[(2,3 फरवरी, 1884 )परिच्छेद ~75, श्रीरामकृष्ण वचनामृत ].
परिच्छेद- ७५
(१)
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-75]
[दक्षिणेश्वर में राखाल, लाटू, मास्टर, महिमाचरण आदि के साथ]
🔆श्री रामकृष्ण के हाथ में चोट - समाधि और जगतजननी से वार्तालाप 🔆
[শ্রীরামকৃষ্ণের হস্তে আঘাত — সমাধি ও জগন্মাতার সহিত কথা ]
एक दिन श्रीरामकृष्ण भावावेश में झाऊतल्ले की ओर जा रहे थे । साथ में किसी के न रहने के कारण रेलिंग के पास गिर गये । इससे उनके बायें हाथ की हड्डी हट गयी और गहरी चोट आ गयी । मास्टर कलकत्ते से चोट में बाँधने का सामान लेने गये हैं ।
श्रीयुत राखाल, महिमाचरण, हाजरा आदि भक्त कमरे में बैठे हैं । मास्टर ने आकर भूमिष्ठ हो श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।
{ঠাকুর দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে সেই ঘরে অবস্থিতি করিতেছেন। বেলা তিনটা। শনিবার, ২রা ফেব্রুয়ারি, ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ; ২০শে মাঘ, ১২৯০ সাল, মাঘ শুক্লা ষষ্ঠীএকদিন ঠাকুর ভাবাবিষ্ট হইয়া ঝাউতলার দিকে যাইতেছেন; সঙ্গে কেহ না থাকাতে রেলের কাছে পড়িয়া যান। তাহাতে তাঁহার বাম হাতের হাড় সরিয়া যায় ও খুব আঘাত লাগে। মাস্টার কলিকাতা হইতে ভক্তদের নিকট হইতে বাড়্, প্যাড ও ব্যাণ্ডেজ আনিয়াছেন।
Saturday, February 2, 1884/IT WAS THREE O'CLOCK in the afternoon. Sri Ramakrishna had been conversing with Rakhal, Mahimacharan, Hazra, and other devotees, when M. entered the room and saluted him. He brought with him splint, pad, and lint to bandage the Master's injured arm. One day, while going toward the pine-grove, Sri Ramakrishna had fallen near the railing and dislocated a bone in his left arm. He had been in an ecstatic mood at the time and no one had been with him.]
श्रीरामकृष्ण – क्यों जी, तुम्हें कौनसी बीमारी हुई थी? अब तो अच्छे हो न?
{শ্রীরামকৃষ্ণ — কিগো! তোমার কি ব্যারাম হয়েছিল? এখন সেরেছে তো?
MASTER (to M.): "Hello! What was ailing you? Are you quite well now?"
मास्टर – जी हाँ ।
{মাস্টার — আজ্ঞে, হাঁ।
M: "Yes, sir, I am all right now."
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-75]
🔆'यदि सचमुच तुम ऑपरेटर और मैं मशीन हूँ '- तो 'मेरा' हाथ क्यों टूटा ? 🔆
श्रीरामकृष्ण –(महिमाचरण से) – क्यों जी, यहाँ का भाव है, ‘तुम ऑपरेटर (यन्त्री) हो – मैं मशीन (यन्त्र) हूँ ।’ फिर भी इस तरह क्यों हुआ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মহিমার প্রতি) — হ্যাঁগা, “আমি যন্ত্র, তুমি যন্ত্রী” — তবে এরকম হল কেন?
MASTER (to Mahima): "Well, if I am the machine and God is its Operator, then why should this have happened to me?"
श्रीरामकृष्ण खाट पर बैठे हैं । महिमाचरण अपने तीर्थ-दर्शन की बातें कह रहे हैं । श्रीरामकृष्ण सुन रहे हैं । बारह वर्ष पहले का तीर्थ-दर्शन ।
[ঠাকুর তক্তার উপর বসিয়া আছেন। মহিমাচরণ নিজের তীর্থদর্শনের গল্প করিতেছেন। ঠাকুর শুনিতেছেন। দ্বাদশ বৎসর পূর্বে তীর্থদর্শন।
The Master was sitting on the couch, listening to the story of Mahimacharan's pilgrimage. Mahima had visited several holy places twelve years before.
महिमाचरण – काशी के निकट सिकरौल ^*में एक बगीचे में मैंने एक ब्रह्मचारी देखा । उसने कहा, इस बगीचे में मैं बीस साल से हूँ । परन्तु किसका बगीचा है, वह नहीं जानता था । मुझसे पूछा, क्यों बाबू, नौकरी करते हो ? मैंने कहा – नहीं । तब उसने कहा, तो क्या परिव्राजक हो ?
“नर्मदा-तट पर एक साधु देखा था । अन्तर में गायत्री का जप कर रहे थे, शरीर पुलकायमान हो रहा था! और वे इस तरह प्रणव और गायत्री का उच्चारण कर रहे थे कि सुननेवालों को भी रोमांच हो रहा था।”
[सिकरौल (Sikraul, बनारस) : धार्मिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो इस वार्ड में श्री श्री शक्ति माता मंदिर, शिव-साधना मंदिर, नोना -देवी मंदिर, प्राचीन चौरा-माता मंदिर इत्यादि मौजूद हैं. )
মহিমাচরণ — কাশী সিক্রোলের একটি বাগানে একটি ব্রহ্মচারী দেখলাম। বললে, “এ-বাগানে কুড়ি বছর আছি। কিন্তু কার বাগান জানি না।” আমায় জিজ্ঞাসা করলে, “নৌকরী কর বাবু?” আমি বললাম, না। তখন বলে, “কেয়া, পরিব্রাজক হ্যায়?”নর্মদাতীরে একটি সাধু দেখলাম, অন্তরে গায়ত্রী জপ কচ্ছেন — শরীরে পুলক হচ্ছে। আবার এমন প্রণব আর গায়ত্রী উচ্চারণ করেন যে যারা বসে থাকে তাদের রোমাঞ্চ আর পুলক হয়।
MAHIMA: "I found a brahmachari in a garden at Sikrole in Benares. He said he had been living there for twenty years but did not know its owner. He asked me if I worked in an office. On my answering in the negative, he said, 'Then are you a wandering holy man?' I saw a sadhu on the bank of the Narmada. He repeated the Gayatri mentally. It so thrilled him that the hair on his body stood on end. And when he repeated the Gayatri and Om aloud, it thrilled those who sat near him and caused their hair to stand on end."
श्रीरामकृष्ण का बालकों का सा स्वभाव है – भूख लगी है; मास्टर से कह रहे हैं, “क्यों कुछ लाये हो ?” राखाल को देखकर श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये ।
[ঠাকুরের বালকস্বভাব, — ক্ষুধা পাইয়াছে; মাস্টারকে বলিতেছেন, “কি, কি এনেছ?” রাখালকে দেখিয়া ঠাকুর সমাধিস্থ হইলেন।
The Master was in the mood of a child. Being hungry he said to M., "What have you brought for me?" Looking at Rakhal he went into samadhi.]
समाधि छुट रही है । प्रकृतिस्थ होने के लिए श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं – ‘मैं जलेबी खाऊँगा’ , मैं जल पिऊँगा ।’
[সমাধি ভঙ্গ হইতেছে। প্রকৃতস্থ হইবার জন্য ঠাকুর বলিতেছেন — “আমি জিলিপি খাব”, “আমি জল খাব!”
He was gradually coming down to the normal plane. To bring his mind back to the consciousness of the body, he said: "I shall eat some jilipi. I shall drink some water."
बालस्वभाव श्रीरामकृष्ण जगन्माता से रोकर कह रहे हैं – ‘ब्रह्ममयी ! मुझे ऐसा क्यों कर दिया ? मेरे हाथ में बड़ा दर्द हो रहा है !’ (राखाल, महिमाचरण, हाजरा आदि के प्रति) – ‘मेरा दर्द अच्छा हो जायगा?’ भक्तगण, छोटे लड़के को जिस तरह लोग समझाते हैं, उसी तरह कहने लगे – ‘अच्छा क्यों न होगा ?’
{ঠাকুর বালকস্বভাব, — জগন্মাতাকে কেঁদে কেঁদে বলছেন — ব্রহ্মময়ী! আমার এমন কেন করলি? আমার হাতে বড় লাগছে। (রাখাল, মহিমা, হাজরা প্রভৃতির প্রতি) — আমার ভাল হবে? ভক্তেরা ছোট ছেলেটিকে যেমন বুঝায় — সেইরূপ বলছেন “ভাল হবে বইকি!”
Weeping like a child, he said to the Divine Mother: "O Brahmamayi! O Mother! Why hast Thou done this to me? My arm is badly hurt. (To the devotees) Will I be all right again?" They consoled him, as one would a child, and said: "Surely. You will be quite well again."
श्रीरामकृष्ण – (राखाल से) – यद्यपि तू शरीर-रक्षा के लिए है, तथापि तेरा दोष नहीं, क्योंकि तू रहने पर भी रेलिंग तक तो जाता नहीं ।
{শ্রীরামকৃষ্ণ (রাখালের প্রতি) — যদিও শরীর রক্ষার জন্য তুই আছিস, তোর দোষ নাই। কেননা, তুই থাকলেও রেল পর্যন্ত তো যেতিস না।
MASTER (to Rakhal): "You aren't to blame for it, though you are living here to look after me; for even if you had accompanied me, you certainly wouldn't have gone up to the railing."
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-75 ]
🔆श्री रामकृष्ण का सन्तानभाव - "ब्रह्मज्ञान को मेरा करोड़ों नमस्कार" 🔆
[শ্রীরামকৃষ্ণের সন্তানভাব — “ব্রহ্মজ্ঞানকে আমার কোটি নমস্কার” ]
श्रीरामकृष्ण फिर भावाविष्ट हो गये । भावावेश में ही कह रहे हैं – ‘ॐ, ॐ, ॐ, - माँ, मैं क्या कह रहा हूँ ! माँ, मुझे ब्रह्मज्ञान देकर बेहोश न करना । मैं तेरा बच्चा जो हूँ ! डरता हूँ – मुझे माँ चाहिए । ब्रह्मज्ञान को मेरा कोटि कोटि नमस्कार ! वह जिसे देना हो उसे दो । आनन्दमयी ! – आनन्दमयी !’
{ঠাকুর আবার ভাবাবিষ্ট হইলেন। ভাবাবিষ্ট হইয়া বলিতেছেন —“ওঁ ওঁ ওঁ — মা আমি কি বলছি! মা, আমায় ব্রহ্মজ্ঞান দিয়ে বেহুঁশ করো না — মা আমায় ব্রহ্মজ্ঞান দিও না। আমি যে ছেলে! — ভয়তরাসে। — আমার মা চাই — ব্রহ্মজ্ঞানকে আমার কোটি নমস্কার। ও যাদের দিতে হয়, তাদের দাও গে। আনন্দময়ী! আনন্দময়ী!”
The Master again went into a spiritual mood and said: "Om! Om! Om! Mother, what is this that I am saying? Don't make me unconscious, Mother, with the Knowledge of Brahman. Don't give me Brahmajnana. I am but Thy child. I am easily worried and frightened. I want a Mother. A million salutations to the Knowledge of Brahman! Give it to those who seek it. O Anandamayi! O Blissful Mother!"
श्रीरामकृष्ण उच्च स्वर से आनन्दमयी, आनन्दमयी कहकर रो रहे हैं और कह रहे हैं – ‘इसलिए तो मुझे दुःख है कि तुम जैसी माँ के रहते, मेरे जागते, घर में चोरी हो जाय ।’
{ঠাকুর উচ্চৈঃস্বরে আনন্দময়ী! আনন্দময়ী! বলিয়া কাঁদিতেছেন আর বলিতেছেন —“আমি ওই খেদে খেদ করি (শ্যামা)। তুমি মাতা থাকতে আমার জাগা ঘরে চুরি ৷৷”
Uttering loudly the word "Anandamayi", he burst into tears and said: Mother, this is the grief that sorely grieves my heart, That even with Thee for Mother, and though I am wide awake, There should be robbery in my house.}
श्रीरामकृष्ण फिर माँ से कह रहे हैं – ‘माँ, मैंने क्या अन्याय किया है? – क्या मैं कुछ करता हूँ, माँ ! तू ही तो सब कुछ करती है । मैं यन्त्र (मशीन) हूँ, तू यन्त्री (ऑपरेटर) । (राखाल के प्रति हँसते हुए) देखना, तू कहीं गिर न जाना, अभिमानवश स्वयं को कहीं ठगना नहीं ।’
{ঠাকুর আবার মাকে বলিতেছেন — “আমি কি অন্যায় করেছি মা? আমি কি কিছু করি মা? — তুই যে সব করিস মা! আমি যন্ত্র, তুমি যন্ত্রী! (রাখালের প্রতি, সহাস্যে) দেখিস, তুই যেন পড়িস নে। মান করে যেন ঠকিস না।
Again he said to the Divine Mother: "What wrong have I done. Mother? Do I ever do anything? It is Thou, Mother, who doest everything. I am the machine and Thou art its Operator.(To Rakhal, smiling) "See that you don't fall! Don't be piqued and cheat yourself."
श्रीरामकृष्ण माँ से फिर कह रहे हैं – “माँ, चोट लग जाने से मैं रोता हूँ ? – नहीं मैं तो इसलिए रोता हूँ कि ‘तुम जैसी माँ के रहते, मेरे जागते, घर में चोरी हो ।’
{ঠাকুর মাকে আবার বলিতেছেন — “মা, আমি লেগেছে বলে কি কাঁদছি? না। —“আমি ওই খেদে খেদ করি (শ্যামা)।তুমি মাতা থাকতে আমার জাগা ঘরে চুরি ৷৷”
Again addressing the Mother, Sri Ramakrishna said: "Do I weep because I am hurt? Not at all. Mother, this is the grief that sorely grieves my heart, That even with Thee for Mother, and though I am wide awake, There should be robbery in my house."
(२)
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-75 ]
🔆वे अपने बाप, अपनी माँ हैं – उन पर अपना जोर चल सकता है ।- व्याकुल होओ । 🔆
[কি করে ঈশ্বরকে ডাকতে হয় — “ব্যাকুল হও”]
श्रीरामकृष्ण बच्चे की तरह फिर हँस रहे हैं और बातचीत कर रहे हैं – जैसे बालक ज्यादा बीमार पड़ने पर भी कभी कभी हँसी-खेल की ओर चला जाता है । श्रीरामकृष्ण महिमा आदि भक्तों से बातचीत कर रहे हैं ।
{ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বালকের ন্যায় আবার হাসিতেছেন ও কথা কহিতেছেন — বালক যেমন বেশি অসুখ হলেও এক-একবার হেসে খেলে বেড়ায়। মহিমাদি ভক্তের সহিত কথা কহিতেছেন।
The Master was again talking and laughing, like a child who, though ailing, sometimes forgets his illness and laughs and plays about.]
श्रीरामकृष्ण - सच्चिदानन्द को प्राप्त नहीं किया तो कुछ न हुआ, भाई ।
“विवेक और वैराग्य के सदृश और दूसरी चीज नहीं है ।
“संसारियों का अनुराग क्षणिक है । तभी तक है जब तक तपे हुए तवे पर पानी रहता है ! – कभी शायद एक फूल को देखकर कह दिया – अहा ! ईश्वर की कैसी विचित्र सृष्टि है !”
[শ্রীরামকৃষ্ণ — সচ্চিদানন্দ লাভ না হলে কিছুই হল না বাবু! “বিবেক-বৈরাগ্যের ন্যায় আর জিনিস নাই। “সংসারীদের অনুরাগ ক্ষণিক — তপ্ত খোলায় জল যতক্ষণ থাকে — একটি ফুল দেখে হয়তো বললে, আহা! কি চমৎকার ঈশ্বরের সৃষ্টি!
MASTER (to the devotees): "It will avail you nothing unless you realize Satchidananda. There is nothing like discrimination and renunciation. The worldly man's devotion to God is momentary — like a drop of water on a red-hot frying-pan. Perchance he looks at a flower and exclaims, 'Ah, what a wonderful creation of God!'
व्याकुलता चाहिए । जब लड़का सम्पत्ति का अपना हिस्सा अलग कर देने के लिए अपने माँ-बाप को परेशान करने लगता है तब माँ-बाप दोनों आपस में सलाह करके लड़के का हिस्सा तुरन्त दे देते हैं । व्याकुल होने से ईश्वर जरुर सुनेंगे । जब उन्होंने हमें पैदा किया है, तब सम्पत्ति में हमारा भी हिस्सा है । वे अपने बाप, अपनी माँ हैं – उन पर अपना जोर चल सकता है । हम उनसे कह सकते हैं, ‘मुझे दर्शन दो, नहीं तो गले में छुरी मार लूँगा ।’
[“ব্যাকুলতা চাই। যখন ছেলে বিষয়ের ভাগের জন্য ব্যতিব্যস্ত করে, তখন বাপ-মা দুজনে পরামর্শ করে, আর ছেলেকে আগেই হিস্যা ফেলে দেয়। ব্যাকুল হলে তিনি শুনবেনই শুনবেন। তিনি যে কালে জন্ম দিয়েছেন, সে কালে তাঁর ঘরে আমাদের হিস্যা আছে। তিনি আপনার বাপ, আপনার মা — তাঁর উপর জোর খাটে! ‘দাও পরিচয়। নয় গলায় ছুরি দিব!”
"One must be restless for God. If a son clamours persistently for his share of the property, his parents consult with each other and give it to him eve though he is a minor. God will certainly listen to your prayers if you feel restless for Him. Since He has begotten us, surely we can claim our inheritance from Him. He is our own Father, our own Mother. We can force our demand on Him. We can say to Him, 'Reveal Thyself to me or I shall cut my throat with a knife!'"
किस तरह माँ को पुकारना चाहिए, श्रीरामकृष्ण बतला रहे हैं ।
– मैं माँ को इस तरह पुकारता था – माँ आनन्दमयी, तुम्हें दर्शन देना होगा ।
“फिर कभी कहता था – हे दीनानाथ ! जगन्नाथ ! मैं जगत् से अलग थोड़े ही हूँ ? मैं ज्ञानहीन हूँ, भक्तिहीन हूँ, साधनहीन हूँ, मैं कुछ भी नहीं जानता – कृपा करके दर्शन देना होगा !”
{কিরূপে মাকে ডাকিতে হয়, ঠাকুর শিখাইতেছেন — “আমি মা বলে এইরূপে ডাকতাম — ‘মা আনন্দময়ী! — দেখা দিতে যে হবে!’ —“আবার কখন বলতাম — ওহে দীননাথ — জগন্নাথ — আমি তো জগৎ ছাড়া নই নাথ! আমি জ্ঞানহীন — সাধনহীন — ভক্তিহীন — আমি কিছুই জানি না — দয়া করে দেখা দিতে হবে।
”Sri Ramakrishna taught the devotees how to call on the Divine Mother. MASTER: "I used to pray to Her in this way: 'O Mother! O Blissful One! Reveal Thyself to me. Thou must!' Again, I would say to Her: 'O Lord of the lowly! O Lord of the universe! Surely I am not outside Thy universe. I am bereft of knowledge. I am without discipline. I have no devotion. I know nothing. Thou must be gracious and reveal Thyself to me.'
श्रीरामकृष्ण अत्यन्त करुण स्वर में गाने के ढंग पर बतला रहे हैं, किस तरह उन्हें पुकारना चाहिए । वह करूण स्वर सुनकर भक्तों का हृदय द्रवीभूत हो रहा है, महिमाचरण की आँखों से धारा बह रही है ...
{ঠাকুর অতি করুণ স্বরে সুর করিয়া, কিরূপে তাঁহাকে ডাকিতে হয়, শিখাইতেছেন। সেই করুণ স্বর শুনিয়া ভক্তদের হৃদয় দ্রবীভূত হইতেছে, — মহিমাচরণ চক্ষের জলে ভাসিয়া যাইতেছেন।
Thus the Master taught the devotees how to pray. They were deeply touched. Tears filled Mahimacharan's eyes.
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75 ]
🔆Be and Make के लिए -राष्ट्र को आह्वान किस तरह करना चाहिये 🔆
महिमाचरण को देखकर श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं – "डाक देखि , मन डाकार मोतोन केमोन श्यामा थाकते पारे ! " “मन ! जिस तरह पुकारना चाहिए, उसी तरह तुम पुकारो तो सही, फिर देखो, कैसे श्यामा रह सकती है !”
[মহিমাচরণকে দেখিয়া ঠাকুর আবার বলিতেছেন —“ডাক দেখি মন ডাকার মতন কেমন শ্যামা থাকতে পারে!”
Sri Ramakrishna looked at him and sang: Cry to your Mother Syama with a real cry, O mind! And how can She hold Herself from you? How can Syama stay away? . . .
(३)
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 75]
🔆शिवपुर के भक्तगण आध्यात्मिक जीवन के आधारभूत तथ्य (essentials of spiritual life) 🔆
[শিবপুর ভক্তগণ ও আমমোক্তারি (বকলমা) ]
कुछ भक्त शिवपुर से आये हैं । वे लोग इतनी दूर से कष्ट उठाकर आये हैं, श्रीरामकृष्ण और अधिक चुप न रह सके । चुनी हुई बातें उनसे कह रहे हैं ।
{শিবপুর হইতে ভক্তেরা আসিলেন। তাহারা অত দূর হইতে কষ্ট করিয়া আসিয়াছেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ আর চুপ করিয়া থাকিতে পারিলেন না। সার সার গুটিকতক কথা তাহাদিগকে বলিতেছেন।
Several devotees arrived from Shibpur. Since they had come from a great distance the Master could not disappoint them. He told them some of the essentials of spiritual life.
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75]
🔆सत्य,असत्य,मिथ्या में विवेक करो, 🔆
श्रीरामकृष्ण – (शिवपुर के भक्तों से) – ईश्वर ही सत्य है, और सब अनित्य बाबू और बगीचा । ईश्वर और उनका ऐश्वर्य । लोग बगीचा ही देख लेते हैं, पर बाबू को कितने लोग देखना चाहते हैं ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ (শিবপুরের ভক্তদের প্রতি) — ঈশ্বরই সত্য আর সব অনিত্য। বাবু আর বাগান। ঈশ্বর ও তাঁর ঐশ্বর্য। লোকে বাগানই দেখে, বাবুকে চায় কয়জনে?
MASTER: "God alone is real, and all else illusory. The garden and its owner. God and His splendour. But people look at the garden only. How few seek out the owner!"]
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75 ]
🔆'गंगा की तरंगें हैं , तरंगों की गंगा नहीं' 🔆
भक्त – अच्छा, फिर उपाय क्या है ?
ভক্ত — আজ্ঞা, উপায় কি?
A DEVOTEE: "Sir, what is the way?"
श्रीरामकृष्ण – सदसद्-विचार । वे ही सत्य हैं और सब अनित्य, इसका सर्वदा विचार करना, और व्याकुल होकर उन्हें पुकारना ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — সদসৎ বিচার। তিনি সত্য আর সব অনিত্য — এইটি সর্বদা বিচার। ব্যাকুল হয়ে ডাকা।
MASTER: "Discrimination between the Real and the unreal. One should always discriminate to the effect that God alone is real and the world unreal. And one should pray with sincere longing."
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75]
🔆समय नहीं है ,तो दोनों समय भक्तिपूर्वक दो बार प्रणाम करें 🔆
[समय नहीं है, तो आममुख्तारी (power of attorney) दे दो]
भक्त – जी, समय कहा है ?
[ভক্ত — আজ্ঞে, সময় কই?
DEVOTEE: "But, sir, where is our leisure for these things?"
श्रीरामकृष्ण – जिन्हें समय है वे ध्यान-भजन करेंगे ।
“जो लोग बिलकुल कुछ न कर सकें वे दोनों समय भक्तिपूर्वक दो बार प्रणाम करें । वे भी तो अन्तर्यामी हैं, वे समझते हैं कि ये क्या करते हैं । तुम्हें कितने ही काम हैं । तुम्हें पुकारने का समय नहीं, तो उन्हें आममुख्तारी दे दो; परन्तु अगर उन्हें पा न सके, उनके दर्शन न कर सके, तो कुछ न हुआ ।”
[শ্রীরামকৃষ্ণ — যাদের সময় আছে, তারা ধ্যান-ভজন করবে।“যারা একান্ত পারবে না তারা দুবেলা খুব দুটো করে প্রণাম করবে। তিনি তো অন্তর্যামী, — বুঝছেন যে, এরা কি করে! অনেক কাজ করতে হয়। তোমাদের ডাকবার সময় নাই, — তাঁকে আমমোক্তারি (বকলমা) দাও। কিন্তু তাঁকে লাভ না করলে — তাঁকে দর্শন না করলে, কিছুই হল না।”
MASTER: "Those who have the time must meditate and worship. But those who cannot possibly do so must bow down whole-heartedly to God twice a day. He abides in the hearts of all; He knows that worldly people have many things to do. What else is possible for them? You don't have time to pray to God; therefore give Him the power of attorney. But all is in vain unless you attain God and see Him."
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत - 75 ]
🔆अहंकार बिना गए कोई उन्हें पा नहीं सकता 🔆
एक भक्त – आपको देखना और ईश्वर को देखना बराबर है ।
একজন ভক্ত — আজ্ঞা, আপনাকে দেখাও যা ঈশ্বরকে দেখাও তা।
ANOTHER DEVOTEE: "Sir, to see you is the same as to see God."
श्रीरामकृष्ण – यह बात अब फिर न कहो । गंगा की ही तरंग है, परन्तु तरंगों की गंगा नहीं । मैं इतना बड़ा आदमी हूँ, मैं अमुक (पदाधिकारी ) हूँ – यह सब अहंकार बिना गये उन्हें कोई पा नहीं सकता । ‘मैं’ रूपी मेंड़ को भक्ति के आँसुओं से भिगोकर जमीन बना दो ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ও-কথা আর বলো না। গঙ্গারই ঢেউ, ঢেউ-এর কিছু গঙ্গা নয়। আমি এত বড় লোক, আমি অমুক — এই সব অহংকার না গেলে তাঁকে পাওয়া যায় না। ‘আমি’ ঢিপিকে ভক্তির জলে ভিজিয়ে সমভূমি করে ফ্যালো।
MASTER: "Don't ever say that again. The waves belong to the Ganges, not the Ganges to the waves. A man cannot realize God unless he gets rid of all such egotistic ideas as 'I am such an important man' or 'I am so and so'. Level the mound of 'I' to the ground by dissolving it with tears of devotion."
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 75]
🔆गृहस्थ जीवन क्यों मिला ? भोग के बाद व्याकुलता होगी ,तब ईश्वरलाभ की इच्छा 🔆
[কেন সংসার? ভোগান্তে ব্যাকুলতা ও ঈশ্বরলাভ ]
भक्त – संसार (गृहस्थ जीवन) में क्यों उन्होंने ने रखा है ?
ভক্ত — সংসারে কেন তিনি রেখেছেন?
DEVOTEE: "Why has God put us in the world?"
श्रीरामकृष्ण – सृष्टि के लिए रखा है, उनकी इच्छा । उनकी माया । कामिनी-कांचन देकर उन्होंने रखा है ।
{শ্রীরামকৃষ্ণ — সৃষ্টির জন্য রেখেছেন। তাঁর ইচ্ছা। তাঁর মায়া। কামিনী-কাঞ্চন দিয়ে তিনি ভুলিয়ে রেখেছেন।
MASTER: "To perpetuate His creation. It is His will, His maya. He has deluded man with 'woman and gold'."
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-75 ]
🔆उनके सच्चिदानन्द स्वरुप का चिन्तन करने पर रम्भा -तिलोत्तमा चिता की भष्म🔆
भक्त – क्यों भुलाकर रखा है ? क्या उनकी यह इच्छा है ?
[ভক্ত — কেন ভুলিয়ে রেখেছেন? কেন, তাঁর ইচ্ছা?
DEVOTEE: "Why has He deluded us? Why has He so willed?"
श्रीरामकृष्ण – वे अगर ईश्वरीय आनन्द एक बार दे दें तो फिर कोई गृहस्थ जीवन में ही न रहे – फिर सृष्टि ही न चले !
{শ্রীরামকৃষ্ণ — তিনি যদি ঈশ্বরের আনন্দ একবার দেন তাহলে আর কেউ সংসার করে না, সৃষ্টিও চলে না।
MASTER: "If but once He should give man a taste of divine joy, then man would not care to lead a worldly life. The creation would come to an end.
“चावल की आढ़त में बड़ी-बड़ी गोदामों में चावल रहता है । चावल का पता कहीं चूहों को न लग जाय इस डर से दूकानदार गोदाम के सामने एक ओर गुड़ मिलाकर लावे (खिलें) रख देता है । मीठा लगने से चूहे रात भर वही खाते रहते हैं । चावल की खोज के लिए उतावले होते ही नहीं ।
“ परन्तु देखो, सेर भर चावल के १४ सेर लावे होते हैं । कामिनी-कांचन के आनन्द से ईश्वर आनन्द कितना अधिक है ! उनके स्वरूप का चिन्तन करने से रम्भा और तिलोत्तमा का रूप चिता की भस्म के समान जान पड़ता है ।”
{“চালের আড়তে বড় বড় ঠেকের ভিতরে চাল থাকে। পাছে ইঁদুরগুলো ওই চালের সন্ধান পায়, তাই দোকানদার একটা কুলোতে খই-মুড়কি রেখে দেয়। ওই খই-মুড়কি মিষ্টি লাগে, তাই ইঁদুরগুলো সমস্ত রাত কড়র মড়র করে খায়। চালের সন্ধান আর করে না। “কিন্তু দেখো, একসের চালে চৌদ্দগুণ খই হয়। কামিনী-কাঞ্চনের আনন্দ অপেক্ষা ঈশ্বরের আনন্দ কত বেশি। তাঁর রূপ চিন্তা করলে রম্ভা তিলোত্তমার রূপ চিতার ভস্ম বলে বোধ হয়।”
"The grain-dealer stores rice in huge bags in his warehouse. Near them he puts some puffed rice in a tray. This is to keep the rats away. The puffed rice tastes sweet to the rats and they nibble at it all night; they do not seek the rice itself. But just think! One seer of rice yields fourteen seers of puffed rice. How infinitely superior is the joy of God to the pleasure of 'woman and gold'! To one who thinks of the beauty of God, the beauty of even Rambha and Tilottama (Two celestial dancing-girls of exquisite beauty) appears as but the ashes of a funeral pyre."
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75 ]
🔆भोगों (Bh) का अन्त हुए बिना जगन्माता (माँ काली) की याद नहीं आती🔆
[या बिना पहचान का आदमी (अवतार ,नेता ,गुरु) पर विश्वास नहीं होता]
भक्त – उन्हें पाने के लिए व्याकुलता क्यों नहीं होती ?
{ভক্ত — তাঁকে লাভ করবার জন্য ব্যাকুলতা কেন হয় না?
DEVOTEE: "Why do we not feel intense restlessness to realize Him?"
श्रीरामकृष्ण – भोग का अन्त हुए बिना व्याकुलता नहीं होती । कामिनी-कांचन की भोग-वासना जितनी है, उतनी तृप्ति हुए बिना जगन्माता की याद नहीं आती । बच्चा जब खेल में लगा रहता है तब वह माँ को नहीं चाहता । खेल समाप्त हो जाने पर वह कहता है – अम्मा के पास जाऊँगा । हृदय का लड़का कबूतर लेकर खेल रहा था, ‘आ-ती-ती’ करके कबूतर को बुला रहा था । जब उसे खेल से तृप्ति हो गयी तब उसने रोना शुरू का दिया । तब एक बिना पहचान के आदमी (अवतार /नेता/गुरु ) ने आकर कहा – ‘आ, तुझे तेरी माँ के पास ले चलूँ ।’ वह उसी के कन्धे पर चढ़कर चला गया, अनायास ही ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ভোগান্ত না হলে ব্যাকুলতা হয় না। কামিনী-কাঞ্চনের ভোগ যেটুকু আছে সেটুকু তৃপ্তি না হলে জগতের মাকে মনে পড়ে না। ছেলে যখন খেলায় মত্ত হয়, তখন মাকে চায় না। খেলা সাঙ্গ হয়ে গেলে তখন বলে, “মা যাব।” হৃদের ছেলে পায়রা লয়ে খেলা কচ্ছিল; পায়রাকে ডাকছে, “আয় তি তি!” করে! পায়রা লয়ে খেলা তৃপ্তি যাই হলো, অমনি কাঁদতে আরম্ভ করলে। তখন একজন অচেনা লোক (अवतार-नेता -गुरु ) এসে বললে, আমি তোকে মার কাছে লয়ে যাচ্ছি আয়। সে তারই কাঁধে চড়ে অনায়াসে গেল।
MASTER: "A man does not feel restless for God until all his worldly desires are satisfied. He does not remember the Mother of the Universe until his share of the enjoyment of 'woman and gold' is completed. A child absorbed in play does not seek his mother. But after his play is over, he says, 'Mother! I must go to my mother.' Hriday's son was playing with the pigeons, calling to them, 'Come! Ti, ti!' When he had had enough of play he began to cry. Then a stranger (नेता /गुरु) came and said: 'Come with me. I will take you to your mother.' Unhesitatingly he climbed on the man's shoulders and was off.
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75 ]
🔆नारदादि नित्यसिद्ध नेता माया-जाल में क्यों नहीं फँसते? 🔆
“जो नित्य-सिद्ध है, उन्हें संसार में (गृहस्थ जीवन में) नहीं घुसना पड़ता, जन्म से ही उनकी भोग-वासना मिट गयी है ।
[“যারা নিত্যসিদ্ধ, তাদের সংসারে ঢুকতে হয় না। তাদের ভোগের বাসনা জন্ম থেকেই মিটে গেছে।”
"Those who are eternally free do not have to enter worldly life. Their desire for enjoyment has been satisfied with their very birth."]
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75]
🔆डॉ श्रीमधुसूदन का आगमन - श्रीकृष्ण का मधुसूदन नाम कैसे पड़ा ? 🔆
[শ্রীমধু ডাক্তারের আগমন — শ্রীমধুসূদন ও নাম মাহাত্ম্য ]
पाँच बजे का समय है । मधु डाक्टर आये हैं । श्रीरामकृष्ण के हाथ में पटरियाँ बाँधेंगे । श्रीरामकृष्ण बालक की तरह हँस रहे हैं और कहते हैं, ऐहिक और पारत्रिक के मधूसूदन। (^* श्रीकृष्ण का एक नाम-(इहलोक और परलोक के ) ।
{পাঁচটা বাজিয়াছে। মধু ডাক্তার আসিয়াছেন। ঠাকুরের হাতটিতে বাড় ও ব্যাণ্ডেজ বাঁধিতেছেন। ঠাকুর বালকের ন্যায় হাসিতেছেন। আর বলিতেছেন, ঐহিক ও পারত্রিকের মধুসূদন।
At five o'clock in the afternoon Dr. Madhusudan arrived. While he prepared the bandage for the Master's arm, Sri Ramakrishna laughed like a child and said, "You are the Madhusudan (Also a name of Krishna.) of both this world and the next!"
[^* श्रीकृष्ण का मधुसूदन नाम कैसे पड़ा ? श्री कृष्ण ने 'मधु' दैत्य को कृष्ण-लीला में नहीं मारा था; लेकिन भगवान् विष्णु जी के अवतार होने के कारण इन्हे 'मधुसूदन ' कहा जाता है। भागवत गीता में श्री कृष्ण को कई स्थानों पर 'मधुसूदन' कहा गया है। मान्यता के मुताबिक़ जब भगवान श्री विष्णु जी शेषनाग के ऊपर अपनी शैया पर योगनिंद्रा में थे, तब भगवान विष्णु जी के कान के मोम से मधु और कैटभ की रचना हुई। ये दोनों ही उद्द्ण्ड बने और तीनों लोकों को परेशान करने लगे। यहाँ तक की भगवान ब्रह्मा जी से भी वेदों को छीन लिया। ब्रह्मा जी के द्वारा विष्णु जी को निंद्रा से जगाया गया और उन्हें दोनों के अत्याचारों के विषय में बताया। मधु और केटभ को स्वंय ब्रह्मा जी ने अमरता का वरदान दिया था इसलिए उनका वध नहीं किया जा सकता था। विष्णु जी ने यह जानकर हयग्रीव (Hayagreev” (Horse-like) रूप धारण करके मधु और केताभ से वरदान माँगा। दोनों ने ही अहंकार में आकर जो मांगे वही वरदान देने की हामी भरी इस पर हयग्रीव रूप में विष्णु जी ने उन्ही की मृत्यु माँग डाली। इस प्रकार से दोनों मृत्यु को प्राप्त हुए। अर्जुन के द्वारा श्री कृष्ण को मधुसदन के नाम से सम्बोधन दर्शाता है की भगवान श्री कृष्ण, श्री विष्णु जी के ही अवतार हैं इसलिए इन्हे 'मधुसूदन' के नाम से जाना जाता है। मधु नाम के राक्षस के वध करने के कारण ही कृष्ण को मधुसूदन कहा जाता है। लेकिन श्री कृष्ण जी की लीलाओं में हमें मधु वध में विषय में बोध नहीं होता है। वस्तुतः भगवान् श्री विष्णु जी हयग्रीवरूप में मधु दैत्य का वध किया था। श्री कृष्ण विष्णु जी के ही अवतार हैं इसलिए इन्हे भी मधुसूदन कहा जाता है। ]
डॉक्टर मधु – (सहास्य) – केवल नाम का बोझ ढो रहा हूँ ।
মধু (সহাস্যে) — কেবল নামের বোঝা বয়ে মরি।
DR. MADHUSUDAN (smiling): "I only labour under the weight of my name."
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75 ]
🔆नाम और नामी एक हैं ! God is not different from His name. 🔆
श्रीरामकृष्ण – (सहास्य) – कोई नाम कम थोड़े ही है ? उनमें और उनके नाम में कोई भेद नहीं है । सत्यभामा जब तुला पर स्वर्ण, मणि और मुक्ताएँ रखकर श्रीकृष्ण को तौल रही थीं तब वजन पूरा न हुआ । जब रुक्मिणी ने तुलसी पर कृष्ण-नाम लिखकर एक ओर रख दिया तब वजन पूरा उतरा ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কেন নাম কি কম? তিনি আর তার নাম তফাত নয়। সত্যভামা যখন তুলাযন্ত্রে স্বর্ন-মণি-মাণিক্য দিয়ে ঠাকুরকে ওজন কচ্ছিলেন, তখন হল না! যখন রুক্মিণী তুলসী আর কৃষ্ণনাম একদিকে লিখে দিলেন, তখন ঠিক ওজন হল!
MASTER (smiling): 'Why, is the name a trifling thing? God is not different from His name. Satyabhama tried to balance Krishna with gold and precious stones, but could not do it. Then Rukmini put a tulsi-leaf with the name of Krishna on the scales. That balanced, the Lord."
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75 ]
🔆ऑपरेशन टेबल (रिकवरी रूम में ): राधिका की दशम दशा 🔆
अब डाक्टर पटरियाँ बाँधेंगे, जमीन पर बिस्तरा लगाया गया, श्रीरामकृष्ण हँसते हुए बिस्तरे पर आकर लेट गाने के ढंग से कह रहे हैं – “राधिका की यह दशम दशा ^ *है । वृन्दा कहती है, अभी न जाने क्या क्या होगा !”
{दशम दशा ^ * वियोगी की वह दसवीं और अंतिम दशा जिसमें वह परम दुःखी होकर प्राण त्याग देता है। the tenth and final state of the detached in which he dies in extreme sorrow. श्रीराधा की एक प्रिय सखी का नाम भी ‘वृन्दा’ बताया गया है। यह वृन्दा सदैव वृन्दावन में निवास करती है और प्रतिदिन श्रीराधा और श्रीकृष्ण के मिलन की योजना बनाना ही इनकी परमप्रिय सेवा है। कौन जानता है की अभी आगे और क्या- क्या होने वाला है ?]
[এইবার ডাক্তার বাড় বাঁধিয়া দিবেন। মেঝেতে বিছানা করা হইল, ঠাকুর হাসিতে হাসিতে মেঝেতে আসিয়া শয়ন করিতেছেন। সুর করিয়া করিয়া বলিতেছেন, “রাই-এর দশম দশা! বৃন্দে বলে, আর কত বা হবে!”
The doctor was ready to bandage the Master's arm. A bed was spread on the floor and the Master, laughing, lay down upon it. He said, intoning the words: "Ah! This is Radha's final stage. But Brinde says, 'Who knows what is yet to be?'"
चारों ओर भक्तगण बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण फिर गा रहे हैं – ‘सब सखि मिलि बैठल सरोवर-कूले ।’ श्रीरामकृष्ण भी हँस रहे हैं और भक्तगण भी हँस रहे हैं ।
[ভক্তেরা চতুর্দিকে বসিয়া আছেন। ঠাকুর আবার গাহিতেছেন — “সব সখি মিলি বৈঠল — সরোবর কূলে!” ঠাকুরও হাসিতেছেন, ভক্তেরাও হাসিতেছেন।
The devotees were sitting around the Master. He sang:The gopis all were gathered about the shore of the lake.Sri Ramakrishna laughed and the devotees laughed with him.
बैंडेज बाँधना समाप्त हो जाने पर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं –“कलकत्ते के डाक्टरों पर मेरा उतना विश्वास नहीं होता । शम्भू को विकार की अवस्था थी, डाक्टर (सर्वाधिकारी) कहता था, यह कुछ नहीं; दवा की नशा है ! उसके बाद ही शम्भू की देह छूट गयी ।’
[বাড় বাঁধা হইয়া গেলে ঠাকুর বলিতেছেন —“আমার কলকাতার ডাক্তারদের তত বিশ্বাস হয় না। শম্ভুর বিকার হয়েছে, ডাক্তার (সর্বধিকারী) বলে, ও কিছু নয়, ও ঔষধের নেশা! তারপরই শম্ভুর দেহত্যাগ হল।১
After his arm was bandaged he said: "I haven't very much faith in your Calcutta physicians. When Sambhu became delirious, Dr. Sarvadhikari said: 'Oh, it is nothing. It is just grogginess from the medicine. And a little while after, Sambhu breathed his last in 1877."
(४)
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75 ]
🔆अधर की गुरु भक्ति -चरण सेवा ही हाथ के चोटपर हाथ फेरना है 🔆
सन्ध्या के पश्चात् श्रीमन्दिर में आरती हो गयी । कुछ देर बाद कलकत्ते से अधर आये । भूमिष्ठ हो उन्होंने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । कमरे में महिमाचरण, राखाल और मास्टर हैं । हाजरा महाशय भी बीच-बीच में आते हैं ।
{সন্ধ্যার পর ঠাকুরবাড়িতে আরতি হইয়া গেল। কিয়ৎক্ষণ পরে অধর কলিকাতা হইতে আসিলেন ও ঠাকুরকে ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিলেন। ঘরে মহিমাচরণ, রাখাল, মাস্টার। হাজরাও এক-একবার আসিতেছেন।
It was evening and the worship in the temples was over. A few minutes later Adhar arrived from Calcutta to see the Master. Mahimacharan, Rakhal, and M. were in the room.
अधर – आप कैसे हैं ?
[অধর — আপনি কেমন আছেন?
ADHAR: "How are you?"
श्रीरामकृष्ण – (स्नेह-भरे शब्दों में) – यह देखो, हाथ में लगकर क्या हुआ है । (सहास्य- आछि आर केमोन !) हैं, और कैसे !
{শ্রীরামকৃষ্ণ (স্নেহমাখা স্বরে) — এই দেখো ! হাতে লেগে কি হয়েছে। (সহাস্যে) আছি আর কেমন!
MASTER (affectionately): "Look here. How my arm hurts! (Smiling) You don't have to ask how I am!"
अधर जमीन पर भक्तों के साथ बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण उनसे कह रहे हैं – “तुम एक बार इस पर हाथ तो फेर दो ।”
{অধর মেঝেতে ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। ঠাকুর তাহাকে বলিতেছেন, “তুমি একবার এইটে হাত বুলিয়া দাও তো!”
Adhar sat on the floor with the devotees. The Master said to him, "Please stroke here gently." Adhar sat on the end of the couch and gently stroked Sri Ramakrishna's feet.}
अधर छोटी खाट की उत्तर ओर बैठकर श्रीरामकृष्ण की चरण-सेवा कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण फिर महिमाचरण से बातचीत कर रहे हैं ।
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75 ]
🔆 महिमाचरण को उपदेश~ "अपने-स्वरुप को जानो"🔆
(মহিমাচরণের প্রতি উপদেশ -— “স্ব-স্বরূপকে জানো”)
श्रीरामकृष्ण – (महिमा के प्रति) – अहैतुकी भक्ति – तुम इसे अगर साध्य कर सको तो अच्छा हो ।
‘मुक्ति, मान, रुपया, रोग अच्छा होना, कुछ नहीं चाहता - मैं बस तुम्हें ही चाहता हूँ !’ इसे अहैतुकी भक्ति कहते हैं । बाबू के पास कितने ही लोग आते हैं – अनेक कामनाएँ करते हैं, परन्तु यदि कोई ऐसा आदमी आता है जो कुछ नहीं चाहता, और केवल प्यार करने के लिए ही बाबू के पास आता है तो बाबू भी उसे प्यार करते हैं ।
“प्रह्लाद की भक्ति अहैतुकी है । ईश्वर पर उनका शुद्ध और निष्काम प्यार है ।”
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মহিমার প্রতি) — অহেতুকী ভক্তি, — তুমি এইটি যদি সাধতে পার, তাহলে বেশ হয়। “মুক্তি, মান, টাকা, রোগ ভাল হওয়া, কিছুই চাই না; — কেবল তোমায় চাই। এর নাম অহেতুকী ভক্তি। বাবুর কাছে অনেকেই আসে — নানা কামনা করে; কিন্তু যদি কেউ কিছুই চায় না কেবল ভালবাসে বলে বাবুকে দেখতে আসে, তাহলে বাবুরও ভালবাসা তার উপর হয়।
The Master conversed with Mahimacharan. MASTER: "It will be very good if you can practise unselfish love for God. A man who has such love says: 'O Lord, I do not seek salvation, fame, wealth, or cure of disease. None of these do I seek. I want only Thee.' Many are the people who come to a rich man with various desires. But if someone comes to him simply out of love, not wanting any favour, then the rich man feels attracted to him. Prahlada had this unselfish love, this pure love for God without any worldly end."
महिमाचरण चुपचाप सुन रहे हैं । श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं ।
[(2 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75 ]
🔆अहं के चले जाने पर ब्रह्म की साक्षात् अनुभूति होती है 🔆
“अच्छा, तुम्हारा भाव जैसा है उसी तरह की बातें कहता हूँ, सुनो –(महिमा के प्रति) “वेदान्त के मत से अपने स्वरूप को पहचानना चाहिए, परन्तु अहं का बिना त्याग किये नहीं होता । अहं एक लाठी की तरह है – मानो पानी को उसने दो भागों में अलग कर रखा है । ’मैं’ अलग और ‘तुम’ अलग ।
“समाधि की अवस्था में इस अहं के चले जाने पर ब्रह्म की साक्षात् अनुभूति होती है ।
[মহিমাচরণ চুপ করিয়া আছেন। ঠাকুর আবার তাহাকে বলিতেছেন, “আচ্ছা, তোমার যেমন ভাব সেইরূপ বলি, শোন। (মহিমার প্রতি) — “বেদান্তমতে স্ব-স্বরূপকে চিনতে হয়। কিন্তু অহং ত্যাগ না করলে হয় না। অহং একটি লাঠির স্বরুপ — যেন জলকে দুভাগ কচ্ছে। আমি আলাদা, তুমি আলাদা।“সমাধিস্থ হয়ে এই অহং চলে গেলে ব্রহ্মকে বোধে বোধ হয়।”
Mahimacharan sat silent. The Master turned to him.MASTER: "Now let me tell you something that will agree with your mood. According to the Vedanta one has to know the real nature of one's own Self. But such knowledge is impossible without the renunciation of ego. The ego is like a stick that seems to divide the water in two. It makes you feel that you are one and I am another. When the ego disappears in samadhi, then one knows Brahman to be one's own inner consciousness.
‘मैं महिमाचरण चक्रवर्ती हूँ, मैं विद्वान हूँ, इसी ‘मैं’ का त्याग करना होगा । विद्या के ‘मैं’ में दोष नहीं है। शंकराचार्य ने लोगों को शिक्षा देने के लिए विद्या का ‘मैं’ रखा था ।
[ভক্তেরা হয়তো কেহ কেহ ভাবিতেছেন, ঠাকুরের কি ব্রহ্মজ্ঞান হয়েছে? তা যদি হয়ে থাকে তবে উনি ‘আমি’ ‘আমি’ করিতেছেন কেন?ঠাকুর আবার কথা কহিতেছেন — ‘আমি’ মহিম চক্রবর্তী, — বিদ্বান, এই ‘আমি’ ত্যাগ করতে হবে। বিদ্যার ‘আমি’তে দোষ নাই। শঙ্করাচার্য লোকশিক্ষার জন্য “বিদ্যার আমি” রেখেছিলেন।"
"One must renounce the 'I' that makes one feel, 'I am Mahima Chakravarty', 'I am a learned man', and so on. But the 'ego of Knowledge' does not injure one. Sankaracharya retained the 'ego of Knowledge' in order to teach mankind.
[(2, फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-75 ]
🔆पत्नी के सिवा अन्य स्त्रियों के निकट बहुत सावधान रहे बिना, ब्रह्मज्ञान होना सम्भव नहीं 🔆
“स्त्रियों में सम्बन्ध में खूब सावधान रहे बिना ब्रहमज्ञान नहीं होता इसीलिए गृहस्थी में उसकी प्राप्ति कठिन बात है । चाहे जितने बुद्धिमान क्यों न बनो, काजल की कोठरी में रहने से स्याही जरुर लग जायगी । युवतियों के साथ निष्काम मन में भी कामना की उत्पत्ति हो सकती है ।
[“স্ত্রীলোক সম্বন্ধে খুব সাবধান না থাকলে ব্রহ্মজ্ঞান হয় না। তাই সংসারে কঠিন। যত সিয়ান হও না কেন, কাজলের ঘরে থাকলে গায়ে কালি লাগবে। যুবতীর সঙ্গে নিষ্কামেরও কাম হয়।
"One cannot obtain the Knowledge of Brahman unless one is extremely cautious about women. Therefore it is very difficult for those who live in the world to get such Knowledge. However clever you may be, you will stain your body if you live in a sooty room. The company of a young woman evokes lust even in a lustless man.
“परन्तु जो ज्ञान के पथ पर है उसके लिए अपनी पत्नी के साथ भोग कर लेना इतने दोष की बात नहीं – जैसे मल और मूत्र त्याग; वैसे ही यह भी – और जैसे शौच की बाद में हमें याद भी नहीं रहती ।
‘छेने की मिठाई कभी खा ही ली !” महिमाचरण हँसते हैं ।
[“তবে জ্ঞানীর পক্ষে স্বদারায় কখন কখন গমন দোষের নয়। যেমন মলমূত্রত্যাগ তেমনই রেতঃত্যাগ — পায়খানা আর মনে নাই।“আধা-ছানার মণ্ডা কখন বা খেলে। (মহিমার হাস্য) সংসারীর পক্ষে তত দোষের নয়।”
"But it is not so harmful for a householder who follows the path of knowledge to enjoy conjugal happiness with his own wife now and then. He may satisfy his sexual impulse like any other natural impulse. Yes, you may enjoy a sweetmeat once in a while. (Mahimacharan laughs.) It is not so harmful for a householder.
[(2, फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-75 ]
🔆संन्यासियों के लिए स्त्रीप्रसंग, थूककर चाटने के बराबर 🔆
“संसारियों के लिए भोग उतने दोष की बात नहीं ।
‘पर संन्यासी के लिए इसमें बड़ा दोष है । संन्यासी को स्त्रियों का चित्र भी न देखना चाहिए । संन्यासी के लिए स्त्रीप्रसंग, थूककर चाटने के बराबर है ।
“स्त्रियों के बीच में बैठकर संन्यासी को बातचीत न करनी चाहिए । चाहे स्त्री भक्त ही क्यों न हो, जितेन्द्रिय होने पर भी वार्तालाप न करना चाहिए ।
[“সন্নাসীর পক্ষে খুব দোষের। সন্ন্যাসী স্ত্রীলোকের চিত্রপট পর্যন্ত দেখবে না। সন্ন্যাসীর পক্ষে স্ত্রীলোক, — থুথু ফেলে থুথু খাওয়া।"“স্ত্রীলোকদের সঙ্গে সন্ন্যাসী বসে বসে কথা কবে না। — হাজার ভক্ত হলেও। জিতেন্দ্রিয় হলেও আলাপ করবে না।
But it is extremely harmful for a sannyasi. He must not look even at the portrait of a woman. A monk enjoying a woman is like a man swallowing the spittle he has already spat out. A sannyasi must not sit near a woman and talk to her, even if she is intensely pious. No, he must not talk to a woman even though he may have controlled his passion.
[(2, फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75]
🔆 रूपये के अहंकार से ही दुश्चिन्ता और क्रोध होता है 🔆
“संन्यासी कामिनी-कांचन दोनों का त्याग करें – जैसे स्त्रियों का चित्र उन्हें न देखना चाहिए वैसे ही कंचन-रुपया भी न छूना चाहिए । रुपया पास रहने से भी बुराई है । हिसाब किताब, दुश्चिन्ता, रुपये का अहंकार, लोगों पर क्रोध आदि रुपया रहने से ही होता है । सूर्य दीख पड़ता था, बादलों ने आकर उसे घेर लिया ।
{“সন্ন্যাসী কামিনী-কাঞ্চন দুই-ই ত্যাগ করবে — যেমন মেয়ের পট পর্যন্ত দেখবে না, তেমনি কাঞ্চন — টাকা — স্পর্শ করবে না। টাকা কাছে থাকলেও খারাপ! হিসাব, দুশ্চিন্তা, টাকার অহংকার, লোকের উপর ক্রোধ, কাছে থাকলে এই সব এসে পড়ে। — সূর্য দেখা যাচ্ছিল মেঘ এসে সব ঢেকে দিলে।"
A sannyasi must renounce both 'woman' and 'gold'. As he must not look even at the portrait of a woman, so also he must not touch gold, that is to say, money. It is bad for him even to keep money near him, for it brings in its train calculation, worry, insolence, anger, and such evils. There is an instance in the sun: it shines brightly; suddenly a cloud appears and hides it.
[(2, फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75]
🔆कामिनी-कांचन त्याग की शिक्षा अगर संन्यासी नहीं देगा तो कौन देगा ? 🔆
“इसीलिए तो मारवाड़ी ने जब ह्रदय के पास रुपये जमा करने की इच्छा प्रकट की, तब मैंने कहा, ‘यह बात न होगी, रुपये पास रहने से ही बादल उठेंगे ।’
{“তাইতো মারোয়াড়ী যখন হৃদের কাছে টাকা জমা দিতে চাইলে, আমি বললাম, ‘তাও হবে না — কাছে থাকলেই মেঘ উঠবে।’
"That is why I didn't agree to the Marwari's depositing money for me with Hriday. I said: 'No, I won't allow even that. If I keep money near me, it will certainly raise clouds.'
“संन्यासी की लिए ऐसा कठोर नियम क्यों है ? उसके मंगल के लिए भी है और लोगों की शिक्षा के लिए भी । संन्यासी यद्यपि स्वयं निर्लिप्त हो – जितेन्द्रिय हो, तथापि लोगों को शिक्षा देने के लिए उसे कामिनी-कांचन का इस तरह त्याग करना चाहिए ।
[“সন্ন্যাসীর এ কঠিন নিয়ম কেন? তার নিজের মঙ্গলের জন্যেও বটে, আর লোকশিক্ষার জন্য। সন্ন্যাসী যদিও নির্লিপ্ত হয় — জিতেন্দ্রিয় হয় — তবু লোকশিক্ষার জন্য কামিনী-কাঞ্চন এইরূপে ত্যাগ করবে।"
Why all these strict rules for a sannyasi? It is for the welfare of mankind as well as for his own good. A sannyasi may himself lead an unattached life and may have controlled his passion, but he must renounce 'woman and gold' to set an example to the world.
“संन्यासी का सोलहों आना त्याग देखकर ही दूसरे लोगों को साहस होगा । तभी वे कामिनी-कांचन छोड़ने की चेष्टा करेंगे ।
“त्याग की यह शिक्षा यदि संन्यासी न देगा तो कौन देगा ?
[“সন্ন্যাসীর ষোল আনা ত্যাগ দেখলে তবে তো লোকের সাহস হবে! তবেই তো তারা কামিনী-কাঞ্চন ত্যাগ করতে চেষ্টা করবে! "“এ-ত্যাগশিক্ষা যদি সন্ন্যাসী না দেয়, তবে কে দিবে!”
A man will have the courage to practise renunciation if he sees one hundred per cent renunciation in a sannyasi. Then only will he try to give up 'woman and gold'. If a sannyasi does not set this example, then who will?
[(2, फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75 ]
🔆जनक जैसे 'ज्ञानी-गृहस्थ' (राजा +ऋषि=राजर्षि) दो तलवारें चलाते हैं – ज्ञान की और कर्म की 🔆
[জনকের মতো 'জ্ঞানী- সংসারী' গাছের নিচের ফল উপরের ফল দুই-ই খেতে পারে।]
उन्हें प्राप्त कर लेने पर फिर संसार में रहा जा सकता है । जैसे मक्खन उठाकर पानी में डाल रखना ।
जनक ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर संसार में रहे थे ।
{“তাঁকে লাভ করে তবে সংসারে থাকা যায়। যেমন মাখম তুলে জলে ফেলে রাখা। জনক ব্রহ্মজ্ঞান লাভ করে তবে সংসারে ছিলেন।"
One may lead a householder's life after realizing God. It is like churning butter from milk and then keeping the butter in water. Janaka led the life of a householder after attaining Brahmajnana.]
[(2, फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75 ]
🔆संन्यासी के पास एक ही तलवार है -केवल ज्ञान की 🔆
[‘মা, আমি শুঁটকে সাধু হব না; माँ आमि शूँटके साधु ( dry sadhu) होबो ना !]
“जनक दो तलवारें चलाते थे – ज्ञान की और कर्म की । संन्यासी कर्मों का त्याग करता है । इसलिए उसके पास एक ही तलवार है – ज्ञान की । जनक की तरह का ज्ञानी-गृहस्थ पेड़ के नीचे का फल भी खा सकता है और ऊपर का भी । साधु-सेवा, अतिथि-सत्कार ये सब कर सकता है। मैंने माँ से कहा था, ‘माँ, मैं सूखा साधु न होऊँगा ।’
[“জনক দুখান তরবার ঘোরাতেন — জ্ঞানের আবার কর্মের। সন্ন্যাসী কর্মত্যাগ করে। তাই কেবল একখানা তরবার — জ্ঞানের। জনকের মতো 'জ্ঞানী সংসারী' গাছের নিচের ফল উপরের ফল দুই-ই খেতে পারে। সাধুসেবা, অতিথি-সৎকার — এ-সব পারে। মাকে বলেছিলাম, ‘মা, আমি শুঁটকে সাধু হব না।’
['জ্ঞানী সংসারী' = 'ज्ञानी -गृहस्थ '= (राजा +ऋषि=राजर्षि जनक)-- साधु-सेवा, अतिथि-सत्कार, योग-विद्या का प्रचार-प्रसार आदि के लिये धन भी अर्जित कर सकता है। शिव पार्वती से विवाह करके गृहस्थ इसलिए बनें क्योंकि वे योग ज्ञान को दुनिया के साथ बांटना चाहते थे। शिव ने दो सिस्टम बनाए – तंत्र और योग। उन्होंने अपनी पत्नी पार्वती को तंत्र सिखाया। तंत्र बहुत अंतरंग है, उसे बहुत करीबी लोगों (Bh) के साथ ही किया जा सकता है। लेकिन योग को व्यापक तौर पर सिखाया जा सकता है। यह हमारे आस-पास की दुनिया के लिए, खासकर आज के युग में, ज्यादा उपयुक्त है। इसलिए आज भी शिव को योग का पहला गुरु या आदिगुरु माना जाता है।]
"Janaka fenced with two swords, the one of jnana and the other of karma. The sannyasi renounces action; therefore he fences with one sword only, that of knowledge. A householder, endowed with knowledge like Janaka's, can enjoy fruit both from the tree and from the ground. He can serve holy men, entertain guests, and do other things like that. I said to the Divine Mother, 'O Mother, I don't want to be a dry sadhu.'
[(2, फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75 ]
🔆ब्रह्मानन्द की अनुभूति होने के बाद ब्रह्मज्ञानी -ऋषि शूकरमांस तक खा सकते थे 🔆
“ब्रह्मज्ञान-लाभ के पश्चात् खानपान का भी विचार नहीं रहता । ब्रह्मज्ञानी ऋषि ब्रह्मानन्द के बाद कुछ भी खा सकते थे – शूकरमांस तक ।
{“ব্রহ্মজ্ঞানলাভের পর খাওয়ারও বিচার থাকে না। ব্রহ্মজ্ঞানী ঋষি ব্রহ্মানন্দের পর সব খেতে পারত — শূকরমাংস পর্যন্ত।”
"After attaining Brahmajnana one does not have to discriminate even about food. The rishis of olden times, endowed with the Knowledge of Brahman and having experienced divine bliss, ate everything, even pork.]
[(2, फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75 ]
🔆ईश्वर के साथ मिलन (Union) के दो सिस्टम है - कर्मयोग (तंत्र) और मनःसंयोग 🔆
🔆चार आश्रम, योगतत्त्व और श्रीरामकृष्ण 🔆
(महिमाचरण से) “संक्षेप में योग दो प्रकार के हैं, कर्मों (तंत्र) के द्वारा योग और मन के द्वारा योग ।
(To Mahima) "Generally speaking there are two kinds of yoga: karma-yoga and manoyoga, that is to say, union with God through work and through the mind.
“ब्रहमचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास – इनमें से प्रथम तीनों ही में कर्म करना पड़ता है । संन्यासी को दण्ड-कमण्डल और भिक्षापात्र लेने पड़ते हैं । संन्यासी चाहे कभी कभी नित्यकर्म कर ले, परन्तु उसके मन में कभी आसक्ति नहीं होती । उसे उन कर्मों का ज्ञान नहीं रहता ।
कोई कोई संन्यासी कुछ कुछ नित्यकर्म करते हैं, परन्तु वह होता है लोकशिक्षा के लिए । गृहस्थ अथवा दूसरे आदमी यदि निष्काम कर्म कर सकें तो उन कर्मों के द्वारा उनका ईश्वर से योग हो जाता है ।
[“ব্রহ্মচর্য, গার্হস্থ, বানপ্রস্থ আর সন্ন্যাস — এর মধ্যে প্রথম তিনটিতে কর্ম করতে হয়। সন্ন্যাসীর দণ্ডকমণ্ডলু, ভিক্ষা পাত্র ধারণ করতে হয়। সন্ন্যাসী নিত্যকর্ম করে। কিন্তু হয়তো মনের যোগ নাই — জ্ঞান নাই, ঈশ্বরে মন নাই। কোন কোন সন্ন্যাসী নিত্যকর্ম কিছু কিছু রাখে, লোকশিক্ষার জন্য। গৃহস্থ বা অন্যান্য আশ্রমী যদি নিষ্কামকর্ম করতে পারে, তাহলে তাদের কর্মের দ্বারা যোগ হয়।
[प्रथम तीन आश्रम के लोग यदि निष्काम कर्म कर सकें ( अर्थात Be and Make का प्रचार-प्रसार अनासक्त भाव से कर सकें, action without attachment) तो इस मनुष्य-निर्माण आन्दोलन में लगे रहने के फलस्वरूप उनका भी ईश्वर से योग हो जाता है !]
"There are four stages of life: brahmacharya, garhasthya, vanaprastha, and sannyas. During the first three stages a man has to perform his worldly duties. The sannyasi carries only his staff, water-pot, and begging-bowl. He too may perform certain nityakarma, but his mind is not attached to it; he is not conscious of doing such work. Some sannyasis perform nityakarma to set an example to the world. If a householder or a man belonging to the other stages of life performs action without attachment, then he is united with God through such action.
[(2, फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75 ]
🔆 अविद्या माँ के मर जाने और ब्रह्मज्ञान रूपी सन्तान होने की सूतक अवस्था में कर्म समाप्त 🔆
“परमहंस अवस्था में – जैसी शुकदेव आदि की थी – कर्म सब छूट जाते हैं; पूजा, जप, तर्पण, सन्ध्या, ये सब कर्म । इस अवस्था में केवल मन का योग होता है । बाहर के काम कभी कभी वह इच्छापूर्वक करता है – लोकशिक्षा के लिए । परन्तु वह सदा ही स्मरण और मनन किया करता है ।”
[“পরমহংস অবস্থায় — যেমন শুকদেবাদির — কর্ম সব উঠে যায়। পূজা, জপ, তর্পণ, সন্ধ্যা — এই সব কর্ম। এ-অবস্থায় কেবল মনের যোগ। বাহিরের কর্ম কখন কখন সাধ করে — লোকশিক্ষার জন্য। কিন্তু সর্বদা স্মরণমনন থাকে।”
"In the case of a paramahamsa, like Sukadeva, all karmas — all puja, japa, tarpan, sandhya, and so forth — drop away. In this state a man communes with God through the mind alone. Sometimes he may be pleased to perform outward activities for the welfare of mankind. But his recollection and contemplation of God remain uninterrupted."
(५)
[(2, फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75 ]
🔆महिमाचरण द्वारा उत्तरगीता से स्तवपाठ और ठाकुर की समाधि 🔆
बातचीत में रात के आठ बज गये । श्रीरामकृष्ण महिमाचरण को शास्त्रों से कुछ स्तव आदि सुनाने के लिए कह रहे हैं । महिमाचरण एक पुस्तक लेकर उत्तरगीता ^* के आरम्भ में ही परब्रह्म सम्बन्धी जो श्लोक हैं वही सुनाने लगे –
[उत्तरगीता ^*प्रसिद्ध है कि पाण्डवों की विजय और राज्य प्राप्ति के बाद श्रीकृष्ण के सत्संग का सुअवसर पाकर एक बार अर्जुन ने कहा कि- "भगवन! युद्धारम्भ में आपने जो 'गीता' का उपदेश मुझको दिया था, युद्ध की मार-काट और भाग-दौड़ के बीच मैं भूल गया हूँ। कृपा कर वह ज्ञानोपदेश मुझको फिर से सुना दीजिए।"श्रीकृष्ण बोले- "अर्जुन, उक्त उपदेश मैंने बहुत ही समाहितचित्त (योगस्थ) होकर दिव्य अनुभूति के द्वारा दिया था, अब तो मैं भी उसको आनुपूर्वी रूप से भूल गया हूँ। फिर भी यथास्मृति उसे सुनाता हूँ।" इस प्रकार श्रीकृष्ण का महाभारत के बाद में अर्जुन को दिया गया उपदेश ही 'उत्तर गीता' नाम से प्रसिद्ध है।स्वामी शंकराचार्य के परमगुरु गौड़पादाचार्य की व्याख्या इसके ऊपर पायी जाती है, जिससे इस ग्रन्थ का गौरव और भी बढ़ गया है।
[কথা কহিতে কহিতে রাত আটটা হইয়াছে। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ মহিমাচরণকে শাস্ত্র হইতে কিছু স্তবাদি শুনাইতে বলিলেন। মহিমাচরণ একখানি বই লইয়া উত্তর গীতার প্রথমেই পরব্রহ্মসম্বন্ধীয় যে শ্লোক তাহা শুনাইতেছেন —
It was about eight o'clock in the evening. Sri Ramakrishna asked Mahimacharan to recite a few hymns from the scriptures. Mahima read the first verse of the Uttara Gita, describing the nature of the Supreme Brahman:
‘यदेकं निष्कलं ब्रह्म व्योमातीतं निरंजनम् ।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं विनाशोत्पत्तिवर्जितम् ।’
[He, Brahman, is one, partless, stainless, and beyond the ether;Without beginning or end, unknowable by mind or intelligence.
फिर तृतीय अध्याय का सातवाँ श्लोक पढ़ते हैं –
‘अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि देवतम् ।
प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र समदर्शिनाम् ।’
अर्थात् ब्राह्मणों के देवता अग्नि हैं, मुनियों के देवता हृदय में हैं, स्वल्पबुद्धि मनुष्यों के लिए प्रतिमा ही देवता हैं और समदर्शी महायोगियों के लिए देवता सर्वत्र हैं ।
[অর্থাৎ ব্রাহ্মদিগের দেবতা অগ্নি, মুনিদিগের দেবতা হৃদয়মধ্যে — স্বল্পবুদ্ধি মনুষ্যদের প্রতিমাই দেবতা, আর সমদর্শী মহাযোগীদিগের দেবতা সর্বত্রই আছেন।
Finally he came to the seventh verse of the third chapter, which reads: The twice-born1 worships the Deity in fire, The munis contemplate Him in the heart, Men of limited wisdom see Him in the image, And the yogis who have attained samesightedness, Behold Him everywhere.
‘सर्वत्र समदर्शिनाम्’ - इस अंश का उच्चारण होते ही श्रीरामकृष्ण एकाएक आसन छोड़कर खड़े हो गये और समाधिमग्न हो गये । हाथ में वही लकड़ी और बैण्डेज बँधा हुआ है । भक्तगण चुपचाप इस सर्वदर्शी महायोगी की अवस्था देख रहे हैं ।
[“সর্বত্র সমদর্শিনাম” — এই কথা উচ্চারণ করিবামাত্র ঠাকুর হঠাৎ আসন ত্যাগ করিয়া দণ্ডায়মান হইয়া সমাধিস্থ হইলেন। হাতে সেই বাড় ও ব্যাণ্ডেজ বাঁধা। ভক্তেরা সকলেই অবাক্ — এই সমদর্শী মহাযোগীর অবস্থা নিরীক্ষণ করিতেছেন।
No sooner did the Master hear the words "the yogis who have attained samesightedness" than he stood up and went into samadhi, his arm supported by the splint and bandage. Speechless, the devotees looked at this yogi who had himself attained the state of samesightedness.
[(2, फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75]
🔆नारदपंचरात्र के अनुसार पहले गुरु/नेता की शरण में जाकर हरिभक्ति प्राप्त करो 🔆
बड़ी देर तक इस तरह खड़े रहने के बाद श्रीरामकृष्ण प्रकृतिस्थ हुए । फिर उन्होने आसन ग्रहण किया। महिमाचरण को अब हरिभक्तिवाले श्लोक पढ़ने के लिए कह रहे हैं ।
[অনেকক্ষণ এইরূপে দাঁড়াইয়া প্রকৃতিস্থ হইলেন ও আবার আসন গ্রহণ করিলেন। মহিমাচরণকে এইবার সেই হরিভক্তির শ্লোক আবৃত্তি করিতে বলিলেন। মহিমা নারদপঞ্চরাত্র হইতে আবৃত্তি করিতেছেন —
After a long time the 'Master regained consciousness of the outer world and took his seat. He asked Mahima to recite verses describing the love of God. The latter recited from the Narada Pancharatra:
महिमाचरण – (‘नारदपंचरात्र’ से पढ़ते हैं) [नारद पंचरात्र के नाम से एक प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ है जिसमें दस महाविद्याओं की कथा विस्तार से कही गई है। इस कथा के अनुसार हरि का भजन ही मुक्ति का परम कारण माना गया है।]
आराधितो यदि हरिस्तपसा ततः किम् ।
नाराधितो यदि हरिस्तपसा ततः किम् ॥
“अन्तर्बहिर्यदि हरिस्तपसा ततः किम् ।
नान्तर्बहिर्यदि हरिस्तपसा ततः किम् ॥६॥
विरम विरम ब्रह्मन् किं तपस्यासु वत्स ।
व्रज व्रज द्विज् शीघ्रं शङ्करं ज्ञानसिन्धुम् ॥
लभ लभ हरिभक्तिं वैष्णवोक्तां सुपक्वाम् ।
भवनिगडनिबन्धच्छेदनीं कर्तरीं च॥७॥
[ ‘नारद – पंचरात्र’ में है कि नारद जब तपस्या कर रहे थे, उस समय यह दैववाणी हुई – सारे धर्म कर्मों का उद्देश्य श्रीकृष्ण प्रीति प्राप्ति है ---' यदि श्रीकृष्ण की आराधना कर ली गयी है तो तप से क्या लाभ और यदि भगवान् श्रीकृष्ण की उपासना नहीं हुई है, तपस्या से क्या लाभ ' ? अन्दर बाहर यदि हरि ही हो तो फिर तपस्या का क्या प्रयोजन ? और अन्दर बाहर यदि हरि न हों तो फिर तपस्या का क्या प्रयोजन ? अतएव हे ब्रह्मन्, तपस्या से विरत होओ ! वत्स, तपस्या की क्या आवश्यकता है! हे द्विज, शीघ्र ही ज्ञानसिन्धु शंकर के पास जाओ! वैष्णवों ने जिस हरिभक्ति की महिमा गायी है उस सुपक्व भक्ति का लाभ करो! इस भक्तिरुपी कटार से भवबन्धन कट जायेंगे!’ “
What need is there of penance if God is worshipped with love? What is the use of penance if God is not worshipped with love? What need is there of penance if God is seen within and without? What is the use of penance if God is not seen within and without? O Brahman! O my child! Cease from practising further penances. Hasten to Sankara, the Ocean of Heavenly Wisdom; Obtain from Him the love of God, the pure love praised by devotees, Which snaps in twain the shackles that bind you to the world.
[सुन कर तपोरत देवर्षि नारद वैष्णवसिरोमणी भगवान् शङ्कर के शरण में चले । रास्ते में पड़ने वाले तीर्थों और उन तीर्थों में विरक्त महात्माओं के लोक ऐश्वर्य को देख सोचने लगे ---- गृहस्थ धर्म की दुरुहता से भाग विरक्त का वेष धारण कर संत के रूप में लोक ख्यात गृहस्थों से कहीं अधिक परिग्रही बन चुके हैं । ऐसे पाखण्डनिरत संत उपद्रव के ही कारण हैं । ऐसे संतों के महत्वाकांक्षा के कारण ही इनके आश्रमों पर, तीर्थों में और नदियों पर विधर्मियों ने अधिकार कर वाणिज्यिक उपभोग आरम्भ कर दिया है। हद् तो यह हो गयी कि अब मंदिर अवरुद्ध किये जाने लगे, विधर्मियों के द्वारा और परिग्रह प्रतिबद्धता के कारण ये सारे संत सम्प्रदायवाद का शिकार हो मौन धारण कर रखे हैं । तीर्थ और आश्रमों की दुरावास्था देखते और इसके निराकरण की बात सोचते हुए आगे बढ़ते हैं कि एक अभिनव स्थान (पंचवटी ?) दिखा।]
श्रीरामकृष्ण – अहा ! अहा !
শ্রীরামকৃষ্ণ — আহা! আহা!
MASTER: "Ah! Ah!"
[(2, फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75]
🔆श्री काशी जी का चिन्मय-रूप : भाण्ड (microcosm) और ब्रह्माण्ड (macrocosm) 🔆
श्लोकों को सुनकर श्रीरामकृष्ण फिर भावावेश में आने लगे । बड़ी मुश्किल से उन्होंने भाव रोका । अब यतिपंचक (काशी पञ्चकं) का पाठ हो रहा है –
यस्यामिदं कल्पितमिन्द्रजालं, चराचरं भाति मनोविलासम्।
सच्चित्सुखैका परमात्मरूपा, सा काशिकाऽहं निजबोधरूपा ॥२॥
[यस्याम – In Which, इदं – this,कल्पितम – imagined,इंद्रजाल – magic, मनोविलासम् – the playfulness of the mind,चराचरं – moving and non-moving,भाति – Shines,सच्चित्सुखैका – Existence-Awareness-Bliss,परमात्मरूपा – in the form of the innermost core of the individual,सा – that,काशिका – Kasi;अहं – I am,निजबोधरूपा – having the form of one’s own awareness.]
काशी माता कहती हैं - जिस (विज्ञानमयीकाशी ) -में यह चराचर सृष्टि रूप प्रपंच कल्पित इन्द्रजाल तथा मनोराज्य के समान [मिथ्या रूप] प्रतित होता है ,अद्वितीय सत्-चित् - आनंद स्वरूपा तथा परमात्मा रूपा वह आत्मबोधरूपा काशी मैं हूँ ।।
“सा काशिकाहं निजबोधरूपः’ ^* यह सुनते ही श्रीरामकृष्ण हँसते हुए कह रहे हैं – जो कुछ भाण्ड (पिण्ड-microcosm) में है वही ब्रह्माण्ड (macrocosm)में है ।
{শ্লোকগুলির আবৃত্তি শুনিয়া ঠাকুর আবার ভাবাবিষ্ট হইতেছিলেন। কষ্টে ভাব সংবরণ করিলেন। এইবার যতিপঞ্চক পাঠ হইতেছে —
যস্যামিদং কল্পিতমিন্দ্রজালং, চরাচরং ভাতি মনোবিলাসম্।
সচ্চিৎসুখৈকং জগদাত্মরূপং, সা কাশিকাহং নিজবোধরূপম্ ৷৷
“সা কাশিকাহং নিজবোধরূপম্” — এই কথা শুনিয়া ঠাকুর সহাস্যে বলিতেছেন, “যা আছে ভাণ্ডে তাই আছে ব্রহ্মাণ্ডে।”
[On hearing these verses the Master was about to go again into an ecstatic mood, but he restrained himself with effort. Mahima read from the Yatipanchaka: I am She, the Divine Mother, in whom the illusion of the universe of animate and inanimate things is seen, as in magic, and in whom the universe shines, being the play of Her mind. I am She, the Embodiment of Consciousness, who is the Self of the universe, the only Existence, Knowledge, and Bliss.
When the Master heard the line, "I am She, the Embodiment of Consciousness", he said with a smile, "Whatever is in the microcosm (पिण्ड) is also in the macrocosm.(ब्रह्माण्ड) "]
[काशीपञ्चकम्- श्रीमच्छंकरभगवत्पादविरचितम्]
मनोनिवृत्तिः परमोपशान्तिः
सा तीर्थवर्या मणिकर्णिका च
ज्ञानप्रवाहा विमलादिगंगा
सा काशिकाऽहं निजबोधरूपा ॥१॥
काशी माता कहती हैं - " जहाँ मनोवृत्ति आत्यन्तिक रूप से निरुद्ध होकर परम शान्ति का साधन बन जाती है,वह मणिकर्णिका समस्त तीर्थों में श्रेष्ठ [काशी का हृदय] है। जहाँ विमल ज्ञानगंगा का आदि काल से प्रवाह चला आ रहा है ,वह आत्मबोधरूपा काशी मैं हूँ ।
यस्यामिदं कल्पितमिन्द्रजालं
चराचरं भाति मनोविलासम्।
सच्चित्सुखैका परमात्मरूपा
सा काशिकाऽहं निजबोधरूपा ॥२॥
काशी माता कहती हैं - जिस (विज्ञानमयीकाशी ) -में यह चराचर सृष्टि रूप प्रपंच कल्पित इन्द्रजाल तथा मनोराज्य के समान [मिथ्या रूप] प्रतित होता है ,अद्वितीय सत्-चित् - आनंद स्वरूपा तथा परमात्मा रूपा वह आत्मबोधरूपा काशी मैं हूँ ।।
[I am She, the Divine Mother, in whom the illusion of the universe of animate and inanimate things is seen, as in magic, and in whom the universe shines, being the play of Her mind. I am She, the Embodiment of Consciousness, who is the Self of the universe, the only Existence, Knowledge, and Bliss.]
कोशेषु पञ्चस्वधिराजमाना
बुद्धिर्भवानी प्रतिदेहगेहे ।
साक्षी शिवस्सर्वगणोऽन्तरात्मा
सा काशिकाऽहं निजबोधरूपा ॥३॥
पंचकोषों में अधिष्ठान रूप से विराजमान तथा जहाँ प्रत्येक देह में भवानी बुद्धि रूप से प्रतिष्ठित हैं और भगवान् शिव सबके साक्षी रूप से सभी प्राणियों के हृदय स्थलमें विराजमान रहते हैं ,वह आत्मबोधरूपा काशी मैं हूँ ।।
काश्यां हि काशते काशी
काशी सर्वप्रकाशिका।
सा काशी विदिता येन
तेन प्राप्ता हि काशिका ॥४॥
आत्मज्ञान के प्रकाश से काशी जगमगाती है, काशी सब वस्तुओं को आलोकित करती है। अर्थात काशी तो आत्मज्ञान से प्रकाशित होती है इसलिए काशी सबको पूरे विश्व को प्रकाश देने वाली है, पथ प्रदर्शन करने वाली है। जो इस सत्य को जान गया वह काशी में एकरूप हो जाता है।
काशीक्षेत्रं शरीरं त्रिभुवनजननी व्यापिनी ज्ञानगंगा
भक्तिः श्रद्धा गयेयं निजगुरुचरणद्ध्यानयोगः प्रयागः।
विश्वेशोऽयं तुरीयः सकलजनमनः साक्षिभूतोऽन्तरात्मा
देहे सर्वं मदीये यदि वसति पुनः तीर्थमन्यत्किमस्ति ॥५॥
मेरा शरीर ही काशी क्षेत्र है ,मेरा चैतन्य (ज्ञान) त्रिभुवन जननी सर्व व्यापिनी गंगा है ।मेरी यह भक्ति और श्रद्धा गया तीर्थ है तथागुरू चरणों में ध्यान लगाना ही प्रयागराज है ।मेरी आत्मा ही भगवान् विश्वनाथ हैं , जो सभी प्राणियों के अन्तरात्मा तथा चित्त के साक्षी हैं । जब मेरे देह में ही इन सबका निवास है , तब अन्य तीर्थों से क्या प्रयोजन ?]
[“सा काशिकाहं निजबोधरूपः’ ^*सर्व प्रकाशिका नगरी काशी: चिन्मय काशी समस्त भूमण्डल से मिली रहने पर भी शंकर जी के त्रिशूल पर स्थित है, क्योंकि वह प्रलय के जल में डूबती नहीं, छत्राकार जल में तैरती रहती है । चिन्मय काशी समस्त भूमण्डल से मिली रहने पर भी शंकर जी के त्रिशूल पर स्थित है, क्योंकि वह प्रलय के जल में डूबती नहीं, छत्राकार जल में तैरती रहती है ।इस घोर कलिकाल में साधक के पास इतना विवेक- वैराग्य- योग- ध्यान आदि नहीं है , इसीलिए भगवान् शंकर जीवों का कल्याण करने के लिए काशी वास करते हुए मरने वाले पुरुषों के दाहिने कान तथा स्त्रियों के बायें कान में राम भक्तों को राम तारक मन्त्र , गणेश भक्तों को गणेश तारक , शक्ति के उपासकों को दुर्गा तारक मन्त्र तथा यतियों को प्रणव का उपदेश करके मुक्ति देते हैं ।यद्यपि चर्म-चक्षुओं से काशी का पत्थर एवं मिट्टी का भौतिक रूप दिखता है , परन्तु दिव्य-दृष्टि से अथवा अन्तःकरण की अंतर्मुखी ऋतम्भरा प्रज्ञा से देखने पर प्राचीन ऋषियों के समान आधुनिक भगवत्-भक्तों तथा योगियों को भी श्री काशी जी का चिन्मय-रूप प्रकाशित होता है । श्रीरामकृष्ण परमहंस को काशी का दिव्य-शरीर दिखाई दिया । रोमा रोला (Romin roland) ने उनके जीवन-चरित्र में लिखा है : — “जब श्री रामकृष्ण देव ने काशी में प्रवेश किया , तब उन्होंने पत्थर की बनी काशी नहीं देखी अपितु अध्यात्म-काशी का प्रत्यक्ष किया ; इसी प्रकार का अनुभव अन्य योगियों को हुआ , जिन्होंने काशी में प्रवेश किया ।”]
[(2, फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75 ]
🔆काली की सन्तान श्री रामकृष्ण कहते हैं - नाहं, नाहं – तुम, तुम – चिदानन्द हो । 🔆
अब पाठ हो रहा है निर्वाणषट्कम् से –
“ॐ मनोबुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं,
न च श्रोत्रजिव्हे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः,
श्चिदानन्दरुपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥”
जितनी बार महिमाचरण कह रहे हैं – चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्’, उतनी ही बार श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं – नाहं, नाहं – तुम, तुम – चिदानन्द हो ।
[এইবার পাঠ হইতেছে নির্বাণষট্কম্ —ওঁ মনোবুদ্ধ্যহঙ্কারচিত্তানি নাহং ন চ শ্রোত্রজিহ্বে ন চ ঘ্রাণনেত্রে।ন চ ব্যোম ভূমির্ন তেজো ন বায়ু —শ্চিদানন্দরূপঃ শিবোঽহং শিবোঽহম্ ৷৷ যতবার মহিমাচরণ বলিতেছেন — চিদানন্দরূপঃ শিবোঽহং শিবোঽহম্, ততবারই ঠাকুর সহাস্যে বলিতেছেন —“নাহং! নাহং — তুমি তুমি চিদানন্দ।”
Next Mahima read the Six Stanzas on Nirvana: Om. I am neither mind, intelligence, ego, nor chitta,Neither ears nor tongue nor the senses of smell and sight; Nor am I ether, earth, fire, water, or air:I am Pure Knowledge and Bliss: I am Siva! I am Siva!I am neither the prana, nor the five vital breaths,Neither the seven elements of the body nor its five sheaths,Nor hands nor feet nor tongue, nor the organs of sex and voiding: I am Pure Knowledge and Bliss: I am Siva! I am Siva! Neither loathing nor liking have I, neither greed nor delusion;No sense have I of ego or pride, neither dharma nor moksha; Neither desire of the mind nor object for its desiring:I am Pure Knowledge and Bliss: I am Siva! I am Siva!Neither right nor wrongdoing am I, neither pleasure nor pain,Nor the mantra, the sacred place, the Vedas, the sacrifice;Neither the act of eating, the eater, nor the food:I am Pure Knowledge and Bliss: I am Siva! I am Siva!Death or fear I have none, nor any distinction of caste;Neither father nor mother nor even a birth have I;Neither friend nor comrade, neither disciple nor guru:I am Pure Knowledge and Bliss: I am Siva! I am Siva!I have no form or fancy; the All-pervading am I;everywhere I exist, yet I am beyond the senses;Neither salvation am I, nor anything that may be known:I am Pure Knowledge and Bliss: I am Siva! I am Siva!
Each time Mahima repeated: "I am Siva! I am Siva!", the Master rejoined with a smile: "Not I! Not I! Thou art Knowledge Absolute."]
महिमाचरण जीवन्मुक्ति-गीता ^* से कुछ श्लोक पढ़कर षट्चक्रवर्णन पढ़ रहे हैं । उन्होंने स्वयं काशी में योगी की योगावस्था में मृत्यु देखी थी, यह बात उन्होंने कही ।
[মহিমাচরণ জীবন্মুক্তি গীতা থেকে কিছু পড়িয়া ষট্চক্রবর্ণনা পড়িতেছেন। তিনি নিজে কাশীতে যোগীর যোগাবস্থায় মৃত্যু দেখিয়াছিলেন, বলিলেন।
Mahima read a few more verses and also a description of the six psychic centres of the body. He said that in Benares he had witnessed the death of a yogi in the state of yoga.]
अब वे भूचरी और खेचरी मुद्रा का वर्णन कर रहे हैं । साथ ही शाम्भवी विद्या का भी । शाम्भवी यह कि मनुष्य जहाँ-तहाँ जाया करता है, उसका कोई उद्देश्य नहीं है ।
[(2, फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75 ]
🔆 साधु सन्तों से ठाकुरदेव का राम-गीता पाठ सुनना 🔆
महिमा – राम-गीता में बड़ी अच्छी अच्छी बातें हैं ।
[মহিমা — রামগীতায় বেশ বেশ কথা আছে।
MAHIMA: "There are fine passages in the Rama Gita."
श्रीरामकृष्ण – (सहास्य) – तुम राम-गीता, राम-गीता कर रहे हो, तो तुम वेदांती हो ! साधु महात्मा यहाँ कितना पढ़ते थे ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) —তুমি রামগীতা রামগীতা কচ্ছো, — তবে তুমি ঘোর বেদান্তী! সাধুরা কত পড়ত এখানে।
MASTER: "You are speaking of the Rama Gita. Then you must be a staunch Vedantist. How many books of that kind the sadhus used to read here!"
महिमाचरण, प्रणव शब्द कैसा है, (योगचूड़ामण्युपनिषद्- श्लोक ८०) यही पढ़ रहे हैं –
तैलधारामिवाच्छिन्नं दीर्घघण्टानिनादवत् ।
प्रणवस्य ध्वनिस्तद्वत्तदग्रं ब्रह्म चोच्यते ॥
[तैलधारवत् अविच्छिन्न, घण्टा के गम्भीर स्वर की तरह प्रणव (ओंकार) की ध्वनि वाला अनाहत नाद होता है, जिसका मूल ‘ब्रह्म' कहा जाता है ॥
[মহিমাচরণ প্রণব শব্দ কিরূপ তাই পড়িতেছেন — “তৈলধারামবিচ্ছিন্নম্ দীর্ঘঘন্টানিনাদবৎ”!
Mahima recited the description of Om: It is like the unceasing flow of oil, like the long peal of a bell.
फिर समाधि के लक्षण कह रहे हैं –
“उर्ध्वपूर्ण अधःपूर्णं मध्यपूर्णं यदात्मकम् ।
सर्वपूर्णं स आत्मेति समाधिस्थस्य लक्षणम् ॥”
[আবার সমাধির লক্ষণ বলিতেছেন —“ঊর্ধ্বপূর্ণমধঃপূর্ণং মধ্যপূর্ণং যদাত্মকম্।সর্বপূর্ণং স আত্মেতি সমাধিস্থস্য লক্ষণম্ ৷৷”
About the characteristics of samadhi he read: "The man established in samadhi sees the upper region filled with Atman, the nether region filled with Atman, the middle region filled with Atman. He sees all filled with Atman."
अधर और महिमाचरण प्रणाम करके बिदा हुए ।
[অধর, মহিমাচরণ ক্রমে প্রণাম করিয়া বিদায় গ্রহণ করিলেন।
Adhar and Mahima saluted the Master and departed.
(६)
[(3 फरवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -75 ]
🔆श्री रामकृष्ण की बालकों जैसी जैसी सरलता और सत्यवादिता🔆
दूसरे दिन रविवार है, 3 फरवरी 1884 । दोपहर के भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण अपने आसन पर बैठे हुए हैं । कलकत्ते से राम, सुरेन्द्र आदि भक्त उनके चोट लगने का हाल पाकर चिन्तित हो, आये हैं । मास्टर भी पास बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण के हाथ में लकड़ी बँधी हुई है । भक्तों के साथ बातचीत कर रहे हैं।
[পরদিন রবিবার, ৩রা ফেব্রুয়ারি ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ, ২১শে মাঘ, ১২৯০ সাল। মাঘ শুক্লা সপ্তমী। মধ্যাহ্নে সেবার পর ঠাকুর নিজাসনে বসিয়া আছেন। কলিকাতা হইতে রাম, সুরেন্দ্র প্রভৃতি ভক্তেরা তাঁহার অসুখ শুনিয়া চিন্তিত হইয়া আসিয়াছেন। মাস্টারও কাছে বসিয়া আছেন। ঠাকুরের হাতে বাড় বাঁধা, ভক্তদের সহিত কথা কহিতেছেন।
At noon the following day, after his midday meal, Sri Ramakrishna was sitting on the small couch, when Ram, Surendra, and a few other devotees arrived from Calcutta. They were worried about the Master's injured arm. The arm was bandaged. M. was present.]
श्रीरामकृष्ण – (भक्तों से) – ऐसा अवस्था में माँ ने रखा है कि छिपाने की मजाल नहीं, बालक जैसी अवस्था ।
“राखाल मेरी अवस्था नहीं समझता । कहीं कोई देखकर निन्दा न करे, इसलिए टूटे हाथ को कपड़े से छिपा देता है । मधु डाक्टर को अलग ले जाकर सब बातें कह रहा था । तब चिल्लाकर मैंने कहा, कहाँ हो मधुसूदन, देखो आकर मेरा हाथ टूट गया है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — এমনি অবস্থায় মা রেখেছেন যে ঢাকাঢাকি করবার জো নাই। বালকের অবস্থা! “রাখাল আমার অবস্থা বোঝে না। পাছে কেউ দেখতে পায়, নিন্দা করে, গায়ে কাপড় দিয়ে ভাঙা হাত ঢেকে দেয়। মধু ডাক্তারকে আড়ালে নিয়ে গিয়ে সব কথা বলছিল। তখন চেঁচিয়ে বললাম — ‘কোথা গো মধুসূদন, দেখবে এস, আমার হাত ভেঙে গেছে!’
MASTER (to the devotees): "The Mother has put me in such a state of mind that I cannot hide anything from anyone. Mine is the condition of a child. Rakhal doesn't understand it. He covers my injured arm, wrapping my body with a cloth lest others should see my injury and criticize me. He took Dr. Madhu aside and reported my illness. But I shouted and said: 'Hello! Where are you, Madhusudan? Come and see. My arm is broken!']
“मथुर बाबू और उनकी पत्नी जिस घर में सोते थे, उसी में मैं भी सोता था । वे ठीक बच्चे के समान मेरी देखभाल करते थे । तब मेरी उन्माद-अवस्था थी । मथुर बाबू कहते थे, ‘बाबा, क्या हम लोगों की कोई बातचीत तुम्हारे कान तक पहुँचती है ?’ मैं कहता था, ‘हाँ पहुँचती है ।’
[“সেজোবাবু আর সেজোগিন্নি যে ঘরে শুতো সেই ঘরে আমিও শুতাম! তারা ঠিক ছেলেটির মতন আমায় যত্ন করত। তখন আমার উন্মাদ অবস্থা। সেজোবাবু বলত, ‘বাবা, তুমি আমাদের কথাবার্তা শুনতে পাও?’ আমি বলতাম, ‘পাই’।"
I used to sleep in the same room with Mathur and his wife. They took care of me a if I were their own child. I was then passing through a state of divine madness. Mathur would ask me, 'Father, do you hear our conversation?' 'Yes', I would reply.]
“मथुरबाबू की पत्नी ने उन पर (मथुरबाबू पर) सन्देह करके कहा था, ‘अगर कहीं जाना तो भट्टाचार्य महाशय को साथ ले जाना ।’
वे एक जगह गये, मुझे मकान में नीचे बैठा दिया । फिर आध घण्टे बाद आकर कहा, ‘चलो बाबा, चलें, गाड़ी पर बैठो चलकर ।’ घर आकर उनकी पत्नी ने पूछा तो मैंने ठीक येही सब बातें सुना दी । मैंने कहा, ‘सुनो, एक मकान में हम लोग गये थे, उन्होंने मुझे नीचे बैठा दिया था, आप ऊपर गये थे, आध घण्टे के बाद आकर कह, चलो बाबा, चलें !’ उनकी पत्नी ने, इससे जो कुछ समझना था, समझ लिया ।
[“সেজোগিন্নি সেজোবাবুকে সন্দেহ করে বলেছিল, যদি কোথাও যাও — ভট্চার্জি মশায় তোমার সঙ্গে যাবেন। এক জায়গায় গেল — আমায় নিচে বসালে। তারপর আধঘন্টা পরে এসে বললে, ‘চল বাবা, চল বাবা। গাড়িতে উঠবে চল।’ সেজোগিন্নি জিজ্ঞাসা কললে, আমি ঠিক ওই সব কথা বললুম। আমি বললুম, ‘দেখগা, একটা বাড়িতে আমরা গেলুম, — উনি নিচে বসালে — উপরে আপনি গেল, — আধঘন্টা পরে এসে বললে, ‘চল বাবা চল।’ সেজোগিন্নি যা হয় বুঝে নিলে।
"Once Mathur's wife became suspicious of his movements and said to him, 'If you go anywhere, he (The Master.) must accompany you.' One day Mathur went to a certain place and asked me to wait downstairs. He returned after half an hour and said to me: 'Come, father, let us go now. The carriage is waiting.' When Mathur's wife asked me about it, I reported the thing correctly. I said to her: 'We went to a certain house. He told me to stay downstairs and himself went upstairs. He came down after half an hour and we left the place.' Of course she understood the thing in her own way.
“मथुर का एक हिस्सेदार यहाँ के पेड़ों के फल और गोभियाँ गाड़ी में लादकर घर भेज देता था । दूसरे हिस्सेदारों ने जब पूछा, तब मैंने यही बात बता दी ।”
[“মাড়েদের এক শরিক এখানকার গাছের ফল, কপি গাড়ি করে বাড়িতে চালান করে দিত। অন্য শরিকরা জিজ্ঞাসা করাতে আমি ঠিক তাই বললুম।”
"A partner of Mathur's estate used to take fruits and vegetables stealthily from the temple garden. When the other partners asked me about it, I told them the exact truth."
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[वेदान्त -केसरि श्रीदत्तात्रेय विरचित जीवन्मुक्तगीता- शिवशक्तिसमात्मानं पिण्डब्रह्माण्डम् (शिवशक्तिर्ममात्मानो पिण्डनि ब्रह्माण्डम् - ख) एव च । चिदाकाशं हृदं मोहं (कृतं सोऽहं - ख) जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १८॥ ज्ञानिनः शिवशक्तिसमात्मानं शिवशक्तिसमः यः आत्मा तमात्मानं महात्मानम् । पिण्डः शारीरम् । तेन सहितं ब्रह्माण्डं हृदं हृत्स्थं बन्धकं मोहं च चिदाकाशमिति चैतन्यमेव पश्यन्ति, य एवमात्मतत्त्वज्ञानी सः जीवन्मुक्त इत्युच्यते ॥जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिं च तुरीयावस्थितं सदा । सोऽहं मनो विलीयेत (विलीयते - ख) जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १९॥]