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शनिवार, 14 दिसंबर 2013

७.' ब्रह्मचर्य की कसौटी ' ( स्वामी तथागतानन्द की रचना ' The Value Of Brahmcharya' पर आधारित)

.'ब्रह्मचर्य का मापदण्ड'

         भारत की प्राचीन धारणा एवं व्युत्पत्तिशास्त्र (etymology) के अनुसार ब्रह्मचर्य की साधनाका अर्थ है-वैसा आचारण (क्रियाविधि) जो मनुष्य के मन को ब्रह्म में अचल रखती हो। संस्कृत भाषा में ब्रह्म का अर्थ होता है परमात्मा या सृष्टिकर्ता और चर्य का अर्थ है उसकी खोज। ब्रह्मचर्य का शाब्दिक अर्थ है, ब्रह्म में रमण। अर्थात इस जगत का कोई सृष्टिकर्ता, परम-सत्य या आत्मा है या नहीं उसी के अनुसन्धान में किसी वैज्ञानिक के जैसा तल्लीन रहना ब्रह्मचर्य है। निरन्तर विवेक-प्रयोग के अभ्यास द्वारा, अनधिकृत यौन विचारों और इच्छाओं से खुद ब खुद (naturally या स्वभावतः ) पूर्ण-स्वतंत्र हो जाना ब्रह्मचर्य है।

         जब कोई मनुष्य ब्रह्म का अन्वेषण करने के उद्देश्य से कुछ विशिष्ट अध्यात्मिक सिद्धान्तों (यम-नियम आदि) के अनुपालन का प्रशिक्षण लेकर, अपने मन तथा समस्त इन्द्रियों पर संयम रखने का अभ्यास तब तक करता रहता है, जब तक कि वह निरंतर और सभी परिस्थितियों में, मन, वाणी और कर्मों से पूर्ण पवित्र रहने की अवस्था को प्राप्त नहीं कर लेता, तभी उस मनुष्य को सच्चे अर्थों में ब्रह्मचारी कहा जा सकता है ।

                        विद्यार्थी जीवन को गृहस्थ-जीवन से अलग करके, विद्यार्थी-जीवन में ब्रह्मचर्य के भारतीय आदर्श  का उल्लेख करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- 'Brahmacharya should be like a burning fire within the veins!" अर्थात ब्रह्मचर्य नसों के भीतर एक जलती हुई आग की तरह होना चाहिए!"  उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्मचर्य जीवन के हर पड़ाव पर और हर किसी के लिए नहीं है ! 'Brahmacharya is not for everyone.' जब हम लोग जगत के महान गुरुओं के उपदेशों को पढ़ते हैं, तो कभी कभी हम भ्रमित या विमूढ़ हो जाते हैं, और यह निर्णय नहीं कर पाते कि इनमें से कौन सा उपदेश मेरे लिये है, और कौन सा उपदेश दूसरों के लिये है ? कुछ लोग उनके प्रत्येक उपदेश का अक्षरशः पालन करने के प्रयास में लग जाते हैं। जिसके फलस्वरूप और अधिक भ्रान्त होकर अपने जीवन को ही अस्त-व्यस्त कर लेते हैं। 
          कुछ दिनों पूर्व बोस्टन स्थित रामकृष्ण संघ के एक स्वामीजी ने M.I.T के एक प्राध्यापक को घर में पढ़ने के लिये श्रीरामकृष्ण वचनामृत दिया था। वे सज्ज्न वचनामृत पढ़ने लगे, कुछ ही पन्नों को पढ़ने के बाद उन्हें यह पढ़ने को मिला किकामिनी-कांचन‘ ( Women and Gold ) ही माया है। उसने पुस्तक को बंद किया और उसे लौटाने के लिये स्वामीजी के पास गये।  महाराज ने पूछा क्या तुमने  पुस्तक पढ़ लिया था ? उसने पुस्तक को लौटते हुए कहा, नहीं महाराज यह पुस्तक मेरे लिये नहीं है। मैं एक गृहस्थ हूँ, मैं स्त्री और गोल्ड के बिना कैसे रह सकता हूँ ?

                   इस पर महाराज ने कहा, लगता है तुमने शायद इस पुस्तक को उचित तरीके से नहीं पढ़ा है। उनके सारे उपदेश तुम्हारे लिये नहीं हैं उनके कुछ उपदेश उनके सामान्य अनुयायियों के लिये हैं, और कुछ उपदेश मानव जाति के उन भावी मार्गदर्शक गृहस्थ नेताओं के लिए हैं, जो भारतमाता को फिर से उसके गौरवशाली सिंहासन पर बैठाने के लिये, अपने भोग-विलास की इच्छा को त्याग कर, महामण्डल के चरित्र और मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन को भारत के गाँव-गाँव तक फ़ैला देने के कार्य में जी-जान से जुट जाना चाहते हैं या उनके सन्यासी शिष्यों (जैसे विवेकानन्द, ब्रह्मानन्द आदि) के लिये हैं। तुम केवल उन्हीं उपदेशों को ग्रहण करो, जो तुम्हें अपने अनुकूल लगता हो, या तुम्हें आकर्षित करता हो।

                    उन्होने पुनः उस पुस्तक को महाराज से लिया और घर ले जाकर उस पुस्तक को शुरू से लेकर अन्त तक पूरा पढ़ लिया। अबकी बार जब वे पुस्तक वापस करने गये, तो बहुत प्रभावित और प्रेरित लग रहे थे। उछलते हुए महाराज के पास गए और कहा, महाराज इस पुस्तक में तो समस्त मानव-समाज की समस्याओं का समाधान है। इस समय तो डॉलर मानव समाज का सम्राट बन गया है, और रानी सेक्स बन गयी है; किन्तु श्रीरामकृष्ण परहंस ने इस पुस्तक में इसी समस्या का समाधान बताया है। कभी कभी हमलोग अपनी इच्छा को जाने बिना ही कि हम क्या चाहते हैं, यह जाने बिना ही कि हमारा लक्ष्य क्या है, समझे बिना ही इच्छाओं का पीछा करने लगते हैं और उसी प्रकार  आज पूरी दुनिया उन्हीं इंद्रियभोगों ओर धन के पीछे भागे चली जा रही है, जो अंत मे हमें कहीं का नहीं छोडती। अधिक से अधिक इंद्रिय सुखभोग करने और इसके लिये बेहिसाब धन कमाने का हवस या कामुक इच्छायें ही हमें मनुष्य से पशु बनने के रेस में दौड़ा रही हैं, आज धर्मगुरु (नाम देना उचित नहीं), राजनेता (मदेरणा), मिडिया-कर्मी (तरुण तेजपाल), कार्यपालिका (?), न्यायपालिका (?) कोई भी क्षेत्र भ्रष्टाचरण से रहित नहीं रह गया है; किन्तु इस पुस्तक मे श्रीरामकृष्ण ने उसका सम्पूर्ण समाधान बताया है।

                           इसिलिये किसी व्यक्ति को 'गीता, बाइबिल या श्रीरामकृष्ण वचनामृत ' पढ़ने के पहले यह समझ लेना चाहिये कि श्रीकृष्ण, बुद्ध, ईसा और श्रीरामकृष्ण जैसे जगत गुरुओं के समस्त उपदेश मेरे लिये अनुकूल नहीं भी हो सकते हैं। हमें केवल उन्हीं उपदेशों को ग्रहण करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिये, जो हमारे अनुकूल हो और हमें आकर्षित करता होवरना हम भ्रम मे पड़ सकते हैं, या क्न्फ़्यूज्ड हो सकते हैं। श्रीरामकृष्ण के समान ही ईसा के कुछ उपदेश केवल  मानव-जाति के भावी मार्गदर्शक नेताओं ( या सन्यासियों) के लिए हैं, जैसे बाइबिल में जब ईसा कहते है, "The foxes have holes, and the birds of the air have nests; but the Son of God (man) hath not where to lay his head." "  लोमडिय़ों के लिये बिल या कंदरा होती है, और आकाश के पक्षियों के घोंसले होते हैं; परन्तु ईश्वर के पुत्र के लिये सिर छुपाने की भी जगह नहीं है।"(मैथ्यू/ अध्याय 8 / 20) यह उपदेश साधारण लोगों के लिये नहीं है,बल्कि उनके भावी धर्म-प्रचारकों या सन्यासियों के लिये है ईसा के सभी उपदेश गृहस्थों के अनुकूल नहीं हैं। बिना सोचे समझे, कोई भी दवा हम नहीं खा सकते, कौन सी दवा तुम्हारे लिये अनुकूल होगी यह डॉक्टर की सलाह लेने के बाद ही खाना चाहिये । उसी प्रकार श्रीरामकृष्ण के सभी उपदेश मठ में रहने वाले साधुओं के लिये भी नहीं है। किन्तु अपने ईष्ट के प्रति निष्ठा रखने वाले कुछ कट्टर धार्मिक लोग होकर श्रीकृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्म्द या श्रीरामकृष्ण परमहंस जैसे जगत गुरुओं के समस्त उपदेशों को इंडिस्क्रिमिटली, बिना सोचे बिचारे ही ग्रहण कर लेते हैं, और कन्फ़्यूज्ड हो जाते हैं।

           18 वीं शती के अंत में जब सम्पूर्ण भारतवर्ष इसी प्रकार  पाश्चात्य प्रभावों एवं राष्ट्रीय रूढ़िवादिता से कन्फ़्यूज्ड होकर एक दोराहे पर खड़ा था। उस समय, ब्रह्मसमाज ही पराधीन भारत का सर्व-प्रथम धार्मिक और सामाजिक सुधार आन्दोलन बना था। राजा राममोहन राय ने भारतवर्ष की तात्कालीन राजधानी  कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में १८२८ ई. में ब्रह्मसमाज की स्थापना की थी। राजा राममोहन राय ने तुलनात्मक धर्म अध्ययन किया था परन्तु वे मुख्य रूप से उपनिषद, उनके दर्शन तथा विचारों से प्रभावित हुए थे। उपनिषद दर्शन के प्रभाव वश ही उन्होंने अपने संगठन का नाम ब्रह्मसमाज रखा था। ब्रह्मसमाज के अनुयायी मूर्तिपूजा और जाति प्रथा के विरोधी थे, तथा नारी मुक्ति के समर्थक थे।

                  ब्राह्म लोग ईसाइयों की तरह ईश्वर की पूजा करते थे। वे यह मानते थे कि ईश्वर का कोई रूप नहीं होता, किन्तु गुण होते हैं। वे ईश्वर को सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक ओर परम दयालु मानते थे, तथा उस निर्गुण-निराकार ईश्वर के विषय मे अपनी कुछ मान्यताओं, यथा-" सत्यं ज्ञान अनन्तम ब्रह्म" का पाठ समूहिक रूप से बैठकर प्रतिदिन दुहराते थे। राममोहन राय द्वारा प्रवर्तित एकमेवाद्वितीय ब्रह्म की जाति, धर्म -निरपेक्ष उपासना ने प्रिंस द्वारिकानाथ के पुत्र महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर  पर अति गंभीर प्रभाव डाला। देवेंद्रनाथ ने ही ब्रह्मसमाज को प्रथम सिद्धांत प्रदान किए तथा उपनिषदीय 'पवित्रता का ध्यानगम्य अभ्यास' करने का सूत्रपात किया।[ब्रह्मसमाज:  1866 में आचार्य केशवचंद्र सेन ने भारतवर्षीय ब्रह्मसमाज की स्थापना की। ब्रह्मसमाज ने धर्म प्रचार का तथा समाजसुधार का कार्य अपने हाथ में लिया। इसपर देवेंद्रनाथ ने अपने समाज का नाम आदि ब्रह्मसमाज रख दिया। केशवचंद्र के प्रेरक नेतृत्व में भारत का ब्रह्मसमाज देश की एक महती शक्ति बन गया। ब्रह्मसमाज में दूसरा विभाजन 1878 ई. में हुआ, जब आचार्य केशवचन्द्र सेन ने 'ब्रह्मविवाह अधिनियम' 1872 ई. का उल्लंघन करते हुये अपनी अल्पायु पुत्री का विवाह कूचबिहार के महाराजा से कर दिया था। इस पर मतभेद होने से केशवचन्द्र सेन के अनुयायियों ने उनसे अलग होकर 'साधारण ब्रह्मसमाज' की स्थापना की। इस संगठन के सक्रिय कार्यकर्ताओं में शिवनाथ शास्त्री, विपिनचन्द्र पाल द्वारिकानाथ गांगुली तथा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी अदि प्रमुख थे।]

         ब्राह्म लोग अपनी आँखों को मूंदकर समूहिक रूप से उस ब्रहम्-स्वरूप ईश्वर का ध्यान करते थे। अर्थात ईश्वर क्या है ? ईश्वर सत्य (Truth) है, फिर क्या है, ज्ञान या चैतन्य (Knowledge or consciousness) है, साथ ही साथ ईश्वर अपरिमित (infinite) भी हैं; ईश्वर के इसी स्वरुप का वे ध्यान करते थे। अब यदि हमलोग आसन पर बैठकर, आँखों को मूँद कर ईश्वर के भाव-वाचक गुणों  पर ध्यान करें, तो ईश्वर की कौन सी आकृति हमारे मन में उभरेगी ? कोई भी आकृति नहीं उभरेगी क्योंकि ये सभी गुण ईश्वर के निराकार स्वरुप के विभिन्न पहलू हैं।

                      श्रीरामकृष्ण ने ब्राह्म लोगों से कहा कि मनुष्य को कभी, एक पक्षीय (one sided) नहीं होना चाहिए। उसे ईश्वर के निर्गुण-निराकार और सगुण-साकार दोनों पहलू को ग्रहण करना चाहिये। ईश्वर का एक सगुण रूप भी होता है, जिसे हमलोग भगवान कहते हैं, ईश्वर ही मनुष्य का रूप धारण करके इस धराधाम पर अवतरित होते हैं, भक्तों को उन्हें देखने की तड़प ओर प्यास होती है, जिसे मिटाने के लिये ईश्वर को अवतार लेना पड़ता है। तुम्हें उनके सगुण रूप को भी स्वीकार करना चाहिये क्योंकि जब तुम ईश्वर को सर्व-समर्थ कहते हो, तो वे शरीर धारण क्यों नहीं कर सकते ? भक्ति रूपी ठंढक से, पानी बर्फ क्यों नहीं बन सकता ? फिर भी ब्राहम लोग ठाकुर की बातों से सहमत नहीं हो पा रहे थे, तब ठाकुर ने कहा तुमलोगों के लिये जो कल्याणकारी है, उसे मैंने बता दिया है; उन्होने अपनी विशिष्ट ग्राम्य-बंगला शैली मे कहा - " लेजा मुड़ी बाद दिये नाओ ! " उनके कहने का तात्पर्य था कि मछली के सिर और पूंछ को छोड कर, उसका लाभकारी भाग पेट को ही ग्रहण करो। अर्थात उसका सिर और पूंछ को छोड़ कर उसके सार भाग को ग्रहण करो। श्रीरामकृष्ण के शिक्षा देने का तरीका अद्भुत था, वे इसी प्रकार से उपदेश देते थे। अर्थात मैंने तुमको बता दिया है कि तुम्हारे लिये क्या अच्छा है, अब यह तुमपर निर्भर करता है कि तुम अपने लिये क्या पसन्द करते हो, क्या चुनते हो? तुम खुद ही डिसाइड करो, खुद सेलेक्ट करो।गीता मे भी भगवान श्रीकृष्ण ने चार प्रकार के योगमार्ग का वर्णन किया है- कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, राजयोग। उन्होने अलग अलग प्रकृति के मनुष्यों के लिये अलग अलग मार्ग की शिक्षा दी थी। 
                             आप जानते हैं, वेदान्त की यही वैशिष्ट भी है।वहाँ यह ध्यान रखा जता है कि प्रत्येक मनुष्य दूसरे से भिन्न स्वभाव का होता है; जैसे मैं एक तार्किक (Rational) या विवेकशील मनुष्य हूँ केवल तर्कसिद्ध बातों को ही स्वीकार करता हूँ। मैं इमोसनल या भावुक स्वभाव का व्यक्ति बिल्कुल नहीं हूँ, इसलिये मेरा एप्रोच या दृष्टिकोण तो तर्कसंगत ही होगा। उसी प्रकार जो लोग तार्किक स्वभाव के नहीं हैं, इमोसनल या भावुक प्रकृति के हैं, ईश्वर के प्रति उनका दृष्टिकोण भी भक्तिपूर्ण होता है। सभी मनुष्य एक जैसे नहीं गढ़े गये हैं, इसलिए साधना के उपदेश भी अलग अलग प्रकार के होने चाहिये।

                    भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश देते हुए कहा था- तुम अनासक्त बनो, और अनासक्त होकर अपने समस्त कर्मों का निष्पादन करो। तब तुम अपने लक्ष्य (सत्य या ईश्वर) तक पहुँच जाओगे, किन्तु अपने कर्मों के फल को पाने की इच्छा नहीं करो। समस्त कर्मफलों को भगवान के चरणों मे समर्पित कर दो। कई महापुरुषों ने कर्मयोग का अभ्यास करते हुए ही ज्ञान प्राप्त किया है। फिर उन्होने संसार-चक्र में फँसी हुई आत्माओं (रूहे सफर -Roaming Souls) के लिये ज्ञानयोग में बताया है कि कैसे वे इस जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हो सकेंगे। और राजयोग में बताया कि मन को वश में करने वाला कोई व्यक्ति स्थितप्रज्ञ मनुष्य बन जाने के बाद संसार में कैसे रहता है ? वैसे मनुष्य के लक्षण क्या हैं, गुणातीत मनुष्य इस संसार में कैसे रहता है? फिर भक्ति योग में यह भी बताया कि एक सच्चा भक्त शरणागत होकर इस संसार में कैसे रह सकता है! परम सत्य या ईश्वर को जानने के ये सभी मार्ग, उन महान गुरुओं द्वारा आविष्कृत विशेष प्रकार के व्यक्तियों के लिये विशिष्ट तकनीक (science) या विशिष्ट कौशल हैं। इसीलिये कृष्ण, ईसा, बुद्ध या श्रीरामकृष्ण परमहंस जैसे जगतगुरु, सामान्य मनुष्यों जैसे दिखते अवश्य हैं, किन्तु उनसे बिल्कुल भिन्न होते हैं।

                    भगवान बुद्ध का मानना था कि जरुरत से ज्यादा (excess) कोई भी चीज मनुष्य के लिये अच्छा नहीं है। बुद्ध कहते थे, वीणा की तार को इतना भी मत कसो कि वह टूट जाये। इसलिये मनुष्य को सब प्रकार की अतियों से बचना चाहिये। अति दो प्रकार की होती है। एक अति है भोग-विलास में, काम-सुख में ही आकण्ठ, ऊपर से नीचे तक डूब जाना। पाशविक प्रवृत्तियों में फंसे हुए लोग इस अति में पड़ते हैं। दूसरी अति है, ईश्वर या परमसत्य को जानने के लिये शरीर को अत्यधिक पीड़ा देकर तपस्या करना। अपने को विभिन्न प्रकार से पीड़ा पहुँचाना। दोनों अति को छोड़कर तथागत ने एक बीच का रास्ता (Middle Path) मध्यम मार्ग खोज निकाला, जिसे अष्टांगिक मार्ग कहते हैं। बुद्ध के अनुसार सामान्य लोगों के लिये आठ व्यावहारिक मार्ग इस प्रकार है- १. सम्यक कर्मान्त ( राइट ऐक्सन - औचित्यबोध के साथ शांतिपूर्ण ,निष्ठापूर्ण,पवित्र )२. सम्यक दृष्टि ( राइट थिंकिंग - सही समझ अन्धविश्वास एवम  भ्रम  से रहित )३. सम्यक संकल्प ( राइट रेजोल्यूसान - सही इरादा उच्च तथा बुद्धियुक्त )४. सम्यक वचन (नम्र, उन्मुक्त, सत्यनिष्ठ ) ५ . सम्यक व्यायाम ( न्यायोचित आत्म-प्रशिक्षण एवम आत्मनिग्रह हेतु)६ . सम्यक आजीव।७ . सम्यक स्मृति (सक्रिय सचेत मन ) ८. सम्यक समाधि (जीवन की यथार्थता पर गहन ध्यान ) 

                   इसके साथ साथ पाँच काम 'मत करना' (५ डोन्ट्स) - भी बताए थे, १-चोरी मत करना २-झूठ मत बोलना ३- हिंसा नहीं करना ४ - शराब मत पीना ५- व्याभिचार या (adultery) परस्त्री-गमन नहीं करना। ये सभी उपदेश सामान्य गृहस्थ और धर्म-प्रचारक भिक्षुओं सबों के ग्रहण करने योग्य थे। इनका पालन करने से साधारण मनुष्य भी अपने लक्ष्य तक पहुँच सकता है। किन्तु केवल मानव-जाति के भावी मार्गदर्शक नेता बनने के इच्छुक लोगों ( भिक्षु या सन्यासियों) के लिये उन्होने अलग से ५ प्रकार के अभ्यास कि शिक्षा दी थी- १. अपने लिये सुन्दर और आकर्षक कपड़ों और स्वादिष्ट भोजन मिलने की इच्छा मत रखो। २. सस्ते मनोरंजन (सिनेमा, ड्रामा या थियेटर आदि देखने) की इच्छा मत रखो। ३. सोने के लिये आरामदायक गद्देदार बिछावन या बिस्तर की इच्छा मत रखो।४.  ईत्र या आभूषण का प्रयोग नहीं करना चाहिये। ५. किसी भी व्यक्ति से उपहार के रूप में सोना-चाँदी आदि ग्रहण नहीं करना चाहिये। भगवान बुद्ध ने इन पांचों उपदेशों को मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं या (धर्म-प्रचारक सन्यासिओं) के लिये अलग से निर्देशित किया था ।

                   हम आप से यहाँ आप से यही कहना चाह रहे हैं कि प्रत्येक महामण्डल शिक्षक (नेता) को अपने सहकर्मियों की प्रकृति या स्वभाव के अनुकूल पथ का ही निर्देशन करना चाहिये। फिर बुद्ध ने सभी मनुष्यों को शिक्षा दी थी कि चित्त की चंचलता की परीक्षा के लिए एकाग्रता से ज्यादा उपयोगी कोई दूसरा साधन नहीं है, तुम लोगों को पाँच विषयों पर मन को एकाग्र करना चाहिये।1.मैत्री = metta/maitri = loving kindness towards all, सभी के प्रति मित्रतापूर्ण दृष्टि और दयाभाव रखने की भावना,2.करुणा = karuna = compassion संवेदना सहानुभूति की भावना,3.मुदिता = mudita = altruistic joy या परहित देखने से खुश होना ईर्ष्या नहीं करना, जैसे मेरे मित्र नयी कार मिले और मेरे पास मोटर-साइकल हो तो उसे देख कर खुश होना।4. उपेक्षा = upekkha/upeksha = equanimity, किसी भी परिस्थिति में समभाव बनाये रखना, सुख-दुःख, मान-अपमान, में समता दृष्टि रखना, एवं 5. काया-अशुभ भावना= Ominous sense of Body= शरीर के ऊपर घमण्ड करने के बदले यह सोचना कि शरीर तो क्षणभंगुर है, यह रोगों का घर है, एक दिन यह नहीं रहेगा, इस नश्वर शरीर में आसक्ति मत रखो, निर्वाण प्राप्त करने बारे में चिंतन करो, किस वस्तु ने इस शरीर का निर्माण किया है, क्यों इसे बार बार जन्म लेना और मरना पड़ता है ? Desire या कामना-वासना ने ही इस शरीर का निर्माण किया है, इसलिये अपने शरीर-मन से इच्छाओं या वासना को बाहर निकाल दो, तब तुम निर्वाण को प्राप्त हो जाओगे। ईश्वर की खोज या ब्रह्मचर्य अर्थात ब्रह्म के अन्वेषण के प्रति बुद्ध की प्रमुख शिक्षायें यही हैं।

                   उसी प्रकार ईसा के उपदेश भी दो विभिन्न स्वभाव के मनुष्यों के लिये अलग अलग थे, जब ज्ञान प्राप्ति के बाद यीशु सारे गलील (Galilee उपासना घरों ) में घूमते हुए उन की सभाओं में उपदेश उपदेश देने लगे, उस ने गलील की झील के किनारे फिरते हुए दो भाइयों अर्थात शमौन को जो पतरस (Peter) कहलाता है, और उसके भाई अन्द्रियास(Andrew) को झील में जाल डालते देखा; क्योंकि वे मछवे थे। और उन से कहा, " मेरे पीछे चले आओ, तो मैं तुम को मनुष्यों के पकड़ने वाले बनाऊंगा। "Follow me, and I will make you fishers of men. Matthew 4/19) विभिन्न उपदेशों के कारण सम्पूर्ण सीरिया में उनका यश फैल गया; और भीड़ की भीड़ उनके पीछे चलने लगी। वे सीरिया में इस भीड़ को देखकर, अपने चुने हुए शिष्यों के साथ एक पहाड़ पर जाकर बैठ गये। वहाँ उन्होने जो उपदेश दिये हैं, वे 'Sermon on the Mount' या ' ईसामसीह का गिरि प्रवचन ' के नाम से प्रसिद्ध है। ये सभी उपदेश ईसा की शिक्षाओं का सार है।

                          उन्होंने कहा, " धन्य हैं वे, जो मन के दीन हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।  धन्य हैं वे, जो शोक करते हैं, क्योंकि वे शांति पाएंगे।  धन्य हैं वे, जो नम्र हैं, क्योंकि वे पृथ्वी के अधिकारी होंगे।  धन्य हैं वे जो धर्म के भूखे और प्यासे हैं, क्योंकि वे तृप्त किये जाएंगे। धन्य हैं वे, जो दयावन्त हैं, क्योंकि उन पर दया की जाएगी। धन्य हैं वे, जिन के मन शुद्ध हैं, क्योंकि वे परमेश्वर को देखेंगे। Blessed are the peacemakers: धन्य हैं वे, जो मेल करवाने वाले हैं, क्योंकि वे परमेश्वर के पुत्र कहलाएंगे। Ye are the salt of the earth: तुम पृथ्वी के नमक हो; परन्तु यदि नमक का स्वाद बिगड़ जाए, तो वह फिर किस वस्तु से नमकीन किया जाएगा? but if the salt have lost his savour, wherewith shall it be salted? Ye are the light of the world. तुम जगत की ज्योति हो; जो नगर पहाड़ पर बसा हुआ है वह छिप नहीं सकता। A city that is set on an hill cannot be hid." (मैथ्यू ५/३-१४) किन्तु इसके एक एक उपदेश उनके सन्यासी शिष्यों के लिये थे, साधारण जनता के अनुकूल वे उपदेश नहीं थे। उनका एक अन्य प्रसीद्ध उपदेश है- "Ye cannot serve God and mammon."  तुम परमेश्वर और धन दोनो की सेवा नहीं कर सकते। कोई मनुष्य दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता, क्योंकि वह एक से बैर ओर दूसरे से प्रेम रखेगा, वा एक से मिला रहेगा और दूसरे को तुच्छ जानेगा।" (मैथ्यू ६/२४) किन्तु ईसा के ये सभी निर्देश भावी धर्म-प्रचारकों या तपस्वी या मठवासियों के लिये हैं, जनसाधारण के लिये नहीं हैं।

                       इसी प्रकार श्रीरामकृष्ण के निर्दश भी दो भिन्न प्रकृति के मनुष्यों के लिये थे, एक श्रेणी के उपदेश वैसे मनुष्यों के उपदेश वैसे मनुष्यों के लिये थे जो विद्यार्थी जीवन के बाद विवाह करके सामान्य गृहस्थ का जीवन जीना चाहते हैं। एवं उससे भिन्न श्रेणी के निर्देश वैसे लोगों के लिये हैं, जो गृहस्थ आश्रम के समस्त कर्तव्यों का पालन करते हुए भी अपने देश से प्रेम करते हैं, और मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने के इच्छुक हैं या ब्रह्मचर्य आश्रम से सीधा सन्यास आश्रम में प्रवेश करने कि पात्रता रखते हैं।सामान्य गृहस्थ लोगों के लिए किस प्रकार की शिक्षा थी, उसका पूरा विवरण विस्तार के साथ श्रीरामकृष्ण वचनामृत मे हम देख सकते हैं।

                     यहाँ उसपर चर्चा नहीं करूंगा, सन्यासियों के लिये उनका  प्रमुख निर्देश था - टोटल रिननसीएसन या पूर्ण त्याग। सन्यासियों के किसी स्त्री के चित्र को भी देखना ठीक नहीं है। उसी प्रकार धन-संपत्ति भी उनके लिये विष समान है, यदि साधू लोग धन-संपत्ति रखने लगेंगे, तो उसकी चिंता सताने लगेगी, उनका अभिमान बढ़ जाएगा, भौतिक सुखों को प्राप्त करने की इच्छा या कामना होगी, उसमें बाधा पड़ने से क्रोध उत्पन्न होगा। इसिलिये ठाकुर ने सन्यासियों के लिये 'कामिनी -कांचन' को पूर्णतः वर्जित किया था। ठाकुर के एक शिष्य स्वामी प्रेमानन्द ने बाद में एक स्थान पर कहते हैं, जब ठाकुर हमलोगों को अर्थात भावी सन्यासियों को प्रशिक्षण देते थे, उस समय वे कमरे को बन्द करने के बाद भी कहते थे, जाओ थोड़ा बाहर जाकर ठीक से देख लो कि आस-पास में कहीं कोई गृहस्थ सुन तो नहीं रहा है ? इस बारे में पूर्णतः निश्चिंत होने के बाद ही, वे उन लोगों को सर्वोच्च त्याग के उपदेश देते थे। हमलोग जानते हैं कि दिन और रात कभी एक साथ नहीं रह सकते, जब दिन होगा तो रात नहीं रह सकता, या जब रात्री होगी तो दिन नहीं रहेगा। संत तुलसी दास ने भी कहा है-



जहाँ  राम  तँह  काम  नहीं, जहाँ  काम  तँह  राम। 

तुलसी  कबहुँ  कि  रहि  सकै, रवि  रजनी  एक  ठाम।।


  अर्थात प्रकाश और अंधकार जिस प्रकार एक साथ नहीं रह सकते हैं, उसी तरह जिसका हृदय में भगवान आ गए हैं, उस हृदय में अँधेरा या माया अर्थात  Ignorance या अज्ञान कभी एक ही साथ नहीं रह सकते। इसीलिये जो लोग दूसरों का मार्गदर्शन करना चाहते हैं, (ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या का ज्ञान देना चाहते हैं) कम से कम उन्हें तो पूर्ण रूप से अज्ञान का त्याग कर ही देना होगा !इसी प्रकार का शिक्षण वे अपने सन्यासी शिष्यों को देते थे। 

                     ठाकुर के प्रमुख शिष्य थे स्वामी विवेकानन्द जो 1893 में अमेरिका गए थे तथा शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में वैदिक धर्म या हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में भाषण दिया था। उन्होने सन्यासियों द्वारा संचालित बेलुड़ मठ कि नियमावली में लिखा था, कि हमारे गुरुदेव अर्थात श्रीरामकृष्ण अलग अलग व्यक्तियों को अभ्यास के लिये अलग अलग पाठ्यक्रमों के द्वारा प्रशिक्षण देते थे, इसिलिये सभी मनुष्यों के लिये अभ्यास की कोई एक सार्वभौमिक विधि नहीं हो सकती। अतः हमें गुरुदेव के द्वारा बताए गए आध्यात्मिक निग्रह के समस्त शिक्षण विधियों को संग्रहीत करना होगा, तथा भावी नेताओं को प्रशिक्षित करने के लिये उन्हें निजी तौर पर संरक्षित करके मठ में रखना होगा। क्योंकि किसी विशेष व्यक्ति को दिया गया आध्यात्मिक प्रशिक्षण, किसी दूसरे व्यक्ति के लिये हानिकारक भी हो सकता है। आध्यात्मिक प्रशिक्षण के विषय मे स्वामी विवेकानन्द द्वारा की गयी यह अत्यन्त महत्वपूर्ण टिप्पणी है। क्या आप जानते हैं कि इस बात को कहने के पीछे उनका तात्पर्य क्या था ?

                    वे जानते थे कि श्रीरामकृष्ण देव, ईसा या बुद्ध आदि मेरे समान कोई सामान्य या साधारण गुरु नहीं थे; वास्तव मे वे लोग मनुष्य शरीर धारी ईश्वर थे, वे लोग ईश्वर के अवतार थे। इसीलिए उनकी शिक्षा पूर्णतया निर्दोष और सम्पूर्ण थी। श्रीरामकृष्ण परमहंस के १६ शिष्यों में ४ शिष्य विवाहित युवक थे और १२ शिष्य अविवाहित युवक थे, श्रीरामकृष्ण ने स्वयं भी विवाह किया था। किन्तु उन्होंने ने अपने समस्त शिष्यों को उनके भावी जीवन में अपने उपदेश- 'मान हूँश तो मानुष' के आलोक में " मनुष्य बनो और बनाओ " Be and Make " की शिक्षा को एक चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन के रूप में सम्पूर्ण विश्व में फैला देने में समर्थ मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने और बनाने के लिये प्रशिक्षित किया था। 

                 किन्तु यह प्रशिक्षण उन्होंने श्री गिरीशचन्द्र घोष, स्वामी शिवानन्द, स्वामी ब्रहमानन्द, स्वामी प्रेमानन्द, स्वामी योगानन्द, स्वामी विवेकानन्द आदि को अलग अलग तरीके से दिया था। उन्हें संग्रहीत करके निजी तौर पर सुरक्षित करके रखना चाहिए था, किन्तु ऐसा नहीं हो सका और हमने उन्हे खो दिया। उनके जाने के बाद विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में तथा 'They Lived with God' या 'God lived with Them' जैसी पुस्तकों में या अनुयायियों की डायरी आदि में श्रीरामकृष्ण की शिक्षण विधि के बारे में मुझे जितना कुछ प्राप्त हो सका है, उसे मैंने अपनी ओर से यथा संभव संग्रहीत करने की चेष्टा की है। क्योंकि वे सभी शिक्षाएं बहुत मूल्यवान हैं। क्रमशः मेरा प्रयास होगा कि उन शिक्षाओं से आपको परिचित करवा दूँ कि ठाकुर अपने शिष्यों को किस प्रकार से प्रशिक्षित करते थे। क्योंकि श्रीरामकृष्ण की विशेष व्यक्तियों के लिये विशिष्ट प्रकार की शिक्षण विधियों को यदि संग्रहीत करके सुरक्षित रखा जा सका तो वह आध्यात्मिक सत्य के भावी जिज्ञासुओं के लिये यह एक बहुत बड़ा खजाना सिद्ध होगा।

               एक दिन ठाकुर ने किसी व्यक्ति को साधना करते देखा तो जान गए कि उसमें क्या कमी रह गयी है, उनकी आँखों में वह अद्भुत शक्ति थी कि वे किसी व्यक्ति के मन के भीतर उसी प्रकार झांक सकते थे, जैसे किसी शीशे की आलमारी में रखी वस्तुओं को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। तो जब वह व्यक्ति आध्यात्मिक अनुशासन (निग्रह का) अभ्यास कर रहा था, तो उसको देखते ही वे उसको मन के विषय मे जान गए, उसको अपने निकट बुलवाए और बोले, तुम सही ढंग से साधना नहीं कर रहे थे, तुम मेरे पास आना -" आमी तोमार दाँते, दाँत लागिये देबो। "' I shall put teeth over your teeth'- अर्थात मैं तुम्हारे दाँत के ऊपर नये दाँत ठीक से बैठा दूँगा। जैसे कोई व्यक्ति जब अपना डेंचर या कृत्रिम दंतावली बनवाता है, यदि वह बिल्कुल सही नाप का नहीं हुआ तो उसको चबाने मे दर्द हो सकता है, या मुख खोलने से उसकी दाढ़ मे दर्द हो सकता है। उसी तरह ठाकुर भी कहना चाह रहे थे कि तुम्हारा डेंचर ठीक से नहीं बैठ रहा है, तो तुम्हें दर्द होगा, तुम मेरे पास आओ, मैं बिल्कुल सही रूप से दाँत के ऊपर दाँत बैठना जानता हूँ। अर्थात मैं तुमको तुम्हारे लिये उपयुक्त विशेष दिशा-निर्देश दूँगा तभी तुम आध्यात्मिक अनुशासन का सही सही रूप में अभ्यास कर सकोगे। जिन पुस्तकों का नाम मैंने अभी लिया है, आप मे से कुछ लोगों ने शायद उनको पढ़ा भी होगा? किन्तु मैं अपनी चर्चा को केवल स्वामी विवेकानन्द के ऊपर ही केन्द्रित रखूँगा कि ठाकुर ने उन्हें अपने भावी जीवन में मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने और बनाने के लिये किस प्रकार प्रशिक्षित किया था !

                           अपने इस प्रमुख शिष्य के विषय में एक दिन ठाकुर को ध्यान के समय एक अलौकिक दृश्य का दर्शन हुआ था। उन्होने ध्यान में देखा था कि स्वामी विवेकानन्द निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक थे, ध्यान की अत्यन्त उच्च अवस्था में पहुँचकर उनहोंने देखा था कि ठाकुर ने ही जगत के कल्याण के लिये उन्हें विशेष तौर से आने का अनुरोध किया था, और इस प्रकार स्वामीजी का जन्म हुआ था। बचपन से ही ' ध्यान ' का खेल उनका सबसे प्रिय खेल था, अपने दोस्तों के साथ वे अक्सर ध्यान-ध्यान का खेल खेला करते थे। कभी कभी वे अकेले ही घर के छत वाले कमरे का दरवाजा बन्द करके ध्यान किया करते थे। बचपन से ही उनके लिये ध्यान करना बिल्कुल स्वाभाविक था, क्योंकि उन्हें बचपन से ही यह विश्वास था कि ईश्वर की अनुभूति के लिये ध्यान करना सबसे अच्छा उपाय है। इससे यह सिद्ध होता है कि ध्यान के प्रति इतनी गहरी आस्था अवश्य उनको अपने पूर्व जन्मों के अनुभव से ही प्राप्त हुई होगी। जब वे ध्यान में बैठते थे, तो कभी कभी वे अविचल (Motionless) भी हो जाते थे, उस समय वे कभी अपनी आँखों को खोलकर देखते भी रहते थे कि उनके बालों ने बढ़कर जटा का रूप धारण कर लिया है या नहीं, वे जटाएँ बढ़कर कहीं बरगद के वृक्ष की शाखाओं के जैसे बड़े होकर कहीं जमीन मे प्रविष्ट तो नहीं हो गए होंगे ?

            उनके बालमन में प्राचीन ऋषि-मुनियों का ऐसा ही रूप बसा हुआ था, 5-6 साल का लड़का अपने बालों को छू कर देखता था कि उसके बाल भी ऋषियों के जैसे लंबे हुए हैं या नहीं ? उनको चिंता हुई कि उनके बाल लंबे क्यों नहीं हुए, अपने माँ से पूछा तो माँ ने बताया कि ऋषि लोग तो वर्षों तक ध्यान में लगे रहते थे, तब कहीं जाकर उनकी जटाएँ लंबी होती थी, तुम्हें भी वर्षों तक ध्यान करना होगा नहीं तो तुम्हारे बाल जटा बनकर जमीन के नीचे नहीं पहुँच सकेंगे। उनके मन में बचपन से ही ऐसी धारणा थी कि यदि ईश्वर सचमुच होते हैं, तो वे कभी मनुष्यों के हृदय की ईश्वर-दर्शन की व्याकुलता को नजरंदाज करके अधिक देरी तक छुपे हुए नहीं रह सकते हैं। फिर यदि वे सचमुच हैं, तो उन तक पहुँचने का कोई मार्ग भी अवश्य बनाया होगा ? क्योंकि ईश्वर को जाने बिना तो इस मनुष्य जीवन का दूसरा कोई महत्व ही नहीं है। उनके भीतर बचपन से ही सत्य को जानने के लिये एक जबर्दस्त जुनून था। मुझे तो उस परम सत्य को जानना ही होगा, 'I must know God.'

जब नरेन्द्रनाथ कॉलेज में थे, तभी श्रीरामकृष्ण से पहली बार मिले थे। प्रथम मुलाक़ात के बाद ही ठाकुर ने कहा, ' तुम तो जानते हो, जब लड़का-लड़की मिलते हैं, तो उनमें प्यार हो जाता है। फिर वे आपस में बार बार मिलना चाहते हैं, अक्सर मिलते भी रहते हैं। तुम अब मेरे नये प्रेमी हो, हमलोग भी उसी तरह आपस में मिलते रहेंगे। तुम अक्सर मेरे पास आते रहना। इस प्रकार हमलोग एक दूसरे को जानने समझने में समर्थ हो जाएंगे, हमलोगों की अच्छी जान-पहचान हो जाएगी।' तीसरी बार 3rd day जब मिले तो ठाकुर उनको यदुमल्लिक के बगीचे वाले मकान में ले गये, और जैसे ही उनकी छाती का स्पर्श किया तो स्वामीजी समाधि में चले गये, उस समय उनहोंने स्वामीजी के निजी जीवन से संबन्धित कुछ प्रश्न भी पुछे थे, वे वास्तव में इस बात की परिक्षा करना चाहते थे कि वास्तव में नरेन्द्र ही वह ऋषि हैं या नहीं जिनको उन्होने अपनी शिक्षाओं को जन-जन तक पहुंचा देने के लिये धरती पर बुलाया था ? वे अपने उस दिन वाले विजन को वेरिफ़ाई करना चाहते थे। और उनको अपने सभी प्रश्नों के सही सही उत्तर स्वामीजी से प्राप्त हो गया था। इस प्रकार ठाकुर बिल्कुल आशस्वस्त हो गये थे, नरेन्द्र ही वह लड़का है जिसे इतने दिनों से वे ढूँढ रहे थे।

            नरेन्द्र्नाथ ने अपने दूसरे मुलाक़ात में ही श्रीरामकृष्ण से पूछ लिया था कि - 'महाशय क्या आपने ईश्वर को देखा है?' उन्होने कहा हाँ मैंने देखा है, ठीक वैसे ही जैसे इस समय मैं तुम्हें देख रहा हूँ, बल्कि इससे भी स्पष्ट रूप से देखा है। इतना ही नहीं, यदि तू चाहेगा तो तो तुझे दिखा भी सकता हूँ।' कहते कहते जैसे ही ठाकुर ने नरेन्द्र की छाती का स्पर्श किया, नरेन्द्र को कमरे के दरवाजे ओर खिड़कियाँ, दीवाल आदि सबकुछ अदृश्य होते हुए दिखाई पड़ने लगे। वे चिल्ला पड़े, ' महाशय, यह आप क्या कर रहे हैं ? घर पर मेरे माता पिता जो हैं ! ' ठाकुर जब दुबारा उनकी छाती का स्पर्श किया तो नरेन्द्र्नाथ फिर से सामान्य अवस्था में आ गए। बाद के जीवन में जब विवेकानन्द ठाकुर से समाधि के आनन्द का अनुभव कराने की जिद करने लगे तो, श्रीरामकृष्ण ने कहा, मैंने तो दूसरी मुलाक़ात के समय ही तुमको उस ब्रह्म में स्थित करवाकर संसधी के आनन्द का अनुभव करवाने की चेष्टा की थी, किन्तु तुम्हीं चिल्ला पड़े थे, और कहा था घर पर मेरे माता-पिता जो हैं ? फिर उन्होने एक बहुत मनोरंजक कथा सुनाई थी, " बनारस के समीप (ऊँच में) किसी पुलिया के निकट एक वृक्ष की डाल पर एक भूत रहता था, वह बहुत दिनों से अपने लिये एक साथी खोजने की चेष्टा कर रहा था। हमारे देश में यह लोकोक्ति प्रचलित है कि कार दुर्घटना आदि में किसी की मृत्यु होती है, तो वह भूत बन जाता है। इसिलिये वह भूत भी उस पुलिया पर कार ओर बस के बीच जब कोई दुर्घटना घटती, तो वह भूत तुरंत दौड़ कर वहाँ जाकर देखता था कि कार का ड्राइवर मर कर भूत बना है या नहीं ? किन्तु जब वह व्यक्ति फिर से उठकर खड़ा हो जाता, तो वह अपने दोस्त को पाये बिना ही वापस लौट जाता था। ' विवेकानन्द से बोले उसी तरह मैं भी अपने लिये एक संगी या हमराही ढूँढ रहा था, मैंने सोचा था कि तू मेरा संगी जरूर बनेगा, किन्तु तू भी चिल्ला उठा -मेरे माता-पिता हैं, इसिलिये तुमको अब शिकायत भी नहीं करनी चाहिये। किसी भी गुरु का यह कर्तव्य होता है कि वह अपने शिष्य को अनुप्रेरित करे, उसमें दृढ़ विश्वास उत्पन्न करे उसको उचित दिशा-निर्देश देने में समर्थ हो।

                    एक बहुत बड़े बरामदे से सटे अपने कमरे में श्रीरामकृष्ण के साथ ब्रह्म समाज के नेता आचार्य केशवचन्द्र सेन बैठे हुए थे, वे बहुत बड़े और विख्यात वक्ता थे। वहाँ श्रीविजय कृष्ण गोस्वामी आदि अन्य ब्राह्म नेताओं के साथ नरेन्द्र भी बैठे हुए थे। जब वह बैठक समाप्त हो गया, तो वहाँ बैठे अन्य लोगों के बीच श्रीरामकृष्ण ने विवेकानन्द के बारे में अपना अभिमत या टिप्पणी करते हुए कहा कि, ' यह जो केशव सेन इतने बड़े और विश्व-विख्यात ब्रह्म-समाज के नेता हैं, उनके पास केवल एक शक्ति है, और नरेन के पास वैसी १८ शक्तियाँ हैं। और जीतने भी गुरु यहाँ बैठे हुए थे, वे सभी छोटे छोटे लैंप हैं, जिनसे प्रकाश तो होता है किन्तु उनका प्रकाश बहुत धीमा है, किन्तु विवेकानन्द तो मध्याह्न के चमकते प्रचण्ड सूर्य की तरह प्रकाशवान है। ' नरेन्द्र जो वहीं बैठे थे, बोले महाशय क्या आप पागल हुए हैं ? कहाँ आचार्य केशव सेन ब्रह्म समाज के इतने बड़े वक्ता और विश्व प्रसिद्ध नेता हैं, और कहाँ मैं एक कॉलेज का छात्र हूँ, आप मुझे उनसे बड़ा कैसे कह सकते हैं ? ऐसा मत कहिए, नहीं तो लोग आपको पागल कहेंगे। श्रीरामकृष्ण ने कहा, मैं क्या कर सकता हूँ, जगत जननी माँ काली ने मुझे ऐसा ही दिखाया है ! वे मुझे कभी कोई गलत बात कभी नहीं कह सकती हैं। इसी प्रकार से वे अपने शिष्य में दृढ़ आत्मविश्वास (conviction) उत्पन्न करके उन्हें उत्प्रेरित (goad) करते थे, विवेकानन्द को अपने भावी जीवन का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ था।

        नरेन्द्र नाथ एक अच्छे संगीतज्ञ भी थे, कंठस्वर बहुत मधुर था, वे उस समय ब्रहमसमाज के सदस्य थे, एवं उनकी बैठक-सभाओं मे उद्घाट्न संगीत और समापन संगीत गाया करते थे। इसिलिये जब वे बहुत दिनों तक दक्षिणेश्वर नहीं गए, तो श्रीरामकृष्ण उनसे मिलने के लिये स्वयं, उस ब्रह्मसमाज की बैठक-सभा में चले गये। वहाँ पहुँचने पर ब्राह्म लोगों ने वहाँ की बत्तियाँ बुझा दीं, और श्रीरामकृष्ण को अपमानित करने लगे। विवेकानन्द ने किसी प्रकार उस भीड़ से ठाकुर को बचाते हुए, दक्षिणेश्वर ले आए और कहा, महाशय, आप वहाँ गये ही क्यों थे? उनलोगों ने आपका कितना अपमान कर दिया! ठाकुर बोले तो उससे क्या हुआ ? तुम बहुत दिनों से आ नहीं रहे थे,इसिलिये मैं तुमसे मिलने चला गया था। यह सुनकर नरेन्द्र ने कहा, ' देखिये महाशय, यदि आप हर समय मुझसे मिलने के बारे में सोचते रहेंगे, तो आप की हालत भी, पुराणों में वर्णित जड़भरत की कथा के जैसी हो जायेगी। हमारे पुराणों में कथा आती है कि एक ऋषि को अपने पाले हुए हिरण के ब्च्चे से बहुत प्रेम हो गया था, इसलिए भगवान का चिंतन करना छोडकर वे रात-दिन बहुत व्याकुलता के साथ उसी हिरण के विषय में सोचते रहते थे, इसिलिये मरने के बाद अगले जन्म में उनको भी हिरण बनना पड़ा था। यहाँ भी कई लोग इसी प्रकार अपने पाले हुए कुत्ते के विषय में व्याकुल हो जाते होंगे?

                   इसीलिये विवेकानन्द अपने प्रति अपने गुरु के मोह के तोड़ने के लिये, कहा कि कहीं आपकी भी वही दशा न हो जाए? आप हमेशा मेरा ध्यान करते रहते हैं, यह आपके लिए अच्छा नहीं है, आपको मेरा ध्यान करना छोडकर कभी कभी भगवान के ऊपर भी ध्यान करना चाहिये। हमेशा मेरे ही बारे में सोचते रहना आपके लिये अच्छा नहीं है। यह सुनकर श्रीरामकृष्ण बोले, बात तो तू ठीक कह रहा है ! वे माँ से पूछने के लिये मंदिर में गए तो, माँ ने उनसे कहा कि तुम उस लड़के नरेन्द्र में साक्षात नारायण को देखते हो, इसिलिये तो उससे इतना प्रेम करते हो। यह सुनकर वे बहुत खुश होकर लौट आये, और नरेन्द्र को बताया कि मेरी माँ ने कहा है, मैं तुममें नारायण को देखता हूँ, इसलिये मैं तुमसे प्रेम करता हूँ। किसी लड़के के रूप में मैं तुमसे प्रेम नहीं करता हूँ। इस प्रकार माँ ने श्रीरामकृष्ण को आश्वस्त कर दिया। इसी प्रकार ठाकुर  देव अपने भावी संदेशवाहक नरेन्द्र को प्रशिक्षित करते रहते थे।

         उधर नरेन्द्र ने पाश्चात्य प्रणाली में शिक्षा प्राप्त करके यही सीखा था कि किसी भी बात पर तर्क-वितर्क किये बिना नहीं ग्रहण करना चाहिये, उसे युक्तिपूर्ण ढंग विचार करके ही स्वीकार करना चाहिये। वे अत्यन्त वैज्ञानिक और पाश्चात्य शिक्षा पद्दती के अनुसार तर्क-वितर्क के बाद ही निर्णय लेने के पक्षधर थे, यही नरेन्द्र का सिद्धान्त था। इसलिये वे अपने गुरु के साथ भी तर्क-वितर्क करने लगते थे। श्रीरामकृष्ण भी उनकी इस वैज्ञानिक मानसिकता को बढ़ावा देने के लिये, उनके लिये खास ढंग का वाद-विवाद (debate) का आयोजन भी करवा देते थे। क्योंकि श्रीरामकृष्ण देव यह जानते थे, कि यह लड़का एक दिन मेरे संदेशों का प्रचार करने के लिये पाश्चात्य देशों में जायेगा, और इसे वहाँ ऐसी पाश्चात्य मानसिकता का सामना भी करना होगा। (हँसते हुए यह कथा सुनाओ।) एक दिन उन्होंने  नरेन्द्र को बुलाया और कहा कि तू तो केवल 2.5 क्लास की डिग्री लिया है, अर्थात तूने 2 डिग्री का बी॰ए॰ किया है, और लॉं की पढ़ाई कर रहा है, जबकि 'श्रीम' ने 3.5 क्लास की डिग्री प्राप्त की हुई है, तू जरा उनके साथ बहस करके दिखा तो, देखूँ कौन जीतता है?

                जब नरेन ओर श्रीम के बीच वाकयुद्ध होने लगा तो ठाकुर नरेन को ध्यानपूर्वक देखने लगे, उनके सामने श्रीम बहुत सौम्य और विनम्र तरीके से अपनी बात रख रहे थे, जबकि नरेन्द्र अपनी बातों को बिल्कुल आग के गोले के समान कहते जा रहे थे। इस प्रकार उन्होने श्रीम की तुलना में विवेकानन्द की श्रेष्ठता को जान लिया था। उस विवाद को खत्म करवाने के बाद वहाँ बैठे एक दूसरे बड़े ब्राह्म नेता केदार के साथ एक विषय के ऊपर नरेन्द्र को वाद-विवाद करने के लिये कहा। जब केदार भगवान के विषय में बोलने लगे तो, तो बहुत भावुकता के साथ नेत्रों से अश्रु बहते हुए भगवान के विषय में बोलने लगे, ठाकुर ने भी कहा कि इसने अच्छा बोला, तू केदार को कैसा देखता है? किन्तु नरेन्द्र इस बात पर अपने गुरु के साथ पूर्ण सहमत नहीं हो पा रहे थे। इसिलिये कहा महाशय, मैं इस बारे में कैसे जान सकता हूँ ? आप मानव-प्रकृति को अच्छी तरह से पहचानते हैं, इसलिये इस सम्बंध में केवल आप ही कह सकते हैं। भगवत चर्चा में किसी को रोता देखकर मेरे लिये यह निर्णय करना कठिन है कि वह व्यक्ति वास्तव में भला है या बुरा?

                क्योंकि एक ही बिन्दु को लगातार देखते रहने से वैसे भी किसी के आँख मे पानी भर जाता है। जो लोग कीर्तन सुनते समय राधा के साथ कृष्ण के वियोग का प्रसंग सुन कर, अपनी स्त्री के साथ अपने वियोग को याद करके, उस मनोदशा को आरोपित कर के रोने लगते हैं,किन्तु मुझ जैसे लोगों को उस अवस्था कोई अनुभव नहीं है, इसिलिये मधुर भाव का कीर्तन सुनने से मुझे वैसा कोई भाव नहीं होता कि मैं रोने लगूँ। नरेन ने अपनी आंतरिक भावना को स्पष्ट रूप में ठाकुर के सामने खोल कर रख दिया, ठाकुर वैसा सुनकर बड़े प्रसन्न हुए, क्योंकि नरेन उनको खुश करने के लिए हाँ में हाँ मिलाने की कोई चेष्टा किए बिना बेबाक तरीके से अपना सही अभिमत व्यक्त करते थे।

फिर एक दिन गिरीश, श्रीम और नरेंद्र के बीच अवतार तत्व के विषय मे तर्क-वितर्क चल रहा था, गिरीश इस बात पर विश्वास करते थे, कि ईश्वर मनुष्य का रूप धारण करके धराधाम पर अवतरित होते रहते हैं, किन्तु नरेंद्र इस बात को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं थे। यदि ईश्वर अनंत हैं, तो इतने छोटे से शरीर में कैसे आ सकते हैं? हालांकि बाद के दिनों में वे अवतार को मानने लगे थे, किन्तु शुरू शुरू में इस बात को मानने के लिये वे बिल्कुल तैयार नहीं थे। एक दिन ठाकुर ने उनसे पूछा, ' यहाँ के बहुत से लोग मुझे भी अवतार कहते हैं, तू इस विषय में क्या कहता है? नरेंद्र ने कहा, ' लोग ऐसा समझते हैं, तो कहते रहें, किन्तु मैं जब तक स्वयं आश्वस्त नहीं हो जाता, मैं वैसा नहीं मान सकता हूँ। यह सुनकर ठाकुर बहुत खुश हुए, तेरी बात ही ठीक है।

इसकी परीक्षा भी नरेन्द्र ने ले ली थी, श्रीरामकृष्ण चाँदी का रुपया या सिक्का छू नहीं सकते थे, एक दिन जब वे कमरे में नहीं थे, तो नरेन्द्र ने एक सिक्का उनके चादर के नीचे छिपा दिया। जब वे मंदिर से लौटकर आए, और बिस्तर पर बैठे, तो चिल्ला पड़े,'ओह, जोले गालो, जोले गालो' केदार ने चादर उठाकर देखा तो वहाँ एक सिक्का था। ठाकुर बड़े खुश हुए कि मेरे शिष्य मुझे जाँच-परख कर देख रहे हैं, उन्होने अपने शिष्यों द्वारा ली गयी इस तरह की समस्त परीक्षाओं को पास कर लिया था।

               एक दिन वृद्धा विधवा गोपाल की माँ और नरेन में तर्क-वितर्क चल रहा था, गोपाल माँ द्वैतवाद को मानती थीं, क्योंकि उनको एक बार बाल-गोपाल श्रीकृष्ण के दर्शन हुए थे। और नरेन्द्र अद्वैतवादी थे, वे ईश्वर के साकार रूप में विश्वास नहीं रखते थे। गोपाल माँ ईश्वर का साकार रूप को मानती थीं, जबकि नरेन्द्र निराकार ईश्वर में विश्वास करते थे। वे नरेन्द्र को श्री कृष्ण के बालरूप के साथ घटित अपने निजी अनुभवों को सुना रहीं थीं, कि कैसे बालक गोपाल उनके साथ मनोरंजक खेल किया करता था। उनहोंने बताया कि बालक गोपाल मुझसे खाना माँगता है, मेरे साथ सोता है, मेरे कंधों पर झूल जाता है, यद्द्पि नरेन्द्र केवल तर्कसंगत बातों पर ही विश्वास करते थे, किन्तु उनका हृदय प्रेम और भक्ति से भरा हुआ था। गोपाल माँ की अनुभवों को सुनकर हृदय प्रेम और भक्ति से इतना सराबोर हो गया कि, वे अपने अश्रु को रोक नहीं सके। उस वृद्धा गोपाल की माँ ने नरेन्द्र से कहा, ' बेटे मैं तो एक गरीब, अनपढ़ वृद्धा विधवा हूँ, और तुम तो पढे लिखे अत्यन्त विद्वान व्यक्ति हो, तुम मुझे बताओ कि मेरे ये अनुभव या दर्शन सच्चे हैं या नहीं?' नरेन्द्र ने स्वीकार किया, और बार बार उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा, हाँ माँ आपके सारे दर्शन बिल्कुल सच्चे हैं।

        एक बार उन्होने अपनी आइरिश शिष्या सिस्टर निवेदिता को बताया था, कि मैंने अपने गुरु के साथ लगातार छः वर्षों तक तर्क-वितर्क किया था। जिसके फलस्वरूप मैं अब आध्यात्मिक जीवन के प्रत्येक अवस्था को समझ सकता हूँ। यह एक अद्भुत स्वीकारोक्ति है।

               नरेन्द्र का हृदय बहुत कोमल था, और सब को अपने ही जैसा समझते थे, इसलिए अपने मित्रों को भी श्रीरामकृष्ण के पास लेकर आते थे तो वे उनलोगों को निर्देश देते, ' जाओ तुमलोग थोड़ा मंदिर-बागान आदि घूम आओ।' नरेन्द्र ने पूछा, आप मुझको तो आध्यात्मिक उपदेश देते हैं, वैसे ही उपदेश मेरे दोस्तों को क्यों नहीं देते हैं? श्रीरामकृष्ण परमहंस (या परम विवेकवान महापुरुष) ने कहा, ' अभी वे उन उपदेशों को समझने की स्थिति में नहीं हैं। ' प्रतिवाद करते हुए नरेन्द्र बोले, " लेकिन ईश्वर तो पक्षपात नहीं करते, वे किसी को अपना समझें और दूसरे को पराया समझें ऐसा क्यों होना चाहिये? तो आप जैसे मुझको अपना मानते हैं, वैसे ही उनलोगों को अपना क्यों नहीं मानते?"

                  फिर जब दृढ़ इच्छाशक्ति और लगन के साथ परिश्रम करके कोई भी व्यक्ति विद्वान या पंडित-ज्ञानी बन सकता है, उसी प्रकार ये लोग भी आध्यात्मिक साधना करके, ईश्वर के भक्त या (चरित्रवान मनुष्य) क्यों नहीं बन सकते? श्रीरामकृष्ण ने कहा, " मैं क्या करूँ, बेटे ? मेरी माँ मुझे दिखा रही है कि उनके चित्त में अभी किसी गुंडे की तरह अत्यन्त गहराई तक पाशविक प्रवृतियाँ भरी हुई हैं, इसलिये इस जीवन में वे लोग आध्यात्मिक अनुशासनों (यम-नियम आदि) का पालन नहीं कर सकते, तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ ?" क्या प्रत्येक व्यक्ति केवल अपनी इच्छा और उद्दयम से प्रयत्न करके जो कुछ बनना या प्राप्त करना चाहे प्राप्त कर सकता है ? उसे तो अपने प्रारब्ध कर्मों को भोग करके ही क्षय करना पड़ता है।" किन्तु अपने गुरु के उन तर्कों को सुनने के लिये नरेन्द्र के पास धैर्य कहाँ था? उन्होंने प्रतिवाद करते हुए कहा, " अपनी इच्छाशक्ति और प्रयत्न के बल पर मनुष्य जो कुछ बनना चाहे, वैसा क्यों नहीं बन सकता ? प्रयत्न करने से वह अवश्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है और जैसा वह बनना चाहे निश्चय ही बन सकता है, मैं आपकी बातों को स्वीकार नहीं कर सकता! गुरु ने फिर कहा चाहे तुम मानो या नहीं, किन्तु मेरी माँ तो मुझे वैसा ही दिखला रही है। "

                          स्वामी विवेकानन्द ने निवेदिता से कहा था, उस समय तो मैं ठाकुर की बातों को नहीं मानता था, किन्तु जैसे जैसे समय बीतता गया, और मुझे जीवन के अनुभव प्राप्त हुए, तब मुझे विश्वास हो गया कि मेरे गुरुदेव बिल्कुल ठीक ही कहते थे, और मैं ही गलत था। कुछ लोगों में पाशविक प्रवृत्तियाँ अत्यन्त घनीभूत और तीव्र हुआ करती हैं, वे अत्यन्त कामुक होते हैं, इसीलिए आप उनको आध्यात्मिक या चरित्रवान मनुष्य में शीघ्र परिवर्तित नहीं कर सकते हैं। ऐसा होना बिल्कुल असंभव है, उन्हें अपने कर्मों के अनुसार ही चलना पड़ेगा( अर्थात पूर्व-कर्मों को भोग कर क्षय करना ही पड़ेगा)। जब समस्त भोगों को भोग लेने के बाद जब वे बिल्कुल थक जायेंगे और भोगों से ऊब जायेंगे, तभी जीवन को आध्यात्मिक बनाने और यथार्थ मनुष्य बनने की चेष्टा करेंगे। तुम्हारे चाहने से प्रत्येक भ्रमित सिंह-शावक सिंह में परिणत नहीं हो सकता, जब तक कि वह स्वयं भेड़ों के समान चरना छोडने के लिये मनोनिग्रह का अभ्यास न करे।

                  इसी प्रकार से ठाकुर ने नरेन्द्र को यह शिक्षा भी दी थी कि किसी के विश्वास को चोट नहीं पहुंचाना चाहिये। नरेन्द्रनाथ और राखाल (स्वामी ब्रहमानन्द) ने एक साथ ब्रह्मसमाज की सदस्यता ग्रहण की थी, वहाँ उन्होने एक शपथपत्र पर हस्ताक्षर किये थे कि 'आगे से वे किसी भी हिन्दू देवी-देवता की मूर्तियों के सामने सिर नहीं झुकाएँगे, तथा अबसे हमलोग केवल निराकार ईश्वर की ही आराधना करेंगे।' एक दिन उन्होने देखा कि राखाल माँ भवतारिणी की मूर्ति के आगे सिर झुका रहा था। विवेकानन्द उनके ऊपर झपट पड़े, यह क्या करते हो? तुमने तो मेरे सामने शपथपत्र पर हस्ताक्षर किये थे, कि किसी देवी-देवता के आगे सिर नहीं झुकाऊँगा, फिर तुमने यहाँ क्यों माथा टेका ?ब्रहमानन्द डरकर चुप हो गए, और विवेकानन्द से नजरें बचाने लगे। तब ठाकुर उनका बचाव करने को सामने आए, और नरेन्द्र को समझाया कि अगर इसकी बुद्धि शुद्ध होने के लिये थोड़ी भक्ति करना अवश्यक समझती है, तो इसमें गलत क्या है ? क्या प्रत्येक व्यक्ति प्रारम्भ से अद्वैत वेदान्त की साधना करने में समर्थ हो सकता है ? ईश्वर के निराकार रूप से हर व्यक्ति प्रेम करने की योग्यता नहीं रखता। कुछ लोग साकार मूर्ति या कोई प्रतीक या मनुष्य देहधारी भगवान की मूर्ति से प्रेम करना चाहते हैं।

                   ईसाईयों में भी कुछ लोग कैथेड्रल या बड़े गिरजाघर में जाकर क्रूस (crucifix) सामने घुटने टेक कर प्रार्थना करते हैं या नहीं?  माता मेरी की गोद में प्रभु यीशु की मूर्ति या क्रूस के सामने घुटने टेकर सिर झुकाना किसी ईसा-भक्त का अधिकार है, तू उस व्यक्ति के विश्वास पर चोट क्यों पहुंचाना चाहता है? नरेन्द्र समझ गए और फिर उन्होने कभी राखाल को माँ की मूर्ति के आगे माथा टेकने पर फटकार नहीं लगाई।

                 एक बार नरेन्द्र को इच्छा हुई कि मैं अपनी आध्यात्मिक शक्ति की परीक्षा करूँगा, उन्होने काली महाराज (स्वामी अभेदनन्द) से कहा जिस समय मैं ध्यान में बैठा रहूँगा, उस समय तुम मेरा स्पर्श करना। जब उन्होने स्पर्श किया तो उन्हें ज़ोर से बिजली का झटका लगने जैसा अहसास हुआ। शायद उस दिन फरवरी 1886 की शिवरात्री थी, ठाकुर को गले का कैंसर हुआ था, वे लोग अपने गुरु के साथ काशीपुर उद्द्यान-बाटी में रह रहे थे। ठाकुर जान गए, उन्होने नरेन्द्र को बुलवा भेजा, ' हलू, क्या नरेन तू आध्यात्मिक शक्ति को अर्जित करने के पहले ही, खर्च करने लगा है? रोको इसे, ऐसा मत करना, वो लड़का दूसरे मार्ग आगे बढ़ रहा था, किन्तु तुम्हें छू लेने से मानो उसकी साधना का गर्भपात ही हो  गया!'

           हमलोग देख सकते हैं कि श्रीरामकृष्णदेव अलग अलग तरीके से अपने शिष्यों को शिक्षण देते थे। वे कहते थे  "Don't force religion"- अर्थात किसी के ऊपर जबर्दस्ती अपना धर्म थोपने की चेष्टा मत करो, किसी को अपने मार्ग में जबरन धर्मान्तरित (convert) करने की चेष्टा मत करो ! हमारे शिविर में जो लोग आते हैं, हमलोग कभी उनके ऊपर कोई धार्मिक प्रतिबन्ध नहीं थोपते हैं, आप आस्तिक हैं, तो आ सकते हैं, यदि नास्तिक तो भी यहाँ आ सकते हैं। आपको चरित्र-निर्माण के लिये मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण लेना अच्छा लगता है, इसिलिये आप यहाँ आते हैं, यदि आपको पसंद नहीं हो तो यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप यहाँ आएंगे या नहीं ?

                       नरेन्द्र कभी कभी बेवाक होकर अपने गुरु से प्रतिवाद भी कर बैठते थे। एकबार ठाकुर ने नरेन्द्र से कहा कि तुम मेरे पास बैठकर, मुझे 'अष्टावक्र-गीता ' सुनाओ। इस पुस्तक में वेदान्त दर्शन का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ तक कि इसमें ध्यान करने को भी गलत कहा गया है; तुम्हें क्यों ध्यान करना चाहिये ? जब तुम ध्यान करना आवश्यक मानते हो, तो इससे यही सिद्ध होता है कि तुम मुक्त नहीं हो, और ध्यान करके मुक्ति पाना चाहते हो। किन्तु वेदान्त कहता है, तुम तो पहले से मुक्त ही हो। ध्यान करना बिल्कुल अनिवार्य नहीं है!' किन्तु यह बहुत अत्यंत उच्च कोटी के साधकों के लिये कही गयी है, ज्ञान की सर्वोच्च अवस्था में पहुँच कर कहा गया है। ईसीलिए जब ठाकुर ने नरेन्द्र को वह पुस्तक पढ़ने के लिये कहा तो, वे बोले, " नहीं महाशय मैं इसे नहीं पढ़ूँगा!" क्यों? " इसमें तो लिखा है, मैं ही ईश्वर हूँ ! किन्तु मैं तो ऐसा नहीं सोचता कि- मैं ईश्वर हूँ ! ईश्वर तो विश्व-ब्रह्माण्ड के सृष्टि कर्ता हैं, उन्होने मुझे बनाया है, मैं कैसे ईश्वर हो सकता हूँ ?" नरेन्द्र ठाकुर के साथ भी तर्क-वितर्क करने लगे।

वेदान्त की सर्वोच्च शिक्षा यही है कि -'ईशावास्यम इदं सर्वम'; अर्थात यह जगत ही ब्रह्म है, या ईश्वर ही जगत बन गए हैं, यहाँ की हर वस्तु ईश्वर है (या ईश्वर की है ?)। नरेन्द्र ने कहा, किन्तु मैं ऐसा विश्वास नहीं करता।" ठाकुर बोले ठीक है, 'तुम मत विश्वास करो, यह तुम्हारे लिये नहीं है, किन्तु तू इसे पढ़कर मुझे सुना तो सकता है, तू इसको मुझे सुनाने के लिये पढ़।' इस प्रकार ठाकुर ने विवेकानन्द से अष्टावक्र-गीता पढ़वा ली थी।

               उस पुस्तक को पढ़ने के बाद एक दिन वे अपने मित्र हाजरा से चर्चा करते हुए कह रहे थे, ' भाई मुझे तो कभी कभी लगता इन पुस्तकों को लिखने वाले ऋषि-मुनि भी शायद जरूर एक प्रकार के पागल ही रहे होंगे? नहीं तो भला इसमें वे कैसे लिख देते कि यहाँ सब कुछ ईश्वर है ? ' ठाकुर बोले ठीक है, तुम अभी इस बात से सहमत नहीं हो, कि सबकुछ ईश्वर हैं। किन्तु तुम ईश्वर को जब सर्व-शक्तिमान कहते हो, तो उनकी शक्ति को अपनी समझ की सीमा में क्यों बांधना चाहते हो ? वे तो सत्यस्वरूप हैं, किसी भी रूप में अपने को अभिव्यक्त कर सकते हैं! ' किन्तु बाहर निकल कर वे हाजरा के साथ हँसते हुए कहने लगे, ' मैं कैसे मान लूँ सबकुछ ब्रह्म है ? तब तो यह लोटा भी ब्रह्म है, यह थाली भी ब्रह्म है, मकान पेड़-पौधे सब कुछ ब्रह्म है, ऐसा कभी हो सकता है?  यह सब बिल्कुल कपोल-कल्पित बातें हैं!' ऐसा कहकर दोनों हँसने लगे।

                           ठाकुर अपने कमरे में थे, किन्तु उन्होने सब सुन लिया, और अर्ध-बाह्य दशा में बाहर निकल कर पूछे, क्या रे तुम लोग अभी क्या कह रहे थे ? इतना कहकर समाधि में चले गए और नरेन्द्र को छू दिया। छूते ही नरेन्द्र को अद्वैत ज्ञान का अनुभव प्राप्त होने लगा, वे मानो अब ' Seeing God in everything and every being' का साक्षात अनुभव करने लगे। उसी अवस्था में वे अपने घर चले आये तो वहाँ भी उनकी वही स्थिति बनी रही।  माँ ने जब उनके सामने खाना परोसा, तो उन्हें लगा यह थाली और और उसमें परोसा गया भोजन भी पूर्ण चैतन्य ब्रह्म ही हैं, फिर अपनी माँ को देखा तो, वे भी पूर्ण चैतन्यमय ब्रह्म लगी। माँ ने पूछा अरे तुमको क्या हुआ है, खाता क्यों नहीं है ? यह सुनकर उनकी चेतना जब शरीर में लौटी तो उन्होने खाना शुरू किया, किन्तु तब भी सबकुछ चैतन्य पूर्ण ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा था। बाहर निकल कर देखे, तो सामने आती हुई बड़ी बड़ी बसों को देखकर भी किनारे हटने का मन नहीं हो रहा था, उन्हें लग रहा था कि यह बस भी ब्रह्म है, मैं भी ब्रह्म हूँ ! टहलते टहलते घर के निकट स्थित 'हेदुआ- तालाब' तक चले गए, और उसके लोहे के गेट से सिर को छुलाकर देखे तो कहने लगे यह भी ब्रह्म यह भी ब्रह्म है। '

                         इसिलिये स्वामी विवेकानन्द ने बाद में लिखा था, " कुछ लोग धर्म के उपदेश देते हैं, या धर्म की शिक्षा देते है; पर मेरे गुरु धर्म को चढ़ा सकते हैं, सीधा धर्म से आवेशित करा सकते हैं! वे अगर चाहें तो किसी भी व्यक्ति के जीवन को परिवर्तित कर सकते हैं ! " किन्तु ठाकुर अपने प्रति नरेन्द्र की निष्ठा को पहले ही जाँच कर देख लिया था उन्होने कहा,  'तुम्हारा जो प्रश्न है, उसका उत्तर अभी नहीं दूंगा, कल 4 बजे आना।' इस प्रकार वे परीक्षा लेकर देखते थे कि उस साधक की आस्था सच्ची है या नहीं ? वह अगले दिन सही समय पर पहुंचता है या नहीं ? फिर उसके शरीर के अंगों को भी जाँचकर के देखते थे। जब कोई व्यक्ति साधना कर रहा होता तो उस समय भी उसके अंग-विन्यास (posture) को देखते थे कि ठीक है या नहीं ?

                  जैसा कि मैंने पहले भी कहा था, नरेन्द्र के मन में सत्य को देखने की प्रबल लालसा थी। उन्होने अपने गुरु को वचन दिया था कि ठीक है, महाशय मैं कल 4 बजे पहुँच जाऊँगा। वे अगले दिन 3 बजे ही आ गये और दक्षिणेश्वर मंदिर के गेट पर बैठकर 4 बजने की प्रतीक्षा करने लगे। श्रीरामकृष्ण ने सुना तो वे स्वयं गेट तक गये और उनके साथ 1 घंटा तक बातचीत करते रहे। नरेन्द्र ठीक 4 बजे ठाकुर के कमरे में प्रविष्ट हुए। नरेन्द्र अत्यंत सत्यवादी व्यक्ति थे, भीतर से बिल्कुल सच्चे !

                                  आज हमलोग भी यह समझ सकते हैं, कि सत्य का हम सबों के जीवन में कितना महत्वपूर्ण स्थान है ! यदि कोई पत्नी अपने पति से झूठ बोलती है, या कोई पति अपनी पत्नी से झूठ बोलता है, तो दोनों एक दूसरे पर विश्वास नहीं कर पाते हैं, और परस्पर भरोसा टूट जाने से ही रिश्तों में दरार पड़ जाती है। क्योंकि भरोसा केवल सत्य के ऊपर ही टीका रह सकता है। यदि कोई व्यक्ति सत्यस्वरूप ईश्वर का दर्शन करना चाहता है, तो उसे सत्यवादी या सच्चाई से भरा हुआ मनुष्य बनना ही होगा। यीशु ने भी कहा था- " यदि तुम मेरे वचन में बने रहोगे, तो सचमुच मेरे शिष्य कहे जाओगे; और सत्य को जान लोगे, फिर सत्य तुम्हें  मुक्त  कर देगा। " If ye continue in my word, then are ye my disciples indeed; And ye shall know the truth, and the truth shall make you free."( John - यूहन्ना: 8/31-32)

                      श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र के सभी बातों को गौर से देखकर यह पाया कि उनके सभी लक्षण एक सुयोग्य सत्यार्थी के ही थे, मात्र एक लक्षण बुरा था। वह यह की नींद के समय वे बहुत गहरी साँसे लिया करते थे। योगियों का कहना है कि ऐसे व्यक्ति की आयु बहुत कम होती है। और वास्तव में केवल 39 वर्ष की आयु में ही उनकी मृत्यु हो गयी थी। सदगुरु अपने शिष्य को कभी उपदेश के द्वारा शिक्षा देते हैं, कभी अपने जीवन से तो कभी मौन रूप से केवल दृष्टि के द्वारा, तो कभी उपेक्षा करके या बेरुख़ी (indifference) के द्वारा भी शिक्षा देते हैं। ठाकुर नरेन्द्र से बहुत प्यार करते थे, किन्तु समय में उन्होने अपने आपको नरेन्द्र से बिल्कुल अलग कर लिया। उनके साथ बातचीत करना छोड़ दिया, जब वे आते तो नरेन्द्र की ओर से अपना मुख घुमा लेते, या कमरे से बाहर निकल जाते थे। कई दिनों तक नरेन्द्र के साथ उनका व्यवहार वैसा ही बना रहा।

                               उनके साथ बातचीत करना तो दूर, उनका चेहरा भी नहीं देखते थे, जब एक महिना हो गया, तो एक दिन उन्होने नरेन्द्र से कहा, " hey, अहो नरेन, जब तुम यहाँ आते हो तो मैं तुम्हारी ओर देखता तक नहीं हूँ, तुमसे कोई बातचीत भी नहीं करता, फिर तुम यहाँ क्यों आते हो? " नरेन्द्र बोले, " महाशय, मैं यहाँ आप से कुछ सुनने के लिये नहीं आता हूँ।' क्योंकि उन्हें अपनी शिक्षा का बहुत अभिमान था। उन्होने कहा मैंने जानने योग्य कई विषयों को पढ़ लिया है। मैं तो यहाँ केवल इसिलिये आता हूँ कि मैं आपको प्यार करता हूँ, इसलिये आपको केवल देखने के लिये यहाँ आता हूँ।" तब ठाकुर ने कहा, " जानता है, मैं तो तुम्हारी परीक्षा लेकर देख रहा था; यदि तुम्हारी जगह पर कोई दूसरा होता तो वह कब का ही भाग गया होता, दुबारा कभी मेरे पास आता ही नहीं। किन्तु नहीं तुम, सचमुच मुझसे प्रेम करते हो!"

                           हमलोगों के पाठ-चक्र या कैंप में भी ऐसा ही होता है, जब कोई पहली बार आता है, तो बहुत प्रभावित होता है। कहता है, मैं भी इस संस्था का सदस्य बनूँगा फॉर्म दीजिये। पर हमलोग कहते हैं, थोड़ा ठहरो इतनी जल्दी सदस्य बनने की जरूरत नहीं है, पहले पाठ-चक्र में थोड़े दिन नियमित रूप से आते रहो। छः महिना तक देखो, फिर निर्णय लेना। किन्तु अगली बार से वे बिल्कुल लापता ही हो जाते हैं। एक दिन ठाकुर ने कहा, " नरेन, जानते हो इतने दिनों तक तपस्या या आत्मसंयम (austerity) की साधना करने से मुझे कई प्रकार की सिद्धि (occult power) प्राप्त हो गयी है, वे सिद्धियाँ मेरे भीतर कुलबुला (bubble) रही हैं, तुम उसे ले लो! " नरेन्द्र ने कहा, " महाशय, क्या उन शक्तियों की साहायता से मुझे सत्यस्वरूप ईश्वर के दर्शन हो जाएंगे ? " ठाकुर ने कहा, " नहीं, सो तो नहीं होगा, किन्तु तुम कई प्रकार के चमत्कार दिखला कर सारे जगत को चमत्कृत कर सकते हो। " इसपर नरेन्द्र बोले," नहीं, महाशय तब ये सब सिद्धियाँ मुझे नहीं चाहिये, इन्हें आप अपने ही पास रखिये। मैं तो पहले सत्य का साक्षात्कार करूंगा, या ईश्वर का दर्शन करूँगा; उसके बाद यदि संभव हुआ तो देखूंगा ये सब सिद्धियाँ क्या होती हैं ?"

                   नरेन्द्र के मुख से ऐसा उत्तर सुनकर ठाकुर बहुत आनंदित हुए, वे समझ गये कि यह लड़का थोड़ा भी लालची नहीं है। जबकि किसी आम व्यक्ति को वैसी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाए, तो वह कई प्रकार के चमत्कार दिखला कर सारे विश्व में प्रसिद्ध हो सकता है। जैसे मैं कभी कभी सोचता हूँ, यदि मुझे कैंसर ठीक करने की शक्ति प्राप्त हो जाए, तो यह स्थान आगंतुकों के भीड़ से इतना भर जायेगा कि डॉक्टर लोग मुझे रास्ते से हटाने के लिये मेरे पीछे माफिया लगा देंगे। कहेंगे, उस साधू की ह्त्या कर दो, वह तो हमलोगों का धन्धा ही चौपट करने पर तुला हुआ है। यह तो हँसी की बात हो गयी।

                      किन्तु इसके बाद ठाकुर ने नरेन्द्र को यह समझाया कि ब्रह्मचर्य का पालन किस प्रकार किया जा सकता है। क्योंकि जो व्यक्ति 12 वर्षों तक ब्रह्मचर्य पालन कर लेता है, तो उसको अवश्य सत्य का दर्शन हो जाएगा, अर्थात उसे ईश्वर की अनुभूति हो जायेगी। इसी बीच 1884 में नरेन्द्र के पिता की मृत्यु हो गयी। उनका सारा परिवार गरीबी और फांकाकसी का शिकार हो गया। नरेन्द्र के बहुत कोशिश करने पर भी जब कोई व्यवस्था न हो सकी तो वे ठाकुर के पास इसका समाधान करने की प्रार्थना किए। ठाकुर ने उनको माँ काली के पास भेज दिया, इस प्रकार अंत में उन्हें माँ काली को स्वीकार करना ही पड़ा, फिर तो उनका सम्पूर्ण जीवन ही परिवर्तित हो गया। इसके बाद ठाकुर ने उन्हें अद्वैत वेदान्त का प्रशिक्षण दिया, कहा ' तुम्हें जीवों पर दया नहीं, उनको ही साक्षात शिव मानकर उनकी सेवा करनी चाहिये'- ' Serve human beings as God, Each Individual being is God !' प्रत्येक मनुष्य जीवंत शिव है ! जो चैतन्य या चेतना के रूप में हमारे भीतर है, वही वह सत्य या ईश्वर है जिसका तीनों काल में कभी नाश नहीं हो सकता है। यह शरीर ईश्वर नहीं है। जो हमारे भीतर ' होश ' या चेतना के रूप में रहते हैं, वे ही परमेश्वर है। इसिलिये हमें प्रत्येक शरीर की पुजा करनी चाहिये।

                          श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र को यह शिक्षण भी दिया था कि ' Learn as long as we Live.' -'जवात बाँची तावत सीखी' अर्थात जब तक हम अंतिम सांस नहीं ले लेते तब तक सीखना बाकी रहता है; किसी को ऐसा नहीं सोचना चाहिये कि मैं सब कुछ जानता हूँ। इस प्रकार ठाकुर ने नरेन्द्र को कई प्रकार से आध्यात्मिक प्रशिक्षण देकर विवेकानन्द के रूप में तैयार किया था। काशीपुर उद्द्यान बाटी में रहते समय नरेन्द्र की ईश्वर दर्शन के लिये व्याकुलता इतनी बढ़ गयी थी कि वे कभी कभी सारी रात राम-मंत्र का जाप करते हुए बंगले के चारों ओर चक्कर लगते रहते थे। ठाकुर उनको कभी कभी रात्री में दक्षिणेश्वर जाकर पंचवटी के नीचे ध्यान करने के लिये भी भेजते थे। फिर भी नरेन्द्र से कहते ईश्वर दर्शन की जितनी व्याकुलता तुममें है, वह मेरी व्याकुलता का केवल १% है, मेरे भीतर वैसी व्याकुलता १00% थी। इसलिये मेरी व्याकुलता की तुलना में तुम्हारी व्याकुलता बिल्कुल नगण्य है।

                       नरेन्द्र उद्द्यान बाटी में रात को धुनि जलाकर भी ध्यान किया करते थे। और उस धुनि की चीता में अपने समस्त 'Worldly Desires' या सांसरिक सुखभोग की इच्छाओं को होम करते रहते थे। कभी कभी ध्यान करते समय वे इतने 'Motionless'  या अचल हो जाते थे कि उनके शरीर के ऊपर इतने मच्छर आकर बैठ जाते थे कि मानों उनके शरीर को कम्बल से ढांक दिया गया हो। स्वामी विवेकानन्द कहते थे कि केवल पवित्रता (ब्रह्मचर्य) और ध्यान के द्वारा समस्त आध्यात्मिक शक्तियों को प्राप्त किया जा सकता है।

एक दिन वे ठाकुर के पास आकर बोले, ' महाशय, आप मेरे लिये कुछ कीजिये, मैं निर्विकल्प समाधि प्राप्त करना चाहता हूँ।' आप जानते हैं, 'निर्विकल्प समाधि' आध्यात्मिकता की सर्वोच्च स्थिति है। ठाकुर ने कहा, 'पहले तुझे अपने परिवार के लिये भरण-पोषण की व्यवस्था का उपाय करना चाहिए, तुम्हारे परिवार के लोग तो भोजन तक के अभाव कष्ट पा रहे हैं।' नरेन्द्र बोले, " महाशय, यदि कल ही मेरी मृत्यु हो जाए, तब मेरे परिवार की देख-भाल कौन करेगा?" यह सुनकर ठाकुर ने कहा-' ठीक है, फिर कल ही तुमको निर्विकल्प समाधि प्राप्त हो जाएगी।' अगले दिन ठीक वैसा ही हुआ।

                      ठाकुर ने पूछा, ' इस सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर लेने के बाद, अब तू क्या चाहता है? ' नरेन्द्र बोले मैं केवल समाधि के आनन्द में ही डूबा रहना चाहता हूँ। इस पर ठाकुर ने उन्हें फटकार लगते हुए कहा, " तू केवल अपनी मुक्ति की बात सोचता है रे ! तू तो बहुत बड़ा स्वार्थी निकला, मैंने तो सोचा था कि बड़ा होकर एक बरगद के वृक्ष के जैसा परहितकरी बनेगा, जिसके नीचे आने से दुखी और अशांत मानवता को शांति प्राप्त होगी। किन्तु तू केवल अपने आनन्द की बात सोचता है? धिक्कार है तुम्हारे ऊपर है। "

                              ऐसा कहकर ठाकुर ने नरेन्द्र की स्वार्थपरता को चकनाचूर करते हुए निर्देश दिया- " Feel for others, Love Others, Serve others, Try to Liberate others." - अर्थात " दूसरों  को बंधन में देखकर उनके  दुख-कष्ट का अनुभव अपने हृदय में करो , अपने शरीर से मोह को छोड़ कर, दूसरों से प्रेम करो। सभी के भीतर वही चैतन्य हैं, जो सर्व-व्याप्त हैं, तुम्हारे भीतर भी हैं, इसलिये हरेक शरीर की सेवा करो, तुम सत्य की शिक्षा देकर दूसरों को भी मुक्त करने का प्रयत्न करते रहो !" और श्रीरामकृष्ण ने अपना शरीर छोडने के पहले अपनी समस्त आधायत्मिक शक्तियों को विवेकानन्द के भीतर  'Transmit' कर दिया।

                        ठाकुर ने उनसे कहा था कि तू यदि मेरे संदेशों का प्रचार करना चाहता है, तो तुम्हें ' कामिनी-कांचन ' का त्याग करना ही होगा, क्योंकि यदि तू ' Woman and Gold' का त्याग नहीं करेगा, तो तुझे ईश्वर के दर्शन नहीं होंगे; अर्थात प्रत्येक शरीर के भीतर सदैव तुझे ' ब्रह्म-चैतन्य ' (लोटा ब्रह्म थाली ब्रह्म वाले धर्म) के दर्शन नहीं होंगे। नरेन्द्र मनुष्यों को बंधन से मुक्त कराने वाले सत्य की शिक्षा देकर, यथार्थ मनुष्य बनने और चरित्र-निर्माण की शिक्षा देकर अज्ञान के बंधन से मुक्त करने के लिये आए थे, इसिलिये ठाकुर नरेन्द्र से अपनी कोई निजी सेवा नहीं करवाते थे। निजी सेवा से तात्पर्य है, ठाकुर जब बाथरूम जाते थे, तो कोई सेवक उनका पीतल का लोटा लेकर उनके साथ जाता था। यदि कभी नरेन्द्र स्वयं भी करना चाहते तो, ठाकुर उन्हें मना कर देते थे, और कहते थे, यह तुम्हारा काम नहीं है। क्योंकि अपने भावी संदेष-वाहक नेता, भविष्य के विवेकानन्द के लिये उनके उनके गुरु के मन में  'Tremendous Respect' जबर्दस्त आदर का भाव था।

                 स्वामीजी बाद में कहते थे कि श्रीरामकृष्ण में ऐसी आध्यात्मिक शक्ति थी कि वे किसी भी मनुष्य के मन को मिट्टी के लोन्दे की तरह ठोक-पीट कर किसी भी आकार में ढाल सकते थे ! एक दिन नरेन्द्र ने ठाकुर के लिये भोजन बनाया तो ठाकुर ने बड़े प्रेम से खाया था। विवेकानन्द कहते थे, पहले मुझे समझ लो, तब ठाकुर को समझने की चेष्टा करना। शायद आप ने विवेकानन्द साहित्य के 10 खण्डों को पढ़ा होगा, विवेकानन्द चरित या युग-नायक विवेकानन्द के दो खण्डों को भी पढ़ा होगा, या उनके ' Eastern and Western Disciples ' द्वारा लिखित विभिन्न पुस्तकों को देखा होगा, या एक अमेरिकी महिला भक्त द्वारा लिखित ' Vivekananda in the West ' के छः खण्डों को भी देखा होगा। ये सभी पुस्तकें श्रीरामकृष्ण के ऊपर भाष्य ही हैं, श्रीरामकृष्ण की शिक्षा रूपी वृक्ष के भाष्यकार हैं, स्वामी विवेकानन्द। इस प्रकार आप समझ सकते हैं, कि ब्रह्मचर्य की शिक्षा देने के पहले ठाकुर ने नरेन्द्र को ' सत्य मुक्त करेगा ' की शिक्षा क्यों दी थी ?  

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शनिवार, 23 नवंबर 2013

6. ओजस की आध्यात्मिक उर्जा ( ‘ The Spiritual Energy of Ojas ‘) ( स्वामी तथागतानन्द की रचना ' The Value Of Brahmcharya' पर आधारित)

' यौनशक्ति का ओजस शक्ति में उदात्तीकरण'
ओजस-प्रभामंडल ही मानव-जाति के किसी सच्चे मार्गदर्शक “नेता” (आध्यात्मिक शिक्षक) की पवित्र पहचान होती है। ओजस उन पवित्र व्यक्तित्व-सम्पन्न महापुरुषों का असंदिग्ध संकेत-चिन्ह (signpost) है जिनकी मिठास हमें बरबस ही अपनी ओर बिना किसी स्पष्ट कारण के ही आकर्षित कर लेती है। गृहस्थों के लिये ब्रह्मचर्य का अर्थ है, गृहस्थ जीवन में अपने जीवन साथी के साथ पूर्ण वफ़ादारी निभाते हुए, अपनी धर्मपत्नी के सिवा दुनिया के अन्य सभी स्त्रियों को अपनी माता के रूप में देखना ! महामण्डल के गृहस्थ युवा कर्मी को अपने दैनन्दिन जीवन में इस ब्रह्मचर्य (यम-नियम) का अनुपालन अवश्य करना चाहिये। इसमें सफलता से साधक योग के उच्च सोपानों पर चढ़ता है तथा  उसे आत्मा की प्रसुप्त शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। उसके मन की चंचलता समाप्त होती है तथा यौनशक्ति का ओजस शक्ति में उदात्तीकरण हो जाता है।
'राज-योग' नामक ग्रन्थ में अध्यात्मिक प्राण का संयम (The Control Of Psychic Prana)   के विषय पर प्रवचन देते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- “ सबसे नीचे वाला चक्र ही समस्त समस्त शक्ति का अधिष्ठान है, और उस शक्ति को उस जगह से उठाकर मस्तिष्क में स्थित सर्वोच्च चक्र पर ले जाना होगा। योगी दावा करते हैं कि मनुष्य-देह में जितनी शक्तियाँ हैं, उनमें ‘ओज‘ सबसे उत्कृष्ट कोटि की शक्ति है। यह ओज मस्तिष्क में संचित रहता है। जिसके मस्तक में ओज जितने अधिक परिमाण में रहता है, वह उतना ही अधिक बुद्धिमान और आध्यात्मिक बल से बली होता है। एक व्यक्ति बड़ी सुन्दर भाषा में सुन्दर भावों को लोगो के समक्ष रखता है, परन्तु लोग आकृष्ट नहीं होते। और दूसरा व्यक्ति न सुन्दर भाषा बोल सकता है, न सुन्दर ढंग से भाव व्यक्त कर सकता है, परन्तु फिर  लोग उसकी बात से मुग्ध हो जाते हैं। वह जो कुछ कार्य करता है, उसीमें महाशक्ति का विकास देखा जाता है। ऐसी है ओज की शक्ति ! (वि० १/८१)“
जो लोग ईश्वर का साक्षात्कार या आत्मा कि अनुभूति करना चाहते हैं, उनके लिये ब्रह्मचर्य कि शक्ति ही सबसे बड़ी शक्ति है। उन्हें मन, वचन कर्म से पवित्रता में पूर्णतया अवस्थित रहना चाहिये, उनका ह्रदय और मन बिल्कुल शुद्ध रहना आवश्यक है।
 स्वामीजी ब्रह्मचर्य के ऊपर जोर देते हुए आगे कहते हैं, " यह ओज, थोड़ी-बहुत मात्रा में,सभी मनुष्यों में विद्द्यमान है। शरीर में जितनी शक्तियाँ क्रियाशील हैं, उनका उच्चतम विकास यह ओज है। यह हमें सदा याद रखना चाहिये कि सवाल केवल रूपान्तरण का है- एक ही शक्ति दूसरी शक्ति में परिणत हो जाती है। आज जो शक्ति पेशियों में कार्य कर रही हैं, वे ही कल ओज के रूप में परिणत हो जायेंगी। योगीयों का यह दावा है, कि मनुष्य में जो शक्ति काम-क्रिया, काम-चिन्तन आदि रूपों में प्रकाशित हो रही है, उसका दमन या नियंत्रण करने पर वह सहज ही आध्यात्मिक शक्ति या ‘ओज’ में परिणत हो जाती है। और हमारे शरीर का सबसे नीचेवाला केन्द्र, ‘ मूलाधार ’ ही इस शक्ति का नियामक होने के कारण योगी इसकी ओर विशेष रूप से ध्यान देते हैं। वे सारी काम-शक्ति को ओज में परिणत करने का प्रयत्न करते हैं।"(१/८१-२) 
'राजयोग -शिक्षा' में ओजस पर दिए गये प्रवचन में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " ओजस् उसे कहते हैं, जो एक मनुष्य को दूसरे से भिन्न बनाता है। जिस मनुष्य में विपुल ओजस् होता है, वह जननेता होता है। ओजस् प्रबल आकर्षण-शक्ति प्रदान करता है। 


 

ओजस् का निर्माण नाड़ीय प्रवाहों से होता है। इसकी विचित्रता यह है कि उसका निर्माण उस शक्ति द्वारा बड़ी सरलता से होता है, जिसकी अभिव्यक्ति यौन शक्ति में होती है। यदि यौन केन्द्रों की शक्तियों का व्यर्थ में क्षय और अपव्यय न हो, (भाव की स्थूलतर अवस्था ही क्रिया है) तो उनको ओज में परिणत किया जा सकता है।
शरीर के दो प्रमुख नाड़ीय प्रवाहों का उद्गम मस्तिष्क से होता है, वे सुषुम्णा के दोनों और से नीचे, मस्तिष्क के पृष्ठ भाग में अंग्रेजी के अंक ‘8’ के आकार में परस्पर काटती हुई नीचे जाती है। चेतन और अवचेतन मन इन्हीं दो नाड़ीयों के माध्यम से कार्य करती है। लेकिन जब अतिचेतना परिपथ के निचले छोर में पहुँच जाती है, तो नाड़ी-प्रवाह को उपर जाने तथा परिपथ पूरा न करने देकर, उसे रोक देती है, तथा मूलाधार से ओजस के रूप में सुषुम्णा मार्ग से उपर जाने के लिये विवश करती है। सुषुम्णा का द्वार स्वभावतः बन्द है। लेकिन इस ओजस का मार्ग बनाने के लिये उसे खोला जा सकता है। जब ओजस सभी चक्रों को पार करता हुआ सहस्रार (या पीनियल ग्रंथि : मस्तिष्क का एक भाग, जिसके बारे में विज्ञान यह निर्णय नहीं कर पाता कि उसका क्या काम है) में पहुँच जाता है, तन मनुष्य न तो शरीर रह जाता है, न मन। वह सभी बन्धनों से मुक्त हो जाता है।(४/९९-१००)

 

स्वामीजी ने अध्यात्मिक प्राण का संयम के विषय पर बोलते हुए प्रारम्भ में ही, बिना गुरु के सानिध्य में प्राणायाम करने से सावधान करते हुए कहा था, " यद्दपि मेरु-रज्जू (spinal cord) मेरुदण्ड (vertebral column) से संलग्न नहीं है, फिर भी वह मेरुदण्ड के भीतर है। टेढ़ा होकर बैठने से वह अस्त-व्यस्त हो जाती है।” इसलिये वक्ष, ग्रीवा और मस्तक -सदा एक रेखा में ठीक सीधे रखने होंगे। जिस प्राणायाम में साँस भीतर रोकनी पड़ती है, उसका अधिक अभ्यास अच्छा नहीं है। अनियमित रूपसे साधना करने पर (बिना गुरु के साधना करनेपर) तुम्हारा अनिष्ट भी हो सकता है।" (१/७८,८०) 
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने अपने बाल्य-सखा श्री प्रियनाथ सिन्हा से वार्तालाप के क्रम में, विद्यार्थियों के लिये भारत के प्राचीन आदर्श, गुरु-गृहवास की प्रथा एवं ब्रह्मचर्य के साथ पाश्चात्य विज्ञान युक्त वेदान्त, को आधुनिक शिक्षा-पद्धति में जोड़ने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहते हैं - “ पहले हमें गुरु-गृहवास और उस जैसी अन्य शिक्षा-प्रणालियों को पुनर्जीवित करना होगा। आज हमें आवश्यकता है वेदान्त-युक्त पाश्चात्य विज्ञान की, ब्रह्मचर्य के आदर्श, विवेक, श्रद्धा तथा आत्मविश्वास की।” (८/२२९) 
किन्तु उन विवाहित या गृहस्थ युवाओं को, जो भावी मार्गदर्शक नेता (Hero- या जन-नायक!) बनकर महामण्डल के चरित्र-निर्माण आन्दोलन को भारत के गाँव गाँव तक पहुँचा देने के व्रती बनना चाहते हों, उन्हें सावधान करते हुए स्वामीजी पुनः कहते हैं, " केवल कामजयी स्त्री-पुरुष ही इस ओज को मस्तिष्क में संचित कर सकते हैं। इसीलिये ब्रह्मचर्य को ही सदैव सर्वश्रेष्ठ नैतिक-सद्गुण या धर्म माना गया है। मनुष्य स्वयं अनुभव करके देख सकता है कि ‘ if he is unchaste ‘ अगर वह व्यभिचारी या कामुक हो, तो उसकी सारी आध्यात्मिकता नष्ट हो जाती , चरित्र-बल और मानसिक तेज चला जाता है। इसी कारण, देखोगे, संसार में जिन जिन सम्प्रदायों में बड़े बड़े धर्मवीर पैदा हुए हैं, उन सभी सम्प्रदायों ने ब्रह्मचर्य पर विशेष जोर दिया है। इसी लिये तो निवृत्ति-मार्गी या विवाह त्यागी संन्यासीयों की उत्पत्ति हुई है। इस ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से - तन-मन-वचन से -- पालन करना नितान्त आवश्यक है। ब्रहचर्य के बिना राजयोग की साधना बड़े खतरे की है; क्योंकि उससे अन्त में मस्तिष्क का विषम विकार (उसका दिमाग खराब भी हो सकता है) पैदा हो सकता है । यदि कोई राजयोग का अभ्यास करे और साथ ही अपवित्र जीवन-यापन करे (अर्थात अपने जीवन साथी के प्रति वफ़ादार नहीं हो), तो वह भला किस प्रकार योगी होने की आशा कर सकता है? “ (१/८१-८२)
लाखों गृहस्थ, भगवान में गहरा और स्थायी विश्वास उत्पन्न करने के लिये ईमानदारी से कुछ न कुछ प्रयास अवश्य करते हैं। एक सार्थक और शांतिपूर्ण जीवन प्राप्त करने के लिये, आध्यात्मिकता का विकास करने के लिये प्रतिदिन संघर्ष करते हैं। जब हम भगवान के साथ घनिष्ट सम्बंध स्थापित कर लेते हैं, तभी आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त होती है। इसीलिये, प्रत्येक दम्पति को, पारिवारिक जीवन के किसी विशेष चरण में (हो सके तो कम से कम सेवानिवृत होने के बाद), दुनियावी प्रेम-सम्बंध का उदात्तीकरण (sublimation) करके, अपने प्रपंची जीवन से निर्लिप्त होकर, भगवान के साथ आध्यात्मिक-घनिष्टता को विकसित करने पर अपना ध्यान अवश्य केन्द्रित करना चाहिये। जब किसी दम्पति के जीवन में ऐसी प्रतिबद्धता दिखाई देती हो, वैसे विवेक-शील दम्पतियों को आत्मसंयम  (ब्रह्मचर्य continence) का पालन करने की सलाह दी जा सकती है।
श्रीरामकृष्ण उन गृहस्थ दम्पतियों की प्रशंसा किया करते थे, जो दो-तीन बच्चे हो जाने के बाद अपने काम-इच्छा का नियंत्रण करते हैं, और एक-दूसरे को बहन-भाई की दृष्टि से देखते हैं। अपवित्र विचार की शक्तियों का सामना करने के लिये, तथा मन को शुद्ध विचारों से परिपूर्ण रखने के लिये, वे अपने कुछ भक्तों को ईश्वर का नाम (?) जपने का परामर्श देते थे।
कार्ल जुंग अपनी पुस्तक ‘ मॉडर्न मैन इन सर्च ऑफ़ सोल ‘ (Modern Man in Search of a Soul या आत्मा की खोज में आधुनिक मनुष्य ) में आत्मसंयम के विषय में अपना मत व्यक्त करते हुए कहते हैं, “३५-४० वर्ष की उम्र हो जाने के बाद, हमलोगों को सांसारिक भोगों से मुख मोड़ कर सांस्कृतिक उन्नति पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिये- जिसका अर्थ होता है, अन्तर्निहित आत्मा की खोज में लग जाना।“
इस प्रकार हम समझ सकते हैं, कि ब्रह्मचर्य या आत्मसंयम की आवश्यकता केवल योगियों के लिये  ही नहीं, बल्कि उन सभी गृहस्थ लोगों के लिये भी है, जो स्वस्थ और सुखी जीवन जीना चाहते हों। यद्दपि जो लोग आध्यात्म-मार्ग के जिज्ञासु (सत्यार्थी) उनके लिये तो यह सबसे अधिक मूल्यवान  है।
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