*परिच्छेद- ९४*
(१)
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94]
🔆🙏 मातृभाव से साधना🔆🙏
[श्री रामकृष्ण नवमी पूजा के दिन दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ ]
आज नवमी पूजा है, 29 सितम्बर, 1884 । अभी सबेरा हुआ ही है । काली की मंगलारती हो गयी है । नौबतखाने से रोशनचौकी में प्रभाती मधुर रागिनी बज रही है । ब्राह्मण देव हाथ में फूलदानी लेकर पूजार्थ फूल तोड़ने आ रहे हैं । उधर माली भी देवमन्दिरों में फूल चढ़ाने के उद्देश्य से पुष्पचयन करने निकले हैं । माता की पूजा होगी ।
[আজ নবমীপূজা, সোমবার, ২৯শে সেপ্টেম্বর, ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ। এইমাত্র রাত্রি প্রভাত হইল। মা-কালীর মঙ্গল আরতি হইয়া গেল। নহবত হইতে রোশনচৌকি প্রভাতী রাগরাগিণী আলাপ করিতেছে। চাঙ্গারি হস্তে মালীরা ও সাজি হস্তে ব্রাহ্মণেরা পুষ্পচয়ন করিতে আসিতেছেন। মার পূজা হইবে।
श्रीरामकृष्ण उषा की ललाई छा जाने से पहले ही उठे हैं । भवनाथ, निरंजन और मास्टर गत रात्रि से ही यहाँ पर हैं । वे श्रीरामकृष्ण के कमरेवाले बरामदे में रात भर सोये थे। आँख खोलकर देखा, श्रीरामकृष्ण मतवाले होकर नृत्य कर रहे हैं और 'जय दुर्गा, जय दुर्गा' कह रहे हैं । जैसे एक बालक, जिसके कमर में धोती भी नहीं रहती, माता का नाम लेते हुए कमरे भर में नाच रहे हैं ।
कुछ देर बाद फिर कह रहे है - 'सहजानन्द - सहजानन्द ।' इसके अनन्तर बार बार गोविन्द का नाम लेने लगे । कह रहे हैं - 'प्राण हे गोविन्द ! मेरे जीवन हो ।'
[শ্রীরামকৃষ্ণ অতি প্রত্যূষে অন্ধকার থাকিতে থাকিতে উঠিয়াছেন। ভবনাথ, বাবুরাম, নিরঞ্জন ও মাস্টার গত রাত্রি হইতে রহিয়াছেন। তাঁহারা ঠাকুরের ঘরের বারান্দায় শুইয়াছিলেন। চক্ষু উন্মীলন করিয়া দেখেন ঠাকুর মাতোয়ারা হইয়া নৃত্য করিতেছেন। বলিতেছেন — জয় জয় দুর্গে! জয় জয় দুর্গে! —ঠিক একটি বালক! কোমড়ে কাপড় নাই। মার নাম করিতে করিতে ঘরের মধ্যে নাচিয়া বেড়াইতেছেন।কিয়ৎক্ষণ পরে আবার বলিতেছেন — সহজানন্দ, সহজানন্দ! শেষ গোবিন্দের নাম বারবার বলিতেছেন —প্রাণ হে গোবিন্দ মম জীবন!
Bhavanath, Baburam, Niranjan, and M. had spent the night at Dakshineswar, sleeping on the porch of the Master's room. As soon as they awoke they saw Sri Ramakrishna dancing in an ecstatic mood. He was chanting: "Victory to Mother Durga! Hallowed be the name of Durga!" He was naked and looked like a child as he chanted the name of the Blissful Mother. After a few moments he said: "Oh, the bliss of divine ecstasy! Oh, the bliss of divine drunkenness!" Then he repeatedly chanted the name of Govinda: "O Govinda! My life! My soul!"
भक्तगण उठकर बैठ गये । एकदृष्टि से श्रीरामकृष्ण का भाव देख रहे हैं । हाजरा कालीमन्दिर में हैं । श्रीरामकृष्ण के कमरे के दक्षिण पूर्ववाले बरामदे में उनका आसन है । लाटू भी हैं और श्रीरामकृष्ण की सेवा किया करते हैं । राखाल इस समय वृन्दावन में हैं । नरेन्द्र कभी कभी दर्शन करने के लिए आते हैं । आज आयेंगे ।
[ভক্তেরা উঠিয়া বসিয়াছেন! একদৃষ্টে ঠাকুরের ভাব দেখিতেছেন। হাজরাও কালীবাড়িতে আছেন। ঠাকুরের ঘরের দক্ষিণ-পূর্ব বারান্দায় তাঁহার আসন। লাটুও আছেনও তাঁহার সেবা করেন! রাখাল এ সময় বৃন্দাবনে। নরেন্দ্র মঝে মাঝে আসিয়া দর্শন করেন। আজ নরেন্দ্র আসিবেন।
The devotees sat on their beds and with unwinking eyes watched Sri Ramakrishna's spiritual mood. Hazra was living at the temple garden. Latu was also living there to render the Master personal service. Rakhal was still at Vrindavan. Narendra visited Sri Ramakrishna now and then. He was expected that day.
श्रीरामकृष्ण के कमरे के उत्तर-पूर्ववाले छोटे बरामदे में भक्तगण सोये हुए हैं । जाड़े का समय है, इसलिए टट्टी बँधी है । सब के हाथमुँह धो चुकने के बाद, इस उत्तरवाले बरामदे में श्रीरामकृष्ण एक चटाई पर आकर बैठे । दूसरे भक्त भी यहाँ कभी कभी आकर बैठते हैं ।
[ঠাকুরের ঘরের উত্তরদিকে ছোট বারান্দাটিতে ভক্তেরা শুইয়াছিলেন। শীতকাল, তাই ঝাঁপ দেওয়া ছিল। সকলের মুখ ধোয়ার পরে এই উত্তর বারান্দাটিতে ঠাকুর আসিয়া একটি মাদুরে বসিলেন। ভবনাথ ও মাস্টার কাছে বসিয়া আছেন। অন্যান্য ভক্তেরাও মাঝে মাঝে আসিয়া বসিতেছেন।
The devotees washed their faces. The Master took his seat on a mat on the north verandah. Bhavanath and M. sat beside him. Other devotees were coming in and out of the room.
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94 ]
🔆🙏जीव-कोटि के साधक संशयात्मा (Sceptic) ईश्वर-कोटि का विश्वास स्वयंसिद्ध🔆🙏
श्रीरामकृष्ण – (भवनाथ से) - बात यह है कि जो जीवकोटि के हैं उन्हें सहज ही विश्वास नहीं होता। ईश्वर-कोटि के जो हैं उनका विश्वास स्वतः सिद्ध है । प्रह्लाद 'क' लिखते हुए ही फूट-फूटकर रोने लगे थे। उन्हें कृष्ण की याद आ गयी थी । जीव का स्वभाव है कि उसकी बुद्धि संशयात्मक होती है । वे कहते हैं 'हाँ यह सच तो है, परन्तु –...
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভবনাথের প্রতি) — কি জানিস, যারা জীবকোটি, তাদের বিশ্বাস সহজে হয় না। ঈশ্বরকোটির বিশ্বাস স্বতঃসিদ্ধ। প্রহ্লাদ ‘ক’ লিখতে একেবারে কান্না — কৃষ্ণকে মনে পড়েছে! জীবের স্বভাব — সংশয়াত্মক বুদ্ধি! তারা বলে, হাঁ, বটে, কিন্তু —।
"The truth is that ordinary men cannot easily have faith. But an Isvarakoti's faith is spontaneous. Prahlada burst into tears while writing the letter 'ka'. (The first consonant of the Sanskrit alphabet.) It reminded him of Krishna. It is the nature of jivas to doubt. They say yes, no doubt, but —
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94]
🔆🙏शक्ति और शक्तिमान दोनों अभेद🔆🙏
'हाजरा किसी तरह भी विश्वास नहीं करना चाहता कि ब्रह्म और शक्ति, शक्ति और शक्तिमान दोनों अभेद हैं । जब वे निष्क्रिय हैं, तब उन्हें हम ब्रह्म कहते हैं और जब सृष्टि, स्थिति और प्रलय करते हैं, तब उन्हीं को शक्ति कहते हैं । हैं वे एक ही वस्तु – अभेद । अग्नि कहने के साथ ही दाहिका शक्ति का बोध हो जाता है और दाहिका शक्ति के कहने पर आग की याद आती है । एक को छोड़कर दूसरे को सोचने की गुंजाइश नहीं है ।
[“হাজরা কোনরকমে বিশ্বাস করবে না যে, ব্রহ্ম ও শক্তি, শক্তি আর শক্তিমান অভেদ। যখন নিষ্ক্রিয় তাঁকে ব্রহ্ম বলে কই; যখন সৃষ্টি, স্থিতি, প্রলয় করেন, তখন শক্তি বলি। কিন্তু একই বস্তু; অভেদ। অগ্নি বললে, দাহিকাশক্তি অমনি বুঝায়; দাহিকাশক্তি বললে, অগ্নিকে মনে পড়ে। একটাকে ছেড়ে আর একটাকে চিন্তা করবার জো নাই।
"Hazra can never be persuaded to believe that Brahman and Sakti, that Sakti and the Being endowed with Sakti, are one and the same. When the Reality appears as Creator, Preserver, and Destroyer, we call It Sakti; when It is inactive, we call It Brahman. But really It is one and the same thing— indivisible. Fire naturally brings to mind its power to burn; and the idea of burning naturally brings to mind the idea of fire. It is impossible to think of the one without the other.
“तब मैने प्रार्थना की, 'माँ, हाजरा यहाँ का मत उलट देना चाहता है । या तो तू समझा दे या उसे यहाँ से हटा दो ।' उसके दूसरे दिन उसने आकर कहा, हाँ मानता हूँ । तब उसने कहा, विभु (सर्वव्याप्त शाश्वत चैतन्य) सब जगह हैं ।"
[“তখন প্রার্থনা করলুম, মা, হাজরা এখানকার মত উলটে দেবার চেষ্টা কচ্চে। হয় ওকে বুঝিয়ে দে, নয় এখান থেকে সরিয়ে দে। তার পরদিন, সে আবার এসে বললে, হাঁ মানি। তখন বলে যে, বিভু সব জায়গায় আছেন।”
"So I prayed to the Divine Mother: 'O Mother! Hazra is trying to upset the views of this place.("This place" refers to the Master himself.) Either give him right understanding or take him from here.' The next day he came to me and said, Yes, I agree with you.' He said that God exists everywhere as All-pervading Consciousness."
भवनाथ - (हँसकर) - हाजरा की इसी बात पर आपको इतना दुःख हुआ था ?
ভবনাথ (সহাস্যে) — হাজরার এই কথাতে আপনার এত কষ্ট বোধ হয়েছিল?
BHAVANATH (smiling): "Did what Hazra said really make you suffer so much?"
श्रीरामकृष्ण - मेरी अवस्था बदल गयी है । अब आदमियों के साथ वादविवाद नहीं कर सकता । इस समय मेरी ऐसी अवस्था नहीं है कि हाजरा के साथ तर्क और झगड़ा कर सकूँ । यदु मल्लिक के बगीचे में हृदय ने कहा, 'मामा, क्या मुझे रखने की तुम्हारी इच्छा नहीं है ?' मैंने कहा, 'नहीं, अब मेरी वैसी अवस्था नहीं है कि तेरे साथ गला फाड़ता रहूँ ।'
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমার অবস্থা বদলে গেছে। এখন লোকের সঙ্গে হাঁকডাক করতে পারি না। হাজরার সঙ্গে তর্ক-ঝগড়া করব, এরকম অবস্থা আমার এখন নয়। যদু মল্লিকের বাগানে হৃদেবললে, মামা, আমাকে রাখবার কি তোমার ইচ্ছা নাই? আমি বললুম, না, সে অবস্থা এখন আমার নাই, এখন তোর সঙ্গে হাঁকডাক করবার জো নাই।
MASTER: "You see, I am now in a different mood. I can't shout and carry on heated discussions with people. I am not in a mood now to argue and quarrel with Hazra. Hriday said to me at Jadu Mallick's garden house, 'Uncle, don't you want to keep me with you?' ^ 'No,' I said, 'I am no longer in a mood to get into heated arguments with you.'
[^ श्री ठाकुरदेव के भतीजे हृदय ने कई वर्षों तक उनकी देखभाल की थी। किन्तु दक्षिणेश्वर में अपने प्रवास के उत्तरार्ध में उन्होंने श्रीरामकृष्ण के साथ कठोर व्यवहार किया था और अक्सर उनसे अशिष्टता के साथ बातचीत करने लगे थे। अंतत: उन्हें मंदिर अधिकारियों की नाराजगी का सामना करना पड़ा। और उन्हें बाहर निकाल दिया गया , तथा उन्हें फिर से मंदिर के बगीचे में पैर रखने की अनुमति नहीं दी गई।
^Hriday, the Master's nephew, had taken care of him for many years. During the latter part of his stay at Dakshineswar he had treated the Master harshly and often spoken rudely to him. Finally he had incurred the displeasure of the temple authorities. He was driven out and was not allowed to set foot in the temple garden again.]
"ज्ञान और अज्ञान किसे कहते हैं ? जब तक यह बोध है कि ईश्वर दूर है तब तक अज्ञान है और जब यह बोध है कि ईश्वर यहीं तथा सर्वत्र है, तभी ज्ञान है ।
[“জ্ঞান আর অজ্ঞান কাকে বলে? — যতক্ষণ ঈশ্বর দূরে এই বোধ ততক্ষণ অজ্ঞান; যতক্ষণ হেথা হেথা বোধ, ততক্ষণ জ্ঞান।
["What is knowledge and what is ignorance? A man is ignorant so long as he feels that God is far away. He has knowledge when he knows that God is here and everywhere.
"जब यथार्थ ज्ञान होता है, तब सब चीजें चेतन जान पड़ती हैं । मैं शिबू (ठाकुरदेव का भतीजा -शिवराम) के साथ खूब मिलता-जुलता था । तब शिबू निरा बच्चा था । चार-पाँच साल का रहा होगा । उस समय में देश में था, बादल घिरे हुए थे और मेघों की गर्जना हो रही थी । शिबू मुझसे कहता था, चाचा, देखो, चकमक पत्थर घिस रहा है । (सब हँसते हैं ।)
एक दिन देखा, वह अकेला पतिंगे पकड़ने जा रहा था । इधर-उधर के पौधे हिल रहे थे । तब वह पत्तियों से कह रहा था, चुप-चुप, मैं पतिंगे पकडूंगा । बालक सब चेतन देख रहा है । सरल विश्वास, बालक की तरह का विश्वास जब तक नहीं होता, तब तक ईश्वर नहीं मिलते ।
[“যখন ঠিক জ্ঞান হয়, তখন সব জিনিস চৈতন্যময় বোধ হয়। আমি শিবুর সঙ্গে আলাপ করতুম। শিবু তখন খুব ছেলেমানুষ — চার-পাঁচ বছরের হবে। ও-দেশে তখন আছি। মেঘ ডাকছে, বিদ্যুৎ হচ্ছে। শিবু বলছে, খুড়ো ওই চকমকি ঝাড়ছে! (সকলের হাস্য) একদিন দেখি, সে একলা ফড়িং ধরতে যাচ্ছে। কাছে গাছে পাতা নড়ছিল। তখন পাতাকে বলছে, চুপ, চুপ, আমি ফড়িং ধরব। বালক সব চৈতন্যময় দেখছে! সরল বিশ্বাস, বালকের বিশ্বাস না হলে ভগবানকে পাওয়া যায় না।
["When a man has true knowledge he feels that everything is filled with Consciousness. At Kamarpukur I used to talk to Shibu, (Shivaram, a nephew of the Master.) who was then a lad four or five years old. When the clouds rumbled and lightning flashed, Shibu would say to me: There, uncle! They're striking matches again!' (All laugh.) One day I noticed him chasing grasshoppers by himself. The leaves rustled in the near-by trees. 'Hush! Hush!' he said to the leaves. 'I want to catch the grasshoppers.' He was a child and saw everything throbbing with consciousness. One cannot realize God without the faith that knows no guile, the simple faith of a child.
उफ ! मेरी कैसी अवस्था थी । एक दिन घास के वन में किसी कीड़े ने काट लिया । मुझे इससे बड़ा भय हुआ । सोचा कहीं साँप ने न काटा हो । तब क्या करता ? मैंने सुना था, अगर वह फिर काटे तो विष उठा लेता है । बस वहीं बैठा हुआ मैं बिल खोजने लगा कि वह फिर काटे । इसी तरह बैठा था कि एक ने पूछा, यह आप क्या कर रहे हैं ? मैंने कहा, बिल खोज रहा हूँ । उसने सब कुछ सुनकर कहा, ठीक वहीं पर उसे दुबारा काटना चाहिए, तब कहीं विष उत्तरता है । तब मैं उठकर चला आया । शायद गोजर या किसी कीड़े ने काटा था ।
[“যখন ঠিক জ্ঞান হয়, তখন সব জিনিস চৈতন্যময় বোধ হয়। আমি শিবুর সঙ্গে আলাপ করতুম। শিবু তখন খুব ছেলেমানুষ — চার-পাঁচ বছরের হবে। ও-দেশে তখন আছি। মেঘ ডাকছে, বিদ্যুৎ হচ্ছে। শিবু বলছে, খুড়ো ওই চকমকি ঝাড়ছে! (সকলের হাস্য) একদিন দেখি, সে একলা ফড়িং ধরতে যাচ্ছে। কাছে গাছে পাতা নড়ছিল। তখন পাতাকে বলছে, চুপ, চুপ, আমি ফড়িং ধরব। বালক সব চৈতন্যময় দেখছে! সরল বিশ্বাস, বালকের বিশ্বাস না হলে ভগবানকে পাওয়া যায় না। উঃ আমার কি অবস্থা ছিল! একদিন ঘাস বনেতে কি কামড়েছে। তা ভয় হল, যদি সাপে কামড়ে থাকে! তখন কি করি! শুনেছিলাম, আবার যদি কামড়ায়, তাহলে বিষ তুলে লয়। অমনি সেইখানে বসে গর্ত খুঁজতে লাগলুম, যাতে আবার কামড়ায়। ওইরকম কচ্চি, একজন বললে, কি কচ্ছেন? সব শুনে সে বললে, ঠিক ওইখানে কামড়ানো চাই যেখানটিতে আগে কামড়েছে। তখন উঠে আসি। বোধ হয় বিছে-টিছে কামড়েছিল।
"Ah, what a state of mind I passed through! One day something bit me while I was sitting in the grass. I was afraid it might have been a snake, and I didn't know what to do. I had heard that if a snake bites you again immediately after its first bite, it takes back its own venom. At once I set out to discover the hole so that I might let the snake bite me again. While I was searching, a man said to me, 'What are you doing?' After listening to my story, he said, 'But the snake must bite in the very same place it has bitten before.' Thereupon I went away. Perhaps I had been bitten by a scorpion or some other insect.
"एक दूसरे दिन मैंने रामलाल से सुना, शरद् काल की ओस देह में लगाना अच्छा होता है । क्या एक श्लोक है, रामलाल ने कहा था । कलकत्ते से जाते समय गाड़ी की खिड़की से मैं गला बढ़ाये हुए गया, ताकि खूब ओस लगे । बस दूसरे ही दिन बीमार पड़ गया ।" (सब हँसते हैं ।)
.["I had heard from Ramlal that the autumn chill was good for one's health. Ramlal had quoted a verse to support it. One day, as I was returning from Calcutta in a carriage, I stuck my head out of the window so that I might get all the chill. Then I fell ill." (All laugh.)
अब श्रीरामकृष्ण कमरे के भीतर जाकर बैठे । उनके पैर कुछ फुले हुए थे । उन्होंने भक्तों को हाथ लगाकर देखने के लिए कहा कि दोनों उँगली से दबाने पर गड्डा पड़ता है या नहीं । थोड़ा-थोड़ा गड्डा पड़ने लगा । परन्तु लोगों ने कहा, यह कुछ नहीं है ।
[এইবার ঠাকুর ঘরের ভিতর আসিয়া বসিলেন। তাঁর পা দুটি একটু ফুলো ফুলো হয়েছিল। ভক্তদের হাত দিয়ে দেখতে বলেন, আঙুল দিলে ডোব হয় কি না। একটু একটু ডোব হতে লাগল; কিন্তু সকলেই বলতে লাগলেন, ও কিছুই নয়।
Sri Ramakrishna entered his room and sat down. His legs were a little swollen. He asked the devotees to feel his legs and see whether or not the pressure of their fingers made dimples. Dimples did appear with the pressure, but the devotees said that it was nothing.
श्रीरामकृष्ण - (भवनाथ से) - सींती के महेन्द्र को बुला देना । उसके कहने से मेरा मन अच्छा हो जायगा।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভবনাথকে) — তুই সিঁথির মহিন্দরকে ডেকে দিস। সে বললে তবে আমার মনটা ভাল হবে।
MASTER (to Bhavanath): "Please ask Mahendra of Sinthi to see me. I shall feel better if he reassures me."
भवनाथ - (सहास्य)- आप दवा पर बड़ा विश्वास करते हैं, हम लोग उतना नहीं करते ।
[ভবনাথ (সহাস্যে) — আপনার ঔষধে খুব বিশ্বাস। আমাদের অত নাই।
BHAVANATH (with a smile): "You have great faith in medicine. But we haven't so much."
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94 ]
🔆डॉक्टर गंगाप्रसाद के रूप में साक्षात् धन्वन्तरि (physician of heaven )बने हैं 🔆🙏
श्रीरामकृष्ण - दवाएँ भी उन्हीं की है । एक रूप से वे ही चिकित्सक हैं । गंगाप्रसाद ने बतलाया, आप रात को पानी न पिया कीजिये । मैं उसकी बात को वेदवाक्य की तरह पकड़े हुए हूँ । मैं मानता हूँ, वह साक्षात् धन्वन्तरि है ।
[ ঔষধ তাঁরই। তিনিই একরূপে চিকিৎসক। গঙ্গাপ্রসাদ বললেন, আপনি রাত্রে জল খাবেন না। আমি ওই কথা বেদবাক্য ধরে রেখেছি। আমি জানি, সাক্ষাৎ ধন্বন্তরি।
[ "It is God who, as the doctor, prescribes the medicine. It is He who, in one form, has become the physician. Dr. Gangaprasad asked me not to drink water at night. I regarded his statement as the words of the Vedas. I look upon him as the physician of heaven."
(२)
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94 ]
🔆🙏नरेन्द्र के घुटनों पर पैर और समाधिस्थ श्रीरामकृष्ण🔆🙏
हाजरा आकर कमरे में बैठे । दो-एक बातें इधर-उधर की करके श्रीरामकृष्ण ने कहा - “देखो, कल राम के यहाँ उतने आदमी बैठे हुए थे, विजय, केदार, आदि फिर भी नरेन्द्र को देखकर ही मुझे इतना उद्दीपन क्यों हुआ? केदार, मैंने देखा कि , कारणानन्द ^ ** के घर का है ।"
[ जबकि मैंने पाया कि केदार तो दैवीय मद्यपान (ईश्वरीय नशे) के दायरे तक सीमित है ।"I found that Kedar belonged to the realm of Divine Inebriation."
[হাজরা আসিয়া বসিলেন। এ-কথা ও-কথার পর ঠাকুর হাজরাকে বললেন, ‘দেখ, কাল রামের বাড়ি অতগুলি লোক বসেছিল, বিজয়, কেদার এরা, তবু নরেন্দ্রকে দেখে এত হল কেন? কেদার, আমি দেখেছি, কারণানন্দের ঘর।”
"You see, many people were at Ram's house yesterday. Vijay, Kedar, and others were there. But why did I feel so deeply stirred at the sight of Narendra? I found that Kedar belonged to the realm of Divine Inebriation."
श्रीरामकृष्ण महाष्टमी के दिन कलकत्ता गये हुए थे - देवी प्रतिमा के दर्शनों के लिए । अधर के यहाँ प्रतिमा-दर्शन करने के लिए जाने से पहले राम के यहाँ गये थे । वहाँ बहुत से भक्त आये थे । नरेन्द्र को देखकर श्रीरामकृष्ण समाधिस्थ हो गये थे । नरेन्द्र के घुटने पर उन्होंने अपना पैर रख दिया था और खड़े हुए समाधि-मग्न हो गये थे ।
[ঠাকুর পূর্বদিনে, মহাষ্টমীর দিনে কলিকাতায় প্রতিমাদর্শনে গিয়াছিলেন। অধরের বাড়ি প্রতিমাদর্শন করিতে যাওয়ার পূর্বে রামের বাড়ি হইয়া যান। সেখানে অনেকগুলি ভক্তের সমাবেশ হইয়াছিল। নরেন্দ্রকে দেখিয়া ঠাকুর সমাধিস্থ হইয়াছিলেন। নরেন্দ্রের হাঁটুর উপর পা বাড়িয়া দিয়াছিলেন, ও দাঁড়াইয়া দাঁড়াইয়া সমাধি হইয়াছিল।
देखते ही देखते नरेन्द्र भी आ गये । उन्हें देखकर श्रीरामकृष्ण के आनन्द की सीमा नहीं रही । श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करने के पश्चात् भवनाथ आदि के साथ उसी कमरे में नरेन्द्र बातचीत करने लगे। पास मास्टर हैं । कमरे में लम्बी चटाई बिछी हुई है । नरेन्द्र बातचीत करते हुए पेट के बल चटाई पर लेट गये । उन्हें देखते ही देखते श्रीरामकृष्ण समाधिस्थ हो गये । फिर वे प्रेमोन्माद पूर्ण मनोदशा (in an ecstatic mood) में नरेन्द्र की पीठ पर जा बैठे, वहीं समाधि में डूब गये ।
[দেখিতে দেখিতে নরেন্দ্র আসিয়া উপস্থিত — ঠাকুরের আনন্দের আর সীমা রহিল না। নরেন্দ্র ঠাকুরকে প্রণামের পর ভবনাথাদির সঙ্গে ওই ঘরে একটু গল্প করিতেছেন। কাছে মাস্টার। ঘরের মধ্যে লম্বা মাদুর পাতা। নরেন্দ্র কথা কহিতে কহিতে উপুড় হইয়া মাদুরের উপর শুইয়া আছেন। হঠাৎ তাঁহাকে দেখিতে দেখিতে ঠাকুরের সমাধি হইল — তাঁহার পিঠের উপর গিয়া বসিলেন; সমাধিস্থ!
Presently Narendra arrived, and Sri Ramakrishna was exceedingly happy. Narendra saluted the Master and began to talk with Bhavanath and others in the room. M. was seated near by. A long mat was spread on the floor. While talking, Narendra lay on it flat on his stomach. The Master looked at him and suddenly went into samadhi. He sat on Narendra's back in an ecstatic mood.
भवनाथ गा रहे हैं -
माँ गो आनंदमयी होये, आमाय निरानंद कोरो ना,
गो आनंदमयी होये आमाय निरानंद कोरो ना।
ओ दुटी चरण बिना आमार मन, अन्य किछु आर जाने ना,
तपन तनय आमाय मंद कय, कि दोष ता तो जानी ना।
भवानी बोलिये, भबे जाबो चले, मने छिलो एई वासना,
अकूलपाथारे डूबाबे आमारे, स्वपने ओ ता जानि ना।
अहर्निशि श्रीदूर्गानामे भासि, तोबु दुखराशि गेलो ना,
एबार जोदि मोरे, ओ हरसुंदरी, (तोर) दूर्गानाम केहु आर लोबे ना।
(भाव) –
“माँ, आनन्दमयी होकर मुझे निरानन्द न करना । तेरे कमलचरणों को छोड़ मेरा मन और कुछ नहीं चाहता । किन्तु मेरा मन मुझे दोषी ही कहता है, परन्तु मेरी समझ में नहीं आता कि मेरा दोष क्या है । तू मुझे बतला दे । माँ, मेरी तो यह इच्छा थी कि भवानी का नाम लेकर मैं भव-सागर से पार हो जाऊँ । मैं स्वप्न में भी नहीं जानता था कि अछोर समुद्र में मुझे इस तरह डूबना होगा । दिन-रात मैं दुर्गानाम की रट लगाये रहता हूँ, फिर भी मेरी दुःख राशि दूर नहीं होती है । हर-सुन्दरी, अबकी बार अगर मैं मरा, तो तेरा दुर्गा नाम और कोई न लेगा ।"
[ভবনাথ গান গাহিতেছেন: " গো আনন্দময়ী হয়ে মা আমায় নিরানন্দ করো না।ও দুটি চরণ, বিনা আমার মন, অন্য কিছু আর জানে না ৷৷
[Bhavanath sang:O Mother, ever blissful as Thou art, Do not deprive Thy worthless child of bliss! . . .]
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94]
🔆🙏 तुम्ही दस महाविद्याएँ *^ हो माँ और तुम्हीं दस अवतार । 🔆🙏
[^The Mahavidyas, or Powers, of the Divine Mother.]
श्रीरामकृष्ण की समाधि छूटी । वे गा रहे हैं - कोखोन कि रंगे थाको माँ ! কখন কি রঙ্গে থাকো মা।
उन्होंने पुनः दूसरा गाना गाया -
बोल रे श्री दुर्गा नाम।
दश महाविद्या तुमि माँ , तुमि दश अवतार।
कोनरूपे एईबार आमारे कोरो माँ पार।।
नमो नमो गौरी , नमो नारायणी !
दुःखी दासे कोरो दया तोबे गुण जानि।।
तुमि संध्या , तुमि दिवा , तुमि गो यामिनी।
कोखोनो पुरुष होउ माँ , कौखन कामिनी।।
रामरूपे धोरो धनु माँ , कृष्णरूपे बांशी।
भुलाली शिवेर मन माँ होय एलोकेशी।।
दश महाविद्या तुमि माँ , दश अवतार।
कोनो रुपे येईबार आमारे कोरो माँ पार।।
******
“श्रीदुर्गा नाम का जप करो, ऐ मेरे मन ! ..... माँ ! दुखी दास पर दया करो, तो तुम्हारा गुण भी मेरी समझ में आये । माँ, तुम सन्ध्या हो, तुम दीपक हो, तुम्हीं यामिनी हो । कभी तो तुम पुरुष होती हो और कभी स्त्री । माँ, रामरूप में तो तुम धनुर्धारण करती हो और कृष्ण रूप में तुम वंशी हाथ में लेती हो । माँ, मुक्त-कुन्तला होकर तुमने शिव को मुग्ध कर लिया था । तुम्ही दस महाविद्याएँ *^ हो माँ और तुम्हीं दस अवतार । अबकी बार किसी तरह, माँ, मुझे पार करो ।
(The ten Embodiments of Divine Sakti art Thou, And Thou the ten Avatars: this time save me Thou must!)
[^10 महाविद्यायें : माँ दुर्गा ( Divine Mother) की 10 दिव्य शक्तियाँ ।
বল রে শ্রীদুর্গা নাম।(ওরে আমার আমার আমার রে)।নমো নমো গৌরী, নমোনারায়ণী!দুঃখী দাসে কর দয়া তবে গুণ জানি ৷৷তুমি সন্ধ্যা, তুমি দিবা তুমি গো যামিনী।কখন পুরুষ হও মা, কখন কামিনী ৷৷রামরূপে ধর ধনু মা, কৃষ্ণরূপে বাঁশী।ভুলালি শিবের মন মা হয়ে এলোকেশী।দশ মহাবিদ্যা তুমি মা, দশ অবতার।কোনরূপে এইবার আমারে কর মা পার ৷৷
[Repeat, O mind, my Mother Durga's hallowed name! O Gauri! O Narayani! to Thee I bow. Thou art the day, O Mother! Thou art the dusk and the night. As Rama Thou drawest the bow, as Krishna Thou playest the flute; As Kali all-terrible, Thou hast silenced Siva, Thy Lord. The ten Embodiments of Divine Sakti art Thou, And Thou the ten Avatars: this time save me Thou must!
यशोदा पूजियेछिलो माँ जोवा बिल्वदले।
मनोवांच्छा पूर्ण केलि कृष्ण दिये कोले।।
जेखाने सेखाने थाकि माँ , थाकि गो कानने।
निशिदिन मन थाके जेनो ओ रांगा चरणे।।
जेखाने सेखाने मोरी माँ , मोरी गो बिपाके।
अन्तकाले जिह्वा जेनो माँ , श्रीदुर्गा बोले डाके।।
माँ, जवापुष्यों और बिल्वदलों से यशोदा ने तुम्हारी पूजा की थी । तुमने कृष्ण को उनकी गोद में डालकर उनकी मनोकामना पूरी की । माँ, जहाँ-तहाँ पड़ा रहा करता हूँ; कभी तो जंगल में ही पड़ा रहता हूँ, परन्तु मेरा मन तेरे श्रीचरणों में ही लगा रहता है । माँ, मैं जहाँ-तहाँ दुर्भाग्य के फेर में पड़ा अपने भाग्य पर रोया करता हूँ । खैर, मुझे इसका भी दुःख नहीं प्रार्थना है कि अन्त समय में जिह्वा तेरे नाम का उच्चारण करे ।
যশোদা পূজিয়েছিল মা জবা বিল্বদলে ।মনোবাঞ্ছা পূর্ণ কৈলি কৃষ্ণ দিয়ে কোলে ৷৷যেখানে সেখানে থাকি মা, থাকি গো কাননে।নিশিদিন মন থাকে যেন ও রাঙ্গাচরণে ৷৷যেখানে সেখানে মরি মা, মরি গো বিপাকে।অন্তকালে জিহ্বা যেন মা, শ্রীদুর্গা বলে ডাকে ৷৷
With flowers and vilwa-leaves did Yasoda worship Thee, And Thou didst bless her by placing Krishna, the Child, in her arms. Wherever I chance to live, O Mother, in forest or grove,May my mind, day and night, dwell at Thy Lotus Feet; Whether at last I die a natural or sudden death, Oh, may my tongue repeat Durga's name at the end!
जोदि बोलो जाओ जाओ माँ , जाबो कार काछे ?
सुधामाखा 'तारा' नाम, माँ आर कार आछे।।
यदि बोलो छाड़ छाड़ माँ , आमि ना छाड़ीबो।
बाजन नूपुर होय माँ , तोर चरणे बाजिबो।।
जोखन बाजिबो माँ -गो शिव सन्निधाने। -
जय शिव जय शिव बोले बाजिबो चरणे।।
अगर तू मुझे किसी दूसरी जगह चले जाने के लिए कहे, तो माँ, इतना तो बतला, मैं किसके पास जाऊँ? माँ, दूसरी जगह यह सुधा-मधुर तेरा अमृततुल्य 'तारा ' नाम मुझे कहाँ मिल सकता है ? तू चाहे कितना ही ‘छोड़ छोड़' क्यों न करे, परन्तु मैं तुझे न छोडूँगा । माँ, जब तू शिव के निकट बैठेगी तब 'जय शिव जय शिव' कहकर , तेरे श्रीचरणों में मैं नुपुर बनकर बजता रहूँगा ।
যদি বল যাও যাও মা, যাব কার কাছে।সুধামাখা তারা নাম, মা আর কার আছে ৷৷যদি বল ছাড় ছাড় মা, আমি না ছাড়িব।বাজন নূপুর হয়ে মা, তোর চরণে বাজিব।যখন বসিবে মাগো শিব সন্নিধানে। —জয় শিব জয় শিব বলে বাজিব চরণে ৷৷
Thou mayest send me away, O Mother, but where shall I go? Tell me, Mother, where else shall I hear so sweet a name? Thou mayest even say to me: "Step aside! Go away!" Yet I shall cling to Thee, O Durga! Unto Thy feetAs Thine anklets I shall cling, making their tinkling sound. When, O Mother, Thou sittest at mighty Siva's side, Then I shall cry from Thy feet, "Victory unto Siva!"
शङ्करी होइये माँ -गगने उड़िबो।
मीन होय रबो जोले माँ , नखे तुले लोबो।।
नखाघाते ब्रह्ममयी यखन जाबे गो परानी।
कृपा कोरे दिओ माँ -गो राँगा चरण दूखानी।।
माँ, जब तुम शंखचिल्ह बनकर पतंग की नाईं आकाश में उड़ोगी, तब मैं नीचे जल में छोटी मछली होकर तैरता रहूँगा ! फिर तू मुझ पर झपट्टा मारेगी , और अपने पंजों से मुझे भेद दोगी।इस प्रकार, जिस समय तुम्हारे पंजो में पड़े पड़े मेरे साँस की डोर जब टूट जाए , उस समय तुम मुझे अपने चरणकमल के आश्रय से वंचित मत कर देना।
[^हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय में माँ जगदम्बा (बिंध्यवासिनी) ने चील्ह पक्षी का रूप धारण किया था।]
Mother, when as the Kite14 Thou soarest in the sky, There, in the water beneath, as a minnow I shall be swimming; Upon me Thou wilt pounce, and pierce me through with Thy claws. Thus, when the breath of life forsakes me in Thy grip, Do not deny me the shelter of Thy Lotus Feet!
पार करो ओ माँ काली , कालेर कामिनी।
तराबारे दूटु पद कोरेछो तरणी।।
तुमि स्वर्ग , तुमि मर्त्य , तुमि गो पाताल।
तोमा होते हरि , ब्रह्मा द्वादश गोपाल।।
गोलोके सर्वमङ्गला, ब्रजे कात्यायनी।
काशीते माँ अन्नपूर्णा अनन्त रूपिणी।।
दुर्गा दुर्गा दुर्गा बोले जे बा पथे चले जाय।
शूलहस्ते शूलपाणि रक्षा करेन ताय।।
हे माँ काली , काल की कामिनी ! (निरपेक्ष सत्य की शक्ति) मुझे संसार के बंधन से मुक्त (भ्रममुक्त De -Hypnotize) कर दो। मेरे लिए तो आपके दो चरण ही इस संसार रूपी काले सागर को पार करने वाली नौका है। स्वर्ग (आकाश) , मृत्युलोक (पृथ्वी) और (पाताल लोक) भी तू ही है। तुम्हारे ही भीतर से श्रीहरि , ब्रह्मा और द्वादश गोपाल आदि सारे नामरूप उद्भूत हुए हैं। जो कोई व्यक्ति "दुर्गा! दुर्गा!" रटते हुए दुर्गम पथ (छुरे की धार जैसी तीक्ष्ण पथ) पर भी चलता है, उसकी रक्षा स्वयं भगवान शंकर अपने सर्वशक्तिमान त्रिशूल से करते हैं।
চরণে লিখিতে নাম আঁচড় যদি যায়। ভূমিতে লিখিয়ে থুই নাম, পদ দে গো তায় ৷৷শঙ্করী হইয়ে মাগো গগনে উড়িবে ।মীন হয়ে রব জলে মা, নখে তুলে লবে ৷৷নখাঘাতে ব্রহ্মময়ি যখন যাবে গো পরাণী।কৃপা করে দিও মা গো রাঙ্গা চরণ দুখানি ৷৷পার কর ও মা কালী, কালের কামিনী।তরাবারে দুটু পদ করেছ তরণী ৷৷তুমি স্বর্গ, তুমি মর্ত্য, তুমি গো পাতাল।তোমা হতে হরি ব্রহ্মা দ্বাদশ গোপাল ৷৷গোলকে সর্বমঙ্গলা, ব্রজে কাত্যায়নী।কাশীতে মা অন্নপূর্ণা অনন্তরূপিণী ৷৷দুর্গা দুর্গা দুর্গা বলে যেবা পথে চলে যায়।শূলহস্তে শূলপাণি রক্ষা করেন তায় ৷৷
Mother, when as the Kite14 Thou soarest in the sky, There, in the water beneath, as a minnow I shall be swimming; Upon me Thou wilt pounce, and pierce me through with Thy claws. Thus, when the breath of life forsakes me in Thy grip, Do not deny me the shelter of Thy Lotus Feet! From the world's bondage free me, O Spouse of the Absolute! Thy two feet are my boat to cross this world's dark sea. Thou art the heavens and the earth, and Thou the nether world; From Thee have the twelve Gopalas and Hari and Brahma sprung. Whoever treads the path, repeating "Durga! Durga!" Siva Himself protects with His almighty trident.
(३)
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94]
*समाधि और नृत्य*
हाजरा उत्तर-पूर्ववाले बरामदे में हरिनाम की माला हाथ में लिए हुए जप कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण सामने आकर बैठे और हाजरा की माला लेकर जप करने लगे । साथ में मास्टर और भवनाथ हैं । दिन के दस बजे का समय होगा ।
[হাজরা উত্তর-পূর্ব বারান্দায় বসিয়া হরিণামের মালা হাতে করিয়াজপ করিতেছেন। ঠাকুর সম্মুখে আসিয়া বসিলেন ও হাজরার মালা হাতে লইলেন। মাস্টার ও ভবনাথ সঙ্গে। বেলা প্রায় দশটা হইবে।
Hazra was sitting on the northeast verandah counting the beads of his rosary. The Master went and sat in front of him, taking the rosary in his own hands.
श्रीरामकृष्ण - (हाजरा से) - देखो, मुझसे जप नहीं होता - नहीं, नहीं, होता है ! बायें हाथ से होता है, परन्तु उधर (नाम-जप) फिर नहीं होता ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (হাজরার প্রতি) — দেখ, আমার জপ হয় না; — না, না, হয়েছে! — বাঁ হাতে পারি, কিন্তু উদিক (নামজপ) হয় না!
"You see, I cannot use the rosary. No, perhaps I can. Yes, I can with my left hand. But I cannot repeat the name of God with it."
इतना कहकर श्रीरामकृष्ण नाम-जप की चेष्टा करने लगे, परन्तु जप का आरम्भ करते ही समाधि लग गयी ।
श्रीरामकृष्ण इसी समाधि-अवस्था में बड़ी देर से बैठे हुए हैं । हाथ में माला अब भी लिए हुए हैं । भक्तगण निर्वाक होकर देख रहे हैं । हाजरा अपने आसन पर बैठे हुए हैं । वे भी चुपचाप श्रीरामकृष्ण की समाधि-अवस्था देख रहे हैं । बड़ी देर बाद श्रीरामकृष्ण को होश हुआ । वे कह उठे, मुझे भूख लगी है । साधारण अवस्था को लाने के लिए श्रीरामकृष्ण प्रायः इस तरह कहा करते हैं ।
मास्टर खाना लाने के लिए जा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण बोल उठे, “नहीं भाई, पहले काली-मन्दिर जाऊँगा।"
[এই বলিয়া ঠাকুর একটু জপ করিবার চেষ্টা করিতে লাগিলেন। কিন্তু জপ আরম্ভ করিতে গিয়া একেবারে সমাধি! ঠাকুর এই সমাধি অবস্থায় অনেকক্ষণ বসিয়া আছেন। হাতে মালা-গাছটি এখনও রহিয়াছে। ভক্তেরা অবাক্ হইয়া দেখিতেছেন। হাজরা নিজের আসনে বসিয়া — তিনিও অবাক্ হইয়া দেখিতেছেন। অনেক্ষণ পরে হুঁশ হইল। ঠাকুর বলিয়া উঠিলেন, খিদে পেয়েছে। প্রকৃতিস্থ হইবার জন্য এই কথাগুলি সমাধির পর প্রায় বলেন।মাস্টার খাবার আনিতে যাইতেছেন। ঠাকুর বলিয়া উঠিলেন, “না বাপু, আগে কালীঘরে যাব।”
With these words Sri Ramakrishna tried to perform a little japa. But hardly had he begun when he went into samadhi. He sat in that state a long time, still holding the rosary in his hand. The devotees looked at him with wonder in their eyes. Hazra also watched the Master without uttering a word. After a long time Sri Ramakrishna regained consciousness of the outer world and said that he was hungry. He often said such things to bring his mind down to the normal plane. M. was. going to bring something for him to eat. The Master said, "No, I shall first go to the Kali temple."
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94]
🔆अपनी आध्यात्मिक प्रगति के बारे में हाजरा महाशय का विचार अतिशयोक्तिपूर्ण था।🔆
पक्के आँगन से होकर श्रीरामकृष्ण काली-मन्दिर जा रहे हैं । जाते हुए द्वादश शिवालयों के शिवजी को प्रणाम कर रहे हैं । बाई ओर राधाकान्तजी का मन्दिर है । राधाकान्तजी को देखकर श्रीरामकृष्ण ने प्रणाम किया । कालीमन्दिर में पहुँचकर माता को प्रणाम किया और आसन पर बैठकर माता के पादपद्मों में उन्होंने फूल चढ़ाये । फिर अपने सिर पर फूल रखा । लौटते हुए भवनाथ से बोले, यह सब ले चल - माता का प्रसाद, नारियल और चरणामृत । श्रीरामकृष्ण कमरे में लौट आये । साथ में भवनाथ हैं और मास्टर । हाजरा के सामने पहुँचते ही उन्होंने प्रणाम किया । 'यह आप क्या कर रहे हैं - यह क्या कर रहे हैं’ कहकर हाजरा चिल्ला उठे । .......
[ঠাকুর পাকা উঠান দিয়া দক্ষিণাস্য হইয়া কালীঘরের দিকে যাইতেছেন। যাইতে যাইতে দ্বাদশ মন্দিরের শিবকে উদ্দেশ করিয়া প্রণাম করিলেন। বামপার্শ্বে রাধাকান্তের মন্দির। তাঁহাকে দর্শন করিয়া প্রণাম করিলেন। কালীঘরে গিয়া মাকে প্রণাম করিয়া আসনে বসিয়া মার পাদপদ্মে ফুল দিলেন, নিজের মাথায়ও ফুল দিলেন। চলিয়া আসিবার সময় ভবনাথকে বলিলেন এইগুলি নিয়ে চল্ — মার প্রসাদী ডাব আর শ্রীচরণামৃত। ঠাকুর ঘরে ফিরিয়া আসিলেন, সঙ্গে ভবনাথ ও মাস্টার। আসিয়াই, হাজরার সম্মুখে আসিয়া প্রণাম। হাজরা চিৎকার করিয়া উঠিলেন, বলিলেন, কি করেন, কি করেন!
He went across the cement courtyard toward the Kali temple. On the way he bowed with folded hands to the twelve Siva temples. On the left was the temple of Radhakanta. He went there first and bowed before the image. Then he entered the Kali temple and saluted the Mother. Sitting on a carpet, he offered flowers at the Mother's holy feet. He also placed a flower on his own head. While returning from the temple he asked Bhavanath to carry the green coconut offered at the temple, and the charanamrita. Coming back to his room, accompanied by M. and Bhavanath, he saluted Hazra, who cried out in dismay: "What are you doing, sir? What is this?"
हाजरा तर्क करके प्रायः यह बात कहते थे कि ईश्वर सब के भीतर हैं; साधना करके सब लोग ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सकते हैं ।
(अपनी आध्यात्मिक प्रगति के बारे में हाजरा महाशय का विचार थोड़ा अतिशयोक्तिपूर्ण था। दूसरे आदमी जो उसके स्तर के नहीं हैं , उनसे पैर छुवाने से उनकी जात चली जाएगी ?)
[হাজরা তর্ক করিয়া প্রায় এই কথা বলিতেন, ঈশ্বর সকলের ভিতরেই আছেন, সাধনের দ্বারা সকলেই ব্রহ্মজ্ঞান লাভ করিতে পারে।
Hazra often argued with the Master, declaring that God dwelt in all beings and that everybody could attain Brahmajnana through sadhana. He had an exaggerated idea of his own spiritual progress.
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94]
🔆🙏शिविर में डायनिंग हॉल के बदले CINC के कमरे में रात का भोजन🔆🙏
दिन बहुत चढ़ गया है । भोग की आरती का घण्टा बज चुका है । ब्राह्मण, वैष्णव और कंगाल सब अतिथिशाला की ओर जा रहे हैं । सब लोग माता का प्रसाद पायेंगे । अतिथिशाला में काली-मन्दिर के कर्मचारी जहाँ बैठकर प्रसाद पाते हैं, वहीं भक्तों के लिए भी प्रसाद पाने का बन्दोबस्त हो रहा है । श्रीरामकृष्ण ने कहा - “सब लोग वहीं जाकर प्रसाद पाओ – क्यों ? (नरेन्द्र से) नहीं, तू यहाँ भोजन कर ।
“अच्छा, नरेन्द्र तथा मेरे लिए यहीं प्रसाद की व्यवस्था हो ।” [केदार दा को CINC का आदेश?]
[বেলা হইয়াছে। ভোগ আরতির ঘন্টা বাজিয়া গেল। অতিথিশালায় ব্রাহ্মণ, বৈষ্ণব, কাঙাল সকলে যাইতেছে। মার প্রসাদ, রাধাকান্তের প্রসাদ, সকলে পাইবে। ভক্তেরাও মার প্রসাদ পাইবেন। অতিথিশালায় ব্রাহ্মণ কর্মচারীরা যেখানে বসেন, সেইখানে ভক্তেরা বসিয়া প্রসাদ পাইবেন। ঠাকুর বলিলেন, সবাই গিয়ে ওখানে খা — কেমন? (নরেন্দ্রের প্রতি), না তুই এখানে খাবি? —“আচ্ছা নরেন্দ্র আর আমি এইখানে খাব।” ভবনাথ, বাবুরাম, মাস্টার ইত্যাদি সকলে প্রসাদ পাইতে গেলেন।
It was about noon. The gong and the bells announced the worship and offering in the various temples. The brahmins, the Vaishnavas, and the beggars went to the guest-house to have their midday meal. The devotees of the Master were also to partake of the sacred offerings. He asked them to go to the guest-house. To Narendra he said: "Won't you take your meal in my room? All right. Narendra and I will eat here." Bhavanath, Baburam, M., and the other devotees went to the guest-house.
प्रसाद पाने के बाद श्रीरामकृष्ण ने थोड़ी देर विश्राम किया । भक्त-मण्डली बरामदे में बातचीत करने लगी । श्रीरामकृष्ण भी वहीं आकर बैठे । दो बजे का समय होगा । एकाएक भवनाथ दक्षिण-पूर्ववाले बरामदे से ब्रह्मचारी के वेश में आकर उपस्थित हुए । भगवा धारण किये, हाथ में कमण्डलु लिए हुए हँस रहे हैं । श्रीरामकृष्ण और भक्त सब हँस रहे हैं ।
[প্রসাদ পাওয়ার পর ঠাকুর একটু বিশ্রাম করিলেন, কিন্তু বেশিক্ষণ নয়। ভক্তেরা বারান্দায় বসিয়া গল্প করিতেছেন সেইখানে আসিয়া বসিলেন ও তাঁহাদের সঙ্গে আনন্দ করিতে লাগিলেন। বেলা দুইটা। সকলে উত্তর-পূর্ব বারান্দায় আছেন। হঠাৎ ভবনাথ দক্ষিণ-পূর্ব বারান্দা হইতে ব্রহ্মচারী বেশে আসিয়া উপস্থিত। গায়ে গৈরিকবস্ত্র, হাতে কমণ্ডলু, মুখে হাসি। ঠাকুর ও ভক্তেরা সকলে হাসিতেছেন।
After his meal Sri Ramakrishna rested a few minutes. The devotees were on the verandah engaged in light conversation. He soon joined them and was happy in their company. It was about two o'clock. All were still sitting on the verandah, when suddenly Bhavanath appeared in the garb of a brahmachari, dressed in an ochre cloth, kamandalu in hand, his face beaming with smiles.
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य ) - उसके मन का भाव भी यही है, इसीलिए तो यह भेष धारण किया ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — ওর মনের ভাব ওই কিনা, তাই ওই সেজেছে।
MASTER (with a smile): "That is his inner feeling. Therefore he has dressed himself as a brahmachari."
नरेन्द्र - वह ब्रह्मचारी बना तो मैं अब वामाचारी (Tantric worshipper) बनूँ । (सब हँसते हैं ।)
[নরেন্দ্র — ও ব্রহ্মচারী সেজেছে, আমি বামাচারী সাজি। (হাস্য)
NARENDRA: "He has put on the garb of a brahmachari; let me put on the garb of a Tantric worshippers."
हाजरा - उसमें पञ्चमकार, चक्र, यह सब करना पड़ता है ।
[হাজরা — তাতে পঞ্চ মকার, চক্র — এ-সব করতে হয়।
HAZRA: "Then you will have to follow the Tantrik rituals, with women, wine, and so on."
श्रीरामकृष्ण वामाचार की बात से चुप हो रहे हैं । इस बात पर उन्होंने कोई मत प्रकट नहीं किया ।
बस हँसकर बात उड़ा दी । एकाएक मतवाले होकर नृत्य करने लगे । गा रहे हैं -
"आर भूलाले भूलबो ना माँ , देखेछि तोमार रांगा चरण !"
"माँ, अब मैं किसी दूसरे लालच में नहीं पड़ सकता, तुम्हारे अरुण चरणों को मैंने देख लिया ।"
[ঠাকুর বামাচারের কথায় চুপ করিয়া রহিলেন। ও কথায় সায় দিলেন না। কেবল রহস্য করিয়া উড়াইয়া দিলেন। হঠাৎ মাতোয়ারা হইয়া নৃত্য করিতে লাগিলেন। গাহিতেছেন-'আর ভুলালে ভুলব না মা, দেখেছি তোমার রাঙা চরণ।
:Sri Ramakrishna did not encourage the conversation. Indeed, he made fun of it.Suddenly the Master began to dance in an ecstatic mood. He sang:'Mother, Thou canst not trick me any more, For I have seen Thy crimson Lotus Feet. . . .
श्रीरामकृष्ण ने कहा - "अहा ! राजनारायण चण्डी-गीत बहुत ही सुन्दर गाता हैं । वे लोग नाचते हुए गाते हैं, और उस देश* के नकुड़ आचार्य का गाना ! अहा ! कितना सुन्दर होता है और नृत्य भी वैसा ही मधुर !" (*उनके जन्मस्थान से मतलब है कामारपुकुर के आसपास ।)
[ঠাকুর বলিতেছেন, আহা, রাজনারায়ণের চণ্ডীর গান কি চমৎকার! ওই রকম করে নেচে নেচে তারা গায়। আর ও-দেশে নকুড় আচার্যের কি গান। আহা, কি নৃত্য, কি গান!
The Master said: "Ah, how wonderfully Rajnarayan sings about the Divine Mother! He sings and dances that way. The music of Nakur Acharya at Kamarpukur is also wonderful. Ah, how beautiful his singing and dancing are!
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94 ]
🔆🙏CINC की विनम्रता : तमोगुणी साधु के सामने हाथ जोड़े रहो !🔆🙏
पञ्चवटी में एक साधु आये हुए हैं । बड़े क्रोधी स्वभाव के हैं । जिस तिसको गालियाँ दिया करते हैं - शाप देते हैं । खड़ाऊ पहने हुए वे आकर हाजिर हो गये ।
साधु ने पूछा, 'क्या यहाँ आग मिल जायगी ?’ श्रीरामकृष्ण हाथ जोड़कर साधु को नमस्कार कर रहे हैं । जब तक वे साधु वहाँ पर रहे, तब तक हाथ जोड़े हुए खड़े रहे ।
[পঞ্চবটীতে একটি সাধু আসিয়াছেন। বড় রাগী সাধু। যাকে তাকে গালাগাল দেন, শাপ দেন! তিনি খড়ম পায়ে দিয়ে এসে উপস্থিত।সাধু বলিলেন, হিঁয়া আগ মিলে গা? ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ হাতজোড় করিয়া সাধুকে নমস্কার করিতেছেন এবং যতক্ষণ সে সাধুটি রহিলেন, ততক্ষণ হাতজোড় করিয়া দাঁড়াইয়া আছেন।
A sadhu was staying at the Panchavati. But he was a hot-tempered man; he scolded and cursed everyone. He came to the Master's room wearing wooden sandals and asked the Master, "Can I get fire here?" Sri Ramakrishna saluted him and stood with folded hands as long as he remained in the room.
साधु के चले जाने पर भवनाथ हँसते हुए कहने लगे, साधु पर आपकी कितनी भक्ति है !
[সাধুটি চলিয়া গেলে ভবনাথ হাসিতে হাসিতে বলিতেছেন, আপনার সাধুর উপর কি ভক্তি!
When he had left, Bhavanath said to the Master with a laugh, "What great respect you showed the sadhu!"
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - अरे, तमःप्रधान नारायण हैं । जिनका यही स्वभाव है, उन्हें ऐसे ही प्रसन्न करना चाहिए । ये साधु जो हैं ।
[तुम देखो, यद्यपि तमस से भरा हुआ है, फिर भी वह नारायण ही तो है। जिनके पास तमस की अधिकता हो , उनको इसी प्रकार प्रसन्न करना चाहिए । इसके अलावे वे साधु भी तो हैं ! ]
[ ওরে তমোমুখ নারায়ণ! যাদের তমোগুণ, তাদের এইরকম করে প্রসন্ন করতে হয়। এ যে সাধু!]
"You see, he too is Narayana, though full of tamas. This is the way one should please people who have an excess of tamas. Besides, he is a sadhu."
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94 ]
🔆श्री रामकृष्ण और गोलोकधाम खेल - "सच्चा (निष्कपट) व्यक्ति हर जगह जीतता है !🔆
[सच्चे आदमी की हार कहीं नहीं होती ~ This is the law of God]
गोलोकधाम खेल ^ * खेला जा रहा है । भक्त भी खेलते हैं और हाजरा भी खेलते हैं, श्रीरामकृष्ण आकर खड़े हो गये । मास्टर और किशोरी की गोटियाँ पक गयीं । श्रीरामकृष्ण ने दोनों को नमस्कार किया । कहा - “तुम दोनों भाई धन्य हो ! (मास्टर से एकान्त में) अब न खेलना ।"
श्रीरामकृष्ण खेल देख रहे हैं । हाजरा की गोटी एक बार नरक में पड़ी थी । श्रीरामकृष्ण ने कहा - "हाजरा को क्या हो गया । फिर !" अर्थात् हाजरा की गोटी दुबारा नरक में पड़ी । इस पर सब लोग जोर से हँसने लगे ।
[गोलोकधाम खेल ^ * एक प्रकार से 'सांप-सीढ़ी ' जैसा लूडो का खेल, जिसमें खिलाड़ी एक-एक खाने से "समक्षेत्र (planes)" से गुजरते हुए "स्वर्ग" तक पहुंचने की कोशिश करता है; लेकिन किसी गलत खाने में गोटी चली जाये तो वह एक विशेष "नरक" में गिर जाता है।
^A game in which the player tries to get to "heaven" by passing through different "planes"; but on each false step he falls into a particular "hell".]
[গোলকধাম খেলা হইতেছে। ভক্তেরা খেলিতেছেন, হাজরাও খেলিতেছেন। ঠাকুর আসিয়া দাঁড়াইলেন। মাস্টার ও কিশোরীর ঘুঁটি উঠিয়া গেল। ঠাকুর দুয়জনকে নমস্কার করিলেন! বলিলেন, ধন্য তোমরা দু-ভাই। (মাস্টারকে একান্তে) আর খেলো না। ঠাকুর খেলা দেখিতেছেন, হাজরার ঘুঁটি একবার নরকে পড়িয়াছিল। ঠাকুর বলিতেছেন, হাজরার কি হল! — আবার! অর্থাৎ হাজরার ঘুঁটি আবার নরকে পড়িয়াছে! এই সকলে হো-হো করিয়া হাসিতেছেন।]
The devotees were engaged in a game of golakdham. Hazra joined them. The Master stood by, watching them play. M. and Kishori reached "heaven". Sri Ramakrishna bowed before them and said, "Blessed are you two brothers." He said to M., aside, "Don't play any more." Hazra fell into "hell". The Master said: "What's the matter with Hazra? Again!" No sooner had Hazra got out of "hell" than he fell into it again. All burst into laughter.]
संसारवाले कोठे में लाटू की गोटी थी । एक बार ही सातों कौड़ियाँ चित्त पड़ीं, इससे एक ही चाल में गोटी लाल हो गयी । लाटू मारे आनन्द के नाचने लगे । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं – “लाटू को कितना आनन्द है, जरा देखो । उसकी गोटी अगर लाल न होती तो उसको दुःख होता । (भक्तों से अलग में ) इसका एक अर्थ है । हाजरा को बड़ा अहंकार है कि इसमें भी मेरी जीत होगी । ईश्वर की इच्छा ऐसी भी होती है कि सच्चे आदमी की हार कहीं नहीं होती । कहीं भी उसका अपमान नहीं होने देते ।"
[লাটুর ঘুঁটি সংসারের ঘর থেকে একেবারে সাতচিৎ মুক্তি! লাটু ধেই ধেই করিয়া নাচিতেছেন। ঠাকুর বলিতেছেন, নেটোর যে আহ্লাদ — দেখ। ওর উটি না হলে মনে বড় কষ্ট হত। (ভক্তদের প্রতি একান্তে) — এর একটা মানে আছে। হাজরার বড় অহংকার যে, এতেও আমার জিত হবে। ঈশ্বরের এমনও আছে যে, ঠিক লোকের কখনও কোথাও তিনি অপমান করেন না। সকলের কাছেই জয়।]
Latu, at the first throw of the dice, went to "heaven" from "earth". He began to cut capers of joy. "See Latu's joy!" said the Master. "He would have been terribly sad if he hadn't achieved this. (Aside to the devotees) This too has a meaning. Hazra is so vain that he thinks he will triumph over all even in this game. This is the law of God, that He never humiliates a righteous person. Such a man is victorious everywhere."
(4)
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94 ]
🔆🙏 महिलाओं को साथ लेकर भैरवी -चक्र में बैठने की मनाही🔆🙏
*दिव्यभाव या मातृभाव से साधना*
कमरे में छोटे तख्त पर श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । नरेन्द्र, भवनाथ, बाबूराम, मास्टर जमीन पर बैठे हुए हैं। घोषपाड़ा और पंचनामी मतों की बात नरेन्द्र ने चलायी । श्रीरामकृष्ण उनका वर्णन कर रहे हैं -
"ये लोग ठीक ठीक साधना नहीं कर सकते । धर्म का नाम लेकर इन्द्रियों को चरितार्थ किया करते हैं ।
[ঘরে ছোট তক্তপোষটিতে ঠাকুর বসিয়াছেন। নরেন্দ্র, ভবনাথ, বাবুরাম, মাস্টার মেঝেতে বসিয়া আছেন। ঘোষপাড়া ও পঞ্চনামী এই সব মতের কথা নরেন্দ্র তুলিলেন। ঠাকুর তাহাদের বর্ণনা করিয়া নিন্দা করিতেছেন। বলিতেছেন, “ঠিক ঠিক সাধন করিতে পারে না, ধর্মের নাম করিয়া ইন্দ্রিয় চরিতার্থ করে।
Narendra referred to various religious sects — the Ghoshpara, Panchanami, and others. Sri Ramakrishna described their views and condemned their immoral practices. He said that they could not follow the right course of spiritual discipline, but enjoyed sensuous pleasures in the name of religion.]
(नरेन्द्र से) तुझे अब इन मतों के सम्बन्ध में कुछ सुनने की आवश्यकता नहीं है ।
[(নরেন্দ্রের প্রতি) — “তোর আর এ-সব শুনে কাজ নাই।
MASTER (to Narendra): "You need not listen to these things.
"ये जो भैरव-भैरवियाँ हैं, ये सब ऐसे ही हैं । जब मैं काशी गया था, तब एक दिन मुझे भैरवी-चक्र ले गये थे । उनमें एक एक भैरव था और एक एक भैरवी । मुझे कारण-पान करने के लिए कहा । मैंने कहा, माँ, मैं तो कारण छू भी नहीं सकता । तब वे लोग खुद पीने लगे । मैंने सोचा अब शायद ये लोग जपध्यान करेंगे; परन्तु वह तो रहा अलग, वे लोग नाचने लगे । मुझे भय होने लगा कि कहीं गंगाजी में न गिर जायँ । चक्र गंगा के तट पर ही था ।
"पति और पत्नी अगर भैरव-भैरवी हो जायँ तो उनका बड़ा सम्मान होता है ।
[“ভৈরব, ভৈরবী, এদেরও ওইরকম। কাশীতে যখন আমি গেলুম, তখন একদিন ভৈরবীচক্রে আমায় নিয়ে গেল। একজন করে ভৈরব, একজন করে ভৈরবী। আমায় কারণ পান করতে বললে। আমি বললাম, মা, আমি কারণ ছুঁতে পারি না। তখন তারা খেতে লাগল। আমি মনে করলাম, এইবার বুঝি জপ-ধ্যান করবে। তা নয়, নৃত্য করতে আরম্ভ করলে! আমার ভয় হতে লাগল, পাছে গঙ্গায় পড়ে যায়। চক্রটি গঙ্গার ধারে হয়েছিল। “স্বামী-স্ত্রী যদি ভৈরব-ভৈরবী হয়, তবে তাদের বড় মান।]
The bhairavas and the bhairavis of the Tantrik sect also follow this kind of discipline. While in Benares I was taken to one of their mystic circles. Each bhairava had a bhairavi with him. I was asked to drink the consecrated wine, but I said I couldn't touch wine. They drank it. I thought perhaps they would then practise meditation and japa. But nothing of the sort. They began to dance. I was afraid they might fall into the Ganges: the circle had been made on its bank. It is very honourable for husband and wife to assume the roles of bhairava and bhairavi.
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94]
🔆ईश्वर के पास पहुँचने के अनेक मार्ग हैं, 'मत पथ ' ~ सभी मत एक एक मार्ग हैं🔆
🔆🙏मातृभाव,सन्तान भाव शुद्ध भाव , भगनी भाव ठीक-वीरभाव बड़ा कठिन है🔆🙏
(नरेन्द्र आदि भक्तों से) “मेरा मातृभाव है, सन्तान-भाव । मातृभाव बड़ा शुद्ध भाव है । इसमें कोई विपत्ति नहीं है । भगिनी भाव भी बुरा नहीं स्त्रीभाव या वीरभाव बड़ा कठिन है । तारक ^ का बाप इसी भाव की साधना करता था । बड़ा कठिन है, भाव ठीक नहीं रहता ।
[तारक ^ स्वामी शिवानन्द (1854-1934) : रामकृष्ण मिशन के द्वितीय अध्यक्ष (1922 से 1934 तक) जिनका मूल नाम तारक नाथ घोषाल था...उनके पिता, रामकनाई घोषाल, रानी रासमणि के कानूनी सलाहकार थे। अल्मोड़ा और बनारस सेन्टर स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका थी। Swami Shivananda (1854–1934) whose original name was Tarak Nath Ghosal ...]
[(নরেন্দ্রাদি ভক্তের প্রতি) — “কি জান? আমার ভাব মাতৃভাব, সন্তানভাব। মাতৃভাব অতি শুদ্ধভাব, এতে কোন বিপদ নাই। ভগ্নীভাব, এও মন্দ নয়। স্ত্রীভাব — বীরভাব বড় কঠিন। তারকের বাপ ওইভাবে সাধন করত। বড় কঠিন। ঠিক ভাব রাখা যায় না।]
"Let me tell you this. I regard woman as my mother; I regard myself as her son. This is a very pure attitude. There is no danger in it. To look on woman as a sister is also not bad. But to assume the attitude of a 'hero', to look on woman as one's mistress, is the most difficult discipline. Tarak's father followed this discipline. It is very difficult. In this form of sadhana one cannot always maintain the right attitude.
"ईश्वर के पास पहुँचने के अनेक मार्ग हैं । सभी मत एक एक मार्ग हैं जैसे काली-मन्दिर जाने की बहुत सी राहें हैं । इनमें भेद इतना ही है कि कोई राह शुद्ध है और कोई राह अशुद्ध; शुद्ध रास्ते से होकर जाना ही अच्छा है ।
[“নানা পথ ঈশ্বরের কাছে পৌঁছিবার। মত পথ । যেমন কালীঘরে যেতে নানা পথ দিয়ে যাওয়া যায়। তবে কোনও পথ শুদ্ধ, কোনও পথ নোংরা, শুদ্ধ পথ দিয়ে যাওয়াই ভাল।]
"There are various paths to reach God. Each view is a path. It is like reaching the Kali temple by different roads. But it must be said that some paths are clean and some dirty. It is good to travel on a clean path.
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94 ]
🔆🙏'आदिपुरुष श्री रामकृष्ण का आत्मपरिचय' - तिनिई आमि, आमिई तिनि !🔆🙏
['वह' आदिपुरुष- जो अकेला और दूसरों से अलग है !]
'वही 'मैं' है और 'मैं' ही ‘वह’ हूँ !
তিনিই আমি আমিই তিনি!
[Self-introduction of lone man Sri Ramakrishna-'He is 'I' and I am 'He'.]
[Lone man = Single and isolated from other = अकेला और दूसरों से अलग]
“मैंने बहुत से मत देखे, बहुत से पथ देखे । यह सब अब और अच्छा नहीं लगता । सब एक दूसरे से विवाद किया करते हैं । यहाँ और कोई नहीं है, तुम सब अपने आदमी हो, तुम लोगों से कह रहा हूँ, अब मैंने यही समझा कि वे पूर्ण हैं और मैं उनका अंश हूँ, वे प्रभु हैं और मैं उनका दास हूँ । कभी यह भी सोचता हूँ कि 'वही' 'मैं' है और 'मैं' ही ‘वह’ हूँ ।"
["Many views, many paths — and I have seen them all. But I don't enjoy them any more; they all quarrel."No one else is here, and you are my own people. Let me tell you something. I have come to the final realization that God is the Whole and I am a part of Him, that God is the Master and I am His servant. Furthermore, I think every now and then that He is I and I am He."]
[“অনেক মত — অনেক পথ — দেখলাম। এ-সব আর ভাল লাগে না। পরস্পর সব বিবাদ করে। এখানে আর কেউ নাই; তোমরা আপনার লোক, তোমাদের বলছি, শেষ এই বুঝেছি, তিনি পূর্ণ আমি তাঁর অংশ; তিনি প্রভু ‘আমি’ তাঁর দাস; আবার এক-একবার ভাবি, তিনিই আমি আমিই তিনি!”]
(भक्तमण्डली स्तब्ध हो सुन रही है ।)
[ভক্তেরা নিস্তব্ধ হইয়া এই কথাগুলি শুনিতেছেন।
The devotees listened to these words in deep silence.
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94 ]
🔆🙏अकारण शत्रुता रखने पर उसके साथ कैसा व्यवहार करें?-सर्वमंगल प्रार्थना ?🔆🙏
[Am I not able to Love all ?]
भवनाथ - (विनयपूर्वक) - लोगों से मतान्तर होने पर मन न जाने कैसा करने लगता है । इससे यह याद आता है कि सब को मैं प्यार न कर सका ।
[ভবনাথ (বিনীতভাবে) — লোকের সঙ্গে মনান্তর থাকলে, মন কেমন করে। তাহলে সকলকে তো ভালবাসতে পারলুম না।]
"I feel disturbed if I have a misunderstanding with someone. I feel that in that case I am not able to love all."
श्रीरामकृष्ण – पहले एक बार बातचीत करने की, उनसे प्रीतिपूर्वक बर्ताव करने की चेष्टा करना । चेष्टा करने पर भी अगर न हो, तो फिर इसकी चिन्ता न करनी चाहिए । उनकी शरण में जाओ - उनकी चिन्ता करो । उन्हें छोड़कर दूसरे आदमियों के लिए मन में दुःख लाने की क्या जरूरत है?
[প্রথমে একবার কথাবার্তা কইতে — তাদের সঙ্গে ভাব করতে — চেষ্টা করবে। চেষ্টা করেও যদি না হয়, তারপর আর ও-সব ভাববে না। তাঁর শরণাগত হও — তাঁর চিন্তা কর — তাঁকে ছেড়ে অন্য লোকের জন্য মন খারাপ করবার দরকার নাই।]
"Try at the outset to talk to him and establish a friendly relationship with him. If you fail in spite of your efforts, then don't give it [asddbink] another thought. Take refuge in God. Meditate on Him. There is no use in giving up God and feeling depressed from thinking about others."
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94 ]
🔆🙏 विजातीय (अभक्त) लोगों को देखकर चैतन्यदेव भी भाव संवरण करते हैं🔆🙏
भवनाथ - ईसा मसीह और चैतन्य, इन लोगों का कहना है कि सब को प्यार करना चाहिए ।
[ভবনাথ — ক্রাইস্ট, চৈতন্য, এঁরা সব বলে গেছেন যে, সকলকে ভালবাসবে।
"Great souls, such as Christ and Chaitanya, have admonished us to love all beings."
श्रीरामकृष्ण - प्यार तो करना ही चाहिए, क्योंकि सब में परमात्मा का ही वास है, परन्तु जहाँ दुष्टात्मा हों वहाँ दूर से नमस्कार करना ही ठीक है । और चैतन्यदेव ? उनके लिए भी एक गाने में है - 'विजातीय लोगों को देखकर प्रभु भी भाव संवरण करते हैं ।' श्रीवास के यहाँ से उनकी सास ^ को बाल पकड़कर निकाल दिया था ।
[ ভাল তো বাসবে, সর্বভূতে ঈশ্বর আছেন বলে। কিন্তু যেখানে দুষ্টলোক, সেখানে দূর থেকে প্রণাম করবে। কি, চৈতন্যদেব? তিনিও “বিজাতিয় লোক দেখে প্রভু করেন ভাব সংবরণ।” শ্রীবাসের বাড়িতে তাঁর শাশুরীকে চুল ধরে বার করা হয়েছিল ।
"Love you must, because God dwells in all beings. But salute a wicked person from a distance. (तांत्रिकों के पैर मत छूना )You speak of Chaitanya? He also used to restrain his spiritual feeling in the presence of unsympathetic people. At Srivas's house he put Srivas's mother-in-law out of the room, dragging her out by the hair."
[श्रीवास की सास ^ श्रीनारद मुनि ही गौर लीला में श्रीवास पण्डित रूप से अवतरित हुए।श्रीवास-पत्नी श्रीमती मालिनी देवी श्रीकृष्ण को स्तन पान कराने वाली व्रज की एक धात्री थीं।एक दिन श्रीवास भवन में श्रीमन्महाप्रभु जी ने ‘महाप्रकाश लीला’ प्रकट की। इस दिन भक्तभव और आवेश भाव का संवरण कर बिना किसी माया-आवरण के सात प्रहार तक अपने अप्राकृत स्वरूप में विष्णु आसन पर विराजमान रहे।श्रीगौरसुन्दर जी ने भी अपने चरण पसार कर सबकी अभीष्ट पूजा स्वीकार की और सब भक्तों को अपने अभीष्ट वर भी प्रदान किये। इस सात-प्रहरिया लीला में श्रीगौरसुन्दर जी ने विष्णु के समस्त अवतारों के रूपों को प्रकाशित किया था। एक दिन श्रीवास जी की सास प्रभु के कीर्तन को देखने की आशा से एक कोने में छिपकर बैठ गयी, परन्तु सर्वभूतान्तर्यामी महाप्रभु जी जान गये। और उस दिन नृत्य में आनन्द न आने की बात पुन: पुन: कहने लगे। श्रीवास भी अत्यन्त भयभीत व चिन्तित होकर खोजने लगे कि घर में कोई बाहर का व्यक्ति तो नहीं है। अपनी सास को घर में छिपी हुई देखकर श्रीवास अत्यन्त दु:खी हुये और उन्होंने उसे केशों से पकड़ लिया तथा घसीट कर घर से बाहर कर दिया। (कारण, महाप्रभु जी के कृपा प्राप्त व्यक्ति को छोड़कर और किसी को भी लीला के दर्शन का अधिकार न था।)]
भवनाथ - परन्तु किसी दूसरे ने निकाला था ।
[ভবনাথ — সে অন্য লোক বার করেছিল।
BHAVANATH: "It was not he but others who did it."
श्रीरामकृष्ण - बिना उनकी सम्मति के क्या वह कभी ऐसा कर सकता था ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁর সম্মতি না থা কলে পারে?"
Could the others have done it without his approval?
"किया क्या जाय ! अगर दूसरे का मन न मिला, तो क्या रातदिन बैठे हुए इसीकी चिन्ता की जाय? जो मन उन्हें देना चाहिए, उसे इधर-उधर लगाये रखकर उसका व्यर्थ खर्च किया करूँ ? मैं कहता हूँ, 'माँ, मैं नरेन्द्र, भवनाथ, राखाल, किसी को नहीं चाहता, मैं तुम्हें चाहता हूँ । आदमी को लेकर मैं क्या करूँ ? घरे आसबेन चण्डी , सुनबो कोतो चण्डी,कोतो आसबेन दण्डी,योगी ,जटाधारी।
अर्थात - जब साक्षात् माँ दुर्गा ही घर में आएगी, तब कितनी बार माँ दुर्गा का नाम सुनुँगा , कितने ही दण्डी स्वामी , योगी और जटाधारी साधुओं का दर्शन प्राप्त होगा !
[“কি করা যায়? ধদি অন্যের মন পাওয়া না গেল। তো রাতদিন কি ওই ভাবতে হবে? যে মন তাঁকে দেব, সে মন এদিক-ওদিক বাজে খরচ করব? আমি বলি, মা, আমি নরেন্দ্র, ভবনাথ, রাখাল কিছুই চাই না, কেবল তোমায় চাই! মানুষ নিয়ে কি করব?“ঘরে আসবেন চণ্ডী, শুনব কত চণ্ডী,কত আসবেন দণ্ডী যোগী জটাধারী!
MASTER: "Could the others have done it without his approval? What can be done? Suppose a man cannot make another love him; must he worry about it day and night? Must I waste my mind, which should be given to God, on useless, things? I say: 'O Mother, I don't want Narendra, Bhavanath, Rakhal, or anybody. I seek Thee alone. What shall I do with man?'When the Blissful Mother comes to my house, how much of the Chandi I shall hear!How many monks will come here, and how many yogis with matted locks!
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🔆🙏जब तक शरीर है -लक्ष्मी और सरस्वती दोनों की कृपा चाहिए 🔆🙏
['सोना मिट्टी है और मिट्टी ही सोना', लेकिन लक्ष्मी जी की कृपा भी आवश्यक]
"उन्हें पा लेने पर सब को पा जाऊँगा । रुपया मिट्टी है और मिट्टी ही रुपया, सोना मिट्टी है और मिट्टी ही सोना, यह कहकर मैंने त्याग किया था - गंगाजी में फेंक दिया था । पीछे से डरा कि लक्ष्मीजी को कहीं क्रोध न आ जाय । लक्ष्मी के ऐश्वर्य की मैंने अवज्ञा की, यदि वे मेरी खुराक बन्द कर दें तो ? तब कहा, माँ, बस तुम्हें चाहता हूँ और कुछ नहीं । उन्हें पाया तो सब कुछ पा गया।"
[“তাঁকে পেলে সবাইকে পাব। টাকা মাটি, মাটিই টাকা — সোনা মাটি, মাটিই সোনা — এই বলে ত্যাগ কল্লুম; গঙ্গার জলে ফেলে দিলুম। তখন ভয় হল যে, মা লক্ষ্মী যদি রাগ করেন। লক্ষ্মীর ঐশ্বর্য অবজ্ঞা কল্লুম। যদি খ্যাঁট বন্ধ করেন। তখন বললুম, মা তোমায় চাই, আর কিছু চাই না; তাঁকে পেলে তবে সব পাব।”]
"When I attain God I shall attain everything. I renounced gold and silver, saying, 'Rupee is clay and clay is rupee; gold is clay and clay is gold.' With these words I threw gold, silver, and clay into the Ganges. Then I was afraid at the thought that Mother Lakshmi might be angry with me because I had treated Her wealth with contempt; that She might even stop my meals. So I prayed to the Divine Mother, 'O Mother, I want Thee and nothing else.' I knew that by realizing Her I should get everything."
भवनाथ - (हँसते हुए) - यह तो पटवारी बुद्धि (व्यापरियों की चतुर- टैक्स बचाने वाली गणना) है ।
[ ভবনাথ (হাসিতে হাসিতে) — এ পাটোয়ারী!
[BHAVANATH (smiling): "This is the shrewd calculation of a business man."]
श्रीरामकृष्ण - हाँ, उतनी चालबाजी है ।
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — হাঁ ওইটুকু পাটোয়ারী!
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94 ]
🔆🙏ईश्वर से क्या वरदान माँगे ?- जो आप मेरे लिए अच्छा समझते हों वही वर दीजिये🔆🙏
"श्रीठाकुरजी ने किसी को दर्शन देकर कहा, तुम्हारी तपस्या देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूँ । तुम अब कोई वरदान माँगो । साधक ने कहा, 'भगवन्, अगर वरदान दीजियेगा तो यह वर दीजिये - मैं सोने की थाली में अपने पोते के साथ भोजन करूँ ^ ।’ इस तरह एक वर में बहुत से वर मिल गये । धन हुआ, लडका हुआ और पोता हुआ ।" (सब हँसे ।)
MASTER (smiling): "Yes, that is so. Once the Lord was pleased with a certain devotee. He appeared before him and said: 'I am very much pleased with your austerities. Ask a boon of Me.' The devotee said, 'O Lord, if You are gracious enough to give me a boon, then please grant that I may eat from gold plates with my grandchildren.' One boon covered many things — wealth, children, and grandchildren." (All laugh.)
[ "मैं सोने की थाली में अपने पोते के साथ भोजन करूँ ^ : प्रतिमा को साक्षात् भगवत् मानने पर ही पूजा से लाभ ॥ मामेकं शरणं व्रज : भगवत् पूजा में मुख्य हेतु भाव ही है । अवस्था, वस्तुएं और आचार आदि सब गौण हैं ।
दृष्टांत कथा – एक अथार्थी भक्त को श्रीहरि के पूजन से धन नहीं मिला तब वह किसी अन्य के उपदेश से भगवत् मूर्ति को ऊंचे ताक में रख कर दुर्गा मूर्ति का पूजन करने लगा । एक दिन उसके मनमें यह भाव उठा कि जो धूप दुर्गा को देता हूं वह भगवत् को पहुँचती होगी । इससे भगवत् मूर्ति के नाक में रुई भरने लगा ।
*प्रतिमा को हरि समझकर, पूजे लाभमहान ।
देत नाशिक में रुई, प्रगट भये भगवान् ॥
उसी क्षण भगवान् प्रसन्न होकर बोले – 'जो इच्छा हो माँगले ।' वह बोला – 'पूजा से तो आप प्रसन्न नहीं हुये और आज नाक में रुई देने से कैसे प्रसन्न हुये ।
'भगवान् – 'जब तू पूजा करता था तब पत्थर की मूर्ति मानता था किन्तु आज तू साक्षात् चेतन रूप मान करके नाक में रुई देने लगा है, यही मेरी प्रसन्नता में कारण है ।' यह कह कर उसे इच्छा के अनुसार वर दे दिया । इससे सूचित होता है कि प्रतिमा(मूर्ति) को साक्षात् भगवान् रूप समझ कर के पूजा करने से ही सफलता मिलाती है ।
साभार https://aneela-daduji.blogspot.com/2021/09/श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- *॥ ५ अर्चना भक्ति ॥**॥
(५)
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94 ]
🔆🙏आराध्यदेव ही हमारे अभिभावक हैं 🔆🙏
भक्तगण कमरे में बैठे हैं । हाजरा बरामदे में ही बैठे हैं ।
Hazra was sitting on the verandah.
श्रीरामकृष्ण - जानते हो, हाजरा क्या चाहता है ? कुछ रुपया चाहता है, घर में ऋण है, इसीलिए जप और ध्यान करता है, कहता है, ईश्वर रुपये देंगे ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাজরা কি চাইছে জান? কিছু টাকা চায়, বাড়িতে কষ্ট। দেনা কর্জ। তা, জপ-ধ্যান করে বলে, তিনি টাকা দেবেন!
"Do you know what Hazra wants? He wants money. His family is in distress; he has debts. He thinks that God will give him money because he devotes himself to japa and meditation."]
एक भक्त - क्या वे मनोरथ की पूर्ति नहीं कर सकते ?
[(তিনি কি বাঞ্ছা পূর্ণ করতে পারেন না?)]
"Can't God fulfil a devotee's desire?"
श्रीरामकृष्ण - यह उनकी इच्छा है । परन्तु प्रेमोन्माद के बिना हुए वे सम्पूर्ण भार नहीं लेते । छोटे बच्चे को, देखो न, हाथ पकड़कर भोजन करने के लिए बैठा देते हैं । बूढ़ों को कौन देता है ? उनकी चिन्ता करके जब आदमी खुद अपना भार नहीं ले सकता, तब ईश्वर उसका भार लेते हैं । हाजरा खुद घर की खबर नहीं लेता । हाजरा के लड़के ने रामलाल से कहा है, 'बाबा से आने के लिए कहना । हम लोग उनसे कुछ माँगेंगे नहीं ।' उसकी बातें सुनकर मेरी आँखों में आँसू भर आये ।
"हाजरा की माँ ने रामलाल से कहा है, 'प्रताप (हाजरा) से एक बार आने के लिए कहना । और अपने चाचा (श्रीरामकृष्ण) से मेरा नाम लेकर कहना जिससे वे उसे आने के लिए कहें ।' मैंने हाजरा से कहा, उसने कुछ ध्यान ही नहीं दिया ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁর ইচ্ছা! তবে প্রেমোন্মাদ না হলে তিনি সমস্ত ভার লন না। ছোট ছেলেকেই হাত ধরে খেতে বসিয়ে দেয়। বুড়োদের কে দেয়? তাঁর চিন্তা ক’রে যখন নিজের ভার নিতে পারে না, তখনই ঈশ্বর ভার লন। “নিজে বাড়ির খবর লবে না! হাজরার ছেলে রামলালের কাছে বলেছে ‘বাবাকে আসতে বলো; আমরা কিছু চাইবো না!’আমার কথাগুলি শুনে কান্না পেল।”]
"If it is His sweet will. But God doesn't take entire responsibility for a devotee unless the devotee is completely intoxicated with ecstatic love for Him. At a feast it is only a child whom one takes by the hand and seats at his place. Who does that with older people? Not until a man thinks so much of God that he cannot look after himself does God take on his responsibilities. Hazra doesn't inquire about his family. His son said to Ramlal: 'Please ask father to come home. We shall not ask anything of him.' These words almost brought tears to my eyes. Hazra's mother said to Ramlal: 'Please ask Pratap (Hazra.) to come home just once. Also ask your uncle (The Master.) to request him to come home.' I told him about it, but he didn't listen to me.
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94 ]
🔆🙏 माँ का स्थान कितना ऊँचा है -क्या उनके आदेश को हल्के में लें ?🔆🙏
"माँ का स्थान कितना ऊँचा है ! चैतन्यदेव ने कितना समझाया था, तब माँ के पास से आ सके थे । शची ने कहा था, 'मैं केशव भारती ^ को काट डालूँगी ।' चैतन्यदेव ने बहुत तरह से समझाया । कहा, 'माँ, तुम्हारी आज्ञा जब तक न होगी, तब तक मैं न जाऊँगा; परन्तु अगर मुझे संसार में रखोगी, तो मेरा शरीर न रह जायगा । और माँ जब तुम मेरी याद करोगी, तभी मैं तुमसे मिलूँगा । मैं पास ही रहा करूँगा । कभी कभी तुमसे मिल जाया करूंगा ।' तब शची ने आज्ञा दी ।
"माँ जब तक थीं, तब तक नारद तपस्या के लिए नहीं निकल सके । माता की सेवा करते थे न ? माता की देह छूट जाने पर वे साधना के लिए निकले थे ।
(श्री चैतन्य के गुरु केशव भारती ^ जिन्होंने चैतन्य महाप्रभु को संन्यास जीवन में दीक्षित क्या था ! ^The guru who initiated Chaitanya into monastic life.)
[“মা কি কম জিনিস গা? চৈতন্যদেব কত বুঝিয়ে তবে মার কাছ থেকে চলে আসতে পাল্লেন। শচী বলেছিল, কেশব ভারতীকে কাটব। চৈতন্যদেব অনেক করে বোঝালেন। বললেন, ‘মা, তুমি না অনুমতি দিললে আমি যাব না। তবে সংসারে যদি আমায় রাখ, আমার শরীর থাকবে না। আর মা, যখন তুমি মনে করবে, আমাকে দেখতে পাবে। আমি কাছেই থাকব, মাঝে মাঝে দেখা দিয়ে যাব।’ তবে শচী অনুমতি দিলেন।“মা যতদিন ছিল, নারদ ততদিন তপস্যায় যেতে পারেননি। মার সেবা করতে হয়েছিল কিনা! মার দেহত্যাগ হলে তবে হরিসাধন করতে বেরুলেন।]
"Is a mother to be trifled with? Before becoming a sannyasi Chaitanyadeva worked hard to persuade his mother to let him renounce home. Mother Sachi said that she would kill Keshab Bharati. ^ Chaitanyadeva did his utmost to persuade her. He said: 'Mother, I shall not renounce home if you won't let me. But if you compel me to lead a householder's life, I shall die. And, mother, even if I go away as a sannyasi, you will be able to see me whenever you desire. I shall stay near you. I shall see you every now and then.' Only when Chaitanya explained it to her thus did she give her permission. Narada could not go to the forest to practise austerity as long as his mother was alive. He had to take care of her. After her death he went away to realize God.]
[(29- सितम्बर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-94 ]
🔆🙏जन्मदात्री माता के प्रति श्रीरामकृष्ण की मातृभक्ति । संकीर्तनानन्द🔆🙏
"वृन्दावन जाकर फिर वहाँ से मेरी लौटने की इच्छा ही नहीं हुई । गंगा माँ के पास रहने का विचार हुआ। सब ठीक हो गया कि इस ओर मेरा बिस्तरा लगाया जायगा, उस ओर गंगा माँ का । अब कलकत्ता न जाऊँगा । केवट का अन्न ^ और कितने दिन खाऊँ ? तब हृदय ने कहा, नहीं, तुम कलकत्ता चलो । एक ओर वह खींचता था, एक ओर गंगा माँ ।
मेरी तो रहने की इच्छा अधिक थी; इसी समय माँ की याद आ गयी । बस सब ठाट बदल गया । माँ बुड्ढी हो गयी थीं । सोचा, माँ की चिन्ता करने लगूँगा तो ईश्वर-फीश्वर का भाव सब उड़ जायगा । अतएव माँ के पास ही चलकर रहना चाहिए । वहीं जाकर ईश्वरचिन्ता करूँगा, निश्चिन्त होकर ।
[“বৃন্দাবনে গিয়ে আর আমার ফিরে আসতে ইচ্ছা হল না। গঙ্গামার কাছে থাকবার কথা হল। সব ঠিকঠাক! এদিকে আমার বিছানা হবে, ওদিকে গঙ্গামার বিছানা হবে, আর কলকাতায় যাব না, কৈবর্তর ভাত আর কতদিন খাব? তখন হৃদে বললে, না তুমি কলকাতায় চল। সে একদিকে টানে, গঙ্গামা আর-একটিকে টানে। আমার খুব থাকবার ইচ্ছা। এমন সময়ে মাকে মনে পড়ল। অমনি সব বদলে গেল। মা বুড়ো হয়েছেন। ভা বলুম মার চিন্তা থাকলে ঈশ্বর-ফীশ্বর সব ঘুরে যাবে। তার চেয়ে তাঁর কাছে যাই। গিয়ে সেইখানে ঈশ্বরচিন্তা করব, নিশ্চিন্ত হয়ে।]
"When I went to Vrindavan I felt no desire to return to Calcutta. It was arranged that I should live with Gangama. (A great woman saint of vrindavan..) Everything was settled. My bed was to be on one side and Gangama's on the other. I resolved not to go back to Calcutta. I said to myself, 'How long must I eat a kaivarta's food?' 'No,' said Hriday to me, 'let us go to Calcutta.' He pulled me by one hand and Gangama pulled me by the other. I felt an intense desire to live at Vrindavan. But just then I remembered my mother. That completely changed everything. She was old. I said to myself: 'My devotion to God will take to its wings if I have to worry about my mother. I would rather live with her. Then I shall have peace of mind and be able to meditate on God.'
(भक्तों से) “आज घोषपाड़ा-फोसपाड़ा की कैसी सब वाहियात बातें हुई । गोविन्द ! गोविन्द ! गोविन्द ! अब जरा ईश्वर का नाम लो । उड़द की दाल के बाद पायस-लड्डू हो जाय ।”
[ (ভক্তদের প্রতি) — “আজ ঘোষপাড়া-ফোষপাড়া কি কথা হল। গোবিন্দ, গোবিন্দ, গোবিন্দ! এখন হরিনাম একটু বল। কড়ার ডাল টড়ার ডালের পর পায়েস মুণ্ডি হয়ে যাক্।”]
"We have talked about filthy things — Ghoshpara and things like that. Govinda! Govinda! Govinda! Now chant the name of Hari. Let there be a dish of rice pudding and sweets after the ordinary lentils."
नरेन्द्र (आदि पुरुष -Primal Purusha) की स्तुति गा कर सुना रहे हैं ---
एक पुरातन पुरुष निरंजने, चित्त समाधान करो रे,
आदि सत्य तिनी कारण-कारण, प्राणरुपे व्याप्त चराचरे,
जीवन्त ज्योतिर्मय, सकलेर आश्रय, देखे सेई जे जन विश्वास करे।
अतिन्द्रिय, नित्य, चैतन्यस्वरुप, विराजित हृदि कंदरे;
ज्ञानप्रेम पुण्य, भूषित नाना गुणे, जाहार चिंतने संताप हरे।
अनंत गुणाधार प्रशांत मूरति, धारणा करिते केहो नाहि पारे,
पदाश्रित जने, देखा देन निज गुणे, दीन-हिन बोले दया करे।
चिर क्षमाशील, कल्याणदाता, निकट सहाय दु:ख सागर;
परम न्यायवान करेन फल दान, पापपुण्य कर्म अनुसारे।
प्रेममय दयासिंधू, कृपानिधि, श्रवणे जार गुण आँखी झरे,
तॉंर मुख देखि, सब होओ रे सुखी, तृषित मन प्राण जॉंर तरे।
विचित्र शोभामय निर्मल प्रकृति, वर्णिते से अपरूप वचन हारे;
भजन साधन तॉंर, करो हे निरंतर, चिर भिकारी होये तॉंर द्वारे।
भावार्थ :"निरंजन पुरातन पुरुष (Primal Purusha) एक हैं, अरे तू उन्हीं पर अपने मन को एकाग्र कर दे । वे आदि-सत्य हैं, वे कारण (माया) के भी कारण (Cause of all causes) हैं । प्राणरूप से वे चराचर में व्याप्त हैं । वे स्वतः प्रकाशित और ज्योतिर्मय हैं । सब के आश्रय हैं । जिसका उन पर विश्वास होता है, वह उनके दर्शन करता है। वे अतीन्द्रिय भूमि (Beyond the senses ) में रहते हैं, नित्य और चैतन्यस्वरूप हैं । पवित्रता, ज्ञान और प्रेम आदि चरित्र के 24 गुणों से सुशोभित चरित्रवान मनुष्य बनने पर वे पुरातन-पुरुष (विवेकज ज्ञान ) मनुष्य के हृदय-गुहा में प्रकट होते हैं। उनका ध्यान करने (विवेक-दर्शन का अभ्यास करने से) मनुष्य दु:खों से मुक्त हो जाता है। उनका मुखमण्डल सदा प्रशांत है , सद्गुणों के अक्षय सागर हैं , उनकी गहराई को नापा नहीं जा सकता ; तथापि जो उनके श्रीचरणों में आश्रय ग्रहण करता है, वे कृपा करके उसके समक्ष स्वयं को प्रकट कर देते हैं। अपने तक (अविनाशी, इन्द्रियातीत सत्य तक ) पहुँचने में असमर्थ भक्तों के प्रति वे दयालु हैं ,क्योंकि वे उसकी लाचारी को जानते हैं , अतः वे अपने भक्तों की भूलों के प्रति सदैव क्षमाशील बने रहते हैं ! खुशियों के दाता है , और दुःख के समुद्र में डूबने से हमें बचाने के लिए सदैव सहायक हैं ! (शिकागो सभा के पहले की घटनायें ?) यद्यपि हमारे भले-बुरे कर्मों का फल देने में अटल न्यायशील हैं , तथापि वे करुणा के सागर हैं। श्रीठाकुर देव प्रेम से भरे दया के सागर हैं , उनकी महिमा सुनने मात्र से भी आंखों से आंसू छलक पड़ते हैं। विवेकानन्द के चेहरे पर टकटकी लगाओ और धन्य हो जाओ ! "Gaze on His face and be blest!" हे मनुष्य (भारत) ! आत्मनिरीक्षण से देखलो कि तुम्हारा हृदय केवल श्रीमाँ -ठाकुर -स्वामीजी के प्यार को पाने के लिए भूखा है ! उनके अवर्णनीय उज्ज्वल चरित्र की सुन्दरता का वर्णन वाणी के द्वारा नहीं हो सकता। इस पवित्र त्रिमूर्ति (the Holy Trinity) के अद्वितीय (peerless) और निष्कलंक जीवन गाथा का वर्णन शब्दों में नहीं हो सकता , मानवजाति के प्रति उनका प्रेम केवल अपने ह्रदय में महसूस किया जा सकता है ! उनकी कृपा-दृष्टि पाने के लिए उनके द्वार पर खड़े एक भिखारी की तरह बनो, दिन-रात उनकी पूजा करो और उनकी कृपा पाने के लिए विनती करते रहो ! ]
[Fasten your mind, O man, on the Primal Purusha, Who is the Cause of all causes, The Stainless One, the Beginning-less Truth. As Prana He pervades the infinite universe; The man of faith beholds Him, Living, resplendent, the Root of all. Beyond the senses, eternal, the Essence of Consciousness, He shines in the cave of the heart, Adorned with Holiness, Wisdom, and Love; By meditating on Him, man is delivered from grief. Of countenance ever serene, An inexhaustible Ocean of Virtue, None can fathom His depths; yet freely, of His own grace, Does He reveal Himself, To those who come to His feet for shelter, Merciful since they are helpless and He is the Ever-forgiving, The Giver of happiness, The Ready Help in the sea of our woe. Unswervingly just, bestowing the fruits of our deeds, good and ill, Yet is He the Fount of Compassion, The Ocean of Mercy brimming with Love; Even to hear of His glory suffuses the eyes with tears. Gaze on His face and be blest: Your heart is hungry for Him, O man! Bright with unspeakable beauty, peerless and without stain, No words can ever describe Him; Be as a beggar before His gate And worship Him day and night, beseeching Him for His grace.
नरेन्द्र एक गाना और गा रहे हैं --
चिदाकाशे होलो पूर्ण प्रेमचंद्रोदय हे;
उथलिलो प्रेमसिंधू कि आनंदमय हे।
(जय दयामय, जय दयामय, जय दयामय )
(২) - চিদাকাশে হল পূর্ণ প্রেমচন্দ্রোদয় হে।
श्रीरामकृष्ण उठकर नाचने लगे । उन्हें घेरकर भक्तगण भी नाच रहे हैं । सब लोग एक साथ कीर्तन गाते हुए नाच रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने भी एक गाना गाया -
शिव संगे सदा रंगे आनन्दे मगना,
सूधा पाने ढल ढल ढले किन्तु पोड़े ना॥
विपरित रतातूरा पदभरे कांपे धरा,
उभये पागलेर पारा लज्जा भय आर माने ना॥
শিব সঙ্গে সদা রঙ্গে আনন্দে মগনা,
ध्यान से देखो मेरी माँ महाकाली आनन्द के परमानन्द में खोई हुई महाकाल शिव के साथ खेल रही है, है! . . .Behold my Mother playing with Siva, lost in an ecstasy of joy! . . .
मास्टर ने भी गाया था । श्रीरामकृष्ण को इसकी बड़ी खुशी है । गाना हो जाने पर श्रीरामकृष्ण हँसते हुए मास्टर से कह रहे हैं, "अच्छा खोल बजानेवाला होता तो गाना और जमता । ताक्ताक् ता धिना, दाक्, दाक् दा धिना, ये सब बोल बजते !" कीर्तन होते होते शाम हो गयी ।
[মাস্টার সঙ্গে গাহিয়াছিলেন দেখিয়া ঠাকুর বড় খুশি! গান হইয়া গেলে ঠাকুর মাস্টারকে সহাস্যে বলিতেছেন, বেশ খুলি হত, তাহলে আরও জমাট হত। তাক তাক তা ধিনা, দাক দাক দা ধিনা; এই সব বোল বাজবে!
Sri Ramakrishna was highly pleased because M. had joined in the music. He said to M., with a smile, "The atmosphere would have been more intense with divine fervour if a drum had accompanied the music and played: 'Tak tak ta dhina! Dak dak da dhina!'
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[कारणानन्द ^ *माण्डूक्य उपनिषद,गौड़पादीय कारिका , शंकर भाष्य सहित , आनन्दगिरि टीका.* (ब्लॉग सोमवार, 20 जुलाई 2020)/ https://vivek-jivan.blogspot.com/2020/07/=जीव कहलाता अवस्था-त्रय वाला -अवस्थी !(जी-😂) और ब्रह्म तो हैं अन-अवस्थी ! बिम्ब ही मन की द्रवावस्था में पड़कर प्रतिबिम्ब कहा जाता है। “आनन्दाध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते”,“आनन्देन जातानि जीवन्ति, आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति” इत्यादि श्रुतियों से प्रपंच की आनन्दात्मक ब्रह्मैक्योत्पादन निमित्तिकता सिद्ध होती है। विषयावच्छिन्न चैतन्य ही द्रुत अन्तःकरण की वृत्ति में उपारूढ़ होकर स्थायी भाव और रसस्वरूप हो जाता है। कान्तादि विषय भी कारणानन्द रूप ही हैं। कान्तादि लौकिक रस भी परमानन्द रूप ही है। फिर भी जड़ के सम्पर्क से उसमें न्यूनता है। मायाकृत आवरण और विक्षेप के कारण उनकी अखण्डानन्द रूप से प्रतीति नहीं होती। भक्ति में अनवच्छिन्न चिदानन्दघन भगवान का स्फुरण होने से उसकी परमानन्दरूपता स्फुट ही है। "सुरेन्द्र सुरापान करते थे। ठाकुर ने सुरेन्द्र से और भी कहा, पहले कारणानन्द होगा, फिर भजनानन्द। [तब से सुरेन्द्र वैसा ही करने लगे। संध्या के समय वे सभी कर्म से निवृत होकर थोड़ी-सी थोड़ी-सी मदिरा माँ काली को निवेदित करते और उसी प्रसाद को..."श्रीरामकृष्ण : एक जीवनी" स्वामी निखिलानन्द (Swami Nikhilananda : Sri Ramakrishna Ek Jivani- Biography & Autobiography) ]