🔱 *परिच्छेद~ ११०
(१)
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏卐गृहस्थ भक्त और रसददार बलराम बसु के घर में अन्तरंग भक्तों का सम्मेलन 🙏卐
आज फाल्गुन की कृष्णा दशमी है, बुधवार, ११ मार्च, १८८५ । आज दस बजे के लगभग दक्षिणेश्वर से आकर बलराम बसु के यहाँ श्रीरामकृष्ण ने जगन्नाथजी का प्रसाद ग्रहण किया । उनके साथ लाटू आदि भक्त भी हैं ।
ফাল্গুন কৃষ্ণা দশমী তিথি, পূর্বাষাঢ়ানক্ষত্র, ২৯শে ফাল্গুন, বুধবার — ইংরেজী ১১ই মার্চ, ১৮৮৫। আজ আন্দাজ বেলা দশটার সময় শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বর হইতে আসিয়া ভক্তগৃহে বসু বলরাম-মন্দিরে শ্রীশ্রীজগন্নাথের প্রসাদ পাইয়াছেন। সঙ্গে লাটু প্রভৃতি ভক্ত।
ON THE MORNING of Wednesday, March 11, Sri Ramakrishna and some of his disciples visited Balaram Bose's house. Balaram was indeed blessed among the householder disciples of the Master.
बलराम, तुम धन्य हो ! आज तुम्हारा ही घर श्रीरामकृष्ण का प्रधान कार्य-क्षेत्र हो रहा है । यहाँ श्रीरामकृष्ण कितने ही नये नये भक्तों को आकर्षित कर प्रेमरज्जु से बाँध रहे हैं, भक्तों के साथ कितना नृत्य करते हैं, गाते हैं । मानो श्रीचैतन्यदेव ने श्रीवास के भवन में प्रेम की हाट बसा दी हो !
ধন্য বলরাম! তোমারই আলয় আজ ঠাকুরের প্রধান কর্মক্ষেত্র হইয়াছে। কত নূতন নূতন ভক্তকে আকর্ষণ করিয়া প্রেমডোরে বাঁধিলেন, ভক্তসঙ্গে কত নাচিলেন। গাইলেন। যেন শ্রীগৌরাঙ্গ শ্রীবাসমন্দিরে প্রেমের হাট বসাচ্ছেন!
Sri Ramakrishna often described him as a rasaddar, or supplier of stores, appointed by the Divine Mother to take care of his physical needs. Balaram's house in Calcutta had been sanctified many times by the Master's presence. There he frequently lost himself in samadhi, dancing, singing, or talking about God.
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में बैठे हुए रोते हैं, अपने अन्तरंगों को देखने के लिए व्याकुल हो जाते हैं, रात को नींद नहीं आती । जगदम्बा से कहते हैं, "माँ, उसे बड़ी भक्ति है, उसे तुम खींच लो; माँ उसे यहाँ ले आओ; अगर वह न आ सके तो माँ, मुझे ही वहाँ ले चलो, मैं उसे देख लूँ ।"
इसीलिए श्रीरामकृष्ण बलराम के यहाँ दौड़ आते हैं । लोगों से कहा कहते हैं, बलराम के यहाँ श्रीजगन्नावजी की सेवा होती है, उसका अन्न बड़ा शुद्ध है ।" जब आते हैं तब बलराम को भक्तों को न्योता देने के लिए भेजते हैं; कहते हैं "जाओ, नरेन्द्र को, भवनाथ को, राखाल को न्योता दे आओ । छोटा नरेन्द्र नारायण इन सब को न्योता दे आओ । इन्हें खिलाने से नारायण को खिलाना होता है । ये ऐसे-वैसे नहीं हैं, ये ईश्वरांश से पैदा हुए हैं । इन्हें खिलाने पर तुम्हारा बहुत कल्याण होगा ।”
দক্ষিণেশ্বরের কালীবাটীতে বসে বসে কাঁদেন, নিজের অন্তরঙ্গ দেখিবেন বলে ব্যাকুল! রাত্রে ঘুম নাই। মাকে বলেন, “মা, ওর বড় ভক্তি, ওকে টেনে নাও; মা, একে এখানে এনে দাও; যদি সে না আসতে পারে, তাহলে মা আমায় সেখানে লয়ে যাও, আমি দেখে আসি।” তাই বলরামের বাড়ি ছুটে ছুটে আসেন। লোকের কাছে কেবল বলেন, “বলরামের ৺জগন্নাথের সেবা আছে, খুব শুদ্ধ অন্ন।” যখন আসেন অমনি নিমন্ত্রণ করিতে বলরামকে পাঠান। বলেন, “যাও — নরেন্দ্রকে, ভবনাথকে, রাখালকে নিমন্ত্রণ করে এসো। এদের খাওয়ালে নারায়ণকে খাওয়ানো হয়। এরা সামান্য নয়, এরা ঈশ্বরাংশে জন্মেছে, এদের খাওয়ালে তোমার খুব ভাল হবে।”
Those of the Master's disciples and devotees who could not go to Dakshineswar visited him there and received his instruction. He often asked Balaram to invite young disciples such as Rakhal, Bhavanath, and Narendra to his house, saying: "These pure souls are the veritable manifestations of God. To feed them is to feed God Himself. They are born with special divine attributes. By serving them you will be serving God."
बलराम के ही यहाँ गिरीश घोष के साथ पहली बार बैठकर बातचीत हुई थी । यहीं रथ के समय कीर्तनानन्द हुआ करता है । यहीं कितने ही बार प्रेम का दरबार लगा और आनन्द की हाट जमी ।
বলরামের আলয়েই শ্রীযুক্ত গিরিশ ঘোষের সঙ্গে প্রথম বসে আলাপ। এইখানেই রথের সময় কীর্তনানন্দ। এইখানেই কতবার “প্রেমের দরবারে আনন্দের মেলা” হইয়াছে।
And so it happened that whenever the Master was at Balaram's house the devotees would gather there. It was the Master's chief vineyard in Calcutta. It was here that the devotees came to know each other intimately.
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏卐"पश्यति तव पन्थानम्" ^ - मानो कोई अदृश्य शक्ति मुझे यहाँ खींच लायी है !🙏卐
[^ " रचयति शयनं सचकित-नयनं पश्यति तव पन्थानम् "
`चकित दृष्टि से तुम्हारे आगमन-पथ की ओर देखने लगते हैं' ~जयदेव का श्रीगीतगोविन्दम्]
[“পশ্যতি তব পন্থানম্” — ছোট নরেন ]
मास्टर पास ही के विद्यालय में पढ़ाते हैं । उन्होंने सुना है; आज दस बजे श्रीरामकृष्ण बलराम के यहाँ आयेंगे । बीच में पढ़ाई से थोड़ा अवकाश मिलने पर दोपहर के समय वे वहाँ गये । श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण भोजन के बाद बैठकखाने में जरा विश्राम कर रहे हैं । बीच बीच में मसाला निकालकर खा रहे हैं । कुछ कम उम्रवाले भक्त उन्हें चारों ओर से घेरे हुए हैं।
মাস্টার নিকটে একটি বিদ্যালয়ে পড়ান। শুনিয়াছেন আজ দশটার সময় শ্রীরামকৃষ্ণ বলরামের বাটীতে আসিবেন। মাঝে অধ্যাপনার কিঞ্চিত অবসর পাইয়া বেলা দুই প্রহরের সময় ওইখানে আসিয়া উপস্থিত। আসিয়া দর্শন ও প্রণাম করিলেন। ঠাকুর আহারান্তে বৈঠকখানায় একটু বিশ্রাম করিতেছেন। মাঝে মাঝে থলি থেকে কিছু মসলা বা কাবাবচিনি খাচ্ছেন; অলপবয়স্ক ভক্তেরা চারিদিকে ঘেরিয়া বসিয়া আছেন।
M. taught in a school in the neighbourhood. He often brought his young students to visit the Master at Balaram's house. On this day, having learnt of Sri Ramakrishna's arrival, M. went there at noon during the recess hour of the school. He found the Master resting in the drawing-room after his midday meal. Several young boys were in the room. M. prostrated himself before the Master and sat by his side.
श्रीरामकृष्ण (सस्नेह) - तुम यहाँ आये, स्कूल नहीं है ?
শ্রীরামকৃষ্ণ (সস্নেহে) — তুমি যে এখন এলে? স্কুল নাই?
MASTER (tenderly): "How could you come now? Have you no school work?"
मास्टर - स्कूल से आ रहा हूँ । इस समय वहाँ विशेष काम नहीं है ।
মাস্টার — স্কুল থেকে আসছি — এখন সেখানে বিশেষ কাজ নাই।
M: "I have come directly from school. Just now I have no important work to do."
एक भक्त - नहीं महाराज, स्कूल से भाग आये हैं । ('भगेलू' हैं ! सब हँसते हैं ।)
ভক্ত — না, মহাশয়! উনি স্কুল পালিয়ে এসেছেন! (সকলের হাস্য)।
A DEVOTEE: "No, sir; he is playing truant today." (All laugh.)
मास्टर (स्वगत) – हाय ! मानो कोई अदृश्य शक्ति मुझे यहाँ खींच लायी है !
মাস্টার (স্বগতঃ) — হায়! কে যেন টেনে আনলে!
M. said to himself, "Alas! It is indeed as if some invisible power had drawn me here."
श्रीरामकृष्ण कुछ चिन्तित-से हो रहे हैं । फिर मास्टर को पास बैठाकर अनेक प्रकार की बातें करने लगे ।
कहा, “मेरा गमछा जरा निचोड़ तो दो और कुर्ता धूप में डाल दो । पैर झनझना रहा है । क्या उस पर जरा हाथ फेर दे सकोगे ?" मास्टर सेवा करना नहीं जानते, इसीलिए श्रीरामकृष्ण उन्हें सेवा करना सिखा रहे हैं । मास्टर हकपकाकर एक एक करके वे सब काम कर रहे हैं । फिर वे पैरों पर हाथ फेरने लगे । श्रीरामकृष्ण उन्हें बातों ही बातों में उपदेश दे रहे हैं ।
ঠাকুর যেন একটু চিন্তিত হইলেন। পরে মাস্টারকে কাছে বসাইয়া কত কথা কহিতে লাগিলেন। আর বলিলেন, “আমার গামছাটা নিংড়ে দাও তো গা, আর জামাটা শুকোতে দাও, আর পাটা একটু কামড়াচ্ছে, একটু হাত বুলিয়ে দিতে পার?” মাস্টার সেবা করিতে জানেন না, তাই ঠাকুর সেবা করিতে শিখাইতেছেন। মাস্টার শশব্যস্ত হইয়া একে একে ওই কাজগুলি করিতেছেন। তিনি পায়ে হাত বুলাইতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ কথাচ্ছলে কত উপদেশ দিতে লাগিলেন।
The Master, looking a little thoughtful, asked M. to come nearer. He said, "Please wring out my wet towel and put my coat in the sun." Then he continued: "My legs and feet ache. Please rub them gently."M. felt very happy to be given the privilege of rendering these services to the Master.
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏卐श्रीरामकृष्ण तथा 'वासना और धनलोभ-त्याग' की पराकाष्ठा🙏卐
[শ্রীরামকৃষ্ণ ও ঐশ্বর্যত্যাগের পরাকাষ্ঠা — ঠিক সন্ন্যাসী ]
[Sri Ramakrishna and the culmination of renunciation of lust and wealth.
Chhota Naren doesn't know what carnal relations pleasure is ?]
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - क्यों जी, कुछ दिनों से लगातार मुझे ऐसा क्यों हो रहा है ? धातु के किसी बरतन को मैं छू नहीं सकता । एक बार कटोरे में हाथ लगाया तो ऐसा हो गया जैसे सिंगी मछली ने हाथ में काँटा मार दिया हो । हाथ में झुनझुनी-सी चढ़ गयी और दर्द होने लगा । गडुए को बिना छुए तो काम चल ही नहीं सकता, इस ख्याल से मैंने सोचा, जरा गमछे से ढककर तो देखें, उठा सकता हूँ या नहीं । यह सोचकर ज्योंही उसे छुआ कि हाथ में झुनझुनी चढ़ गयी और बहुत दर्द होने लगा । अन्त में माता से प्रार्थना की, 'माँ, अब ऐसा काम न करूंगा, अब की बार माँ, क्षमा करो ।'
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — হ্যাঁগা, এটা আমার কদিন ধরে হচ্ছে, কেন বল দেখি? ধাতুর কোন জিনিসে হাত দেবার জো নাই। একবার একটা বাটিতে হাত দিছিলুম, — তা হাতে শিঙ্গিমাছের কাঁটা ফোটা মতো হল। ঝন্ঝন্ কন্কন্ করতে লাগল। গাড়ু না ছুঁলে নয়, তাই মনে করলুম, গামছাখানা ঢাকা দিয়ে দেখি, তুলতে পারি কিনা; যাই হাত দিয়েছি, অমনি হাতটা ঝন্ঝন্ কন্কন্ করতে লাগল, খুব বেদনা। শেষে মাকে প্রাথ্রনা করলুম, ‘মা আর অমন কর্ম করব না, মা এবার মাপ করো।’
Sri Ramakrishna said to M.: "Can you tell me why I have been feeling like this the past few days? It is impossible for me to touch any metal. When I touched a metal cup I felt as if I had been stung by a horned fish. There was an excruciating pain all over my arm. But I must use a brass water-jar, and so I tried to carry it after covering it with my towel. But the moment I touched the jar I felt the same acute pain in my arm. It was an unbearable pain! At last I prayed to the Divine Mother: 'O Mother, I shall never do it again. Please forgive me this time.'
(मास्टर से) - "क्यों जी, छोटा नरेन्द्र आया-जाया करता है, घरवाले क्या कुछ कहेंगे ? बिलकुल शुद्ध है, स्त्री-संग (यौनसंबंध- carnal relations) कभी नहीं किया ।”
“হ্যাঁগা, ছোট নরেন যাওয়া আসা কচ্ছে, বাড়িতে কিছু বলবে? খুব শুদ্ধ, মেয়ে সঙ্গ কখনও হয় নাই।”
"The younger Naren often visits me. Do you think his people at home will object? He is very pure and doesn't know what carnal relations pleasure is."
मास्टर - और उच्च आधार है। [अज्ञात आत्मा के ज्ञान (अनुभव) को धारण कर सकता है!] ।
মাস্টার — আর খোলটা বড়।
M: "He is a 'large receptacle'."
श्रीरामकृष्ण - हाँ, और कहता है, ईश्वरी बातें एक बार सुन लेने से मुझे याद रहती हैं । कहता है, 'बचपन में मैं रोया करता था, ईश्वर दर्शन नहीं दे रहे हैं इसलिए ।'
শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, আবার বলে যে, ঈশ্বরীয় কথা একবার শুনলে আমার মনে থাকে। বলে, ছেলেবেলায় আমি কাঁদতুম — ঈশ্বর দেখা দিচ্ছেন না বলে।
MASTER: "That is true. Further, he says he remembers spiritual things after hearing them once only. He told me, 'I used to weep in my boyhood because I couldn't see God.'"
मास्टर के साथ छोटे नरेन्द्र के सम्बन्ध में बहुत सी बातें हुई । इस समय भक्तों में से किसी ने कहा, "मास्टर महाशय, क्या आप स्कूल नहीं आयेंगे ?’
মাস্টারের সঙ্গে ছোট নরেন সম্বন্ধে এইরূপ অনেক কথা হইল। এমন সময় উপস্থিত ভক্তদের মধ্যে একজন বলিয়া উঠিলেন, “মাস্টার নহাশয়! আপনি স্কুলে যাবেন না?”
The Master and M. were thus talking about the young devotee when someone reminded M. of his school.
श्रीरामकृष्ण - क्या बजा है ?
শ্রীরামকৃষ্ণ — কটা বেজেছে?
MASTER: "What is the time now?"
भक्त - एक बजने को दस मिनट है ।
একজন ভক্ত — একটা বাজতে দশ মিনিট।
A DEVOTEE: "It is ten minutes to one."
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - तुम जाओ, तुम्हें देर हो रही है । एक तो काम छोड़कर आये हो । (लाटू से) राखाल कहाँ है ?
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — তুমি এস, তোমার দেরি হচ্ছে। একে কাজ ফেলে এসেছো। (লাটুর প্রতি) — রাখাল কোথায়?
MASTER'(to M.): "You had better go now. It is getting late for you. You have, left your duties. (To Latu) Where is Rakhal?"
लाटू - घर चला गया है ।
লাটু — চলে গেছে; — বাড়ি।
LATU: "He has gone home."
श्रीरामकृष्ण - मुझसे मुलाकात बिना किये ही ?
শ্রীরামকৃষ্ণ — আমার সঙ্গে দেখা না করে?
MASTER: "What? Has he gone away without seeing me?"
(२)
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏卐*अवतारवाद तथा श्रीरामकृष्ण*🙏卐
[हिंदू देवता (विशेषकर विष्णु) की अलौकिक मानव, महामण्डल संगठन
या 'पशु ,(मत्स्य-वाराह आदि) रूप' में अभिव्यक्ति को अवतार कहते हैं। ]
"অবতারবাদ ও শ্রীরামকৃষ্ণ"
स्कूल की छुट्टी हो जाने पर मास्टर ने आकर देखा, श्रीरामकृष्ण बलराम के बैठकखाने में भक्तों के साथ दरबार लगाये बैठे हुए हैं । मुख पर हास्य की रेखा है और वही हास्य भक्तों के मुख पर भी प्रतिबिम्बित हो रहा है । मास्टर को लौटकर आते हुए देख, उनके प्रणाम करने के पश्चात्, श्रीरामकृष्ण ने उन्हें अपने पास बैठने का इशारा किया । श्री गिरीश घोष, सुरेश मित्र, बलराम, लाटू, चुन्नीलाल आदि भक्त उपस्थित हैं ।
[স্কুলের ছুটির পর মাস্টার আসিয়া দেখিতেছেন — ঠাকুর বলরামের বৈঠকখানায় ভক্তের মজলিস করিয়া বসিয়া আছেন। ঠাকুরের মুখে মধুর হাসি, সেই হাসি ভক্তদের মুখে প্রতিবিম্বিত হইতেছে। মাস্টারকে ফিরিয়া আসিতে দেখিয়া ও তিনি প্রণাম করিলে, ঠাকুর তাহাকে তাঁহার কাছে আসিয়া বসিতে ইঙ্গিত করিলেন। শ্রীযুক্ত গিরিশ ঘোষ, সুরেশ মিত্র, বলরাম, লাটু, চুনিলাল ইত্যাদি ভক্ত উপস্থিত আছেন।
After school-hours M. returned to Balaram's house and found the Master sitting in the drawing-room, surrounded by his devotees and disciples. Among them were Girish, Suresh, Balaram, Latu, and Chunilal. The Master's face was beaming with a sweet smile, which was reflected in the happy faces of those in the room. M. was asked to take a seat by the Master's side.
श्रीरामकृष्ण (गिरीश से) - तुम एक बार नरेन्द्र के साथ विचार करके देखना कि वह क्या कहता है।
শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশের প্রতি) — তুমি একবার নরেন্দ্রের সঙ্গে বিচার করে দেখো, সে কি বলে।
MASTER (to Girish): "You had better argue this point with Narendra and see what he has to say."
गिरीश (हँसकर) - नरेन्द्र कहता है, ईश्वर अनन्त हैं । जो कुछ हम लोग देखते या सुनते हैं - वस्तु या व्यक्ति - सब उनके अंश हैं - इतना भी कहने का हमें अधिकार नहीं है । Infinity(अनन्तता) जिसका स्वरूप है, उसका फिर अंश कैसे हो सकता है ? अंश नहीं होता ।
গিরিশ (সহাস্যে) — নরেন্দ্র বলে, ঈশ্বর অনন্ত। যা কিছু আমরা দেখি, শুনি, — জিনিসটি, কি ব্যক্তিটি — সব তাঁর অংশ, এ পর্যন্ত আমাদের বলবার জো নাই। Infinity (অনন্ত আকাশ) — তার আবার অংশ কি? অংশ হয় না।
GIRISH: "Narendra says that God is infinite; we cannot even so much as say that the things or persons we perceive are parts of God. How can Infinity have parts? It cannot."
श्रीरामकृष्ण - ईश्वर अनन्त हों अथवा कितने ही बड़े हों, वे अगर चाहें तो उनके भीतर का सार पदार्थ आदमी के भीतर से प्रकट हो सकता है, और होता भी है । वे अवतार लेते हैं, यह उपमा के द्वारा नहीं समझाया जा सकता । इसका अनुभव होना चाहिए । इसे प्रत्यक्ष करना चाहिए । उपमा के द्वारा कुछ आभास मात्र मिलता है । गो का सींग अगर कोई छू ले, तो गौ को ही छूना हुआ; पैर या पूँछ के छूने पर भी गौ को ही छूना है; परन्तु हमारे लिए गौ के भीतर का सार भाग दूध है । वह दूध उसके स्तनों से निकलता है । उसी तरह प्रेम और भक्ति की शिक्षा देने के लिए ईश्वर मनुष्य की देह धारण करके (महामण्डल संगठन रूप में) समय समय पर आते हैं ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — ঈশ্বর অনন্ত হউন আর যত বড় হউন, তিনি ইচ্ছা করলে তাঁর ভিতরের সার বস্তু মানুষের ভিতর দিয়ে আসতে পারে ও আসে। তিনি অবতার হয়ে থাকেন, এটি উপমা দিয়ে বুঝান যায় না। অনুভব হওয়া চাই। প্রত্যক্ষ হওয়া চাই। উপমার দ্বারা কতকটা আভাস পাওয়া যায়। গরুর মধ্যে শিংটা যদি ছোঁয়, গরুকেই ছোঁয়া হল; পাটা বা লেজটা ছুঁলেও গরুটাকে ছোঁয়া হল। কিন্তু আমাদের পক্ষে গরুর ভিতেরের সার পদার্থ হচ্ছে দুধ। সেই দুধ বাঁট দিয়ে আসে। “সেইরূপ প্রেমভক্ত শিখাইবার জন্য ঈশ্বর মানুষদেহ ধারণ করে সময়ে সময়ে অবতির্ণ হন।”
MASTER: "However great and infinite God may be, His Essence can and does manifest itself through man by His mere will. God's Incarnation as a man cannot be explained by analogy. One must feel it for oneself and realize it by direct perception. An analogy can give us only a little glimpse. By touching the horns, legs, or tail of a cow, we in fact touch the cow herself; but for us the essential thing about a cow is her milk, which comes through the udder. The Divine Incarnation is like the udder. God incarnates Himself as man from time to time in order to teach people devotion and divine love."
गिरीश - नरेन्द्र कहता है, उनकी सम्पूर्ण धारणा क्या कभी हो सकती है ? वे अनन्त हैं ।
গিরিশ — নরেন্দ্র বলে, তাঁর কি সব ধারণা করা যায়। তিনি অনন্ত।
GIRISH: "Narendra says: 'Is it ever possible to know all of God? He is infinite.'
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏卐"अनंत की अनुभूति "🙏卐
[অসীমের উপলব্ধি]
[PERCEPTION OF THE INFINITE]
श्रीरामकृष्ण (गिरीश से) - ईश्वर की सब धारणा कर भी कौन सकता है ? न उनका कोई बड़ा अंश, न कोई छोटा अंश सम्पूर्ण धारणा में लाया जा सकता है; और सम्पूर्ण धारणा करने की जरूरत ही क्या है ? उन्हें प्रत्यक्ष कर लेने ही से काम बन गया। उनके अवतार को देखने ही से उन्हें देखना हो गया । अगर कोई गंगाजी के पास जाकर गंगाजल का स्पर्श करता है तो वह कहता है, मैं गंगाजी के दर्शन कर आया । उसे हरिद्वार से गंगासागर तक की गंगा का स्पर्श नहीं करना पड़ता । (सब हँसते हैं ।)
শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশের প্রতি) — ঈশ্বরের সব ধারণা কে করতে পারে? তা তাঁর বড় ভাবটাও পারে না, আবার ছোট ভাবটাও পারে না। আর সব ধারণা করা কি দরকার? তাঁকে প্রত্যক্ষ করতে পারলেই হল। তাঁর অবতারকে দেখলেই তাঁকে দেখা হল। যদি কেউ গঙ্গার কাছে গিয়ে গঙ্গাজল স্পর্শ করে, সে বলে — গঙ্গা দর্শন-স্পর্শন করে এলুম। সব গঙ্গাটা হরিদ্বার থেকে গঙ্গাসাগর পর্যন্ত, হাত দিয়ে ছুঁতে হয় না। (হাস্য)
MASTER (to Girish): "Who can comprehend everything about God? It is not given to man to know any aspect of God, great or small. And what need is there to know everything about God? It is enough if we only realize Him. And we see God Himself if we but see His Incarnation. Suppose a person goes to the Ganges and touches its water. He will then say, 'Yes, I have seen and touched the Ganges.' To say this it is not necessary for him to touch the whole length of the river from Hardwar to Gangasagar. (Laughter.)
"तुम्हारे पैर अगर मैं छू लूँ, तो तुम्हें ही छूना हुआ । (हास्य) "अगर समुद्र के पास जाकर कुछ पानी छू लो तो समुद्र का ही स्पर्श करना होता है । अग्नितत्त्व सब जगह है, परन्तु लकड़ी में अधिक है ।"
“তোমার পাটা যদি ছুঁই, তোমায় ছোঁয়াই হল। (হাস্য) “যদি সাগরের কাছে গিয়ে একটু জল স্পর্শ কর, তাহলে সাগর স্পর্শ করাই হল। অগ্নিতত্ত্ব সব জায়গায় আছে, তবে কাঠে বেশি।”
"If I touch your feet, surely that is the same as touching you. (Laughter.) If a person goes to the ocean and touches but a little of its water, he has surely touched the ocean itself. Fire, as an element, exists in all things, but in wood it is present to a greater degree."
गिरीश (हँसते हुए) - जहाँ मुझे आग मिलेगी, मुझे उसी जगह से जरूरत है ।
গিরিশ (হাসিতে হাসিতে) — যেখানে আগুন পাব, সেইখানেই আমার দরকার।
GIRISH (smiling): "I am looking for fire. Naturally I want to go to a place where I can get it."
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - अग्नितत्व लकड़ी में अधिक है । अगर तुम ईश्वर की खोज करते हो तो आदमी में खोजो आदमी में उनका प्रकाश अधिक होता है । जिस आदमी में ऊर्जिता भक्ति देखोगे - देखोगे उसमें प्रेम और भक्ति, दोनों उमड़ रहे हैं - ईश्वर के लिए वह पागल हो रहा है - उनके प्रेम में मस्त घूमता है - उस मनुष्य में, निश्चयपूर्वक समझो कि वे अवतीर्ण हो चुके हैं ।
শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিতে হাসিতে) — অগ্নিতত্ত্ব কাঠে বেশি। ঈশ্বরতত্ত্ব খোঁজ, মানুষে খুঁজবে। মানুষে তিনি বেশি প্রকাশ হন। যে মানুষে দেখবে উর্জিতা ভক্তি — প্রেমভক্তি উথলে পড়ছে — ঈশ্বরের জন্য পাগল — তাঁর প্রেমে মাতোয়ারা — সেই মানুষে নিশ্চিত জেনো, তিনি অবতীর্ণ হয়েছেন।
MASTER (smiling): "Yes, fire, as an element, is present more in wood than in any other object. If you seek God, then seek Him in man; He manifests Himself more in man than in any other thing. If you see a man endowed with ecstatic love, overflowing with prema, mad after God, intoxicated with His love, then know for certain that God has incarnated Himself through that man.
(मास्टर को देखकर) - "वे तो हैं ही, परन्तु कहीं उनकी शक्ति का प्रकाश अधिक है, कहीं कम । अवतारों में उनकी शक्ति का प्रकाश अधिक है । वही शक्ति कभी कभी पूर्ण भाव से रहती है । अवतार शक्ति (माँ जगदम्बा) का ही होता है ।”
(মাস্টার দৃষ্টে) — “তিনি তো আছেনই, তবে তাঁর শক্তি কোথাও বেশি প্রকাশ, কোথাও কম প্রকাশ। অবতারের ভিতর তাঁর শক্তি বেশি প্রকাশ; সেই শক্তি কখন কখন পূর্ণভাবে থাকে। শক্তিরই অবতার।”
(To M.) "There is no doubt that God exists in all things; but the manifestations of His Power are different in different beings. The greatest manifestation of His Power is through an Incarnation. Again, in some Incarnations there is a complete manifestation of God's Power. It is the Sakti, the Power of God, that is born as an Incarnation."
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏卐 शुद्ध मन -शुद्ध बुद्धि अर्थात चैतन्य के द्वारा चैतन्य का साक्षात्कार🙏卐
[চৈতন্যের (i.s. শুদ্ধ মন - শুদ্ধ বুদ্ধি) মাধ্যমে চৈতন্য
(অস্তিত্ব-চেতনা-আনন্দ) উপলব্ধি!]
[Realization of Chaitanya (Existance -consciousness-bliss)
through Chaitanya i.e. Pure mind - pure intellect !]
गिरीश - नरेन्द्र कहता है, वे अवाङ्मनसगोचरम् हैं ।
গিরিশ — নরেন্দ্র বলে, তিনি অবাঙ্মনসোগোচরম্।
GIRISH: "Narendra says that God is beyond our words and thought."
श्रीरामकृष्ण - नहीं; इस मन के गोचर तो नहीं हैं, परन्तु वे शुद्ध मन के गोचर अवश्य हैं । इस बुद्धि के गोचर नहीं, परन्तु शुद्ध बुद्धि के गोचर हैं । कामिनी और कांचन पर से आसक्ति गयी नहीं कि शुद्ध मन और शुद्ध बुद्धि की उत्पत्ति हुई । तब शुद्ध मन और शुद्ध बुद्धि दोनों एक कहलाते हैं । वे उस शुद्ध मन से दीख पड़ते हैं । क्या ऋषि और मुनियों ने उनके दर्शन नहीं किये ? उन लोगों ने चैतन्य के द्वारा चैतन्य का साक्षात्कार किया था ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — না; এ-মনের গোচর নয় বটে — কিন্তু শুদ্ধমনের গোচর। এ বুদ্ধির গোচর নয় — কিন্তু শুদ্ধবুদ্ধির গোচর। কামিনী-কাঞ্চনে আসক্তি গেলেই, শুদ্ধমন আর শুদ্ধবুদ্ধি হয়। তখন শুদ্ধমন শুদ্ধবুদ্ধি এক। শুদ্ধমনের গোচর। ঋষি-মুনিরা কি তাঁকে দেখেন নাই? তাঁরা চৈতন্যের দ্বারা চৈতন্যের সাক্ষাৎকার করেছিলেন।
MASTER: "That is not altogether true. He is, no doubt, unknowable by this ordinary mind, but He can indeed be known by the pure mind. The mind and intellect become pure the moment they are free from attachment to 'woman and gold'. The pure mind and pure intellect are one and the same. God is known by the pure mind. Didn't the sages and seers of olden times see God? They realized the All-pervading Consciousness by means of their inner consciousness."
[>>आनन्द पालकीवाला, जानिबिघा का प्रश्न (After Fulwariya Day long discussion-4 Sept, 2022) :
प्रणाम भईआ जी,
(1) क्या ईश्वर और भगवान एक हीं हैँ या फिर दोनों में अंतर है?
[(1) Are God (ईश्वर =Without form or Ma Kali) and the God (भगवान =with form) the same or is there a difference between the two?
[(1) ঈশ্বর (ঈশ্বর = রূপ ছাড়া বা মা কালী ) এবং ভগবান (ঈশ্বর = মানুষ রূপ সহ) একই নাকি উভয়ের মধ্যে পার্থক্য আছে?]
महामंडल के एक भाई ने पूछा है। क्या इसका उत्तर सोच सकते हैं ?
[A brother of Mahamandal has asked. Can you think of the answer?]
মহামণ্ডলের এক ভাই জিজ্ঞেস করেছেন। আপনি উত্তর চিন্তা করতে পারেন?]
अजय अग्रवाल (सचिव, झुमरीतिलैया महामण्डल) का उत्तर : ईश्वर और भगवान दोनों यों तो पर्यायवाची हैं , लेकिन ईश्वर बोलने से इसमें साकार और निराकार दोनों समाहित प्रतीत होते हैं। और भगवान साकार के लिए प्राय: प्रयुक्त होता है।
(मैं स्वामी विवेकानन्द से सभी भाइयों के मंगल के लिए प्रार्थना करता हूं। वे मुझे आपकी चिंगारी (सजीवता) , ज्ञान, उत्साह, ऊर्जा, उत्साह, आत्मविश्वास, शिष्टता और हास्य की भावना का वरदान दें। हार्दिक सम्मान !🌱)
ঈশ্বর এবং ঈশ্বর উভয়ই সমার্থক শব্দ, কিন্তু ঈশ্বরের কথা বললে দেহ ও নিরাকার উভয়ই এর অন্তর্ভুক্ত বলে মনে হয়। এবং ভগবান প্রায়ই দেহের জন্য ব্যবহৃত হয়।
(আমি স্বামী বিবেকানন্দের কাছে সকল ভাইদের মঙ্গল কামনা করছি। তিনি যেন আমাকে আপনার স্ফুলিঙ্গ (জীবন্ত), প্রজ্ঞা, উদ্যম, শক্তি, , আত্মবিশ্বাস, ভদ্রতা এবং রসবোধের আশীর্বাদ করেন।আন্তরিক শুভেচ্ছা!🌱)
Both Ishwar and Bhagwan are synonymous, but by speaking of Ishwar it seems to include both the tangible and intangible. And is often used for God incarnate as Man.
I pray before SV for the well being of all. May He bless me with your spark, knowledge, enthusiasm, energy, zeal, poise and sense of humor. Sincere regards !🌱
रामचन्द्र मिश्रा का उत्तर : जो पढ़ा है उसके अनुसार अंतर है। भगवान एक पद है। ईश्वर की क्रियमाण शक्ति हैं जैसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश।
[There is a difference according to what I have read. God is a position. There are working powers of God like Brahma, Vishnu, Mahesh.]
আমি যা পড়েছি সে অনুযায়ী পার্থক্য আছে। ঈশ্বর একটি অবস্থান. ব্রহ্মা, বিষ্ণু, মহেশ প্রভৃতি ঈশ্বরের কর্মশক্তি রয়েছে।
धर्मेन्द्र सिंह (अध्यक्ष , झुमरीतिलैया महामण्डल) का उत्तर : गूगल बाबा से ईश्वर और भगवान के विषय में जो परिभाषा और जानकारी मुझे मिली, वह आपको प्रेषित करता हूँ ।
I am transmitting to you the definition and information I got from Google Baba about Ishwar and God.
আমি ঈশ্বর এবং ভগবান সম্পর্কে Google বাবার কাছ থেকে যে সংজ্ঞা এবং তথ্য পেয়েছি তা আমি আপনাদের কাছে প্রেরণ করছি।
मेरा उत्तर जो दिल से आया 👇
"ईश्वर माँ काली हैं, भगवान श्री रामकृष्ण उन्हीं के अवतार हैं। कृष्ण और राम भी शक्ति के अवतार ही हैँ। मेरे उत्तर से वह भाई संतुष्ट हुआ। अब बाकी ठाकुर जानें।
My answer which came from my heart 👇
"God is Mother Kali, Lord Sri Ramakrishna is her incarnation. Krishna and Rama are also incarnations of Shakti. That brother was satisfied with my answer. Now let the the Thakur decide what is correct .
আমার উত্তর যা আমার হৃদয় থেকে এসেছে 👇
"ঈশ্বর হলেন মা কালী, ভগবান শ্রী রামকৃষ্ণ তাঁর অবতার। কৃষ্ণ ও রামও শক্তির অবতার। সেই ভাই আমার উত্তরে সন্তুষ্ট হলেন। এখন ঠাকুররা সিদ্ধান্ত নিন কোনটি সঠিক।]
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏卐गिरीश भी नरेन्द्र को इस तर्क [क्या ईश्वर मनुष्य रूप में अवतरित होते हैं ?]
में परास्त नहीं कर सकते थे 🙏卐
गिरीश (हँसकर) - नरेन्द्र तर्क में मुझसे परास्त हो गया है ।
গিরিশ (সহাস্যে) — নরেন্দ্র আমার কাছে তর্কে হেরেছে।
GIRISH (with a smile): "I defeated Narendra in the argument."
श्रीरामकृष्ण - नहीं, उसने मुझसे कहा है, गिरीश घोष आदमी को अवतार कहकर जब इतना विश्वास करता है, तो इस पर मैं और क्या कहता ? इस तरह के विश्वास पर कुछ कहना भी न चाहिए ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — না; আমায় বলেছে, গিরিশ ঘোষের মানুষে অবতার বলে অত বিশ্বাস; এখন আমি আর কি বলব! অমন বিশ্বাসের উপর কিছু বলতে নাই।’
MASTER: "Oh, no! He said to me: 'When Girish Ghosh has so much faith in God's Incarnation as man, what can I say to him? It is not proper to meddle with such faith.'"
गिरीश (सहास्य) – महाराज ! हम लोग तो अनर्गल बातें कर रहे हैं, और मास्टर चुपचाप बैठे हुए हैं - जरा भी जबान नहीं हिलाते । महाराज ! ये क्या सोचते हैं ?
গিরিশ (সহাস্যে) — মহাশয়! আমরা সব হলহল করে কথা কচ্ছি, কিন্তু মাস্টার ঠোঁট চেপে বসে আছে। কি ভাবে? মহাশয়! কি বলেন!
GIRISH (with a smile): "Sir, we are very free and easy with our words. But M. is sitting there with his lips shut tight. What in the world is passing through his mind? What do you say about it, sir?"
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - अधिक बकवाद करनेवाला, अधिक चुप्पी साधनेवाला, कान में तुलसी खोसनेवाला आदमी, बड़ा लम्बा घूँघट काढ़नेवाली स्त्री, काईवाले तालाब का पानी, इनकी गणना अनर्थकारियों में है । (सब हँसते हैं) । (हँसकर) परन्तु ये ऐसे नहीं हैं, ये गम्भीर प्रकृति के हैं । (सब हँसते हैं ।)
श्रीरामकृष्ण ने जिन्हें अनर्थकारियों में गिनाया, उनके लिए वहाँ उन्होंने एक पद कहा था ।
শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিতে হাসিতে) — “মুখহলসা, ভেতরবুঁদে, কানতুলসে, দীঘল ঘোমটা নারী, পানা পুকুরের সীতল জল বড় মন্দকারী। (সকলের হাস্য) (সহাস্যে) — কিন্তু ইনি তা নন — ইনি ‘গম্ভীরাত্মা’ (সকলের হাস্য)
गिरीश – महाराज ! वह पद आपने कैसे कहा ?
গিরিশ — মহাশয়! শ্লোকটি কি বললেন?
श्रीरामकृष्ण - इन आदमियों से सचेत रहना चाहिए । पहले तो वह है जो अधिक बकता हो - अनाप-शनाप; फिर चुपचाप बैठा रहनेवाला - जिसके मन की थाह मिलती ही नहीं - गोताखोर भी मिट्टी न छू पाये; फिर कान में तुलसी के दल खोंसनेवाला, कान में इसलिए तुलसी खोंस लेता है कि लोग समझें, यह बड़ा भक्त है लम्बा घूँघट काढ़नेवाली औरत - लम्बा घूँघट देखकर आदमी सोचते हैं कि यह बड़ी सती है, परन्तु बात ऐसी नहीं है, और काईवाले तालाब के पानी में नहाने से ही सन्निपात हो जाता है ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — এই ক’টি লোকের কাছে সাবধান হবে: প্রথম, মুখহলসা — হলহল করে কথা কয়; তারপর ভেতরবুঁদে — মনের ভিতর ডুবুরি নামালেও অন্ত পাবে না; তারপর কানতুলসে — কানে তুলসী দেয়, ভক্তি জানাবার জন্য; দীঘল ঘোমটা নারী — লম্বা ঘোমটা, লোকে মনে করে ভারী সতী, তা নয়; আর পানাপুকুরের জল — নাইলে সান্নিপাতিক হয়। (হাস্য)
MASTER (with a laugh): "There is a common adage that tells people to beware of the following: a man with a loose tongue, a man whose mind cannot be fathomed even by an expert diver, a man who sticks the sacred tulsi-leaf in his ears as a sign of holiness, a woman wearing a long veil to proclaim her chastity, and the cold water of a reservoir covered with green scum, by bathing in which one gets typhoid fever. These are all dangerous things. (With a smile) But it is different with M. He is a serious man." (All laugh.)
चुन्नीलाल - इनके (मास्टर के) नाम पर एक बात फैली है । छोटा नरेन्द्र, बाबूराम, इनके विद्यार्थी हैं । नारायण, पल्टू, पूर्ण, तेजचन्द्र ये भी इनके विद्यार्थी है । बात फैली है कि ये उन्हें यहाँ ले आते हैं और इस तरह उनका लिखना-पढ़ना मिट्टी में मिल रहा है ! इन पर लोग दोषारोपण कर रहे हैं।
চুনিলাল — এঁর (মাস্টারের) নামে কথা উঠেছে। ছোট নরেন, বাবুরাম ওঁর পোড়ো; নারায়ণ, পল্টু, তেজচন্দ্র — এরা সব ওঁর পোড়ো। কথা উঠেছে যে, উনি তাদের এইখানে এনেছেন, আর তাদের পড়াশুনা খারাপ হয়ে যাচ্ছে। এঁর নামে দোষ দিচ্ছে।
CHUNILAL: "People have begun to whisper about M.'s conduct. The younger Naren and Baburam are his students, as are Naran, Paltu, Purna, and Tejchandra. The rumour is that he brings these boys to you and so they neglect their studies. The boys' guardians hold M. responsible."
श्रीरामकृष्ण - उनकी बात पर विश्वास कौन करेगा ?
শ্রীরামকৃষ্ণ — তাদের কথা কে বিশ্বাস করবে?
MASTER: "But who would believe their words?"
इस तरह बातें हो रही थी, इतने में नारायण आये और उन्होंने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । नारायण का रंग गोरा, उम्र सत्रह अठारह साल की है, स्कूल में पढ़ते हैं, श्रीरामकृष्ण इन्हें बहुत प्यार करते हैं । इन्हें देखने और खिलाने को वे सदा ही व्याकुल रहा करते हैं । इनके लिए दक्षिणेश्वर में बैठे हुए रोते भी हैं । नारायण को वे साक्षात् नारायण देखते हैं ।
এই সকল কথাবার্তা হইতেছে, এমন সময় নারাণ আসিয়া ঠাকুরকে প্রণাম করিল। নারাণ গৌরবর্ণ, ১৭/১৮ বছর বয়স, স্কুলে পড়ে, ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁহাকে বড় ভালবাসেন। তাকে দেখবার জন্য, তাকে খাওয়াবার জন্য ব্যাকুল। তার জন্য দক্ষিণেশ্বরে বসে বসে কাঁদেন। নারাণকে তিনি সাক্ষাৎ নারায়ণ দেখেন।
They were thus talking when Naran entered the room and bowed low before the Master. He was a student seventeen or eighteen years old and of fair complexion. He was dearly loved by the Master, who was very eager to see the boy and feed him. Many a time at the temple garden at Dakshineswar the Master wept silently for Naran. He looked on him as the manifestation of Narayana Himself.
गिरीश (नारायण को देखकर) - किसने तुम्हें खबर दी ? देखते हैं, मास्टर ने सब को साफ कर दिया ! (सब हँसते हैं ।)
গিরিশ (নারায়ণ দৃষ্টে) — কে খবর দিলে? মাস্টারই দেখছি সব সারলে। (সকলের হাস্য)
GIRISH (at the sight of Naran): "There! Who told him about this? Now we realize that M. is at the root of all the mischief." (All laugh.)
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) – बैठो ! चुपचाप बैठो ! एक तो वैसे ही इन्हें (मास्टर को) लोग दोष दे रहे हैं ।
শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিতে হাসিতে) — রোসো! চুপচাপ করে থাকো! এর (মাস্টারের) নামে একে বদনাম উঠেছে।
MASTER (smiling): "Stop! Hold your tongue. There is already an evil rumour about him."
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏卐अन्न की चिन्ता बड़ी बिकट होती है-ब्राह्मण को पर्याप्त दक्षिणा दें🙏卐
[অন্নচিন্তা চমৎকারা — ব্রাহ্মণের প্রতিগ্রহ করার ফল ]
फिर नरेन्द्र की बात चली ।
আবার নরেন্দ্রের কথা পড়িল।
The conversation next turned to Narendra.
एक भक्त - अब उतना क्यों नहीं आते ?
একজন ভক্ত — এখন তত আসেন না কেন?
A DEVOTEE: "Why doesn't he come to you so frequently nowadays?"
श्रीरामकृष्ण – " अन्नचिन्ता चमत्कारा, कालिदास होय बुद्धिहारा !" -- अन्न की चिन्ता भी बड़ी बिकट होती है, बड़ों बड़ों की अक्ल उस समय काम नहीं देती ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — ‘অন্নচিন্তা চমৎকারা, কালিদাস হয় বুদ্ধিহারা।’ (সকলের হাস্য)
MASTER (quoting a proverb): "Man's worries over bread and butter are simply amazing; they make even Kalidasa lose his wits."
बलराम - शिव गुहा के घराने के अन्नदा गुहा के पास नरेन्द्र का आना-जाना खूब हैं ।
[अन्नदा गुहा ^ नरेंद्रनाथ के खास दोस्त थे। वे बराहनगर के निवासी थे। अपने प्रारंभिक जीवन में, अन्नादा ने अपना जीवन गरीबी में बिताया था । किशोरावस्था में एकबार नरेंद्रनाथ भी अन्नदा से प्रभावित हुए थे। अन्नदा श्री रामकृष्ण का दर्शन प्राप्त कर धन्य हुए थे। बाद में वे श्री रामकृष्ण के उपदेशों का अनुसरण करते हुए अपने जीवन-धारा को उर्ध्वमुखी करने में सक्षम हो गए थे । कुछ लोग अन्नदा को अहंकारी व्यक्ति समझते थे, लेकिन ठाकुर देव ऐसा नहीं मानते थे।]
অন্নদা গুহ — নরেন্দ্রনাথের বিশেষ বন্ধু। তিনি বরাহনগর নিবাসী ছিলেন। প্রথম জীবনে অন্নদা অসৎসঙ্গে কাটাইতেন। একদা নরেন্দ্রনাথের উপরেও অন্নদার প্রভাব পড়ে। অন্নদা শ্রীরামকৃষ্ণের দর্শনলাভে ধন্য হন। পরবর্তীকালে শ্রীরামকৃষ্ণের উপদেশ অনুসরণ করিয়া নিজের জীবনধারাকে পরিচালিত করিতে সক্ষম হইয়াছিলেন। কেহ কেহ অন্নদাকে অহঙ্কারী মনে করিলেও ঠাকুর তাহা অস্বীকার করিয়াছিলেন।]
বলরাম — শিব গুহর বাড়ির ছেলে অন্নদা গুহর কাছে খুব আনাগোনা আছে।
BALARAM: "Narendra frequently visits his friend Annada Guha of the family of Shiva Guha."
श्रीरामकृष्ण - हाँ, एक आफिसवाले (सरकारी अफसर) के यहाँ नरेन्द्र, अन्नदा, ये लोग जाया करते हैं । वहाँ सब मिलकर ब्राह्म समाज करते हैं ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, একজন আফিসোয়ালার বাসায় নরেন্দ্র, অন্নদা এরা সব যায়। সেখানে তারা ব্রাহ্মসমাজ করে।
MASTER: "Yes, I have heard that too. Narendra and his friends meet at the house of a government officer and conduct meetings of the Brahmo Samaj there."
एक भक्त - उनका (सरकारी अफसर का) नाम तारापद है ।
একজন ভক্ত — তাঁর (অফিসওয়ালার) নাম তারাপদ।
A DEVOTEE: "The officer's name is Tarapada."
बलराम (हँसते हुए) - कुछ ब्राह्मण कहते हैं, अन्नदा गुहा बड़ा अहंकारी है ।
বলরাম (হাসিতে হাসিতে) — বামুনরা বলে, অন্নদা গুহ লোকটার বড় অহংকার।
BALARAM (smiling): "The brahmins say that Annada Guha is a very egotistic man."
श्रीरामकृष्ण - ब्राह्मणों की इन सब बातों पर ध्यान ही नहीं देना चाहिए । उनका हाल तो जानते ही हो, जो उन्हें (पैसा और मान-सन्मान) नहीं देता वह बदमाश हो जाता है और जो देता है वह अच्छा। (सब हंसते हैं ।) अन्नदा को मैं जानता हूँ, वह अच्छा आदमी है ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — বামুনদের ও-সব কথা শুনো না। তাদের তো জানো, না দিলেই খারাপ লোক, দিলেই ভাল! (সকলের হাস্য) অন্নদাকে আমি জানি ভালো লোক।
MASTER: "Never listen to what the brahmins say. You know their nature very well. If a man doesn't give them money, they will call him bad; on the other hand, if a man is generous to them, they will call him good. (All laugh.) I know Annada. He is a good man."
(३)
110, [( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏卐 भक्तों के संग प्रभु की कीर्ति का गान सुनने की इच्छा और श्री रामकृष्ण 🙏卐
" क्या मैं 12 जनवरी 1985 से फ्री में लोगोँ को जागरूक कर रहा हूँ ?"
"আমি কি 12 জানুয়ারী, 1985 থেকে বিনামূল্যে মানুষকে সচেতন করছি?"
Have I been making people aware for free since January 12, 1985?
श्रीरामकृष्ण की 'गाना सुनने की इच्छा' है । बलराम के बैठकखाने के कमरे में आदमी भरे हैं । सब के सब उनकी ओर ताक रहे हैं, उनकी वाणी सुनने के लिए । श्रीरामकृष्ण की इच्छा-पूर्ति के लिए तारापद गाने लगे –
['गाना सुनने की इच्छा' ^ प्रभु की कीर्ति का गान सुनने की इच्छा .. यानि कीर्तन, जिसमें माँ काली के अवतारों की विविध लीलाओं और गुणों का गान होता है..!!
"केशव कुरु करुणा दीने कुंज-काननचारी ।
माधव मनमोहन मोहनमुरलीधारी ।
ब्रजकिशोर कालीयहर कातर-भयभंजन,
नयनबाँका बाँका शिखिपाखा, राधिका-हृदिरंजन ।
गोवर्धनधारण, वनकुसुमभूषण,
दामोदर कंसदर्पहारी, श्याम रामरसविहारी ॥"
***
"मोहन की लीला मधुर, भक्तन हितकारी।
बँध गये ऊखल संग , गोबर्धन गिरिधारी।। ]
[दामोदर ^ श्री कृष्ण का एक नाम है , यशोदा ने ताड़ना के लिये श्रीकृष्ण को पेट में रस्सी लगाकर ओखली से बाँधा था ; इसी से गोपियाँ उनिहें दामोदर कहने लगीं । दामोदर नाम का अर्थ है, दाम तथा उदर । अर्थात 'दाम' यानि 'रस्सी' तथा 'उदर' का अर्थ है पेट। पेट को रस्सी से बाँधना।कन्हैया को ओखल से मैया का बाँधना । पूरी कहानी यूँ है - पद्मगन्धा गाय का दूध मैया कान्हा के लिए रखती हैं क्योंकि कान्हा को पसन्द है। परन्तु कान्हा को ये भी स्वीकार नहीं, कि मैया मुझे गोद से उतार कर कोई अन्य काम करें। कान्हा को क्रोध आ गया और उन्होंने दूध की मटकी को पत्थर मारकर तोड़ दिया और मैया से डरकर भाग खड़े हुए। मैया मटकी का दूध बहता देख परेशान हो गईं और उन्हें भी क्रोध आ गया। अब क्या था ,मैया हाथ में छड़ी लेकर कान्हा के पीछे-पीछे भागी। आज मैं तुझे सजा दूँगी, और रस्सी लाकर ओखल से कान्हा को बाँधने लगी । मैंया को यह करना अच्छा नहीं लग रहा था , इसलिये स्वयं भी रो रही थी। कान्हा के कमर में रस्सी डाली तो कन्हैया की कमर तथा ओखल के बीच दो अँगुल रस्सी छोटी पड़ गई।मैया की सारी कोशिश ,कान्हा को बाँधने की ब्यर्थ हो गई। मैया हार कर रस्सी रख कर बैठ गई , फिर क्या था, कान्हा स्वयं ओखल से बँध गये। इसलिये कान्हा का एक नाम दामोदर है । सदगुरू ने कहा है जब मन वाणी और कर्म हरि के लिए समर्पित होता है,तो हरि स्वयं भक्त के यहाँ बँधे चले आते हैं।
विष्णु राम कृष्ण लीला--भगवान की प्रत्येक लीला रहस्यों से भरी होती है। वे कब कौन-सा काम किस हेतु करेंगे, इसे कोई नहीं जानता। उनकी लीला का हेतु होता है, अपने भक्तों को आनन्द देना और उन्हें भवबन्धन से मुक्त करना। यशोदामाता कन्हैया को बांधकर दही मथने चली गयीं। आज उन्हीं को पूरा घर सम्भालना था। यशोदाजी दधि-मंथन तो कर रहीं थीं पर उनका मन श्रीकृष्ण में ही लगा हुआ था। वे मन-ही-मन सोच रही थीं कि ‘कन्हैया को बांधकर मैंने अच्छा नहीं किया, पर क्या करूं; इसे तो चोरी की आदत पड़ गयी है, उसे तो छुड़ाना ही होगा।’इधर श्रीकृष्ण की दृष्टि नन्दमहल के प्रांगण के पार्श्व में लगे ऊंचे-ऊंचे, यमलार्जुन अर्थात एक में सटे दोनों अर्जुन के वृक्षों पर पड़ी। दामोदर भगवान ने सोचा कि–’आज मैं बैलगाड़ी की लीला करुंगा। मैं बैल बनूंगा और ऊखल गाड़ी बनेगा। इस ऊखल को मैं बैलगाड़ी की तरह खींचूंगा।’ श्रीकृष्ण ने जोर लगाकर ऊखल गिरा लिया और हाथ तथा घुटनों के बल खींचते, कमर में रस्सी (दाम) से बंधे ये दामोदर चलने लगे उन्हीं यमलार्जुन वृक्षों की ओर।
यमलार्जुन वृक्षों के पूर्वजन्म की कथा- ये भगवान के भक्त यक्षराज कुबेर के पुत्र थे। इनका नाम नलकूबर और मणिग्रीव था। ये रूद्र भगवान के अनुचर (सेवक) थे। इनके पास धन, सौंदर्य व ऐश्वर्य की पूर्णता थी अर्थात् सम्पत्ति और शक्ति की पराकाष्ठा। इसलिए इनको बड़ा घमण्ड हो गया। इन्हें धन व ऐश्वर्य बिना मेहनत के अपने पिता से मिला था। बिना मेहनत से प्राप्त धन मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट कर देता है। सामान्यत: धनी पुरुषों में धन के अभिमान के साथ स्त्री-संग, जुआखोरी व मदिरापान आदि दोष भी आ जाते हैं। देवर्षि नारद के शापवश ये दोनों वृक्षयोनि को प्राप्त हुए और नंदमहल के प्रांगण के पार्श्व में एक ही साथ अर्जुन के वृक्ष बने इसलिए इन्हें ‘यमलार्जुन’ कहते हैं।इन पर अनुग्रह करके नारदजी ने शाप दे दिया–’तुम दोनों धन, पद तथा शक्ति के मद में अंधे होकर वृक्ष से खड़े हो, अत: वृक्ष हो जाओ। वृक्षयोनि में जाने पर भी मेरी कृपा से इन्हें भगवान की स्मृति बनी रहेगी। देवताओं के सौ वर्ष के पश्चात् जब गोलोकबिहारी श्रीकृष्ण अवतार लेंगे, तब उनके चरणारविन्द का स्पर्श पाकर तुम्हारी वृक्षयोनि से और अज्ञान से भी मुक्ति होगी। तुम्हें पुन: देवशरीर और भगवद्भक्ति की प्राप्ति होगी।’
मदान्ध (घोरस्वार्थी, मोहान्ध अर्थात कामिनी-कांचन में आसक्त या Hypnotized व्यक्ति) को रास्ते पर लाने के लिए उन्हें निष्क्रिय बना देना ही एक उपाय है। मनुष्य को भोग इस प्रकार नहीं भोगने चाहिए कि शरीर रोगी हो जाय। भोग इन्द्रियों को रोगी करने के लिए नहीं हैं, अपितु इन्द्रियों को स्वस्थ रखने के लिए हैं। जो शक्ति व सम्पत्ति का दुरुपयोग करता है, वह दूसरे जन्म में वृक्ष बन जाता है। भगवान वृक्षों को सर्दी, गर्मी, बरसात सहने की तपश्चर्या कराते हैं।
देवर्षि नारद का शाप–शाप था या आशीर्वाद?
संतों का शाप या क्रोध सदैव आशीर्वादस्वरूप ही होता है, पता नहीं क्यों इसे शाप कहा जाता है।भगवान श्रीकृष्ण बंधन में बंधकर उन कुबेरपुत्रों के उद्धार के लिए आ पहुंचे। वे वृक्षों की ओर ऊखल खींचते चले जा रहे हैं और उन अर्जुन वृक्षों के पास जा पहुंचते हैं। अखण्ड ब्रह्माण्डनायक भगवान श्रीकृष्ण को दामोदर बने देखकर वह यमलार्जुन अपनी शाखाओं व पत्रों सहित चंचल हो उठे और जोर-जोर से हिलकर नाचने लगे। भगवान दामोदर ने सोचा–अब बिलम्ब का समय नहीं है, कहीं यशोदामाता न आ जाएं और वे दोनों वृक्षों के बीच में घुस गये। वृक्षों के बीच में जाने का आशय है कि भगवान जिसके अन्तर्देश में प्रवेश करते हैं उसके जीवन में क्लेश, जड़ता नहीं रहती। दोनों वृक्षों के बीच से श्रीकृष्ण तो निकल गये, किन्तु ऊखल तिरछा होकर अटक गया। (ऊखल तो खल था ही, खल का स्वभाव ही है टेढ़ा होना।) परन्तु उस ऊखल में एक गुण यह है कि वह भगवान के साथ एक गुण (रस्सी) से बंध गया था और भगवान के पीछे-पीछे जा रहा था इसलिए उसमें भी यमलार्जुन जैसे जड़ वृक्षों और दुष्टों का उद्धार करने का सामर्थ्य आ जाता है। दामोदर श्रीकृष्ण अपनी कटि से बंधे ऊखल को तनिक अपनी ओर खींच लेते हैं। बस दोनों वृक्षों की पृथ्वी में धंसी जड़ें उखड़ गयीं, देखते-ही-देखते वे बड़ा भारी शब्द करते हुए भूमि पर गिर पड़े। जहां वे वृक्ष थे वहां एक परम उज्जवल ज्योति चमक उठी और दो तेजोमय दिव्य वस्त्र एवं आभूषणों से भूषित सिद्धपुरुष वृक्षों से निकले–ठीक उसी तरह जैसे काष्ठ से अग्नि प्रकट हुई हो। ये दोनों और कोई नहीं बल्कि नलकूबर और मणिग्रीव हैं। उन्होंने निर्मल मन से हाथ जोड़कर ऊखल से रस्सी में बंधे पुराणपुरुष दामोदर की स्तुति की– ‘प्रभो ! आप करुणा की निधि हैं। जगत का मंगल करना आपका स्वभाव है। आप ‘दामोदर’, ‘कृष्ण’ और ‘गोविन्द’ को हमारा बारम्बार नमस्कार है।’ प्रभो! आप समस्त लोकों के अभ्युदय के लिए अपनी समस्त शक्तियों के साथ अवतरित हुए हैं। आप समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले हैं। हम आपके दासानुदास हैं, हमारी प्रार्थना स्वीकार कीजिए --
'हे करुनानिधि ! करुना कीजै, अपनी भाउ-भगति-रति दीजै।'
बानी तुमरे गुन-गन गनै, श्रवन परम पावन जस सुनै।
ये कर अवर कर्म जिमि करैं, प्रभु की परिचर्या अनुसरैं।
मन-अलि चरन-कमल-रस रसौ, चित्र कमल-जग भूलि न बसौ।
हे जगदीस ! जसोदा-नंदन, सीस रहौ नित तुव-पद-बंदन।
तुमरी मूरति भक्त तुम्हारे, नित ही निरखहूँ नैन हमारे।।
ঠাকুর গান শুনিবেন ইচ্ছা প্রকাশ করিলেন। বলরামের বৈঠকখানায় একঘর লোক। সকলেই তাঁহার পানে চাহিয়া আছেন — কি বলেন শুনিবেন, কি করেন দেখিবেন। শ্রীযুক্ত তারাপদ গাহিতেছেন:
কেশব কুরু করুণা দীনে, কুঞ্জকাননচারী।
মাধব মনোমোহন, মোহন মুরলীধারী ৷৷
(হরিবোল, হরিবোল, হরিবোল, মন আমার)।
ব্রজকিশোর কালীয়হর কাতরভয়ভঞ্জন,
নয়ন-বাঁকা, বাঁকা শিখিপাখা রাধিকা-হৃদয়রঞ্জন —
গোবর্ধনধারণ, বনকুসুমভূষণ, দামোদর কংসদর্পহারী।
শ্যামরাসরসবিহারী। (হরিবোল, ইত্যাদি) ৷৷
The drawing-room was full of devotees. The Master wanted to hear some songs. At his request Tarapada sang about Krishna:
" O Thou Eternal Youth of Braja,Tamer of fierce Kaliya, Slayer of the afflicted's fear! Beloved, with the arching eyes;And crest with arching peacock feather, Charmer of Sri Radha's heart! Govardhan's mighty Lifter, Thou, All garlanded with sylvan flowers! O Damodara, Kamsa's Scourge! O Dark One, who dost sport in bliss, With sweet Vrindavan's gopi maids.(Chant, O mind, the name of Hari,Sing aloud the name of Hari,Praise Lord Hari's name!)
श्रीरामकृष्ण (गिरीश से) - अहा, बड़ा अच्छा गाना है सब गानों की रचना तुम्हीं ने की है ?
শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশের প্রতি) — আহা, বেশ গানটি! তুমিই কি সব গান বেঁধেছ?
MASTER (to Girish): "Ah! It is a beautiful song. Did you write it?"
भक्त - जी हाँ, 'चैतन्यलीला' के सब गाने इन्हीं के बनाये हुए हैं ।
একজন ভক্ত — হাঁ, উনিই চৈতন্যলীলার সব গান বেঁধেছেন।
A DEVOTEE: "Yes, sir, he wrote all the songs for his play, the Chaitanyalila."
श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - यह गाना उतरा भी खूब है ।
শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশের প্রতি) — এ গানটি খুব উতরেছে।
MASTER: "This one has really hit the mark."
(गानेवाले के प्रति) - “निताई का गाना आता है ?" फिर गाना होने लगा, नित्यानन्द ने गाया था –
(भावार्थ) "किशोरी का प्रेम अगर तुझे लेना है तो चला आ,...... प्रेम का ज्वार बहा जा रहा है । अरे, वह प्रेम शत धाराओं में बह रहा है, जो जितना चाहता है, उसे उतना ही मिलता है । प्रेम की किशोरी, स्वयं इच्छा करके प्रेम वितरण कर रही हैं । राधा के प्रेम में तुम भी 'जय कृष्ण जय कृष्ण' कहो । उस प्रेम से प्राण मस्त हो जाते हैं, उसकी तरंगों पर प्राण नाचने लगते हैं । राधा के प्रेम से 'जय कृष्ण जय कृष्ण’ कहता हुआ तू चला आ ।"
[नित्यानंद प्रभु (जन्म:1474-1599) चैतन्य महाप्रभु के प्रथम शिष्य थे। इन्हें निताई भी कहते हैं।नित्यानंद बलराम के अवतार माने जाते हैं। वे एक साथ गौर- निताई ( चैतन्य को गौर अर्थात "सुनहरा ", और, नित्यानंद को छोटे रूप में 'निताई' कहते हैं) जब श्री गौरांग ने सन्यास ले लिया वह उनके साथ शांतिपुर होते जगन्नाथ जी गए। कुछ दिनों बाद श्री गौरांग ने इन्हें गृहस्थ धर्म पालन करने तथा बंगाल में कृष्णभक्ति का प्रचार करने का आदेश दिया। यह गौड़ देश लौट आए। अंबिका नगर के सूर्यनाथ पंडित की दो पुत्रियों वसुधा देवी तथा जाह्नवी देवी से इन्होंने विवाह किया। इसके अनंतर खड़दह ग्राम में आकर बस गए और श्री श्यामसुंदर की सेवा स्थापित की। श्री गौरांग के अप्रकट होने के पश्चात् वसुधा देवी से एक पुत्र वीरचंद्र हुए जो बड़े प्रभावशाली हुए। संवत् १५९९ में नित्यानंद का तिरोधान हुआ औैर उनकी पत्नी जाह्नवी देवी तथा वीरचंद्र प्रभु ने बंगाल के वैष्णवों का नेतृत्व ग्रहण किया।]
(গায়কের প্রতি) — “নিতাই-এর গান গাইতে পারো?”
আবার গান হইল, নিতাই গেয়েছেন:
কিশোরীর প্রেম নিবি আয়, প্রেমের জুয়ার বয়ে যায়।
বইছে রে প্রেম শতধারে, যে যত চায় তত পায় ৷৷
প্রেমের কিশোরী, প্রেম বিলায় সাধ করি, রাধার প্রেমে বলরে হরি;
প্রেমে প্রাণ মত্ত করে, প্রেম তরঙ্গে প্রাণ নাচায়।
রাধার প্রেমে হরি বলি, আয় আয় আয় ৷৷
At Sri Ramakrishna's request Tarapada sang two more songs. In the first, Nitai exhorts people to share Radha's love for Sri Krishna:
Come one and all! Take Radha's love! The high tide of her love flows by; It will not last for very long.Oh, come then! Come ye, one and all! In countless streams it flows from her;As much as you desire is yours. Made all of love, she pours out love, Unstintingly for everyone; Her love intoxicates the heart, With heavenly bliss, and thrills the soul. Oh, come and sing Lord Hari's name, Drawn by her love. Oh, come ye all!
फिर गौरांग का गाना होने लगा –
(भावार्थ) - "किसके भाव में आकर गौरांग के वेश में तुमने प्राणों को शीतल कर दिया ? प्रेम के सागर में तूफान आ गया है, अब कुल की मर्यादा न रह जायेगी । व्रज में गोपाल का वेश धारण कर तुमने गौएँ चरायी थी, बंसी बजाकर गोपियों का मन मुग्ध कर लिया था, गोवर्धन धारण कर वृन्दावन की रक्षा की थी, गोपियों के मान करने पर तुम उनके पैरो पड़े थे - आँसुओं से तुम्हारा चन्द्रानन प्लावित हो गया था ।"
শ্রীগৌরাঙ্গের গান হইল —
কার ভাবে গৌর বেশে জুড়ালে হে প্রাণ।
প্রেমসাগরে উঠলো তুফান, থাকবে না আর কুল মান ৷৷
(মন মজালে গৌর হে)
ব্রজ মাঝে, রাখাল সাজে, চরালে গোধন;
ধরলে করে মোহন বাঁশি, মজলো গোপীর মন;
ধরে গোবর্ধন, রাখলে বৃন্দাবন,
মানের দায়ে, ধরে গোপীর পায়, ভেসে গেল চাঁদ বয়ান ৷৷
(মন মজালে গৌর হে)।
सब मास्टर से गाने के लिए अनुरोध कर रहे हैं । मास्टर स्वभाव के कुछ लजीले हैं, वे धीमे शब्दों में माफी माँगने लगे ।
সকলে মাস্টারকে অনুরোধ করিতেছেন, তুমি একটি গান গাও। মাস্টার একটু লাজুক, ফিস্ফিস্ করে মাপ চাহিতেছেন।
The devotees pressed M. to sing; but M. was shy and asked them in a whisper to excuse him.
गिरीश (श्रीरामकृष्ण से हँसकर) - महाराज, मास्टर किसी तरह नहीं गा रहे हैं ।
গিরিশ (ঠাকুরের প্রতি, সহাস্যে) — মহাশয়! মাস্টার কোন মতে গান গাইছে না।
GIRISH (to the Master): "Sir, we can't find a way to persuade M. to sing.'
श्रीरामकृष्ण (विरक्ति के स्वर में) - वह स्कूल में भले ही दाँत दिखाये, मुँह खोले, पर गाने में ही उसे दुनिया भर की लज्जा सवार हो जाती हैं । मास्टर चुपचाप बैठे रहे ।
শ্রীরামকৃষ্ণ (বিরক্ত হইয়া) — ও স্কুলে দাঁত বার করবে; গান গাইতে যত লজ্জা! মাস্টার মুখটি চুন করে খানিকক্ষণ বসিয়া রহিলেন।
MASTER (annoyed): "Yes, he can bare his teeth at school, but shyness overpowers him when he is asked to sing!" M., feeling greatly distressed, remained speechless.
सुरेश मित्र कुछ दूर बैठे थे । श्रीरामकृष्ण उन्हें सस्नेह देखकर गिरीश की ओर इशारा करके हँसते हुए कह रहे हैं –"तुम्हीं नहीं, ये (गिरीश) तुमसे भी बड़े चढ़े हैं ।"
শ্রীযুক্ত সুরেশ মিত্র একটু দূরে বসেছিলেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁহার দিকে সস্নেহ দৃষ্টিপাত করিয়া শ্রীযুক্ত গিরিশ ঘোষকে দেখাইয়া সহাস্যবদনে কথা কহিতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তুমি তো কি? ইনি (গিরিশ) তোমার চেয়ে!
Suresh Mitra, a beloved householder disciple of the Master, was seated at a distance. The Master cast an affectionate glance at him and said to him, pointing to Girish, "You talk of having lived a wild life, but here is one you could not surpass."
सुरेश (हँसते हुए) - जी हाँ, मेरे बड़े भाई हैं । (सब हँसते हैं ।)
সুরেশ (হাসিতে হাসিতে) — আজ্ঞা হাঁ, আমার বড়দাদা। (সকলের হাস্য)
SURESH (with a smile) : "Yes, sir, he is my elder brother in that respect." (All laugh.)
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏3H-विकास के 5 अभ्यास की खबरें लेकर काम करना चाहिए - तभी तो वस्तुलाभ होगा"🙏
[After finding the way,.... Then comes the time for action.]
["পথ, উপায়, জেনে লবার পর, তখন নিজে কাজ করতে হয়।]
गिरीश (श्रीरामकृष्ण से) - अच्छा महाराज, बचपन में मैंने न कुछ पढ़ा न लिखा, फिर भी लोग मुझे विद्वान् कहते हैं ।
গিরিশ (ঠাকুরের প্রতি) — আচ্ছা, মহাশয়! আমি ছেলেবেলায় কিছু লেখাপড়া করি নাই, তবু লোকে বলে বিদ্বান!
GIRISH (to the Master): "Well, sir, I didn't have any education during my boyhood, but still people say I am a learned man."
श्रीरामकृष्ण - महिम चक्रवर्ती $$$$ने शास्त्रावलोकन खूब किया है - आधार भी उच्च है । (मास्टर से) क्यों जी ?
[>>>>Mahimacharan Chakraborty — (महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय (नवनी दा) के मातामही (दादी) के पिता।) Mahimacharan, a resident of Kashipur, practiced Vedanta. He had great respect for Sri Ramakrishna and often visited Dakshineswar. He used to spend time in religious thought, studying scriptures. He acquired erudition by reading many books in Sanskrit and English. He had many qualities. But the erudite, the pious, the generous, and the multifaceted in him—the eagerness with which he displayed it before the eyes of all made him a laughing stock. Narendranath and Girish used to argue with him. He established a free school and spread education among the common people. An idol of Annapurna was installed in his house. He also had a huge library. Sri Sri Thakur made him recite the verses of Narada Pancharatra many times in the context of Bhaktimarga.]
শ্রীরামকৃষ্ণ — মহিমা চক্রবর্তী অনেক শাস্ত্র-টাস্ত্র দেখেছে শুনেছে — খুব আধার! (মাস্টারের প্রতি) — কেমন গা?
MASTER: "Mahimacharan has studied many scriptures. A big man. (To M.) Isn't that so?"
मास्टर - जी हाँ ।
M: "Yes, sir."
गिरीश - क्या ? पुस्तकीय विद्या ? यह बहुत देख चुका हूँ ! अब इसके चकमे में नहीं आता ।
গিরিশ — কি? বিদ্যা! ও অনেক দেখেছি! ওতে আর ভুলি না।
GIRISH: "What? Book-learning? I have seen enough of it. It can't fool me any more.
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - यहाँ का भाव क्या है, जानते हो ? पुस्तक और शास्त्र ये सब केवल ईश्वर के पास पहुँचने का मार्ग ही बताते हैं । मार्ग – उपाय - के समझ लेने पर फिर पुस्तकों और शास्त्रों की क्या जरूरत है ? तब स्वयं अपना काम करना चाहिए ।
শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিতে হাসিতে) — এখানকার ভাব কি জান? বই শাস্ত্র এ-সব কেবল ঈশ্বরের কাছে পৌঁছিবার পথ বলে দেয়। পথ, উপায়, জেনে লবার পর, আর বই শাস্ত্রে কি দরকার? তখন নিজে কাজ করতে হয়।
MASTER (with a smile): "Do you know my attitude? Books, scriptures, and things like that only point out the way to reach God. After finding the way, what more need is there of books and scriptures? Then comes the time for action.
"एक आदमी को एक चिट्ठी मिली । उसको उसके किसी आत्मीय ने कुछ चीजें भेजने के लिए लिखा था । जब चीजों के खरीदने का समय आया**^^ , तब चिट्ठी की तलाश करने पर भी वह नहीं मिल रही थी । मकानमालिक ने बड़ी उत्सुकता के साथ खोजना शुरू किया । बड़ी देर तक कई आदमियों ने मिलकर खोजा । अन्त में वह चिट्ठी मिल गयी । तब उसे खूब आनन्द हुआ ।
[After finding the - (Remedies or ) Ways to reach the goal or After understanding the [ method of 5 practices for development of 3H , are ways to destroy the ego - the practice of expressing selflessness - the method of becoming 100 % unselfish or egoless ] then what is the need of books and scriptures? Then one should do one's own work the practice of 'renunciation and service .'**^^ जब चीजों के खरीदने का समय आया**^^पारुल विश्वविद्यालय बड़ोदरा, गुजरात सेमिनार (22 सितम्बर 2022) का समय आया : श्री रामकृष्ण के आविर्भूत होने की तिथि से ही सत्ययुग का प्रारम्भ हो चुका है, अर्थात अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण ही लक्ष्य है और उन तक पहुँचने के मार्ग भी हैं ! लक्ष्य तक पहुँचने के मार्ग – उपाय - [3H विकास के 5 अभ्यास की पद्धति- "Be and Make " तो वास्तव में अहंकार को नष्ट करने और निःस्वार्थपरता ( नैतिकता की सार्वभौमिक परिभाषा] को व्यक्त करने की साधना है ! इस स्वार्थशून्य या आध्यात्मिक मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षापद्धति के रहस्य को समझ लेने पर फिर पुस्तकों और शास्त्रों की क्या जरूरत है ? तब स्वयं अपना काम करना (अहं को नष्ट करने का उपाय - निःस्वार्थपरता को व्यक्त करने की साधना) - 'त्याग और सेवा' का अभ्यास करना चाहिए अर्थात 'चरैवेति, चरैवेति' देशाटन और पर्यटन करते हुए सत्ययुग की स्थापना या महामण्डल का प्रचार-प्रसार करना चाहिए । >>> प्रमोद दा ने 2022 के पारुल यूनिवर्सिटी कैम्प में पहली बार kjne-bkse विवेक करना समझाया। KJNe की चिट्ठी में लिखा था - 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण देनेवाले प्रशिक्षक, C-IN-C रैंक बैज , महामण्डल ध्वज , बिगुल , स्कार्फ और भी कई चीजें लेकर आयें। क्योंकि 3H विकास के 5 अभ्यास की पद्धति- "Be and Make " तो वास्तव में अहंकार को नष्ट करने और निःस्वार्थपरता में उत्तरोत्तर वृद्धि ही नेता के नैतिकता की सार्वभौमिक कसौटी है और अंतर्निहित पूर्णता को व्यक्त करने की साधना है ! नवनीदा ने प्रमोद दा को सोनी की शादी ब्राह्मण पुत्र से होने का समाचार पाकर प्रमोद दा को समझाने भेजा था। और बड़ोदरा में महामण्डल का सेमिनार ठीक नहीं होता है , यह रिपोर्ट अरुण० ने अज० के कहने पर वीरे० दा को भेजा था। वीर०, रणजीत दा ने वार्षिक प्रशिक्षण शिविर में हिन्दी भाषा के लिए अलग प्रशिक्षण की व्यवस्था की पैरवी की थी।]
मालिक ने बड़ी उत्सुकता के साथ चिट्ठी अपने हाथ में ले ली, और उसमें जो कुछ लिखा हुआ था, पढ़ने लगा, लिखा था - पाँच सेर सन्देश भेजियेगा, एक धोती, तथा कुछ अन्य चीजें - न जाने क्या क्या । तब फिर चिट्ठी की कोई जरूरत न रही, चिट्ठी फेंककर सन्देश, कपड़े तथा और और चीजों की व्यवस्था करने को वह चल दिया । चिट्ठी की जरूरत तो तभी तक थी, जब तक सन्देश, कपड़े आदि के विषय में ज्ञान नहीं हुआ था । इसके बाद प्राप्ति की चेष्टा हुई ।
“একজন একখানা চিঠি পেয়েছিল, কুটুম বাড়ি তত্ত্ব করতে হবে, কি কি জিনিস লেখা ছিল। জিনিস কিনতে দেবার সময় চিঠিখানা খুঁজে পাওয়া যাচ্ছিল না। কর্তাটি তখন খুব ব্যস্ত হয়ে চিঠির খোঁজ আরম্ভ করলেন। অনেকক্ষণ ধরে অনেকজন মিলে খুঁজলে। শেষে পাওয়া গেল। তখন আর আনন্দের সীমা নাই। কর্তা ব্যস্ত হয়ে অতি যত্নে চিঠিখানা হাতে নিলেন আর দেখতে জাগলেন, কি লেখা আছে। লেখা এই, পাঁচ সের সন্দেশ [3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण देनेवाले प्रशिक्षक, C-IN-C रैंक बैज , महामण्डल ध्वज , बिगुल , स्कार्फ और भी कई चीजें ] পাঠাইবে, একখানা কাপড় পাঠাইবে; আরও কত কি। তখন আর চিঠির দরকার নাই, চিঠি ফেলে দিয়ে সন্দেশ ও কাপড়ের আর অন্যান্য জিনিসের চেষ্টায় বেরুলেন। চিঠির দরকার কতক্ষণ? যতক্ষণ সন্দেশ, কাপড় ইত্যদির বিষয় না জানা জায়। তারপরই পাবার চেষ্টা।
"A man received a letter from home informing him that certain presents were to be sent to his relatives. The names of the articles were given in the letter. As he was about to go shopping for them, he found that the letter was missing. He began anxiously to search for it, several others joining in the search. For a long time they continued to search. When at last the letter was discovered, his joy knew no bounds. With great eagerness he opened the letter and read it. It said that he was to buy five seers of sweets, a piece of cloth, and a few other things. Then he did not need the letter any more, for it had served its purpose. Putting it aside, he went out to buy the things. How long is such a letter necessary? As long as its contents are not known. When the contents are known one proceeds to carry out the directions.
“शास्त्रों में तो उनके पाने के उपायों की ही बातें मिलेंगी । परन्तु खबरें लेकर काम करना चाहिए । तभी तो वस्तुलाभ होगा ।
[ अर्थात "खबरें लेकर काम करना चाहिए" अर्थात 3H विकास के 5 अभ्यास सीखकर साधना (विवेक-प्रयोग) करनी चाहिए " तभी तो वस्तुलाभ होगा" अर्थात मनुष्य में पहले से विद्यमान पूर्णता (Perfection), दिव्यत्व (Divinity) या निःस्वार्थपरता (100 % Unselfishness) की अभिव्यक्ति होगी और मनुष्य अपने जीवन को गठित कर (चरित्र-निर्माण कर) पशु से मनुष्य में और मनुष्य से देवता (अप्रतिरोध्य ऋषि) में रूपांतरित हो सकेगा !]
"In the scriptures you will find the way to realize God. But after getting all the information about the path, you must begin to work. Only then can you attain your goal.
“শাস্ত্রে তাঁকে পাবার উপায়ের কথা পাবে। কিন্তু খবর সব জেনে নিজে কর্ম আরম্ভ করতে হয়। তবে তো বস্তুলাভ!
"केवल पाण्डित्य से क्या होगा ? बहुत से श्लोक और बहुत से शास्त्र पण्डितों के समझे हुए हो सकते हैं, परन्तु संसार पर जिसकी आसक्ति है, मन ही मन कामिनी और कांचन पर जिसका प्यार है (वासना और धन के लालच में जिसकी आसक्ति है), शास्त्रों पर उसकी धारणा नहीं हुई – उसका पढ़ना व्यर्थ है । पंचांग में लिखा है कि इस साल वर्षा खूब होगी, परन्तु पंचांग को दाबने पर एक बूँद भी पानी नहीं निकलता, भला एक बूँद भी तो गिरता, परन्तु उतना भी नहीं गिरता !” (सब हँसते हैं ।)
"What will it avail a man to have mere scholarship? A pundit may have studied many scriptures, he may recite many sacred texts, but if he is still attached to the world and if inwardly he loves 'woman and gold', then he has not assimilated the contents of the scriptures. For such a man the study of scriptures is futile. "The almanac forecasts the rainfall tor the year. You may squeeze the book, but you won't get a drop of water — not even a single drop." (Laughter.)
“শুধু পাণ্ডিত্যে কি হবে? অনেক শ্লোক, অনেক শাস্ত্র, পণ্ডিতের জানা থাকতে পারে; কিন্তু যার সংসারে আসক্তি আছে, যার কামিনী-কাঞ্চনে মনে মনে ভালবাসা আছে, তার শাস্ত্রে ধারণা হয় নাই— মিছে পড়া। পাঁজিতে লোখেছে, বিশ আড়া জল, কিন্তু পাঁজি টিপলে এক ফোঁটাও পড়ে না।” (সকলের হাস্য)
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏वासना और लालच में आसक्त गिद्ध समान नेता उड़ें ऊँचा पर नजर ब्रह्म या मरघट 🙏
[गिद्ध प्रकार के नेता मत बनो जिसका मन शवों पर टिका (एकाग्र) है।]
[Don't be a vulture type leader Whose mind is fixed on dead bodies.]
[শকুন টাইপের নেতা হবেন না যার মন মৃতদেহের উপর স্থির।]
[ગીધ પ્રકારના નેતા ન બનો જેનું મન મૃતદેહો પર સ્થિર હોય.]
गिरीश (सहास्य) - महाराज, पंचांग को दाबने पर एक बूँद भी पानी नहीं गिरता ? (सब हँसते हैं।)
GIRISH (smiling): "What did you say, sir, about squeezing the almanac? Won't a single drop of water come out of it?" (All laugh.)
গিরিশ (সহাস্যে) — মহাশয়! পাঁজি টিপলে এক ফোঁটাও পড়ে না? (সকলের হাস্য)
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - पण्डित खूब लम्बी लम्बी बातें तो करते हैं, परन्तु उनकी नजर कहाँ है ? - कामिनी और कांचन पर - देह-सुख और रुपयों पर । "गीध बहुत ऊँचे उड़ता है, परन्तु उसकी नजर मरघट पर ही रहती है । (हास्य) वह बस मुर्दे की लाश ही खोजता रहता है - कहाँ है मरघट और कहाँ है मरा हुआ बैल !
MASTER (with a smile): "The pundits talk big, but where is their mind fixed? On 'woman and gold', on creature comforts and money. The vulture soars very high in the sky, but its eyes are fixed on the charnel-pit. It is continually looking for charnel-pits, carcasses, and dead bodies.
માસ્ટર (સ્મિત સાથે): "પંડિતો મોટી મોટી વાતો કરે છે, પણ તેમનું મન ક્યાં સ્થિર હોય છે? 'સ્ત્રી અને સોના' પર, પ્રાણીની સુખ-સુવિધાઓ અને પૈસા પર. ગીધ આકાશમાં ખૂબ જ ઊંચે ઉડે છે, પણ તેની આંખો ચારણ પર સ્થિર છે. તે સતત ખાડાઓ, શબ અને મૃતદેહોને શોધે છે.
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — পণ্ডিত খুব লম্বা লম্বা কথা বলে, কিন্তু নজর কোথায়? কামিনী আর কাঞ্চনে, দেহের সুখ আর টাকায়।“শকুনি খুব উঁচুতে উড়ে, কিন্তু নজর ভাগাড়, কোথায় মড়া।
(गिरीश से) - "नरेन्द्र बहुत अच्छा है गाने-बजाने में, पढ़ने लिखने में - सब बातों में पक्का है, इधर जितेन्द्रिय भी है, विवेक और वैराग्य भी है, सत्यवादी भी है । उसमें बहुत से गुण हैं । (मास्टर से) - "क्यों जी ! कैसा है, अच्छा है न खूब ?"
(To Girish) "Narendra is a boy of a very high order. He excels in everything: vocal and instrumental music and studies. Again, he has control over his sense-organs. He is truthful and has discrimination and dispassion. So many virtues in one person! (To M.) What do you say? Isn't he unusually good?"
(ગિરીશને) "નરેન્દ્ર એક ખૂબ જ ઉચ્ચ વર્ગનો છોકરો છે. તે દરેક બાબતમાં પારંગત છે: કંઠ્ય અને વાદ્ય સંગીત અને અભ્યાસ. ફરીથી, તે તેના ઇન્દ્રિયો પર નિયંત્રણ ધરાવે છે. તે સત્યવાદી છે અને તેનામાં ભેદભાવ અને વૈરાગ્ય છે. ઘણા બધા ગુણો છે. એક વ્યક્તિમાં! (એમ.ને) તમે શું કહો છો? શું તે અસામાન્ય રીતે સારો નથી?"
(গিরিশের প্রতি) — “নরেন্দ্র খুব ভাল; গাইতে বাজাতে, পড়ায় শুনায় বিদ্যায়; এদিকে জিতেন্দ্রিয়, বিবেক-বৈরাগ্য আছে, সত্যবাদী। অনেক গুণ।(মাস্টারের প্রতি) — কেমন রে? কেমন গা, খুব ভাল নয়?”
मास्टर - जी हाँ, बहुत अच्छा है ।
M: "Yes, sir, he is."
মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ, খুব ভাল।
એમ: "હા, સર, તે છે."
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से अकेले में) - देखो, उसमें (गिरीश में) अनुराग खूब है, और विश्वास भी है।
MASTER (aside to M.): "He [meaning Girish] has great earnestness and faith."
শ্রীরামকৃষ্ণ (জনান্তিকে, মাস্টারের প্রতি) — দেখ, ওর (গিরিশের) খুব অনুরাগ আর বিশ্বাস।
માસ્ટર (એમ.ને બાજુમાં રાખીને): "તે [એટલે કે ગિરીશ] ખૂબ જ ખંત અને વિશ્વાસ ધરાવે છે."
मास्टर आश्चर्य में आकर एकदृष्टि से गिरीश को देख रहे हैं । गिरीश कुछ ही दिनों से श्रीरामकृष्ण के पास आने लगे है, परन्तु मास्टर ने देखा, श्रीरामकृष्ण से मानो उनका बहुत दिनों का परिचय हो - जैसे वे कोई परम आत्मीय हों, जैसे एक ही सूत में पिरोये हुए मणियों में से एक हो ।
M. looked at Girish, and marvelled at his tremendous faith. Girish had been coming to Sri Ramakrishna only a short time and had already recognized his spiritual power. To M. he seemed a familiar friend and kinsman, related to him by the strong bond of spirituality. Girish was one of the gems in the necklace of the Master's devotees.
মাস্টার অবাক হইয়া গিরিশকে একদৃষ্টে দেখিতেছেন। গিরিশ ঠাকুরের কাছে কয়েকদিন আসিতেছেন মাত্র। মাস্টার কিন্তু দেখিলেন যেন পূর্বপরিচিত — অনেকদিনের আলাপ — পরমাত্মীয় — যেন একসূত্রে গাঁথা মণিগণের একটি মণি।
नारायण ने कहा, "महाराज, क्या गाना न होगा ? श्रीरामकृष्ण मधुर कण्ठ से माता का नाम और गुणगान करने लगे –
यतने हृदये रेखो आदरिनी श्यामा माँ के।
माँके तुमि देखो आर आमि देखि, आर जेनो केउ नाही देखे।।
कामादिरे दिये फाँकि, आय मन विरले देखि ,
रसनारे सङ्गे राखि, से जेनो माँ बोले डाके (माझे माझे) ।।
कूरुचि कूमन्त्री जतो, निकट होते दिओ नाको,
ज्ञान-नयनके प्रहरी रेखो, से जेनो सावधाने थाके।।
(भावार्थ) - “आदरणीय श्यामा माँ को यत्नपूर्वक हृदय में रखना । ऐ मन, तू देख और मैं देखूँ, कोई और जैसे न देखने पावे । कामादि को धोखा देकर, ऐ मन, आ, एकान्त में उनके दर्शन करें । रसना को हम लोग साथ रखेंगे, ताकि वह 'माँ माँ' कहकर पुकारती रहे । जितने कुरुचि कुमन्त्री हैं उन्हें पास भी न फटकने देना । ज्ञान के नेत्रों को पहरेदार बनाना और उन्हें सतर्क रहने के लिए होशियार कर देना ।"
Narayan asked the Master whether he would sing. Sri Ramakrishna sang of the Divine Mother: " Cherish my precious Mother Syama Tenderly within, O mind; May you and I alone behold Her, Letting no one else intrude. O mind, in solitude enjoy Her, Keeping the passions all outside; Take but the tongue, that now and again It may cry out, "O Mother! Mother!" Suffer no breath of base desire To enter and approach us there, But bid true knowledge stand on guard, Alert and watchful evermore.
নারাণ বলিলেন — মহাশয়! আপনার গান হবে না? শ্রীরামকৃষ্ণ সেই মধুর কণ্ঠে মায়ের নামগুণগান করিতেছেন:
যতনে হৃদয়ে রেখো আদরিণী শ্যামা মাকে।
মাকে তুমি দেখ আর আমি দেখি, আর যেন কেউ নাহি দেখে ৷৷
কামাদিরে দিয়ে ফাঁকি, আয় মন বিরলে দেখি,
রসনারে সঙ্গে রাখি, সে যেন মা বলে ডাকে (মাঝে মাঝে) ৷৷
কুরুচি কুমন্ত্রী যত, নিকট হতে দিও নাকো,
জ্ঞান-নয়নকে প্রহরী রেখো, সে যেন সাবধানে থাকে ৷৷
श्रीरामकृष्ण त्रितापपीड़ित संसारियों का भाव अपने पर आरोपित कर माता से अभिमानपूर्वक कह रहे हैं –
गो आनन्दमयी होये, माँ आमाय निरानन्द कोरो ना।
(उमा) ओ दूटि चरण बीने आमार मन, अन्य किछु आर जाने ना।।
तपन -तनय आमाय मन्द कोय, कि बोलिबो ताय बोलो ना।
भवानी बोलिये, भवे जाबो चले , मोने छिलो एई वासना।।
अकूल-पाथारे डूबाबी आमारे (उमा) स्वप्नेओ तातो जानि ना।।
अहर्हनिशि, श्रीदुर्गानामे भासि, तोबू दुखराशि गेलो ना।
एबार जदि मरि ओ हरसुन्दरी, तोर दुर्गानाम आर केउ लेबे ना।।
(भावार्थ) - "माँ, आनन्दमयी होकर तुम मुझे निरानन्द न करना । तुम्हारे दोनों चरणों को छोड़ मेरा मन और कुछ भी नहीं जानता । माँ, मुझे यम बदमाश कहता है, मैं उसे क्या जवाब दूँ, तुम्हीं बता दो । मेरे मन की यह इच्छा थी की 'भवानी' कहकर में भव से पार हो जाऊँ । तुम मुझे इस अछोर सागर में डुबो दोगी, यह विचार स्वप्न में भी मुझे न था । मैं दिन-रात तुम्हारा दुर्गा-नाम लिया करता हूँ, फिर भी मेरे इन असंख्य दुःखों का विनाश न हो पाया । ऐ हरसुन्दरी, अब की बार अगर मैं मरा, तो समझ लेना कि तुम्हारा यह दुर्गा-नाम फिर कोई न लेगा ।"
Then he sang, as if he were one of the afflicted souls of the world: " O Mother, ever blissful as Thou art, Do not deprive Thy worthless child of bliss! My mind knows nothing but Thy Lotus Feet. The King of Death scowls at me terribly; Tell me, Mother, what shall I say to him? . . .
ঠাকুর ত্রিতাপে তাপিত সংসারী জীবের ভাব আরোপ করিয়া মার কাছে অভিমান করিয়া গাইতেছেন:
গো আনন্দময়ী হয়ে মা আমায় নিরানন্দ করো না।
(ওমা) ও দুটি চরণ বিনে আমার মন, অন্য কিছু আর জানে না ৷৷
তপন-তনয় আমায় মন্দ কয়, কি বলিব তায় বল না।
ভবানী বলিয়ে, ভবে যাব চলে, মনে ছিল এই বাসনা ৷৷
অকুলপাথারে ডুবাবি আমারে (ওমা) স্বপনেও তাতো জানি না ৷৷
অহরহর্নিশি, শ্রীদুর্গানামে ভাসি, তবু দুখরাশি গেল না।
এবার যদি মরি ও হরসুন্দরী, তোর দুর্গানাম আর কেউ লবে না ৷৷
फिर वे नित्यानन्दमयी के ब्रह्मानन्द के स्वरूप का कीर्तन करने लगे –
शिव सङ्गे सदा रङ्गे आनन्दे मगना,
सुधापाने टल टल चले किन्तु पोड़े ना (माँ)।
बिपरीत रतातूरा, पदभरे काँपे धरा,
उभये पागलेर पारा, लज्जा भय आर माने ना (माँ)।
(भावार्थ) - “तुम शिव के साथ सदा ही आनन्द में मग्न हो रही हो । कितने ही रंग दिखा रही हो । माँ, सुधा पान करके लड़खड़ाती हुई भी तुम गिर नहीं पड़ती ।"
Again he sang about the bliss of the Divine Mother: "Behold my Mother playing with Siva, lost in an ecstasy of joy! Drunk with a draught of celestial wine. She reels and yet She does not fall. . ..."
আর নিত্যানন্দময়ী ব্রহ্মানন্দের কথা গাইতেছেন:
শিব সঙ্গে সদা রঙ্গে আনন্দে মগনা,
সুধাপানে ঢল ঢল ঢলে কিন্তু পড়ে না (মা)।
বিপরীত রতাতুরা, পদভরে কাঁপে ধরা,
উভয়ে পাগলের পারা, লজ্জা ভয় আর মানে না (মা)।
भक्तगण नि:स्तब्ध भाव से गाना सुन रहे हैं । वे टकटकी लगाये श्रीरामकृष्ण की इस आत्मविस्मृत प्रमत्त अवस्था का अवलोकन कर रहे हैं । गाना समाप्त हो गया । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - “आज मेरा गाना अच्छा नहीं हुआ । जुकाम हो गया है ।"
The devotees listened to the songs in deep silence. After a few moments Sri Ramakrishna said, "I have a slight cold; so I couldn't sing well."
ভক্তেরা নিস্তব্ধ হইয়া গান শুনিতেছেন। তাঁহারা একদৃষ্টে ঠাকুরের অদ্ভুত আত্মহারা মাতোয়ারা ভাব দেখিতেছেন।গান সমাপ্ত হইল। কিয়ৎকালে পরে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বলিতেছেন, “আমার আজ গান ভাল হল না — সর্দি হয়েছে।”
(४)
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏卐*गोधूलि बेला में श्रीरामकृष्ण की प्रार्थना*🙏卐
*Sri Ramakrishna's prayer at dusk*
সন্ধ্যাসমাগমে
सन्ध्या हो आयी है । समुद्र के वक्षःस्थल पर, जहाँ अनन्त की नील छाया पड़ रही है, घने जंगलों में, आसमान को छूनेवाले पर्वतों की चोटियों पर, हवा से काँपती हुई नदी के तट पर, दिगन्त के छोर तक फैले हुए प्रान्तर में साधारण मानव का सहज ही भावान्तर हो जाता है । यह सूर्य जो समस्त संसार को आलोकित कर रहा था, कहाँ गया ? बालक सोच रहा है - तथा सोच रहे हैं बालकस्वभाव महापुरुष । सन्ध्या हो गयी । कैसा आश्चर्य है ! किसने ऐसा किया ? चिड़ियाँ डालियों पर बैठी हुई चहक रही हैं, मनुष्यों में जिन्हें चैतन्य हो गया है, वे भी उस आदिकवि - कारण के कारण पुरुषोत्तम - का नाम (माँ काली जो काल को खा जाती है -का नाम?) ले रहे हैं ।
Gradually it became dusk. The shadow of evening fell on Calcutta. For the moment the noise of the busy metropolis was stilled. Gongs and conch-shells proclaimed the evening worship in many Hindu homes. Devotees of God set aside their worldly duties and turned their minds to prayer and meditation. This joining of day and night, this mystic twilight, always created an ecstatic mood in the Master.
ক্রমে সন্ধ্যা হইল। সিন্ধুবক্ষে যথায় অনন্তের নীল ছায়া পড়িয়াছে, নিবিড় অরণ্যমধ্যে, অম্বরস্পর্শী পর্বত শিখরে, বায়ুবিকম্পিত নদীর তীরে, দিগন্তব্যাপী প্রান্তরমধ্যে, ক্ষুদ্র মানবের সহজেই ভাবান্তর হইল। এই সূর্য চরাচর বিশ্বকে আলোকিত করিতেছিলেন, কোথায় গেলেন? বালক ভাবিতেছে, আবার ভাবিতেছেন — বালকস্বভাবাপন্ন মহাপুরুষ। সন্ধ্যা হইল। কি আশ্চর্য! কে এরূপ করিল? — পাখিরা পাদপশাখা আশ্রয় করিয়া রব করিতেছে। মানুষের মধ্যে যাঁহাদের চৈতন্য হইয়াছে, তাঁহারাও সেই আদিকবি কারণের কারণ পুরুষোত্তমের নাম করিতেছেন।
बातचीत करते हुए सन्ध्या हो गयी । भक्तों में, जो जिस आसन पर बैठा था, वह उसी पर बैठा रहा। श्रीरामकृष्ण मधुर नाम ले रहे हैं । सब लोग उत्सुकता से दत्तचित्त हो सुन रहे हैं । इस तरह का मधुर नाम उन लोगों ने कभी नहीं सुना, मानो सुधावृष्टि हो रही है । इस तरह प्रेम से भरे हुए बालक का 'माँ माँ' कहकर पुकारना उन लोगों ने कभी नहीं सुना ।
आकाश, पर्वत, महासागर, वन, इन सब को देखने की अब क्या जरूरत है ? गौ के सींग, पैर और शरीर के दूसरे अँगों को देखने की अब क्या जरूरत है ? श्रीरामकृष्ण ने गौ के जिन स्तनों की बात कही है, इस कमरे में हम वही तो नहीं देख रहे हैं ? सब के अशान्त मन को कैसे शान्ति मिली ? निरानन्द का संसार आनन्द की धारा में कैसे प्लावित हो गया ? भक्तों को आनन्दमग्न और शान्तिपूर्ण क्यों देख रहा हूँ ?
ये प्रेमिक संन्यासी क्या सुन्दर रूपधारी अनन्त ईश्वर हैं ? दूध के पिपासुओं को क्या यहीं दूध मिल सकेगा ? अवतार हो या कोई भी हो, मन तो इन्हीं के श्रीचरणों में बिक गया, अब और कहीं जाने की शक्ति नहीं रही । इन्हीं को अपने जीवन का ध्रुवतारा बना लिया है । देखूँ तो नहीं, इनके हृदय-सरोवर में वे आदिपुरुष किस तरह प्रतिबिम्बित हो रहे हैं ।
The devotees seated in the room looked at Sri Ramakrishna as he began to chant the sweet name of the Divine Mother. After the chanting he began to pray. What was the need of prayer to a soul in constant communion with God? Did he not rather want to teach erring mortals how to pray? Addressing the Divine Mother, he said, "O Mother, I throw myself on Thy mercy; I take shelter at Thy Hallowed Feet. I do not want bodily comforts; I do not crave name and fame; I do not seek the eight occult powers. Be gracious and grant that I may have pure love for Thee, a love unsmitten by desire, untainted by any selfish ends — a love craved by the devotee for the sake of love alone. And grant me the favour, O Mother, that I may not be deluded by Thy world-bewitching maya, that I may never be attached to the world, to 'woman and gold', conjured up by Thy inscrutable maya! O Mother, there is no one but Thee whom I may call my own. Mother, I do not know how to worship; I am without austerity; I have neither devotion nor knowledge. Be gracious, Mother, and out of Thy infinite mercy grant me love for Thy Lotus Feet."
কথা কহিতে কহিতে সন্ধ্যা হইল। ভক্তেরা যে যে-আসনে বসিয়াছিলেন, তিনি সেই আসনেই বসিয়া রহিলেন। শ্রীরামকৃষ্ণ মধুর নাম করিতেছেন, সকলে উদগ্রীব ও উৎকর্ণ হইয়া শুনিতেছেন। আমন মিষ্ট নাম তাঁরা কখনও শুনেন নাই — যেন সুধাবর্ষণ হইতেছে। এমন প্রেমমাখা বালকের মা মা বলে ডাকা, তাঁরা কখনও শুনেন নাই, দেখেন নাই। আকাশ, পর্বত, মহাসাগর, প্রান্তর, বন আর দেখিবার কি প্রয়োজন? গরুর শৃঙ্গ, পদাদি ও শরীরের অন্যান্য অংশ আর দেখিবার কি প্রয়োজন? দয়াময় গুরুদেব যে গরুর বাঁটের কথা বলিলেন, এই গৃহমধ্যে কি তাই দেখিতেছি? সকলের অশান্ত মন কিসে শান্তিলাভ করিল? নিরানন্দ ধরা কিসে আনন্দে ভাসিল? কেন ভক্তদের দেখিতেছি শান্ত আর আনন্দময়? এই প্রেমিক সন্ন্যাসী কি সুন্দর রূপধারী অনন্ত ঈশ্বর? এইখানেই কি দুগ্ধপানপিপাসুর পিপাসা শান্তি হইবে? অবতার হউন, আর নাই হউন, ইঁহারই চরণপ্রান্তে মন বিকাইয়াছে, আর যাইবার জো নাই! ইঁহারেই করিয়াছি জীবনের ধ্রুবতারা। দেখি, ইঁহার হৃদয়-সরোবরে সেই আদিপুরুষ কিরূপ প্রতিবিম্বিত হইয়াছেন।
भक्तों में से कोई कोई इस तरह का चिन्तन कर रहे हैं और श्रीरामकृष्ण के श्रीमुख से निकले हुए हरि का नाम और देवी का नाम सुन-सुनकर कृतार्थ हो रहे हैं । नामगुण-कीर्तन के पश्चात् श्रीरामकृष्ण प्रार्थना करने लगे; मानो साक्षात् भगवान् प्रेम का शरीर धारण कर जीवों को शिक्षा दे रहे हैं कि कैसे प्रार्थना करनी चाहिए । कहा - "माँ, मैं तुम्हारी शरण में हूँ - शरणागत हूँ ! तुम्हारे चरणकमलों में मैंने शरण ली है । माँ, मैं देह-सुख नहीं चाहता, मान सम्मान नहीं चाहता, अणिमादि अष्ट सिद्धियों नहीं चाहता, केवल यह कहता हूँ कि तुम्हारे पादपद्मों में शुद्धा भक्ति हो - निष्काम, अमला, अहेतुकी भक्ति ।
और माँ, तुम्हारी भुवनमोहिनी माया में मुग्ध न होऊँ - तुम्हारी माया के संसार के कामिनी-कांचन पर कभी प्यार न हो (आसक्ति न हो ?)। माँ, तुम्हारे सिवा मेरा और कोई नहीं है । मैं भजनहीन हूँ, साधनाहीन हूँ, ज्ञानहीन हूँ, भक्तिहीन हूँ, कृपा करके अपने श्रीपादपद्मों में मुझे भक्ति दो ।"
Every word of this prayer, uttered from the depths of his soul, stirred the minds of the devotees. The melody of his voice and the childlike simplicity of his face touched their hearts very deeply.
ভক্তেরা কেহ কেহ ওইরূপ চিন্তা করিতেছেন ও ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের শ্রীমুখবিগলিত হরিনাম, আর মায়ের নাম শ্রবণ করিয়া কৃতকৃতার্থ বোধ করিতেছেন। নামগুণকীর্তনান্তে ঠাকুর প্রার্থনা করিতেছেন। যেন সাক্ষাৎ ভগবান প্রেমের দেহধারণ করিয়া জীবকে শিক্ষা দিতেছেন, কিরূপে প্রার্থনা করিতে হয়। বলিলেন, “মা আমি তোমার শরণাগত, শরণাগত! দেহসুখ চাই না মা! লোকমান্য চাই না, (অণিমাদি) অষ্টসিদ্ধি চাই না, কেবল এই করো যেন তোমার শ্রীপাদপদ্মে শুদ্ধাভক্তি হয় — নিষ্কাম অমলা, অহৈতুকী ভক্তি হয়। আর যেন মা, তোমার ভুবনমোহিনী মায়ার মুগ্ধ না হই — তোমার মায়ার সংসারে, কামিনী-কাঞ্চনের উপর ভালবাসা যেন কখন না হয়! মা! তোমা বই আমার আর কেউ নাই। আমি ভজনহীন, সাধনহীন, জ্ঞানহীন, ভক্তিহীন — কৃপা করে শ্রীপাদপদ্মে আমায় ভক্তি দাও।”
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏卐*नेता -जगतगुरु श्रीरामकृष्ण के मानवशरीर धारण करने का कारण*🙏卐
मणि सोच रहे हैं - 'तीनों काल में जो उनका नाम ले रहे हैं - जिनके श्रीमुख से निकली हुई नामगंगा तैलधारा की भाँति निरवच्छिन्ना है, फिर उनके लिए सन्ध्या-वन्दना का क्या प्रयोजन ?’ मणि ने बाद में समझा कि लोकशिक्षा के लिए ही श्रीरामकृष्ण ने मानवशरीर धारण किया है - "हरि ने स्वयं ही आकर योगी के वेश में नाम का संकीर्तन किया ।”
गिरीश ने श्रीरामकृष्ण को न्योता दिया । उसी रात को जाना है । [बड़ोदरा, गुजरात का आदर्श मदरसा जाना है ? **^^ -28 सितम्बर 2022 ]
Girish invited the Master to his house, saying that he must go there that very night.
মণি ভাবিতেছেন — ত্রিসন্ধ্যা যিনি তাঁর নাম করিতেছেন — যাঁর শ্রীমুখবিনিঃসৃত নামগঙ্গা তৈলধারার ন্যায় নিরবছিন্না, তাঁর আবার সন্ধ্যা কি? মণি পরে বুঝিলেন, লোকশিক্ষার জন্য ঠাকুর মানবদেহ ধারণ করিয়াছেন —“হরি আপনি এসে, যোগীবেশে, করিলে নামসংকীর্তন।”
श्रीरामकृष्ण - रात न होगी ?
MASTER: "Don't you think it will be late?"
গিরিশ ঠাকুরকে নিমন্ত্রণ করিলেন। সেই রাত্রেই যেতে হবে। শ্রীরামকৃষ্ণ — রাত হবে না?
गिरीश - नहीं, आप जब चाहें, आइयेगा । मुझे आज थिएटर जाना होगा, उन लोगों में लड़ाई हो रही है, उसका निपटारा करना है ।
GIRISH: "No, sir. You may return any time you like. I shall have to go to the theatre tonight to settle a quarrel there."
গিরিশ — না, যখন ইচ্ছা আপনি যাবেন, আমায় আজ থিয়েটারে যেতে হবে। তাদের ঝগড়া মেটাতে হবে।
(५)
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏卐*राजपथ (कर्तव्यपथ ?) पर श्रीरामकृष्ण का अद्भुत भावावेश*🙏卐
[तुझसे हमने दिल को लगाया , जो कुछ है सो तू ही है !
हर देश में तू, हर भेष में तू, तेरे नाम अनेक तू एक ही है !
हम को मन की शक्ति देना,मन विजय करें ।
दूसरों की जय से पहले,खुद को जय करें ।]
রাজপথে শ্রীরামকৃষ্ণের অদ্ভুত ঈশ্বরাবেশ
[তুঝসে হামনে দিল কো লাগায়া, জো কুছ হ্যায় সো তু হি হ্যায় !!]
गिरीश का न्योता है, रात ही को जाना होगा । इस समय रात के नौ बजे हैं । श्रीरामकृष्ण को खिलाने के लिए बलराम भी भोजन का प्रबन्ध करा रहे थे । कहीं बलराम को दुःख न हो, इसलिए श्रीरामकृष्ण ने गिरीश के यहाँ जाते समय बलराम से कहा, "बलराम, तुम भी भोजन भिजवा देना।"
It was nine o'clock in the evening when the Master was ready to start for Girish's house. Since Balaram had prepared supper for him, Sri Ramakrishna said to Balaram: "Please send the food you have prepared for me to Girish's. I shall enjoy it there." He did not want to hurt Balaram's feelings.
গিরিশের নিমন্ত্রণ! রাত্রেই যেতে হবে। এখন রাত ৯টা, ঠাকুর খাবেন বলে রাত্রের খাবার বলরামও প্রস্তুত করেছেন। পাছে বলরাম মনে কষ্ট পান, ঠাকুর গিরিশের বাড়ি যাইবার সময় তাই বুঝি বলিতেছেন, “বলরাম! তুমিও খাবার পাঠিয়ে দিও।”
दुमँजले से नीचे उतरते हुए श्रीरामकृष्ण भगवद्भावना में मस्त हो रहे हैं, जैसे मतवाला । साथ में नारायण हैं और मास्टर । पीछे राम, चुन्नी आदि कितने ही हैं । एक भक्त पूछ रहे हैं, 'साथ कौन जायेगा ?' श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'किसी एक के जाने ही से काम हो जायेगा ।' उतरते हुए ही विभोर हो रहे हैं । नारायण हाथ पकड़ने के लिए बढ़े कि कहीं गिर न जायँ । श्रीरामकृष्ण को इससे विरक्ति-सी हुई । कुछ देर बाद नारायण से उन्होंने स्नेहपूर्ण स्वर में कहा, "हाथ पकड़ने पर लोग मतवाला समझेंगे, मैं खुद चला जाऊँगा ।"
As the Master was coming down from the second floor of Balaram's house, he became filled with divine ecstasy. He looked as if he were drunk. Narayan and M. were by his side; a little behind came Ram, Chuni, and the other devotees. No sooner did he reach the ground floor than he became totally overwhelmed. Narayan came forward to hold him by the hand lest he should miss his footing and fall. The Master expressed annoyance at this. A few minutes later he said to Narayan affectionately: "If you hold me by the hand people may think I am drunk. I shall walk by myself."
দুতলা হইতে নিচে নামিতে নামিতেই ভগবদ্ভাবে বিভোর! যেন মাতাল। সঙ্গে নারাণ ও মাস্টার। পশ্চাতে রাম, চুনি ইত্যাদি অনেকে। একজন ভক্ত বলিতেছেন, “সঙ্গে কে যাবে?” ঠাকুর বলিলেন, “একজন হলেই হল।” নামিতে নামিতেই বিভোর। নারাণ হাত ধরিতে গেলেন, পাছে পড়িয়া যান। ঠাকুর বিরক্তি প্রকাশ করিলেন। কিয়ৎক্ষণ পরে নারাণকে সস্নেহে বলিলেন, “হাত ধরলে লোকে মাতাল মনে করবে, আমি আপনি চলে যাব।”
बोसपाड़े का तिराहा पार कर रहे हैं - कुछ ही दूर पर गिरीश का घर है । इतने शीघ्र क्यों जा रहे हैं ? भक्त सब पीछे रह जाते हैं । शायद हृदय में किसी अद्भुत दिव्यभाव का आवेश हो रहा है । वेदों में जिन्हें वाणी और मन से परे कहा है, क्या उन्हीं की चिन्ता करते हुए श्रीरामकृष्ण पागल की तरह लड़खड़ाते हुए चले जा रहे हैं ? अभी कुछ ही समय हुआ होगा, उन्होंने बलराम के यहाँ कहा था, वे वाणी और मन से परे नहीं हैं, वे शुद्ध मन शुद्ध बुद्धि और शुद्ध आत्मा के गोचर हैं । शायद वे उस परमपुरुष का साक्षात्कार कर रहे हैं । क्या यही देख रहे हैं ‘जो कुछ है सो तू ही है’? नरेन्द्र आ रहे हैं । श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र के लिए पागल रहते हैं । नरेन्द्र सामने आये, परन्तु श्रीरामकृष्ण कुछ बोल न सके । लोग इसी को 'भाव' कहते हैं; क्या श्रीगौरांग को भी ऐसा ही होता था ? कौन इस भावावस्था को समझेगा ?
Girish's house was not far away. The Master passed the crossing at Bosepara Lane. Suddenly he began to walk faster. The devotees were left behind. Presently Narendra was seen coming from a distance. At other times the Master's joy would have been unbounded at the thought of Narendra or at the mere mention of his name; but now he did not even exchange a word with his beloved disciple.
বোসপাড়ার তেমাথা পার হচ্ছেন — কিছুদূরেই শ্রীযুক্ত গিরিশের বাড়ি। এত শীঘ্র চলছেন কেন? ভক্তেরা পশ্চাতে পড়ে থাকছে। না জানি হৃদয়মধ্যে কি অদ্ভুত দেবভাব হইয়াছে! বেদে যাঁহাকে বাক্য-মনের অতীত বলিয়াছেন, তাঁহাকে চিন্তা করিয়া কি ঠাকুর পাগলের মতো পাদবিক্ষেপ করিতেছেন? এইমাত্র বলরামের বাড়িতে বলিলেন যে, সেই পুরুষ বাক্য-মনের অতীত নহেন; তিনি শুদ্ধমনের, শুদ্ধবুদ্ধির, শুদ্ধ আত্মার গোচর। তবে বুঝি সেই পুরুষকে সাক্ষাৎকার করছেন! এই কি দেখছেন — “যো কুছ হ্যায়, সো তুঁহি হ্যায়?” এই যে নরেন্দ্র আসিতেছেন। ‘নরেন্দ্র’ ‘নরেন্দ্র’ বলিয়া পাগল। কই, নরেন্দ্র সম্মুখে আসিলেন, ঠাকুর তো কথা কহিতেছেন না। লোকে বলে, এর নাম ভাব, এইরূপ কি শ্রীগৌরাঙ্গের হইত? কে এ-ভাব বুঝিবে?
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏वेदवाक्य या देववाणी 🙏
একটি (দেহী?) ও একটি (জগৎ?)। জীব জগৎ!
(যেন বেদবাক্য — যেন দৈববানী)
'This' is one and 'that' is another."
"यह (देही) ही उस (दूसरे) देह में भी है, इसीलिए कोई पराया नहीं सभी अपने हैं !"
(ठाकुर के उपदेश बंगला भाषा में हैं अतः बंगला भाषा ही देवभाषा है। )
गिरीश के घर में जानेवाली गली के सामने श्रीरामकृष्ण आये । भक्त सब साथ हैं । अब आप नरेन्द्र से बोले –"क्यों भैया, अच्छे हो न ? मैं उस समय कुछ बोल नहीं सका ।" श्रीरामकृष्ण के अक्षर-अक्षर में करुणा भरी हुई है । तब भी वे गिरीश के दरवाजे पर नहीं पहुँचे थे ।
গিরিশের বাড়ি প্রবেশ করিবার গলির সম্মুখে ঠাকুর আসিয়া উপস্থিত হইলেন। সঙ্গে ভক্তগণ। এইবার নরেন্দ্রকে সম্ভাষণ করিতেছেন। নরেন্দ্রকে বলছেন, “ভাল আছ, বাবা? আমি তখন কথা কইতে পারি নাই।” — কথার প্রতি অক্ষর করুণা মাখা। তখনও দ্বারদেশে উপস্থিত হন নাই।
श्रीरामकृष्ण एकाएक खड़े हो गये । नरेन्द्र की ओर देखकर बोले, "एक बात है, एक तो यह (देह) है और एक वह (संसार) ।" जीव और संसार । वे ही जानें कि भाव में वे यह सब क्या देख रहे थे। अवाक् होकर उन्होंने क्या देखा ? **^^
[अवाक् होकर उन्होंने क्या देखा ?**^^ .....अनन्त ज्ञानराशि से निकले हुए दो ही एक शब्द- अनाहत नाद, वेदवाक्य , महावाक्य या देववाणी हैं ! क्या यही कि- जीव, जगत और ईश्वर एक हैं ! भागवत, भक्त और भगवान एक ही हैं !.... ]
दो ही एक बात वे कह सके थे - जैसे वेदवाक्य या देववाणी, अथवा जैसे कोई समुद्र के तट पर खड़ा हुआ अनन्त तरंगमालाओं से उठते हुए अनाहत नाद की दो ही एक ध्वनि सुनता है, उसी तरह उस अनन्त ज्ञानराशि से निकले हुए दो ही एक शब्द श्रीरामकृष्ण के पास खड़े हुए भक्तों ने सुने ।
এইবার হঠাৎ দাঁড়াইয়া পড়িলেন। নরেন্দ্রের দিকে চাহিয়া বলিয়া উঠিলেন, একটা কথা — এই একটি (দেহী?) ও একটি (জগৎ?)। জীব জগৎ! ভাবে এ-সব কি দেখিতেছিলেন? তিনিই জানেন, অবাক্ হয়ে কি দেখছিলেন! দু-একটি কথা উচ্চারিত হইল, যেন বেদবাক্য — যেন দৈববানী — অথবা, যেন অনন্ত সমুদ্রের তীরে গিয়াছি ও অবাক্ হয়ে দাঁড়াইয়াছি; আর যেন অনন্ততরঙ্গমালোত্থিত অনাহত শব্দের একটি-দুটি ধ্বনি কর্ণকুহরে প্রবিষ্ট হইল।
As the Master and the devotees entered the lane where Girish lived, he was able to utter words. He said to Narendra: "Are you quite well, my child? I could not talk to you then." Every word the Master spoke was full of infinite tenderness. He had not yet reached the door of Girish's house, when suddenly he stopped and said, looking at Narendra: "I want to tell you something. 'This' is one and 'that' is another." Who could know what was passing through his innermost soul at that moment?
(६)
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏*नित्यगोपाल से अख़बार के विषय में वार्तालाप*🙏
*Conversation with Nityagopal about the Newspaper*
*সংবাদপত্র সম্পর্কে নিত্যগোপালের সাথে কথোপকথন*
गिरीश दरवाजे पर से श्रीरामकृष्ण को ले जाने के लिए आये हैं । भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण के बिलकुल निकट आ जाने पर गिरीश दण्ड की तरह श्रीरामकृष्ण के पैरों पर गिर पड़े । आज्ञा पाकर उठे, श्रीरामकृष्ण की पदधूलि ली और उन्हें अपने साथ दुमँजले के बैठकखाने में ले जाकर बैठाया । भक्तों ने भी आसन ग्रहण किया । उन्हीं के पास बैठकर उनका वचनामृत पान करने की सब की इच्छा है ।
Girish stood at the door to welcome the Master. As Sri Ramakrishna entered the house, Girish fell at his feet and lay there on the floor like a rod. At the Master's bidding he stood up, touching the Master's feet with his forehead. Sri Ramakrishna was taken to the drawing-room on the second floor. The devotees followed him and sat down, eager to get a view of the Master and listen to every word that fell from his lips.
দ্বারদেশে গিরিশ; ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণকে গৃহমধ্যে লইয়া যাইতে আসিয়াছেন। ঠাকুর ভক্তসঙ্গে যেই নিকটে এলেন, অমনি গিরিশ দণ্ডের ন্যায় সম্মুখে পড়িলেন। আজ্ঞা পাইয়া উঠিলেন, ঠাকুরের পদধূলা গ্রহণ করিলেন ও সঙ্গে করিয়া দু-তলায় বৈঠকখানা ঘরে লইয়া বসাইলেন। ভক্তেরা শশব্যস্ত হয়ে আসন গ্রহণ করিলেন — সকলের ইচ্ছা, তাঁহার কাছে বসেন ও তাঁহার মধুর কথামৃত পান করেন।
आसन ग्रहण करते हुए श्रीरामकृष्ण ने देखा, एक संवादपत्र (अख़बार) पड़ा हुआ था । संवादपत्र में विषयी मनुष्यों की बातें रहती हैं - दूसरों की चर्चा, दूसरों की निन्दा, यही सब रहता है, अतएव श्रीरामकृष्ण की दृष्टि में वह अपवित्र है; उन्होंने उसे हटा देने के लिए इशारा किया । अख़बार के हटाने के बाद उन्होंने आसन ग्रहण किया । नित्यगोपाल ने प्रणाम किया ।
As Sri Ramakrishna was about to take the seat reserved for him, he saw a newspaper lying near it. He signed to someone to remove the paper. Since a newspaper contains worldly matters — gossip and scandal —, he regarded it as unholy. After the paper was removed he took his seat. Nityagopal came forward and bowed low before the Master.
আসন গ্রহণ করিতে গিয়া ঠাকুর দেখিলেন, একখানা খবরের কাগজ রহিয়াছে। খবরের কাগজে বিষয়ীদের কথা। বিষয়কথা, পরচর্চা, পরনিন্দা তাই অপবিত্র — তাঁহার চক্ষে। তিনি ইশারা করলেন, ওখানা যাতে স্থানান্তরিত করা হয়। কাগজখানা সরানো হবার পর আসন গ্রহণ করিলেন।নিত্যগোপাল প্রণাম করিলেন।
श्रीरामकृष्ण (नित्यगोपाल से) - वहाँ ? –[ "ठीक तो है! तुम लंबे समय से दक्षिणेश्वर नहीं गए।"
MASTER: "Well! You haven't been to Dakshineswar for a long time."
মাষ্টারঃ "আচ্ছা! তুমি অনেকদিন দক্ষিণেশ্বরে যাওনি।"
नित्यगोपाल - जी हाँ, दक्षिणेश्वर मैं नहीं जा सका, शरीर अस्वस्थ था, दर्द है ।
NITYAGOPAL: "True, sir. I haven't been able to go there. I haven't been well. I have had pains all over my body."
নিত্য — আজ্ঞা হাঁ, দক্ষিণেশ্বরে যাই নাই। শরীর খারাপ। ব্যাথা।
श्रीरामकृष्ण - अब कैसा है तू ?
MASTER: "How are you now?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — কেমন আছিস?
नित्यगोपाल - अच्छा नहीं रहता ।
NITYAGOPAL: "Not so well, sir."
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏卐 “तू आया है ? मैं भी आया हूँ ।”🙏卐
[जबकि 'मैं' महामण्डल मेंआया नहीं हूँ, लाया गया हूँ !]
"Have you come? I've come too."
“তুই এসেছিস? আমিও এসেছি।”
श्रीरामकृष्ण - मन को कुछ निम्न पर लाना ।
MASTER: "Bring your mind down one or two notes."
[नित्यगोपाल बसु - ज्ञानानंद अवधूत (1855 - 1911)] - नित्यगोपाल श्री रामकृष्ण के प्रबल भक्त थे । रामचंद्र और मनमोहन मित्र के चचेरे भाई। तुलसीचरण दत्त (बाद में स्वामी निर्मलानंद) नित्यगोपाल के भतीजे थे। श्री रामकृष्ण अपने भक्तों से कहा करते थे, ''उसका सोचने का तरीका अलग (तान्त्रिक मत पर चलने वाला?) है, और वह यहां का नहीं है। पहले पहल तारक (ठाकुर के पार्षद स्वामी शिवानन्द जी) उसी के साथ रहते थे। ठाकुरदेव के देहत्याग करने के बाद, ठाकुर की अस्थि को कंकुरगाछी के योगोद्यान में रखा गया था (जैसे दादा के आत्माराम की डिबिया को धर्मेन्द्र के यहाँ रखा गया है??) और नित्यगोपाल पांच से छह महीने तक रोजाना ठाकुर की पूजा करते थे। उस समय नित्यगोपाल दिन का अधिकांश समय ध्यान में व्यतीत करते थे। उन्होंने 'ज्ञानानंद अवधूत' नाम अपना लिया था। उन्होंने नंबर 113 रासबिहारी एवेन्यू पर 'महानिर्वाण मठ' की स्थापना की। पानीहाटी में उन्होंने एक और मठ की स्थापना की, जिसे 'कैवल्य मठ' कहा जाता है।
Nityagopala [Nityagopala Basu — Gnanananda Avadhuta (1855 - 1911)] — An ardent devotee of Sri Ramakrishna. Cousin of Ramachandra and Manomohan Mitra. Tulsicharana Dutta (later Swami Nirmalananda) was Nityagopal's niece.He was always engrossed in God. Sri Ramakrishna noticed his spiritual condition and loved him very much. He used to say, "He has a different way of thinking, and he is not from here." ]
শ্রীরামকৃষ্ণ — দুই-এক গ্রাম নিচে থাকিস।
नित्यगोपाल - आदमी अच्छे नहीं लगते । कितनी ही बातें लोग कहा करते हैं - कभी कभी मुझे भय होता है । कभी कभी साहस भी खूब होता है ।
NITYAGOPAL: "I don't like people's company. They say all kinds of things about me. That sometimes frightens roe, but again I feel great strength within."
নিত্য — লোক ভাল লাগে না। কত কি বলে — ভয় হয়। এক-একবার খুব সাহস হয়।
श्रीरामकृष्ण - होगा क्यों नहीं ? तेरे साथ रहता कौन है ?
MASTER: "That's only natural. Who lives with you?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — তা হবে বইকি! তোর সঙ্গে কে থাকে?
नित्यगोपाल – तारक* हमारे साथ रहता है । उसे भी कभी कभी जी नहीं चाहता ।
(*श्री तारकनाथ घोषाल - स्वामी शिवानन्दजी (1854-1934) । स्वामी शिवानंद का जन्म 16 दिसंबर 1854 को कोलकाता के बारासात में रहने वाले घोषाल परिवार में हुआ था। उनके पिता रामकनाई घोषाल एक वकील थे। उनकी माता वामासुंदरी देवी भी एक धार्मिक महिला थीं। उन्होंने आध्यात्मिक और धर्मनिरपेक्ष दोनों तरह की शिक्षा प्राप्त की। तारकनाथ का विवाह किशोरावस्था में ही हो गया था। लेकिन अपनी पत्नी की सहमति से उन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन किया। बाद के वर्षों में जब स्वामी विवेकानंद ने यह सुना, तो उन्होंने तारकनाथ को ‘महापुरुष’ के रूप में संदर्भित किया। तब से उन्हें ‘महापुरुष महाराज’ के रूप में जाना जाने लगा। रामकृष्ण के निधन के बाद, बारानगर मठ की स्थापना हुई थी। तारकनाथ बारानगर मठ में शामिल होने वाले पहले कुछ व्यक्तियों में से एक थे। मठवासी आदेश प्राप्त करते हुए उन्हें ‘स्वामी शिवानंद’ नाम दिया गया था। 1902 में स्वामी शिवानंद वाराणसी गए और रामकृष्ण अद्वैत मठ की स्थापना की और सात वर्षों तक वहां प्रमुख के रूप में कार्य किया। हालांकि साल 1910 में उन्हें रामकृष्ण मिशन का उपाध्यक्ष चुना गया। स्वामी शिवानंद 1922 में ब्रह्मानंद महाराज के निधन के बाद, रामकृष्ण मठ और मिशन के दूसरे अध्यक्ष बने। Sri Ramakrishna once commented that Taraknath belonged to a high state of divine power ‘shakti’ from where ‘nama-rupa’ originates. स्वामी शिवानन्द और सुबोधानंद रामकृष्ण के एकमात्र प्रत्यक्ष शिष्य थे , और स्वामी शिवानन्द जो रामकृष्ण मिशन के दूसरे अध्यक्ष बने।जिन्होंने अलमोड़ा से 5 km दूर कसार देवी माता के मन्दिर में ध्यान किया था स्वामी विवेकानन्द ने भी ध्यान किया था। बताया जाता है कि मंदिर के आसपास के क्षेत्र वैन एलेन बेल्ट है, जहां धरती के भीतर विशाल भू-चुंबकीय पिंड है। जहां खास चुंबकीय शक्तियां विद्यमान है जो मनुष्य को सकारात्मक उर्जा प्रदान करती हैं. कसार देवी मंदिर के बारे में पौराणिक मान्यता है कि यहां पर देवी माँ साक्षात अवतरित हुई थी। अल्मोड़ा के ब्राइट कार्नर में राम कृष्ण मठ को स्थापित किए आज 100 साल पूरे हो गए हैं. 22 मई 1916 के दिन स्वामी तुरियानंद महाराज और स्वामी शिवानन्द महाराज ने इस मठ की स्थापना की थी। माना जाता हैं कि अल्मोड़ा के ही काकड़ीघाट में स्वामी विवेकानन्द को ज्ञान प्राप्ति हुई। )
NITYAGOPAL: "Tarak.1 He is always with me. But sometimes he too gets on my nerves."
নিত্য — তারক১। ও সর্বদা সঙ্গে থাকে, ওকেও সময়ে সময়ে ভাল লাগে না।
श्रीरामकृष्ण - नागा कहता था, उसके मठ में एक सिद्ध था, वह आसमान की ओर नजर उठाये हुए चला जाता था । परन्तु उसका एक साथी चला जाने से उसे बड़ा दुःख हुआ, वह अधीर हो गया ।
MASTER: "Nangta told me that there lived at his monastery an ascetic who had acquired occult powers. He used to go about with his eyes fixed on the sky. But when one of his companions left him, he became disconsolate."
শ্রীরামকৃষ্ণ — ন্যাংটা বলত, তাদের মঠে একজন সিদ্ধ ছিল। সে আকাশ তাকিয়ে চলে যেত; গণেশগর্জী — সঙ্গী যেতে বড় দুঃখ — অধৈর্য হয়ে গিছল।
कहते ही कहते श्रीरामकृष्ण का भाव-परिवर्तन हो गया । किसी एक भाव में वे निर्वाक् हो गये । कुछ देर बाद कह रहे हैं, “तू आया है ? मैं भी आया हूँ ।” यह बात कौन समझेगा ? क्या यही देवभाषा है ?
Again the Master went into an ecstatic mood. Strange thoughts seemed to stir his mind and he remained speechless. After a while he said: "Art Thou come? I too am here." Who could pretend to understand these words?
বলিতে বলিতে শ্রীরামকৃষ্ণের ভাবান্তর হইল। কি ভাবে অবাক হয়ে রহিলেন। কিয়ৎ পরে বলিতেছেন, “তুই এসেছিস? আমিও এসেছি।”
(७)
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण का अपने लीला -पार्षदों के संग अवतार के सम्बन्ध में विचार🙏
[পার্ষদসঙ্গে — অবতার সম্বন্ধে বিচার]
कितने ही भक्त आये हुए हैं । श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हुए हैं । नरेन्द्र, गिरीश, राम, हरिपद, चुन्नी, बलराम, मास्टर - कितने ही हैं । नरेन्द्र नहीं मानते कि मनुष्य की देह में कभी अवतार हो सकता है । इधर गिरीश को ज्वलन्त विश्वास है कि प्रत्येक युग में ईश्वर का अवतार होता है, - वे मनुष्य की देह धारण करके संसार में आते हैं । श्रीरामकृष्ण की बड़ी इच्छा है कि इस सम्बन्ध में दोनों विचार करें । श्रीरामकृष्ण गिरीश से कह रहे हैं, “तुम दोनों जरा अंग्रेजी में विचार करो, मैं सुनूँगा ।"
Many of his devotees were in the room: Narendra, Girish, Ram, Haripada, Chuni, Balaram, and M. Narendra did not believe that God could incarnate Himself in a human body. But Girish differed with him; he had the burning faith that from time to time the Almighty Lord, through His inscrutable Power, assumes a human body and descends to earth to serve a divine purpose.The Master said to Girish, "I should like to hear you and Narendra argue in English."
विचार आरम्भ हुआ । अंग्रेजी में न होकर बंगला में ही होने लगा - बीच-बीच में अंग्रेजी के दो-एक शब्द निकल जाते थे । नरेन्द्र ने कहा, "ईश्वर अनन्त हैं, उनकी धारणा करना क्या हम लोगों की शक्ति का काम है ? वे सब के भीतर हैं, केवल किसी एक के ही भीतर वे आये हैं, ऐसी बात नहीं।'
The discussion began; but they talked in Bengali. Narendra said: "God is Infinity. How is it possible for us to comprehend Him? He dwells in every human being. It is not the case that He manifests Himself through one person only."
বিচার আরম্ভ হইল। ইংরেজীতে হইল না, বাংলাতেই হইল — মাঝে মাঝে দু-একটা ইংরেজী কথা। নরেন্দ্র বলিলেন, “ঈশ্বর অনন্ত। তাঁকে ধারণা করা আমাদের সাধ্য কি? তিনি সকলের ভিতরেই আছেন — শুধু একজনের ভিতর এসেছেন, এমন নয়।”
श्रीरामकृष्ण (सस्नेह ) - इसका जो मत है, वही मेरा भी है । वे सब जगह है; परन्तु इतनी बात है कि शक्ति की विशेषता है । कहीं तो अविद्याशक्ति का प्रकाश है, कहीं विद्याशक्ति का । किसी आधार में शक्ति अधिक है, किसी में कम, इसलिए सब आदमी समान नहीं है ।
SRI RAMAKRISHNA (tenderly): "I quite agree with Narendra. God is everywhere. But then you must remember that there are different manifestations of His Power in different beings. At some places there is a manifestation of His avidyasakti, at others a manifestation of His vidyasakti. Through different instruments God's Power is manifest in different degrees, greater and smaller. Therefore all men are not equal."
শ্রীরামকৃষ্ণ (সস্নেহে) — ওরও যা মত আমারও তাই মত। তিনি সর্বত্র আছেন। তবে একটা কথা আছে — শক্তিবিশেষ। কোনখানে অবিদ্যাশক্তির প্রকাশ, কোনখানে বিদ্যাশক্তির। কোন আধারে শক্তি বেশি, কোন আধারে শক্তি কম। তাই সব মানুষ সমান নয়।
राम - इस तरह के वृथा तर्क से क्या फायदा है ?
RAM: "What is the use of these futile arguments?"
রাম — এ-সব মিছে তর্কে কি হবে?
श्रीरामकृष्ण - नहीं, नहीं; इसका एक खास अर्थ है ।
MASTER (sharply): "No! No! There is a meaning in all this."
শ্রীরামকৃষ্ণ (বিরক্তভাবে) — না, না, ওর একটা মানে আছে।
गिरीश (नरेन्द्र के प्रति) - तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि वे देह धारण करके नहीं आते ?
GIRISH (to Narendra): "How do you know that God does not assume a human body?"
গিরিশ (নরেন্দ্রের প্রতি) — তুমি কেমন করে জানলে, তিনি দেহধারণ করে আসেন না?
नरेन्द्र - वे अवाङ्मनसगोचरम् हैं ।
NARENDRA: "God is 'beyond words or thought'.
"নরেন্দ্র — তিনি অবাঙ্মনোসোগোচরম্।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, वे शुद्ध-बुद्धि-गोचर हैं । शुद्ध बुद्धि और शुद्ध आत्मा, ये एक ही वस्तु हैं । ऋषियों ने शुद्ध बुद्धि के द्वारा शुद्ध आत्मा का साक्षात्कार किया था ।
MASTER: "No, that is not true. He can be known by the pure buddhi, which is the same as the Pure Self. The seers of old directly perceived the Pure Self through their pure buddhi."
শ্রীরামকৃষ্ণ — না; তিনি শুদ্ধবুদ্ধির গোচর। শুদ্ধবুদ্ধি শুদ্ধ-আত্মা একই, ঋষিরা শুদ্ধবুদ্ধি শুদ্ধ-আত্মা দ্বারা শুদ্ধ-আত্মাকে সাক্ষাৎকার করেছিলেন।
गिरीश (नरेन्द्र से) - मनुष्य में उनका अवतार न हो तो समझाये फिर कौन ? मनुष्य को ज्ञान-भक्ति देने के लिए वे देह धारण करते हैं । नहीं तो शिक्षा कौन देगा ?
GIRISH (to Narendra): "Unless God Himself teaches men through His human Incarnation, who else will teach them spiritual mysteries? God takes a human body to teach men divine knowledge and divine love. Otherwise, who will teach?"
গিরিশ (নরেন্দ্রের প্রতি) — মানুষে অবতার না হলে কে বুঝিয়ে দেবে? মানুষকে জ্ঞানভক্তি দিবার জন্য তিনি দেহধারণ করে আসেন। না হলে কে শিক্ষা দেবে?
नरेन्द्र – क्यों ? वे अन्तर में रहकर समझायेंगे ।
NARENDRA: "Why, God dwells in our own heart; He will certainly teach us from within the heart."
নরেন্দ্র — কেন? তিনি অন্তরে থেকে বুঝিয়ে দেবেন।
श्रीरामकृष्ण (सस्नेह) - हाँ, हाँ, अन्तर्यामी के रूप से वे समझायेंगे ।
MASTER (tenderly): "Yes, yes. He will teach us as our Inner Guide."
শ্রীরামকৃষ্ণ (সস্নেহে) — হাঁ হাঁ, অন্তর্যামীরূপে তিনি বুঝাবেন।
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏Coordinate geometry (निर्देशांक ज्यामिति)🙏
[हमलोग जागृत जानते हैं , स्वप्न जानते हैं, सुषुप्ति जानते हैं,
लेकिन यह समाधि या अनन्त में खो जाना क्या होता है ?
हमलोग यदि ईश्वर के अंश हैं तो अनन्त का अंश कैसे होगा ?
"The one has become many"
[ Infinity divided by infinity is NOT equal to one.
infinity is not a real or rational number.
so infinity divided by infinity is undefined. ]
फिर घोर तर्क ठन गया । Infinity (अनन्त) के अंश किस तरह होंगे, हैमिल्टन क्या कहते हैं, हर्बर्ट स्पेन्सर क्या कहते हैं, टिण्डल, हक्सले क्या कह गये हैं, ये सब बातें होने लगीं ।
Gradually Narendra and Girish became involved in a heated discussion. If God is Infinity, how can He have parts? What did Hamilton say? What were the views of Herbert Spencer, of Tyndall, of Huxley? And so forth and so on.
তারপর ঘোরতর তর্ক। ইনফিনিটি — তার কি অংশ হয়? আবার হ্যামিলটন্ কি বলেন? হার্বার্ট স্পেন্সার কি বলেন? টিণ্ডেল, হাক্সলে বা কি বলে গেছেন, এই কথা হতে লাগল।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - देखो, यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता ! मैं सब वही देख रहा हूँ, विचार अब इस पर क्या करूँ ? देख रहा हूँ - वे ही सब हैं, सब कुछ वे ही हुए हैं । यह भी हैं, और वह भी । एक अवस्था में अखण्ड में मन और बुद्धि खो जाती है । नरेन्द्र को देखकर मेरा मन अखण्ड में लीन हो जाता है । (गिरीश से) इसके बारे में तुम्हारी क्या राय है ?
MASTER (to M.): "I don't enjoy these discussions. Why should I argue at all? I clearly see that God is everything; He Himself has become all. I see that whatever is, is God. He is everything; again, He is beyond everything. I come to a state in which my mind and intellect merge in the Indivisible. At the sight of Narendra my mind loses itself in the consciousness of the Absolute. (To Girish) What do you say to that?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — দেখ, ইগুণো আমার ভাল লাগছে না। আমি সব তাই দেখছি। বিচার আর কি করবো? দেখছি — তিনিই সব। তিনিই সব হয়েছেন। তাও বটে, আবার তাও বটে। এক অবস্থায়, অখণ্ডে মনবুদ্ধিহারা হয়ে যায়! নরেন্দ্রকে দেখে আমার মন অখণ্ডে লীন হয়। (গিরিশের প্রতি) — “তার কি করলে বল দেখি।”
गिरीश (हँसते हुए) - आप यह मुझसे क्यों पूछते हैं ? इतने ही को छोड़ मानो और सब कुछ मैं जानता हूँ ! (सब हँसने लगे।)
GIRISH (with a smile): "Why ask me? As if I understood everything except that one point!" (All laugh.)
গিরিশ (হাসিতে হাসিতে) — ওইটে ছাড়া প্রায় সব বুঝেছি কিনা। (সকলের হাস্য)
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏आचार्य रामानुज और विशिष्टाद्वैतवाद- नेति से इति 🙏
[রামানুজ ও বিশিষ্টাদ্বৈতবাদ ]
श्रीरामकृष्ण - (समाधि " trance " की अवस्था से ) दो श्रेणी बिना उतरे मुख से बोला नहीं जाता। “वेदान्त - शंकर ने जो कुछ समझाया है, वह भी है और रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद भी है।"
MASTER: "Again, I cannot utter a word unless I come down at least two steps from the plane of samadhi. Sankara's Non-dualistic explanation of Vedanta is true, and so is the Qualified Non-dualistic interpretation of Ramanuja."
শ্রীরামকৃষ্ণ — আবার দু-থাক না নামলে কথা কইতে পারি না। “বেদান্ত — শঙ্কর যা বুঝিয়েছেন, তাও আছে; আবার রামানুজের বিশিষ্টাদ্বৈতবাদও আছে।
नरेन्द्र - विशिष्टाद्वैतवाद (Qualified Non-dualism) क्या है ?
NARENDRA: "What is Qualified Non-dualism?"
নরেন্দ্র — বিশিষ্টাদ্বৈতবাদ কি?
श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र से) - विशिष्टाद्वैतवाद रामानुज का मत है । अर्थात् जीवजगत्-विशिष्ट ब्रह्म सब मिलकर एक । "जैसे एक बेल । एक ने उसके खोपड़े को अलग, बीजों को अलग और गूदे को अलग कर लिया था । फिर यह समझने की जरूरत हुई कि बेल वजन में कितना था । तब सिर्फ गूदा तौलने पर बेल का वजन कैसे पूरा उतर सकता था ? क्यों कि पूरा वजन समझना है तो खोपड़ा, बीज और गूदा तीनों ही एक साथ लेने होंगे । खोपड़े और बीजों को निकालकर गूदे को ही लोग असल चीज समझते हैं ।
MASTER: "It is the theory of Ramanuja. According to this theory, Brahman, or the Absolute, is qualified by the universe and its living beings. These three — Brahman, the world, and living beings — together constitute One. Take the instance of a bel-fruit. A man wanted to know the weight of the fruit. He separated the shell, the flesh, and the seeds. But can a man get the weight by weighing only the flesh? He must weigh flesh, shell, and seeds together. At first it appears that the real thing in the fruit is the flesh, and not its seeds or shell.
শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রকে) — বিশিষ্টাদ্বৈতবাদ আছে — রামানুজের মত। কিনা, জীবজগৎবিশিষ্ট ব্রহ্ম। সব জড়িয়ে একটি বেল। খোলা আলাদা, বীজ আলাদা, আর শাঁস আলাদা একজন করেছিল। বেলটি কত ওজনের জানবার দরকার হয়েছিল। এখন শুধু শাঁস ওজন করলে কি বেলের ওজন পাওয়া যায়? খোলা, বিচি, শাঁস সব একসঙ্গে ওজন করতে হবে। প্রথমে খোলা নয়, বিচি নয়, শাঁসটিই সার পদার্থ বলে বোধ হয়।
फिर विचार करके देखो – जिस वस्तु का गूदा है, उसी का खोपड़ा भी है और उसी के बीज भी । पहले नेति नेति करके जाना पड़ता है; जीव नेति, जगत् (नेति,नेति) इस तरह का विचार करना चाहिए, ब्रह्म ही वस्तु है और सब अवस्तु; फिर यह अनुभव होता है -(इति,इति) जिसका गूदा है, खोपड़ा और बीज भी उसके हैं; जिसे ब्रह्म कहते हो, उसी से जीव और जगत् भी हुए हैं । जिसकी नित्यता है, लीला भी उसी की है । इसीलिए रामानुज कहते थे, जीवनजगत्-विशिष्ट ब्रह्म । इसे ही विशिष्टाद्वैतवाद कहते हैं ।"
Then by reasoning you find that the shell, seeds, and flesh all belong to the fruit; the shell and seeds belong to the same thing that the flesh belongs to. Likewise, in spiritual discrimination one must first reason, following the method of 'Not this, not this': God is not the universe; God is not the living beings; Brahman alone is real and all else is unreal. Then one realizes, as with the bel-fruit, that the Reality from which we derive the notion of Brahman is the very Reality that evolves the idea of living beings and the universe. The Nitya and the Lila are the two aspects of one and the same Reality; therefore, according to Ramanuja, Brahman is qualified by the universe and the living beings. This is the theory of Qualified Non-dualism.
তারপর বিচার করে দেখে, — যেই বস্তুর শাঁস সেই বস্তুরই খোলা আর বিচি। আগে নেতি নেতি করে যেতে হয়। জীব নেতি, জগৎ নেতি এইরূপ বিচার করতে হয়; ব্রহ্মই বস্তু আর সব অবস্তু। তারপর অনুভব হয়, যার শাঁস তারই খোলা, বিচি। যা থেকে ব্রহ্ম বলছো তাই থেকে জীবজগৎ। যাঁরই নিত্য তাঁরই লীলা। তাই রামানুজ বলতেন, জীবজগৎবিশিষ্ট ব্রহ্ম। এরই নাম বিশিষ্টাদ্বৈতবাদ।”
(8)
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏*ईश्वरदर्शन । अवतार दिखाई देते हैं*🙏
[Ishwardarshan (God Vision) — Incarnation is visible!]
ঈশ্বরদর্শন (God Vision) — অবতার প্রত্যক্ষসিদ্ধ
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - मैं ईश्वर को प्रत्यक्ष देख रहा हूँ, विचार अब और क्या करना हैं ? मैं देख रहा हूँ, वे ही सब कुछ हुए हैं - वे ही जीव और जगत हुए हैं । "परन्तु चैतन्य का लाभ हुए बिना चैतन्य को कोई जान नहीं सकता ।
[परन्तु साक्षी चैतन्य (inner consciousness) की अनुभूति किये बिना कोई सर्वव्यापी चैतन्य (All-pervading Consciousness), या माँ जगदम्बा के विराट मातृहृदय के सर्वव्यापी शाश्वत अहं (omnipresent eternal consciousness) के साथ एकत्व की अनुभूति नहीं कर सकता।]
(To M.) "I do see God directly. What shall I reason about? I clearly see that He Himself has become everything; that He Himself has become the universe and all living beings."But without awakening one's own inner consciousness one cannot realize the All-pervading Consciousness.
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — আমি তাই দেখছি সাক্ষাৎ — আর কি বিচার করব? আমি দেখছি, তিনিই এইসব হয়েছেন। তিনিই জীব ও জগৎ হয়েছেন। “তবে চৈতন্য না লাভ করলে চৈতন্যকে জানা যায় না।
विचार तो तभी तक है जब तक उन्हें कोई पा नहीं लेता । केवल जबानी जमाखर्च से काम न होगा, मैं देख रहा हूँ, वे ही सब कुछ हुए हैं । उनकी कृपा से चैतन्य लाभ करना चाहिए । चैतन्य लाभ करने पर समाधि होती है, कभी कभी देह भी भूल जाती है, कामिनी और कांचन पर आसक्ति नहीं रह जाती, - ईश्वरी बातों के सिवा और कुछ नहीं सुहाता विषय की बातें सुनकर कष्ट होता है।
How long does a man reason? So long as he has not realized God. But mere words will not do. As for myself, I clearly see that He Himself has become everything. The inner consciousness must be awakened through the grace of God. Through this awakening a man goes into samadhi. He often forgets that he has a body. He gets rid of his attachment to 'woman and gold' and does not enjoy any talk unless it is about God. Worldly talk gives him pain.
বিচার কতক্ষণ? যতক্ষণ না তাঁকে লাভ করা যায়; শুধু মুখে বললে হবে না, এই আমি দেখছি তিনিই সব হয়েছেন। তাঁর কৃপায় চৈতন্য লাভ করা চাই! চৈতন্য লাভ করলে সমাধি হয়, মাঝে মাঝে দেহ ভুল হয়ে যায়, কামিনী-কাঞ্চনের উপর আসক্তি থাকে না, ঈশ্বরীয় কথা ছাড়া কিছু ভাল লাগে না; বিষয়কথা শুনলে কষ্ট হয়।”
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏卐दिव्य रहस्योद्घाटन, इलहाम 'प्रेम अवतार वरिष्ठ' की मनुष्य लीला 🙏卐
काली (ईश्वर) — God (भगवान-अवतार) in His relations to the conditioned.
ब्रह्म — The Unconditioned, the Absolute. ]
[প্রত্যক্ষ (Revelation) ]
"चैतन्य प्राप्त करके ही मनुष्य चैतन्य को जान सकता है ।"
Through the awakening of the inner consciousness one realizes the All-pervading Consciousness."
“চৈতন্য লাভ করলে তবে চৈতন্যকে জানতে পারা যায়।”
(चर्चा समाप्त हो गई।)... अब श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं –“मैंने देखा है, विचार करने पर एक तरह का ज्ञान होता है, और ध्यान करने पर लोग एक दूसरी तरह उन्हें समझते हैं । और वे जब खुद दिखा देते हैं तब वे एक और है । "वे जब खुद दिखलाते हैं कि अवतार इस प्रकार होता है, वे जब अपनी मनुष्यलीला समझा देते हैं, तब विचार करने की जरूरत नहीं रह जाती; किसी के समझाने की आवश्यकता नहीं रहती । किस तरह - जानते हो ? - जैसे अँधेरे कमरे के भीतर दियासलाई घिसने से एकाएक उजाला हो जाता है । उसी तरह एकाएक वे अगर उजाला दे दें तो (द्प् से हृदय आलोकित हो जाता है और ) सब सन्देह अपने आप मिट जाते हैं । इस तरह विचार करके उन्हें कौन जान सकता है ?”
The discussion came to a close. Sri Ramakrishna said to M.: "I have observed that a man acquires one kind of knowledge about God through reasoning and another kind through meditation; but he acquires a third kind of Knowledge about God when God reveals Himself to him, His devotee. If God Himself reveals to His devotee the nature of Divine Incarnation — how He plays in human form —, then the devotee doesn't have to reason about the problem or need an explanation. Do you know what it is like? Suppose a man is in a dark room. He goes on rubbing a match against a match-box and all of a sudden light comes. Likewise, if God gives us this flash of divine light, all our doubts are destroyed. Can one ever know God by mere reasoning?"
“দেখেছি, বিচার করে একরকম জানা যায়, তাঁকে ধ্যান করে একরকম জানা যায়। আবার তিনি যখন দেখিয়ে দেব — এর নাম অবতার — তিনি যদি তাঁর মানুষলীলা দেখিয়ে দেন, তাহলে আর বিচার করতে হয় না, কারুকে বুঝিয়ে দিতে হয় না! কিরকম জানো? যেমন অন্ধকারের ভিতর দেশলাই ঘষতে ঘষতে দপ্ করে আলো হয়। সেইরকম দপ্ করে আলো যদি তিনি দেন, তাহলে সব সন্দেহ মিটে যায়। এরূপ বিচার করে কি তাঁকে জানা যায়?
श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र को पास बुलाकर बैठाया और कुशल-प्रश्न करते हुए बड़े ही प्यार से बातचीत आरम्भ की ।
Sri Ramakrishna asked Narendra to sit by his side. He tenderly inquired about his health and showed him much affection.
ঠাকুর নরেন্দ্রকে কাছে ডাকিয়া বসাইলেন ও কুশল প্রশ্ন ও কত আদর করিতেছেন।
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
नरेंद्र को उपदेश — काली ही ब्रह्म
🙏卐जिसे ब्रह्म (शाश्वत चैतन्य, आत्मा, सच्चिदानन्द) कहते हैं, वही वास्तव में काली है।🙏卐
That which is called Brahman is really Kali.
যিনিই ব্রহ্ম, তিনিই কালী।
नरेन्द्र (श्रीरामकृष्ण से) - तीन-चार दिन तो मैंने काली का ध्यान किया, परन्तु कहाँ मुझे तो कहीं कुछ नहीं हुआ ।
NARENDRA (to the Master): "Why, I have meditated on Kali for three or four days, but nothing has come of it."
নরেন্দ্র (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — কই কালীর ধ্যান তিন-চারদিন করলুম, কিছুই তো হল না।
श्रीरामकृष्ण - धीरे-धीरे होगा *^^ । काली और कोई नहीं, जो ब्रह्म हैं वही काली भी हैं । काली आद्याशक्ति हैं । जब वे निष्क्रिय रहती हैं, तब उन्हें ब्रह्म कहता हूँ और जब वे सृष्टि, स्थिति और प्रलय करती हैं, तब उन्हें शक्ति कहता हूँ, काली कहता हूँ । जिन्हें तुम ब्रह्म कह रहे हो, उन्हें ही मैं काली कहता हूँ ।
[धीरे-धीरे होगा *^ अर्थात सही समय आने पर होगा -(14.4.1992 at 6 am ?) माँ सारदा देवी की कृपा होगी - और ऊँच -बनारस -कबीरचौरा पर द्प् से हृदय आलोकित हो जायेगा !!]
MASTER: "All in good time, my child. Kali is none other, than Brahman That which is called Brahman is really Kali. She is the Primal Energy. When that Energy remains inactive, I call It Brahman, and when It creates. preserves, or destroys, I call It Sakti or Kali. What you call Brahman I call Kali.
শ্রীরামকৃষ্ণ — ক্রমে হবে। কালী আর কেউ নয়, যিনিই ব্রহ্ম, তিনিই কালী। কালী আদ্যাশক্তি। যখন নিষ্ক্রিয়, তখন ব্রহ্ম বলে কই। যখন সৃষ্টি, স্থিতি, প্রলয় করেন তখন শক্তি বলে কই। যাঁকে তুমি ব্রহ্ম বলছো, তাঁকেই কালী বলছি।
"ब्रह्म और काली अभेद हैं । जैसे अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति । अग्नि को सोचते ही उसकी दाहिका शक्ति की चिन्ता की जाती है । काली के मानने पर ब्रह्म को मानना पड़ता है और ब्रह्म को मानने पर काली को ।"ब्रह्म और शक्ति अभेद हैं, मैं उन्हें ही शक्ति – काली - कहता हूँ ।"
"Brahman and Kali are not different. They are like fire and its power to burn: if one thinks of fire one must think of its power to burn. If one recognizes Kali one must also recognize Brahman; again, if one recognizes Brahman one must recognize Kali. Brahman and Its Power are identical. It is Brahman whom I address as Sakti or Kali."
“ব্রহ্ম আর কালী অভেদ। যেমন অগ্নি আর দাহিকাশক্তি। অগ্নি ভাবলেই দাহিকাশক্তি ভাবতে হয়। কালী মানলেই ব্রহ্ম মানতে হয়, আবার ব্রহ্ম মানলেই কালী মানতে হয়। “ব্রহ্ম ও শক্তি অভেদ। ওকেই শক্তি, ওকেই কালী আমি বলি।”
अब रात हो रही है । गिरीश हरिपद से कह रहे हैं, "भाई, एक गाड़ी अगर ला दो तो बड़ा उपकार मानूँ - थिएटर जाना है ।" श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - देखना, कहीं भूल न जाना । (सब हँसते हैं ।)
It was late at night. Girish asked Haripada to call a cab, for he had to go to the theatre. As Haripada was about to leave the room the Master said with a smile: "Mind, a cab. Don't forget to bring one." (All laugh.)
দিকে রাত হয়ে গেছে। গিরিশ হরিপদকে বলিতেছেন, ভাই একখানা গাড়ি যদি ডেকে দিস — থিয়েটারে যেতে হবে। শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — দেখিস যেন আনিস! (সকলের হাস্য)
हरिपद (हँसकर) - मैं लाने के लिए जा रहा हूँ, तो ले क्यों नहीं आऊँगा ?
HARIPADA (smiling): " Yes, sir. I am going out just for that. How can I forget it?"
হরিপদ (সহাস্যে) — আমি আনতে যাচ্ছি — আর আনবো না?
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
गिरीश - आपको छोड़कर भी थिएटर जाना पड़ रहा है ।
GIRISH: "That I should have to go to the theatre and leave you here!"
গিরিশ (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — আপনাকে ছেড়ে আবার থিয়েটারে যেতে হবে।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, दोनों तरफ की रक्षा करनी चाहिए । राजा जनक दोनों बचाकर - संसार तथा ईश्वर - दूध का कटोरा खाली किया करते थे । (सब हँसते हैं ।)
MASTER: "No, no. You must hold to both. King Janaka paid attention to both religious and worldly duties and 'drank his milk from a brimming cup'." (All laugh.)
শ্রীরামকৃষ্ণ — না, ইদিক-উদিক দুদিক রাখতে হবে; ‘জনক রাজা ইদিক-উদিক দুদিক রেখে, খেয়েছিল দুধের বাটি।” (সকলের হাস্য)
गिरीश - सोचता हूँ, थिएटर को उन लड़कों के हाथ में छोड़ दूँ ।
GIRISH: "I have been thinking of leaving the theatre to the youngsters."
গিরিশ — থিয়েটারগুলো ছোঁড়াদেরই ছেড়ে দিই মনে করছি।
श्रीरामकृष्ण - नहीं नहीं, यह अच्छा है । बहुतों का इससे उपकार हो रहा है ।
MASTER: "No, no. It is all right. You are doing good to many."
শ্রীরামকৃষ্ণ — না না, ও বেশ আছে; অনেকের উপকার হচ্ছে।
नरेन्द्र (धीमे स्वर में) - यह (गिरीश) अभी तो ईश्वर और अवतार की बात कर रहे थे, अब इन्हें थिएटर घसीट रहा है !
Narendra said in a whisper, "Just a moment ago he [meaning Girish] was calling him [meaning Sri Ramakrishna] God, an Incarnation, and now he is attracted to the theatre!"
নরেন্দ্র (মৃদুস্বরে) — এই তো ঈশ্বর বলছে, অবতার বলছে! আবার থিয়েটার টানে।
(९)
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
*ईश्वरदर्शन (=अवतारवरिष्ठ दर्शन) तथा विचार-मार्ग*
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को अपने पास बैठाकर एकदृष्टि से उन्हें देख रहे हैं । एकाएक वे उनके पास और सरक कर बैठे । नरेन्द्र अवतार नहीं मानते तो इससे क्या ? श्रीरामकृष्ण का प्यार मानो और उमड़ पड़ा । नरेन्द्र की देह पर हाथ फेरते हुए कह रहे हैं " ‘(श्री कृष्णप्रिया राधा जी से गोपियाँ कह रही हैं) -राधे ! तुमने मान किया तो क्या हुआ, हम लोग भी तुम्हारे मान में तुम्हारे साथ ही हैं।'
Narendra was sitting beside the Master. The latter looked at him intently and suddenly moved closer to his beloved disciple. Narendra did not believe in God's assuming a human body; but what did that matter? Sri Ramakrishna's heart overflowed with more and more love for his disciple. He touched Narendra's body and said, quoting from a song: Do you2 feel that your pride is wounded?So be it, then; we too have our pride. (^These words are addressed to Radha, the beloved of Krishna, by her companions, the gopis.)
শ্রীরামকৃষ্ণ নরেন্দ্রকে কাছে বসাইয়া একদৃষ্টে দেখিতেছেন, হঠাৎ তাঁহার সন্নিকটে আরও সরিয়া গিয়া বসিলেন। নরেন্দ্র অবতার মানেন নাই — তায় কি এসে যায়? ঠাকুরের ভালবাসা যেন আরও উথলিয়া পড়িল। গায়ে হাত দিয়া নরেন্দ্রের প্রতি কহিতেছেন, ‘মান কয়লি তো কয়লি, আমরাও তোর মানে আছি (রাই)!’
(नरेन्द्र से) - "जब तक विचार है, तब तक वे नहीं मिले (बहस करना प्रमाणित करता है कि अबतक उसे आत्मानुभूति नहीं हुई है)। तुम लोग विचार कर रहे थे, मुझे अच्छा नहीं लग रहा था ।
Then the Master said to Narendra: "As long as a man argues about God, he has not realized Him. You two were arguing. I didn't like it.
(নরেন্দ্রের প্রতি) — “যতক্ষণ বিচার, ততক্ষণ তাঁকে পায় নাই। তোমরা বিচার করছিলে, আমার ভাল লাগে নাই।
“जहाँ न्योता रहता है, वहाँ शब्द तभी तक सुन पड़ता है जब तक लोग भोजन करने के लिए बैठते नहीं । तरकारी और पूड़ियाँ आयीं नहीं कि बारह आने गुलगपाड़ा घट जाता है । (सब हँसते हैं ।) दूसरी चीजें ज्यों ज्यों आती हैं, त्यों त्यों आवाज घटती जाती है । दही आया कि बस सपासप आवाज रह गयी । फिर भोजन हो जाने पर निद्रा ।
"How long does one hear noise and uproar in a house where a big feast is being given? So long as the guests are not seated for the meal. As soon as food is served and people begin to eat, three quarters of the noise disappears. (All laugh.) When the dessert is served there is still less noise. But when the guests eat the last course, buttermilk, then one hears nothing but the sound 'soop, sup'. When the meal is over, the guests retire to sleep and all is quiet.
“নিমন্ত্রণবাড়ির শব্দ কতক্ষণ শুনা যায়? যতক্ষণ লোকে খেতে না বসে। যাই লুচি তরকারী পড়ে, অমনি বার আনা শব্দ কমে যায়। (সকলের হাস্য) অন্য খাবার পড়লে আরও কমতে থাকে। দই পাতে পাতে পড়লে কেবল সুপ্ সাপ্। ক্রমে খাওয়া হয়ে গেলেই নিদ্রা।
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
[‘मद्गत अन्तरात्मा’ (गीता 6.47)]
🙏卐ब्रह्मानन्द - में गरगर मतवाला श्री रामकृष्ण का आशीर्वाद🙏卐
(विवेक-दर्शन का अभ्यास और लालचत्याग - उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः। )
সমাধিমন্দিরে — গরগর মাতোয়ারা শ্রীরামকৃষ্ণ
"जितना ही ईश्वर की ओर बढ़ोगे, विचार उतना ही घटता जायेगा । उन्हें पा लेने पर फिर शब्द या विचार नहीं रह जाते । तब रह जाती है निद्रा – समाधि ।” यह कहकर नरेन्द्र की देह पर हाथ फेरते हुए स्नेह कर रहे हैं और ‘हरि: ॐ, हरि: ॐ, हरिः ॐ’ कह रहे हैं ।
"The nearer you approach to God, the less you reason and argue. When you attain Him, then all sounds — all reasoning and disputing — come to an end. Then you go into samadhi — sleep —, into communion with God in silence."The Master gently stroked Narendra's body and affectionately touched his chin, uttering sweetly the holy words, "Hari Om! Hari Om! Hari Om!"
“ঈশ্বরকে যত লাভ হবে, ততই বিচার কমবে। তাঁকে লাভ হলে আর শব্দ বিচার থাকে না। তখন নিদ্রা — সমাধি।”এই বলিয়া নরেন্দ্রের গায় হাত বুলাইয়া, মুখে হাত দিয়া আদর করিতেছেন ও বলিতেছেন, “হরি ওঁ, হরি ওঁ, হরি ওঁ।”
वैसा क्यों कह तथा कर रहे हैं ? क्या श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र के अन्दर नारायण का साक्षात् दर्शन कर रहे हैं ? क्या यही मनुष्य में ईश्वर-दर्शन है ? बड़े आश्चर्य की बात है ! देखते ही देखते श्रीरामकृष्ण का बाह्यज्ञान विलीन होने लगा । बहिर्जगत् का होश बिलकुल जाता रहा । शायद यही अर्धबाह्य दशा है जो चैतन्यदेव को हुई थी । अब भी नरेन्द्र के पैर पर श्रीरामकृष्ण का हाथ पड़ा हुआ है मानो किसी बहाने से नारायण का पैर दबा रहे हों - फिर देह पर हाथ फेर रहे हैं । परमात्मा जाने, इस तरह श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को नारायण मानकर उनकी सेवा कर रहे थे या उनमें शक्ति का संचार कर रहे थे । देखते ही देखते और भी भावान्तर होने लगा । नरेन्द्र के आगे हाथ जोड़कर कह रहे हैं, "एक गाना गा तो मैं अच्छा हो जाऊँगा, - उठूँगा कैसे !- गौरांग के प्रेम में पूरे मतवाले (ऐ निताई) –
কেন এরূপ করিতেছেন ও বলিতেছেন? শ্রীরামকৃষ্ণ কি নরেন্দ্রের মধ্যে সাক্ষাৎ নারায়ণ দর্শন করিতেছেন? এরই নাম কি মানুষে ঈশ্বরদর্শন? কি আশ্চর্য! দেখিতে দেখিতে ঠাকুরের সংজ্ঞা যাইতেছে। ওই দেখ বর্হিজগতের হুঁশ চলিয়া খাইতেছে। এরই নাম বুঝি অর্ধবাহ্যদশা — যাহা শ্রীগৌরাঙ্গের হইয়াছিল। এখনও নরেন্দ্রের পায়ের উপর হাত — যেন ছল করিয়া নারায়ণের পা টিপিতেছেন —আবার গায়ে হাত বুলাইতেছেন। এত গা-টেপা, পা-টেপা কেন? একি নারায়ণের সেবা করছেন, না শক্তি সঞ্চার করছেন? দেখিতে দেখিতে আরও ভাবান্তর হইতেছে। এই আবার নরেন্দ্রের কাছে হাতজোড় করে কি বলছেন! বলছেন — “একটা গান (গা) — তাহলে ভাল হবো; — উঠতে পারবো কেমন করে! গোরাপ্রেমে গরগরমাতোয়ারা (নিতাই আমার) —”
He was fast becoming unconscious of the outer world. His hand was on Narendra's foot. Still in that mood he gently stroked Narendra's body. Slowly a change came over his mind. With folded hands he said to Narendra: "Sing a song, please; then I shall be all right. How else shall I be able to stand on my own legs?"
" कुछ देर के लिए वे फिर चित्रवत् हो निर्वाक रह गये । भावावेश में मस्त होकर फिर कहने लगे - “सम्हालकर, राधे - यमुना में गिर जाओगी – कृष्ण-प्रेमोन्मादिनी !” भावविभोर हो फिर कह रहे हैं - "सखी ! वह वन कितनी दूर है जहाँ मेरे श्यामसुन्दर हैं ? (श्रीकृष्ण के अंग-से सुगन्ध निकल रही है ।) अब मैं चल नहीं सकती ।"
কিয়ৎক্ষণ আবার অবাক্, চিত্রপুত্তলিকার মতো চুপ করে রহিয়াছেন। আবার ভাবে মাতোয়ারা হয়ে বলছেন —“দেখিস রাই — যমুনায় যে পড়ে যাবি — কৃষ্ণপ্রেমে উন্মাদিনী”। আবার ভাবে বিভোর! বলিতেছেন —“সখি! সে বন কত দূর! (যে বনে আমার শ্যামসুন্দর)।(ওই যে কৃষ্ণগন্ধ পাওয়া যায়)! (আমি চলতে যে নারি)!”
Again he became speechless. He sat motionless as a statue. Presently he became intoxicated with divine love and said: "O Radha, watch your step! Otherwise you may fall into the Jamuna. Ah! How mad she is with love of Krishna!"The Master was in a rapturous mood. Quoting from a song, he said:Tell me, friend, how far is the grove ,Where Krishna, my Beloved, dwells?His fragrance reaches me even here,But I am tired and can walk no farther.
इस समय संसार भूल गया है, - किसी की याद नहीं है, - नरेन्द्र सामने हैं, परन्तु उनकी भी याद नहीं है, - कहाँ वे बैठे हैं, इसका कुछ भी ज्ञान नहीं है ! इस समय प्राण मानो ईश्वर में लीन हो गया है - "मद्रतान्तरात्मा !"-[‘मद्गत अन्तरात्मा’ [गीता 6.47] ‘‘ गौरांग के प्रेम में पूरे मतवाले !"यह कहते हुए हुंकार देकर श्रीरामकृष्ण एकाएक उठकर खड़े हो गये । फिर बैठकर कहने लगे - “वह एक उजाला आ रहा है, मैं देख रहा हूँ, - परन्तु किस तरफ से आ रहा है, अभी तक कुछ समझ में नहीं आता ।"
এখন জগৎ ভুল হয়েছে — কাহাকেও মনে নাই — নরেন্দ্র সম্মুখে, কিন্তু নরেন্দ্রকে আর মনে নাই — কোথায় বসে আছেন, কিছুই হুঁশ নাই। এখন যেন মন-প্রাণ ঈশ্বরে গত হয়েছে! ‘মদ্গত-অন্তরাত্মা।’ “গোরা প্রেমে গরগরমাতোয়ারা!” এই কথা বলিতে বলিতে হঠাৎ হুঙ্কার দিয়া দণ্ডায়মান! আবার বসিতেছেন, বসিয়া বলিতেছেন —“ওই একটা আলো আসছে দেখতে পাচ্ছি, — কিন্তু কোন দিক্ দিয়ে আলোটা আসছে এখনও বুঝতে পারছি না।”
Then the Master completely forgot the outer world. He did not notice anyone in the room, not even his beloved Narendra seated by his side. He did not know where he himself was seated. He was totally merged in God. Suddenly he stood up, shouting, "Deep drunk with the Wine of Divine Love!" As he took his seat again, he muttered, "I see a light coming, but I know not whence it comes."
अब नरेन्द्र गाने लगे - (भावार्थ) - "दर्शन देकर तुमने मेरे सब दुःख दूर कर दिये । तेरी सुंदरता की जादू ने मेरे प्राणों को मुग्ध कर दिया है , [और मन (अहं) को विसम्मोहित ( ???) कर दिया है!] सप्तलोक तुम्हें पाकर अपना सब शोक भूल जाता है - फिर मेरे जैसे दीनहीन की बात ही क्या है !"
Now Narendra sang: Lord, Thou hast [lifted?] [or taken away all my sorrows ] all my sorrow with the vision of Thy face, And the magic of Thy beauty has bewitched my mind; Beholding Thee, the seven worlds forget their never-ending woe; What shall I say, then, of myself, a poor and lowly soul? . . .
এইবার নরেন্দ্র গান গাহিতেছেন: সব দুঃখ দূর করিলে দরশন দিয়ে — মোহিলে প্রাণ!সপ্তলোক ভুলে শোক, তোমারে পাইয়ে —কোথায় আমি অতি দীন-হীন ৷৷
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🙏देह निःस्पन्द {transfixed} हो गयी - श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न !🙏
[हमलोग जागृत ,स्वप्न , सुषुप्ति समझते हैं .... लेकिन यह समाधि क्या होती है ? उसे जानने की उत्सुकता हर जिज्ञासु में होती है। ]
(एक्सट्राटेरेस्ट्रियल: अन्य ग्रह से संबंधित; अलौकिक अथवा पृथ्वी या उसके वायुमंडल के बाहर मौजूद जीवन का एक रूप के विषय में ) गाना सुनते हुए श्रीरामकृष्ण का बाहरी संसार का ज्ञान छूटता जा रहा है । फिर आँखें निमीलत हो गयीं (নিমীলিত हो गयीं या दर्शन में engaged हो गयी।), देह निःस्पन्द {transfixed} हो गयी, - श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये ।
Listening to the song (about extraterrestrial :a form of life assumed to exist outside the Earth or its atmosphere), Sri Ramakrishna again went into deep samadhi. His eyes were closed and his body was transfixed.
গান শুনিতে শুনিতে শ্রীরামকৃষ্ণের বহির্জগত ভুল হইয়া আসিতেছে । আবার নিমীলিত নেত্র (Eyes fixed) ! স্পন্দহীন দেহ (Body without pulse)! সমাধিস্থ!
समाधि छूटने पर (परमानन्द की अवस्था से दो धाप नीचे उतर कर ठाकुर देव चारो ओर देखते हुए) कह रहे हैं - "मुझे कौन ले जायेगा ?" बालक जैसे साथी के बिना चारों ओर अँधेरा देखता है, यह वही भाव है ।
সমাধিভঙ্গের পর বলিতেছেন, “আমাকে কে লয়ে যাবে?” বালক যেমন সঙ্গী না দেখলে অন্ধকার দেখে সেইরূপ।
[ - Coming down from the ecstatic mood he looked around and said, "Who will take me to the temple garden?" He appeared like a child who felt confused in the absence of his companion.
रात अधिक हो गयी है । फागुन की कृष्णा दशमी है । रात अँधेरी है । श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर-कालीमन्दिर जायेंगे । गाड़ी पर बैठेंगे । भक्त सब गाड़ी के पास खड़े हुए हैं । श्रीरामकृष्ण को वे बड़ी सावधानी से गाड़ी पर चढ़ा रहे हैं । इस समय भी श्रीरामकृष्ण भावोन्मत्त हो रहे हैं । गाड़ी चली गयी । भक्तगण अपने अपने घर जा रहे हैं ।
অনেক রাত হইয়াছে। ফাল্গুন কৃষ্ণা দশমী — অন্ধকার রাত্রি। ঠাকুর দক্ষিণেশ্বরে কালীবাড়িতে যাইবেন। গাড়িতে উঠিবেন। ভক্তেরা গাড়ির কাছে দাঁড়াইয়া। তিনি উঠিতেছেন — অনেক সন্তর্পণে তাঁহাকে উঠান হইতেছে। এখনও ‘গরগরমাতোয়ারা!’গাড়ি চলিয়া গেল। ভক্তেরা যে যার বাড়ি যাইতেছেন।
It was late in the evening. The night was dark. The devotees stood by the carriage that had been brought to take the Master to Dakshineswar. They helped him in gently, for he was still in deep ecstasy. The carriage moved down the street and they looked after it with wistful eyes.
(१०)
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
*सेवक के हृदय के विचार*
[आध्यात्मिक -अध्यापन का वास्तविक पुरस्कार >
अपने हृदय में कृतार्थता का आनन्द अनुभव करना है।]
मस्तक के ऊपर ताराओं से सुशोभित रात्रि का गगन है; हृदय पटल पर श्रीरामकृष्ण की अपूर्व छबि अंकित है; मानसनेत्रों के आगे उस भक्तसमागम प्रेम का - उस प्रेम की हाट का - दृश्य किसी सुखद स्वप्न की भाँति झलक रहा है । भक्तगण कलकत्ते के राजमार्ग [कर्तव्यपथ] पर से चलते हुए अपने अपने घरों की ओर जा रहे हैं । कोई कोई वसन्तसमीरण का सेवन करते हुए उस गीत को गुनगुनाते जा रहे हैं -
"सब दुःख दूर कोरिले दर्शन दिए -मोहिले प्राण"
“दर्शन देकर तुमने मेरे सब दुःख (शंकाओं को) दूर कर दिये - मेरे प्राणों को मुग्ध कर दिया (मृत्यु का भय चला गया) है ।"
Lord, Thou hast (lifted) taken away all my sorrow with the vision of Thy face,And the magic of Thy beauty has bewitched my mind.
মস্তকের উপরে তারকামণ্ডিত নৈশগগন — হৃদয়পটে অদ্ভুত শ্রীরামকৃষ্ণ ছবি, স্মৃতিমধ্যে ভক্তের মজলিস — সুখস্বপ্নের ন্যায় নয়নপথে সেই প্রেমের হাট — কলিকাতার রাজপথে স্বগৃহাভিমুখে ভক্তেরা যাইতেছেন। কেহ সরস বসন্তানিল সেবন করিতে করিতে সেই গানটি আবার গাইতে গাইতে যাচ্ছেন —“সব দুঃখ দূর করিলে দরশন দিয়ে — মোহিলে প্রাণ!”
मणि (मास्टर महाशय) सोचते हुए चले हैं “क्या सचमुच में ही ईश्वर मनुष्यदेह धारण कर आया करते हैं ? तो क्या अवतार वास्तव में सत्य हैं ? पर अनन्त ईश्वर साढ़े तीन हाथ का मनुष्य कैसे बन सकते हैं ? क्या अनन्त कभी सान्त हो सकता है ? विचार तो बहुत कर चुका पर क्या समझा ? विचार के द्वारा तो कुछ न समझ पाया !
মণি ভাবতে ভাবতে যাচ্ছেন, “সত্য সত্যই কি ঈশ্বর মানুষদেহ ধারণ করে আসেন? অনন্ত কি সান্ত হয়? বিচার তো অনেক হল। কি বুঝলাম বিচারের দ্বারা কিছুই বুঝলাম না।
"श्रीरामकृष्ण ने कितना सुन्दर कहा - 'जब तक विचार है तब तक वस्तुलाभ नहीं हुआ, ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई ।" ठीक ही तो है । छटाक भर तो बुद्धि है, भला इसके द्वारा ईश्वर का तत्त्व कैसे समझा जाय ? एक सेर के बरतन में क्या चार सेर दूध आ सकता है ? फिर अवतार पर विश्वास कैसे हो ? श्रीरामकृष्ण ने तो कहा कि ईश्वर स्वयं अगर एकाएक प्रकाशित कर दिखायें तो क्षणभर में सब समझ में आ जाय । वे अगर एकाएक ज्ञानदीप जला दें तो सब सन्देह मिट जायँ ।
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥
[(मुण्डक 2.2.9 ) हृदय की सारी ग्रथियाँ खुल जाती हैं, समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा मनुष्य के कर्मों का क्षय हो जाता है, जब उस 'परतत्त्व' (अवतार वरिष्ठ) का दर्शन हो जाता है, जो एक साथ ही अपरा सत्ता एवं 'परम सत्ता' है।
“ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ তো বেশ বললেন, ‘যতক্ষণ বিচার ততক্ষণ বস্তুলাভ হয় নাই, ততক্ষণ ঈশ্বরকে পাওয়া যায় নাই।’ তাও বটে! এই তো এক ছটাক বুদ্ধি; এর দ্বারা আর কি বুঝবো ঈশ্বরের কথা! একসের বাটিতে কি চার সের দুধ ধরে? তবে আবতার বিশ্বাস কিরূপে হয়? ঠাকুর বললেন, ঈশ্বর যদি দেখিয়ে দেন দপ্ করে, তাহলে এক দণ্ডেই বুঝা যায়! তিনি যদি দপ্ করে আলো জ্বেলে দেখিয়ে দেন তবে — ‘ছিদ্যন্তে সর্বসংশয়াঃ।’ [Goethe মৃত্যুশয্যায় বলেছিলেন, Light! More Light!]
"जिस प्रकार पैलेस्टाइन के अज्ञ मछुओं ने ईसा मसीह को, अथवा श्रीवास पण्डित आदि भक्तों ने श्रीचैतन्यदेव को पूर्णावतार के रूप में देखा था, उस प्रकार इस समय भी हो !
[ एक दिन श्रीवास भवन में श्रीमन्महाप्रभु जी ने ‘महाप्रकाश लीला’ प्रकट की। इस दिन भक्तभव और आवेश भाव का संवरण कर बिना किसी माया-आवरण के सात प्रहार तक अपने अप्राकृत स्वरूप में विष्णु आसन पर विराजमान रहे। उनके इंगित करने पर भक्तों ने श्रीगौरनारायण का राजराजेश्वर विधि से अभिषेक किया तथा पूजा की। श्री गौरसुन्दर जी ने भी अपने चरण पसार कर सबकी अभीष्ट पूजा स्वीकार की और सब भक्तों को अपने अभीष्ट वर भी प्रदान किये। इस सात-प्रहरिया लीला में श्रीगौरसुन्दर जी ने विष्णु के समस्त अवतारों के रूपों को प्रकाशित किया था। एक दिन व्यास पूजा करते समय जैसे ही नित्यानन्द प्रभु जी ने अर्घ्य व माला महाप्रभु जी के मस्तक पर अर्पण की तो उसी समय महाप्रभु जी ने नित्याननद जी को अपना षड्भुज रूप दिखाया था । गुण्डिचा मन्दिर मार्जन लीला में व रथयात्रा में श्रीवास पण्डित श्रीमन्महाप्रभु जी के साथ-साथ रहते थे। रथ के आगे सात मण्डलियों के बीच में द्वितीय मण्डली के मूल गायक थे श्रीवास पण्डित और इस मण्डली के नर्तक थे- श्रीमन्नित्यानन्द प्रभु।
“যেমন প্যালেস্টাইন-এর মূর্খ ধীবরেরা Jesus-কে অথবা যেমন শ্রীবাসাদি ভক্ত শ্রীগৌরাঙ্গকে পূর্ণাবতার দেখেছিলেন।
"पर वे यदि न दिखा दें तो फिर उपाय ही क्या है ? क्यों ? जब श्रीरामकृष्ण स्वयं यह बात कह रहे हैं तो मैं अवतार पर विश्वास रखूँगा । उन्होंने ही सिखाया है – विश्वास ! विश्वास ! विश्वास ! फिर, गुरुवाक्य पर विश्वास ! फिर,मैंने तो उन्हीं को (पूज्य नवनीदा को) जीवन का ध्रुवतारा मान लिया है। इस, भवसमुद्र में मैं अब कभी दिशा नहीं भूलूँगा ।'
तोमारेई कोरियाछि जीवनेर ध्रुवतारा।
ए समुद्रे आर कोभु होबो नाको पथहारा।।
“যদি দপ্ করে তিনি না দেখান তাহলে উপায় কি? কেন, যেকালে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বলেছেন ও-কথা, সেকালে অবতার বিশ্বাস করব। তিনিই শিখিয়েছেন — বিশ্বাস, বিশ্বাস, বিশ্বাস! গুরুবাক্যে বিশ্বাস! আর —“তোমারেই করিয়াছি জীবনের ধ্রুবতারা। এ সমুদ্রে আর কভু হব নাকো পথহারা ৷৷”
ईश्वर की कृपा से उनकी बातों पर मेरा विश्वास हुआ है । मैं तो यह विश्वास रखूँगा; दूसरे लोग चाहे जो भी करें मैं इस देवदुर्लभ विश्वास को क्यों छोडूँ ? विचार पड़ा रहे । ज्ञान चर्चा की खिचड़ी पकाते हुए क्या मैं दूसरा फॉस्ट क्यों (Faust) बनूँ ... ? जिसने गम्भीर रात्रि में अकेले घर में 'हाय में कुछ नहीं जान सका ! मैंने व्यर्थ ही विज्ञान और दर्शन का अध्ययन किया ! इस जीवन को धिक्कार है !' यह सोचते हुए जहर पीकर आत्महत्या कर ली ! या, दूसरे अलास्टर (Alaster) की तरह अज्ञान का बोध न हो सकने के कारण एक शिला पर मस्तक टेककर मृत्यु की राह देखता रहूँ ! नहीं, इन प्रकाण्ड पण्डितों की तरह छटाक भर ज्ञान के द्वारा इस रहस्य को भेदने का प्रयत्न करने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं और एक सेर के बरतन में चार सेर दूध नहीं आया इसीलिए मरने की भी आवश्यकता नहीं !
[फॉस्ट (Faust) ऐतिहासिक जोहान जॉर्ज फॉस्ट (सी. 1480-1540) पर आधारित एक क्लासिक जर्मन किंवदंती का नायक है। विद्वान फॉस्ट अपने जीवन से अत्यधिक सफल होने के बावजूद असंतुष्ट है। जीवन से मोहभंग और मनुष्य के ज्ञान के सीमित दायरे के कारण निराश, डॉ जॉन फॉस्टस ने दानव मेफिस्टोफिलिस पर शक्ति प्राप्त करने के लिए अपनी आत्मा को लूसिफर को बेचने का फैसला किया। असीमित ज्ञान और सांसारिक सुखों के लिए उसकी आत्मा का आदान-प्रदान करता है। वह शैतान को बुलाने के लिए काले जादू की ओर मुड़ता है, और दानव मेफिस्टोफिल्स उसकी पुकार का जवाब देता है। इस दानव के माध्यम से, फॉस्टस दूर-दूर तक यात्रा करने में सक्षम है, साथ ही विभिन्न प्रकार के जादू सीखने और प्रदर्शन करने में सक्षम है। वे एक समझौता करते हैं – मेफिस्टोफेल कई वर्षों तक अपने जादू के साथ फॉस्ट की सेवा करेगा लेकिन अंत में, फॉस्ट की आत्मा को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी।]
“আমার তাঁর বাক্যে — ইশ্বর কৃপায় বিশ্বাস হয়েছে; — আমি বিশ্বাস করব, অন্যে যা করে করুক; আমি এই দেবদুর্লভ বিশ্বাস কেন ছাড়ব? বিচার থাক। জ্ঞান চচ্চড়ি করে কি একটা Faust হতে হবে? গভীর রজনীমধ্যে বাতায়নপথে চন্দ্রকিরণ আসিতেছে, আর Faust নাকি একাকী ঘরের মধ্যে ‘হায় কিছু জানিতে পারিলাম না, সায়েন্স, ফিলসফি বৃথা অধ্যয়ন করিলাম, এই জীবনে ঘিক্!’ এই বলিয়া বিষের শিশি লইয়া আত্মহত্যা করিতে বসিলেন! না, Alastor-এর মতো অজ্ঞানের বোঝা বইতে না পেরেও শিলাখণ্ডের উপর মাথা রেখে মৃত্যুর অপেক্ষা করিব! না, আমার এ-সব ভয়ানক পণ্ডিতদের মতো একছটাক জ্ঞানের দ্বারা রহস্য ভেদ করতে যাবার প্রয়োজন নাই!
कितनी सुन्दर बात है - गुरुवाक्य पर विश्वास ! हे भगवन्, मुझे यह विश्वास दो, अब व्यर्थ न भटकाओं जिसे पाना सम्भव नहीं उसे खोजने मत लगाओ । और जैसा कि श्रीरामकृष्ण ने सिखाया है – ‘तुम्हारे पादपद्मों में शुद्ध भक्ति हो; अमर, अहेतुकी भक्ति हो; तथा मैं तुम्हारी भुवन मोहिनी माया से मुग्ध न हो जाऊँ’ - कृपा कर मुझे यही आशीर्वाद दो ।"
বেশ কথা — গুরুবাক্যে বিশ্বাস। হে ভগবন্, আমায় ওই বিশ্বাস দাও; আর মিছামিছি ঘুরাইও না। যা হবার নয়, তা খুঁজতে যাওয়াইও না। আর ঠাকুর যা শিখিয়েছেন, ‘যেন তোমার পাদপদ্মে শুদ্ধাভক্তি হয়, — অমলা অহৈতুকি ভক্তি; আর যেন তোমার ভুবনমোহিনী মায়ায় মুগ্ধ না হই!’ কৃপা করে এই আশীর্বাদ কর।
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🔱🙏卐 प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग दोनों धर्म हैं🔱🙏卐
[कामिनी-कांचन में आसक्त पशुभाव को प्राप्त हुए मनुष्य को
फिर पूर्ववत् अमृततत्त्व का अधिकारी कौन बनाये ?]
श्रीरामकृष्ण के अपूर्व प्रेम की बात सोचते हुए मणि उस अँधेरी रात में राजपथ पर से चलते हुए घर लौट रहे हैं । वे सोच रहे हैं - "गिरीश पर आपका कितना प्रेम है ! गिरीश थोड़ी ही देर में थिएटर को जाने वाले हैं, फिर भी उनके यहाँ जाते हैं !
“শ্রীরামকৃষ্ণের অদৃষ্টপূর্ব প্রেমের কথা ভাবিতে ভাবিতে মণি সেই তমসাচ্ছন্ন রাত্রি মধ্যে রাজপথ দিয়া বাড়ি ফিরিয়া যাইতেছেন ও ভাবিতেছেন, ‘কি ভালবাসা গিরিশকে! গিরিশ থিয়েটারে চলে যাবেন, তবু তাঁর বাড়িতে যেতে হবে।
केवल यही नहीं ! आप उनसे यह भी नहीं कहते कि सब कुछ त्याग दो - घर बार, परिवार, सांसारिक कामकाज आदि सब त्यागकर संन्यास लो ! समझ गया इसका अर्थ यही है कि समय न आने पर, तीव्र वैराग्य न होने पर यह सब छोड़ते हुए कष्ट होगा ।
শুধু তা নয়! এমনও বলছেন না যে, সব ত্যাগ কর — আমার জন্য গৃহ-পরিজন, বিষয়কর্ম সব ত্যাগ করে সন্ন্যাস অবলম্বন কর।’ বুঝেছি — এর মানে এই যে, সময় না হলে, তীব্র বৈরাগ্য না হলে, ছাড়লে কষ্ট হবে;
जैसा कि श्रीरामकृष्ण कहा करते हैं, घाव पूरा सूखने के पहले ही यदि उसकी पपड़ी खींच निकाली जाय तो खून निकलने लगता है और वेदना होती है। पर फिर घाव सूख जाने पर वह अपने आप झड़ जाती है। सामान्य लोग , जिनकी अन्तर्दृष्टि नहीं खुली , कहते हैं अभी संसार त्याग दो ! पर ये सद्गुरु हैं , अहेतुक कृपासिन्धु हैं, प्रेम समुद्र हैं, जीव का मंगल कैसे हो यही प्रयत्न रात-दिन कर रहे हैं।
[गुरुगिरी करने वाले मूर्ख लीडर जिनकी अन्तर्दृष्टि नहीं खुली - अर्थात जो अभी स्वयं अविवेकी हैं या 'Hypnotized हैं', से कहते हैं 'निवृत्ति अस्तु महाफला' को समझे बिना अभी संसार त्याग दो।' लेकिन नवनीदा जैसे CINC, नेता सद्गुरु अहेतुक कृपासिन्धु हैं, प्रेम समुद्र हैं, 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण देकर प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौटने की पद्धति (BKS-JP-Subodh) को समझा देते हैं।]
ঠাকুর যেমন নিজে বলেন, ঘায়ের মাম্ড়ি ঘা শুকুতে না শুকুতে ছিঁড়লে, রক্ত পড়ে কষ্ট হয়, কিন্তু ঘা শুকিয়ে গেলে মাম্ড়ি আপনি খসে পড়ে যায়। সামান্য লোকে, যাদের অন্তর্দৃষ্টি নাই, তারা বলে, এখনি সংসারত্যাগ কর। ইনি সদ্গুরু, অহেতুক কৃপাসিন্ধু, প্রেমের সমুদ্র, জীবের কিসে মঙ্গল হয় এই চেষ্টা নিশিদিন করিতেছেন।
[>>क्या इसका अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध नहीं है ?]
"फिर गिरीश का कैसा विश्वास है ! दो ही बार दर्शन करने के बाद कहा था, 'प्रभो, तुम्हीं ईश्वर हो। मनुष्यदेह धारण कर आये हो - मेरे उद्धार के लिए ।' गिरीश ने ठीक ही तो कहा; ईश्वर यदि मनुष्यदेह धारण कर न आयें तो इस प्रकार अपने आत्मीय की तरह कौन उपदेश दे; कौन सिखा दे कि ईश्वर ही वस्तु हैं और सब अवस्तु; जमीन पर पड़े हुए दुर्बल जनों को कौन हाथ पकड़कर उठाये; कामिनी-कांचन में आसक्त पशुभाव को प्राप्त हुए मनुष्य को फिर पूर्ववत् अमृततत्त्व का अधिकारी कौन बनाये ? और वे यदि मनुष्यरूप धरकर साथ साथ न रहें तो जो तद्रतान्तरात्मा हैं, जिन्हें ईश्वर के सिवा दूसरा कुछ नहीं सुहाता, उनके दिन कैसे कटेंगे ? इसीलिए तो भगवान् ने कहा है –
‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवाभि युगे युगे ॥’[गीता ४. ८]
“আর গিরিশের কি বিশ্বাস! দুদিন দর্শনের পরই বলেছিলেন, ‘প্রভু, তুমিই ঈশ্বর — মানুষদেহ ধারণ করে এসেছ — আমার পরিত্রাণের জন্য।’ গিরিশ ঠিক তো বলেছেন, ঈশ্বর মানুষদেহ ধারণ না করলে ঘরের লোকের মতো কে শিক্ষা দেবে, কে জানিয়ে দেবে, ঈশ্বরই বস্তু আর সব অবস্তু, কে ধরায় পতিত দুর্বল সন্তানকে হাত ধরে তুলবে? কে কামিনী-কাঞ্চনাসক্ত পাশব-স্বভাবপ্রাপ্ত মানুষকে আবার পূর্ববৎ অমৃতের অধিকারী করবে? আর তিনি মানুষরূপে সঙ্গে সঙ্গে না বেড়ালে যাঁরা তদ্গতান্তরাত্মা, যাঁদের ঈশ্বর বই আর কিছু ভাল লাগে না তাঁরা কি করে দিন কাটাবেন? তাই —
‘পরিত্রাণায় সাধূনাং বিনাশায় চ দুষ্কৃতাম্।
ধর্মসংস্থাপনার্থায় সম্ভবামি যুগে যুগে ৷৷’ [गीता ४. ८]
"क्या अपूर्व प्रेम है ! नरेन्द्र के लिए मानो पागल हैं । नारायण के लिए कितना क्रन्दन करते हैं; कहते हैं, 'ये और राखाल, भवनाथ, पूर्ण, बाबूराम आदि दूसरे बालकगण साक्षात् नारायण हैं; मेरे लिए देह धारण कर आये हैं ।’
“কি ভালবাসা! — নরেন্দ্রের জন্য পাগল, নারায়ণের কন্য ক্রন্দন। বলেন, ‘এরা ও অন্যান্য ছেলেরা — রাখাল, ভবনাথ, পূর্ণ, বাবুরাম ইত্যাদি — সাক্ষাৎ নারায়ণ, আমার জন্য দেহধারণ করে এসেছে!”
यह प्रेम तो मनुष्य बुद्धि से नहीं किया जा रहा है यह तो ईश्वर प्रेम है ! ये बालक शुद्ध चित्त हैं; इन्होंने कभी कामभाव से स्त्रीयों का स्पर्श नहीं किया; वैषयिक कर्म करते हुए इनमें लोभ, अहंकार, ईर्ष्या आदि का स्फुरण नहीं हुआ; इसीलिए इन बालकों के भीतर ईश्वर का प्रकाश अधिक है । परन्तु यह दृष्टि है किसकी ?
এ প্রেম তো মানুষ জ্ঞানে নয়, এ প্রেম দেখছি ঈশ্বরপ্রেম! ছেলেরা শুদ্ধ-আত্মা, স্ত্রীলোক অন্যভাবে স্পর্শ করে নাই; বিষয়কর্ম করে এদের লোভ, অহংকার, হিংসা ইত্যাদি স্ফূর্তি হয় নাই, তাই ছেলেদের ভিতর ঈশ্বরের বেশি প্রকাশ। কিন্তু এ-দৃষ্টি কার আছে?
श्रीरामकृष्ण की अन्तर्दृष्टि है; वे सब देखते हैं - कौन विषयासक्त है, कौन सरल, उदार और भक्त है ! इसीलिए ऐसे भक्तों को देखते ही वे साक्षात् नारायण मानकर उनकी सेवा करते हैं । उन्हें नहलाते, खिलाते तथा सुलाते हैं । उन्हें देखने के लिए रोते हैं तथा दौड़-दौड़कर कलकत्ता जाते हैं। उन्हें कलकत्ते से गाड़ी पर अपने साथ ले आने के लिए लोगों से विनती करते हैं ।
ঠাকুরের অন্তর্দৃষ্টি; সমস্ত দেখিতেছেন — কে বিষয়াসক্ত, কে সরল উদার, ঈশ্বরভক্ত! তাই এরূপ ভক্ত দেখলেই সাক্ষাৎ নারায়ণ বলে সেবা করেন। তাদের নাওয়ান, শোয়ান, তাদের দেখিবার জন্য কাঁদেন; কলিকাতায় ছুটিয়া ছুটিয়া যান। লোকের খোশামোদ করে বেড়ান কলিকাতা থেকে তাদের গাড়ি করে আনতে;
गृहस्थ भक्तों से सदा कहा करते हैं, ‘इन्हें न्योता देकर भोजन कराना; इससे तुम्हारा भला होगा ।’ क्या यह मायिक प्रेम है; अथवा विशुद्ध ईश्वर प्रेम ? मिट्टी की मूर्ति में इतने उपचारों से ईश्वर की सेवा पूजा हो सकती है, फिर शुद्ध मनुष्यदेह में क्यों न हो ? फिर ये लोग तो भगवान् की प्रत्येक लीला में सहायक रहे हैं ! जन्म-जन्म के सहचर हैं !
গৃহস্থ ভক্তদের সর্বদা বলেন, ‘ওদের নিমন্ত্রণ করে খাওয়াইয়ো; তাহলে তোমাদের ভাল হবে।’ একি মায়িক স্নেহ? না, বিশুদ্ধ ঈশ্বরপ্রেম? মাটির প্রতিমাতে এত ষোড়শোপচারে ঈশ্বরের পূজা ও সেবা হয়, আর শুদ্ধ নরদেহে কি হয় না? তা ছাড়া এরাই ভগবানের প্রত্যেক লীলার সহায়! জন্মে জন্মে সাঙ্গোপাঙ্গ!
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
🔱मनुष्य का वास्तविक और प्रातिभासिक स्वरुप🔱
'THE REAL AND THE APPARENT MAN'
(SV/vol/2.263)
"नरेन्द्र को देखते ही देखते आप बाह्य जगत् को भूल गये । फिर धीरे धीरे नरेन्द्र की देह को, बाह्य मनुष्य (Apparent man, प्रातिभासिक मनुष्य) को भूल गये और उसके यथार्थ स्वरूप (Real man-वास्तविक मनुष्य) के दर्शन करने लगे । मन अखण्ड सच्चिदानन्द में लीन हुआ । उनके दर्शन करते हुए कभी निर्वाक्, निःस्पन्द रहने लगे, तो कभी 'ॐ ॐ' कहने लगे या बालक की तरह 'माँ माँ' कहते हुए पुकारने लगे । नरेन्द्र के भीतर ईश्वर का अधिक प्रकाश देखते हैं, इसीलिए ‘नरेन्द्र नरेन्द्र’ कह व्याकुल होते हैं ।
“নরেন্দ্রকে দেখতে দেখতে বাহ্যজগৎ ভুলে গেলেন; ক্রমে দেহী নরেন্দ্রকে ভুলে গেলেন। বাহ্যিক মনুষ্যকে (Apparent man) ভুলে গেলেন; প্রকৃত মনুষ্যকে (Real man) দর্শন করতে লাগিলেন; অখণ্ড সচ্চিদানন্দে মন লীন হইল, যাঁকে দর্শন করে কখনও অবাক্ স্পন্দনহীন হয়ে চুপ করে থাকেন, কখনও বা ওঁ ওঁ বলেন; কখন বা মা মা করে বালকের মতো ডাকেন, নরেন্দ্রের ভিতর তাঁকে বেশি প্রকাশ দেখেন। নরেন্দ্র নরেন্দ্র করে পাগল!
"नरेन्द्र अवतार नहीं मानते तो क्या हुआ ? श्रीरामकृष्ण ने दिव्यचक्षु से देखा कि यह ईश्वर पर अभिमान के कारण सम्भव हो सकता है । ईश्वर तो अपने हैं, वे अपनी माँ हैं, मानी हुई माँ नहीं, तब वे क्यों नहीं समझा देते, क्यों नहीं प्रकाशित कर दिखाते ? शायद इसीलिए श्रीरामकृष्ण ने गाते हुए कहा-`मान कोयली तो कोयली , आमाराओ तोर माने आचि'-- 'तुमने मान किया तो क्या हुआ, हम लोग भी तुम्हारे मान में तुम्हारे साथ ही हैं ।'
“নরেন্দ্র অবতার মানেন নাই, তার আর কি হয়েছে। ঠাকুরের দিব্যচক্ষু; তিনি দেখিলেন যে, এ অভিমান হতে পারে। তিনি যে বড় আপনার লোক, তিনি যে আপনার মা, পাতানো মা তো নন। তিনি কেন বুঝিয়ে দেন না, তিনি কেন দপ্ করে আলো জ্বেলে দেন না! তাই বুঝি ঠাকুর বললেন —‘মান কয়লি তো কয়লি, আমরাও তোর মানে আছি।’
"जो अपने से भी अपने हैं उन पर मान न करें तो और किस पर करें ? धन्य नरेन्द्रनाथ, तुम्हारे ऊपर इन पुरुषोत्तम का इतना प्रेम है ! तुम्हें देखकर इन्हें इतनी सहजता से ईश्वर का उद्दीपन होता है !"
“আত্মীয় হতে যিনি পরমাত্মীয় তাঁর উপর অভিমান করবে না তো কার উপর করবে? ধন্য নরেন্দ্রনাথ, তোমার উপর এই পুরুষোত্তমের এত ভালবাসা! তোমাকে দেখে এত সহজে ঈশ্বরের উদ্দীপন!”
इस प्रकार सोचते हुए तथा श्रीरामकृष्ण का स्मरण करते हुए उस गहरी रात में भक्तगण अपने अपने घरों में लौट रहे हैं ।
এইরূপ চিন্তা করিতে করিতে সেই গভীর রাত্রে শ্রীরামকৃষ্ণ স্মরণ করিতে করিতে ভক্তেরা গৃহে প্রত্যাবর্তন করিতেছেন।
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विशिष्टाद्वैत (विशिष्ट+अद्वैत) आचार्य रामानुज (सन् 1017-1137 ईं.) का प्रतिपादित किया हुआ यह दार्शनिक मत है। इसके अनुसार यद्यपि जगत् और जीवात्मा दोनों कार्यतः ब्रह्म से भिन्न हैं फिर भी वे ब्रह्म से ही उदभूत हैं और ब्रह्म से उसका उसी प्रकार का संबंध है जैसा कि किरणों का सूर्य से है, अतः ब्रह्म एक होने पर भी अनेक हैं। रामानुजाचार्य सत्ता तो एक ब्रह्म की ही मानते हैं लेकिन जैसे वृक्ष की शाखाएं, पत्ते और फल और फूल उसी के अलग अलग अंग हैं; एक ही वृक्ष में विविधता है। वैसे ही जीव (आत्मा ) और माया ,परमात्मा के विशेषण हैं। विशिष्ठ गुण हैं। इसीलिए इस दर्शन को नाम दिया गया (Qualified Non -Dualism) यानि विशिष्ठ अ-द्वैत वाद। उनके लिए असीमित और सीमित का संबंध आत्मा और शरीर के संबंध के समान है। इसलिए 'अद्वैतवाद' का अस्तित्व रहता है, हालांकि इनमें विभेद बताए जा सकते हैं। आत्मा तथा पदार्थ अपने अस्तित्व के लिए पूर्णत: ईश्वर पर निर्भर है, जिस प्रकार शरीर आत्मा पर निर्भर है। इस सिद्धांत में आदि शंकराचार्य के मायावाद का खंडन है।
शंकराचार्य के अनुसार आत्मा ब्रह्म से अलग नहीं है। ब्रह्म ही आत्मा है अपने मूल रूप में लेकिन अज्ञान इन्हें दो बनाए रहता है। ज्ञान प्राप्त होने पर आत्मा अपने मूल स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त कर लेती है। शंकराचार्य ने जगत को माया करार देते हुए इसे मिथ्या बताया है। शंकराचार्य माया के अस्तित्व को नहीं मानते हैं। इनके दर्शन में माया मिथ्या है इल्यूज़न है। अज्ञान के कारण ही हमें इसका बोध होता है। ज्ञान प्राप्त करने पर इसका लोप हो जाता है। क्योंकि आप एक ही सत्ता ब्रह्म की बात करते हैं इसीलिए इनके दर्शन को अ-द्वैत -वाद (Non -Dualism ) कहा गया है। अहम ब्रह्मास्मि ,आत्मा सो परमात्मा इसी स्कूल का प्रतिपाद्य है। लेकिन रामानुज ने अपने सिद्धांत में यह स्थापित किया है कि जगत भी ब्रह्म ने ही बनाया है। परिणामस्वरूप यह मिथ्या नहीं हो सकता। माया यहाँ मिथ्या नहीं है ब्रह्म भी सत्य है माया भी। (ठाकुरदेव ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा जैसे नित्य ब्रह्म सत्य है उसकी लीला-अवतार भी सत्य है )।
अचिन्त्य भेदाभेदवाद : इसके प्रतिपादक चैतन्य महाप्रभु (1486 -1534) कहते हैं जिस प्रकार गर्मी और प्रकाश आग (अग्नि ) की ही शक्ति हैं ,ताप और प्रकाश ऊर्जा के दो अलग लग रूप हैं लेकिन हैं दोनों एक साथ हैं। उसी एक अग्नि के रूप और उसकी दाहिका शक्ति को उससे अलग नहीं कहा जा सकता है। इसी प्रकार आत्मा और माया परमात्मा की ही शक्ति से कार्य करतीं हैं। दोनों हैं उसी की शक्तियां फिर भी उससे अलग अलग भी हैं और उसके साथ साथ भी। इन्हें साधारण बुद्धि से इस रूप में पूरा ठीक से नहीं समझा जा सकता। प्रज्ञा चक्षु चाहिए इन्हें बूझने के लिए। इसीलिए इस दर्शन को आपने नाम दिया अचिन्त्य भेदाभेद वाद।
[अचिन्त्य भेदाभेद वाद >>>Sunday, 2 Oct 2022/ संघमन्त्र , स्वदेशमन्त्र के साथ दोनों अजय ही हैं किन्तु लोकेषणा से ऑनलाइन गुरुगिरि करने वाला या श्रद्धावान कौन है ?]
कर्म का रहस्य ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म करना है!
‘मद्गत अन्तरात्मा’
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।।6.47।।
[ योगिनाम् अपि सर्वेषां मद्गतेन अन्तरात्मना। श्रद्धावान् भजते यः मां सः मे युक्ततमः मतः ॥ अन्वय > सर्वेषां (सकलानाम्) योगिनाम् अपि (युक्तानाम् अपि) यः (यः पुरुषः) श्रद्धावान् ( श्रद्धालुः सन्) मद्गतेन (मयि स्थितेन) अन्तरात्मना (चित्तेन) मां भजते (सेवते) सः (सः पुरुषः) मे युक्ततमः (आप्ततमः) मतः (अभिमतः)।
सब योगियों में भी उस योगी को मैं अपने साथ सबसे अधिक संयुक्त मानता हू, जो श्रद्धापूर्वक अपनी आत्मा को मुझमें लगाकर मेरी पूजा करता है। यहाँ अनन्य प्रेम से भगवान् में स्थित रहने वाले मन-बुद्धि को ही ‘मद्गत अन्तरात्मा’ क्यों कहा गया है? भय और द्वेष आदि कारणों से भी तो मन-बुद्धि भगवान् में लग सकते हैं?
उत्तर- लग सकते हैं और किसी भी कारण से मन-बुद्धि के परमात्मा में लग जाने का फल परम कल्याण ही है। परंतु यहाँ का प्रसंग प्रेमपूर्वक भगवान् में मन-बुद्धि लगाने का है; भय और द्वेषपूर्वक नहीं। क्योंकि भय और द्वेष से जिसके मन-बुद्धि भगवान् में लग जाते हैं, उसको न तो श्रद्धावान् ही कहा जा सकता है और न परम योगी ही माना जा सकता है। योग के अनुशासन का एक लम्बा विवरण और उन बाधाओं का, जिनको कि जीतना है, विवरण देने के बाद गुरु (नेता ,अवतार) यह-Conclusion निष्कर्ष निकालता है, कि महान् योगी वह है, जो महान् भक्त है। इति ... ध्यानयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः।
[ध्यानाभ्यास (प्रत्याहार और धारणा के अभ्यास) की प्रारम्भिक अवस्था में साधक को प्रयत्नपूर्वक ध्येय विषयक वृत्ति बनाये रखनी पड़ती है और मन को बारम्बार विजातीय वृत्ति से परावृत्त करना पड़ता है। इस दृष्टि से हमारी परम्परा में प्रतीकोपासना (काली मूर्ति की पूजा या विवेकदर्शन का अभ्यास) ईश्वर के सगुण साकार रूप का ध्यान गुरु की उपासना कुण्डलिनी पर ध्यान अथवा मन्त्र के जपरूप ध्यान आदि का उपदेश दिया गया है। इसी आधार पर कहा जाता है कि योगी भी अनेक प्रकार के होते हैं। यहाँ भगवान् स्पष्ट करते हैं कि उपर्युक्त योगियों में श्रेष्ठ और सफल योगी कौन है। जो श्रद्धावान् योगी मुझ से एकरूप हो गया है तथा मुझे भजता है वह युक्ततम है। वेदान्त शास्त्र में भजन का अर्थ है जीव का समर्पण भाव से किया गया सेवा कर्म। भक्तिपूर्ण समर्पण से उस साधक को मन से परे आत्मतत्त्व का साक्षात् अनुभव होता है। इस प्रकार जो योगी आत्मानुसंधान रूप भजन करता है वह परमात्मस्वरूप में एक हो जाता है। ऐसे ही योगी को यहां सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। वेदान्त की भाषा में कहा जायेगा कि जिस योगी ने अनात्म जड़उपाधियों से तादात्म्य दूर करके आत्मस्वरूप को पहचान लिया है वह श्रेष्ठतम योगी है।]
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।18.65।।
[अन्वयः >मन्मना भव । मद्भक्तः मद्याजी मां नमस्कुरु । माम् एव एष्यसि/एष्यसि = गमिष्यसि । ते सत्यं प्रतिजाने । मे प्रियः असि ।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु : अर्जुन तू मेरे में चित्त वाला बन , मेरा भक्त बन , मेरा पूजक बन और मुझे नमस्कार कर - ऐसा करने से तुम मुझे ही प्राप्त होंगे, यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ, (क्योंकि) तुम मेरे प्रिय हो।
मन का कार्य संकल्प करना है। अतः "मन्मना भव" -- इसका अर्थ है तुम अपने मन के द्वारा मेरी प्राप्ति का ही संकल्प करो। ईश्वर की प्राप्ति का संकल्प केवल संकल्प की अवस्था में ही नहीं रह जाना चाहिए। इस संकल्प को निश्चयात्मक भक्ति में परिवर्तित करने की आवश्यकता होती है अतः मद्भक्त तुम मेरे भक्त बनो। मद्याजी भक्ति प्रेमस्वरूप है। और जहाँ प्रेम होता है वहाँ पूजा का होना स्वाभाविक है। प्रेम की भावना ही नेता (C-IN-C) के द्वारा आध्यात्मिक उपदेश देने में समीचीन (यथार्थ-accurate) उद्देश्य है। शिष्य के प्रति प्रेम न होने पर, गुरु के उपदेश में न प्रेरणा होती है और न आनन्द। एक व्यावसायिक अध्यापक तो केवल वेतन-भोगी होता है। ऐसा अध्यापक न अपने विद्यार्थी वर्ग को न प्रेरणा दे सकता है और न स्वयं अपने हृदय में कृतार्थता का आनन्द अनुभव कर सकता है। जो कि अध्यापन का वास्तविक पुरस्कार है।
(18.65) ईश्वर जगत् का कारण होने से सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त है। इसलिए ईश्वर की पूजा का अर्थ है जगत् की निस्वार्थ भाव से सेवा करना। भगवान् श्रीकृष्ण यही उपदेश देते हुए कहते हैं तुम मद्याजी अर्थात् मेरे,पूजक बनो। मां नमस्कुरु गर्व और अभिमान से युक्त पुरुष किसी को विनम्र भाव से प्रणाम नहीं कर सकता है। मुझे नमस्कार करो इस उपदेश का अभिप्राय कर्तृत्वादि अहंकार का त्याग करने से है। परमात्मा के गुणों को सम्पादित करने के लिए साधक में नम्रता, श्रद्धा, भक्ति जैसे गुणों का प्रचुरता होनी चाहिए। जल के समान ही ज्ञान का प्रवाह ऊंची सतह से नीची सतह की ओर बढ़ता है। इस श्लोक में वर्णित भक्ति से सम्पन्न कोई भी साधक भगवत्प्राप्ति का अधिकारी बन सकता है। तुम मुझे प्राप्त होगे यह भगवान् श्रीकृष्ण का सत्य आश्वासन है। श्री शंकराचार्य जी कहते हैं कर्मयोग की साधना का परम रहस्य ईश्वरार्पण बुद्धि है।
भिद्यते हृदयग्रन्थिः छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनीश्वरे ॥ २१ ॥
(श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १/अध्यायः २)
भिद्यते—भिद जाती है; हृदय—हृदय की; ग्रन्थि:—गाँठें; छिद्यन्ते—खण्ड-खण्ड हो जाते हैं; सर्व—सभी; संशया:— भ्रम, संदेह; क्षीयन्ते—समाप्त हो जाते हैं; च—तथा; अस्य—उसकी; कर्माणि—सकाम कर्मों की शृंखला; दृष्टे—देखने के पश्चात्; एव—निश्चय ही; आत्मनि—स्वयं आत्मा को; ईश्वरे—प्रधान या स्वामी में ।
इस प्रकार हृदय की गाँठ भिद जाती है और सारे सशंय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। जब मनुष्य आत्मा को स्वामी (विवेकानन्द) के रूप में देखता है, तो सकाम कर्मों की शृंखला समाप्त हो जाती है।
“परापर” के दर्शन होते ही हृदय की ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं, सब संशय छँट जाते हैं, कर्म क्षय हो जाते हैं।
जब मनुष्य आत्मा को स्वामी के रूप में देखता है, तो सकाम कर्मों की शृंखला समाप्त हो जाती है। इस प्रकार हृदय की गाँठ भिद जाती है और सारे सशंय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। भगवान् का वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने का अर्थ है, उसी के साथ ही साथ अपने आपको भी देखना। भौतिकतावादी लोग तो आत्मा के अस्तित्व को ही नहीं मानते किन्तु अध्यात्मवादी इस बात की पुष्टि करते हैं कि आत्मा तथा परमात्मा दो विभिन्न सत्ताएँ हैं, जो गुणवत्ता में एक समान हैं किन्तु परिमाण में भिन्न-भिन्न हैं। बहुत से अन्य सिद्धान्त भी हैं, किन्तु जब भक्तियोग की विधि से श्रीकृष्ण (श्रीरामकृष्ण) का यथार्थ साक्षात्कार हो जाता है, तो ये भिन्न-भिन्न कल्पनाएं दूर हो जाती हैं।
वैदिक सनातन धर्म में सृष्टि के प्रारम्भ से ही बुद्धि को प्रधानता दी गयी है । वेद का प्रवेश द्वार गायत्री मंत्र है जिसमें बुद्धि को प्रेरित करने की ही प्रार्थना है । अतः हमारे पूर्वज ऋषियों ने धर्म में विचार को प्रधानता दी। अत एव दर्शन व धर्म हमारी 'सनातन गुरु-शिष्य शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में कभी अलग नहीं किये गये। आपसी विचार के द्वारा ही सभी गुत्यियों को सुलझाने का प्रयत्न किया गया। सेमेटिक धर्मों की तरह बल प्रयोग कभी नहीं किया गया चाहे अर्थ बल हो चाहे असिबल । श्वेताश्वतर शाखा के 'ब्रह्मवादिनो वदन्ति' से जनक सभा में याज्ञवल्क्य शास्त्रार्थ तक में यही परम्परा रही । पौराणिक युग में भी 'वादे वादे जायते तत्त्वबोध:' रहा तो आचार्य शंकर ने भी इसी प्रकार पुनः सनातन धर्म के प्रवाह को प्रशस्त किया ।
दार्शनिक जगत् में वाद, जल्प और वितण्डा भेदसे त्रिविध कथा प्रसिद्ध है । जो सिद्धान्त बोध (महावाक्य बोध) एवं उसकी सुरक्षा के लिए आवश्यक समझी गयी है । इनमें से गुरु शिष्य संवादको वाद कहते हैं । विजिगीषुओं की कथा को जल्प कथा कहते हैं । जिसमें स्वपक्ष स्थापन एवं परपक्ष खण्डन होता है । किन्तु स्वपक्ष स्थापन के बिना ही परपक्ष खण्डन वादी कथा को वितण्डा कीं संज्ञा दी गयी है । वाद कथा में तत्त्वजिज्ञासा (महावाक्य बोध की जिज्ञाषा) से शिष्य का प्रश्न होता है, और तत्त्व बोध के लिए गुरु का उपदेश होता है, दोनों के ही संवाद में निश्छलता होने के कारण तत्त्व का यथार्थ बोध वाद कथा से होता है । उपनिषद, गीता एवं ब्रह्मसूत्रादि वाद ग्रन्थ हैं | जिनसे वैदिक ' सिद्धान्त (चार महावाक्य ) का ज्ञान एवं तत्त्व बोध होता है । पार्वती के प्रश्न को ही 'निगम' और शिव के उत्तर को 'आगम' मानना चाहिए। 'निगमनात्मक तर्क' (Deductive reasoning या deductive logic), 'आगमनात्मक तर्क' (Inductive reasoning या induction) से बिलकुल भिन्न है।
☀️ आगमन विधि (आगमनात्मक तर्क' (Inductive reasoning या induction)☀️यह शिक्षण अधिगम की सर्वोत्तम विधि हैं।इस तर्क में सर्वप्रथम किसी विषय से संबंधित उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं। ताकि इनके आधार पर छात्र एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचने का प्रयास करें। इसके बाद ही नियम की निष्पत्ति की जाती है। इसमें हम अनुसंधान करने के पश्चात् निष्कर्ष पर पहुचते है। इसमे हमें रटना नही पड़ता है। यह मनोवैज्ञानिक विधि हैं कयोंकि हम इसमे स्वयं अनुसंधान करके निष्कर्ष निकालते है। इसमे हमारा आत्मविश्वास बढ़ता हैं। इस तर्क में छात्र विशिष्ट से सामान्य की ओर,उदाहरण से नियम की ओर, विशिष्ट से सामान्य की ओर, स्थूल से सूक्ष्म की ओर, सरल से जटिल की ओर, ज्ञात से अज्ञात की ओर, मूर्त से अमूर्त की ओर नामक शिक्षण सूत्र पर चलते हैं। जैसे - राम की मृत्यु हो गई, राम ने जन्म लिया था। भैंस की मृत्यु हो गई भैंस ने जन्म लिया था। "जायस्व म्रियस्व ध्रुवं" (छान्दोग्य उपनिषद 5.1.8 ) अतः जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु होना निश्चित है। इस उदाहरण से सिद्ध होता है कि पहले उदाहरण उसके से निष्कर्ष निकालते हैं। इसके बाद ही एक नियम बनाते हैं।
🔆निगमन विधि (निगमनात्मक तर्क 'Deductive reasoning या deductive logic)🔆 इसमें शिक्षक नियमो (यम और नियम) का उल्लेख करता है और उन नियमो के आधार पर छात्र सीखता है। जहां जहां धुँआ होता है वहां आग होती है। यह एक तर्क वाक्य है। इसके आधार पर छात्रों द्वारा अनुभव के आधार पर ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। पहाड़ पर धुँआ है तो पहाड़ पर आग भी है। इस तर्क में छात्र अज्ञात से ज्ञात की ओर नामक शिक्षण सूत्र पर चलते हैं।* निगमन विधि से शिक्षण कार्य तेजी से होता है।*इसमें कम समय में अधिक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।*इसमें रटना होता है, * रटने को प्रोत्साहित या बढ़ावा देती है जो कि सही नहीं है। यह वैज्ञानिक विधि नहीं है। इससे आत्मविश्वास का विकास नहीं होता है।भगवान शिव कहते हैं, जब कोई आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है, अर्थात जब वह अपने को जान लेता है, तो क्या होता है? उसे 'मोक्ष' मिल जाता है। अर्थात माँ जगदम्बा की कृपा से मन (अहं) गुलामी से मुक्त होकर अपने को भेंड़ समझने वाला सिंह-शावक dhypnotized हो जाता है। ]
भगवद्गीता (१०.११) में भगवान् कहते हैं कि-
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥ ११ ॥
[ तेषाम् एव अनुकम्पार्थम् (दयाहेतोः) अहम् (परमात्मा) अज्ञानजं (मिथ्याज्ञानोत्पन्नम्) तमः (अन्धकारम्) नाशयामि आत्मभावस्थः (बुद्धौ वर्तमानः) ज्ञानदीपेन (विवेकदीपेन) भास्वता ॥ ११ ॥]
श्री भगवान कहते हैं - मैं अपने शुद्ध भक्तों के ऊपर विशेष अनुग्रह करने के लिए उनके अन्त:करण में (अर्थात बुद्धि में) स्थित होकर, अज्ञानजनित अन्धकार (मिथ्या अहं से उत्पन्न सारे संशयों के गहन अन्धकार) को प्रकाशमय ज्ञान (विवेकज ज्ञान) के दीपक द्वारा नष्ट करता हूँ।।
अतएव भगवान् द्वारा भक्त के हृदय को प्रकाशित करने का दायित्व अपने ऊपर लेने के कारण, जो भक्त उनकी दिव्य प्रेमाभक्ति [Be and Make आंदोलन के प्रचार प्रसार] में लगा होता है वह अन्धकार में नहीं रह सकता। उसे 'परम' एवं 'सापेक्ष' सत्य [इन्द्रियातीत सत्य (अविनाशी) और इन्द्रिय-गोचर सत्य (नश्वर)] के विषय में सब कुछ ज्ञात होता रहता है।
(स्वामी विवेकानन्द का) भक्त कभी भी अन्धकार में नहीं रह सकता और चूँकि भगवान् द्वारा उसे प्रकाश प्राप्त होता है, अतएव उसका ज्ञान निश्चय ही पूर्ण होता है। किन्तु जो लोग अपनी खुद की सीमित शक्ति से (एक छँटाक की बुद्धि से) चिन्तन करते हैं, उनके साथ ऐसा नहीं होता। पूर्ण ज्ञान परम्परा या निगमनीय (तर्कपूर्ण) ज्ञान कहलाता है। यह एक प्राधिकारी से (नेता या जीवनमुक्त शिक्षक से) विनीत श्रोता तक पहुँचता है, जो सेवा तथा समर्पण द्वारा प्रामाणिक होता है। [ 'श्राद्धवान लभते ज्ञानं'-] ऐसा नहीं है कि कोई परमेश्वर (नेता) के प्रमाण को चुनौती भी दे और उन्हें जान भी ले। उन्हें (ईश्वर को) यह अधिकार है कि ऐसे ललकारने वाले जीव के समक्ष प्रकट ही न हों, जो परम पूर्ण का क्षुद्र स्फुलिंग मात्र है और ऐसा स्फुलिंग जो माया के अधीन है। भक्तगण विनीत होते हैं, अत: यह दिव्य ज्ञान भगवान् से ब्रह्मा को, ब्रह्मा से उनके पुत्रों तथा शिष्यों को क्रमानुसार प्राप्त होता है। इस विधि में ऐसे भक्तों के अन्त:करण में स्थित परमात्मा द्वारा सहायता मिलती है। दिव्य ज्ञान को सीखने की यही सही विधि है। जैसे विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा 'Be and Make' में प्रशिक्षित मार्गदर्शक नेता CINC नवनीदा से प्राप्त होने वाला ज्ञान, निगमनीय (तर्कपूर्ण) ज्ञान कहलाता है।
इस अनुभूति के द्वारा भक्त आत्मा तथा पदार्थ के अन्तर को सही-सही समझ पाता है, क्योंकि आत्मा तथा पदार्थ की गाँठ भगवान् द्वारा खोली जाती है। यह ग्रन्थि अहंकार कहलाती है, जिससे जीव झूठे ही अपने को भौतिक पदार्थ मानता है। अतएव ज्योंही यह ग्रन्थि ढ़ीली पड़ती है, संशय के सारे बादल तुरंत छँट जाते हैं। मनुष्य अपने स्वामी का दर्शन करने लगता है और सकाम कर्मों के बन्धन को समाप्त करके वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लग जाता है। भौतिक जगत में जीव स्वयं सकाम कर्म की शृंखला की सृष्टि करता है और जन्म-जन्मांतर तक इन कर्मों के अच्छे तथा बुरे फलों को भोगता रहता है। किन्तु ज्योंही वह भगवान् की प्रेममय सेवा में लग जाता है, त्योंही वह कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाता है। फिर उसके कर्मों से कोई प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं होती।
।।10.11।। कभी-कभी कोई वस्तु विद्यमान होते हुए भी हमारी दृष्टि के लिए आच्छादित रहती है। क्योंकि उसे देखने के लिए कुछ अनुकूल परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। ध्वनि सुनने के लिए उसमें आवश्यक स्पन्दन होने चाहिए तथा यह भी आवश्यक है कि वे ध्वनि तरंगे हमारे कानों तक पहुँचे। इसी प्रकार अपेक्षित प्रकाश के अभाव में वस्तु के समक्ष होने पर भी उसका नेत्रों द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता। यदि हम अन्धकार में मेज पर पड़ी अपना कुंजी (चाभी) को टटोलकर खोज रहे हों और उसी समय कोई व्यक्ति स्विच दबाकर कमरे को प्रकाशित कर देता है तो हमें अपनी कुंजी दिखाई पड़ती है। हम कह सकते हैं कि उस व्यक्ति के इस दयापूर्ण कार्य ने हमें कुंजी की प्राप्ति करायी। परन्तु यह कहना सर्वथा असंगत होगा कि प्रकाश ने उस कुंजी को उत्पन्न किया। वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में इस दृष्टान्त के द्वारा यह ज्ञान कराया जाता है कि आत्मा तो सदा हमारे हृदय में ही विद्यमान है। किन्तु प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण यथार्थ अनुभव के लिए उपलब्ध नहीं है। उन प्रतिकूल तत्त्वों की निवृत्ति होने पर वह आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप से अनुभव किया जा सकता है। आत्मा को आच्छादित करने वाला वह आवरण है-मिथ्या अज्ञानजनित (अहं जन्य) अंधकार। साधक अपने पुरुषार्थ के द्वारा वस्तुतः सविकल्प समाधि की स्थिति तक ही पहुँच सकता है। बुद्धियोग की साधना अवस्था में ध्याता और ध्येय में भेद होता है, जिसे सविकल्प समाधि कहते हैं। इस श्लोक में यह कहा गया है कि इस सविकल्प अवस्था से वह साधक मानो किसी ईश्वरीय कृपा से पूर्ण निर्विकल्प समाधि की स्थिति में स्थानान्तरित किया जाता है।
"सनमुख होय जीव मोहि जबहीं,
जन्म-कोटि-अघ नासहिं तबहीं॥"
जीव ज्यों ही 'मेरे' (अर्थात अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण , माँ सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द के) सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं॥1॥
(रामचरितमानस ५/४४/१- तुलसी, सुन्दरकाण्ड।।)
"श्रुतिसम्मत हरिभक्तिपथ संजुत विरति विवेक ।
तेहिं न चलहिं नर मोहबस कल्पहिं पंथ अनेक ॥'
(प्रसंग काकभुशुण्डि का अपनी पूर्व जन्म कथा और कलि महिमा कहना)
वेद सम्मत तथा वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरिभक्ति का मार्ग है, मोहवश मनुष्य उस पर नहीं चलते और अनेकों नए-नए पंथों की कल्पना करते हैं॥100 (ख)॥
जैसे प्रथम प्रदीप-प्रभा से हजारों वर्ष का अंधकार भी तत्क्षण समाप्त हो जाता है क्योंकि अंधकार का नाश कर देना ही प्रकाश का स्वभाव (प्रेमस्वरूप नेता, जीवनमुक्त शिक्षक का स्वभाव-बदले में कुछ पाने की इच्छा का न होना ) है। यहाँ भगवान् स्पष्ट घोषणा करते हैं कि वे विशुद्ध सत्य का ही प्रतिपादन कर रहे हैं।
जैसे सूर्योदय होते ही एक क्षण में सारे विश्वमें प्रकाश फैल जाता है वैसे ज्ञानप्रभा फैलेगी । उत्तरपक्षः-रहने दीजिये इस पुराने ढर्रे के उदाहरण को। सूर्यात् तत्प्रकाशस्य पृथिव्यागमने नवनिमेषा आवश्यका इति ज्ञानिकैर्निरूपितम् । आज वैज्ञानिकों को प्रकाश की गति का भी पता लग गया है | सूर्य-प्रकाश को पृथ्वी तक पहुँचने में आठ नौ मिनिट लगते हैं ॥ जीवात्मा में ब्रह्म-विषयक अज्ञान अंधकार रहता है जो संसार का कारण है उसे वह दयासागर हरि ज्ञानदीप से मिटावे ॥ रज्जुमें सर्पको न देखनेवाला क्या अज्ञानी होता है ? वैसे मिथ्या जगत को न देखने वाला ब्रह्म क्यों अज्ञानी होने लगा? ॥ मरुभूमि में जल को देखते हुए भी उसे मिथ्या समझने वाला भ्रान्त या अज्ञानी नहीं कहा जाता ॥ जानकार व्यक्ति को भी दोष के कारण वस्तु अन्यथा दीखती है वैसे माया के कारण ईश्वर को जगत् दीखे इसमें क्या हानि है? ॥ ५ ॥ शुद्ध सत्त्वा प्रकृति माया कहलाती है। अशुद्धा-सत्त्वा प्रकृति अविद्या कहलाती है । हां, तत्त्वज्ञान होने पर अविद्या भी शुद्धसत्त्वा होती है।यही तो माया की महिमा है कि वह अपने आश्रयको ढंकती है । निवृत्त होती है तो आश्रय में कोई भी विशेष उत्पन्न नहीं करती ॥ ४॥ नमामि तद् ब्रह्म समाधिगोचरम् ॥ ४७ ॥ विकल्प बुद्धि केवल व्यवहार में काम करती है। परम प्रमाण तो निर्विकल्पक बुद्धि ही है । मिथ्याविकल्प बुद्धि का ब्रह्म कभी विषय नहीं होता । समाधिमात्र से गम्य परात्पर उस ब्रह्मको हम नमस्कार करते हैं। हेम हारात्मकं॑ हारदेहं स्यात्तद्विवर्तनात् । विश्वात्मा विश्वदेहः स्यादात्मासौ तद्विवर्तनात् ॥ ७ ॥ [५९४] सोना घरमें है । पिण्डात्मक नहीं, हारात्मक है । यहां (हारात्मक में) आत्मा का अर्थ शरीर है । हार सुवर्ण का कार्य विवर्त होने से हार को शरीर बताया । वैसे विश्वरूप से विवर्तित होने से परमात्मा, विश्वात्मा, विश्वशरीर आदि कहलाता है ॥ ७॥ माया जाल फैलानेवाले उस भगवान को हम प्रणाम करते हैं, जिसकी माया से मोहित मनुष्य मुक्ति में भी विषयों को चाहते हैं ॥ ५१ ॥ बाल्यकाल में अनुभूत सुख-दुःखादि वर्तमान में स्वप्न समान हो गया । वर्तमान भी कुछ काल के बाद स्वप्नवत् हो जायेगा । इसे जानने वाला मोह में नहीं पड़ता ॥ ३ ॥अनन्त पूर्वजन्म शून्य में विलीन हो गये। एक भी स्मृति में नहीं है। वर्तमान जन्म भी शून्यलीन होगा। इसे वृथा ही सत् सिद्ध कर रहे हैं। सत्य ही सत् है, असत् तुच्छ है। दोनों से विलक्षण प्रपञ्च मिथ्या हैं। आदि और अन्तमें स्पष्ट जो असत् है वह मध्य में सत् कैसे होगा ? सत् तो आत्मा ही है। वही मैं हूं ॥ चैतन्यमेकं नानेव दृश्यते जलचन्द्रवत्. जीवों का भी परस्पर भेद उपाधि प्रयुक्त है। चैतन्य सर्वत्र एक ही है । वह नाना जैसा दीखता है । अनादिकाल से औपाधिक भेद जीवों में है और वे नाना हुए । दुःखादि भी औपाधिक उनमें प्रकट होने लगे । ज्ञान से अविद्योपाधि की निवृत्ति होती है तो वह जीव मुक्त होता है.॥ २ ॥ अतः रति के अभिलाषुक ये एकता नहीं चाहते । परन्तु जो ब्रह्मानन्दतृप्त हैं उनमें कामना है नहीं; वे ऐक्य में रहते हैं ॥ द्वैतवादी स्वयं कामुक थे ही। ऐहिक भोग से उनकी इच्छा पूर्ण नहीं हो रही थी। इधर सुना-मोक्ष में खूब खाने-पीने को मिलता है, खेलने को मिलता है, भोगार्थ दिव्य युवतियां पास होती हैं, बस उनका हृदय चलायमान हो गया। शूद्र शरीर वाले विदुर, धर्मव्याध आदि ज्ञानी थे । इसका अपलाप कोई नहीं कर सकता । ज्ञान का फल मोक्ष भी उन्हें हुआ ही था ॥ २॥ तुमको इसमें क्या ईर्ष्या है ? ऋषियों को अठारह पुराण सुनाने वाले सूतजी शूद्र हैं । उनको अर्थज्ञान नहीं है तो वहां प्रश्न और उत्तर कैसे संगत होंगे ? भुशुण्डि (काक) हनुमान (वानर) जाम्बवान (रीछ) गज, गिद्ध ,गरुड आदि भी मुक्त हो सकते हैं तो ये मनुष्य शूद्रों ने क्या अपराध किया ? ॥ १२॥ कुटीचक, बहूदक, हंस, परमहंस तुर्यातीत एवं अवधूत ऐसे छः प्रकार के संन्यासी होते हैं ॥ १ ॥ कुटीचक; बहूदक, हंस एवं आधे परमहंस (साधक परमहंस) ये आश्रमी कहलाते हैं । प्रथम तीन ही आश्रमी हैं ऐसा भी मत है । शेष सिद्ध परमहंस, तुर्यातीत और अवधुत अत्याश्रमी कहलाते हैं ॥ २ ॥कुटीचक वह है जो शिखा एवं यज्ञोपवीत रखता है, मातापिता आदि की सेवा करता है; सफेद ऊर्ध्व पुंड़े लगाता है, त्रिदण्डधारी है और संन्यासदीक्षा प्राप्त है ॥ ३ ॥ शिखा, यज्ञोप्रवीत, त्रिदण्ड कमण्डलु, त्रिपुण्ड्र और माधुकरी वृत्ति ये कुटीचक की अपेक्षा बहूदक में विशेषता है ॥ ४ ॥ हंस नामका संन्यासी त्रिपुण्ड या ऊर्ध्वपुण्ड्र लगाता है । माधुकरी वृत्ति से रहता है । जटा एवं कौपीन रखता है ॥ ५ ॥ परमहंस वह है जो शिखा-यज्ञोपवीत-रहित हो, काषाय-वस्त्रधारी हो प्रणवादि मन्त्र-जप करता हो और मनस्तोषपर्यन्त अध्ययन करता हो। मनस्तोष होनेपर उपनिषदध्ययन छोड देगा। अतएव मुक्त मुमुक्षु ये दो विभाग परमहंसों में है ॥ ६ ॥ मुख्य परमहंस जीवन्मुक्त होता है ॥ ७ ॥ परमहंस के लक्षण तुंरीयातीत में भी होते हैं । वह गोमुख होता है। (जैसे गाय मुंहमें जो आया वही खा लेती हैं) या फलाहारी होता है। तीन घरोंमें भिक्षा लेकर भी खा लेता है । दिगम्बर एवं दण्डराहित होता है ॥ ८ ॥ अवधूत के लिये बाह्य कोई नियम नहीं रहता । निरन्तर ब्रह्मध्यान -तत्पर होता है | किसी भी जातिमें भिक्षा ले लेता है । हां पतित आदि को वह भी छोड देता है ॥ ९ ॥' वर्णाश्रम से ऊपर उठकर आत्मा में रहने वाला योगी अतिवर्णाश्रमी एवं अवधूत कहलाता है॥ १० /'नाविरतो दुश्चरितात -प्रज्ञानेनैनमाप्लुयात्” इस मन्त्रम ज्ञानी होने पर भी यदि दुश्चरित हो तो उसे ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होगी यह बताया है ।
[हमारा चित्त "उभयतो वाहिनी नदी" की तरह है , यानि परस्पर दो विपरीत दिशाओं में प्रवाहित होने वाली अद्भुत नदी की तरह है। हमें किस और बहना है ?.... विवेक-प्रयोग का अभ्यास वैराग्य के साथ साथ करें।
योगदर्शन सूत्र ..."अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः||१:१२|| के व्यास भाष्य में कहा गया है ...."चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च। या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा। तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिली क्रियते। विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।
"चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च" अर्थात हमारा चित्त "उभयतः वाहिनी नदी" यानि (ऊपर -नीचे) परस्पर दो विपरीत दिशाओं में प्रवाहित होने वाली अद्भुत नदी की तरह है। कल्याण के लिए बहती है और पाप के लिए भी बहती है। हमें किस ओर बहना है ?
"या तु विवेकविषयनिम्ना कैवल्यप्राग्भारा सा कल्याणवहा। " - 'कैवल्य मुक्ति' (मोक्ष , भ्रममुक्त या d-hypnotized अवस्था) की ओर ले जाने वाली विवेक-युक्त चित्तनदी की वह धारा कल्याणवहा है, जो कल्याण की ओर बहती है। "अविवेकविषयनिम्ना संसारप्राग्भारा सा पापवहा। " वही चित्त-नदी की धारा (इच्छाशक्ति का विकास और प्रवाह) जब अविवेक से युक्त हो जाती है, वह (सहज-प्रवृत्ति रूपी चक्रवात, Instinct) संसार या देहान्तर-गमन (Transmigration) की ओर (अवनति की ओर) ले जाने वाली धारा पाप-वहा है, सा पापाय वहति' वह पाप के लिए बहती है। हमें किस ओर बहना है ?
"तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते " तत्र (उस) 'वासना और धन' (Lust and Lucre) में घोर आसक्ति या लालच को कम करते हुए 'विषयस्रोतः' इन्द्रिय विषयों (रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श आदि विषयों) में बिखरे हुए मन को वैराग्य का फाटक लगाकर; वैराग्य का अर्थ है दृष्ट व अदृष्ट प्रिय भोगों में बारंबार दोषदर्शन और उन से विरक्ति। " खिलीक्रियते " चित्त के बहिर्मुख प्रवाह रोका जाता है- अर्थात शक्तिहीन किया जाता है। व अभ्यास से आत्मोन्मुख प्रवाह स्थिर किया जा सकता है।
" विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते।"= और तब विवेक-दर्शन के नियमित अभ्यास द्वारा बुद्धि या चित्त-नदी के प्रवाह को कैवल्य या कल्याण की दिशा में मोड़ने का अभ्यास करते-करते (शाश्वत-नश्वर विवेकशील ज्ञान पर चिंतन-मनन करते-करते) एक दिन चित्तवृत्ति निरुद्ध हो जाती है और विवेकस्रोत ( आत्मा या अपना सच्चिदानन्द स्वरुप 'ब्रह्म-स्वरूप') उद्घाटित हो जाता है।
"विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत " इसे पढने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो व्यासदेव हजारों साल पहले जान चुके थे, कि 'विवेक-प्रयोग शक्ति' जो सभी के ह्रदय में विद्यमान अन्तर्यामी गुरु है; वह एक दिन (१२ जनवरी १८६३ को) स्वयं स्वामी विवेकानन्द की आकृति में आविर्भूत होगी ! और तब उस गुरु विवेकानन्द के मूर्त रूप पर पुनः पुनः मन को धारण करने के अभ्यास से ' विवेक-स्रोत ' उदघाटित हो जायेगा !
पतंजलि योगसूत्र के व्यास-भाष्य में कहा गया है - "इति उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः " इस प्रकार (इति) चित्तवृत्तिनिरोधः (१.१२) अर्थात इस प्रकार चित्त की स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी वृत्ति (आँधी) पर नियंत्रण, या विषयों में दौड़ने वाली प्रॉपेनसिटी का दमन या संशोधन, या विवेक-प्रयोग शक्ति को ही अपनी सहज-वृत्ति [Instinct] बना लेने का सामर्थ्य १. विवेक-दर्शन का अभ्यास सुबह-शाम दो बार और २. 'वासना और धन' के प्रति घोर आसक्ति से वैराग्य या अत्यधिक लालच का त्याग (How much land a man needs ?) लालच का त्याग (या यम-नियम का पालन 24 X 7 X 365) | और विवेक-दर्शन का अभ्यास (अर्थात प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास-शुद्धबुद्धि-पुरुष एकत्व विवेक या शास्वत-नश्वर को पहचानने की क्षमता) ) दोनों के अभ्यास पर निर्भर है।
तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः॥ १/१३॥ शब्दार्थ- तत्र= उन दोनों (विवेक-दर्शन या विवेक-प्रयोग का अभ्यास बुद्धि और पुरुष के बीच अंतर को पहचानना डिस्क्रिमनेशन और रिनन्सिएसन वैराग्य या अनात्म जड़ इन्द्रिय-विषयों से परहेज ) में चित्त को प्रतिष्ठित रखने का प्रयास करना अभ्यास है।
वृत्तिसारूप्यमितरत्र॥१/४॥ साक्षी होने के अलावा अन्य सभी अवस्थाओं में चित्त की वृत्तियों (मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार) के साथ तादात्म्य हो जाता है। ये वृत्तियाँ साधक की अन्तर्चेतना को मनचाहा भटकाती हैं। सुख- दुख के सपने दिखाती हैं। कभी हँसाती हैं, कभी रुलाती हैं। इच्छाओं के कच्चे धागों से बाँधती हैं। कल्पनाओं और कामनाओं की मदिरा पिला कर बेहोश करती हैं।
स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं " एकमात्र पुरुष (आत्मा) ही चेतन है। हमारा शरीर और मन दोनों तो जड़ हैं , इसलिए वे तो मानो आत्मा के हाथों एक यन्त्र जैसे है। उसके द्वारा आत्मा बाहरी विषयों को छान-बिन करने के बाद ग्रहण करती है। (विवेकी मन के द्वारा आत्मा श्रेय-प्रेय विवेक या शाश्वत -नश्वर विवेक प्रयोग करने के बाद ग्रहण करती है। ) मन सतत परिवर्तनशील है, इधर से उधर दौड़ता रहता है, कभी समस्त इन्द्रियों से लगा रहता है, तो कभी केवल एक से, और हमारा मन कभी कभी तो किसी इन्द्रिय के सम्पर्क में नहीं रह जाता न जाने कहाँ खो जाता है ? मान लो, मैं मन लगाकर एक घड़ी की टिक टिक सुन रहा हूँ। ऐसी दशा में आँखें खुली रहने पर भी मैं कुछ देख न पाऊँगा। इससे यह स्पष्ट समझ में आ जाता कि-मन जब श्रवण इन्द्रिय से लगा था, तो दर्शन इन्द्रिय (अर्थात मस्तिष्क में स्थित उसका स्नायु केन्द्र optic- nerve) से उसका संयोग न था। परन्तु पूर्णता प्राप्त मन (100 % निःस्वार्थी मन) को सभी स्नायु-केन्द्रों या इन्द्रियों से एक साथ लगाया जा सकता है। यह उसकी " अन्तर्दृष्टि " की शक्ति है, जिसके बल से मनुष्य अपने अन्तर के सबसे गहरे प्रदेश तक में नज़र डाल सकता है। इस अन्तर्दृष्टि को विकसित करना ही योगी का उद्देश्य है।" (१:४५)....तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते। इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः।} विवेक-प्रयोग अभ्यास और वैराग्य के साथ करें।
[http://vivek-anjan.blogspot.com/2018/04/blog-post.html]/" मनःसंयोग "/ १० /१०.अभ्यास और लालच- त्याग / ह्रदय में सोना दबा है --- https://vivek-jivan.blogspot.com/2014/11/blog-post_19.html]
🙏卐ब्रह्म मनन का विषय नहीं हो सकता --- यही ब्रह्म का मनन है।🙏卐
अहं दासोऽस्मि बोलकर दासभावरहित सारी दुनियाको अहंकारी एवं तुच्छ समझनेवाला ही सबसे बड़ा अहंकारी होगा।
प्रश्नः-भगवान के दासभाव की प्राप्ति मोक्ष है । अतः भेद रहेगा |
उत्तर--तो अभी आप क्या भगवान के स्वामी हैं? दास तो अभी भी हैं। बल्कि पराधीनता दुःखकारण है । सब स्वामी ही बनना चाहते हैं ॥ २६ |समाधि में अखण्ड-बोध होता है। वह अभयपद अनुभवसिद्ध है। तत्वमसि महावाक्य से अखण्डबोध होता है | वह भी अभयपद है । भेद में नानाभय रहता है । अभेद में सर्वभयनिवृत्ति होती है | सत् परमात्मा अभय है । उसीका हम वरण करते हैं ॥ ३८ ॥
यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ॥
(केन उपनिषद 2.3)
जिसके द्वारा इसको 'विचारबद्ध' नहीं किया जाता, उसके पास 'इसका' विचार है; जिसके द्वारा 'इसका' मननपूर्वक विचार किया गया है वह 'इसे' नहीं जानता। जो 'इसका' विवेचन करते हैं उनके लिए ‘यह' अविज्ञात है, जो 'इसके' विवेचन का प्रयत्न नहीं करते, उनके लिए 'यह' विज्ञात है।
ब्रह्म मनन का विषय नहीं हो सकता --- यही ब्रह्म का मनन है। ब्रह्मविषयक-ज्ञान नहीं हो सकता यही ज्ञान ब्रह्म का ज्ञान है । उस विज्ञाता आत्मा को किससे जान सकेंगे ? किसी से नहीं, इत्यादि श्रुतियों में पूर्वोक्त बात ही बतायी है।
दृश्य जगत् मिथ्या है। क्योंकि दृक् और दृश्य इन दोनोंका कोई सम्बन्ध नहीं बनता । दृश्य बाहर है | द्रिक् अंदर है, इनका क्या सम्बन्ध हो ? अतः स्वप्न में जैसे आध्यासिक सम्बन्ध से ही दृश्य दीखता हे अतएव दृश्य मिथ्या भी है वैसे जाग्रत में भी निश्चित होता है। परन्तु अद्वैत ज्ञान से दृश्य दृक् से भिन्न नहीं है। क्योंकि जड़ में स्वतः स्फुरणा नहीं हो सकती | यदि कहें कि दृक् के सम्बन्ध से दृश्य में स्फुरण होता है सो भी ठीक नहीं | सम्बन्ध सम में होता है | अंधकार और प्रकाश का क्या सम्बन्ध ? जैसे रज्जु सर्परूप में भासित होती है वैसे परमात्मा जगत रूपसे भासित होता है। वह अन्तरात्मारूपी परमात्मा (माँ जगदम्बा!!!) हमें मंगल प्रदान करें ॥ यह द्वैत प्रपञ्च द्रुश्य होने से परिच्छिन्न होने से और कार्य होने से मिथ्या है । मोक्ष में अभय होता है । द्वितीय होता तो भय रहता अतः द्वितीय मिथ्या है।
तस्मादात्मान आकाशः संभूत इति च श्रुती ॥ ४ ॥ [२२४]
वेदान्तमत में आकाश उत्पन्न होता है अतः नाशावान है । असत् का जन्म नहीं होता । विकार जो अन्दर है वही बाहर आयेगा जैसे अंकुर बीज को फाड़ता हुआ बाहर आता है वैसे यह भी है; तब तो सांविद रूपी आत्मा का पेट फाडकर निकलने वाला यह विकार आत्मा को ही नष्ट कर डालेगा ॥ ९ ॥ सुषुप्ति में आत्मा का भान तो है । किन्तु अहं ऐसा भान नहीं होता । मोक्ष में भी अहं का भान नहीं होता । सुषुत्ति में अहंकार का लय होता है । मोक्ष में अहं का बाध हो जाता है।
निरस्याहंकारं स्फ़ुर्तु सकलात्मा हृदि मम ॥
सुषुप्ति में अहंकार भासित नहीं होता। किन्तु आत्मा भासित होता है। अतः अहं और आत्मा समानार्थक नहीं है। दूसरी बात- 'अहं' परिच्छिन्न है । किन्तु आत्मज्ञानी को व्यापक आत्मा का अनुभव होता है। तभी तो वामदेव ऋषिने कहा मैं ही मनु सूर्य आदि था। वह अपरिच्छिन्न आत्मा अहंकार को छोड़कर सर्वात्मरूप से मेरे हृदय में स्फुरित हो ॥
अज्ञान सादि (स + आदि) नहीं है । क्योंकि गीता में प्रकृति तथा पुरुष दोनों को अनादि बताया है। यह प्रकृति कोई अलग नहीं है । उसी को श्वेताश्वतर में माया बताया है। यह माया तमोरूपा (माँ काली) है। आभास से वह जीव और ईश्वर को बनाती है । उस अज्ञान में अनन्त संस्कार (वासनायें) रहते हैं । उस अज्ञान से भयम अहंकार प्रकट होता है ॥ `मुक्तात्मा सर्वद्रष्टा है ' ऐसा अमुक्त (बद्ध) पुरुष की दृष्टि के द्रष्ट्रत्व को लेकर श्रुति " सर्वं ह पश्यः पश्यति" कहती है। वास्तविक द्रष्ट्रत्व को लेकर नहीं । वह भी इसलिये कह रही है कि उस समय अज्ञान बिल्कुल नहीं रहता ॥ ११ ॥ हमारे मत में श्रुति में जीवन्मुक्त का वर्णन है । जीवन्मुक्ति का अर्थ है-जीवित अवस्थामें ही अविद्यारूपी बन्धनकी निवृत्ति ॥ हृदयस्थित काम (स्वार्थपरता) जब पुरी तरह से समाप्त हो जाते हैं तो मनुष्य अमृत हो जाता है । यहीं (जीवनकालमें ही) ब्रह्मको प्राप्त होता है । जीवन्मुक्त को ही गीता में स्थितप्रज्ञ, गुणातीत तथा भक्तिमान कहा गया है ।
नोदेति नास्तमायाति सुखे दुःखे मुखप्रभा ।
यथाप्राप्ते स्थितिर्यस्य स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ६ ॥
योगवासिष्ठ (Verse 3.9.6) में-जीवन्मुक्त वही कहलाता है जिसके चेहरे पर रौनक सुख के आने पर बढ़ती नहीं, दुःख के आने पर घटती नहीं । एकरस जो रहता है-ऐसा कहा है ॥ ६ ॥ पुत्र, बन्धु आदि ने धन-गृहादि को ले लिया। द्वेषियों ने पाप ले लिया। सेवक सुहृत् आदि ने पुण्य ले लिया। इस प्रकार सबसे मुक्त होकर महापुरुष जिस प्रकार विमुक्त हो विचरण करते हैं उस महान् आत्माकी हम स्तुति करते हैं ॥ हमलोग स्वप्नरोग की दवा स्वप्न में ही ढूँढने लगते हैं । किन्तु उसकी असली दवा जागरण है । अतः स्वप्न में चिल्लाने पर या मुखमालिन्यादि दर्शन होने पर जागृत व्यक्ति उसे जगाता है । वैसे अनादिमाया निद्रा- प्रयुक्त सुखादि की दवा लौकिक नहीं किन्तु 'उत्तिष्ठत जाग्रत 'इत्यादि महावाक्य का श्रवण-मनन- निदिध्यासन में बताया हुआ जागरण ही है । हं इतने अंशमें विलक्षणता है कि लौकिक जागरण में स्वप्न-बिल्कुल नहीं रहता । परमार्थ जागरण में लेशाविद्यारूपी किंचिन्निद्रा भी रहती है, जागरण भी रहता है । जागृत पुरुष अपने स्वप्न-क्लेशों को देखकर या यादकर दूसरों को उस क्लेश से ऊपर उठाने के लिये प्रयल करता है ॥ जिसको ब्रह्म-ज्ञान होता है उसी की अविद्या निवृत्त होती है । सबकी नहीं । समाधिस्थ को जिस प्रकार जगत् बाधित होता है वैसे ब्रह्मज्ञानी को भी है। धर्ममेघसमाधेर्हि ज्ञानानन्त्यमुदीरितम् । 'तदा ज्ञानस्यानन्त्यात्" धर्ममेघ समाधि से ज्ञान अनन्त हो जाता है । समाधिकाल में वह नष्ट हो गया ऐसा नहीं माना जा सकता । किन्तु समाधि में जगत् दीखता नहीं है। अतः जगत् बाधित हो गया यह मानना ही होगा ॥ धर्ममेघ समाधि योग की एक अवस्था है। यह साधना की अन्तिम सीमा है। इसका नाम धर्ममेघ इसलिए पड़ा क्योंकि यह आत्मदर्शन रूप परमधर्म (कैवल्य) की वर्षा कर साधक के चित्त को सींचता है। धर्ममेघ समाधि की उपलब्धि व्यक्ति को समस्त क्लेशों से मुक्त कर देती है। इससे सम्यक् निवृत्ति या सम्यक निरोध सिद्ध होता है। इसी को जीवनमुक्ति कहा जाता है।
लेशाविद्या को लेकर वामदेवादि सर्वज्ञ हुए, सर्वस्वरूप भी हुए हैं ॥ आत्मबोध होने के बाद भी प्रारब्ध के कारण लेशाविद्या रहती है। वह सात्त्विक होने के कारण अन्धकारोपम नहीं है । उसी से ज्ञानी जगत को देखता है। ईश्वर की अविद्यास्थानापन्न माया है। वह भी सात्त्विक है । जब तक सृष्टिस्थिति संहार का अधिकार है तब तक माया रहती है । विदेहमुक्ति से पूर्व लेशाविद्यानुवृत्ति होती है उससे गुरु शिष्यादि को देखता है। उनके व्यावहारिक शोक- मोहादि को भी समझता है । व्यावहारिक ही निवृत्ति स्वयं के मोहादि की हुई और शिष्यादि की भी अपेक्षित है। अतः तदर्थ शिष्यों को ब्रह्मोपदेश करना भी उपपन्न है ॥ १२ ॥
वास्तविक बात यह है कि उत्कृष्ट आत्मसाक्षात्कार के बिना अविद्या का उच्छेद संभव नहीं है । प्रथम श्रवणादि से सामान्यज्ञान होगा । दीर्घकाल तक निरन्तर श्रद्धा से श्रवणादि की आवृत्ति करते रहनेसे आखिरमें वह उकृष्ट ज्ञान उत्पन्न होता है ॥ २० ॥ जन्म, .मरण, ये सब प्रकृति के हैं ये आत्मा के धर्म नहीं हैं। जन्म, मरण शरीर में होता है । सुख-दुःख चित्त में होता है. प्रवृत्ति इन्द्रियो में होती है और ये सब सर्व शरीरों में अलग-अलग हैं ॥ ३ ॥ यदि यह कहो कि योगी परदुःख जानने लग जाये, तो उनकी बड़ी दुर्दशा होगी । क्योंकि जगत में तो सभी दुःखी हैं । नहीं विवेकी अपने दुःख को भी आत्मा में नहीं मानते तो परदुःख को क्यों अपनेमें डालने लगे ?॥ ६ ॥ जीव और ईश्वर भेद भी औपाधिक है । जीव की उपाधि अविद्या है, ईश्वर की उपाधि माया है । उपाधेय चैतन्य एक-रस एवं अभिन्न है॥ १ ॥
श्रुति कहती है यह एकादश द्वारवाला शरीर अजन्मा ज्ञानस्वरूप पुरुष का एक पुरमात्र है । इससे पुरस्वामी पृथक है । इस बात को निदिध्यासन से साक्षात्कार करने वाला शोकात्मक संसार से रहित होता है । अर्थात् जीवन्मुक्त होता है । वही जीवन्मुक्त प्रारब्ध समाप्त होनेपर विदेहमुक्त होता है ॥
ज्ञातृत्व कर्तृत्वादि अहंकारमें ही है । उन्हें लोग अज्ञान से आत्मा में आरोपित करते हैं । उससे बद्ध होकर वे इस संसारमें ही भटकते रहते हैं । हम तो जन्ममरणोन्मूलक शुद्धात्मा का ही मनन करते हैं ॥ शास्त्र की अपेक्षा यदि प्रत्यक्ष की प्रबलता आप मान रहे हैं तो निश्चितरूप से आप वैकुण्ठ गोलोक स्वर्ग आदिका दुढ़ता से बाध कर रहे हैं ॥ मरा हुआ आदमी कहीं जाता हुआ नजर नहीं आता । मृत देवदत्त का शरीर जला दिया जाता है । उसके लिये गन्तव्य फिर क्या है? अतः मृतगन्तव्य वैकुण्ठादि आपके मत में प्रत्यक्षादिबाधित है ॥ देह से अतिरिक्त है आत्मा, वह स्वर्गादि जायेगा, ऐसा कहोगे तो उत्तर है वह भी प्रत्यक्षबाधित है ।
हनुमानजी में जाम्बवान के 'वचन से पहले असमर्थता एवं अनीश्वरता की प्रतीति क्यों हुई? वचनमात्र से शक्ति 'कैसे आयी? नाम, रूप, आस्ति, भाति और. प्रिय । उनमें नामरूप भाग का त्यागकर अस्तिभातिप्रिय की ब्रह्मपदलक्ष्यार्थक साथ एकता है॥९.॥
ज्ञान होने पर अन्त में विश्वमाया की निवृत्ति होती है । वही माया प्रकृति है । भायां तु प्रकृति विद्यात् । उस आत्मा से आकाश उत्पन्न हुआ इत्यादि श्रुति है ॥
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
तुझसे हमने दिल को लगाया , जो कुछ है सो तू ही है,
एक तुमको अपना पाया, जो कुछ है सो तू ही है।
Tujhse humne Dil ko lagaya, jo kuch hai so tu hi hai,
Ek tujhko apna paya, jo kuch hai so tu hi hai.
Sabke makaan Dil ka makeen tu,
Kaun-sa Dil hai jismein nahi tu.
Har ek Dil mein tu hai samaya,
Jo kuch hai so tu hi hai.
Kya Malayak kya Insan,
Kya Hindu, kya Musalmaan,
Jaisa chaha sabko banaya
Jo kuch hai so tu hi hai.
Kaaba mein kya, Deval mein kya
Teri parestish hogi sab jan.
aage tere sar Sabon ne jhukaya,
Jo kuch hai so tu hi hai.
Arsh se lekar Frsh zameen tak,
Aur zameen se Arsh bari tak.
Jahan main dekha, tu hi nazar aaya,
Jo kuch hai so tu hi hai.
Socha - Samjha, Dekha - Bhala,
Tujh jaisa na koi dhundh nikala .
Ab yeh samaj mein Jafar (Sadhu) ke aaya,
Jo kuch hai so tu hi hai.
Ek tujhko apna paya, jo kuch hai so tu hi hai........
তুঝসে হামনে দিল কো লাগায়া, জো কুছ হ্যায় সো তু হি হ্যায়,
এক তুমকো আপনা পায়া, জো কুছ হ্যায় সো তু হি হ্যায়।
সবকে মাকান দিল কা মাকেন তু,
কৌন-সা দিল হ্যায় জিসমেন না তু।
হার এক দিল মে তু হ্যায় সাময়া,
জো কুছ হ্যায় সো তু হি হ্যায়।
কেয়া মালায়া কেয়া ইশাইয়া,
কেয়া হিন্দু, কেয়া মুসলমান,
জাইসা চাহা সবকো বানায়া
জো কুছ হ্যায় সো তু হি হ্যায়।
কাবা মে কেয়া দেবল মে কেয়া
তেরি পরস্তিস হোগি সব জাহান।
সবনে তুঝকো সার হ্যায় ঘুকায়,
জো কুছ হ্যায় সো তু হি হ্যায়।
আরশ সে লেখক ফ্রেশ জমিন তাক,
অর জমিন সে আরশ বাড়ি তাক।
জাহান মে দেখি তু হি নজর আয়া,
জো কুছ হ্যায় সো তু হি হ্যায়।
সোচা-সমঝা, দেখা-ভালা,
তুঝ জাইসা কোই নজর না আয়া।
আব ইয়ে সমাজ মে 'সাধু' কে আয়া,
জো কুছ হ্যায় সো তু হি হ্যায়।
हर देश में तू, हर भेष में तू,
तेरे नाम अनेक तू एक ही है,
तेरे नाम अनेक तू एक ही है ।
तेरी रंगभूमि, यह विश्व भरा,
सब खेल में, मेल में तू ही तो है ॥
सागर से उठा बादल बनके,
बादल से फूटा जल हो करके ।
फिर नहर बना नदियाँ गहरी,
तेरे भिन्न प्रकार, तू एक ही है ॥
हर देश में तू, हर भेष में तू,
तेरे नाम अनेक तू एक ही है,
तेरे नाम अनेक तू एक ही है ।
चींटी से भी अणु-परमाणु बना,
सब जीव-जगत् का रूप लिया ।
कहीं पर्वत-वृक्ष विशाल बना,
सौंदर्य तेरे , तू एक ही है ॥
हर देश में तू, हर भेष में तू,
तेरे नाम अनेक तू एक ही है,
तेरे नाम अनेक तू एक ही है ।
यह दिव्य दिखाया है जिसने,
वह है गुरुदेव की पूर्ण दया ।
तुकड़या कहे और न कोई दिखा,
बस मैं और तू, सब एकही है ॥
हर देश में तू, हर भेष में तू,
तेरे नाम अनेक तू एक ही है,
तेरे नाम अनेक तू एक ही है ।
तेरी रंगभूमि, यह विश्व भरा,
सब खेल में, मेल में तू ही तो है ॥
हम को मन की शक्ति देना,
मन विजय करें ।
दूसरों की जय से पहले,
खुद को जय करें ।
भेदभाव अपने दिल से,
साफ कर सकें ।
दोस्तों से भूल हो तो,
माफ कर सकें ।
झूठ से बचे रहें,
सच का दम भरें ।
दूसरों की जय से पहले,
खुद को जय करें ।
हम को मन की शक्ति देना,
मन विजय करें ।
दूसरों की जय से पहले,
खुद को जय करें ।
मुश्किलें पड़े तो हम पे,
इतना कर्म कर ।
साथ दे तो धर्म का,
चलें तो धर्म पर ।
खुद पे हौसला रहे,
बदी से ना डरें ।
दूसरों की जय से पहले,
खुद को जय करें ।
हम को मन की शक्ति देना,
मन विजय करें ।
दूसरों की जय से पहले,
खुद को जय करें ।
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