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मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

भारतीय संविधान में 'लीडरशिप ट्रेनिंग' -२

 " चिंतनीय बातें : योग-प्रशिक्षक पतंजलि क्या आधा आदमी और आधा सांप थे ?  "
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " हमारे सामने यह सारा संसार है जो महादुःख से परिपूर्ण है। बुद्ध के समान इस संसार-सागर में गोता लगाकर या तो इस संसार के दुःख को दूर करो या इस प्रयत्न मेँ प्राण त्याग दो। अपने को भूल जाओ; आस्तिक हो या नास्तिक, अज्ञेयवादी हो या वेदान्ती, ईसाई हो या मुसलमान - प्रत्येक (प्रबुद्ध भारतवासियों) के लिये यही सबसे पहला पाठ है।"  
" एक बात जो मैं सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट देखता हूँ, वह यह कि अज्ञान ही दुःख का कारण है और कुछ नहीं। जगत को प्रकाश कौन देगा ? भूतकाल मेँ बलिदान का नियम था और अफसोस युगों तक ऐसा ही रहेगा। संसार के वीरों को और सर्व-श्रेष्ठों को 'बहुजनहिताय, बहुजन सुखाय' अपना बलिदान करना होगा। असीम दया और प्रेम से परिपूर्ण सैकड़ों बुद्धों की अवश्यकता है। वत्स, बढ़े चलो, समग्र जगत ज्ञानालोक के लिये लालायित है, उस ज्ञानालोक को प्राप्त करने के लिये उत्सुकतापूर्ण दृष्टि से जगत हमारी ओर देख रहा है। " 
युवा-नेता विवेकानन्द ने यह तथ्य भी सामने रखा था कि, 'पत्ते सींचने से पेड़ की सेहत नही संभलती, उपचार को जड़तक पहुँचाना जरुरी है।' जब तक मनुष्य के स्वभाव को, उसके चरित्र को मनुष्य के अनुरुप नही बनाया जायेगा तब तक बात बनेगी नहीं। यदि हमें धरती पर स्वर्ग चाहिए तो मनुष्य को अपना चिन्तन, व्यवहार, (आदत और प्रोपेनसिटीज) को भी देवता जैसा बनाना होगा।  
वर्तमान समय में चाहे समाज  के चिन्तन का रुझान प्रेय की दिशा (भ्रष्टाचार की दिशा) में भी क्यों न हो, यदि उसकी चिन्तन की दिशा और रुझान को सही दिशा, श्रेय की दिशा (चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माण) में संलग्न कर दिया जाय तो, समाज भी 'श्रेय-मार्ग' पर लौट आने को बाध्य होगा। यदि हमारे चिन्तन का रुझान केवल परार्थ के लिए ही हों, तभी  हमारे समस्त कार्य उत्तम दिशा में, नीति की दिशा में, जायेंगे और समाज का चरित्र उन्नत होने को बाध्य होगा ! किन्तु हमारे चिन्तन-पथ का रुझान यदि गलत दिशा में हुआ (श्रेय न होकर प्रेय की ओर हुआ ) तो कर्म-संपादन भी गलत रास्ते में होगा। 
स्वस्थ मानसिकता को प्राप्त करने के लिये या अच्छी सोच उत्पन्न करने के लिये, समाज के पास उन्नत विचारों और भावों का भण्डार होना चाहिये, क्योंकि उन्नत विचारों से प्रेरित होकर सतकर्म करने से अच्छा चरित्र बन सकता है। उच्च भावों को चरित्रगत करने के लिए   आदर्श कर्मी बनाने के लिये समाज में पौष्टिक मानसिक आहार का प्रचार-प्रसार करना होगा।इसीलिये अब मुझे और आपको व्यर्थ की बातों में समय न बिताकर, केवल चिंतनीय बातें (नचिकेता, मदालसा, ध्रुव, रामायण, गीता, उपनिषद में वर्णित कहानियाँ ) ही करनी होंगी। और सम्पूर्ण समाज में उस चिन्तन को फैला देना होगा। 
किन्तु भावी नेता आदर्श कर्मी या 'जन-सेवक' बनने का प्रशिक्षण देने के पहले हमें यह समझना होगा कि वर्तमान (अंग्रेजों के जमाने में जीने वाले ) सरकारी कर्मचारियों या आई.ए.एस लोगो की मुख्य समस्या क्या है ?  मुख्य समस्या है पदनाम और उपाधि का मिथ्या अहंकार ! नेता, नौकरशाह या साधारण अधिकारी वर्ग (सरकारी कर्मचारी) अपनी विशेष पदवी और पदाधिकार के बल पर जिस सत्ता को प्रकट करना या जाहिर करना चाह रहे हैं, वह उनका 'कच्चा मैं' (पद-नाम का मिथ्या अहंकार ) है, उनकी वास्तविक सत्ता या उसका 'पक्का मैं' नहीं है। कच्चा 'मैं ' को 'पक्का मैं ' रूपान्तरित करने की चेष्टा को ही आत्म-विकास, चरित्र-निर्माण, शिक्षा और धर्म कहते हैं। 
 १२५ करोड़ भारत वासियों से बने 'एक भारत' को 'श्रेष्ठ भारत' बनाना यदि हमारा मकसद हो, तो हमें जाति-धर्म (मजहब) के आधार पर  अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक, अगड़ी- पिछड़ी जाति का भेदभाव, सेक्यूलर का सही अर्थ धर्मनिरपेक्ष है या पंथ-निरपेक्ष है--इस विषय पर वाद-विवाद करना छोड़ कर-- धर्म क्या है ? इस पर बहस हो ! एवं आरक्षण का विरोध करने वालों से मेरा विनम्र आग्रह है कि वे इस देश और समाज का माहौल खराब नहीं करें तथा अपने पूर्वजों द्वारा किये गये वर्णाश्रम धर्म के वायदों का निर्वाह करके अपने नैतिक एवं संवैधानिक दायित्वों (आदत -प्रवृत्ति में सुधार से पशु-मानव को देव-मानव में रूपान्तरित करने का दायित्व ) को पूर्ण करें।
इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने पहली बार संविधान निर्माता डॉ. बीआर अंबेडकर के १२५ वीं जन्म-जयंती के अवसर पर २६ नवंबर, २०१५  को संविधान दिवस के तौर पर मनाने का निर्णय लिया। भारत सरकार ने निर्णय लिया है कि प्रत्येक वर्ष २६ नवंबर को देश में संविधान दिवस के रूप में मनाया जायेगा। इस अभियान से शासकीय अधिकारियों कर्मचारियों के अलावा आम जनता तक भारतीय नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों और दायित्वों का संदेश पहुंचेगा।
सरकार ने कार्यक्रम का विस्तृत प्रचार -प्रसार करने के निर्देश दिये हैं ताकि आम जनता तक भारतीय नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों एवं दायित्वों का संदेश पहुंच सके। इस अवसर पर जिले के सभी शैक्षणिक संस्थानों एवं सभी शासकीय कार्यालयों में भारतीय संविधान के प्रस्तावना को पढ़ा जायेगा। इसके अलावा शैक्षणिक संस्थाओं -स्कूल, कॉलेज व यूनिवर्सिटी के छात्रों में संविधान के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने के लिए मॉक पार्लियामेंट  [काल्पनिक (क्षद्म) संसद], निबंध लेखन, संवैधानिक प्रावधानों के संबंध में वाद-विवाद प्रतियोगिता, मूल भारतीय संविधान में प्रसिद्द चित्रकार नन्दलाल बोस द्वारा बनाये गए २२ चित्रों पर आधारित पोस्टर -बनाओ प्रतियोगिता एवं व्याख्यान आयोजित किये जायेंगे। साथ ही इस दिन समस्त शासकीय कार्यालयों में पूर्वान्ह ११ बजे भारत के संविधान की प्रस्तावना का सामुहिक पठन किये जाने के निर्देश दिये गये हैं।
विभिन्न स्कूलों में भाषण प्रतियोगिता और छात्र संसद का आयोजन भी किया गया, जिसमें विद्यार्थियों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। युवा संसद में पक्ष और विपक्ष के बीच सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को लेकर तीखी नोक-झोंक हुई। कार्यक्रम के अंत में संस्था के शिक्षक (टी एंकटराव) के नेतृत्व और मार्गदर्शन में छात्र-छात्राओं ने मानव शृंखला के रूप में संविधान दिवस (कॉन्सीट्युसन डे) का प्रतीक चिन्ह बनाया जो मुख्य आकर्षण का केन्द्र था। इस मानव शृंखला के माध्यम से भारतीय संविधान के प्रति ग्रामवासियों को जागरूक करने का प्रयास किया गया।

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 डॉ.अम्बेडकर भारतीय संविधान के प्रारूप निर्माण समिति के अध्यक्ष थे। देश का संविधान ६६  वर्ष पूर्व २६ नवम्बर १९४९ को संविधान सभा द्वारा पारित किया गया था, जो २६ जनवरी १९५० से प्रभावी हुआ।
सारी दुनिया जानती है कि भारत का संविधान सेक्युलरिज्म (धर्मनिरपेक्षता) के सिद्धान्त पर खडा है। जब तक भारत में यह संविधान लागू है, इस देश में किसी को भी संविधान से खिलवाड करने का हक नहीं है। बल्कि संविधान का पालन करना हर व्यक्ति का संवैधानिक एवं कानूनी दायित्व है। किन्तु ये दोनों शब्द -सेक्यूलर और सोसलिस्ट ; बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर द्वारा रचित मूल संविधान की प्रस्तावना में नहीं था, इसे १९७६ में आपात काल के दौरान ४२ वां संसोधन द्वारा भारतीय संविधान में जोड़ा गया था। 
  किन्तु भारत इस संविधान के लागु होने के हजारों साल पहले से सेक्युलर था, क्योंकि सर्व-धर्मसमन्वय या अविरोध ही प्राचीन भारतीय संस्कृति का डी.एन.ए है। इसीलिये संवैधानिक तौर पर भारत आज भी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है; और हर व्यक्ति को यहाँ पर धार्मिक आजादी है। लेकिन हिन्दूवादी कट्टरपंथियों और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण को बढावा देने वाले राजनैतिक दलों ने धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप को विकृत कर दिया है।
वास्तव में संविधान ही इस देश का सबसे बड़ा ग्रंथ है, जिसके आधार पर देश का शासन चलता है। उन्होंने स्कूली बच्चों को बताया कि हमारा संविधान किसी विशेष विचाधार पर आधारित नहीं, बल्कि इसके निर्माण में कई विचारधाराओं के सकारात्मक सन्देशों को शामिल किया गया है। देश का संविधान शक्तिशाली है जो भारतीय लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली व व्यवस्था का निर्धारण करता है। उन्होंने विद्यार्थियों को संविधान में निहित अधिकार, कर्त्तव्य तथा संविधान की संरचना व इतिहास के बारे में विस्तार से जानकारी दी। उन्होंने संविधान निर्माण और लागू होने के बारे, लक्ष्यों व उद्देश्यों तथा संविधान की प्रस्तावना बारे प्रकाश डाला। कार्यक्रम में कक्षा छठवीं से बारहवीं तक के विद्यार्थियों ने मूल भारतीय संविधान में शांतिनिकेतन के प्रसिद्द चित्रकार नन्दलाल बोस द्वारा बनाये गए २२ चित्रों के आधार पर पोस्टर बनाओ प्रतियोगिता में अपनी कल्पना एवं मेधा का परिचय दिया। प्रतियोगिता के सफल प्रतिभागियों को पुरस्कृत किया गया। प्रात:कालीन प्रार्थना सभा में विदद्यालय में उपस्थित सभी छात्र-छात्राओं ने भारतीय संविधान के प्रति आस्था प्रकट करते हुए संविधान की सपथ ली। कार्यक्रम में शिक्षिका रूमकी तिवारी ने देश के संविधान में दिये गये छह मौलिक अधिकारों पर प्रकाश डाला। स्कूल की छात्रा पुष्पा सांगा ने कहा कि आज के परिपेक्ष में सभी छात्राओं को भारतीय संविधान की जानकारी होनी चाहिए।
नचिकेता के समान श्रद्धा के बल पर, मृत्यु के रहस्य को जान लेने और इन्द्रियातीत सत्य (ब्रह्म) का साक्षात्कार करके ऋषि (पैगम्बर या मानवजाति का मार्गदर्शक 'नेता') बन जाने  की संभावना, मानव-मात्र में निहित है ! मन की अतिचेतन (तुरीय -तीन से परे : सुपर कॉन्शस स्टेट ऑफ़ माइंड ) अवस्था  में पहुँचकर इन्द्रियातीत सत्य का साक्षात्कार करने की साधनापद्धति- 'मनःसंयोग', मनुष्य को जिस योग- प्रशिक्षक के माध्यम से प्राप्त होता है, महामण्डल में उसके लिये ‘नेता’ शब्द का व्यवहार किया जाता है।  इसी नेतृत्व क्षमता या ऋषित्व को प्राप्त करने की पद्धति (मनःसंयोग ) का प्रशिक्षण देने में समर्थ मानवजाति के एक ऐसे ही मार्गदर्शक नेता (सत्य-द्रष्टा) स्वामी विवेकानन्द जी घोषणा करते हैं - " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, वाह्य प्रकृति और अन्तः प्रकृति पर विजय प्राप्त कर -अपने दिव्य-स्वरूप को अभिव्यक्त करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है !" 
 उनके जीवन में तर्क की अपेक्षा अनुभव की अधिक प्रतिष्ठता थी। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द द्वारा कथित यह आप्तवाक्य - "प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है!" यह घोषवाक्य सम्पूर्ण विश्व में प्रामाण्य माना जाता है। स्वामी विवेकानन्द का दूसरा सबसे प्रसिद्द घोषवाक्य है - " Be and Make !" -अर्थात तुम स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करो !  क्योंकि यह घोषवाक्य भी अनुभव-जन्य तर्क से मान्य हुआ था। फिर उन्हीं की प्रेरणा स्थापित संगठन 'महामण्डल' हमें सहारा देते हुए कहता है - " सं गच्छध्वम् सं वदध्वम् - अर्थात अपने संघर्ष में तुम अकेले नहीं हो, पूरा संगठन तुम्हारे साथ है।"
भावी पीढ़ी के आदर्श कर्मी या 'नेता ' (अफसरशाही को प्रशिक्षित करने वाले प्रशिक्षकों का निर्माण करने) 'अग्रदूतों ' के रूप में प्रशिक्षित करने की पहलकदमियों की जरूरत हाल के वर्षों में समझी गई है। ब्यूरोक्रेट या अधिकारी वर्ग, जब हार्बिन्जर्स में रूपान्तरित हो जायेंगे तब  का एकमात्र कार्य होगा -  'डिस्ट्रिब्यूशन ऐंड प्रापगैशन ऑफ़ थॉट कर्रेंट्स !'
समाज में पौष्टिक मानसिक आहार का प्रचार-प्रसार करने में समर्थ अग्रदूतों (आदर्श कर्मी या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं ) के निर्माण की अनिवार्यता क्यों है ? अपने अन्दर योग्यता का होना अच्छी बात है , लेकिन दूसरों में योग्यता खोज पाना ( नेता की ) असली परीक्षा है । एक सुन्दर श्लोक है -
अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
कोई ऐसा अक्षर नहीं है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो ,जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो ,जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसी जड़ (मूल लमूल ) नहीं है जिसमें औषधि का गुण न हो ; कोई ऐसा पुरूष नहीं है जिसमें कोई योग्यता न हो । ऐसा 'पारखी' (नेता,अग्रदूत, संत) दुर्लभ है जो इनके गुणों की पहचान कर इन्हें एकत्र कर उपयोग कर सके ।  
समाज को पौष्टिक मानसिक आहार प्रदान करने वाले विचारों से समाज को आप्लावित करने में समर्थ अग्रदूतों (हार्बिन्जर्स-harbinger - अदर्शकर्मी ) का निर्माण बहुत बड़ी संख्या में करना होगा। समाज में पहले उच्च विचारों या आदर्श को प्रतिष्ठित करना होगा, तभी बाद में हमलोगों का कुछ अधिकार भी उत्पन्न हो सकता है।  
यदि समाज के चिंतन का रुझान परार्थ की दिशा में नहीं जायेंगे स्वार्थ की ओर जायेंगे तो क्या होगा ? 'गाँव में एक दूध का तालाब बनेगा;' यह संकल्प लेकर सभी लोग ऐसा सोचने लगें कि दूसरे सभी लोग तो उसमें दूध ढाल ही रहे हैं, यदि मैं उसमें एक लोटा पानी ढाल दूंगा, तो क्या बिगड़ेगा ? ऐसा होने से वह तालाब दूध का नहीं होकर पानी का ही तालाब बन जायेगा। आज जो विद्यालय या विश्वविद्यालयों के छात्र या युवा हैं, वे ही कल भावी राष्ट्रनिर्माता बनेंगे, इसीलिये शिक्षा का उद्देश्य उन्हें योग्य नागरिक या चरित्रवान मनुष्य के रूप में प्रशिक्षित करना ही होना चाहिये। बल्कि कहा जा सकता है कि युवावस्था में ही इस पथ को ग्रहण कर लिया जाय तो, मनुष्य-जीवन की अनगिनत समस्याओं के समाधान का मार्ग आसन हो जायेगा। इसीलिये सम्पूर्ण समाज में विशेष रूप से युवाओं में सकारात्मक विचार, रचनात्मक सोच के साथ साथ इस प्रकार के आशावादी दृष्टिकोण को रिचार्ज करना अत्यन्त आवश्यक है।
 समाज को स्वस्थ मानसिकता प्रदान करने वाले शक्तिदायी विचार या पौष्टिक मानसिक आहार कहाँ से प्राप्त होंगे ? इसीका सुझाव देते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा है — ' हमें शक्ति चाहिए। शक्ति के बिना काम नहीं चलेगा। यह शक्ति कहां से प्राप्त हो? उपनिषदें ही शक्ति की खानें हैं। उनमें ऐसी शक्ति भरी पड़ी है, जो सम्पूर्ण विश्व को बल, शौर्य एवं नवजीवन प्रदान कर सकें। उपनिषदें किसी भी देश, जाति, मत व सम्प्रदाय का भेद किये बिना हर दीन, दुर्बल, दुखी और दलित प्राणी को पुकार-पुकार कर कहती हैं- उठो, अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और बन्धनों को काट डालो। शारीरिक, मानसिक और  अध्यात्मिक स्वाधीनता को अभिव्यक्त करना ही उपनिषदों का मूल मन्त्र है।'
 प्रजातंत्र के चारो सतम्भों का कोई 'अंग्रेजों के जमाने का जेलर ', (आदत से मजबूर व्यक्ति) किसी कारण वश (सी.बी.आई. छापा का डर, ईश्वर की कृपा, या सत्संग) अपने पूर्व चरित्र से पूरी तरह ऊब जाता है, तब वह 'साधन-चतुष्टय ' आदि अनुशासन सीखकर, पशुमानव से देवमानव में रूपान्तरित होने की पात्रता अर्जित कर सकता है! 'अथ योग अनुशासनम् ' - ‘अथ’- यानि कि अब। 'अब' साधक के जीवन में उस पुण्य क्षण का उदय है, जब उसके हृदय में अपने सच्चे (अविनाशी) स्वरूप को जानने और उससे जुड़ जाने की चाहत अपने चरम को छूने लगी है। तब वह अपने मार्गदर्शक नेता (या गुरु) के ' अनुशासन ' को सीख सकता है।  
कुछ ऐसे आधारभूत प्रश्न हैं जिनका व्यक्ति और समाज के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है, और जिसका उत्तर पंचेन्द्रियों और बुद्धि द्वाराअर्जित ज्ञान की सीमा दायरे से बाहर हैं, जिसका सही उत्तर इन्द्रियातीत सत्य को जान लेने से ही प्राप्त होता है जैसे ' वर्णाश्रम-धर्म और यथार्थ धर्म में क्या अंतर है ?'  धर्म क्या है ? मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है ? क्या महान, दयालु, कृपाशील ईश्वर द्वारा रचित यह दुनिया किसी ‘‘चौपट राजा की अन्धेर नगरी’’ समान है?  इन और इनसे निकले अनेकानेक अन्य सवालों का सही जवाब पाना मनुष्य की परम आवश्यकता है,क्योंकि इनके सही या ग़लत उत्तर से भ्रमित होने पर मनुष्य के चरित्र, आचार-विचार, व्यवहार का तथा पूरी सामाजिक-व्यवस्था (सिस्टम) का अच्छा या बुरा होना निर्भर है। सभी देशों के विभिन्न धर्मप्रवर्तकों ने तथा भारत के अनगिनत ऋषियों ने उस इन्द्रियातीत सत्य (ईश्वर-अल्ला-गॉड-वाहेगुरु) को अपने अनुभव से, आत्मसाक्षात्कार से तर्क का निर्माण किया था।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद दुर्भाग्यवश पंथ, सम्प्रदाय या 'वर्णाश्रम धर्म' को ही 'मजहब या धर्म' समझ लिया गया समाज में यथार्थ शिक्षा (शीक्षा ?) के द्वारा आध्यात्मिक-साम्यवाद स्थापित करने के बजाय, वोटबैंक की राजनीती में  'सेक्युलर ' शब्द का अपप्रयोग खुल कर होने लगास्वार्थी राजनीतिज्ञों ने १२५ करोड़ देशवासियों को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक, अगड़ीजाति-पिछड़ीजाति, दलित-महादलित में बाँट दिया जिसके कारण 'भक्तियुग ' की सामाजिक-समरसता, सभी सम्प्रदायों और जातियों के बीच परस्पर सौहार्द तथा प्रेमपूर्ण व्यवहार आज के समाज से क्रमशः विलुप्त होता जा रहा है, और सारा सिस्टम ही भ्रष्ट होकर गड़बड़झाला की स्थिति उत्पन्न हो गई है। 
कोई चिन्तनशील व्यक्ति या समाज इन आधारभूत प्रश्नों का समाधान पाने के प्रति निस्पृह या बेपरवाह हरगिज़ नहीं हो सकता। मनुष्य क्यों–अर्थात् किस उद्देश्य से पैदा किया गया है ? क्या सिर्फ़ ‘खाओ-पियो मौज करो’, के उद्देश्य से? लेकिन यह काम तो पशु-पक्षि आदि भी कर लेते हैं। फ़िर इस नश्वर जीवन की वास्तविकता क्या है?  मरने के बाद क्या है ? शरीर जलकर  नष्ट हो जाता है और बस ? मनुष्य के जैसा  उच्च व प्रतिभाशील प्राणी को भी संसार (जन्म-मृत्यु) में ही क्यों फंसे रहना चाहिये ?  मनुष्य यदि समस्त प्राणियों में उच्च व प्रतिभामय है, देवताओं से भी श्रेष्ठ है -- तो क्यों है; और कैसे है इस प्रश्न का उत्तर देते हुए स्वामीजी कहते हैं - " एक पौराणिक कहानी ऐसी है, जो हिन्दू, ईसाई और मुसलमानों के पुराणों (श्रीमद्भागवत पुराण, बाइबिल और क़ुरान) में एक समान पायी जाती है !
[बाइबिल कहती है कि 'मनुष्य ईश्वर कि समानता में ही बना है.' मनुष्य को भगवान ने सृष्टि का सबसे श्रेष्ठ प्राणी बनाया है। अतः वे हमारे पिता हैं और हमारी आत्मा और भावनाएँ उससे जुडी हैं.उत्पत्ति १: २५-२७ परमेश्वर ने पृथ्वी के विभिन्न प्रजातियों के वन पशुओं को, और जाति जाति के घरेलू पशुओं को, और सब जाति जाति के भूमि पर रेंगने वाले जन्तुओं को बनाया : और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है। फिर परमेश्वर ने कहा, हम मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार अपनी समानता में बनाएं; और वे समुद्र की मछलियों, और आकाश के पक्षियों, और घरेलू पशुओं, और सारी पृथ्वी पर, और सब रेंगने वाले जन्तुओं पर जो पृथ्वी पर रेंगते हैं, अधिकार रखें। तब परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार उत्पन्न किया, अपने ही स्वरूप के अनुसार परमेश्वर ने उसको उत्पन्न किया, नर और नारी करके उसने मनुष्यों की सृष्टि की। उत्पत्ति २:७ कहते है -" और यहोवा परमेश्वर ने आदम को भूमि की मिट्टी से रचा और उसके नथनों में जीवन का श्वास फूंक दिया; और आदम जीवित प्राणी बन गया।" अर्थात परमेश्वर ने जीवन की साँस ली व मनुष्य में साँस दी और आदमी एक जीवित व्यक्ति बन गया" हम अपने में ईश्वर की साँस को धारण करते हैं इसीलिए हम उसकी जीन को लेते हैंभगवान ने मनुष्य को अपने ही समान बनाया, पर दुर्भाग्य से इंसान ने भगवान को ही अपने जैसा बना डाला। ] 
श्रीमद्भागवत पुराण में कहा गया है - 
सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या वृक्षान् सरीसृपपशून्खगदंशमत्स्यान्।
तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥ 

जैसे किसी कलाकार की सुन्दर रचना को देखकर कोई यदि प्रसंशा करने वाला नहीं हो तो शिल्प-कार को उतना आनन्द नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्मा जी को भी-स्थावर,जंगम,उड़ने वाले, डंक मारने वाले हर तरह के जीवों की रचना कर लेने के बाद भी उतना आनन्द नहीं हो रहा था। तब सबसे अन्त में उन्होंने मनुष्य को बनाया जो उनकी सुन्दर सृष्टि को देखकर केवल प्रसंशा ही नहीं कर सकता था, बल्कि वह अपनी बुद्धि को विकसित करके अपने बनाने वाले ब्रह्म या ईश्वर को भी जान लेने में भी समर्थ था।
यह देखकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए और सभी देवदूतों (फरिस्तों) को बुलवा भेजा तथा उनको आदेश दिया कि तुम सब लोग मनुष्य के सामने सिर झुकाओ-इसको नमस्कार करो ! सभी फरिस्तों ने मनुष्य के सामने अपने सिर को झुकाया, केवल एक फरिस्ता जिसका नाम इब्लीस था, उसने सर नहीं झुकाया तो उसको भगवान ने कहा - दूर हटो शैतान! और वह शैतान बन गया। इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार मे मनुष्य-जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। निम्नतर सृष्टि, पशु-पक्षी आदि किसी ऊँचे तत्व (धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष) की धारणा नहीं कर सकते। देवता (फ़रिश्ता) भी मनुष्य जन्म के लिए तरसते हैं, क्योंकि मनुष्य शरीर धारण किये बिना (देवता भी -पुरुषार्थ नहीं कर सकते इसीलिए) मुक्ति- लाभ भी नहीं कर सकते। " 
और इसी से मिलती-जुलती कथा कुरान में भी है - " क़ुरान की कहानी कहती है खुदा ने तो 'आदम'  के पहले सिर्फ 'फरिश्ते' ही बनाए थे। फरिश्तों की रचना करने के बाद खुदा ने पशु-पक्षी आदि अन्य सभी प्राणियों की रचना की, किन्तु उससे उनको आनन्द नहीं हुआ, फिर सबसे अंत में आदम (इंसान के आदि पिता या मनुष्य) की सृष्टि की। अपनी इस रचना को देखकर खुदा प्रसन्न हुए आदम (मनुष्य) को बनाने के बाद खुदा ने अपने सभी फरिश्तों को बुलवाया, और उनसे कहा कि-" ऐ फरिश्तों (पैगंबरों), मैंने एक नई चीज ईजाद की है, यह 'आदम' (मनुष्य) है, जो अपने बनाने वाले को भी जान सकता है। तुम इसका सजदा (दण्डवत) करो ! "  
 सभी फरिश्तों ने ऐसा किया लेकिन इब्लीस ने घमण्ड किया और ऐसा करने से इन्कार  कर दिया, क्योंकि (वह) नास्तिकों में से था। इब्लीस ने यह कह कर आदम को दण्डवत करने से इन्कार किया कि वह मिट्टी से बना है। अतः मालूम पड़ता है कि उत्पत्ति किसी और अच्छे पदार्थ से हुई है। अन्यत्र इब्लीस के वाक्य ही से मालूम हो जाता है कि उनकी उत्पत्ति अग्नि से हुई है।  इब्लीस ने कहा - " मैं 'रोशनी' (तेज या अग्नि) से बना हूं, क्या मैं उसे दण्डवत करूँ जो मिट्टी से बना है ?" उसने खुदा से कहा- मैं खुदा के अलावा किसी के आगे सजदा नहीं करुंगा। खुदा ने नाराज होकर इब्लीस को जन्नत से निकाल दिया। उसी दिन से इब्लीस शैतान बन गया। 
“जब हमने फ़रिश्तों को कहा - आदम को दण्डवत करो तो (उन्होंने) दण्डवत की, किन्तु इब्लीस, जो कि जिन्नों में से था - ने न किया।“ यह इब्लीस उस समय फ़रिश्तों में सबसे ऊपर (देवेन्द्र) था। तृतीय वाक्य में जो उसे ‘जिन्न’ कहा गया है, उससे ज्ञात होता है कि फ़रिश्ते और जिन्न एक ही हैं या जिन्न फ़रिश्तों के अंतर्गत ही कोई जाति है। अपने भक्तों की रक्षा के लिए ईश्वर इन फ़रिश्तों को भेजते हैं।  उसने खुदा से कहा जिस आदम पर तुम्हें इतना नाज है मैं उसकी औलादों को खुदा का आदेश मानने से (अर्थात विभिन्न नाम-रूप के मनुष्यों को एक दूसरे का सम्मान करने या शीस झुकाने से) रोकूंगा। खुदा ने इब्लीस से ‌मिट्टी के बने आदम का सजदा करने को क्यों कहा ? जबकि कुरआन में खुदा के अलावा किसी को सजदा करने की मनाही है खुदा ने आदम को शाप जरूर दिया लेकिन (वे जानते थे कि प्रत्येक मनुष्य में इन्द्रियातीत सत्य को जानने की सम्भावना है, या ब्रह्म को जानकर ब्रह्म बन जाने की सम्भावना है, इसीलिए ), उन्हें दुनिया का पहला पैगम्बर बना कर इस धरती पर भेजा। इस्लाम में उन्हें हजरत आदम के नाम से जाना जाता है।
और तब उसने आदम की बीवी हव्वा को अपना पहला निशाना बनाया। और शैतान आज भी छुपकर आदम की औलादों यानी इंसानों (मनुष्यों ) को बहका कर ईश्वरीय आदेशों के खिलाफ ले जाने के जतन कर रहा है। जब तक इंसान (आर्य) है तब तक शैतान (दस्यु) भी रहेगा। और हम सबको बहकाएगा। तो बेहतर है कि हम सतर्क रहें - और  चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन को भारत के गाँव -गाँव तक पहुँचा दें ! [अथवा अन्य बुड्ढों की तरह हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहें, या टी.वी में लोकसभा डिबेट देखें और खुदा से दुआ करे, कि दुष्ट राजनीतिज्ञों  (इब्लिसों)  को भी थोड़ी सद्बुद्धि दो ? ]  
 भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - " मनुष्य को इस संसार में कमल के पत्ते की तरह रहना चाहिये। पद्मपत्र जैसे पानी में रहकर भी उससे नहीं भीगता, उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में रहना चाहिये-- उसका ह्रदय (Heart) ईश्वर में लगा रहे और उसके हाथ (Hand) कर्म में लगे रहें।" (१/९-१३)
भारत को महान बनाने या - प्रजातन्त्र के चारों स्तम्भों को सुदृढ़ बनाने के लिये बचपन से ही चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माण कारी  शिक्षा-पद्धति  को लागु करना होगा। भारत को महान बनाने या - प्रजातन्त्र के चारों स्तम्भों को सुदृढ़ बनाने के लिये बचपन से ही चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माण कारी  शिक्षा-पद्धति  को लागु करना होगा। मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं '3H',  शरीर, मन और ह्रदय।  यदि वह शरीर और मन को विकसित करने के साथ साथ अपने ह्रदय का भी विस्तार कर ले, अदर स्थित दिव्यता को विकसित करने में थोड़ा सा भी प्रमाद न करे तो, वह अपने संकीर्ण स्वार्थो से ऊपर उठकर सबके हित में अपना हित देखने लगेगा। फिर किसी प्रकार के द्वेष, अहंकार, कपट की जरूरत ही नही दिखेगी। सब एक दूसरे को प्यार और सम्मान देते हुए सुख से रहने लगेंगे। इसलिए अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का चरित्र -निर्माण कारी आन्दोलन मनुष्य में देवत्व के उदय का संकल्प लेकर ही विगत ४९ वर्षों से निरन्तर आगे बढ़ रहा है। इसलिए अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का चरित्र -निर्माण कारी आन्दोलन मनुष्य में देवत्व के उदय का संकल्प लेकर ही विगत ४९ वर्षों से निरन्तर आगे बढ़ रहा है।
 मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं '3H',  शरीर, मन और ह्रदय।  यदि वह शरीर और मन को विकसित करने के साथ साथ अपने ह्रदय का भी विस्तार कर ले, अदर स्थित दिव्यता को विकसित करने में थोड़ा सा भी प्रमाद न करे तो, वह अपने संकीर्ण स्वार्थो से ऊपर उठकर सबके हित में अपना हित देखने लगेगा। फिर किसी प्रकार के द्वेष, अहंकार, कपट की जरूरत ही नही दिखेगी। सब एक दूसरे को प्यार और सम्मान देते हुए सुख से रहने लगेंगे। 
स्वामी विवेकानन्द (देववाणी-२९ जुलाई, सोमवार,१८९५) में कहते हैं - " त्रय दुर्लभं -थ्री ग्रेट गिफ्ट्स वी हैव : हमारे पास तीन वरदान हैं -- प्रथम, मनुष्य का दुर्लभ शरीर (Hand) और मन (Head) हमें प्राप्त है; यह मन तो ईश्वर का निकटतम प्रतिबिम्ब है, हमारे चेहरे से वे ही प्रतिबिंबित हो रहे हैं ! (द ह्यूमन माइंड इज द नियरेस्ट रिफ्लेक्शन ऑफ़ गॉड,वी आर "हिज ओन इमेज") दूसरा वरदान है - मुक्त होने की आकांक्षा। तीसरा वरदान है किसी ऐसे  संत -महात्मा (नवनी दा) जो स्वयं इस मोहसागर से पार हो चुके हैं;  को गुरु के रूप में अपना आदर्श चुन लेने का सौभाग्य प्राप्त होना ! यदि तुम्हें ये तीनों प्राप्त हो जायें तो भगवान श्रीरामकृष्ण को धन्यवाद दो, तुम अवश्यमेव मुक्त होओगे !" स्वामी विवेकानन्द (देववाणी-२९ जुलाई, सोमवार,१८९५) में शैतान से बचने का उपाय बतलाते शैतान से बचने का उपाय :शैतान से बचने का उपायहैं - " त्रय दुर्लभं -थ्री ग्रेट गिफ्ट्स वी हैव : हमारे पास तीन वरदान हैं -- प्रथम, मनुष्य का दुर्लभ शरीर (Hand) और मन (Head) हमें प्राप्त है; यह मन तो ईश्वर का निकटतम प्रतिबिम्ब है, हमारे चेहरे से वे ही प्रतिबिंबित हो रहे हैं ! (द ह्यूमन माइंड इज द नियरेस्ट रिफ्लेक्शन ऑफ़ गॉड,वी आर "हिज ओन इमेज") दूसरा वरदान है - मुक्त होने की आकांक्षा। तीसरा वरदान है किसी ऐसे  संत -महात्मा (नवनी दा) जो स्वयं इस मोहसागर से पार हो चुके हैं;  को गुरु के रूप में अपना आदर्श चुन लेने का सौभाग्य प्राप्त होना ! यदि तुम्हें ये तीनों प्राप्त हो जायें तो भगवान श्रीरामकृष्ण को धन्यवाद दो, तुम अवश्यमेव मुक्त होओगे !"
पहले का मनुष्य- [चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान ] जब कोई कार्य करता था, तो यह जतलाता था कि, यह सद्कर्म मुझसे ऊपर वाले (ईश्वर,खुदा या गॉड) ने करवा लिया, कृतज्ञता की भावना से करता था, और कहता था मैंने जो कुछ भी किया वह ईश्वर के लिये किया, यह तो मेरा फर्ज था ! अर्थात वह आस्तिक (श्रद्धावान) था ! किन्तु पाश्चात्य भोगवादी संस्कृति के चकाचौंध में आज के मनुष्य की श्रद्धा अर्थात आस्तिक्य-बुद्धि ही नष्ट हो गयी है ! इसीके कारण समाज का परस्पर सुसंवाद, परस्पर मधुर सम्बन्ध धीरे धीरे समाप्त होता जा रहा है।  
भारत की समस्त समस्याओं की जड़ एवं उसके समाधान को आविष्कृत करते हुए विवेकानन्द ने कहा था- " भारत का राष्ट्रिय जीवन (प्राण) गरीबों की झोपड़ियों में ही स्पन्दित हो रहा है। वे लोग आत्मश्रद्धा रहित खरीदे गये गुलाम की श्रेणी में परिणत हो गए हैं। उन्हें कौन प्रकाश देगा, उन्हें शिक्षा (शीक्षा ?) देने के लिये कौन द्वार द्वार घूमेगा? क्या तुम उनका खोया हुआ व्यक्तित्व, उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिक वृत्ति को नष्ट किये बिना, उन्हें वापस दिला सकते हो ? मैं उसीको महात्मा कहता हूँ, जिसका हृदय गरीबों के लिये द्रवीभूत होता है, अन्यथा वह दुरात्मा है।"
आज का कोई तथाकथित 'समाजसेवी नेता या राजनितिक नेता' ( या दुरात्मा) जब परस्पर के सहयोग से यदि रोड या पल-पुलिया का निर्माण या कोई अन्य 'स्वच्छ भारत अभियान ' जैसा समाजसेवा का कार्य  करता है, तो पहले 'प्रजातंत्र के चौथे स्तम्भ ' प्रिन्ट मिडिया और इलेक्ट्रॉनिक मिडिया को प्रलोभन देकर अपना फोटो खिंचवाता है,और उसके बारे में 'अपने नाम से बोर्ड लिखकर' बताता है। यह जो उसे अपने नाम की प्रसिद्धि (यश) पाने की चाहत है, यह उसकी दैन्यावस्था (मोहग्रस्त अवस्था-भेंडत्व ) है। 
इसीलिये स्वामीजी हमें इस मोहनिद्रा से झकझोर कर उठाते हुए कहते हैं - ' उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।'  -अर्थात  ' हे युवाओं, उठो ! जागो ! और लक्ष्य को प्राप्त किये बिना विश्राम मत लो !' सुषुप्ति में सोया मनुष्य पहले जागता है, तब उठता है, किन्तु हमलोग साधारण निद्रा में नहीं मोहनिद्रा में सोये हैं
पूज्य नवनी दा कहते हैं - " प्रवृत्ति-मार्गियों (गृहस्थों) के लिए महामण्डल या नारी-संगठन के नेतृत्व में 'BE AND MAKE' या चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन के साथ जुड़े रहना ही अतीन्द्रिय-सत्य से साक्षात्कार करने का सबसे आसान और श्रेष्ठ पथ है ! " जबकि एक चरित्रवान मनुष्य (मानवजाति का सच्चा मार्गदर्शक नेता -नवनीदा) दूसरों का उपकार बहुत विनम्रता से करता है और ऐसा लगता है कि वह उपकार पा रहा है, जबकि वह कर रहा है। सहयोगी भी उनका सम्मान इसीलिये करते हैं, क्योंकि यह अधिकार उन्होंने तप (यम-नियम पालन ) द्वारा अर्जित किया है। दूसरे मनुष्यों से उसे सहयोग प्राप्त होता है। अपने नेता द्वारा संचालित चरित्र-निर्माण आंदोलन में भाग लेने के लिये उसके सहयोगी स्वतःस्फूर्त होकर कष्ट उठाते हैं। उन्हें किराया देकर बुलाना नहीं पड़ता।
 स्वामी विवेकानन्द प्रतिपादित कर्मयोग का रहस्य :" हमारी प्यारी मातृभूमि भारतवर्ष से - दरिद्रता, अशिक्षा, अज्ञानता के घने अंधकार को भूतकाल की गहरी खाई में फेंक कर, मनुष्य मात्र में अन्तर्निहित ब्रह्मत्व (पैगम्बरत्व) को उद्घाटित करा देना ही स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित कर्म-योग का रहस्य है।  
वे हमलोगों को केवल इतना ही याद करवा देना चाहते थे कि-' बुद्धत्व-प्राप्त नर देवता' के चरणों में कई हजार ब्रह्मा एवं इन्द्रादि देवता भी शीश झुकाते हैं तथा इस बुद्धत्व-प्राप्ति पर मानव-मात्र का अधिकार है। 
पहले के मनुष्य में उपग्रहों तक जाने वाले रॉकेट विज्ञान या कम्प्यूटर साइंस की जानकारी कम थी, परन्तु समाज के अधिकांश व्यक्ति सज्जन अर्थात चरित्रवान मनुष्य हुआ करते थे। साधारण मनुष्य का यथार्थ 'मनुष्य' के प्रति विश्वास था और समाज को भी उसी 'मनुष्य' पर विश्वास था। भूत काल के मनुष्य जैसे थे, अब वैसा मनुष्य दिखाई नहीं देता। ढूँढ़ना पड़ता है। आज मनुष्य जैसे प्राणी दिखाई देते हैं, (मनुष्य के ढाँचा में पशु) दिखाई देते हैं।
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मोहितेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
नीति कहती है कि आहार, निद्रा, भय और प्रजनन के लिए आग्रह आदि   कर्म तो मनुष्य के पशुओं के समान ही हैं किन्तु ''धर्मोहितेषामधिको विशेष:'' धर्म ही मनुष्य को पशु से अलग करता है। अन्यथा तो र्म से हीन (अर्थात विवेक से हीन) मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं। 
 ''तेनैव हीना पशुभि समाना:'' 'मनुष्य को मनुष्य बनाने का एक ही मार्ग है और वह है धर्म अर्थात विवेक की शरण में जाना। पूर्व में जो तत्व प्राणी था, उसे विवेकी होने के कारण ही 'मनुष्य' की संज्ञा प्राप्त हुई थीपर धीरे-धीरे प्राणी और मनुष्य (एनिमल्स ऐंड हयूमन्स ) एक सामान क्यों लगने लगे? आज का मनुष्य स्वयं को बुद्धिजीवी समझता है, परन्तु वशीभूत मन (अन्तःकरण) के साथ बुद्धि का सदुपयोग करना नहीं जानता, कोई भी कार्य करने के पहले श्रेयस् -प्रेयस् का विवेक-विचार नहीं करता। इसीलिये यह बुद्धि 'रिचुअल्स' के प्रति अंधश्रद्धा में परिणत हो जाती है।
'धर्म' कहने का तात्पर्य वर्तमान में प्रयुक्त होने वाले 'सेक्युलरिज्म' शब्द से नहीं है। वह तो सम्प्रदाय-वाद है। यहाँ धर्म शब्द का अभिप्राय सत्य सनातन-धर्म से है। धर्म का तात्पर्य शालीनता, सदाचरण, नीतिमत्ता एवं कर्तव्यपरायणता से है। जिसका पालन (विवेक-प्रयोग) करने से, प्रत्येक मनुष्य यह समझ सकता है कि -" सभी मनुष्य-चाहे वह किसी भी जाति या सम्प्रदाय (वर्णाश्रम) में क्यों न जन्मा हो , एक ही पिता, परमपिता परमात्मा के पुत्र हैं। इसलिए उनका स्वभाव परस्पर सगे भाई- बहनों के जैसा होना चाहिए।" जब मनुष्य इस परम सत्य को भूलने लगता है तब रहन- सहन, वेश- भूषा, रंग-रूप और भाषा के आधार पर परस्पर भेद- भाव करने लगता है।
इस वैज्ञानिक युग में भी जहाँ तर्क, तथ्य और प्रमाणों के आधार पर किसी चीज की वास्तविकता को जाँचा-परखा और कसौटी पर खरा उतरने के पश्चात् ही अपनाया जाता है, वहाँ धर्म के संबंध में ऐसी बात देखने को नहीं मिलती। धर्म के क्षेत्र में विकृतियों एवं भ्राँतियों का प्रवेश हो जाने और गहरी जड़ें जमा लेने के कारण 'मॉडर्न सोसाईटी ' (आधुनिक मानव-समुदाय) भी न्याय और औचित्य की तुलना में परम्पराओं से चिपके रहने के लिए ही बाध्य है। यह भेद अज्ञानियों में ही नहीं, समझदार,पढेलिखे, उन्नत और प्रगतिशील कहे जाने वाले लोगों में भी देखने में आता है।
धर्मक्षेत्र में जितने मतभेद एवं मत-मतान्तर देखने सुनने में आते हैं, उतना ओर किसी विषय में शायद ही मिल सके। हिन्दू गौ को पवित्र मानते और बीफ़ खाने को पाप समझते हैं, उसका एक रोम भी दूध के साथ पेट में चले जाने पर घोर पाप समझते हैं, वहाँ अन्य सम्प्रदाय वाले उसकी गाय को खुदा के नाम पर काटकर खा जाने में बड़ा पुण्य मानते हैं। ईसाई (गरीब और दलित-आदिवासी जिन्हें दाल या महंगा प्रोटीन खाने को नहीं मिलता) बिना पाप-पुण्य के झगड़े में पड़े नित्य ही बीफ़ को एक साधारण आहार की तरह ग्रहण करते हैं। यहूदी भगवान की उपासना करते समय मुँह के बल लेट जाते हैं, कैथोलिक ईसाई घुटनों के बल झुकते हैं, प्रोटेस्टेंट ईसाई कुर्सी पर बैठकर प्रार्थना करते हैं। मुसलमानों की नमाज में कई बार उठना-बैठना पड़ता है और हिन्दुओं की सर्वोच्च प्रार्थना वह है जिसमें साधक ध्यानमग्न होकर अचल हो जाय।
यदि कहा जाय कि इन सब में सिर्फ एक (हिन्दुओं की ) ही उपासना विधि ठीक है और दूसरी अन्य सभी बेकार हैं, तो इसे किसी भी प्रकार से सत्य सिद्ध नहीं किया जा सकता। क्योंकि प्रत्येक सम्प्रदाय या धर्म की उपासना पद्धति का अनुसरण करके, अन्य सभी सम्प्रदायों में भी अनेक व्यक्ति बड़े सन्त और त्यागी महात्मा हो गये हैं।  
धर्म या भारत के वर्णाश्रम धर्म को समझने के लिये षड्दर्शन पर चर्चा करना अनिवार्य है। वेद ज्ञान को तर्क से समझाने के लिए छह दर्शन शास्त्र लिखे गये। प्रत्येक दर्शन अपने लिखने का उद्देश्य अपने प्रथम सूत्र में ही लिखता है, तथा अन्त में अपने उद्देश्य की पूर्ति का सूत्र देता है।
१. पूर्व मीमांसा: शब्द का अर्थ है जानने की प्रथम जिज्ञासा, अर्थात् जानने की पहली लालसा।
ग्रन्थ का आरम्भ ही महिर्ष जैमिनि इस प्रकार करते है-' अथातो धर्म जिज्ञासा।।' अब धर्म अर्थात (विवेकपूर्वक श्रेय-प्रेय) करणीय कर्म के जानने की जिज्ञासा है। अतएव इस दर्शनशास्त्र का प्रथम सूत्र मनुष्य की इस इच्छा का प्रतीक है।  मनुष्य जब इस संसार में अवतरित हुआ उसकी प्रथम जिज्ञासा यही रही थी कि वह क्या करे? इस दर्शन के प्रवर्तक महिर्ष जैमिनी है। सभी प्रकार के कर्मों की व्याख्या इस दर्शन शास्त्र में है। 
कर्म एक विस्तृत अर्थवाला शब्द है। भारतीय परंपरा में जीवन के चार पुरुषार्थ माने गए है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। ये जीवन का मूल तत्व या पदार्थ भी हैं, जिन्हें प्राप्त कर लेना मानव जीवन की वास्तविक उपलब्धि कही जा सकती है। 
पहला पुरुषार्थ है -धर्म। धर्म क्या है?  ‘जो अच्छे विद्वान लोग हैं, जो सबके प्रति कल्याण-भाव रखते हैं, वे जो आचरण करते हैं, सेवित करते हैं, उनके द्वारा जो आचरित होता है, वही धर्म है।' धर्म की इस परिभाषा में न तो आत्मा है, न ही परमात्मा। दूसरे शब्दों में धर्म नैतिकता और सदाचरण का पर्याय है। नैतिकता बड़ी ऊंची चीज है। नैतिक होना मनसा, वाचा कर्मणा पवित्रा होना भी है, यह कर्मयोगी को राह दिखाती है। आचरण की पवितत्राता, मन की पवित्राता और देह की पवित्रता (अर्थात ब्रह्मचर्य ? ) ही मानवधर्म है। यज्ञ का अर्थ केवल देव-यज्ञ ही नहीं है, वरन् इसमें मनुष्य के प्रत्येक प्रकार के कार्यों का समावेश हो जाता है। बढ़ई जब वृक्ष की लकड़ी से कुर्सी अथवा मेज बनाता है तो वह यज्ञ ही करता है। वृक्ष का तना जो मूल रूप में ईधन के अतिरिक्त, किसी भी उपयोगी काम का नहीं होता, उसे बढ़ई ने उपकारी रूप देकर मानव का कल्याण किया है। अत: बढ़ई का कार्य भी यज्ञरूप ही है। एक अन्य उदाहरण ले सकते हैं। कच्चे लौह को लेकर योग्य वैज्ञानिक और कुशल शिल्पी एक सुन्दर कपड़ा सीने की मशीन बना देते हैं। इस कार्य से मानव का कल्याण हुआ। इस कारण यह भी यज्ञरूप है। 
धर्मरूपी पुरुषार्थ ( विवेक-प्रयोग ) को साधने का अभिप्राय है, कि संसार में रहकर क्या करना चाहिए, और क्या नहीं इस सत्य को जान चुके हैं। और हम जान चुके हैं कि यह समस्त चराचर सृष्टि, भांति-भांति के जीव, वन, वनस्पति एक ही परमचेतना से उपजे हैं। 
समस्त वेद और स्मृतियों का अभिप्राय यही है कि 'मनुष्य' चाहे किसी भी वर्णाश्रम धर्म (या जाति) में जन्म ग्रहण किया हो, उसे चारो पुरुषार्थ सिद्ध करने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए, और चरित्र-निर्माण की पद्धति (पतंजलि योग सूत्र) को सीख कर मुक्ति या मोक्ष - प्राप्त करने के मार्ग पर अग्रसर होना चाहिये ! तथा मनुष्य जीवन के चरम लक्ष्य- ब्रह्म को जानकर इसी जीवन में स्वयं ब्रह्म बन जाने का प्रयत्न करना चाहिये ब्रह्म को जानने वाले को ही ब्राह्मण कहा जाता है ! इसी बात को समझाने के अभिप्राय से ये 'ब्राह्मणक्षत्रियविशाम्' इत्यादि श्लोक आरम्भ किये जाते हैं --गीता १८/४१ 

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।


आकृति में समस्त मानव-जाति एक जाति है, किन्तु स्वभाव से, आदत या प्रवृत्ति से अर्थात् प्रकृति से उत्पन्न हुए सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों द्वारा विभक्त किये गये हैं। स्वभाव (आदत,प्रवृत्ति या प्रोपेनसिटी ) यानी ईश्वर की प्रकृति -- त्रिगुणात्मिका माया 
[ईश्वर का स्त्री स्वरूप देवी है । यही शक्ति ईश्वर को सृष्टि, संरक्षण तथा संहार का कार्य करने में मदद करती है. अन्य शब्दों में, ईश्वर अचल है, पूर्णतयः अपरिवर्तनशील है और माँ दुर्गा सबकुछ करतीं हैं. वास्तव में, हमारे द्वारा शक्ति की पूजा वैज्ञानिक सिद्धांत की पुनः पुष्टि करता है कि शक्ति अविनाशी है. वह सदा विद्यमान रहती है- उसकी रचना या नाश संभव नहीं है.उनकी पूजा दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती जैसे विभिन्न रूपों में होती है। नवरात्र ईश्वरत्व के स्त्री गुण यानी – दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती की कृपा से जुड़ने का एक अवसर है। प्रकृति शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गई है- प्र अर्थात सत्वगुण, कृ अर्थात रजोगुण व ति अर्थात तमोगुण। नवरात्रि के दौरान देवी के विभिन्न पहलुओं की आराधना करने के लिए इसे ३ भागों में बाँटा जाता है. नवरात्र देवी आराधना का पर्व है, जिसकी पहली तीन रात्रियाँ देवी दुर्गा को समर्पित हैं। उसके बाद की तीन रातों में लक्ष्मी की स्तुति होती है और अंतिम तीन में सरस्वती की। इसके बाद का दसवाँ दिन विजयदशमी कहलाता है। आखिर तीन चरणों में तीन देवी-रूपों की पूजा का उद्देश्य क्या है ?  दशमी तिथि को किस पर विजय का जश्न मनाया जाता है ?  ये तीन देवियाँ अस्तित्व के तीन मूल गुणों – तमस, रजस और सत्व की प्रतीक हैं। तमोगुणी का विचार होता है जब फल या नतीजे छोडऩा ही है तो कर्म क्यों करें? रजोगुणी सोचता है काम कर उससे मिलने वाले फल का लाभ व हक मेरा हो। जबकि सतोगुणी सोचता है कि काम करें किंतु फल या नतीजों पर अपना अधिकार न समझें। 
इन तीन विचारों में सत्वगुणी का नजरिया ही कर्म योग माना जाता है। पहले तीन दिनों में देवी का दुर्गा के रूप में आह्वान किया जाता है ताकि हमारी अशुद्धताओं, अवगुणों एवं त्रुटियों का नाश हो सके.महान सद्गुणों को अर्जित करने के लिये पहले मन में विद्यमान समस्त पाशविक भावों या आसुरी शक्तियों का ध्वंस करना आवश्यक होता है। पाशविक मनोवृत्तियों का विध्वंश करने वाली शक्ति का प्रतिन्धित्व करती है -माँ दुर्गा ! वे महिषासुर मर्दिनी भी कहलाती हैं। महिष, यानि भैंस। भैंस आलस्य,अंधकार , जहालत, जड़ता- निष्क्रियता जैसे तमोगुणों का प्रतीक है, जो मनुष्य में भी होते हैं।
 और असुर शब्द “असुषु रमन्ते इति असुरः ” से उत्पन्न हुआ है. अर्थात असुर उसे कहते हैं जो जीवन में केवल आनंद उठाने तथा भौतिक वस्तुओं के भोग-विलास में लीन रहते हैं. ऐसा महिषासुर प्रत्येक मनुष्य के हृदय में विद्यमान है और उसने मानव के भीतरी सात्विक गुणों पर नियंत्रण किया हुआ है. अतः इस महिषासुर के मायावी रूप को जानकर, इसके जाल से मुक्त होने के लिए, अपनी सही पहचान जानने के लिए तथा अपने मूल उद्देश्य पर केंद्रित रहने के लिए शक्ति की पूजा करना आवश्यक है. इसीलिए नवरात्रि के नौ दिन, अपने अंदर विद्यमान अहम् रुपी अंधकार से मुक्त होने के लिए, शक्ति की आराधना की जाती है.नवरात्रि के दौरान हम ईश्वर के शक्ति भाव का सर्वव्यापी माता के रूप में आह्वान करते हैं.] 
वह माया  जिन गुणों के प्रभव का यानी उत्पत्ति का कारण है। उन गुणों का प्रादुर्भाव बिना कारण के नहीं बन सकता। इसलिये स्वभाव उनकी उत्पत्ति का कारण है यह कह कर कारण विशेष का प्रतिपादन किया गया है। हे परंतप ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्म स्वभाव (प्रकृति-आदत ,प्रोपेनसिटी) से उत्पन्न हुए तीनों गुणों के द्वारा विभक्त किये गये हैं। 
गीता (१८/४२,४३, ४४) में कहते हैं - " यों समझो कि ब्राह्मण-स्वभाव का कारण सत्त्वगुण है। मन का निग्रह करना इन्द्रियों को वश में करना धर्मपालन (विवेक-प्रयोग) के लिये कष्ट सहना बाहर भीतर से शुद्ध रहना (ब्रह्मचर्य ) दूसरों के अपराध को क्षमा करना शरीर, मन आदि में सरलता रखना, वेद- शास्त्र आदि का ज्ञान होना यज्ञविधि को अनुभव में लाना और परमात्मा, वेद, गुरु आदि में श्रद्धा  आस्तिक भाव रखना -- ये सब के सब ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।
वैसे ही क्षत्रिय-स्वभाव का कारण सत्त्वमिश्रित रजोगुण है। शूरवीरता, तेज, धैर्य, प्रजा के संचालन आदि की विशेष चतुरता, युद्ध में कभी पीठ न दिखाना , दान करना और शासन करने का भाव -- ये सबके सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।   वैश्य-स्वभाव का कारण तमोमिश्रित रजोगुण है। खेती करना, गायों की रक्षा करना और शुद्ध व्यापार करना -- ये सबके सब वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं।  और शूद्र- स्वभाव का कारण रजोमिश्रित तमोगुण है। चारों वर्णों की सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है।  क्योंकि उपर्युक्त चारों वर्णोंमें ( गुणोंके अनुसार ) क्रम से शान्ति, ऐश्वर्य, चेष्टा और मूढ़ता -- ये अलग-अलग स्वभाव देखे जाते हैं।
अथवा यों समझो कि प्राणियोंके जन्मान्तरमें किये हुए कर्मों के संस्कार, जो वर्तमान जन्ममें अपने कार्य के अभिमुख होकर व्यक्त हुए हैं,  उनका नाम स्वभाव  है। ऐसा स्वभाव जिन गुणों की उत्पत्ति का कारण है वे स्वभाव-प्रभव गुण हैं।

 ।।18.48,59।। हे कुन्तीनन्दन दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये क्योंकि सम्पूर्ण कर्म धुएँ से अग्निकी तरह किसी-न किसी दोष से युक्त हैं। अहंकारका आश्रय लेकर तू जो ऐसा मान रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तेरा यह निश्चय मिथ्या (झूठा) है ! क्योंकि तेरी क्षात्र-प्रकृति तेरे को युद्धमें लगा देगी।
दूसरा पुरुषार्थ है, अर्थ। संसार में जीने के लिए, सामाजिकता को बनाए रखने के लिए, आपसी व्यवहार को सुसंगत रूप में चलाने के लिए धन अत्यावश्यक है। वह जीवन-व्यवहार को सहज और सुगम बनाता है। जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धनकी महत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता। धन को पुरुषार्थ मान लेने का अर्थ यह नहीं है कि किसी भी तरीके से अर्जित किया गया धन पुरुषार्थ है। या धन है तो उसका हर उपयोग सामाजिक-धार्मिक दृष्टि से मान्य है। 
चोरी, डकैती, वेश्यावृति और जुआ जैसे दुर्व्यसनों से अर्जित धन को समाज में हेय माना गया है। यहां तक कि उसका तिरष्कार भी किया जाता है। अत्यधिक धन अर्जित कर लेना, दूसरे के हिस्से का धन हड़प लेना भी पुरुषार्थ नहीं है। अस्तेय और अपरिग्रह जैसी शास्त्रीय व्यवस्थाएं धर्नाजन और उससे जुड़े प्रत्येक व्यवहार को मानवीय बनाए रखने के लिए की गई हैं। जिसका अभिप्राय है कि चोरी-डकैती अथवा लोकमान्य विधियों से अलग ढंग से अर्जित किया गया धन पाप है। धन उतना ही होना चाहिए जितना कि गृहस्थ जीवन को सुगम बनाए रखने के लिए आवश्यक है। वृथा आडंबरों, लोक-दिखावे, कोरी प्रतिष्ठा, जुआ एवं शराबखोरी जैसे दुर्व्यसनों पर खर्च करने से अर्थ रूपी पुरुषार्थ-सिद्धि असंभव है।
 काम को भारतीय -परंपरा तीसरे पुरुषार्थ के रूप में मानती है। संसार को गतिमान बनाए रखने के लिए काम अत्यावश्यक है। इससे संततिचक्र आगे बढ़ता है। इसके लिए भी धार्मिक व्यवस्थाएं है। मुक्त, उच्छ्रंखल काम-संबंध समाज-व्यवस्था को न केवल धराशायी कर सकते हैं, बल्कि उसमें इतना विक्षोभ पैदा कर सकते हैं कि यह पूरा का पूरा सिस्टम ही छिन्न-भिन्न हो जाए। काम को नियमित-नियंत्रित करने के लिए ही विभिन्न सामाजिक संबंधों की व्यवस्था हुई है, उनके लिए मर्यादाएं निश्चित की गईं। वैवाहिक संस्था के गठन का प्रमुख उददेश्य काम-संबंधों को सामाजिक मर्यादा के दायरे में लाना ही है। प्रथम तीनों पुरुषार्थों की सिद्धि के साथ मनुष्य जब धर्म को अपना आचरण बना लेता है, सदाचार और सदव्यवहार उसके रोजमर्रा के जीवन का अंग बन जाते हैं, ‘अर्थ’और ‘काम’ के बीच जब वह संतुलन कायम कर चुका होता है, तब वह साधारण लोगों के स्तर से बहुत ऊपर पहुंच उठ जाता है, इसी को परमात्मा के करीब पहुंच जाने की पात्रता अर्जित करना  कहते हैं।
 चौथा पुरुषार्थ है -मोक्ष ।
मोक्ष क्या है ?  भारतीयपरंपरा में इसका सीधा सीधा मतलब है मुक्ति, यानी संसार के आवागमन से दूर हो जाना। पहले तीन की प्राप्ति इसी जीवन में संभव है, जबकि चौथे के लिए मृत्यु के पार दस्तक देना जरूरी है। 'मोक्ष' इसी जीवन में उस अवस्था को प्राप्त करना है जब आत्मा परमात्मा में मिलकर उसका अभिन्न-अटूट हिस्सा बन जाती है। दोनों के बीच का सारा द्वैत विलीन हो जाता है। यह जल में कुंभ और कुंभ में जल की सी स्थिति है, संत कबीर ने कहा है -
" जल में कुम्‍भ, कुम्‍भ में जल है, बाहर भीतर पानी
फूटा कुम्‍भ जल जलहीं समाना, यह तथ कथौ गियानी।"

जल में कुम्भ कुम्भ में जल है जल घड़े में है, घड़ा जल में। घड़ा यानी पंचमहाभूत से बनी देह। पानी की दो सतहों के बीच फंसी मिटटी की पतली सी क्षणभंगुर दीवार, जिसकी उत्पत्ति भी जल यानी परमतत्त्व के बिना संभव नहीं। पंचमहाभूत से बने घट को ही वेदान्त में माया कहते हैं। इस माया रूपी घट के मिटते ही उसमें मौजूद सारा जल सागर के जल में समा जाता है। सागर में मिलकर उसी का रूप धारण कर लेता है। यह विश्व ( ब्रह्माण्ड ) सागर समान है, चहुँ ओर चेतनता रूपी जल ही जल है, तथा हम जीव भी छोटे - छोटे मिट्टी के घड़ों समान हैं ( कुम्भ हैं ), जो पानी से भरे हैं , चेतना - युक्त हैं।  तथा हमारे शरीर रूपी कुम्भ को विश्व रूपी सागर से अलग करने वाले कारण हमारे रूप - रंग - आकार - प्रकार ही हैं। इस शरीर रूपी घड़े के फूटते ही अन्दर - बाहर का अंतर मिट जाएगा, पानी पानी में मिल जाएगा, जड़ता के मिटते ही चेतनता चारों ओर निर्बाध व्याप्त हो होगी, सारी विभिन्नताओं को पीछे छोड़ आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाएगी।
यही मोक्ष है जिसका दूसरा अर्थ अंतर्निहित पूर्णत्व की अभिव्यक्ति भी है। व्यक्ति को जब लगने लगे कि जो भी उसका अभीष्ट था, जिसको वह प्राप्त करना चाहता था, वह उसको प्राप्त हो चुका है। उसकी विवेक-दृष्टि अर्थात शास्वत -नश्वर या नीर-क्षीर का भेद करने या 'विवेक-प्रयोग ' करने में उसकी क्षमता प्रवीण हो चुकी है। जिसके फलस्वरूप वह इस संसार की निस्सारता को, उसके मायावी आवरण को जान चुका है। साथ ही वह इस संसार के मूल और उसके पीछे निहित परमसत्ता को भी पहचानने लगा है। उसे इतना आत्मसात कर चुका है कि उससे विलगाव पूर्णत: असंभव है। अब कोई भी लालच, कोई भी प्रलोभन कोई भी शक्ति अथवा डर उसको अपने निश्चय से डिगा नहीं सकता। इस बोध के साथ ही वह मोक्ष की अवस्था में आ जाता है। तब उसको जन्म-मरण के चक्र से गुजरना नहीं पड़ता। विवेक-विचार दो तरह के होते है एक विचार करना पड़ता है, दूसरा विचार का उदय होता है 
पहले जो ज्ञान कहा गया है, वह बुद्धिकी एक वृत्तिविशेष है और बुद्धि वृत्तिवाला है, धृति भी बुद्धि की वृत्तिविशेष ही है।
भय और अभय को- जिस मृत्यु से मनुष्य भयभीत होता है, उसका नाम भय है, और उससे विपरीत अविनाशी आत्मा का नाम अभय है उन दोनों को? यानी दृष्टा-दृष्ट विषयक विवेक जब बोध में बदल जाता है तब मनुष्य भय से अभय में प्रतिष्ठित हो जाता है, उन दोनों के कारणों को (विद्या-अविद्या ) जानता है,  तथा बन्धन और मोक्ष - के हेतुरूप संन्यासमार्ग को जानती है, हे पार्थ वह बुद्धि सात्त्विकी है।
विवेक-प्रयोग करते करते जब विवेक बोध में बदल जाता है , तब यह विचार उदय होता है कि -
" इस जगत में कोई पराया नहीं है, मुझसे भिन्न और कोई भी नहीं है"  ऐसा आत्मविषयक ज्ञान इस अविद्या का नाशक है क्योंकि यह उत्पन्न होते ही, कर्म-प्रवृत्ति की हेतुरूप भेद-बुद्धि का नाश हो जाता  है।  मोक्ष अकार्य अर्थात् स्वतःसिद्ध है ! इसलिये कर्मोंको उसका साधन मानना नहीं बन सकता क्योंकि कोई भी नित्य (स्वतःसिद्ध) वस्तु कर्म या ज्ञानसे उत्पन्न नहीं की जाती। रज्जु में होनेवाली सर्प की भ्रान्ति को और अन्धकार को, नष्ट कर देना ही फल है।  जैसे उस प्रकाश का फल सर्प-विषयक विकल्प को हटाकर, केवल रज्जुको प्रत्यक्ष कराके समाप्त हो जाता है। वैसे ही अविद्यारूप अन्धकार के नाशक आत्मज्ञान का फल भी केवल,आत्मस्वरूप को प्रत्यक्ष कराके ही समाप्त होता देखा गया है। 
मुक्ति का दूसरा अर्थ है आत्मा की परमात्मा के साथ अटूट संगति। दोनों में ऐसी अंतरगता जिसमें द्वैत असंभव हो जाए। परस्पर इस तरह घुल-मिल जाना कि उनमें विलगाव संभव ही न हो। इस अवस्था को कैवल्य’ कहा गया है। कैवल्य यानी अपनेपन की समस्तअनुभूतियों का त्यागकर ‘केवल वही’ का बोध रह जाना। यह बोध हो जाना कि मैं भी वहीं हूं और एक दिन उसी का हिस्सा बन जाऊंगा। उस समय न कोई इच्छा होगी न आकांक्षा। न कोई सांसारिक प्रलोभन मुझे विचलित कर पाएगा। इसी स्थिति को बौद्ध दर्शन में ‘निर्वाण’ कीसंज्ञा दी गई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-‘बुझा हुआ’। इच्छा-आकांक्षाओं और भौतिक प्रलोभनों से सम्यक मुक्ति ही निर्वाण है। व्यक्ति जब इस संसार को जान लेता है, जब वह संसार में रहकर भी संसार से परे रहने की, कीचड़ में कमल जैसी निर्लिप्तता प्राप्त कर लेता है, तब मान लिया जाता है कि वह इस संसार को जीत चुका है।
गीता में इस स्थिति को कर्म, अकर्म और विकर्म के त्रिकोण के द्वारा समझाने का प्रयास किया गया है। उसके अनुसार संसार में सभी व्यक्तियों के लिए कुछ न कुछ कर्म निर्दिष्ट हैं। जब तक यह मानव देह है, कर्तव्य से सरासर मुक्ति असंभव है। क्योंकि देह सांस लेने का, आंखें देखने का कान, सुनने का काम करती रहती है। संन्यासी को भी इन कर्तव्यों से मुक्ति नहीं। जब तक प्राण देह में हैं, तब तक उसको देह का धर्म निभाना ही पड़ता है। तब मुक्ति का क्या अभिप्राय है ?  बुद्ध कहते हैं कि देह में रहकर भी देह से परे होना संभव है। हालांकि उसके लिए लंबी साधना और नैतिक आचरण की जरूरत पड़ती है। मोक्ष और निर्वाण दोनों ही अवस्थाओं में जीव जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा पा लेता है।

 लेकिन मोक्ष मृत्यु के पार की अवस्था है। जबकि निर्वाण के लिए जीवन का अंत अनिवार्य नहीं। गौतम बुद्ध ने सदेह अवस्था में निर्वाण प्राप्त किया था। किंतु सभी तो उनके जैसे तपस्वी-साधक नहीं हो सकते। कर्मयोगी होना तलवार की धार पर चलकर मंजिल को तक पहुंचना है। सांसारिक प्रलोभनों से दूर होने के लिए उससे भाग जाना कर्म संन्यास में संभव है, मगर कर्मयोगी को तो संसार में रहते हुए ही उसके प्रलोभनों से निस्तार पाना होता है। ऐसे कर्मयोग को साधा कैसे जाए ?  संसार में रहकर उसके मोह से कैसे दूर रहा जाए ?  तब साधारण जन क्या करें ?  इसका उत्तर देते हुए भगवान श्रीकृष्ण गीता १८/६६ में कहते हैं - 
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

 
सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय - अर्थात धर्म के निर्णय करने विचार छोड़कर, अर्थात क्या करना है और क्या नहीं करना है --इसको छोड़कर तू केवल एक मेरी ही शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा- चिन्ता मत कर। स्वयं ठाकुर-माँ-स्वामी जी के शरणागत हो जाना, यह सम्पूर्ण साधनों (विवेक-प्रयोग आदि) का सार है ! इसमें शरणागत भक्त को अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता; जैसे पतिव्रता अपने शरीर को भी पतिदेव का मानती है। मेरी अयोग्यता का सुधार करना भी माँ का ही कार्य है। साधारण जीव भगवान की माया -पंचभूत (संसार-सुख ) में ममता करके फँस जाते हैं और जन्मते-मरते रहते हैं; परन्तु जो माँ का बेटा (भक्त) माँ के चरणों में (या मायापति भगवान श्रीरामकृष्ण की शरण  जाते हैं, वे माया से तर जाते हैं ७/१४ )
समस्त धर्मों को छोड़ कर --अर्थात सर्व कर्मों का संन्यास करके, मुझ एककी शरणमें आ !  अर्थात् मैं जो कि सब का आत्मा, समभाव से सर्व भूतों में स्थित- ईश्वर, अच्युत तथा गर्भ- जन्म- जरा और मरणसे रहित हूँ, उस 'एक' के इस प्रकार शरण हो।

वह ईश्वर है सबसे अलग,  पर सबमें रहता है। यहाँ ‘ईश्वर’ से हमारा तात्पर्य  है “परम सत्ता ” न  कि  ‘देवदूत’, ( पैगम्बर, या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) जिसे सामन्य मनुष्य 'देवता' जैसा सम्मान देता है। ‘देवता’ एक अलग शब्द है जिसका अशुद्ध प्रयोग  अधिकतर  ‘परमसत्ता’ के लिए कर लिया जाता है। हालाँकि ईश्वर भी एक ‘देवता’ है। कोई भी पदार्थ  – जड़ व चेतन – जो कि हमारे लिए उपयोगी हो व सहायक हो, उसे ‘देवता’ कहा जाता है । ब्रह्म को जान कर ब्रह्मविद् बन जाने की सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में है, किन्तु जो व्यक्ति अभी चरित्रवान मनुष्य ही नहीं बना है, वह 'देवता' या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता कैसे बन सकता है ? 
 " शिवज्ञान से जीव सेवा"  का अर्थ यह नहीं है कि जिसने चरित्र-निर्माण नहीं किया है, वह भी ऐसी सत्ता है, जिसे ईश्वर (राम,कृष्ण,बुद्ध,ईसा या श्रीरामकृष्ण) है और उसकी उपासना की जाये । हमें इस सम्बन्ध में  कोई भ्रम न हो इसलिए, परमात्मा या  ईश्वर हर युग में राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, पैगंबर मुहम्मद या इस युग में श्रीरामकृष्ण -माँ सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द जैसे रूप धारण कर अवतरित होते हैं ! ताकि उनको देखकर और उनकी जीवन-लीला को देखकर हम यह समझ सकें कि वह ‘ईश्वर’ जो सब जीवों में रहता हुआ भी सबसे अलग कैसे रहता है ? इस सच्चाई को हम उनके जीवन-चरित के उदाहरण से धारणा कर सकें ! 
वह परम पुरुष जो निःस्वार्थता का प्रतीक है, जो सारे  संसार को नियंत्रण में रखता है , हर जगह मौजूद है और सब देवताओं का भी देवता है , एक मात्र वही सुख देने वाला है । जो उसे नहीं समझते वो दुःख में डूबे रहते हैं, और जो उसे अनुभव कर लेते हैं, मुक्ति सुख को पाते हैं । (ऋग्वेद 1.164.39) अभिप्राय यह कि मुझ परमेश्वर से अन्य कुछ है ही नहीं ऐसा निश्चय कर। तुझ इस प्रकार निश्चयवाले को मैं अपना स्वरूप प्रत्यक्ष करा के, समस्त धर्माधर्मबन्धनरूप पापोंसे मुक्त कर दूँगा। 
अज्ञानी ही, मैं कर्म करता हूँ ऐसा मानता है ( ज्ञानी नहीं )। आरुरुक्षु के लिये कर्म कर्तव्य बतलाये हैं और आरूढके लिये अर्थात् योगस्थ पुरुषके लिये उपशम कर्तव्य बतलाया है। तथा ( ऐसा भी कहा है कि) तीनों प्रकारके अज्ञानी भक्त भी उदार हैं, पर ज्ञानी तो मेरा स्वरूप ही है। ऐसा मैं मानता हूँ। कर्म करनेवाले सकाम अज्ञानी लोग आवागमनको प्राप्त होते हैं और अनन्य भक्त नित्ययुक्त होकर चिन्तन करते हुए आत्मस्वरूप, आकाशके सदृश, मुझ निष्पाप परमात्माकी उपासना किया करते हैं। जो भगवत्स्वरूप और आत्माके एकत्वज्ञानकी शरण हो चुके हैं ऐसे भगवान के तत्त्वको जाननेवाले परमहंस परिव्राजकों को इष्ट,अनिष्ट और मिश्र -- ऐसा त्रिविध कर्मफल नहीं मिलता।
केवल आत्मज्ञान ही परम कल्याण ( मोक्ष ) का हेतु ( साधन ) है। अविद्याके कारण मनुष्य सदा यही सोचता है कि,  कर्म मेरे हैं- मैं उनका कर्त्ता हूँ। मैं अमुक फल के लिये यह कर्म करता हूँ यह अविद्या अनादिकाल से प्रवृत्त हो रही है।
जिसका फल कैवल्य (मोक्ष) है? उस ज्ञानके प्राप्त होनेके पश्चात् कर्म-फल की इच्छा नहीं रह सकती।  जैसे सब ओरसे परिपूर्ण जलाशयके प्राप्त हो जाने पर कूप-तालाब आदिकी जलके लिये चाह नहीं रहता, उसी प्रकार मोक्ष जिसका फल है, ऐसे ज्ञान की प्राप्ति होने के बाद क्षणिक सुखरूप फलान्तर की या उसकी साधनभूत क्रियाकी इच्छुकता नहीं रह सकती।
क्योंकि जो मनुष्य राज्य प्राप्त करा देनेवाले कर्म में लगा हुआ है उसकी प्रवृत्ति- क्षेत्रप्राप्ति ही जिसका फल है ऐसे कर्म में नहीं होती और उस कर्मके फलकी इच्छा भी नहीं होता। सुतरां यह सिद्ध हुआ कि परम कल्याणका साधन न तो कर्म है और न ज्ञान कर्मका समुच्चय ही है तथा कैवल्य ( मोक्ष ) ही जिसका फल है? ऐसे ज्ञानको कर्मोंकी सहायता भी अपेक्षित नहीं है क्योंकि ज्ञान अविद्याका नाशक है इसलिये उसका कर्मोंसे विरोध है। 

 यह प्रसिद्ध ही है कि अन्धकार का नाशक अन्धकार नहीं हो सकता। इसलिये केवल ज्ञान ही परम कल्याणका साधन है। अर्जुन जब प्रभु की कृपा से माया के फंदे से (पंचभूतों के फंदे से) छूट जाता है, तो बोल पड़ता है -[गीता १८/७३ स्वामी रामसुखदास ]
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
 स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।। 
अर्जुन बोला -- हे अच्युत मेरा अज्ञान या अविद्या-जन्य मोह,  जो कि समस्त संसाररूप अनर्थका कारण था और समुद्रकी भाँति दुस्तर था; नष्ट हो गया है ! आपकी कृपा के आश्रित होकर, मैंने आपकी कृपा से आत्म-विषयक ऐसी स्मृति भी प्राप्त कर ली है कि जिसके प्राप्त होने से समस्त ग्रन्थियाँ -- (सर्वहृदयग्रन्थीनां विप्रमोक्षः) संशय विच्छिन्न हो जाते हैं। जिसके हृदय की ग्रन्थि विच्छिन्न हो जाती है वहाँ एकता का अनुभव करनेवाले को कैसा मोह और कैसा शोक ? इत्यादि मन्त्रवर्ण भी हैं।
इस प्रश्नोत्तर द्वारा यही दिखाया गया है कि ब्रह्मसूत्र, गीता, उपनिषद आदि श्रुति-शास्त्रों का अर्थ समझ जाने का फल बस इतना ही है - 'अज्ञानजनित मोहका नाश और आत्मविषयक स्मृतिका लाभ' हो जाना। 
( अथ इदानीं त्वच्छासने स्थितः अस्मि गतसंदेहः मुक्तसंशयः।
 करिष्ये वचनं तव। अहं त्वत्प्रसादात् कृतार्थः?
 न मे कर्तव्यम् अस्ति इत्यभिप्रायः।।)  
अब मैं संशयरहित हुआ आपकी आज्ञाके अधीन खड़ा हूँ। मैं आपका कहना करूँगा। अभिप्राय यह है कि मैं आपकी कृपासे कृतार्थ हो गया हूँ,अब मेरा (अपना?) कोई कर्तव्य (धर्म ?) शेष नहीं है।
विचार दो तरह का होता है, एक विचार करना होता है और एक विचार उदय होता है। जो विचार किया जाता है उसमें तो क्रिया होती है, पर जो विचार उदय होता है, उसमें क्रिया नहीं हैविचार करने में तो बुद्धि की प्रधानता रहती है पर विचार उदय होने पर बुद्धि से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता हैअतः तत्वबोध विचार करने से नहीं होता, बल्कि विचार उदय होने से होता है। तत्वप्राप्ति के उद्देश्य से सत-असत का विचार (विवेक-प्रयोग) करते करते जब असत छूट जाता है, तब 'संसार है ही नहीं, हुआ ही नहीं, होगा ही नहीं, होना सम्भव ही नहीं '--इस विचार का उदय होता है ! विचार उदय होते ही विवेक बोध में परिणत हो जाता है अर्थात संसार लुप्त हो जाता है और तत्व (सच्चिदानन्द) प्रकट हो जाता है; मानी हुई चीज मिट जाती है और वास्तवकिता रह जाती है
विचार का उदय होने को यहाँ 'स्मृतिर्लब्धा' कहा गया है ! अपरा प्रकृति भगवान की है परन्तु भूल से अपरा के साथ हमने सम्बन्ध जोड़ लिया तब भगवान से नित्य-सम्बन्ध की विस्मृति हो गयी और हम बंधन में फंस गए ? गीता ७/४ 
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।

पृथ्वी जल अग्नि वायु और आकाश ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि (बुद्धि अर्थात् अहंकार का कारण महत्तत्त्व और अहंकार अर्थात् अविद्यायुक्त अव्यक्त मूलप्रकृति।) तथा अहंकार यह आठ प्रकार के भेदों वाली मेरी अपरा प्रकृति है। हे महाबाहो इस अपरा प्रकृति से भिन्न मेरी जीवरूपा परा प्रकृति को जान जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है। (जीवात्मा? परमात्मा का स्वरूप होने पर भी केवल अपरा प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ने के कारण इस जीवात्मा को प्रकृति कहा गया है।)
अपरा से संबंध विच्छेद करने के लिये ' शरीर मेरा और मेरे लिये नहीं है ' - इस विवेक को महत्व देना ही विवेक-प्रयोग है ! इस विवेक को महत्व देने से 'अपरा मेरी और मेरे लिए है ही नहीं '- यह स्मृति प्राप्त हो जाती है
अर्जुन को मुख्य रूप से भक्तियोग की स्मृति हुई है ! द्वैत-अद्वैत तो मोह हैं, और अर्जुन का मोह नष्ट हो चूका है, इसीलिये अर्जुन को द्वैत अथवा अद्वैत का अनुभव नहीं हुआ है, बल्कि द्वैत-अद्वैत से अतीत वास्तविक तत्व का अनुभव हुआ है! आत्मा (जीव) अनादि काल से स्वतः परमात्मा (ठाकुर) का है, केवल संसार के आश्रय का त्याग करना है। ज्ञानयोग, कर्मयोग, राजयोग तो साधन हैं, पर भक्तियोग साध्य है ! इसीलिये भक्तियोग की स्मृति ही वास्तविक स्मृति है। भक्तियोग की स्मृति है - "श्रीरामकृष्णदेवः सर्वम् " अर्थात सब कुछ ठाकुर ही बने हैं !
 'ठाकुरदेवः सर्वम्' का अनुभव करना 'स्मृतिर्लब्धा' है ! और यह अनुभव केवल भगवत्-कृपा से ही होता है-'त्वत्प्रसादात्' वचन सीमित होते हैं पर कृपा असीम होती हैचिन्तन में कर्तृत्व होता है, पर स्मृति में कर्तृत्व नहीं है ! कारण की चिन्तन मन से होता है, मन से परे बुद्धि है, बुद्धि से परे अहं है, और अहं से परे स्वरुप है, उसी स्वरुप में स्मृति होती है चिन्तन तो हम करते हैं, पर स्मृति में केवल उधर दृष्टि होती है। विस्मृति के समय भी तत्व तो वैसा- का वैसा ही हैतत्व में विस्मृति नहीं है। इसलिए उधर दृष्टि होते ही स्मृति हो जाती है ! 'स्थितोअस्मि गतसन्देहः ' --पहले क्षात्रधर्म की दृष्टि से युद्ध करना ठीक दीखता था, फिर गुरुजनों के सामने आने से युद्ध करना पाप दिखने लगा; परन्तु स्मृति प्राप्त होते ही सब उलझनें मिट गयींमैं क्या करूँ ? युद्ध करूँ कि नहीं करूँ ? --यह सन्देह , संशय, शंका कुछ नहीं रही मेरे लिये अब कुछ करना बाकी नहीं रहा, प्रत्युत केवल आपकी आज्ञाका पालन -BE AND MAKE ' करना बाकी रहा - 'करिष्ये वचनं तव ' ! यही शरणागति है !
गीता १८/६१ में हे पार्थ (पूर्वोक्त यज्ञ? दान और तप -- ) इन कर्मोंको तथा दूसरे भी कर्मोंको आसक्ति और फलों का त्याग करके करना चाहिये -- यह मेरा निश्चित किया हुआ उत्तम मत है। तब साधारण जन के लिए उपाय है अनासक्ति-पूर्वक 'BE AND MAKE ' के ज्ञान-यज्ञ में जुड़े रहना। आसक्तियुक्त और फलेच्छुक मनुष्योंके लिये यद्यपि ये ( यज्ञ, दान और तपरूप ) कर्म बन्धनके कारण हैं; तो भी मुमुक्षुको 
( फल आसक्तिसे रहित होकर) कर्म  करने चाहिये  
संसार में रहकर भी संसार के बंधनों से मुक्ति, धन-संपत्ति की लालसा, संबंधों और मोहमाया के बंधनों से परे हो जाना, अपने-पराये के अंतर से छुटटी पा लेना, जो भी अपने पास है उसको परमात्मा की अनुकंपा की तरह स्वीकार करना और अपनी हर उपलब्धि को ईश्वर के नाम करते जाना, यही मुक्ति तक पहुंचने का सहजमार्ग है। इसी को सहजयोग कहा गया है।
 उस अवस्था में कामनाओं का समाजीकरण होने लगता है। इच्छाएं लोक-हित के साथ जुड़कर पवित्र हो जाती हैं। उस अवस्था में व्यक्ति का कुछ भी अपना नहीं रहता। वह परहित को अपना हित, जनकल्याण में निज कल्याण की प्रतीति करने लगता है।
 तीन प्रकार का ज्ञान :गीता-१८/२० जिस ज्ञान (विवेक -प्रयोग) के द्वारा साधक सम्पूर्ण नश्वर प्राणियोंमें विभाग-रहित एक अविनाशी सत्ता को देखता है, उस ज्ञानको तुम सात्त्विक-ज्ञान  समझो।।।18.21।। परन्तु  जिस ज्ञानके द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियोंमें अलगअलग अनेक भावोंको अलगअलग रूपसे जानता है, उस ज्ञानको तुम राजस-ज्ञान  समझो। ।।18.22।। किंतु जो (ज्ञान) एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्णके तरह आसक्त है, अपने शरीरमें या शरीर से बाहर प्रतिमादि में, सर्ववस्तुविषयक सम्पूर्ण ज्ञानकी भाँति आसक्त है? अर्थात् ( यह समझता है कि ) यह आत्मा या ईश्वर (सोमनाथ या द्वारिका मंदिर तक सीमित है ?) इतना ही है इससे परे और कुछ भी नहीं है, जैसे दिगम्बर जैनियों का ( माना हुआ ) आत्मा शरीरमें रहनेवाला और शरीरके बराबर है और पत्थर या काष्ठ ( की प्रतिमा) मात्र ही ईश्वर है। तथा जो विवेक-प्रयोग नहीं करता वह वास्तविक ज्ञानसे रहित और तुच्छ है, उसे तामस-ज्ञान कहा गया है।
कर्म के तीन भेद कहे जाते हैं --।।18.23।। जो कर्म (शास्त्रविधि से) नियत और संगरहित है? तथा फल को न चाहने वाले पुरुष के द्वारा बिना किसी राग द्वेष के किया गया है? वह (कर्म) सात्त्विक-कर्म  कहा जाता है।।।।18.24।।परन्तु जो कर्म भोगों को चाहनेवाले मनुष्यके द्वारा अहंकार अथवा परिश्रमपूर्वक किया जाता है, वह राजस-कर्म  कहा गया है।।।18.25।। जो कर्म परिणाम? हानि? हिंसा और सार्मथ्य (पौरुषम्) का विचार न करके केवल मोहवश आरम्भ किया जाता है ? वह कर्म तामस-कर्म  कहलाता है।।
महामण्डल का आदर्श कर्ता कैसा हो ? ।।18.26।। जो कर्ता मुक्तसङ्ग है -- जिसने आसक्ति का त्याग कर दिया है, जो निरहंवादी है -- जिसका मैं कर्ता हूँ ऐसे कहने का स्वभाव नहीं रह गया है, जो धृति और उत्साहसे युक्त है -- धृति यानी धारणाशक्ति,और उत्साह यानी उद्यम -- इन दोनों से जो युक्त है। तथा जो किये हुए कर्मके फलकी सिद्धि होने या न होने में निर्विकार है। जो ऐसा कर्ता है, वह सात्त्विक कहा जाता है। ।।18.27।। जो कर्ता रागी, कर्मफल की इच्छावाला, लोभी, हिंसा के स्वभाव वाला, अशुद्ध और हर्षशोक से युक्त है, वह राजस कहा गया है।
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।  
       विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।18.28।।

अयुक्त? प्राकृत? स्तब्ध? शठ? नैष्कृतिक? आलसी? विषादी और दीर्घसूत्री कर्ता तामस कहा जाता है।। जो कर्ता अयुक्त है --अर्थात असावधान है, जो प्राकृत है --अर्थात जो 'मुस्टैच बेबी' - मूंछ निकल जाने पर भी बालक के समान अत्यन्त संस्कारहीन बुद्धिवाला (रस्टिक या गँवारू) है, जो स्तब्ध है -- दण्ड की भाँति किसी के सामने नहीं झुकता, ऐंठ और अकड़ वाला है जिद्दी है, उपकारी का अपकार करनेवाला  जो शठ अर्थात् कपटी है, जो नैष्कृतिक -- दूसरों की वृत्तिका छेदन करने में तत्पर और आलसी है --जो विषादी -- सदा शोकयुक्त स्वभाव वाला और दीर्घसूत्री है -- कर्तव्य में बहुत विलम्ब करने वाला है अर्थात् आज या कल कर लेने योग्य कार्य को महीनेभर में भी समाप्त नहीं कर पाता, जो ऐसा कर्ता है वह तामस-कर्ता  कहा जाता है। 
बुद्धि और धृतिके भी तीन प्रकारके भेद हे धनञ्जय सुन - ( दिग्विजय के समय अर्जुन ने मनुष्यों का और देवों का बहुत सा धन जीता था, इसलिये उसका नाम धनञ्जय हुआ)।।18.30।। हे पृथानन्दन जो बुद्धि प्रवृत्ति को अर्थात बन्धन के हेतुरूप कर्ममार्ग को और निवृत्ति-विधि और प्रतिषेधको,   कर्तव्य और अकर्तव्य को--- यानी करने योग्य और न करने योग्य को (धर्म के सही अर्थ को भी जानती है )। 
।18.32।। हे पृथानन्दन तमोगुण से घिरी हुई जो बुद्धि अधर्म-- निषिद्ध कार्य (उपल=उल्टा ) को धर्म मान लेती है, यानी शास्त्र-विहित मान लेती है? और सम्पूर्ण चीजों को उलटा मान लेती है, वह तामसी-बुद्धि  है।
।।18.33।। हे पार्थ समता से युक्त जिस अव्यभिचारिणी धृति (अर्थात् सदा समाधिमें लगी हुई जिस धारणाके द्वारा समाधियोग से मन, प्राण और इन्द्रियोंकी सब क्रियाएँ धारण की जाती हैं,  अर्थात् मन, प्राण और इन्द्रियोंकी सब चेष्टाएँ जिसके द्वारा शास्त्रविरुद्ध प्रवृत्तिसे रोकी जाती हैं,  वह धृति सात्त्विकी है )।के द्वारा मनुष्य मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है- वह धृति सात्त्विकी है।
 तीन प्रकारके सुख: ।।18.37।। परमात्म-विषयक बुद्धि की प्रसन्नता से पैदा होने वाला जो सुख (सांसारिक आसक्तिके कारण) आरम्भमें विषकी तरह और परिणाममें अमृतकी तरह होता है? वह सुख सात्त्विक कहा गया है।।।18.38।। जो सुख इन्द्रियों और विषयोंके संयोगसे आरम्भमें अमृतकी तरह और परिणाममें विषकी तरह होता है? वह सुख राजस कहा गया है।। 18.39।। निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होने वाला जो सुख आरम्भ में और परिणाम में अपने को मोहित करने वाला है? वह सुख तामस कहा गया है।
गीता १८/४० में कहा है, पृथ्वी में या स्वर्ग में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवाय और कहीं भी वह ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो। यह सारा संसार सत्त्व, रज और तम -- इन तीनों गुणों का ही विस्तार है अविद्या से कल्पित है और अनर्थरूप है। (पंद्रहवें अध्यायमें ) वृक्षरूप की कल्पना करके ऊर्ध्वमूलम् इत्यादि वाक्यों द्वारा मूलसहित इसका वर्णन किया गया है। तथा यह भी कहा है कि उसको दृढ़ असङ्ग-शस्त्र द्वारा छेदन करके उसके पश्चात् उस परम पद (ब्रह्म) को खोजना चाहिये। दूसरे शब्दों में मुक्ति का एक अर्थ निष्काम हो जाना भी है निष्काम होने का अभिप्राय निष्कर्म होना अथवा कर्म से पलायन नहीं है। कर्म करते हुए, सांसारिक कर्मों में अपनी लिप्तता बनाए रखकर भी निष्काम हो जाना सुनने में असंभव और विचित्र सा लगता है ! इसीलिये नादान अकर्मण्यता को ही निष्काम्यता का पर्याय मान लेता है। कुछ लोग (bbp) निष्काम होने के लिए संन्यास की शरण में जाते रहे हैं। लेकिन देह पर संन्यासी बाना धारण कर वन-वन घूमने से तो सचमुच का वैराग्य संभव नहीं। जब तक मन मोहमाया से ग्रस्त है तब तक कर्मसंन्यास की वास्तविक स्थिति कैसे संभव हो सकती है। इस उलझन को सुलझाने का रास्ता भी गीता मैं है।
 कृष्ण कहते हैं कि कर्म करो, मगर फल की इच्छा का त्याग कर दो। निष्काम कर्म यानी कर्म करते हुए कर्म का बोध न होने देना, यह प्रतीति बनाए रखना कि 'मैं' (देह-मन) तो निमित्त मात्र है, वास्तविक कर्ता तो 'यथार्थ मैं '- आत्मा हूँ ! ‘त्वदीयं वस्तु गोविंदम तुभ्यमेवसमप्यते’ भावना के साथ सारे कर्म, समस्त कर्मफलों को ईश्वर-निर्मित मानकर उसी को समर्पित करते चले जाना ही कर्मयोग है।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
                  तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।
।18.78।।
जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन हैं;  वहाँ ही श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है -- ऐसा मेरा मत है।
कुछ स्वार्थी,धर्मान्ध और कर्मकांड-प्रिय पुरोहितों ने अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए समाज को जातीय आधार पर विभाजित करना आरंभ कर दिया। परिणाम यह हुआ कि परमसत्ता के प्रतीक अनादि, अनश्वर, निराकार, निर्गुण ‘बृह्म’ का स्थान दो हाथ, दो पांव वाले स्वार्थी गुरुओं ने ले लिया। कर्मकांड और वर्गभेद के समर्थन पर टिकी इस पुरोहित -व्यवस्था का ज्ञान की पुरातन परंपरा से कोई लगाव न था। विभिन्न मताबलंबियों के बीच आए दिन के विवाद छिड़ने और बहस का स्तर नीचे जाने से प्रचलित दार्शनिक मान्यताओं कास्थूलीकरण होने लगा। परिणामस्वरूप चिंतनधारा सूखने लगी। कर्मकांडों और रूढ़ियों में फंसा धर्म अपनी ही मूल स्थापनाओं से परे हटने लगा।
२. ब्रह्मसूत्र (उत्तर मीमांसा): जब मनुष्य धर्मपूर्वक जीवन-यापन करने लगता है तो उसके मन में दूसरी जिज्ञासा जो उठती है, वह है ब्रह्म -जिज्ञासा -  अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ।।  ब्रह्म के जानने की लालसा। 

 ब्रह्मवादिनो वदन्ति किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाताः ? जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठाः ?  अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम् ॥ - श्वेताश्वतरोपनिषत् १-१
ब्रह्म चर्चा वाले जिज्ञासुओं ने आपस में विमर्श करते हुए पूछा कि‘किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता’।  इस सृष्टि का मुख्य कारण ब्रह्म कौन है? हम सब किससे उत्पन्न हुए है? किस कारण से जी रहे हैं?‘क्व च सम्प्रतिष्ठाः’। किसमें स्थित हैं? केन सुखेतरेषु वर्तामहेकिसके अधीन सुख और दुख में बरत रहे हैं (‘श्वेताश्वतर उपनिषद्’ मन्त्र 1)
 [अर्थात्-हे बाह्मविद् महर्षियों! इस जगत् का  मूल कारण जो ब्रह्म है, वह कौन है?  हम सभी किससे उत्पन्न हुए हैं, किससे जी रहे हैं तथा किसमें प्रतिष्ठित हैं? साथ ही किसके अधीन रहकर हम लोग सुख और दुःख का अनुभव करते हैं?]
 सर्वप्रथम यह विचार करना होगा कि हम कौन हैं? और क्यों जी रहे हैं? इस तथ्य पर आत्म्वेत्ता ऋषियेां ने गंभीर चिंतन एवं अनुसंधान से जो निष्कर्ष निकाले थे वे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं तथा आत्मानुसंधान में प्रवृत्त होने के इच्छुक जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं। 
पहली जिज्ञासा कर्म धर्म की जिज्ञासा थी और दूसरी जिज्ञासा जगत् का मूल कारण जानने ज्ञान की थी।इस दूसरी जिज्ञासा का उत्तर ही ब्रह्मसूत्र अर्थात् उत्तर मीमांसा है। यह दर्शन चार अध्यायों एवं सोलह पादों में विभक्त है। इसे वेदान्त दर्शन के नाम से ही जाना जाता हैं। परमात्मा का परम गुह्य ज्ञान वेदान्त के रूप में सर्वप्रथम उपनिषदों में ही प्रकट हुआ है। उपनिषद् में सभी दर्शनों के मूल सिद्धान्त हैं। वेदान्त का मूल ग्रन्थ उपनिषद् ही है। इन श्रुति वचनों का सारांश इतना ही है कि संसार में जो कुछ भी दृश्यमान है और जहाँ तक हमारी बुद्धि अनुमान कर सकती है, उन सब का का मूल स्रोत्र एकमात्र ‘परब्रह्म’ ही है। 
इसमें बताया गया है कि तीन ब्रह्म अर्थात् तीन मूल पदार्थ है-प्रकृति, जीवात्मा और परमात्मा। तीनों अनादि है। इनका आदि-अन्त नहीं। तीनों ब्रह्म कहाते है और जिसमें ये तीनो विद्यमान है अर्थात् जगत् वह परम ब्रह्म है। प्रकृति (हिग्स बोसॉन) जो जगत् का उपादान कारण है, परमाणुरूप है जो त्रिट (तीन शक्तियो-सत्व, राजस् और तमस् का समूह  है। इन तीनो अनादि पदार्थों का वर्णन ब्रह्मसूत्र (उत्तर मीमांसा) में है। जीवात्मा का वर्णन करते हुए इसके जन्म-मरण के बन्धन में आने का वर्णन भी ब्रह्मसूत्र में है। साथ ही मरण-जन्म से छुटकारा पाने का भी वर्णन है। परमात्मा जो अनेक नाम-रूपों में तत्वों से संयुक्त होकर भासता है, उसका अपना शुद्ध रूप नेति-नेति शब्दों से ही व्यक्त होता है।
३. सांख्य दर्शन:  सांख्य सांख्या द्योतक है।
सांख्य का उद्देश्य तीनो प्रकार के दु:खों की निवृत्ति करना है। तीन दु:ख है। आधिभैतिक- यह मनुष्य को होने वाली शारीरिक दु:ख है जैसे बीमारी, अपाहिज होना इत्यादि। आधिदैविक- यह देवी प्रकोपों द्वारा होने वाले दु:ख है जैसे बाढ़, आंधी, तूफान, भूकंप इत्यादि के प्रकोप। आध्यात्मिक- यह दु:ख सीधे मनुष्य की आत्मा को होते हैं जैसे कि कोई मनुष्य शारीरिक व दैविक दु:खों के होने पर भी दुखी होता है। उदाहरणार्थ-कोई अपनी संतान अपना माता-पिता के बिछुड़ने पर दु:खी होता है अथवा कोई अपने समाज की अवस्था को देखकर दु:खी होता है। किन्तु इन समस्त दुःखों का एक मात्र कारण अविद्या है !  
संख्या का प्रथम सूत्र है। अथ त्रिविधदुख: खात्यन्त: निवृत्तिरत्यन्त पुरूषार्थ:।। १ ।।
अर्थात् अब हम तीनों प्रकार के दु:खों-आधिभौतिक (शारीरिक), आधिदैविक एवं आध्यात्मिक से स्थायी एवं निर्मूल रूप से छुटकारा पाने के लिए सर्वोकृष्ट प्रयत्न का इस ग्रन्थ में वर्णन कर रहे हैं।

 सांख्य दर्शन की मान्यता है कि संसार की हर वास्तविक वस्तु का उद्गम पुरूष और प्रकृति से हुआ है पुरूष में स्वयं आत्मा का भाव है जबकि प्रकृति पदार्थ और सृजनात्मक शक्ति की जननी है। सत्व, रजस और तमस की साम्यावस्था को प्रकृति कहते है। जैसे त्रिकंटी की तीन टांगे एक दूसरे को नि:शेष कर रही होती है। प्रकृति मूल रूप में सत्व,रजस्,रजस् तमस की साम्यावस्था को कहते है। तीनो आवेश परस्पर एक दूसरे को नि:शेष (neutralize) कर रहे होते हैं। 
 प्रकृति को सर्वत्र 'त्रिगुणात्मक' कहा गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रकृति नामक तत्त्व में तीन गुण हैं। गुणों की साम्यावस्था प्रकृति की अव्यक्तावस्था है। प्रकृति किसी अन्य का कार्य या विकार नहीं है। इसीलिए इसे अविकृति कहा गया है। बुद्धि और पुरुष के इस संयोग के उपरान्त ही भोक्ता पुरुष के लिए भोग साधन (इन्द्रिय) और भोग विषयों की उत्पत्ति होती है। बुद्धि और पुरुष का यह संयोग सर्गकाल में बना ही रहता है। केवल एक ही अवस्था में, जब पुरुष केवल ज्ञान प्राप्त कर लेता है तब ही लक्ष्य पूरा हो जाने के बाद या पुरुषार्थ रूप प्रयोजन सिद्ध हो जाने से 'बुद्धि' अपने मूल कारण 'ब्रह्म' में लीन हो जाती है।
जब परमात्मा का तेज परमाणु (त्रित) की साम्यावस्था को भंग करता है और असाम्यावस्था आरंभ होती है साम्यावस्था भंग होने पर बनते हैं: महत् - तीन अहंकार, पाँच तन्मात्राएँ, १० इन्द्रियाँ और पाँच महाभूत। पच्चीसवां गण है पुरूष। रचना-कार्य में यह प्रथम परिवर्तन है। इस अवस्था को महत् कहते है। यह प्रकृति का प्रथम परिणाम है। मन और बुध्दि इसी महत् से बनते हैं। इसमें परमाणु की तीन शक्तिया बर्हिमुख होने से आस-पास के परमाणुओ को आकर्षित करने लगती है। अब परमाणु के समूह बनने लगते है। 
[तीन प्रकार के समूह देखे जाते है। एक वे है जिनसे रजस् गुण शेष रह जाता है। यह तेजस अहंकार कहलाता है। इसे वर्तमान वैज्ञानिक भाषा में इलेक्ट्रोन कहते है। दूसरा परमाणु-समूह वह है जिसमें सत्व गुण प्रधान होता है वह वैकारिक अहंकार कहलाता है। इसे वर्तमान वैज्ञानिक प्रोटोन कहते है। तीसरा परमाणु-समूह वह है जिसमें तमस् गुण प्रधान होता है इसे वर्तमान विज्ञान की भाषा में न्यूटोन कहते है।] 
 साम्य-भंग या वैषम्यावस्था प्रकृति का नाश नहीं, व्यक्तोन्मुखता है। अव्यक्त से व्यक्त स्थूलभूत तक सूक्ष्म से स्थूल की ओर सर्ग प्रक्रिया भी प्रत्यक्षगम्य दृष्टान्तों द्वारा स्थापित की जा सकती है। बीज सूक्ष्म वस्तु है और उत्पन्न वृक्ष क्रमश: विकसित कार्य है। व्यक्त रूप में अनेक कहने का आशय यह है कि त्रिगुण परस्पर क्रिया से अनेकाश: तत्त्वोत्पत्ति करते हैं। अव्यक्त के व्यक्त होने में प्रथम सोपान महत या बुद्धि तत्त्व है। निश्चय करना बुद्धि का कार्य है। सत्त्व प्रधान होने से यह अन्य तत्त्वों की तुलना में अधिक पारदर्शी होती है। निश्चय ही बुद्धि का मूल्यांकन उसके गुणों (सत्त्वादि) के आधार पर किया जा सकता है। निश्चय का यह मूल्यांकित रूप ही बुद्धि के कार्य अथवा रूप कहे जा सकते हैं। सत्त्वाधिक्य निश्चय के रूप है ज्ञान, वैराग्य, धर्म और ऐश्वर्य। तमोगुण प्रधान निश्चय के रूप हैं अज्ञान, राग, अनैश्वर्य। महत के अनन्तर अहंकार की उत्पत्ति होती है। इसका लक्षण है अभिमान। बुद्धि में 'मैं-मेरा' का भाव ही अभिमान है। इसका अर्थ यह होगा कि अहंकार बुद्धि की ही एक विशेष अभिव्यक्ति है।
अहंकार त्रिगुणात्मक अचेतन तत्त्व है। अहंकार से पंचतन्मात्रों की उत्पत्ति होती है। तन्मात्र वास्तव में केवल 'है' कहे जा सकते हैं। इनमें रूपादि विशेष लक्षण नहीं होते वरन विषयों की ये सूक्ष्म अवस्थाएँ हैं। इसलिए इन्हें अविशेष कहा जाता है। ये पांच तन्मात्र हैं शब्द, रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श। चक्षु, श्रोत्र, जिह्वा (रसना) घ्राण तथा त्वक- ये पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। जिनके विषय क्रमश: रूप, शब्द, रस, गन्ध तथा स्पर्श हैं।   
'रज्जु-सर्प भ्रम' का दृष्टान्त:  भारतीय दर्शन में बहुत प्रचलित है। जब पूर्ण ज्ञान हो जाय और अभेद-ज्ञान या विवेकज-ज्ञान हो जाय तब पुरुष त्रिगुण-संग से रहित कैवल्य ज्ञान प्राप्त कर लेता है। 

४. वैशेषिक दर्शन: वैशेषिक दर्शन के प्रथम दो सूत्र है- " अथातो धर्म व्याख्यास्याम:।।" - अब हम धर्म की व्याख्या करेंगे। " यतोSभ्युदयनि: श्रेयससिद्धि: स धर्म:।।" जिससे इहलौकिक और पारलौकिक (नि:श्रेयस) सुख की सिध्दि होती है वह धर्म है।
वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महिर्ष कणाद है।  इसका लक्ष्य जीवन में सांसारिक वासनाओं को त्याग कर सुख प्राप्त करना और ईश्वर के गंभीर ज्ञान-प्राप्ति के द्वारा अंतत: मोक्ष प्राप्त करना है। क्योंकि इस दर्शन में विशेष पदार्थ सूक्ष्मता से निरूपण किया गया है। चूंकि ये दर्शन परिमण्डल, पंच महाभूत और भूतों से बने सब पदार्थों का वर्णन करता है, इसलिए वैशेषिक दर्शन विज्ञान-मूलक है वैशेषिक दर्शन के मुख्य पदार्थ: १.द्रव्य: द्रव्य गिनती में ९ है पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि।।(विशैषिक १।१।५) अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन। इसलिए इसका नाम वैशेषिक दर्शन है।

५. न्याय दर्शन:
न्यायदर्शन में अन्वेषण अर्थात् जाँच-पड़ताल के उपायों का वर्णन किया गया है कहा है कि सत्य की खोज के लिए सोलह तत्व है। महिर्ष अक्षपाद गौतम द्वारा प्रणीत न्याय दर्शन एक आस्तिक दर्शन है जिसमें ईश्वर कर्म-फल प्रदाता है। दु:ख का अत्यन्तिक नाश ही मोक्ष है। आत्मा, शरीर और इन्द्रियों में केवल आत्मा ही भोगने वाला है। इच्छा,द्वेष, प्रयत्न, सुख-दु:ख और ज्ञान उसके चिह्म है जिनसे वह शरीर से अलग जाना पड़ता है। उसके भोगने का घर शरीर है। भोगने के साधन इन्द्रिय है। भोगने योग्य विषय (रूप,रस,गंध, शब्द और स्पर्श) ये अर्थ है उस भोग का अनुभव बुध्दि है और अनुभव कराने वाला अंत:करण मन है। सुख-दु:ख का कराना फल है और अत्यान्तिक रूप से उससे छूटना ही मोक्ष है। 

६. योग दर्शन: 
इस दर्शन के प्रवर्तक महर्षि पतंजलि हैं । उनको अकसर सात सांपों के सिर वाले आधा आदमी आधा सांप के रूप में दर्शाया जाता है। “पतंजलि को ऐसा इसलिए दर्शाया जाता है क्योंकि वे मानव-ऊर्जा के व्यवहार के प्रति बहुत संवेदनशील हैं। उन्होंने हर उस आयाम को खोजा जिसे आप अपनी ऊर्जा के  रूपांतर के द्वारा जान सकते हैं। उनकी संवेदनशीलता इतनी जबरदस्त थी कि एक आदमी की तरह उनको सिर्फ दो पैर देना उचित नहीं लगता।

दरअसल वे एक सांप की तरह हैं जिनको हर चीज की भनक लग जाती है।” हम उन्हें उस विद्वान के रूप में जानते हैं जिन्होंने योगसूत्र का संकलन किया।  इंसान की अंदरूनी प्रणालियों के बारे में जो कुछ भी बताया जा सकता था वो सब इन सूत्रों में शामिल था।पतंजलि शब्द का अर्थ है वह जो अंजलि यानी हथेली में गिरा हो।  पतंजलि के योगसूत्र किसी फार्मूला की तरह हैं।
“अगर आप सापेक्षवाद के सामान्य सिद्धांत के बारे में नहीं जानते और मैं बोलूं, E=mc2, तो आपके लिए ये तीन अक्षर और एक अंक के अलावा और कुछ नहीं है, ठीक है न? परमाणु को आप देख भी नहीं सकते, लेकिन अगर आप इस पर प्रहार करें, इसे तोड़ दें तो एक जबर्दस्त घटना घटित होती है। जब तक परमाणु को तोड़ा नहीं गया था तब तक किसी को पता भी नहीं था कि इतने छोटे से कण में इतनी जबर्दस्त ऊर्जा मौजूद है। इसी तरह से इंसान भी एक जैविक परमाणु है, जीवन की एक इकाई है। इंसान के भीतर भी वैसी ही जबर्दस्त ऊर्जा मौजूद है।
कुंडलिनी जागरण का मतलब यह है कि आपने उस अपार ऊर्जा के इस्तेमाल की तकनीक को पा लिया है। कुंडलिनी की प्रकृति कुछ ऐसी है कि जब यह शांत होती है तो आपको इसके होने का पता भी नहीं होता। जब यह गतिशील होती है तब अपको पता चलता है कि आपके भीतर इतनी ऊर्जा भी है। इसी वजह से कुंडलिनी को सर्प के रूप में चित्रित किया जाता है। कुंडली मारकर बैठा हुआ सांप अगर हिले-डुले नहीं, तो उसे देखना बहुत मुश्किल होता है।पतंजलि का ज्ञान इतने अलग-अलग क्षेत्रों में है कि विद्वानों को यकीन नहीं होता कि एक इंसान अकेले इतने तरह के ग्रंथ तैयार कर सकता है। “अगर आप गणित, खगोलशास्त्र, ब्रह्मांडविज्ञान और संगीत जैसे विषयों में उनकी महारत और उनकी बुद्धि पर गौर करें तो यह बिलकुल असंभव-सा लगता है कि एक अकेले इंसान को जिंदगी की इतनी समझ हो सकती है।
आज के विद्वान वाद-विवाद, विचार-विमर्श के बाद कहते हैं, ‘यह कोई एक आदमी नहीं, बहुत-से लोग रहे होंगे। यह बहुत-से लोगों का इकट्ठा किया गया काम है।’ पर ऐसा बिलकुल नहीं है। वे एक ही व्यक्ति थे। एक बुद्धिजीवी के रूप में पतंजलि के आगे आज के बड़े-बड़े वैज्ञानिक किंडरगार्टेन के बच्चे जैसे लगेंगे। जिंदगी के बारे में वो सबकुछ जो कहा जा सकता है उन्होंने कह दिया था।  उन्होंने किसी के लिए कुछ भी कहने को नहीं छोड़ा।” 
 इसी तरह योगसूत्रों को कुछ ऐसे लिखा गया था कि यूं ही सरसरी तौर पर पढ़ने वाले को इनका कोई मतलब समझ न आए। पतंजलि ने किसी अभ्यास की शिक्षा नहीं दी। उन्होंने इन सूत्रों को इस तरह रचा कि ये उन्हीं को समझ आएं जिनको एक खास स्तर का अनुभव है; वरना ये शब्दों के ढेर बन कर रह जाते हैं। ”
पतंजलि ने मात्र १९५ सूत्रों में पूरे योग शास्त्र को समेट दिया।  उन्होंने  योगदर्शन को एक अजीब तरीके से इसको शुरू किया। पहले अध्याय का पहला सूत्र बस एक आधा-अधूरा वाक्य  है --
अथ योगानुशासनम्॥ १/१
" तो अब योग का अनुशासन।" दरअसल वे यह कहना चाहते थे – अगर आपने अपनी मर्जी का काम कर लिया है, अगर आपने अपनी जरूरत भर पैसा कमा लिया है, अगर आपने अपनी पसंद का जीवन-साथी पा लिया है, फिर भी आप अंदर से खाली-खाली-सा महसूस कर रहे हैं, तो जान लीजिए कि योग का वक्त आ गया है। लेकिन अभी भी अगर आप यह सोचते हैं कि एक नया घर बनवा लेने से या कोई और काम कर लेने से आपके साथ सब ठीक हो जाएगा, तो अभी योग का वक्त नहीं आया है। जब सब-कुछ आजमाने के बाद आप यह जान गए हों कि इनमें से कुछ भी आपको संतुष्ट नहीं कर पाएगा, अगर आप इस पड़ाव पर पहुंच गए हों– ‘तो अब योग।’
‘अथ’- यानि कि ‘अब’। अब साधक के जीवन में वह पुण्य क्षण है, जब उसके हृदय में उठने वाली योग साधना के लिए सच्ची चाहत अपने चरम को छूने लगी। जीवन यदि भ्रान्तियों से उबर सका, यदि साधक आशा रहित हो सका, यदि देह के स्थान पर आत्मा की प्यास जग सकी, यदि वह हो सका, जिसे पश्चिम के मेधा सम्पन्न दार्शनिक कीर्केगार्द ने तीव्र व्यथा कहा है। यदि सारे सपने विलीन हो चुके हैं, नींद भली प्रकार टूट चुकी है, और यदि ऐसा क्षण आ गया है, तो पतंजलि कहते हैं- अब योग का अनुशासन। केवल अब तुम योग के विज्ञान को, योग के अनुशासन को समझ सकते हो। उसकी अभीप्सा की ज्वालाओं का तेज तीव्रतम हो गया। उसकी पात्रता की परिपक्वता हर कसौटी पर खरी साबित हो चुकी। उसका शिष्यत्व पूरी तरह से जाग उठा।जब हमारे अन्दर एक ही ख्वाहिश, एक ही अरमान- सच्चा शिष्य बनने का बचा रहता है। जब हम बस अपने गुरु के हो जाना चाहते हैं। अपनी तो बस एक ही चाहत रहे, बस एक ही नाता रहे, एक ही रिश्ता बचे—गुरु और शिष्य का।
 जब हमारी मंशा अपने गुरु की जेब काटने की नहीं होती । उसकी पुकार में वह तीव्रता और त्वरा आ गयी कि सद्गुरु उससे मिलने के लिए विकल- बेचैन हो उठे
आसन-प्राणायाम इत्यादि योग दर्शन का बहुत ही छोटा भाग है। योग के आसन एवं प्राणायाम का मनुष्य के शरीर एवं उसके प्राणों को बलवान एवं स्वस्थ्य बनाने में सक्षम योगदान रहा है। किन्तु वास्तव में योग है जीवात्मा का सत्य के साथ संयोग अर्थात् सत्य-प्राप्ति का उपाय। योग एक विज्ञान है, जो किसी इंसान को इस लायक बनाता है कि वह पांचों इंद्रियों के परे जा कर अपनी असली प्रकृति को जान सके। योग कोई शास्त्र नहीं है, योग अनुशासन है।
यह कुछ ऐसा है, जिसे तुम्हें करना है। यह कोई जिज्ञासा नहीं है, यह दार्शनिक चिन्तन भी नहीं है। यह इन सबसे कहीं गहरा है। यह तो सवाल है—जीवन और मरण का।  ‘अथ’ का एक ही मतलब है- सच्चा शिष्यत्व, खरी पात्रता। साधक के जीवन में यदि वह ‘अथ’ आ चुका है, तो उसे योग का अनुशासन बताने वाला सद्गुरु भी मिलेगा। अध्यात्म जगत् का यह वैज्ञानिक सत्य है, सौ फीसदी खरा और परखा हुआ सच है कि जिसमें शिष्यत्व ने जन्म ले लिया है, उसे सद् गुरु मिले बिना नहीं रहेंगे। और शिष्यत्व को अर्जित किए बिना यदि सद् गुरु मिल भी गए, तो भी कोई लाभ होने वाला नहीं है। अनुशासन का मतलब है, होने की क्षमता, जानने की क्षमता, सीखने की क्षमता। होने का अर्थ है, कुछ किए बिना बस ठहर जाओ, बिना कुछ किए, बिना किसी गति के, बिना किसी हलचल के। यह होना ही जानने की क्षमता विकसित करता है।
अनुशासन से मिलता- जुलता अंग्रेजी का शब्द है- डिसिप्लिन। यह डिसिप्लिन शब्द बड़ा सुन्दर है। यह उसी जड़, उसी उद्गम से आया है, जहाँ से डिसाइपल शब्द आया है। इससे यही प्रकट होता है कि अनुशासन शिष्य का सहज धर्म है। केन्द्रस्थ, लयबद्ध, संकल्पवान व्यक्ति ही गुरु के दिए गए अनुशासन को स्वीकार, शिरोधार्य कर सकता है। ऐसे ही व्यक्ति के अन्दर विकसित होती है, जानने की क्षमता।  जो तैयार है, सचेत है, प्रतीक्षारत और प्रार्थनामय है, उसी में सीखने की क्षमता आती है।
 यह सीखना गुरु के सान्निध्य में होता है। सद्गुरु के हृदय में जल रही सत्य की ज्योति के संस्पर्श से ही शिष्य के हृदय की ज्योति जलती है। यही है सत्संग का मतलब। ऐसा करने के लिए जरूरी है कि उसको आवश्यक ऊर्जा का सहारा मिले। “गुरु शिक्षक नहीं होते। गुरु और शिष्य का रिश्ता ऊर्जा पर आधारित होता है। वे आपको एक ऐसे आयाम में स्पर्श करते हैं, जहां आपको कोई और छू ही नहीं सकता।
 अगर आप अपनी चेतना की महत्त्म ऊंचाई तक पहुंचना चाहते हैं, तो आपको बहुत ज्यादा ऊर्जा की जरूरत होगी – जितनी ऊर्जा आपके पास है उसके अलावा और भी बहुत ज्यादा। गुरु और शिष्य का रिश्ता इतना पवित्र और अहम इसलिए हो गया है, क्योंकि जब कभी शिष्य के विकास में कोई मुश्किल आती है, तो उसको ऊर्जा के स्तर पर थोड़ा सहारा चाहिए होता है। इस सहारे के बिना उसके पास ऊंचाई तक पहुंचने के लिए जरूरी ऊर्जा नहीं होती। वही व्यक्ति जो उर्जा के धरातल पर आपसे अधिक ऊंचाई पर होता है, आपको यह सहारा दे पाता है, कोई और नहीं।” 
 ' विद्या गुरु मुखी ' गुरु-शिष्य परंपरा के द्वारा योग विज्ञान हजारों साल तक एक व्यक्ति से दूसरे तक पहुंचता रहा।  परंपरा का मतलब होता है ऐसी प्रथा जो बिना किसी छेड़-छाड़ और बाधा के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलती रहे। ‘अथ योगानुशासनम्’ के सूत्र का सार यही है- शिष्यत्व का जन्म और सद्गुरु की प्राप्ति। शिष्यत्व और सद्गुरु जब मिलते हैं- तभी योग साधना का प्रारम्भ होता है। अन्तर्यात्रा का विज्ञान जन्म लेता है। अस्तित्व में अनूठे प्रयोग शुरू होते हैं।  दूसरे शब्दों में कहें तो यह ज्ञान बांटने की अटूट श्रृंखला है।
 “आपने जिस चीज का कभी अनुभव न किया हो, उसे आपको बौद्धिक रूप से नहीं समझाई जा सकती। (योगिक सिस्टम का मकसद आपकी समझ और बोध को बेहतर बनाना है। आध्यात्मिक प्रक्रिया का मतलब आपकी ग्रहणशीलता को, आपकी अनुभव क्षमता को बेहतर बनाना है, क्योंकि आप उसे ही जान सकते हैं, जिसे आप ग्रहण और अनुभव करते हैं। शिव और सर्प के प्रतीकों के पीछे यही वजह है। इससे जाहिर होता है कि उनकी ऊर्जा उच्चतम अवस्था तक पहुंच गई है। उनकी ऊर्जा उनके सिर की चोटी तक पहुंच गई है और इसीलिए उनकी तीसरी आंख खुल गई है। तीसरी आंख का अर्थ यह नहीं है कि किसी के माथे में कोई आंख निकल आई है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि आपकी समझ का एक और पहलू खुल गया है। दो आंखों से सिर्फ वही चीजें देखी जा सकती हैं जो स्थूल हैं। अगर मैं आँखों को अपने हाथों से ढक लूं, तो ये आंखें उसे नहीं देख सकतीं। ये इन दो आंखों की सीमा है।
अगर तीसरी आंख खुल चुकी है, तो इसका मतलब है कि समझ का एक और पहलू खुल चुका है। यह तीसरी आंख भीतर की ओर देखती है, जिससे जीवन बिल्कुल अलग तरह से दिखता है। इसके खुलने का मतलब है कि हर वो चीज जिसका अनुभव किया जा सकता है, उसका अनुभव किया जा चुका है।कुंडलिनी आपके भीतर वह खजाना है, जिसका अब तक इस्तेमाल नहीं हुआ है, जिसका अब तक लाभ नहीं उठाया गया है। आप उस ऊर्जा का इस्तेमाल करके उसे बिल्कुल अलग आयाम में रूपांतरित कर सकते हैं, एक ऐसे आयाम में जिसकी आप कल्पना नहीं कर सकते।)
उसे समझाने के लिए आपको अनुभव के एक बिलकुल अलग आयाम में ही ले जाना होगा। किसी इंसान को अनुभव के एक आयाम से दूसरे आयाम में ले जाने के लिए एक ऐसा साधन या उपाय चाहिए, जिसकी तीव्रता और ऊर्जा का स्तर आपके मौजूदा स्तर से ऊपर हो। इसी साधन को हम गुरु कहते हैं।’’भारत ही एक अकेला देश है, जहां ऐसी परंपरा थी। जब किसी को अंतर्ज्ञान प्राप्त होता है, तो वह किसी ऐसे व्यक्ति को खोजता है, जो पूरी तरह से समर्पित हो, जिसके लिए सत्य का ज्ञान अपनी जिंदगी से बढ़ कर हो। वह ऐसे समर्पित व्यक्ति को खोज कर उस तक अपना ज्ञान पहुंचाता है। यह दूसरा व्यक्ति फिर ऐसे ही किसी तीसरे व्यक्ति की खोज कर, उस तक वह ज्ञान पहुंचाता है। यह सिलसिला बिना किसी बाधा के हजारों साल तक लगातार चलता रहा। इसी को गुरु-शिष्य परंपरा कहा जाता है। 
"योगश्चित्तवृत्ति निरोध: " ।। २ ।। अर्थात् चित्त या मन की स्मरणात्मक शक्ति की वृत्तियों को सब बुराई से दूर कर, शुभ गुणो में स्थिर करके, पश्रमेश्वर के सामीप्य का अनुभव करते हुए मोक्ष प्राप्त करने के प्रयास को योग कहा जाता है। 
सत्य का साक्षात्कार करने या अपने यथार्थ स्वरूप के साथ जुड़ जाने के लिए योग के ८ अंगों का अभ्यास आवश्यक है।  यह दर्शन चार पदों में विभक्त है- समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद और कैवल्यपाद। क्लेशों से मुक्ति पाने व चित्त को समहित करने के इस पद्धति को आठ चरणों में विभक्त है इसीलिये इसको अष्टांग योग भी कहा जाता है।  इस अभ्यास के ८ चरण हैं - १. यम, २. नियम, ३. शासन, ४. प्राणायाम, ५. प्रत्याहार, ६. धारणा, ७. ध्यान और ८. समाधि
योग के लिए सरल पद्धति है - " तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:।। " योग० २-१ अर्थात्–तप (निरंतर प्रयत्न), स्वाध्याय (अध्यात्म – विद्या का अध्ययन) और परमात्मा के आश्रय से योग का कार्यक्रम हो सकता है। 
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रविवार, 6 दिसंबर 2015

" स्वामी विवेकानन्द हमारे ट्यूटर (निजी शिक्षक) हैं, उनसे प्रेम करो ! "

' सम्पूर्ण विश्व को भारत बनाओ ! '
    ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः।
    भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
    स्थिरैरन्ङ्गैस्तुष्टुवागं सस्तनूभिः।
    व्यशेम देवहितम् यदायुः ।
    स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः।
    स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
    स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।
    स्वस्ति नो ब्रिहस्पतिर्दधातु ॥
    ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
बहुत धैर्य के साथ देख रहे हैं, जो प्रोग्राम चलता है। जब इस विदाई सत्र की शुरुआत हुई थी तब सूर्यदेव भू-पृष्ठ के ऊपर थे। पानी से बहुत ऊपर में। और अब कितना समय हुआ -साढ़े आठ हो रहा है। अभी तक जो सुने हैं, उसमें स्वामीजी के बारे में स्वामीजी के पास से सीखने की क्या चीज है उसका एक कण भी हमको सीखने को मिला ? हमको तो देखने को नहीं मिला। चला, सब कुछ चलता है, लेकिन स्वामीजी कहाँ हैं ? 
बिल्कुल एब्सेंट। एब्सल्यूटली स्वामीजी इज एब्सेंट ! दिस  इज वेरी सैड थिंग। वी मस्ट हैव सफिसिएंट लव ऐंड रिगार्ड फॉर द पर्सन इन हूज नेम आवर ऑल इंडिया ऑर्गनाइजेशन इज रनिंग फॉर क्वाइट लॉन्ग टाइम एंड लॉन्ग ईयर्स !  हमारा यह 'अखिल भारतीय संगठन' जिस महापुरुष के नाम पर  पिछले काफी सालों से (४९ वर्षों से) कार्यरत है, उनके प्रति हमारे हृदय में पर्याप्त प्रेम और सम्मान (भक्ति) रहना चाहिये। यहाँ लम्बे समय से जो नृत्य और संगीत चल रहा था, मात्र उसी को संबल बनाकर मानवता की रक्षा नहीं की जा सकती। इस बात में कोई शक नहीं कि नृत्य और संगीत बहुत अच्छी कला है। लेकिन यह सब केवल कुछ समय तक ही अच्छा है। हमारी जो जरुरत है, वह है सभी तरह की व्यस्तताओं के बीच रहते हुए भी , स्वामी जी को  थोड़ा समझने की कोशिश करना। हमें बहुत गंभीरता पूर्वक यह संकल्प लेना चाहिये कि हमलोग अपने जीवन के कुछ वर्षों को स्वामी विवेकानन्द का अध्यन गहराई से  करने और उनकी शिक्षाओं पर मनन करने में खर्च करेंगे। 
इन दिनों लोगों से यह कहते फिरना कि, मैं तो स्वामी विवेकानन्द को बहुत निकट से जानता हूँ ' कुछ लोगों के लिये, मानो एक फैशन सा बन गया है। नहीं, ऐसा दिखावा करना ठीक नहीं है । मुझे कुछ ऐसे लोगों के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, जिन्होंने काफी लम्बे वर्षों तक स्वामी विवेकानन्द के सानिध्य में रहते हुए ,अपना जीवन व्यतीत किया था- घंटों समय व्यतीत किया था, एक बार नहीं बार-बार किया था।स्वामी विवेकानन्द के निकट पहुँच पाना मेरे भाग्य में नहीं था, क्योंकि मैं बहुत कम उम्र का था।  (किन्तु कम उम्र में ही ) मुझे कुछ ऐसे ही लोगों के चरणों में बैठने तथा स्वामी विवेकानन्द और श्रीरामकृष्ण के विषय में उनके विचारों को सुनने का सौभाग्य मिला था। इसी तरह उनके साथ बहुत सालों तक रहने के बाद, केवल उनसे सुन सुन कर...ही कोई थोड़ा-बहुत यह समझ सके है, या बिल्कुल भी नहीं समझ पाते हैं कि श्रीरामकृष्ण कौन हैं ? स्वामी विवेकानन्द कौन हैं ? उनके पूर्व भी हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई -सभी सम्प्रदायों में एक से बढ़ कर एक अनेक महापुरुष अवतरित हो चुके हैं, किन्तु यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ' श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द' जैसी शक्तियाँ एक साथ [नर-नारायण अवतार-जैसे राम-हनुमान, कृष्ण-अर्जुन] कभी कभार ही इस धरा-धाम पर अवतरित होती हैं ! 
उनके पूर्व भी हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई -सभी सम्प्रदायों में एक से बढ़ कर एक अनेक महापुरुष अवतरित हो चुके हैं, किन्तु यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ' श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द' जैसी शक्तियाँ एक साथ [नर-नारायण अवतार-जैसे राम-हनुमान, कृष्ण-अर्जुन] कभी कभार ही इस धरा-धाम पर अवतरित होती हैं ! और वैसे कुछ लोगों से मिल पाने का सौभाग्य- 'मुझे' प्राप्त हुआ है, जिन्होंने उन दोनों [नर-नारायण अवतार] को साक्षात् देखा था ! क्या कोई इस बात की कल्पना भी कर सकता है ? यह कोई मजाक (गप) नहीं है ! उन्हीं दोनों के आशीर्वाद से १९६७ में महामण्डल का गठन हुआ था, और आज सम्पूर्ण भारतवर्ष में इसकी ३३० से भी अधिक शाखायें कार्यरत हैं ! राजनितिक दलों को छोड़ कर, सम्भवतः अन्य किसी संगठन (चरित्र-निर्माण कारी और मनुष्य-निर्माणकारी संगठन) की इतनी अधिक शाखायें  नहीं हैं।
स्वामी विवेकानन्द से हमें क्या प्राप्त होता है ? श्रीरामकृष्ण के निकट जाने से हमें क्या प्राप्त होता है ? 'श्रीरामकृष्ण -वचनामृत ' से हमें वह सन्देश प्राप्त होता है, जो अन्य शास्त्रों में देखने को नहीं मिलता। ' श्रीरामकृष्ण स्वयं भगवान हैं' - और स्वामी विवेकानन्द भी उनसे कुछ कम नहीं हैं ! यदि आप इस सम्बन्ध में कोई धारणा बनाना चाहते हों, कि 'भक्ति क्या होती है'?  अथवा यह जानने के इच्छुक हों कि भगवान (सत्य-प्रेम) का मनुष्य रूप कैसा होता है ? तो इसे समझने की दिशा में 'श्रीरामकृष्ण-स्वामी विवेकानन्द मॉडल ' के माध्यम से अग्रसर होना ही सबसे आसान  तरीका है। इसीलिये तो उन्हें अवतार कहा जाता है !

हमारे प्राचीन शास्त्रों-पुराणों में जिन महापुरुषों को अवतार कहा गया है, वे अब इस जगत से तिरोहित या अंतर्ध्यान हो चुके हैं। लेकिन यदि हम कोशिश करें, तो आज भी उन अवतारों को हम सशरीर देख सकते हैं। उन सभी अवतारों पर मेरा या जिस किसी का आज भी जितना विश्वास है, उन्हीं सब अवतारों के प्रति श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द में जैसी भक्ति थी, भक्ति के उस स्तर को कोई छू भी नहीं सकता, या कभी फीका नहीं कर सकता। (द्रष्टव्य है कि ठाकुर ने ईश्वर के सभी अवतार -रूपों का दर्शन कर लिया था ! यहाँ तक कि मुहम्मद और ईसा का भी दर्शन किया था। ) इसीलिये सच पूछा जाय तो अब, आज के युग में भी कई प्रकार के देवी-देवताओं की मूर्तियों के होने और  विविध प्रकार से उनकी पूजा करने की कोई जरूरत नहीं है।  किन्तु हो क्या रहा है?  सरस्वती- पूजा से लेकर लक्ष्मी-पूजा, काली पूजा, दुर्गा पूजा,...जो चलता है, चलता है। ('छठ' पूजा, 'गणपतिबप्पा-मोरिया' पूजा भी शुरू हो गयी है), अब इतने सारे देवी-देवताओं की पूजा करने की जरुरत नहीं है। इसीलिये युग परिवर्तन होता रहता है, एक युग बीत जाने के बाद नया युग आता है। जो पूर्व काल में अवतरित हुए थे, उन्हें इस युग के  सामान्य जन भी अवतार बोल कर पूजना शुरू कर देते हैं । क्योंकि उन देवी-देवताओं की स्मृति उनके मन से लुप्त चुकी होती है, और अब वे ईश्वर द्वारा भेजे गए किसी अन्य (सुसमाचार सुनाने वाले) मसीहा के अवतरित होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे किसी नए 'नेता' (Apostle अवतार, या पैगम्बर) की बाट जोह रहे हैं, (इसीलिये इतने तरह तरह की मूर्तियों की पूजा कर रहे हैं) किन्तु पैगंबरों या देवदूतों का निर्माण करना इतना आसान नहीं है कि, इच्छा करते ही एक अवतार (ब्रह्मविद्, ऋषि या देवदूत) आकर सामने खड़ा  हो जाय ! यह सम्भव नहीं है !
इसीलिये अब हमलोगों को स्वामी विवेकानन्द के पास पुनः वापस जाना होगा, और मुझे बहुत गर्व है कि मुझे उस व्यक्ति को जानने और उनके साथ रहने का सौभाग्य मिला है,  जिसने श्री रामकृष्ण को देखा था, और बातें की थी, जिसने स्वामी विवेकानन्द को देखा था और उनसे भी बातें की थीं। यह मेरा निश्चित विश्वास है, जिसमें शक की कोई गुंजाईश नहीं- कि यदि कोई वैसे वरिष्ठ लोगों के मुख से श्रीरामकृष्ण और विवेकानन्द के विषय में केवल सुन भर लेगा तो उसके मन में उनके प्रति प्रेम, आराधना और पूजाभाव जाग्रत हो जायेगा।

मन में आया था, कि  कम नहीं है- किसी ऐसे आदमी से बात करना, जिसने कभी स्वामीजी से वार्तालाप किया हो, कम नहीं है किसी ऐसे आदमी को देखना जिसने श्रीरामकृष्ण का दर्शन किया है, और 'उनके' चरणों का स्पर्श किया है! और उनके चरणों की धूलि लेकर अपने सिर पर चढ़ा सके हैं ! तथा किसी ऐसे मनुष्य को केवल प्रणाम करने मात्र से ही कोई व्यक्ति उन उच्च आधात्मिक ऊँचाइयों तक पहुँच जाता है । और मुझे गर्व है कि मुझे इस तरह का थोड़ा अनुभव भी हुआ है, अन्यथा मैं शायद अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल जैसे संगठन के संचालक पद को सुशोभित नहीं कर पाता। यह संगठन कोई क्लब नहीं है। यह संगठन किसी अन्य समाज-सेवी संगठन जैसा कोई संगठन नहीं है। यह इससे और अधिक बढ़कर  कुछ है। 

" आइ शुड से, एंड डिमांड, एंड डिक्लेअर !"   मुझे कहना चाहिये , मैं मांग करता हूँ और घोषणा करता हूँ कि यह संगठन-  १०० % रिलिजियस (धार्मिक) संगठन है। 'Religion' शब्द की व्युत्पत्ति (etymology) क्या है ?  ' Re-Legara  ' री -लेगयेर का अर्थ है - 'रीजॉइन', फिर से जुड़ जाना। जब तक हम इस धरातल पर रहते हैं, तब तक आडंबरी ठाट-बाट, शक्ति-सामर्थ्य प्रदर्शन, एवं इन्द्रिय-विषयों के भोगों में फंस कर, हमलोग मूर्खतावश स्वयं को ईश्वर से (अपने स्वरूप से) अलग कर लेते हैं। 
धर्म वह वस्तु है जो इन सब प्रलोभनों से हमारी आत्मा की रक्षा करता है। केवल धर्म ही हमें आध्यात्मिकता के उस  उच्च धरातल पर ले जा सकता है, जहाँ इस पृथ्वी की कोई भी अपवित्रता उसका स्पर्श नहीं  सकती। 'मनुष्य 'और कुछ नहीं, केवल कुछ शुद्ध आदतों का विकसित रूप है। मनुष्य भी एक पशु है, किन्तु एक ऐसा जिज्ञासु पशु है जिसके पास विवेक-विचार करने की क्षमता है ! जो कुछ भी उसको दिया जाय वह उसको वैसे ही झटपट निगल नहीं लेता है। वह उसका निरिक्षण-परीक्षण किये बिना आँख मूँद कर (आम का गूदा खाकर गुठली फेंक देता है, उसे भी) निगल नहीं लेता । मैंने तुमसे कहा था, मुझे ऐसे लोगों को देखने और वार्तालाप करने (सत्संग करने) का अवसर  मिला था, जिन्हें श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द से मिलने और बातें करने का सुसंयोग और सौभाग्य प्राप्त हुआ था। और (इसी के कारण) आज हम कहाँ खड़े हैं? महामण्डल का नाम स्वामी विवेकानन्द के नाम से जुड़ा हुआ है; क्यों ? वे सांसारिक जीवन के प्रति सबसे अधिक सक्रीय मनुष्य थे, जिन्होंने मानवजाति को उन्नत बनाने में अपना जीवन समर्पित कर दिया था।  उन्होंने स्वयं मानवता को ही पूर्णत्व की ऊँचाइयों तक उन्नत कर दिया था।  इसीलिये यदि हम इस दृष्टि को, इस विश्वास को साथ लेकर स्वामी विवेकानन्द के निकट जायें, तो हमलोग उनको अधिक से अधिक अध्यन करेंगे, जो हमारी आत्मा एवं हृदय को संतुष्ट करेगा और हमारे नेत्रों से बहते रहने वाले अश्रुबिंदुओं को सुखा देगा। भाइयों, बताओ आज हम सभी लोग (जो इससे जुड़े हैं) कहाँ, किस ऊँचाई पर खड़े हैं ?
महामण्डल सिर्फ एक क्रिकेट, फुटबॉल आदि खेल खेलने वाले तरुणों का संगठन नहीं है, जहाँ खेलने फिर थोड़ा आगे बढ़ने का कुछ नाटकीय अवसर प्राप्त होते हों। युवाओं के बीच नाटक आदि मनोरंजन के बहुत पसंदीदा साधन रहे हैं, किन्तु ये सब चीजें युवाओं की यथार्थ शक्ति को चुरा भी लेती हैं । जब तक हमलोग कॉलेज नहीं गए थे, कॉलेज लाइफ समाप्त नहीं कर लिए थे तब तक हमलोगों को सिनेमा जाने, फिल्म देखने या थियेटर देखने वास्तविक अवसर प्राप्त नहीं था। स्कूल या कॉलेज में पढ़ते समय तो पिक्चर देखने की अनुमति बिल्कुल नहीं थी। हमलोगों को कछ भी स्वीकार करने में शर्मिन्दा नहीं होना पड़ता था।  इसीलिये इस तरह की बातों पर चर्चा करने का कोई अंत नहीं है।
इसीलिये भाइयों, जो लोग इस शिविर में एकत्रित हुए हो, मैं तुमसे केवल इतना ही अनुरोध करूँगा कि यहाँ चलने वाले विभिन्न कार्यक्रमों एवं विचार-विनमय करते समय (विवेकानन्द की ) शिक्षा को जितना अधिक से अधिक ग्रहण कर सके हो उसे अपने जीवन में उतारने की चेष्टा करते रहो । हमें समाज से विक्षुरित होती हुई चौंधिया देने वाली रौशनी से स्वयं को ऊपर उठाना है। क्योंकि वह चकाचौंध हमारी आँखों को जीवन-गठन की उस शिक्षा के प्रति अँधी बना देती है, जिसे हमारे ट्यूटर (निजी शिक्षक) स्वामी विवेकानन्द मनुष्य जीवन के सर्वोच्च आदर्शों के भण्डार से निकाल कर हमें प्रदान करना चाहते हैं । युवाओं को उन्हीं की शिक्षा के निकट लाना होगा, जो हमें उन्नत मनुष्य में विकसित कर सकती है।
श्रीरामकृष्ण सम्पूर्ण विश्व को एक 'उपहार' (पशुमानव को देवमानव में रूपान्तरित करने की पद्धति, या इन्द्रियातीत सत्य को देखने की पद्धति ) देने के लिये अवतरित होना चाहते थे ! किन्तु भारत की तुलना में,उसमें भी बंगाल, उसमें भी कोलकाता के जैसा अन्य कोई उपयुक्त स्थान उन्हें नहीं मिला, जहाँ मानवता को ऐसी बहुमूल्य बातें बताई जा सकती थी ! और वह उपहार उन्होंने कोलकाता में स्वामी विवेकानन्द को सौंप दिया। अब हमारा एकमात्र कार्य स्वामी विवेकानन्द को समझने की चेष्टा करना और (उनकी बताई हुई चरित्र-निर्माण की पद्धति के अनुसार ) अपने चरित्र को गढ़ना है, तथा उनके उपदेशों से प्राप्त होने वाले आत्मिक-जीवन के नये साँचे में अपने जीवन को ढालना है।  ताकि हमलोग एक नये भारत का निर्माण कर सकें। हमारा काम होगा नये भारत का निर्माण ! अब हमलोग उस भारत को देखकर संतुष्ट नहीं रहेंगे जिसका गला पिछले लम्बे समय से घोंट कर रखा गया है। हर हाल में हमें नये भारत का निर्माण करना ही है !
इसलिये भाइयों, शायद मैंने तुम लोगों को बहुत लम्बे समय से अनावश्यक ही रोके रखा है; किन्तु क्या किया जाय? इस महामण्डल की स्थापना ही इसलिए हुई थी कि जो युवा समाज की गलत बातों, मांसल बातों के  प्रति अधिक आकर्षण महसूस करते हैं, और दिगभ्रमित होकर मनुष्य बनने के लक्ष्य को भूल जाते हैं, उनके सामने मनुष्य जीवन को देव-दुर्लभ क्यों कहा है, इस सच्चाई को रख दिया जाय! मेरे सामने इतनी संख्या में युवा लोग एकत्रित हैं, किन्तु उन्हें अपने जीवन लक्ष्य, मनुष्य जीवन के सर्वश्रेष्ठ उद्देश्य को प्राप्त करने के पथ में कई विघ्न-बाधाएं भी हैं। उन विघ्न बाधाओं को दूर करने के लिए हमारा  विनम्र प्रयोग ही  यह महामण्डल है।  
तब भाइयों , मेरे युवा भाइयों; वे युवा जो यहाँ आये हैं, जो इस प्रशिक्षण शिविर में भाग ले रहे हैं, या अभी भी इतने लम्बे समय से यहाँ बैठ कर शांति के साथ इस ' हॉक वर्ड्स टाक्स' -एक फेरी लगाकर किसी माल को बेचने वालों की पुकार जैसे प्रतीत होने वाले एक ही 'बाज (भुशुण्डी -गरुड़)- शब्द-वार्ता' को सुन रहे हैं। मैं तुमसे अनुरोध करता हूँ, मैं तुमसे प्रार्थना भी करता हूँ, तुम सभी प्रकार की व्यस्ततताओं के बीच रहते हुए भी, अपनी सुविधा के अनुसार कुछ समय स्वामी विवेकानन्द का अध्यन करने के लिये अवश्य निकालो!
ताकि तुम स्वयं, नसों को बेचैन बना देने वाली उस दर्द की छटपटाहट को पहचान सको जो आत्मा को नष्ट करने से उत्पन्न होता है। ताकि तुम उनके आशीर्वाद को प्राप्त कर सको, उनका आशीर्वाद हमें नए भारत का निर्माण करने के लिये आगे बढ़ते रहने के लिये अनुप्रेरित करता है। उनका आशीर्वाद हमारे इस 'विश्व-विजय अभियान की गति' को सशक्त बना देती है, तभी जगत भारत का अनुकरण करने लगेगा, और यही है विश्व-पटल पर भारत का उदय ! 

'विश्व को भारत (आर्य ?) बनाना चाहिये !' - युद्ध करके नहीं, बमबारी करके नहीं, बल्कि प्रेम की शक्ति से। वे लोग अभी भी प्रायः जंगली पशु के समान जीवन जी रहे हैं। पशु लोग एक विशिष्ट प्रकार के फ़ैशन-आचरण में जीवन बिताते हैं। हम सभी को पता है, वे अपना जीवन किस प्रकार इन्द्रिय भोगों को तुष्ट करने में बिता देते हैं। अतः कमसे कम हमें, जरूर पशु नहीं बनना चाहिये। युवाओं के चिंतन के रुझान को उच्च विचारों से इतना अधिक अभिसिंचित कर दिया जाय कि, उनके चिंतन का प्रवाह 'प्रेय' की दिशा से 'श्रेय' की ओर मुड़ जाये ! और देवदुर्लभ मानव-मन और मानव-शरीर प्राप्त करने बाद, उसके द्वारा इन्द्रिय-जीवन का सुख भोगने की उनकी लालसा ही मस्तिष्क से  निकल जाये, उनमें विवेक-जाग्रत हो सके कि - ' नहीं यह हमारा काम नहीं; यह तो पशुओं का काम है !' और उनके बीच से कम से कम १०० युवा बाहर निकल आयें और घोषणा कर दें -" हम आज से ही चरम अनुपयोगी इच्छाओं (आहार-निद्रा-भय-मैथुन) को मन से त्याग देते हैं "। महामण्डल ऐसे ही विचारों को लेकर स्थापित किया गया है, और जैसा कि आप जानते हैं, सम्पूर्ण भारत में इसके ३३० से भी अधिक केन्द्र हैं।

इसलिये मेरा आपसे अनुरोध और आग्रह है कि आप सभी युवा लोग हिन्दी भाषा में -१० खण्डों में उपलब्ध 'विवेकानन्द साहित्य' का सविस्तार, गहराई से अध्यन करें ! तो देखेंगे कि धीरे धीरे आप अपनी अन्तर्निहित पूर्णता (अव्यक्त ब्रह्मत्व या डिविनिटी) को प्रकाशित करने की दिशा में अग्रसर हो चुके हैं! यदि कोई  व्यक्ति इस पृथ्वी पर सच्चे आनन्द का जीवन, पूर्णत्व-प्राप्ति की सन्तुष्टि से भरा हुआ जीवन प्राप्त करना चाहता है, और उसके लिये इस जगत में किसी एक ही पुस्तक को निर्धारित करने (prescribed) की बात हो, तो उसे कहना होगा-'स्वामी विवेकानन्द को पढ़ो !' अन्य किसी की, इसकी या उसकी लिखी पुस्तकों को पढ़ने की कोई जरुरत नहीं है, पुस्तकों में तो इधर-उधर की ढेरों बातें भरी हुई हैं। और कई पुस्तकें तो बाजार में ऐसी हैं, जिसने हजारों युवाओं के जीवन को नष्ट कर दिया है। इस सच्चाई से आप सभी लोग परिचित हैं। लेकिन शायद ही कभी लोग (राजनितिक नेता, इलेक्ट्रॉनिक मिडिया या प्रिंट मिडिया ) युवाओं को ऐसी पुस्तकों से परहेज करने की सलाह देते हैं !

किन्तु किसी तरह हमारे सौभाग्य से, हमारे बचपन में ही  हमें यह समझा दिया गया था कि अंग्रेजी-उपन्यास, या कथा-कहानियों की विभिन्न पुस्तकें आदि को पढ़ना अच्छी बात नहीं है। क्योंकि उसके माध्यम से तुम्हारे मन में कुछ ऐसी चीजें प्रविष्ट हो जाएँगी, जो उन्हें गलत चिंतन से इस प्रकार भर देगी, जिसे मनुष्य जीवन के लिए उचित आचार-व्यवहार में उपयोगी कदापि नहीं कहा जा सकता। अतः भाइयों, मैं नहीं जानता कि ऐसी बातें मेरे मन क्यों उठ रही हैं ! जैसा मैंने आग्रह किया था, मैं पुनः तुमसे यह अनुरोध करना चाहता हूँ, कि  - ' विवेकानन्द साहित्य का अध्यन करो ! ' दुनिया में और किसी चीज की जरूरत नहीं है। एक ठोस जीवन का निर्माण करो, ऐसे मानव-जीवन का निर्माण करो, जो सभी के कल्याण के लिए हो, और पूरा जीवन इसी कार्य में व्यतीत करो।

बहुत वर्षों से मैं इसी प्रकार का जीवन व्यतीत करता चला आ रहा हूँ, और शायद अब वह समय आ चुका है, 'व्हेन आइ मीट ऐन इंड ' जब मुझे (इस 'जीवन नदी के)  'दूसरे छोर' से मिल जाना पड़े; किन्तु  इसमें उदास या शोकाकुल होने जैसी कोई बात नहीं !  इस शरीर को छोड़ने के बाद, यदि वहाँ स्वामी जी और ठाकुर से मिलने का  कोई  मौका मिला, तो क्या हम उन्हें यह बताने में सक्षम हैं कि -" मैंने आपके निर्देशों का पालन करने की कोशिश की थी, और मैं बहुत खुश हूँ कि मैं अपने आप को पृथ्वी पर धूल-मिट्टी या गंदी के चीजों नीचे  नहीं रख आया हूँ ! मैं मुक्त हूँ, मैं मुक्त हूँ, मैं मुक्त हूँ! " भाइयों, तुम्हारे पास तो पर्याप्त समय है, यदि तुम चाहो, तुम्हारा जीवन प्रकाशमान (दैदीप्यमान) हो उठेगा, यह केवल तुम्हें ही उन्नत मनुष्य में परिणत नहीं करेगा, बल्कि तुम्हारा जीवन इतना आलोकित हो जायेगा कि, जिसके द्वारा हमलोग अनेकानेक युवाओं की सेवा करने, और समाज के अभिशाप से उनको बचा लेने में सक्षम हो जायेंगे। ताकि वे लोग भी एक सच्चा जीवन जी सकें और निधन से पहले ही उसके वास्तविक आनन्द का अनुभव कर सकें।
 यदि मैं गुजर गया,  मुझे पता है, मेरे निधन के बाद क्या हमलोग थोड़े ही वर्षों तक सही इन बातों का स्मरण रखने में सक्षम हो पाएंगे, और  जिन्होंने पहले इस दुनिया को छोड़ दिया है, उन लोगों को बतायेंगे, -" आप देखिये, जब मैं पृथ्वी पर था, किसी न किसी प्रकार इन्हीं हाथों के माध्यम से -एक युवा संगठन प्रतिष्ठित हुआ था, जहाँ सैंकड़ो युवक प्रशिक्षित और लाभान्वित हुए थे, और उनकी जीवन-शैली बहुत उन्नत थी।  साधारण लोगो की तरह नहीं, जो बस केवल ऐय्याशी या इन्द्रिय-सुख का ही भोग करने में रचे-पचे रहते हैं, वैसा कोई सुख नहीं, वैसा जीवन नहीं,बल्कि एक ऐसा जीवन गठित किये थे, जिस के साथ उसका एक उच्चतर  उद्देश्य भी जुड़ा हुआ था।"
यदि कोई ईश्वर सचमुच कहीं हों, आइये हम सभी उस भगवान से प्रार्थना करें, यदि तुम ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं भी करते हो, तो भी तुम यह नहीं कह सकते कि श्रीरामकृष्ण का कभी जन्म नहीं हुआ था, या स्वामी विवेकानन्द का कभी जन्म नहीं हुआ होगा? श्रीरामकृष्ण का जन्म हुआ था, स्वामी विवेकानन्द का जन्म हुआ था, और मैंने देखा है, मैं एक ऐसे व्यक्ति से मिला हूँ, उससे बातें की हैं, जिनके सम्बन्ध में मैं कह सकता हूँ, कि वे श्रीरामकृष्ण के साथ रहते थे, वे स्वामी विवेकानन्द के साथ रहते थे !
इसीलिये यह युग  --एक नए युग की शुरुआत है। जहाँ सभी छात्रों को जीवन के सम्बन्ध में एक समग्र दृष्टिकोण प्राप्त होगा , अपनी इन्द्रियों के माध्यम से विभिन्न विषयों के भोगों का सुख भोगना इस मनुष्य- जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता, बल्कि पृथ्वी की उस सुंदरता का आनन्द लेंगे -जहाँ मनुष्य शरीर में जन्म लेने के बाद मनुष्य उस सर्वोत्तम आनन्द का चयन कर सकता है, जो उसे देवमानव में उन्नत कर देता है, और उन्हें आने वाली पीढ़ियाँ भी उन्हें केवल इसी लिए याद करतीं हैं, कि उन्होंने अपने समय के युवाओं को मनुष्य बनने में सहायता की थी, ताकि वे अपने जीवन का निर्माण कर सकें, जीवन को नष्ट होने बचा सकें। 
आओ हम सभी ठाकुर श्रीरामकृष्ण, जगतजननी माँ सारदा देवी, और स्वामी विवेकानन्द से प्रार्थना करें कि वे हमलोगों को वह शक्ति प्रदान करें जिससे हम स्वयं को जगत की क्षणभंगुर चीजों से ऊपर उठा सकें। दुनिया की क्षणभंगुर वस्तुएं नशे की चीज जैसी हैं,हमें उसकी आवश्यकता नहीं है। जीवन में पाने के लिये इतनी बड़ा लक्ष्य हमारे सामने है, (प्रत्येक मनुष्य में इन्द्रियातीत सत्य को जानने की सम्भावना है !) और हमने इसी लक्ष्य को चुन लिया है ! और  कम से कम दिल ही दिल में हम जानते हैं कि हमने सबसे कठिन लक्ष्य को चुना है, इसीलिये हमारी ऑंखें दुनिया की रंगीनियों से अंधी नहीं हो सकती। विलासिता की उन वस्तुओं से, जो विभिन्न प्रकार से हमारी शारीरिक और मानसिक शक्तियों का हरण करती हों, हमें अपना ध्यान बस हटा लेना है ! हमारा एक मात्र उद्देश्य भगवान को (इन्द्रियातीत सत्य को) जान लेना है! 
मैं सोचता हूँ, और शायद बहुत गलत नहीं हूँ, कि वैसे मनुष्य आज भी हैं, वे चाहे जहाँ कहीं भी रहते हों, किसी जंगल में या किसी अज्ञात गाँव में, या जगत के किसी भी हिस्से में रहते हों, उनकी सद्भावना की समग्रता भारत के भाग्य - जगत के बंधनों से मुक्ति के लिये ( 'पशुमानव को देवमानव में रूपान्तरित करने ' के लिए) अब भी क्रियाशील हैं, तथा आखरी साँस छोड़ने के पहले हममें से सभी लोग अवश्य आनन्दपूर्ण होंगे ! नमस्कार !
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[झुमरी तिलैया, झारखण्ड में आयोजित तृतीय अन्तर्राज्य स्तर शिविर में 4 अक्टूबर 2015 को महामंडल के अध्यक्ष द्वारा अंग्रेजी में दिये गए भाषण का हिन्दी अनुवाद। The speech delivered by sri Nabaniharan Mukhopadhyay, president of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal as the chief guest on the occasion of farewell session of 3rd Inter-state youth training camp at Jhumritelaiya.]

    ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः।
    भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
    स्थिरैरन्ङ्गैस्तुष्टुवागं सस्तनूभिः।
    व्यशेम देवहितम् यदायुः ।
    स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः।
    स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
    स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।
    स्वस्ति नो ब्रिहस्पतिर्दधातु ॥
    ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

बहुत धैर्य के साथ देख रहे हैं, जो प्रोग्राम चलता है। जब इस विदाई सत्र की शुरुआत हुई थी तब सूर्यदेव भू-पृष्ठ के ऊपर थे। पानी से बहुत ऊपर में। और अब कितना समय हुआ -साढ़े आठ हो रहा है। अभी तक जो सुने हैं, उसमें स्वामीजी के बारे में स्वामीजी के पास से सीखने की क्या चीज है उसका एक कण भी हमको सीखने को मिला ? हमको तो देखने को नहीं मिला। चला, सब कुछ चलता है, लेकिन स्वामीजी कहाँ हैं ? बिल्कुल एब्सेंट। Absolutely, Swamiji is absent. Betweens we would not have sufficient love and regard for the person in whose name our All India organization is running for quite long time and long years. This is very sad thing. Man will not survive by singing and dancing. This is very good, no doubt dancing is sometime very good but only sometime. हमारी जो जरूरत है, वह है थोड़ा स्वामीजी को समझने की कोशिश करना।  We should resolve very seriously that at least somehow on we shall spend at least a few years reading and contemplating on the same of Swami Vivekananda with all our heart, mind and soul. It has become a fashion now a days to tell people a sort of people that we are near to Swami Vivekananda. No, not so. I had the fortune to live with people who passed long years with Swami Vivekananda. It was not my luck to go near to Swami Vivekananda because I was too young. But some people spend a lot of hours with Swami Vivekananda. Not once but again and again. Such people I could sit and listen to their thought on swami Vivekananda and Sri Ramakrishna Dev. That is how without understanding or understanding very little, who is Sri
Ramakrishna, who is Swami Vivekananda? In India, we are in our all texts,
Hindu, Muslim, Sanskrit there was, there is Mahapurushas, so many, but
perhaps been not be wrong to say that seldom of powers one came like Sri
Ramakrishna and Swami Vivekananda. It is my fortune to meet some people
who had seen them. Who had think about it? It is not just a fun! The Mahamandal
was formed in three hundred and thirty centers throughout India which other
organisation accepting political parties who have just 330. No, there is no
organization except political parties. What do we get from Swami Vivekananda?
What would we get from Sri Ramakrishna? The message that we don’t find in
scriptures. Sri Ramakrishna was God himself. Swami Vivekananda was no less.
If you want to form any idea of godliness or the kind of person god is, we have
this is easy way to try to move through Sri Ramakrishna and Swami
Vivekananda. That is why they have known as AVATARAS. When Avataras in
human bodies found in our books, they vanished, they go away from the soil of
the world. But if we try, we can realize then in their full form. Today even, mine,
anybody who has belief, who have there is no touch or possibility of diluting the
godliness then Sri Ramakrishna and Swami Vivekananda had. So now, let us
actually, there is no need of having many deities and many pujas.क्या नहीं है ? सरस्वती पूजा से लेकर लक्ष्मी पूजा, काली पूजा, दुर्गा पूजा चला।  चलता है चलता है। इतने पूजा की जरूरत नहीं है। इसलिए युग युग में एक नया युग आया। जो पूर्व काल में था उसे इस युग के आदमी सब लोग बोलना शुरू करते हैं। They vanished from the memory and they wait for someone. Some new one in apostle but apostles are not so simple things that it can be had just by wishing to have one. It isn’t possible. So we have to go back to Swami Vivekananda and we are very proud that we had luck to know and live with a person who had seen  and talked to Sri Ramakrishna, who had seen and talked to Swami Vivekananda. It is my belief without any shed of questioning that only through listening to about Sri Ramakrishna and Swami Vivekananda through lowest old people, a love and adoration and puja bhav. मन में आया था। कम नहीं है किसी से बात तो कर रहे हैं, जिनकी बात स्वामीजी से हुई है। कम नहीं है किसी एक ऐसे आदमी को देखना जो श्रीरामकृष्ण का दर्शन किये हैं ! उनके चरणों का स्पर्श किये हैं ! उनके पैर की धूलि लेकर अपने सिर पर रखे सके।  And to make a pram to such a person itself elevates anyone spiritually, the high order and I am proud that I had a bit of such experience otherwise perhaps, I could not be at the helm of this Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal. It isn’t a club. It is not an organization like social service
organization. It is something more. I should say and demand and declare that it is a 100% religious organization. What is meaning of religion? इसको डिस्पर्स करने से क्या होता है ? Re-Le-gar means rejoining. We have separated ourselves foolishly. With the pumpen power and plunder of the sense feelings while on the earth. But they can only save our soul. They can only lead us to higher level from
bare will not be able to touch anything which is soiled with the touch of the earth had man are nothing but a developed and a little purified or mannerism or some beasts. Men are also beast but curious beasts who have said capacity of
reasoning. Who doesn’t accept anything whatever is given it to swallow. It
doesn’t swallow without examining. I had told you. I had occasion to see and
talked to persons who had the opportunity and very good luck of meeting and
talking to Sri Ramakrishna and Swami Vivekananda. Where do we stand ?
Mahamandal is in the name of of Swami Vivekananda, why? The most active in
the worldly live to person who laid down his life for elevating humanity. He
elevated humanity himself in this wholeness. So If with such a vision, such a
belief, if we go to Swami Vivekananda, we will read more exceeding more and
which will satisfy our heart, soul and dry up ear drop in our eyes. Where do we
stand brothers? Mahamandal is not just a juvenile organization to have football,
cricket, etc. playing and then proceeding a little more, a little dramatic occasions.
Dramas are very favorite among young people, but they also steal the real power of young people. We did not have the real opportunity of seeing film, cinema or theatre till we went to college or finished our college life. Schools and colleges, never. We have never sorry for admitting something. So there is no end of discussing such things. So I would only request brothers who have assembled here for camp and I hope they would try to pick up as far as possible the teachings that came during the programs and talks in the camp. We have to lift ourselves from the dazzling light of society which makes us blind about the
storehouse of the greatest ideals of human life and to bring youths to this Swami Vivekananda taught  who was tutor. Sri Ramakrishna came to make a gift to the world and he didn’t find any other place than India, than Bengal, than Calcutta to give these precious things to humanity. In Calcutta, he gave it to Swami Vivekananda. So our work is to try to understand Swami Vivekananda and mold our character, remold our life with the soul that we got from his talks. So that we can build a new India, our work will be to build new India! We are no more satisfied with this throttled India of long past.  We have to build a new India. So brothers, I have perhaps detained you unnecessary for very long time, but to do, I have got so many young people which so many things trying up to be obstruct them from a path that is very good for human life and my humble trial that is further purpose on live this Mahamandal was built that the youths are led a way by other things, fleshy things that young people like so much. So brothers, young brothers! Those who have come here those are attending this camp or still sitting here or staying here to hear this hawk words talks long one itself. So I request you, I pray you too as you like to keep sometime study Swami Vivekananda to find out the jittery of pain that shatter the soul, get his blessings are to go forward to build a new India, the pace empowered the world should then can be copied and that is India rising in the world. दुनिया को भारत बनाना चाहिए।  Not by fighting, not by bombing, but by love. There still living in state almost a beastly life. Almost a beastly life. Beasts live is particular fashion. we all know lives. So we must not be beast at least among the young people, if there is a thought and young people at least a hundred may come out and say that we will not go today extreme of disused desires. Their brains, their longings for enjoying the human life, human body and human mind. No, that is not the work. Mahamandal is founded with this Idea and there are now as you know three hundred thirty centers throughout India! 330! So my request to you and appeal to you that you go through the works of Swami Vivekananda fully. Gradually you can proceed if there ia one book of this world which may be prescribed for anybody who wants to have a life of real joy, satisfaction of fulfillment, read Swami Vivekananda.  Not this, that, So many things are there. And many books spoiled so many thousands of youths. It is known by all. But seldom people desist young men from these things. In our childhood luckily we were somehow made to understand that it is not good to read novels or many books of stories because through them, certain things will come and feel you brother which will not be given for the purpose of making worthy of living. So brothers, I don’t know why these things came to my mind. I want to request you to try as I request you to study Swami Vivekananda. दुनियां में और किसी चीज की जरुरत नहीं है। Read Swami Vivekananda. Build a solid life, human life that for the good of all, for the good of society and pass away. I have lived this way for a long time, and perhaps a time has come when I away meet an end, there is nothing to be sorry.  Are we able to tell Thakur, Swamiji, after leaving the body, there is any chance to meet them, that I had tried to follow your instructions and I am very happy that I have not kept myself under the soil and dumpy things on the earth, I am free, I am free, I am free. Brothers there is enough time with you, if you like, your life will be luminous, it will not only lift you up but will give you lighten up with which we will be able to serve many many many young men and save them from the curses of the society. So that they can have a real life and enjoy it before passing away. If pass away, After my
passing away, I know, are we able to remember these things, at least for some
time and tell those who have already left the world and you see when I was on
the earth, I had somehow through my hands an organization of youth came up
and there hundreds of youths of India, they benefited ad they had an elevated life style. Not like the ordinary, just enjoying life, not enjoying life, not enjoying flesh but life as a higher purpose with it. Let us all pray to God if there any, if you don’t believe on the existence of God, we can’t say that Sri Ramakrishna was never born, Swami Vivekananda was never born. Sri Ramakrishna was born, Swami Vivekananda was born and I have seen, I have made, I talked to a persons who had I may say, lived with Sri Ramakrishna, lived with Swami Vivekananda. So this is the beginning of age! The beginning of new age where the students will have all together life view, not enjoying the life through their senses of various kinds, but enjoying the beauty of the earth that man can choose the best which lifts them up and they are remembered by posterity for the help to the young people of his times so that they can build their lives not aloof it to go away wastes. 
Come! Let us all, pray to Thakur, Sri Ramakrishna, all pray to holy mother,
Maa Sarada Devi and Swami Vivekananda to give us that capacity the power of
lifting ourselves from the dearth of the world. Not the dearth of the world  is what we need are must hemp for. There is such a big thing to get in life and we have chosen it ia all say at least in heart that we have chosen the most difficult thing, we will not be blinded by the colours of the world. Simply try our attention  to the luxuries. To the physical and mental evection in various ways. Our only purpose is to know God and there are such men even today they are such many even today and I think perhaps, I am not very wrong that the totality of their goodwill wherever they may live, in the forest or in unknown villages, in some parts of the world. They are working for the destiny, for the delivery from the bondage of the world and we will be happy before we breathe last! नमस्कार ! 

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