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सोमवार, 10 मार्च 2014

'आत्मसात करने योग्य जीवन-मूल्य ' (Values To Imbibe)

जीवन-मूल्यों का मूल्य
 ' Value of Values '
यदि हम स्वयं एक सम्मानित जीवन जीना चाहते हों, तथा अपने रहने के लिए एक सुन्दर समाज का निर्माण भी करना चाहते हों तो हमें जीवन-मूल्यों के मूल्य का पता अवश्य लगाना चाहिये और उसकी कदर करनी चाहिए। इन दिनों हमारी अभिरुचि ऐसे शब्दों का प्रयोग करने की ओर अधिक है जो हमें मोहित कर सकती हों। किन्तु, शायद हम स्पष्ट रूप से यह नहीं समझते कि वे शब्द वास्तव में किस भावना का प्रतिनिधित्व करते हैं? उन्हीं में से एक शब्द है- 'मूल्य' (values) हम प्रायः शिक्षा और व्यवसाय के हर क्षेत्र में मूल्य अनुस्थापन करने पर चर्चा करते हैं, हम मूल्य आधारित राजनीति, मूल्य आधारित शिक्षा आदि की बातें करते हैं किन्तु, यदि कोई यह पूछे कि वे मूल्य हैं क्या, जिन्हें आप शिक्षा अथवा व्यवसाय के प्रत्येक क्षेत्र में एक नीति के रूप में अनुस्तापित करना चाहते हैं, तो क्या हमें इसकी स्पष्ट व्याख्या प्राप्त होती है? क्या हम सभी लोग जीवन-मूल्यों के मूल्य को पहचानते हैं अथवा क्या हम सुस्पष्ट तरीके से जीवन-मूल्यों को परिभाषित कर सकते हैं ? क्या हमलोग भी अन्य देशों की नकल करते हुए प्रायः ऐसा सुझाव नही देते हैं कि पुराने मूल्यों का त्याग कर दिया जाना चाहिए और नए मूल्यों का निर्माण करना चाहिये? क्या सामाजिक जीवन से पुराने मूल्यों को निकाल कर नये मूल्यों को अनुस्थापित करना किसी पुराने भवन को गिरा कर नये भवन का निर्माण करने जितना आसान सुझाव माना जा सकता है ? जिन लोगों की हाथों में सत्ता की बागडोर है, वे क्या इतना भी समझते हैं कि इस प्रकार का सुझाव हमें कहाँ ले जायगा ?
{ऑस्कर वाइल्ड (1854-1900) शेक्सपीयर के उपरांत सर्वाधिक चर्चित ऑस्कर वाइल्ड सिर्फ एक उपन्यासकार, कवि और नाटककार ही नहीं थे, अपितु वे एक संवेदनशील मानव थे। उन्होंने सारी दुनिया में अपने लेखन से हलचल मचा दी थी।  उनके लेखन में जीवन की गहरी अनुभूतियाँ हैं, रिश्तों के रहस्य हैं, पवित्र सौन्दर्य की व्याख्या है, मानवीय धड़कनों की कहानी है। ऑस्कर वाइल्ड भविष्यवक्ता 'कीरो' के समकालीन थे। कीरो उनके दोनों हाथों के अन्तर को देखकर हैरान रह गए। दोनों में बड़ा अंतर था। जहाँ बाएँ हाथ की रेखाएँ कह रही थीं कि व्यक्ति असाधारण बुद्धि और अपार ख्याति का मालिक है। वहीं दायाँ हाथ..? कीरो ने कहा " दायाँ हाथ ऐसे शख्स का है जो अपने को स्वयं देश निकाला देगा और किसी अनजान जगह एकाकी और मित्र विहीन मरेगा।" कीरो ने यह भी कहा कि ४१ से ४२ वें वर्ष के बीच यह निष्कासन होगा और उसके कुछ वर्षों बाद मृत्यु हो जाएगी।"१८९५ में ऑस्कर वाइल्ड ने समाज के नैतिक नियमों का उल्लंघन कर दिया। फलस्वरूप समाज में उनकी अब तक अर्जित प्रतिष्ठा, मान-सम्मान और सारी उपलब्धियाँ ध्वस्त हो गईं। यहाँ तक कि उन्हें दो वर्ष का कठोर कारावास भी भुगतना पड़ा। 
जब ऑस्कर वाइल्ड ने अपने सौभाग्य के चमकते सितारे को डूबते हुए और अपनी कीर्ति पताका को झुकते हुए देखा तो उनके धैर्य ने जवाब दे दिया। अब वे अपने उसी गौरव और प्रभुता के साथ समाज के बीच खड़े नहीं हो सकते थे। हताशा की हालत में उन्होंने स्वयं को देश निकाला दे दिया। वे पेरिस चले गए और अकेले गुमनामी की जिंदगी गुजारने लगे। कुछ वर्षों बाद ३० नवंबर १९०० को पेरिस में ही उनकी मृत्यु हो गई। उस समय उनके पास कोई मित्र नहीं था। यदि कुछ था तो सिर्फ सघन अकेलापन और पिछले सम्मानित जीवन की स्मृतियों के बचे टुकड़े। कई बड़े साहित्यकारों की तरह उन्होंने भी विषपान किया, नीलकंठ बने और खामोश रहे। विश्व साहित्य का यह तेजस्वी हस्ताक्षर आज भी पूरी दुनिया में स्नेह के साथ पढ़ा और सराहा जाता है।}
ऑस्कर वाइल्ड ने अपने अनंत अनुभवों के आधार पर एक जगह लिखा-'विपदाएँ झेली जा सकती हैं, क्योंकि वे बाहर से आती हैं किन्तु, अपनी गलतियों का दंड भोगना- हाय वही तो है जीवन का दंश !' हालाँकि वे स्वयं एक नैतिक आरोप के दोषी थे किन्तु, उन्होंने लिखा था " दोषदर्शी मनुष्य (निन्दक या cynic) वह है जो प्रत्येक वस्तु की कीमत तो जानता है, किन्तु किसी का भी मूल्य नहीं समझता।" उनका यह वक्तव्य हमारे प्रश्न में अंतर्दृष्टि प्रदान कर उसे पूरा कर देता है, साथ-साथ मूल्यों (Values) के विषय में ऐसा बोध भी देता है कि इसकी माप-तौल- इसका नकद मूल्य क्या होगा अथवा तात्कालिक लाभ कितना होगा के पैमाने से  नहीं की जा सकती। कहा जा सकता है कि " मूल्य, सन्तुष्टि की वह भावना है, जो अन्तर्निहित शक्ति (दिव्यता) के वास्तविकरण (actualization) के द्वारा प्राप्त होती है।"
विख्यात ब्रिटिश दार्शनिक और गणितज्ञ अल्फ्रेड नार्थ  व्हाइटहेड (१८६१- १९४७) ने, भले ही इसका अर्थ उन्होंने जो समझा हो, कहा था-[ 'it (value) is the ultimate enjoyment of being actual']" यह (मूल्य) यथार्थ या वास्तविक होने का परम-आनंद है मूल्य का एहसास तब होता है जब सृजन से हमें सन्तोष प्राप्त होता है, ऐसा नहीं है कि जब मूल्य सृजित होता है तब हम सन्तुष्ट होते हैं। मूल्य का सृजन नहीं किया जा सकता। वे प्लेटो के विचार के जैसे शाश्वत हैं।" 
हमलोग भागवत में पाते हैं कि सृजनकर्ता (ब्रह्म) अपनी सृष्टि से तब तक सन्तुष्ट नहीं हुए थे जब तक उन्होंने उस मनुष्य का सृजन नहीं कर लिया जो अपने सृजन करने वाले 'ब्रह्म' को भी जानने की क्षमता से युक्त था। ब्रह्म को जान लेने के बाद ही मनुष्य को उच्चतम संतुष्टि प्राप्त होती है। और इसलिये भारतीय सांस्कृतिक संदर्भ में 'ब्रह्मविद्' होने, या ब्रह्म को जान लेने को सर्वोच्च मूल्य के रूप में मान्यता प्राप्त है, जिस प्रकार पश्चिमी विचारों के अनुसार उत्तम (Good) की अवधारणा को उच्चतम मूल्य के रूप में जाना जाता है। 
फिर ब्रिटिश प्रकृतिवादी दार्शनिक शमूएल अलेक्जेंडर का मानना था, भले ही इसका अर्थ जो भी समझते हों, कि 'देश-काल' (space time) ही समस्त प्रकार के अस्तित्वों का चरम या मूल द्रव्य (ultimate principle) है। वे कहते हैं, " वाह्य पदार्थों के अनुभवजन्य गुणों से भिन्न, मूल्य- मानों जीवन की बनावट या सौरभ हैं।" अर्थात मानवीय प्रशंसा के साथ वस्तु के एकीकरण (amalgamation) की दृष्टि  को मूल्य कहते हैं। 'परम सत्य की अनुभूति' जैसा कि माना जाता है, मात्र अक्षरों के मेल से बना कोई वाक्य ही नहीं है, वरण एक कर्तव्य-निर्देश का प्रस्ताव है। जिस प्रकार 'सौन्दर्य' अनुभव करने की वस्तु है तथा 'अच्छा' या 'good' वह है जिसे पाकर मनुष्य सन्तुष्ट हो जाये।
मूल्य अनुभव करने की वस्तु है उसे न तो सृजित किया जा सकता है और न ही नष्ट किया जा सकता है 'मूल्य' एक एहसास है, जिसे महसूस किया और सराहा जाता है, पहचान करके उसकी कदर की जाती है। अतः हमलोग पुराने मूल्यों का समुच्चय कहते हुये उसे नष्ट करके, मूल्यों के नये समुच्य का सृजन करने की बात सोच भी नहीं सकते। आम तौर पर हमलोग, मूल्यों (बहुवचन) की बात क्यों करते हैं, केवल मूल्य (एकवचन) की बात क्यों नहीं करते ? क्योंकि मूल्यों का एक अनुक्रम (hierarchy) होता है, इसीलिये सभी मनुष्यों में 'परम' (highest) को अनुभूत कर लेने की क्षमता एक समान नहीं होती फिर भी, किसी मनुष्य के लिये मूल्यरहित क्षेत्र से मूल्यों के क्षेत्र में उभर आने से बेहतर बात और कुछ हो नहीं सकती। अतः उच्च मूल्यों का अनुभव करने के लिए, हमें मूल्यों के अनुक्रम के अनुसार धीरे-धीरे ही प्रयास करना पड़ेगा। 
 'मूल्यों' की अनुभूति शाश्वत-सत्य के साथ मानव-मन की अंतःक्रिया (interaction) के माध्यम से की जाती है। जितनी प्रगाढ़ अंतःक्रिया होगी उतने ही उच्च मूल्य की अनुभूति होगी। इसलिए शाश्वत-सत्य को समझने के प्रयास (हर नाम-रूप के पीछे 'तू') में वाली चित्त की शुद्धता या मन के संशोधन (refinement) के ऊपर ही हमारा मूल्यबोध निर्भर करता है। सत्य के साथ मन की अंतःक्रिया के कारण मन का शोधन जितना उच्चतर होता जायेगा, उतना ही उच्च से उच्चतर मूल्यों को मान्यता देने से प्राप्त होने वाली सन्तुष्टि के मूल्यांकन में भी वृद्धि होती जायेगी। यदि पशुओं में भी मूल्यों को पहचानने या कदर करने की क्षमता होती, तो वे केवल खाने, सोने, आत्मसुरक्षा करने और वंश-विस्तार को ही अपना मूल्य समझकर सन्तुष्ट हो जाते। जो व्यक्ति इसी प्रकार के मूल्यों का अनुभव करने में संतुष्ट रहता है, वह मनुष्य होकर भी पशु-स्तर का जीवन व्यतीत करता है। भर्तृहरि कहते हैं- 
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानम् न शीलं न गुणो न धर्मः |
ते मृत्युलोके भुवि भारभूताः मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति ||

- अर्थात जो विद्या, तप , दान ज्ञान शील और गुण धर्म से रहित है वह इस मृत्युलोक में धरती पर भार स्वरुप है और मनुष्य के रूप में पशु ही है! ऐसे ही लोगों की संख्या आज बढ़ती जा रही है -ये संस्कारित या चरित्रशील लोग नहीं है - बस केवल उनका ढाँचा ही मनुष्य का है, वास्तव में वे हिंस्र पशु ही हैं -इनसे सावधान रहने की जरुरत है! हिंस्र पशुओं का मनुष्य रूपी झुण्ड बेख़ौफ़ बड़े शहरों में विचरण कर रहा है -जिसका परिणाम है आये दिन होने वाले दामिनी काण्ड; हम अभिभावक अपने बच्चों को यह बात क्यों नहीं समझ पा रहे हैं ? माना कि सहज विश्वास और भरोसा मानवीय गुण हैं किन्तु, हमारे पास एक तर्कशील दिमाग भी तो है; हमें अपने बच्चों को पशु रूप में विचरण करने वाले पशु मानव-और देव मानव में विवेक कैसे किया जाता यह गुण  सीखना होगा। 
बहरहाल आगे से हमारे बच्चे श्रद्धा और विवेक क्या है - इसे अवश्य समझें और आत्मरक्षा (सेफ्टी फर्स्ट) के प्रति सतर्क रहने की चेष्टा भी करें, क्योंकि घोर जंगल में बिना होशियारी निर्द्वन्द्व विचरण कोई बुद्धिमानी नहीं है। और बिना विवेक-प्रयोग किये जो सहज विश्वास कर लिया जाता है, यह अविवेक ही विश्वासघात के मूल में है। आज बड़े बड़े शहर भी जंगल सरीखे हो गये हैं, क्योंकि किसी का किसी से कोई वास्ता नहीं है -सब अजनबी हैं-इम्पर्सनल! यह अजनबीपन ही पशु-मानवों में कबीलाई मानसिकता, आक्रामकता को पोषित करता है और क्षेत्रीयता की भावना (मराठी मानुष रूपी टेरिटोरियलिज्म) को बढ़ावा देता है
इस पशु-स्तर से ऊपर उठने के लिये उसे 'शाश्वत-सत्य' (प्रतिभासिक सत्य और असत्य के बीच विवेक) के साथ गहरी बातचीत करने के माध्यम से उच्चतर मूल्यों को पहचान कर सन्तुष्टि की तलाश करनी चाहिये। मूल्यों के उच्च से उच्चतर अनुक्रम का  यथाक्रम अनुभव करते हुए धीरे-धीरे, एक एक सीढ़ी चढ़ता हुआ मनुष्य अपने  जीवन की बृहत्तर पूर्णता की ओर अग्रसर होता रहता है। जहाँ  मूल्य  (values) सत्य के मूल्यांकन के लिये माप-तौल  हैं, वहीँ वे हमें मनव-जीवन की बृहत्तर पूर्णता की अग्रसर  रहने के लिये अनुप्रेरित भी करती हैं। इस प्रकार मूल्यों की पश्चिमी अवधारणा की निकटतम भारतीय अवधारणा- चार प्रकार के पुरुषार्थों के दृष्टिकोण में प्राप्त होती हैं।
चार प्रकार के पुरुषार्थों में पहला है - धर्म अर्थात वैसी साधुता (righteousness) जो हमें नेकी या सद्कर्म (right action) करने के लिये प्रेरित करे, दूसरा है -अर्थ अर्थात अवश्यकताओं को पूरा करने के लिये धन-दौलत अर्जित करना, तीसरा पुरुषार्थ है- काम (desires या आकांक्षा या कामना-वासना), चौथा और अंतिम पुरुषार्थ है -मोक्ष अर्थात धन-दौलत और कामदेव की दासता से मुक्ति ! धर्म अथवा साधुता विवेक-प्रयोग के द्वारा प्राप्त होती है, विवेक कहते हैं सत्य-मिथ्या, शाश्वत-नश्वर, अच्छा-बुरा या श्रेय-प्रेय को अलग अलग पहचान लेने की क्षमता को। 
किसी यथार्थवादी अमेरिकन दार्शनिक ने, जो यह मानता था कि 'स्वामी विवेकानन्द सम्पूर्ण मानवता के लिए एक पूजनीय मनुष्य थे।' एक पत्र में उन्हें गुरु (Master) कहकर संबोधित किया था, और लिखा था- ' संक्षेप में कहें तो 'परमसत्य' हमारे न्याय संगत चिन्तन का एकमात्र सहारा है, जिस प्रकार साधुता या नेकी ही व्यवहार का एकमात्र साधन है।' विलियम जेम्स कहते हैं- "लगभग किसी भी फैशन में वांछनीय एवं प्रत्यक्ष अनुभव में आने वाले लम्बे समय के लिये लाभकारी समस्त व्यवहार, अनिवार्य रूप से भविष्य में होने वाले समस्त अनुभवों के लिये उतना ही सन्तोषप्रद नहीं होता।" इस कथन की तुलना गीता १८/३७-३९में श्रीकृष्ण द्वारा तीन प्रकार के सुखों के विषय में कहे गए कथन से करें-

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ।।37।।
विषयेन्द्रिसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ।।38।।
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मन: ।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ।।39।।

जो ऐसा सुख है, वह आरम्भकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है, परंतु परिणाम में अमृत के तुल्य है; इसलिये वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है ।।37।।  जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है, वह पहले भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है; इसलिये वह सुख राजस कहा गया है ।।38।। जो सुख भोग काल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है- वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है ।।39।। ] 
' जो अभी स्वादिष्ट  लग रहा है, बाद में कड़ुआ लग सकता है, और जो अभी विष जैसा लग रहा है, वही बाद में अमृत के जैसा प्रतीत होने वाला है। ' इस लिये तुम अर्थ (रूपये-पैसे) और काम (इच्छा) की बागडोर धर्म (विवेक) के हाथों में तब तक रखो, जब तक तुम इन सबसे ऊपर नहीं उठ जाते - जहाँ मोक्ष (समस्त इच्छाओं से मुक्ति) के आलोक में  सच्चा सुख है ! मनु स्मृति में भी कहा गया है- किसी भी प्रकार की पर-निर्भरता दुःखों का कारण है, एवं पूर्णतः आत्म-निर्भर हो जाने में ही सुख निहित है। संक्षेप में सुख और दुःख के यही लक्षण है। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि आप अपने जीवन में मूल्यों को कितना मूल्य देते हैं तथा अपने जीवन में किस प्रकार मूल्यों को अपनाते हैं। आप मूल्यों को कितना मूल्य देंगे वह निर्भर करता है आपकी वैसी प्रसंशा के ऊपर जैसी आप अपने पर्स या जेब में रखे मूल्य के लिये करते हैं।
श्रीरामकृष्ण एक कहानी कहा करते थे- " किसी धनी व्यक्ति ने अपने नौकर को हीरे का एक टुकड़ा  देकर उसका मूल्य जानने के लिये एक बैंगन बेचने वाले के पास भेजा। उसने लौट कर बताया कि बैंगन वाला उस हीरे के बदले ९ सेर से अधिक एक भी बैंगन देने को राजी नहीं है। फिर उसे एक बजाज के पास भेजा गया। बजाज ने उसके बदले नौ सौ रुपये से एक रुपया अधिक देने को राजी नहीं हुआ। तब उसके मालिक ने उसे एक जौहरी के पास भेजा। जौहरी पहचान सकता था कि यह एक सच्चे हीरे का टुकड़ा है, तथा बिना मोलमुलाई किये एक लाख देने की पेशकश कर दी।'
हम लोग किसी वस्तु का मूल्य का आकलन केवल यह देखकर ही नहीं करते कि अभी तुरन्त उसका नकद मूल्य क्या है, बल्कि उसके वास्तविक मूल्य को पहचान करने की हमारी क्षमता के अनुसार करते हैं कि वह अंततः हमारे जीवन को कितना मूलयवान बना सकते हैं। मूल्यों का प्रस्तावित मोल, सत्यता (reality) का मूल्यांकन करने की हमारी क्षमता पर निर्भर करता है। सत्यता के साथ अपने एकत्व की अनुभूति कर लेने से जो बृहत्तम आनन्द प्राप्त होता है, उसे परमानन्द (bliss) कहते हैं, और जिससे मानव-जीवन को उच्चतम सन्तुष्टि उपलब्ध होती है। 
जिस परमानन्द को पाकर मनुष्य सदा के लिये सन्तुष्ट हो जाता है, कोई इच्छा शेष नहीं रह जाती,सदा के लिये पूर्णकाम हो जाता है, उसी अवस्था मुक्ति या मोक्ष की अवस्था कहते हैं। शाश्वत सत्य- ' हर देश में तू हर भेष में तू ' का बहुत छोटा मूल्य निर्धारण, अर्थात अपने और पराये में भेद-बुद्धि रखने से जीवन के बहुत निम्न स्तर के मूल्यों की समझ ही प्राप्त हो सकती है। इस प्रकार जीवन में पूर्णता की उपलब्धि इस बात पर निर्भर करती है कि हम अपने जीवन में आत्मसात करने के लिये किस स्तर के मूल्यों का चयन करते हैं, एवं उन मूल्यों के लिया कितना मूल्य चुकाने को तैयार हैं? अतेव सामाजिक जीवन की गुणवत्ता उसमें रहने वाले मनुष्यों के वैयक्तिक जीवन में आत्मसात किये गये चारित्रिक गुणों की गुणवत्ता पर निर्भर करती है।
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शनिवार, 8 मार्च 2014

चरित्र के गुण :२२-२४: " संघ-बद्ध सेवा का महत्व "

 " आत्मश्रद्धा - सहानुभूति-  सेवापरायणता "
( Self Reverence- Sympathy - Service Attitude) 
२२." आत्मश्रद्धा " ( Self Reverence) : जो व्यक्ति सत्य को स्वीकार करता है, वह अपने अन्दर की 'सत्ता' के प्रति सच्ची श्रद्धा रखता है। तथा अपनी सत्ता या अस्तित्व को ही 'परम-वस्तु' समझ कर उस पर दृढ़ता से विश्वास करने, जानने और उसे अभिव्यक्त करने के लिए सचेष्ट रहता है। 'श्रद्धा' एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है - "आस्तिक्य बुद्धि "। अर्थात अपने अन्तर्निहित 'सत्य-वस्तु'  यानि अपनी सत्ता, अस्तित्व, आत्मा या ब्रह्मवस्तु को स्वीकार करना। अर्थात वह सत्य-वस्तु जो अविनाशी और अपरिवर्तनशील है - हम सबके अन्दर है। इसी शास्त्र-वाक्य या गुरु-वाक्य में विश्वास रखने और उसके प्रति श्रद्धावान रहने को आस्तिकता कहा जाता है।
' अस्ति इति ' का अर्थ है- 'वह' हैं ! हमारे अन्दर ही है- इसमें पूरा विश्वास रखना। इसको ही आत्मश्रद्धा कहते हैं। अपनी यथार्थ 'सत्ता' के प्रति श्रद्धा, अर्थात अपनी आत्मा में श्रद्धा। जीवन की प्रत्येक उपलब्धी का मूल यह श्रद्धा ही है। जिसमें आत्मश्रद्धा नहीं है, उसके जीवन में कुछ भी सार नहीं है। उस व्यक्ति के द्वारा कुछ भी श्रेष्ठ हो पाना सम्भव नहीं है। उसका सारहीन जीवन मूल्यहीन होते हुए धीरे-धीरे सूख जाता है। वह नवीन फूल-फल और हरे-भरे पत्तों से समृद्ध नहीं हो पाता। उसका जीवन सार्थक नहीं हो पाता। इसीलिए स्वामीजी कहते थे- " श्रद्धावान बनो " ! स्वामीजी कहते हैं " असीम की कौन सहायता कर सकता है ? वह हाथ भी, जो तुम्हारे पास अंधकार के बीच से आयेगा, तुम्हारा अपना ही हाथ होगा। " (६/२८७)

२३." सहानुभूति " ( Sympathy ): जो व्यक्ति अपनी यथार्थ सत्ता या आत्मा के प्रति श्रद्धावान या विश्वासी है वह दूसरों के ह्रदय में स्थित आत्मा पर भी श्रद्धा करता है, विश्वास करता है। इसीलिए उसमें कोई भेदबुद्धि नहीं रहती, अपने-पराये का बोध नहीं रहता, वह सभी को अपने समान प्रेम करता है। वह सभी के आनन्द से आनन्दित और दुःख से दुःखी होता है। इसी अद्भुत शक्ति को 'सहानुभूति' कहते हैं। सहानुभूति या समानुभूति की क्षमता आ जाने के कारण उसे दूसरों के सुख या दुःख में ठीक उसी प्रकार की अनुभूति होने लगती है।  यही है- सहानुभूति। 
२४." सेवापरायणता " ( Service Attitude) : वही अद्भुत अनुभूति जिसका नाम 'सहानुभूति' है, किसी भी मनुष्य के अन्दर सेवा करने की प्रेरणा जागृत कर देती है। सहानुभूति सम्पन्न व्यक्ति के ह्रदय में इतना प्रेम आ जाता है कि दूसरों का दुःख दूर करने की इच्छा उसमें स्वतः जग उठती है। क्योंकि वह दूसरों को भी अपने ही समान समझता है या दूसरे मनुष्य को भी अपना ही एक रूप समझता है। इसीलिए दूसरे के दुःख को दूर करने और सुखी बनाने के लिये उसके ह्रदय में एक ज्वार सा उठता हुआ अनुभव होता है। वह अब दूसरों की सेवा करने की चेष्टा किए बिना रह ही नहीं सकता। उस चेष्टा में वह किसी भी तरह का कष्ट उठाने से पीछे नहीं हटता, इस अभियान में वह अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु के त्याग को भी बड़ा त्याग नहीं समझता है। इसीलिए आत्मश्रद्धा रहने से, मनुष्य बन जाने से, चरित्र गठन कर लेने से, अविश्वास, घृणा, द्वेष, हिंसा, प्रताड़ना और शोषण  के लिए मन में कोई जगह ही नहीं रह जाता है।
 चूँकि सहानुभूति जन्य स्वजनबोध और प्रेम ही सम्पूर्ण मानवता को एकता के सूत्र में पिरो सकती है। इसीलिये प्रत्येक महामण्डल कर्मी देशवासियों की सेवा में अपने जीवन को न्योछावर कर यथार्थ सार्थकता की उपलब्धी करता है। ऐसे व्यक्ति अपने महामुल्यवान मानव जीवन को क्षुद्र स्वार्थ बोध और व्यक्तिगत सुख प्राप्ति की खोज में नष्ट होने से बचा लेते हैं।
जब ऐसे ही चरित्र सम्पन्न कर्मियों का जो संगठन( महामण्डल) भारत में जब पुरी तरह से तैयार हो जाएगा तो  वह नीचे पड़े दबे-कुचले मनुष्यों के मुख पर भी हँसी ले आयेगा। वही चरित्र-सम्पन्न युवाओं का दल समाज में व्याप्त सभी प्रकार की अनैतिकता, अत्याचार, अन्याय का प्रतिरोध करने में सक्षम होगा। यदि भारत के सभी जाति और धर्म के चरित्रवान युवा एक साथ मिलकर संगठित प्रयास करें तो एक स्वस्थ परिवेश और सुन्दर समाज का निर्माण कर सकते हैं। यदि हमारे चरित्र में यह सारे गुण आत्मसात हो जायें तो हमलोग सब कुछ कर सकते हैं, नये और महान भारत का निर्माण भी कर सकते हैं। महाभारत में बड़े ही सुन्दर ढंग से कहा गया है -
" जिता सभा वस्त्रवता, मिष्टाशागोमता जिता। 
अधवा जितो यानवता, सर्वम् शीलवता जितम्॥ "
- अर्थात सुन्दर वस्त्र पहनकर सभा को जीता जा सकता है। मिठाई खाने की इच्छा एक गाय पाल कर पूरी की जा सकती है। वाहन (कार, मोटर) रहने से रास्ते पर में विजय प्राप्त की जा सकती है, किन्तु, शील या सुन्दर चरित्र का अधिकारी बन जाने पर मनुष्य के लिए कुछ भी अलभ्य नहीं रह जाता
संघ-बद्ध होकर सेवा करने के महत्व पर प्रकाश डालते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते है -" ज्ञानमार्ग अच्छा है, परन्तु उसके शुष्क तर्क में परिणत हो जाने का डर रहता है। प्रेम बड़ी ही उच्च वस्तु है, पर निरर्थक भावुकता में परिणत होकर उसके विनष्ट होने का भय रहता है। हमें इन सभी का समन्वय ही अभीष्ट है। श्री रामकृष्ण का जीवन ऐसा ही समन्वयपूर्ण था। ऐसे महापुरुष जगत् में बहुत कम ही आते हैं, परन्तु हम उनके जीवन और उपदेशों को आदर्श के रूप में सामने रखकर आगे बढ़ सकते है। यदि हममे से प्रत्येक उस आदर्श की पूर्णता को व्यक्तिगत रूप में प्राप्त न कर सकें, तो भी हम उसे सामूहिक रूप में परस्पर एक दुसरे के परिमार्जन, सन्तुलन, आदान-प्रदान से एवं सहायक बनकर प्राप्त कर सकते हैं। यह समन्वय कई एक व्यक्तियों द्वारा साधित होगा और यह अन्य सभी प्रचलित धर्ममतों की अपेक्षा श्रेष्ठ होगा।"

चरित्र के गुण :१९-२१: द्वैत ज्ञान बिल्कुल मिथ्या है !

 १९.' ईमानदारी ' ( Honesty):
चरित्र के गुणों को अध्यवसाय के साथ निष्ठापूर्वक धीरे धीरे आत्मसात करते रहने से मनुष्य सचमुच में सत् और पवित्र हो जाता है। उसके जीवन के सभी क्रियाकलापों में पवित्रता बिल्कुल स्पष्ट रूप में झलकने लगती है।किन्तु, सत् या सच्चा मनुष्य वही हो सकता है, जो 'सत्यनिष्ठ' हो। जिस में सत्य की प्रति निष्ठा ही न हो वह व्यक्ति ईमानदार कैसे बन सकता है ? जो व्यक्ति निरन्तर सत्य में ही स्थित रहता हो, उसके सभी कर्मो, वाणी तथा  विचारों में पवित्रता का भाव सदा अक्षुण्ण बना रहता है। सत्य से थोड़ा भी दूर हट जाने पर विचार,वाणी और कर्म में असत् भाव प्रविष्ट हो जाता है। और एक बार भी वैसा हो जाने पर ह धीरे धीरे 'सत्य-वस्तु' से इतने अधिक दूर हो जाते हैं कि सच्चरित्रता रूपी स्तम्भ का उन्नत  शिखर ही टूट कर बिखर जाता है। चरित्र कि चट्टानी नींव पर ही, मानव-जीवन ऐश्वर्य कि गरिमा के साथ खड़ा रह सकता है। ऐसा न होने से पग-पग पर मिलने वाली पराजय की  ग्लानी से जीवन अन्ततः एक ऐसे गहन अँधकार में घिर जाता है जहाँ से पुनः 'आलोक के आनन्दमय राज्य' को प्राप्त करने का कोई उपाय ही शेष नही रह जाता।
इसीलिए सच्चरित्रता के स्तम्भ को खूब ऊँचा उठाये रखना होगा, ताकि हमारा जीवन व्यर्थ न हो जाय। जीवन को सुंदर ढंग से गठित कर ही सत् या 'साधू-युवा' बना जा सकता है। हम लोग 'साधु' का अर्थ संन्यासी समझते हैं। किन्तु क्या सांसारिक लोगों को भी साधु  अर्थात पवित्र नहीं होना चाहिये ? स्वामीजी कहते थे -" हमें विश्वास है कि सभी जीव ब्रह्म हैं! प्रत्येक आत्मा मानो अज्ञान के बादल से ढँके हुए सूर्य के सामान है और एक मनुष्य से दूसरे का अन्तर केवल यही है कि कहीं सूर्य के ऊपर बादलों का घना आवरण है और कहीं कुछ पतला। यही वेदों का सार है, हर एक मनुष्य को चाहिये कि वह दूसरे मनुष्य को इसी तरह अर्थात ईश्वर दृष्टि (जीवशिव वाद) से बर्ताव करे,
उससे घृणा न करे, उसे कलंकित न करे और न उसकी निन्दा ही करे। किसी तरह से उसे हानि भी पहुँचाने की चेष्टा न करे। (ऐसा साधु-युवा बन जाना ) केवल सन्यासियों का ही नहीं वरन सभी नर -नारियों का कर्त्तव्य है! " (२/३२६)
इस सत्य को नहीं जानने के कारण ही कुछ लोग सोचते हैं कि केवल संन्यासी लोग ही साधु हो सकते हैं जबकि हम तो सांसारिक मनुष्य हैं। हम यदि असत् या असाधु भी रहें तो क्या हर्ज है - ऐसी भावना भी मन में नहीं लानी  चाहिए। स्वामीजी ने गृहस्थ एवं संन्यासी दोनों को अपने-अपने क्षेत्र में महान होने का उपदेश दिया है। किन्तु, हम गृहस्थों में से बहुत से लोग असत् या 'असाधु' (बेईमान) हैं- इसीलिए आज भी देश के अनगिनत देशवासीयों की इतनी दुर्दशा है।
चरित्र में ईमानदारी के आभाव से जितनी क्षति दूसरों को होती है, उससे अधिक क्षति हमें स्वयं उठानी पड़ती है। जो ईमानदार नहीं हैं उनको जीवन के अन्त में पराजय का मुख देखना पड़ता है। कुछ लोग तर्क देतें हैं कि बहुत सारे लोग तो भ्रष्ट या बेईमान होकर भी धन-दौलत का अम्बार खड़ा कर ले रहे हैं तथा पुरा जीवन सुख-भोग में ही व्यतीत करते हैं, वे लोग अन्त में कहाँ कष्ट पाते हैं ? हाँ, यह ठीक है कि उनको सुख-भोग प्राप्त हो जाता है, किन्तु, उसके साथ-साथ दुःखभोग भी कम नहीं होता है। दुश्चिन्ता से रातों कि नींद उड़ी रहती है।  सर्वदा अनागत विपत्ति कि आशंका (निगरानी-विभाग) से मन भयभीत रहता है। ऊपर से अनेकों तरह की बिमारियाँ उन्हें जीवन सुख-शान्ति से वंचित कर देती हैं। वहीँ जीवन के पूर्ण विकसित होने पर जो अनिवर्चनीय आनन्द प्राप्त होता है, जीवन के जिस सौरभ से चारो दिशाएँ सुरभित हो उठतीं हैं- यह सब उनके जीवन में कभी घटित नहीं हो पाता। फिर जीवन का जो यथार्थ मूल्य है- वह उन्हें कभी प्राप्त नहीं हो पाता । यही सच्चाई है।
इसीलिए अपने जीवन को सार्थक करने के लिये ईमानदार होना अत्यंत आवश्यक है। बहुतों सारे लोगों में ऐसी धारणा है कि व्यापार एवं उद्दोग के क्षेत्र में तो बेईमान बनना ही पड़ता है। यह धारणा ठीक नहीं है। फोर्ड, कार्नेगी जैसे धनी-मानी उद्दोगपतियों ने ईमानदारी को ही अपना मूल धन बताया था। और उनका परामर्श यही है कि यदि प्रचुर धन अर्जित करना चाहते हो तो व्यवसाय में ईमानदारी आवश्यक है हमलोग सफलतम उद्दमियों के जीवन का गहराई से विश्लेष्ण नहीं करते, कुछ गलत उदाहरणों के आधार पर ही कार्य-कारण का आविष्कार कर यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि धन अर्जित कर सुख-भोग करने के लिये ईमानदारी को तिलांजली देना आवश्यक है। हो सकता है कि ईमानदारी से जीवन व्यतीत करने में समय-समय पर कठिनाइयों का सामना करना पड़े किन्तु,  अगर ईमानदारी को विसर्जित कर दिया जाय तो भविष्य में कष्ट भोगना ही पड़ेगा, इसमे कुछ संदेह नहीं है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " तुम चाहे हजारों समितियाँ गढ़ लो, चाहे बीस हजार राजनैतिक सम्मलेन करो, चाहे पचास हजार संस्थायें स्थापित करो, इसका कोई फल न होगा, जबतक तुम्हारे भीतर वह सहानुभूति, वह प्रेम न आयेगा जब तक तुम्हारे भीतर वह ह्रदय न आयेगा जो सबके लिये सोचता है। " (५/३१९)
२०." सत्यनिष्ठा " ( Truthfulness)
ईमानदार व्यक्ति को सत्यनिष्ठ होना होना पड़ता है। यदि सत्य से प्रेम करना सीख लिया जाय तभी सत्यनिष्ठ बना जा सकता है। किया जाता है ? किन्तु, सत्य अर्थात "ध्रुव-सत्य" है क्या वस्तु ? (जिसे देख लेने के बाद देवकुलिश अँधा हो गया था ?) सत्य वह वस्तु है जिसमें कभी परिवर्तन नहीं होता।  पहले तो यही बात समझ में नहीं आती। इसीलिए कहना पड़ता है कि, " सत्य को जानना तो अत्यन्त कठिन है !" किन्तु, जो भारत माता से प्रेम करते हैं उनमें तो यह कहने का साहस होना ही चाहिए कि, " हाँ, मैंने कठिनाई से प्रेम किया है !" "सत्य के लिए सबकुछ को छोड़ा जा सकता है, किन्तु किसी भी वस्तु के लिए 'सत्य' को नहीं छोड़ा जा सकता।" क्योंकि सत्य से अधिक मूल्यवान अन्य कोई वस्तु नहीं है। सत्य पर अटल रहने से सब कुछ प्राप्त हो सकता है, सत्य को छोड़ देने से सब कुछ चला जाता है। इसीलिए श्री रामकृष्ण ने जब 'माँ भवतारिणी' को अपना सब कुछ समर्पित कर दिया तथा अन्त में जब उनके पास केवल सत्य ही बचा रह गया तब कहा था- " माँ सत्य को नहीं दे सकूँगा, वही दे दिया तो और क्या लेकर रहूँगा ? "
सत्य दो प्रकार का होता है। एक है, वाचिक सत्य : जो घटना घटित हुई है, या जो जानता हूँ उसी को सच- सच कह देना। दूसरा है - अपनी 'सत्ता' (या सच्चे स्वरुप) को  सत्य के रूप में जान लेना, या कहना। हमारे भीतर जो सत्य या वास्तविक सत्ता है, जो अजर-अमर- अविनाशी है, (जिसको हम आत्मा या ब्रह्म कहते है) उसको भी सत्य कहा जाता है। हम अपने दैनन्दिन जीवन में सत्य का पालन कर अपनी यथार्थ सत्ता के निकट होते जाते हैं। तथा वैसा नहीं कर हम स्वयं ही अपनी यथार्थ सत्ता या सत्य से दूर चले जाते हैं। वास्तविक सत्ता से दूर हट जाने पर हमारे पास केवल एक मिथ्या आवरण (नाम-रूप का) ही बचा रह जाता है। इसीलिए श्री रामकृष्ण देव ने कहा था, 'सबकुछ दे सकता हूँ किन्तु, सत्य को नहीं दे सकूँगा।' किसी भी वस्तु के लिए सत्य को नहीं छोड़ा जा सकता क्योंकि सत्य से अधिक मूल्यवान कुछ भी नहीं है। वही तो हमारी सत्ता या 'अस्तित्व' है ! भला कोई अपने 'अस्तित्व' को कैसे दे सकता है ? अब सोचिये, भला किस वस्तु को पाने के लिए कोई व्यक्ति अपने 'अस्तित्व' को  खोना चाहेगा? इसीलिये उसी सत्य से दूर होने से बचने के लिए हमे अपने दैनन्दिन जीवन में भी सत्य का पालन करते रहना चाहिए। सत्यनिष्ठा का अर्थ है- उसी 'यथार्थ-सत्ता' के प्रति निष्ठा तथा अपने दैनिक जीवन में भी सत्य बोलना- कभी उससे दूर न होना।
{स्वामी विवेकानन्द कहते है- " यह आत्मा ही ब्रह्म (सत्य) है, जो नाम-रूप कि उपाधि (मिथ्या आवरण) के कारण अनेक प्रतीत हो रहे हैं। समुद्र की तरंगों की ओर देखो; एक भी तरंग समुद्र से पृथक् नहीं है। फ़िर भी तरंगें समुद्र से पृथक् क्यों प्रतीत होती हैं ? नाम और रूप के कारण- तरंग की आकृति और उसे हमने जो 'तरंग' नाम दिया है, बस, इन दोनों ने उसे समुद्र से पृथक् कर दिया है। नाम-रूप के नष्ट हो जाने पर वह समुद्र की समुद्र ही रह जाती है। तरंग और समुद्र के बीच भला कौन भेद कर सकता है ? अतएव यह समुदय जगत् एकस्वरूप है। जो भी पार्थक्य दीखता है, वह सब नाम-रूप के ही कारण है। जिस प्रकार सूर्य लाखों जलकणों पर पतिबिम्बित हो कर, प्रत्येक जलकण में अपनी एक सम्पूर्ण प्रतिकृति सृष्ट कर देता है, उसी प्रकार वही एक आत्मा वही एक 'सत्ता'- विभिन्न वस्तुओं में प्रतिबिम्बित होकर नाना रूपों में दिखाई पड़ती है। किन्तु वास्तव में वह एक ही है। वास्तव में 'मैं' अथवा 'तुम' कुछ नहीं है (अर्थात अलग-अलग नहीं है)- सब एक ही है। चाहे कह लो- ' सभी मैं हूँ ', या कह लो -'सभी तुम हो'। यह द्वैत ज्ञान बिल्कुल मिथ्या है, और सारा जगत् इसी द्वैत ज्ञान का फल है। जब विवेक के उदय होने पर मनुष्य देखता है कि दो वस्तुएँ नहीं हैं, एक ही वस्तु है, तब उसे यह बोध होता है कि वह स्वयं यह अनन्त ब्रह्माण्डस्वरूप है।" (वि० सा० ख० २: ३०) 
स्वामी विवेकानन्द आगे कहते हैं, " जिन्होंने सत्य को प्रत्यक्ष कर लिया है, उन्हें फिर सत्य को समझने के लिए न्याय-युक्ति, तर्क- वितर्क आदि बौद्धिक व्यायामों कि आवश्यकता नहीं रह जाती। उनके लिए तो 'सत्य' जीवन का जीवन, प्रत्यक्ष से भी प्रत्यक्ष हो जाता है। वेदान्तियों कि भाषा में, वह मानो उनके लिए हस्तामलकवत हो गया है। प्रत्यक्ष उपलब्धी करनेवाले लोग निःसंकोच भाव से कह सकते हैं-' यही आत्मा है '। तुम उनके साथ कितना ही तर्क क्यों न करो, वे तुम्हारी बात पर केवल हँसेंगे,वे उसे बच्चे की अंड-बंड बकवास ही समझेंगे; और उन्हें बकने देंगे। उन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया और पूर्ण हो गये।" (वि० सा० ख० २:३९)
21.' विश्वसनीयता ' (Reliability)
 ईमानदार पर सभी लोग विश्वास करते हैं, क्योंकि वह किसी भी परिस्थिति में सत्य का साथ नहीं छोड़ता। भला, इस तरह के व्यक्ति से अधिक विश्वास योग्य कौन हो सकता है ? इसी गुण को कहा जाता है- विश्वसनीयता। यथार्थ ईमानदार व्यक्ति कभी किसी का विश्वास भंग नही करता। तो आखिर किस व्यक्ति को अविश्वासी या धोखेबाज समझा जाता है ? वैसे व्यक्ति को अविश्वासी समझा जाता है, जिसमें सत्य के प्रति कोई आकर्षण नहीं होता एवं वैसा धोखेबाज मनुष्य किसी के भी विश्वास को भंग कर सकता है। किन्तु जो व्यक्ति ईमानदार है, जो सत्यनिष्ठ है, वह कभी धोखाधड़ी नहीं कर सकता। ऐसे ही मनुष्य को ' विश्वसनीय' कहा जाता है।

चरित्र के गुण : १७-१८: चातुर्य' (Resourcefulness) या उपयोग बुद्धि 'तीसरी-आँख' है।

१७ .साहस (Courage): आत्मविश्वास के साथ-साथ अदम्य साहस का गुण भी हमारे चरित्र में रहना चाहिये। जो व्यक्ति सदा नाना प्रकार की आशंकाओं से भयभीत रहता हो, वह कभी कुछ नहीं कर पाता। इसीलिये हमें समस्त समस्याओं का सामना अदम्य साहस के साथ करना चाहिये। नहीं तो किसी भी कार्य में सफलता नहीं प्राप्त हो सकती। अंग्रेजी की कहावत है "Success is never final; Failure is never fatal." सफलता कभी अन्तिम नहीं है, विफलता कभी जानलेवा नहीं है। " वास्तव में असफलता तो सफलता के प्रारंभिक सोपान हैं, संस्कृत का एक सुन्दर श्लोक में तीन प्रकार के मनुष्यों की बात कही गयी है -
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः
प्रारभ्य विघ्नविहिता विरमन्ति मध्याः|
विघ्नैःपुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः
प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति||
(मुद्राराक्षस २/१७)

-अर्थात निम्नकोटि के लोग विघ्नों के डरसे किसी भी कार्य का आरम्भ ही नहीं करते, मध्यम श्रेणी के मनुष्य कार्य का आरम्भ तो कर देते हैं, किन्तु कोई विघ्न आ जाने पर उसे बीच में ही छोड़ देते हैं। परन्तु, उत्तम गुणों वाले  मनुष्य प्रारब्धवश बार-बार विघ्न आने पर भी अपना (प्ररम्भ किया हुआ) कार्य कभी बीच में नहीं छोड़ते। 
स्वामी विवेकानन्द ने अपने साथ घटी एक घटना का उल्लेख करते हुए कहा था -' एकबार स्वामीजी सड़क से होकर कहीं जा रहे थे, अचानक एक विशाल बन्दर कहीं से उतर कर आया और भय दिखाते हुए उनका पीछा करने लगा। विवेकानन्द जितनी तेजी से भागने की कोशिश कर रहे थे, बन्दर भी उतनी ही तेजी से पीछा कर रहा था। स्वामीजी की ऐसी अवस्था देखकर एक वृद्ध साधू ने कहा -'बेटा, भागो मत ! घूमकर उसका सामना करो।' उनकी बात मानकर स्वामीजी ने ज्यों ही रुक कर घूमते हुए बन्दर का सामना किया, बन्दर डर कर भाग खड़ा हुआ। " 
हर समय अनागत की आशंका से भयभीत व्यक्ति के लिये किसी भी कार्य में सफलता पाना सम्भव नहीं होता। 
किन्तु, मनुष्य में साहस के साथ-साथ थोड़ी सामान्य बुद्धि भी रहनी चाहिये। मूर्खतापूर्ण दुस्साहस को धृष्टता या ढिठाई कहा जाता है, वैसा करना ठीक नहीं है। जिस कार्य को बिना अतिरिक्त उतावलापन (rashness) दिखाये भी सूसम्पन्न किया जा सकता हो, वहाँ भी निरर्थक  उतावलापन दिखाने को धृष्टता कहा जाता है। वैसा करने से अकारण ही जीवन नष्ट हो सकता है या बहुत बड़ी क्षति भी हो सकती है। किन्तु, किसी महान उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये अतिरिक्त जिद या उत्साह से भरे रहना सत्-साहस बन जाता है। इसे धृष्टता या ढिठाई नहीं कह सकते। 
 खेल-कूद में हाथ-पैर टूट सकता है यह सोचकर कोई खेल-कूद से मुख मोड़ ले, या सड़क पर चलते समय एक्सीडेंट होने के भय से कोई सड़क पर चलना ही छोड़ दे - तो यह किस बात का परिचायक होगा ? इसको कहा जायगा साहस का नितान्त आभाव। इतना डरपोक (Timid) व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। उसी प्रकार मान लो कि मैं सड़क से जा रहा हूँ, और सामने से कोई ट्रक आ रहा है, तभी मेरे मन में विचार आ जाय कि मैं तो बहुत ही साहसी हूँ, ट्रक आ रहा है तो आ जाय - मैं तो सामने नहीं ही हटूँगा ! इसको ही दुस्साहस या धृष्टता कहा जायगा। क्योंकि यदि मैं खुद को बचाने के लिये सड़क से किनारे नहीं उतरा तो उस ट्रक से कुचलकर अकारण ही मेरी जान भी जा सकती है। अतः जीवन में कुछ कर दिखाने के लिये ढिठाई या दुस्साहस नहीं, बल्कि साहस रहना चाहिये।                                                                                                                                                         
१८. " उपयोग बुद्धि या चातुर्य "(Resourcefulness) उपयोग बुद्धि या चातुर्य भी चरित्र का एक मूल्यवान गुण है। उपयोग कुशल बनने का अर्थ है किसी वस्तु या व्यक्ति को अपने कार्य सिद्धि के लिए उपयोगी बना लेने का कौशल रखना। किन्तु, इस चतुराई या कौशल का उपयोग अच्छे कार्य के लिये भी हो सकता है और बुरे कार्य के लिये भी। अच्छे कार्य में इस कौशल का उपयोग करें तो उसको ' सदुपयोग' कहा जायगा तथा इसका उपयोग यदि बुरे कार्य के लिये किया जाय तो उसे 'दुरूपयोग' कहना पड़ेगा। उदहारण के लिए आग कितनी उपयोगी वस्तु है, किन्तु यह तभी उपयोगी है जब हम इसका सदुपयोग करें। नहीं तो यही आग विध्वंसक भी सिद्ध हो सकता है। यहाँ तक कि इससे जान भी जा सकती है। निश्चित ही आग के ऐसे उपयोग को- 'दुरूपयोग' ही कहेंगे।
अपनी बुद्धि, गुणों या उपलब्ध को व्यवहार में लाकर उनका सदुपयोग करके अपना एवं दूसरों का कल्याण भी किया जा सकता है। तथा वैसा न करके यदि इनका दुरूपयोग करने लगूँ, तो ये ही वस्तुएं मुझे या दूसरों को क्षति भी पहुँच सकती है। कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि मैं अपनी क्षमता, ज्ञान या किसी वस्तु का ऐसा उपयोग इस चतुराई के साथ करूँ कि, उससे मुझे तो लाभ हो किन्तु दूसरों कि क्षति हो। इसको अपने पद-रसूख या बुद्धि-बल का सदुपयोग नहीं दुरूपयोग ही कहा जाएगा। क्यों कि अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए मैंने दूसरों को क्षति पहुंचाई। किन्तु, यहाँ यह भी जान लेना अच्छा होगा कि वैसा करने से भले ही मुझे कुछ तात्कालिक लाभ प्राप्त हो जाय जाय किन्तु, अन्त में वह मेरे लिए भी नुकसानदेह ही सिद्ध होगा। क्योंकि दूसरों को ठगने वाले या अकल्याण करने वाले व्यक्ति का कभी भला होते आजतक नहीं देखा गया है। बहुत बार तो अंततोगत्वा हम स्वयम ही ठगे जाते हैं। पहला नुकसान तो यह होगा कि मैं मनुष्यत्व से नीचे गिर जाऊँगा, फ़िर दूसरों को क्षति पहुँचा कर, स्वयं को लाभान्वित करने की वासना इतनी अधिक बढ़ जायगी कि- अन्त में मैं ऐसे किसी भारी संकट में फंस जाऊँगा जिसके कारण मेरा सारा सांसारिक लाभ भी एक बड़े नुकसान में परिणत हो जायगा।
स्वामीजी पाप-पुण्य के ऊपर उतना जोर देने के लिए नहीं बोलते थे। किन्तु, यह अवश्य कहते थे कि  " शक्ति का सदुपयोग ही पुण्य है, तथा उसका असद् उपयोग ही पाप है।" परहित को भी ध्यान में रखते हुए उपयोग बुद्धि का प्रयोग करते रहने से ऐसी क्षमता प्राप्त हो जाती है कि हम कैसी भी वस्तु का प्रयोग केवल सद्कर्मों के लिये करने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेते हैं। मानो मुझमें कोई 'तीसरी-आँख' खुल गई हो, और अब कोई पराया दीखता ही नहीं हो ! मान लो मैं किसी विषय के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी रखता हूँ, किन्तु उतनी भी जानकारी न रहने के कारण यदि कोई व्यक्ति कष्ट में पड़ गया हो तो मैं उतनी ही जानकारी से भी दूसरों की सहायता कर सकता हूँ। कोई वस्तु सामने पड़ी हुई है उसे काम की वस्तु न समझकर हो सकता है कोई उसे फेंक दे, किन्तु उपयोग बुद्धि रहने पर  उसी वस्तु को ऐसे कार्य में लगाया जा सकता जिससे कि तत्काल ही कोई  बड़ी असुविधा दूर हो जाय। उसी प्रकार यदि चतुराई के साथ समय का भी सदुपयोग किया जाय तो कितने ही कार्यों को यथासमय सुसंपन्न किया जा सकता है। जिसके पास 'सर्वोपयोगी चातुर्य'
(Resourcefulness)या उपयोग बुद्धि नहीं होती वह अपने महत्वपूर्ण कार्यों के लिए भी समय नही निकाल पाता। यदि अपनी तीसरी आँख को खोलकर, अर्थात कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं की दृष्टि के साथ अपनी उपयोग बुद्धि अर्थात चतुराई को जीवन भर केवल सद्कर्म में य़ा अच्छे-अच्छे कार्यों में व्यवहार किया जाय तो, तो हमारा मानव-जीवन सार्थकता से मण्डित हो जाता है। 

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

चरित्र के गुण :14-16: ' अविचलता ' (Poise)

१४.
' अविचलता ' (Poise)
 " चरित्र के गुण " का तात्पर्य वैसे सद्गुणों से है जिनके रहने पर ही चरित्र को प्रत्येक दृष्टि से उन्नत कहा जा सकता है। जिसका चरित्र इन सद्गुणों से विभूषित हो गया है, वही तो ' यथार्थ मनुष्य' कहलाने के योग्य है। मनुष्य शरीर में जन्म लेकर भी यदि पशुओं जैसा जीवन व्यतीत कर ही जगत से विदा हो जाना पड़े, तो इससे अधिक दुःख की बात और क्या हो सकती है ? जब यह बात अच्छी तरह से समझ में आ जाती है कि, चरित्र गठन का कार्य मैं केवल दूसरों कि प्रशंसा पाने के लिए नहीं कर रहा हूँ बल्कि इसलिए कर रहा हूँ कि चरित्र गठन करने से ही वह कर्मकुशलता प्राप्त होती है जिससे जीवन के हर क्षेत्र में सफलता पाई जा सकती है। तब हमारे अन्दर अपना चरित्र गढ़ लेने के लिए एक (Burning desire) ज्वलंत इच्छा उत्पन्न हो जाती है।  इस प्रकार चरित्र गढ़ने का यथार्थ उद्देश्य जानकर अपने अन्दर चरित्र गठन की अदंम्य इच्छा उत्पन्न कर लेनी चाहिए। किन्तु, निरन्तर प्रयासरत रहने के लिए उद्यम (Initiative) भी होना चाहिये एक वाक्य में कहें तो- ' चरित्र गठन करने के लिए पौरुष चाहिए '। स्वामी विवेकानन्द कहते थे- " पौरुष ही मेरा नया सुसमाचार है " (Manliness is my new Gospel!) यही बात विवेक चूड़ामणि में आचार्य शंकर भी अत्यन्त सुंदर ढंग से कहते हैं-
इतः को न्वस्ति मूढात्मा यस्ति स्वार्थे प्रमाद्यति |
दुर्लभम् मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषं ||
( इतः कः  नु अस्ति मूढात्मा  यः  तु स्वार्थे प्रमाद्यति,  दुर्लभं मानुषं  देहं प्राप्य तत्र अपि पौरुषम् )
 -अर्थात दुर्लभ मनुष्य देह और उसमें भी पुरुषत्वको पाकर जो स्वार्थ साधनमें प्रमाद करता है उससे अधिक और मूढ कौन होगा ....जो मनुष्य चरित्र निर्माण का कौशल सीखकर अपने को पशुमानव से देवमानव में रूपान्तरित करने की कोई चेष्टा नहीं करता वही तो सबसे अधिक मूर्ख या मोहित व्यक्ति है ! क्योंकि इस देवदुर्लभ मानव-शरीर, उसके भी उपर पौरुष- साहसिकता या यौवन का तेज प्राप्त करके भी जो व्यक्ति आलस्यवश स्वयं के यथार्थ स्वार्थ या सर्वोत्तम हित 'चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने ' की साधना की उपेक्षा करता है, उस व्यक्ति से बड़ा मूर्ख (मोहग्रस्त मनुष्य) कौन हो सकता है ? 
इसी जन्म में "मनुष्यत्व" का उन्मेष कर लेना यथार्थ स्वार्थ है। मनुष्यत्व का उन्मेष कर लेने से मनुष्य अपने बनाने वाले को, अर्थात ब्रह्म को भी जान सकता है और ब्रह्म को जानकर स्वयं ब्रह्म बन सकता है।  इस  स्वार्थ को पुरा करना निन्दनीय नहीं है। क्योंकि 'मनुष्यत्व' का उन्मेष करने, अपने सच्चे स्वरुप को जान लेने से अथवा 'आत्मसाक्षात्कार' कर लेने से भेद-बुद्धि दूर हो जाती है। अपने-पराये का भेद मिट जाता है, वह व्यक्ति सभी को अपना ही समझने लगता है। अब, उसके लिए दूसरों की भलाई करना या परार्थ ही अपना अन्तिम स्वार्थ बन जाता है। ऐसा मनुष्य ही यथार्थ 'मनुष्य' है। किसी प्राचीन कवि  ने बड़े ही सुंदर ढंग से कहा है-
 क्षुद्राः सन्ति सहस्रशः स्वभरणव्यापारमात्रोन्मुखाः ।
 स्वार्थो यस्य परार्थ एव स पुमानेकः सतामग्रणीः ।। 
- अर्थात ऐसे क्षुद्र मनुष्य तो हजारों हैं, जो निरन्तर अपने भरण-पोषण को लेकर ही व्यस्त रहते हैं, किन्तु जिस पुरूष के लिए दूसरों की भलाई करना; या परार्थ ही एकमात्र स्वार्थ बन जाता है, वही सैंकड़ों में 'अग्रणी मनुष्य' या मानव जाति का 'नेता' कहलाता है।  
'क्या दूसरा मनुष्य अपना हित स्वयं नहीं जानता है ? ' ऐसा विचार करके दूसरों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। परोपकार करने (Be and Make) का कार्य करना ही चाहिए। देखो स्वामी विवेकानन्द जैसे मानव-जाति के नेता विदेशी लोगों को उपदेश देनेके लिए ही पाश्चात्य देशों में गये थे। परोपकारके कार्यमें कमर-कसना यही बड़प्पन है। कहा भी है- "जगत् में अपना कार्य करनेमें ही तत्पर रहनेवाले मनुष्य तो हजारों हैं, परन्तु परोपकार ही जिसका स्वार्थ है, ऐसा सत्पुरुषोंमें अग्रणी पुरुष एकाध ही है। बड़वानल अपना दुर्भर पेट भरनेके लिए समुद्रका सदा पान करता है, क्योंकि वह क्षुद्र मनुष्यके समान स्वार्थी है। किन्तु मेघ ग्रीष्मकालकी उष्णतासे पीडित समस्त प्राणियों का संताप मिटानेके लिए समुद्रका पान करता है। मेघ परोपकारी है और बड़वानल स्वार्थी है। मुमुक्षु पुरुष अपने दुःखोंकों दूर करनेके लिए अधिक प्रयत्न नहीं करते, किन्तु दूसरोंके दुःखोंको देखकर अधिक दुःखी होते हैं। और इसलिए वे किसी भी प्रकारकी अपेक्षा न रखकर परोपकार करने में दृढ़ताके साथ सदा तत्पर रहते हैं।
यदि वैसा ही मनुष्य 'मानवजाति का सच्चा नेता' - हम भी बनना चाहते हों, तो सर्वदा उसी लक्ष्य पर अपनी दृष्टि  रखनी होगी, अर्थात सर्वदा उसी लक्ष्य के प्रति सजग रहना होगा। लक्ष्य के प्रति सर्वदा सतर्क दृष्टि रखने की चेष्टा करने के बावजूद हमारे जीवन में कभी कभी कोई न कोई घटना ऐसी घटित हो जाती है कि वह लक्ष्य ही हमारी दृष्टि से ओझल हो जाता है। उसी घटना को लेकर मन इतना व्यस्त हो जाता है कि, अपने सच्चे स्वरुप को जानकर हमें यथार्थ 'मनुष्य' बनना है- यह संकल्प ही मन से विलुप्त हो जाता है। कोई भारी समस्या, विपत्ति, दुःख या कोई सुखद घटना भी हमपर अपने लक्ष्य को भूल जाने के लिए दबाव बना सकती है। किन्तु हम यदि  परिस्थितियों के दबाव में आकर अपने लक्ष्य को ही भूल गए तो समझो सबकुछ चला गया। 
श्री रामकृष्ण देव और स्वामी विवेकानन्द दोनों ही एक कहानी सुनाया करते थे। वर्णन शैली में थोड़ी भिन्नता के बावजूद भी मूल घटना में कोई अन्तर नहीं था।' इस कहानी को कहते समय ठाकुर (श्री रामकृष्ण) कहते थे कि बाघ का बच्चा भेड़ों के झुंड में मिल गया था, जबकि स्वामी विवेकानन्द बाघ के स्थान पर 'सिंह शिशु' की  कहानी कहते थे। 

खैर, जो भी हो नारद एक बहुत बड़े भक्त हैं। हमेशा नारायण ! नारायण ! का उच्चार करते रहते हैं। एक दिन नारायण के सामने जिद कर बैठे कि, " प्रभो, माया कैसी है, मैं देखना चाहता हूँ। " नारायण नारद को लेकर एक मरुस्थल कि ओर चले। बहुत दूर जाने के बाद नारायण ने नारद से कहा, " नारद, मुझे बड़ी प्यास लगी है। क्या कहीं से थोड़ा सा जल ला सकते हो ?" नारद बोले, " प्रभो, ठहरिये, मैं अभी जल लिए आया।" 
यह कह कर नारद चले गए। कुछ दूर पर एक गाँव था, नारद वहीं जल कि खोज में गये। एक मकान में जा कर उन्होंने दरवाजा खटखटाया। द्वार खुला और एक परम सुन्दरी कन्या उनके सम्मुख आकर खड़ी हुई। उसे देखते ही नारद सब कुछ भूल गए। नारायण मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, वे प्यासे होंगे, हो सकता है, प्यास से उनके प्राण भी निकल जाएँ- ये सारी बातें नारद भूल गए। सब कुछ भूल कर वे उस कन्या के साथ बात-चीत करने लगे। उस दिन वे प्रभु के पास लौटे ही नहीं। दुसरे दिन वे फ़िर से उस लड़की के घर आ उपस्थित हुए और उससे बातचीत कने लगे।
धीरे धीरे बातचीत ने प्रणय का रूप धारण कर लिया। तब नारद उस कन्या के पिता के पास जाकर उस कन्या के साथ विवाह करने कि अनुमति माँगने लगे। विवाह हो गया। नव दम्पति उसी गाँव में रहने लगे। धीरे धीरे उनके संतानें भी हुईं। इस प्रकार बारह वर्ष बीत गये। इस बीच, नारद के ससुर मर गये और वे उनकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी हो गए। पुत्र-कलत्र, भूमि, पशु, सम्पत्ति, गृह आदि को लेकर नारद बड़े सुख-चैन से दिन बिताने लगे। कम से कम उन्हें तो यही लगने लगा कि वे बड़े सुखी हैं। इतने में उस देश में बाढ़ आई। रात के समय नदी दोनों कगारों को तोड़कर बहने लगी और सारा गाँव डूब गया। मकान गिरने लगे; मनुष्य और पशु बह बह कर डूबने लगे, नदी कि धार में सब कुछ बहने लगा। नारद को भी भागना पड़ा।
एक हाथ में उन्होंने स्त्री को पकड़ा, दुसरे हाथ से दो बच्चों को, और एक बालक को कंधे पर बिठाकर वे उस भयंकर बाढ़ से बचने का प्रयत्न करने लगे। कुछ ही दूर जाने के बाद उन्हें लहरों का वेग अत्यन्त तीव्र प्रतीत होने लगा। कंधे पर बैठे हुए शिशु कि नारद किसी प्रकार रक्षा न कर सके; वह गिरकर तरंगों में बह गया। उसकी रक्षा करने के प्रयास में एक और बालक, जिसका हाथ वे पकड़े हुए थे, गिरकर डूब गया। निराशा और दुःख से नारद आर्तनाद करने लगे। 
अपनी पत्नी को वे अपने शरीर की सारी शक्ति लगाकर पकड़े हुए थे, अन्त में तरंगों के वेग से पत्नी भी उनके हाथ से छुट गई; और वे स्वयं तट पर जा गिरे एवं मिट्टी में लोटपोट हो बड़े कातर स्वर से विलाप करने लगे।इसी समय मानो किसी ने उनकी पीठ पर कोमल हाथ रखा और कहा, " वत्स जल कहाँ है ? तुम जल लेने गए थे न, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में खड़ा हूँ। तुम्हें गए आधा घन्टा बीत चुका है। "
" आधा घन्टा !" नारद चिल्ला पड़े। उनके मन में तो बारह वर्ष बीत चुके थे, और आध घंटे के भीतर ही ये सब दृश्य उनके मन से होकर निकल गए ! और यही माया है ! नारद समझ गए थे।" (वि० सा० ख० २: ७५-७६) 
ऐसी ही परिस्थितियां कई बार आ जातीं हैं, जब मनुष्य अपने जीवन का लक्ष्य, महान उद्देश्य सब कुछ भूल जाता है। चरित्र में जिस गुण के रहने पर यह नहीं होता, वह गुण है - ' अविचलता' (Poise) एक बार विवेक-विचार कर हमने जिसे अपना जीवन लक्ष्य बना लिया उस पर हर हाल में अविचल दृष्टि रखनी होगी। अपने सूचिन्तित और निर्दिष्ट मार्ग पर चलते समय चाहे कैसी भी बाधा क्यों न आए मैं अपने लक्ष्य से विच्युत नहीं होऊंगा। मन की इसी दृढ़ता (या पौरुष) को अविचलता कहते हैं।
मानव- जीवन में समस्याएँ तो आती ही रहतीं हैं, ये समस्यायें कई प्रकार की हो सकती हैं और जब कभी भी आ सकतीं हैं। एक के बाद एक, निरन्तर केवल दुःख ही मिले ऐसा भले ही न होता हो किन्तु, सुख-दुःख का घूम-फ़िर कर आना-जाना तो लगा ही रहेगा। पगडंडियों के किनारे उगी हुई कँटीली झाड़ियों के समान ही जीवन-पथ पर भी लोभ सुख-भोग के प्रलोभन रूपी कँटीली झाड़ियाँ खड़ी रहती हैं। वे मानो जीवन पथ पर आगे बढ़ रहे पथिकों के वस्त्रों को बड़े प्यार से खींचकर कहतीं हों, " थोड़ा रुको, मुझसे दो बातें कर लो, मेरे शरीर पर काँटे अवश्य हैं, किन्तु इसमें रंग-बिरंगे फूल भी खिलते हैं। भले ही मैं पूर्व-परिचित सुगन्धयुक्त कोई नामी फूल न भी होऊँ किन्तु फ़िर भी रुक कर थोड़ी सी तारीफ़ तो कर ही सकते हो। " परिणामस्वरूप कँटीली झाड़ियों के इस नाटकीय आकर्षण ने हमारे मन को इतना आकर्षित कर लिया कि हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति के पथ पर बढ़ना छोड़ कर वहीं रुक गए, तथा काँटो से छीलकर हांथों के क्षत-विक्षत होते रहने पर भी उस सौरभहीन किन्तु रंगीन जंगली फूल के आकर्षण में ऐसे बंधे कि फिर अपने जीवन लक्ष्य तक पहुँच ही न सके । 
इसको ही कहते हैं- दृष्टि का 'विचलन', या लक्ष्य से दृष्टि का हट जाना। किन्तु अगर मेरी बुद्धि 'विवेक' के द्वारा संचालित होते हुऐ 'लुहार की नेहाई के समान- "कूटस्थ" बुद्धि बन चुकी हो  अर्थात मेरे चरित्र में अविचलता (Poise) का गुण समाहित हो चुका हो, तो अपने पूर्व निर्दिष्ट जीवन पथ अग्रसर होते रहने से कोई भी वस्तु मुझे रोक नहीं सकती। जब तक मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक रुक ही नहीं सकता। क्योंकि मेरी दृष्टि, पथ के किनारे बिखरी हुई सभी रंगीन दृश्यों की उपेक्षा कर सदैव अविचल भाव से अपने लक्ष्य पर ही टिकी रहेगी। ऐसा होने पर ही यथार्थ मनुष्य बना जा सकता है, तभी जीवन में सफलता प्राप्त होती है, तभी चरित्र भी गठित हो पाता है। लक्ष्य के प्रति अविचलता का गुण, जीवन गठन के लिए अत्यन्त आवश्यक है। चाहे सुख आए या दुःख- किसी भी परिस्थिति में लक्ष्य से विचलित न होना चरित्र का एक महान गुण है। यदि हम जीवन के अवश्यम्भावी घात-प्रतिघातों से विचलित हो गए तो लक्ष्य हमसे दूर ही रह जाएगा, फ़िर हम जीवन-लक्ष्य तक पहुँच भी नही पायेंगे। इसीलिए 'अविचलता' एक अति मूल्यवान गुण है। 
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१५.
' आत्मनिर्भरता' 
( Self- Reliance)
 {ब्रह्म को जान लेने के बाद या आत्मानुभूति कर लेने के बाद} मनुष्य का चरित्र जब चट्टानी-दृढ़ता प्राप्त कर लेता है, य़ा जब उसका जीवन पूर्णतया गठित हो जाता है तो वह स्व-निर्भर हो जाता है। इसीलिए स्वामीजी कहते थे, " यथार्थ शिक्षा प्राप्त करने से मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीख जाता है।" यहाँ अपने पैरों पर खड़े होने का क्या अर्थ है ? क्या केवल इतना ही कि पैरों के ऊपर अपने शरीर का पूरा भार डाल कर खड़े हो जाना ?  नहीं, इसका सही अर्थ है -विवेकपूर्ण निर्णय से अपने जीवन-लक्ष्य को निर्धारित कर उसी दिशा में अग्रसर रखने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेना, जीवन को सार्थक बना लेने कि क्षमता प्राप्त कर लेना। 
मनुष्य जैसे-जैसे आत्म-निर्भर होता चला जाता है, उसके दुःख-भोग की सम्भावना भी उतनी ही कम होती जाती है। हम जितना ही अधिक दूसरों पर निर्भर रहेंगे, अपेक्षाएँ पूरी न होने पर दुःख पाने कि सम्भावना भी उतनी ही बनीं रहेगी। मनु महाराज ने बड़े ही सुन्दर ढंग से सुख और दुःख का लक्षण बताया है-
" सर्वम् परवशं दुःखम् सर्वम् आत्मवशं सुखम्। 
इति विद्यात् समासेन लक्षणम् सुखदुःखयोः ॥"
- अर्थात परवश या दूसरों पर निर्भर रहना ही समस्त दुखों का कारण है तथा आत्मा के वश में रहना या आत्म-निर्भरता ही समस्त सुखों का मूल है। संक्षेप में सुख और दुःख के लक्ष्ण भी यही हैं। जिस व्यक्ति में, स्पष्ट-धारणा, सामान्य बुद्धि, अविचलता, धैर्य, आत्मसंयम, सहनशीलता, उद्यम, अध्यवसाय, दृढ़ संकल्प, आदि सद्-गुण हों उसको कभी भी परवश नहीं रहना पड़ता। इसीलिये उसके दुःखी होने के बजाय सुखी होने की आशा अधिक रहती है। क्योंकि यही सब गुण उसको आत्मनिर्भरता के गुण से भी अलंकृत कर देते हैं।
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१६.
" आत्म-विश्वास " 
 (Self-Confidence)
जो व्यक्ति आत्मनिर्भर हो कर जीवन-पथ पर चलना सीख लेता है उसके मन में स्वतः ही 'आत्मविश्वास' जागृत हो जाता है। (अर्थात वह स्वयं को केवल एक मरण-धर्मा शरीर नहीं बल्कि सर्वशक्ति शाली आत्मा द्वारा संचालित यंत्र समझता है।) आत्मविश्वास का अर्थ है अपनी क्षमता, अपने सामर्थ्य में विश्वास या आस्था। आत्मविश्वासी व्यक्ति यह जान रहा होता है कि " मैं अपनी स्पष्ट-धारणा शक्ति से विवेक-विचार कर यदि किसी कार्य को सम्पन्न करने का  संकल्प लूँ, तो उसे अवश्य पूरा कर सकता हूँ।" इस प्रकार आत्मविश्वास का अर्थ हुआ, अपने-आप पर विश्वास। स्वामीजी कहते थे- " पहले अपने-आप पर विश्वास, उसके बाद ईश्वर पर विश्वास। तुम यदि तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं पर तथा बीच-बीच में घुसा दिए गए विदेशी देवताओं के ऊपर भी विश्वास करो, पर यदि तुम्हे अपने-आप विश्वास नहीं हो, तो तुम्हारी मुक्ति सम्भव नहीं ।" उनकी इस उक्ति से हम यह समझ सकते हैं कि, स्वामीजी ' आत्मविश्वास ' को कितना महत्व देते थे। उनमे स्वयं अद्भुत 'आत्मविश्वास' था तभी तो उन्होंने  प्रतिकूलता के बीच रहते हुए भी पूरे विश्व को झकझोर कर रख दिया था ! 

चरित्र के गुण : ११-१३: अपने भीतर का आध्यात्मिक दीपक जलाओ !

११.
' स्वच्छता'  
(Cleanliness):  
स्वच्छता  चरित्र का एक अत्यन्त ही प्रयोजनीय गुण है। हम ऐसा सोच सकते हैं कि चरित्र तो मनुष्य की आन्तरिक वस्तु है जबकि स्वच्छता  एक वाह्य वस्तु है, फ़िर यह चरित्र का गुण कैसे हो सकता है ? स्वच्छता के समान ही अन्य अनेक वस्तुएं ऐसी हैं जो प्रथम दृष्टया वाह्य वस्तु  ही प्रतीत होती है, किन्तु उनका मनुष्य के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। तथा, इन्हें अपने जीवन में धारण करने से हमारा चरित्र और भी उज्जवल हो जाता है। हो सकता है कि एक-दो व्यक्ति बाहरी स्वच्छता पर ध्यान दिये बिना भी उत्तम चरित्र के अधिकारी बन  गये हों, किन्तु उन्हें अपवाद ही माना जायेगा। किन्तु, जो व्यक्ति अपने संकल्प और प्रयत्न के सहारे ही अपना  चरित्र-गठन करने का इच्छुक हो, उसे तो अवश्य ही स्वच्छता जैसे गुणों को  आत्मसात करना पड़ेगा  तभी तो उसका  चरित्र सुंदर ढंग से गठित हो पायेगा। क्योंकि हम दिखावे के लिये चरित्र गठन करना नहीं चाहते हैं, हम ऐसा नहीं सोचते हैं कि चरित्र के गुणों से युक्त हमारे व्यव्हार को देखकर लोग हमारी प्रशंसा करने लगेंगे --इसीलिये हमें चरित्र निर्माण कर लेना चाहिये। बल्कि, हमारा विश्वास तो यह है कि केवल चरित्र ही मनुष्य को अपने जीवन में सभी प्रकार के कार्यों को सुंदर ढंग से सम्पन्न करने की कला या कौशल प्रदान करता है। 
यदि हम इस कर्मकुशलता या 'आर्ट ऑफ़ लिविंग' में तो पारंगत हो जाना चाहें किन्तु, हममें यथार्थ मनुष्य कहलाने के योग्य कोई गुण ही न रहें तो हम किसी भी कार्य को सुन्दर ढंग से संपन्न नहीं कर पायेंगे; और कल्बों में जाकर सीखे गये 'आर्ट ऑफ़ लिविंग' के सारे नुस्खे धरे के धरे ही रह जायेंगे। इसीलिये चरित्र गठन का उद्देश्य सभी के साथ अच्छे  व्यवहार का दिखावा करके केवल 'प्रशंसा प्रमाण-पत्र' प्राप्त कर लेना ही नहीं है। बल्कि, अपने जीवन में सफलता अर्जित करने, अपना सुन्दर भविष्य गढ़ने, सभी कार्यों को सुव्यवस्थित ढंग से कर पाने कि क्षमता अर्जित करने के लिए  हमारे चरित्र में स्वच्छता का गुण रहना अनिवार्य है। हमें अपने प्रत्येक कार्य में स्वछता को प्रश्रय देना होगा।  ध्यान पूर्वक प्रयत्न करते रहने से इसकी आदत पड़ जाती है।
इस प्रकार से धीरे धीरे स्वच्छता का भाव हमारे मन में बैठ जायगा, तब थोड़ी सी गंदगी भी असह्य अनुभव होने लगेगी एवं सभी कार्यों को स्वच्छतापूर्वक करना हमारा स्वभाव बन जायेगा। तब हमारे द्वारा जो भी कार्य सम्पन्न होगा वह अनायास ही स्वच्छ होगा। हम पायेंगे कि हमारी वेश-भूषा, भोजन करने का ढंग, भोजन की थाली, हमारा चाल-ढाल, बात-चीत करने का ढंग, हांथों कि लिखावट सब कुछ अपने-आप धीरे-धीरे स्वच्छ और सुन्दर होता जा रहा है।
पुस्तकों-कॉपियों को आलमारी में रखने का हमारा तरीका, पढने का टेबल, पुस्तकों के पन्ने पलटने के  ढंग में भी अपने-आप ही सौंदर्यबोध झलकने लगा है। फिर तो हमारे मन में केवल स्वच्छ और पवित्र विचार ही उठेंगे। इस प्रकार के स्वच्छ विचारों के द्वारा सभी समस्याओं का सटीक विश्लेष्ण कर उसके तह तक जाने की क्षमता प्राप्त हो जाती है। स्वच्छ वेश-भूषा, स्वच्छ भाषा तथा सभी कार्य स्वच्छतापूर्वक करने की आदत हो जाने पर हमारा सम्पूर्ण जीवन ही स्वच्छ-शुद्ध हो जाता है। और यह वाह्य स्वच्छता हमारे अंतस् के सौन्दर्यबोध को जाग्रत कराकर पवित्रता की ओर अग्रसर करा देती है। इससे यह अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि स्वच्छता का गुण चरित्र के लिए कितना प्रयोजनीय है।
अपने वाह्य जीवन में स्वच्छता का अभ्यास करते रहने से जब स्वच्छ रहना हमारा स्वभाव बन जाता है, तब हमारे मन में केवल सत् विचार ही उठते हैं और बुरी इच्छाएं हमारे मन को कलुषित नहीं कर पातीं।  'ज्ञान' के आलोक से मन हमेशा उज्ज्वल बना रहता है तथा हमलोग ईमानदारी, नैतिकता और सत्य की दिशा में निरन्तर अग्रसर होते रहते हैं।
विवेकानन्द कहते हैं, " अगर तुम्हारे कमरे में अँधेरा है, तो तुम छाती पीट-पीट यह तो नहीं चिल्लाते कि हाय ! अँधेरा है, अँधेरा है बड़ा अँधेरा है ! अगर तुम उजाला चाहते हो, तो एक ही रास्ता है-तुम दिया जलाओ और अँधेरा अपने आप ख़त्म हो जायेगा। जो प्रकाश तुम्हारे परे है, उसे पाने का एक ही साधन है, तुम अपने भीतर का आध्यात्मिक दीपक जलाओ, पाप और अपवित्रता का तमिस्र स्वयं भाग जायेगा। " (२/२३६)
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१२. 
अनुशासन  
(Discipline): 
स्वच्छता के सामान ही  एक अन्य महत्वपूर्ण  गुण है-- अनुशासन या आत्मानुशासन। प्रथम दृष्टि में यह भी एक बाह्य गुण जैसा ही प्रतीत होता है किन्तु, धीरे-धीरे यही गुण हममें अपने आन्तरिक जीवन में भी नियम पालन करने की बुद्धि  को जागृत कर देता है। स्वेच्छा से नियमों का पालन करने की आदत बनाने या अनुशासित जीवन जीने का अभ्यास करने से आत्म-संयम का गुण भी स्वतः ही चला आता है। किसी भी प्रकार की शक्ति यदि अनियंत्रित हो जाय तो वह मनुष्य  के लिए क्षतिकर हो  जाती है।
इसीलिए कोई व्यक्ति यदि अपनी आंतरिक शक्तियों का अनुशासित एवं संयमित उपयोग न कर उसे यूँ ही विनष्ट  करता रहे तो अन्त में उसका जीवन भी संकट में पड़ सकता है। अपने हित अहित को समझकर संयमित रहने और दण्ड के भय से संयमित रहने में आकाश-पाताल का अन्तर है। दण्ड के भय से संयम तो गुलामी के सामान है, वहाँ अपनी इच्छा से कुछ भी करने की स्वतंत्रता नहीं रहती, जैसे दूसरों के द्वारा बन्दी बना लिए जाने के बाद कोई मनुष्य अपनी इच्छा से कोई भी कार्य करने की शक्ति को खो देता है। जबकि, अपनी इच्छा से शक्ति प्रवाह को पूर्ण नियंत्रण में रखने, या आवश्यकतानुसार उसका सदुपयोग करने की क्षमता को संयम कहते हैं। तथा इसी वाह्य अनुशासन का पालन करने से, हमें इस क्षमता को अर्जित करने में सहायता मिलती है। अतः अब से हमें जन-कल्याण की दृष्टि से बने सभी नियमों का अवश्य पालन करना चाहिए।
इन नियमों का पालन न करने से जहाँ दूसरों को कई तरह की असुविधा हो सकती है वहीं हमें भी हानि उठानी पड़ सकती है। जैसे यदि सड़क पर बायीं ओर चलने के नियम का पालन न करें तो दूसरों को तो असुविधा होगी हमारा अपना जीवन भी खतरे में पड़ सकता है। जैसे -- खेल के कुछ  सर्वमान्य  नियम होते हैं, यदि  कोई इस नियम को नहीं माने तो खेल हो पाना असंभव हो जायगा। उसी प्रकार जो कार्य संघबद्ध होकर या सामूहिक रूप से किये जाते हैं,  उसमें  संगठन का एक भी सदस्य यदि नियमों की अवहेलना करे, तो वह सामूहिक प्रयास विफल होने को बाध्य हो जायगा।  नियमों की अनदेखी करने से सब कुछ अनियंत्रित हो जाता है। अनुशासन या नियम पालन करना दुर्बलता का चिन्ह नहीं बल्कि सबलता का द्योतक है। क्योंकि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति बेतरतीब ढंग से जीने की होती है। विवेक-प्रयोग एवं संयम के बल पर ही मनुष्य अनुशासित हो सकता है।  अपने सभी कार्यों को सफलतापूर्वक सम्पादित करने तथा अभी के कल्याण के लिए --अनुशासन अत्यन्त आवश्यक गुण है।  
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१३. 
समयनिष्ठता 
 (Punctuality): 
 समयनिष्ठता या समय की पाबंदी भी चरित्र का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण गुण है। सभी कार्यों को ठीक समय पर करने की आदत को ही समयनिष्ठता कहते हैं। वास्तव में यही गुण जीवन में सफलता प्राप्त करने की कुंजी है। जो व्यक्ति समय का पाबन्द नहीं होता, वह जीवन के अन्तिम पड़ाव पर आकर देखता है कि सारा जीवन तो व्यर्थ में ही व्यतीत हो गया ! क्योंकि समय अत्यन्त ही द्रुत गति से व्यतीत हो जाता है, इसलिये यदि जीवन में सफलता प्राप्त करनी हो तो उसके साथ उतनी ही द्रुत गति के साथ उसके ताल से ताल मिलाना आवश्यक हो जाता है। यदि हम समय के साथ-साथ नहीं चले तो तो पीछे छूट जायेंगे तथा समय के पीछे छूट जाने वाले पुनः कभी उसे पकड़ नहीं सकते, और जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ सकते।
बहुत से लोग सोंचते हैं कि- ' यदि आज का दिन यूँ ही बीत भी गया तो उससे क्या बिगड़ गया ? कल यही सूर्य पुनः उदित होगा तथा मुझे फिर से एक और दिन तो मिल ही जायगा।' किन्तु, वे यह नहीं सोचते कि - जो दिन आयेगा, वह तो अभी भविष्य (काल) के गर्भ में है, किन्तु, आज का दिन जो व्यतीत हो गया उसे फ़िर दुबारा कभी नहीं पाया जा सकता ! आज ही जिस कार्य को निपटा दिया जा सकता था उसको अगले दिन के लिए टाल देने से अगले दिन जो हो सकता था, वह तो नहीं हो पायेगा। यह एक दिन जो व्यतीत हो गया उसे जीवन में दुबारा कभी नहीं प्राप्त किया जा सकता है। इसीलिए जो कार्य अभी हो सकता है, उसे कल पर कभी नहीं टालना चाहिए क्योंकि, अभी वाला कार्य बाद में करने से, उस दिन जिस कार्य को निपटा देते सो तो नहीं ही हो पायेगा ? अतः किसी भी कार्य में टाल-मटोल करना स्वयं को धोखा देना ही कहलायेगा। किसी भी कार्य को कल पर टालते रहने की बुरी आदत, एक बहुत बड़ा दुर्गुण है - इसी को 'दीर्घसूत्रता' (Procrastination) कहते हैं। एक ही कार्य में अधिक समय बर्बाद कर देना दीर्घसूत्रता कहलाती है। जिस किसी भी व्यक्ति के चरित्र  में यदि यह दुर्गुण प्रविष्ट हो गया हो, तो उसका जीवन असफल रह जाने के लिये बाध्य है।  
इसीलिए सभी कार्यों को ठीक समय पर करने की आदत डाल लेनी चाहिए, तथा इस 'समयनिष्ठता' को अपनी प्रवृत्तियों में सबसे पहला स्थान देना चाहिए। सभी कार्यों को ठीक समय पर करने की आदत जब गहरी होकर हमारी सहज-प्रवृत्ति बन जायेगी, तो यह देखकर हम आश्चर्यचकित हो जायेंगे कि समय का कितना अधिक सदुपयोग हो सकता है। कुछ भी अर्जित करने के लिये परिश्रम करना ही पड़ता है, बिना परिश्रम किये कोई भी वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती। 'श्रम करने' - का अर्थ ही है, किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए विशेष रूप से कार्यरत रहना। और कार्य करने में समय लगता ही है। यदि हम समय का कोई हिसाब न रखें तो साधारण से काम में ही  हमारा सारा समय व्यतीत हो जायगा तथा शेष समय में जो काम हम कर सकते थे - वह नहीं हो पायेगा। समय का ध्यान न रखने पर उस कार्य के द्वारा जितना कुछ अर्जित हो सकता था, वह तो नहीं ही हो सकेगा तथा अन्त में हम स्वयं को ही ठगा हुआ अनुभव करेंगे।
अतः मनुष्य मात्र के लिये जीवन के एक-एक क्षण का सदुपयोग करना-अर्थात समय को नष्ट न करके ऐसा कार्य में लगाना जिससे की कुछ अर्जित हो सके परम-आवश्यक है। क्योंकि यदि हमलोग समय का सदुपयोग करने की कला को सीख जायें तो पढाई-लिखाई के साथ-साथ खेल-कूद, चित्रकला, गीत-संगीत, अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य कोई भाषा (संस्कृत-उर्दू-स्पेनिश-फ्रेंच) आदि बहुत कुछ सीख सकते हैं । इस प्रकार हम जो सीख लेंगे उसका प्रयोग तो अपने जीवन में करेंगे ही, और उस अतिरिक्त ज्ञान के माध्यम से अपने बन्धु-बान्धवों के जीवन को भी सुंदर एवं सफल बनाने में सहायता कर सकेंगे ।
यदि हम समय का सदुपयोग करना चाहते हों तो हमें समयनिष्ठ-मनुष्य या समय का पाबन्द व्यक्ति बनना ही पडेगा। जिस समय जिस कार्य को करना उचित एवं आवश्यक प्रतीत होता हो, ठीक उसी समय कर डालने का अभ्यास करना अत्यन्त अनिवार्य है। यदि समय से विद्यालय नहीं पहुँचा जाये तो ठीक से पढ़ा-लिखा मनुष्य भी नहीं बना जा सकता है। समय से खेल के मैदान में न पहुँचा जाये तो हो सकता है कि प्रथम दल के साथ खेल में भाग लेने से वंचित रहना पड़े। समय से रेलवे स्टेशन न पहुँचें तो ट्रेन छूट सकती है । इस लेट-लतीफी के कारण कभी भारी संकट का सामना भी करना पड़ सकता है। ठीक समय से सब कार्य निपटा लेने की आदत डाल लेने पर अन्य कई प्रकार के कार्यों के लिए भी समय मिल जाता है। इससे विश्राम या मनोरंजन के लिए भी समय निकल आता है। तथा मन में भी हर समय आनन्द का भाव बना रहता है। सभी कार्यों में उत्साह मिलता है तथा पूरे जीवन की गति ही मानो बढ़ जाती है।
यदि हम स्वच्छतापूर्वक समय की गति के साथ कदम से कदम मिलाते हुए जगत के कल्याण के जितने भी नियम हैं उनका पालन करते हुए जीने की आदत डाल लें तब चरित्र के अन्य दूसरे गुणों को भी आत्मसात करना सहज हो जाता है। इस प्रकार हम अच्छे चरित्र का अधिकारी बन कर अपने जीवन को सार्थक बना  सकते हैं।
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