२. इसलिये यह सोचना कि- 'तुम एक पापी हो,' इस प्रकार के किसी दुर्बलता को अपने मन में उठने न दो!
" पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के रंग में रंगे व्यक्ति(यूरोपियनाइज्ड मनुष्य ) में रीढ़ की हड्डी ही नहीं होती, वह इधर-उधर के विभिन्न स्रोतों से संगृहीत विरोधाभासी विचारों की गठरी होता है। वह (अपने महान पूर्वजों या ऋषियों के महावाक्यों से अपरिचित रहता है, इसलिये ) अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता, उसका सिर हमेशा चक्कर खया करता है। वह जो मूर्ति-पूजा को कोसता रहता है, या अपने शास्त्रों की खिल्ली उड़ाया करता है, उसके तह में गोरी चमड़ी वालों से (आजकल टाई-सूट धारी उच्च पदाधिकारियों से) थोड़ी शाबाशी पाने की इच्छा ही उसके तथाकथित समाज-सेवा की प्रेरक शक्ति होती है। मैं ऐसी दिखावटी समाज-सेवा का समर्थन नहीं कर सकता।
" पर-मुखापेक्षी न बनो, अपने ही बल पर खड़े रहो- चाहे जीवित रहो या मर जाओ। यदि जगत में कोई पाप है, तो वह है दुर्बलता। दुर्बलता ही मृत्यु है, दुर्बलता ही पाप है, इसीलिये सब प्रकार की दुर्बलताओं (दूसरों की नकल करने और परमुखापेक्षी होने) का त्याग कर दो। ये असन्तुलित प्राणी (यूरोपीय क्लबों के गोल्फर्स) अभी तक निश्चित व्यक्तित्व में अपने जीवन को गठित नहीं कर सके हैं; हम उन्हें (बाढराओं) को किस नाम से पुकारें -मनुष्य या पशु ? (रामनाड स्वागत भाषण का उत्तर : ५/४७ का भावानुवाद)
Stand and die in your own strength, if there is any sin in the
world, it is weakness; avoid all weakness, for weakness is sin, weakness
is death.These unbalanced creatures are not yet formed into distinct personalities; what are we to call them - men, women, or animals? (REPLY TO THE ADDRESS OF WELCOME AT RAMNAD)
३. (आमरा मायेर छेले ! इसलिये) " वह शक्ति जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड (ग्रह-नक्षत्रों) को संचालित करती है - हमें पहले से प्राप्त है ! हम लोग स्वयं ही अपने नेत्रों पर हाथ रखकर चीत्कार करते हैं- बड़ा अन्धेरा है, बड़ा अन्धेरा है। जान लो कि हमारे चारों ओर कोई अन्धकार नहीं है। हाथ हटा लेने पर ही तुम देखोगे कि वहाँ प्रकाश पहले से ही वर्तमान था। ' Darkness never existed, weakness never existed.'
अन्धकार कभी था ही नहीं, दुर्बलता कभी थी ही नहीं। हम लोग मुर्ख होने के कारण चिल्लाते हैं कि हम दुर्बल हैं, मूर्खतावश ही हम चिल्लाते हैं कि हम अपवित्र हैं। जिस क्षण तुम कहते हो, ' मैं तो क्षुद्र मरणधर्मा शरीर मात्र हूँ' (I am a little mortal being)--तुम झूठ बोलते हो; यही बोल बोल कर, सोच सोच कर - तुमने मानो स्वयं सम्मोहित कर रखा है, और अपने को अधम, दुर्बल, अभागा न जाने क्या क्या बना डालते हो! "
(व्यावहारिक जीवन में वेदान्त-१ वि० सा० ख० ८/ ७)
४. " जितनी अधिक मेरी आयु होती जाती है, उतना ही अधिक मुझे लगता है कि 'पौरुष' ( बहादुरी manliness) में सभी बातें शामिल हैं। यह मेरा नया संदेश (सिद्धान्त या महावाक्य-Gospel ) है। " (१६.सूक्तियाँ एवं सुभाषित ८/१३०)
"The older I grow, the more everything seems to me to lie in manliness. This is my new gospel."(Sayings and Utterances-16.)
५. " पाश्चात्य देश वाले वहाँ इस बात की चेष्टा कर रहे हैं कि मनुष्य अधिक से अधिक कितना विभव संग्रह कर सकता है, और यहाँ हम लोग इस बात की चेष्टा करते हैं कि कम से कम कितने में हमारा काम चल सकता है ? (साईं इतना दीजिये जा में कुटुंब समाय, मैं भी भूखा या ac …… में जाय ! ) यह द्वन्द्वयुद्ध यह पार्थक्य अभी सदियों तक जारी रहेगा।
परन्तु यदि इतिहास में कुछ सत्यता है और वर्तमान को देखकर भविष्य का कुछ आभास अवश्य मिलता है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जो व्यक्ति या देश वर्तमान में केवल भोग-विलास और ऐश्वर्य के उपासक हैं, वे चाहे इस समय कितने ही बलशाली और धनाड्य क्यों न प्रतीत हो रहे हों, अन्त में अवश्य विनष्ट हो जायेंगे तथा संसार से विलुप्त भी हो जायेंगे।
पाश्चात्य देशों में भी ऐसे बहुत से विचारशील और विवेचनशील महान व्यक्ति हैं, जो धन और बाहुबल की इस घुड़दौड़ को बिल्कुल अनावश्यक और मिथ्या समझने लगे हैं। वहाँ के अधिकांश शिक्षित स्त्री-पुरुष, अब इस होड़ से, इस प्रतिद्वन्तविता से ऊब गये हैं। वे अपनी इस व्यापार-वाणिज्यिक सभ्यता (commercial civilisation) की पाशविकता से तंग आ चुके हैं, उनकी धारणा बदल रही है, उनका आदर्श परिवर्तित हो रहा है, और अब वे कोई बेहतर वस्तु पाने की दिशा भारत की और देख रहे हैं।
वे अच्छी तरह से समझ गये हैं कि चाहे जैसी भी राजनीतिक या सामाजिक उन्नति क्यों न हो जाये, उससे मनुष्य-जीवन की बुराइयाँ (दिल्ली की निर्भया और यूपी की बदायूँ जैसी घटनायें) दूर नहीं हो सकतीं। उन्नततर जीवन के लिये मनुष्य के तीनों प्रमुख अवयव (3H) 'शरीर (Hand) मन (Head) और ह्रदय (Heart)' में आमूल-चूल परिवर्तन लाने की आवश्यकता है; केवल इसी से मानव-जीवन का सुधार सम्भव है। चाहे जैसी बड़ी से बड़ी शक्ति का प्रयोग किया जाय (यूपी में धारा ३५६ लगाकर चाचा-भतीजे की सरकार को भंग कर दिया जाय), और चाहे कड़े से कड़े कायदे-कानून का आविष्कार ही क्यों न किया जाय, पर इससे भी किसी (राज्य या) राष्ट्र की दशा बदली बदली नहीं जा सकती। समाज या जाति की असद-वृत्तियों (wrong racial
tendencies) को सद-वृत्तियों में मोड़ने की शक्ति केवल आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति में ही है; और यह कार्य केवल - 'राष्ट्र के चरित्र-निर्माण' द्वारा ही सम्भव है !" ५/७९
ऋषि-सिद्धान्त या महावाक्य है - ' एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति'; अर्थात वास्तव में संसार में एक ही वस्तु (ईश्वर या आत्मा) है, ज्ञानी लोग उसी एक वस्तु का नाना रूपों मे वर्णन करते हैं। ओर दुनिया भर के आचारशास्त्रों (जीवन-गठन, चरित्र-निर्माण, मनुष्य-निर्माण पद्धतियों) की नींव इस सनातन आत्मतत्व के सिवा और क्या हो सकती है? आत्मा का अनन्त एकत्व ही सब तरह के नैतिक आचरण की नींव होती है। ५/८५
जब मैं अमेरिका मे था, तब कई बार लोगों ने मेरे ऊपर यह अभियोग लगाया था कि मैं द्वैतवाद पर विशेष ज़ोर नहीं देता, केवल अद्वैतवाद का ही प्रचार किया करता हूँ। द्वैतवाद की अपूर्व महिमा को मैं भली भाँति समझता हूँ, प्रेम, भक्ति और उपासना में कैसा अपूर्व आनन्द प्राप्त होता है, यह मैं जानता हूँ। परंतु भाइयो ! अभी हमारे आनन्द से पुलकित होकर प्रेमाश्रु बरसाने का समय नहीं है। इस समय एचएम लोगों के पास कोमल भाव धारण करने का समय नहीं है।
हमारे देश के लिये इस समय आवश्यकता है, लोहे की तरह ठोस मांस-पेशियों और मजबूत स्नायुवाले शरीरों की। आवश्यकता मन को इतना दृढ़ इच्छा-शक्तिसम्पन्न बना लेने की कि कोई उसका प्रतिरोध करने में समर्थ न हो। आवश्यकता है ऐसी अदम्य इच्छा-शक्ति की, जो ब्रह्माण्ड के सारे रहस्यों को भेद सकती हो। यदि यह कार्य करने के लिये अथाह समुद्र की तली तक भी जाना पड़े, इस प्रयास में सब तरह से मौत का ही सामना क्यों न करना पड़े, तो भी हमें यह काम करना ही पड़ेगा।
" Faith, faith, faith in ourselves,
faith, faith in God — this is the secret of greatness." श्रद्धा श्रद्धा ! अपने आप पर श्रद्धा, परमात्मा में श्रद्धा, यही महानता का एकमात्र रहस्य है! यदि पुराणों में कहे गये तैंतीस करोड़ देवताओं के ऊपर, और विदेशियों ने बीच बीच में जिन देवताओं (साईं बाबाओं) को तुम्हारे बीच घुसा दिया है उन सब पर भी, यदि तुम्हारी श्रद्धा हो, पर अपने आप पर श्रद्धा न हो, तो तुम कदापि मोक्ष (मूँछ रखने के भी) के अधिकारी नहीं हो सकते। अपने आप पर श्रद्धा करना सीखो ! इसी आत्मश्रद्धा के बल से अपने पैरों आप खड़े होओ, और शक्तिशाली बनो! इस समय हमें इसीकी आवश्यकता है, हम सवा सौ करोड़ भारतवासी हजारों वर्ष से मुट्ठी भर विदेशियों (आजादी के बाद इटली) के द्वारा शासित और पददलित क्यों हैं ? … हमने अपनी आत्मश्रद्धा खो दी है। इसीलिये अब वेदान्त के अद्वैतवाद के भावों का प्रचार करने की आवश्यकता है, ताकि लोगों के ह्रदय आलोकित हो जाएँ, और वे अपनी आत्मा की महत्ता समझ सकें। इसीलिये मैं अद्वैतवाद का प्रचार करता हूँ।" (५/८६Lectures from Colombo to Almora:The mission of the Vedanta )
६. 'If you think yourselves strong, strong you will be.'यदि तुम अपने को वीर्यमान सोचोगे तो वीर्यमान बन जाओगे। VEDANTISM: The following address of welcome from the Hindus of Jaffna was presented to Swami Vivekananda:
वेदान्त
जाफना में तमिल हिन्दुओं के सम्मुख दिया गये भाषण के कुछ अंश - " हम देखते हैं कि जगत में पक्षपात (partiality) है। कोई मनुष्य जन्मसुखी है, तो दूसरा जन्मदुःखी, एक धनी है तो दूसरा ग़रीब। फिर यहाँ निष्ठुरता भी है, क्योंकि यहाँ एक का जीवन दूसरे की मृत्यु के उपर निर्भर करता है। हर एक मनुष्य अपने भाई का गला दबाने की चेष्टा करता है। यह निष्ठुरता, प्रतिद्वन्द्विता, घोर अत्याचार (हत्या-अपहरण-बलात्कार), और दिन रात की आह, जिसे सुन सुन कर कलेजा फट जाता है --यही हमारे संसार (भारत का ?) का हाल है।
यदि यही ईश्वर की सृष्टि हुई तो वह ईश्वर निष्ठुर से भी बदतर है, उस शैतान से भी गया गुजरा है जिसकी मनुष्य ने कभी कल्पना की हो। वेदान्त कहता है कि यह ईश्वर का दोष नहीं है। तो दोष किसका है ? स्वयं हमारा। कैसे ? एक बादल सभी खेतों पर समान रूप से पानी बरसाता रहता है। पर जो खेत अच्छी तरह जोत हुआ है वही इस वर्षा का लाभ उठाता है। एक खेत जो जोत नहीं गया, या जिसकी बुआई-निकाई नहीं की गयी, उस वर्षा से लाभ नहीं उठा सकता। यह बादल का दोष नहीं। ईश्वर की कृपा तो तो नित्य और अपरिवर्तनीय है; हमीं लोग वैषम्य के कारण हैं।
लेकिन कोई जन्म से ही सुखी और दूसरा दुःखी, फिर इस वैषम्य का क्या कारण हो सकता है ? वे तो ऐसा कुछ नहीं करते जिससे यह वैषम्य उत्पन्न हो। उत्तर यह है कि इस जन्म में न सही, पूर्व जन्म में उन्होंने अवश्य किया होगा, और यह वैषम्य पूर्व जन्म के कर्मों के कारण हुआ है। भला हो चाहे बुरा, मनुष्य यहाँ अपने पूर्वकृत कर्मों का फल भोगने आता है। उसी से इस वैषम्य की सृष्टि हुई है। यही कर्म-विधान (The law of Karma) है। हममें से प्रत्येक मनुष्य अपना अपना अदृष्ट (fate) गढ़ रहा है। हम, हमी लोग अपने फलभोगों के लिये जिम्मेदार हैं, दूसरा कोई नहीं। हमीं कार्य (effects) हैं, और हमीं कारण (causes)। अतः हम स्वतंत्र हैं। यदि मैं दुःखी हूँ तो यह अपने किये का फल है और उसी से सिद्ध हो जाता है कि यदि मैं चाहूँ तो सुखी भी हो सकता हूँ। यदि मैं अभी अपवित्र हूँ तो वह भी मेरा अपना ही किया हुआ है, और उसी से ज्ञात होता है कि यदि मैं चाहूँ तो पवित्र भी हो सकता हूँ। मनुष्य की इच्छाशक्ति ( human will) किसी भी परिस्थिति (circumstance) के अधीन नहीं। इसके सामने -- मनुष्य की प्रबल, विराट, अनन्त इच्छाशक्ति और स्वतंत्रता (infinite will and freedom) के सामने --सभी शक्तियाँ यहाँ तक कि प्राकृतिक शक्तियाँ भी झुक जायेंगी, दब जायेंगी और इसकी गुलामी करेंगी । यही कर्म-विधान का फल है।
जो लोग अंग्रेजी भाषा का अध्यन करते हैं, उन्हें प्रायः ' Soul and Mind ' (आत्मा और मन) का अर्थ करने में भ्रम हो जाता है। संस्कृत शब्द 'आत्मा' और अंग्रेजी शब्द 'सोल' ये दोनों शब्द पूर्णतः भिन्नार्थ-वाचक हैं। हम जिसे 'मन' कहते हैं, पश्चिम के लोग उसी को 'सोल' समझते हैं। पश्चिम देश वालों को आत्मा का यथार्थ ज्ञान पहले कभी नहीं था, कोई बीस वर्ष हुए संस्कृत दर्शन-शास्त्रों से यह ज्ञान उन्हें प्राप्त हुआ है।
हमारा यह स्थूल शरीर (इसका रूप-रंग या आकार चाहे जैसा भी क्यों न हो) है, इसके पीछे मन है, किन्तु यह मन आत्मा नहीं है। यह सूक्ष्म शरीर (inner man ) है- सूक्ष्म तन्मात्राओं (
fine particles) का बना हुआ है। यही जन्म और मृत्यु के फेर में पड़ा हुआ है। परन्तु मन के पीछे है आत्मा --मनुष्य की यथार्थ सत्ता। इस आत्मा शब्द का अनुवाद 'सोल' या 'माइण्ड' नहीं हो सकता। ' Atman is separate from the mind, as well as from the body ' स्थूल शरीर तथा मन (सूक्ष्म-शरीर) दोनों जड़ हैं- शाश्वत चैतन्य आत्मा से पृथक हैं । इस सूक्ष्म-शरीर या मन के साथ अपना तादात्म्य किया हुआ आत्मा 'देहाध्यास' के कारण, एक शरीर के बाद दूसरे शरीर को ग्रहण करता रहता है, या जन्म और मृत्यु के चक्र में घूम रहा है। ' And when the time comes ' --और जब (आत्मसाक्षातकर का) समय आता है; उसे सर्वज्ञता तथा पूर्णत्व प्राप्त होता है, तब यह जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है। फिर वह स्वतंत्र होकर चाहे तो मन या सूक्ष्म शरीर को रख सकता है, अथवा उसका त्याग कर चिरकाल के लिये स्वाधीन और मुक्त रह सकता है। जीवात्मा का लक्ष्य मुक्ति ही है। ५/२६
हमारे शास्त्रों में परमात्मा के दो रूप कहे गये हैं- सगुण (the personal) और निर्गुण (the impersonal)। वह निर्गुण और सर्वव्यापी पुरुष ज्ञानवान नहीं कहा जा सकता; क्योंकि ज्ञान मानव मन का धर्म है। वह चिन्तनशील नहीं कहा जा सकता; क्योंकि चिन्तन ससीम जीवों के ज्ञानलाभ का उपाय मात्र है। वह सृष्टिकर्ता भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि जो बंधन में है --वही सृष्टि की ओर प्रवृत्त होता है। उसका बंधन क्या हो सकता है? कोई बिना प्रयोजन के कोई काम नहीं कर सकता, उसे फिर प्रयोजन क्या है ? कामना पूर्ति के लिये ही सब कार्य करते हैं। उन्हें क्या कामना है ?
वेद में निर्गुण ब्रह्म के लिये ' सः ' शब्द का प्रयोग नहीं किया गया; 'सः' शब्द द्वारा निर्देश न करके ब्रह्म का निर्गुण भाव समझाने के लिये 'तत्' शब्द द्वारा उसका निर्देश किया गया है। ' सः ' शब्द के कहे जाने से वह व्यक्तिविशेष हो जाता, इसके कारण जीव-जगत के साथ उसका सम्पूर्ण पार्थक्य सूचित हो जाता है। इसलिये निर्गुणवाचक ' तत् ' शब्द का प्रयोग किया गया है और 'तत्' शब्द से निर्गुण ब्रह्म का प्रचार हुआ है। इसीको अद्वैतवाद कहते हैं। इस निर्गुण पुरुष के साथ हमारा क्या संबंध है ? यह कि हम उससे अभिन्न हैं, वह और हम एक हैं। हर एक मनुष्य 'उसी' समस्त प्राणियों का मूल कारण -निर्गुण पुरुष की अलग अलग अभिव्यक्ति है। जब हम इस अनन्त और निर्गुण पुरुष से अपने को पृथक सोचते हैं तभी हमारे दुःख की उत्पत्ति होती है और इस अनिवर्चनीय प्रेम स्वरुप निर्गुण सत्ता के साथ अभेद ज्ञान ही मुक्ति है।
निर्गुण ब्रह्मवाद हमें सिखाता है कि सभी मनुष्यों को आत्मवत प्रेम करना चाहिये। यह तुम तभी समझोगे, जब तुम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की एकात्मकता, विश्व की एकता और जीवन के अखण्डत्व का अनुभव करोगे--जब तुम संजोगे कि दूसरे को प्यार करना अपने को ही प्यार करना है--दूसरों को हानि पहुँचाना अपनी ही हानि करना है। तभी हम समझेंगे कि दूसरे का अहित करना क्यों अनुचित है। अतएव, यह निर्गुण ब्रह्मवाद ही आचरण-शास्त्र का मूल कारण माना जा सकता है। ' मैं ही वह निर्गुण ब्रह्म हूँ '--इस ज्ञान के सहारे अपने ही पैरों पर खड़े होने से ह्रदय में कैसी अद्भुत शक्ति भर जाती है।
और फिर भय ? मुझे किसका भय है ? मैं प्रकृति के नियमों की भी परवाह नहीं करता। मृत्यु मेरे निकट उपहास है। मनुष्य तब उसी आत्मा की महिमा में प्रतिष्ठित हो जाता है, जो असीम,अनन्त है, अविनाशी है, जिसे कोई शस्त्र छेड़ नहीं सकता, आग जला नहीं सकती, जल गिला नहीं कर सकता, वायु सुखा नहीं सकती--जो जन्म-मृत्यु रहित है, तथा जिसकी महत्ता के सामने सूर्यचन्द्रआदि , यहाँ तक कि सारा ब्रह्माण्ड सिन्धु में बिन्दु तुल्य प्रतीत होता है, --जिसकी महत्ता के सामने (space melts away into nothingness and time vanishes into non-existence.) देश और काल का भी अस्तित्व लुप्त हो जाता है।
हमें अपने इसी सच्चे स्वरुप पर, इसी महामहिम आत्मा पर विश्वास करना होगा। इसी इच्छा ('will ') से शक्ति ('power') प्राप्त होगी ! तुम जो कुछ सोचोगे, तुम वही हो जाओगे; यदि तुम अपने को दुर्बल समझोगे, तो तुम दुर्बल हो जाओगे; " if you think yourselves strong, strong you will be' यदि तुम अपने को वीर्यमान सोचोगे तो वीर्यमान बन जाओगे। यदि तुम अपने को अपवित्र सोचोगे तो तुम अपवित्र हो जाओगे; अपने को शुद्ध सोचोगे तो शुद्ध हो जाओगे। इससे हमको यही शिक्षा मिलती है कि एचएम अपने को कमजोर न समझें, प्रत्युत अपने को वीर्यवान, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ मानें। बिल्कुल बचपन से ही बच्चों को बलवान बनाओ--उन्हें दुर्बलता या किसी बाहरी अनुष्ठान कि शिक्षा न दी जाय। वे तेजस्वी हों, अपने ही पैरों पर खड़े हों सकें --साहसी, सर्वविजयी, सब कुछ सहने वाले हों; किन्तु सबसे पहले उन्हें आत्मा (या feeling faculty of Heart) की महिमा की शिक्षा मिलनी चाहिये। यह शिक्षा वेदान्त में--केवल वेदान्त में प्राप्त होगी। केवल वेदान्त के महावाक्यों मे ही वह महान तत्व है जिससे सारे संसार के भावजगत में क्रान्ति आ जायगी ओर भौतिक जगत के ज्ञान के साथ धर्म का सामंजस्य स्थापित होगा।
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७." अपने 'आप ' में विश्वास रखो --सब 'शक्ति ' तुममें है--इसके प्रति सचेत हो जाओ और उसे प्रकाशित करो। शिक्षा वही सार्थक सिद्ध होती है जो हमारे भीतर की उस छिपी शक्ति को बाहर लाने में मदद करे ! उठो ! जागो ! जानकर लोगों के पास जाकर उस शिक्षा को प्राप्त करो, और कहो, " मैं सब कुछ कर सकता हूँ !" न्यूयार्क से २५ सितम्बर, १८९४ को गुरुभाइयों के लिये बंगला में लिखित पत्र का हिन्दी अनुवाद : कुछ मुख्य अंश
कल्याणीय,
तुम लोगों के कई पत्र मिले। शशि आदि जो तहलका मचाये हुए हैं, यह जानकर मुझे बड़ी ख़ुशी होती है। हमें तहलका मचाना ही होगा, इससे कम में किसी तरह नहीं चल सकता। इस तरह सारी दुनिया में प्रलय मच जायगी, ' वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरु जी की फ़तेह !'
"श्रेयांसि बहुविघ्नानि "
-- अरे भाई, महान उपक्रमों में कितने ही विघ्न आते हैं --उन्हीं विघ्नों की रेल-पेल में कर्मियों का महान चरित्र गठित हो जाता है, इस प्रकार समाज में यथार्थ मनुष्यों की संख्या बढ़ती जाती है। सभी कामों में एक दल वाहवाही देता है, तो दूसरा नुक्स निकालता है। अपना काम करते जाओ, किसीकी बात का जवाब देने से क्या लाभ ?
" सत्यमेव जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयानः।
येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम् ।।"
(मुण्डक ३.१.६)
- अर्थात अन्ततः सत्य (परमात्मा) की ही जय होती है न कि असत्य की। अनृत - असत् (माया)
तात्कालिक है उसकी उपस्थिति भ्रम है। वह भासित सत्य है वास्तव में वह असत
है अतः वह विजयी नहीं हो सकता. ईश्वरीय मार्ग सदा सत् से परिपूर्ण है। यही वह मार्ग है जिससे
होकर आप्तकाम (पूर्ण काम ऋषि लोग, जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) मानव जीवन के चरम लक्ष्य
को प्राप्त करते हैं। वे जिस
मार्ग से गमन करते हैं वह सत्यस्वरूप परमात्मा का धाम
है।
[ सत्यमेव जयते (= सत्यं एव जयते) भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य है. इसका अर्थ है : सत्य की ही विजय होती है। यह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे देवनागरी लिपि में अंकित है।चेक गणराज्य और इसके पूर्ववर्ती चेकोस्लोवाकिया का आदर्श वाक्य "प्रावदा विजीते " ("सत्य जीतता है") का भी समान अर्थ है।
'सत्यमेव जयते' को राष्ट्रपटल पर लाने और उसका प्रचार करने में मदन मोहन मालवीय (विशेषतः कांग्रेस के सभापति के रूप में उनके द्वितीय कार्यकाल (१९१८) में) की महत्वपूर्ण भूमिका रही। वेदान्त एवम दर्शन ग्रंथों में जगह जगह सत् असत् का प्रयोग हुआ है।
सत्
शब्द उसके लिए आया है जो सृष्टि का मूल तत्त्व है, सदा है, जो परिवर्तित
नहीं होता, जो निश्चित है. इस सत् तत्त्व को ब्रह्म अथवा परमात्मा कहा गया
है। असत शब्द का प्रयोग माया के लिए हुआ है. असत् उसे कहा है जो कल नहीं
था, आज है, कल नहीं रहेगा अर्थात जो विनाशशील है, परिवर्तन शील है. यहाँ
असत् का अर्थ झूठ नहीं है। नीति ग्रंथो में सत् असत् सांसारिक सच झूठ के
लिए प्रयुक्त हुआ है।
"सत्यमेव जयते" वेदवाक्य, के निहितार्थ को आत्मसात करते हुए सत्यनिष्ठा के
साथ पद की शपथ लेने वाले 'जनसेवकों' से पूछिए, कि क्या आप सत्यनिष्ठा के रहस्य
को जानते है? वास्तव में यह वेदवाक्य मन का
रंजन नहीं कर सकता, बल्कि आत्मानुभूति कराता है।'सत्यं वद, धर्मं चर', याद करने के नहीं, धारण करने के मंत्र हैं। ‘सत्य बोलो, प्रिय बोलो किंतु अप्रिय सत्य तथा प्रिय असत्य मत बोलो।’ इसका अर्थ स्पष्ट करते हुए बाबा तुलसी ने स्पष्ट कर दिया-
‘‘सचिव वैद गुरु तीन जो प्रिय बोलें भय आश।
राज धर्म तन तीन कर होय वेग ही नाश।।’’
सचिव यदि प्रिय बोले तो राज्य,
बैद्य यदि प्रिय बोले तो शरीर और गुरू यदि प्रिय बोले तो धर्म का नाश
निश्चित है। मितभाषी ही सत्यवादी होता है। साधक दीर्घकाल मौन साधना करता है जब मुंह से
कोई शब्द निकलता तो वह सत् रूप ब्रह्मवाक्य होता है। वही प्रिय सत्य कहा
गया है। सत्यनिष्ठा की अजस्र ऊर्जा शक्ति मितभाषी सत्यनिष्ठ साधक की
रिद्धि-सिद्धि संपन्नता को प्रकट करता है।
अष्टांग योग प्रथमांग यम का प्रथम चरण ही सत् है, सत् पर केंद्रित होने की
दशा में ही ‘योगश्चित्त वृत्तिः निरोधः’ सद्बुद्धि ही चित्तवृत्तियों को
नियंत्रित करती है। अन्तःचतुष्टय में बुद्धि के बाद चित्त, अहंकार में
ब्रह्मरूपी सत् समावेश होते ही मन पर नियंत्रण पाया जा सकता है। मन (सूक्ष्म शरीर) पर
केंद्रित हैं, कामनायें। जो इन्द्रियों की अभिरुचि के आधार पर प्रस्फुटित
होती है। कामनाओं का मकड़जाल ही तृष्णा है। संतोष रूपी परमसुख से तृष्णा का
मकड़जाल टूटता है। मन द्वारा कामनाओं के शांत हो जाने से आचरण नियंत्रित
हो जाता है। ‘‘आचारः परमो धर्मः’’ आचरण में सत् का समावेश ही सदाचार कहा
गया है। ऐसे में कदाचार की कोई गुंजाइस नहीं रहती, मनसा-वाचा-कर्मणा लेश
मात्र भी कदाचार दिखे तो मान लो कि यहां सत्यनिष्ठा का सिर्फ दिखावा है।
सदाचार स्वच्छ मनोदशा का द्योतक है।
सत्-जन मिलकर सज्जन शब्द बनता है। प्रत्येक व्यक्ति सज्जन नहीं होता। इसी
तरह सत् युक्त होने पर ही सत्पुरुष की स्थिति बनती है। कुल मिलाकर कह सकते हैं
कि सत्यनिष्ठा ही धर्मनिष्ठा, कर्मनिष्ठा और ब्रह्मनिष्ठा है। सत्य परेशान भले हो मगर पराजित नहीं होता। सत्य परेशान भी क्यों होता है? अध्यात्म विज्ञान स्पष्ट करता है कि सत्यनिष्ठा में अंशमात्र का वैचारिक प्रदूषण यथा सामर्थ्य परेशानीदायक बन जाता है।
सत् को परिभाषित करते हुए 'रानी मदालसा' का वह उपदेशपत्र पर्याप्त है जो
उन्होंने अपने पुत्र की अंगूठी में रखकर कहा था कि जब विषम स्थिति आने पर
पढ़ना। ‘‘संग (आसक्ति) सर्वथा त्याज्य है। यदि संग त्यागने में परेशानी
महसूस हो तो सत् से आसक्ति रखें यानी सत्संग करो इसी तरह कामनाएं अनर्थ का
कारण हैं, जो कभी नहीं होनी चाहिए। कामना न त्याग सको तो सिर्फ मोक्ष की
कामना करो।’’
अनासक्त और निष्काम व्यक्ति ही सत्यनिष्ठ है। आसक्ति और
विरक्ति के मध्य की स्थिति अनासक्ति है। जो सहज है, दृऋषभदेव व विदेहराज
जनक ही नहीं तमाम ऐसे अनासक्त राजा महाराजा हुए है। आज भी शासन, प्रशासन
में नियोजित अनासक्त कर्तव्यनिष्ठ नेता व अफसर हैं जिन्हें नाम-यश की भी कामना
नहीं है।]
' Everything will come about by
degrees.'--- ऐसे चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण निःस्वार्थ सेवा " Be and Make " आन्दोलन के साथ जुड़े रहकर ही किया जा सकता है । यहाँ के लोगों के लिये मैं एक नये प्रकार का आदमी हूँ। कट्टरवादियों तक की अक्ल गुम है। और लोग अब मुझे श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगे हैं। ब्रह्मचर्य, पवित्रता से बढ़कर क्या और शक्ति है! ये विरोचन के वंशज हैं। 'भोग' (enjoyment) ही उनके भगवान हैं, जहाँ धन की नदी, रूप की तरंग, विद्या की विचि, और विलास का जमघट है।
कांक्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥ गीता ४/१२
- ' मुझे मेरे कार्यों में सफलता प्राप्त हो ' यही आकांक्षा मन में रखकर कोई मनुष्य इस लोक में देवताओं का पूजन किया करता है। For success is quickly attained through action in this world of Man, क्योंकि कर्मजनित सिद्धि मनुष्य लोक में बहुत जल्दी मिलती है।
यहाँ अद्भुत चरित्र, बल और शक्ति का विकास है--कितना बल, कैसी कार्यकुशलता, कैसी ओजस्विता देखने को मिलती है। यहाँ की अविवाहित कन्याएँ रूप में लक्ष्मी और गुण में सरस्वती हैं -ये साक्षात् जगदम्बा हैं, इनकी पूजा करने से सर्वसिद्धि मिल सकती है। इस तरह की माँ जगदम्बा अगर अपने देश में एक हजार तैयार करके मर सकूँ, तो निश्चिन्त होकर मर सकूँगा। स्त्री-पुरुष-भेद की जड़ नहीं रखूँगा। अरे, आत्मा में भी कहीं लिंग का भेद है ? स्त्री और पुरुष का भाव दूर करो, सब आत्मा है। शरीराभिमान छोड़कर खड़े हो जाओ।
[हमारे शात्रों में नारी का अपमान कहीं नहीं है,' नारी को न निहारिये'- अर्थात पुरुषों को स्त्रियों की तरफ आसक्ति से नहीं देखना चाहिये; उसी तरह स्त्रियों को भी पति को छोड़ कर अन्य पुरुषो को पिता या भाई की दृष्टि से देखना चाहिये। सहशिक्षा ने हमारी संस्कृति को नष्ट कर दिया है।]
'न लिंग धर्म कारणं, समता सर्वभूतेषु एतन्मुक्तस्य लक्षणम । '
-The external badge does not confer spirituality. It is same-sightedness to all beings which is the test of a liberated soul."
ऊपरी चिन्ह (external badge गेरुआ बिल्ला या चपरास) धारण कर लेने से कोई व्यक्ति आध्यात्मिक नहीं हो जाता। जब कोई व्यक्ति सभी प्राणियों में एक को देखने या सम-दर्शन में सक्षम हो जाता है- वही मुक्तात्मा की कसौटी है। स्त्री और पुरुष का भाव दूर करो, सब आत्मा हैं। शरीराभिमान (देहाध्यास) छोड़ कर खड़े हो जाओ।
"इति इति " (It is, It is), "सोऽहं सोऽहं", "चिदानन्दरूपः शिवोऽहं
शिवोऽहं"
—" It is, It is", I am He!", "I am Shiva, of the essence of Knowledge and
Bliss!"
'नेति नेति' करते हुए जब छत पर पहुँच गये-तो लौटते समय यही दिखायी पड़ता है कि जिस वस्तु से छत बना था उन्हीं वस्तुओं से सीढ़ी भी बनी हुई है, इसीलिये कहो," It is, It is" - 'इति , इति !', "I am He, I am He !"- " है तारों सितारों में आलोक जिसका, वही आत्मा वही आत्मा- 'सच्चिदानन्द' मैं हूँ !" जो ज्ञान और आनन्द के सारतत्व-'शिव' हैं, वही 'मैं' (पाका आमी) हूँ ! आसुक न जम आमरा की कम ? आमरा मायेर छेले, आमरा मायेर छेले !..हरेक आत्मा में अनन्त शक्ति है।
" निर्गच्छति जगज्जालात् पिञ्जरादिव केशरी ! "
--" He frees himself from the meshes of this world as a lion from its cage!"
उपरोक्त महावाक्यों का श्रवण-मनन-निदिध्यासन करने वाला व्यक्ति स्वयं को संसार के जाल (जन्म-मृत्यु के चक्र, मन की चहार दिवारी) से, ठीक उसी तरह मुक्त कर लेता है- जिस तरह सिंह पिंजरा तोड़ कर निकल जाता है। बुजदिली करोगे, तो हमेशा पिसते रहोगे।
"नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः"
— This Atman is not accessible to the weak"
-स्वयं को दुर्बल समझने वाला व्यक्ति (हमेशा कुफ्फुत या कोफ़्त में रहने वाला, या हर समय जीवन से असन्तुष्ट रहने वाला व्यक्ति) इस आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता!
बर्फ की चट्टान (avalanche हिमस्खलन) की तरह दुनिया पर टूट पड़ो --दुनिया चट चट करके फट जाय --हरS हरS महादेव !
'उद्धरेत् आत्मा आत्मानम्'
—One must save the self by one's own self"—अपनी आत्मा (अवशिभूत मन को वशीभूत करके) के सहारे ही 'अपना'-- उस यथार्थ मैं (आत्मा) का उद्धार करना पड़ेगा; जो जन्म-जन्मान्तर से 'मन ' (सूक्ष्म शरीर) के साथ अपना तादात्म्य मानकर संसार चक्र में फँसती चली आ रही है!
राजनीती में भाग मत लेना। जन-प्रतिनिधियों को चाहे वे किसी भी दल के हों, अनावश्यक रूप से शत्रु नहीं बनाना चाहिये।. . . Will such a day come when this life will go for the sake of other's good? क्या ऐसा दिन कभी आयेगा कि दूसरों के कल्याण के लिये मेरी जान जायेगी ? महापुरुष वे हैं, जो अपने ह्रदय के रक्त से दूसरों का रास्ता तैयार करते हैं--अनन्त काल से ऐसा ही होता आया है। एक आदमी अपना शरीर पात करके एक सेतु का निर्माण करता है, और हजारों आदमी उसके उपर से नदी पार करते हैं।
"एवमस्तु, एवमस्तु, शिवोऽहं शिवोऽहं"
— Be it so! Be it so! I am Shiva! I am Shiva!"
हे ईश्वर ! मैं भी केवल देश के लिये जीना सीख जाऊँ ! यही वरदान मुझे दो ! ऐसा ही हो ! ऐसा ही हो !
सबके साथ मिलना होगा, किसी को अपने से दूर नहीं करना होगा। अशुभ शक्तियों के विरुद्ध- शुभ शक्तियों को संगठित होकर खड़े होना पड़ेगा।
हमारे गुरु (श्रीरामकृष्ण) पर जबरदस्ती विश्वास करने के लिये लोगों से मत कहना। अभी इतना समझ लो--शशि को मठ छोड़कर बाहर नहीं जाना है। काली को प्रबन्ध-कार्य देखना है और पत्र-व्यवहार करना है। सारदा, शरत या काली, इनमें से एक न एक मठ में जरूर रहे। जो बाहर जायें, उन्हें चाहिये की मठ से सहानुभूति रखनेवालों का मठ से सम्पर्क स्थापित करा दें।
काली, तुम लोगों को एक मासिक पत्रिका का सम्पादन करना होगा। उसमें आधी बंगला भाषा में रहेगी, आधी हिन्दी और हो सके तो एक अंग्रेजी में। ग्राहकों को इकठ्ठा करने में कितना समय लगता है ? जो मठ के बाहर हैं, उन्हें पत्रिका का ग्राहक बनाने के लिये प्रयत्न करना चाहिये। गुप्त से हिन्दी विभाग सँभालने को कहो, नहीं तो आगे चलकर हिन्दी में लिखने वाले बहुत लोग मिल जायेंगे। केवल घूमते रहने से क्या होगा ? जहाँ भी जाओ, वहीं तुम्हें एक स्थायी प्रचार केन्द्र खोलना होगा। तभी तो व्यक्तियों में परिवर्तन आयेगा। श्रीरामकृष्ण के साँचे में ढला 'मनुष्य' निर्मित होने लग जायेंगे ! जगह जगह संस्कृत पाठशालाएँ खोलने का प्रयत्न करना। शेष भगवान के उपर है।
सदा याद रखो कि श्रीरामकृष्ण संसार के कल्याण के लिये अवतरित हुए थे--नाम या यश के लिये नहीं। वे जो कुछ सिखाने आये थे, केवल उसी का प्रचार-प्रसार करो। उनके नाम की चिन्ता न करो--वह अपने आप ही होगा। ' श्री रामकृष्ण को भगवान मानना ही पड़ेगा ', इस बात पर जोर देने से दलबन्दी पैदा होगी और सब सत्यानाश हो जायेगा, इसलिये सावधान !
सभी से मधुर भाषण करना, गुस्सा दिखने से ही सब काम बिगड़ता है। जिसका जो जी चाहे कहे-अपने विश्वास में दृढ रहो --दुनिया तुम्हारे पैरों तले आ जायगी, चिन्ता मत करो। लोग कहते हैं-इस पर विश्वास करो, उस पर विश्वास करो,' मैं कहता हूँ--" पहले अपने आप पर विश्वास करो।" यही रास्ता है।
'Have faith in yourself—all power is in you—be conscious and bring it out.'
अपने 'आप ' में विश्वास रखो --सब 'शक्ति ' तुममें है--इसके प्रति सचेत हो जाओ और उसे प्रकाशित करो। शिक्षा वही सार्थक सिद्ध होती है जो हमारे भीतर की उस छिपी शक्ति को बाहर लाने में मदद करे ! उठो ! जागो ! जानकर लोगों के पास जाकर उस शिक्षा को प्राप्त करो, और कहो, " मैं सब कुछ कर सकता हूँ !" "Even the poison of a snake is powerless if you can firmly deny it." ' नहीं नहीं कहने से साँप का विष भी 'नहीं' हो जाता है। खबरदार , No saying "nay", no negative thoughts! कभी मुँह से यह न निकले कि मुझसे नहीं होगा, एक भी नकारात्मक विचार मन में प्रविष्ट न होने दो। Say, "Yea, Yea," "So'ham, So'ham"—"I am He! I am He!" हमेशा कहो -हो जायेगा, यह काम भी मैं कर लूँगा! सोऽहं सोऽहं --मैं वह हूँ ! मैं वह हूँ !
किन्नाम रोदिषि सखे त्वयि सर्वशक्तिः
आमन्त्रयस्व भगवन् भगदं स्वरूपम्।
त्रैलोक्यमेतदखिलं तव पादमूले
आत्मैव हि प्रभवते न जडः कदाचित्।।
- ' हे सखे, तुम क्यों रो रहे हो ? सब शक्ति तो तुम्हीं में है। हे भगवन, अपना ऐश्वर्यमय स्वरुप प्रकाशित करो। ये तीनों लोक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं। जड़ (मन या सूक्ष्म शरीर) की कोई शक्ति नहीं-प्रबल शक्ति तो आत्मा की ही है। अप्रतिहत शक्ति के साथ कार्य का आरम्भ कर दो। भय क्या है ? किसकी शक्ति है जो सर्वसमर्थ ईश्वर के काम में बाधा डाल सके ? '
"कुर्मस्तारकचर्वणं त्रिभुवनमुत्पाटयामो बलात् ,
किं भो न विजानास्यस्मान् रामकृष्णदासा वयम्।
हम आसमान के सितारों को भी मुट्ठी से नोचकर अपने दाँतों से पीस सकते हैं, (चुल्लू में समुद्र का पान कर सकते हैं ),तीनों लोकों को बलपूर्वक उखाड़ सकते हैं। हमें नहीं जानते ? हम श्रीरामकृष्ण के दास हैं !! भय ? किसका भय ? किन्हें भय ?
क्षीणाः स्म दीनाः सकरुणा जल्पन्ति मूढा जना
नास्तिक्यन्त्विदन्तु अहह देहात्मवादातुराः।
प्राताः स्म वीरा गतभया अभयं प्रतिष्ठां यदा
अस्तिक्यन्त्विदन्तु चिनुमः रामकृष्णदासा वयम्॥
जो मूर्ख लोग देह को आत्मा मानते हैं, वही करूण कण्ठ से कहते हैं - हमसे नहीं
होगा, हम क्षीण हैं, हम दीन हैं; यह घोर नास्तिकता है ।
हम लोग जब अभय-पद को प्राप्त हो चुके हैं, तो अब हम मृत्यु से भी नहीं डरेंगे, और
हम एक 'हीरो' (शूरवीर) बनेंगे ! यही आस्तिकता है। हम श्रीरामकृष्ण के दास हैं।
पीत्वा पीत्वा परमममृतं वीतसंसाररागाः
हित्वा हित्वा सकलकलहप्रापिणीं स्वार्थसिद्धिम् ।
ध्यात्वा ध्यात्वा गुरुवरपदं सर्वकल्याणरूपम्
नत्वा नत्वा सकलभुवनं पातुमामन्त्रयामः॥
- ' संसार में आसक्ति से रहित होकर, सब प्रकार के कलहों की माता- ' स्वार्थसेवी भावना ' का
त्याग करके, अमरता के परम अमृत का लगातार पान करते हुए, सर्वकल्याणस्वरूप श्रीरामकृष्ण के
चरणों का ध्यान धर कर, बारम्बार उन श्रीचरणों अपना प्रणाम निवेदित करते हुए, समस्त संसार को उस अमृत का पान करने का आह्वान कर रहे हैं।'
प्राप्तं यद्वै त्वनादिनिधनं वेदोदधिं मथित्वा
दत्तं यस्य प्रकरणे हरिहरब्रह्मादिदेवैर्बलम्।
पूर्णं यत्तु प्राणसारैर्भौमनारायणानां
रामकृष्णस्तनुं धत्ते तत्पूर्णपात्रमिदं भोः ॥
- " उस 'अमृत' का पान करने का आह्वान करते हैं, जिसे अनादि अनन्त वेदरूपी समुद्र के मंथन से प्राप्त किया गया है, और जिस अमृत में ब्रह्मा-विष्णु-महेश आदि देवताओं ने अपनी शक्ति का नियोग किया है, जिस 'अमृत' को धरती पर ईश्वर के समस्त अवतारों ने अपने जीवन-सार (life-essence प्राणशक्ति) से आवेशित किया है। उसी अमृत को 'वेदमूर्ति' श्रीरामकृष्ण, ने पूर्ण-परिमाण में अपने व्यक्तित्व में धारण कर रखा है!"
"त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः"
--' एकमात्र त्याग के द्वारा अमृतत्व की प्राप्ति होती है।' इन बातों को जन-जन तक पहुँचाने के लिये हमें अंग्रेजी पढ़े-लिखे युवकों के साथ हमें कार्य करना होगा। श्रीरामकृष्ण त्यागियों के बादशाह थे, उनके जीवन के इसी पक्ष का -त्याग का अच्छी तरह प्रचार करना होगा। स्वयं त्यागी ( या अनासक्त ) हुए बिना तुम्हारी वाणी में तेजस्विता नहीं आने की। कार्य आरम्भ कर दो। 'तुम ' यदि एक बार दृढ़ता से कार्यारम्भ कर दो, तो मैं भी कुछ विश्राम ले सकूँगा।
आज मद्रास से अनेक उत्साहवर्धक समाचार प्राप्त हुए हैं, मद्रास वाले तहलका मचा रहे हैं। मद्रास में हुई सभा का समाचार 'इंडियन मिरर' में छपवा दो। बाबुराम और योगेन इतना कष्ट क्यों भोग रहे हैं ? शायद दीन-हीन भाव की ज्वाला से। बीमारी-फिमारी सब झाड़ फेंकने को कहो --घण्टे भर के भीतर सब बीमारी हट जायेगी। क्या आत्मा को कभी कोई बीमारी जकड़ सकती है ? कहो कि घण्टा भर कर बैठकर सोचे, मैं आत्मा हूँ --फिर मुझे कैसा रोग ? सारी बीमारी दूर भाग जाएगी। तुम सब सोचो, हम अनन्त बलशाली आत्मा हैं, फिर देखो कैसा बल मिलता है !
कैसा दीन भाव -झूठी विनयशीलता ? मैं ईश्वर की सन्तान हूँ; मैं ब्रह्ममयी (माँ तारा ) का पुत्र हूँ ! फिर मुझे कैसा अभाव, कैसा भय, कैसा रोग ? दीन -हीन भाव फूँक मारकर विदा कर दो। सब अच्छा हो जायेगा । नकारात्मक भावनाओं को बाहर का रस्ता दिखा दो, मानो वे किसी महामारी (pestilence) का रूप हैं। और यह वीरत्व हर प्रकार से तुम्हारे कल्याण का कारण हो जायेगा। No negative, all positive, affirmative. I am, God is, everything is
in me. एक भी नकारात्मक विचार नहीं, जो भी विचार उठे सभी को सकारात्मक होना चाहिये, अस्ति का भाव रहना चाहिए - ' मैं हूँ ! भगवान श्रीरामकृष्ण हैं !! और सब कुछ तो मुझ में ही है!
' मेरे लिये जो कुछ भी आवश्यक है- सवास्थ्य, पवित्रता, ज्ञान - ये सभी मुझमें पहले से विद्यमान हैं, मैं उन्हें जाग्रत और विकसित करूंगा। अरे, ये विदेशी लोग मेरी बातें समझने लगे हैं, और तुम लोग अपनी नकारात्मक मनःस्थिति के कारण दीनता-हीनता की बीमारी में कराहते हो ? कौन कहता है कि 'तुम' (जो 'वह' हो !) बीमार भी हो सकता है ? तुम्हारे लिये बीमारी का क्या अर्थ है ? इन्हें दिल से उतार दो। कहते रहो --
" वीर्यमसि वीर्य मयि धेहि,
बलमसि बलं मयि धेहि।
ओजोऽसि ओजो मयि धेहि,
सहोऽसि
सहो मयि धेहि !"
--' तुम वीर्यस्वरूप हो, मुझे वीर्य दो; तुम बलस्वरूप हो, मुझे बल दो; तुम ओजः स्वरुप हो, मुझे ओज दो; तुम सहिष्णुता-स्वरुप हो, मुझे सहिष्णुता (Fortitude) दो।'
जब तुम गुरु-निर्देशित पद्धति से भगवान श्रीरामकृष्ण की पूजा करने के लिये अपने आसन पर बैठते हो, तो पहले अपने आसन को अटल (steadying) करने के लिये, जो अनुष्ठान (आसान-प्रतिष्ठा) किया जाता है; उसमें नित्यप्रति दिन दुहराना पड़ता है - " आत्मानं अच्छिद्रं भावयेत्।" — ' स्वयं को मजबूत और अभेद्य (अच्छिद्र) के रूप में कल्पना करनी चाहिये - इसका क्या अर्थ है? कहो--" मेरे भीतर सब कुछ है- मेरा शरीर स्वस्थ और मन प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न है, मैं इसी शरीर और मन द्वारा इसी जीवन में 'तुम्हारा' साक्षात्कार कर लूँगा ! " इसका तात्पर्य है, मेरे ह्रदय में जो शक्ति अन्तर्निहित है, उस अनन्त शक्ति को- "मैं इच्छा मात्र से उन्हें अभिव्यक्त कर सकता हूँ। " I can manifest it at will."
और तुम सब अपने मन ही मन कहो --बाबुराम, योगेन आत्मा है -वे असीम हैं, उन्हें फिर रोग (कोफ़्त का रोग) कैसा ? घण्टे भर के लिये दो-चार दिन तक कहो तो सही, सब रोग-शोक (कुफ्फुत में रहना) छूट जायेंगे। " [३/३११ letter 25th September, 1894.MY DEAR—, (Meant for his brother-disciples.)]
८. 'हमें (भारत को ) आज जिस चीज चीज की
सर्वाधिक आवश्यकता है - वह है नचिकेता जैसी श्रद्धा ! दुर्भाग्यवश भारत से
इसका प्रायः लोप हो गया है, और यही हमारी वर्तमान दुर्दशा
(बलात्कार-अपहरण-भ्रष्टाचार) का मूल कारण है। एक मात्र श्रद्धा के तारतम्य के अनुसार ही मनुष्य मनुष्य में अन्तर पाया जाता है । इसका और दूसरा कारण (उच्च डिग्री, जाति -संप्रदाय आदि) नहीं है। यह श्रद्धा ही है, जो एक मनुष्य को बड़ा और दूसरे को कमजोर और छोटा बनाती है।
श्री रामकृष्ण कहा करते थे, जो अपने को दुर्बल समझता है, वह दुर्बल ही हो
जाता है, और यह बिल्कुल ठीक ही है। इस श्रद्धा को ही तुम्हें पाना होगा।
पश्चमी जातियों द्वारा प्राप्त की हुई जो भौतिक शक्ति तुम देख रहे हो, वह
इस श्रद्धा का ही फल है; क्योंकि वे अपने दैहिक बल के विश्वासी हैं। और यदि
तुम अपनी यथार्थ सत्ता, अपनी आत्मा पर विश्वास करो तो वह कितना अधिक कारगर
होगा ? उस अनन्त आत्मा, उस अनन्त शक्ति पर विश्वास करो, तुम्हारे शास्त्र
और तुम्हारे ऋषि (नेता ) एक स्वर से उसका प्रचार कर रहे हैं। तुम्हारे भीतर
में अवस्थित वह आत्मा अनन्त शक्ति का आधार है, कोई उसका नाश नहीं कर सकता;
और वह अनन्त शक्ति प्रकट होने के लिये, केवल तुम्हारे एक आह्वान की
प्रतीक्षा कर रही है !"
'What make one man great and another weak and
low is this Shraddha.'
कोलकाता-अभिनंदन का उत्तर :
कुछ प्रमुख अंश-
" अंधा, बिल्कुल अंधा है वह, जो समय के चिन्ह नहीं देख रहा है, नहीं समझ रहा है। क्या तुम नहीं देखते हो, वह दरिद्र ब्राह्मण बालक (गदाधर) जो एक दूर गाँव (कामार पुकुर) में -जिसके बारे में तुममें से बहुत कम ही लोगों ने सुना होगा --जन्मा था, इस समय सम्पूर्ण संसार में पूजा जा रहा है; और उसे वे पूजते हैं, जो शताब्दियों से मूर्ति पूजा के विरोध में आवाज उठाते आये हैं ?
यह किसकी शक्ति है ? यह वही शक्ति है, जो यहाँ (दक्षिणेश्वर में) श्री रामकृष्ण परमहंस के रूप में आविर्भूत हुई थी, और मैं, तुम, साधु एवं पैग़म्बर-यहाँ तक कि विश्व के समस्त अवतार और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी न्यूनाधिक मात्रा में घनीभूत, उसी शक्ति की वैयक्तिक (individualized-साकार रूप में व्यक्त) अभिव्यक्तियाँ हैं ! इस समय हम लोग उस महाशक्ति की लीला का आरम्भ मात्र देख रहे हैं। वर्तमान युग का अन्त होने के पहले ही तुम लोग इसकी अधिकाधिक आश्चर्यमयी लीलाएँ देख पाओगे। भारत के पुनरुत्थान के लिये इस शक्ति का आविर्भाव ठीक ही समय पर हुआ है। भगवान ने भारत से जो वादा किया था - 'संभवािम युगे युगे,' --भारतवर्ष की उस मूल जीवनी शक्ति को हम लोग कभी कभी भूल जाते हैं।
तुम्हारे ही ह्रदय के अन्तस्तल में वे ' सनातन साक्षी ' (Eternal Witness) होकर विद्यमान हैं। मैं ह्रदय से प्रार्थना करता हूँ, कि हमारे राष्ट्र के कल्याण के लिये, हमारे देशवासियों की उन्नति के लिये, तथा समग्र मानव जाति की कल्याण के लिये - वही भगवान श्रीरामकृष्ण तुम्हारा ह्रदय खोल दें। और हमारी इच्छा-अनिच्छा के बावजूद भी जो महायुगान्तर (विशाल परिवर्तन, भारत का विश्वगुरु होना) अवश्यम्भावी है, उसे कार्यान्वित करने के लिये वे तुम्हें सच्चा और अटल बनावें । तुम्हें और हमें रुचे या न रुचे, इससे प्रभु का कार्य रुक नहीं सकता, अपने कार्य के लिये वे धूलि से भी सैकड़ों और हजारों कर्मी पैदा कर सकते हैं। उनकी अधीनता में कार्य करने का अवसर मिलना ही हमारे परम सौभाग्य और गौरव की बात है। या तो हम सम्पूर्ण संसार पर विजय प्राप्त करेंगे, या मिट जायेंगे।
हमें ' अभीः ' --निर्भय होना होगा, तभी हम अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त करेंगे। उठो, जागो, तुम्हारी मातृभूमि को इस महाबली की आवश्यकता है। इस कार्य की सिद्धि युवकों से ही हो सकेगी। उन्हीं के लिये यह कार्य है। उठो--जागो, संसार तुम्हें पुकार रहा है। भारत के अन्य प्रांतों में बुद्धि है, धन भी है, परन्तु उत्साह की आग केवल बंगाल में ही है ! तुम यह कहानी जानते होगे, कि बाजश्रवा के पुत्र नचिकेता के हृदय में श्रद्धा का आविर्भाव किन परिस्थितियों में हुआ था ? मैं तुम्हारे लिये इस ' श्रद्धा ' शब्द का अंग्रेजी अनुवाद न करूँगा, क्योंकि वह ग़लत होगा । समझने के लिये --अर्थ की दृष्टि से यह एक अद्भुत शब्द है, और बहुत कुछ तो अलग अलग व्यक्तियों द्वारा इसका वास्तविक अर्थ समझने पर निर्भर करता है। हम देखेंगे कि यह किस तरह शीघ्र फल देने वाली है। क्योंकि श्रद्धा के आविर्भाव के साथ ही हम नचिकेता को स्वयं से इस प्रकार बातचीत करते हुए देखते हैं -' मैं बहुतों श्रेष्ठ हूँ, कुछ लोगों से तुच्छ भी हूँ, परन्तु कहीं भी ऐसा नहीं हूँ कि सबसे अधिक गया गुजरा होऊँ ? अतः मैं भी कुछ कर सकता हूँ ! '
उसकी यह निर्भीकता (boldness) बढ़ने लगी, और जो समस्या उसके मन में थी, उस बालक ने उसे हल करना चाहा, - वह समस्या मृत्यु की समस्या थी। और इस समस्या का निदान केवल -'यमलोक' जाने से ही हो सकती थी; बालक यम के घर पहुंच गया ! उस समय यम अपने काम से कहीं बाहर गए हुए थे, निर्भीक नचिकेता उनके दरवाजे पर तीन दिनों तक भूखा-प्यासा प्रतीक्षा करता रहा (तीन दिन समाधिस्थ रहा ?); फिर तुम जानते हो कि किस तरह उसने अपनी वांछित जिज्ञाषा - मरने के बाद कुछ शेष रहता है, या नहीं ? का समाधान ढूँढ निकाला ! हमें (भारत को ) आज जिस चीज चीज की सर्वाधिक आवश्यकता है - वह है नचिकेता जैसी श्रद्धा ! दुर्भाग्यवश भारत से इसका प्रायः लोप हो गया है, और यही हमारी वर्तमान दुर्दशा (बलात्कार-अपहरण-भ्रष्टाचार) का मूल कारण है।
एक मात्र श्रद्धा के तारतम्य के अनुसार ही मनुष्य मनुष्य में अन्तर पाया जाता है । इसका और दूसरा कारण (उच्च डिग्री, जाति -संप्रदाय आदि) नहीं है। यह श्रद्धा ही है, जो एक मनुष्य को बड़ा और दूसरे को कमजोर और छोटा बनाती है। श्री रामकृष्ण कहा करते थे, जो अपने को दुर्बल समझता है, वह दुर्बल ही हो जाता है, और यह बिल्कुल ठीक ही है। इस श्रद्धा को ही तुम्हें पाना होगा। पश्चमी जातियों द्वारा प्राप्त की हुई जो भौतिक शक्ति तुम देख रहे हो, वह इस श्रद्धा का ही फल है; क्योंकि वे अपने दैहिक बल के विश्वासी हैं। और यदि तुम अपनी यथार्थ सत्ता, अपनी आत्मा पर विश्वास करो तो वह कितना अधिक कारगर होगा ? उस अनन्त आत्मा, उस अनन्त शक्ति पर विश्वास करो, तुम्हारे शास्त्र और तुम्हारे ऋषि (नेता ) एक स्वर से उसका प्रचार कर रहे हैं। तुम्हारे भीतर में अवस्थित वह आत्मा अनन्त शक्ति का आधार है, कोई उसका नाश नहीं कर सकता; और वह अनन्त शक्ति प्रकट होने के लिये, केवल तुम्हारे एक पुकार की प्रतीक्षा कर रही है ! "
That Atman which nothing can
destroy, in It is infinite power only waiting to be called out.(ADDRESS OF WELCOME PRESENTED AT CALCUTTA AND REPLY)