(२)
*साधन-भजन करो और व्याकुल होओ*
श्रीरामकृष्ण भोजन के उपरान्त छोटे तख्त पर जरा बैठे हैं- अभी विश्राम करने का समय नहीं हुआ था । भक्तों का समागम होने लगा । पहले मणिरामपुर से भक्तों का एक दल आकर उपस्थित हुआ । एक व्यक्ति पी. डब्ल्यू. डी. में काम करते थे । इस समय पेन्शन पाते हैं । एक भक्त उन्हें लेकर आए हैं । धीरे धीरे बेलधड़िया (Belgharia) से भक्तों का एक दल आया । श्री मणि मल्लिक आदि भक्तगण भी धीरे धीरे आ पहुँचे।
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मणिरामपुर के भक्तों ने कहा, “आपके विश्राम में विघ्न हुआ ।”
श्रीरामकृष्ण बोले, “नहीं, नहीं, यह तो रजोगुण की बातें हैं कि वे अब सोएंगे ।”
चाणक मणिरामपुर का नाम सुनकर श्रीरामकृष्ण को अपने बचपन के मित्र श्रीराम का स्मरण हुआ । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, “श्रीराम की दुकान तुम्हारे वहीँ पर है । श्रीराम मेरे साथ पाठशाला में पढ़ता था। थोड़े दिन हुए यहाँ पर आया था ।”
मणिरामपुर के भक्तगण पूछ रहे हैं, “दया करके हमें जरा बता दीजिए कि किस उपाय से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है ?”
(10 जून, 1883)
* (गीता,6.10 ) आत्मोन्नति के साधन का उपदेश~ 3'H'-विकास के 5 अभ्यास*
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।।
(गीता,6.10 )
[योगी युञ्जीत सततम् आत्मानं रहसि स्थितः, एकाकी यतचित्तात्मा निराशीः अपरिग्रहः ॥
योगी युञ्जीत सततम्.यतचित्तात्मा = नियतमनोदेहः निराशीः = अपगततृष्णः अपरिग्रहः = परिग्रहरहितः एकाकी = सहायरहितः योगी = योगी रहसि = विजने स्थितः = वर्तमानः सततम् = सदा आत्मानम् = मनः युञ्जीत = योजयेत् समाधिमग्नं कुर्यात् ।]
भावार्थ : मन (अन्तःकरण) और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला, आशा और लोभ (संग्रह) से मुक्त योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरंतर परमात्मा में लगाए॥10॥
6.10 Let the Yogi try constantly to keep the mind steady, remaining in solitude, alone, with the mind and the body controlled, and free from hope and covetousness.
भावार्थ - श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन को आत्मोन्नति के साधन का उपदेश दे रहे हैं। अर्जुन उनका परम मित्र था। स्वयं भगवान् की मित्रता प्राप्त होने पर भी महाभारत में किसी भी स्थान पर यह नहीं कहा गया है कि अर्जुन को स्वयं संघर्ष किये बिना आत्मविकास की प्राप्ति के लिए भगवान् कोई गुप्त साधन बतलायेंगे। जिसका सम्पूर्ण उत्तरदायित्व श्रीकृष्ण के ऊपर होगा।इस श्लोक की प्रथम पंक्ति ही किसी ऐसी मिथ्या आशा को साधक के मन से दूर कर देती है।
युज् धातु से योग शब्द बनता है जिसका अर्थ है मनःसंयोग या चित्तवृत्तियोंका निरोध करने वाला योगी । यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि योगी को निरन्तर मन को आत्मा में (विवेकानन्द की छवि में) स्थिर करने का प्रयत्न करना चाहिए। मनःसंयोग (विवेक-दर्शन) के अभ्यास द्वारा ही मनुष्य अपने दोषों से मुक्त होकर पूर्णत्व को प्राप्त हो सकता है। एकान्त का अर्थ केवल जंगल या गुफा नहीं वरन् बाह्य विषयों से मन को विमुख करना है। युवाओं को चाहिए कि वह महामण्डल के द्वारा आयोजित छः दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर में जाकर पूरी लगन से विचारों को सही दिशा प्रदान कर लक्ष्य की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न करे। दैनिक जीवन में ध्यानाभ्यास की सफलता साधक के आत्मसंयम (यम-नियम) पर निर्भर करती है। जब तक हम वस्तुओं की प्राप्ति (कामिनी और कांचन ) की आशा तथा लालच की प्रवृत्ति (परिग्रह करने की प्रवृत्ति) से स्वयं को मुक्त करना नहीं सीखते तब तक वास्तविक अर्थ में आत्मसंयम संभव नहीं होता।]
*भक्ति प्राप्त करने के लिए मनःसंयोग (विवेक-दर्शन आदि 5) का अभ्यास करो*
श्रीरामकृष्ण- थोड़ा साधन-भजन करना होता है । ‘दूध में मक्खन है’ केवल कहने से ही नहीं होता, दूध से दही बनाकर, मथन करके मक्खन उठाना पड़ता है । परन्तु बीच बीच में जरा निर्जन में रहना चाहिए।* कुछ दिन निर्जन में रहकर भक्ति प्राप्त करके उसके बाद फिर कहीं भी रहो । पैर में जूता पहनकर काँटेदार जंगल में भी आसानी से जाया जा सकता है ।
[ একটু সাধন-ভজন করতে হয়। “দুধে মাখন আছে বললেই হয় না, দুধকে দই পেতে, মন্থন করে মাখন তুলতে হয়। তবে মাঝে মাঝে একটু নির্জন চাই। দিন কতক নির্জনে থেকে ভক্তিলাভ করে, তারপর যেখানে থাক। জুতো পায় দিয়ে কাঁটাবনেও অনায়াসে যাওয়া যায়।"
You must practise spiritual discipline a little. It will not do simply to say that milk contains butter. You must let the milk set into curd and then churn it. Only then can you get butter from it. Spiritual aspirants must go into solitude now and then. After acquiring love of God in solitude, they may live in the world. If one is wearing a pair of shoes, one can easily walk over thorns.
“मुख्य बात है विश्वास । जैसा भाव वैसा लाभ, मूल बात है विश्वास । विश्वास हो जाने पर फिर भय नहीं होता ।”
[अर्थात मनुष्य जब श्रद्धा पूर्वक स्वामी विवेकानन्द का ध्यान करता या उनकी छवि पर मन को एकाग्र करने का नियमित अभ्यास करता है, वैसा ही उसके प्रेम का भाव होता है; जैसे मनुष्य का प्रेम होता है, वैसा ही उसका लाभ होता है; और श्रद्धा ही सबका मूल है।
“প্রধান কথা বিশ্বাস। ‘যেমন ভাব তেমনি লাভ, মূল সে প্রত্যয়।’ বিশ্বাস হয়ে গেলে আর ভয় নাই।”
"The most important thing is faith. As is a man's meditation, so is his feeling of love; As is a man's feeling of love, so is his gain; And faith is the root of all. If one has faith one has nothing to fear."
*गुरु या मार्गदर्शक नेता की आवश्यकता *
(#आचार्यवान् पुरुषो वेद । .... अर्थात् आचार्य (C-IN-C या चपरास प्राप्त गुरु/मार्गदर्शक नेता ) से प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति ही परमात्मा को जान सकता है| - छान्दोग्य उपनिषद् ६/१४/२)
मणिरामपुर के भक्त- महाराज, क्या मनुष्य के जीवन में गुरु (मार्गदर्शक -नेता) आवश्यक ही है ?
[মণিরামপুর ভক্ত — আজ্ঞা, গুরু কি প্রয়োজন?
"Sir, is it necessary to have a guru?"
श्रीरामकृष्ण- अनेकों के लिए आवश्यक है । # परन्तु गुरुवाक्य (तत्त्वमसि आदि) में विश्वास करना पड़ता है । गुरु को ईश्वर मानना पड़ता है । तभी लाभ होता है । इसीलिए वैष्णव भक्त कहते हैं, - गुरु-कृष्ण-वैष्णव । ^*
[ गुरु-कृष्ण-वैष्णव । ^* ^ श्री ठाकुरदेव के कहने तात्पर्य है कि प्रत्येक मनुष्य को अपने गुरु (या मार्गदर्शक नेता C-IN-C नवनीदा), कृष्ण (अपने इष्टदेव) और वैष्णव (उनके समस्त भक्तों) का समान रूप से सम्मान करना चाहिए। क्योंकि भगवान अपने भक्तों के हृदय में निवास करते हैं।
^The Master meant that the guru, Krishna, and the Vaishnava were to be equally revered. One should honour the Vaishnava because God dwells in his heart.
অনেকের প্রয়োজন আছে। তবে গুরুবাক্যে বিশ্বাস করতে হয়। গুরুকে ইশ্বরজ্ঞান করলে তবে হয়। তাই বৈষ্ণবেরা বলে, গুরু-কৃষ্ণ-বৈষ্ণব।
MASTER: "Yes, many need a guru. But a man must have faith in the guru's words. He succeeds in spiritual life by looking on his guru as God Himself. Therefore the Vaishnavas speak of Guru, Krishna, and Vaishnava.]
*नाम का माहात्म्य है*
“गुरु (नेता) द्वारा प्रदत्त (माँ काली का नाम ~ श्रीरामकृष्ण है !) उनका नाम सदा ही लेना चाहिए । कलि में नाम का माहात्म्य है । प्राण अन्नगत है, इसीलिए योग नहीं होता । उनका नाम लेकर ताली बजाने से पापरूपी पक्षी भाग जाते हैं ।
[“তাঁর নাম সর্বদাই করতে হয়। কলিতে নাম-মাহাত্ম্য। অন্নগত প্রাণ, তাই যোগ হয় না। তাঁর নাম করে, হাততালি দিলে পাপপাখি পালিয়ে যায়।
"One should constantly repeat the name of God. The name of God is highly effective in the Kaliyuga. The practice of yoga is not possible in this age, for the life of a man depends on food. Clap your hands while repeating God's name, and the birds of your sin will fly away.
“सत्संग सदा ही आवश्यक है । गंगाजी के जितने ही निकट जाओगे, उतनी ही ठण्डी हवा पाओगे । आग के जितने ही निकट जाओगे उतनी ही गर्मी होगी ।
[“সৎসঙ্গ সর্বদাই দরকার। গঙ্গার যত কাছে যাবে ততই শীতল হাওয়া পাব; অগ্নির যত কাছে যাবে ততই উত্তাপ পাবে।
"One should always seek the company of holy men. The nearer you approach the Ganges, the cooler the breeze will feel. Again, the nearer you go to a fire, the hotter the air will feel.]
[आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।
भावार्थ -: मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही (उनका) सबसे बड़ा शत्रु होता है। परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा) कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता।।
“आलस्य करने से कुछ नहीं होगा । जिनकी सांसारिक विषयभोग की इच्छा है, वे कहते हैं, ‘होगा ! कभी न कभी ईश्वर को प्राप्त कर लेंगे ।’
[“ঢিমে তেতলা হলে হয় না। যাদের সংসারে ভোগের ইচ্ছা আছে তারা বলে, ‘হবে, কখন না কখন ঈশ্বরকে পাবে!’
"But one cannot achieve anything through laziness and procrastination. People who desire worldly enjoyment say about spiritual progress: 'Well, it will all happen in time. We shall realize God some time or other.']
“मैंने केशव सेन से कहा था, पुत्र को व्याकुल देखकर उसके पिता उसके बालिग होने के तीन वर्ष पहले ही उसका हिस्सा छोड़ देते हैं ।
“माँ भोजन बना रही है, गोदी का बच्चा सो रहा है । माँ मुँह में चूसनी दे गयी है । जब चूसनी छोड़कर चीत्कार करके बच्चा रोता है, तब माँ हण्डी उतारकर बच्चे को गोदी में लेकर स्तनपान कराती है । ये सब बातें मैंने केशव सेन से कही थीं ।
[“আমি কেশব সেনকে বলেছিলাম, ছেলেকে ব্যাকুল দেখলে বাপ তিন বৎসর আগেই তার হিস্যে ফেলে দেয়।“মা রাঁধছে, কোলের ছেলে শুয়ে আছে। মা মুখে চুষি দিয়ে গেছে; যখন চুষি ফেলে চিৎকার করে ছেলে কাঁদে, তখন মা হাঁড়ি নামিয়ে ছেলেকে কোলে করে মাই দেয়। এই সব কথা কেশব সেনকে বলেছিলাম।
"I said to Keshab Sen: 'When a father sees that his son has become restless for his inheritance, he gives him his share of the property even three years before the legal time. A mother keeps on cooking while the baby is in bed sucking its toy. But when it throws the toy away and cries for her, she puts down the rice-pot and takes the baby in her arms and nurses it.' I said all this to Keshab.
“कहते हैं, कलियुग में एक दिन एक रात भर रोने से ईश्वर का दर्शन होता है ।
[“কলিতে বলে, একদিন একরাত কাঁদলে ইশ্বর দর্শন হয়।
"It is said that, in the Kaliyuga, if a man can weep for God one day and one night, he sees Him.
“मन में अभिमान करो और कहो, ‘तुमने मुझे पैदा किया है-दर्शन देना ही होगा !’
“गृहस्थी में रहो, अथवा कहीं भी रहो, ईश्वर मन को देखते हैं । विषयबुद्धिवाला मन मानो भीगी दियासलाई है, चाहे जितना रगड़ो कभी नहीं जलेगी । एकलव्य ^* ने मिट्टी के बने द्रोण अर्थात् अपने गुरु की मूर्ति को सामने रखकर बाण चलाना सीखा था ।
[एकलव्य ^*^ मनःसंयोग का अभ्यास या विवेक-दर्शन या प्रत्याहार -धारणा अभ्यास के महत्व पर महाभारत में एक कहानी दी गयी है। द्रोण ने युवा एकलव्य को धनुर्विद्या सिखाने से इनकार कर दिया क्योंकि वह एक निम्न जाति का था। इसके बाद एकलव्य ने द्रोण को ही अपना गुरु मानकर और उनकी मिट्टी की एक मूर्ति बनाकर , उसी मूर्ति के सामने पूरी निष्ठा के साथ जंगल के एकान्त में धनुर्विद्या का अभ्यास करना शुरू कर दिया। और कालांतर में वह एक कुशल धनुर्धर बन गया । जब द्रोण को पता चला कि वह इस कला में द्रोण के सबसे प्रिय शिष्य अर्जुन से भी आगे है, तो उन्होंने एकलव्य से कहा कि वह गुरुदक्षिणा के रूप में उसे अपना अंगूठा दान कर दे । इस आदेश का पालन करते हुए, एकलव्य ने अपनी आत्म-त्याग की भावना और अपनी गुरु-भक्ति को सिद्ध कर दिया। ]
{ “মনে অভিমান করবে, আর বলবে, ‘তুমি আমাকে সৃষ্টি করেছ; দেখা দিতে হবে।’
“সংসারেই থাক, আর যেখানেই থাক — ঈশ্বর মনটি দেখেন। বিষয়াসক্ত মন যেমন ভিজে দেশলাই, যত ঘষো জ্বলে না। একলব্য মাটির দ্রোণ অর্থাৎ নিজের গুরুর মূর্তি সামনে রেখে বাণ শিক্ষা করেছিল।
"Feel piqued at God and say to Him: 'You have created me. Now You must reveal Yourself to me.' Whether you live in the world or elsewhere, always fix your mind on God. The mind soaked in worldliness may be compared to a wet match-stick. You won't get a spark, however much you may rub it. Ekalavya placed the clay image of Drona, his teacher, in front of him and thus learnt archery.]
*ज्ञान प्राप्ति के बाद (जीवनमुक्त होकर) संसार में रहने के लिए आगे बढ़ो ! *
“आगे बढ़ो ! - लकड़हारे ने आगे बढ़कर देखा था चन्दन की लकड़ी, चाँदी की खान, सोने की खान, और आगे बढ़कर देखा हीरा-मणि !
[“এগিয়ে পড়; — কাঠুরে এগিয়ে গিয়ে দেখেছিল, চন্দন কাঠ, রূপার খনি, সোনার খনি, আরও এগিয়ে গিয়ে দেখলে হীরে, মাণিক।
"Go forward. The wood-cutter, following the instructions of the holy man, went forward and found in the forest sandal-wood and mines of silver and gold; and going still farther, he found diamonds and other precious stones.
“जो लोग अज्ञानी हैं, वे मानो मिट्टी की दीवालवाले कमरे के भीतर हैं । भीतर भी रोशनी नहीं है और बाहर की किसी चीज को भी देख नहीं सकते ! ज्ञान प्राप्त करके जो लोग संसार में रहते हैं वे मानो काँच के बने कमरे के भीतर हैं । भीतर रोशनी, बाहर भी रोशनी; भीतर की चीजों को भी देख सकते हैं और बाहर की चीजों की भी !
[“যারা অজ্ঞান, তারা যেন মাটির দেওয়ালের ঘরের ভিতর রয়েছে। ভিতরে তেমন আলো নাই, আবার বাহিরের কোন জিনিস দেখতে পাচ্ছে না। জ্ঞান লাভ করে যে সংসারে থাকে সে যেন কাচের ঘরের ভিতর আছে। ভিতরে আলো বাহিরেও আলো। ভিতরের জিনিসও দেখতে পায়, আর বাহিরের জিনিসও দেখতে পায়।”
"The ignorant are like people living in a house with clay walls. There is very little light inside, and they cannot see outside at all. *But those who enter the world after attaining the Knowledge of God are like people living in a house made of glass. For them both inside and outside are light. They can see things outside as well as inside.]
* ब्रह्मज्ञान होने के बाद 'अद्वैत' - अर्थात ब्रह्म और आद्याशक्ति (Primal Energy) दो नहीं रहते, *
“एक के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । वे परब्रह्म जब तक ‘मैं-पन’ को रखते हैं, तब तक दिखाते हैं कि वे (परब्रह्म) ही आद्याशक्ति (Primal Energy) के रूप में सृष्टि, स्थिति व प्रलय कर रहे हैं ।
[“এক বই আর কিছু নাই। সেই পরব্রহ্ম ‘আমি’ যতক্ষণ রেখে দেন, ততক্ষণ দেখান যে, আদ্যাশক্তিরূপে সৃষ্টি-স্থিতি-প্রলয় করছেন।
"Nothing exists except the One. That One is the Supreme Brahman. So long as He keeps the 'I' in us, He reveals to us that it is He who, as the Primal Energy, creates, preserves, and destroys the universe.
‘जो ब्रह्म हैं, वे ही आद्याशक्ति हैं । एक राजा ने कहा था कि उसे एक ही बात में ज्ञान देना होगा । योगी ने कहा, ‘अच्छा, तुम एक ही बात में ज्ञान पाओगे ।’ थोड़ी देर बाद राजा के यहाँ अकस्मात् एक जादूगर आ पहुँचा । राजा ने देखा, वह आकर सिर्फ दो उँगलियों को घुमा रहा है, कह रहा है, ‘राजा यह देख, यह देख ।’ राजा विस्मित होकर देख रहा हैं ! थोड़ी ही देर में दो उँगलियों की जगह एक ही उँगली रह गयी है । जादूगर एक उँगली घुमाता हुआ कह रहा है, ‘राजा, यह देख, यह देख ।’ अर्थात ब्रह्म और आद्याशक्ति पहले-पहल दो समझे जाते हैं, परन्तु ब्रह्मज्ञान होने पर फिर दो नहीं रह जाते ।
अभेद ! एक ! एक ! अद्वितीय ! अद्वैत !”
{“যিনিই ব্রহ্ম তিনিই আদ্যাশক্তি। একজন রাজা বলেছিল যে, আমায় এককথায় জ্ঞান দিতে হবে। যোগী বললে, আচ্ছা তুমি এককথাতেই জ্ঞান পাবে। খানিকক্ষণ পরে রাজার কাছে হঠাৎ একজন যাদুকর এসে উপস্থিত। রাজা দেখলে, সে এসে কেবল দুটো আঙুল ঘুরাচ্ছে, আর বলছে, ‘রাজা, এই দেখ, এই দেখ।’ রাজা অবাক্ হয়ে দেখছে। খানিকক্ষণ পরে দেখে দুটো আঙুল একটা আঙুল হয়ে গেছে। যাদুকর একটা আঙুল ঘোরাতে ঘোরাতে বলছে, ‘রাজা, এই দেখ, এই দেখ।’ অর্থাৎ ব্রহ্ম আর আদ্যাশক্তি প্রথম দুটা বোধ হয়। কিন্তু ব্রহ্মজ্ঞান হলে আর দুটা থাকে না! অভেদ! এক! যে একের দুই নাই। অদ্বৈতম্।”
"That which is Brahman is also the Primal Energy. Once a king asked a yogi to impart Knowledge to him in one word. The yogi said, 'All right; you will get Knowledge in one word.' After a while a magician came to the king. The king saw the magician moving two of his fingers rapidly and heard him exclaim, 'Behold, O King! Behold.' The king looked at him amazed when, after a few minutes, he saw the two fingers becoming one. The magician moved that one finger rapidly and said, 'Behold, O King! Behold.' The implication of the story is that Brahman and the Primal Energy at first appear to be two. But after attaining the Knowledge of Brahman one does not see the two. Then there is no differentiation; it is One, without a second — Advaita — non-duality."
(३)
*माया तथा मुक्ति*
*मनुष्यों के अष्टपाश खोलने के लिए मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करना अनिवार्य *
[अष्ट पाश : लज्जा, घृणा, भय, जाति, कुल, शील,शंका, जुगुप्सा (निन्दा) ]
बेलघर से गोविन्द मुखोपाध्याय आदि भक्तगण आए हैं । श्रीरामकृष्ण जिस दिन उनके मकान पर पधारे थे, उस दिन गायक का “जागो, जागो, जननि” यह गाना सुनकर समाधिस्थ हुए थे । गोविन्द उस गायक को भी लाए हैं । श्रीरामकृष्ण गायक को देख आनन्दित हुए हैं और कह रहे हैं, “तुम कुछ गाना गाओ ।” गायक इस आशय के गीत गा रहे हैं-
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(१)
दोष कारो नोय गो मा,
आमि स्वखात सलिले डूबे मरि श्यामा।
धर्माधर्म होलो कूदण्ड सरुप, पुण्यक्षेत्र माझे काटिलाम कूप,
से कूपे बेड़ीलो कालरुप जल, कालो मनोरमा माँ ... ।
आमार कि होबे तारिणी, त्रिगुणधारिणी द्विगुण कोरेछे सगुणे,
किशे ए बारि निबारि, भेबे दाशरथीर अनिवार बारि नयने,
आमार की होबे तारिणी त्रिगुण धारिणी
आमार छिलो बाड़ी कक्षे, क्रमे एलो बक्षे,
जीवने जीवन केमोने होय मा रक्षे।
आछि तोर आपिक्षे, दे मा मुक्तिभिक्षे, कटाक्षेते कोरो माँ पार।
দোষ কারো নয় গো মা,
দোষ কারো নয় গো মা
আমি স্বখাত সলিলে ডুবে মরি শ্যামা;
দোষ কারো নয় গো মা,
দোষ কারো নয় গো মা।
আমার ধর্মাধর্ম হলো কুদন্ড স্বরূপ
পুন্য ক্ষেত্র মাঝে কাটিলাম কূপ,
ধর্মাধর্ম হলো কুদন্ড স্বরূপ
পুন্য ক্ষেত্র মাঝে কাটিলাম কূপ,
সে কূপে বেড়িল কাল রূপ জল
কালো মনোরমা, মা..
দোষ কারো নয় গো মা,
দোষ কারো নয় গো মা।
আমার কি হবে তারিণী, ত্রিগুণ ধারিণী
দ্বিগুণ করেছে সগুণে,
কিসে এ বারি নিবারি ভেবে দাশরথির
অনিবার বারি নয়নে,
আমার কি হবে তারিণী ত্রিগুণ ধারিণী।
আমার ছিল বাড়ি কক্ষে, ক্রমে এলো বক্ষে
জীবনে জীবন মা কেমনে হয় রক্ষে।
আছি তোর অপিক্ষে, দে মা মুক্তি ভিক্ষে,
আছি তোর অপিক্ষে, দে মা মুক্তি ভিক্ষে,
কটাক্ষেতে করে পার মা..
দোষ কারো নয় গো মা,
আমি স্বখাত সলিলে ডুবে মরি শ্যামা
“दोष किसी का नहीं है, माँ ! मैं अपने ही खोदे हुए कुएँ के जल में डूबकर मर रहा हूँ ।”
(२)
छूंसना रे शमन आमार जात गियेछे।
जोदी बोलिस ओरे शमन जात गेलो किसे ,
केले सर्वनाशी आमाय संन्यासी कोरेछे।
ছুঁসনা রে শমন আমার জাত গিয়েছে।
যদি বলিস ওরে শমন জাত গেল কিসে,
কেলে সর্বনাশী আমায় সন্ন্যাসী করেছে।
“रे यम ! मुझे न छूना, मेरी जात बिगड़ गयी है । यदि पूछता है कि मेरी जात कैसी बिगड़ी तो सुन, - उस सर्वनाशी काली ने मुझे संन्यासी बना दिया है ।”
(३)
जागो जागो जननी,
मूलाधारे निद्रागत कतोदिन गत होलो कूलकूंडलिनी।
स्वकार्यसाधने चलो मा शिरोमध्ये,
परम शिव यथा सहस्रदलपद्मे,
करि षटचक्रभेद (मा गो) घुचाओ मनेर खेद, चैतन्यरुपिणी।
জাগ জাগ জননী
মূলাধারে নিদ্রাগত কতদিন গত হল কুলকুণ্ডলিনী।
স্বকার্য সাধনে চল মা শির মধ্যে,
পরম শিব যথা সহস্রদল পদ্মে,
করি ষড়চক্র ভেদ ঘুচাও মনের খেদ, চৈতন্যরূপিণি।
[ “जागो, जागो, जननि ! कितने ही दिनों से कुलकुण्डलिनी मूलाधार में सो रही है । माँ, अपना काम साधने के लिए मस्तक में चलो, जहाँ पर सहस्त्रदल-पद्म में परमशिव विराजमान हैं । षट्चक्र को भेदकर, हे चैतन्यरूपिणी, मन के दुःख को मिटा दो ।”
{Awake, Mother! Awake! How long Thou hast been asleep In the lotus of the Muladhara!Fulfil Thy secret function, Mother:Rise to the thousand-petalled lotus within the head,Where mighty Siva has His dwelling; Swiftly pierce the six lotuses And take away my grief, O Essence of Consciousness!
पैगम्बर वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण - इस गीत में षट्चक्र-भेद की बात है । षट्चक्र का भेद होने पर माया का राज्य छोड़, जीवात्मा परमात्मा के साथ एक हो जाता है । इसी का नाम है ईश्वरदर्शन ।
{ শ্রীরামকৃষ্ণ — এই গানে ষড় চক্র ভেদের কথা আছে। ঈশ্বর বাহিরেও আছেন, অন্তরেও আছেন। তিনি ভিতরে থেকে মনের নানা অবস্থা করছেন। ষড় চক্র ভেদ হলে মায়ার রাজ্য ছাড়িয়ে জীবাত্মা পরমাত্মার সঙ্গে এক হয়ে যায়। এরই নাম ঈশ্বরদর্শন।
"The song speaks of the Kundalini's passing through the six centres. God is both within and without. From within He creates the various states of mind. After passing through the six centres, the jiva goes beyond the realm of maya and becomes united with the Supreme Soul. This is the vision of God.
“माया के रास्ता न छोड़ने पर ईश्वर का दर्शन नहीं होता । राम, लक्षमण और सीता एक साथ आ रहे हैं। सब से आगे राम, बीच में सीता और पीछे लक्ष्मण हैं । जिस प्रकार सीता के बीच में रहने से लक्ष्मण राम को नहीं देख सकते, उसी प्रकार बीच में माया के रहने से जीव ईश्वर का दर्शन नहीं कर सकता । (मणि मल्लिक के प्रति) परन्तु ईश्वर की कृपा होने पर माया दरवाजे से हट जाती है, जिस प्रकार दरवान लोग (P. A) कहते हैं, ‘साहब की आज्ञा हो तो इसे अन्दर जाने दूँ ।’*
{“মায়া দ্বার ছেড়ে না দিলে ঈশ্বরদর্শন হয় না। রাম, লক্ষ্মণ আর সীতা একসঙ্গে যাচ্ছেন; সকলের আগে রাম, মধ্যে সীতা, পশ্চাতে লক্ষ্মণ। যেমন সীতা মাঝে মাঝে থাকাতে — লক্ষ্মণ রামকে দেখতে পাচ্ছেন না, তেমনি মাঝে মায়া থাকাতে জীব ঈশ্বরকে দর্শন করতে পাচ্ছে না। (মণি মল্লিকের প্রতি) তবে ঈশ্বরের কৃপা হলে মায়া দ্বার ছেড়ে দেন। যেমন দ্বারওয়ানরা বলে, বাবু হুকুম করে দিন — ওকে দ্বার ছেড়ে দিচ্ছি।১
"One cannot see God unless maya steps aside from the door. Rama, Lakshmana, and Sita were walking together. Rama was in front, Sita walked in the middle, and Lakshmana followed them. But Lakshmana could not see Rama because Sita was between them. In like manner," man cannot see God because maya is between them. (To Mani Mallick) But maya steps aside from the door when God shows His grace to the devotee. When the visitor stands before the door, the door-keeper says to the master, 'Sir, command us, and we shall let him pass.'
*भक्ति शास्त्र कहता है कि ईश्वर ही चौबीस तत्त्व बनकर विद्यमान हैं ।*
[ *दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।-गीता ७/१४)
यह दैवी त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है। परन्तु जो मेरी शरण में आते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं। शरण से तात्पर्य भगवान् के स्वरूप को पहचान कर तत्स्वरूप बन जाना है। एकाग्र चित्त होकर आत्मस्वरूप का ध्यान करना यह साक्षात् साधन है ]
“दो मत हैं – वेदान्त मत और पुराण मत । वेदान्त मत में कहा है, ‘यह संसार धोखे की टट्टी है’ (ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या) अर्थात् जगत् भूल है, स्वप्न की तरह है; (परिवर्तनशील होने के कारण मिथ्या या भ्रम है।) परन्तु पुराण मत या भक्तिशास्त्र कहता है कि ईश्वर ही चौबीस तत्त्व बनकर विद्यमान हैं । भीतर-बाहर उन्हीं की पूजा करो । (जल में कुम्भ (सच्चिदानन्द सागर में मीन) है, मीन में जल है- बाहर-भीतर पानी की ही सत्ता है ! )
{“বেদান্ত মত আর পুরাণ মত। বেদান্তমতে বলে, ‘এই সংসার ধোঁকার টাটি’ অর্থাৎ জগৎ সব ভুল, স্বপ্নবৎ। কিন্তু পুরাণমত বা ভক্তিশাস্ত্রে বলে যে, ঈশ্বরই চতুর্বিংশতি তত্ত্ব হয়ে রয়েছেন। তাঁকে অন্তরে বাহিরে পূজা কর।
"There are two schools of thought: the Vedanta and the Purana. According to the Vedanta this world is a 'framework of illusion', that is to say, it is all illusory, like a dream. But according to the Purana, the books of devotion, God Himself has become the twenty-four cosmic principles. Worship God both within and without.
“जब तक उन्होंने ‘मैं’-पन को रखा है, तब तक सभी हैं । फिर स्वप्नवत् कहने का उपाय नहीं है ।
नीचे आग जल रही है, इसीलिए बर्तन में दाल, चावल और आलू उबल रहे हैं, कूद रहे हैं मानो कह रहे हैं, ‘मैं हूँ’ ‘मैं कूद रहा हूँ’ ।
यह शरीर मानो बर्तन है, मन-बुद्धि जल है, इन्द्रियों के विषय मानो दाल, चावल और आलू हैं, ‘अहं’ मानो उनका अभिमान है कि मैं उबल रहा हूँ और सच्चिदानन्द अग्नि हैं ।
{“যতক্ষণ ‘আমি’ বোধ তিনি রেখেছেন ততক্ষণ সবই আছে। আর স্বপ্নবৎ বলবার জো নাই। নিচে আগুন জ্বালা আছে, তাই হাঁড়ির ভিতরে ডাল, ভাত, আলু, পটোল সব টগ্বগ্ করছে। লাফাচ্ছে, আর যেন বলছে, ‘আমি আছি, আমি লাফাচ্ছি।’ শরীরটা যেন হাঁড়ি; মন বুদ্ধি — জল ইন্দ্রিয়ের বিষয়গুলি যেন — ডাল, ভাত, আলু পটোল। অহং যেন তাদের অভিমান, আমি টগ্বগ্ করছি! আর সচ্চিদানন্দ অগ্নি।
"As long as God keeps the awareness of 'I' in us, so long do sense-objects exist; and we cannot very well speak of the world as a dream. There is fire in the hearth; therefore the rice and pulse and potatoes and the other vegetables jump about in the pot. They jump about as if to say: 'We are here! We are jumping!' This body is the pot. The mind and intelligence are the water. The objects of the senses are the rice, potatoes, and other vegetables. The 'I-consciousness' identified with the senses says, 'I am jumping about.' And Satchidananda is the fire.
“इसीलिए भक्तिशास्त्र में इस संसार को ‘मजे की हवेली ’ कहा है । रामप्रसाद के गाने में है, ‘यह संसार धोखे की टट्टी है ।’ इसीलिए एक ने जवाब दिया था, ‘यह संसार मजे की हवेली है ।’
‘काली का भक्त जीवन्मुक्त है, नित्यानन्दमय है ।’
भक्त देखता है, जो ईश्वर हैं, वे ही माया बने हैं, वे ही जीव-जगत् बने हैं । माँ जगदम्बा का भक्त ईश्वर-माया-जीव-जगत् सब को एक देखता है । कोई कोई भक्त सभी कुछ राममय देखते हैं । राम ही सब बने हैं । कोई राधाकृष्णमय देखते हैं । कृष्ण ही ये चौबीस तत्त्व हुए हैं, जिस प्रकार हरा चश्मा पहनने पर सभी कुछ हरा हर दिखायी देता है ।
{“তাই ভক্তিশাস্ত্রে, এই সংসারকেই ‘মজার কুটি’ বলেছে। রামপ্রসাদের গানে আছে ‘এই সংসার ধোঁকার টাটি’। তারই একজন জবাব দিয়েছিল, ‘এই সংসার মজার কুটি’। ‘কালীর ভক্ত জীবন্মুক্ত নিত্যানন্দময়।’ ভক্ত দেখে, যিনিই ঈশ্বর তিনিই মায়া হয়েছেন। তিনিই জীবজগৎ হয়েছেন। ইশ্বর-মায়া-জীব-জগৎ এক দেখে। কোন কোন ভক্ত সমস্ত রামময় দেখে। রামই সব রয়েছেন। কেউ রাধাকৃষ্ণময় দেখে। কৃষ্ণই এই চতুর্বিংশতি তত্ত্ব হয়ে রয়েছেন। সবুজ চশমা পরলে যেমন সব সবুজ দেখে।
"Hence the Bhakti scriptures describe this very world as a 'mansion of mirth'. Ramprasad sang in one of his songs, 'This world is a framework of illusion.' Another devotee gave the reply, 'This very world is a mansion of mirth.' As the saying goes, 'The devotee of Kali, free while living, is full of Eternal Bliss.' The bhakta sees that He who is God has also become maya. Again, He Himself has become the universe and all its living beings. The bhakta sees God, maya, the universe, and the living beings as one. Some devotees see everything as Rama: it is Rama alone who has become everything. Some see everything as Radha and Krishna. To them it is Krishna alone who has become the twenty-four cosmic principles. It is like seeing everything green through green glasses.
“भक्ति के मत में, शक्ति के प्रकाश की न्यूनाधिकता होती है । राम ही सब कुछ बने हुए हैं, परन्तु कहीं पर अधिक शक्ति है और कहीं पर कम । अवतार में उनका एक प्रकार का प्रकाश है और जीव में दूसरे प्रकार का । अवतार को भी देह और बुद्धि है । माया के कारण ही शरीर धारण कर सीता के लिए राम रोए थे । परन्तु अवतार (ईश्वरकोटि) जान-बूझकर अपनी आँखों पर पट्टी बाँधते हैं, जैसे लड़के चोर-चोर खेलते हैं और माँ के पुकारते ही खेल बन्द कर देते हैं ।
जीव (कोटि) की बात अलग है । जिस कपड़े से आँखों पर पट्टी बँधी हुई है, वह कपड़ा पीछे से आठ गाँठों से बड़ी मजबूती से बँधा हुआ है । अष्ट पाश* । लज्जा, घृणा, भय, जाति, कुल, शील, शोक, जुगुप्सा (निन्दा) – ये आठ पाश हैं । *^ * जब तक गुरु खोल नहीं देते, तब तक कुछ नहीं होता ।”
[ “তবে ভক্তিমতে শক্তিবিশেষ। রামই সব হয়ে রয়েছেন, কিন্তু কোনখানে বেশি শক্তি, আর কোনখানে কম শক্তি। অবতারেতে তিনি একরকম প্রকাশ, আবার জীবেতে একরকম। অবতারেরও দেহবুদ্ধি আছে। শরীরধারণে মায়া। সীতার জন্য রাম কেঁদেছিলেন। তবে অবতার ইচ্ছা করে নিজের চোখে কাপড় বাঁধে। যেমন ছেলেরা কানামাছি খেলে। কিন্তু মা ডাকলেই খেলা থামায়। জীবের আলাদা কথা। যে-কাপড়ে চোখ বাঁধা সেই কাপড়ের পিঠে আটটা ইস্কুরূপ দিয়ে বাঁধা। অষ্টপাশ।২ লজ্জা, ঘৃণা, ভয়, জাতি, কুল, শীল, শোক, জুগুপ্সা (নিন্দা) — ওই অষ্টপাশ। গুরু না খুলে দিলে হয় না।”
"But the Bhakti scriptures admit that the manifestations of Power are different in different beings. It is Rama who has become everything, no doubt; but He manifests Himself more in some than in others. There is one kind of manifestation of Rama in the Incarnation of God, and another in men. Even the Incarnations are conscious of the body. Embodiment is due to maya. Rama wept for Sita. But the Incarnation of God puts a bandage over His eyes by His own will, like children playing blindman's buff. The children stop playing when their mother calls them. It is quite different, however, with the ordinary man. The cloth his eyes are bandaged with is fastened to his back with screws, as it were. There are eight fetters. Shame, hatred, fear, caste, lineage, good conduct, grief, and secretiveness — these are the eight fetters. And they cannot be unfastened without the help of a guru."
(४)
*सच्चे भक्त के लक्षण-उनमें काम संचार नहीं होता *
बेलघर के भक्त- आप हम पर कृपा कीजिये ।
श्रीरामकृष्ण- सभी के भीतर वे विद्यमान हैं, परन्तु गैस कम्पनी में अर्जी दो – तुम्हारे घर के साथ संयोग हो जाएगा “परन्तु व्याकुल होकर प्रार्थना करनी होगी । कहावत है, तीन प्रकार के प्रेम के आकर्षण एक साथ होने पर ईश्वर का दर्शन होता है, - सन्तान पर माता का प्रेम, सती स्त्री का स्वामी पर प्रेम और विषयी जीवों का विषय पर प्रेम ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — সকলের ভিতরই তিনি রয়েছেন। তবে গ্যাস কোম্পানিকে আর্জি কর। তোমার ঘরের সঙ্গে যোগ হয়ে যাবে।
"God is in all beings. But you must apply to the Gas Company. It will connect the storage-tank with the pipe in your house.
“তবে ব্যাকুল হয়ে আর্জি (Prayer) করতে হয়। এমনি আছে, তিন টান একসঙ্গে হলে ঈশ্বরদর্শন হয়। ‘সন্তানের উপর মায়ের টান, সতী স্ত্রীর স্বামীর উপর টান, আর বিষয়ীর বিষয়ের উপর টান।’
"One must pray earnestly. It is said that one can realize God by directing to Him the combined intensity of three attractions, namely, the child's attraction for the mother, the husband's attraction for the chaste wife, and the attraction of worldly possessions for the worldly man.
“सच्चे भक्त के कुछ लक्षण हैं । वह गुरु का उपदेश सुनकर स्थिर हो जाता है; सँपेरे के संगीत को साधारण विषधर साँप स्थिर होकर सुनता है, परन्तु नाग नहीं । और दूसरा लक्षण, - सच्चे भक्त की धारणा-शक्ति होती है । केवल काँच पर चित्र खींचा नहीं जाता, किन्तु रसायनयुक्त काँच पर खींचा जाता है । जैसा फोटोग्राफ । भक्ति है वह रासायनिक द्रव्य ।
“एक लक्षण और है । सच्चा भक्त जितेन्द्रिय होता है, कामजयी होता है । गोपियों में काम का संचार नहीं होता था ।
{“ঠিক ভক্তের লক্ষণ আছে। গুরুর উপদেশ শুনে স্থির হয়ে থাকে। বেহুলার কাছে জাতসাপ স্থির হয়ে শুনে, কিন্তু কেউটে নয়। আর-একটি লক্ষণ — ঠিক ভক্তের ধারণা শক্তি হয়। শুধু কাচের উপর ছবির দাগ পড়ে না, কিন্তু কালি মাখানো কাচের উপর ছবি উঠে, যেমন ফটোগ্রাফ; ভক্তিরূপ কালি।
“আর-একটি লক্ষণ। ঠিক ভক্ত জিতেন্দ্রিয় হয়, কামজয়ী হয়। গোপীদের কাম হত না।
"There are certain signs by which you can know a true devotee of God. His mind becomes quiet as he listens to his teacher's instruction, just as the poisonous snake is quieted by the music of the charmer. I don't mean the cobra. There is another sign. A real devotee develops the power of assimilating instruction. An image cannot be impressed on bare glass, but only on glass stained with a black solution, as in photography. The black solution is devotion to God. There is a third sign of a true devotee. The true devotee has controlled his senses. He has subdued his lust. The gopis were free from lust *.{ श्रीकृष्ण ही जगत के आत्मा हैं, और आत्माकार वृत्ति ही श्रीराधा हैं,और शेष आत्माभिमुख वृत्तियाँ ही गोपियाँ हैं । इनका अनवरत,धाराप्रवाह आत्मरमण ही महारास है। ये किसी लौकिक स्त्री-पुरुष का देह-मिलन कदापि नहीं है। साभार- http://punyarkkriti.simplesite.com/423505805/3597540/posting/}
“तुम लोग गृहस्थी में हो, रहो न, इससे साधन-भजन में और भी सुविधा है, मानो किले में से युद्ध करना। जिस समय शवसाधन करते हैं उस समय बीच बीच में शव मुँह खोलकर डराता है । इसलिए भुना हुआ चावल-चना रखना पड़ता है और उसके मुख में बीच बीच में देना पड़ता है । शव के शान्त होने पर निश्चिन्त होकर जप कर सकोगे । इसलिए घरवालों को शान्त रखना चाहिए । उनके खाने-पीने की व्यवस्था कर देनी पड़ती है, तब साधन-भजन की सुविधा होती है ।
“जिनका भोग अभी कुछ बाकी है, वे गृहस्थी में रहकर ही ईश्वर का नाम लेंगे । नित्यानन्द कहा करते थे, ‘मागुर माछेर झोल, युवती नारीर कोल, बोल हरि बोल !’ – हरिनाम लेने से मागुर मछली की रसदार तरकारी तथा युवती नारी तुम्हें मिलेगी ।
{“তা তোমরা সংসারে আছ তাহলেই বা; এতে সাধনের আরও সুবিধা, যেমন কেল্লা থেকে যুদ্ধ করা। যখন শবসাধন করে, মাঝে মাঝে শবটা হাঁ করে ভয় দেখায়। তাই চাল, ছোলাভাজা রাখতে হয়। তার মুখে মাঝে মাঝে দিতে হয়। শবটা ঠাণ্ডা হলে, তবে নিশ্চিন্ত হয়ে জপ করতে পারবে। তাই পরিবারদের ঠাণ্ডা রাখতে হয়। তাদের খাওয়া-দাওয়ার যোগাড় করে দিতে হয়, তবে সাধন-ভজনের সুবিধা হয়।
“যাদের ভোগ একটু বাকী আছে, তারা সংসারে থেকেই তাঁকে ডাকবে। নিতাই-এর ব্যবস্থা ছিল, মাগুর মাছের ঝোল, ঘোর যুবতীর কোল, বোল হরি বোল।
"You are talking about your leading a householder' life. Suppose you are a householder. It rather helps in the practice of spiritual discipline. It is like fighting from inside a fort. The Tantriks sometimes use a corpse in their religious rites. Now and then the dead body frightens them by opening its mouth. That is why they keep fried rice and grams near them, and from time to time they throw some of the grains into the corpse's mouth. Thus pacifying the corpse, they repeat the name of the Deity without any worry. Likewise, the householder should pacify his wife and the other members of his family. He should provide them with food and other necessities. Thus he removes the obstacles to his practice of spiritual discipline.]
‘सच्चे त्यागी की बात अलग है । मधुमक्खी फूल के अतिरिक्त और किसी पर भी नहीं बैठेगी । चातक की दृष्टि में सभी जल निःस्वाद हैं । वह दूसरे किसी भी जल को नहीं पीएगा, केवल स्वाति नक्षत्र की वर्षा के लिए ही मुँह खोले रहेगा । सच्चा त्यागी अन्य कोई भी आनन्द नहीं लेगा, केवल ईश्वर का आनन्द । मधुमक्खी केवल फूल पर बैठती है । सच्चे त्यागी साधु मधुमक्खी की तरह होते हैं । गृही भक्त मानो साधारण मक्खियाँ हैं । मिठाई पर भी बैठती हैं और फिर सड़े घाव पर भी ।
{“ঠিক ঠিক ত্যাগীর আলাদা কথা; মৌমাছি ফুল বই আর কিছুতেই বসবে না। চাতকের কাছে ‘সব জল ধুর’; কোন জল খাবে না কেবল স্বাতী-নক্ষত্রের বৃষ্টির জন্য হাঁ করে আছে। ঠিক ঠিক ত্যাগী অন্য কোন আনন্দ নেবে না, কেবল ঈশ্বরের আনন্দ। মৌমাছি কেবল ফুলে বসে। ঠিক ঠিক ত্যাগী সাধু যেন মৌমাছি। গৃহীভক্ত যেন এই সব মাছি — সন্দেশেও বসে, আবার পচা ঘায়েও বসে।
"But it is quite different with genuine sannyasis. A bee lights on flowers and on nothing else. To the chatak all water except rain is tasteless. It will drink no other water, but looks up agape for the rain that falls when the star Svati is in the ascendant. It drinks only that water. A real sannyasi will not enjoy any kind of bliss except the Bliss of God. The bee lights only on flowers. The real monk is like a bee, whereas the householder devotee is like a common fly, which lights on a festering sore as well as on a sweetmeat.
“तुम लोग इतना कष्ट करके यहाँ पर आए हो, तुम ईश्वर को ढूँढ़ते फिर रहे हो । अधिकांश लोग बगीचा देखकर ही संतुष्ट रहते हैं, मालिक की खोज बिरले ही लोग करते हैं । जगत् के सौन्दर्य को ही देखते हैं, इसके मालिक को नहीं ढूँढ़ते ।
[“তোমরা এত কষ্ট করে এখানে এসেছ, তোমরা ঈশ্বরকে খুঁজে বেড়াচ্ছ। সব লোক বাগান দেখেই সন্তুষ্ট, বাগানের কর্তার অনুসন্ধান করে দু-একজন। জগতের সৌন্দর্যই দেখে, কর্তাকে খোঁজে না।”
"You have taken so much trouble to come here. You must be seeking God. But almost everyone is satisfied simply by seeing the garden. Only one or two look for its owner. People enjoy the beauty of the world; they do not seek its Owner.
* राजयोग में षड्चक्र की बातें हैं त्रैलंगस्वामी उसके ज्ञाता थे *
श्रीरामकृष्ण(गानेवाले को दिखाकर)- इन्होंने षट्चक्र का गाना गाया । वह सब योग की बातें हैं । हठयोग और राजयोग । हठयोगी कुछ शारीरिक कसरतें करता है; सिद्धियाँ प्राप्त करना, लम्बी उम्र प्राप्त करना तथा अष्ट-सिद्धि प्राप्त करना, ये सब उद्देश्य हैं । राजयोग का उद्देश्य है भक्ति, प्रेम, ज्ञान, वैराग्य । राजयोग ही अच्छा (Best) है ।
{(গায়ককে দেখাইয়া) — ইনি ষড়চক্রের গান গাইলেন। সে-সব যোগের কথা। হঠযোগ আর রাজযোগ। হঠযোগী শরীরের কতকগুলো কসরৎ করে; উদ্দেশ্য — সিদ্ধাই, দীর্ঘ আয়ু হবে, অষ্টসিদ্ধি হবে; এই সব উদ্দেশ্য। রাজযোগের উদ্দেশ্য — ভক্তি, প্রেম, জ্ঞান, বৈরাগ্য। রাজযোগই ভাল।
(Pointing to the singer) "A little while ago he sang a song describing the six centres. These are dealt with in Yoga. There are two kinds of yoga: hathayoga and rajayoga. The hathayogi practises physical exercises. His goal is to acquire supernatural powers: longevity and the eight psychic powers. These are his aims. But the aim of rajayoga is the attainment of devotion, ecstatic love, knowledge, and renunciation. Of these two, rajayoga is the better.
“वेदान्त की सप्तभूमि और योगशास्त्र के षट्चक्र आपस में बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं । वेद की प्रथम तीन भूमियाँ और योगशास्त्र के मूलाधार, स्वाधिष्ठान तथा मणिपुर चक्र एक हैं । इन तीन भूमियों में- गुह्य, लिंग तथा नाभि में-मन का निवास है । जिस समय मन चौथी भूमि पर अर्थात् अनाहत पर उठता है, उस समय जीवात्मा का शिखा की तरह देदीप्यमान रूप में दर्शन होता है, और ज्योति का दर्शन होता है । साधक कह उठता है – ‘यह क्या ! यह क्या !’
{“বেদান্তের সপ্তভূমি, আর যোগশাস্ত্রের ষড়চক্র অনেক মেলে। বেদের প্রথম তিনভূমি, আর ওদের মূলাধার, স্বাধিষ্ঠান, মণিপুর। এই তিন ভূমিতে গুহ্য, লিঙ্গ, নাভির মনের বাস। মন যখন চতুর্থভূমিতে উঠে অর্থাৎ অনাহত পদ্মে, জীবাত্মাকে তখন শিখার ন্যায় দর্শন হয়, আর জ্যোতিঃদর্শন হয়। সাধক বলে, ‘এ কি! এ কি!’
"There is much similarity between the seven 'planes' described in the Vedanta and the six 'centres' of Yoga. The first three planes of the "Vedas may be compared to the first three Yogic centres, namely, Muladhara, Svadhisthana, and Manipura. With ordinary people the mind dwells in these three planes, at the organs of evacuation and generation and at the navel. When the mind ascends to the fourth plane, the centre designated in Yoga as Anahata, it sees the individual soul as a flame. Besides, it sees light. At this the aspirant cries: "Ah! What is this? Ah! What is this?'
‘मन के पाँचवीं भूमि में उठने पर केवल ईश्वर की ही बात सुनने की इच्छा होती है । यहाँ पर विशुद्ध चक्र है । षष्ठ भूमि और आज्ञा चक्र एक ही हैं । वहाँ पर मन के जाने से ईश्वर का दर्शन होता है । परन्तु वह उसी प्रकार होता है जिस प्रकार लालटेन के भीतर रोशनी रहती है – छू नहीं सकते, क्योंकि बीच में काँच रहता है ।
[“পঞ্চভূমিতে মন উঠলে, কেবল ঈশ্বরের কথাই শুনতে ইচ্ছা হয়। এখানে বিশুদ্ধচক্র। ষষ্ঠভূমি আর আজ্ঞাচক্র এক। সেখানে মন গেলে ঈশ্বরদর্শন হয়। কিন্তু যেমন লণ্ঠনের ভিতর আলো — ছুঁতে পারে না, মাঝে কাচ ব্যবধান আছে বলে।
"When the mind rises to the fifth plane, the aspirant wants to hear only about God. This is the Visuddha centre of Yoga. The sixth plane and the centre known by the yogi as Ajna are one and the same. When the mind rises there, the aspirant sees God. But still there is a barrier between God and the devotee. It is like the barrier of glass in a lantern, which keeps one from touching the light.
“जनक राजा पंचम भूमि पर से ब्रह्मज्ञान का उपदेश देते थे । वे कभी पंचम भूमि पर और कभी षष्ठ भूमि पर रहते थे ।
[ “জনক রাজা পঞ্চভূমি থেকে ব্রহ্মজ্ঞানের উপদেশ দিতেন। তিনি কখনও পঞ্চমভূমি, কখনও ষষ্ঠভূমিতে থাকতেন।
King Janaka used to give instruction about Brahmajnana from the fifth plane. Sometimes he dwelt on the fifth plane, and sometimes on the sixth.
“षट्चक्रभेद के बाद सप्तम भूमि है । मन वहाँ जाने पर लीन हो जाता है । जीवात्मा परमात्मा एक हो जाते हैं; समाधि हो जाती है । देहबुद्धि चली जाती है, बाह्यज्ञान नहीं रहता, अनेकत्व का बोध नष्ट हो जाता है और विचार बन्द हो जाता है ।
[“ষড়চক্র ভেদের পর সপ্তমভূমি। মন সেখানে গেলে মনের লয় হয়। জীবাত্মা পরমাত্মা এক হয়ে যায় — সমাধি হয়। দেহবুদ্ধি চলে যায়, বাহ্যশূন্য হয়; নানা জ্ঞান চলে যায়; বিচার বন্ধ হয়ে যায়।"
After passing the six centres the aspirant arrives at the seventh plane. Reaching it, the mind merges in Brahman. The individual soul and the Supreme Soul become one. The aspirant goes into samadhi. His consciousness of the body disappears. He loses the knowledge of the outer world. He does not see the manifold any more. His reasoning comes to a stop.
“ त्रैलंग स्वामी ने एक बार कहा था कि , क्योंकि मनुष्य तर्क करता है इसीलिए वह विविधता (variety) के अनेक भेदों (multiplicity) के प्रति सचेत रहता है। (जब तक मन है , तर्क-विचार करते समय ही उसे अनेकता तथा विभिन्नता का बोध होता रहता है।) (जो ईश्वरकोटि के नहीं होते उनकी ?) समाधि के बाद अन्त में इक्कीस दिन में मृत्यु हो जाती है ।
” परन्तु कुण्डलिनी न जागने पर चैतन्य प्राप्त नहीं होता।
[“ত্রৈলঙ্গ স্বামী বলেছিল, বিচারে অনেক বোধ হচ্ছে; নানা বোধ হচ্ছে। সমাধির পর শেষে একুশদিনে মৃত্যু হয়।
“কিন্তু কুলকুণ্ডলিনী জাগরণ না হলে চৈতন্য হয় না!”
"Trailanga Swami once said that because a man reasons he is conscious of multiplicity, of variety. Attaining samadhi, one gives up the body in twenty-one days. Spiritual consciousness is not possible without the awakening of the Kundalini.]
*ईश्वर-दर्शन के लक्षण*
“जिसने ईश्वर को प्राप्त किया है, उसके कुछ लक्षण हैं । वह बालक की तरह, उन्मत्त की तरह, जड़ की तरह, या पिशाच की तरह बन जाता है और सच्चा अनुभव होता है कि ‘मैं यन्त्र हूँ और वे यन्त्री हैं । वे ही कर्ता हैं, और सभी अकर्ता हैं ।’ जिस प्रकार सिक्खों ने कहा था, पत्ता हिल रहा है, वह भी ईश्वर की इच्छा है । राम की इच्छा से ही सब कुछ हो रहा है – यह ज्ञान होता है ।
जैसे जुलाहे ने कहा था, ‘राम की इच्छा से ही कपड़े का दाम एक रुपया छः आना है; राम की इच्छा से ही डकैती हुई; राम की इच्छा से ही डाकू पकड़े गये; राम की इच्छा से ही पुलिसवाले मुझे ले गए और राम की ही इच्छा से मुझे छोड़ दिया ।”
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सन्ध्या निकट थी, श्रीरामकृष्ण ने थोड़ा भी विश्राम नहीं किया । भक्तों के साथ लगातार हरिकथा हो रही है । अब [कैम्प समाप्त होने के बाद ] मणिरामपुर और बेलघड़िया के तथा अन्य भक्तगण भूमिष्ठ होकर उन्हें (C-IN-C 'नवनीदा को) प्रणाम कर देवालय में देवदर्शन के बाद अपने अपने स्थानों को लौटने लगे ।
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* साधन पथ (Be and Make ) में त्याज्य हैं -अष्टपाश ! *
अष्ट पाश - : लज्जा, घृणा, भय, जाति, कुल, शील, शंका, जुगुप्सा (निन्दा।) ये अष्ट मानव लक्षण सर्वदा ही मनुष्य के आध्यात्मिक उन्नति हेतु बाधक माने गए हैं तथा साधन पथ (Be and Make ) में त्याज्य हैं। पशु भाव साधन क्रम के अनुसार साधक इन्हीं लक्षणों या पाशों पर विजय पाने का प्रयास करता हैं।
*घृणा लज्जा भयं शंका जुगुप्सा चेति पंचमी ।
कुलं शीलं तथा जातिरष्टो पाशः प्रकीर्तिताः ॥
पाश बद्धो भवेत् जीवः पाश मुक्त सदाशिव।-
(कुलार्णवतन्त्र)
लज्जा, घृणा, भय, जाति, कुल, शील, शोक, जुगुप्सा (निन्दा।) इन्हीं आठ पाशों (रस्सियों) से बंधे होने के कारण सभी जीव पशु कहे गये है,न कि सिर्फ चौपाया- गाय, बैल आदि। अर्थात शास्त्र-निषिद्ध कर्म करने से घृणा ही लज्जा है, भय , शंका , जुगुप्सा-निंदा ,कुल शील और जाति ये आठ प्रकार के पाश कहे गए हैं। इनसे जो बंधा हुआ है वह जीव है। ''मनःसंयोग (योग और तंत्र मार्ग ) के गुरु '' इन्ही पाशों से छुड़ाकर जीव को सदाशिव बनाता है।
१. लज्जा : भूलवश देहात्मबोध रहने के कारण मनुष्य से कोई भी शास्त्र-निषिद्ध कर्म हो जाने के बाद सामान्यतः मनुष्य के हृदय में ग्लानि या अपमान भावना का उदय होना लज्जा कहलाता हैं। लेकिन शरीर को जीवन देने वाली आत्मा साक्षात् परमात्मा ही हैं तथा मान-अपमान से परे हैं, अतः फिर कभी शास्त्र-निषिद्ध कर्म नहीं करूँगा यह निश्चय रहना चाहिए।
२. घृणा : ईश्वर के २४ तत्वों से निर्मित संसार की किसी भी वस्तु में किसी भी प्रकार का विकार अनुभव करना ही घृणा हैं, जो अभिमान, अहंकार इत्यादि विकारों को जन्म देता हैं।
३. भय : मनुष्य को अपने भौतिक शरीर समझता है , इसलिए प्रिय-जन, संपत्ति, अभिलषित वस्तुओं से प्रेम रहता हैं तथा इसके नष्ट होने का सर्वदा भय रहता हैं। भौतिक वस्तुओं के नाश का उसे सर्वदा भय रहता हैं ,परन्तु अविनाशी आत्मा के नाश का कोई भय नहीं होता ; इसीलिए वह आत्म तत्व को जानने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं करता ।
४. जाती : मनुष्य का अपना जात्यभिमान, उसके हृदय में बड़े या छोटे भावना का प्रतिपादन करता हैं। जाती भेद को समदर्शी न मानने वाला पशु भाव से ग्रस्त हैं, चारों जातियां क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य तथा शूद्र सभी परम-पिता ब्रह्मा जी के संतान हैं।
५. कुल : उच्च कुल या वंश में जन्म कुल-भाव से हैं, जैसे उच्च कुल में पैदा हुआ अपने आप को उच्च मानता हैं तथा दूसरे के कुल को छोटा। यह भाव मनुष्य के अन्दर छोटा या बड़ा होने के प्रवृति को उदित करता हैं तथा उसके विचार अपना-पराया में भेद-भाव युक्त हो जाते हैं।
६. शील : शिष्टाचार का अभिप्राय शील या उसका अच्छा व्यवहार ही उसका चरित्र हैं। अन्य लोगों के प्रति मानव का व्यवहार, सेवा, उठने-बैठने का तरीका शिष्टाचार या शील कहलाती हैं। शीलता के बंधन को काट देने पर साधक विचार तथा कर्म में स्वतंत्र हो जाता हैं तथा उसे ये चिंता नहीं रहती हैं की कोई अन्य उसके बारे में क्या सोच रहा हैं।
७.शंका : किसी व्यक्ति के प्रति संदेह की भावना को शंका कहते हैं। विषय-आसक्त, माया-मोह में पड़ा हुआ मनुष्य, अपने विकास के लिये नाना प्रकार के छल-प्रपंच में लिप्त रहता हैं, कपट व्यवहार करता हैं, झूठ बोलता हैं, देहाभिमानी हैं, परिणामस्वरूप वह दूसरे को भी ऐसा ही समझ कर उस पर संदेह करता हैं।
८. जुगुप्सा : दूसरों की निंदा-चर्चा करना जुगुप्सा कहलाती हैं, मनुष्य दूसरों के गुण तथा दोषों को देखता हैं तथा अपने दोषों का मनन नहीं कर पाता।
जब तक मनुष्य के बुद्धि का पूर्ण रूप से विकास ना हो, वह पशु के ही श्रेणी में आता हैं। पशु भाव से ही साधन प्रारंभ करने का विधान हैं, यह प्रारंभिक साधन का क्रम हैं, आत्म तथा सर्व समर्पण भाव उदय का प्रथम कारक पशु भाव क्रम से साधना करना हैं। यहाँ भाव निम्न कोटि का माना गया हैं, स्वयं त्रिपुर-सुंदरी, श्री देवी ने अपने मुखारविंद से भाव चूड़ामणि तंत्र में पशु भाव को सर्व-निन्दित तथा सर्व-निम्न श्रेणी का बताया हैं। अपनी साधना द्वारा प्राप्त ज्ञान द्वारा जब अज्ञान का अन्धकार समाप्त हो जाता हैं, पशु भाव स्वतः ही लुप्त हो जाता हैं।
वीर-साधना या शक्ति साधना का मुख्य उद्देश्य शिव तथा समस्त जीवों में ऐक्य प्राप्त करना हैं। यहाँ मानव देह देवालय हैं तथा आत्म स्वरूप में शिव इसी देवालय में विराजमान हैं, अष्ट पाशों से मुक्त हुए बिना देह में व्याप्त सदा-शिव का अनुभव संभव नहीं हैं। शक्ति साधना के अंतर्गत पशु भाव, वीर-भाव जैसे साधन कर्मों का पालन कर मनुष्य सफल योगी बन पता हैं
वास्तव में देखा जाये तो, यह पंच-मकार मनुष्य के अष्ट पाशों के बंधन से मुक्त होने में सहायक हैं, सर्वश्रेष्ठ विषय भोगो को भोग करते हुए भी, विषय भोगो के प्रति अनासक्ति का भाव, इस मार्ग का चरम उद्देश्य हैं। जब तक मानव पाश-बद्ध, विषय-भोगो के प्रति आसक्त, देहाभिमानी हैं, वह केवल जीव कहलाता हैं, पाश-मुक्त होने पर वह स्वयं शिव के समान हो जाता हैं।
साधक को शिवत्व प्राप्त करने हेतु इन सभी पाशों या लक्षणों से मुक्ति होना अत्यंत आवश्यक हैं। जो इन अष्ट-पाशों में से किसी एक से भी ग्रस्त हैं, मनोविकार युक्त हैं, वह सर्वदा, सर्व-काल तथा सर्व-व्यवस्था में साधना करने में समर्थ नहीं हो सकता। चित शुद्धि हुए बिना, समदर्शिता तथा त्याग की भावना का उदय होना अत्यंत कठिन हैं, चित को निर्मल निर्विकार करने हेतु पशु भाव का त्याग अत्यंत आवश्यक हैं।
उक्त अष्टपाशों से प्रयत्नपूर्वक मुक्ति पाने का प्रयास करना है। अतिरिक्त ज्ञान-क्षमता ही मनुष्य को पशुता से अलग करता है। आहार,निद्रादि शेष तो पशुओं में भी यथावत है ही। यथा—
आहारनिद्राभयमैथुनश्च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् ।
ज्ञानं नराणामधिको विशेष ज्ञानेन हीना पशुभिः समानाः ।।
अतः साधना पथ पर अग्रसर होकर ज्ञानलब्ध करना ही मनुष्य का परम कर्तव्य है। मानव-पशु भेद करते हुए उक्त भावों का किंचित भिन्न प्रयोग भी मिलता है। श्लोक का पूर्वार्द्ध तो यथावत हैं । उत्तरार्द्ध में यहाँ ज्ञान के स्थान पर धर्म को रखा गया है। यथा—
आहारनिद्राभयमैथुनश्च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिकोविशेषः धर्मेणहीनाःपशुभिः समानाः।।
पशुपतिनाथ (शिव) की शक्ति शिवा (भवतारिणी माँ काली ) का आराधन इसमें (ज्ञान/धर्म) पर्याप्त सहयोगी है।
पशु भाव से साधना प्रारंभ कर अष्ट पाशों, मनोविकारों पर विजय पाकर ही साधक वीर-भाव में गमन का अधिकारी हैं। वस्तुतः पशु भाव युक्त साधना कर साधक इन अष्ट-पाशों या विकारों से मुक्त होने का प्रयास करता हैं।
वीर भाव : वीर-भाव बहुत ही कठिन मार्ग हैं, बिना गुरु आज्ञा तथा मार्गदर्शन के यह साधन हानिकारक ही होती है। जिस साधक में किसी भी प्रकार से कोई शंका नहीं हैं, जो भय मुक्त हैं, निर्भीक हैं, निर्भय हो किसी भी समय कही पर भी चला जाये, लज्जा व कुतूहल से रहित हैं, वेद तथा शास्त्रों के अध्ययन में सर्वदा रत रहता हैं, वह वीर साधन करने का अधिकारी है। इस मार्ग को कुल, वाम, कौल, वीरा-चार नाम से भी जाना जाता हैं। कुला-चार केवल साधन का एक मार्ग है : वीर-भाव का मुख्य आधार केवल यह हैं कि साधक अपने आप में तथा अपने इष्ट देव में कोई अंतर न समझे तथा साधना में रत रह कर अपने इष्ट देव के समान ही गुण-स्वभाव वाला बनने और बनाने की चेष्टा में जी-जान से लगा रहे ।
तन्त्र मार्ग में प्रयुक्त होने वाले, पञ्च-मकार (मद्ध, मांस, मत्स्य, मुद्रा तथा मैथुन) के कारण क्या हैं ? तथा इस मार्ग में प्रयोग किये जाने वाले इन पञ्च-मकारों को केवल अष्ट-पाशों का भेदन कर, साधक को जीवनमुक्त (निर्भय -स्वतंत्र-उन्मुक्त) बनाने हेतु प्रयोग किया जाता हैं। साधक इन समस्त तत्वों का प्रयोग अपनी आत्म-तृप्ति हेतु नहीं कर सकता, इनका कदापि आदि नहीं हो सकता, साधक केवल अपने इष्ट देवता को समर्पित कर ग्रहण करने का अधिकारी है; यह केवल उपासना की सामग्री हैं, उपभोग की नहीं। अति-प्रिय होने पर भी, इन तत्वों से साधक किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रख सकता हैं, यह ही साधक के साधना की चरम पराकाष्ठा हैं।साथ ही इस मार्ग के साधक का दृढ़ निश्चयी भी होना अत्यंत आवश्यक है। किसी भी कारण इस मार्ग का मध्य में त्याग करना उचित नहीं हैं, अन्यथा दुष्परिणाम अवश्य हैं। इस भाव तक आते-आते साधक, अष्ट-पाशों के कारण होने वाले दुष्परिणामों को साधक समझने लगता हैं, परन्तु उनका पूर्ण रूप से वह त्याग नहीं कर पाता, परन्तु करना चाहता हैं।
साधना के इस क्रम में पहुँच कर मूल पञ्च-तत्व के प्रतीक पञ्च-तत्वों से साधना करने का विधान हैं, जिसे पञ्च-मकार नाम से जाना जाता हैं। वैष्णव सम्प्रदाय तो इन समस्त वस्तुओं को महा-पाप का कारण मानता हैं, मद्य या सुरा पान पञ्च-महा पापों में से एक हैं। लेकिन कुलार्णव तंत्र (कौल या कुल धर्म के विवरण सम्बन्धी तंत्र) के अनुसार, शास्त्रोक्त विधि से देवता तथा पितरों का पूजन कर मांस खानेवाला तथा मद्य पीने वाला किसी भी प्रकार के दोष का भागी नहीं होता। बिना यज्ञ कर्मों के मांस-मदिरा सेवन दोष युक्त माना गया हैं तथा पाप की श्रेणी में आता हैं। मंत्रों द्वारा पवित्र किया गया या शास्त्रोक्त विधि से कुल द्रव्य या तत्व, गुरु तथा देवता को अर्पण कर पान करने वाला भव सागर के बंधन से मुक्त हो जाता हैं, तथा किसी भी प्रकार के दोष का भागी नहीं हैं। मतस्य-मांस, सुरा इत्यादि मादक द्रव्यों का कौल मार्ग में दीक्षा संस्कार के पश्चात, देव कार्य पूजन के अतिरिक्त सेवन दोष युक्त माना गया हैं।
मद्य, मांस, मतस्य, मुद्रा के सेवन का मुख्य कारण! समस्त वस्तु या तत्व परमात्मा द्वारा ही बनायी गई हैं, पंच-मकार मार्ग! समस्त प्रकार के वैभव-भोगो में रत रहते हुए, धीरे-धीरे त्याग का मार्ग हैं। साधक का सदाचारी होना भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, संस्कार (दीक्षा) विहीन होने पर, गुरु आज्ञा का उलंघन करने पर तथा सदाचार विहीन होने पर साधक पाप का अधिकारी हो पतन की ओर अग्रसर होता हैं।
सामान्यतः मद्य निन्दित वस्तुओं से माना जाता हैं, परन्तु मदिरा के साथ मांस इत्यादि का सेवन करके वह इन पाशों का त्याग करने या नियंत्रण करने में सफल होता हैं।मदिरा के साथ, मांस-मत्स्य इत्यादि का प्रयोग, मदिरा में व्याप्त विष को शांत करने हेतु किया जाता हैं। स्त्री सेवन के मुख्य कारण : स्त्री के प्रति मोह काम वासना या कामुकता, किसी भी साधन पथ का सबसे बड़ा विघ्न है। लेकिन स्त्री (Bh) से दूर रहकर इस विघ्न पर विजय नहीं पाया जा सकता है। कामिनी - प्रेम में लिप्त मनुष्य, सही और गलत भूल कर, मन-माने तरीके से, शास्त्र-निषिद्ध तरीके से कार्य करता हैं। किन्तु शास्त्रोक्त विवाह-धर्म के अनुसार स्त्री सेवन में रहते हुए भी , काम-वासना, प्रेम इत्यादि आसक्ति का त्याग सर्वश्रेष्ठ माना गया हैं। शक्ति संगम तंत्र के अनुसार मैथुन हेतु सर्वोत्तम स्त्री संग, दीक्षिता तथा देवताओं पर भक्ति भाव रखने वाली, मंत्र-जप इत्यादि देव कर्म करने वाली होना आवश्यक हैं। स्त्री संग करने पर साधक पर स्त्री का कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये, न मोह न प्रेम। इसी तरह मद्य, मांस तथा मतस्य के सेवन के पश्चात भी, शरीर पर इनका कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये, मद्य पान करने पर साधक के शरीर में पूर्ण चेतना रहनी चाहिये।
किसी भी स्त्री को केवल देखकर मन में विकार जागृत होना, साधक के नाश का कारण बनता हैं। कुल-धर्म दीक्षा रहित स्त्री का संग, सर्व सिद्धियों की हानि करने वाला होता हैं। स्त्री संग से पूर्व स्त्री-पूजन अनिवार्य हैं तथा स्त्रियों से द्वेष निषेध हैं, स्त्री सेवन या सम-भोग आत्म सुख के लिये करने वाला पापी तथा नरक गामी होता हैं। पर-द्रव्य, पर-अन्य, प्रतिग्रह, पर-स्त्री, पर-निंदा, से सर्वदा दूर रहाकर! सदाचार पालन अत्यंत आवश्यक हैं।
साधारण मनुष्य विषय-भोगो में सर्वदा आसक्त रहता हैं और अधिक प्राप्त करने का प्रयास करता हैं तथा सर्वदा उनमें लिप्त रहता हैं, आदी हो जाता हैं। परन्तु वीराचारी आसक्ति से सर्वदा दूर रहता हैं, किसी भी प्रकार से विषय-भोगो में आसक्ति, लिप्त रहने का उसे अधिकार नहीं हैं, सर्वदा ही उसे उन्मुक्त रहना पड़ता हैं, वह आदी नहीं हो सकता हैं।
महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराज जी ने तन्त्र और योग विषयक अपने विविध संकलनों में इस विधि पर विशद प्रकाश डाला है। महर्षि पतञ्जलि ने चित्तवृत्तियों के निरोध को ही योग कहा है—योगश्चित्तवृत्ति निरोधः। वस्तुतः मन नहीं, प्रत्युत चित्त चंचल होता है और इस चित्त की चंचलता ही मन को प्रभावित करती है।
"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु। बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।" सच पूछें तो धर्म का गूढ़ तत्व आत्मा में ही निहित है। महाभारत में यक्ष-युधिष्ठिर संवाद-क्रम में कुछ रहस्यमय प्रश्नों में ये भी है कि आत्मा को परमात्मा से मिलाने का रास्ता कौन सा है? तदुत्तर में युधिष्ठिर ने कहा है कि इस विषय में तर्क से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि तर्क मन का व्यापार है और आत्मा मन की तुलना में अतिसूक्ष्म है। अतः इस विषय में महापुरुष-निर्दिष्ट मार्ग का ही अनुसरण निष्ठापूर्वक करना चाहिए।
तंत्रसाधना में साधकों के भाव-स्तर भी तीन कहे गये हैं- पशुभाव ,वीरभाव ,और दिव्यभाव या सन्तान भाव ।
साभार -http://punyarkkriti.blogspot.com/2020/05/2.html/
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