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रविवार, 3 मई 2015

🔱🙏' 20 वां' बिहार-झाड़खण्ड त्रिदिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर, जानिबिघा , (20th Bihar Jharkhand state level youth training camp Janibigha) गया (बिहार)'🔱🙏

 🙏पूज्य नवनी दा के सानिध्य में अन्तिम बिहार-झाड़खण्ड त्रिदिवसीय शिविर🙏  

पता नहीं क्यों दादा ने शाम को अचानक फोन करके पूछा - "अभी तुम क्या कर रहे हो ? " मैंने उत्तर दिया "ऐसे ही अपने ऑफिस में बैठकर विवेक-अंजन के लिए विवेक-जीवन से बंगला का हिन्दी अनुवाद कर रहा हूँ।" उन्होंने आदेश दिया-  " तुम जानिबिघा शिविर का पूरा विवरण अंग्रेजी में लिख कर मुझे भेज दो। " 
उनके आदेशानुसार मैं उनके साथ अपने 'तिलैया-जानिबिघा प्रवास ' का यथा सम्भव पूरा विवरण लिखने का प्रयास करता हूँ : - 
  
>>>महामण्डल अध्यक्ष परम पावन श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय जी की १६-२२ अप्रैल २०१५ तक बिहार-झाड़खण्ड यात्रा एवं शिविर का विवरण : -

मैं बायें हाथ के अँगूठे का सर्जरी करवाने अपने पुत्र के यहाँ दिल्ली गया हुआ था तब 10 अप्रैल को प्रमोद दा ने फोन पर बताया कि, " इस बार के विवेक-वाहिनी शिविर में जानिबिघा से सुबोध पंडित आया था, उसने नवनी दा से जानिबिघा जाने का आग्रह किया तो, तो दादा बोले कि  " क्या बिजय ने पहले मुझे इस कैम्प में जाने की सूचना दी है ? मुझसे तो उसने नहीं कहा है ? "   प्रमोद दा ने उनसे कहा कि "बिजय ने लास्ट एस.पी.टी.सी में ही आपसे कहा था आप भूल गये हैं। 

" इस पर ८१ वर्ष के दादा गर्मी के दिन में भी तैयार हो गये हैं। मैं, प्रणव दा और बासुदेव बाघ १६ अप्रैल २०१५ को शाम ७ बजे कोडरमा पहुँच रहे हैं, १७ अप्रैल को दादा वहीँ विश्राम करेंगे और १८ अप्रैल को कार से रजौली-सिरदला रोड होकर बन्धुआ क्रासिंग से जानिबिघा ग्राम पहुँचेंगे। सुबेश टीचर है वो रोड से गाइड कर के ले जायेगा। तुमको दादा के कोडरमा आने के पहले हर हाल में कोडरमा पहुँच जाना होगा, कैम्प के बाद फिर वापस दिल्ली चले जाना।"
 
२७ मार्च को दिल्ली में मेरे बायें हाथ के अंगूठे का प्लास्टिक-सर्जरी हुआ था, डॉक्टर के निर्देशानुसार मुझे १५ मई तक दिल्ली में ही रहना था। किन्तु रनेन दा का फोन आया कि तुम उनको अपने साथ ले जाना और रास्ते में उनका पूरा ध्यान रखना, इतनी गर्मी में और इस उम्र में उनको जनिबिघा जैसे सुदूर ग्राम में हिफाजत से ले जाना जरुरी है । मैं 16 अप्रैल को सुबह 6 बजे कोडरमा पहुँच गया । मैंने सोचा कि प्रमोद दा और प्रणव दा को होटल में ठहरा दूँगा, और दादा और उनका पी.ए नीचे वाले दो कमरों में रहेंगे । मैंने नीचे का कमरा और बाथरूम आदि ठीक करवा लिया।
 मैं और धर्मेन्द्र कार लेकर समय पर स्टेशन पहुँचे, थोड़ी देर में अजय, सुदीप और रामचन्द्र भी आ गए । दादा का बोगी प्लेटफार्म के अंतिम छोर पर था, वे लोग उतर  कर मेरे और रामचन्द्र के पहुँचने की प्रतीक्षा कर रहे थे, रामचन्द्र का पैर ठीक होने में अभी १ महीना और लगेगा। सभी लोग पैदल ही धीरे धीरे पुल की तरफ चलने लगे। 

प्रमोद दा ने कहा कि हम लोग होटल में नहीं ठहरेंगे, यहीं रहेंगे और चारो लोग घर में ही रुके। दादा को पैदल उतनी दूर तक जाने में थकान होने लगी, तो हमलोग प्लेटफॉर्म पर ही एक जगह दादा को पंखे के सामने बैठने का आग्रह किये। 

वहाँ एक विक्षिप्त दिमाग सा दीखने वाला (पगला व्यक्ति) पहले से बैठा हुआ था, उसने पता नहीं दादा में क्या देखा कि, स्वयं अपने हाथों से उस जगह को साफ करके दादा से बैठने के लिए  कहा, और उनके चरण छू लिए। फिर मेरे बैण्डेज वाले बाएं हाथ की ओर देखकर उसने मुझ से  भी बैठने को कहा। 

और स्वयं वहाँ से कहीं कहाँ चला गया।  थोड़ी देर बाद जब हमलोग चलने को तैयार हुए तो पुनः उसने दादा के चरणो को स्पर्श किया, दादा ने अपने पर्स से 10 रुपया लेकर उसे दिया और आदर से झुककर उसे प्रणाम किया। ( क्या वे उसमें भी ब्रह्म का दर्शन कर रहे थे ?)

हमलोग जब घर पहुँचे तो बहुत से लोग दादा को देखने के लिये आने लगे।  'सारदा नारी संगठन ' से सुदीप की माँ तथा अन्य महिलायें भी मिलने आयी थीं। तिलैया में 16 के शाम से लेकर 17 के 10 बजे रात्रि तक घर में आनन्द का हाट लगा रहा, अनगिनत महिला-पुरुषों ने दादा के सत्संग का लाभ उठाया। 
 18 अप्रैल 2015 को प्रातः 10.30 बजे हमलोग कार से जानिबिघा के लिये प्रस्थान किये।  धर्मेन्द्र स्कूल की व्यवस्था करने के बाद अपनी गाड़ी से एक घंटे बाद जानिबिघा जाने बोला। धर्मेन्द्र ने मुझसे रास्ते में अपना स्कूल पर थोड़ी देर के लिये दादा को ले जाने का अनुरोध किया, दादा ने अनुमति दे दी और हम सभी लोग उनके स्कूल पहुँचे 

वहाँ दादा से धर्मेन्द्र ने अनुरोध किया कि आप बच्चों से कुछ शब्द बोल दीजिये; दादा ने कहा कि. ' मैं क्या कहूँगा तुम इन बच्चों को ही कुछ प्रार्थना या कविता सुनाने के लिये बोलो।"  बच्चों ने जब हिन्दी में प्रार्थना आदि सुनाये तो दादा ने धर्मेन्द्र से उन्हें संस्कृत में भी कोई प्रार्थना सिखाने का आदेश दिया। बच्चों ने लाइन से दादा के चरण स्पर्श किये, दादा ने उनके सिर पर हाथ रखा और टॉफी दिया।

आधे घंटे बाद हमलोग निकले और ' रजौली-सिरदला-लालसलाम मोड़'  होते हुए 1.30 बजे ग्राम जानिबिघा पहुँचे। झुमरीतिलैया में 1985 में स्थापित ' विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' अब जानिबीघा में एक विद्यालय  के रूप में स्थानान्तरित हो चुका है, जहाँ अभी 700 बच्चे पढ़ते हैं । 
(आज समझ में आया कि 12 जनवरी 1985 ई ० को झुमरीतिलैया में स्वतः ' विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर ' की स्थापना ठाकुर-माँ केआशीर्वाद से और स्वामीजी की कृपा  से हुई थी, और इसे जानिबीघा विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर विद्यालय में स्थानान्तरित कर वे स्वयं महामण्डल आन्दोलन के भावी नेताओं का निर्माण कर रहे हैं। अजय पाण्डेय, धर्मेन्द्र, रामचन्द्र, सुबोध पंडित, जय प्रकाश मेहता, डॉ दयानन्द, धनेश्वर पंडित, पंकज मेहता, जमुना मेहता, ब्रजेश, राहुल, गुड्डू  आदि के ह्रदय के विकास को देखकर तो मुझे ऐसा ही प्रतीत होता है।)

  विद्यालय के ऑफिस को दादा का कैम्प ऑफिस बनाया गया था, वहाँ दादा ने थोड़ा विश्राम किया। प्रमोद दा ने हमलोगों को घोर गर्मी के दोपहर में पहले छाँछ और बाद में चाय-बिस्कुट पिलाया।  अजय पाण्डेय और प्रमोद दा वे 17 अप्रैल 2015 के सुबह में ही advance party के रूप में जानिबीघा पहले ही पहुँच गये थे। हमलोग जानिबिघा के पोस्टमास्टर (बिडियो साहब, महामण्डल का भाई 'आनन्द फौजी' के पिताजी) के नव-निर्मित बने भवन में ठहराये गए थे। दोपहर के समय खाना खाने के बाद हमलोग वहीं चले गये। निरंकारी-सम्प्रदाय का सदस्य होने के अहंकार में किसी ने दोपहर के समय उसको दादा के कमरे में बिछे दूसरे पलंग, जो उनके पी.ए. बासुदेव बाघ का था पर सोने के लिये उकसा दिया। पूज्य दादा भाई बासुदेव के कष्ट को देखकर मुझसे बोले - क्या हमें इस कमरे का भाड़ा भी देना होगा? फिर मेरे समझाने के बाद वे लोग उस कमरे में दुबारा कभी नहीं गए ।

18-4-201 का सांध्यकालीन सत्र : शिविर के सांध्यकालीन सत्र का आयोजन ' विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर विद्यालय ' जानिबिघा के नवनिर्मित भवन के प्रांगण  में किया गया। उद्घाटन, संध्या 5.40 pm : ध्वजारोहण अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के अध्यक्ष श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय द्वारा किया गया। विवेकवाहिनी के 40 बच्चों एवं झारखण्ड बिहार के विभिन्न स्थानों से आये 185  कैम्पर्स ने ' केन्द्रीय महामण्डल कार्यालय' से पधारे प्रशिक्षक श्री रंजीत मोहन्ती के निर्देशन में ' महामण्डल ध्वज ' को सलामी दी। 

ध्वजारोहण के उपरान्त विद्यालय प्रांगण में पूज्य नवनी दा, श्री प्रणब जाना राय, श्री प्रमोद रंजन दास, श्री बासुदेव,  के समक्ष विवेक वाहिनी के बच्चों ने आधे घंटे का एक शो भी प्रस्तुत किया। जानिबिघा के सचिव श्री राहुल कुमार ने स्वागत भाषण प्रस्तुत किया।

हजारीबाग युवा महामण्डल के श्री गजानन्द पाठक ने महामण्डल शिविर की अनिवार्यता पर भाषण दिया, झुमरीतिलैया महामण्डल के श्री धर्मेन्द्र सिंह ने ' स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा एवं महामण्डल' के विषय पर अपने विचार रखे। 
जानिबिघा के पोस्टमास्टर श्री कैलाश सिंह ने 'जानिबिघा महामण्डल द्वारा विगत २० वर्षों में जानिबिघा ग्राम के कल्याण का ब्यौरा प्रस्तुत किया। बरही युवा महामण्डल के प्रधान अध्यापक डॉक्टर हरेराम पाण्डेय ने महामण्डल का उद्देश्य तथा कार्यक्रम के साथ सभी वक्ताओं द्वारा प्रदत्त भाषणों के सारांश को तटस्थ भाव से प्रस्तुत किया
परम पावन नवनी दा समस्त कार्यक्रमों की प्रस्तुति को देखकर एवं भाषणों को सुनकर प्रसन्न हुए; और पूछने लगे- ' बीरेन  कहाँ गया?(महामण्डल के तात्कालीन सचिव श्री वीरेन्द्र कुमार चक्त्रवर्ती) क्या वह यहां नहीं आया है ?'  प्रथम दिन का शिविर उत्साहवर्धक रहा । अच्छी संख्या में आस-पास के ग्रामों एवं जानिबीघा से ग्रामवासी स्त्री-पुरुष उपस्थित हुए थे।

19-4-2015 के कार्यक्रम : प्रातः अजय पाण्डेय ने बहुत अच्छे ढंग से मनःसंयोग की कक्षायें ली, जो बिल्कुल महामण्डल पुस्तिका मनःसंयोग के आधार पर दो कक्षा के अनुसार मिहनत से तैयार किया गया था। अजय ने 'जहाँ बावन वहीं तिरपन की कहानी' सुना कर मनःसंयोग सीखने के महत्व को स्पष्ट  किया ।

 श्री धर्मेन्द्र सिंह ने महामण्डल का उद्देश्य और कार्यक्रम, गजानन्द पाठक ने जीवन-गठन, हरेराम पाण्डेय ने चरित्र -गठन, ब्रजेश सिंह एवं अंकित कुमार ने चरित्र के गुण, जानिबिघा के सुबोध पंडित एवं प्रमोद कुमार ने चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया, दृढ़संकल्प वर्धन स्वपरामर्श एवं आत्म-मूल्यांकन तालिका पर कक्षायें लीं।  दूसरे दिन प्रश्नोत्तरी की कक्षा श्री धर्मेन्द्र सिंह एवं विजय सिंह ने ली। 
क्लास खत्म होने के बाद गजानन्द पाठक और जे.एम.झा (जितेन्द्र बाबू के बैंक सहकर्मी) नवनी दा से मिलने आये; उस समय दादा बाहर बरामदे में बैठे थे। शिविर में 'जीवन गठन ' की कक्षा गजानन्द पाठक ने ली थी, और वो अपने क्लास से सन्तुष्ट नहीं था। 
गजानन पाठक ने परम पावन नवनी दा से पूछा - "दादा जी, जीवन-गठन किसे कहते हैं? 

उत्तर में पूज्य नवनी दा ने कहा  : " अपने जीवन को इतने सुन्दर ढंग से गढ़ लेना कि, जो कोई भी मुझसे मिलने आये उसे ऐसा प्रतीत हो कि मुझसे मिलना उसका परम्सौ भाग्य था ! - जीवन गठन के विषय में इससे संक्षिप्त उत्तर नहीं दिया जा सकता है। " 

गजानन्द का दूसरा प्रश्न था : यहाँ शिविर होने के पहले, मैं ने बरही शिविर में भी भाग लिया था। लेकिन शिविर के पहले मैंने सपने में विजय भैया को जिस ड्रेस में देखा, वे कैम्प के दिन भी बिल्कुल उसी रंग के ड्रेस में कैसे दिखे ?

मैंने (विजय ने) भी एक पुरानी घटना का उल्लेख किया - " एक बार पाशकुरा वार्षिक शिविर के बाद मैं, टुटु और प्रमोद दा बस से ' जयराम-बाटी ' गये थे, पहले माँ (नानी) के घर जाने के बाद, वहाँ से पैदल ठाकुर के घर 'कामारपुकुर ' जाने की योजना बनी थी । जयरामबाटी आश्रम के सचिव-महाराज प्रमोद दा से परिचित थे, उन्होंने कहा कि आज आश्रम में रहने की व्यवस्था नहीं हो सकती, तुमलोग रात किसी होटल में बिता लो, कल आश्रम में कमरा मिल जायेगा ; तो तुम लोग प्रातः काल होने वाले माँ का नाम चैंटिंग सुन सकोगे। तब हमलोग रात को एक होटल में ठहरे थे। उसी होटल में मैंने भी स्वप्न में आपको बहुत सुंदर अंग्रेजी में ' महामण्डल का उद्देश्य और कार्यक्रम ' पर पूरा भाषण देते हुए सुना था।  स्वप्न के भाषण में भी आपका उच्चारण इतना स्पष्ट सुनाई दे रहा था कि मैेने उसका उल्लेख प्रमोद दा से भी किया था।

उत्तर में नवनी दा ने कहा : " यह पता नहीं कि कैसे, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति की जीवन-लीला (जगन्माता के पास ?) कहीं पूर्व से लिखकर रखी हुई है ! 'अघटन आज भी घटित होता है' -इसलिये  किसी किसी स्वप्न का सच होना भी सम्भव हो सकता है ! "

संध्याकालीन सत्र में परम पावन नवनी दा को सुनने के लिये बड़ी संख्या में ग्रामीण नर नारी सभा प्रांगण में उपस्थित थे। लेकिन पहले से सभा नवनी दा के भाषण का कोई कार्यक्रम निर्धारित नहीं हुआ था।  प्रमोद दा ने जब नवनी दा से आशिर्वचन में कहने का अनुरोध किया,  तो दादा ने उत्तर में कहा था - " मुझमें वैसा अहंकार नहीं कि 'मैं ' आशीर्वचन दे सकता हूँ, हाँ अन्य लोग कुछ कहेंगे तो उसके बाद मैं भी अपने विचार थोड़ा कह सकूँगा। "
धर्मेन्द्र सिंह ने 'श्रीरामकृष्ण देव की जीवनी' को बड़े सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया। फिर विजय सिंह ने 'ठाकुर-माँ -स्वामीजी की शिक्षा एवं उसके प्रचार-प्रसार में महामण्डल की भूमिका ' पर संक्षिप्त विचार प्रस्तुत किये। तत्पश्चात पूज्य नवनी दा ने सभा को सम्बोधित करते हुए अपने ह्रदय के उद्गार व्यक्त किये। 

फिर हमलोग विद्यालय के छात्रों द्वारा प्रस्तुत सांस्कृतिक कार्यक्रम को देखने के लिये मंच के किनारे बैठ गए। एक छात्र ने भोजपुरी भाषा में देवी दुर्गा पर लोकगीत प्रस्तुत किया, उसके बाद जब दूसरे छात्र ने भी उसी प्रकार लोकगीत गाना शुरू किया तो,
 नवनी दा बोले- 
" इन गीतों में सुर-ताल और संगीत कहाँ है ? इसे सुनकर तो ऐसा लगता है, मानो कोई व्यक्ति ताड़ी का नशा कर के जोर जोर से कुछ बोल रहा है, यदि उसका अर्थ नहीं बताया जाय तो इन गानों को सुनकर लड़के क्या सीखेंगे ?

बिहार-झारखण्ड में सचमुच संगीत की अवस्था बहुत निम्नस्तर पर है, केवल हजारीबाग-कैम्प  में संगीत सुनने मिला था, गजानन्द पाठक से अपने बच्चों को विवेक-गीति में प्रशिक्षित करने के लिये प्रेरित करना होगा। 
झुमरीतिलैया के संगीतज्ञ लोग रबिन्द्र-संगीत सीखने -सिखाने में जितनी रूचि दिखाते हैं, विवेक-गीति सिखने में उसका १० % भी नहीं दिखाते। जिसके फलस्वरूप बिहार-झारखण्ड में अजय पाण्डेय के आलावा अन्य कोई महामण्डल कर्मी 'खंडन-भवबंधन', ' जय जय रामकृष्ण ', ' विश्वस्यधाता' आदि गाने जो महामण्डल कैम्प का अनिवार्य अंश हैं, अभी तक हिन्दी भाषी क्षेत्रों में प्रचारित नहीं हो सका है । 
माइक से मैंने अनुरोध किया कि यदि कोई कैम्पर लोकगीत या फ़िल्मी देशभक्ति गीत 'ये मेरा इण्डिया ' जैसे गीतों के अतिरिक्त कोई अच्छा संगीत नहीं सुना सकता तो स्वामीजी रचित किसी कविता की आवृत्ति सुना दे तो अच्छा होगा। 

किन्तु अजय ने कहा कि बिहार-झारखण्ड महामण्डल द्वारा संचालित किसी भी स्कूल में विवेक-गीति का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता, जिसके कारण कोई छात्र सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग नहीं ले सका और संध्याकालीन सत्र का समापन कर दिया गया। इसलिए भविष्य में महामण्डल द्वारा संचालित स्कूल 'जानिबिघा विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' तथा अन्य स्कूलों में भी विवेक-गीति सिखाने की व्यवस्था करने से अच्छा होगा।    

हमलोग जहाँ ठहरे थे (बीडीओ साहब के घर पर) वहाँ पहुँचने के बाद, प्रणब दा ने अपने मोबाईल में लोड वीरेश्वर दा द्वारा गाये हुए -'जुड़ाते चाइ कोथाये जुड़ाई ?' आदि पुराने 'विवेक-गीति ' को नवनी दा को सुनाया जिसे दादा घंटों सुनते रहे। प्रणव दा ने मुझे बंगला में आदेश दिया, कहा कि तुम अगले पी.एस.टी.सी के पहले मुझे याद कराना, तो मैं इन गीतों को पेनड्राइव में लोड करके तुम्हें दूंगा, इसके सुर और ताल के अनुसार हजारीबाग के लड़कों को सिखाया जा सकता है।

20-4-2015 के कार्यक्रम : निर्धारित कक्षाओं के शेष अंश को पूर्ण करने के साथ ' पाठचक्र क्यों और कैसे पर ' विवेकानन्द ज्ञान-मन्दिर विद्यालय, जानिबिघा के संस्थापक श्री धनेश्वर पंडित ने कक्षा ली। फुलवरिया विवेकानन्द युवा पाठचक्र के जयप्रकाश मेहता ने विवेकानन्द की जीवनी सुनाया। 
शिविर के अंतिम दिन पर प्रश्नोत्तरी की कक्षा परम पावन नवनी दा ने स्वयं ली। विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर विद्यालय के दूसरे संस्थापक सदस्य डॉक्टर दयानन्द ने  नवनी दा से शाम को जलपान के लिये अपने घर जाने का अनुरोध किया, जिसे दादा ने स्वीकार कर लिया। 

जलपान के बाद अंतिम दिन के ध्वजा-अवरोहण के हेतु प्रणब दा, रंजीत महंती आदि के साथ दादा गाँव के ही किसी व्यक्ति के निजी ऑटो-रिक्सा से फिल्ड में उपस्थित हुए। 81  वर्ष की उम्र में शारीरिक दुर्बलता रहते हुए भी पूज्य दादा ने स्वामीजी के सैनिक जैसी दृढ़ता के साथ खड़े रहते हुए पूरे समय तक ' संघमन्त्र एवं स्वदेश मंत्र ' का पाठ किया। 

धर्मेन्द्र सिंह ने कहा कि संध्या 7 बजे से पहले दोनों कार को 'लालसलाम मोड़' पार कर लेना ठीक होगा, क्योंकि ये पूरा क्षेत्र माओवादी है, ये लोग तो उगाही करने के लिए तो पहले तिलैया तक भी आ जाते थे। 
प्रमोद दा ने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों में दिन के समय स्त्री-पुरुष खेतों में गेहूँ काट रहे होते हैं, वे शाम को 7 बजे के बाद ही सभास्थल पर आयेंगे। और आज पहले से भी अधिक भीड़ होने की सम्भावना है, अतः मैं और रंजीत महंती समापन-सत्र के बाद 10 बजे की ट्रेन से कोडरमा आयेंगे। समापन सत्र के मुख्य अतिथि श्री रंजीत महंती थे, कैम्पर्स ने शिविर अनुभव सुनाये, और प्रमोद दा ने शिविर के महत्व पर प्रकाश डाला। 

६.३० बजे ध्वजा-अवरोहण के बाद नवनी दा के साथ दोनों कार  रजौली के रास्ते झुमरीतिलैया के लिये प्रस्थान कर गये। हमलोग ९.३० बजे तिलैया पहुँच गये। दूसरे दिन २१ -४-२०१५ को १२ बजे नवनी दा, प्रमोद दा, प्रणव दा, बासुदेव दा एक साथ कोलकाता के लिये प्रस्थान कर गये। 
मने पूज्य दादा से कहा को उतनी धूप में प्लेटफॉर्म पर पैदल चलने में आपको तो बहुत कष्ट हुआ होगा, पर उन्होंने कहा- " केवल एक हाथ और एक पैर ठीक रहने से भी मैं महामण्डल शिविर में भाग लेता रहूँगा।"  रामचरित मानस में कहा गया है -

राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं॥
जीवनमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहीं निरंतर तेऊ॥ 
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[पूज्य नवनी दा के आदेशानुसार उपरोक्त रिपोर्ट का अंग्रेजी अनुवाद झुमरीतिलैया महामण्डल के सह-सचिव श्री अजय कुमार अग्रवाल द्वारा प्रस्तुत है - ] 

As per the orders of Pujya Navni Da, the English translation of the above report is presented by Mr. Ajay Kumar Agarwal, Assistant -Secretary of Jhumri Telaiya Mahamandal - 

Report of 20th Bihar Jharkhand state level youth training camp Janibigha, Gaya (Bihar) and description of revered Nabni da’s visit to Bihar-Jharkhand during 16-22 April 2015.

On 10th April I was in Delhi when Pramod da told me over telephone that Subodh Pandit from Janibigha was there to attend Vivek Vahini Camp. In camp when Subodh requested Nabni da to grace the camp with his benevolent presence at Janibigha. 

After preliminary inquiry about the camp 81 year old Dada generously consented to come even in this hot summer. I was told that Pramod da, Pranav Da and Basudev along with Dada are arriving Koderma on 16th April evening. 
Briefing about itinerary Pramod da said that on 17th Dada will stay at Koderma and on 18th morning will reach camp site Janibigha by road via Rajauli-Sirdala road-Bandhua crossing.
 I was instructed by him to arrive at Koderma anyhow before Dada’s arrival. You may go back to Delhi afterwards, he said. My left thumb underwent plastic surgery and on that count I had to stay at Delhi till 15th May

Meanwhile Ranen da called up to express concern over Dada’s well being and entrusted the same to me to take due care of him during his visit to the remote village.
Dharmendra and me went station to receive Dada and the team. Ajay, Sudip and Ramchandra joined us at station. Since arrival at station and through out his stay at Telaiya it was like ‘anand ki haat’ at my home on 17th night till 10 P.M. 

Many persons began dropping in to meet and seek blessings of Nabni da. Sudip’s mother and other members of Sarda Nari Sangathan came to meet. All were so happy to be in the proximity of revered dada.

On 18th morning we started for Janibigha in Innova car. At Dharmendra’s insistence dada stopped for a while at his school where he requested to say something before school children. Dada said what he would say to them, children should better be instructed to recite some poem or prayer. They did recite and after listening to them dada instructed Dharmendra to make them learn some prayer in Sanskrit also.

After spending half an hour with children we left for campsite via ‘Rajauli-Sirdala-Lalsalam turning’ to reach Janibigha at 1.30 P.M. ‘Vivekanand Jnana Mandir’ all that started in the year 1985 as a library at Jhumri Telaiya is now operating as a full fledged school at Janibigha where 700 beneficiaries are the students who are growing with most desirable heritage of inspiration of Ramakrishna Vivekananda Order courtesy Mamamandal movement.
 ( Today it seems more than clear that the venture called library as ‘Vivekananda Jnan Mandir’ was founded by the blessings of none other but Swamiji himself that got transferred to Janibigha later, only to build the future leaders of Mahamandal Movement – Ajay Pandey, Subodh Pandit, Jaiprakash Mehta, Medical Practitioner Dayanand, Dhaneswar Pandit, Pankaj Mehta, Jamuna Mehta, Brajesh and the likes whose hearts the all encompassing ones points only to the inspiration of Swamiji. )

Evening session (18-05-2015) : The evening session was organised in the newly built premises of
Vivekananda Jnan Mandir Vidyalaya. The inaugural flag hoisting was done by Mahamandal President Sri Nabaniharan Mukhopadhyay at 5.50 P.M. The 40 Vivek Vahini children and 185 campers from Bihar-Jharkhand saluted the Mahamandal flag under the guidance of Sri Ranjeet Mohanty, the trainer who came all the way from Kolkata. 

After flag hoisting the Vivek Vahini children presented a half an hour show in the school premises before Nabni da, Sri Pranab Jana Roy, Sri Pramod Ranjan Das, Sri Basudev bagh and others.

Rahul Kumar, Secretary of Janibigha Mahamandal delivered welcome address, Gajanan Pathak from Hazaribag unit spoke on why Mahamandal is unavoidably desirable.
 
Dharmendra Singh spoke on ‘Swamiji’s teachings and Mahamandal’, Kailash Singh Postmaster Janibigha briefed about the welfare work as undertaken by Mahamandal during the last 20 years in the village while 
Dr. Hareram Pandey from Barhi the teacher spoke on ‘Objects and activities of Mahamandal’ and be presented a summary of all speeches as delivered by various speakers with an element of neutrality. Most revered Nabni da was happy to see all presentations and speeches and asked where is Biren, is he not there.
First day of the camp was quite heartening. Villagers attended in good numbers from Janibigha and nearby villages.

Programmes on 19-05-2015 :
Ajay Pandey took the class of Manah Sanyog exactly based on Mahamandal booklets that was prepared and divided in two classes. He underlined the importance of Manah Sanyog beautifully through narrating a storty –'जहाँ बावन वहीं तिरपन की कहानी ( where there is 52 there only could be 53 ). 

Classes as undertaken were: Aims and activities –Dharmendra Singh, Jeevan Gathan – Gajanan Pathak, Charitra Gathan – Dr. Hareram Pandey, 

Charitra ke gun – Brajesh Singh and Amit kumar, 

Charitra Nirman ki Prakriya and Auto Suggestion – Subodh Pandit & Pramod Kumar.
Question answer session was conducted by Bijay Singh and Dharmendra Singh on second day.
Gajanan Pathak after the end of the classes came to see Nabni da. J.N. Jha was with him. He was dissatisfied with his own class and he asked ‘जीवन-गठन किसे कहते हैं ? *

 Gajanan Pathak : Sir,  what exactly is Jeevan Gathan ?

Revered dada said: When someone develop into a life so beautifully that whosoever coming to meet him should feel like it was lucky for him to meet such a person. Any shorter answer so crisp and concise is not possible."

[अपने जीवन को इतने सुन्दर ढंग से गढ़ लेना कि, जो कोई भी मुझसे मिलने आये उसे ऐसा प्रतीत हो कि मुझसे मिलना उसका सौभाग्य था ! - जीवन गठन के विषय में इससे संक्षिप्त उत्तर नहीं दिया जा सकता है।]

Dyuring  the discussion and mention of some dreams as experienced by Gajanan Pathak dada said that all life scripts written beforehand are there with Jaganmata.  
Improbable happens at times and even a dream question- On turning out to be true is not ruled out altogether.

[नवनी दा : " यह पता नहीं कि कैसे, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति की जीवन-लीला (जगन्माता के पास ) कहीं पूर्व से लिखकर रखी हुई है ! 'अघटन आज भी घटित होता है ' -इसलिये  किसी किसी स्वप्न का सच होना भी सम्भव हो सकता है ! " ]

In the concluding evening session general folk were present in great numbers to hear venerable Nabni da though his address as such was not pre scheduled in the evening programme. 

When Pramod da requested for his ‘Ashirvachan’ (blessings) Nabni da said – ‘I don’t have that ego to think of giving any blessings but after others having spoken I may say something’. 

Dharmendra presented the life-sketch of Sri Ramakrishna beautifully.
 Bijay Singh said in brief about teachings of Thakur-Maa-Swamiji and role of Mahamandal in spreading the same. Then Nabni da poured his heart in his public address.

Thereafter there was a cultural programme presented  by school children. One students presented a folk song related to Goddess Durga in Bhojpuri language and when another student began with singing a similar song Nabni da said that the melody and rhythm is simply missing in these songs and said that it feels that someone is saying something loudly in an inebriated condition. 

Without getting to know the meaning of the students will not be able to learn anything, so he said. The condition about the level of music in Bihar-Jharkhand is really pathetic. Camp music could be seen only in Hazaribag camp.

Gajanan Pathak should be encouraged to send his students to receive training of Vivek Geeti. It has been seen that our Telaiyan musicians do not display even ten percent of the zeal for Vivek Geeti as they show for Rabindra Sangeet. 

As a result thereof none other Mahamandal volunteer knows to sing - 'खंडन-भवबंधन', ' जय जय रामकृष्ण ', ' विश्वस्यधाता' which are vital songs at our Mahamandal camps, except one Ajay Pandey.

In Hindi belt these mahamandal songs are yet to be spread. When I requested using public address system saying that if campers are finding it difficult to come up with some good song besides folk song or general patriotic song they should recite any poem as composed by Swamiji but for the lack of training even in the schools run by the volunteers of Bihar Jharkhand mahamandal none of the camper brother could take part in the cultural programme on the lines of expected parameters. Ultimately the evening session came to a close without such presentations which were otherwise desirable on the occasion.
After reaching our place of camp stay Pranab da played the many of Vivek Geeti songs on his mobile phone that were sang by Vireshwar da ('जुड़ाते चाइ कोथाये जुड़ाई ?' आदि

which Nabni da kept on listening to for hours. Pranab da asked to remind him right before next SPTC so that he can give these songs in a pen drive to facilitate training of these songs for students at Hazaribag.

Programmes on 20-04-2015 : 
After completing the remaining parts of the scheduled classes Dhaneswar Pandit took a class on ‘How’s and Why’s of Path Chakra.’ 
Jaiprakash Mehta from Fulwaria narrated the story of Swami Vivekananda. 

Question answer session on last day of the camp was taken by revered Nabni da himself. 

One founder member volunteer Dayanand requested dada to come to his house for ‘Jalpaan’. Consenting to request dada visited his house and afterwards came to open ground in an autorickshaw along with Pranab da, Ranjeet Mohanty and others for flag down. 

In spite of his frail structure and uneven health the 81 year old Nabni da was standing in the ground like and iron willed soldier of Swamiji reciting sangh mantra. Campers shared their camp experience in presence of chief guest at the concluding session Sri Ranjeet Mohanty. Pramod da threw light on the importance of camp.

After flag down at 6.30 PM with Nabni da and others left for Telaiya via Rajauli in two cars to reach at 9.30 PM. 

Next day on 21-4-2015 Nabni da, Pramod da, Pranab da, Basudeb da left for Kolkata via train in the afternoon. 

Revered Dada must have faced tremendous discomfort in walking on feet on platform in noon time but he said with unparalleled enthusiasm and poise "that even with one hand and one leg working he’ll keep on taking part in mahamandal camps. "

It is so said in Ramcharitmanas -

राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं॥

जीवनमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहीं निरंतर तेऊ॥ 

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शनिवार, 13 दिसंबर 2014

अशरीरी वाणी (" ॐ " Voice Without Form)

पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिन्दू धर्म के समान इतने उच्च स्वर से मानवता के गौरव का उपदेश करता हो, और पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिन्दू धर्म के समान गरीबों और नीच जातिवालों का गला ऐसी क्रूरता से घोंटता हो। 
प्रभु ने मुझे दिखा दिया है कि इसमें धर्म का कोई दोष नहीं है, वरन दोष उनका है, जो ढोंगी और दम्भी हैं, जो 'परमार्थिक' और 'व्यवहारिक' सिद्धांतों के रूप में अनेक प्रकार के अत्याचार के अस्त्रों का निर्माण करते हैं। चिन्तनशील लोग पिछले कुछ वर्षों से समाज की यह दुर्दशा समझ रहे हैं, परन्तु दुर्भाग्यवश, वे हिन्दू धर्म के मत्थे इसका दोष मढ़ रहे हैं। 
वे सोचते हैं कि जगत के इस सर्वश्रेष्ठ धर्म का नाश ही समाज की उन्नति का एकमात्र उपाय है। सुनो मित्र, प्रभु की कृपा से मुझे इसका रहस्य मालूम हो गया है। दोष धर्म का नहीं है। इसके विपरीत तुम्हारा धर्म तो तुम्हें यही सिखाता है कि संसार भर के सभी प्राणी तुम्हारी आत्मा के विविध रूप हैं। …सारी दुनिया इन तीस करोड़ मनुष्यों को, जो केचुओं की तरह भारत की पवित्र धरती पर रेंग रहे हैं और एक दूसरे पर अत्याचार करने की कोशिश कर रहे हैं, घृणा की दृष्टि से देख रही है। समाज की यह दशा दूर करनी होगी -परन्तु धर्म का नाश करके नहीं, वरन हिन्दू धर्म के महान उपदेशों का अनुसरण कर और उसके साथ उसमें बौद्धधर्म -जो हिन्दू धर्म का ही स्वाभाविक विकसित रूप है; की अपूर्व सहृदयता (करुणा) को युक्त कर। 
भारतमाता कम से कम एक हजार युवकों का बलिदान चाहती है- मस्तिष्क वाले युवकों का पशुओं का नहीं। सर्वदा याद रखना -नाम-यश कमाना अपना उद्देश्य नहीं है। वत्स, साहस अवलंबन करो। भगवान की इच्छा है कि भारत में हमसे बड़े बड़े कार्य संपन्न होंगे। विश्वास करो, हमीं बड़े बड़े काम करेंगे। हम गरीब लोग- जिनसे लोग घृणा करते हैं, पर जिन्होंने मनुष्य का दुःख सचमुच दिल से अनुभव किया है। राजे-रजवाड़ों से बड़े बड़े काम बनने की आशा बहुत कम है। भारतवर्ष में हमलोग गरीबों और पतितों को क्या समझ सकते हैं ! उनके लिये न कोई अवसर है, न बचने की राह, और न उन्नति के लिये कोई मार्ग ही। भारत के दरिद्रों, पतितों और पापियों का कोई साथी नहीं, कोई सहायता देनेवाला नहीं -वे कितनी ही कोशिश क्यों न करें, उनकी उन्नति का कोई उपाय नहीं। वे दिन पर दिन डूबते जा रहे हैं। क्रूर समाज उन पर जो लगातार चोटें कर रहा है, उसका अनुभव तो वे खूब कर रहे हैं, पर वे जानते नहीं कि वे चोटें कहाँ से आ रही हैं। वे भूल गये हैं कि वे भी मनुष्य हैं। इसका फल है गुलामी।
हमारे देश के लोगों में न विचार है, न गुणग्राहकता। इसके विपरीत एक सहस्र वर्ष के दासत्व के स्वाभाविक परिणामस्वरूप उनमें भीषण ईर्ष्या है, और उनकी प्रकृति सन्देहशील है, जिसके कारण वे प्रत्येक नये विचार का विरोध करते हैं। क्या कारण है कि हिन्दू राष्ट्र अपनी अद्भुत बुद्धि एवं अन्यान्य गुणों के रहते हुए भी टुकड़े टुकड़े हो गया? 
मेरा उत्तर होगा --ईर्ष्या। कभी भी कोई जाति इस मन्दभाग्य हिन्दूजाति की तरह इतनी नीचता के साथ एक दूसरे से ईर्ष्या करनेवाली, एक दूसरे के सुयश से ऐसी डाह करनेवाली न हुई, और यदि आप कभी पश्चिमी देशों जायें, तो पश्चिमी राष्ट्रों में इसके अभाव का अनुभव सबसे पहले करेंगे। भारत में तीन मनुष्य एक साथ मिलकर पॉँच मिनट के लिये भी कोई काम नहीं कर सकते। हर एक मनुष्य अधिकार प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है और अंत में संगठन की दुरवस्था हो जाती है। भगवान! भगवान ! कब हम ईर्ष्या करना छोड़ेंगे ? प्रत्येक मनुष्य एवं प्रत्येक राष्ट्र को महान बनाने के लिये तीन बातें आवश्यक हैं --
१. ' चरित्र-निर्माण' की शक्ति में विश्वास। 
२. ईर्ष्या और सन्देह का परित्याग। 
३. जो सत बनने और सतकर्म करने [BE AND MAKE ] 
के लिये यत्नवान् हों, उनकी सहायता करना।
भर्तृहरि ने ठीक कहा है -' ये निघ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ' (जो नाहक औरों के हित के बाधक होते हैं, वे कैसे हैं, यह हमें नहीं मालूम)। भाई, सब दुर्गुण मिट जाते हैं, पर वह अभागी ईर्ष्या नहीं मिटती ! 
हमारी जाति का यही दोष है --केवल परनिन्दा और ईर्ष्या। प्रभु ने कहा है -'त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी ' श्वेताशतर ' -तुम्हीं स्त्री हो और तुम्हीं पुरुष; तुम्हीं कुमार हो और तुम्हीं कुमारी-इत्यादि; और हम कह रहे हैं- 'दुरमपसर रे चाण्डाल ' -ऐ चाण्डाल दूर हट ! ' केनैषानिर्मिता नारी मोहिनी '--किसने इस मोहिनी नारी को बनाया? 
मैं श्रीरामकृष्ण के चरणों में 'तुलसी और तिल ' निवेदन कर तथा अपना शरीर अर्पित कर उनका गुलाम हो गया हूँ। मैं उनकी आज्ञा का उल्ल्ंघन नहीं कर सकता। उनकी वाणी को आप्तवाक्य मानकर मैं उस पर विश्वास करता हूँ। उनका आदेश यह था कि जब तक सिद्धि प्राप्त न हो, एक जगह बैठकर साधना करनी चाहिये। जिस समय देहादि के भाव अपने आप छूट जायें, उस समय साधक चाहे जो कुछ कर सकता है। जिसे पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो गयी है उसीका यहाँ-वहाँ घूमना शोभा देता है।
लाखों स्त्री-पुरुष पवित्रता के अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर, भगवान के प्रति अटल विश्वास से शक्तिमान बनकर इस सम्पूर्ण भारत देश के एक छोर से दूसरे छोर तक सर्वत्र उद्धार के सन्देश और समानता के सन्देश का प्रचार करते हुए विचरण करेंगे। तुम्हें नहीं मालूम मेरे भीतर क्या है। यदि मेरे उद्देश्य की सफलता के लिए तुममें से कोई मेरी सहायता करे तो अच्छा ही है, नहीं तो गुरुदेव मुझे पथ दिखाएंगे। बाहरी लोगों के सम्मुख इस पत्र को पढ़ने की आवश्यकता नहीं। यह बात सभी से कहना, सभी से पूछना --क्या  सभी लोग ईर्ष्या त्यागकर एकत्र रह सकेंगे या नहीं ? यदि नहीं, तो जो ईर्ष्या किये बिना नहीं रह सकता, उसके लिये घर वापस चले जाना ही अच्छा होगा, और इससे सभी का भला होगा। 
जब तक मैं निष्कपट हूँ, तब तक मेरा विरोध कोई नहीं कर सकता, क्योंकि प्रभु ही मेरे सहायक हैं। मैंने तो इन नवयुवकों को संगठित करने के लिये ही जन्म लिया है। यही नहीं, प्रत्येक नगर में सैंकड़ों और मेरे साथ सम्मिलित होने को तैयार हैं, और मैं चाहता हूँ कि इन्हें अप्रतिहत गतिशील तरंगों की भाँति भारत में सब ओर भेजूँ, ताकि वे दीनहीनों एवं पददलितों के द्वार पर सुख, नैतिकता, धर्म एवं शिक्षा पहुँचावें। और इसे मैं करूँगा, या मर जाऊँगा।
ऐसे देश में, विशेषतः बंगाल में (तब बिहार - झारखण्ड-बंगाल को मिलाकर बंगाल कहा जाता था), ऐसे व्यक्तियों का संगठन खड़ा करना जो परस्पर मतभेद रखते हुए भी अटल प्रेमसूत्र से बँधे हुए हों, क्या एक आश्चर्यजनक बात नहीं है ? यह संघ (ABVYM) बढ़ता ही रहेगा; अनन्त शक्ति और अभ्युदय के साथ-
साथ उदारता की यह भावना अवश्य ही सारे देश में फ़ैल जायगी;  तथा हमारी गुलामों की इस जाति को उत्तराधिकार सूत्र से प्राप्त- उत्कट अज्ञता, द्वेष, प्राचीन अन्धविश्वास, जातिभेद व् ईर्ष्या के बावजूद- यह हमारे देश के रोम रोम में समा जाएगी तथा उसे विद्युत-संचार के द्वारा उद्बोधित करेगी ! 
तुम नीतिपरायण तथा साहसी बनो, ह्रदय पूर्णतया शुद्ध रहना चाहिये। पूर्ण नीतिपरायण तथा साहसी बनो- प्राणों के लिये कभी न डरो। तुम्हारे लिये नीतिपरायणता तथा साहस को छोड़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है। प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो। स्वयं मनुष्य बनो तथा जो खासकर तुम्हारी ही देखभाल में हैं - उन्हें भी साहसी, नीतिपरायण तथा दूसरों के प्रति सहानुभूतिशील - (स्वयं बनने और Be and Make!) बनाने की चेष्टा करो।
साधनारम्भ की दशा की ओर सिंहावलोकन करो, तो तुम्हें ज्ञात होगा कि तुम पहले पशु थे, अब मानव हो  और आगे चलकर तुम एक देवता अथवा स्वयं ईश्वर  हो जाओगे। "
--- स्वामी विवेकानन्द





शनिवार, 6 दिसंबर 2014

"देश-कालातीत सत्य से परिचित होने के प्रयास ही साधना है ! "

" साधक और साधना "
साधना के सम्बन्ध में जन साधारण की भ्रान्त धारणा :  भारत अपनी राष्ट्रीय शक्ति का जितना व्यय आध्यात्मिक राज्य की सत्यवस्तुओं का साक्षात्कार करने के लिये करता रहा है तथा अभी तक कर रहा है, उतना खर्च करने वाला विश्व का कोई दूसरा देश नहीं है। किन्तु अधिकांश लोग यह सोचते हैं कि संसार के सुख-भोगों में घोर आसक्ति रखते हुए भी कोई मंत्र सीखकर बिना वैराग्य के ही जगत्कारण ईश्वर को देखा जा सकता है, तथा उन्हें वशीभूत भी किया जा सकता है। और इस प्रकार की भ्रान्त धारणा के वशीभूत होकर वे किसी आशाराम या रामपाल जैसे ढोंगी साधु के चक्कर में फँसकर जीवन व्यर्थ कर लेते हैं। 
श्रीरामकृष्णदेव कहते थे-
 " सर्व भूतों में ब्रह्मदर्शन अथवा ईश्वर दर्शन 
       साधना की सबसे उच्च और अंतिम अवस्था है।" 
मनुष्य के सौभाग्य से साधना में चरम उन्नति होने पर ही यह अवस्था प्राप्त होती है !  शास्त्रों का कथन है - " जगत में जो कुछ तुम देख रहे हो -  ईंट, पत्थर, लकड़ी, मिट्टी, मनुष्य, पशु, वृक्ष-लता, स्थूल-सूक्ष्म, चेतन-अचेतन,जीव-जन्तु, देव-देवता ये सब एक अद्वितीय ब्रह्मवस्तु हैं ! ब्रह्म-वस्तु को ही तुम नाना प्रकार के 'नाम-रूपों' में देख रहे हो, सुन रहे हो, स्पर्श, घ्राण तथा आस्वादन कर रहे हो। " 
[यहां जो भी है, वही है। यहां प्रत्येक वस्तु आराध्य है। यहां और मूर्तिया बनाने की जरूरत नहीं है, सभी मूर्तियां उसकी हैं। यहां मंदिर खड़े करना व्यर्थ है, सारा अस्तित्व मंदिर है।इन पक्षियों की आवाज में वही है। सुनो। वृक्षों की हरियाली में वही है। आंख साफ करो और देखो! तुम्हारी पत्नी में, तुम्हारे पति में, तुम्हारे बेटे में, तुम्हारे पिता में वही है। फिर से तलाशो। अगर नहीं मिला है, तो कहीं तलाश में भूल हो गयी है। सारे शास्त्र यही कहते हैं कि सबमें परमात्मा है। तो मेरी पत्नी में नहीं है? लोगों ने कहा—वें शास्त्र ठीक कहते हैं, मगर यह व्यावहारिक नहीं है। और शास्त्रों को बीच में मत लाओ, तुम गृहस्थ आदमी हो! तुम कहां की इन ऊंची बातों में पड़ गये! तुमने पत्नी को पत्नी मान लिया, उसीमें भूल हो गयी। पत्नी मान लिया, अब तो तुम सोच ही कैसे सकते हो कि पत्नी परमात्मा भी हो सकती है? इसी मान्यता को भ्रम कहते हैं। भागवान की — 'शक्ति'  का नाम ही 'माया' है! वह झूठ नहीं है, वह झूठ कैसे हो सकती है?]
 प्रश्न - तो हमें उस वस्तु का प्रत्यक्ष अनुभव क्यों नहीं हो रहा है ? 
 उत्तर - इसलिए कि तुम लोगों को भ्रम हो गया है। जब तक मनुष्य स्वयं अज्ञानावस्था में है, उसे अज्ञान के कारण का बोध कैसे हो सकता है? भ्रम व् अज्ञान के कारण ही सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं हो पाता हैयथार्थ वस्तु (देशकालातीत  सत्य) के साथ तुलना करने पर ही हम भीतर तथा बाहर की अवस्था के भ्रम को समझ पाते हैं। 

झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥ 
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1॥
जिस वस्तु को जाने बिना झूठ (मिथ्या -जगत ) भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है और जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है॥1॥ 
 हर मनुष्य हिप्नॉटाइज्ड हो चुका है। नित्य-परिवर्तनशील होने के कारण -'मिथ्या जगत' को ही सत्य समझ रहा है। जब तक वह भ्रम (अपने को शरीर मानने  भ्रम ) दूर नही होगा, तब तक तुम भ्रम में हो - तुम्हें उसका पता कैसे चलेगा ? [भेंड़ बने हुए सिंह-शावक का भ्रम कोई गुरु-सिंह आकर उसको डिहिप्नोटाइज्ड नहीं करेगा या रज्जु-सर्प भ्रम में (भीतर रज्जु) पर टॉर्च की रौशनी में बाहर की अवस्था (सर्प)] पूर्वोक्त भ्रम को जानने के लिये भी तुमको उसी प्रकार के डिहिप्नोटाइज्ड करने वाले ज्ञान (T के नाम-जप) की आवश्यकता है।  
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥ 
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥3॥

जिनको निर्गुण-सगुण का कुछ भी विवेक नहीं है, वे अनेक मनगढ़ंत बातें बका करते हैं, जो श्री हरि की माया के वश में होकर जगत में (जन्म-मृत्यु के चक्र में) भ्रमते फिरते हैं, उनके लिए कुछ भी कह डालना असंभव नहीं है॥3॥  
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥ 
जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥4॥   

यह जगत (प्रकृति मन-बुद्धि) प्रकाश्य है और श्री रामचन्द्रजी (पुरुष) इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य सी भासित होती है॥4॥
प्रश्न - अच्छा, इस प्रकार का भ्रम होने का कारण क्या है तथा वह 'भ्रम ' हमें कब से हुआ है ?
उत्तर - इस भ्रम का कारण भी वही है -जो रज्जु-सर्प भ्रम के पीछे था- अर्थात अज्ञान ! सिंह-शावक होकर स्वयं को भेंड़ समझने का भ्रम या आत्मा होकर स्वयं को स्त्री-पुरुष या शरीर मानने का भ्रम, वह अज्ञान कब उपस्थित हुआ -यह तुम कैसे जान सकते हो ? जब तक तुम स्वयं अज्ञान में पड़े हुए हो, तब तक खुद, बिना किसी पथप्रदर्शक के उस अज्ञान को जानने का प्रयास करना व्यर्थ की माथा-पच्ची है। जब तक स्वप्न देखा जाता है, तब तक वह सत्य ही प्रतीत होता रहता है। नींद खुलने पर जाग्रत अवस्था के साथ तुलना करने से ही उसके मिथ्यात्व की धारणा होती है।

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥ 
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥1॥ 

इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता॥1॥ 
प्रश्न - तो फिर उपाय क्या है ? 
उत्तर - अज्ञान को दूर करना ही एकमात्र उपाय है; और मैं यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि उस भ्रम या अज्ञान को दूर किया जा सकता है ! जिस मनःसंयोग की पद्धति को सीख कर प्राचीन ऋषि-
मुनि उसे दूर करने में समर्थ हुए थे, उसी पद्धति को महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में सीखाया जाता है। 
प्रश्न - अच्छा, ऋषियों ने जिस मिथ्या जगत को 'ब्रह्म-रूप' में देखा है वही सत्य है-यह कहने का आधार क्या है? उस उपाय को जानने से पूर्व कुछ अन्य शंकाओं  को दूर करना आवश्यक लग रहा है।
पाश्चत्य विकसित देश और विश्व के समस्त वैज्ञानिक सर्न के प्रयोगशाला में जो कुछ प्रत्यक्ष देख रहे हैं, उसे तो आप भ्रम बतला रहे हैं,और कुछ अल्पसंख्यक मुट्ठीभर ऋषियों ने इन्द्रियातीत भूमि के सत्य को प्रत्यक्ष किया है, उसे ही सत्य कह रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि गीता-उपनिषद के ऋषि और शास्त्र जो (नवनीदा) कुछ कह रहे हैं -वही भ्रम हो ?
उत्तर -बहुसंख्यक व्यक्ति जो विश्वास करेंगे, वही सर्वदा सत्य हो ऐसा कोई नियम नहीं है। ऋषियों ने इन्द्रियातीत सत्य को प्रत्यक्ष करने के बाद जगत को मिथ्या कहा है,असत्य नहीं कहा है। अविनाशी सत्यस्वरूप को जानकर मनुष्य मृत्यु के भय से रहित हो जाता है, समस्त दुःखों (मेन्टल डिप्रेसन तनाव आदि) से मुक्त होकर चिर-शान्ति का अधिकारी बन जाता है तथा उसे मरणशील मानव-जीवन का एक निश्चित-लक्ष्य भी विदित हो जाता है। इसके अतिरिक्त यथार्थ ज्ञान मानव के अन्दर सहिष्णुता, सन्तोष, करुणा, दीनता आदि सदगुणों का विकास कर उसे पूर्ण रूप से उदार बना देता है - वह 'वसुधैव कुटुम्बकम की भावना ' में आरूढ़ हो जाता है। उस ज्ञानी पुरुष या ऋषि के पदचिन्हों का अनुसरण कर जो-जो व्यक्ति सिद्धिलाभ करते हैं (प्रमोद दा, बासु दा, रनेन दा …) उनके अन्दर भी वे सारे सदगुण विकसित हो जाते हैं।
प्रश्न - अच्छा, हम सभी को एक ही प्रकार का भ्रम क्यों और कैसे हुआ ? इतने व्यक्तियों को, सभी देश के लोगों को, इस प्रकार सभी विषयों में एक साथ एक ही प्रकार का भ्रम होना क्या आश्चर्यजनक नहीं है ? मैं जिसे (ब्रह्म नहीं) पशु-पक्षी (या नौकर) समझता हूँ, आप भी उसे पशु (नौकर या बेयरा ) ही समझते हैं, मनुष्य नहीं समझते; अन्यान्य विषयों में भी यही बात है। इसलिये आपका कथन सम्भव प्रतीत नहीं होता। 
उत्तर - इसके उत्तर में शास्त्रों का कहना है, कि अनेक व्यक्तियों को एक ही प्रकार का भ्रम होने पर भी भ्रम कभी सत्य नहीं होता। एक सीम अनन्त समष्टि-मन (महत्-तत्व) में जगत रूप कल्पना का उदय हुआ है। तुम्हारा, मेरा तथा प्रत्येक व्यक्ति का मन या व्यष्टि-मन उस विराट मन का अंश होने के कारण हम लोगों को एक ही प्रकार की कल्पना का अनुभव करना पड़ रहा है। और हममें से प्रत्येक व्यक्ति पशु को पशु के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में अपनी इच्छानुसार देखने या कल्पना करने में समर्थ नहीं हैं। हम लोगों में से कोई कोई मनःसंयोग की पद्धति को सीखकर साधना करके यथार्थ ज्ञान को प्राप्त कर सब प्रकार के भ्रमों से मुक्त हो जाते हैं, किन्तु दूसरे लोग जो आत्मश्रद्धा नहीं रखते वे स्वयं को केवल शरीर समझकर इन्द्रियभोगों में पड़े रहते हैं, वे जिंदगी भर भेंड़ होने के भ्रम को छोड़ नहीं पाते हैं। तुम सत्यद्र्ष्टा अल्पसंख्यक ऋषियों (नवनीदा, प्रमोददा आदि) को भी सामान्य मनुष्य मानने के लिये तैयार नहीं हो, इसीलिये तुम्हें यहाँ पर नियम का व्यतिक्रम दिखाई दे रहा है। और बार बार पूछते हो सबको एक ही प्रकार का भ्रम कैसे हुआ ?
विराट मन में जगत-कल्पना सतत विद्यमान रहने के कारण साधारण मानवों को एक-सा भ्रम होता रहता है, किन्तु उस कारण 'विराट-मन' कभी भ्रम में आबद्ध नहीं होता । जैसे श्रीरामकृष्ण कहते थे -" साँप के मुँह में विष रहता है, उसी मुँह से वह नित्य भोजन कर रहा है, किन्तु उससे साँप का कुछ नहीं बिगड़ता, किन्तु साँप जिसे काटता है, उसकी तो उस विष से तत्काल ही मृत्यु हो जाती है। " हमें यह बात सदा याद रखनी चाहिये कि ईश्वर सर्वज्ञ या अन्तर्यामी (ओमनीसिएंट) हैं, इसलिए अज्ञानजनित जगत-कल्पना (वर्ल्ड-फिक्शन) के भीतर तथा बाहर भी अद्वय ब्रह्मवस्तु (अपरिवर्तनशील ऐब्सलूट) को ही ओतप्रोत रूप से विद्यमान देखते हैंविराट-मन में जगतरूप कल्पना का उदय होने पर भी वे हमलोगों की तरह अज्ञान के बन्धन में पड़कर मृतक के समान जड़ नहीं हो जाते, जबकि हमलोग की दृष्टि अभी बदली नहीं है, इस लिए हम जगत को ब्रह्म-रूप में नहीं देख पाते हैं।
[जगत-कारण प्रकृति अनादि है, जगत-कल्पना या 'वर्ल्ड फिक्सन' देश-काल से परे है
हमारा व्यष्टि-मन दीर्घकाल से जगदातीत अद्वय ब्रह्मवस्तु के साक्षात् दर्शन से  वंचित रहा है, जिसके फलस्वरूप हम इस बात को बिल्कुल ही भूल चुके हैं कि यह जगत वास्तव में मनःकल्पित वस्तुमात्र है। देश व् काल अथवा 'नाम-रूप' दोनों पदार्थ जगत- कल्पना के ही घटक हैं- जिनके आभाव में किसी प्रकार की विचित्रता का सृजन नहीं हो सकता। हमारा व्यष्टि-मन समष्टि-मन के साथ अविच्छेद्य रूप से सम्बद्ध है, अतः यह जगत हमलोगों द्वारा भी मनःकल्पित ही सिद्ध होता है। और इस विश्व-कल्पना को लगातार देखते-देखते सत्य मानने लगते हैं, इसीलिये- 'मुझे मति-भ्रम हुआ है', इस सच्चाई को हम स्वीकार नहीं कर पाते हैं। क्योंकि पहले ही कहा जा चूका है कि यथार्थ वस्तु तथा अवस्था के साथ तुलना करने पर ही हम भीतर तथा बाहर के भ्रम को सर्वदा समझ पाने में समर्थ होते हैं। वेदों में सृजनशक्ति की आदिकारण स्वरूपा प्रकृति या माया को अनादि अर्थात कालातीत माना गया है। काल की कल्पना के साथ ही साथ जगत की कल्पना भी तदाश्रय विश्व-मन में विद्यमान है। 
" देश-कालातीत जगत्कारण के साथ 
     परिचित होने का प्रयास ही साधना है।"
इन्द्रियातीत या जगत से परे उस अपरिवर्तनशील वस्तु का आविष्कार करने का प्रयास मुख्यतः दो मार्गों से किया जाता है-'नेति,नेति' या ज्ञानमार्ग तथा 'इति,इति'-अर्थात भक्तिमार्ग 'नेति,नेति' मार्ग का लक्ष्य' - मैं कौन हूँ ? इस सत्य का आविष्कार करना है !  नित्यस्वरूप जगत्कारण 'यह नहीं है' 'वह नहीं है' - इस प्रकार विचारपूर्वक साधन मार्ग में अग्रसर हो साधक स्वल्पकाल में ही अन्तर्मुखी बन चुका था- उपनिषद इस बात का साक्षी है। उसने यह अनुभव किया था कि अन्य समस्त वस्तुओं की अपेक्षा अपनी देह तथा मन (2H) के द्वारा ही वह इस जगत साथ सम्बंधित हैं। अतः देह तथा मन  के सहारे जगत्कारण (Heart) के अन्वेषण में अग्रसर होने पर शीघ्र ही उसका पता लगने की सम्भावना है। साथ ही जिस प्रकार 'हंडी के एक चावल को देखने से ही मालूम हो जाता है कि भात अच्छी तरह से पक गया है या नहीं '-ठीक उसी प्रकार अपने अन्दर नित्य-कारण-स्वरुप का अनुसन्धान मिलते ही दूसरी वस्तु तथा व्यक्तियों में भी उसकी खोज मिल सकती है। इसलिए ज्ञानमार्ग के पथिकों के निकट - " मैं वास्तव में कौन हूँ ? " इस विषय का अनुसन्धान ही एकमात्र लक्ष्य बन जाता है। ज्ञानमार्ग के साधक प्रारम्भ से ही अविनाशी परमतत्व को अपना चरम लक्ष्य मानकर तीक्ष्ण बुद्धि के सहायता से उस दिशा में ज्ञानपूर्वक अग्रसर होता है। 
जबकि भक्तिमार्ग के साधक चरम-अवस्था में कहाँ पहुँचेंगे - इस विषय में बहुधा अनजान रहते हैं।  तथा उच्च से उच्चतर लक्ष्यों को ग्रहण करते हुए अन्त में नश्वर जगत से परे अविनाशी अद्वय वस्तु का वे साक्षात् परिचय प्राप्त कर लेते हैं। इन्द्रियगोचर जगत को सत्य मानकर विषय-भोगों में आसक्ति रखने की जो धारणा जन-साधारण में बनी रहती है -उस आसक्ति (लालच) को दोनों मार्ग के पथिकों को त्याग देना आवश्यक होता है। ज्ञान-मार्ग के पथिक प्रारम्भ से ही उसे पूर्णतया परित्याग करने का प्रयास करते हैं, जबकि भक्त प्रारम्भ में उसके कुछ अंशों को ही त्याग कर साधना में प्रवृत्त (संलग्न) होते हैं। किन्तु  किन्तु साधना के अन्त में ज्ञानी की तरह उन्हें भी नश्वर-जगत के भोगों का सम्पूर्ण रूप से परित्याग कर 'एकमेवाद्वितीयम् अविनाशी परमतत्व' में या 'शिव-ज्ञान से जीव-सेवा करने में' आसन्न होना पड़ता है।  
नित्य-परिवर्तनशील तथा निश्चित मरणशील मानव-जीवन में जगत की अनित्यता का ज्ञान यथा-समय सहज ही में आकर उपस्थित हो जाता है। अतः जगत-सम्बन्धी साधारण धारणा को त्याग कर 'नेति,नेति' मार्ग से जगत्कारण का आविष्कार करने का पथ प्राचीन युग में ऋषियों ने पहले आविष्कृत किया होगा -ऐसा प्रतीत होता है। भक्ति एवं ज्ञान ये दोनों मार्ग एक साथ प्रचलित रहने पर भी भक्तिमार्ग के विभिन्न प्रकारों की सम्पूर्ण परिपुष्टि होने के पूर्व ही उपनिषदों में ज्ञानमार्ग की सम्यक परिपुष्टि हुई थी।
जगत के सम्बन्ध में स्वार्थमय तथा एकमात्र इन्द्रिय-सुख में रचे-पचे रहने की साधारण धारणा के वर्जन को ही शास्त्रों में 'वैराग्य ' कहकर निर्देश किया गया है। जन्म-जन्म के संचित अभ्यास के फलस्वरूप जगत के बारे में हमारी धारणा तथा अनुभूति आदि ने वर्तमान आकार को धारण किया है। अब यदि कोई मनुष्य यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना चाहता है -तो उसे जगत के अन्तर्गत कथित नाम-रूप, देश-काल, मन-बुद्धि आदि सभी विषयों से परे -जो इन्द्रियातीत सत्य है, उससे परिचित होना पड़ेगा। इस परिचय (बुद्धि-पुरुष विवेक ) को प्राप्त करने के प्रयास को ही शास्त्रों में - 'साधन' कहा है, एवं जो स्त्री-पुरुष जाने-अनजाने इसी प्रयास में रत हैं, उसे भारत में 'साधक' कहा जाता है।  [ श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग-साधक और साधना १३४-१३५]
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शनिवार, 29 नवंबर 2014

१५.' परीक्षा और परिणाम ' १६." सीपियों की तरह होना होगा " [ " मनःसंयोग " लेखक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ]

 १५. परीक्षा और परिणाम

 (धारणा -२-तल्लीनता )
                     हम यह कैसे जानेंगे कि मन की दृष्टि उसी ध्येय वस्तु (आराध्य-आदर्श) पर पड़ रही है? इसकी पहचान यही है कि मन जब किसी वस्तु पर पुर्णतः एकाग्र रहता है, या तल्लीन (engrossed) हो जाता है, तो उस समय मन में अन्य कोई विचार उठता ही नहीं है। पहले से चयनित वह आदर्श ही मन के चिन्तन का एक मात्र विषय होता है। उस मूर्त आदर्श में जो उच्च-भाव हैं, बस उसी का चिन्तन चलता रहेगा। धीरे धीरे वे विचार स्पष्ट से स्पष्टतर होते जाते हैं और अन्य किसी तरह के विचार मन में नहीं उठते हैं। उस चयनित आदर्श के चिंतन में ही मन इतना तल्लीन (Engrossed) हो जाता है या डूब जाता है कि कितनी अवधि तक धारणा की गयी है, उसका पता ही नहीं चलता। नियमित रूप से इसी प्रकार थोड़ी देर तक लगातार एक ही विषय पर (विवेक-दर्शन पर ) मन को तल्लीन रखने में समर्थ होने से ही मनःसंयोग का अभ्यास करना कहा जाता है । 
                   इसी प्रकार प्रतिदिन दो बार, प्रातः और संध्या में 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करते रहने से धीरे-धीरे अपनी इच्छानुसार मन को किसी भी वस्तु या विषय पर एकाग्र किये रखने की क्षमता बढ़ती जाती है। इसके साथ ही साथ किसी भी इन्द्रिय विषय से मन को खींच लेने की क्षमता भी प्राप्त होती है, क्योंकि मैं अनवरत मन के ऊपर अपनी इच्छा-शक्ति का प्रयोग (विवेक-प्रयोग) करने का अभ्यास करता रहा हूँ,  इसीलिये इच्छामात्र से मन को बहुत सारी चीजों से खींच कर हमेशा अपने समक्ष एक अनुशासित 'अर्दली' या अपने सबसे अच्छे मित्र के रूप में हमेशा अपने समक्ष खड़ा रख सकता हूँ। अब वह मेरी आज्ञा के बिना किसी भी विषय में नहीं जा सकता है।  
                     'धारणा' के अभ्यास को -अर्थात बार बार मन को इन्द्रियविषयों से खींच कर,थोड़ी देर तक पूर्व-निर्धारित मूर्त आदर्श में तल्लीन रखने की चेष्टा को मन का व्यायाम भी कहा जा सकता है। जिस प्रकार शरीर के व्यायाम से शारीरिक शक्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है, उसी प्रकार मन के व्यायाम से मानसिक शक्ति भी बलवती होती जाती है। जिस प्रकार शरीर को शक्तिशाली बनाने के लिये  पौष्टिक आहार होते हैं, उसी प्रकार मन को भी शक्तिशाली बनाने का आहार होता है। निरंतर पवित्र विचार या शुभ-संकल्प से मन को भरे रखना वह मानसिक पुष्टि है, जो  मन को हृष्ट-पुष्ट बनाये रखता है। श्रेष्ठ साहित्य पढ़ने, अच्छी संगति में रहने, शास्त्रार्थ या रचनात्मक विचारों का आदान-प्रदान तथा उच्च भावों का चिन्तन करने से मन को पौष्टिक आहार प्राप्त होता है। इसके साथ-साथ प्रतिदिन दो बार मन का व्यायाम अर्थात 'प्रत्याहार और धारणा' का नियमित अभ्यास करने से भी मन उन्नत और शक्तिशाली बनता है। 
                   ऐसे शक्तिशाली मन को यदि संयमित करके वशीभूत कर लिया जाय तो उसके द्वारा सभी कार्यों में सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। जिस व्यक्ति ने मन की गुलामी करनी छोड़ दी हो, जो स्वयं अपने मन का प्रभु हो गया हो,अर्थात जिसने अपने मन को जीत लिया है, उसने वस्तुतः जगत को जीत लिया है। वह कहीं भी और कभी भी पराजित नहीं होता, क्योंकि वह मन की अनन्त शक्ति का अधिकारी बन जाता है। 
            अब वह जिस किसी विषय में अपना मनोनिवेश करगा, वह विषय उसे पुरी तरह से ज्ञात हो जाएगा। इस वशीभूत मन की शक्ति की सहायता से हम अपने जीवन के उद्देश्य या लक्ष्य का चयन कर सकते हैं, तथा उस लक्ष्य को प्राप्त करने के उपयुक्त उपायों पर मनोनिवेश करने से, उस लक्ष्य को साधकर अपने जीवन को सार्थक या कृतार्थ कर सकते हैं। अपने वशीभूत मन की शक्ति का प्रयोग कर अपने चरित्र और जीवन को सुंदर रूप से गठित कर सकते हैं। इस प्रकार मनः संयोग का अभ्यास करने से कोई भी व्यक्ति इसी जीवन में यथार्थ सुख, शान्ति और आनन्द का अधिकारी बन सकता है।
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 ।।देशबंधश्चितस्य धारणा।।-पतंजलि - अर्थात चित्त का देश विशेष में बँध जाना (perception या अनुभूति जन्य अभिज्ञता ) ही धारणा  है। 

              " एक विचार लो, उस विचार को अपना जीवन बना लो - उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जीओ। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो, और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो। यही सिद्ध होने का तरीका है। ---स्वामी विवेकानन्द
जिस व्यक्ति को धारणा में सिद्ध प्राप्त हो जाती है, कहते हैं कि ऐसा योगी अपनी सोच या संकल्प मात्र से सब कुछ बदल सकता है। ऐसे ही योगी के आशीर्वाद या शाप फलित होते हैं। इस अवस्था में मन पूरी तरह स्थिर तथा शांत रहता है। जैसे क‍ि बाण के कमान से छूटने के पूर्व, कुछ देर के लिए लक्ष्य पर निगाहें बिल्कुल स्थिर हो जाती हैं, ठीक उसी तरह योगी के मन की अवस्था हो चलती है।  जबकि उसके एक तरफ संसार होता है तो दूसरी तरफ रहस्य का सागर रूपी लक्ष्य (अन्तर्निहित ब्रह्मत्व) पर नजर रहती है । यह मन के बंधन से मुक्ति - भ्रम या सम्मोहन से मुक्ति, या सिंह-शावक के भेंड़त्व की मान्यता से मुक्ति, या देहाध्यास के सम्मोहन से डीहिप्नोटाइज्ड हो जाने की शुरुआत भी है। क्योंकि अष्टावक्र संहिता (१/११)  में कहा गया है - - 'या मति सा गतिर्भवेत ! ('मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि। किवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत्॥१-११॥ स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है कि जैसी बुद्धि होती है वैसी ही गति होती है॥११॥)  धारणा सिद्ध व्यक्ति की पहचान यह है कि उसकी निगाहें स्थिर रहती है। ऐसे चित्त की शक्ति बढ़ जाती है, फिर वह जो भी सोचता है वह घटित होने लगता है। 

                          धारणा से ही कठिन परीक्षा और सावधानी की शुरुआत होती है। यहीं से धर्म मार्ग का कठिन रास्ता शुरू होता है, जबकि साधक को हिम्मत करके और आगे रहस्य के संसार में कदम रखना होता है। कहते हैं कि यहाँ तक पहुँचने के बाद पुन: संसार में पड़ जाने से दुर्गति हो जाती है। ऐसे व्यक्ति को योगभ्रष्ट कहा जाता है, अब पीछे लौटना याने जान को जोखिम में डालना ही होगा। कहते हैं कि छोटी-मोटी जगह से गिरने पर छोटी चोट ही लगती है, लेकिन पहाड़ पर से गिरोगे तो भाग्य या भगवान भरोसे ही समझो। इसलिए 'जरा बच के'। यह बात उनके लिए भी जो योग की साधना कर रहे हैं और यह बात उनके लिए भी जो जाने-अनजाने किसी 'धारणा सिद्ध योगी' का उपहास उड़ाते रहते हैं। कहीं उसकी टेढ़ी नजर आप पर न पड़ जाए।
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१६." सीपियों की तरह होना होगा "

                 विवेकानन्द जी कहते हैं - " जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरूपतः नित्य-पूर्ण और नित्य-शुद्ध है, तब उसको फ़िर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फ़िर मृत्यु-भय नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनाएं फ़िर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारणद्वय का आभाव हो जाने पर फ़िर कोई दुःख नहीं रह जाता। उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है।"(१:४० ) 

                    " भारतवर्ष में एक सुंदर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुन्गस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बूंद किसी सीपी में चली जाय, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह बात मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की ऊपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बूंद की प्रतीक्षा करती रहती है। ज्यों ही एक बूंद पानी उनके पेट में जाता है, त्यों ही उस जलकण को लेकर मुंह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और  वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं।"

हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा। पहले सुनना होगा, फ़िर समझना होगा, अन्त में बाहरी संसार से दृष्टि हटाकर, सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर हमें अन्तर्निहित सत्य-तत्त्व के विकास के लिए प्रयत्न करना होगा। 

              एक भाव को पकडो, उसी को लेकर रहो। उसका अन्त देखे बिना उसे मत छोड़ो। जो एक भाव को लेकर उसी में मत्त रहते हैं, उन्हीं के ह्रदय में सत्य तत्त्व का उन्मेष होता है।...एक विचार लो उसी विचार को अपना जीवन बनाओ उसी का चिंतन करो, उसी का स्वप्न देखो और उसी में जीवन बिताओ। सब प्रकार की बकवास छोड़ दो। जिन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है, केवल उन्हीं के लिखे ग्रन्थ पढो। यदि हम सचमुच स्वयं कृतार्थ होना और दूसरों का उद्धार करना (Be and Make?)  चाहें, तो हमे मन की गहराई तक जाना पड़ेगा। पुरी लगन के साथ, कमर कसकर साधना में लग जाओ- फ़िर मृत्यु भी आये, तो क्या ! मन्त्रं वा साधयामि शरीरं वा पातयामि - काम सधे या प्राण ही जायें। फल की ओर आँख रखे बिना साधना में मग्न हो जाओ! " (१:८९-९०)
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ओशो कहते हैं - " वही आदमी प्रेम करता है, जो बस प्रेम करता है और किस-से ? का कोई सवाल नहीं है। क्योंकि जो आदमी ‘किसी से’ प्रेम करता है, वह शेष से क्या करेगा? वह शेष के प्रति घृणा से भरा होगा। जो आदमी ‘किसी का ध्यान’ करता है, वह शेष के प्रति क्या करेगा?"