1.
एन्लाइटेन्ड (जागे हुए) मनुष्यों का निर्माण :
19 वीं सदी के अन्त में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - "मनुष्य, केवल मनुष्य भर चाहिये! शेष सब कुछ अपने आप हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी --'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से सम्पन्न' दृढ-विश्वासी, निष्कपट- नवयुवकों की! ऐसे सौ (100) मिल जायें तो संसार का कायाकल्प हो जाय। पहले उनके जीवन का निर्माण करना होगा। तब कहीं काम होगा।" - और यही महामण्डल का उद्देश्य तथा कार्यक्रम भी है। तथा यही 'सर्वतोकृष्ट' समाज सेवा भी है ! (५/११८) एन्लाइटेन्ड (जागे हुए) मनुष्यों का निर्माण :
" Men, men, these are wanted: everything else will be ready, but strong, vigorous, believing young men, sincere to the backbone, are wanted. A hundred such and the world becomes revolutionized."... Arise, awake, and stop not till the goal (100 ब्रह्मविद मनुष्य !) is reached! vol/3/223 ]
प्रश्न उठता है कि क्या हमलोग इस समय मनुष्य नहीं हैं ? प्रश्न उठता है कि 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से सम्पन्न मनुष्यों का निर्माण' --अर्थात 'वैज्ञानिक मेधा एवं आध्यात्मिक प्रज्ञा सम्पन्न मनुष्यों का निर्माण' कैसे किया जा सकता है ? हमारे शास्त्रों में कहा गया है -
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष:धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
- 'आहार, निद्रा, भय, मैथुन'-- ये चार गुण पंचभौतिक-अन्नमय शरीर की सहज प्रवृत्तियां (instinct) है। धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्म अर्थात - " righteousness,औचित्य-बोध, विवेक या Wisdom" ही मनुष्य में विशेष गुण है जिसके कारण वह पशुओं से भिन्न होता है। और धर्म वह वस्तु है जो व्यक्ति को पशुत्व से मनुष्यत्व में और मनुष्यत्व से देवत्व की ओर प्रेरित करता है। 'आहार, निद्रा [ठांस भोजन -चाप निद्रा] अर्थात मांस-भात पर टूट पड़ना और सोना , भय माने मृत्यु से डरना और मैथुन माने वंशविस्तार करना' पशु स्तर का जीवन है। धर्म अर्थात औचित्यबोध या श्रेय-प्रेय विवेक से रहित मनुष्य तो पशुतुल्य होता है। संस्कृत में नीतिकार कहते हैं-‘धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।’ - अर्थात धर्माचरण अर्थात सुन्दर चरित्र रहित मनुष्य तो पशु तुल्य होता है। चाणक्य नीति में भी कहा गया है -
येषां न विद्या न तपो न दानं , ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः , मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥
जिसके पास न विद्या है, न तप है, न दान है , न ज्ञान है , न शील है , न गुण है और न धर्म है ; वे मृत्युलोक पृथ्वी पर भार होते है और मनुष्य रूप तो हैं पर पशु की तरह चरते हैं (जीवन व्यतीत करते हैं ) ।चरित्र ही मनुष्य के जीवन को शोभा या रौनक प्रदान करता है। 'आचार्य परम्परा ' में प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में सामंजस्य स्थापित करने वाले - " एक नया युवा आन्दोलन" के प्रणेता तथा [स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा ~ 'Be and Make Leadership training tradition"] में प्रशिक्षित- " प्रथम कमांडर इन चीफ (C-in-C) -- " The First commander in chief' श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय (15 अगस्त, 1931 - 26 सितम्बर 2016) कहते थे - " स्वामी विवेकानन्द निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में से एक ऋषि थे, जिनके कन्धों पर- 'शिशु के रूप में झूलते हुए' भगवान श्री रामकृष्ण ने कहा था- मैं जा रहा हूँ , मेरे पीछे तुम्हें भी आना पड़ेगा ! " और ठीक उसी प्रकार , 21 वीं सदी के भारत का जैसा चित्र स्वामी विवेकानन्द के सपनों में था (India of the dreams of Swami Vivekananda in the 21st century) , उसको धरातल पर उतारने के लिए ही 1967 में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' को आविर्भूत होना पड़ा।
पूज्य नवनीदा कहते थे - " चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करना --केवल तभी सम्भव है, जब आज का युवा विज्ञान, साहित्य, दर्शन, मैनेजमेन्ट, रॉकेट साइंस आदि प्रचलित विषयों को पढ़ने के साथ-साथ, भारत की आध्यात्मिक संस्कृति (आचार्य परम्परा या श्रुति परम्परा) का आस्वादन भी प्राप्त करे। क्योंकि, हमलोग यदि आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी (Modern Science and Technology) के नये-नये आविष्कारों को ग्रहण नहीं करेंगे, तो हमारे लिए प्रगति करना और '5 ट्रिलियन डॉलर का विकसित राष्ट्र' बनना सम्भव नहीं होगा। किन्तु यदि आधुनिक और विकसित राष्ट्र (Developed country) बनने की स्पर्धा में, हमलोगों ने यदि भारत वर्ष की गौरवशाली आध्यतमिक संस्कृति के साथ अपने सारे सम्बन्ध तोड़ लिए, तो उस आधुनिकता और विकास का कोई अर्थ ही नहीं होगा।"
प्रसिद्ध विधिवेत्ता (jurist) तथा सम-सामयिक समस्याओं (current problems) के विश्लेषक नानी पालखीवाला (1920 – 2002) " भारतवर्ष को, आर्थिक दृष्टि से सोया हुआ एक महाकाय दैत्य (तिमंगल) मानते थे। [तिमंगल- यानि अपनी 5 ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी बनने की सम्भावना (क्षमता) के प्रति सोया हुआ देश मानते थे।], जिसने निद्रा की लंबी रात के बाद, अब फिर से अंगड़ाई लेना शुरू कर दिया है ! उन्होंने कहा था -“Enlightened citizens cannot be produced in the factory – it has to come through education. Thus teachers are the torch-bearers of change, change for the whole nation, change for the whole world.”
एनलाइटेंड सिटिजंस -अर्थात अपने अनतर्निहीत बहुमूल्य खजाने " The Treasure within" के प्रति जागरूक मनुष्यों का निर्माण-- कारखानों में नहीं हो सकता; यह केवल शिक्षा के माध्यम से सम्भव है। इस प्रकार हम यह समझ सकते हैं, कि 'चंचल मन को शांत और वशीभूत करने ' करने का प्रशिक्षण देने में समर्थ और आचार्य परम्परा में प्रशिक्षित गुरु (C-in-C) ही सम्पूर्ण भारत और सम्पूर्ण विश्व में आध्यात्मिक क्रांति के मशाल वाहक नेता (the Torch -bearer of change) हैं ! "
किसी गरीब या विकासशील देश के नागरिकों को दुनिया अपना नेता नहीं मान सकती । एनलाइटेंड सिटिजंस - किस प्रकार के नागरिकों को कहा जा सकता है ? ऐसी उपमा उसी देश के नागरिकों को दी जा सकती है, जो 'आध्यात्मिक प्रज्ञा एवं वैज्ञानिक मेधा सम्पन्न' है ~ अर्थात जो 'आर्थिक रूप से समृद्ध और आध्यात्मिक दृष्टि से जागृत' नागरिक ( financially rich and spiritually awakened citizens) - होने के बावजूद पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य या राजर्षि (राजा + ऋषि ) है।
अर्थात जो राजा जनक जैसे (प्रवृत्ति मार्गी) राजा होकर भी (निवृत्ति मार्गी) भगवान बुद्ध के जैसे ब्रह्मवेत्ता और 100 % निःस्वार्थी मनुष्य है। और ऐसे एनलाइटेंड सिटिजंस या ब्रह्मवेत्ता राजर्षियों का निर्माण कारखानों में नहीं हो सकता; यह केवल शिक्षा के माध्यम से सम्भव है। इसीलिए तैत्तरीय उपनिषद की 'शीक्षा वल्ली ' में एन्लाइटेन्ड मनुष्यों का निर्माण करने में समर्थ 'आचार्य परम्परा ' (अप्रतिम प्रशिक्षण-प्रणाली-Unique Training Method, अद्वितीय गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा) को -'श' में दीर्घ 'इकार' लगाकर 'शीक्षा' कहा गया है ।
क्या (Be and Make Leadership training tradition) में आमूल परिवर्तन या सम्पूर्ण क्रांति के कम से कम 100 मशाल वाहक 'नेता '/ राजर्षि (Torch -bearer of change) बनो और बनाओ आंदोलन ' के माध्यम से .....
..... क्या ऐसी आध्यात्मिक क्रांति संभव है, जिसमें बच्चा-बच्चा ’‘अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) का जयघोष कर उठे ?
जहाँ प्रत्येक मनुष्य ’’‘तत्त्वमसि’ (तुम भी वही (ब्रह्म) हो) के भाव से आविष्ट हो?।
क्या धरती पर ऐसे दिव्य मानवों की संभावना है, जिनका होना ‘ब्रह्म’ का प्राकट्य हो, जिनका पारस्परिक आचरण ‘लीला’ हो एवं कर्म ‘सृजन के लिए सृजन’ हो?
ऐसे विचारों और कल्पनाओं में हजारों पंख लगाए जा सकते है, और सैकड़ों दिशाओं में इनकी उड़ानों का चित्र देखा जा सकता है। लेकिन क्या 21वीं सदी इन संभावनाओं के यथार्थ प्रकटीकरण की सदी हो सकती है?
इस प्रश्न की प्रासंगिकता जितनी आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। क्योंकि गत 100 वर्षों में संपन्न भौतिकी की खोजों ने, (न्यूटन से लकर हाॅकिन्स तक), विज्ञान को अध्यात्म की दहलीज पर ला खड़ा कर दिया है।
क्वाण्टम फिजिक्स की आधुनिक अवधारणाएं, हजारों वर्षों पूर्व प्रस्फुटित वैदिक ऋचाओं का तार्किक वैज्ञानिक प्रस्तुतिकरण सिद्ध हो रही हैं।
आधुनिक क्वाण्टम भौतिकी की अवधारणा, अद्वैत वेदान्त के वैज्ञानिक दर्शन शास्त्र की तरह सामने आई हैं।
दलाई लामा के शब्दों में ‘‘क्वाण्टम भौतिकी, विज्ञान और धर्म (अध्यात्म) के बीच एक ऐसा सेतु बनकर आया है जिसे हम ‘पार का विज्ञान’ (Science of transcendence) कह सकते है, जिसकी तीव्रता से प्रतीक्षा थी’’
क्वाण्टम भौतिकी, के नवीनतम सिंद्धातों ने अब साफ कर दिया है कि विश्व का कारण पदार्थ नहीं है। और आइंस्टीन ने यह सिद्ध कर दिया है कि पदार्थ (Matter) और शक्ति (Energy) समतुल्य हैं (E=M), इसलिए अब क्वाण्टम फिजिक्स कहता है कि जगत का कारण पदार्थ या ऊर्जा नहीं बल्कि 'जगत साक्षिणी ' चेतना (Witness consciousness / Existence -consciousness-bliss)है ....यह उद्घोष भारतीय प्राचीन वेदों ने हजारों वर्ष पूर्व ही कर दिया था कि...
.... 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' ~ ‘‘विश्व में चेतना ही सर्वत्र है और कुछ नहीं’’ (छान्दोग्योपनिषद्, 4.1) इस चेतना को ही वैदिक ग्रंथों में ‘ब्रह्म’ कहा गया है। समूचा वैदिक साहित्य इस ‘ब्रह्म’ (सच्चिदानन्द) का ही बखान है।
विषय में उतरने से पूर्व वेदान्त दर्शन के कुछ महावाक्यों पर दृष्टिपात करें :
किसी गरीब या विकासशील देश के नागरिकों को दुनिया अपना नेता नहीं मान सकती । एनलाइटेंड सिटिजंस - किस प्रकार के नागरिकों को कहा जा सकता है ? ऐसी उपमा उसी देश के नागरिकों को दी जा सकती है, जो 'आध्यात्मिक प्रज्ञा एवं वैज्ञानिक मेधा सम्पन्न' है ~ अर्थात जो 'आर्थिक रूप से समृद्ध और आध्यात्मिक दृष्टि से जागृत' नागरिक ( financially rich and spiritually awakened citizens) - होने के बावजूद पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य या राजर्षि (राजा + ऋषि ) है।
अर्थात जो राजा जनक जैसे (प्रवृत्ति मार्गी) राजा होकर भी (निवृत्ति मार्गी) भगवान बुद्ध के जैसे ब्रह्मवेत्ता और 100 % निःस्वार्थी मनुष्य है। और ऐसे एनलाइटेंड सिटिजंस या ब्रह्मवेत्ता राजर्षियों का निर्माण कारखानों में नहीं हो सकता; यह केवल शिक्षा के माध्यम से सम्भव है। इसीलिए तैत्तरीय उपनिषद की 'शीक्षा वल्ली ' में एन्लाइटेन्ड मनुष्यों का निर्माण करने में समर्थ 'आचार्य परम्परा ' (अप्रतिम प्रशिक्षण-प्रणाली-Unique Training Method, अद्वितीय गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा) को -'श' में दीर्घ 'इकार' लगाकर 'शीक्षा' कहा गया है ।
क्या (Be and Make Leadership training tradition) में आमूल परिवर्तन या सम्पूर्ण क्रांति के कम से कम 100 मशाल वाहक 'नेता '/ राजर्षि (Torch -bearer of change) बनो और बनाओ आंदोलन ' के माध्यम से .....
..... क्या ऐसी आध्यात्मिक क्रांति संभव है, जिसमें बच्चा-बच्चा ’‘अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) का जयघोष कर उठे ?
जहाँ प्रत्येक मनुष्य ’’‘तत्त्वमसि’ (तुम भी वही (ब्रह्म) हो) के भाव से आविष्ट हो?।
क्या धरती पर ऐसे दिव्य मानवों की संभावना है, जिनका होना ‘ब्रह्म’ का प्राकट्य हो, जिनका पारस्परिक आचरण ‘लीला’ हो एवं कर्म ‘सृजन के लिए सृजन’ हो?
ऐसे विचारों और कल्पनाओं में हजारों पंख लगाए जा सकते है, और सैकड़ों दिशाओं में इनकी उड़ानों का चित्र देखा जा सकता है। लेकिन क्या 21वीं सदी इन संभावनाओं के यथार्थ प्रकटीकरण की सदी हो सकती है?
इस प्रश्न की प्रासंगिकता जितनी आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। क्योंकि गत 100 वर्षों में संपन्न भौतिकी की खोजों ने, (न्यूटन से लकर हाॅकिन्स तक), विज्ञान को अध्यात्म की दहलीज पर ला खड़ा कर दिया है।
क्वाण्टम फिजिक्स की आधुनिक अवधारणाएं, हजारों वर्षों पूर्व प्रस्फुटित वैदिक ऋचाओं का तार्किक वैज्ञानिक प्रस्तुतिकरण सिद्ध हो रही हैं।
आधुनिक क्वाण्टम भौतिकी की अवधारणा, अद्वैत वेदान्त के वैज्ञानिक दर्शन शास्त्र की तरह सामने आई हैं।
दलाई लामा के शब्दों में ‘‘क्वाण्टम भौतिकी, विज्ञान और धर्म (अध्यात्म) के बीच एक ऐसा सेतु बनकर आया है जिसे हम ‘पार का विज्ञान’ (Science of transcendence) कह सकते है, जिसकी तीव्रता से प्रतीक्षा थी’’
क्वाण्टम भौतिकी, के नवीनतम सिंद्धातों ने अब साफ कर दिया है कि विश्व का कारण पदार्थ नहीं है। और आइंस्टीन ने यह सिद्ध कर दिया है कि पदार्थ (Matter) और शक्ति (Energy) समतुल्य हैं (E=M), इसलिए अब क्वाण्टम फिजिक्स कहता है कि जगत का कारण पदार्थ या ऊर्जा नहीं बल्कि 'जगत साक्षिणी ' चेतना (Witness consciousness / Existence -consciousness-bliss)है ....यह उद्घोष भारतीय प्राचीन वेदों ने हजारों वर्ष पूर्व ही कर दिया था कि...
.... 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' ~ ‘‘विश्व में चेतना ही सर्वत्र है और कुछ नहीं’’ (छान्दोग्योपनिषद्, 4.1) इस चेतना को ही वैदिक ग्रंथों में ‘ब्रह्म’ कहा गया है। समूचा वैदिक साहित्य इस ‘ब्रह्म’ (सच्चिदानन्द) का ही बखान है।
विषय में उतरने से पूर्व वेदान्त दर्शन के कुछ महावाक्यों पर दृष्टिपात करें :
'सर्वं हृोतद् ब्रह्म'~ यह सब कुछ ब्रह्म है, (माण्डूक्योपनिषद्, 2)
'अयं आत्मा ब्रह्म' ~ यह आत्मा ब्रह्म है (माण्डूक्योपनिषद्, 2)
'ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति' ~ जो ब्रह्म को जानता है, ब्रह्म ही हो जाता है। (मुण्डकोपनिषद्, 3.2.9) 'ईशावास्यमिदं सर्वम्' ~ सभी में ईश्वर का वास है, (ईशावास्योपनिषद्, 1)
'एकोहं बहुस्याम्' ~ मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ, (आर्षग्रन्थों में सुविख्यात उक्ति)
'एकमेवाद्वितीयं' ~ ब्रह्म एक मात्र है, अद्वितीय है (छान्दोग्योपनिषद्, 6.2.1)
‘‘पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।’’
अदः (आधार) भी पूर्ण है, इदं (विस्तार) भी पूर्ण है। क्योंकि पूर्ण से पूर्ण ही निकलता है। पूर्ण का पूर्ण निकाल लेने पर पूर्ण ही शेष रहता है (बृहदारण्यकोपनिषद् 5.1.1)'ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः' ~ सभी प्राणियों में मेरा (परमात्मा) ही अंश है (भगवद्गीता, 15.7.) 'एक इवाग्निर्बुहुध समिद्ध एकः सूर्यो विश्वमनु प्रभूतः।
एकैवोषाः सर्वमिदं वि भात्येकं वा इदं वि बभूव सर्वम्।।'
‘एक ही अग्नि अनेक रूपों में प्रज्वलित होती है । एक सूर्य सम्पूर्ण विश्व को उत्पन्न करता है । एक ही ऊषा से यह सम्पूर्ण जगत् आलोकित होता है। वास्तम में यह सम्पूर्ण जगत् एक ही विशेषतत्त्व से उत्पन्न हुआ है’। (ऋक्वेद, 8.58.2)
ऐसे हजारों महावाक्यों, मंत्रों, सूक्तों, ऋचाओं, सूत्रों एवं श्लोकों से वैदिक साहित्य ओतप्रोत है। आधुनिक भौतिकी के सामने उपस्थित सभी प्रश्नों के उत्तर इसमें निहित है।
वैदिक साहित्य का आधुनिक भौतिकी के संदर्भ में पुनः अनुशीलन किया जाना आवश्यक है। यह न केवल आधुनिक विज्ञान को अनन्त ऊंचाइयों पर पहुँचा सकता है। किन्तु मानवीय चेतना के विकास की अप्रतिम विधियों द्वारा इस धरती पर उच्चतम मानवीय चेतना से अभिपूरित मानवों का आदर्श भी मूर्त रूप में स्थापित कर सकता है।
इस महान कार्य हेतु आध्यात्मिक प्रज्ञा एवं वैज्ञानिक मेधा सम्पन्न मनुष्यों की आवश्यकता है।अद्वैत वेदान्त दर्शन एवं भौतिक विज्ञान का संगम होना 21वीं सदी की परम आवश्यकता है।
इस अनिवार्यता को समझते हुए ही स्वामी विवेकानन्द ने 19 वीं सदी के अन्त में भारत की भावी पीढ़ी के युवाओं के समक्ष अखिल भारतीय स्तर पर 'आचार्य परम्परा' में 'युवा प्रशिक्षण शिविर ' आयोजित करने की चुनौती देते हुए कहा था -- कि ‘‘चाहे कोई भी मार्ग अपनाओ या सभी मार्गों का एकसाथ अनुगमन करो, किन्तु, वज्र (थंडरबोल्ट) के समान मनुष्यों का निर्माण किये बिना चैन से नहीं बैठो ! (-शाहिद के बेटे के शब्दों में 'सुतो मत !') यदि आचार्य परम्परा में 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से संपन्न' प्रवृत्ति मार्ग के कम से कम 100 पूर्णतः निःस्वार्थपर सप्त राजर्षि (Torch -bearers of change ) का निर्माण किया जा सके, तो सम्पूर्ण विश्व में ऐसी आध्यात्मिक क्रांति संभव है, जिसमें बच्चा-बच्चा 'अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) का जयघोष कर उठे ! अतः "Be and Make" ~ let this be our motto ! " बनो और बनाओ' ~ यही हमारा आदर्श वाक्य रहे। ~ उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’’ (कठोपनिषद, 1.3.14)"
और स्वामी विवेकानन्द के द्वारा भारत के युवाओं के समक्ष 19 वीं सदी में रखे गए ' Be and Make ' ~ के द्वारा आध्यात्मिक क्रांति लाने के इस चुनौती, या ~आह्वान के मर्म को 20 वीं सदी में पश्चिम बंगाल के एक 35 वर्षीय युवक ने समझा। और उस परिवर्तन (आध्यात्मिक क्रांति) - जिसमें भारत का बच्चा बच्चा 'अहं ब्रह्मास्मि ' (मैं ब्रह्म हूँ) का जयघोष कर उठे - को साकार करने में समर्थ - 'परिवर्तन के मशाल वाहक नेताओं ( Torch -bearer of change)/ या जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण बहुत बड़ी संख्या में करने उद्देश्य से ' एक नया युवा आंदोलन : अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' को 1967 में पूज्य नवनीदा (श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय) के नेतृत्व में आविर्भूत होना ही पड़ा।
इस युवा संगठन द्वारा आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर में विगत 53 वर्षों से " प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में सामंजस्य" स्थापित करने की आचार्य परम्परा " में प्रशिक्षित शिक्षकों/नेताओं (परिवर्तन के मशाल वाहक) का निर्माण करने के उद्देश्य से " मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव " 3H " हैण्ड , हेड और हार्ट् को विकसित करने के 5 अभ्यास--- 'प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग ' की अप्रतिम विधियों (unique methods) का प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
21 वीं सदी में भारत के आर्थिक दृष्टी से संपन्न युवाओं ने यदि आध्यात्मिक दृष्टि से जागृत करने वाले इस 'मनुष्य निर्माण और चरित्र निर्माणकारी आंदोलन' से अपना सम्बन्ध तोड़ लिया तो वैसी आर्थिक प्रगति का कोई अर्थ नहीं होगा।
अतः 21 वीं सदी के युवाओं का यह दायित्व है कि " श्री कृष्ण-अर्जुन गीता नेतृत्व -कौशल विकास या शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में आधारित " विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" अथवा " Be and Make Leadership training tradition" में प्रशिक्षित " आध्यात्मिक प्रज्ञा एवं वैज्ञानिक मेधा सम्पन्न " 100 % पूर्णतः निःस्वार्थपर थंडरबोल्ट अप्रतिरोध्य 'नवनीदा' जैसे प्रथम आचार्य या कमाण्डर इन चीफ ('C-in-C') मनुष्यों (राजर्षियों) का निर्माण करने के आंदोलन को भारत के गाँव गांव तक पहुँचा दें।
इस अनिवार्यता को समझते हुए ही स्वामी विवेकानन्द ने 19 वीं सदी के अन्त में भारत की भावी पीढ़ी के युवाओं के समक्ष अखिल भारतीय स्तर पर 'आचार्य परम्परा' में 'युवा प्रशिक्षण शिविर ' आयोजित करने की चुनौती देते हुए कहा था -- कि ‘‘चाहे कोई भी मार्ग अपनाओ या सभी मार्गों का एकसाथ अनुगमन करो, किन्तु, वज्र (थंडरबोल्ट) के समान मनुष्यों का निर्माण किये बिना चैन से नहीं बैठो ! (-शाहिद के बेटे के शब्दों में 'सुतो मत !') यदि आचार्य परम्परा में 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से संपन्न' प्रवृत्ति मार्ग के कम से कम 100 पूर्णतः निःस्वार्थपर सप्त राजर्षि (Torch -bearers of change ) का निर्माण किया जा सके, तो सम्पूर्ण विश्व में ऐसी आध्यात्मिक क्रांति संभव है, जिसमें बच्चा-बच्चा 'अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) का जयघोष कर उठे ! अतः "Be and Make" ~ let this be our motto ! " बनो और बनाओ' ~ यही हमारा आदर्श वाक्य रहे। ~ उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’’ (कठोपनिषद, 1.3.14)"
और स्वामी विवेकानन्द के द्वारा भारत के युवाओं के समक्ष 19 वीं सदी में रखे गए ' Be and Make ' ~ के द्वारा आध्यात्मिक क्रांति लाने के इस चुनौती, या ~आह्वान के मर्म को 20 वीं सदी में पश्चिम बंगाल के एक 35 वर्षीय युवक ने समझा। और उस परिवर्तन (आध्यात्मिक क्रांति) - जिसमें भारत का बच्चा बच्चा 'अहं ब्रह्मास्मि ' (मैं ब्रह्म हूँ) का जयघोष कर उठे - को साकार करने में समर्थ - 'परिवर्तन के मशाल वाहक नेताओं ( Torch -bearer of change)/ या जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण बहुत बड़ी संख्या में करने उद्देश्य से ' एक नया युवा आंदोलन : अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' को 1967 में पूज्य नवनीदा (श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय) के नेतृत्व में आविर्भूत होना ही पड़ा।
इस युवा संगठन द्वारा आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर में विगत 53 वर्षों से " प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में सामंजस्य" स्थापित करने की आचार्य परम्परा " में प्रशिक्षित शिक्षकों/नेताओं (परिवर्तन के मशाल वाहक) का निर्माण करने के उद्देश्य से " मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव " 3H " हैण्ड , हेड और हार्ट् को विकसित करने के 5 अभ्यास--- 'प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग ' की अप्रतिम विधियों (unique methods) का प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
21 वीं सदी में भारत के आर्थिक दृष्टी से संपन्न युवाओं ने यदि आध्यात्मिक दृष्टि से जागृत करने वाले इस 'मनुष्य निर्माण और चरित्र निर्माणकारी आंदोलन' से अपना सम्बन्ध तोड़ लिया तो वैसी आर्थिक प्रगति का कोई अर्थ नहीं होगा।
अतः 21 वीं सदी के युवाओं का यह दायित्व है कि " श्री कृष्ण-अर्जुन गीता नेतृत्व -कौशल विकास या शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में आधारित " विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" अथवा " Be and Make Leadership training tradition" में प्रशिक्षित " आध्यात्मिक प्रज्ञा एवं वैज्ञानिक मेधा सम्पन्न " 100 % पूर्णतः निःस्वार्थपर थंडरबोल्ट अप्रतिरोध्य 'नवनीदा' जैसे प्रथम आचार्य या कमाण्डर इन चीफ ('C-in-C') मनुष्यों (राजर्षियों) का निर्माण करने के आंदोलन को भारत के गाँव गांव तक पहुँचा दें।
2.
मनुष्य के दो अस्तित्व का विवेक
मनुष्य के दो अस्तित्व का विवेक
मनुष्य के दो अस्तित्व हैं, एक है इन्द्रियों-सहित जड़ शरीर और मन की समष्टि (body-mind complex) और दूसरा है 'शरीरी' (the Spirit) या आत्मा जो इसमें में चेतनता (animation -स्फुरण या जीवन्तता) प्रदान करता है।
मनुष्य जन्म से पहले और मृत्यु के बाद क्या है ? इस विषय को सरलता से समझने के लिए स्वामी विवेकानन्द मनुष्य को तीन प्रमुख अवयव~ 3'H ' की समष्टि या 'हैण्ड , हेड एंड हार्ट्' की समष्टि कहते थे। उनका मानना था कि इन तीनों के सामंजस्य पूर्ण विकास से ही कोई व्यक्ति यथार्थ मनुष्य [ 'आध्यात्मिक प्रज्ञा एवं वैज्ञानिक मेधा सम्पन्न' मनुष्य] बन सकता है।
हिन्दी कविता में चन्द्रमा को सुन्दरता का प्रतीक माना जाता है। कहा जाता है कि चन्द्रमा 15 -15 दिन के हिसाब घटता और बढ़ता है। लेकिन ऐसा होता क्यों है?
दरअसल, चन्द्रमा में खुद का कोई प्रकाश नहीं होता है, बल्कि वह सूर्य के प्रकाश से प्रकाशवान होता है।चन्द्रमा हमेशा पृथ्वी के चारों ओर परिक्रमा लगाते हुए अपनी धुरी पर चक्कर लगाते रहता है। जिस वजह से चन्द्रमा का एक भाग हमेशा पृथ्वी के सामने रहता है।
हमने पहले ही बताया कि चन्द्रमा स्वयं प्रकाशवान नहीं होता है इसलिये उसका जो भाग सूर्य के प्रकाश के सामने होता है, वो चमकता हुआ नज़र आता है। चन्द्रमा का बचा हुआ हिस्सा काले आकाश में दिखाई नहीं देता है। इस वजह से ही हमें चन्द्रमा का आकार घटता और बढ़ता हुआ दिखाई देता है। पूरे चाँद को हम पूर्णिमा का चाँद और जब चाँद दिखाई नहीं देता तो अमावस्या का चाँद कहलाता है।
सांख्य दर्शन में, संसार (प्रकृति) के सभी गुणों की पहचान तीन मूल गुण (शक्ति) सत् , रजस् और तमस् के रूप में की गई है। जड़ता (Inertia-अक्रियता ) को तमस, सक्रियता ( Activity) को रजस, और पारगमन या त्रिगुणातीत (Transcendence) अवस्था को सत्व कहा गया है। तीन शक्तियों में से तमस -निम्नतम शक्ति है- आकर्षण-शक्ति स्वरुप। ... तथा आकर्षण और विकर्षण में संतुलन स्वरुप शक्ति का नाम सत्व-शक्ति है।
[All the qualities of the world have been identified as three basic gunas, tamas, rajas, and sattva. Inertia is called tamas. Activity is called rajas. Transcendence is called sattva.- श्रीश्री रामकृष्ण महिमा : अक्षय कुमार सेन :ब्लॉग शनिवार, 7 जुलाई 2018/ जैसे अक्रिय गैस (Inert gas) उन गैसों को कहते हैं जो केमिकल रिएक्शन में भाग नहीं लेतीं और सदा मुक्त अवस्था में प्राप्य हैं। जैसे हीलियम, निऑन, आदि। गहरे समुद्र में गोता लगाने वाले साँस लेने के लिए वायु के स्थान पर हीलियम और आक्सीजन का मिश्रण काम में लाते हैं। मेटलर्जी में जहाँ अक्रिय वायुमंडल की आवश्यकता होती है, हीलियम का प्रयोग किया जाता है।]
तीनों गुणों में से प्रत्येक की अपनी विशिष्ट विशेषताएं हैं और यह माना जाता है कि दृष्टिगोचर जगत का सब कुछ इन तीनों से बना है। प्रकृति के तीनों गुणों की वृत्तियाँ बदलने वाली हैं और इनके परिवर्तन को जानने वाले पुरुष में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। इन तीनों गुणों (शक्तियों) के कारण विभिन्न व्यक्तियों में दिव्यता की अभिव्यक्ति में भी तारतम्य होता है और ये गुण नित्य, अनन्तस्वरूप आत्मा को मानो अनित्य और परिच्छिन्न बना देते हैं। तीनों गुणों की वृत्तियाँ दृश्य हैं और पुरुष इनको देखने वाला होने से द्रष्टा है। द्रष्टा दृश्य से सर्वथा भिन्न होता है -- यह नियम है। भूल यह होती है कि दृश्य को अपने में आरोपित करके वह मैं कामी हूँ, मैं क्रोधी हूँ आदि मान लेता है।
प्रकृति और पुरुष -- दोनों विजातीय हैं। तमस् गुण के प्रधान होने पर व्यक्ति को सत्य-असत्य का कुछ पता नहीं चलता, यानि वो अज्ञान के अंधकार (तम) में रहता है। यानि कौन सी बात उसके लिए अच्छी है वा कौन सी बुरी ये यथार्थ पता नहीं चलता और इस स्वभाव के व्यक्ति को ये जानने की जिज्ञासा भी नहीं होती।
गीता 14.8 में भगवान कहते हैं - तमः तु अज्ञानजम् विद्धि मोहनम् सर्वदेहिनाम् ! --हे भरतवंशी अर्जुन, सम्पूर्ण देहधारियों को (embodied beings) मोहित करने वाले (deluding) तमो गुण (inertia) को तुम अज्ञानसे उत्पन्न (born of ignorance) होने वाला समझो। वह प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा देहधारियों को बाँधता है।
3.
विवेक, वैराग्य और मुमुक्षा
शरीर -शरीरी, या जड़ -चेतन 'विवेक' का फल है - वैराग्य और मुमुक्षा : गीता का प्रारम्भ ही शरीर (Body Mind complex) और शरीरी के विवेक से हुआ है। अर्जुन युद्ध में कुटुम्बियों के मरने की आशंका से विशेष शोक कर रहे थे। उस शोक को दूर करने के लिये भगवान् गीता 2 /20 में अर्जुन से यही बात कहते हैं " अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। " [अन्वय : अजः नित्यः शाश्वतः अयम् पुराणः न हन्यते हन्यमाने शरीरे] -Unborn, Eternal, Ever-enduring, yet Most Ancient, the Spirit dies not when the body is dead. - कि शरीर के मरने पर भी इस शरीरी का मरना नहीं होता, अर्थात् इसका (the Self or-elf-योगिनी, ब्रह्म, या उनकी शक्ति माँ काली काया या Sprite का) कभी अभाव नहीं होता। इसलिये शोक करना अनुचित है। विवेक, वैराग्य और मुमुक्षा
यह शरीरी जन्मरहित नित्यनिरन्तर रहनेवाला शाश्वत और पुराण (अनादि) है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता। शरीर के समान आत्मा का जन्म नहीं होता क्योंकि वह तो सर्वदा ही विद्यमान है। तरंगों की उत्पत्ति होती है और उनका नाश होता है, परन्तु उनके साथ न तो समुद्र की उत्पत्ति होती है और न ही नाश। जिसका आदि है उसी का अन्त भी होता है। उत्ताल तरंगों (अहं) की ही मृत्यु होती हैं। सर्वदा विद्यमान आत्मा के जन्म और नाश का प्रश्न ही नहीं उठता।
इस शरीरी का कभी जन्म नहीं होता। इसलिये इसे अजः अर्थात् जन्मरहित कहा गया है। यह शरीरी नित्यनिरन्तर रहनेवाला है अतः इसका कभी अपक्षय नहीं होता। जैसे आधी उम्र बीत जाने के बाद शरीर का बल क्षीण होने लगता है, इन्द्रियों की शक्ति कम होने लगती है। पर शरीरी का अपक्षय नहीं होता। इस नित्यतत्त्व में कभी किञ्चन्मात्र भी कमी नहीं आती। यह अविनाशी तत्त्व पुराण (पुराना) अर्थात् अनादि है। यह इतना पुराना है कि यह कभी पैदा हुआ ही नहीं। 'न हन्यते हन्यमाने शरीरे' शरीर का नाश होने पर भी इस अविनाशी शरीरी का नाश नहीं होता।
कोई मरना नहीं चाहता, फिर भी सब-के-सब मरते हैं । बिना चाहे क्यों मरते हैं ? शरीर के साथ एकता मानी है, इसलिये मरना पड़ता है। यदि हम शरीर के साथ तादाम्य को त्याग देंगे , नश्वर, जड़ शरीर और मन (मिथ्या अहं reflected consciousness) के साथ अविनाशी चेतन तत्व या आत्मा (Infinite-existence-consciousness-bliss) की एकता नहीं मानें, तो हम मरेंगे ही नहीं, प्रत्युत अमर हो जायेंगे । वास्तव में -प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, अर्थात स्वतः-स्वाभाविक रूप से अमर है। मरता शरीर है, मैं और तुम भी कभी नहीं मर सकते !
विवेक का फल क्या ? विवेक का फल है एक निश्चय पर पहुँचना । आप सोच-विचार तो करें परंतु किसी निश्चय पर न पहुँचें तो विवेक क्या हुआ ? ज्ञानस्यैव पराकाष्ठा वैराग्यम्- ज्ञान की पराकाष्ठा को ही वैराग्य कहा गया है। ‘देह असत्, अनित्य, जड़ और दुःखरूप है और इसका साक्षी मैं सत्, नित्य, चेतन और आनंदरूप हूँ’ - यह निश्चय ही विवेक है । ‘ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है’ - यह निश्चय ही विवेक है । शाश्वत-नश्वर, नित्य-अनित्य विवेक द्वारा जगत की नश्वर वस्तुओं ( ephemeral things या क्षणभंगुर कामिनी-कांचन या नाम -यश के सुख) से मन के अनासक्त हो जाने को संस्कृत में 'वैराग्यम्'(detachment) कहा जाता है।
विवेक-विचार करते हुए वैराग्य में प्रतिष्ठित हो जाना ही आध्यात्मिक विकास का दूसरा चरण है। हमारा मन उन चीजों से (कामिनी -कांचन) से दूर होना चाहता है, जो वास्तव में मनुष्य के हृदय में सोये हुए 'ब्रह्म रूपी सिंह' (विवेक) के जाग्रत होने में सबसे बड़ा बन्धन है! "कामिनी-कांचन में आसक्ति ही सबसे बड़ा बंधन है"- इस निर्णय पर पहुँचते ही विवेक (आत्मा या सोया हुआ ब्रह्म-रूपी सिंह) उस बन्धन से मुक्त होने के लिए तड़पने लगता है। इस बंधन से मुक्त हो जाने की तड़प को ही 'मुमुक्षुत्वम्' कहा जाता है।
(Coming up to this stage is a rare phenomenon says Krishna.) भगवान श्री कृष्ण ने गीता 7/3 में आध्यात्मिक विकास यात्रा में इस तीसरे चरण -'मुमुक्षुत्वम्' तक पहुँच जाने को एक दुर्लभ घटना (rare phenomenon) बतलाते हुए कहा है -The liberated ones (Jivanmuktas-भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड मनुष्य) are rare. यह ( दुलर्भ ) कैसे है सो कहते हैं -
"मनुष्याणाम् सहस्रेषु कश्चित् यतति सिद्धये।
यतताम् अपि सिद्धानाम् कश्चित् माम् वेत्ति तत्त्वतः !
सहस्रों मनुष्यों में कोई एक मनुष्य (मोक्षरूप) पूर्णत्व की सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है और उन प्रयत्नशील साधकों में भी कोई एक ही पुरुष मुझे तत्त्व से जान पाता है।
सभी लोग भ्रममुक्त या डी-हिप्नोटाइज्ड (जीवनमुक्त -राजर्षि) क्यों नहीं हो पाते ? हजारों मनुष्यों में कोई एक ही सिद्धि के लिये प्रयत्न करता है, अर्थात 100 % निःस्वार्थपर मनुष्य (God) बनने और बनाने का प्रयत्न करता है (मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा पद्धति 3H विकास के 5 अभ्यास के प्रशिक्षण पद्धति का प्रचारक-प्रशिक्षक (Promotional coach) बनने और बनाने का प्रयत्न करता है),और उन प्रयत्न करनेवाले में भी बहुत थोड़े से लोग ही मुझे तत्त्व से यथार्थ जान पाते है, और भ्रममुक्त (de-hypnotized) हो पाते हैं।]
सभी लोग भ्रममुक्त या डी-हिप्नोटाइज्ड (जीवनमुक्त -राजर्षि) क्यों नहीं हो पाते ? इसका कारण बताते हुए भगवान श्री कृष्ण ने गीता [2.60] में कहा है--
क्योंकि -इन्द्रियाँ अत्यन्त उपद्रवी (turbulent) हैं, वे हमारी चेतना (awareness-आध्यात्मिक जागरूकता ) को बलपूर्वक (violently) अपने विषयों में खींच लेती हैं ~ हे कौन्तेय (संयम का) प्रयत्न करते हुए ज्ञानी (विपश्चित) पुरुष के भी मन को ये इन्द्रियां बलपूर्वक हर लेती हैं। क्योंकि इन्द्रियाँ बलवती हैं और वे ज्ञानियों के चित्त को भी जबरन नीचे की ओर खींचती हैं।" [यततः हि अपि कौन्तेय (son of Kunti) पुरुषस्य विपश्चितः (of the wise) इन्द्रियाणि प्रमाथीनि ( turbulent) हरन्ति (carry away) प्रसभम् (violently) मनः।]
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।। क्योंकि -इन्द्रियाँ अत्यन्त उपद्रवी (turbulent) हैं, वे हमारी चेतना (awareness-आध्यात्मिक जागरूकता ) को बलपूर्वक (violently) अपने विषयों में खींच लेती हैं ~ हे कौन्तेय (संयम का) प्रयत्न करते हुए ज्ञानी (विपश्चित) पुरुष के भी मन को ये इन्द्रियां बलपूर्वक हर लेती हैं। क्योंकि इन्द्रियाँ बलवती हैं और वे ज्ञानियों के चित्त को भी जबरन नीचे की ओर खींचती हैं।" [यततः हि अपि कौन्तेय (son of Kunti) पुरुषस्य विपश्चितः (of the wise) इन्द्रियाणि प्रमाथीनि ( turbulent) हरन्ति (carry away) प्रसभम् (violently) मनः।]
4.
दो प्रकार की विधा
विज्ञान (अपरा विद्या -अविद्या) और अध्यात्म (परा विद्या)
मुण्डक उपनिषद के प्रारम्भ में ही (मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेद का अंग है, प्रथम मुण्डक ,खण्ड १,छन्द ३-४-५ ) में कथा आती है कि यह 'अप्रतिम विधा' ( Unique Method- वेदांत शिक्षक प्रशिक्षण पद्धति) सर्वप्रथम ब्रम्हा जी से अथर्वा को आचार्य परम्परा में प्राप्त हुई , और क्रमानुसार से अंगी , भारद्वाज ,अङ्गिरा को प्राप्त हुई। विज्ञान (अपरा विद्या -अविद्या) और अध्यात्म (परा विद्या)
मुण्डक में इस 'अप्रतिम विधा' ( Unique Method)-" गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा" या " Be and Make Vedanta Leadership Training" परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षकों/गुरुओं/C-in-C नेताओं की आचार्य पम्परा (श्रुति परम्परा) वर्णन बड़े स्पष्ट रूप से इस प्रकार किया गया है- महृषि शौनक (महागृहस्थ ऋषि ),जो स्वयं एक बड़े विश्वविध्यालय (ऋषिकुल) के अधिष्ठाता (मैनेजिंग Director) थे, उस समय के शिष्टाचार के अनुसार हाथ में समिधा (यज्ञ के लिए पवित्र लकड़ी ) लेकर उन अङ्गिरा मुनि के निकट गए और प्रश्न किया कि - "कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति" -- ” भगवन ! ऐसी कौनसी वस्तु है जिस एक के जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है ?” ' Sir, what is that through which, if it is known, everything else becomes known?'
महृषि शौनक (भावी राजर्षि) का यह प्रश्न--' वह क्या है जिसके विज्ञात होने पर सब कुछ विज्ञात हो जाता है?' --- प्राणिजगत के लिए बड़ा ही कौतूहल जनक है, क्यूंकि सभी अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करना चाहतें हैं।
तब अङ्गिरा मुनि ने उत्तर दिया कि ज्ञान दो प्रकार का होता है - जिसे अपरा विद्या (lower knowledge) और परा विद्या (higher knowledge ) कहा गया है। " द्वे विद्ये वेदितव्ये ….परा च एव अपरा च …तत्र अपरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो अथर्व वेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषम इति। 'अथ परा यया तत अक्षरम अधिगम्यते।"(उपरोक्त का छंद ५) अपरा विद्या में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद,अथर्ववेद, शिक्षा, व्याकरण छंद, ज्योतिष, शब्द आदि सब कुछ अपरा विद्या है जबकि वह अक्षर जिस 'एक अक्षर' से ब्रह्म को या परमात्मा को जान लिया जाता वह परा है।
'परा', वह जो अदृश्य है, अग्रहाय (जो इन्द्रियातीत है, इन्द्रिया जिसे वश में नहीं कर सकती), अगोत्र है, अवर्ण है (स्थूल व शुक्ल दृव्य के वर्ण) यह वर्ण उसमे विद्यमान नहीं है. वह जो अचःशुषोत्रम है अर्थात जो बिना नेत्र वाला होकर भी देखता है व बिना कर्ण वाला होकर भी सुनता है।
वह जो समस्त कर्मेन्द्रियों से रहित है, अविनाशी है, विभु है अर्थात विविध प्रकार का हो जाता है. वह जो सर्वगत व्यापक है अत्यंत सूक्ष्म और अव्यय अर्थात उसका क्षय नहीं सकता। ऐसा अक्षर जिस विद्या से जाना जाता है वही परा विद्या है।
जिस प्रका मकड़ी जाले बुनती है और उसे निगल जाती है उसी प्रकार उस अक्षर रूपी ब्रह्म से यह विश्व प्रकट होता है। जिस प्रकार मकड़ी अन्य किसी उपकरण का प्रयोग न कर स्वयं अपने शरीर से ही अभिन्न तंतुओ का निर्माण करती है उन्हें बाहर फैलाती है व फिर उन्ही को ग्रहण कर लेती है उसी प्रकार उन मकड़ी के तंतुओं के सामान ही ब्रह्म से उत्पन्न होने वाला यह जगत है। यही परमात्मा को जानने की विद्या या परा विद्या है।
मुण्डकोपनिषद (1.3) में वैराग्य के बारे में बताया गया है की भावी नेता /शिक्षक सबसे पहले निर्वेद करें अर्थात वैराग्य करें। इस संसार में कोई भी नित्य नहीं है। सम्पूर्ण कर्मों को त्यागकर जिसकी केवल अद्वितीय ब्रह्म में ही निष्ठा है वह ब्रह्मनिष्ठ कहलाता है। कर्मठ पुरुष (कामिनी कांचन में लिप्त व्यक्ति) कभी ब्रह्मनिष्ठ नहीं हो सकता ! (आध्यात्मिक संस्कृति का परिचय प्राप्त किये बिना, या प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति धर्म लौटे बिना केवल धन अर्जित कर भोग करने के कर्म में आसक्त कोई गृहस्थ व्यक्ति कभी ब्रह्मनिष्ठ नहीं हो सकता। इसीलिए हमारे पूर्वजों चार आश्रम की व्यवस्था की थी।) क्यूंकि कर्म (कामिनी -कांचन में आसक्ति के कारण किया जाने वाला कर्म) और आत्मज्ञान का परस्पर विरोध है।
इस प्रकार के आचार्य परम्परा में प्रशिक्षित उन गुरुदेव (संन्यासी गुरु/ राजर्षि ) के पास विधिपूर्वक जाकर उन्हें प्रसन्नकर सत्य और अक्षर पुरुष के सम्बन्ध में जब कोई भावी शिक्षक (would be leader) पूछें। तब वह विद्वान – ब्रह्मवेत्ता राजर्षि अपने समीप आये हुए उस शांतचित्त, इन्द्रियों से निषिद्ध कर्म या शास्त्र विरुद्ध कर्म से विरक्त हुए शिष्य को उस परा विद्या के “पुरुष” शब्दवाच्य अक्षर ब्रह्म, जो क्षरण, क्षत और क्षय (नाश) से रहित होने के कारण अक्षर कहलाता है, उस ब्रह्मविद्या का उपदेश प्रदान करें। वह पुरुष-संज्ञकअक्षर ब्रह्म ही सत्य है, जिसका ज्ञान (के अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण का बीजाक्षर संयुक्त नाम प्राप्त) होने पर सब कुछ जान लिया जाता है।
इस अक्षर पुरुष से ही प्राण उत्पन्न होता है तःथा इससे ही मन, संपूर्ण इन्द्रियां, आकाश ,वायु, तेज, जल और सारे संसार को धारण करने वाली पृथ्वी उत्पन्न होती है।' -यह अमृत ब्रह्म ही आगे है, ब्रह्म ही पीछे है ब्रह्म ही दायीं बायीं ओर है , ऊपर नीचे है तथा अन्य सभी मिथ्या है। एकमात्र ब्रह्म ही परमार्थ सत्य – यह वेद का उपदेश है।
किन्तु सिर्फ वेदों को रटने या दोहराते रहने से हम ब्रह्म को नहीं समझ सकते है। इस अक्षर रुपी ब्रह्म को समझने के लिए हमें उपनिषद जैसे महान धनुष लेकर उपासना (विवेकानन्द के गुरु अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव की उपासना) द्वारा तीक्ष्ण किया हुआ बाण चढा और फिर उसे खींचकर अक्षर रुपी लक्ष्य का भेदन करना होगा। हमें उपासना के द्वारा यानि की मनःसंयोग (प्रत्याहार -धारणा) के अभ्यास द्वारा उस बाण को निरंतर पैना करना होगा फिर बाण को चढ़ा कर और उसे खींचकर अर्थात अपनी चेतना (awareness) को इन्द्रिय विषयों में जाने से रोककर , मन (अंतःकरण) को इन्द्रियों से हटाकर अक्षर ब्रह्म का बेधन करना होगा।
यहाँ पर प्रणव (ओम) धनुष है, आत्मा बाण है और लक्ष्य ब्रह्म है। तृतीय मुण्डक में जीव और ईश्वर की तुलना एक ही पेड़ पर रहने वाले उन दो पक्षियों से की है जो एक ही वृक्ष पर रहते पर उनमे से एक तो जीवन रुपी फलों के विभिन्न रूपों यथा अविद्या, कामना, लालसा ,दुःख, कर्म,आदि को भोगता है जबकि दूसरा उन फलों को सिर्फ देखता है वह मनुष्य है जबकि दूसरा जो नित्य शुद्ध ,सर्वज्ञ है वह ईश्वर है जो साक्षित्वरूप सत्तामात्र से भोक्ता और भोग्य दोनों का प्रेरक है अतः वह दूसरा जो फलभोग न करके सिर्फ देखता है वही ईश्वर है।
कहा गया है की आत्मा या ब्रह्म न तो प्रवचन से प्राप्त होने योग्य है और न धारण करने से और न श्रवण करने से ही मिलने वाला है। विद्वान पुरुष जिस परमात्मा की प्राप्ति की इच्छा करता है उस इच्छा के द्वारा ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरुप को व्यक्त कर देती है। मोक्ष के लिए (देहाध्यास के भ्रम से मुक्त होने के लिए) अप्रवर्तफल कर्म, क्योंकि जो (प्रारब्ध) कर्म फलोन्मुख हो जाते है वे उपभोग करने से ही क्षीण होते हैं व् विज्ञानमय कोष की जरुरत होती है। ऐसे वे कर्म तथा विज्ञानमय आत्मा सभी, उपाधि के निवृत हो जाने पर आकाश के सामान , अव्यय , अनंत , अक्षय ,अज , अमर, अनन्य, अनन्तर, अद्वय , अपूर्व , शिव और शान्त ब्रह्म में एकरूप हो जाते हैं।
जिस प्रकार निरंतर बहती हुई नदियां अपने -अपने विशिष्ट नाम- रूप को त्यागकर महासागर में अस्त जाती है उसी प्रकार विद्वान अविद्याकृत नाम-रूप से मुक्त होकर परात्पर दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है। यह आत्म या ब्रह्म सदैव सत्य से ही प्राप्त किया जा सकता है।
[अर्थात सम्पूर्ण विश्व भारत की आचार्य परम्परा के माध्यम से शरीर और शरीरी दोनों को विकसित करने की पद्धति या प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म में संतुलन रखते हुए समाज को भौतिक रूप से समृद्ध और आध्यात्मिक दृष्टि से जागृत मनुष्य बनने और बनाने की पद्धति कैसे सीख सकते हैं, यह जानना चाहते हैं। ] वह जो समस्त कर्मेन्द्रियों से रहित है, अविनाशी है, विभु है अर्थात विविध प्रकार का हो जाता है. वह जो सर्वगत व्यापक है अत्यंत सूक्ष्म और अव्यय अर्थात उसका क्षय नहीं सकता। ऐसा अक्षर जिस विद्या से जाना जाता है वही परा विद्या है।
जिस प्रका मकड़ी जाले बुनती है और उसे निगल जाती है उसी प्रकार उस अक्षर रूपी ब्रह्म से यह विश्व प्रकट होता है। जिस प्रकार मकड़ी अन्य किसी उपकरण का प्रयोग न कर स्वयं अपने शरीर से ही अभिन्न तंतुओ का निर्माण करती है उन्हें बाहर फैलाती है व फिर उन्ही को ग्रहण कर लेती है उसी प्रकार उन मकड़ी के तंतुओं के सामान ही ब्रह्म से उत्पन्न होने वाला यह जगत है। यही परमात्मा को जानने की विद्या या परा विद्या है।
मुण्डकोपनिषद (1.3) में वैराग्य के बारे में बताया गया है की भावी नेता /शिक्षक सबसे पहले निर्वेद करें अर्थात वैराग्य करें। इस संसार में कोई भी नित्य नहीं है। सम्पूर्ण कर्मों को त्यागकर जिसकी केवल अद्वितीय ब्रह्म में ही निष्ठा है वह ब्रह्मनिष्ठ कहलाता है। कर्मठ पुरुष (कामिनी कांचन में लिप्त व्यक्ति) कभी ब्रह्मनिष्ठ नहीं हो सकता ! (आध्यात्मिक संस्कृति का परिचय प्राप्त किये बिना, या प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति धर्म लौटे बिना केवल धन अर्जित कर भोग करने के कर्म में आसक्त कोई गृहस्थ व्यक्ति कभी ब्रह्मनिष्ठ नहीं हो सकता। इसीलिए हमारे पूर्वजों चार आश्रम की व्यवस्था की थी।) क्यूंकि कर्म (कामिनी -कांचन में आसक्ति के कारण किया जाने वाला कर्म) और आत्मज्ञान का परस्पर विरोध है।
इस प्रकार के आचार्य परम्परा में प्रशिक्षित उन गुरुदेव (संन्यासी गुरु/ राजर्षि ) के पास विधिपूर्वक जाकर उन्हें प्रसन्नकर सत्य और अक्षर पुरुष के सम्बन्ध में जब कोई भावी शिक्षक (would be leader) पूछें। तब वह विद्वान – ब्रह्मवेत्ता राजर्षि अपने समीप आये हुए उस शांतचित्त, इन्द्रियों से निषिद्ध कर्म या शास्त्र विरुद्ध कर्म से विरक्त हुए शिष्य को उस परा विद्या के “पुरुष” शब्दवाच्य अक्षर ब्रह्म, जो क्षरण, क्षत और क्षय (नाश) से रहित होने के कारण अक्षर कहलाता है, उस ब्रह्मविद्या का उपदेश प्रदान करें। वह पुरुष-संज्ञकअक्षर ब्रह्म ही सत्य है, जिसका ज्ञान (के अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण का बीजाक्षर संयुक्त नाम प्राप्त) होने पर सब कुछ जान लिया जाता है।
इस अक्षर पुरुष से ही प्राण उत्पन्न होता है तःथा इससे ही मन, संपूर्ण इन्द्रियां, आकाश ,वायु, तेज, जल और सारे संसार को धारण करने वाली पृथ्वी उत्पन्न होती है।' -यह अमृत ब्रह्म ही आगे है, ब्रह्म ही पीछे है ब्रह्म ही दायीं बायीं ओर है , ऊपर नीचे है तथा अन्य सभी मिथ्या है। एकमात्र ब्रह्म ही परमार्थ सत्य – यह वेद का उपदेश है।
किन्तु सिर्फ वेदों को रटने या दोहराते रहने से हम ब्रह्म को नहीं समझ सकते है। इस अक्षर रुपी ब्रह्म को समझने के लिए हमें उपनिषद जैसे महान धनुष लेकर उपासना (विवेकानन्द के गुरु अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव की उपासना) द्वारा तीक्ष्ण किया हुआ बाण चढा और फिर उसे खींचकर अक्षर रुपी लक्ष्य का भेदन करना होगा। हमें उपासना के द्वारा यानि की मनःसंयोग (प्रत्याहार -धारणा) के अभ्यास द्वारा उस बाण को निरंतर पैना करना होगा फिर बाण को चढ़ा कर और उसे खींचकर अर्थात अपनी चेतना (awareness) को इन्द्रिय विषयों में जाने से रोककर , मन (अंतःकरण) को इन्द्रियों से हटाकर अक्षर ब्रह्म का बेधन करना होगा।
यहाँ पर प्रणव (ओम) धनुष है, आत्मा बाण है और लक्ष्य ब्रह्म है। तृतीय मुण्डक में जीव और ईश्वर की तुलना एक ही पेड़ पर रहने वाले उन दो पक्षियों से की है जो एक ही वृक्ष पर रहते पर उनमे से एक तो जीवन रुपी फलों के विभिन्न रूपों यथा अविद्या, कामना, लालसा ,दुःख, कर्म,आदि को भोगता है जबकि दूसरा उन फलों को सिर्फ देखता है वह मनुष्य है जबकि दूसरा जो नित्य शुद्ध ,सर्वज्ञ है वह ईश्वर है जो साक्षित्वरूप सत्तामात्र से भोक्ता और भोग्य दोनों का प्रेरक है अतः वह दूसरा जो फलभोग न करके सिर्फ देखता है वही ईश्वर है।
कहा गया है की आत्मा या ब्रह्म न तो प्रवचन से प्राप्त होने योग्य है और न धारण करने से और न श्रवण करने से ही मिलने वाला है। विद्वान पुरुष जिस परमात्मा की प्राप्ति की इच्छा करता है उस इच्छा के द्वारा ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरुप को व्यक्त कर देती है। मोक्ष के लिए (देहाध्यास के भ्रम से मुक्त होने के लिए) अप्रवर्तफल कर्म, क्योंकि जो (प्रारब्ध) कर्म फलोन्मुख हो जाते है वे उपभोग करने से ही क्षीण होते हैं व् विज्ञानमय कोष की जरुरत होती है। ऐसे वे कर्म तथा विज्ञानमय आत्मा सभी, उपाधि के निवृत हो जाने पर आकाश के सामान , अव्यय , अनंत , अक्षय ,अज , अमर, अनन्य, अनन्तर, अद्वय , अपूर्व , शिव और शान्त ब्रह्म में एकरूप हो जाते हैं।
जिस प्रकार निरंतर बहती हुई नदियां अपने -अपने विशिष्ट नाम- रूप को त्यागकर महासागर में अस्त जाती है उसी प्रकार विद्वान अविद्याकृत नाम-रूप से मुक्त होकर परात्पर दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है। यह आत्म या ब्रह्म सदैव सत्य से ही प्राप्त किया जा सकता है।
सत्यमेव जयते नानृतं, सत्येन पन्था विततो देवयानः ।
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा, यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम् ।।
सत्य ही जय को प्राप्त होता है मिथ्या नहीं। सत्य से देवयान मार्ग का विस्तार होता है। जिसके द्वारा ऋषि लोग उस पद को प्राप्त होते हैं जहाँ वह सत्य का परम भंडार वर्तमान है। इस प्रकार इस अक्षर रूपी पुरुष को शौनक जी ने अपने शिष्यों से कहा। यहाँ तृतीय मुण्डक समाप्त होता है। यहाँ अपरा विद्या से तात्पर्य ऐसे ज्ञान क्षेत्र से है जो दूसरों के अनुभव से प्राप्त हुए हैं। इसलिए वेदों तथा आधुनिक विज्ञान को भी अपर कोटि की विद्या कह दिया गया है, जो बहुतों को सुनने में अच्छा नहीं लगेगा। पर कारण स्पष्ट है कि वेदों के चार महावाक्य ऋषि की अनुभूति तो हैं, पर दूसरे की ऐसी अनुभूति परतः प्रमाण concept हुई।
इसी लिए वह आगे कहते हैं कि - 'अथ परा यया तत अक्षरम अधिगम्यते।' --परा विद्या (आध्यात्मिक विद्या) से अक्षर अविनाशी तत्व अर्थात ब्रह्म का बोध किया जाता है। दुर्भाग्य से हमारे पास जो कुछ ज्ञान है, उसका अधिकांश भाग पूर्वोक्त अपरा विद्या ही है। इसका मतलब यह हुआ कि यद्यपि हमें पूरी दुनिया का ज्ञान है, तथापि हमें अपने 'स्वयं' का या अपने यथार्थ स्वरुप का ही ज्ञान नहीं है। परा विद्या- का तात्पर्य उस आत्मा या 'शरीरी' सम्बन्धी वह अतीन्द्रिय ज्ञान (transcendental reality) से है जो- समस्त शरीरों को धारण करती है। परा विद्या से तात्पर्य स्वयं को जानने (आत्मज्ञान) या उस परम सत्य को जानने से है, जो देश, काल और निमित्त से परे है।(शरीरी the supreme reality, beyond time, space and causation )
उपनिषदों में 'अविद्या' शब्द का प्रयोग भी बार-बार हुआ है। अविद्या, विद्या का विलोम शब्द है। ब्रह्म ज्ञान से इतर ज्ञान (भौतिक विज्ञान) को भी यहाँ अविद्या कहा गया है। आजकल जिसे विज्ञान कहा जाता है, उसे भी अविद्या कहा गया है। हमारे शास्त्रों में 'अविद्या' का अर्थ है- अज्ञान, गलत धारणा। ऐसा नहीं है कि भारतीय दर्शन में सर्वत्र अपरा विद्या को परा विद्या से हीन ही बताया गया हो। बल्कि अपरा विद्या को परा विद्या का पूरक कहा गया है। उदाहरण के लिए —ईशा वास्य उपनिषद मन्त्र ११ में अपरा विद्या को ही 'अविद्या' और परा को 'विद्या' कहा गया है-
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते॥
[ विद्यां च अविद्यां च यः तत् उभयं सह वेद; अविद्यया मृर्युं तीर्त्वा, विद्यया अमृतम् अश्नुते ॥] “विद्ययाऽमृतमश्नुते” इस वेद के वचनानुसार -विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है। किन्तु जो व्यक्ति 'तत्' (ब्रह्म, ईश्वर या माँ जगदम्बा) को इस रूप में जानता है कि-- वह एक साथ विद्या और अविद्या दोनों बनी है, वह व्यक्ति अविद्या की सहायता से मृत्यु को पार करके, विद्या से [अमृतत्त्व (देवतात्मभाव = देवत्व)] अमरता का आस्वादन करता है।
ईशोपनिषद् का स्पष्ट निर्देश है कि १. विद्या (आध्यात्म) और २. अविद्या (भौतिक विज्ञान) इन दोनों में से किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती । अविद्या उसे (उस Science and Technology को ) कहा गया है, जो हमारे जीवन की नश्वर विभूतियों (शरीर, पद, प्रतिष्ठा, साधनों) आदि के विकास और उपयोग की कुशलता विकसित करती है ।
हमारा एक अस्तित्व (2H -शरीर और मन) भले ही जड़ और नश्वर है, किन्तु प्रत्यक्ष जीवन के रहते उनके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता । परमार्थ आदि के लिए भी उनका सहारा तो लेना ही पड़ता है । कहा भी गया है कि ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ‘ अर्थात् धर्म-परमार्थ साधने के लिए भी शरीर ही पहला साधन बनता है । इसलिए उक्त विषयक कुशलता को, अविद्या (आधुनिक भौतिक विज्ञान) को भी जानने-समझने, अपनाने की जरूरत है ।
विद्या (आध्यात्म विद्या) उसे कहा गया है, जो हमारे जीवन की अविनाशी विभूतियों, आध्यात्मिक क्षमताओं के विकास और उपयोग की कुशलता विकसित करती है । हमलोगों को (साधारण गृहस्थ लोगों को आर्थिक रूप से सम्पन्न होने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए) और अविद्या (अर्थात Modern Physics या विविध सांसारिक ज्ञान-विज्ञान) की सहायता से संसार की विविध बाधाओं को जीतना चाहिए और साथ ही साथ 'विद्या' (श्रुति परम्परा में प्राप्त आध्यात्मिक प्रशिक्षण) से प्राप्त अमृत पान भी करना चाहिए। लेकिन जो लोग किसी एक को जरूरत से ज्यादा महत्व देते हैं, वे जीवन के असंतुलन में भटक जाते हैं । जो संतुलित जीवन जीना चाहें, लौकिक और पारलौकिक दोनों जीवन धाराओं का लाभ उठाना चाहें, वे विद्या और अविद्या दोनों को जानें और उनका संतुलित उपयोग करें । अविद्या आश्रित विभूतियों का सदुपयोग भी इसी विद्या के द्वारा संभव होता है । विद्या की उपेक्षा होने से शरीर, साधन आदि की शक्तियाँ अनियंत्रित, उच्छृंखल होकर तमाम अनिष्ट पैदा करने लगती हैं ।
विद्या से अर्थात- यथार्थज्ञान से कोई व्यक्ति मृत्यु—दुःख-बन्धन से, छूटकर मोक्ष (भ्रम से मुक्त अवस्था -डी हिप्नोटाइज्ड अवस्था) को प्राप्त कर लेता है। किन्तु जो अविद्या-ग्रस्त होने से बालक है, अविवेकी है, विषय-भोगों को ही सब कुछ समझता है। और मरण के पश्चात् पाप-पुण्य के फलों पर भी कोई विश्वास नहीं करता, ऐसा नास्तिक पुरुष परमात्मा की न्याय-व्यवस्था के वशीभूत होकर विभिन्न योनियों में आवागमन करता रहता है । मृत्यु के देवता यम (कठोपनिषद १/२/६) में कहते हैं - धन के मोह से मोहित (कामिनी-कांचन -कीर्ति की आकांक्षा से मोहित) अज्ञानी मनुष्य की दूरदृष्टि नहीं होती।भोगासक्त व्यक्ति (हिप्नोटाइज्ड व्यक्ति) कभी दूरदर्शी (विवेकी) नहीं होता -
न साम्परायः प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे।।
[(वित्तमोहेन) भोग के समस्त साधनों के मोह से मोहित (मूढम्-hypnotized व्यक्ति) मोहजाल में फंसे हुए (प्रमाद्यन्तम्) कल्याण-मार्ग से प्रमाद करने वाले (बालम् ) अज्ञानी पुरुष को (साम्परायः) परलोक का साधन परमार्थ विचार (न, प्रतिभाति) अच्छा नहीं लगता है। और (अयम्, लोकः) यह प्रत्यक्ष दीखने वाला भौतिक सुख ही है, इससे (परः) दूसरा अर्थात् मरणोत्तर का लोक=सुख (न, अस्ति) नहीं है। (इति) इस ्रप्रकार (मानी) मिथ्याभिमान करनेवाला पुरुष (पुनः पुनः) बार-बार जन्म-मरण के चक्र में आकर (मे) मुझ यम= मृत्यु के देवता या न्यायाधीश की (वशम्) कर्मानुसार फलव्यवस्था को (आपद्यते) प्राप्त होता है।]दिव्यामृतः धन के मोह से मोहित अज्ञानी मनुष्य की दूरदृष्टि नहीं होती। संसार के प्रपंच (3K) में फँसा हुआ अविवेकी मनुष्य समझता है कि यह प्रत्यक्ष दीखने वाला लोक ही सब कुछ है तथा इससे परे कहीं कुछ नहीं है। वह प्रमाद (गंभीर चिन्तन,स्वाध्याय तथा यम-नियम आदि का पालन न करना) के कारण इस जगत्प्रपंचमें ऐसा फँसा रहता है, कि उसे इससे परे कुछ नहीं सूझता। वह सोचता है कि यह संसार ही सत्य है और इस के क्षणभंगुर सुख-भोगों से बढ़कर कुछ भी नहीं है। ऐसा मानने वाला मनुष्य अभिमानग्रस्त होता है तथा अपने गुरु के ज्ञानमय उपदेश को नहीं सुनता। [Such people are blinded by ignorance and come within his grip repeatedly.]
आत्मबोध प्राप्त करने की विद्या (wisdom-औचित्यबोध) विवेक-जागरण का प्रशिक्षण देने में समर्थ गुरुओं (Leaders) की महिमा इतनी अधिक है कि श्रीकृष्ण गीता (10 /32 ) में कहते हैं - अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदताम् अहम्।।10.32।। हे अर्जुन, विद्याओं में (among sciences) सभी तरह के विज्ञानों में मैं अध्यात्म-विद्या अर्थात हृदय में विद्यमान 'शरीरी' (ब्रह्म केअवतार) पर मन को एकाग्र करने की विद्या (the science of the Self-मनःसंयोग विद्या) मैं हूँ ! अध्यात्मविद्या विद्यानाम् -- जिस विद्या (मनःसंयोग का अभ्यास) से मनुष्य का कल्याण हो जाता है, वह अध्यात्म-विद्या कहलाती है । दूसरी सांसारिक कितनी ही विद्याएँ पढ़ लेने पर भी पढ़ना बाकी ही रहता है। परन्तु इस अध्यात्मविद्या के प्राप्त होने पर पढ़ना अर्थात् जानना बाकी नहीं रहता। इसलिये भगवान ने इसको अपनी विभूति बताया है। यह मनःसंयोग की विद्या (प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास) के प्रशिक्षण द्वारा 'व्यष्टि अहं' को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी 'विराट अहं' में रूपान्तरित करने की विद्या इतनी उत्कृष्ट (exalted-असाधारण) है कि इस विद्या को माँ जगदम्बा का स्वरूप ही माना जाता है। और इसीलिए श्री लक्ष्मी तथा श्री ललिता (श्री श्री माँ सारदा देवी) का एक नाम तो 'विद्या' ही है। इसके भाष्य में शंकराचार्य कहते हैं - 'अध्यात्मविद्या विद्यानां मोक्षार्थत्वात् प्रधानं अस्मि'-'It is the chief among all knowledges, because it leads to mokSha' समस्त विद्याओं में मोक्ष देने वाली (de-hypnotized करने में सक्षम) होने के कारण प्रधान है, वह अध्यात्मविद्या (मनःसंयोग की प्रशिक्षण-प्रणाली) मैं हूँ। और बिना किसी पक्षपात के केवल तत्त्वनिर्णय के लिये आपस में जो शास्त्रार्थ (विचारविनिमय) किया जाता है उसको वाद कहते हैं।और तत्त्वनिर्णय के लिये किया जाने शास्त्र-सम्मत वाद 'logic' या तर्क मैं हूँ।
सम्पूर्ण भौतिक विश्व में पदार्थ से ऊर्जा , और उर्जा से पदार्थ में रूपांतरण (transformation) का कार्य (खेल) अनादि काल से चलता आ रहा है। जड़ पदार्थों का अन्वेषण करने के बाद आधुनिक विज्ञान ने भी इतना तो समझ लिया है कि वास्तव में जड़ पदार्थ (Matter-शरीर और मन?) भी ऊर्जा (Energy) का ही घनीभूत रूप है। पदार्थ (Matter) और उर्जा (Energy-आत्मा की जादुई शक्ति) दोनों से परे (इसके पीछे) जो सर्वव्यापी चेतना या शुद्ध चेतना ( pure consciousness) है, एकमात्र उसी जगतसाक्षिणी का अस्तित्व है। समस्त पदार्थों में (नाम और रूप में) वही एक परम चेतना (witness consciousness-जगतसाक्षिणी) व्याप्त है इसे ही उपनिषदों में ब्रह्म कहा गया है। इस चरम अवस्था की अनुभूति को ही आत्म-साक्षाकार या आध्यात्मिक भाव कहा जाता है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है - " इच्छाशक्ति स्वतंत्र नहीं है - यह कारण और कार्य से बंधी हुई अद्भुत घटना (phenomenon)है - लेकिन इच्छाशक्ति के पीछे कुछ है जो मुक्त है। (ब्रह्म (जादूगर) की जादुई शक्ति या वैष्णवी माया, pure consciousness, या जगतसाक्षिणी है) ।" [The will is not free—it is a phenomenon bound by cause and effect—but there is something behind the will which is free. ‘कारण’(Cause) व उच्चक्रम- ‘कार्य’(effect), अखंडित ही रहते है। तथा वह अन्य द्वन्दीय गुच्छों से अविभाजित होते हुए भी विभाजित प्रतीत होते हैं। इस ' प्रतिबिम्बित चेतना’ (reflected consciousness ) एवं ‘मूलचेतना’ (witness consciousness) की संयुक्त स्थिति मानवीय चेतना है। ]
ऐसी त्रिगुणमय सृष्टि के भेदन का अभ्यास (मनःसंयोग का अभ्यास) से ध्यान मग्न साधक की,अपने चैतन्य स्वरूप में ही स्थिति हो जाती है। किन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि 'यहाँ'' पहुँचकर भी किसी सत्यार्थी ने अपने यथार्थ स्वरुप को (ब्रह्म या परम् सत्य को) जान लिया है। क्योंकि जिस आत्म तत्व की सहायता से यह सब कुछ जाना जाता है उस आत्म तत्व को किस माध्यम से जानें? अर्थात किसी से नहीं !
[ क्योंकि व्यष्टि अहं, मन-बुद्धि आदि तो स्वयं में inert अक्रिय या जड़ हैं, इसलिए केवल शुद्ध चेतना (pure consciousness) ही ब्रह्म (परमात्मा ,existence-consciousness-bliss ) की अनुभूति कर सकती है, किसी व्यक्ति -विशेष का व्यष्टि अहं वहाँ कदापि नहीं पहुँच सकता !]
इसी रहस्य को समझाते हुए याज्ञवलक्य जी (प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि) अपनी दूसरी पत्नी मैत्रेयी को पढ़ाते समय (ब्रह्म जानने की पद्धति-मनःसंयोग का प्रशिक्षण देते समय बृहदारण्यक उपनिषद. 2-4-14) में कहते हैं-
" येन इदं सर्वं विजानाति , तम् (आत्मानं ) केन विजानीयात् ?
अरे मैत्रेयि, विज्ञातारं केन विजानीयात्?"
जिससे सब कुछ जाना जाता है, और जिसको ही सब कुछ का ज्ञान है, अरे मैत्रेयी उस जानने वाले 'ज्ञाता' को किस प्रकार जाना जाय ? अर्थात किसी भी जड़ माध्यम से -मन-बुद्धि द्वारा उनको जाना नहीं जा सकता। वे कहते हैं - सूंघने वाला ,सुनने वाला ,देखने वाला ,मनन करने वाला सब ब्रह्म ही हैं; अतः जिसने ब्रह्म को जान लिया है वह स्वयं ब्रह्म हो जाता है। अध्यात्म विद्या (ब्रह्मविद्या) का अर्थ है - शरीर, मन, बुद्धि और जीवात्मा (जड़पदार्थ =अहं -ईगो -कच्चा मैं) से परे की अवस्था को जानने की शिक्षा (जिसे तैत्तरीय उपनिषद में शीक्षा कहा गया है ?) । अर्थात मन बुद्धि की पहुँच से बाहर की अवस्था को परा अवस्था या या आध्यात्म कहा गया है। इस इन्द्रियातीत अध्यात्म भाव या परा अवस्था में अवस्थित होने पर ही मूल तत्व का बोध होता है। इस प्रकार अध्यात्म का सम्बन्ध मूल तत्व से है। इस मूल तत्व को भारतीय वैदिक चिन्तन परम्परा (श्रुति परम्परा) में 'ब्रह्म' कहा गया है। निर्बीज समाधि के बाद जिस साधक को ब्रह्मानंद की स्थिति प्राप्त होती है, उसे तब यह ज्ञान हो जाता है कि सब कुछ परमेश्वर ही बने हैं, और वह भी उन्हीं में समाहित है। यही वास्तविक आध्यात्मिक ज्ञान या तत्व ज्ञान है। इसे व्यवहार में ज्ञान कहते हैं, परन्तु 'ज्ञान' इन्द्रियों के माध्यम से होता है, और 'बोध' (प्रज्ञा) आत्मा से होता है। ज्ञान और बोध में इतना सूक्षम अन्तर हम समझ सकते सकते हैं। वेदान्त कहता है कि जो साधक प्रकृति के तीनों गुणों का अतिक्रमण करके आत्मज्ञान पा लेते हैं उन्हें कैवल्य की प्राप्ति होती है, वे मुक्त (भ्रममुक्त या de -hypnotized) हो जाते हैं, और ब्रह्म पद को प्राप्त होते हैं।
प्रस्तुत आलेख में हम विज्ञान (अविद्या के बल से आर्थिक रूप से समृद्ध बनने का प्रयास करने के साथ ही - विद्या के बल से आध्यात्मिक दृष्टि से जागृत नेता/ राजर्षि बनने और बनाने की अप्रतिम विधा को अद्वैत वेदान्त प्रणीत मानवीय चेतना को विकसित करने की प्रशिक्षण -पद्धति को हम क्वाण्टम भौतिकी के संदर्भ में समझने का प्रयास करेंगे । [GROUP TYPE /Social Learning#"वेदान्त , चेतना और क्वाण्टम फिजिक्स"#]
आधुनिक विज्ञान के पास जगत को प्रतिपादित करने के तीन सिद्धांत है।
1. द्वैतवादी दृष्टिकोण (Dualistic View) जो अभौतिक आत्मा एवं भौतिक शरीर, ऐसे दो तत्वों को मान्यता देता है । किन्तु भौतिकी का ऊर्जा संरक्षण का सिद्धांत , माध्यम एवं मध्यस्थ की अनिवार्यता द्वारा इस सिद्धांत को अमान्य करता है।
2. मात्र पदार्थ (Only Matter) यह विचार क्वाण्टम भौतिकी द्वारा अमान्य है क्योंकि पदार्थ के भीतर उतरने पर Matter समाप्त हो जाता है और हम अपदार्थ (Non-Matter) पर पहुँच जाते है ।
3. मात्रचेतना (Only Consciousness) – यह विचार क्वाण्टम भौतिकी द्वारा प्रणीत है। जिसके अनुसार जगत का एकमात्र कारण है ‘चेतना’ ।
चलिए, थोड़ा फ़िज़िक्स समझें: - 1905 में आइन्सटीन ने प्रकाश को Bundles of Energy, Quantum कहा। - नील बोहर, 1913 ने इलेक्ट्रान की स्थिति (Location) के संबंध में अनिश्चितता का सिद्धांत (Uncertainty principle) प्रतिपादित किया। तब से क्वाण्टम भौतिकी (Quantum Physics) को संभावना का विज्ञान (Science of Probability) कहा जाने लगा है ।
20 वीं सदी के प्रांरभ में मैक्स प्लांक ने सर्वप्रथम इलेक्ट्रान द्वारा उत्सर्जित एवं अवशोषित की जाने वाली ऊर्जा को ‘क्वांटा’ कहा । यह क्वाण्टम भौतिकी का प्रांरभ था (Quantum = a very small quantity of electromagnetic energy that can not be divided).
[जर्मन वैज्ञानिक मैक्स प्लांक (Max Planck 1858- 1947) ने अपने अनुसंधान की शुरुआत ऊष्मा गतिकी (Thermodynamics) से की। उसी समय कुछ इलेक्ट्रिक कंपनियों ने उसके सामने एक ऐसे प्रकाश स्रोत को बनाने की समस्या रखी जो न्यूनतम ऊर्जा की खपत में अधिक से अधिक प्रकाश पैदा कर सके। इस समस्या ने प्लांक का रूख विकिरण (Radiation) के अध्ययन की ओर मोड़ा। उसने विकिरण की विद्युत् चुम्बकीय प्रकृति (Electromagnetic Nature) ज्ञात की। इस तरह ज्ञात हुआ कि प्रकाश, रेडियो तरंगें, पराबैंगनी (Ultraviolet), इन्फ्रारेड सभी विकिरण के ही रूप हैं जो दरअसल विद्युत् चुम्बकीय तरंगें हैं। ब्लैक बॉडी रेडियेशन पर कार्य करते हुए, बाद में प्लांक एक आश्चर्यजनक नई खोज पर पहुंचा, जिसे प्लांक की क्वांटम परिकल्पना कहते हैं।
इस परिकल्पना के अनुसार प्रकाश तथा अन्य विद्युत चुम्बकीय विकिरण ऊर्जा का सतत प्रवाह न होकर ऊर्जा के छोटे छोटे पैकेट के रूप में चलता है। इन पैकेट्स को क़्वान्टा कहा जाता है। हर क़्वान्टा की ऊर्जा निश्चित होती है तथा केवल प्रकाश (विकिरण) की आवृत्ति (रंग) पर निर्भर करती है। (सूत्र E = hν जहाँ h प्लांक नियतांक तथा ν आवृत्ति है।)
क्वांटम भौतिकी की स्थापना के लिए प्लांक को 1918 के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। धार्मिक रूप से वह ईसाई था। वह तथा आइन्स्टीन गहरे दोस्त थे। उनकी पिआनो की महफिलें साथ में जमती थीं। 4 अक्टूबर 1947 को नब्बे वर्ष की अवस्था में उसकी मृत्यु हुई।]
इसके पश्चात आया क्वाण्टम भौतिकी का ‘दृष्टा प्रभाव सिद्धांत’ (Observer Effect) जिसके अनुसार मापन करने पर क्वाण्टम तरंग, एक कण (Particle) की तरह अस्तित्व में आती है । और नहीं देखे जाने पर वह एक ही समय में एक से अधिक स्थानों पर होती है, जिसे इसकी बहुस्थिती (Super Position) कहा जाता है ।(Sub atomic Particles occupy multiple Positions at once, An electron has no visible reality until it is observed).
जाॅन वीलर के अनुसार ‘‘अगर देखने वाला नहीं हो, तो जगत सिर्फ ऊर्जा है’’। ...इसे आइन्सटीन ने इस तरह कहा है ‘‘जहाँ निश्चितता है वहाँ यथार्थ नहीं है, जहां यथार्थ है वहां निश्चितता नहीं है’’(Laws of Nature, Einstein). यह अनिश्चितता का सिद्धांत और कण-तरंग विरोधाभास (Wave- Particle Paradox) ही नवभौतिकी (Modern Physics) का आधार है।
जिसके अनुसार क्वाण्टम जगत में प्रत्येक बार देखे जाने पर एक नई घटना का प्रारंभ होता है और देखे जाने हेतु चेतना की आवश्यकता होती है। जिसमें सृजन संभावना अंतर्निहित है। (That every time we observe something there is new begining or that every event of observation which requires consciousness, is potentially creative).
क्वाण्टम भौतिकी के इस दृष्टा-प्रभाव सिद्धांत ने न सिर्फ न्यूटन के निश्चितता के दर्शन का खण्डन किया है, बल्कि ‘पदार्थवादी यथार्थवाद (Materialistic Realism)’ को भी अमान्य कर दिया है। ...यद्यपि ठोस, सघन पदार्थ पर न्यूटन एवं क्वाण्टम भौतिकी का सम्भावना सिद्धांत एक ही परिणाम देता है । यही कारण है की अति पदार्थ पर न्यूटम के नियम लगभग सटीक बैठ सके, जो अनेकों अविष्कारों का मूल बने।
किन्तु पदार्थ के सूक्ष्मतम (क्वाण्टम) स्तर पर अनिश्चितता का सिद्धांत ही काम करता है । यहां निश्चित कार्य-कारण संबंध का अभाव है। तथा मापन ‘संभावना के सिद्धांत’ पर आधारित होता है। यह क्वाण्टम क्षेत्र, दृष्टाप्रभाव द्वारा परिवर्तनीय है।
किन्तु यदि आधुनिक भौतिक विज्ञानी भी अब अध्यात्म की तरफ बढ़ रहे हैं। तो इसके पीछे कारण यही है कि पहले विज्ञान भी पदार्थ के अलावा अज्ञात अध्यात्म को मेटा फिजिक्स मानता था। फिर विज्ञान में ताप, ऊर्जा , चुम्बकत्व आदि क्षेत्र शामिल हुए। ततपश्चात आइन्सटीन ने भौतिकी में जिस द्रव्यमान-ऊर्जा समतुल्यता (mass–energy equivalence) या पदार्थ-ऊर्जा समतुल्य सिद्धांत ( E=mc square सूत्र) को आविष्कृत किया, उसके अनुसार यदि किसी वस्तु में कुछ द्रव्यमान है तो उसमें उसके तुल्य एक ऊर्जा होती है और यदि उसमें कुछ ऊर्जा है तो उसके तुल्य एक द्रव्यमान होता है। तत्पश्चात अणु-परमाणु और इनमे अन्तस्थ अनन्त ऊर्जा को मान्यता प्राप्त हुई, और उसके बाद विज्ञान का अन्वेषण पदार्थ से आगे बढ़ कर ऊर्जा तक पहुँच गया। इस प्रकार आइन्सटीन के पदार्थ-ऊर्जा समतुल्य सिद्धांत (E=mc2 समीकरण) ने जहां पदार्थ और ऊर्जा का अंतर संबंध उजागर कर दिया, वहीं क्वाण्टम क्षेत्र पर ‘दृष्टाप्रभाव’ एवं ‘सापेक्षता के सिद्धांत’ (देश काल की सापेक्ष निर्मिती) ने भौतिकी को उस स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ जगत के उद्भव, स्थिति एवं क्रियाविधि को जानने हेतु चेतना का अध्ययन ही अब एक मात्र संभावना है। इसलिए अब विज्ञान भी उस सर्व व्यापी चेतना (pure consciousness) की बात करने लगा है, जो किसी अध्यात्म ज्ञानी को ध्यान साधना से प्राप्त होती है। इसलिए फिजिक्स (Physics) से परे की बात, अर्थात आध्यात्मिक दर्शन आदि को वैज्ञानिक लोग मेटाफिजिक्स (Metaphysics) तत्त्वमीमांसा या अध्यात्म विज्ञान कहते हैं। 'मेटा' का अर्थ 'से परे की'- इन्द्रियातीत या इन्द्रियों की पहुँच से बाहर ।
सैद्धांतिक परमाणु भौतिक विज्ञानी अमित गोस्वामी, पदार्थ नहीं, बल्कि एक सार्वभौमिक चेतना को सारे अस्तित्व का मूलाधार मानते हैं। उन्होंने मानवीय चेतना की व्याख्या इस प्रकार की है:-" Consciousness Collapses the quantum wave, resulting in the separation between subject & object. Our mind creates ‘The Ego’ through tangled hierarchies. Tangled hierarchies appears when the lower level- ‘The Cause’ and the higher level- ‘The Effect’ are tangled, or can not be separated. The system of tangled hierarchies does not point to anything outside of itself. It speaks only of itself and therefore becomes separate from the rest."
चेतना (witness consciousness) - 'क्वांटम तरंग' को एकाएक तोड़ देती है, जिसके परिणामस्वरूप, असंख्य स्तरों पर एक साथ द्रष्टा (subject या the Seer Drig ) और दृश्य (object या the Seen Drishya) के बीच द्वन्द्व उत्पन्न होता है। [प्रत्यक्ष ज्ञान के अनुभव के बारे में, अद्वैत वेदान्त कर्ता-कर्म या दृक और दृश्य की अभिन्नता पर बल देता है।] हमारा मन (अन्तःकरण) पेचीदा पदानुक्रम (tangled hierarchies या चित्त-मन-बुद्धि -अहंकार) के माध्यम से ‘व्यष्टि अहं’ (Ego) बनाता है। इस पेचीदा पदानुक्रम (Tangled Hierarchies - अनुक्रम या सोपानीकी) में निम्नक्रम- ‘कारण’ (Cause-चित्त mind stuff-pure consciousness) व उच्चक्रम- ‘कार्य’(effect -व्यष्टि अहं-reflected consciousness) अखंडित ही रहता है-अर्थात 'अहं' वह कार्य (effect) है, जिसे उसके कारण से अलग नहीं किया जा सकता। [कार्य या व्यष्टि अहं (effect) को उसके कारण 'Cause' -माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं से अलग नहीं किया जा सकता।] किन्तु वह अन्य द्वन्दीय गुच्छों (मन-बुद्धि) से अविभाजित होते हुए भी विभाजित हुआ सा प्रतीत होता है।
यह ‘प्रतिबिम्बित चेतना’ (तुच्छ व्यष्टि अहं ) एवं ‘मूल चेतना’ (सर्वव्यापी विराट अहं) की संयुक्त स्थिति ही मानवीय चेतना है। उक्त पेचीदा अनुक्रम को (मुण्डक उपनिषद 3.1-3) में मन (अहं) व चेतना नामक दो पक्षियों के उदाहरण द्वारा समझाया गया है। एक शाख पर बैठे यह दो पक्षी ‘अहं’ (अहं-reflected consciousness ) व ‘जगत्साक्षिणी चेतना’ (witness consciousness) हैं। ‘अहं’ संसार के अच्छे बुरे फल खाता है जबकि ‘चेतना’ मात्र दृष्टा (जगत्साक्षिणी) है। ‘अहं’ हमारी इच्छाओं और भोगेच्छाओं का समुच्चय मात्र है। यह ब्रम्ह चेतना के प्रकटीकरण ‘एकोहं बहुस्याम’ की एक इकाई अभिव्यक्ति है। यही अहं मानवीय चेतना का आधार है।
यह अहं प्रत्येक वस्तु को ‘दृष्टा-दृश्य’ (Subject-Object) की तरह देखता है। दृष्टा की यह ‘दृश्य- आबद्ध’ स्थिति ही ‘जीवात्मा’ है। दृश्य से निरंतर बद्ध रहना ही बंधन है। बंधन का कारण कर्म है । कर्म का कारण ‘कर्ता’(Ego) है।- ‘कर्ता’ का अभाव मुक्ति है। ज्ञातव्य हो कि वेद एवं उपनिषद अत्यंत सरल, काव्यात्मक भाषा में कहे गये है, जो ज्ञान एवं माधुर्य से परिपूर्ण है। अलबर्ट आइन्सटीन का कथन हैः- " If you can’t explain it simply, you don’t understand it well enough" अर्थात हम जितना अधिक जानते है उतना सरल बना सकते है। स्वामी विवेकानन्द कहते थे - 'Highest truth is very simple' उच्चतम सत्य बहुत सरल है।'
वेदांत का महानतम ज्ञान सरलतम शब्दों में है। वेदांत प्रणीत मानवीय चेतना एक दृष्टा चेतना है जिसे ‘आत्मा’ कहा गया है तथा परम चेतना को ‘ब्रह्म’ [या ब्रह्म की वैष्णवी शक्ति जगत्साक्षिणी या माया) कहा गया है । आत्मा वस्तुतः ‘ब्रह्म’ ही है। ‘ब्रह्मात्मैकबोधेन’ (विवेकचूणामणि - 58) यह ‘ब्रह्म चेतना’ एक निरंतर सृजनशील प्रक्रिया है, जो अनंत सामर्थ्य और अनन्त सृजन संभावना (Pure Potentiality and infinite creativity) की स्थिति है।
यह शून्य (Absolute Void) से दृष्टाप्रभाव (Observer Effect) द्वारा उत्पन्न ऊर्जा (बिग-बैंग सिद्धांत अनुसार बिग-बैंग होते ही शून्य से पदार्थ एवं ऊर्जा उत्पन्न होती है) को कण एवं तरंग में विभाजित कर, समय एवं स्थान की (Time & space) ..सापेक्षता उत्पन्न करती है। इस सापेक्षता में कण को निर्दिष्ट (Locate) किया जा सकता है। शून्य (Void=The field of Consciousness) ;वह आकाश है, जहाँ सृजन होता है।यह ‘ब्रह्म चेतना’ स्वयं कालातीत (Timeless, Non Local) होती है। जबकि हमारी स्थिति एक सापेक्ष स्थिति है। यद्यपि हम सभी एक ही स्थान (Location) में है किन्तु इन्द्रियगत उपकरण (Sensory Artifact) के कारण अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं। (आइन्सटीन, थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी) यह सब विवरण उपनिषदों में मौजूद है।
‘अहं’ हमारी इच्छाओं और भोगेच्छाओं का समुच्चय मात्र है। यह ब्रम्ह चेतना के प्रकटीकरण ‘एकोहं बहुस्याम’ की एक इकाई अभिव्यक्ति है। यही अहं मानवीय चेतना का आधार है। ‘ओशो’ के शब्दों में ‘‘यह अहं एक प्रक्रिया है, कोई स्थायी स्थिति नहीं है। हम अपनी इच्छाओं द्वारा प्रतिक्षण अहं निर्मित करते है। स्वयं से बाहर होना ही अहं है’’।(Ego exists because we go on jumping ahead of ourselves- osho).जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार ‘‘पूर्वाग्रहरहित मानस, अहंविहीनता की स्थिति है’’। यह अहं एक सीमित चेतना है जो मात्र विभाजन ही देख पाती है। और अपने अनुभवों को एकत्रित करती जाती है। यह एकत्रीकरण अहं को घनीभूत करता जाता है। यह अहं प्रत्येक वस्तु को ‘दृष्टा-दृश्य’ (Subject-Object) की तरह देखता है। दृष्टा की यह ‘दृश्य- आबद्ध’ स्थिति ही ‘जीवात्मा’ है।- दृश्य से निरंतर बद्ध रहना ही बंधन है।- बंधन का कारण कर्म है ।-कर्म का कारण ‘कर्ता’(Ego) है।- ‘कर्ता’ का अभाव मुक्ति है।
अन्नमय कोष : औपनिषदिक पंचकोशीय अवधारणा केवल मानवीय चेतना से संबंधित नहीं है, बल्कि संपूर्ण जगत भी पंचकोशीय है। भौतिक पदार्थ को ‘अन्नमय’ कहा गया है । ‘प्राणमय कोष’ प्राण ऊर्जा (Energy) रूपी चेतना ( pure Consciousness) है, जो सभी मानव शरीरों, पशुओं और वनस्पति को बनाये रखती है। यह पदार्थ में निहित ज्ञानपूर्ण ऊर्जा है जो प्राणियों में श्वास द्वारा गतिशील है। यह एक तरह की जोड़ने वाली शक्ति है ;(A Kind of binding force)। जो पूरे अन्नमय जगत को जोड़कर रखती है। -पूरा परिस्थकी तंत्र (Ecosystem) जिस बुद्धिमत्ता से चलता है, वह ऊर्जा प्राण है। प्राण की आपूर्ति रूक जाने पर कोशिका (Cell) की व्यवस्था टूट जाती है। और वह अपने आधारभूत अणुओं में ;(Basic Molecules) में टूट कर समाप्त हो जाती है। तथा सभी अंगों एवं तंत्रों का समन्वय टूट जाता है, जो प्राणियों की (मनुष्य, पशु, वनस्पति) मृत्यु है। प्राण, सूक्ष्म जगत में प्रवेश कराने में सहायक होता है, यही कारण है कि चेतना को विकसित करने की विधियों में प्राणायाम का विशेष महत्व है।
‘मनोमयकोश’ सम्पूर्ण विश्व का साझा चित्त है । सामूहिक विचार एक तरह का कच्चा माल (Raw Data) है। इन्हे छान कर हम जिन विचारों को एकत्रित करते है अथवा स्वयं को जिनसे संबंधित करते है वह हमारा व्यक्तिगत चित्त (Mind-stuff, मनवस्तु) है । यह भौतिक शरीर के बाहर एक घेरा है जिसका प्रकटीकरण मस्तिष्क पर होता है। यह वह स्थान (Platform); है जिस पर विचार आते-जाते है। हम सभी विचारों को प्रक्रिया (Process-श्रवण -मनन -निदिध्यासन) करके अपना विचार भी बना सकते है। भाषा, धर्म, संस्कृति, व्यवस्था, दर्शन (Language, Religion, Culture, System, Philosophy etc.) आदि ‘मनोमयकोश’ का निमार्ण हैं। यह सामूहिक सृजन है, किसी व्यक्तिगत मस्तिष्क की उपज नहीं है। इसी तरह निश्चयात्मिका बुद्धि या विवेकप्रयोग शक्ति (Power of Discrimination) ही ‘विज्ञानमयकोश’ है। तथा ‘आनंदमयकोश’- कारण शरीर (Causal Body) है।
यहां से शुद्ध चेतना (ब्रम्ह-की शक्ति जगत्साक्षिणी-माँ जगदम्बा) सृजन में उतरती है। तथा ‘अस्मिता’ के बोध से अनंत आत्माओं (M/F) की तरह प्रकट होती है। यह मात्र अस्तित्व (Pure Being- existence-consciousness-bliss) की आधारभूत तरंग (Basic Vibrations) है। जहां समयरहितता (Timelessness) और आनंद (Bliss) की अनुभूति ही शेष है। यहां द्वन्द समाप्त होता है और सापेक्षता से परे निरपेक्षता का अनुभव होता है।
किन्तु यह भी (जीवन मुक्ति- भ्रम मुक्ति या पूर्णतः de-hypnotized हो जाने की) अंतिम अवस्था नहीं है। अस्मिता का एक महीन धागा मौजूद होता है। वह टूट जाने पर मानवीय चेतना, ब्रम्ह चेतना हो जाती है। (Anandamaya kosha- Pure being with slightesst touch of ego. Without this gossamer sheath you would disolve in to being and become bliss itself, without an experiencer – Deepak Chopra, ‘Life after death’ ).
आधुनिक विज्ञान के पास जगत को प्रतिपादित करने के तीन सिद्धांत है।
1. द्वैतवादी दृष्टिकोण (Dualistic View) जो अभौतिक आत्मा एवं भौतिक शरीर, ऐसे दो तत्वों को मान्यता देता है । किन्तु भौतिकी का ऊर्जा संरक्षण का सिद्धांत , माध्यम एवं मध्यस्थ की अनिवार्यता द्वारा इस सिद्धांत को अमान्य करता है।
2. मात्र पदार्थ (Only Matter) यह विचार क्वाण्टम भौतिकी द्वारा अमान्य है क्योंकि पदार्थ के भीतर उतरने पर Matter समाप्त हो जाता है और हम अपदार्थ (Non-Matter) पर पहुँच जाते है ।
3. मात्रचेतना (Only Consciousness) – यह विचार क्वाण्टम भौतिकी द्वारा प्रणीत है। जिसके अनुसार जगत का एकमात्र कारण है ‘चेतना’ ।
चलिए, थोड़ा फ़िज़िक्स समझें: - 1905 में आइन्सटीन ने प्रकाश को Bundles of Energy, Quantum कहा। - नील बोहर, 1913 ने इलेक्ट्रान की स्थिति (Location) के संबंध में अनिश्चितता का सिद्धांत (Uncertainty principle) प्रतिपादित किया। तब से क्वाण्टम भौतिकी (Quantum Physics) को संभावना का विज्ञान (Science of Probability) कहा जाने लगा है ।
20 वीं सदी के प्रांरभ में मैक्स प्लांक ने सर्वप्रथम इलेक्ट्रान द्वारा उत्सर्जित एवं अवशोषित की जाने वाली ऊर्जा को ‘क्वांटा’ कहा । यह क्वाण्टम भौतिकी का प्रांरभ था (Quantum = a very small quantity of electromagnetic energy that can not be divided).
[जर्मन वैज्ञानिक मैक्स प्लांक (Max Planck 1858- 1947) ने अपने अनुसंधान की शुरुआत ऊष्मा गतिकी (Thermodynamics) से की। उसी समय कुछ इलेक्ट्रिक कंपनियों ने उसके सामने एक ऐसे प्रकाश स्रोत को बनाने की समस्या रखी जो न्यूनतम ऊर्जा की खपत में अधिक से अधिक प्रकाश पैदा कर सके। इस समस्या ने प्लांक का रूख विकिरण (Radiation) के अध्ययन की ओर मोड़ा। उसने विकिरण की विद्युत् चुम्बकीय प्रकृति (Electromagnetic Nature) ज्ञात की। इस तरह ज्ञात हुआ कि प्रकाश, रेडियो तरंगें, पराबैंगनी (Ultraviolet), इन्फ्रारेड सभी विकिरण के ही रूप हैं जो दरअसल विद्युत् चुम्बकीय तरंगें हैं। ब्लैक बॉडी रेडियेशन पर कार्य करते हुए, बाद में प्लांक एक आश्चर्यजनक नई खोज पर पहुंचा, जिसे प्लांक की क्वांटम परिकल्पना कहते हैं।
इस परिकल्पना के अनुसार प्रकाश तथा अन्य विद्युत चुम्बकीय विकिरण ऊर्जा का सतत प्रवाह न होकर ऊर्जा के छोटे छोटे पैकेट के रूप में चलता है। इन पैकेट्स को क़्वान्टा कहा जाता है। हर क़्वान्टा की ऊर्जा निश्चित होती है तथा केवल प्रकाश (विकिरण) की आवृत्ति (रंग) पर निर्भर करती है। (सूत्र E = hν जहाँ h प्लांक नियतांक तथा ν आवृत्ति है।)
क्वांटम भौतिकी की स्थापना के लिए प्लांक को 1918 के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। धार्मिक रूप से वह ईसाई था। वह तथा आइन्स्टीन गहरे दोस्त थे। उनकी पिआनो की महफिलें साथ में जमती थीं। 4 अक्टूबर 1947 को नब्बे वर्ष की अवस्था में उसकी मृत्यु हुई।]
इसके पश्चात आया क्वाण्टम भौतिकी का ‘दृष्टा प्रभाव सिद्धांत’ (Observer Effect) जिसके अनुसार मापन करने पर क्वाण्टम तरंग, एक कण (Particle) की तरह अस्तित्व में आती है । और नहीं देखे जाने पर वह एक ही समय में एक से अधिक स्थानों पर होती है, जिसे इसकी बहुस्थिती (Super Position) कहा जाता है ।(Sub atomic Particles occupy multiple Positions at once, An electron has no visible reality until it is observed).
जाॅन वीलर के अनुसार ‘‘अगर देखने वाला नहीं हो, तो जगत सिर्फ ऊर्जा है’’। ...इसे आइन्सटीन ने इस तरह कहा है ‘‘जहाँ निश्चितता है वहाँ यथार्थ नहीं है, जहां यथार्थ है वहां निश्चितता नहीं है’’(Laws of Nature, Einstein). यह अनिश्चितता का सिद्धांत और कण-तरंग विरोधाभास (Wave- Particle Paradox) ही नवभौतिकी (Modern Physics) का आधार है।
जिसके अनुसार क्वाण्टम जगत में प्रत्येक बार देखे जाने पर एक नई घटना का प्रारंभ होता है और देखे जाने हेतु चेतना की आवश्यकता होती है। जिसमें सृजन संभावना अंतर्निहित है। (That every time we observe something there is new begining or that every event of observation which requires consciousness, is potentially creative).
क्वाण्टम भौतिकी के इस दृष्टा-प्रभाव सिद्धांत ने न सिर्फ न्यूटन के निश्चितता के दर्शन का खण्डन किया है, बल्कि ‘पदार्थवादी यथार्थवाद (Materialistic Realism)’ को भी अमान्य कर दिया है। ...यद्यपि ठोस, सघन पदार्थ पर न्यूटन एवं क्वाण्टम भौतिकी का सम्भावना सिद्धांत एक ही परिणाम देता है । यही कारण है की अति पदार्थ पर न्यूटम के नियम लगभग सटीक बैठ सके, जो अनेकों अविष्कारों का मूल बने।
किन्तु पदार्थ के सूक्ष्मतम (क्वाण्टम) स्तर पर अनिश्चितता का सिद्धांत ही काम करता है । यहां निश्चित कार्य-कारण संबंध का अभाव है। तथा मापन ‘संभावना के सिद्धांत’ पर आधारित होता है। यह क्वाण्टम क्षेत्र, दृष्टाप्रभाव द्वारा परिवर्तनीय है।
किन्तु यदि आधुनिक भौतिक विज्ञानी भी अब अध्यात्म की तरफ बढ़ रहे हैं। तो इसके पीछे कारण यही है कि पहले विज्ञान भी पदार्थ के अलावा अज्ञात अध्यात्म को मेटा फिजिक्स मानता था। फिर विज्ञान में ताप, ऊर्जा , चुम्बकत्व आदि क्षेत्र शामिल हुए। ततपश्चात आइन्सटीन ने भौतिकी में जिस द्रव्यमान-ऊर्जा समतुल्यता (mass–energy equivalence) या पदार्थ-ऊर्जा समतुल्य सिद्धांत ( E=mc square सूत्र) को आविष्कृत किया, उसके अनुसार यदि किसी वस्तु में कुछ द्रव्यमान है तो उसमें उसके तुल्य एक ऊर्जा होती है और यदि उसमें कुछ ऊर्जा है तो उसके तुल्य एक द्रव्यमान होता है। तत्पश्चात अणु-परमाणु और इनमे अन्तस्थ अनन्त ऊर्जा को मान्यता प्राप्त हुई, और उसके बाद विज्ञान का अन्वेषण पदार्थ से आगे बढ़ कर ऊर्जा तक पहुँच गया। इस प्रकार आइन्सटीन के पदार्थ-ऊर्जा समतुल्य सिद्धांत (E=mc2 समीकरण) ने जहां पदार्थ और ऊर्जा का अंतर संबंध उजागर कर दिया, वहीं क्वाण्टम क्षेत्र पर ‘दृष्टाप्रभाव’ एवं ‘सापेक्षता के सिद्धांत’ (देश काल की सापेक्ष निर्मिती) ने भौतिकी को उस स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ जगत के उद्भव, स्थिति एवं क्रियाविधि को जानने हेतु चेतना का अध्ययन ही अब एक मात्र संभावना है। इसलिए अब विज्ञान भी उस सर्व व्यापी चेतना (pure consciousness) की बात करने लगा है, जो किसी अध्यात्म ज्ञानी को ध्यान साधना से प्राप्त होती है। इसलिए फिजिक्स (Physics) से परे की बात, अर्थात आध्यात्मिक दर्शन आदि को वैज्ञानिक लोग मेटाफिजिक्स (Metaphysics) तत्त्वमीमांसा या अध्यात्म विज्ञान कहते हैं। 'मेटा' का अर्थ 'से परे की'- इन्द्रियातीत या इन्द्रियों की पहुँच से बाहर ।
क्वाण्टम भौतिकी की उक्त अवधारणा के संदर्भ में यहाँ हम वेदांत प्रणीत मानवीय चेतना का अध्ययन करेंगे।
जो लोग धर्म के बाहर आध्यात्मिकता की बात करते हैं, अक्सर खुद को "आध्यात्मिक, पर धार्मिक नहीं" के रूप में परिभाषित करते हैं और आम तौर पर कई अलग-अलग "आध्यात्मिक मार्गों" के अस्तित्व में विश्वास करते हैं - और आध्यात्मिकता के लिए अपने स्वयं का एक व्यक्तिगत मार्ग ढूंढने के महत्व पर बल देते हैं। एक सर्वेक्षण के मुताबिक, अमेरिका की करीब 24±4% जनसंख्या, खुद को आध्यात्मिक, पर धार्मिक नहीं के रूप में परिभाषित करती है। तब यह कहा जा सकता है कि महत्वपूर्ण अंतर यह है कि धर्म एक प्रकार की औपचारिक बाह्य खोज है, जबकि आध्यात्मिकता को अपने भीतर की खोज करने के रूप में परिभाषित किया जाता है।
क्वांटम फिजिक्स के वैज्ञानिक मैक्स प्लांक कहते हैं - " I regard consciousness as fundamental, I regard 'matter' as derivative from consciousness.We cannot get behind consciousness( मूल धातु-चेतना से उत्पन्न).Every thing that we talk about,any thing that we regard existing, postulates consciousness." (as quoted in The Observer 25January 1929 ] " मैं चेतना (Pure Consciousness) को ही सृष्टि का आधारभूत (तत्व-ब्रह्म) मानता हूँ, तथा पदार्थ को चेतना से उद्भूत मानता हूँ। हम इस चेतना से परे नहीं जा सकते। प्रत्येक ऐसी वस्तु जिसकी हम चर्चा करते हैं (अर्थात नाम, और प्रत्येक ऐसी वस्तु जिसका हम अस्तित्व मानते हैं (अर्थात रूप) सभी नाम और रूप के पीछे चेतना (Infinite-existence-consciousness-bliss)को ही कारण मानना होगा।"सैद्धांतिक परमाणु भौतिक विज्ञानी अमित गोस्वामी, पदार्थ नहीं, बल्कि एक सार्वभौमिक चेतना को सारे अस्तित्व का मूलाधार मानते हैं। उन्होंने मानवीय चेतना की व्याख्या इस प्रकार की है:-" Consciousness Collapses the quantum wave, resulting in the separation between subject & object. Our mind creates ‘The Ego’ through tangled hierarchies. Tangled hierarchies appears when the lower level- ‘The Cause’ and the higher level- ‘The Effect’ are tangled, or can not be separated. The system of tangled hierarchies does not point to anything outside of itself. It speaks only of itself and therefore becomes separate from the rest."
चेतना (witness consciousness) - 'क्वांटम तरंग' को एकाएक तोड़ देती है, जिसके परिणामस्वरूप, असंख्य स्तरों पर एक साथ द्रष्टा (subject या the Seer Drig ) और दृश्य (object या the Seen Drishya) के बीच द्वन्द्व उत्पन्न होता है। [प्रत्यक्ष ज्ञान के अनुभव के बारे में, अद्वैत वेदान्त कर्ता-कर्म या दृक और दृश्य की अभिन्नता पर बल देता है।] हमारा मन (अन्तःकरण) पेचीदा पदानुक्रम (tangled hierarchies या चित्त-मन-बुद्धि -अहंकार) के माध्यम से ‘व्यष्टि अहं’ (Ego) बनाता है। इस पेचीदा पदानुक्रम (Tangled Hierarchies - अनुक्रम या सोपानीकी) में निम्नक्रम- ‘कारण’ (Cause-चित्त mind stuff-pure consciousness) व उच्चक्रम- ‘कार्य’(effect -व्यष्टि अहं-reflected consciousness) अखंडित ही रहता है-अर्थात 'अहं' वह कार्य (effect) है, जिसे उसके कारण से अलग नहीं किया जा सकता। [कार्य या व्यष्टि अहं (effect) को उसके कारण 'Cause' -माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं से अलग नहीं किया जा सकता।] किन्तु वह अन्य द्वन्दीय गुच्छों (मन-बुद्धि) से अविभाजित होते हुए भी विभाजित हुआ सा प्रतीत होता है।
यह ‘प्रतिबिम्बित चेतना’ (तुच्छ व्यष्टि अहं ) एवं ‘मूल चेतना’ (सर्वव्यापी विराट अहं) की संयुक्त स्थिति ही मानवीय चेतना है। उक्त पेचीदा अनुक्रम को (मुण्डक उपनिषद 3.1-3) में मन (अहं) व चेतना नामक दो पक्षियों के उदाहरण द्वारा समझाया गया है। एक शाख पर बैठे यह दो पक्षी ‘अहं’ (अहं-reflected consciousness ) व ‘जगत्साक्षिणी चेतना’ (witness consciousness) हैं। ‘अहं’ संसार के अच्छे बुरे फल खाता है जबकि ‘चेतना’ मात्र दृष्टा (जगत्साक्षिणी) है। ‘अहं’ हमारी इच्छाओं और भोगेच्छाओं का समुच्चय मात्र है। यह ब्रम्ह चेतना के प्रकटीकरण ‘एकोहं बहुस्याम’ की एक इकाई अभिव्यक्ति है। यही अहं मानवीय चेतना का आधार है।
यह अहं प्रत्येक वस्तु को ‘दृष्टा-दृश्य’ (Subject-Object) की तरह देखता है। दृष्टा की यह ‘दृश्य- आबद्ध’ स्थिति ही ‘जीवात्मा’ है। दृश्य से निरंतर बद्ध रहना ही बंधन है। बंधन का कारण कर्म है । कर्म का कारण ‘कर्ता’(Ego) है।- ‘कर्ता’ का अभाव मुक्ति है। ज्ञातव्य हो कि वेद एवं उपनिषद अत्यंत सरल, काव्यात्मक भाषा में कहे गये है, जो ज्ञान एवं माधुर्य से परिपूर्ण है। अलबर्ट आइन्सटीन का कथन हैः- " If you can’t explain it simply, you don’t understand it well enough" अर्थात हम जितना अधिक जानते है उतना सरल बना सकते है। स्वामी विवेकानन्द कहते थे - 'Highest truth is very simple' उच्चतम सत्य बहुत सरल है।'
वेदांत का महानतम ज्ञान सरलतम शब्दों में है। वेदांत प्रणीत मानवीय चेतना एक दृष्टा चेतना है जिसे ‘आत्मा’ कहा गया है तथा परम चेतना को ‘ब्रह्म’ [या ब्रह्म की वैष्णवी शक्ति जगत्साक्षिणी या माया) कहा गया है । आत्मा वस्तुतः ‘ब्रह्म’ ही है। ‘ब्रह्मात्मैकबोधेन’ (विवेकचूणामणि - 58) यह ‘ब्रह्म चेतना’ एक निरंतर सृजनशील प्रक्रिया है, जो अनंत सामर्थ्य और अनन्त सृजन संभावना (Pure Potentiality and infinite creativity) की स्थिति है।
यह शून्य (Absolute Void) से दृष्टाप्रभाव (Observer Effect) द्वारा उत्पन्न ऊर्जा (बिग-बैंग सिद्धांत अनुसार बिग-बैंग होते ही शून्य से पदार्थ एवं ऊर्जा उत्पन्न होती है) को कण एवं तरंग में विभाजित कर, समय एवं स्थान की (Time & space) ..सापेक्षता उत्पन्न करती है। इस सापेक्षता में कण को निर्दिष्ट (Locate) किया जा सकता है। शून्य (Void=The field of Consciousness) ;वह आकाश है, जहाँ सृजन होता है।यह ‘ब्रह्म चेतना’ स्वयं कालातीत (Timeless, Non Local) होती है। जबकि हमारी स्थिति एक सापेक्ष स्थिति है। यद्यपि हम सभी एक ही स्थान (Location) में है किन्तु इन्द्रियगत उपकरण (Sensory Artifact) के कारण अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं। (आइन्सटीन, थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी) यह सब विवरण उपनिषदों में मौजूद है।
उक्त विवरण के संदर्भ स्वरूप कुछ वैदिक मंत्र इस प्रकार है-'आकाशशरीरं ब्रह्म' वह ब्रह्म आकाश जैसे शरीर वाला है, (तैत्तिरीयोपनिषद्, 1.6) एतस्मादात्मन् आकाशः सम्भूतः' यह आत्मा आकाश के रूप में उत्पन्न हुई (तैत्तिरीयोपनिषद्, 2.1) आकाशःआत्मा' आकाश आत्मा है, (तैत्तिरीयोपनिषद्, 2.3)
यह चेतना (शुद्ध आत्मा) एक साथ अनेक स्तरों (Different Planes of Consciousness) पर कार्यशील होती है। संपूर्ण आकाश पर दृष्टा-प्रभाव ‘महतत्व’(Cosmic Consciousness) है। तथा सापेक्षता से निर्मित क्षेत्र विशेष से दृष्टा का तादात्म्य, ‘व्यक्तिगत अहं’ का निर्माण है।
जिस प्रकार ‘ब्रह्म’ एक अनंत संभावनाओं और सामर्थ्य से परिपूर्ण सृजनशील चेतना है, जो मात्र इच्छा (Pure Intention-Will) के द्वारा नानाविध प्रपंच निर्मित कर उन्हें अनुभव करता है, उसी प्रकार ‘व्यक्तिगत अहं’ मानवीय चेतना को अभिव्यक्त करता है।
यह व्यक्तिगत स्तर पर अस्मितारूपी दृष्टा-प्रभाव है । उपनिषदों के अनुसार इस मानवीय चेतना का प्राकट्य एक शरीररूपी यंत्र द्वारा होता है जिसके पाँच विभाजन है (पंचकोश)। इस शरीर -मन रूपी उपकरण में व्याप्त चेतना की स्थूल से सूक्ष्मतम चार अवस्थाएं है (अयं आत्मा चुतष्पात - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय-माण्डूक्य उपनिषद- 2)। अर्थात ‘अहं’ इच्छा द्वारा दृश्य निर्मित कर जिस चेतना के सम्मुख प्रस्तुत करता है उसकी भी वेदांत अनुसार चार अवस्थायें है। आर्ष ग्रंथों में इस बात को और भी स्पष्ट करते हुए मानवीय चेतना द्वारा दृश्य के निर्माण की प्रक्रिया का भी विशद विवरण मिलता है।
उदाहरणार्थ सांख्य एवं औपनिषदिक दर्शन के अनुसार इस दृश्य का निर्माण पाँच इन्द्रियों एवं मन (चित्त , मन, बुद्धि, अहं, मिश्रित अंतःकरण) द्वारा किया जाता है, यहाँ चित्त, दृश्य की व्याख्या करता है। तथा दृश्य इसमें उठ रही वृत्तियाँ हैं (वृत्ति =निरंतर तरंगायित ऊर्जा। ) चित्त, वृत्तियों को रूप, शब्द व अर्थ देता है -(Description of the energy, vibrating in different frequencies) ...जिसे चेतना द्वारा अनुभव किया जाता है ।
उक्त मानवीय चेतना वस्तुतः ब्रम्हाण्डीय चेतना ही है। उदाहरणतः मनुष्य के शरीर की हर कोशिका जीवन की सम्पूर्ण इकाई है। जिसमें विद्यमान प्रज्ञा वस्तुतः ब्रम्हाण्डीय प्रज्ञा ही है। ... अगर ‘अहं’ को पृथक कर दें, तो मानव मस्तिष्क ब्रम्हाण्डीय प्रज्ञा के साथ लय की अवस्था में होगा । जिसे हम अंतर्ज्ञान (Intuition) अथवा वैश्विक औचित्यबोध (Cosmic Wisdom- वैश्विकबुद्धिमत्ता) कहते हैं।
अन्नमय कोष : औपनिषदिक पंचकोशीय अवधारणा केवल मानवीय चेतना से संबंधित नहीं है, बल्कि संपूर्ण जगत भी पंचकोशीय है। भौतिक पदार्थ को ‘अन्नमय’ कहा गया है । ‘प्राणमय कोष’ प्राण ऊर्जा (Energy) रूपी चेतना ( pure Consciousness) है, जो सभी मानव शरीरों, पशुओं और वनस्पति को बनाये रखती है। यह पदार्थ में निहित ज्ञानपूर्ण ऊर्जा है जो प्राणियों में श्वास द्वारा गतिशील है। यह एक तरह की जोड़ने वाली शक्ति है ;(A Kind of binding force)। जो पूरे अन्नमय जगत को जोड़कर रखती है। -पूरा परिस्थकी तंत्र (Ecosystem) जिस बुद्धिमत्ता से चलता है, वह ऊर्जा प्राण है। प्राण की आपूर्ति रूक जाने पर कोशिका (Cell) की व्यवस्था टूट जाती है। और वह अपने आधारभूत अणुओं में ;(Basic Molecules) में टूट कर समाप्त हो जाती है। तथा सभी अंगों एवं तंत्रों का समन्वय टूट जाता है, जो प्राणियों की (मनुष्य, पशु, वनस्पति) मृत्यु है। प्राण, सूक्ष्म जगत में प्रवेश कराने में सहायक होता है, यही कारण है कि चेतना को विकसित करने की विधियों में प्राणायाम का विशेष महत्व है।
‘मनोमयकोश’ सम्पूर्ण विश्व का साझा चित्त है । सामूहिक विचार एक तरह का कच्चा माल (Raw Data) है। इन्हे छान कर हम जिन विचारों को एकत्रित करते है अथवा स्वयं को जिनसे संबंधित करते है वह हमारा व्यक्तिगत चित्त (Mind-stuff, मनवस्तु) है । यह भौतिक शरीर के बाहर एक घेरा है जिसका प्रकटीकरण मस्तिष्क पर होता है। यह वह स्थान (Platform); है जिस पर विचार आते-जाते है। हम सभी विचारों को प्रक्रिया (Process-श्रवण -मनन -निदिध्यासन) करके अपना विचार भी बना सकते है। भाषा, धर्म, संस्कृति, व्यवस्था, दर्शन (Language, Religion, Culture, System, Philosophy etc.) आदि ‘मनोमयकोश’ का निमार्ण हैं। यह सामूहिक सृजन है, किसी व्यक्तिगत मस्तिष्क की उपज नहीं है। इसी तरह निश्चयात्मिका बुद्धि या विवेकप्रयोग शक्ति (Power of Discrimination) ही ‘विज्ञानमयकोश’ है। तथा ‘आनंदमयकोश’- कारण शरीर (Causal Body) है।
यहां से शुद्ध चेतना (ब्रम्ह-की शक्ति जगत्साक्षिणी-माँ जगदम्बा) सृजन में उतरती है। तथा ‘अस्मिता’ के बोध से अनंत आत्माओं (M/F) की तरह प्रकट होती है। यह मात्र अस्तित्व (Pure Being- existence-consciousness-bliss) की आधारभूत तरंग (Basic Vibrations) है। जहां समयरहितता (Timelessness) और आनंद (Bliss) की अनुभूति ही शेष है। यहां द्वन्द समाप्त होता है और सापेक्षता से परे निरपेक्षता का अनुभव होता है।
किन्तु यह भी (जीवन मुक्ति- भ्रम मुक्ति या पूर्णतः de-hypnotized हो जाने की) अंतिम अवस्था नहीं है। अस्मिता का एक महीन धागा मौजूद होता है। वह टूट जाने पर मानवीय चेतना, ब्रम्ह चेतना हो जाती है। (Anandamaya kosha- Pure being with slightesst touch of ego. Without this gossamer sheath you would disolve in to being and become bliss itself, without an experiencer – Deepak Chopra, ‘Life after death’ ).
उक्त अध्ययन से यह स्पष्ट है कि सम्पूर्ण विश्व का निर्माण जिस (अक्षर) तत्व से हुआ है। उसे जान लेना ही अंतिम लक्ष्य है। यही मानवीय चेतना की उच्चतम स्थिति भी है। इसे ही वेदांत ‘ब्रह्म चेतना’ कहता है। यही तंत्र का ‘शिव-शक्ति ऐक्य’ है,यही अरविंद का ‘त्रियात्मक सत्’ है, जे.कृष्णमूर्ति का ‘अविभाजित मानस’ है,पतंजलि की ‘कैवल्य स्वरूप प्रतिष्ठा’ है,और स्वामी विवेकानन्द का ‘आत्म स्वरूप का प्राकट्य’ है। यही गीता का ‘पुरूषोत्तम’ है, और इसके लिए ही ऋग्वेद ने कहा है। ‘एकमसद् विप्रा बहुधा वदन्ति’ । अन्य धर्मों पर दृष्टिपात करे तो यही बुद्ध का ‘निर्वाण’है, महावीर का ‘कैवल्य’.है.,इस्लाम का ‘रूह ’है, और बाईबल का ‘किंगडम ऑफ़ गाॅड’ है ।
भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति ने " गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" में ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने की विधियाँ (प्रशिक्षण पद्धति) प्रस्तुत की हैं। उपनिषदों ने ‘श्रवण, मनन, निदिध्यासन’ के मार्ग का अनुगमन किया है, तो तंत्र- ‘विद्या, चर्या, क्रिया’, का मार्ग प्रशस्त करता है। शंकर- ‘ज्ञान मार्ग’ तो रामानुज- ‘भक्ति’ बताते है। पतंजलि-‘अष्टांग योग’, तो विवेकानन्द- ‘ज्ञान, कर्म, भक्ति, राज’ चारों योग निर्दिष्ट करते है। इस उच्चतम चेतना की प्राप्ति हेतु ही अरविंद- ‘समग्र योग’, जे. कृष्णमूर्ति- ‘सजगता’ तो ओशो- ‘ध्यान’ का मार्ग प्रशस्त करते है। 19वीं सदी के अंत में स्वामी विवेकानन्द ने ही सर्वप्रथम अद्वैत वेदान्त को समसामयिक वैज्ञानिक भाषा में प्रतिपादित करते हुए विश्व के समक्ष जयघोष किया था -- कि ‘‘चाहे कोई भी मार्ग अपनाओ या सभी मार्गों का एकसाथ अनुगमन करो किन्तु अपने आत्म स्वरूप को प्रकट किये बिना चैन से नहीं बैठो !~ उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’’ (कठोपनिषद, 1.3.14)।
क्या यह मात्र दैव संयोग ही है (या निकोला टेस्ला और स्वामी जी के बीच संवाद ही है) कि उनके महाप्रयाण (1902 में) के कुछ ही समय पश्चात क्वांटम भौतिकी का प्रादुर्भाव हुआ और विश्व, पदार्थ के विज्ञान से निकलकर चेतना के विज्ञान की दहलीज पर आ खड़ा हुआ है। प्रथम बार आधुनिक भौतिक शास्त्रियों ने अद्वैत वेदान्त की तरफ पूर्ण जिज्ञासा से भर कर देखना प्रारंभ किया है।
यह प्रश्न कि ‘चेतना क्या है’ ? अब ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ की तरह विज्ञान के द्वार पर दस्तक दे रहा है। क्वांटम भौतिकी की अवधारणाओं ने समूचे विश्व के ज्ञान प्रवाह को पुनः प्राचीन भारतीय वेदों की ओर मोड़ दिया है। क्या एक बार पुनः पूरब से ‘अहं ब्रह्मस्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) का जयघोष होगा ? क्या समग्र ब्रह्माण्ड, वाक् शक्ति युक्त प्रत्येक प्राणी के माध्यम से एक स्वर में कह उठेगा -‘तत्त्वमसि’ (तुम भी वही (ब्रह्म) हो) क्या 21वीं सदी मानवीय चेतना के विकास की सदी होगी? 'सलिल' ......( A Research Article by- Salil Samadhia..साभार~https://nlnl.facebook.com/groups/1788129901309115/permalink/19008710700349/)
अद्वैत वेदान्त दर्शन एवं भौतिक विज्ञान का संगम होना 21वीं सदी की परम आवश्यकता है। इसलिये श्रीशुकदेवजी महाराज (श्रीमद्भागवत १२/५/२) में राजा परीक्षित से कहते हैं‒मनुष्य शरीर विवेक प्रधान है । अतः ‘मैं शरीर नहीं हूँ’‒यह विवेक केवल मनुष्य शरीर में ही हो सकता है । शरीर को ‘मैं’ मानना मनुष्यता नहीं है, प्रत्युत पशुता है ।
त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि ।
न जातः प्रागभूतोऽद्य देहवत्त्वं न नङ्क्ष्यसि॥‘
हे राजन् !‘मैं मरने वाला हूँ’ इस पशु-बुद्धि का तुम त्याग कर दो। जो आदमी सोचता है कि मैं मरने वाला हूँ वह मूढ़-बुद्धि, पशु-बुद्धि वाला है। सत्य तो यह है कि तुम मरणशील नहीं हो, केवल तुम्हारे देह का जन्म तथा मरण होता है। देखो, भगवान ने भी देह धारण किया, परन्तु अन्ततः उसे त्याग दिया। क्या भगवान अपनी देह को बनाए नहीं रख सकते थे? अरे! तुम्हारा जन्म न तो पहले कभी हुआ था, न अब हुआ है और न आगे कभी होगा। मन ही ऐसी काल्पनिक सृष्टि करता रहता है। वही विभिन्न वस्तुएँ उत्पन्न करके उनसे जुड़ जाता है।
5.
दो प्रकार के शिक्षक
भारत में यह भूतपूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिन 5 सितंबर को शिक्षक दिवस (टीचर्स डे) मनाया जाता है। अलग-अलग देशों में शिक्षक दिवस अलग-अलग तारीखों पर मनाये जाते हैं। विश्व शिक्षक दिवस (World Teacher's day) 5 अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में मनाया जाता है। शिक्षक या अध्यापक हमें किताबी ज्ञान देते हैं। या फॉर्मूला समझाकर सवाल हल करना सिखाते हैं। इस तरह का ज्ञान हमें कागज़ी प्रमाण पत्र अर्थात डिग्री लेने में मदद करते हैं। किन्तु यह तो पढ़ाना हुआ, गढ़ना न हुआ।एक शिक्षक से आप कुछ सीखते है सीखने के बदले में उसे कुछ दे देते है, और बात वहीँ समाप्त हो जाती है। और गुरु का काम यही है तपाकर उसे एक आकार देकर भविष्य के लिए तैयार करना,ताकि शिष्य कहीं मात न खाए और जीवन में हमेशा चमकता रहे।
गुरु/मार्गदर्शक नेता पढ़ाता नहीं, गढ़ता है। गढ़ना का मतलब है उसे एक आकार देना। यह बड़े मजे की बात है कि शिक्षक जो जानकारी देता है, किन्तु यह जरुरी नहीं कि वह जानकारी उसका अपना अनुभव भी हो। जो शिक्षक आपको नीति शास्त्र पढ़ाता है और पढ़ाता है कि शुभ क्या है, अशुभ क्या है? नीति क्या है, अनीति क्या है? जरूरी नहीं कि वह स्वयं शुभ का आचरण करता हो। वह सिर्फ शिक्षक है, वह सूचना करता है, शिक्षक देता है सूचनाएं जानकारियां, इन्फॉर्मेशन। गुरु/नेता देता है अनुभव। गुरु जो कहता है, वह सूचना नहीं , परम् सत्य (महावाक्य-श्रुति या सुरती है), जो उसके जीवन में आविर्भूत हुआ है। गुरु के लिए तो हृदय में हमेशा सम्मान रखना ज़रूरी है। क्योंकि गुरु से जो हम सीखते है उसके बदले में कुछ भी नहीं दिया जा सकता। कोई उपाय देने का नहीं है। क्योंकि जो गुरु देता है उसका कोई मूल्य नहीं है। जो गुरु देता है, उसे चुकाने का कोई उपाय नहीं है। उसे वापस करने का कोई उपाय नहीं है। शिक्षक या अध्यापक सिर्फ अध्ययन कराने से जुड़ा है,जबकि गुरु अध्ययन से आगे जाकर जिन्दगी की हक़ीकत से भी रूबरू कराता है और उससे निपटने के गुर सिखाता है।
हालांकि आज बहुत से लोग शिक्षक/अध्यापक को ही गुरु/नेता समझ लेते हैं। पर बात इतनी सीधी नहीं है। आइए इसे थोड़ा समझते हैं। गुरु/नेता [C-in-C] और शिक्षक में क्या फर्क है ? कहा गया है कि, गुरु बिना ज्ञान नही, अब ज्ञान तो बहुत सी बातों का हो सकता है, क्योंकि हर एक कार्य को करने के लिए उसका जानना समझना आवश्यक है। लेकिन यह ज्ञान अथवा शरीर और शरीरी का विवेक (समझ) कुछ अलग ही प्रकार की है। और वह विवेकज-ज्ञान जो स्वयं का बोध कराए, कहाँ से आये हैं, और कहाँ चले जाना है, और कैसे जाना है, क्या लेकर जाना ? यह है आध्यात्मिक ज्ञान अर्थात आत्मा के संदर्भ में अध्ययन, वह ज्ञान जिसके लिए ही कहा गया है कि, इसका ज्ञान गुरु के बिना असंभव ही है।
हालांकि आज बहुत से लोग शिक्षक/अध्यापक को ही गुरु/नेता समझ लेते हैं। पर बात इतनी सीधी नहीं है। आइए इसे थोड़ा समझते हैं। गुरु/नेता [C-in-C] और शिक्षक में क्या फर्क है ? कहा गया है कि, गुरु बिना ज्ञान नही, अब ज्ञान तो बहुत सी बातों का हो सकता है, क्योंकि हर एक कार्य को करने के लिए उसका जानना समझना आवश्यक है। लेकिन यह ज्ञान अथवा शरीर और शरीरी का विवेक (समझ) कुछ अलग ही प्रकार की है। और वह विवेकज-ज्ञान जो स्वयं का बोध कराए, कहाँ से आये हैं, और कहाँ चले जाना है, और कैसे जाना है, क्या लेकर जाना ? यह है आध्यात्मिक ज्ञान अर्थात आत्मा के संदर्भ में अध्ययन, वह ज्ञान जिसके लिए ही कहा गया है कि, इसका ज्ञान गुरु के बिना असंभव ही है।
अतः शिक्षक का कर्तव्य अलग है, और गुरु का कर्तव्य अलग है, दोनों में महान अन्तर है। और गुरु वह जो गति, सदगति की राह पर ले जाते हो, मुक्तिधाम का रास्ता (अर्थात de-hypnotized होने का उपाय) बताएँ भी, और लेकर जाएं भी वही गुरु है। ऐसे (इस प्रकार के) गुरु/नेता की धारणा मौलिक रूप से भारतीय है। गुरु जैसा शब्द दुनियां की किसी भाषा में नहीं है। ["Swami Vivekananda -Captain Severe Be and Make (C-in-C) leadership training tradition" में प्रशिक्षित "पूज्य नवनीदा" जैसे गुरु/मार्गदर्शक नेता की धारणा मौलिक रूप से भारतीय है।] अध्यापक,शिक्षक , टीचर, मास्टर ये शब्द हैं। लेकिन गुरु के लिए (C-in-C) जैसा कोई भी शब्द/ पद महामण्डल घराने के अलावा अन्य किसी आध्यात्मिक संगठन में नहीं है। गुरु, नेता या 'C-in-C' के विषय में हमारा (महामण्डल घराने का)अभिप्राय ही भिन्न है। और इसीलिए महामण्डल में कहा जाता है - विवेकानन्द हमारे नेता !
महाभारत में श्रीकृष्ण अर्जुन सामने युद्ध के मैदान में गुरु (अर्थात मार्गदर्शक नेता) की भूमिका में थे। उन्होंने अर्जुन को न सिर्फ उपदेश दिया बल्कि हर उस वक्त में उसे थामा जब-जब अर्जुन लड़खड़ाते नजर आए। लेकिन आज का अध्यापक इससे अलग है। अध्यापक गुरु हो सकता है पर किसी गुरु को सिर्फ अध्यापक समझ लेना ग़लत है। ऐसा भी हो सकता है कि सभी अध्यापक गुरु कहलाने लायक न हों,हज़ारों में से मुट्ठीभर अध्यापक आपको गुरु मिलेंगे।
एक शिक्षक के पास से हम ज्ञानी होकर लौटते हैं, ज्यादा जानकर लौटते हैं, लर्नेड होने के अभिमान से भरकर लौटते है। जबकि किसी गुरु के पास से हम रूपांतरित होकर लौटते है। पुराना आदमी मर जाता है, नये का जन्म होता है। गुरु के पास जब हम जाते हैं तब हम वही नहीं लौट सकते, अगर हम गुरु के पास गये हों। गुरु के पास जाना कठिन मामला है। लेकिन, अगर हम गुरु के पास गये हों तो, जो जाता है, वह फिर कभी वापस नहीं लौटता। दूसरा आदमी वापस लौटता है। गुरु के पास जब हम जाते हैं तो जो हम थे, वह और आदमी था और जो हम लौटते हैं वह और आदमी है।
गुरु हममें जोड़ता नहीं, हमें मिटाता है और नया निर्मित करता है। गुरु हमको संवारता ही नहीं है, हमें मारता और जिलाता भी है। गुरु के पास जाने के बाद हमारे अतीत में और हमारे भविष्य में एक गैप, एक अंतराल हो जाता है। लौट के आप देखेंगे तो अपनी कथा ऐसी लगेगी, किसी और की कहांनी है। इसलिए हमारे पूर्वज ऋषियों ने एक शब्द खोजा था, वह है द्विज। द्विज का अर्थ है ट्वाइस बॉर्न, दुबारा जन्मा हुआ वही आदमी है, जिसे गुरु मिल गया। नहीं तो दुबारा जन्मा हुआ आदमी नहीं है। एक जन्म तो मां बाप देते है, वह शरीर का जन्म है। एक जन्म गुरु के निकट घटित होता है, वह आत्मा का जन्म है। जब वह जन्म घटित होता है तो आदमी द्विज होता है। उसके पहले आदमी एक जन्मा है, उसके बाद दोहरा जन्म हो जाता है, ट्वाइस बॉर्न हो जाता है। जब हम अपने तुच्छ व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृ हृदय के सर्वव्यापी विराट अहं -बोध में परिवर्तित करने में सक्षम हो जाते हैं; तब हम ईश्वर (माँ काली के अवतार भगवान श्री रामकृष्ण) के साथ अपने सम्बन्ध के विषय में प्रबुद्ध अर्थात आध्यात्मिक रूप से जागृत या ट्वाइस बॉर्न हो जाते हैं! (we become enlightened or spiritually aware in our relationship with God.) इसी द्विज अवस्था (ट्वाइस बॉर्न,de-hypnotized या भ्रममुक्त अवस्था) को प्राप्त होकर अर्जुन ने गीता 18/73 में अपने मार्गदर्शक नेता/ गुरु भगवान श्रीकृष्ण से कहा था -
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।18.73।।
[इसके भाष्य में आचार्य शंकर ने इस प्रकार कहा है - " नष्टः मोहः अज्ञानजः समस्त संसारानर्थहेतुः सागर इव दुरुत्तरः। स्मृतिश्च आत्मतत्त्वविषया लब्धा- (विवेकजः) यस्याः लाभात् सर्वहृदयग्रन्थीनां विप्रमोक्षः तव प्रसादात् मया त्वत्प्रसादम् आश्रितेन अच्युत। स्थितः अस्मि गतसंदेहः मुक्तसंशयः। करिष्ये वचनं तव। अहं त्वत्प्रसादात् कृतार्थः, न मे कर्तव्यम् अस्ति इत्यभिप्रायः।
अर्जुन बोला -- हे अच्युत मेरा अज्ञानजन्य मोह- जो कि समस्त संसार रूप अनर्थ का कारण था और समुद्र को तैर करने की भाँति दुस्तर था, नष्ट हो गया है। और हे अच्युत आपकी कृपा के आश्रित होकर मैंने आप की कृपा से आत्म-विषयक ऐसी स्मृति भी प्राप्त कर ली है कि जिसके प्राप्त होने से समस्त ग्रन्थियाँ -- संशय विच्छिन्न हो जाते हैं। अब मैं संशयरहित हो गया हूँ और मैं आपके वचन (आज्ञा) का पालन करूँगा। अभिप्राय यह है कि मैं आप की कृपा से मैं कृतार्थ हो गया हूँ ( अब ) मेरा कोई (सांसारिक ?) कर्तव्य शेष नहीं है।
गुरु का ओहदा अध्यापक से बहुत ही ऊंचा है। वेदों और पुराणों से भरे अपने सांस्कृतिक देश में हमने गुरु के सम्मान में आषाढ़(जून-जुलाई)की पूर्णिमा पर गुरु पुर्णिमा जैसे दि बनाए हैं। यह वेद व्यास के जन्मदिवस पर मनाया जाता है। वेद व्यास ने चारों वेदों,पुराणों और महाभारत को व्यवस्थित किया। वेद,पुराण हमें जीवन जीने की कला सिखाते हैं। भारतीय संस्कृति वेदों,पुराणों से ही निकली और कालांतर में नए परिधान भी धारण करती गई। यही कारण है कि गुरु को विशेष सम्मान देने के लिए गुरु पूर्णिमा का दिन है।
शिक्षक के लिए अंग्रेजी शब्द है- 'Teacher' और शिक्षक के लिए संस्कृत शब्द गुरु के लिए अंग्रेजी शब्द है - 'Leader' है। उस व्यक्ति को ही नेता / गुरु / प्रबुद्ध (enlightened) या बुद्धत्व प्राप्त नागरिक कहा जा सकता है, जो 'spiritually aware' या आध्यात्मिक रूप से जागृत हैं, अर्थात जो ईश्वर (दक्षिणेश्वर मंदिर की माँ काली - श्रीरामकृष्ण -माँ सारदा देवी- स्वामी विवेकानन्द के succession) राज्यारोहण अनुक्रम में पाँचवे नेता (C-in-C) के साथ अपने सम्बन्ध के विषय में प्रबुद्ध हो चुके हैं।
श्री स्कन्द पुराणान्तर्गत शिव पार्वती संवाद में श्री गुरु या नेता की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है
श्री स्कन्द पुराणान्तर्गत शिव पार्वती संवाद में श्री गुरु या नेता की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है
गुकारश्चान्धकारस्तु रुकारस्तन्निरोधकृत्।
अन्धकारविनाशित्वात् गुरुरित्यभिधीयते ||
‘गु’ कार अंधकार को इंगित करता है, और ‘रु’ कार उस तत्व को इंगित करता है, जो उस अंधकार को दूर कर देता है। गुरु का व्युत्पत्तित्मक (etymological) अर्थ हुआ वह व्यक्ति जो शिष्य के अज्ञान-रूपी अन्धकार को दूर करने में समर्थ हो --[The guru or Leader is one who takes the disciple from darkness to the light or from ignorance (fundamental mistake) to knowledge, so the Leaders can be called a torch-bearer of change. 34]गुरु (Leader) के बिना गति नहीं होती, मतलब गुरु (मार्गदर्शक नेता) के बिना जीवन की गाड़ी में ब्रेक लग जाता है। गति गुरु से ही है। और हमारे चारों तरफ मौजूद चीजें प्राकृतिक घटनायें जो हमें कुछ भी सीख देती हैं,वह हमारी गुरु (नेता) हैं। इसीलिए 'विष्णु सहस्रनाम' में भगवान विष्णु का एक नाम 'नेता' (torch-bearer of change) भी है।
6.
वर्तमान में प्रचलित शिक्षा और गुरुकुल प्रशिक्षण-प्रणाली का समन्वय:
स्वामी विवेकानन्द ने आध्यात्मिक संस्कृति के प्रचारक नेताओं (torch-bearers of change) के निर्माण की अनिवार्यता पर जोर देते हुए कहा था - "इसलिये , मेरे मित्रो , मेरा विचार है कि भारत में कुछ ऐसे शिक्षालय स्थापित करूँ जहाँ हमारे नवयुवक अपने धर्मग्रंथों के ज्ञान में प्रशिक्षित होकर (श्रुति परम्परा में मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने में समर्थ जीवनमुक्त शिक्षक बनकर) तथा हमारे वेदों में आविष्कृत सत्य (चार महावाक्य) के प्रचारक (Torch-Bearer, torchbearer या पथ-प्रदर्श्क) बनकर भारत तथा भारत से बहार अपने धर्म का प्रचार कर सकें। [इच्छाशक्ति स्वतंत्र नहीं है- यह एक अद्भुत घटना (phenomenon) है जो कार्य -कारण के नियम से बंधी है- लेकिन इच्छाशक्ति के पीछे कुछ ऐसा है, जो स्वतंत्र है। the will is not free -it is a phenomenon bound by cause and effect -but there is something behind the will which is free .] ..." इच्छाशक्ति संसार में सबसे अधिक बलवती है। उसके सामने दुनिया की कोई चीज नहीं ठहर सकती; क्योंकि यह भगवान -साक्षात् भगवान से आती है। विशुद्ध और दृढ इच्छाशक्ति सर्वशक्तिमान है। क्या तुम इसमें विश्वास नहीं करते ? सबके समक्ष अपने धर्म के महान सत्यों का प्रचार करो , सारा संसार इसकी प्रतीक्षा कर रहा है।" सैंकड़ों वर्षों से लोगों को मनुष्य की हीनावस्था (ऑरिजिनल सिन या फंडामेंटल मिस्टेक) का ही ज्ञान कराया गया है। संसार भर में सर्वत्र --सर्वसाधारण से [चर्चनिटी और मठाधीशों द्वारा] यही कहा गया है, कि तुमलोग मनुष्य ही नहीं हो। शताब्दियों से इस प्रकार डराये जाने के कारण वे बेचारे सचमुच ही करीब करीब पशुत्व को प्राप्त हो गए हैं। उन्हें कभी आत्मतत्व के विषय में सुनने का मौका नहीं दिया गया। अब उनको आत्मतत्व सुनने दो, यह जान लेने दो कि उनमें से नीच से नीच वृत्ति करने वालों में भी वही आत्मा विद्यमान है --जो अजर, अमर और अविनाशी है। वह आत्मा, जो न कभी मरती है, न जन्म लेती है, जिसे न तलवार काट सकती है , न आग जला सकती है, और न हवा सूखा सकती है। जो शुद्ध स्वरुप, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। हम लोग अपने को केवल शरीर मानने के कारण शक्तिहीन हो गए हैं। हमें ऐसे सिद्धान्तों की जरूरत है, जिससे हम 'मनुष्य' बन सकें। हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा (3H विकास के 5 अभ्यास का शिक्षक-प्रशिक्षण) चाहिए जो हमें मनुष्य (Enlightened citizens-अर्थात क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से सम्पन्न नागरिक) बना सके। ५/१२१ [" Therefore, my friends, my plan is to start institutions in India, to train our young men as preachers of the truths of our scriptures in India and outside India.vol/3/223
" What we want is strength, so believe in yourselves. Make your nerves strong. What we want is muscles of iron and nerves of steel. It is man-making theories that we want. It is man-making education all round that we want.3/224 "
Let them hear of the Atman — that even the lowest of the low have the Atman within, which never dies and never is born — of Him whom the sword cannot pierce, nor the fire burn, nor the air dry — immortal, without beginning or end, the all-pure, omnipotent, and omnipresent Atman!" 3/224
राजकोट रामकृष्ण आश्रम के सचिव स्वामी निखिलेश्वरानन्द (प्रबोध महाराज) ने 17 दिसम्बर 2003 को " Teacher as a torch-bearer of change" विषय पर 'अहमदाबाद मैनेजमेन्ट असोसिएशन' में दिए अपने भाषण में कहा था : "-- प्राचीन भारत के "गुरुकुल" नामक शिक्षण संस्थानों में छात्रों को ये दोनों विद्यायें- 'अपरा' (विज्ञान ) और 'परा ' (आध्यात्म) एक साथ प्रदान की जाती थीं । किन्तु हम देखते हैं किआधुनिक शिक्षण संस्थानों में इन दिनों छात्रों को यद्यपि अपरा विद्या (भौतिक रूप से समृद्ध बनने की शिक्षा) तो दी जा रही है, तथापि परा विद्या को सिखाने पर (हृदय को विकसित करने की प्रशिक्षण पद्धति-या आध्यात्मिक दृष्टि से जागृत मनुष्य बनने और बनाने की प्रशिक्षण-पद्धति पर) बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है। आधुनिक शिक्षा प्रणाली में 'मनःसंयोग' या मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण देने में समर्थ शिक्षकों (राजर्षि/नेताओं के निर्माण) को पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया गया है।
जिसके फलस्वरूप अपने 'काचा आमि' को 'पाका आमि' में रूपांतरित करने या द्विज होने की पद्धति [तुच्छ व्यष्टि अहं (M/F शरीर से तादात्म्य) का अतिक्रमण कर माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट मातृहृदय का अहं बोध में रूपांतरित करने या द्विज होने (बनने और बनाने) की पद्धति] उपेक्षित हो रही है। (Self-actualization , self-transcendence have been completely neglected.) यहाँ तक कि गुरु शब्द का सही अर्थ (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) को भी भुला दिया गया है; और इस शब्द का उपयोग आजकल आज बहुत सस्ते अर्थों में -जैसे मैनेजमेन्ट गुरु, कराटे गुरु, या कलकी गुरु आदि का प्रतिनिधित्व करने के संदर्भ में किया जाता है। निश्चित रूप से यह इस महान शब्द (गुरु) का एक सस्ता व्यवहार है जो उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है, जो स्वयं पैगम्बर बनकर भावी पीढ़ी के शिक्षकों /भावी नेताओं (would be leaders) में विद्यमान अज्ञानता के अंधेरे को दूर करता है और उसे उसके दिव्य स्वरूप का ज्ञान देता है।"
(In olden days both these Two Vidyas were simultaneously imparted to the disciples in educational institutions called the Gurukula . But these days what we find is that in the modern educational institutions only apra vidya is being imparted with no impetus being given to para vidya . Self-actualization , self-transcendence have been completely neglected .Even the true meaning of the word guru has been forgotten and the word is used in a much cheaper sense today .Today we use this word to represent management gurus, karate gurus , etc This is clearly is a cheap usage of the word which represents a person who removes darkness of ignorance and a person who gives the knowledge of self by bringing the light of the divine .)
आधुनिक शिक्षा नीति पाश्चात्य प्रणाली से प्रभावित है। इस शिक्षा प्रणाली में ईबुक, वीडियो व्याख्यान, वीडियो चैट, 3-डी इमेजरी आदि तकनीक शामिल हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आधुनिक शिक्षा प्रणाली, शिक्षा में तकनीकी विकास को जोड़ने से विकसित हुई है। इन तकनीकों के माध्यम से छात्रों को घर बैठकर और बेहतर तरीके से ज्ञान को समझने में मदद मिलती है जिससे छात्रों की नए अविष्कारों के प्रति समझ में बढ़ोतरी होती हैं। उन्नत अनुसंधान और तकनीकी विकास के अनुसार शिक्षण विधियों को इस प्रकार से लगातार अपग्रेड किया जा रहा है, कि जब स्मरण शक्ति, समझ और अवसर की दृष्टि से परखा जाय, तो कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि आधुनिक शिक्षा अधिक प्रभावी है। अतः यह शिक्षा प्रणाली सबको उपलब्ध करायी जानी चाहिए, ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार इसे इस्तेमाल कर सके। इस पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली की एकमात्र कमी यही है कि इसमें छात्रों के हृदय को विकसित करने की व्यावहारिक प्रशिक्षण के बजाय उसके सैद्धांतिक भाग पर ही जोर दिया जाता है। इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं हैं की दोनों शिक्षा प्रणालियों में समन्वय लाने करने की जरुरत है।
गुरुकुल शिक्षा पद्धति को ठीक से समझने की जरुरत है। हमें यह समझना होगा कि 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' में प्रशिक्षित गुरु -मार्गदर्शक नेताओं /पैगंबरों करने की पद्धति , या श्रुति -परम्परा कैसे काम करती है ? अतीत में यह प्रशिक्षण -पद्धति कैसे कार्य करती थी और वर्तमान में गुरुकुल प्रशिक्षण प्रणाली के उद्देश्य को कैसे पूरा किया जा सकता है ? यह सिर्फ अतीत को जानने की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि दोनों शिक्षा प्रणाली का समन्वय होना अनिवार्य है। प्राचीन काल की गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से नकार देने को उचित नहीं कहा जा सकता है। जहाँ आध्यात्मिक संस्कृति, चरित्र निर्माण, शिष्टाचार और सभ्यता सिखाई जाती थी। इस प्रणाली के जरिये छात्रों को शिक्षा के साथ सुसंस्कृत मनुष्य बनने और अनुशासित जीवन जीने के लिए आवश्यक पहलुओं को भी पढ़ाया जाता था। हमें ये नहीं भूल सकते हैं कि गुरुकुल प्रणाली उस समय की एकमात्र शिक्षा प्रणाली थी, जिसमें अपरा विद्या एवं परा विद्या दोनों विद्यायें सिखलायी जाती थीं। उस सभी छात्र किसी गुरुकुल छत के नीचे मिलजुल कर एक साथ रहते थे और वहां के वातावरण में अच्छी मानवता, प्रेम और अनुशासन था। यहां पर बुजुर्गों, माता, पिता और गुरुओं /जीवनमुक्त शिक्षकों का सम्मान करने जैसी अच्छी आदतें छात्रों को सिखाई जाती थीं।
स्वामी निखिलेश्वरानन्द (प्रबोध महाराज) अपनी पुस्तक में आगे कहते हैं - " अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव (विवेकानन्द के गुरु) कहा करते थे कि एकमात्र सच्चिदानन्द ही गुरु बन सकते हैं। प्रश्न उठता है कि भगवान किस प्रकार ज्ञान प्रदान करते हैं? वे दो तरीके से मनुष्यों को ज्ञान प्रदान करते हैं। माइक्रो लेवल या सूक्ष्म रूप से वे किसी व्यक्ति के हृदय में बैठकर उसको भीतर से (विवेक-प्रयोग करने के लिए) प्रेरित करते हैं । फिर मैक्रो लेवल और स्थूल रूप से कार्य करने के लिए कभी-कभी भगवान स्वयं भी मनुष्य शरीर धारण कर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। पूर्व में श्री रामचंद्र, श्रीकृष्ण, बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, ईसा मसीह, मुहम्मद, गुरु नानक, और अन्य दिव्य व्यक्तित्व मानवजाति के ऐसे ही मार्गदर्शक नेता या पृथ्वी के नमक (be a very good and honest person.) थे। भौतिकवादी संस्कृति द्वारा उत्पन्न बुराइयों को दूर करने के लिए आविर्भूत समस्त अवतारों की सूची में श्री रामकृष्ण देव, माँ सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द मानवजाति के नवीनतम तथा सर्वतोकृष्ट (par excellence) मार्गदर्शक नेता / गुरु हैं। इसी नेताओं/गुरुओ / सन्तों की सूचि में कबीर, तुलसी , मीरा --आदि का नाम भी उल्लेखनीय है। इनके अतिरिक्त "विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा" या " Be and Make Leadership Training Tradition" (या महामण्डल घराना या अद्वैत आश्रम मायावती गुरुकुल) में प्रशिक्षित (5th) नवनीदा जैसे कुछअनुभूति सम्पन्न आत्मायें भी इस धरती पर हैं। जिन्होंने महामण्डल द्वारा निर्देशित 3'H' विकास के 5 अभ्यासों द्वारा परम् सत्य (ब्रह्म) की अनुभूति प्राप्त कर ली है ! उन अनुभूति सम्पन्न आत्माओं (ब्रह्मविद या देवमानव को ही महामण्डल में नेता/गुरु/C-in-C कहा जाता है जो अपरा विद्या के साथ साथ, निःशुल्क आध्यात्मिक ज्ञान देने ( spiritual knowledge ,परा विद्या या मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने) में भी समर्थ होते हैं। फिर हम कुछ ऐसे शिक्षकों को भी देखते हैं, जो हमें केवल दुनियावी या लौकिक ज्ञान (secular knowledge) ही प्रदान करते हैं। जब हम किसी व्यक्ति को शिक्षक कहते हैं, तो अधिकांशतः हमारा तात्पर्य उस व्यक्ति से होता है, जो स्कूलों या किसी शैक्षणिक संस्थानों के वेतनभोगी कर्मचारी ( salaried employee) होता है।
(Sri Ramakrishna used to say that Sachidananda alone can become guru . So how does God impart knowledge ? In two ways . At the micro level , He inspires an individual from within. At the macro level sometimes God Himself comes on earth . In the past Sri Ramachandra, Sri Krishna , Buddha, Mahavira, Shankaracharya, Jesus Christ, Muhammad, Guru Nanak, and other divine personalities were the salt of the earth .Sri Ramakrishna is the latest in this list to remove the evils produced by forces like materialism .Sri Ramakrishna is the latest in this list to remove the evils produced by forces like materialism. Moreover we have the realized souls , human beings who have practiced and realized the truth. They become guru and they give the spiritual knowledge . Then we have the teachers who are involved in imparting secular knowledge . Mostly when we say 'teachers' , we mean persons who are working in schools or other educational institutions.]
उपरोक्त आध्यात्मिक ज्ञान देने में समर्थ -'जीवनमुक्त-शिक्षक' को ही गुरु /नेता/आध्यात्मिक क्रान्ति के अग्रदूत या मशाल वाहक-- 'torch-bearers of change' की संज्ञा दी जा सकती है। क्योंकि कोई राजर्षि (आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न और आध्यात्मिक रूप से जागृत - सिद्धार्थ गौतम या राजा जनक जैसा त्यागी गृहस्थ गुरु/नेता ) ही भौतिकवादी संस्कृति या भोगवादी संस्कृति से प्रभावित साधारण मनुष्यों के विचार जगत में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला सकते हैं। और इस प्रकार वे सम्पूर्ण विश्व को परिवर्तित कर सकते हैं। [The spiritual teachers mentioned above of course bring about a change ; they can transform the whole world .]
." ठाकुर का सेवक राजर्षि (राजा + ऋषि) बनना और बनाना " सर्वतोकृष्ट समाज सेवा है:
"प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म में संतुलन स्थापित करने की श्रुति -परम्परा" क्योंकि महामण्डल द्वारा विगत 53 वर्षों से संचालित आमूल परिवर्तन के मशाल-वाहक 'नेता' (Torch -bearers of total change-सम्पूर्ण क्रांति या आध्यात्मिक क्रांति के नेता) अर्थात " शिव ज्ञान से जीवसेवा करने में सक्षम ठाकुर का सेवक' राजर्षि बनो और बनाओ आंदोलन " के साथ जुड़े रहना भी अपने-आप में एक सर्वतोकृष्ट समाज सेवा भी है! अथवा " स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर Be and Make - वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन में प्रशिक्षित तथा नवनीदा जैसे (चपरास C-in-C का बिल्ला प्राप्त) नेता / (ब्रह्मविद -गुरु या जीवनमुक्त शीक्षक, पैगम्बर) ही युग परिवर्तन (पशुमानव को देवमानव में परिवर्तन करने ) के मशाल वाहक हैं। जिन्होंने 1967 में भारत की आध्यात्मिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार द्वारा पूरे राष्ट्र और सम्पूर्ण विश्व के विचार जगत में छाये हुए अज्ञान अन्धकार को नष्ट करने के लिए अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की स्थापना की थी। तथा वर्ष 1967 में ही भावी पीढ़ी के नेताओं -' torch-bearers of change' का निर्माण करने के लिए 'प्रथम अखिल भारत युवा प्रशिक्षण शिविर' को आयोजित किया था। और जो विगत 53 वर्षों से अपना कार्य करता आ रहा है। इसी क्रम में महामण्डल का 53 वां वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर 25 -30 दिसम्बर 2019 तक फुलिया बालिका विद्यालय , फुलिया शिक्षा निकेतन एवं फुलिया विद्या मंदिर, नदीया, पच्छिम बंगाल, में आयोजित होने जा रहा है। आवेदन करने की अंतिम तारीख 30 नवम्बर 2019 है। आवेदन पत्र, महामण्डल फुलिया शाखा , सारदा भवन , 2 नंबर नतून फुलिया साठ पाड़ा, नदीया से प्राप्त किये जा सकते हैं।
7.
भारत की गौरवशाली नियति
भारत की गौरवशाली नियति
(भारत का प्रारब्ध, मुकद्दर या destiny)
नानी पालखीवाला ने एक अन्य लेख में कहा था - " भारत के डीएनए में व्यापार करने का कौशल जन्मजात रूप से विद्यमान है। कोई भारतीय प्रवासी किसी यहूदी से माल खरीदकर किसी स्कॉटलैण्ड के निवासी ( SCOT) को बेच सकता है, और फिर भी उसमें मुनाफ़ा भी कमा सकता है। [ दूसरे शब्दों में दूसरों को प्रभावित करने की लीडरशिप क़्वालिटिज, या दूसरों के सन्देहों को दूर करने (convince) की क्षमता भारत वंशियों (Indian Diaspora) में जन्मजात रूप से विद्यमान है।] ऋषि अरबिन्दो के शब्दों में, "विश्व का नैतिक नेता बनना" ही भारत की गौरवशाली नियति है।" महामण्डल द्वारा निर्देशित 'Be and Make- लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन' अथवा " ठाकुर का सेवक बनने और बनाने की शीक्षा प्रणाली द्वारा " प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म में संतुलन स्थापित करने में समर्थ" (100 C -in-C) 'ठाकुर का सेवक राजर्षि बनना और बनना' ही - भारत की गौरवशाली नियति (glorious destiny प्रारब्ध या मुकद्दर) है।
[The trader's instinct (Leadership Qualities) is innate in Indian genes. An Indian can buy from a Jew and sell to a Scot, and yet make a profit! In the words of Sri Aurobindo, " to be the moral leader of the world.” is The glorious destiny of India.]
भारत की वर्तमान पीढ़ी एक ऐसे नेता की प्रतीक्षा कर रही है, जो इसे भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में निहित नैतिक मूल्यों को अपने जीवन में पुनः धारण करने का प्रशिक्षण देगा। और जिस प्रकार गाँधीजी ने अविरत प्रयास से देश को स्वतंत्र करने की जिम्मेदारी की अटूट भावना सम्पूर्ण भारत वासियों के मन में बैठा दिया था -उसी प्रकार चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने की जिम्मेदारी की भावना को भी भावी पीढ़ी के नेताओं के मन में बिठा देने या 'inculcate' करने में सक्षम होगा।
स्वतन्त्र राष्ट्र के नागरिकों के अधिकार तथा कर्तव्यों का गहन अवलोकन करते हुए फ्रांसीसी इतिहासकार तथा राजनीतिक लेखक, एलेक्सिस डी टोकेविले ने कहा था - " स्वतंत्रता कभी अकेले फलप्रसू नहीं हो हो सकती, स्वतंत्रता को उसके सहचर सद्गुणों जैसे ---स्वतंत्रता और नैतिकता (liberty and morality); ; स्वतंत्रता और लोकहित (liberty and the common good) ;स्वतंत्रता और न्याय (liberty and justice); स्वतंत्रता और नागरिक उत्तरदायित्व' (liberty and civic responsibility) स्वतंत्रता और कानून का भय (liberty and law) आदि के साथ संयुक्त करना भी आवश्यक है।
भारत की वर्तमान पीढ़ी एक आमूल परिवर्तन (आध्यात्मिक क्रांति) के गुरु नानकदेव जैसे मशाल वाहक नेता ('ठाकुर का सेवक राजर्षि', Heroes , 'नेता-गुरु 'C-in-C' नवनीदा जैसे वाहे गुरु Torch -bearer of total change) की प्रतीक्षा कर रही है, जो सौ भावी प्राचारक बनने और बनाने की जिम्मेदारी की भावना" को भारत के युवाओं के मन में बिठा देने में समर्थ होगा।
[ " The present generation is waiting for a leader who will make it relearn the moral values, and who will inculcate in the people as Gandhiji did, a sense of the responsibilities which fall on every citizen of a free society. 'liberty cannot stand alone but must be paired with a companion virtue: liberty and morality; liberty and law; liberty and justice; liberty and the common good; liberty and civic responsibility." The present generation is waiting for a Torch -bearer of change, who will inculcate a sense of responsibility to Be and Make Leaders /The Mother's child (100 % unselfish man-निर्विकल्प समाधि के परमानन्द का भी त्यागी) -shall be a hero , a Mahavira. In unhappiness, sorrow, death, and desolation, the Mothers child shall always remain fearless ." S.V.]
8.
21 वीं सदी में आर्थिक दृष्टि से समृद्ध और आध्यात्मिक रूप से जागृत भारत !
" आजादी के बाद के भारतीय राजनेताओं की सबसे अक्षम्य भूल यह है कि उन्होंने भारत के लोगों में यह भावना पैदा होने दी, कि स्वतंत्र भारत का कोई भी नागरिक अपने कर्तव्य और जिम्मेदारी की भावना के बिना भी मनचाही स्वतंत्रता पाने के हकदार हैं। (विश्व में आध्यात्मिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने में सक्षम नेताओं का निर्माण करने में भारत की भूमिका को समझे बिना भी, यहाँ के नागरिक मनचाही स्वतंत्रता पाने के हकदार हैं । ) उन्होंने जोर देकर कहा कि ‘स्पष्ट रूप से, भारतीयों में अनुशासन की कमी है। [नेता के आदेश के प्रति समझ और अनुशासन : केवल कामिनी -कांचन और नाम-यश में आसक्ति को ही नहीं त्यागना है,अपितु निर्विकल्प समाधि से प्राप्त परम् आनन्द तक को भी परहित के लिए त्याग देने और 100 % निःस्वार्थपर बनने की गुरुआज्ञा को सुनकर यदि उसका पालन न करें तो वैसे शिष्य को आज्ञाकारी और अनुशासित शिष्य नहीं कह सकते। ]
अपनी विशाल आबादी के बावजूद चीनी अपने आप को सक्षम इसलिए मानते हैं, क्योंकि उनमें प्राप्त आदेश के प्रति समझ और अनुशासन की भावना है। इस तरह के नैतिक मूल्यों के बिना भारत को महान और विकसित राष्ट्र बनाना मुश्किल होगा।
अतः हमें इसी बात पर अधिक जोर देना चाहिए कि श्रुति परम्परा में आधारित भारतीय संस्कृति पुनः अपने गौरव को कैसे प्राप्त करे ? गरीब देश या विकास शील देश को विश्व का कोई देश अपना गुरु /नेता नहीं मानेगा। यह तभी सम्भव है जब भारत एक आर्थिक रूप से समृद्ध और आध्यात्मिक दृष्टि से जागृत राजर्षि (राजा + ऋषि) का देश बन जायेगा। धन अर्जित करने में समर्थ गृहस्थ होने के साथ साथ आध्यात्मिक दृष्टि से जागृत नेता बनने और बनाने के लिए महामण्डल आंदोलन से जुड़ें।
आपियों और कांगियों के वामपंथी सोंच से प्रभावित होकर , प्रवासी भारतियों (Indian diaspora) को कोसना ठीक नहीं। इस बार केन्द्र है भारतवर्ष ! भारत से बाहर रहकर भारत में धन भेजने वाले जिन प्रवासी भारतीय जिनको लोग अभी कोस रहे हैं, ये एक ओर जहाँ भारत को 5 ट्रिलियन (50 खरब) डॉलर की अर्थव्यवस्था (5 trillion dollar economy) बना देंगे; वहीँ दूसरी ओर अपने पूर्वज ऋषियों से विरासत में प्राप्त आध्यात्मिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार द्वारा भारत को एक महान विकसित राष्ट्र बनाने में सहायक सिद्ध होंगे।
जिस परिवार के मुखिया आर्थिक रूप से समृद्ध होने के साथ ही साथ आध्यात्मिक दृष्टि से भी जागृत होंगे( जैसे (खड़दह के कन्नोजिया ब्राह्मण परिवार के लोग-Financially rich and Spiritually awakened) होंगे, उसी परिवार का कोई नवनीदा जैसा नेता [ 'ठाकुर के सेवक राजर्षि (राजा + ऋषि या भ्रममुक्त/ de-hypnotized/ बुद्धत्व-प्राप्त, या ब्रह्मविद) -torch -bearers of total change '] भारत की भावी पीढ़ी को चारित्रिक मूल्यों को स्थापित करके आध्यात्मिक क्रांति का नेता बनने और बनाने की प्रशिक्षण-पद्धति में प्रशिक्षित कर सकेगा।
स्वामी विवेकानन्द ने ऐसे ही कुछ क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से सम्पन्न आध्यतमिक संस्कृति के प्रचारक /नेता-गुरु/(पूज्य नवनीदा जैसे -100 % निःस्वार्थ बज्रतुल्य) राजर्षि बनने और बनाने की आवश्यकता को ध्यान में रखकर कहा था --" एक अनासक्त गृहस्थ होने की आकांक्षा करना बहुत अच्छा है; लेकिन मद्रास में अभी आवश्यकता अविवाह की है ! मेरे बच्चे, मैं जो चाहता हूँ -वह है लोहे की नसें और फौलाद के स्नायु, जिनके भीतर एक ऐसा मन वास करता हो, जो की वज्र के उपादानों (100% Unselfishness ) से बना हो। बल, पुरुषार्थ क्षात्रवीर्य + ब्रह्म तेज =निःस्वार्थता (वज्र तुल्य मनुष्य) " ५/३९८
" It is very good to aspire 'to be a non-attached house-holder; but what we want in Madras is not that just now — but non-marriage. . . My child, what I want is muscles of iron and nerves of steel, inside which dwells a mind of the same material as that of which the thunderbolt is made. Strength, manhood, Kshatra-Virya + Brahma-Teja.=Unselfish man becomes like thunderbolt ! "
9.
शिक्षा का वर्तमान परिदृश्य:
(आध्यात्मिक संस्कृति का प्रचार करने में समर्थ शिक्षकों के निर्माण पर
तत्काल ध्यान देने की अनिवार्यता)
[The Present Scenario of education: Is there a necessity for change ? All over the world there is a lack of peace of mind . What changes do we require? Urgent need of Spiritual Culture]समाज जीवन की कौन सी चुनौती शिक्षा क्षेत्र की नहीं है ? मनुष्यों के विचार जगत में या शिक्षा जगत में किस प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता है ? परिवर्तन की आवश्यकता, यानी संकीर्ण राष्ट्रवाद को सार्वभौमिकतावाद में बदलने, जातीयता और सांस्कृतिक पूर्वाग्रह को सहिष्णुता, समझदारी और बहु-समुदायवाद में बदलने, विभिन्न प्रकार से प्रकट होने वाली निरंकुशता को लोकतांत्रिक प्रणाली में बदलने और प्रौद्योगिकी के आधार पर विभाजित विश्व, जहां उच्च प्रौद्योगिकी पर गिने चुने देशों का विशेषाधिकार है, को प्रौद्योगिकी की दृष्टि से एकजुट विश्व में बदलने के लिए शिक्षकों पर भारी जिम्मेदारी है, जो नई पीढ़ी के चरित्र और मस्तिष्क को सही दिशा देने की प्रक्रिया में शामिल होते हैं।
शिक्षा जीवन के विकास की यात्रा है। व्यक्तित्व के विकास का एक मात्र माध्यम शिक्षा ही है। विश्वभर के शिक्षाविद् कहते हैं कि शिक्षा के सम्मुख तीन प्रमुख काम हैं – पहला, प्राचीन ज्ञान को नवीन पीढ़ी को हस्तांतरित करना; दूसरा, नवीन ज्ञान का सृजन करना और तीसरा, अगली पीढ़ी को जीवन के संघर्ष और चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रशिक्षित कर देना।
यदि शिक्षा इन तीनों में से कोई भी एक काम न कर सके तो उसकी प्रासंगिकता समाप्त हो जाती है, उसकी उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न लगता है। दुर्योग से वर्तमान शिक्षा प्रणाली कहीं न कहीं इन तीनों मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में कुछ सीमा तक विफल सिद्ध हो रही है।
किन्तु प्रचलित शिक्षा नीति में यह उद्देश्य दिखाई नहीं देता। भारतीय जीवन मूल्यों की सरासर उपेक्षा हो रही है और लॉर्ड मैकॉले की शिक्षा नीति का अनुपालन हो रहा है ऐसा लगता है। इसमें शिक्षा केवल देहवाद, भोगवाद का पाठ देती है। परोपकार, कर्त्तव्य भावना, राष्ट्रीयता ऐसे भारतीय जीवन मूल्यों की सरासर उपेक्षा दिखाई देती है।
विगत कुछ समय से अपने देश में एक शब्द का बहुत प्रचार हुआ है— जगद्गुरु या विश्वगुरु। भारत एक समय विश्वगुरु था और हम उसे पुनः विश्वगुरु बनाएंगे यह विचार बड़े-बड़े लोग व्यक्त करते हैं। परन्तु भारत को विश्वगुरुत्व या जगद्गुरुत्व कैसे प्राप्त हुआ था ? इसका कोई चित्र वे विद्वान् हमारे सामने नहीं रखते। भारत को विश्वगुरु या जगद्गुरु की पदवी उसकी आचार्य-परम्परा में आधारित शिक्षा-व्यवस्था के कारण प्राप्त हुई थी।
भारतवर्ष ने दुनिया को विभिन्न विषयों के महान् विद्वान् और महान् ग्रन्थ सौंपे, वे विद्वान् किसी कॉन्वेंट स्कूल की उपज नहीं थे, वे विद्वान् गुरुकुल-प्रणाली से पले-बढ़े थे। तैत्तिरीय उपनिषद् को तो एक प्रकार से नैतिक शिक्षा का भण्डार ही कह सकते हैं। इसके एकादश अनुवाक में वेद-विद्या पढ़ा चुकने के बाद आचार्य अन्तेवासी शिष्य को दीक्षान्त-भाषण में उपदेश देता है – सत्य बोलना। धर्माचरण करना। स्वाध्याय से प्रमाद मत करना। सत्य बोलने से प्रमाद न करना, जिस बात से तुम्हारा भला हो उससे प्रमाद मत करना। अपनी विभूति बढ़ाने में प्रमाद मत करना। स्वाध्याय और प्रवचन में प्रमाद मत करना। माता, पिता, आचार्य और अतिथि को देव मानने का उपदेश किया गया है। आचार्य को जो प्रिय हो वह दक्षिणा मे उसे देकर ब्रह्मचर्याश्रम के अनन्तर गृहास्थाश्रम में प्रवेश करना और प्रजा के सूत्र को मत तोड़ना।
गान्धार, तक्षशिला, राजगृह के समीप नालन्दा, भागलपुर-स्थित विक्रमशिला एवं काठियावाड़ के वल्लभी विश्वविद्यालयों ने, चाहे बौद्ध शिक्षा में ही सही, अपने समय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। पांचवीं से आठवीं शती तक वल्लभी के स्नातकों ने अकेले काठियावाड़ ही नहीं, समूचे भारत की जनचेतना को जीवन्त और सचेत रखा। यहां के आचार्यगण व्यक्तित्वों को ढालने में इतने माहिर थे कि अन्य देशों के लोग भी यहां विद्या-अर्जन के लिए तरसते थे। काशी, उज्जयिनी, काञ्चीपुरम, अमरावती, औदंतपुरी आदि जगह भी विद्या के ऐसे ही केन्द्र थे, जहां से साधारण व्यक्ति असाधारण प्रखर बनकर निकलते थे। आज के विश्वविद्यालयों की स्थिति देख लीजिए।
चाणक्य की दुर्धर्ष प्रखरता तक्षशिला से उपजी थी। यहीं के स्नातक उनके प्रथम सहयोगी थे, जिनके सम्मिलित प्रयासों से मौर्य-साम्राज्य की नींव डल सकी। चाणक्य का लोहा पूरी दुनिया मानती है।कुमारिल भट्ट उस नालन्दा में गढ़े गए, जहाँ समूचे एशिया से छात्र ज्ञानार्जन करने आते थे। भगवत्पाद शंकराचार्य के योगदान को कौन भुला सकता है, जिन्होंने न केवल चार मठों की स्थापना की, अपितु द्वादश ज्योतिर्लिंगों का व्यवस्थापन किया, प्रस्थानत्रयी पर भाष्य लिखा, कुम्भ-मेलों को पुनः प्रारम्भ करवाया, अवैदिक मत-मतांतरों से सफलतापूर्वक टक्कर ली। चोल-सम्राट् देवपाल के समय विक्रमशिला में गढ़े गए परिव्राजकों ने भारत ही नहीं, अपितु सुदूर ब्रह्मदेश, मलाया आदि जगहों पर पहुंचकर ज्ञान का (राजयोग का) प्रसार किया।
कुछ शिक्षाविदों ने इस सन्दर्भ में निजी स्तर पर पाठशाला, गुरुकुल और स्कूल खोलने के प्रयास भी किए हैं। लेकिन कुल मिलाकर ‘स्कूल’ शब्द कहते ही हमारे दिमाग में कौन-सा चित्र उभरता है? वही बेंच-डेस्क वाला कमरा न!* बच्चे के मन में माता-पिता अपने सपने को ठूँस देते हैं। इस तरह अपने सपने को साकार करने करने के लिए माता-पिता बच्चे, विद्यालय और ट्यूशन के बीच अपना अत्यधिक समय, शक्ति और धन बर्बाद करते हैं। इसके साथ अपने बच्चे का हंसता-मुस्कुराता बचपन भी नष्ट कर डालते हैं।
भारतीय शिक्षा प्रणाली की आचार्य परंपरा में चरक, सुश्रुत, भास्कराचार्य, चाणक्य, पतंजलि, पाणिनी, राजाराम मोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, चार्ल्स वुड , विलियम विल्सन हंटर, रवींद्रनाथ टैगोर, सावित्रीबाई फुले, सैयद अहमद खान, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, महात्मा गांधी जैसे विद्वान हुए जिन्होंने शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित सिद्धांत एवं गूढ़ विश्लेषण प्रतिपादित किये. इसी प्रकार भारत ने दुनिया को युद्ध-नीति, अर्थशास्त्र, आयुर्वेद, शल्य, रसायन, भौतिकी, पराभौतिकी (खगोलविज्ञान), ब्रह्मविद्या, अणुविज्ञान, जीवविज्ञान, आदि अनेक विषयों पर सर्वप्रथम मौलिक ग्रंथ प्रदान किए थे। दुनियाभर के वैज्ञानिक वैदिक मंत्रों की महाशक्ति पर शोध-कार्य कर रहे हैं और हमलोग उन्हें पौरोहित्य वर्ग से जोड़ने में ही गौरव अनुभव कर रहे हैं।
आधुनिक शिक्षा-प्रणाली, जो स्पष्ट तौर पर यूरोपीय शिक्षा-प्रणाली है, ने देश का कौन-सा कल्याण किया है? विगत तीन शताब्दियों का इतिहास उलटकर देख लीजिए— इस प्रणाली से हमने कितने पाणिनि, पतञ्जलि, चाणक्य, कालिदास, रामानुजाचार्य, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, तुलसीदास, आदि पैदा किए हैं? इन विद्वानों ने किन शिक्षण-संस्थानों से एमए, एमबीए, बीएड, एमएड, नेट, जेआरएफ, एसआरएफ, डिप्लोमा, पीएचडी. और डीलिट् की उपाधि प्राप्त की थी?
वर्तमान भारत के किसी भी विश्वविद्यालय में विदेशों से पढ़ने आनेवाले छात्रों की संख्या पता कीजिए। आपको संख्या नगण्य मिलेगी। यदि भारत में कोई विदेशी छात्र/शोधार्थी आता भी है, तो वह भारतीय संस्कृति के किसी आयाम पर खोज करने या किसी संस्कृत ग्रंथ/पाण्डुलिपि की तलाश में आता है। कोई भी विदेशी विद्यार्थी एमबीए, एमबीबीएस या पीएचडी करने भारत नहीं आता। उलटे भारतीय छात्र इन डिग्रियों के लिए विदेशों की दौड़ खूब लगाते हैं।
क्या हमने कभी इस विषय पर गम्भीरता से चिन्तन किया है कि एक समय दुनिया के कोने-कोने से यहाँ आनेवाले वि़द्यार्थी अब क्यों नहीं आते? भारत में दी जानेवाली आधुनिक शिक्षा-प्रणाली क्या तैयार कर रही है? क्या चाणक्य? क्या शंकराचार्य? क्या विवेकानन्द? क्या कालिदास? क्या भवभूति? क्या वेदव्यास? क्या पाणिनि? क्या पतञ्जलि? क्या तुलसीदास? क्या अश्वघोष? क्या राजशेखर? नहीं। क्या क्लर्क? हां यहां की शिक्षा-प्रणाली दिनोंदिन अपनी मौलिकता और रचनात्मकता खोकर नौकरी के इर्द-गिर्द घूम रही है, बच्चे मेधावी कैसे बनेंगे?
ऐपल के सह संस्थापक स्टीव वॉजनिएक ने ET को दिए इंटरव्यू में भारतीय शिक्षा व्यव्स्था और यहां के छात्रों की रचनात्मकता पर एक कटु किन्तु सत्य का बयान किया है। उन्होंने कहा है कि भारत में जॉब मिलने को सफलता कहा जाता है, लेकिन क्रिएटिविटी (रचनात्मकता) कहां है? स्टीव वॉजनिएक वही शख्स हैं जिन्होंने पहला ऐपल कंप्यूटर बनाया था जिसका नाम Apple 1 है.
स्टीव वॉजनैक ने वर्तमान शिक्षा-प्रणाली की ओर इशारा करके कहा कि वर्तमान भारतीय शिक्षा-व्यवस्था पढ़ाई पर टिकी है, लेकिन रचनात्मकता को बढ़ावा नहीं देती है। उन्होंने कहा कि आप कितने टैलेंटेड हैं? अगर आप इंजीनियर हैं या एमबीए हैं, तो अपनी डिग्री पर इठलाइये, लेकिन खुद से पूछिये कि आपमें कितनी रचनात्मकता है।
स्टीव ने कहा कि उन्हें इस बात की उम्मीद नहीं है कि भारत में गूगल, फेसबुक और एप्पल-जैसी दुनिया की बड़ी कम्पनियाँ तैयार हो सकती हैं; क्योंकि भारतीयों के पास रचनात्मकता की कमी है और उन्हें इस तरह के कॅरियर के लिए बढ़ावा भी नहीं दिया जाता है।
उन्होंने कहा कि भारत में सफलता का मतलब ऐकडमिक ऐक्सेलेंस, पढ़ाई, सीखना, अच्छी जॉब और भौतिक सुख-सुविधाओं का उपभोग करते हुए एक बेहतर जीवन जीना है। न्यूजीलैंड जैसे छोटे देश को देखिए जहाँ लेखक, सिंगर, खिलाड़ी हैं और यह एक अलग दुनिया है।
स्टीव वॉजनैक ने बिलकुल ठीक इंगित किया है कि आज के भारतीय युवा का उद्देश्य बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में नौकरी और उसके द्वारा आजीविका प्राप्त करना या कहिए भौतिक संसाधनों को जुटाना मुख्य है और वह उसी को समस्त सुख-शान्ति का मूलाधार समझ रहा है।
क्या हमने आधुनिक शिक्षा-पद्धति की पूरी पड़ताल की है जिसका उद्देश्य ज़्यादा-से-ज़्यादा धन कमाना है, और उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इसमें किसी प्रकार के साधन अपनाने की खुली छूट दी गई है। महाविद्यालय/विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर की नौकरी पानेवाला उस योग्य है भी अथवा नहीं, यह न देखकर उसके द्वारा लाया गया सिफ़ारशी पत्र देखा जाता है।
एक छात्र प्रशासक, डॉक्टर, प्रोफेसर या इंजीनियर आदि आदि कुछ भी किन्हीं भी तरीकों से बने, परन्तु बने अवश्य— यह आज के शिक्षाविद् और राजनेता चाहते हैं; उसमें नैतिकता-जैसे श्रेष्ठ मानवोचित गुणों का समावेश हुआ या नहीं— यह उनकी कल्पना से बहुत दूर की बात है।
आज शिक्षा का उद्देश्य केवल मानव को साक्षर करना और उसके द्वारा नौकरी लेकर भोजन, वस्त्र तथा आवास जैसी सुविधाएँ प्राप्त हो जायें— यह चिन्तन हर आधुनिक शिक्षाशास्त्री को उद्वेलित करता है। इसी मानसिकता के अनुरूप प्रत्येक गांव तक में सरकारी व निजी स्तर पर विद्यालय खोले गए हैं अथवा खोले जा रहे हैं।
निजी विद्यालयों, महाविद्यालयों और बहुत से विश्वविद्यालयों ने इसे एक व्यवसाय के रूप में स्वीकार किया है और भारी-भरकम फ़ीस के द्वारा खूब कमाई भी कर रहे हैं। ऐसे में चाणक्य, पाणिनि, पतंजलि, तुलसीदास, आदि कहां से पैदा होंगे?
[साभार : Sanskritam@mysanskritam ]
वर्तमान शिक्षा पद्धति में हम पाठ्यक्रम तय करते हैं, उसकी विषय-वस्तु को अध्यायों में बांटते हैं, उसको विद्यालय के कालांश विभाजन चक्र में बांधते हैं और इस सबको केवल परीक्षा से जोड़ देते हैं। आज शिक्षा का अर्थ केवल अंक ज्ञान, अक्षर ज्ञान, कुछ पुस्तकों का अध्ययन, उसमें से कुछ चुने हुए प्रश्नों के उत्तर को रट लेना और उन्हें परीक्षा की उत्तर पुस्तिका में यथावत् लिख देना, और उसके आधार पर एक अंकसूची और प्रमाण-पत्र प्राप्त कर नौकरी पाने की दौड़ में शामिल हो जाना, इतने तक ही सीमित हो गया है।
पाठ्यचर्या निर्धारण करने वाली उच्चाधिकार प्राप्त समिति और पाठ्यक्रम की रूपरेखा तय करने वाले विद्वत्जनों, उस पाठ्यक्रम के आधार पर पाठ्यपुस्तकों का लेखन करने वाले विद्वानों, उन पाठ्य पुस्तकों के आधार पर कक्षा शिक्षण करने वाले अध्यापकों, कक्षा में पढ़ाई गई विषयवस्तु के आधार पर प्रश्नपत्र निर्माण करने वाले प्राश्निकों तथा प्रश्न-पत्र बनाने वालों और उत्तर पुस्तिका का मूल्यांकन करने वाले परीक्षकों के बीच कोई समन्वय स्थापित करने का प्रयास नहीं किया जाता।
सी.बी.एस.ई. के पूर्व अध्यक्ष श्री अशोक गांगुली के शब्दों में उपर्युक्त कारणों से- ‘हम शिक्षक पाठ्यक्रम को तो कवर करते हैं, लेकिन स्वयं कोई नयी खोज नहीं करते--’ ‘we cover the syllabus but do not discover anything’ की स्थिति दिखाई देती है। शिक्षा जगत को इस चुनौती को भी स्वीकार करना होगा।
जे. कृष्णमूर्ति के शब्दों में –"जानकारी इकठ्ठा करना और तथ्यों को बटोरकर आपस में मिलाना ही शिक्षा नहीं है, शिक्षा तो जीवन के अभिप्राय को उसकी समग्रता में देखना-समझना है।--पूर्णत: समन्वित प्रज्ञाशील मनुष्य तैयार करना है। परीक्षा और डिग्री (डॉक्टरेट की उपाधि) प्रज्ञा का मानदंड नहीं है।"
अच्छी शिक्षा (मूल्यपरक शिक्षा) का उद्देश्य है, अच्छे मनुष्य (ब्रह्मविद/पैगम्बर/नेता) का निर्माण करना, किन्तु वर्तमान शिक्षा प्रणाली अच्छा मनुष्य बनाने की शिक्षा के स्थान पर अच्छी डिग्री , अच्छी नौकरी अर्थात् अधिक कमाई वाला पोस्ट दिलाने वाली शिक्षा को मान लिया गया है। इसीलिए अच्छे शिक्षण संस्थान की परिभाषा भी अच्छे शिक्षकों, अच्छे शैक्षिक वातावरण, संस्कारक्षम परिवेश, सक्षम पुस्तकालय अथवा प्रयोगशाला या शिक्षण सहायक सामग्री आदि न होकर सुन्दर भवन, वातानुवूफलन, वाहनों की बड़ी संख्या, चमक-दमक और शुल्क की बड़ी राशि आदि हो गए हैं।
ज्ञानार्जन के करणों (3H) को विकसित कर यथार्थ मनुष्य बनने के स्थान पर प्रायोगिक उपकरणों का विचार अधिक होता है। [ आचार्य परम्परा जैसे " श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" या 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make Vedanta Leadership Training tradition"में ज्ञानार्जन के करणों को विकसित करने में प्रशिक्षित भावी शिक्षकों/ नेताओं/C-in-C} का निर्माण करने के स्थान पर फुटबॉल खेलने में दक्ष रोबोट जैसे उपकरणों के टेक्नोलॉजी सीखने का विचार अधिक होता है। ]
विद्यार्थी के व्यक्तित्व (3H) का विकास करने की जिम्मेदारी जिन शिक्षकों/ (मार्गदर्शक नेताओं) पर है उन (नेताओं) की शैक्षिक गुणवत्ता (लीडरशिप क्वालिटी) को , "आचार्य परम्परा में आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर" - के माध्यम से प्रबोधन और विकास की भी कोई प्रभावी योजना या कार्यक्रम शिक्षा मंत्रालय के पास मौजूद नहीं है।
यह प्रयास कुछ व्यक्ति या संगठन मात्रा नहीं कर सकते। इसके लिए समाज में शिक्षा को सही अर्थों में समाजोपयोगी तथा राष्ट्रोपयोगी बनाने का विचार रखने वाले सभी सहयात्रियों को साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा।
व्यक्तित्व (3H) का समग्र विकास होने से आज की आत्म-केन्द्रित युवा पीढ़ी को सामाजिकता के भाव के साथ जोड़ना आवश्यक है। शिक्षा क्षेत्रा में राष्ट्रीयता का भाव रखने वाले ब्रह्मवेत्ता विद्वानों के समूह के ध्रुवीकरण तथा उनके सक्रिय होने की भी बड़ी आवश्यकता है। यह प्रयास कोई अकेला व्यक्ति , या कुछ व्यक्ति या कोई एक संगठन मात्र नहीं कर सकते। इसके लिए समाज में शिक्षा को सही अर्थों में समाजोपयोगी तथा राष्ट्रोपयोगी बनाने का विचार रखने वाले सभी 'ब्रह्मविद सहयात्रियों ' को साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा।
मेहसाणा की सांसद श्रीमती जयश्री बेन पटेल ने बालकों के निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार विधेयक २००८ पर बोलते हुए संसद में कहा था - " सर्वोदयी नेता विनोबा भावे भी मनुष्य निर्माणकारी और चरित्रनिर्माणकारी प्रशिक्षण का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। गांधी जी की दृष्टि में हमारी शिक्षा नीति, हमारी संस्कृति और समाज की शिक्षा के अनुरूप होनी चाहिए। महात्मा गाँधी भी स्वामी विवेकानन्द की - 'Man-making and Character-building education' 'मनुष्य निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षानीति ' से प्रभावित थे। उनका मानना था कि भारत की शिक्षा नीति में '3H' विकास- हैंड, हैड और हार्ट [तीन एच. अर्थात हैड ( मानसिक-एकाग्रता का अभ्यास द्वारा बुद्धिबल का विकास), हार्ट ( परहित भावना और प्रार्थना द्वारा -हृदय का विस्तार और आत्मबल का विकास) तथा हैण्ड (व्यायाम और पौष्टिक आहार द्वारा कर्म क्षमता या बाहुबल) को विकसित करने के प्रशिक्षण पर आधारित होनी चाहिए।
विद्यार्थी अपने (3H) अंतर्निहित शक्तियों को विकसित करना कैसे सीखे ? अर्थात विद्यार्थी ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनना और बनाना कैसे सीखे ? सीखे हुए को जीवन के व्यवहार में कैसे लाए, अपने अस्तित्व और जीवन के लक्ष्य का निर्धारण कैसे करे और सबसे बढ़कर उसमें सामाजिक सरोकार तथा संवेदनशीलता कैसे विकसित हो ?
यह ब्रह्मवेत्ता शिक्षाविदों की इस अंतर्राष्ट्रीय मंडली की चिन्ता और चिन्तन का विषय तो है परन्तु वास्तविकता के धरातल पर उसका क्रियान्वयन दिखाई नहीं देता।
केवल शैक्षिक स्तर ही चुनौती का विषय है इतना नहीं। शिक्षा आज संस्कार नहीं सिखाती, लोक-व्यवहार, शिष्टाचार, सामाजिक सरोकार और संवेदनशीलता भी नहीं विकसित करती। विद्यार्थी के व्यक्तित्व का विकास करने की जिम्मेदारी जिन शिक्षकों पर है उनकी शैक्षिक गुणवत्ता, उनके प्रबोधन और विकास की भी कोई योजना प्रभावी नहीं है।
अपनी रूचि से कोई शिक्षक नहीं बनना चाहता। रोजगार के अन्य किसी भी क्षेत्र में सपफलता प्राप्त न होने पर अंतिम उपाय के रूप में व्यक्ति मजबूरी में शिक्षक बनना स्वीकार करता है। ऐसी स्थिति में उनके सामने केवल रोजगार का प्रश्न होता है, शैक्षिक गुणवत्ता अथवा विद्यार्थी-विद्यालय-समाज-देश के प्रति किसी प्रतिबद्धता का विचार नहीं होता। ऐसे में ‘‘गुरु’’ के ‘‘गौरव या गुरुत्व’’ का विचार कहाँ से उत्पन्न हो सकता है?
अपनी रूचि से कोई 'शिक्षक' [जीवनमुक्त शिक्षक (जिसको अपने लिए किसी भी समस्या का, मृत्यु की समस्या का भी सामना न करना पड़े), मानवजाति का मार्गदर्शक] नेता या पैगम्बर नहीं बनना चाहता। रोजगार के अन्य किसी भी क्षेत्र में सपफलता प्राप्त न होने पर अंतिम उपाय के रूप में व्यक्ति मजबूरी में शिक्षक बनना स्वीकार करता है। ऐसी स्थिति में उन नौकरी करने वाले वेतनभोगी शिक्षकों के सामने केवल रोजगार द्वारा पेट पलने का प्रश्न होता है, अतः उसके मन में आचार्य-परम्परा में भावी आचार्य (would be Leader) का निर्माण करने के प्रति अपने छात्रों की शैक्षिक गुणवत्ता अथवा विद्यार्थी-विद्यालय-समाज-देश के प्रति किसी प्रतिबद्धता या मार्गदर्शन का विचार नहीं होता। ऐसे में ‘‘आचार्य परम्परा में प्रशिक्षित चपरास प्राप्त गुरु के गौरव या गुरुत्व’’ का विचार कहाँ से उत्पन्न हो सकता है?
हमारी संवेदना दिन-प्रतिदिन मरती जा रही है। हमारे पास (पाश्चात्य देशों के पास ?) या भौतिक सम्रद्धि तो अपार है पर हमारी संस्कृति ,हमारे मूल्य ,हमारे आपसी सम्बन्ध ,हमारी जड़े खोखली होती जा रही हैं। शिक्षा आज संस्कार नहीं सिखाती, लोक-व्यवहार (प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर का अंश समझकर उसके साथ व्यवहार), शिष्टाचार, सामाजिक सरोकार और संवेदनशीलता भी नहीं विकसित करती, हृदय का विस्तार करना नहीं सिखाती। अतः आज केवल शैक्षणिक स्तर को सुधारना ही चुनौती का विषय नहीं है, बल्कि प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर का अंश समझकर उसके साथ व्यवहार करते समय -'मैं लीला कर रहा हूँ, जगत ईश्वर की लीला' इस स्मृति को जाग्रत कैसे रखें - यही आज का सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न है। केवल शैक्षिक स्तर ही चुनौती का विषय है इतना नहीं।
[हाल ही में बेचलर ऑफ एजुकेशन यानी बी.एड.कोर्स को दो वर्ष का करने तथा गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा शिक्षक/नेता /गुरु /पैगम्बर तैयार करने की पद्धति को लागु किये बिना ही, शिक्षकों का निर्माण करने के लिए 4 वर्षीय समेकित पाठ्यक्रम कार्यान्वित करने का निर्णय क्या सही दिशा में लिया गया एक सही कदम है ??? ]
सभी कोई शिक्षा नीति में परिवर्तन की बात करते हैं। राजनेता, प्रशासनिक अधिकारी, विश्वविद्यालयों के कुलपति और प्राध्यापक से लेकर उद्योगपति-व्यवसायी-किसान-अभिभावक-विद्यार्थी तक सभी शिक्षा की वर्तमान प्रणाली को दोषयुक्त मानते हैं और उसमें परिवर्तन करना चाहिए, ऐसा कहते हैं। पहला प्रश्न है कि यदि समाजनीति, राजनीति और अर्थनीति को यथावत् रखा जाए और केवल शिक्षा नीति में परिवर्तन कर दिया जाए तो यह परिवर्तन कितना सफल हो सकेगा?
इसके ठीक विपरीत विचार करें तो यदि समाजनीति-अर्थनीति और राजनीति में परिवर्तन कर दिया जाए किन्तु शिक्षा नीति को अपरिवर्तित रखा जाए तो यह परिवर्तन कितना स्थायी और परिणामकारी होगा? सरल शब्दों में कहें तो शिक्षा नीति में होने वाला कोई भी परिवर्तन तभी प्रभावी और परिणामकारी हो सकता है जब समाज जीवन के अन्य क्षेत्रा भी उसमें सकारात्मक सहयोग करें अन्यथा स्वार्थ आधारित समाजनीति, लाभ-लोभ आधारित अर्थनीति, तथा सिद्धांतविहीन राजनीति के चलते शिक्षा नीति में किए गए परिवर्तन निष्प्रभावी रहेंगे।
दूसरा प्रश्न है, कि यदि यह परिवर्तन करना ही हो तो आखिर इसे करेगा कौन? सहज उत्तर है, ‘‘सरकार या संसद’’। लोकतंत्र में सामान्यतः सारी जिम्मेदारी सरकार या जनप्रतिनिधियों पर छोड़कर समाज निश्चिन्त होकर बैठ जाता है। सामान्य रूप से सरकार की प्राथमिकता सूची में शिक्षा का विषय प्रायः नहीं होता।
समस्या केवल सरकार से ही नहीं है। प्रायः यह कहा जाता है कि शिक्षा को देश की आवश्यकताओं की पूर्ति के अनुरूप होना चाहिए।
संभवतः यहां इस प्रश्न पर और अधिक गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है कि - क्या शिक्षा केवल देश की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली होनी चाहिए, अथवा शिक्षा का इससे बड़ा दायित्व देश के लोगों को यह सिखाने का है कि वे अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, किस बात की तत्काल आवश्यकता का अनुभव करते हैं, तथा अपनी इस अभिलाषा को व्यक्त कैसे करें?
शिक्षा में स्वायत्तता की चर्चा अनेक मंचों से होती है परन्तु न तो सरकार अपने अधिकार क्षेत्र में कोई कटौती किया जाना पसन्द करती है और न ही शिक्षाविदों की ओर से इसको लेकर कोई प्रभावी पहल होती है। ऐसे में यह प्रश्न करना अत्यंत स्वाभाविक है कि दो विकल्पों में से बेहतर क्या होगा – संसद शिक्षा में परिवर्तन करे या शिक्षा जगत के लोग संसद में बैठे हुए लोगों का शिक्षा को प्राथमिकता सूची में लाने योग्य मानस परिवर्तन करें?
केवल सरकार या समाज ही शिक्षा की दुरावस्था के लिए उत्तरदायी हैं, इतना ही नहीं है। कोठारी आयोग (1964-66) के अध्यक्ष डॉ० दौलत सिंह कोठारी का वह कथन शिक्षाविदों के लिए भी गंभीरतापूर्वक विचार करने वाला है कि ‘‘भारत के शिक्षाविदों तथा बुद्धिजीवियों का गुरुत्वाकर्षण केन्द्र भारत के बाहर स्थित है।’’ इसी का परिणाम है कि हम अपने देश की परम्पराओं ,अपेक्षाओं, भावनाओं, आवश्यकताओं, मान्यताओं, तथा जीवन दृष्टि का विचार किए बिना ही जो भी कुछ यूरोप और अमेरिका में होता है, अपने देश के लिए भी उपयोगी मानते हुए लागू कर देते हैं। भले ही उसका परिणाम बाद में कुछ भी आए। क्या शिक्षा क्षेत्र के अंदर ही शिक्षा के सम्मुख यह एक बड़ी चुनौती नहीं है?
ज्ञान सार्वभौमिक होता है किन्तु शिक्षा राष्ट्रीय । [ज्ञान (परा-विद्या) सार्वभौमिक होता है किन्तु शिक्षा (परा विद्या प्रदान करने में समर्थ शिक्षकों का निर्माण करना भारत का राष्ट्रीय दायित्व है ।] राष्ट्र की आवश्यकता, उपयोगिता, जीवन पद्धति तथा जीवन दृष्टि के अनुरूप यदि राष्ट्र की शिक्षा नीति (N.E.P) पद्धति-मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी नहीं होगी, तो वह अगली पीढ़ी को वह सब हस्तांतरित नहीं कर सकेगी जो उसकी मूलभूत आवश्यकता है।इसके ठीक विपरीत विचार करें तो यदि समाजनीति-अर्थनीति और राजनीति में परिवर्तन कर दिया जाए किन्तु शिक्षा नीति को अपरिवर्तित रखा जाए तो यह परिवर्तन कितना स्थायी और परिणामकारी होगा? सरल शब्दों में कहें तो शिक्षा नीति में होने वाला कोई भी परिवर्तन तभी प्रभावी और परिणामकारी हो सकता है जब समाज जीवन के अन्य क्षेत्रा भी उसमें सकारात्मक सहयोग करें अन्यथा स्वार्थ आधारित समाजनीति, लाभ-लोभ आधारित अर्थनीति, तथा सिद्धांतविहीन राजनीति के चलते शिक्षा नीति में किए गए परिवर्तन निष्प्रभावी रहेंगे।
दूसरा प्रश्न है, कि यदि यह परिवर्तन करना ही हो तो आखिर इसे करेगा कौन? सहज उत्तर है, ‘‘सरकार या संसद’’। लोकतंत्र में सामान्यतः सारी जिम्मेदारी सरकार या जनप्रतिनिधियों पर छोड़कर समाज निश्चिन्त होकर बैठ जाता है। सामान्य रूप से सरकार की प्राथमिकता सूची में शिक्षा का विषय प्रायः नहीं होता।
समस्या केवल सरकार से ही नहीं है। प्रायः यह कहा जाता है कि शिक्षा को देश की आवश्यकताओं की पूर्ति के अनुरूप होना चाहिए।
संभवतः यहां इस प्रश्न पर और अधिक गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है कि - क्या शिक्षा केवल देश की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली होनी चाहिए, अथवा शिक्षा का इससे बड़ा दायित्व देश के लोगों को यह सिखाने का है कि वे अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, किस बात की तत्काल आवश्यकता का अनुभव करते हैं, तथा अपनी इस अभिलाषा को व्यक्त कैसे करें?
शिक्षा में स्वायत्तता की चर्चा अनेक मंचों से होती है परन्तु न तो सरकार अपने अधिकार क्षेत्र में कोई कटौती किया जाना पसन्द करती है और न ही शिक्षाविदों की ओर से इसको लेकर कोई प्रभावी पहल होती है। ऐसे में यह प्रश्न करना अत्यंत स्वाभाविक है कि दो विकल्पों में से बेहतर क्या होगा – संसद शिक्षा में परिवर्तन करे या शिक्षा जगत के लोग संसद में बैठे हुए लोगों का शिक्षा को प्राथमिकता सूची में लाने योग्य मानस परिवर्तन करें?
केवल सरकार या समाज ही शिक्षा की दुरावस्था के लिए उत्तरदायी हैं, इतना ही नहीं है। कोठारी आयोग (1964-66) के अध्यक्ष डॉ० दौलत सिंह कोठारी का वह कथन शिक्षाविदों के लिए भी गंभीरतापूर्वक विचार करने वाला है कि ‘‘भारत के शिक्षाविदों तथा बुद्धिजीवियों का गुरुत्वाकर्षण केन्द्र भारत के बाहर स्थित है।’’ इसी का परिणाम है कि हम अपने देश की परम्पराओं ,अपेक्षाओं, भावनाओं, आवश्यकताओं, मान्यताओं, तथा जीवन दृष्टि का विचार किए बिना ही जो भी कुछ यूरोप और अमेरिका में होता है, अपने देश के लिए भी उपयोगी मानते हुए लागू कर देते हैं। भले ही उसका परिणाम बाद में कुछ भी आए। क्या शिक्षा क्षेत्र के अंदर ही शिक्षा के सम्मुख यह एक बड़ी चुनौती नहीं है?
भारतीय आध्यात्मिक सांस्कृतिक परम्परा से विरासत में प्राप्त ज्ञान का भण्डार अथाह है। ज्ञान के अधिकांश सिद्धान्त सर्वकालिक तथा स्थायी होते हैं। परन्तु जब प्रश्न शिक्षा का आता है तो यह देखना आवश्यक है कि वह देश की आवश्यकताओं के अनुरूप हो और अगली पीढ़ी को उसके जीवन की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम बनाए।
सामान्यत: वैदिक काल से 18वीं शताब्दी तक भारतीय शिक्षण चिंतन का आधार धर्म तथा नैतिक जीवन मूल्यों का संरक्षण रहा। गत हजारों वर्षों से भारत के ऋषियों-मनीषियों ने अपने अध्ययन, अनुभवों, आचरण तथा अनुभूतियों से भारतीय जीवन मूल्यों के प्रतिमान स्थापित किये। शिक्षा-पाठ्यक्रम में जीवन के चार पुरुषार्थों, चार आश्रमों, धर्म के दस लक्षणों, चरित्र निर्माण संस्कारों की बृहद् योजना को जीवन मूल्यों की शिक्षा का महत्वपूर्ण अंग माना गया। मूल्यपरक शिक्षा ने न केवल भारत में बल्कि विश्व में उन्नत सभ्यता तथा संस्कृति का मार्गदर्शन किया।
मध्यकालीन भारत में अनेक आक्रमणों, लुटेरों तथा घुसपैठियों ने राजनीतिक प्रहारों, आर्थिक लूटमार, सांस्कृतिक ध्वंस से देश की आचार्य परम्परा को तहस-नहस कर दिया। भारत में मूल्यपरक शिक्षा पर पहला क्रूर प्रहार ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कर्मचारियों, ब्रिटिश प्रशासकों, ब्रिटिश इतिहासकारों तथा ईसाई पादरियों के द्वारा हुआ। भारत के ईसाईकरण तथा गुलामीकरण के प्रयास में उन्हें सर्वाधिक बाधा यहां की शिक्षा व्यवस्था लगी।
परन्तु तब भी (उस डार्क एज में भी) कुछ मन्दिरों, पाठशालाओं, तीर्थस्थलों तथा ब्रह्मवेत्ता विद्वानों के घरों में नैतिक जीवन की मूल्यपरक शिक्षा ने अपना स्थान अक्षुण्ण बनाये रखा। सन्तों, भक्तों, गुरुओं/नेताओं ने अपनी वाणी तथा उपदेशों में शिक्षा में जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा को सदैव सर्वोच्च बनाये रखा।
[such is the present scenario, so really have to think as to what can be the role of teachers and what can be the role of education to bring about change . A radically different education system from the present one has to be employed; spiritual culture has to be introduced . A paradigm shift must take place . Value-education or the process of receiving or giving systematic instruction, especially at a school or university."Man-making and Character Building education" should be given the topmost priority. ]
10.
'डेलर्स कमीशन 1996' :
इस रिपोर्ट में शिक्षा की प्रकृति के सम्बन्ध में कहा है कि -किसी भी देश की राष्ट्रीय शिक्षा नीति का स्वरूप तथा जड़ें - उस देश की संस्कृति में आधारित और विकास के लिए वचनबद्ध “Rooted in Culture, Committed to progress” होनी चाहिए। वस्तुत: शिक्षा लौकिक तथा पारलौकिक उन्नत जीवन को स्थापित करने वाली होनी चाहिए। शिक्षा राष्ट्रीय गौरव, आत्मविश्वास तथा आत्म गौरव बढ़ाने वाली हो। शिक्षा का स्वरूप संवैधानिक तथा अन्तरराष्ट्रीय दृष्टिकोण पर आधारित होना चाहिए। गांधीजी ने भी बिना नैतिक मूल्यों के शरीर को आत्माविहीन कहा है।
डेलर्स कमीशन- 96' ने अपने रिपोर्ट में विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस की शिक्षा सम्बन्धी दो प्रमुख अवधारणाओं के आधार पर विश्व के समक्ष शिक्षा का एक समग्र दृष्टि-कोण (integrated vision) प्रस्तुत किया है- पहला- " द ट्रेजर विदिन को जानने के लिए जब तक जीवन है, सीखते रहो" (learning throughout life’ /श्री रामकृष्ण के शब्दों में - 'जावत बाँची तावत सीखी।' और दूसरा जीवन भर चलने वाली शिक्षा, जो मुख्य रूप से शिक्षा के चार स्तंभों पर (four pillars of learning) टिकी होती है-
1.जानने के लिए ज्ञान Learning to Learn)
2. करने के लिए ज्ञान (Learning to do)
3. होने (अस्तित्व,ब्रह्मवेत्ता होने ) के लिए ज्ञान Learning to be Man !
4. एक साथ मिलजुल कर रहने के लिए ज्ञान (Learning to live together)
[It has given the mandate of ' Learning to be Man ' rather than 'Learning to Do' because a number of youngsters go drug addict or commit suicide besides contacting serious incurable diseases . The Delors Report was a report created by the Delors Commission in 1996. It proposed an integrated vision of education based on two key concepts, ‘learning throughout life’ and the four pillars of learning, to know, to do, to be and to live together. The Four Pillars of Education: One of the most influential concepts of the 1996 Delors Report was that of the four pillars of learning. 1. Learning to know – a broad general knowledge with the opportunity to work in depth on a small number of subjects.2. Learning to do – to acquire not only occupational skills but also the competence to deal with many situations and to work in teams. 3. Learning to be – to develop one’s personality and to be able to act with growing autonomy, judgment and personal responsibility.4. Learning to live together – by developing an understanding of other people and an appreciation of interdependence.। https://vbsamwad.co.in › life-challenges-and-the-education-system]
डेलर्स कमीशन- 1996' की यह रिपोर्ट दो प्रमुख बातों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है। पहला पक्ष तो यह कि आखिर इस शताब्दी में विद्यार्थियों को क्या सिखाया जाना चाहिए? संयोग से यह वह कालखण्ड है जिसे 'संधि -काल' या Time Between Times कहा जाता है। विशेष रूप से यदि स्कूली शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की बात की जाए तो आज के इस संधि-काल या संक्रमण काल में एक विशेष बात है कि सभी छात्रों [भावी शिक्षक,would be Leaders] ने इस शताब्दी में जन्म लिया है जबकि कम से कम आयु का शिक्षक [नवनीदा /गुरु/मार्गदर्शक नेता/C-in-C] भी पिछली शताब्दी का है। वैचारिक रूप से यह केवल पीढ़ी का अंतर नहीं बल्कि एक शताब्दी का अंतर [मनुष्य के विचार जगत में होने वाला युग परिवर्तन] है। आज विद्यार्थी ज्ञान के भण्डार का केवल उपभोक्ता ही नहीं रह गया है, बल्कि वह ज्ञान के विविध आयामों में स्वयं अपनी मौलिक रचना (राजयोग के लिए मनःसंयोग जैसी पद्धति) भी प्रस्तुत कर रहा है।
वर्तमान परिदृश्य में विद्यार्थियों को ‘क्या’ के साथ ही साथ ‘क्यों, कैसे और कौन’ सीखने में अधिक रुचि है। (In the present scenario, students are more interested in learning 'why, how and who' than 'what'.) वर्तमान पीढ़ी का विद्यार्थी - 'not interested in learning in the classroom.' क्लास रूम में बंधकर ज्ञानार्जन करने में रुचि नहीं रखता। नई पीढ़ी का विद्यार्थी केवल कक्षा-कक्ष में बेंच-डेस्क पर बैठ कर कुछ निर्धारित घंटों तक ही ज्ञानार्जन करने में रुचि नहीं रखता। वह केवल क्लास-रूम, प्रयोगशाला अथवा पुस्तकालय की सीमाओं में बंधकर ही शिक्षा पाना नहीं चाहता। यह एक प्रकार से विस्तारित कक्षा-कक्ष की संकल्पना है जिसे केवल कक्षा-कक्ष, प्रयोगशाला अथवा पुस्तकालय की सीमाओं से बाहर निकलकर ज्ञानार्जन के विविध आयामों, खेतों, खलिहानों और कारखानों, खेल के मैदानों तक ले जाना होगा। क्योंकि दूरस्थ एवं अनौपचारिक शिक्षा जोकि उसे 24×7 और यहाँ तक कि उसके घर में भी उपलब्ध हो सके, की आवश्यकता है।
विज्ञान तथा तकनीक के विकास के साथ बौद्धिक क्षमता का स्थान तेजी से Artificial intelligence ने ले लिया है। आज के विद्यार्थी का प्रश्न है - जब मेरे पास Google बाबा है, तो मुझे अपने दादा-दादी से या विद्यालय के शिक्षकों/गुरुओं /नेताओं से ज्ञान लेने की आवश्यकता क्यों है? ‘why I need a teacher/ Leader when I have Google ?’ नवनी दा जैसे शिक्षकों/नेताओं /राजर्षि (C-in-C) की आवश्यकता, 'Google-बाबा के युग में भी क्यों है?
इसे यदि वैश्विक परिदृश्य में देखें तो कम्प्यूटर अथवा सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी भारत के लिए अपेक्षाकृत नया विषय भले ही हो, परन्तु अमेरिका तथा यूरोपीय देशों में यह कोई नया विषय नहीं है। वहाँ लगभग 70 वर्षों से शिक्षा के क्षेत्रा में तकनीक का उपयोग हो रहा है। फिर भी ऐसा कोई समाचार सुनने या पढ़ने में नहीं आया कि इतने वर्षों में वहां का कोई विश्वविद्यालय या महाविद्यालय इस कारण बन्द कर दिया गया हो। इससे यह समझा जा सकता है कि गुरु-शिष्य संवाद की यह समयसिद्ध परम्परा [ आचार्य-परम्परा ] वहां भी विकल्पहीन है।
किन्तु इस तथ्य की ओर से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि बढ़ती हुई तकनीकी प्रगति के साथ यदि वर्तमान पीढ़ी के शिक्षकों ने स्वयं को गतिमान नहीं रखा तो प्रसिद्ध अँग्रेजी कहावत If you are not updated, you are outdated’ सत्य सिद्ध होने वाली है। समय किसी की प्रतीक्षा में नहीं रुकता।
इससे यह समझा जा सकता है कि गुरु-शिष्य संवाद की यह समयसिद्ध परम्परा [स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा या 'Be and Make Leadership Training Tradition' में प्रशिक्षित मार्गदर्शक नेता का निर्माण] वहाँ के लिए भी विकल्पहीन (unavoidable) है। किन्तु इस तथ्य की ओर से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि बढ़ती हुई तकनीकी प्रगति के साथ यदि वर्तमान पीढ़ी के शिक्षकों ने स्वयं को गतिमान नहीं रखा तो, जैसा कि प्रसिद्ध अँग्रेजी कहावत में कहा गया है - 'यदि आप अपडेट (सामयिक) नहीं हैं, तो आप आउटडेटेड (कालविरुद्ध) हैं !'- If you are not updated, you are outdated’ सत्य सिद्ध होने वाली है। समय किसी की प्रतीक्षा में नहीं रुकता।
यही डेलर्स आयोग- 96' इस शताब्दी में युवा के सामने आने वाले सात प्रकार के वैचारिक विरोधाभासों (ideological contradictions) का भी उल्लेख करता है –
1.स्थानीय बनाम अथवा वैश्विक (Local versus Global)
2. सार्वभौमिक के मुकाबले व्यक्तिगत (Universal Versus Individual)
3. श्रुति परम्परा के मुकाबले आधुनिकता (Traditions Versus Modernity)
4.दीर्घकालिक लक्ष्य के मुकाबले अल्पकालीन लाभ (Long term targets versus short term benefits)
5. स्पर्धा बनाम समानता (Competition versus equality)
6.भौतिक संतुष्टि के मुकाबले आध्यात्मिकता (Physical Satisfaction versus spirituality) 7.जानकारियों का संग्रह की तुलना में विचार ग्राह्यता (knowledge versus capacity to Assiamilate)
ये सातो बिन्दु ' प्रतिद्वन्द्विता या परस्पर झगड़ने के मुकाबले परमतग्राहण की अनिवार्यता' - Conflicts versus Capacity to Assiamilate ' के रूप आज के विश्व-मानव समाज जीवन में चारों ओर दिखाई दे रहे हैं।
शिक्षा का कार्य अगली पीढ़ी को इन सभी संघर्षों में केवल दो-दो के जोड़े में से किसी एक को चुनने का नहीं बल्कि उनके बीच में समुचित संतुलन स्थापित करने की क्षमता का विकास करना भी है।
ज्ञान सार्वभौमिक होता है किन्तु शिक्षा राष्ट्रीय । राष्ट्र की आवश्यकता, उपयोगिता, जीवन पद्धति तथा जीवन दृष्टि के अनुरूप यदि देश की शिक्षा पद्धति नहीं होगी तो वह अगली पीढ़ी को वह सब हस्तांतरित नहीं कर सकेगी जो उसकी मूलभूत आवश्यकता है। ज्ञान का भण्डार अथाह है। ज्ञान के अधिकांश सिद्धान्त सर्वकालिक तथा स्थायी होते हैं। परन्तु जब प्रश्न शिक्षा का आता है तो यह देखना आवश्यक है कि वह देश की आवश्यकताओं के अनुरूप हो और अगली पीढ़ी को उसके जीवन की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम बनाए।
अन्य देशों की नकल पर हमने अपने देश में भी शिक्षा मंत्रालय का नाम बदलकर ‘मानव संसाधन विकास मंत्रालय’ कर दिया। विचार करने वाली बात यह है कि क्या इस मंत्रालय के पास आगामी 20-25 या 50 वर्ष के लिए अपेक्षित मानव संसाधन के विकास के कोई लक्ष्य या आंकड़े उपलब्ध हैं और क्या उस दिशा में उनके पास कोई कार्ययोजना है? 2050 तक इस देश को कितने परमाणु वैज्ञानिक, कितने कृषि वैज्ञानिक, कितने चिकित्सा विशेषज्ञ, कितने अन्तरिक्ष अनुसंधानकर्ता, कितने विश्वविद्यालय प्राध्यापक अथवा प्राथमिक शिक्षक तैयार करने होंगे, इसको लेकर हमारी क्या तैयारी है? प्रश्न यह भी है कि क्या इन विभिन्न क्षेत्रों में जिस प्रकार के मानव संसाधन की आवश्यकता पड़ने वाली है उसका विकास करने की जिम्मेदारी किसकी है – राष्ट्र की, सरकार की, विद्यार्थी की या अभिभावक की?
यदि अभिभावक को अपना पेट काटकर या विद्यार्थी को बैंक से ऋण लेकर महंगी पढ़ाई करनी है, तो देश उससे यह अपेक्षा कैसे कर सकता है कि पढ़ाई पूरी करने के बाद देश की सेवा के लिए, अपने जीवन को भी न्योछावर कर देगा ? या केवल देश के लिए ही जीना चाहेगा ? " जो केवल अपने लिए जीता है, वह तो मृत से अधम है" - यह रहस्य उसे किस गुरु से प्राप्त होगा ? शिक्षा को महंगा व्यापार बना देने वाले व्यापारियों का सरल सिद्धान्त है – ‘‘लगाएगा सो पाएगा’’।
ऐसी स्थिति में देशसेवा, कर्तव्य निष्ठा, जिम्मेदारी अथवा समर्पण के प्रश्न बेमानी हो जाते हैं। यदि राष्ट्र के विकास के लिए विविध क्षेत्रों में हमको आगामी 25-50 वर्षों में विशेषज्ञों की आवश्यकता है तो उस प्रकार के मानव संसाधन के विकास की आधारभूत योजना की आवश्यकता [आचार्य परम्परा में प्रशिक्षित चपरास प्राप्त प्रशिक्षकों की आवश्यकता] से भी नहीं बचा जा सकता।
समस्याएँ और चुनौतियां असंख्य हैं। केवल उनको गिनते रहने से कोई समाधान नहीं निकल सकता। शिक्षा में मूलभूत परिवर्तन लाने हैं तो --आचार्य परम्परा में प्रशिक्षित 'ब्रह्मवेत्ता शिक्षाविदों' को ही आगे आना होगा। ब्रह्मवेत्ता बुद्धिजीवी समाज को एकजुट होकर भारत की शिक्षा को भारत केन्द्रित करना होगा अर्थात् डा॰ कोठारी की चिन्ता के अनुसार गुरुत्वाकर्षण केन्द्र को वापस भारत में लाना होगा।
बुद्धिजीवी (ब्रह्मवेत्ता) समाज को एकजुट होकर भारत की शिक्षा को भारत केन्द्रित करना होगा/ अर्थात श्रुति परम्परा में आधारित भारत की आध्यात्मिक रूप से जागृति मनुष्यों के निर्माण में केन्द्रित करना होगा। इसीलिए डा॰ कोठारी ने कहा था - " शिक्षा और संस्कृति के गुरुत्वाकर्षण केन्द्र को वापस भारत में लाना होगा।" विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों के समुचित प्रबोधन की आवश्यकता है कि पढ़ाई का अर्थ केवल कैरियर या रोजगार ही नहीं होता बल्कि श्रेष्ठ मनुष्य का निर्माण करना, जीवन-मूल्य, आत्मगौरव तथा राष्ट्र गौरव के भाव का जागरण करना भी शिक्षा के कार्य हैं।
विद्यार्थियों और उनके शिक्षकों/अभिभावकों/ नेताओं के समुचित प्रबोधन की आवश्यकता है कि पढ़ाई का अर्थ केवल कैरियर या रोजगार ही नहीं होता बल्कि श्रेष्ठ मनुष्य का निर्माण करने में समर्थ शिक्षकों (ब्रह्मवेत्ता मनुष्यों का निर्माण करना), जीवन-मूल्य, आत्मगौरव तथा राष्ट्र गौरव के भाव का जागरण करना भी शिक्षा के कार्य हैं। बुद्धिजीवी (ब्रह्मवेत्ता) समाज को एकजुट होकर भारत की शिक्षा को भारत केन्द्रित करना होगा/ अर्थात श्रुति परम्परा में आधारित भारत की आध्यात्मिक रूप से जागृति मनुष्यों के निर्माण में केन्द्रित करना होगा। इसीलिए डा॰ कोठारी ने कहा था - " शिक्षा और संस्कृति के गुरुत्वाकर्षण केन्द्र को वापस भारत में लाना होगा।" विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों के समुचित प्रबोधन की आवश्यकता है कि पढ़ाई का अर्थ केवल कैरियर या रोजगार ही नहीं होता बल्कि श्रेष्ठ मनुष्य का निर्माण करना, जीवन-मूल्य, आत्मगौरव तथा राष्ट्र गौरव के भाव का जागरण करना भी शिक्षा के कार्य हैं।
मानवीय मूल्यों की कमी और विवेक-प्रयोग के अभाव के कारण जापान में क्या हुआ ? आज के वैज्ञानिक परमाणु (एटम) की जानकारी के सर्वोच्च बिंदु पर पहुंच चुके हैं। वे जानते हैं कि इसे किस तरह ऊर्जा का स्रोत बनाया जा सकता है। अत: प्रत्येक भावी शिक्षक/गुरु/नेता / भावी पैगम्बर को विवेक-प्रयोग के कौशल पर नियंत्रण हासिल करना होगा।
भावी शिक्षकों (Would be Leaders) की उभरती भूमिका, जिम्मेदारी और कार्य निष्पादन के स्तरों का खुलासा करते हुए डेलर्स कमीशन-1996' ने 'लर्निंग टू डू' के बजाय 'लर्निंग टू बी (गुरु-नेता)' की शिक्षा के प्रचार -प्रसार का निर्देश दिया है।
I.C.T. या सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (Information and Communication Technology) के गरिमापूर्ण युग में मानवीय मूल्यों को धारण करना और उनका अंतर्राष्ट्रीयकरण करना तथा विवेक-प्रयोग की कला एवं कौशल को समझना महत्वपूर्ण है, जो अकेले सीखने वाले को (भावी शिक्षकों को) सही मार्ग पर पथ-प्रदर्शन कर सकता है, वैसा जीवनमुक्त शिक्षक/ मार्गदर्शक नेता 'बनना और बनाना '।
‘‘दो तरफा शिक्षण’’ : यह आज और कल के शिक्षक/गुरु/नेता पैगंबर के समक्ष एक अद्यतन चुनौती है। इस नई व्यवस्था (प्रचलित शिक्षा और गुरुकुल शिक्षा का समन्वय) से जुड़ने, उसे स्वीकारने और स्वयं को उसके अनुकूल ढालने (गुरु जीवन-गठन) की जो महती चुनौतीआज के शिक्षक-समुदाय/नेता वृन्द को है और उसके लिए ही स्वामी विवेकानन्द ने मंत्र दिया है - Be and Make !' (नेता या पैगम्बर बनने और बनाने के लिए) उन्हें व्यक्तिशः स्वयं को तैयार करना होगा, तथा दूसरों को भी गुरु-जीवन गठन करने में सहायता करनी होगी।
भविष्य में शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच विचार-विमर्श में ‘‘दो तरफा शिक्षण’’ स्वयं के लिए जगह बनाएगा। एक साथ ‘सीखने के लिए सिखाना’ की धारणा भी अपेक्षित कौशल के रूप में देखी जाएगी। सीखने वालों (प्रशिक्षणार्थी) और प्रशिक्षकों दोनों को एक साथ सीखने के बहुस्रोतों तक पहुंच कायम करनी होगी और विवेकज -ज्ञान एवं विवेकप्रयोग का कौशल अर्जित करना होगा।
व्यक्तित्व (3H) का समग्र विकास होने से आज की आत्म-केन्द्रित युवा पीढ़ी को सामाजिकता के भाव के साथ जोड़ना आवश्यक है। शिक्षा क्षेत्रा में राष्ट्रीयता का भाव रखने वाले ब्रह्मवेत्ता विद्वानों के समूह के ध्रुवीकरण तथा उनके सक्रिय होने की भी बड़ी आवश्यकता है।
यद्यपि हमारे राष्ट्र में आज हमारे सामने बेरोजगारी, गरीबी आदि बहुत सारी समस्याएं हैं। तब भी सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से विकसित देशों की तुलना में हमारे देश में आत्महत्या की दर उतनी अधिक नहीं है। [So far we thought that 'H' is directly proportional to 'M' where H is happiness and M is money i.s . more money means more happiness .But statistical data reveal that the opposite is true. ]
अभी तक हम लोग यही समझ रहे थे कि-'H' सीधा 'M' का समानुपाती है, जहाँ H' का मतलब हैप्पीनेस (प्रसन्नता) तथा M' का तात्पर्य मनी (धन) से है। अर्थात अधिक धन माने अधिक खुशियाँ! लेकिन सांख्यिकीय आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि वस्तुस्थिति ठीक इसके विपरीत है।
अमेरिका, जापान, स्वीडन आदि विकसित देशों में प्रति व्यक्ति आय बहुत अधिक है, लेकिन आत्महत्या के मामलों में भी वे उसी प्रकार अव्वल हैं।
इन धनाढ्य देशों में मानसिक रूप से बीमार लोगों की संख्या भी अधिक है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है, कि हमें अधिक धन अर्जित करना बंद कर देना चाहिए। बल्कि, मुझे लगता है, कि भारत में आर्थिक विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए। लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिये कि केवल धन से ही हमारी सभी समस्याओं का (मृत्यु का) समाधान नहीं निकल सकता है। कुछ और आंकड़े हमें दुनिया भर में वर्तमान स्थिति की स्पष्ट तस्वीर प्राप्त करने में मदद करेंगे।
* यूनेस्को के अनुसार अमेरिका, जापान और स्वीडन में 54% युवाओं की मौत का कारण आत्महत्या है।
* जापान स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, 44 वर्ष या इससे अधिक आयु के जापानी अधिकारियों में से 42% मानसिक विकारों से पीड़ित थे।
* ब्रिटेन के एक मनोवैज्ञानिक डॉ आर. डी. लिंग का कहना है कि इंग्लैंड में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए, एक औसत युवा लड़के या लड़की के स्कुल में प्रवेश पाने की अपेक्षा मेन्टल हॉस्पिटल में प्रवेश पाने की सम्भावना दस गुना अधिक है।
यह है विश्व का वर्तमान परिदृश्य, अतः हमें वास्तव में यह सोचना होगा कि इस अवस्था में परिवर्तन लाने के लिए शिक्षकों / नेताओं की क्या भूमिका होनी चाहिए तथा शिक्षा की क्या भूमिका होनी चाहिए ? वर्तमान में प्रचलित शिक्षा नीति में गुणात्मक बदलाव लाते हुए एक अलग प्रकार की शिक्षा प्रणाली को प्रयोग में लाना होगा; तथा सम्पूर्ण मानवजाति को भारत की प्राचीन आध्यात्मिक संस्कृति से (श्रुति -परम्परा से) का परिचित करवाना होगा। भारत की शिक्षा-नीति में मिसाल या उदाहरण देने योग्य बदलाव (paradigm shift- शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण या अंतर्निहित मान्यताओं में एक मौलिक परिवर्तन) लाते हुए एक ओर जहाँ "श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा"--में प्रशिक्षित निवृत्ति -मार्ग के असाधारण संन्यासी शिक्षकों (Exalted teachers) का निर्माण करना होगा।
[ महामण्डल द्वारा विगत 53 वर्षों से "आचार्य परम्परा" में (Swami Vivekananda-captain Sevier Be and Make Vedanta Leadership training tradition' में) 'मानवजाति का मार्गदर्शक नेता (जीवनमुक्त शिक्षक /पैगम्बर) 'C-in-C बनो और बनाओ ' का जिस अत्यन्त प्रभावी कार्यक्रम 'एक नया युवा आंदोलन' योजनाबद्ध ढंग से - साप्ताहिक पाठ चक्र, 1दिवसीय, 3 दिवसीय, 6 दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर के माध्यम से आयोजित होता चला आ रहा है, उसकी जानकारी अभी तक भारत के कोने कोने तक पहुँच नहीं सकी है। इसलिए....महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लिए बिना ]
[यह चुनौती प्रत्यक्ष रूप से प्रत्येक शिक्षक/गुरु/नेता के सम्मुख है कि वे मनःसंयोग , जीवन-गठन, और चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया पर आयोजित कक्षा-कक्ष को केवल उबाऊ व्याख्यान का स्थान न बनाकर उसे शिक्षक (नेता) और शिष्य (भावी नेता) के बीच संवाद का केन्द्र बनाएं।] ज्ञानार्जन के विविध आयामों, पाठचक्र, जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तरों, और स्थानों में आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर के माध्यम से तथा दूरस्थ एवं अनौपचारिक शिक्षा दी जाती है, जो उसमें यम और नियम का पालन 24×7 और यहाँ तक कि उसके घर में भी सुबह और शाम - आसान, प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास सिर्फ दो बार उपलब्ध हो सके, इस प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता है।]
आधुनिक विद्यालय -महाविद्यालय को अस्थायी रूप से गुरुकुल परिवेश में ढालने की चुनौती (भारत के प्रत्येक राज्य में वार्षिक युवा -प्रशिक्षण शिविर आयोजित करने की चुनौती) प्रत्यक्ष रूप से महामण्डल के युवा-प्रशिक्षण शिविर आयोजित करने वाले /नेताओं /पैगम्बरों (जीवन मुक्त शिक्षकों) के सम्मुख है कि वे कक्षा-कक्ष (classroom) को केवल उबाऊ व्याख्यान का स्थान ( just a place of boring lectures) न बनाकर उसे गुरु (मार्गदर्शक नेता) और शिष्य (भावी नेता) के बीच संवाद का केन्द्र (a center of dialogue between teacher and pupil.) बनाएं।
[आज का विद्यार्थी जो स्वाभाव से सत्यार्थी भी है, वह कक्षा-कक्ष से बाहर निकलकर किसी महामण्डल जैसे संगठन में जहाँ 3H विकास के 5 अभ्यासों का प्रशिक्षण दिया जाता हो, वैसे युवा-प्रशिक्षण शिविर में या एक प्रकार से विस्तारित कक्षा-कक्ष या गुरुकुल की संकल्पना जैसे वातावरण में गुरु के सानिध्य में रहते हुए, ज्ञानार्जन के विविध आयामों,(ध्वजा रोहण, परेड, फिजिकल एक्सरसाइज), ऑर्डिनरी कैम्पर्स साधारण शिविरार्थी / लीडर्स शिविरार्थी, के विविध स्तरों, स्नान-सामूहिक डायनिंग -परिवेषण के स्थानों के माध्यम से तथा दूरस्थ एवं अनौपचारिक शिक्षा पाना चाहता है। यह महामण्डल घराना के विशाल युवा प्रशिक्षण शिविर केन्द्र की संकल्पना का शिविर-परिवेश एक प्रकार से विस्तारित कक्षा-कक्ष की संकल्पना (concept of an expanded classroom) है। महामण्डल द्वारा (श्रुति परम्परा में आधारित युवा प्रशिक्षण-प्रणाली) आयोजित विविध स्तर के युवा प्रशिक्षण शिविर में शिविरार्थियों को 24×7 उसके तीन प्रमुख अवयवों (3H) के विकास का प्रशिक्षण दिया जाता है। और यहाँ तक कि उसके घर में भी, यह शिक्षा उपलब्ध हो सके, की आवश्यकता को ध्यान में रखकर प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम बनाया जाता है।]
यथार्थ शिक्षक या अध्यापक वे हैं, जिन्होंने शिक्षा के लिए अपना पूरा जीवन स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में समर्पित कर दिया है। क्या वैसे शिक्षक भी वैचारिक -क्रांति के अग्रदूत या " torch-bearers of change " बन सकते हैं ? क्या हम हृदय से यह महसूस करते हैं कि ऋषि -मुनियों की करोड़ों सन्तानें आज पशुतुल्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं ? क्या उनके जीवन की दिशा को परिवर्तित करना (उर्ध्वमुखी करना) अनिवार्य है ?
शिक्षकों/नेताओं के सम्मुख यह चुनौती प्रत्यक्ष रूप से है कि वे कक्षा-कक्ष को केवल उबाऊ व्याख्यान का स्थान न बनाकर उसे शिक्षक और शिष्य के बीच संवाद का केन्द्र बनाएं। इस नई व्यवस्था से जुड़ने, उसे स्वीकारने और स्वयं को उसके अनुकूल ढालने की महती आवश्यकता आज शिक्षक समुदाय को है और उसके लिए उन्हें व्यक्तिशः स्वयं को -आध्यात्मिक क्रांति के मशालवाहक नेता (Torch-bearer of change) के रूप में तैयार करना होगा। Torch-bearer of change या आध्यात्मिक क्रांति के एक कारक/ एजेंट, समझ एवं सहिष्णुता प्रोत्साहित करने में शिक्षक/नेता गुरु का महत्व जितना स्वाभाविक रूप में आज अपेक्षित है, उतना पहले कभी नहीं था। 21वीं सदी में इसकी भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण बनने की संभावना है।
क्या है यह अंदर छुपा हुआ खजाना? हृदय में छुपा खजाना यह प्रत्येक देश की अपनी सांस्कृतिक विरासत है, सभ्यता, जीवन दृष्टि, परम्पराएं और मान्यताएं, लोक व्यवहार आदि हैं जिनसे पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान का संचार सतत् बना रहता है। स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण के अनुसार- “The Treasure within ” - मनुष्य के अंदर (हृदय में) छुपा हुआ खजाना क्या है ? 'डेलर्स कमीशन, 1996' की रिपोर्ट आने के लगभग 100 वर्ष पहले स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था, ‘‘संपूर्ण ज्ञान हमारे अंदर ही है। शिक्षा का कार्य मनुष्य की इस अन्तर्निहित पूर्णता का प्रकटीकरण करना है।’’[यह चुनौती प्रत्यक्ष रूप से प्रत्येक शिक्षक/गुरु/नेता के सम्मुख है कि वे मनःसंयोग , जीवन-गठन, और चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया पर आयोजित कक्षा-कक्ष को केवल उबाऊ व्याख्यान का स्थान न बनाकर उसे शिक्षक (नेता) और शिष्य (भावी नेता) के बीच संवाद का केन्द्र बनाएं।] ज्ञानार्जन के विविध आयामों, पाठचक्र, जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तरों, और स्थानों में आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर के माध्यम से तथा दूरस्थ एवं अनौपचारिक शिक्षा दी जाती है, जो उसमें यम और नियम का पालन 24×7 और यहाँ तक कि उसके घर में भी सुबह और शाम - आसान, प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास सिर्फ दो बार उपलब्ध हो सके, इस प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता है।]
आधुनिक विद्यालय -महाविद्यालय को अस्थायी रूप से गुरुकुल परिवेश में ढालने की चुनौती (भारत के प्रत्येक राज्य में वार्षिक युवा -प्रशिक्षण शिविर आयोजित करने की चुनौती) प्रत्यक्ष रूप से महामण्डल के युवा-प्रशिक्षण शिविर आयोजित करने वाले /नेताओं /पैगम्बरों (जीवन मुक्त शिक्षकों) के सम्मुख है कि वे कक्षा-कक्ष (classroom) को केवल उबाऊ व्याख्यान का स्थान ( just a place of boring lectures) न बनाकर उसे गुरु (मार्गदर्शक नेता) और शिष्य (भावी नेता) के बीच संवाद का केन्द्र (a center of dialogue between teacher and pupil.) बनाएं।
[आज का विद्यार्थी जो स्वाभाव से सत्यार्थी भी है, वह कक्षा-कक्ष से बाहर निकलकर किसी महामण्डल जैसे संगठन में जहाँ 3H विकास के 5 अभ्यासों का प्रशिक्षण दिया जाता हो, वैसे युवा-प्रशिक्षण शिविर में या एक प्रकार से विस्तारित कक्षा-कक्ष या गुरुकुल की संकल्पना जैसे वातावरण में गुरु के सानिध्य में रहते हुए, ज्ञानार्जन के विविध आयामों,(ध्वजा रोहण, परेड, फिजिकल एक्सरसाइज), ऑर्डिनरी कैम्पर्स साधारण शिविरार्थी / लीडर्स शिविरार्थी, के विविध स्तरों, स्नान-सामूहिक डायनिंग -परिवेषण के स्थानों के माध्यम से तथा दूरस्थ एवं अनौपचारिक शिक्षा पाना चाहता है। यह महामण्डल घराना के विशाल युवा प्रशिक्षण शिविर केन्द्र की संकल्पना का शिविर-परिवेश एक प्रकार से विस्तारित कक्षा-कक्ष की संकल्पना (concept of an expanded classroom) है। महामण्डल द्वारा (श्रुति परम्परा में आधारित युवा प्रशिक्षण-प्रणाली) आयोजित विविध स्तर के युवा प्रशिक्षण शिविर में शिविरार्थियों को 24×7 उसके तीन प्रमुख अवयवों (3H) के विकास का प्रशिक्षण दिया जाता है। और यहाँ तक कि उसके घर में भी, यह शिक्षा उपलब्ध हो सके, की आवश्यकता को ध्यान में रखकर प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम बनाया जाता है।]
स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा का उद्देश्य जीवन गठन, मनुष्य निर्माण तथा चरित्र निर्माण बताया है। (देखें, द कम्पलीट वर्क्स ऑफ स्वामी विवेकानन्द, भाग तीन/पृ. 302, कोलकाता 1964 का संस्करण) लक्ष्य बहुत ऊंचे हैं और बचपन में जो नैतिक मूल्य अपनाए जाते हैं, उनका विशेष महत्व जीवनभर बना रहता है। तथा क्या लौकिक विद्या (अपरा विद्या) सिखाने वाले साधारण शिक्षक भी आध्यात्मिक क्रांति के अग्रदूत (torch-bearers of change) या पराविद्या के असाधारण गुरु/नेता प्रचारक /C-in-C बन सकते हैं ? आइये इसी बिन्दु पर चर्चा की जाये- " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है , और शिक्षा का कार्य मनुष्य की इस अन्तर्निहित पूर्णता का प्रकटीकरण करना है।
विश्वभर में यह स्वीकार किया गया है कि समस्त प्रौद्योगिकी विषयक परिवर्तनों और ऑनलाइन प्रयासों तथा मुक्त एवं दूरस्थ शिक्षण माध्यमों के क्लासरूम पर पडऩे वाले प्रभाव के बावजूद कार्मिक शक्ति को तैयार करने में प्रमुख भूमिका शिक्षकों की ही है। यह कहावत कि ‘‘कोई व्यक्ति अपने गुरुओं /नेताओं के स्तर से ऊपर नहीं उठ सकता’’, हमेशा चरितार्थ होती है, बल्कि शाश्वत है। केवल प्रज्ज्वलित दीपक ही अन्य दीपक को ज्योति दे सकता है।
सर्वप्रथम दक्षिणेश्वर काली मंदिर में स्वयं माँ भवतारिणी के मुख से, स्वामी विवेकानन्द के गुरु, आधुनिक विश्व के प्रथम मार्गदर्शक नेता - श्रीरामकृष्ण देव को निर्विकल्प समाधि का अनुभव करने के बाद- तुम 'भावमुखी' होकर रहो (भ्रममुक्त-DeHypnotized होकर रहो ) और " गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित भावी जीवनमुक्त लोक-शिक्षक ( ('Would be Leader of Mankind) का निर्माण करो"~ का 'मौखिक चपरास' प्राप्त हुआ था। और काशीपुर उद्यान बाड़ी में स्वयं श्रीरामकृष्णदेव ने उसी जीवनमुक्त लोक-शिक्षक ('Would be Leader of Mankind) बनने और बनाने की पद्धति का 'लिखित चपरास' - 'धारणा-सिद्ध योगी की आवक्ष मुखाकृति के पीछे धावित मयूर का चित्र' अंकित कर, और 'नरेन शिक्षा देगा!' -लिखकर, निवृत्ति मार्ग के सप्तऋषिओं में से एक अपने प्रिय और योग्यतम शिष्य नरेन्द्रनाथ दत्त (भावी स्वामी विवेकानन्द) के हांथों में सौंप दिया था।
और फिर निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में एक ऋषि स्वामी विवेकानन्द ने अपने प्रवृत्ति मार्ग के प्रिय शिष्य तथा अद्वैत आश्रम मायावती के संस्थापक कैप्टन सेवियर को 'विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर 'बी एंड मेक' नेतृत्व प्रशिक्षण परंपरा' (BE AND MAKE- Leadership training tradition) में प्रशिक्षित नेता बनने और बनाने का आचार्य परम्परा से प्राप्त वही चपरास सौंप दिया था।
महामण्डल के संस्थापक तथा मनःसंयोग पुस्तिका के लेखक श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय ने अपनी पुस्तक 'जीवननदी के हर मोड़ पर' के पृष्ठ 42 और 80 में 'कैप्टन सेवियर और अद्वैत आश्रम मायावती' का उल्लेख करते हुए लिखा है कि अपने पूर्वजन्म में वे स्वयं कैप्टन सेवियर ही थे।
महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर में 'विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर 'Be and Make ' वेदांत लीडरशिप प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित भावी नेताओं /लोकशिक्षकों का निर्माण करने वाली पुस्तिका, 'मनः संयोग' के आवरण पृष्ठ पर छपे चित्र में डेलर्स कमिटी की रिपोर्ट -1996 में कथित -लर्निंग द ट्रेजर विदिन’’ “Learning The Treasure within” आने से '114 साल पहले' ही इसकी व्याख्या, श्रीरामकृष्ण वचनामृत (24 अगस्त 1882) में इस प्रकार दी गयी है:~
भगवान श्रीरामकृष्ण का मुख सहास्य है। 'मास्टर' से कह रहे हैं - " ईश्वरचन्द्र विद्यासागर से और भी दो एक बार मिलने की आवश्यकता है। मूर्तिकार को जब मूर्ति गढ़नी होती है, तो वह पहले उसका एक खाका (blueprint) तैयार कर लेता है, फिर उस पर रंग चढ़ाता रहता है। प्रतिमा गढ़ने के लिये पहले दो तीन बार मिट्टी चढ़ाई जाती है, फिर सफेद रंग चढ़ाया जाता है, फिर वह ढंग से रंगी जाती है।
विद्यासागर का सब कुछ ठीक है, सिर्फ ऊपर कुछ मिट्टी पड़ी हुई है। वह कुछ अच्छे काम (शिक्षा -समाज-सेवा आदि ) तो करता है, परन्तु स्वयं अपने हृदय में क्या है, इस बात की उसे कोई खबर नहीं है। हृदय में सोना दबा पड़ा है। हृदय में ही ईश्वर हैं यह जान लेने के बाद, सब कुछ छोड़कर व्याकुल हो उन्हें पुकारने की इच्छा होती है। "
.... श्रीरामकृष्ण मास्टर से खड़े खड़े वार्तालाप कर रहे हैं, कभी बरामदे में टहल रहे हैं। श्रीरामकृष्ण : "अन्तरे कि आछे जानबार जन्ये एकटू साधन चाई।" -अर्थात हृदय (Heart) में [कितना अमुल्य खजाना दबा पड़ा है !) क्या है इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिये कुछ साधना आवश्यक है।
मास्टर : 'साधना' क्या बराबर करते ही रहना चाहिये ?
[मास्टर के कहने का तात्पर्य था कि क्या 'विवेकदर्शन का अभ्यास और लालचत्याग ' भ्रममुक्त होने या डीहिप्नोटाइज्ड होने की औषधि के रूप में ता-उम्र (आजीवन) खानी पड़ेगी ?]
श्रीरामकृष्ण : " नहीं, पहले कुछ कमर कसकर करनी चाहिये। फिर ज्यादा मेहनत नहीं उठानी पड़ती। जब तक 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' हिलोरा (surge),चक्रवात (storm),आँधी चल रही होती है, और नौका नदी के तीखे मोड़ों से होकर गुजर रही होती है, तभी तक मल्लाह को मजबूती से पतवार पकड़नी पड़ती है। उतने से पार हो जाने पर नहीं। जब वह मोड़ से बाहर हो गया और अनुकूल हवा चली तब वह आराम से बैठा रहता है, पतवार में हाथ भर लगाये रहता है। फिर तो पाल टाँगने का बंदोबस्त करके आराम से चिलम भरता है। 'कामिनी और कांचन' की आँधी (वृत्ति) से निकल जाने पर शान्ति मिलती है ! " तराजू में किसी ओर कुछ रख देने से नीचे की सुई और ऊपर की सुई दोनों बराबर नहीं रहतीं। नीचे की सुई मन है और ऊपर की सुई ईश्वर। नीचे की सुई का ऊपर की सुई से एक होना ही योग (मनःसंयोग) है।
श्रीरामकृष्ण - " योगियों का मन सदा ईश्वर में (भीतर में छिपे खजाने में) - लगा रहता है --सदा आत्मस्थ रहता है। शून्य दृष्टि, देखते ही उनकी अवस्था सूचित हो जाती है । समझ में आ जाता है, कि चिड़िया अण्डे को से रही है। सारा मन अण्डे ही की ओर है [सारा मन लर्निंग द ट्रेजर विदिन’’ “Learning The Treasure within” में ही है ?], ऊपर दृष्टि तो नाममात्र की है। अच्छा, ऐसा चित्र " अण्डे सेने वाली माँ पक्षी का चित्र" क्या मुझे दिखा सकते हो ?"
[The mother bird hatching her eggs/ दी मदरबर्ड (गुरु रूपी माँ जगदम्बा-नवनीदा) हैचिंग हर एग्स (would be leader) का जीवंत चित्र;क्या मुझे दिखा सकते हो ?]
मणि- जैसी आज्ञा। चेष्टा करूँगा, यदि कहीं मिल जाय।"
[समाज-सेवा द्वारा कामिनी -कांचन और 'नाम-यश' कमाने में आसक्ति को भी सम्पूर्ण रूप से त्याग देने के बाद ही (हृदय में विराजित प्रेमस्वरूपा माँ जगदम्बा) को पुकारने की इच्छा होती है। अर्थात 'मनुष्य-निर्माण तथा चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' देने में समर्थ भावी लोक-शिक्षक (वुड बी लीडर) 'बनने और बनाने' वाले महामण्डल आंदोलन, 'BE AND MAKE' का नेतृत्व (लीडरशिप) प्रदान करने की पात्रता प्राप्त होती है। हृदय में दबा सोना को 'श्रीरामकृष्ण-ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसा गुरु-शिष्य वेदान्त प्रशिक्षण परम्परा' में ड्रिलिंग करके निकाल लेने की पद्धति को मनःसंयोग कहते हैं।
कामिनी-कांचन ('Lust and Lucre') में घोर आसक्ति ही मन (awareness) के 'Distraction' अर्थात दूसरी ओर लगाव का मुख्य कारण है। कामिनी-कांचन में घोर आसक्ति की 'वृत्ति' रूपी 'आँधी' से पार होने के लिये, 'मनः संयोग' की पद्धति स्वयं सीखना और दूसरों को भी यह पद्धति सीखने में सहायता करना ही आधुनिक युग की धार्मिक साधना है।
'वासना और धन' की तृष्णा को मिटाने के लिये, बहुत बड़ी संख्या में एकाग्रता का अभ्यास करने की शिक्षा या प्रशिक्षण देने में समर्थ भावी युवा लोक-शिक्षकों, वुड बी लीडर्स का निर्माण करने से ही में पूरे विश्व में सत्य-युग की स्थापना संभव हो सकती है।
आधुनिक युग में 'मनुष्य-निर्माण' के युवा मूर्तिकार नवनीदा ने भी अपने गुरु के निर्देशानुसार,"विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर प्रशिक्षण परम्परा" में हृदय में दबे सोने को खोज निकालने का उपाय बताने वाले लोकशिक्षकों, या वुड बी लीडर्स को प्रशिक्षित करने के लिये मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव, शरीर, मन और हृदय -3 'H' निर्माण के ५ अभ्यास ' की प्रशिक्षण पद्धति 'BE AND MAKE' का एक खाका (blueprint) तैयार किया था। ]
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11 .
विश्व को समर्पित भारत का उपहार है : आध्यात्मिक संस्कृति।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था ' भारत को ईश्वर के द्वारा सम्पूर्ण विश्व में इस आध्यात्मिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने की विशेष भूमिका प्रदत्त हुई है। और उसे विश्वगुरु की भूनिका निभानी ही होगी। " इसी सन्दर्भ जो स्वामीजी ने आगे कहा था , जिसकी सराहना करते हम नहीं थकते , वह है - "भारत अपनी आध्यात्मिक शक्ति द्वारा एक दिन सम्पूर्ण विश्व को जीत लेगा।" एक बार किसी व्यक्ति ने स्वामी जी से पूछा था, कि आप तो एक संन्यासी हैं, इस नाते आपको तो राष्ट्रीयता से ऊपर उठ जाना चाहिए था, फिर आप भारत की इतनी प्रसंशा क्यों करते हैं, देशभक्ति की बातें क्यों करते हैं? इस पर स्वामी जी ने उत्तर दिया कि उनके लिए वैसे तो सभी राष्ट्र बिल्कुल एक समान प्रिय हैं, लेकिन दुनिया को भौतिकवादी संस्कृति ( materialistic culture) के जबड़े से बाहर निकालना भारत का विशेष दायित्व है। इसलिए जब तक भारत को भौतिवादी संस्कृति के जबड़े में फँसने से नहीं बचाया जाता, तब तक विश्व को भी नहीं बचाया जा सकता; क्योंकि एकमात्र भारतवर्ष को ही महान आध्यात्मिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने की विशेष भूमिका प्राप्त हुई है। अद्वैत वेदान्त ( एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति) में आधारित एक महान आध्यात्मिक संस्कृति हम भारतवासियों को अपने पूर्वजों से विरासत में प्राप्त हुई है, जिसको हमें पूरे विश्व को दानस्वरूप देना होगा; क्योंकि आज पूरी दुनिया उदग्रीव होकर इसकी प्रतीक्षा कर रही है। स्वामीजी कोई ज्योतिषी तो नहीं थे, लेकिन उन्होंने जो भी भविष्यवाणी की थी वे सभी सच साबित हुए हैं। वास्तव में वे एक ऋषि (visionary-Seer भविष्यद्रष्टा या पैगम्बर) थे, भविष्य में होने वाली घटनाओं को भी अपनी आँखों के समक्ष बिल्कुल घटित होते हुए देखने में समर्थ थे। उन्होंने 1897 में ही भविष्यवाणी करते हुए कहा था - आगामी 50 वर्षों के भीतर असाधारण परिस्थितियों में भारत को स्वतन्त्र हो जाना चाहिये। उस समय तक गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत नहीं लौटे थे और किसी ने भी असहयोग आंदोलन के बारे में सोचा तक नहीं था। किन्तु उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई और ठीक 50 साल बाद 1947 में हमें स्वतंत्रता मिली। ( आश्चर्य की बात तो यह है कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म भी 23 जनवरी, 1987 को ही हुआ)
उनके द्वारा कही गई कई अन्य बातें भी बाद में बिल्कुल सच निकलीं। 1893 में, हार्वर्ड विश्वविद्यालय, यूएसए के प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट के घर पर उन्होंने कहा था कि अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़ने के बाद; चीन की तरफ से भारत पर एक बड़ा हमला होगा। और 1962 में उनकी यह भविष्यवाणी भी सच साबित हुई। स्वामी विवेकानन्द ने यह भविष्यवाणी की थी कि पहला सर्वहारा-वर्ग या दरिद्रतम मजदूर वर्ग का आंदोलन (first proletariat movement) रूस या चीन से आएगा। जबकि स्वयं कार्ल मार्क्स का विचार था कि ऐसा पहला आंदोलन जर्मनी से आएगा क्योंकि तब वहाँ कुछ संगठित मजदूर यूनियन बन चुके थे, और रूस में कोई संगठित श्रमिक वर्ग नहीं था। तब भी स्वामीजी की भविष्यवाणी सच साबित हुई।
इस प्रकार हम देख सकते हैं, कि स्वामी जी ने जो भी भविष्यवाणी की थी, वह सब सच साबित हुई हैं।लेकिन एक भविष्यवाणी का अभी भी सच साबित होना शेष है। स्वामी जी ने 1897 में दिए गए अपने मद्रास वक्तृता में भविष्यवाणी करते हुए कहा था - " भारत अपनी आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा सम्पूर्ण विश्व पर विजय प्राप्त करेगा। " उनकी यह भविष्यवाणी अभी सच सिद्ध होना शेष है। किन्तु धीरे धीरे यह भी सत्य होने लगा है।
योग के अंतरराष्ट्रीय दिवस को विश्व योग दिवस भी कहते है। 11 दिसंबर 2014 को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रुप में 21 जून को संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने घोषित किया है। भारत में योग को लगभग 5,000 हजार वर्ष पुरानी एक मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक विकास प्रशिक्षण परम्परा के रुप में पालन किया जाता रहा है। योग की उत्पत्ति प्राचीन समय में भारत में हुयी थी जब लोग अपने शरीर, मन और आत्मा की शक्ति में बदलाव लाने या विकसित करने के लिये मनःसंयोग का अभ्यास ( या ध्यान) किया करते थे। आज सम्पूर्ण विश्व योग, ध्यान, के माध्यम से मानसिक परिवर्तन या समाधि की अवस्था (परमानन्द की अवस्था) को समझने के लिए भारतीय आध्यात्मिकता की ओर मुड़ने लगी है।
'टाइम' पत्रिका में छपे एक लेख से पता चलता है कि अमेरिकी लोग अब बहुत बेकरारी से मनःसंयोग के अभ्यास की पद्धति को सीखना चाह रहे हैं, तथा दवा के रूप नियमित रूप से ध्यान कर रहे हैं। जर्नल ऑफ़ दी अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (JAMA /Journal of the American Medical Association)
के इंटरनल मेडिसिन जर्नल में पिछले सप्ताह प्रकाशित एक नए समीक्षा अध्ययन से पता चलता है कि मन की शांति के लिए कुछ दस मिलियन अमेरिकी नियमित रूप से' mindful meditation या 'मन की एकाग्रता' का अभ्यास कर रहे हैं। अखबारों की एक रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि अमेरिकी लोग योग को लेकर बिल्कुल दीवाने हो रहे हैं।
एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका के 122 मेडिकल स्कूलों में से 92 में वैकल्पिक चिकित्सा के नियमित पाठ्यक्रम में योग और ध्यान भी शामिल हैं। एक तरह से भारतीय आध्यात्मिकता, श्रुति-परम्परा में आधारित भारतीय सांस्कृतिक विरासत -'पतंजलि योग विद्या' (मनःसंयोग के प्रशिक्षण पद्धति) को अब विश्व के 177 देशों द्वारा अपनाया जा रहा है।
अब यदि भारत को उस आध्यात्मिकता को देने के लिए एक विश्व-शिक्षक/ LEADER की भूमिका निभानी है, तो एक ही कमी हमारे आड़े आती है और वह है, हमारा 'विकासशील राष्ट्र' (developing nation) होने का दर्जा। जब तक हमारा देश भारतवर्ष एक विकसित राष्ट्र नहीं बन जाता, हम उनके शिक्षक / या मार्गदर्शक नेता कैसे बन सकते हैं? इसीलिए राष्ट्र निर्माण (nation building) की नितांत आवश्यकता है।
भारतीय संस्कृति की विशेषता : भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि हज़ारों वर्षों के बाद भी यह संस्कृति आज भी अपने मूल स्वरूप में जीवित है, जबकि मिस्र, असीरिया, यूनान और रोम की संस्कृतियों अपने मूल स्वरूप को लगभग विस्मृत कर चुकी हैं। चीनी संस्कृति के अतिरिक्त पुरानी दुनिया की अन्य सभी –प्राचीन मिस्र , यूनान और रोम की-संस्कृतियाँ काल के कराल गाल में समा चुकी हैं। कुछ ध्वंसावशेष ही उनकी गौरव-गाथा गाने के लिए बचे हैं; किन्तु भारतीय संस्कृति कई हज़ार वर्ष तक काल के क्रूर थपेड़ों को खाती हुई आज तक जीवित है। इसीलिए मोहम्मद इक़बाल ने कहा था- कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा। " ---(वो) क्या बात है, कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ? उसका मुख्य कारण - भारतीय संस्कृति में पुरूषार्थ-चतुष्टय का विशिष्ट स्थान रहा है।
पुरुषार्थ प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक विचारधारा की अपनी व्यवस्था है जो विश्व की अन्य संस्कृतियों में सर्वथा अप्राप्य है । पाश्चात्य संस्कृति जहाँ भौतिकता को सर्वोच्च प्राथमिकता देती है वहाँ भारतीय संस्कृति में भौतिकता को महत्वपूर्ण मानते हुये भी आध्यात्मिकता को प्राथमिकता दी गयी है।
पुरुषार्थ = पुरुष+अर्थ = अर्थात मानव को 'क्या' प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए ? दूसरे शब्दों में मनुष्य के जीवन का उद्देश्य (The Object of Human Pursuit) क्या होना चाहिए ?
पुरुषार्थ से तात्पर्य मनुष्य-जीवन का अंतिम लक्ष्य या उद्देश्य से है। पुरूषार्थ जीवन-शक्ति (विवेक-प्रयोग शक्ति) का वह सार्थक उपयोग है जो कि व्यक्ति को सांसारिक सुख -भोग के बीच अपने धर्म पालन के माध्यम से मोक्ष की राह दिखलाता है। पुरुषार्थों का उद्देश्य मनुष्य के भौतिक तथा आध्यात्मिक सुखों के बीच सामंजस्य स्थापित करना है । भारतीय आध्यात्मिक परम्परा भौतिक सुखों को क्षणिक मानते हुये भी उन्हें पूर्णतया त्याज्य नहीं समझती, बल्कि उनके प्रति अतिशय आसक्ति का ही विरोध करती है । मनुष्य भौतिक सुखों के संयमित उपभोग द्वारा ही आध्यात्मिक सुख प्राप्त करता है । भौतिक सुखों को (5 ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी को भी) आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति में साधक माना गया है, बाधक नहीं । दोनों घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं । दोनों का समन्वित स्वरूप पुरुषार्थों के माध्यम से प्रतिपादित किया गया है । मनुष्य जीवन के लक्ष्य को वेदों में पुरुषार्थ चतुष्टय कहा गया है।
भारतीय संस्कृति और दर्शन में मानव के लिए चार पुरूषार्थ निर्धारित किये गये हैं – धर्म ,अर्थ ,काम और मोक्ष। यही चार वस्तुयें ऐसी हैं जिन्हें प्रत्येक मनुष्य को इसी जीवन में प्राप्त कर लेने की आकांक्षा करनी चाहिये। इनमें अर्थ तथा काम भौतिक सुखों के प्रतिनिधि हैं जबकि धर्म तथा मोक्ष आध्यात्मिक सुखों का प्रतिनिधित्व करते हैं । ‘मोक्ष’ मानव जीवन का चरम लक्ष्य -(Last Luxury) है जिसकी प्राप्ति में शेष पुरुषार्थ सहायक हैं ।
पुरुषार्थों में धर्म (Righteousness-औचित्य-बोध, विवेक) का सर्वप्रथम स्थान है जिसे हिन्दू जीवन-दर्शन में सर्वाधिक महत्व प्रदान किया गया है । धर्म के मूल स्वरुप को समझ लिया जाए तो कोई ढोंगी बाबाओं का अंधभक्त नहीं बनेगा। इतना ही नहीं, धर्म परायण बनकर भारत सम्पूर्ण विश्व को पुनः आलोकित कर सकता है। मन्दिरों में आरती के पश्चात उद्घोष होता है – 'धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो। प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो!' यहाँ धर्म का अर्थ क्या है? किसी एक रेलीजन की जय हो? नहीं, सत्य की जय हो। सदाचार की जय हो, आदर्श सिद्धांतों (चार महावाक्यों) की जय हो। पापों का, बुराइयों का नाश हो।
धर्म से सम्बन्धित प्राचीन ग्रन्थों में जो विचार व्यक्त किये गये हैं, उन्हें देखने से स्पष्ट है कि यह एक व्यापक शब्द था जिसमें भारतीय मनीषा ने सदाचार, सामाजिक कर्तव्य, व्यक्तिगत गुणों आदि सभी का समावेश कर लिया था । अंग्रेजी का “रेलीजन” शब्द इसका पर्याय नहीं हो सकता । धर्म व्यक्ति को नियन्त्रित करता है तथा समाज के प्रति उसके कर्तव्यों को निष्ठापूर्वक पालन करने के लिये प्रोत्साहित करता है । इसके माध्यम से व्यक्ति अपना सर्वाड्गीण विकास करता, समाज के सदस्य के रूप में अपने दायित्वों का निर्वाह करता तथा अन्ततोगत्वा जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करता था । धर्म आद्योपान्त मनुष्य के साथ रहने वाला तत्व है । धर्म को कहीं-कहीं कर्तव्यों का संग्रह भी माना गया है ।
वर्णाश्रम आदि धर्म के कर्तव्यों का सर्वप्रथम वर्णन ऐतेरेय ब्राह्मण में मिलता है। प्राचीन काल में ही भारतीय मनीषियों ने धर्म को वैदिक ढंग से - अर्थात वैज्ञानिक ढंग से समझने का प्रयत्न किया था। ‘धर्म’ शब्द मूलतः ‘धृ’ धातु से निष्पन्न होता है जिसका शाब्दिक अर्थ है धारण करना अथवा अस्तित्व बनाये रखना । यह वह तत्व है जो मनुष्य तथा समाज के अस्तित्व को कायम रखता है ।
यह सामाजिक व्यवस्था का नियामक है । प्राचीन शास्त्रों में इसकी विशद व्याख्या मिलती है । हमारे सनातन धर्म या वैदिक धर्म के किसी भी धर्मग्रंथ में , जैसे -रामायण, गीता , महाभारत, उपनिषद आदि में हिन्दुओं का धर्मग्रंथ नहीं लिखा है। क्योंकि हमारे यहाँ धर्म का अर्थ अन्य सम्प्रदायों की तरह, हिन्दू,मुस्लिम ईसाई आदि नाम वाला 'Religion' नहीं है। भारतवासियों के लिए धर्म का अर्थ है, वेदान्त अर्थात जानने का अन्त। महाभारत में कहा गया है कि- ‘धर्म सभी प्राणियों की रक्षा करता है, सभी को सुरक्षित रखता है । यह सृष्टि का अस्तित्व बनाये रखता है ।’ आगे बताया गया है कि धर्म की व्यवस्था सभी प्राणियों के कल्याण के लिये की गयी है, जिससे सभी प्राणियों का हित होता है वही धर्म है ।
वैशेषिक दर्शन में कहा गया है कि-" यतो अभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।" (कणाद, वैशेषिकसूत्र, १.१.२) - अर्थात धर्म वह अनुशासित जीवन क्रम है, जिसमें लौकिक उन्नति (अभ्युदय या अविद्या) तथा आध्यात्मिक परमगति (निःश्रेयस, चतुर्थं- तुरीयं मोक्ष या भ्रममुक्त अवस्था, या विद्या ) दोनों की प्राप्ति होती है। ‘जिससे लौकिक तथा पारलौकिक कल्याण की सिद्धि होती है वह धर्म है ।’ धर्म की इससे अधिक उदार परिभाषा और क्या हो सकती है? धर्म की इस परिभाषा के अनुसार मनुष्य जीवन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण ऐहिक और पारलौकिकअर्थात भौतिक और आध्यात्मिक (प्रवृत्ति और निवृत्ति) दोनों पक्षों से धर्म को जोड़ा गया है।
प्राचीन शास्त्रकारों ने वेद, स्मृति आदि धर्म-ग्रन्थों में जो कर्त्तव्य विहित हैं, उनके निष्ठापूर्वक पालन करने को ही धर्म बताया है । वस्तुतः धर्म से तात्पर्य आचरण की उस संहिता से है जिसके माध्यम से मनुष्य नियमित होता हुआ विकास करता है और अन्ततोगत्वा परम पद ‘मोक्ष’ की प्राप्ति कर लेता है ।
दूसरा पुरुषार्थ है अर्थ :~ इस शब्द का अर्थ संकुचित रूप में धन अथवा सम्पत्ति लगाया जाता है किन्तु प्राचीन भारतीयों की दृष्टि से यह एक व्यापक शब्द था। अर्थ के माध्यम से व्यक्ति भौतिक सुख एवं ऐश्वर्य को प्राप्त करता है । यह सुख-सुविधा का साधन है ।
प्राचीन शास्त्रों में अर्थ की महत्ता को स्वीकार किया गया है । महाभारत में इसे ‘परमधर्म’ कहा गया है जिस पर सभी वस्तुएँ निर्भर करती हैं । जिनके पास अर्थ नहीं है वे मृतक तुल्य हैं जबकि धनी व्यक्ति संसार में सुखपूर्वक निवास करते हैं । अर्थ के अभाव में जीवनयापन असम्भव है ।
बृहस्पति ने अर्थ को जगत का मूल स्वीकार किया है (धनं मूलं जगत्) । अर्थशास्त्र में इसे प्रधान तत्व निरूपित किया गया है । नीतिशतक में कहा गया है कि जिसके पास धन है वही कुलीन है, पंडित है, वेंदों का ज्ञाता है, गुणवान् हैं, वक्ता है तथा दर्शनीय है । सभी गुण धन में ही होते हैं ।
किन्तु अर्ध की महत्ता स्वीकार करते हुए भी हिन्दू शास्त्रकारों ने उसे धर्म के अधीन बताया है तथा धर्मपूर्वक अर्थ की प्राप्ति पर बल दिया है । जो अर्थ, धर्म की हानि करता है वह अभीष्ट नहीं है । मनुस्मृति में स्पष्टतः कहा गया है कि धर्माविरुद्ध अर्थ तथा काम का त्याग कर देना चाहिए । आपस्तम्ब ने भी कहा है कि मनुष्य को धर्मानुकूल सभी सुखों का उपभोग करना चाहिए । इस प्रकार भारतीय जीवन-दर्शन में अर्थ और काम वहीं तक अभीष्ट है जहाँ तक वह धर्मसंगत हो ।
तीसरा पुरुषार्थ काम : ~ मानव-जीवन का तृतीय पुरुषार्थ काम है, जिसका शाब्दिक अर्थ इन्द्रिय सुख अथवा वासना से है । किन्तु व्यापक अर्थ में इस शब्द से तात्पर्य मनुष्य की सहज इच्छाओं एवं प्रवृत्तियों से है। इस के अन्तर्गत स्वादिष्ट खाना-पीना, संगीत, नाटक, नृत्य जैसी कलायें, वस्त्र, आभूषण, बनाव-सिंगार और रहन-सहन के साधन, तथा संतानोत्पति, खेल कूद और मनोरजंन के सभी साधन आते हैं। इन साधनों के अभाव से मानव का जीवन नीरस हो जाता है और वह सदैव अतृप्त रहता है। और उस अतृप्त काम व्यक्ति के लिए पूर्ण मोक्ष की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन और अस्वाभाविक है। जो लोग काम इच्छाओं का दमन कर के किसी अन्य कारण से संन्यास ग्रहन कर लेते हैं, अकसर वही लोग जीवन भर अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति के लिये ललायत भी रहते हैं। इस प्रकार के लोग अवसर मिलने पर पथ भृष्ट हो जाते हैं और दुष्कर्म कर के अपना सम्मान भी गँवा बैठते हैं।
काम इच्छाओं का दमन नहीं अपितु शमन कर के ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। काम तृप्ति के बिना प्रत्येक प्राणी का जीवन अधूरा रहता है। कुछ थोड़े से लोग- (स्वामी जी या नवनीदा जैसे लोग) ही ब्रह्मचर्य आश्रम से सीधा संन्यास आश्रम में जाने की पात्रता रखते हैं, परन्तु उन की संख्या लाखों में एक के बराबर ही होती है। इसी सच्चाई को मान्यता देते हुये भारतीय संस्कृति में काम दमन के बजाये काम शमन को प्राथमिक्ता दी है और जीवन में गृहस्थ आश्रम - के वैवाहिक सम्बन्धों को सर्वोच्च माना है। काम शमन के साथ धर्म तथा अर्थ, तीनो का पालन करना अनिवार्य है अन्याथ्वा सभी कुछ अधर्म होगा। किसी कारण वश यदि धर्म, अर्थ तथा काम का समावेश सम्भव ना हो तो क्रमशः सर्वप्रथम काम का त्याग करना चाहिये, फिर अर्थ का त्याग करना चाहिये। धर्म का त्याग किसी भी स्थिति में कदापि नहीं करना चाहिये।
संसार की प्रथम एवं प्रमुख प्रवृत्ति-काम है । इसी के वशीभूत ही मनुष्य सन्तानोत्पत्ति करता है, गृहस्थ जीवन के विविध आनन्दों को भोगता है तथा एक दूसरे के प्रति आकर्षण रखता है । हिन्दू शास्त्रकारों ने मानव जीवन में काम के महत्व को स्वीकार करते हुए उस पर धर्म का अंकुश लगाया तथा यह प्रतिपादित किया कि धर्मसंगत काम का आचरण ही व्यक्ति एवं समाज की उन्नति कर सकता है ।
जबकि धर्मविरुद्ध या शास्त्रविरुद्ध निषिद्ध काम, मनुष्य के अध:पतन का मार्ग प्रशस्त करता है । काम के निरंकुश आचरण से व्यक्ति का विकास अवरुद्ध हो जाता है । काम की तृप्ति न होने पर क्रोध तथा क्रोध से मोह की उत्पत्ति होती है । मोह से स्मृतिभ्रम, स्मृतिभ्रम से बुद्धिनाश तथा बुद्धिनाश से मनुष्य का पूर्ण विनाश हो जाता है ।
इसी कारण भगवान श्री कृष्ण अपने को सभी प्राणियों में धर्मयुक्त काम बताते हैं- " धर्माऽविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ " - अर्थात हे भरत-श्रेष्ठ प्राणियों में जो धर्म से अविरुद्ध शास्त्रानुकूल कामना है जैसे - देहधारणमात्र के लिये खानेपीने थोड़ा सुख भोगने की जो इच्छा आदि वह ( इच्छारूप) काम भी मैं ही हूँ। । मत्स्यपुराण में कहा गया है कि- ‘धर्मरहित काम बन्ध्या पुत्र के समान है (धर्महीनस्य कामार्थो बन्ध्यासुत समौ ध्रुवम्) । महाभारत की मान्यता है कि जो व्यक्ति धर्माविहीन काम का अनुसरण करता है वह अपनी बुद्धि को समाप्त कर देता है तथा कठिनाइयों में शत्रु द्वारा हँसी का पात्र बनाया जाता है ।’मत्स्यपुराण में कहा गया है कि- 'धर्मरहित काम बन्ध्या पुत्र के समान है (धर्महीनस्य कामार्थो बन्ध्यासुत समौ ध्रुवम्)
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि हिंदू शास्त्रकारों ने धर्म संवलित काम का आचरण किये जाने पर ही बल दिया है । इसी से व्यक्ति का सम्यक विकास सम्भव है । काम का उच्छृंखल आचरण व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिये हानिकारक है।
चौथा पुरुषार्थ है मोक्ष : भारतीय संस्कृति में मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य स्वीकार किया गया है जिसकी प्राप्ति सभी मनुष्यों का परम लक्ष्य है । उपनिषदों में मोक्ष सम्बन्धी विचारधारा का सम्यक् विश्लेषण मिलता है । उपनिषद् व्यक्ति के सारभूत तत्व आत्मा तथा जगत के सारभूत तत्व ब्रह्म का तादात्म्य स्थापित करते हैं। यही मोक्ष की अवस्था है । इसके लिये यह आवश्यक है कि व्यक्ति में विवेकज -ज्ञान से उत्पन्न वैराग्य - इन्द्रिय तथा मन का संयम, सांसारिक भोगों से विरक्ति हो, तथा द्रष्टा-दृश्य विवेक केअनुसार संसार की अनित्यता का ज्ञान तथा मुमुक्षत्व की तड़प या मोक्ष प्राप्त करने की प्रबल उत्कण्ठा हो । तत्पश्चात् उसे किसी योग्य गुरु से वेदान्त का उपदेश ग्रहण करना चाहिए । गुरु शिष्य को ( विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त नेतृत्व परम्परा- Be and Make ' में नेता भावी नेता को) ‘तुम ही वह ब्रह्म हो’ (तत् त्वम् असि) का बोध कराता है । गुरु की इस उक्ति का मनन करते हुए तथा दृढ़तापूर्वक उसका आचरण करते हुए व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार कर लेता है तथा इस अवस्था में उसे ‘अहं ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूँ की अनुभूति होती है । यही पूर्ण ज्ञान है तथा इसी को मोक्ष कहा गया है । [मोक्ष का दो अर्थ है- जब तक प्रारब्ध भोगने के लिए जीवन-धारण है, भ्रममुक्त (जीवनमुक्त या de-hypnotized ) अवस्था में ठाकुर का सेवक बनना और बनाना, दूसरा है अंतिम साँस लेते वक्त (यदि माँ की इच्छा हो तो) पुनर्जन्म अथवा आवागमन चक्र से मुक्ति प्राप्त कर आत्मा का परमात्मा में विलीन हो जाना ।] मोक्ष प्राप्ति के बाद जीवन के दु:खों का नाश हो जाता है तथा मनुष्य परमानन्द की प्राप्ति करता है । चार्वाक् के अतिरिक्त अन्य सभी विचारधारायें इसे स्वीकार करती हैं । जैन तथा बौद्ध दर्शन में भी अविद्या के विनाश को ही मोक्ष का उपाय माना गया है ।
गीता ज्ञान के स्थान पर भक्ति को प्रधानता देती है तथा मोक्ष के लिये ईश्वर की कृपा (माँ काली के अवतार परम्परा में जन्मे भगवान श्री रामकृष्ण की कृपा) को आवश्यक बताती है । श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है कि सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आओ । मैं तुम्हें अभी पापों से मुक्त करूँगा ।
गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में ब्रह्मचर्य आश्रम में ही विद्यार्थी को इसका बोध हो जाता था तथा जीवन-पर्यन्त वह अपनी समस्त क्रियाओं को उसी ओर नियोजित करता था । जीवन के अन्तिम भाग में (75 -100 वर्ष में) संन्यास आश्रम में आने पर इस लक्ष्य की पूर्ण प्राप्ति होती थी ।
निस्संदेह यह शुभावस्था बहुत कम लोगों को ही प्राप्त होती है। अधिकतर व्यक्ति पहले तीन लक्ष्यों के पीछे भागते भागते असंतुष्ट जीवन बिता देते हैं। अज्ञानी, अधर्मी, निष्क्रय, असंतुष्ट, ईर्शालु, क्रूर, रोगी, भोगी, दारिद्र तथा अप्राकृतिक जीवन जीने वाले (शास्त्र विरुद्ध या निषिद्ध कर्मों से विरत न हुए) व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं होती।
प्राचीन काल में व्यक्तिगत व्यवस्था के दो स्तंभ थे - पुरुषार्थ और आश्रम। मोक्ष परम पुरुषार्थ, अर्थात् जीवन का अंतिम लक्ष्य था, किंतु वह अकस्मात् अथवा कल्पनामात्र से नहीं प्राप्त हो सकता है। उसके लिए साधना द्वारा क्रमश: जीवन का विकास और परिपक्वता आवश्यक है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए भारतीय समाजशास्त्रियों ने आश्रम संस्था की व्यवस्था की। आश्रम वास्तव में जीव का शिक्षणालय अथवा विद्यालय है।
व्यक्तिगत संस्कार के लिए उसके जीवन का विभाजन चार आश्रमों में किया गया था। आश्रम' शब्द की परिभाषा - जिसमें स्म्यक् प्रकार से श्रम किया जाए वह आश्रम है अथवा आश्रम जीवन की वह स्थिति है जिसमें कर्तव्यपालन के लिए पूर्ण परिश्रम किया जाए। 'आश्रमात् आश्रमं गच्छेत्' अर्थात् एक आश्रम से दूसरे आश्रम को जाना चाहिए, इस सिद्धांत को मनु ने दृढ़ कर दिया। ये चार आश्रम थे-(१) ब्रह्मचर्य, (२) गार्हस्थ्य, (३) वानप्रस्थ और (४) संन्यास।' मनु ने मानव आयु सामान्यत: एक सौ वर्ष की मानकर उसको चार बराबर भागों में बांटा है। प्रथम तीन आश्रमों ओर उनके कर्त्तव्यों के पालन के पश्चात् ही मनु संन्यास की व्यवस्था करते हैं: एक आश्रम से दूसरे आश्रम में जाकर, जितेंद्रिय हो, भिक्षा (ब्रह्मचर्य), बलिवैश्वदेव (गार्हस्थ्य तथा वानप्रस्थ) आदि से विश्राम पाकर जो संन्यास ग्रहण करता है वह मृत्यु के उपरांत मोक्ष प्राप्त कर अपनी (पारमार्थिक) परम उन्नति करता है (मनु.६,३४)।
प्रथम चतुर्थांश ब्रह्मचर्य है। इस आश्रम में गुरुकुल में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करना कर्तव्य है। ब्रह्मचर्य उपनयन संस्कार के साथ प्रारंभ और समावर्तन के साथ समाप्त होता है। इसके पश्चात् विवाह करके मुनष्य दूसरे आश्रम गार्हस्थ्य में प्रवेश करता है। गार्हस्थ्य समाज का आधार स्तंभ है।आयु का दूसरा चतुर्थाश गार्हस्थ्य में बिताकर मनुष्य जब देखता है कि उसके सिर के बाल सफेद हो रहे हैं और उसके शरीर पर झुर्रियाँ पड़ रही हैं तब वह जीवन के तीसरे आश्रम-वानप्रस्थ-में प्रवेश करता है। (मनु. ५, १६९)। निवृत्ति मार्ग का यह प्रथम चरण है।
ब्रह्मचर्य आश्रम में धर्म का एकांत पालन होता है। ब्रह्मचारी पुष्टशरीर, बलिष्ठबुद्धि, शांतमन, शील, श्रद्धा और विनय के साथ युगों से उपार्जित ज्ञान, शास्त्र, विद्या तथा अनुभव को प्राप्त करता है। सुविनीत और पवित्रात्मा ही मोक्षमार्ग का पथिक् हो सकता है। गार्हस्थ्य में धर्म पूर्वक अर्थ का उपार्जन तथा काम का सेवन होता है। संसार में अर्थ तथा काम के अर्जन और उपभोग के अनुभव के पश्चात् ही त्याग और संन्यास की भूमिका प्रस्तुत होती है। संयमपूर्वक ग्रहण के बिना त्याग का प्रश्न उठता ही नहीं। वानप्रस्थ तैयार होती है। संन्यास के सभी बंधनों का त्याग कर पूर्णत: मोक्षधर्म का पालन होता है।
मोक्ष की प्राप्ति ( या 100 % निःस्वार्थपर/ कामना रहित/ होजाना) सभी के लिये सम्भव नहीं है । अत: कालान्तर में तीन पुरुषार्थों- धर्म, अर्थ तथा काम के पालन पर ही बल दिया गया । इन्हें ‘त्रिवर्ग’ कहा गया है जिनकी प्राप्ति सभी गृहस्थी के लिये सरल है । हिन्दू शास्त्रविदों का यह मत है कि तीनों पुरुषार्थों में कोई विरोध नहीं है तथा इनका पालन एक साथ हो सकता है । मानव-जीवन का पूर्ण विकास तभी सम्भव है जबकि सभी पुरुषार्थों का सम्यक् रूप से पालन किया जाये । अर्थ तथा काम के बीच तुलनात्मक श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हुये कहा गया है कि त्रिवर्ग समुदाय में 'पर' से 'पूर्व' श्रेष्ठ होता है। इस तरह 'काम' से श्रेष्ठ होता है -अर्थ, तथा अर्थ से भी श्रेष्ठ होता है धर्म। लेकिन अपनी रूचि और प्रवृत्ति के अनुसार कुछ लोग अर्थ तथा काम को धर्म से श्रेष्ठ समझते हैं।
यह जो 'धर्म,अर्थ और काम ' का त्रिवर्ग है, उसकी तुलना चतुर्थ वर्ग -"मोक्ष " के साथ नहीं हो सकती। इसलिये इन तीनों में -किसी एक में ही अटके नहीं रहना चाहिये या, या विवेक-विचार किये बिना किसी एक ही पुरुषार्थ के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिये। जीवन में अर्थ तथा काम संतुष्टि के पीछे अति करना हानिकारक है तथा अधर्म के मार्ग से इन लक्ष्यों की प्राप्ति करना भी पाप और दण्डनीय अपराध है। अन्ततः मोक्ष के स्थान पर दुख, निराशा तथा अपयश ही प्राप्त होते हैं।जो व्यक्ति किसी एक पुरुषार्थ में ही आसक्त हो जाता है या अटक जाता है, उसको 'जघन्य ' कहा गया है, उस व्यक्ति को घृणित या निन्दनीय माना जाता है।
"धर्मार्थकामाः सममेव सेव्या यस्त्वेकसेवी स नरो जघन्यः ।
द्वयोस्तु दक्षं प्रवदन्ति मध्यं स उत्तमो यो निरतिस्त्रिवर्गे ॥ ३८॥
यदि सभी मनुष्यों के उपर एक ही मार्ग को -केवल निवृत्ति मार्ग को अपनाने बाध्यता थोप दी जाये तो वैसा करना ठीक नहीं होगा। तदनुसार ‘कुछ कहते हैं कि मनुष्य का लाभ धर्म तथा अर्थ में है, कुछ के अनुसार यह काम तथा अर्थ में है, जबकि कुछ लोग केवल धर्म में ही मनुष्य का लाभ देखते हैं । किन्तु वस्तु-स्थिति यह है कि मनुष्य का कल्याण तीनों पुरुषार्थों के समुचित समन्वय में ही निहित है ।’ मानव को अपनी रुचि और क्षमता अनुसार तीनों लक्ष्यों का एक निजि समिश्रण स्वयं निर्धारित करना चाहिये जो देश काल तथा स्थानीय वातावरण के अनुकूल हो। निस्संदैह इस समिश्रण में दूसरों के प्रति धर्म की मात्रा ही सर्वाधिक होनी चाहिये। यह भी जरूरी है कि धर्म अर्थ और काम के कर्तव्य अपने बल बूते तथा समर्थ से करें, किसी से मुफ्तखोरी पा कर, दान या भिक्षा से प्राप्त करें गे तो बदले में मोक्ष नहीं निरन्तर अपमान और अपयश ही मिलेगा। पुरुषार्थ का यही महत्व हिन्दू कर्तव्यों का सार है।लौकिक दृष्टि से अर्थ एवं काम महत्वपूर्ण हैं किन्तु पारलौकिक दृष्टि से विचार करने पर मोक्ष ही एकमात्र अभीष्ट रह जाता है तथा अन्य पुरुषार्थ इसकी प्राप्ति में सहायक बन जाते हैं ।
प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म में समन्वय : पुरुषार्थों के माध्यम से भारतीय मनीषा ने प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, आसक्ति एवं त्याग के बीच सुन्दर समन्वय स्थापित किया है । यहाँ काम तथा अर्थ साधन है जबकि धर्म एवं मोक्ष साध्य स्वरूप हैं । त्रिवर्ग में तीनों पुरुषार्थों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । इसीलिये श्रुति या शास्त्र प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति तक आने में बाधा नहीं देते। इनमें धर्म की स्थिति सर्वोच्च है । अर्थ तथा काम का उचित उपभोग धर्म के माध्यम से ही सम्भव है । आश्रमों के द्वारा जीवनयापन करता हुआ व्यक्ति विभिन्न पुरुषार्थों के माध्यम से समाज एवं परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का पूर्ण निर्वाह करता है । मनुस्मृति में तीनों के समन्वय पर बल दिया गया है । पुरुषार्थ चतुष्टय के प्रतिपादक मनु महाराज कहते हैं- विवाह करो, थोड़ा खा पहन लो; किन्तु यह सदा स्मरण रहे कि -निवृत्तिअस्तु महाफला।
न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ।
It is not a sin to eat non-veg food, not a sin to drink alcohol and not a sin to make love. These are only natural to all beings. If one can abstain from all these, then one can achieve great results.मनुष्यों के पंचभौतिक शरीर (अन्नमय कोष) की यह सहज प्रवृत्ति है, किन्तु जैसा अन्न होता है वैसा ही मन बनता है। इसलिए इनसे निवृत्ति लेना अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि निवृत्ति ही सबसे बड़ा फल है ! मनुस्मृति का यह श्लोक सार्वकालीन है।
इसको पढ़ने पर " धर्माऽविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ " - अर्थात हे भरत-श्रेष्ठ प्राणियों में जो धर्म से अविरुद्ध शास्त्रानुकूल कामना है जैसे - देहधारणमात्र के लिये खानेपीने थोड़ा सुख भोगने की जो इच्छा आदि वह ( इच्छारूप) काम भी मैं ही हूँ। गीताचार्य का यह वचन स्मृतिपटल पर आता है।यहाँ निवृत्ति अस्तु महाफला (मोक्ष) का क्या अर्थ हुआ ? इसके सम्बन्ध में स्वामी जी कहते थे -" अद्वैत सिद्धान्त की उपमा दी जाये तो समस्त जगत अपनी माया से आप ही सम्मोहित हो रहा है। इच्छाशक्ति ही जगत की अमोघ शक्ति है, जो हिप्नोताईजेड मनुष्यों को भी डी-हिप्नोटाइज्ड कर सकती है ! इसीलिए प्रबल इच्छाशक्ति का अधिकारी मनुष्य एक ऐसी ज्योतिर्मयी प्रभा अपने चारों ओर फैला देता है कि दूसरे लोग स्वतः उस प्रभा से प्रभावित होकर उसके भाव से भावित (भ्रममुक्त) हो जाते है। ऐसे महापुरुष या संगठन अवश्य ही आविर्भूत हुआ करते हैं। और इसके पीछे भावना क्या है ? जब कोई वैसा महापुरुष या संगठन आविर्भूत होता है, तब उसके विचार हमलोगों के मस्तिष्क में प्रवेश करते हैं, और हममें से कितने ही व्यक्ति उनके विचारों को अपना लेते हैं, और शक्तिशाली (भ्रममुक्त) बन जाते हैं। "
[जैसे पाश्चात्य भोगवादी सभ्यता या भारत का चार्वाक दर्शन केवल दो ही पुरुषार्थ को मान्यता देता है- अर्थ और काम। वह धर्म और मोक्ष को नहीं मानता। महर्षि वात्स्यायन भी मनु के पुरुषार्थ-चतुष्टय के समर्थक हैं, किन्तु (वे सामान्य मनुष्यों को प्रवृत्ति होकर निवृत्ति में लाना चाहते थे इसीलिए) वे मोक्ष तथा परलोक की अपेक्षा धर्म, अर्थ, काम पर आधारित सांसारिक जीवन को सर्वोपरि मानते हैं। योगवासिष्ठ के अनुसार ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु और शास्त्र के उपदेश अनुसार चित्त का ब्रह्म (परमसत्य) में विचरण ही पुरुषार्थ कहलाता है। ]
भारतीय संस्कृति ने जीवन के जो लक्ष्य अपनाये हैं वही लक्ष्य विश्व भर में अन्य मानव समाज भी अपनाते रहे हैं। जहाँ भी इन लक्ष्यों की अवहेलना हुई है वहाँ पर सभ्यताओं का विध्वंस भी हुआ है। यह उल्लेखनीय है कि सनातन धर्म के सभी देवी देवता सदैव धर्मपरायण, साधन सम्पन्न तथा वैवाहिक परिवार में दर्शाये जाते हैं। सभी ऋषि भी अपने अपने परिवारों के साथ वनों में सक्रिय जीवन व्यतीत करते रहे हैं। भारतीय संस्कृति प्रकृतिक, सकारात्मक, कर्तव्यनिष्ट तथा सुख सम्पन्न जीवन व्यतीत करने को प्रोतसाहित करता रहा है जो विश्व कल्याण के प्रति कृतसंकल्प है। जीवन के यही लक्ष्य सभी धर्मों और जातियों के लिये ऐक समान हैं ।
अंग्रेजी की प्रसिद्ध कहावत है - " if wealth is lost nothing is lost,if health is lost something is lost but if character is lost everything is lost." यदि कभी तुम्हारा धन खो जाता है, तो सोचना चाहिए कि कुछ नहीं खोया है, क्योंकि धन तो दोबारा कमाया जा सकता है। अगर कभी तुम्हारा शारीरिक स्वास्थ्य खराब हो गया, तो समझना कि तुमने कुछ खोया है, कारण कि " शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्'- शरीर धर्म का प्रथम साधन है। शरीर को स्वस्थ रखना सुचारू जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। लौकिक दृष्टि से हो या आध्यात्मिक दृष्टि से अपने लक्ष्य की साधना के लिए अथवा गन्तव्य तक पहुँचने के लिए मनुष्य को स्वस्थ्य मन और स्वस्थ्य तन की नितान्त आवश्यकता है। इसीलिए कहा जाता है - 'Health is Wealth' -एक तंदुरुस्ती हज़ार नियामत ! पर अगर आपने अपना चरित्र गवां दिया या आचरण से गिर गए तो सच मानिए आपने अपना सब कुछ खो दिया। क्योंकि अगर चरित्र एक बार चला गया फिर उसे दोबारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
चरित्र हमारे जीवन का अनमोल रतन है। यही हमें सफलता की ऊंचाइयों या पतन की गहराइयों में धकेलता है। अगर हमारा चरित्र सुंदर श्रेष्ठ होता है, तो सफलता हमारे कदम चूमती है यदि यह निकृष्ट या भ्रष्ट होता है तो (वित्तमंत्री चिदम्बरम या मुख्यमंत्री लालू जैसा) हमारे कदम तिहाड़ जेल की तरफ चले जाते हैं ,और हम अपने जीवन की बाजी हार जाते हैं। किसी दार्शनिक ने कहा कि जीवन रूपी कहानी में विचारणीय बात यह नहीं कि वह कितनी लंबी है, बल्कि यह है कि कितनी अच्छी है। इसलिए जाग्रत होने की आवश्यकता है। स्वयं जागकर दूसरों की जगाने वाले महामण्डल आंदोलन से जुड़ जाने की आवश्यकता है। क्योंकि अपने भीतर सोये हुए ब्रह्मरूपी सिंह को जगा लेने में समर्थ मनुष्य ही 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज' से सम्पन्न मनुष्य बन सकता है।
इसीलिए चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना किसी महान सभ्यता का प्रधान अंग है। किसी भी राष्ट्र की सच्ची उन्नति तभी होगी जब उस देश का हर एक आदमी अपने को चरित्र संपन्न और भलमनसाहत की कसौटी में कसे हुए मनुष्य के रूप में प्रगट कर सकते हों।
चरित्र हमारे जीवन का अनमोल रतन है। यही हमें सफलता की ऊंचाइयों या पतन की गहराइयों में धकेलता है। अगर हमारा चरित्र सुंदर श्रेष्ठ होता है, तो सफलता हमारे कदम चूमती है यदि यह निकृष्ट या भ्रष्ट होता है तो (वित्तमंत्री चिदम्बरम या मुख्यमंत्री लालू जैसा) हमारे कदम तिहाड़ जेल की तरफ चले जाते हैं ,और हम अपने जीवन की बाजी हार जाते हैं। किसी दार्शनिक ने कहा कि जीवन रूपी कहानी में विचारणीय बात यह नहीं कि वह कितनी लंबी है, बल्कि यह है कि कितनी अच्छी है। इसलिए जाग्रत होने की आवश्यकता है। स्वयं जागकर दूसरों की जगाने वाले महामण्डल आंदोलन से जुड़ जाने की आवश्यकता है। क्योंकि अपने भीतर सोये हुए ब्रह्मरूपी सिंह को जगा लेने में समर्थ मनुष्य ही 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज' से सम्पन्न मनुष्य बन सकता है।
सुखार्थिनः कुतो विद्या , विद्यार्थिनः कुतो सुखम।
सुखार्थी वा त्यजेत विद्या , विद्यार्थी वा त्यजेत सुखम।।
महाभारत (विदुरनीति)
भावार्थ :सुख चाहने वाले से विद्या दूर रहती है और विद्या चाहने वाले से सुख। इसलिए जिसे सुख चाहिए, वह विद्या को छोड़ दे और जिसे विद्या चाहिए, वह सुख को।इसीलिए चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना किसी महान सभ्यता का प्रधान अंग है। किसी भी राष्ट्र की सच्ची उन्नति तभी होगी जब उस देश का हर एक आदमी अपने को चरित्र संपन्न और भलमनसाहत की कसौटी में कसे हुए मनुष्य के रूप में प्रगट कर सकते हों।
पहले हमें यह समझना होगा कि धर्म और 'संस्कृति' शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है ? किसी देश या समाज में रहने वाले लोगों की परम्परा से प्राप्त विशेषता या पहचान को ही उस देश की संस्कृति कहते हैं। अंग्रेजी में इसी को कहते हैं- मैंने इस विशेषता को Inherit किया है, या Heritage के रूप में, या हमलोगों ने इस विशेषता (विज्ञान=विशेष ज्ञान) को अपने पूर्वजों से ' सनातन श्रुति -परम्परा' में उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त किया है। सनातन श्रुति -परम्परा : [गुरु-शिष्य अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्राप्त "सुरति" (गुरुमुख से सुना हुआ वह अभेदबोधक- शब्द या महावाक्य जिसे रटना याद न करना पड़े, गुरुमुख से सुनते ही याद हो जाये] के अनुसार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में प्रतिस्थापित होती रही है , और जो अनन्त काल से अनन्त काल तक निरन्तर गतिमान है। इसीलिए इसको सनातन संस्कृति कहते हैं। जैसे यदि 'इतिहास' शब्द का संधिविच्छेद किया जाय तो देखते हैं- (इति+ ह+ आस); जिसका अर्थ हुआ - इस प्रकार से था। जो उस रूप में था, और अभी हमारे सामने आ गया है, और उसी को हमलोग विरासत में प्राप्त ज्ञान कहते हैं। स्वामी जी कहते थे - " उपनिषद के चार महावाक्य- प्रज्ञानं ब्रह्म, 'अहं ब्रह्मास्मि', 'तत त्वम् असि' और 'अयं आत्मा ब्रह्म'- संम्पूर्ण मानव जाति को पुनरुज्जीवित करने के लिए रामबाण दवा या संजीवनी बूटी के समान हैं। जिन्हें हृदयंगम कर लेने पर प्रत्येक मनुष्य आत्मस्थ हो सकता है, और मृत्यु के भय को सदा के लिए समाप्त कर सकता है! सबसे पहले हमें यही करना होगा-" पहले इसे सुनना होगा, फिर मनन करना होगा और उसके बाद निदिध्यासन। "
प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म का समन्वय : भौतिकी में कार्य की परिभाषा है- {W=Fd} अर्थात बल (F,ऊर्जा) और विस्थापन (d) का गुणनफल ही कार्य है। [Defination of 'Work' in physics, measure of energy transfer that occurs when an object is moved over a distance by an external force at least part of which is applied in the direction of the displacement.]
..... प्राचीनकाल के किसी गुरुकुल में भी इसी प्रकार की बहस चल रही थी। ...और तभी एक वैदिक युवा ऋषि प्रचंड स्वर में जयघोष करते हैं- " शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥२।५॥ वेदाहमेतं पुरुषं महान्त-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् । तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ ॥३।८॥'हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !!... तुम भी सुनो! मैंने उस अनादि, पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया हैं, तो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है । केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो । दूसरा कोई पथ नहीं।' -- श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २।५, ३।८ ॥ हमें अमृत का पुत्र बताने वाली ये आवाज हमें किसी काली गुफा में नहीं ले जा रही है। धर्म और अध्यात्म का सही स्वरूप तो हमें प्रकाश की ऒर ले जाता है।
स्वामी जी कहते हैं - " भारत में 'धर्म' (righteousness) और 'मोक्ष' का सामंजस्य करना होगा। यहाँ पहले मोक्षाकांक्षी व्यास, शुक तथा सनकादिक के साथ-साथ 'धर्म-के-उपासक' युधिष्ठिर, अर्जुन, दुर्योधन, भीष्म और कर्ण भी वर्तमान थे। बुद्ध के बाद धर्म की बिल्कुल उपेक्षा हुई तथा केवल मोक्षमार्ग ही प्रधान बन गया। ... भोग न होने से त्याग नहीं होता, पहले भोग करो, तब त्याग होगा। बौद्ध कहते हैं -'मोक्ष से बढ़कर और क्या है, देश के सभी लोगों को मोक्ष प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिये। मैं पूछता हूँ, क्या यह सम्भव है ?
तुम गृहस्थ अर्थात (प्रवृत्ति -मार्गी) हो, तुम्हारे लिये वे सब बातें बहुत आवश्यक नहीं हैं, तुम अपने धर्म का आचरण करो,हमारे शास्त्र यही कहते हैं। एक हाथ भी नहीं लाँघ सकते, तो समुद्र लाँघ कर लंका कैसे पहुँचोगे ? दो मनुष्यों के साथ राय मिलाकर एक जनहित का काम तो कर नहीं सकते, पर मोक्ष लेने दौड़ पड़ते हो ? हिन्दू शास्त्र कहते हैं, कि धर्म की अपेक्षा मोक्ष अवश्य ही बहुत बड़ा है, किन्तु पहले धर्म करना होगा।
निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्तिः उपजायते।
प्रवृत्तिरपि धीरस्य, निवृत्तिफलदायिनि॥]
अहिंसा ठीक है, निश्चय ही बड़ी बात है; कहने-सुनने में अच्छी लगती है, पर शास्त्र कहते हैं, तुम गृहस्थ हो, तुम्हारे गाल पर यदि कोई थप्पड़ मारे, और यदि उसका जवाब तुम १० थप्पड़ों से न दो, तो तुम पाप करते हो। वीरभोग्या वसुन्धरा -वीर्य प्रकाशित करो, साम -दाम-दण्ड -भेद (कन्सिलीऐशन-ब्राइबरी-डिसेन्शन (फूट)-ओपेन वार) की नीति को प्रकाशित करो, पृथ्वी का भोग करो, तब तुम धार्मिक होगे। अन्याय मत करो, अत्याचार मत करो, यथासाध्य परोपकार करो। किन्तु गृहस्थ के लिये अन्याय सहना पाप है, उसी समय उसका बदला चुकाने की चेष्टा करनी होगी। बड़े उत्साह के साथ अर्थोपार्जन कर स्त्री तथा परिवार के दस प्राणियों का पालन करना होगा, दस जन-हितकारी कार्यों में योगदान करना होगा। ऐसा न कर सकने पर तुम मनुष्य किस बात के ? जब तुम सही गृहस्थ ही न बन सके, फिर तो मोक्ष की बात ही क्या ? " (१०/५१-५२ ) " नैतिक धारणाओं की उन्नति के साथ साथ ( या चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने की भावना के साथ साथ) मनुष्य के मन में एक संग्राम उत्पन्न हो जाता है, मानो उसके भीतर एक नयी इन्द्रिय (छठी इन्द्रिय विवेक-प्रयोग शक्ति) का आविर्भाव हो जाता है। कोई कहता है यह ईश्वर की वाणी है, कोई कहता है यह जन्मजन्मांतर से प्राप्त शिक्षा का फल है। जो भी हो, यह विवेक-शक्ति मनुष्य के स्वाभाविक संवेगों को नियंत्रित करने वाली शक्ति के रूप में कार्य करती है। हमारे मन का एक संवेग कहता है, 'करो' ; इसके पीछे एक दूसरा स्वर उठता है जो कहता है, 'मत करो !' हमारे चित्त में पूर्व जन्मों के संचित धारणाओं का एक समूह है, जो सर्वदा पंचेन्द्रियों के द्वारा बाहर जाने की चेष्टा करता है, और उनके पीछे , चाहे कितना भी क्षीण क्यों न हो, एक स्वर कहता रहता है-'रे मन ! इन्द्रिय-विषयों के पीछे बाहर मत जाना।' (अर्थात एक अंतर्निहित शक्ति मन को आदेश देने के लिए उठ खड़ी होती है - मन तू बहिर्मुखी न होना !) इन दो बातों को संस्कृत में प्रवृत्ति और निवृत्ति कहा जाता है। प्रवृत्ति ही हमारे समस्त कर्मों का मूल है। और निवृत्ति से धर्म का आरम्भ है। धर्म आरम्भ होता है इसी 'मत करना' से; आध्यात्मिकता भी इसी 'मत करना ' से आरम्भ होती है। जिस मनुष्य में 'यह मत करना' (निषिद्ध कर्म मत करना) यह 'विवेक-प्रयोग' शक्ति विकसित नहीं हुई है, जान लेना कि उसमें अभी धर्मबोध या आध्यात्मिकता का आरम्भ ही नहीं हुआ। "२/६३
वास्तव में यह संसार एक बहुत बड़ी पाठशाला है । इसमें अगणित जीव शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते हैं, और यथाधिकार -- 'प्रवृत्ति मार्ग या निवृत्ति मार्ग' में निर्दिष्ट काल तक शिक्षा - लाभ कर चले जाते हैं, और फिर कुछ विश्राम के पश्चात् पुन: नये वेशभूषा के साथ इसमें आकर प्रवेश करते हैं । मनुष्य के जीवन का एक जन्म उसके लिये इस पाठशाला का एक अध्ययन दिवस है । जब तक कोई यहां की पूरी पढ़ाई समाप्त न कर ले तब तक उससे मुक्ति (भ्रममुक्त अवस्था-मन की डीहिप्नोटाइज्ड अवस्था) दूर ही रहती है - उसे बार बार जन्म मरण के बंधन में पड़ना ही पड़ता है।
श्री शंकराचार्य स्वयं निवृत्ति मार्गी या संन्यासी थे;किन्तु उन्होंने अपने गीता भाष्य के आरंभ में ही वैदिक धर्म के दो भेद – प्रवृत्ति और निवृत्ति बतलाए हैं. प्रवृत्ति लक्ष्णो योगः ज्ञानं सन्यासलक्षणम् अर्थात योग का अर्थ प्रवृत्ति–मार्ग और ज्ञान का अर्थ सन्यास या निवृत्ति–मार्ग है।गीता में 'योग शब्द प्रवृत्ति मार्ग अर्थात 'कर्मयोग' के अर्थ ही में प्रयुक्त हुआ है।आचार्य शंकर ने अपने गीता भाष्य के प्राम्भ में ही प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों को धर्म कहा है, क्योंकि मानव समाज में आदर्श गृही (प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि) व आदर्श संन्यासी (निवृत्ति मार्ग के ऋषि) दोनों की ही आवश्यकता है। किन्तु समय के प्रवाह में भारत दोनों धर्म मार्ग में समन्वय स्थापित करने की प्रणाली को भूल गया था।
स्वामी विवेकानन्द कहते थे - " भगवान श्री रामकृष्ण विवाहित जीवन के महान आदर्श का प्रदर्शन कर गए हैं, यह सत्य है। परन्तु फिर भी वे संन्यासी थे। आजन्म संन्यासी होकर भी विवाह करके उन्होंने गार्हस्थ्य व संन्यास के बीच अपूर्व समन्वय प्रस्थापित किया था। मानव समाज में आदर्श गृही व आदर्श संन्यासी दोनों की ही आवश्यकता है।" चरित- १७७
और इसी ऐतिहासिक अनिवार्यता को पूर्ण करने के लिए, अर्थात--समन्वयाचार्य श्रीरामकृष्णदेव के आदर्श साँचे में ढले प्रवृत्ति मार्ग के ऋषियों का निर्माण बहुत बड़ी संख्या में करने के लिए -- 1967 ई० में श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के नेतृत्व में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' को आविर्भूत होना पड़ा।
" सभी मनुष्यों में सोये हुए 'ब्रह्मरूपी सिंह' को जाग्रत करने के लिए संसार में संन्यासी का जन्म हुआ है। संन्यास लेकर जो लोग इस उच्च आदर्श को भूल जाते हैं- वृथैव तस्य जीवनम। उठो, -स्वयं जागो! स्वयं जागकर दूसरों को जगाओ ! --मनुष्यजन्म को सार्थक करके चले जाओ। - उत्तिष्ठत, जाग्रत , प्राप्य वरान्निबोधत। " विवेकानन्द चरित /२१२
[Swami Vivekananda said that India got the special role of giving this spiritual culture to the world . Each and every country has got a special role to play . it is in this context that we appreciate what Swami Vivekananda said - " India shall conquer the whole world by its spiritual power ." someone asked Swami ji that when being a monk he should be above nationality , why he was talking so much about India about patriotism ?" the world cannot be saved unless and until India is saved , because India has got the special role of spreading the great spiritual culture . We have got a great Indian heritage which we will have to give to the whole world as the whole world is waiting fir it.In fact , whatever Swamiji predicted has come to be true. He was not an astrologer but a visionary . In 1897 he said that India should become independent within 50 years under extraordinary circumstances . At that time Gandhiji did not yet return to India from South Africa and nobody even thought of the non-cooperation movement . but it actually happened in 1947, and exactly after 50 years we got independence . (Netaji Subhash Chandra Bose was Born on January 23, 1987 in Cuttack to Janaki Nath Bose, a popular lawyer and Prabhavati Devi.) So many other things he said also came true. In 1893 , at the place of professor John Henry Wright , a professor at Harvard University, USA ; he said that after the British would leave India ; there would be a great danger from China attacking India . Swami Vivekananda also predicted that the first proletariat movement would come from Russia or China.Karl Marx himself thought that the first such movement would come from Germany since they had some organised labour there , in Russia there was no organized labour .Still Swamiji's prophecy came true.So whatever Swamiji had said came true. But one thing has yet to happen . SWamiji predicted in 1897 in his speech in chennai that India should conquer the world by its spiritual power. The whole world is now turning towards the Indian spirituality, through yoga , meditation , etc .An article in 'Time' magazine shows that Americans are now desperately seeking meditation.It has been reported that for peace of mind some ten million Americans are regularly meditating . There were also newspaper report that Americans were going gaga over yoga . According to another report 92 out of 122 medical schools in USA are having regular courses on alternative medicine including yoga and meditation . In a way Indian Spirituality , Indian heritage is now being adopted by other countries . Now if India has to take up the role of a world-teacher to give that spirituality, one thing comes in the way and that is our 'developing nation ' status.Unless our nation become a developed nation how can we become their teachers/ Leaders ? That is why there is an urgent need for nation building . Unless our nation become a developed nation how can we become their teachers/ Leaders ? That is why there is an urgent need for nation building . ]
12.
चरित्र निर्माण के माध्यम से राष्ट्र निर्माण :
प्रश्न है कि भारत जैसे एक विकासशील राष्ट्र को विकसित राष्ट्र में कैसे परिवर्तित किया जा सकता है, या बदला जा सकता है? विकासशील राष्ट्र को विकसित राष्ट्र में कैसे परिवर्तित किया जाता है ? (How a developing nation can be changed into a developed nation ? Nation Building through character building.) अथवा राष्ट्र-निर्माण का कार्य कैसे किया जा सकता है ? डॉ. राधाकृष्णन ने कहा था - "आप केवल ईंट-सीमेंट -बालू से मजबूत राष्ट्र का निर्माण या निर्माण नहीं कर सकते, आपको युवाओं के मन को प्रशिक्षित करना होगा। तब कहीं राष्ट्र का निर्माण हो सकता है।" स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा था - " राष्ट्र निर्माण अथवा राष्ट्र के पुनर्निर्माण से पहले इसके नागरिकों का चरित्र निर्माण होना चाहिए। राष्ट्र के वर्तमान परिदृश्य को हम संसदीय कानूनों के द्वारा नहीं बदल सकते। संसद में हम नए -नए कानून तो बना सकते हैं, लेकिन मात्र उतने से ही राष्ट्र को पूर्णतः विकसित राष्ट्र में नहीं बदला जा सकता। यदि देश का शीर्ष नेतृत्व (Top Leadership of country) भ्रष्ट लोगों के हाथों में होगा तो, जिस दिन कोई नया कानून पारित होगा, उसी दिन उस कानून की अवज्ञा करने (defy करने) के क़ानूनी और गैर-क़ानूनी तरीके भी सामने आ जायेंगे ! इसलिए भारत को विकासशील राष्ट्र से विकसित राष्ट्र में तब तक परिवर्तित नहीं किया जा सकता, जब तक कि इसके आम नागरिकों का चरित्र-निर्माण नहीं होता , और देश का शीर्ष नेतृत्व पर बैठे लोगों में कैंसर की तरह व्याप्त भ्रष्टाचार को पूरी तरह से समाप्त नहीं कर लिया जाता।
[How can this be done ? Dr Radhakrishnan said beautifully - " You cannot make or build the nation by just bricks, you will have to train the mind of the young people. Then alone can the nation-building take place ."Swami Vivekananda also said that nation-building and national reconstruction must be preceded by character-building of the citizens .We cannot change the scenario of the nation by parliamentary laws. We may have new acts in the parliament but by those alone our nation will not develop fully. The day the new act passes , ways to defy them legally as well as illegally will be found out.So, national reconstruction cannot be done unless character-building of citizens take place and corruption goes away.]
एक शरारती लड़का था, और एक बार काम करने के दौरान उसके पिता ने उसे व्यस्त रखने के लिए, भारत के नक्शे को कई टुकड़ों में फाड़ दिया; और उन्हें अपने बेटे को देते हुए उससे भारत के मानचित्र के टुकड़ों को फिर से जोड़ने के लिए कहा। पिता ने सोचा कि भूगोल का सीमित ज्ञान रखने वाले लड़के को ऐसा करने में पूरा दिन लग जाएगा और इस तरह वह उसके काम में कोई बाधा नहीं दे सकेगा। लेकिन वह पिता तब आश्चर्यचकित रह गया जब उस लड़के ने कुछ मिनटों के बाद ही नक्शे के टुकड़ों को पूर्णतया यथास्थान चिपका कर उसके सामने रख दिया। जब पिता ने लड़के से पूछा कि इतनी जल्दी यह कार्य उसने कैसे किया ? तब लड़के ने पिता को बताया कि जब वह भारत के नक्शे को एक साथ जोड़ने की चेष्टा कर रहा था, उस समय अचानक उसे नक्शे के पीछे छपे एक मनुष्य का चित्र दिख गया। फिर क्या था ? वह ख़ुशी ख़ुशी उस मनुष्य के चित्र को पूर्ण करने के लिए सभी टुकड़ों को एक साथ मिलाकर जोड़ने लगा । और जैसे ही उस मनुष्य का चित्र सम्पूर्ण (perfect-दोषहीन) हो गया , उसके साथ ही साथ युगपत ढंग से (simultaneously -एक ही समय में) भारत का नक्शा भी परिपूर्ण हो गया ।[as soon as the picture of the man becomes perfect , the map of India too simultaneously got perfected formed]
और ठीक यही बात स्वामी विवेकानन्द भी कहते थे कि 'make the man perfect first ' सर्वप्रथम मनुष्य को पूर्ण (perfect) बनाना होगा, राष्ट्र तो स्वतः ही परिपूर्ण हो जायेगा। क्योंकि देश इसकी सीमा रेखाओं से नहीं बनता , देश इसमें रहने वाले मनुष्यों से बनता है। जब सभी मनुष्य महान (पूर्ण विकसित) बन जायेंगे राष्ट्र भी महान या पूर्ण विकसित हो जायेगा।अतः, राष्ट्र-निर्माण से पहले यहाँ के नागरिकों का चरित्र-निर्माण होना चाहिए। अन्यथा (दूसरी बातों पर ध्यान देने से) देश को एकजुट नहीं रखा जा सकता और राष्ट्रीय एकता भी स्थापित नहीं हो सकती। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द बार बार कहते थे -हमें चाहिए वह है 'मनुष्य-निर्माण तथा चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा पद्धति का प्रचार -प्रसार' करने में समर्थ आदर्श शिक्षकों / या मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण। किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् कई शिक्षक-प्रशिक्षण पद्धति या लीडरशिप ट्रेनिंग प्रणाली का निर्धारण करने के लिए गठित कई आयोगों, जैसे -कोठारी आयोग, डॉ. राधाकृष्णन आयोग, प्रकाश समिति आदि ने श्रुति परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षकों / मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण द्वारा ' चारित्रिक मूल्यों के आत्मसातीकरण' को महत्व देने की जो सिफारिश अपने रिपोर्टों में की थी, उनका अनुपालन नहीं हुआ और उन्हें रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया। प्रो. कोठारी ने समाज की रचना में शिक्षा को सर्वोच्च स्थान दिया है। वे इसे राष्ट्रनिर्माण की कुंजी बतलाते हैं जिसमें वे विज्ञान-तकनीकी शिक्षा के साथ चरित्र निर्माण को प्रमुखता देते हैं। वे शिक्षा का लक्ष्य भारत को विकसित राष्ट्र के रूप में विकसित करने के लिए भी, चरित्र निर्माण के लिए शिक्षा पर बल देते हैं। दुर्भाग्य से भारत के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने शिक्षा क्षेत्र में वैज्ञानिकता तथा तकनीकी पर तो बहुत बल दिया परन्तु जीवन में धर्म तथा आध्यात्मिकता की पूर्ण उपेक्षा की। वस्तुत: मानव जीवन के विकास के लिए दोनों चाहिए। अत: शिक्षा की प्रगति के लिए पं. नेहरू नहीं, महात्मा गांधी चाहिए, प्रो. कोठारी चाहिए। आध्यात्मिक ज्ञान के बिना कोरा वैज्ञानिक ज्ञान अधूरा है। नैतिकता के अभाव में बौद्धिक विकास का केवल भौतिक महत्व होगा। चारित्रिक ह्रास, आर्थिक विकास में कदापि क्षतिपूर्ति न कर सकेगा। विदेशी विश्वविद्यालयों का मोह तथा शिक्षा का व्यावसायीकरण देश के लिए घातक तथा विनाशकारी होगा।
कुछ लोग तो अब मजाक में यह भी कहते हैं कि ऐसा लगता है कि हमारी शिक्षा प्रणाली अब मनुष्य-निर्माणकारी नहीं है, बल्कि दानव-निर्माणकारी बन चुकी है। राजा कवि (राजर्षि) भर्तृहरि अपनी प्रसिद्द पुस्तक नीतिशतकम् में कहते हैं कि समाज में चार प्रकार के मनुष्य पाये जाते हैं-
एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थान परित्यज्य ये,
सामान्यास्तु परार्थमुद्यममृताः स्वार्था विरोधेन ये।
तेमी मानव राक्षसाः परहितं स्वार्थाय निहनंति ये,
ये तु ध्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे।।
राजा-कवि भर्तृहरि कहते हैं - संसार में चार श्रेणी के लोग मनुष्य होते हैं, जिनमें से तीन प्रकार श्रेणी के मनुष्यों का श्रेणी -नामकरण मैं सरलता से कर लेता हूँ। प्रथम श्रेणी में वे ‘सत्पुरुष’ - महापुरुष /नेता श्रेणी के मनुष्य का साँचा - भगवान श्री रामकृष्ण, माँ श्री श्री सारदा देवी, स्वामी विवेकानन्द, नवनीदा जैसे मनुष्य आते हैं, जो ब्रह्मवेत्ता होते हैं, अर्थात सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड को ही ब्रह्म/ माँ काली के मूर्तरूप को जानकर कृत्य-कृत्य हो चुके होते हैं, जो करना था वह कर चुके होते हैं। नरेन्द्रनाथ दत्त केवल अवतारवरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्णदेव को ही अपना लक्ष्य या इष्टदेव मानते थे, उन्हें वह लक्ष्य मिल चुका है, (निर्विकल्प समाधि के बाद) उनको अपना स्वार्थ (आनंद) मिल चुका है। इसलिए अब वे निःस्वार्थ भाव से दूसरे जीवों को भी अंतिम लक्ष्य तक पहुंचाने में लगे रहते हैं। क्योंकि जीव जब तक उस सच्चिदानन्द स्वरुप ब्रह्म/शक्ति के अवतार भगवान श्री रामकृष्ण को नहीं पा लेता तब तक उसे स्वर्ग नर्क में 84 लाख शरीर धारण करना पड़ता है। जब तक आत्मा और परमात्मा की एकता का बोध नहीं होगा, तब तक सौ ब्रम्हा के बीत जाने पर भी (अर्थात् सौ कल्प में भी) मुक्ति नहीं हो सकती।‘ इसलिए अब वह महापुरुष (नेता /पैगम्बर) दूसरों के हित के लिए, दूसरे को लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए अपने स्वार्थ का ही त्याग कर जाते हैं और अवतार लेते हैं (फिर से शरीर धारण करते हैं)। ऐसे जन -जीवनमुक्त शिक्षक/ मानवजाति के मार्गदर्शक नेता वास्तव में बिरले ही होते हैं।दूसरी श्रेणी में ‘सामान्य जन’ या साधारण पुरुष आते हैं, जो अपने को शरीर मानकर शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध पांच ज्ञानेंद्रियों के सुख को ही अंतिम लक्ष्य मानकर बार-बार जन्म लेते रहते हैं। किन्तु इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि अपनी स्वार्थसिद्धि से दूसरों का अहित तो नहीं हो रहा है । अर्थात् वे स्वार्थ तथा परार्थ क बीच तालमेल बिठाकर चलते हैं । अधिसंख्य जन इसी प्रकार के होते हैं ।
तीसरे प्रकार के मनुष्य ऐसे होते हैं, जो इस बात की जरा भी परवाह नहीं करते कि उनकी स्वार्थपूर्ति कहीं अन्य लोगों के हित की कीमत पर तो नहीं हो रही है? अपने स्वार्थ के लिए दूसरे का सर्वनाश करने से भी पीछे नहीं हटते। वे सोचते हैं, किसी के मरने से भी यदि हमको फायदा होता है, तो उसे अभी मर जाना चाहिए। यानी दूसरे का नुकसान हो भी रहा हो तो कोई बात नहीं अपना तो फायदा है । उदाहरण के लिए , कोई इंजीनियर बाँध या पुल का निर्माण अथवा गवर्नमेन्ट बिल्डिंग का निर्माण करते समय रिश्वत लेते हैं, और ठीकेदार को सीमेन्ट में उचित मात्रा से अधिक बालू मिलाने की अनुमति दे देते हैं। ऐसा करके वह इंजीनियर पैसे के मामले में अपने क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति तो कर लेता है, किन्तु जब वर्षा होती है, और बाँध में दरार आ जाती है, या पुल या विद्यालय भवन ढह जाते हैं, तब सैंकड़ों लोग मर जाते हैं , हजारों लोग बेघर हो जाते हैं। किन्तु वह इंजीनियर अपने बंगले में मजे लेता है। उसकी घोर स्वार्थपरता ने कई ज़िंदगी उजाड़ दी, और देश के खजाने को खाली कर दिया। उसी प्रकार कुछ डॉक्टर भी ऐसे होते हैं, जो रोगी की बीमारी को अच्छा करने में कोई रूचि नहीं रखते, उनकी रूचि केवल उसके धन को लूटने में होती है। अर्थात उनका ढाँचा तो मनुष्य का ही होता है, किन्तु उनके गुण राक्षसों के समान होते हैं। हाँलाकि ऐसे लोगों की संख्या कम ही रहती है पर वे समाज के हर स्थान में होते अवश्य हैं । कवि इनको ‘मानुषराक्षस’ की संज्ञा देता है।और आज के भौतिवादी युग में इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है । चौथे श्रेणी में ऐसे लोग होते हैं जिन्हें दूसरे को भटकाने और कष्ट देने में ही सुख मिलता है, भले ही उनका कोई स्वार्थ सिद्ध न हो रहा हो। वे भोले-भाले जिज्ञासु को उल्टा गलत रास्ता बता कर हंसते हैं, और आपस में बात करते हैं कि मैंने उसको क्या बेवकूफ बनाया, अभी वह फिर लौटकर मेरे पास आएगा और अच्छी धनराशि भी देगा। इसलिए अंत में कवि कहता है कि, मैं यह नहीं जानता कि उन लोगों को किस नाम से पुकारूँ जिनकी प्रवृत्ति परहित के विरुद्ध कार्य करने की रहती है, भले ही इससे उनका कोई स्वार्थ सिद्ध न हो रहा हो । दुर्भाग्य से यह धरा ऐसे लोगों से ( ढोंगी बाबाओं, हाफिज सईद जैसे जेहादिआतंक-वादियों, या ननों का शोषण करने वाले ढोंगी फादर लोगों से) मुक्त नहीं है । दूसरी श्रेणी के मनुष्य वास्तव में बहुत थोड़े है और प्रथम श्रेणी के मनुष्य तो दुर्लभ है। आचार्य शंकर कहते हैं -दुर्लभं त्रयमेवैतद् देवानुग्रहहेतुकम् । मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुषसंश्रयः॥ -‘भगवत्कृपा ही जिनकी प्राप्ति का कारण है, वे मनुष्यत्व, मुमुक्षुत्व (मुक्त होने की इच्छा) और महान् पुरुषों/नवनीदा जैसे नेता (C-IN-C) का संग---ये तीनों ही दुर्लभ हैं।‘ और यही कारण है कि स्वामी जी की मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा प्रणाली अथवा Be and Make Leadership Training आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।
13.
चरित्र का संकट ही राष्ट्र का संकट है
चरित्र का संकट ही राष्ट्र का संकट है
(Crisis of the Nation - Crisis of Character) :
आज चरित्र का संकट ही राष्ट्र का संकट है। 16 अप्रैल 2003 को प्रबोध महाराज भारत के सम्माननीय राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम के साथ राष्ट्रपति भवन में थे। उस समय बातचीत के क्रम में प्रबोध महाराज ने उनसे कहा था कि यदि वे वर्ल्ड बैंक की पूरी जमाराशि भी अपने देश में लगा दें, तब भी 'सर्वव्यापी भ्रष्टाचार ' के कारण हमारे देश की गरीबी दूर नहीं होने वाली है। तब डॉ कलाम ने उनकी बात से सहमत होते हुए यह जानना चाहा कि तब फिर इस गरीबी को दूर करने का उपाय क्या है ? तब प्रबोध महाराज ने कहा था कि इसका एकमात्र उपाय है कि भारत के सभी युवा स्वामी विवेकानन्द के उस दिव्य सन्देश का क्रियान्वयन या निष्पादन (implementation or execution) करने में जुट जाएँ जिसमें उन्होंने कहा था --'उठो, जागो और स्वयं जग कर दूसरों को जगाओ ! तथा मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा-पद्धति - "Be and Make" को भारत के गाँव -गाँव के युवा छात्रों तक पहुँचा दो!' भारत के प्रबुद्ध युवा गाँव -गॉँव में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल से अनुमोदित 'विवेकानन्द युवा पाठचक्र' की स्थापना करें जिसके (Mahamandal Executive Committee) कार्यकारिणी समिति के कम से कम 11 सदस्य, भर्तृहरि द्वारा कथित प्रथम श्रेणी के वैसे दुर्लभ मनुष्य - "सत्पुरुषों" के निर्माण कार्य - ' Be and Make ' Leadership youth training camp' को आयोजित करें जो नरेन्द्रनाथ दत्त की तरह अपने परम् स्वार्थ- निविल्कप समाधि के महा -आनन्द को भी त्यागकर दूसरों के हित में जीवन को न्योछावर करने में समर्थ हों । फिर प्रबोध महाराज ने छात्रों को प्रेरित करने में गहरी दिलचस्पी दिखाने के लिए डॉ कलाम को बधाई दी और ABVYM द्वारा विगत 50 वर्षों से संचालित .' युवा प्रशिक्षण शिविर के विषय में बताया। वह यह सब जानकर वे वास्तव में बहुत खुश हुए और बोले - 'महाराज, आइये हमलोग मिलकर स्वामी जी के इस महान सन्देश को कार्यान्वित करने में जुट जाएँ! '
14.
चरित्र का विकास कैसे करें?
चरित्र का विकास कैसे करें?
(How to develop character ?) :
अमेरिका के प्रसिद्द शिक्षाविद और लेखक स्टीफन रिचर्ड्स कोवे (Stephen R. Covey 1932 - 2012) अपनी प्रसिद्द पुस्तक- 'अत्यधिक प्रभावशाली लोगों की 7 आदतें' (The 7 Habits of Highly Effective People) में कहते हैं - 'Sow a thought , reap an action ; sow an action , reap a habit, sow a habit, reap a character .'-अर्थात " मन में एक अच्छे विचार की बीज को बो दो, फिर अच्छे कर्मों की फसल काटो। जब अच्छे कर्मों के बीज को बोओगे , तब अच्छी आदतों की फसल काटोगे। अच्छी आदतों की बीज बोओगे , तब अच्छे चरित्र की फसल काटोगे !"स्वामी विवेकानन्द के अनुसार - "चरित्र और कुछ नहीं, बस बार-बार कृत्य कर्मों के माध्यम से गठित आदतों का एक समूह है।" [character is nothing but a bundle of habits formed through repeated acts .] एक ही काम को बार बार करने से वह हमारी आदत बन जाती है, और उस आदत के पुरानी होने से चित्त के ऊपर जब उसकी गहरी छाप/लकीर पड़ जाती है, तब वह हमारी सहज प्रवृत्ति (propensity) बन जाती है, और किसी विशेष परिस्थिति में एक विशेष प्रकार का आचरण करने को हम बाध्य हो जाते हैं। उसी आचरण को चरित्र कहते हैं। हमारा वर्तमान चरित्र हमारे पिछले जन्म के संस्कारों या चित्त पर अंकित पिछले कर्मों की लकीरों के माध्यम से आता है। ( it comes through past samskaras or past impressions) किसी व्यक्ति के संस्कार को विकसित करने या गहरा बनाने में 4 कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पहला, वे संस्कार जो व्यक्ति को पिछले जन्म से विरासत में प्राप्त हुए है। दूसरा,वे संस्कार या छाप जो किसी व्यक्ति को उसके माता-पिता के जिन के माध्यम से तथा उनके द्वारा प्रदत्त प्रशिक्षण के माध्यम से प्राप्त होते हैं। तीसरा, वैसे संस्कार जो किसी व्यक्ति को समाज से -अपने आसपास के परिवेश और वातावरण से प्राप्त होते हैं। चौथा और सबसे महत्वपूर्ण कारक है मानव जाति का मार्गदर्शक 'नेता'/ या जीवनमुक्त 'शिक्षक'; इसलिए कहा जाता है कि -The Leaders are the torchbearers of change.' ---नेता ही युगपरिवर्तन के मशाल वाहक होते हैं।' अपने देशवासियों के चरित्र-निर्माण से ही हम राष्ट्र को बदल सकते हैं। भारत को विकसित राष्ट्र (developed country) में बदलने का एक मात्र उपाय है, देश के नागरिकों का चरित्र-निर्माण। (The only way we can change the nation is by character-building of the citizens .) और इस चरित्र निर्माण के लिए हमें ठीक उसी प्रकार एक मजबूत नींव की आवश्यकता होगी, जिस प्रकार किसी मजबूत इमारत को बनाने के लिए एक मजबूत नींव की आवश्यकता होती है। अतः चरित्र निर्माण की नींव कम उम्र में ही रखी जानी चाहिए। किसी व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करना तब आसान होता है जब वह एक छात्र होता /होती है। क्योंकि कम उम्र होने से बुरी आदतें परिपक्व होकर बुरे सहज-प्रवृत्ति में परिवर्तित नहीं हो पातीं। इस प्रकार के व्यक्ति के चरित्र को नेता या सत्पुरुष के रूप में गढ़ने का सबसे महत्वपूर्ण कारक- नवनीदा के जैसा कोई " Be and Make Leadership Training Tradition" में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक/या नेता (C-in-C) ही होता है।
डॉ ए.पी. जे अब्दुल कलाम अपनी पुस्तक - "India 2020 : A Vision of The New Millennium" में लिखते हैं - " यदि आप किसी भी क्षमता में एक शिक्षक/नेता हैं, तो आपकी भूमिका अत्यन्त विशिष्ट हो जाती है, क्योंकि किसी और की तुलना में आप भावी पीढ़ी को / would be leader के जीवन को अधिक सुन्दर रूप से गढ़ रहे होते हैं,या आकार दे रहे होते हैं। ' इस प्रकार यहाँ पहुँचकर किसी वेदान्त -शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षक /नेता की भूमिका 'as a torchbearer of change' युगपरिवर्तन मशाल वाहक या अग्रदूत की हो जाती है। "If you want a change at the macro level , it is to be preceded by a change at the micro level . " यदि आप विराट या समष्टि स्तर पर परिवर्तन लाना चाहते हैं, तो पहले आपको व्यष्टि स्तर पर (व्यक्ति अहं में) परिवर्तन लाना होगा। यदि हम अपने देश को बचाना चाहते हैं, तो हमें अपने देशवासियों के हैण्ड, हेड ऐंड हार्ट (3'H') को विकसित करने के लिए (5 अभ्यास) का प्रशिक्षण देने में समर्थ शिक्षकों/ नेताओं -भर्तृहरि द्वारा कथित प्रथम श्रेणी के मनुष्यों का निर्माण करना ही पड़ेगा। अन्यथा भारत एक विकसित राष्ट्र में परिवर्तित नहीं हो सकेगा।
15.
'संस्कृत भाषा को जनसम्पर्क भाषा क्यों बनाएं'
संस्कृत भाषा का सम्मान : स्वामी जी ने पिछड़ी जातियों में जन्मे लोगों में जातिगत आधार पर सामाजिक भेदभाव हटाने का उपाय बतलाते हुए कहा था -"संस्कृत में पांडित्य होने से ही भारत में सम्मान प्राप्त होता है। संस्कृत भाषा का ज्ञान होने से ही कोई तुम्हारे विरुद्ध कुछ कहने का साहस नहीं करेगा। यही एक मात्र रहस्य है, अतः इसे जानलो और संस्कृत पढ़ो।" 5 /191
हमारी सांस्कृतिक विरासत (श्रुति-परम्परा) में निहित जीवन-दायिनी शिक्षाओं के हृदय में प्रवेश करने का मार्ग संस्कृत-अध्यन है।(Sanskrit is the gate to inner recesses of our cultural heritage,and every effort should be made to learn the language to have a free access to its stores.) इसीलिये अपने पूर्वज ऋषियों से विरासत में प्राप्त ज्ञान के इस अक्षुण्ण भण्डार पर यदि अधिकार पाना चाहें , तो इस संस्कृत-भाषा को सीखने का हर सम्भव प्रयास करना उचित है। 'संस्कृत' के अतिरिक्त विश्व की जितनी भाषाएँ हैं, उनकी भाषा पहले बनी है, व्याकरण बाद में बना है। किन्तु संस्कृत देवभाषा है, इसका व्याकरण पहले बना है, भाषा बाद में बनी है। इसीलिए यदि सभी सदस्यों को संस्कृत भाषा के प्रति श्रद्धा रखनी चाहिए। और यदि सम्भव हो, तो प्रत्येक केंद्र में संस्कृत व्याकरण का प्राथमिक बुनियादी पाठ्यक्रम (elementary grammatical foundation course ) सिखाने की व्यवस्था की जानी चाहिये। इसके साथ-साथ प्रत्येक केन्द्र में समय-समय पर गीता और कुछ प्रमुख उपनिषदों (जिनपर आचार्य शंकर का भाष्य उपलब्ध है) के मुख्य विचारों से अवगत होने के लिए गीता-उपनिषद आदि के ऊपर 'विशेष चर्चा -संगोष्ठी' आयोजित करने की व्यवस्था करना उचित होगा।
[संस्कृत वह भाषा है जो अपनी पुस्तकों वेद, उपनिषदों, श्रुति, स्मृति, पुराणों, महाभारत, रामायण आदि में सबसे उन्नत प्रौद्योगिकी(Technology) रखती है।संदर्भ: रशियन स्टेट यूनिवर्सिटी, नासा आदि। नासा के वैज्ञानिक Rick Briggs ने Artificial Intelligence 'AI' Mazagine में संस्कृत की गुणवत्ता के बारे में लिखा है-आजकल कंप्यूटर के क्षेत्र में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence Programming) का प्रयोग करके कंप्यूटर को बुद्धिमान बनाने का कार्य चल रहा है। अर्थात स्वयं निर्णय लेने की क्षमता होना AI का एक अच्छा खासा उदहारण आपको कंप्यूटर के Chess गेम के रूप में मिल सकता है। जहा कंप्यूटर स्वयं निर्णय लेकर चालें चलता है और आपको हरा भी देता है। दवा के लिए सबसे उपयोगी भाषा अर्थात संस्कृत में बात करने से व्यक्ति स्वस्थ और बीपी, मधुमेह, कोलेस्ट्रॉल आदि जैसे रोग से मुक्त हो जाएगा। संस्कृत में बात करने से मानव शरीर का तंत्रिका तंत्र सक्रिय रहता है जिससे कि व्यक्ति का शरीर सकारात्मक आवेश(Positive Charges) के साथ सक्रिय हो जाता है।संदर्भ: अमेरीकन हिन्दू यूनिवर्सिटी (शोध के बाद)सर्वोच्च न्यायालय में एक मामला था, जिसमें जस्टिस हंसारिया ने सीबीएसई के खिलाफ फैसला दिया और फैसला सुनाया कि संस्कृत को एक वैकल्पिक विषय बना रहना चाहिए और इसे पाठ्यक्रम से अलग नहीं किया जा सकता; क्योंकि संस्कृत भाषा ही भारतीय संस्कृति की सच्ची बुनियाद है। किसी भी राष्ट्र के लिए अपनी संस्कृति की रक्षा करना कितना अनिवार्य होता है, इसकी एक झलक एक उदाहरण में देखि जा सकती है। तब प्रोफेसर ने उस सैनिक से पूछा कि तुम राष्ट्र की रक्षा करने का तात्पर्य क्या समझते हो ?जब ब्रिटेन और जर्मनी के बीच युद्ध चल रहा था। तब एक कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपने अध्ययन-कक्ष में कुछ पढ़ने में तल्लीन थे, उसी समय एक सैनिक ने उनके कमरे में प्रवेश किया और उन पर आरोप लगाते हुए कहा कि, जहाँ सिपाही अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए युद्ध लड़ रहे हैं, वहीँ आप अपने कमरे में बैठकर पढाई कर रहे हैं, और एक प्रोफेसर होकर भी देश के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं ? तब प्रोफेसर ने सैनिक से पूछा कि तुम्हारे विचार से राष्ट्र को सुरक्षित रखने का अर्थ क्या होना चाहिए ? सैनिक ने कहा कि इसका अर्थ राष्ट्र की भौगोलिक सीमा की रक्षा करना है। प्रोफेसर ने फिर पूछा कि क्या देश की सुरक्षा के इतना काफी है ? सैनिक ने थोड़ी तक इस विषय पर चिंतन किया, फिर बोला कि राष्ट्र की रक्षा अर्थ राष्ट्र के नागरिकों की और उसकी संस्कृति की सुरक्षा करना है। प्रोफेसर बोलै कि मैं देश के संस्कृति की रक्षा करने में लगा हुआ हूँ। यह सुनकर उस सैनिक ने प्रोफेसर को एक सैल्यूट किया और वहां से चला गया।
[अधिकतर लोग यही मानते हैं कि संस्कृत हिंदुओं का विषय है और उर्दू मुस्लिम लोगों का. मुस्लिम लोगों को उर्दू भाषा में रुचि होती है और हिंदुओं को संस्कृत में, लेकिन झारखंड की अनम अली ने लोगों की इस मानसिकता को चूर-चूर कर दिया है. अनम अली ने सीबीएसई की 2018 दसवीं की परीक्षा में संस्कृत में 100 में पूरे 100 नंबर हासिल किए हैं. अनम कहती है कि संस्कृत बेहद इंट्रेस्टिंग विषय है और साथ ही अधिक नंबर स्कोर करने वाला भी है. आपको बता दें कि अनम ने 10 वीं में 90.4 फीसदी अंक हासिल किए हैं.जो लोग कहते हैं कि मुस्लिम संस्कृत नहीं पढ़ना चाहते, उन्हें अनम से प्रेरित होना चाहिए. भले ही बात संस्कृत की हो या फिर उर्दू की, शिक्षा कभी धर्म की मोहताज नहीं होती. जिसे संस्कृत अच्छी लगती है वो संस्कृत पढ़ता है और जिसे उर्दू अच्छी लगती है वह उर्दू पढ़ता है. पिछले 500 सालों में सैंकड़ों मुस्लिम विद्वानों ने संस्कृत में बहुत सारे साहित्य की रचना की है. अब्दुल रहीम खानखाना समेत अनेक विद्वानों हुए, जिन्होंने संस्कृत में कई ग्रंथ लिखे हैं. आज भी संस्कृत विभागों और संस्कृत विश्वविद्यालयों में न जाने कितने मुस्लिम विद्यार्थी संस्कृत पढ़-लिख रहे हैं. संस्कृत केवल एक मात्र भाषा नहीं है अपितु संस्कृत एक विचार है। संस्कृत एक संस्कृति है एक संस्कार है संस्कृत में विश्व का कल्याण है, शांति है, सहयोग है, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना है। हिन्दुओं, सिख, बौद्धों और जैनों के नाम भी संस्कृत पर आधारित होते हैं। संस्कृत, भारत को एकता के सूत्र में बाँधती है। डॉ. भीम राव अम्बेडकर का मानना था कि संस्कृत पूरे भारत को भाषाई एकता के सूत्र में बांध सकने वाली इकलौती भाषा हो सकती है, अतः उन्होंने इसे देश की आधिकारिक भाषा बनाने का सुझाव दिया था।]
16.
युग परिवर्तन के मशाल-वाहक नेताओं का उदाहरण :
युग परिवर्तन के मशाल-वाहक नेताओं का उदाहरण :
Examples of Leaders as Torch-Bearers)
कुछ उदाहरणों के द्वारा हम यह समझ सकते हैं कि कैसे कोई सामान्य शिक्षक / या किसी भी क्षेत्र का नेता समाज में असाधारण परिवर्तन ला सकता है। धर्म ग्रंथों में गुरु और शिष्य के बीच महान समानुभूति और गहरे रिश्ते की परंपरा के अनेक उदाहरण मिलते हैं। ऐतिहासिक आख्यानों में ऐसे प्रोत्साहक और प्रेरक प्रसंगों की कोई कमी नहीं है। आचार्य चाणक्य ने एक बालक की प्रतिभा को देख कर उसे विकसित करने का बीड़ा उठा लिया था। ऐसा करते समय उन्होंने इस बात पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया कि उसकी पृष्ठभूमि क्या थी और अपने प्रयासों से उसे एक शक्तिशाली सम्राट चन्द्रगुप्त के रूप में तब्दील कर दिया। हां, यह सही है कि शिक्षक किन्हीं महत्वहीन, भोले-भाले विद्यार्थियों को महान निष्पादक और उपलब्धि प्राप्तकर्ता के रूप में विकसित कर सकते हैं।खेलों और क्रीड़ाओं के जगत में प्रशिक्षकों/नेताओं के कुछ प्रेरक उदाहरण मिलते हैं, जहां सफल खिलाड़ी भी उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में समर्पित उपलब्धि हासिल करने वालों की ही तरह अपनी सफलताओं का श्रेय अपने प्रशिक्षकों को देते हुए देखे जा सकते हैं। प्रत्येक कामयाब व्यक्ति अपने गुरुओं के योगदान को स्वीकार करता है। हम सभी ऐसे शिक्षकों के प्रति नतमस्तक होते हैं, जो एक शिक्षक से आगे बढ़ कर उच्चतर भूमिका (मार्गदर्शक नेता या गुरु की भूमिका) अदा करता है।
विश्व के प्राचीन समुदाय भारत की ओर आशा भरी नजरों से देखते हैं। भारत एक युवा राष्ट्र है, जिसकी 65 करोड़ आबादी 35 वर्ष से कम आयु वर्ग के लोगों की है। इसे एक महान ‘‘जन सांख्यिकीय लाभ’’ के अवसर के रूप में देखा जा रहा है। क्या भारत इसका लाभ उठा सकेगा ? हां, यदि युवा भारत गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त कर सकता है और प्रशिक्षित है, तो वह देश में उपलब्ध अवसरों का लाभ उठा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय जगत भी ऐसे ही ‘सक्षम, प्रतिबद्ध और चपरास-प्राप्त निष्पादक युवाओं’ का इंतजार कर रहा है।
श्री महेंद्रनाथ गुप्ता/राजर्षि जनक एक साधारण शिक्षक/राजा थे। एक बार वे संयोग से कोलकाता के दक्षिणेश्वर मंदिर स्थित उस कमरे में पहुँच गए जहां विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण देव रहते थे। उस समय उनके परिवार में बहुत सारी समस्याएँ थीं और वे इतने तंग हो चुके थे कि आत्महत्या करने की बात सोच रहे थे। संयोग से (माँ की कृपा से ?) वे श्रीरामकृष्ण के कमरे में चले गए।
जब वे श्री रामकृष्ण से मिले, तो उन्हें इतनी शांति का अनुभव हुआ कि उन्होंने आत्महत्या के विचार को स्थगित कर दिया। उस प्रथम दर्शन के बाद वे नियमित रूप से श्री रामकृष्ण के पास जाने लगे, और श्री रामकृष्ण अपने भक्तों के साथ जो कुछ भी वार्तालाप करते थे, उसको अक्षरसः अपनी डायरी में नोट करने लगे। बाद में जब स्वामी विवेकानन्द ने इस विषय में जाना तब वे बहुत प्रसन्न हुए, बोले कि आपकी डायरी में श्री रामकृष्ण के महत्वपूर्ण उपदेश हैं, इसको पुस्तक के रूप में छापना चाहिए। बाद में वह डायरी सबसे पहले पुस्तक के रूप में बंगला भाषा में 'श्री श्री रामकृष्ण कथामृत ' के नाम से प्रकाशित हुई। फिर उसका अंग्रेजी अनुवाद ' दी गॉस्पेल ऑफ़ श्री रामकृष्ण' के नाम से प्रकाशित हुआ। इसके बाद हिन्दी में "श्रीरामकृष्ण वचनामृत' नाम से गुजराती , तमिल, तेलुगु, मराठी, कन्नड़ , मलयालम , ओड़िया , स्पेनिश, जापानी, रूसी, डच, ग्रीक और फ्रेंच तथा दुनिया की अन्य कई भाषाओं में प्रकाशित हुई हैं। इसकी हजारों प्रतियां बिक चुकी हैं, और उसके फलस्वरूप हजारों लोग पिछले सौ वर्षों से मानसिक शांति तथा आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कर रहे हैं। और इस प्रकार हम देख सकते हैं, कि इस पुस्तक ने कई लोगों को आत्महत्या करने से भी बचा लिया है। 24 नवम्बर 1897 को लिखे अपने पत्र में स्वामी विवेकानन्द उनको धन्यवाद देते हुए 'M' के उपनाम से सम्बोधित करते है, और लिखते हैं - " The Socratic dialogues are Plato all over; you are entirely hidden. Moreover, the dramatic part is infinitely beautiful. Everybody likes it here and in the West."
इस पुस्तक की भूमिका में महान विद्वान एल्डस हक्सले ने लिखा है -the great savant (विद्वान्) Aldous huxley in the forward of this book wrote ' making good use of his natural gifts and of the circumstances in which him self , 'M' produced a book unique so far as my knowledge goes in the litrature of hagiography (सन्त -चरित लेखन विधा) " आज यह पुस्तक समाज-सेवा के क्षेत्र में मनुष्य-निर्माणकारी और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा देने का एक महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में कर रही है। " नेता/नेतृ का एक अन्य उदाहरण हैं दीदी निवेदिता (1867-1911)/ तीसरे उदाहरण हैं स्वामी प्रेमशानन्द जी (1884 -1967) वे भी एक साधारण शिक्षक ही थे , उन्होंने कई विद्यार्थियों को प्रेरणा दी जिनमे से कई अभी रामकृष्ण मिशन के संचालक पद पर कार्यरत हैं।
17.
(शिक्षकों/नेताओं/राजर्षियों की तत्काल आवश्यकता)
मैंने अभी तक कुछ भी नया नहीं कहा है। ये सभी बातें हमलोग पहले से ही जानते हैं। किन्तु कठिनाई यह है कि- जो उपदेश हम दूसरों को देते हैं, क्या उसका पालन हम स्वयं भी करते हैं ? पर उपदेश कुशल बहुतेरे" - इस पर एक मनोरंजक कहानी है। .... हम लोग अपनी सभी समस्याओं का हल स्वयं जानते हैं, किन्तु 3'H' विकास के जिन 5 अभ्यासों को करने का उपदेश हम दूसरों को देते हैं, अपने जीवन में स्वयं उनका पालन नहीं करते।
Urgent Need for Electric Shock
" इलेक्ट्रिक शॉक देने में सक्षम" (शिक्षकों/नेताओं/राजर्षियों की तत्काल आवश्यकता)
हम जानते हैं, अगर कोई व्यक्ति सचमुच सो रहा है तो उसको जगाना आसान है, लेकिन जो सोने का नाटक कर रहा है, अंठियाये हुए है- उसको कैसे जगाया जा सकता है ? the only way is to give an electric shock.एकमात्र उपाय है- बिजली का झटका देना !
और ऐसा चौंका देने वाला बिजली का झटका हमें स्वामी विवेकानंद के जीवन और संदेश को पढ़कर प्राप्त होता है। एक नोबेल पुरस्कार विजेता तथा फ्रेंच विद्वान् - रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था-"उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है, वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था।
वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा-‘शिव!’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।"
" Vivekananda’s words are great music, phrases in the style of Beethoven, stirring rhythms like the march of Handel choruses. I cannot touch these sayings of his at thirty years distance without receiving a thrill through my body like an electric shock."
The present leaders of India : Gandhi, Aurobindo, and Tagore, have grown, flowered, and born fruit under the double constellation of the Swan (Ramakrishna) and the Eagle (Vivekananda) –– a fact publicly acknowledged by both Gandhi and Aurobindo.
कटक में नौवीं कक्षा में पढ़ने वाले एक लड़के ने स्वामी विवेकानंद की - 'कोलम्बो टू अल्मोड़ा' तथा भारत और उसकी समस्यायें' नामक पुस्तकों का अध्यन किय और राष्ट्र की सेवा के लिए अपने जीवन का बलिदान करने का फैसला किया और बाद में वही लड़का नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम से जाने गए।
इसलिए हम देख सकते हैं कि स्वामी विवेकानंद की पुस्तकों में बहुत बड़ी शक्ति निहित है। उनको पढ़ने से आज 150 वर्षों बाद भी वे एक बिजली के झटके की तरह काम करते हैं, और भावी शिक्षकों / नेता को एक बिजली के झटके की तरह जागृत कर देते हैं, और उन्हें यह स्मरण हो जाता हैं, उन्हें गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी मानवजाती का मशाल -वाहक नेता बनना और बनाना है। उन्हें तो लकीर का फकीर नहीं बनना है, अर्थात उन्हें सामान्य गृहस्थों की तरह आहार-निद्रा-भय मैथुन में जीवन नष्ट करने की आवश्यकता नहीं है।
कामिनी-कांचन और कीर्ति में आसक्त अधिकारी, व्यापारी, मंत्री आदि धन कमाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, और उन्हें माफ भी किया जा सकता है। लेकिन शिक्षक /महामण्डल परम्परा में प्रशिक्षित नेता को माफ नहीं किया जा सकता है। क्योंकि उनके गलत उदाहरण से सैंकड़ों भावी नेताओं का जीवन नष्ट कर सकता है।
स्वामी विवेकानन्द ने मंत्र दिया है - "Be and Make " अर्थात स्वयं अपना चरित्र-निर्माण करो, तथा साथ साथ दूसरों की भी चरित्र-निर्माण में सहायता करो। किसी आदर्श सत्पुरुष या जीवनमुक्त शिक्षक/नेता का प्रभाव से छात्र या तो महान हो सकते हैं या या ढोंगी बाबाओं के प्रभाव से दानव जैसे भी बन सकते है। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि वे किसी प्रकार नेता द्वारा अनुप्रेरित किये जा रहे हैं ? छात्रों या भावी शिक्षकों के मामले में जो हम उन्हें उपदेश देते हैं, वह महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि जो हम वास्तव में हैं, चार में से किस श्रेणी के मनुष्य हैं ? वह अधिक महत्वपूर्ण है।
values are never taught , but they are caught : नेतृत्व के गुणों को पढ़ाया नहीं जाता , उसको तो अपने मार्गदर्शक नेता के जीवन और व्यवहार में देखकर पकड़ा जाता है। आत्मसात किया जाता है। आजकल के छात्र पहले से अधिक बुद्धिमान होते हैं। वे अपने शिक्षकों को अच्छी तरह से जानते हैं; वे कक्षा आदि के बाद अमुक शिक्षक क्या करते हैं , कहाँ -कहाँ जाते हैं; वे यह सब जानते हैं। यदि आप उन्हें निषिद्ध कर्मों या शास्त्र-विरुद्ध कर्मों को त्याग देने का उपदेश देंगे और स्वयं कोई निषिद्ध कर्म करते रहेंगे , तो आपके उपदेशों का उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
राजर्षि नेता ही युग परिवर्तन के मशाल वाहक होते हैं, क्योंकि भौतिवाद की आंधी से सम्पूर्ण विश्व तभी बच सकता है, जब भारत को उससे बचाया जा सकेगा। क्योंकि विश्व में आध्यात्मिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना ही भारत की विशेष भूमिका है । यदि भारत को भाटिकवादी संस्कृति की आंधी से बचाना है, तो भारत को समृद्ध परिवार के अंग्रेजी पढ़े-लिखे लड़के को राजऋषि (enlightened citizen) बनने और बनाने का प्रशिक्षण देना ही पड़ेगा। और छात्रों को भावी राजर्षि (enlightened citizen) के रूप में आकार देने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका - Be and Make शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित नवनीदा जैसे शिक्षक/नेता ही निभाते हैं। [प्रबोध महाराज की पुस्तिका-Teachers as a Torch-Bearer of Change' समाप्त]
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शिक्षा और धर्म :
धर्म और शिक्षा में क्या अन्तर है ? स्वामी विवेकानन्द शिक्षा और धर्म में विशेष अन्तर नहीं मानते थे। स्वामी विवेकानन्द शिक्षा और धर्म में बहुत अधिक अंतर नहीं मानते थे। शिक्षा को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा था - " शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता (Perfection-Wisdom,विवेक) की अभिव्यक्ति, जो प्रत्येक मनुष्य में पहले से विद्यमान है। " और धर्म को परिभाषित करते हुए स्वामी जी ने कहा था - " धर्म का अर्थ है, उस ब्रह्मत्व (Divinity-दिव्यता) की अभिव्यक्ति जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है !"अपने हृदय के विश्वव्यापी परिधि के अन्तर्गत समस्त जीवों के एकत्व की उपलब्धी करना ही धर्म है। यह उपलब्धी हो जाने के बाद मनुष्य द्वारा किया गया कोई भी कर्म परोपकार होता है, और वही है धर्म। गोस्वामी तुलसीदास राम चरित मानस में लिखते हैं “परहित सरिस धरम नहिं भाई ,परपीड़ा सम नहिं अधमाई।" यह धर्म कायरों के लिये नहीं है, यह वीरों का धर्म है। क्योंकि कायर (डरपोक) दूसरों को मारता है, और वीर ( अर्थात सच्चा जिहादी ) अपने कच्चे ' मैं '-को (अपने तुच्छ अहं को) मारता है। जो वीर होता है, वह इस वृहत जगत (भव-सागर ) के पार जाने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर,सांप, बिच्छु या मच्छड़ तक को नहीं मरता है,बल्कि अपने तुच्छ स्वार्थ के छोटे से दायरे में बंधे - ' मैं और मेरा ' को मारता है।अनुशासन के अनुसार चलना धर्म है। हृदय की पवित्रता ही धर्म का वास्तविक स्वरूप है। धर्म का सार जीवन में 'संयम' का होना है। जो वस्तु हमारे जीवन को लक्ष्याभिमुखी बनाती है, उसे समग्र रूप से धारण करती है, उसे नियंत्रित करती है- उसी का नाम है धर्म। फिलोसफी, जप, तप, देवता-घर, दीपक-दानी, केले का थम, कुशी-घंटी-शंख , या पाँच वक्त का नमाज मस्जिद में , हर संडे को चर्च जाना, इन सब अनुष्ठानों को स्वामीजी ने व्यक्तिगत धर्म कहा है। किन्तु जिस धर्म को सभी लोग समझते हैं, वह है परोपकार। श्रीमद्भागवत महापुराण (के दशम स्कन्ध के २२ वें अध्याय में श्लोक ३२-३५ ) में वर्णित एक कथा के माध्यम से इस प्रकार स्पष्ट किया गया है - एक दिन भगवान श्रीकृष्ण अन्य ग्वालबालों के साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावन से बहुत दूर निकल गये । ग्रीष्म ऋतु थी। सूर्य की किरणें बहुत ही प्रखर हो रही थीं। परन्तु घने-घने वृक्ष के नीचे गौएँ विश्राम कर रही थीं। उन सबके ऊपर वृक्ष के पत्ते छाता का काम कर रहे थे। वृक्षों को छाया करते देख अपने गोप मण्डली के 'नेता'/ जीवनमुक्त शिक्षक की भूमिका निभा रहे तरुण श्रीकृष्ण के मुख से भावी शिक्षकों (Would be Leaders) के जीवन निर्माण की अनिवार्यता को एक बहुत सुन्दर श्लोक निकला है--
पश्यैतान् महाभागान् परार्थैकान्त जीवितान्।
वात-वर्षा-ताप-हिमान् सहन्तो वारयन्ति नः ।।३२।।
अर्थात् - ‘‘प्रिय मित्रो, देखो। ये वृक्ष कितने भाग्यवान हैं !! इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई करने के लिये ही समर्पित है। ये स्वयं तो हवा, वर्षा, धूप, और पाला सहते हैं, परन्तु उनसे हमारी रक्षा करते हैं।
अहो एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीवनम् ।
सुजनस्यैव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः।।
-अहो (प्यारे भाइयो), मैं तो कहता हूँ कि इन वृक्षों का जीवन ही सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि ये सब प्राणियों को उपजीवन (सहारा) देते हैं, अर्थात इनके द्वारा सब प्राणियों का जीवन-निर्वाह होता है। ये वृक्ष धन्य हैं कि जिनसे याचक कभी निराश नहीं होते । जैसे कोई सज्जन पुरुष किसी याचक को खाली नहीं लौटाता, वैसे ही ये वृक्ष भी लोगों को खाली हाथ न लौटाकर उन्हें कुछ न कुछ अवश्य देते हैं। वृक्ष किस प्रकार दूसरों के कल्याण में अपना सबकुछ न्योछावर कर देते हैं? यह सहब विस्तारपूर्वर समझाते हुए श्री कृष्ण आगे कहते हैं -
पत्र, पुष्प, फलच्छाया, मूल, वल्कल दारुभिः।
गन्धः निर्यास भस्मास्थि तोक्मैः कामान् वितन्वते।।
अर्थात् ये वृक्ष पत्र (पत्ती), पुष्प, फल, छाया, मूल (जड़), वल्कल (छाल), दारू या लकड़ी, गंध, निर्यास या गोंद, भस्म (राख), अस्थि (कोयला), तोक्म (बीज) आदि पदार्थों के द्वारा हमारा उपकार करते हैं।
एतावत् जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु ।
प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेयआचरणं सदा ॥
भगवान श्रीकृष्ण अपने गाय चराने वाले मित्रों को मनुष्य जीवन की सार्थकता क्या है, यह समझाते हुए कहते हैं - मेरे प्यारे मित्रों! संसार में प्राणी तो बहुत हैं; परन्तु उनके जीवन की सार्थकता इसमें ही है- कि जहाँ तक सम्भव हो सके-इन वृक्षों की भाँति ही मनुष्य को 'प्राणैः अर्थैः धिया वाचा' अपने शब्दों या विचारों के माध्यम से, अपनी धी या बुद्धि से, या अपने मन के विवेक-विचार से, अर्थ का त्याग करके, और आवश्यकता पड़ने पर- प्राणैः, अर्थात अपने प्राणों की आहुति देकर भी केवल धर्म अर्थात सद्कर्म ही करना चाहिये। हमें केवल ऐसे ही कर्म करने चाहिए, जिनसे दूसरों की भलाई होती हो। यही तो है संसार के समस्त धर्मों में निहित गूढ़ तत्व, या धर्म का वास्तविक रहस्य !
ठीक यही बात महाभारत में तुलाधर वैश्य और जाजलि ब्राह्मण की कथा में भी आती है -एक बार जप करने वालों में श्रेष्ठ यशश्वी ब्राह्मण जाजलि ने एक ही आसन पर बैठकर इतनी देर तक जप किया कि उसकी जटाओं पर घोशला बनाकर उसमें चिड़िया अंडे देने लगी। इससे वे अपने को महान धर्मात्मा समझने लगे। और गर्व से घोषणा कर दी कि मैंने धर्म को प्राप्त कर लिया है। इतने में आकाशवाणी हुई -'जाजले तुम धर्म में कशी में रहने वाले तुलाधर वैश्य से अधिक श्रेष्ठ नहीं हो।' वे जब उसको खोजते हुए कशी पहुंचे तो उन्होंने तुलाधर को सौदा बेचते हुए देखा। उनको देखते ही तुलाधर उठकर खड़े हो गए, और स्वागत करते हुए बोले - हे ब्राह्मण , आप मेरे पास आ रहे हैं, यह बात मुझे पहले ही मालूम हो गयी थी , और वे क्यों तथा कैसे आये यह सब बात उनको बतला दिए। आप पूछिए मुझसे क्या जानना चाहते हैं ? जाजलि बोले - 'वैश्यपुत्र, तुम तो व्यापार करते हो, तुम्हें धर्म में निष्ठा रखने वाली बुद्धि कैसे प्राप्त हुई ?' तुम्हें यह ज्ञान कैसे उपलब्ध हो गया ? यशश्वी ब्राह्मण जाजलि के इस प्रकार पूछने पर धर्म और अर्थ के पुरुषार्थ को तत्व से जानने वाले तुलाधर वैश्य ने सनातन धर्म के सूक्ष्म रहस्य को उजागर करते हुए कहा-
वेदाहं जाजले धर्मं सरहस्यं सनातनम्।
सर्वभूतहितं मैत्रं पुराणं यं जना विदुः।।
- हे जाजले ! मुझे सनातन धर्म के सार-तत्व का पता चल गया है । वह क्या है ? जो व्यक्ति सर्वभूतों के सुहृत हैं और जो निरन्तर समस्त जीवों का हित करने में लगे रहते हैं, वास्तव में उन्हीं को धर्मज्ञ कहा जा सकता है। जो व्यक्ति सच्चा धर्मज्ञ है, वह सनातन अर्थात प्राचीनतम धर्म को समस्त प्राणियों के लिए हितकारी और सबके प्रति मैत्री भाव की स्थापना करने वाले धर्म के रूप में जान लेते हैं। और वे धर्मज्ञ महापुरुष जाती-धर्म, या ऊंच-नीच के नामपर भेदभाव किये बिना अपने पास आने वाले सभी मनुष्यों को उसी सनातन धर्म (अद्वैत वेदान्त) की शिक्षा देते हैं। [वे ब्रह्म को जानकर ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने तथा मानवमात्र से प्रेम करने की ही शिक्षा देते हैं।] आधुनिक युग के नेता /जीवनमुक्त शिक्षक स्वामी विवेकानन्द भी , अपने मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने के लिए हमें ठीक ऐसी ही शिक्षा देते हैं । वे कहते हैं- "यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ में जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीवन धारण करते हैं। बाकि लोगों का जीना तो मुर्दों की तरह जीने जैसा है। "
19.
वज्र तुल्य मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा
(Thunderbolt Man Making Education) :
स्वामी विवेकानन्द धर्म को शिक्षा का मेरुदण्ड कहते थे। उनका मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति में 'ज्ञान' का वास होता है; और शिक्षा उसको प्रकाश में लाने का कार्य करती है। धर्म का मानव जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। धारयति इति धर्मः – धर्म शब्द संस्कृत की धृ धातु से बना है, जिसका अर्थ है धारण करना। शास्त्रों में गुण-विशेष को भी धर्म कहा है – अग्नि का धर्म है ताप,जलना। जलेगी नहीं, अपने धर्म को त्याग देगी तो उसको अग्नि नहीं कहेंगे। जल का गुणधर्म है तरलता। अतः जो वस्तु या गुण मनुष्य के 'मनुष्यत्व' को धारण करने में समर्थ हो, वह है धर्म ! " धर्म वह वस्तु है, जो पशु को मनुष्य में और मनुष्य को देवत्व में उन्नत कर देती है। "स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है। एक मनुष्य चाहे सोने के सिंहासन पर आसीन हो, सोने के महल में रहता हो, परन्तु यदि वह पूर्ण रूप से निःस्वार्थ है तो वह ब्रह्म में ही स्थित है। परन्तु एक दूसरा मनुष्य चाहे झोपड़ी में ही क्यों न रहता हो, चिथड़े ही क्यों न पहनता हो, सर्वथा दीनहीन ही क्यों न हो, पर यदि वह स्वार्थी है, तो हम कहेंगे वह संसार में घोर रूप से लिप्त है। "
" अतः दोनों स्थलों पर किसी 'शिक्षक' (पूर्णतः निःस्वार्थी मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) का कार्य केवल रास्ते से सब रुकावट को हटा देना है। जैसा मैं सर्वदा कहता हूँ -हस्तक्षेप बंद करो ! सब ठीक हो जायेगा। अर्थात हमारा कर्तव्य है -रास्ता साफ़ कर देना -शेष सब भगवान ही करते हैं ! " २/३२८ उसे कहेंगे पशु-मानव को मनुष्य में और मनुष्य को देवत्व में उन्नत कर दे ! 0-निःस्वार्थपरता=पशु, से 100 -निःस्वार्थपरता =ईश्वर।
स्वामी विवेकानन्द के इसी सन्देश में सन्निहित है-" Be and Make C-in-C Vedanta Leadership Training Tradition " का गूढ़ार्थ ! शक्तिमान मनुष्य बनने का आदर्श जो 'अपने पैरोंको जमीन पर जमा कर, दूसरों को अपने हाथों का सहारा देकर उपर उठा लेने में समर्थ है। स्वामीजी ने इसी आदर्श को हमारे समक्ष रखा है। यदि हमलोग यथार्थ मनुष्य के रूप में जीना चाहते हैं, तो हमें दूसरों के लिये जीना सीखना पड़ेगा। हम लोग परस्पर एक दूसरे से प्रेम करेंगे, आलिंगन में बांध लेंगे, एक दूसरे को उपर उठाने का प्रयास करेंगे, आपस में सहयोग का भाव रखेंगे।
स्वामी जी के धर्म की मूल बात- मनुष्य का ऐसा समग्र विकास ही है। इसी विकास के पथ पर अग्रसर रहते हुए, मनुष्य अपनी क्षूद्र सत्ता, ' मैं'-बोध (अहं भाव) को खोना सीख लेता है। अर्थात अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध में रूपान्तरित करना सीख लेता है। इस प्रकार महिमा की तरफ अग्रसर होना ही स्वामीजी के विचारों में ईश्वर के मार्ग पर आगे बढ़ना है।' स्वामी जी ने कहा था - निःस्वार्थपरता ही ईश्वर (जगत साक्षिणी माँ जगदम्बा ) है ! और यदि कोई व्यक्ति इसी उक्ति को धर्म समझे, तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ?
स्वामी जी ने कहा है ,"संसार के धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु बन गये हैं। आज संसार जो चाहता है वह है चरित्र। आज ऐसे लोग चाहिए जिनका जीवन स्वार्थहीन ज्वलंत प्रेम का उदाहरण हो। उस प्रेम से कहा गया हर शब्द वज्रवत् प्रभावी होगा।" गीता 10 /28 के भाष्य में आचार्य शंकर ने कहा है - 'आयुधानाम् अहं वज्रं दधीच्यस्थिसंभवम्।' -- शस्त्रों में मैं दधीचि ऋषि की अस्थियों से बना हुआ वज्र हूँ। [आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्। प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः।।10.28। शस्त्रोंमें मैं दधीचि ऋषिकी अस्थियोंसे बना हुआ वज्र हूँ। दूध देनेवाली गौओंमें कामधेनु हूँ। प्रजा उत्पत्ति का हेतु कन्दर्प (कामदेव) मैं हूँ और सर्पों में सर्पराज वासुकि हूँ।।]
स्वामीजी कहते हैं - " भारत में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के पहले धर्म-प्रचार आवश्यक है। सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो महान सत्य छिपे हुए हैं, उन्हें सब ग्रन्थों के पन्नों से बाहर निकालकर, मठों की चहारदीवारियाँ भेदकर, वनों-आश्रमों से बाहर निकालकर, कुछ सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीनकर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा। ताकि ये सत्य दावानल के समान सारे देश को चारों ओर से लपेट लें -उत्तर से दक्षिण और पूर्व पश्चिम तक सब जगह फ़ैल जायें -हिमालय से कन्याकुमारी और सिन्धु से ब्रह्मपुत्र तक सर्वत्र वे धधक उठें ।"
" और जो भी व्यक्ति अपने शास्त्रों के महान सत्यों को -(Be and Make) दूसरों को सुनाने में सहायता पहुँचायेगा -वह आज एक ऐसा कर्म करेगा, जिसके समान कोई दूसरा कर्म ही नहीं है। महर्षि व्यास ने कहा है, " इस कलियुग में मनुष्यों के एक ही कर्म शेष रह गया है। आजकल यज्ञ और कठोर तपस्याओं का कोई फल नहीं होता। इस समय दान ही एकमात्र कर्म है। और दानों में धर्मदान, अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान का दान ही सर्वश्रेष्ठ है।"५/११६
स्वामी जी के धर्म की मूल बात- मनुष्य का ऐसा समग्र विकास ही है। इसी विकास के पथ पर अग्रसर रहते हुए, मनुष्य अपनी क्षूद्र सत्ता, ' मैं'-बोध (अहं भाव) को खोना सीख लेता है। अर्थात अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध में रूपान्तरित करना सीख लेता है। इस प्रकार महिमा की तरफ अग्रसर होना ही स्वामीजी के विचारों में ईश्वर के मार्ग पर आगे बढ़ना है।' स्वामी जी ने कहा था - निःस्वार्थपरता ही ईश्वर (जगत साक्षिणी माँ जगदम्बा ) है ! और यदि कोई व्यक्ति इसी उक्ति को धर्म समझे, तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ?
स्वामी जी ने कहा है ,"संसार के धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु बन गये हैं। आज संसार जो चाहता है वह है चरित्र। आज ऐसे लोग चाहिए जिनका जीवन स्वार्थहीन ज्वलंत प्रेम का उदाहरण हो। उस प्रेम से कहा गया हर शब्द वज्रवत् प्रभावी होगा।" गीता 10 /28 के भाष्य में आचार्य शंकर ने कहा है - 'आयुधानाम् अहं वज्रं दधीच्यस्थिसंभवम्।' -- शस्त्रों में मैं दधीचि ऋषि की अस्थियों से बना हुआ वज्र हूँ। [आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्। प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः।।10.28। शस्त्रोंमें मैं दधीचि ऋषिकी अस्थियोंसे बना हुआ वज्र हूँ। दूध देनेवाली गौओंमें कामधेनु हूँ। प्रजा उत्पत्ति का हेतु कन्दर्प (कामदेव) मैं हूँ और सर्पों में सर्पराज वासुकि हूँ।।]
स्वामीजी कहते हैं - " भारत में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के पहले धर्म-प्रचार आवश्यक है। सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो महान सत्य छिपे हुए हैं, उन्हें सब ग्रन्थों के पन्नों से बाहर निकालकर, मठों की चहारदीवारियाँ भेदकर, वनों-आश्रमों से बाहर निकालकर, कुछ सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीनकर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा। ताकि ये सत्य दावानल के समान सारे देश को चारों ओर से लपेट लें -उत्तर से दक्षिण और पूर्व पश्चिम तक सब जगह फ़ैल जायें -हिमालय से कन्याकुमारी और सिन्धु से ब्रह्मपुत्र तक सर्वत्र वे धधक उठें ।"
" और जो भी व्यक्ति अपने शास्त्रों के महान सत्यों को -(Be and Make) दूसरों को सुनाने में सहायता पहुँचायेगा -वह आज एक ऐसा कर्म करेगा, जिसके समान कोई दूसरा कर्म ही नहीं है। महर्षि व्यास ने कहा है, " इस कलियुग में मनुष्यों के एक ही कर्म शेष रह गया है। आजकल यज्ञ और कठोर तपस्याओं का कोई फल नहीं होता। इस समय दान ही एकमात्र कर्म है। और दानों में धर्मदान, अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान का दान ही सर्वश्रेष्ठ है।"५/११६
आज के अधिकांश चिन्तनशील व्यक्ति इस बात पर स्वामीजी के साथ पूरी तरह से सहमत हैं कि, देश कि दुरावस्था का मूल कारण- ईमानदार, चरित्रवान या यथार्थ मनुष्यों का आभाव ही है। भारत के अधिकांश लोग अब इस तथ्य को समझने तथा उस पर विश्वास करने लगे हैं कि, यथार्थ मनुष्य का निर्माण किए बिना जगत का सारा धन उडेल देने से भी पूरे देश के उन्नयन की बात तो दूर, एक गाँव को भी उन्नत कर पाना सम्भव नहीं है। पूर्व प्रधान मंत्री राजीव गाँधी भी मानते थे कि, केन्द्र से चला 'एक रुपया' गाँव तक पहुँचते-पहुँचते ८५% पाइप लाइन से चू जाता है और केवल '१५ पैसा' ही जरुरत मंदों तक पहुँच पाता है। लेकिन आज से लगभग 50 वर्ष पूर्व 1967 में महामण्डल के आविर्भूत होने से पहले तक, बहुत थोड़े से लोग ही यह विश्वास करते थे कि स्वामी विवेकानन्द को युवा आदर्श (Role model) के रूप में स्थापित करा कर उनके " मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माकरी शिक्षा " का प्रचार प्रसार करने से भारत को एक महान और समृद्ध राष्ट्र बंनाने के साथ साथ, भारत माता को विश्वगुरु के आसन पर बैठाना भी सम्भव है। क्योंकि उस समय तक " श्रीरामकृष्ण- विवेकानन्द वेदान्त भावधारा" में श्रद्धा रखने वाले बहुत थोड़े से लोग ही यह सोच पाते थे कि-स्वामी जी की समस्त शिक्षाओं का मुख्य केन्द्रबिन्दु या समस्त शिक्षाओं का सार है-'मनुष्य -निर्माण !' महामण्डल स्थापना के पाँच दशकों के बाद युवाओं तथा देशवासियों की सोंच में ऐसा जो परिवर्तन दिखाई दें रहा है, इस परिवर्तन के पीछे- ' महामण्डल , मासिक मुखपत्र विवेक-जीवन, तथा पूज्य नवनी दा लिखित पुस्तकों की भी, 'रात्रि के निःशब्द ओस की बूंदों के समान' एक भूमिका अवश्य है, ऐसा हमारा विश्वास है।
[रूट कैनाल ट्रीटमेंट (RCT) : मूर्त से अमूर्त की ओर, नश्वर से अविनाशी की ओर, सत -असत-मिथ्या राह से मुझे सत राह पर पर लो - मृत्यु धर्मा शरीर (अन्नमय कोष) से साक्षी चेतना (infinite -existence-consciousness-bliss या आत्मा में प्रतिष्ठित कर दो ! रूट कैनाल उपचार आने से पहले रोगग्रस्त दांत को निकाल दिया जाता था, लेकिन अब दांत निकालने की जरूरत नहीं पड़ती। रूट कैनाल एक ऐसा इलाज है जसमें क्षतिग्रस्त या संक्रमित दांत को निकालने के जगह उसकी मरम्मत और साफ-सफाई की जाती है और फिर उन पर कैप लगाया जाता है। शब्द "रूट कैनाल" दांत की जड़ के अंदर की कैनाल्स (canals) की सफाई से आता है। दांत के 3 भाग होते हैं, बाहरी भाग इनेमल, फिर दांत का मुख्य भाग डेंटीन (dentin)और फिर दांतों का नर्म गूदा। एनेमल के भीतर एक परत और होती है जिसे डेंटीन कहते हैं। यह परत भी जब घिस जाती है तो पल्प आ जाता है। ‘दांत का वो भाग, जो मुंह के अंदर दिखाई देता है, उसे हम क्राउन भी कहते हैं और जो भाग मसूड़े के अंदर होने की वजह से दिखाई नहीं देता उसे हम रूट या जड़ कहते हैं। क्राउन में सबसे अंदर पल्प नाम का भाग होता है, जिसमें रक्त और नर्व (तंत्रिका) संचार होता है। एनेमल एवं डेंटीन दोनों परत के घिसने के बाद पल्प का नर्व किसी भी पदार्थ के संपर्क में आने पर टीस की वेदना पैदा करते हैं। इसकी बाहरी परत डेंटिन होती है, जो काफी सेंसिटिव होती है और सबसे बाहरी सुरक्षा परत को इनेमल कहते हैं, जो अंदरूनी सेंसिटिव डेंटिन की सुरक्षा करती है। अगर यह इनेमल झड़ने या कम होने लगता है, तो डेंटिन की परत ऊपर आ जाती है, जिससे झनझनाहट होने लगती है। इसी तरह मसूड़ों के ढीले पड़ने या घिसने पर मसूड़ों के जड़ की सबसे बाहरी परत भी संपर्क में आने लगती है, जिससे झनझनाहट होने लगती है। इनेमल दांतों की बाहरी परत है, जो दांतों की टूट-फूट से रक्षा करती है। इनेमल का निर्माण कैल्शियम फास्फेट से होता है। दांतों का दिखाई देने वाला मुकुट (क्राउन), के भीतर पल्प चैंबर होता है। नस एवं रक्त वाहिकाएं दांतों की जड़ (एपेक्स) के पास से अंदर जाती है और फिर जड़ के कैनाल से होते हुए पल्प चैंबर तक पहुंचती है। रूट कैनाल उपचार में दांत के सूजे या संक्रमित पल्प को हटा दिया जाता है। रोग ग्रस्त (संक्रमित) पल्प को हटाने के बाद उस खाली जगह को साफ किया जाता है, और फिर उसे सही आकार देकर भरा जाता है। वायरलेस डिजिटल एक्स-रे जैसे उन्नत उपकरणों की मदद से रूट कैनाल ट्रीटमेंट अधिक कुशलतापूर्वक कम समय में किया जा सकता है। एक्स-रे को कंप्यूटर पर दिखाया जा सकता है, जहां दांत का आकार भी बड़ा और स्पष्ट दिखाई देता है। ]
[रूट कैनाल ट्रीटमेंट (RCT) : मूर्त से अमूर्त की ओर, नश्वर से अविनाशी की ओर, सत -असत-मिथ्या राह से मुझे सत राह पर पर लो - मृत्यु धर्मा शरीर (अन्नमय कोष) से साक्षी चेतना (infinite -existence-consciousness-bliss या आत्मा में प्रतिष्ठित कर दो ! रूट कैनाल उपचार आने से पहले रोगग्रस्त दांत को निकाल दिया जाता था, लेकिन अब दांत निकालने की जरूरत नहीं पड़ती। रूट कैनाल एक ऐसा इलाज है जसमें क्षतिग्रस्त या संक्रमित दांत को निकालने के जगह उसकी मरम्मत और साफ-सफाई की जाती है और फिर उन पर कैप लगाया जाता है। शब्द "रूट कैनाल" दांत की जड़ के अंदर की कैनाल्स (canals) की सफाई से आता है। दांत के 3 भाग होते हैं, बाहरी भाग इनेमल, फिर दांत का मुख्य भाग डेंटीन (dentin)और फिर दांतों का नर्म गूदा। एनेमल के भीतर एक परत और होती है जिसे डेंटीन कहते हैं। यह परत भी जब घिस जाती है तो पल्प आ जाता है। ‘दांत का वो भाग, जो मुंह के अंदर दिखाई देता है, उसे हम क्राउन भी कहते हैं और जो भाग मसूड़े के अंदर होने की वजह से दिखाई नहीं देता उसे हम रूट या जड़ कहते हैं। क्राउन में सबसे अंदर पल्प नाम का भाग होता है, जिसमें रक्त और नर्व (तंत्रिका) संचार होता है। एनेमल एवं डेंटीन दोनों परत के घिसने के बाद पल्प का नर्व किसी भी पदार्थ के संपर्क में आने पर टीस की वेदना पैदा करते हैं। इसकी बाहरी परत डेंटिन होती है, जो काफी सेंसिटिव होती है और सबसे बाहरी सुरक्षा परत को इनेमल कहते हैं, जो अंदरूनी सेंसिटिव डेंटिन की सुरक्षा करती है। अगर यह इनेमल झड़ने या कम होने लगता है, तो डेंटिन की परत ऊपर आ जाती है, जिससे झनझनाहट होने लगती है। इसी तरह मसूड़ों के ढीले पड़ने या घिसने पर मसूड़ों के जड़ की सबसे बाहरी परत भी संपर्क में आने लगती है, जिससे झनझनाहट होने लगती है। इनेमल दांतों की बाहरी परत है, जो दांतों की टूट-फूट से रक्षा करती है। इनेमल का निर्माण कैल्शियम फास्फेट से होता है। दांतों का दिखाई देने वाला मुकुट (क्राउन), के भीतर पल्प चैंबर होता है। नस एवं रक्त वाहिकाएं दांतों की जड़ (एपेक्स) के पास से अंदर जाती है और फिर जड़ के कैनाल से होते हुए पल्प चैंबर तक पहुंचती है। रूट कैनाल उपचार में दांत के सूजे या संक्रमित पल्प को हटा दिया जाता है। रोग ग्रस्त (संक्रमित) पल्प को हटाने के बाद उस खाली जगह को साफ किया जाता है, और फिर उसे सही आकार देकर भरा जाता है। वायरलेस डिजिटल एक्स-रे जैसे उन्नत उपकरणों की मदद से रूट कैनाल ट्रीटमेंट अधिक कुशलतापूर्वक कम समय में किया जा सकता है। एक्स-रे को कंप्यूटर पर दिखाया जा सकता है, जहां दांत का आकार भी बड़ा और स्पष्ट दिखाई देता है। ]
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20.
भविष्य का धर्म होगा - 'Be and Make ! '
प्रश्न हो सकता है कि उस प्रकार के किसी आध्यात्मिक संगठन या संघ में इतनी शक्ति क्यों होती है ? उनके द्वारा स्थापित संगठन को कोई जड़ पदार्थ मत समझो। ... उस संगठन के सैकड़ों -हजारों सदस्य एक ही उद्देश्य और कार्यक्रम के प्रति अपनी इच्छाशक्ति को समवेत कर लेते हैं, अर्थात अपने को शक्ति का अनन्त भण्डार बना लेते हैं। अतः यदि भारत को महान बनाना है, (विश्वगुरु बनाना है !) तो इसके लिए आवश्यकता है - संगठन की (युवा महामण्डल की ) युवाशक्ति को 'channelize' करने या सही दिशा में मोड़ देने की, उनकी बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। ५/१९१
1967 में स्थापित, "अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल" यह विश्वास करता है कि स्वामी विवेकानन्द ने युवावर्ग के समक्ष वैसे महान विचार तथा आदर्शों (ideas and ideals) को प्रस्तुत कर दिया है, जो उन्हें यथार्थ पुरुषार्थ और मातृभूमि की निःस्वार्थ सेवा [true manhood and selfless service to the motherland] कार्य में अपने जीवन को खपा देने (न्योछावर करने ) के लिये अनुप्रेरित (inspired) करते हैं। यदि युवावर्ग जाति -धर्म-भाषा के आधार पर समस्त प्रकार की संकीर्णताओं का परित्याग कर,अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से अनुप्रेरित होकर, स्वयं को सचमुच रचनात्मक कार्यों में समर्पित कर सकें, तभी उनके हृदय में स्वाभाविक 'राष्ट्रीय एकता' (national integration) एवं 'वसुधैव कुटुंबकम' (international understanding) के बोध को जाग्रत किया जा सकता है।स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -" यदि भारत को महान बनाना है , उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है--संगठन की , शक्ति -संग्रह की ओर बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। "5 /192 ( 'the whole secret lies in organization, accumulation of power, co-ordination of wills.) इसीलिये महामण्डल का लक्ष्य है भारत के विभिन्न राज्यों में स्थापित और महामण्डल से सम्बद्ध (affiliated) प्रत्येक युवा-पाठचक्र तथा अनुमोदित (Approved) महामण्डल -केन्द्रों को एक ही आदर्श के झण्डे तले संघबद्ध करना। तथा उन सभी केंद्र की गतिविधियों को एक सुनियोजित कार्यक्रम (well-planned program) के अनुसार इतना प्रभावपूर्ण बना देना कि वे सभी केन्द्र -'एक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, एक- मन- होकर एक- साथ- चलने वाले' युवा संगठन के रूप में परस्पर सहयोग की भावना रखते हुए निरन्तर आगे बढ़ते रहें।
अतः हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य है, पहले-पहल इस " श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा " या " Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition" के अनुरूप जितने भी संगठन सम्पूर्ण भारत में काम कर रहे हैं, उन सबों को "श्रीरामकृष्ण पताका " (महामण्डल ध्वज) के नीचे संघबद्ध करना। बाद में इस 'मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माण आन्दोलन' को अन्य देशों में भी प्रसारित कर दिया जायेगा। पश्चिम बंगाल से प्रारम्भ होकर यह आन्दोलन अभी भारत के 12 राज्यों में फैल चुका है, तथा इसके लगभग 300 से ऊपर केन्द्र युवाओं के बीच कार्य कर रहे हैं।महामण्डल आन्दोलन के 52 वर्ष बीत जाने के बाद, देश की कई शैक्षणिक और समाजसेवी संस्थायें ऐसा स्वीकार करती हैं कि महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य निश्चय ही ग्रहण करने के योग्य है। अतः वे अपनी संस्थाओं द्वारा प्रचलित शिक्षा और समाज-सेवा के अन्य कार्यों को जारी रखते हुए भी, इस 'मनुष्य बनो और बनाओ आन्दोलन' को संयुक्त प्रयास द्वारा आगे बढ़ाने के लिए महामण्डल के साथ 'संयुक्त' हो सकती है। जैसे ही किसी शैक्षणिक या समाजसेवी प्रतिष्ठान के कुछ सदस्य महामण्डल द्वारा आयोजित 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' या ' इंटर -स्टेट यूथ ट्रेनिंग कैम्प' में भाग लेते हैं, वे तुरन्त इस बात को नोटिस करते हैं, कि वे तो महामण्डल युवा प्रशिक्षण कार्यक्रमों में संसूचित किसी न किसी कार्य को पहले से ही कर रहे थे, अतः वे इस कार्य-पथ पर चलने वाले कोई एकाकी यात्री नहीं हैं। और इस शिविर में भाग लेकर जैसे ही वे यह देखेंगे कि एक ही लक्ष्य को प्राप्त करने वाला कार्य अन्य स्थानों में भी कुशलता पूर्वक चलाया जा रहा है, तुरन्त उनके कार्यों में भी एक मजबूती आएगी। और उन्हें महसूस होगा कि उनका कार्य कोई बहुत नगण्य या संकीर्ण क्षेत्रीय सीमा के भीतर ही आबद्ध नहीं है, बल्कि कार्यक्रम तो एक ऐसे विराट कार्यक्रम (युवा आंदोलन) का हिस्सा हैं, जिसने अपनी गतिशीलता स्वतः ही अर्जित की है। संगठनों के अतिरिक्त यदि कोई व्यक्ति निजीतौर से भी महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य को पसन्द करते हों, तो वे अपने क्षेत्र में महामण्डल की शाखा स्थापित कर सकते हैं, अथवा इसी प्रकार के किसी अन्य नाम वाले युवा संगठन को स्थापित करने के बाद उसको महामण्डल के साथ संयुक्त कर सकते हैं। ऐसा कोई व्यक्ति यदि चाहे तो, महामण्डल के किसी भी कार्यरत शाखा की सदस्यता ग्रहण कर सकता है; अथवा चाहे तो महामण्डल के केन्द्रीय समीति [महामण्डल सिटी ऑफिस ,सियालदह स्टेशन के निकट] के दैनन्दिन कार्यों में सहायता देने के लिए भी आगे आ सकते हैं।उसी प्रकार विभिन्न यूनिवर्सिटी या विद्यालयों से जुड़े छात्र और शिक्षक भी अपने निकट के किसी महामण्डल केन्द्र में अपना योगदान दे सकते हैं, अथवा अथवा चाहें तो अपने संस्थान के भीतर या बाहर अपना एक 'ग्रुप' (study circle) भी बना सकते हैं। जो आगे चलकर महामण्डल का अनुमोदित केन्द्र या approved केन्द्र के रूप में स्थापित हो सकते हैं। यदि उस ग्रुप के पुराने छात्र संस्थान से पढाई समाप्त कर उत्तीर्ण हो जाएँ, तो नये छात्र वहाँ की कार्यकारिणी समिति के सदस्य बन सकते हैं।
यह कहने की आवश्यकता नहीं, कि हमारे युवाओं के चरित्र में आत्मानुशासन (self-discipline), टीमवर्क-कौशल (team spirit) एवं सर्वोपरि श्रद्धा की भावना को तत्काल प्रविष्ट कर देना- अनिवार्य है। उन्हें पूर्ण मनुष्यत्व को प्रस्फुटित करने, अर्थात अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने में सहायक 'विवेक-जीवन ' का पथ ( 5 अभ्यास की पद्धति) से परिचित करवा देना होगा। और यह तभी सम्भव है, जब उन्हें -'यथार्थ शिक्षा' कहने से जो तात्पर्य निकलता है - वही 'मनुष्यत्व उन्मेषक और चरित्र -निर्माणकारी शिक्षा' ' -'man-making and character-building education' उन्हें प्रदान की जाय; " जिस शिक्षा का उल्लेख तैत्तरीयोपनिषद में -'शीक्षा' -दीर्घ 'ई' की मात्रा लगाकर किया गया है।" तथा जो केवल विद्यार्थियों को शरीर, मानसिक-वृत्तियों तथा हृदय-विस्तार के (3'H') सुसमन्वित विकास के प्रशिक्षण द्वारा ही सम्भव है। यदि स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में कहें, तो --"पवित्रता , धैर्य और अध्यवसाय , इन्हीं तीन गुणों से सफलता मिलती है , और सर्वोपरि है प्रेम। (3'P'--- purity, patience and perseverance are the essentials to success and above all love.) ये सारे गुण (3P-आदि 24 गुण) केवल बार-बार अभ्यास करते हुए अपने अचार-व्यवहार (conduct) के माध्यम से प्रकट करके ही अर्जित किये जा सकते हैं। क्योंकि बाह्य परिवेश और परिस्थितियों के सभी दबाओं को अस्वीकार करते हुए समस्त चारित्रिक गुणों को अपने आचरण में अभिव्यक्त करने से ही, मनुष्य पूर्णत्व (perfection) प्राप्ति की दिशा में अग्रसर हो सकता है। " character -building is possible only if, along with studies of the sciences and humanities and upkeep of the physique, and peep into the past for a glimpse of the nation's hoary heritage, the young man engages himself in some work , to be done with a sense of service and without any selfish motive ." अतएव, 'चरित्र -निर्माण' केवल तभी सम्भव है, जब कोई युवा विज्ञान, साहित्य, दर्शन, मैनेजमेन्ट, रॉकेट साइंस आदि प्रचलित विषयों को पढ़ने के साथ-साथ, भारत की प्राचीन गौरवशाली सांस्कृतिक परम्परा (श्रुति-परम्परा) का आस्वादन भी प्राप्त करे। तथा योग-व्यायाम के माध्यम से अपने शरीर को हृष्टपुष्ट रखते हुए, सभी प्रकार के स्वार्थपूर्ण इच्छाओं का त्याग करके,जनता-जनार्दन की निःस्वार्थ सेवा करने का मनोभाव रखते हुए -'Be and Make' [स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करो-शिव-ज्ञान से जीव सेवा] -के रचनात्मक आन्दोलन में अपने आप को पूर्णतः समर्पित कर देंगे , अथवा अपना कुछ न कुछ योगदान अवश्य करे। क्योंकि युवा आदर्श / नेता -स्वामी विवेकानन्द के साँचे अपने जीवन को गढ़ने और उनका सच्चा अनुयायी (चरित्रवान मनुष्य) बनने का अर्थ, केवल उनकी पूजा -अर्चना करना ही नहीं है, बल्कि अपने आसपास रहने वाले 5 -10 भाइयों को अपने साथ लेकर, उनके इस महान निर्देश, भारत -निर्माण सूत्र - 'Be and Make' को पूर्ण करने के प्रयास में जुट जाना ही उनका अनुसरण करने का एक मात्र पथ है।
" Man -making ' is never possible only through bookish learning. The youth should 'plunge heart and soul and body' into selfless work for the good of others . That is the only way to follow the motto provided by Swamiji in his pointed and forceful expression : BE AND MAKE." " মাত্র পুঁথিগত বিদ্যায় কখনও 'মানুষ গড়া ' সম্ভব নয়। যুবকদের নিঃস্বার্থ পরোপকারব্রতে 'হৃদয়, मन ও দেহ ' নিয়ে ডুবে যেতে হবে ! নিজে মানুষ হও ও অপরকে মনুষ্যত্বলাভে সহায়তা করো ---স্বামীজীর এই মহতী বাণীকে অনুসরণ করার এই একমাত্র পথ।"महामण्डल के प्रतिष्ठाता श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय (नवनी दा) कहते थे - " मात्र शास्त्रों का अध्यन करने से ही 'मनुष्य-निर्माण' करना कभी सम्भव नहीं है। युवाओं को अपना 'हृदय, मन और शरीर' लेकर ज्ञान-दान रूपी निःस्वार्थ परोपकारव्रत - 'BE AND MAKE ' में डूब जाना होगा ! 'स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्यत्व अर्जित करने में सहायता करो' --स्वामी विवेकानन्द के इस ध्येय-मंत्र और महावाक्य के अनुसरण करने का यही एकमात्र पथ है।" इसीलिए भारत में यह कहावत प्रचलित है ---"विद्या गुरु मुखी !" (केवल पुस्तकीय विद्या के बलपर ब्रह्मवेत्ता या सत्यद्रष्टा नेताओं/शिक्षकों का निर्माण करना असंभव है !) [ उनके इस कथन का तात्पर्य यह है कि मात्र गीता-उपनिषद आदि शास्त्रों का अध्यन करने से ही 'मनुष्य-निर्माण' करना कभी सम्भव नहीं है। युवाओं को [Would be Leaders को] अपना 'हृदय, मन और शरीर' लेकर ज्ञान-दान रूपी निःस्वार्थ परोपकार व्रत - 'स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्यत्व अर्जित करने में सहायता करो-- 'BE AND MAKE' - स्वामी विवेकानन्द के महान सन्देश का अनुसरण करने का यही एकमात्र पथ है। " --श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय। स्वयं ऋषि बनो और दूसरों को ऋषि बनने में सहायता करो' के यथार्थ मर्म की अनुभूति करने के प्रयास में डूब जाना होगा। और स्वयं ब्रह्मविद/de -hypnotized या जीवनमुक्त शिक्षक/नेता के गुणों को अपने जीवन से अभिव्यक्त करते हुए दूसरों को भी का गुणों को अर्जित करने में सहायता करो ! --स्वामी विवेकानन्द के इस ध्येय-मंत्र और महावाक्य के अनुसरण करने का यही एकमात्र पथ है।"]इसलिए, महामंडल का उद्देश्य - भारतीय सांस्कृतिक परम्परा (श्रुति परम्परा- विद्या गुरुमुखी) को " स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण के प्रशिक्षण-पद्धति को पुनर्स्थापित करना है, जो उनके 'मनुष्यत्व उन्मेषक और चरित्र-निर्माणकारी' आदर्शों में विशेष रूप से सन्निहित है। और महामण्डल का कार्यक्रम है इस " Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition" को विशेष रूप से युवाओं के बीच प्रसारित करना, तथा युवाशक्ति को अनुशासित तरीके से निःस्वार्थ देश-सेवा के माध्यम से राष्ट-निर्माण के लिए संघबद्ध करना; क्योंकि केवल यही एकमात्र उपाय है, जिसके परिणाम स्वरूप सुन्दरतर मनुष्यों का सुन्दरतर (बेहतर) समाज का निर्माण किया जा सकता है।
हमारे उपनिषदों में हजारों वर्ष पहले कहा गया है - " ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ -वृहदारण्यक उपनिषद। दो पंक्तियों के इस मंत्र में पूरे ब्रम्हांड का सत्य एक ऐसे दर्शन के रूप में छिपा है जिसे समझ पाना थोड़ा कठिन ज़रूर है लेकिन एक बार समझ में आ जाने पर कुछ और जानना शेष नहीं रह जाता।
" Man -making ' is never possible only through bookish learning. The youth should 'plunge heart and soul and body' into selfless work for the good of others . That is the only way to follow the motto provided by Swamiji in his pointed and forceful expression : BE AND MAKE." " মাত্র পুঁথিগত বিদ্যায় কখনও 'মানুষ গড়া ' সম্ভব নয়। যুবকদের নিঃস্বার্থ পরোপকারব্রতে 'হৃদয়, मन ও দেহ ' নিয়ে ডুবে যেতে হবে ! নিজে মানুষ হও ও অপরকে মনুষ্যত্বলাভে সহায়তা করো ---স্বামীজীর এই মহতী বাণীকে অনুসরণ করার এই একমাত্র পথ।"महामण्डल के प्रतिष्ठाता श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय (नवनी दा) कहते थे - " मात्र शास्त्रों का अध्यन करने से ही 'मनुष्य-निर्माण' करना कभी सम्भव नहीं है। युवाओं को अपना 'हृदय, मन और शरीर' लेकर ज्ञान-दान रूपी निःस्वार्थ परोपकारव्रत - 'BE AND MAKE ' में डूब जाना होगा ! 'स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्यत्व अर्जित करने में सहायता करो' --स्वामी विवेकानन्द के इस ध्येय-मंत्र और महावाक्य के अनुसरण करने का यही एकमात्र पथ है।" इसीलिए भारत में यह कहावत प्रचलित है ---"विद्या गुरु मुखी !" (केवल पुस्तकीय विद्या के बलपर ब्रह्मवेत्ता या सत्यद्रष्टा नेताओं/शिक्षकों का निर्माण करना असंभव है !) [ उनके इस कथन का तात्पर्य यह है कि मात्र गीता-उपनिषद आदि शास्त्रों का अध्यन करने से ही 'मनुष्य-निर्माण' करना कभी सम्भव नहीं है। युवाओं को [Would be Leaders को] अपना 'हृदय, मन और शरीर' लेकर ज्ञान-दान रूपी निःस्वार्थ परोपकार व्रत - 'स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्यत्व अर्जित करने में सहायता करो-- 'BE AND MAKE' - स्वामी विवेकानन्द के महान सन्देश का अनुसरण करने का यही एकमात्र पथ है। " --श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय। स्वयं ऋषि बनो और दूसरों को ऋषि बनने में सहायता करो' के यथार्थ मर्म की अनुभूति करने के प्रयास में डूब जाना होगा। और स्वयं ब्रह्मविद/de -hypnotized या जीवनमुक्त शिक्षक/नेता के गुणों को अपने जीवन से अभिव्यक्त करते हुए दूसरों को भी का गुणों को अर्जित करने में सहायता करो ! --स्वामी विवेकानन्द के इस ध्येय-मंत्र और महावाक्य के अनुसरण करने का यही एकमात्र पथ है।"]इसलिए, महामंडल का उद्देश्य - भारतीय सांस्कृतिक परम्परा (श्रुति परम्परा- विद्या गुरुमुखी) को " स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण के प्रशिक्षण-पद्धति को पुनर्स्थापित करना है, जो उनके 'मनुष्यत्व उन्मेषक और चरित्र-निर्माणकारी' आदर्शों में विशेष रूप से सन्निहित है। और महामण्डल का कार्यक्रम है इस " Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition" को विशेष रूप से युवाओं के बीच प्रसारित करना, तथा युवाशक्ति को अनुशासित तरीके से निःस्वार्थ देश-सेवा के माध्यम से राष्ट-निर्माण के लिए संघबद्ध करना; क्योंकि केवल यही एकमात्र उपाय है, जिसके परिणाम स्वरूप सुन्दरतर मनुष्यों का सुन्दरतर (बेहतर) समाज का निर्माण किया जा सकता है।
सच्चिदानन्दघन वह परब्रह्म सब प्रकार से पूर्ण है, यह (जगत) भी पूर्ण ही है क्योंकि उस पूर्ण (परब्रह्म) से ही यह पूर्ण उत्पन्न हुआ है। पूर्ण से पूर्ण को निकाल देने पर भी पूर्ण बचI रहता है। परब्रह्म की पूर्णता से ही जगत पूर्ण है। जगत में जो भी देखने सुनने में आ रहा है, वह उसी सर्वशक्तिमान, सर्वनियन्ता, सर्वज्ञ, सर्वाधिपति प्रभु से ओतप्रोत है। परंतु अविद्या के आवरण ने उसके ज्ञान को ढक रखा है। वह यह सत्य भूल गया है कि वह पूर्ण है। उसे पूर्ण होने के लिए जगत के अन्य पदार्थों या व्यक्तियों की आवश्यकता नहीं। यही विस्मरण उसे भौतिक जगत के प्रति - लोभ, मद, मोह, ममता, मात्सर्य के बंधन में जकड़ देता है।
जगत के व्यक्तियों, पदार्थों, की इच्छाओं या कामनाओं के मोह में जकड़ा जीव, भगवान के सम्मुख कैसे हो सकता है? क्या यह कभी सम्भव है, कि कोई मनुष्य अपनी परछाई को और सूर्य को एक साथ देख सके? वैराग्य अर्थात् न 'वैर' हो न 'राग' हो। वैराग्य के लिए घर-बार, पति-पत्नि किसी को भी छोड़ने की आवश्यकता नहीं है, जहाँ हैं वहीं वैराग्य ले लें। शास्त्रों में बताए गए भगवत् प्राप्ति के चार साधनों--'साधन चतुष्टय' में से एक साधन है 'वैराग्य 'जो अत्यन्त महत्वपूर्ण साधन है। भक्तिमार्ग पर भी जब भगवद् प्रेम की पराकाष्ठा हो जाती है तो संसार दीखता ही नहीं सिर्फ प्रभु रह जाते हैं-
कोई सच्चा सत्यान्वेषी व्यक्ति चाहे कितना धन- सम्पत्ति, ऐश्वर्य, अच्छे कुल-परिवार से युक्त हो, वह इन सब में आसक्त नहीं होता। परमसत्य भगवान (स्वामी जी) जब सत्य को जानने के प्रति उसकी अदम्य उतकंठा को देखते हैं, तो स्वयं बुलाते ( नहीं पकड़ लेते ?) हैं, और इन सब के प्रति घोर आसक्ति से भी छुड़ाकर ले जाते हैं। तन, मन, धन सब शुद्ध हो, तब ही भगवान अपनाते हैं।
जगत के व्यक्तियों, पदार्थों, की इच्छाओं या कामनाओं के मोह में जकड़ा जीव, भगवान के सम्मुख कैसे हो सकता है? क्या यह कभी सम्भव है, कि कोई मनुष्य अपनी परछाई को और सूर्य को एक साथ देख सके? वैराग्य अर्थात् न 'वैर' हो न 'राग' हो। वैराग्य के लिए घर-बार, पति-पत्नि किसी को भी छोड़ने की आवश्यकता नहीं है, जहाँ हैं वहीं वैराग्य ले लें। शास्त्रों में बताए गए भगवत् प्राप्ति के चार साधनों--'साधन चतुष्टय' में से एक साधन है 'वैराग्य 'जो अत्यन्त महत्वपूर्ण साधन है। भक्तिमार्ग पर भी जब भगवद् प्रेम की पराकाष्ठा हो जाती है तो संसार दीखता ही नहीं सिर्फ प्रभु रह जाते हैं-
"जा को लागे प्रेम रोग, और सूझे संसार।
ता को यूँ कर जानिए, झूठा, कपटी और मक्कार॥''
वैराग्यवान ही ज्ञान, भक्ति तथा मुक्ति का सच्चा अधिकारी होता है। चाहे जीते जी, चाहे मृत्योपरान्त- "कंकड़ चुनि-चुनि महल बनाया, लोग कहें घर मेरा। ना घर मेरा ना घर तेरा चिड़िया रैन बसेरा॥ महल बनाया किला चुनाया, खेलन को सब खेला। चलने की जब बेला आई, सब तजि चला अकेला॥ '' ये दुनियाँ ही दर्शन का मेला है परंतु इसे समझने वाले अलबेले ग्राही कहाँ मिलते हैं? कोई सच्चा सत्यान्वेषी व्यक्ति चाहे कितना धन- सम्पत्ति, ऐश्वर्य, अच्छे कुल-परिवार से युक्त हो, वह इन सब में आसक्त नहीं होता। परमसत्य भगवान (स्वामी जी) जब सत्य को जानने के प्रति उसकी अदम्य उतकंठा को देखते हैं, तो स्वयं बुलाते ( नहीं पकड़ लेते ?) हैं, और इन सब के प्रति घोर आसक्ति से भी छुड़ाकर ले जाते हैं। तन, मन, धन सब शुद्ध हो, तब ही भगवान अपनाते हैं।
"कंचन तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह।
मान, बड़ाई ईर्ष्या, दुर्लभ तजना येह॥''
यह सूक्ष्म वासनाऐं उसके ज्ञान भक्ति को दीमक की तरह चाट जाती हैं- "मोटी माया सब तजें, झीनी तजी न जाए। मान बड़ाई ईर्ष्या, सबको झीनी खाए॥'' अंत में फिर वहीं आते हैं कि मनुष्य तो पूर्ण है। उसे पूर्णता को प्राप्त करने के लिए अन्य किसी व्यक्ति, वस्तु, पदार्थ की आवश्यकता नहीं बस वह प्रार्थना करे कि हे नाथ, एक पल भी आपको ना भूलूँ।
लेकिन सच्चे से सच्चा धर्म भी,समय के प्रवाह में दूषित हो जाता है। क्योंकि धर्म के साथ अफीम (অহিফেন) के गन्ध तरह संयुक्त भावुकता या भावावेश (emotionality) कई बार हमारी बुद्धि मोहग्रस्त कर देती है,और हम अपने कर्तव्य पथ से भटक जाते हैं। क्योंकि मेरा-तेरा में बँटा ब्रांडेड धर्म समय के प्रवाह में केवलअफीम की तरह नशा ही उत्पन्न करते हैं। लेकिन धर्म ही सत्य है, अफीम (धर्म का नशा) सत्य नहीं है! जिस समय धर्म के क्षेत्र में ऐसी अवस्था होती है, उस समय धर्म को फिर से नये रूप में परिशोधित और सुसज्जित करके, उसे सम्पूर्ण मानवजाति के मन लिये ग्राह्य बनाकर, विश्व के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है। और उस मानवधर्म का प्रचार-प्रसार भी करना पड़ता है। और इसी धर्म-संस्थापन के कार्य को करने के लिए समय -समय पर अवतार, नेता या लोकशिक्षक संगठन को आविर्भूत होना ही पड़ता है।
गीता 4 /1 भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, इसी श्रुति परम्परा में " मनुष्य (ब्रह्मविद) बनो और बनाओ" की योग-पद्धति को, मैंने सृष्टि के आदिकाल में - सूर्य से कहा था, उस सूर्य ने यह योग अपने पुत्र मनु से कहा और मनुने अपने पुत्र सबसे पहले राजा बनने वाले इक्ष्वाकु से कहा-
गीता 4 /1 भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, इसी श्रुति परम्परा में " मनुष्य (ब्रह्मविद) बनो और बनाओ" की योग-पद्धति को, मैंने सृष्टि के आदिकाल में - सूर्य से कहा था, उस सूर्य ने यह योग अपने पुत्र मनु से कहा और मनुने अपने पुत्र सबसे पहले राजा बनने वाले इक्ष्वाकु से कहा-
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान् (taught) अहम् योगम् अव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह (taught), मनु इक्ष्वाकु वे अब्रवीत्।
श्रीभगवान् बोले [ महामण्डल का 'Be and Make C-in-C परम्परा' में मनुष्य बनो और बनाओ आंदोलन रूपी सच्चा] कर्मयोग जिसका उपाय है, जगत्प्रतिपालक युवाओं में बल स्थापन करने के लिये इस छोटे से महावाक्य 'Be and Make' में वेद का प्रवृत्ति-धर्मरूप और निवृत्ति-धर्मरूप (अभ्युदय और निःश्रेयस) दोनों प्रकार के धर्मों का सम्पूर्ण तात्पर्य आ जाता है। इस योगका फल अविनाशी है इसलिये यह अव्यय है क्योंकि इस योग का मोक्ष-रूप फल - (भ्रममुक्ति) कभी नष्ट नहीं होता। इसलिए 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज' से युक्त जीवनमुक्त युवा/ शिक्षक/नेता सब जगत्का पालन अनायास कर सकते हैं। अब वह जीवनमुक्त शिक्षक अकर्म की स्थिति में है, और इस शरीर में प्राप्त प्रारब्ध भोग को समाप्त कर लेने के बाद वह अपने शरीर से विदेहमुक्त हो जाता है। उसे अब नया जन्म नहीं लेना पड़ता, वह बंधन से मुक्त हो जाता है। मोक्ष को प्राप्त कर लेना -अर्थात ब्रह्म को जानकर 'ब्रह्मविद' हो जाना, और स्वयं भ्रममुक्त होकर दूसरों को भ्रममुक्त होने में सहायता करना ही 'आत्मा' के शरीर धारण करने का मुख्य उद्देश्य है, जो कि मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।4.2।।
इस प्रकार क्षत्रियों की श्रुति - परम्परा से प्राप्त हुए इस योग को सबसे पहले 'राजर्षियों' ने जाना अर्थात जो 'राजा' और 'ऋषि' दोनों थे (क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज दोनों से सम्पन्न थे ) ऐसे युवाओं ने जाना। हे परंतप ( अब ) वह योग इस मनुष्य-लोक में बहुत काल से नष्ट हो गया है। अर्थात् उसकी " Be and Make -श्रुति परम्परा" टूट गयी है। अपने विपक्षियों को पर कहते हैं, अर्थात जो इस चरित्र-निर्माण और मनुष्य निर्माण आंदोलन का मजाक उड़ाते हों, उन्हें जो शौर्यरूप तेज की किरणों के द्वारा सूर्य के समान तपाता है, वह परन्तप है यानी शत्रुओं को तपानेवाला कहा जाता है।
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।4.3।।
महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों का पालन नहीं करने के परिणाम स्वरुप अजितेन्द्रिय और दुर्बल मनुष्यों (टीवी पर प्रवचन देने वाले ढोंगी बाबाओं) के हाथ में पड़कर यह योग प्रायः नष्ट हो गया है। यह देखकर और साथ ही सामान्य गृहस्थ लोगों को पुरुषार्थ- रहित हुए देख कर (अर्थात जो निवृत्ति धर्म की पात्रता नहीं रखते, किन्तु संन्यासी का वेश धारण कर लेते हैं) उन्हें प्रवृतिधर्म से होकर निवृत्ति में जाने की प्रेरणा देने हेतु, मैंने वही पुराना योग तुझसे अभी, यह सोचकर कहा है, क्योंकि तू मेरा भक्त और मित्र है। क्योंकि यह ज्ञानरूप योग बड़ा ही उत्तम रहस्य है।
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।4.4
अर्जुन बोले आपका जन्म तो अभी का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है अतः आपने ही सृष्टिके आदि में सूर्य से यह योग कहा था यह बात मैं कैसे समझूँ ? भगवान् ने कोई असङ्गत बात कह दी हो, ऐसी धारणा किसी की न हो जाय, अतः उसको दूर करने के लिए शङ्का करता हुआ सा अर्जुन बोला आपका जन्म तो अर्वाचीन है। अर्थात् अभी वसुदेव के घर में हुआ है, और सूर्य की उत्पत्ति तो पहले सृष्टि के आदि में हुई थी। तब मैं इस बात को सुसङ्गत कैसे समझूँ कि जिन आपने इस योग को आदिकाल में सूर्य से कहा था वही आप मुझसे कह रहे हैं।
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।4.5।।
श्रीभगवान् तब बोले- हे परन्तप अर्जुन मेरे (निवृत्ति मार्ग के ऋषि स्वामी विवेकानन्द) और तेरे ( प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि 'कैप्टन सेवियर के " Be and Make -श्रुति परम्परा" के प्रतिष्ठाता "C-in-C श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय" के रूप में) बहुत से जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ पर तू नहीं जानता। ।।4.6।। यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप हूँ और भूतमात्र का ईश्वर हूँ (तथापि) अपनी प्रकृति को अपने अधीन रखकर (अधिष्ठाय) मैं अपनी माया से जन्म लेता हूँ।।
गीता 4/7 के सुप्रसिद्ध श्लोक ---
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।
का भाष्य करते हुए आदिशंकराचार्य ने कहा है - " यदा यदा हि 'वर्णाश्रम आदि लक्षणस्य प्राणिनां अभ्युदय-निःश्रेयस साधनस्य धर्मस्य' ग्लानिः हानिः भवति भारत, अभ्युत्थानम् उद्भवः अधर्मस्य तदा तदा आत्मानं सृजामि अहं मायया।
- अर्थात हे भारत (भरत-वंशी अर्जुन), वर्णाश्रम धर्म (पुरुषार्थ) आदि जिसके लक्षण हैं एवं --प्राणियों की लौकिक उन्नति तथा 'निःश्रेयस' --परम कल्याण का जो साधन है; उस धर्म की जब जब हानि होती है और अधर्म का अभ्युत्थान अर्थात् उन्नति होती है तब तब ही मैं माया से अपने स्वरूप को रचता हूँ।
[इसीलिए पूज्य दादा कहते थे कि यदि एक लाख व्यक्ति में से एक व्यक्ति भी ' धर्म ' धर्म को सही ढंग से परिभाषित कर सकता हो -तो मैं बहुत समझूँगा। क्योंकि स्वयं अवतार बने बिना धर्म-संस्थापन का कार्य नहीं हो सकता, इसीलिए उन्होंने हजारों बार पूछा था -'बताओ धर्म क्या है ?']
स्वामी विवेकानन्द ने एक बार ऐसा कहा था, कि "श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ ही साथ, सत्ययुग का प्रारंभ हो गया है।" उनके इस कथन का तात्पर्य क्या है ? सत्ययुग का प्रारम्भ कहने से हमलोगों को क्या समझना चाहिये? क्या यही कि - श्रीरामकृष्ण आये, और जितनी भी अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अपवित्रता मैलापन आदि भाव समाज में थे, वे सभी समाप्त हो गये-सब कुछ सुन्दर हो गया और मनुष्य सत्य के पुजारी बन गये ! हमारे शास्त्रों (ऐतरेय ब्राह्मण) में कहा गया है कि युगपरिवर्तन मनुष्यों के विचार-जगत में होता है --
और इस प्रकार प्रशिक्षित शिक्षकों/नेताओं का निर्माण करने वाले महामण्डल द्वारा संचालित मनुष्य-निर्मयकारी आंदोलन का लक्ष्य, या महामण्डल की सर्वतोकृष्ट समाज सेवा का उद्देश्य है -- 'स्वयं जग कर दूसरों को जगाना !' किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि --- पहले मैं अपने भीतर सोये हुए ब्रह्मरूपी सिंह को जगा लूँगा, तभी दूसरों से उसे जगाने का प्रयास करने के लिए अनुरोध करूँगा। यह सेवाकार्य 'Be and Make' साथ-साथ (simultaneously-एक ही समय में) चलने वाला कार्य है।
यही है महामण्डल द्वारा संचालित 'एक नया युवा आन्दोलन' की पृष्ठभूमि--- समाज की वस्तु-स्थिति के गहन चिन्तन से उपजा एक ऐसा स्पष्ट मानसिक प्रतिफलन--- जिसने समस्यायों की विशालता की तुलना में संसाधन की अपर्याप्तता रहने के बावजूद, इस कर्मयोग के प्रवर्तकों (Promoters) को, पीढ़ी -दर -पीढ़ी स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्देशित 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' के प्रचार-प्रसार में विगत 52 वर्षों से नियोजित किये रखा है।
" श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ ही साथ सत्ययुग का प्रारंभ हो गया है " - कहने से स्वामीजी यही बताना चाहते हैं कि, चिरनिद्रा में सोये हुये हमारे देश ने चलना ( ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने की दिशा में आगे बढ़ना या उन्नत मनुष्य बनना शुरू कर दिया है ! उनके इस कथन पर हमलोगों को गहराई से चिन्तन करते हुए इसके मर्म को समझने की चेष्टा करनी चाहिये। और यह विश्वास भी करना चाहिये कि हाँ, महामण्डल के आविर्भूत होने के बाद, अब हमलोग जैसे साधारण गृहस्थ भी सचमुच (प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौटने के साथ -साथ अन्तर्निहित दिव्यता को, पूर्णत्व को अभिव्यक्त करने के पथ पर) आगे बढ़ रहे हैं।
21.
"श्रीरामकृष्ण के आविर्भाव से सत्ययुग का प्रारंभ "
(अंधकार युग-dark age) इतिहास में मध्यकाल सामान्यतः प्राचीन काल और आधुनिक काल के बीच के दौर को इंगित करता है। आधुनिक युग का पूर्ववर्ती और प्राचीन काल के बाद का समय। त्रेता, द्वापर व कलि का प्रयोग क्रमशः कम अच्छे और अधिक बुरे अर्थों में हुआ है। धार्मिक मनोवृत्ति की प्रबलता और क्षीणता ही इस प्रकार के युग विभाजन के विश्वास का आधार बनती गई है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि कृतयुग या सत्य युग में धर्म की पूर्ण स्थिति थी। त्रेता में तीन चैथाई रह गई और द्वापर में आधी। कलिकाल में धर्म का प्रभाव और भी क्षीण हुआ और वह एक ही चरण पर खड़ा रह गया। 7 कलियुग के बाद फिर कृत, त्रेता, द्वापर और अंत में कलि काल आएगा। यह चक्र अनादिकाल से चला आ रहा है और अनंत काल तक चलता जाएगा। काल की यह गति चक्रीय है, जो सनातनवादी चिंतन को प्रस्तावित करता है।स्वामी विवेकानन्द ने एक बार ऐसा कहा था, कि "श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ ही साथ, सत्ययुग का प्रारंभ हो गया है।" उनके इस कथन का तात्पर्य क्या है ? सत्ययुग का प्रारम्भ कहने से हमलोगों को क्या समझना चाहिये? क्या यही कि - श्रीरामकृष्ण आये, और जितनी भी अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अपवित्रता मैलापन आदि भाव समाज में थे, वे सभी समाप्त हो गये-सब कुछ सुन्दर हो गया और मनुष्य सत्य के पुजारी बन गये ! हमारे शास्त्रों (ऐतरेय ब्राह्मण) में कहा गया है कि युगपरिवर्तन मनुष्यों के विचार-जगत में होता है --
- कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः।
उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् । चरैवेति चरैवेति॥
-सोये रहने का नाम है कलिकाल में रहना, जब नींद टूट गयी तो द्वापर में रहना कहेंगे, जब उठ कर खड़े हो गये तब जीवन में त्रेता युग चलने लगता है; फिर जब चलना शुरू कर दिये, तब उसे सत्ययुग में रहना कहते हैं। इसलिये सत्ययुग का लक्ष्ण है, पूर्णत्व-प्राप्ति की दिशा में निरन्तर आगे बढ़ते रहना -"चरैवेति चरैवेति।" श्रीरामकृष्णदेव के आविर्भूत होने से पहले मनुष्य गहरी सुषुप्ति में था, अज्ञान-रूपी घोर निद्रा के अँधेरे में मानो वह बेजान मुर्दे के जैसा सोया पड़ा था। तभी श्रीरामकृष्ण का आगमन होता है, और नये युग के लिये उपयुक्त पद्धति से मनुष्य के आत्मस्वरूप की महिमा को पुनः स्थापित करने का संघर्ष शुरू हो जाता है। मनुष्य एक बार फिर से अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाने का संकल्प लेकर उपरोक्त 'श्रुति' के अनुसार चलना प्रारंभ कर देता है- और इस प्रकार उसके जीवन में सत्ययुग का प्रारंभ हो जाता है। ऐसा कहा जाता है कि स्वामीजी ने स्वयं उपरोक्त 'श्रुति' (ऐतरेय ब्राह्मण) के उपदेश को अपने जीवन में प्रयोग करके देखा था कि त्रेता, द्वापर और कलि इत्यादि युगों की उपमा का प्रयोग, वहाँ पर व्यक्ति की मानसिक अवस्था को (सत्य युग की अपेक्षा) क्रमशः कम अच्छे और अधिक बुरे अवस्था का निर्धारण करने के उद्देश्य से ही हुआ है।
आधुनिक युग में भारत की प्राचीन शिक्षा-प्रणाली (श्रुति-परम्परा) के पुनर्संस्थापक (Restorer) अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव को माँ काली से भावमुख अवस्था (साम्यभाव) में रहने का चपरास प्राप्त हुआ था। अतः श्री रामकृष्णदेव को युग-परिवर्तन के प्रथम युवा नेता ज्ञानप्राचारक (Torch -bearer of change या असाधारण शिक्षक) कहा जा सकता है; जिन्होंने " Be and make Vedanta Leadership training tradition" में प्रशिक्षित अपने शिष्य - नरेन्द्रनाथ (भावी नेता स्वामी विवेकानन्द ) को युग-परिवर्तन (अर्थात पशु को मनुष्य में और मनुष्य को देवता में परिवर्तित होने की शिक्षा देने) के ज्ञानप्राचारक 'Torch -bearer of change' नेता बनने और बनाने का- लिखित चपरास देते हुए कहा था - 'नरेन शिक्षा देगा!' इसी अवस्था को प्राप्त होकर (अपने तुच्छ व्यष्टि अहं को विष्णु तुल्य नेता के सर्वव्यापी विराट अहं में परिवर्तित करने के बाद) " Swami Vivekananda -Captain Sevier Be and Make Leadership Training tradition " में प्रशिक्षित महामण्डल के "C-in-C" नेतावरिष्ठ नवनी दा कहते थे -महामण्डल के सभी 'trainees' प्रशिक्षुओं को, श्रीरामकृष्ण देव को अपने पिता के रूप में , श्री माँ सारदा देवी को अपनी माँ के रूप में, तथा स्वामी विवेकानन्द को अपने बड़े भाई की दृष्टि से देखना चाहिए। इस प्रकार लोग भी ईश्वर (माँ काली) के साथ अपने संबंधों में प्रबुद्ध हो जाते हैं (we become enlightened in our relationship with God.) “प्रबुद्ध नागरिकों का निर्माण कारखाने में नहीं किया जा सकता - यह केवल शिक्षक-प्रशिक्षण के माध्यम से ही सम्भव है। " यूं तो गुरु से ज्यादा महत्वपूर्ण शिष्य है। शिष्य से ही गुरु की महत्ता है। यदि कोई शिष्य उस गुरु से सीखने को तैयार नहीं है तो वह गुरु नहीं हो सकता। गुरुत्व शिष्यत्व पर निर्भर है। कोई बच्चा (बिले या नरेन्द्र नाथ) बड़ा हो कर, राजधानी के सबसे अच्छे अस्पताल में एक शीर्ष डॉक्टर (स्वामी विवेकानन्द) बन सकता है, लेकिन हम उस व्यक्ति को (श्रीरामकृष्णदेव को) भूल जाते हैं, जिसने उसे अच्छा डॉक्टर बनने के लिए उसे अनुप्रेरित किया था (जिसने 'नरेन्' को शिक्षा देगा की चपरास दिया था)। एक प्रशिक्षित और जीवनमुक्त शिक्षक ही भावी शिक्षकों को 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण दे सकता है। अतः उस महापुरुष को जो शिष्य को (Would be Leaders को) असत्य से सत्य की ओर, अज्ञानरूपी अन्धकार से ज्ञान रूपी प्रकाश के पथ पर चलने का मार्गदर्शन करने में समर्थ होते हैं; उनके लिए 'Teacher' के बजाये बजाय गुरु या परिवर्तन के मशाल वाहक ' torchbearer of change' (Leader of the mankind) शब्द का प्रयोग करना अधिक उपयुक्त है। वह व्यक्ति जो मनुष्य की अज्ञानता को (fundamental mistake -मौलिक भूल, शरीर के साथ शरीरी के तादाम्य को) दूर करने की पद्धति का प्रशिक्षण देने में समर्थ होता है, वही मानवजाति का मार्गदर्शक नेता है। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि आधुनिक युग में मनःसंयोग पद्धति के प्रतिष्ठाता नवनीदा ही महामण्डल आन्दोलन (युवा प्रशिक्षण शिविर के माध्यम से युगपरिवर्तन) के प्रथम मशाल-वाहक नेता (torchbearer of change धर्मप्रचारक) ज्ञानप्राचारक या 'C-in-C' हैं ।
अधिकांश मनुष्यों का एक अस्तित्व- 'शरीर' मन-बुद्धि-इन्द्रिय संयुक्त संरचना (Body Mind complex) जड़ होने के कारण अपने दूसरे अस्तित्व 'शरीरी' या यथार्थ स्वरूप के प्रति अचेत ही रहता है, या सोया हुआ रहता है, और तब तक उनके जीवन में कलिकाल ही चल रहा होता है। " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " अथवा 'Be and Make' लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन ' में प्रशिक्षित मार्गदर्शक नेतावरिष्ठ C-in-C "नवनीदा" के निर्देशन में अपने दोनों अस्तित्व (नश्वर और अविनाशी) को विकसित करने या 3H (Hand-Head-Heart) विकास के 5 अभ्यास करने वाले साधक के आन्तरिक जीवन में जो परिवर्तन आता है, उसके संदर्भ में ही चार युगों की उपमा दी गई है। --" सभी युवाओं में सोये हुए " ब्रह्मरूपी सिंह" को जाग्रत करने के लिए ही महामण्डल के जीवन्मुक्त नेताओं (शिक्षकों) का जन्म हुआ है। महामण्डल से प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद भी महामण्डल के जो नेता/शिक्षक/ कर्मी लोग इस उच्च आदर्श को भूल जाते हैं -वृथैव तस्य जीवनं। दादा ने फर्स्ट बिहार स्टेट लेवल कैम्प (1988) में ही कहा था -उत्तिष्ठत, जाग्रत , प्राप्य वरान्निबोधत' के अर्थ को समझने के लिए उठो, स्वयं जागो ! और स्वयं जागकर दूसरों को जगाओ ! - तथा इस मनुष्यजन्म सार्थक करके चले जाओ। " इस रहस्य को जानो कि नश्वर शरीर में अवतीर्ण अविनाशी शरीरी' के प्रति श्रद्धा और जड़-चेतन विवेक (Reverence for the incarnated atma in body and conscious -unconscious /living and nonliving ) समझने के बाद स्वयं जागकर दूसरों को जगाने के प्रयास में अपने जीवन को न्योछावर कर देने से ही मनुष्य-जन्म सार्थक होता है !और इस प्रकार प्रशिक्षित शिक्षकों/नेताओं का निर्माण करने वाले महामण्डल द्वारा संचालित मनुष्य-निर्मयकारी आंदोलन का लक्ष्य, या महामण्डल की सर्वतोकृष्ट समाज सेवा का उद्देश्य है -- 'स्वयं जग कर दूसरों को जगाना !' किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि --- पहले मैं अपने भीतर सोये हुए ब्रह्मरूपी सिंह को जगा लूँगा, तभी दूसरों से उसे जगाने का प्रयास करने के लिए अनुरोध करूँगा। यह सेवाकार्य 'Be and Make' साथ-साथ (simultaneously-एक ही समय में) चलने वाला कार्य है।
यही है महामण्डल द्वारा संचालित 'एक नया युवा आन्दोलन' की पृष्ठभूमि--- समाज की वस्तु-स्थिति के गहन चिन्तन से उपजा एक ऐसा स्पष्ट मानसिक प्रतिफलन--- जिसने समस्यायों की विशालता की तुलना में संसाधन की अपर्याप्तता रहने के बावजूद, इस कर्मयोग के प्रवर्तकों (Promoters) को, पीढ़ी -दर -पीढ़ी स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्देशित 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' के प्रचार-प्रसार में विगत 52 वर्षों से नियोजित किये रखा है।
[👉1.उठो, जागो और जब तक [विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित या " Be and Make- Leadership training tradition" में प्रशिक्षित 100 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज' से सम्पन्न जीवनमुक्त (de-hypnotized) शिक्षकों के निर्माण का लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाये रुको मत!
"श्रीरामकृष्ण के आगमन के साथ ही साथ एक मनुष्य के साथ दूसरे मनुष्य में -शिक्षित-अशिक्षित, ब्राह्मण-चाण्डाल, अमीर-गरीब, ऊँच -नीच, जाती,भाषा, संप्रदाय, यहाँ तक स्त्री-पुरुष के बीच समस्त प्रकार के भेद-भाव करना, या अन्तर देखना समाप्त हो गया है। उन्होंने अपने जीवन से यह दिखा दिया है, कि ईश्वरीय-प्रेम पर सभी मनुष्यों का एकसमान अधिकार है, तथा तुरीय अवस्था में पहुंचकर परम् -सत्य की अनुभूति करने की सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में पूर्ण मात्रा में विद्यमान है। इसलिये हिन्दू, मुसलमान, ईसाई - सबों के बीच हर प्रकार का अन्तर समाप्त हो गया है। सम्प्रदाय के आधार पर विभेद-जनित आशान्ति का अवसान हो गया है।"
जब स्वामीजी यह भविष्य-वाणी कर रहे थे कि " श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ ही साथ सत्ययुग का प्रारंभ हो गया है ! " उस समय उनकी समग्र दृष्टि ठाकुर (श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव) के जीवन के भीतर इस प्रकार जुड़ी हुई थी, कि वे अपनी आँखों के सामने साक्षात् इन्हीं दृश्यों को रूपायित होते देख रहे थे। ठाकुर के जीवन और संदेशों को (महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 अभ्यासों को) ठीक से समझकर अनुसरण करने वाले मनुष्यों के जीवन में आगे जो परिवर्तन अवश्यम्भावी रूप से घटित होने वाला है, उसी को वे इस प्रकार देख रहे थे मानो " घटना घट चुकी है! " इसके अतिरिक्त उनकी ऋषि दृष्टि के सामने भविष्य भी यदि वर्तमान जैसा स्पष्ट रूप में दिखाई देता हो, तो इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है। क्योंकि स्वामीजी के मतानुसार श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव का जीवन हर दृष्टि से इतना परिपूर्ण और उत्कृष्ट था कि उनके पूर्णता-सम्पन्न चरित्र के सामने श्रीकृष्ण और श्रीरामचन्द्र के चरित्र भी फीके पड़ जाते हैं ! इसीलिये उनकी यह भविष्य-वाणी आज के दिन के नये उभरते हुए भारत की सम्भावना की ओर इशारा करती है।
स्वामीजी ने (एतेरेय ब्राह्मण की) श्रुति- 'चरैवेति चरैवेति ' का प्रयोग अपने जीवन पर करके इस बात को निश्चित रूप से जान लिया था, कि हमलोग यदि हमलोग 'श्रीरामकृष्णदेव' के जीवन को अपने जीवन का ध्रुवतारा बनाकर उनका यथार्थ अनुसरण करेंगे, तो हमलोगों के जीवन का आमूल परिवर्तन अवश्यम्भावी रूप से घटित हो जायेगा। अपनी दृष्टि की विभिन्नता के कारण हमलोग श्रीरामकृष्णदेव को चाहे जिस-भाव से भी क्यों न देखें, उनके जीवन और संदेशों का प्रभाव हमलोगों के जीवन पर पड़ना निश्चित है। श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव को हमलोग चाहे केवल एक साधारण मनुष्य समझें, नरेन्द्रनाथ के गुरु या कोई महापुरुष समझें, या उनको अवतार समझें, [या 'नवनी दा' को (C-in-C) समझें, नेता-वरिष्ठ या भगवान जैसा जीवनमुक्त टीचर समझें -जो भी जो कुछ समझें,] हमारे हृदय में " श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित शिक्षकों के प्रति श्रद्धा स्वतः उत्सारित होने को बाध्य है।
एवं इसी श्रद्धा-बल की दृढ़ता (perseverance) हमलोगों के जीवन के मोड़ को घुमा देगी,(उत्तरायण बना देगी, अधोमुखी प्रवाह को उर्ध्व-मुखी ) और हमलोगों को 'मनुष्य' बनाकर ही छोड़ेगी। श्रीरामकृष्ण को हमलोग अपना मुक्तिदाता,उद्धारक,रक्षक (Savior) या परित्राता मानें, या उनको अपना गुरु समझें, या एक अनुकरणीय आदर्श व्यक्ति के रूप में ही क्यों न देखें, हर दृष्टि से वे (श्रीरामकृष्ण) सनातन धर्म के अनन्य सिद्धान्त, विश्व के समस्त मनुष्यों के समस्त सदगुणों के अकृतिम समन्वय 'अनेकता में एकता ' -के धारक, वाहक और संस्थापक हैं।
23 जून 1894 मैसूर के महाराज को लिखित पत्र में स्वामी जी कहते हैं - " यह जीवन क्षणस्थायी है ,संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ जीवित हैं, जो दूसरों के लिए जीवन धारण करते हैं। शेष लोग तो मृत से भी अधम हैं। "३ /३७१ (the vanities of the world are transient, but they alone live who live for others, the rest are more dead than alive.)'कर्म और उसके रहस्य' पर प्रकाश डालते हुए स्वामी जी कहते हैं ---" आओ, हम अपने साधनों को पूर्ण बना लें, फिर साध्य अपनी चिंता स्वयं कर लेगा। क्योंकि दुनिया पवित्र और अच्छी तभी हो सकती है, जब हम स्वयं पवित्र और अच्छे हों। वह है कार्य और हम हैं उसके कारण। इसलिए आओ हम अपने को पवित्र बना लें ! आओ, हम अपने को पूर्ण बना लें! "(कर्म और उसका रहस्य ९/१८२)(Let us perfect the means; the end will take care of itself. For the world can be good and pure, only if our lives are good and pure. Therefore, let us purify ourselves. Let us make ourselves perfect.) और इस पूर्णत्व (ब्रह्मत्व) की प्राप्ति तभी सम्भव है जब हम भारत के राष्ट्रीय आदर्श --"त्याग और सेवा " में निहित मर्म को समझकर तदानुसार कार्य करने में समर्थ हो जाएँ।[अर्थात गृहस्थों के लिए प्रवृत्ति धर्म के अनुसार 'निसिद्ध कर्मों का त्याग' तथा " मनुष्य बनो और बनाओ वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक का निर्माण करने का कार्य करने में समर्थ हो जाएँ।] तत्पश्चात भारत के 'would be leaders' ---भावी जीवनमुक्त शिक्षकों को द्वैत-मनोभाव--" Holier-than-thou." “Which say, Stand by thyself, come not near to me; for I am Holier-than-thou.” या ' दिखावटी तौर पर नैतिक' या ढोंगी शिक्षक/नेता बनने से बचने की चेतावनी देते हुए कहते हैं - " कभी भी यह मत सोचो कि 'तुम ' जगत को अच्छा और सुखी बना सकते हो। " (देववाणी 6 अगस्त 1895/ Never think, you can make the world better and happier.) " मनुष्य की सहायता द्वारा ईश्वर की उपासना करना ---क्या यह हमारे लिए परम सौभाग्य की बात नहीं है? हमें यह बात सदैव ध्यान में रखना चाहिये कि हमीं संसार के ऋणी है, संसार हमारा ऋणी नहीं। यह तो हमारा सौभाग्य है कि हमें संसार में साक्षात् जनता-जनार्दन की कुछ सेवा करने का अवसर मिलता है ! क्योंकि एकमात्र इसी मार्ग (त्याग और सेवा के मार्ग) से हम पूर्णता प्राप्ति की ओर अग्रसर हो सकते हैं। ... यह संसार तो चरित्र -गठन के लिए एक विशाल नैतिक व्यायामशाला (moral gymnasium) है। इसमें हम सभी को अभ्यास रूप कसरत करनी पड़ती है, जिससे हम आध्यात्मिक शक्ति से अधिकाधिक शक्तिमान बनते रहें। सबसे पहले मनुष्य यह जानले कि आसक्तिरहित होकर उसे किस प्रकार कर्म करना चाहिए, तभी वह दुराग्रह और मतान्धता से परे हो सकता है। जब हमें यह ज्ञात हो जायेगा कि 'संसार कुत्ते की टेढ़ी दुम की तरह है, और कभी भी सीधा नहीं हो सकता', तब हम दुराग्रही नहीं होंगे। " [हम स्वयं अपना उपकार करते हैं, संसार का नहीं/3 -54]
हमलोग सत्ययुग के आदर्श राष्ट्र के रूप में 'राम-राज्य' की कल्पना करते हैं। हम आशा करते है कि सम्पूर्ण विश्व में एक जाति -'मनुष्य' (ब्रह्मविद बनने की सम्भावना) का निवास होगा, एक प्राण, एक बोध की प्रतिष्ठा होगी - अर्थात सभी लोग यह स्वीकार करने लगेंगे कि - 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !' या 'Each soul is potentially divine !' फिर चारो ओर शान्ति छा जाएगी, चाहे कोई किसी धर्म-पंथ का अनुसरण क्यों न करता हो, सभी मनुष्य सभ्य- सुसंस्कृत बन जायेंगे-और विश्व के सभी धर्मों में स्थायी रूप से समन्वय स्थापित हो जायेगा।
स्वामीजी ने कहा था, ब्राह्मण-युग का ज्ञान, क्षत्रिय-युग की सभ्यता और संस्कृति, वैश्य युग का विस्तार या ज्ञान के प्रचार-प्रसार करने की उद्द्य्म एवं शक्ति, एवं शूद्रों का साम्यभाव -केवल इस प्रकार का समन्वय स्थापित करने से ही उस सतयुग के आदर्श राष्ट्र को गठित किया जा सकता है।"
जो सत्ययुग के आदर्श-राष्ट्र की परिकल्पना है, वह तभी यथार्थ में बदल सकता है, जब श्रीरामकृष्ण के अनुयायी उनका अनुसरण यथार्थ रूप में करें। और केवल तभी भारतवर्ष तथा सम्पूर्ण विश्व को पुरुज्जिवित किया जा सकेगा। स्वामीजी युवाओं का आह्वान करते हुए कहते हैं-" हे मेरे युवक बन्धुगण ! तुमलोग उठ खड़े हो ! काम में लग जाओ! धर्म एक बार पुनः जाग्रत होगा।"
"अब तुमलोगों का काम है प्रान्त प्रान्त में, गाँव गाँव में में जाकर देश के लोगों को समझा देना होगा कि अब आलस्य के साथ बैठे रहने से काम नहीं चलेगा। शिक्षा-विहीन, धर्म-विहीन वर्तमान अवनति की बात उन्हें समझकर कहो-'भाई, अब उठो, जागो, मनुष्य बनने और बनाने के काम में लग जाओ !और कितने दिन सोओगे? और शास्त्र के महान सत्यों को सरल करके उन्हें जाकर समझा दो। इतने दिन इस देश का ब्राह्मण धर्म पर एकाधिकार किये बैठा था। काल स्रोत में वह जब और अधिक टिक नहीं सका, तो तुम अब जाकर उन्हें समझा दो कि ब्राह्मणों की भांति उनका भी धर्म में समान अधिकार है। चाण्डाल तक को इस अग्निमन्त्र में दीक्षित करो।" यहाँ धर्म का अर्थ है-वैदिक धर्म, जिसके अनुसार सभी जीव एक के ही बहुरूप हैं ! जिसका मूल मन्त्र है- "सर्वं खल्विदं ब्रह्म", "तत्वमसि"
"अब तुमलोगों का काम है प्रान्त प्रान्त में, गाँव गाँव में में जाकर देश के लोगों को समझा देना होगा कि अब आलस्य के साथ बैठे रहने से काम नहीं चलेगा। शिक्षा-विहीन, धर्म-विहीन वर्तमान अवनति की बात उन्हें समझकर कहो-'भाई, अब उठो, जागो, मनुष्य बनने और बनाने के काम में लग जाओ !और कितने दिन सोओगे? और शास्त्र के महान सत्यों को सरल करके उन्हें जाकर समझा दो। इतने दिन इस देश का ब्राह्मण धर्म पर एकाधिकार किये बैठा था। काल स्रोत में वह जब और अधिक टिक नहीं सका, तो तुम अब जाकर उन्हें समझा दो कि ब्राह्मणों की भांति उनका भी धर्म में समान अधिकार है। चाण्डाल तक को इस अग्निमन्त्र में दीक्षित करो।" यहाँ धर्म का अर्थ है-वैदिक धर्म, जिसके अनुसार सभी जीव एक के ही बहुरूप हैं ! जिसका मूल मन्त्र है- "सर्वं खल्विदं ब्रह्म", "तत्वमसि"
"समस्त सृष्टि नामरूपात्मक है; जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में विलीन होकर समुद्र हो जातीं और अपनी सत्ता को नहीं जानतीं, इस तथा अन्य दृष्टांतों से उद्दालक ने श्वेतकेतु को समझा दिया है कि सृष्टि के समस्त जीव आत्म-स्वरूप को भूले हुए हैं, वस्तुत: उनमें जो आत्मा है वह ब्रह्म ही है, और इस सिद्धांत को इस उपनिषद् के महावाक्य "तत्वमसि" में वाग्बद्ध किया है। (छांदोग्य उपनिषद् 6-8-16)" उपनिषदों के इसी ज्ञान को अपना संबल बनाकर भारतमाता को पुनः उसके गौरवशाली सिंहासन पर प्रतिष्ठित कराने के लिये अपने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था- " और फिर एक नवीन भारत निकल पड़े। निकले हल पकड़ कर, किसानों की कुटी भेदकर, जाली, माली, मोची, मेहतरों की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से. निकले झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।" अर्थात नया भारतवर्ष प्राचीन धर्म के सार को आत्मस्थ करके समाज के उपेक्षित समझे जाने वाले,आम लोगों के बीच से उभर कर सामने आये । ऐसा हो जाने से क्या होगा ? यह होगा कि सभी मनुष्यों को केवल मनुष्य होने के लिये ही सम्मान दिया जायेगा, सभी जाती-धर्म-भाषा के मनुष्यों के साथ, उनको बिल्कुल अपना समझकर, हर किसी से प्रेम करना संभव हो जायेगा।
किन्तु जो तथाकथित ऊँची जाति का घमण्ड करने वाले 'पुरोहित-पण्डे ' अब भी निजी स्वार्थवश इस ज्ञान को जन जन के द्वारा तक ले जाने में बाधा खड़ी करते हैं, उनको बड़े भाई के जैसा झिड़की भरा परामर्श देते हैं- " अपने आर्य पूर्वजों के नाम पर डींगे हाँकने वालों, तुम चाहे प्राचीन भारतीय संस्कृति का गौरव दिनरात करते रहो, तुमलोग चाहे 'डमडम' बोलकर कितनी डंफई करते रहो, तुम ऊँची जातवालों क्या तुम जीवित हो ? तुम लोग तो दस हजार साल पुराने ममी जैसे बन चुके हो! ... भूतकालीन भारत के वर्तमान भारत-शरीर के रक्त-मांस रहित (ओज -तेज रहित) कंकाल-समुहों, तुम लोग जल्दी से जल्दी धूलि में परिणत हो वायु में क्यों नहीं मिल जाते ? हूँ ...तुम लोगों के पास पूर्वकाल की बहुत सी रत्नपेटिकाएँ आज भी सुरक्षित हैं, तुम लोगों की अस्थिमय अँगुलियों में पूर्वपुरुषों की संचित कुछ अमूल्य रत्न जड़ित अंगूठियाँ हैं।
[ मनीषा-पंचक और दृग-दृश्य विवेक जैसे वेदान्त प्रकरण ग्रन्थ और उसके व्याख्याता -नवनीदा, स्वामी सर्वप्रियानन्द आदि] इतने दिनों तक उन्हें दे देने की सुविधा नहीं मिली। [ इतने दिनों तक साधारण गृहस्थ युवाओं के सामने " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षक (C-in-C नवनीदा) की जागरण वाणी - 'ब्रह्मविद मनुष्य बनो और बनाओ' परम्परा की फतेह! का प्रचार-प्रसार करने वाला कोई युवा संगठन 1967 के पहले नहीं था।] अब अबाध रूप से ब्रह्म-विद्या पर चर्चा करने के दिनों में (पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी के दिनों में), उन्हें अर्थात " Be and Make Vedanta C-in-C Leadership Training Tradition" को उत्तराधिकारियों को दो, जितना शीघ्र दे सको, दे दो। और तुम लोग शून्य में विलीन हो जाओ, --" और फिर एक नया भारत निकल पड़े। निकले हल पकड़ कर, किसानों की कुटिया को भेदकर, जाली, माली, मोची , मेहतरों की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से , हाट से , बाजार से। निकले झाड़खण्ड के झाड़ियों , जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से। इन लोगों ने हजारों वर्षों तक नीरव अत्याचार सहन किया है, ----उससे पायी है अपूर्व सहिष्णुता। सनातन दुःख उठाया है, जिससे पायी है अटल जीवनी शक्ति। ये लोग एक मुट्ठी सत्तू खाकर दुनिया को उलट सकते हैं ! (এরা এক মুঠো ছাতু খেয়ে দুনিয়া উলটে দিতে পারবে) आधी रोटी खाने को मिल जाये, तो तीनों लोकों में इनका तेज न अटेगा ! ये रक्तबीज के प्राणों से युक्त हैं। और पाया है ऐसा सदाचार- बल, जो तीनों लोकों में नहीं है। इतनी शान्ति, इतनी प्रीति, इतना प्यार, बेजबान रहकर दिन-रात इतना खटना और काम के वक्त सिंह का विक्रम !! (.... पर इनके विषय में कौन सोचता है ?) अतीत के कंकाल-समूहों ! - देखो तुम्हारा उत्तराधिकारी भविष्य का भारत, तुम्हारे समक्ष खड़ा है। तुमलोगों के पास पूर्व काल की बहुत सी रत्न पेटिकाएँ सुरक्षित हैं, तुम्हारी अस्थिमय अँगुलियों में पूर्वपुरुषों की संचित कुछ अमूल्य रत्न जड़ित अंगूठियाँ हैं, इतने दिनों तक उन्हें दे देने की सुविधा नहीं मिली. अब अबाध विद्या-चर्चा के दिनों में (पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी के दिनों में), उन्हें उत्तराधिकारियों को दो, जितने शीघ्र दे सको, दे दो। फेंक दो इनके बीच; जितना शीघ्र फेंक सको, फेंक दो; और तुम हवा में विलीन हो जाओ, अदृश्य हो जाओ, सिर्फ कान खड़े रखो। तुम ज्यों ही विलीन होगे [ज्योंही तुम्हारा व्यष्टि अहं माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध या निरंतर साक्षी चेतना (Constant witness consciousness) में रूपांतरित हो जायेगा], वैसे ही सुनाई देगी, " कोटि जीमूतस्यन्दिनी, त्रैलोक्यकम्पन-कारिणी भावी भारत", [would be Leaders of India], की जागरण-वाणी- "वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरू जी की फतेह !"
[ मनीषा-पंचक और दृग-दृश्य विवेक जैसे वेदान्त प्रकरण ग्रन्थ और उसके व्याख्याता -नवनीदा, स्वामी सर्वप्रियानन्द आदि] इतने दिनों तक उन्हें दे देने की सुविधा नहीं मिली। [ इतने दिनों तक साधारण गृहस्थ युवाओं के सामने " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षक (C-in-C नवनीदा) की जागरण वाणी - 'ब्रह्मविद मनुष्य बनो और बनाओ' परम्परा की फतेह! का प्रचार-प्रसार करने वाला कोई युवा संगठन 1967 के पहले नहीं था।] अब अबाध रूप से ब्रह्म-विद्या पर चर्चा करने के दिनों में (पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी के दिनों में), उन्हें अर्थात " Be and Make Vedanta C-in-C Leadership Training Tradition" को उत्तराधिकारियों को दो, जितना शीघ्र दे सको, दे दो। और तुम लोग शून्य में विलीन हो जाओ, --" और फिर एक नया भारत निकल पड़े। निकले हल पकड़ कर, किसानों की कुटिया को भेदकर, जाली, माली, मोची , मेहतरों की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से , हाट से , बाजार से। निकले झाड़खण्ड के झाड़ियों , जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से। इन लोगों ने हजारों वर्षों तक नीरव अत्याचार सहन किया है, ----उससे पायी है अपूर्व सहिष्णुता। सनातन दुःख उठाया है, जिससे पायी है अटल जीवनी शक्ति। ये लोग एक मुट्ठी सत्तू खाकर दुनिया को उलट सकते हैं ! (এরা এক মুঠো ছাতু খেয়ে দুনিয়া উলটে দিতে পারবে) आधी रोटी खाने को मिल जाये, तो तीनों लोकों में इनका तेज न अटेगा ! ये रक्तबीज के प्राणों से युक्त हैं। और पाया है ऐसा सदाचार- बल, जो तीनों लोकों में नहीं है। इतनी शान्ति, इतनी प्रीति, इतना प्यार, बेजबान रहकर दिन-रात इतना खटना और काम के वक्त सिंह का विक्रम !! (.... पर इनके विषय में कौन सोचता है ?) अतीत के कंकाल-समूहों ! - देखो तुम्हारा उत्तराधिकारी भविष्य का भारत, तुम्हारे समक्ष खड़ा है। तुमलोगों के पास पूर्व काल की बहुत सी रत्न पेटिकाएँ सुरक्षित हैं, तुम्हारी अस्थिमय अँगुलियों में पूर्वपुरुषों की संचित कुछ अमूल्य रत्न जड़ित अंगूठियाँ हैं, इतने दिनों तक उन्हें दे देने की सुविधा नहीं मिली. अब अबाध विद्या-चर्चा के दिनों में (पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी के दिनों में), उन्हें उत्तराधिकारियों को दो, जितने शीघ्र दे सको, दे दो। फेंक दो इनके बीच; जितना शीघ्र फेंक सको, फेंक दो; और तुम हवा में विलीन हो जाओ, अदृश्य हो जाओ, सिर्फ कान खड़े रखो। तुम ज्यों ही विलीन होगे [ज्योंही तुम्हारा व्यष्टि अहं माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध या निरंतर साक्षी चेतना (Constant witness consciousness) में रूपांतरित हो जायेगा], वैसे ही सुनाई देगी, " कोटि जीमूतस्यन्दिनी, त्रैलोक्यकम्पन-कारिणी भावी भारत", [would be Leaders of India], की जागरण-वाणी- "वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरू जी की फतेह !"
"स्वामीजी द्वारा कथित इस प्रकार के सन्देश ही श्रीरामकृष्ण के आविर्भाव के महत्व को सूचित करते हैं। तथा सत्ययुग की स्थापना के संकल्प का वहन करते हैं। हमलोगों के लिये इसे समझना आवश्यक है। एवं उन्हीं के परामर्श के अनुसार कार्य करने के लिये प्रयत्न शील होना होगा। क्योंकि भविष्य के भारत के गौरव मय दिन बस आने ही वाले हैं। " उठो भारत, तुम अपनी आध्यात्मिकता के द्वारा जगत पर विजय प्राप्त करो !"
इसीलिए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " मेरे मित्रो ! पहले मनुष्य बनो, तब तुम देखोगे कि वे सब बाक़ी चीजें स्वयं तुम्हारा अनुसरण करेंगी। परस्पर के प्रति घृणित द्वेषभाव को छोड़ो और सदुद्देश्य, सदुपाय, सत्य-साहस एवं सदवीर्य का अवलंबन करो। तुमने मनुष्य योनि में जन्म लिया है, तो अपनी कीर्ति यहीं छोड़ जाओ। ' कबीरा जब पैदा भये, जगत हँसे तुम रोये। ऐसी करनी कर चलो, आप हँसे जग रोये।' अगर ऐसा कर सको, तब तो मनुष्य हो,अन्यथा तुम मनुष्य किस बात के ?१०/६२"]
माँ जगदम्बा ने इस कार्य का नेतृत्व करने के लिये एक ३५ वर्षीय ऊँचे कद-काठी के युवा 'नवनीहरन' का चयन कर लिया जिसका जन्म बंगाल के एक सम्भ्रान्त और विद्वत्तापूर्ण परिवार में हुआ था। और विवेकानन्द अपने कार्य को पूरा करने के लिये जिस प्रकार के 'आशिष्ठ, बलिष्ठ ,मेधावी' - युवाओं का निर्माण करना चाहते थे, इस युवक का चरित्र भी, ठीक वैसे ही 'ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य' के सन्तुलित अनुपात में गठित हुआ था। उनका तेजस्वी, मधुर और उदार और व्यक्तित्व युवाओं को मंत्रमुग्ध कर देता था, तथा स्वामी विवेकानन्द के उच्च आदर्शों को जीवन में उतारने के लिये युवाओं को अनुप्रेरित कर देता था। उनका नाम था श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय, जिन्हें युवा लोग प्रेम से नवनी दा कहते थे।
नवनीदा ने अपने भावी क्रमानुयायियों से यह यह अपेक्षा की थी, कि उनकी भावी पीढ़ी उपनिषदों में वर्णित उसी महान तत्व को अरण्यों से निकालकर जनारण्य तक ले जाएगी। उस तत्व को जंगल-झाड़, पर्वत-पहाड़ से निकाल कर साधारण मनुष्यों तक, किसानों के झोपड़ियों तक, हाट-बाजार में, खेतों में, मैदानों में, कल-कारखानों में सर्वत्र प्रचारित और प्रसारित कर देगी। और तब किसानों के हल से, कारखाने के श्रमिकों से, एक नया महान तेजस्वी भारत-एक महाशक्ति के रूप में, उठ खड़ा होगा। नवनी दा ने अपने विवेक-जीवन में छपे निबन्ध, युवा प्रशिक्षण शिविर के व्याख्यान,अपने क्रमानुयायीओं से पत्राचार, गुरु-शिष्य संवाद, वार्तालाप आदि के क्रम में समस्त गूढ़ विषयों के बिल्कुल जड़ में पहुंचकर, बहुत सुन्दर तरीके से और अत्यन्त स्पष्ट में रूप समझा दिया है।
" Be and Make वेदान्त शिक्षक (C-in-C)-प्रशिक्षण परम्परा " में प्रशिक्षित और पूर्णता प्राप्त जीवनमुक्त (de-hypnotized) आचार्यगण ही, वैसे पवित्र पुरुष/स्त्री ही मानवजाति के मार्गदर्शक नेता हैं, जिनके माध्यम से ईश्वर जगत में शांति और संतुलन को बनाये रखने तथा विकास-क्रम को आगे बढ़ाने का कार्य करता है। माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं " या ईश्वर के साथ पूर्ण तादाम्य रखने वाले जीवनमुक्त शिक्षकों/ नेताओं के माध्यम से ईश्वरेच्छा बड़ी सरलता के साथ कार्य करती है। इसलिए "Be and Make" अद्वैत वेदान्त शिक्षक-परिशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित ऐसे ही श्रेष्ठ पुरुषों (शिक्षकों) के माध्यम से परमात्मा का दिव्य कार्य, [ बहुत बड़ी संख्या में भावी जीवनमुक्त शिक्षकों/ नेताओं के निर्माण का कार्य ] सम्पन्न होता रहता है।
हमलोग यह जानते हैं कि सभी मूर्तिकार या शिल्पकार (कारीगर) अपने औजारों (instruments- उपकरण आदि ) को ही सबसे अधिक मूल्यवान वस्तु समझते हैं। इसलिए वे अपने उपकरणों की बड़ी देख-भाल करते हैं। वे उन्हें धोते-पोंछते हैं, धार रखते हैं, काट-छांटकर ठीक रखते हैं। और बड़े प्रेम से उनको कसते- कसाते रहते हैं। जगदीश्वर प्रभु (ठाकुर देव) भी अपनी श्रेष्ठ सेवकों /संतानों/शिक्षकों की ऐसी ही देखभाल करते हैं। [ भावी जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण करने में समर्थ आचार्यों (नवनीदा) तथा उनके द्वारा स्थापित संगठन (महामण्डल) की ऐसी ही देखभाल करते हैं। ] महामण्डल के संस्थापक श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय (नवनी दा) के लिए भी यही नियम कार्य कर रहा था। ईश्वर उनके मन के तार को बार बार कसकर, उन्हें अपना संगीत सुनाने के लिए तैयार कर रहा था।
दूसरा पुरुषार्थ है 'अर्थ' : धर्म या औचित्यबोध ही हमें यह मार्ग सुझाता है कि प्रकृति से, समाज से हमने जितना कुछ लिया है, अर्थोपार्जन करते हुए उससे अधिक वापस करने को सदैव प्रयासरत रहना चाहिए। उद्योग-धंधे, व्यापार, कृषि आदि सभी कार्यो के निमित्त धन की आवश्यकता होती है।अर्थ के बिना, धन के बिना संसार का कार्य चल ही नहीं सकता। कर्म से विशेषकर सत्कर्म से अर्थोपार्जन अर्थात धन का उपार्जन आवश्यक है। उसी से अर्थ-गौरवम् की प्राप्ति होती है, प्रतिष्ठा बढ़ती है। आन्तरिक क्रियाशीलता, कार्य क्षमता और कार्य कुशलता अर्थ का सर्वश्रेष्ठ विकल्प है, क्योंकि उसी से अर्थोत्पति और अर्थोपार्जन, अर्थसंचय और अर्थ-रक्षा होती है। यही नहीं, धार्मिक कार्यो, प्रचार, अनुष्ठान आदि सभी धन के बल पर ही चलते हैं। अर्थोपार्जन मनुष्य का पवित्र कर्त्तव्य है।संस्कृत भाषा में ‘अर्थ’ शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में किया जाता है। केवल धन का संचय ‘अर्थ’ नहीं होगा। उसका लाभप्रद, उपयोगी व्यय और उससे प्राप्त होने वाला अपना और दूसरों का आनन्द और प्रतिष्ठा, सभी कुछ इससे सम्बन्धित हैं।
काम (desires): आत्मा सर्वप्रथम मन से संयुक्त होती है तथा मन विषयों से। पाँच इन्द्रियों के पाँच विषय होते हैं,जो क्रमशः रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श में प्रवृत्त होते हैं। अर्थात् आत्मा बुद्धि के द्वारा विषयों को भोगता हुआ सुख को अनुभव करता है। जो इन्द्रिय सुख है, सामान्य रूप से वही काम है।
मोक्ष : आत्मा को अमर कहा गया है। यह एक नित्य अनादि तत्व है जो कभी बंधन अथवा कभी मुक्ति की अवस्था में रहती है। बद्ध अवस्था (hypnotized अवस्था) में इसे अपने कर्मों के अनुसार इसी जन्म अथवा अगले जन्मों में कर्मफल भोगने पड़ते हैं। मनुष्य के अलावा सभी शरीर मात्र भोग योनि हैं, मानव शरीर कर्म योनि है। मनुष्य ’विकर्म’ (निःस्वार्थ कर्म) द्वारा अपने शुभ-अशुभ कर्मों से ऊपर उठ जाता है और शरीर रहते हुए ही परमात्मा की प्राप्ति कर लेता है। इसे ही योग (आत्मा एवं परमात्मा का मिलन) कहा गया है। अब वह अकर्म की स्थिति में है और इस शरीर में प्राप्त प्रारब्ध भोग को समाप्त कर लेने के बाद वह अपने शरीर से विदेहमुक्त हो जाता है। उसे अब नया जन्म नहीं लेना पड़ता, वह बंधन से मुक्त हो जाता है। मोक्ष को प्राप्त कर लेना (मोक्ष-भ्रममुक्ति De-Hypnotized हो जाना) ही आत्मा का मुख्य उद्देश्य है, जो कि मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
22.
संघ की अवधारणा
(👉The Idea):
(👉The Idea):
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " यदि भारत को महान बनाना है , उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है--संगठन की , शक्ति -संग्रह की ओर बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। "5 /192 ( 'the whole secret lies in organization, accumulation of power, co-ordination of wills.) " अनेक देशों में भ्रमण करके मेरा यह विश्वास दृढ़ हो गया है कि संघ के बिना कोई बृहत कार्य नहीं हो सकता। परन्तु हमारे जैसे देश में पहले से ही साधारण तंत्र के अनुसार संघ बनाना, अथवा जनसाधारण की सम्मति (वोट) लेकर काम करना (Be and Make) उतना सुविधाजनक नहीं मालूम पड़ता। इस देश में जब यथार्थ शिक्षा (शीक्षा) के विस्तार के द्वारा जनसाधारण अधिक मात्रा में सहृदय बनेंगे - ('Heart Whole Man' - 'पूर्ण हृदयवान मनुष्य' बनेंगे) - जब वे मतमतान्तर की संकीर्ण सीमा के बाहर अपने विचारों को प्रसारित करना सीखेंगे , उस समय साधारण तंत्र के अनुसार संघ का कार्य चल सकेगा। इसलिए इस संघ (युवा -प्रशिक्षण शिविर का) एक डिक्टेटर अथवा 'C-in-C' (प्रधान परिचालक) रहना आवश्यक है। सभी को उनका आदेश मानकर चलना होगा। इसके बाद समय आने पर सभी की राय लेकर काम किया जायगा। " चरित-212 /
'मतैक्य देवता' की उपासना करने के लिए पहले हमें (महामण्डल के प्रशिक्षित शिक्षकों को) भी साम्यभाव में प्रतिष्ठित होना होगा: साम्य भाव में स्थित होने की कल्पना करते ही, हमें इस प्रकार की समस्त क्षुद्रताओं को विसर्जित कर देना होगा, समस्त स्वार्थों की बली चढ़ा देनी होगी ; तभी हमलोग इस सर्वव्यापी विराट साम्यभाव को प्राप्त कर सकेंगे। गीता 5:19 में कहा गया है - इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः। तात्पर्य यह है कि इस शरीर में रहते हुए ही अमरत्व को प्राप्त किया जा सकता है। मृत्यु के भय पर सदा के लिए विजय प्राप्त किया जा सकता है। पर उसे केवल वे ही प्राप्त कर सकते हैं, जिनका मन साम्य में अवस्थित हो चुका है। अतः यदि मन में कभी यह प्रश्न उठे कि इस लोक में अमर कौन है ? तो इसका स्पष्ट उत्तर होगा कि 'ब्रह्म के साथ अपने अद्वैत का (आत्मा का अहं का नहीं) अनुभव' करके जिन्होंने साम्यभाव को प्राप्त कर लिया है, जिन्होंने अपने समस्त स्वार्थों को विसर्जित कर दिया है। गीता में वर्णित इस साम्यभाव को हमें स्वयं प्राप्त करना होगा, और फिर इसी महान उपदेश को समस्त युवकों के समक्ष पहुँचा देना होगा। यही महामण्डल आंदोलन के वुड बी लीडर्स या भावी नेताओं/ आध्यात्मिक शिक्षकों को स्वामी विवेकानन्द के द्वारा सौंपा गया कार्य है। अतः हमारे सामने यही महान उद्देश्य है।
महामण्डल भारत की सर्व-समावेशी प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा में समाहित 'वसुधैव कुटुंबकम' की भावना के प्रति श्रद्धा रखता है, तथा जाति, धर्म और भाषा के नाम पर समस्त प्रकार की संकीर्णता को, या भेदभाव को अस्वीकार करता है। क्योंकि 'अनेकता में एकता ' ही भारत की विशेषता है, जिसके आधार सच्ची राष्ट्रीय एकता (National Integrity) और विश्व-बन्धुत्व (internationalism) की भावना से उद्बुद्ध होकर युवावर्ग अपने सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति जागरूक होकर रचनात्मक कार्यक्रमों में आग्रहपूर्वक (earnestly) अपनी भागीदारी निभा सकता है। लेकिन अभी के लिए (provisionally) महामण्डल का कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण भारतवर्ष है। 1967 में स्थापित, "अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल" यह विश्वास करता है कि स्वामी विवेकानन्द ने युवावर्ग के समक्ष वैसे महान विचार तथा आदर्शों (ideas and ideals) को प्रस्तुत कर दिया है, जो उन्हें यथार्थ पुरुषार्थ और मातृभूमि की निःस्वार्थ सेवा [true manhood and selfless service to the motherland] कार्य में अपने जीवन को खपा देने (न्योछावर करने ) के लिये अनुप्रेरित (inspired) करते हैं। यदि युवावर्ग जाति -धर्म-भाषा के आधार पर समस्त प्रकार की संकीर्णताओं का परित्याग कर,अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से अनुप्रेरित होकर, स्वयं को सचमुच रचनात्मक कार्यों में समर्पित कर सकें, तभी उनके हृदय में स्वाभाविक 'राष्ट्रीय एकता' (national integration) एवं 'वसुधैव कुटुंबकम' (international understanding) के बोध को जाग्रत किया जा सकता है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " अनेक देशों में भ्रमण करके मेरा यह विश्वास दृढ़ हो गया है कि संघ के बिना कोई बृहत कार्य नहीं हो सकता। परन्तु हमारे जैसे देश में पहले से ही साधारण तंत्र के अनुसार संघ बनाना, अथवा जनसाधारण की सम्मति (वोट) लेकर काम करना (Be and Make शिक्षा प्रणाली का प्रचार -प्रसार करना) उतना सुविधाजनक नहीं मालूम पड़ता। इस देश में जब यथार्थ शिक्षा (शीक्षा) के विस्तार के द्वारा जनसाधारण अधिक मात्रा में सहृदय बनेंगे - ('Heart Whole Man' - 'पूर्ण हृदयवान मनुष्य' बनेंगे) - जब वे मतमतान्तर की संकीर्ण सीमा के बाहर अपने विचारों को प्रसारित करना सीखेंगे , उस समय साधारण तंत्र के अनुसार संघ का कार्य चल सकेगा। इसलिए इस संघ (युवा -प्रशिक्षण शिविर का) एक डिक्टेटर अथवा 'C-in-C' (प्रधान परिचालक) रहना आवश्यक है। सभी को उनका आदेश मानकर चलना होगा। इसके बाद समय आने पर सभी की राय लेकर काम किया जायगा। " चरित-212 / स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -" यदि भारत को महान बनाना है , उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है--संगठन की , शक्ति -संग्रह की ओर बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। "5 /192 ( 'the whole secret lies in organization, accumulation of power, co-ordination of wills.) इसीलिये महामण्डल का लक्ष्य है भारत के विभिन्न राज्यों में स्थापित और महामण्डल से सम्बद्ध (affiliated) प्रत्येक युवा-पाठचक्र तथा अनुमोदित (Approved) महामण्डल -केन्द्रों को एक ही आदर्श के झण्डे तले संघबद्ध करना।
[ महामण्डल का संघ-मंत्र : देशवासियों की बिखरी हुई इच्छाशक्ति और संकल्प को एकोन्मुखी बनाने के लिए संगठन की आवश्यकता को रेखांकित करता है। इतने प्राचीन काल से ऋषि हमें यही बात समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं, कि हमें इस एकात्मबोध या मतैक्य देवता (Reconciliation- समन्वय या सामंजस्य देवता को) को प्राप्त करना ही होगा। वे कहते हैं - अग्नि में जिस 'हवि' की आहुति दी जाती थी, उसे सभी देवगण आपस में समान भाग में बाँट कर ग्रहण करते थे। हमलोग भी उन्हीं के समान भौतिक सुख, जगत के धन-ऐश्वर्य या आध्यात्मिक सुख (ब्रह्म के साथ अपने अद्वैत की अनुभूति) प्राप्त होने पर उसे 'प्रसाद' के जैसा, समान रूप से बाँटकर ही ग्रहण करेंगे। इसलिए हमलोग अपने 'संघ-मंत्र' में यही प्रार्थना करते हैं कि हमारा मतैक्य भाव बना रहे, ताकि हम अपनी समस्त उपलब्धियों को समान भाग में बाँटकर ही भोग करें। एक मन हो जाना, एक संकल्प ग्रहण कर लेना -'मैं चरित्रवान मनुष्य बनूँगा !' यह विचार ग्रहण कर लेना ही सर्वश्रेष्ठ 'समाज-सेवा' है, तथा 'जीवन-गठन', 'समाज-निर्माण' और 'राष्ट्र -निर्माण' (nation building) का मूल रहस्य है।
तथा उन सभी केंद्र की गतिविधियों को एक सुनियोजित कार्यक्रम (well-planned program) के अनुसार इतना प्रभावपूर्ण बना देना कि वे सभी केन्द्र -'एक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, एक- मन- होकर एक- साथ- चलने वाले' युवा संगठन के रूप में परस्पर सहयोग की भावना रखते हुए निरन्तर आगे बढ़ते रहें।महामण्डल भारत की सर्व-समावेशी प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा में समाहित 'वसुधैव कुटुंबकम' की भावना के प्रति श्रद्धा रखता है, तथा जाति, धर्म और भाषा के नाम पर समस्त प्रकार की संकीर्णता को, या भेदभाव को अस्वीकार करता है। क्योंकि 'अनेकता में एकता ' ही भारत की विशेषता है, जिसके आधार सच्ची राष्ट्रीय एकता (National Integrity) और विश्व-बन्धुत्व (internationalism) की भावना से उद्बुद्ध होकर युवावर्ग अपने सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति जागरूक होकर रचनात्मक कार्यक्रमों में आग्रहपूर्वक (earnestly) अपनी भागीदारी निभा सकता है। लेकिन अभी के लिए (provisionally) महामण्डल का कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण भारतवर्ष है।
23.
3'H'-विकास के 5 व्यक्तिगत अभ्यास
व्यक्तित्व-विकास ('3H' विकास) के लिये करनीय 5 दैनन्दिन अभ्यास करना आवश्यक है। (i) व्यायाम : महाकवि कालिदास ने. 'कुमारसम्भव' महाकाव्य की पार्वती तपश्चर्याप्रकरण के शिव-पार्वती संवाद में एक महत्त्वपूर्ण उक्ति लिखी है- शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्'- शरीर धर्म का प्रथम साधन है। लौकिक दृष्टि हो या आध्यात्मिक दृष्टि से अपने लक्ष्य की साधना के लिए अथवा गन्तव्य तक पहुँचने के लिए मनुष्य को स्वस्थ्य मन और स्वस्थ्य तन की नितान्त आवश्यकता है।
व्यायामात् लभते स्वास्थ्यं दीर्घायुष्यं बलं सुखं।
आरोग्यं परमं भाग्यं स्वास्थ्यं सर्वार्थसाधनम् ॥
-अर्थात व्यायाम से स्वास्थ्य, लम्बी आयु, बल और सुख की प्राप्ति होती है। निरोगी होना परम भाग्य है और स्वास्थ्य से अन्य सभी कार्य सिद्ध होते हैं। व्यायाम से शरीर स्वस्थ -सबल होता है । शरीर की कान्ति वा सुन्दरता बढ़ती है । शरीर के सब अंग सुड़ौल होते हैं। पाचनशक्ति बढ़ती है । आलस्य दूर भागता है । शरीर दृढ़ और हल्का होकर स्फूर्ति आती है । योग -व्यायाम करने वाले मनुष्य पर बुढ़ापा सहसा आक्रमण नहीं करता, व्यायामी पुरुष का शरीर लचीला और हाड़ मांस सब स्थिर होते हैं। कहा जाता है की तंदुरुस्त शरीर में ईश्वर का वास होता है और जहां ईश्वर का वास होता है वहाँ सारी चीजें आनन्दमय हो जाती है किसी भी प्रकार की समस्या नहीं होती है सारी सफलताएं हमारे कदम चुमते हैं। इसीलिए कहा गया है “ हेल्थ इज वेल्थ ” ।
बॉडी फ़िट है, माइंड हिट है। 0 इन्वेस्टमेन्ट है तो ईल्ड 100 है। हल्दी लगे ना फिटकरी स्वास्थ्य रहे चौखा - मन अन्नमय ही है। आहारशुद्धि से सत्त्वशुद्धि, सत्त्वशुद्धि से ध्रुवा स्मृति और स्मृतिशुद्धि से सभी ग्रंथियों का मोचन होता है। अन्न न खाने से मन दुर्बल हो जाता है, चिन्तन शक्ति नष्ट होने लगती है। अन्न खाने से मन सबल होता है तथा चिन्तन शक्ति बढ़ने लगती है। जिसमें कोई खर्च नहीं आने वाला है। हर कोई इसे आजमा सकता है। अगर पूरी ईमानदारी से इन टिप्स को आजमाएंगे तो बीमार होने से बच सकते हैं। मेन्टल फ़िट्नेस - के लिए मन को बदलो जगत को नहीं। मन का स्वस्थ होना तभी सम्भव है, जब शरीर भी स्वस्थ होगा। इसलिए प्रत्येक सदस्य को समुचित व्यायाम या योगासनों के अभ्यास तथा पौष्टिक आहार के द्वारा अपना शरीर स्वस्थ और सबल रखने की चेष्टा प्रतिदिन करनी होगी। स्वस्थ व्यक्ति -स्वस्थ परिवार- स्वस्थ देश। अतः 'Be and Make'- का प्रथम सोपान है - स्वयं फ़िट बनो दूसरों को फ़िट रहने में सहायता करो ! नियमित रूप से शारीरिक-व्यायाम आदि के लिए यदि सदस्यों को प्रशिक्षण दिया जा सकता हो, तो प्रत्येक केन्द्र में उसकी व्यवस्था भी की जा सकती है ।
(ii) प्रार्थना (prayer): जो लोग दैनन्दिन प्रार्थना ( या अपने इष्टदेव की उपासना) में श्रद्धा-विश्वास रखते हैं, वे लोग प्रति दिन ईश्वर से - " सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः,सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्।ॐ शांतिः शांतिः शांतिः"
- "सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें [डीहिप्नोटाइड-अवस्था में रहें], सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें --अर्थात सभी आत्मसाक्षात्कार करके स्वयं ब्रह्मविद मनुष्य बनें, और दूसरों को भी ऋषि बनने में सहायता करें ताकि और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।"
ऐसी ---'प्रार्थना' करने के साथ साथ, वे माँ जगदम्बा/शिवजी से इस बात की प्रार्थना भी करेंगे कि-''माँ, तुम मुझे केवल उसी प्रकार के कार्यों में संलग्न रखना, जिससे मुझे मनुष्य बनने और अपने चरित्र का निर्माण करने में सहायता मिलती हो ! " तथा जो युवा अभी तक माँ जगदम्बा, शिवजी या अल्ला में श्रद्धा-विश्वास नहीं रखते हों,वे लोग भी मात्र कुछ ही दिनों तक 'जगत्जननी' से प्रार्थना करके स्वयं उसके परिणाम की परीक्षा करके देख सकते हैं। क्योंकि प्रार्थना -'the latent power in man himself' उसकी आत्मा में ही निहित अव्यक्त शक्ति-को प्रकट कर देती है। और प्रार्थना करने से वह अन्तर्निहित शक्ति अभिव्यक्त होने लगती है। प्रार्थना (उपासना) में अलौकिक घटना या रहस्यमय (occult)
जादू जैसी कोई बात नहीं है। [ प्रत्यक्ष सामने आकर प्रार्थना का उत्तर देने वाली देवी मेरी आत्मा की ही शक्ति है। जगत्जननी के बिना जगत का प्रसव ?]
प्रार्थना ही 'संकल्प-ग्रहण क्रिया' (ऑटोसजेशन) है : प्रेमस्वरूप श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द इन दो आश्चर्जनक शिक्षकों के हृदय में इतना असीम प्रेम था, और इतनी असीम सहानुभूति थी कि वे सम्पूर्ण मानवजाति के सुख-दुःख की संवेदनाओं को अपने हृदय में तत्काल ही महसूस कर सकते थे। [जापान में जब भयंकर भूकंप आया था तब स्वामीजी मध्य रात्रि में जग कर रो पड़े थे, ठाकुर की पीठपर माँझी को मारने पर बाम उखड़ गया था।] अपने हृदय को उदार और विशाल बनाने के लिये हमें भी उतनी ही सहृदयता के साथ सर्वमंगल की प्रार्थना करनी होगी। [तब हर्टअटैक भी नहीं होगा और बाईपास सर्जरी भी नहीं करानी होगी !] और इसीलिए, अपने हृदय में अनन्त प्रेम का उत्स रहने पर भी, उसे अपने आचरण और व्यवहार में उतारने को संकल्प को दृढ़ता पूर्वक धारण किये नहीं रह पाते है, अपने-पराये का भेद करके; अपने लिए कोमल और दूसरों के लिए कठोर बन जाते हैं। अतः एकाग्रता का अभ्यास प्रारम्भ करने के पूर्व ही सर्वमंगल की प्रार्थना का अभ्यास करना चाहिए। यही हृदय का व्यायाम ( Exercises of Heart या Cardiotherapy) है।मानव जीवन तमस, राजस व सात्विक के आधार पर ही विकसित होता है, या आगे बढता हैl योगी तमस तथा राजस से निकलकर सात्विक जीवन अपनाकर तप से तपाते हैंl तभी उनका शरीर अनंत चेतना को धारण करने में समर्थ होते हैंl व्यक्ति को अपने जीवन में किसी भी सफलता को प्राप्त करने के लिए संयम, संकल्प और नियमों की आवश्यकता पङती है| व्रत में संयम, संकल्प और नियम निहित होता है| व्रत का मतलब भी एक तरह से योग धारण करना ही है| जितने भी योग हैं उनमें यदि (ऑटो-सजेशन) संकल्प-ग्रहण क्रिया सक्रिय नही है तो सब व्यर्थ है| योग, ध्यान एवं मौन-साधना प्रभु भक्ति का रूप नही है ब्लकि उसके लिए शक्ति अर्जित करने का एक साधन है| योग चित्तकी वृत्तियों का निरोध है अर्थात् जो समस्त प्रकृति विकारों को त्याग देता या झाड़ देता है वह योगी /नाथ/अवधूत/नेता या आध्यात्मिक शिक्षक है।[ भारत को सम्पूर्ण मानवजाति का मार्गदर्शक नेता, अथवा विश्वगुरु बनाने, अर्थात भारत को विश्व का योगगुरु बनाने के लिए, केवल शरीर को तोड़मड़ोड़कर, अथवा अंतड़ियों को सटकाकर पेट घुमाने वाले किसी 'योगा-टीचर ' की आवश्यकता नहीं है। बल्कि चारों योगों के वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित आध्यात्मिक-शिक्षक/ मानवजाति का मार्गदर्शक नेता/ सच्चे योगीयों की है ,जो भावी योग-कुशल (yoga skilled) कारीगर/ का निर्माण करने में समर्थ हों। आज भारतवासियों को विश्व के 177 देशों में ऐसे चारों योगमार्गों के योगी-परम्परा में इन्हीं प्रशिक्षित योगी/नेता / आध्यात्मिक शिक्षकों का बहुत बड़ी संख्या में निःशुल्क निर्यात 'Indian Man Power Export' करने के लिए अपनी इच्छाशक्ति और संकल्प को एकोन्मुखी करना होगा।]
प्रार्थना ही 'संकल्प-ग्रहण क्रिया' (ऑटोसजेशन) है : प्रेमस्वरूप श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द इन दो आश्चर्जनक शिक्षकों के हृदय में इतना असीम प्रेम था, और इतनी असीम सहानुभूति थी कि वे सम्पूर्ण मानवजाति के सुख-दुःख की संवेदनाओं को अपने हृदय में तत्काल ही महसूस कर सकते थे। [जापान में जब भयंकर भूकंप आया था तब स्वामीजी मध्य रात्रि में जग कर रो पड़े थे, ठाकुर की पीठपर माँझी को मारने पर बाम उखड़ गया था।] अपने हृदय को उदार और विशाल बनाने के लिये हमें भी उतनी ही सहृदयता के साथ सर्वमंगल की प्रार्थना करनी होगी। [तब हर्टअटैक भी नहीं होगा और बाईपास सर्जरी भी नहीं करानी होगी !] और इसीलिए, अपने हृदय में अनन्त प्रेम का उत्स रहने पर भी, उसे अपने आचरण और व्यवहार में उतारने को संकल्प को दृढ़ता पूर्वक धारण किये नहीं रह पाते है, अपने-पराये का भेद करके; अपने लिए कोमल और दूसरों के लिए कठोर बन जाते हैं। अतः एकाग्रता का अभ्यास प्रारम्भ करने के पूर्व ही सर्वमंगल की प्रार्थना का अभ्यास करना चाहिए। यही हृदय का व्यायाम ( Exercises of Heart या Cardiotherapy) है।मानव जीवन तमस, राजस व सात्विक के आधार पर ही विकसित होता है, या आगे बढता हैl योगी तमस तथा राजस से निकलकर सात्विक जीवन अपनाकर तप से तपाते हैंl तभी उनका शरीर अनंत चेतना को धारण करने में समर्थ होते हैंl व्यक्ति को अपने जीवन में किसी भी सफलता को प्राप्त करने के लिए संयम, संकल्प और नियमों की आवश्यकता पङती है| व्रत में संयम, संकल्प और नियम निहित होता है| व्रत का मतलब भी एक तरह से योग धारण करना ही है| जितने भी योग हैं उनमें यदि (ऑटो-सजेशन) संकल्प-ग्रहण क्रिया सक्रिय नही है तो सब व्यर्थ है| योग, ध्यान एवं मौन-साधना प्रभु भक्ति का रूप नही है ब्लकि उसके लिए शक्ति अर्जित करने का एक साधन है| योग चित्तकी वृत्तियों का निरोध है अर्थात् जो समस्त प्रकृति विकारों को त्याग देता या झाड़ देता है वह योगी /नाथ/अवधूत/नेता या आध्यात्मिक शिक्षक है।[ भारत को सम्पूर्ण मानवजाति का मार्गदर्शक नेता, अथवा विश्वगुरु बनाने, अर्थात भारत को विश्व का योगगुरु बनाने के लिए, केवल शरीर को तोड़मड़ोड़कर, अथवा अंतड़ियों को सटकाकर पेट घुमाने वाले किसी 'योगा-टीचर ' की आवश्यकता नहीं है। बल्कि चारों योगों के वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित आध्यात्मिक-शिक्षक/ मानवजाति का मार्गदर्शक नेता/ सच्चे योगीयों की है ,जो भावी योग-कुशल (yoga skilled) कारीगर/ का निर्माण करने में समर्थ हों। आज भारतवासियों को विश्व के 177 देशों में ऐसे चारों योगमार्गों के योगी-परम्परा में इन्हीं प्रशिक्षित योगी/नेता / आध्यात्मिक शिक्षकों का बहुत बड़ी संख्या में निःशुल्क निर्यात 'Indian Man Power Export' करने के लिए अपनी इच्छाशक्ति और संकल्प को एकोन्मुखी करना होगा।]
(iii) मनःसंयोग (concentration): अर्थात "मन लगा कर पढ़ने का कौशल (technique)" सीख लेना। अर्थात एकाग्रता का अभ्यास, या अपने मन को अपने सामने बैठाकर उसके साथ बातचीत करना। क्योंकि जो 'बुद्धि' मनुष्य को चरित्र-निर्माण के उपयुक्त कार्यों से जुड़ने के लिए मार्गदर्शन करेगी, उस बुद्धि की बिखरी हुई शक्तियों को नियमित रूप से एकाग्रता के अभ्यास द्वारा 'तीक्ष्ण' या नुकीला करके रखना आवश्यक है। और इसके लिए सर्वप्रथम द्रष्टा -दृश्य विवेक के द्वारा बुद्धिको पहले विवेक-सम्पन्न और श्रद्धा-युक्त कर लेना आवश्यक है।
[स्वामीजी धर्म को शिक्षा का मेरुदण्ड कहते थे। उनका मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति में ज्ञान का वास होता है; और शिक्षा उसको प्रकाश में लाने का कार्य करती है। सभी लोग नवयुवकों को उपदेश देते हैं कि मन लगा कर पढ़ो ! किन्तु कोई यह नहीं सिखलाता कि मन क्या है, अर्थात उसकी बनावट कैसी है ? तथा किसी इच्छित विषय में मन को लगाया कैसे जाता है ? अतः शिक्षा (युवा-प्रशिक्षण) का प्रथम कार्य यह है कि वह प्रत्येक नवयुवक को उसके मन की बनावट और मन को एकाग्र करने की पद्धति से उसका परिचय करा सके। स्वामीजी मन की एकाग्रता की प्रक्रिया को (मनःसंयोग को) शिक्षा के केन्द्र में लाना चाहते थे। उनका कहना था, ‘‘मैं तो मन की एकाग्रता को ही शिक्षा का यथार्थ सार समझता हूँ, ज्ञातव्य विषयों के संग्रह को नहीं। यदि एक बार मुझे फिर शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिले, तो मैं विषयों का अध्ययन नहीं करूँगा। मैं तो एकाग्रता को तथा मन को विषय से अलग कर लेने की शक्ति को बढ़ाऊँगा और तब साधन अथवा मंत्र की पूर्णता प्राप्त हो जाने पर इच्छानुसार विषयों का संग्रह करूँगा।’’शिक्षा की वास्तविक उपलब्धि के लिए मन की एकाग्रता आवश्यक है। विद्यार्थी जितने अधिक एकाग्रचित्त होते जाते हैं, उनकी विद्या ग्रहण करने की शक्ति उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है।"एकाग्रता की विशिष्टता" के अनुसार ही कोई व्यक्ति किसी "विषय-विशेष" का अथवा अनेक विषयों का ज्ञाता हो जाता है। भारतवासियों के द्वारा "गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा" में अन्तर्जगत पर,आत्मा के अदृष्ट प्रदेश पर (हृदय में विद्यमान भगवान श्रीरामकृष्ण देव पर) अपने मन को एकाग्र किए जाने से भारतवर्ष में योग-शास्त्र का विशेष उत्थान हुआ। जबकि यूरोप के लोगों ने बाह्य जगत पर मन को एकाग्र कर भौतिक उपलब्धियों में शिखरों का स्पर्श कर लिया है। विश्व का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिस के बारे में मन को एकाग्र किया जाए और उपलब्धि न प्राप्त हो। अतः मनुष्य-निर्माण की प्रक्रिया को सरल करते हुए स्वामी जी ने कहा - 3'H'; हैण्ड -हेड एण्ड हार्ट् का डेवलपमेन्ट करो - मनुष्य विकसित हो जायेगा, मनुष्य निकलेगा, मनुष्य प्रगट हो जायेगा। वह 'मनुष्य' जो 'ब्रह्म' को-अर्थात अपने बनाने वाले को भी जान सकता है ! अष्टांगयोग में पतंजलि ने इसके ८ अंगों की व्याख्या की है, ये आठ चरण निम्नांकित हैं:- 1. यम : पांच सामाजिक नैतिकता; (१) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना (२) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना। (३) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना (४) ब्रह्मचर्य - सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना। (५) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना। 2. नियम: पाँच व्यक्तिगत नैतिकता(१) शौच - शरीर और मन की शुद्धि(२) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना(३) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना(४) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना(५) ईश्वर-प्रणिधान - इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा। 3. आसन: योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण 4. प्राणायाम: श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण 5. प्रत्याहार: चेतना (awareness ) इन्द्रियों से खींचकर सामने लाना और उसको अंतर्मुखी करना। 6. धारणा: चेतना को हृदय में विद्यमान आदर्श पर एकाग्रचित्त होना। 7. ध्यान: निरंतर एकाग्रता ध्यान है। 8. समाधि: आत्मा से जुड़ना: शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था।
यम-नियम का 24 X 7 पालन तथा आसन,प्रत्याहार और धारणा का दिन भर में दो बार, प्रातः और सायं काल में, नियमित अभ्यास करने से मन चंचलता को त्यागकर शान्त रहने लगता है। वह विषम परिस्थितियों में धैर्य नहीं खोता, प्रलोभन में फँसने का कारण उपस्थित रहने से भी उसके मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। वह विषम परिस्थितियों में भी प्रशान्त-चित्त (tranquil) और स्थिरमन वाला बना रहता है ! [ " विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि ते एव धीराः"अर्थात विकार का कारण (temptation, लालच में फंस जाने का कारण) उपस्थित होने पर भी जिसके मन में कोई विकार या प्रलोभन उत्पन्न नहीं होता हो, वे ही धीर पुरुष हैं।]
[स्वामीजी धर्म को शिक्षा का मेरुदण्ड कहते थे। उनका मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति में ज्ञान का वास होता है; और शिक्षा उसको प्रकाश में लाने का कार्य करती है। सभी लोग नवयुवकों को उपदेश देते हैं कि मन लगा कर पढ़ो ! किन्तु कोई यह नहीं सिखलाता कि मन क्या है, अर्थात उसकी बनावट कैसी है ? तथा किसी इच्छित विषय में मन को लगाया कैसे जाता है ? अतः शिक्षा (युवा-प्रशिक्षण) का प्रथम कार्य यह है कि वह प्रत्येक नवयुवक को उसके मन की बनावट और मन को एकाग्र करने की पद्धति से उसका परिचय करा सके। स्वामीजी मन की एकाग्रता की प्रक्रिया को (मनःसंयोग को) शिक्षा के केन्द्र में लाना चाहते थे। उनका कहना था, ‘‘मैं तो मन की एकाग्रता को ही शिक्षा का यथार्थ सार समझता हूँ, ज्ञातव्य विषयों के संग्रह को नहीं। यदि एक बार मुझे फिर शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिले, तो मैं विषयों का अध्ययन नहीं करूँगा। मैं तो एकाग्रता को तथा मन को विषय से अलग कर लेने की शक्ति को बढ़ाऊँगा और तब साधन अथवा मंत्र की पूर्णता प्राप्त हो जाने पर इच्छानुसार विषयों का संग्रह करूँगा।’’शिक्षा की वास्तविक उपलब्धि के लिए मन की एकाग्रता आवश्यक है। विद्यार्थी जितने अधिक एकाग्रचित्त होते जाते हैं, उनकी विद्या ग्रहण करने की शक्ति उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है।"एकाग्रता की विशिष्टता" के अनुसार ही कोई व्यक्ति किसी "विषय-विशेष" का अथवा अनेक विषयों का ज्ञाता हो जाता है। भारतवासियों के द्वारा "गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा" में अन्तर्जगत पर,आत्मा के अदृष्ट प्रदेश पर (हृदय में विद्यमान भगवान श्रीरामकृष्ण देव पर) अपने मन को एकाग्र किए जाने से भारतवर्ष में योग-शास्त्र का विशेष उत्थान हुआ। जबकि यूरोप के लोगों ने बाह्य जगत पर मन को एकाग्र कर भौतिक उपलब्धियों में शिखरों का स्पर्श कर लिया है। विश्व का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिस के बारे में मन को एकाग्र किया जाए और उपलब्धि न प्राप्त हो। अतः मनुष्य-निर्माण की प्रक्रिया को सरल करते हुए स्वामी जी ने कहा - 3'H'; हैण्ड -हेड एण्ड हार्ट् का डेवलपमेन्ट करो - मनुष्य विकसित हो जायेगा, मनुष्य निकलेगा, मनुष्य प्रगट हो जायेगा। वह 'मनुष्य' जो 'ब्रह्म' को-अर्थात अपने बनाने वाले को भी जान सकता है ! अष्टांगयोग में पतंजलि ने इसके ८ अंगों की व्याख्या की है, ये आठ चरण निम्नांकित हैं:- 1. यम : पांच सामाजिक नैतिकता; (१) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना (२) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना। (३) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना (४) ब्रह्मचर्य - सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना। (५) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना। 2. नियम: पाँच व्यक्तिगत नैतिकता(१) शौच - शरीर और मन की शुद्धि(२) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना(३) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना(४) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना(५) ईश्वर-प्रणिधान - इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा। 3. आसन: योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण 4. प्राणायाम: श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण 5. प्रत्याहार: चेतना (awareness ) इन्द्रियों से खींचकर सामने लाना और उसको अंतर्मुखी करना। 6. धारणा: चेतना को हृदय में विद्यमान आदर्श पर एकाग्रचित्त होना। 7. ध्यान: निरंतर एकाग्रता ध्यान है। 8. समाधि: आत्मा से जुड़ना: शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था।
यम-नियम का 24 X 7 पालन तथा आसन,प्रत्याहार और धारणा का दिन भर में दो बार, प्रातः और सायं काल में, नियमित अभ्यास करने से मन चंचलता को त्यागकर शान्त रहने लगता है। वह विषम परिस्थितियों में धैर्य नहीं खोता, प्रलोभन में फँसने का कारण उपस्थित रहने से भी उसके मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। वह विषम परिस्थितियों में भी प्रशान्त-चित्त (tranquil) और स्थिरमन वाला बना रहता है ! [ " विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि ते एव धीराः"अर्थात विकार का कारण (temptation, लालच में फंस जाने का कारण) उपस्थित होने पर भी जिसके मन में कोई विकार या प्रलोभन उत्पन्न नहीं होता हो, वे ही धीर पुरुष हैं।]
(iv) स्वाध्याय : हमलोग अपनी बुद्धि को जिस-'Be and Make' के कार्य में एकाग्र रखने की चेष्टा कर रहे हैं, उसमें विवेकानन्द साहित्य का अध्यन करने से हमें विशेष सहायता प्राप्त होगी। इसीलिये महामण्डल का प्रत्येक सदस्य प्रतिदिन अपना थोड़ा समय यदि स्वामी की पुस्तकों को पढ़ने में देगा, तो निश्चित रूप से उसे अपने मन को उच्च विचारों से भरे रहने का लाभ भी प्राप्त होगा। नये सदस्य गण 'भारत में विवेकानन्द' (Lectures from colombo to Almoda, हिन्दी साहित्य का ५ वां खण्ड-),' पत्रावली ', 'स्वामी -शिष्य संवाद' , 'कर्मयोग' , 'वर्तमान भारत', 'भारत और उसकी समस्यायें', 'राष्ट्र को आह्वान' , 'जाती,संस्कृति और समाजवाद'. आदि पुस्तकों का पुनः पुनः अध्यन करके, इस कार्य का प्रारम्भ कर सकते हैं।
हमें अपनी रूचि और रुझान के अनुसार सहज भाव से किसी मार्ग (प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग की पात्रता के अनुसार) पर चलना चाहिए। 'श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' को समझने और प्रशिक्षित-शिक्षक बनने के लिए, पहले हमें इन दो आश्चर्यजनक शिक्षकों ( Two - Stunning teachers या Wonderful teachers) के जीवन एवं शिक्षाओं को 'अध्यन तथा अनुध्यान' (অনুধ্যান -rumination,रूमिनैशन,) जुगाली करना जैसे गाय खाना खाने के बाद उसको पचाने के लिए जुगाली करती है, उसी प्रकार हमें भी उनके उच्च भावों को आत्मसात करने का प्रयास करना होगा।
हमें अपनी रूचि और रुझान के अनुसार सहज भाव से किसी मार्ग (प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग की पात्रता के अनुसार) पर चलना चाहिए। 'श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' को समझने और प्रशिक्षित-शिक्षक बनने के लिए, पहले हमें इन दो आश्चर्यजनक शिक्षकों ( Two - Stunning teachers या Wonderful teachers) के जीवन एवं शिक्षाओं को 'अध्यन तथा अनुध्यान' (অনুধ্যান -rumination,रूमिनैशन,) जुगाली करना जैसे गाय खाना खाने के बाद उसको पचाने के लिए जुगाली करती है, उसी प्रकार हमें भी उनके उच्च भावों को आत्मसात करने का प्रयास करना होगा।
(v) बचपन से ही विवेक-प्रयोग का अभ्यास : आज के बच्चे भविष्य के युवा हैं,अतः शिशु अवस्था से ही विवेक-प्रयोग करने के बाद ही कुछ सोचने, बोलने करने का अभ्यास सीखना आवश्यक है। इसके लिय युवाकल्याण की योजना जिसमें युवा लोग भी संयुक्त रहते है, बच्चों के कल्याण पर भी पर्याप्त दृष्टि रखनी आवश्यक है। अतः किसी भी समाज-सेवी संगठन को अपने क्षेत्र के बच्चों और किशोरों के लिए भी एक समेकित कल्याण कार्यक्रम 'An integrated child-welfare scheme' के विषय में सोचना आवश्यक है। बच्चों को बचपन से ही खेल-कूद, ड्रिल (फ़ौजी शिक्षा कवायद), गीत-संगीत, नाटक, प्रार्थना आदि सर्वांगीण विकास (all round development) का अवसर प्राप्त होना चाहिये। सभी केन्द्रों के लिए उचित होगा कि वे अपने क्षेत्र के बच्चों, किशोरों और युवाओं के लिए एक व्यापक, आत्मानुशासित, स्व-अभिप्रेरित परियोजना (self-motivated activity) का प्रारम्भ करें। महामण्डल -- 'विवेक-वाहिनी', 'किशोर-वाहिनी' या 'सार्वजनिक प्राथमिक विद्यालय' आदि प्रारम्भ करने के लिए विस्तृत परामर्श देने के लिये प्रस्तुत है। इस तरह की परियोजना प्रत्येक स्थान में प्रारम्भ करना क्यों अनिवार्य है, इस विषय में बच्चों के अभिभावकों या माता-पिता के साथ सम्पर्क उन्हें राजी कराने (convince) का विशेष प्रयास होना चाहिये। दूसरे स्थानों में परीक्षित उपायों के उदाहरण का उपयोग भी इस कार्य में किया जा सकता है। महामण्डल 'मनुष्य- निर्माण' कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए जिन सामान्य कार्यक्रमों (common program of work) का अनुसरण करता है, उसमें वह उन समस्त क्रियाकलापों को करने के पीछे जो मनोभाव कार्य करता है, वह उसीके ऊपर अधिक जोर देना चाहता है। इसके कार्यक्रमों के विषय में कोई नवीन या अद्भुत वस्तु (novelty) जैसा कुछ नहीं है लेकिन यह अपने प्रत्येक कार्यक्रम को जिस विशिष्ट मनोभाव (particular spirit) के साथ करता है, उस भाव का एक छाप उस कार्यकर्ता के चरित्र में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। स्वामी विवेकानन्द ने स्वामी जी ने 1894 में अपने शिष्य आलासिंगा को लिखित एक पत्र में कहा था," Upon ages of struggle a character is built." --युगों युगों तक कठोर संघर्ष करने के फलस्वरूप एक चरित्र का निर्माण होता है।" इसीलिए हमलोगों को 'अन्तःप्रकृति और बाह्यप्रकृति' पर विजय प्राप्त करने के संग्राम को, कम उम्र से ही प्रारम्भ कर देना नितान्त आवश्यक है।
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👉महामण्डल द्वारा निर्देशित सामूहिक कार्यक्रम :
(i) साप्ताहिक पाठचक्र : सच्ची देश-भक्ति अपने देश की प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा में निहित विशेष मूल्यों की सही समझ से ही प्राप्त हो सकती है। और यह तभी सम्भव है जब युवाओं को भारत की सांस्कृतिक विरासत से परिचित होने का अवसर प्राप्त हो। लेकिन स्कूल -कॉलेज के सिलेबस या पाठ्यपुस्तकों में जो कुछ पढ़ाया जाता है, उसके द्वारा छात्रों को हमारी प्राचीन श्रुति-परम्परा से (या गीता -उपनिषद की शिक्षाओं से) परिचित होने का अवसर नहीं मिलता। अतः इस 'श्रुति परम्परा' (श्रवण-मनन-निदिध्यासन की परम्परा) से प्राप्त होने वाली शिक्षा (या मनःसंयोग के प्रशिक्षण) को न्यूनता-पूरक कक्षा ( supplementary classes) के रूप में दिये जाने की आवश्यकता है। इस कार्य को साप्ताहिक पाठचक्र (Study Circles-अध्यन मण्डल) के माध्यम से किया जा सकता है।
प्रति सप्ताह एक निश्चित स्थान और समय पर सत्यान्वेषी -जिज्ञासु लोगों का एक समूह मिलेंगे , तथा 'Patriot-Prophet' देशभक्त -पैगम्बर स्वामी विवेकानंद के परिव्राजक चित्र के सामने बैठकर, तथा उनको ही अपना नेता/आदर्श/ शिक्षक मानकर पूरी श्रद्धा के साथ महामण्डल के संघमन्त्र को गाने के बाद उनके द्वारा रचित स्वदेशमंत्र का पाठ होगा। तत्पश्चात सभी सदस्य महामण्डल की पुस्तिकाओं तथा विवेकानन्द साहित्य के चुने हुए अंश से श्रुति-परम्परा में श्रवण-मनन -निदिध्यासन करेंगे, ताकि राष्ट्र-निर्माण के कार्यों में अपना योगदान देने के योग्य सुन्दर चरित्र गठित हो सके। स्वामी विवेकानन्द की जीवनी (biography) और शिक्षाओं के साथ ही साथ महामण्डल की पुस्तिकाओं विशेष कर -' हमारे लिये करनीय' और महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय की आत्मकथा (memorabilia) " जीवन नदी के हर मोड़ पर" का गहराई से अध्यन और अनुशीलन करने के द्वारा इस कार्य का प्रारम्भ किया जा सकता है।
(ii) विवेकानन्द वेदान्त सार्वजिक पुस्तकालय : जहाँ सम्भव हो सके, उन सभी केन्द्रों में भारतीय सभ्यता और संस्कृति से जुड़ी हुई पुस्तकों, श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त भावधारा से सम्बन्धित पुस्तकों पर आधारित छोटे छोटे पुस्तकालय (Libraries) तथा वाचनालय (Reading room) भी स्थापित किये जा सकते हैं। स्कूल -कॉलेज के छात्रों के लिए उपयोगी पाठ्यपुस्तकों (Textbooks) को भी उसमें संग्रहित करने पर विचार किया जा सकता है।
(iii) प्राथमिक चिकित्सा: स्थानीय प्रयोजनीयता तथा उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप अन्य समाजोपयोगी कार्य भी हाथ में लिए जा सकते हैं। जैसे प्रत्येक केन्द्र के कुछ सदस्य प्राथमिक उपचार प्रशिक्षण (first aid training) प्राप्त कर सकते हैं, और जब कभी वहाँ कोई आकस्मिक जरूरत आ जाने पर वे पीड़ित लोगों की सेवा में आगे आ सकते हैं। स्थानीय डॉक्टर एवं प्राथमिक उपचार से परिचित कुशल कम्पाउण्डर्स (skilled Compounder) की सहायता से अन्य प्रकार के चिकित्सा योजनाओं को भी हाथ में लिया जा सकता है। इसके माध्यम से 'होम्योपैथिक दातव्य औषधालय', 'शिशु टीकाकरण केन्द्र' या अन्य प्रकार के 'बाल कल्याण' के कार्यों को किया जा सकता है। गरीब-मुहताज (indigent) बच्चों के बीच दूध वितरण, अन्य खाद्य वस्तुओं, कपड़ों, पुस्तकों आदि का वितरण करने से उन्हें बहुत लाभ प्राप्त हो सकता है। कभी कभी मृत शरीर का अंतिम संस्कार करना भी विशेष कल्याणकारी हो सकता है।
(iv) प्रौढ़ शिक्षा (adult education): अशिक्षा को मिटाने में सफल होने के लिए, इस समस्या पर दोनों ओर से हमला करने की जरूरत है। कामकाजी वयस्क, जिन्हें कभी शिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला, यदि उस शिक्षा को उनके निकट उपलब्ध कर दिया जाये, तो वे भी यथार्थ जिम्मेदार नागरिक बन सकते हैं। निरक्षरता की समस्या के इस पहलु को दुरुस्त करने के लिए, प्र्रौढ़ शिक्षा केन्द्र को विशेष रूप से झुग्गियों या ग्रामीण क्षेत्रों के निकट स्थापित किया जा सकता है।
(v) अवैतनिक कोचिंग : जिन छात्रों को स्कूल में दाखिला लेने का अवसर मिलता भी है, वे भी किन्तु हमेशा अपने पाठ्यक्रम को लेकर सहज नहीं होते। कई छात्रों को स्कूल में पढ़े विषयों को समझने के लिये बाहरी सहायता की आवश्यकता महसूस होती है। लेकिन कई छात्रों के पास घर में आकर ट्यूशन पढ़ाने लायक शिक्षकों को वेतन देने लायक पैसे नहीं होते। इसीलिए यदि महामण्डल के सभी केन्द्रों में निःशुल्क कोचिंग केन्द्र की व्यवस्था की जाय तो उससे विद्यार्थियों को बहुत लाभ पहुँच सकता है। हर्ष का विषय है कि कई केन्द्रों में यह परियोजना अच्छी तरह चल रही है।
ऊपर में जिन सामूहिक तौर से किये जाने वाले कार्यक्रमों को सूचीबद्ध किया गया है, वे केवल हृदयविस्तार के अनेक सांकेतिक उपायों में से कुछ प्रमुख उपाय मात्र हैं। इसी प्रकार के निःस्वार्थ सेवा के कार्य स्थान-विशेष की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए किये जा सकते हैं।
25.
👉 समर्पित कार्यकर्ता
(Dedicated Workers):
यदि उपरोक्त कार्यों को सभी सदस्य परस्पर सहयोग की भावना के साथ मिलजुल कर करते रहें, तब इसीके माध्यम से समर्पित कार्यकर्ताओं का एक ऐसा दल गठित हो जायेगा, जो व्यक्तिगत स्वार्थ को देखने के बजाय जनता-जनार्दन की सेवा को ही सर्वोच्च स्थान देंगे। वे कार्यकर्तागण स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए स्वयं एक प्रबुद्ध नागरिक (Enlightened Citizen ) बनने की चेष्टा करेंगे तथा एक श्रेष्ठतर समाज के निर्माण में दूसरों की सहायता करेंगे। वे न केवल स्वयं इस तरह के काम में संलग्न रहेंगे,अपितु समय-समय पर दूसरे केन्द्रों द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठानों में भाग भी लेंगे ताकि एक दूसरे के साथ विचारों का आदान-प्रदान करके अन्य स्थानों पर चलाये जा रहे विभिन्न कार्य-दिशा (line of action) के साथ परिचित हो सकें। ऐसा करने से भारत के विभिन्न राज्यों में स्थापित महामण्डल केन्द्रों के सदस्यों के बीच क्रमशः एक स्वाभाविक भ्रातृभाव (brotherhood) भी जाग उठेगा। (Dedicated Workers):
26.
👉 महामण्डल विचारधारा का प्रसार
(Diffusion of the Idea):
महामण्डल के सभी केन्द्र एवं प्रशिक्षित सदस्य अन्यान्य क्षेत्रों में अपने परिचित मित्रों, रिश्तेदारों आदि के साथ सम्पर्क करके उन्हें भी इसी विचारधारा के अनुसार अपने स्थानों में नये नये केन्द्र खोलने के लिए राजी कर सकते हैं। अथवा इसी भावधारा [विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" अथवा -" Be and Make Leadership Training Tradition "] का अनुसरण करने वाली किसी अन्य संस्था को महामण्डल के साथ 'सम्बद्ध ' कर उसे भी केन्द्रीय सामान्य कार्यक्रमानुसार अपने कार्यक्रम को चलाने के लिए राजी करा सकते हैं। व्यक्तिगत सम्पर्क के आधार पर यह उम्मीद की जा सकती है कि कई स्कूल -कॉलेज के छात्र-शिक्षक इस कल्याणकारी मनुष्य-निर्माण और राष्ट्र-निर्माण के रचनात्मक प्रयास में किसी कार्यरत शाखा या नवप्रतिष्ठित केन्द्र के माध्यम से इसके प्रसार में सहयोग देंगे। (Diffusion of the Idea):
27.
👉 महामण्डल के केन्द्र :
इसके वास्तविक अंग
( Its units : The Real Limbs) : महामण्डल से सम्बद्ध शाखायें ही इसके वास्तविक अंग (Limbs-अवयव) हैं। उनके माध्यम से ही महामण्डल की जीवनीशक्ति विभिन्न कार्यक्रम के द्वारा अपने अस्तित्व को अभिव्यक्त और प्रसारित करती है। महामण्डल का केन्द्रीय कार्यालय ( सिटी ऑफिस से कार्यरत महामण्डल की केन्द्रीय समिति) इन समस्त केन्द्रों को जोड़ने वाली ताकत (Connective energy) है, जिसके माध्यम से महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य वास्तविक धरातल पर रूपायित हो रहे हैं। इसलिए महामण्डल के सभी केन्द्र मानो किसी विशाल जीव के सजीव अंग-प्रत्यंग की तरह कार्य करते हैं। वर्तमान में भारत के छह राज्यों में यह कार्य चल रहा है। मार्च 1972 में, इस तरह के कुल 69 केंद्र थे। जनवरी 1975 तक भारत के 6 राज्यों--प० बंगाल, त्रिपुरा, आसाम, बिहार, उड़ीसा, आँध्रप्रदेश और दिल्ल में इसके 64 अनुमोदित (affiliated) केन्द्र कार्यरत थे।अभी अगस्त 2019 में भारत के 12 राज्यों में 315 से अधिक अनुमोदित केन्द्र कार्यरत हैं। इसके वास्तविक अंग
28.
👉 प्रमुख गतिविधियाँ
(activities):
महामण्डल के विभिन्न केंद्रों में जो प्रमुख कार्य किये जाते हैं, उनमें से कुछ प्रमुख गतिविधियां इस प्रकार है: 18 अगस्त 2019 में पहली बार विशाखापट्नम महामण्डल द्वारा रामकृष्ण मिशन के सहयोग से निःशुल्क मोतियाबिन्द कैम्प, छात्र प्रशिक्षण केंद्र, वयस्क शिक्षा केंद्र, खेल, ड्रिल, पाठ-चक्र, योग-व्यायाम प्रशिक्षण केंद्र, पुस्तकालय,झुग्गी-झोपडी उन्नयन, दूध वितरण केंद्र, छात्र सहायता केंद्र, प्राथमिक चिक्तिसा केंद्र, संगीत प्रशिक्षण केंद्र, होमिपैथी दातव्य औषधालय केंद्र, सामान्य सहायता, पत्रिका प्रकाशन, कुटीर-उद्योग प्रशिक्षण और उत्पादन केंद्र, छात्रावास आदि। इन सब कार्यों के अलावा, लगभग प्रत्येक केंद्र में -सांस्कृतिक कार्यक्रम, विशेष दिनों का पालन , संस्था के प्रचार के उद्देश्य से सार्वजनिक सभा, शैक्षणिक प्रतियोगिता, एवं उत्स्व आदि मनाये जाते हैं। दरिद्रनारायण सेवा, वस्त्र वितरण, प्राकृतिक आपदायें आने पर गरीबों और असहायों की सेवा, तथा अन्य सभी प्रकार के सेवाकार्य महामण्डल के केन्द्र अकेले या मिलजुल भी कर सकते हैं। यदि पश्चिम बंगाल के बाहर,भारत के विभिन्न राज्यों में स्थापित महामण्डल केन्द्र आवश्यक्ता-नुसार किसी भी विशिष्ठ गतिविधि को संचालित करना चाहें तो, महामण्डल के केन्द्रीय कार्यालय से सम्पर्क करने पर, " Be and Make Leadership Training Tradition " में प्रशिक्षित नेताओं/ शिक्षकों के नाम और मोबाईल नंबर आदि प्राप्त किये जा सकते हैं। (activities):
29.
👉 आवधिक विशेष शिक्षा और समीक्षा शिविर (P. S.T. C):
इसके अलावा विभिन्न राज्यों में कार्यरत महामण्डल केन्द्रों के स्थायी प्रतिनिधि, सचिव या जिज्ञासु सदस्यो के लिये महामंडल प्रशिक्षण भवन, कोन्नगर (Mahamandal training Hall) में आवधिक प्रशिक्षित शिक्षक सम्मेलन (Periodical Trained Teachers Conference) की व्यवस्था की जाती है, जिसमें विद्वान् शिक्षक [महामण्डल श्रुति -परम्परा" में प्रशिक्षित सभी विषयों के वरिष्ठ शिक्षाविद/ब्रह्मविद शिक्षक] उपस्थित रहते हैं, तथा हमारे मनुष्य-निर्माण आंदोलन से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा करते हैं। इस सम्मेलन में प्रत्येक केन्द्र के प्रशिक्षित शिक्षकों या कार्यकर्ताओं को महामण्डल केन्द्रीय समिति के प्राधिकारी वर्ग (authorities) के साथ विचारों के आदान-प्रदान का अवसर प्राप्त होता है। जब विभिन्न राज्यों में कार्यरत कोई केन्द्र अपने जिला-स्तरीय, राज्य स्तरीय या अन्तराज्जीय कोई युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित करते हैं, तो महामण्डल केन्द्रीय कार्यालय से उपुक्त वक्ताओं को भेजने की व्यवस्था की जाती है।
30.
👉 वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर
(Annual Youth Training Camp):
महामण्डल के सभी केन्द्रों के सामूहिक प्रयास द्वारा सम्पन्न होने वाला सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण कार्य है -इसका "वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर।" जहाँ प्रशिक्षणार्थियों को मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव -'शरीर -मन और हृदय' को सतुंलित रूप से विकसित कराकर उन्हें एक चरित्रवान मनुष्य, देशभक्त और जिम्मेदार नागरिक (Enlightened citizen) बनने का अवसर प्राप्त होता है।
इस शिविर के सामान्य प्रशिक्षण कार्यक्रम के अन्तर्गत - मनःसंयोग (mental Concentration), योग और शारीरिक व्यायाम, ड्रिल-परेड, प्राथमिक उपचार प्रशिक्षण (first aid training), खेल-कूद , प्रार्थना संगीत, फिल्म-प्रदर्शन, तथा भारतीय सांस्कृतिक विरासत, सभ्यता और दर्शन, सामाजिक नैतिकता, और श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त विचारधारा आदि विषयों व्याख्यान आदि आयोजित किये जाते हैं। यहाँ सभी प्रशिक्षणार्थियों को यथार्थ आत्मविकास करने का पर्याप्त अवसर प्राप्त होता है।
यह शिविर विभिन्न राज्यों से आये प्रशिक्षणार्थियों तथा विशिष्ठ शिक्षकों के बीच सप्रेम एकत्व और भ्रातृत्वबोध जाग्रत कर देता है; तथा यह आध्यात्मिक सम्बन्ध बहुत प्रगाढ़ और दीर्घस्थायी होता है। वार्षिक शिविर में अंश-ग्रहण करने वाले कई लोगों ने शिविर से लौटने के बाद अपने अपने क्षेत्रों में इसी "महामण्डल श्रुति परम्परा" या विचारधारा के अनुरूप महामण्डल के केन्द्र को स्थापित किया है, अथवा अपने पहले से चल रही किसी संस्था को महामण्डल के साथ सम्बद्ध करवा लिया है।
युवाओं के जीवन पर इस शिविर का सर्वाधिक प्रभाव जो दृष्टिगोचर होता है वह मनःसंयोग, प्रार्थना और विशिष्ठ ढंग की सेवाकार्य (गार्ड-ड्यूटी आदि) प्रशिक्षण का परिणाम है। ये सभी विषय शिविर-दिनचर्या एवं प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में इस प्रकार अन्तर्निहित हैं कि जो उन्हें 'सार्वदेशिक शिक्षा 'Universal education' का व्यावहारिक रूप दिखाई देता है, जिसके परिणामस्वरूप उनकी आदतें, उनका चरित्र और उनके विवेकपूर्ण चिंतन-प्रवाह के निर्माण में दूरगामी प्रभाव उत्पन्न हो जाता है; और उन्हें अपने जीवन का एक निश्चित लक्ष्य और उद्देश्य निर्धारित करने में सहायक सिद्ध होता है।
इस प्रशिक्षण-प्रणाली में जिस प्रक्रिया अभ्यास करना उन्हें सिखाया जाता है, वे अभ्यास उनके ऊपर थोपा गया हो, ऐसा उन्हें प्रतीत नहीं होता, बल्कि वे इसे अपने लिए अत्यन्त लाभकारी समझकर स्वाभाविक रूप से ग्रहण करते हैं। यह उम्मीद की जाती है कि भविष्य में और भी अधिक संख्या में कार्यालय लोग हमारे वार्षिक शिक्षण शिविर का लाभ उठाएंगे, जहां उनसे किसी भी विषय पर ऑंखें मूँदकर विश्वास करने के लिए नहीं कहा जाता, या जबरन थोपने की चेष्टा नहीं की जाती। बल्कि उन्हें स्वैच्छिक आत्मानुशासन का अभ्यास करने की अनिवार्यता को समझने में उनको सहायता दी जाती है। इस वार्षिक शिविर के अलावा, कई केंद्रों के द्वारा स्थानीय स्तर पर या जिला स्तर पर युवा प्रशिक्षण शिविर का आयोजन भी किया जाता है, जिससे और अधिक संख्यक युवा इस "महामण्डल श्रुति-परम्परा " में आयोजित शिक्षा का आस्वादन कर सकते हैं।
31.
👉मासिक मुखपत्र 'विवेक-जीवन' /'विवेक-अंजन':
स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं तथा महामण्डल के उद्देश्य का प्रचार करने तथा समस्त केन्द्रों के बीच परस्पर सहयोग की भावना को विकसित करने के लिए, महामण्डल के केन्द्रीय कार्यालय के द्वारा युवाओं को 'विवेक-जीवन ' अर्थात विवेक-प्रयोग का जीवन जीने की प्रेरणा देने के उद्देश्य से एक द्विभाषी (अंग्रेजी और बंगाली) मासिक मुखपत्र 'विवेक-जीवन’ प्रकाशित किया जाता है। तथा महामण्डल के झुमरीतिलैया , कोडरमा, झारखण्ड शाखा से इसका मासिक मुखपत्र 'विवेक-अंजन ' का प्रकाशन भी किया जाता है।
32.
👉 हिन्दी प्रकाशन :
महामंडल की समस्त पुस्तिकाओं का तथा इसकी संवाद पत्रिका 'विवेक- अंजन' का अध्यन करने से युवाओं को अपना सुन्दर जीवन गठित करने में बहुत सहायता मिलेगी। प्रत्येक जाति और धर्म के युवा इससे लाभान्वित होंगे। यहाँ तक कि जो युवा भाई किसी धर्म या ईश्वर में विश्वास नहीं करते किन्तु भारत से प्यार करते हों तो उनको भी इन पुस्तिकाओं के अध्यन से बहुत लाभ होगा। किशोरावस्था अथवा कम उम्र में मानव जीवन का मूल्य तथा चरित्र-गठन की अनिवार्यता समझ में नहीं आती। और उम्र बढ़ जाने के बाद उस दिशा में प्रयत्न करने पर हताशा ही हाथ लगती है। यदि कम उम्र में ही कोई तरुण इन पुस्तिकाओं का अध्यन कर लें, तो उनके लिए वैसी सम्भावना नहीं रहेगी। इन पुस्तिकाओं का अध्यन करने तथा उनमें दिए गये परामर्शों को अमल में लाने पर युवाओं के जीवन में विफलता कभी नहीं आ सकती।
महामण्डल द्वारा हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकों की सूचि :
1. महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय की आत्मकथा -
"जीवन नदी के हर मोड़ पर " ------- ------------100/=
2. मनः संयोग ( एकाग्रता )..................8/=
3.जीवन गठन ........................................... 5/=
4. चरित्र गठन . ...................................... 8/=
5. चरित्र के गुण .............................................12/=
6. एक युवा आन्दोलन ...................................15/=
7. विवेकानन्द और युवा आन्दोलन ...............15/=
8. जिज्ञासा तथा समाधान ...............................10/=
9. अल्मोड़ा का आकर्षण .................................3/=
10.पुनरुज्जीवन के उपाय....................................1/=
11.नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण-----------15/=
12. युवा समस्या एवं स्वामी विवेकानन्द----- 10/=
13. हमारे लिए करनीय --------------------5/=
14 .स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना-- 15/=
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का हिन्दी प्रकाशन विभाग, झुमरीतिलैया, कोडरमा, झारखण्ड में निम्न पते से कार्यरत है:
Hindi publication division of the Mahamandal.
Tara Tower, Jhumritelaiya, Koderma, Jharkhand .
33.
👉 युवाओं को आह्वान
(An Appeal to the youth):
हम उन सभी विचारशील नवयुवकों --जो स्वामी विवेकानन्द के नेतृत्व में आस्था रखते हैं, जो मानवजाति को दिए गए उनके अमर सन्देशों तथा राष्ट्र की आत्मा को झंकिर्त कर देने में समर्थ उनके ' call to the nation' या राष्ट्र को आह्वान में विश्वास रखते हैं,---से यह अपील करते हैं, कि वे आगे आयें और ,महामण्डल में शामिल होकर सभी प्रकार के ' Newspaper Humbug'-अख़बारों में 'छपास' और 'दिखास' की प्रवृत्ति एवं नाम-यश की कामना को त्यागकर 'मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-निर्माणकरी शिक्षा ' -' Man-making and Character-building education'- जो -सम्पूर्ण जगत की समस्त बुराइओं को समाप्त करने में सक्षम एकमात्र रामबाण औषधि है- के माध्यम से अपने नये जीवन का श्रीगणेश (3H के विकास की शुरुआत) करने के लिए नीरव भाव से कार्य करने में जुट जाएँ !कोई भी व्यक्ति अथवा शैक्षणिक संस्थान या कोई समाज-सेवी संगठन यदि कार्य में रुचि रखते हों , तो आप महामण्डल के महासचिव (General Secretary) के साथ केंद्रीय कार्यालय के पते पर संपर्क कर सकते हैं। हमारा पता है --Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal.
6/1A, Justice Manmatha Mukherjee Row,
KOLKATA,
INDIA-700 009
Phone : (033) 2350-6898, 2352-4714
E.mail-abvymcityoffice@gmail.com
Website: www.abvym.org
34.
👉 महामण्डल का संघमंत्र :
देशवासियों की बिखरी हुई इच्छाशक्ति और संकल्प को एकोन्मुखी बनाने के लिए संगठन की आवश्यकता को रेखांकित करता है। इतने प्राचीन काल से ऋषि हमें यही बात समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं, कि हमें इस एकात्मबोध या मतैक्य देवता (Reconciliation- समन्वय या सामंजस्य देवता को) को प्राप्त करना ही होगा। वे कहते हैं - अग्नि में जिस 'हवि' की आहुति दी जाती थी, उसे सभी देवगण आपस में समान भाग में बाँट कर ग्रहण करते थे। हमलोग भी उन्हीं के समान भौतिक सुख, जगत के धन-ऐश्वर्य या आध्यात्मिक सुख (ब्रह्म के साथ अपने अद्वैत की अनुभूति) प्राप्त होने पर उसे 'प्रसाद' के जैसा, समान रूप से बाँटकर ही ग्रहण करेंगे। इसलिए हमलोग अपने 'संघ-मंत्र' में यही प्रार्थना करते हैं कि हमारा मतैक्य भाव बना रहे, ताकि हम अपनी समस्त उपलब्धियों को समान भाग में बाँटकर ही भोग करें। एक मन हो जाना, एक संकल्प ग्रहण कर लेना -'मैं चरित्रवान मनुष्य बनूँगा !' यह विचार ग्रहण कर लेना ही सर्वश्रेष्ठ 'समाज-सेवा' है, तथा 'जीवन-गठन', 'समाज-निर्माण' और 'राष्ट्र -निर्माण' (nation building) का मूल रहस्य है-- संगच्ध्वं संग्वदध्वं संग वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।।
समानो मन्त्रः समितिः समानी ।
समानं मनः सः चित्त्मेषाम ।।
समानं मन्त्रः अभिम्न्त्रये वः ।
समानेन वो हविषा जुहोमि ।।
समानी व् आकुतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।।
(ऋग्वेद :१०/१९१/२-४ )
भावार्थ :
तुमलोग संघबद्ध हो जाओ, एक लय में बोलो , अपने मानस समूह (विचारों) को समान रूप से जानो ।
पुवर्ती देवता लोग [preceding- come before (something) in time] जिस प्रकार हवि को समान रूप से बाँटकर ग्रहण करते थे, उसी प्रकार परस्पर की अवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए (धन आदि) ग्रहण करो !
उन लोगों के लिए प्रशस्ति (glorification-गुणकीर्तन , महिमागान) एक समान है, उनलोगों की सिद्धि (attainment-लाभ, उपलब्धि) एक समान है, उनके अन्तःकरण (मन,बुद्धि,चित्त,अहंकार) एक समान हैं, उसी प्रकार तुम्हारे विवेकज-ज्ञान एक ही विषय मे एकीकृत हों ! हे देवगण, मैं भी तुम (सबों के) एकीकृत मन्त्र को मानो घनीभूत (consolidate) करते हुए अपना सुधार करता रहूँ; तुम सबों के सामान्य चित्र के समक्ष आहुति प्रदान करता हूँ।
जैसे आपके संकल्प एक समान हैं, आपके हृदय-समूह एक समान हैं, उसी प्रकार हमारे अन्तःकरण समूह भी एक समान हो जाएँ। जो करने से हम सबों में परम एकत्व-बोध स्थापित होता है, वैसा ही हो !
हिन्दी अनुवाद
एक साथ चलेंगे ,एक बात बोलेंगे ।
हम सबके मन को एक भाव से गढ़ेंगे ।।
देव गण जैसे बाँट हवि लेते हैं |
हम सब सब कुछ बाँट कर ही लेंगे ।।
याचना हमारी हो एक अंतःकरण एक हो।
हमारे विचार में सब जीव एक हों।
एक्य विचार के मन्त्र को गा कर।
देवगण तुम्हें हम आहुति प्रदान करेंगे।।
हमारे संकल्प समान, ह्रदय भी समान।
भावनाओं को एक करके परम ऐक्य पायेंगे।।
एक साथ चलेंगे, एक बात बोलेंगे.......
'मतैक्य देवता' की उपासना करने के लिए पहले हमें भी साम्यभाव में प्रतिष्ठित होना होगा: साम्य भाव में स्थित होने की कल्पना करते ही, हमें इस प्रकार की समस्त क्षुद्रताओं को विसर्जित कर देना होगा, समस्त स्वार्थों की बली चढ़ा देनी होगी ; तभी हमलोग इस सर्वव्यापी विराट साम्यभाव को प्राप्त कर सकेंगे। गीता 5:19 में कहा गया है - इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः। तात्पर्य यह है कि इस शरीर में रहते हुए ही अमरत्व को प्राप्त किया जा सकता है। मृत्यु के भय पर सदा के लिए विजय प्राप्त किया जा सकता है। पर उसे केवल वे ही प्राप्त कर सकते हैं, जिनका मन साम्य में अवस्थित हो चुका है। अतः यदि मन में कभी यह प्रश्न उठे कि इस लोक में अमर कौन है ? तो इसका स्पष्ट उत्तर होगा कि 'ब्रह्म के साथ अपने अद्वैत का (आत्मा का अहं का नहीं) अनुभव' करके जिन्होंने साम्यभाव को प्राप्त कर लिया है, जिन्होंने अपने समस्त स्वार्थों को विसर्जित कर दिया है। गीता में वर्णित इस साम्यभाव को हमें स्वयं प्राप्त करना होगा, और फिर इसी महान उपदेश को समस्त युवकों के समक्ष पहुँचा देना होगा। यही महामण्डल आंदोलन के वुड बी लीडर्स या भावी नेताओं/ आध्यात्मिक शिक्षकों को स्वामी विवेकानन्द के द्वारा सौंपा गया कार्य है। अतः हमारे सामने यही महान उद्देश्य है।
35.
शिक्षा : लीडरशिप ट्रेनिंग :
जब कोई शिशु इस धरा पर आता है, तब उसमें सुंदर जीवन की सभी सम्भावनायें निहित रहती हैं। हर शिशु सुन्दर ही दीखता है, किन्तु समाज की विषम परिस्थितियाँ उस पर प्रभाव डालती हैं। जिस प्रकार आजकल वायुमण्डल, जल आदि प्रदूषित हो गए हैं, पवित्र गंगा का जल भी आज प्रदूषित हो गया है। बड़े बड़े शहरों की आबोहवा इतनी विषाक्त हो गयी है, उसे स्वच्छ रखने के लिए वैज्ञानिक उपाय खोजे जा रहे हैं। रासयनिक कचरा उत्पन्न करने वाले कल-कारखानों के लिए प्रदूषण नियंत्रक संयन्त्र लगाना अनिवार्य कर दिया गया है, उसके बिना कारखानों का लाइसेंस रद्द कर दिया जायेगा। इस प्रकार की चेतावनी सभी कलकारखानों को दी जा रही है। किन्तु, सामाजिक जीवन को प्रदूषित होने से बचाने के लिए हमलोग क्या प्रयास कर रहे हैं ? जिस स्वच्छ वायु को ग्रहण कर मनुष्य अपने मन-प्राण को प्रफुल्लित कर सकता है, वह वायु आज कितना प्रदूषित हो गया है ? जिसके कारण मानव-समाज का स्वास्थ्य निरंतर खराब होता जा रहा है। देश के विभिन्न महानगरों में प्रदूषण का स्तर इतना बढ़ गया है कि वहाँ अब अपने प्राकृतिक सौन्दर्य और सुगन्धि बिखेरते पुष्प दिखाई नहीं देते। सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में जिस प्रकार के सद्यःजात, पवित्र, पूर्ण रूप से खिले और सुंदर सौरभ बिखेरते जो पुष्प दिखाई पड़ते हैं, वैसे फूल आद्योगिक नगरों में दिखाई क्यों नहीं पड़ते ? इसीलिए कि वहाँ का वायुमण्डल इतना प्रदूषित हो गया कि जीवन-पुष्प की कलियाँ खिलने के पहले ही मुरझा जाती हैं, या खिल भी जाती हैं, तो उसमें वैसी जीवन्तता, ओजस्विता या वैसी प्राणऊर्जा दिखाई नहीं देती। अपने जीवन को एक अनुशासित और प्रशिक्षित माली के जैसा गठित कर लेने का संकल्प,इच्छाशक्ति और प्रेरणा तो हो, किन्तु उसे पूरा करने की उपयुक्त क्षमता हमारे भीतर न हो, तो यह कार्य कभी रूपायित नहीं हो सकेगा। अब प्रश्न उठता है कि इस क्षमता को कैसे प्राप्त किया जाय ? उसके लिए -अर्थात एक प्रशिक्षित माली(आध्यात्मिक शिक्षक /नेता) बनने के लिए हमें क्या करना होगा ? स्वामीजी से अमेरिका में कैप्टन सेवियर ने पूछा था - 'Swami ji are you a buddhist?' तब थोड़ा मजाकिया ढंग से उन्होंने कहा था - " No, I am a 'bud'-ist ! " अर्थात 'स्वामी जी क्या आप एक बौद्ध हैं ?' तब इसके उत्तर में उन्होंने हँसते हुए कहा था -" नहीं, मैं एक 'बडिस्ट' हूँ ! वहाँ वे यही कहना चाह रहे थे कि मैं बच्चों के जीवन-पुष्प को सुंदररूप से प्रस्फुटित करा देने में सक्षम एक माली (nurseryman, पौधा-घरदार) हूँ ! 58] ऐसा प्रशिक्षित माली बनने के लिए हम सभी को संघबद्ध होकर, संगठित होकर, प्रयास करना होगा। सबसे पहले हमलोगों को संगठित होकर अपने-अपने गाँव-मुहल्ले में एक-एक युवा पाठचक्र की स्थापना करनी होगी। और उसी युवा-पाठचक्र के माध्यम से संगठित होकर हमलोग इसके लिए परस्पर एक-दूसरे की सहायता करेंगे कि हमारे अंदर हमेशा, अनवरत यह सद्संकल्प जाग्रत रहे कि, हमलोग भी 'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर अद्वैत वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित एक नर्सरीमैन, माली, पौधा-घरदार,शिक्षक या नेता बनेंगे। ]
36.
👉 महामण्डल पताका :
वज्रांकित ध्वज आयताकार (3: 2); गेरुआ कपड़े पर नीले रंग के रेशमी सूते कढ़ाई किया ' वज्र छाप' (त्याग और आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक) होता है।
37.
👉महामण्डल का प्रतीक चिन्ह :
महामण्डल को पंजीकृत कराने के लिए, जब इसके महान उद्देश्य (जगत का कल्याण और विश्वशांति) को बहुत संक्षेप में लिखने को बाध्य होना पड़ा, तब उसमें कहा गया कि स्वामी विवेकानन्द के शक्तिदायी विचारों को देश के युवा वर्ग के मन में प्रविष्ट करा देना ही महामण्डल का उद्देश्य है। किन्तु यह लिखते समय मन में यह विचार भी उठा कि 'विवेकानन्द के विचारों का क्रियान्वन ' कहने में कहीं हमारी 'मतूयार-बुद्धि'तो छिपी नहीं है ?श्रीरामकृष्ण द्वारा व्यवहृत इस शब्द 'मतूयार-बुद्धि' का अर्थ: होता है, किसी एक व्यक्तिविशेष को किसी विशेष मतवाद का प्रवर्तक के रूप में खड़ाकर उसी के मत को जबरन सर्वत्र फैला देने या प्रचारित करने की चेष्टा करने की बुद्धि या धर्मान्धता (bigotry)| कहीं लोग यह तो नहीं समझेंगे कि हमलोग भी धर्मान्ध होकर, विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित किसी विशेष मतवाद को प्रचारित करने की कहीं हठधर्मिता (dogmatism) तो नहीं कर रहे हैं? तो फिर स्वामी विवेकानन्द का नाम हम हठात क्यों सामने ला रहे हैं ? शायद इसी गलतफहमी से बचने के लिए कहना पड़ा था कि स्वामी विवेकानन्द के जीवन तथा शिक्षाओं में, जो "मनुष्यनिर्माण तथा चरित्रनिर्माणकारी विचार" (मैन विथ कैपिटल 'एम'-'Man making and character building ideas) सन्निहित हैं,उन्हें युवावर्ग के सम्मुख प्रस्तुत कर देना ही महामण्डल का मुख्य कार्य है। ' मनुष्यनिर्माण तथा चरित्रनिर्माणकारी विचारों' शिक्षाओं को युवाओं के मन में प्रविष्ट करा देना ही महामण्डल का उद्देश्य है।]
[ महमामण्डल का प्रतीक-चिन्ह: (एम्ब्लेम) में जो वृत्त (गोलाई) है, वह पृथ्वी का प्रतीक है, पृथ्वी के भीतर कन्याकुमारी से प्रारम्भ होता हुआ भारतवर्ष का मानचित्र है। भारतवर्ष के भीतर युवा महामण्डल के आदर्श परिब्राजक स्वामी विवेकानन्द खड़े हैं ! उस गोलाई के नीचे हमारा आदर्श वाक्य (मोटो) लिखा है ' Be and Make ';यह महावक्य भी स्वामी जी का दिया हुआ निर्देश है। इसका साधारण अर्थ है - स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो! किन्तु स्वामी विवेकानन्द द्वारा कथित यह महावाक्य भी वेदों में कथित चार महावाक्यों के समान ही अत्यन्त सारगर्भित है! जैसे वेदान्त के चार महावाक्य -"अहंब्रह्मास्मि", "तत्त्वमसि" इत्यादि के बड़े गहरे अर्थ होते हैं, ठीक वैसे ही स्वामी विवेकानन्द द्वारा कथित इस महावाक्य "बनो और बनाओ" का भी बहुत गहरा अर्थ है। "BE AND MAKE " का गहरा महत्व यह है कि हमलोग केवल साढ़े-तीन हाथ के शरीर मात्र ही नहीं हैं।विवेकानन्द के गुरु भगवान श्रीरामकृष्णदेव कहते थे, " जिस प्रकार पानी जमकर बर्फ बन जाता है, उसी प्रकार निराकार, अखण्ड, सच्चिदानन्द 'ब्रह्म' ही साकार रूप धारण कर लेता है। जैसे बर्फ पानी से ही पैदा होती है, पानी में ही रहती है, और पानी में ही मिल जाती है; वैसे ही ईश्वर का साकार रूप भी निराकार ब्रह्म से ही उत्पन्न होता है, उसी में अवस्थित रहता है तथा उसी में विलीन हो जाता है।" (अमृतवाणी/साकार और निराकार/२३०) उसी प्रकार हमारे तीन कम्पोनेंट्स हैं - शरीर, मन और हृदय। शरीर स्थूल होता है, इसलिये हमलोग उसको देख पाते हैं, मन अत्यन्त सूक्ष्म वस्तु है इसलिये उसको देख नहीं पाते, किन्तु अनुभव करते हैं कि मेरा मन है। और हृदय, हार्ट (Heart) हम लोग बोलते हैं; यह उससे भी सूक्ष्म वस्तु है- वास्तव में वो आत्मा है। लेकिन अभी हमलोग उसको समझ नहीं पायेंगे; इसीलिये स्वामी जी उसको हार्ट बोले। क्योंकि आत्मस्वरूप को अनुभव करने या फील करने की शक्ति हृदय में होती है। अतः हृदय को विकसित करने की शिक्षा प्राप्त करने से आत्मविश्वास आता है। और आत्मविश्वास से अंतर्निहित ब्रह्मभाव जागृत हो जाता है!
38.
'अंतर-राज्य पर्यवेक्षण समिति'
('Inter-State Supervision Committee')
को बंगाल के बाहर जिन राज्यों में 'सारदा नारी संगठन' और 'विवेक-वाहिनी' चल रहे हों, उसके संचालकों की फोन, eमेल ऐड्रेस की सूचि बनाकर, 'केन्द्रीय सारदा नारी संगठन' के मार्गदर्शन में, बंगाल के बाहर कम से कम एक-दिवसीय 'नारी-प्रशिक्षण शिविर' और 'विवेक-वाहिनी शिविर' का आयोजन करने का प्रयास गोल्डन जुबली वर्ष में अवश्य करना चाहिये। इसका प्रारम्भ -'असनाबाद सारदा नारी पाठचक्र '-झुमरी तिलैया या 'जानिबिघा सारदा नारी पाठचक्र' की मातृ शक्तियों को अनुप्रेरित कर झुमरीतिलैया या जानिबिघा में करने की चेष्टा होनी चाहिये। --------------------------------->>>>>---->>>