाहरण स्वरुप बन जाता है !
"Child is father of the man" is an idiom originating from the poem "My Heart Leaps Up" by William Wordsworth. There are many different interpretations of the phrase, the most popular of which is that man is the product of habits and behavior developed in youth.]
हिन्दू के मतानुसार निम्न जड़-पूजावाद (lowest idol-worship) से लेकर सर्वोच्च अद्वैतवाद (highest Advaita) तक जितने धर्म हैं, वे सभी अपने जन्म तथा साहर्चय की अवस्था द्वारा निर्धारित होकर उस असीम के ज्ञान तथा उपलब्धि के निमित्त मानवत्मा के विविध प्रयत्न हैं ,और यह प्रत्येक मनुष्य उन्नति की एक अवस्था को सूचित करता हैं । प्रत्येक मनुष्य उस युवा गरुड़ पक्षी के समान हैं , जो धीरे धीरे उँचा उ़ड़ता हुआ तथा अधिकाधिक शक्तिसंपादन करता हुआ अन्त नें उस भास्वर सूर्य तक पहुँच जाता हैं ।
अनेकता में एकता प्रकृति का विधान हैं (Unity in diversity is the law of nature) और हिन्दुओं ने इसे स्वीकार किया हैं ।१/१८ अन्य प्रत्येक धर्म में कुछ निर्दिष्ट मतवाद सभी के लिए विधि-बद्ध (codified-कूटबद्ध) कर दिये गये हैं और सारे समाज को उन्हें मानना अनिवार्य कर दिया जाता हैं । वह समाज के समाने केवल एक कोट रख देता हैं, जो जैक, जाँन और हेनरी, सभी को ठीक होना चाहिए । यदि जाँन या हेनरी के शरीर में ठीक नहीं आता, तो उसे अपना तन ढँकने के लिए बिना कोट के ही रहना होगा । हिन्दुओं मे यह जान लिया हैं कि निरपेक्ष ब्रह्मतत्त्व का साक्षात्कार , चिन्तन या वर्णन सापेक्ष (मूर्त आदर्श) के सहारे ही हो सकता हैं। और मूर्तियाँ, क्रूस या नवोदित चन्द्र केवल विभिन्न प्रतीक हैं, वे मानो बहुत सी खूँटियाँ हैं , जिनमें धार्मिक भावनाएँ लटकायी जाती हैं । ऐसा नहीं हैं कि इन प्रतीकों की आवश्यकता हर एक के लिए हो, किन्तु जिनको अपने लिए इन प्रतीकों की सहायता की आवश्यकता नहीं हैं, उन्हें यह कहने का अधिकार नहीं हैं कि वे गलत हैं । हिन्दू धर्म में वे अनिवार्य नहीं हैं ।
एक बात आपको अवश्य बतला दूँ । भारतवर्ष में मूर्ति पूजा कोई जधन्य बात नहीं हैं । वह व्यभिचार की जननी नहीं हैं । वरन् वह अविकसित मन के लिए उच्च आध्यात्मिक भाव को ग्रहण करने का उपाय हैं । अवश्य, हिन्दुओं के बहुतेरे दोष हैं , उनके कुछ अपने अपवाद हैं, पर यह ध्यान रखिए कि उनके दोष अपने शरीर को ही उत्पीड़ित करने तक सीमित हैं , वे कभी अपने पड़ोसियों का गला नहीं काटने जाते। कोई हिन्दू धर्मान्ध भले ही चिता पर अपने आप के जला डाले , पर वह विधर्मियों को जलाने के लिए ’इन्क्विजिशन ’ (विधर्मियों की जाँच) की अग्नि कभी भी प्रज्वलित नहीं करेगा । और इस बात के लिए उससे अधिक दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जितना डाइनों को जलाने का दोष ईसाई धर्म पर मढ़ा जा सकता हैं ।
अतः हिन्दुओं की दृष्टि में समस्त धर्मजगत् भिन्न भिन्न रुचिवाले स्त्री-पुरुषों की, विभिन्न अवस्थाओं एवं परिस्थियों में से होते हुए एक ही लक्ष्य की ओर यात्रा हैं, प्रगति हैं । प्रत्येक धर्म जड़भावापन्न मानव (पशु-मानव से देव-मानव) एक ईश्वर का उद्भव कर रहा हैं, और वही ईश्वर उन सब धर्मों का प्रेरक हैं । तो फिर इतने परस्पर विरोध क्यों हैं ? हिन्दुओं का कहना हैं कि ये विरोध केवल आभासी हैं । उनकी उत्पत्ति सत्य के द्वारा भिन्न अवस्थाओं और प्रकृतियों के अनुरुप अपना समायोजन करते समय होती हैं ।
वही एक ज्योति भिन्न भिन्न रंग के काँच में से भिन्न भिन्न रूप से प्रकट होती हैं । समायोजन के लिए इस प्रकार की अल्प विविधता आवश्यक हैं । परन्तु प्रत्येक के अन्तस्तल में उसी सत्य का राज हैं । ईश्वर ने अपने कृष्णावतार में हिन्दुओं को यह उपदश दिया हैं , ’प्रत्येक धर्म में मैं , मोती की माला में सूत्र की तरह पिरोया हुआ हूँ ।’ — गीता ॥७.७॥ ’जहाँ भी तुम्हें मानवसृष्टि को उन्नत बनानेवाली और पावन करनेवाली अतिशय पवित्रता और असाधारण शक्ति दिखाई दे, तो जान लो कि वह मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ हैं ।’ –गीता ॥१०.४१॥ और इस शिक्षा का परिणाम क्या हुआ ? सारे संसार को मेरी चुनौती हैं कि वह समग्र संस्कृत दर्शनशास्त्र में मुझे एक ऐसी उक्ति दिखा दे, जिसमें यह बताया गया हो कि केवल हिन्दुओं का ही उद्धार होगा और दूसरों का नहीं । व्यास कहते हैं, ’हमारी जाति और सम्प्रदाय की सीमा के बाहर भी पूर्णत्व तक पहुँचे हुए मनुष्य हैं ।’ –वेदान्तसूत्र ॥३.४.३६॥ एक बात और हैं । ईश्वर में ही अपने सभी भावों को केन्द्रित करनेवाला हिन्दू अज्ञेयवादी बौद्ध और निरीश्वरवादी जैन धर्म पर कैसे श्रद्धा रख सकता हैं ?यद्यपि बौद्ध और जैन ईश्वर पर निर्भर नहीं रहते, तथापि उनके धर्म की पूरी शक्ति प्रत्येक धर्म के महान् केन्द्रिय सत्य — मनुष्य में ईश्वरत्व — के विकास की ओर उन्मुख हैं । उन्हौंने पिता को भले न देखा हो, पर पुत्र को अवश्य देखा हैं । और जिसने पुत्र को देख लिया , उसने पिता को भी देख लिया ।
भाइयों ! हिन्दुओं के धार्मिक विचारों की यहीं संक्षिप्त रूपरेखा हैं । हो सकता हैं कि हिन्दू अपनी सभी योजनाओं की कार्यान्वित करने में असफल रहा हो , पर यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म होना हैं, तो वह किसी देश या काल से सीमाबद्ध नहीं होगा, वह उस असीम ईश्वर के सदृश ही असीम होगा, जिसका वह उपदेश देगा।
जिसका सूर्य श्रीकृष्ण और ईसा के अनुयायियों पर, सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाश विकीर्ण करेगा , जो न तो ब्रह्माण होगा , न बौद्ध, न ईसाई और न इस्लाम , वरन् इन सब की समष्टि होगा। किन्तु फिर भी जिसमें विकास के लिए अनन्त अवकाश होगा; जो इतना उदार होगा कि पशुओं के स्तर से सिंचित उन्नत निम्नतम घृणित जंगली मनुष्य से लेकर अपने हृदय और मस्तिष्क के गुणों के कारण मानवता से इतना ऊपर उठ गये हैं कि उच्चतम मनुष्य तक को, जिसके प्रति सारा समाज श्रद्धामत हो जाता हैं और लोग जिसके मनुष्य होने में सन्देह करते हैं, अपनी बाहुओं से आलिंगन कर सके और उनमें सब को स्थान दे सके ।
वह सार्वभौमिक धर्म " Be and Make " ऐसा होगा, जिसकी नीति में उत्पीड़ित या असहिष्णुता का स्थान नहीं होगा ; वह प्रत्येक स्त्री और पुरुष में अंतर्निहित दिव्यता का स्वीकार करेगा, और उसका सम्पूर्ण बल और सामर्थ्य मानवता को अपनी सच्ची दिव्य प्रकृति का साक्षात्कार करने के किए सहायता देने में ही केन्द्रित होगा । आप ऐसा ही धर्म - " Be and Make " सामने रखिए , और सारे राष्ट्र आपके अनुयायी बन जाएँगे । सम्राट् अशोक की परिषद् बौद्ध परिषद थी । अकबर की नवरत्न परिषद् अधिक उपयुक्त होती हुई भी, केवल बैठकबाजों की गोष्ठी भर थी ।
किन्तु पृथ्वी के कोने कोने में यह घोषणा करने का गौरव अमेरिका के लिए ही सुरक्षित था कि ’प्रत्येक धर्म में ईश्वर हैं ।’ वह, जो हिन्दुओं का बह्म, पारसियों का अहुर्मज्द, बौद्धो का बुद्ध, यहूदियों का जिहोवा और ईसाइयों का स्वर्गस्थ पिता हैं , आपको अपने उदार उद्देश्य को कार्यन्वित करने की शक्ति प्रदान करे ! नक्षत्र पूर्व गगन में उदित हुआ और कभी धुँधला और कभी देदीप्यमान होते हुए धीरे धीरे पश्चिम की ओर यात्रा करते करते उसने समस्त जगत् की परिक्रमा कर डाली और अब फिर प्राची के क्षितिज में सहस्र गुनी अधिक ज्योति के साथ उदित हो रहा हैं ! ऐ स्वाधीनता की मातृभूमि कोलम्बिया तू धन्य हैं ![अमेरिका का दूसरा नाम-कोलम्बस ने इसका आविष्कार किया था, इसीलिए इसका नाम कोलम्बिया पड़ा], यह तेरा सौभाग्य हैं कि तूने अपने पड़ोसियों के रक्त से अपने हाथ कभी नहीं भिगोये , तूने अपने पड़ोसियों का सर्वस्व हरण कर सहज में ही धनी और सम्पन्न होने की चेष्टा नहीं की, अतएव समन्वय की ध्वजा फहराते हुए सभ्यता की अग्रणी होकर चलने का सौभाग्य तेरा ही था ।
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