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सोमवार, 17 मई 2021

$$$$$परिच्छेद ~ 41, [(17 जून, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत: ] *Faith! Faith! Faith! in Gurus Words - ‘ওহি রাম ঘট্‌ ঘট্‌মে লেটা! ~ ओहि राम घोट घोट में लेटा " 'Rama alone has become everything.हे अर्जुन, गर्व से घोषणा करो कि मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता।

[(17 जून, 1883) परिच्छेद ~ 41, श्रीरामकृष्ण वचनामृत: ]

[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ* ]

परिच्छेद ४१ 

*दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ* 

(१) 

*तान्त्रिक भक्त तथा गृहस्थ जीवन: अनासक्त को भी भय है* 

श्रीरामकृष्ण भोजन के बाद दक्षिणेश्वर मन्दिर के अपने कमरे में थोड़ा विश्राम कर रहे हैं । अधर तथा मास्टर के आकर प्रणाम किया । एक तान्त्रिक भक्त भी आए हैं । राखाल, हाजरा, रामलाल आदि आजकल श्रीरामकृष्ण के पास रहते हैं । आज रविवार है, १७ जून १८८३ ई. । 

श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति)- गृहस्थाश्रम में होगा क्यों नहीं ? परन्तु बहुत कठिन है । जनक आदि ज्ञान प्राप्त करने के बाद गृहस्थाश्रम में आए थे । परन्तु फिर भी भय है ! अनासक्त गृहस्थ (detached householder ) को भी भय है ! भैरवी को देखकर जनक ने मुँह नीचा कर लिया । स्त्री के दर्शन से संकोच हुआ था । 

     भैरवी ने कहा, ‘जनक ! मैं देखती हूँ कि तुम्हें अभी ज्ञान नहीं हुआ ।  तुममें अभी भी 'स्त्रीपुरुष-बुद्धि' (Male-female distinction) # विद्यमान है।’ 

“कितना ही सयाना क्यों न हो, काजल की कोठरी में रहने पर शरीर पर कुछ न कुछ काला दाग लगेगा ही ।   

{শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — সংসারে হবে না কেন? তবে বড় কঠিন। জনকাদি জ্ঞানলাভ করে সংসারে এসেছিলেন। তবুও ভয়! নিষ্কাম সংসারীরও ভয়। ভৈরবীকে দেখে জনক মুখ হেঁট করেছিল; স্ত্রীদর্শনে সঙ্কোচ হয়েছে! ভৈরবী বললে, জনক! তোমার দেখছি এখনও জ্ঞান হয় নাই; তোমার স্ত্রী-পুরুষ বোধ রয়েছে। কাজলের ঘরে যতই সেয়ানা হও না কেন, একটু না একটু কালো দাগ গায়ে লাগবে।

 "Why shouldn't one be able to attain spirituality, living the life of a householder? But it is extremely difficult. Sages like Janaka entered the world after attaining Knowledge. But still the world is a place of terror. Even a detached householder has to be careful. Once Janaka bent down his head at the sight of a bhairavi. He shrank from seeing a woman. The bhairavi said to him: 'Janaka, I see you have not yet attained Knowledge. You still differentiate between man and woman.'} 

 “मैंने देखा, गृहस्थ जिस समय शुद्धवस्त्र पहनकर पूजा करते हैं उस समय उनका अच्छा भाव रहता है। यहाँ तक कि जलपान करने तक वही भाव रहता है । उसके बाद अपनी वही मूर्ति; फिर से रज, तम। 

[“দেখেছি, সংসারীভক্ত যখন পূজা করছে গরদ পরে তখন বেশ ভাবটি। এমন কি জলযোগ পর্যন্ত এক ভাব। তারপর নিজ মূর্তি; আবার রজঃ তমঃ।

"If you move about in a room filled with soot, you will soil your body, however slightly, no matter how clever you may be. I have seen householder devotees filled with spiritual emotion while performing their daily worship wearing their silk clothes. They maintain that attitude even until they take their refreshments after the worship. But afterwards they become their old selves again. They display their rajasic and tamasic natures.

“सत्त्वगुण से भक्ति होती है । किन्तु भक्ति का सत्त्व, भक्ति का रज, भक्ति का तम है । भक्ति का सत्त्व विशुद्ध है; इसकी प्राप्ति होने पर, ईश्वर को छोड़ और किसी में भी मन नहीं लगता । देह की रक्षा हो एके, केवल इतना ही शरीर की ओर ध्यान रहता है । 

[“সত্ত্বগুণে ভক্তি হয়। কিন্তু ভক্তির সত্ত্ব, ভক্তির রজঃ, ভক্তির তমঃ আছে। ভক্তির সত্ত্ব, বিশুদ্ধ সত্ত্ব — এ-হলে ঈশ্বর ছাড়া আর কিছুতেই মন থাকে না; কেবল দেহটা যাতে রক্ষা হয় ওইটুকু শরীরের উপর মন থাকে।”

"Sattva begets bhakti. Even bhakti has three aspects: sattva, rajas, and tamas. The sattva of bhakti is pure sattva. When a devotee acquires it he doesn't direct his mind to anything but God. He pays only as much attention to his body as is absolutely necessary for its protection.]

*परमहंस त्रिगुणातित होते हैं* 

“परमहंस तीनों गुणों से अतीत होते हैं ।* उनमें तीन गुण हैं और फिर नहीं भी हैं । ठीक बालक जैसा, किसी गुण के अधीन नहीं है । इसलिए परमहंस छोटे छोटे बच्चों को अपने पास आने देते हैं, जिससे उनके स्वभाव को अपना सकें । 

[“পরমহংস তিনগুণের অতীত।১ তার ভিতর তিনগুণ আছে আবার নাই। ঠিক বালক, কোন গুণের বশ নয়। তাই ছোট ছোট ছেলেদের পরমহংসরা কাছে আসতে দেয়, তাদের স্বভাব আরোপ করবে বলে।

"But a paramahamsa is beyond the three gunas. Though they exist in him, yet they are practically non-existent. Like a child, he is not under the control of any of the gunas. That is why paramahamsas allow small children to come near them — in order to assume their nature.]

“परमहंस संचय नहीं कर सकते । यह अवस्था गृहस्थों के लिए नहीं है । उन्हें अपने घरवालों के लिए संचय करना पड़ता है ।” 

[“পরমহংস সঞ্চয় করতে পারে না। এটা সংসারীদের পক্ষে নয়, তাদের পরিবারদের জন্য সঞ্চয় করতে হয়।”

"Paramahamsas may not lay things up; but this rule does not apply to householders. They must provide tor their families."]

तान्त्रिक भक्त- क्या परमहंस को पाप-पुण्य का बोध रहता है ? 

[ তান্ত্রিকভক্ত — পরমহংসের কি পাপ-পুণ্য বোধ থাকে?

TANTRIK DEVOTEE: "Is a paramahamsa aware of virtue and vice?"

श्रीरामकृष्ण- केशव सेन ने यह बात पूछी थी । मैंने कहा, ‘और अधिक कहने पर तुम्हारा दल-बल नहीं रहेगा ।’ केशव ने कहा, ‘तो फिर रहने दीजिए, महाराज ।’ 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেশব সেন ওই কথা জিজ্ঞাসা করেছিল। আমি বললাম, আরও বললে তোমার দল টল থাকবে না। কেশব বললে, তবে থাক মহাশয়।

 "Keshab Sen also asked that question. I said to him, 'If I explain that to you, then you won't be able to keep your society together.' 'In that case we had better stop here', said Keshab.

“पाप-पुण्य क्या है, जानते हो? परमहंस- अवस्था में अनुभव होता है कि वे ही सुबुद्धि देते हैं, वे ही कुबुद्धि देते हैं । फल क्या मीठे, कडुए नहीं होते? किसी पेड़ में मीठा फल, किसी में कडुआ या खट्टा फल । उन्होंने मीठे आम का वृक्ष भी बनाया है और फिर खट्टे फल का वृक्ष भी !” 

[“পাপ-পুণ্য কি জানো? পরমহংস অবস্থায় দেখে, তিনিই সুমতি দেন, তিনিই কুমতি দেন। তিতো মিঠে ফল কি নেই? কোন গাছে মিষ্ট ফল, কোন গাছে তিতো বা টক ফল। তিনি মিষ্ট আমগাছও করেছেন, আবার টক আমড়াগাছও করেছেন।”

"Do you know the significance of virtue and vice? A paramahamsa sees that it is God who gives us evil tendencies as well as good tendencies. Haven't you noticed that there are both sweet and bitter fruits? Some trees give sweet fruit, and some bitter or sour. God has made the mango-tree, which yields sweet fruit, and also the hog plum, which yields sour fruit."

तान्त्रिक भक्त- जी हाँ, पहाड़ पर गुलाब की खेती दिखायी देती है । जहाँ तक दृष्टि जाती है केवल गुलाब ही गुलाब का खेत । 

[তান্ত্রিকভক্ত — আজ্ঞা হাঁ, পাহাড়ের উপর দেখা যায় গোলাপের ক্ষেত। যতদূর চক্ষু যায় কেবল গোলাপের ক্ষেত।

TANTRIK: "Yes, sir. That is true. On the hill-top one sees extensive rose gardens, reaching as far as the eye can see."

श्रीरामकृष्ण- परमहंस देखता है, यह सब उनकी माया का ऐश्वर्य है, सत्-असत्, भला-बुरा, पाप-पुण्य यह सब समझना बहुत दूर की बात है । उस अवस्था में दल-बल नहीं रहता । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — পরমহংস দেখে, এ-সব তাঁর মায়ার ঐশ্বর্য। সৎ-অসৎ, ভাল-মন্দ, পাপ-পুণ্য। সব বড় দূরের কথা। সে অবস্থায় দল টল থাকে না।

 "The paramahamsa realizes that all these — good and bad, virtue and vice, real and unreal — are only the glories of God's maya. But these are very deep thoughts. One realizing this cannot keep an organization together or anything like that."] 

*कर्मफल । पाप-पुण्य* 

*माँ के भक्त पर कर्म का नियम (Law of Karma) लागु नहीं होता * 

[O Arjuna, Proudly Proclaim, that My devotee never perishes. ~ कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।। (गीता 9.31) हे अर्जुन, तुम गर्व से घोषणा करो कि - 'मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता !' 

तान्त्रिक भक्त- तो फिर कर्मफल है ? 

TANTRIK: "But the law of karma exists, doesn't it?"

श्रीरामकृष्ण- वह भी है । अच्छा कर्म करने पर सुफल और बुरा कर्म करने पर कुफल मिलता है । मिर्च खाने पर तीखा तो लगेगा ही ! यह सब उनकी लीला है, खेल है । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তাও আছে। ভাল কর্ম করলে সুফল, মন্দ কর্ম করলে কুফল; লঙ্কা খেলে ঝাল লাগবে না? এ-সব তাঁর লীলা-খেলা।

"That also is true. Good produces good, and bad produces bad. Don't you get the hot taste if you eat chillies? But these are all God's lila, His play."

तान्त्रिक भक्त- हमारे लिए क्या उपाय है ? कर्म का फल तो है न ? 

[তান্ত্রিকভক্ত — আমাদের উপায় কি? কর্মের ফল তো আছে?

 "Then what is the way for us? We shall have to reap the result of our past karma, shall we not?"

श्रीरामकृष्ण- होने दो, परन्तु उनके भक्तों  की बात अलग है । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — থাকলেই বা। তাঁর ভক্তের আলাদা কথা।

"That may be so. But it is different with the devotees of God. Listen to a song:

यह कहकर आप गाने लगे- ... 

मन रे कृषिकाज जानो ना। 

एमोन मानव जमिन रोईलो पतित,आबाद कोरले फलतो सोना। 

कालीनामेर  दाओ रे बेड़ा, फसले तछरुप होबे ना। 

शे जे मुक्त-केशीर शक्त बेड़ा, तार काछेते यम घेंसे ना।।

गुरु रोपण कोरेचेन बीज , भक्तिबारी ताय सेंचो ना। 

एका जदि  पारिस ना मन, रामप्रसादके संगे ने ना।।

মন রে কৃষিকাজ জানো না,

এমন মানব জমিন রইলো পতিত, আবাদ করলে ফলত সোনা/ 

মানব জমিন রইলো পতিত

আবাদ করলে ফলত সোনা

মন রে কৃষিকাজ জানো না

কালী নামে দাও রে বেড়া, ফসলে তছরূপ হবে না/ 

সে যে মুক্তকেশীর শক্ত বেড়া, তার কাছেতে যম ঘেঁষে না/

মুক্তকেশীর শক্ত বেড়া

তার কাছেতে যম ঘেঁষে না

মন রে কৃষিকাজ জানো না

মন রে কৃষিকাজ জানো না

অদ্য কিংবা শতাব্দান্তে,  বাজাপ্ত হবে জানো না /

অদ্য কিংবা শতাব্দান্তে

বাজাপ্ত হবে জানো না,

আপন একতারে মন রে

চুটিয়ে ফসল কেটে নে না

মন রে কৃষিকাজ জানো না

মন রে কৃষিকাজ জানো না

গুরুদত্ত বীজ রোপণ করে

ভক্তি বারি সেঁচে দে না

একা যদি না পারিস

মন রে...

একা যদি না পারিস মন

রামপ্রসাদকে সঙ্গে নে না

(भावार्थ)- “रे मन ! तुम खेती का काम नहीं जानते हो ! ऐसी मनुष्यदेहरूपी जमीन पड़ी ही रह गयी ! यदि तुम खेती करते तो इसमें सोना फल सकता था । पहले तुम कालीनाम का घेरा लगा लो, फसल नष्ट न होगी । वह तो मुक्तकेशी का पक्का घेरा है, उसके पास यम भी नहीं आता । गुरु का दिया हुआ बीज बोकर भक्ति का जल सींच देना । हे मन, यदि तुम अकेले न कर सको, तो रामप्रसाद को साथ ले लेना।”  

[O mind, you do not know how to farm! Fallow lies the field of your life.If you had only worked it well,How rich a harvest you might reap!Hedge it about with Kali's name,If you would keep your harvest safe; This is the stoutest hedge of all,For Death himself cannot come near it. Sooner or later will dawn the day When you must forfeit your precious field; Gather, O mind, what fruit you may.Sow for your seed the holy name, Of God that your guru has given to you,Faithfully watering it with love;And if you should find the task too hard,Call upon Ramprasad for help.] 

फिर गा रहे हैं- ..... 

शमन आसार पथ घुचेछे, आमार  मनेर संध घुचे गेछे, 

ओरे आमार घरेर नवद्वारे, चारि शिब चौकि रयेछे । 

 एक खुंटिते घर रयेछे, तिन रज्जुते बांधा आछे, 

           सहस्रदलकमले श्रीनाथ ,अभय दिये बोसे आछे ।। १ ।। 

 द्वारे आछे शक्ति बांधा, चौकिदारि भार लयेछे । 

से शक्तिर जोरे चेतन करे, ताईते प्राण निर्भये आछे ।। २ ।।

 मूलाधारे स्वाधिष्ठाने, कंठमूले भुरु माझे । 

ए चारि स्थाने चारि शिव, नवद्वारे चौकि आछे ।। ३ ।।

 'रामप्रसाद' बोले एइ घरे,चंद्रसूर्येर उदय आछे। 

ओरे तमोनाशकरी तारा, हृद्-मंदिरे विराजिछे ।। ४।। 

শমন আসবার পথ ঘুচেছে, আমার মনের সন্দ ঘুচে গেছে।

ওরে আমার ঘরের নবদ্বারে চারি শিব চৌকি রয়েছে ৷৷

এক খুঁটিতে ঘর রয়েছে, তিন রজ্জুতে বাঁধা আছে।

সহস্রদল কমলে শ্রীনাথ অভয় দিয়ে বসে আছে ৷৷

(भावार्थ)- ‘यम के आने का रास्ता बन्द हो गया । मेरे मन का सन्देह मिट गया । मेरे घर के नौ दरवाजों ^ (^शरीर अपने नौ छिद्रों के साथ, जैसे आंख, कान, नाक, मुंह, आदि द्वारों ) पर चार शिव पहरेदार हैं। एक ही स्तम्भ ( ब्रह्म)  पर घर है, जो तीन रस्सियों  (सत, तम और रज आदि तीन गुण) से बँधा हुआ है । सहस्त्रदल-कमल पर श्रीनाथ अभय देते हुए बैठे हैं ।’ 

[I have securely blocked the way by which the King of Death will come; Henceforward all my doubts and fears are set at naught for ever. Siva Himself is standing guard at the nine doorways of my house, Which has one Pillar for support, and three ropes to secure it. The Lord has made His dwelling-place the thousand-petalled lotus flower, Within the head, and comforts me with never-ceasing care.] 

“काशी में ब्राह्मण मरे या वैश्या – सभी शिव होंगे ।” 

“जब हरिनाम से, कालीनाम से, रामनाम से, आँखों में आँसू भर आते हैं, तब सन्ध्या-कवच आदि की कुछ भी आवश्यकता नहीं रह जाती । कर्म का त्याग हो जाता है । कर्म का फल स्पर्श नहीं करता ।” 

{“কাশীতে ব্রাহ্মণই মরুক আর বেশ্যাই মরুক শিব হবে।“যখন হরিনামে, কালীনামে, রামনামে, চক্ষে জল আসে তখনই সন্ধ্যা-কবচাদির কিছুই প্রয়োজন নাই। কর্মত্যাগ হয়ে যায়। কর্মের ফল তার কাছে যায় না।”

The Master continued: "Anyone who dies in Benares, whether a brahmin or a prostitute, will become Siva. When a man sheds tears at the name of Hari, Kali, or Rama, then he has no further need of the sandhya and other rites. All actions drop away of themselves. The fruit of action does not touch him."

श्रीरामकृष्ण फिर गाना गा रहे हैं-...

भाविले भावेर उदय होय। 

 जेमोन भाब , तेमनी लाभ ,मूल से प्रत्यय।   

कालीपद सुधाह्रदे चित्त यदि रय (यदि चित्त डूबे रय)। 

तोबे पूजा -होम यागयज्ञ किछु नय।।  

ভাবিলে ভাবের উদয় হয়।

যেমন ভাব, তেমনি লাভ, মূল সে প্রত্যয়।

কালীপদ সুধাহ্রদে চিত্ত যদি রয় (যদি চিত্ত ডুবে রয়)।

তবে পূজা-হোম যাগযজ্ঞ কিছু নয়।

(भावार्थ)- “माँ भवतारिणी के रूप का चिन्तन करने पर उनके चरणों में प्रेम भाव का उदय होता है । जैसा भाव, वैसी ही प्राप्ति होती है- विश्वास ही मूल बात है । यदि चित्त काली के चरणरूपी अमृत-सरोवर में डूबा रहता है, तो फिर पूजा-होम, यज्ञ का कुछ भी महत्त्व नहीं है ।” 

[As is a man's (object of) meditation, so is his feeling of love; As is a man's feeling of love, so is his gain; And faith is the root of all. If in the Nectar Lake of Mother Kali's feet, My mind remains immersed, Of little use are worship, oblations, or sacrifice.

श्रीरामकृष्ण फिर गा रहे हैं-

 त्रिसंध्या जे बोले काली , पूजा संध्या से की चाय।  

गया-गंगा-प्रभासादि काशी कांची केवा चाय |

काली काली बोले आमार अजपा यदि फुराय ||
त्रिसंध्या जे बोले काली, पूजा संध्या से कि चाय |

संध्या तार संधाने फेरे कभु संधि नाहि पाय ||
दया व्रत दान आदि, आर किछु ना मने लय |

मदनेर याग यज्ञ, ब्रह्ममयीर रांगा पाय ||
कालीनामेर एतगुण केवा जानते पारे ताय |
देवाधिदेव महादेव जाँर पंचमुखे गुण गाय ||

[साभार https://maasarada.blogspot.com/]

ত্রিসন্ধ্যা যে বলে কালী, পূজা সন্ধ্যা সে কি চায় ৷

সন্ধ্যা তার সন্ধ্যানে ফিরে, কভু সন্ধি নাহি পায় ৷৷

গয়া গঙ্গা প্রভাসাদি কাশী কাঞ্চী কেবা চায় ৷

কালী কালী কালী বলে আমার অজপা যদি ফুরায় ৷৷

(भावार्थ)- “जो त्रिसन्ध्या में काली का नाम लेता है, क्या वह पूजा-संध्यादि चाहता है ? सन्ध्या स्वयं उसकी खोज में फिरती रहती है, पर उससे मिल नहीं पाती ! यदि ‘काली काली’ कहते हुए मेरे प्राण निकल जाए, तो फिर गया, गंगा, प्रभास, काशी, कांची आदि की कौन परवाह करता है !’ 

“ईश्वर में मग्न हो जाने पर फिर असद्बुद्धि, पापबुद्धि नहीं रह जाती ।”  

[“তাঁতে মগ্ন হলে আর অসদ্বুদ্ধি, পাপবুদ্ধি থাকে না।”

"When a man merges himself in God, he can no longer retain wicked or sinful tendencies."

तांत्रिक भक्त- आपने कहा है ‘विद्या का ‘मैं’ रहता है । 

[তান্ত্রিকভক্ত — আপনি যা বলেছেন “বিদ্যার আমি” থাকে।

 "You have said rightly that he keeps only the 'Knowledge ego'."

श्रीरामकृष्ण- ‘विद्या का मैं’, ‘भक्त मैं’, ‘दास मैं’, ‘भला मैं’ रहता है । ‘बदमाश मैं’ चला जाता है । (हँसी) 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — বিদ্যার আমি, ভক্তের আমি। দাস আমি, ভাল আমি থাকে। বজ্জাত আমি চলে যায়। (হাস্য)

MASTER: "Yes, he keeps only the 'Knowledge ego', the 'devotee ego', the 'servant ego', and the 'good ego'. His 'wicked ego' disappears."

*आत्मा का साक्षात्कार होने पर सब सन्देह मिट जाते हैं।*  

तान्त्रिक भक्त- जी महाराज, हमारे अनेक सन्देह मिट गए । 

[তান্ত্রিকভক্ত — আজ্ঞা, আমাদের অনেক সংশয় চলে গেল।

"Today you have destroyed many of our doubts."

श्रीरामकृष्ण- आत्मा का साक्षात्कार होने पर सब सन्देह मिट जाते हैं ।* 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আত্মার সাক্ষাৎকার হলে সব সন্দেহ ভঞ্জন হয়। 

"All doubts disappear when one realizes the Self.

[*भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ -मुण्डक उपनिषद् २/२/८) हृदय की सारी ग्रथियाँ खुल जाती हैं, समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा मनुष्य के कर्मों का क्षय हो जाता है, जब उस 'परतत्त्व' का दर्शन हो जाता है, जो एक साथ ही अपरा सत्ता एवं 'परम सत्ता' है।]

*भक्ति का तम लाओ !*

“भक्ति का तम लाओ । कहो - जब मैंने राम का नाम लिया, काली का नाम लिया, तब यह कैसे सम्भव है कि मेरा बन्धन रहे, मेरा कर्मफल रहे ?”

[“ভক্তির তমঃ আন। বল, কি! রাম বলেছি, কালী বলেছি, আমার আবার বন্ধন; আমার আবার কর্মফল।”

"Assume the tamasic aspect of bhakti. Say with force: 'What? I have uttered the names of Rama and Kali. How can I be in bondage any more? How can I be affected by the law of karma?'"

श्रीरामकृष्ण फिर गाना गा रहे हैं- ...

आमि दूर्गा दूर्गा दूर्गा बोली मा जदि मरी।  

आखेरे दिने ना तारो केमने जाना जाबी गो शंकरी।। 

नाशि गो ब्राह्मण, हत्या करी भृणु, सुरापान आदि बिनाशी नारी।  

ए सब पातक न भाबी तिलेक,ब्रह्म पद निते पारि।।  

(भावार्थ)- “माँ, यदि मैं ‘दुर्गा दुर्गा’ कहता हुआ मरूँ, तो हे शंकरी, देखूँगा कि अन्त में इस दीन का तुम कैसे उद्धार नहीं करतीं ! माँ ! गो-ब्राह्मण की, भ्रूण की तथा नारी की हत्या, सुरापान आदि पापों की रत्तीभर परवाह न कर मैं ब्रह्मपद प्राप्त कर सकता हूँ ।” 

[If only I can pass away repeating Durga's name, How canst Thou then, O Blessed One, Withhold from me deliverance, Wretched though I may be? I may have stolen a drink of wine, or killed a child unborn, Or slain a woman or a cow, Or even caused a brahmin's death; But, though it all be true, Nothing of this can make me feel the least uneasiness; For through the power of Thy sweet name My wretched soul may still aspire Even to Brahmanhood.

*विश्वास : ‘ওহি রাম ঘট্‌ ঘট্‌মে লেটা! ~ ओहि राम घोट घोट में लेटा "  *

श्रीरामकृष्ण फिर कहते हैं- “विश्वास, विश्वास, विश्वास ! गुरु ने कह दिया है, राम ही सब कुछ बनकर विराजमान हैं । ‘ওহি রাম ঘট্‌ ঘট্‌মে লেটা!’ ओही राम घट-घट में लेटा ।’ कुत्ता रोटी खाता जा रहा है। भक्त कहता है, ‘राम ! ठहरो, ठहरो, रोटी में घी लगा दूँ ।’ गुरुवाक्य में ऐसा विश्वास ! 

 [শ্রীরামকৃষ্ণ আবার বলিতেছেন — বিশ্বাস! বিশ্বাস! বিশ্বাস! গুরু বলে দিয়েছেন, রামই সব হয়ে রয়েছেন; ‘ওহি রাম ঘট্‌ ঘট্‌মে লেটা!’ কুকুর রুটি খেয়ে যাচ্ছে। ভক্ত বলছে, ‘রাম! দাঁড়াও, দাঁড়াও রুটিতে ঘি মেখে দিই’ এমনি গুরুবাক্যে বিশ্বাস।

"Faith! Faith! Faith! Once a guru said to his pupil, 'Rama alone has become everything.' When a dog began to eat the pupil's bread, he said to it: 'O Rama, wait a little. I shall butter Your bread.' Such was his faith in the words of his guru.]

“भुक्कड़ो (Worthless people) को विश्वास नहीं होता । सदा ही सन्देह ! आत्मा का साक्षात्कार हुए बिना सब सन्देह दूर नहीं होते । 

[“হাবাতেগুলোর বিশ্বাস হয় না! সর্বদাই সংশয়! আত্মার সাক্ষাৎকার না হলে সব সংশয় যায় না।২

"Worthless people do not have any faith. They always doubt. But doubts do not disappear completely till one realizes the Self.

*तान्त्रिक क्रिया (पञ्चमकार साधना ?) आजकल सफल क्यों नहीं होती ?* 

“शुद्ध भक्ति, जिसमें कोई कामना न हो, ऐसी भक्ति द्वारा उन्हें शीघ्र प्राप्त किया जा सकता है । 

अणिमा आदि सिद्धियाँ – ये सब कामनाएँ हैं । कृष्ण ने अर्जुन से कहा है, ‘भाई, अणिमा आदि सिद्धियों में से एक के भी रहते ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती । शक्ति को थोड़ा बढ़ा भर सकती हैं वे ।” 

[“শুদ্ধাভক্তি — কোন কামনা থাকবে না, সেই ভক্তি দ্বারা তাঁকে শীঘ্র পাওয়া যায়।“অণিমাদি সিদ্ধি — এ-সব কামনা। কৃষ্ণ অর্জুনকে বলেছিলেন, ভাই, অণিমাদি সিদ্ধাই, একটিও থাকলে ঈশ্বরলাভ হয় না; একটু শক্তি বাড়তে পারে।”

"In genuine love of God there is no desire. Only through such love does one speedily realize God. Attainment of supernatural powers and so on — these are desires. Krishna once said to Arjuna: 'Friend, you cannot realize God if you acquire even one of the eight supernatural powers. They will only 'add a little to your power.'"

तान्त्रिक भक्त- महाराज, तान्त्रिक क्रिया (पञ्चमकार साधना ?) आजकल सफल क्यों नहीं होती ? 

[“তান্ত্রিকভক্ত — আজ্ঞে, তান্ত্রিক ক্রিয়া আজকাল কেন ফলে না? 

"Sir, why don't the rituals of Tantra bear fruit nowadays?"

श्रीरामकृष्ण- सर्वांगीण नहीं होती और भक्तिपूर्वक भी नहीं की जाती, इसीलिए सफल नहीं होती । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সর্বাঙ্গীণ হয় না, আর ভক্তিপূর্বক হয় না — তাই ফলে না।

"It is because people cannot practise them with absolute correctness and devotion."

अब श्रीरामकृष्ण उपदेश समाप्त कर रहे हैं । कह रहे हैं-

“भक्ति ही सार है । सच्चे भक्त को कोई भय, कोई चिन्ता नहीं। माँ सब कुछ जानती है । बिल्ली चूहा पकड़ती है एक प्रकार से, परन्तु अपने बच्चे को पकड़ती है दूसरे प्रकार से ।’ 

[এইবার ঠাকুর কথা সাঙ্গ করিতেছেন। বলিতেছেন, ভক্তিই সার; ঠিক ভক্তের কোন ভয় ভাবনা নাই। মা সব জানে। বিড়াল ইঁদুরকে ধরে একরকম করে, কিন্তু নিজের ছানাকে আর-একরকম করে ধরে

In conclusion the Master said; "Love of God is the one essential thing. A true lover of God has nothing to fear, nothing to worry about. He is aware that the Divine Mother knows everything. The cat handles the mouse one way, but its own kitten a very different way."

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हे अर्जुन, गर्व से घोषणा करो कि मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता।

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।

कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।9.31।।

।।9.31।। मेरा भक्त शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। हे अर्जुन, तुम गर्व से घोषणा करो कि - 'मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता !'  

[9.31 Soon he becomes righteous and attains to eternal peace; O Arjuna, Proudly Proclaim thou for certain that My devotee never perishes.

वेदान्त में निर्दिष्ट 'पूर्णत्व' (ब्रह्मस्वरूप -दिव्यता) हमसे उतना ही दूर है, जितना हमारी जाग्रत अवस्था हमारे स्वप्न से। यहाँ मन को केवल एकाग्र करने की ही आवश्यकता है। यदि कैमरे को ठीक से केन्द्रीभूत (फोकस) नहीं किया जाता, तो सामने के सुन्दर दृश्य का केवल धुँधला चित्र ही प्राप्त होता है।  और यदि उस कैमरे को सम्यक् प्रकार से फोकस किया जाय, तो उसी से हमें सम्पूर्ण दृश्य का उसके विस्तार एवं भव्य सौन्दर्य के साथ चित्र प्राप्त होता है।

अनन्य भक्ति और पुरुषार्थ से मन की एकाग्रता का विकास होता है, जिसका फल है मन की सूक्ष्मदर्शिता में अभिवृद्धि। ऐसा सम्पन्न मन ध्यान की सर्वोच्च उड़ान में भी अपनी समता बनाये रखता है। शीघ्र ही वह आत्मानुभव की झलक पाता है और इस प्रकार अधिकाधिक प्रभावशाली सन्त का जीवन जीते हुए अपने आदर्शों विचारों एवं कर्मों के द्वारा अपने दिव्यत्व की सुगन्ध को सभी दिशाओं में बिखेरता है।

यह बताने के पश्चात् कि अतिशय दुराचारी पुरुष भी (स्वामी विवेकानन्द की) भक्ति और (चरित्रवान मनुष्य बनने के ) सम्यक् निश्चय के द्वारा शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। इस श्लोक की दूसरी पंक्ति भगवान् श्रीकृष्ण के अतुलनीय धर्म-प्रचारक (या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता के व्यक्तित्व  को उजागर करती है। 

{* मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते । स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ - गीता, १४/२६ अन्वय - मां च यः अव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते सः गुणान् समतीत्य एतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ) जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मेरी सेवा अर्थात् उपासना करता है, वह इन तीनों गुणों के अतीत होकर ब्रह्म बनने और बनाने (Be and Make) के लिये  योग्य हो जाता है।।हमारा सम्पूर्ण स्वभाव हमारे विचारों से पोषित होता है। यथा विचार तथा मन ! यह नियम है। इसलिये एकाग्र चित्त से आत्मा के अनन्तस्वरूप का चिन्तन करने से परिच्छिन्न नश्वर अहंकार की समाप्ति और स्वस्वरूप में स्थिति हो जाती है। जिस स्थिति में आज हम अपने को पाते हैं,  उसमें हमारा यह सार्मथ्य नहीं है कि हम अपने मन को दीर्घकाल तक ध्यानाभ्यास (विवेकदर्शन या मनःसंयोग) में स्थिर कर सकें। साधकों की इस अक्षमता को जानते हुये भगवान् एक उपाय बताते हैं; जिसके द्वारा हम दीर्घकाल तक ईश्वर का स्मरण (विवेकदर्शन का अभ्यास ) बनाये रख सकते हैं। और वह उपाय है सेवा -' Be and Make ' आंदोलन का नेतृत्व करना हम लोग यह जानते हैं कि 'ब्रह्मार्पणं' - या  ईश्वरार्पण की भावना से किए गए निष्काम सेवा कर्म ईश्वर की पूजा (यज्ञ) बन जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि केवल मूर्तिपूजा, या भजन ही पर्याप्त नहीं है। स्वामी विवेकानन्द अपने अनुयायियों  से यह अपेक्षा रखते थे कि, वे अपने धर्म को केवल पूजा के कमरे या मन्दिरों में ही सीमित न रखेंगे ! उन्हें चाहिये कि वे अपने दैनिक जीवन के प्रत्येक कार्य- क्षेत्र में, खेत-खलिहान खेल के मैदान, और लोगों के साथ व्यवहार में भी धर्म का अनुसरण करें।अखण्ड ईश्वर स्मरण तथा सेवा -साधना , या 'शिवज्ञान से सम्पादित जीव सेवा '  मन के विक्षेपों को दूर करके उसे ध्यान की सूक्ष्मतर साधना के योग्य बना देती है। तमस और रजस की मात्रा घटती जाती है और उसी अनुपात में सत्त्वगुण प्रवृद्ध होता जाता है। ऐसा सत्त्वगुण प्रधान साधक ध्यान की साधना के योग्य बन जाता है। ऐसे साधक से आत्मानुभूति दूर नहीं रहती। उत्तम अधिकारी ब्रह्मस्वरूप का अनुभव कर स्वयं ब्रह्म बन जाता है। जैसे स्वप्नद्रष्टा जागने पर स्वयं ही जाग्रत पुरुष बनता है।}

*स्त्री-पुरुष विवेक : एक राम घट-घट में लेटा*

Male-female distinction ) 

   वैदिक काल में परिवार के सभी कार्यों और भूमिकाओं में पत्नी को पति के समान अधिकार प्राप्त थे। नारियां शिक्षा ग्रहण करने के अलावा पति के साथ यज्ञ का सम्पादन भी करतीं थीं।

 सती शतरूपा स्वायम्भुव मनु की पत्नी थीं। वे चारों वेदों की प्रकाण्ड विदुषी थी। जल प्रलय के बाद मनु और शतरूपा से ही दोबारा सृष्टि का आरम्भ हुआ। ये योगशास्त्र की भी प्रकाड विद्वान और साधक थीं।

विदुषी अरून्धती ब्रहर्षि वसिष्ठ जी की धर्मपत्नी थीं। ये भी वेदों की प्रकाण्ड विद्वान थी। अपने ज्ञान के बल पर ही ये एकमात्र ऐसी विदुषी हैं, जिन्होंने सप्तर्षि मंडल में ऋषि पत्नी के रूप में गौरवशाली स्थान पाया। महर्षि मेधातिथि के यज्ञ में ये बचपन से ही भाग लेती थीं और यज्ञ के बाद वेदों की बातों पर तर्क-वितर्क किया करती थी। 

ब्रह्मवादिनी गार्गी के पिता का नाम वचक्नु था, जिसके कारण इन्हें वाचक्नवी भी कहते हैं। गर्ग गोत्र में उत्पन्न होने के कारण इन्हें गार्गी कहा जाता है। ये वेद शास्त्रों की महान विद्वान थी। इन्होंने शास्त्रार्थ में अपने युग में महान विद्वान महिर्ष याज्ञवल्क्य तक को हरा दिया था।

विदुषी मैत्रेयी महर्षि याज्ञवल्क्य की पत्नी थीं। इन्होंने पति के श्रीचरणों में बैठकर वेदों का गहन अध्ययन किया। पति परमेश्वर की उपाधि इन्हीं के कारण जग में प्रसिद्ध हुई, क्योंकि इन्होंने पति से ज्ञान प्राप्त किया था और फिर उस ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए कन्या गुरुकुल स्थापित किए। 

विदुषी विद्योत्तमा से परास्त होकर पण्डितों ने एक मूर्ख को मौनी गुरु बताकर संकेत से शास्त्रार्थ की चुनौती दी थी। पण्डितों ने दो अंगुली और मुक्का आदि के अलग अर्थ बताकर विद्योत्तमा को परास्त घोषित करके मूर्ख से विवाह करने को विवश कर दिया। विद्योत्तमा ने पति से उष्ट्र को उसट सुनकर उसे रात में ही घर से भगाकर दरवाजा बंद कर दिया। 

कुछ वर्ष बाद एक घनघोर रात्रि में पति ने पुकारा-‘‘अनावृतकपाटं द्वारं देहि।’’ विद्योत्तमा ने द्वार खोलकर कहा, ‘‘अस्ति कश्चित वाक् विशेषः।’’ पत्नी के उपरोक्त तीन शब्दों पर अस्ति से कुमार सम्भव महाकाव्य, कश्चित् से मेघदूत खण्डकाव्य और वाक्विशेषः से रघुवंश महाकाव्य की रचना पति महोदय ने कर डाली। इन तीनों कालजयी ग्रंथ के रचनाकार थे वही अतीत के मूर्ख, विश्व के सर्वश्रेष्ठ संस्कृत साहित्यकार अमर महाकवि कालिदास

मानव के मादा स्वरूप को 'स्त्री ' कहते हैं, जो स्त्रीलिंग है। महिला शब्द मुख्यत: वयस्क स्त्रियों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। किन्तु कई संदर्भो में यह शब्द संपूर्ण स्त्री वर्ग को दर्शाने के लिए भी प्रयोग मे लाया जाता है, जैसे 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । ' यह बात हमारे वेदों और पुराणों में कही गयी है कि जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नही होती है, उनका सम्मान नही होता है वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं। क्योंकि केवल स्त्रियाँ ही रजोनिवृत्ति तक यौवन से देव-संतानों को जन्म देने में सक्षम होती हैं।

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रविवार, 16 मई 2021

$$$$$ परिच्छेद ~ 40,[(15 जून, 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] * *The devotee of Swan*राजहंस का भक्त 'कामिनी -कांचन ' से अनासक्त होने का दृढ़ संकल्प ले सकता है*गृहस्थ प्रवृत्ति से अनासक्त होकर निवृत्ति में स्थित हो जाये *लेकिन संकल्पशक्ति का तारतम्य होता है– विद्यासागर* साधना-सिद्ध और नित्य सिद्ध* *गृहस्थाश्रम के सम्बन्ध में उपदेश*मनुष्य का जन्म तीन बार होता है *(Man is born thrice) * You Must Be Born Again!**मनुष्य बनने में बाधाएँ ,Obstacles in becoming Human Being* *गृहस्थ को फुफकारना अवश्य चाहिए* [A Householder Must Hiss] गृहस्थ के लिए भी उपाय है तीव्र वैराग्य *गुरुवाक्य (गुरुदेव से प्राप्त अपने इष्टदेव के नाम) में विश्वास । व्यास का विश्वास -ब्रह्मार्पणं *(गीता ४. २४) * भला और बुरा, पाप और पुण्य **ज्ञानयोग और भक्तियोग*

 [(15 जून, 1883) परिच्छेद ~ 40, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

[ *साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*]

परिच्छेद ४० 

*दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ *

(१)

*गृहस्थाश्रम के सम्बन्ध में उपदेश*

आज गंगा-दशहरा #, ज्येष्ठ शुक्ला दशमी, शुक्रवार का दिन है; तारीख १५ जून १८८३ ई. । भक्तगण श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने के लिए दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में आए हैं । गंगादशहरा  के उपलक्ष्य में अधर और मास्टर को छुट्टी मिली है ।

[ गंगा दशहरा # ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष के १० वे दिन (दशमी) को गंगा दशहरा कहते हैं, मान्यता है कि  इसी दिन मां गंगा का अवतरण पृथ्वी पर हुआ था । ] 

राखाल के पिता और पिता के ससुर आए हैं । पिता ने दूसरी बार विवाह किया है । ससुर महाशय श्रीरामकृष्ण का नाम बहुत दिनों से सुनते आ रहे हैं; वे साधक पुरुष हैं, श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने आए हैं । श्रीरामकृष्ण उन्हें रुक-रूककर देख रहे हैं । भक्तगण जमीन पर बैठे हैं ।

ससुर महाशय ने पूछा, “महाराज, क्या गृहस्थाश्रम में भगवान् का लाभ हो सकता है ?”

[শ্বশুর — মহাশয়, গৃহস্থাশ্রমে কি ভগবান লাভ হয়?

"Sir, can one realize God while leading the life of a householder?"

श्रीरामकृष्ण(हँसते हुए)- क्यों नहीं हो सकता ? कीचड़ में रहनेवाली मछली की तरह रहो । वह कीचड़ में रहती है, पर उसके शरीर पर कीचड़ नहीं लगता । और अ-सती स्त्री की तरह रहो जो घर का सारा कामकाज करती है, पर उसका मन अपने उपपति की ओर ही रहता है । ईश्वर से मन लगाए रखकर गृहस्थी का सब काम करो । परन्तु यह है बड़ा कठिन । (Do your duties in the world, fixing your mind on God. But this is extremely difficult.)

मैंने ब्राह्मसमाजवालों से कहा था कि जिस कमरे में इमली का अचार और पानी का मटका है, यदि उसी कमरे में सन्निपात का रोगी भी रहे तो बीमारी किस तरह दूर हो? फिर इमली की याद आते ही मुँह में पानी भर आता है । पुरुषों के लिए स्त्रियाँ इमली के अचार की तरह हैं । और विषय की तृष्णा तो सदा लगी ही है; यही पानी का मटका है । इस तृष्णा का अन्त नहीं है ।  टायफ़ायड का रोगी कहता है कि मैं एक मटका पानी पीऊँगा ।

बड़ा कठिन है । गृहस्थ जीवन में बहुत कठिनाईयाँ हैं । जिधर जाओ उधर ही कोई न कोई बला आ खड़ी हो जाती है । और निर्जन स्थान न होने के कारण भगवान् की चिन्ता नहीं होती । सोने को गलाकर गहना गढ़ाना है, तो यदि गलाते समय कोई दस बार बुलाए, तो सोना किस तरह गलेगा? 

    चावल छाँटते समय अकेले बैठकर छाँटना होता है । हर बार चावल हाथ में लेकर देखना पड़ता है कि कैसा साफ हुआ । छाँटते समय यदि कोई दस बार बुलाये तो अच्छी तरह छाँटना कैसे हो सकता है?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কেন হবে না? পাঁকাল মাছের মতো থাক। সে পাঁকে থাকে, কিন্তু গায়ে পাঁক নাই। আর ঘুষকীর মতো থাক। সে ঘরে-কন্নার সব কাজ করে কিন্তু  মন উপপতির উপর পড়ে থাকে। ঈশ্বরের উপর মন ফেলে রেখে সংসারের কাজ সব কর। কিন্তু বড় কঠিন। আমি ব্রহ্মজ্ঞানীদের বলেছিলুম, যে-ঘরে আচার তেঁতুল আর জলের জালা সেই ঘরেই বিকারের রোগী! কেমন করে রোগ সারবে? আচার তেঁতুল মনে করলে মুখে জল সরে। পুরুষের পক্ষে স্ত্রীলোক আচার তেঁতুলের মতো। আর বিষয় তৃষ্ণা সর্বদাই লেগে আছে; ওইটি জলের জালা। এ তৃষ্ণার শেষ নাই। বিকারের রোগী বলে, এক জালা জল খাব! বড় কঠিন। সংসারে নানা গোল। এদিকে যাবি, কোঁস্তা ফেলে মারব; ওদিকে যাবি, ঝাঁটা ফেলে মারব; এদিকে যাবি জুতো ফেলে মারব। আর নির্জন না হলে ভগবানচিন্তা হয় না। সোনা গলিয়ে গয়না গড়ব তা যদি গলাবার সময় পাঁচবার ডাকে, তাহলে সোনা গলানো কেমন করে হয়? চাল কাঁড়ছ একলা বসে কাঁড়তে হয়। এক-একবার চাল হাত করে তুলে দেখতে হয়, কেমন সাফ হল। কাঁড়তে কাঁড়তে যদি পাঁচবার ডাকবে, ভাল কাঁড়া কেমন করে হয়?

MASTER (with a smile): "Why not? Live in the world like a mudfish. The mudfish lives in the mud but itself remains unstained. Or live in the world like a loose woman. She attends to her household duties, but her mind is always on her sweetheart. Do your duties in the world, fixing your mind on God. But this is extremely difficult. I said to the members of the Brahmo Samaj: 'Suppose a typhoid patient is kept in a room where there are jars of pickles and pitchers of water. How can you expect the patient to recover? The very thought of spiced pickles brings water to one's mouth.' To a man, woman is like that pickle. The craving for worldly things, which is chronic in man, is like the patient's craving for water. There is no end to this craving. The typhoid patient says, 'I shall drink a whole pitcher of water.' The situation is very difficult. There is so much confusion in the world. If you go this way, you are threatened with a shovel; if you go that way, you are threatened with a broomstick; again, in another direction, you are threatened with a shoe-beating. Besides, one cannot think of God unless one lives in solitude. The goldsmith melts gold to make ornaments. But how can he do his work well if he is disturbed again and again? Suppose you are separating rice from bits of husk. You must do it all by yourself. Every now and then you have to take the rice in your hand to see how clean it is. But how can you do your work well if you are called away again and again?"

*गृहस्थ के लिए भी उपाय है -छः दिवसीय प्रशिक्षण शिविर में गुरुगृह वास

एक भक्त- महाराज, फिर उपाय क्या है ?

श्रीरामकृष्ण- उपाय है । यदि तीव्र वैराग्य हो तो हो सकता है । जिसे 'मिथ्या' समझते हो उसे हठपूर्वक उसी समय त्याग दो ।     

जिस समय मैं बहुत बीमार था गंगाप्रसाद सेन (वैद्य ) के पास लोग मुझे ले गए । गंगाप्रसाद ने कहा, ‘यह औषधि खानी पड़ेगी पर जल नहीं पी सकते । हाँ, अनार का रस पी सकते हो।’ सब लोगों ने सोचा कि बिना जल पिए मैं कैसे रह सकता हूँ । 

मैंने निश्चय किया कि अब जल न पीऊँगा । मैं ‘परमहंस’ ^ हूँ । मैं बतख थोड़े ही हूँ, - मैं तो राजहंस ^ हूँ दूध पिया करूँगा ।

{'परमहंस' ^ शब्द का प्रयोग संन्यासियों की उच्चतम श्रेणी के लिए किया जाता है, इस शब्द का दूसरा अर्थ राजहंस (Swan) भी होता है। भारत में एक किम्वदन्ती प्रचलित है कि राजहंस  दूध और पानी के मिश्रण से दूध को अलग कर सकता है। कहा जाता है कि उसके गले की ग्रंथि से एसिड का स्राव होता है , जो दूध को दही में बदल देता है, जिसे हंस पानी छोड़कर खा जाता है।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আছে। যদি তীব্র বৈরাগ্য হয়, তাহলে হয়। যা মিথ্যা বলে জানছি, রোখ করে তৎক্ষণাৎ ত্যাগ কর। যখন আমার ভারী ব্যামো, গঙ্গাপ্রসাদ সেনের কাছে লয়ে গেল। গঙ্গাপ্রসাদ বললে, স্বর্ণপটপটি খেতে হবে, কিন্তু জল খেতে পাবে না; বেদানার রস খেতে পার। সকলে মনে করলে, জল না খেয়ে কেমন করে আমি থাকব। আমি রোখ কল্লুম আর জল খাব না। ‘পরমহংস’! আমি তো পাতিহাঁস নই — রাজহাঁস! দুধ খাব।

"There is a way. One succeeds if one develops a strong spirit of renunciation. Give up at once, with determination,  what you know to be unreal. Once, when I was seriously ill, I was taken to the physician Gangaprasad Sen. He said to me: 'I shall give you a medicine, but you mustn't drink any water. You may take pomegranate juice.' Everyone wondered how I could live without water; but I was determined not to drink, it. I said to myself: 'I am a paramahamsa and not a goose. I shall drink only milk.' A paramahamsa is one belonging to the highest order of monks; the word also means swan .There is a popular tradition किम्वदन्ती in India that a swan (राजहंस) can separate the milk from a mixture of milk and water. It is said that a secretion of acid turns the milk into curd, which the swan eats, leaving the water.} 

“कुछ काल निर्जन में रहना पड़ता है । खेल के समय धप्पा ('granny') छू लेने पर फिर भय नहीं रहता । सोना हो जाने पर (भगवान् मिल जाने के बाद)  जहाँ जी चाहे रहो । निर्जन में रहकर यदि भक्ति मिली हो और भगवान् मिल चुके हों, तो फिर संसार में भी रह सकते हो ।

[“কিছুদিন নির্জনে থাকতে হয়। বুড়ী ছুঁয়ে ফেললে আর ভয় নাই। সোনা হলে তারপরে যেখানেই থাক। নির্জনে থেকে যদি ভক্তিলাভ হয়, যদি ভগবানলাভ হয়, তাহলে সংসারেও থাকা যায়। (রাখালের বাপের প্রতি) তাই তো ছোকরাদের থাকতে বলি। কেননা, এখানে দিন কতক থাকলে ভগবানে ভক্তি হবে। তখন বেশ সংসারে গিয়ে থাকতে পারবে।”

"You have to spend a few days in solitude. If you but touch the 'granny' you are safe. Turn yourself into gold and then live wherever you please. After realizing God and divine love in solitude, one may live in the world as well. (To Rakhal's father) That is why I ask the youngsters to stay with me; for they will develop love of God by staying here a few days. After that they can very well lead the life of a householder."

(राखाल के पिता के प्रति) इसीलिए तो लड़कों को यहाँ (छह दिवसीय प्रशिक्षण शिविर में गुरुगृह वास)  रहने के लिए कहता हूँ; क्योंकि यहाँ थोड़े दिन रहने पर भगवान् में भक्ति होगी; उसके बाद सहज ही संसार में जाकर रह सकेंगे ।”

* भला और बुरा, पाप और पुण्य -महाकारण को समझना *

 (good and evil, virtue and vice)

एक भक्त- यदि ईश्वर ही सब कुछ करते हैं, तो फिर लोग भला और बुरा, पाप और पुण्य, यह सब क्यों कहते हैं ? तब तो पाप भी उन्हीं की इच्छा से होता है !

राखाल के पिता के ससुर- उनकी इच्छा को हम कैसे समझें ?

श्रीरामकृष्ण- पाप और पुण्य हैं, पर वे स्वयं निर्लिप्त हैं । वायु में सुगन्ध भी है और दुर्गन्ध भी, परन्तु वायु स्वयं निर्लिप्त है । ईश्वर की सृष्टि ऐसी ही है । भला-बुरा, सत्-असत्-दोनों हैं । जैसे पेड़ों में कोई आम का पेड़ है, कोई कटहल का, कोई किसी और चीज का । 

    देखो न, दुष्ट आदमियों (तालिबानियों ) की भी आवश्यकता है। जिस तालुके की प्रजा उद्दण्ड होती है, वहाँ एक दुष्ट आदमी भेजना पड़ता है, तब कहीं तालुके का ठीक शासन होता है । 

{শ্রীরামকৃষ্ণ — পাপ-পুণ্য আছে, কিন্তু তিনি নিজে নির্লিপ্ত। বায়ুতে সুগন্ধ দুর্গন্ধ সবরকমই থাকে, কিন্তু বায়ু নিজে নির্লিপ্ত। তাঁর সৃষ্টিই এইরকম; ভালমন্দ, সদসৎ; যেমন গাছের মধ্যে কোনটা আমগাছ, কোনটা কাঁঠালগাছ, কোনটা আমরাগাছ। দেখ না দুষ্ট লোকেরও প্রয়োজন আছে। যে-তালুকের প্রজারা দুর্দান্ত, সে-তালুকে একটা দুষ্ট লোককে পাঠাতে হয়, তবে তালুকের শাসন হয়।

"There is no doubt that virtue and vice exist in the world; but God Himself is unattached to them. There may be good and bad smells in the air, but the air is not attached to them. The very nature of God's creation is that good and evil, righteousness and unrighteousness, will always exist in the world. Among the trees in the garden one finds mango and jack-fruit, and hog plum too. Haven't you noticed that even wicked men are needed? Suppose there are rough tenants on an estate; then the landlord must send a ruffian to control them."

फिर गृहस्थाश्रम के सम्बन्ध में बात चली ।

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से)- बात यह है, गृहस्थ का जीवन व्यतीत करने पर मन की शक्ति ( mental powers)  का अपव्यय होता है । इस अपव्यय से जो हानि होती है वह तभी पूरी हो सकती है जब कोई संन्यास ले ।

* 'मनुष्य' (नेता पैगम्बर,ब्रह्मविद) बनने के लिए तीन बार जन्म लेना पड़ता है* 

पिता प्रथम 'जन्मदाता' है । उसके बाद द्वितीय जन्म 'उपनयन' के समय होता है । एक बार फिर जन्म होता है, 'संन्यास '#  के समय । 

{'Except ye be born again ye cannot enter into the kingdom of Heaven'-- Christ. John 3:3 प्रश्न यह है कि “मैं अनंत जीवन पाने के लिए क्या करूँ?” मैं तुम से सच कहता हूं, यदि तुम न फिरो और (समाधि से व्युत्थान के बाद) बालकों के समान न बनो, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने नहीं पाओगे।  You Must Be Born Again! *तुम्हें नए सिरे से जन्म लेने की आवश्यकता है।  * समाधि से व्युत्थान होने के बाद ~ पैगम्बर का जन्म होता है * After rising from the samadhi ~ Prophet is born !*   प्रथम जन्मदाता हैं पिता , दूसरे उपनयन के आचार्य (मनःसंयोग के प्रशिक्षण से मन की आँख खोलने की शिक्षा देने वाले CINC -नवनीदा  और तीसरी माँ काली (गुरुदेव) ; जिनकी कृपा से ~ … हे मेरे बच्चो, जब तक तुम में से पैगम्बर प्रकट न हो जाए, मैं तुम्हारे लिए प्रसव की सी पीड़ा में हूं।” ( गलाटियन्स ) My little children, for whom I am again in the pain of childbirth until Christ is formed in you . (Galatians 4:17–19) }     

 कामिनी-कांचन-ये ही दो विघ्न हैं । स्त्री की आसक्ति पुरुष को ईश्वर के मार्ग से डिगा देती है । किस तरह पतन होता है, यह पुरुष नहीं जान सकता । 

   किले (A reference to the fort in Calcutta.) के अन्दर जाते समय यह बिलकुल न जान सका कि ढालू रास्ते से जा रहा हूँ । जब किले के अन्दर गाड़ी पहुँची तो मालुम हुआ कि कितने नीचे आ गया हूँ ।

       स्त्रियाँ पुरुषों को कुछ नहीं समझने देतीं । कप्तान* कहता है, मेरी स्त्री ज्ञानी है ! (*श्री विश्वनाथ उपाध्याय) भूत जिस पर सवार होता है, वह नहीं जानता कि भूत सवार है, वह कहता है कि मैं आनंद में हूँ । (सभी निस्तब्ध हैं ) 

শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — কি জানো, সংসার করলে মনের বাজে খরচ হয়ে পড়ে। এই বাজে খরচ হওয়ার দরুন মনের যা ক্ষতি হয়, সে ক্ষতি আবার পূরণ হয়, যদি কেউ সন্ন্যাস করে। বাপ প্রথম জন্ম দেন, তারপরে দ্বিতীয় জন্ম উপনয়নের সময়। আর-একবার জন্ম হয় সন্ন্যাসের সময়।১ কামিনী ও কাঞ্চন এই দুটি বিঘ্ন। মেয়েমানুষে আসক্তি ঈশ্বরের পথ থেকে বিমুখ করে দেয়। কিসে পতন হয়, পুরুষ জানতে পারে না। যখন কেল্লায় যাচ্ছি, একটুও বুঝতে পারি নাই যে, গড়ানে রাস্তা দিয়ে যাচ্ছি। কেল্লার ভিতর গাড়ি পৌঁছুলে দেখতে পেলুম, কত নিচে এসেছি। আহা, পুরুষদের বুঝতে দেয় না! কাপ্তেন বলে, আমার স্ত্রী জ্ঞানী! ভূতে যাকে পায়, সে জানে না যে, ভূতে পেয়েছে! সে বলে, বেশ আছি! (সকলে নিস্তব্ধ)

[ "You see, by leading a householder's life a man needlessly dissipates his mental powers. The loss he thus incurs can be made up if he takes to monastic life. The first birth is a gift of the father; then comes the second birth, when one is invested with the sacred thread. There is still another birth at the time of being initiated into monastic life. The two obstacles to spiritual life are 'woman' and 'gold'. Attachment to 'woman' diverts one from the way leading to God. Man doesn't know what it is that causes his downfall. Once, while going to the Fort, (A reference to the fort in Calcutta.) I couldn't see at all that I was driving down a sloping road; but when the carriage went inside the Fort, I realized how far down I had come. Alas! 'Women keep men deluded. Captain says, 'My wife is full of wisdom.' The man possessed by a ghost does not realize it. He says, 'Why, I am all right!'" (the devotees listened to these words in deep silence.)

श्रीरामकृष्ण- संसार में (गृहस्थ जीवन में) केवल काम का ही नहीं, क्रोध का भी भय है । कामना मार्ग में रूकावट होने से ही क्रोध पैदा हो जाता है ।

[“সংসারে শুধু যে কামের ভয়, তা নয়। আবার ক্রোধ আছে। কামনার পথে কাঁটা পড়লেই ক্রোধ।”

"It is not lust alone that one should be afraid of in the life of the world. There is also anger. Anger arises when obstacles are placed in the way of desire."]

 [या कोई गृहस्थ प्रवृत्ति से अनासक्त होकर निवृत्ति में स्थित हो जाये, लेकिन उसमें भी संकल्पशक्ति का तारतम्य होता है। ]

 *गृहस्थ को फुफकारना अवश्य चाहिए* 

[A Householder Must Hiss] 

मास्टरभोजन करते समय मेरी थाली से बिल्ली कुछ खाना उठा लेने को बढ़ती है, मैं कुछ नहीं बोल सकता ।

[“মাস্টার — আমার পাতের কাছে বেড়াল নুলো বাড়িয়ে মাছ নিতে আসে, আমি কিছু বলতে পারি না।

M: "At meal-time, sometimes a cat stretches out its paw to take the fish from my plate. But I cannot show any resentment."] 

श्रीरामकृष्ण- क्यों ! एक बार मारते क्यों नहीं ? उसमें क्या दोष है? गृहस्थ को फुफकारना चाहिए, पर विष न उगलना चाहिए । किसी को हानि नहीं पहुँचानी चाहिए, पर शत्रुओं के हाथ से बचाने के लिए क्रोध का आभास दिखलाना चाहिए; नहीं तो शत्रु आकर उसे हानि पहुँचाएँगे । 

पर त्यागी (संन्यासी) के लिए फुफकारने की भी आवश्यकता नहीं है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন! একবার মারলেই বা, তাতে দোষ কি? সংসারী ফোঁস করবে! বিষ ঢালা উচিত নয়। কাজে কারু অনিষ্ট যেন না করে। কিন্তু শত্রুদের হাত থেকে রক্ষা পাবার জন্য ক্রোধের আকার দেখাতে হয়। না হলে শত্রুরা এসে অনিষ্ট করবে। ত্যাগির ফোঁসের দরকার নাই।

"Why? You may even beat it once in a while. What's the harm? A worldly man should hiss, but he shouldn't pour out his venom. He mustn't actually injure others. But he should make a show of anger to protect himself from enemies. Otherwise they will injure him. But a sannyasi need not even hiss."]

एक भक्त- महाराज, गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए (दादा-नाना बनकर) भगवान् को भी पाना बड़ा ही कठिन देखता हूँ । कितने आदमी ऐसे हो सकते हैं ? ऐसा तो कोई देखने में नहीं आता ।

[একজন ভক্ত — মহাশয়, সংসারে তাঁকে পাওয়া বড়ই কঠিন দেখছি। কটা লোক এরকম হতে পারে? কি! দেখতে তো পাই না।"

I find it is extremely difficult for a householder to realize God. How few people can lead the life you prescribe for them! I haven't found any."]

श्रीरामकृष्ण- क्यों नहीं होगा ? उधर सुना है कि एक डिप्टी है । बड़ा अच्छा आदमी है । प्रताप सिंह उसका नाम है । दानशीलता, ईश्वर की भक्ति आदि बहुतसे गुण उसमें हैं । मुझे लेने के लिए आदमी भेजा था । ऐसे लोग भी तो हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন হবে না? ও-দেশে শুনেছি, একজন ডেপুটি, খুব লোক — প্রতাপ সিং; দান-ধ্যান, ঈশ্বরে ভক্তি, অনেক গুণ আছে। আমাকে লতে পাঠিয়েছিল। এইরকম লোক আছে বইকি।

"Why should that be so? I have heard of a deputy magistrate named Pratap Singh. He is a great man. He has many virtues: compassion and devotion to God. He meditates on God. Once he sent for me. Certainly there are people like him.] 

(२) 

साधना का प्रयोजन । 

*व्यास का विश्वास -ब्रह्मार्पणं *

[ ब्रह्मार्पणं *(गीता ४. २४) :  यह एक प्रसिद्ध श्लोक है जिसको महामण्डल शिविर में भोजन प्रारम्भ करने के पूर्व पढ़ा जाता है, किन्तु अधिकांश लोग न तो इसका अर्थ जानते हैं और न जानने का प्रयत्न ही करते हैं। तथापि इसका अर्थ गंभीर है और इसमें सम्पूर्ण वेदान्त के सार को बता दिया गया है।]

श्रीरामकृष्ण- साधना की बड़ी आवश्यकता है । फिर क्यों नहीं होगा ? यदि ठीक ठीक विश्वास हो, तो अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता । चाहिए गुरु-वाक्य (तत्वमसि) पर विश्वास । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সাধন বড় দরকার। তবে হবে না কেন? ঠিক বিশ্বাস যদি হয়, তাহলে আর বেশি খাটতে হয় না। গুরুবাক্যে বিশ্বাস! 

"The practice of discipline is absolutely necessary. Why shouldn't a man succeed if he practises sadhana? But he doesn't have to work hard if he has real faith — faith in his guru's words.]

“व्यासदेव यमुना के उस पार जाएँगे इतने में वहाँ गोपियाँ आयीं । वे भी पार जाएँगी, पर नाव नहीं मिलती । गोपियों ने कहा, ‘महाराज, अब क्या किया जाय ?’ व्यासदेव ने कहा, ‘अच्छा, तुम लोगों को पार किए देता हूँ; पर मुझे बड़ी भूख लगी है, तुम्हारे पास कुछ है ?’ गोपियों के पास दूध, दही, मक्खन आदि था सब कुछ उन्होंने खाया । गोपियों ने कहा, ‘महाराज, अब पार जाने का क्या हुआ?’ 

व्यासदेव तब किनारे पर जाकर खड़े हुए और कहने लगे, ‘हे यमुने, यदि आज मैंने कुछ न खाया हो तो तुम्हारा जल दो भागों में बँट जाय’ यह कहते ही जल अलग-अलग हो गया । गोपियाँ यह देखकर दंग रह गयी; सोचनी लगीं, इन्होंने अभी अभी तो इतनी चीजें खायी हैं, फिर भी कहते हैं, ‘यदि मैं कुछ न खाया हो’ 

“ यही दृढ़ विश्वास है । मैंने नहीं- हृदय में जो नारायण (अवतार वरिष्ठ ठाकुरदेव) हैं उन्होंने खाया है ।’ 

[“ব্যাসদেব যমুনা পার হবেন, গোপীরা এসে উপস্থিত। গোপীরাও পার হবে কিন্তু খেয়া মিলছে না। গোপীরা বললে, ঠাকুর! এখন কি হবে? ব্যাসদেব বললেন, আচ্ছা তোদের পার করে দিচ্ছি, কিন্তু আমার বড় খিদে পেয়েছে, কিছু আছে? গোপীদের কাছে দুধ, ক্ষীর, নবনী অনেক ছিল, সমস্ত ভক্ষণ করলেন। গোপীরা বললে, ঠাকুর পারের কি হল। ব্যাসদেব তখন তীরে গিয়ে দাঁড়ালেন; বললেন, হে যমুনে, যদি আজ কিছু খেয়ে না থাকি, তোমার জল দুভাগ হয়ে যাবে, আর আমরা সব সেই পথ দিয়ে পার হয়ে যাব। বলতে বলতে জল দুধারে সরে গেল। গোপীরা অবাক্‌; ভাবতে লাগল — উনি এইমাত্র এত খেলেন, আবার বলছেন, ‘যদি আমি কিছু খেয়ে না থাকি?’“এই দৃঢ় বিশ্বাস। আমি না, হৃদয় মধ্যে নারায়ণ — তিনি খেয়েছেন।

Once Vyasa was about to cross the Jamuna, when the gopis also arrived there, wishing to go to the other side. But no ferry-boat was in sight. They said to Vyasa, 'Revered sir, what shall we do now?' 'Don't worry', said Vyasa. 'I will take you across. But I am very hungry. Have you anything for me to eat?' The gopis had plenty of milk, cream, and butter with them. Vyasa ate it all. Then the gopis asked, 'Well, sir, what about crossing the river?' Vyasa stood on the bank of the Jamuna and said, 'O Jamuna, if I have not eaten anything today, then may your waters part so that we may all walk to the other side.' No sooner did the sage utter these words than the waters of the Jamuna parted. The gopis were speechless with wonder. 'He ate so much just now,' they said to themselves, 'and he says, "If I have not eaten anything . . ." ! ' Vyasa had the firm conviction that it was not himself, but the Narayana who dwelt in his heart, that had partaken of the food.] 

“ शंकराचार्य तो ब्रह्मज्ञानी थे, पर पहले उनमें भेदबुद्धि भी थी । वैसा विश्वास न था । चाण्डाल मांस का बोझ लिए आ रहा था, वे गंगास्नान करके ही उठे थे कि चाण्डाल से स्पर्श हो गया । कह उठे, ‘अरे ! तूने मुझे छू लिया !’ चाण्डाल ने कहा, ‘महाराज, न आपने मुझे छुआ न मैंने आपको ! शुद्ध आत्मा-न वह शरीर है, न पंचभूत है, और न चौबीस तत्त्व है ।’ तब शंकर को ज्ञान हुआ । 

जड़भरत राजा रहुगण की पालकी ले जाते समय जब आत्मज्ञान की बातें करने लगे, तब राजा ने पालकी से नीचे उतरकर कहा, ‘आप कौन हैं ?’ जड़भरत ने कहा, ‘नेति नेति-मैं शुद्ध आत्मा हूँ ।’ उनका पक्का विश्वास था कि वे शुद्ध आत्मा हैं । 

[“শঙ্করাচার্য এদিকে ব্রহ্মজ্ঞানী; আবার প্রথম প্রথম ভেদবুদ্ধিও ছিল। তেমন বিশ্বাস ছিল না। চণ্ডাল মাংসের ভার লয়ে আসছে, উনি গঙ্গাস্নান করে উঠেছেন। চণ্ডালের গায়ে গা লেগে গেছে। বলে উঠলেন, ‘এই তুই আমায় ছুঁলি!’ চণ্ডাল বললে, ‘ঠাকুর, তুমিও আমায় ছোঁও নাই, আমিও তোমায় ছুঁই নাই।’ যিনি শুদ্ধ আত্মা, তিনি শরীর নন, পঞ্চভূত নন, চতুর্বিংশতি তত্ত্ব নন। তখন শঙ্করের জ্ঞান হয়ে গেল। “জড়ভরত রাজা রহুগণের পালকি বহিতে বহিতে যখন আত্মজ্ঞানের কথা বলতে লাগল, রাজা পালকি থেকে নিচে এসে বললে, তুমি কে গো! জড়ভরত বললেন, আমি নেতি, নেতি, শুদ্ধ আত্মা। একেবারে ঠিক বিশ্বাস, আমি শুদ্ধ আত্মা।”

"Sankaracharya was a Brahmajnani, to be sure. But at the beginning he too had the feeling of differentiation. He didn't have absolute faith that everything in the world is Brahman. One day as he was coming out of the Ganges after his bath, he saw an untouchable, a butcher, carrying a load of meat. Inadvertently the butcher touched his body. Sankara shouted angrily, 'Hey there! How dare you touch me?' 'Revered sir,' said the butcher, 'I have not touched you, nor have you touched me. The Pure Self cannot be the body nor the five elements nor the twenty-four cosmic principles.' Then Sankara came to his senses. Once Jadabharata was carrying King Rahugana's palanquin and at the same time giving a discourse on Self-Knowledge. The king got down from the palanquin and said to Jadabharata, 'Who are you, pray?' The latter answered, 'I am Not this, not this — I am the Pure Self.' He had perfect faith that he was the Pure Self.]

*ज्ञानयोग और भक्तियोग*

“सोऽहम् । मैं शुद्ध आत्मा हूँ – यह ज्ञानियों का मत है । भक्त कहते हैं, यह सब भगवान् का ऐश्वर्य है । धनी का ऐश्वर्य न होने से उसे कौन जान सकता है? पर साधक की भक्ति देखकर, यदि ईश्वर कहेंगे कि जो मैं हूँ, वही तू भी है, तब दूसरी बात है ।

     राजा बैठे हैं, उस समय नौकर यदि सिंहासन पर जाकर बैठ जाय और कहे, ‘राजा, जो तुम हो वही मैं भी हूँ, तो लोग उसे पागल कहेंगे । 

     पर यदि नौकर की सेवा से सन्तुष्ट हो राजा एक दिन यह कहें, ‘आ जा, तू मेरे पास बैठ, इसमें कोई दोष नहीं; जो तू है वही मैं भी हूँ !’ और तब यदि वह जाकर बैठे तो उसमें कोई दोष नहीं है । 

    एक साधारण जीव का यह कहना कि सोऽहम् – मैं वही हूँ – अच्छा नहीं है । जल की ही तरंग होती है तरंग का जल थोड़े ही होता है ।

[“ ‘আমিই সেই’ ‘আমি শুদ্ধ আত্মা’ — এটি জ্ঞানীদের মত। ভক্তেরা বলে, এ-সব ভগবানের ঐশ্বর্য। ঐশ্বর্য না থাকলে ধনীকে কে জানতে পারত? তবে সাধকের ভক্তি দেখে তিনি যখন বলবেন, ‘আমিও যা, তুইও তা’ তখন এক কথা। রাজা বসে আছেন, খানসামা যদি রাজার আসনে গিয়ে বসে, আর বলে, ‘রাজা তুমিও যা, আমিও তা’ লোকে পাগল বলবে। তবে খানসামার সেবাতে সন্তুষ্ট হয়ে রাজা একদিন বলেন, ‘ওরে, তুই আমার কাছে বোস, ওতে দোষ নাই; তুইও যা, আমিও তা!’ তখন যদি সে গিয়ে বসে, তাতে দোষ হয় না। সামান্য জীবেরা যদি বলে, ‘আমি সেই’ সেটা ভাল না। জলেরই তরঙ্গ; তরঙ্গের কি জল হয়?"

'I am He', 'I am the Pure Self' — that is the conclusion of the jnanis. But the bhaktas say, 'The whole universe is the glory of God.' Who would recognize a wealthy man without his power and riches? But it is quite different when God Himself, gratified by the aspirant's devotion, says to him, 'You are the same as Myself.' Suppose a king is seated in his court, and his cook enters the hall, sits on the throne, and says, 'O King, you and I are the same!' People will certainly call him a madman. But suppose one day the king, pleased with the cook's service, says to him: 'Come, sit beside me. There is nothing wrong in that. There is no difference between you and me.' Then, if the cook sits on the throne with the king, there is no harm in it. It is not good for ordinary people to say, 'I am He'. The waves belong to the water. Does the water belong to the waves?]

“बात यह है कि मन स्थिर न होने से योग नहीं होता, तुम चाहे जिस राह से चलो । मन योगी के वश में रहता है, योगी मन के वश में नहीं ।

योगाभ्यास या मनःसंयोग का अभ्यास करते समय ‘ मन स्थिर होने पर प्राण-वायु भी स्थिर हो जाती है' – उससे कुम्भक होता है । 

वह कुम्भक भक्तियोग से भी होता है, भक्ति से प्राण -वायु स्थिर हो जाती है ।

 ‘मेरे निताई मस्त हाथी हैं !’ ‘मेरे निताई मस्त हाथी हैं !’ .... यह कहते कहते जब भाव हो जाता है, तब वह मनुष्य पूरा वाक्य नहीं कह सकता, केवल। ... ‘हाथी हैं’ कहता है । इसके बाद सिर्फ ‘हा – ’ इतना ही! भाव से भी प्राणवायु स्थिर हो जाती है, और उससे कुम्भक होता है ।

[“কথাটা এই — মন স্থির না হলে যোগ হয় না, যে পথেই যাও। মন যোগীর বশ! যোগী মনের বশ নয়। “মন স্থির হলে বায়ু স্থির হয় — কুম্ভক হয়। এই কুম্ভক ভক্তিযোগেতেও হয়; ভক্তিতে বায়ু স্থির হয়ে যায়। ‘নিতাই আমার মাতা হাতি’, ‘নিতাই আমার মাতা হাতি!’ এই বলতে বলতে যখন ভাব হয়ে যায়, সব কথাগুলো বলতে পারে না, কেবল ‘হাতি’! ‘হাতি’! তারপর শুধু ‘হা’। ভাবে বায়ু স্থির হয় — কুম্ভক হয়।

"The upshot of the whole thing is that, no matter what path you follow, yoga is impossible unless the mind becomes quiet. The mind of a yogi is under his control; he is not under the control of his mind. When the mind is quiet the prana stops functioning. Then one gets kumbhaka. One may have the same kumbhaka through bhaktiyoga as well: the prana stops functioning through love of God too. In the kirtan the musician sings, 'Nitai amar mata hati!' ("My Nitai dances like a mad elephant!") Repeating this, he goes into a spiritual mood and cannot sing the whole sentence. He simply sings, 'Hati! Hati!' When the mood deepens he sings only, 'Ha! Ha!' Thus his prana stops through ecstasy, and kumbhaka follows.]

  “एक आदमी झाड़ू दे रहा था कि किसी ने आकर कहा, ‘अजी, अमुक मर गया !’ जो झाड़ू दे रहा था, उसका यदि वह अपना आदमी न हुआ, तो वह झाड़ू देता ही रहता है और बीच बीच में कहता है, ‘दुःख की बात है, वह आदमी मर गया ! बड़ा अच्छा आदमी था ।’ इधर झाड़ू भी चल रही है ।

      परन्तु यदि कोई अपना हुआ तो झाड़ू उसके हाथ से छुट जाता है, और ‘हाय’ कहकर वह बैठ जाता है । उस समय उसकी प्राणवायु स्थिर हो जाती है; कोई काम या विचार उससे फिर नहीं हो सकता । औरतों में नहीं देखा – यदि कोई कभी ठक होकर या निर्वाक् होकर कुछ देखे या सुने तो दूसरी औरतें उससे कहती हैं, ‘क्यों, क्या तुझे भाव हुआ है?’ यहाँ पर भी वायु स्थिर हो गयी है, इसी से निर्वाक् होकर मुँह खोले रहती है ।

[“একজন ঝাঁট দিচ্ছে, একজন লোক এসে বললে, ‘ওগো, অমুক নেই, মারা গেছে!’ যে ঝাঁট দিচ্ছে তার যদি আপনার লোক না হয়, সে ঝাঁট দিতে থাকে, আর মাঝে মাঝে বলে, ‘আহা, তাই তো গা, লোকটা মারা গেল! বেশ ছিল!’ এদিকে ঝাঁটাও চলছে। আর যদি আপনার লোক হয়, তাহলে ঝাঁটা হাত থেকে পড়ে যায়, আর ‘এ্যাঁ’! বলে বসে পড়ে। তখন বায়ু স্থির হয়ে গেছে; কোন কাজ বা চিন্তা করতে পারে না। মেয়েদের ভিতর দেখ নাই! যদি কেউ অবাক্‌ হয়ে একটা জিনিস দেখে বা একটা কথা শুনে, তখন অন্য মেয়েরা বলে, তোর ভাব লেগেছে নাকি লো! এখানেও বায়ু স্থির হয়েছে, তাই অবাক্‌, হাঁ করে থাকে।“

"Suppose a man is sweeping a courtyard with his broom, and another man comes and says to him: 'Hello! So-and-so is no more. He is dead.' Now, if the dead person was not related to the sweeper, the latter goes on with his work, remarking casually: 'Ah! That's too bad. He is dead. He was a good fellow.' The sweeping goes on all the same. But if the dead man was his relative, then the broom drops from his hand. 'Ah!' he exclaims, and he too drops to the ground. His prana has stopped functioning. He can neither work nor think. Haven't you noticed, among women, that if one of them looks at something or listens to something in speechless amazement, the other women say to her, 'What? Are you in ecstasy?' In this instance, too, the prana has stopped functioning, and so she remains speechless, with mouth agape.


*ज्ञानी के लक्षण । साधना-सिद्ध और नित्य सिद्ध*

“सोऽहम् सोऽहम् कहने से ही नहीं होता । ज्ञानी के लक्षण हैं । नरेन्द्र के नेत्र उभरे हुए हैं । इनके भी कपाल और नेत्र का लक्षण अच्छा है ।

[“সোঽহংসোঽহম্‌ কল্লেই হয় না। জ্ঞানীর লক্ষণ আছে। নরেন্দ্রের চোখ সুমুখঠেলা। এঁরও কপাল ও চোখের লক্ষণ ভাল।

 "It will not do merely to repeat, 'I am He, I am He.' There are certain signs of a jnani. Narendra has big protruding eyes. (Pointing to a devotee) He also has good eyes and forehead.] 

   “फिर सब की एक-सी हालत नहीं होती । जीव चार प्रकार के कहे गए हैं- बद्ध, मुमुक्षु, मुक्त और नित्य । सभी को साधना करनी पड़ती है, यह बात भी नहीं है । 

नित्य-सिद्ध और साधना-सिद्ध, दो तरह के साधक हैं । कोई अनेक साधनाएँ करने पर ईश्वर को पाता है; कोई जन्म से ही सिद्ध है, जैसे प्रह्लाद । 

[“আর, সব্বায়ের এক অবস্থা নয়। জীব চার প্রকার বলেছে, — বদ্ধজীব, মুমুক্ষুজীব, মুক্তজীব, নিত্যজীব। সকলকেই যে সাধন করতে হয়, তাও নয়। নিত্যসিদ্ধ আর সাধনসিদ্ধ। কেউ অনেক সাধন করে ঈশ্বরকে পায়, কেউ জন্ম অবধি সিদ্ধ, যেমন প্রহ্লাদ।

 "All men are by no means on the same level. It is said that there are four classes of men: the bound, the struggling, the liberated, and the ever-free. It is also not a fact that all men have to practise spiritual discipline. There are the ever-free and those who achieve perfection through spiritual discipline. Some realize God after much spiritual austerity, and some are perfect from their very birth. Prahlada is an example of the ever-free.

‘होमा’ नाम की चिड़िया आकाश में रहती है । वहीँ वह अण्डा देती है । अण्डा आकाश से गिरता है और गिरते ही गिरते वह फूट जाता है, और उससे बच्चा निकलकर गिरता है । वह इतने ऊँचे पर से गिरता है कि गिरते ही गिरते उसके पंख निकल आते हैं । जब वह पृथ्वी के पास आ जाता है तब देखता है कि जमीन से टकराते ही वह चूरचूर हो जाएगा । तब वह सीधे ऊपर उड़ जाता है- अपनी माँ के पास।

“प्रह्लाद आदि नित्य-सिद्ध भक्तों की साधना बाद में होती है । साधना के पहले ही उन्हें ईश्वर का लाभ होता है, जैसे लौकी, कुम्हड़े का पहले फल, और उसके बाद फूल होता है । (राखाल के पिता से) नीच वंश में भी यदि नित्य-सिद्ध जन्म ले तो वह वही होता है, दूसरा कुछ नहीं होता । चने के मैली जगह में गिरने पर भी चने का ही पेड़ होता है ।

[“প্রহ্লাদাদি নিত্যসিদ্ধের সাধন-ভজন পরে। সাধনের আগে ঈশ্বরলাভ। যেমন লাউ কুমড়োর আগে ফল, তারপরে ফুল। (রাখালের বাপের দিকে চাহিয়া) নীচ বংশেও যদি নিত্যসিদ্ধ জন্মায়, সে তাই হয়, আর কিছু হয় না। ছোলা বিষ্ঠাকুড়ে পড়লে ছোলাগাছই হয়!”

"Eternally perfect sages like Prahlada also practise meditation and prayer. But they have realized the fruit, God-vision, even before their spiritual practice. They are like gourds and pumpkins, which grow fruit first and then flowers.

*शक्ति का तारतम्य – विद्यासागर* 

“ईश्वर ने किसी को अधिक शक्ति दी है, किसी को कम । कहीं पर एक दिया जल रहा है, कहीं पर एक मशाल । विद्यासागर की बात से जान लिया कि उनकी बुद्धि की पहुँच कितनी दूर है । जब मैंने शक्तिविशेष की बात कही, तब विद्यासागर ने कहा, ‘महाराज, तो क्या ईश्वर ने किसी को अधिक शक्ति दी है और किसी को कम?’ 

मैंने भी कहा, ‘फिर क्या? शक्ति की कमी-बेशी हुए बिना तुम्हारा इतना नाम क्यों है ? तुम्हारी विद्या, तुम्हारी दया, यही सब सुनकर तो हम लोग आए हैं । तुम्हारे कोई दो सींग तो निकले नहीं हैं !’  

विद्यासागर की इतनी विद्या और इतना नाम होते हुए भी उन्होंने ऐसी कच्ची बात कह दी ! बात यह है कि जाल में पहले-पहल बड़ी मछलियाँ पड़ती हैं- रोहू, कतला आदि । उसके बाद मछुआ पैर से कीचड़ को घोंट देता है ।

       तब तरह तरह की छोटी छोटी मछलियाँ निकल आती हैं, और तुरन्त फँस जाती हैं । ईश्वर को न जानने से थोड़ी ही देर में भीतर से छोटी छोटी मछलियाँ (कच्ची बातें) निकल पड़ती हैं ! केवल पण्डित होने से क्या होगा ?” 

[“তিনি কারুকে বেশি শক্তি, কারুকে কম শক্তি দিয়েছেন। কোনখানে একটা প্রদীপ জ্বলছে, কোনখানে একটা মশাল জ্বলছে। বিদ্যাসাগরের এক কথায় তাকে চিনেছি, কতদুর বুদ্ধির দৌড়! যখন বললুম শক্তিবিশেষ, তখন বিদ্যাসাগর বললে, মহাশয়, তবে কি তিনি কারুকে বেশি, কারুকে কম শক্তি দিয়েছেন? আমি অমনি বললুম, তা দিয়েছেন বইকি। শক্তি কম বেশি না হলে তোমার নাম এত কম হবে কেন? তোমার বিদ্যা, তোমার দয়া — এই সব শুনে তো আমরা এসেছি। তোমার তো দুটো শিং বেরোয় নাই! বিদ্যাসাগরের এত বিদ্যা, এত নাম, কিন্তু এত কাঁচা কথা বলে ফেললে, ‘তিনি কি কারুকে কম শক্তি দিয়েছেন?’ কি জান, জালে প্রথম প্রথম বড় বড় মাছ পড়ে — রুই, কাতলা। তারপর জেলেরা পাঁকটা পা দিয়ে ঘেঁটে দেয়, তখন চুনোপুঁটি, পাঁকাল এই সব মাছ বেরোয় — একটু দেখতে দেখতে ধরা পড়ে। ঈশ্বরকে না জানলে ক্রমশঃ ভিতরের চুনোপুঁটি বেরিয়ে পড়ে। শুধু পণ্ডিত হলে কি হবে?”

"God has given to some greater power than to others. In one man you see it as the light of a lamp, in another, as the light of a torch. One word of Vidyasagar's revealed to me the utmost limit of his intelligence. When I told him of the different manifestations of God's Power in different beings, he said to me, 'Sir, has God then given greater power to some than to others?' At once I said: 'Yes, certainly He has. If there are not different degrees of manifestation of His Power, then why should your name be known far and wide? You see, we have come to you after hearing of your knowledge and compassion. You haven't grown two horns, have you?' With all his fame and erudition, Vidyasagar said such a childish thing as 'Has God given greater power to some than to others?' The truth is that when the fisherman draws his net, he first catches big fish like trout and carp; then he stirs up the mud with his feet, and small fish come out — minnows, mud-fish, and so on. So also, unless a man knows God, 'minnows' and the like gradually come out from within him. What can one achieve through mere scholarship?"

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