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सोमवार, 2 जून 2014

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः (12)

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' 
(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )
 [ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ] 

 
श्री श्री माँ सारदा  

नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||
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हिन्दी अनुवाद की भूमिका 


यह महामण्डल पुस्तिका मेरे हाथों में १९९३ के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में आई थी। तब से मैंने इसको अनगिनत बार पढ़ा है। किन्तु इस पुस्तिका में स्वामी जी द्वारा अंग्रेजी में कहे गये जिन उक्तियों को उद्धरण के भीतर (within quotes) रखा गया है, वहाँ इन उक्तियों को 'Complete Works of Swami Vivekananda' के किस खण्ड से लिया गया है, इस सन्दर्भ को सूचित नहीं किया गया है। और तत्वज्ञान से परिपूर्ण इस पुस्तिका का अनुवाद करने के लिये स्वामी जी ने किस प्रसंग में इन उक्तियों को कहा होगा, इसे समझना बहुत जरुरी था। 

'गूगल बाबा' के कृपा से नेट पर अंग्रेजी में सारे प्रसंग और सन्दर्भ मिल गये, किन्तु अद्वैत आश्रम, कोलकाता तथा मायावति से हिन्दी में प्रकाशित 'विवेकानन्द साहित्य' अभी तक नेट पर उपलब्ध नहीं है। इसका क्या कारण है, यह मुझे नहीं पता। इसीलिये मैंने स्वामी विवेकानन्द द्वारा अंग्रेजी में कथित उक्तियों को हिन्दी में अनुवाद करते समय अपने सन्तोष के लिये विवेकानन्द साहित्य से लगभग पूरे निबंध को ही फिर लिख दिया है, और जहाँ आवश्यक लगा है, कुछ पन्नों को स्वयं भी अनुवादित किया है।

जिस प्रकार मॉडर्न फिजिक्स में,आजकल पहले तथ्यों को बड़े धैर्य के साथ प्रयोगात्मक पद्धति (एक्सपेरिमेंटल मेथड) के द्वारा परिक्षण करने के बाद, उससे उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर उसका विश्लेषण करके सिद्धान्त (theory) को सत्यापित किया जाता है। ठीक उसी प्रकार हम स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान ' मनोविज्ञान का महत्व ' को गहराई से अध्यन करके यह समझ सकते हैं कि 'मनोविज्ञान' या 'साइन्स अव साइकालजी' ही विज्ञानों का विज्ञान- (साइंस ऑफ़ साइंसेज) है! ठीक उसी प्रकार महामण्डल पुस्तिका 'मनःसंयोग' में वर्णित प्रयोगात्मक पद्धति के द्वारा परिक्षण करने और उससे प्राप्त तथ्यों एवं आंकड़ों का विश्लेषण करके हम स्वयं इस सिद्धान्त को परख कर देख सकते हैं, कि ' अपने चित्त की गहन से गहन गहराई में यथार्थ मनुष्य है-आत्मा !' 
इसलिये इस सर्वश्रेष्ठ विज्ञान 'मनोविज्ञान' (साइकालजी) को भारत में 'मनःसंयम' (मेन्टल कंसंट्रेशन) या 'एकाग्रता का विज्ञान' कहते हैं। इस विज्ञान का अध्यन भी 'मॉडर्न फिजिक्स' के ही अनुरूप पहले प्रयोग (एक्सपेरिमेंट) करके उपलब्ध तथ्यों एवं आंकड़ों का विश्लेषण करके बाद में सिद्धान्त (थ्योरी या महावाक्यों) को सत्यापित किया जाता है। अन्य पार्थिव विज्ञानों की ही तरह, जिस किसी जाति, धर्म या देश में जन्मा जो भी व्यक्ति महर्षि पतंजलि (मनोविज्ञान सर्वश्रेष्ठ विज्ञान है इसलिये इसके सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक को महर्षि या ऋषि कहते हैं) द्वारा आविष्कृत 'पातंजल योग सूत्र' में दिये गये निर्देशों के अनुसार प्रयोग  करने की 'पात्रता' (एलिजिबिलिटी:यम-नियम का पालन) अर्जित कर लेगा, उसे मनःसंयोग (आसन,प्रत्याहार,धारणा) का अभ्यास (एक्सपेरीमेन्ट) करके, अपने मन का अध्यन और विश्लेषण करने से जो तथ्य और आँकड़े उपलब्ध होंगे, उसका परिणाम होगा -अपने सच्चे स्वरुप (ब्रह्मत्व) की उपलब्धि !
जिस प्रकार विश्व भर के भौतिक शास्त्री (Physicists) प्रायः एक ही परिणाम पर पहुँचते हैं, उन्हें जिन सामान्य प्राकृतिक नियमों (जनरल फैक्ट्स) का पता लगता है, और उनके अनुगामी बाद में उसी पद्धति से प्रयोग करके जिस निष्कर्ष (सिद्धान्त) पर पहुँचते हैं, उनके विषय में उनमें कोई मतभेद नहीं होता। उसी प्रकार मनःसंयोग के अभ्यास (एक्सपेरीमेन्ट) करने की पात्रता रखने वाले सभी संभावित मनोवैज्ञानिक भी एक ही निष्कर्ष (सिद्धान्त) पर पहुँचते हैं- जिन्हें भारत में महावाक्य या सार्वभौमिक तथ्य (यूनिवर्सल फैक्ट्स) कहा जाता है। वैदिक ऋषियों के द्वारा अविष्कृत चार प्रमुख  महावाक्य इस प्रकार हैं -
१. प्रज्ञानं ब्रह्म (ऐतरेय उपनिषद ३/५/३)
ब्रह्म शुद्ध ज्ञान स्वरूप है

२. अहम् ब्रह्मास्मि (शतपथ ब्राह्मण ४/३/२/२१)
मै ब्रह्म हूँ

३. तत् त्वमसि (छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७)
वह ब्रह्म तुम हो

४. अयमात्मा ब्रह्म (माण्डूक्योपनिषद २)
यह आत्मा ब्रह्म है
ये महावाक्य ही ऐसे तथ्य तथा आँकड़े हैं, जिन्हें सर्वश्रेष्ठ विज्ञान मनोविज्ञान के महान वैज्ञानिकों ने अपने मन का अध्यन और विश्लेषण करके, स्वानुभूति द्वारा जाना है या प्रत्यक्ष दर्शन किया है, उनमें भी कोई मतभेद नहीं होता। इसलिये फिलासफी को भारत में दर्शन-शास्त्र कहा जाता है, एवं उसके आविष्कारक वैज्ञानिकों को दार्शनिक या तत्त्ववेत्ता-'महर्षि' (पैग़म्बर-मानवजाति के मार्गदर्शक 'नेता') कहा जाता है।
वैसे विभिन्न समय में विभिन्न ऋषियों के द्वारा आविष्कृत सत्य के रूप में अन्य कई महावाक्य वेदों में संचित हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं- जैसे - 'नेति नेति' (यह भी नही, यह भी नहीं), 'यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे' ( जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है), 'वसुधैव कुटुंबकम' ( पूरी दुनिया ही मेरा परिवार है) , ' मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, अतिथि देवो भव' (माता,पिता और अतिथि देवता समान होते हैं, स्वामीजी ने इसमें जोड़ दिया है -मूर्ख देवो भव, दरिद्र देवो भव), 'सत्यम् शिवम् सुंदरम्' (सत्य ही शिव है और सत्य ही सुंदर है; सत्, चित्त और आनन्द -'सच्चिदानन्द' का भी यही अभिप्राय है। इन सभी महावाक्यों (Theory) को कोई भी भावी मनःसंयोग का अभ्यास करने वाला साधक, मनोवैज्ञानिक या दार्शनिक, अपने मन का अध्यन और विश्लेषण करके, स्वानुभूति के द्वारा सत्यापित कर सकता है।
उसी प्रकार महामण्डल के अध्यक्ष 'आचार्य श्रीनवनीहरण' ने विवेकानन्द साहित्य के दसों खण्ड में समाहित तथ्यों का गहन अध्यन और विश्लेषण करने के बाद, आधुनिक भारत के सबसे महान ऋषि विवेकानन्द द्वारा आविष्कृत महावाक्यों को ' छोटे छोटे उद्धरणों ' के अन्दर, श्लोकों के रूप में पिरोकर प्रकार गागर में सागर भर दिया है।  इस महामण्डल पुस्तिका ' विवेकानन्द - दर्शनम् ' को 'विवेकानन्द-वचनामृत' के रूप में पान करके स्वयं अमर हो सकते हैं, और दूसरों को भी अमर बनने में सहायता कर सकते हैं !  


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 विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम्

 ' विवेकानन्द - वचनामृत '

१२. 
"परमात्म-तत्त्व की प्राप्ति शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद करने पर ही होती है!"

देहोSयं वदति व्यासः परुषस्याखिलार्थदः।
लब्धव्यं प्राक् बलं देहे ततः परं मनोबलम्॥ 

1. This body, says Vyasa (Bhagavata, 9.9.28(24) fulfills all desires of man. 

2. But 'If there is no strength in body and mind the atman cannot be realized.    first you have to build the body-then only the mind be strong.'

3.  ' All power is within you, you can do anything and everything.'

१.  व्यासदेव जी श्रीमद्भागवत-महापुराण  ९.२८ में कहते हैं - 
    देहोऽयं मानुषो राजन् पुरुषस्याखिलार्थदः ।
         तस्मादस्य वधो वीर सर्वार्थवध उच्यते ॥ २८ ॥
राजन् ! यह मनुष्य शरीर जीव को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष --चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति करानेवाला है। इसलिये हे वीर ! इस शरीर को (दुर्बल बना लेना) नष्ट कर देना सभी पुरुषार्थों की हत्या कही जाती है। 

२. "नायमात्मा बलहीनेन लभ्य :--'दुर्बल-कमजोर लोग आत्मा की अनुभूति नहीं कर सकते।' अर्थात शरीर और मन में दृढ़ता न रहने कोई भी, अपने ह्रदय में इस आत्मा की उपस्थिती का अनुभव नहीं कर सकता। पहले व्यायाम और पौष्टिक भोजन से शरीर को बलिष्ठ करना होगा, तभी तो मन का बल बढ़ेगा। मन तो शरीर का ही सूक्ष्म अंश है। मन और वाणी में तुम्हें महान ओजस्विता रखनी चाहिये। ' मैं हीन हूँ' , ' मैं दीन हूँ' ऐसा कहते कहते मनुष्य वैसा ही हो जाता है।"(६.९३)

३.  'All power is within you, you can do anything and everything.'  " समस्त शक्ति तुम्हारे भीतर है, तुम कुछ भी कर सकते हो और सब कुछ कर सकते हो। इस बात पर विश्वास करो, यह मत विश्वास करो कि तुम दुर्बल हो। आजकल हम में से अधिकांश जैसे अपने को अधपागल समझते हैं, तुम अपने को वैसा मत समझो। इतना ही नहीं, तुम किसी भी काम को बिना किसी के मार्गदर्शन के, अकेले ही करने में सक्षम हो । तत्काल निर्णय लेने की शक्ति (popover) तुम्हारे ही भीतर है। कमर कस लो, और तुममें जो देवत्व छिपा हुआ है, उसे प्रकट करो !
हमारे शास्त्रों में बार बार कहा गया है कि बाह्य-इन्द्रियों के ज्ञान के द्वारा धर्म कभी प्राप्त नहीं हो सकता। धर्म वही है, जो हमें उस अक्षर पुरुष का साक्षात्कार कराता है, और हर एक के लिये यही धर्म है। जिसने इस इन्द्रियातीत सत्ता का साक्षात्कार कर लिया, जिसने आत्मा का स्वरुप उपलब्ध कर लिया, जिसने भगवान को प्रत्यक्ष देखा -हर वस्तु में देखा, वही ऋषि (पैग़म्बर) हो गया।  
हमें भी इस ऋषित्व का लाभ करना होगा, मन्त्रद्रष्टा होना होगा, ईश्वर-साक्षात्कार करना होगा। प्राचीन भारत में सैकड़ों ऋषि थे, और अब हमारे बीच लाखों होंगे -निश्चय ही होंगे। इस बात पर तुममें से हर एक जितनी जल्दी विश्वास करेगा, भारत का और समग्र संसार का उतना ही अधिक कल्याण होगा। तुम जो कुछ विश्वास करोगे, तुम वही हो जाओगे ! यदि तुम अपने को महापुरुष समझोगे तो कल ही तुम महापुरुष हो जाओगे। तुम्हें रोक सके-ज़माने में इतना दम नहीं ! और जितनी शीघ्रता से इस सिद्धान्त में श्रद्धा और विश्वास कर सकोगे, उतना ही तुम्हारा कल्याण होगा! " [ सन्दर्भ "The task before us"  -" विधाता ने हमारे लिये जो कार्य सौंपा है !"  'कोलम्बो से अल्मोड़ा तक- व्याख्यान' पुस्तक के कामट्रिप्लिकेन लिटरेरी सोसाइटी, मद्रास में दिया गया भाषण। ५/१७८: ] 

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 वार्ता एवं संलाप नवम्बर, १८९८ : (वि० सा ० ख ० ६.९३)
मठ अभी तक बेलूड़ में नीलाम्बर बाबू के बगीचे में ही है। अगहन महीने का अन्त होने वाला है। इन दिनों स्वामीजी अक्सर संस्कृत के शास्त्रों पर चर्चा करने में तत्पर रहते हैं। उन्होंने 'रामकृष्ण-स्त्रोत्रम्' (आचाण्डालाप्रतिहतरयः- स्वामी जी कृत ) की रचना इसी समय की थी। आज स्वामी जी ने ' ॐ ह्रीं ऋतम् ' इत्यादि स्त्रोत्र की रचना की और शिष्य को देखकर कहा, ' देखना इसमें छन्दभंगादि कोई दोष तो नहीं है ? जिस दिन स्वामीजी ने इस स्त्रोत्र की रचना की थी, उस दिन मानो स्वामी जी की जिह्वा पर सरस्वती विराजमान थीं। लगभग दो घण्टे तक स्वामीजी ने शिष्य से सुन्दर और सुललित संस्कृत भाषा में वार्तालाप किया। 
स्वामीजी - " देखो, किसी भाव में तन्मय होकर लिखते समय कभी कभी व्याकरण सम्बन्धी भूलें हो जाती हैं, इसीलिये तुम लोगों से देख लेने को कहता हूँ।"  
शिष्य - महाशय, वे भाषा के दोष नहीं हैं, वरन वह प्रतिभा की स्वच्छंदता (लाइसेंस) है।
स्वामीजी - तुमने तो ऐसा कह दिया, परन्तु साधारण लोग ऐसा करने की अनुमति क्यों देंगे ? उस दिन मैंने 'हिन्दू धर्म क्या है' इस विषय पर बंगला भाषा में एक लिखा तो तुम्हीं में से किसी ने कहा कि इसी भाषा तो बेहद सख्त बंगाली है। मेरा अनुमान है कि अन्य सब वस्तुओं की तरह, कुछ समय के  बाद भाषा और विचारों की तेजस्विता भी फीकी पड़ जाती है। अपने देश में भी यही हुआ है। लेकिन श्रीरंमकृष्ण के आगमन के बाद से विचार और भाषा में नवीन प्रवाह आ गया है।
अब सबको नवीन साँचे में ढालना है, नवीन प्रतिभा की मुहर लगाकर सब विषयों का प्रचार करना होगा। देखो न रामकृष्ण भावधारा के संन्यासी प्राचीन तौर तरीके को बदल कर क्रमशः नये परिपाटी में प्रशिक्षित हो रहे हैं। इसके विरुद्ध दकियानूसी लोग कुछ प्रतिवाद भी कर रहे हैं, परन्तु इससे क्या ? हम क्या उनसे डर जाएँ ? आजकल इन सन्यासियों को प्रचार कार्य के लिये देश-विदेश में भ्रमण करना पड़ता है। यदि वे प्राचीन सन्यासियों की तरह भस्म लगाकर अर्धनग्न (या दिगंबर जैन के साधुओं जैसा पूर्ण-नग्न) होकर विदेश जाना चाहें तो पहले तो उन्हें जहाज पर चढ़ने ही नहीं देंगे, या किसी प्रकार विदेश चलर भी गये तो उन्हें वहाँ के जेलों में रहना पड़ेगा। देश, सभ्यता और युग के अनुसार सभी विषयों में कुछ न कुछ परिवर्तन कर लेना पड़ेगा। अब मैं बंगला भाषा में लेख लिखने की बात सोच रहा हूँ, सम्भव है कुछ साहित्यकार उसको पढ़कर निंदा करें। करने दो--मैं बंगला भाषा को नवीन साँचे में ढालने का प्रयास अवश्य करूंगा। 
आजकल के लेखक जब लिखने बैठते हैं, वे अपने लेखन में क्रिया (वर्ब्स) का उपयोग जरुरत से ज्यादा करते हैं। इसके कारण भाषा बेजान हो जाती है। यदि कोई व्यक्ति अपने विचारों को व्यक्त करते समय क्रिया के बदले विशेषण का उपयोग करने लगे तो उसकी भाषा ओजस्वी हो जाती है। क्या तुम भाषण देते समय क्रिया के उपयोग का अर्थ समझते हो ? वक्ता को विचार करने के लिये थोड़ा समय मिल जाता है। इसीलिये अधिक क्रियापदों का प्रयोग करना जल्दी जल्दी श्वास लेने के समान दुर्बलता का चिन्ह मात्र है। जिनका किसी भाषा पर अच्छा अधिकार है, वे अपने विचारों के प्रवाह में टूटन नहीं आने देते। 
साग-पात खाते खाते तुम लोगों का शरीर जैसा दुर्बल हो गया है, भाषा भी ठीक वैसी ही हो गयी है। खान-पान, चाल-चलन, भाव-भाषा सब में तेजस्विता लानी होगी। चारों ओर प्राण का संचार करना होगा। नस नस में बिजली भर देनी होगी। जिससे जीवन के सभी क्षेत्रों में प्राणों का संचार दिखने लगे, तभी इस घोर जीवन-
संग्राम में देश के लोग बचे रह सकेंगे। नहीं तो शीघ्र ही इस देश हिन्दुस्तान और हिन्दुओं को मृत्यु अपना ग्रास बना लेगी। (क्या भारत मर जायगा ? ऐसी दुर्घटना हो नहीं सकती !)
शिष्य - महाराज, बहुत दिनों से इस देश के लोगों का स्वभाव, शारीरिक गठन और चाल-चलन (दिल्ली की निर्भया और बदायूँ काण्ड) कुछ अजीब सा हो गया है। क्या उसमें शीघ्र परिवर्तन की सम्भावना है ?
स्वामी जी- यदि तुम पुरानी ढर्रे पर (जैसे-तैसे) जीने को गलत समझ लिया है, तो जैसा मैंने बतलाया है कि मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं, ' शरीर, मन और ह्रदय' (3H) इन तीनों के सुसमन्वित विकास से अच्छा मनुष्य बना जा सकता है; तुम फिर यथार्थ मनुष्य बनने के नवीन शिक्षा पद्धति के अनुसार अपना 'जीवन गठन' क्यों नहीं करते ? तुम अपने जीवन को उदाहरण स्वरूप बना कर दिखाओ, तो तुम्हें देखकर और भी दस-पाँच लोग वैसा ही करेंगे। फिर उनसे और पचास सीखेंगे। इस प्रकार आगे चलकर क्रमशः पुरे देश के युवाओं में चरित्र-निर्माण और जीवन-गठन करने प्रति उत्साह का भाव संचारित हो जायेगा। यदि तुम सब कुछ समझ-बूझकर भी मनुष्य बनने और बनाने " Be and Make" के आन्दोलन में जी-जान से नहीं जुड़ जाते, तो मैं यही समझूँगा कि तुम केवल बातों में ही पण्डित हो, पर कार्य में मूर्ख !  
शिष्य - महाराज, आप की बातों को सुनते ही ह्रदय में अद्भुत साहस का संचार हो जाता है। उत्साह, बल और तेज से ह्रदय परिपूर्ण परिपूर्ण हो जाता है। 
स्वामी जी - [' दूसरों के लिये थोड़ा सा भी काम करने से ह्रदय में सिंह का सा बल आ जाता है '- इसी पद्धति ' बनो और बनाओ ' के प्रशिक्षण-कार्क्रम के अनुसार] ह्रदय में धीरे धीरे बल लाना होगा। यदि तुम अपने प्रयासों से एक भी यथार्थ 'मनुष्य' का निर्माण कर सके, तो उसका प्रभाव एक लाख भाषण देने से भी ज्यादा होगा।  सभी (महामण्डल कर्मियों) को अपने जीवन में 'मन और मुख' एक रखने का अभ्यास करना होगा। इसी को श्रीरामकृष्ण कहते थे,"अल्लोविंग नो थेफ़्ट इन दी चैम्बर ऑफ़ थॉट"; " भाव के घर में किसी प्रकार की चोरी न होने पाये।" सब विषयों में व्यावहारिक होना होगा, अर्थात अपने प्रत्येक कार्यों द्वारा 'मनुष्य बनने और बनाने ' के भाव को अभिव्यक्त करना होगा। ढेर सारे मत-वादों ने देश को बर्बाद कर दिया है। श्रीरामकृष्ण की जो यथार्थ सन्तानें होंगी, वे सब धर्मभावों की व्यावहारिकता दिखायेंगी। कर्मकाण्डी क्रियाओं, लोगों या समाज की बातों पर ध्यान न देकर वे एकाग्र मन से चरित्र-निर्माण का कार्य करते रहेंगे । संत कबीर ने कहा है- 
हाथी चले बज़ार - कुत्ता भोंके हजार। 
साधुन को दुर्भाव नहीं, जो निन्दे संसार॥  
तुम्हें भी ऐसे ही अपने निर्देशित पथ पर चलते जा न होगा। दुनिया के लोगों की बात पर ध्यान नहीं देना होगा। यदि उनकी निन्दा या स्तुति पर ध्यान दोगे तो कोई बड़ा कार्य नहीं हो सकेगा। "नायमात्मा बलहीनेन लभ्य :--'दुर्बल-कमजोर लोग आत्मा की अनुभूति नहीं कर सकते।' अर्थात शरीर और मन में दृढ़ता न रहने कोई भी, अपने ह्रदय में इस आत्मा की उपस्थिती का अनुभव नहीं कर सकता। पहले व्यायाम और पौष्टिक भोजन से शरीर को बलिष्ठ करना होगा, तभी तो मन का बल बढ़ेगा। मन तो शरीर का ही सूक्ष्म अंश है। मन और वाणी में तुम्हें महान ओजस्विता रखनी चाहिये। ' मैं हीन हूँ' , ' मैं दीन हूँ' ऐसा कहते कहते मनुष्य वैसा ही हो जाता है। इसीलिये शास्त्रकार ने कहा है-
    
 मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
                                             किम्वदन्तीह् सत्येयं या मति: सा गतिर्भवेत्॥ (अष्टवक्र संहिता १.११)

जिसके ह्रदय में मुक्ताभिमान सर्वदा जाग्रत रहता है, वह मुक्त हो जाता है; और जो ' मैं बद्ध हूँ' ऐसी भावना रखता है, समझ लो कि उसकी जन्म-जन्मान्तर तक बद्ध दशा ही रहेगी। आध्यात्मिक और सांसारिक दोनों पक्षों में ही इस लोकोक्ति को सत्य जानना। इस जीवन में जो सर्वदा हताश्चित्त रहते हैं, उनसे कोई भी कार्य नहीं हो सकता। वे जन्म-जन्मान्तर में ' हाय, हाय ' करते हुए आते हैं और चले जाते हैं। 
 "The earth is enjoyed by heroes"-- this is the unfailing truth. Be a hero. वीरभोग्या वसुन्धरा - अर्थात वीर लोग ही वसुन्धरा का भोग करते हैं- यह वचन नितान्त सत्य है। वीर बनो - सर्वदा कहो, ' अभीः अभीः '; --मैं भय शून्य हूँ ! प्रत्येक व्यक्ति को यह सुनाओ- 'माभैः माभैः ' --किसी भी चीज से न डरो ! भय ही मृत्यु है, भय ही पाप है, भय ही नरक है, भय ही अधर्म तथा भय ही व्यभिचार है। जगत में जो भी नकारात्मक बिचार और असत भाव हैं, वे सब इस भयरूप शैतान से उत्पन्न हुए हैं। इस भय ने ही सूर्य, वायु और यम को, उनसे सम्बन्धित लोकों एवं विशिष्ट कार्यों में नियुक्त कर रखा है, और अपनी सीमा से बाहर नहीं जाने देता। इसीलिये भगवती श्रुति कहती है-
"भयादस्याग्निपति भयात्तपति सूर्य:।
                 भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चम:॥ कठ-२.३.३॥
‘इसीके भयसे अग्नि तपता है इसीके भयसे सूर्य तपता है तथा इसीके भयसे भयभीत होकर इन्द्रवायु और पाँचवें मृत्यु देवता अपने-अपने काममें प्रवृत्त हो रहे हैं ।’ जिस दिन इन्द्र, चन्द्र, वायु, वरुण आदि भयशून्यता को प्राप्त हो जायेंगे- उसी दिन वे ब्रह्म के साथ एक हो जायेंगे; और तब जगत रूपी माया का अन्त हो जायगा! इसीलिये मैं कहता हूँ, " अभीः अभीः" । 
(अस्तित्व ने ही इस मनुष्य शरीर को धारण किया है, इसीलिये In this embodied existence)
" इस शरीर को धारण कर तुम कितने ही सुख-दुःख तथा सम्पद-विपद की तरंगों में बहाये जाओ- किन्तु कभी न भूलना कि वे सब केवल क्षण स्थायी हैं। उन सबको अपने ध्यान में भी न लाना। "I am birthless, the deathless Atman, whose nature is Intelligence"" अजर-अमर आत्मा हूँ, जो शाश्वत चैतन्य स्वरुप है" --इसी भाव को दृढ़ता के साथ धारण कर जीवन-यापन करना होगा।
' मेरा जन्म नहीं, मेरी मृत्यु नहीं, मैं निर्लेप आत्मा हूँ' - ऐसी धारणा में (इसी खुमारी में) एकदम तन्मय हो जाओ। यदि तुम एक बार भी इस धारणा के साथ एकत्व प्राप्त कर सके, तो दुःख या कष्ट का समय आने पर यह भाव अपने आप ही मन में स्फुरित होगा, इसके लिये फिर चेष्टा करने की कुछ आवश्यकता नहीं रहेगी। 
जानते हो, कुछ ही दिन हुए मैं वैद्यनाथ-देवघर में प्रियनाथ मुखर्जी के घर पर ठहरा हुआ था। वहाँ अस्थमा का ऐसा अटैक आया, साँस इतनी फूली- कि दम ही निकलने लगा, परन्तु प्रत्येक श्वास के साथ भीतर से " सोsहं सोsहं " (I am He, I am He) की गंभीर ध्वनि उठने लगी। तकिये का सहारा लेकर मैं प्राणवायु (वाइटल ब्रेथ) निकलने की अपेक्षा कर रहा था और सुन रहा था कि भीतर केवल   
 " सोsहं सोsहं " ध्वनि हो रही है; केवल यह सुनने लगा - 
"एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन"-  
- " the Brahman, the One without a second, alone exists, nothing manifold exists in the world."
" अस्तित्व या सत्ता तो केवल ब्रह्म की है ! जो अद्वितीय है, उसके सिवा दूसरा कुछ नहीं है; इस जगत में नाना प्रकार के रूप तो हैं ही नहीं !"
( भेद असत्‌के हैं । सत्‌का कोई भेद नहीं हैजहाँ सत्-असत्‌का विवेक होगा, वहाँ तो असत्‌का त्याग ही मुख्य रहेगा । अतः चाहे ब्राह्मण का शरीर हो, चाहे शूद्र का शरीर हो, लोक-व्यवहारमें तो उनमें फर्क रहेगा, पर परमात्मत-त्त्व (ब्रह्म) की प्राप्ति (अनुभूति) में कोई फर्क रहेगा ही नहीं । कारण कि परमात्मत-त्त्व की प्राप्ति शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद करने पर ही होती है । जिससे सम्बन्ध-विच्छेद करना है, वह चाहे बढ़िया हो या घटिया, उससे क्या मतलब ? रामसुख दास जी की व्याख्या है -कठ॰ २ । १ । ११, बृहदा॰४ । ४ । १९) 
शिष्य ने स्तम्भित होकर कहा, ' महाराज, आपके साथ  वार्तालाप करने से और आपकी सब अनुभूतियों को सुनने से शास्त्र पढ़ने की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती! '
स्वामी जी - अरे नहीं, शास्त्रों को पढ़ना बहुत ही आवश्यक है। ज्ञान लाभ करने के लिये शास्त्र पढ़ने की बहुत जरुरत है। मैं मठ में शीघ्र ही शास्त्रादि पढ़ाने की व्यवस्था करने वाला हूँ, यहाँ वेद, उपनिषद्, गीता, भागवत कक्षाओं में पढ़ाये जायेंगे और मैं अष्टाध्यायी* भी पढ़ाऊँगा। 
(* अष्टाध्यायी (अष्टाध्यायी = आठ अध्यायों वाली) महर्षि पाणिनि द्वारा रचित संस्कृत व्याकरण  का एक अत्यंत प्राचीन ग्रंथ (५०० ई पू) है। इसमें आठ अध्याय हैं; प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं; प्रत्येक पाद में 38 से 220 तक सूत्र हैं।अष्टाध्यायी में अनेक पूर्वाचार्यों के मतों और सूत्रों का संनिवेश किया गया। उनमें से शाकटायन, शाकल्य, अभिशाली, गार्ग्य, गालव, भारद्वाज, कश्यप, शौनक, स्फोटायन, चाक्रवर्मण का उल्लेख पाणिनि ने किया है।)
शिष्य - क्या अपने पाणिनि की अष्टध्यायी पढ़ी है ? 
स्वामीजी -- जब जयपुर में था, तब एक बड़े भारी वैयाकरण के साथ साक्षात्कार हुआ। उनसे व्याकरण पढ़ने की इच्छा हुई। व्याकरण के बड़े विद्वान् होने पर भी, उनमें पढने की योग्यता न थी। उन्होंने मुझे तीन दिनों तक प्रथम सूत्र का भाष्य समझाया, फिर भी मैं उसकी धारणा न कर सका। चौथे दिन अध्यापकजी विरक्त होकर बोले, ' स्वामीजी, जब मैं तीन दिन में भी आपको प्रथम सूत्र का मर्म नहीं समझा सका तो लगता है, कि मेरे पढ़ाने से आपको लाभ नहीं होगा। ' यह सुनकर अपने मन में बड़ी ग्लानि हुई। भोजन और निद्रा त्यागकर प्रथम सूत्र का भाष्य स्वयं ही समझने का प्रयास करने लगा। तीन घण्टे में उस सूत्र-भाष्य का अर्थ मानो करामलक के समान प्रत्यक्ष हो गया। तत्प्श्चात अध्यापक जी के पास जाकर सब व्याख्याओं का तात्पर्य बातों बातों में समझा दिया। अध्यापक जी सुनकर बोले, " मैं तीन दिन से जो नहीं समझा सका, अपने तीन घण्टे में उसकी ऐसी चमत्कारपूर्ण व्याख्या कैसे सीख ली ? " उस दिन से प्रतिदिन शीघ्र गति से अध्याय पर अध्याय पढता चला गया।  " मन की एकाग्रता होने से सब सिद्ध हो जाता है --सुमेरु पर्वत को भी चूर्ण करना सम्भव है ! " 
शिष्य - आपकी सभी बातें अद्भुत हैं । 
स्वामीजी - इस विश्व-ब्रह्माण्ड में 'अद्भुत' नाम की स्वयं कोई विशेष चीज नहीं है। अज्ञानता ही अन्धकार है, इसी के आवरण में सब कुछ ढके रहने के कारण अद्भुत या रहस्यपूर्ण जान पड़ता है। ज्ञानालोक से प्रकाशित होने पर फिर कुछ भी अद्भुत नहीं रह जाता। ' अघटनघटनापटीयसी ' जो माया (which brings the most impossible things to pass) है, वह भी लुप्त हो जाती है !
 ' जिसको जान लेने से सब कुछ जाना जाता है-
'उसको' (ब्रह्म-श्रीरामकृष्ण को ) जानो- उसके विषय में चिन्तन करो। '  
उस आत्मा के प्रत्यक्ष होने से शास्त्रों के अर्थ 'करामलकवत्' प्रत्यक्ष होंगे। जब प्राचीन ऋषि (मनोवैज्ञानिक) ऐसा कर सके थे, तो हम लोगों से क्यों न होगा ? हम भी तो 'मनुष्य' हैं ! एक व्यक्ति के जीवन में जो एक बार घटित हो चूका है, चेष्टा करने से वह अवश्य ही औरों के जीवन में फिर से सिद्ध होगा। कहावत है न -' हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ' -अर्थात इतिहास अपने को दुहराता है; जो एक बार घटित हुआ है, बार बार होता है!  यह आत्मा सर्वभूतों में समान है, केवल प्रत्येक भूत में उसके विकास का तारतम्य मात्र है। इस आत्मा (ह्रदय की शक्ति ) को अभिव्यक्त करने की चेष्टा करो। देखोगे की तुम्हारी बुद्धि तीक्ष्ण होकर सब विषयों में प्रवेश करने लगेगी। अनात्मज्ञ पुरुषों की बुद्धि एकदेश-दर्शिनी (one-sided) होती है, आत्मज्ञ पुरुषों की त्रिलोक-त्रिकालदर्शी ! आत्मप्रकाश होने से - देखोगे, दर्शन, विज्ञान सब तुम्हारे अधीन हो जायेंगे। सिंहगर्जन से आत्मा की महिमा की घोषणा करो! प्रत्येक मनुष्य को अभय प्रदान करते हुए कहो- " उठो, जागो, और जब तक लक्ष्य पर न पहुँचो, विश्राम मत लो !" 
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  "The task before us" - 
" विधाता ने हमें जो कार्य सौंपा है !" 
 ५/१७८ स्वामी जी का उपरोक्त महावाक्य ' कोलम्बो से अल्मोड़ा तक- व्याख्यान' पुस्तक के कामट्रिप्लिकेन लिटरेरी सोसाइटी, मद्रास में दिया गया भाषण। इस भाषण  के कुछ प्रमुख अंश इस प्रकार हैं -
" (Up, India, and conquer the world with your spirituality!) " उठो भारत !  तुम अपनी आध्यात्मिकता द्वारा जगत पर विजय प्राप्त करो !  प्रेम ही घृणा पर विजय प्राप्त करेगा, घृणा घृणा को नहीं जीत सकती। भौतिकवाद (materialism) और उससे उत्प दुःख-क्लेश को भौतिकवाद (चार्वाक मत) से कभी दूर नहीं किया जा सकता। आध्यात्मिकता पाश्चात्य देशों पर अवश्य विजय प्राप्त करेगी। पाश्चात्य लोग यह अनुभव करने लगे हैं, कि उन्हें राष्ट्र के रूप में बने रहने के लिये आध्यात्मिकता की आवश्यकता है। वे इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, चाव से इसकी वाट जोह रहे हैं। Where is the supply to come from? उसकी आपूर्ति कहाँ से होगी? 
वे 'मनुष्य' कहाँ हैं, जो भारतीय महर्षियों के उपदेश को जगत के सब देशों में पहुँचाने के लिये तैयार हों?
(महामण्डल के नेतृत्व-प्रशिक्षण में उत्तीर्ण का चपरास प्राप्त हो ?) कहाँ हैं वे लोग, (जिनका जीवन पैग़म्बरों जैसा पवित्र हो) जो इसी कार्य के लिये अपना सब कुछ छोड़ने को तैयार हों, कि ये कल्याणकर उपदेश संसार के कोने कोने में फ़ैल जायें? सत्य के प्रचार के लिये, ऐसे वीर ह्रदय (heroic spurs: जिसकी छाती ५६" की हो वैसे,भाई-भतीजावाद छोड़ने और सम्पूर्ण नारी-जाति को मातृदृष्टि से देखने में समर्थ हो) नेताओं की आवश्यकता है! वेदान्त के महासत्यों को फ़ैलाने के लिये ऐसे ही (महामण्डल में प्रशिक्षित) वीर कर्मियों -मानवजाति के मार्गदर्शक 'नेताओं' को बाहर जाना चाहिये। जगत को इसकी चाहना है, इसके बिना जगत विनष्ट हो जायगा।
 सारा पाश्चात्य जगत मानों एक ज्वालामुखी पर स्थित है, जो कल ही फूटकर उसे चूर चूर कर सकता है। उन्होंने सारी दुनिया छान डाली, पर उन्हें कहीं शान्ति नहीं मिली। उन्होंने इन्द्रिय सुख का प्याला पीकर खाली कर डाला, पर फिर भी उससे उन्हें तृप्ति नहीं मिली। भारत के आध्यात्मिक विचारों को पाश्चात्य देशों के नस नस में भर देने का यही समय है। (अच्छे दिन आ गये हैं) महामण्डल कर्मियों, मैं विशेषकर तुम्हीं को इसे याद रखने को कहता हूँ। 
हमें (मन-मुख एक करके) बाहर (प्रशिक्षण-शिविर में) जाना ही  पड़ेगा, अपनी आध्यात्मिकता तथा दार्शनिकता से हमें जगत को जीतना होगा। 'we must do it or die.' दूसरा कोई उपाय नहीं है, अवश्यमेव इसे करो या मरो ! राष्ट्रीय जीवन, सतेज और प्रबुद्ध राष्ट्रीय जीवन के लिये बस यही एक शर्त है कि भारतीय विचार (' Be and Make ' पहले भारत के नस नस में प्रविष्ट हो जाय) विश्व पर विजय प्राप्त करें। हमें बहादुर और साहसी युवाओं की आवश्यकता है। हमें खून में उष्णता और स्नायुओं में बल की आवश्यकता है - 'लोहे की मांसपेशियाँ और फौलाद के स्नायु' आयरन मसल्स एंड नर्व्ज़ ऑफ़ स्टील, चाहिये, न की दुर्बलता लाने वाले वाहियात बहाने  (अमुक ने मदत नहीं किया, वो कहकर भी नहीं आया आदि आदि )! 
कृष्ण की महिमा यह नहीं है कि वे कृष्ण थे, पर यह है कि वे वेदान्त के महान आचार्य थे। यदि ऐसा न होता तो उनका नाम भी भारत से उसी तरह उठ जाता जैसे कि बुद्ध का नाम उठ गया है। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि, चिर काल से हमारी निष्ठा धर्म के सिद्धान्तों (महावाक्यों) के प्रति रही है, न कि व्यक्तियों के प्रति। व्यक्ति केवल सिद्धान्तों के मूर्त विग्रह हैं-उनके उदाहरणस्वरूप। यदि वेदान्ती महावाक्य अक्षुण्ण बने रहे, तो उसकी अनुभूति करने वाले पैग़म्बर या ऋषि, एक-दो नहीं, हजारों और लाखों की संख्या में पैदा होंगे! 
यदि वैदिक सिद्धान्त (महावाक्य) बचा रहा, तो बुद्ध जैसे सैकड़ों और हजारों पुरुष पुरुष पैदा होंगे।  किन्तु यदि सिद्धान्त ही खो गये, और उन्हें भुला दिया गया, और सम्पूर्ण राष्ट्र का जीवन उस तथाकथित ऐतिहासिक महापुरुष के महिमामण्डन करने ( उसकी चाटुकारिता करने) में ही लगा रहा, तो उस धर्म के सामने आपदाएँ और खतरे हैं। सम्पूर्ण विश्व में हमारा सनातन वैदिक धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जो किसी व्यक्ति या व्यक्तियों पर निर्भर नहीं है, वह तत्वों पर प्रतिष्ठित है। पर साथ ही उसमें वर्तमान और भावी युग में लाखों पैग़म्बरों के लिये स्थान है। नए ऋषियों या ईशदूतों को स्थान देने के लिये उसमें काफ़ी गुंजायश है, पर शर्त यह कि उनका जीवन, उनमें से प्रत्येक का जीवन- उन सिद्धान्तों (महावाक्यों) का एक उदाहरण स्वरुप होना चाहिये। हम सौभाग्यशाली हैं कि हमारे धर्म के ये तत्व अब तक सुरक्षित हैं, और हममें से प्रत्येक का जीवनव्रत यही होना चाहिये कि हम उन्हें सुरक्षित रखें। उनके उपर यदि गर्द या मैल जम गया हो, तो उन्हें रगड़ कर चमका दें। वेदों में द्वैतवाद और अद्वैतवाद दोनों ही हैं। आजकल के नये भावों के प्रकश में हम उन्हें पहले से अच्छी तरह समझ सकते हैं। ये विभिन्न धारणायें जिनकी गति द्वैतवाद और अद्वैतवाद दोनों की ओर हैं, मन की क्रमोन्नत्ति के लिये आवश्यक हैं, और इसी कारण वेद उनका प्रचार करते हैं। सम्पूर्ण मानवजाति पर कृपा करके वेद उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये भिन्न भिन्न सोपानों का निर्देश करते हैं। ऐसा नहीं है कि वे परस्पर विरोधी हैं, और बच्चों जैसे अबोध मनुष्य को भ्रम में डालने के लिये व्यर्थ के वाक्यों का प्रयोग किया गया है। बल्कि उनकी जरुरत केवल बच्चों के लिए ही नहीं, वरन प्रौढ़ बुद्धि वालों के लिये भी उतनी ही है। 
क्योंकि जब तक हमारे पास पाँच इन्द्रियाँ हैं, और जब तक हम इस बाह्य जगत को देखते हैं; जब तक हमारा शरीर है, और जब तक हम इस (नाशवान शरीर) के साथ ही अपना तादात्म्य किये रहने के भ्रम में में पड़े हुए हैं; हमारे लिये किसी व्यक्तिविशेष ईश्वर (Personal God-ठाकुर) या सगुण ईश्वर आवश्यक है। यदि हमारे भीतर ये सभी भाव हैं, तो जैसा कि आचार्य रामानुज ने प्रमाणित किया है; हमें भी 'ईश्वर, जीव (वैयक्तिक आत्मा: individualized soul) और जगत'- इनमें से एक कोण को भी स्वीकार करने पर - त्रिभुज के शेष दोनों कोण को भी स्वीकार करना पड़ेगा। अतएव जब तक हम बाह्य जगत को देख रहे हैं, तब तक 'सगुण ईश्वर और वैयक्तिक आत्मा (जीव)' (a Personal God and a personal soul
को स्वीकार न करना; परले दर्जे की मूर्खता (नीरा पागलपन) है! किन्तु महापुरुषों (भावी ऋषियों या पैग़म्बरों) के जीवन में, ऐसा समय (क्षण) आ सकता है- जब जीवात्मा प्रकृति के सभी बन्धनों को तोड़ कर, प्रकृति के परे, उस सर्वातीत के राज्य में चला जाता है, जिसके बारे में श्रुति कहती है-
(१) ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह‘ (तै.उ. २/९) 
अर्थात्‌-' मन के साथ वाणी जिसे न पाकर लौट आती है।'
(२) 'न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनः ।' 
(केनोपनिषत् १-३)  अर्थात-' वहाँ न नेत्र पहुँचते हैं, न वाक्य, न मन '
(३) ' नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च।' (-कठ २/२)
 अर्थात- "We cannot say that we know it, 
we cannot say that we do not know it".   
' मैं उसे जानता हूँ, न ऐसा दावा कर सकता हूँ, 
और न यही कह सकता हूँ-कि मैं उसे नहीं जानता।' 
(सांख्य कहता है, महत्‌ से अहंकार उत्पन्न होता है। इनसे पंचतन्मात्रा तथा उनसे विभिन्न इन्द्रियां तथा जगत्‌ के विभिन्न पदार्थ बनते हैं। सृष्टिचक्र गतिमान होता है तथा प्रलय काल में पुन: इसी क्रम से उसका लोप हो जाता है। यह विभिन्न शक्तियां, उनसे सृष्टि का चक्र गतिमान होना, फिर लोप होना, यह क्या है?  तो वेदान्त कहता है- ‘कम्पनात्‌‘ अर्थात्‌ निर्माण या विध्वंस - सबमें कंपन है, स्पंदन है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, ‘संपूर्ण जगत कम्पन है, स्पन्दन है। इतना ही है कि मन तीव्र कम्पन है तथा स्थूल या जिसे जड़ कहा जाता है, वह मंद कम्पन है।‘ भगवान बुद्ध कहते हैं सम्पूर्ण जगत प्रकम्पन है- ‘सब्बोप्रज्जालितो लोको, सब्बो लोको प्रकम्पितो‘ 
जगत में ठोस जैसा कुछ नहीं है, केवल प्रकम्पन ही है। आदि शंकराचार्य कहते हैं- परमाणु से लेकर ब्रह्मलोक तक तथा सामान्य शक्ति से लेकर प्राणशक्ति तक सब स्पन्दन है। ब्रह्माण्ड का सृजन और लोप कम्पन का ही परिणाम है। यह कम्पन समुद्र की लहरों के समान है। जैसे समुद्र की सतह के ऊपर तो हलचल रहती है, पर समुद्र की तली,  नीचे का आधार शांत रहता है, उसी प्रकार जगत्‌ का मूलाधार ब्रह्म है, कम्पन तो ऊपरी सतह पर है।) इस अवस्था की अनुभूति करने वाला जीवात्मा, जब अपने मन की चहारदीवारी (लव ट्रैंगल) का भी अतिक्रमण कर लेता है, समस्त बंधनों को पार कर जाता है, तभी, केवल तभी उसके हृदय में अद्वैतवाद का यह मूल तत्व प्रकाशित होता है कि ' समस्त संसार और मैं एक हूँ, मैं और ब्रह्म एक हूँ'।
और तुम देखोगे कि यह सिद्धान्त न केवल शुद्ध ज्ञान और दर्शन ही से प्राप्त हुआ है, बल्कि प्रेम की शक्ति (भक्ति) के द्वारा भी उसकी कुछ झलक पायी गयी है। फ़ारस के एक पुराने सूफ़ी कवि अपनी अपनी एक कविता में कहते हैं- " मैं अपनी माशूका के पास गया और देखा तो द्वार बन्द था, मैंने दरवाजे को खटखटाया तो भीतर से आवाज आयी, 'कौन है ?' मैंने उत्तर दिया-'मैं हूँ'। द्वार न खुला। मैंने दूसरी बार आकर दरवाजा खड़खड़ाया तो उसी स्वर ने फिर पूछा-कौन है ? मैंने उत्तर दिया - ' मैं श्री अमुक हूँ।' फिर भी द्वार न खुला। तीसरी बार मैं गया और वही ध्वनि हुई-'कौन है? ' मैंने कहा -(I am you, my Love) ' मैं तुम हूँ मेरे प्यारे।' और द्वार खुल गया!" 
अतएव हमें समझना चाहिये कि ब्रह्म-प्राप्ति के अनेक सोपान हैं। हमें किसी भी भिन्न मतावलम्बी से विवाद नहीं करना चाहिये। क्योंकि ज्ञान की कोई सीमा नहीं है, क्या प्राचीन काल में, क्या वर्तमान समय में सर्वज्ञता (अन्तर्यामी होने पर omniscient) पर किसी एक जाति का कापीराइट (सर्वाधिकार सुरक्षित) नहीं है। यदि अतीत काल में अनेक ऋषि, पैग़म्बर हो गये हैं, तो निश्चय जानो कि वर्तमान समय में भी अनेक होंगे। यदि व्यास, वाल्मीकि और शंकराचार्य आदि ऋषि पुराने जमाने में हो गए हैं; तो क्या कारण है कि अब भी तुममें से प्रत्येक शंकराचार्य न हो सकेगा ? हाँ, तुम्हारे लिये हृदय को मुक्त करना आवश्यक है। धर्म का अर्थ न गिरजे में जाना है, न ललाट रंगना है, न विचित्र ढंग का भेष धरना है। इन्द्रधनुष के सब रंगों में तुम अपने को चाहे भले ही रंग लो, किन्तु यदि तुम्हारा ह्रदय उन्मुक्त नहीं हुआ है, यदि तुमने ईश्वर का साक्षात्कार नहीं किया है, तब यह सब व्यर्थ है। जिसने अपने ह्रदय को ही रंग लिया है, उसके लिये उपर से कोई रंग ओढ़ने की आवश्यकता नहीं है। यही धर्म का सच्चा अनुभव है। 
हमारे शास्त्रों में बार बार कहा गया है कि बाह्य-इन्द्रियों के ज्ञान के द्वारा धर्म कभी प्राप्त नहीं हो सकता। धर्म वही है, जो हमें उस अक्षर पुरुष का साक्षात्कार कराता है, और हर एक के लिये यही धर्म है। जिसने इस इन्द्रियातीत सत्ता का साक्षात्कार कर लिया, जिसने आत्मा का स्वरुप उपलब्ध कर लिया, जिसने भगवान को प्रत्यक्ष देखा -हर वस्तु में देखा, वही ऋषि (पैग़म्बर) हो गया। हमें भी इस ऋषित्व का लाभ करना होगा, मन्त्रद्रष्टा होना होगा, ईश्वर-साक्षात्कार करना होगा। प्राचीन भारत में सैकड़ों ऋषि थे, और अब हमारे बीच लाखों होंगे -निश्चय ही होंगे। इस बात पर तुममें से हर एक जितनी जल्दी विश्वास करेगा, भारत का और समग्र संसार का उतना ही अधिक कल्याण होगा। तुम जो कुछ विश्वास करोगे, तुम वही हो जाओगे ! यदि तुम अपने को महापुरुष समझोगे तो कल ही तुम महापुरुष हो जाओगे। तुम्हें रोक सके-ज़माने में इतना दम नहीं ! और जितनी शीघ्रता से इस सिद्धान्त में श्रद्धा और विश्वास कर सकोगे, उतना ही तुम्हारा कल्याण होगा! 
 *** 'All power is within you, you can do anything and everything.' अर्थात- " समस्त शक्ति तुम्हारे भीतर है, तुम कुछ भी कर सकते हो और सब कुछ कर सकते हो। इस बात पर विश्वास करो, यह मत विश्वास करो कि तुम दुर्बल हो। आजकल हम में से अधिकांश जैसे अपने को अधपागल समझते हैं, तुम अपने को वैसा मत समझो। इतना ही नहीं, तुम किसी भी काम को बिना किसी के मार्गदर्शन के, अकेले ही करने में सक्षम हो । तत्काल निर्णय लेने की शक्ति (popover) तुम्हारे ही भीतर है। कमर कस लो, और तुममें जो देवत्व छिपा हुआ है, उसे प्रकट करो ! "
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शनिवार, 31 मई 2014

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः (11)

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' 
११. 
श्रीरामकृष्ण परमहंस जीवनमुक्त और आचार्य दोनों थे ! 

(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )
 [ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ] 

 
श्री श्री माँ सारदा  

नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |


वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||


नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति | 


सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||


सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||


सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||


विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम्
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हिन्दी अनुवाद की भूमिका 

यह महामण्डल पुस्तिका मेरे हाथों में १९९३ के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में आई थी। तब से मैंने इसको अनगिनत बार पढ़ा है। किन्तु इस पुस्तिका में स्वामी जी द्वारा अंग्रेजी में कहे गये जिन उक्तियों को उद्धरण के भीतर (within quotes) रखा गया है, वहाँ इन उक्तियों को 'Complete Works of Swami Vivekananda' के किस खण्ड से लिया गया है, इस सन्दर्भ को सूचित नहीं किया गया है। तत्वज्ञान से परिपूर्ण इस पुस्तिका का अनुवाद करने के लिये स्वामी जी ने किस प्रसंग में इन उक्तियों को कहा होगा, इसे समझना बहुत जरुरी था। 

'गूगल बाबा' के कृपा से नेट पर अंग्रेजी में सारे प्रसंग और सन्दर्भ मिल गये, किन्तु अद्वैत आश्रम, कोलकाता तथा मायावति से हिन्दी में प्रकाशित 'विवेकानन्द साहित्य' अभी तक नेट पर उपलब्ध नहीं है। इसका क्या कारण है, यह मुझे नहीं पता। इसीलिये मैंने स्वामी विवेकानन्द द्वारा अंग्रेजी में कथित उक्तियों को हिन्दी में अनुवाद करते समय अपने सन्तोष के लिये विवेकानन्द साहित्य से लगभग पूरे निबंध को ही फिर लिख दिया है, और जहाँ आवश्यक लगा है, कुछ पन्नों को स्वयं भी अनुवादित किया है।

जिस प्रकार आधुनिक भौतिक विज्ञान (modern physics ) में, पहले तथ्यों को बड़े धैर्य के साथ प्रयोगात्मक पद्धति (Experimental method) के द्वारा परिक्षण करने के बाद, उससे उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर सिद्धान्त (theory) को सत्यापित किया जाता है।  ठीक उसी प्रकार हम स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान ' मनोविज्ञान का महत्व ' को गहराई से अध्यन करके यह समझ सकते हैं कि विज्ञानों का विज्ञान- (Science of Sciences) 'मनोविज्ञान' या (दी साइन्स अव साइकालजी) ही है! महामण्डल पुस्तिका 'मनःसंयोग' में वर्णित प्रयोगात्मक पद्धति (Experimental method) के द्वारा परिक्षण करने के बाद, उससे प्राप्त आंकड़ों के आधार पर स्वयं इस सिद्धान्त को परख कर देख सकते हैं, कि ' अपने चित्त की गहन से गहन गहराई में यथार्थ मनुष्य है-आत्मा !' (Deep, deep within, is the soul, the essential man, the Âtman.) 
इसलिये इस सर्वश्रेष्ठ विज्ञान 'मनोविज्ञान' (साइकालजी) को भारत में 'मनःसंयम' (Mental Concentration) 'मानसिक एकाग्रता' कहते हैं। इस विज्ञान का अध्यन भी 'Modern Physics' के अनुरूप पहले प्रयोग (experiment) करके उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर और बाद में सिद्धान्त (theory) को सत्यापित किया जा सकता है। अन्य पार्थिव विज्ञानों की ही तरह, जिस किसी जाति, धर्म या देश में जन्मा जो भी व्यक्ति महर्षि पतंजलि (मनोविज्ञान सर्वश्रेष्ठ विज्ञान है इसलिये इसके सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक को महर्षि या ऋषि कहते हैं) द्वारा आविष्कृत 'पातंजल योग सूत्र' में दिये गये निर्देशों के अनुसार प्रयोग  करने की 'पात्रता' (eligibility:यम-नियम का पालन) अर्जित कर लेगा, उसे मनःसंयोग (आसन,प्रत्याहार,धारणा) का अभ्यास (एक्सपेरीमेन्ट) करके, अपने मन का अध्यन और विश्लेषण करने से जो तथ्य और आँकड़े उपलब्ध होंगे, उसका परिणाम होगा -अपने सच्चे स्वरुप (ब्रह्मत्व) की उपलब्धि !
जिस प्रकार विश्व भर के भौतिक शास्त्री (Physicists) प्रायः एक ही परिणाम पर पहुँचते हैं, उन्हें जिन सामान्य प्राकृतिक नियमों (general facts) का पता लगता है, और उनके अनुगामी बाद में उसी पद्धति से प्रयोग करके जिस निष्कर्ष (सिद्धान्त) पर पहुँचते हैं, उनके विषय में उनमें कोई मतभेद नहीं होता। उसी प्रकार मनःसंयोग के अभ्यास (एक्सपेरीमेन्ट) करने की पात्रता रखने वाले सभी संभावित मनोवैज्ञानिक (ऋषि या पैग़म्बर) भी एक ही निष्कर्ष (सिद्धान्त) पर पहुँचते हैं- जिन्हें भारत में महावाक्य या सार्वभौमिक तथ्य (universal facts) कहा जाता है। वैदिक ऋषियों के द्वारा अविष्कृत चार प्रमुख  महावाक्य इस प्रकार हैं -
१. प्रज्ञानं ब्रह्म (ऐतरेय उपनिषद ३/५/३)
ब्रह्म शुद्ध ज्ञान स्वरूप है
२. अहम् ब्रह्मास्मि (शतपथ ब्राह्मण ४/३/२/२१)
मै ब्रह्म हूँ
३. तत् त्वमसि (छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७)
वह ब्रह्म तुम भी हो
४. अयमात्मा ब्रह्म (माण्डूक्योपनिषद २)
यह आत्मा ब्रह्म है
ये महावाक्य ही ऐसे तथ्य तथा आँकड़े हैं, जिन्हें सर्वश्रेष्ठ विज्ञान मनोविज्ञान के महान वैज्ञानिकों ने अपने मन का अध्यन और विश्लेषण करके, स्वानुभूति द्वारा जाना है या प्रत्यक्ष दर्शन किया है, उनमें भी कोई मतभेद नहीं होता। इसलिये फिलासफी को भारत में दर्शन-शास्त्र कहा जाता है, एवं उसके आविष्कारक वैज्ञानिकों को दार्शनिक या तत्त्ववेत्ता-'महर्षि' (पैग़म्बर-मानवजाति के मार्गदर्शक 'नेता') कहा जाता है।
वैसे विभिन्न समय में विभिन्न ऋषियों के द्वारा आविष्कृत सत्य के रूप में अन्य कई महावाक्य वेदों में संचित हैं। जिन्हें कोई भी भावी मनोविज्ञान का छात्र अपने मन का अध्यन और विश्लेषण करके, स्वानुभूति से सत्यापित कर सकता है। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं- जैसे - 'नेति नेति' (यह भी नही, यह भी नहीं), 'यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे' ( जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है), 'वसुधैव कुटुंबकम' ( पूरी दुनिया ही मेरा परिवार है) , ' मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, अतिथि देवो भव' (माता,पिता और अतिथि देवता समान होते हैं, स्वामीजी ने इसमें जोड़ दिया है -मूर्ख देवो भव, दरिद्र देवो भव), 'सत्यम् शिवम् सुंदरम्' (सत्य ही शिव है और सत्य ही सुंदर है; सत्, चित्त और आनन्द -'सच्चिदानन्द' का भी यही अभिप्राय है।)
उसी प्रकार महामण्डल के अध्यक्ष श्रीनवनीहरण ने विवेकानन्द साहित्य के दसों खण्ड का गहन अध्यन और विश्लेषण करने के बाद, आधुनिक भारत के सबसे महान ऋषि विवेकानन्द द्वारा आविष्कृत महावाक्यों को ' छोटे छोटे उद्धरणों ' के अन्दर, श्लोकों के रूप में पिरोकर प्रकार गागर में सागर भर दिया है।  इस महामण्डल पुस्तिका ' विवेकानन्द - दर्शनम् ' को 'विवेकानन्द-वचनामृत' के रूप में पान करके स्वयं अमर हो सकते हैं, और दूसरों को भी अमर बनने में सहायता कर सकते हैं !  


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 विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम्

 ' विवेकानन्द - वचनामृत '

११. 
जगति सति सत्ये तु न लाभश्चेत् किमु क्षतिः।
प्रपञ्चस्यापि देहस्य प्रयोगे पुरुषार्थता ॥ 

1. What is the gain or loss by kicking up a row over the reality of this world ? 

2. Objects of human life are attained by making the best use of human body and the visible world.

3. ' The Acharya has to take a stand between the two states. He must have the knowledge that the world is true, or else why should he teach ? Again if he had not realized the world as a dream, then he is no better than an ordinary man, and what could he teach ?' 

१. इस जगत के सच्चाइयों की जो लम्बी कतार (स्वप्नवत) है, उसके ऊपर दुलत्ती मारते रहने (या असन्तोष प्रकट करते रहने) में लाभ क्या और हानी क्या

२. इस मूर्खता को छोड़कर, देवदुर्लभ मानव शरीर एवं दृष्टिगोचर जगत का सर्वोत्तम उपयोग करने से मनुष्य जीवन का उद्देश्य (लक्ष्य) सिद्ध हो जाता है ! 

३. मुक्त पुरुषों को यह जगत स्वप्नवत जान पड़ता है, किन्तु आचार्य ( नचिकेता के गुरु यमाचार्य जैसा) को मानो स्वप्न और जाग्रत, इन दोनों अवस्थाओं के बीच खड़ा होना पड़ता है। उसे यह ज्ञान रखना ही पड़ता है कि जगत सत्य है, अन्यथा वह शिक्षा किसे और क्यों  देगा ? फिर, यदि उसे यह अनुभूति न हुई हो कि जगत स्वप्नवत है, तो उसमें और एक साधारण आदमी में अन्तर ही क्या ? - और वह शिक्षा भी क्या दे सकेगा ?
" देवगण ( यम, वरुण , इन्द्र, वायु, अग्नि ?)  और कोई नहीं उच्च अवस्थाप्राप्त दिवंगत मानव हैं। हमें उनसे  सहायता मिल सकती है। पर हर कोई आचार्य या गुरु  नहीं हो सकता, किन्तु मुक्त (liberated) बहुत से लोग हो सकते हैं।
गुरु को शिष्य के पापों का बोझ वहन करना पड़ता है; और यही कारण है कि शक्तिशाली आचार्यों (दीक्षा देने में समर्थ गुरु) के शरीर में भी रोग प्रविष्ट हो जाते हैं। यदि गुरु अपूर्ण हुआ, तो शिष्य के पाप उसके मन पर भी प्रभाव डालते हैं, और इस तरह उसका पतन हो जाता है। अतः आचार्य  होना बड़ा कठिन है।… श्री रामकृष्ण जीवन्मुक्त भी थे और आचार्य (teacher of mankind- मानवजाति का मार्गदर्शक नेता ) भी !  " ३/२६१
'भक्तियोग' के आचार्य श्रीरामकृष्ण !
द्वैतवादी सोचते हैं, जब तक हाथ में डंडा लिये दण्ड देने को सदैव प्रस्तुत, आसमान में सिंहासन पर बैठे किसी ईश्वर की कल्पना न की जाय, तब तक मनुष्य सदाचारी (नैतिक) नहीं हो सकता। यह कैसे? जैसे मान लो कोई घोड़ा, टमटम का ऐसा निकम्मा घोड़ा, जो चाबुक की मार खाये बिना अपनी जगह से हिलता भी नहीं हो, और मार खाते खाते उसका आदि हो चुका हो; हमें नैतिकता पर भाषण देने के लिये खड़ा हो जाय ! तो वह अपने भाषण का प्रारंभ यह कहते हुए करेगा, " सचमुच, मनुष्य बड़े ही अनैतिक हैं।" क्यों?- " इसीलिये कि, मुझे पता है- उन पर नियमित रूप से कोड़ों की मार नहीं पड़ती।" किन्तु सच बात तो यह है, कि कोड़ों का डर ही लोगों को और भी अधिक अनैतिक बना देता है।  
तुम सभी कहते हो कि ईश्वर है और वह सर्वव्यापी है ! अब जरा आँखें बन्द करो और सोचो, तो वह क्या है? तुम्हें क्या ज्ञात होता है ? यही की मन में सर्वव्यापकता का भाव लाने के लिये तुम्हें या तो सागर की कल्पना करनी पड़ती है, या नील गगन, विस्तृत मैदान अथवा अन्य किसी वस्तु की, जिसे तुमने अपने जीवन में देखा है। यदि ईश्वर की सर्वव्यापकता का अर्थ तुम्हारे लिये इतना ही है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि तुम उस विषय में कुछ नहीं समझते हो। ऐसी ही कठिनाई ईश्वर की अन्य उपाधियों का अर्थ समझने में भी होती है।
जैसे, ईश्वर के लिये सर्वशक्तिमान या सर्वज्ञ का जो विशेषण लगाया जाता है, उसके विषय में हमारी धारणा क्या है ?--कुछ भी नहीं। अनुभूति ही धर्म का सार है, और मैं तुम्हें ईश्वर का उपासक तभी मानूँगा, जब तुम उसके 'सच्चिदानन्द' स्वरुप अनुभव कर सकोगे। जब तक तुम्हें यह अनुभूति नहीं होती, तब तक तुम्हारे लिये 'अल्ला, ईश्वर या ब्रह्म' कुछ अक्षरों से बना एक शब्द मात्र है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। यह अनुभूति ही धर्म का सार है; तुम चाहे जितने भी सिद्धान्तों, दर्शनशास्त्रों या नीतिशास्त्रों को अपने मस्तिष्क में ठूँस लो, पर इससे कुछ विशेष लाभ नहीं होगा। धर्मलाभ केवल तभी होगा जब तुम स्पष्ट रूप से यह जान लोगे कि ' what you are and what you have realised.' वास्तव में तुम स्वयं कौन हो ? क्या हो? और तुमने क्या अनुभव किया है?
जब निर्गुण ब्रह्म (परम तत्व-सच्चिदानन्द) को हम माया के कुहरे में से देखते हैं, तो वही सगुण ब्रह्म या ईश्वर (इष्टदेव 'The Personal God' या ठाकुर) कहलाते हैं ! जब हम परम-तत्व को पंचेन्द्रियों के माध्यम से पाने की चेष्टा करते हैं, तो उसे हम सगुण ब्रह्म  के रूप में ही देख सकते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि 'Self cannot be objectified.' अर्थात आत्मा को मन-वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि आत्मा इन्द्रियगोचर वस्तु है ही नहीं ! How can the Knower know Itself ? जो  ज्ञाता है, वह स्वयं अपना ज्ञेय कैसे हो सकता है ?
किन्तु किसी प्रशान्त चित्त में उसका मानो प्रतिबिम्ब पड़  सकता है - चाहो तो इसे आत्मा का विषयीकरण कह सकते हो। इसी प्रतिबिम्ब का सर्वोत्कृष्ट रूप, ज्ञाता को ज्ञेय रूप में लाने का महत्तम प्रयास - यही सगुण ब्रह्म (ठाकुर या Personal God) कहलाते हैं। आत्मा शाश्वत ज्ञाता है, और हम निरंतर उसे ज्ञेय रूप में ढालने का प्रयत्न कर रहे हैं। इसी संघर्ष से इस जगत-प्रपंच की सृष्टि हुई है, इसी प्रयत्न से जड़ पदार्थ (पंचभूत) आदि की उत्पत्ति हुई है। 
पर ये सब आत्मा के निम्नतम रूप हैं, और हमारे लिये आत्मा का सर्वोच्च सम्भव ज्ञेय रूप तो वह है, जिसे हम 'ईश्वर' कहते हैं। विषयीकरण का यह प्रयास हमारे स्वयं अपने स्वरुप के प्रकटीकरण का प्रयास है। सांख्य के अनुसार, प्रकृति यह सब खेल पुरुष को (शरीर के साथ तादात्म्य में बाँधे रखने के लिये) दिखला रही है, और जब पुरुष को यथार्थ अनुभव हो जायगा (मैं मरणधर्मा शरीर नहीं हूँ !!), तब वह अपना स्वरुप जान लेगा। अद्वैत वेदान्ती के मतानुसार, जीवात्मा अपने को अभिव्यक्त करने का प्रयत्न कर रही है। लम्बे संघर्ष के बाद जीवात्मा जान लेती है कि ज्ञाता तो ज्ञाता ही रहेगा, ज्ञेय नहीं हो सकता, तब उस जीवात्मा को वैराग्य हो जाता है, और वह मुक्त हो जाती है। 
जब मनुष्य उस पूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तब उसका स्वाभाव ईश्वर जैसा हो जाता है। जैसे ईसा ने कहा है, " मैं और मेरे पिता एक हैं !" तब वह जान लेता है कि वह ब्रह्म से. निरपेक्ष सत्ता से-- एकरूप है, और वह ईश्वर के समान लीला करने लगता है। जिस प्रकार बड़े से बड़ा सम्राट भी कभी कभी खिलौने से खेल लेता है, वैसे ही वह भी खेलता है। 
कुछ कल्पनायें ऐसी होती हैं, जो अन्य दूसरी कल्पनाओं से उद्भूत होने बंधनों को छिन्न-भिन्न कर देती हैं। यह समस्त जगत ही कल्पनाप्रसूत है, परन्तु यहाँ एक प्रकार की कल्पना दूसरे प्रकार की कल्पनाओं से उत्थित होने वाली बुराइयों को नष्ट कर देती हैं। जो कल्पनायें हमें यह बतलाती हैं कि यह संसार पाप, दुःख और मृत्यु से भरा हुआ है, वे बड़ी भयानक हैं; परन्तु जो कहती हैं, कि ' तुम पवित्र हो; ईश्वर है; दुःख का अस्तित्व ही नहीं है ' वे सब अच्छी हैं, और प्रथमोक्त कल्पनाओं से होने वाले बंधन का खण्डन कर देती हैं। सबसे ऊँची कल्पना, जो समस्त बंधन-पाशों को तोड़ सकती है-सगुण ब्रह्म या ईश्वर (श्रीरामकृष्ण) की है। 
भगवान से यह प्रार्थना करना कि ' प्रभु, अमुक वस्तु मुझे दो, अमुक वस्तु की रक्षा करो, मेरे सिर दर्द को अच्छा कर दो' आदि आदि --यह सब भक्ति नहीं है। ये तो धर्म के हीनतम रूप हैं, कर्म के निम्नतम रूप हैं। यदि मनुष्य शारीरिक वासनाओं की पूर्ति में ही अपनी समस्त मानसिक शक्ति खर्च कर दे, तो तुम भला बताओ तो, उसमें और पशु में अंतर ही क्या है ? भक्ति एक उच्चतर वस्तु है, स्वर्ग की कामना से भी ऊँची।
स्वर्ग का अर्थ असल में है क्या ? --तीव्रतम भोग का एक स्थान। वह (इन्द्र) ईश्वर कैसे हो सकता है ? केवल मूर्ख ही इन्द्रियसुखों के पीछे दौड़ते है, इन्द्रिय भोगों में लगे रहना बिल्कुल आसान है। इसीलिये आजकल के कुछ बाबा लोग, शिक्षा देते हैं, जीवन में मौज उड़ाते रहो, उस पर थोड़ी सी धर्म की छाप भी लगा दो। इन आशारामों के चेले बनने में बहुत बड़ा खतरा है। इन्द्रिय भोगों में रचे-पचे रहना ही मृत्यु है। आत्मा के स्तर पर का जीवन ही सच्चा जीवन है; अन्य मन -इन्द्रिय के स्तरों का जीवन मृत्यु स्वरूप है। यह सम्पूर्ण जीवन एक व्यायामशाला के जैसा है। यदि हम सच्चे जीवन का आनन्द लेना चाहते हैं तो हमे मन-इन्द्रियों से परे जाना ही होगा। 
जब तक मुझे 'मुझे मत छू-वाद' युम्हारा धर्म है और रसोई की पतीली तुम्हारा इष्टदेव है, तब तक तुम्हें आध्यात्मिक मनुष्य नहीं कहा जा सकता, तुम्हारी कोई आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती। धर्म धर्म के बीच जो क्षुद्र मतभेद हैं, वे सब केवल शाब्दिक हैं, उनमें कोई अर्थ नहीं। हर व्यक्ति (अहमक) सोचता है, ' यह मेरा मौलिक-मत है' और वह अपने मन-माने ढंग से ही काम करना चाहता है। इसीसे संघर्षों की उतपत्ति होती है। 
दूसरों की आलोचना करने में हम सदा यह मूर्खता करते हैं कि किसी एक विशेष गुण हम अपने जीवन का सर्वस्व समझ लेते हैं, और उसी को मापदण्ड मानकर दूसरों के दोषों को खोजने लगते हैं। इस प्रकार दूसरों को पहचानने में हम भूलें कर बैठते हैं। 
इसमें सन्देह नहीं कि कट्टरता (fanaticism) और धर्मान्धता (bigotry) द्वारा किसी धर्म का प्रचार बहुत तेजी से किया जा सकता है, किन्तु नींव उसी धर्म की दृढ़ होती है जो हर एक को अपना अभिमत व्यक्त करने की स्वतंत्रता देता है, और इसतरह उसे उच्चतर मार्ग पर आरूढ़ कर देता है; भले ही इससे धर्म-प्रचार की गति धीमी हो। 
भारत को पहले आध्यात्मिक विचारों से आप्लावित कर दो, फिर अन्य विचार अपने आप ही आ जायेंगे। आध्यात्मिकता और आध्यात्मिक ज्ञान (spiritual knowledge) का दान सर्वोत्तम दान है, क्योंकि यह हमें संसार के आवागमन से मुक्त कर देता है; इसके बाद है लौकिक ज्ञान ( secular knowledge) का दान, क्योंकि यह आध्यात्मिक ज्ञान के लिये हमारी आँखें खोल देता है; इसके बाद अत है जीवन-दान, और चौथा है अन्न दान।
यदि  साधना (मनः संयोग- ' austerities for realisation' अपने ब्रह्मस्वरूपता की अनुभूति करने के लिये तपस्या ) करते करते शरीरपात भी हो जाय, तो होने; इससे क्या ? सर्वदा साधुओं की संगति (सत्संग)  में रहते रहते समय आने पर आत्मज्ञान तो होकर रहेगा ! एक ऐसा समय भी आता है, जब मनुष्य की समझ में यह बात आ जाती है कि किसी दूसरे व्यक्ति के लिये चिलम भरकर उसकी सेवा करना लाखों बार के ध्यान से कहीं बढ़कर है। जो व्यक्ति ठीक ठीक चिलम भर सकता है, वह ध्यान भी ठीक तरह से कर सकता है।
देवगण ( यम, वरुण , इन्द्र, वायु, अग्नि ?)  और कोई नहीं उच्च अवस्थाप्राप्त दिवंगत मानव हैं। हमें उनसे  सहायता मिल सकती है। हर कोई आचार्य या गुरु  नहीं हो सकता, किन्तु मुक्त (liberated) बहुत से लोग हो सकते हैं।
मुक्त पुरुषों को यह जगत स्वप्नवत जान पड़ता है, किन्तु आचार्य ( नचिकेता के गुरु यमाचार्य जैसा) को मानो स्वप्न और जाग्रत, इन दोनों अवस्थाओं के बीच खड़ा होना पड़ता है। उसे यह ज्ञान रखना ही पड़ता है कि जगत सत्य है, अन्यथा वह शिक्षा क्योंकर देगा ? फिर, यदि उसे यह अनुभूति न हुई हो कि जगत स्वप्नवत है, तो उसमें और एक साधारण आदमी में अन्तर ही क्या ? - और वह शिक्षा भी क्या दे सकेगा ? गुरु को शिष्य के पापों का बोझ वहन करना पड़ता है; और यही कारण है कि शक्तिशाली आचार्यों (दीक्षा देने में समर्थ गुरु) के शरीर में भी रोग प्रविष्ट हो जाते हैं। यदि गुरु अपूर्ण हुआ, तो शिष्य के पाप उसके मन पर भी प्रभाव डालते हैं, और इस तरह उसका पतन हो जाता है। अतः आचार्य  होना बड़ा कठिन है। 
आचार्य या गुरु  होने की अपेक्षा जीवन्मुक्त (free in this very life) होना सरल है। क्योंकि जीवन्मुक्त संसार को स्वप्नवत मानता है और उससे कोई वास्ता (concern) नहीं रखता; पर आचार्य को यह ज्ञान होने पर भी कि जगत स्वप्नवत है, (करुणा से वशीभूत होकर) उसमें रहना और कार्य करना पड़ता है। हर एक के लिये आचार्य होना सम्भव नहीं है। आचार्य तो वह है, जिसके माध्यम से दैवी शक्ति कार्य करती है ! आचार्य का शरीर अन्य मनुष्यों के शरीर से बिल्कुल भिन्न प्रकार का होता है ! उस (आचार्य के) शरीर को निर्दोष-अवस्था (perfect state या आदर्श अवस्था) में बनाये रखने का एक विज्ञान (मनःसंयोग या पातंजल योग-सूत्र) है! उसका शरीर बहुत ही कोमल (मक्खन के समान), उसका हृदय अत्यंत संवदेनशील (seismograph भूकंप- सूचक यंत्र के समान) - तीव्र खुशी और तीव्र पीड़ा के कंपन को महसूस करने में सक्षम होता है ! वह असाधारण होता है।
जीवन के सभी क्षेत्रों में हम यही देखते हैं, कि हृदयस्थ सच्चे व्यक्तित्व (person within) की ही विजय होती है; और वह यथार्थ व्यक्तित्व (that personality : ब्रह्म-स्वरुपता की उपलब्धि) ही समस्त सफलता का रहस्य है। 
नदिया के पैग़म्बर ' चैतन्य महाप्रभु ' (या भगवान श्री कृष्ण चैतन्य) के ह्रदय में संवेदनशीलता का विकास (unfoldment) जिस सीमा तक हुआ था, वैसा उद्दात विकास अन्यत्र कहीं देखने में नहीं आता।
श्री रामकृष्ण एक महान दैवी शक्ति हैं। तुम्हें यह नहीं सोचना चाहिये कि उनका सिद्धान्त यह है या वह। बल्कि यही सोचना चाहिये कि वे एक महान शक्ति हैं, जो अब भी उनके शिष्यों में वर्तमान है और संसार में कार्य कर रही है ! मैंने उनको, उनके विचारों के रूप में (अपने ही भीतर) विकसित होते हुए देखा है। वे आज भी कई मनुष्यों के भीतर विकसित हो रहे हैं। 'Shri Ramakrishna' was both a Jivanmukta and an Acharya. श्री रामकृष्ण जीवन्मुक्त भी थे और आचार्य (teacher of mankind- मानवजाति का मार्गदर्शक नेता ) भी !
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